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आजाद-कथा (उपन्यास) : रतननाथ सरशार – अनुवादक Part 5 – प्रेमचंद
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 41
हुस्नआरा मीठी नींद सो रही थी। ख्वाब में क्या देखती है कि एक बूढ़े मियाँ सब्ज कपड़े पहने उसके करीब आ कर खड़े हुए और एक किताब दे कर फरमाया कि इसे लो और इसमें फाल देखो। हुस्नआरा ने किताब ली और फाल देखा, तो यह शेर था –
हमें क्या खौफ है, तूफान आवे या बला टूटे।
आँख खुल गई तो न बूढ़े मियाँ थे, न किताब। हुस्नआरा फाल-वाल की कायल न थी; मगर फिर भी दिल को कुछ तसकीन हुई। सुबह को वह अपनी बहन सिपहआरा से इस ख्वाब का जिक्र कर रही थी कि लौंडी ने आजाद का खत ला कर उसे दिया।
हुस्नआरा – हम पढ़ेंगे।
सिपहआरा – वाह, हम पढ़ेंगे।
हुस्नआरा – (प्यार से झिड़क कर) बस, यही बात तो हमें भाती नहीं।
सिपहआरा – न भावे, धमकाती क्या हो?
हुस्नआरा – मेरी प्यारी बहन, देखो, बड़ी बहन का इतना कहना मान जाओ। लाओ खत खुदा के लिए।
सिपहआरा – हम तो न देंगे।
हुस्नआरा – तुम तो खाहमख्वाह जिद करती हो, बच्चों की तरह मचली जाती हो।
सिपहआरा – रहने दीजिए, वाह-वाह! हम आजाद का खत न पढ़ें?
यह कहकर सिपहआरा ने आजाद का खत पढ़ सुनाया –
अब तो जाते हैं हिंद से आजाद
फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया।
आज जहाज पर सवार होता हूँ। दो घंटे और हिंदुस्तान में हूँ। उसके बाद सफर, सफर, सफर। मैं खुश हूँ। मगर इस खयाल से जी बेचैन है कि तुम बेकरार होगी। अगर यह मालूम हो जाता कि तुम भी खुश हो, तो जी जाता। अब तो यही धुन है कि कब रूम पहुँचूँ। बस, रुख्सत। – तुम्हारा आजाद।
हाँ, प्यारी सिपहआरा को खूब समझाना। उनका दिल बहुत नर्म है। इस वक्त खोजी पानी की सूरत देख कर मचल रहे हैं।
हुस्नआरा – यह मुआ खोजी अभी जीता ही है?
सिपहआरा – उसे तो पानी का नाम सुन कर जूड़ी चढ़ आती थी।
हुस्नआरा – आखिर बेचारे जहाज पर सवार हो गए! अब देखें, रूम से कब खत आता है?
सिपहआरा – अब तो फाल पर ईमान लाई? देखा, मैं क्या कहती थी? अब मिठाई खिलवाइए। जरा, कोई यहाँ आना। पाँच रुपए की पँचमेल मिठाई लाओ।
हुस्नआरा – यह क्या खब्त है?
सिपहआरा – आपकी बला से। एक डली तुम भी खा लेना।
हुस्नआरा – खूब! पाँच रुपए की मिठाई, और उसमें हमको एक डली मिले? आते ही आते आधी न चख जाऊँ, तो कहना।
सिपहआरा – वाह, दे चुकी मैं! ऐसी कच्ची नहीं हूँ।
हुस्नआरा – भला, किताब से आगे का हाल क्या मालूम होगा? मुझे बड़ी हँसी आती है, जब कोई फाल देख्ता है। आँखें बंद किए हुए थोड़ी देर बड़बड़ाए, और किताब खोली। फिर अपने-अपने तौर पर मतलब निकालने लगे। यह सब ढकोसला है। हमको बड़े उस्ताद ने सबक पढ़ाया है।
थोड़ी देर में सिपाही ने बाहर से आवाज दी कि मामा, मिठाई ले जाओ।
सिपहआरा दौड़ी – मुझे देना। हुस्नआरा अलग फुर्ती से झपटी कि हमें, हमें। अब मामा बेचारी किसको दे, एक चँगेल, दो गाहक। उसने हुस्नआरा को चँगेली दे दी।
हुस्नआरा – अब बतलाइए, खाने में लग्गा लगाऊँ? बरफी पर चाँदी के चमकते हुए वर्क कितनी बहार देते हैं।
सिपहआरा – मामा, तुम दीवानी हो गई हो कुछ? रुपए हमने दिए थे या इन्होंने? पराया माल क्या झप से उठा दिया! वाह-वाह! हाँ-हाँ कहती जाती हूँ, सुनती ही नहीं।
मामा – वह आपकी बड़ी…
सिपहआरा – चलो, बस रहने भी दो। ऊपर से बातें बनाती हो।
सिपहआरा ने मिठाई बाँटी, तो मामा हुस्नआरा की बूढ़ी दादी को भी उसमें से दस-पाँच डलियाँ दे आई।
बूढ़ी – यह मिठाई कैसी!
मामा – हुजूर, हुस्नआरा ने फाल देखी थी।
बूढ़ी – फाल कैसी?
मामा – चिट्ठी आई थी कहीं से।
बूढ़ी – चिट्ठी कैसी?
मामा – बीबी, वहीं जो हैं, देखिए, क्या नाम है उनका जदाई।
बूढ़ी – जदाई कैसी! ला, मेरी छड़ी तो दे।
बूढ़ी बेगम कमर झुकाए, लठिया टेकते हुए चलीं। आ कर देखा, दोनों बहन मिठाई चख रही हैं।
बूढ़ी – यह मिठाई कैसी आई है?
सिपहआरा – अम्माँजान, हुस्नआरा हमसे शर्त हारी है। कहती थीं, हमारे दीवान-हाफिज में चार सौ सफे हैं; मैंने कहा, नही चार सौ चालीस हैं।
बूढ़ी – यह बात थी! मामा सठिया गई है क्या? जाने क्या-क्या बकती थी।
शाम के वक्त दोनों बहनें सहेलियों के साथ हाथ में हाथ दिए छत पर अठखेलियाँ कर रही थीं। एक ने दूसरे के चुटकी ली, किसी ने किसी को गुदगुदाया, जरा खयाल नहीं कि तिमंजिले पर खड़ी हैं, जरा पाँव डगमगाया तो गजब ही हो जाय। हवा सन-सन चल रही थी। एकाएक एक पतंग आ कर गिरी सिपहआरा ने लपक कर लूट लिया। आहाहा, इस पर तो किसी ने कुछ लिखा है – माहीजाल वाला पतंग, सब की सब दौड़ पड़ीं। हुस्नआरा ने ये शेर पढ़ कर सुनाए –
बहुत तेज है आजकल तीरे मिजगाँ;
कोई दिल निशाना हुआ चाहता है।
मेरे कत्ल करने को आता है कातिल;
तमाम आज किस्सा हुआ चाहता है।
हुस्नआरा का माथा ठनका कि कुछ दाल में काल है। ताड़ गई कि कोई नए आशिक पैदा हुए, मुझ पर या सिपहआरा पर शैदा हुए। मालूम नहीं, कौन है? कहीं मुझे बाहर देख तो नहीं लिया? दिमाग फिर गया है मुए का। जब सब सहेलियाँ अपने-अपने घर चली गईं तो हुस्नआरा ने बहन से कहा – तुम कुछ समझीं? यह पतंग पर क्या लिखा था? तुम तो खेल रही थीं; मैं उस वक्त से इसी फिक्र में हूँ कि माजरा क्या है?
सिपहआरा – कुछ-कुछ तो मैं भी समझती हूँ; मगर अब किसी से कहो-सुनो नहीं।
हुस्नआरा – लच्छन बुरे हैं। इस पतंग को फाड़-फूड़ कर फेंक दो। कोई देखने न पाए।
इतने में खिदमतगार ने मामा को आवाज दी और मामा बाहर से एक लिफाफा ले आई। हुस्नआरा ने जो लिफाफा लिया, तो मारे खुशबू के दिमाग तर हो गया। फिर माथा ठनका। खुशबू कैसी! मामा से बोली – किसने दिया है?
मामा – एक आदमी खिदमतगार को दे गया है। नाम नहीं बताया। दिया और लंबा हुआ।
सिपहआरा – खोलो तो, देखो है क्या?
लिफाफा खोला, तो एक खत निकला। लिखा था – ‘एक गरीब मुसाफिर हूँ, कुछ दिनों के लिए आपके पड़ोस में आ कर ठहरा हूँ। इसलिए कोई गैर न समझिएगा। सुना है कि आप दोनों बहनें शतरंज खेलने में बर्क हैं। यह नक्शा भेजता हूँ। मेरी खातिर से इसे हल कर दो, तो बड़ा एहसान हो। मैंने तो बहुत दिमाग लड़ाया, पर नक्शा समझ में न आया। – मिरजा हुमायूँ फर।’
इस खत के नीचे शतरंज का एक नक्शा दिया हुआ था।
सिपहआरा – बाजी, सच कहना, यह तो कोई बड़े उस्ताद मालूम होते हैं। मगर तुम जरा गौर करो, तो चुटकियाँ में हल कर लो। तुम तो बड़े-बड़े नक्शे हल कर लेती हो। भला इसकी क्या हकीकत है?
हुस्नआरा – बहन, यह नक्शा इतना आसान नहीं है। इसको देखो तो अच्छी तरह। मगर यह सोचो कि भेजा किसने है!
सिपहआरा – हुमायूँ फर तो किसी शाहजादे ही का नाम होगा। मामा को बुलाओ और कहो, सिपाही से पूछे, कौन लाया था? क्या कहता था? आदमी का पता मिल जाय, तो भेजनेवाले का पता मिला दाखिल है।
मामा ने बाहर जा कर इशारे से सिपाही को बुलाया।
सिपाही – कहो, क्या कहती हो?
मामा – जरी, इधर तो आ।
सिपाही – वहाँ कोने में क्या करूँ आनके। कोई वहाँ हौले-हौले बातें करते देखेगा, तो क्या कहेगा। यहाँ से निकलवा दोगी क्या?
मामा – ऐ चल छोकरे! कल का लौंडा, कैसी बातें करता है? छोटी बेगम पूछती हैं कि जो आदमी लिफाफा लाया था, वह किधर गया? कुछ मालूम है?
सिपाही – वह तो बस लाया, और देके चंपत हुआ; मगर मुझे मालूम है, वह, सामनेवाले बाग में एक शाहजादे आनके टिके हैं, उन्हीं का चोबदार था।
हुस्नआरा ने यह सुना, तो बोली – शाहजादे तो हैं, मगर बदतमीज।
सिपहआरा – यह क्यों?
हुस्नआरा – अव्वल तो किसी कुँआरी शरीफजादी के नाम खत भेजना बुरा, दूसरे पतंग गिराया। खत भेजा, वह भी इत्र में बसा हुआ।
सिपहआरा – वा जी, यह तो बदगुमानी है कि खत को इत्र से बसाया। शाहजादे हैं, हाथ की खुशबू खत में भी आ गई। मगर खत अदब से लिखा है।
हुस्नआरा- उनको खत भेजने की जुर्रत क्योंकर हुई। अब खत आए, तो न लेना, खबरदार। वह शाहजादे, हमारा उनका मुकाबला क्या? और फिर बदनामी का डर।
सिपहआरा – अच्छा, नक्शा तो सोचिए। इसमें तो कोई बुराई नहीं!
हुस्नआरा ने बीस मिनट तक गौर किया और तब हँस कर बोली – लो, हल कर दिया। न कहोगी। अल्लाह जानता है, बड़ी टेढ़ी खीर है। लाओ, फिर अब जवाब तो लिख भेजें। मगर डर मालूम होता है कि कहीं उँगली देते ही पहुँचा न पकड़ लें। जाने भी दो। मुफ्त की बदनामी उठाना भला कौन सी दानाई है?
सिपहआरा – नहीं-नहीं बहन, जरूर लिख भेजो। फिर चाहे कुछ न लिखना।
हुस्नआरा – अच्छा, लाओ लिखें, जो होना होगा, सो होगा!
सिपहआरा – हम बताएँ। खत-वत तो लिखो नहीं, बस, इस नक्शे को हल करके डाक में भेज दो।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 42
शहर से कोई दो कोस के फासले पर एक बाग है, जिसमें एक आलीशान इमारत बनी हुई है। इसी में शाहजादा हुमायूँ फर आ कर ठहरे हैं। एक दिन शाम के वक्त शाहजादा साहब बाग में सैर कर रहे थे और दिल ही दिल में सोचते जाते थे कि शाम भी हो गई मगर खत का जवाब न आया। कहीं हमारा खत भेजना उन्हें बुरा तो न मालूम हुआ। अफसोस, मैंने जल्दी की। जल्दी का काम शैतान का। अपने खत और उसकी इबारत को सोचने लगे कि कोई बात अदब के खिलाफ जबान से निकल गई हो तो गजब ही हो जाय। इतने में क्या देखते हैं कि एक आदमी साँड़नी पर सवार दूर से चला आ रहा है। समझे, शायद मेरे खत का जवाब लाता होगा। खिदमतगारों से कहा कि देखो, यह कौन आदमी है? खत लाया है या खाली हाथ आया है? आदमी लोग दौड़े ही थे कि साँड़नी सवार हवा हो गया।
थोड़ी देर में एक चपरासी नजर आया। समझे, बस, यह कासिद है। चपरासी ने दरबान को खत दिया और शाहजादा साहब की बाँछे खिल गईं।
दिल ने गवाही दी कि सारी मुरादें मिल गईं। खत खोला, तो एक लेक्चर का नोटिस था। मायूस हो कर खत को रख दिया और सोचा कि अब खत का जवाब आना मुश्किल है। गम गलत करने को एक गजल गाने लगे। इतने ही में डाक का हरकारा लाल पगिया जमाए, धानी दगला फड़काए, लहबर तोते की सुरत बनाए आ पहुँचा और खत दे कर रवाना हुआ। शाहजादे ने खत खोला और इबारत पढ़ी तो फड़क गए। हाय, क्या प्यारी जबान है, क्या बोल-चाल है। जबान और बयान में भी निगाह की तरह जादू कूट-कूट कर भरा है। उस नाजुक हाथ के सदके, जिसने से सतरें लिखी हैं। लिखते वक्त कलाई लचकी जाती होगी। एक-एक लफ्ज से शोखी टपकती है, एक-एक हरफ से रंगीनी झलकती है। और नक्शा तो ऐसा हल किया कि कलम तोड़ दिए। आखिर में लिखा था –
इश्क का हाल बेसवा जानें,
हम बहू-बेटियाँ ये क्या जानें?
खुद ही शेर पढ़ते थे और खुद ही जवाब देते थे।
एकाएक उनके एक दोस्त आए और बोले – कहिए, कुछ जवाब आया? या धता बता दिया?
