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आजाद-कथा (उपन्यास) : रतननाथ सरशार – अनुवादक Part 10 – प्रेमचंद
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 91
जब रात को सब लो खा-पी कर लेटे, तो नवाब साहब ने दोनों बंगालियों को बुलाया और बोले – खुदा ने आप दोनों साहबों को बहुत बचाया, वरना शेरनी खा जाती।
बोस – हम डरता नहीं थ, हम शाला ईश फील का बान को मारना चाहता था कि हम ईश देश का आदमी नहीं है। इस माफिक हमारे को डराने सकता और हाथी को बोदजाती से हिलाने माँगें। जब तो हम लोग बड़ा गुस्सा हुआ कि अरे सब लोग का हाथी हिलने नहीं माँगता, तुम क्यों हिलने माँगता है। और हमसे बोला कि बाबू शाब, अब तो मरेगा। हाथी का पाँव फिसलेगी और तुम मर जायँगे। हम बोला – अरे, जो हाथी की पाँव फिसल जायगी तो तुम शाले का शाला कहाँ बच जायगा? तुम भी तो हमारा एक साथ मरेगा।
नवाब – अच्छा, जो कुछ हुआ सो हुआ। अब यह बतलाइए कि कल शिकार खेलने जाइएगा या नहीं?
बोस – जायगा जो जरूर करके, मगर फील का बान बोदजाती करेगा, तो हम आपका बुराई छपवा देगा। हमारे हाथी पर बेगम शाब बैठे तो हम चला जायगा।
सुरैया – बेगम साहब तो तुझ ऐसों को अपना साया तक न छूने दें। पहले मुँह तो बनवा!
बोस – अब हमारे को डर पास नहीं आते, हम खूब समझ गया कि जान जानेवाला नहीं है।
नवाब – अच्छा जाइए, कल आइएगा।
जब नवाब और सुरैया बेगम अकेले रह गए तो नवाब ने कहा – देखो सुरैया बेगम, इस जिंदगी का कोई भरोसा नहीं। अभी कल की बात है कि शाहजादा हुमायूँ फर के निकाह की तैयारियाँ हो रही थीं और आज उनकी कब्र बन रही है। इसलिए इनसान को चाहिए कि जिंदगी के दिन हँसी-खुशी से काट दे। यहाँ तो सिर्फ यही ख्वाहिश है कि हम हों और तुम हो। मुझे किसी से मतलब न सरोकार। अगर तुम साथ रहो तो खुदा गवाह है, बादशाही की हकीकत न समझूँ। अगर यकीन न आए तो आजमा लो।
बेगम – आप साफ-साफ अपना मंशा बतलाइए। मैं आपकी बात कुछ नहीं समझी।
नवाब – साफ-साफ कहते हुए डर मालूम होता है।
बेगम – नहीं, यह क्या बात है, आप कहें तो।
नवाब – (दबी जबान से) निकाह!
बेगम – सुनिए, मुझे निकाह में कोई उज्र नहीं। आप अव्वल तो कमसिन, दूसरे रईसजादे, तीसरे खूबसूरत, फिर मुझे निकाह में क्या उज्र हो सकता है। लेकिन रफ्ता-रफ्ता अर्ज करूँगी कि किस सबब से मुझे मंजूर नहीं।
नवाब – हाय-हाय! तुमने यह क्या सितम ढाया?
बेगम – मैं मजबूर हूँ, इसकी वजह फिर बयान करूँगी?
नवाब – अगर मंजूर नहीं तो हमें कत्ल कर डालो। बस छुट्टी हुई। अब जिंदगी और मौत तुम्हारे हाथ है।
दूसरे दिन नवाब साहब सो ही रहे थे कि खिदमतगार ने आ कर कहा – हुजूर, और सब लोग बड़ी देर से तैयार हैं, देर हो रही है।
नवाब साहब ने शिकारी लिबास पहना और सुरैया बेगम के साथ हाथी पर सवार हो कर चले।
बेगम – वह बाबू आज कहाँ हैं? मारे डर के न आते होंगे!
बोस – हम तो आज शुबु से ही साथ-साथ हैगा। अब हमारे को कुछ खोफ लगती नहीं।
बेगम – बाबू, तुम्हारे को हाथी तो नहीं हिलती?
घोष – ना, आज हाथी नहीं हिलती। कल का बात कल के साथ गया।
हाथी चले। थोड़ी दूर जाने पर लोगों ने इत्तला दी कि शेर यहाँ से आध मील पर है और बहुत बड़ा शेर है। नवाब साहब ने खुश हो कर कहा – हाथियों को दौड़ा दो। बाबुओं के फीलबान ने जो हाथी तेज किया, तो बेास बाबू मुँह के बल जमीन पर आ रहे।
घोष – अरे शाला, जमीन पर गिरा दिया!
फीलबान – चुप-चुप, गुल न मचाइए, मैं हाथी रोके लेता हूँ।
घोष – गुल न मचाएँ तो फिर क्या मचाएँ?
फीलबान – वह देखिए, बाबू साहब उठ बैठे, चोट नहीं आई।
घोष – महाशाई, लागे ने तो?
बोस – बड़ी बोद लोग।
घोष – अपना समाचार बोलो।
बोस – अपना समाचार की बोलबो बाबा!
मिस्टर बोस झाड़-पोंछ कर उठे और महावत को हजारों गालियाँ दीं।
बोस – महाशाई, तुम ईश को मारो, मारो ईश दुष्ट को।
घोष – ओ शाला, तुम्हारा शिर पर बाल नहीं, हम पट्टे पकड़ कर तुमको मार डालने माँगता।
फीलबान हँस दिया। इस पर बोस आगे हो गए, और कई ढेले चलाए, मगर कोई ढेला फीलबान तक न पहुँच सका। फीलबान ने कहा – हुजूर, अब हाथी पर बैठ लें तो हम नवाब साहब के हाथियों से मिला दें। बोस बोले – हम डरपोक आदमी नहीं है। हम महाराजा बड़ौदा के यहाँ किसिम-किसिम का जानवर देख चुका है।
घोष – अब बातें कब तक करेगा। आके बैठ जा।
फीलबान – हुजूर, कुरान की कसम खा कर कहता हूँ, मेरा कुसूर नहीं। आप कभी हाथी पर सवार तो हुए नहीं। हौदे पर लटक कर बैठे हुए थे। हाथी जो हिला तो आप भद से गिर पड़े।
बोस – हमारा दिल में आई कि तुम्हारा कान नोच डाले। हम कभी हाथी पर नहीं चढ़ा? तुम बोलता है। तुम्हारा बाप के सामने हम हाथी पर चढ़ा था। तुम क्या जानेगा।
जब शेर थोड़ी दूर पर रह गया और नवाब साहब ने देखा कि बाबूवाला हाथी नहीं है तो डरे कि न जाने उन बेचारों की क्या हालत होगी। हुक्म दिया कि सब हाथी रोक लिए जायँ और धरतीधमक को दौड़ा कर ले जाओ। देखो, उन बेचारों पर क्या तबाही आई!
धरतीधमक रवाना हुआ और कोई दस-बारह मिनट में बाबू साहबों का हाथी दूर से नजर आया। जब हाथी करीब आया तो नवाब ने पूछा – बाबू साहब, खैरियत तो है? हाथी कहाँ रह गया था? बाबू साहबों ने कुछ जवाब न दिया; मगर फीलवान बोला – हुजूर, यह दोनों बाबू लोग आपस में लड़ते थे, इसी से देर हो गई।
अब बोस बाबू से न रहा गया। बिगड़ कर बोले – ओ शाला, तुम हमारे मुँह पर झूठ बोलता है। तुम शाला बिला कहे हाथी को दौड़ा दिए, हम तो गाफिल पड़ा था।
इतने में आदमियों ने इत्तला दी कि शेर समने की झील के किनारे लेटा हुआ है। लोग बंदूकें सँभाल-सँभाल कर आगे बढ़े तो देखा, एक बनैला सुअर ऊँची-ऊँची घास में छिपा बैठा है। सबकी सलाह हुई कि चारों तरफ से खाली निशाने लगाए जायँ ताकि घबरा कर निकले, मगर नवाब साहब के दिल में ठन गई कि हम इस पतावर में हाथी जरूर ले जायँगे। सुरैया बेगम अब तक तो सैर देखती थीं मगर पतावर में जाना बहुत अखरा। बोलीं – नवाब, तुम्हारे सिर की कसम, अब हम न जायँगे। पतावर तलवार की धार से भी ज्यादा तेज होती है। हमें किसी और हाथी पर बिठा दो।
नवाब ने दो शिकारियों को अपने हाथी पर बिठा लिया और सुरैया बेगम को दूसरे हाथी पर बिठा दिया। एक और हाथी उनके साथ-साथ उनकी हिफाजत के लिए छोड़ दिया गया। तब नवाब साहब पतावर में पहुँचे। जब सुअर ने देखा कि दुश्मन चला आ रहा है तो उठा और भाग खड़ा हुआ। नवाब साहब ने गोली चलाई। फिर और शिकारियों ने भी बंदूकें सर कीं! सुअर तड़प कर झील की तरफ झपटा। इतने में तीसरे गोली आई। लोगों ने समझा कि अब काम तमाम हो गया। नवाब साहब को शौक चर्राया कि उसे अपने हाथ से कत्ल करें। हाथी से उतर कर तलवार म्यान से निकाली और साथियों को झील के किनारे इधर-उधर हटा दिया कि सुअर समझे, सब चल दिए हैं। जब सुअर ने देखा कि मैदान खाली है तो आहिस्ता-आहिस्ता झील से निकला। नवाब साहब घात में थे ही, ताक कर ऐसा हाथ दिया कि बनैला बोल गया। लोगों ने चारों तरफ से वाह-वाह का शोर मचाना शुरू किया।
एक – हुजूर, यह करामात है।
दूसरा – सुभान अल्लाह, क्या तुला हुआ हाथ लगाया कि बोला तक नहीं।
तीसरा – तलवार के धनी ऐसे ही होते हैं। एक ही हाथ में चौरंग कर दिया । क्या हाथ पड़ा है, वाह!
चौथा – धूम पड़ गई, धूम पड़ गई। क्या कमाल है, एक ही वार में ठंडा हो गया!
नवाब – अरे भाई देखते हो! बरसों शिकार की नौबत नहीं आती, मगर लड़कपन से शिकार खेला है। वह बात कहाँ जा सकती है। जरा किसी सूरत से बेगम साहब को यहाँ लाते और उनको दिखाते कि हमने कैसा शिकार किया है!
बेगम साहब का हाथी आया तो बनैले को देख कर डर गईं। अल्लाह जानता है, तुम लोगों को जान की जरा भी परवा नहीं। और जो फिर पड़ता तो कैसी ठहरती।
नवाब – तारीफ न की, कितनी जवाँमर्दी से अकेले आदमी ने शिकार किया। लाश तो देखो, कहाँ से कहाँ तक है!
एक मुसाहब – हुजूर ने वह काम किया जो सारी दुनियाँ में किसी से नहीं हो सकता। दस-पाँच आदमी मिल कर तो जिसे चाहे मार लें; मगर एक आदमी का तलवार ले कर बनैले से भिड़ना जरा मुश्किल है।
बेगम – ऐ है, तुम अकेले शिकार करने गए थे! कसम खुदा की, बड़े ढीठ हो। मेरे तो रोएँ खड़े हुए जाते हैं।
नवाब – अब तो हमारी बहादुरी का यकीन आया कि अब भी नहीं!
यहाँ से फिर शिकार के लिए रवाना हुए। बनैले का शिकार तो घाते में था। झील के करीब पहुँचे, तो हाथी जोर-जोर से जमीन पर पाँव पटकने लगा।
फीलबान – शेर यहाँ से बीस कदम पर है। बस यही समझिए कि अब निकला, अब निकला। काशीसिंह, हाथी पर आ जाओ। दिलाराम से भी कहो, बहुत आगे न बढ़े।
काशीसिंह – हुँह, सहर के मनई, नेवला देखे डर जायँ, हमका राह देखावत हैं। वह सेर तो हम सवा सेर!
नवाब – यह उजडुपन अच्छा नहीं। काशीसिंह, आ जाओ। दिलाराम, तुम भी किसी और हाथी पर चले जाओ। मानो कहना।
दिलाराम – हुजूर, चार बरस की उमिर से बाघ मारत चला आवत हाँ, खा जाई, ससुर खा जाय।
बेगम – ऐ है, बड़े ढीठ हैं। नवाब, तुम अपना हाथी सब हाथियों के बीच में रखो। हमारे कलेजे की धड़कन को तो देखो।
अब सुनिए कि इत्तफाक से एक शिकारी ने शेर देख लिया। एक दरख्त के नीचे चित सो रहा था? उन्होंने किसी से न कुछ कहा, न सुना, बंदूक दाग ही तो दी। गोली पीठ पर पड़ी। शेर आग हो गया और गरजता हुआ लपका, तो खलबली मच गई। आते ही काशीसिंह को एक थप्पड़ दिया, दूसरा थप्पड़ देने को ही था कि काशीसिंह सँभला और तलवार लगाई। तलवार हाथ पर पड़ी। तलवार खाते ही हाथी की तरफ झपटा, और नवाब साहब के हाथी के दोनों कान पकड़ लिए। हाथी ने ठोकर दी तो शेर 5-6 कदम पर गिरा। इधर हाथी, उधर शेर, दोनों गरजे। बाबू साहबों ने दोहाई देनी शुरू की।
बोस – अरे, हमारा नानी मर गया। अरे, बाबा, हम तो काल ही से रोता था कि हम नहीं जायगा।
घोष – ओ भाई, तुम शेर को रोक लेगा जल्दी से।
बोस – हम नीचे होता तो जरूर करके रोक लेता।
दो हाथी तो शेर की गरज सुन कर भागे; मगर बाबू का हाथी डटा खड़ा था। इस पर बोस ने रो कर कहा – ओ शाला हमारा हाथी, अरे तुम किस माफिक भागता नहीं! तुम्हारा भाई भो जाता है, तुम क्यों खड़ा है?
शेर ने झपट कर नवाब साहब के हाथी के मस्तक पर एक हाथ दिया तो गोश्त खिंच आया। नवाब साहब के हाथ-पाँव फूल गए। एक शिकारी जो उनके पीछे बैठा था, नीचे गिर पड़ा। शेर ने फिर थप्पड़ दिया। इतने में एक चौकीदार ने गोली चलाई। गोली सिर तोड़ कर बाहर निकल गई और शेर गिर पड़ा, मगर नवाब साहब ऐसे बदहवास थे कि अब तक गोली न चलाई। लोग समझे, शेर मर गया। दो आदमी नजदीक गए और देख कर बोले, हुजूर, अब इसमें जान नहीं है, मर गया। नवाब साहब हाथी से उतरने ही को थे कि शेर गरज कर उठा और एक चौकीदार को छाप बैठा। चारों तरफ हुल्लड़ मच गया। कोई बंदूक छतियाता है, कोई ललकारता है। कोई कहता है – तलवार ले कर दस-बारह आदमी पहुँच जाओ, अब शेर नहीं उठ सकता।
नवाब – क्या कोई गोली नहीं लगा सकता?
