आजाद-कथा (उपन्यास) : रतननाथ सरशार – अनुवादक Part 11 – प्रेमचंद

आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 101

आजाद पाशा को इस्कंदरिया में कई दिन रहना पड़ा। हैजे की वजह से जहाजों का आना-जाना बंद था। एक दिन उन्होंने खोजी से कहा – भाई, अब तो यहाँ से रिहाई पाना मुश्किल है।

खोजी – खुदा का शुक्र करो कि बचके चले आए, इतनी जल्दी क्या है?

आजाद – मगर यार, तुमने वहाँ नाम न किया, अफसोस की बात है।

खोजी – क्या खूब, हमने नाम नहीं किया तो क्या तुमने नाम किया? आखिर आपने क्या किया, कुछ मालूम तो हो, कौन गढ़ फतह किया, कौन लड़ाई लड़े! यहाँ तो दुश्मनों को खदेड़-खदेड़ के मारा। आप बस मिसों पर आशिक हुए, और तो कुछ नहीं किया।

आजाद – आप भी तो बुआ जाफरान पर आशिक हुए थे!

मीडा – अजी, इन बातों को जाने दो, कुछ अपने मुल्क के रईसों का हाल बयान करो, वहाँ कैसे रईस हैं?

खोजी – बिल्कुल तबाह, फटे हाल, अनपढ़, उनके शौक दुनिया से निराले हैं। पतंगबाजी पर मिटे हुए, तरह तरह के पतंग बनते हैं, गोल, माहीजाल, माँगदार, भेड़िया, तौकिया, खरबूजिया, लँगोटिया, तुक्कल, ललपत्ता, कलपत्ता। दस-दस अशर्फियों के पेंच होते हैं। तमाशाइयों की वह भीड़ होती है कि खुदा की पनाह! पतंगबाज अपने फन के उस्ताद। कोई ढील लड़ाने का उस्ताद है, कोई घसीट लड़ाने का यकता। इधर पेंच पड़ा, उधर गोता देते ही कहा, वह काटा! लूटनेवालों की चाँदी है। एक-एक दिन में दस-दस सेर डोर लूटते हैं।

आजाद – क्यों साहब, यह कोई अच्छी आदत है?

खोजी – तुम क्या जानो, तुम तो किताब के कीड़े हो। सच कहना, पतंग लड़ाया है कभी?

आजाद – हमने पतंग की इतनी किस्में भी नहीं सुनी थीं।

खोजी – इसी से तो कहता हूँ, जाँगलू हो। भला पेटा जानते हो, किसे कहते है?

आजाद – हाँ हाँ, जानता क्यों नहीं, पेटा इसी को कहते हैं न कि किसी की डोर तोड़ ली जाय।

खोजी – भई, निरे गाउदी हो।

मीडा – अच्छा बोलो, करते क्या हैं,क्या सारा दिन पतंग ही उड़ाया करते हैं?

खोजी – नहीं साहब, अफीम और चंडू कसरत से पीते हैं।

आजाद – और कबूतरबाजी का तो हाल बयान करो।

क्लारिसा – हमने सुना है कि हिंदोस्तान की औरतें बिलकुल जाहिल होती है।

आजाद – मगर हुस्नआरा को देखो तो खुश हो जाओ।

क्लारिसा – हम तो बेशक खुश होंगे, मगर खुदा जाने, वह हमको देख कर खुश होती हैं या नहीं।

मीडा – नहीं, उम्मेद नहीं कि हम दोनों को देख कर खुश हों। जब हमको और तुमको देखेंगी तो उनको बड़ा रंज होगा।

क्लारिसा – मुझे क्यों नाहक बदनाम करती हो, मुझे आजाद से मतलब? मैं तुम्हारी तरह किसी पर फिसल पड़ने वाली नहीं।

मीडा – जरा होश की बातें करो। जब उन्होंने करोड़ों बार नाक रगड़ी तब मैंने मंजूर किया। वरना इनमें है क्या? न हसीन, न जवान, न रंगीले।

खोजी – और हम? हमको क्या समझती हो आखिर?

मीडा – तुम बड़े तरहदार जवान हो। और तो और, डील डौल में तो कोई तुम्हारा सानी नहीं।

आजाद – हम भी किसी जमाने में ख्वाजा साहब की तरह शहजोर थे, मगर अब वह बात कहाँ, अब तो मरे-बूढ़े आदमी हैं।

खोजी – अभी अभी क्या है, जवानी में हमको देखिएगा।

आजाद – आपकी जवानी शायद कब्र में आएगी।

खोजी – अजी, क्या बकते हो, अभी हमें शादी करनी है भाई।

मीडा – तुम मिस क्लारिसा के साथ शादी कर लो।

क्लारिस – आप ही को मुबारक रहें।

आजाद – भई, यहाँ तुम्हारी शादी हो जाय तो अच्छी बात है, नहीं तो लोगों को शक होगा कि इन्हें किसी ने नहीं पूछा।

खोजी – वल्लाह, यह तो तुमने एक ही सुनाई। अब हमें शादी की जरूरत आ पड़ी।

आजाद – मगर तुम्हारे लिए तो कोई खूबसूरत चाहिए जिस पर सबकी निगाह पड़े।

खोजी – जी हाँ, जिसमें आपको भी घूरा-घारी करने का मौका मिले। यहाँ ऐसे अहमक नहीं हैं। जोरू के मामले में बंदा किसी से याराना नहीं रखता।

आजाद तो सैर करने चले गए। खोजी ने मिस क्लारिसा से कहा – हमारे लिए कोई ऐसी बीवी ढूँढ़ो जिस पर सारी दुनिया के शाहजादे जान देते हों। आजाद का खटका जरूर है, यह आदमी भाँजी मारने से बाज न आएगा। यह तो इसकी आदत में दाखिल है कि जो औरत हमारे ऊपर रीझेगी उसको बहकाएगा। लेकिन यह भी जानता हूँ कि जो औरत एक बार हमें देख लोगी, उसे आजाद क्या, आजाद के बाप भी न बहका सकेंगे। मुझे देख-देख कर यह हजरत जला करते हैं।

क्लारिसा – आजाद तुम्हारी सी जवानी कहाँ से लाएँ।

खोजी – बस-बस, खुदा तुमको सलामत रखें। खुदा करे, तुमको मेरा सा शौहर मिले। इससे ज्यादा और क्या दुआ दूँ।

क्लारिसा – कहीं तुम्हारी शामत तो नहीं आई है?

खोजी – क्यों, क्या हुआ? आखिर हममे कौन बात नहीं है, कुछ मालूम हो, अंधा हूँ, काना हूँ, लूला हूँ, लँगड़ा हूँ। आखिर मुझमें कौन सी बात नहीं है?

क्लारिसा – पहले जा कर मुँह बनवाओ। चले हैं हमारे साथ शादी करने, कुछ पागल तो नहीं हो गए हो?

खोजी – पागल! ठीक, मेरे पागलपने का हाल मिस्र, अदन, रूम, हिंदोस्तान की औरतों से जा कर पूछ लो, आखिर कुछ देख कर ही तो वह सब मुझ पर आशिक हुई थीं।

इतने में मियाँ आजाद ने आ कर पूछा – क्या बातें हो रही है? क्लारिसा, तुम इनके फेर में न आना। यह बड़े चालाक आदमी हैं। यह बातों ही बातों में अपना रंग जमा लेते हैं।

खोजी – खैर, अब तो तुमने इनसे कह ही दिया, वरना आज ही शादी होती। खैर, आज नहीं, कल सही। बिना शादी किए तो अब मानता नहीं।

क्लारिसा – तो आप अपने को इस काबिल समझने लगे?

खोजी – काबिल के भरोसे न रहिएगा। मेरी जबान में जादू है।

आजाद – तुम्हारे लिए तो बुआ जाफरान की सी औरत चाहिए।

खोजी – अगर मिस क्लारिसा ने मंजूर न किया तो और कहीं शिप्पा लगाएँगे। मगर मुझे तो उम्मेद है कि मिस क्लारिसा आजकल में जरूर मंजूर कर लेंगी।

आजाद – अजी, मैंने तुम्हारे लिए वह औरत तलाश कर रखी है कि देख कर फड़क उठो, वह तुम पर जान देती है। बस, कल शादी हो जायगी।

खोजी बहुत खुश हुए। दूसरे दिन आजाद ने एक गाड़ी मँगवाई। आप दोनों मिसों के साथ गाड़ी में बैठे, खोजी को कोच-बक्स पर बैठाया और शादी करने चले। खोजी ऊपर से हटो-बचो की हाँक लगाते जाते थे। एक जगह एक बहरा गाड़ी के सामने आ गया। यह गुल मचाते ही रहे और गाड़ी उसके कल्ले पर पहुँच गई। आप बहुत ही बिगड़े, भला बे गीदी, अब और कुछ बस न चला तो आज जान देने आ गया।

आजाद – क्या है भाई, खैरियत तो है?

खोजी – अजी, आज वह बहुरूपिया नया भेस बदल कर आया, हम गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहे हैं और वह सुनता ही नहीं। तब मैं समझा कि हो न हो बहुरूपिया है। गाड़ी के सामने अड़ जाने से उसका मतलब था कि हमें पकड़ा दे। वह तो दो-चार दिन में लोट-पोट के चंगा हो जाता, मगर हमारी गाड़ी पकड़ जाती। अब पूछो कि तुमको क्या फिक्र है, हम लोग भी तो सवार हैं। इसका जवाब हमसे सुनिए। मिसें तो औरत बन कर छूट जातीं, रहे हम और तुम। तो जिसकी नजर पड़ती, हमी पर पड़ती। तुमको लोग खिदमतगार समझते, हम रईस के धोखे में धर लिए जाते। बस, हमारे माथे जाती।

इतने में दस-ग्यारह दुंबे सामने से आए। खोजी ने चरवाहे को उसी तीखी चितवन से देखा कि खा ही जायँगे। उसे इनका कैंड़ा देख कर हँसी आ गई। बस आप आग ही तो हो गए। कोचवान को डाँट बताई। रोक ले, रोक ले।

आजाद – अब क्या मुसीबत पड़ी!

खोजी – इस बदमाश से कहो बाग रोक ले, मैं उस चरवाहे को सजा दे आऊँ तो बात करूँ। बदमाश मुझे देख कर हँस दिया, कोई मसखरा समझा है।

आजाद – कौन था, कौन, जरा नाम तो सुनूँ।

खोजी – अब राह चलते का नाम मैं क्या जानूँ। कहिए, उटक्करलैस कोई नाम बता दूँ। मुझे देखा तो हँसे आप, मेरी आँखों में खून उतर आया।

आजाद – अरे यार, तुम्हें देख कर, मारे खुशी के हँस पड़ा होगा।

खोजी – भई, तुमने सच कहा, यही बात है।

आजाद – अब बताओ, हो गधे कि नहीं, जो मैं न समझाता तो फिर?

खोजी – फिर क्या, एक बेगुनाह का खून मेरी गरदन पर होता।

एकाएक कोचवान ने गाड़ी रोक ली। खोजी घबरा कर कोच-बक्स से उतरे तो पायदान से दामन अटका और मुँह के बल गिरे, मगर जल्दी से झाड़-पोंछ कर उठ खड़े हुए। आजाद और दोनों औरतें हँसने लगीं।

आजाद – अजी, गर्द-वर्द पोंछो, जरा आदमी बनो। जो दुलहिन वाले देख लें तो कैसी हो?

खोजी – अरे यार, गर्द-वर्द तो झाड़ चुका, मगर यह तो बताओ कि यह किसकी शरारत है, मैं तो समझता हूँ, वही बहुरूपिया मेरी आँखों में धूल झोंक कर मुझे घसीट ले गया। खैर, शाही हो ले। फिर बीवी की सलाह से बदमाश को नीचा दिखाऊँगा।

आजाद तो दोनों मिसों के साथ गाड़ी से उतरे और खोजी की ससुराल के दरवाजे पर आए। खोजी गाड़ी के अंदर बैठे रहे। जब अंदर से आदमी उन्हें बुलाने आया तो उन्होंने कहा – उनसे कह दो, मेरी अगवानी करने के लिए किसी को भेज दें।

आजाद ने अंदर जा कर एक पँचहत्थी मोटी-ताजी औरत भेज दी। उसने आव देखा न ताव, खोजी को गाड़ी से उतारा और गोद में उठा कर अंदर ले चली। खोजी अभी सँभलने न पाए थे कि उसने उन्हें ले जा कर आँगन में दे मारा और ऊपर से दबाने लगी। खोजी चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगे – अम्माँजान माफ करो, ऐसी शादी पर खुदा की मार, मैं क्वाँरा ही रहूँगा।

आजाद – क्या है भई, यह रो क्यों रहे हो?

खोजी – कुछ नहीं भाईजान, जरा दिल्लगी हो रही थी।

आजाद – अम्माँजान का लफ्ज किसी ने कहा था?

खोजी – तो यहाँ तुम्हारे सिवा हिंदोस्तानी और कौन है।

आजाद – और आप कहाँ के रहने वाले हैं?

खोजी – मैं तुर्क हूँ।

आजाद – अच्छा, जा कर दुलहिन के पास बैठो। वह कब से गरदन झुकाए बैठी है बेचारी, और आप सुनते ही नहीं।

खोजी ऊपर गए तो देखा, एक कोने में दुशाला ओढ़े दुलहिन बैठी है। आप उसके करीब जा कर बैठ गए। क्लारिसा और मीडा भी जरा फासले पर बैठी थीं। ख्वाजा साहब दून की लेने लगे। हमारे अब्बाजान सैयद थे और अम्माँजान काबुल के एक अमीर की लड़की थीं। उनके हाथ-पाँव अगर आप देखतीं तो डर जातीं। अच्छे-अच्छे पहलवान उनका नाम सुन कर कान पकड़ते थे। सीना शेर का सा था, कमर चीते की सी, रंग बिलकुल जैसे सलजम, आँखों में खून बरसता था। एक दफे रात को घर में चोर आया, मैं तो मारे डर के सन्नाटा खींचे पड़ रहा, मगर वाह री अम्माँजान, चोर की आहट पाते ही उस बदमाश को जा पकड़ा। मैंने पुकार कर कहा, अम्माँजान, जाने न पाए, मैं भी आ पहुँचा। इतने में अब्बाजान की आँख खुल गई। पूछा – क्या है? मैंने कहा – अम्माँजान से और एक चोर से पकड़ हो रही है। अब्बाजान बोले – तो फिर दबके पड़े रहो, उसने चोर को कत्ल कर डाला होगा। मैं जो जाके देखता हूँ तो लाश फड़क रही है। जनाब, हम ऐसों के लड़के हैं।

आजाद – तभी तो ऐसे दिलेर हो, सुअरों के सुअर ही होते हैं।

खोजी – (हँस कर) मिस क्लारिसा हमारी बातों पर हँस रही हैं। अभी हम इनकी नजरों में नहीं जँचते।

आजाद – दुलहिन आज बहुत हँसती हैं। बड़ी हँसमुख बीवी पाई।

खोजी – उर्दू तो यह क्या समझती होंगी।

आजाद – आप भी बस चोंगा ही रहे। अरे बेवकूफ, इन्हें हिंदी-उर्दू से क्या ताल्लुक।

खोजी – बड़ी खराबी यह है कि यहाँ जिस गली-कूचे में निकल जायँ, सबकी नजर पड़ा चाहे और लोग मुझसे जला ही चाहें, इसको मैं क्या करूँ। अगर इनको सैर कराने साथ न ले चलूँ तो नहीं बनती, ले चलूँ तो नहीं बनती। कहीं मुझ पर किसी परीछम की निगाह पड़े और वह घूर-घूर कर देखे, तो यह समझें कि कोई खास वजह है। अब कहिए, क्या किया जाय?

आजाद – दुलहिन मुँह बंद किए क्यों बैठी हैं, नाक की तो खैर है?

खोजी – क्या बकते हो मियाँ, मगर अब मुझे भी शक हो गया, तुम लोग जरा समझा दो भाई कि नाक दिखा दें।

मिस क्लारिसा ने दुलहिन को समझाया, तो उसने चेहरे को छिपा कर जरा सी नाक दिखा दी। खोजी ने जा कर नाक को छूना चाहा तो उसने इस जोर के चपत दी कि खोजी बिलबिला उठे।

आजाद – खुदा की कसम, बड़े बेअदब हो।

खोजी – अरे मियाँ, जाओ भी। यहाँ होश बिगड़ गए, तुमको अदब की पड़ी है, मगर यार, यह बुरा सगुन हुआ।

आजाद – अरे गाउदी, यह नखरे है, समझा!

खोजी – (हँस कर) वाह रे नखरे!

आजाद – अच्छा भाई, तुम कभी लड़ाई पर भी गए हो?

खोजी – उँह, कभी की एक ही कही, क्या नन्हें बने जाते हैं? अरे मियाँ, शाही में गुलचले मशहूर थे, अब भी जो चाँदमारी हुई, उसमें हमीं बीस रहे।

आजाद – मिस मीडा हँस रही हैं, गोया तुम झूठे हो।

खोजी – यह अभी छोकरी है, यह बातें क्या जानें। अब्बाजान को खुदा बख्शे। दो ऐसे गुर बता गए हैं जो हर जगह काम आते हैं। एक तो यह कि जब किसी से लड़ाई हो तो पहला वार खुद करना, बात करते ही चाँटा देना।

आजाद – आप तो कई जगह इस नसीहत को काम में ला चुके हैं। एक तो बुआ जाफरान पर हाथ उठाया था। दूसरे जैनब की नाक में दम कर दिया था।

खोजी – अब मैं अपना सिर पीट लूँ, क्या करूँ। जिस-जिस जगह अपनी भलमनसी से शरमिंदा हुआ था, उन्हीं का जिक्र करते हो। वह तो कहिए, खैरियत है कि दुलहिन उर्दू नहीं समझतीं, वरना नजरों से गिर जाता।

यह फिकरा सुन कर दुलहिन मुसकिराईं तो ख्वाजा साहब अकड़ कर बोले – वल्लाह, वह हँसमुख बीवी पाई है कि जी खुश हो गया। बात नहीं समझती, मगर हँसने लगती है। भई, जरा आँखें भी देख लेना।

आजाद – जनाब, दोनों आँखें हैं, और बिलकुल हाथी की सी!

खोजी – बस यही मैं चाहता हूँ, वह क्या जिसकी बड़ी-बड़ी आँखें हो! तारीफ यह है कि जरा-जरा सी आँखें हो और हँसने के वक्त बिलकुल बंद हो जायँ, मगर यार, गला कैसा है?

आजाद – ऐं, क्या हिंदोस्तान में गाने की तालीम दोगे?

खोजी – ऐ है, समझते तो हो ही नहीं, मतलब यह कि गरदन लंबी है या छोटी? पहले समझ लो, फिर एतराज जड़ो।

आजाद – गरदन, सिर और धड़ सब सपाट है?

खोजी – यह क्या, तो क्या, छोटी गरदन की तारीफ है?

आजाद – और क्या, सुना नहीं, ‘छोटी गरदन, तंग पेशानी, हसीन औरत की यही निशानी।’ क्या महावरे भी भूल गए?

खोजी – महावरे कोई हमसे सीखे, आप क्या जानें, मगर खुदा के लिए जरा मुझसे अदब से बातें कीजिए, वरना यहाँ मेरी किरकिरी होगी। और यह आप उनके करीब क्यों बैठे हैं, हटके बैठिए जरा।

आजाद – क्यों साहब, आप अपनी ससुराल में हमारी बेइज्जती करते हैं? अच्छा! खैर, देखा जाएगा।

खोजी – आप तो दिल्लगी में बुरा मान जाते हैं और मेरी आदत कंबख्त ऐसी खराब है कि बेचुहल किए रहा नहीं जाता।

आजाद – खैर चलो, होगा कुछ। मगर यार, यहाँ एक अजीब रस्म है, दुलहिन अपने दूल्हा के दोस्तों से हँस-हँस कर बात करती है।

खोजी – यह तो बुरी बात है, कसम खुदा की, अगर तुमने इनसे एक बात भी की होगी तो करौली ले कर अभी-अभी काम तमाम कर दूँगा।

आजाद – सुन तो लो, जरा सुनो तो सही।

खोजी – अजी बस, सुन चुके। इस वक्त आँखों में खून उतर आया, ऐसी दुलहिन की ऐसी-तैसी, और कैसी दबकी-दबकाई बैठी हैं, गोया कुछ जानती ही नहीं।

आजाद – हर मुल्क की रस्म अलग अलग है। इसमें आप ख्वाहमख्वाह बिगड़ रहे हैं।

खोजी – तो आप आँखें क्या दिखाते हैं? कुछ आपका मुहताज या गुलाम हूँ? लूट का रुपया मेरे पास भी है, यहाँ से हिंदोस्तान तक अपनी बीवी के साथ जा सकता हूँ। अब आप तो जायँ, मैं जरा इनसे दो-दो बातें कर लूँ, फिर शादी की राय पीछे दी जायगी।

आजाद उठने ही को थे कि दुलहिन ने पाँव से दामन दबा दिया।

आजाद – अब बताओ, उठने नहीं देतीं, मैं क्या करूँ।

खोजी – (डपट कर) छोड़ दो।

आजाद – छोड़ दो साहब, देखो तुम्हारे मियाँ खफा होते हैं।

खोजी – अभी मुझे मियाँ न कहिए, शादी-बयाह नाजुक मामला है।

आजाद – पहले आपकी इनसे शादी हो जाय, फिर अगर बंदा आँख उठाके देखे तो गुनहगार।

खोजी – अच्छा मंजूर, मगर इतना समझा देना कि यह बड़े कड़े खाँ हैं, नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देते। मगर आप क्यों समझायेंगे। मैं खुद ही क्यों न कह दूँ। सुनो बी साहब, हमारे साथ चलती हो तो शर्ते माननी होंगी। एक यह कि किसी गैर आदमी को सूरत न दिखाओ। दूसरी यह कि मुझे जो कोई औरत देखती है, पहरों घूरा करती है, टकटकी बँध जाती है। ऐसा न हो कि तुम्हें सौतिया डाह होने लगे। भई आजाद, जरा इनको इनकी जबान में समझा दो।

आजाद – आप जरा एक मिनट के लिए बाहर चले जाइए, तो मैं सब बातें समझा दूँ।

खोजी – जी, दुरुस्त यह भर्रे लौंडों को दीजिएगा, आप ऐसे छोकड़े मेरी जेब में पड़े हैं। और सुनिए, क्या उल्लू समझा है! अब तुम जाओ, हम इनसे दो-दो बात कर लें।

आजाद बाहर चले गए तो खोजी पलंग पर दुलहिन के पास बैठे और बोले – भई, अब तो घूँघट उठा लो, जब हम तुम्हारे हो चुके तो हमसे क्या शर्म, क्यों तरसाती हो?

जब दुलहिन ने अब भी घूँघट न खोला तो खोजी जरा और आगे खिसक गए – जानेमन, इस वक्त शर्म को भून खाओ, क्यों तरसाती हो, अरे, अब कब लग तरसाए रखियो जी! कब लग तरसाए रखियो जी!

