गोरा (बांग्ला उपन्यास) : रबीन्द्रनाथ टैगोर – अनुवाद: अज्ञेय Part 4

गोरा (बांग्ला उपन्यास) : रबीन्द्रनाथ टैगोर – अनुवाद: अज्ञेय Part 4

अध्याय-17

आनंदमई से विनय ने कहा, “देखो माँ, मैं तुम्हें सत्य कहता हूँ, जब-जब भी मैं मूर्ति को प्रणाम करता रहा हूँ मन-ही-मन मुझे न जाने कैसी शर्म आती रही है। उस शर्म को मैंने छिपाए रखा है- बल्कि उल्टे मूर्ति-पूजा के समर्थन में अच्छे-अच्छे प्रबंध लिखता रहा हूँ। मगर सच्ची बात तुम्हें बता दूँ, जब भी मैंने प्रणाम किया है मेरे अंत:करण ने गवाही नहीं दी।”
आनंदमई ने कहा, “तेरा मन क्या इतना सीधा है! तू तो मोटी बात कोई समझ ही नहीं सकता- हर बात में कोई-न-कोई बारीकी देखता है। इसीलिए तेरे मन का खटका कभी मिटता नहीं।”
विनय ने कहा, “बिल्कुल यही बात है, मेरी बुध्दि ज्यादा सूक्ष्म है तभी मैं जो विश्वास नहीं करता वह भी बाल की खाल उतारने वाली दलीलों से साबित कर दे सकता हूँ। जैसी सुविधा होती है वैसे अपने को या दूसरे को बहला लेता हूँ। इतने दिन धर्म के बारे में जो कुछ तर्क मैं करता रहा हूँ वह धर्म की ओर से नहीं, गुट की ओर से करता रहा हूँ।”
आनंदमई ने कहा, “जब धर्म की ओर सच्चा लगाव न हो तब ऐसा ही होता है। तब धर्म भी वंश, इज्जत, रुपए-पैसे की तरह अहंकार करने की सामग्री बन जाता है।”
विनय, “हाँ, जब हम यह बात ही नहीं सोचते कि यह धर्म है, यही सोचकर लड़ते-भिड़ते हैं कि यह हमारा धर्म है। अब तक मैंने भी यही किया है। फिर भी अपने को बिल्कुल भुलावे में डाल सका हूँ ऐसा नहीं है, जहाँ मेरा विश्वास नहीं होता वहाँ मैं भक्ति का ढोंग करता रहा हूँ इस पर मैं बराबर अपने सामने ही शर्मिंदा होता रहा हूँ।”
आनंदमई बोलीं, “यह क्या मैं जानती नहीं। तुम लोग जो साधारण लोगों से बहुत बढ़-चढ़कर बातें करते हो इसी से साफ समझ में आ जाता है कि मन के भीतर कहीं खाली स्थान है जिसे भरने के लिए तुम्हें बहुत मसाला खर्च करना पड़ता है। भक्ति सहज हो तो इस सब की ज़रूरत नहीं होती।”
विनय ने कहा, “तभी तो तुमसे पूछने आया हूँ, कि जिसमें मैं विश्वास नहीं करता उसमें विश्वास जताना क्या उचित है?”
आनंदमई ने कहा, “सुनो ज़रा! यह भी कोई पूछने की बात है?”
विनय ने कहा, “माँ, मैं कल ब्रह्म-समाज में दीक्षा लूँगा।”
विस्मित होकर आनंदमई ने कहा, “वह क्यों, विनय? दीक्षा लेने की ऐसी क्या ज़रूरत आ पड़ी?”
विनय ने कहा, “क्यों ज़रूरत आ पड़ी, अब तक यही बात तो समझा रहा था!”
आनंदमई ने पूछा, “तेरे जो विश्वास हैं उन्हें लेकर क्या तू हम लोगों के समाज में नहीं रह सकता?”
विनय ने कहा, “रहूँगा तो वह धोखा होगा।”
आनंदमई बोलीं, “धोखा किए बिना रहने का साहस नहीं है? समाज के लोग सताएँगे- तो क्या उसे सहता हुआ नहीं रह सकेगा?”
विनय ने कहा, “माँ, मैं अगर हिंदू-समाज के मत पर नहीं चलता तो”
आनंदमई ने कहा, “हिंदू-समाज में जहाँ तीन सौ तैंतीस करोड़ मत चल रहे हैं वहाँ तेरा ही मत भला क्यों चलेगा?”
विनय ने कहा, “किंतु माँ, अगर हमारे समाज के लोग कहे कि तुम हिंदू नहीं हो-तो क्या मैं ज़बरदस्ती कहूँगा कि मैं हिंदू हूँ?”
आनंदमई ने कहा, “मुझे तो हमारे समाज के लोग ख्रिस्तान कहते हैं- मैं तो उनके काज-कर्म में भी उनके साथ बैठती-खाती नहीं। फिर भी उनके मुझे ख्रिस्तान कहने से ही क्या वह बात मुझे मान लेनी होगी- यह तो मेरी समझ में नहीं आता। जिसे मैं उचित मानती हूँ उसके लिए भागकर कहीं जा छिपना मैं गलत समझती हूँ।”
विनय कुछ उत्तर देने जा रहा था कि आनंदमई ने उसे अवकाश न देकर कहा, “विनय, मैं तुझे बहस नहीं करने दूँगी, यह बहस की बात नहीं है। तू मुझसे कुछ छिपा नहीं सकता। मुझे तो साफ दीखता है कि तू मेरे साथ बहस करने के बहाने ज़बरदस्ती अपने को भुलाने का प्रयत्न कर रहा है। लेकिन इतने बड़े महत्व के मामले में अपनी ऑंखों में यों धूल डालने की चेष्टा न कर।”
सिर झुकाकर विनय ने कहा, “लेकिन माँ, चिट्ठी लिखकर मैंने वचन दे दिया है कि कल मैं दीक्षा लूँगा।”
आनंदमई ने कहा, “यह नहीं हो सकता। अगर परेशबाबू को समझाकर कहेगा तो वह कभी ज़ोर नहीं डालेंगे।’
विनय ने कहा, “परेशबाबू का इस दीक्षा के लिए कोई ज़ोर नहीं है। वह इस अनुष्ठान में योग नहीं देंगे।”
आनंदमई ने कहा, “तब तुझे कुछ भी सोचने की ज़रूरत नहीं है।”
विनय ने कहा, “नहीं माँ, बात पक्की हो गई है, अब वापस नहीं हो सकती- किसी तरह नहीं।”
आनंदमई ने पूछा, “गोरा को बताया है?”
विनय ने कहा, “गोरा से भेंट ही नहीं हुई।”
आनंदमई ने कहा, “क्यों, गोरा क्या अभी घर में नहीं है?”
विनय ने कहा, “नहीं, सुना है सुचरिता के घर गया है।”
विस्मित होकर आनंदमई ने कहा, “वहाँ तो वह कल गया था।”
विनय ने कहा, “आज भी गया है।”
इसी बीच ऑंगन में पालकी वालों की पुकार सुनाई दी। यह सोचकर कि आनंदमई के कुटुंब की कोई स्त्रियाँ आई होंगी विनय बाहर चला गया।
ललिता ने आकर आनंदमई को प्रणाम किया। आज आनंदमई ने ललिता के आने की बात कल्पना में भी नहीं सोची थी। चकित होकर ललिता के चेहरे की ओर देखते ही उन्होंने समझ लिया कि विनय की दीक्षा के मामले को लेकर किसी मुश्किल में पड़कर वह उनके पास आई है।
बात करना सरल बनाने के खयाल से उन्होने कहा, “बेटी, तुम आ गईं यह बहुत अच्छा हुआ। अभी-अभी विनय यहाँ थे, कल वह तुम लोगों के समाज में दीक्षा लेंगे, अभी मेरे साथ यही बात हो रही थी।”
ललिता ने कहा, “वह क्यों दीक्षा लेने जा रहे हैं, उन्हें क्या ज़रूरत है?”
अचंभे में आकर आनंदमई ने कहा, “ज़रूरत नहीं है, बेटी?”
ललिता ने कहा, “मुझे तो सोचकर भी कोई नहीं दीखती।”
आनंदमई ललिता का अभिप्राय न समझ पाकर चुपचाप उसके चेहरे की ओर देखती रहीं।
मुँह नीचा किए हुए ललिता ने कहा, “अचानक इस ढंग से दीक्षा लेने जाना उनके लिए असम्मान की बात है। यह अपमान वह किसलिए स्वीकार करने चले हैं?”
किसलिए? यह क्या ललिता नहीं जानती? क्या इसमें ललिता के प्रसन्न होने का कोई कारण नहीं है?
आनंदमई ने कहा, “कल ही दीक्षा का दिन है, उसने पक्का वचन दिया है- अब बदलने का अवकाश नहीं है, विनय ने तो ऐसा ही कहा था।”
अपनी दीप्त दृष्टि ललिता ने आनंदमई के चेहरे पर टिकाकर कहा, “इन सब मामलों में वचन देने का कोई मतलब नहीं है, अगर परिवर्तन ज़रूरी हो तो करना ही होगा।”
आनंदमई ने कहा, “बेटी, तुम मुझसे लज्जा न करो, मैं तुम्हें सारी बात बताती हूँ। मैं अब तक विनय को यही समझा रही थी कि उसका धर्म-विश्वास चाहे जो हो, समाज को छोड़ना उसके लिए ठीक नहीं है, ज़रूरी भी नहीं है। वह मुँह से चाहे जो कहता हो, किंतु वह खुद यह बात न समझता हो ऐसा भी नहीं लगता। लेकिन बेटी, तुमसे तो उसके मन का भाव छिपा नहीं है। वह ज़रूर यही समझता है कि समाज छोड़े बिना तुम लोगों से उसका संबंध नहीं हो सकेगा। शर्म न करो बेटी, मुझे ठीक-ठीक बताओ, यह बात क्या सच नहीं?”
आनंदमई के चेहरे की ओर ऑंखें उठाकर ललिता ने कहा, “माँ, तुम से मैं कुछ भी नहीं छिपाऊँगी। मैं तुमसे साफ कहती हूँ, मैं यह सब नहीं मानती। बहुत अच्छी तरह मैंने सोचकर देखा है, ऐसा कभी नहीं हो सकता कि मनुष्य का जो भी धर्म-विश्वास या समाज हो उसे बिल्कुल छोड़कर ही दो मनुष्यों का परस्पर योग हो सकेगा। ऐसा हो तो हिंदू और ख्रिस्तान में दोस्ती ही नहीं हो सकती। तब तो बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी करके एक-एक सम्प्रदाय को एक-एक बाड़े में बंद कर देना ही ठीक है।”
आनंदमई का चेहरा खिल उठा। उन्होंने कहा, “अहा, तुम्हारी बातें सुनकर बड़ी खुशी हो रही है बेटी। मैं भी तो यही बात कहती हूँ, एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति का रूप-गुण-स्वभाव कुछ न मिलने पर भी दोनों के मिलने में कोई बाधा नहीं होती- फिर मत के कारण ही क्यों बाधा हो? बेटी, तुमने तो मुझे बचा लिया- मैं विनय के लिए बड़ी चिंतित थी। अपना सारा मन उसने तुम लोगों को सौंप दिया है, यह मैं जानती हूँ। तुम लोगों से उसके संबंध पर कहीं कोई विघ्न आया तो विनय उसे किसी तरह नहीं सह सकेगा। इसीलिए उसे रोकना मुझे कितना खल रहा था, यह ईश्वर ही जानता है। लेकिन उसका कितना बड़ा सौभाग्य है कि उसका इतना बड़ा संकट इतनी आसानी से टल जाय। यह कोई छोटी बात नहीं है। अच्छा, एक बात पूछूँ,इस बारे में परेशबाबू से कोई बात हुई है?”
अपनी लज्जा दबाते हुए ललिता ने कहा, “नहीं, नहीं हुई। लेकिन मैं जानती हूँ, वह ठीक-ठीक समझेंगे।”
आनंदमई ने कहा, “यदि वही न समझने वाले होते तो इतनी बुध्दि और मनोबल तुम और कहाँ से पातीं? बेटी, मैं ज़रा विनय को बुला लाऊँ,तुम्हारा उससे अपने मुँह से बात कर लेना ठीक होगा। इस बीच मैं एक बात तुमसे कर लूँ विनय को मैं बचपन से देखती आ रही हूँ, वह ऐसा लड़का है कि उसके लिए तुम्हें चाहे जितना दु:ख स्वीकार करना पड़े पर वह उस सबको सार्थक कर देगा, यह मैं दावे के साथ कह सकती हूँ। मैंने कई बार सोचा है, वह कौन भाग्यवती होगी जो विनय को पाएगी। बीच-बीच में कई संबंधों की बात आई है पर मुझे कोई पसंद नहीं आया। बीच-बीच में कई संबंधों की बात आई है पर मुझे कोई पसंद नहीं आया। लेकिन आज देख पा रही हूँ कि वह भी कुछ कम भाग्यवान नहीं है।
इतना कहती हुई आनंदमई ने ललिता की ठोड़ी छूकर चुंबन लिया और फिर विनय को बुलवा भेजा। फिर लछमिया को कमरे में छोड़कर वह ललिता के लिए जलपान लाने की बात कहकर वहाँ से चली गईं।
आज ललिता और विनय के मध्य संकोच की कोई गुंजाइश न थी। दोनों के जीवन पर जो एक समान संकट आन पड़ा था, उसी की चुनौती ने उनके परस्पर संबंध को सहज और गहरा कर दिया था। किसी आवेश का धुऑं उनके बीच कोई रंगीन आवरण नहीं खड़ा कर रहा था। बिना किसी भूमिका के विनीत गंभीर भाव से चुपचाप और कुंठित हुए बिना यह बात उन्होंने स्वीकार
कर ली थी कि दोनों के हृदय मिल गए हैं, और उनके जीवन की धाराएँ गंगा-यमुना की तरह एक पुण्य तीर्थ पर मिलने के लिए बढ़ रही हैं। समाज ने उन दोनों को नहीं मिलाया, किसी संप्रदाय ने उन दोनों को नहीं मिलाया, उन दोनों का बंधन कोई कृत्रिम बंधन नहीं है, यह स्मरण करके दोनों ने अपने मिलन को एक ऐसे धर्म-मिलन के रूप में अनुभव किया, जिसका धर्म अत्यंत वृहत् भाव से सरल है। जो किसी छोटी बात को लेकर विवाद नहीं करता जिसमें कोई पंचायती पंडित अड़ंगा नहीं लगा सकते। ललिता ने दीप्त चेहरे और ऑंखों से कहा, “आप अपने को छोटा करके और दीन होकर मुझे ग्रहण करने आएँगे, यह अपमान मैं नहीं सह सकूँगी। आप जहाँ हैं वहीं अविचलित रहें यही मैं चाहती हूँ।”
विनय ने कहा, “आप भी जहाँ आपकी प्रतिष्ठा है वहीं स्थिर रहें, आप को वहाँ से ज़रा भी हिलना नहीं होगा। प्रीति अगर प्रभेदों को न सह सकती, तो फिर दुनिया में कोई प्रभेद होता ही क्यों?”
लगभग बीस मिनट तक दोनों में जो कुछ बातचीत हुई उसका निचोड़ यही था। वे हिंदू हैं या ब्रह्म, इस प्रश्न को वे भूल गए। उनके मन में निष्कंप दीप-शिखा की तरह यही बात स्थिर होने लगी कि वे दोनों मानव आत्माएँ हैं।
उपासना के बाद परेशबाबू अपने कमरे के सामने बरामदे में चुपचाप बैठे थे। सूर्य अभी-अभी अस्त हुआ था।
इसी समय ललिता को साथ लेकर विनय वहाँ पहुँचा। परेशबाबू को प्रणाम करके उसने उनकी चरण-रज ली।
दोनों को इस ढंग से प्रवेश करते देखकर परेशबाबू कुछ चकित हुए। उन्हें बैठाने के लिए वहाँ और कुर्सियाँ न थीं, इसलिए वह बोले, “चलो,कमरे में चलें। विनय ने कहा, “नहीं, आप उठें नहीं। कहकर वहीं फर्श पर बैठ गया। उससे कुछ हटकर ललिता भी परेशबाबू के पैरों के पास बैठ गई।
विनय ने कहा, “हम दोनों एक साथ आपका आशीर्वाद लेने आए हैं। वही हमारे जीवन की सच्ची दीक्षा होगी।”
परेशबाबू विस्मित होकर उसके चेहरे की ओर देखते रहे।
विनय बोला, “बँधे-बँधाए नियमों वाले समाज के संकल्प मैं ग्रहण नहीं करूँगा। हम दोनों के भविष्य जीवन विनत होकर जिस दीक्षा के सच्चे बंधन में बँध सकते हैं, वह दीक्षा आपका आशीर्वाद ही है। हम दोनों का हृदय भक्तिपूर्वक आप ही के चरणों में अर्पित हुआ है, हम लोगों के लिए जो भी मंगलमय है, वह ईश्वर आपके हाथों से ही दिलाएँगे।”
थोड़ी देर परेशबाबू बिना कुछ बोले बैठै रहे। फिर उन्होंने कहा, “विनय, तब तुम ब्रह्म नहीं होओगे?”
विनय ने कहा, “नहीं।”
परेशबाबू ने पूछा, “तुम हिंदू-समाज में ही रहना चाहते हो?”
विनय ने कहा, “हाँ।”
तब परेशबाबू ने ललिता के चेहरे की ओर देखा, ललिता ने उनके मन का भाव समझकर कहा, “बाबा, मेरा जो भी धर्म है वह मेरा है और बराबर रहेगा। मुझे असुविधा हो सकती है, कष्ट भी हो सकता है लेकिन यह मैं किसी तरह नहीं मान सकती कि जिससे मेरा मत या मेरा आचरण भी नहीं मिलता उन्हें पराया मानकर दूर रखे बिना मेरे धर्म में बाधा होगी।”
परेशबाबू चुप ही रहे। ललिता फिर बोली, “पहले मुझे लगता था कि ब्रह्म-समाज ही एक मात्र दुनिया है और उसके बाहर जो कुछ है सब असत्य है, ब्रह्म-समाज से अलग होना जैसे समूचे सत्य से ही अलग होना है। लेकिन इधर कुछ दिनों से मुझे यह विचार बिल्कुल निराधार लगा है।”
उदास भाव से परेशबाबू तनिक मुस्करा दिए। ललिता कहती गई, “बाबा, मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि मुझमें कितना बड़ा परिवर्तन हो गया है। ब्रह्म-समाज में जिन सब लोगों को मैं देखती हूँ उनमें बहुतों के साथ मेरा धर्ममत एक होने पर भी मैं उनके साथ किसी तरह भी एक नहीं हूँ। फिर भी ब्रह्म-समाज के केवल नाम का सहारा लेकर मैं सिर्फ उन्ही को विशेष रूप से अपना कहूँ, और पृथ्वी के बाकी सब लोगों को दूर कर दूँ, यह अब मुझे किसी तरह उचित नहीं जान पड़ता।”
परेशबाबू अपनी विद्रोही कन्या की पीठ धीरे-धीरे थपथपाते हुए कहा, “जिस समय व्यक्तिगत कारणों से मन उत्तेजित हो, उस समय क्या ठीक से विचार हो सकता है? पुरखों से लेकर आने वाली संतान तक मनुष्य की जो एक परंपरा है उसका मंगल चाहने पर ही समाज की ज़रूरत होती है,और वह ज़रूरत कृत्रिम ज़रूरत तो नहीं है। तुम्हारे भावी वंश में जो दूरव्यापी भविष्य निहित है, उसका भार जिस पर होगा वही तुम्हारा समाज है,उसकी बात क्या नहीं सोचनी चाहिए?”
विनय ने कहा, “हिंदू-समाज तो है।”
परेशबाबू ने कहा, “अगर हिंदू-समाज तुम लोगों का भार न ले- न स्वीकार करे?”
आनंदमई की बात स्मरण करके विनय ने कहा, “उसे स्वीकार कराने का जिम्मा हमें लेना होगा। हिंदू-समाज ने तो हमेशा नए-नए संप्रदायों को आश्रय दिया है, हिंदू-समाज सभी संप्रदायों का समाज हो सकता है।”
परेशबाबू ने कहा, “जबानी बहस में किसी चीज़ को एक ढंग से दिखाया जा सकता है, किंतु व्यवहार में वैसा नहीं पाया जाता। नहीं तो क्या कोई अपने पुराने समाज को जान-बूझकर छोड़ सकता है? जो समाज मनुष्य के धर्मबोध को बाहरी आचरण की बेड़ियाँ छोड़ सकता है? जो समाज मनुष्य के धर्मबोध को बाहरी आचरण की बेड़ियाँ पहनाकर एक ही जगह बंदी बनाकर रखना चाहता है, उसे मानने पर तो अपने को हमेशा के लिए कठपुतली बना लेना होगा।”
विनय ने कहा, “हिंदू-समाज की यदि ऐसी ही संकीर्ण हालत हो गई हो तो उससे उसे मुक्त करने की ज़िम्मेदारी हमें लेनी होगी होगी। हवा और प्रकाश के लिए अगर घर की खिड़कियाँ-दरवाजे बड़े कर देना यथेष्ट हो तो कोई यों ही क्रोध में आकर सारे पक्के मकान को क्यों गिराना चाहेगा?”
ललिता कह उठी, “बाबा, मेरी समझ में यह बातें नहीं आतीं। किसी समाज की उन्नति का जिम्मा लेने का मेरा कोई इरादा नहीं है। लेकिन चारों ओर से ऐसा अन्याय मुझे बेध रहा है कि मेरा दम घुटने लगा है। यह सब सहकर सिर ऊँचा किए रहना मुझे किसी तरह या किसी भी कारण ठीक नहीं जान पड़ता। उचित-अनुचित भी मैं अच्छी तरह नहीं समझ सकती- लेकिन बाबा, यह मुझ से नहीं होता।”
स्निग्ध स्वर में परेशबाबू ने कहा, “और कुछ समय लेना क्या अच्छा न होगा? अभी तुम्हारा मन चंचल है।”
ललिता ने कहा, “समय लेने में मुझे कोई ऐतराज नहीं है। लेकिन यह मैं निश्चय जानती हूँ कि झूठी बातें और अन्याय-अत्याचार बढ़ते ही जाएँगे। इसलिए मुझे बड़ा भय लगता है कि असह्य हो जाने पर कहीं मैं अचानक ऐसा कुछ न कर बैठूँ जिससे तुम्हें दु:ख हो। बाबा, तुम ऐसा न समझो कि मैंने कुछ सोच-विचार नहीं किया। मैंने अच्छी तरह सोचकर देख लिया है कि मेरे संस्कार और मेरी शिक्षा जैसी है उससे ब्रह्म-समाज के बाहर शायद मुझे बहुत कष्ट और संकोच भी झेलना पड़ सकता है- लेकिन मेरा मन उससे ज़रा भी कुंठित न होगा, बल्कि मन के अंदर एक शक्ति और आनंद जाग रहा है। मुझे एक ही बात की सोच है बाबा, कि कहीं मेरा कोई काम तुम्हें किसी तरह की तकलीफ न पहुँचाए।”
यह कहकर ललिता धीरे-धीरे परेशबाबू के पैरों पर हाथ फेरने लगी।
थोड़ा मुस्कराकर परेशबाबू ने कहा, “बेटी, अगर मैं अकेली अपनी बुध्दि पर ही निर्भर करता तो मेरी इच्छा और मेरे मत के विपरीत कोई काम होने पर मुझे कष्ट न होता। लेकिन तुम लोगों के मन में जो आवेग उत्पन्न हुआ है वह संपूर्णतया अमंगल ही है, ऐसा मैं दावा करके नहीं कह सकता। मैं भी एक दिन विद्रोह करके घर छोड़कर चला आया था, किसी सुविधा-असुविधा की बात तब मैंने सोची ही नहीं। आजकल बराबर समाज पर यह जो घात-प्रतिघात हो रहे हैं इनसे समझा जा सकता है कि उसी (ईश्वर) की शक्ति अपना काम कर रही हैं वह चारों ओर से तोड़-फोड़, सँवार-सुधारकर किस चीज़ को कैसे बनाना चाहता है, यह मैं कैसे जान सकता हूँ? सँवार-सुधार किस चीज़ को कैसे बनाना चाहता है, यह मैं कैसे जान सकता हूँ? उसके लिए क्या ब्रह्म-समाज और क्या हिंदू-समाज, वह तो मनुष्य मात्र को देखता है।”
इतना कहकर थोड़ी देर ऑंखें बंद करके परेशबाबू जैसे अपने हृदय के एकांत में अपना समाधान करते रहे। थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा, “देखो विनय, हमारे देश का समाज धर्म-विश्वासों के साथ संपूर्णतया बँधा हुआ है। इसीलिए हमारे सभी सामाजिक क्रिया-कर्म के साथ धार्मिक अनुष्ठान जुड़े हुए है। जो लोग धर्म-विश्वास के दायरे के बाहर हैं उन्हें समाज के दायरे में किसी तरह नहीं लिया जा सकता, इसीलिए उसके लिए मार्ग नहीं रखा गया। इस बात को तुम लोग कैसे टालोगे, मैं तो यह सोच नहीं पाता।”
यह बात ललिता ठीक तरह नहीं समझ सकी, क्योंकि दूसरे समाज की प्रथाओं से उसके समाज का वैभिन्न्य उसके सामने नहीं हुआ था। उसकी यही धारणा थी कि मोटे तौर पर दोनों के आचार-अनुष्ठान में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। जैसे उसने विनय में और अपने घर के लोगों में कोई विशेष अंतर अनुभव नहीं किया था, वैसे ही दोनों समाजों की परस्पर स्थिति भी वह समझती थी। वह यह भी नहीं जानती थी कि उसके लिए हिंदू पध्दति से विवाह-अनुष्ठान में कोई विशेष बाधा भी हो सकती है।
विनय ने कहा, “हम लोगों में विवाह शालिग्राम स्थापित करके होता है, आप क्या उसी की बात कह रहे हैं?”
परेशबाबू ने एक बार ललिता की ओर देखकर कहा, “हाँ! लति, तुम क्या वह स्वीकार कर सकोगी?”
विनय ने ललिता के चेहरे की ओर देखा। वह समझ गया कि ललिता का समस्त अंत:करण संकुचित हो उठा है।
ललिता के हृदय का आवेग एक ऐसे बिंदु पर आ पहुँचा था जो उसके लिए बिल्कुल अपरिचित और संकटमय था। विनय के मन में इससे बड़ी करुणा उपजी। सारा संताप अपने ऊपर इसे किसी तरह बचाना होगा। इतना बड़ा तेज हारकर लौट जाए यह भी उतना ही असह्य है, और विजय के दुर्दम उत्साह में वह मृत्यु बाण छाती पर झेल ले यह भी उतना ही दारुण! उसे विजई भी बनाना होगा, उसकी रक्षा भी करनी होगी।….
थोड़ी देर ललिता सिर झुकाए बैठी रही। फिर एक बार विनय की ओर करुण दृष्टि से देखती हुई बोली, “आप क्या सचमुच शालिग्राम को मानते हैं?”
फौरन विनय ने कहा, “नहीं क्या मानता। शालिग्राम मेरे लिए देवता नहीं हैं, मेरे लिए कोई एक सामाजिक चिन्ह हैं।”
ललिता ने कहा “मन-ही-मन जिसे केवल चिन्ह मानते हैं, बाहर से तो उसे देवता स्वीकार करना होगा?”
परेशबाबू की ओर देखकर विनय ने कहा, “मैं शालिग्राम नहीं रखूँगा।”
परेशबाबू कुर्सी छोड़कर उठ खड़े हुए। बोले, “विनय, तुम लोग सारी बात ठीक तरह सोचकर नहीं देख रहे हो। बात अकेले तुम्हारे या और किसी के मतामत की नहीं है। विवाह केवल व्यक्तिगत कर्म नहीं है, वह सामाजिक कर्म है, यह बात भूल जाने से कैसे चलेगा? तुम लोग थोड़े दिन और सोचकर देख लो, अभी एकाएक कुछ तय मत कर लो।”
परेशबाबू इतना कहकर बाहर बगीचे में चले गए और वहीं अकेले टहलने लगे।
ललिता भी उठकर जाने को हुई पर कुछ रुककर विनय की ओर लौटकर बोली, “हम लोगों की इच्छा अगर अनुचित नहीं है तो उसके किसी एक समाज के विधान से पूर्णत: मेल न खाने के कारण ही हमें सिर नीचा करके वापस लोट जाना होगा, मेरी समझ में यह किसी तरह नहीं आता। समाज में मिथ्या आचरण के लिए स्थान है, और सच्चाई के लिए नहीं है?”
धीरे-धीरे विनय ने ललिता के पास आकर खड़े होकर कहा, “मैं किसी समाज से नहीं डरता। हम दोनों मिलकर अगर सच्चाई का आश्रय लें तो हमारे समाज के बराबर सहनशील समाज और कहाँ मिलेगा?”
तभी वहाँ ऑंधी की तरह वरदासुंदरी ने आकर कहा, “विनय, सुनती हूँ कि तु दीक्षा नहीं लोगे?”
विनय बोला, “मैं उपयुक्त गुरु से दीक्षा लूँगा, किसी समाज से नहीं।”
बहुत बिगड़कर वरदासुंदरी ने कहा, “तुम्हारे इस सब षडयंत्र और धोखाधड़ी का अर्थ क्या है? दीक्षा लेने का बहाना करके दो दिन तक मुझे और सारे ब्रह्म-समाज को चक्कर में डालने का क्या आचरण था तुम्हारा? ललिता का तुम कैसे सर्वनाश किए दे रहे हो, क्या तुमने यह बात एक बार भी नहीं सोची!”
ललिता ने कहा, “विनय बाबू के दीक्षा लेने पर तुम्हारे ब्रह्म-समाज के सारे लोग तो सहमत नहीं हैं अखबार में तो पढ़कर देख ही लिया! ऐसी दीक्षा लेने की ज़रूरत क्या है?”
वरदासुंदरी ने कहा, “दीक्षा लिए बिना विवाह कैसे होगा?”
ललिता ने कहा, “क्यों नहीं होगा?”
वरदासुंदरी बोलीं, “क्या हिंदू पध्दति से होगा?”
विनय ने कहा, “वह भी हो सकता है। इसमें जो भी अड़चन है वह दूर कर दूँगा।”
वरदासुंदरी के मुँह से थोड़ी देर कोई बात ही नहीं निकली। फिर उन्होने रुँधे गले से कहा, “विनय, तुम जाओ, यहाँ से चले जाओ! इस घर में फिर कभी न आना!”