एक – हुजूर, शेर के साथ आदमी की भी जान जायगी।
नवाब – तुम तो अपनी बड़ी तारीफ करते थे। अब वह निशानेबाजी कहाँ गई? लगाओ गोली।
गोली पीठ को छूती हुई निकल गई। शिकारी ने एक और गोली लगाई तो शेर का काम तमाम हो गया। मगर यह गोली इस उस्तादी से चलाई थी कि चौकीदार पर आँच न आने पाई। सब लोगों ने तारीफ की। शेर ऊपर था और चौकीदार नीचे। सात आदमी तलवार ले कर झपटे और शेर पर वार करने लगे। जब खूब यकीन हो गया कि शेर मर गया तो लाश को हटाया। देख कि चौकीदार मर रहा है।
नवाब – गजब हो गया यारो, हा! अफसोस।
बेगम – हाथी यहाँ से हटा ले चलो। कहते थे कि शिकार को न चलो। तुमने मेरा कहा न माना।
नवाब – फीलबान, हाथी बिठा दे, हम उतरेंगे।
बेगम – उतरने का नाम भी न लेना। हम न जाने देंगे।
नवाब – बेगम, तुम तो हमको बिलकुल डरपोक ही बनाया चाहती हो। हमारा आदमी मर रहा है, मुझे दूसरे से तमाशा देखना मुनासिब नहीं।
बेगम ने नवाब के गले में हाथ डाल कर कहा – अच्छी बात है, जाइए, अब या तो हम-तुम दोनों गिरेंगे या यहीं रहेंगे।
नवाब दिल में बहुत खुश हुए कि बेगम को मुझसे इतनी मुहब्बत है। आदमियों से कहा – जरा देखो, उसमें कुछ जान बाकी है? आदमियों ने कहा – हुजूर, इतना बड़ा शेर, इतनी देर तक छापे बैठा रहा। बेचारा घुट-घुट के कभी मर गया होगा!
बेगम – अब फिर तो कभी शिकार को न आओगे? एक आदमी की जान मुफ्त में ली?
नवाब – हमने क्यों जान ली, जो हमीं को शेर मार डालता!
बेगम – क्या मनहूस बातें जबान से निकालते हो, जब देखो, अपने को कोसा करते हो।
खेमे में पहुँच कर नवाब साहब ने वापसी की तैयारियाँ कीं और रातों-रात घर पहुँच गए।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 92
आज तो कलम की बाँछें खिली जाती हैं। नौजवानों के मिजाज की तरह अठखेलियाँ पर है। सुरैया बेगम खूब निखर के बैठी हैं। लौंडियाँ-महरियाँ बनाव-चुनाव किए घेरे खड़ी हैं। घर में जश्न हो रहा है। न जाने सुरैया बेगम इतनी दौलत कहाँ से लाईं। यह ठाट तो पहले भी नहीं था।
महरी – ऐ बी सैदानी, आज तो मिजाज ही नहीं मिलते। इस गुलाबी जोड़े पर इतना इतरा गईं?
सैदानी – हाँ, कभी बाबराज काहे को पहना था? आज पहले-पहल मिला है। तुम अपने जोड़े का हाल तो कहो।
महरी – तुम तो बिगड़ने लगी। चलो, तुम्हें सरकार याद करती हैं।
सैदानी – जाओ, कह दो, हम नहीं आते, आई वहाँ से चौधराइन बनके। अब घूरती क्या हो, जाओ, कह दो न!
महरी ने आ कर सुरैया बेगम से कहा – हुजूर, वह तो नाक पर मक्खी नहीं बैठने देतीं। मैंने इतना कहा कि सरकार ने याद किया है तो मुझे सैकड़ों बातें सुनाईं।
सुरैया बेगम ने आँख उठा कर देखा तो महरी के पीछे सैदानी खड़ी मुसकिरा रही थी। महरी पर घड़ों पानी पड़ गया।
सैदानी – हाँ हाँ, कहो, और क्या कहती हो? मैंने तुम्हें गालियाँ दीं, कोसा और भी कुछ?
सुरैया बेगम की माँ बैठी हुई शादी का इंतजाम कर रही थीं। उनके सामने सुरैया बेगम की बहन जाफरी बेगम भी बैठी थीं। मगर यह माँ और बहन आई कहाँ से? इन दोनों का तो कहीं पता ही न था। माँ तो कब की मर चुकी। बहनों का जिक्र ही न सुना। मजा यह कि सुरेया बेगम के अब्बा जान भी बाहर बैठे शादी का इंतजाम कर रहे हैं। समझ में नहीं आता, यह माँ, बहन कहाँ से निकल पड़े। इसका किस्सा यों है कि नवाब वजाहत अली ने सुरैया बेगम से कहा – अगर यों ही निकाह पढ़वा लिया गया तो हमारे रिश्तेदार लोग तुमको हकीर समझेंगे कि किसी बेसवा को घर डाल लिया होगा। बेहतर है कि किसी भले आदमी को तुम्हें अपनी लड़की बनाने पर राजी कर लिया जाए।
सुरैया बेगम को यह बात पसंद आई। दूसरे दिन सुरैया बेगम एक सैयद के मकान पर गईं। सैयद साहब को मुफ्त के रुपए मिले, उन्हें नवाब साहब के ससुर बनने में क्या इनकार होता। किस्मत खुल गई। पड़ोसी हैरत में थे कि यह सैयद साहब अभी कल तक तो जूतियाँ चटकाते फिरते थे। आज इतना रुपया कहाँ से आया कि डोमिनियाँ भी हैं, नाच-रंग भी, नौकर-चाकर भी और सबके सब नए जोड़े पहने हुए। एक पड़ोसी ने सैयद सहब से यों बात-चीत की –
पड़ोसी – आज तो आपके मिजाज ही नहीं मिलते। मगर आप चाहे आधी बात न करें, मैं तो छेड़के बोलूँगा।
गो नहीं पूछते हरगिज वह मिजाज,
हम तो कहते हैं दुआ करते हैं।
सैयद – हजरत, बड़े फिक्र में हूँ। आप जानते हैं, लड़की की शादी झंझट से खाली नहीं। खुदा करे, खैरियत से काम पूरा हो जाय।
पड़ोसी – जनाब, खुदा बड़ा कारसाज है। शादी कहाँ हो रही है?
सैयद – नवाब वजाहत अली के यहीं, यही सामने महल है, बड़ी कोशिश की, जब मैंने मंजूर किया। मेरी तो मंशा यही थी कि किसी शरीफ और गरीब के यहाँ ब्याहूँ।
पड़ोसी – क्यों? गरीब के यहाँ क्यों ब्याहते? आपका खानदान मशहूर है। बाकी रहा रुपया। यह हाथ का मैल है। मगर अब यह फर्माइए कि सब बंदोबस्त कर लिया है न, मैं आपका पड़ोसी हूँ, मेरे लायक जो खिदमत हो उसके लिए हाजिर हूँ।
सैयद – ऐ हजरत आपकी मिहरबानी काफी है। आपकी दुआ और खुदा की इनायत से मैंने हैसियत के मुआफिक बंदोबस्त कर लिया है।
इधर तो ये बातें होती थीं, उधर नवाब के दोस्त बैठे आपस में चुहल कर रहे थे।
एक दोस्त – हजरत, इस बारे में आप किस्मत के धनी हैं।
नवाब – भई, खुदा की कसम, आपने बहुत ठीक कहा, और सैयद साहब की तो बिलकुल फकीर ही समझिए। उनकी दुआ में तो ऐसा असर है कि जिसके वास्ते जो दुआ माँगी, फौरन कबूल हो गई।
दोस्त – जभी तो आप जैसे आली खानदानी शरीफजादे के साथ लड़की का निकाह हो रहा है। इस वक्त शहर में आपका सा रईस और कौन है!
मीर साहब – अजी, शाहजादों के यहाँ से जो न निकले वह आपके यहाँ है।
लाला – इसमें क्या शक, लेकिन यहाँ एक-एक शाहजादा ऐसा पड़ा है जिसके घर में दौलत लौंडी बनी फिरती है।
मीर साहब – कुछ बेधा होके तो नहीं आया है! बढ़ कर दूसरा कौन रईस है शहर में, जिसके यहाँ है यह साज-सामान?
लाला – तुम खुशामद करते हो और बंदा साफ-साफ कहता है।
मीर साहब – ना पहले मुँह बनवा, चला वहाँ से बड़ा साफगो बनके।
दोस्त – ऐसे आदमी को तो खड़े-खड़े निकलवा दे, तमीज तो छू ही नहीं गई। गौखेपन के सिवा और कोई बात नहीं।
नवाब – बदतमीज आदमी है, शरीफों की सोहबत में नहीं बैठा।
मीर साहब – बड़ा खरा बना है, खरा का बच्चा!
नवाब – अजी, सख्त बदतमीज है।
घर में सुरैया बेगम की हमजोलियाँ छेड़-छाड़ कर रही थीं। फीरोजा बेगम ने छेड़ना शुरू किया – आज तो हुजूर का दिल उमंगों पर है।
सुरैया बेगम – बहन, चुप भी रहो, कोई बड़ी-बूढ़ी आ जाएँ तो अपने दिल में क्या कहें, आज के दिन माफ करो, फिर दिल खोल के हँस लेना। मगर तुम मानोगी काहे को!
फीरोजा – अल्लाह जानता है, ऐसा दूल्हा पाया है कि जिसे देख कर भूख-प्यास बंद हो जाय।
इतने में डोमिनियों ने यह गजल गानी शुरू की –
दिल किसी तरह चैन पा जाए,
गैर की आई हमको आ जाए;
दीदा व दिल हैं काम के दोनों,
वक्त पर जो मजा दिखा जाए।
शेख साहब बुराइयाँ मय की,
और जो कोई चपत जमा जाए;
जान तो कुछ गुजर गई उस पर,
मुँह छिपाके जो कोसता जाए।
लाश उठेगी जभी कि नाज के साथ,
फेर कर मुँह वह मुसकिरा जाए;
फिर निशाने लेहद रहे न रहे,
आके दुश्मन भी खाक उड़ा जाए।
वह मिलेंगे गले से खिलवत में,
मुझको डर है हया न आ जाए।
फीरोजा बेगम ने यह गजल सुन कर कहा – कितना प्यारा गला है; लेकिन लै अच्छा नहीं।
सुरैया बेगम ने डोमिनियों को इशारा कर दिया कि यह बहुत बढ़-बढ़ कर बातें कर रही हैं, जरा इनकी खबर लेना। इस पर एक डोमिनी बोली – अब हुजूर हम लोगों को लै सिखा दें।
दूसरी – यह तो मुजरे को जाया करें तो कुछ पैदा कर लाएँ।
तीसरी – बहन, ऐसी कड़ी न कहो।
इतने में एक औरत ने आ कर कहा – हुजूर, कल बरात न आएगी। कल का दिन अच्छा नहीं। अब परसों बरात निकलेगी।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 93
सुरैया बेगम के यहाँ वही धमाचौकड़ी मची थी। परियों का झुरमुट, हसीनों का जमघट, आपस की चुहल और हँसी से मकान गुलजार बना हुआ था। मजे-मजे की बातें हो रही थीं कि महरी ने आ कर कहा – हुजूर, रामनगर से असगर मियाँ की बीवी आई हैं। अभी-अभी बहली से उतरी हैं। जानी बेगम ने पूछा – असगर मियाँ कौन हैं? कोई देहाती भाई हैं? इस पर हशमत बहू ने कहा, बहन वह कोई हों। अब तो हमारे मेहमान हैं। फीरीजा बेगम बोलीं – हाँ-हाँ तमीज से बात करो, मगर वह जो आई है, उनको नाम क्या है? महरी ने आहिस्ता से कहा – फैजन। इस पर दो-तीन बेगमों ने एक दूसरे की तरफ देखा।
हशमत बहू – वाह, क्या प्यारा नाम है। फैजन, कोई मिरासिन हैं क्या?
सुरैया बेगम – तुम आज लड़वाओगी। जानी बेगम कौन सा अच्छा नाम है।
फीरोजा – देहात के तो यही नाम हैं, कोई जैनब है, कोई जीनत, कोई फैजन।
सुरैया बेगम – फैजन बड़ी अच्छी औरत है। न किसी के लेने में, न देने में।
इतने में बी फैजन तशरीफ लाई और मुसकिरा कर बोलीं – मुबारक हो!
यहाँ जितनी बेगमें बैठी थीं सब मुँह फेर-फेर कर मुसकिराईं। बी फैजन के पहनावे से ही देहातीपन बरसता था।
फैजन – बहन, आज ही बरात आएगी न, कौन-कौन रस्म हुई? हम तो पहले ही आते, मगर हमारे देवर की तबियत अच्छी न थी।
फीरोजा – बहन, तुम्हारा नाम क्या है?
फैजन – फैजन।
फीरोजा – और तुम्हारे मियाँ का नाम?
फैजन – हमारे यहाँ मियाँ का नाम नहीं लेते। तुम अपने मियाँ का नाम बताओ!
फीरोजा बेगम ने तड़ से कहा – असगर मियाँ। इस पर वह फर्मायशी कह कह पड़ा कि दूर तक आवाज गई। फैजन दंग हो गईं और दिल ही दिल में सोचने लगीं कि इस शहर की औरतें बड़ी ढीठ है। मैं इनसे पेश न पाऊँगी।
हशमत बहू – तो असगर मियाँ बी फैजन के मियाँ हैं। या तुम्हारे मियाँ, पहले इसका फैसला हो जाय।
फीरोजा – ऐ है, इतना भी न समझीं, पहले इनसे निकाह हुआ था, फिर हमसे हुआ और अब असगर मियाँ के दो महल हैं, एक तो ये बेगम, दूसरे हम।
इस पर फिर कहकहा पड़ा, फैजन के रहे-सहे हवास भी गायब हो गए। अब इतनी हिम्मत भी न थी कि जबान खोल सकें। जानी बेगम ने कहा – क्यों फैजन बहन, तुम्हारे यहाँ कौन-कौन रस्में होती हैं? हमारे यहाँ तो दूल्हा लड़की के घर जा कर देख आता है, बस फिर बात तै हो जाती है।
फैजन – क्या यहाँ मियाँ पहले ही देख लेते हैं? हमारे यहाँ तो नव बरस भी ऐसा न हो।
फीरोजा – यह नव बरस क्या, क्या यह भी कोई टोटका है? नव बरस की कैद मुई कैसी!
फैजन – बहन, हम मुई-टुई क्या जानें।
यह सुन कर हमजोलियाँ और भी हँसीं।
फीरोजा – यह महरी मुई-टुई कहाँ चली गई? एक भी मुई-टुई दिखाई नहीं देती।
हशमत बहू – हमका मालूम है, मगर हम न बताउब!
फीरोजा – अरे मुई-टुई पंखिया कहाँ गायब हो गई?