दो-तीन मिनट तक खोजी ने गा-गा कर रिझाया मगर जब यों भी दुलहिन ने न माना तो आपने उसके घूँघट की तरफ हाथ बढ़ाया। एकाएक दुलहिन ने उनका हाथ पकड़ लिया। अब आप लाख जोर मारते हैं, मगर हाथ नहीं छूटता। तब आप खुशामद की बातें करने लगे। छोड़ दो भाई, भला किसी गरीब का हाथ तोड़ने से तुम्हें क्या मिलेगा। और यह तो तुम जानती हो कि मैं तुमसे जोर न करूँगा। फिर क्यों दिक करती हो, मेरा तो कुछ न बिगड़ेगा, अगर तुम्हारे मुलायम हाथ दुखने लगेंगे।

यह कह कर खोजी दुलहिन के पैरों पर गिर पड़े और टोपी उतार कर उसके कदमों पर रख दी। उनकी हरकत पर दुलहिन को हँसी आ गई।

खोजी – वाह हँसी आई, नाक पर आई, बस अब मार लिया है, अब इसी बात पर गले लग जाओ।

दुलहिन ने हाथ फैला दिए। खोजी गले मिले तो दुलहिन ने इतने जोर से दबाया कि आप चीख पड़े। छोड़ दो, छोड़ दो, चोट आ जायगी। मगर अब की दुलहिन ने उन्हें उठा कर दे मारा और छाती पर सवार हो गई। मियाँ खोजी अपनी बदनसीबी पर रोने लगे। इनको रोते देख कर उसने छोड़ दिया, तब आप सोचे कि बिना अपनी जवाँमरदी दिखाए, इस पर रोब न जमेगा। बहुत होगा, मार डालेगी, और क्या। आपने कपड़े उतारे और पैंतरा बदल कर बोले – सुनो जी, हम शाहजादे हैं। तलवार के धनी, बात के शूर, नाक पर मक्खी बैठ जाय तो तलवार से नाक उड़ा दें, समझीं? अब तक मैं दिल्लगी करता था। तुम औरत, मैं मर्द, अगर अब की तुमने जरा भी गुस्ताखी की तो आग हो जाऊँगा। ले अब घूँघट उठा दो, वरना खैरियत नहीं है। यह कहीं ऊँचा तो नहीं सुनती? (तालियाँ बजा कर) अजी सुनती हो, बुर्का उठाओ।

ख्वाजा साहब बका किए, मगर वहाँ कुछ असर न हुआ। तब आप बिगड़ गए और फिर पैंतरे बदलने लगे। अब की दुलहिन ने उन्हें बगल में दबा लिया; अब आप तड़प रहे हैं; दाँत पीसते हैं, मगर गरदन नहीं छूटती। तब आपने झल्ला कर दाँत काट खाया। काटना था कि उसने जोर से एक थप्पड़ दिया। ख्वाजा साहब का मुँह फिर गया। तब आप कोसने लगे – खुदा करे तेरे हाथ टूटें। हाय, अगर इस वक्त खुदा एक मिनट के लिए जोर दे-दे तो सुर्मा बन डालूँ।

मिस क्लारिसा और मीडा एक झरोखे से यह कैफियत देख रही थीं, जब खोजी पिट-पिटा कर बाहर निकले तो क्लारिसा ने कहा – मुबारक हो।

आजाद – कहिए, दुलहिन कैसी है? यार, हो खुशनसीब!

खोजी – खुदा करे, आप भी ऐसे खुशनसीब हों।

आजाद – हमने तो बड़ी तारीफ सुनी थी, मगर तुम कुछ रंजीदा मालूम होते हो, इसका क्या सबब?

खोजी – भाईजान, वहाँ तो फौजदारी हो गई। औरत क्या, देवनी है, वल्लाह, कचूमर निकल गया।

आजाद – आप तो हैं पागल, यह इस मुल्क का रिवाज है कि पहले दिन दो घंटे तक दुलहिन मियाँ को मारती है, काट खाती है, फिर मियाँ बाहर आता है, फिर जाता है।

खोजी – अजी, वहाँ तो मार-पीट तक हो गई, जी में तो आया था कि उठा कर दे मारूँ; मगर औरत के मुँह कौन लगे। देखे, अब की कैसी गुजरती है, या तो वही नहीं या हमी नहीं।

आजाद – क्या सच-मुच फौजदारी ही पर आमादा हो? भाई, करौली अपने साथ न ले जाना, और जो हो सो हो।

खोजी – अजी, यहाँ हाथ क्या कम हैं! करौली मर्द के लिए हैं, औरत के लिए करौली की क्या जरूरत?

आजाद – बस, अब की जाके मीठी-मीठी बातें करो। हाथ जोड़ो, पैर दबाओ, फिर देखिए, कैसी खुशी होती हैं। अब देर होती है, जाइए।

ख्वाजा साहब कमरे में गए और दुलहिन के पाँव दबाने लगे।

दुलहिन – हमको छोड़ कर चले तो न जाओगे।

खोजी – अरे, यह तो उर्दू बोल लेती हैं, यह क्या माजरा है!

दुलहिन – मियाँ, कुछ न पूछो। हमको एक हब्शी बहका कर बेचने के लिए लिए जाता था। बारे खुदा-खुदा करके यह दिन नसीब हुआ।

खोजी – अब तक तुम हमसे साफ-साफ न बोलीं! ख्वाहमख्वाह किसी भले आदमी को दिक करने से फायदा?

दुलहिन – तुम्हारे साथी आजाद ने हमें जैसा सिखाया वैसा हमने किया।

खोजी – अच्छा आजद। ठहर जाओ बचा, जाते कहाँ हो। देखो तो कैसा बदला लेता हूँ।

यह कह कर खोजी ने अपनी टोपी दुलहिन के कदमों पर रख दी और बोले – बीबी, बस अब यह समझो कि मियाँ नहीं, खिदमतगार है। मगर कब तक? जब तक हमारी हो कर रहो। उधर आपने तेवर बदले, इधर हम बिगड़ खड़े हुए। मुझसे बढ़ कर मुरव्वतदार कोई नहीं, मगर मुझसे बढ़ कर शरीर भी कोई नहीं; अगर किसी ने मुझसे दोस्ती की तो उसका गुलाम हो गया, और अगर किसी ने हेकड़ी जताई तो मुझसे ज्यादा पाजी कोई नहीं। डंडे से बात करता हूँ। देखने में दुबला हूँ, मगर आज तक किसी ने मुझे जेर नहीं किया। सैकड़ों पहलवानों से लड़ा, और हमेशा कुश्तियाँ निकालीं।

दुलहिन – तुम्हारे पहलवान होने में शक नहीं, वह तो डील-डौल ही से जाहिर है।

खोजी – इसी बात पर अब घूँघट हटा दो।

दुलहिन – यह घूँघट नहीं है जी, कल से हमारी मूँछ में दर्द है।

खोजी – काहे में दर्द है, क्या कहा?

दुलहिन – ऐ, मूँछ तो कहा, कानों की ठेठियाँ निकाल।

खोजी – मूँछ क्या! बकती क्या हो? औरत हो या मर्द? खुदा जाने, तुम मूँछ किसको कहती हो।

दुलहिन – (खोजी की मूँछ पकड़ कर) इसे कहते हैं, यह मूँछ नहीं हैं?

खोजी – अल्लाह जानता है, बड़ी दिल्लगीबाज हो, मैं भी सोचता था कि क्या कहती हैं।

दुलहिन – अल्लाह जानता है, मेरी मूँछों में दर्द है।

ख्वाजा साहब ने गौर करके देखा तो जरा-जरा सी मूँछें। पूछा – आखिर बताओ तो जानेमन, यह मूँछ क्या है?

दुलहिन – देखता नहीं, आँखें फूट गई हैं क्या?

खोजी – ऐ तो बीबी, आखिर यह मूँछ कैसी? कहता तो कहता, सुनता सिड़ी हो जाता है। औरत हो या मर्द। खुदा जाने, तुम मूँछ किसे कहती हो?

दुलहिन – तो तुम इतना घबराते क्यों हो? मैं मरदानी औरत हूँ।

खोजी – भला औरत और मूँछ से क्या वास्ता?

दुलहिन – ऐ है; तुम तो बिलकुल अनाड़ी हो, अभी तुमने औरतें देखी कहाँ?

खोजी – ऐसी औरतों से बाज आए।

एकाएक दुलहिन ने घूँघट उठा दिया तो खोजी की जान निकल गई। देखा तो वही बहुरूपिया। बोले – जी चाहता है कि करौली भोंक दूँ, कसम खुदा की, इस वक्त यही जी चाहता है।

बहुरूपिया – पहले उस पारसल के रुपए लाइए जिसका लिफाफा आपने अपने नाम लिखवा लिया था। बस, अब दाएँ हाथ से रुपए लाइए!

खोजी – ओ गीदी, बस अलग ही रहना, तुम अभी मेरे गुस्से से वाकिफ नहीं हो?

बहुरूपिया – खूब वाकिफ हूँ। कमजोर, मार खाने की निशानी।

खोजी – हम कमजोर हैं? अभी चाहूँ तो गरदन तोड़के रख दूँ। जा कर होटल-वालों से तो पूछो कि किस जवाँमरदी के साथ मिस्र के पहलवानों को उठा के दे मारा।

बहुरूपिया – अच्छा, अब तुम्हारी कजा आई है। ख्वाहमख्वाह हाथ-पाँव के दुश्मन हुए हो।

खोजी – सच कहता हूँ, अभी तुमने मेरा गुस्सा नहीं देखा, मगर हम-तुम परदेशी हैं, हमको-तुमको मिल-जुल कर रहना चाहिए। तुम न जाने कैसे हिंदोस्तानी हो कि हिंदोस्तानी का साथ नहीं देते।

बहुरूपिया – पारसल का रुपया दाहिने हाथ से दिलवाइए तो खैर।

खोजी – अजी, तुम भी कैसी बातें करते हो; ‘हिसाबे दोस्ताँ दर दिल अगर हम बेवफा समझे।’ पारसल का जिक्र कैसा, बजाज की दुकान पर हम भी तो तुम्हारी तरफ से कुछ पूज आए थे? कुछ तुम समझे, कुछ हम समझे।

इतने में आजाद दोनों लेडियों के साथ अंदर आए।

आजाद – भाई, शादी मुबारक हो। यार, आज हमारी दावत करो।

खोजी – जहर खिलाओ और दावत माँगो। यह जो हमने आपको लाखों खतरों से बचाया उसका यह नतीजा निकला। अब हम या तो यहीं नौकरी कर लेंगे, या फिर रूम वापस जाएँगे। वहाँ के लोग कद्रदाँ हैं, दो-चार शेर भी कह लेंगे तो खाने भर को बहुत है। खैर, आदमी कुछ खो कर सीखता है। हम भी खो कर सीखे, अब दुनिया में किसी का भरोसा नहीं रहा।

क्लारिसा – यह मिठाइयाँ न देने की बातें हैं, यह चकमे किसी और को देना, हम बे-दावत लिए न रहेंगे।

खोजी – हाँ साहब, आपको क्या। खुदा करे, जैसी बीवी हमने पाई, वैसा ही शौहर तुम पाओ, अब इसके सिवा और क्या दुआ दूँ।

मीडा – हमने तो बहुत सोच-समझ कर तुम्हारी शादी तजवीज की थी।

खोजी – अजी, रहने भी दो। हमें आप लोगों से कोई शिकायत नहीं, मगर आजाद ने बड़ी दगा दी। हिंदोस्तान से इतनी दूर आए। तब मौका पड़ा, इनके लिए जान लड़ा दी। पोलैंड की शाहजादी के यहाँ हमीं काम आए, वरना पड़े-पड़े सड़ जाते। इन सब बातों का अंजाम यह हुआ कि हमीं पर चकमे चलने लगे। अब चाहे जो हो, हम आजाद की सूरत न देखेंगे।

आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 102

चौथी के दिन रात को नवाब साहब ने सुरैया बेगम को छेड़ने के लिए कई बार फीरोजा बेगम की तारीफ की। सुरैया बेगम बिगड़ने लगीं और बोली – अजब बेहूदा बातें हैं तुम्हारी, न जाने किन लोगों में रहे हो कि ऐसी बातें जबान से निकलती हैं।

नवाब – तुम नाहक बिगड़ती हो, मैं तो सिर्फ उनके हुस्न की तारीफ करता हूँ।

सुरैया – ऐ, तो कोई ढूँढ़के वैसी ही की होती।

नवाब – तुम्हारे यहाँ कभी-कभी आया-जाया करती है?

सुरैया – मुझे उस घर का हाल क्योंकर मालूम हो। मगर जो तुम्हारे यही लच्छन हैं तो खुदा ही मालिक है। आज ही से ये बातें शुरू हो गईं। हाँ, सच है, घर की मुर्गी साग बराबर। खैर, अब तो मैं आ कर फँस ही गई, मगर मुझे वही मुहब्बत है जो पहले थी। हाँ, अब तुम्हारी मुहब्बत अलबत्ता जाती रही।

नवाब – तुम इतनी समझदार हो कर जरा सी बात पर इतना रूठ गईं। भला अगर मेरे दिल में यही होता तो मैं तुम्हारे सामने उनकी तारीफ करता, मुझे कोई पागल समझा है? मतलब यह था कि दो घड़ी की दिल्लगी हो, मगर तुम कुछ और ही समझीं। खुद याद रखना कि जब तक मेरी और तुम्हारी जिंदगी है, किसी और औरत को बुरी नजर से न देखूँगा। आगे देखूँ तो शरीफ नहीं।

सुरैया – वह औरत क्या जो अपने शौहर के सिवा किसी मर्द को बुरी नजरों से देखे और वह मर्द क्या जो अपनी बीवी के सिवा पराई बहू-बेटी पर नजर डाले।

नवाब – बस, यही हमारी भी राय है और जो लोग दस-दस शादियाँ करते हैं उनको मैं अहमक समझता हूँ।

सुरैया – देखना इन बातों को भूल न जाना।

सुबह को दुलहिन के मैके से महरी आई और अर्ज की कि आज साली ने दूल्हा और दुलहिन को बुलाया है, पहला चाला है।

बेगम – (नवाब साहब की माँ) तुम्हारे यहाँ वह लड़की तो बड़े ही गजब की है, फीरोजा, किसी से दबती ही नहीं!

महरी – हुजूर, अपना-अपना मिजाज है।

बेगम – अरे, कुछ तो शर्म-हया का खयाल हो। बेचारी फैजन को बात-बात पर बनाती थी। वह लाख गँवारों की सी बातें करे, फिर इससे क्या, जो अपने यहाँ आए उसकी खातिर करनी चाहिए, न कि ऐसा बनाए कि वह कभी फिर आने का नाम ही न ले।

खुरशेद – (नवाब की बहन) हमको तो उनकी बातों से ऐसा मालूम होता था कि (दबे दाँतों) नेक नहीं, आगे खुदा जाने।

बेगम – यह न कहो बेटा, अभी तुमने देखा क्या है।

नवाब – (इशारा करके) उनकी महरी बैठी है, उसके सामने कुछ न कहो।

बेगम साहब ने सुरैया बेगम को उसी वक्त रुखसत किया। शाम को दूल्हा भी चला। मुसाहबों ने उसकी रियासत और ठाट-बाट की तारीफ करनी शुरू की –

बबरअली – हुजूर, इस वक्त ईरान के शाहजादे मालूम होते हैं।

नूरखाँ – इसमें क्या शक है, यह मालूम होता है कि कोई शाहजादा मसनद लगाए बैठा है।

बबरअली – हुजूर, आज जरा चौक की तरफ से चलिएगा। जरा इधर-उधर कमरों से तारीफ की आवाज तो निकले।

नवाब – क्या फायदा, जिसके बीवी हो, उसको इन बातों में न पड़ना चाहिए।

नूरखाँ – ऐ हुजूर, यह तो रियासत का तमगा ही है।

ईदू – ऐ हुजूर, यह तो गरीब आदमियों के लिए है कि एक से ज्यादा न हो, दूसरी बीवी को क्या खिलाएगा, खाक! मगर अमीरों का तो यह जौहर है। बादशाहों के आठ-आठ नौ-नौ से ज्यादा महल होते थे, एक-दो की कौन कहे। जिसे खुदा देता है वही इस काबिल समझा जाता है।

इन लोगों ने नवाब साहब को ऐसा चंग पर चढ़ाया कि चौक ही से ले गए, मगर नवाब साहब ने गरदन जो नीची की तो चौक भर में किसी कमरे की तरफ देखा ही नहीं। इस पर मुसाहबों ने हाशिए चढ़ाए – ऐ हुजूर, एक नजर तो देख लीजिए, कैसा कटाव हो रहा है। सारी खुदाई का हाल तो कौन जाने, मगर इस शहर में तो कोई जवान हुजूर के चेहरे-मोहरे को नहीं पाता। बस, यही मालूम होती है कि शेर कछार से चला आता है।

नवाब साहब दिल में सोचते जाते थे कि इन खुशामदियों से बचना मुश्किल है। इनके फंदे में फँसे और दाखिल जहन्नुम हुए। हमने ठान ली है कि अब किसी औरत को बुरी निगाह से न देखेंगे। याहें हँसी-दिल्लगी की और बात है।

नवाब साहब ससुराल में पहुँचे, तो बाहर दीवानखाने में बैठे। नाच शुरू हुआ और मुसाहबों ने तायफों की तारीफ के तुल बाँध दिए – जनाब, ऐसी गाने वाली अब दूसरी शहर में नहीं है, अगर शाही जमाना होता तो लाखों रुपए पैदा कर लेती और अब भी हमारे हुजूर के जहर-शिनास बहुत हैं, मगर फिर भी कम हैं। क्यों हुजूर, होली गाने को कहूँ?

नवाब – जो जी चाहे, गाएँ।

मुसाहब – हुजूर, फरमाते हैं, यह जो गायँगी, अपना रंग जमा लेंगी, मगर होली हो तो और भी अच्छा।

नवाब – हमने यह नहीं कहा, तुम लोग हमें जलील करा दोगे।

मुसाहब – क्या मजाल हुजूर, हुजूर का नमक खाते हैं, हम गुलामों से यह उम्मीद? चाहे सिर जाता रहे, मगर नमक का पास जरूर रहेगा, और यह तो हुजूर, दो घड़ी हँसने-बोलने का वक्त ही है।

गनीमत जान इस मिल बैठने को,
जुदाई की घड़ी सिर पर खड़ी है।

इसके बाद नवाब साहब अंदर गए और खाना खाया। साली ने एक भारी खिलअत बहनोई को और एक कीमती जोड़ा बहन को दिया। दूसरे दिन दूल्हा-दुलहिन रुखसत हो कर घर गए।

आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 103

कुछ दिन तो मियाँ आजाद मिस्र में इस तरह रहे जैसे और मुसाफिर रहते हैं, मगर जब कांसल को इनके आने का हाल मालूम हुआ तो उसने उन्हें अपने यहाँ बुला कर ठहराया और बातें होने लगी।

कांसल – मुझे आपसे सख्त शिकायत है कि आप यहाँ आए और हमसे न मिले। ऐसा कौन है जो आपके नाम से वाकिफ न हो, जो अखबार आता है उसमें आपका जिक्र जरूर होता है। वह आपके साथ मसखरा कौन है? वह बौना खोजी?

आजाद ने मुसकिरा कर खोजी की तरफ इशारा किया?

खोजी – जनाब, वह मसखरे कोई और होंगे और खोजी खुदा जाने, किस भकुए का नाम है। हम ख्वाजा साहब हैं और बौने की एक ही कही। हाय, मैं किससे कहूँ कि मेरा बदन चोर है।

आजाद – क्या अखबारों में ख्वाजा साहब का जिकर रहता है?

कांसल – जी हाँ, इनकी बड़ी धूम है, मगर एक मुकाम पर तो सचमुच इन्होंने बड़ा काम कर दिखाया था। आपका दौलतखना किस शहर में है जनाब? मुझे हैरत तो यह है कि इतने नन्हें-नन्हें तो आपके हाथ-पाँव, लड़ाई में आप किस बिरते पर गए थे।

खोजी – (मुसकिरा कर) यही तो कहता हूँ हुजूर कि मेरा बदन चोर है, देखिए जरा हाथ मिलाइए। हैं फौलाद की अँगुलियाँ या नहीं? अगर अभी जोर करूँ तो आपकी एक-आध अँगुली तोड़ कर रख दूँ।

थोड़ी देर तक वहाँ बातचीत करके आजाद चले तो खोजी ने कहा – यह आपकी अजीब आदत है कि गैरों के सामने मुझे जलील करने लगते हैं। अगर मुझे गुस्सा आ जाता और मैं मियाँ कांसल के हाथ-पाँव तोड़ देता तो बताओ कैसी ठहरती! मैं मारे मुरव्वत के तरह देता जाता हूँ, वरना मियाँ की सिट्टी-पिट्टी भूल जाती।

आजाद – अजी, ऐसी मुरव्वत भी क्या जिससे हमेशा जूतियाँ खानी पड़े। कई जगह आप पिटे, मगर मुरव्वत न छोड़ी। एक दिन इस मुरव्वत की बदौलत आप कहीं काँजी-हौस न भेजे जाइए। अच्छा, यह अब यह पूछता हूँ कि जब सारे जमाने ने मेरा हाल सुना तो क्या हुस्नआरा ने न सुना होगा?

खोजी – जरूर सुना होगा भाई, अब आज के आठवें दिन शादी लो। मगर उस्ताद, दो-एक दिन बंबई में जरूर रहना। जरा बेगम साहब से बातें होंगी।

आजाद – भाई, अब तो बीच में ठहरने का जी नहीं चाहता।

खोजी – यह नहीं हो सकता, इतनी बेवफाई करना मुनासिब नहीं, वह बेचारी हम लोगों की राह देख रही होंगी।

आजाद – अच्छा तो यह सोच लो कि अगर उन्होंने पूछा कि खोजी के साथ कोई औरत क्यों नहीं आई तो क्या जवाब दोगे? हमारी तो सलाह है कि किसी को यहीं से फाँस ले चलो?

खोजी – नहीं जनाब, मुझे यहाँ की औरतें पसंद नहीं। हाँ, अपने वतन में हो तो मुजायका नहीं।

आजाद – अच्छा कैसी औरत चाहते हो?

खोजी – बस यही कि उम्र ज्यादा न हो। और शक्ल-सूरत अच्छी हो।

आजाद – ऐसी एक औरत तो हुस्नआरा के मकान के पास है। उसी दर्जी की बीवी है जो उनके मकान के सामने रहता है। रंगत तो साँवली है, मगर ऐसी नमकीन कि आपसे क्या कहूँ और अभी कमसिन। बहुत-बहुत तो कोई 40-42 की होगी।

खोजी – भला मीडा में और उसमें क्या फर्क है?

आजाद – यह उससे दो-चार बरस कमसिन हैं, बस, और तो कोई फर्क नहीं। हाँ, यह गोरी हैं और उसका रंग साँवला है।

खोजी – भला नाम क्या है?

आजाद – नाम है शिताबजान।

खोजी – तब तो भाई, हम हाजिर हैं। मगर पक्की-पोढ़ी बात तो हो ले पहले।

आजाद – आपको इससे क्या वास्ता? कुछ तो समझ के हमने कहा है! हमारे पास उसका खत आया था कि अगर ख्वाजा साहब मंजूर करें तो मैं हाजिर हूँ।

खोजी – तब तो भाई, बनी-बनाई बात है, खुदा ने चाहा तो आज के आठवें दिन शिताबजान हमारी बगल में होंगी।

आजाद – शाम को कांसल से मिल कर चले चलो आज ही।

खोजी – कांसल! हमको शिताबजान की पड़ी है, हमारे सामने खत लिखके भेज दो। मजमून हम बताएँगे।

आजाद कलम-दावत ले कर बैठे। खोजी ने खत लिखवाया और जा कर उसे डाकखाने में छोड़ आए। तब मिस मीडा से जा कर बोले – अब हमारी खुशामद कीजिए। आज के आठवे दिन हमारे यहाँ आपकी दावत होगी। अच्छे से अच्छे किस्म की ब्रांडी तय कर रखिए। शिताबजान के हाथ पिलवाऊँगा।

मीडा – शिताबजान कौन! क्या तुम्हारी बहन का नाम है?

खोजी – अरे तोबा! शिताबजान से मेरी शादी होने वाली है। उसने मुझे भेजा था कि रूम जा कर नाम करो तो फिर निकाह होगा। अब मैं वहाँ से नाम करके लौटा हूँ, पहुँचते-पहुँचते शादी होगी।

मीडा – क्या सिन होगा? बेवा तो नहीं है?

खोजी – खुदा न करे, दर्जी अभी जिंदा है?

मीडा – क्या मियाँवाली है, और आप उसके साथ निकाह करेंगे? सिन क्या है?

खोजी – अभी क्या सिन है, कल की लड़की है, कोई पैंतालिस बरस की हो शायद।

मीडा – बस, पैंतालीस ही बरस की? तब तो उसे पालना पड़ेगा!

खोजी – हम तो किस्मत के धनी हैं।

मीडा – भला शक्ल-सूरत कैसी है?

खोजी – यह आजाद से पूछो। चाँद में मैल है, उसमें मैल नहीं, मैं तो आजाद को दुआएँ देता हूँ जिनकी बदौलत शिताबजान मिलीं।

यहाँ से खोजी होटलवालों के पास पहुँचे और उनसे भी वही चर्चा की। अजी, बिलकुल साँचे की ढली है, कोई देखे तो बेहोश हो जाय। अब आजाद के सामने उसे थोड़ा ही आने दूँगा, हरगिज नहीं।

खानसामा – तुमसे बातचीत भी हुई या दूर ही से देखा?

