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आजाद-कथा (उपन्यास) : रतननाथ सरशार – अनुवादक Part 3 – प्रेमचंद
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 21
मियाँ आजाद रेल पर बैठ कर नाविल पढ़ रहे थे कि एक साहब ने पूछा – जनाब, दो-एक दम लगाइए, तो पेचवान हाजिर है। वल्लाह, वह धुआँधार पिलाऊँ कि दिल फड़क उठे। मगर याद रखिए, दो दम से ज्यादा की सनद नहीं। ऐसा न हो, आप भैंसिया-जोंक हो जायँ।
आजाद ने पीछे फिर कर देखा, तो एक बिगड़े-दिल मजे से बैठे हुक्का पी रहे हैं। बोले, यह क्या अंधेर है भाई? आप रेल ही पर गुड़गुड़ाने लगे; और हुक्का भी नहीं, पेचबान। जो कहीं आग लग जाय, तो?
बिगड़े दिल – और जो रेल ही टकरा जाय, तो? आसमान ही फट पड़े, तो? इस ‘तो’ का तो जवाब ही नहीं है। ले, पीजिएगा, या बातें बनाइएगा?
आजाद – जी, मुझे इसका शौक नहीं है।
यह कह कर फिर नाविल पढ़ने लगे। थोड़ी देर के बाद एक स्टेशन पर रेल ठहरी, तो खरबूजे और आम पटे हुए थे। खैंचियाँ की खैंचियाँ भरी रखी थीं। बोले – क्यों भई, स्टेशन है या आम की दुकान? या खरबूजे की खान? आमपुर है या खरबूजानगर?
एक मुसाफिर बोले – अजी हजरत, नजर न लगाइए। अब की फसल तो खा लेने दीजिए। इसी पर तो जिंदगी का दार-मदार है। खेत में बेल बढ़ी और यहाँ कच्चे घड़े के चढ़ी। आम बाजार में आए और ई जानिब बौराए। आम और खरबूजे पर उधार खाए बैठे हैं। कपड़े बेच खायँ, बरतन नखास मे पटील जाएँ, बदन पर लत्ता न रहे, चूल्हे पर तवा न रहे, उधार लें, सुथना तक गिरवी रखें, बगड़ा करें, झगड़ा करें, मगर खरबूजे पर जरूर चले। तड़का हुआ, चाकू हाथ में लिया और खरबूजे की टोह में मचला। छुरी बाजार है कि महक रहा है, खरीदार हैं कि टूटे पड़ते हैं। रसीली खटकिन जवानी की उमंग में अच्छे-अच्छों को डाँट बताती है। मियाँ, अलग रहो, खैंची पर न गिरे पड़ो। बस, दूर ही से भाव-ताव करो। लेना एक न देना दो, मुफ्त का झंझट। ई जानिब ने एक तराशा, दूसरा तराशा, तीसरा तराशा, खूब चखे। आँख चूकी, तो दो-चार फाँके मुँह में दबाईं और चलते-फिरते नजर आए। आदमी क्या, बंदर हो गए। उधर खरबूजे गए और आम की फसल आई, मुँह-माँगी मुराद पाई। जिधर देखिए, ढेर के ढेर चुने हैं। यहाँ सनक सवार हो गई। देखा और झप से उठाया; तराशा और खाया। माल-असबाब के कूड़े किए और बेगिनती लिए। खाने बैठे, तो दो दाढ़ी खा गए चार दाढ़ी खा गए।
आजाद – यह दाढ़ी खाने के क्या माने?
मुसाफिर – अजी हजरत, आम इतने खाए कि गुठली और छिलके दाढ़ी तक पहुँचे।
मुसाफिर वह डींग हाँक ही रहे थे कि रेल ठहरी और एक चपरासी ने आकर पूछा – फलाँ आदमी कहाँ है?
आजाद – इस कमरे में इस नाम का कोई आदमी नहीं है।
मुसाफिर ने चपरासी की सूरत देखी; तो चादर से मुँह लपेट कर खिड़की की दूसरी तरफ झाँकने लगे। चपरासी दूसरे दर्जे में चला गया।
आजाद – उस्ताद, तुमने मुँह जो छिपाया, तो मुझे शक होता है कि कुछ दाल में काला जरूर है। भई, और किसी से न कहो, यारों से तो न छिपाओ।
मुसाफिर – मुँह क्यों छिपाऊँ जनाब, क्या किसी का कर्ज खाया है, या माल मारा है, या कहीं खून करके आए हैं?
आजाद – आप बहुत तीखे हुजिएगा, तो धरवा ही दूँगा। ले बस, कच्चा चिट्ठा कह सुनाओ, वरना मैं पुकारता हूँ फिर।
मुसाफिर – अरे नहीं-नहीं ऐसा गजब भी न करना। साफ-साफ बता दें? हमने अबकी फसल में खरबूजे और आम खूब छक कर चखे, मगर टका कसम को पास नहीं। पूछो, लाएँ जिसके घर से? यहाँ पहले तो कर्ज लिया, फिर एक दोस्त का मकान अपने नाम से पटील डाला। अब नालिश हुई है, सो हम भागे जाते हैं।
आजाद – ऐसे आम खाने पर लानत! कैसे नादान हो?
मुसाफिर – देखिए, नादान-वादान न बनाइएगा। वरना बुरी ठहरेगी!
आजाद – अच्छा बुलाऊँ चपरासी को?
मुसाफिर – जनाब, दस गालियाँ दे लीजिए, मगर जान तो छोड़ दीजिए।
इतने में एक मुसाफिर ने कई दर्जे फाँदे, यह उचका, यह आया यह झपटा और धम से मियाँ आजाद के पास हो रहा।
मुसाफिर – गरीबपरवर!
आजाद – किससे कहते हो? हम गरीबपरवर नहीं अमीरपरवर हैं; गरीब परवर हमारे दुश्मन हों।
मुसाफिर – अच्छा साहब, आप अमीर के बाप-परवर, दादा-परवर सही। हमारा आपसे एक सवाल है।
आजाद – सवाल स्कूल के लड़कों से कीजिए, या वकालत के उम्मेदवारों से।
मुसाफिर – दाता, जरा सुनो तो।
आजाद – दाता भंडारी को कहते हैं। दाता कहीं और रहते होंगे।
मुसाफिर – एक रुपया दिलवाओ, तो हजार दुआएँ दूँ।
आजाद – दुआ के तो हम कायल ही नहीं।
मुसाफिर – तो फिर गालियाँ सुनाऊँ?
आजाद – गालियाँ दो, तो बत्तीसी पेट में हो।
मुसाफिर – अरे गजब, लो स्टेशन करीब आ गया। अब बेइज्जत होंगे।
आजाद – यह क्यों!
मुसाफिर – क्यों क्या, टिकट पास नहीं, घर से दो रुपए ले कर चले थे, रास्ते में लँगड़े आम दिखाई दिए। राल टपक पड़ी। आव देखा न ताव, दो रुपए टेंट से निकाले और आम पर छुरी तेज की। अब गिरह में कौड़ी नहीं, ‘पास न लत्ता, पान खायँ अलबत्ता।’
आजाद – वाह रे पेटू! भला यहाँ तक आए क्योंकर?
मुसाफिर – इनकी न पूछिए। यहाँ सैकड़ों ही अलसेटें याद हैं।
इतने में रेल स्टेशन पर आ पहुँची। टिकट-बाबू की काली-काली टोपी और सफेद चमकती हुई खोपड़ी नजर आई। टिकट! टिकट! टिकट निकालो। मियाँ आजाद तो टिकट देकर लंबे हुए; बाबू ने इनसे टिकट माँगा, ते लगे बगलें झाँकने। वेल, तुम्हारा टिकट कहाँ?
मुसाफिर – बाबू जी, हम पर तो अब की साल टिकस-विकस नहीं बँधा।
बाबू – यू फूल! तुम बेटिकट के चलता है उल्लू!
मुसाफिर – क्या आदमी भी उल्लू होते हैं? इधर तो देखने में नहीं आया, शायद आपके बंगाल में होता हो।
टिकट-बाबू ने कानिस्टिबिल को बुला कर इनको हवालात भिजवाया। आम खाने का मजा मिला, मार और गालियाँ खाईं, सो घाते में।
घटाटोप अँधेरा छाया है, काला मतवाला बादल झूम-झूम कर पूरब की तरफ से आया है। वह घनेरी घटा कि हाथ मारा न सूझे। अँधेरे ने कुछ ऐसी हवा बाँधी कि चाँद का चिराग गुल हो गया। यह रात है कि सियहकारों का दिल? हर एक आदमी जरीब टेकता चल रहा है, मगर कलेजा दहल रहा है कि कहीं ठोकर न खायँ, कहीं मुँह के बल जमीन पर न लुढ़क जायँ। मियाँ आजाद स्टेशन से चले, तो सराय का पता पूछने लगे। एकाएक किसी आदमी से सिर टकरा गया। वह बोला – अंधा हुआ है क्या? रास्ता बचा के चल, पतंग रखे हुए हैं, कहीं फट न जायँ।
आजाद – ऐं, रास्ते में पतंग कैसे? अच्छी बेपर की उड़ाई।
पतंगबाज – भई वल्लाह, क्या-क्या बिगड़े-दिलों से पाला पड़ जाता है! हम तो नरमी से कहते हैं कि मियाँ जरी दबा कर जाओ, और आप तीखे हुए जाते हैं।
आजाद – अरे नादान, यहाँ हाथ-मारा सूझता ही नहीं, पतंग किस भकुए को सूझेंगे।
पतंगबाज – क्या रतौंधी आती है?
आजाद – क्या पतंग बेचने जा रहे हो?
पतंगबाज – अजी, पतंग बेचें हमारे दुश्मन। हम खुद घर के अमीर हैं। यहाँ से चार कोस पर एक कस्बा है, वहाँ के रईस हमारे लँगोटिये यार हैं! उनसे हमने पतंगों का मैदान बदा था। हम अपने यारों के साथ बारहदरी के कोठे पर थे और वह अपने दीवानखाने की छत पर। कोई सात बजे से इधर भी कनकव्वे छपके, उधर भी बढ़े। खूब लमडोरे लड़े। पाँच रुपए जी पेच बदा था। यार, एक पतंग खूब लड़ा। हमारा माँगदार बढ़ा था और उधर का गोल दुपन्ना। दस-बारह मिनट दाँव घात के बाद पेच पड़ गए। पहले तो हमारे कन्ने नथ गए, हाथें के तोते उड़ गए; समझे, अब कटे और अब कटे; मगर वाह रे उस्ताद, ऐसे कन्ने छुड़ाए कि वाह जी वाह! फिर पेच लड़ गए। पंसेरियों डोर पिला दी, कनकव्वा आसमान से जा लगा। जो कोई दम और ठहराता तो वहीं जल-भुन कर खाक हो जाता। उतने में हमने गोता देकर एक भबका जो दिया, तो वह काटा। अब कोई कहता है कि हत्थे पर से उखड़ गयाः कोई कहता है, डोर उलझ गई थी। एक कनकव्वे से हमने कोई नौ दस काटे। मगर उनकी तरफ कोई उस्ताद आ गया – उसने खींचके वह हाथ दिखाए कि खुदा की पनाह! हाथ ही टूटें मरदूद के! छक्के छुड़ा दिए। कभी सड़-सड़ करता हुआ नीचे से खींच गया! कभी ऊपर से पतंग पर छाप बैठा। आखिर मैंने हिसाब जो लगाया, तो पचास रुपए के पेटे में आ गया। मगर यहाँ टका पास नहीं। हमने भी एक माल तक लिया है, घर के सोने के कड़े किसी के हाथ पटीलेंगे, कोई दस तोले के होंगे, चुपके से उड़ा दूँगा, किसी को कानों-कान खबर भी न होगी।
आजाद – आपके वालिद क्या पेशा करते हैं?
पतंगबाज – जमींदार हैं। मगर मुझे जमींदारी से नफरत है। जमींदार की सूरत से नफरत है, इस पेशे के नाम से नफरत है! शरीफ आदमी और लट्ठ लिए हुए मेड़-मेड़ घूम रहे हैं। हमसे यह न होगा। हम कोई मजदूर तो हैं नहीं। यह गँवारों ही को मुबारक रहे।
आजाद – हुजूर ने तालीम कहाँ तक पाई है? आप तो लंदन के अजायबखाने में रखने लायक हैं।
पतंगबाज – यहीं से तहसीली स्कूल में कुछ दिन तक घास छीली है।
आजाद – क्या घसियारा बनने का शौक चर्राया था?
पतंगबाज – जनाब, कोई छह-सात बरस पढ़े; मगर गंडेदार पढ़ाई, एक दिन हाजिर तो दस दिन नागा। पहले दर्जे का इम्तिहान दिया, मगर लुढ़क गए। अब्बाजान ने कहा, अब हम तुम्हें नहीं पढ़ाएँगे। खैर, इस झंझट से छुट्टी पाई तो पेशेकार सहब के लड़के से दोस्ती बढ़ाई। तब तक हम निरे जंगली ही थे। हद यह कि हुक्का पीना तक नहीं जानते थे। तो वजह क्या? अच्छी सोहबत में कभी बैठे ही न थे। छोटे मिर्जा बेचारे ने हमें हुक्का पीना सिखाया। फिर तो उनके साथ चंडू के छींटे उड़ने लगे। पहले आप मुझे देखते तो कहते, कब्र में एक पाँव लटकाए बैठा है। बदन में गोश्त का नाम नहीं, हड्डी हड्डी गिन लीजिए। जब से छोटे मिर्जा की सोहबत में ताड़ी पीने लगा, तब से जरा हरा हूँ। पहले हम निरे गावदी ही थे। यह पतंग लड़ाना तो अब आया है। मगर अबकी पचास के पेटे में आ गए। छोटे मिर्जा से हमने तदबीर पूछी, तो वल्लाह, तड़ से बतलाया कि जब बहन या भावज या बीवी की आँख चूके, तो कोई सोने क अदद साफ उड़ा दो। भई, जिला-स्कूल में पढ़ता, तो ऐसी अच्छी सोहबत न मिलती।
आजाद – वल्लाह, आप तो खराद पर चढ़ गए, ‘सब गुन, पूरे, तुम्हें कौन कहे लँडूरे।’
पतंगबाज – आप यहाँ कहाँ ठहरेंगे? चलिए, इस वक्त गरीबखाने ही पर खाना खाइए; सराय में तो तकलीफ होगी। हाँ, जो कोई और बात हो, तो क्या मजायका, (मुसकिरा कर) सच कहना उस्ताद, कुछ लसरका है?
आजाद – मियाँ, यहाँ दिल ही नहीं है पास, मुहब्बत करेंगे क्या! चलिए, आप ही के यहाँ मेहमान हों – यहाँ तो बेफिक्री के हाथ बिक गए हैं। मगर उस्ताद, इतना याद रहे कि बहुत तकलीफ न कीजिएगा।
पतंगबाज – वल्लाह, यह तो वही मसल हुई कि बस, एक दस सेर का पुलाव तो बनवाइएगा, मगर तकल्लुफ न कीजिएगा। मानता हूँ आपको।
आजाद और पतंगबाज इक्के पर बैठेद्य इक्का हवा से बातें करता चला, तो खट से मकान पर दाखिल। अंदर से बाहर तक खबर हो गई कि मँझले मियाँ आ गए। मियाँ आजाद और वह दोनों उतरे। इतने में एक लौंडी अंदर से आकर बोली। चलिए, बड़े साहब ने आपको याद किया है।
पतंगबाज – ऐ है, नाक में दम कर दिया, आते देर नहीं हुई और बुलाने लगे। चलो, आते हैं। आपके लिए हुक्का भर लाओ। हजरत, कहिए तो जरी वालिद से मिल आऊँ? गाना-वाना सुनिए, तो बुलाऊँ किसी को? इधर लौंडी अंदर पहुँची, तो बड़े मियाँ से बोली – उनके पास तो उनके कोई दोस्त मसनद तकिया लगाए बेठे हैं।
मियाँ। उनके दोस्तों को न कहो। शहर भर के बदमाश, चोर-मक्कार, झूठों के सरदार उनके लँगोटिये यार हैं। भलेमानस से मिलते-जुलते तो उन्हें देखा ही नहीं।
लौंड़ी – नहीं मियाँ, सकल सूरत से तो शरीफ भलेमानुस मालूम होते हैं।
खैर, रात को आजाद और मँझले मियाँ ने मीठी नींद के मजे उठाए, सुबह को हवाली-मवाली जमा हुए।
एक – हुजूर, कल तो खूब-खूब पेंच लड़े, और हवा भी अच्छी थी।
पतंगबाज – पेंच क्या लड़े, पचास के माथे गई। खैर, इसका तो यहाँ गम नहीं, मगर किरकिरी बड़ी हुई।
दूसरा – वाह हुजूर, किरकिरी की एक ही कही। कसम खुदा की, वह लम डोरा पेंच निकाला कि देखनेवाले दंग रह गए। जमाना भर यही कहता था कि भई, पेंच क्या काटा, कमाल किया। कुछ इनाम दिलवाइए, खुदाबंद! आपके कदमों की कसम, आज शहर भर में उस पेंच की धूम है। चालीस-पचास रुपयों की भी कोई हकीकत है!
शाम के वक्त आजाद और मियाँ पतंगबाज बैठे गप-शप कर रहे थे कि एक मौलवी साहब लटपटी दस्तार खोपड़ी पर जमाए, कानी आँख को उसके नीचे छिपाए, दूसरी में बरेली का सुरमा लगाए कमरे में आए। उन्होंने अकेलसलेम के बाद जेब से एक इश्तिहार निकाल कर आजाद के हाथ में दिया। आजाद ने इश्तिहार पढ़ा, तो फड़क गए। एक मुशायरा होने वाला था। दूर-दूर से शायर बुलाए गए थे। तरह का मिसरा था –
‘हमसे उस शोख ने ऐयारी की’।
मौलवी साहब तो उलटे पाँव लंबे हुए, यहाँ मुशायरे की तारीख जो देखते हैं, तो इकतीस फरवरी लिखी हुई है। हैरत हुई कि फरवरी तो अट्ठाइस और कभी उनतीस ही दिन का महीना होता है, यह इकतीस फरवरी कौन सी तारीख है! बारे मालूम हुआ कि इसी वक्त मुशायरा था। खैर दोनों आदमी बड़े शौक से पता पूछते हुए गुलाबी बारहदरी में दाखिल हुए। वहाँ बड़ी रौनक थी। नई-नई वजा, नए-नए फैशन के लोग जमा हैं। किसी का दिमाग ही नहीं मिलता; जिसे देखो, तानाशाह बना बैठा है, दुनिया की बादशाहत को जूती की नोक पर मारता है। शायरी के शौकीन उमड़े चले आते हैं। कहीं तिल रखने की जगह नहीं। जब रात भीगी और चाँदनी खूब निखरी, तो मुशायरा शुरू हुआ। शायरों ने चहकना शुरू किया। मजलिस के लोग एक-एक शेर पर इतना चीखे-चिल्लाए कि होंठ और गले सूख कर काँटा हो गए। ओहो हो-हो, आहा हा-हा, वाह-वाहन सुभान अल्लाह के दौंगरे बरस रहे थे। शायर ने पूरा शेर पढ़ा भी नहीं कि यार लोग ले उड़े! वाह हजरत, क्यों न हो! कसम खुदा की! कलम तोड़ दिया! वल्लाह, आज इस लखनऊ में आपका कोई सानी नहीं! एक शायर ने यह गजल पढ़ी –
हमको देखा, तो वह हँस देते हैं;
आँख छिपती ही नहीं यारी की।
महफिल के लोगों ने पूरा शेर तो सुना नहीं, यारी को गाड़ी सुन लिया। गाड़ी की, वाह-वाह, क्या शेर फरमाया, गाड़ी की! अब जिसे देखिए, गुल मचा रहा है – गाड़ी की, गाड़ी की। मगर गुलगपाड़े में सुनता कौन है। शायर बेचारा चीखता है कि हजरत, गाड़ी की नहीं, यारी की; पर यार लोग अपना ही राग अलापे जाते हैं। तब तो मियाँ आजाद ने झल्ला कर कहा – साहबो, अगाड़ी न पिछाड़ी, चौपहिया न पालकी-गाड़ी, खुदा के वास्ते पहले शेर तो सुन लो, फिर तारीफ के पुल बाँधो। गाड़ी की नहीं, यारी की। आँख छिपती ही नहीं यारी की।
दूसरे शायर ने यह शेर पढ़ा –
उम्मीद रोजे-वस्ल थी किस बदनसीब को;
किस्मत उलट गई मेरे रोजे-सियाह की।
हाजिरीन – निगाह की, सुभान-अल्लाह। निगाह की, हजरत, यह आप ही का हिस्सा है।
शायर – निगाह नहीं, रोजे-सियाह। निगाह से तो यहाँ कुछ माने ही न निकलेंगे।
यह कह कर उन्होंने फिर उसी शेर को पढ़ा और सियाह के लफ्ज पर खूब जोर दिया कि कोई साहब फिर निगाह न कह उठें।
आधी रात तक हू-हक मचता रहा। कान-पड़ी आवाज न सुनाई देती थी। पड़ोसियों की नींद हराम हो गई। एक-एक शेर पढ़ने की चार-चार दफे फरमाइश हो रही है और बीस मरतबा उठा-बैठी, सलाम पर सलाम और आदाब पर आदाब; अच्छी कवायद हुई। लाला खुशवक्तराय और मुंशी खुर्सेदराय तीन-तीन सौ शेरों की गजलें कह लाए थे, जिनका एक शेर भी दुरुस्त नहीं। एक बजे से पढ़ने बैठे, तो तीन बजा दिए। लोग कानों में ऊँगलियाँ दे रहे हैं, मगर वे किसी की नहीं सुनते।
वहाँ से मियाँ आजाद और उनके दोस्त घर आए। तड़का हो गया था। आजाद तो थोड़ी देर सो कर उठ गए, मगर मियाँ पतंगबाज ने दस बजे तक की खबर ली।
आजाद – आज तो बड़े सवेरे उठे। अभी तो दस ही बजे हैं। भई, बड़े सोनेवाले हो!
पतंगबाज – जनाब, तड़का तो मुशायरे ही में हो गया था। जब आदमी सुबह को सोएगा, तो दस बजे से पहले क्या उठेगा। और, सच तो यों है कि अभी और सोने को जी चाहता है। कुछ मुशायरे के झगड़े का भी हाल सुना? आप तो कोई चार बजे सो रहे थे। हमने सारी दास्तान सुनी। बड़ी चख चल गई। मौलवी बदर और मुंशी फिशार में तो लकड़ी चलते-चलते रह गई। जो मियाँ रंगीन न हों, तो दोनों में जूती चल जाय।
आजाद – यह क्यों, किस बात पर?
पतंगबाज – कुछ नहीं, यों ही। मैं तो समझा, अब लकड़ी चली।
आजाद – तो मुशायरा क्या पाली थी? पूछिए, शायरी को लकड़ी और बाँक से क्या वास्ता? कलम का जोर दिखाना चाहिए कि हाथ का। किसी तरह बदर और फिशार में मिलाप करा दीजिए।
पतंगबाज – ऐ तौबा। मिलाप, मिलाप हो चुका। बदर का यह हाल है कि बात की और गुस्सा आ गया। और मियाँ फिशार उनके भी चचा हैं। बात पीछे करते हैं, चाँटा पहले ही जमाते हैं।
आजाद – आखिर बखेड़े का सबब क्या?
पतंगबाज – सिवा हसद के और क्या कहूँ। हुआ यह कि फिशार ने पहले पढ़ा। हस पर मौलवी बदर बिगड़ खड़े हुए कि हमसे पहले इन्हें क्यों पढ़ने दिया गया। इनमें क्या बात है। हम भी तो उस्ताद के लड़के हैं। इस पर फिशार बोले – अभी बच्चे हो, हिज्जे करना तो जानते नहीं। शायरी क्या जानो। कुछ दिन उस्ताद की जूतियाँ सीधी करो, तो आदमी बनो। बदर ने आस्तीनें उलट लीं और चढ़ दौड़े। फिशार के शागिर्दों ने भी डंडा सीधा किया। इस पर लोगों ने दौड़ कर बीच-बचाव कर दिया।
शाम के वक्त मियाँ आजाद ने कहा – भई, अब तो बैठे-बैठे जी घबराता हैं। चलिए, जरा चार-पाँच कोस सैर तो कर आएँ। पतंगबाज ने चार-पाँच कोस का नाम सुना, तो घबराए। यह बेचारे महीन आदमी, आध-कोस भी चलना कठिन था, दस कदम चले और हाँफने लगे। कहीं गए भी तो टाँघन पर। भला दस मील कौन जाता? बोले – हजरत, मैं इस सैर से बाज आया। आपको तो डाक के हरकारों में नौकरी करनी चाहिए। मुझे क्या कुत्ते ने काटा है कि बेससब पँचकोसी चक्कर लगाऊँ और आदमी से ऊँट बन जाऊँ? आप जाते हैं, तो जाइए, मगर जल्द आइएगा। सच कहते हैं, लंबा आदमी अक्ल का दुश्मन होता है। यह गप उड़ाने का वक्त है, या जंगल में घूमने का?
एक मुसाहिब – आप बजा फरमाते हैं, भले मानसों को कभी जंगल की धुन समाई ही नहीं। और, हुजूर के यहाँ घोड़ा-बग्घी सब सवारियाँ मौजूद हैं। जूतियाँ चटखाते हुए आपके दुश्मन चलें।
आजाद – जनाब, यह नजाकत नहीं है, इसको तपेदिक कहते हैं। आप पाँच कोस न चलिए, दो ही कोस चलिए, आध ही कोस चलिए।
पतंगबाज – नहीं जनाब, माफ फरमाइए।
आजाद लंबे-लंबे डग बढ़ाते पश्चिम की तरफ रवाना हुए।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 22
मियाँ आजाद के पाँव में तो सनीचर था। दो दिन कहीं टिक जायँ तो तलवे खुजलाने लगें। पतंगबाज के यहाँ चार-पाँच दिन जो जम गए, तो तबीयत घबराने लगी लखनऊ की याद आई। सोचे, अब वहाँ सब मामला ठंडा हो गया होगा। बोरिया-बँधना उठाया और शिकरम-गाड़ी की तरफ चले। रेल पर बहुत चढ़ चुके थे, अब की शिकरम पर चढ़ने का शौक हुआ। पूछते-पूछते वहाँ पहुँचे। डेढ़ रुपए किराया तय हुआ, एक रुपया बयाना दिया। मालूम हुआ, सात बजे गाड़ी छूट जायगी, आप साढ़े-छह बजे आ जाइए। आजाद ने असबाब तो वहाँ रखा, अभी तीन ही बजे थे, पतंगबाज के यहाँ आ कर गप-शप करने लगे। बातों-बातों में पौंने सात बज गए। शिकरम की याद आई, बचा-खुचा असबाब मजदूर के सिर पर लाद कर लदे-फँदे घर से चल खड़े हुए। राह में लंबे-लंबे डग धरते, मजदूरों को ललकारते चले आते हैं कि तेज चलो, कदम जल्द उठाओ। जहाँ सन्नाटा देखा, वहाँ थोड़ी दूर दौड़ने भी लगे कि वक्त पर पहुँचे; ऐसा न हो कि गाड़ी छूट जाय। वहाँ ठीक सात बजे पहुँचे, तो सन्नाटा पड़ा हुआ। आदमी न आदमजाद। पुकारने लगे, अरे मियाँ चपरासी, मुंशी जी, अजी मुंशी जी! क्या साँप सूँघ गया? बड़ी देर के बाद एक चपरासी निकला। कहिए, क्या डाक कीजिएगा?
आजाद – और सुनिए। डाक कीजिएगा की एक ही कही। मियाँ, बयाने का रुपया भी दे चुके।
चपरासी – अच्छा, तो इस घास पर बिस्तर जमाइए, ठंडी-ठंडी हवा खाइए, या जरा बाजार की सैर कर आइए।
आजाद – ऐं, सैर कैसी ? डाक छूटेगी आखिर किस वक्त?
चपरासी – क्या मालूम, देखिए, मुंशी जी से पूछूँ।
आजाद ने मुंशी जी के पास जा कर कहा – अरे साहब, सात बजे बुलाया था, जिसके साढ़े सात हो गए? अब और कब तक बैठा रहूँ?
मुंशी जी – जनाब, आज तो आप ही आप हैं, और कोई मुसाफिर ही नहीं। एक आदमी के लिए चालान थोड़े छोड़ेंगे।
आजाद – कहीं इस भरोसे न रहिएगा। बयाना दे चुका हूँ।
मुंशी – अच्छा, तो ठहरिए।
आठ बज गए, नौ बज गए, दस बज गए, कोई ग्यारह बजे तीन मुसाफिर आए। तब जाकर शिकरम चली। कोई आध कोस तक तो दोनों घोड़े तेजी के साथ गए, फिर सुरंग बोल गया। यह गिरा, वह गिरा। कोचवान ने कोड़े पर कोड़े जमाना शुरू किया; पर घोड़े ने भी ठान ली कि टलूँगा ही नहीं। कोचमैन, घसियारा, बारगीर, सब के सब ठोक रहे थे; मगर वह खड़ा हाँफता है। बारे बड़ी मुश्किल से फूँक-फूँक कर कदम रखता हुआ दूसरी चौकी तक आया।
दूसरी चौकी में एक टट्टू दुबला-पतला, दूसरा घोड़ा मरा हुआ सा था; हड्डियाँ-हड्डियाँ गिन लीजिए। यह पहले ही से रंग लाए। कोचमैन ने खूब कोड़े जमाए, तब कहीं चले। मगर दस कदम चले थे कि फिर दम लिया। साईस ने आँखें बंद करके रस्सी फटकारनी शुरू की। फिर दस-बीस कदम आहिस्ता-आहिस्ता बढ़े; फिर ठहर गए। खुदा-खुदा करके तीसरी चौकी आई।
तीसरी चौकी में एक दुबला-पतला मुश्की रंग का घोड़ा और दूसरा नुकरा था। पहले जरा चीं-चप्पड़, फिर चले। एक-आध कोस गए थे कि कीचड़ मिली, फिर तो कयामत का सामना था। घोड़े थान की तरफ भागते थे, कोचमैन रास थामे टिक-टिक करता जाता था, बारगीर पहियों पर जोर लगाते थे। मुसाफिरों को हुक्म हुआ कि उतर आइए; जरा हवा खाइए। बेचारे उतरे। आध कोस तक पैदल चले। घोड़े कदम-कदम पर मुँह मोड़ देते थे। वह चिल्ल-पों मची हुई थी कि खुदा पनाह। आध कोस के बाद हुक्म हुआ कि अपना-अपना बोझ उठाओ, गाड़ी भारी है। चलिए साहब, सबने गठरियाँ सँभाली! सिर पर असबाब लादे चले आते हैं। तीन घंटे में कहीं चौकी तय हुई, मुसाफिरों का दम टूट गया, कोचमैन और साईस के हाथ कोड़े मारते-मारते और पहियों पर जोर लगाते-लगाते बेदम हो गए।
चौथी चौकी की जोड़ी देखने में अच्छी थी। लोगों ने समझा था, तेज जायगी, मगर जमाली खरबूजों की तरह देखने ही भर की थी। कोचवान और बारगीरों ने लाख-लाख जोर लगाया, मगर उन्होंने जरा कान तक न हिलाए, कनौती तक न बदली। बुत बने खड़े हैं, मैदान में अड़े हें। कोई तो घास का मुट्ठा लाता है, कोई दूर से तोबड़ा दिखाता है, कोई पहिये पर जोर लगाता है, कोई ऊपर से कोड़े जमाता है। आखिर घोड़ों के एवज बैल जोते गए।
पाँचवीं चौकी में बाबा आदम के वक्त का एक घोड़ा आया। घोड़ा क्या, खच्चर था। आँखें माँग रहा था। मक्खियाँ भिन्न-भिन्न करती थीं। रात को भी मक्खियों ने इसका पीछा न छोड़ा।
आजाद – अरे भई, अब चलो न! आखिर यहाँ क्या हो रहा है? रास्ता चलने ही से कटता है।
कोचमैन – ऐ लो साहब, घोड़े का तो बंदोबस्त कर लें। एक ही घोड़ा तो इस चौकी पर है।
आजाद – अजी, दूसरी तरफ भैंस जोत देना।
एक मुसाफिर – या हम एक सहल तदबीर बताएँ। मुसाफिरों से कहिए, उतर पड़ें, बोझ अपना-अपना सिर पर लादें और जोर लगा कर बग्घी को एक चौकी तक ढकेल ले जायँ।
इतने में एक भठियारा अपने टट्टू को टिक-टिक करता चला आता था। कोचवान ने पूछा – कहो भाई, भाड़ा करते हो? जो चाहे सो माँगो, देंगे। नकद दाम लो और बग्घी पर बैठ जाओ। एक चौकी तक तुम्हारे टट्टू को बग्घी में जोतेंगे।
भठियारा – वाह, अच्छे आए! टटुआ कभी गाड़ी में जोता भी गया है? मुर्गी के बराबर टट्टू, और जोतने चले हैं शिकरम में। यों चाहे पीठ पर सवार हो लो, मुदा डाकगाड़ी में कैसे चल सकता है?
कोचमैन – अरे भई, तुमको भाड़े से मतलब है, या तकरीर करोगे? हम तो अपनी तरकीब से जोत लेंगे।
आजाद ने भठियारे से कहा – रुपया टेंट में रखो और कहो, अच्छा जोतो। कुछ थक-थका कर आप ही हार जायँगे। रुपया तुम्हारे बाप का हो जायगा। वह भी राजी हो गया। अब कोचमैन ने टट्टू को जोतना चाहा, मगर उसने सैकड़ों ही बार पुश्त उछाली, दुलत्तियाँ झाड़ी और गाड़ी के पास न फटका। इस पर कोचवान ने टट्टू को एक कोड़ा मारा। तब तो भठियारा आग हो गया। ऐ वाह मियाँ, अच्छे मिले, हमने पहले ही कह दिया था कि हमारा जानवर बग्घी में न चलेगा। आपने जबरदस्ती की। अब गधे की तरह गद-गद पीटने लगे।
वह तो टट्टू को बगल में दाब लंबा हुआ, यहाँ शिकरम मैदान में पड़ी हुई है। मुसाफिर जम्हाइयाँ ले रहे हैं। साईस चिलम पर चिलम उड़ाते हैं। सब मुसाफिरों ने मिल कर कसम खाई कि अब शिकरम पर न बैठेंगे। खुदा जाने, क्या गुनाह किया था कि यह मुसीबत सही। पैदल आना इससे कहीं अच्छा।
पाँचवीं चौकी के आगे पहुँचे, तो एक मुसाफिर ने, जिसका नाम लाला पलटू था, ठर्रे की बोतल निकाली और लगा कुज्जी पर कुज्जी उड़ाने। मियाँ आजाद का दिमाग मारे बदबू के परेशान हो गया। मजहब से तो उन्हें कोई वास्ता न था, क्योंकि खुदा के सिवा और किसी को मानते ही न थे, लेकिन बदबू ने उन्हें बेचैन कर दिया। एक दूसरे मुसाफिर रिसालदार थे। उनकी जान भी आजाब में थी। वह शराब के नाम प लाहौल पढ़ते और उसकी बू से कोसों भागते थे। जब बहुत दिक हो गए, तो मियाँ आजाद से बोले – हजरत, यह तो बेढब हुई। अब तो इनसे साफ-साफ कह देना चाहिए कि खुदा के वास्ते इस वक्त न पीजिए। थोड़ी देर में हमको और आपको गालियाँ न देने लगें, तो कुछ हारता हूँ। जरा आँख दिखा दीजिए जिसमें बहुत बढ़ने न पाएँ।
आजाद – खुदा की कसम, दिमाग फटा जाता है। आप डपट कर ललकार दीजिए। न माने तो मैं कान गरमा दूँगा।
रिसालदार – कहीं ऐसा गजब न कीजिएगा! पंजे झाड़ कर लड़ने को तैयार हो जायगा। शराबी के मुँह लगना कोई अच्छी बात थोड़े हैं।
दोनों में यही बातें हो रही थीं कि लाला पलटू ने हाँक लगाई – हरे-हरे बाग में गोला बोला, पग आगे, पग पीछे। यह बेतुकी कह कर हाथ जो छिड़का, तो रिसालदार की दोनों टाँगों पर शराब के छींटे पड़ गए। हाँय-हाँय, बदमाश, अलग हट! उठ जा यहाँ से। नहीं तो दूँगा एक लप्पड़।
पलटू – बरसो राम झड़ाके से; रिसालदार की बुढ़िया मर गई फाके से। हमारा बाप गधा था।
रिसालदार – चुप, खोस दूँ बाँस मुँह में?
पलटू – अजी, तो हँसी-हँसी में रोए क्यों देते हो? वाह, हम तो अपने बाप को बुरा कहते हैं।
आजाद – क्या तुम्हारे बाप गधे थे?
पलटू – और कौन थे? आप ही बताइए। उमर भर डोली उठाई, मगर मरते दम तक न उठानी आई।
रिसालदार – क्या कहार था?
पलटू – और नहीं तो क्या चमार था, या बेलदार था? या आपकी तरह रिसालदार था?
आजाद – है नशे में तो क्या, बात पक्की कहता है।
पलटू – अजी, इसमें चोरी क्या है? हम कहार, हमारा बाप कहार।
आजाद – कहिए! आपकी महरी तो खैरियत से है।
पलटू – चल शिकरम, चल घोड़े, बिगुल बजे भोंपू-भोंपू। सामने काँटा, दुकान में आटा, कबड़िये के यहाँ भाँटा, रिसालदार के लगाऊँ चाँटा।
रिसालदार – ऐसा न हो कि मैं नशा-वशा सब हिरन कर दूँ। जबान को लगाम दे।
पलटू – अच्छा सईस है।
आजाद – अबे, साईसी इल्म दरियाव है।
पलटू – तेरा सिर नाव है, तू बनबिलाव है।
रिसालदार – कोचमैन, बग्घी ठहराओ।
पलटू – कोचमैन, बग्घी चलाओ।
मियाँ आजाद ने देखा, रिसालदार का चेहरा मारे गुस्से के लाल हो गया, तो उन्होंने बात टाल दी और पूछा – क्यों पलटू महाराज, सच कहना तुमने तो कभी डोली नहीं उठाई? पलटू बोले – नहीं, कभी नहीं। हाँ, बरतन माँजे हें। मगर होश सँभालते ही मदरसे में पढ़ने लगे और अब तार-घर में नौकर हैं। रिसालदार जी, लो पीते हो? रिसालदार के मुँह के पास कुज्जी ले जा कर कहा – पियो,पियो। इतना कहना था कि रिसालदार जल भुनके खाक हो गए, तड़ से एक चाँटा रसीद किया, दूसरा और दिया, फिर तीन-चार और लगाए। पलटू मजे से बैठे चपते खाया किए। फिर एक कहकहा लगा कर बोले – अबे जा, बड़ा रिसालदार बना है। नाम बड़ा, दरसन थोड़े। एक जूँ भी न मरी। रिसालदारी क्या खाक करते हो? चलो, अब तो एक कुज्जी पियो। दूँ फिर?
रिसालदार – भई, इसने तो नाक में दम कर दिया। पीटते-पीटते हाथ थक गए।
कोचमैन – रिसालदार साहब, यह क्या गुल मच रहा है?
आजाद – बड़ी बात कि तुम जीते तो बचे! हम समझते थे कि साँप सूँघ गया। यहाँ मार धाड़ भी हो गई, तुम्हें खबर ही नहीं।
कोचमैन – मार-धाड़! यह मार-धाड़ कैसी?