हशमत बहू – जिस मुई-टुई को गर्मी मालूम हो वह ढूँढ़ ले।
इतने में जुलूस सजा और दुलहिन के हाथ दूल्हा के लिए सेहरा गया। चाँदी की खुशनुमा किश्तियों में फूलों के हार, बुद्धियाँ और जड़ाऊ सेहरा। इसके बाद डोमिनियों का गाना होने लगा। फैजन ने कहा – हमने तो यहाँ की बड़ी तारीफ सुनी है। इस पर एक बूढ़ी औरत ने पोपले मुँह से कहा – ऐ हुजूर, अब तो नाम ही नाम है, नहीं तो हमारे लड़कपन में डोमिनियों का मुहल्ला बड़ी रौनक पर था। यह महबूबन जो सामने बैठी हैं, इनकी दादी का वह दौर दौरा था कि अच्छे-अच्छे शाहजादे सिर टेक कर आते थे। एक बार बादशाह तक उनके यहाँ आए थे। हाथी वहाँ तक नहीं जा सकता था। हुक्म दिया कि मकान गिरा दिए जायँ और चौगुना रुपया मालिकों को दिया जाय। एक बूढ़ी औरत जिसकी भवें तक सफेद थीं, हाथी की सूँड़ पकड़ कर खड़ी हो गई और कहा – मैं हाथी को आगे न बढ़ने दूँगी। मेरे बुजुर्गों की हड्डियाँ खोदके फेंक दी गईं। यह मकान मेरे बुजुर्गों की हड्डी है। बादशाह ने उसके बुजुर्गों के नाम से खैरात खाना जारी कर दिया। जब बादशाह का घोड़ा महबूबन की दादी के मकान पर पहुँचा, तो दस-बारह हजार आदमी गली में खड़े थे। मगर वाह री जहूरन! इतना सब कुछ होते भी गरूर छू न गया था। बरसात के दिन थे, बादशाह ने कहा – जहूरन, जब जाने कि मेंह बरसा दो। मुसकिरा कर कहा – हुजूर, लौंडी एक अदना सी डोमिनी है, मगर खुदा के नजदीक कुछ मुश्किल नहीं है। यह कह कर तान ली –
‘आयो बदरा कारे-कारे रही बिजली चमक मोरे आँगन में’
बस पच्छिम तरफ के झूमती हुई घटा उठी। स्याही छलकने लगी। जहूरन को खुदा बक्शे, फिर तान लगाई और मूसलाधार मेंह बरसने लगा, ऐसा बरसा कि दरिया बढ़ गया और तालाब से दरिया तक पानी ही पानी नजर आता था? जब तो यहाँ कि डोमिनियाँ मशहूर हैं। और अब तो खुदा का नाम है। इतनी डोमिनियाँ बैठी हैं कोई गाए तो?
खुदारा जल्द ले आ कर खबर तू ऐ मेरे ईसा;
तेरे बीमार का अब कोई दम में दम निकलता है।
नसीहत दोस्तो करते हो पर इतना तो बतलाओ,
कहीं आया हुआ दिल भी सँभाले से सँभलता है।
महबूबन – बड़ी गलेबाज हैं आप, और क्यों न हो, किनकी-किनकी आँखें देखी हैं। हम क्या जानें।
हैदरी – हम लोगों के गले इसी सिन में काम नहीं करते, जब इनकी उम्र को पहुँचेंगे तो खुदा जाने क्या हाल होगा।
बुढ़िया कब्र में एक पाँव लटकाए बैठी थी। सिर हिलता था, लठिया टेक के चलती थीं, मगर तबीयत ऐसी रंगीन की जवानों को मात करती थी। सबेरे उबटन न मले तो चैन न आए। पट्टियाँ जरूर जमाती थी, तो बहुत ही खुशमिजाज और हँस-मुख थी, मगर जहाँ किसी ने इसको बूढ़ी कहा, बस, फिर अपने आपे में नहीं रहती थी। फीरोजा ने छेड़ने के लिए कहा – तुमने जो जमाना देखा है वह हम लोगों को कहाँ नसीब होगा। कोई सौ बरस का सिन होगा, क्यों?
बुढ़िया ने पोपले मुँह से कहा – अब इसका मैं क्या जवाब दूँ, बूढ़ी मैं काहे से हो गई, बालों पर नजला गिरा, सफेद हो गए, इससे कोई बूढ़ा हो जाता है!
शाम से आधी रात तक यही कैफियत, यही मजाक, यही चहल-पहल रही। नई दुलहिन गोरी-गोरी गरदन झुकाए, प्यारा-प्यारा मुखड़ा छिपाए, अदब और हया के साथ चुप-चाप बैठी थी, हमजोलियाँ चुपके-चुपके छेड़ती जाती थीं। आधी रात के वक्त दुलहिन को बेसन मल-मल कर नहलाया गया। हिना का इत्र, सुहाग, केवड़ा और गुलाब बदन से मला गया। इसके बाद जोड़ा पहनाया गया! हरे बाफते का पैजामा, सूहे की कुरती, सूहे की ओढ़नी, बसंती रंग का काश्मीरी दुशाला ओढ़ाया गया। भावजों ने मेढ़ियाँ गूँथी थीं, अब जेवर पहनाने बैठीं। सोने के पाजेब, छागल के कड़े दसों पोरों में छल्ले, हाथों में चूहेदंत्तियाँ, जड़ाऊ कंगन, सोने के कड़े, गले में मोतियों का हार, कानों में करनफूल और बाले, सिर पर छपका और सीसफूल माँग में मोतियों की लड़ी देख कर नजर का पाँव फिसला जाता था। जवाहिरात की चमक-दमक से गुमान होता था कि जमीन पर चाँद निकल आया।
जानी बेगम – चौथी के दिन और ठाट होंगे, आज क्या है।
फैजन – आज कुछ हई नहीं। ऐसा महकौवा इत्र कभी नहीं सूँघा।
इस पर सब खिलखिला कर हँस पड़ीं।
हशमत बहू – बी फैजन की बातों से दिल की कली खिल जाती है।
फीरोजा – कैसी कुछ, और चंचल कैसी हैं, रग-रग में शोखी है।
जानी बेगम – बहन फैजन, हम तुम्हारे मियाँ के साथ निकाह पढ़वा लें, बुरा तो न मानोगी?
फीरोजा – दो दिल राजी तो क्या करेगा काजी।
हशमत बहू – बहन, तुम्हारी आँखों का पानी बिलकुल ढल गया। हया भून खाई।
महरी – हुजूर, यही तो दिन हँसी-मजाक के हैं। जब हम इन सिनों थे तो हमारी भी यही कैफियत थी।
इतने में एक हमजोली ने आ कर कहा – फीरोजा बेगम, वह आई हैं मुबारक महल। उनके सामने जरी ऐसी बातें न करना, वह बड़ी नाजुक मिजाज हैं। इतनी बेलिहाजी अच्छी नहीं होती।
फीरोजा – तो तुम जाके अदब से बैठों। तुम्हारा वजीफा आज से बँध जायगा।
मुबारक महल आईं और सबसे गले मिल कर सुरैया बेगम के पास जा बैठीं।
मुबारक महल – हमने सुरैया बेगम को आज ही देखा, खुदा मुबारक करे।
फीरोजा – ऐ सुरैया बेगम, जरी गरदन ऊँची करो, वाह यह तो और झुकी जाती हैं। हम तो सीना तानके बैठे थे, क्या किसी का डरा पड़ा है।
हशमत – तुम तो अँधेर करती हो, नई दुलहिन कहीं अकड़ कर बैठती हैं?
महरी – ऐ हाँ हुजूर, दुलहिन कहीं तन कर बैठती है! क्या कुछ नई रीति है।
फीरोजा – अच्छा साहब, यो ही सही, जरी और झुक जाओ।
एकाएक बाजे की आवाज आई। दूल्हा के यहाँ से दुलहिन को सेहरा बड़े ठाट से आ रहा था। जब सेहरा अंदर आया तो सुरैया बेगम की माँ ने कहा, अब इस वक्त कोई छींके-मीकें नहीं। सेहरा अंदर आता है।
सेहरा अंदर आया। दूल्हा के बहनोई ने साली के सिर पर सेहरा बाँधा और सास से नेग माँगा।
सास – हाँ-हाँ, बाँध लो, इस वक्त तुम्हारा हक है।
बहनोई – इन चकमों में न आऊँगा। लाइए, नेग लाइए।
हशमत – हाँ, बेझगड़े न मानना दूल्हा भाई।
बहनोई – मान चुका, तोड़ों के मुँह खोलिए। अब देर न कीजिए।
सुरैया बेगम की माँ ने पाँच अशर्फियाँ दीं। वह तो ले कर बाहर गए। इधर दूल्हा के यहाँ की ओढ़नी दुलहिन को ओढ़ाई गई। पायजामे में नाड़े की इक्कीस गिरहें दी गई। परदा डाला गया। दुलहिन एक पलंग पर बैठी। फूलों के तौक और बद्धियाँ पहनाई गईं। फूलों का तुर्रा बाँध गया। अब बरात के आने का इंतजार था।
फीरोजा- क्यों बहन फैजन, सच कहना, इस वक्त दुलहिन पर कैसा जोबन है?
फैजन – वह तो यों ही खूबसूरत हैं!
फीरोजा – बरात बड़े धूम से आयगी, हमने चाहा था कि मुन्ने मियाँ के यहाँ से बरात का ठाट देखें।
हशमत बहू – ऐ तो बरात यहीं से क्यों न देखो। महरी, जा के देखो, चिकें सब दुरुस्त हैं ना।
महरी – हुजूर, सब सामान लैस है।
फीरोजा बेगम उस कमरे की तरफ चलीं जहाँ से बरात देखने का बंदोबस्त था। लेकिन जब कमरे में गईं और नीचे झाँक के देखा तो सहम कर बोलीं, ओफ्फोह, इतना ऊँचा कमरा, मैं तो मारे डर के गिर पड़ी होती। जानी बेगम ने जब सुना कि वह डर गईं तो आड़ें हाथों लिया – हमने सुना, आप इस वक्त सहम गईं, वाह!
फीरोजा – खुदा गवाह है, दिल्लगी न करो, मेरे होश ठिकाने नहीं।
जानी बेगम – चलो, बस ज्यादा मुँह न खुलवाओ।
फीरोजा – अच्छा, जाके झाँको तो मालूम हो।
हशमत बहू – हम भी चलते हैं। हम भी झाँकेंगे।
महरी – न बीबी, मैं झाँकने को न कहूँगी। एक बार का जिक्र सुनो कि मैं ताजबीबी का रोजा देखने गई। अल्लाह री तैयारी, रोजा क्या सचमुच बिहिश्त है। फिरंगी तक जब आते हैं तो मारे रोब के टोपी उतार लेते हैं। मेरे साथ एक बेगम भी थीं, जब रोजे के फाटक पर पहुँचे तो मुजाविर बाहर चले गए। मालियों को हुक्म हुआ कि पीठ फेर कर काम करें, गँवारों से परदा क्या।
फीरोजा – उहँ, परदा दिल का।
हशमत – फिर मुजाविरों को क्यों हटाया?
महरी – वह आदमी हैं और माली जानवर, भला इन मजदूरों से कौन परदा करता है। अच्छा, यह तो बताओ कि दुलहिन को कहाँ से बरात दिखाओगी?
हशमत – हमारे यहाँ की दुलहिनें बरात नहीं देखा करतीं।
फीरोजा – वाह, क्या अनोखी दुलहिन हैं!
जानी बेगम – जिस दिन तुम दुलहिन बनी थीं, उस दिन बरात देखी होगी।
फीरोजा – हाँ-हाँ, न देखना क्या माने। हमने अम्माँजान से कहा कि हमको दूल्हा दिखा दो, नहीं हम शादी न करेंगे। उन्होंने कहा, अच्छा झरोखे से बरात देखो, हमने देखी। हमारे मियाँ घोड़े पर अकड़े बैठे थे। एक फूल उनके सिर पर मारा।
हशमत – क्यों नहीं, शाबाश, क्या कहना!
जानी बेगम – फूल नाहक मारा, एक जूता खींच मारा होता।
फीरोजा – खूब याद दिलाया, अब सही।
जानी बेगम – अच्छा महरी, तुमने उन बेगम साहब का जिक्र छेड़ा था जिनके साथ ताजबीबी का रोजा देखने गई थी। फिर क्या हुआ?
महरी – हाँ, खूब याद आया। हम लोग एक बुर्ज पर चढ़ गए, मैं क्या कहूँ हुजूर, कम से कम होंगे तो कोई सात-आठ सौ जीने होंगे।
फीरोजा – ओफ्फोह, इतना झूठ, अच्छा फिर क्या हुआ, कहती जाओ।
महरी – खैर, दम ले-ले के फिर चढ़े, जब धुर पर पहुँचे तो दम नहीं बाकी रहा कि जरा हिल भी सकें। बेगम साहब ने ऊपर से नीचे को झाँका तो गश आ गया, धम से गिरीं।
हशमत बहू – हाय-हाय! मरीं कि बची?
महरी – बच जाने की एक ही कही। हड्डी-पसली चूर हो गई।
फीरोजा – मैंने कहा तो किसी को यकीन नहीं आया। अल्लाह जानता है, इतने ऊँचे पर से जो सड़क देखी होश उड़ गए।
जानी बेगम – जाने दो भई, अब उसका जिक न करो, चलो दुलहिन के पास बैठो।
खबरें आने लगीं कि आज तक इस शहर में ऐसी बरात किसी ने नहीं देखी थी। एक नई बात यह है कि गोरों का बाजा है। हजारों आदमी गोरों का बाजा सुनने आए हैं। छतें फटी पड़ती हैं, एक-एक कमरा चौक में आज दो-दो अशर्फियाँ किराए पर नहीं मिलता। सुना कि बरात के साथ नई रोशनी है जिसकी गैस लाइट बालते हैं।
फीरोजा – उस रोशनी और इस रोशनी में क्या फर्क है?