खोजी – जी हाँ, कई बार देख चुका हूँ। बातें क्या करती है, मिश्री की डली घोलती है।

होटलवालों ने खोजी को खूब बनाया। इतनी देर में आजाद ने जहाज का बंदोबस्त किया और एक रोज दोनों परियों और ख्वाजा साहब के साथ जहाज पर सवार हुए। सवार होते ही खोजी ने गाना शुरू किया –

अरे मल्लाह लगा किश्ती मेरा महबूब जाता है,
शिताबो की तमन्ना में मुझे दिल लेके आता है।
मगर छोड़ा विदेशी होके ख्वाजा ने गए लड़ने,
शिताबो के लिए जी मेरा कल से तिलमिलाता है।

आजाद ने शह दे-दे कर और चंग पर चढ़ाया। ज्यों-ज्यों उनकी तारीफ करते थे, वह और अकड़ते थे। जहाज थोड़ी ही दूर चला था कि एक मल्लाह ने कहा – लोगों, होशियार! तूफान आ रहा है। यह खबर सुनते ही कितनों ही के तो होश उड़ गए और मियाँ खोजी तो दोहाई देने लगे – जहाज की दोहाई! बेड़े की दोहाई! समुद्र की दोहाई! हाय शिताबजान, अरे मेरी प्यारी शिताब, दुआ माँग।

यह कह कर आपने अकड़ कर आजाद की तरफ देखा। आजाद ताड़ गए कि इस फिकरे की दाद चाहते हैं। कहा – सुभान अल्लाह, शिताब जान के लिए शिताब, क्या खूब।

खोजी – इस फन में कोई मेरी बराबरी क्या करेगा भला। उस्ताद हूँ, उस्ताद।

आजाद – और लुत्फ यह है कि ऐसे नाजुक वक्त में भी नहीं चूकते।

खोजी – या खुदा, मेरी सुन ले। यारों, रो-रो कर उसकी दरगाह से दुआ माँगो कि ख्वाजा बच जायँ और शिताबजान से ब्याह हो। खूब रोओ।

आजाद – जनाब, यह क्या सबब है कि आप सिर्फ अपने लिए दुआ माँगते हैं, और बेचारों का भी तो खयाल रखिए।

इतने में आँधी आ गई। आजाद तो जहाज के कप्तान के साथ बातें कर रहे थे। खोजी ने सोचा, अगर जहाज डूब गया तो शिताबजान क्या करेगी? फौरन अफीम की डिबिया ली और खूब कस कर कमर में बाँध कर बोले – लो यारो, हम तो तैयार हैं। अब चाहे आँधी आए या बगूला। तूफान नहीं, तूफान का बाप आए तो क्या गम है।

जहाज वाले तो घबराए हुए थे कि नहीं मालूम, तूफान क्या गुल खिलाए, मगर ख्वाजा साहब तान लगा रहे थे –

शिताबो की तमन्ना में मेरा दिल तिलमिलाता है।

आजाद – ख्वाजा साहब, आप तो बेवक्त की शहनाई बजाते हैं। पहले तो रोए-चिल्लाए और अब तान लगाने लगे।

एक ठाकुर साहब भी जहाज पर सवार थे। खोजी को गाते देख कर समझे कि यह कोई बड़े वली हैं। कदमों पर टोपी रख दी और बोले – साईं जी, हमारे हक में दुआ कीजिए।

खोजी – खुश रहो बाबा, बेड़ा पार है।

आजाद ने खोजी के कान में कहा – यार, यह तो अच्छा उल्लू फँसा! रास्ते में खूब दिल्लगी रहेगी।

ठाकुर साहब बार-बार खोजी से सवाल करते थे और मियाँ खोजी अनाप-शनाप जवाब देते थे।

ठाकुर – साईं जी, जुमे के दिन सफर करना कैसा है?

खोजी – बहुत अच्छा दिन है।

ठाकुर – और जुमेरात?

खोजी – उससे भी अच्छा।

आजाद – ठाकुर साहब, आप कब से सफर कर रहे हैं?

ठाकुर – जनाब, कोई चालीस बरस हुए।

आजाद – चालीस बरस सफर करते हो गए और अभी तक आप अच्छे और बुरे दिन पूछते जाते हैं?

ठाकुर – सनीचर के दिन आप सफर करके देख लें।

खोजी – हमने इस बारे में बहुत गौर किया है। बुरी साइत का सफर कभी पूरा नहीं होता।

ठाकुर – साईं जी, कुछ और नसीहत कीजिए, जिससे मेरा भला हो।

खोजी – अच्छा सुनो, पहली बात तो यह है कि जिस दिन चाहो, सफर करो, मगर पहर रात रहे से, तुम्हारी मंजिल दूनी हो जायगी। दूसरी नसीहत यह है कि एक बीवी से ज्यादा के साथ शादी न करना, अगर वह मर जाय तो दूसरी शादी का खयाल भी दिल में न लाना। तीसरी बात यह है कि रात को दो घंटे तक ठंडे पानी में रह कर खुदा की याद करना। गरमी, जाड़ा, बरसात तीनों मौसिमों में इसका खयाल रखना। चौथी नसीहत यह है कि अच्छे खाने और अच्छे कपड़े से परहेज रखना। खाने को जौ की रोटी और पीने को औटाया हुआ पानी काफी है।

खोजी ने यह नसीहतें कुछ इस तरह कीं, गोया वह पहुँचे हुए फकीर हैं। ठाकुर ने अपनी नोटबुक पर ये सब बातें लिख लीं और बोला – साईं जी, आपसे मुलाकात करना चाहूँ तो कैसे करूँ?

खोजी – बस, लखनऊ में शिताबजान का मकान पूछते हुए चले आना।

ठाकुर – शिताबजान कौन है?

खोजी – कोई हों, तुम्हें इससे मतलब?

यों ही ठाकुर साहब को बनाते हुए रास्ता कट गया और बंबई सामने से नजर आने लगा। खोजी की बाँछें खिल गईं, चिल्ला कर कहा – यारों, जरा देखना, शिताबजान की सवारी तो नहीं आई है। करीमबख्श नामी महरी साथ होगी। अतलस का लहँगा है, कहारों की पगड़ियाँ रँगी हुई हैं, मछलियाँ जरूर लटक रही होंगी। अरे महरी, महरी! क्या बहरी है?

लोगों ने समझाया कि साहब, अभी बंदरगाह तो आने दो। शिताबजान यहाँ से क्योंकर सुन लेंगी? बोले – अजी, हटो भी, तुम क्या जानो। कभी किसी पर दिल आया हो तो समझो? अरे नादान, इश्क के कान दो कोस तक की खबर लाते हैं, क्या शिताबजान ने आवाज न सुनी होगी? वाह, भला कोई बात है! मगर जवाब क्यों न दिया? इसमें एक लिम है, वह यह कि अगर आवाज के साथ ही आवाज का जवाब दें तो हमारी नजरों से गिर जायँ। मजा जब है कि हम बौखलाए हुए इधर-उधर ढूँढ़ते और आवाज देते हों और वह हमें पीछे से एक धौल जमाएँ और तिनक कर कहें – मुड़ीकाटा, आँखों का अंधा नाम नैनसुख, गुल मचाता फिरता है, और हम धौल खा कर रहे कि देखिए सरकार, अब की धौल लगाई तो खैर जो अब लगाई तो बिगड़ जायगी। इस पर वह झल्ला कर इस घुटी हुई खोपड़ी पर तड़ातड़ दो-चार जमा दें, तब मैं हँस कर कहूँ, तो फिर दो-एक जूते भी लगा दो, इसके बगैर तबीयत बेचैन है।

आजाद – बिलफेल कहिए तो मैं ही लगा दूँ।

खोजी – अजी नहीं, आपको तकलीफ होगी।

आजाद – अल्लाह, किस मकुए को जरा भी तकलीफ हो।

खोजी – मियाँ, पहले मुँह धो आओ, इन खोपड़ियों के सुहलाने के लिए परियों के हाथ चाहिए, तुम जैसे देवों के नहीं।

इतने में समुद्र का किनारा नजर आया, तो खोजी ने गुल मचा कर कहा – शिताबजान साहब, आपका यह गुलाम, फर्जिदाना आदाब अर्ज…।

इतना कह चुके थे कि लोगों ने कहकहा लगाया और खोजी की समझ में कुछ न आया कि लोग क्यों हँस रहे हैं।

आजाद से पूछा कि इस बेमौका हँसी का क्या सबब है? आजाद ने कहा – इसका सबब है कि आपकी हिमाकत। क्या आप शिताब के बेटे हैं जो उनको फर्जिदाना आदाब बजा लाते हैं, जोरू को कोई इस तरह सलाम करता है?

खोजी – (गालों पर थप्पड़ लगा कर) अररर, गजब हो गया, बुरा हुआ। वल्लाह, इतना जलील हुआ कि क्या कहूँ। भाई, इश्क में होश-हवास कब ठीक रहते हैं, अनाप-शनाप बातें मुँह से निकल ही जाती हैं, मगर खैर! अब तो पालकी साफ-साफ नजर आती है। वह देखिए, महरी सामने डटी खड़ी है।

अख्ख़ाह, अब तो महरी भी बाढ़ पर है!

जहाज ने लंगर डाला और उतरने लगे। ख्वाजा साहब दूर ही से शिताबजान को ढूँढ़ने लगे। आजाद दोनों लेडियों को ले कर खुश्की पर आए तो बंबई के मिरजा साहब ने दौड़ कर उन्हें गले लगाया। फिर दोनों परियों को देखकर ताज्जुब से बोले – इन दोनों को कहाँ से लाए, क्या परिस्तान की परियाँ हैं।

आजाद ने अभी कुछ जवाब न दिया था कि खोजी कफन फाड़ कर बोल उठे – इधर शिताबजान, इधर, ओ करमबक्श करमफोड़ कमबख्ती के निशान, यहाँ क्यों नहीं आती! दूर ही से बुत्ते बताती हैं!

मिरजा – किसको पुकारते हो ख्वाजा साहब, मैं बुला लूँ। क्या ब्याह लाए हो कोई परी? मगर उस्ताद नाम तो हिंदोस्तान का है, जरा दिखा तो दो।

आजाद ने खैर-आफियत पूछी और दोनों आदमियों में शाहजादा हुमायूँ फर की चरचा होने लगी। फिर लड़ाई का जिक्र छिड़ गया।

उधर ख्वाजा साहब ने अफीम घोली और चुस्की लगा कर गुल मचाया – शिताबजान प्यारी, मैं तरे वारी, जल्द से आ री, सूरत दिखा री, आँसू हैं जारी। जानमन, जिस बिस्तर पर तुम सोई थीं उसको हर रोज सूँघ लिया करता हूँ और उसी खुशबू की पर जिंदगी का दार मदार है।

तेरी-सी न बू किसी में पाई
सारे फूलों को सूँघता हूँ।

मिरजा साहब ने कहा – आखिर यह माजरा क्या है। जनाब ख्वाजा साहब, क्या सफर में अक्ल भी खो आए, यह आपको क्या हो गया है? अगर सच्चे आशिक हो तो फरियाद कैसी?

खोजी – जनाब, कहने और करने में जमीन-आसमान का फर्क है।

मिरजा –

कब अपने मुँह से आशिक शिकवए बेदाद करते हैं;

दहाने गैर से वह मिस्ल नै फरियाद करते हैं।

खोजी – मुझसे कहिए तो ऐसे दो करोड़ शेर पढ़ दूँ, आशिकी दूसरी चीज है, शायरी दूसरी चीज।

मिरजा – दो करोड़ शेर तो दस करोड़ बरस तक भी आपसे न पढ़े जाएँगे। आप दो ही चार शेर फरमाएँ।

खोजी – अच्छा तो सुनिए और गिनते जाइए, आप भी क्या कहेंगे –

यही कह-कहके हिजरे यार में फरियाद करते है;
वह भूले हमको बैठे हें जिन्हे हम याद करते हैं।

असीराने कुहन पर ताजा वह बेदाद करते हैं,
रही ताकत न जब उड़ने की तब आजाद करते हैं।

रकम करता हूँ जिस दम काट तेरी तेग अब्रू की;
गरीबाँ चाक अपना जामए फौलाद करते हैं।

सिफत होती है जानाँ जिस गजल में तेरे अब्रू की;
तो हम हर बैत पर आँखों से अपनी साद करते हैं।

अब भी न कोई शरमाए तो अंधेर है, दो करोड़ शेर न पढ़ कर सुनाऊँ तो नाम बदल डालूँ। हाँ, और सुनिए –

नहीं हम याद से रहते हैं गाफिल एकदम हमदम;
जो बुत को भूल जाते हैं खुदा को याद करते हैं।

आजाद – इस वक्त तो मिरजा साहब को आपने खूब आड़े हाथों लिया।

खोजी – अजी, यहाँ कोई एक शेर पढ़े तो हम दस करोड़ शेर पढ़ते हैं। जानते हो कहाँ के रहनेवाले हैं हम! बंबईवालों को हम समझते क्या हैं।

इतने में औरत ने खोजी को इशारे से बुलाया तो उनकी बाँछें खिल गईं। बोले – क्या हुक्म है हुजूर?

औरत – ऐ दुर हुजूर के बच्चे! कुछ लाया भी वहाँ से, या खाली हाथ झुलाता चला आता है?

खोजी – पहले तुम अपना नाम तो बताओ?

औरत – ऐ लो, पहरों से नाम रट रहा है और अब पूछता है, नाम बता दो। (धप जमा कर) और नाम पूछेगा?

खोजी – ऐ, तुमने तो धप लगानी शुरू की, जो कहीं अब की हाथ उठाया तो बहुत ही बेढब होगी।

आजाद – अरे यार, यह क्या माजरा है? बेभाव की पड़ने लगी।

खोजी – अजी, मुहब्बत के यही मजे हैं भाईजान। तुम यह बातें क्या जानो।

मिरजा – यह आपकी ब्याहता हैं या सिर्फ मुलाकात है?

शिताब – हमारे बुजुर्गों से यह रिश्ता चला आता है।

मिरजा – तो यह कहो कि तुम इनकी बहन हो।

खोजी – जनाब, जरा सँभल कर फरमाइएगा। मैं आपका बड़ा लिहाज करता हूँ।

शिताब – ऐ, तो कुछ झूठ भी है। आखिर आप मेरे हैं कौन? मुफ्त में मियाँ बनने का शौक चर्राया है?

खोजी – अरे तो निकाह तो हो ले। कसम खुदा की, लड़ाई के मैदान में भी दिल तुम्हारी ही तरफ रहता था।

आजाद – हमेशा याद करते थे बेचारे!

जब आजाद लेडियों के साथ गाड़ी में बैठ गए तब मिरजा ने खोजी से कहा – चलिए, वह लोग जा रहे हैं।

खोजी – जा रहे हैं तो जाने दीजिए। अब मुद्दत के बाद माशूक से मुलाकात हुई है, जरा बातें कर लूँ। आप चलिए, मैं अभी हाजिर होता हूँ।

वह लोग इधर रवाना हुए, उधर शिताबजान ने खोजी को दूसरी गाड़ी में सवार कराया और घर चलीं। ख्वाजा साहब खुश थे कि दिल्लगी में माशूक हाथ आया। घर पहुँच कर शिताबजान ने खोजी से कहा – अब कुछ खिलवाइए, बहुत भूख लगी है।

खोजी – भई वाह, मैं सिपाही आदमी, मेरे पास सिवा ढाल-तलवार, बरछी-कटार के और क्या है? या तमगे हैं, सो वह मैं किसी को दे नहीं सकता।

शिताब – कमाई करने गए थे वहाँ, या रास्ता नापने? तमगे ले कर चाटूँ, तलवार से अपनी गरदन मार लूँ, छुरी भोंक के मर जाऊँ? छुरी-तलवार से कहीं पेट भरता है?

खोजी – अभी कुछ खिलवाओ-पिलवाओ, जब हम रिसालदारी करेंगे तो तुमको मालोमाल कर देंगे। अब परवाना आया चाहता है। लड़ाई में मैंने जो बड़े-बड़े काम किए वह तो तुम सुन ही चुकी होगी। दस हजार सिपाहियों की नाक काट डाली। उधर दुश्मन की फौज ने शिकस्त पाई, इधर मैंने करौली उठाई और मैदान में खट से दाखिल। जिसको देखा कि बिलकुल ठंडा हो गया है, उसकी नाक उड़ा दी। जब तक लड़ाई होती रहती थी, बंदा छिपा बैठा रहता था; कभी पेड़ पर चढ़ गया, कभी किसी झोपड़े में लुक गया। मुफ्त में जान देना कौन सी अक्लबंदी है। मगर लड़ाई खतम होते ही मैदान में जा पहुँचता था। जिस शहर में जाता था, शहर भर की औरतें मेरे पीछे पड़ जाती थीं, मगर मैं किसी की तरफ आँख उठा कर भी न देखता था। गरज की लड़ाई में मैंने बड़ा नाम किया, यह मेरी ही जूतियों का सदका है कि आजाद पाशा बन बैठे। वह तो जानते भी न थे कि लड़ाई किस चिड़िया का नाम है।

शिताब – मगर यह तो बताओ कि बंदूक से नाक क्योंकर काटी जाती है?

खोजी – तुम इन बातों को क्या जानो, यह सिपाहियों के समझने की बातें हैं।

इधर आजाद मिरजा साहब के घर पहुँचे तो बेगम साहब फूली न समाईं। खिदमतगार ने आजाद को झुक कर सलाम किया। दोनों दोस्त कमरे में जा कर बैठे। मिरजा साहब ने घर में जा कर देखा तो बेगम साहब पलंग पर पड़ी थीं। महरी से पूछा तो मालुम हुआ, आज तबियत कुछ खराब है। बाहर आ कर आजाद से कहा – घर में सोती हैं और तबियत भी अच्छी नहीं। मैंने जगाना मुनासिब न समझा। आजाद समझे कि बीमारी महज बहाना है, हमसे कुछ नाराज हैं।

इतने में एक चपरासी ने आ कर मिरजा साहब को एक लिफाफा दिया। युनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार ने कुछ सलाह करने के लिए उन्हें बुलाया था। मिरजा साहब बोले – भाई, इस वक्त तो जाने को जी नहीं चाहता। मुद्दत क बाद एक दोस्त आए हैं, उनकी खातिर-तवाजो में लगा हुआ हूँ। मगर जब आजाद ने कहा कि आप जाइए, शायद कोई जरूरी काम हो, तो मिरजा साहब ने गाड़ी तैयार कराई और रजिस्ट्रार से मिलने गए।

इधर आजाद के पास जैनब ने आ कर सलाम किया।

आजाद – हुजूर के जान-माल की दुआ देती हूँ। हुजूर तो अच्छे रहे?

आजाद – बेगम साहब क्या अभी आराम ही में हैं? अगर इजाजत हो तो सलाम कर आऊँ।

जैनब – हुजूर के लिए पूछने की जरूरत नहीं, चलिए।

आजाद जैनब के साथ अंदर गए तो कमरे में कदम रखते ही महरी ने कहा – वहीं बैठिए, कुर्सी आती है।

आजाद – सरकार कहाँ हैं? बेगम साहब की खिदमत में आदाब अर्ज हैं।

बेगम – बंदगी। आपको जो कुछ कहना हो कहिए, मुझे ज्यादा बातें करने की फुरसत नहीं।

आजाद – खुदा खैर करे, आखिर किस जुर्म में यह खफगी है? कौन सा गुनाह हुआ?

बेगम – बस जबान न खुलवाइए, गजब खुदा का, एक खत तक भेजना कसम था, कोई इस तरह अपने अजीजों को तड़पाता है?

आजाद – कुसूर माफ कीजिए, बेशक गुनाह तो हुआ, मगर मैंने सोचा कि खत भेज कर मुफ्त में मुहब्बत बढ़ाने से क्या फायदा, न जाने जिंदा आऊँ या न आऊँ, इसलिए ऐसी फिक्र करूँ कि उनके दिल से भूल ही जाऊँ। अगर जिंदगी बाकी है तो चुटकियों में गुनाह माफ करा लूँगा।

इस फिकरे ने बेगम साहब के दिल पर बड़ा असर किया। सारा गुस्सा हवा हो गया। जैनब को नीचे भेजा कि हुक्का भर लाओ, खवास को हुक्म दिया कि पान बनाओ। तब मैदान खाली पा कर चिक उठा दी और बोलीं – वह कहाँ गए हैं?

आजाद – किसी साहब ने बुलाया है, उनसे मिलने गए हैं। खुदा ने मुझे यह खूब मौका दिया।

बेगम – क्या कहा, क्या कहा! जरा फिर तो कहिएगा, जरा सनूँ तो किस चीज का मौका मिला?

आजाद – यही हुजूर को सलाम करने का।

बेगम – हाँ, यों बातें कीजिए, अदब के साथ। हुस्नआरा के नाम तुमने कोई खत भेजा था? मुझे लिखा है कि जिस दिन आएँ, फौरन तार से इत्तला देना।

आजाद – अब तो यही धुन है कि किसी तरह वहाँ पहुँचूँ और जिंदगी के अरमान पूरे करूँ।

बेगम – जी नहीं,पहले आपका इम्तहान होगा। आप रंगीन आदमी ठहरे, आपका एतबार ही क्या?

आजाद – ओफ्फोह! यह बदगुमानी। खैर साहब अख्तियार है, मगर हमारे साथ चलने का इरादा है या नहीं?

बेगम – नहीं साहब, यह हमारे यहाँ का दस्तूर नहीं। बहनोई के साथ जवान सालियाँ सफर नहीं करती। वक्त पर उनके साथ आ जाऊँगी।

आजाद – खैर, इतनी इनायत क्या कम है। अब आप जा कर परदे में बैठिए, मैं दीवाना हो जाऊँगा।

बेगम – क्यों साहब, यही आपका इश्क है? इसी बूते पर इम्तहान दीजिएगा।

बेगम साहब ने वहाँ ज्यादा देर तक बैठना मुनासिब न समझा। आजाद भी बाहर चले गए। खिदमतगार ने हुक्का भर दिया। पलंग पर लेटे-लेटे हुक्का पीने लगे तो खयाल आया कि आज मुझसे बड़ी गलती हुई, अगर मिरजा साहब मुझे घूरते देख लेते तो अपने दिल में क्या कहते। अब यहाँ ज्यादा ठहरना गलती है। खुदा करे, आज के चौथे दिन वहाँ पहुँच जाऊँ। बेगम साहब ने मुझे हिकारत की निगाह से देखा होगा।

वह अभी यही सोच रहे थे कि जैनब ने बेगम साहब का एक खत ला कर उन्हें दिया। लिखा था- अभी-अभी मैंने सुना है कि आपके साथ दो लेडियाँ आई हैं। दोनों कमसिन हैं और आप भी जवान। आग और फूस का साथ क्या? अगर वाकई तुमने इन दोनों के साथ शादी कर ली है तो बड़ा गजब किया, फिर उम्मेद न रखना कि हुस्नआरा तुमको मुँह लगाएँगी। तुमने सारी की-कराई मिहनत तक खाक में मिला दी। और अगर शादी नहीं की तो यहाँ लाए क्यों? तुम्हें शर्म नहीं आती? हुस्नआरा गरीब तो तुम्हारी मुहब्बत की आग में जले और तुम सौतों को साथ लाओ –

क्या कहर हैं क्योंकर न उठे दर्द जिगर में,
मेरी तो बगल खाली है और आपके बर में।
एक आन भी मुझसे न मिलो आठ पहर में,
घर छोड़के अपना रहो यों और के घर में।

तुम और गैरों को साथ लाओ, तुम्हारी तरह हुस्नआरा भी अब तक शादी कर लेतीं तो तुम क्या बना लेते? तुमको इतना भी ख्याल न रहा कि हुस्नआरा के दिल पर क्या असर होगा! तुम्हारे हजारों चाहने वाले हैं तो उसके गाहक भी अच्छे-अच्छे शाहजादे हैं। मैंने ठान ली है कि हुस्नआरा को आपके हाल से इत्तला दूँ, और कह दूँ कि अब वह आजाद नहीं रहे, अब दो-दो बगल में रहती हैं, उस पर बहू-बेटियों पर बुरी निगाह रखते हैं। अगर तुमने मेरा इतमिनान न कर दिया तो पछताओगे।

यह खत पढ़ कर आजाद ने जैनब से कहा – क्यों, तुम इधर की उधर लगा-लगा कर आपस में लड़वाती हो? तुमने उनसे जाके क्या कह दिया, मुझसे भी पूछ लिया होता।

जैनब – ऐ हुजूर, तो मेरा इसमें क्या कुसूर। मुझसे जो सरकार ने पूछा, वह मैंने बयान कर दिया। इसमें बंदी ने क्या गुनाह किया!