रिसालदार – देखो यह सुअर, शराब पी रहा है और सबको गालियाँ देता है! मैंने खूब पीटा, फिर भी नहीं मानता।
पलटू – झूठे हो! किसने पीटा? कब पीटा? यहाँ तो एक जूँ भी न मरी।
कोचमैन – लाला, थोड़ी सी हमको भी पिलाओ।
पलटू और कोचमैन, दोनों कोच-बक्स पर जा बैठे और कुज्जियों का दौर चलने लगा। जब दोनों बदमस्त हुए, तो आपस में धौल धप्पा होने लगा। इसने उसके लप्पड़ लगाया, उसने इसके एक टीप जड़ी। कोचमैन ने पलटू को ढकेल दिया। पलटू ने गिरते ही पाँव पकड़ कर घसीटा, तो कोचमैन भी धम से गिरे। दोनों चिपट गए। एक ने कूले पर लादा, दूसरा बगली डूबा। मुक्का चलने लगा। कोचमैन ने झपट के पलटू को टँगड़ी ली, पलटू ने उसके पट्टे पकड़े। रिसालदार को गुस्सा आया, तो पलटू के बेभाव की चपतें लगाईं। एक, दो, तीन करके कोई पचास तक गिन गए आजाद ने देखा कि मैं खाली हूँ। उन्होंने कोचमैन को चपतियाना शुरू किया।
आजाद – क्यों बचा, पियोगे शराब? सुअर, गाड़ी चलाता है कि शराब पीता है?
रिसालदार – तोड़ दूँ सिर, पटक दूँ बोतल सिर पर!
पलटू – तो आप क्या अकड़ रहे हैं? आपकी रिसालदारी को तो हमने देख लिया! देखो, कोचमैन के सिर पर आधे बाल रह गए, यहाँ बाल भी न बाँका हुआ।
रिसालदार – बस भई अब हम हार गए।
इस झंझट में तड़का हो गया। मुसाफिर रात भर के जगे हुए थे, झपकियाँ लेने लगे। मालूम नहीं, कितनी चौकियाँ आईं और गईं। जब लखनऊ पहुँचे, तो दोपहर ढल चुकी थी।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 23
मियाँ आजाद शिकरम पर से उतरे, तो शहर को देख कर बाग-बाग हो गए। लखनऊ में घूमे तो बहुत थे, पर इस हिस्से की तरफ आने का कभी इत्तिफाक न हुआ था। सड़कें साफ, कूड़े-करकट से काम नहीं, गंदगी का नाम नहीं, वहाँ एक रंगीन कोठी नजर आई, तो आँखों ने वह तरावट पाई कि वाह जी, वाह! उसकी बनावट और सजावट ऐसी भायी कि सुभान-अल्लाह। बस, दिल में खुब ही तो गई। रविशें दुनिया से निराली, पौदों पर वह जोबन कि आदमी बरसों घूरा करे।
मियाँ आजाद ने एक हरे-भरे दरख्त के साये में आसन जमाया। टहनियाँ हवा के झोंकों से झूमती थी, मेवे के बोझ से जमीन को बार-बार चूमती थीं। आजाद ठंडे-ठंडे हवा के झोंकों का मजा ले रहे थे कि एक मुसाफिर उधर से गुजरा। आजाद ने पूछा – क्यों साहब, इस कोठी में कौन रईस रहता है?
मुसाफिर – रईस नहीं, एक रईसा रहती हैं! बड़ी मालदार हैं। रात को रोज बजरे पर दरिया की सैर को निकलती हैं। उनकी दोनों लड़कियाँ भी साथ होती हैं।
आजाद – क्यों साहब लड़कियों की उम्र क्या होगी?
मुसाफिर – अब उमर का हाल मुझे क्या मालूम। मगर सयानी हैं, बड़ी तमीजदार हैं और, बुढ़िया तो आफत की पुड़िया।
आजाद – शादी अभी नहीं हुई?
मुसाफिर – अभी शादी नहीं हुई; न कहीं बातचीत है। दोनों बहनों को पढ़ने लिखने और सैर करने के सिवा कोई काम नहीं। सफाई का दोनों को ख्याल है। खुदा करे, उनकी शादी अच्छे घरों में हो।
आजाद – आपने तो वह खबर सुनाई कि मुझे उन लड़कियों को सैर करते हुए देखने का शौक हो गया।
मुसाफिर – तो फिर इसी जगह बिस्तर जमा रखिए।
आजाद – आप भी आ जायँ, तो मजा आए।
मुसाफिर – आ जाऊँगा।
आजाद – ऐसा न हो कि आप न आए और मुझे भेड़िया उठा ले जाय।
मुसाफिर – आप बड़े दिल्लगीबाज मालूम होते हैं। यहाँ अपने वादे के सच्चे हैं। बस, शाम हुई और बंदा यहाँ पहुँचा।
यह कह कर वह हजरत तो चलते हुए और आजाद दरख्तों से मेवे तोड़-तोड़ कर खाने लगे। फिर चिड़ियों का गाना सुना। फिर दरिया की लहरें देखीं। कुछ देर तक गाते रहे। यहाँ तक कि शाम हो गई और वह मुसाफिर न आया। आजाद दिल में सोचने लगे, शायद हजरत झाँसा दे गए। अब शाम में क्या बाकी है। आना होता, तो आ न जाते। शायद आज बेगम साहबा बजरे पर सैर भी न करेंगी। सैर करने का यही तो वक्त है। इतने में मियाँ मुसाफिर ने आ कर पुकारा।
आजाद – खैर, आप आए तो! मैं तो आपके नाम को रो चुका था।
मुसाफिर – खैर, अब हँसिए। देखिए, वह हाथी आ रहा है। दोनों पालकियाँ भी साथ हैं।
मुसाफिर – ईंट की ऐनक लगाओ! इतनी बड़ी पालकी नहीं देख सकते! हाथी भी नहीं दिखाई देता! क्या रतौंधी आती है?
आजाद – आहा हा! वह देखिए। ऐं, वह तो दरख्त के साये में रुक रहा।
मुसाफिर – घबराइए नहीं, यहीं आ रही हैं। अब कोई और जिक्र छेड़िए, जिसमें मालूम हो कि दो मुसाफिर थक कर खड़े बातें कर रहे हैं!
आजाद – यह आपको खूब सूझी! हाँ साहब, अबकी आम की फसल खूब हुई। जिधर देखो, पटे पड़े हें; मंडी जाइए, खाँचियों की खाँचियाँ। तरबूज को देख आइए, कोई टके को नहीं पूछता। और आम के सामने तरबूज को कौन हाथ लगाए!
ये बातें हो ही रही थीं कि बजरा तैयार हुआ। दोनों बहनें और बेगम साहब उसमें बैठी। एकाएक पूरब की तरफ से काली मतवाली घटा झूमती हुई उठी और बिजली ने चमकना शुरू किया। मल्लाह ने बजरे को खूँटे से बाँध दिया। दोनों लड़कियाँ हाथी पर बैठी और घर की तरफ चलीं। आजाद ने कहा – यह बुरा हुआ! तूफान ने हत्थे ही पर टोंक दिया, नहीं तो इस वक्त बजरे की सैर देख कर दिल की कली खिल जाती। आखिर दोनों आदमी घूमते-घामते एक बाग में पहुँचे, तो मियाँ मुसाफिर बोले – हजरत, अब की आम इतनी कसरत से पैदा हुआ कि जहाँ किसी भलेमानस ने राह चलते कोई आम उठा लिया और बस, चिमट पड़ा। अभी परसों ही की तो बात है। यहाँ से कोई चार कोस पर एक मुसाफिर मैदान में चला जाता था। एक काना खुतरा आम टप से जमीन पर टपक पड़ा। मुसाफिर को क्या मालूम की कौन इधर-उधर ताक रहा है, चुपके से आम उठा लिया। उठाना था कि दो गँवारदल लठ कंधे पर रखे, मार सारे का; मार सारे का करते निकल आए। मुसाफिर ने आम झट जमीन पर पटक दिया। लेकिन एक गँवार ने आते ही गालियाँ देनी शुरू कीं तो दूसरे ने घूँसा ताना! मुसाफिर भी क्षत्रिय आदमी था, आग हो गया। मारे गुस्से के उसका बदन थर-थर काँपने लगा। बढ़के जो एक चाँटा देता है, तो एक गँवार लड़खड़ा के धम से जमीन पर। दूसर ने ने जो यह हाल देखा, तो लठ ताना। राजपूत बगली डूब कर जा पहुँचा, एक आँटी जो देता है, तो चारों खाने चित। हम भी कल एक बाग में फँस गए थे। शामत जो आई, तो एक दरख्त के साये में दोपहरिया मनाने बैठ गए। बैठना था कि एक ने तड़ से गाली दी। अब सुनिए कि गाली तो दी हमको, लेकिन एक पहलवान भी करीब ही बैठा था। सुनते ही चिमट गया और चिमटते ही कूले पर लादा। गिरे मुँह के बल। पहलवान छाप बैठा, हफ़्ते गाँठ लिए, हलसींगड़ा बाँध कर आसमान दिखा दिया और अपने शागिर्दों से कहा – चढ़ जाओ पेड़ पर, और आम, पत्ते, बौर, टहनी जो पाओ, तोड़-तोड़ कर फेंक दो, पेड़ नीचे डालो। लेकिन लोगों ने समझाया कि उस्ताद, जाने दो, गाली देना तो इनका काम है। यह तो इनके सामने कोई बात ही नहीं, ये इसी लायक हैं कि खूब धुने जायँ।
आजाद – क्यों साहब, धुने क्यों जायँ? ऐसा न करें, तो सारा बाग मुसाफिरों ही के लिए हो जाय। लोग पेड़ का पेड़, जड़ और फुनगी तक चट कर जायँ। आप तो समझे कि यह एक आम के लिए कट मरा, मगर इतना नहीं सोचते कि एक ही एक करके हजार होते हैं। इस ताकीद पर तो यह हाल हे कि लोग बाग के बाग लूट खाते हैं; और जो कहीं इत्ती तू-तू मैं-मैं न हो तो न जाने क्या हो जाय।
मियाँ मुसाफिर कल आने का वादा करके चले गए। आजाद आगे बढ़े, तो क्या देखते हैं कि एक आदमी अपने लड़के को गोदी में लिए थपकी दे दे कर सुला रहा है। – ‘आ जा री निंदिया, तू आ क्यों न जा; मेरे बाले को गोद सुला क्यों न जा।’ आजाद एक दिल्लगीबाज आदमी, जा कर उससे पूछते क्या हैं – किसका पिल्ला है? वह भी एक ही काइयाँ था, बोला ‘दूर रह, क्यों पिला पड़ता है? आजाद यह जवाब सुन कर खुश हो गए। बोले – उस्ताद, हम तो आज तुम्हारे मेहमान होंगे। तुम्हारी हाजिरजवाबी से जी खुश हो गया। अब रात हो गई है, कहाँ जायँ? उस हँसोड़ आदमी ने इतनी बड़ी खातिर की, खाना खिलाया और दोनों ने दरवाजे पर ही लंबी तानी। तड़के मियाँ आजाद की नींद खुली। हँसोड़ को जगाने लगे। क्यों हजरत, पड़े सोया ही कीजिएगा या उठिएगा भी; वाह रे माचा-तोड़! बारे बहुत हिलाने-डुलाने पर मियाँ हँसोड़ उठे और फिर लेट गए; मगर पैताने की तरफ सिर करके। इतने में दो-चार दोस्त और आ गए। वाह भई वाह, हम दो कोस से आए और यहाँ अभी खाट ही नहीं छोड़ी? भई, बड़ा सोनेवाला है। हमने मुँह-हाथ धोया, हुक्का पिया, बालों में तेल डाला चपातियाँ खाईं, कपड़े पहने और टहलते हुए यहाँ तक आए; मगर यह अभी तक पड़े ही हुए हैं। आखिर एक आदमी ने उनके कान में पानी डाल दिया। तब तो आप कुलबुलाए। देखो, देखो, हैं-हैं नहीं मानते! वाह, अच्छी दिल्लगी निकाली है।
एक दोस्त – जरा आँखे तो खोलिए।
हँसोड़ – नहीं खोलते। आपका कुछ इजारा है?
दोस्त – देखिए, यह मियाँ आजाद तशरीफ लाए हैं, इधर मौलवी साहब खड़े हैं। इनसे तो मिलिए, सो-सो कर नहूसत फैला रखी है।
मौलवी – अजी हजरत!
हँसोड़ – भई, दिक न करो, हमें सोने दो। यहाँ मारे नींद के बुरा हाल है, आपको दिल्लगी सूझती है।
आजाद – भाई साहब!
हँसोड़ – और सुनिए। आप भी आए वहाँ से जान खाने। सवेरे-सवेरे आपको बुलाया किस गधे ने था? भलेमानस के मकान पर जाने का यह कौन वक्त है भला? कुछ आपका कर्ज तो नहीं चाहता? चलिए, बोरिया-बाँधना उठाइए।(आँखें खोल कर अख्खा, आप, हैं? माफ कीजिएगा। मैंने आपकी आवाज नहीं पहचानी।
मौलवी – कहिए, खाकसार की आवाज तो पहचानी? या कुछ मीन-मेख है?
हँसोड़ – अख्खा, आप हैं। माफ कीजिएगा, मैं अपने आपे में न था।
मौलवी – हजरत, इतना भी नींद के हाथ बिक जाना भला कुछ बात है! आठ बजा चाहते हैं और आप पड़े सो रहे हैं। क्या कल रतजगा था? खैर, मैं तो रुखसत होता हूँ; आप हकीम साहब के नाम खत लिख भेजिएगा। ऐसा न हो कि देर हो जाय। कहीं फिर न लुढ़क रहिएगा। आपकी नींद से हम हारे।
हँसोड़ – अच्छा मियाँ आजाद, और बातें तो पीछे होंगी, पहले यह बतलाइए कि खाना क्या खाइएगा? आज मामा बीमार हो गए हैं और घर में भी तबीयत अच्छी नहीं है। मैंने रोजे की नीयत की है। आप भी रोजा रख लें। फायदे का फायदा और सवाब का सवाब।
आजाद – रोजा आपको मुबारक रहे। अल्ला मियाँ हमें यों ही बख्श देंगे। यह दिल्लगी किसी और से कीजिएगा।
हँसोड़ – दिल्लगी के भरोसे न रहिएगा। मैं खरा आदमी हूँ। हाँ, खूब याद आया। मौलवी साहब खत लिखने को कह गए हें। दो पैसे का खून और हुआ। कल भी रोजा रखना पड़ा।
आजाद – दो पैसे क्यों खर्च कीजिएगा? अब तो एक पैसे के पोस्टकार्ड चले हैं।
हँसोड़ – सच? एक डबल में! भई अंगरेज बड़े हिकमती हैं। क्यों साहब, वह पोस्टकार्ड कहाँ बिकते हैं?
आजाद – इतना भी नहीं जानते? डाकखाने में आदमी भेजिए।
हँसोड़ – रोशनअली, डाकखाने से जा कर एक आने के पोस्टकार्ड ले आओ।
रोशन – मियाँ, मैं देहाती आदमी हूँ। अंगरेजी नहीं पढ़ा।
हँसोड़ – अरे भई, तुम कहना कि वह लिफाफे दीजिए, जो पैसे-पैसे में बिकते हैं। जा झट से, कुत्ते की चाल जाना और बिल्ली की चाल आना।
रोशन – अजी, मुझसे कहिए, तो मैं गधे की चाल जाऊँ और बिसखोपड़े की चाल जाऊँ। मुल डाकवाले मुझे पागल बनाएँगे। भला आज तक कहीं पैसे में लिफाफा बिका है?
हँसोड़ – अबे, तुझे इस हुज्जत से क्या वास्ता? डाकखाने तक जायगा भी, या यही बैठे-बैठे दलीलें करेगा?
रोशन डाकखाने गया और पोस्टकार्ड ले आया। मियाँ हँसोड़ झपट कर कलम-दवात ले आए और खत लिखने बैठे। मगर पुराने जमाने के आदमी थे, तारीफ के इतने लंबे-लंबे जुमले लिखने शुरू किए कि पोस्टकार्ड भर गया और मतलब खाक न निकला। बोले – अब कहाँ लिखें।
आजाद – दो टप्पी बातें लिखिए। आप तो लगे अपनी लियाकत बघारने! दूसरा लीजिए।
हँसोड़ ने दूसरा पोस्टकार्ड लिखना शुरू किया – ‘जनाव, अब हम थोड़े में बहुत सा हाल लिखेंगे। देखिए, बुरा न मानिएगा। अब वह जमाना नहीं रहा कि वह बीघे भर के आदाब लिखे जायँ। वह लंबी चौड़ी दुआएँ दी जायँ। वह घर का कच्चा, चिट्ठा कह सुनाना अब रिवाज के खिलाफ है। अब तो हमने कसम खाई है कि जब कलम उठाएँगे, दस सतरों से ज्यादा न लिखेंगे इसमें चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय। अब आप भी इस फैशन को छोड़ दीजिए।’ अरे, यह खत भी गया। अब तो तिल रखने की भी जगह नहीं। लीजिए, बात करते-करते दो पैसे का खून हो गया। इसको दो पैसे का टिकट लाते, तो खर्रे का खर्रा लिख डालते।
आजाद – अरे देखूँ तो; आपने क्या लिखा है। वाह-वाह इस पँवाड़े का कुछ ठिकाना है। अरे साहब, मतलब से मतलब रखिए। बहुत बेहुदा न बकिए। खैर, अब तीसरा कार्ड लीजिए। मगर कलम को रोके हुए। ऐसा न हो कि आप फिर बाही-तबाही लिखने लगें।
हँसोड़ – अच्छा साहब, यों ही सही। बस, खास-खास बातें ही लिखूँगा।
यह कह कर उन्होंने यह खत लिखा – ‘जनाब फजीलतमआब मौलाना साहब, आप यह पैसलूचा लिफाफा देख कर घबरायँगे कि यह क्या बला है। डाकखानेवालों ने यह नई फुलझड़ी छोड़ी है। आप देखते हैं, इसमें कितनी जगह है। अगर मुख्तसर न लिखूँ तो क्या करूँ। लिखनी तो बहुत सी बातें हैं, पर इस लिफाफे को देख कर सब आरजूएँ दिल में रही जाती हैं। देखिए, अभी लिखा कुछ भी नहीं, मगर कागज को देखता हूँ, तो एक तरफ सब का सब लिप गया। दूसरी तरफ लिखूँ, तो पकड़ा जाऊँ।’ लो साहब, यह पोस्टकार्ड भी खतम हुआ! मियाँ आजाद, ये तीनों पैसे आपके नाम लिखे गए। आप चाहे दें टका नहीं, लेकिन सलाह आप ही ने दी थी।
आजाद – मैंने यह कब कहा था कि आप खत में अपनी जिंदगी की दास्तान लिख भेजें? यह खत है या राँड़ का चर्खा? इतने बड़े हुए, खत लिखने की लियाकत नहीं। समझा दिया, सिखला दिया कि बस, मतलब से मतलब रखो। मगर तुम कब मानने लगे। खुदा की कसम, तुम्हारी सूरत से नफरत हो गई। बस, बेतुकेपन की हद हो गई।
हँसोड़ – वाह री किस्मत! तीन पैसे गिरह से आए और उल्लू के उल्लू बने। भला आप ही लिखिए, तो जानें। देखें तो सही, आप इस जरा से कागज पर कुल मतलब क्योंकर लिखते हैं। इसके लिए तो बड़ा भारी उस्ताद चाहिए, जो पिस्ते पर हाथी की तस्वीर बना दे।
आजाद – आप अपना मतलब मुझसे कहिए, तो अभी लिख दूँ।
हँसोड़ – अच्छा सुनिए-मौलवी जामिनअली आपकी खिदमत में पहुँचे होंगे। उनको वह तीन रुपएवाली जगह दिला दीजिएगा। आपका उम्र भर एहसान होगा। बस, इसी को खूब बढ़ा दीजिए।
आजाद – फिर वही झक! बढ़ा क्यों दूँ? यह न कहा कि बस, यही मेरा मतलब है; इसको बढ़ा दीजिए। लाओ पोस्टकार्ड, देखो, यों लिखते हैं –
‘हजरत सलामत, मौलवी जामिनअली पहुँचे होंगे। वह तीस रुपएवाला ओहदा उनको दिलवा दीजिए, तो एहसान होगा। उम्मीद है कि आप खैरियत से होंगे।’
लो, देखो, इतनी सी बात को इतना बढ़ाया कि तीन-तीन खत लिखे और फाड़े।
हँसोड़ – खूब, यह तो अच्छा दुम-कटा खत है। अच्छा, अब पता भी तो लिखिए।
आजाद ने सीधा-सादा पता लिख कर हँसोड़ को दिखलाया, तो आप पूछने लगे – क्यों साहब, यह तो शायद वहाँ तक पहुँचे ही नहीं। कहीं इतना जरा सा पता लिखा जाता हैं? इसमें मेरा नाम कहाँ है, तारीख कहाँ है?
आजाद – आपका नाम बेवकूफों की फिहरिस्त में है और तारीख डाकखाने में।
हँसोड़ – अच्छा लाइए, दो-चार सतरें मैं भी बढ़ा दूँ।
हजरत ने जो लिखना शुरू किया, तो पते की तरफ भी लिख डाला। – थोड़े लिखने को बहुत समझिएगा। आपका पुराना गुलाम हूँ। अब कुछ करते धरते नहीं बन पड़ती।
आजाद – हैं-हैं। गारत किया न इसको भी?
हँसोड़ – क्यों, जगह बाकी है, पूरा पैसा तो वसूल करने दो।
आजाद – जी, पैसा नहीं, एक आना वसूल हो गया! एक ही तरफ मतलब लिखा जाता है, दूसरी तरफ सिर्फ पता। आपसे तो हमने पहले ही कह दिया था।
यह बातें हो ही रही थी कि कई लड़के स्कूल से निकले उनमें एक बड़ा शरीर था। किसी पर धप जमाई, किसी के चपत लगाई, किसी के कान गरमा दिए। अपने से ढयोढ़े-दूने तक को चपतियाता था। आजाद ने कहा – देखो, यह लौंडा कितना बदमाश है! अपने दूने तक की खबर लेता है।
हँसोड़ – भई, खुदा के लिए इसके मुँह न लगना। इसके काटे का मंतर ही नहीं। यह स्कूल भर में मशहूर है। हजरत दो दफे चारी की इल्लत में धरे गए। इनके मारे महल्ले भर का नाकों दम है। एक किस्सा सुनिए। एक दफे हजरत को शरारत का शौक चर्राया, फिर सोचने की जरूरत न थी। फौरन सूझती है। शरारत तो इसकी खमीर में दाखिल है। एक पाँव का जूता निकाल कर हजरत ने एक आलमारी पर रख दिया। जूते के नीचे एक किताब रख दी। थोड़ी देर बाद एक लड़के से बोले – यार, जरा वह किताब, उतारो, तो कुछ देख-दाख लूँ; नहीं तो मास्टर साहब बेतरह ठोकेंगे। सीधा-सादा लड़का चुपके से वह किताब उठाने लगा। जैसे किताब उठाई, वैसे ही जूती मुँह पर आई। सब लड़के खिलखिला कर हँस पड़े। मास्टर साहब अंगरेज थे। बहुत ही झल्ला कर पूछा – यह किसकी जूती का पाँव है? अब आप बैठे चुपचाप पढ़ रहे हैं। गोया इनसे कुछ वास्ता ही न था। मगर इनका तो दर्जा भर दुश्मन था। किसी लड़के ने इशारे से जड़ दी। मास्टर ने आपको बुलाया और पूछा – वेल, दूसरा पाँव कहाँ तुम्हारा? दूसरा पाँव किडर?
लड़का – पाँव दोनों ये हैं।
मास्टर – वेल, जूती, जूती?
लड़का – जूती को खावे तूती।
मास्टर – बेंच पर खड़ा हो।
लड़का – यह सजा मंजूर नहीं; कोई और सजा दीजिए।
मास्टर – अच्छा, कल के सबक को सौ बार लिख लाना।
लड़का – वाह-वाह, और सबक याद कब करूँगा।
मास्टर – अच्छा, आठ आना जुर्माना।
दूसरे दिन आप आठ आने लाए, तो मोटे पैसे खट-खट करके मेज पर डाल दिए। मास्टर ने पूछा – अठन्नी क्यों नहीं लाया? बोले – यह शर्त नहीं थी।
इसी तरह एक बार एक भलेमानस के यहाँ कह आए कि तुम्हारे लड़के को स्कूल में हैजा हुआ है। उनके घर में रोना-पीटना मच गया। लड़के का बाप, चचा, भाई, मामू, सब दौड़ते हुए स्कूल पहुँचे। औरतों ने आठ-आठ आँसू रोना शुरू किया। वे लोग जो स्कूल गए, तो क्या देखते है; लड़का मजे से गेंद खेलता है। अजी, और क्या कहें, इसने अपने बाप को एक बार नमक के धोखे में फिटकरी खिला दी, और उस पर तुर्रा यह कि कहा, क्यों अब्बाजान, कैसा गहरा चकमा दिया?
शाम के वक्त बूढ़े मियाँ आजाद के पास आ कर बोले – चलिए, उधर बजरा तैयार है! आजाद तो उनकी ताक में बैठे ही थे, हँसोड़ को लेकर उनके साथ चल खड़े हुए। नदी के किनारे पहुँचे, तो देखा, बजरे लहरों पर फर्राटे से दौड़ रहे हैं। एक दरख्त के साये में छिपकर यह बहार देखने लगे। उधर उन दोनों हसीनों ने बजरे पर से किनारे की तरफ देखा, तो आजाद नजर पड़े। शरम से दोनों ने मुँह फेर लिए। लेकिन कनखियों से ताक रही थीं। यहाँ तक कि बजरा निगाहों से ओझल हो गया।
थोड़ी देर के बाद आजाद उन्हीं बूढ़े मियाँ के साथ उस कोठी की तरफ चले, जिसमें दोनों लड़कियाँ रहती थीं। कदम-कदम पर शेर पढ़ते थे, ठंडी साँसे भरते थे और सिर धुनते थे। हालत ऐसी खराब थी कि कदम-कदम पर उनके गिर पड़ने का खौफ था। हँसोड़ ने जो यह कैफियत देखी, तो झपट कर मियाँ आजाद का हाथ पकड़ लिया और समझाने लगे। इस रोने-धोने से क्या फायदा? आखिर यह तो सोचो कि कहाँ जा रहे हो? वहाँ तुम्हें कोई पहचानता भी है? मुफ्त में शरमिंदा होने की क्या जरूरत?
आजाद – भई, अब तो यह सिर है और वह दर। बस, आजाद है और उन बुतों का कूचा।
हँसोड़ – यह महज नादानी है; यही हिमाकत की निशानी है। मेरी बात मानो, बूढ़े मियाँ को फँसाओ, कुछ चटाओ, फिर उनकी सलाह के मुताबिक काम करो, बेसमझे-बूझे जाना और अपना सा मुँह लेकर वापस आना हिमाकत है।
ये बातें करते हुए दोनों आदमी कोठी के करीब पहुँचे। देखा, बूढ़े मियाँ इनके इंतजार में खड़े हैं। आजाद ने कहा – हजरत, अब तो आप ही रास्ता दिखाएँ, तो मंजिल पर पहुँच सकते हैं; वर्ना अपना तो हाल खराब है।
बूढ़े मियाँ – भई, हम तुम्हारे सच्चे मददगार और पक्के तरफदार हैं। अपनी तरफ से तुम्हारे लिए कोई बात उठा न रखेंगे। लेकिन यहाँ का बाबा आलम ही निराला है। यहाँ परिंदों के पर जलते हैं। हवा का भी गुजर होना मुश्किल है। मगर दोनों मेरी गोद की खिलाई हुई हैं, मौके पर आपका जिक्र जरूर करूँगा। मुश्किल यही है कि एक ऊँचे घर से पैगाम आया है, उनकी माँ को शौक चर्राया है कि वहीं ब्याही हो।
आजाद – यह तो आपने बुरी खबर सुनाई! कसम खुदा की, मेरी जान पर बन जायगी।
बूढ़े मियाँ – सब्र कीजिए, सब्र। दिल को ढारस दीजिए। अब इस वक्त जाइए, सुबह आइएगा।
आजाद रुखसत होने ही वाले थे, तो क्या देखते हैं, दोनों बहनें झरोखों से झाँक रही हैं। आजाद ने यह शेर पढ़ा –
हम यही पूछते फिरते हैं जमाने भर से;
जिनकी तकदीर बिगड़ जाती है, क्या करते हैं?
झरोखे में से आवाज आई –
जीना भी आ गया मुझे, मरना भी आ गया;
पहचानने लगा हूँ तुम्हारी नजर को मैं।
इतना सुनना था कि मियाँ आजाद की आँखें मारे खुशी के डबडबा आईं। झरोखे की तरफ फिर जो ताका, तो वहाँ कोई न था। चकराए कि किसने यह शेर पढ़ा। छलावा था टोना था, जादू था, आखिर था क्या? इतने में बूढ़े मियाँ ने इशारे से कहा कि बस, अब जाओ और तड़के आओ।
दोनों दोस्त घर की तरफ चले, तो मियाँ हँसोड़ ने कहा – हजरत, खुदा के वास्ते मेरे घर पर कूद-फाँद न कीजिएगा, बहुत शेर न पढ़िएगा, कहीं मेरी बीवी को खबर हो गई, तो जीना मुश्किल हो जाएगा।
आजाद – क्या बीवी से आप इतना डरते हैं! आखिर खौफ काहे का?
हँसोड़ – आपको इस झगड़े से क्या मतलब? वहाँ जरा भले आदमी की तरह बैठिएगा, यह नहीं कि गुल मचाने लगे। जो सुनेगा, वह समझेगा कि कहाँ के शोहदे जमा हो गए हैं।
आजाद – समझ गया, आप बीवी के गुलाम है। मगर हमें इससे क्या वास्ता। आम खाने से मतलब कि पेड़ गिनने से?
दोनों आदमी घर पहुँचे, तो लौंडी ने अंदर से आ कर कहा – बेगम साहबा आपको कोई बीस बेर पूछ चुकी हैं। चलिए, बुलाती है। मियाँ हँसोड़ ने ड्योढ़ी पर कदम रखा ही था कि उनकी बीबी ने आड़े हाथों ही लिया। यह दिन-दिन भर आप कहाँ गायब रहने लगे? अब तो आप बड़े सैलानी हो गए। सुबह के निकले-निकले शाम को खबर ली। चलो, मेरे सामने से जाओ। आज खाना-वाना खैर-सल्लाह हैं। हलवाई की दुकान पर दादा जी का फातिहा पढ़ो, तंदूरी रोटियाँ उड़ाओ। यहाँ किसी को कुत्ते ने नहीं काटा कि वक्त-बे-वक्त चूल्हे का मुँह काला किया जाए। भले आदमी दो-एक घड़ी के लिए कहीं गए तो गए; यह नहीं कि दिन-दिन भर पता ही नहीं। अच्छे हथकंडे सीखे हैं।
हँसोड़ ने चुपके से कहा – जरा आहिस्ता-आहिस्ता बातें करो। बाहर एक भलामानस टिका हुआ है। इतनी भी क्या बेहयाई?
इस पर वह चमक कर बोली – बस, बस जबान न खुलवाओ बहुत। तुम्हें जो दोस्त मिलता है, वही ग….सवार, जिसके घर न द्वार, जाने कहाँ से उल्फती इनको मिल जाते हैं, कभी किसी शरीफ आदमी से दोस्ती करते नहीं देखा। चलिए, अब दूर हूजिए, नहीं हम बुरी तरह पेश आएँगे। मुझसे बुरा कोई नहीं।
मियाँ हँसोड़ बेचारे की जान अजाब में कि घर में बीवी कोसने सुना रही है, बाहर मियाँ आजाद आड़े हाथों लेंगे कि आपकी बीवी ने आपको तो खैर जो कुछ कहा, यह कहा ही मुझे क्यों ले डाला? मैंने उनका क्या बिगाड़ा था? अपना सा मुँह ले कर बाहर चले आए और आजाद से कहा – यार आज रोजे की नीयत कर लो। बीवी-जान फौजदारी पर आमदा है। बात हुई और तिनक गईं। महीनों ही रूठी रहती हैं। मगर क्या करूँ, अमीर की लड़की हैं, नहीं तो मैं एक झल्ला हूँ। मुझे यह मिजाज कहाँ पसंद। इसलिए भई, आज फाका है।
आजाद – फाका करें आपके दुश्मन। चलिए, किसी नानबाई हलवाई की दुकान पर। मजे से खाना खायँ!
हँसोड़ – अरे यार, इतने ही होते तो बीवी की क्यों सुनते! टका पास नहीं, हलवाई क्या हमारा मामू है?
आजाद – इसकी फिक्र न कीजिए। आप हमारे साथ चलिए और मजे से मिठाई चखिए। वह तदबीर सूझी है कि कभी पट ही न पड़े।
दोनों आदमी बाजार पहुँचे। आजाद ने रास्ते में हँसोड़ को समझा-बुझा दिया। हँसोड़ तो हलवाई की दुकान पर गए और आजाद जरा पीछे रह गए। हँसोड़ ने जाते ही जाते हलवाई से कहा – मियाँ आठ आने के पैसे दो और आठ आने की पँचमेल मिठाई। हलवाई ने ताजी-ताजी मिठाई तौल दी और आठ आने पैसे भी गिन दिए। हँसोड़ ने पैसे तो गाँठ में बाँधे और मिठाई उसी की दुकान पर चखने लगे। इतने में मियाँ आजाद भी पहुँचे और बोले – भई लाला, जरा हमें बेसन के लड्डू तो एक रुपए का तौल देना। उसने एक रुपए के बेसन के लड्डू चंगेर उनके हाथ में दी। इतने में मियाँ हँसोड़ ने लकड़ी उठाई और अपनी राह चले। हलवाई ने ललकारा – मियाँ, चले कहाँ? पहले रुपया तो देते जाओ।
हँसोड़ – रुपया! अच्छा मजाक है! अबे, क्या तूने रुपया नहीं पाया। यहाँ पहले रुपया देते हैं, पीछे सौदा लेते हैं। अच्छे मिले! क्या दो-दो दफे रुपया लोगे? कहीं मैं थाने में रपट न लिखवा दूँ! मुझे भी कोई गँवार समझे हो! अभी चेहरेशाही दे चुका हूँ। अब क्या किसी का घर लेगा?
अब हलवाई और हँसोड़ में तकरार होने लगी। बहुत से आदमी जमा हो गए। कोई कहता है, लाला घास तो नहीं खा गए हो; कोई कहता है, मियाँ एक रुपए के लिए नियत डामाडोल न करो; ईमान सलामत रहेगा, तो बहुत रुपए मिलेंगे।
आजाद – लाला, कहीं इसी तरह मेरा भी रुपया न भूल जाना।
हलवाई – क्या आपका रुपया? आपने रुपया किसको दिया?
अब जो सुनता है, वही हलवाई को उल्लू बनाता है। लोगों ने बहुत कुछ लानत-मलानत की कि शरीफ आदमी को बेइज्जत करते हो। इतने में उस हलवाई का बुड़्ढा बाप आया, तो देखता क्या है कि दुकान पर भीड़ लगी हुई है। पूछा, क्या माजरा है? क्या दुकान लुट गई? एक बिगड़े-दिल ने कहा – अजी, लुट तो नहीं गई मगर अब तुम्हारी दुकान की साख जाती रही! अभी एक भलेमानस ने खन से रुपया फेका। अब कहता है कि हमने रुपया पाया ही नहीं। उसको छोड़ा, तो दूसरे शरीफ का दामन पकड़ लिया कि तुमने रुपया नहीं दिया; हालाँकि वह बेचारे सैकड़ों कसमें खाते हैं कि मैं दे चुका हूँ। हलवाई बड़ा तीखा बुड्ढा था, सुनते ही आग हो गया। झल्ला कर अपने लड़के की खोपड़ी पर तान के एक चपत लगाई और बोला – कहता हूँ कि भंग न खाया कर, मानता ही नहीं। जा कर बैठ दुकान पर।
मियाँ आजाद और हँसोड़ ने मजे से डेढ़ रुपए की मिठाई बाँध ली, और आठ आने के पैसे घाते में। जब घर पहुँचे, तो खूब मिठाई चखी। बची बचाई अंदर भेज दी। हँसोड़ ने कहा – यार इसी तरह कहीं से रुपया दिलवाओ, तो जानें। आजाद ने कहा – यह कितनी बड़ी बात है? अभी चलो। मगर किसी से माँग-मूँग कर कुछ अशर्फियाँ बाँध लो। मियाँ हँसोड़ ने अपने एक दोस्त से शाम को लौटा देने के वादे पर कुछ अशर्फियाँ लीं! दोनों ने रोशनअली को साथ लिया और बाजार चले। पहले एक महाजन को अशर्फियाँ दिखाईं और परखवाईं। बेचते हैं, खरी-खोटी देख लीजिए। महाजन ने उनको खूब कसौटी पर कसा और कहा – उन्नीस के हिसाब से लेंगे। इसके बाद आजाद ने तो अशर्फियाँ ले कर घर की राह ली और मियाँ हँसोड़ एक कोठी में पहुँचे। वहाँ कहा कि हमको दो सौ अशर्फियाँ खरीदनी हैं। महाजन ने देखा, आदमी शरीफ है, फौरन दो सौ अशर्फियाँ उनके समने ढेर कर दीं। बीस रुपए की दर बताई। हँसोड़ ने महाजन के मुनीम से एक पर्चे पर हिसाब लिखवाया और अशर्फियाँ बाँध कर कोठी के बाहर पहुँचे। गुल मचा – हाँय-हाँय, लेना-लेना, कहाँ-कहाँ! मियाँ हँसोड़ पैंतरा बदल सामने खड़े हो गए। बस, दूर ही से बातचीत हो। सामने आए और मैंने तुला हाथ दिया।
महाजन – ऐ साहब, रुपए तो दीजिए?
हँसोड़ – कैसे रुपए? हम नहीं बेचते।
महाजन – क्या कहा, नहीं बेचते? क्या अशर्फियाँ आपकी हैं?
हँसोड़ – जी, और नहीं तो क्या आपके बाप की हैं? हम नहीं बेचते, आपका इजारा है कुछ? आप हैं कौन जबर्दस्ती करनेवाले?
इतने में आजाद भी वहाँ आ पहुँचे। देखा, तो महाजन और उनके मुनीम जी गुल मचा रहे हैं – तुम अशर्फियाँ लाए कब थे? और हँसोड़ कह रहे हैं, हम नहीं बेचते। सैकड़ों आदमी जमा थे। पुलिस का एक जमादार भी आ मौजूद हुआ।
जमादार – यह क्या झगड़ा है लाला चुन्नामल? वह नहीं बेचते, तो जबर्दस्ती क्यों करते हो? अपने माल पर सबको अख्तियार है।
महाजन – अच्छी पंचायत करते हो जमादार! यहाँ चार हजार रुपए पर पानी फिरा जाता है, आप कहते हैं, जाने भी दो। ये अशर्फियाँ तो हमारी हैं। यह मियाँ खरीदने आए थे, हमने गिन दीं। बस, बाँध बूँध कर चल खड़े हुए।
एक आदमी – वाह, भला कोई बात भी है! यह अकेले, आप दस। जो ऐसा होता, तो यह कोठी के बाहर भी आने पाते? आप सब मिल कर इनका अचार न निकाल लेते? इतने बड़े महाजन, और दो सौ अशर्फियों के लिए ईमान छोड़े देते हो!
जमादार – बुरी बात!