शाहजादा – वाह, धता तुम जैसों को बताती होंगी। लो, यह जवाब है।
दोस्त – (लिफाफा पढ़ कर) वाह, बड़े अदब से खत लिखा है।
शाहजादा – जनाब, कुछ बाजारी औरतें थोड़े हैं। एक-एक लफ्ज में शराफत बरसती है।
दोस्त – फिर पूछते क्या हो! गहरे हैं। हमें न भूलिएगा।
अब शाहजादे को फिक्र हुई कि किसी तरह मुलाकात की ठहरे। बने या बिगड़े। जब आमने-सामने बात हो, तब दिल को चैन आए। सोचते-सोचते आपको एक हिकमत सूझ ही गई। मूँछों का सफाया कर दिया, नकली बाल लगा लिए, जनाने कपड़े पहने और पालकी पर सवार हो कर हुस्नआरा के दरवाजे पर जा पहुँचे। अपनी महरी को साथ ले लिया था। महरी ने पुकारा – अरे, कोई हैं? जरी अंदर खबर कर दो कि मिरजा हुमायँ फर की बहन मिलने आई हैं।
बड़ी बेगम ने जो सुना, तो आ कर हुस्नआरा से बोलीं – जरा करीने से बैठाना। तमीज से बातें करना। कोई भारी सा जोड़ा पहन लो, समझीं!
हुस्नआरा – अम्माँजान, कपड़े तो बदल लिए हैं?
बड़ी बेगम – देखूँ। यह क्या सफेद दुपट्टा है।
हुस्नआरा – नहीं, अम्माँजान, गुलाबी है। वही जामदानी का दुपट्टा जिसमे कामदानी की आड़ी बेल है।
बड़ी बेगम – बेटा, कोई और भारी जोड़ा निकालो।
हुस्नआरा – हमें तो यही पसंद है।
इतने में आशिक बेगम पालकी से उतरीं और जा कर बोलीं – आदाब बजा लाती हूँ।
हुस्नआरा – तस्लीम! आइए।
आशिक – आओ बहन, गले तो मिलें।
दोनों बहनें बेझिझक आशिक, बेगम से गले मिलीं।
सिपहआरा –
आमद हमारे घर में किसी महलका की है;
यह शाने किर्दगार यह कुदरत खुदा की है।
हुस्नआरा –
यह कौन आया है रख कर फूल; मुए अंबर अफशाँ में;
सबा इतराई फिरती है जो इन रोजों गुलिस्ताँ में।
आशिक –
‘सफदर’ जबाँ से राजे मुहब्बत अयाँ न हो;
दिल आशनाए-दर्द हो, लब पर फुगाँ न हो।
सिपहआरा – आपने आज गरीबों पर करम किया। हमारे बड़े नसीब।
आशिक – बहन, हमारी तो कई दिन से ख्वाहिश थी कि आपसे मिलें, मगर फिर हम सोचे कि शायद आपको नागवार हो। हम तो गरीब हैं। अमीरों से मिलते हुए जरा वह मालूम होता है।
हुस्नआरा – बजा है। आप तो खुदा के फज्ल से शाहजादी हैं, हम तो आपकी रिआया हैं।
आशिक – आप दोनों बहनें एक दिन कोठे पर टहल रही थीं, तो हुमायूँ फर ने मुझे बुला कर दिखाया था।
हुस्नआरा ने गिलौरी बना कर दी और आशिक बेगम ने उन्हीं के हाथों से खाई। कत्था केवड़े में बसा हुआ, चाँदी-सोने का वर्क लगा हुआ, चिकनी डली और इलायची। गरज कि बड़े तकल्लुफवाली गिलौरियाँ थी। थोड़ी देर के बाद तरह-तरह के खाने दस्तरख्वान पर चुने गए और तीनों ने मिल कर खाना खाया। खाना खा कर आशिक बेगम ने बेतकल्लुफी से हुस्नआरा की रानों पर सिर रख दिया और लेट रहीं। सिपहआरा ने उठ कर कश्मीर का एक दुशाला उढ़ा दिया और करीब आ कर बैठ गई।
आशिक – बहन, अल्लाह, जानता है, तुम दोनों बहनें चाँद को भी शरमाती हो।
हुस्नआरा – और आप?
अपने जोबन से नहीं यार खबरदार हनोज;
नाजो-अंदाज से वाकिफ नहीं जिनहार हनोज।
तीनों में बहुत देर तक बातें होती रहीं। दस बजे के करीब आशिक बेगम उठ बैठीं और फरमाया कि बहन, अब हम रुख्सत होंगे। जिंदगी है तो फिर मिलेंगे।
सिपहआरा –
बेचैन कर रहा है क्या-क्या दिलोजिगर को;
हरदम किसी का कहना, जाते हैं हम तो घर को।
इस तरह मुहब्बत की बातें करके आशिक बेगम रुख्सत हुई और जाते वक्त कह गईं कि एक दिन आपको हमारे यहाँ आना पड़ेगा। पालकी पर सवार हो कर आशिक बेगम ने मामाओं, खिदमतगारों और दरबानों को दो-दो अशर्फियाँ इनाम की दीं और चुपके से मामा को एक तसवीर दे कर कहा कि यह दे देना।
कहारों ने तो पालकी उठाई और मामा ने अंदर जा कर तसवीर दी। हुस्नआरा ने देखा, तो धक से रह गईं। तसवीर के नीचे लिखा था –
‘प्यारी,
मैं आशिक बेगम नहीं हूँ, हुमायूँ फर हूँ। अब अगर तुमने बेवफाई की तो जहर खा कर जान दे दूँगा।’
हुस्नआरा – बहन, गजब हो गया!
सिपहआरा – क्या, हुआ क्या? बोलो तो!
हुस्नआरा – लो, यह तसवीर देखो।
सिपहआरा – (तसवीर देख कर) अरे, गजब हो गया! इसने तो बड़ा जुल दिया।
हुस्नआरा – (हीरे की कील नाक से निकाल कर) बहन, मैं तो यह खा कर सो रहती हूँ।
सिपहआरा – (कील छीन कर) उफ जालिम ने बड़ा धोखा दिया।
हुस्नआरा – हम गले मिल चुकीं। जालिम जानू पर सिर रख कर सोया।
सिपहआरा – मगर बाजी, इतना तो सोचो कि बहन कह-कह कर बात करते थे। बहन बना गए हैं।
हुस्नआरा – यह सब बातें हैं। किसकी बहन और कैसा भाई! –
वह यों मुझे देख कर गया है;
खाल उसकी जो खींचिए, सजा है!
सिपहआरा – वाह! किसी की मजाल पड़ी है जो हमसे शरारत करे?
हुस्नआरा – खबरदार, अब उससे कुछ वास्ता न रखना। आदमियों को ताकीद कर दे कि किसी का खत बेसमझे-बूझे न लें, वर्ना निकल दिए जायँगे?
सिपहआरा – जरी सोच लो। लोग अपने दिल में क्या कहेंगे कि अभी तो इतने जोश से मिलीं और अभी यह नादिरी हुक्म।
हुस्नआरा – हाँ, सच तो है। अभी तक हमी तुम जानते हैं।
सिपहआरा – कहीं ऐसा न हो कि वह किसी से जिक्र कर दें।
हुस्नआरा – इससे इतमिनान रखो। वह शोहदे तो हैं नहीं।
सिपहआरा – वाह, शोहदे नहीं, तो और हैं कौन! शोहदों के सिर पे क्या सींग होते हैं?
हुस्नआरा – अब आज से छत पर न चढ़ना।
सिपहआरा – वाह बहन, बीच खेत चढ़े। किसी ने देख ही लिया तो क्या! अपना दिल साफ रहना चाहिए।
हुस्नआरा – मुझे तो ऐस मालूम होता है कि शाहजादे साहब तुम्हारी फिक्र में हैं।
सिपहआरा – चलिए, बस, अब छेड़खानी रहने दीजिए।
हुस्नआरा – अरे वाह! दिल में तो खुशी हुई होगी। चाहे जबान से न कहो।
सिपहआरा – आखिर बुरा क्या है? शाहजादे हें कि नहीं। और सूरत तो तुम देख ही चुकी हो। लो आज के दूसरे ही महीने दरवाजे पर शहनाई बजती होगी।
सिपहआरा – हम उठ कर चले जायँगे, हाँ! यह हँसी हमको गवारा नहीं।
हुस्नआरा – खुदा की कसम, मैं दिल्लगी से नहीं कहती। आखिर उस बेचारे में क्या बुराई है! हसीन, मालदार, शौकीन, नेकबख्त।
सिपहआरा – बस, और दस-पाँच बाते कहिए न।
सिपहआरा के दिल पर इन बातों का बहुत बड़ा असर हुआ। आदमी की तबीयत भी क्या जल्द पलटा खाती है। अभी तो हुमायूँ फर को बुरा-भला कह रही थीं और अब दिल ही दिल में खिली जाती हैं कि हाँ, है तो सच। आखिर उनमें ऐब ही क्या हैं?
दोनों बहनों में तो ये बातें हो रही थीं और वह महरी, जो आशिक बेगम के साथ आई थी, दरवाजे पर चुपकी खड़ी सुन रही थी। जब हुस्नआरा चुप हुई, तो उसने अंदर पहुँच कर सलाम किया।
हुस्नआरा – कौन हो?
महरी – हुजूर, मैं हूँ अच्छन।
हुस्नआरा – कहाँ से आई हो?
महरी – आप मुझे इतनी जल्द भूल गईं! बेगम साहबा ने भेजा है।
हुस्नआरा – बेगम साहबा कौन?
महरी – वही आशिक बेगम जो आपसे मिल गई हैं।
हुस्नआरा – कहो, क्या पैगाम भेजा है।
महरी – (मुसकिरा कर) हुजूर को जरा वहाँ तक तकलीफ दी है।
महरी का मुसकिराना दोनों बहनों को बहुत बुरा लगा। मगर करतीं क्या। महरी उन्हें चुप देख कर फिर बोली – बेगम साहबा ने फरमाया है कि अगर कुछ हर्ज न हो, तो इस वक्त हमारे यहाँ आइए।
सिपहआरा – कह देना हमें फुरसत नहीं।
महरी – उन्होंने कहा कि अगर आपको फुरसत न हो, तो मैं खुद ही आ जाऊँ।
सिपहआरा – जी, कुछ जरूरत नहीं है। बस, अब दूर ही से सलाम है। और अब आज से तुम न आना यहाँ। सुना कि नहीं?
महरी – बहुत अच्छा। लौंडी हुक्म बजा लावेगी। बेगम साहबा की जैसी नौकरी, वैसी ही हुजूर की।
सिपहआरा- चलो, बस। बहुत बानें न बनाओ। कह देना, खैर इसी में हैं कि अब कोई खत वत न आए। शाहजादे हैं, इससे छोड़ दिया, कोई दूसरा होता तो खून हो जाता। इतने बड़े शाहजादे और गरीब शरीफजादियों पर नजर डालते हैं। बस चले, तो वह सजा दूँ कि उम्र भर याद करें। वाह! अच्छा जाल फैलाया है।
हुस्नआरा – बस, अब खामोश भी रहो। कोई सुन लेगा। अब कुछ कहो न सुनो। (महरी से) चलो, सामने से हटो।
महरी – हुजूर, जानबख्शी हो तो अर्ज करूँ।
हुस्नआरा – अब तुम जाओ, हमने कई दफे कह दिया। नहीं पछताओगी।
महरी रवाना हुई। कसम खाई कि अब नहीं आने की। सिपहआरा का चेहरा मारे गुस्से के लाल-भभूका हो गया। हुस्नआरा समझाती थीं कि बहन, अब और बातों का खयाल करो। लेकिन सिपहआरा ठंडी न होती थीं। बहुत देर के बाद बोली – बस, मालूम हुआ कि कोई शोहदा है; अगर सच्ची मुहब्बत है, तो हया और शर्म के साथ जाहिर करना चाहिए या इस बेतुकेपन से?
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 43
शाहजादा हुमायूँ फर महरी को भेज कर टहलने लगे, मगर सोचते जाते थे कि कहीं दोनों बहनें खफा न हो गई हों, तो फिर बेढब ठहरे। बात की बात जाय, और शायद जान के भी लाले पड़ जायँ। देखें, महरी क्या खबर लाती है। खुदा करे, दोनों महरी को साथ ले कर छत पर चली आवें। इतने में महरी आई और मुँह फुला कर खड़ी हो गई।
शाहजादा – कहो, साफ-साफ।
महरी – हुजूर, क्या अर्ज करूँ!
शाहजादा – वह तो हम तुम्हारी चाल ही से समझ गए थे कि बेढब हुई। कह चलो, बस।
महरी – अब लौंडी वहाँ नहीं जाने की।
शाहजादा – पहले मतलब की बात तो बताओ कि हुआ क्या?
महरी – मैंने जा कर परदे के पास से सुना कि आप ही की बातें चुपके-चुपके कर रही हैं। मैं जो गई, तो बड़ी बहन ने रुखाई के साथ बातें कीं, और छोटी बहन तो बस, बरस ही पड़ीं। मैं खड़ी काँप रही थी कि किस मुसीबत में पड़ी। बहुत तेज हो के बोलीं – अब न आना, नहीं तो तुम जानोगी। और उनसे भी कान खोल के कह देना कि बहुत चल न निकलें। बहुत ही बिगड़ीं। मैं चोर की तरह चुपके-चुपके सुनती रही।
हुमायूँ – अफसोस! तो बहुत ही बिगड़ीं?
महरी – क्या कहूँ हुजूर, अपने आपे ही में नहीं थीं।
हुमायूँ – हमने बड़ी गलती की। पहले तो हमें जाना न था, और गए तो पहचनवाना न था।
महरी – अब जाने वाने का इरादा न कीजिएगा?
दूसरे दिन हुमायूँ फर छत पर निकले, तो क्या देखते हैं कि हुस्नआरा बेगम अपने कोठे पर चढ़ी हैं और मुँह पर नकाब डाले खड़ी हैं। इतने में सिपहआरा भी ऊपर आईं और शाहजादे को देखते ही उचक कर आड़ में हो रहीं। दम के दम में हुस्नआरा भी आँखों से ओझल हो गईं। बेचारे नजर भर कर देखने भी न पाए थे कि दोनों नजर से गायब हो गईं। सोचे, ऐसी ही हया फट पड़ी थी, तो कोठे पर क्यों आईं!
अब उधर की कैफियत सुनिए। हुस्नआरा को मालूम ही न था कि हजरत इस वक्त कोठे पर टहल रहे हैं। जब सिपहआरा ने कोठे पर आ कर शाहजादे को देख लिया तो चुपके से कहा – बहन, यहीं बैठ जाओ, वह ताक-झाँक से बाज न आवेंगे हुस्नआरा ने छलाँग भरी, तो खट से नीचे। सिपहआरा भी उचक कर जीने पर जा पहुँची!
हुस्नआरा – पटकी पड़े। ऐ वाह, अच्छा घर परख लिया है।
सिपहआरा – मेरा बस चले, तो उसका घर उजड़वा दूँ।
हुस्नआरा – यह क्या सितम करती हो? घर आबाद करते हैं या उजड़वाते हैं?
सिपहआरा – बाजी, अल्लाह खैर करे। यह मुआ जब देखो, कोठे पर खड़ा रहता है।
हुस्नआरा – तो तुम काहे को अपनी जबान खराब करती हो? आदमी ही तो वह भी है!
सिपहआरा – बाजी, तुम चाहे मानो, चाहे न मानो; यह मुआ बहुरूपिया है कोई।
इतने में एक लौंडी ने आ कर कहा – लीजिए, बड़ी बेगम साहब ने यह मिठाई दी है। वह जो उस दिन आई नहीं थीं, उन्होंने मिठाइयों के दो ख्वान भेजे हैं।
लौंडी की लड़की का नाम प्यारी था। उसने मिठाई जो देखी, तो तुतला कर बोली -जला सी हमें दीजिए।
सिपहआरा – अरे वाह, इनको दीजिए। बड़ी वह बनके आई हैं! अच्छा, इतना बता दे कि कै ब्याह करेगी?