आजाद – खैर, तो हुआ सो हुआ, लाओ कलम-दावात।

आजाद ने उसी वक्त इस खत का जवाब लिखा – बेगम साहब की खिदमत में आदाब-अर्ज करता हूँ। आप मुझ पर बेवफाई का इलजाम लगाती हैं। आपको शायद यकीन न आएगा, मगर अकसर मुकामों पर ऐसी-ऐसी परियाँ मुझ पर रीझी हें कि अगर हुस्नआरा का सच्चा इश्क न होता तो मैं हिंदोस्तान में आने का नाम न लेगा, मगर अफसोस है कि मेरी कुल मिहनत बेकार गई। मेरा खुदा जानता है, जिन-जिन जंगलों, पहाड़ों पर मैं गया, कोई कम गया होगा। हफ्तों एक अँधेरी कोठरी मे कैद रहा, जहाँ किसी जानदार की सूरत नजर न आती थी। और यह सब इसलिए कि एक परी मुझसे शादी करना चाहती थी और मैं इन्कार करता था कि हुस्नआरा को क्या मुँह दिखाऊँगा। यह दोनों लेडियाँ जो मेरे साथ हैं, उन्होंने मुझ पर बड़े-बड़े एहसान किए हैं। गाढ़े वक्त में काम आई हैं, वरना आज आजाद यहाँ न होता। मगर इतने पर भी आप नाराज हो रही हैं, इसे अपनी बदनसीबी के सिवा और क्या कहूँ। खुदा के लिए कहीं हुस्नआरा को न लिख भेजना। और अगर यही चाहती हो कि मैं जान दूँ तो साफ-साफ कह दो। हुस्नआरा को लिखने से क्या फायदा। और क्या लिखूँ। तबीयत बेचैन है।

बेगम साहब ने यह खत पढ़ा तो गुस्सा ठंडा हो गया, छमछम करती हुई परदे के पास आ कर खड़ी हुई तो देखा – आजाद सिर पर हाथ रख कर रो रहे हैं। आहिस्ता से पुकारा – आजाद!

जैनब – हुजूर, देखिए कौन सामने खड़ा है? जरी उधर निगाह तो कीजिए।

बेगम – आजाद, जो रोए तो हमीं को है-है करे। जैनब, जरा सुराही तो उठा ला, मुँह पर छींटे दे।

जैनब – हुजूर, क्या गजब कर रहे हैं, वह सामने कौन खड़ा है?

आजाद – (बेगम साहब की तरफ रुख कर के) क्या हुक्म है?

बेगम – मेरा तो कलेजा धक-धक कर रहा है।

आजाद – कोई बात नहीं। खुदा जाने, इस वक्त क्या याद आया। आपको तकलीफ होती है, आप जायँ, मैं बिलकुल अच्छा हूँ।

बेगम – अब चोंचले रहने दो, मुँह धो डालो, वाह, मर्द हो कर आँसू बहाते हो? तुमसे तो छोकरियाँ अच्छी। यह तुम लड़ाई में क्या करते थे?

आजाद – जलाओ और उस पर ताने दो।

बेगम – क्या खूब, जलाने की एक ही कही। जलाते तुम हो या मैं? एक छोड़ दो-दो। वहाँ से लाए, ऊपर से बातें बनाते हो, मुँह दिखाने काबिल नहीं रखा अपने को हुस्नआरा ने उड़ती खबर पाई थी कि आजाद ने किसी औरत को ब्याह लिया तो पछाड़ें खाने लगीं। एक तुम हो कि जोड़ी साथ लाए और ऊपर से कहते हो, जलाओ। तुम्हें शर्म भी नहीं आती?

आजाद – क्या टेढ़ी खीर है, न खाते बने, न छोड़ते बने।

बेगम – तो फिर साफ-साफ क्यों नहीं बता देते?

आजाद – ब्याहता बीवी हैं दोनों, और क्या कहें।

बेगम – अच्छा साहब, ब्याहता बीवी नहीं, दोनों आपकी बहनें सही, अब खुश हुए? बरसों बाद आए तो एक काँटा साथ लेके। भला सोचो, मैं चुपकी हो रहूँ तो हुस्नआरा क्या कहेगी कि वाह बहन, तुमने हमको लिखा भी नहीं। लेकिन दो में क्या फायदा होगा तुम्हें?

आजाद – आप दिल्लगी करती हैं और मैं चुप हूँ। फिर मेरी भी जुबान खुलेगी।

बेगम – तुम हमको सिर्फ इतना बतला दो कि यह दोनों यहाँ किस लिए आई हैं, तो मैं चुप ही रहूँ।

आजाद – तो उन दोनों को यहाँ बुला लाऊँ?

बेगम – उनको आने दो, उनसे सलाह लेके जवाब दूँगी।

आजाद – तो क्या आप हममें और उनमें कोई फर्क समझती हैं। मैं तो तुमको और हुस्नआरा को एक नजर से देखता हूँ।

बेगम – बस, अब मैं कह बैठूँगी। बड़े बेशर्म हो, छँटे हुए बेहया।

इतने में जैनब ने आ कर कहा – मिरजा साहब आ गए। बेगम साहब झपट कर कोठे पर हो रहीं और आजाद बारादरी में आ कर लेट रहे।

मिरजा – आपने अभी तक हम्माम किया या नहीं? बड़ी देर हो गई है। जिस तरफ जाता हूँ, लोग गाड़ी रोक कर आपका हाल पूछने लगते हैं। कल शाम को सब लोग आपसे टाउनहाल में मिलना चाहते हैं। हाँ यह तो फरमाइए, यह दोनों परियाँ कौन हैं? एक तो उनमें से किसी और मुल्क की मालूम होती है।

आजाद – एक तो रूस की है और दूसरी कोहकाफ की।

मिरजा – यार, बुरा किया। हुस्नआरा सुनेंगी तो क्या कहेंगी?

इधर तो यह बातें हो रही थीं, उधर शिताबजान ने खोजी से कहा- जरा अकेले में चलिए, आपसे कुछ कहना है। खोजी ने कहा – खुदा की कुदरत है कि माशूक तक हमसे अकेले में चलने को कहते हैं। जो हुक्म हो, बजा लाऊँ। अगर तोप के मोहरे पर भेज दो तो अभी चला जाऊँ। यह तो कहो, तुम्हारे सबब से चुप हूँ, नहीं अब तक दस-पाँच को कत्ल कर चुका होता।

यह कह कर ख्वाजा साहब झपट कर बाहर निकले। इत्तिफाक से एक गाड़ीवान आहिस्ता-आहिस्ता गाड़ी हाँकता चला जाता था। खोजी उसे गालियाँ देने लगे – भला बे गीदी, भला, खबरदार जो आज से यह अेबदबी की। तू जानता नहीं, हम कौन हैं? हमारे मकान की तरफ से गाता हुआ निकलता है। हमें भी रिआया समझ लिया है। भला बी शिताबजान गाड़ी की घड़घड़ाहट सुनेंगी तो उनके कानों को कितना नागवार लगेगा! गाड़ीवाला पहले तो घबराया कि यह माजरा क्या है! गाड़ी रोक कर खोजी की तरफ घूरने लगा। मगर जब ख्वाजा साहब झपट कर गाड़ी के पास पहुँचे, और चाहा कि लकड़ी जमाएँ कि उसने इनके दोनों हाथ पकड़ लिए। अब आप सिटपिटा रहे हैं और वह छोड़ता ही नहीं।

खोजी – कह दिया, खैर इसी में है कि हमारा हाथ छोड़ दो, वरना बहुत पछताओगे। मैं जो बिगड़ूँगा तो एक पलटन के मनाए भी न मानूँगा।

गाड़ीवान – हाथ तो अब तुम्हारे छुड़ाए नहीं छूट सकता।

खोजी – लाना तो मेरी करौली।

गाड़ीवान – लाना तो मेरा ढाई तलेवाला चमरौधा।

खोजी – शरीफों में ऐसी बातें नहीं होतीं।

गाड़ीवान – शरीफ कभी तुम्हारे बाप भी थे कि तुम्हीं शरीफ हुए?

खोजी – अच्छा, हाथ छोड़ दो। वरना इतनी करौलियाँ भोंकूँगा कि उम्र भर याद करोगे।

गाड़ीवान ने इस पर झल्ला कर खोजी का हाथ मरोड़ना शुरू किया। खोजी की जान पर बन आई, मगर क्या करें। सबसे ज्यादा ख्याल इस बात का था कि कहीं शिताबजान न देख लें, नहीं तो बिलकुल नजरों से गिर जाऊँ।

खोजी – कहता हूँ, हाथ छोड़ दे, मैं कोई ऐसा वैसा आदमी नहीं हूँ।

गाड़ीवान – मैं तो गाता हुआ चला जाता था। आपने गालियाँ क्यों दीं?

खोजी – हमारे घर की तरफ से क्यों गाते जाते थे?

गाड़ीवान – आप मना करने वाले कौन? क्या किसी की जबान बंद कर दीजिएगा?

बारे कई आदमियों ने गाड़ीवान को समझा कर खोजी का हाथ छुड़ाया। खोजी झाड़-पोंछ कर अंदर गए और शिताबजान से बोले – मैं बात पीछे करता हूँ, करौली पहले भोकता हूँ। पाजी गाता हुआ जाता था। मैंने पकड़ कर इतनी चपतें लगाईं कि भुरता ही बना दिया। मेरे मुँह में आग बरसती है। अच्छा, अब यह फरमाइए कि किस नेकबख्त बदनसीब से तुम्हारी शादी पहले हुई थी वह अब कहाँ है और कैसा आदमी था?

शिताबजान – यह तो मैं पीछे बतलाऊँगी। पहले यह फरमाइए कि उसको नेकबख्त कहा तो बदनसीब क्यों कहा? जो नेकबख्त है वह बदनसीब कैसे हो सकता है?

खोजी – कसम खुदा की, मेरी बातें जवाहिरात में तोलने के काबिल हैं। नेकबख्त इसलिए कहा कि तुम जैसी बीवी पाई। बदनसीब इसलिए कहा कि या तो वह मर गया या तुमने उसे निकाल बाहर किया।

शिताबजान – अच्छा सुनिए, पहले मेरी शादी एक खूबसूरत जवान के साथ हुई थी। जिसकी नजर उस पर पड़ी, रीझ गया।

खोजी – यहाँ भी तो वही हाल है। घर से निकलना मुश्किल है।

शिताबजान – हाजिर-जवाब ऐसा था कि बात की बात में गजलें कह डालता था।

खोजी – यह बात मुझमें भी है। दस हजार शेर एक मिनट में कह दूँ, एक कम न एक ज्यादा!

शिताबजान – मैं यह कब कहती हूँ कि तुम उससे किसी बात में कम हो। अव्वल तो जवान गभरू, अभी मसें भींगती हैं। आदमी क्या, शेर मालूम होते हो। फिर सिपाही आदमी हो, उस पर शायर भी हो। बस जरा झल्ले हो, इतनी खराबी है।

खोजी – अगर मेरा हुक्म मानती हो तो मोम हो जाऊँगा। हाँ, लड़ोगी तो हमारा मिजाज बेशक झल्ला है।

शिताबजान – मियाँ, मैं लौंडी बनके रहूँगी। मुझसे लड़ाई-झगड़े से वास्ता? मगर यह बताओ कि रहोगे कहाँ? मैं बंबई में रहूँगी। तुम्हारे साथ मारी-मारी न फिरूँगी।

खोजी – तुम जहाँ रहोगी, वहीं मैं रहूँगा; मगर…

शिताबजान – अगर-मगर मैं कुछ नहीं जानती। एक तो तुमको अफीम न खाने दूँगी! तुमने अफीम खाई और मैंने किसी बहाने से जहर खिला दिया।

खोजी – अच्छा न खाएँगे। कुछ जरूरी है कि अफीम खाए ही। न खाई, पी ली, चलो छुट्टी हुई।

शिताबजान – पीने भी न दूँगी। दूसरी शर्त यह है कि नौकरी जरूर करो, बगैर नौकरी के गुजारा नहीं। तीसरी शर्त यह है कि मेरे दोस्त और रिश्तेदार जो आते हैं, बदस्तूर आया करेंगे।

खोजी – वाह, कहीं आने न दूँ। इन बदमाशों को फटकने न दूँगा।

शिताबजान – अच्छा तो कल मेरे घर चलो, वहीं हमारा निकाह होगा।

दूसरे दिन खोजी शिताबजान के साथ उसके घर चले। बंबई से कई स्टेशन के बाद शिताबजान गाड़ी से उतर पड़ी और खोजी से कहा – अब आपके पास जितने रुपए पैसे हों, चुपके से निकाल कर रख दो। मेरे घरवाले बिना नजराना लिए शादी न करेंगे।

खोजी ने देखा कि यहाँ बुरे फँसे। अब अगर कहते हैं कि मेरे पास रुपए नहीं हैं तो हेठी होती है। उन्होंने समझा था कि शादी का दो घड़ी मजाक रहेगा, मगर अब जो देखा कि सचमुच शादी करनी पड़ेगी तो चौकन्ने हुए। बोले – मैं तो दिल्लगी करता था जी। शादी कैसी और ब्याह कैसा? कुछ ऊपर साठ बरस का तो मेरा सिन है, अब भला मैं शादी क्या करूँगा। तुम अभी जवान हो, तुमको सैकड़ों जवान मिल जाएँगे।

शिताबजान – तुमको इससे मतलब क्या! इसकी मुझे फिक्र होनी चाहिए। जब मेरा तुम पर दिल आया और तुम भी निकाह करने पर राजी हुए तो अब इनकार करना क्या माने। अच्छे हो तो मेरे, बुरे हो तो मेरे।

मियाँ खोजी घबराए, सिट्टी-पिट्टी भूल गई। अपनी अक्ल पर बहुत पछताए और उसी वक्त आजाद के नाम यह खत लिखा – मेरे बड़े भाई साहब, सलाम! मेरी आँख से अब गफलत का परदा उठ गया। मैं कुछ ऊपर साठ बरस का हूँगा। इस सिन में निकाह का ख्याल सरासर गैर मुनासिब है। मगर शिताबजान मुझ पर बुरी तरह आशिक हो गई है। उसका सबब यह है कि जिस तरह मेरा जिस्म चोर है उसी तरह मेरी सूरत भी चोर है। मुझे कोई देखे तो समझे कि हड्डियाँ तक गल गई हैं, मगर आप खूब जानते हैं कि इन्हीं हड्डियों के बल पर मैंने मिस्र के नामी पहलवान को लड़ा दिया और बुआ जाफरान जैसी देवनी की लातें सहीं। दूसरा होता, तो कचूमर निकल जाता। उसी तरह मेरी सूरत में भी यह बात है कि जो देखता है, आशिक हो जाता है। मैं खुद सोचता हूँ कि यह क्या बात है, मगर कुछ समझ में नहीं आता। खैर, अब आपसे यह अर्ज है कि खत देखते मेरी मदद के लिए दौड़ो, वरना मौत का सामना है। सोचा था कि शादी न होगी तो लोग हँसेंगे कि आजाद तो दो-दो साथ लाए और ख्वाजा साहब मोची के मोची रहे। लेकिन यह क्या मालूम था कि यह शादी मेरे लिए जहर होगी। जरा शर्तें तो सुनिए – अफीम छोड़ दो और नौकरी कर लो। अब बताइए कि अफीम छोड़ दूँ तो जिंदा कैसे रहूँ? अब रही नौकरी। यहाँ लड़कपन से फिकरेबाजों की सोहबत में रहे। गप्पे उड़ाना, बातें बनाना, अफीम की चुस्की लगाना हमारा काम है। भला हमसे नौकरी क्या होगी, और करना भी चाहें तो किसकी नौकरी करें। सरकारी नौकरी तो मिलने से रही, वहाँ तो आदमी पचपन साल का हुआ और निकाला गया, और यहाँ पचपन और दस पैंसठ बरस के हैं। हम तो इसी काम के हैं कि किसी नवाबजादे की सोहबत में रहें और उसको ऐसा पक्का रईस बना दें कि वह भी याद करे। चंडू का कवाम हमसे बनवा ले, अफीम ऐसी पिलाएँ कि उम्र भर याद करे, रहा यह कि हम जमा खर्च लिखें, यह हमसे न होगा, जिसको अपना काम गारत कराना हो वह हमें नौकर रखे। इसलिए अगर मेरा गला यहाँ से छुड़ा दो तो बड़ा एहसान हो। खुदा जाने, तुम लोग मुझे क्यों खाक में मिलाते हो, तुम्हारे साथ रूम गया, तुम्हारी तरफ से लड़ा-भिड़ा, वक्त-बेवक्त काम आया और अब तुम मुझे जबह किए देते हो।

यह खत लिख कर शिताबजान को दिया और आजाद के पास जल्द पहुँचा दो। शादी के मामले में उनसे कुछ सलाह करनी है।

शिताबजान – सलाह की क्या जरूरत है भला?

खोजी – शादी-ब्याह कोई खाला जी का घर नहीं है, जरा आदमी को इस बारे में ऊँच-नीच सोच लेना चाहिए, मैंने सिर्फ यह पूछा है कि तुम्हारी शर्तें मंजूर करूँ या नहीं।

शिताबजान – अच्छा जाओ, मैं कोई शर्त नहीं करती।

खोजी – अब मंजूर, दिल से मंजूर, मगर यह खत तो भेज दो।

अब सुनिए कि सिताबजान के साथ एक खाँ साहब भी थे। मालबे के रहनेवाले। उन्होंने खोजी को दो दिन में इतनी अफीम पिला दी जितनी वह चार दिन में भी न पीते। सफर में सेहत भी कुछ बिगड़ गई थी। दो ही दिन में चुर्र-मुर्र हो गए। लेटे-लेटे खाँ साहब से बोले – जनाब, दूसरा इतनी अफीम पीता तो बोल जाता, क्या मजाल कि इस शहर में कोई मेरा मुकाबिला कर सके, और इस शहर पर क्या मौकूफ है, जहाँ कहिए, मुकाबिले के लिए तैयार हूँ, कोई तोले भर पिए तो मैं सेर भर पी जाऊँ।

खाँ साहब – मगर उस्ताद, आज कुछ अंजर-पंजर ढीले नजर आते हैं, शायद अफीम ज्यादा हो गई।

खोजी – वाह, ऐसा कहीं कहिएगा भी नहीं। जब जी चाहे, साथ बैठ कर पी लीजिए।

शाम तक खोजी की हालत और भी खराब हो गई। शिताबजान ने उन्हें दिक करना शुरू किया। ऐ आग लगे तेरे सोने पर मरदुए, कब तक सोता रहेगा!

खोजी – सोने दो, सोने दो।

शिताब – भला खैर, हम तो समझे थे, खबर आ गई।

खाँ – कहती किससे हो, वह पहुँचे खुदागंज।

शिताब – ऐ फिर पिनक आ गई, अभी तो जिंदा हो गया था।

खाँ – (कान के पास जा कर) ख्वाजा साहब!

खोजी – जरा सोने दो भाई।

शिताब – मेरे यहाँ पिनकवालों का काम नहीं है।

खाँ – ख्वाजा साहब, अरे ख्वाजा साहब, ये बोलते ही नहीं! चल बसे!

ख्वाजा साहब की हालत जब बहुत खराब हो गई, तो एक हकीम साहब बुलाए गए। उन्होंने कहा – जहर का असर है। नुस्खा लिखा। बारे कुछ रात जाते-जाते नशा टूटा। खोजी की आँखें खुलीं।

शिताब – मैं तो समझी थी, तुम चल बसे।

खोजी – ऐसा न कहो भाई, जवानी की मौत बुरी होती है।

शिताब – मर मुड़ीकाटे, अभी जवान बना है!

खोजी – बस जबान सँभालो, हम समझ गए कि तुम कोई भठियारी हो। मैं अगर अपने हालात बयान करूँ तो आँखें खुल जाएँ। हम अमीर-कबीर के लड़के हैं। लड़कपन में हमारे दरवाजे पर हाथी बँधता था, तुम जैसी भठियारियों को मैं क्या समझता हूँ।

यह कह कर आप मारे गुस्से के घर से निकल खड़े हुए, समझते थे कि शिताबजान मुझ पर आशिक है ही, उससे भला कैसा रहा जायगा, जरूर मुझे तलाश करने आएगी, लेकिन जब बहुत देर गुजर गई और शिताबजान ने खबर न ली तो आप लौटे! देखा तो शिताबजान का कहीं पता नहीं, घर का कोना-कोना टटोला, मगर शिताबजान वहाँ कहाँ? उसी महल्ले में एक हबशिन रहती थी। खोजी ने जा कर उससे अपना सारा किस्सा कहा, तो वह हँस कर बोली – तुम भी कितने अहमक हो। शिताबजान भला कौन है? तुमको मिरजा साहब और आजाद ने चकमा दिया है।

खोजी को आजाद की बेवफाई का बहुत मलाल हुआ। जिसके साथ इतने दिनों तक जान-जोखिम करके रहे, उसने हिंदोस्तान में लाके उन्हें छोड़ दिया। खूब रोए, तब हबशिन से बातें करने लगे –

खोजी – किस्मत कहाँ से हमें कहाँ लाई?

हबशिन – आपका घोंसला किस झाड़ी में है?

खोजी – हम खोजिस्तान के रहनेवाले हैं।

हबशिन – यह किस जगह का नाम लिया? खोजिस्तान तो किसी जगह का नाम नहीं मालूम होता।

खोजी – तो क्या सारी दुनिया तुम्हारी देखी हुई है? खोजिस्तान एक सूबा है, शकरकंद और जिलेबिस्तान के करीब। बताशा नदी उसे सैराब करता है।

हबशिन – भला शकरकंद भी कोई देस है?

खोजी – है क्यों नहीं, समरकंद का छोटा भाई है।

हबशिन – वहाँ आप किस मुहल्ले में रहते थे?

खोजी – हलुवापुर में।

हबशिन – तब तो आप बड़े मीठे आदमी हैं।

खोजी – मीठे तो नहीं, हैं तो तीखे, नाक पर मक्खी नहीं बैठने देते, मगर मीठी नजर के आशिक हैं –

ख्वाहिश न कंद की है, न तालिब शकर के हैं;

चस्के पड़े हुए तेरी मीठी नजर के हैं।

हबशिन – तो आप भी मेरे आशिकों मे हैं?

खोजी – आशिक कोई और होंगे, हम माशूकों के माशूक हैं। सारी दुनिया छान डाली, पर जहाँ गया, माशूकों के मारे नाक में दम हो गया। बुआ जाफरान नामी एक औरत हम पर इतनी रीझी कि पट्टे पकड़के दे जूता दे जूता मारके उड़ा दिया। मगर हमारी बहादुरी देखो कि उफ तक न की।

हबशिन – हमको यकीन क्योंकर आए? हम तो जब जानें कि सिर झुकाओ और हम दो-चार लगाएँ, फिर देखें, कैसे नहीं उफ करते।

खोजी – हाँ, हम हाजिर हैं, मगर आज अभी अफीम यों ही सी पी है। जब नशा जमे तब अलबत्ता आजमा लो।

हबशिन – ऐ है, फिर निगोड़ी अफीम का नाम लिया, मरते-मरते बचे और अब तक अफीम ही अफीम कहते जाते हो?

खोजी – तुम इसके मजे क्या जानो। अफीम खाना फकीरी है। गरूर को तो यह खाक में मिला देती है। मैं कितनी ही जगह पिटा, कभी जूतियाँ खाईं, कभी कोई काँजीहौस ले गया, मगर हमने कभी जवाब न दिया।

हबशिन चली गई तो खोजी साहब ने एक डोली मँगवाई और उसमें बैठ कर चंडूखाने पहुँचे। लोगों ने इन्हें देखा तो चकराए कि यह नया पंछी कौन फँसा।

खोजी – सलाम आलेकुम भाइयो!