हँसोड़ – देखिए, आप बाजार भर में दरियाफ्त कर लें कि हमने कितनी दूकानों में अशर्फियाँ दिखलाई और परखवाई हैं? बाजार भर गवाह है, कुछ एक-दो आदमी वहाँ थोड़े थे? इसको भी जाने दीजिए। यह पर्चा पढ़िए। अगर यह बेचते होते, तो बीस की दर से हिसाब लगाते, या साढ़े उन्नीस से? मुफ्त में एक शरीफ के पीछे पड़े हैं, लेना एक ना देना दो।
आखिर यह तय हुआ कि बाजार में चल कर तहकीकात की जाय। मियाँ हँसोड़ साहूकार, उनके मुनीम, जमादार और तमाशाई, सब मिलकर बाजार चले। वहाँ तहकीकात की, तो दलालों और दुकानदारों ने गवाही दी कि बेशक इनके पास अशर्फियाँ थीं और इन्होंने परखवाई भी थीं। अभी-अभी यहाँ से गए थे।
जमादार – लाला साहब, अब खैर इसी में है कि चुपके रहिए; नहीं तो बेढब ठहरेगी। आपकी साख जायगी और मुनीम की शामत आ जायगी।
महाजन – क्या अंधेर है! चार हजार रुपयों पर पानी पड़ गया, इतने रुपए कभी उम्र भर में नहीं जमा किए थे, और जो है, हमी को उल्लू बनाता है। खैर साहब, लीजिए, हाथ धोये!
तीनों आदमी घर पहुँचे, तो बाँछें खिली जाती थीं। जाते ही दो सौ अशर्फियाँ खन-खन करके डाल दीं।
आजाद – देखा, यों लाते हैं। अब ये अशर्फियाँ हमारी भाभीजान के पास रखो।
हँसोड़ – भाई, तुम एक ही उस्ताद हो। आज से मैं तुम्हारा शागिर्द हो गया।
आजाद – ले, भाभी से तो खुश-खबरी कह दो। बहुत मुँह फुलाए बैठी थीं।
मियाँ हँसोड़ ने घर में जा कर कहा – कहाँ हो! क्या सो रहीं?
बीवी – क्या कमाई करके लाए हो, डपट रहे हो?
हँसोड़ – (अशर्फियाँ खनका कर) लो, इधर आओ, बहुत मिजाज न करो। ये लो, दस हजार रुपए की अशर्फियाँ।
बीवी – ये बुत्ते किसी और को दीजिएगा! ये तो वही हैं, जो अभी मिर्जा के यहाँ से मँगवाई थीं।
हँसोड़ – वह यह हैं, इधर।
बीवी – देखूँ, (खिलखिला कर) किसी के यहाँ फाँदे थे क्या? आखिर लाए किसके घर से? बस, चुपके से हमारे संदूकचे में रख दो।
हँसोड़ – क्यों न हो, मार खायँ गाजी मियाँ, माल खायँ मुजाविर।
बीवी – सच बताओ, कहाँ मिल गई? तुम्हें हमारी कसम!
हँसोड़ – यह उन्हीं की करामात है, जिन्हें तुम शोहदा और लुच्चा बनाती थीं।
बीवी – मियाँ, हमारा कुसूर माफ करो। आदमी की तबीयत हमेशा एक सी थोड़े ही रहती हैं। मैं तो तुम्हारी लौंडी हूँ।
आजाद – (बाहर से) हम भी सुन रहे हैं भाभी साहब! अभी तो आपने हमारे भाई बेचारे को डपट लिया था, घर से बाहर कर दिया था; हमको जो गालियाँ दीं, सो घाते में। अब जो अशर्फियाँ देखीं, तो प्यारी बीवी बन गईं। अब इनके कान न गरमाइएगा; यह बेचारे बेबाप के हैं।
बीबी ने अंदर से कहा – आप हमारे मेहमान हैं। आपको क्या कहूँ, आपकी हँसी सिर आँखों पर।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 24
बड़ी बेगम साहबा पुराने जमाने की रईसजादी थीं, टोने टोटके में उन्हें पूरा विश्वास था। बिल्ली अगर घर में किसी दिन आ जाय, तो आफत हो जाय। उल्लू बोला और उनकी जान निकली। जूते पर जूता देखा और आग हो गईं। किसी ने सीटी बजाई और उन्होंने कोसना शुरू किया। कोई पाँव पर पाँव रख कर सोया और आपने ललकारा। कुत्ता गली में रोया और उनका दम निकल गया। रास्ते में काना मिला ओर उन्होंने पालकी फेर दी। तेली की सूरत देखी और खून सूख गया। किसी ने जमीन पर लकीर बनाई और उसकी शामत आई। रास्ते में कोई टोक दे, तो उसके सिर हो जाती थीं। सावन के महीने में चारपाई बनवाने की कसम खाई थी। जब देखा कि लड़कियाँ सयानी हो गईं तो शादी की फिक्र हुई। ऊँचे-ऊँचे घरों से पैगाम आने लगे। बड़ी लड़की हुस्नआरा की शादी एक रईस के लड़के से तय हो गई। हुस्नआरा पढ़ी-लिखी औरत थी। उसे यह कब मंजूर हो सकता था कि बिना देखे-भाले शादी हो जाय। जिसकी सूरत ख्वाब में भी नहीं देखी, जिसकी लियाकत और आदत की जरा भी खबर नहीं, उसके साथ हमेशा के लिए बाँध दी जाऊँगी। सहेलियाँ तो उसे मुबारकबाद देती थीं और उसकी जान पर बनी हुई थी। या खुदा, किससे अपने दिल का दर्द कहूँ? बोलूँ; तो अड़ोस-पड़ोस की औरतें ताने दें कि यह लड़की तो सवार को खड़े-खड़े घोड़े पर से उतार ले। दिल ही दिल में बेचारी कुढ़ने लगी। अपनी छोटी बहन सिपहआरा से अपना दुःख कहती थी और दोनों बहनें गले मिल कर रोती थीं।
एक दिन दोनों बहनें बैठी हुई अखबार पढ़ रही थीं। उसमें एक शरीफ लड़के की दास्तान छपी हुई थी। पढ़ने लगीं –
‘यह हजरत दो बार कैद भी रह चुके हैं, और अफसोस तो यह है कि एक रईस के साहबजादे हैं। परसों रात को आपने यह शरारत की कि एक रईस के यहाँ कूदे और कोठरी का ताला तोड़ कर अंदर घुसने लगे। महाजन की लड़की ने जो आहट पाई तो कुलबुला कर उठ खड़ी हुई और अपनी माँ को जगाया। जरी जागे तो, बिल्ली ने तेल का घड़ा गिरा दिया; बिल-बिल! उसकी माँ गड़बड़ा कर जो उठी तो आप कोठरी के बाहर एक चारपाई के नीचे दबक रहे। उसने अपने लड़के को जगाया। वह जवान ताल ठोक कर चारपाई पर से कूदा, चोर का कलेजा कितना? आप चारपाई के नीचे से घबरा कर निकले। महाजन का लड़का भी उनकी तरफ झपट पड़ा और उन्हें उठा कर दे मारा। तब उस बदमाश ने कमर से छुरी निकाली और उस महाजन के पेट में भोंक दी। आनन-फानन जान निकल गई। पड़ोसी और चौकीदार दौड़ पड़े और उस शरीफजादे को गिरफ्तार कर लिया। अब वह हवालात में है। अफसोस की बात तो यह है कि उसकी शादी नवाब फरेदूँजंग की लड़की से करार पाई थी जिसका नाम हुस्नआरा है।’
यह लेख पढ़ कर हुस्नआरा आठ-आठ आँसू रोने लगी। उसकी छोटी बहन उसके गले से चिमट गई और उसको बहुत कुछ समझा-बुझा कर अपनी बूढ़ी माँ के पास गई। अखबार दिखा कर बोली – देखिए, क्या गजब हो गया था, आपने बेदेखे-भाले शादी मंजूर कर ली थी। बूढ़ी बेगम ने यह हाल सुना, तो सिर पीट कर बोलीं – बेटी, आज तड़के जब मैं पलंग से उठी, तो पट से किसी ने छींका और मेरी बाईं आँख भी फड़कने लगी। उसी दम पाँव-तले मिट्टी निकल गई। मैं तो समझती ही थी कि आज कुछ असगुन होगा। चलो, अल्लाह ने बड़ी खैर की। हुस्नआरा को मेरी तरफ से छाती से लगाओ और कह दो कि जिसे तुम पसंद करोगी, उसी के साथ निकाह कर दूँगी।
सिपहआरा अपनी बहन के पास आई, तो बाँछें, खिली हुई थीं। आते ही बोली – लो बहन, अब तो मुँह-माँगी मुराद पाई? अब उदास क्यों बैठी हो? खुदा-कसम, वह खुश-खबरी सुनाऊँ कि जी खुश हो जाय।
हुस्नआरा – ऐ है, तो कुछ कहोगी भी। यहाँ क्या जाने, इस वक्त किस गम में बैठे हैं, यह खुशी का कौन मौका है?
सिपहआरा – ऐ वाह, हम यों बता चुके। बिना मिठाई लिए न बतावेंगे। अम्माँजान ने कह दिया कि आप जिसके साथ जी चाहे, शादी कर लें। वह अब दखल न देंगी। हाँ, शरीफजादा और कल्ले-ठल्ले का जवान हो।
हुस्नआरा – खूबसूरती औरतों में देखी जाती है, मरदों को इससे क्या काम? हाँ, काला-कलूटा न हो, बस।
सिपहआरा – यह आप क्या कहनी हैं। ‘आदमी-आदमी अंतर, कोई हीरा कोई कंकर।’ क्या चाँद में गरहन लगाओगी?
हुस्नआरा – ऐ, तो सूत न कपास, कोरी से लठम-लठा!
इतने में बूढ़े मियाँ परीबख्श ने आवाज दी – बेटी, कहाँ हो, मैं भी आऊँ?
सिपहआरा – आओ, आओ, तुम्हारी ही तो कसर थी। आज सबेरे-सबेरे कहाँ थे? कल तो बजरा ऐसा डाँवाडोल होता था, जैसे तिनका बहा चला जाता है। कलेजा धक-धक करता था।
पीरबख्श – तुमसे कुछ कहना है बेटी! देखो, तुम हमारी पोतियों से भी छोटी हो। तुम दोनों को मैंने गोदियों खिलाया है, और तुम्हारी माँ हमारे सामने ब्याह आई हैं। तुम दोनों को मैं अपने बेटे से ज्यादा चाहता हूँ मैं जो कहूँ, उसे कान लगा कर सुनना। तुम अब सयानी हुई। अब मुझे तुम्हारी शादी की फिक्र है। पहले तुमसे सलाह ले लूँ, तो बेगम साहब से अर्ज करूँ। यों तो कोई लड़की आज तक बिन ब्याही नहीं रही; लेकिन वर उन्हीं लड़कियों को अच्छा मिलता है, जो खुश-नसीब हैं। तुम्हारी माँ हैं तो पुरानी लकीर की फकीर, मगर यह मेरा जिम्मा कि जिसे तुम पसंद करो, उसे वह भी मंजूर कर लेंगी। आजकल यहँ एक शरीफ नौजवान आकर ठहरे हैं। सूरत शाहजादों की सी आदत फरिश्तों की सी, चलन भलेमानसों का सा, बदन छरहरा, दाढ़ी-मूँछ का नाम नहीं। अभी उठती जवानी है। शेर कहने में, बोलचाल में, इल्म व कमाल में अपना सानी नहीं रखते। तसवीर ऐसी खींचें कि बोल उठे। बाँक-पटे में अच्छे-अच्छे बाँकों के दाँत खट्टे कर दिए। उनकी नस-नस में खूबियाँ कूट-कूट कर भरी हैं। अगर हुस्नआरा के साथ उनका निकाह हो जाय, तो खूब हो। पहले तुम देख लो। अगर पसंद आए, तो तुम्हारी माँ से जिक्र करूँ। हाँ, यह वही जवान हैं, जो बजरे के साथ तुमको देखते हुए बाग में जा रहे थे। याद आया?
हुस्नआरा – वहाँ तो बहुत से आदमी थी, क्या जाने, किसको कहते हो। बेदेखे-भाले कोई क्या कहे।
सिपहआरा – मतलब यह कि दिखा दो। भला देखें तो, हैं कैसे!
पीरबख्श – ऐसे जवान तो हमनेाज तक कभी देखे न थे। वह नूर है कि निगाह नहीं ठहरती। कसम खुदा की, जो बात करे, रीझ जाय।
हुस्नआरा – हम बतावें, जब हम बजरों पर हवा खाने चलें तो उन्हें भी वहाँ लाओ? हम उनको देख लें, तब तुम अम्माँ से कहो।
यहाँ ये बातें हो रही थीं, उधर मियाँ आजाद अपने हँसोड़ दोस्त के साथ इसी कोठी की तरफ टहलते चले आ रहे थे। रास्ते में आठ-दस गधे मिले। गधे वाला उन सबों पर कोड़े फटकार रहा था। आजाद ने कहा – क्यों भई, आखिर इन गधों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, जो पीटते जाते हो? कुछ खुदा का भी खौफ है, या नहीं? गधेवाले ने इसका तो कुछ जवाब न दिया, गद से एक और जमाई। तब तो मियाँ आजाद आग हो गए। बढ़ कर गधेवाले के कई चाँटे लगाए, अबे आखिर इनमें जान है या नहीं? अगर न चलते, तो हम कहते – खैर यों ही सही; खासे जा रहे हैं खटाखट, और आप पीट रहे हैं।
हँसोड़ – आप कौन होते हैं बोलनेवाले? उसके गधे हैं, जो चाहता है, करता है।
आजाद – भई, हमसे तो यह नहीं देखा जाता कि किसी बेजबान पर कोई आदमी जुल्म करे और हम बैठे देखा करें।
कोई दस ही कदम आगे बढ़े होंगे कि देखा, एक चिड़ीमार कंपे में लासा लगाए, टट्टी पर पत्ते जमाए चिड़ियों को पकड़ता फिरता हे। मियाँ आजाद आग भभूका हो गए। इतने में एक तोता जाल में आ फँसा। तब तो मियाँ आजाद बौखला गए। गुल मचा कर कहा -ओ चिड़ीमार, छोड़ दे इस तोते को, अभी-अभी छोड़। छोड़ता है या आऊँ? चिड़ीमार हक्का-बक्का हो गया। बोला – साहब, यह तो हमारा पेशा है। आखिर इसको छोड़ दें, तो करें फिर क्या? आजाद बोले – भीख माँग, मजदूरी कर, मगर यह पेशा छोड़ दे। यह कह कर आपने झोला, कंपा, जाल, सब छीन-छान लिया। झोले को जो खोला तो, सब जानवर फुर से उड़ गए। इतना ही नहीं, कंपे को काट-कूट कर फेका, जाल को नोच-नाच कर बराबर किया। तब जेब से निकाल कर दस रुपए चिड़ीमार को दिए और बड़ी देर तक समझाया।
हँसोड़ – यार, तुम बड़े बेढब आदमी हो। मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि तुम सनक गए हो।
आजाद – भई, तुम समझते ही नहीं कि मेरा असल मतलब क्या है?
हँसोड़ – आप अपना मतलब रहने दीजिए। मेरा-आपका साथ न होगा। कहीं आप किसी बिगड़े-दिल से भिड़ पड़े, तो आपके साथ मेरी भी शामत आ जायगी।
आजाद – अच्छा, गुस्से को थूक दीजिए। चलिए हमारे साथ।
हँसोड़ – अब तो रास्ते में न लड़ पड़िएगा?
आजाद – कह तो दिया कि नहीं।
दोनों आदमी आगे चले, तो क्या देखते हैं, राह में एक गाड़ीवान बैल की दुम ऐंठ रहा है। आजाद ने ललकारा। अबे ओ गाड़ीवान, खबरदार, जो आज से बैल को दुम ऐंठी।
हँसोड़ – फिर वही बात! इतनी जल्दी भूल गए?
आजाद चुप हो गए। दोनों आदमी चुपचाप चलने लगे। थोड़ी देर में कोठी के करीब जा पहुँचे। एकाएक बूढ़े मियाँ परीबख्श आते दिखाई दिए। अलेक-सलेम के बाद बातें होने लगीं।
आजाद – कहिए, उधर भी गए थे?
पीरबख्श – हाँ साहब, गया क्यों न था। सबेरे-सबेरे जा पहुँचा और आपकी इतनी तारीफ की कि पुल बाँध दिए। और फिर आप जानिए, गोकि बंदा आलिम नहीं, फाजिल नहीं, मुंशी नहीं, लेकिन बड़े-बड़े आलिमों की आँखें तो देखी हैं, ऐसी लच्छेदार बातें की कि आपका रंग जम गया। अब आपको देखने को बेकरार हैं। हाँ, एक बुरी पख यह हैं कि आपका इम्तिहान लेंगी। ऐसा न हो कि वह कुछ पूछ बैठें और आप बगलें झाँकने लगें।
हँसोड़ – भई, इम्तिहान का तो नाम बुरा। शायद रह गए,तो फिर?
आजाद – फिर आपका सिर! रह जाने की एक ही कही। इम्तिहान के नाम से आप जैसे गौखों की जान निकलती है या मेरी?
पीरबख्श – तो मैं जा कर कह दूँ कि वह आए हैं।
यह कह कर पीरबख्श घर में गए और कहा – वह आए हैं, कहो, तो बुला लाऊँ।
सिपहआरा ने कहा – अजनबी का खट से घर में चला आना बुरा। पहले उनसे कहिए, चल कर बाग की सैर करें।
पीरबख्श बाहर गए और मियाँ आजाद को ले कर बाग में टहलने लगे। दोनों बहनें झरोखों से देखने लगीं। सिपहआरा बोली – बहन, सचमुच यह तो तुम्हारे लायक हैं। अल्लाह ने यह जोड़ी अपने हाथों से बनाई है।
हुस्नआरा – ऐ वाह, कैसी नादान हो! भला शादी-ब्याह भी यों हुआ करते हैं?
सिपहआरा – मैं एक न मानूँगी।
हुस्नआरा – मुझसे क्यों झगड़ती हो, अम्माँजान से कहो।
सिपहआरा – अच्छा, तो मैं अम्माँजान के यहाँ जाती हूँ, मगर देखिए, मुकर न जाइएगा।
यह कहकर सिपहआरा बड़ी बेगम के पास पहुँची और आजाद का जिक्र छेड़ कर बोली। अम्माँजान, मैंने तो आज तक ऐसा खूबसूरत आदमी देखा ही नहीं। शरीफ, हँसमुख और पढ़े-लिखे। आप भी एक दफे देख लें।
बड़ी बेगम ने सिपहआरा को छाती से लगाया और हँस कर कहा – तू मुझसे उड़ती है? यह क्यों नहीं कहती कि सिखाई पढ़ाई आई हूँ।
सिपहआरा – नहीं अम्माँजान, आप उन्हें जरूर बुलाएँ।
बेगम – हुस्नआरा से भी पूछा? वह क्या कहती हैं?
सिपहआरा – वह तो कहती हैं, अम्माँजान जिससे चाहें, उससे करें। मगर दिल उनका आया हुआ है।
बेगम – अच्छा, बुलवा लो।
सिपहआरा वहाँ से लौटी, तो मारे खुशी के उछली पड़ती थी। फौरन पीरबख्श को बुला कर कहा – आप मियाँ आजाद को अंदर लाइए। अम्माँ-जान उन्हें देखना चाहती हैं।
जरा देर में पीरबख्श मियाँ आजाद को लिए हुए बेगम के पास पहुँचे। आजाद – आदाब बजा लाता हूँ।
बेगम – जीते रहो बेटा! आओ, इधर आकर बैठो। मिजाज तो अच्छे हैं? सिपहआरा तुम्हारी बड़ी तारीफ करती थी, और बेशक तुम हो इस लायक। तुमको देख कर तबीयत बहुत खुश हुई।
आजाद – आपकी जियारत का बहुत दिनों से शौक था। सच है, बड़े-बूढ़ों की क्या बात है!
बेगम – क्यों बेटा, हाथी को ख्वाब में देखे, तो कैसा?
आजाद – बहुत बुरा। मगर हाँ, अगर हाथी किसी पर अपनी सूँड़ फेर रहा हो, तो समझना चाहिए कि आई हुई बला टल गई।
बेगम – शाबाश, तुम बड़े लायक हो।
बेगम साहब ने मियाँ आजाद को बड़ी देर तक बिठाया और साथ ही खाना खिलाया। आजाद हाँ में हाँ मिलाते जाते थे और दिल ही दिल में खिलखिलाते थे। जब शाम हुई, तो आजाद रुखसत हुए।
आसमान पर बादल छाये हुए थे, तेज हवा चल रही थी, मगर दोनों बहनों को बजरे पर सैर करने की धुन समाई। दरिया के किनारे आ पहुँचीं। पीरबख्श ने बजरा खोला और दोनों बहनों को बिठा कर सैर कराने लगे। बजरा बहाव पर फर्राटे से बहा जाता था। ठंडी-ठंडी हवाएँ, काली-काली घटाएँ, सिपहआरा की प्यारी-प्यारी बातें, बूँदों का गिरना, लहरों का थिरकना अजब बहार दिखाता था। इतने में हवा ने वह जोर बाँधा कि मेढ़ा उछलने लगा। अब बजरे कि यह हालत है कि डाँवाडोल हो रहा है। यह डूबा, वह डूबा। पीरबख्श था तो खुर्राट, लेकिन उसके भी हाथ-पाँव फूल गए, सर-दरिया की कहानियाँ सब भूल गए। दोनों बहनें काँपने लगीं। एक-दूसरे को हसरत की निगाह से देखने लगीं। दोनो की दोनों रो रही थीं। मियाँ आजाद अभी तक दरिया के किनारे टहल रहे थे। बजरे को पानी में चक्कर खाते देखा, तो होश उड़ गए। इतने में एक दफे बिजली चमकी। सिपहआरा डर कर दौड़ी, मगर मारे घबराहट के नदी में गिर पड़ी। डूबते ही पहले गोता खाया और लगी हाथ-पाँव फटफटाने। जरा देर के बाद फिर उभरी और फिर गोता खाया। आजाद ने यह कैफियत देखी, तो झटपट कपड़े उतार कर धम से कूद ही तो पड़े। पहली डुबकी मारी, तो सिपहआरा के बाल हाथ में आए उन्होंने झप से जुल्फ को पकड़कर खींचा, तो वह उभरी। यह वही सिपहआरा है, जो किसी अनजान आदमी को देख कर मुँह छिपा लेती और फुर्ती से भाग जाती थी। मियाँ आजाद उसे साथ लिए, मल्लाही चीरते और खड़ी लगाते बजरे की तरफ चले। लेकिन बजरा हवा से बातें करता चला जाता था। पानी बल्लियों उछलता था। आजाद ने जोर से पुकारा – ओ मियाँ परीबख्श, बजरा रोको, खुदा के वास्ते रोको, पीरबख्श के होश-हवास उड़े हुए थे। बजरा खुदा की राह पर जिधर चाहता था, जाता था। मियाँ आजाद बहुत अच्छे तैराक थे; लेकिन बरसों से आदत छुटी हुई थी। दम फूल गया। इत्तिफाक से एक भँवर में पड़ गए। बहुत जोर मारा, मगर एक न चल सकी। उस पर एक मुसीबत यह और हुई कि सिपहआरा छूट गई। आजाद की आँखों से आँसू निकल पड़े। फिर बड़ी फुर्ती से झपटे, लाश को उभारा और लादकर चले। मगर अब देखते हैं, तो बजरे का कहीं पता ही नहीं। दिल में सोचे, बजरा डूब गया और हुस्नआरा लहरों का लुकमा बन गई। अब मैं सिपहआरा को लादे-लादे कहाँ तक जाऊँ, लेकिन दिल में ठान ली कि चाहे बचूँ, चाहे डूबूँ, सिपहआरा को न छोड़ूँगा। फिर चिल्लाए – यारो, कोई मदद को आओ। एक बुड्ढा आदमी किनारे पर खड़ा यह नजारा देख रहा था। आजाद को इस हालत में देखकर आवाज दी। शाबाश बेटा, शाबाश! में अभी आता हूँ। यह कह कर उसने कपड़े उतारे और लँगोट बाँध कर धम से कूद ही तो पड़ा। उसकी आवाज का सुनना था कि मियाँ आजाद को ढारस हुआ, वह तेजी के साथ चलने लगे। बुड्ढे आदमी ने दो ही हाथ खड़ी के लगाए थे कि साँस फूल गई और पानी ने इस जोर से थपेड़ा दिया कि पचास गज के फासले पर हो रहा। अब न आजाद को वह सूझता है और न उसको आजाद नजर आते हैं। मल्लाह ने बजरे पर से बुड्ढे को देख लिया। समझा कि मियाँ आजाद हैं। पुकारा – अरे भई आजाद, जोर करके इधर आओ। बुड्ढे ने बहुत हाथ-पैर मारे, मगर न जा सका। तब पीरबख्श ने डाँड़ सँभाले और बुड्ढे की तरफ चले मगर अफसोस, दो-चार ही हाथ रह गया था कि एक मगर ने भाड़ सा मुँह खोल कर बुड्ढे को निगल लिया। मल्लाह ने सिर पीटकर रोना शुरू किया – हाय आजाद, तुम भी जुदा हुए, बेचारी सिपहआरा का साथ दिया, वह आवाज मियाँ आजाद के कानों में भी पड़ी। समझे, वही बुड्ढा जो टीले पर से कूदा था, चिल्ला रहा है। इतने में बजरा नजर आया तो बाग-बाग हो गए। अब यह बिलकुल बेदम हो चुके थे; लेकिन बजरे को देखते ही हिम्मत बँध गई। जोर से खड़ी लगानी शुरू की। बजरे के करीब आए, तो पीरबख्श ने पहचाना। मारे खुशी के तालियाँ बजाने लगे। आजाद ने सिपहआरा को बजरे में लिटा दिया और दोनों ने मिल कर उसके पेट से पानी निकाला। फिर लिटा कर अपने बैग में से कोई दवा निकाली और उसे पिला दी। अब हुस्नआरा की फिक्र हुई। वह बेचारी बेहोश पड़ी हुई थी। आजाद ने उसके मुँह पर पानी के छींटे दिए, तो जरा होश आया। मगर आँखें बंद। होश आते ही पूछा – प्यारी सिपहआरा कहाँ है? आजाद जीते बचे? पीरबख्श ने पुकार कर कहा – आजाद तुम्हारे सिरहाने बैठे हैं और सिपहआरा तुम्हारे पास लेटी हैं। इतना सुनना था कि हुस्नआरा ने आँख खोली और आजाद को देख कर बोली – आजाद, मेरी जान अगर तुम पर से फिदा हो जाय, तो इस वक्त मुझे उससे ज्यादा खुशी हो, जितनी सिपहआरा के बच जाने से हुई। मैं सच्चे दिल से कहती हूँ, मुझे तुमसे सच्ची मुहब्बत है।
इतने में दवा का असर जो पहुँचा, तो सिपहआरा भी आहिस्ता से उठ बैठी। दोनों बहनें गले मिल कर रोने लगीं। हुस्नआरा बार-बार आजाद की बलाएँ लेती थी। मैं तुम पर वारी हो जाऊँ, तुमने आज वह किया, जो दूसरा कभी न करता। हवा बँध गई थी, बजरा आहिस्ता-आहिस्ता किनारे पर आ लगा। आजाद ने घास पर लेट कर कहा। उफ, मर मिटे?
हुस्नआरा – बेशक सिपहआरा की जान बचाई, मेरी जान बचाई, इस बेचारे बुड्ढे की जान बचाई। इससे बढ़ कर अब और क्या होगा!
पीरबख्श – मियाँ आजाद, खुदा तुमको ऐसा बुड्ढा करे कि तुम्हारे परपोते मुझसे बड़े हो-होकर तुम्हारे सामने खेलें। मैंने कुछ और ही समझा था। एक आदमी तैरता हुआ जाता था। मैंने समझा, तुम हो।
आजाद – हाँ, हाँ, मैं तो उसे भूल ही गया था। फिर वह कहाँ गया?
पीरबख्श – क्या कहूँ, उसको तो एक मगर निगल गया।
आजाद – अफसोस! कितना दिलेर आदमी था। मुझे मुसीबत में देख कर धम से कूद पड़ा।
सिपहआरा – मुझ नसीबों-जली के कारण उस बेचारे की जान मुफ्त में गई। मेरी आँखों में अँधेरा सा छाया हुआ है। इस दरिया का सत्यानाश हो जाय! जिस वक्त मैं अपना गिरना और गोते लगाना याद करती हूँ, तो रोएँ खड़े हो जाते हैं। पहले तो मैंने खूब हाथ-पाँव मारे, मगर जब नीचे बैठ गई तो मुँह में पानी जाने लगा। मैंने दोनों हाथों से मुँह बंद कर लिया। फिर मुझसे कुछ याद नहीं।
हुस्नआरा – बड़े गाढ़े वक्त काम आए।
पीरबख्श – अब आप जरा सो रहिएगा, तो थकावट कम हो जाएगी।
तीनों आदमी थक कर चूर हो गए थे। वहीं हरी-हरी घास पर लेटे, तो तीनों की आँख लग गई। चार घंटे तक सोते रहे। जब नींद खुली, तो घर चलने की ठहरी। पीरबख्श ने कहा – इस वक्त तो बजरे पर सवार होना हिमाकत है। सड़क-सड़क चलें।
आजाद – अजी, तो क्या हर दम तूफान आया करता है!
दोनों बहनों ने कहा – हम तो इस वक्त बजरे पर न चढ़ेंगे, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय।
आजाद ने कहा – जो इस वक्त झिझक गईं, तो उम्र भर खौफ लगता रहेगा।
हुस्नआरा – चलिए, रहने दीजिए, अब तो मारे थकावट के आपके बदन में इतनी ताकत भी नहीं रही होगी कि किसी की लाश को दो कदम भी ले चलिए। ना साहब, बंदी नहीं जाने की। बजरे की सूरत देखने से बदन काँपता है। हम तुम्हें भी न जाने देंगे।
सिपहआरा – आप बजरे पर बैठे, और हम इधर दरिया में फाँद पड़े!
आखिर यह तय हुआ कि पीरबख्श बजरा लाएँ और तीनों आदमी ऊपर-ऊपर घर की तरफ चलें।
आजाद ने मौका पाया, तो बोले – अब तो हमसे कभी परदा न होगा? हम आपको अपना दिल दे चुके। हुस्नआरा ने कुछ जवाब न दिया, शरमा कर सिर झुका लिया।
रात बहुत ज्यादा बीत गई थी। आजाद पीरबख्श के साथ सोए। सुबह को उठे, तो क्या देखते हैं, हुस्नआरा के साथ उनकी दो फुफेरी बहनें छमाछम करती चली आती हैं। एक का नाम जहानआरा था, दूसरी का गेतीआरा। दोनों बहनों ने आजाद को झरोखे से देखा। तब जहानआरा हुस्नआरा से बोली – बहन, तुम्हारी पसंद को मैं कायल हो गई। ऐसा बाँका जवान हमारी नजर से नहीं गुजरा।
सिपहआरा – हम कहते न थे कि मियाँ आजाद सा तरहदार जवान कम होगा। फिर, मेरी तो उन्होंने जान ही बचाई है। जब तक जिऊँगी, तब तक उनका दम भरूँगी।
इतने में पीरबख्श भी आ पहुँचे। जहानआरा ने उनसे कहा – क्यों जी, इन सन से सफेद बालों में खिजाब क्यों नहीं लगाते? अब तो आप कोई दो सौ से ऊपर होंगे। क्या मरना बिलकुल भूल बैठे? तुम्हें तो मौत ने भी साँड़ की तरह छोड़ दिया।
पीरबख्श – बेटी, बहुत कट गई, थोड़ी बाकी है! यह भी कट जायगी। खिजाब लगा कर रूसियाह कौन हो!
सिपहआरा – आजाद से तो अब कोई परदा है नहीं। उन्हें भी न बुला लें?
गेतीआरा – कभी की जान-पहचान होती, तो मुजायका न था।
आजाद ने सामने से आकर कहा – फकीरों से भी जान-पहचान की जरूरत? फकीरों से कैसा परदा?
गेतीआरा – यह फकीर आप कब से हुए?
आजाद – जब से हसीनों की सोहबत हुई।
गेतीआरा – आप शायर भी तो हैं! अगर तबीयत हाजिर हो, तो इस मिसरे पर एक गजल कहिए –
मरजे-इश्क लादवा देखा।
आजाद – तबीयत की तो न पूछिए, हर वक्त हाजिर रहती है; रहा दिमाग, वह अपने में नहीं। फिर भी आपका हुक्म कैसे टालूँ। सुनिए –
शेख, काबे में तूने क्या देखा;
हम बुतों से मिले; खुदा देखा।
सोज-नाला ने कुछ असर न किया;
हमने यह साज भी बजा देखा।
आह ने मेरी कुछ न काम किया;
हमने यह तीर भी लगा देखा।
हर मरज की दवा मुकर्रर है;
मरजे इश्क लादवा देखा।
शक्ले नाखुन है गरचे अबरुए-यार;
पर न इसको गिरहकुशा देखा।
हमने देखा न आशिके आजाद;
और जो देखा तो मुब्तिला देखा!
गेतीआरा – माशा-अल्लाह, कैसी हजिर तबीयत।
आजाद – इन्साफ के तो यह माने हैं कि मैंने आपको खुश किया, अब आप मुझको खुश करें।
गेतीआरा – आप कुछ फर्माएँ, मैं कोशिश करूँगी।
आजाद – यह तो मेरी सूरत ही से जाहिर है कि अपना दिल हुस्नआरा को दे चुका हूँ।
गेतीआरा – क्यों हुस्नआरा, मान क्यों नहीं जातीं? यह बेचारे तुम्हें अपना दिल दे चुके।
हुस्नआरा – वाह, क्या सिफारिश है! क्यों मान लें, शादी भी कोई दिल्लगी है? मैं बेसमझे-बूझे हाँ न करूँगी। सुनिए साहब, मैं आप की अदा, आपकी वफा, आपकी चाल-ढाल, आपकी लियाकत और शराफत पर दिल ओर जान से आशिक हूँ; मगर यह याद रखिए, मैं ऐसा काम नहीं करना चाहती, जिससे पढ़ी लिखी औरत बदनाम हों। हमें ऐसा चाल-चलन रखना चाहिए, जो औरों के लिए नमूना हो। इस शहर की सब औरतें मुझे देखती रहती हैं कि यह किस तरफ को जाती है। आपको कोई यहाँ जानता नहीं। आप पहले यहाँ शरीफों में इज्जत पैदा कीजिए, आपके यहाँ पंद्रहवें दिन मुशायरा हो और लोग आपको जानें। कोई कोठी किराए पर लीजिए और उसे खूब सजाइए, ताकि लोग समझें कि सलीके का आदमी है और रोटियों को मुहताज नहीं। शरीफजादों के सिवा ऐरों-गैरों से सोहबत न रखिए और हर रोज जुमा की नमाज पढ़ने के लिए मसजिद जाया कीजिए! लेकिन दिखावा भी जरूरी है। एक सवारी भी रखिए और सुबह-शाम हवा खाने जाइए, अगर इन बातों को आप मानें, तो मुझे शादी करने में कुछ उज्र नहीं। यों तो मैं आपके एहसान से दबी हुई हूँ, लेकिन आप समझदार आदमी हैं, इसलिए मैंने साफ-साफ समझा दिया।
आजाद – ऐसे समझदार होने से बाज आए! हम गँवार ही सही। आपने जो कुछ कहा, सब हमें मंजूर है; लेकिन आप भी मुझे कभी-कभी यहाँ तक आने की इजाजत दीजिए और आपकी ये बहनें मुझसे मिला करें।
गेतीआरा – जरी फिर तो कहिएगा! आपको अपनी हुस्नआरा से काम है, या उनकी बहनों से? हुस्नआरा ने आपसे जो कुछ कहा, उसको गौर कीजिए। अभी जल्दी न कीजिए। आप शराब तो नहीं पीते?
आजाद – शराब की सूरत और नाम से नफरत है।
हुस्नआरा – फिर आपके पास बजरे पर कहाँ से आई, जो आपने सिपहआरा को पिलाई।
आजाद – वाह, वह तो दवा थी।
जहानआरा – ऐ बाजी, भैया कब से सो रहा है। जरा जगा दो। दो घड़ी खेलने को जी चाहता है।
गेतीआरा – ना, कही ऐसा गजब भी न करना। बच्चे जब सोते हों, तो उनको जगाना न चाहिए। उनको जगाना उनकी बाढ़ को रोकना है।
हुस्नआरा – इस वक्त हवा बड़े जोर से चल रही है और तुमने भैया को बारीक शरबती पहना दी है। ऐ दिलबहार, फलालेन का कुर्त्ता नीचे पहना दो। यह रुपया कौन भैया के हाथ में दे गया? और जो खेलते-खेलते मुँह में ले जाय तो?
दिलबहार – ऐ हुजूर, छीन तो लूँ, जब वह दे भी। वह तो रोने लगता है।
हुस्नआरा – देखो, हम किस तरकीब से ले लेते हैं, भला रोवे तो, (चुमकार कर) भैया, (तालियाँ बजा कर) भैया, ला, तुझे चीज मँगा दूँ।
यह कह कर हुस्नआरा ने लड़के को गुदगुदाया। लड़का हँस पड़ा और रुपया हाथ से अलग।
दिलबहार – मौसी को कैसे चुपचुपाते रुपया दे दिया और हमने हाथ ही लगाया था कि गुल मचाने लगा।
गेतीआरा – उम्र भर तुमने लड़के पाले, मगर पालना न आया। बच्चों को पालना कुछ हँसी-खेल थोड़े ही है।
दिलबहार – अभी मेरा सिन ही क्या है कि ये बातें जानूँ।
गेतीआरा – देखो, रात को दरख्त के तले बच्चे को न सुलाया करो। बच्चा बीमार हो जाता है।
दिलबहार – हाँ, सुना है, लड़के भूत-प्रेत के झपेट में आ जाते हैं।
हुस्नआरा – झपेट और भूत-प्रेत सब ढकोसला है। रात को दरख्त के नीचे सोना इसलिए बुरा है कि रात को दरख्त से जहरीली हवा निकलती है।
इधर तो ये बातें हो रही थीं, औरतों की तालीम का जिक्र छिड़ा हुआ था, हुस्नआरा औरतों की तालीम पर जोर दे रही थी, उधर मियाँ पीरबख्श को बाल बनवाने का शौक जो चर्राया, तो हज्जाम को बुलवाया। हज्जाम बाल बनाते-बनाते कहने लगा – हुजूर, एक दिन मैं सराय में गया था, तो वहाँ यह भी टिके हुए थे – यही जो जवान से हैं, गोरे-गोरे, बजरे पर सैर करने गए थे – हाँ, याद आ गया, मियाँ आजाद, वह भी वहाँ मिले। वह साहब तुम्हारे, उस सराय की भठियारी से शादी करने को थे, मुल फिर निकल गए। उसने इन पर नालिश जड़ दी, तो वहाँ से भागे। उस भठियारी को ऊँट पर सवार करके रात को लिए फिरते थे। पीरबख्श ने यह किस्सा सुना, तो सन्नाटे में आ गए। बोले – खबरदार, और किसी से न कहना।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 25
मियाँ आजाद हुस्नआरा के यहाँ से चले, तो घूमते-घामते हँसोड़ के मकान पर पहुँचे और पुकारा। लौंड़ी बोली कि वह तो कहाँ गए हैं, आप बैठिए।
आजाद – भाभी साहब से हमारी बंदगी कह दो ओर कहो, मिजाज पूछते हैं।
लौंडी – बेगम साहबा सलाम करती हैं और फर्माती हैं कि कहाँ रहे?
आजाद – इधर-उधर मारा-मारा फिरता था।
लौंडी – वह कहती हैं, हमसे बहुत न उड़िए। यहाँ कच्ची गोलियाँ नहीं खेलीं। कहिए, आपकी हुस्नआरा तो अच्छी है। यह बजरे पर हवा खाना और यहाँ आ कर बुत्ते बताना।
आजाद – आपसे यह कौन कच्चा चिट्ठा कह गया?