प्यारी – पहले मिठाई दीजिए, तो बताऊँ।
सिपहआरा – तो मिल चुकी। गढ़ैया में मुँह धो आ।
प्यारी – मैं एक खसम करूँगी, औल फिल छोड़के दूसला। और फिल तीसला। फिल चौथा। उन सबको लातें माल माल के निकाल दूँगी। ले, अब दीजिए।
सिपहआरा – जा अब न दूँगी।
हुस्नआरा – दे दो, दे दो, रो रही है।
सिपहआरा – अच्छा ले, मगर पानी न पीने दूँगी।
प्यारी – हाँ, न पीऊँगी। लाओ तो जला।
इस पर कहकहा पड़ा। जरा सी लड़की और कैसी बातें बनाती है! इतने में बड़ी बेगम आ कर बोली – अरे, तुम्हारी वही गोइयाँ जो उस दिन आई थीं, उन्हीं के यहाँ से मिठाई के दो ख्वान आए हैं। एक औरत साथ थी। कह गई है कि दोनों बहनों को कल बुलाया है। सो कल किसी वक्त चली जाना, घड़ी दो घड़ी दिल बहला के चली आना। नहीं तो मुफ्त की शिकायत होगी।
हुस्नआरा – कल की कल के हाथ है अम्माँजान!
बेगम साहबा तो चली गईं। इधर हुस्नआरा का रंग उड़ गया। बोलीं – बहन, यह टेढ़ी खीर है।
सिपहआरा – एक काम कीजिए। अब बे खुशामद से काम न चलेगा। उनके नाम एक खत लिखिए और साफ-साफ मतलब समझा दीजिए। मुए को अच्छे-अच्छे लटके याद हैं। जब इधर दाल न गली, तो अम्माँजान से लासा लगाया और वह भी कितनी भोली हैं!
एकाएक दरवाजे पर एक नया गुल खिला। दस बारह आदमियों ने मिल कर गाना शुरू किया –
मान करे नंदलाल सों,
सोहागिन जचा मान करे नंदलाल सों।
दूध-पूत और अन्न-धन-लच्छमी
गोद खिलाए नंदलाल सों। मान.।
दस-पाँच आदमी गाने गाते हैं। दो-चार ताल देते जाते हैं। दो-एक मजीरा बजाते हैं। एक हजरत ढोलकी थप-थपाते हैं।
घर भर में खलबली मच गई कि यह माजरा क्या है? लड़का किसके हुआ है? बड़ी बेगम बेवा, दोनों बहनें कुँआरी। यह क्या अंधेर है भई!
मामा – अरे, तुम कौन लोग हो?
कई आदमी – ऐ हुजूर, खुदा सलामत रखे। भाँड़ हैं।
एक साहब हिनहिना कर बोले – मेरे बछेड़े की कुछ न पूछो। यह माँ के पेट ही से हिनहिनाता निकला था।
दूसरे साहब ने उचक कर फरमाया – हें-हें-हैं, दो बागे हैं, और उधर तालियाँ बज रही है। ‘मान करे नंदलाल…’
बड़ी बेगम – अरे लोगों, यह है क्या? यह दिन-दहाड़े क्या अंधेर हैं? इन निगोड़े भाँड़ों से पूछो – आए किसके यहाँ हैं?
दरबान – चुप रहो जी, आखिर कहाँ आए हो?
एक भाँड़ – वाह शेरा, क्यों न हो। क्या दुम हिलाके भूँके हो।
दरबान – आखिर तुम लोगों से किसने क्या कहा? कुछ घास तो नहीं खा गए हो?
मामा – यह क्या गजब करते हो!
भाँड़ – गजब पड़े बुरे की जान पर, और आँख लड़े हमसे।
सिपाही – मियाँ, कसम खा कर कहते हे कि यहाँ लड़का-वड़का नहीं हुआ। तुम मानते ही नहीं हो।
भाँड़ – वाह जवान! क्यों न हो, खड़ी मूँछें और चढ़ी दाढ़ी।
सिपाही – (आहिस्ता) भला लड़का होगा किसके? दो लड़कियाँ, वे कुँआरी हैंगी; एक बड़ी बेगम, वह बूढ़ी खप्पट। और तो कोई औरत ही नहीं; तुम यह बक क्या रहे हो!
भाँड़ – यह अच्छी दिल्लगी है भई, फिर उस मर्दक ने कहा ही क्यों था?
सिपाही – यह काँटे किसके बोए हुए हैं?
भाँड़ – अरे साहब, कुछ न पूछिए। बड़ा चकमा हो गया।
दरबान – ले, अब मजीरा वजीरा हटाओ; नहीं तो यहाँ ठीक किए जाओगे।
भाँड़ – वल्लाह, हो बड़े नमकहलाल।
उधर दोनों बहनों में यों बातें होने लगीं।
सिपहआरा – यह उसी की शरारत है।
हुस्नआरा – किनकी? नहीं; तोबा।
सिपहआरा – आप चाहे न मानें, हम तो यही कहेंगे।
हुस्नआरा – बहन, वह शाहजादा हैं, उनसे यह हरकत नहीं हो सकती।
सिपहआरा – अच्छा, फिर ये भाँड़ क्यों आए? अगर किसी ने बहका कर भेजा नहीं, तो आए कैसे?
हुस्नआरा – हाँ, कहती तो सच हो; मगर अल्लाह जानता है, उससे ऐसी हरकत नहीं हो सकती।
सिपहआरा – आप मेरे कहने से उन्हें एक खत लिख भेजिए कि फिर ऐसी हरकत की, तो हम जहर ही खा लेंगे।
हुस्नआरा खत लिखने पर राजी हो गईं और यों खत लिखा –
‘हया से मुँह न मोड़ेंगे, सताए जिसका जी चाहे;
वफादारी में हमको आजमाए जिसका जी चाहे।
कभी मानिंदे गौहर आबरू ‘सफदर’ न जाएगी;
वजाहिर खाक में हमको मिलाए जिसका जी चाहे।
अरे जालिम, कुछ खुदा का डर भी है? क्यों जी, शरीफों की ये ही हरकतें होती है? शर्म नहीं आती! बहन बना कर अब ये शरारतें करते हो! ये ही मरदों के काम हैं! अगर अब किसी की भेजा तो हम हीरे की कनी खा लेंगी। खून तुम्हारी गर्दन पर होगा। आखिर तुम अपने दिल में हमको समझते क्या हो? अगर भूत सिर पर सवार है, तो कहीं और मुँह काला कीजिए। हम घरगिरस्त शरीफजादियाँ, इन बातों से क्या वास्ता? दिल लेना जाने न दिल देना।
‘काँटों में न हो अगर उलझना,
थोड़ा लिखा बहुत समझना!’
हुमायूँ फर के पास जब यह खत पहुँचा तो बहुत शरमाए। समझ गए कि यहाँ हमारी दाल न गलेगी। दिल में इरादा कर लिया कि अब भूल कर भी ऐसी चालें न चलेंगे।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 44
हुस्नआरा और सिपहआरा, दोनों रात को सो रही थीं कि दरबान ने आवाज दी – मामा जी, दरवाजा खोलो।
मामा – दिलबहार देखो कौन पुकारता है?
दिलबहार – ऐ वाह, फिर खोल क्यों नहीं देतीं?
मामा – मेरी उठती है जूती; दिन भर की थकी-माँदी हूँ।
दिलबहार – और यहाँ कौन चंदन-चौकी पर बैठा है?
दरबान – अजी, लड़ लेना पीछे, पहले किवाँड़े खोल जाओ।
मामा – इतनी रात गए क्यों आफत मचा रखी हैं?
दरबान – अजी, खोलो तो, सवारियाँ आई हैं।
हुस्नआरा – कहाँ से? अरे दिलबहार! मामा! क्या सब की सब मर गईं? अब हम जायँ दरवाजा खोलने?
हुस्नआरा की आवाज सुन कर सब की सब एक दम उठ खड़ी हुई। मामा ने परदा करा कर सवारियाँ उतरवाईं।
सिहपआरा – अख्हा रूहअफजा बहन हैं, और बहारबेगम। आइए, बंदगी।
ये दोनों हुस्नआरा की चचेरी बहनें थीं। दोनों की शादी हो चुकी थी। ससुराल से दोनों बहनों से मुलाकात करने आई थीं। चारों बहनें गले मिलीं। खैर आफियत के बाद हुस्नआरा ने कहा – दो बरस के बाद आप लोगों से मुलाकात हुई।
बहारबेगम – हाँ, और क्या!
सब की सब बातें करते-करते सो गईं। सुबह को हुस्नआरा ने बड़ी बेगम से दोनों बहनों के आने की खबर सुनाई।
बड़ी बेगम – जरी मेरी बाईं आँख फड़कती थी। मैं भी कहूँ कि अल्लाह, क्या खुशखबरी सुनूँगी। कहाँ, हैं कहाँ, जरा बुलाओ तो।
हुस्नआरा – अभी सो रही हैं।
बड़ी बेगम – ऐ, तो जगा दे बेटा! अच्छी तो हैं?
हुस्नआरा ने आ कर देखा, तो दोनों गाफिल सो रही हैं। रूहअफजा की लटोंवाली नागिन की तरह बल खा कर तकिए पर से पलंग के नीचे लहरा रही हैं। बहार-बेगम का दुपट्टा कहीं है, दुलाई कहीं। हाथ सीने पर रखे हुए खर्राटे ले रही हैं।
हुस्नआरा – अजी, सोती ही रहिएगा! अम्माँजान बुलाती हैं।
रूहअफजा – बहन, अब तक आँखों में नींद भरी है। नमाज पढ़ लूँ, तो चलूँ।
हुस्नआरा – (बहारबेगम का हाथ हिला कर) ऐ बहन, अब उठो।
बहारबेगम – अल्लाह, इतना दिन चढ़ आया! सारे घर में धूप फैल गई।
हुस्नआरा – उठिए, अम्माँजान बुला रही है।
बहारबेगम – रूहअफजा को तो जगाओ।
सिपहआरा – वह क्या बैठी हैं सामने।
दोनों ने उठ कर नमाज पढ़ी और बड़ी बेगम के पास चलीं। रूहअफजा जाते ही बड़ी बेगम से चिमट गईं। बहार भी उनसे गले मिलीं और अदब के साथ फर्श पर बैठीं।
बड़ी बेगम – क्यों रूहअफजा, अब तो उस बीमारी ने पीछा छोड़ा? क्या कहते हैं, तोबा, मुझे तो उसका नाम भी नहीं आता।
सिपहआरा – (मुसकिरा कर) डेंगू बुखार। आप तो रोज-रोज भूल जाती हैं।
बड़ी बेगम – हाँ, वहीं डंकू।
सिपहआरा – डंकू नहीं डेंगू।
रूहअफजा – अब एक महीने से पीछा छुटा है कहीं। मेरी तो जान पर बन आई थी।
बड़ी बेगम – चेहरा कैसा जर्द पड़ गया है!
बहारबेगम – अब तो आप इन्हें अच्छी देखती हैं! यह तो घुल कर काँटा हो गई थीं।
बड़ी बेगम – हकीम मुहम्मदहुसेन ने इलाज किया था न वहाँ?
रूहअफजा – जी नहीं, एक डॉक्टर था।
बड़ी बेगम – ऐ है, भूले से इलाज न करना डागडर-वागडर का।
रूहअफजा – मैं तो उसकी बोली ही न समझूँ। कहे, जबान दिखाओ। जब मुँह दिखावें तब तो जबान दिखावें? मैंने कहा – यह तो हश्र तक नहीं होने का। फिर नब्ज देखी, तो हाथ परदे से निकाल लिया और कहा, चूड़ियाँ उतार डालो। मैंने सोने की चूड़ियाँ तो उतार डालीं, मगर शीशे की एक चूड़ी पहने रही। तब कहने लगा, हमसे बातें करो। तब तो मैंने दूल्हा भाई को बुलाया और कहा – वाह साहब, आप तो अच्छे डाक्टर को लाए! मुँह क्या, हम तो एड़ी भी न दिखावें और कहता है, हमसे बातें करो। यहाँ निगोड़ी गिटपिट किसे आती है! बस, दर-गुजरी ऐसे इलाज से। आप इन्हें धता बताइए। इतने में उसने घड़ी जेब से निकाली और कहने लगा – गिनती गिनो। सुनिए, जैसे लड़कियों के मदरसे में इम्तहान ले रहे हो। आखिर मैंने एक-दो-पाँच-बीस ग्यारह-अनाप-शनाप बका। बड़ी कड़वी दवाइयाँ दीं। बारे बच गई।
बड़ी बेगम – बहार। यह तुम महीनों खत क्यों नहीं भेजती हो?
बहारबेगम – अम्माँजान, खतों का तो मैं तार बाँध दूँ, मगर जब कोई लिखने वाला भी हो।
रूहअफजा – यह तो गिरस्ती के धंधे में ऐसी पड़ गईं कि पढ़ा-लिखा सब चौपट कर दिया।
हुस्नआरा – और दूल्हा भाई ने तो खत लिखने की कसम खाई है।
रूहअफजा – दिन भर बैठे शेर कहा करते हैं।
बड़ी बेगम – हाँ, न मुझे मौत आती है, न उन्हें।
हुस्नआरा – कल परसों तक दूल्हा भाई यहाँ आवेंगे, तो मैं उनको खूब झाड़ूँगी।
बड़ी बेगम – बहार, सच्ची बात तो यह है कि तुम भी जरा तेज-मिजाज हो।
सिपहआरा – जो एक गर्म और एक नर्म हो, तो बात बने। और जो दोनों तेज हुए, तो कैसे बने?
बहारबेगम – अब तुम अपनी सास से न लड़ना। तुम नर्म ही रहना। मेरे तो नाक में दम आ गया।
बड़ी बेगम – अबकी मिरजा यहाँ आएँ, तो समझाऊँ।
बहारबेगम – अम्माँजान, मुझसे उनसे हश्र तक न बनेगी। जो कोई लौंडी-बाँदी भी मुझसे अच्छी तरह बातें करे, तो जल मरती हैं। और मैं जान-बूझ कर और जलाती हूँ।
हुस्नआरा – बहन, मिल-जुल कर रहना चाहिए।
बहारबेगम – जब तुम ससुराल जाओगी, ऐसी ही सास पाओगी और फिर मिल-जुल कर रहोगी, तो सात बार सलाम करूँगी।
रूहअफजा – झगड़ा सारा यह है कि दूल्हा भाई इनकी खातिर बहुत करते हैं। बस, इनकी सास जली मरती हैं कि यह जोरू की खातिर क्यों करता है?
बहारबेगम – अल्लाह जानता है, हजारों दफे तरह दे जाती हूँ; मगर जब नहीं रहा जाता, तो मैं भी बकने लगती हूँ। मुझे तो उनहोंने बेहया कर दिया। अब वह एक कहती हें, तो मैं दस सुनाती हूँ।
बड़ी बेगम – (पीठ ठोक कर) शाबाश!