इमामी – आलेकुम भाई, आलेकुम। कहाँ से आना हुआ?

खोजी – जरा टिकने दो, फिर कहूँ। दो बरस लड़ाई पर रहा, जब देखो मारेचाबंदी, मर मिटा, मगर नाम भी वह किया कि सारी दुनिया में मशहूर हो गया।

इमामी – लड़ाई कैसी? आजकल तो कहीं लड़ाई नहीं है।

खोजी – तुम घर में बैठे-बैठे दुनिया का क्या हाल जानो।

कादिर – क्या रूम-रूम की लड़ाई से आते हो क्या?

खोजी – खैर, इतना तो सुना।

इमामी – अजी, यह न कहिए, इनको सारी दुनिया का हाल मालूम रहता है। कोई बात इनसे छिपी थोड़ी हैं।

कादिर – रूमवाले ने रूस के बादशाह से कहा कि जिस तरह तुम्हारा चचा हकीमी कौड़ी देता था उसी तरह तुम भी दिया करो, मगर उसने न माना। इसी बात पर तकरार हुई, तो रूमवाले ने कहा, अच्छा, अपने चचा की कब्र में चलो और पूछ देखो, क्या आवाज आती है। बस जनाब, सुनने की बात है कि रूमवाले ने न माना। रूम के बादशाह के पास हजरत सुलेमान की अँगूठी थी। उन्होंने जो उसे हवा में उछाला, तो सैकड़ों जिन्न हाजिर हो गए। बादशाह ने कहा कि रूस में चारों तरफ आग लगा दो। चारों तरफ आग लग गई। तब रूस के बादशाह ने वजीरों को जमा करके कहा, आग बुझाओ, बस सवा करोड़ मिश्ती मशकें भर भरके दौड़े। एक-एक मशक में दो-दो लाख मन पानी आता था।

खोजी – क्यों साहब, यह आपसे किसने कहा है?

इमामी – अजी, यह न पूछो, इनसे फरिश्ते सब कह जाते हैं।

कादिर – बस साहब, सुनने की बातें हैं कि सवा दो करोड़ मशकें मुल्क के चारों कोनों पर पड़ती थीं, मगर आग बढ़ती ही जाती थी। तब बादशाह ने हुक्म दिया कि दो करोड़ लाख भिश्ती काम करें और मशकों में छब्बीस-छब्बीस करोड़ मन पानी हो।

खोजी – ओ गीदी, क्यों इतना झूठ बोलता है?

शुबराती – मियाँ, सुनने दो भाई, अजब आदमी हो।

खोजी – अजी, मैं तो सुनते-सुनते पागल हो गया।

कादिर – आप लखनऊ के महीन आदमी, उन मुल्कों का हाल क्या जानें। रूम, रूस, तुरान, अनूपशहर का हाल हमसे सुनिए।

इमामी – वहाँ के लोग भी देव होते हैं देव!

कादिर – रूस के बादशाह की खुराक का हाल सुनो तो चकरा जाओ।

सबेरे मुँह अँधेरे 6 बकरों की यखनी, चार बकरों के कबाब, दस मुर्ग का पोलाव और दस मुरैले तरकीब से खाते हैं, और 9 बजे के वक्त सौ मुर्गों का शोरबा और दस सेर ठंडा पानी, बारह बजे जवाहिरात का शरबत, कभी पचास मन, कभी साठ मन, चार बजे दो कच्चे बकरे, दो कच्चे हिरन, शाम को शराब का एक पीपा और पह रात गए गोश्त का एक छकड़ा।

इमामी – जब तो ताकतें होती हैं कि सौ-सौ आदमियों को एक आदमी मार डालता है। हिंदोस्तान का आदमी क्या खा कर लड़ेगा।

शुबराती – हिंदोस्तान में अगर हाजमे की ताकत कुछ है तो चंडू के सबब से, नहीं तो सब के सब मर जाते।

इमामी – सुना, रूसवाले हाथी से अकेले लड़ जाते हैं।

कादिर – हमसे सुनो, दस हाथी हों और एक रूसी तो वह दसों को मार डालेगा।

खोजी – आप रूस कभी गए भी हैं?

कादिर – अजी हम बैठे सारी दुनिया की सैर कर रहे हैं।

खोजी – हम तो अभी लड़ाई के मैदान से आते हैं, वहाँ एक हाथी भी न देखा।

कादिर – रूमवालों ने जब आग लगा दी, तो वह ग्यारह बरस, ग्यारह महीने, ग्यारह दिन, ग्यारह घंटे जला की। अब जाके जरी-जरी आग बुझी है, नहीं तो अजब नक्शा था कि सारा मुल्क चल रहा है और पानी का छिड़काव हो रहा है। रूमवाले जब रात को सोते हैं तो हर मकान में दो देवों का पहरा रहता है।

खोजी – अरे यारो, इस झूठ पर खुदा की मार, हम बरसों रहे, एक देव भी न देखा।

कादिर – आपकी तो सूरत ही कहे देती है कि आप रूम जरूर गए होंगे। खुदा झूठ न बुलवाए तो घर के बाहर कदम नहीं रखा।

खोजी समझे थे कि चंडूखाने में चल कर अपने सफर का हाल बयान करेंगे और सबको बंद कर देंगे, चंडूखाने में इनकी तूती बोलने लगेगी, मगर यहाँ जो आए तो देखा कि उनके भी चचा मौजूद हैं। झल्ला कर पूछा, बतलाओ तो रूम के पायतख्त का क्या नाम है?

कादिर – वाह, इसमें क्या रखा है, भला-सा नाम तो है, हाँ मर्जबान।

खोजी – इस नाम का तो वहाँ कोई शहर ही नहीं।

कादिर – अजी, तुम क्या जानो, मर्जबान वह शहर है जहाँ पहाड़ों पर परियाँ रहती हैं। वहाँ पहाड़ों पर बादल पानी पी-पी कर जाते हैं और सबको पानी पिलाते हैं।

खोजी – तो वह कोई दूसरा रूम होगा। जिस रूम से मैं आता हूँ वह और है।

कादिर – अच्छा बताओ, रूम के बादशाह का क्या नाम है?

खोजी – सुलतान अब्दुलहमीद खाँ।

कादिर- बस-बस, रहने दीजिए आप नहीं जानते, उस पर दावा यह है कि हम रूम से आते हैं। भला लड़ाई का क्या नतीजा हुआ, यही बताइए?

खोजी – पिलौना की लड़ाई में तुर्क हार गए और रूसियों ने फतह पाई।

कादिर – क्या बकता है बेहूदा। खबरदार जो ऐसा कहा होगा तो इतने जूते लगाऊँगा कि भुरकस ही निकल जायगा।

इमामी – हमारे बादशाह के हक में बुरी बात निकालता है, बेअदब कहीं का। बच्चा, यहाँ ऐसी बाते करोगे तो पिट जाओगे।

खोजी – सुनो जी, हम फौजी आदमी हैं।

कादिर – अब ज्यादा बोलोगे तो उठ कर कचूमर ही निकाल दूँगा।

शुबराती – यह हैं कहाँ के, जरा सूरत तो देखो, मालूम होता है,कब्र से निकल भागा है।

खोजी को सबने मिल कर ऐसा डपटा कि बेचारे करौली और तमंचा भूल गए। गए तो बड़े जोम में थे कि चंडूखाने में खूब डींग हाँकेंगे, मगर वहाँ लेने के देने पड़ गए। चुपके से चंडू के छीटे उड़ाए और लंबे हुए। रास्ते में क्या देखते हैं कि बहुत से आदमी एक जगह खड़े हैं। आपने घुस कर देखा तो एक पहलवान बीच में बैठा है और लोग खड़े उसकी तारीफों के पुल बाँध रहे हैं। खोजी ने समझा कि हमने भी तो मिस्र के पहलवान को पटका था, हम क्या किसी से कम हैं? इस जोम में आपने पहलवान को ललकारा – भाई पहलवान, हम इस वक्त इतने खुश हैं कि फूले नहीं समाते। मुद्दत के बाद आज अपना जोड़ीदार पाया।

पहलवान – तुम कहाँ के पहलवान हो भाई साहब?

खोजी – यार, क्या बताएँ। अपने साथियों में कोई रहा ही नहीं। अब तो कोई पहलवान जँचता ही नहीं।

पहलवान – उस्ताद, कुछ हमको भी बताओ।

खोजी – अजी, तुम खुद उस्ताद हो।

पहलवान – आप किसके शागिर्द हैं?

खोजी – शागिर्द तो भाई, किसी के नहीं हुए। मगर हाँ, अच्छे-अच्छे उस्तादों ने लोहा मान लिया। हिंदोस्तान से रूम तक और रूम से रूस तक सर कर आया। तुम आजकल कहाँ रहते हो?

पहलवान – आजकल एक नवाब साहब के यहाँ हैं। तीन रुपया रोज देते हैं। एक बकरा, आठ सेर दूध और दो सेर घी बँधा है। नवाब अमजदअली नाम है।

खोजी – भला वहाँ चंडू की भी चर्चा रहती हैं?

पहलवान – कुछ मत पूछिए भाई साहब, दिन-रात।

खोजी – भला वहाँ मस्तियाबेग भी हैं?

पहलवान – जी हाँ हैं, आप कैसे जान गए?

खोजी – अजी, वह कौन सा नवाब है जिसकी हमने मुसाहबी न की हो। नवाब अमजदअजी के यहाँ बरसों रहा हूँ। बटेरों का अब भी शौक है या नहीं?

पहलवान – अजी, अभी तक सफशिकन का मातम होता है।

खोजी – तुम्हारा कब तक जाने का इरादा है?

पहलवान – मैं तो आज ही जा रहा हूँ।

खोजी – तो भाई, हमको भी जरूर लेते चलो। हम अपना किराया दे देंगे।

पहलवान – तो चलिए, मेरा इसमें हरज ही क्या है। हमको नवाब साहब ने सिर्फ दो दिन की छुट्टी दी थी। कल यहाँ दाखिल हुए, आज दंगल में कुश्ती निकाली और शाम को रेल पर चल देंगे। हमारे साथ मस्तियाबेग भी हैं।

शाम को पहलवान के साथ खोजी स्टेशन पर आए। पहलवान ने कहा – वह देखिए मिरजा साहब खड़े हैं, जा कर मिल लीजिए। ख्वाजा आहिस्ता-आहिस्ता गए और पीछे से मिरजा साहब की आँखें बंद कर लीं।

मिरजा – कौन है भाई, कोई मुसम्मात हैं क्या? हाथ तो ऐसे ही मालूम होते हैं।

पहलवान – भला बूझ जाइए तो जानें।

मिरजा – कुछ समझ में नहीं आता, मगर है कोई मुसम्मात।

खोजी – भला गीदी, भला, अभी से भूल गया, क्यों?

मिरजा – अख्खाह, ख्वाजा साहब हैं! कहो भाई खोजी, अच्छे तो रहे?

खोजी – खोजी कहीं और रहते होंगे। अब हमें ख्वाजा साहब कहा करो।

मिरजा – अरे कंबख्त, गले तो मिल ले।

खोजी – सरकार कैसे हैं, घर में तो खैर-आफियत है?

मिरजा – हाँ, सब खुदा का फजल है, बेगम साहब पर कुछ आसेब था, मगर अब अच्छी हैं। कहो, तुमने तो खूब नाम पैदा किया।

खोजी – नाम, अरे हम मेजर थे।

मिरजा – सरकार को इस लड़ाई के जमाने में अखबार से बड़ा शौक था। आजाद को तो सब जानते हैं, मगर तुम्हारा हाल जब से पढ़ा तब से सरकार को अखबारों का एतबार जाता रहा। कहते थे कि समुद्र की सूरत देख कर इसका जिगर क्यों न फट गया। भला इसे लड़ाई से क्या वास्ता।

खोजी – अब इसका हाल तो उन लोगों से पूछो जो मोरचों पर हमारे शरीक थे। तुम मजे से बैठे-बैठे मीठे टुकड़े उड़ाया किए, तुमको इन बातों से क्या सरोकार, मगर भाई, नशों में नशा शराब का। इधर डंके पर चोट पड़ी, उधर सिपाही कम कस कर तैयार हो गए।

मिरजा – अब सरकार के सामने न कहना, नहीं खड़े-खड़े निकाल दिए जाओगे।

खोजी – अजी, अब तो सरकार के बाप के निकाले भी नहीं निकल सकते।

मिरजा – एक बार तो अखबार में लिखा था कि खोजी ने शादी कर ली है।

खोजी – अरे यार, इसका हाल न पूछो, अपनी शक्ल-सूरत का हाल तो हमको बाहर जा कर मालूम हुआ। जिस शहर में निकल गए, करोड़ों औरतें हम पर आशिक हो गईं। खास कर एक कमसिन नाजनीन ने तो मुझे कहीं का न रखा।

मिरजा – तो आपकी सूरत पर सब औरतें जान देती थीं? क्या कहना है, तुमने बहादुरी के काम भी तो खूब किए।

खोजी – भाईजान, मोरचे पर मेरी बहादुरी देखते तो दंग हो जाते। खैर, उस परी पर मेरे सिवा पचास तुर्की अफसर भी आशिक थे। यह राय तय पाई कि जिससे वह परी राजी हो उससे निकाह करें। एक रोज सब बन-ठन कर आए, मगर उस शोख की नजर आपके खादिम ही पर पड़ती थी।

मिरजा – ऐ क्यों नहीं, हजार जान से आशिक हो गई होगी।

खोजी – आव देखा न ताव, इठलाती हुई आई और मेरा हाथ अपने सीने पर रख लिया। अब सुनिए, उन सबों क दिल में हसद की आग भड़की, कहने लग, यों हम न मानेंगे, जो उससे निकाह करे वह पहले पचासों आदमियों से लड़े। हमने कहा, खैर! तलवार खींच कर जो चला, तो वह-वह चोटें लगाईं कि सब के सब बिलबिलाने लगे। बस परी हमको मिल गई। अब दरबार के रंग ढंब बयान करो।

मिरजा – सब तुम्हारी याद किया करते हैं। झम्मन ने वह चुगुलखोरी पर कमर बाँधी हैं कि सैकड़ों खिदमतगार और कितने ही मुसाहबों को मौकूफ करा दिया।

खोजी – एक ही पाजी आदमी है। हम रूम गए, फ्रांस गए, सारी दुनिया के रईस देख डाले, मगर नवाब सा भोला-भाला रईस कहीं न देखा। गजब खुदा का कि एक बादमाश ने जो कह दिया, उसका यकीन हो गया, अब कोई लाख समझाए, वह किसी की सुनते ही नहीं।

मिरजा – मेरा तो अब वहाँ रहने को जी नहीं चाहता।

खोजी – अजी, इस झगड़े को चूल्हे में डालो। अब हम-तुम चल कर रंग जमाएँगे। तुम मेरी हवा बाँधना और हम दोनों एक जान दो काबिल हो कर रहेंगे।

मिरजा – मैं कहूँगा, खुदावंद, अब यह सब मुसाहबों के सिरताज हुए, सारी दुनिया में हुजूर का नाम किया। मगर तुम जरा अपने को लिए रहना।

खोजी – अजी, मैं तो ऐसा बनूँ कि लोग दंग हो जायँ।

जब घंटी बजी और मुसाफिर चले तो खोजी भी पहलवान की तरह अकड़ कर चलने लगे। रेल के दो-चार मुलाजिमों ने उन पर आवाजें कसना शुरू किया।

एक – आदमी क्या गैंडा है, माशा-अल्लाह, क्या हाथ-पाँव हैं!

दूसरा – क्यों साहब, आप कितने दंड पेल सकते हैं?

खोजी – अजी, बीमारी ने तोड़ दिया, नहीं एक पूरी रेल पर लदके जाता था।

तीसरा – इसमें क्या शक है, एक-एक रान दो-दो मन की है।

खोजी – कसम खाके अर्ज करता हूँ कि अब आधा नहीं रहा! यह पहलवान हमारे अखाड़े का खलीफा है, और बाकी सब शागिर्द हें! सब मिलाके हमारे चालीस-बयालीस हजार शागिर्द होंगे।

एक मुसाफिर – दूर-दूर से लोग शागिर्दी करने आते होंगे?

खोजी – दूर-दूर से। अब आप मुलाहिजा फरमाए कि हिंदोस्तान से ले कर रूस तक मेरे लाखों शागिर्द हैं। मिस्र में ऐसा हुआ कि एक पहलवान की शामत आई, एक मेले मे हमको टोक बैठा। टोकना था कि बंदा भी चट लँगोट कसके सामने आ खड़ा हुआ। लाखों ही आदमी जमा थे। उसका सामने आना ही था कि मैं उसी दम जुट गया, दाँव-पेंच होने लगे। उसके मिस्री दाँव थे। हमारे हिंदुस्तानी दाँव थे। बस दम की दम में मैंने उठाके दे पटका।

इतने में दूसरी घंटी हुई। खोजी ऐसे बौखलाए कि जनाने दर्जे में फँस पड़े। वहाँ लेना-लेना का गुल मचा। भागे तो पहले दर्जे में घुस गए, वहाँ एक अंगरेज ने डाँट बताई। बारे निकल कर तीसरे दर्जे में आए। थके-माँदे बहुत थे, सोए तो सारी रात कट गई। आँख खुली तो लखनऊ आ गया। शाम के वक्त नवाब साहब के यहाँ दाखिल हुए।

खोजी – आदाब अर्ज है हुजूर।

नवाब – अख्ख़ाह, खोजी हैं! आओ भाई, आओ।

खोजी – हाजिर हूँ खुदावंद, खुदा का शुक्र है कि आपकी जियारत हुई।

गफूर – खोजी मियाँ, सलाम।

खोजी – सलाम भाई, सलाम, मगर हमको खोजी मियाँ न कहना, अब हम फौज के अफसर हैं।

झम्मन – आप बादशाह हों या वजीर, हमारे तो खोजी ही हो।

खोजी – हाँ भाई, यह तो है ही। हुजूर के नमक की कसम, मुल्कों-मुल्कों इस दरबार का नाम किया।

नवाब – शाबाश! हमने अखबारों में तुम्हारी बड़ी-बड़ी तारीफें पढ़ीं।

खोजी – हुजूर, गुलाम किस लायक है।

झम्मन – भला यार, तुम समुद्र में जहाज पर कैसे सवार हुए?

खोजी – वाह, तुम जहाज की लिए फिरते हो। यहाँ मोरचों पर बड़े-बड़े मेजरों और जनरलों से भिड़-भिड़ पड़े हैं। हुजूर, पिलौना की लड़ाई में कोई दस लाख आदमी एक तरफ थे और सत्तर सवारों के साथ गुलाम दूसरी तरफ था, फिर यह मुलाहिजा कीजिए कि चौदह दिन तक बराबर मुकाबिला किया और सबके छक्के छुड़ा दिए।

झम्मन – इतना झूठ, उधर दस लाख, इधर सत्तर! भला कोई बात है।

खोजी – तुम क्या जानो, वहाँ होते तो होश उड़ जाते।

नवाब – भाई, इसमें तो शक नहीं कि तुमने बड़ा नाम किया। खबरदार, आज से इनको कोई खोजी न कहे। पाशा के लकब से पुकारे जायँ।

खोजी – आदाब हुजूर। झम्मन गीदी ने मुँह की खाई न आखिर। रईसों की सोहबत में ऐसे पाजियों का रहना मुनासिब नहीं।

नवाब – क्यों साहब, हिंदोस्तान के बाहर भी हमको कोई जानता है? सच-सच बताना भाई!

खोजी – हुजूर, जहाँ-जहाँ गुलाम गया, हुजूर का नाम बादशाहों से ज्यादा मशहूर हो गया।

आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 104

आजाद बंबई से चले तो सबसे पहले जीनत और अख्तर से मुलाकात करने की याद आई। उस कस्बे में पहुँचे तो एक जगह मियाँ खोजी की याद आ गई। आप ही आप हँसने लगे। इत्तिफाक से एक गाड़ी पर कुछ सवारियाँ चली जाती थीं। उनमें से एक ने हँस कर कहा – वाह रे भलेमानस, क्या दिमाग पर गरमी चढ़ गई है क्या आजाद रंगीन मिजाज आदमी तो थे ही। आहिस्ता से बोले – जब ऐसी-ऐसी प्यारी सूरतें नजर आएँ तो आदमी के होश-हवास क्योंकर ठिकाने रहें। इस पर वह नाजनीन तिनक कर बोली – अरे, यह तो देखने को ही दीवाना मालूम होते थे, अपने मतलब के बड़े पक्के निकले। क्यों मियाँ, यह क्या सूरत बनाई है, आधा तीतर और आधा बटेर? खुदा ने तुमको वह चेहरा-मोहरा दिया है कि लाख दो लाख में एक हो। अगर इस शक्ल-सूरत पर जो लंबे-लंबे बाल हों, बालों में सोलह रुपए वाला तेल पड़ा हो, बारीक शरबती का अँगरखा हो, जालीलोट के कुरते से गोरे-गोरे डंड नजर आएँ, चुस्त घुटन्ना हो, पैरों में एक अशर्फी का टाटबाफी बूट हो, अँगरखे पर कामदानी की सदरी हो, सिर से पैर तक इत्र में बसे हो, मुसाइबों की टोली साथ हो, खिदमतगारों के हाथ में काबुकें और बटेरें हों और इस ठाट के साथ चौक में निकलो, तो अँगुलियाँ उठें कि वह रईस जा रहा है! तब लोग कहें कि इस सज-धज, नख-सिख, कल्ले-ठल्ले का गभरू जवान देखने में नहीं आया। यह सब छोड़ पट्टे कतरवाके लंडूरे हो गए, ऐ वाह री आपकी अक्ल!

आजाद – जरा मैं तो जानूँ कि किसकी जबान से यह बातें सुन रहा हूँ। इनसान हम भी हैं, फिर इनसान से क्या परदा?

नाजनीन – अच्छा, तो आप भी इनसान होने का दम भरते हैं। मेढकी भी चली मदारों को।

आजाद – खैर साहब, इनसान न सही।

नाजनीन – (परदा हटा कर) ऐ साहब लीजिए, बस अब तो चार आँखें हुई, अब कलेजे में ठंडक पहुँची?

आजाद ने देखा तो सोचने लगे कि यह सूरत तो कहीं देखी हे और अब खयाल आता है कि आवाज भी कहीं सुनी है। मगर इस वक्त याद नहीं आता कि कहाँ देखा था।

नाजनीन – पहचाना? भला आप क्यों पहचानने लगे! रुतबा पा कर कौन किसे पहचानता है?

आजाद – इतना तो याद आता है कि कहीं देखा है, पर यह खयाल नहीं कि कहाँ देखा है।

नाजनीन – अच्छा, एक पता देते हैं, अब भी न समझो तो खुदा तुमसे समझे। याद है, किसने यह गजल गाई थी…?

कोई मुझ सा दीवाना पैदा न होगा,
हुआ भी तो फिर ऐसा रुसवा न होगा।

न देखा हो जिसने कहे उसके आगे,
हमें लंतरानी सुनाना न होगा।

आजाद – अब समझ गया! जहूरन, वहाँ की खैर-आफियत बयान करो। उन्हीं दोनों बहनों से मिलने के लिए बंबई से चला आ रहा हूँ।

जहूरन – सब खुदा का फजल है। दोनों बहनें आराम से हैं, अख्तर के मियाँ तो उनका जेवर खा-पी कर भाग गए, अब उन्होंने दूसरी शादी कर ली है। जीनत बेगम खुश हैं।

आजाद – तो अब हम उनके मैके जायँ या ससुराल?