लौंडी – कहती हैं कि मुझसे भी परदा है? इतना तो बता दीजिए कि बरात किस दिन चढ़ेगी? हमने सुना है, हुस्नआरा आप पर बेतरह रीझ गईं। और, क्यों न रीझें, आप भी तो माशाअल्लाह गबरू जवान हैं।
आजाद – फिर भाई किसके हैं, जैसे वह खूबसूरत, वैसे हम।
लौंडी – फर्माती हैं कि धाँधली रहने दीजिए।
आजाद – भाभी साहब, यह घूँघट कैसा? हमसे कैसा परदा?
इतने में किसी ने पीछे से मियाँ आजाद की आँखें बंद कर लीं।
आजाद चिल्ला उठे – भाई साहब।
हँसोड़ – वहाँ तो आपने खूब रंग जमाया।
आजाद – अजी, आपकी दुआ है, मैं भला क्या रंग जमाता। मगर दोनों बहनें एक से एक बढ़ कर हैं। हुस्नआरा की दो बहनें और आई थीं। वल्लाह, खूब-मजे रहे।
हँसोड़ – खुशनसीब हो भाई, जहाँ जाते हो, वहीं पौ-बारह होते हैं। वल्लाह, मान गया।
आजाद – मगर भाई, एक गलती हो गई। उन्होंने किसी तरह भाँप लिया कि मैं शराब भी पीता हूँ।
हँसोड़ – बड़े अहमक हो भई, कोई ऐसी हरकत करता है। तुम्हारी सूरत से नफरत हो गई।
आजाद – अजी, मुझे तो अपनी सूरत से आप नफरत हो गई। मगर अब कुछ तदबीर तो बताओ ?
हँसोड़ – उसी बुड्ढे को साँटो, तो काम चले।
इस वक्त दोनों आदमी खाना खा कर लेटे। जब शाम हुई, तो दोनों हुस्नआरा की तरफ चले। भरी बरसात के दिन, कोई गोली के टप्पे पर गए होंगे कि पश्चिम की तरफ से मतवाली काली घटा झूमती हुई आई और दम के दम में चारों तरफ अँधेरा छा गया। दुकानदार दूकानें झटपट बंद करने लगे। खोंचे वालों ने खोंचा सँभाला, और लंबे हुए। कोई टट्टू को सोंटे पर सोंटा लगता है; किसी का बैल दुम दबाए भागा जाता है। कहार पालकी उठाए,कदम जमाए उड़े जाते हैं, दहने जंगी, बाएँ चरखा-हूँ-हूँ-हूँ। पैदल चलनेवाले तेज कदम उठाते हैं, पाँयचे चढ़ाते हें। किसी ने जूतियाँ बगल में दबाईं और सरपट भागा। किसी ने कमर कसी और घोड़े को एँड़ दी। अँधेरा इस गजब का है कि राह सूझती ही नहीं, एक पर एक भद-भद करके गिरता है और मियाँ आजाद कहकहे लगाते हैं। क्यों हजरत, पूछना न पाछना और धमाक से लुढ़क जाना!
आजाद – बस, और थोड़ी दूर रह गया है।
हँसोड़ – आपको थोड़ी दूर होगा,यहाँ तो कदम भर चलना मुश्किल हो रहा है। जरी देख-भाल कर कदम उठाइएगा। उफ्, हवा ने क्या जोर बाँधा, मैं तो वल्लाह, काँपने लगा। अगर सलाह हो, घर पलट चलें। वह लीजिए, बूँदें भी पड़ने लगीं। किसी भले मानुस के पास जाने का भला यह कौन मौका है।
आजाद – अजी, ये बातें उससे कीजिए, जो अपने होश में हो। यहाँ तो दीवानापन सवार है।
इतने में बड़ी बेगम का महल नजर पड़ा। आजाद ने मारे खुशी के टोपी उछाल दी। तब तो हँसोड़ ने बिगड़ कर उसे एक अँधे कुएँ में फेंक दिया और कहा – बस, तुममें यही तो ऐब है कि अपने आपे में नहीं रहते। ‘ओछे के घर तीतर, बाहर रखूँ कि भीतर।’
आजाद – या तंग न कर नासेह नादाँ, मुझे इतना,
या लाके दिखा दे दहन ऐसा, कमर ऐसी।
तुम रूखे-फीके आदमी, चेहरे पर भूसा उड़ रहा है। तुम ये मुहब्बत की बातें क्या जानो?
जब महल के करीब पहुँचे, तो चौकीदार ने ललकारा – कौन? मियाँ हँसोड़ तो झिझके, मगर, आजाद ने बढ़ कर कहा – हम हैं, हम।
चौकीदार – अजी, हम का नाम तो फर्माइए, या ठंडी-ठंडी हवा खाइए।
आजाद – हम? हमारा नाम मियाँ आजाद है। तुम दिलबहार को इत्तिला कर दो।
खैर, किसी तरह आजाद अंदर पहुँचे। हुस्नआरा उस वक्त सो रही थीं और सिपहआरा बैठी एक शायर का दीवान पढ़ रही थी। आजाद की खबर सुनते ही बोली – कहाँ हैं कहाँ, बुला लाओ। मियाँ आजाद मकान में दाखिल हुए।
सिपहआरा – वह आए घर में हमारे
खुदा की कुदरत है;
कभी हम उनको, कभी
अपने घर को देखते हैं।
आजाद – यह रूखी खातिरदारी कब तक होगी? हमें दूल्हा भाई कब से कहिएगा?
सिपहआरा – खुदा वह दिन दिखाए तो।
आजाद – आपकी बाजी कहाँ है?
सिपहआरा – आज कुछ तबीयत नासाज है। दिलबहार, जगा दो। कहो मियाँ आजाद आए हैं।
हुस्नआरा अँगड़ाई लेती अठखेलियाँ करती चलीं और आजाद के करीब आ कर बैठ गईं।
आजाद – इस वक्त हमारे दिल की कली खिल गई।
सिपहआरा – क्यों नहीं, फिर मुँह-माँगी मुराद भी तो मिल गई।
आजाद – आखिर अब हम कब तक तरसा करें? आज मैं बेकबुलवाए उठूँ, तो आजाद नहीं।
हुस्नआरा – हमारा तो इस वक्त बुरा हाल है। नींद उमड़ी चली आती है। अब हमें सोने जाने दीजिए।
आजाद – (दुपट्टा पाँव से दबाकर) हाँ, जाइए, आराम कीजिए।
हुस्नआरा – शरारत से आप बाज नहीं आते। दामन तो दबाए हैं और कहते हैं, जाइए-जाइए, क्योंकर जायँ?
आजाद – दुपट्टे को फेंक जाइए।
हुस्नआरा – बजा है, यह किसी और को सिखाइए, (बैठकर) अब साफ कह दूँ।
आजाद – जरूर; मगर आपके तेवर इस वक्त बेढब हैं, खुदा ही खैर करे! जो कुछ कहना हो कह डालिए। खुदा करे, मेरे मतलब की बात मुँह से निकले!
हुस्नआरा – आप लायक हैं, मगर एक परदेसी आदमी, ठौर न ठिकाना, घर न बार। किसी से आपका जिक्र करूँ, तो क्या कहूँ? किसके लड़के हैं? किसके पोते हैं? किस खानदान के हैं? शहर भर में यही खबर मशहूर हो जायगी कि हुस्नआरा ने एक परदेसी के साथ शादी कर ली। मुझे तो इसकी परवा नहीं; लेकिन डर यह है कि कहीं इस निकाह से लोग पढ़ी-लिखी औरतों को नीची नजर से न देखने लगें। बात वह करनी चाहिए कि धब्बा न लगे। मैं पहले भी कह चुकी हूँ और अब फिर कहती हूँ कि शहर में नाम पैदा कीजिए, इज्जत कमाइए, चार भले आदमियों में आपकी कदर हो।
आजाद – कहिए, आग में फाँद पड़ूँ?
हुस्नआरा – माशा-अल्लाह, कही भी तो निराली? अगर आप आग में फाँद पड़े, तो लोग आपको सिड़ी समझेंगे।
सिपहआरा – कोई किताब लिखिए।
हुस्नआरा – नहीं; कोई बहादुरी की बात हो कि जो सुने, वाह-वाह करने लगे, और फिर अच्छी-अच्छी रईसजादियाँ चाहें कि उनके साथ मियाँ आजाद का ब्याह हो जाय। इस वक्त मौका भी अच्छा है। रूम और रूस में लड़ाई छिड़नेवाली है। रूम की मदद करना आपका फर्ज है। आप रूम की तरफ से लड़िए और जवाँमर्दी के जौहर दिखाइए, तमगे लटकाए हुए आइए, तो फिर हिंदोस्तान भर में आप ही की चर्चा हो।
आजाद – मंजूर, दिलोजान से मंजूर। जाऊँ और बीच खेत जाऊँ। मरे, तो सीधे जन्नत में जायँगे। बचे, तो तुमको पाएँगे।
सिपहआरा – मेरे तो लड़ाई के नाम से होश उड़े जाते हैं। (हुस्नआरा से चिमट कर) बाजी, तुम कैसी बेदर्द हो, कहाँ काले कोसों भेजती हो! तुम्हें खुदा की कसम, इस खयाल से बाज आओ। आजाद जाएँगे, तो फिर उनकी सूरत देखने को तरस जाओगी। दिन-रात आँसू बहाओगी। क्यों मुफ्त में किसी की जान की दुश्मन हुई हो?
किनारे दरिया पहुँच के पानी
पिया नहीं एक बूँद तिस पर,
चढ़ी है मौजों की हमसे त्यौरी
हुबाब आँखें बदल रहे हैं।
यह कहते-कहते सिपहआरा की आँखों से गोल-गोल आँसू की बूँदे गिरने लगीं।
हुस्नआरा – हैं-हैं, बहन, यह मुफ्त का रोना धोना अच्छा स्वाँग है, वह मुबारक दिन मेरी आँखों के सामने फिर रहा है, जब आजाद तमगे लटकाए हुए हमारे दरवाजे पर खड़े होंगे।
मियाँ आजाद पर इस वक्त वह जोबन था कि ओहोहो, जवानी फटी पड़ती थी। आँखें सुर्ख, जैसे कबूतर का खून; मुखड़ा गोरा, जैसे गुलाब का फूल; कपड़े वह बाँके पहने थे कि सिर से पाँव तक एक-एक अंग निखर गया था; टोपी वह बाँकी की बाँकपन भी लोट जाय; कमर से दोहरी तलवारें लटकी हुई। हुस्नआरा को उनका चाँद सा मुखड़ा ऐसा भाया कि जी चाहा, इसी वक्त निकाह कर लूँ; मगर दिल पर जब्त किया।
आजाद – आज हम घर से मौत की तलाशी में ही निकले थे –
जब से सुना कि मरने का है नाम जिंदगी;
सिर से कफन को बाँधे कातिल को ढूँढ़ते हैं।
सिपहआरा – प्यारे आजाद, खुदा के वास्ते इस खयाल से बाज आओ।
आजाद – या हाथ तोड़ जायँगे, या खोलेंगे नकाब। हुस्नआरा सी बीबी पाना दिल्लगी नहीं। अब हम फिर शादी का हर्फ भी जबान पर लाएँ, तो जवाँ-मर्द नहीं। अब हमारी इनकी शादी उसी रोज होगी, जब हम मैदान में सुर्खरू हो कर लौटेंगे। हम सिर कटवाएँ, जख्म पर जख्म खाएँगे मगर मैदान से कदम न हटाएँगे।
सिपहआरा – जो आपने दालान तक भी कदम रखा तो हम रो-रोक कर जान दे देंगे।
आजाद – तुम घबराओ नहीं जीते बचे, तो फिर आएँगे। हमारे दिल से हुस्नआरा की और तुम्हारी मुहब्बत जाती रहे, यह मुश्किल है। तुम मेरी खातिर से रोना-धोना छोड़ दो। आखिर क्या लड़ाई में सब के सब मर ही जाते हैं?
सिपहआरा – इतनी दूर जा कर ऐसी ही तकदीर हो, तो आदमी लौटे। अब मेरी जिंदगी मुहाल है। मुझे दफना के जाना। अल्लाह जाने, किन-किन जंगलों में रहोगे, कैसे-कैसे पहाड़ों पर चढ़ना होगा, कहाँ-कहाँ लड़ना-भिड़ना होगा। एक जरा सी गोली तो हाथी का काम तमाम कर देती है, इनसान की कौन कहे। तुम वहाँ गोलियाँ खाओगे और हम दिन-रात बैठे-बैठे कुढ़ा करेंगे। एक-एक दिन एक-एक बरस हो जाएगा! और फिर क्या जाने, आओ न आओ, लड़ाई-चढ़ाई पर जाना कुछ हँसी थोड़े ही है। यह तो तुम्हीं मरदों का काम है। हम तो यही से नाम सुन-सुन कर काँपते हैं।
हुस्नआरा – मेरी प्यारी बहन, जरा सब्र से काम लो।
सिपहआरा – न मानूँगी, न मानूँगी।
हुस्नआरा – सुन तो लो।
सिपहआरा – जी, बस, सुन चुकी। खून कीजिए, और कहिए, सुन तो लो।
हुस्नआरा – यह क्या बुरी-बुरी बातें मुँह से निकालती हो। हमें बुरा मालूम होता है। मैं उनको जबरदस्ती थोड़े ही भेजती हूँ। वह तो आप जाते हैं।
सिपहआरा – समुंदर समुंदर जाना पड़ेगा। कोई तूफान आ गया, तो जहाज ही डूब जायगा।
आजाद – अब रात ज्यादा आई, आप लोग आराम करें, हम कल रात को यहाँ से कूच करेंगे।
सिपहआरा – इस तरह जाना था, तो हमारे पास दिल दुखाने आए क्यों थे? (हाथ पकड़ कर) देखूँ, क्योंकर जाते हैं,
आजाद – दिलोजिगर खून हो चुके हैं।
हवास तक अपने जा चुके हैं।
वही मुहब्बत का हौसला है,
हजार सदमे उठा चुके हैं।
हुस्नआरा – हाय, किस गजब में जान पड़ी। हाथ पाँव टूटे जाते हैं, आँखें जल रही हैं। आजाद, अगर मुझे दुनिया में किसी की चाह है, तो तुम्हारी। लेकिन दिल से लगी है कि तुम रूसियों को नीचा दिखाओ। मरना-जीना मुकद्दर के हाथ है। कौन रहा है, और कौन रहेगा।
ताज में जिनके टँकते थे गौहर;
ठोकरें खाते हैं वह सर-ता-सर।
है न शीरीं न कोहकन का पता;
न किसी जा है नल-दमन का पता
यही दुनियाँ का कारखाना है;
यह उलट फेर का जमाना है।
आजाद – हम तो जाते हैं, तुम सिपहआरा को समझाती रहना। नहीं तो राह में मेरे कदम न उठेंगे। कल रात को मिल कर कूच करूँगा।
हुस्नआरा – बहन, इनको जाने दो, कल आएँगे।
सिपहआरा – जाइए, मैं आपको रोकनेवाली कौन?
आजाद यहाँ से चले कि सामने से मियाँ चंडूबाज आते हुए मिल गए। गले से लिपट कर बोले – वल्लाह, आँखें आपको ढूँढ़ती थीं। सूरत देखने को तरस गए। वह जो चलते वक्त आपने तान कर चाबुक जमाया था, उसका निशान अब तक बना है। बारे मिले खूब। बी अलारक्खी तो मर गईं, बेचारी मरते वक्त खुदा की कसम, अल्लाह-अल्लाह कहा की और दम तोड़ने के पहले तीन दफा आजाद-आजाद कह कर चल बसीं।
आजाद ने चंडूबाज की सूरत देखी, तो हाथ-पाँव फूल गए। रूस का जाना और तमगे लटकाना भूल गए। सोचे, अब इज्जत खाक में मिली। लेकिन जब चंडूबाज ने बयान किया कि अलारक्खी चल बसीं और मरते वक्त तक मेरे ही नाम की रट लगाती रहीं, तो बड़ा अफसोस हुआ। आँखों से आँसू बहने लगे।
बोले – भाई, तुमने बुरी खबर सुनाई। हाय, मरते वक्त दो बातें भी न करने पाए।
चंडूबाज – क्या अर्ज करूँ, कसम खुदा की, इस प्यार और इस हसरत से तुम्हें याद किया कि क्या कहूँ। मेरी तो रोते-रोते हिचकी बँध गई। जरा सा भी खटका होता तो कहतीं – आजाद आए। आप अपना एक रूमाल वहाँ भूल आए हैं, उसको हर रोज देख लिया करती थीं, मरते वक्त कहा कि हमारी कब्र पर यह रूमाल रख देना।
आजाद – (रो कर) उफ, कलेजा मुँह को आता है। मुझे क्या मालूम था कि उस गरीब को मुझसे इतनी मुहब्बत थी।
चंडूबाज – एक गुलदस्ता अपने हाथ से बना कर दे गई हैं कि अगर मियाँ आजाद आ जायँ, तो उनको दे देना और कहना, अब हश्र में आपकी सूरत देखेंगे।
आजाद – भई, इसी वक्त दो। खुदा के वास्ते अभी लाओ। मैं तो मरा बेमौत, लाओ, गुलदस्ता जरा चूम लूँ। आँखों से लगाऊँ, गले से लगाऊँ।
चंडूबाज – (आँसू बहा कर) चलिए, मैं सराय में उतरा हुआ हूँ। गुलदस्ता साथ है। उसको जान से भी ज्यादा प्यार करता हूँ।
दोनों आदमी मिल कर चले, राह में अलारक्खी के रूप-रंग और भोली-भाली बातों का जिक्र रहा। चलते-चलते दोनों सराय में दाखिल हुए। मियाँ आजाद जैसे ही चंडूबाज की कोठरी में घुसे, तो क्या देखते हैं कि बी अलारक्खी बगले के पर जैसा सफेद कपड़ा पहने खड़ी हैं। देखते ही मियाँ आजाद का रंग फक हो गया। चुप, अब हिलते हैं न बोलते हैं।
अलारक्खी – (तालियाँ बजा कर) आदाब अर्ज करती हूँ। जरी इधर नजर कीजिए। यह कोसों की राह तय करके हम आप ही की जियारत के लिए आए हैं और आपको हमसे ऐसी नफरत कि आँख तक नहीं मिलाते! वाह री किस्मत! अब जरा सिर तो हिलाइए, गरदन तो उठाइए, वह चाँद सा मुखड़ा तो दिखाइए! कहिए, आपकी हुस्नआरा तो अच्छी हैं? जरा हमको तो उनका जोबन दिखाओ। हमने सुना, कभी-कभी बजरों पर दरिया की सैर की जाती हैं, कभी हमजोलियों को ले कर जश्न मनाती हैं। क्यों हजरत, हम बक रहे हैं? हमारा ही लहू पिए, जो इधर न देखे।
आजाद – खुदा की कसम, सिर्फ तुम्हीं को देखने आया हूँ।
चंडूबाज – भई, आजाद की रोते-रोते हिचकी बँध गई थी। कसम खुदा की, मैंने जो यह फिकरा चुस्त किया कि अलारक्खी ने मरते वक्त आजाद-आजाद कह के दम तोड़ा, तो यह बेहोश हो कर गिर पड़े।
अलारक्खी – खैर, इतनी तो ढारस हुई कि मरने के बाद भी हमको कोई पूछेगा। लेकिन-
आए तुरबत पे बहुत रोए, किया याद मुझे;
खाक उड़ाने लगे, जब कर चुके बरबाद मुझे।
आजाद – अलारक्खी, अब हमारी इज्जत तुम्हारे हाथ है। अगर तुम्हें हमसे मुहब्बत है, तो हमें दिक न करो। नहीं हम संखिया खा कर जान दे देंगे। अगर हमें जिलाना चाहती हो, तो हमें आजाद कर दो।
अलारक्खी – सुनो आजाद, हम भी शरीफजादी हैं, मगर अल्लाह को यही मंजूर था कि हम भठियारी बन कर रहें। याद है, हमारे बूढ़े मियाँ ने तुम्हें खत दे कर हमारे मकान पर भेजा था और तुम कई दिन तक हमारे घर का चक्कर लगाते रहे थे? हम दिन-रात कुढ़ा करते थे। आखिर वह तो कब्र में पाँव लटकाए बैठे ही थे, चल बसे। उस दिन हमने मजसिद में घी के चिराग जलाए। मुकद्दर खींच कर यहाँ लाया। लेकिन अल्लाह जानता है, जो मेरी आँख किसी से लड़ी हो। तुमसे ब्याह करने का बहुत शौक था, लेकिन तुम राजी न हुए। अब हमने सुना है कि हुस्नआरा के साथ तुम्हारा निकाह होने वाला है। अल्लाह मुबारक करे। अब हमने आपको इजाजत दे दी, खुशी से ब्याह कीजिए; लेकिन हमें भूल न जाना। लौंडी बन कर रहूँगी, मगर तुमको न छोड़ूँगी।
आजाद – उफ, तुम वह हो, जिसका उस बूढ़े से ब्याह हुआ था? यह भेद तो अब खुला। मगर हाय, अफसोस, तुमने यह क्या किया। तुम्हारी माँ ने बड़ी बेवकूफी की, जो तुम जैसी कामिनी का एक बुड्ढे के साथ ब्याह कर दिया।
अलारक्खी – अपनी तकदीर!
कुछ देर तक आजाद बैठे अलारक्खी को तसल्ली देते रहे। फिर गला छुड़ा कर, चकमा देकर निकल खड़े हुए। कुछ ही दूर आगे बढ़े थे कि तबले की थपक कानों में आई। घर का रास्ता छोड़ महफिल में जा पहुँचे। देखा, वहाँ खूब धमा चौकड़ी मच रही है। एक ने गजल गाई, दूसरे ने ठुमरी, तीसरे ने टप्पा। आजाद एक ही रसिया, वहीं जम गए। अब इस सनक की देखिए कि गैर की महफिल और आप इंतजाम करते हैं, किसी हुक्के की चिलम भरवाते हैं, किसी गुड़गुड़ी को ताजा करवाते हैं; कभी ठुमरी की फर्माइश की, कभी गजल की। दस-पंद्रह गँवारों ने जो गाने की आवाज सुनी, तो धँस पड़े। मियाँ आजाद ने उन्हें धक्के दे कर बाहर किया। मालिक मकान ने जो देखा कि एक शरीफ नौजवान आदमी इंतजाम कर रहे हैं, तो इनको पास बुलाया, तपाक से बिठाया, खाना खिलाया। यही बहार देखते-देखते आजाद ने रात काट दी। वहाँ से उठे, तो तड़का हो गया था।
मियाँ आजाद को आज ही रूम के सफर की तैयारी करनी थी। इसी फिक्र में बदहवास जा रहे थे। क्या देखते हैं, एक बाग में झूले पड़े हैं; कई लड़कियाँ हाथ-पाँव में मेहँदी रचाए, गले में हार डाले पेंग लगा रही हैं और सब की सब सुरीली आवाज से लहरा-लहरा कर यों गा रही हैं –
नदिया-किनारे बेला किसने बोय, नदिया-किनारे;
बेला भी बोया, चमेली भी बोई
बिच-बिच बोया रे गुला, नदिया-किनारे।
आजाद को यह गीत ऐसा भाया कि थोड़ी देर ठहर गए। फिर खुद झूले पर जा बैठे और पेंग लगाने लगे। कभी-कभी गाने भी लगते, इस पर लड़कियाँ खिलखिला कर हँस पड़ती थीं। एकाएक क्या देखते हैं कि एक काला-कलूटा मरियल सा आदमी खड़ा लड़कियों को घूर रहा है। आजाद ने कई बार यह कैफियत देखी, तो उनसे रहा न गया, एक चपत जमा ही तो दी। टीप खाते ही वह झल्ला उठा और गालियाँ दे कर कहने लगा – न हुई विलायती इस वक्त पास, नहीं तो भुट्टा सा सिर उड़ा देता। और जो कहीं जवान होता, तो खोद कर गाड़ देता। और, जो कहीं भूखा होता, तो कच्चा ही खा जाता। और जो कहीं नशे की चाट होती, तो घोल के पी जाता।
आजाद पहचान गए, यह मियाँ खोजी थे। कौन खोजी? नवाब के मुसाहब। कौन नवाब? वही बटेरबाज, जिनके सफशिकन को ढूँढ़ने आजाद निकले थे। बोले – अरे; भाई खोजी हैं? बहुत दिनों के बाद मुलाकात हुई। मिजाज तो अच्छा है?
खोजी – जी हाँ, मिजाज तो अच्छा है; लेकिन खोपड़ी भन्ना रही है। भला हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था। वह तो कहिए मैं तुम्हें पहचान गया; नहीं तो इस वक्त जान से मार डालता।
आजाद – इसमें क्या शक, आप हैं ही ऐसे दिलेर! आप इधर कैसे आ निकले?
खोजी – आप ही की तलाश में तो आया था।
आजाद – नवाब तो अच्छे हैं?
खोजी – अजी वह गए चूल्हे में। यहाँ सर भन्ना रहा है।ले अब चलो, तुम्हारे साथ चलें। कुछ तो खिलवाओ यार। मारे भूख के बेदम हुए जाते हैं।
आजाद – हाँ,हाँ, चलिए खूब शौक से।
दोनों मिल कर चले, तो आजाद ने खोजी को शराब की दुकान पर ले जा कर इतनी शराब पिलाई कि वह टें हो गए, उन्हें वही छोड़ मियाँ हँसोड़ के घर जा पहुँचे।
मियाँ हँसोड़ बहुत नाराज हुए कि मुझे तो ले जा कर हुस्नआरा के मकान के सामने खड़ा कर दिया और आप अंदर हो रहे। आधी रात तक तुम्हारी राह देखता रहा। यह आखिर आप रात को थे कहाँ?
आजाद अभी कुछ जवाब देनेवाले ही थे कि एक तरफ से मियाँ पीरबख्श को आते देखा और दूसरी तरफ से चंडूबाज को। आप दूर ही से बोले – अजीब तरह के आदमी हो मियाँ! वहाँ से कह कर चले कि अभी आता हूँ, पल भर की भी देर न होगी, और तब के गए-गए अब तक सूरत नहीं दिखाई, अलारक्खी बेचारी ढाढ़ें मार-मार कर रो रही हैं। चलिए उनके आँसू तो पोंछिए।
मियाँ पीरबख्श ने बातें सुनीं, तो उनके कान खड़े हुए। हज्जाम के मुँह से तो यह सुन ही चुके थे कि मियाँ आजाद किसी सराय में एक भठियारिन पर लट्टू हो गए थे, पर अब तक हुस्नआरा से उन्होंने यह बात छिपा रखी थी। इस वक्त जो फिर वही जिक्र सुना, तो दिल में सोचने लगे कि यहाँ तो लड़कियों को रात-रात भर नींद नहीं आती; हुस्नआरा तो किसी कदर जब्त भी करती हैं, मगर सिपहआरा बेचारी फूट-फूट कर रोती है; या यहाँ बैठे हुए बी अलारक्खी के दुखड़े सुनिएगा? अगर कहीं दोनों बहनें सुन ले, तो कैसी हो? बस, अब भलमंसी इसी में है कि मेरे साथ चले चलिए; नहीं तो हुस्नआरा से हाथ धोइएगा और फिर अपनी फूट किस्मत को रोइएगा।
चंडूबाज – मियाँ, होश की दवा करो? भला मजाल है कि यह अलारक्खी को छोड़ कर यहाँ से जायँ। क्या खूब, हम तो सैकड़ों कुएँ झाकते यहाँ आए, आप बीच में बोलनेवाले कौन?
आजाद – अजी, इन्हें बकने भी दो, हम तुम्हारे साथ अलारक्खी के पास चलेंगे। उस मुहब्बत की पुतली को दगा न देंगे। तुम घबराते क्यों हो? खाना तैयार है; आज मीठा पुलाव पकवाया है; तुम जरा बाजार से लपक कर चार आने की बालाई ले लो। मजे से खाना खायँ। क्यों उस्ताद, है न मामले की बात, लाना हाथ।
चंडूबाज बालाई का नाम सुनते ही खिल उठे। झप से पैसे लिए और लुढ़कते हुए चले बालाई लाने। मियाँ आजाद उन्हें बुत्ता दे कर पीरबख्श से बोले – चलिए हजरत, हम और आप चलें। रास्ते में बातें होती जायँगी।
दोनों आदमी वहाँ से चले। आजाद तो डबल चाल चलने लगे, पर मियाँ पीरबख्श पीछे रह गए। तब बोले – अजी, जरा कदम रोके हुए चलिए। किसी जमाने में हम भी जवान थे। अब यह फर्माइए कि यह अलारक्खी कौन है? जो कहीं हुस्नआरा सुन पाएँ, तो आपकी सूरत न देखें; बड़ी बेगम को तुमको अपने महल के एक मील इधर-उधर फटकने न दें। आप अपने पाँव में आप कुल्हाड़ी मार रहे हैं। अब शादी-वादी होना खैर-सल्लाह है। सोच लीजिए कि अगर वहाँ इनकी बात चली, तो क्या जवाब दीजिएगा।
आजाद – जनाब, यहाँ सोचने का मरज नहीं। उस वक्त जो जबान पर आएगा, कह जाऊँगा। ऐसी वकालत करूँ कि आप भी दंग हो जायँ – जबान से फुलझड़ी छूटने लगे।
इतने में कोठी सामने नजर आई और जरा देर में दोनों आदमी महल में दाखिल हुए। सिपहआरा तो आजाद से मिलने दौड़ी, मगर हुस्नआरा अपनी जगह से न उठी। वह इस बात पर रूठी हुई थी कि इतना दिन चढ़ आया और मियाँ आजाद ने सूरत न दिखाई।
हुस्नआरा – बहन, इनसे पूछो कि आप क्या करने आए हैं?
आजाद – आप खुद पूछिए। क्या मुँह नहीं है या मुँह में जबान नहीं है!
सिपहआरा – यह अब तक आप कहाँ गायब रहे?
हुस्नआरा – अजी, हमें इनकी क्या परवा। कोई आए या न आए, हम किसी के हाथ बिके थोड़े ही हैं।
सिपहआरा – बाजी की आँखें रोते-रोते लाल हो गईं।
हुस्नआरा – पूछो, आखिर आप चाहते क्या हैं?
आजाद – पूछे कौन, आखिर आप खुद क्यों नहीं पूछतीं –
कहूँ क्या मैं तुझसे कि क्या चाहता हूँ,
जफा हो चुकी, अब वफा चाहता हूँ।
बहुत आशना हैं जमाने में, लेकिन –
कोई दोस्त दर्द-आशना चाहता हूँ।
हुस्नआरा – इनसे कह दो, यहाँ किसी की वाही-तबाही बकवाद सुनने का शौक नहीं है। मालूम है, आप बड़े शायर की दुम हैं?
सिपहआरा – बहन, तुम लाख बनो, दिल की लगी कहीं छिपाने से छिपती है।
हुस्नआरा – चलो, बस, चुप भी रहो। बहुत कलेजा न पकाओ। हमारे दिल पर जो गुजर रही है, हमीं जानते हैं। चलो, हम और तुम कमरा खाली कर दें, जिसका जी चाहे बैठे, जिसका जी चाहे जाय। हयादार के लिए एक चुल्लू काफी है।
यह कह कर हुस्नआरा उठी और सिपहआरा भी खड़ी हुई। मियाँ आजाद ने सिपहआरा का पहुँचा पकड़ लिया। अब दिल्लगी देखिए कि मियाँ आजाद तो उसे अपनी तरफ खींचते हैं और हुस्नआरा अपनी तरफ घसीटती हुई कह रही हैं – हमारी बहन का हाथ कोई पकड़े, तो हाथ ही टूटें। जब हमने टका सा जवाब दे दिया, तो फिर यहाँ आनेवाला कोई कौन! वाह, ऐसे हयादार भी नहीं देखे!
आजाद – साहब, आप इतना खफा क्यों होती हैं? खुदा के वास्ते जरा बैठ जाइए। माना कि हम खतावार हैं, मगर हमसे जवाब तो सुनिए। खुदा गवाह है, हम बेकसूर हैं।
हुस्नआरा – बस बस, जबान न खुलवाइए। बस अब रुखसत। आप अब छह महीने के बाद सूरत दिखाइएगा, हम भी कलेजे पर पत्थर रख लेंगे।
यह कह कर हुस्नआरा तो वहाँ से चली गई और मियाँ आजाद अकेले बैठे-बैठे सोचने लगे कि इसे कैसे मनाऊँ। आखिर उन्हें एक चाल सूझीं। अरगनी पर से चादर उतार ली और मुँह ढाँप कर लेट रहे। चेहरा बीमारों का सा बना लिया और कराहने लगे। इत्तिफाक से मियाँ पीरबख्श उस कमरे में आ निकले। आजाद की सूरत जो देखी, तो होश उड़ गए। जा कर हुस्नआरा से बोले – जल्द पलंग बिछवाओ, मियाँ आजाद को बुखार हो आया है।
हुस्नआरा – हैं हैं, यह क्या कहते हो। पाँव-तले से मिट्टी निकल गई।
सिपहआरा – कलेजा धड़-धड़ करने लगा! ऐसी सुनानी अल्लाह सातवें दुश्मन को भी न सुनाए।
हुस्नआरा – हाय मेरे अल्लाह, मैं क्या करूँ। मैंने अपने पैरों में आप कुल्हाड़ी मारी।
जरा देर में पलंग बिछ गया! हुस्नआरा, उसकी बहन, पीरबख्श और दिल बहार चारपाई के पास खड़े हो कर आँसू बहाने लगे।
दिलबहार – मियाँ, किसी हकीम जी को बुलाओ।
सिपहआरा – चेहरा कैसा जर्द हो गया!
पीरबख्श – मैं अभी जा कर हकीम साहब को लाता हूँ।
हुस्नआरा – हकीम जी का यहाँ क्या काम है? और, यों आप चाहे जिसको बुलाएँ।
मियाँ पीरबख्श तो बाहर गए और हुस्नआरा पलंग पर जा बैठी, मियाँ आजाद का सिर अपने जानू पर रखा। सिपहआरा फूलों का पंखा झलने लगी।
हुस्नआरा – मेरी जबान कट पड़े। मेरी ही जली-कटी बातों ने यह बुखार पैदा किया।
यह कह कर उसने आहिस्ता-आहिस्ता आजाद की पेशानी को सहलाना शुरू किया। आजाद ने आँखें खोल दीं और बोले –
मेरे जनाजे को उनके कूचे में
नाहक अहबाब लेके आए;
निगाहे-हसरत से देखते हैं
वह रुख से परदा हटा-हटा कर।
शहर है नजदीक, शब है आखिर,
सरा से चलते हैं हम मुसाफिर;
जिन्हें है मिलना, वे सब हैं हाजिर,
जरस से कह दो, कोई सदा कर।
हुस्नआरा – क्यों हजरत, यह मक्कारी! खुदा की पनाह, मेरी तो बुरी गत हो गई।
आजाद – जरा उसी तरह इन नाजुक हाथों से फिर माथा सहलाओ।
हुस्नआरा – मेरी बला जाती है, वह वक्त ही और था।
आजाद – मैंने कहा जो उनसे कि शब को यहीं रहो;
आँखें झुकाए बोले कि किस एतबार पर?
हुस्नआरा – आपने आखिर यह स्वाँग क्यों रचा? छिपाइए नहीं, साफ-साफ बताइए।
आजाद – अब कहती हो कि तुम मेरी
महफिल में आए क्यों;
आता था कौन, कोई
किसी को बुलाए क्यों?
कहता हूँ साफ-साफ
कि मरता हूँ आप पर;
जाहिर जो बात हो,
उसे कोई छिपाए क्यों?
यहाँ मारे बुखार के दम निकल रहा है, आप मक्र समझती हैं।
यहाँ दोनों में यही नोकझोंक हो रही थी, इतने में मियाँ खोजी पता पूछते हुए आ पहुँचे।
खोजी – मियाँ होत, जरा आजाद को तो बुलाओ।
दरवान – किससे कहते हो? आए कहाँ से? हो कौन?
खोजी – ऐं, यह तो कुछ बातूनी सा मालूम होता है। अबे, इत्तला कर दे कि ख्वाजा साहब आए हैं।
दरवान – ख्वाजा साहब! हमें तो जुलाहे से मालूम होते हो। भलेमानसों की सूरत ऐसी ही हुआ करती हैं?
आजाद ने यहे बातें सुनीं, तो बाहर निकल आए और खोजी को बुला लिया।
खोजी – भाई, जरा आईना तो मँगवा देना।
आजाद – यह आईना क्या होगा? बंदगी न सलाम, बात न चीत, आते ही आते आईना याद आया। बंदर के हाथ में आईना भला कौन देने लगा!
खोजी – अजी मँगवाते हो या दिल्लगी करते हो। दरबान से हमसे झौड़ हो गई। मरदूद कहता है, तुम्हारी सूरत भलेमानसों की सी नहीं। अब कोई उससे पूछे, फिर क्या चमार की सी है, या पाजी की सी।
आजाद – भई, अगर सच पूछते हो, तो तुम्हारी सूरत से एक तरह का पाजीपन बरसता है। खुदा चाहे पाजी बनाए, मगर पाजी की सूरत न बनाए। पर अब उसका इलाज ही क्या?
खोजी – वाह, इसका कुछ इलाज ही नहीं? डाक्टरों ने मुरदे तक के जिला लेने का तो बंदोबस्त कर लिया है; आप फरमाते हैं, इलाज ही नहीं। अब पाजी न बनेगे, पाजी बनके जिए तो क्या।
आजाद – कल हम रूम जानेवाले हैं, चलते हो साथ?
खोजी – न चले, उस पर भी लानत, न ले चले, उस पर भी लानत!
आजाद – मगर वहाँ चंडू न मिलेगा, इतना याद रखिए।
खोजी – अजी अफीम मिलेगी कि वह भी न मिलेगी? बस, तो फिर हम अपना चंडू बना लेंगे। हमें जरूर ले चलिए।
आजाद अंदर जा कर बोले – हुस्नआरा, अब रुखसत का वक्त करीब आता जाता है; हँसी-खुशी रुखसत करो; खुदा ने चाहा तो फिर मिलेंगे।
हुस्नआरा की आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे। बोली – हाय, अंदरवाला नहीं मानता। उसको भी तो समझाते जाओ। यह किसका होकर रहेगा?