सुचरिता जानती थी कि आज गोरा अवश्य आएगा। सबरे से ही उसका दिल रह-रहकर काँप उठता था। गोरा के आने की आशा के साथ-साथ उसके मन में एक भय भी बैठा हुआ था। कारण कि जिधर गोरा उसे खींच रहा था, और उसके जीवन रूपी पेड़ की जड़ें और डालें बचपन से ही जिस दिशा में बढ़ती रही थीं, उनमें पग-पग पर जो संग्राम हो रहा था वह उसे विचलित किए दे रहा था।
इसीलिए कल मौसी के कमरे में जब गोरा ने देवता को प्रणाम किया तब सुचरिता के मन में तीर-सा चुभ गया। गोरा ने प्रणाम कर ही लिया तो क्या, और उसका ऐसा विश्वास हो ही तो क्या, यह कहकर वह अपने को किसी तरह शांत न कर सकी।
जब कभी उसे गोरा के आचरण में ऐसा कुछ दीखता जिसके साथ उसके अपने धर्म-विश्वास का मूलगत विरोध हो, तब सुचरिता का मन आशंका से काँप उठता। यह किस झंझट में विधाता उसे डाल रहे हैं।
नए मत की अभिमानिनी सुचरिता के सामने अच्छा उदाहरण रखने के लिए आज भी हरिमोहिनी गोरा को अपने पूजा-घर में ले गईं, और आज फिर गोरा ने देवता को प्रणाम किया। गोरा के उठकर सुचरिता के कमरे में आते ही सुचरिता ने उससे पूछा, “आप क्या इस देवता में श्रध्दा रखते हैं?”
गोरा ने कुछ अस्वाभाविक आग्रह से कहा, “हाँ, ज़रूर रखता हूँ!”
सुचरिता यह उत्तर सुनकर सिर झुकाए बैठी रही। उसकी इस नम्र-नीरव वेदना से गोरा के मन को थोड़ी पीड़ा पहुँची। जल्दी से उसने कहा, “देखो,मैं तुमसे सच बात कहूँ। मैं मूर्ति में श्रध्दा रखता हूँ या नहीं, यह तो ठीक-ठीक नहीं कह सकता, किंतु मैं अपने देश की श्रध्दा में श्रध्दा रखता हूँ। इतने युगों से सारे देश की पूजा जहाँ पहुँचती रही है। मेरे लिए वह पूजनीय है। मैं किसी सूरत में ख्रिस्तान मिशनरियों की तरह उसकी ओर विष-भरी नज़र से नहीं देख सकता।”
मन-ही-मन सुचरिता कुछ सोचती हुई गोरा के चेहरे की ओर देखती रही। गोरा ने कहा, “मेरी बात ठीक-ठीक समझना तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल है, यह मैं जानता हूँ। उसका कारण यही है कि संप्रदाय के भीतर रहते हुए इन सब तथ्यों की ओर मनुष्य होकर सहज दृष्टि से देखने की शक्ति तुम लोगों में नहीं रही। जब तुम अपनी मौसी के कमरे में मूर्ति को देखती हो तो केवल पत्थर को ही देखती हो जबकि मैं तुम्हारी मौसी के भक्तिपूर्ण करुण हृदय को देखता हूँ। वह देखकर क्या मैं क्रोध या अवज्ञा कर सकता हूँ? तुम क्या समझती हो कि उस हृदय का देवता सिर्फ पत्थर का देवता है?”
सुचरिता ने कहा, “श्रध्दा करना ही क्या काफी है? जिसमें श्रध्दा, यह क्या बिल्कुल नहीं सोचना होगा?”
कुछ उत्तेजित होकर गोरा ने कहा, “मतलब यह कि तुम समझती हो, एक सीमाबध्द पदार्थ को ईश्वर कहकर पूजा करना भ्रम है। लेकिन सीमा का निर्णय क्या देश-काल की दिशा से ही करना होगा? सोचो कि ईश्वर के बारे में शास्त्र का कोई वाक्य याद करने से तुम्हारे मन में श्रध्दा जागती है,तब जिस पन्ने पर वह वाक्य लिखा है उसी को नापकर और उसके अक्षर गिनकर ही क्या तुम उस वाक्य का महत्व निश्चित करोगी? भाव की असीमता तो विस्तार की असीमता से कहीं बड़ी चीज़ है। चंद्र, सूर्य और तारों-भरे अनंत आकाश की अपेक्षा तुम्हारी मौसी के लिए यह छोटी-सी मूर्ति ही वास्तव में असीम है। तुम परिमाण में असीम को ही असीम मानती हो, इसीलिए तुम्हें ऑंखें बंद करके असीम की बात सोचनी होती है। उसका कोई फल मिलता है कि नहीं, मैं नहीं जानता। लेकिन मन के असीम को ऑंखें खोलकर छोटी-सी चीज़ में भी पाया जा सकता है। यदि न पाया जा सकता तो संसार के सब सुख नष्ट हो जाने पर भी तुम्हारी मौसी उस एक मूर्ति को ऐसे जकड़कर पकड़े हुए कैसे रह सकतीं? हृदय का इतना बड़ा सूनापन क्या खेल-ही-खेल में एक पत्थर के टुकड़े से भर दिया जा सकता? भाव की असीमता के बिना मानव-हृदय की रिक्ति भरी ही नहीं जा सकती।”
इन सब सूक्ष्म तर्कों का जवाब देना सुचरिता के बस की बात नहीं थी, लेकिन इन्हें सत्य मान लेना भी उसके लिए बिल्कुल असंभव था। इसलिए एक शब्दहीन निरुपाय वेदना मन को कचोटती रह जाती।
गोरा के मन में विरोध पक्ष से तर्क करते समय कभी भी ज़रा-सी दया का संचार नहीं होता। बल्कि ऐसे मौकों पर उसके मन में किसी शिारी जंतु-सी कठोर हिंस्रता जाग उठती। परंतु सुचरिता की निरुत्तर हार से आज उसका मन न जाने क्यों व्यथित होने लगा। उसने अपने स्वर को भरसक कोमल करते हुए कहा, “तुम लोगों के धर्म-मत के विरुध्द मैं कुछ नहीं कहना चाहता। मेरी बात सिर्फ इतनी है कि जिसे तुम मूर्ति कहकर बुराई कर रही हो वह मूर्ति क्या है, यह केवल ऑंखों से देखकर जाना ही नहीं जा सकता। उससे जिसके मन को शांति मिली है, जिसका हृदय तृप्त हुआ है,जिसके जीवन को सहारा मिला है, वही जानता है कि वह मूर्ति मृण्मय है कि चिन्मय, ससीम है कि असीम। मैं तुमसे कहता हूँ, हमारे देश का कोई भी भक्त ससीम की पूजा नहीं करता। सीमा में ही सीमा को भूला देना- यही तो उनकी भक्ति का असली आनंद है!”
सुचरिता ने कहा, “लेकिन सभी तो भक्त नहीं होते!”
गोरा ने कहा, “जो भक्त नहीं है उनके किसी की भी पूजा करने से किसी का क्या आता-जाता है? ब्रह्म-समाज में भी जिनमें भक्ति नहीं है वे क्या करते हैं? उनकी सारी पूजा किसी अतल शून्य में जा गिरता है। नहीं, बल्कि वह तो शून्यता से भी ज्यादा भयानक है-क्योंकि गुटबंदी ही उनका देवता है और अहंकार उनका पुरोहित। इस रक्त-पिपासु देवता की पूजा क्या तुम लोगों के समाज में कभी नहीं होती?”
सुचरिता ने इस बात का कोई उत्तर न देकर गोरा से पूछा, “धर्म के बारे में आप यह जो कुछ कह रहे हैं, वह क्या अपनी जानकारी से ही कह रहे हैं?”
कुछ मुस्कराकर गोरा ने कहा, “यानी तुम यह पूछना चाहती हो कि मैंने कभी ईश्वर को चाहा है या नहीं। नहीं, मेरा मन इधर नहीं गया।”
यह बात सुचरिता के लिए कोई प्रसंन्न होने की नहीं थी, लेकिन फिर भी उसे जैसे तसल्ली मिली। इस मामले में अधिकारपूर्ण ढंग से कुछ कहने की स्थिति गोरा की नहीं है, इससे उसे एक प्रकार की निश्चिंतता ही हुई।
गोरा ने कहा, “किसी को धर्म-शिक्षा दे सकने का मेरा कोई इरादा नहीं है। लेकिन मेरे देश के लोगों की भक्ति का तुम लोग उपहास करो, यह भी मैं नहीं सह सकता। तुम अपने देश के लोगों को पुकारकर कहती हो- तुम लोग मूर्ख हो, तुम लोग मूर्तिपूजक हो। मैं उन सबको पुकारकर कहना चाहता हूँ- नहीं, तुम लोग मूर्ख नहीं हो, तुम लोग मूर्तिपूजक भी नहीं हो, तुम लोग ज्ञानी हो, भक्त हो। मैं अपनी श्रध्दा के द्वारा देश के लोगों को हमारे धर्म-तत्व की महत्ता और भक्ति-तत्व की गंभीरता के प्रति जागृत करना चाहता हूँ, उनकी जो धरोहर है उसमें उनका स्वाभिमान जगाना चाहता हूँ। मैं उनका सिर झुकाना नहीं चाहता, न यही चाहता हूँ कि उनमें अपने प्रति धिक्कार का भाव पैदा हो और वे सत्य के प्रति अंधे हो जाएँ। यही मेरा संकल्प है। तुम्हारे पास भी आज मैं इसीलिए आया हूँ। जब से मैंने तुम्हें देखा है तब से एक नई बात दिन-रात मेरे मन में चक्कर काटती रहती है जो मैंने पहले कभी नहीं सोची थी। मैं बराबर यही सोच रहा हूँ कि संपूर्ण भारतवर्ष केवल पुरुषों की दृष्टि से तो प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा। हमारी स्त्रियों की ऑंखों के सामने जिस दिन भारतवर्ष का आविर्भाव होगा उसी दिन यह पूर्णत: प्रत्यक्ष हो सकेगी। मेरे मन में यही आकांक्षा धधक रही है कि मैं तुम्हारे साथ एक दृष्टि से और एक ही साथ अपने देश को अपने सामने प्रत्यक्ष कर सकूँ। अपने भारतवर्ष के लिए मैं पुरुष तो केवल श्रम कर सकता हूँ या मर सकता हूँ, लेकिन दीप जलाकर उसकी आगवानी तुम्हारे अलावा कौन कर सकता है? तुम अगर उससे दूर रहोगी तो भारतवर्ष की सेवा सत्य नहीं हो सकेगी।”
हाय, कहाँ था भारतवर्ष! कहाँ कितनी दूर थी सुचरिता! और कहाँ से आ गया भारत का यह पुजारी, यह भावों में डूबा हुआ तापस! सभी को ठेलकर क्यों वह उसी के पास आ खड़ा हुआ? सभी को छोड़कर उसने क्यों उस अकेली को पुकारा? उसने कोई बंधन नहीं माना, कोई संशय नहीं किया, कहा, “तुम्हारे बिना नहीं चलेगा, तुम्हें लेने आया हूँ, तुम निर्वासित ही रहोगी तो यज्ञ संपन्न नहीं हो सकेगा।” सुचरिता की ऑंखों से विवशतावश ऑंसू झरने लगे; क्यों, यह स्वयं न समझ सकी।
गोरा ने सुचरिता के चेहरे की ओर देखा। उस दृष्टि के सामने सुचरिता ने अपना ऑंसू भरी ऑंखें झुकाई नहीं। वे ऑंखें जैसे चिंता-युक्त ओस-भीगे फूल की तरह अत्यंत आत्मविस्मृत भाव से गोरा के चेहरे की ओर खिलती रहीं।
सुचरिता की उन संकोच-विहीन, शंका-विहीन ऑंसू ढली ऑंखों के सामने गोरा की समस्त प्रकृति वैसे ह काँपने लगी जैसे भूकंप से संगमरमर का महल काँपने लगता है। पूरा ज़ोर लगाकर गोरा अपने को सँभालने के लिए मुड़कर खिड़की से बाहर देखने लगा। तब साँझ हो गई थी। गली एक रेखा-सी संकीर्ण होती हुई जहाँ सड़क से मिलती थी वहाँ खुले आकाश में काले पत्थर जैसे अंधेरे के ऊपर तारे दीखने लगे थे। आकाश का वह टुकड़ा और वे कुछ-एक तारे आज गोरा के मन को न जाने कहाँ खींच ले गए- संसार के सभी दावों से, इस अभ्यस्त दुनिया के रोज़ाना के काम-काज से कितनी दूर! यह थोड़ा-सा आकाश और ये कुछ-एक तारे संपूर्ण निर्लिप्त होकर न जाने कितने साम्राज्यों के उत्थान-पतन न जाने कितने युग-युगांत के कितने प्रयासों और कितनी प्रार्थनाओं का उल्लंघन करते आए हैं, फिर भी जब किसी अतल गहराई के बीच से एक हृदय दूसरे हृदय को पुकारता है तब विश्व के एकांत में वह नीरव व्याकुलता जैसे उस सुदूर आकाश और उन तारों को स्पंदित कर देती है। पल-भर के लिए गोरा की ऑंखों के सामने कामकाजी कलकत्ता की सड़कों पर गाड़ी-घोड़ों और राह चलने वालों की चहल-पहल किसी छाया-चित्र-सी अवास्तव हो गई, और शहर का कोलाहल उस तक पहुँच ही न सका। उसने अपने हृदय में झाँककर देखा- वहाँ भी उसी आकाश जैसा निस्तब्ध निभृत अंधकार था जिसके भीतर से दो सरल,करुण, जल-भरी ऑंखें अनादिकाल से अपलक अनंतकाल की ओर ताक रही थीं।
हरिमोहिनी की आवाज़ सुनकर गोरा चौंककर मुड़ा।
“भैया, कुछ मुँह मीठा कर जाओ।”
जल्दी से गोरा ने कहा, “आज नहीं। आज मुझे क्षमा कर दें- मुझे अभी जाना है।” और गोरा उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना तेज़ी से उतरकर चला गया।
विस्मित होकर हरिमोहिनी ने सुचरिता की ओर देखा। सुचरिता भी कमरे से चली गई। हरिमोहिनी सिर हिला-हिलाकर सोचने लगीं- यह अब क्या मामला है?
थोड़े समय बाद ही परेशबाबू आ पहुँचे। सुचरिता के कमरे में उसे न पाकर उन्होंने हरिमोहिनी के पास जाकर पूछा, “राधारानी कहाँ है?”
कुछ खीझे हुए स्वर में हरिमोहिनी ने कहा, “क्या पता! अभी तक तो बैठक में गौरमोहन के साथ बातचीत हो रही थी, अब जान पड़ता है छतपर अकेले टहला जा रहा है।”
आश्चर्य से परेशबाबू ने पूछा, “इस ठंड में इतनी रात गए छत पर?”
हरिमोहिनी ने कहा, “जरा ठंडी हो ले। आजकल की लड़कियों को ठंड से कोई नुकसान नहीं होता।”
हरिमोहिनी का मन बेचैन था, इसीलिए उन्होंने गुस्से के कारण सुचरिता को खाने के लिए भी नहीं बुलाया। उधर सुचरिता को भी समय का ज्ञान न था।
अचानक परेशबाबू को स्वयं छत पर आते देखकर सुचरिता अत्यंत लज्जित हो उठी। बोली, “बाबा, चलो नीचे चलो- तुम्हें ठंड लग जाएगी।”
कमरे में आकर दीए के प्रकाश में परेशबाबू का दुविधाग्रस्त चेहरा देखकर सुचरिता के मन को धक्का लगा। इतने दिनों से जो उस पितृहीना के पिता थे, आज सुचरिता बचपन से बने हुए सब बंधन तोड़कर उनसे दूर खींची जा रही थी। इसके लिए अपने को वह किसी प्रकार माफ नहीं कर सकती थी। परेशबाबू के क्लांत भाव से कुर्सी पर बैठ जाने पर सुचरिता अपने बेबस ऑंसू छिपाने के लिए उनकी कुर्सी के पीछे खड़े होकर धीरे-धीरे उनके पके बालों में उँगलियाँ फेरने लगी।
परेशबाबू ने कहा, “विनय ने दीक्षा ग्रहण करने से इंकार कर दिया है।”
सुचरिता ने कोई जवाब नहीं दिया। परेशबाबू ने फिर कहा, “विनय के दीक्षा लेने के प्रस्ताव के बारे में मुझे यों भी काफी संदेह था, इसलिए इससे मुझे कोई खास दु:ख नहीं हुआ- लेकिन ललिता की बात से मुझे लगता है कि विनय के दीक्षा न लेने पर भी उसके साथ विवाह में उसे ऐतराज नहीं जान पड़ता।”
सहसा सुचरिता ने बड़े ज़ोर से कहा, “नहीं बाबा, यह कभी नहीं हो सकता। किसी तरह नहीं!”
इतनी अनावश्यक घबराहट दिखाकर सुचरिता कभी बात नहीं करती, इसलिए उसके स्वर के इस आकस्मिक बल पर परेशबाबू को मन-ही-मन अचरज हुआ। उन्होंने पूछा, “क्या नहीं हो सकता?”
सुचरिता बोली, “विनय ब्रह्म न हुए तो ब्याह मत से होगा?”
परेशबाबू बोले, “हिंदू मत से?”
‘ज़ोर से सिर हिलाकर सुचरिता ने कहा, “नहीं-नहीं! आजकल ये सब कैसी बातें हो रही हैं! ऐसी बात तो मन में भी न लानी चाहिए। इतना सब हो जाने पर क्या ललिता का विवाह मूर्ति-पूजा की रीति से होगा! यह मैं किसी तरह न होने दे सकूँगी।”
गोरा ने सुचरिता के मन को आकर्षित कर लिया था, शायद इसीलिए आज वह हिंदू रीति से विवाह होने की बात पर इतना आवेश प्रकट कर रही थी। उसकी आपत्ति का भीतरी अभिप्राय यही था कि सुचरिता कहीं गहरे-गहरे में दृढ़ होकर परेशबाबू को पकड़कर कहना चाहती थी- तुम्हें नहीं छोड़ूँगी, मैं अब भी तुम्हारे समाज की हूँ, तुम्हारे मत की हूँ, तुम्हारी शिक्षा का बंधन कभी नहीं तोड़ूँगी।”
परेशबाबू ने कहा, “विनय इसके लिए राज़ी है कि विवाह के अनुष्ठान में शालिग्राम को न लाया जाए।”
कुर्सी के पीछे से आकर सुचरिता परेशबाबू के सामने कुर्सी खींचकर बैठ गई। परेशबाबू ने उससे पूछा, “इसमें तुम्हारी क्या राय है?”
थोड़ी देर चुप रहकर सुचरिता ने कहा, “तो फिर ललिता को हमारे समाज से निकल जाना होगा।”
परेशबाबू ने कहा, “इसी बात को लेकर मुझे बहुत सोचना पड़ा है। जब समाज में से किसी मनुष्य का विरोध उठ खड़ा होता है तब दो बातें सोचकर देखने की होती है। एक तो दोनों पक्षों में से न्याय किसकी ओर है और दूसरे प्रबल कौन है। इसमें तो कोई संदेह नहीं कि समाज प्रबल है,इसीलिए विद्रोही को कष्ट भोगना ही होगा। ललिता ने बार-बार मुझसे कहा है, कष्ट स्वीकार करने के लिए वह केवल प्रस्तुत ही नहीं है, बल्कि उसमें आनंद भी पा रही है। यदि यह बात सच है तो जब तक मुझे उसका काम अनुचित न लगे मैं उसमें हस्तक्षेप कैसे कर सकता हूँ?”
सुचरिता ने कहा, “लेकिन बाबा, यह होगा कैसे?”
परेशबाबू बोले, “मैं जानता हूँ कि इसमें एक कठिनाई उपस्थिति होगी। लेकिन ललिता के साथ विनय के विवाह में अगर कोई दोष नहीं है,बल्कि वह उचित है, तब समाज अगर बाधा दे तो उसे मानना कर्तव्य नहीं है, ऐसा मेरा मन कहता है। समाज के लिए मनुष्य को संकुचित होकर रहना पड़े यह कभी उचित नहीं हो सकता, समाज को ही मनुष्य के लिए अपने को बराबर प्रशस्त करते चलना होगा। इसलिए जो कष्ट स्वीकार करने को तैयार हैं मैं तो उन्हें गलत नहीं कह सकता।”
सुचरिता ने कहा, “बाबा, इसमें सबसे अधिक कष्ट तो तुम्हीं को भुगतना होगा?”
परेशबाबू ने कहा, “वह बात कोई चिंता की बात नहीं है।”
सुचरिता ने पूछा, “बाबा, तुमने क्या सम्मति दे दी है?”
परेशबाबू ने कहा, “नहीं, अभी नहीं दी। लेकिन देनी ही होगी। ललिता जिस मार्ग पर चल रही है उस पर मेरे अलावा और कौन उसे आशीर्वाद देगा, और ईश्वर के सिवा और कौन सहायक होगा?”
परेशबाबू के चले जाने पर सुचरिता स्तब्ध होकर बैठी रही। परेशबाबू ललिता को मन-ही-मन कितना चाहते हैं, यह वह जानती थी। वही ललिता बँधी लीक छोड़कर इतने बड़े अज्ञात पथ में प्रवेश करने जा रही है, इससे उनका मन कितना उद्विग्न होगा यह वह समझ सकती थी। फिर भी इस उम्र में वह इतने बड़े विप्लव में सहायता करने जा रहे हैं, और इस पर कितने कम विक्षुब्ध हैं! अपना बल वह कभी प्रकट नहीं करते, किंतु उनके भीतर कितना अपार बल अनायास ही अपने को छिपाए हुए बैठा है।
पहले तो होता तो परेशबाबू की प्रकृति का यह परिचय सुचरिता को विचित्र न जान पड़ता, क्योंकि परेशबाबू को वह बचपन से ही तो देखती आई है। लेकिन आज थोड़ी देर पहले ही तो उसके समूचे अंत:करण ने गोरा का आघात सहा था, इसलिए दोनों के स्वभाव की संपूर्ण भिन्नता का मन-ही-मन तीव्र अनुभव किए बिना वह न रह सकी। गोरा के लिए उसकी अपनी इच्छा कितनी प्रबल है! और अपनी इच्छा को बलपूर्वक काम में लाकर वह दूसरे को कैसे अभिभूत कर डालता है। गोरा के साथ जो कोई व्यक्ति जो भी संबंध स्वीकार करेगा, गोरा की इच्छा के समक्ष उसे झुकना ही पड़ेगा। आज सुचरिता भी झुकी है और झुककर उसने आनंद भी पाया है। अपने को विसर्जित करके उसने ऐसा अनुभव किया है जैसे उसने कोई बहुत बड़ी चीज़ पाई हो। फिर भी आज जब परेशबाबू उसके कमरे के दीए के प्रकाश से निकलकर चिंता से सिर झुकाए हुए धीरे-धीरे बाहर के अंधकार में चले गए, तब सुचरिता ने यौवन के तेज से दीप्त गोरा के ाथ विशेष रूप से उनकी तुलना करके अपनी भक्ति की पुष्पांजलि विशेष रूप से परेशबाबू के चरणों पर चढ़ाई। दोनों हाथ जोड़कर गोद में रखे हुए वह बहुत देर तक चुपचाप चित्रित प्रतिमा-सी बैठी रही।
आज सबरे से ही गोरा के कमरे में बड़ी हलचल थी। पहले तो महिम ने हुक्के का कश लगाते-लगाते आकर गोरा से पूछा, “तो आखिर विनय ने अपनी बेड़ियाँ काट ही दीं, क्यों?’
सहसा उनकी बात न समझकर गोरा उनके चेहरे की ओर देखता रहा।
महिम बोले, “हमसे और छिपाने से क्या होगा भला! तुम्हारे दोस्त की बात तो किसी से छिपी नहीं है- ढोल बज रहे हैं। यह देखो न!”
कहते-कहते एक बंगला अखबार महिम ने गोरा की ओर बढ़ा दिया। उसमें उसी दिन रविवार को विनय के ब्रह्म-समाज में दीक्षा लेने के मामले पर तीखी टीका-टिप्पणी की गई थी। गोरा जब जेल में था तब ब्रह्म-समाज के किसी कन्या-भारग्रस्त विशेष सदस्य ने इस दुर्बल-चित्त युवक को गुप्त प्रलोभन देकर हिंदू-समाज से फोड़ लिया था, इसी अभियोग का लेखक ने अपनी रचना में बड़ी कटु भाषा में विस्तार से वर्णन किया था।
जब गोरा ने कहा कि यह खबर वह नहीं जानता था, तब पहले तो महिम को विश्वास नहीं हुआ, फिर विनय के इस भारी धोखे पर वह बार-बार आश्चर्य प्रकट करने लगे। वह जता गए कि एक बार स्पष्ट शब्दों में शशिमुखी से विवाह करेन की स्वीकृति देने के बाद भी जब विनय इधर-उधर करने लगा तभी उन्हें समझ लेना चाहिए था कि उसका सर्वनाश शुरू हो गया है।
तभी अभिनाश ने हाँफते-हाँफते आकर कहा, “यह क्या हो गया, गौर मोहन बाबू! हम लोगों ने यह तो सपने में भी नहीं सोचा था। विनय बाबू की आखिर….”
अविनाश अपनी बात पूरी ही नहीं कर सका। विनय की इस लांछना से वह मन-ही-मन इतना खुश हो रहा था कि किसी तरह की चिंता का दिखावा करना भी उसके लिए असंभव हो गया था। देखते-देखते गोरा के गुट के सभी मुख्य-मुख्य लोग आ जुटे। विनय को लेकर उनके बीच एक बड़ी गरमागरम बहस छिड़ गई। अधिकतर लोगों ने एक ही बात कही-इस घटना में आश्चर्य की कोई विशेष बात नहीं थी, क्योंकि विनय के व्यवहार में वे बराबर एक दुर्बलता और दुविधा देखते आए थे। वास्तव में विनय कभी मन-वचन-कर्म से उनके गुट का सदस्य हुआ ही नहीं था। किसी-किसी ने कहा- विनय शुरू से ही अपने को किसी-न-किसी तरह गौरमोहन के बराबर सिध्द करने का प्रयत्न करता रहा था, जो उन्हें असह्य लगता था। जहाँ दूसरे सब भक्ति के संकोच के कारण गौरमोहन से यथोचित दूरी बनाए रहते थे, वहाँ विनय ज़बरदस्ती गोरा के साथ ऐसे घुलता-मिलता था मानो वह बाकी सबसे अलग हो और गोरा के बिल्कुल बराबर का हो। गोरा उससे स्नेह करते थे इसीलिए उसकी इस हेकड़ी को बर्दाश्त कर लेते थे। ऐसे अबोध अहंकार का ऐसा ही शोचनीय परिणाम होता है।
कोई कह रहे थे, “हम लोग विनय बाबू जितने विद्वान नहीं हैं, हमारी इतनी अधिक बुध्दि भी नहीं है। लेकिन भाई साहब, हम लोग बराबर किसी एक सिंध्दांत पर चलते हैं। हमारे मन में कुछ और, मुँह पर कुछ और नहीं होता। आज ऐसे, कल वैसे, यह हमारे बस का नहीं है। अब इस पर हमें कोई चाहें भोला कहे, चाहे मूर्ख कहे, चाहे कुछ और कहे।”
इन सब बातों में से किसी में भी गोरा ने योग नहीं दिया, चुपचाप बैठा रहा।
काफी देर हो जाने पर एक-एक करके जब सब चले गए तब गोरा ने देखा, विनय आकर उसके कमरे में प्रवेश न करके पास की सीढ़ी से सीधा ऊपर चला जा रहा हैं गोरा ने जल्दी से कमरे से निकलकर पुकारा, “विनय!”
सीढ़ियों से उतरकर विनय के कमरे में प्रवेश करते ही गोरा ने कहा, “विनय, मैंने अनजाने में कोई अपराध कर दिया है क्या- तुमने तो जैसे मुझसे नाता ही तोड़ लिया है?”
पहले से ही विनय यह सोचकर कि आज गोरा से झगड़ा हो जाएगा, मन को कड़ा करके ही आया था। पर अब गोरा का उदास चेहरा देखकर और उसके स्वर में आहत स्नेह की व्यथा का अनुभव करके उसकी वह बलपूर्वक संचित की हुई कठोरता क्षण-भर में उड़ गई। वह कह उठा, “भाई गोरा, मुझे गलत मत समझो। जीवन में अनेक परिवर्तन होते हैं, बहुत-सी चीजें छोड़ देनी पड़ती हैं, लेकिन इससे दोस्ती का नाता थोड़े ही टूट जाएगा।”
थोड़ी दूर चुप रहकर गोरा ने कहा, “विनय, तुमने क्या ब्रह्म-समाज में दीक्षा ले ली है?”
विनय ने कहा, “नहीं गोरा, ली नहीं, और लूँगा भी नहीं, लेकिन इस पर मैं कोई ज़ोर भी नहीं देना चाहता।”
गोरा ने कहा, “इसका मतलब यही है कि मैंने ब्रह्म-धर्म में दीक्षा ली या नहीं ली, इस बात को बहुत तूल देने का भाव अब मेरे मन में नहीं है।”
गोरा ने पूछा, “तो यह पूछूँ कि मन का भाव पहले कैसा था और अब कैसा हो गया है?”