जहूरन – ससुराल न जाइए, मैके में चलिए और वहाँ से किसी महरी के जबानी पैगाम भेजिए। हमने तो हुजूर को देखते ही पहचान लिया।

आजाद – हमको इन दोनों बहनों का हाल बहुत दिनों से नहीं मालूम हुआ।

जहूरन – यह तो हुजूर, आप ही का कुसूर है; कभी आपने एक पुरजा तक न भेजा। जिस दिन जीनत बेगम के मियाँ ने उनसे कहा कि लो, आजाद वापस आते हैं तो मारे खुशी के खिल उठीं। तो अब आना हो तो आइए, शाम होती है।

थोड़ी देर में आजाद जीनत बेगम के मकान पर जा पहुँचे। जहूरन ने जा कर उनकी चाची से आजाद के आने की इत्तला की। उसने आजाद को फौरन बुला लिया।

आजाद – बंदगी अर्ज करता हूँ। आप तो इतने ही दिनों में बूढ़ी हो गईं।

चाची – बेटा, अब हमारे जवानी के दिन थोड़े ही हैं। तुम तो खैर आफियत के साथ आए? आँखें तुम्हें देखने को तरस गईं।

आजाद – जी हाँ, मैं खैरियत से आ गया। दोनों साहबजादियों को बुलवाइए। सुना, जीनत की भी शादी हो गई है।

चाची – हाँ, अब तो दोनों बहनें आराम से हैं। अख्तरी का पहला मियाँ तो बिलकुल नालायक निकला। जेवर गहना-पाता, सब बेच कर खा गया और खुदा जाने, किधर निकल गया। अब दूसरी शादी हुई है। डाक्टर हैं। साठ तनख्वाह है और ऊपर से कोई चार रुपया रोज मिलता है। जीनत के मियाँ स्कूल में पढ़ाते हैं। दो सौ की तलब है। तुम्हारे चाचाजान तो मुझे छोड़ कर चल दिए।

इधर महरी ने जा कर दोनों बहनों को आजाद के आने की खबर दी। जीनत ने अपनी आया को साथ लिया और मैके की तरफ चली। घर के अंदर कदम रखते ही आजाद से हाथ मिला कर बोली – वाह रे बेमुरव्वतों के बादशाह! क्यों साहब, जब से गए, एक पुरजा तक भेजने की कसम खा ली?

आजाद – यह तो न कहोगी कि सबसे पहले तुम्हारे दरवाजे पर आया। यह तो फरमाइए कि यह पोशाक कब से अख्तियार की?

जीनत – जब से शादी हुई। उन्हें अंगरेजी पोशाक बहुत पसंद है।

आजाद – जीनत, खुदा गवाह है कि इस वक्त जामे में फूला नहीं समाता। एक तो तुमको देखा और दूसरे यह खुशखबरी सुनी कि तुम्हारे मियाँ पढ़े-लिखे आदमी हैं और तुम्हें प्यार करते हैं। मियाँ-बीवी में मुहब्बत न हो तो जिंदगी का लुत्फ ही क्या।

इतने में अख्तरी भी आ गई और आते ही कहा – मुबारक!

आजाद – आपको बड़ी तकलीफ हुई, मुआफ करना।

अख्तर – मैंने तो सुना था कि तुमने वहाँ किसी साइसिन से शादी कर ली।

आजाद – और तुम्हें इसका यकीन भी आ गया?

अख्तर – यकीन क्यों न आता। मर्दों के लिए यह कोई नई बात थोड़ी ही हैं। जब लोग एक छोड़, चार-चार शादियाँ करते हैं तो यकीन क्यों न आता।

आजाद – वह पाजी है जो एक के सिवा दूसरी का खयाल भी दिल में लाए।

जीनत – ऐसे मियाँ-बीवी का क्या कहना, मगर यहाँ तो वही पाजी नजर आते हैं जो बीवी के होते भी उसकी परवा नहीं करते।

आजाद – अगर बीवी समझदार हो तो मियाँ कभी उसके काबू से बाहर न हो।

अख्तर – यह तो हम मान चुके। खुदा न करे कि किसी भलेमानस का पाला शोहदे मियाँ से पड़े।

जीनत – जिसके मिजाज में पाजीपन हो उससे बीवी की कभी न पटेगी। मियाँ सुबह से जायँ तो रात के एक बजे घर में आएँ और वह भी किसी रोज आए, किसी रोज न आए। बीवी बेचारी बैठी उनकी राह देख रही है। बाज तो ऐसे बेरहम होते हैं कि बात हुई और बीवी को मार बैठे।

आजाद – यह तो धुनिया जुलाहों की बातें हैं।

जीनत – नहीं जनाब, जो लोग शरीफ कहलाते हैं उनमें भी ऐसे मर्दों की कमी नहीं है।

अख्तर – ऐ चूल्हे में जायँ ऐसे मर्द, जभी तो बेचारियाँ कुएँ में कूद पड़ती हैं, जहर खाके सो रहती हैं।

जीनत – मुझे खूब याद है कि एक औरत अपने मियाँ को जरा सी बात पर हाथ फैला-फैला कोस रही थी कि कोई दुश्मन को भी न कोसेगा।

आजाद – जहाँ ऐसे मर्द हैं वहाँ ऐसी औरतें भी हैं।

अख्तर – ऐसी बीवी का मुँह लेके झुलस दे।

जीनत – मेरे तो बदन के रोएँ खडे हो गए।

आजाद – मेरी तो समझ ही में नहीं आता कि ऐसे मियाँ और बीवी में मेलजोल कैसे हो जाता है।

इस तरह बातें करते-करते यूरोपियन लेडियों की बात चल पड़ी। जीनत और अख्तर ने हिंदोस्तानी औरतों की तरफदारी की और आजाद ने यूरोपियन लेडियों की।

आजाद – जो आराम यूरोप की औरतों को हासिल है वह यहाँ की औरतों को कहाँ नसीब। धूप में अगर मियाँ-बीवी साथ चलते हों तो मियाँ छतरी लगाएगा।

अख्तर – यहाँ भी महाजनों को देखो। औरतें दस-दस हजार का जेवर पहन कर निकलती हैं और मियाँ लँगोटा लगाए दुकान पर मक्खियाँ मारा करते हैं।

आजाद – यहाँ की औरतों को तालीम से चिढ़ है।

जीनत – इसका इलजाम भी मर्दों ही की गरदन पर है। वह खुद औरतों को पढ़ाते डरते हैं कि कहीं ये उनकी बराबरी न करने लगें।

आजाद – हमारे मकान के पास एक महाजन रहते थे। मैं लड़कपन में उनके घर खेलने जाया करता था। जैसे ही मियाँ बाहर से आता, बीवी चारपाई से उतर कर जमीन पर बैठ जाती। अगर तुमसे कोई कहे कि मियाँ के सामने घूँघट करके जाओ तो मंजूर करो या नहीं?

अख्तर – वाह, यहाँ तो घर में कैद न रहा जाय, घूँघट कैसा!

आजाद – यूरोपियन लेडियों को घर के इंतजाम का जो सलीका होता है, वह हमारी औरतों को कहाँ?

जीनत – हिंदोस्तानी औरतों में जितनी वफा होती है वह यूरोपियन लेडियों में तलाश करने से भी न मिलेगी। यहाँ एक के पीछे सती तो जाती हैं, वहाँ मर्द के मरते ही दूसरी शादी कर लेती हैं।

आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 105

वहाँ दो दिन और रह कर दोनों लेडियों के साथ लखनऊ पहुँचे और उन्हें होटल में छोड़ कर नवाब साहब के मकान पर आए। इधर वह गाड़ी से उतरे, उधर खिदमतगारों ने गुल मचाया कि खुदावंद, मुहम्मद आजाद पाशा आ गए। नवाब साहब मुसाहबों के साथ उठ खड़े हुए तो देखा कि आजाद रप-रप करते हुए तुर्की वर्दी डाटे चले आते हैं। नवाब साहब झपट कर उनके गले लिपट गए और बोले – भाईजान, आँखें तुम्हें ढूँढ़ती थीं।

आजाद – शुक्र है कि आपकी जियारत नसीब हुई।

नवाब – अजी, अब यह बातें न करो, बड़े-बड़े अंगरेज हुक्काम तुमसे मिलना चाहते हैं।

मुसाहब – बड़ा नाम किया। वल्लाह करोड़ों आदमी एक तरफ और हुजूर एक तरफ।

खोजी – गुलाम भी आदाब अर्ज करता है।

आजाद – तुम यहाँ कब आ गए ख्वाजा साहब?

नवाब – सुना, आपने तीन-तीन करोड़ आदमियों से अकेले मुकाबिला किया!

गफूर – अल्लाह की देन है हुजूर!

नवाब – अरे भाई, गंगा-जमुनी हुक्का भर लाओ आपके वास्ते, आजाद पाशा को ऐसा-वैसा न समझना। इनकी तारीफ कमिश्नर तक की जबान से सुनी। सुना, आपसे रूस के बादशाह से भी मुलाकात हुई। भाई, तुमने वह दरजा हासिल किया है कि हम अगर हुजूर कहें तो बजा है। कहाँ रूस के बादशाह और कहाँ हम!

खोजी – खुदावंद, मोरचे पर इनको देखते तो दंग रह जाते। जैसे शेर कछार में डँकारता है।

नवाब – क्यों भाई आजाद, इन्होंने वहाँ कोई कुश्ती निकाली थी?

आजाद – मेरे सामने तो सैकड़ों ही बार चपतियाए गए और एक बौने तक ने इनको उठाके दे मारा।

मुसाहब – भाई, इस वक्त तो भंभाड़ा फूट गया।

आजाद – क्या यह गप उड़ाते थे कि मैंने कुश्तियाँ निकालीं?

मस्तियाबेग – ऐ हुजूर, जब से आए हैं, नाक में दम कर दिया। बात हुई और करौली निकाली।

गफूर – परसों तो कहते थे कि मिस्र में हमने आजाद के बराबर के पहलवान को दम भर में आसमान दिखा दिया।

आजाद – क्या खूब! एक बौने तक ने तो उठाके दे मारा, चले वहाँ से दून की लेने।

इतने में नवाब साहब के यहाँ एक मुंशी साहब आए और आजाद को देख कर बोले – वल्लाह, आजाद पाशा साहब हैं, आपने तो बड़ा नाम पैदा किया, सुभान-अल्लाह।

नवाब – अजी, कमिश्नर साहब इनकी तारीफ करते हें। इससे ज्यादा इज्जत और क्या होगी।

खोजी – साहब, लड़ाई के मैदान में कोई इनके सामने ठहरता ही न था।

मुंशी – आपने भी बड़ा साथ दिया ख्वाजा साहब, मगर आपकी बहादुरी का जिक्र कहीं सुनने में नहीं आया।

खोजी – आप ऐसे गीदियों को मैं क्या समझता हूँ, मैंने वह-वह काम किए हैं कि कोई क्या करेगा। करौली हाथ में ली और सफों की सफें साफ कर दीं।

मुंशी – आप तो नवाब साहब के यहाँ बने हैं न?

खोजी – बने होंगे आप, बनना कैसा! क्या मैं कोई चरकटा हूँ। कसम है हुजूर के कदामों की, सारी दुनिया छान डाली, मगर आज तक ऐसा बदतमीज देखने में नहीं आया।

आजाद – जनाब ख्वाजा साहब ने जो बातें देखी हैं वह औरों को कहाँ नसीब हुई। आप जिस जगह जाते थे वहाँ की सारी औरतें आपका दम भरने लगती थीं। सबसे पहले बुआ जाफरान आशिक हुई।

खोजी – तो फिर आपको बुरा क्यों लगता है? आप क्यों जलते हैं?

नवाब – भई आजाद, यह किस्सा जरूर बयान करो। अगर आपने इसे छिपा रखा तो वल्लाह, मुझे बड़ा रंज होगा। अब फरमाइए, आपको मेरा ज्यादा ख्याल है या इस गीदी का?

खोजी – हुजूर, मुझसे सुनिए। जिस रोज आजाद पाशा और हम पिलौना के किले में थे, उस रोज की कार्रवाई देखने लायक थी। किला पाँचों तरफ से घिरा हुआ था।

मुसाहब – यह पाँचवाँ कौन तरफ है साहब? यह नई तरफ कहाँ से लाए? जो बात कहोगे वही अनोखा।

खोजी – तुम हो गधे, किसी ने बात की और तुमने काट दी, यों नहीं वों, वों नहीं यों। एक तरफ दरिया था और खुश्की भी थी। अब हुई पाँच तरफें या नहीं, मगर तुम ऐसे गौखों को हाल क्या मालूम। कभी लड़ाई पर गए हो? कभी तोप की सूरत देखी है? कभी धुआँ तक तो देखा न होगा और चले हैं वहाँ से बड़े सिपाही बन कर! तो बस जनाब, अब करें तो क्या करें। हाथ-पाँव फूले हुए कि अब जायँ तो किधर जायँ और भागे तो किधर भागें।

नवाब – सचमुच वक्त बड़ा नाजुक था।

खोजी – और रूसियों की यह कैफियत कि गोले बरसा रहे थे। बस आजाद पाशा ने मुझसे कहा कि भाईजान, अब क्या सोचते हो, मरोगे या निकल जाओगे! मेरे बदन में आग लग गई। बोला, निकलना किसे कहते है जी! इतने में किले की दीवारें चलनी हो गई। जब मैंने देखा कि अब फौज के बचने की कोई उम्मीद नहीं रही, तो तलवार हाथ में ली और अपने अरबी घोड़े पर बैठ कर निकल पड़ा और उसी वक्त दो लाख रूसियों को काट कर रख दिया।

मुसाहब – इस झूठ पर खुदा की मार।

खोजी – अच्छा, आजाद से पूछिए, बैठे तो हैं सामने।

नवाब – हजरत, सच-सच कहिएगा। बस फकत इतना बता दीजिए, यह बात कहाँ तक सच है?

आजाद – जनाब, पिलौना का जो कुछ हाल बयान किया वह तो सब ठीक है, मगर दो लाख आदमियों का सिर काट लेना महज गप है। लुत्फ यह है कि पिलौना की तो इन्होंने सूरत भी न देखी। उन दिनों तो यह खास कुस्तुनतुनियाँ में थे।

इस पर बड़े जोर का कहकहा पड़ा। बेगम साहब ने कहकहे की आवाज सुनी तो महरी से कहा – जा देख, यह कैसी हँसी हो रही है।

महरी – हुजूर, वह आए हैं मियाँ आजाद, वह गोरे-गोरे से आदमी, बस वही हँसी हो रही है।

बेगम – अख्खाह, आजाद आ गए, जाके खैर-आफियत तो पूछ! हमारी तरफ से न पूछना! वहाँ कहीं ऐसी बात न करना।

महरी – वाह हुजूर, कोई दीवानी हूँ क्या? सुनती हूँ उस मुल्क में बड़ा नाम किया। तुमने कभी तोप देखी है गफूरन?

गफूरन – ऐ खुदा न करे हुजूर!

महरी – हमने तो तोप देखी है, बल्कि रोज ही देखती हूँ।

बेगम – तोप देखी है! तुम्हारे मियाँ सवारों के साईस होंगे। तोप नहीं वह देखी है।

महरी – हुजूर, यह सामने तोप ही लगी है या कुछ और?

महल में रहीमन नाम की एक महरी और सबों से मोटी-ताजी थी। महरी ने जो उसकी तरफ इशारा किया तो बेगम साहब खिल-खिला कर हँस पड़ीं।

रहीमन – क्या पड़ा पाया है बहन गफूरन?

गफूरन – आज एक नई बात देखने में आई है बहन।

रहीमन – हमको भी दिखाओ। देखें कोई मिठाई है या खिलौना है?

गफूरन – तोप की तोप और औरत की औरत।

रहीमन – (बात समझ कर) तुम्हीं लोगों ने तो मिल कर हमें नजर लगा दी।

बेगम – ऐ आग लगे, अब और क्या मोटी होती, फूलके कुप्पा तो हो गई है।

उधर खोजी ने देखा कि यार लोग रंग नहीं जमने देते तो मौका पा कर आजाद के कदमों पर टोपी रख दी और कहा – भाई आजाद, बरसों तुम्हारा साथ दिया है, तुम्हारे लिए जान देने को तैयार रहा हूँ। मेरी दो-दो बातें सुन लो।

आजाद – मैं आपका मतलब समझ गया, कहाँ तक जब्त करूँ?

खोजी – इस दरबार में मेरे जलील करने से अगर आपको कुछ मिले तो आपको अख्तियार है।

आजाद – जनाब, आप मेरे बुजुर्ग हैं, भला मैं आपको जलील करूँगा?

खोजी – हाय अफसोस, तुम्हारे लिए जान लड़ा दी और अब इस दरबार में, जहाँ रोटियों का सहारा है, आप हमको उल्लू बनाते हैं, जिसमें रोटियों से भी जायँ!

आजाद – भई, माफ करना, अब तुम्हारी ही सी कहेंगे।

खोजी – मुरे रंग तो बाँधने दो जरा।

आजाद – आप रंग जमाएँ, मैं आपकी ताईद करूँगा।

ख्वाजा साहब का चेहरा खिल गया कि अब गप के पुल बाँध दूँगा और जब आजाद मेरा कलमा पढ़ने लगेंगे तो फिर क्या पूछना।

नवाब – ख्वाजा साहब, यह क्या बातें हो रही हैं हमसे छिप-छिप कर?

खोजी – खुदावंद, एक मामले पर बहस हो रही थी।

नवाब – कैसी बहस किस मामले पर?

खोजी – हुजूर, मेरी राय है कि इस मुल्क में भी नहरें जारी होनी चाहिए और आजाद पाशा की राय है कि नहरों से आबपाशी तो होगी, मगर मुल्क की आबहवा खराब हो जायगी।

मस्तियाबेग – अख्खाह, तो यह कहिए कि आप शहर के अंदेशे में दुबले हैं!

खोजी – तुम गौखे हो, यह बातें क्या जानो। पहले यह तो बताओ कि एक बाट्री में कितनी तोपें होती हैं? चले वहाँ से सुकरात की दुम बनके।

नवाब – खोजी है तो सिड़ी, मगर बातें कभी-कभी ठिकाने की करता है।

आजाद – इन बातों का तो इन्हें अच्छा तजरबा है।

गफूर – हुजूर, इनको बड़ी-बड़ी बातें मालूम हुई हैं।

आजाद – साहब, सफर भी तो इतना दूर-दराज का किया था! कहाँ हिंदोस्तान, कहाँ रूम! खयाल तो कीजिए।

मीर साहब – क्यों ख्वाजा साहब, पहाड़ तो आपने बहुत देखे होंगे?

खोजी – एक-दो नहीं, करोड़ों, आसमान से बातें करने वाले।

नवाब – भला आसमान वहाँ से कितनी दूर रह जाता है?

खोजी – हुजूर, बस एक दिन की राह। मगर जीना कहाँ?

नवाब – और क्यों साहब, वहाँ से तो खूब मालूम होता होगा कि मेंह किस जगह से आता है?

खोजी – जनाब, पहाड़ की चोटी पर मैं था और मेंह नीचे बरस रहा था।

नवाब – क्यों साहब, यह सच है? अजीब बात है भाई!

आजाद – जी हाँ, यह तो होता ही है, पहाड़ पर से नीचे मेंह का बरसना साफ दिखाई देता है।

मस्तियाबेग – और जो यह मशहूर है कि बादल तालाबों में पानी पीते हैं?

खोजी – यह तुम जैसे गधों में मशहूर होगा।

नवाब – भई, यह तजरबेकार लोग हैं, जो बयान करें वह सही है।

खोजी – हुजूर ने दरिया डैन्यूब का नाम तो सुना ही होगा। इतना बड़ा दरिया है कि उसके आगे समुद्र भी कोई चीज नहीं। इतना बड़ा दरिया और एक रईस के दीवानखाने के हाते से निकला है।

मीर साहब – ऐं, हमें तो यकीन नहीं आता।

खोजी – आप लोग कुएँ में मेढक हैं।

नवाब – मकान के हाते से! जैसे हमारे मकान का यह हाता?

खोजी – बल्कि इससे भी छोटा। हुजूर, खुदा की खुदाई है, इसमें बंदे को क्या दखल। और खुदावंद, हमने इस्तंबोल में एक अजायबखाना देखा।

मीर साहब – तुमको तो किसी ने धोखे में बंद नहीं कर दिया।

खोजी – बस, इन जाँगलुओं को और कुछ नहीं आता!

नवाब – अजी, तुम अपना मतलब कहो, उस अजायबखाने में कोई नई बात थी?

खोजी – हुजूर, एक तो हमने भैंसा देखा। भैंसा क्या, हाथी का पाठा था।और नाक के ऊपर एक सींग। इत्तिफाक से जिस मकान में वह बंद था उसकी तीन छड़ें टूट गई थीं। उसे रास्ता मिल तो सिमट-सिमट कर निकला। जनाब, कुछ न पूछिए, दो हजार आदमी गड़-बड़ एक के ऊपर एक इस तरह गिरे कि बेहोश। कोई चार-पाँच सौ आदमी जख्मी हुए। मैंने यह कैफियत देखी तो सोचा, अगर तुम भी भागते हो तो हँसी होगी। लोग कहेंगे कि यह फौज में क्या करते थे। जरा से भैंसे को देख कर डर गए। बस एक बार झपटके जो जाता हूँ तो गरदन हाथ आई, बस बाएँ हाथ से गरदन दबाई और दबोचके बैठ गया, फिर लाख-लाख जोर उसने मारे, मगर मैंने हुमसने न दिया। जरा गरदन हिलाई और मैंने दबोचा। जितने आदमी खड़े थे सब दंग हो गए कि वाह से पहलवान! आखिर जब मैंने देखा कि उसका दम टूट गया तो गरदगन छोड़ दी। फिर उसने बहुत चाहा कि उठे, मगर हुमन न सका। मुझसे लोग मिन्नतें करने लगे कि उसे कठघरे में डाल दो, ऐसा न हो कि बफरे तो सितम ही कर डाले। इस पर मैंने उसे एक थप्पड़ जो लगाया तो चौंधिया कर तड़ से गिरा।

मस्तियाबेग – इसके क्या मतलब? आपके खौफ के मारे लेटा तो था ही, फिर लेटे-लेटे क्यों गिर पड़ा?

खोजी – बाही हो। बस हुजूर, मैंने कान पकड़ा तो इस तरह साथ हो लिया जैसे बकरी। उसी कठघरे में फिर बंद कर दिया।

नवाब – क्यों साहब, यह किस्सा सच है?

आजाद – मैं उस वक्त मौजूद न था, शायद सच हो।

मीर साहब – बस-बस, कलई खुल गई, गजब खुदा का, झूठ भी तो कितना! इस वक्त जी चाहता है, उठके ऐसा गुद्दा दूँ कि दस गज जमीन में धँस जाय।

खोजी – कसम है खुदा की, जो अब की कोई बात मुँह से निकली तो इतनी करौलियाँ भोंकूँगा कि उम्र भर याद करेगा। तू अपने दिल में समझा क्या है! यह सूखी हड्डियाँ लोहे की हैं।

नवाब – इतने बड़े जानवर से इनसान क्या मुकाबला कर सकता है?

आजाद – हुजूर बात यह है कि बाज आदमियों को यह कुदरत होती है कि इधर जानवर को देखा, उधर उसकी गरदन पकड़ी। ख्वाजा साहब को भी यह तरकीब मालूम है।

नवाब – बस, हमको यकीन आ गया।

मस्तियाबेग – हाँ खुदावंद, शायद ऐसा ही हो।

मुसाहब – जब हुजूर की समझ में एक बात आ गई तो आप किस खेत की मूली हैं।

मीर साहब – और जब एक बात की लिम भी दरियाफ्त हो गई तो फिर उसमें इनकार करने की क्या जरूरत?

नवाब – क्यों साहब, लड़ाई में तो आपने खून नाम पैदा किया है, बताइए कि आपके हाथ से कितने आदमियों का खून हुआ होगा?

खोजी – गुलाप से पूछिए, इन्होंने कुल मिला कर दो करोड़ आदमियों को मारा होगा।

नवाब – दो करोड़!

खोजी – जभी तो रूम और शाम, तूरान और मुलतान, आस्ट्रिया और इँगलिस्तान, जर्मनी और फ्रांस में इनका नाम हुआ है।

नवाब – ओफ्फोह, खोजी को इतने मुल्कों के नाम याद हैं।

आजाद – हुजूर, अब इन्हें वह खोजी न समझिए।

खोजी – खुदावंद, मैंने एक दरिया पर अकेले एक हजार आदमियों का मुकाबिला किया।

नवाब – भाई, मुझे तो यकीन नहीं आता।

मस्तियाबेग – हुजूर, तीन हिस्से झूठ और एक हिस्सा सच।

मीर साहब – हम तो कहते हैं, सब डींग है।

आजाद – नवाब साहब, इस बात की तो हम भी गवाही देते हैं। इस लड़ाई में मैं शरीक न था, मगर मैंने अखबार में इनकी तारीफ देखी थी और वह अखबार मेरे पास मौजूद है।

नवाब – तो अब हमको यकीन आ गया, जब जनरल आजाद ने गवाही दी तो फिर सही है।

खोजी – वह मौका ही ऐसा था।

आजाद – नहीं-नहीं भाई, तुमने वह काम किया कि बड़े-बड़े जनरलों ने दाँतों अँगुली दबाई। वहीं तो सफशिकन भी तुम्हें नजर आए थे?