आजाद – तुम्हारी यह हालत देख कर मेरे कदम रुके जाते हैं। अब हमें जाने दो। जिंदगी शर्त है, हम फिर मिलेंगे और जश्न करेंगे। यह कह कर आजाद बाहर चले आए और खोजी के साथ चले। खोजी ने समझा था, रूम कहीं लखनऊ के आस-पास होगा। अब जो सुना कि सात समुंदर पार जाना पड़ेगा, तो हक्का-बक्का हो गए। हाथ-पाँव काँपने लगे। भई, हम समझते थे, दिल्लगी करते हो। यह क्या मालूम था कि सचमुच तंग-तोबड़ा चढ़ा कर भागा ही चाहते हो। मियाँ तुम लाख आलिम-फाजिल सही, फिर भी लड़के ही हो। यह खयाल दिल से निकाल डालो। एक जरा सी चने के बराबर गोली पड़ेगी, तो टाँय से रह जाओगे। आपको कभी मोरचे पर जाने का शायद इत्तिफाक नहीं हुआ। खुदा भलेमानस को न ले जाय। गजब का सामना होता है। वह गोली पड़ी, वह मर गया। दाँय-दाँय की आवाज से कान के परदे फट जाते हैं। तोप का गोला आया और अठारह आदमियों को गिरा दिया। गोल फटा और बहत्तर टुकड़े हुए, और एक-एक टुकड़े ने दस-दस आदमियों का उड़ा दिया। जो कहीं तलवार चलने लगी, तो मौत सामने नजर आती है, बेमौत जान जाती है। खटाखट तलवार चल रही है और हजारों आदमी गिरते जाते हैं। सो भई, वहाँ जाना कुछ खाला जी का घर थोड़े ही है। खुदा के लिए उधर रुख न करना। और बंदा तो अपने हिसाब, जानेवाले को कुछ कहता है। हम एक तरकीब बताएँ, वह काम क्यों न कीजिए कि हुस्नआरा आपको खुद रोकें और लाखों कसमें दें। आप अंदर जा कर बैठिए और हमको चिक के पास बिठाइए। फिर देखिए, मैं कैसी तकरीर करता हूँ कि दोनों बहने काँप उठे, उनको यकीन हो जाय कि मियाँ आजाद गए और अंटागफील हुए। मैं साफ-साफ कह दूँगा कि भई आजाद जरा अपनी तसवीर तो खिंचवा लो। आखिर अब तो जाते ही हो। वल्लाह, जो कहीं यह तकरीर सुन पाएँ, तो हश्र तक तुम्हें न जाने दें और झप से शादी हो जाय।
आजाद – बस, अब और कुछ न फरमाइएगा। मरना-जीना किसी के अख्तियार की बात तो हे नहीं; लाखों आदमी कोरे आते हैं और हजारों राह चलते लोट जाते हैं। हुस्नआरा हमसे कहे कि टर्की जाओ और हम बातें बनाएँ, उसको धोखा दें! जिससे मुहब्बत की उससे फरेब! यह मुझसे हरगिज न होगा। चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय। आप मियाँ हँसोड़ के यहाँ जाइए और उनसे कहिए कि हम अभी आते हैं। हम पहुँचे और खाना खा कर लंबे हुए। खोजी तो गिरते-पड़ते चले, मगर दो कदम जा कर फिर पलटे। भई, एक बात तो सुनो। क्या-क्या पकवा रखूँ? आजाद बहुत ही झल्लाए। अजब नासमझ आदमी हो! यह भी कोई पूछने की बात है भला! उनके यहाँ जो कुछ मुमकिन होगा, तैयार करेंगे। यह कहकर आजाद तो अपने दो-चार दोस्तों से मिलने चले, उधर मियाँ खोजी हँसोड़ के घर पहुँचे। जा कर गुल मचाना शुरू किया कि जल्द खाना तैयार करो, मियाँ आजाद अभी-अभी जानेवाले हैं। उन्होंने कहा कि पाँच सेर मीठे टुकड़े, सात सेर पुलाव, दस सेर फीरनी, दस ही सेर खीर, कोई चौदह सेर जरदा, कोई पाँच सेर मुरब्बा और मीठे अचार की अचारियाँ जल्द तैयार हों। मियाँ हँसोड़ की बीवी खाना पकाने में बर्क थीं। हाथों हाथ सब सामान तैयार कर दिया। मियाँ आजाद शाम को पहुँचे।
हँसोड़ – कहिए, आज तो सफर का इरादा है। खाना तैयार है; कहिए, तो निकलवाया जाय। बर्फ भी मँगवा रखी है।
आजाद – खाना तो हम इस वक्त न खाएँगे, जरा भी भूख नहीं है।
हँसोड़ – खैर, आप न खाइएगा, न सही। आपके और दोस्त कहाँ हैं? उनके साथ दो निवाले तुम भी खा लेना।
आजाद – दोस्त कैसे! मैंने तो किसी दोस्त के लिए खाना पकाने को नहीं कहा था!
हँसोड़ – और सुनिएगा! क्या आपने अपने ही लिए दस सेर खीर, अठारह सेर मीठे टुकड़े और खुदा जाने क्या-क्या अल्लम-गल्लम पकवाया है।
आजाद – आपसे यह कहा किस नामाकूल ने?
हँसोड़ – खोजी ने, और किसने? बैठे तो हैं, पूछिए न।
आजाद – खोजी तुम मरभुखे ही रहे। यह इतनी चीजें क्या सिर पर लाद कर ले जाओगे? लाहौल बिला कुबत।
खोजी – लाहौल काहे की? आप न खाइए, मैं तो डट कर चख चुका। रास्ते के लिए भी बाँध रखा है।
आजाद – अच्छा, तो अब बोरिया-बाँधना उठाइए, लादिए-फाँदिए।
खोजी – जनाब, इस वक्त तो यह हाल है, जैसे चूहे को कोई पारा पिला दे। अब बंदा लोट मारेगा। और यह तो बताओ, सवारी क्या है?
आजाद – इक्का।
खोजी – गजग खुदा का! तब तो मैं जा चुका। इक्के पर तो यहाँ कभी सवार ही नहीं हुए। और फिर खाना खा कर तो मर ही जाऊँगा।
खैर, मियाँ आजाद ने झटपट खाना खाया और असबाब कस कर तैयार हो गए। खोजी पड़े खर्राटे ले रहे थे; रोते-गाते उठे। बाहर जा कर देखते हैं, तो एक समंद थोड़ी पूरी, दूसरा मरियल टट्टू। आजाद घोड़ी पर सवार हुए और मियाँ हँसोड़ की बीवी से बोले – भाभी, भूल न जाइएगा। भाई साहब तो भुलक्कड़ आदमी हैं, आप याद रखिएगा। आपके हाथ का खाना उम्र भर न भूलूँगा। उन्होंने रुखसत करते हुए कहा – जिस तरह पीठ दिखाते हो, खुदा करे, उसी तरह मुँह भी दिखाओ। इमाम जामिन को सौंपा।
अब सुनिए कि मियाँ खोजी ने अपने मरियल टट्टू को जो देखा, तो घबराए। घोड़े पर कभी जिंदगी भर सवार न हुए थे। लाख चाहते हैं कि सवार हो जायँ, मगर हिम्मत नहीं पड़ती। यार लोग लराते हैं – देखो, देखो, वह पुस्त उछाली, वह दुलत्ती झाड़ी, वह मुँह खोल कर लपका; मगर टट्टू खड़ा है, कान तक नहीं हिलाता। एक दफे आँख बंद करके हजरत ने चाहा कि लद लें, मगर यारों ने तालियाँ जो बजाईं, तो टट्टू भागा और मियाँ खोजी भद से जमीन पर। देखा, कहते न थे कि हम इस टट्टू पर न सवार होंगे। मगर आजाद ने घड़ी दिल्लगी देखने के लिए हमको उल्लू बनाया। वह तो कहो, हड्डी-पसली बच गई, नहीं तो चुरमुर हो ही जाती। खैर, दो आदमियों ने उनको उठाया और लाद कर घोड़ी की पीठ पर रख दिया। उन्होंने लगाम हाथ में ली ही थी कि एक बिगड़े-दिल ने चाबुक जमा दिया। टट्टू, दुम दबा कर भागा और मियाँ खोजी लुढ़क गए। बारे आजाद ने आ कर उनको उठाया।
खोजी – अब क्या रूम तक बराबर इस टट्टू ही पर जाना होगा?
आजाद – और नहीं क्या आपके वास्ते उड़नखटोला आएगा?
खोजी – भला इस टट्टू, पर कौन जाएगा?
आजाद – टट्टू, आप तो इसे टाँघन कहते थे?
खोजी – भई, हमें आजाद कर दो। हम बाज आए इस सफर से?
आजाद – अरे बेवकूफ, रेल तक इसी पर चलना होगा। वहाँ से बंबई तक रेल पर जाएँगे।
मियाँ आजाद और खोजी आगे बढ़े। थोड़ी देर में खोजी का टट्टू भी गरमाया और आजाद की घोड़ी के पीछे कदम बढ़ाकर चलने लगा। चलते-चलते टट्टू ने शरारत की। बूट के हरे-भरे खेत देखे, तो उधर लपका। किसान ने जो देखा, तो लट्ठ ले कर दौड़ा और लगा बुरा-भला कहने। उसकी जोरू भी चमक कर लपकी और कोसने लगी कि पलवइया मर जाय, कीड़े पड़ें, अभी-अभी पेट फटै, दाढ़ीजार की लहास निकले। और किसान भी गालियाँ देने लगा – अरे यो टट्टू कौन सार केर आय? ससुर हमरे खेत में पैठाय दिहिस। मियाँ खोजी गालियाँ खा कर बिगड़ गए। उनमें एक सिफत यह थी कि बे-सोचे-समझे लड़ पड़ते थे; चाहे अपने से दुगुना-चौगुना हो, वह चिमट ही जाते थे। गुस्से की यह खासियत है कि जब आता है, कमजोर पर। मगर मियाँ खोजी का गुस्सा भी निराला था, वह जब आता था, शहजोर पर। किसान ने उनके टट्टू को कई लट्ठ जमाए, तो मियाँ खोजी तड़ से उतर कर किसान से गुँथ गए। वह गँवार आदमी, बदन का करारा और यह दुबले-पतले, महीन आदमी, हवा के झोंके में उड़ जायँ। उसने इनकी गरदन दबोची और गद से जमीन पर फेका। फिर उठे, तो उसकी जोरू इनसे चिमट गई और लगी हाथापाई होने। उसने घूँसा जमाया और इनके पट्टे पकड़ कर फेंका, तो चारों खाने चित। दो थप्पड़ भी रसीद किए – एक इधर, एक उधर। किसान खड़ा हँस रहा है कि मेहरारू से जीत नाहीं पावत, यह मुसंडन से का लड़ि हें भला! किसान की जोरू तो ठोंक-ठाँक कर चल दी, और आपने पुकारना शुरू किया – कसम अब्बाजान की, जो कहीं छुरा पास होता, तो इन दोनों की लाश इस वक्त फड़कती होती। वह तो कहिए, खुदा को अच्छा करना मंजूर था कि मेरे पास छुरा न था, नहीं तो इतनी करौलियाँ भोंकता कि उमर भर याद करते। खड़ा तो रह ओ गीदी! इस पर गाँववालों ने खूब कहकहा उड़ाया। एक ने पूछा – क्यों मियाँ साहब, छुरी होती, तो क्या भोंक कर मर जाते? इस पर मियाँ खोजी और भी आग हो गए।
मियाँ आजाद कोई दो गोली के टप्पे पर निकल गए थे। जब खोजी को पीछे न देखा, तो चकराए कि माजरा क्या है? घ़़ोडी फेरी और आ कर खोजी से बोले – यहाँ खेत में कब तक पड़े रहोगे? उठो, गर्द झाड़ो।
खोजी – करौली न हुई पास, नहीं तो इस वक्त दो लाशें यहाँ फड़कती हुई देखते।
आजाद – अजी, वह तो जब देखते तब देखते, इस वक्त तो तुम्हारी लोथ देख रहे हैं।
उन्होंने फिर खोजी को उठाया और टट्टू पर सवार कराया। थोड़ी देर में फिर दोनों आदमियों में एक खेत का फासला हो गया। खोजी से एक पठान ने पूछा कि शेख जी, आप कहाँ रहते हैं? हजरत ने झट से एक कोड़ा जमाया और कहा – अबे, हम शेख नहीं, ख्वाजा हैं। वह आदमी गुस्से से आग हो गया और टाँग पकड़ कर घसीटा, तो खोजी खट से जमीन पर। अब चारों खाने चित पड़े हैं, उठने का नाम नहीं लेते। आजाद ने जो पीछे फिर कर देखा, तो टट्टू आ रहा है, मगर खोजी नदारद। पलटे, देखें, अब क्या हुआ। इनके पास पहुँचे, तो देखा, फिर उसी तरह जमीन पर पड़े करौली की हाँक लगा रहे हैं।
आजाद – तुम्हें शर्म नहीं आती! कमजोरी मार खाने की निशानी। दम नहीं है, तो कटे क्यों मरते हो? मुफ्त में जूतियाँ खाना कौन जवाँमरदी है?
खोजी – वल्लाह, जो करौली कहीं पास हो, तो चलनी ही कर डालूँ। वह तो कहिए, खैरियत हुई कि करौली न थी, नहीं तो इस वक्त कब्र खोदनी पड़ती।
आजाद – अब उठोगे भी, या परसों तक यों ही पड़े रहोगे। तुमने तो अच्छा नाक में दम कर दिया।
खोजी – अजी, अब न उठेंगे, जब तक करौली न ला दोगे, बस अब बिना करौली के न बनेगी।
आजाद – बस, अब बेहूदा न बको; नहीं तो मैं अबकी एक लात जमाऊँगा।
खैर, दोनों आदमी यहाँ से चले तो खोजी बोले – यहाँ जोड़-जोड़ में दर्द हो रहा है। उस किसान की मुसढ़ी औरत ने तो कचूमर ही निकाल डाला। मगर कसम है खुदा की, जो कहीं करौली पास होती, तो गजब ही हो जाता। एक को तो जीता छोड़ता ही नहीं।
आजाद – खुदा गंजे को पंजे नहीं देता। करौली की आपको हमेशा तलाश रही, मगर जब आए, पिट ही के आए, जूतियाँ ही खाईं। खैर, यह दुखड़ा कोई कहाँ तक रोए, अब यह बताओ कि हम क्या करें? जी मतला रहा है, बंद-बंद टूट रहा है, आँखे भी जलती हैं।
खोजी – लैनडोरी आ गई। अब हजरत भी आते होंगे।
आजाद – यह लैनडोरी कैसी? हजरत कौन? मैं कुछ नहीं समझा। जरा बताओ तो?
खोजी – अभी लड़के न हो, बुखार की आमद है। आँखों की जलन, जी का मतलाना, बदन का टूटना, सब उसी की अलामतें हैं। इस वक्त घोड़े पर सवार हो कर चलना बुरा है। अब आप घोड़े से उतर पड़िए और चल कर कहीं लेट रहिए, कहना मानिए।
आजाद – यहाँ कोई अपना घर है, जो उतर पडूँ? किसी से पूछो तो कि गाँव कितने दूर है। खुदा करे, पास ही हो, नहीं तो मैं यहीं गिर पड़ूँगा और कब्र भी यहीं बनेगी।
खोजी – अजी, जरा दिल को सँभालो। कोई इतना घबराता है? कब्र कैसी? जरा दिल को ढारस दीजिए।
आजाद – वल्लाह, फुँका जाता हूँ, बदन से आग निकल रही है।
खोजी – वह गाँव सामने ही है, जरा घोड़ी को तेज कर दो।
आजाद ने घोड़ी को जरा तेज किया, तो वह उड़ गई। खोजी ने भी कोड़े पर कोड़ा जमाना शुरू किया। मगर लद्दू, टट्टू पर बिगड़ रहे हैं कि न हुई करौली इस वक्त, नहीं तो इतनी भोंकता कि बिलबिलाने लगता। खैर, किसी तरह उठे, टट्टू को पकड़ा और लद कर चले। दो-चार दिल्लगीबाज आदमियों ने तालियाँ बजाईं और कहना शुरू किया – लदा है, लदा है, लेना, जाने न पाए। खोजी बिगड़ खड़े हुए। हटो सामने से, नहीं तो हंटर जमाता हूँ। मुझे भी कोई ऐसा-वैसा समझे हो! मैं सिपाही आदमी हूँ। नवाबी मैं दो-दो तलवारें कमर से लगी रहती थीं। अब लाख कमजोर हो गया हूँ, लेकिन अब भी तुम जैसे पचास पर भारी हूँ। लोगों ने खूब हँसी उड़ाई। जी हाँ, आप ऐसे ही जवाँमर्द हैं। ऐसे सूरमा होते कहाँ हैं।
खोजी – उतरूँ घोड़े से, आऊँ?
यारों ने कहा – नहीं साहब, ऐसा गजब भी न कीजिएगा! आप ठहरे पहलवान और सिपाही आदमी, कहीं मार डालिए आ कर तो कोई क्या करेगा।
इस तरह गिरते-पड़ते एक सराय में पहुँचे और अंदर जा कर कोठरियाँ देखने लगे। सराय भर में चक्कर लगाए, लेकिन कोई कोठरी पसंद न आई। भठियारियाँ पुकार रहीं हैं कि मियाँ मुसाफिर इधर आओ, इधर देखो, खासी साफ-सुथरी कोठरी है। टट्टू बाँधने की जगह अलग। इतना कहना था कि मियाँ खोजी आग हो गए। क्या कहा, टट्टू है, यह पीगू का टाँघन है। एक भठियारी ने चमक कर कहा – टाँघन है या गधा? तब तो खोजी झल्लाए और छुरी और करौली की तलाश करने लगे। इस पर सराय भर की भठियारियों ने उन्हें बनाना शुरू किया। आखिर आप इतने दिक हुए कि सराय के बाहर निकल आए और बोले – भई, चलो, आगे के गाँव में रहेंगे। यहाँ सब के सब शरीर हैं। मगर आजाद में इतना दम कहाँ कि आगे जा सकें। सराय में गए और एक कोठरी में उतर पड़े। खोजी ने भी वहीं बिस्तर जमाया। साईस तो कोई साथ था नहीं, खोजी को अपने ही हाथ से दोनों जानवरों के खरेरा करना पड़ा। भठियारी ने समझा, यह साईस है।
भठियारी – ओ साईस भैया, जरा घोड़ी को उधर बाँधो।
खोजी – किसे कहती है री, साईस कौन है?
भठियारी – ऐ तो बिगड़ते क्यों हो मियाँ, साईस नहीं चरकते सही।
आजाद – चुप रहो, यह हमारे दोस्त हैं।
भठियारी – दोस्त हैं, सूरत तो भलेमानसें की सी नहीं है।
खोजी – भई आजाद जरा आईना तो निकाल देना। कई आदमी कह चुके। आज मैं अपना चेहरा जरूर देखूँगा। आखिर सबब क्या कि जिसे देखो, यही कहता है।
आजाद – चलो, वाहियात न बको, मेरा तो बुरा हाल है।
भठियारी ने चारपाई बिछा दी और आजाद लेटे।
खोजी ने कहा – अब तबीयत कैसी है?
आजाद – बुरी गत है; जी चाहता है, इस वक्त जहर खा लूँ।
खोजी – जरूर, और उसमें थोड़ी संखिया भी मिला लेना।
आजाद – मर कमब्ख्त, दिल्लगी का यह मौका है?
खोजी – अब बूढ़ा हुआ, मरूँ किस पर। मरने के दिन तो आ गए। अब तुम जरा सोने का खयाल करो। दो-चार घड़ी नींद आ जाय, तो जी हलका हो जाय।
इतने में भठियारी ने आ कर पूछा – मियाँ कैसे हो?
आजाद – क्या बताऊँ, मर रहा हूँ।
भठियारी – किस पर?
आजाद – तुम पर?
भठियारी – खुदा की सँवार।
आजाद – किस पर?
भठियारी ने खोजी की तरफ इशारा करके कहा – इन पर
खोजी – अफसोस, न हुई करौली!
आजाद – होती, तो क्या करते?
खोजी – भोंक लेते अपने पेट में।
आजाद – भई, अब कुछ इलाज करो, नहीं तो मुफ्त में दम निकल जाएगा।
भठियारी – एक हकीम यहाँ रहते हें। मैं बुलाए लाती हूँ।
यह कह कर बी भठियारी जा कर हकीम जी को बुला लाई। मियाँ आजाद देखते हैं, तो अजब ढंग से आदमी-धोती बाँधे, गाढ़े की मिरजई पहने, चेहरे से देहातीपन बरस रहा है, आदमियत छू ही नहीं गई।
आजाद – हकीम साहब, आदाब।
हकीम – नाहीं दबवाव नाहीं। बुखार में दाबे नुकसान होत है।
आजाद – आपका नाम?
हकीम – हमारा नाम दाँगलू।
आजाद – दाँगलू या जाँगलू?
हकीम – नुस्खा लिखूँ?
आजाद – जी नहीं, माफ कीजिए। बस, यहाँ से तशरीफ ले जाइए।
हकीम – बुखार में अक-बक करत हैं, चाँद के पट्टे करतवा डालो।
खोजी – कुछ बेधा तो नहीं हुआ! न हुई करौली, नहीं तो तोंद पर रख देता।
हकीम – भाई, हमसे इनका इलाज न हो सकिहै। अब एक होय, तो इलाज करें। यो पागल को है हो? हमका इलई का पलवा बकत है ससुर।
आखिर खोजी ने झल्ला कर उनको उठा दिया और यह नुस्खा लिखा – आलूबुखारा दो दाना, तमरहिंदी छह माशा, अर्क गावजबाँ दो तोला।
आजाद – यह नुस्खा तो आप कल पिलाएँगे, यहाँ तो रात-भर में काम ही तमाम हो जाएगा।
खोजी – इस वक्त बंदा कुछ नहीं देने का। हाँ, आलू का पानी पीजिए, पाँच दाने भिगाए देता हूँ। खाना इस वक्त कुछ न खाना।
आजाद – वाह, खाना न मिला, तो मैं आप ही को चट कर जाऊँगा। इस भरोसे न रहिएगा।
खोजी – वल्लाह, एक दाना भी आपके पेट में गया और आप बरस भर तक यों ही पड़े रहे। आलू का पानी भी घूँट-घूँट करके पीना। यह नहीं कि प्याला मुँह से लगाया और गट-गट पी गए।
यह कह कर खोजी ने चंदन घिस कर आजाद की छाती पर रखा। पालक के पत्ते चारपाई पर बिछा दिए। खीरा काट कर माथे पर रखा और जरा सा नमक बारीक पीस कर पाँव में मला। तलवे सहलाए।
आजाद – यहाँ तो कोई हकीम भी नहीं।
खोजी – अजी, हम खुद इलाज करेंगे। हकीम न सही, हकीमों की आँखें तो देखी हैं।
आजाद – इलाज तक मुजायका नहीं, मगर मार न डालना भाई! हाँ, जरा इतना एहसान करना।
आजाद की बेचैनी कुछ कम हुई तो आँख लग गई। एकाएक पड़ोस की कोठरी से शोर गुल की आवाज आई। आजाद चौंक पड़े और पूछा – यह कैसा शोर है? भठियारी, तुम जरा जा कर उनको ललकारो।
खोजी – कहो कि एक शरीफ आदमी बुखार में पड़ा हुआ है। खुदा के वास्ते जरा खामोश हो जाओ।
भठियारी – मियाँ, मैं ठहरी औरतजात और वे मरदुए। और फिर अपने आपे में नहीं। जो मुझी पर पिल पड़े, तो क्या करूँगी? हाँ, भठियारे को भेजे देती हूँ।
भठियारे ने जा कर जो उन शराबियों को डाँटा, तो सब के सब उस पर टूट पड़े और चपतें मार-मार कर भगा दिया। इस पर भठियार तैश में आ कर उठी और उँगलियाँ मटका कर इतनी गालियाँ सुनाईं कि शराबियों का नशा हिरन हो गया। वे इतना डरे कि कोठरी का दरवाजा बंद कर लिया।
लेकिन थोड़ी देर में फिर शोर हुआ और आजाद की नींद उचट गई। खोजी को जो शामत आई, तो शराबियों की कोठरी के दरवाजे को इस जोर से घुमाया कि चूल निकल आई? सब शराबी झल्लाकर बाहर निकल आए और खोजी पर बेभाव की पड़ने लगी। उन्होंने इधर-उधर छुरी और करौली की बहुत कुछ तलाश की, मगर खूब पिटे। इसके बाद वे सब सो गए, रात भर कोई न मिनका। सुबह को उस कोठरी से रोने की आवाज आई। खोजी ने जा कर देखा, तो एक आदमी मरा पड़ा है और बाकी सब खड़े रो रहे हैं। पूछा, तो एक शराबी ने कहा – भाई, हम सब रोज शराब पिया करते हैं। कल की शराब बहुत तेज थी। हमने बहुत मना किया; पर बोतल की बोल खाली कर दी। रात को हम लोग सोए, तो इतना अलबत्ता कहा कि कलेजा फूँका जा रहा है। अब जो देखते हैं, तो मरा हुआ है। आप तो जान से गया और हमको भी कत्ल कर गया।
खोजी – गजब हो गया! अब तुम धरे जाओगे और सजा पाओगे!
शराबी – हम कहेंगे कि साँप ने काटा था।
खोजी – कहीं ऐसी भूल भी न करना।
शराबी – अच्छा, भाग जायँगे।
खोजी – तब तो जरूर ही पकड़े जाओगे। लोग ताड़ जायँगे कि कुछ दाल में काला है।
शराबी – अच्छा, हम कहेंगे कि छुरी मार कर मर गया और गले में छुरी भी भोंक देंगे।
खोजी – यह बात हिमाकत है, मैं जैसे कहूँ, वैसे करो। तुम सब के सब रोओ और सिर पीटो। एक कहे कि मेरा सगा भाई था। दूसरा कहे कि मेरा बहनोई था; तीसरा उसे मामूँ बताए। जो कोई पूछे कि क्या हुआ था, तो गुर्दे का दर्द बताना। खूब चिल्ला-चिल्ला कर रोना। जो यों आँसू न आवें तो मिरचे लगा लो। आँखों में धूल झोंक लो। ऐसा न हो कि गड़बड़ा जाओ और जेलखाने जाओ।
इधर तो शराबियों ने रोना-पीटना शुरू किया, उधर किसी ने जा कर थाने में जड़ दी कि सराय में कई आदमियों ने मिल कर एक महाजन को मार डाला। थानेदार और दस चौकीदार रप-रप करते आ पहुँचे। अरे ओ भठियारी, बता, वह महाजन कहाँ टिका हुआ था?
भठिायारिन – कौन महजान? किसी का नाम तो लीजिए।
थानेदार – तेरा बाप, और कौन!
भठियारिन – मेरा बाप? उसकी तलाश है, तो कब्रिस्तान जाइए।
थानेदार – खून कहाँ हुआ?
भठियारिन – खून! अरे तोबा कर बंदे! खून हुआ होगा थाने पर।
थानेदार – अरे इस सराय में कोई मरा है रात को?
भठियारिन – हाँ तो यों कहिए। वह देखिए, बेचारे खड़े रो रहे हैं। उनके भाई थे। कल दर्द हुआ। रात को मर गए।
थानेदार – लाश कहाँ है?
शराबी – हुजूर, यह रखी है। हाय, हम तो मर मिटे। घर में जा कर क्या मुँह दिखाएँगे, किस मुँह से अब घर जायँगे। किसी डाक्टर को बुलवाइए, जरा नब्ज तो देख लें।
थानेदार – अजी, अब नब्ज में क्या रखा है। बेचारा बुरी मौत मरा। अब इसके दफन-कफन की फिक्र करो।
थानेदार चला गया, तो मियाँ खोजी खूब खिल-खिला कर हँसे कि वल्लाह, क्या बात बनाई है। शराबियों ने उनकी खूब आवभगत की कि वाह उस्ताद, क्या झाँसा दिया। आपकी बदौलत जान बची; नहीं तो न जाने किस मुसीबत में फँस जाते।
थोड़ी ही देर बाद किसी कोठरी से फिर शोर-गुल सुनाई दिया।
आजाद – अब यह कैसा गुल है भाई? क्या यह भी कोई शराबी है।
भठियारिन – नहीं, एक रईस की लड़की है। उस पर एक परेत आया है। जरा सी लड़की, लेकिन इतनी दिलेर हो गई है कि किसी के सँभाले नहीं सँभलती।
आजाद – यह सब ढकोसला है!
भठियारिन – ऐ वाह, ढकोसला है। इस लड़की का भाई आगरे में था और वहाँ से पाँच सौ रुपए अपने बाप की थैली से चुरा लाया। यहाँ जो आया, तो लड़की ने कहा कि तू चोर है, चोरी करके आया है।
आजाद – अजी, उस लड़के ने अपनी बहन से कह दिया होगा; नहीं तो भला उसे क्या खबर होती?
भठियारी – भला गजलें उसे कहाँ से याद हैं?
आजाद – इसमें अचरज की कौन सी बात है? तुम्हें भी दो-चार गजलें याद ही होंगी!
भठियारी – मैं यह न मानूँगी। अपनी आँखों देख आई हूँ।
आजाद तो खिचड़ी पकवा कर खाने लगे और मियाँ खोजी घास लाने चले। जब घसियारी ने बारह आने माँगे, तो आपने करौली दिखाई। इस पर घसियारी ने गट्ठा इन पर फेंक दिया। बेचारे गट्ठे के बोझ से जमीन पर आ रहे। निकलना मुश्किल हो गया। लगे चीखने – न हुई करौली, नहीं तो बता देता। अच्छे अच्छे डाकू मेरा लोहा मानते हैं। एक नहीं, पचासों को मैंने चपरगट्टू किया है। यह घसियारिन मुझसे लड़े। अब उठाती है गट्ठा या आ कर करौली भोंक दूँ?
लोगों ने गट्ठा उठाया, तो मियाँ खोजी बाहर निकले। दाढ़ी-मूँछ पर मिट्टी जम गई थी, लत-पत हो गए थे। उधर आजाद खिचड़ी खा कर लेटे ही थे कि कै हुई और फिर बुखार हो आया। तड़पने लगे। तब तो खोजी भी घबराए। सोचे, अब बिना हकीम के काम न चलेगा? भठियारी से पूछ कर हकीम के यहाँ पहुँचे।
हकीम साहब पालकी पर सवार हो कर आ पहुँचे।
आजाद – आदाब बजा लाता हूँ।
खोजी – बेहद कमजोरी है। बात करने की ताकत नहीं।
हकीम – यह आपके कौन हैं?
खोजी – जी हुजूर, यह गुलाम का लड़का है।
हकीम – आप मुझे मसखरे मालूम होते हैं।
खोजी – जी हाँ, मसखरा न होता, तो लड़के का बाप ही क्यों होता!
आजाद – जनाब, वह बेहया-बेशर्म आदमी है। न इसको जूतियाँ खाने का डर, न चपातियाए जाने का खौफ। इसकी बातों का तो खयाल ही न कीजिए।
खोजी – हकीम साहब, मुझे तो कुछ दिनों से बवासीर की शिकायत हो गई है।
हकीम – अजी, मैं खुद इस शिकायत में गिरफ्तार हूँ। मेरे पास इसका आजमाया हुआ नुस्खा मौजूद है।
खोजी – तो आपने अपने बवासीर का इलाज क्यों न किया?
आजाद – खोजी, तुम्हारी शामत आई है। आज पिटोगे।
खैर, हकीम साहब ने नुस्खा लिखा और रुखसत हुए। अब सुनिए कि नुस्खे में लिखा था – रोगन-गुल। आपने पढ़ा रोगनगिल, यानी मिट्टी का तेल। आप नुस्खा बँधवा कर लाए और मिट्टी के तेल में पका कर आजाद को पिलाया, तो मिट्टी के तेल की बदबू आई। आजाद ने कहा – यह बदबू कैसी है? इस पर मियाँ खोजी ने उन्हें खूब ही ललकारा। वाह, बड़े नाजुक-मिजाज हैं, अब कोई इत्र पिलाए आपको, या केसर का खेत चराए, तब आप खुश हों। आजाद चुप हो रहे, लेकिन थोड़ी ही देर बाद इतने जोर का बुखार चढ़ा कि खोजी दौड़े हुए हकीम साहब के पास गए और बोले – जनाब मरीज बेचैन है। और क्यों न हो, आपने भी तो मिट्टी का तेल नुस्खे में लिख दिया।
हकीम – मिट्टी का तेल कैसा? मैं कुछ समझा नहीं।
खोजी – जी हाँ, आप काहे को समझने लगे। आप ही तो रोगन-गिल लिख आए थे।
हकीम – अरे भले आदमी, क्या गजब किया! कैसे जाँगलुओं से पाला पड़ा है! हमने लिखा रोगन गुल और आप मिट्टी का तेल दे आए! वल्लाह, इस वक्त अगर आप मेरे मकान पर न आए होते, खड़े-खड़े निकलवा देता।
खोजी – आपके हवास तो खुद ही ठिकाने नहीं। आपके मकान पर न आया होता, तो आप निकलवा कहाँ से देते? जनाब, पहले फस्द खुलवाइए।
यह कह कर मियाँ खोजी लौट आए। आजाद ने कहा – भाई, हकीम को तो देख चुके, अब कोई डॉक्टर लाओ।
खोजी – डॉक्टरों की दवा गरम होती है। बुखार का इलाज इन लोगों को मालूम ही नहीं।
आजाद – आप है अहमक! जा कर चुपके से किसी डॉक्टर को बुला लाइए।
खोजी पता पूछते हुए अस्पताल चले और डॉक्टर को बुला लाए?
डॉक्टर – जबान दिखाओ, जबान!
आजाद – बहुत खूब!
डॉक्टर – आँखें दिखाओ?
आजाद – आँखें दिखाऊँ, तो घबरा कर भागो।
डॉक्टर – क्या बक-बक करता है, आँख दिखा।
खैर डॉक्टर साहब ने नुस्खा लिखा और फीस लेकर चंपत हुए। आजाद ने चार घंटे उनकी दवा की, मगर प्यास और बेचैनी बढ़ती गई। सेरों बर्फ पी गए, मगर तसकीन न हुई। उल्टे पेचिश ने नाक में दम कर दिया। सुबह होते मियाँ खोजी एक वैद्यराज को बुला लाए। उन्होंने एक गोली दी और शहद के साथ चटा दी। थोड़ी देर में आजाद के हाथ-पाँव अकड़ने लगे। खोजी बहुत घबराए और दौड़े वैद्य को बुलाने। राह में एक होम्योपैथिक डॉक्टर मिल गए। यह उन्हें घेर-घार कर लाए। उन्होंने एक छोटी सी शीशी से दवा की दो बूँदे पानी में डाल दीं। उसके पीते ही आजाद की तबीयत और भी बेचैन हो गई।
मियाँ आजाद ने दो-तीन दिन में इतने हकीम, डॉक्टर और वैद्य बदले कि अपनी ही मिट्टी पलीद कर ली। इस कदर ताकत भी न रही कि खटिया से उठ सकें। खोजी ने अब उन्हें डाँटना शुरू किया – और सोइए ओस में! जरा सी लुंगी बाँध ली और तर बिछौने पर सो रहे। फिर आप बीमार न हों, तो क्या हम हों। रोज कहता था कि ओस में सोना बुरा है; मगर आप सुनते किसकी हैं। आप अपने को तो जाली मूस समझते हैं और बाकी सबको गधा। दुनिया में बस, एक आप ही तो सुकरात हैं।
भठियारी – ऐ, तुम भी अजीब आदमी हो! भला कोई बीमार को ऐसे डाँटता है? जब अच्छे हो जायँ, तो खूब कोस लेना। और जो ओस की कहते हो, तो मियाँ, यह तो आदत पर है। हम तो दस बरस से ओस ही में सोते हैं। आज तक जुकाम भी जो हुआ हो, तो कसम ले लो।
आजाद – कोसने दो। अब यहाँ घड़ी दो घड़ी के और मेहमान हैं। अब मरे। न जाने किस बुरी साइत घर से चले थे। हुस्नआरा के पास खत भेज दो कि हमको आ कर देख जायँ। आज इस वक्त सराय में लेटे हुए बातें कर रहे हैं, कल परसों तक कब्र में होंगे –
आगोश-लहद में जब कि सोना होगा;
जुज खाक, न तकिया, न बिछौना होगा।
तनहाई में आह कौन होबेगा अनीस;
हम होवेंगे और कब्र का कोना होगा।
खोजी – मैं डरता हूँ कि कहीं तुम्हें सरसाम न हो जाय।
भठियारी – चुप भी रहो, आखिर कुछ अक्ल भी है?
आजाद – मेरे दिन ही बुरे आए हैं। इनका कोई कसूर नहीं।
भठियारी – आपने भी तो हकीम की दवा की। हकीम लटकाए रहते हैं।
आजाद – खुदा हकीमों से बचाए। मूँग की खिचड़ी दे-दे कर मरीज को अधमरा कर डालते हैं। उस पर प्याले भर-भर दवा। अगर दो महीने में भी खटिया छोड़ी, तो समझिए कि बड़ा खुशनसीब था।
खोजी – जी हाँ, जब डॉक्टर न थे, तब तो सब मर ही जाते थे।
आजाद – खैर, चुप रहो, सिर मत खाओ। अब हमें सोने दो।
मियाँ आजाद की आँख लग गई। खोजी भी ऊँघने लगे। एक आदमी ने आ कर उनको जगाया और कहा – मेरे साथ आइए, आपसे कुछ कहना है। खोजी ने देखा, तो इनकी खासी जोड़ थी। उनसे अंगुल दो अंगुल दबते ही थे।
खोजी – तो आप पिले क्यों पड़ते हैं? दूर ही से कहिए, जो कुछ कहना हो।
मुसाफिर – मियाँ आजाद कहाँ हैं?
खोजी – आप अपना मतलब कहिए। यहाँ तो आजाद-वाजाद कोई नहीं है। आप अपना खास मतलब कहिए।
मुसाफिर – अजी, आजाद हमारे बहनोई है। हमारी बहन ने भेजा है कि देखो कहाँ हैं।
खोजी – उनकी शादी तो हुई नहीं, बहनोई क्योंकर बन गए?
मुसाफिर – कितने अक्ल के दुश्मन हो! भला कोई बेवजह किसी को अपना बहनोई बनावेगा?
खोजी – भला आजाद की बीवी कहा हैं? हमको तो दिखा दीजिए।
मुसाफिर – अजी, इसी सराय के उस कोने में। चलो, दिखा दें। तुमसे क्या चोरी है।
मियाँ खोजी कोठरी के अंदर गए। बालों में तेल डाला। सफेद कपड़े पहने। लाल फुँदनेदार टोपी दी। मियाँ आजाद का एक खाकी कोट डाटा और जब खूब बन-ठन चुके, तो आईना ले कर सूरत देखने लगे। बस, गजब ही तो हो गया। दाढ़ी के बाल ऊँचे-नीचे पाए, मूँछें गिरी पड़ीं। आपने कैंची ले कर बाल बराबर करना शुरू किया। कैंची तेज थी, एक तरफ की मूँछ बिलकुल उड़ गई। अब क्या करते, अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारी। मजबूर होकर बाहर आए, तो मुसाफिर उन्हें देख कर हँस पड़ा। मगर आदमी था चालाक, जब्त किए रहा और खोजी को साथ ले चला। जा कर क्या देखते हैं कि एक औरत, इत्र में बसी हुई, रंगीन कपड़े पहने चारपाई पर सो रही है। जुल्फें काली नागिन की तरह लहराती हुई गरदन के इर्द-गिर्द पड़ी हुई हैं। खोजी लगे आँखें सेकने। इतने में उस औरत ने आँखें खोल दीं और खोजी को देख कर ललकारा – तुम कौन हो? यहाँ क्या काम?
खोजी – आपके भाई पकड़ लाए।
औरत – अच्छा, पंखा झलो, मगर आँखें बंद करके। खबरदार मुझे न देखना।
खोजी – पंखा झलने लगे और उस औरत ने झूठ-मूठ आँखें बंद कर लीं। जरा देर में आँख जो खोली, तो देखा कि खोजी आँखें फाड़-फाड़ कर देख रहे हैं। उसका आँखें खोलना था कि मियाँ खोजी ने आँखें खूब जोर से बंद कर लीं।
औरत – क्यों जी, घूरते क्यों हो! बताओ, क्या सजा दूँ?
खोजी – इत्तिफाक से आँख खुल गई।
औरत – अच्छा बताओ, मियाँ आजाद कहाँ हैं?