विनय का मन गोरा के बात कहने के ढंग से फिर भड़क उठा। लड़ने के लिए कमरे कसते हुए उसने कहा, “पहले जब कभी सुनता था कि कोई ब्रह्म होने जा रहा है तब मन-ही-मन बहुत गुस्सा होता था, इच्छा होती थी कि उसे कुछ विशेष दंड मिले। किंतु अब ऐसा नहीं होता। मुझे लगता है मत का जवाब मत से, युक्ति का जवाब युक्ति से दिया जा सकता है, लेकिन बुध्दि के मामले में गुस्सा करके दंड देना बर्बरता है।”
गोरा ने कहा, “एक हिंदू ब्रह्म होने जा रहा है, यह देखकर अब तुम्हें गुस्सा नहीं आएगा, लेकिन ब्रह्म प्रायश्चित करके हिंदू होने जा रहा है यह देखकर तुम गुस्से से जल उठोगे- पहले से यही अंतर तो तुममें आया है।”
विनय ने कहा, “तुम यह बात गुस्से में कह रहे हो, सोचकर नहीं कह रहे हो।”
गोरा बोला, “मैं तुम पर श्रध्दा रखता हुआ ही कह रहा हूँ। ऐसा होना ही ठीक था और यदि मैं भी होता तो ऐसा ही होता। जैसे गिरगिट रंग बदलता है, वैसे ही किसी धर्म को अपनाना या छोड़ना हमारी चमड़ी के ऊपर की चीज़ होती, तब तो कोई बात ही नहीं थी। लेकिन वह मर्म की बात है, इसीलिए उसे हल्के ढंग से नहीं लिया जा सकता। अगर किसी तरह की अड़चन न होती, किसी तरह का दंड अगर न भरना पड़ता, तो ऐसे महत्वपूर्ण विषय में कोई एक मत अपनाते या बदलते समय मनुष्य अपनी समूची बुध्दि का आवाहन क्यों करता? सत्य को वह यथार्थ सत्य मानकर ग्रहण कर रहा है या नहीं, इसकी परीक्षा तो मनुष्य को देनी ही होगी। दंड स्वीकार करना ही होगा। सत्य का व्यापार ऐसा शौकिया व्यापार नहीं है कि रत्न भी मिल जाए और दाम भी न चुकाना पड़े।”
इस पर बहस जैसे बेलगाम हो उठी। बाणों के जवाब में बाण की तरह बातों पर बातें बरसने लगीं और उनकी टकराहट से चिनगारियाँ निकलने लगीं।
बहुत समय तक वाग्युध्द होने के बाद अंत में विनय ने उठकर खड़े होते हुए कहा, “गोरा, तुम्हारी और मेरी प्रकृति में एक मूलगत अंतर है। वह अभी तक किसी तरह दबा हुआ था, जब भी वह उभरकर आता था मैं स्वयं उसे दबा देता था, क्योंकि मैं जानता था जहाँ भी तुम्हें कोई अलगाव दीखता है, तुम उससे समझौता करना जानते ही नहीं- एकाएक तलवार उठाकर दौड़ते हो। इसीलिए मैं तुम्हारी दोस्ती को निबाहते चलने के लिए बराबर अपनी प्रकृति को कुचलता आया हूँ लेकिन आज समझ सकता हूँ कि इससे मंगल नहीं हुआ और हो भी नहीं सकता।”
गोरा ने कहा, “खैर, अब तुम्हारी क्या इच्छा है सो साफ-साफ कहो।”
विनय ने कहा, “आज मैं अकेला अपने पैरों पर खड़ा हूँ। समाज नाम के दैत्य को रोज़ाना मनुष्य-बलि देकर उसे खुश रखना होगा और जैसे भी हो उसी के शासन का फंदा गले में डाले रहना होगा, चाहे प्राण रहे या न रहे- यह मैं किसी तरह नहीं स्वीकार कर सकूँगा।
गोरा ने पूछा, “तो महाभारत के उस ब्राह्मण शिशु की तरह तिनका लेकर बकासुर को मारने निकल रहे हो क्या?”
विनय ने कहा, “मेरे तिनके से बकासुर मरेगा या नहीं यह तो नहीं जानता, लेकिन मुझे कच्चा चबा जाने का अधिकार उसे है, यह बात मैं हरगिज नहीं मानूँगा। उसके चबाना शुरू कर देने पर भी नहीं।”
गोरा ने कहा, “अब तुम रूपक का सहारा लेकर बात करने लगे, अब समझना ही मुश्किल हो रहा है।”
विनय ने कहा “तुम्हारे लिए समझना मुश्किल नहीं है, मानना ही मुश्किल है। जहाँ स्वभाव से मनुष्य स्वाधीन है, वहाँ उसके खाने-सोने-बैठने को भी हमारे समाज ने बिल्कुल निरर्थक बंधनों में जकड़ रखा है, इस बात को तुम मुझसे कम जानते हो ऐसा नहीं है, लेिन समाज की इस ज़बरदस्ती को तुम मुझसे कम जानते हो ऐसा नहीं है, लेकिन समाज की इस ज़बरदस्ती को तुम अपनी ज़बरदस्ती सो मानना चाहते हो। किंतु मैं आज कह रहा हूँ, इन मामलों में मैं अब किसी का ज़ोर नहीं मानूँगा। मैं समाज का दावा उसी समय तक मानूँगा जिस समय तक वह मेरे उचित अधिकारों की रक्षा करेगा। अगर वह मुझे मनुष्य नहीं समझता, मुझे मशीन का एक पुर्जा बनाकर रखना चाहता है, तो मैं भी फूल-चंदन से उसकी नहीं करूँगा, उसे लोहे की मशीन-भर मानूँगा।”
गोरा ने कहा, “यानी संक्षेप में तुम ब्रह्म हो जाओगे?”
विनय ने कहा, “नहीं!”
गोरा ने कहा, “ललिता से विवाह करोगे?”
विनय ने कहा, “हाँ!”
गोरा ने पूछा, “हिंदू विवाह?”
विनय ने कहा, “हाँ!”
“परेशबाबू इसके लिए राज़ी हैं?”
“यह उनकी चिट्ठी है।”
गोरा ने परेशबाबू की चिट्ठी दो बार पढ़ी। उसका अंतिम अंश था- सुविधा-असुविधा की भी चर्चा करना नहीं चाहता। मेरे मत-विश्वास क्या हैं, मेरा समाज क्या है, यह तुम लोग जानते हो। बचपन से ललिता ने क्या शिक्षा पाई है और किन संस्कारों में पली है यह भी तुम लोगों से छिपा नहीं है। यह सब समझ-बूझकर ही तुम लोगों ने अपना मार्ग चुना है। मुझे और कुछ कहना नहीं है। यह न समझना कि मैंने बिना कुछ सोचे या कुछ सोच न पाकर पतवार छोड़ दी है। जहाँ तक मेरी सामर्थ्य है, मैंने विचार किया है मेरी समझ में यही आया है कि तुम लोगों के मिलन में बाधा देने का कोई धर्म-संगत कारण नहीं है, क्योंकि तुम पर मुझे पूरा विश्वास है। ऐसी हालत में समाज में कोई आपत्ति हो तो उसे मानने को तुम लोग बाध्य नहीं हो। मुझे केवल इतना कहना है कि अगर तुम लोग समाज का उल्लंघन करना चाहते हो तो तुम्हें समाज से बड़ा होना होगा। तुम लोगों का प्रेम,तुम्हारा साझा जीवन केवल प्रलय-शक्ति का सूचक न हो, उसमें सृष्टि और स्थिति के तत्व भी रहें। केवल इस काम में अचानक एक दु:साहसिकता दिखा देने से काम नहीं चलेगा, इसके बाद तुम्हें जीवन के हर काम को हिम्मत के सूत्र में गूँथ देना होगा, नहीं तो तुम लोग बहुत नीचे चले जाओगे। क्योंकि समाज अब दूसरे आम लोगों की तरह तुम्हें बाहर से सहारा देता हुआ नहीं रहेगा- अपनी शक्ति से ही तुम लोग उन आम लोगों से बड़े न हुए तो तुम्हें उनसे भी नीचे जा पड़ना होगा। तुम लोगों के भविष्य के शुभाशुभ के बारे में मुझे बहुत चिंता है। लेकिन उस चिंता के कारण तुम लोगों का मार्ग रोकने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि दुनिया में साहस करके जो लोग अपने जीवन के द्वारा नई-नई समस्याओं का हल निकालने को तैयार होते हैं वही समाज को ऊचा उठाते हैं। जो सिर्फ नियम मानते हुए चलते हैं वे समाज को केवल ढोते हैं, उसे आगे नहीं बढ़ाते। इसलिए अपनी भीरुता और चिंता को लेकर तुम्हारा मार्ग मैं नहीं रोकूँगा। तुम लोगों ने जो ठीक समझा है, सारी प्रतिकूलताओं के विरुध्द उसी का पालन करो- ईश्वर तुम्हारे सहायक हों। अपनी सृष्टि को ईश्वर किसी एक अवस्था में जंजीर से बाँधकर नहीं रखते, उसे नए-नए परिवर्तनों के तहत निरंतर नवीन करते हुए सजग रहते हैं। तुम लोग उनके इसी उद्बोधन के दूत बनकर अपने जीवन को मशाल की तरह जलाकर दुर्गम मार्ग पर बढ़ रहे हो, जो विश्व के परिचालक हैं वह तुम्हें राह दिखाते रहें- तुम लोगों को हमेशा मेरे ही मार्ग पर चलना होगा, ऐसा आदेश मैं कभी नहीं दे सकूँगा। तुम लोगों की उम्र में हम लोगों ने भी एक दिन घाट से बंधन खोलकर नाव को तूफान के मुँह में डाल दिया था, किसी का निषेध नहीं सुना था। और इसके लिए आज भी कोई अनुताप नहीं है। अनुताप करने का कोई कारण हुआ भी होता तो भी क्या था! मनुष्य भूल करता है, असफल भी होता है, दु:ख भी पाता है,लेकिन बैठा नहीं रहता, जो ठीक समझता है उसके लिए आत्म-समर्पण्ण करता है, इसी तरह पुण्य-सलिला संसार-नदी की धारा निरंतर गतिमान हुई स्वच्छ रह सकती है। इसमें बीच-बीच में कभी-कभी कगारें टूटने से नुकसान भी हो सकता है, इस डर से धारा को हमेशा के लिए बाँध देना सड़ाँध और मृत्यु को आमंत्रित करना होगा, यह मैं निश्चय जानता हूँ। इसलिए तुम लोगों को जो शक्ति दुर्निवार वेग से समाज के नियम और सुख-स्वच्छंदता के दायरे से बाहर खींचे लिए जा रही है, उसी को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके उसी के हाथों तुम दोनों को सौंप दे रहा हूँ। वही तुम्हारे जीवन की सारी निंदा और ग्लानि को, आत्मीयों से विच्छेद को सार्थकता प्रदान करे। उसी ने तुम्हें दुर्गम मार्ग पर बुलाया है, वही तुम्हें लक्ष्य तक पहुँचा दे।”
चिट्ठी पढ़कर गोरा थोड़ी देर तक चुप रहा। फिर विनय ने कहा, “परेशबाबू ने जैसे उनकी ओर से सम्मति दे दी है, उसी तरह गोरा तुम्हें भी अपनी ओर से सम्मति देनी होगी।”
गोरा ने कहा, “परेशबाबू तो सम्मति दे सकते हैं, क्योंकि नदी की जो धारा कगार तोड़ रही है वह उन्हीं की धारा है। लेकिन मैं सम्मति नहीं दे सकता, क्योंकि हमारी धारा किनारे की रक्षा करती है। हमारे किनारे पर कितने सैकड़ों-हज़ारों वर्षों की दिगन्तव्यापी कीर्तियाँ रहीं यह हम बता ही नहीं सकते, यहाँ प्रकृति का नियम ही काम करता रहे। अपने किनारे को हम पत्थरों से बाँधकर ही रखेंगे- इसके लिए चाहे हमारी बुराई करो चाहे और कुछ। यह हमारी पवित्र प्राचीन पुरी है- इस पर हर साल बाढ़ से मिट्टी की नई पर्त चढ़ती रहे और किसानों के झुंड उसमें हल चलाया करें, ऐसा हमारा ध्येय नहीं है- इससे हमारा नुकसान होता है तो हो। यह हमारे रहने की जगह है, खेती करने की नहीं। इसलिए जब तुम लोगों का कृषि-विभाग इन पत्थरों को कड़े कहकर उनकी बुराई करता है तो हम उस पर शर्म से मर नहीं जाते।”
विनय ने कहा, “यानी संक्षेप में यह कि तुम हम लोगों के इस विवाह को स्वीकार नहीं करोगे?”
गोरा ने कहा, “निश्चय ही नहीं करूँगा।”
विनय ने कहा, “और…. “
गोरा बोला, “और तुम लोगों से नाता तोड़ लूँगा।”
गोरा ने कहा, “तब बात और होती। पेड़ की अपनी डाल टूटकर पराई हो जाए तो पेड़ उसे किसी तरह से फिर अपनी नहीं बना सकता। लेकिन बाहर से जो लता बढ़ आती है उसे आश्रय दे सकता है, वहाँ तक कि ऑंधी में उसके गिर जाने पर भी उसे फिर उठा देने में कोई संकोच नहीं होता। अपना जब पराया हो जाता है तब उससे बिल्कुल नाता तोड़ लेने के अलावा कोई उपाय नहीं रहता। इसीलिए तो इतने नियम-बंधन होते हैं और खींच-तान में जान की बाज़ी लगा दी जाती है।”
विनय ने कहा, “इसीलिए तो नाता तोड़ने के कारण इतने घटिया और उसकी व्यवस्था इतनी सरल नहीं होनी चाहिए। बाँह टूट जाने से फिर जुड़ती नहीं यह तो ठीक है, लेकिन इसीलिए वह बात-बात में टूटती भी नहीं, उसकी हड्डी बड़ी मजबूत होती है। जिस समाज में ज़रा-सा धक्का लगने से ही दरार आ जाती है और सदा के लिए रह जाती है, उस समाज में मनुष्य के लिए अपनी इच्छा से चलने-फिरने या काम-काज करने में कितनी कठिनाइयाँ हो जाती हैं, यह भी तो सोचना चाहिए।”
गोरा ने कहा, “यह सोचने का दायित्व मुझ पर नहीं है। समाज ऐसी समग्रता से और इतने बड़े स्तर पर सोचता है कि मुझे उसके सोचने का भान भी नहीं होता। हज़ारों बरसों से वह सोचता है और अपनी रक्षा भी करता आया है, इसका मुझे विश्वास है। पृथ्वी सूरज के चारों ओर तिरछी घूमती है कि सीधी, भटकती है कि नहीं, जैसे मैं यह नहीं सोचता और न सोचने पर भी मुश्किल में नहीं पड़ता- वैसी ही धारणा मेरी समाज के बारे में भी है।”
हँसकर विनय ने कहा, “भाई गोरा, बिल्कुल यही सब बातें मैं भी इतने दिनों से इसी ढंग से कहता आया हूँ- यह कौन जानता था कि आज मुझको ही ये सब बातें सुननी पड़ेंगी। बना-बना कर बात कहने की सज़ा मुझे भोगनी पड़ेगी, यह मैं खूब समझ रहा हूँ। किंतु बहस करने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि एक बात जिसे मैं आज खूब नजदीक से अच्छी तरह देख सका हूँ वह मैंने पहले नहीं देखी थी। मनुष्य के जीवन की गति एक महानदी-सी है, वह अपने वेग से अकल्पनीय ढंग से ऐसी नई-नई दिशाओं में मार्ग बना लेती है जिधर को पहले उसका प्रवाह नहीं था। उसकी गति का यह अनोखपन, उसके ये कल्पनातीत परिवर्तन ही विधाता का अभिप्राय होते हैं- वह कोई नहर नहीं है, उसे बँधे हुए रास्ते पर नहीं चलाया जा सकता। यह बात जब अपने जीवन में ही बिल्कुल प्रत्यक्ष हो गई है तब मुझे कभी कोई लच्छेदार बातों से बहका न सकेगा।”
गोरा ने कहा, “पतंगा जब ज्वाला की ओर दौड़ता है तब वह भी ठीक तुम्हारी तरह यही तर्क देता है-इसलिए आज मैं भी तुम्हें समझाने की व्यर्थ कोशिश नहीं करूँगा।”
कुर्सी से उठकर विनय ने कहा, “वही अच्छा है। तो चलूँ- एक बार माँ से मिल लूँ।”
जब विनय चला गया तो महिम धीरे-धीरे चलते हुए आए। पान चबाते-चबाते उन्होंने पूछा, “शायद सुलझाव नहीं हुआ? होगा भी नहीं। मैं कब से कहता चला आ रहा हूँ, सँभल जाओ, बिगड़ने के लक्षण दीख रहे हैं लेकिन मेरी बात पर कभी ध्यान ही नहीं दिया। उसी समय किसी तरह दबाव डालकर शशिमुखी के साथ उसका ब्याह कर देते तो कोई बात ही न रहती। लेकिन ‘का कस्य परिवेदना!” कहूँ भी तो किसको? जिसे कोई जान-बूझकर न समझे वह तो माथा फोड़कर भी नहीं समझाया जा सकता। अब विनय जैसा लड़का तुम्हारे गुट से अलग हो जाए, यह क्या कम लज्जा की बात है?”
गोरा ने कोई जवाब नहीं दिया। महिम फिर बोले, “आखिर विनय को रोक नहीं सके? खैर, जाने दो। लेकिन शशिमुखी के साथ उसके विवाह की बात को लेकर कुछ ज्यादा ही प्रचार हो गया। अब शशि के ब्याह में और देर करने से नहीं चलेगा। हमारे समाज के रंग-ढंग तो जानते ही हो- एक बार कोई उसकी पकड़ में आ जाए तो उसे रुलाकर ही छोड़ता है। इसीलिए एक पात्र-नहीं, नहीं घबराओ मत, तुम्हें घटक नहीं बनना पड़ेगा- मैंने खुद ही सब ठीक-ठाक कर लिया है।”
गोरा ने पूछा, “पात्र कौन है?”
महिम बोला, “यही तुम्हारा अविनाश।”
गोरा ने पूछा, “वह राज़ी है?”
महिम बोले, “राज़ी नहीं होगा! उसे क्या विनय समझ रखा है? तुम जो भी कहो, लेकिन तय यही पाया कि तुम्हारे गुट में एक अविनाश ही तुम्हारा सच्चा भक्त है। तुम्हारे परिवार के साथ उसका संबंध होगा, यह बात सुनकर वह तो खुशी से नाच उठा। बोला, यह तो मेरा सौभाग्य है, मेरा गौरव है। दहेज की रकम की बात मैंने जब पूछी तो कानों पर हाथ रखकर बोला, माफ कीजिए, इसकी तो बात भी मुझसे न कीजिए। मैंनें कहा,अच्छा, वह सब बात तुम्हारे पिता के साथ होगी। उसके बाप के पास भी गया था। बाप-बेटे में काफी अंतर देखने को मिला। रुपए की बात पर बाप ने कानों को बिल्कुल हाथ नहीं लगाया, बल्कि इस ढंग से बात करना शुरू किया कि मुझको ही कानों पर हाथ धरना पड़ गया। यह भी देखा कि लड़का इन सब मामलों में बड़ा पितृभक्त है, एकदम ‘पिताहि रमं तप:’-उसे बीच में डालने से कोई ठीक नतीजा नहीं निकलेगा। अब तो कंपनी बहादुर के कुछ कागज भुनाए बिना काम होता नहीं दीखता। खैर, वह जो हो, तुम भी दो-एक बात अविनाश को कह लेना- तुम्हारी ओर से बढ़ावा मिलने पर शायद…. “
गोरा ने कहा, “उससे रकम तो कुछ कम नहीं होने की।”
महिम ने कहा, “यह तो जानता हूँ। पितृभक्ति से जब फायदा भी होता है, तब उसे सँभालना कठिन होता है।”
गोरा ने पूछा, “बात पक्की हो गई है?”
महिम बोले, “हाँ!”
“दिन, मुहूर्त सब एकदम तय है?”
“माघ महीने की पूर्णिमा को तय ही समझो। और अधिक दिन नहीं है। बाप ने कहा है, हीरे-पन्ने की ज़रूरत नहीं है लकिन गहना खूब भारी सोने का होना चाहिए। अब कैसे सोने के दाम बढ़ाए बिना उसका भार बढ़ाया जा सकता है, कुछ दिन सुनार के साथ बैठकर इसी बारे में राय-विचार करना होगा।”
गोरा ने कहा, “लेकिन इतनी जल्दी करने की क्या ज़रूरत है? अविनाश भी जल्दी ही ब्रह्म-समाज में जा मिलेगा, ऐसा तो कोई भय नहीं है!”
महिम ने कहा, “हाँ, सो तो नहीं है, लेकिन तुम लोगों ने इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया है कि इधर दिन-पर-दिन बाबा के शरीर की हालत गिरती जा रही है। डॉक्टर लोग जितना ही रोते हैं उतना ही वह अपने नियमों को और कड़ा बनाते जाते हैं। आजकल जो सन्यासी उनके साथ हैं वह उन्हें तीन बार स्नान कराता है, उस पर ऐसा हठ-योग भी शुरू कराया है कि आँखों की पुतलियाँ-पलकें, नि:श्वास-प्रश्वास, नाड़ी-धमनी सब एकदम उलट-पुलट हुई जा रही हैं। बाबा के रहते-रहते शशि का विवाह हो जाने में ही अच्छा है, उनकी पेंशन की जमापूँजी सब स्वामी ओंकारानंद के हाथ पड़ जाने से पहले ही काम संपन्न हो जाए तो मुझे बहुत चिंता न करनी पड़े। कल बाबा के सामने मैंने बात उठाई भी थी- देखा कि मामला इतना आसान नहीं हैं मैंने सोचा है, उस बेटा सन्यासी को कुछ दिन कस के गाँजा पिलाकर काबू में करके उसी के द्वारा काम निकलवाना होगा। यह तुम निश्चय जान लो कि जो गृहस्थ हैं, जिनको रुपए की ज़रूरत सबसे अधिक है, बाबा का रुपया उनके हिस्से नहीं आएगा। मेरी मुश्किल यही है कि दूसरे का बाप तो कसकर रुपया वसूल करना चाहता है। और अपना बाप रुपया देने की बात सुनते ही प्राणायाम करने बैठ जाता है। उस ग्यारह बरस की लड़की को अब क्या मैं गले से बाँधकर डूब मरूँ?”

अध्याय-18

हरिमोहिनी ने पूछा, “राधारानी, तुमने कल रात को कुछ खाया क्यों नहीं?”
विस्मित होकर सुचरिता ने कहा, “क्यों, खाया तो था।”
हरिमोहिनी ने रात से ज्यों का त्यों ढँका रखा खाना दिखाते हुए कहा, “कहाँ खाया? सब तो पड़ा हुआ है!”
तब सुचरिता ने जाना कि रात खाना खाने का उसे ध्यान ही नहीं रहा।
रूखे स्वर में हरिमोहिनी ने कहा, “यह सब तो अच्छी बात नहीं है। मैं जहाँ तक तुम्हारे परेशबाबू को जानती हूँ, उससे तो मुझे नहीं लगता कि उन्हें इतना आगे बढ़ना पसंद होगा- उन्हें तो देखकर ही मन को शांति मिलती है। आजकल का तुम्हारा रवैय्या उन्हें पूरा मालूम होगा तो वह क्या कहेंगे भला?”
हरिमोहिनी की बात का इशारा किधर है, यह समझने में सुचरिता को कठिनाई नहीं हुई- पहले तो पल-भर के लिए मन-ही-मन वह सकुचा गई। उसने सोचा भी नहीं था कि गोरा के साथ उसके संबंध को बिल्कुल साधारण स्त्री-पुरुषों के संबंध के समान मानकर उस पर ऐसा अपवाद लगाया जा सकता है। इसीलिए हरिमोहिनी के कटाक्ष से वह डर गई। लेकिन अगले ही क्षण हाथ का काम छोड़कर वह सीधी होकर बैठ गई और हरिमोहिनी के चेहरे की ओर एकटक देखने लगी। इसी क्षण से उसने निश्चय कर लिया कि गोरा की बात को लेकर वह किसी के सामने ज़रा भी लज्जित नहीं होगी। वह बोली, “मौसी, तुम तो जानती ही हो, कल गौरमोहन बाबू आए थे। उनसे जो चर्चा हुई उसके विषय में मेरा चित्त इतना डूब गया था कि खाने की बात भूल ही गई थी। तुम कल रात रहतीं तो बहुत-सी नई बातें सुन पातीं।”
जैसी बातें हरिमोहिनी सुनना चाहती थी गोरा की बातें ठीक वैसी नहीं थीं। वह बस भक्ति की ही बातें सुनना चाहती थीं। गोरा के मुँह से भक्ति की बात ऐसी सहज और सरल नहीं जान पड़ती थी। गोरा के सामने जैसे सदा एक विरोध पक्ष रहता था जिससे वह बराबर लड़ता रहता था। जो नहीं मानते उन्हें वह मनवाना चाहता था, किंतु जो मानते हैं उन्हें कहने के लिए उसके पास क्या था? जो बातें गोरा को उत्तेजित करती थीं उनके बारे में हरिमोहिनी बिल्कुल उदासीन थीं। ब्रह्म-समाज के लोग अगर हिंदू-समाज के साथ नहीं मिलते और अपने मत पर स्थिर रहते हैं तो इसमें हरिमोहिनी को कोई आंतरिक क्लेश नहीं होता था। अपने प्रियजनों से अपने विच्छेद का कोई कारण न उठ खड़ा हो तो उन्हें किसी बात की फिक्र नहीं थी। इसीलिए गोरा से बातचीत करके उनके मन को ज़रा भी रस नहीं मिलता था। इस पर जब से उन्होंने अनुभव किया था कि सुचरिता के मन पर गोरा का ही प्रभाव ज्यादा पड़ रहा है तब से गोरा की बातचीत पूरी तरह स्वाधीन थी और मत-आस्था-आचरण के मामले में भी स्वतंत्र थी, इसीलिए हरिमोहिनी किसी भी दशा में उसे पूरी तरह अपने वश में नहीं कर पाई थीं। लेकिन ढलती आयु में सुचरिता ही हरिमोहिनी का एकमात्र अवलंबन थी इसलिए परेशबाबू को छोड़कर सुचरिता पर और किसी का कोई अधिकार हरिमोहिनी को बहुत विचलित कर देता था। उन्हें एकाएक जान पड़ने लगा कि गोरा की बातें शुरू से आखिर तक कल्पित हैं और उसका असल उद्देश्य किसी-न-किसी तरह धोखे से सुचरिता के मन को अपनी ओर आकृष्ट कर लेना है। यहाँ तक कि यह भी कल्पना वह करने लगीं कि गोरा की लालची दृष्टि मुख्यतया सुचरिता की संपत्ति पर है उन्होंने तय कर लिया कि गोरा ही उनका प्रधान शत्रु है और मन-ही-मन मानो कमर कसकर उसका सामना करने को तैयार हो गईं।
सुचरिता के यहाँ आज गोरा के आने की कोई बात नहीं थी, कोई कारण भी नहीं था। लेकिन गोरा के स्वभाव में दुविधा नाम की चीज़ बहुत कम थी। जब जिस काम में वह प्रवृत्त होता था उसके बारे में ज्यादा सोचता नहीं था, तीर की तरह सीधा चलता जाता था।
आज सबेरे ही गोरा जब सुचरिता के घर पहुँचा तब हरिमोहिनी पूजा कर रही थीं। सुचरिता बैठक में मेज़ पर कागज़-पत्र सँवारकर रख रही थी कि सतीश ने आकर खबर दी, गोराबाबू आए हैं। सुचरिता को विशेष आश्चर्य नहीं हुआ, वह जैसे जानती थी कि गोरा आएगा।
कुर्सी पर बैठकर गोरा ने कहा, “आखिर विनय ने हमें छोड़ दिया?”
सुचरिता ने कहा, “क्यों, छोड़ कैसे दिया? वह तो ब्रह्म-समाज में शामिल नहीं हुए।”
गोरा ने कहा, “वह ब्रह्म-समाज में ही चले गए होते तो हमारे अधिक निकट रहते। उनका हिंदू-समाज से चिपटे रहना ही अधिक दु:ख देने वाला है। इससे तो वह हमारे समाज का बिल्कुल छुटकारा कर देते तभी अच्छा होता।”
मन-ही-मन बहुत दु:ख पाकर सुचरिता ने कहा, “आप समाज को यों अकेला अलग करके क्यों देखते हैं? समाज के ऊपर आप जो इतना अधिक विश्वास रखते हैं वह क्या आपक लिए स्वाभाविक है या कि आप अपने साथ ज़बरदस्ती करके वैसा करते हैं?”
गोरा ने कहा, “इस समय की परिस्थिति में ज़बरदस्ती करना ही स्वाभाविक है। पैरों के नीचे धरती जब डगमगा उठती हैं तब प्रत्येक पग पर अधिक ज़ोर देना ही पड़ता है। इस समय क्योंकि चारों ओर विरोध ही दीखता है, इसलिए हमारी बातों और हमारे व्यवहार में एक अतिरंजना दीखती है, उसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता।
सुचरिता ने कहा, “चारों ओर जो विरोध दीखता है उसे आप बिल्कुल गलत और अनावश्यक क्यों समझते हैं? समाज अगर समय की गति में बाधा दे तो उसे चोट सहनी ही होगी।”
गोरा ने कहा, “समय की गति पानी की लहर के समान है, उससे किनारे टूटते रहते हैं, लेकिन उस टूटने को स्वीकार कर लेना ही किनारे का कर्तव्य है, यह मैं नहीं मानता। तुम यह मत समझो कि समाज का भला-बुरा मैं कुछ सोचता ही नहीं। वह सब सोचना तो इतना सरल है कि आजकल के सोलह साल के लड़के भी विचारक बन बैठे हैं। लेकिन मुश्किल है तो समूची चीज़ को श्रध्दा की नज़र से समग्र भाव से देख सकना।”
सुचरिता ने कहा “श्रध्दा के द्वारा क्या हमें सत्य ही मिलता है? उसके द्वारा बिना सोचे-समझे हम मिथ्या को भी तो ग्रहण कर लेते हैं। मैं आपसे एक बात पूछती हूँ- क्या हम लोग मूर्ति पूजा पर भी श्रध्दा कर सकते हैं। आप क्या इस सबको सत्य मानकर उस पर विश्वास करते हैं?”
थोड़ी देर चुप रहकर गोरा बोला, “मैं तुम्हें ठीक-ठीक सच्ची बात कहने की चेष्टा करूँगा। इस सबको मैंने शुरू से ही सत्य मान लिया है। यूरोपीय संस्कार के साथ इसका विरोध है इसीलिए या इसके विरुध्द कई-एक सस्ती दलीलें दी जा सकती हैं इसीलिए मैंने तुरंत उन्हें रद्द नहीं कर दिया। धर्म के बारे में मेरी अपनी विशेष साधना नहीं है, लेकिन मैं ऑंख बंद करके रटी हुई बात की तरह यह नहीं कह सकता कि साकार-पूजा और मूर्ति-पूजा में कोई अंतर नहीं है या कि भक्ति की एक चरम परिणति नहीं है। शिल्प में, साहित्य में, यहाँ तक कि विज्ञान और इतिहास में भी मनुष्य की कल्पना-वृत्ति का स्थान है, तब एक अकेले धर्म में ही उसका कोई स्थान नहीं है यह बात मैं नहीं मानूँगा। मनुष्य की सभी वृत्तियों का चरम-प्रकाश धर्म में होता है। हमारे देश में मूर्ति-पूजा में ज्ञान और भक्ति के साथ कल्पना का सम्मिलन करने की जो कोशिश हुई, क्या उसी के कारण ही हमारे देश का धर्म मनुष्य के लिए दूसरे देशों के धर्म से अधिक संपूर्ण नहीं हो उठा?’