खोजी – हुजूर, यह कहना तो मैं भूल ही गया। जिस वक्त मैं दुश्मनों का सुथराव कर रहा था, उसी वक्त सफशिकन को एक दरख्त पर बैठे देखा।

नवाब – लो साहबो, सुनो, मेरे सफशिकन रूम की फौज में भी जा पहुँचे।

मुसाहब – सुभान-अल्लाह! वाह रे सफशिकन, बहादुर हो तो ऐसा हो।

खोजी – खुदाबंद, इस डाँट-डपट का बटेर भी कम देखा होगा।

नवाब – देखा ही नहीं, कम कैसा? अरे मियाँ, गफूर, जरा घर में इत्तला करो कि सफशिकन खैरियत से हैं।

गफूर डयोढ़ी पर आया। वहाँ खिदमतगार, दरबान, चपरासी सब नवाब की सादगी पर खिलखिला कर हँस रहे थे।

खिदमतगार – ऐसा उल्लू का पट्ठा भी कहीं न देखा होगा।

गफूर – निरा पागल है, वल्लाह निरा पागल।

चपरासी – अभी देखिए, तो क्या-क्या किस्से गढ़े जाते हैं।

महरी ने यह खबर बेगम साहब को दी तो उन्होंने कहकहा लगाया और कहा – इन पाजियों ने नवाब को अँगुलियों पर नचाना शुरू किया। जाके कह दो कि जरी खड़े-खड़े बुलाती हैं।

नवाब साहब उठे, मगर उठते ही फिर बैठ गए और कहा – भाई, जाने को तो मैं जाता हूँ, मगर कहीं उन्होंने मुफस्ल हाल पूछा तो?

आजाद – ख्वाजा साहब से उनका हाल पूछिए, इन्हें खूब मालूम हैं।

खोजी – साथ तो सच पूछिए तो मेरा ही उनका बहुत रहा। इनके अंगरेजी लिबास से चकराते थे।

नवाब – भला किस मोरचे पर गए थे या नहीं, या दूर ही से दुआ दिया किए?

खोजी – खुदावंद गुलाम जो अर्ज करेगा, किसी को यकीन न आएगा, इस पर मैं झल्लाऊँगा और मुफ्त ठाँय-ठाँय होगी।

नवाब – क्या मजाल, खुदा की कसम, अब तुम मेरे खास मुसाहब हो, तुमने तो तजरबा हासिल किया है वह औरों को कहाँ नसीब। तुम्हारा कौन मुकाबिला कर सकता है?

खोजी – यह हुजूर के इकबाल का असर है, वरना मैं तो किसी शुमार में न था। बात यह हुई कि गुलाम एक नदी के किनारे अफीम घोल रहा था कि जिस दरख्त की तरफ नजर डालता हूँ, रोशनी छाई हुई है। घबराया कि या खुदा, यह क्या माजरा है, इसी फिक्र में पड़ा था कि हुजूर सफशिकन न जाने किधर से आ कर मेरे हाथ पर बैठ गए।

नवाब – खुदा का शुक्र है, तुम तो बड़े खुश हुए होगे?

खोजी – हुजूर, जैसे करोड़ों रुपए मिल गए। पहले हुजूर का हाल बयान किया। फिर शहर का जिक्र करने लगे। दुनिया की सभी बातें उन पर रोशन थीं। बस हुजूर, तो यह कैफियत हुई कि दुश्मन किसी लड़ाई में जम ही न सके। इधर रूसियों ने तोपों पर बत्ती लगाई, उधर मेरे शेर ने कील ठोंक दी।

नवाब – वाह-वाह, सुभान-अल्लाह, कुछ सुनते हो यारो?

मस्तियाबेग – खुदावंद, जानवर क्या, जादू है!

खोजी – भला उनको कोई बटेर कह सकता है! और जानवर तो आप खुद हैं। आप उनकी शान में इतना सख्त और बेहूदा लफ्ज मुँह से निकालते हैं।

नवाब – मस्तियाबेग, अगर तुमको रहना है तो अच्छी तरह रहो, वरना अपने घर का रास्ता लो। आज तो सफशिकन को जानवर बनाया, कल को मुझे जानवर बनाओगे।

मुसाहब – खुदावंद, यह निरे फूहड़ हैं। बात करने की तमीज नहीं।

गफूर – अच्छा तो अब खामोश ही रहिए साहब, कुसूर हुआ।

खोजी – नहीं, सारा हाल तो सुन चुके, मगर तब भी अपनी ही सी कहे जाएँगे, दूसरा अगर इस वक्त जानवर कहता तो गलफड़े चीर कर धर देता, न हुई करौली!

नवाब – जाने भी दो, बेशऊर है।

खोजी – खुदावंद, खुशी में तो सभी लड़ सकते हैं, मगर तरी में लड़ना मुश्किल है। सो हुजूर, तरी की लड़ाई में सफशिकन सबसे बढ़ कर रहे। एक दफा का जिक्र है कि एक छोटा-दरिया था। इस तरफ हम, उस तरफ दुश्मन। मोरचे-बंदी हो गई, गोलियाँ चलने लगीं, बस क्या देखता हूँ कि सफशिकन ने एक कंकरी ली और उस पर कुछ कर पढ़ इस जोर से फेंकी कि एक तोप के हजार टुकड़े हो गए।

नवाब – वाह-वाह, सुभान अल्लाह।

मुसाहब – क्या पूछना है, एक जरा की कंकरी की यह करामात!

खोजी – अब सुनिए, कि दूसरी कंकरी जो पढ़ कर फेंकी तो एक ओर तोप फटी और बहत्तर टुकड़े हो गए। कोई तीन-चार हजार आदमी काम आए।

नवाब – इस कंकरी को देखिएगा। वल्लाह-वल्लाह! एक हजार टुकड़े तोप के और तीन-हजार आदमी गायब! वाह रे मेरे सफशिकन।

खोजी – इस तरह कोई चौदह तोपें उड़ा दीं और जितने आदमी थे सब भुन गए। कुछ न पूछिए हुजूर, आज तक किसी की समझ में न आया कि यह क्या हुआ। अगर एक गोला भी पड़ा होता तो लोग समझते, उसमें कोई ऐसा मसाला रहा होगा, मगर कंकरी तो किसी को मालूम भी नहीं हुई।

नवाब – बला की कंकरी थी कि तोप के हजारों टुकड़े कर डाले और हजारों आदमियों की जान ली। भई, जरा कोई जा कर सफशिकन की काबुक तो लाओ?

इतने में महरी ने फिर आ कर कहा – हुजूर; बड़ा जरूरी काम है, जरा चल कर सुन लें। नवाब साहब खोजी को ले कर जनानखाने में चले। खोजी की आँखों में दोहरी पट्टी बाँधी गई और वह डयोढ़ी में खड़े किए गए।

बेगम – क्या सफशिकन का कोई जिक्र था, कहाँ हैं आजकल?

नवाब – यह कुछ न पूछो, रूम जा पहुँचे। वहाँ कई लड़ाइयों में शरीक हुए और दुश्मनों का काफिला तंग कर दिया। खुदा जाने, यह सब किससे सीखा है?

बेगम – खुदा की देन है, सीखने से भी कहीं ऐसी बातें आती हैं?

नवाब – वल्लाह, सच कहती हो बेगम साहब! इस वक्त तुमसे जी खुश हो गया। कहाँ तोप, कहाँ सफशिकन, जरा खयाल तो करो।

बेगम – अगर पहले से मालूम होता तो सफशिन को हजार परदों में छिपाके रखती। हाँ, खूब याद आया, वह तो अभी जीते-जागते हैं और तुमने उनकी कब्र बनवा दी।

नवाब – वल्लाह, खूब याद दिलाया। सुभान-अल्लाह!

बेगम – यह तो कोसना हुआ किसी बेचारे को।

नवाब – अगर कहीं यहाँ आ जायँ, और पढ़े लिखे तो हैं ही, कहीं कब्र पर नजर पड़ गई, उस वक्त यही कहेंगे कि यह लोग मेरी मौत मना रहे हैं, क्या झपाके से कब्र बनवा दी। इससे बेहतर यही है कि खुदवा डालूँ।

बेगम – जहन्नुम में जाय। इस अफीमची को घर के अंदर लाने की क्या जरूरत थी?

नवाब – अजी, यह वही हैं जिनको हम लोग खोजी-खोजी कहते हैं। लड़ाई के मैदान में सफशिकन इन्हीं से मिले थे। अगर कहो तो यहाँ बुला लूँ।

बेगम – ऐ जहन्नुम में जाय मुआ, और सुनो, उस अफीमची को घर के अंदर लाएँगे।

नवाब – सुन तो लो। पहले बूढ़ा, पेट में आँत न मुँह में दाँत, दूसरे मातबर, तीसरे दोहरी पट्टी बँधी है।

बेगम – हाँ, इसका मुजायका नहीं, मगर में उन मुए लुंगाड़ों के नाम से जलती हूँ, उन्हीं की सोहबत में तुम्हारा यह हाल हुआ।

नवाब – ऐं, क्या खूब!

खोजी – खुदावंद, गुलाम हाजिर है।

महरी – मैं तो समझी कि कुएँ में से कोई बोला।

बेगम – क्या यह हरदम पिनक में रहता है?

नवाब – ख्वाजा साहब, क्या सो गए?

दरबार – ख्वाजा साहब, देखो सरकार क्या फरमाते हैं?

खोजी – क्या हुक्म है खुदावंद!

बेगम – देखो, खुदा जानता है, ऊँघ रहा था। मैं तो कहती ही थी।

नवाब – भाई, जरा सफशिकन का हाल तो कह चलो।

खोजी – खुदावंद, तो अब आँखें तो खुलवा दीजिए।

बेगम – क्या कुतिया के पिल्ले की आँखें हैं जो अब भी नहीं खुलतीं।

नवाब – पहले हाल तो बयान करो। जरा तोपवाला जिक्र फिर करना, यहाँ किसी को यकीन ही नहीं आता।

खोजी – हुजूर, क्योंकर यकीन आए, जब तक अपनी आँखों से न देखेंगे, कभी न मानेंगे।

नवाब – तो भाई हमने क्योंकर मान लिया, इतना तो सोचो?

खोजी – खुदा ने सरकार को देखने वाली आँखें दी हैं। आप न समझें तो कौन समझे। हुजूर, यह कैफियत हुई कि दरिया के दोनों तरफ आमने-सामने तोपें चढ़ी हुई थीं। बस सफशिकन ने एक कंकरी उठा कर, खुदा जाने क्या जादू फँक दिया कि इधर कंकरी फेंकी और उधर तोप के दो सौ टुकड़ें और हर टुकड़े ने सौ-सौ रूसियों की जान ली।

बेगम – इस झूठ को आग लगे, अफीम पी-पी के निगोड़ों को क्या-क्या सूझती है। बैठे-बैठे एक कंकरी से तोप के सौ टुकड़े हो गए। खुदा का डर ही नहीं।

नवाब – तुम्हें यकीन ही न आए तो कोई क्या करे।

बेगम – चलो, बस खामोश रहो, जरा सा मुआ बटेर और कंकरी से उसने तोप के दो सौ टुकड़े कर डाले। खुदा जानता है, तुम अपनी फस्द खुलवाओ।

नवाब – अब खुदा जाने, हमें जनून है या तुम्हें।

खोजी – खुदावंद, बहस से क्या फायदा! औरतों की समझ में यह बातें नहीं आ सकतीं।

बेगम – महरी, जरा दरबान से कह, इस निगोड़े अफीमची को जूते मारके निकाल दे। खबरदार जो इसको कभी डयोढ़ी में आने दिया।

खोजी – सरकार तो नाहक खफा होती हैं।

बेगम – मालूम होता है, आज मेरे हाथों तुम पिटोगे, अरे महरी, खड़ी सुनती क्या है, जाके दरबान को बुला ला।

हुसैनी दरबान ने आ कर खोजी के कान पकड़े और चपतियाता हुआ ले चला।

खोजी – बस-बस, देखो, कान-वान की दिल्लगी अच्छी नहीं।

महबूबन – अब चलता है या मचलता है?

खोजी – (टोपी जमीन से उठा कर) अच्छा, अगर आज जीते बच जाओ तो कहना। अभी एक थप्पड़ दूँ तो दम निकल जाय।

इतना कहना था कि दूसरी महरी आ पहुँची और कान पकड़ कर चपतियाने लगी। खोजी बहुत बिगड़े, मगर सोचे कि अगर सब लोगों को मालूम हो जायगा कि महरियों की जूतियाँ खाईं तो बेढब होगी। झाड़-पौंछ कर बाहर आए और एक पलंग पर लेट रहे।

खोजी के जाने के बाद बेगम साहब ने नवाब को खूब ही आड़े हाथों लिया। जरा सोचो तो कि तुम्हें हो क्या गया है। कहाँ बटेर और कहाँ तोप, खुदा झूठ न बोलाए तो बिल्ली खा गई हो, या इन्हीं मुसाहबतों में से किसी ने निकल कर बेच लिया होगा और तुम्हें पट्टी पढ़ा दी कि वह सफशिकन थे। आखिर तुम किसी अपने दोस्त से पूछो। देखो, लोगों की क्या राय हैं?

नवाब – खुदा के लिए मेरे मुसाहबों को न कोसों, चाहे मुझे बुरा-भला कह लो।

बेगम – इन मुफ्तखोरों से खुदा समझे।

नवाब – जरा आहिस्ता-आहिस्ता बोलो, कहीं वह सब सुन लें, तो सब के सब चलते हों और मैं अकेला मक्खियाँ मारा करूँ।

बेगम – ऐ है, ऐसे बड़े खरे हें! तुम जूतियाँ मार के निकालो तो भी ये चूँ न करें। जो बस निकल जायँ तो होगा क्या? वह कल जाते हों तो आज ही जायँ।

महरी – हुजूर तो चूक गईं, जरी इस मुए खोजी की कहानी तो सुनी होती। हँसते-हँसते लोट जातीं।

बेगम – सच, अच्छा तो उसको बुलाओ जरी, मगर कह देना कि झूठ बोला और मैंने खबर ली।

नवाब – या खुदा, यह तुमसे किसने कह दिया कि वह झूठ ही बोलेगा। इतने दिनों से दरबार में रहता है, कभी झूठ नहीं बोला तो अब क्यों झूठ बोलने लगा?और आखिर इतना तो समझो कि झूठ बोलने से उसको मिल क्या जायगा?

बेगम – अच्छा, बुलाओ। मैं भी जरा सफशिकन का हाल सुनूँ।

महरी ने जा कर खोजी को बुलाया। ख्वाजा साहब झल्लाए हुए पलंग पर पड़े थे । बोले – जा कर कह दो, अब हम वह खोजी नहीं हैं जो पहले थे, आने-वाले और जानेवाले, बुलानेवाले और बुलवानेवाले, सबको कुछ कहता हूँ।

आखिर लोगों ने समझाया तो ख्वाजा साहब ड्योढ़ी में आए और बोले – आदाब अर्ज करता हूँ सरकार, अब क्या फिर कुछ मेहरबानी की नजर गरीब के हाल पर होगी? सभी कुछ इनाम बाकी हो तो अब मिल जाय।

बेगम – सफशिकन का कुछ हाल मालूम हो तो ठीक-ठीक कह दो। अगर झूठ बोले तो तुम जानोगे।

खोजी – वाह री किस्मत, हिंदोस्तान से बंबई गए, वहाँ सब के सब ‘हुजूर- हुजूर’ कहते थे। तुर्की और रूस में कोहकाफ की परियाँ हाथ बाँधे हाजिर रहती थीं। मिस रोज एक-एक बात पर जान देती थीं, अब भी उसकी याद आ जाती है तो रात भर अच्छे-अच्छे ख्वाब देखा करता हूँ –

ख्वाब में एक नूर आता है नजर;
याद में तेरी जो सो जाते हैं हम।

बेगम – अब बताओ, है पक्का अफीमची या नहीं, मतलब की बात एक न कही वाही-तबाही बकने लगा।

खोजी – एक दफे का जिक्र है कि पहाड़ के ऊपर तो रूसी और नीचे हमारी फौज। हमको मालूम नहीं कि रूसी मौजूद है। वहीं पड़ाव का हुक्म दे दिया। फौज तो खाने पीने का इंतजाम करने लगी और मैं अफीम घोलने लगा कि एकाएक पहाड़ पर से तालियों की आवाज आई। मैं प्याली ओठों तक ले गया था कि ऊपर से रूसियों ने बाढ़ मारी। हमारे सैकड़ों आदमी घायल हो गए। मगर वाह रे, खुदा गवाह है, प्याली हाथ से न छूटी। एकाएक देखता हूँ कि सफशिकन उड़े चले आते हैं, आते ही मेरे हाथ पर बैठ कर चोंच अफीम से तर की, और उसके दो कतरे पहाड़ पर गिरा दिए। बस धमाके की आवाज हुई और पहाड़ फट गया। रूस की सारी फौज उसमें समा गई। मगर हमारी तरफ का एक आदमी भी न मरा। मैंने सफशिकन का मुँह चूम लिया।

बेगम – भला सफशिकन बातें किस जबान में करते हैं?

खोजी – हुजूर, एक जबान हो तो कहूँ, उर्दू, फारसी, अरबी, तुर्की, अंगरेजी।

बेगम – क्या और जबानों के नाम नहीं याद हैं?

खोजी – अब हुजूर से कौन कहे।

नवाब – अब यकीन आया कि अब भी नहीं? और जो कुछ पूछना हो, पूछ लो।

बेगम – चलो, बस चुपके बैठ रहो। मुझे रंज होता है कि इन हरामखोरों के पास बैठ-बैठ तुम कहीं के न रहे।

नवाब – हाय अफसोस, तुम्हें यकीन ही नहीं आता, भला सोचो तो, यह सब के सब मुझसे क्यों झूठ बोलेंगे। खोजी को मैं कुछ इनाम दे देता हूँ या कोई जागीर लिख दी है इसके नाम?

खोजी – खुदावंद, अगर इसमें जरा भी शक हो तो आसमान फट पड़े। झूठ बात तो जबान से निकलेगी ही नहीं, चाहे कोई मार डाले।

बेगम – अच्छा, ईमान से कहना कि कभी मोरचे पर भी गए या झूठ-मूठ के फिकरे ही बनाया करते हो?

खोजी – हुजूर मालिक हैं, जो चाहें, कह दें, मगर गुलाम ने जो बात अपनी आँखों देखी, वह बयान की। अगर फर्क हो तो फाँसी का हुक्म दे दीजिए।

एक बूढ़ी महरी ने खोजी की बातें सुनने के बाद बेगम से कहा – हुजूर, इसमें ताज्जुब की कौन बात है, हमारे महल्ले में एक बड़ा काला कुत्ता रहा करता था। मुहल्ले के एक लड़के उसे मारते, कान पकड़ कर खींचते, मगर वह चूँ भी नहीं करता था। एक दिन महल्ले के चौकीदार ने उस पर एक ढेला फेंका। ढेला उसके कान में लगा और कान से खून बहने लगा। चौकीदार दूसरा ढेला मारना ही चाहता था कि एक जोगी ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, क्यों जान का दुश्मन हुआ है बाबा। यह कुत्ता नहीं है। उसी रात को चौकीदार ने ख्वाब देखा कि कुत्ता उसके पास आया! और अपना घाव दिखा कर कहा – या तो हमीं नहीं, या तुम्हीं नहीं। सबेरे जो चौकीदार उठा तो उसने पास-पड़ोसवालों से ख्वाब का जिक्र किया। मगर अब देखते हें तो कुत्ते का कहीं पता ही नहीं। दोपहर को चौकीदार कुएँ पर पानी भरने गया तो पानी देखते ही भूँकने लगा।

बेगम – सच?

महरी – हुजूर, अल्लाह बचाए इस बला से, कुत्ते के भेस में क्या जाने कौन था।

नवाब – अब इसको क्या कहोगी भई, अब भी सफशिकन के कमाल को न मानोगी?

बेगम – हाँ, ऐसी बातें तो हमने भी सुनी हैं, मगर…

खोजी – अगर-मगर की गुँजायश नहीं, गुलाम आँखों देखी कहता है। एक किस्सा और सुनिए, आपको शायद इसका भी यकीन न आए। सफशिकन मेरे सिर पर आ कर बैठ गए और कहा, रूसियों की फौज में धँस पड़ो। मेरे होश उड़ गए। बोला, साहब आप हैं कहाँ? मेरी जान जायगी, आपके नजदीक दिल्लगी है, मगर वह सुनते किसकी हैं। कहा, चलो तो तुम! आधी रात थी, घटा छाई हुई थी, मगर मजबूरन जाना पड़ा। बस, रूसी फौज में जा पहुँचा। देखा, कोई गाता है, कोई सोता है। हम सबको देखते हैं, मगर हमें कोई नहीं देखता। सफशिकन अस्तबल की तरफ चले और फुदक के एक घोड़े की गरदन पर जा बैठे। घोड़ा धम से जा गिरा, अब जिस घोड़े की गरदन पर बैठते हैं, जमीन पर लोटने लगता है। इस तरह कोई सात हजार घोड़े उसी दम धम-धम करके लोट गए। फौज से निकले तो आपने पूछा, कहो आज की दिल्लगी देखी, कितने सवार बेकार हुए!

मैं – हुजूर, पूरे सात हजार!

सफशिकन – आज इतना ही बहुत है, कल फिर देखी जायगी, चलो, अपने पड़ाव पर चलें। चलते-चलते जब थक जाओ तो हमसे कह दो।

मैं – क्यों, आपसे क्या कह दूँ?

सफशिकन – इसलिए कि हम उतर जायँ।

मैं – वाह, मुट्ठी भर के आप, भला आपके बैठने से मैं क्या थक जाऊँगा? आप क्या और आपका बोझ क्या?

इतना सुनना था कि खुदा जाने ऐसा कौन सा जादू कर दिया कि मेरा कदम उठाना मुहाल हो गया। मालूम होता था, सिर पर पहाड़ का बोझ लदा हुआ है। बोला, हुजूर, अब तो बहुत ही थक गया, पैर ही नहीं उठते। बस, फुर्र से उड़ गए। ऐसा मालूम हुआ कि सिर से दस-बीस करोड़ मन बोझा उतर गया।

नवाब – यह तो भाई, नई-नई बातें मालूम होती जाती हैं। वाह रे सफशिकन।

खोजी – हुजूर, खुदा जाने, किस औलिया ने यह भेस बदला है।

बेगम साहब ने इस वक्त तो कुछ न कहा, मगर ठान ली कि आज रात को नवाब साहब को खूब आड़े हाथों लूँगी। नवाब साहब ने समझा कि बेगम साहब को सफशिकन के कमाल का यकीन आ गया। बाहर आ कर बोले – वल्लाह, तुमने तो ऐसा समा बाँध दिया कि अब बेगम साहब को उम्र भर शक न होगा।

खोजी – हुजूर, सब आँखों देखी बात बयान की है।

नवाब – यही तो मुश्किल है कि वह सच्ची बातों को भी बनावट समझती हैं।

खोजी – समझ में नहीं आता, मुझसे क्यों इतनी नाराज हैं।

नवाब – नाराज नहीं हैं जी, मतलब यह कि अब इस बात को सिवा पढ़े-लिखे आदमी के और कौन समझ सकता है। और भई, मैं सोचता हूँ कि आखिर कोई झूठ क्यों बोलने लगा, झूठ बोलने में किसी को फायदा ही क्या है।

खोजी – ऐ सुभान-अल्लाह, क्या बात हुजूर ने पैदा की है! सच-मुच कोई झूठ क्यों बोलने लगा। एक तो झूठा कहलाए, दूसरे बे आबरू हो।

नवाब – भाई, हम इनसान को खूब पहचानते हैं। आदमी का पहचानना कोई हमसे सीखे। मगर दो को हमने भी नहीं पहचाना। एक तुमको, दूसरे सफशिकन को।

खोजी – खुदावंद, मैं यह न मानूँगा, हुजूर की नजर बड़ी बारीक है।

नवाब साहब खोजी की बातों से इतने खुश हुए कि उनके हाथ में हाथ दिए बाहर आए। मुसाहबों ने जो इतनी बेतकल्लुफी देखी तो जल मरे, आपस में इशारे होने लगे –

मस्तियाबेग – ऐं, मियाँ खोजी ने तो जादू कर दिया यारो!