उधर मियाँ आजाद की आँख जो खुली, तो खोजी नदारद! जब घंटों हो गए और खोजी न आए, तो उनका माथा ठनका कि कमजोर आदमी हैं ही, किसी से टकराए होंगे, उसने गदरन नापी होगी। भठियारे को भेजा कि जा कर जरा देखो तो। उसने हँस कर कहा – जरी से तो आदमी है, भेड़िया उठा ले गया होगा। दूसरा बोला – आज हवा सन्नाटे की चलती है, कहीं उड़ गए होंगे। आखिर भठियारी ने कहा कि उन्हें तो एक आदमी बुला कर ले गया है। खोजी खूब बन-ठन कर गए हैं।
आजाद के पेट में चूहे दौड़ने लगे कि खोजी को कौन पकड़ ले गया। गिड़गिड़ा कर भठियारी से कहा – चाहे जो हो, खोजी को लाओ। किसी से पूछो-पाछो। आखिर गए कहाँ?
इधर मियाँ खोजी उस औरत के साथ बैठे दस्तरख्वान पर हत्थे लगा रहे थे खाते जाते थे और तारीफें करते जाते थे। एक लुकमा खाया और कई मिनट तक तारीफ की। यह तो तारीफ ही करते रहे, उधर मियाँ मुसाफिर ने दस्तरख्वान साफ कर दिया। खोजी दिल में पछताए कि हमसे क्या हिमाकत हुई। पहले खूब पेट-भर खा लेते, फिर चाहे दिन भर बैठे तारीफ करते। उस औरत ने पूछा कि कुछ और लाऊँ? शर्माइएगा नहीं। यह आपका घर है। खोजी कुछ माँगनेवाले ही थे कि मियाँ मुसाफिर ने कहा – नहीं, जी, अब क्या हैजा कराओगी? यह कह कर उसने दस्तरख्वान हटा दिया और खोजी मुँह ताकते रह गए। खाना खाने के बाद पान की बारी आई। दो ही गिलौरियाँ थीं। मुसाफिर ने एक तो उस औरत को दी और दूसरी अपने मुँह में रख ली। खोजी फिर मुँह देख कर रह गए। इसके बाद मुसाफिर ने उनसे कहा – मियाँ होत, अरे भाई, तुमसे कहते हैं।
खोजी – किससे कहते हो जी? क्या कहते हो?
मुसाफि र- यही कहते हैं कि जरा पलंग से उतर कर बैठो। क्या मजे से बराबर जा कर डट गए! उतरे कि मैं पहुँचूँ? और देखिएगा, आप पलंग पर चढ़ कर बैठे हैं। अपनी हैसियत को नहीं देखता।
खोजी – चुप गीदी, न हुई करौली, नहीं तो भोंक देता।
औरत – करौली पीछे ढूँढ़िएगा, पहले जरा यहाँ से खिसक कर नीचे बैठिए।
खोजी – बहुत अच्छा, अब बैठूँ तो तोप पर उड़ा देना।
मुसाफिर – ले चलो, उठो। यह लो, झाड़ू। अभी झाड़ू दे डालो।
खोजी – झाड़ू तुम दो। हमको भी कोई भड़भूजा समझा है? हम खानदानी आदमी हैं। रईसों से इस तरह बातें कहता है गीदी!
मुसाफिर – हमें तो नानबाई सा मालूम होता है। चलिए, उठिए, झाड़ू दीजिए। बड़े रईसजादे बन कर बैठे हैं। रईसों की ऐसी ही सूरत हुआ करती है?
खोजी ने दिल में सोचा कि जिससे मिलता हूँ, वह यही कहता है कि भले-मानस की ऐसी सूरत नहीं होती। और, इस वक्त तो एक तरफ की मूँछ ही उड़ गई हैं, भलामानस कौन कहेगा। कुछ नहीं, अब हम पहले मुँह बनवाएँगे! बोले – अच्छा, रुखसत।
मुसाफिर – वाह, क्या दिल्लगी है। बैठिए, चिलम भरके जाइएगा।
मियाँ खोजी ऐसे झल्लाए कि चिमट ही तो गए। दोनों में चपतबाजी होने लगी। दोनों का कद कोई छह छह बालिश्त का, दोनों मरियल, दोनों चंडूबाज। यह आहिस्ता से उनको चपत लगाते हैं। वह धीरे से इन पर धप जमाते हैं। उन्होंने इनके कान पकड़े इन्होंने उनकी नाक पकड़ी। उन्होंने इनको काट खाया, इन्होंने उनको नोच लिया। और मजा यह कि दोनों रो रहे हैं। मियाँ खोजी करौली की धुन बाँधे हुए हैं। आखिर दोनों हाँफ गए। न यह जीते, न वह। खोजी लड़खड़ा कर गिरे, को चारों खाने चित। उस हसीना ने दो-तीन धौल ऊपर से जमा दिए। इनका तो यह हाल हुआ, उधर मियाँ मुसाफिर ने चक्कर खाया और धम से जमीन पर। आखिर हसीना ने दोनों को उठाया और कहा – बस, लड़ाई हो चुकी। अब क्या कट ही मरोगे? चलो, बैठो।
खोजी – न हुई करौली, नहीं तो भोंक देता। हत तेरे की!
मुसाफिर – वह तो मैं हाँफ गया, नहीं तो दिखा देता आपको मजा। कुछ ऐसा-वैसा समझ लिया है। सैकड़ों पेच याद हैं।
हसीना – खबरदार, जो अब किसी की जबान खुली! चलो, अब चलें मियाँ आजाद के पास। उनकी भी तो खबर लें, जिस काम के लिए यहाँ तक आए हैं।
शाम हो गई थी। हसीना दोनों आदमियों के साथ आजाद की कोठरी में पहुँची, तो क्या देखती है कि आजाद सोए हैं और भठियारी बैठी पंखा झल रही है। उसने चट आजाद का कंधा पकड़ कर हिलाया। आजाद की आँखें खुल गईं। आँख का खुलना था कि देखा, अलारक्खी सिरहाने खड़ी हैं और मियाँ चंडूबाज सामने खड़े पाँव दबा रहे हैं। आजाद की जान सी निकल गई। कलेजा धड़-धड़ करने लगा, होश पैतरे हो गए। या खुदा, यहाँ यह कैसे पहुँची? किसने पता बताया? जरा बीमारी हलकी हुई, तो इस बला ने आ दबोचा –
एक आफत से तो मर-मरके हुआ था जीना;
पड़ गई और यह कैसी, मेरे अल्लाह, नई।
खोजी – हजरत, उठिए, देखिए, सिरहाने कौन खड़ा है। वल्लाह, फड़क जाओ तो सही।
आजाद – (अलारक्खी) बैठिए-बैठिए, खूब मिलीं?
खोजी – अजी, अभी हमसे और आपके साले से बड़ी ठाँय-ठाँय हो गई। वह तो कहिए, करौली न थी, नहीं सालारजंग के पलस्तर बिगाड़ दिए होते।
आजाद ने खोजी, चंडूबाज और भठियारी को कमरे के बाहर जाने को कहा जब दोनों अकेले रह गए, तो आजाद ने अलारक्खी से कहा – कहिए, आप कैसे तशरीफ लाई हैं? हम तो वह आजाद ही नहीं रहे। वह दिल ही नहीं, वह उमंग ही नहीं। अब तो रूम ही जाने की धुन है।
अलारक्खी – प्यारे आजाद, तुम तो चले रूम को, हमें किसके सुपुर्द किए जाते हो? न हो, जमीन ही को सौंप दो। अब हम किसके हो कर रहें?
आजाद – अब हमारी इज्जत और आबरू आप ही के हाथ है। अगर रूम से जीते वापस आए, तो तुमको न भूलेंगे। अल्लाह पर भरोसा रखो, वही बेड़ा पार करेगा। मेरी तबीयत दो तीन दिन से अच्छी नहीं है। कल तो नहीं, परसों जरूर रवाना हूँगा।
खोजी – (भीतर आ कर) बी अलारक्खी अभी पूछ रही थीं कि मुझको किसके सुपुर्द किए जाते हो; आपने इसका कुछ जवाब न दिया। जो कोई और न मिले, तो हमीं यह मुसीबत सहें। हमारे ही सुपुर्द कर दीजिए। आप जाइए, हम और यह यहाँ रहेंगे।
आजाद – तुम यहाँ क्यों चले आए? निकलो यहाँ से।
अलारक्खी बड़ी देर तक आजाद को समझाती रही – हमारा कुछ खयाल न करो, हमारा अल्लाह मालिक है। तुम हुस्नआरा से कौल हारे हो, तो रूम जाओ और जरूर जाओ, खुदा ने चाहा तो सुर्खरू हो कर आओगे। मैं भी जा कर हुस्नआरा ही के पास रहूँगी। उन्हें तसल्ली देती रहूँगी। जरा जो किसी पर खुलने पावे कि मुझसे-तुमसे क्या ताल्लुक है। इतना खयाल रहे कि जहाँ-जहाँ डाक जाती हो, वहाँ-वहाँ से खत बराबर भेजने जाना। ऐसा न हो कि भूल जाओ। नहीं तो वह कुढ़-कुढ़ कर मर ही जायँगी। और, मेरा तो जो हाल हैं, उसको खुदा ही जानता है। अपना दुःख किससे कहूँ?
आजाद – अलारक्खी, खुदा की कसम, हम तुमको अपना इतना सच्चा दोस्त नहीं जानते थे। तुमको मेरा इतना खयाल और मेरी इतनी मुहब्बत है; यह तो आज मालूम हुआ।
इस तरह दो-तीन घंटे तक दोनों ने बातें की। जब अलारक्खी रवाना हुई, तो दोनों गले मिल कर खूब रोए।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 26
आजाद ने सोचा कि रेल पर चलने से हिंदोस्तान की हालत देखने में न आएगी। इसलिए वह लखनऊ के स्टेशन पर सवार न होकर घोड़े पर चले थे। एक शहर से दूसरे शहर जाना, जंगल और देहात की सैर करना, नए-नए आदमियों से मिलना उन्हें पसंद था। रेल पर ये मौके कहाँ मिलते। अलारक्खी के चले जाने के एक दिन बाद वह भी चले। घूमते-घामते एक कस्बे में जा पहुँचे। बीमारी से तो उठे ही थे, थक कर एक मकान के सामने बिस्तर बिछाया और डट गए। मियाँ खोजी ने आग सुलगाई और चिलम भरने लगे। इतने में उस मकान के अंदर से एक बूढ़े निकले और पूछा – आप कहाँ जा रहे हैं?
आजाद – इरादा तो बड़ी दूर का करके चला हूँ, रूम का सफर है, देखूँ पहुँचता हूँ या नहीं।
बूढ़े मियाँ – खुदा आपको सुर्खरू करे। हिम्मत करनेवाले की मदद खुदा करता है! आइए, आराम से घर में बैठिए। यह भी आप ही का घर है!
आजाद उस मकान में गए, तो क्या देखते हैं कि एक जवान औरत चिक उठाए मुसकिरा रही है। आजाद ज्यों ही फर्श पर बैठे वह हसीना बाहर निकल आई और बोली -मेरे प्यारे आजाद, आज बरसों के बाद तुम्हें देखा। सच कहना, कितनी जल्दी पहचान गई। आज मुँह-माँगी मुराद पाई।
मियाँ आजाद चकराए कि यह हसीना कौन है, जो इतनी मुहब्बत से पेश आती है। अब साफ-साफ कैसे कहें कि हमने तुम्हें नहीं पहचाना। उस हसीना ने यह बात ताड़ ली और मुसकिरा कर कहा-
हम ऐसे हो गए अल्लाह-अकबर, ऐ तेरी कुदरत।
हमारा नाम सुन कर हाथ वह कानों पे धरते हें।
आप और इतनी जल्द हमें भूल जायँ! हम वह हैं जो लड़कपन में तुम्हारे साथ खेला किए हैं। तुम्हारा मकान हमारे मकान के पास था। मैं तुम्हारे बाग में रोज फूल चुनने जाया करती थी। अब समझे कि अब भी नहीं समझे?
आजाद – आहाहा, अब समझा, ओफ् ओह! बरसों बाद तुम्हें देखा। मैं भी सोचता था कि या खुदा यह कौन है कि ऐसी बेझिझक हो कर मिली। मगर पहचानते, तो क्यों कर पहचानते? तब में और अब में जमीन-आसमान का फर्क है। सच कहता हूँ जीनत, तुम कुछ और ही हो गई हो।
जीनत – आज किसी भले का मुँह देख कर उठी थी। जब से तुम गए, जिंदगी का मजा जाता रहा –
यह हसरत रह गई किस-किस मजे से जिंदगी कटती;
अगर होता चमन अपना, गुल अपना, बागवाँ अपना।
आजाद – यहाँ भी बड़ी-बड़ी मुसीबतें झेलीं, लेकिन तुम्हें देखते ही सारी कुलफतें दूर हो गईं –
तब लुत्फे-जिंदगी है, जब अब्र हो, चमन हो;
पेशे-नजर हो साकी, पहलू में गुलबदन हो।
यहाँ अख्तर नहीं नजर आती!
जीनत – है तो, मगर उसकी शादी हो गई। तुम्हें देखने के लिए बहुत तड़पती थी। उस बेचारी को चचाजान ने जान-बुझ कर खारी कुएँ में ढकेल दिया। एक लुच्चे के पाले पड़ी है, दिन-रात रोया करती है। अब्बाजान जब से सिधारे, इनके पाले पड़े हैं। जब देखो, सोटा लिए कल्ले पर खड़े रहते हैं। ऐसे शोहदे के साथ ब्याह दिया, जिसका ठौर न ठिकाना। मैं यह नहीं कहती कि कोई रुपएवाला या बहादुरशाह के खानदान का होता। गरीब आदमी की लड़की कुछ गरीबों ही के यहाँ खूब रहती हे। सबसे बड़ी बात यह है कि समझदार हो, चाल-चलन अच्छा हो; यह नहीं कि पढ़े न लिखे, नाम मुहम्मद फाजिल; अलिफ के नाम वे नहीं जानते, मगर दावा यह है कि हम भी हैं पाँचवें सवारों में। हमारे नजदीक जिसकी आदत बुरी हो उससे बढ़ कर पाजी कोई नहीं। मगर अब तो जो होना था; सो हुआ; तुम खूब जानते हो आजाद कि साली को अपने बहनोई का कितना प्यार होता है; मगर कसम लो, जो उसका नाम लेने को भी जी चाहता हो। बीवी का जेवर सब बेच कर चट कर गया – कुछ दाँव पर रख आया, कुछ के औने-पौने किए। मकान-वकान सब इसी जुए के फेर में घूम गया। अब टके-टके को मुहताज है। डर मालूम होता है कि किसी दिन यहाँ आ कर कपड़े-लत्ते न उठा ले जाय। चचा को उसका सब हाल मालूम था, मगर लड़की को भाड़ में झोंक ही दिया। आती होगी, देखना, कैसी घुल के काँटा हो गई हैं। हड्डी हड्डी गिन लो। ऐ अख्तरी, जरी यहाँ आओ। मियाँ आजाद आए हैं।
जरा देर में अख्तर आई। आजाद ने उसको और उसने आजाद को देखा, तो दोनों बेअख्तियार खिल-खिला कर हँस पड़े मगर जरा ही देर में अख्तर की आँखें भर आईं और गोल-गोल आँसू टप-टप गिरने लगे। आजाद ने कहा – बहन, हम तुम्हारा सब हाल सुन चुके; पर क्या करें, कुछ बस नहीं। अल्लाह पर भरोसा रखे, वही सबका मालिक है। किसी हालत में आदमी को घबराना न चाहिए। सब्र करने वालों का दर्जा बड़ा होता है।
इस पर अख्तर ने और भी आठ-आठ आँसू रोना शुरू किया।
जीनत बोली – बहन, आजाद बहुत दिनों के बाद आए हैं। यह रोने का मौका नहीं।
आजाद – अख्तर, वह दिन याद हैं, जब तुमको हम चिढ़ाया करते थे और तुम अंगूर की टट्टी में रूठ कर छिप रहती थीं; हम ढूँढ़ कर तुम्हें मना लाते थे और फिर चिढ़ाते थे? हमको जो तुम्हारी दोनों की मुहब्बत है, इसका हाल हमारा खुदा ही जानता है। काश, खुदा यह दिन न दिखाता कि मैं तुमको इस मुसीबत में देखता। तुम्हारी वह सूरत ही बदल गई।
अख्तर – भाई, इस वक्त तुमको क्या देखा, जैसे जान में जान आ गई। अब पहले यह बताओ कि तुम यहाँ से जाओगे तो नहीं? इधर तुम गए, और उधर हमारा जनाजा निकला। बरसों बाद तुम्हें देखा है, अब न छोड़ूँगी।
इसी तरह बातें करते-करते रात हो गई। आजाद ने दोनों बहनों के साथ खाना खाया। तब जीनत बोली – आज पुरानी सोहबतों की बहार आँखों में फिर गई। आइए, खाना खा कर चमन में चलें। बाग तो वीरान है; मगर चलिए, जरा दिल बहलाएँ। कसम लीजिए, जो महीनों चमन का नाम भी लेती हों –
नजर आता है गुल आजर्दा, दुश्मन बागबाँ मुझको;
बनाना था न ऐसे बोस्ताँ में आशियाँ मुझको।
खाना खा कर तीनों बाग की सैर करने चले।
आजाद – ओहोहो, यह पुराना दरख्त है। इसी के साये में हम रात-रात बैठे रहते थे। आहाहा, यह वह रविश है, जिस पर हमारा पाँव फिसला था और हम गिरे, तो अख्तर खूब खिल-खिला कर हँसी। तुम्हारे यहाँ एक बूढ़ी औरत थी, जैनब की माँ।
अख्तर – थी क्यों, क्या अब नहीं है? ऐ वह हमसे तुमसे हट्टी-कट्टी है; खासी कठौता सी बनी हुई है।
आजाद – क्या वह बूढ़ी अभी तक जिंदा है? क्या आकबत के बोरिये बटोरेगी?
चलते-चलते बाग में एक जगह दीवार पर लिखा देखा कि मियाँ आजाद ने आज इस बाग की सैर की।
इतने में जीनत के बूढ़े चचा आ पहुँचे और बोले – भई, हमने आज जो तुम्हें देखा, तो खयाल न आया कि कहाँ देखा है। खूब आए। यह तो बतलाओ, इतने दिन रहे कहाँ? जीनत तुम्हें रोज याद किया करती थी, उठते-बैठते तुम्हारा ही नाम जबान पर रहता था? अब आप यहीं रहिए। जीनत को जो तुमसे मुहब्बत है, वह उसका और तुम्हारा, दोनों का दिल जानता होगा। मेरी दिली आरजू है कि तुम दोनों का निकाह हो जाय। इसी बाग में रहिए और अपना घर सँभालिए। मैं तो अब गोशे बैठ कर खुदा की बंदगी करना चाहता हूँ।
मियाँ आजाद ये बातें सुन कर पानी-पानी हो गए! ‘हाँ’ कहें, तो नहीं बनती, ‘नहीं’ कहें, तो शामत आए। सन्नाटे में थे कि कहें क्या। आखिर बहुत देर के बाद बोले – आपने जो कुछ फरमाया, वह आपकी मेहरबानी है। मैं तो अपने को इस लायक नहीं समझता। जिसका ठौर न ठिकाना, वह जीनत के काबिल कब हो सकता है?
मियाँ आजाद तो यहाँ चैन कर रहे थे; उधर मियाँ खोजी का हाल सुनिए। मियाँ आजाद की राह देखते-देखते पिनक जो आ गई, तो टट्टू एक किसान के खेत में जा पहुँचा। किसान ने ललकारा – अरे, किसका टट्टू है? आप जरा भी न बोले। उसने खूब गालियाँ दीं। आप बैठे सुना किए। जब उसने टट्टू को पकड़ा और काँजीहौस ले चला, तब आप उससे लिपट गए। उसने झल्ला कर एक धक्का जो दिया, तो आपने बीस लुढ़कनियाँ खाईं। वह टट्टू को ले चला। जब खोजी ने देखा कि वह हारी-जीती एक नहीं मानता, तो आप धम से टट्टू की पीठ पर हो रहे अब आगे-आगे किसान, पीछे-पीछे टट्टू और टट्टू की पीठ पर खोजी। राह चलते लोग देखते थे। खोजी बार-बार करौली की हाँक लगाते थे। इस तरह काँजीहौस पहुँचे। अब काँजीहौस का चपरासी और मुंशी बार-बार कहते हैं कि हजरत टट्टू पर से उतरिए, इसे हम भीतर बंद करें; मगर आप उतरने का नाम नहीं लेते; ऊपर बैठे-बैठे करौली और तमंचे का रोना रो रहे हैं। आखिर मजबूर हो कर मुंशी ने खोजी को छोड़ दिया। आप टट्टू लिए हुए मूँछों पर ताव देते घर की तरफ चले, गोया और किला जीत कर आए हैं।
उधर आजाद से अख्तर ने कहा – क्यों भाई, वे पहेलियाँ भी याद हैं, जो तुम पहले बुझवाया करते थे? बहुत दिन हुए, कोई चीसताँ सुनने में नहीं आई।
आजाद – अच्छा; बूझिए –
आँ चीस्त दहन हजार दारद;
(वह क्या है जिसके सौ मुँह होते हैं)
दर हर दहने दो मार दारद;
( हर मुँह में दो साँप होते हैं)
शाहेस्त नशिस्ता वर सरे-तख्त।
(एक बादशाह तख्त पर बैठा हुआ है)
आँ रा हमा दर शुमान दारद।
(उसी को सब गिनते हैं)
अख्तर – हजार मुँह। यह तो बड़ी टेढ़ी खीर है?
जीनत – गिनती कैसी?
आजाद – कुछ न बताएँगे। जो खुदा की बंदगी करते हैं, वह आपी समझ जाएँगे।
अख्तर – अहाहा, मैं समझ गई। अल्लाह की कसम, समझ गई। तसवीह है; क्यों कैसी बूझी?
आजाद – हाँ। अच्छा, यह तो कोई बूझे –
राजा के घर आई रानी,
औघट-घाट वह पीवे पानी
मारे लाज के डूबी जाय,
नाहक चोट परोसी खाय।
जीनत – भई, हमारी समझ में तो नहीं आता। बता दो, बस, बूझ चुकी।
अख्तर – वाह, देखो, बूझते हैं। घड़ियाल है।
आजाद – वल्लाह, खूब बूझी। अब की बूझिए –
एक नार जब सभा में आवे,
सारी सभा चकित रह जावे।
चातुर चातुर वाके यार,
मूरख देखे मुँह पसार।
जीनत – जो इसको कोई बूझ दे, तो मिठाई खिलाऊँ।
आजाद – यह इस वक्त यहाँ है। बस, इतना इशारा बहुत है।
अख्तर – हम हार गए, आप बता दें।
आजाद – बता ही दूँ यह पहेली है।
जीनत – अरे, कितनी मोटी बात पूछी और हम न बता सके!
अख्तर – अच्छा, बस एक और कह दीजिए। लेकिन अब की कोई कहानी कहिए। अच्छी कहानी हो, लड़कों के बहलाने की न हो।
आजाद ने अपनी और हुस्नआरा की मुहब्बत की दास्तान बयान करनी शुरू की। बजरे पर सैर करना, सिपहआरा का दरिया में डुबना और आजाद का उसको निकालना, हुस्नआरा का आजाद से रूम जाने के लिए कहना और आजाद का कमर बाँध कर तैयार हो जाना, ये सारी बातें बयान कीं।
अख्तर – बेशक सच्ची मुहब्बत थी।
आजाद – मगर मियाँ आशिक वहाँ से चले, तो राह में नीयत डावाँडोल हो गई। किसी और के साथ शादी कर ली।
अख्तर – तोबा! तोबा! बड़ा बुरा किया! बस, जबानी दाखिला था!
जीनत – सच्ची मुहब्बत होती, तो हूर पर भी आँख न उठाता। रूम जाता और फिर जाता! मगर वह कोई मक्कार आदमी था।
आजाद – वह आशिक में हूँ और माशूक हुस्नआरा है। मैंने अपनी ही दास्तान सुनाई और अपनी ही हालत बताई। अब जो हुक्म दो, वह मंजूर, जो सलाह बताओ वह कबूल। रूम जाने का वादा कर आया हूँ, मगर यहाँ तुमको देखा, तो अब कदम नहीं उठता। कसम ले लो, जो तुम्हारी मर्जी के खिलाफ करूँ।
इतना सुनना था कि अख्तर की आँखें डबडबा आईं और जीनत का मुँह उदास हो गया। सिर झुका कर रोने लगी।
अख्तर – तो फिर आए यहाँ क्या करने?
जीनत – तुम तो हमारे दुश्मन निकले। सारी उमंगों पर पानी फेर दिया –
शिकवा नहीं है आप जो अब पूछते नहीं;
वह शक्ल मिट गई, वह शबाहत नहीं रही।
अख्तर – बाजी, अब इनको यही सलाह दो कि रूम जायँ। मगर जब वापस आएँ, तो हमसे भी मिलें, भूल न जायँ।
इतने में बाहर से आवाज आई कि न हुई करौली, वर्ना खून की नदी बहती होती, कई आदमियों का खून हो गया होता। वह तो कहिए, खैर गुजरी। आजाद ने पुकारा – क्यों भाई खोजी, आ गए?
खोजी – वाह-वाह! क्या साथ दिया! हमको छोड़ कर भागे, तो खबर भी न ली। यहाँ किसान से डंडा चल गया, काँजीहौस में चौकीदार से लाठी-पोंगा हो गया; मगर आपको क्या।
आजाद – अजी चलो, किसी तरह आ तो गए।
खोजी – अजी, यही बूढ़े मियाँ राह में मिले, वह यहाँ तक ले आए। नहीं तो सचमुच घास खाने की नौबत आती।
मियाँ आजाद दूसरे दिन दोनों बहनों से रुख्सत हुए। रोते-रोते जीनत की हिचकियाँ बँध गईं। आजाद भी नर्म-दिल आदमी थे। फूट-फूट कर रोने लगे। कहा – मैं अपनी तसवीर दिए जाता हूँ, इसे अपने पास रखना। मैं खत बराबर भेजता रहूँगा। वापस आऊँगा, तो पहले तुमसे मिलूँगा। फिर किसी से। यह कह कर दोनों बहनों को पाँच-पाँच अशर्फियाँ दीं। फिर जीनत के चचा के पास जा कर बोले – आप बुजुर्ग हैं, लेकिन इतना हम जरूर कहेंगे कि आपने अख्तरी को जीते जी मार डाला। दीन का रखा न दुनिया का। आदमी अपनी लड़की का ब्याह करता है, तो देख लेता है कि दामाद कैसा है; यह नहीं कि शोहदे और बदमाश के साथ ब्याह कर दिया। अब आपको लाजिम है कि उसे किसी दिन बुलाइए, और समझाइए, शायद सीधे रास्ते पर आ जाय।
बूढ़े मियाँ – क्या कहें भाई, हमारी किस्मत ही फूट गई। क्या हमको अख्तरी का प्यार नहीं है? मगर करें क्या? उस बदनसीब को समझाए कौन? किसी की सुने भी।
आजाद – खैर, अब जीनत की शादी जरा समझ-बूझ कर कीजिएगा। अगर जीनत किसी अच्छे घर ब्याही जाय और उसी का शौहर चलन का अच्छा हो, तो अख्तर के भी आँसू पुँछें कि मेरी बहन तो खुश है, यही सही। चार दिन जो कहीं बहन के यहाँ जा कर रहेगी, तो जी खुश होगा, बड़ी ढारस होगी। अब बंदा तो रुख्सत होता है, मगर आपको अपने ईमान और मेरी जान की कसम है, जीनत की शादी देख-भाल कर कीजिएगा।
यह कह कर आजाद घर से बाहर निकले, तो दोनों बहनों ने चिल्ला-चिल्ला कर रोना शुरू किया।
आजाद – प्यारी अख्तर और प्यारी जीनत, खुदा गवाह है, इस वक्त अगर मुझे मौत आ जाय, तो समझूँ, जी उठा। मुझे खूब मालूम है, मेरी जुदाई तुम्हें अखरेगी; लेकिन क्या करूँ, किसी ऐसे-वैसी जगह जाना होता, तो खैर, कोई मुजायना न था, मगर एक ऐसी मुहिम पर जाना है, जिससे इनकार करना किसी मुसलमान को गवारा नहीं हो सकता। अब मुझे हँसी-खशी रुख्सत करो।
जीनत ने कलेजा थाम कर कहा – जाइए। इसके आगे मुँह से एक बात भी न निकली।
अख्तर – जिस तरह पीठ दिखाई, उसी तरह मुँह भी दिखाओ।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 27
मियाँ आजाद और खोजी चलते-चलते एक नए कस्बे में जा पहुँचे और उसकी सैर करने लगे। रास्ते में एक अनोखी सज-धज के जवान दिखाई पड़े। सिर से पैर तक पीले कपड़े पहने हुए, ढीले पाँयचे का पाजामा, केसरिये केचुल लोट का अँगरखा, केसरिया रँगी दुपल्ली टोपी, कंधों पर केसरिया रूमाल; जिसमें लचका टँका हुआ। सिन कोई चालीस साल का।
आजाद – क्यों भई खोजी, भला भाँपो तो, यह किस देश के हैं।
खोजी – शायद काबुल के हों।
आजाद – काबुलियों का यह पहनावा कहाँ होता है।
खोजी – वाह, खूब समझे! क्या काबुल में गधे नहीं होते?
आजाद – जरा हजरत की चाल तो देखिएगा, कैसे कूँदे झाड़ते हुए चले जाते हैं। कभी जरी के जूते पर निगाह है, कभी रूमाल फड़काते हैं, कभी अँगरखा चमकाते हैं, कभी लचके की झलक दिखाते हें। इस दाढ़ी-मूँछ का भी खयाल नहीं। यह दाढ़ी और यह लचके की गोट, सुभान-अल्ला!
खोजी – आपको जरा-छेड़िए तो; दिल्लगी ही सही।
आजाद – जनाब, आदाब अर्ज है। वल्लाह, आपके लिबास पर तो वह जोबन है कि आँख नहीं ठहरती, निगाह के पाँव फिसले जाते हैं।
जर्दपोश – (शरमा कर) जी, इसका एक खास सबब है।
आजाद – वह क्या? क्या किसी सरकार से वर्दी मिली है? या, सच कहना उस्ताद, किसी नाई से तो नहीं छीन लाए?
जर्दपोश – (अपने नौकर से) रमजानी, जरा बता तो देना, हमें अपने मुँह से कहते हुए शरम आती है।
रमजानी – हुजूर, मियाँ का निकाह होने वाला है। इसी पहनावे की रस्म है हुजूर!
आजाद – रस्म की एक ही कही। यह अच्छी रस्म है – दाढ़ी-मूँछवाले आदमी, और लचका, बन्नत पट्ठा लगा कर कपड़े पहनें! अरे भई, ये कपड़े दुलहिन के लिए हैं, या आप-जैसे मुछक्कड़-फक्कड़बेग के लिए? खुदा के लिए इन कपड़ों को उतारो, मरदों की पोशाक पहनो!
इधर आजाद तो यह फटकार सुना कर अलग हुए, उधर खिदमतगार ने मियाँ जर्दपोश को समझाना शुरू किया – मियाँ, सच तो कहते थे! जिस गली-कूचे में आप निकल जाते हैं, लोग तालियाँ बजाते और हँसी उड़ाते हैं।
जर्दपोश – हँसने दो जी; हँसते ही घर बसते हैं।
खिदमतगार – मियाँ, मैं जाहिल आदमी हूँ, मुल बुरी बात बुरी ही है। हम गरीब आदमी हैं, फिर भी ऐसे कपड़े नहीं पहनते।
मियाँ आजाद उधर आगे बढ़े तो क्या देखते हैं, एक दुकड़ी सामने से आ रही है। उस पर तीन नौजवान रईस बड़े ठाट से बैठे हैं। तीनों ऐनकबाज हैं। आजाद बोले – यह नया फैशन देखने में आया। जिसे देखो, ऐनकबाज। अच्छी-खासी आँखें रखते हुए भी अंधे बनने का शौक!
मियाँ आजाद को यह कस्बा ऐसा पसंद आया कि उन्होंने दो-चार दिन यहीं रहने की ठानी। एक दिन घूमते-घामते एक नवाब के दरबार में जा पहुँचे। सजी-सजाई कोठी, बड़े-बड़े कमरे। एक कमरे में गलीचे बिछे हुए, दूसरे में चौकियाँ, मेज, मसहरियाँ करीने से रखी हुई। खोजी यह ठाट-बाट देख कर अपने नवाब को भूल गए। जा कर दोनों आदमी दरबार में बैठे। खोजी तो नवाबों की सोहबत उठाए थे, जाते ही जाते कोठी की इतनी तारीफ की कि पुल बाँध दिए – हुजूर, खुदा जानता है,क्या सजी-सजाई कोठी है। कसम है हुसैन की, जो आज तक ऐसी इमारत नजर से गुजरी हो। हमने तो अच्छे-अच्छे रईसों की मुसाहबत की है, मगर कहीं यह ठाट नहीं देखा। हुजूर बादशाहों की तरह रहते हैं। हुजूर की बदौलत हजारों गरीबों-शरीफों का भला होता है। खुदा ऐसे रईस को सलामत रखे।
मुसाहब – अजी, अभी आपने देखा क्या है? मुसाहब लोग तो अब आ चले हैं। शाम तक सब आ जायँगे। एक मेले का मेला रोज लगता है।
नवाब – क्यों साहब, यह फ्रीमेशन भी जादूगर है शायद? आखिर जादू नहीं, तो है क्या?
मुसाहब – हुजूर बजा फरमाए हैं। कुछ दिन हुए, मेरी एक फ्रीमेशन ने मुलाकात हुई। मैं, आप जानिए, एक ही काइयाँ। उनसे खूब दोस्ती पैदा की। एक दिन मैंने उनसे पूछा, तो बोले – यह वह मजहब है, जिससे बढ़ कर दुनिया में कोई मजहब ही नहीं। क्यों नहीं हो जाते फ्रीमेशन हुआ। वहाँ हुजूर, करोड़ों लाशे थीं। सब की सब मुझसे गले मिलीं और हँसीं। मैं बहुत ही डरा। मगर उन लोगों ने दिलासा दिया – इनसे डरते क्यों हो? हाँ, खबरदार, किसी से कहना नहीं; नहीं तो ये लाशें कच्चा ही खा जायँगी। इतने में खुदाबंद, आग बरसने लगी और मैं जलभुन कर खाक हो गया। इसके बाद एक आदमी ने कुछ पढ़ कर फूँका, तो फिर हट्टा-कट्टा मौजूद! हुजूर, सच तो यों है कि दूसरा होता, तो रो देता, लेकिन मैं जरा भी न घबराया। थोड़ी देर के बाद एक देव जैसे आदमी ने मुझे एक हौज में ढकेल दिया। मैं दो दिन और दो रात वहीं पड़ा रहा। जब निकाला गया, तो फिर टैयाँ सा मौजूद। सबकी सलाह हुई कि इसको यहाँ से निकाल दो। हुजूर, खुदा-खुदा करके बचे, नहीं तो जान ही पर बन आई थी?
गप्पी – हुजूर, सुना है; कामरूप में औरतें मर्दों पर माश पढ़ कर फूँकती और बकरा, बैल, गधा वगैरह बना डालती हैं। दिन भर बकरे बने, में-में किया किए, सानी खाया किए, रात को फिर मर्द के मर्द। दुनिया में एक से एक जादूगर पड़े हैं।
खुशामदी – हुजूर, यह मूठ क्या चीज है? कल रात को हुजूर तो यहाँ आराम फरमाते थे, मैं दो बजे के वक्त कुरान पढ़ कर टहलने लगा, तो हुजूर के सिरहाने के ऊपर रोशनी सी हुई। मेरे तो होश उड़ गए।
मुसाहब – होश उड़ने की बात ही है।
खुशामदी – हुजूर मैं रात भर जागता रहा और हुजूर के पलंग से इर्द-गिर्द पहरा दिया किया।
नवाब – तुम्हें कुरान की कसम।
खुशामदी – हुजूर की बदौलत मेरे बाल-बच्चे पलते हैं; भला आपसे और झूठ बोलूँ? नमक की कसम, बदन का रोआँ-रोआँ खड़ा हो गया। अगर मेरा बाप भी होता; तो मैं पहरा न देता; मगर हुजूर का नमक जोश करता था।
जमामार – हुजूर, यहाँ एक जोड़ी बिकाऊ है। हुजूर खरीदें, तो दिखाऊँ। क्या जोड़ी है कि ओहोहोहो! डेढ़ हजार से कम में न देगा।
मुसाहब – ऐ, तो आपने खरीद क्यों न ली! इतनी तारीफ करते हो और फिर हाथ से जाने दी! हुजूर, इन्हें हुक्म हो कि बस, खरीद ही लाएँ। बादशाही में इनके यहाँ भी कई घोड़े थे; सवार भी खूब होते है; और चाबुक-सवारी में तो अपना सानी नहीं रखते।
नवाब – मुनीम से कहो, इन्हें दो हजार रुपए दें, और दो साईस इनके साथ जायँ।
जमामार मुनीम के घर पहुँचे और बोले – लाला जवाहिरमल, सरकार ने दो हजार रुपए दिलवाए हैं, जल्द आइए।
जवाहिरमल – तो जल्दी काहे की है? ये रुपए होंगे क्या?
जमामार – एक जोड़ी ली जायगी। उस्ताद, देखो, हमको बदनाम न करना। चार सौ की जोड़ी है। बाकी रहे सोलह सौ। उसमें से आठ सौ यार लोग खायँगे बाकी आठ सौ में छह सौ हमारे, दो सौ तुम्हारे। है पक्की बात न?
जवाहिरमल – तुम लो छह सौ, और हम लें दो सौ। मियाँ भाई हो न! अरे यार, तीन सौ हमको दे, पाँच सौ तू उड़ा। यह मामले की बात है?
जमामार – अजी, मियाँ भाई की न कहिए। मियाँ भाई तो नवाब भी हैं, मगर अल्लाह मियाँ की गाय। तुम तो लाखों खा जाओ, मगर गाढ़े की लँगोटी लगाए रहो। खाने को हम भी खायँगे, मगर शरबती के अँगरखै डाटे हुए नवाब बने हुए, कोरमा और पुलाव के बगैर खाना न खायँगे। तुम उबाली खिचड़ी ही खाओगे। खैर, नहीं मानते, तो जैसी तुम्हारी मरजी।
मियाँ जमामार जोड़ी ले कर पहुँचे, हो दरबार में उसकी तारीफें होने लगीं। कोई उसके थूथन की तारीफ करता है, कोई माथे की, कोई छाती की। खुशामदी बोले – वल्लाह, कनौटियाँ तो देखिए, प्यार कर लेने को जी चाहता है।
गप्पी – हुजूर, ऐसे जानवर किस्मत से मिलते हैं। कसम खुदा की, ऐसी जोड़ी सारे शहर में न निकलेगी।
मतलबी – हुजूर, दो-दो हजार की एक-एक घोड़ी है। क्या खूबसूरत हाथ-पाँव हैं। और मजा यह कि कोई ऐब नहीं।
नवाब – कल शाम को फिटन में जोतना। देखें कैसी जाती है।
गप्पी – हुजूर, आँधी की तरह जाय, क्या दिल्लगी है कुछ।
रात को मियाँ आजाद सराय में पड़ रहे। दूसरे दिन शाम को फिर नवाब साहब के यहाँ पहुँचे। दरबार जमा हुआ था, मुसाहब लोग गप्पें उड़ा रहे थे। इतने में मसजिद से अजान की आवाज सुनाई दी। मुसाहबों ने कहा – हुजूर, रोजा खोलने का वक्त आ गया।
नवाब – कसम कुरान की, हमें आज तक मालूम ही न हुआ कि रोजा रखने से फायदा क्या होता है? मुफ्त में भूखों मरना कौन सा सवाब है? हम तो हाफिज के चेले हैं, वह भी रोजा-नमाज कुछ न मानते थे।
आजाद – हुजूर ने खूब कहा –
दोश अज मसजिद सुए मैखाना आदम पीरे मा;
चीस्त याराने तरीकत बाद अजीं तदबीरे मा।
(कल मेरे पीर मसजिद से शराबखाने की तरफ आए। दोस्तो, बतलाओ, अब मैं क्या करूँ?)