महरी – ऐ हुजूर, जमीन ओर आसमान का फर्क है। यह मालूम होता है कि दिन है।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 94
आजाद पोलेंड की शाहजादी से रुखसत हो कर रातोंरात भागे। रास्ते में रूसियों की कई फौजें मिलीं। आजाद को गिरफ्तार करने की जोरों से कोशिश हो रही थी, मगर आजाद के साथ शाहजादी का जो आदमी था वह उन्हें सिपाहियों की नजरें बचा कर ऐसे अनजान रास्तों से ले गया कि किसी को खबर तक न हुई। दोनों आदमी रात को चलते थे और दिन को कहीं छिप कर पड़ रहते थे। एक हफ्ते तक भागा-भाग चलने के बाद आजाद पिलौना पहुँच गए। इस मुकाम को रूसी फौजों ने चारों तरफ से घेर लिया था। आजाद के आने की खबर सुनते ही पिलौने वालों ने कई हजार सवार रवाना किए कि आजाद को रूसी फौजों से बचा कर निकाल लाएँ। शाम होते-होते आजाद पिलौनावालों से जा मिले।
पिलौना की हालत यह थी कि किले के चारों तरफ रूस की फौज थी और इस फौज के पीछे तुर्कों की फौज थी। रात को किले से तोपें चलने लगीं। इधर रूसियों की फौज भी दोनों तरफ गोले उतार रही थी। किलेवाले चाहते थे कि रूसी फौज दो तरफ से घिर जाय, मगर यह कोशिश कारगर न हुई। रूसियों की फौज बहुत ज्यादा थी। गोली से काम न चलते देख कर आजाद ने तुर्की जनरल से कहा – अब तो तलवार से लड़ने का वक्त आ पहुँचा, अगर आप इजाजत दें तो मैं रूसियों पर हमला करूँ।
अफसर – जरा देर ठहरिए, अब मार लिया है। दुश्मन के छक्के छूट गए हैं।
आजाद – मुझे खौफ है कि रूसी तोपों से किले की दीवारें न टूट जायँ।
अफसर – हाँ, यह खौफ तो हैं। बेहतर है, अब हम लोग तलवार ले कर बढ़ें।
हुक्म की देर थी। आजाद ने फौरन तलवार निकाल ली। उनकी तलवार की चमक देखते ही हजारों तलवारें म्यान से निकल पड़ीं। तुर्की जवानों ने दाढ़ियाँ मुँह में दबाईं और अल्लाह-अकबर कहके रूसी फौज पर टूट पड़े। रूसी भी नंगी तलवारें ले कर मुकाबिले के लिए निकल आए। पहले दो तुर्की कंपनियाँ बढ़ीं, फिर कुछ फासले पर छह कंपनियाँ और थीं। सबसे पीछे खास फौज की चौदह कंपनियाँ थीं। तुर्कों ने यह चालाकी की थी कि सिर्फ फौज के एक हिस्से को आगे बढ़ाया था, बाकी कालमों को इस तरह आड़ में रखा कि रूसियों को खबर न हुई। करीब था कि रूसी भाग जायँ, मगर उनके तोपखाने ने उनकी आबरू रख ली। इसके सिवा तुर्की फौज मंजिलें मारे चली जाती थी और रूसी फौज ताजा थी। इत्तिफाक से रूसी फौज का सरदार एक गोली खा कर गिरा, उसके गिरते ही रूसी फौज में खलबली मच गई, आखिर रूसियों को भागने के सिवा कुछ न बन पड़ी। तुर्कों ने छह हजार रूसी गिरफ्तार कर लिए।
जिस वक्त तुर्की फौज पिलौना में दाखिल हुई, उस वक्त की खुशी बयान नहीं की जा सकती। बूढ़े और जवान सभी फूले न समाते थे। लेकिन यह खुशी देर तक कायम न रही। तुर्कों के पास न रसद का सामान काफी था, न गोला-बारूद। रूसी फौज ने फिर किले को घेर लिया। तुर्क हमलों का जवाब देते थे, मगर भूखे सिपाही कहाँ तक लड़ते। रूसी गालिब आते जाते थे और ऐसा मालूम होता था कि तुर्कों को पिलौना छोड़ना पड़ेगा। पचीस हजार रूसी तीन घंटे किले की दीवारों पर गोले बरसाते रहे। आखिर दीवार फट गई और तुर्कों के हाथ-पाँव फूल गए। आपस में सलाह होने लगी।
फौज का अफसर – अब हमारा कदम नहीं ठहर सकता, अब भाग चलना ही मुनासिब है।
आजाद – अभी नहीं, जरा और सब्र कीजिए, जल्दी क्या है।
अफसर – कोई नतीजा नहीं।
किले की दीवार फटते ही रूसियों ने तुर्की फौज के पास पैगाम भेजा, अब हथियार रख दो, वरना मुफ्त में मारे जाओगे।
लेकिन अब भी तुर्कों ने हथियार रखना मंजूर न किया। सारी फौज किले से निकल कर रूसी फौज पर टूट पड़ी। रूसियों के दिल बढ़े हुए थे कि अब मैदान हमारे हाथ रहेगा, और तुर्क तो जान पर खेल गए थे। मगर मजबूर हो कर तुर्कों को पीछे हटना पड़ा। इसी तरह तुर्कों ने तीन धावे किए और तीनों मरतबा पीछे हटने पर मजबूर हुए। तुर्की जेनरल फिर धावा करने की तैयारियाँ कर रहा था कि बादशाही हुक्म मिला – फौजें हटा लो, सुलह की बातचीत हो रही है। दूसरे दिन तुर्की फौजें हट गईं और लड़ाई खतम हो गई।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 95
जिस दिन आजाद कुस्तुनतुनिया पहुँचे, उनकी बड़ी इज्जत हुई। बादशाह ने उनकी दावत की और उन्हें पाशा का खिताब दिया। शाम का आजाद होटल में पहुँचे और घोड़े से उतरे ही थे कि यह आवाज कान में आई, भला गीदी, जाता कहाँ है। आजाद ने कहा – अरे भई, जाने दो। आजाद की आवाज सुन कर खोजी बेकरार हो गए। कमरे से बाहर आए और उनके कदमों पर टोपी रख कर कहा – आजाद, खुदा गवाह है, इस वक्त तुम्हें देख कर कलेजा ठंडा हो गया, मुँह-माँगी मुराद पाई।
आजाद – खैर, यह तो बताओ, मिस मीडा कहाँ हैं?
खोजी – आ गईं, अपने घर पर हैं।
आजाद – और भी कोई उनके साथ है?
खोजी – हाँ, मगर उस पर नजर न डालिएगा।
आजाद – अच्छा, यह कहिए।
खोजी – हम तो पहले ही समझ गए थे कि आजाद भावज भी ठीक कर लाए, मगर अब यहाँ से चलना चाहिए।
आजाद – उस परी के साथ शादी तो कर लो।
खोजी – अजी, शादी जहाज पर होगी।
मिस मीडा और क्लारिसा को आजाद के आने की ज्यों ही खबर मिली, दोनों उनके पास आ पहुँचीं।
मीडा – खुदा का हजार शुक्र हैं। यह किसको उम्मेद थी कि तुम जीते-जागते लौटोगे। अब इस खुशी में हम तुम्हारे साथ नाचेंगे।
आजाद – मैं नाचना क्या जानूँ।
क्लारिसा – हम तुमको सिखा देंगे।
खोजी – तुम एक ही उस्ताद हो।
आजाद – मुझे भी वह गुर याद हैं कि चाहूँ तो परी को उतार लूँ।
खोजी – भई, कहीं शरमिंदा न करना।
तीन दिन तक आजाद कुस्तुनतुनिया में रहे। चौथे दिन दोनों लेडियों के साथ जहाज पर सवार हो कर हिंदोस्तान चले।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 96
आजाद, मीडा, क्लारिसा और खोजी जहाज पर सवार हैं। आजाद लेडियों का दिल बहलाने के लिए लतीफें और चुटकुले कह रहे हैं। खोजी भी बीच-बीच में अपना जिक्र छेड़ देते हैं।
खोजी – एक दिन का जिक्र है, मैं होली के दिन बाजार निकला। लोगों ने मना किया कि आज बहार न निकलिए, वरना रंग पड़ जायगा। मैं उन दिनों बिलकुल गैंडा बना हुआ था। हाथी की दुम पकड़ ली तो हुमस न सका। चें से बोल कर चाहा कि भागे, मगर क्या मजाल! जिसने देखा, दातों उँगली दबाई कि वाह पट्ठे।
आजाद – ऐं, तब तक आप पट्ठे ही थे?
खोजी – मैं आपसे नहीं बोलता। सुनो मिस मीडा, हम बाजार में आए तो देखा, हरबोंग मचा हुआ है। कोई सौ आदमी के करीब जमा थे और रंग उछल रहा था। मेरे पास पेशकब्ज और तमंचा, बस क्या कहूँ।
आजाद – मगर करौली न थी?
खोजी – भई, मैंने कह दिया, मेरी बात न काटो। ललकार कर बोला, यारो, देख-भाल के, मरदों पर रंग डालना दिल्लगी नहीं है। एक पठान ने आगे बढ़के कहा – खाँ साहब, आप सिपाही आदमी हैं, इतना गुस्सा न कीजिए, होली के दिन रंग खेलना माफ है। मैंने कहा, सुनो भाई, तुम मुसलमान होके ऐसी बात कहते हो? पठान बोला, हजरत, हमारा इन लोगों से चोली-दामन का साथ है।
इतने में दो लौंडों ने पिचकारी तानी और रंग डाल दिया, ऊपर से उसी पठान ने पीछे से तान के एक जूता दिया तो खोपड़ी पिलपिली हो गई। फिरके जो देखता हूँ, तो डबल जूता, समझावन-बुझावन। मुसकिरा कर आगे बढ़ा।
आजाद – ऐं, जूता खाके आगे बढ़े!
मीडा – और उस जमाने में सिपाही भी थे, जिस पर जूता खाके चुप रहे?
आजाद – चुप रहते तो खैरियत थी, मुसकिराए भी। और बात भी दिल्लगी की थी, मुसकिराते न तो क्या रोते?
खोजी – मैं तो सिपाही हूँ, तलवार से बात करता हूँ, जूते से काम नहीं लेता। कहाँ तलवार, कहाँ जूती पैजार!
क्लारिसा – एक हाकिम ने गवाह से पूछा कि मुद्दई की माँ तुम्हारे सामने रोती थी या नहीं? गवाह ने कहा, जी हाँ, बाईं आँख से रोती थी।
खोजी – यह तो कोई लतीफा नहीं, मुझे रह-रहके खयाल आता है जिस आदमी ने होली में बेअदबी की थी, उसे पा जाऊँ तो खूब मरम्मत करूँ।
आजाद – अच्छा, अब घर पहुँच कर सबसे पहले उसकी मरम्मत कीजिएगा। यह लीजिए, स्वेज की नहर!
मिस मीडा ने कहा – हम जरा यहाँ की सैर करेंगे। आजाद को भी यह बात पसंद आई। इस्कंदरिया के उसी होटल में ठहरे जहाँ पहले टिके थे। खोजी अकड़ते हुए उनके पास आए और कहा, अब यहाँ जरा हमारे ठाट देखिएगा। पहले तो लोगों से दरियाफ्त कर लो कि हमने कुश्ती निकाली थी या नहीं? मारा चारों शाने चित, और किसको? उस पहलवान को जो सारे मिस्र में एक था। जिसका नाम ले कर मिस्र के पहलवानों के उस्ताद कान पकड़ते थे। उसको देखो तो आँखें खुल जायँ। किसी का बदन चोर होता है। उसका कद चोर है। पहले तो मुझे रेलता हुआ अखाड़े के बाहर ले गया और मैं भी चुपचाप चला गया, बस भाई, फिर तो मैंने कदम जमाके जो रेला दिया तो बोल गया। अब पेंचें होने लगीं, मगर वह उस्ताद, तो मैं जगत-उस्ताद! उसने पेंच किया, मैंने तोड़ किया। उसने दस्ती खींची, मैं बगली हुआ। उसने डंडा लगाया, मैंने उचक के काट खाया।
आजाद – सुभान-अल्लाह, यह पेंच सबसे बढ़ कर है। आपने इतनी तकलीफ क्यों की, बैठके कोसना क्यों न शुरू कर दिया?
दोनों लेडियाँ हँसने लगीं तो खोजी भी मुसकिराए, समझे कि मेरी बहादुरी पर दोनों खुश हो रही हैं। बोले – बस, जनाब, दो घंटे तक बराबर की लड़ाई रही, वह कड़ियल जवान, मोटा-ताजा, पँचहत्था। उसका कद क्या बताऊँ, बस जैसे हुसैनाबाद का सतखंडा। उसमें कूबत और यहाँ उस्तादी करतब, मैंने उसे हँफा-हँफा के मारा, जब उसका दम टूट गया तो चुर्र-मुर्र कर डाला। बस जनाब, किला जग के पेंच पर मारा तो चारों शाने चित। कोई पचास हजार आदमी देख रहे थे। तमाम शहर में मशहूर था कि हिंद का पहलवान आया।
आजाद – भाई जान, सुनो, अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने की सनद नहीं। जब जानें कि हमारे सामने पटकनी दो और पहले उस पहलवान को भी देख लें कि कैसा है, तुम्हारी-उसकी जोड़ है या नहीं।
खोजी – कुछ अजीब आदमी हैं आप, कहता जाता हूँ कि ग्रांडील पँचहत्था जवान है, आपको यकीन नहीं आता, हम इसको क्या करें।
इतने में होटल के दो-एक आदमी खोजी को देख कर जमा हो गए, खोजी ने पूछा – क्यों भाई, हमने यहाँ एक कुश्ती निकाली थी या नहीं?
एक आदमी – वाह, हमारे होटल के बौने ने तो उठा के दे पटका था, चले वहाँ से कुश्ती निकालने!
खोजी – ओ गीदी, झूठ बोलना ओर सुअर खाना बराबर है।
दूसरा आदमी – हाथ-पाँव तोड़के धर देगा। आप और कुश्ती!
खोजी – जी हाँ, हम और कुश्ती! कोई आए तब न! (ताल ठोक कर) बुलवाओ उस पहलवान को।
इतने में बौना सामने आ खड़ा हुआ और आते ही खोजी को चिढ़ाने लगा। ख्वाजा साहब ने कहा – यही पहलवान है जिसको हमने पटका था। आजाद बहुत हँसे, बस! टाँय-टाँय फिस। बौने से कुश्ती निकाली तो क्या। किसी बराबरवाले से कुश्ती निकालते तो जानते। इसी पर घमंड था।
खोजी – साहब, कहने और करने में बड़ा फर्क है, अगर उससे हाथ मिलाएँ तो जाहिर हो जाय।
बौना ताल ठोंक के सामने आ खड़ा हुआ और खोजी भी पैंतरे बदल कर पहुँचे। आजाद, मीडा और होटल के बहुत से आदमी उन दोनों के गिर्द टट लगाके खड़े हो गए।
खोजी – आओ, आओ बच्चा। आज भी गुद्दा दूँगा।
बौना – आज तुम्हारी खोपड़ी है और मेरा जूता।
खोजी – ऐसा गुद्दा दूँ कि उम्र भर याद रहे।
बौना – इनाम तो मिलेगा ही, फिर हमारा क्या हर्ज है?
अब सुनिए कि दोनों पहलवान गुँथ गए। खोजी ने घूँसा ताना, बौने ने मुँह चिढ़ाया। खोजी ने चपत जमाई, बौने ने धौल लगाई। दोनों की चाँद घुटी-घुटाई, चिकनी थी। इस जोर की आवाज आती थी कि सुननेवालों और देखनेवालों का जी खुश हो जाता था।
मीडा – खूब आवाज आई, तड़ाक। एक और।
क्लारिसा – ओफ, मारे हँसी के पेट में बल पड़ गए।
खोजी – हँसी क्यों न आएगी! जिसकी खोपड़ी पर पड़ती है उसी का दिल जानता है।
आजाद – अरे यार, जरा जोर से चपतबाजी हो।
खोजी – देखिए तो, दम के दम में बेदम किए देता हूँ कि नहीं।
आजाद – मगर यार; यह तो बिलकुल बौना है।
खोजी – हाय अफसोस, तुम अभी बिलकुल लौंडे हो। अरे कंबख्त, इसका कद चोर है, यों देखने में कुछ नहीं मालूम होता, मगर अखाड़े में चिट और लँगोट बाँध कर खड़ा हुआ, बस फिर देखिए, बदन की क्या कैफियत होती है। बिलकुल गैंडा मालूम होता है। कोई कहता है, दुम-कटा भैंसा है, कोई कहता है, हाथी का पाठा है, कोई नागौरी बैल बताता है, कोई कहता है जमुनापारी बकरा है, मगर मुझे इसका गम नहीं। जानता हूँ कि कोई बोला और मैंने उठाके दे मारा।
खोजी ने कई बार झल्ला-झल्ला कर चपतें लगाईं। एक बार इत्तिफाक से उसके हाथ में इनकी गरदन आ गई, ख्वाजा साहब ने बहुत हाथ-पैर मारे, बहुत कुछ जोर लगाए, मगर उसने दोनों हाथों से गरदन पकड़ लीं और लटक गया। खोजी कुछ झुके, उनका झुकना था कि उसने जोर से मुक्का दिया और दो-तीन लप्पड़ लगा के भागा। खोजी उसके पीछे दौड़े, उसने कमरे में जा कर अंदर से दरवाजा बंद कर लिया। खोजी ने चपतें खाईं तो लोग हँसे और मिस क्लारिसा ने तालियाँ बजाईं। तब तो आप बहुत ही झल्लाए, आसमान सिर पर उठा लिया, ओ गीदी, अगर शरीफ का बच्चा है तो बाहर आ जा। गिरा तो भाग खड़ा हुआ?