गफूर – जरूर किसी मुल्क से जादू सीख आए हैं।

मस्तियाबेग – तजरबाकार हो गया न, अब इसका रंग कुछ जम गया।

गफूर – कैसा कुछ, अब तो सोलहों आने के मालिक हैं।

मिरजा – अरे मियाँ, दोनों हाथ में हाथ दे कर निकले, वाह री किस्मत। मगर यह खुश किस बात पर हुए?

गफूर – इनको अभी तक यही नहीं मालूम, बताइए साहब!

मस्तियाबेग – मियाँ, अजब, कूढमगज हो, कहने लगे, खुश किस बात पर हुए। सफशिकन की तारीफों के पुल बाँध दिए। सूझ ही तो है, अब लाख चाहें कि उसका रंग फीका कर दें, मुमकिन नहीं।

मिरजा – इस वक्त तो खोजी का दिमाग चौथे आसमान पर होगा।

मस्तियाबेग – अजी, बल्कि और उसके भी पार, सातवें आसमान पर।

गफूर – मैं बाग में गया था, देखा, नवाब साहब मोढ़े पर बेठे हैं और खोजी तिपाई पर बैठा हुआ, खास सरकार की गुड़गुड़ी पी रहा है?

मिरजा – सच, तुम्हें खुदा की कसम!

गफूर – चल कर देख लीजिए न, बस जादू कर दिया। यह वही खोती हैं जो चिलमें भरा करते थे, मगर जादू का जोर, अब दोस्त बने हुए हैं।

मिरजा – खोजी को सब के सब मिल कर मुबारकबाद दो और उनसे बढ़िया दावत लो। अब इससे बढ़ कर कौन दरजा है?

इतने में नवाब साहब खोजी को लिए हुए दरबार में आए, मुसाहब उठ खड़े हुए। ख्वाजा साहब को सरकार ने अपने करीब बिठाया और आजाद से बोले – हजरत, आपकी सोहबत में ख्वाजा साहब पारस हो गए।

आजाद – जनाब, यह सब आपकी खिदमत का असर है। मेरी सोहबत में तो थोड़े ही दिनों से हैं, आपकी शागिर्दी करते बरसों गुजर गए।

नवाब – वाह, अब तो ख्वाजा साहब मेरे उस्ताद हैं जनाब!

मस्तियाबेग – खुदावंद, यह क्या फरमाते हैं। हुजूर के सामने खोजी की क्या हस्ती है?

नवाब – क्या बकता है? खोजी की तारीफ से तुम सब क्यों जल मरते हो?

मिरजा – खुदावंद, यह मस्तियाबेग तो दूसरों को देख कर हमेशा जलते रहते हैं।

गफूर – यह परले सिर के गुस्ताख हैं, बात तो समझे नहीं, जो कुछ मुँह में आया, बक दिए। आखिर ख्वाजा साहब बेचारे ने इनका क्या बिगाड़ा!

नवाब – मुझको सुनो साहब, दिल में पुरानी कुदूरत है।

मुसाहब – सुभान-अल्लाह! हुजूर, बस यही बात है।

खोजी – हुजूर इसका ख्याल न करें। यह जो चाहें, कहें। भाई गफूर, जरा सा पानी पीएँगे।

नवाब – ठंडा पानी लाओ ख्वाजा साहब के वास्ते।

खिदमतगार सुराही का झला ठंडा पानी लाया, चाँदी के कटोरे में पानी दिया। जब ख्वाजा साहब पानी पी चुके तो नवाब साहब ने पानदान से दो गिलौरियाँ निकाल कर खास अपने हाथ से उनको दीं।

मिरजा – मैंने मस्तियाबेग से हजार बार कहा कि भाई, तुम किसी को देख के जले क्यों मरते हो, कोई तुम्हारा हिस्सा नहीं छीन ले जाता, फिर ख्वाहम-ख्वाह के लिए अपने को क्यों हलकान करते हो।

नवाब – मुझे इस वक्त उसकी बातें बहुत नागवार मालूम हुई।

मुसाहब – जानते हैं कि इस दरबार में खुशामदियों की दाल नहीं गलती, फिर भी अपनी हरकत से बाज नहीं आते।

मुसाहब लोग तो बाहर बैठे सलाह कर रहे थे, इधर दरबार में नवाब साहब, आजाद और खोजी में यूरोप के रईसों का जिक्र होने लगा। आजाद ने यूरोप के रईसों की खूब तारीफ की।

नवाब – क्यों साहब, हम लोग भी उन रईसों की तरह रह सकते हैं?

आजाद – बेशक, अगर उन्हीं की राह पर चलिए। आपकी सोहबत में चंडूबाज, मदकिए, चरसिए इस कसरत से हैं कि शायद ही कोई इनसे खाली हो। यूरोप के रईसों के यहाँ ऐसे आदमी फटकने भी न पाएँ!

नवाब – कहिए तो ख्वाजा साहब के सिवा और सबको निकाल दूँ।

खोजी – निकालिए चाहे रहने दीजिए, मगर इतना हुक्म जरूर दे दीजिए कि आपके सामने दरबार में न कोई चंडू के छींटे उड़ाए, न मदक के दम लगाए और न अफीम घोले।

आजाद – दूसरी बात यह है कि खुशामदी लोग आपकी झूठी तारीफे कर-करके खुश करते हैं। इनको झिड़क दीजिए और इनकी खुशामद पर खुश न होइए।

नवाब – आप ठीक कहते हैं। वल्लाह, आपकी बात मेरे दिल में बैठ गई। यह सब भर्रे दे-दे कर मुझे बिलटाए देते हैं।

आजाद – आपको खुदा ने इतनी दौलत दी है, यह इस वास्ते नहीं कि आप खुशामदियों पर लुटाएँ। इसको इस तरह काम में लाएँ कि सारी दुनिया में नहीं तो हिंदोस्तान भर में आपका नाम हो जाय। खैरातखना कायम कीजिए, अस्पताल बनवाइए, आलिमों की कदर कीजिए। मैंने आपके दरबार में कसिी आलिम फाजिल को नहीं देखा।

नवाब – बस, आज ही से इन्हें निकाल बाहर करता हूँ।

आजाद – अपनी आदतें भी बदल डालिए, आप दिन को ग्यारह बजे सो कर उठते और हाथ-मुँह धो कर चंडू के छींटे उड़ाते हैं। इसके बाद इन फिकरेबाजों से चुहल होती है। सुबह का खाना आपको तीन बजे नसीब होता है। आप फिर आराम करते हें तो शाम से पहले नहीं उठते। फिर वही चंडू और मदक का बाजार गर्म होता है। कोई दो बजे रात को आप खाना खाते हैं। अब आप ही इनसाफ कीजिए कि दुनिया में आप कौन सा काम करते हैं।

नवाब – इन बदमाशों ने मुझे तबाह कर दिया।

आजाद – सबेरे उठिए, हवा खाने जाइए, अखबार पढ़िए, भले आदमियों की सोहबत में बैठिए, अच्छी-अच्छी किताबें पढ़िए, जरूरी कागजों को समझिए, फिर देखिए कि आपकी जिंदगी कितनी सुधर जाती हैं।

नवाब – खुदा की कसम, आज से ऐसा ही करूँगा,एक-एक हर्फ की तामील न हो तो समझ लीजिएगा, बड़ा झूठा आदमी हैं।

खोजी – हुजूर, मुझे तो बरसों इस दरबार में हो गए, जब सरकार ने कोई बात ठान ली तो फिर चाहे जमीन और आसमान एक तरफ हो जाय, आप उसके खिलाफ कभी न करेंगे। बरसों से यही देखता आता हूँ।

आजाद – एक इश्तहार दे दीजिए कि लोग अच्छी-अच्छी किताबें लिखें, उन्हें इनाम दिया जायगा। फिर देखिए, आपका कैसा नाम होता है!

नवाब – मुझे किसी बात में उज्र नहीं है।

उधर मुसाहबों में और ही बातें हो रही थीं –

मस्तियाबेग – वल्लाह, आज तो अपना खून पी कर रह गया यारो।

मिरजा – देखते हो, किस तरह झिड़क दिया!

मस्तियाबेग – झिड़क क्या दिया, बस कुछ न पूछो, मैं – जान-बूझ कर चुप हो रहा, नहीं बेढब हो जाती। किसी ने अपनी इज्जत नहीं बेची है। और अब आपस में सलाहें हो रही हैं। खोजी ने सबको बिलटाया।

मस्तियाबेग – कोई लाख कहे, हम न मानेंगे, यह सब जादू का खेल हैं।

गफूर – मियाँ, इसमें क्या शक है, यह जादू नहीं तो है क्या?

मिरजा – अजी, उल्लू का गोश्त नवाब साहब को न खिला दिया हो तो नाक कटवा डालूँ। इन लोगों ने मिल कर उल्लू का गोश्त खिला दिया है, जभी तो उल्लू बन गए, अब उनसे कहे कौन?

मस्तियाबेग – कहके बहुत खुश हुए कि अब किसी दूसरे को हिम्मत होगी।

गफूर – अब तो कुछ दिन खोजी की खुशामद करनी पड़ेगी।

मस्तियाबेग – हमारी जूती उस पाजी की खुशामद करती है।

मिरजा – फिर निकाले जाओगे, यहाँ रहना है तो खोजी को बाप बनाओ, दरिया में रहना और मगर से बैर?

मस्तियाबेग – दो-चार दिन रहके यहाँ का रंग-ढंग देखते हैं। अगर यही हाल रहा तो हमारा इस्तीफा है, ऐसी नौकरी से बाज आए! बराबरवालों की खुशामद हमसे न हो सकेगी।

मीर साहब – बराबरवाले कौन? तुम्हारे बराबरवाले होंगे। हम तो खोजी को जलील समझते हैं।

गफूर – अरे साहब, अब तो यह सबके अफसर हैं और हम तो उन्हें गुड़-गुड़ी पिला चुके। आप लोग उन्हें मानें या न मानें, हमारे तो मालिक हैं।

मिरजा – सौ बरस बाद घूरे के भी दिन फिरते हैं। भाईजान, किसी को इसका गुमान भी था कि खोजी को सरकार इस तपाक से अपने पास बिठाएँगे, मगर अब आँखों देख रहे हैं।

नवाब साहब बाहर आए तो इस ढंग से कि उनके हाथ में एक छोटी सी गुड़गुड़ी और ख्वाजा साहब पी रहे हैं। मुसाहबों के रहे-सहे होश भी उड़ गए। ओफ्फोह, सरकार के हाथ में गुड़गुड़ी और यह टुकरचा, रईस बना हुआ दम लगा रहा है। नवाब साहब मसनद पर बैठे तो खोजी को भी अपने बराबर बिठाया। मुसाहब सन्नाटे में आ गए। कोई चूँ तक नहीं करता, सबकी निगाह खोजी पर है। बारे मीर साहब ने हिम्मत करके बात-चीत शुरू की –

मीर साहब – खुदावंद, आज कितनी बहार का दिन है, चमन से कैसी भीनी-भीनी खुशबू आ रही हैं।

नवाब – हाँ, आज का दिन इसी लायक है कि कोई इल्मी बहस हो।

मीर साहब – खुदावंद, आज का दिन तो गाना सुनने के लिए बहुत अच्छा है।

नवाब – नहीं, कोई इल्मी बहस होनी चाहिए। ख्वाजा साहब, आप कोई बहस शुरू कीजिए।

मस्तियाबेग – (दिल में) इनके बाप ने भी कभी इल्मी बहस की थी?

मिरजा – हुजूर, ख्वाजा साहब की लियाकत में क्या शक है, मगर –

नवाब – अगर-मगर के क्या मानी? क्या ख्वाजा साहब के आलिम होने में आप लोगों को कुछ शक है?

मिरजा – मिस इल्म की बहस कीजिएगा ख्वाजा साहब? इल्म का नाम तो मालूम हो।

खोजी – हम इल्म जालोजी में बहस करते हैं, बतलाइए, इस इल्म का क्या मतलब है?

मिरजा – किस इल्म का नाम लिया आपने, जालोजी! यह जालोजी क्या बला है?

नवाब – जब आपको इस इल्म का नाम तक नहीं मालूम तो बहस क्या खाक कीजिएगा। क्यों ख्वाजा साहब, सुना है कि दरिया में जहाजों के डुबो देने के औजार भी अँगरेजों ने निकाले हैं। यह तो खुदाई करने लगे!

खोजी – उस औजार का नाम तारपेडो है। दो जहाज हमारे सामने डुबो दिए गए! पानी के अंदर ही अंदर तारपेडो छोड़ा जाता है, बस जैसे ही जहाज के नीचे पहुँचा वैसे ही फटा। फिर तो जनाब, जहाज के करोड़ों टुकड़े हो जाते हैं।

मस्तियाबेग – और क्यों साहब, यह बम का गोला कितनी दूर का तोड़ करता है?

खोजी – बम के गोले कई किस्म के होते हैं, आप किस किस्म का हाल दरियाफ्त करते हैं?

मस्तियाबेग – अजी, यही बम को गोले।

खोजी – आप तो यही-यही करते हैं, उसका नाम तो बतलाइए?

नवाब – क्यों जनाब, लड़ाई के वक्त आदमी के दिल का क्या हाल होता होगा? चारों तरफ मौत ही मौत नजर आती होगी?

मिरजा – मैं अर्ज करूँ हुजूर, लड़ाई के मैदान में आ कर जरा…।

नवाब – चुप रहो साहब, तुमसे कौन पूछता है, कभी बंदूक की सूरत भी देखी है या लड़ाई का हाल ही बयान करने चले!

खोजी – जनाब, लड़ाई के मैदान में जान का जरा भी खौफ नहीं मालूम होता। आपको यकीन न आएगा, मगर मैं सही कहता हूँ कि इधर फौजी बाजा बजा और उधर दिलों में जोश उमड़ने लगा। कैसा ही बुजदिल हो, मुमकिन नहीं कि तलवार खींच कर फौज के बीच में धँस न जाय। नंगी तलवार हाथ में ली और दिल बढ़ा। फिर अगर दो करोड़ गोले भी सिर पर आएँ तो क्या मजाल कि आदमी हट जाय।

खोजी यही बातें कर रहे थे कि खिदमतगार ने आ कर कहा – हुजूर, बाहर एक साहब आए हैं, और कहते हैं, नवाब साहब को हमारा सलाम दो, हमें उनसे कुछ कहना है। नवाब साहब ने कहा – ख्वाजा साहब, आप जरा जा कर दरियाफ्त कीजिए कि कौन साहब हैं। खोजी बड़े गरूर के साथ उठे और बाहर जा कर साहब को सलाम किया। मालूम हुआ कि यह पुलिस का अफसर है, जिले के हाकिम ने उसे आजाद का हाल दरियाफ्त करने के लिए भेजा है।

खोजी – आप साहब से जा कर कह दीजिए, आजाद पाशा नवाब साहब के मेहमान हैं और उनके साथ ख्वाजा साहब भी हैं।

अफसर – तो साहब उनसे मिलनेवाला है। अगर आज उनको फुरसत हो तो अच्छा, नहीं तो जब उनका जी चाहे।

खोजी – मैं उनसे पूछ कर आपको लिख भेजूँगा।

इस्पेक्टर साहब चले गए तो मस्तियाबेग ने कहा – क्यों साहब, यह बात हमारी समझ में नहीं आई कि आपने आजाद पाशा से इसी वक्त क्यों न पूछ लिया। एक ओहदेदार को दिक करने से क्या फायदा? खोजी ने त्योरियाँ बदल कर कहा – तुमसे हजार बार मना किया कि इस बारे में न बोला करो, मगर तुम सुनते ही नहीं। तुम तो हो अक्ल के दुश्मन, हम चाहते हैं कि आजाद पाशा जब किसी हाकिम से मिलें तो बराबर की मुलाकात हो। इस वक्त यह वर्दी नहीं पहने हैं। कल जब यह फौजी वर्दी पहन कर और तमगे लगा कर हाकिम-जिला से मिलेंगे तो वह खड़ा हो कर ताजीम करेगा।

नवाब – अब समझे या अब भी गधे ही बने हो? ख्वाजा साहब को तौलने चले हैं! वल्लाह, ख्वाजा साहब, आपने खूब सोची। अगर इस वक्त कह देते कि आजाद वह क्या बैठे हैं तो कितनी किरकिरी होती।

इतने में खाने का वक्त आ पहुँचा। खाना चुना गया, सब लोग खाने बैठे, उस वक्त खोजी ने एक किस्सा छेड़़ दिया – हुजूर, एक बार जब अंगरेजों की डच लोगों से मुठभेड़ हुई तो अंगरेजी अफसर ने कहा, अगर कोई आदमी दूसरी तरफ के जहाजों को ले आए तो हमारी फतह हो सकती है, नहीं तो हमारा बेड़ा तबाह हो जायगा। इतना सुनते ही बारह मल्लाह पानी में कूद पड़े। उनके साथ पंद्रह साल का एक लड़का भी पानी में कूदा।

नवाब – समुद्र में, ओफ्फोह!

खोजी – खुदावंद, उनसे बढ़ कर दिलेर और कौन हो सकता है? बस अफसर ने मल्लाहों से कहा, इस लड़के को रोक लो। लड़के ने कहा, वाह, मेरे मुल्क पर अगर मेरी जान कुरबान हो जाय तो क्या मुजायका? यह कह कर वह लड़का तैरता हुआ निकल गया।

नवाब – ख्वाजा साहब, कोई ऐसी फिक्र कीजिए कि हमारी-आपकी दोस्ती हमेशा इसी तरह कायम रहे।

खोजी – भाई सुनो, हमें खुशामद करनी मंजूर नहीं, अगर साहब-सलामत रखना है तो रखिए, वरना आप अपने घर खुश और मैं अपने घर खुश।

नवाब – यार, तुम तो बेवजह बिगड़ खड़े होते हो।

खोजी – साफ तो यह है कि जो तजरबा हमको हासिल हुआ है उस पर हम जितना गरूर करें, बजा है।

नवाब – इसमें क्या शक है जनाब।

खोजी – आप खूब जानते हैं कि आलिम लोग किसी की परवा नहीं करते। मुझे दुनिया में किसी से दबके चलना नागवार है, और हम क्यों किसी से दबें? लालच हमें छू नहीं गया, हमारे नजदीक बादशाह और फकीर दोनों बराबर। जहाँ कहीं गया, लोगों ने सिर और आँखों पर बिठाया। रूम, मिस्र, रूस बगैरह मुल्कों में मेरी जो कदर हुई वह सारा जमाना जानता है। आपके दरबार में आलिमों की कदर नहीं। वह देखिए, नालायक मस्तियाबेग आपके सामने चंडू का दम लगा रहा है। ऐसे बदमाशों से मुझे नफरत है।

नवाब – कोई है, इस नालायक को निकाल दो यहाँ से।

मुसाहिब – हुजूर तो आज नाहक खफा होते हैं, इस दरबार में तो रोज ही चंडू के दम लगा करते हैं। इसने किया तो क्या गुनाह किया?

नवाब – क्या बकते हो, हमारे यहाँ चंडू का दम कोई नहीं लगाता।

खोजी – हमें यहाँ आते इतने दिन हुए, हमने कभी नहीं देखा, चंडू पीना शरीफों का काम ही नहीं।

मिरजा – तुम तो गजब करते हो खोजी, जमाने भर के चंडूबाज, अफीमची, अब आए हो वहाँ से बढ़-बढ़के बातें बनाने। जरा सरकार ने मुँह लगाया तो जमीन पर पाँव ही नहीं रखते।

नवाब – गफूर इन सब बदमाशों को निकाल बाहर करो। खबरदार जो आज से कोई यहाँ आने पाया।

मीर साहब – खुदावंद! बस, कुछ न कहिएगा, हम लोगों ने अपनी इज्जत नहीं बेची हैं।

नवाब – निकालो इन सबों को, अभी-अभी निकाल दो।

ख्वाजा साहब शह पा कर उठे और एक कतारा लेकर मस्तियाबेग पर जमाया। वह तो झल्लाया था ही, खोजी को एक चाँटा दिया, तो गिर पड़े, इतने में कई सिपाही आ गए, उन्होंने मस्तियाबेग को पकड़ लिया और बाकी सब भाग खड़े हुए। खोजी झाड़ पोंछ कर उठे और उठते ही हुक्म दिया कि मस्तियाबेग को उस दरख्त में बाँधकर दो सौ कोड़े लगाए जायँ, नमकहराम अपने मालिक के दोस्तों से लड़ता है। बदन में कीड़े न पड़ें तो सही।

उधर मियाँ आजाद साहब से मिलकर लौटे तो देखा कि दरबार में सन्नाटा छाया हुआ है। नवाब साहब उन्हें देखते ही बोले – हजरत, आज से हमने आपकी सलाहों पर चलना शुरू कर दिया।

आजाद – दरबार के लोग कहाँ गायब हो गए?

खोजी – सबके सब निकाल दिए गए, अब कोई यहाँ फटकने भी न पाएगा।

नवाब – अब हम हुक्काम से मिला करेंगे और कोशिश करेंगे कि हर एक किस्म की कमेटी में शरीक हों। वाही-तबाही आदमियों की सोहबत में आप देखें तो मेरे कान पकड़िएगा।

आजाद – अब आप हर किस्म की किताबें पढ़ा कीजिए।

नवाब – आप तो कुछ फरमाते हैं, बजा है, मेरा पच्चीसवाँ साल है, अभी मुझे पढ़ने-लिखने का बहुत मौका है; और मुझे करना ही क्या है।

आजाद – खुदा आपकी नीयत में बरकत दे।

खोजी – बस, आज से आपको आलिमों की सोहबत रखनी चाहिए। ऐसा न हो, इस वक्त तो सब कुछ तकरार कर लीजिए, और कल से फिर वही ढाक के तीन पात।

नवाब – खुदा ने चाहा तो यह सब बातें अब नाम को भी न देखिएगा।

दूसरे दिन आजाद सैर करने निकले तो क्या देखते हैं कि एक जगह कई आदमी एक छत पर बैठे हुए हैं। आजाद को देखते ही देखते ही एक आदमी ने आ कर उनसे कहा – अगर आपको तकलीफ न हो, तो जरा मेरे साथ आइए। आजाद उसके साथ छत पर पहुँचे तो उन आदमियों में एक ही सूरत अपनी से मिलती-जुलती पाई। उसने आजाद की ताजीम की और कहा – आइए, आपसे कुछ बातें करूँ। आपने अपनी सूरत तो आईने में देखी होगी।

आजाद – हाँ और इस वक्त बगैर आईने के देख रहा हूँ। आपका नाम?

आदमी – मुझे आजाद मिरजा कहते हैं।

आजाद – तब तो आप मेरे हमनाम भी हैं। आपने मुझे क्योंकर पहचाना?

मिरजा – मैंने आपकी तसवीरें देखी हैं और अखबारों में आपका हाल पढ़ता रहा हूँ।

आजाद – इस वक्त आपसे मिल कर बहुत खुशी हुई।

मिरजा – और अभी और भी खुशी होगी। सुरैया बेगम को तो आप जानते हैं?

आजाद – हाँ, हाँ, आपको उनका कुछ हाल मालूम है?

मिरजा – जी हाँ, आपके धोखे में मैं उनके यहाँ पहुँचा था, और अब तो वह बेगम हैं। एक नवाब साहब के साथ उनका निकाह हो गया है।

आजाद – क्या अब दूर से भी मुलाकात न होगी?

मिरजा – हरगिज नहीं।

आजाद – बे अख्तियार जी चाहता है कि मिल कर बातें करूँ।

मिरजा – कोशिश कीजिए, शायद मुलाकात हो जाय, मगर उम्मेद नहीं?

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