खुशामदी – वाह-वाह, क्या शेर है। सादी का क्या कहना।
गप्पी – सुना, गाते भी खूब थे। बिहाग की धुन पर सिर धुनते हैं।
आजाद दिल में खूब हँसे। यह मसखरे इतना भी नहीं जानते कि यह सादी का शेर है या हाफिज का! और मजा यह कि उनको बिहाग भी पसंद था! कैसे-कैसे गौखे जमा हैं।
मुसाहब – हुजूर, बजा फरमाते हैं। भूखों मरने से भला खुदा क्या खुश होगा?
नवाब – भई, यहाँ तो जब से पैदा हुए, कसम ले लो, जो एक दिन भी फाका किया हो। फिर भूख में नमाज की किसे सूझती है?
खुशामदी – हुजूर, आप ही के नमक की कसम, दिन-रात खाने ही की फिक्र रहती है! चार बजे और लौंडी की जान खाने लगे – लहसुन ला, प्याज ला, कबाब पके, तौबा!
हिंदू मुसाहब – हुजूर, हमारे यहाँ भी व्रत रखते हैं लोग, मगर हमने तो हर व्रत के दिन गोस्त चखा।
खुशामदी – शाबाश लाला, शाबाश! वल्लाह, तुम्हारा मजहब पक्का है।
नवाब – पढ़े-लिखे आदमी हैं, कुछ जाहिल-गँवार थोड़े ही हैं।
खोजी – वाह-वाह, हुजूर ने वह बात पैदा की कि तौबा ही भली।
खुशामदी – वाह भई, क्या तारीफ की है। कहने लगे, तौबा ही भली। किस जंगल से पकड़ के आए हो भई? तुमने तो वह बात कही कि तौबा ही भली। खुदा के लिए जरी समझ-बूझ कर बोला करो।
गप्पी – ऐ हजरत, बोलें क्या, बोलने के दिन अब गए। बरसात हो चुकी न?
खोजी – मियाँ, एक-एक आओ, या कहो, चौमुखी लड़ें। हम इससे भी नहीं डरते। यहाँ उम्र भर नवाबों ही की सोहबत में रहे। तुम लोग अभी कुछ दिन सीखो। आप, और हम पर मुँह आएँ। एक बार हमारे नवाब साहब के यहाँ एक हजरत आए, बड़े बुलक्कड़। आते ही मुझ पर फिकरे कसने लगे। बस, मैं ने जो आड़े हाथों लिया, तो झेंप कर एकदम भागे। मेरे मुकाबले में कोई ठहरे तो भला! ले बस आइए, दो-दो चोंचें हों। पाली से नोकदम न भागो, तो मूँछें मुड़वा डालूँ।
मुसाहब – आइए, फिर आप भी क्या याद करेंगे। बंदे की जबान भी वह है कि कतरनी को मात करे। जबान आगे जाती है, बात पीछे रह जाती है।
खोजी – जबान क्या चर्खा है राँड़ का! खुदा झूठ न बुलाए तो रोटी को हुजूर लोती कहते होंगे।
मुसाहब – जब खुदा झूठ न बुलाए, तब तो। आप और झूठ न बोलें! जब से होश सँभाला, कभी सच बोले ही नहीं। एक दफे धोखे से सच्ची बात निकल आई थी, जिसका आज तक अफसोस है।
खोजी – और वह उस वक्त जब आपसे किसी ने आपके बाप का नाम पूछा था और आपने जल्दी में साफ-साफ बता दिया था।
इस पर सब के सब हँस पड़े और खोजी मूँछों पर ताव देने लगे। अभी ये बातें हो ही रही थीं कि एक टुकड़ी आई, और उस पर से एक हसीना उतर पड़ी। वह पतली कमर को लचकाती हुई आई, नवाब का मसनद घसीटा और बड़े ठाट से बैठ गई।
नवाब – मिजाज शरीफ?
आबादी – आपकी बला से!
मुसाहब – हुजूर, खुदा की कसम, इस वक्त आप ही का जिक्र था।
आबादी – चल झूठे! अली की सँवार तुम पर और तेरे नवाब पर।
मुसाहब – खुदा की कसम।
आबादी – अब हम एक चपत जमाएँगे। देखो नवाब, अपने इन गुर्गों को मना करो, मेरे मुँह न लगा करें।
इतने में एक महरी पाँच-छह बरस के एक लड़के को गोद में लाई।
आबादी – हमारी बहन को लड़का है। लड़का क्या, पहाड़ी मैना है। भैया, नवाब को गालियाँ तो देना। क्यों नवाब, इनको मिठाई दोगे न?
नवाब – हाँ, अभी-अभी।
लड़का – पहले मिठाई लाओ, फिर हम दाली दे देंगे।
अब चारों तरफ से मुसाहिब बुलाते हैं – आओ, हमारे पास आओ। लड़के ने नवाब को इतनी गालियाँ दीं कि तौबा ही भली। नवाब साहब खूब हँसे और सारी महफिल लड़के की तारीफ करने लगी। खुदावंद, अब इसको मिठाई मँगवा दीजिए।
नवाब – अच्छा भई, इनको पाँच रुपए की मिठाई ला दो।
आबादी – ऐ हटो भी! आप अपने रुपए रहने दें। क्या कोई फकीर है?
नवाब – अच्छा, एक अशर्फी ला कर दो।
आबादी – भैया, नवाब को सलाम कर लो।
नवाब – अच्छा, यह तो हुआ, अब कोई चीज सुनाओ। पीलू की कोई चीज हो, तुम्हें कसम है।
आबादी – ऐ हटो भी, आज रोजे से हूँ। आपको गाने की सूझती है।
फर्श पर कई नींबू पड़े हुए थे। बी साहबा ने एक नीबू दाहने हाथ में लिया और दूसरा नींबू उसी हाथ से उछाला और रोका। कई मिनट तक इसी तरह उछाला और रोका कीं। लोग शोर मचा रहे हैं – क्या तुले हुए हाथ हैं, सुभान-अल्लाह! वह बोली कि भला नवाब, तुम तो उछालो। जब जानें कि नीबू गिरने न पाए। नवाब ने एक नीबू हाथ में लिया और दूसरा उछाला, तो तड़ से नाक पर गिरा। फिर उछाला, तो खोपड़ी पर तड़ से।
आबादी – बस, जाओ भी। इतना भी शऊर नहीं है।
नवाब – यह उँगली में कपड़ा कैसा बँधा है?
आबादी – बूझो, देखें, कितनी अक्ल है।
नवाब – यह क्या मुश्किल है, छालियाँ कतरती होगी।
आबादी – हाँ वह खून का तार बँधा कि तोबा। मैंने पानी डाला और कपड़ा बाँध दिया।
मुसाहब – हुजूर, आज इस शहर में इनकी जोड़ नहीं है।
नवाब – भला कभी नवाब खफकानहुसैन के यहाँ भी जाती हो? सच-सच कहना।
आबादी – अली की सँवार उस पर! हज कर आया है। उस मनहूस से कोई इतना तो पूछे कि आप कहाँ के ऐसे बड़े मौलवी बन बैठे?
नवाब – जी, बजा है, जो आपको न बुलाए, वह मनहूस हुआ!
आबादी – बुलाएगा कौन? जिसको गरज होगी, आप दौड़ा आवेगा।
आजाद और खोजी यहाँ से चले, तो आजाद ने कहा – आप कुछ समझे? यह जोड़ी वही थी, जो रोशनअली खरीद लाए थे।
खोजी – यह कौन बड़ी बात है, इसी में तो रईसों का रुपया खर्च होता है। इनकी सोहबत में जब बैठिए खूब गप्पे उड़ाइए और झूठ इस कदर बोलिए कि जमीन-आसमान के कुलावे मिलाइए। रंग जम जाय, तो दोनों हाथों से लूटिए और सोने की ईंटें बनवा कर संदूक में रख छोड़िए। लेकिन ऐसे माल को रहते न देखा; मालूम नहीं होता, किधर आया और किधर गया।
आजाद – यह नवाब बिलकुल चोंगा है।
खोजी – और नहीं तो क्या, निरा चोंच।
आजाद – खुदा करे, ये रईसजादे पढ़-लिख कर भले आदमी हो जायँ।
खोजी – अरे, खुदा न करे भाई, ये जाहिल ही रहें तो अच्छा। जो कही पढ़ लिख जायँ, तो फिर इतने भले मानसों की परवरिश कौन करें?
तीसरे दिन दोनों फिर नवाब की कोठी पर पहुँचे।
खोजी – खुदा ऐसे रईस को सलामत रखे। आज यहाँ सन्नाटा सा नजर आता है; कुछ चहल-पहल नहीं है।
मुसाहब – चहल-पहल क्या खाक हो! आज मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा।
आजाद – खुदा खैर करे, कुछ तो फरमाइए।
नवाब – क्या अर्ज करूँ, जब बुरे दिन आते हैं, तो चारों ही तरफ से बुरी ही बुरी बातें सुनने में आती हैं। घर में वजा-हमल (प्रसव) हो गया।
आजाद – यह तो कुछ बुरी बात नहीं। वजा-हमल के माने लड़का पैदा होना। यह तो खुशी का मौका है।
मुसाहब – हमारे हुजूर का मंशा इस्कात-हमल (गर्भपात) से था।
खुशामदी – अजी, इसे वजा-हमला भी कहते हैं – लुगत देखिए।
नवाब – अजी, इतना ही होता, तो दिल को किसी तरह समझा लेते। यहाँ तो एक और मुसीबत ने आ घेरा।
मुसाहब – (ठंडी साँस ले कर) खुदा दुश्मन को भी यह दिन न दिखाए।
खुशामदी – हजरत, क्या अर्ज करूँ, हुजूर का एक मेढ़ा मर गया, कैसा तैयार था कि क्या कहूँ, गैंडा बना हुआ।
गप्पी – अजी, यों नहीं कहते कि गैंडे को टकरा देता, तो टें करके भागता। एक दफे मैं अपने साथ बाग ले गया। इत्तिफाक से एक राजा साहब पाठे पर सवार बड़े ठाट से आ रहे थे। बंदा मेढ़े को ऐन सड़क पर लिए हुए डटा खड़ा है। सिपाही ने ललकारा कि हटा बकरी को सड़क से। इतना कहना था कि मैं आग ही तो हो गया। पूछा – क्या कहा भाई? फिर तो कहना। सिपाही आँखें नीली-पीली करके बोला – हटा बकरी को सामने से, सवारी आती है। तब तो जनाब, मेरे खून में जोश आ गया। मैंने मेढ़े को ललकारा, तो उसने झपट कर हाथी के मस्तक पर एक टक्कर लगाई। वह आवाज आई। जैसे कोई दरख्त जमीन पर आ रहा हो। बंदर डाल-डाल चीखने लगे, बंदरियाँ बच्चों को छाती से लगाए दबक रहीं, तो वजह क्या, उनको मेढ़े पर भेड़िये का धोखा हुआ।
खोजी – मेढ़े को भेड़िया समझा! मगर वल्लाह, आपको तो बेदुम का लंगूर समझा होगा।
गप्पी – बस हजरत, एक टक्कर लगा कर पीछे हटा और बदन को तोल कर छलाँग जो मारता है, तो हाथी के मस्तक पर! वहाँ से फिर उचका, तो पीलवान के माथे पर एक टक्कर लगाई, मगर आहिस्ता से। जरा इस तमीज को देखिएगा, समझा कि इसमें हाथी का सा जोर कहाँ। मगर राजा का अदब किया। अब मै लाख-लाख जोर करता हूँ, पर वह किसकी सुनता है? गुस्सा आया, सो आया, जैसे सिर पर भूत सवार हो गया। छुड़ा कर फिर लपका और एक, दो, तीन, चार-बस, खुदा जाने, इतनी टक्करें लगाईं कि हाथी हवा हो गया और चिंघाड़ कर भागा। आदमी पर आदमी गिरते हैं। आप जानिए, पाठे का बिगड़ना कुछ हँसी ठट्ठा तो है नहीं। जनाब, वही मेढ़ा आज चल बसा।
आजाद – निहायत अफसोस हुआ।
खोजी – सिन शरीफ क्या था?
नवाब – सिन क्या था, अभी बच्चा था।
मुसाहब – हुजूर, वह आपका दुश्मन था, दोस्त न था।
नवाब – अरे भई, किसका दोस्त, कैसा दुश्मन। उस बेचारे को क्या कसूर? वह तो अच्छा गया; मगर हम सबको जीते-जी मार डाला।
आजाद – हजरत, यह दुनिया सराय-फानी है। यहाँ से जो गया, अच्छा गया। मगर नौजवान के मरने का रंज होता है।
मुसाहब – और फिर जवान कैसा कि होनहार। हाथ मल कर रह गए यार, बस और क्या करें।
आजाद – मरज क्या था?
मुसाहब – क्या मरज बताएँ। बस, किस्मत ही फूट गई।
खुशामदी – मगर क्या मौत पाई है, रमजान के महीने में, उसकी रूह जन्नत में होगी। तूबा के तले तो घास है, वह चर रहा होगा।
इतने में एक महरी गुलबदन का लँहगा, जिसमें आठ-आठ अंगुल गोट लगी थी, फड़काती और गुलाबी दुपट्टे को चमकाती आई और नवाब के कान में झुक कर बोली – बेगम साहिबा हुजूर को बुलाती हैं।
नवाब – यह नादिरी हुक्म? अच्छा साहब, चलिए। यहाँ तो बेगम और महरी, दोनों से डरते हैं।
नवाब साहब अंदर गए, तो बेगम ने खूब ही आड़े हाथों लिया – ऐ, मैं कहती हूँ, यह कैसा रोना-धोना है? कहाँ की ऐसी मुसीबत पड़ गई कि आँखें खून की बोटी बन गईं? मेढ़े निगोड़े मरा ही करते हैं। ऐसी अक्ल पर पत्थर पड़े कि मुए जानवर की जान को रो रहे हैं। तुम्हारी अक्ल को दिन दिन दीमक चाटे जाती है क्या? और इन मुफ्तखोरों ने तो आपको और भी चंग पर चढ़ाया है। अल्लाह की कसम, अगर आपने रंज-वंज किया, तो हम जमीन-आसमान एक कर देंगे। आखिर वह मेढ़ा कोई आपका… बस, अब क्या कहूँ। भीगी बिल्ली बने गटर-गटर सुन रहे हो।
नवाब – तुम्हारे सिर की कसम, अब हम उसका जिक्र भी न करेंगे। मगर जब आपकी बिल्ली मर गई थी, तो आपने दिन-भर खाना नहीं खाया था? अब हमारी दफे आप गुर्राती हैं?
मुसाहब – (परदे के पास से) वाह हुजूर, बिल्ली के लिए गुर्राना भी क्या खूब। वल्लाह, जिले से तो कोई फिकरा आपका खाली नहीं होता।
बेगम – देखो, इन मुए मुसंडों को मना कर दो कि ड्योढ़ी पर न आने पायँ।
दरबान ने जो इतनी शह पाई, तो एक डाँट बताई। बस जी, सुनो, चलते-फिरते नजर आओ। अब ड्योढ़ी पर आने का नाम लिया, तो तुम जानोगे। बेगम साहबा हम पर खफा होती हैं। तुम्हारी गिरह से क्या जाएगा, हम सिपाही आदमी तो नौकरी से हाथ धो बैठेंगे।
मुसाहब सिपाही से तो कुछ न बोले, मगर बड़बड़ाते हुए चले। लोगों ने पूछा – क्यों भई, इस वक्त नाक-भौं क्यों चढ़ाए हो? बोले – अजी, क्या कहें, हमारे नवाब तो बस, बछिया के बाबा ही रहे! बीवी ने डपट लिया। जनमुरीद है जी! आबरू का भी कुछ खयाल नहीं। औरतजात, फिर जोरू और उल्टे डाँट बताए और दाँढ़ी-मूँछोंवाले हो कर चुपचाप सुना करें। वल्लाह, जो कहीं मेरी बीवी कहती, तो गला ही घोंट देता। यहाँ नाक पर मक्खी तक बैठने नहीं देते।
आजाद – भई, गुस्से को थूक दो। गुस्सा हराम होता है। उनकी बीवी हैं, चाहे घुड़कियाँ सुनें, चाहे झिड़कियाँ सहें, आप बीच में बोलनेवाले कौन? और फिर जिसका खाते हो, उसी को कोसते हो! इस पर दावा यह है कि नमकहलाल और कट मारनेवाले लोग हैं।
इतने में नवाब साहब बाहर निकले। अमीरों के दरबार में आप जानिए, एक का एक दुश्मन होता है। सैकड़ों चुगलकोर रहते हैं। हरदम यही फिक्र रहती है कि दूसरे की चुगली खायँ और सबको दरबार से निकलवा कर हमी-हम नजर आएँ। दो मुसाहबी ने सलाह की कि आज नवाब निकलें, तो इसकी चुगली खायँ और इसको खड़े-खड़े निकलवा दें। नवाब को जो आते देखा, तो चिल्ला कर कहने लगे – सुना भई, बस, अब जो कोई कलमा कहा, तो हमसे न बनेगी। जिसका खाए, उसी की गाए। यह नहीं कि जिसका खाएँ उसी को गालियाँ सुनाएँ। नवाब साहब को चाहे आप पीठ पीछे जन-मुरीद बताएँ, या भीगी बिल्ली कहें, मगर खबरदार जो आज से बेगम साहबा की शान में कोई गुस्ताखी की, खून ही पी लूँगा।
नवाब – (त्योंरियाँ बदल कर) क्या?
हाफिज जी – कुछ नहीं, हुजूर, खैरियत है।
नवाब – नहीं, कुछ तो है जरूर।
रोशनअली – तो छिपाते क्यों हो, सरकार से साफ-साफ क्यों नहीं कह देते? हुजूर, बात यह है कि मियाँ साहब जब देखो तब हुजूर की हजो किया करते हैं। लाख-लाख समझाया, यह बुरी बात है, मियाँ कह कर, भाई कह कर, बेटा कह कर, बाबा कह कर, हाथ जोड़ कर, हर तरह समझाया, मगर यह तो लातों के आदमी हैं, बातों से कब मानते हैं। हम भी चुपके हो रहते थे कि भई, चुगली कौन खाए; मगर आप जनानी ड्योढ़ी से… हुजूर, बस, क्या कहूँ, अब और न कहलाइए।
नवाब – इनको हमने मौकूफ कर दिया।
मियाँ मुसाहब तो खिसके। इतने में मटरगश्त आ पहुँचे और नवाब को सलाम करके बोले – खुदावंद, आज खूब सैर सपाटा किया। इतना घूमा कि टाँगों के टट्टू की गामचियाँ दर्द करने लगीं। कोई इलाज बताइए।
हाफिज जी – घास खाइए या, किसी सालोती के पास जाइए।
नवाब – खूब! टट्टू के लिए घास और सालोती की अच्छी कही। अब कोई ताजा-ताजा खबर बताइए, बासी न हो, गरमागरम।
मटरगश्त – वह खबर सुनाऊँ कि महफिल भर को लोटपोट कर दूँ हुजूर, किसी मुल्क से चंद परीजाद औरतें आई हैं। तमाशाइयों की भीड़ लगी हुई है। सुना, थिएटर में नाचती हैं और एक-एक कदम और एक-एक ठोकर में आशिकों के दिल को पामाल करती हैं। उन्हीं में से एक परीजाद जो दन से निकल गई, तो बस, मेरी जान सन से निकल गई। दरिया किनारे खीमे पड़े हैं। वहीं इंदर का अखाड़ा सजा हुआ है। आज शाम को नौ बजे तमाशा होगा।
नवाब – भई, तुमने खूब मजे की खबर सुनाई। ईजानिब जरूर जायँगे।
इतने में खुदायारखाँ, जिन्हें जरा पहले नवाब ने मौकूफ कर दिया था, आ बैठे और बोले – हुजूर, इधर खुदावंद ने मौकूफी का हुक्म सुनाया उधर घर पहुँचा, तो जोरू ने तलाक दे दी। कहती है, ‘रोटी न कपरा, सेंत-मेत का भतरा।’
आजाद – हुजूर, इन गरीब पर रहम कीजिए। नौकरी की नौकरी गई और बीवी की बीवी।
नवाब – हाफिजजी, इधर आओ, कुल हाल ठीक-ठीक बताओ।
हाफिज – हुजूर, इन्होंने कहा कि नवाब तो निरे बछिया के ताऊ ही हैं, जनमुरीद! और बेगम साहबा को इस नाबकार ने वह-वह बातें कहीं कि बस, कुछ न पूछिए! अजीब शैतान आदमी है। आप को यकीन न आए, तो उन्हीं से पूछ लीजिए।
नवाब – क्यों मियाँ आजाद, सच कहो, तुमने क्या सुना?
आजाद – हुजूर, अब जाने दीजिए, कुसूर हुआ। मैंने समझा दिया है।
हाफिज – यह बेचारे तो अभी-अभी समझा रहे थे कि ओ गीदी, तू अपने मालिक को ऐसी-ऐसी खोटी-खरी कहता है!
नवाब – (दरबान से) देखो जी हुसेन अली, आज से अगर खुदायारखाँ को आने दिया, तो तुम जानोगे। खड़े-खड़े निकाल दो। इसे फाटक में कदम रखने का हुक्म नहीं।
खुदायार – हुजूर, गुलाक से भी तो सुनिए। आज मियाँ रोशनअली ने मुझे ताड़ी पिला दी और यही मनसूबा था कि यह नशे में चूर हो, तो इसे किसी लिम में निकलवा दे। सो हुजूर, इनकी मुराद बर आई। मगर हुजूर, मैं इस दर को छोड़ कर और जाऊँ कहाँ? खुदा आपके बाल-बच्चों को सलामत रखें, यहाँ तो रोआँ-रोआँ हुजूर के लिए दुआ करता है। हुजूर तो पोतड़ों के रईस हैं, मगर चुगलकोरों ने कान भर दिए –
खुदा के गजब से जरा दिल में काँप;
चुगलकोर के मुँह को डसते हैं साँप।
नवाब – अच्छा, यह बात है। खबरदार, आज से ऐसी बेअदबी न करना। जाओ, हमने तुमको बहाल किया।
मुसाहबों ने गुल मचाया। वाह हुजूर, कितना रहम है। ऐसे रईस पैदा काहे को होते हैं। मगर खुदायार खाँ को तो उनकी जोरू ने बचा लिया। न वह तलाक देती, न यह बहाल होते। वल्लाह, जोरू भी किस्मत से मिलती है।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 28
दूसरे दिन नौ बजे रात को नवाब साहब और उनके मुसाहब थिएटर देखने चले।
नवाब – भई, आबादीजान को भी साथ ले चलेंगे।
मुसाहब – जरूर, जरूर उनके बगैर मजा किरकिरा हो जायगा। इतने में फिटन आ पहुँची और आबादीजान छम-छम करती हुई आ कर मसनद पर बैठ गईं।
नवाब – वल्लाह, अभी आप ही का जिक्र था।
आबादी – तुमसे लाख दफे कह दिया कि हमसे झूठ न बोला करो। हमें कोई देहाती समझा है!
नवाब – खुदा की कसम, चलो, तुमको तमाशा दिखा लाएँ। मगर मरदाने कपड़े पहन कर चलिए, वर्ना हमारी बेइज्जती होगी।
आबादी ने तिनग कर कहा – जो हमारे चलने में बेआबरूई है, तो सलाम।
यह कह कर वह जाने को उठ खड़ी हुई। नवाब ने दुपट्टा दबा कर कहा, ‘हमारा ही खून पिए, जो एक कदम भी आगे बढ़ाए, हमीं को रोए, जो रूठ कर जाय! हाफिज जी, जरा मरदाने कपड़े तो लाइए।
गरज आबादीजान ने अमामा सिर पर बाँधा; चुस्त अँगरखा और कसा हुआ घुटन्ना, टाटबाफी बूट, फुँदना झलकता हुआ, उनके गोरे बदन पर खिल उठा। नवाब साहब उनके साथ फिटन पर सवार हुए और मुसाहबों में कोई बग्घी पर, कोई टम-टम पर, कोई पालकी-गाड़ी पर लदे हुए तमाशा-घर में दाखिल हुए। मगर आबादीजान जल्दी में पाजेब उतारना भूल गई थी। वहाँ पहुँच कर नवाब ने अव्वल दर्जे के दो टिकट लिए और सरकस में दाखिल हुए! लेकिन पाजेब की छम-छम ने वह शोर मचाया कि सभी तमाशाइयों की निगाहें इन दोनों आदमियों की तरफ उठ गईं। जो है, इसी तरफ देखता है; ताड़नेवाले ताड़ गए, भाँपनेवाले भाँप गए। नवाब साहब अकड़ते हुए एक कुर्सी पर जा डटे और आबादीजान भी उसकी बगल में बैठ गईं। बहुत बड़ा शामियाना टँगा हुआ था। बिजली की बत्तियों से चकाचौंध का आलम था। बीचोंबीच एक बड़ा मैदान, इर्द-गिर्द कोई दो हजार कुर्सियाँ। खीमा भर जग-मग कर रहा था। थोड़ी देर में दस-बारह जवान घोड़े कड़कड़ाते हुए मैदान में आए और चक्कर काटने लगे, इसके बाद एक जवान नाजनीन, आफत की परकाला, घोड़े पर सवार, इस शान से आई कि महफिल भर पर आफत ढाई। सारी महफिल मस्त हो गई। वह घोड़े से फुर्ती के साथ उचकी और फिर पीठ पर आ पहुँची। चारों तरफ से वाह-वाह का शोर मच गया। फिर उसने घोड़े को मैदान में चक्कर देना शुरू किया। घोड़ा सरपट जा रहा था, इतना तेज की निगाह न ठहरती थी। यकायक वह लेडी तड़ से जमीन पर कूद पड़ी। घोड़ा ज्यों का त्यों दौड़ता रहा। एकदम में वह झपट कर फिर पीठ पर सवार हो गई उस पर इतनी तालियाँ बजीं कि खीमा भर गूँज उठा। इसके बाद शेरों की लड़ाई, बंदरों की दौड़ और खुदा जाने, कितने और तमाशे हुए। ग्यारह बजते तमाशा खतम हुआ। नवाब साहब घर पहुँचे, तो ठंडी साँसें भरते थे और मियाँ आजाद दोनों हाथों से सिर धुनते थे। दोनों मिस वरजिना (तमाशा करनेवाली औरत) की निगाहों के शिकार हो गए।
हाफिज जी बोले – हुजूर, अभी मुश्किल से तेरह-चौदह बरस का सिन होगा, और किस फुर्ती से उचक कर घोड़े की पीठ पर हो रहती थी कि वाह जी वाह। मियाँ रोशनअली बड़े शहसवार बनते थे। कसम खुदा की जो उनके बाप भी कब्र से उठ आएँ, तो यह करतब देख कर होश उड़ जायँ।
नवाब – क्या चाँद सा मुखड़ा है।
आबादीजान – यह कहाँ का दुखड़ा है? हम जाते हैं।
मुसाहब – नहीं हुजूर, ऐसा न फर्माइए, कुछ देर तो बैठिए।
लेकिन आबादीजान रूठ कर चली ही गईं अब नवाब का यह हाल है कि मुँह फुलाए, गम की सूरत बनाए बैठे सर्द आहें खींच रहे हैं। मुसाहब सब बैठे समझा रहे हैं; मगर आपको किसी तरह सब्र ही नहीं आता। अब जिंदगी बवाल है, जान जंजाल है। यह भी फख है कि हमारा दिल किसी परीजाद पर आया है, शहर भर में धूम हो जाय कि नवाब साहब को इश्क चर्राया है –
ताकि मशहूर हों हजारों में;
हम भी हैं पाँचवें सवारों में।
मुसाहबों ने सोचा, हमारे शह देने से यह हाथ से जाते रहेंगे, इसलिए वह चाल चलिए कि ‘साँप मरे न लाठी टूटे’। लगे सब उस औरत की हजो करने। एक ने कहा – भाई, जादू का खेल था। दूसरे बोले – जी हाँ, मैंने दिन के वक्त देखा था, न वह रंग, न वह रोगन, न वह चमक-दमक, न वह जोबन; रात की परी रखे की टट्टी है। आखिर मिस वरजिना नवाब की नजरों से गिर गई। बोले – जाने भी दो, उसका जिक्र ही क्या। तब मुसाहबों की जान में जान आई। नवाब साहब के यहाँ से रुख्सत हुए, तो आपस में बातें होने लगीं –
हाफिज जी – हमारे नवाब भी कितने भोले-भाले रईस हैं!
रोशनअली – अजी, निरे बछिया के ताऊ हैं। खुदायारखाँ ने ठीक ही तो कहा था।
खुदायारखाँ – और नहीं तो क्या झूठ बोले थे? हमें लगी-लिपटी नहीं आती। चाहे जान जाती रहे, मगर खुशामद न करेंगे।
हाफिज जी – भई, यह आजाद ने बड़ा अड़ंगा मारा है। इसको न पछाड़ा, तो हम सब नजरो से गिर जायँगे।
रोशनअली – अजी, मैं तरकीब बताऊँ, जो पट पड़े, तो नाम न रखूँ। नवाब डरपोक तो हैं ही, कोई इतना जा कर कह दे कि मियाँ आजाद इश्तिहारी मुजरिम हैं। बस, फिर देखिए, क्या ताथैया मचती है। आप मारे खौफ के घर में घुस रहे और जनाने में तो कुहराम ही मच जाय। आजाद और उनके साथी अफीमची, दोनों खड़े-खड़े निकाल दिए जायँ।
खुशामदी – वाह उस्ताद, क्या तड़ से सोच लेते हो! वल्लाह, एक ही न्यारिये हो।
रोशनअली – फिर इन झाँसों के बगैर काम भी तो नहीं चलता।
हाफिज जी – हाँ, खूब याद आया। परसों तेगबहादुर दक्खिन से आए हैं। बेचारे बड़ी तकलीफ में हैं। हमारे सच्चे दोस्तों में हैं। उनके लिए एक रोटी का सहारा हो जाय, तो अच्छा। आपमें से कोई छेड़ दे तो जरा, बस, फिर मैं ले उड़ूँगा। मगर तारीफ के पुल बाँध दीजिए। नवाब को झाँसे में लाना कोई बड़ी बात तो है नहीं। थाली के बैंगन हैं।
हाफिज जी – एक काम कीजिए, कल जब सब जमा हो जायँ, तो हम पहले छेड़़े कि इस दरबार में हर फन का आदमी मौजूद है और रियासत कहते इसी को हैं कि गुनियों की परवरिश की जाय, शरीफों की कदरदानी हुजूर ही का हिस्सा है। इस पर कोई बोल उठे कि और तो सब मौजूद हैं, बस, यहाँ एक बिनवटिये की कसर है। फिर कोई कहे कि आजकल दक्खिन से एक सहब आए हैं, जो बिनवट के फन में अपना सानी नहीं रखते। दो चार आदमी हाँ में हाँ मिला दें कि उन्हें वह-वह पेंच याद हैं कि तलवार छीन लें; जरा से आदमी, मगर सामने आए और बिजली की तरह तड़प गए। हम कहेंगे – वल्लाह, आप लोग भी कितने अहमक हैं कि उसे आदमी को हुजूर के सामने अब तक पेश नहीं किया और जो कोई रईस उन्हें नौकर रख ले, तो फिर कैसी हो? बस, देख लेना, नवाब खुद ही कहेंगे कि अभी-अभी लाओ। मगर तेगबहादुर से कह देना कि खूब बाँके बन कर आएँ, मगर बातचीत नरमी से करें, जिसमें हम लोग कहेंगे कि देखिए, खुदाबंद, कितनी शराफत है। जिन लोगों को कुछ आता-जाता नहीं, वे ही जमीन पर कदम नहीं रखते।
मुसाहब – मगर क्यों मियाँ, यह तेगबहादुर हिंदू हैं या मुसलमान? तेग बहादुर तो हिंदुओं का नाम भी हुआ करता है। किसी हिंदू के घर मुहर्रम के दिनों में लड़का पैदा हुआ और इमामबख्श नाम रख दिया। हिंदू भी कितने बेतुके होते हैं कि तोबा ही भली। पूछिए कि तुम तो ताजिए को सिजदा करते हो, दरगाहों में शरबत पिलाते हो, इमामबाड़े बनवाते हो, तो फिर मुसलमान ही क्यों नहीं हो जाते।
हाफिज जी – मगर तुम लोगों में भी तो ऐसे गौखे हैं जो चेचक में मालिन को बुलाते हैं, चौराहे पर गधे को चने खिलाते हैं, जनमपत्री बनवाते हैं। क्या यह हिंदूपन नहीं है? इसकी न कहिए।
उधर मियाँ आजाद भी मिस वरजिना पर लट्टू हो गए। रात तो किसी तरह करवटें बदल-बदल कर काटी, सुबह होते ही मिस वरजिना के पास जा पहुँचे। उसने जो मियाँ आजाद की सूरत से उनकी हालत ताड़ ली, तो इस तरह चमक-चमक कर चलने लगी कि उनकी जान पर आफत ढाई। आजाद उसके सामने जा कर खड़े हो गए; मगर मुँह से एक लफ्ज भी न निकला।
वरजिना – मालूम होता है, या तो तुम पागल हो, या अभी पागलखाने से रस्सियाँ तुड़ा कर आए हो।
आजाद – हाँ, पागल न होता, तो तुम्हारी अदा का दीवाना क्यों होता?
वरजिना – बेहतर है कि अभी से होश में आ जाओ, मेरे कितने ही दीवाने पागलखाने की सैर कर रहे हैं। रूस के तीन जनरल मुझ पर रीझे, यूनान में एक रईस लट्टू हो गए, इंगलिस्तान के कितने ही बाँके आहें भरते रहे, जरमनी के बड़े-बड़े अमीर साये की तरह मेरे साथ घूमा किए, रूम के कई पाशा जहर खाने पर तैयार हो गए। मगर दुनिया में दगाबाजी का बाजार गरम है, किसी से दिल न मिलाया, किसी को मुँह न लगाया। हमारे चाहनेवाले को लाजिम है कि पहले आईने में अपना मुँह तो देखे।
आजाद – अब मुझे दीवाना कहिए या पागल, मैं तो मर मिटा –
फिरी चश्मे-बुते-बेपीर देखो;
हमारी गर्दिशे-तकदीर देखो।
उन्हें है तौक मन्नत का गराँ बार;
हमारे पाँव की जंजीर देखो।
वरजिना – मुझे तुम्हारी जवानी पर रहम आता है। क्यों जान देने पर तुले हुए हो?
आजाद – जी कर ही क्या करूँगा? ऐसी जिंदगी से तो मौत ही अच्छी।
वरजिना – आ गए तुम भी झाँसे में! अरे मियाँ, मैं औरत नहीं हूँ, जो तुम सो मैं। मगर कसम खाओ कि किसी से यह बात न कहोगे। कई साल से मैंने यही भेष बना रखा है। अमीरों को लूटने के लिए इससे बढ़ कर और कोई तदबीर नहीं। एक-एक चितवन के हजारों पौंड लाता हूँ, फिर भी किसी को मुँह नहीं लगाता। आज तुम्हारी बेकरारी देख कर तुमको साफ-साफ बता दिया।
आजाद – अच्छा मर्दाने कपड़े पहन कर मेरे सामने आओ, तो मुझे यकीन आए।
मिस वरजिना जरा देर में कोट और पतलून पहन कर आजाद के सामने आई और बोली – अब तो तुम्हें यकीन आया, मेरा नाम टामस हुड है। अगर तुमको वे चिट्ठियाँ दिखाऊँ, जो ढेर की ढेर मेरे पास पड़ी हैं, तो हँसते-हँसते तुम्हारे पेट में बल पड़ जाय। देखिए, एक साहब लिखते हैं –
जनाजा मेरा गली में उनकी जो पहुँचे ठहरा के इतना कहना;
उठानेवाले हुए हैं मांदे सो थक के काँधा बदल रहे हैं
दूसरे साहब लिखते हैं –
हम भी कुश्ता तेरी नैरंगी के हैं याद रहे;
ओ जमाने की तरह रंग बदलनेवाले।
एक बार इटली गया, वहाँ अक्सर अमीरों और रईसों ने मेरी दावतें कीं और अपनी लड़कियों से मेरी मुलाकात कराई। मैं कई दिन तक उन परियों के साथ हवा खाता रहा। और एक दिल्लगी सुनिए। एक अमीरजादी ने मेरे हाथों को चूम कर कहा कि हमारे मियाँ तुमसे शादी करना चाहते हैं। वह कहते हैं कि अगर तुमसे उनकी शादी न हुई, तो वह जहर खा लेंगे। यह अमीरजादी मुझे अपने घर ले गई। उसका शौहर मुझे देखते ही फूल उठा और ऐसी-ऐसी बातें कीं कि मैं मुश्किल से अपनी हँसी को जब्त कर सका।
आजाद बहुत देर तक टामस हुड से उसकी जिंदगी के किस्से सुनते रहे। दिल में बहुत शरमिंदा थे कि यहाँ कितने अहमक बने। यह बातें दिल में सोचते हुए सराय में पहुँचे, तो फाटक ही के पास से आवाज आई, लाना तो मेरी करौली, न हुआ तमंचा, नहीं तो दिखा देता तमाशा। आजाद ने ललकारा कि क्या है भाई, क्या है, हम आ पहुँचे। देखा, तो खोजी एक कुत्ते को दुत्कार रहे हैं।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 29
आज तो निराला समाँ है। गरीब, अमीर, सब रँगरलियाँ मना रहे हैं। छोटे-बड़े खुशी के शादियाने बजा रहे हैं। कहीं बुलबुल के चहचहे, कहीं कुमरी के कह-कहे। ये ईद की तैयारियाँ हैं। नवाब साहब की मसजिद का हाल न पूछिए। रोजे तो आप पहले ही चट कर गए थे, लेकिन ईद के दिन धूमधाम से मजलिस सजी। नूर के तड़के से मुसाहबों ने आना शुरू किया और मुबारक-मुबारक की आवाज ऐसी बुलंद की कि फरिश्तों ने आसमान को थाम लिया, नहीं तो जमीन और आसमान के कुलाबे मिल जाते।
मुसाहब – खुदा ईद मुबारक करे। मेरे नवाब जुग-जुग जिए।
हाफिज जी – बरस दिन का दिन मुबारक करे।
रोशनअली – खुदा हुजूर की ईद मुबारक करे।
नवाब – आपको भी मुबारक हो। मगर सुना कि आज तो ईद में फर्क है। भई, आधा तीतर और आधा बटेर नहीं अच्छा।
मुसाहब – हुजूर, फिरंगीमहल के उलमा ने तो आज ही ईद का फतवा लगाया है।
नवाब – भला चाँद कल किसी ने देखा भी?
मुसाहब – हुजूर, पक्के पुल पर चार भिश्तियों ने देखा, राजा के बाजार में हाफिज जी ने देखा और मेरे घर में भी देखा।
नवाब – आपकी बेगम साहब का सिन क्या है? हैं कोई चौदह-पंद्रह बरस की?
मुसाहब ने शरमा कर गदरन झुका ली।
नवाब – आप अपनी बेगम साहबा की उम्र तो छिपाते हैं, फिर उनकी शहादत ही क्या? बाकी रहे हाफिज जी, उनकी आँखें पढ़ते-पढ़ते जाती रहीं; उनको दिन को ऊँट तो सूझता ही नहीं, भला सरेशाम, दोनों वक्त मिलते, नाखून के बराबर चाँद क्या सूझेगा।
आजाद – हजरत, मैंने और मियाँ खोजी ने कल शाम को अपनी आँखों देखा।
नवाब – तो तीन गवाहियाँ मोतबर हुईं। हमारी ईद तो हर तरह आज है।
इतने में फिटन पर से आबादीजान मुसकिराती हुई आई।
नवाब – आइए-आइए, आपकी ईद किस दिन है?