हुस्नआरा – मेरी तरफ से पीठ ठोक दीजिएगा।
बहारबेगम – बहन, अभी किसी से पाला नहीं पड़ा। हमको तो ऐसा दिक कर रखा है कि अल्लाह करे, अब वह मर जायँ, या हम।
चारों बहनें यहाँ से उठ कर अपने कमरे में गईं और बनाव-सिंगार करने लगीं। हुस्नआरा, सिपहआरा और रूहअफजा तो बन-ठन कर मौजूद हो गईं; मगर बहारबेगम अभी बाल ही सँवार रही थीं।
रूहअफजा – इन्हें जब देखो, बाल ही सँवारा करती हैं।
बहारबेगम – तुम आए दिन यही ताना दिया करती हो।
रूहअफजा – ऐसी तो सूरत भी नहीं अल्लाह ने बनाई है।
बहारबेगम ने कोई दो घंटे में कंघी – चोटी से फरागत पाई। फिर चारों निकल कर बातें करने लगीं। सिपहआरा डली कतरती थीं, हुस्नआरा गिलौरियाँ बनाती थीं, रूहअफजा एक तसवीर की तरफ गौर से देखती थीं; मगर बहार-बगम की निगाह आईने ही पर थी।
सिपहआरा – अरे, अब तो आईना देख चुकीं? या घंटों सूरत ही देखा कीजिएगा?
बहारबेगम – तुम कहती जाओ, हम जवाब ही न देंगे।
रूहअफजा – अल्लाह जानता है, इन्हें यह मरज है।
सिपहआरा – हाँ, मालूम तो होता है।
बहारबेगम – तुम सब बहनें एक हो गईं। अपनी ही जबान थकाओगी।
हुस्नआरा – रूहअफजा, तुम उठ कर आईने पर कपड़ा गिरा दो।
रूहअफजा – चिढ़ जायँगी।
हुस्नआरा – हाँ बहन, बताओ तो, यह बात क्या है? सास से बनती क्यों नहीं तुमसे?
बहारबेगम – ऐसी सास को तो बस, चुपके से जहर दे दे। कुछ कम सत्तर की होने आईं, अभी खासी कठौता सी बनी हैं। मेरा हाथ पकड़ लें, तो छुड़ाना मुश्किल हो जाय। मुई देवनी है।
हुस्नआरा – क्या यह भी कोई ऐब है?
बहारबेगम – एक दिन का जिक्र सुनो, किसी के यहाँ से महरी आई। कुछ मेवे लाई थी। वह उस वक्त झूठ-मूठ कुरान-शरीफ पढ़ रही थीं। महरी ने आके मुझको सलाम किया और मेवे की तश्तरी सामने रख दी। बस, दिन भर मुँह फुलाए रहीं।
हुस्नआरा – मगर बातें तो बड़ी मीठी-मीठी करती हैं।
बहारबेगम – एक दिन किसी ने उनको दो चकोतरे दिए। उन्होंने एक चकोतरा मुझको भेजा और एक मेरी ननद को। वह उनसे भी बढ़ कर बिस की गाँठ। जा कर माँ से जड़ दिया कि भाई ने हमको आधा सड़ा हुआ चकोतरा दिया और भाभी को बड़ा सा! बस, इस पर सुबह से शाम तक चरखा कातती रहीं।
हुस्नआरा – मैं एक बात पूछूँ? सच-सच कहना। दूल्हा भाई तो प्यार करे हैं?
बहारबेगम – यही तो खैर है।
हुस्नआरा – दिल से?
बहारबेगम – दिल और जान से
हुस्नआरा – भला, माँ से बनती है।
बहारबेगम – वह खुद जानते हैं कि बुढ़िया चिड़चिड़ी औरत है।
हुस्नआरा – बहन, वह तो बड़ी हैं ही, मगर तुम भी तेजी के मारे उनको और जलाती हो। जो मिलके चलो, वह तुम्हारा पानी भरने लगें।
बहारबेगम – अच्छा तुम्हीं बताओ, कैसे मिल के चलूँ?
हुस्नआरा – अब की जब जाओ, तो अदब के साथ झुक कर सलाम करो।
बहारबेगम – किसको?
हुस्नआरा – अपनी सास को, और किसको।
बहारबेगम – वाह! मर जाऊँ, मगर सलाम न करूँ मुरदार को।
हुस्नआरा – बस, यही तो बुरी बात है।
बहारबेगम – रहने दीजिए, बस। वह तो हमको देख कर जल मरें, और हम उनको झुक के सलाम करें। एक दिन मामा से बोलीं कि हमारा पानदान उसको क्यों दे आई? मेरे मुँह से बस, इतनी-सी बात निकल गई कि मेरी सास काहे को हैं, यह तो मेरी सौत हैं। बस इस पर इतना बिगड़ीं कि तोबा ही भली?
हुस्नआरा – बहन, तुमने भी तो गजब किया। तुम्हारे नजदीक यह इतनी सी ही बात थी? सास को सौत बनाया, और उसको इतनी सी ही बात कहती हो! अगर तुम्हारी बहू आए और तुम्हें सौत बनाए, तब देखूँगी, उछलती-कूदती हो कि नहीं।
सिपहआरा – उफ्! बड़ी बुरी बात कही।
रूहअफजा – तो अब बन चुकी बस।
बहारबेगम – तुम सबको उसने कुछ रिश्वत जरूर दी है। जब कहती हो, उसी की सी।
सिपहआरा – हमारी बहन, और ऐसी मुँहफट! सास को सौत बनाए!
हुस्नआरा – और फिर शरमाए न शरमाने दे।
बहारबेगम – अच्छा बताइए, तो पहले झुक के सलाम करूँ खूब जमीन पर सो कर। फिर?
हुस्नआरा – मेरे तो बहन, रोंगटे खड़े हो गए कि तुमसे यह कहा क्योंकर गया!
बहारबेगम – बताओ-बताओ। हमारी कसम, बताओ।
हुस्नआरा – तुम हँसोगी, और हमें होगा रंज।
बहारबेगम – नहीं, हँसेगे नहीं। बोलो।
हुस्नआरा – जा कर सलाम करो।
बहारबेगम – जो वह जवाब न दें, तो अपना-सा मुँह ले कर रह जाऊँ?
सिपहआरा – वाह! ऐसा हो नहीं सकता।
हुस्नआरा- न जवाब दें, तो कदमों पर गिर पड़ो।
बहारबेगम – मेरी पैजार गिरती है कदमों पर। वह जैसा मेरे साथ करती हैं, वैसा उनकी आँखों, घुटनों के आगे आए।
हुस्नआरा – खर्च तो उजला है, या कंजूस है?
बहारबेगम – तीन सौ वसीके के हैं, ढाई सौ गाँव से आते हैं। नकद कोई डेढ़ लाख से ज्यादा ही ज्यादा होगा। मकान, बाग दुकानें अलग हैं। वकालत में कोई छह सात सौ का महीना मिलता है।
हुस्नआरा – तुमको क्या देते हैं?
बहारबेगम – बुढ़िया से चुरा कर मेरे ऊपर के खर्च के लिए सौ रुपए मुकर्रर हैं।
सिपहआरा – रूहअफजा बहन, तुम्हारे मियाँ क्या तन्ख्वाह पाते हैं?
रूहअफजा – चार सौ हुए हें। चार-पाँच सौ जमीन से मिल जाते हैं।
हुस्नआरा – तुम्हारी सास तो अच्छी हैं।
रूहअफजा – हाँ, बेचारी बड़ी सीधी हैं। हाँ, उनकी लड़की ने अलबत्ता मेरी नाक में दम कर दिया है। जब आती है, रोज माँ को भरा करती हैं।
सिपहआरा – बहारबेगम जो वहाँ होतीं, तो उनसे भी न बनती।
बहारबेगम – अच्छा, चुप ही रहिएगा, नहीं तो काट खाऊँगी। बड़ी वह बनके आई हैं।
इतने में काली-काली घटा छा गई। ठंडी-ठंडी हवा चलने लगी। बहार ने कहा – जी चाहता है, छत पर से दरिया की सैर करें। सबने कहा – हाँ-हाँ, चलिए। मगर हुस्नआरा को याद आ गई कि हुमायूँ फर जरूर खबर पाएँगे और कोठे पर आके सताएँगे। लेकिन मजबूर थी। चारों चौकड़ियाँ भरती हुई छत पर जा पहुँचीं। हवा इस जोर से चलती थी कि दुपट्टा खिसका जाता था। गोरा-गोरा बदन साफ नजर आता था। किसी ने जा कर हुमायूँ फर से कह दिया कि इस वक्त तो सामने वाला कोठा इंदर का अखाड़ा हो रहा है। उनको ताब कहाँ? चट से कोठे पर आ पहुँचे। सिपहआरा ऊपर के कमरे में सो रहीं। रुहअफजा वहीं बैठ गईं। हुस्नआरा ने एक छलाँग भरी, तो रावटी में। मगर बहारबेगम ने बेढब आँखें लड़ाईं। हुमायूँ फर ने बहुत झुक कर सलाम किया।
बहारबेगम – आँखें ही फूटें, जो इधर देखे।
हुमायूँ – (हाथ के इशारे से) अपना गला आप काट डालूँगा।
बहारबेगम – शौक से।
नन्हीं-नन्हीं बूँदे पड़ने लगीं और चारों परियाँ नीचे चल दीं। मिरजा हुमायूँ फर मुँह ताकते रह गए।
हुस्नआरा – (बहार से) आप तो खूब डटके खड़ी हो गईं।
बहारबेगम – क्यों, क्या कोई घोल कर पी जायगा! मैं इन्हें जानती हूँ, हुमायूँ फर तो हैं।
सिपहआरा – तुम क्योंकर जानती हो बहन!
बहारबेगम – ऐ वाह, और सुनिएगा लड़कपन में हम खेला किए हैं। इनके साथ। खूप चपतें जमाया किए हैं इनको! इनकी माँ और दादी में खूब झोटम-झोटा हुआ करता था।
इतने में मामा ने आ कर कहा – बड़ी बेगम साहबा ने ये मेवे भेजे हैं।
सिपहआरा – देखूँ। ये चिलगोजे लेती जाओ।
प्यारी – हमको दीजिए।
सिपहआरा – इनको दीजिए। ‘पीर न शहीद, नकटों को छापा।’ सबके बदले इनको दीजिए।
हुस्नआरा – अच्छा, पहले सलाम कर।
चारों बहनों ने मजे से मेवे चखे। एक दूसरी के हाथ से छीन-छीन कर खाती थीं। जवानी की उमंग का क्या कहना!
उधर मिरजा हुमायूँ फर अपनी छत पर खड़े यह शेर पढ़ रहे थे –
न मुड़ कर भी बेदर्द कातिल ने देखा,
तड़पते रहे नीम जाँ कैसे-कैसे।
जब बड़ी देर तक छत पर किसी को न देखा तो, यह शेर जबान पर लाए –
कल बदामोंज (रकीब) ने क्या तुमको सिखाया है हाय!
आज वह आँख, वह चमक, वह इशारा ही नहीं।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 45
एक दिन हुस्नआरा को सूझी कि आओ, अब की अपनी बहनों को जमा करके एक लेक्चर दूँ। बहारबेगम बोलीं – क्या? क्या दोगी?
हुस्नआरा – लेक्चर-लेक्चर। लेक्चर नहीं सुना कभी?
बहारबेगम – लेक्चर क्या बला है?
हुस्नआरा – वही, जो दूल्हा भाई जलसों में आए दिन पढ़ा करते हैं।
बहारबेगम – तो हम क्या तुम्हारे दूल्हा भाई के साथ-साथ घूमा करते हैं? जाने कहाँ-कहाँ जाते हैं, क्या पढ़-पढ़के सुनाते हैं। इतना हमको मालूम है कि शेर बहुत कहते हैं। एक दिन हमसे कहने लगे – चलो, तुमको सैर करा लाएँ। फिटन पर बैठ लो। रात का वक्त है, तुम दुशाले से खूब मुँह और जिस्म चुरा लेना। मैंने कानों पर हाथ धरे कि न साहब, बंदी ऐसी सैर से दरगुजरी। वहाँ जाने कौन-कौन हो, हम नहीं जाने के।
सिपहआरा – अब की आवें तो उनके साथ हम जरूर जाएँ!
बहारबेगम – चलो, बैठो, लड़कियाँ बहनोइयों के साथ यों नहीं जाया करतीं।
रूहअफजा – मगर सुनेगा कौन? दस-पाँच लड़कियाँ और भी तो हों कि हमी-तुम टुटरूँ टूँ?
सिपहआरा – देखिए, मैं बुलवाती हूँ। अभी मामा को भेजे देती हूँ।
हुस्नआरा – मगर नजीर को न बुलवाओ। उनके साथ जानीबेगम भी आएँगी यह बात बात में शाखें निकालती हैं। उन्हें खब्त है कि हमसे बढ़ कर कोई हसीन ही नहीं। ‘शक्ल चुड़ैलों की, नाज परियों का’; दिन-रात बनाव-सँवार ही में लगी रहती हैं।
सिपहआरा – फिर अच्छा तो हैं। बहारबेगम से भिड़ा देना।
थोड़ी देर में डोलियों पर डोलियाँ और बग्घियों पर बग्घियाँ आने लगीं। दरबान बार-बार आवाज देता था कि सवारियाँ आई हैं। लौंडियाँ जा-जा कर मेहमानों को सवारियों पर से उतरवाती थीं और वे चमक-चमक कर अंदर आती थीं। आखिर में जानीबेगम और नजीरबेगम भी आईं। जानीबेगम की बोटी-बोटी फड़कती थी; आँखें नाचती रहती थीं। नजीर बेगम भोली-भाली शरमीली लड़की थी। शरम से आँखें झुकी पड़ती थीं। जब सब आ चुकीं, तो हुस्नआरा ने अपना लेक्चर सुनाना शुरू किया –
मेरी प्यारी बहनो, सास-बहुओं के झगड़े, ननद-भावजों के बखेड़े, बात-बात पर तकरार, मियाँ-बीवी की जूती-पैजार से खुदा की पनाह। इन बुरी बातों से खुदा बचाए। भलेमानसों की बहू-बेटियों में ऐसी बात न आने पाए। इस फूट की हमारे ही देश में इतनी गर्मबाजारी है कि सास की जबान पर कोसना जारी है, बहू मसरूफ गिरिया व जारी है और मियाँ की अक्ल मारी है। ननद भावज से मुँह फुलाए हुए, भावज ननदसे त्योरियाँ चढ़ाए हुए। बहू हिचकियाँ ले-ले कर रोती है, सास जहर खा कर सोती है। और, जो सास गुस्सेवर हुई और बहू जबान की तेज, तो मार-पीट की नौबत पहुँचती है। मियाँ अगर बीवी की सी कहें तो अम्माँ की घुड़कियाँ सहें; अम्मा की सी कहें, तो बीवी की बातें सुनें। माँ उधर, बीवी इधर कान भरती है, वह इनके और यह उनके नाम से कानों पर हाथ धरती हैं।
मगर ताली एक हाथ से नहीं बजती। सास भली हो, तो बहू को मना ले; और बहू आदमी हो, तो सास को आदमी बना ले। एक शरीफजादी ने अपनी मामा से कहा कि हमारी सास तो हमारी सौत हैं। खुदा जाने, उनकी जबान से यह बात कैसे निकली! इस पर भी उन्हें दावा है कि हम शरीफजादी हैं। अगर वह हमारी राय पर चलें, तो उनकी सास उन्हें अपने सिर पर बिठाएँ। वह सीधी जा कर सास के कदमों पर गिर पड़ें और आज से उनकी किसी बात का जवाब न दें। क्या उनकी सास का सिर फिर गया है, या उन्हें बावले कुत्ते ने काटा है? बहू अगर सास की खिदमत करे, तो दुनिया भर की सासों में कोई ऐसी न मिले, जो छेड़ कर बहू से लड़े।
अब सोचो तो जरा दिल में, इस तकरार और जूती-पैजार का अंजाम क्या है? घर में फूट, एक दूसरे की सूरत से बेजार, लौंडियों-बाँदियों में जलील, सारी दुनिया में बदनाम, घर तबाह। एक चुप हजार बला को टालती है, फसाद को जहन्नुम में डालती है। हाँ, जो यह खयाल हो कि सास एक कहें, तो दस सुनाएँ, वह दो बातें कहें, तो बीस मरतबे उनको उल्लू बनाएँ, तो बस, मेल हो चुका। सास न हुई, भुनी मूंग हुई। आखिर उसका भी कोई दरजा है या नहीं? या बस, बहू ससुराल में जाते ही मालकिन बन बैठे, सास को ताक पर रख दे और मियाँ पर हुकूमत चलाने लगे? अब मैं आप लोगों से इतना चाहती हूँ कि सच-सच अपनी-अपनी सासों का हाल बयान कीजिए।’
एक – अल्लाह करे, हमारी सास को आज रात ही को हैजा हो।
दूसरी – अल्लाह करे, हमारी सास को हैजा हो गया हो।
तीसरी – अल्लाह करे, हमारी सास ऐसी जगह मरे; जहाँ एक बूँद पानी न मिले।
बहारबेगम – या खुदा, मेरी सास के पाँव में बावला कुत्ता काटे और वह भूँक-भूँक कर मरे।
चौथी – हम तो अपनी सास को पहले ही चट कर गए। जहन्नुम चली गईं।
पाँचवीं – सास तो सास, हमारी ननद के नाम में दम कर दिया।
जानीबेगम – मेरी सास तो मेरे आगे चूँ नहीं कर सकतीं। बोलीं, और मैंने गला घोंटा।
इस लेक्चर का और किसी पर तो ज्यादा नहीं, मगर नजीरबेगम पर बहुत असर हुआ। हुस्नआरा से बोलीं – बहन, हम कल से आया करेंगे, हमें कुछ पढ़ाओगी?