आजाद – अरे मियाँ, यह हुआ क्या? कौन गिरा, कौन जीता? हम तो उस तरफ देख रहे थे! मालूम नहीं हुआ, किसने दे मारा।
खोजी – ऐसी बात काहे को देखने लगे थे? अंजर-पंजर ढीले कर दिए गीदी के। वल्लाह, कुश्ती देखने के काबिल थी। मैंने एक नया पेंच किया था। उसके गिरने के वक्त ऐसी आवाज आई कि यह मालूम होता था, जैसे पहाड़ फट पड़ा, आपने सुना ही होगा!
आजाद – वह है कहाँ? क्या खोदके जमीन में गाड़ दिया आपने?
खोजी – नहीं भाई, हारे हुए पर हाथ नहीं उठाता, और कसम है, पूरा जोर नहीं किया, वरना मेरे मुकाबिले में क्या ठहरता। हाथ पाँव तोड़के चुर्र-मुर्र कर डालता। नानी ही तो मर गई कंबख्त की, बस रोता हुआ भागा।
आजाद – मगर ख्वाजा साहब, गिरा तो वह और यह आपकी पीठ पर इतनी गर्द क्यों लगी है?
खोजी – भई, यहाँ पर हम भी कायल हो गए।
क्लारिसा – इसी तरह उस दफा भी तुमने कुश्ती निकाली थी?
मीडा – बड़े शरम की बात हे कि जरा सा बौना तुमसे न गिराया गया।
खोजी – जी चाहता है, दोनों हाथों से अपना सिर पीटूँ। कहता जाता हूँ कि उस गीदी का कद चोर है। आखिर मेरा बदन चोर है या नहीं, इस वक्त मेरे बदन पर अँगरखा नहीं है। खासा देव बना हुआ हूँ। अभी कपड़े पहन लूँ तो पिद्दी मालूम होने लगूँ। बस यही फर्क समझो। अव्वल तो मैं गिरा नहीं, अपनी ही जोर में आप आ गया। दूसरे उसका कद चोर है, फिर आप कैसे कहते हैं कि जरा सा बौना था?
दूसरे दिन आजाद दोनों लेडियों को ले कर बाजार की एक कोठी से बाहर आते थे, तो क्या देखते हैं कि खोजी अफीम की पिनक में ऊँघते हुए चले आ रहे हैं। सामने से साठ-सत्तर दुंबे जाते थे। दुंबेवाले ने पुकारा – हटो-हटो, बचो-बचो, वह अपे में हों तो बचें। नतीजा यह हुआ कि एक दुंबे से धक्का लगा तो धम से सड़क पर आ रहे और गिरते ही चौंक के गुल मचाया – कोई है? लाना करौली। आज अपनी जान और इसकी जान एक करूँगा। खुदा जाने, इसको मेरे साथ क्या अदावत पड़ गई। अरे वाह बे बहुरूपिए, आज हमारे मुकाबिले के लिए साँड़नियाँ लाया है। अबे, यहाँ हर वक्त चौकन्ने रहते हैं। उस दफा बजाज की दुकान पर आए तो मिठाई खाने में आई, आज यह हाथ-पाँव तोड़ डालने से क्या मिला। घुटने लहूलुहान हो गए। अच्छा बचा, अब तो मैं होशियार हो गया हूँ, अबकी समझूँगा।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 97
सुरैया बेगम का मकान परीखाना बना हुआ था। एक कमरे में वजीर डोमिनी नाच रही थी। दूसरे में शहजादी का मुजरा होता था।
फीरोजा – क्यों फैजन बहन, तुमको इस उजड़े हुए शहर की डोमिनियों का गाना काहे को अच्छा लगता होगा?
जानी बेगम – इनके लिए देहात की मीरासिनें बुलवा दो।
फैजन – हाँ, फिर देहाती तो हम हैं ही, इसका कहना क्या?
इस फिकरे पर वह कहकहा पड़ा कि घर भर गूँज उठा और फैजन बहुत शरमाईं। जानी बेगम ने कहा – बस यही बात तो हमें अच्छी नहीं लगती। एक तो बेचारी इतनी देर के बाद बोलीं, उस पर भी सबने मिल कर उनको बना डाला।
फहीमन डोमिनी मुजरा करने लगी। उसके साथ दो औरतें सारंगी लिए थीं, एक तबला बजा रही थी और एक मजीरे की जोड़ी। उसके गाने की शहर में धूम थी।
बंदनवार बाँधो सब मिलके मालिनियाँ।
इसको उसने इस तरह अदा किया कि जिसने सुना, लट्टू हो गया।
जानी बेगम – चौथी के दिन तीस-चालीस तवायफों का नाच होगा!
नजीर बेगम – कश्मीरी नहीं आते, हमें उनकी बातों में बड़ा मजा आता है।
हशमत बहू – नवाब साहब को जनाने में नाच कराने की चिढ़ है।
फीरोजा – सुनो बहन! जो औरत बदी पर आए तो उसकी बात ही और है, नहीं तो शरीफजादी के लिए सबसे बड़ा परदा दिल का है।
फैजन – फहीमन, यह गीत गाओ –
‘डात गयो कोऊ टोना रे।’
फीरोजा – क्या गाओ गीत! गीत कंडेवालियाँ गाती हैं!
जानी – और इनको ठुमरी, टप्पे, गजल से क्या मतलब। नकटा गाओ।
फीरोजा और जानी बेगम की बातें सुन कर मुबारक महल बिगड़ गईं।
फीरोजा – बहन, हमारी बातों से बुरा न मानना।
मुबारक – बुरा मान कर ही क्या लूँगी।
जानी – ऐसी बातें से आपस में फसाद हो जाता है।
फीरोजा – यह लड़वाती हैं बहन, सच कहती हूँ!
मुबारक – तुम दोनों एक-सी हो, जैसे तुम वैसे वह, न तुम कम, न वह कम, शरीफों में बैठने लायक नहीं हो। पढ़-लिख कर भी यह बातें सीखीं!
जानी – देखिए तो सही, अब दिल में कट गई होंगी।
मुबारक – मैं ऐसों से बात तक नहीं करती।
फीरोजा – (तिनक कर) जितना दबो, उतना और दबाती हैं, तुम बात नहीं करती, यहाँ कौन तुमसे बात करने के लिए बेकरार है।
मुबारक – महरी, हमारी पालकी मँगवाओ, हम जायँगे।
बेगम साहब को खबर हुई तो उन्होंने दोनों को समझा-बुझा कर राजी कर दिया।
शाम हुई, रोशनी का इंतजाम होने लगा। बेगम ने कहा – फर्राशों को हुक्म दो कि बारहदरी को झाड़-कँवल से सजाएँ, कमरे और दालानों में साफ चाँदनियाँ बिछें, उन पर ऊनी और चीनी गलीचे हों। महरी ने बाहर जा कर आगा साहब से ये बातें कहीं – बोले, हाँ-हाँ साहब, सुना। बेगम साहब से कहो किया तो हमको इंतजाम करने दें, या खुद ही बाहर चली आएँ। आखिर हमको कोई गँवार समझी हैं? कल से इंतजाम करते-करते हम शल हो गए और जब बरात आने का वक्त आया तो हुक्म देने लगीं कि यह करो, वह करो। जा कर कह दो कि बाहर का इंतजाम हमारे ताल्लुक है। आप क्यों दखल देती हैं। हम अपने बंदोबस्त कर लेंगे।
महरी ने अंदर जा कर बेगम साहब से कहा – हुजूर, बाहर का सब इंतजाम ठीक है। बारहदरी के फाटक पर नौबतखाना है, उस पर कारचोबी झूल पड़ी है, कहीं कंबल और गिलास हैं, कहीं हरी और लाल हाँड़ियाँ। रंग-बिरंग के कुमकुमे बड़ी बहार दिखाते हैं।
हशमत बहू – दरवाजे पर यह शौर कैसा हो रहा है?
महरी – हुजूर, शोर की न पूछें, आदमियों की इतनी भीड़ लगी हुई है कि कंधे से कंधा छिलता है। दुकानें भी बहुत सी आई हैं। तंबोली लाल कपड़े पहने दूकानों पर बैठे हैं। हाथों में चाँदी के कड़े, थालियों में सुफेद पान, एक थाली में छोटी इलायचियाँ, एक में डलियाँ, कत्था इत्र में बसा हुआ, सफाई के साथ गिलौरियाँ बना रहा है। एक तरफ साकिनों की दुकानें हैं। बिगड़े-दिल दमों पर दम लगाते हैं,बे-फिकरे टूटे पड़ते हैं।
फीरोजा – सुनती हो फैजन बहन, चलो जरा बाहर देख आए, यह नाक-भौं क्यों चढ़ाए बैठी हो। क्या घर से लड़ कर आई हो!
फैजन – हमारे पीछे क्यों पड़ी हो, हम न किसी से बोलें, न चालें।
हशमत – हाँ फीरोजा, यह तुममे बड़ी बुरी आदत हैं।
फीरोजा – लड़वाओ, वह तो सीधी-सादी हैं, शायद तुम्हारे भर्रों में आ जायँ।
जानी – फीरोजा बेगम जिस महफिल में न हों वह बिलकुल सूनी मालूम हो।
फीरोजा – हमें अफसोस यही है कि हमसे मुबारक महल बहन खफा हो गईं। अब कोई मेल करवा दे।
मुबारक – बहन, तुम बड़ी मुँहफट हो।
फीरोजा – अब साफ-साफ कहूँ तो बुरा मानो, जरी-जरी सी बात में चिटकती हो। आपस में हँसी-दिल्लगी हुआ करती हैं। इसमें बिगड़ना क्या? फैजन बुरा माने तो एक बात भी है, यह बेचारी देहात में रहती हैं, यहाँ के राह-रस्म क्या जानें, मगर तुम शहर की हो कर बात-बात में रोए देती हो। रही मैं, मैं तो हाजिर-जवाब हूँ ही। हाँ, जानी बेगम की तरह जबाँदराज नहीं!
जानी – अब मेरी तरफ झुकीं।
हशमत – चौमुखा लड़ती हैं, उफ री शोखी!
अब दूल्हा के यहाँ का जिक्र सुनिए। वहाँ इससे भी ज्यादा धूम-धाम थी। नौजवान शाहजादे और नवाबजादे जमा थे। दिल्लगी हो रही थी।
एक – यार, आज तो बे सरूर जमाए जाना मुनासिब नहीं।
दूसरा – मालूम होता है, आज पीके आए हो।
पहला – अरे मियाँ, खुदा से डरो, पीनेवाले की ऐसी-तैसी।
दूल्हा – जरूर पीके आए हो। आप हमारी बरात के साथ न चलिए।
दीवानखाने में बुजुर्ग लोग बैठे पुराने जमाने की बातें कर रहे थे। एक मौलवी साहब बोले – न अब वह लोग हैं, न जमाना। अब किसके पास जायँ, कोई मिलने के काबिल ही नहीं। इल्म की तो अब कदर ही नहीं। अब तो वह जमाना है कि गाली खाए, मगर जवाब न दे।
ख्वाजा साहब – अब आप देखें कि उस जमाने में दस, बीस, तीस की नौकरियाँ थीं, मगर वाहर रे बरकत। एक भाई घर में नौकर है और दस भाई चैन कर रहे हैं।
रात के दस बजे नवाब साहब महल में नहाने गए। चारों तरफ बंदनवार बँधी हुई थीं। आम, अमरूद और नारंगियाँ लटक रही थीं। नीचे एक सौ एक कोरे घड़े थे, एक मटके पर इक्कीस टोंटी का बधना रखा था और बधने में जौ लगे हुए थे। दूल्हा की माँ ने कहा – कोई छींके-वींके नहीं, खबरदार कोई छींकने न पाए। घर-भर में बच्चों को मना कर दो कि जिसको छींक आए, जब्त करे। अब दिल्लगी देखिए कि इस टोकने से सबको छींक आने लगी। किसी ने नाक को उँगली से दबाया, कोई लपक के बाहर चला गया। दूल्हा ने लुंगी बाँधी, बदन में उबटन मला गया। बहनें सिर पर पानी डालने लगीं।
दूल्हा – कितना सर्द पानी है। ठिठुरा जाता हूँ।
महरी – फिर हुजूर, शादी करना कुछ दिल्लगी है।
बहन – दिल में तो खुश होंगे। आज तुम्हें भला सर्दी लगेगी।
नहा कर दूल्हा ने खड़ाऊँ पहनी, कमरे में आए, कपड़े पहने! मशरू का पायजामा, जामदानी का अँगरखा, सिर पर पगड़ी के इर्द-गिर्द मोती टंके हुए, बीच में पुखराज का रंगीन नगीना, कमर में शाली पटका, पगड़ी पर फूलों का सेहरा, हाथ में लाल रेशमी रूमाल और कंधे पर हरा दुशाला, पैरों में फुँदनेदार बूट।
जब दूल्हा बाहर गया तो बेगम साहब ने लड़कियों से कहा – अब चलने की तैयारी करो। हमको बरात से पहले पहुँच जाना चाहिए। दूल्हा की बहनें अपने-अपने जोड़े पहनने लगीं। महरियों-लौंडियों को भी हुक्म हुआ कि कपड़े बदलो। जरा देर में सुखपाल और झप्पान दरवाजे पर ला कर लगा दिए गए। दोनों बहनें चलीं। दाएँ-बाएँ महरियाँ, मशालचियों के हाथ में मशालें, सिपाही और खिदमतगार लाल फुँदनेदार पगड़ियाँ बाँधे साथ चले। जिस तरफ से सवारी निकल गई, गलियाँ इत्र की महक से बस गईं। यही मालूम होता था कि परियों का उड़न-खटोला है।
जब दोनों बहनें समधियाने पहुँच गईं, तो नवाब साहब की माँ भी चलीं। वहाँ दुलहिन की माँ ने इनकी पेशवाई की। इत्र-पान से खातिर हुई और डोमिनियों को नाच होने लगा।
थोड़ी देर के बाद दूल्हा के यहाँ से बरात चली, सबके आगे हाथी पर निशान था। हाथी के सामने अनार और हजारे छूट रहे थे। हाथियों के पीछे अंगरेजी बाजेवालों की धूम थी। फिर सजे हुए घोड़े सिर से पाँव तक जेवर से लदे चले आते थे। साईस उनकी बाग पकड़े हुए थे और दो सिपाही इधर-उधर कदम बढ़ाते चले जाते थे। दूल्हा के सामने शहनाई बज रही थीं। तमाशा देखने वाले यह ठाठ-बाट देख कर दंग हो रहे थे।
एक – भई, अच्छी बरात सजाई; और खूब आतशबाजी बनाई है। आतशबाजी क्या बनवाई है, यों कहिए कि चाँदी गलवाई है।
दूसरा – अनार तो आसमान की खबर लाता है, मगर धुआँ आसमान के भी पार हो जाता है।
तख्त ऐसे थे कि जो देखता, दाँतों अँगुली दबाता। एक हाथी ऐसा नादिर बना था कि नकल को असल कर दिखाया था। बाज-बाज तख्त आदमियों को मुगालता देते थे, खास कर चंडूबाजों का तख्त तो ऐसा बनाया था कि चंडूवालों को शर्माया। एक चंडूबाज ने झल्ला कर कहा – इन कुम्हारों को हमसे अदावत है। खुदा इनसे समझे। एक महफिल की तसवीर बहुत ही खूबसूरत थी। फर्श पर बैठे लोग नाच देख रहे हैं, बीच में मसनद बिछी है, दूल्हा तकिया लगाए बैठा है और सामने नाच हो रहा है। सबके पीछे एक आदमी हाथी पर बैठा रुपए लुटाता आता था और शोहदे गुल मचाते थे। एक-एक रुपए पर दस-दस गिरे पड़ते थे। जान पर खेल कर पिले पड़ते थे।
यह वही सुरैया बेगम हैं जो अभी कल तक मारी-मारी फिरती थीं। जिनको सारी दुनिया में कहीं ठिकाना न था, वही सुरैया बेगम आज शान से दुलहिन बनी बैठी हैं और इस धूम-धाम से उनकी बरात आती है। माँ, बाप, भाई, बहन, सभी मुफ्त में मिल गए। इस वक्त उनके दिल में तरह-तरह के खयाल आते थे – यहाँ किसी को मालूम न हो जाय कि यही सराय में रहती थी, इसी का नाम अलारक्खी भठियारी था, फिर तो कहीं की न रहूँ। इस खयाल से उन्हें इतनी घबराहट हुई कि इधर दरवाजे पर बरात आई और उधर वह बेहोश हो गईं। सबने दुलहिन को घर लिया। अरे खैर तो है। यह हुआ क्या, किसी ने मिट्टी पर पानी डाल कर सुँघाया। दुलहिन की माँ इधर-उधर दौड़ने लगी।
हशमत – ऐ, वह हुआ क्या अम्माँजान?