सुचरिता ने कहा, “ग्रीस और रोम में भी तो मूर्ति-पूजा होती थी।”
गोरा ने कहा, “वहाँ की मूर्तियों में मनुष्य की कल्पना ने जितना सौंदर्य-बोध का आश्रय लिया था उतना ज्ञान-भक्ति का नहीं। हमारे देश में ज्ञान और भक्ति के साथ कल्पना गंभीर रूप से जुड़ी हुई है। हमारे राधा-कृष्ण और शिव-पार्वती मात्र ऐतिहासिक पूजा के विषय नहीं है, उनमें मनुष्य के चिरंतन तत्वज्ञान का रूप है। इसीलिए रामप्रसाद और चैतन्यदेव की भक्ति इन्हीं सब मूर्तियों का अवलंबन करके प्रकट हुई। भक्ति का ऐसा एकांत प्रकाश ग्रीस और रोम के इतिहास में कब देखा गया?”
सुचरिता ने कहा, “समय के परिवर्तन के साथ-साथ धर्म और समाज का कोई परिवर्तन आप स्वीकार करना ही नहीं चाहते?”
गोरा बोला, “क्यों नहीं चाहता? लेकिन वह परिवर्तन पागलपन हो तो नहीं चल सकता। मनुष्य का परिवर्तन मनुष्यत्व की राह पर ही होगा-बच्चा क्रम से बूढ़ा हो जाता है, लेकिन एकाएक मनुष्य कुत्ता-बिल्ली तो नहीं हो जाता। भारतवर्ष का परिवर्तन भारतवर्ष के रास्ते पर ही होना चाहिए,एकाएक अंग्रेजी इतिहास का मार्ग पकड़ लेने से एक सिरे से दूसरे तक सब पंगु और निरर्थक हो जाएगा। देश की शक्ति, देश का ऐश्वर्य सब देश में ही संचित है, यही तुम सबको बताने के लिए ही मैंने अपना जीवन अर्पित किया है। मेरी बात समझ तो रही हो?”
सुचरिता ने कहा, “हाँ, समझ रही हूँ। लेकिन मैंने ये सब बातें पहले कभी नहीं सुनी, और सोची भी नहीं। नई जगह पहुँच जाने पर जैसे किसी स्पष्ट चीज़ से परिचित होते भी देर लगती है, वैसी ही स्थिति मेरी है। या शायद मैं स्त्री हूँ, इसीलिए मुझे पूरी उपलब्धि नहीं हो रही है।”
गोरा बोल उठा, “बिल्कुल नहीं, मैं तो बहुत-से ऐसे पुरुषों को जानता हूँ, यह सब चर्चा उनके साथ बहुत दिनों से करता आ रहा हूँ- वे लोग नि:संशय होकर यह निश्चय किए बैठे हैं कि अपने मन के सामने तुम जो देख पा रही हो उनमें से कोई ज़रा-सा भी नहीं देख पाया। तुममें वह गहरी सूक्ष्म दृष्टि है, यह मैंने तुम्हें देखते ही अनुभव किया था, इसीलिए मैं अपनी इतने दिनों की मन की सब बातें लेकर तुम्हारे पास आता रहा हूँ, अपना सारा जीवन मैंने तुम्हारे सामने खोलकर रख दिया है, ज़रा भी संकोच नहीं किया।”
सुचरिता ने कहा, “जब आप ऐसी बात करते हैं तब मेरा मन बहुत व्यथित हो उठता है। मुझसे आप क्या आशा करते हैं, मैं उसमें से क्या दे सकती हूँ, मुझे क्या काम करना होगा, मेरे भीतर जो भाव उमड़ रहे हैं उन्हें कैसे प्रकट करूँ, कुछ भी तो मैं समझ नहीं पाती। यही भय लगा रहता है कि मुझ पर आपने जितना विश्वास किया है एक दिन कहीं आपको यही न लगे कि वह भूल थी।”
गंभीर स्वर में गोरा ने कहा, “उसमें कहीं भूल नहीं है तुम्हारे भीतर कितनी बड़ी शक्ति है, यह मैं तुम्हें दिखा दूँगा। तुम ज़रा भी मत घबराओ- तुम्हारी जो योग्यता है उसे प्रकाश में ले आने का भार मुझ पर है, तुम मुझ पर भरोसा रखो।”
सुचरिता ने कुछ नहीं कहा, लेकिन बिना कहे भी यह बात व्यक्त हो गई कि भरोसा रखने में उसने कहीं कोई कसर नहीं रखी है। गोरा भी चुप रहा। बहुत देर कमरे में सन्नाटा रहा। बाहर गली में पुराने बर्तन वाला पीतल का बर्तन झनझनाता हुआ दरवाजे पर हाँक लगाकर चला गया।
अपनी पूजा समाप्त करके हरिमोहिनी रसोईघर की ओर जा रही थी। सुचरिता के नि:शब्द कमरे में कोई है, इसका उन्हें ज्ञान भी नहीं था। लेकिन अचानक कमरे की ओर नज़र उठने पर जब उन्होंने देखा कि सुचरिता और गोरा चुप बैठे कुछ सोच रहे हैं, दोनों में से कोई शिष्टाचार की भी कोई बात नहीं कर रहा है, तब पल-भर के लिए उनके क्रोध की लहर बिजली-सी ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँच गई। किसी तरह अपने को सँभालकर उन्होंने दरवाजे पर खड़े-खड़े पुकारा, “राधारानी!”
सुचरिता के उठकर उनके पास आने पर उन्होंने मृदु स्वर में कहा, “आज एकादशी है, मेरी तबीयत ठीक नहीं है, तुम ज़रा रसोई में जाकर जलाओ, तब तक मैं थोड़ी देर गौर बाबू के पास बैठूँ।”
सुचरिता मौसी का भाव देखकर चिंतित-सी रसोई की ओर चली गई। हरिमोहिनी के कमरे में आने पर गोरा ने उन्हें प्रणाम किया। वह कुछ कहे बिना कुर्सी पर बैठ गईं। थोड़ी देर तक ओंठ भींचकर चुप बैठे रहने के बाद उन्होंने कहा, “तुम तो ब्रह्म नहीं हो न?”
गोरा ने कहा, “नहीं।”
हरिमोहिनी ने पूछा, “हमारे हिंदू-समाज को तो तुम मानते हो?”
गोरा ने कहा, “ज़रूर मानता हूँ।”
हरिमोहिनी बोलीं, “ज़रूर मानता हूँ।”
हरिमोहिनी बोलीं, “तब तुम्हारा यह कैसा व्यवहार है?”
हरिमोहिनी का अभिप्राय समझ न पाकर चुपचाप गोरा उनका मुँह ताकता रहा।
हरिमोहिनी ने कहा, “राधारानी सयानी हो गई है तुम लोग तो उसके सगे नहीं हो, उसके साथ तुम्हें इतनी क्या बात करनी होती है? वह लड़की है, उसे घर का काम-काज भी करना होता है, उसे भी इतनी बातें करने की क्या ज़रूरत है? इनसे तो उसका मन दूसरी तरफ चला जाएगा। तुम तो ज्ञानी आदमी हो, सारा देश तुम्हारी प्रशंसा करता है- लेकिन यह सब हमारे देश में कब होता था, और किस शास्त्र में ऐसा लिखा है?”
गोरा को भारी ठेस लगी। इस तरह की बात सुचरिता के संबंध में कहीं से उठ सकती है यह उसने सोचा भी न था। थोड़ी देर चुप रहकर वह बोला, “वे ब्रह्म-समाज में है, उन्हें इसी तरह बराबर सबसे मिलते-जुलते देखता रहा हूँ, इसीलिए मुझे कुछ खयाल ही नहीं हुआ।”
हरिमोहिनी ने कहा, “अच्छा, वही ब्रह्म-समाज में सही, किंतु तुम तो इस सबको कभी अच्छा नहीं कहते। तुम्हारी बातें सुनकर आजकल के कितने ही लोगों को होश आ गया है, तुम्हारा ही व्यवहार ऐसा होगा तो लोग तुम्हारी क्यों सुनेंगे? अभी कल देर रात तक तुम उसके साथ बातें करते रहे, तब भी तुम्हारी बात खत्म नहीं हुई और आज फिर सबेरे से ही आ जुटे। सबेरे से वह न भंडारे में गई है, न रसोई में; आज एकादशी के दिन मेरी ही कुछ मदद कर दे इसका भी खयाल उसे नहीं आया, यह उसकी कैसी पढ़ाई हो रही है? तुम्हारे घर में भी तो लड़कियाँ हैं- उन्हें भी क्या तुम सब काम-काज छुड़ाकर ऐसी ही शिक्षा दे रहे हो, या और कोई दे तो तुम्हें उचित लगेगा?”
इन सब बातों का गोरा की ओर से क्या जवाब हो सकता था! उसने केवल इतना कहा, “उन्हें ऐसी ही शिक्षा मिलती रही है, इसीलिए मैंने इन सब बातों के बारे में विचार नहीं किया।”
हरिमोहिनी ने कहा, “उसे चाहे कैसी भी शिक्षा मिलती रही हो, जब तक वह मेरे पास है और जब तक मैं जीती हूँ तब तक यह सब नहीं चलेगा। उसे मैं बहुत कुछ ठीक रास्ते पर ले आई हूँ। जब वह परेशबाबू के यहाँ थी तभी यह शोर मचने लगा था कि मेरे साथ रहकर वह हिंदू हो गई है। फिर इस घर में आकर तुम्हारे विनय के साथ न जाने क्या कुछ बातें होती रहीं कि फिर सब उलट गया। वह तो अब ब्रह्म घर में ब्याह करने चले हैं। खैर, मुश्किल से तो विनय से छुटकारा मिला। फिर एक कोई हरानबाबू आते थे, वह जब आता तब मैं राधारानी को लेकर ऊपर अपने कमरे में चली जाती, इसलिए उसकी भी नहीं चली। इसी तरह बड़ा प्रयत्न करके अब लगता है कि इसकी मति फिर कुछ सुधरने लगी है। इस घर में आकर तो उसने फिर सबका छुआ खाना शुरू कर दिया था, कल देखा वह फिर बंद कर दिया है। कल रसोई से अपना खाना अपने आप ले गई, बैरे को पानी लाने से मना कर दिया। अब, भैया तुमसे हाथ जोड़कर विनती करती हूँ, तुम अब फिर उसे मत बिगाड़ो। दुनिया में मेरे जो कोई थे सब मर गए, वही एक बची है, उसका भी मेरे अलावा कोई अपना नहीं है। तुम लोग उसे छोड़ दो। उनके घर में और भी तो बड़ी-बड़ी लड़कियाँ हैं- लावण्य है,लीला है, वे भी तो बुध्दिमती हैं, पढ़ी-लिखी हैं, तुम्हें कुछ कहना ही हो तो उन्हें जाकर कहो, कोई तुम्हें मना नहीं करेगा।”
गोरा एकदम स्तंभित होकर बैठा रहा। थोड़ा रुककर हरिमोहिनी फिर बोलीं, “तुम्हीं सोचो, उसे तो शादी-ब्याह भी करना होगा- उम्र भी काफी हो गई है। तुम क्या समझते हो कि बुढ़ापे तक वह ऐसे ही बैठी रहेगी? लड़कियों को घर का काम-काज तो करना ही होता है।”
साधारणतया इस बारे में गोरा को कोई संदेह नहीं था, उसकी भी तो यही राय थी, लेकिन सुचरिता के बारे में मन-ही-मन अपने मत को मानते हुए भी कभी लागू करके नहीं देखा था। सुचरिता गृहिणी होकर किसी एक गृहस्थी के अंत:पुर में घर के काम-काज में लगी हुई हो, यह उसने कभी कल्पना में भी नहीं सोचा था। मानो सुचरिता अब जैसी है हमेशा वैसी ही रहेगी।
गोरा ने पूछा, “अपनी भानजी के विवाह के बारे में आपने कुछ सोचा है क्या?”
हरिमोहिनी ने कहा, “सोचना तो होता ही है। मैं नहीं तो और कौन सोचेगा?”
गोरा ने फिर पूछा, “उनका विवाह क्या हिंदू-समाज में हो सकेगा?”
हरिमोहिनी ने कहा, “उसकी कोशिश तो करनी होगी। वही और गड़बड़ न करे और ठीक ढंग से रहे, तो काम अच्छी तरह बन जाएगा। वह सब मैंने मन-ही-मन ठीक कर रखा है। बीच में तो उसके जो ढंग थे उनको देखते हुए मुझे कोई पक्का फैसला करने का साहस नहीं हो रहा था। दो दिन से अब फिर देख रही हूँ कि उसका मन कुछ नरम पड़ गया है, इसलिए फिर भरोसा होता है।”
गोरा ने सोचा कि इस बोर में और अधिक कुछ पूछना उचित नहीं है, लेकिन पूछे बिना न रह सका, “पात्र क्या आपने मन में सोच रखा है?”
हरिमोहिनी ने कहा, “सोचा तो है। पात्र अच्छा ही है- मेरा छोटा देवर कैलाश। उसकी बहू कुछ दिन हुए मर गई; मनपसंद लड़की न मिलने से अब तक बैठा है, हीं तो ऐसा लड़का क्या यों ही पड़ा रहता है? राधारानी के साथ ठीक जँचेगा।”
ज्यों-ज्यों गोरा के मन में सुई-सी चुभने लगी त्यों-त्यों कैलाश के बारे में वह और प्रश्न पूछता गया।
हरिमोहिनी के देवरों में एक कैलाश ने ही कठिन परिश्रम करके कुछ आगे तक पढ़ाई-लिखाई की थी-कहाँ तक, यह हरिमोहिनी नहीं बता सकती थीं। कुनबे में उसी को विद्वान माना जाता था। गाँव के पोस्टमास्टर के खिलाफ सदर में दरखास्त भेजते समय कैलाश ने ही ऐसी ज़बरदस्त अंग्रेजी में लिख दिया था कि पोस्ट ऑफिस के कोई एक बड़े बाबू स्वयं जाँच-पड़ताल के लिए आए थे। इससे गाँव के सभी लोग कैलाश की योग्यता से काफी प्रभावित हो गए थे। इतनी शिक्षा होने पर भी आचार और धर्म के मामले में कैलाश की निष्ठा ज़रा भी कम नहीं हुई थी।
कैलाश का पूरा परिचय जान लेने के बाद गोरा चलने को उठ खड़ा हुआ। हरिमोहिनी को प्रणाम करके और कुछ कहे बिना वह घर से बाहर हो गया।
गोरा जब सीढ़ी से ऑंगन की ओर उतर रहा था तब सुचरिता ऑंगन के दूसरी ओर रसाई के काम में लगी थी। गोरा के पैरों की आवाज़ सुनकर वह द्वार के पास आकर खड़ हो गई। लेकिन किसी ओर देखे बिना गोरा बाहर चला गया। एक लंबी साँस लेकर सुचरिता फिर रसोई के काम में आ जुटी। गली के मोड़ पर ही गोरा की हरानबाबू से मुठभेंड़ हो गई। हरानबाबू ने थोड़ा हँसकर कहा, “आज बड़े सबेरे निकल पड़े!”
गोरा ने कोई उत्तर नहीं दिया। हरानबाबू ने फिर थोड़ा हँसकर पूछा, “वहीं गए थे शायद! सुचरिता घर पर तो है?”
गोरा ने “हाँ” कहा, और दनदनाता हुआ आगे बढ़ गया।
सुचरिता के घर में घुसते ही हरानबाबू ने सामने रसोई के खुले द्वार से सुचरिता को देख लिया। सुचरिता को भाग जाने का रास्ता न था, मौसी भी पास में ही थीं।
हरानबाबू ने पूछा, “गौरमोहन बाबू से अभी-अभी भेंट हुई। वह अब तक यहीं थे शायद?”
उन्हें सुचरिता ने कोई जवाब नहीं दिया, सहसा बर्तनों से इतनी व्यस्त हो उठी जैसे उसे साँस लेने की भी फुर्सत नहीं है। लेकिन हरानबाबू इससे हार मानने वाले नहीं थे। उन्होंने रसोई के बाहर ऑंगन में ही खड़े-खड़े बातचीत शुरू कर दी। सीढ़ी के पास आकर हरिमोहिनी ने दो-तीन बार खाँसा भी, लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। हरिमोहिनी हरानबाबू के सामने भी आ सकती थीं, लेकिन उन्होने समझ लिया था कि एक बार उनके हरानबाबू के सामने आ जाने पर इस उद्यमी युवक के उत्साह से इस घर में उनका या सुचरिता का बचना मश्किल हो जाएगा। इसीलिए हरानबाबू की छाया देखकर भी वह इतना लंबा घूँघट निकाल लेती थीं। जो उनकी नव-वधू अवस्था में भी आवश्यकता से अधिक ही समझा जाता।
हरानबाबू बोले, “सुचरिता, तुम किधर जा रही हो ज़रा सोचो तो? कहाँ जाकर पहुँचोगी? तुमने यह तो सुन ही लिया होगा कि ललिता के साथ विनय बाबू का ब्याह हिंदू पध्दति से होगा। इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है, जानती हो?”
सुचरिता की ओर से कोई जवाब न पाकर हरानबाबू ने धीमे और गंभीर स्वर में कहा, “तुम ज़िम्मेदार हो।”
हरानबाबू ने सोचा था कि इतने तीखे और भयानक अभियोग की चोट सुचरिता कभी नहीं सह सकेगी। लेकिन वह बिना बोले अपना काम करती रही, यह देखकर उन्होंने स्वर और भी गंभीर करके उँगली उठाकर सुचरिता की ओर हिलाते हुए कहा, ” सुचरिता, मैं फिर कहता हूँ, ज़िम्मेदार तुम हो। क्या तुम दिल पर हाथ रखकर कह सकती हो कि इसके लिए तुम समूचे ब्रह्म-समाज के निकट अपराधी नहीं हो?”
सुचरिता ने चुपचाप कढ़ाई चूल्हे पर रख दी, उसमें तेल छनछनाने लगा।
हरान बाबू कहते रहे, “तुम्हीं विनय बाबू और गौरमोहन बाबू को अपने घर में लाईं और तुम्हीं ने इनको इतना बढ़ावा भी दे दिया कि आज वे दोनों तुम्हारे ब्रह्म-समाज के सभी मान्य-बंधुओं से भी बड़े हो गए हैं। इसका क्या नतीजा हुआ, देख ही रही हो। क्या शुरू से ही मैंने बार-बार सावधान नहीं किया? आज क्या हुआ है? अब ललिता को कोन रोकेगा? तुम सोचती हो कि ललिता के साथ ही मुसीबत टल गई, किंतु वैसा नहीं है। आज मैं तुम्हें सावधान करने आया हूँ, अब तुम्हारी बारी है। आज ललिता की दुर्घटना से तुम्हें ज़रूर मन-ही-मन पछतावा हो रहा होगा, लेकिन वह दिन दूर नहीं है जब अपने ही अध:पतन पर तुम्हें पछतावा तक न होगा। लेकिन सुचरिता, अब भी लौटने का समय है। एक बार सोचकर देखो; एक दिन कितनी बड़ी, कितनी महान आशा के साथ हम दोनों मिले थे। हमारे सामने जीवन का कर्तव्य कैसा उज्ज्वल था, ब्रह्म-समाज का भविष्य किस उदार भाव से खुल रहा था, हमारे कितने संकल्प थे और रोज़ाना हम लोग कितना संबल जुटा रहे थे! तुम क्या समझती हो, वह सब खत्म हो गया?कदापि नहीं। हमारा वह आशा का क्षेत्र आज भी वैसा ही प्रस्तुत है- एक बार पलटकर देखो तो। एक बार लौट तो आओ।”
उस समय खौलते तेल में कई तरकारियाँ जोरों से छनछनाने लगी थीं और सुचरिता उन्हें कौशल से पलट रही थी। जब हरानबाबू अपने प्रवचन का परिणाम जानने के लिए चुप हुए तो सुचरिता ने आग पर से कढ़ाई नीचे उतारकर उनकी ओर मुड़कर दृढ़ स्वर में कहा, “मैं हिंदू हूँ।”
बिल्कुल हतबुध्दि होकर हरानबाबू ने कहा, “तुम हिंदू हो?”
सुचरिता ने दोहराया, “हाँ, मैं हिंदू हूँ।” और कढ़ाई को फिर आग पर चढ़ाकर तरकारियों को चलाने लगी।
क्षण-भर में सँभलकर हरानबाबू ने तीखे स्वर में कहा, “तभी शायद गौरमोहन बाबू सबेरा हो, संध्या हो, तुम्हें दीक्षा देते रहते हैं?”
मुँह उधर मोड़े बिना ही सुचरिता ने कहा, “हाँ, मैंने उन्हीं से दीक्षा ली है, वही मेरे गुरु हैं।”
एक समय से हरानबाबू अपने को ही सुचरिता का गुरु समझते आ रहे थे। आज सुचरिता के मुँह से यह सुनकर भी कि वह गोरा से प्रेम करती है, उन्हें इतना कष्ट न होता जितना गुरु वाली बात से हुआ। उनका गुरु का अधिकार आज गोरा ने छीन लिया है, सुचरिता की यह बात उन्हें तीर-सी चुभी।
उन्होंने कहा, “तुम्हारे गुरु चाहे जितने बड़े हों, तुम क्या समझती हो कि हिंदू-समाज तुम्हें ग्रहण कर लेगा?”
सुचरिता ने कहा, “वह सब मैं कुछ नहीं समझती। मैं समाज भी नहीं जानती। मैं बस इतना जानती हूँ कि मैं हिंदू हूँ।”
हरानबाबू ने कहा, “क्या तुम यह जानती हो कि तुम इतने दिनों तक अविवाहित रही हो केवल इसी बात पर तुम हिंदू-समाज से जातिच्युत कर दी जा सकती हो?”
सुचरिता ने कहा, “इस बारे में आप फिजूल चिंता न करें, लेकिन मैं आपसे इतना ही कहती हूँ कि मैं हिंदू हूँ।”
हरानबाबू ने कहा, “जो धर्म-शिक्षा परेशबाबू से मिली थी वह भी क्या अपने इस नए गुरु के चरणों पर न्यौछावर कर दी?”
सुचरिता ने कहा, “मेरा धर्म मेरे अंतर्यामी जानते हैं, इसके बारे में मैं किसी के साथ कोई बहस नहीं करना चाहती। आप यही जानिए कि मैं हिंदू हूँ।”
अब हरानबाबू बिल्कुल लिमिला उठे और बोले, “तुम चाहे कितनी बड़ी हिंदू हो जाओ- उससे कोई शुभ नतीजा नहीं निकलेगा, यह मैं तुम्हें बता दूँ। तुम्हारे गौरमोहन बाबू विनयबाबू जैसे नहीं हैं। तुम अपने को हिंदू-हिंदू पुकारकर गला फाड़ लो तब भी यह आशा न करना कि गौर बाबू तुम्हें अपना लेंगे। चेले बनाकर गुरुगीरी करना आसान है, लेकिन इसी से वह तुम्हें घर ले जाकर गृहस्थी चलाएँगे, यह बात सपने में भी मत सोचना!”
सुचरिता रसोई भूलकर बिजली की तरह तड़पककर खड़ी हो गई और बोली, “यह सब बात क्या कह रहे हैं?”
“मैं कह रहा हूँ कि गौरमोहन बाबू कभी तुमसे विवाह नहीं करेंगे।”
सुचरिता की ऑंखें लाल हो उठीं। वह बोली, “विवाह मैंने आपसे कहा नहीं कि वह मेरे गुरु हैं?”
हरानबाबू ने कहा, “वह तो कहा लेकिन जो नहीं कहा वह भी तो हम समझ सकते हैं।”
सुचरिता ने कहा, “आप यहाँ से चले जाइए। मेरा अपमान मत कीजिए। मै। आपसे कहे देती हूँ कि आज से मैं आपके सामने कभी नहीं आऊँगी।”
हरानबाबू ने कहा, “हाँ, सामने कैसे आओगी! अब से तो तुम जनाने में रहोगी। हिंदू रमणी! बंधिता! परेशबाबू के पाप का घड़ा अब भर गया। बुढ़ापे में अब वह अपनी करनी का फल भोगते रहें- हम तो विदा लेते हैं।”
धड़ाक से सुचरिता ने रसोई का दरवाज़ा बंद कर दिया और फर्श पर बैठ गई। मुँह में ऑंचल ठूँसकर किसी तरह अपनी सिसिकियों को दबाने की कोशिश करने लगी। हरानबाबू मानो कालिखपुता चेहरा लिए बाहर को चल दिए।
हरिमोहिनी ने दोनों की पूरी बात सुन ली थी। आज सुचरिता के मुँह से उन्होंने जो सुना वह उनकी उम्मीद से परे था। उनकी छाती खुशी से फूल उठी। उन्होंने सोचा-क्यों न होता, मैं जो सचे मन से अपने गोपी-वल्लभ की पूजा करती आई वह क्या सब यों ही चली जाएगी?
फौरन हरिमोहिनी ने अपने पूजा-गृह में जाकर फर्श पर लेटकर देवता को शाष्टांग प्रणाम किया और प्रण किया कि आज से वह भोग और भी बढ़ा देंगी। अब तक उनकी पूजा दु:ख की सांत्वना के लिए होने के कारण शांत-भाव से होती थी, आज उसके स्वार्थ-साधना का रूप लेते ही वह अत्यंत उग्र और क्षुधातुर हो उठी।
गोरा ने जिस ढंग से सुचरिता से बात की थी, उस तरह पहले कभी किसी से नहीं की थी। अपने श्रोताओं के सामने अब तक वह केवल अपने वाक्य,मत और उपदेश ही रखता आया था, अब सुचरिता के सामने उसने स्वयं अपने को निकालकर रख दिया था। इस आत्म-प्रकाश के आनंद में उसके सारे मत और संकल्प न केवल एक शक्ति से बल्कि एक रस से भर उठे। एक सौंदर्यश्री ने उसके जीवन को छा लिया। मानो उसकी तपस्या पर सहसा देवताओं ने अमृत बरसा दिया हो।
गोरा पिछले कुछ दिनों से रोज़ाना इसी आनंद के आवेश से भरकर कुछ सोचे बिना सुचरिता के पास आता रहा था। किंतु आज हरिमोहिनी की बात सुनकर एकाएक उसे याद आया कि ऐसी ही मुग्धता के लिए एक दिन उसने विनय का कैसा मजाक उड़ाया था और तिरस्कार किया था। आज अनजाने ही स्वयं उसी परिस्थिति में आकर वह चौंक उठा। अनजान जगह में बेहोश सोता हुआ व्यक्ति धक्का खाकर जैसे हड़बड़ाकर उठता है वैसे ही गोरा अपनी सारी शक्ति लगाकर अपने को सजग करने लगा। बराबर वह प्रचार करता आया था कि पृथ्वी पर अनेक प्रबल जातियों का संपूर्ण विनाश हो गया-भारत ही केवल संयम और दृढ़ता से नियम पालन के चलते सदियों से प्रतिकूल शक्तियों के आघात सहता हुआ भी अपने को बचाय रख सका है। उस नियम में थोड़ी-सी भी शिथिलता स्वीकार करने को वह राज़ी नहीं था। उसका कहना था, भारतवर्ष का सभी कुछ लूटा जा रहा है, लेकिन अपने जिस प्राण पुरुष को उसने इस सब कड़े नियम-संयम के भीतर छिपाकर रखा है उस तक किसी अत्याचारी राजा का वार पहुँच ही नहीं सकता। हम लोग जब तक दूसरी जाति के अधीन हैं तब तक हमें अपने नियम का और भी दृढ़तापूर्वक पालन करना होगा। अच्छे-बुरे के विवेचन का समय अभी नहीं है। जो व्यक्ति भँवर में फँसकर मृत्यु के मुँह की ओर बहा जा रहा हो वह जिस किसी चीज़ के सहारे अपने को बचा सकता हो उसी को पकड़ता है, यह नहीं सोचता कि वह चीज़ सुंदर है या कुरुप। हमेशा से गोरा यही बात कहता आया था- आज भी उसके पास कहने को यही था। हरिमोहिनी ने जब गोरा के आचरण की बुराई की, तब जैसे अंकुश की चोट से गरज तड़ उठा।
गोरा जब अपने घर पहुँचा तब दरवाजे क़े सामने सड़क पर बेंच डालकर महिम नंगे बदन बैठे तम्बाकू खा रहे थे। आज उनके ऑफिस की छुट्टी थी। गोरा को भीतर जाते देखकर उन्होंने भी उसके पीछे जाकर पुकारकर कहा, “गोरा, मेरी एक बात सुनते जाओ!”
गोरा को अपने कमरे में ले जाकर महिम ने पूछा, “बुरा मत मानना भाई, पहले पूछ लूँ कि कहीं तुम्हें भी विनय की छूत तो नहीं लग गइ?उस इलाके में बार-बार आना-जाना होने लगा है।”
गोरा का चेहरा लाल हो उठा। वह बोला, “कोई भय नहीं है।”
महिम ने कहा, “जैसे ढंग देखता हूँ, कुछ कहा नहीं जा सकता। तुम सोचते हो वह एक खाने की चीज़ है जिसे मजे से निगलकर फिर लौटाया जा सकेगा। लेकिन उसी के भीतर काँटा लगा है, यह अपने दोस्त की हालत देखकर ही समझ सकते हो। अरे, चले कहाँ-असल बात तो अभी मैंने कहीं ही नहीं। ब्रह्म लड़की के साथ विनय का ब्याह तो सुनता हूँ बिल्कुल पक्का हो गया है। लेकिन उसके बाद उनके साथ हमारा किसी तरह का मेल-व्यवहार नहीं चल सकता। यह मैं तुम्हें पहले से ही कहे रखता हूँ।”
गोरा ने कहा, “वह तो नहीं ही चल सकता।”
महिम ने कहा, “लेकिन माँ अगर गोलमाल करेंगी तो मुश्किल होगी। हम लोग गृहस्थ हैं, यों ही बेटे-बेटियों के ब्याह में प्राण मुँह को आ जाते हैं, उसके ऊपर अगर घर में ही ब्रह्म-समाज बैठ जाएगा तब तो तुझे यहाँ से बोरिया-बिस्तर उठा लेना पड़ेगा।”
गोरा ने कहा, “नहीं, वह सब कुछ नहीं होगा।”
महिम ने कहा, “शशि के विवाह का मामला तय हो चला है। हमारे समधी जितने वजन की लड़की लेंगे उससे कुछ अधिक सोना लिए बिना नहीं छोड़ेंगे, क्योंकि वह जानते हैं कि मनुष्य तो नश्वर पदार्थ है, सोना उससे अधिक दिन टिकता है। दवा की अपेक्षा अनुपात की ओर ही उनका रूझान अधिक है। उसे समधी कहना तो उसकी हेठी करना है- वह तो एकदम बेहया है! खैर, खर्च तो बहुत होगा, लेकिन उससे जो सबक मिला है वह लड़के के ब्याह के समय काम आएगा। मेरा तो मन होता है, एक बार फिर से इस ज़माने में जन्म लेकर बाबा को बीच में रखकर अपना ब्याह बाकायदा तय करूँ- अपने पुरुष जन्म को एकदम सोलह आने सार्थक करके दिखाऊँ! यही तो पौरुष है-लड़की के बाप को एकबारगी पछाड़ देना क्या मामूली बात है! तुमने जो कहो, तुम्हारे साथ मिलकर दिन-रात हिंदू-समाज की जयध्वनि करने लायक जोश किसी तरह नहीं जुट पाता, भाई, गले से आवाज़ ही नहीं निकलती। मेरी तीन कोड़ी की उमर होने में कुल चौदह महीने बाकी हैं- पहली लड़की को जन्म देने की भूल का सुधार करने में सहधर्मिणी ने लंबा समय लिया-लेकिन जो हो उसके विवाह का समय होने तक सब लोग मिलकर हिंदू-समाज को जीवंत रखो, उसके बाद देश के लोग चाहे मुसलमान हों चाहे ख्रिस्तान, मुझे कोई मतलब नहीं।”
गोरा को उठकर खड़े होते देख महिम बोले, “मैं इसीलिए कह रहा था, कि शशि के विवाह पर विनय को निमंत्रण देने से नहीं चलेगा। उस वक्त इस बात को लेकर फिर कोई हंगामा मचे, यह नहीं होने देना होगा। माँ को तुम अभी से सावधान कर रखना।”
गोरा ने माँ के कमरे में जाकर देखा आनंदमई फर्श पर बैठी ऑंखों पर चश्मा चढ़ाए एक खाते में न जाने किस चीज़ की सूची बना रही हैं। गोरा को देखकर चश्मा उतारकर उन्होंने खाता बंद करते हुए कहा, “बैठ।”
गोरा के बैठ जाने पर आनंदमई बोलीं, “मुझे तेरे साथ कुछ सलाह करनी है। विनय के ब्याह की खबर तो सुन ली है न?”