हुस्नआरा – हाँ, हाँ, जरूर आओ।
जानीबेगम – ऐ वाह, यह क्या पढ़ाएँगे भला! हमारे पास आओ, तो हम रोज पढ़ा दिया करें।
नजीर बेगम – आपके तो पड़ोस ही में रहते हैं हम, मगर बहन, तुम तो हुड़दंगा सिखाती हो। दिन भर कोठे पर घोड़े की तरह दौड़ा करती हो, कभी नीचे कभी ऊपर।
जानीबेगम – (नजीरबेगम का हाथ पकड़ कर) मरोड़ डालूँ हाथ!
नजीर – देखा, देखा; बस, कभी हाथ मरोड़ा, कभी ढकेल दिया।
जानीबेगम – (नजीर का गाल काट कर) अब खुश हुई।
सिपहआरा – ऐ वाह, लेके गाल काट लिया।
जानीबेगम – फिर औरत हैं, या मर्द हैं कोई!
नजीरबेगम – अब आप अपनी मुहब्बत रहने दें।
जब सब मेहमान विदा हुए, तो चारों बहनें मिलकर गईं और बड़ी बेगम के साथ एक ही दस्तरख्वान पर खाना खाया। खाते वक्त यों गुफ्तगू हुई –
बहारबेगम – हुस्नआरा की शादी कहीं तजवीजी?
बड़ी बेगम – हाँ, फिक्र में तो हूँ।
बहारबेगम – फिक्र नहीं अम्माँजान, अब दिन-दिन चढ़ता है।
बड़ी बेगम – अपने जान तो जल्दी ही कर रही हूँ।
बहारबेगम – जल्दी क्या दो-चार बरस में?
रूहअफजा – बहन, अल्लाह-अल्लाह करो।
बहारबेगम – बेचारी सिपहआरा भी ताक रही है कि हम इनका भी जिक्र करें।
सिपहआरा – देखिए, यह छेड़खानी अच्छी नहीं, हाँ!
बड़ी बेगम – (मुस्करा कर) तुम जानो, यह जानें।
बहारबेगम – अभी कल शाम ही को तो तुमने कहा था कि अम्माँजान से हमारे ब्याह की सिफारिश करो। आज मुकरती हो? भला खाओ तो कसम कि तुमने नहीं कहा?
सिपहआरा – वाह, जरा-जरा सी बात पर कोई कसम खाया करता है।
रूहअफजा – पानी मरता है कुछ?
सिपहआरा – जी हाँ, आप भी बोलीं?
रूहअफजा – अच्छा, कसम खा जाओ न!
सिपहआरा – काहे को खायँ?
बड़ी बेगम – ऐ, तो चिढ़ती क्यों हो बेटी!
सिपहआरा – अम्माँजान, झूठ-मूठ लगाती हैं। चिढ़ें नहीं?
रूहअफजा – क्या! झूठ-मूठ?
सिपहआरा – और नहीं तो क्या?
रूहअफजा – अच्छा, हमारे सिर की कसम खाओ।
सिपहआरा – अल्लाह करे, मैं मर जाऊँ।
रूहअफजा – चलो बस, रो दीं। अब कुछ न कहो।
बहारबेगम – अम्माँजान, एक रईस हैं। उनका लड़का कोई उन्नीस-बीस बरस का होगा! खुदा जानता है, बड़ा हसीन है। आजकल सिकंदरनामा पढ़ता है।
बड़ी बेगम – खाने पीने से खुश हैं?
रूहअफजा – खुश? आठ तो घोड़े हैं उनके यहाँ।
बहारबेगम – अम्माँजान, वह लड़का हुस्नआरा के ही लायक है। दो लड़के हैं। दोनों लायक, होशियार, नेकचलन। हमारे यहाँ दूसरे-तीसरे आया करते हैं।
रूहअफजा – जरूर मंजूर कीजिए।
बड़ी बेगम – अच्छा,अच्छा, सोच लूँ।
हुस्नआरा ने यह बातचीत सुनी तो होश उड़ गए। खुदा ही खैर करे। ये दोनों बहनें अम्माँजान को पक्का कर रही हैं। कहीं मंजूर कर लें, तो गजब ही हो जाय। बेचारे आजाद वहाँ मुसीबतें झेल रहे हैं, और यहाँ जश्न हो। इस फिक्र में उससे अच्छी तरह खाना भी न खाया गया। अपने कमरे में आ कर लेट रही और मुँह ढाँप कर खूब रोई। खाना खाने के बाद वे तीनों भी आईं और हुस्नआरा को लेटे देख कर झल्लाईं।
बहारबेगम – मकर करती होंगी। सोएँगी क्या अभी।
सिपहआरा – नहीं बहन, यह तकिए पर सिर रखते ही सो जाती हैं।
बहारबेगम – जी हाँ, सुन चुकी हूँ। एक तुमको तकिए पर सिर रखते ही नींद आ जाती हैं, दूसरे इनको।
रूहअफजा – (गुदगुदा कर) उठो बहन, हमारा ही खून पिए, जो न उठे। मेरी बहन न, उठ बैठो। शाबाश?
सिपहआरा – सोने दीजिए। आँखें मारे नींद के मतवाली हो रही है।
बहारबेगम – रसीली मतवालियों ने जादू डाला। हमारे यहाँ पड़ोस में रोज तालीम होती है। मगर हमारे मियाँ को इसकी बड़ी चिढ़ है कि औरतें नाच देखें या गाना सुनें। मर्दों की भी क्या हालत है! घर की जोरू से बातें न करें, बाहर शेर। अल्लाह जानता है, हम तो उन सब मुई बेसयाओं की एड़ी-चोटी पर कुरबान कर दें। एक ने मिस्सी की धड़ी जमाई थी, जैसे बत्तख ने कीचड़ खाई हो।
रूहअफजा – (हुस्नआरा को चूम कर) उठो बहन!
हुस्नआरा – (आँखें खोल कर) सिर में दर्द है।
बहारबेगम – सँदली-रंगों से माना दिल मिला;
दर्द सर की किसके माथे जायगी।
हुस्नआरा – यहाँ इन झगड़ों में नहीं पड़ते।
बहारबेगम – दुरुस्त।
रूहअफजा – जरूर किसी से आँख लड़ायी हैं, इसी से नींद आई है। अच्छा अब सच-सच कह दो, किससे दिल मिला है? – दिल दीजिए तो यार तरहदार देख कर।
सिपहआरा – और क्या!
‘माशूक कीजिए तो परीजाद कीजिए’
हुस्नआरा – किसी से मिलने का अब हौसला नहीं है जाँ;
बहुत उठाए मजे उनसे आशना हो कर।
रूहअफजा – बस, बहुत बातें न बनाइए। हम सब सुन चुकी है। भला किसी पर दिल नहीं आया, तो आँखों से आँसू क्यों कर निकले? जरी, आईने में सूरत देखिए।
सिपहआरा – ऐ बहन, यह धान-पान आदमी, जरी सिर में दर्द हुआ, और लेट रहीं।
बहारबेगम – लड़की बातें बनाती हैं। हमको चुटकियों पर उड़ाती हैं।
हुस्नआरा – अब आप जो चाहे कहे। यहाँ न कोई आशिक है, न कोई माशूक।
रूहअफजा – उड़ो न। कह चलूँ सब?
हुस्नआरा – हाँ, हाँ, कहिए। सौ काम छोड़के। आपको खुदा की कसम।
रूहअफजा – अच्छा, इस वक्त दिल क्यों भर आया?
हुस्नआरा -दिल ही तो है न संग व खिश्त, दर्द से भर न आए क्यों,
रोएँगे हम हजार बार, कोई हमें रुलाए क्यों?
बहारबेगम – (तालियाँ बजा कर) खुल गई न बात?
रूहअफजा – जादू वह, जो सिर पर चढ़के बोले।
हुस्नआरा – मुँह मे जबान है, जो चाहो, बको।
बहारबेगम – अच्छा, बड़ी सच्ची हो, तो एक बात करो। हम एक हाथ में कोई चीज लें और दूसरा हाथ खाली रखें। फिर मुट्ठी बाँध के आएँ, और तुम एक हाथ पर हाथ मारो। जो खाली हाथ पर पड़े, तो तुम झूठी। दूसरे हाथ पर पड़े, तो हम झूठे।
हुस्नआरा – ऐ वाह, छोकरियों का खेल।
रूहअफजा – अक्खाह, और आप है क्या?
सिपहआरा – अच्छा, आप आइए। मगर हम दोनों हाथ देख लेंगे।
बहारबेगम – हाँ-हाँ, देख लेना।
बहारबेगम ने दूसरे कमरे में जा कर एक छोटी-सी शीशे की गोली दाहिने हाथ में रखी और बायाँ हाथ खाली। दोनों मुट्ठियाँ खूब जोर से बंद कर लीं और आ कर बोलीं -अच्छा, मारो हाथ पर हाथ।
हुस्नआरा – ये वाहियात बातें हैं।
रूहअफजा – तो काँपी क्यों जाती हो?
सिपहआरा – बाजी, बोलो, किस हाथ में है?
हुस्नआरा – उधरवाले में।
सिपहआरा – नहीं बाजी, धोखा खाती हो। हम तो बाएँ हाथ पर मारते हैं।
बहारबेगम – (बायाँ हाथ खोल कर) सलाम।
सिपहआरा – अरे, वह हाथ तो दिखाओ।
बहारबेगम – देखो। है शीशे की गोली कि नहीं?
हुस्नआरा – देखा! कहा था कि उस हाथ में है। कहा न माना।
रूहअफजा – कहिए, अब तो सच है?
हुस्नआरा – ये सब ढकोसले हैं।
बहारबेगम – अच्छा बहन, अब इतना बता दो कि मियाँ आजाद कौन हैं?
हुस्नआरा – क्या जानें, क्या वाही-तबाही बकती हो।
बहारबेगम – अब छिपाने से क्या होता है भला! सुन तो चुके ही है हम।
हुस्नआरा – बताएँ क्या, जब कुछ बात भी हो।
सिपहआरा – इन दोनों बहनों ने ख्वाब देखा था कल मालूम होता है।
हुस्नआरा – हाँ, सच कहा। ख्वाब देखा होगा।
रूहअफजा – ख्वाब तो नहीं देखा; मगर सुना है कि सूरत-शक्ल में करोड़ों में एक हैं।
बहारबेगम – हुस्नआरा ने तो अपना जोड़ छाँट लिया, अब सिपहआरा का निकाह हुमायूँ फर के साथ हो जाय, तो हम समझें कि यह बड़ी खुशनसीब हैं।
सिपहआरा – मेरे तो तलवों को भी न पहुँचें।
हुस्नआरा – तूती का कौए से जोड़ लगाती हो?
बहारबेगम – वाह, चेहरे से नूर बरसता है। जी चाहता है कि घंटों देखा करें। अम्माँ से आज ही तो कहूँगी मैं।
हुस्नआरा – कह दीजिएगा, धमकाती क्या हो!
सिपहआरा – आपके कहने से होता क्या है? यहाँ कोई पसंद भी करे!
रूहअफजा – इनकार करोगी, तो पछताओगी।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 46
सवेरे हुस्नआरा तो कुछ पढ़ने लगी और बहारबेगम ने सिंगारदान मँगा कर निखरना शुरू किया।
हुस्नआरा – बस, सुबह तो सिंगार, शाम तो सिंगार। कंघी-चोटी, तेल-फुलेल। इसके सिवा तुम्हें और किसी चीज से वास्ता नहीं। रूहअफजा सच कहती हैं कि तुम्हें इसका रोग है।
बहारबेगम – चलो, फिर तुम्हें क्या? तुम्हारी बातों में खयाल बँट गया, माँग टेढ़ी हो गई।
हुस्नआरा – है-है! गजब हो गया। यहाँ तो दूल्हा भाई भी नहीं हैं! आखिर यह निखार दिखाओगी किसे?
बहारबेगम – हम उठ कर चले जायँगे। तुम छेड़ती जाती हो और यह मुआ छपका सीधा नहीं रहता।
हुस्नआरा – अब तक माँग का खयाल था, अब छपके का खयाल है।
बहारबेगम – अच्छा, एक दिन हम तुम्हारा सिंगार कर दें, खुदा की कसम वह जोबन आ जाय कि जिसका हक है।
हुस्नआरा – फिर अब साफ-साफ कहलाती हो। तुम लाख बनो-ठनो, हमारा जोबन खुदाबंद होता है। हमें बनाव-चुनाव की क्या जरूरत भला!
बहारबेगम – अपने मुँह मिया मिट्ठू बन लो।
हुस्नआरा – अच्छा, सिपहआरा से पूछो। जो यह कहे वह ठीक।
सिपहआरा – जिस तरह बहार बहन निखरती हैं, उस तरह अगर तुम भी निखरो, तो चाँद का टुकड़ा बन जाओ। तुम्हारे चेहरे पर सुर्खी और सफेदी के सिवा नमक भी बहुत है। मगर वह गोरी-चिट्ठी हैं बस, नमक नहीं।
रूहअफजा – सच्ची बात तो यह है कि हुस्नआरा हम सबसे बढ़-चढ़ कर हैं।
इतने में एक फिटन खड़खड़ाती हुई आई, मुश्की जोड़ी जुती हुई। नवाब खुरशेदअली उतर कर बड़ी बेगम के पास पहुँचे और सलाम किया।
बड़ी बेगम – आओ बेटा, बाईं आँख जब फड़कती है, तब कोई न कोई आता जरूर है। उस दिन आँख फड़की, तो लड़कियाँ आईं। यह रूहअफजा की क्या हालत हो गई है?