फीरोजा – अभी अच्छी खासी बैठी हुई थीं। बैठे-बैठे गश आ गया।
बाहर दूल्हा ने यह खबर सुनी तो अपनी महरी को बुलवाया और समझाया कि जाके पूछो, अगर जरूरत हो तो डॉक्टर को बुलवा लूँ। महरी ने आ कर कहा – हुजूर, अब तबियत बहाल है, मगर पसीना आ रहा हे और पानी-पानी करती हैं। नवाब साहब की जान में जान आई। बार-बार तबीयत का हाल पूछते थे। जब दुलहिन की हालत दुरुस्त हो गई तो हमजोलियों ने दिक करना शुरू किया।
जानी – आखिर इस गश का सबब क्या था? हाँ, सब समझी। अभी सूरत देखी नहीं और गश आने लगे।
फीरोजा – ऐ नहीं, क्या जाने अगली-पिछली कौन बात याद आ गई।
जानी – सूरत से तो खुशी बरसती है, वह हँसी आई। ऐ, लो वह फिर गरदन झुका ली।
हशमत – यहाँ तो पाँव-तले से मिट्टी निकल गई।
फीरोजा – मजा तो जब आता कि निकाह के वक्त गश आता, मियाँ को बनाते तो, कि अच्छे सब्जकदम हो।
अब सुनिए कि महल से बराबर खबरें आ रही हैं कि तबियत अच्छी है, मगर नवाब साहब को चैन नहीं आता। आखिर डॉक्टर साहब को बुलवा ही लिया। उनका महल में दाखिल होना था कि हमजोलियों ने उन पर आवाजें कसने शुरू किए।
एक – मुआ सूँस है कि आदमी, अच्छे भदभद को बुलाया।
दूसरी – तोंद क्या, चार आनेवाला फर्रुखाबादी तरबूज है।
तीसरा – तम्बाकू का पिंडा है या आदमी है?
चौथी – कह दो, र्को अच्छा हकीम बुलावें, इस जंगली हूश की समझ में क्या खाक आएगा।
पाँचवीं – खुदा की मार ऐसे मुए पर!
डॉक्टर साहब कुर्सी पर बैठे, नए आदमी थे, उर्दू वाजिबी ही वाजिबी समझते थे। बोले – दारोद होते कौन जाओ?
महरी – नहीं डॉक्टर साहब, दारोद तो नहीं बतातीं, मगर देखते-देखते गश आ गाय।
डॉक्टर – गास की को बोलते?
महरी – हुजूर मैं समझती नहीं। घास क्या!
डॉक्टर – गास किसको बोलते? तुम लोग क्या गोल-माल करने माँगता। हम जुबान देखे।
फीरोजा – नौज ऐसा हकीम हो। डॉक्टर की दुम बना है।
जानी – कहो, नब्ज देखें।
डॉक्टर – नाबुज कैसा बात। हम लोग नाबुज देखना नहीं माँगता, जुबान दिखाए, जुबान, इस माफिक।
डॉक्टर साहब ने मुँह खोल कर जबान बाहर निकाली।
फीरोजा – मुँह काहे को घंटावेग की गड़हिया है।
जानी – अरे महरी, देखती क्या है, मुँह में धुल झोंक दे।
हशमत – एक दफा फिर मुँह खोले तो मैं पंखे की डंडी हलक में डाल दूँ।
डॉक्टर – जिस माफिक हम जुबान दिखाया, उस माफिक हम देखना माँगता। सब भाई लोग हँसी करता। जुबान दिखाने में क्या बात है।
फीरोजा – नवाब साहब से कहो, पहले इसके दिमाग का इलाज करें।
सुरैया बेगम जब किसी तरह जबान दिखाने पर राजी न हुई तो डॉक्टर साहब ने नब्ज देख कर नुस्खा लिखा और चलते हुए! सुरैया का जी कुछ हलका हुआ। मगर इसी वक्त मेहमानों के साथ उन्होंने एक ऐसी औरत को देखा जो उनसे खूब वाकिफ थी, वह मैके में इनके साथ बरसों रह चुकी थी। होश उड़ गए कि कहीं यह पूरा हाल सबसे कह दे तो कहीं की न रहूँ। इस औरत का नाम ममोला था। वह एक शरीर, आवाजें कसने लगी। एक लड़के को गोद में ले कर उसके साथ खेलने लगी और बातों बातों में सुरैया बेगम को सताने लगी। हम खूब पहचानते हैं। सराय में भी देखा था, महल में भी देखा था। अलारक्खी नाम था। इन फिकरों ने सुरैया बेगम को और भी बेचैन कर दिया, चेहरे पर जर्दी छा गई। कमरे में जा कर लेट रहीं, उधर ममोला ने भी समझा कि अगर ज्यादा छेड़ती हूँ तो दुलहिन दुश्मन हो जायगी। चुप हो रही।
बाहर महफिल जमी हुई थी। दूल्हा ज्यों ही मसनद पर बैठा, एक हसीना नजाकत के साथ कदम उठाती मसफिल में आई। यारों ने मुँह-माँगी मुराद पाई। एक बूढ़े मियाँ ने पोपले मुँह से कहा – खुदा खैर करें। इस पर महफिल भर ने कहकहा लगाया और वह परी भी मुसकिरा कर बोली – बूढ़े मुँह मुँहासे, इस बुढ़ौती में भी छेड़छाड़ की सूझी! आपने हँस कर जवाब दिया – बीबी, हम भी कभी जवान थे, बूढ़े हुए तो क्या, दिल तो वही है।
यह परी नाचने खड़ी हुई तो ऐसा सितम ढाया कि सारी महफिल लोट-पोट हो गई। नौजवानों में आहिस्ता आहिस्ता बातें होने लगीं।
एक – बे अख्तियार जी चाहता है कि इसके कदमों पर सिर रख दूँ।
दूसरा – कल ही परसों हमारे घर न पड़ जाय तो अपना नाम बदल डालूँ, देख लेना।
तीसरा – कसम खुदा की, मैं तो इसकी गुलामी करने को हाजिर हूँ, पूछो तो कहाँ से आई है।
चौथा – शीन-काफ से दुरुस्त है।
पाँचवाँ – हमसे पूछो, मुरादाबाद से आई है।
हसीना ने सुरीली आवाज में एक गजल गाई। इस गजल ने महफिल को मस्त कर दिया। एक साहब की आँखों से आँसू बह चले, यह वही साहब थे जिन्होंने कहा था कि हम इसे घर डाल लेंगे। लोगों ने समझाया – भई, इस रोने-धोने से क्या मतलब निकलेगा। यह कोई शरीफ की बहू-बेटी तो है नहीं, हम कल ही शिप्पा लड़ा देंगे। मगर इस वक्त तो खुदा के वास्ते आँसू न बहाओ, वरना लोग हँसेंगे। उन्होंने कहा – भाई, दिल को क्या करूँ, मैं तो खुद चाहता हूँ कि दिल का हाल जाहिर न हो, मगर वह मानता ही नहीं तो मेरा क्या कुसूर है।
यह हजरत तो रो रहे थे। और लोग उसकी तारीफें कर रहे थे। एक ने कहा – यह हमारे शहर की नाक हैं। दूसरा बोला – इसमें क्या शक। आप बहुत ही मिलनसार, नेक, खुश-मिजाज हैं। तीसरे साहब बोले – ऐ हजरत, दूर-दूर तक शोहरत हे इनकी? अब इस शहर में जो कुछ हैं, यही हैं।
इस जलसे में दो-चार देहाती भी बैठे थे। उनको यह बातें नागवार लगीं। मुन्ने मियाँ बोले – वाह, अच्छा दस्तूर है शहर का, पतुरिया को सामने बिठा लिया।
छुट्टन – हमारे देश में अगर पतुरिया को कोई बीच में बिठाए तो हुक्का पानी बंद हो जाय।
गजराज – पतुरिया बैठे काहे को, पनही न खाय?
नवाब – जी हाँ, शहरवाले बड़े ही बेशरम होते हैं।
आगा – देहातियों की लियाकत हम बेचारे कहाँ से लाएँ?
गजराज – हई है, हम लोग इज्जतदार हें। कोई नंगे-लुच्चे नहीं हैं।
आगा – तो जनाब, आप शहर की मजलिस में क्यों आए?
गजराज – काहे को बुलाया, क्या हम लोग बिन बुलाए आए?
आगा – अच्छा, अब गुस्से को थूक दीजिए।
जब ये लोग जरा ठंडे हुए, तो उस हसीना ने एक फारसी गजल गाई, इस पर एक कमसिन नवाबजादे ने जो पंद्रह-सोलह साल से ज्यादा न था, ऊँची आवाज में कहा – वाह जानमन, क्यों न हो! इस लड़के के बाप भी महफिल में बैठे थे, मगर इस लड़के के जरा भी शरम न आई।
इसके बाद तायफा बदली गई। यह आ कर महफिल में बैठ गई और इसके पीछे साजिंदे भी बैठ गए।
नवाब – ऐं, खैरियत तो है? ऐ साहब, नाचिए-गाइए।
हसीना – कल से तबियत खराब है। दो-एक चीजें आपकी खातिर से कहिए तो गा दूँ।
नवाब – मजा किरकिरा कर दिया, तुम्हारे नाच की बड़ी तारीफ सुनी है।
हसीना – क्या अर्ज करूँ। आज तो नाचने के काबिल नहीं हूँ।
यह कह कर, उसने एक ठुमरी शुरू कर दी। इधर बड़े नवाब साहब महल में गए और जहाँ दुलहिन का पलंग था, वहाँ बैठे। खवास ने चिकनी डली, इलायची, गिलौरियाँ पेश कीं। इत्र की शीशियाँ सामने रखीं। बड़े नवाब साहब हुक्का पीने लगे।
सुरैया बेगम की माँ परदे की आड़ से बोली – आदाब अर्ज है।
बड़े नवाब – बंदगी, खुदा करे, इसकी औलाद देखो।
बेगम – खुदा आपकी दुआ कबूल करे। शुक्र है कि इस शादी की बदौलत आपकी जियारत हुई।
बड़े नवाब – दुलहिन से पूछूँ। क्यों बेटी, मेरे लड़के से तुम्हारा निकाह होगा। तुम उसे मंजूर करती हो?
सुरैया बेगम ने इसका कुछ जवाब न दिया। बड़े नवाब साहब ने कई मरतबा वही सवाल पूछा, मगर दुलहिन ने सिर उपर न उठाया। आखिर जब हशमत बहू ने आ कर कहा – क्या सबको दिक करती हो, जी तो चाहता होगा कि बेनिकाह ही चल दो, मगर नखरों से बाज नहीं आती हो। तब सुरैया बेगम ने आहिस्ता से कहा – हूँ।
बड़ी बेगम – आपने सुना?
बड़े नवाब – जी नहीं, जरा भी नहीं सुना।
बड़ी बेगम ने कहा – आप लोग जरा खामोश हो जायँ तो नवाब साहब लड़की की आवाज सुन लें। जब वह खामोश हो गई तो दुलहिन ने फिर आहिस्ता से कहा – हूँ।
उधर नौशा के दोस्त उससे मजाक कर रहे थे।
एक – आपसे जो पूछा जाय कि निकाह मंजूर है या नहीं, तो आप घंटे भर तक जवाब न दीजिएगा।
दूसरा – और नहीं तो क्या, हाँ कह देंगे?
तीसरा- जब लोग हाथ-पैर जोड़ने लगें, तब आहिस्ते से कहना, मंजूर है।
चौथा – ऐसा न हो, तुम फौरन मंजूर कर लो और उधरवाले हमारी हँसी उड़ाएँ।
दूल्हा – दूल्हा तो नहीं बने मगर बरातें तो बहुत देखी हैं। अगर आप लोगों की यही मरजी है तो मैं दो घंटे में मंजूर करूँगा।
अब मेहर पर तकरार होने लगी। दुलहिन के भाई ने कहा – मेहर चार लाख से कम न होगा। बड़े नवाब साहब बोले – भाई, और भी बढ़ा दो, चार लाख मेरी तरफ से, पूरे आठ लाख का मेहर बँधे।
निकाह के बाद किश्तियाँ आईं, किसी में दुशाला, किसी में भारी-भारी हार, तश्तरियों में चिकनी डली, इलायची, पान, शीशियों में इत्र। किस किश्ती में मिठाइयाँ और मिश्री के कूजे। जब काजी साहब रुखसत हो गए तो दूल्हा ने पाँच अशर्फियाँ नजर दिखाईं। नवाब साहब बाहर आए। थोड़ी देर के बाद महल से शरबत आया। नवाब साहब ने इक्कीस अशर्फियाँ दीं। दुलहिन के खिदमतगार ने पाँच अशर्फियाँ पाईं। पहले तो दुशाला माँगता रहा, मगर लोगों के समझाने से इनाम ले लिया। दुलहिन के लिए जूठा शरबत भेजा गया। महफिलवालों ने शरबत पिया, हार गले में डाला, इत्र लगाया और पान खा कर गाना सुनने लगे। इतने मे अंदर से आदमी दूल्हा को बुलाने आया। दूल्हा यहाँ से खुश-खुश चला। जब ड्योढ़ी में पहुँचा तो उसकी बहनों ने आँचल डाला और ले जा कर दुलहिन के मसनद पर बिठा दिया। डोमिनियों ने रीत-रस्म शुरू की। पहले आरसी की रस्म अदा की।
फीरोजा – कहिए, ‘बीबी, मुँह खोलो! मैं तुम्हारा गुलाम हूँ।’
नवाब – बीबी मुँह खोलो, मैं तुम्हारे गुलाम का गुलाम हूँ।
हशमत – जब तक हाथ न जोड़ोगे, मुँह न खोलेंगी।
मुबारक महल – ऊपर के दिल से गुलाम बनते हो, दिल से कहो तो आँखें खोल दें।
नवाब – या खुदा, अब और क्योंकर कहूँ, बीबी तुम्हारा गुलाम हूँ। खुदा के लिए जरा सूरत दिखा दो।
दूल्हा ने एक दफा झूठ-मूठ गुल मचा दिया, वह आँखें खोलीं, सखियों ने कहा – झूठ कहते हो, कौन कहता है, आँख खोली।
डोमिनी – बेगम साहब, अब आँखें खोलिए, बेचारे गुलाम बनते-बनते थक गए। आप फकत आँख खोल दें। वह आपको देखे, आप चाहे उन्हें न देखें।
फीरोजा – वाह, दूल्हा तो चाहे पीछे देखे, यह पहले ही घूर लेंगी।
आखिर सुरैया बेगम ने जरा सिर उठाया और नवाब साहब से चार आँखें होते ही शरमा कर गर्दन नीचे कर ली।
नवाब – कहिए, अब आँखें खोलीं या अब भी नहीं खोलीं?