गोरा चुप रहा। आनंदमई बोलीं, “विनय के चचा नाराज़ हैं, वे लोग कोई नहीं आएँगे। उधर यह विवाह परेशबाबू के घर पर हो सकेगा इसमें भी संदेह है। सब इंतजाम विनय को ही करना होगा, इसीलिए मैं सोचती थी, हमारे घर के उत्तर वाले हिस्से में निचली मंज़िल तो किराए पर चढ़ी हुई है लेकिन ऊपर वाले किराएदार चले गए हैं- वहीं दुमंज़िले में यदि ब्याह का बंदोबस्त कर दिया जाए तो कैसा रहेगा?”
गोरा ने पूछा, “क्या यह ठीक रहेगा?”
आनंदमई बोलीं, “मैं न होऊँगी तो ब्याह का सारा काम कौन सँभालेगा? वह तो बेचारा मुसीबत में पड़ जाएगा। वहाँ ब्याह की बात हो जाए तो मैं इस घर से ही सारा इंतज़ाम कर दे सकूँगी, अधिक दौड़-धूप नहीं करनी पड़ेगी।”
गोरा ने कहा, “वह नहीं हो सकेगा माँ!”
आनंदमई ने पूछा, “क्यों नहीं हो सकेगा? उनसे तो मैंने पूछ लिया है।”
गोरा ने कहा, “नहीं माँ, यह ब्याह नहीं हो सकेगा-मैं कहता हूँ, तुम मेरी बात मानो।”
आनंदमई ने कहा, “क्यों, विनय उनके मतानुसार तो ब्याह नहीं कर रहा है।”
गोरा ने कहा, “यह सब बहस की बात है। समाज के सामने यह दलील नहीं चलेगी। विनय की जो इच्छा है करे, हम लोग इस ब्याह को नहीं मान सकते। कलकत्ता शहर में घरों की कोई कमी नहीं है- और उसका अपना भी तो घर है।”
घर बहुत मिल सकते हैं, यह आनंदमई भी जानती थीं। लेकिन विनय सभी बंधु-परिजनों से परित्यक्त होकर अनाथों की तरह किसी किराए के घर में विवाह-संस्कार पूरा करे, यही उनके मन को अखर रहा था। इसीलिए उन्होनें मन-ही-मन सोच लिया था कि उनके मकान का जो हिस्सा किराए के लिए खाली पड़ा है वहीं विनय के विवाह की व्यवस्था कर दी जाए। इससे समाज से कोई झगड़ा मोल लिए बिना वह अपने ही घर में शुभ-कर्म का अनुष्ठान करके तृप्त हो सकेंगी।
उन्होंने गोरा की दृढ़ आपत्ति जानकर लंबी साँस लेकर कहा, “तुम जब इतने ही विरुध्द हो तब तो कहीं और ही मकान किराए पर लेना होगा। लेकिन उससे मुझ पर बहुत बोझ पड़ेगा। खैर, जब यह हो ही नहीं सकता तब इसके बारे में और सोचकर क्या होगा!”
गोरा ने कहा, “माँ, इस ब्याह में तुम्हारे शामिल होने से कैसे चलेगा।”
आनंदमई ने कहा, “यह तू क्या कह रहा है, गोरा! अपने विनय के ब्याह में मैं शामिल न होऊँगी तो कौन होगा!”
गोरा ने कहा, “वह किसी तरह नहीं हो सकेगा, माँ!”
आनंदमई ने कहा, “गोरा, विनय के साथ तेरा मतभेद हो सकता है, लेकिन इसीलिए क्या तू उसका दुश्मन हो जाएगा?”
कुछ उत्तेजित होकर गोरा ने कहा, “माँ, यह कहना तुम्हारी ज्यादती है। आज विनय के ब्याह में मैं जो खुशी-खुशी शामिल नहीं हो पा रहा हूँ,मेरे लिए यह कोई सुख की बात नहीं है। विनय को मैं कितना प्यार करता हूँ यह और कोई चाहे न जाने, पर तुम तो जानती हो। लेकिन माँ, यह प्यार की बात नहीं है, इसमें दोस्ती-दुश्मनी कुछ नहीं है। विनय ने परिणाम की बात सोच-समझकर ही इधर कदम बढ़ाया है। हमने उसे नहीं छोड़ा,उसी ने हमें छोड़ दिया है, इसलिए अब जो विच्छेद हो रहा है उससे उसको ऐसी कोई चोट नहीं पहुँचेगी जिसके लिए वह तैयार न हो।”
आनंदमई ने कहा, “गोरा, यह बात तो ठीक है कि विनय यह जानता है कि उस विवाह के मामले में तुम्हारा उसके साथ किसी तरह का सहयोग नहीं होगा। लेकिन यह भी तो वह निश्चय जानता है कि मैं इस शुभ कर्म में किसी तरह उसका परित्याग नहीं कर सकूँगी। विनय अगर समझता कि उसकी बहू को मैं आशीर्वाद-पूर्वक ग्रहण नहीं करूँगी तो मैं पक्का जानती हूँ कि वह प्राण जाने पर भी यह ब्याह न कर सकता। विनय के मन को मैं क्या जानती नहीं?” कहते-कहते आनंदमई ने ऑंखों के कोने से ऑंसू पोंछ लिए। विनय की ओर से गोरा के मन में भी जो गहरी पीड़ थी वह उमड़ आई। फिर भी उसने कहा, “माँ, तुम समाज में रहती हो और समाज की ऋणी हो, यह बात तुम्हें याद रखनी होगी।”
आनंदमई ने कहा, “गोरा, मैंने तो बार-बार तुमसे कहा है कि समाज से मेरा नाता दिनों से टूट गया है। इसीलिए तो समाज मुझसे घृणा करता है और मैं भी उससे दूर रहती हूँ।”
गोरा ने कहा, “माँ, तुम्हारी इसी बात से मुझे सबसे अधिक तकलीफ होती है।”
अपनी छलछलाती हुई स्निग्ध दृष्टि से आनंदमई ने जैसे गोरा का सर्वांग सहलाते हुए कहा, “बेटा, ईश्वर जानते हैं, तुझे इस तकलीफ से बचाना मेरे बस में नहीं है।”
उठते हुए गोरा ने कहा, “तब फिर मुझे क्या करना होगा, यह तुम्हें बता दूँ। मैं अभी विनय के पास जाता हूँ, जाकर उससे कहूँगा कि अपने विवाह के मामले में तुम्हें उलझाकर समाज से तुम्हारे विच्छेद को और बढ़ावा न दे- क्योंकि यह तो उसकी सरासर ज्यादती और स्वार्थपरता होगी।”
हँसकर आनंदमई ने कहा, “अच्छा, तू जो कर सके कर ले- उसे जाकर कह दे, फिर मैं। देख लूँगी।”
आनंदमई गोरा के चले जाने पर बहुत देर तक बैठकर सोचती रहीं। फिर धीरे-धीरे उठकर पति के कक्ष में चली गईं।
आज एकादशी थी, इसलिए कृष्णदयाल ने भोजन बनाने का कोई यत्न नहीं किया था, उन्हें घेरण्ड-संहिता का एक नया बंगला अनुवाद मिल गया था, उसी को हाथ में पकड़े एक मृगछाला पर बैठे वह पाठ कर रहे थे।
वह आनंदमई को देखकर असमंजस में पड़ गए। आनंदमई उनसे काफी दूरी रखती हुई कमरे की देहरी पर ही बैठ गईं और बोलीं, “देखो, बड़ा उदासीन भाव हो रहा है!”
कृष्णदयाल सांसारिक न्याय-अन्याय से परे जा पहुँचे थे, इसीलिए उन्होंने उदासीन भाव से पूछा, “कैसा अन्याय?”
आनंदमई ने कहा, “गोरा को अब और एक दिन भी धोखे में रखना ठीक नहीं है- बात की हद होती जा रही है।
जिस दिन गोरा ने प्रायश्चित की बात उठाई थी उस दिन कृष्णदयाल के मन में भी यह बात आई थी कि,…. किंतु फिर योग-की तरह-तरह की प्रक्रियाओं के कारण उन्हें इस बारे में सोचने का अवकाश ही नहीं मिला।
आनंदमई ने कहा, “शशिमुखी के ब्याह की बात हो रही है, शायद इसी फागुन के महीने में होगा। इससे पहले जब भी घर में कोई सामाजिक कर्म हुआ है किसी-न-किसी बहाने मैं गोरा को साथ लेकर दूसरी जगह चली जाती रही हूँ। इस बीच कोई इतना बड़ा काम भी नहीं हुआ। लेकिन अब शशि के विवाह में उसे कहाँ ले जाऊँगी? अन्याय रोज़ ही बढ़ता जा रहा है, मैं रोज़ दोनों समय भगवान से हाथ जोड़कर यही माँगती हूँ कि उन्हें जो सज़ा देनी हो सब मुझको ही दें। लेकिन मुझे बड़ा भय लग रहा है- अब और छिपाकर नहीं रखा जा सकेगा। गोरा को कठिनाई होगी। अब मुझे अनुमति दे दो, मैं उसे सारी बात खोलकर कह दूँ-फिर मेरे भाग्य में जो होगा, होगा।”
कृष्णदयाल की तपस्या भंग करने के लिए इंद्रदेव ने यह क्या विघ्न भेज दिया! इधर उनकी तपस्या भी अति घोर हो उठी थी- साँस रोकने में वह असंभव को संभव कर रहे थे, उन्होंने भोजन की मात्रा इतनी कम कर दी थी कि पेट को पीठ से मिला देने का उनका हठ पूरा होने में अधिक समय न था। ऐसे समय यह उत्पात हुआ!
कृष्णदयाल बोले, “क्या तुम पागल हुई हो? वह बात आज प्रकट होने पर मैं तो बड़े संकट में पड़ जाऊँगा- क्या सफाई दूँगा- पेंशन तो रुक ही जाएगी, शायद पुलिस भी तंग करेगी। जो हो गया हो सो हो गया, अब जितना सँभलकर चल सको, चलो-न चल सको तो भी कोई दोष नहीं होगा।”
कृष्णदयाल ने सोच रखा था कि उनकी मृत्यु के बाद जो हो सो हो, पर तब तक वह स्वतंत्र होकर रहना चाहते थे। फिर उनके अनजाने किसका क्या हो रहा है, इसकी अनदेखी करते रहने से ही किसी प्रकार काम चल जाएगा। क्या करना चाहिए, कुछ निश्चय न कर पाकर आनंदमई उदास मुँह लिए उठ खड़ी हुईं। पल-भर खड़ी होकर बोलीं, “तुम्हारा शरीर कैसा हुआ जा रहा है, यह नहीं देखते?”
आनंदमई की इस मूर्खता पर कृष्णदयाज ज़ोर से हँसे और बोले, “शरीर!”
अंत तक इस विषय की चर्चा किसी संतोषजनक परिणाम तक नहीं पहुँची और कृष्णदयाल ने फिर घेरण्ड-संहिता में मन लगाया। उधर बाहर के कमरे में उनके सन्यासी के साथ बैठे महिम उच्च स्वर में परमार्थ-तत्व की चर्चा में लगे हुए थे। गृहस्थ को मुक्ति मिल सकती है या नहीं, अत्यंत विनीत व्याकुल स्वर में यह प्रश्न पूछकर हाथ जोड़कर वह ऐसे एकांत आग्रह और भक्ति से इसका उत्तर सुनने बैठे थे मानो मुक्ति पाने के लिए उन्होंने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया हो। गृहस्थ को मुक्ति नहीं मिल सकती किंतु स्वर्ग मिल सकता है, सन्यासी यही समझाकर महिम को किसी तरह संतुष्ट करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन महिम को तसल्ली ही न होती थी। उन्हें मुक्ति चाहिए ही चाहए, स्वर्ग से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है। किसी तरह कन्या का विवाह हो लेते ही वह सन्यासी की चरण-सेवा करते हुए मुक्ति की साधना में जुट जाएँगे, इस प्रण से उन्हें कोई डिगा नहीं सकेगा। किंतु कन्या का विवाह तो ऐसा आसान मामला नहीं है-हाँ, यदि बाबा की दया हो जाए तो शायद बेड़ा पार हो सके!

अध्याय-19

गोरा आजकल अलस्सुबह ही घर से निकल जाता है, विनय यह जानता था। इसीलिए सोमवार को सबेरे वह भोर होने से पहले ही गोरा के घर जा पहुँचा और सीधे ऊपर की मंजिल में उसके सोने के कमरे में चला गया। वहाँ गोरा को न पाकर उसने नौकर से पूछा तो पता चला कि गोरा पूजा-घर में है। इससे मन-ही-मन उसे कुछ आश्चर्य हुआ। पूजा-घर की देहरी पर पहुँचकर विनय ने देखा, गोरा पूजा की मुद्रा में बैठा है। रेशमी धोती, कंधे पर रेशमी चादर, किंतु फिर भी उसकी विशाल देह का अधिकांश भाग खुला ही था। गोरा को यों पूजा करते देखकर विनय को और भी विस्मय हुआ।
जूते की आवाज़ सुकर गोरा ने पीछे फिरकर देखा। विनय को देखकर वह उठ खड़ा हुआ और घबराया-सा बोला, “इस कमरे में न आना।”
विनय ने कहा, “डरो मत, मैं नहीं आता। तुमसे मिलने आया था।”
बाहर आकर गोरा ने कपड़े बदले और फिर विनय को साथ लेकर तिमंज़िले वाले कमरे में चला गया।
विनय ने कहा, “आज सोमवार है।”
गोरा ने कहा, “ज़रूर सोमवार है, पंचांग में भूल हो सकती है, पर आज के बारे में तुमसे भूल नहीं हो सकती। कम-से-कम इतना तो निश्चित है कि आज मंगलवार नहीं है।”
विनय ने कहा, “तुम आओगे तो नहीं, यह जानता हूँ- लेकिन आज तुम्हें एक बार बुलाए बिना मैं इस काम में प्रवृत्त नहीं हो सकता। इसीलिए आज सबेरे उठते ही सीधा तुम्हारे पास आया हूँ।”
कुछ कहे बिना गोरा निश्चल बैठा रहा। विनय ने फिर कहा, “तो तुम्हारा यही निश्चय है कि मेरे विवाह में नहीं आओगे?”
गोरा ने कहा, “नहीं विनय, मैं नहीं जा सकूँगा।”
विनय चुप हो गया। गोरा ने अपने मन की वेदना को छिपाकर हँसते हुए कहा, “मैं नहीं भी गया तो क्या हुआ! जीत तो तुम्हारी ही हुई। माँ को तो तुम खींच ही ले गए। मैंने तो बहुत कोशिश की, पर उन्हें किसी तरह रोक न सका। अंत में अपनी माँ के बारे में भी मुझे तुमसे हार माननी पड़ी। विनय, यहाँ भी क्या एक-एक करके ‘सब लाल हो जाएगा’। अपने नक्शे में क्या मैं अकेला ही बचा रह जाऊँगा।”
विनय ने कहा, “भाई, मुझे दोष न दो! मैंने उन्हें बहुत ज़ोर देकर ही कहा था- ‘माँ, मेरे ब्याह में तुम किसी तरह नहीं जा सकतीं।’ माँ बोलीं, ‘देख वीनू, जिन्हें तेरे ब्याह में नहीं आना वे तो तेरा न्यौता पाकर भी नहीं आएँगे- इसीलिए तुमसे कहती हूँ, तू किसी को न्यौता भी मत दे और मना भी मत कर, चुप हो रह।’ गोरा, तुम किसी को न्यौता भी मत दे और मना भी मत कर, चुप हो रह।’ गोरा, तुम मुझसे कहाँ हारे हो, तुम अपनी माँ से हारे हो, हज़ार बार हारे हो। ऐसी माँ और कहाँ मिलेगी?”
आनंदमई को रोकने की गोरा ने पूरी कोशिश की ज़रूर थी, लेकिन वह जब उसकी बात न मानकर, उसके क्रोध और कष्ट की परवाह न करके विनय के विवाह में चली ही गईं तब गोरा को इससे दु:ख नहीं हुआ, बल्कि कुछ प्रसन्नता ही हुई। उसकी माँ के असीम स्नेह का जो अंश विनय को मिला है, गोरा से विनय का विच्छेद हो जाने पर भी उस गंभीर स्नेह-सुधा से विनय को कोई वंचित न कर सकेगा, यह जानकर मन-ही-मन गोरा को तृप्त और शांति मिली। और सब ओर से वह विनय से बड़ी दूर चला जा सकता है, किंतु अक्षय मातृ स्नेह का यह बंधन इन दोनों पुराने बंधुओं को सदैव निविड़ भाव से एक-दूसरे से बाँधे रहेगा।
विनय ने कहा, “अच्छा भाई, तो मैं चलूँ, आना बिल्कुल असंभव हो तो न आना, लेकिन मन में गुस्सा न रखना, गोरा! मेरे जीवन को इस मिलन से कितनी बड़ी सार्थकता मिली है, अगर यह तुम अनुभव कर सको तो हमारे इस विवाह को कभी अपने सौहार्द के घेरे से निर्वासित न कर सकोगे, यह मैं दावे से कह सकता हूँ।”
यह कहकर विनय उठ खड़ा हुआ। गोरा ने कहा, “बैठो विनय, लग्न तो रात को कहीं जाकर है, अभी से इतनी जल्दी क्यों?”
गोरा के इस अप्रत्याशित स्नेह-पूर्ण अनुरोध से द्रवित होकर विनय फिर बैठ गया।
तब बहुत दिनों के बाद ये दोनों फिर पहले की तरह सबेरे-सबेरे घुट-घुटकर बातें करने लगे। विनय के हृदय की वीणा का जो तार आजकल पंचम पर था, उसी को गोरा ने छू दिया। जैसे फिर तो विनय की बात पूरी होने में ही न आती थी। ऐसी कितनी ही छोटी-छोटी घटनाओं का इतिहास, जो लिखी जाने पर अत्यंत साधारण बल्कि हास्यास्पद जान पड़तीं, यों सुनाने लगा जैसे गाने की तान की तरह प्रत्येक आवृत्ति पर उसमें नया माधुर्य भर उठता हो। विनय के मन में जो आश्चर्य-लीला हो रही थी, अति निपुण भाषा से वह उसके रस-वैचित्रय का सूक्ष्म, किंतु गंभीर वर्णन करने लगा। कैसा अपूर्व था जीवन का यह अनुभव! जिस अनिर्वचनीय चीज़ को विनय ने जी भरकर पाया है, वह क्या सभी पा सकते हैं- उसे ग्रहण करने की शक्ति क्या सबमें होती है? विनय कह रहा था, दुनिया में आमतौर पर स्त्री-पुरुष का जैसा मिलन देखा जाता है, उसमें इस तार-स्वर की गूँज तो नहीं सुनाई देती! गोरा उन दोनों की तुलना अन्य लोगों से न करे, यह विनय का अनुरोध था। उसे लग रहा था कि बिल्कुल ऐसी घटना और कभी नहीं घटी होगी- सभी से ऐसा घटित हो सकता होता तो सारा समाज ही प्राणों की हिलोर से चंचल हो उठता, जैसे वसंत के एक झोंके से ही सारी वन-भूमि फूल-पल्लवों से पुलकित हो उठती है। वैसा होने पर लोग ऐसी सरलता से यों खाने-सोने में ही जीवन न बिता देते! जिसमें जितना सौंदर्य, जितनी शक्ति होती, स्वभावतया अनेक रंग-रूप धरकर दिशा-दिशा में खिल उठती। यह तो जादू की छड़ी है-इसके स्पर्श की उपेक्षा करके कौन बेजान पड़ा रह सकता है? यह तो साधारण व्यक्ति को भी असाधारण बना देती है। उस प्रबल असाधारण का स्वाद जीवन में एक बार भी मिल जाए तो जीवन का सच्चा परिचय मिल जाता है।
विनय बोला, “गोरा, मैं तुम्हें विश्वासपूर्वक कहता हूँ, मनुष्य की संपूर्ण प्रकृति को क्षण-भर में जगा देने का साधन यह प्रेम ही है चाहे जिस कारण हो, इस प्रेम का आविर्भाव हम लोगों में दुर्बल होता है और इसीलिए हम सभी अपनी पूरी उपलब्धि से वंचित हो जाते हैं। हममें क्या है, यह हम नहीं जानते। जो भीतर छिपा हुआ है उसे प्रकाश में नहीं ला पाते। जो जमा-पूँजी है उसको खर्च करना हमारे लिए असंभव होता है, इसीलिए चारो और ऐसा निरानंद छाया रहता है- ऐसा निरानंद! इसीलिए यह भी तुम्हारी जैसे दो-एक व्यक्ति ही समझ पाते हैं कि हममें अपने में कोई महत्ता है, साधारण लागों के मन में तो इसकी चेतना ही नहीं होती।”
ज़ोर से जम्हाई लेते हुए महिम बिस्तर से उठकर मुँह धोने जाने लगे तो उनके पैरों की आवाज़ से ही विनय के उत्साह की धारा रुक गई। गोरा से विदा लेकर व चला गया।
छत पर खड़े होकर गोरा ने पूर्व के लाल आकाश की ओर देखकर एक लंबी साँस ली। फिर बहुत देर तक वह छत पर ही टहलता रहा, देहात की ओर उसका जाना न हुआ।
इधर गोरा अपने हृदय के भीतर जिस आकांक्षा का, पूर्णता के जिस अभाव का अनुभव करता रहता था, उसे वह किसी भी तरह पूरा न कर पाता था। वह स्वयं ही नहीं, उसका प्रत्येक काम भी जैसे आकाश की ओर हाथ बढ़ाकर माँग रहा था, ‘प्रकाश चाहिए, एक उज्ज्वल प्रकाश, एक सुंदर प्रकाश।’ मानो और सभी उपकरण प्रस्तुत थे, सोना-चाँदी, हीरा-मोती कुछ भी महँगा नहीं था, वज्र-कवच भी दुर्लभ नहीं थे, केवल आशा और सांत्वना से फूटा हुआ स्निग्ध, सुंदर, अनुराग-रंजित प्रकाश ही कहीं नहीं था! जो कुछ था, उसे बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं थी, केवल उसे चमकाने, लावण्यमय करके प्रकाशित करने की प्रतीक्षा थी।
जब विनय ने कहा कि किसी-किसी दिव्य क्षण में नर-नारी के प्रेम के द्वारा अनिर्वचनीय असाधारण जगमगा उठती है, तब पहले की भाँति गोरा इस बात को मज़ाक में नहीं उड़ा सका। मन-ही-मन उसने स्वीकार किया कि वह मिलन सामान्य मिलन नहीं होता, वह परिपूर्णता होती है, उसके संस्पर्श से सभी चीज़ों का वैभव जाता है, वह कल्पना को शरीर देता है और शरीर में प्राण भर देता है, वह प्राणों के भीतर प्राणान और मन के भीतर मनन को केवल दुगना कर देते हैं, यही नहीं, उन्हें एक नए रस से सराबोर भी कर देते हैं।
विनय के साथ सामाजिक संबंध-विच्छेद के दिन उसका हृदय जैसे गोरा के हृदय में एक अखंड संगीत के सुर जगा गया। विनय चला गया, दिन चढ़ आया, लेकिन वह संगीत बजता ही रहा। समुद्र की ओर बहती हुई दो नदियों के मिलने पर जैसा होता है, वैसे ही गोरा के प्रेम की धारा में विनय के प्रेम की धारा के गिरने पर उसमें तरंगों की टकराहट मुखर हो उठी। जिसे गोरा किसी तरह छिपाकर, बाँधकर दबाकर अपनी ऑंखों से ओझल ही रखने की कोशिश कर रहा था, वह आज कगार तोड़कर स्पष्ट और प्रबल रूप में प्रकट हो उठा और गोरा में आज इतनी शक्ति न रही कि उसे अवैध कहकर उसकी निंदा कर सके, या तुच्छ कहकर उसकी अवज्ञा कर सके।
सारा दिन ऐसे ही बीत गया। अंत में जब तीसरा पहर साँझ में ढला जा रहा था कंधे पर चादर डालकर गोरा बाहर निकल पड़ा। अपने-आप से बोला-जो मेरा ही है उसे मैं लूँगा। नहीं तो मैं पृथ्वी पर असम्पूर्ण ही रहूँगा, व्यर्थ ही हो जाऊँगा।
सारी दुनिया में सुचरिता एक उसी के आह्नान के लिए प्रतीक्षा कर रही है, इसके बारे में गोरा के मन में थोड़ी भी शंका न थी। आज संध्या को ही वह इस प्रतीक्षा को पूर्ण करेगा।
भीड़-भरे कलकत्ता शहर की एक सड़क पर तेज़ी से गोरा बढ़ता गया। उसका मन उसके शरीर का अतिक्रमण होकर कहीं चला गया था, रास्ते-भर उसे वह किसी तरह छू न सका।
सुचरिता के घर के सामने आकर एकाएक गोरा सचेत होकर ठिठक गया। वह इतनी बार वहाँ आया था किंतु आज तक उसने द्वार कभी बंद नहीं देखा था। लेकिन आज वह न केवल उढ़का था, बल्कि धक्का देने पर पता चला कि भीतर से बंद है। गोरा थोड़ी देर खड़ा सोचता रहा, फिर उसने दो-चार बार दरवाज़ा खटखटाया।
बैरा दरवाज़ा खोलकर बाहर आया। साँझ के धुँधले प्रकाश में गोरा को देखते ही कुछ पूछे जाने से पहले ही उसने बताया कि छोटी मालकिन घर पर नहीं है।
“कहाँ गई है?”
“ललिता दीदी के ब्याह के प्रबंध में कुछ दिनों से दूसरे घर में ही हैं”
गोरा ने क्षण-भर के लिए सोच लिया कि वह विनय के विवाह पर पहुँच जाएगा। इसी बीच घर से एक अपरिचित बाबू निकल आए, बोले, “क्यों महाशय, क्या चाहते हैं?”
उसे सिर से पैर तक देखकर गोरा ने कहा, “नहीं, कुछ नहीं चाहता।”
कैलाश ने कहा, “आइए न, ज़रा बैठिए, तम्बाकू पीजिए?”
कोई साथी न होने से कैलाश का समय काटे नहीं कटता था। चाहे कोई हो, किसी एक व्यक्ति को घर के भीतर बिठाकर गप्प करने बैठ सके तो चैन मिले। दिन में तो गली के मोड़ पर हुक्का हाथ में लिए खड़े-खड़े राह चलते लोगों का आना-जाना देखते-देखते किसी तरह वक्त कट जाता है, लकिन शाम को कमरे के भीतर उसका दम घुटने लगता है। हरिमोहिनी के साथ जो कुछ बातचीत करनी थी वह तो सब हो चुकी-हरमोहिनी की बात करने की शक्ति भी तो बहुत क्षीण थी। इसलिए कैलाश निचली मंज़िल में ड्योढ़ी से लगे एक छोटे कमरे में तख्त पर हुक्का लिए बैठे-बैठे बीच-बीच में बैरा को ही बुलाकर उसी के साथ बातें करके वक्त काटता था।
गोरा ने कहा, “नहीं, मैं अभी नहीं बैठ सकता।”
कैलाश फिर अनुरोध करने जा रहा था, लेकिन पलक मारने से पहले गोरा गली के पार निकल गया।
एक धारणा गोरा के मन में गहरी बैठी हुई थी। कि उसके जीवन की अधिकांश घटनाएँ अचानक नहीं होती रहीं, या कम-से-कम केवल उसकी व्यक्तिगत इच्छा से नहीं होती रही। उन सभी में स्वदेश-विधाता का कोई-न-कोई विशेष अभिप्राय रहा है, जिसे पूर्ण करने के लिए ही गोरा का जन्म हुआ है। इसीलिए अपने जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं में भी वह कोई विशेष अर्थ खोजने की चेष्टा करता रहता था। जब आज उसने अपने मन में इतनी बड़ी और इतनी प्रबल आकांक्षा लिए आकर एकाएक देखा कि सुचरिता का दरवाज़ा बंद है, और दरवाज़ा खुलवाने पर सुना कि सुचरिता घर पर नहीं है, तब उसने इसे भी एक विशेष अभिप्रायपूर्ण घटना माना। जो उसका मार्ग-निर्देश करते हैं। उन्होंने अपना निषेध आज इस ढंग से गोरा को जता दिया है। इस जीवन में सुचरिता का द्वार उसके लिए बंद है, सुचरिता उसके पक्ष में नहीं है। गोरा- जैसे मनुष्य का अपनी कामना में बह जाना उचित नहीं है, उसका निज का कोई सुख-दु:ख नहीं है। वह भारतवर्ष का ब्राह्मण है, भारतवर्ष की ओर से उसे देवता की आराधाना करनी होगी, भारतवर्ष की ओर से तपस्या ही उसका काम है आसक्ति-अनुरक्ति उसके लिए नहीं है। मन-ही-मन गोरा ने कहा- विधाता ने आसक्ति का सही रूप मुझे दिखा दिया है। बता दिया है कि वह शुभ्र नहीं है, शांत नहीं है। वह मन की तरह चंचल है, मद की तरह तीव्र है, वह बुध्दि को स्थिर नहीं रहने देती, वह एक चीज़ को किसी दूसरे ही रूप में दिखाती है। मैं सन्यासी हूँ, मेरी साधना में उसका कोई स्थान नहीं हैं।
बीच में कुछ समय वह आत्म-विस्मृत हो गया था, यह स्मरण करके गोरा पहले से भी कठोर हो उठा। वह जो समाज को भूलकर एक प्रबल मोह के वशीभूत हो गया था, इसका मूल कारण उसने नियम-पालन की शिथिलता को ही समझा।
प्रात:कालीन संध्या करके गोरा ने कमरे में आकर देखा, परेशबाबू बैठै हैं। उसके हृदय में एक बिजली-सी कौंध गई। परेशबाबू के साथ उसका जीवन किसी एक सूत्र की गहरी आत्मीयता में बँधा हुआ है, भीतर-ही-भीतर वह इसे स्वीकार किए बिना न रह सका। वह परेशबाबू को प्रणाम करके बैठ गया।
परेशबाबू बोले, “विनय के विवाह की बात तो तुमने ज़रूर सुनी होगी?”