नवाब साहब – अब तो बहुत अच्छी हैं! मगर परहेज नहीं करतीं। तीता मिर्च न हो, तो खाना न खायँ। फिर भला अच्छी क्योंकर हों?
यहाँ से बाते करके नवाब साहब उस कमरे में पहुँचे, जिसमें चारों बहने बैठी थीं। नवाब साहब का लिबास देखिए, जुर्राब खाकी रंग का, घुटन्ना चुस्त, कुर्ता सफेद फलालैन का। उस पर स्याह बनात का दगला और हरी गिरंट की गोट। बाँकी नुक्केदार टोपी। पाँव में स्याह वारनिश का बूट, एक सफेद दुलाई ओढ़े हुए। हुस्नआरा और सिपहआरा ने नीची गरदन करके बंदगी की। रूहअफजा ने कहा – आप बेइत्तला किए हमारे कमरे में क्यों चले आए साहब?
नवाब साहब – हुक्म हो, तो लौट जाऊँ।
बहारबेगम – शौक से। बिन बुलाए कोई नहीं आता। लो सिपहआरा, अब इनके साथ बग्घी पर हवा खाने जाओ।
सिपहआरा – वाह, क्या झूठ-मूठ लगाती हो। भला मैंने कब कहा था।
रूहअफजा – हम गवाह हैं।
नवाब साहब – अच्छा, फिर उसमें ऐब ही क्या है?
इतने में रूहअफजा एक शीशे की तश्तरी में चिकनी डलियाँ रख कर लाई। नवाब साहब ने दो उठा कर खा लीं और ‘आख थू, आख थू!’ करते-करते बोले – पानी मँगाओ खुदा के वास्ते।
वह चिकनी डली असल में मिट्टी की थी। चारों बहनों ने कहकहा लगाया और हजरत बहुत झेंपे। जब मुँह धो चुके, तो सिपहआरा ने एक गिलोरी दी।
नवाब साहब – (गिलौरी खोल कर) अब बे देखे भाले खानेवाले की ऐसी-तैसी। कहीं इसमें मिरचें न झोंक दी हों। इस वक्त तो भूख लगी हुई है। आँतें कुलहु-अल्लाह पढ़ रही हें।
हुस्नआरा – बासी खीर खाइए, तो लाऊँ?
नवाब साहब – नेकी और पूछ-पूछ ?
हुस्नआरा जा कर एक कुफुली उठा लाई। नवाब साहब ने बड़ी खुशी से ली, मगर खोलते हैं तो मेंढकी उचक कर निकल पड़ी!
नवाब साहब – खूब! यह रूहअफजा से भी बढ़ कर निकलीं। ‘बड़ी बी तो बड़ी बी, छोटी बी सुभान अल्लाह।’
रात को नवाब साहब आराम करने गए, तो बहारबेगम ने पूछा – कहो, तुम्हारी अम्माँजान तो जीती हैं? या ढुलक गईं?
नवाब साहब – क्या बेतुकी उड़ाती हो, ख्वाहमख्वाह दिल दुखाती हो। ऐसी बातें करती हो कि सारा शौक ठंडा पड़ जाता है।
बहारबेगम – हाँ, उनकी तो मुहब्बत फट पड़ी है तुमको। बत्तीस धार का दूध पिलाया है कि नहीं!
नवाब साहब – इसी से आने को जी नहीं चाहता था।
बहारबेगम – तो क्यों आए? क्या चकला निगोड़ा उजड़ गया है? या बाजार में किसी ने आग लगा दी?
नवाब साहब – अच्छा, इस वक्त तो खुदा के लिए ये बातें न करो? कोई छह दिन के बाद मुलाकात हुई है।
बहारबेगम – क्या कहीं आज और ठिकाना न लगा?
नवाब साहब – तुम तो जैसे लड़ने पर तैयार हो कर आई हो।
बहारबेगम – क्यों? आप प्राटन साहब न बनोगे? कोट पतलून पहनके न जाओगे? मुझसे उड़ते हो!
नवाब साहब रंगीन-मिजाज आदमी थे। बहारबेगम को उनके सैर-सपाटे बुरे मालूम होते थे। इसी सबब से कभी-कभी मियाँ-बीवी में चख चल जाती थी। मगर अबकी मरतबा बहारबेगम ने एक ऐसी बात सुनी थी कि आँखों से खून बरसने लगा था। एक दिन नवाब साहब कोट-पतलून डाट कर एक बँगले पर जा पहुँचे और दरवाजा खटखटाया। अंदर से आदमी ने आ कर पूछा – आप कहाँ से आते हैं? आपने कहा – हमारा नाम प्राटन साहब है। मेम साहब को बुलाओ। अब सुनिए, एक कुँजड़िन जो पड़ोस में रहती थी, वहाँ तरकारी बेचने गई हुई थी। वह इन हजरत को पहचान गई और घर में आ कर बहार-बेगम से कच्चा चिट्ठा कह सुनाया। बेगम सुनते ही आग-भभूका हो गईं और सोचीं कि आज आने तो दो, कैसा आड़े-हाथों लेती हँ कि छठी का दूध या आ जाय। मगर उसी दिन यहाँ चली आईं और बात ज्यों कि त्यों रह गई। भरी तो बैठी ही थीं, इस वक्त मौका मिला, तो उबल पड़ीं। नवाब ने जो पते-पते की सुनी, तो सन्नाटे में आ गए।
बहारबेगम – कहिए प्राटन साहब, मिजाज तो अच्छे हैं?
नवाब साहब – तुम क्या कहती हो? मेरी समझ ही में नहीं आता कुछ।
बहारबेगम – हाँ, हाँ, आप क्या समझेंगे। हम हिंदोस्तानी और आप खासी विलायत के प्राटन साहब! हमारी बोली आप क्या समझेंगे?
नवाब साहब – कहीं भंग तो नहीं पी गई हो?
बहारबेगम – अब भी नहीं शरमाते?
नवाब साहब – खुदा गवाह है, जो कुछ समझ में भी आया हो।
बहारबेगम – जलाए जाओ और फिर कहो कि धुआँ न निकले। मैं क्या जानती थी कि तुम प्राटन साहब बन जाओगे।
इधर तो मियाँ-बीबी में नोक-झोंक हो रही थी, उधर उनकी सालियाँ दरवाजे के पास खड़ी चुपके-चुपके झाँकती और सारी दास्तान सुन रही थीं। मारे हँसी के रहा न जाता था। आखिर जब एक मरतबा बहार ने जोर से नवाब का हाथ झटक कर कहा – आप तो प्राटन साहब हैं, मैं आपको अपने घर में न घुसने दूँगी – तो सिपहआरा खिलखिला कर हँस पड़ी। बहार ने हँसी की आवाज सुनी, तो धक से रह गई। नवाब भी हक्का-बक्का हो गए।
नवाब साहब – तुम्हारी बहनें बड़ी शोख हैं।
रूहअफजा – बहन, सलाम!
सिपहआरा – दूल्हा भाई, बंदगीअर्ज।
हुस्नआरा – मैं भी प्राटन साहब को आदाबअर्ज करती हूँ।
नवाब साहब – समझा दो, यह बुरी बात है।
सिपहआरा – बिगड़ते क्यों हो प्राटन साहब!
बहारबेगम – (कमरे से निकल कर) ऐ, तो अब भागी कहाँ जाती हो?
रूहअफजा – बहन, अब जाइए। प्राटन साहब से बातें कीजिए।
बहारबेगम – आओ-आओ, तुम्हें खुदा की कसम।
सिपहआरा – कोई भाई-बंद अपना हो, तो आएँ। भला प्राटन साहब को क्या मुँह दिखाएँ?
नवाब साहब – इस प्राटन के नाम ने तो हमें खूब झंडे पर चढ़ाया। कैसे रुसवा हुए!
बहारबेगम – अपनी करतूतों से।
सिपहआरा – अब तो कलई खुल गई?
तीनों बहनों ने नवाब साहब को खूब आड़े हाथों लिया। बेचारे बहुत झेंपे जब वे चली गईं, तो बहारबेगम ने भी प्राटन साहब का कसूर माफ कर दिया –
दिलों में कहने-सुनने से अदावत आ ही जाती है;
जब आँखें चार होती हैं, मुहब्बत आ ही जाती हैं।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 47
आज हम उन नवाब साहब के दरबार की तरफ चलते हैं, जहाँ खोजी और आजाद ने महीनों मुसाहबत की थी और आजाद बटेर की तलाश में महीनों सैर-सपाटे करते रहे थे। शाम का वक्त था। नवाब साहब एक मसनद पर शान से बैठे हुए थे। इर्द-गिर्द मुसाहब लोग बैठे हुक्कके गुड़गुड़ाते थे। बी अलारक्खी भी जा कर मसनद का कोना दबा कर बैठीं।
नवाब साहब – यो आइए, बी साहब!
अलारक्खी – (खिसक कर) बहुत खूब!
मुसाहब – (दूसरे मुसाहब के कान में) क्या जमाना है, वाह! हम शरीफ और शरीफ के लड़के और यह इज्जत कि जूतियों पर बैठे हैं। कोई टके को नहीं पूछता।
नुदरत – यार, क्या कहें, अब्बाजान चकलेदार थे, जिसका चाहा, भुट्टा-सा सिर उठा दिया। डंका सामने बजता था। इन्हीं आँखों के सामने दोनों तरफ आदमी झुक-झुक कर सलाम करते थे, और इन्हीं आँखों यह भी देख रहे हैं कि बेसवा आ कर मसनद पर बैठ गई और हम नीचे बैठे हैं। वाह री किस्मत! फूट गई।
नवाब साहब – आपका नाम क्या है बी साहब?
अलारक्खी – हुजूर, मुझे अलारक्खी कहते हैं।
नवाब साहब – क्या प्यारा नाम है!
नुदरत – हुजूर, चाहे आप बुरा माने या भला, हम तो बीच खेत कहेंगे कि आपके यहाँ शरीफों की कदर नहीं। गजब खुदा का, यह टके की बाजारी औरत मसनद पर आके बैठ जाय और हम शरीफ लोग ठोकरें खाएँ! आसमान नहीं फट पड़ता। कैसे-कैसे गौखे रईस जमा हैं दुनिया में।
इतना कहना था कि हाफिज जी बिगड़ खड़े हुए और लपक के नुदरत के मुँह पर एक लप्पड़ जमाया। वह आदमी थे करारे, लप्पड़ खाते ही आग हो गए। झपट के हाफिज जी को दे पटका। इस पर कुल मुसाहब और हवाली-मवाली उठ खड़े हुए।
एक – छोड़ दे बे!
दूसरा – इतनी लातें लगाऊँगा कि भुरकस निकल जायगा।
तीसरा – मर्दक, जिसका नमक खाता है, उसी को गालियाँ सुनाता है?
नवाब साहब – निकाल दो इसे बाहर।
हाफिज – देखिए तो नमकहराम की बातें!
नवाब साहब – आज से दरबार में न आने पाए।
तीन-चार आदमियों ने मिल कर हाफिज जी को छुड़ाया दरबार में हुल्लड़ मचा हुआ था। अलारक्खी खड़े-खड़े थरथराती थीं और नवाब साहब उनको दिलासा देते जाते थे।
एक मुसाहब – (अलारक्खी से) ऐ हुजूर, आप न घबराएँ।
दूसरा मुसाहब – वल्लाह बी साहबा, जो आप पर जरा भी आँच आने पाए।
नवाब – तुम तो मेरी पनाह में हो जी!
अलारक्खी – जी हाँ, मगर खौफ मालूम होता है।
नवाब – अभी उस मूजी को यहाँ से निकलवाए देता हूँ।
हाफिज – हुजूर, वह बाहर खड़े सबको गालियाँ दे रहे हैं।
सबने मिल कर मियाँ नुदरत को बाहर तो निकाल दिया; पर वह टर्रा आदमी था, बाहर जा कर एँड़ी-बेंड़ी सुनाने लगा – ऐसे रईस पर आमसान फट पड़े, जो इन टके-टके की औरतों को शरीफों से अच्छा समझे। किसी जमाने मे हम भी हाथी-नशीन थे। चौदह-चौदह हाथी हमारे दरवाजे पर झूमते थे। आज इस नवबढ़ रईस ने हमको फर्श पर बिठाया और मालजादी को मसनद पर जगह दी। खुदा इस मर्दक से समझे!
नवाब साहब – यह कौन गुल मचा रहा है।
एक मुसाहब – वही है हुजूर।
दूसरा मुसाहब – नहीं हुजूर, वह कहाँ! वह भागा पत्तातोड़। यह कोई फकीर है। भूखों मरता है।
नवाब – कुछ दिलवा दो भई!
एक मुसाहब ने दारोगा जी को बुलाया और उनसे दस रुपए ले कर बाहर चला। जब उसके लौट आने पर भी बाहर का शोर न बंद हुआ, तो नवाब ने खिदमतगार को भेजा कि देख, अब कौन चिल्ला रहा है? खिदमतगार ने बाहर जा कर जो देखा, तो मियाँ नुदरत खड़े गालियाँ सुना रहे हैं। जब वह नवाब साहब के पास जाने लगा, तो दारोगा जी ने उसे रोक कर समझाया – अगर तुमने ठीक-ठीक बता दिया, तो हम तुमको मार ही डालें। खबरदार, यह न कहना कि मियाँ नुदरत गालियाँ दे रहे हैं। बल्कि यों बयान करना कि वह फकीर तो दस रुपए ले कर चल दिया, मगर और कई फकीर, जो उस वक्त वहाँ मौजूद थे, आपको दुआएँ दे रहे हैं। उनका सवाल है कि हुजूर के दरबार से कुछ उन्हें भी मिले।
नवाब साहब ने यह सुना, तो उन्हें यकीन आ गया। बेचारे भोले-भाले आदमी थे, हुक्म दिया कि इसी वक्त सब फकीरों को इनाम मिले, कोई दरबार से नामुराद न लौटे; वर्ना मैं जहर खा कर मर जाऊँगा।
हाफिज – दारोगा जी, इन फकीरों को चालीस रुपए दे दीजिए।
नवाब – क्या चालीस! भला सौ रुपए तो तकसीम करो!
मुसाहब – ऐ, खुदा सलामत रखे।
हाफिज – वाह-वाह, क्यों न हो मेरे नवाब।
दारोगा ने सौ रुपए लिए और बाहर निकले। कई मुसाहब भी उनके साथ-साथ बाहर आ पहुँचे।
एक – ऐसे गौखे रईस कहाँ मिलेंगे?
दूसरा – क्या पागल है, वल्लाह!
हाफिज – बेवकूफ, काठ का उल्लू।
दारोगा – कह देंगे कि दे आए।
हाफिज – लेकिन जो फिर गुल मचाए?
दारोगा – अजी, उसको निकाल बाहर कर दो। दो धक्के।
सबने मियाँ नुदरत को घेर लिया और कोसों तक रगेदते हुए ले गए। वह गालियाँ देते हुए चले। अलारक्खी को भी खूब कोसा।
नवाब ने लाखों कसमें दीं कि अलारक्खी खाना खाएँ और कुछ दिन उसी बगीचे में आराम से रहें; मगर अलारक्खी ने एक न मानी। मियाँ नुदरत का उसे बार-बार ताने देना, उसे टके की औरत और बेसवा कहना उसके दिल में काँटे की तरह खटक रहा था। उसकी आँखों में आँसू भर आए।
नवाब – सच कहिए बी साहब, आखिर आप क्यों इस कदर रंजीदा हैं। अगर मुझसे कोई खता हुई हो, तो माफ करो।
अलारक्खी – जाने हमें इस वक्त क्या याद आया। आपसे क्या बताएँ। दिल ही तो है।
नवाब – मुझसे तो कोई कसूर नहीं हुआ?