फीरोजा – अभी नाहक आँखें खोलीं, जब कदमों पर टोपी रखते तब आँखें खोलती।
दूल्हा ने इक्कीस पान का बीड़ा खाया, पायजामे में एक हाथ से इजारबंद डाला और तब सास को सलाम किया। सास ने दुआ दी और गले में मोतियों का हार डाल दिया। अब मिश्री चुनवाने की रस्म अदा हुई। दुलहिन के कंधे, घुटने, हाथ वगैरह पर मिश्री के छोटे-छोटे टुकड़े रखे गए और दूल्हा ने झुक-झुकके खाए। सुरेया बेगम को गुदगुदी मालूम हो रही थी। सालियाँ दूल्हा को छेड़ रही थीं। किसी ने चुटकी ली, किसी ने गुद्दी पर हाथ फेरा, यह बेचारे इधर-उधर देख कर रह जाते थे।
जानी – फीरोजा बेगम जैसी चरबाँक साली भी न देखीं होगी।
नवाब – एक चरबाँक हो तो कहूँ, यहाँ तो जो है, आफत का परकाला है और फीरोजा बेगम का तो कहना ही क्या, सवार को घोड़े पर से उतार लें।
फीरोजा – क्या तारीफ की है,वाह-वाह!
जानी – क्या कुछ झूठ है? तुम्हारी जबान क्या, कतरनी है!
फीरोजा – और तुम अपनी कहो, दूल्हा को उसी वक्त से घूर रही हो। उनकी नजर भी पड़ती है तुम्हीं पर।
जानी – फिर पड़ा ही चाहे, पहले अपनी सूरत तो देखो।
फीरोजा – सुरैया बेगम गाती खूब है और बताने में तो उस्ताद हैं, कोई कथन इनके सामने क्या नाचेगा, कहो एक घुँघरू बोले, कहो दोनों बोलें और तलवार पर तो ऐसा नाचती हैं कि बस, कुछ न पूछो।
जानी – सुना, किसी कथक ने दिल लगाके नाचना सिखाया है। नवाब साहब की चाँदी है, रोज मुफ्त का नाच देखेंगे।
हशमत – भई, इतनी बेहयाई अच्छी नहीं, हँसी-दिल्लगी का भी एक मौका होता है।
फीरोजा – हमारी समझ ही में नहीं आता कि वह कौन सा मौका होता है, बरात के दिन न हँसें-बोले तो फिर किस दिन हँसें-बोलें?
इस तरह हँसी-दिल्लगी में रात कट गई। सबेरे चलने की तैयारियाँ होने लगीं। दुलहिन की माँ-बहनें सब की सब रोने लगीं। माँ ने समधिन से कहा – बहन, लौंडी देती हूँ, इस पर मिहरबानी की निगाह रहे। वह बोलीं – क्या कहती हो? औलाद से ज्यादा है। जिस तरह अपने लड़कों को समझती हूँ उसी तरह इसको भी समझूँगी। इसके बाद दूल्हा ने दुलहिन को गोद में उठा कर सुखपाल पर सवार किया। समधिनें गले मिल कर रुखसत हुई।
जब बरात दूल्हा के घर पर आई, तो एक बकरा चढ़ाया गया, इसके बाद कहारियाँ पालकी को उठा कर जनानी ड़योढ़ी पर ले गईं। तब दूल्हा की बहन ने आ कर दुलहिन के पाँव दूध से धोए और तलवे में चाँदी की वरक लगाए। इसके बाद दूल्हा ने दुलहिन के दामन पर नमाज पढ़ी। फिर खीर आई, पहले दुलहिन के हाथ पर रख कर दूल्हा को खिलाई गई, फिर दूल्हा के हाथ पर खीर रखी गई और दुलहिन से कहा गया कि खाओ, तो वह शरमाने लगी। आखिर दूल्हा की बहनों ने दूल्हा का हाथ दुलहिन के मुँह की तरफ बढ़ा दिया। इस तरह यह रस्म अदा हुई, फिर मुँह दिखावे की रस्म पूरी हुई और दूल्हा बाहर आया।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 98
शाहजादा हुमायूँ फर की मौत जिसने सुनी, कलेजा हाथों से थाम लिया। लोगों का खयाल था कि सिपहआरा यह सदमा बरदाश्त न कर सकेगी और सिसक-सिसक कर शाहजादे की याद में जान दे देगी। घर में किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि सिपहआरा को समझाए या तसकीन दे, अगर किसी ने डरते-डरते समझाया भी तो वह और रोने लगती और कहती – क्या अब तुम्हारी यह मर्जी है कि मैं रोऊँ भी न, दिल ही में घुट-घुट कर मरूँ। दो-तीन दिन तक वह कब्र पर जा कर फूल चुनती रही, कभी कब्र को चूमती, कभी खुदा से दुआ माँगती कि ऐ खुदा, शाहजादे बहादुर की सूरत दिखा दे, कभी आप ही आप मुसकिराती, कभी कब्र की चट-चट बलाएँ लेती। एक आँख से हँसती, एक आँख से रोती। चौथे दिन वह अपनी बहनों के साथ वहाँ गई। चमन में टहलते-टहलते उसे आजाद की याद आ गई। हुस्नआरा से बोली – बहन, अगर दूल्हा भाई आ जायँ तो हमारे दिल को तसकीन हो। खुदा ने चाहा तो वह दो-चार दिन में आना ही चाहते हैं।
हुस्नआरा – अखबारों से तो मालूम होता है कि लड़ाई खतम हो गई।
सिपहआरा – कल मैं अम्माँजान को भी लाऊँगी
एक उस्तानी जी भी उनके पास थीं। उस्तानी जी से किसी फकीर ने कहा था कि जुमेरात के दिन शाहजादा जी उठेगा। और किसी को तो इस बात का यकीन न आता था, मगर उस्तानी जी को इसका पूरा यकीन था। बोलीं – कल नहीं, परसों बेगम साहब को लाना।
सिपहआरा – उस्तानी जी, अगर मैं यहीं दस-पाँच दिन रहूँ तो कैसा हो?
उस्तानी – बेटा, तुम हो किस फिक्र में! जुमेरात के दिन देखो तो, अल्लाह क्या करता है, परसों ही तो जुमेरात है, दो दिन तो बात करते कटते हैं।
सिपहआरा – खुशी का तो एक महीना भी कुछ नहीं मालूम होता, मगर रंज की एक रात पहाड़ हो जाती है। खैर, दो दिन और सही, शायद आप ही का कहना सच निकले।
हुस्नआरा – उस्तानी जी जो कहेंगी, समझ-बूझ कर कहेंगी। शायद अल्लाह को इस गम के बाद खुशी दिखानी मंजूर हो।
सिपहआरा ने कब्र पर चढ़ाने के लिए फूल तोड़ते हुए कहा – फूल तो दो-एक दिन हँस भी लेते हैं, मगर कलियाँ बिन खिले मुरझा जाती हैं, उन पर हमें बड़ा तरस आता है।
उस्तानी – जो खिले वे भी मुरझा गए, जो नहीं खिले वे भी मुरझा गए। इनसान का भी यही हाल है, आदमी समझता है कि मौत कभी आएगी ही नहीं। मकान बनवाएगा तो सोचेगा कि हजार बरस तक इसी बुनियाद ऐसी ही रहे; लेकिन यह खबर ही नहीं कि ‘सब ठाट पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बनजारा।’ सबसे अच्छे वे लोग हैं जिनको न खुशी से खुशी होती है, न गम से गम।
हुस्नआरा – क्यों उस्तानी जी, आप को इस फकीर की बात का यकीन है?
उस्तानी – अब साफ-साफ कह दूँ, आज के दूसरे दिन हुमायूँ फर यहीं न बैठे हों तो सही।
हुस्नआरा – तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर, कल भी कुछ दूर नहीं है, कल के बाद ही तो परसों आएगा।
सिपहआरा – बाजीजान, मुझे तो जरा यकीन नहीं आता। भला आज तक किसी ने यह भी सुना है कि मुर्दा कब्र से निकल आया?
यह बात होती ही थी कि कब्र के पास से हँसी की आवाज आई, सबको हैरत थी कि यह कहकहा किसने लगाया। किसी की समझ में यह बात न आई।
दस बजते-बजते सब की सब घर लौट आईं। यहाँ पहिले ही से एक शाह साहब बैठे हुए थे। चारों बहनों को देखते ही महरी ने आ कर कहा – हुजूर, यह बड़े पहुँचे हुए फकीर हैं, यह ऐसी बातें कहते हैं, जिनसे मालूम होता है कि शाहजादा साहब के बारे में लोगों को धोखा हुआ था। वह मरे नहीं हैं, बल्कि जिंदा हैं। उस्तानी जी ने शाह साहब को अंदर बुलाया और बोलीं – आपको इस वक्त बड़ी तकलीफ हुई, मगर हम ऐसी मुसीबत में गिरफ्तार हैं कि खुदा सातवें दुश्मन को भी न दिखाए।
शाह साहब – खुदा की कारसाजी में दखल देना छोटा मुँह बड़ी बात है। मगर मेरा दिल गवाही देता है कि शाहजादा हुमायूँ फर जिंदा हैं। यों तो यह बात मुहाल मालूम होती है; लेकिन इनसान क्या, और उसकी समझ क्या, इतना तो किसी को मालूम ही नहीं कि हम कौन हैं, फिर कोई खुदा की बातों को क्या समझेगा?
उस्तानी – आप अभी तो यहीं रहेंगे?
शाह साहब – मैं उस वक्त यहाँ से जाऊँगा, जब दूल्हा के हाथ में दुलहिन का हाथ होगा।
उस्तानी – मगर दुलहिन को तो इस बात का यकीन ही नहीं। आता आप कुछ कमाल दिखाएँ तो यकीन आए।
शाह साहब – अच्छा तो देखिए –
शाह साहब ने थोड़ी सी उरद मँगवाई और उस पर कुछ पढ़ कर जमीन पर फेंक दी। आध घंटा भी न गुजरा था कि वहाँ की जमीन फट गई।
बड़ी बेगम – अब इससे बढ़ कर क्या कमाल हो सकता है।
सिपहआरा – अम्माँजान, अब मेरा दिल गवाही देता है कि शायद शाह साहब ठीक कहते हों! ( हुस्नआरा से) बाजी, अब तो आप फकीरों के कमाल की कायल हुई।
उस्तानी – हाँ बेटा, इसमें शक क्या है। फकीरों का कोई आज तक मुकाबिला कर सका है? वह लोग बादशाही की क्या हकीकत समझते हैं!
शाह साहब – फकीरों पर शक उन्हीं लोगों को होता है जो कामिल फकीरों की हालत से वाकिफ नहीं, वरना फकीरों ने मुर्दों को जिंदा कर दिया है, मंजिलों से आपस में बातें की हैं, और आगे का हाल बता दिया है।
बेगम साहब ने अपने रिश्तेदारों को बुलाया और यह खबर सुनाई। इस पर लोग तरह-तरह के शुबहे करने लगे। उन्हें यकीन ही नहीं था कि मुर्दा कभी जिंदा हो सकता है।
दूसरे दिन बेगम साहब ने खूब तैयारियाँ कीं। घर भर में सिर्फ हुस्नआरा के चेहरे से रंज जाहिर होता था, बाकी सब खुश थे कि मुँह-माँगी मुराद पाई। हुस्नआरा को खौफ था, कहीं सिपहआरा की जान के लाले न पड़ जायँ।
तमाम शहर में यह खबर मशहूर हो गई और जुमेरात को चार घड़ी दिन रहे से मेला जमा होने लगा। वह भीड़ हो गई कि कंधे से कंधा छिलता था। लोगों मे ये बातें हो रही थीं –
एक – मुझे तो यकीन है कि शाहजादे आज जिंदा हो जायँगे।
दूसरा – भला फकीरों की बात कहीं गलत होती है?
तीसरा – और ऐसे कामिल फकीर की!
चौथा – विंध्याचल पहाड़ की चोटी पर बरसों नीम की पत्तियाँ उबाल कर नमक के साथ खाई हैं। कसम खुदा की, इसमें जरा झूठ नहीं।
पाँचवाँ – सुलतान अली की बहू तीन दिन तक खून थूका कीं, वैद्य भी आए, हकीम भी आए, पर किसी से कुछ न हुआ, तब मैं जाके इन्हीं शाह साहब को बुला लाया। जला कर एक नजर उसको देखा और बोले, क्या ऐसा हो सकता है कि सब लोग वहाँ से हट जायँ, सिर्फ मैं और यह लड़की रहे। लड़की के बाप को शाह साहब पर पूरा भरोसा था। सब आदमियों को हटाने लगा। यह देख कर शाह साहब हँसे और कहा, इस लड़की को खून नहीं आता! यह तो बिलकुल अच्छी है। यह कह कर शाह साहब ने लड़की के सिर पर हाथ रखा, तब से आज तक उसे खून नहीं आया। फकीरों ही से दुनिया कायम है।
इतने में खबर हुई कि दुलहिन घर से रवाना हो गई हैं। तमाशा देखने वालों की भीड़ और भी ज्यादा हो गई, उधर सिपहआरा बेगम ने घर से बाहर पाँव निकाला तो बड़ी बेगम ने कहा – खुदा ने चाहा तो आज फतह है, अब हमें जरा भी शक नहीं रहा।
सिपहआरा – अम्माँजान, बस अब इधर या उधर, या तो शाहजादे को लेके आऊँगी, या वहीं मेरी भी कब्र बनेगी।
बेगम – बेटी, इस वक्त बदसगुनी की बातें न करो।
सिपहआरा – अम्माँजान, दूध तो बख्श दो; यह आखिरी दीदार है। बहन, कहा-सुना माफ करना, खुदा के लिए मेरा मातम न करना। मेरी तसवीर आबनूस के संदूक में है, जब तुम हँसो-बोलेा तो मेरी तसवीर भी सामने रख लिया करना। ऐ अम्माँजान, तुम रोती क्यों हो?
बहारबेगम – कैसी बातें करती हो सिपहआरा, वाह!