गोरा ने कहा, “हाँ!”
परेशबाबू बोले, “वह ब्रह्म मत से विवाह करने को तैयार नहीं है।”
गोरा ने कहा, “तब तो उसका यह विवाह करना ही ठीक नहीं है।”
परेशबाबू तनिक हँस दिए क्योंकि इस बात पर कोई बहस करने की आवश्यकता उन्होंने नहीं समझी। फिर बोले, “हमारे समाज में से कोई इस विवाह में भाग नहीं लेगा, विनय के घर के लोग भी कोई नहीं आएँगे, ऐसा सुना है। अपनी कन्या की ओर से मैं अकेला हूँ- शायद विनय की ओर से तुम्हारे सिवा कोई नहीं होगा, इसीलिए इस बारे में तुमसे सलाह करने आया हूँ।”
सिर हिलाकर गोरा ने कहा, “इस बारे में मुझसे क्या सलाह होगी- मैं तो इसमें नहीं हूँ।”
विस्मित होकर परेशबाबू ने पल-भर गोरा के चेहरे पर नज़र टिकाकर पूछा, “तुम भी नहीं हो?”
गोरा परेशबाबू के इस विस्मय से थोड़ा-सा लज्जित हुआ लेकिन इस संकोच को छिपाने के लिए ही उससे दुगने ज़ोर से कहा, “मैं इसमें कैसे पड़ सकता हूँ?”
परेशबाबू ने कहा, “मैं जानता हूँ कि तुम उसके बंधु हो, बंधु की ज़रूरत सबसे अधिक क्या ऐसे समय नहीं होती है?”
गोरा ने कहा, “मैं उसका बंधु ज़रूर हूँ, किंतु संसार में वही एकमात्र या सबसे अधिक क्या ऐसे समय नहीं होती है?”
गोरा ने कहा, “मैं उसका बंधु ज़रूर हूँ, किंतु संसार में वही तो एकमात्र या सबसे बड़ा बंधन नहीं है?”
परेशबाबू ने पूछा, “गौर, तुम क्या समझते हो कि विनय के आचरण से कोई अन्याय या अधर्म प्रकट होता है?”
गोरा ने कहा, “धर्म के भी तो दो पक्ष होते हैं- एक नित्य पक्ष और एक लौकिक पक्ष। धर्म जहाँ समाज के नियम में प्रकाशित होता है वहाँ उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती- करने से समाज टूट जाता है।”
परेशबाबू ने कहा- “नियम तो अनगिनत हैं। लेकिन सभी नियमों में धर्म ही प्रकाशित होता है, यह क्या निश्चित मान लेना होगा?”
गोरा के मन को परेशबाबू ने एक ऐसे बिंदु पर छुआ जहाँ उसमें पहले ही से एक मंथन हो रहा था और उस मंथन से एक सिध्दांत भी उपलब्ध हो रहा था। इसलिए जो बातें उसके भीतर उमड़ रही थीं उन्हें परेशबाबू के सामने कह डालने में उसे कोई संकोच नहीं हुआ। उसकी बात का निचोड़ यह था कि अगर हम स्वयं अपने को नियमों के द्वारा समाज के अधीन न कर लेते तो समाज के गहरे भीतरी उद्देश्यों में बाधक हो जाते हैं, क्योंकि वे उद्देश्य गूढ़ होते हैं, उन्हें स्पष्ट देख सकना हर किसी के लिए संभव नहीं होता। इसीलिए हम में यह क्षमता होनी चाहिए कि बिना विचार किए भी समाज को मानते चल सकें।
स्थिर होकर परेशबाबू ने गोरा की बात अंत तक सुनी। जब वह रुक गया और अपनी प्रगल्भता पर कुछ झेंप भी गया, तब परेशबाबू ने कहा, “तुम्हारी बात मोटे तौर पर तो मैं मानता हूँ। यह बात ठीक है कि प्रत्येक समाज में विधाता का एक विशेष अभिप्राय होता है। यह अभिप्राय सभी के सामने स्पष्ट हो ऐसा भी नहीं है। लेकिन उसे स्पष्ट देखने की कोशिश करना ही तो मनुष्य का काम है, पेड़-पौधों की तरह अचेतन भाव से नियम को मानते जाने में तो उसकी सार्थकता नहीं है।”
गोरा ने कहा, “मेरा कहना मात्र यह है कि पहले समाज को सब तरफ से पूरी तरह मानकर चलने से ही समाज के यथार्थ उद्देश्य के बारे में हमारी चेतना निर्मल हो सकती है, उसका विरोध करने से हम सिर्फ उसमें बाधा ही नहीं देते बल्कि उसे ग़लत भी समझते हैं।”
परेशबाबू ने कहा, “विरोध और बाधा के बिना तो सच्चाई की परीक्षा हो ही नहीं सकती। और सत्य की परीक्षा किसी एक प्राचीन समय में मनीषियों के एक गुण के सामने होकर हमेशा के लिए समाप्त हो गई हो, ऐसा नहीं है। हर युग के सामने बाधाओं और विरोधों के बीच से सत्य को नवीन होकर प्रकट होना होगा। जो हो, इन सब बातों को लेकर मैं बहस करना नहीं चाहता। मैं मनुष्य की व्यक्गित स्वाधीनता का पक्षधर हूँ। उसी स्वाधीनता के भाव से हम ठीक-ठीक जान पाते हैं। कि कौन-सा नित्य सत्य है और कौन-सी नश्वर कल्पना। इसी को जानने और जानने की चेष्टा करने पर ही समाज का हित निर्भर करता है।”
परेशबाबू यह कहकर उठ गए। गोरा भी उठ खड़ा हुआ। परेशबाबू ने कहा, “मैंने सोचा था ब्रह्म-समाज के अनुरोध से शायद मुझे इस विवाह से थोड़ा-सा अलग रहना होगा, विनय के मित्र के नाते सारा काम तुम अच्छी तरह सम्पन्न करा दोगे। यहीं पर तो आत्मीयों से मित्र अच्छे रहते हैं- उन्हें समाज का आघात नहीं सहना पड़ता। लेकिन जब तुम भी विनय को त्याग देना ही कर्तव्य समझते हो तब सारा भार मुझ पर ही है, यह काम अकेले मुझको ही निबाहना होगा।”
परेशबाबू के अकेले रहने का अर्थ वास्तव में कितना अकेला है, यह उस समय गोरा नहीं जान सका था। वरदासुंदरी उनके विरुध्द खड़ी हुई थीं,घर की लड़कियाँ भी प्रसन्न नहीं थीं और हरिमोहिनी की आपत्ति के डर से सुचरिता को परेशबाबू ने विवाह के बारे में परामर्श करने के लिए बुलाया ही नहीं था। उधर ब्रह्म-समाज के सभी लोग उनके विरुध्द आक्रामक हो उठे थे और विनय के चाचा से उन्हें जो दो-एक पत्र मिले थे उनमें उन्हें कुटिल, कुचक्री और लड़कों को बिगाड़ने वाला कहकर गालियाँ ही दी गई थीं।
घर में परेशबाबू के बाहर होते ही अविनाश और गोरा के गुट के दो-एक दूसरे सदस्य कमरे में आ गए और परेशबाबू को लक्ष्य करके मज़ाक उड़ाने लगे। गोरा ने कहा, “वह श्रध्दा के पात्र हैं। श्रध्दा करने की क्षमता तुम लोगों में न हो तो कम-से-कम उनका मज़ाक करने के ओछेपन से तो बचो!”
गोरा को फिर से अपने गुट के लोगों के बीच आकर अपने पुराने अभ्यस्त कामों में फँसना पड़ा। लेकिन यह सब नीरस है- कितना नीरस! यह तो कुछ भी नहीं है, इसे काम कहा ही नहीं जा सकता, इसमें कहीं कोई जीवंतता नहीं है! इस तरह केवल लिख-पढ़कर, बातें करके, गुट बाँधकर कोई काम नहीं होता बल्कि निकम्मेपन का ही विस्तार होता जाता है। गोरा के मन में यह बात पहले कभी इतने प्रबल रूप में न आई थी जितनी कि इस समय आई। नई शक्ति से छलकता हुआ उसका जीवन अपने मुक्त बहने के लिए एक नया सत्य-पथ ढूँढ़ रहा था। वह उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था।
इधर प्रायश्चित सभा का आयोजन ज़ोरों से चल रहा था। इस आयोजन में गोरा को विशेष उत्साह था। वह प्रायश्चित केवल जेल की अशुचिता का प्रायश्चित नहीं था, बल्कि इसके द्वारा सभी ओर से संपूर्ण निर्मल होकर जैसे नई देह पाकर वह अपने कर्मक्षेत्र में एक बार फिर नया जन्म लेना चाहता था। प्रायश्चित का विधान ले लिया गया था, दिन भी निश्चित हो गया था, पूर्व और पश्चिम बंग के विख्यात अध्यापकों-पंडितों को निमंत्रण-पत्र भेजे जा रहे थे- गोरा के गुट में जो धनी थे उन्होंने रुपए भी जुटा दिए। गुट के सभी लोग समझते थे कि बहुत दिन बाद देश में एक ढंग का काम होने जा रहा है। अविनाश ने अपने संप्रदाय के सभी लोंगों से चुपके-चुपके सलाह करके तय कर रखा है कि उस दिन सभा में गोरा को सब पंडितों की ओर से फूल-चंदन, धान्य-दूर्वा आदि सब उपचारों के साथ ‘हिंद-धर्म-प्रदीप’ की उपाधि दी जाएगी। इस बारे में संस्कृत में कुछ श्लोक लिखकर,उसके नीचे सभी ब्राह्मण पंडितों के हस्ताक्षर कराकर, सुनहरी स्याही से छपाकर चंदन के बक्स में रखकर उसे उपहार दिया जाएगा, साथ ही मैक्ससूलर द्वारा प्रकाशित ऋग्वेद के खंड को बहुमूल्य चमड़े की जिल्द बँधाकर सबसे प्राचीन और मान्य अध्यापकों के हाथों भारतवर्ष के आशीर्वाद-स्वरूप उसे भेंट कराया जाएगा। इस सबसे यह भाव अत्यंत प्रभावी रूप से प्रकट किया जा सकेगा कि धर्म-भ्रष्टता के आधुनिक युग में गोरा ही वेद-विहित सनातन-धर्म का सच्चा रक्षक है।
उस दिन के कार्यक्रम को अत्यंत प्रीतिकर और फलदायक बनाने के लिए गोरा से छिपकर उसके गुट के लोगों की मीटिंग बराबर चल रही थी।
अपने देवर कैलाश का हरिमोहिनी को एक पत्र मिला था। उसने लिखा था, “श्री चरणों में आशीर्वाद। यहाँ सब मंगल है। अपने कुशल समाचार से हमारी चिंता दूर करें।”
यह कहने की ज़रूरत नहीं कि हरिमोहिनी ने जब से उनका घर छोड़ा था तभी से उन्हें इस चिंता को ढोना पड़ता आ रहा था, लेकिन कुशल समाचार का अभाव मिटाने के लिए अभी तक तो उन्होंने कोई कोशिश नहीं की थी। खुदी, पटल, भजहरि आदि कई लोगों के समाचार देकर अंत में कैलाश ने लिखा था, “जिस पात्री की बात आपने लिखी है उसकी पूरी जानकारी दीजिएगा। आपने लिखा है कि वह बारह-तेरह बरस की होगी लेकिन देखने में बहुत बड़ी दीखती है, इसमें तो कोई हर्ज नहीं है। उसकी जिस संपत्ति की बात आपने लिखी है उस पर अधिकार जीवन-भर का है या कि चिर-स्थाई, इसकी पूरी पड़ताल करके लिखें तो बड़े भाइयों को बताकर उनकी सम्मति ले सकूँगा। यों मैं समझता हूँ कि वे असहमत न होंगे। पात्री की हिंदू धर्म में निष्ठा है, यह सुनकर बेफिक्र हुआ लेकिन इतने दिन वह ब्रह्म घर में पली है, यह बात किसी को पता न लगे इसका ध्यान करना होगा- इसलिए यह बात और किसी को न बताइएगा। अगली पूर्णिमा को चंद्र-ग्रहण है, गंगा-स्नान का योग है, सुविधा हुई तो उसी समय आकर कन्य देख लूँगा।” इतने दिन जैसे-तैसे हरिमोहिनी कलकत्ता में काटती रही थी। लेकिन ससुराल लौट सकने की संभावना के अंकुरित होते ही उनका मन उतावला हो उठा। निर्वासन का एक-एक दिन उन्हें असह्य लगने लगा, इच्छा होने लगी कि तुरंत सुचरिता को कहकर दिन तय करके काम संपन्न कर डालें। लेकिन बहुत जल्दी करने का भी उनका साहस न हुआ। क्योंकि सुचरिता को जितना ही वह निकट से देखती थीं उतना ही समझती जाती थीं कि वह उसे ठीक तरह समझ नहीं सकी है।
हरिमोहिनी मौके की ताक में रहने लगीं और सुचरिता के प्रति पहले से भी अधिक सचेष्ट रहने लगीं, यहाँ तक कि पहले पूजा में भी वह जितना समय लगाती थीं उसमें धीरे-धीरे कमी होने लगी। जैसे सुचरिता को वह थोड़ी देर के लिए भी ऑंखों से ओझल न होने देना चाहती थी।
सुचरिता ने लक्ष्य किया कि सहसा गोरा का आना बंद हो गया है। उसने समझ लिया कि हरिमोहिनी ने गोरा को ज़रूर कुछ कहा होगा। उसने मन-ही-मन कहा- अच्छी बात है, ऐसा ही सही। वह न आएँ, लेकिन वही मेरे गुरु हैं।
जो गुरु ऑंखों के सामने रहता है, उससे अप्रत्यक्ष गुरु का प्रभाव कहीं ज्यादा होता है क्योंकि उस स्थिति में गुरु की उपस्थिति की कमी मन अपने भीतर से ही पूरी तरह लेता है। गोरा सम्मुख होता तो सुचरिता उससे बहस करती, पर अब वह गोरा की रचनाएँ पढ़कर उसके वाक्यों को बिना प्रतिवाद स्वीकार कर लेती। जो समझ न आता मन-ही-मन उसके बारे में सोच लेती, गौर बाबू होते तो ज़रूर समझा देते।
किंतु गोरा की उस तेजस्वी मूर्ति को देखने और उसकी वज्र-गंभीर वाणी सुनने की पिपासा क्या किसी तरह मिट सकती थी? अपनी इस अतृप्त आंतरिक उत्सुकता से सुचरिता भीतर-ही-भीतर घुटने लगी। रह-रहकर एक तीखे दर्द के साथ उसे ध्यान आता, कितने लोग बिना किसी प्रयास के दिन-रात गोरा का दर्शन पा सकते हैं, लेकिन उस दर्शन का कोई महत्व वह नहीं जानते।
एक दिन ललिता ने तीसरे पहर आकर सुचरिता के गले से लिपटकर कहा, “सुचि दीदी!”
सुचरिता ने कहा, “कहो ललिता?”
ललिता ने कहा, “सब निश्चित हो गया है।”
सुचरिता ने पूछा, “कब का निश्चय हुआ?”
ललिता ने कहा, “अगले सोमवार को।”
सुचरिता ने पूछा, “कहाँ?”
सिर हिलाकर ललिता ने कहा, “वह सब तो मैं नहीं जानती, बाबा को पता है।”
बाँह से ललिता को घेरते हुए सुचरिता ने कहा,”तू खुश है न?”
ललिता ने कहा, “खुश क्यों न होऊँगी?”
सुचरिता ने कहा, “तू जो चाहती थी सब तुझे मिल गया, अब किसी से झगड़ा करने को कुछ नहीं रहा- लेकिन मुझे भय लगता है, कहीं इसी से अब तेरा उत्साह ठंडा न पड़ जाए।”
हँसकर ललिता ने कहा, “क्यों, झगड़ा करने के लिए किसी की कमी क्यों होगी? अब तो बल्कि ढूँढ़ने घर से बाहर भी नहीं जाना पड़ेगा।”
तर्जनी से ललिता का गाल दबाते हुए सुचरिता ने कहा, “यह बात है! अभी से इस सबकी भी तैयारी हो रही है। तब तो मैं विनय से कह दूँगी,अब भी समय है, वह बेचारा सँभल सकता है।”
ललिता ने कहा, “अब तुम्हारे बेचारे को सँभलने का अवसर नहीं मिलने का। अब उसका छुटकारा नहीं है। जन्मपत्री में जो मुसीबत लिखी थी वह फल रही है, अब तो माथा पीटने के सिवा कोई चारा नहीं है!”
गंभीर होकर सुचरिता ने कहा, “मुझे कितनी प्रसन्नता हो रही है बता नहीं सकती, ललिता! विनय जैसे स्वामी के तू योग्य हो सके, यही मैं प्रार्थना करती हूँ।”
ललिता बोली, “वाह! क्यों नहीं! जैसे मेरे योग्य तो किसी को होना नहीं होगा। इस बारे में उन्हीं से एक बार पूछकर देख लो न। एक बार उनकी राय सुन लो, फिर तुम्हें भी पछतावा होगा कि इतनी बड़ी अचरज-भरी हस्ती का स्नेह पाकर भी इतने दिनों तक तुमने अपने सौभाग्य की पहचना-कितनी अंधी हो रही थीं।”
सुचरिता ने कहा, “चलो खैर, अब तो एक जौहरी मिल गया न। जब सही दाम लगाने वाला मिल गया तब किस बात का खेद- अब हम जैसे अनाड़ियों से स्नेह माँगने की ज़रूरत ही नहीं होगी।”
ललिता ने कहा, “होगी कैसे नहीं? बहुत होगी।” कहते-कहते उसने सुचरिता के गाल पर इतने ज़ोर की चुटकी काटी कि वह ‘उफ’ कर उठी।”तुम्हारे स्नेह की ज़रूरत मुझे बराबर होगी। मुझे धोखा देकर वह और किसी को देने से नहीं चलेगा।”
ललिता के गाल से अपना गाल सटाते हुए सुचरिता ने कहा, “किसी को नहीं दूँगी, किसी को नहीं दूँगी।”
ललिता ने पूछा, “किसी को नहीं? या बिल्कुल किसी को भी नहीं?”
सुचरिता ने केवल सिर हिला दिया। तब कुछ अलग हटकर बैठती ललिता बोली, “देखो भई सुचि दीदी, तुम तो जानती हो तुम्हारा और किसी को प्यार करना मैं कभी नहीं सह सकती थी। अब तक मैंने तुमसे नहीं कहा, आज कहती हूँ- गौरमोहन बाबू जब हमारे घर आते थे- नहीं, दीदी, ऐसा करने से नहीं चलेगा, मुझे जो कहना है आज मैं कहकर ही रहूँगी-तुमसे मैंने कभी कुछ नहीं छिपाया, लेकिन न जाने क्यों यह एक बात तुमसे किसी तरह नहीं कह सकी और इसके लिए बराबर पीड़ा पाती रही हूँ। यह बात कहे बिना मैं तुमसे विदा लेकर नहीं जा सकूँगी। गोरमोहन बाबू जब हमारे घर आते थे तब मुझे बड़ा गुस्सा आता था- क्यों आता था? तुम सोचती थीं, कि मैं कुछ समझती नहीं। मैंने देखा था, तुम मेरे सामने उनका नाम भी नहीं लेती थीं। इससे मुझे और भी गुस्सा आता था। तुम उन्हें मुझसे भी ज्यादा प्यार करो यह मैं सह नहीं सकती थी…. नहीं दीदी, मुझे कहने दो-और इससे मुझे कितना कष्ट होता था यह मैं अब क्या बताऊँ। आज भी तुम मुझसे वह बात नहीं करोगी अगर तुम्हारा…. “
हड़बड़ाकर सुचरिता ने ललिता का मुँह बंदर करते हुए कहा, “ललिता, तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ, वह बात ज़बान पर न ला। उसे सुनकर मेरा धरती में समा जाने को मन हो उठता है।”
ललिता ने कहा, “क्यों भई, उन्होंने क्या….?”
छटपटाकर सुचरिता ने कहा, “नहीं-नहीं। ललिता, पागलों की-सी बात मत कर। जो बात सोची भी नहीं जा सकती वह कहनी भी नहीं चाहिए।”
सुचरिता के इस संकोच पर बिगड़ते हुए ललिता ने कहा, “लेकिन भई, यह तो तुम्हारी ज्यादती है। मैंने खूब देखा है और दावे से कह सकती हूँ कि….”
ललिता से हाथ छुड़ाकर सुचरिता कमरे से बाहर निकल गई। ललिता ने पीछे-पीछे दौड़ते हुए जाकर उसे पकड़ लिया और वापस लाते हुए कहा, “अच्छा-अच्छा, और मैं कुछ नहीं कहती।”
सुचरिता ने कहा, “फिर कभी मत कहना!”
ललिता ने कहा, “इतनी बड़ी प्रतिज्ञा तो मुझसे नहीं निभ सकती। कहने का दिन आएगा तो कहूँगी, नहीं तो नहीं कहूँगी, बस इतना वायदा कर सकती हूँ।”
उधर हरिमोहिनी कुछ दिनों से बराबर सुचरिता पर नज़र रखती थीं और उसके पीछे-पीछे घूमती रहती थी। सुचरिता सब समझती थी और हरिमोहिनी की यह शंकापूर्ण सतर्कता उसके मन पर एक बोझ-सी बनी रहती थी। वह भीतर-ही-भीतर छटपटाती रहती लेकिन कह कुछ भी न पाती थी। आज ललिता के चले जाने के बाद बहुत थका-टूटा मन लेकर सुचरिता मेज़ पर दोनों हाथों के बीच सिर टेककर रोने लगी। बैरा कमरे में बत्ती जलाने आ रहा था, इशारे से उसे रोक दिया। वह समय हरिमोहिनी की संध्या-वंदना का था। लेकिन हरिमोहिनी ने ऊपर से ही ललिता को जाते हुए देखकर एकाएक नीचे उतरकर सुचरिता के कमरे में आकर पुकारा, “राधारानी!”
छिपाकर ऑंसू पोंछती हुई सुचिता जल्दी से उठ खड़ी हुई।
हरिमोहिनी ने पूछा, “क्या हो रहा है?”
सुचरिता ने कोई उत्तर नहीं दिया।
कठोर स्वर में हरिमोहिनी ने पूछा, “यह सब क्या हो रहा है, मेरी कुछ समझ में नहीं आता।”
सुचरिता ने कहा, “मौसी! क्यों दिन-रात तुम मुझ पर इस तरह निगरानी रखती हो?”
हरिमोहिनी ने कहा, “निगरानी क्यों रखती हूँ, यह क्या तुम नहीं समझतीं? यह जो खाना-पीना छोड़ रखा है और रोती हो, ये किस तरह के लच्छन हैं? मैं बच्ची तो नहीं हूँ, मैं क्या इतना भी नहीं समझती?”
सुचरिता ने कहा, “मैं तुमसे कहती हूँ मौसी, तुम कुछ भी नहीं समझतीं। तुम इतना गलत समझती हो कि मेरे लिए पल-पल और असह्य होता जाता है।”
हरिमोहिनी ने कहा, “अच्छी बात है, मैं गलत ही समझती सही, अब तुम्हीं ठीक समझा दो न!”
पूरा ज़ोर लगाकर सुचरिता ने अपना संकोच दूर करते हुए कहा, “अच्छा, लो मैं कहती हूँ- मैंने गुरु से एक ऐसी बात पाई है जो मेरे लिए नई है, उसे पूरी तरह हृदयंगम करने के लिए बड़ी शक्ति चाहिए, उसी का अभाव मुझे खटकता है। आपसे झगड़ा करते-करते मैं ऊब गई हूँ। लेकिन मौसी,हमारे संबंध को तुमने बहुत विकृत करके देखा है, तुमने उन्हें अपमान करके निकाल दिया है- तुमने उन्हें जो कुछ कहा है सब गलत है, मेरे बारे में जो सोचा है सब भ्रम है। तुमने बड़ा अन्याय किया है! उन जैसे व्यक्ति को नीचे गिराना तो तुम्हारे वश की बात नहीं है, पर मुझ पर तुमने ऐसा अत्याचार क्यों किया- मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? कहते-कहते सुचरिता का गला रुँध गया और वह दूसरे कमरे में चली गई।
हरिमोहिनी हतबुध्दि-सी खड़ी रहीं। उन्हांने मन-ही-मन कहा-बाप रे, ऐसी बातें तो मैंने सात जन्म में नहीं सुनीं।
सुचरिता के मन को कुछ शांत होने का समय देकर हरिमोहिनी उसे भोजन के लिए बुला ले गईं। उसके खाने बैठने पर बोली, “देखो राधारानी,मेरी उम्र कोई ऐसी कम नहीं है। हिंदू-धर्म में जो कुछ कहा गया है वह बचपन से करती रही हूँ, और विस्तार से सब सुन भी चुकी हूँ। तुम यह सब जानती नहीं, इसीलिए तुम्हारा गुरु बनाकर गौरमोहन तुम्हें फुसला रहा है। मैंने भी उसकी कुछ बातें सुनी हैं- उनमें तत्व असल में कुछ नहीं है, वह शास्त्र उसका खुद का गढ़ा हुआ है। यह बात तो हम लोग समझ सकते हैं न, जिन्होंने गुरु से उपदेश पाया है! राधारानी, मैं तुमसे कहती हूँ, तुम्हें यह सब करने की आवश्यकता नहीं है, जब समय होगा तो मेरे जो गुरु हैं वो ऐसे नकली नहीं हैं- वही तुम्हें मंत्र देंगे। तुम डरो मत, मैं तुम्हें हिंदू-समाज में खींच लाऊँगी। ब्रह्म-घर में थीं तो क्या हुआ? वह बात जानेगा ही कौन? तुम्हारा कद कुछ बड़ा हो गया है ज़रूर, लेकिन ऐसी तो बहुत लड़कियाँ होती हैं जो जल्दी ही बड़ी लगने लगती हैं, फिर कोई तुम्हारी जन्म-पत्री देखने थोड़े जाएगा? और पास में जब पैसा है तो कहीं कोई मुश्किल नहीं होगी, सब चल जाएगा! केवट का बेटा कायस्थ बन गया, यह तो मैंने अपनी ऑंखों से देखा है। मैं हिंदू-समाज में ऐसे सद्ब्राह्मण के घर तुम्हें पहुँचा दूँगी कि किसी की कुछ कहने की हिम्मत न होगी, वही तो समाज के अगुआ हैं। इसलिए तुम्हें इस गुरु की साधना में यों रो-रोकर मरने की कोई ज़रूरत नहीं है।”
जब हरिमोहिनी ये बातें विस्तार से बखान रही थीं तब सुचरिता की कुछ खाने की इच्छा कब की मर चुकी थी और उसके गले से कौर जैसे नीचे नहीं उतर रहा था। फिर भी वह चुपचाप हठ करके खाती रही, क्योंकि वह जानती थी, उसके कम खाने की बात को लेकर टीका-टिप्पणी होगी उससे उसका कोई भला नहीं होगा।
हरिमोहिनी ने सुचरिता की ओर से जब कोई संकेत नहीं पाया तो मन-ही-मन बोलीं- मैं भरपाई इन लोगों से! इधर हिंदू-हिंदू की रट लगाकर रो रही है, उधर इतने अच्छे सुयोग की बात सुनकर अनसुनी कर देती है! प्रायश्चित नहीं करना होगा, कोई सफाई नहीं देनी होगी, केवल इधर-उधर दो-चार रुपए खर्च करके सहज ही समाज में आ जाएगी- इस पर भी जिसे उत्साह न हो और अपने को कहे हिंदू। गोरा कितना बड़ा छली है यह हरिमोहिनी पहले ही समझ चुकी थीं, फिर भी इस सब छलछंद का उद्देश्य क्या हो सकता है, यह सोचने पर उन्हें यही जान पड़ा कि सारे मामले की जड़ में सुचरिता की सम्पत्ति और उसका रूप-यौवन ही होगा। कन्या का और उसके साथ-साथ कंपनी के कागज़ आदि का उध्दार करके उन सबको जल्दी-से-जल्दी ससुराल रूपी दुर्ग में बंद कर लेने में ही कल्याण है। लेकिन सुचरिता के मन को इसके लिए अभी थोड़ा और गलाना होगा, नहीं तो वह मानेगी नहीं। इसी के यत्न मैं हरिमोहिनी सुचरिता के सामने दिन-रात अपनी ससुराल का बखान करने लगीं। उनका कितना असाधारण प्रभाव है,समाज में वे लोग कैसे असंभव को संभव बना सकते हैं, अनेक उदाहरण देकर हरिमोहिनी यह बताने लगीं। उनका विरोध करने जाकर कितने निष्कलंक लोग भी समाज से अपमानित हुए हैं, और उनके शरणागत होकर कितने लोग मुसलमान के हाथ की मुर्गी खाकर भी हिंदू-समाज का दुर्गम मार्ग हँसी-खुशी पार कर गए हैं- इन सब घटनाओं को नाम-धाम का ब्यौरा देकर हरिमोहिनी ने बिल्कुल विश्वसनीय बना दिया।
सुचरिता उनके घर न आया करे, अपनी यह इच्छा वरदासुंदरी ने उससे छिपाई नहीं थी, क्योंकि उन्हें अपनी स्पष्टवादिता पर गर्व था। जब भी किसी के प्रति वह नि:संकोच कठोरता का व्यवहार करती थीं तभी अपने इस गुण की घोषणा किया करती थीं। इसलिए सुचरिता वरदासुंदरी के घर में किसी तरह के सम्मान की आशा नहीं कर सकती, यह उन्होंने उसे बड़े स्पष्ट शब्दों मे जता दिया था। सुचरिता जानती थी कि उसके उनके घर आने-जाने से परेशबाबू को बहुत कष्ट उठाना पड़ जाएगा। इसीलिए जब तक बहुत ही आवश्यक न हो जाए वह उनके घर नहीं जाती थी, और इसीलिए रोज़ परेशबाबू दो-एक बार स्वयं सुचरिता के घर आकर उसे देख जाते थे।
कुछ दिन से कई चिंताओं और काम की व्यस्तता के कारण परेशबाबू सुचरिता के घर नहीं आ सके थे। इन दिनों प्रतिदिन सुचरिता बड़ी व्यग्रता के साथ उनके आने की प्रतीक्षा कर रही थी, लेकिन मन-ही-मन संकुचित भी थी। परेशबाबू के साथ उसके गहरे मंगल का संबंध कभी टूट नहीं सकता, यह वह निश्चय जानती थी, लेकिन बाहर के दो-एक सूत्र जो उसे खींच रहे थे उनका दंश भी उसे चैन न लेने देता था। इधर हरिमोहिनी उसके जीवन को दिन-पर-दिन असह्य बनाए दे रही थीं। अंत में सुचरिता वरदासुंदरी की नाराज़गी का सामना करने की सोचकर परेशबाबू के घर चली गई। तीसरे पहर का सूर्य उस वक्त पश्चिम की ओर के तिमंज़िले मकान की आड़ में होकर एक लंबी छाया फैला रहा था, उसी छाया में सिर झुकाए परेशबाबू अपने बगीचे में धीरे-धीरे अकेले टहल रहे थे।
पास जाकर सुचरिता भी उनके साथ-साथ चलने लगी। बोली, “बाबा, कैसे हो?”