अलारक्खी – हुजूर, ये सब किस्मत के खेल हैं। हमारी से बेहया जिंदगी किसी की न हो? माँ बाप ने अंधे कुएँ में ढकेल दिया; आप तो चैन उड़ाया किए, हमें भाड़ में झोंक गए। हमारे बूढ़े मियाँ शादी करते ही दूसरे शहर में जा बसे। हम उनके नाम को रो बैठे। जब वह अंटागफील हो गए, तो हमारी माँ ने बड़ा जश्न किया और एक दूसरे लड़के से शादी ठहराई। मगर अम्माँ से किसी ने कह दिया – खबरदार, लड़की को अब न ब्याहना, भलेमानसों में बेवा का निकाह नहीं होता। बस, अम्माँ चट से बदल गईं। आखिर मैं एक रात को घर से निकल भागी। लेकिन उस दिन से आज तक जैसी पाक पैदा हुई थी, वैसी ही हूँ। आज उस आदमी ने जो मुझे टके की औरत और बेसवा बनाया, तो मेरा दिल भर आया। कसम ले लीजिए, जो मियाँ आजाद के सिवा किसी से कभी आँखें लड़ी हो।
नवाब – कौन, कौन? किसका नाम तुमने लिया?
हाफिज – अच्छा पता लगा। वह तो नवाब साहब के दोस्त हैं।
नवाब – हमको उनकी खबर मिले, तो फौरन बुलवा लें।
अलारक्खी – वह तो कहीं बाहर गए हैं। कुछ दिनों हमारी सराय में ठहरे थे। अच्छे खूबसूरत जवान हैं। उनको एक भोले-भाले नवाब मिल गए थे। नवाब ने एक बटेर पाला था। मियाँ आजाद ने उसे काबुक से निकाल कर छिपा लिया। नवाब के मुसाहबों ने बटेर की खूब तारीफें कीं। किसी ने कहा, कुरान पढ़ता था; किसी ने कहा, रोजे रखता था। सबने मिल कर नवाब को उल्लू बना लिया। मियाँ आजाद को ऊँटनी दी गई कि जा कर बटेर ढूँढ़ लाओ। आजाद ऊँटनी ले कर हमारे यहाँ बहुत दिन तक रहे।
नवाब साहब मारे शर्म के गले जाते थे। उम्र भर में आज ही तो उन्हें खयाल आया कि ऐसे मुसाहबों से नफरत करना लाजिम है। मुसाहबों ने लाख-लाख चाहा कि रंग जमाएँ, मगर नवाब ओर भी बददिमाग हो गए।
नवाब – वह भोला-भाला नवाब मैं ही हूँ। आपने इस वक्त मेरी आँखें खोल दीं।
मुसाहब – गरीबपरवर, खुदा जानता है, हम लोग कट मरनेवाले हैं।
नवाब – बस, हम समझ गए।
हाफिज – हुजूर, तोप-दम कर दीजिए, जो जरा खता हो। हम लोग जान देनेवाले आदमी हैं।
नवाब – बस, चिढ़ाओ नहीं। अब कलई खुल गई।
मुसाहब – खुदा जानता है।
नवाब – अब कसमें खाने की कुछ जरूरत नहीं। जो हुआ सो हुआ, आगे समझा जायगा।
अलारक्खी – जो मुझको मालूम होता, तो यह जिक्र ही कभी न करती।
नवाब – खुदा की कसम, तुमने मुझ पर और मेरे बाप पर, दोनों पर इस वक्त एहसान किया। तुम जिक्र न करतीं, तो मैं हमेशा अंधा बना रहता, तुमने तो इस वक्त मुझे जिला लिया।
मुसाहब – जिसने जो कह दिया, वही हुजूर ने मान लिया। बस, यही तो खराबी है। जरा हमारी खिदमतों को देखें, तो हमको मोतियों में तौलें – कसम खुदा की – मोतियों में तोलें।
नवाब – मेरा बस चले, तो तुम सबको कालेपानी भेज दूँ। और ऊपर से बातें बनाते हो? बटेर भी रोजा रखते हैं?
हाफिज – खुदाबंद, खुदा की खुदाई में क्या कुछ बईद है।
नवाब – चलो बस, मैं खुदाई दखल न दो। मालूम हुआ, बड़े दीनदार हो। मेरा बस चले, तो तुमको ऐसी जगह कत्ल करूँ, जहाँ पानी तक न मिले।
हाफिज – अगर कोई कसूर साबित हो, तो कत्ल कर डालिए।
मुसाहब – खुदाबंद, वह आजाद एक ही गुर्गा है, बड़ा दगाबाज।
अलारक्खी – बस, बस, उनको कुछ न कहिएगा। उनका सा आदमी कोई हो तो ले!
नवाब – क्या शक है। खैर, अब भी सवेरा है, सस्ते छूटे।
अलारक्खी – छूटे तो सस्ते। ऐ हाँ, यह कहाँ की नमकहलाली है कि बटेर को रोजादार ओर नमाजी बना दिया? जो सुनेगा, क्या कहेगा?
नवाब – नमकहलाल के बच्चे बने हैं!
मुसाहब – खुदाबंद! जो चाहे, कह लीजिए, हम लोग हुज्जत और तकरार थोड़े ही कर सकते हैं।
नवाब – अजी, तुम तो जहर दे दो, संखिया खिला दो! खूब देख चुका।
अलारक्खी – ऐसे बेईमानों से खुदा बचाए।
मुसाहब – हाँ, मसनद पर बैठ कर जो चाहो कह लो। बाजार में झोटम-झोट करती फिरती हो, और यहाँ आके बातें बनाती हों।
नवाब – बस, जबान बंद करो। मेरा दिल खट्टा हो गया।
मुसाहब – जो हम खतावार हों, तो हमारा खुदा हमसे समझे। जरा भी किसी बात में नमकहरामी की हो, तो हम पर आसमान फट पड़े। हुजूर चाहे न मानें, मगर दुनिया कहती है कि जैसे मुसाहब हुजूर को मिले हैं, वैसे बड़े खुशकिस्मतों को मिलते हैं।
नवाब – यों कहो कि जिसकी किस्मत फूट जाती है, उसको तुम जैसे गुर्गे मिलते हैं। बस, आप लोग बोरिया-बँधना उठाइए और चलते-फिरते नजर आइए।
मुसाहब – हुजूर, मरते दम तक साथ न छोड़ेंगे, न छोड़ेंगे।
हाफिज -यह दामन छोड़ कर कहाँ जाएँ?
मिरजा – कहीं ठिकाना भी है?
हाफिज – ठिकाना तो सब कुछ हो जाय, मगर छोड़ कर जाने को भी जब जी चाहे। जिसका इतने दिन तक नमक खाया, उससे भला अलग होना कैसे गवारा हो? मार डालिए, मगर हम तो इस ड्योढ़ी से नहीं जाने के। यह दर और यह सर। मरें भी, तो हुजूर ही की चौखट पर, और जनाजा भी निकले, तो इसी दरवाजे से !
नवाब – बातें न बनाओ। जहाँ सींग समाय, चले जाओ।
हाफिज – हुजूर को खुदा सलामत रखे। जहाँ हुजूर का पसीना गिरे, वहाँ हमारा खून जरूर गिरेगा।
मगर नवाब साहब इन चकमों में न आए। खिदमतगारों को हुक्म दिया कि इन सबों को पकड़ कर बाहर निकाल दो। अगर न जाएँ, तो ठोकर मार कर निकाल दो।
अब बी अलारक्खी का भी हाल सुनिए। उनको मियाँ नुदरत की बातों का ऐसा कलक हुआ, दिल पर ऐसी चोट लगी कि अपने कुल जेवर और असबाब बेच कर बस्ती के बाहर एक टीले पर फकीरों की तरह रहने लगीं। कसम खा ली कि अब तक आजाद रूम से न लौटेगें, इसी तरह रहूँगी।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 48
जिस जहाज पर मियाँ आजाद और खोजी सवार थे, उसी पर एक नौजवान अंगरेज अफसर और उसकी मेम भी थी। अंगरेज का नाम चार्ल्स अपिल्टन था और मेम का वेनेशिया। आजाद को उदास देख कर वेनेशिया ने अपने शौहर से पूछा – इस जेंटिलमैन से क्योंकर पूछें कि यह बार-बार लंबी साँसें क्यों ले रहा है?
साहब – तुम ऐसे-वैसे आदमियों को जेंटिलमैन क्यों कहती हो? यह तो निगर (काला आदमी) है।
मेम – निगर तो हम हब्शी को कहते हैं। यह तो गोरा-चिट्ठा, खूबसूरत आदमी है।
साहब – तो क्या खूबसूरत होने से ही कोई जेंटिलमैन हो जाता है? इंग्लैंड के सब सिपाही गोरे होते हैं, तो क्या इससे ये सब के सब जेंटिलमैन हो गए?
मेम – तुम तो अपनी दलील से आप कायल हो गए। जब गोरे चमड़े से कोई जेंटिलमैन नहीं होता, तो फिर तुम सब क्यों जेंटिलमैन कहलाओ? और इन लोगों को निगर क्यों कहो? वाह, अच्छा इंसाफ है!
इतने में जहाज के एक कोने से आवाज आई कि ओ गीदी न हुई करौली, नहीं तो लाश फड़कती होती।
मियाँ आजाद डरे कि ऐसा न हो, मियाँ खोजी किसी अंगरेज से लड़ पड़ें, अफीम की लहर में किसी से बेवजह झगड़ पड़ें। करीब जाकर पूछा – यह क्यों बिगड़े जी? किस पर गुल मचाया?
खोजी – अजी, जाओ भी, यहाँ शिकार हाथ से जाता रहा। वल्लाह, गिरफ्तार ही कर लिया था। गीदी को पाता, तो इतनी करौलियाँ लगाता कि छठी का दूध याद आ जाता। मगर मेरा पाँव फिसल गया और वह निकल गया!
आजाद – तुम्हें एक आँच की हमेशा कसर रह जाती है। यह था कौन?
खोजी – था कौन, वही बहुरूपिया! और किसको पड़ी थी भला!
आजाद – बहुरूपिया!
खोजी – जी हाँ, बहुरूपिया! बड़ा ताज्जुब हुआ आपको?
आजाद – भई हाँ, ताज्जुब कहीं लेने जाना है। क्या बहुरूपिया भी जहाज पर सवार हो लिया है? बड़ा लागू है भई?
खोजी – सवार नहीं हुआ, तो आया कहाँ से?
आजाद – क्या सोते हो खोजी, या पिनक में हो?
खोजी – खोजी की ऐसी-तैसी। फिर तुमने खोजी कहा हमको!
आजाद – माफ करना भई, कसूर हुआ।
खोजी – वाह, अच्छा कसूर हुआ! किसी के जूते लगाइए और कहिए, कसूर हुआ। जब देखो, खोजी-खोजी।
आजाद – अच्छा जनाब ख्वाजा साहब, अब तो राजी हुए! यह बहुरूपिया कहाँ से आ गया?
खोजी – अरे साहब, अब तो ख्वाब में भी आने लगा। अभी मैं सोता था, आप आ पहुँचे। मेरे हाथ में उस वक्त अफीम की डिबिया थी। फेंक के डिबिया और लेके कतारा जो पीछे झपटा, तो दो कोस निकल गया। मगर शामत यह आई कि एक जगह जरा सा पानी पड़ा था! मेरी तो जान ही निकल गई। फिसला, तो आरा रा रा धों!
आजाद – क्या गिर पड़े? जाओ भी!
खोजी – बस, कुछ न पूछिए। मेरा गिरना ऐसा मालूम हुआ, जैसे हाथी पहाड़ से गिरा। धड़ाम-धड़ाम!
आजाद – इसमें क्या शक है! आपके हाथ-पाँव ही ऐसे हैं। वह तो कहिए, बड़ी खैरियत गुजरी!
खोजी – और क्या! मगर जाता कहाँ है गीदी। रगेद के मारूँ। यहाँ पलटन में सूबेदारी कर चुके हैं।
मेम और साहब, दोनों मियाँ आजाद और खोजी की बातें सुन रहे थे। साहब तो उर्दू खूब समझते थे, मगर मेम साहब कोरी थीं। साहब ने तर्जुमा करके बताया, तो वेनेशिया भी मारे हँसी के लोट गई! यह इंच भर का आदमी, एक-एक माशे के हाथ पाँव और आपके गिरने से इतनी बड़ी आवाज हुई कि जैसे हाथी गिरे!
साहब – सिड़ी है कोई। जाने क्या वाही-तबाही बकता है।
मेम – तुम चुप रहो। हम जेंटिलमैन से पूछते हैं, यह कौन पागल है।
साहब – अच्छा, मगर हिंदोस्तानी बदतमीज होते हैं। तुम इससे बातें न करो।
मेम – अच्छा, तुम्हीं पूछो।
इस पर साहब ने उँगली के इशारे से आजाद को बुलाया। आजाद भला कब सुननेवाले थे। बोले ही नहीं। साहब पलटनी आदमी, चेहरा मारे गुस्से के लाल हो गया। खयाल हुआ कि वेनेशिया तालियाँ बजाएगी कि एक निगर तक मुखातिब न हुआ, बात का जवाब तक न दिया। वेनेशिया ने जब यह हालत देखी तो इठलाती और मुस्कराती हुई मियाँ आजाद की तरफ गई। आजाद लेडियों से बोलने-चालने के आदी तो थे ही, एक खूबसूरत लेडी को आते देखा, तो टोपी उतार कर सलाम किया और पूछा – आप कहाँ तशरीफ ले जायँगी?
मेम – घर जा रही हूँ। यह ठिगना आदमी कौन है? खूब बातें करता है। हँसते-हँसते पेट में बल पड़-पड़ गए।
आजाद – जी हाँ, बड़ा मसखरा है।
मेम – चार्ली, यह तो कहते हैं कि वह कौन मसखरा है।
साहब – इसकी बातें बड़े मजे की होती हैं।
साहब का गुस्सा ठंडा हो गया। आजाद का डील-डौल देख कर डर गए। इधर-उधर की बातें होने लगीं। इतने में जहाज पर एक दिल्लगीबाज को सूझी कि आओ, खोजी को बनाएँ। दो-चार और शोहदे उससे मिल गए। जब देखा कि मियाँ खोजी पिनक में सो गए, तो एक आदमी ने दो लाल मिरचें उनकी नाक में डाल दीं। खोजी ने जो आँख खोली, तो मारे छींकों के बौखला गए। बावले कुत्ते की तरह इधर-उधर दौड़ने लगे। मेम और साहब तालियाँ बजा-बजा कर हँसने लगे।
आजाद – जनाब ख्वाजा साहब!
खोजी – बस, अलग रहिएगा, आक् छीं!
आजाद – आखिर यह हुआ क्या? कुछ बताओ तो!
खोजी – चलिए, आपको क्या; चाहे जो कुछ हुआ! आ…छीं!
आजाद – यार, यह उसी बहुरूपिए की शरारत है।
खोजी – देखिए, तो कितनी करौलियाँ भोंकी हों कि आ…छीं। यार ही तो करे-छीं।
आजाद – मगर तुम तो गिर-गिर पड़ते हो मियाँ! एक दफे जी कड़ा करके पकड़ क्यों नहीं लेते?