आबादीजान – क्या कोई भारी जोड़ा बनवा रखा है? फटे से मुँह शर्म नहीं आती?
नवाब – ईद कुरबाँ है यही दिन तो है कुरबानी का;
आज तलवार के मानिंद गले मिल कातिल।
हमको क्या, यहाँ तो तीसों रोजे चट किए बैठे हैं। दोवक्ता पुलाव उड़ता था। यह फिक्र तो उसको होगी जो दीन का टोकरा सिर पर लादे-लादे फिरते हैं।
आबादी – इन्हीं लच्छनों तो दोजख में जाओगे।
नवाब – खैर, एक तसकीन तो हुई! आपसे तो वहाँ जरूर गले मिलेंगे।
मुसाहब – सुभान-अल्लाह! क्या खूब सूझी, वल्लाह, खूब सूझी! क्या गरमा-गरम लतीफा कहा है।
इतने में चंपा लौंडी अंदर से घबराई हुई आई। लुट गए, लुट गए! ऐ हुजूर चोरी हो गई। सब मूस ले गया।
नवाब – क्या, क्या, चोरी हो गई! कब?
चंपा – रात को, और कब? इस वक्त जो बेगम साहबा कोठरी में जाती हैं, तो रोशनी देखते ही आँखों तले अँधेरा छा गया। जा कर देखती हैं, तो एक बिलूका। कपड़े-लत्ते सब तितर-बितर पड़े हैं।
मुसाहब – ऐ खुदावंद, कल तो एक बजे तक यहाँ दरबार गरम रहा। मालूम होता है, कोई पहले ही से घुसा बैठा था।
नवाब – जरी हमारी तलवार तो लाना भई! एहतियात शर्त है। शायद छिपा बैठा हो।
तलवार ले कर घर में गए, तो देखते हैं कि बेगम साहबा एक नाजुक पलंगड़ी पर सिर पकड़े बैठी हैं, और लौंडियाँ समझा रही हैं कि नवाब की सलामती रहे, एक से एक बढ़िया जोड़ा बन जायगा। आप घबराती काहे को हैं? नवाब ने जा कर कोठरी को देखा और तलवार हाथ में लिए पैतरे बदलते हुए घर-भर कर मुआयना किया। फिर बेगम से बोले – हमारा लहू पिए, जो रोए। आखिर यह रोना काहे का; माल गया, गया!
लौंडी – हाँ, सच तो फरमाते हैं। जान की सलामती रहे, माल भी कोई चीज है?
बेगम – आज ईद के दिन खुशियाँ मनाते, डोमनियाँ आतीं, मुबारकबादियाँ गातीं, दिन भर धमा-चौकड़ी मचती, रात को रतजगा करते, सो आज यह नया गुल खिला। मगर गहने की संदूकची छोड़ गया, इतना एहसान किया। अभी तक कलेजा धक-धक कर रहा है।
नवाब – हमारे सिर की कसम, लो उठो, मुँह धो डालो। ईद मनाओ, हमारा ही जनाजा देखे जो चोरी का गम करे। दो हजार कोई बड़ी चीज है!
आखिर बहुत कहने-सुनने पर बेगम साहबा उठीं। लौंडी ने मुँह धुलाया। नवाब साहब ने कहा – तुम्हें वल्लाह, हँस तो दो, वह होंठ पर हँसी आई! देखो मुसकिराती हो। वह नाक पर आई।
बेगम साहबा खिलखिला कर हँस पड़ी और घर-भर में कहकहे पड़ने लगे। यों बेगम साहबा को हँसा कर नवाब साहब बाहर निकले, तो मुसाहब, हवाली-मवाली, खिदमतगार गुल मचाने लगे – हुजूर, कुछ तो बतलाइए, यह मामला क्या है? आखिर किधर से चोर आया? कोई कहता है – हुजूर, बेघर के भदी के चोरी नहीं होती; हमको उस हब्शिन पर शक है। हब्शिन अंदर से गालियाँ दे रही है – अल्लाह करे झूठे पर बिजली गिरे, आसमान फट पड़े। किसी ने कहा – खुदावंद, चौकीदार की शरारत है। चौकीदार है कि लाखों कसमें खाता है। घर-भर में हरबोंग मचा हुआ है। इतने में एक मसखरे ने बढ़ कर कहा – हुजूर, कसम है कुरान की, हमें मालूम है। भला बेभला, हम पहचान गए, हमसे उड़ कर कोई जायगा कहाँ?
मुसाहब – मालूम है, तो फिर बताते क्यों नहीं?
मसखरा – अजी, बताने से फायदा क्या? मगर मालूम मुझको बेशक है। इसमें सुबहा नहीं। गलत हो, तो हाथ-हाथ बदते हैं।
नवाब – अरे, जिस पर तुझे शक है, उसका नाम बता क्यों नहीं देता।
मुसाहब – बताओ, तुम्हें खुदा की कसम। किस पर तुमको शक है? आखिर किसको ताका है? भई, हमको बचा देना उस्ताद।
मसखरा – (नवाब साहब के कान में) हुजूर, यह किसी चोर का काम है।
मुसाहब – क्या कहा हुजूर, किसका नाम लिया?
नवाब – (हँस कर) आप चुपके से फरमाते हैं, यह किसी चोर का काम है।
लोगों ने हँसते-हँसते पेट में बल पड़ गए। जिसे देखो, लोट रहा है। इतने में रेल के एक चपरासी ने आ कर तार का लिफाफा दिया। लिफाफा देखते ही नवाब साहब का चेहरा फक हो गया, हाथ-पाँव फूल गए। बोले – भई, किसी अंगरेजीदाँ को बुलाओ और तार पढ़वाओ। खुदा जाने, कहाँ से गोला आया है।
मुसाहब – क्यों मियाँ जवान, यह तार बड़े साहब के दफ्तर से आया है न?
चपरासी – नाहीं, रेलघर से आया है।
मुसाहब – वाह रे अंगरेजो, अल्लाह जानता हैं, अपने फन के उस्ताद हैं। और सुनिए, जल्दी के लिए अब तार की खबर भी रेल पर आने लगी। वाह रे उस्ताद, अकल काम नहीं करती।
हाफिज जी – खुदा जाने, यह तार बोलता क्योंकर है? आखिर तार के तो जान नहीं होती!
खिदमतगार एक अंगरेजीदाँ को ले आया। तार पढ़ा गया, तो मालूम हुआ कि किसी ने मिरजापुर से पूछा है कि ईद आज हैं, या कल होगी?
मुसाहब – यह तो फरमाइए, भेजा किसने?
बाबू – निसारहुसेन ने।
नवाब – समझ गया। मिरजापुर में हमारे एक दोस्त हैं निसारहुसेन। उन्हीं ने तार भेजा होगा। इसका जवाब किसी से लिखवाइए जिसमें आज ही पहुँच जाय। एक रुपया, दो रुपया, जो खर्च हो, दरोगा से दिलवा दो। और मियाँ नुदरत को तारघर भेजो और कहो कि अगर बाबू कुछ माँगे तो दे देना। मगर इतना कह देना कि खबर जरूर पहुँचे। ऐसा न हो कि कहीं राह में रुक रहे, तो गजब ही हो जाय।
मियाँ नुदरत लखनऊ के आदमी, नखास के बाहर उम्र भर कदम ही नहीं रखा। वह क्या जानें कि तारघर किस बला का नाम है। राह में एक-एक से पूछते जाते हैं – क्यों भई, तारघर कहाँ हैं? आखिरकार एक चपरासी ने कहा – कलकी बरक के सामने है। मियाँ नुदरत घबरा रहे थे, बुरे फँसे यार, तारघर में न जाने क्या वारदात हो। हम अंगरेजी कानून-वानून नहीं जानते। देखें, आज क्या मुसीबत पड़ती है? खैर, खुदा मालिक है। चलते-चलते कोई दो घंटे में ऐशबाग पहुँचे। यहाँ से पता पूछते-पूछते चले हुसेनगंज। वहाँ एक बाबू सड़क पर खड़े थे। उनसे पूछा – क्यों बाबूजी, तारघर कहाँ है? उन्होंने कहा, सामने चले जाओ। फिर पलटे। बाबू जी एक रुपया लाया हूँ और लिखवाना यह है कि आज ईद सुन्नियों की है, कल शियों की होगी। भला वहाँ बैठा रहूँ? जब खबर पहुँच जाय, तब आऊँ? बाबू ने कहा – ऐसा कुछ जरूरी नहीं। खैर, तारघर पहुँचे, तो कलेजा धक-धक कर रहा है कि देखिए जान क्योंकर बचती है। थोड़ी देर फाटक पर खड़े रहे और वहाँ से मारे डर के बेरंग वापस। राह में दोनों रुपए उन्होंने भुनाए और बीबी के लिए पँचमेल मिठाई चँगेल में ले चले। रास्ते में यही सोचते रहे कि नवाब से यों चकमा चलेंगे, यों झाँसा देंगे। चैन करो। उस्ताद, अब तुम्हारे पौ-बारह हैं। हलवाई की दुकान और दादा जी का फातिहा, घर में जो खुश-खुश घुसे, तो बीवी देखते ही खिल गईं। झपट कर चँगेल उनके हाथ से छीनी। देखा, तो मुँह में पानी भर आया। बरफी पर चाँदी का वरक लगा हुआ, इमर्तियाँ ताजी, लड्डू गरमागरम। पेड़े वह, जो मथुरा के पेड़ों के दाँत खट्टे कर दें। दो-तीन लड्डू और एक बरफी तो देखते ही देखते चट कर गईं। पेड़ा उठाने ही को थीं कि मियाँ नुदरत ने झल्ला कर पहुँचा पकड़ लिया और बोले – अरे, बस भी तो करोगी? एक लड्डू खाया, मैं कुछ न बोला; दूसरा निकाला, मैं चुपचाप देखा किया। तीसरे लड्डू पर हाथ बढ़ाया, बरफी खाई और अब चली पेड़े पर हाथ डालने! अब खाने-पीने की चीज में टोके कौन, इतनी बड़ी लूमड़ हो गईं, मगर बिल्लड़ ही बनी रहीं। मरभुक्खों की तरह मिठाई पर गिर पड़ने के क्या माने? दो प्यालियाँ लाओ, अफीम घोलो, पियो। जब खूब नशे गठें, तो मिठाइयाँ चखो। खुदा की कसम, यह अफीम भी नेमत की माँ का कलेजा है।
बीवी – (तिनक कर) बस, नेमत की माँ का कलेजा तुम्हीं खाओ। खाओ, चाहे भाड़ में जाओ। वाह, आज इतने बड़े त्योहार के दिन मिठाई क्या लाए कि दिमाग ही नहीं मिलता। मोती की सी आब उतार ली। एक पेड़े के खातिर पहुँचा धरके मरोड़ डाला।
इतने में बाहर से आवाज आई – मियाँ नुदरत हैं?
बीवी – सुनते हो, या कानों में ठेठियाँ हैं? एक आदमी गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहा है; दरवाजे को चूल से निकाले डालता है। बोलते क्यों नहीं? कहीं चोरी करके तो नहीं आए हो?
नुदरत – जरी आहिस्ते-आहिस्ते बातें करो।
बीवी – ऐ है, सच कहिएगा। हम तो खूब गुल मचाएँगे। मामा, हम परदे में हुए जाते हैं। जा कर उनसे कह दो – घर में घुले बैठे हैं।
नुदरत – नहीं, नहीं, यह दिल्लगी अच्छी नहीं। कह दो, नवाब साहब के यहाँ गए हैं।
मामा – (बाहर जा कर) मियाँ, क्या गुल मचा रहे हो? मैं तो समझी, कहीं से दौड़ आई है। वह तो सवेरे नवाब साहब के यहाँ गए थे, अभी आए नहीं जो मिलें, तो भेज दीजिएगा।
पुकारनेवाला – यह कैसी बात? नवाब साहब के यहाँ से तो हम भी अभी-अभी आ रहे हैं। वहाँ ढुँढ़स मची हुई है कि चल कहाँ दिए। अच्छा भाभी साहब से कहो, आज ईद के दिन दरवाजे पर आए हैं, कुछ सेवइयाँ-वेवइयाँ तो खिलाएँ। हम तो बेतकल्लुफ आदमी हैं। तकाजा करके दावत लेते हैं।
मामा ने अंदर से ले जा कर बाहर बरामदे में एक मोढ़ा डाल दिया। उधर मियाँ-बीवी में तकरार होने लगी।
मियाँ- अजी, टाल भी दो। ऐसे-ऐसे मुफ्तखोरे बहुत आया करते हैं। मामा, तुम भी पागल ही रहीं। मोढ़ा डालने की भला क्या जरूरत थी?
बीवी – ऐ वाह! हम तो जरूर खातिर करेंगे। यह अच्छा कि नवाब के यहाँ जा कर हमको गँवारिन बनाए? इसमें तुम्हारी नाक न कटेगी!
बीवी ने एक तश्तरी में पाँच-छह डलियाँ मिठाई की करीने से लगाकर उस पर रेशमी हरा रूमाल ढक दिया और मामा से कहा – जाओ, दे आओ। मियाँ नुदरत की रूह पर सदमा हुआ कि चार-पाँच डली तो बीबी बातें करते-करते चख गईं और पाँच-छह अब निकल गईं। गजब ही हो गया। मामा मिठाई ले कर चली, तो ड्योढ़ी में दो लड्डू चुपके से निकाल कर एक ताक में रख दिए। इत्तिफाक से एक छोकरा देख रहा था। जैसे मामा बाहर गई, वैसे ही दोनों लड्डू मजे से खा गया। चलिए, चोर के घर में मोर पैठा। मुसाहब ने रूमाल हटाया, तो कहा – वाह, भाभी साहब तो भाई साहब से भी बढ़ कर निकलीं। यह हाथी के मुँह में जीरा। खैर, पानी तो लाओ। हजरत ने मिठाई खाई और पानी पिया, तो पान की फर्माइश की। बीवी ने अपने हाथ से दो गिलौरियाँ बनाईं। मुसाहब ने चखीं, तो हुक्का माँगा। नुदरत ने कहा – देखा न, हाथ देते ही पहुँचा पकड़ लिया। मिठाई लाओ, पान खिलाओ, पानी पिलाओ, हुक्का भर लाओ; गोया बाबा के घर में बैठे हैं। इन मूजियों की तो कब्र तक से मैं वाकिफ हूँ। और इस पर क्या मौकूफ है। नवाब के यहाँ जितने हैं, सब गुरगे, मुफ्तखोरे, पराया माल ताकनेवाले। मामा, जा कर कह दो, हुक्का यहाँ कोई नहीं पीता। लेकिन बीवी ने हुक्का भरवा कर भेज ही दिया। जब पी चुके, तो बाहर से आवाज दी कि मामा, चारपाई यहाँ मौजूद हैं। जरा दरी या गलीचा दे जाइएगा। अब ठीक दोपहर में कौन इतनी दूर जाय। जरा कमर सीधी कर लें। तब तो मियाँ नुदरत खूब ही झल्लाए। आखिर शैतान का मंसूबा क्या है? देख रहा है कि मालिक घर में नहीं है; फिर यह दरवाजे पर चारपाई पर सोना क्या माने? और मुझसे-इससे कहाँ का ऐसा याराना है कि आते ही भाभी साहब से फरमाइशें होने लगीं।
इधर मामा ड्योढ़ी में गई कि लड्डू चुपके-चुपके खाय। ताक में ढूँढ़ मारा, पर लड्डुओं का कहीं पता नहीं। छोकरे ने पूछा – मामा, वहाँ क्या ढूँढ़ रही हो? वह तो चूहा खा गया। सच कहना, कैसी हुई? चूहे ने तुम्हारे अच्छे कान कतरे?
मुसाहब – मामा जी, जरी दरी दे जाइए।
मामा – यहाँ दरी-वरी नहीं है।
मुसाहब – हम जानते हैं, बड़े भाई कहीं इस वक्त ईद मिलने गए हैं। बस, समझ जाइए।
नुदरत ने कहा – खुश हुई? कुछ समझीं भी? अब यह इस फिक्र में हैं कि तुमको हमको लड़वा दें। और मिठाई भेजो! गिलौरियाँ चखाओ!
जब मियाँ मुसाहब चंपत हुए, तो मियाँ नुदरत भी चँगेल की तरफ बढ़े और अफीम की पिनक में खूब छक कर मिठाई चखी। फिर चले नवाब के घर। कदम-कदम पर फिकरे सोचते जाते हैं। बारे दाखिल हुए, तो लोगों ने आसमान सिर पर उठाया।
नवाब – शुक्र है, जिंदा तो बचे! यह आप अब तक रहे कहाँ आखिर?
मुसाहब – हुजूर, तारघर तो यह सामने है।
हाफिज – हाँ, और नहीं तो क्या? बात करते तो आदमी पहुँचता है।
रोशनअली – कौन, मुझसे कहिए, तो इतनी देर में अठारह फेरे करूँ।
नुदरत – हाँ भाई, घर बैठे जो चाहे कह लो, कोई जाय, तो आटे-दाल का भाव मालूम हो। चलते-चलते आँधी-रोग आ जाता है। बकरी मर गई और खानेवाले को मजा ही न आया। आप लोग थान के टर्रे हैं। कहने लगे, दो कदम पर है। यहाँ से गए सआदतगंज, वहाँ से धनिया महरी के पुल, वहाँ से ऐशबाग, वहाँ से गनेशगंज, वहाँ से अमीनाबाद होते हुए तारघर पहुँचे। दम टूट गया, शल हो गए, मर मिटे, न खाना, न दाना। आप लोग बैठे-बैठे यहाँ जो चाहे फरमायें, कहने और करने में फर्क है।
नवाब – तो इस ठाँय-ठाँय से वास्ता, यह कहिए, खबर पहुँची कि नहीं?
नुदरत – खुदावंद, भला मैं इसका क्या जवाब दूँ? खबर दे आया। बाबू ने मेरे सामने खट-खट किया, साहब ने रुपए लिए, चपरासियों को इनाम दिया। चार रुपए अपनी जेब से देने पड़े। वह तो कहिए, वहाँ मेरे एक जान-पहचान के निकल आए, नहीं बैरंग वापस आना पड़ता।
नवाब – खैर, तसकीन हुई। अब फरमाइए, इतनी देर कहाँ हुई?
नुदरत – खुदावंद, जल्दी के मारे बग्घी किराए करके गया था; लौटती बार उसने वह पलटा खाया कि मैं तो समझा, बस, कुचल ही गया। मगर खुदा कारसाज है, गिरा तो, लेकिन बच गया। कोई दो घंटे तक कोचवान बम ही दुरुस्त किया। इससे देर हुई। हुजूर, अब घर जाता हूँ।
नवाब – अरे भई, खाना तो खाते जाओ। अच्छा, चार रुपए वे हुए और बग्घी के किराए के भी कोई तीन रुपए हुए होंगे? सात रुपए दारोगा से ले लो।
नुदरत – नहीं खुदावंद झूठ नहीं बोलूँगा। चाहे फाका करूँ, मगर कहूँगा सच ही। यही तो गुलाम में जौहार है। दो रुपए और पाँच पैसे दिए। देखिए, खुदा को मुँह दिखाना है।
नवाब – दारोगा, इनको दस रुपए दे दो। सब बोलने का कुछ इनाम भी तो दूँ।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 30
दूसरे दिन सुबह को नवाब साहब जनानखाने से निकले, तो मुसाहबों ने झुक-झुक कर सलाम किया। खिदमतगार ने चाय की साफ-सुथरी प्यालियाँ और चमचे ला कर रखे। नवाब ने एक-एक प्याली अपने हाथ से मुसाहबों को दी और सबने गरम-गरम दूधिया चाय उड़ानी शुरू की। एक-एक घूँट पीते जाते हैं और गप भी उड़ाते जाते हैं।
मुसाहब – हुजूर, कश्मीरी खूब चाय तैयार करते हैं।
हाफिज – हमारी सरकार में जो चाय तैयार होती है, सारी खुदाई में तो बनती न होगी। जरा रंग तो देखिए। हिंदू भी देखे, तो मुँह में पानी भर आए।
रोशनअली – कुरबान जाऊँ हुजूर, ऐसी चाय तो बादशाह के यहाँ भी नहीं बनती थी। खुदा जाने, मियाँ रहीम कहाँ से नुस्खा पा गए। मगर जरा तल्खी बाकी रह जाती है।
रहीम – सुभान अल्लाह! आप तो बादशाहों के यहाँ चाय पी चुके हैं और इतना भी नहीं जानते कि चाय में तल्खी न हो, तो वह चाय ही नहीं।
खिदमतगार – खुदावंद, शिवदीन हलवाई हाजिर है।
नवाब – दारोगा जी, इस हलवाई का हिसाब कर दो, और समझा दो कि अगर खराब या सड़ी हुई बासी मिठाई भेजी, तो इस सरकार से निकाल दिया जायगा। परसों बरफी खराब भेजी थी। घर में शिकायत करती थीं।
दारोगा – सुनते हो शिवदीन? देखो, सरकार क्या फरमाते हैं? खबरदार जो सड़ी-गली मिठाई भेजी। अब तुमने नमकहरामी पर कमर बांधी है! खड़े-खड़े निकाल दिए जाओगे।
हलवाई – नहीं खुदावंद, अव्वल माल दूँ, अव्वल। चाशनी जरा बहुत आ गई, तो दाना कम पड़ा। कड़ी हो गई। चाशनी की गोली देर में देखी, नहीं तो इस दुकान की बरफी तो शहर भर में मशहूर हैं। वह लज्जती होती है कि ओठ बँधने लगते हैं।
दारोगा – चलो, तुम्हारा हिसाब कर दें। ले बतलाओ, कितने दिन से खर्च नहीं पाया, और तुम्हारा क्या आता है?
हलवाई – अगले महीने में 25 रु. और कुछ आने की आई थी। और अबकी 10 तारीख अंगरेजी तक कोई सत्तर या अस्सी की।
दारोगा – अजी, तुम तो गद्देबाजियाँ करते हो! सत्तर या अस्सी, सौ या पाँच सौ; उस महीने में उतनी और इस महीने में इतनी। यह बखेड़ा तुमसे पूछता कौन है? हमें तो बस, गठरी बता दो, कितना हुआ?
हलवाई – अच्छा, हिसाब तो कर लूँ, (थोड़ी देर के बाद) बस, 142 रुपए और दस आने दीजिए। चाहे हिसाब कर लीजिए, बोलता जाऊँ।
दारोगा – अजी, तुम कोई नए तो हो नहीं। बताओ इसमें यारों का कितना है? सच बोलना लाला! (पीठ ठोंक कर) आओ, वारे-न्यारे हों। क्यों, है न?
हलवाई – बस, सौ हमको दे दो, बयालीस तुम ले लो। सीध-सीधा मैं तो यह जानता हूँ।
दारोगा – अच्छा, मंजूर। मगर बयालीस के बावन करो। एक सौ तुम्हारे, बावन हमारे। सच कहना, दोनों महीनों में चालीस की मिठाई आई होगी या कम?
हलवाई – अजी हुजूर; अब इस भेद से आपको क्या वास्ता? आपको आम खाने से गरज है, या पेड़ गिनने से। सच-सच यह कि सब मिला कर अड़तीस रुपए की आई होगी। मुल वजन में मार देता हूँ। सेर भर लड्डू माँग भेजे, हमने पाव सेर कम कर दिए।
दारोगा – ओह, इसकी न कहिए, यहाँ अंधेर-नगरी चौपट-राज है। यह दिमाग किसे कि तौलने बैठे। मियाँ लखलुट, बीवी उनसे बढ़ कर। दस के पचास लो, और सेर के तीन पाव भेजो। मजे हैं। अच्छा, ये सौ रुपए गिन लो और एक सौ बावन की रसीद हमें दो।
हलवाई – यह मोल-तोल है। सौ और पाँच हम लें और बाकी हजूर को मुबारक रहें।
अब सुनिए, मियाँ खोजी ने ये सारी बातें सुन लीं। जब शिवदीन चला गया, तो बढ़ कर बोले – अजी, हजरत, आदाबरज है। कहिए, इसमें कुछ यारों का भी हिस्सा है? या बावन के बावन खुद ही हजम कर जाओगे और डकार तक न लोगे? अब हमारा और आपका साझा न होगा, तो बुरी ठहरेगी।
दारोगा – क्या? किससे कहते हैं आप! यह साझा कैसा! भंग तो नहीं पी गए हो कहीं? यह क्या वाही-तबाही बक रहे हो? यहाँ बेहूदा बकने वालों की जबान खींच ली जाती है। तुम टुकड़गदों को इन बातों से क्या वास्ता?
खोजी – (कमर कस कर) ओ गीदी, कसम खुदा की, इतनी करौलियाँ भोंकी हों कि याद करो। मुझे भी कोई ऐसा-वैसा समझे हो? मैं आदमी को दम के दम में सीधा बना देता हूँ। किसी और भरोसे न भूलिएगा। क्या खूब अड़तीस के डेढ़ सौ दिलवाए, पचास खुद उड़ाए और ऊपर से गुर्राता है मर्दक। अभी तो नवाब साहब से सारा कच्चा चिट्ठा जड़ता हूँ। खड़े-खड़े न निकाल दिए जाओ, तो सही। हम भी तमाम उम्र रईसों की ही सोहबत में रहे हैं, घास नहीं छीला किए हैं। बाएँ हाथ से बीस रुपए इधर रख दीजिए। बस, इसी में खैर है; वर्ना उलटी आँते गले पड़ेंगी। अब सोचते क्या हो? जरा चीं-चपड़ करोगे, तो कलई खोल दूँगा। बोलो, अब क्या राय है? बीस रुपए से गम खाओगे, या जिल्लत उठाओगे? अभी तो कोई कानोंकान नहीं सुनेगा, पीछे अलबत्ता बड़ी टेढ़ी खीर है।
दारोगा – वाह री फूटी किस्मत! आज सुबह-सुबह बोहनी अच्छी हुई थी, अच्छे का मुँह देख कर उठे थे; मगर हजरत ने अपनी मनहूस सूरत दिखाई। अब बावन में से आपको बीस रुपए, रकम की रकम निकाल दें, तो हमारे पास क्या खाक रहे? और हाँ, खूब याद आया, बावन किस मरदूद को मिले। सैंतालिस ही तो हमारे हत्थे चढ़े। दस तुम भी लो भई। (गर्दन में हाथ डाल कर) मान जाओ उस्ताद। हमें जरूरत थी इससे कहा, वरना क्या बात थी। और फिर हम-तुम जिंदा हैं तो सैकड़ों लुटेंगे मियाँ, ये हाथ दोनों लूटने ही के लिए हैं, या कुछ और?
खोजी – दस में तो हमारापेट न भरेगा। अच्छा भई, पंद्रह दो।
आखिर दारोगा ने मजबूर हो कर पंद्रह रुपए मियाँ खोजी को नजर किए और दोनों आदमी जाकर महफिल में शरीक हुए। थोड़े ही देर बैठे होंगे कि चोबदार ने आकर कहा – हुजूर, वह बजाज आया है, जो विलायती कपड़ा बेचता है। कल भी हाजिर हुआ था; मगर उस वक्त मौका न था, मैंने अर्ज न किया।
नवाब – दारोगा से कहो, मुझे क्या घड़ी-घड़ी आके परचा जड़ते हो। (दारोगा से) जाओ भई, उसको भी लगे हाथों भुगता ही दो। झंझट क्यों बाकी रह जाय। कुछ और कपड़ा आया है विलायत से? आया हो, तो दिखाओ; मगर बाबा मोल की सनद नहीं।
बजाज – अब कोई दूज तक सब कपड़ा आ जायगा। और, हुजूर ऐसी बातें कहते हैं! भला, इस ड्योढ़ी पर हमने कभी मोल-तोल की बात की है आज तक? और यों तो आप अमीर हैं, जो चाहे कहें, मालिक हें हमारे।
दारोगा और बजाज चले। जब दारोगा साहब की खपरैल में दोनों जा कर बैठे, तो मियाँ खोजी भी रेंगते हुए चले और दन से मौजूद! दारोगा ने जो इनको देखा, तो काटो तो बदन में लहू नहीं; मुर्दनी सी चेहरे पर छा गई! चुप! हवाइयाँ उड़ी हुई। समझे कि यह खोजी एक ही काइयाँ है। इससे खुदा पनाह में रखे। सुबह को तो मरदूद ने हत्थे ही पर टोक दिया, और पंद्रह पटीले। अब जो देखा कि बजाज आया, तो फिर मौजूद। आज रात को इसकी टाँग न तोड़ी हो, तो सही। मगर फिर सोचे कि गुड़ से जो मरे, तो जहर क्यों दें। आओ इस वक्त चुनीं-चुनाँ करें, फिर समझा जायगा। बोले – आओ भाईजान, इधर मोढ़े पर बैठो। अच्छी तरह भई? हुक्का लाओ, आपके लिए।
बजाज सदर-बाजार का रहने वाला एक ही उस्ताद था। ताड़ गया कि इसके बैठने से मेरा और दारोगा का मतलब खब्त हो जायगा? किसी तदबीर से इसको यहाँ से निकालना चाहिए। पहले तो कुछ देर दारोगा से इशारों में बातें हुआ कीं। फिर थोड़ी देर के बाद बजाज ने कहा – मियाँ साहब, आपको यहाँ कुछ काम हैं?
खोजी – तुम अपनी कहो लालाजी, हमसे क्या वास्ता?
बजाज – तुम यहाँ से उठ जाओ। उठते हो कि मैं दूँ एक लात ऊपर से।
खोजी – ओ गीदी, जबान सँभाल; नहीं तो इतनी भोंकूँगा कि खून-खराब हो जायगा।
बजाज – उठूँ फिर मैं?
खोजी – उठके तमाशा भी देख ले!
बजाज – बेधा है क्या?
खोजी – वल्लाह, जो बे-ते किया, तो इतनी करौलियाँ…
खोजी कुछ और कहने ही को थे कि बजाज ने बैठे-बैठे मुँह दबा दिया और एक चपत जमाई। चलिए, दोनों गुँथ गए। अब दारोगा जी को देखिए। बीच बचाव किस मजे से करते हैं कि खोजी के दोनों हाथ पकड़ लिए और कमर दबाए हुए हैं और बजाज ऊपर से इनको ठोक रहा है। दारोगा साहब गला फाड़-फाड़ कर गुल मचाए जाते हैं कि मियाँ, क्यों लड़े मरते हो? भई, धौल-धप्पे की सनद नहीं। खोजी अपने दिल में झल्ला रहे हैं कि अच्छे मीर फैसली बने। इतने में किसी ने नवाब साहब से जा कर कह दिया कि मियाँ खोजी, दारोगा और बजाज तीनों गूँथे पड़े हैं। उसी वक्त बजाज भी दौड़ा हुआ आया और फरियाद की कि हुजूर, हम आपके यहाँ तो सस्ता माल देते हैं, मगर यह खोजी हिसाब-किताब के वक्त सर पर सवार हो गए। लाख-लाख कहा कि भई, हम अपने माल का भाव तुम्हारे सामने न बताएँगे; मुल इन्होंने हारी मानी न जीती, और उल्टे पंजे झाड़ के चित-पट की ठहराई। कमजोर, मार खाने की निशानी। मैंने वह गुद्दा दिया कि छठी का दूध याद करते होंगे। दारोगा भी रोते-पीटते आए कि दोहाई है, चारपाई की पट्टी तोड़ डाली, खासदान तोड़ डाला और सैकड़ों गालियाँ दीं।
मियाँ खोजी ऐसे धपियाए गए और इतनी बेभाव की पड़ी कि बस, कुछ पूछिए नहीं। नवाब ने पूछा – आखिर झगड़ा क्या था?
दारोगा – हुजूर यह खोजी बड़े ही तीखे आदमी हैं। बात-बात पर करौली भोंकते हैं, और गीदी तो तकिया-कलाम है। इस वक्त लाला बलदेव ही से भिड़ पड़े। वह तो कहिए, मैंने बीच-बचाव कर दिया। वर्ना एक-आध का सिर ही फूट जाता।
बजाज – बड़े झल्ले आदमी हैं। दारोगा जी बेचारे न आ जाते तो कपड़े-वपड़े फाड़ डालते।
खोजी – तो अब रोते काहे को हो? अब यह दुखड़ा लेके क्या बैठे हो।
नवाब – लप्पा-डग्गी तो नहीं हुई।
खोजी – नहीं हुजूर, शरीफों में कहीं हाथा-पाई होती है भला? हमने इनको ललकारा, इन्होंने हमको डाँटा, मगर कुंदे तौल-मौल कर दोनों रह गए। भले-मानस पर हाथ उठाना कोई दिल्लगी है!
खैर, मियाँ खोजी तो महफिल में जा कर बैठे और उधर लाला बलदेव और दारोगा साहब हिसाब करने गए।
दारोगा – हाँ भाई, बताओ।
लाला – अजी बताएँ क्या, जो चाहे दिलवा दो।
दारोगा – पहले यह बताओ, तुम्हारा आता क्या है? सौ, दो सौ, दस, बीस, पचास जो हो, कह दो।
लाला – दारोगा जी, आजकल कपड़ा बड़ा महँगा है।
दारोगा – लाला, तुम गिरे गावदी ही रहे। हमको महँगे-सस्ते क्या वास्ता? हमको तो अपने हक से मतलब। तुम तो इस तरह कहते हो, जैसे हमारी गिरह से जाता है।
लाला – फिर तो 753 निकालिए।
दारोगा – बस, अरे मियाँ, अबकी इतने दिनों में सात-साढ़े सात सौ ही की नौबत आई?
लाला – जी हाँ, आप से कुछ परदा थोड़े ही है। दो सौ और पचपन रुपए का कपड़ा आया है; अंदर-बाहर, सब मिला कर। मगर परसों नवाब साहब कहने लगे। कि अबकी तो तुम्हारा कोई पाँच-छह सौ का माल आया होगा। मैंने कहा कि ऐसे मौके पर चूकना गधापन है। वह तो पाँच-छह सौ बताते थे, मेरे मुँह से निकल गया कि हिसाब किए से मालूम होगा। मुल कोई सात-आठ सौ का आया होगा। तो अब 753 ही रखिए। इसमें हमारा और आपका समझौता हो जायगा।
दारोगा – अजी, समझौता कैसा, हम-तुम कुछ दो तो है नहीं; और हमारे-तुम्हारे तो बाप-दादा के वक्त से दोस्ताना है। बोलो, कितने पर फैसला होता है?
लाला – बस, दो सौ छब्बीस तो हमको एक दीजिए और तीन सौ और दीजिए। इसके बाद बढ़े सो आपका।
दारोगा – (हँस कर) अच्छा भई, मंजूर। हाथ पर हाथ मारो। मगर 753 रु. 6 आ. की रसीद लिखो, जिनमें मालूम हो कि आने-पाई से हिसाब लैस है।
लाला – बड़े काइयाँ हो दारोगा जी! अजी, 227 रु. 6 आ. कुल आपका?
खोजी – बल्कि आपके बाप का।
यह आवाज सुन कर दोनों चौंके। इधर-उधर देखते हैं, कोई नजर ही नहीं आता। दारोगा के हवास गायब। बजाज के बदन में खून का नाम नहीं। इतने में फिर आवाज आई – कहो, कुछ यारों का भी हिस्सा है? तब दोनों के रहे-सहे होश और भी उड़ गए।
अब सुनिए – मियाँ खोजी खपरैल के पिछवाड़े एक मोखे की राह से सब सुन रहे थे। जब कुल कारवाई खतम हो गई, तो आवाज लगाई। खैर, दारोगा और लाला बलदेव ने उनको ढूँढ़ निकाला और लल्लो-पत्तो करने लगे।
बजाज – हमारा कसूर फिर माफ कीजिए।
दारोगा – अजी, ये ऐसे आदमी नहीं हैं। ये बेचारे किसी से लड़ने-भिड़नेवाले नहीं। बाकी लड़ाई-झगड़ा तो हुआ ही करता है। दिल में कुदरत आई और साफ हो गए।
खोजी – ये बातें तो उम्र भर हुआ करेंगी। मतलब की बात फरमाइए। लाओ कुछ इधर भी।
दारोगा – जो कहो।
खोजी – सौ दिलवाइए पूरे। एक सौ लिए बगैर न टलूँगा। आज तुम दोनों ने मिल कर हमारी खूब मरम्मत की है।
दारोगा – यह तीस रुपए तो एक लीजिए और यह दस का नोट। बस। और जो अलसेट कीजिए, तो इससे भी हाथ धोइए।
खोजी – खैर लाइए, चालीस ही क्या कम हैं।
दारोगा – हम समझते थे कि बस, हमी-हम हैं; मगर आप हमारे भी गुरु पैदा हुए।
मियाँ खोजी और दारोगा साहब हाथ में हाथ दिए जा कर महफिल में बैठे, गोया दोनों में दाँत-काटी रोटी थी। मगर दारोगा का बस चलता, तो खोजी को काले पानी ही भेज देते, या जिंदा चुनवा देते। महफिल में लतीफे उड़ रहे थे।
नुदरत – हुजूर, आज एक आदमी ने हमसे पूछा कि अगर दरिया में नहायँ, तो मुँह किस तरफ रखें। हमने कहा कि भाई, अगर अक्लमंद हो, तो अपने कपड़ों की तरफ रुख रखे, वर्ना चोर उठा ले जायगा और आप गोते ही खाते रह जायँगे।
हाफिज – पुराना लतीफा है।
आजाद – एक हकीम ने कहा कि जब तक मैं बिन ब्याहा था, तो बीवीवाले गूँगे हो गए थे और अब जो शादी कर ली, तो एक-एक मुँह में सौ-सौ जबानें हैं।
इतने में गंधी ने आ कर सलाम किया।
नवाब – दारोगा जी, इनको भी भुगता दो।
दारोगा और गंधी खपरैल में पहुँचे, तो दारोगा ने पूछा – कितना इत्र आया?
गंधी – देखिए, आपके यहाँ तो लिखा होगा।
दारोगा – हाँ, लिखा तो है। मगर खुदा जाने वह कागज कहाँ पड़ा है। तुम अपनी याद से जो जी में आए, बता दो।
गंधी – 35 रु. तो कल के हुए, और 80 रु. उधर के। बेगम साहब ने अब की इत्र की भरमार ही कर दी। कराबे के कराबे खाली कर दिए।
दारोगा – अच्छा भई, फिर इसमें किसी के बाप का क्या इजारा। शौकीन हैं, रईसजादी हैं, अमीर हैं। इत्र उन्हीं के लिए है, या हमारे आपके लिए? अच्छा, तो कुल 115 रु. हुए न! तुम भी क्या याद करोगे। लो, सौ ये हैं और तीन नोट पाँच-पाँच के।
गंधी – अच्छा लीजिए, यह इत्र की शीशी आपके लिए लाया हूँ।
दारोगा – किस चीज का है?
गंधी – सूँघिए, तो मालूम हो। खुदा जानता है, 10 रु. तोले में झड़ाझड़ उड़ा जा रहा है।
मियाँ गंधी उधर रवाना हुए, इधर दारोगा जी खुश-खुश चले, तो आवाज आई कि उस्ताद, इस शीशी में यारों का भी हिस्सा है। पीछे फिर के देखते हैं, तो मियाँ खोजी घूमते हुए चले आते हैं।
दारोगा – यार, तुमने तो बेतरह पीछा किया।
खोजी – अब की तो तुमको कुछ न मिला। मगर इस इत्र में से आधी शीशी लेंगे।
दारोगा – अच्छा भई, ले लेना। तुमसे तो कोर ही दबी है। दोनों आदमी जा कर महफिल में फिर शरीक हो गए।