रूहअफजा – बहन, जो ऐसा ही है तो न जाओ।
बड़ी बेगम – हुस्नआरा, बहन को समझाओ।
हुस्नआरा की रोते-रोते हिचकी बंध गई। मुश्किल से बोली – क्या समझाऊँ।
सिपहआरा – अम्माँजान, आपसे एक अर्ज है, मेरी कब्र भी शाहजादे की कब्र के पास ही बनवाना। जब तक तुम अपने मुँह से न कहोगी, मैं कदम बाहर न रखूँगी।
बड़ी बेगम – भला बेटी, मेरे मुँह से यह बात निकलेगी! लोगो, इसको समझाओ, इसे क्या हो गया है।
उस्तानी – आप अच्छा कह दें, बस।
सिपहआरा – मैं अच्छा-अच्छा नहीं जानती, जो मैं कहूँ वह कहिए।
उस्तानी – फिर दिल को मजबूत करके कह दो साहब।
बड़ी बेगम – ना, हमसे न कहा जायगा।
हुस्नआरा – बहन, जो तुम कहती हो वही होगा। अल्लाह वह घड़ी न दिखाए, अब अब हठ न करो।
सिपहआरा – मेरी कब्र पर कभी-कभी आँसू बहा लिया करना बाजीजान। मैं सोचती हूँ कि तुम्हारा दिल कैसे बहलेगा।
यह कह कर सिपहआरा बहनों से गले मिली और बस की बस रवाना हुई। जब सवारियाँ किले के फाटक पर पहुँचीं तो शाह साहब ने हुक्म दिया, कि दुलहिन घोड़े पर सवार हो कर अंदर दाखिल हो। बेगम साहब ने हुक्म दिया, घोड़ा लाया जाय। सिपहआरा घोड़े पर सवार हुई और घोड़े को उड़ाती हुई कब्र के पास पहुँच कर बोली – अब क्या हुक्म होता है? खुदा आओगे या हमको भी यहीं सुलाओगे। हम हर तरह राजी हैं।
सिपहआरा का इतना कहना था कि सामने रोशनी नजर आई। ऐसी तेज रोशनी थी कि सबकी नजर झपक गई और एक लहमे में शाहजादा हुमायूँ फर घोड़े पर सवार आते हुए दिखाई दिए। उन्हें देखते ही लोगों ने इतना गुल मचाया कि सारा किला गूँज उठा। सबको हैरत थी कि यह क्या माजरा है। वह मुर्दा जिसकी कब्र बन गई हो और जिसको मरे हुए हफ्तों गुजर गए हों, वह क्यों कर जी उठा!
हुस्नआरा और शाहजादे की बहन खुरशेद में बातें होने लगीं –
हुस्नआरा – क्या कहूँ, कुछ समझ में नहीं आता!
खुरशेद – हमारी अक्ल भी कुछ काम नहीं करती।
हुस्नआरा – तुम अच्छी तरह कह सकती हो कि हुमायूँ फर यही हैं?
खुरशेद – हाँ साहब, यही हें। यही मेरा भाई है।
और लोगों की भी यही हैरत हो रही थी। अकसर आदमियों को यकीन ही नहीं आता था कि यह शहजादा हैं?
एक आदमी – भाई, खुदा की जात से कोई बात बईद नहीं। मगर यह सारी करामात शाह साहब की है।
तीसरा – जभी तो दुआ में इतनी ताकत है।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 99
नवाब वजाहत हुसैन सुबह को जब दरबार में आए तो नींद से आँखें झुकी पड़ती थीं। दोस्तों मे जो आता था, नवाब साहब को देख कर पहले मुसकिराता था। नवाब साहब भी मुसकिरा देते थे। इन दोस्तों में रौनकदौला और मुबारक हुसैन बहुत बेतकल्लुफ थे। उन्होंने नवाब साहब से कहा – भाई, आज चौथी के दिन नाच न दिखाओगे? कुछ जरूरी है कि जब कोई तायफा बुलवाया जाय तो बदी ही दिल में हो? अरे साहब, गाना सुनिए, नाच देखिए, हँसिए, बोलिए, शादी को दो दिन भी नहीं हुए और हुजूर मुल्ला बन बैठे। मगर यह मौलवीपन हमारे सामने न चलने पाएगा। और दोस्तों ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाई। यहाँ तक कि मुबारक हुसैन जा कर कई तायफे बुला लाए, गाना होने लगा। रौनकदौला ने कहा – कोई फारसी गजल कहिए तो खूब रंग जमे।
हसीना – रंग जमाने की जिसको जरूरत हो वह यह फिक्र करे, यहाँ तो आके महफिल में बैठने भर की देर है। रंग आप ही आप जम जायगा। गा कर रंग जमाया तो क्या जमाया?
रौनक – हुस्न का भी बड़ा गरूर होता है, क्या कहना!
हसीना – होता ही है। और क्यों न हो, हुस्न से बढ़ कर कौन दौलत है?
बिगड़े दिल – अब आपस ही में दाना बदलौवल होगा या किसी की सुनोगी भी, अब कुछ गाओ।
रौनक – यह गजल शुरू करो –
बहार आई है भर दे बादये गुलगूँ से पैमाना,
रहे साकी तेरा लाखों बरस आबाद मैखाना।
इतने में महलसरा से दूल्हा की तलबी हुई। नवाब साहब महल में गए तो दुलहिन और दूल्हा को आमने-सामने बैठाया गया। दस्तरख्वान बिछा, चाँदी के लगन रखी गई, डोमिनियाँ आईं और उन्होंने दुलहिन के दोनों हाथों में दूल्हा के हाथ से तरकारी दी, फिर दुलहिन के हाथों से दूल्हा को तरकारी दी, तब गाना शुरू किया।
अब तरकारियाँ उछलने लगीं। दूल्हा को साली ने नारंगी खींच मारी, हशमत बहू और जानी बेगम ने दूल्हा को बहुत दिक किया। आखिर दूल्हा ने भी झल्ला कर एक छोटी सी नारंगी फीरोजा बेगम को ताक कर लगाई।
जानी बेगम – तो झेंप काहे की है। शरमाती क्या हो?
मुबारक महल – हाँ, शरमाने की क्या बात है, और है भी तो तुमको शर्म काहे की। शरमाए तो वह जिसको कुछ हया हो।
हशमत बहू – तुम भी फेंको फीरोजा बहन! तुम तो ऐसी शरमाईं कि अब हाथ ही नहीं उठता।
फीरोजा – शरमाता कौन है, क्यों जी फिर मैं भी हाथ चलाऊँ?
दूल्हा – शौक से हुजूर हाथ चलाएँ, अभी तक तो जबान ही चलती थी।
फीरोजा – अब क्या जवाब दूँ, जाओ छोड़ दिया तुमको।
अब चारों तरफ से मेवे उछलने लगे। सब की सब दूल्हे पर ताक-ताक कर निशाना मारती थीं। मगर दूल्हा ने बस एक फीरोजा को ताक लिया था, जो मेवा उठाया, उन्हीं पर फेंका। नारंगी पर नारंगी पड़ने लगी।
थोड़ी देर तक चहल-पहल रही।
फीरोजा – ऐसे ढीठ दूल्हा भी नहीं देखे।
दूल्हा – और ऐसी चंचल बेगम भी नहीं देखी। अच्छा यहाँ इतनी हैं, कोई कह दे कि तुम जैसी शोख और चंचल औरत किसी ने आज तक देखी है?
फीरोजा – अरे, यह तुम हमारा नाम कहाँ से जान गए साहब?
दूल्हा – आप मशहूर औरत हैं या ऐसी-वैसी। कोई ऐसा भी है जो आपको न जानता हो?
फीरोजा – तुम्हें कसम है, बताओ, हमारा नाम कहाँ से जान गए?
मुबारक महल – बड़ी ढीठ है। इस तरह बातें करती हैं, जैसे बरसों की बेतकल्लफी हो।
फीरोजा – ऐ तो तुमको इससे क्या, इसकी फिक्र होगी तो हमारे मियाँ को होगी, तुम काहे को काँपती जाती हो।
दूल्हा – आपके मियाँ से और हमसे बड़ा याराना है।
फीरोजा – याराना नहीं वह है। वह बेचारे किसी से याराना नहीं रखते, अपने काम से काम है।
दूल्हा – भला बताओ तो, उनका नाम क्या है। नाम लो तो जानें कि बड़ी बेतकल्लुफ हो।
फीरोजा – उनका नाम, उनका नाम है नवाब वजाहत हुसैन।
दूल्हा – बस, अब हम हार गए, खुदा की कसम, हार गए।
मुबारक महल – इनसे कोई जीत ही नहीं सकता। जब मर्दों से ऐसी बेतकल्लुफ हैं तो हम लोगों की बात ही क्या है, मगर इतनी शोखी नहीं चाहिए।
फीरोजा – अपनी-अपनी तबीयत, इसमें भी किसी का इजारा है।
दूल्हा – हम तो आपसे बहुत खुश हुए, बड़ी हँस-मुख हो। खुदा करे, रोज दो-दो बातें हो जाया करें।
जब सब रस्में हो चुकीं तो और औरतें रुखसत हुई। सिर्फ दूल्हा और दुलहिन रह गए।
नवाब – फीरोजा बेगम तो बड़ी शोख मालूम होती है। बाज-बाज मौके पर मैं शरमा जाता था। पर वह न शरमाती थीं। जो मेरी बीवी ऐसी होती तो मुझसे दम भर न बनती। गजब खुदा का! गैर-मर्द से इस बेतकल्लुफी से बातें करना बुरा है। तुमने तो पहले इन्हें काहे को देखा होगा।
सुरैया – जैसे मुफ्त की माँ मिल गई और मुफ्त की बहनें बन बैठीं, वैसे ही यह भी मुफ्त मिल गईं।
नवाब – मुझे तो तुम्हारी माँ पर हँसी आती थी कि बिलकुल इस तरह पेश आती थीं जैसे कोई खास अपने दामाद के साथ पेश आता है।
सुरैया – आप भी तो फीरोजा बेगम को खूब घूर रहे थे।
नवाब – क्यों मुफ्त में इलजाम लगाती हो, भला तुमने कैसे देख लिया?
सुरैया – क्यों? क्या मुझे कम सूझता है?
नवाब – गरदन झुकाए दुलहिन बनी तो बैठी थीं, कैसे देख लिया कि मैं घूर रहा था! और ऐसी खूबसूरत भी तो नहीं हैं।
सुरैया – मुझसे खुद उसने कसमें खा कर यह बात कही। अब सुनिए, अगर मैंने सुन पाया कि आपने किसी से दिल मिलाया, या इधर-उधर सैर-सपाटे करने लगे तो मुझसे दम भर भी न बनेगी।
नवाब – क्या मजाल, ऐसी बात है भला!
सुरैया – हाँ, खूब याद आया, भूल ही गई थी। क्यों साहब, यह नारंगियाँ खींच मारना क्या हरकत थी? उनकी शोखी का जिक्र करते हो और अपनी शरारत का हाल नहीं कहते।
नवाब – जब उसने दिक किया तो मैं भी मजबूर हो गया।
सुरैया – किसने दिक किया? वह भला बेचारी क्या दिक करती तुमको! तुम मर्द और वह औरतजात।
नवाब – अजी, वह सवा मर्द है। मर्द उसके सामने पानी भरे।
सुरैया – तुम भी छँटे हुए हो!
उसी कमरे में कुछ अखबार पड़े थे, सुरैया बेगम की निगाह उन पर पड़ी तो बोलीं – इन अखबारों को पढ़ते-पढ़ाते भी हो या यों ही रख छोड़े हैं।
नवाब – कभी-कभी देख लेता हूँ। यह देखो, ताजा अखबार है। इसमें आजाद नाम के एक आदमी की खूब तारीफ छपी है।
सुरैया – जरा मुझे तो देना, अभी दे दूँगी।
नवाब – पढ़ रहा हूँ, जरा ठहर जाओ।
सुरैया – और हम छीन लें तो! अच्छा जोर-जोर से पढ़ो, हम भी सुनें।
नवाब – उन्होंने तो लड़ाई में एक बड़ी फतह पाई है।
सुरैया – सुनाओ-सुनाओ। खुदा करें, वह सुर्खरू हो कर आएँ।
नवाब – तुम इनको कहाँ से जानती हो, क्या कभी देखा है।
सुरैया – वाह, देखने की अच्छी कहीं। हाँ, इतना सुना है कि तुर्को की मदद करने के लिए रूम गए थे।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 100
शाहजादा हुमायूँ फर के जी उठने की खबर घर-घर मशहूर हो गई। अखबारों में जिसका जिक्र होने लगा। एक अखबार ने लिखा, जो लोग इस मामले में कुछ शक करते है उन्हें सोचना चाहिए कि खुदा के लिए किसी मुर्दे को जिला देना कोई मुश्किल बात नहीं। जब उनकी माँ और बहनों को पूरा यकीन है तो फिर शक की गुंजाइश नहीं रहती।
दूसरे अखबार ने लिखा… हम देखते हैं कि सारा जमाना दीवाना हो गया है। अगर सरकार हमारा कहना माने तो हम उसको सलाह देंगे कि सबको एक सिरे से पागलखाने भेज दे। गजब खुदा का, अच्छे-अच्छे पढ़े आदमियों को पूरा यकीन है कि हुमायूँ फर जिंदा हो गए। हम इनसे पूछते हैं, यारो, कुछ अक्ल भी रखते हो। कहीं मुर्दे भी जिंदा होते हैं? भला कोई अक्ल रखनेवाला आदमी यह बात मानेगा कि एक फकीर की दुआ से मुर्दा जी उठा। कब्र बनी की बनी ही रही ओर हुमायूँ फर बाहर मौजूद हो गए। जो लोग इस पर यकीन करते हैं उनसे ज्यादा अहमक कोई नहीं। हम चाहते हैं कि सरकार इस मामले में पूरी तहकीकात करे। बहुत मुमकिन है कि कोई आदमी शाहजादी बेगम को बहका कर हुमायूँ फर बन बैठा हो। जिसके मानी यह हैं कि वह शाहजादी बेगम की जायदाद का मालिक हो गया।
जिले के हुक्काम को भी इस मामले में शक पैदा हुआ। कलेक्टर ने पुलिस के कप्तान को बुला कर सलाह की कि हुमायूँ फर से मुलाकात की जाय। यह फैसला करके दोनों घोड़े पर सवार हुए और दन से शाहजादी बेगम के मकान पर जा पहुँचे। हुमायूँ फर के भाई ने सबसे हाथ मिलाया और इज्जत के साथ बैठाया। जनाने में खबर हुई तो शाहजादी बेगम ने कहा – हम शाह साहब के हुक्म के बगैर हुमायूँ फर को बाहर न जाने देंगे।
लेकिन जब शाह साहब से पूछा गया तो उन्होंने साफ कह दिया कि हुमायूँ फर महलसरा से बाहर नहीं निकल सकते। वह बाहर आए और मैंने अपना रास्ता लिया। हाँ, साहब को जो कुछ पूछना हो, लिख कर पूछ सकते हैं। आखिर हुमायूँ फर ने साहब के नाम पर एक रुक्का लिख कर भेजा। साहब ने अपनी जेब से हुमायूँ फर का एक पुराना खत निकाला और दोनों खतों को एक सा पाकर बोले – अब तो मुझे यकीन आ गया कि यह शाहजादा हुमायूँ फर ही हैं, मगर समझ में नहीं आता, वह फकीर क्यों उन्हें हमसे मिलने नहीं देता। आखिर उन्होंने हुमायूँ फर के भाई से पूछा, आपको खूब मालूम है कि हुमायूँ फर यही हैं? लड़का हँस कर बोला – आप को यकीन ही नहीं आता तो क्या किया जाय, आप खुद चल कर देख लीजिए।
शाहजादी बेगम ने जब देखा कि हुक्काम टाले न टलेंगे तो उन्होंने शाहजादा को एक कमरे में बैठा दिया। हुक्काम बरामदे में बैउठाए गए। साहब ने पूछा – वेल शाहजादा हुमायूँ फर, यह सब क्या बात है?
शाहजादा – खुदा के कारखाने में किसी को दखल नहीं।
साहब – आप शाहजादा हुमायूँ फर ही हैं या कोई और?
शाहजादा – क्या खूब, अब तक शक है?
साहब – हमने आपको कुछ दिया था, आपने पाया या नहीं?
शाहजादा – मुझे याद नहीं। आखिर वह कौन चीज थी?
साहब – याद कीजिए।
साहब ने हुमायूँ फर से और कई बातें पूछीं, मगर वह एक का भी जवाब न दे सके। तब तो साहब को यकीन हो गय कि यह हुमायूँ फर नहीं है।