एकाएक अपनी सोच में बाधा पाकर परेशबाबू थोड़ी देर ठिठकर एकटक राधारानी के चेहरे की ओर देखते रहे फिर बोले, “अच्छा हूँ, राधो!”
दोनों फिर टहलने लगे। परेशबाबू ने कहा, “सोमवार को ललिता का विवाह है।”
सुचरिता सोच रही थी, वह पूछेगी कि इस विवाह में उसे किसी तरह की सलाह या सहायता के लिए क्यों नहीं बुलाया गया, किंतु झिझक भी रही थी क्योंकि अब उनकी ओर से भी कहीं कुछ बाधा आ खड़ी हुई थी। नहीं तो पहले तो वह बुलाए जाने के लिए बैठी भी न रहती!
मन-ही-मन सुचरिता जो सोच रही थी, उसकी बात परेशबाबू ने स्वयं उठाई। बोले, “इस बार तुम्हें नहीं बुला सका, राधो?”
सुचरिता ने पूछा, “क्यों, बाबा?”
परेशबाबू सुचरिता के इस प्रश्न का कोई उत्तर न देकर चेहरे की पड़ताल करते रहे। सुचरिता से और न रहा गया, सिर झुकाकर उसने कहा, “तुम सोच रहे होगे कि मेरे मन में एक परिवर्तन आ गया है।”
परेशबाबू ने कहा, “हाँ, इसीलिए सोचा तुमसे किसी तरह का अनुरोध करके तुम्हें संकट में नहीं डालना चाहिए।”
सुचरिता ने कहा, “बाबा, मैंने सोचा था कि सारी बात तुम्हें बताऊँगी, लेकिन इधर मिलना ही नहीं हुआ। इसीलिए आज मैं खुद आई हूँ। अपने मन की बात बहुत अच्छी तरह तुम्हें समझा सकने की क्षमता तो मुझमें नहीं है- डर लगता है, कहीं कुछ अनुचित न कह जाऊँ!”
परेशबाबू बोले, “मैं जानता हूँ ये सब बातें स्पष्ट करके कहना इतना आसान नहीं है। तुमने कोई चीज़ केवल भाव रूप में पाई है, उसका अनुभव तो करती हो उसका आकार-प्रकार तुम्हारे सामने स्पष्ट नहीं हुआ है।”
कुछ आश्वस्त होकर सुचरिता ने कहा, “हाँ, ठीक यही बात है। किंतु मेरा अनुभव कितना प्रबल है, यह तुम्हें कैसे बताऊँ! मैंने जैसे एक नया जीवन पाया है, एक नई चेतना। अपने को मैंने इस कोण से, इस ढंग से पहले कभी नहीं देखा। मेरे साथ अब तक मेरे देश के अतीत और भविष्य का कोई संबंध ही नहीं था। लेकिन वह संबंध कितना बड़ा और कितना यथार्थ है यह बात मैंने आज अपने हृदय में इतने आवर्श्यजनक रूप से पहचानी है कि किसी तरह भूल नहीं सकती। बाबा, मैं सच कहती हूँ, पहले कभी मैं यह नहीं कह सकती थी कि मैं हिंदू हूँ। लेकिन अब मेरा मन बिना संकोच के और बल देकर कहता है, मैं हिंदू हूँ।’ इससे मुझे एक अपूर्व आनंद भी होता है।”
परेशबाबू ने पूछा, “इस बात के हर अंश और हर पहलू पर विचार किया है?”
सुचरिता बोली, “पर विचार करने की क्षमता मुझमें कहाँ है? लेकिन इसके बारे में मैंने बहुत पढ़ा है और बहुत चर्चा भी की है। मैंने पूरी चीज़ को जब तक उसके सही और विस्तृत रूप में देखना नहीं सीखा था, तब तक मैं जिसे हिंदू कहा जाता है उसकी छोटी-छोटी बातों को ही बहुत बढ़ाकर देखती थी- उससे मेरे मन में समूची चीज़ के प्रति भारी घृणा जागती थी।”
उसकी बात सुनकर परेशबाबू को कुछ आश्चर्य हुआ। वह स्पष्ट समझ सके कि सुचरिता के मन में एक नए बोध का संचार हो रहा हैं उसने कोई सत्य-वस्तु पाई है, इसीलिए उसमें आत्म-विश्वास जाग रहा है। ऐसी बात नहीं है कि वह कुछ समझे बिना मुग्ध-सी किसी अस्पष्ट आवेश के प्रवाह में बही जा रही है।
सुचरिता ने कहा, “बाबा, मैं यह बात क्यों कहूँ कि मैं अपने देश और जाति से विच्छिन्न एक तुच्छ मनुष्य हूँ? यह क्यों न कहूँ कि ‘मैं हिंदू हूँ’।”
हँसकर परेशबाबू ने कहा, “यानी तुम मुझसे ही पूछ रही हो कि मैं स्वयं को हिंदू क्यों नहीं कहता। सोचकर देखा जाय तो इसका कोई बहुत विशेष कारण तो नहीं है। यों एक कारण यह है कि हिंदू मुझे हिंदू नहीं मानते, दूसरा कारण यह है कि मेरा धर्म-विश्वास जिन लोगों से मिलता है वे अपने को हिंदू नहीं कहते।”
चुप होकर सुचरिता सोचने लगी। परेशबाबू बोले, “यही तो मैंने कहा ही कि ये कोई विशेष कारण नहीं है, ये तो केवल ऊपरी बातें हैं। ऐसी बाधाओं को अमान्य भी किया जा सकता है। लेकिन एक गंभीर कारण भीतर का भी है। हिंदू-समाज में प्रवेश पाने का कोई मार्ग नहीं है। कम-से-कम बड़ा दरवाज़ा नहीं है, खिड़कियाँ-झरोखे हो सकते हैं। हिंदू-समाज समुची मानव-जाति का समाज नहीं है- केवल उन्हीं का समाज है जो दैवयोग से हिंदू होकर जन्म लेते हैं।”
सुचरिता ने कहा, “ऐसे तो सभी समाज होते हैं।”
परेशबाबू “नहीं, कोई बड़ा समाज ऐसा नहीं है। मुसलमान समाज का सिंहद्वार मनुष्य-मात्र के लिए खुला है, ख्रिस्तान समाज भी सभी का स्वागत करता है। जो कई-एक और समाज ख्रिस्तान समाज के अंग हैं, उन सबमें भी यही बात है। मैं यदि अंग्रेज होना चाहूँ तो एक एकदम असंभव बात नहीं है- इंग्लैंड में रहकर मैं उनके नियम से चलकर अंग्रेज़ समाज में शामिल हो सकता हूँ, यहाँ तक कि उसके लिए मुझे ख्रिस्तान होने की भी आवश्यकता नहीं है। अभिमन्यु व्यूह में केवल घुसना जानता था, उससे निकलना नहीं; हिंदू उससे ठीक उल्टा हैं उसके समाज में घुसने का रास्ता बिल्कुल बंद है, निकलने के रास्ते सैकड़ों-हज़ारों हैं।”
सुचरिता ने कहा, “लेकिन बाबा, फिर भी तो अब तक हिंदू समाप्त नहीं हुआ- उनका समाज तो अभी बना हुआ है।”
परेशबाबू ने कहा, “समाज का क्षय होना परख में समय लगता है। पुराने समय में हिंदू-समाज की खिड़कियाँ खुली थीं। उन दिनों इस देश की अनार्य जातियाँ हिंदू-समाज में प्रवेश पाकर एक गौरव का अनुभव करती थीं। इधर मुसलमानो के राज में भी देश में प्राय: सभी जगह हिंदू राजों-रजवाड़ों का प्रभाव अधिक था, इसलिए समाज से किसी के निकल जाने के विरुध्द नियम-बंधनों की कमी न थी। अब अंग्रेज़ के राज्य में सभी कानून के द्वारा रक्षित हैं, अब वैसे कृत्रिम उपायों से समाज के द्वारा पर साँकल लगाए रखने का उतना अवसर नहीं है- इसीलिए कुछ समय से यही देखने में आ रहा है कि भारतवर्ष में हिंदू कम हो रहे हैं और मुसलमा बढ़ रहे हैं, यदि यही क्रम रहा तो धीरे-धीरे देश मुसलमान-प्रधान हो जाएगा,तब इसे हिंदूस्तान कहना ही ग़लत होगा।”
व्यथित होकर सुचरिता ने कहा, “बाबा, क्या इसका निवारण करना हम सबका कर्तव्य नहीं है? हम लोग भी हिंदू-समाज का परित्याग करके उसे और क्षीण कर दें? जबकि यही तो प्राणों की समूची शक्ति से उसे पकड़े रहने का समय है।
सुचरिता की पीठ स्नेह से थपथपाते हुए परेशबाबू ने कहा, “हम लोग क्या इच्छा मात्र से ही किसी को पकड़कर जिलाए रख सकते हैं? रक्षा पाने का एक जगद्व्यापी नियम है- जो भी उस स्वाभाविक नियम को छोड़ता है उसे सभी स्वभाविक छोड़ देते हैं। हिंदू-समाज मनुष्य का अपमान करता है, निषेध करता है, इसलिए आजकल के समय में उसके लिए आत्मरक्षा कर सकना प्रतिदिन कठिनतर होता जाता है, क्योंकि अब और ओट में नहीं रह सकता- अब दुनिया में चारों ओर मार्ग खुद गए हैं, चारों ओर से लोग उस पर बढ़े आ रहे हैं- अब शास्त्र-संहिता के बाँध बनाकर या दीवारें खड़ी करके वह अपने को किसी प्रकार भी दूसरों के संपर्क से अछूता नहीं रख सकता। अब भी अगर हिंदू-समाज अपने भीतर ग्रहण करने की शक्ति नहीं जगाता और क्षय को ही प्रश्रय देता चलता है, तो बाहर के लोगों का यह अबाध संपर्क उसके लिए एक सांघातिक चोट साबित होगा।”
दु:खी स्वर में सुचरिता ने कहा, “मैं यह सब ज़रा नहीं समझती, लेकिन अगर यही सच हो कि आज सभी उसे छोड़ रहे हैं, तो ऐसे मौके पर मैं तो उसे नहीं छोडूंगी। हम इसके दुर्दिन की संतान हैं, इसलिए हमें तो और भी उसके सिरहाने खड़े रहना होगा!”
परेश बाबू ने कहा, “बेटी, तुम्हारे मन में जो भाव जाग उठा है उसके खिलाफ मैं कोई बात नहीं कहूँगा। तुम उपासना करके, मन को स्थिर करके, तुम्हारे भीतर जो सत्य है, श्रेय का जो आदर्श है उसी से मिलाकर सारी बात पर विचार करके देखो, अपने आप तुम्हारे सामने सब बातें धीरे-धीरे स्पष्ट होती जाएँगी। जो सबसे बड़े हैं उन्हें देश की या किसी मनुष्य की तुलना में छोटा न करो- वैसा करने में न तुम्हारा मंगल है, न देश का। मैं तो ऐसा ही मानकर एकांत-भाव से उन्हीं के सामने आत्म-समर्पण करना चाहता हूँ, इसी से मैं देश के और प्रत्येक व्यक्ति के प्रति सहज ही सच्चा हो सकूँगा।”
एक आदमी ने आकर इसी समय एक चिट्ठी परेशबाबू के हाथ में दी। परेशबाबू बोले, “चश्मा नहीं है, रोशनी भी कम हो गई है- तुम्हीं पढ़कर सुना दो ज़रा।”
सुचरिता ने चिट्ठी पढ़कर सुना दी। चिट्ठी ब्रह्म-समाज की एक कमेटी की ओर से आई थी, नीचे बहुत से ब्रह्म लोगों के हस्ताक्षर थे। पत्र का भाव यही था कि परेशबाबू ने अब्रह्म-पध्दति से अपनी कन्या के विवाह की अनुमति दे दी है और उस विवाह में स्वयं भी योग देने को तैयार हुए हैं, ऐसी हालत में ब्रह्म-समाज उन्हें अपनी सदस्य-श्रेणी में किसी प्रकार नहीं रख सकता। उन्हें अपनी ओर से यदि कुछ कहना हो तो आगामी रविवार से पहले उनका पत्र कमेटी के पास पहुँच जाना चाहिए- उस दिन विचार करके बहुमत से अंतिम निर्णय कर लिया जाएगा।
चिट्ठी लेकर परेशबाबू ने जेब में रख ली। सुचरिता उनका दाहिना हाथ अपने हाथ में लेकर चुपचाप उनके साथ-साथ टहलने लगी। धीरे-धीरे सघन घनी हो गई और बगीचे के दाहिनी ओर गली में एक बत्ती जल गई। सुचरिता ने मृदु स्वर में कहा, “बाबा, तुम्हारी उपासना का समय हो गया, आज मैं तुम्हारे साथ उपासना पर बैठूँगी।”
यह कहती हुई सुचरिता उन्हें हाथ पकड़े-पकड़े उपासना के कमरे में ले गई, जहाँ आसन पहले से बिछा हुआ था और एक मोमबत्ती जल रही थी। आज परेशबाबू बहुत देर तक एकांत उपासना करते रहे। अंत में एक छोटी प्रार्थना के बाद वह उठ खड़े हुए।
उहोंने बाहर आते ही देखा, उपासना-गृह की देहरी के पास ही ललिता और विनय चुपचाप बैठे हैं। उन्हें देखते ही दोनों ने प्रणाम किया और उनकी चरण रज ली। परेशबाबू ने उनके सिर पर हाथ रखकर मन-ही-मन आशीर्वाद दिया। सुचरिता से बोले, “बेटी, कल मैं तुम्हारे घर आऊँगा, आज अपना काम पूरा कर लूँ।” यह कहते हुए वह अपने कमरे में चले गए। सुचरिता की ऑंखों से उस समय ऑंसू झर रहे थे। निस्तब्ध प्रतिमा-सी वह चुपचाप बरामदे के अंधकार में खड़ी रही। ललिता और विनय भी बहुत देर तक कुछ नहीं बोले। जब सुचरिता जाने लगी तब विनय ने उसके सामने आकर मृदु स्वर में कहा, “दीदी, तुम हमें आशीर्वाद नहीं दोगी?”
विनय के यह कते-कहते उसके साथ ललिता ने भी सुचरिता को प्रणाम किया। रुँधे हुए गले से सुचरिता ने जो कुछ कहा उसे केवल अंतर्यामी ही सुन सके।
परेशबाबू ने अपने कमरे में आकर ब्रह्म-समाज की कमेटी को पत्र लिखा। उसमें उन्होंने लिखा-
“ललिता का विवाह मुझको ही संपन्न करना होगा। इसके लिए आप मेरा बहिष्कार कर दें तो आपका यह निर्णय अन्यायपूर्ण नहीं होगा। इस समय ईश्वरसे मेरी एकमात्र यही प्रार्थना है कि मुझे सभी समाजों के आश्रय से बाहर निकालकर केवल अपने चरणों में स्थान दें।”
परेशबाबू से जो कुछ सुचरिता ने सुना था वह गोरा को बताने के लिए उसका मन उत्सुक हो उठा। गोरा जिस भारतवर्ष की ओर उसकी दृष्टि को खींचना चाहते थे, जिसकी ओर उसके मन को प्रबल प्रेम से आकृष्ट करना चाहते थे, इतने दिन बाद वह भारतवर्ष अब काल के हाथों में पड़ गया है और क्षय के मुँह में जा रहा है, यह बात क्या गोरा ने नहीं सोची? अब तक भारतवर्ष अपनी अभ्यांतर व्यवस्था के बल पर ही बचा रहा है-भारतवासी को इसके लिए सतर्क होकर प्रयत्न नहीं करना पड़ा। किंतु अब क्या यों निश्चिंत रहने का समय है? आज क्या पहले की तरह केवल पुरातन व्यवस्था के भरोसे बैठे रहा जा सकता है?
सुचरिता सोचने लगी- उसमें मेरा भी तो कहीं कुछ कर्तव्य है- वह कर्तव्य क्या है? गोरा को चाहिए था कि इसी क्षण उसके सामने आकर उसे आदेश देता, उसे मार्ग दखाता। मन-ही-मन सुचरिता ने कहा- यदि मेरी सारी अड़चनों और अज्ञान से मेरा उध्दार करके मुझे मेरे सही स्थान पर खड़ा कर देते तो क्या क्षुद्र लोक-लज्जा और निंदा-अपवाद से होने वाली कमी भी पूरी न हो जाती? उसका मन आत्म्-गौरव से भर उठा। उसने स्वयं से पूछा- गोरा ने क्यों उसकी परीक्षा नहीं ली, क्यों उसे कोई असाध्य काम नहीं सौंपा? गोरा के गुट के इतने सब पुरुषों में कौन ऐसा है जो सुचरिता की तरह यों अनायास अपना सब-कुछ उत्सर्ग कर दे सके? आत्म-त्याग की ऐसी आकांक्षा और शक्ति की कोई उपयोगिता गोरा ने नहीं देखी! उसे लोक-लज्जा की बेड़ियों में बँधी हुई कर्महीनता में फेंक देने से क्या देश की ज़रा भी हानि नहीं होगी? सुचरिता ने इस अवज्ञा को अस्वीकार करके दूर हटा दिया। उसने कहा-यह हो ही नहीं सकता कि वह मुझ ऐसे छोड़ दें। मेरे पास उन्हें आना ही होगा, मुझे खोजना ही होगा, सब लज्जा और संकोच उन्हें छोड़ना ही होगा- वह चाहे जितने बड़े चाहे जितने शक्तिमान हों, उन्हें मेरी ज़रूरत है, उन्होंने यह बात एक दिन अपने मुँह से कही थी-आज लोगों की थोड़ी-सी बकवास के कारण यह बात वह कैसे भुला सकते हैं?
दौड़ते हुए आकर सतीश ने सुचरिता से सटकर खड़े होते हुए कहा, “दीदी!”
उसके गले में बाँह डालते हुए सुचरिता ने पूछा, “क्यों भाई, बक्त्यार!”
सतीश ने कहा, “सोमवार को ललिता दीदी का ब्याह है कुछ-एक दिन मैं विनय बाबू के घर जाकर रहूँगा। उन्होंने मुझे बुलाया है।”
सुचरिता ने पूछा, “मौसी से कहा है?”
सतीश ने कहा, “मौसी से कहा तो वह बिगड़कर बोली, मैं यह सब कुछ नहीं जानती, जा अपनी दीदी से पूछ, वह जो ठीक समझेंगी वही होगा। दीदी, तुम इंकार मत करना! मेरी पढ़ाई का वहाँ ज़रा हर्ज नहीं होगा, मैं रोज़ पढँगा, विनय बाबू बता देंगे।”
सुचरिता ने पूछा, “काम-काज वाले घर में जाकर तू सबको तंग करेगा!”
छटपटाकर सतीश ने कहा, “नहीं दीदी, मैं ज़रा भी तंग नहीं करूँगा।”
सुचरिता ने फिर पूछा, “अपने कुत्ते खुदे को भी वहाँ ले जाएगा क्या?”
सतीश ने कहा, “हाँ, उसको भी ले जाना होगा, विनय बाबू ने ख़ास तौर से कहा है। उसके नाम अलग से लाल कागज़ पर छपा हुआ निमंत्रण-पत्र आया है-उसमें लिखा है, उसे सपरिवार जल-पान करने आना होगा।”
सुचरिता ने पूछा, “उसका परिवार कौन है?”
फौरन सतीश ने कहा, “क्यों, विनय बाबू ने तो कहा है, मैं हूँ। उन्होंने वह आर्गन भी लेते आने को कहा है, वह मुझे दे देना- मैं तोड़ूँगा नहीं।”
सुचरिता ने कहा, “तोड़ दे तो छुट्टी हो! लेकिन अब समझ में आया- अपने विवाह में आर्गन बजाने के लिए ही तेरे बंधु ने तुझे बुलाया है! मालूम होता है, शहनाई वालों के पैसे बचाना ही उनका मतलब है!”
सुचरिता ने कहा, “दिन-भर उपवास करना होता है।”
इस पर सतीश ने बिल्कुल विश्वास नहीं किया। तब सुचरिता ने सतीश को गोद में खींचते हुए पूछा, “अच्छा बक्त्यार, बड़ा होकर तू क्या बनेगा,बता तो?”
सतीश के मन में इसका जवाब तैयार था। उसकी कक्षा के शिक्षक ही उसके लिए अबाध सत्ता और असाधारण पांडित्य के आदर्श थे- उसने पहले से ही मन-ही-मन तय कर रखा था कि बड़ा होकर वह मास्टर मोशाय बनेगा।
सुचरिता ने कहा, “भाई, बहुत काम करने को है। दोनों भाई-बहन का काम हम दोनों मिलकर करेंगे- क्या राय है, सतीश! अपने देश को प्राण देकर भी बड़ा बनाना होगा। नहीं, बना तो खैर क्या बनाना होगा-हमारे देश-जैसा बड़ा और कौन है! हमें अपने प्राणों को ही बड़ा बाना होगा। जानता है- समझा कुछ?”
‘नहीं समझा,’ सतीश यह बात स्वीकार करने वाला नहीं है। उसने ज़ोर देकर कहा, “हाँ!”
सुचरिता ने कहा, “हमारा देश, हमारी जाति कितनी बड़ी है, जानता है? यह तुझे मैं कैसे समझाऊँ? हमारा देश एक आश्चर्य है। कितने हज़ारों वर्षों से विधाता का आयोजन इस देश को दुनिया में सबसे ऊपर प्रतिष्ठित करने का रहा है, देश-विदेश के कितने लोंगों ने आकर इस आयोजन में योग दिया है, देश में कितने महापुरुषों ने जन्म लिया है, कितने महायुध्द हुए हैं, कितने महाकाव्य यहाँ उच्चरित हुए हैं, कितनी महातपस्या यहाँ हुई हैं, इस देश ने कितनी दिशाओं से धर्म को देखा है और जीवन की समस्या के कितने समाधन इसने प्रस्तुत किए हैं! ऐसा है हमारा यह भारतवर्ष! तू इसे बहुत महान मानना भाई- कभी भूलकर भी इसकी अवज्ञा मत करना। आज तुझे जो कह रही हूँ वह एक दिन तुझे समझना ही होगा-हालाँकि आज भी मैं यह नहीं सोचती कि तू कुछ भी नहीं समझता, किंतु यह बात तुझे याद रखनी होगी कि तू एक बहुत बड़े देश में जन्मा है, और सच्चे हृदय से तुझे इस देश पर श्रध्दा करनी है और अपना सारा जीवन लगाकर इस महान देश का काम करना है।”
थोड़ी देर चुप रहकर सतीश बोला, “दीदी, तुम क्या करोगी?”
सुचरिता ने कहा, “मैं भी यही करूँगी। तू मेरी मदद करेगा न?”
फौरन सतीश ने छाती फुलाकर कहा, “हाँ, करूँगा!”
जो बातें सुचरिता के मन में उमड़ रही थीं उन्हें सुनने वाला घर में तो कोई नहीं, इसीलिए अपने इस छोटे भाई को सम्मुख पाकर उसी पर उसका सारा संचित आवेग उमड़ पड़ा। उसने जिस भाषा में और जो कुछ कहा वह एक बालक के लिए उपयुक्त तो नहीं था। लेकिन उससे सुचरिता संकुचित नहीं हुई। अपने मन की उस उत्तेजित स्थिति में उसने यह मान लिया था कि जो उसने स्वयं समझा है उसे पूरी तरह कह डालने से ही छोटे-बड़े सब अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार जैसे-तैसे उसकी बात समझ ही लेंगे। उसे दूसरे के समझने लायक बनाने के लिए उसमें से कुछ भी रोक रखने से उसकी सच्चाई विकृत हो जाएगी।
सतीश की कल्पना गतिशील हो उठी। वह बोला, “बड़े होकर मेरे पास जब बहुत-बहुत पैसा होगा तब….”
सुचरिता ने कहा, “नहीं-नहीं-नहीं! पैसे की बात मत कर! बख्त्यार, हम दोनों को पैसे की आवश्यकता नहीं है- जो काम हमें करना है उसके लिए भक्ति चाहिए, प्राण चाहिए।”
इसी समय आनंदमई आ पहुँचीं। उन्हें देखकर सुचरिता की धमनियों का रक्त मानो नाच उठा। उसने आनंदमई को प्रणाम किया। सतीश को ठीक से प्रणाम करना नहीं आता था, झेंपते हुए किसी तरह उसने काम निबटा लिया।
सतीश को गोद में खींचकर आनंदमई ने उसका माथा चूमा और सुचरिता से कहा, “तुम्हारे साथ कुछ सलाह करने आई हूँ, बेटी- तुम्हारे सिवा और कोई दीखता नहीं। विनय का कहना है कि ब्याह उसके घर में ही होगा, लेकिन मैंने कहा, वह किसी तरह नहीं हो सकेगा- वह क्या ऐसा बड़ा नवाब है कि हमारे घर की लड़की यों सीधी उसके घर आकर उससे ब्याह करेगी? वह नहीं होगा। मैंने एक और घर तय किया है, वह वह तुम्हारे घर से अधिक दूर नहीं है। मैं अभी वहीं से आ रही हूँ। परेशबाबू को कहकर तुम राज़ी कर लेना!”
सुचरिता ने कहा, “बाबा राज़ी हो जाएँगे।”
आनंदमई बोलीं, “उसके बाद बेटी तुम्हें भी वहाँ आना होगा। इसी सोमवार को तो ब्याह ही है- इन्हीं दो-चार दिनों में हमें वहाँ सब कुछ ठीक-ठाक कर लेना होगा। समय अब अधिक नहीं है। मैं अकेली ही सब कर सकती हूँ, लेकिन तुम्हारे शामिल न होने से विनय को बड़ा दु:ख होगा। वह अपने मुँह से तुमसे नहीं कह पा रहा है, यहाँ तक कि मेरे सामने भी उसने तुम्हारा नाम नहीं लिया- पर इसी से मैं समझ सकती हूँ कि इस बात को लेकर उसके मन में बड़ा क्लेश है। तुम्हारे अलग रहने से नहीं चलेगा बेटी, ललिता को भी उससे बड़ा दु:ख होगा।”
कुछ विस्मित होकर सुचरिता ने पूछा, “माँ, तुम क्या इस ब्याह में योग दे सकोगी?”
आनंदमई ने कहा, “यह क्या कह रही हो, सुचरिता! योग देना कैसा? मैं क्या कोई गैर हूँ कि सिर्फ योग देने जाऊँगी? यह तो मेरे विनय का ब्याह है। यहाँ तो मुझको ही सब करना होगा। लेकिन मैंने विनय से साफ कह दिया है कि इस ब्याह में मैं उसकी कोई नहीं हूँ, मैं कन्या-पक्ष की हूँ। वह ललिता से ब्याह करने मेरे घर आ रहा है।”
इस शुभ कर्म में माँ के रहते ही ललिता को उसकी माँ ने छोड़ दिया है, इससे आनंदमई का हृदय उसके प्रति करुणा से भर उठा था। इस कारण वह इस बात की पूरी कोशिश कर रही थी कि विवाह के समय अनादर या अवज्ञा का कोई चिह्न न दीखे। उनका यही संकल्प था कि वही ललिता की माँ का स्थान लेकर अपने हाथों से उसे सजाएँगी, वर के स्वागत की व्यवस्था करेंगी- निमंत्रित किए गए दो-चार जन यदि आएं तो उनके स्वागत-सत्कार में कोई कमी नहीं होने देंगी, और उस नए घर को ऐसे सजा देंगी जिससे आते ही वह ललिता को एक बसे हुए घर-सा लगे।
सुचरिता ने पूछा, “तुम्हें लेकर इस सबसे कोई हंगामा नहीं उठ खड़ा होगा?”
महिम ने घर-घर जो हाय-तोबा मचा रखी थी उसको याद करते हुए आनंदमई ने कहा, “हो भी सकता है, पर उससे क्या? थोड़ा-बहुत हंगामा तो होता ही रहता है, चुपचाप सह लेने से अपने-आप थोड़े दिन में शांत भी हो जाता है।”
गोरा विवाह में शामिल नहीं हो रहा है, यह आनंदमई जानती थी। सुचरिता यह जानने के लिए उत्सुक थी कि उसने आनंदमई को रोकने की भी चेष्टा की या नहीं, लेकिन उनसे साफ-साफ नहीं पूछ सकी। आनंदमई ने गोरा का नाम तक नहीं लिया।
हरिमोहिनी को ख़बर मिल गई थी। किंतु वह आराम से हाथ का काम पूरा करके ही कमरे में आईं। आते ही बोलीं, “दीदी, अच्छी तो हो? आईं नहीं, खबर भी नहीं ली।”
अभियोग का उत्तर न देकर आनंदमई ने सीधे कहा, “तुम्हारी भानजी को लेने आई हूँ।”
उन्होंने अपना उद्देश्य स्पष्ट बता दिया। अप्रसन्न चेहरा लिए हरिमोहिनी थोड़ी देर चुप रहीं, फिर बोलीं, “मैं तो इसमें नहीं पड़ सकती।”
आनंदमई ने कहा, “नहीं बहन, मैं तुम्हें आने को नहीं कहती। सुचरिता के लिए तुम फिक्र न करो- मैं तो वहाँ उसके साथ ही रहूँगी।”
हरिमोहिनी ने कहा, “तो मैं स्पष्ट ही कहूँ। राधारानी तो सबसे कहती हैं कि वह हिंदू हैं, अब उनकी मति-गति भी हिंदू धर्म की ओर पलट रही है। तो अब अगर उन्हें हिंदू-समाज में आना है तो सावधान होकर रहना होगा। यों भी तो कितनी बातें उठेंगी, उन्हें तो खैर किसी तरह मैं सँभाल लूँगी, लेकिन अब से कुछ दिन तक इन्हें बहुत सँभलकर पाँव रखना चाहिए। पहले ही लोग पूछते हैं, इतनी उम्र हो गई, इसका ब्याह क्यों नहीं हुआ- उसे किसी प्रकार टाल दिया जा सकता है- ऐसी बात तो है नहीं कि प्रयत्न करने से अच्छा पात्र नहीं मल सकता- लेकिन वह अगर फिर अपना पुराना रवैय्या अपनाएगी तो मैं कहाँ-कहाँ सँभालूँगी, तुम्हीं बताओ। तुम तो स्वयं हिंदू घर की लड़की हो, तुम तो सब समझती हो, तुम ही किस मुँह से ऐसी बात कह सकती हो भला? तुम्हारी अपनी लड़की होती तो क्या उसे इस विवाह में भेज सकतीं, तुम्हें भी तो सोचना पड़ता कि लड़की का ब्याह कैसे होगा?”
विस्मित होकर आनंदमई ने सुचरिता की ओर देखा। उसका चेहरा ज़ोर से तमतमा उठा। आनंदमई ने कहा, “मैं कोई ज़ोर डालना नहीं चाहती। सुचरिता को अगर ऐतराज हो तो मैं…. “
हरिमोहिनी बोल उठीं, “तुम लोगों की बात मुझे तो कुछ भी समझ नहीं आती। तुम्हारा ही लड़का तो उन्हें हिंदू-मत की ओर ले जाता रहा है,अब तुम एकाएक कौन-से आसमान से टपक पड़ीं?”
कहाँ गईं वह हरिमोहिनी, जो परेशबाबू के घर में सदा अपराधिनी-सी सकुचाई रहती थी, किसी को ज़रा भी अनुकूल पाकर जो बड़े आग्रह से उसी का अवलंबन करने लगती थीं? आज वह अपने अधिकार की रक्षा के लिए बाघिन-सी उठ खड़ी हुई थी। यह शंका उन्हें हमेशा चौकन्ना किए रहती थी कि उनकी सुचरिता को उनसे फोड़ लेने के लिए चारों ओर अनेक विरोध शक्तियाँ काम कर रही हैं। कौन पक्ष में है, कौन विपक्ष में, यही वह नहीं समझ पा रही थीं और इसी कारण उनका मन आश्वस्त नहीं होता था। पहले सारे संशय को शून्य देखकर उन्होंने व्याकुल मन से जिस देवता का आश्रय लिया था उसकी पूजा में भी उनका मन अब स्थिर नहीं हो पाता था। एक दिन उनकी वृत्ति घोर संसारी थी, जब दारुण शोक से उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ था तब उन्होंने सोचा भी नहीं था कि फिर किसी दिन उनमें रुपए-पैसे, घर-बार, आत्मीय-परिजन के लिए ज़रा भी आसक्ति हो सकेगी। लेकिन आज हृदय का घाव थोड़ा-सा भरते ही फिर उसने सम्मुख आकर उनके मन को खींचना आरंभ कर दिया था-एक बार फिर सारी आशाएँ-आकांक्षाएँ अपनी पुरानी भूख लेकर पहले-जैसी जाग उठी थीं जिनका कभी वह त्याग कर आई थी। उसी की ओर लौटने का वेग इतना उग्र हो उठा था कि वह अपने गृहस्थी के दिनों से भी ज्यादा बेचैन हो उठी थीं। इतने थोड़े दिनों में ही हरिमोहिनी का चेहरा, ऑंखें, भाव-भंगी बातचीत और व्यवहार में ऐसा अकल्पनीय परिवर्तन देखकर आनंदमई एकाएक चकित हो उठीं और उनका स्नेह पूर्ण कोमल हृदय सुचरिता के लिए चिंतित हो उठा। यदि वह जानतीं कि भीतर-ही-भीतर कोई संकट छिपा हुआ है तो वह सुचरिता को बुलाने कभी न आतीं। लेकिन अब सुचरिता को कैसे चोट से बचाया जा सकता है यही उनके लिए एक समस्या हो गई।
गोरा को लक्ष्य करके हरिमोहिनी ने जो बात कही उस पर सुचरिता सिर झुकाए चुपचाप उठकर कमरे से चली गई।
आनंदमई ने कहा, “डरो मत, बहन! मैं पहले नहीं जानती थी। खैर, और उस पर ज़ोर नहीं डालूँगी। तुम भी उसे और कुछ मत कहो! वह अब तक एक ढंग से रहती आई है, अब एकाएक उस पर अधिक दबाव डालने से वह नहीं सह सकेगी।”
हरिमोहिनी ने कहा, “यह क्या मैं समझती- इतनी उम्र क्या यों ही हो गई। वह तुम्हारे सामने ही कहे न? क्या मैंने उसे कभी कोई कष्ट दिया है। जो वह चाहती है वही तो करती है, मैं कभी कोई बात नहीं कहती। मैं तो यही कहती हूँ, भगवान उसे सलामत रखें, मेरे लिए वही बहुत है। मेरा जैसा भाग्य है, कब क्या हो जाएगा, इसी के भय से मुझे तो नींद नहीं आती।”
आनंदमई के जाने के समय अपने कमरे से निकलकर सुचरिता ने उन्हें प्रणाम किया। आनंदमई ने करुणा-भरे स्नेह से उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहा, “मैं फिर आऊँगी बेटी, तुम्हें सब ख़बर दे जाऊँगी- कोई विघ्न नहीं होगा, भगवान के आर्शीवाद से सब शुभ ही संपन्न होगा।”
सुचरिता कुछ नहीं बोली।
दूसरे दिन सबेरे लछमिया को साथ लेकर आनंदमई ने नए घर की बहुत दिनों की जमी हुई धूल झाड़-पोंछकर धो डालने के लिए ज़ोरों से पानी बहा रही थीं तब एकाएक सुचरिता आ पहुँची। जल्छी से आनंदमई ने झाड़ू फेंककर उसे छाती से लगा लिया।
इसके बाद धोने-पोंछने, सामान इधर-उधर हटाने और सजाने का काम ज़ोरों से होने लगा। खर्च के लिए परेशबाबू ने सुचरिता को यथोचित रुपया दे दिया था-इसी पूँजी को ध्यान में रखकर दोनों-बार-बार सूचियाँ बनाकर उसमें काट-छाँट करने लग गईं।
थोड़ी देर बाद ही स्वयं परेशबाबू ललिता को साथ लेकर आ पहुँचे। ललिता के लिए अपना घर असह्य हो उठा। कोई उससे बात करने का साहस नहीं करता था, किंतु सबकी चुप्पी ही रह-रहकर उसे पीड़ा पहुँचाती थी। अंत में वरदासुंदरी के प्रति सहानुभूति प्रकट करने के लिए जब उनके बंधु-बांधवों के झुंड घर पर आने लगे, तब परेशबबू ने ललिता को वहाँ से हटा ले जाना ही उचित समझा। जाते समय ललिता वरदासुंदरी को प्रणाम करने गई, वह मुँह फेकरकर बैठी रहीं ओर उसके चले जाने पर ऑंसू बहाने लगीं। ललिता के विवाह के बारे में लावण्य और लीला भी मन-ही-मन काफी उत्सुक थीं- उन्हें किसी तरह अनुमति मिल सकती तो क्षण-भर भी देरी किए बिना वे दौड़ी आतीं। लेकिन ललिता जब विदा लेकर जाने लगी तब दोनों ब्रह्म-परिवार का कर्तव्य स्मरण करके गंभीर चेहरा बनाए रहीं। डयोढ़ी पर ललिता ने क्षण-भर के लिए सुधीर को भी देखा, लेकिन उसके पीछे ही उनके समाज के कुछ बुजुर्ग भी थे, इसलिए वह उससे कोई बात न कर पाई। गाड़ी पर सवार होकर उसने देखा, सीट पर एक कोने में काग़ज़ में लिपटा हुआ कुछ रखा था। उसने खोलकर देखा, जर्मन सिल्वर का एक फूलदान था, जिस पर अंग्रेज़ी में खुदा हुआ था ‘आनंदित दंपति को भगवान आशीर्वाद दें’ और एक कार्ड पर सुधीर के नाम पर पहला अक्षर-मात्र लिखा उसके साथ रखा हुआ था। ललिता ने मन कड़ा करके प्रण किया था कि ऑंखों में ऑंसू नहीं आने देगी, किंतु विदा के क्षण में अपने बाल्य-बंधु का यह एकमात्र स्नेहोपहार हाथ में लिए-लिए उसकी ऑंखों से झर-झर ऑंसू झरने लगे। परेशबाबू ऑंखें मूँदकर चुपचाप बैठे रहे।
“आओ, आओ बेटी”, कहती हुई आनंदमई ललिता को दोनों हाथों से पकड़कर कमरे में खींच लाईं, जैसे अब तक वे उसी की राह देख रही थीं।
सुचरिता को बुलाकर परेशबाबू ने कहा, “ललिता हमारे घर से एकबारगी विदा लेकर आई है।” उनका स्वर काँप उठा।
परेशबाबू का हाथ पकड़ते हुए सुचरिता ने कहा, “बाबा, यहाँ उसे स्नेह की कोई कमी नहीं होगी।” जब परेशबाबू जाने को खड़े हुए तब आनंदमई ने माथे पर ऑंचल खींचकर उनके सामने आकर उन्हें नमस्कार किया। हड़बड़ाकर परेशबाबू ने प्रतिनमस्कार किया तो आनंदमई ने कहा, “ललिता की ओर से आप किसी प्रकार की फिक्र न करें। जिसके हाथ उसे आप सौंप रहे हैं उससे उसे कभी कोई कष्ट नहीं होगा। और भगवान ने इतने दिनों बाद मेरी भी एक मनोकामना पूरी कर दी- मेरी कोई बेटी नहीं थी, सो मुझे मिल गई। विनय की बहू आने से मेरी कन्या की कमी दूर हो जाएगी, इसकी आस लगाए मैं बहुत दिनों से बैठी थी- भगवान ने मेरी यह कामना जितनी देर से पूरी की उतनी ही अच्छी बेटी मुझे दी, और ऐसे अद्भुत ढंग से दी कि मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि मेरा इतना बड़ा सौभाग्य होगा।”
ललिता के विवाह की हलचक आरंभ होने के समय से परेशबाबू के मन को पहली बार संसार में कहीं एक किनारा दीखा और आत्मिक सांत्वना मिली।
जेल से आने के बाद सारे दिन गोरा के पास इतनी भीड़ लगी रहती थी कि उनकी स्तुति, प्रशंसा और चर्चा-आलोचना की अजस्र धारा में गोरा का दम घुटने लगा और उसके लिए घर में रहना मुश्किल हो गयां इसलिए गोरा ने फिर पहले की तरह गाँवों का भ्रमण आरंभ कर दिया।
कुछ खाकर सबेरे ही वह घर से निकल जाता और देर रात को लौटता। रेल पर सवार होकर कलकत्ता के आस-पास के किसी स्टेशन पर उतरकर वह देहात में घूमता रहता। वहाँ भी कुम्हार, तेली-केवट आदि मुहल्लों में आतिथ्य ग्रहण करता। यह विशालकाय गौर-वर्ण ब्राह्मण क्यों उनके घरों में यों भटकता है, उनका दु:ख-सुख पूछता है, यह उनकी समझ में नहीं आता था, यहाँ तक कि उनके मन में तरह-तरह के संदेह भी उठते थे। लेकिन गोरा उनके सारे संकोच-संदेह की उपेक्षा करके उनके बीच विचरण करता। बीच-बीच में कुछ खरी-खोटी भी उसे सुनना पड़ जातीं, लेकिन उससे भी वह हतोत्साहित न होता।
ज्यों-ज्यों इन लोगों के भीतर वह प्रवेश पाता गया त्यों-त्यों एक ही बात उनके मन में चक्कर काटने लगी। उसने देखा, इन देहातों में समाज के बंधन पढ़े-लिखे भद्र समाज से कहीं अधिक सख्त हैं। हर घर के खान-पान, उठने-बैठने और हर काम-काज पर समाज की निरंकुश दृष्टि जैसे दिन-रात निगरानी रखती थीं। लोकाचार पर हर किसी का सहज विश्वास था और उसके बारे में किसी के मन में कभी कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। लेकिन समाज के बंधन और आचार-निष्ठा से किसी को कर्म-क्षेत्र में कोई योग मिलता भी नहीं दीख पड़ता था। इन लोगों जैसा डरपोक, असहाय, अपना भला-बुरा सोचने में असमर्थ कोई और जीव भी दुनिया में कहीं हो सकता, है, इसमें गोरा को संदेह होता था। ये लोग भी दुनिया में कहीं हो सकते हैं,इसमें गोरा को संदेह होता था। ये लोग जैसे लकीर पीटते हुए चलने के अलावा कोई मंगल ही नहीं पहचानते थे, न समझाने पर समझते ही थे। उनके लिए दंड और वर्गवाद द्वारा बँधे रहना ही सबसे बड़ी बात थी, क्या-क्या उन्हें नहीं करना है और करने पर उसके लिए कैसा दंड मिलेगा, इसी के विचार ने जैसे उनकी प्रकृति को सिर से पैर तक एक जाल में फाँस रखा था- लेकिन यह जाल राजा के बंधन का नहीं था; बल्कि महाजन का बंधन था, ऋण का बंधन था। इन लोगों में ऐसा कोई सूत्र नहीं था जो सुख-दु:ख और विपत्ति में उन्हें कंधे-से-कंधा मिलाकर खड़ा कर सके। गोरा यह सुने बिना न रह सका कि इसी आचार के अस्त्र से मानव, मानव का रक्त चूसकर निष्ठुरता से उसका सब कुछ छीने ले रहा था। उसने बार-बार लक्ष्य किया कि सामाजिक कर्म में कोई किसी पर ज़रा भी दया नहीं करता। एक व्यक्ति का बाप बहुत लंबी बीमारी से कष्ट भोग रहा था, बाप के इलाज और पत्थ्य की व्यवस्था में बेचारे का सब कुछ लुट चुका था, पर इसके लिए उसकी किसी ने कोई मदद नहीं की- उलटे गाँव के लोगों ने निर्णय किया कि बाप की लंबी बीमारी किसी अज्ञान पाप का फल थी जिसके लिए बेटे को प्रायश्चित करना होगा। उस अभागे की दरिद्रता और बेचारगी किसी से छिपी न थी, किंतु फिर भी उसे क्षमा न मिल सकी। सभी कर्मों में यही हालत थी। जैसे गाँव के लिए डकैती की अपेक्षा पुलिस की जाँच-पड़ताल अधिक बड़ी दुर्घटना थी, वैसे ही माँ-बाप की मृत्यु की अपेक्षा माँ-बाप श्राध्द ही संतान के लिए अधिक बड़ा दुर्भाग्य था। आय अथवा सामर्थ्य की कमी की बात सुनने को कोई राज़ी नहीं था- जैसे भी हो समाज की हृदयहीन माँग अक्षरश: पूरी करनी होगी। विवाह के अवसर पर लड़की के पिता का भार दु:सह हो उठे, उसके लिए वर-पक्ष द्वारा हर तरह की कुचेष्टा की जाती थी और अभागे को कहीं से मदद नहीं मिलती थी। गोरा ने देखा,यह समाज मनुष्य को ज़रूरत पड़ने पर मदद नहीं देता था, विपत्ति आने पर सहारा नहीं देता था, सिर्फ दंड देकर उसे नीचा दिखाकर और दरिद्र ही करता था।
भद्र समाज के बीच रहते हुए गोरा इस बात को भूल गया था, क्योंकि सबके मंगल के लिए एक होकर खड़े होने की प्रेरणा उस समाज में बाहर से मिलती रहती थी। इस समाज में एक जगह मिल सकने के लिए तरह तरह के उद्योग होते दीखते रहते थे। इनमें विचारणीय बात यही थी कि ये सारे उद्योग कहीं इसीलिए विफल न हो जाएँ कि सभी-एक दूसरे की नकल कर रहे ।
लेकिन देहात में, बाहर की शक्तियों का दबाव जहाँ उतना नहीं पड़ रहा था, वहाँ की निश्चेष्टता में ही गोरा ने अपने देश की सबसे बड़ी दुर्बलता का बिल्कुल नग्न रूप देखा। जो धर्म सेवा के रूप में, प्रेम के रूप में, करुणा के रूप में, आत्म-त्याग के रूप में और मानव के प्रति श्रध्दा के रूप में सबको शक्ति देता है, प्राण देता है, सबका मंगल करता है, वह वहाँ कहीं नहीं दीखता था- और जो आचार केवल रेखाएँ खींचता है, विभाजन करता है,कष्ट देता है, बुध्दि की भी कोई परवाह नहीं करता और प्रेम को भी दूर ही रखता है, वही चलते-फिरते, उठते-बैठते, हर किसी के हर काम में अड़ंगा लगाता रहता है। मूर्खता-भरी रूढ़िवादिता के भयानक दुष्परिणाम गोरा को इन देहातों में काफी स्पष्ट और विभिन्न रूपों में दीखने लगे। वह देखने लगा कि मनुष्य के स्वास्थ्य, ज्ञान, धर्म-बुध्दि कर्म, सभी पर इतनी ओर से इतने प्रकार का आक्रमण हो रहा है कि उसके लिए अपने को भावुकता के इंद्रजाल में भुलाए रखना असंभव हो गया है।
आरंभ में ही गोरा ने देखा कि गाँव की नीच जातियों में स्त्रियों की संख्या की कमी के कारण या अन्य किसी भी कारण से एक बहुत बड़ी रकम देकर ही विवाह के लिए लड़की मिलती थी। अनेक पुरुषों को आजीवन और अनेकों को बड़ी उम्र तक अविवाहित रह जाना पड़ता था। उधर विधवा-विवाह का कड़ा निषेध था। इससे समाज का स्वास्थ्य घर-घर में दूषित हो रहा था और इससे होने वाली बदनामी और अनिष्ट को हर कोई महसूस भी करता था। सभी हमेशा के लिए इस बुराई को सहते चलने के लिए विवश थे, इसका इलाज या प्रतिकार करने की कोशिश कोई नहीं कर रहा था। जो गोरा शिक्षित समाज में आचार के बंधन को कहीं शिथिल होने देना नहीं चाहता था, वही यहाँ आचार का विरोध करने लगा। उसने इनके पुरोहितों को भी मना लिया लेकिन समाज के लोगों को किसी तरह राज़ी न कर सका- बल्कि वे गोरा पर बिगड़ उठे। उन्होंने कहा, “ठीक है, जब-ब्राह्मण विधवा-विवाह करने लगेंगे तब हम भी मान लेंगे।”
उनके नाराज होने का मुख्य कारण यही था कि वे समझते थे गोरा उन्हें निम्न-जात का समझकर उनकी अवज्ञा कर रहा है, और यही प्रचार करने आया है कि उन जैसे नीच लोगों के लिए हीन आचार ही उपयुक्त है।
गोरा ने देहातों में घूमते हुए यह भी देखा कि मुसलमानो में ऐसी चीज़ थी जिसके कारण वे एक हो सकते थे। गोरा ने लक्ष्य किया था कि गाँव पर कोई विपत्ति आने पर मुसलमान लोग जिस तरह कंधे-से-कंधा मिलाकर खड़े होते थे, हिंदू नहीं हो पाते थे। बार-बार गोरा सोचता था, इन दोनों निकटतम पड़ोसी समाजों के बीच इतना बड़ा अंतर क्यों मौजूद है? इस प्रश्न का जो उत्तर उसके मन में पैदा होता उसे वह किसी तरह मानना नहीं चाहता था। यह मानने में उस बड़ा कष्ट हो रहा था कि मुसलमान केवल आचार से नहीं धर्म से एक हैं। एक तरफ जहाँ आचार के बंधनों ने उनके सारे कर्म को व्यर्थ बाँधकर नहीं रखा था वहाँ दूसरी तरफ धर्म का बंधन उनमें घनिष्ठ एकता बनाए रखता था। उन सबने मिलकर एक ऐसी रीति को अपनाया था जो केवल ‘ना’ नहीं थी, ‘हाँ’ भी थी, जो ऋणात्मक नहीं थी, धानात्मक थी, जिसके लिए मनुष्य एक ही पुकार पर पल-भर में एक पंक्ति में खड़े होकर अनायास प्राण तक न्यौछावर कर सकते थे।
गोरा जब भद्र समाज में लेख लिखता था, व्याख्यान देता था, दलील देता था, तब वह दूसरों को समझाने के लिए अपने पथ पर लाने के लिए स्वाभावत: अपनी बातों को कल्पना के मनोहर रंगों से रंग देता था। जो स्थूल था उसे वह सूक्ष्म व्याख्याओं से ढँक देता था, जो निरा अनावश्यक भग्नावशेष-मात्र था उसे भी वह चमक से मढ़कर आकर्षक बनाकर दिखाता था। देश के लोगों का एक गुट देश से विमुख था- देश की हर बात उसे घटिया दीखती थी इसीलिए गोरा देश के प्रति प्रबल अनुराग से भरकर स्वदेश को इस ममत्वहीन दृष्टि से बचाने के लिए, देश की हर बात उज्ज्वल आवरण से ढँक देने की चेष्टा करता रहा था। वह इसी का अभ्यस्त हो गया था। यह बात नहीं थी कि गोरा केवल वकील की भाँति यह सिध्द करना चाहता था कि उसके पक्ष का सभी कुछ अच्छा है, या कि जो दोष दीखता है वह भी एक प्रकार के गुण ही है। इस पर गोरा सच्चे मन से विश्वास करता था। बिल्कुल असंभव मुद्दों पर भी वह अपने इस विश्वास को हेकड़ी के साथ झंडे की तरह विरोधियों के सामने फहराता हुआ खड़ा हो जाता था। उसकी केवल एक रट थी कि पहले स्वदेश के प्रति स्वदेशवासियों की श्रध्दा लौटा लानी होगी, और सब बातें पीछे होंगी।
किंतु वह जब देहातों में आता तब उसके सामने कोई श्रोता नहीं होता था, न सिध्द करने को कुछ होता था, न विरोध पक्ष की अवज्ञा को नीचा दिखाने के लिए शक्ति जुटाने का कोई प्रयोजन होता था। इसलिए सत्य को वहाँ किसी तरह के आवरण के भीतर से देखने की आवश्यकता नहीं थी। देश के प्रति उसके प्रेम की प्रबलता ही उसकी सत्य दृष्टि को असाधारण रूप से तीक्ष्ण बना देती थी।
टसर का कोट पहने, कमर में चादर लपेटे, हाथ में कैन्वस का झोला लिए स्वयं कैलाश ने आकर हरिमोहिनी को प्रणाम किया। उम्र कोई पैतीस के लगभग, ठिगना और गठा हुआ शरीर, रूखा और भारी चेहरा, कई दिनों से बढ़ी हुई दाढ़ी घास के अंकुरों-सी झलक रही थी।
ससुराल के आत्मीय को बहुत दिन के बाद देखकर हरिमोहिनी प्रसन्न हो उठीं। “अरे देवर आए हैं! बैठो, बैठो!” कहते-कहते जल्दी से उन्होंने चटाई बिछा ही दी। फिर पूछा, “हाथ-पाँव धोओगे?”
कैलाश ने कहा, “नहीं, कोई ज़रूरत नहीं है। अच्छा, तुम्हारा स्वास्थ्य तो अच्छा ही दीख पड़ता है।”
मानो स्वास्थ्य अच्छा होने का अपमान की बात मानकर हरिमोहिनी बोलीं, ‘कहां अच्छा है!” और बीमारियों की सूची गिनाती हुई बोलीं, “थ्कसी तरह पिंड छूटे तो चैन मिले-मौत भी तो नहीं आती।”
जीवन के प्रति ऐसी उपेक्षा पर कैलाश ने अपनी आपत्ति प्रकट की। बड़े भाई नहीं रहे फिर भी उन सबको हरिमोहिनी के रहने से कितना बड़ा सहारा है, इसके प्रमाण स्वरूप उसने कहा, “यह क्यों नहीं देखतीं कि तुम हो तभी तो कलकत्ता आना हो सका; कहीं खड़े होने की जगह तो मिली।”
घर के सब लोगों और गाँव-बिरादरी के सामचार पूरे ब्यौरों के साथ सुनाकर सहसा कैलाश ने चारों ओर नज़र डालकर पूछा, “तो यह घर उसी का है?”
हरिमोहिनी ने कहा, “हाँ।”
कैलाश बोला, “घर तो पक्का है!”
उसका उत्साह बढ़ाने के लिए हरिमोहिनी ने कहा, “पक्का तो है ही। सब पक्का है।”
कैलाश ने निरीक्षण करके यह देख लिया कि सब शहतीर मज़बूत साल की लकड़ी के हैं और खिड़कियाँ-दरवाजे भी आम की लकड़ी के नहीं हैं। दीवारें डेढ़ ईंट की हैं या दो ईंट की यह भी उसकी नज़र से नहीं छुपा। ऊपर-नीचे कुल मिलाकर कितने कमरे हैं, यह भी उसने पूछकर जान लिया। कुल मिलाकर यही जान पड़ा कि सारी बात से वह काफी संतुष्ट हुआ है। मकान बनाने में कितना खर्च आया होगा, इसका अनुमान करना उसके लिए कठिन था, क्योंकि इस तरह के सामान और मसाले की कीमत उसकी जानी हुई नहीं थी। बहुत सोचकर पैर-पर-पैर हिलाते-हिलाते आखिर में उसने मन-ही-मन कहा-अधिक नहीं तो दस-पंद्रह हज़ार तो लगा ही होगा। लेकिन प्रकटत: कुछ कम करके बोला, “क्या राय है भाभी, सात-आठ हज़ार रुपया तो लगा होगा…. ?”
कैलाश के गँवारपन पर हरिमोहिनी ने अचरज प्रकट करते हुए कहा, “क्या कहते हो देवर, सात-आठ हज़ार क्या होता है! बीस हज़ार से एक पैसा कम नहीं लगा होगा।”
कैलास बड़े मनोयोग से चुपचाप चारों ओर की चीज़ो का निरीक्षण करने लगा। यह सोचकर उसे अपने पर बड़ा संतोष हुआ कि अभी ज़रा-सा सम्मतिसूचक सिर हिला देने से ही साल की लकड़ी के शहतीरों और सागौन के खिड़की-दरवाज़ों समेत इस पक्की इमारत का एकमात्र स्वामी बना जा सकता है। उसने पूछा, “और सब तो हुआ, लेकिन लड़की?”
जल्दी से हरिमोहिनी ने कहा, “उसकी बूआ के घर से अचानक उसका बुलावा आया था, वहीं गई है- दो-चार दिन की देर हो सकती है।”
कैलाश बोला, “तब फिर देखने का कैसे होगा? मेरा तो एक मुकदमा भी है, कल ही जाना होगा।”
हरिमोहिनी बोलीं, “अभी मुकदमा रहने दो! यहाँ का काम निबटाए बिना तुम नहीं जा सकते!”
थोड़ी सोच-विचार करके कैलाश ने अंत में निश्चय किया, बहुत होगा तो यही न कि मुकदमें में एकतरफा डिग्री हो जाएगी, मामला फिस्स हो जाएगा? वह होता रहे- उसकी क्षति-पूर्ति का पूरा प्रबंध यहाँ पर है, यह उसने एक बार फिर चारों ओर नज़र दौड़ाकर निश्चय कर लिया। सहसा उसने देखा, हरिमोहिनी के पूजा-गृह के एक कोने में थोड़ा-सा पानी जमा था; इस कमरे में पानी की निकासी के लिए नाली नहीं थी, फिर भी हरिमोहिनी हमेशा उसे धोती-पोंछती रहती थी, इसलिए कोने में ज़रा-सा पानी अक्सर रह जाता था। व्यस्त भाव से कैलाश ने कहा, “भाभी, यह तो ठीक नहीं है।”
हरिमोहिनी ने पूछा, “क्यों, क्या बात हुई?”
कैलाश बोला, “वह जो वहाँ पर पानी जमा हो रहा है, वह हर्गिज नहीं होना चाहिए।”
हरिमोहिनी ने कहा, “लेकिन क्या करूँ, देवर!”
“न, न, यह नहीं चलेगा। इससे तो फर्श सील जाएगा। इसी से कहे देता हूँ भाभी, इस कमरे में पानी-वानी गिराने से नहीं चलेगा।”
हरिमोहिनी चुप रह गई तब कैलाश ने कन्या के रूप के प्रति जिज्ञासा की।
हरिमोहिनी ने कहा, “वह तो देखकर ही जानोगी। अभी तो केवल इतना ही कह सकती हूँ कि तुम लोगों के घर में ऐसी सुंदर बहू आज तक नहीं आई।”
कैलाश कह उठा, हमारी मँझली भाभी?”
हरिमोहिनी कह उठीं, “कहाँ यह और कहाँ वह! तुम्हारी मँझली भाभी क्या उसके सामने ठहर सकती हैं!”
ससुराल में मँझली भाभी सुंदरता का आदर्श मानी जाएँ, यह हरिमोहिनी को विशेष अच्छा नहीं लगा, इसीलिए उन्होंने यह और जोड़ दिया- “तुम लोग चाहे जो कहो, भैया, मुझे तो मँझली बहू से छोटी बहू कहीं ज्यादा पसंद है।”
कैलाश ने मँझली बहू और छोटी बहू के रूप की तुलना में कोई उत्साह नहीं दिखाया। मन-ही-मन वह किसी एक अदृश्य मूर्ति की फूल की पंखुड़ी-सी ऑंखों, बाँसुरी-सी नासिका और कमर तक झूलते हुए केशों की कल्पना में अपने को भरमा रहा था।
हरिमोहिनी ने देखा, इस पक्ष की अवस्था तो पूरी तरह आशाजनक है। यहाँ तक कि उन्होंने समझ लिया, जो बड़ा सामाजिक दोष कन्या में है। वह भी शायद कोई ऐसा बड़ा विघ्न न समझा जाएगा।

Leave a Comment