खोजी – नाक में मिरचें डाल दीं। गीदी ने।
आजाद – अबकी आप ताक में बैठे रहिए। बस, आते ही पकड़ लीजिए। मगर है बड़ा शरीर, सचमुच नाक में दम कर दिया।
खोजी – कुछ ठिकाना है! नाक में मिरचें झोंकने की कौन सी दिल्लगी है?
आजाद – और क्या साहब, यह बेजा बात है।
खोजी – बेजा-वेजा के भरोसे न रहिएगा, मैं किसी दिन हाथ-पाँव ढीले कर दूँगा। कहाँ के बड़े कड़ेखाँ हैं आप! मैंने भी सूबेदारी की है।
आजाद – तो आप मेरे हाथ-पाँव क्यों ढीले करते हैं? मैंने तो आपका कुछ बिगाड़ा नहीं।
खोजी – (आँखें खोल कर) अरे! यह आप थे! भई, माफ करना। बस, देखते जाओ, अब गिरफ्तार ही किया चाहता हूँ गीदी को।
आजाद – लेकिन, जरा होशियार रहिएगा? बहुरूपिया गया जहन्नुम में, ऐसा न हो, कोई हजरत रुपए-पैसे गायब कर दें, बेवकूफ कहीं का! अबे गधे, यहाँ बहुरूपिया कहाँ?
खोजी – बस, चोंच सँभालिए, बंदा चलता है। दोस्ती हो चुकी। कुछ आपके गुलाम नहीं हैं। और सुनिए, हम गधे हैं। क्या जाने कितने गधे हमने बना डाले।
आजाद – खैर, यही सही। लेकिन जाइएगा कहाँ? यहाँ भी कुछ खुश्की है?
खोजी – अरे ओ जहाज के कप्तान! जहाज रोक ले – अभी रोक ले।
साहब – वह यों न सुनेगा। दो-चार हाथ करौली के लगाइए, तो फिर सुने।
इतने में हाजरी खाने का वक्त आया। आजाद ने बेतकल्लुफी के साथ उन दोनों के साथ खाना खाया। फिर तीनों टहलने लगे। आजाद को वेनेशिया की एक-एक छवि भाती थी और वह हसीना कभी शोखी इठलाती थी, कभी नाज के साथ मुसकिराती थी। इतने में खोजी ने यह शेर पढ़ा –
गर तुम नहीं तो और बुते महजबीं सही,
हमको तो दिल्लगी से गरज है, कहीं सही।
आजाद ने जो यह शेर सुना, तो खोजी के पास आ कर बोले – यह क्या गजब करते हो जी? इसका शौहर शेर खूब समझ लेता है।
खोजी – वह गीदी इन इशारों को क्या जाने।
आजाद – तुम बड़े शरीर हो।
खोजी – क्यों उस्ताद, हमी से यह उडनघाइयाँ बताते हो, क्यों? सच कहना, हुस्नआरा के लगभग है कि नहीं। बंबईवाली बेगम भी ऐसी ही शोख थी।
वेनेशिया ने खोजी को मुसकिराते देखा, तो उँगली के इशारे से बुलाया। खोजी तो रेशाखतमी हो गए। बहुत ऐंठते और अकड़ते हुए चले। गोया लंघोर पहलवान के भी चचा हैं। वाह, क्यों न हो। इस वक्त जरा पाँव फिसले, तो दिल्लगी हो। मेमसाहब के पास पहुँचे।
आजाद – टोपी उतार कर सलाम करो खोजी।
खोजी का लफ्ज सुनना था कि ख्वाजा साहब का गुस्सा एक सौ बीस दरजे पर जा पहुँचा। बस, पलट पड़े और पलटते ही उलटे पाँव भागने लगे।
आजाद – ओ गीदी, जो पलट गया, तो इतनी करौलियाँ भोंकी होगी कि छठी का दूध याद आ गया होगा।
मेम – क्यों खोजी, क्या मुझसे खफा हो गए?
आजाद – क्यों भई, क्या शैतान ने फिर उँगली दिखा दी? मियाँ खोजी?
खोजी – खोजी पर खुदा की मार! खोजी पर शैतान की फटकार! एक दफा खोजी कहा, मैं खून पी कर रह गया, अब फिर दोहराया। खुदा जाने, कब का दिया इस गाढ़े वक्त काम आया। नहीं तो मारे करौलियों के भुट्टा सा सिर उड़ा देता। लाख गया-गुजरा हूँ, तो क्या हुआ, उम्र भर रिसालदारी की है, घास नहीं खोदी।
मेम – अच्छा, यह खोजी के नाम पर बिगड़े! हम समझे, हमसे रूठ गए।
खोजी – नहीं मेम साहब, कैसी बात आप फरमाती हैं!
आजाद – जरा इनसे इनकी बीवी जान का हाल पूछिए। उसका नाम बुआ जाफरान है। देवनी है देवनी।
खोजी ने बुआ जाफरान का नाम सुना, तो रंग फक हो गया और सहम कर आँखें बंद कर लीं। आजाद ने जब वेनेशिया से सारा किस्सा कहा, तो मारे हँसी के लोट-लोट गई।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 49
एक आलीशान महल की छत पर हुस्नआरा और उनकी तीनों बहनें मीठी नींद सो रही हैं। बहारबेगम की जुल्फ से अंबर की लपटें आती थीं; रूहअफजा के घूँघरवाले बाल नौजवानों के मिजाज की तरह बल खाते थे; सिपहआरा की मेहँदी अजब लुत्फ दिखाती थी और हुस्नआरा बेगम के गोरे-गोरे मुखड़े के गिर्द काली-काली जुल्फों को देख कर धोखा होता था कि चाँद ग्रहण से निकला है।
इधर तो ये चारों परियाँ बेखबर आराम में हैं, उधर शाहजादा हुमायूँ फर अपने दोस्त मीर साहब से इधर-उधर की बातें कर रहे हैं।
मीर – कुछ अड़ोसी-पड़ोसियों का तो हाल कहिए। दोनों हसीनें नजर आती हैं या नहीं?
शाहजादा – अरे मियाँ, अब तो चौकड़ी है, एक से एक बढ़-चढ़ कर। सब मस्त है। मगर बला की हयादार।
मीर – यह कहिए, गहरे हो उस्ताद।
शाहजादा – अजी, अभी ख्वाब देख रहा थ एक महरी हुस्नआरा का खत लाई है। खत पढ़ रहा था कि आप बला की तरह आ पहुँचे। जी चाहता है गोली मार दूँ।
मीर – क्यों साहब, आपने तो कान पकड़े थे।
शाहजादा – दिल पर काबू भी तो हो?
मीर – कलंक का टीका लगाओेगे? खुदा के लिए फिर तोबा करो। आखिर चारों छोकड़ियों में से आप रीझे किस पर? या चारों पर दिल आया है?
शाहजादा – चार निकाह तो जायज हैं।
मीर – तो यह कहिए चारों पर दाँत हैं।
शाहजादा – नहीं मियाँ, हँसता हूँ। दो ही तो कुँआरी हैं।
ये बातें हो ही रही थीं कि एकाएक महल्ले में चोर-चोर का गुल मचा। कोई चिराग जलाता है कोई बीवी के जेवर टटोलता है। चारों तरफ खलबली मच गई। पूछने से मालूम हुआ कि बड़ी बेगम साहबा के घर में चोर घुसा था। शाहजादे ने जो यह बात सुनी, तो मीर साहब से बोले – भई मौका तो अच्छा है। चलो, इस वक्त जरा हो आएँ। इसी बहाने एहसान जताएँ।
मीर – सोच लो, ऐसा न हो, पीछे मेरे माथे जाय। तुम तो शाहजादे बन कर छूट जाओगे, उल्लू मैं बनूँगा। आखिर वहाँ चल कर क्या कहोगे?
शाहजादा – अजी, कहेंगे क्या! बस अफसोस करेंगे। शायद इसी फेर में एक झलक मिल जाय। और नहीं, तो आवाज ही सुन लेंगे।
दोनों आदमी बेगम साहबा के मकान पर पहुँचे, तो क्या देखते हैं कि चालीस पचास आदमी एक चोर को घेरे खड़े हें और चारों तरफ से उस पर बेभाव की पड़ रही हें। एक ने तड़ से चपत जमाई, दूसरे ने खोपड़ी पर धौल लगाई। चोर पर इतनी पड़ी कि बिलबिला गया। झल्ला-झल्ला कर रह जाता था। दो-तीन भले आदमी लोगों को समझा रहे थे, बस करो, अब तो खोपड़ी पिलपिली कर दी। क्या जमाते ही जाओगे?
एक – भाई, खूब हाथ गरमाए।
दूसरा – हम तो पोले हाथ से लगाते थे। जिसमें चोट कम आए, मगर आवाज खूब हो।
चोर – छूटूँगा तो एक एक से समझूँगा। क्या करूँ, बेबस हूँ; वर्ना सबको पीस कर धर देता।
बहारबेगम के मियाँ भी खड़े थे। बोले – एक ही शैतान है।
शाहजादा – आखिर, यह आया किधर से?
नवाब साहब – मैं घूम कर कोई दस बजे के लगभग आया। खाना खा कर लेटा ही था कि नींद आ गई। यह गुल मचा, तो तलवार ले कर दौड़ पड़ा। अब सुनिए, मैं तो ऊपर से आ रहा हूँ, और चोर नीचे से ऊपर जाता है। रास्ते में मुठभेड़ हुई। इसने छुरी निकाली, मगर मैंने भी तलवार का वह हाथ चलाया कि जरा हाथ ओछा न पड़े, तो भंडारा खुल जाय। फिर तो ऐसा सहमा कि होश उड़ गए। भागते राह न मिली। अब छत पर पहुँचा और चाहता था कि झपट कर नीचे कूद पड़े; मगर मेरी छोटी साली ने इस फुरती से रस्सी का फंदा बना कर फेंका कि उलझ कर गिरा। उठ कर भागने को ही था कि मैं गले पर पहुँचा गया और जाते ही छाप बैठा। औरतों ने दोहाई देना शुरू की; लेकिन मैंने न छोड़ा। आपने इस वक्त कहाँ तकलीफ फरमाई?
शाहजादा – मैंने कहा, चल कर देखूँ क्या बात हुई। बारे शुक्र है कि खैरियत हुई। मगर आपकी साली बड़ी दिलेर हैं। दूसरी औरत हो, तो डर जाय।
यहाँ तो यह बातें हो रही थीं, उधर अंदर चारों बहनों में भी यही जिक्र था। चारों हँस-हँस कर यही बातें कर रही थीं –
सिपहआरा – है-है बाजी, मैंने जब उसे काले-काले संडे को देखा, तो सन से जान निकल गई।
रूहअफजा – मुआ तंबाकू का पिंडा।
हुस्नआरा – वह तो खैर गुजरी कि संदूक हाथ से गिर पड़ा, नहीं तो सब मूस ले जाता।
सिपहआरा – बहारबेगम की चिड़चिड़ी सास लाखों ही सुनाती कि मेरी बहू के गहने सब बेच खाए ।
बहारबेगम – चोर-चोर की भनक कान में पड़ी, तो मैं कुलबुला कर चौंक पड़ी। भागी, तो जूड़ा भी खुल गया। अल्लाह जानता है, बड़ी मिहनत से बाँधा था। चलो खैर!
रूहअफजा – बस, हमारी बाजी को चोटी कंघी की फिक्र रहती है।
हुस्नआरा – जितना इनको इस बात का खयाल है, उतना हमारे खानदान भर में किसी को नहीं है। जभी तो दूल्हा भाई इतने दीवाने रहते है।
बहारबेगम – चलो, बैठी रहो; छोटे मुँह बड़ी बात!
हुस्नआरा – दूल्हा भाई को इनके साथ इश्क है।
बहारबेगम – क्या टर-टर लगाई है नाहक!
अब दिल्लगी सुनिए कि मिरजा हुमायँ फर बाहर बैठे चुपके-चुपके सारी बातें सुन रहे थे। नवाब बेचारे कट-कट गए, मगर चुप। अंदर जा कर समझाएँ, तो अदब के खिलाफ चुपके बैठे रहें, तो भी रहा नहीं जाता। जान अजाब में थी। खैर, हुक्का पी कर शाहजादा रुख्सत हुए। उनके चले जाने के बाद नवाब साहब अंदर आए और बोले – तुम लोगों की भी अजब आदत है। जब देखोगी कि कोई गैर आदमी आके बैठा है, बस, तभी गुल मचाओगी। इस वक्त एक भलेमानस बैठे थे और यहाँ चुहल हो रही थी।
बहारबेगम – वह भलामानस निगोड़ा कौन था, जो इतने वक्त पंचायत करने आ बैठा?
रूहअफजा – तो अब कोई उनके मारे अपने घर में बात न करे? घोट कर मार न डालिए।
हुस्नआरा – हम भी तो सुनें, वह भलेमानस कौन थे?
नवाब – अजी, यही, जो सामने रहते हैं; शाहजादे।
हुस्नआरा – तो आपने आ कर हमसे कह क्यों न दिया? फिर हम काहे को बोलते? बहारबेगम – अपनी खता न कहेंगे, दूसरों को ललकारेंगे।
नवाब – उस वक्त वहाँ से आने का मौका न था। मुझसे पूछा कि चोर को किसने पकड़ा। मैंने कहा, मेरी छोटी साली ने तो बहुत ही हँसे।
नवाब साहब बाहर चले गए, तो फिर बातें होने लगीं।
सिपहआरा – जरा उसकी ढिठाई तो देखो कि चोर का नाम सुनते ही आ डटा। भला क्या वजह थी इसकी? ऐसा कहाँ का बड़ा रुस्तम था?
हुस्नआरा – तीन बजे के वक्त आप जो आए, तो क्यों आए!
रूहअफजा – मैं बताऊँ! उसको यह खबर न होगी कि दूल्हा भाई घर पर हैं। यह न होते, तो घर में घुस पड़ता।
सिपहआरा – काम तो शोहदों के जैसे हैं।
अब एक और दिल्लगी सुनिए। चोर आया, गुल गपाड़ा हुआ, पकड़ा गया जमाने भर में हुल्लड़ मचा, महल्ला भर जाग उठा; चोर थाने पर पहुँचा; मगर बड़ी बेगम साहबा अभी तक खर्राटे ही ले रही हैं। जब जागीं, तो मामा से बोलीं – कुछ गुल सा मचा था अभी?
मामा – हाँ, कुछ आवाज तो आई थी!
बेगम – हरी, किसी से पूछो तो।
मामा – ऐ बीबी, पूछना इसमें क्या है? भेड़िया-बेड़िया आया होगा।
बेगम – मैंने आज हाथी को ख्वाब में देखा है, अल्लाह बचाए।
इतने में चोर के आने की खबर मिली। तब तो बेगम साहबा के होश उड़ गए। मामा को भेजा कि जा पूछ, कुछ ले तो नहीं गया।
हुस्नआरा – अम्माँजान बहुत जल्द जागीं! क्या तू भी घोड़े बेच कर सोई थी! अल्लाह री नींद!
मामा- जरी आँख लग गई थी। मगर कुछ गुल की आवाज जरूर आई थी।
हुस्नआरा – महल्ला भर जाग उठा, तुम्हारे नजदीक कुछ ही कुछ गुल था। ठीक! जाके अम्माँ से कह दे कि चोर आया था, मगर जाग हो गई।
सिपहआरा – ऐ, काहे के वास्ते बहकती हो। मामा, तू जा के सो रह; शोर-गुल कहीं कुछ न था, कोई सोते में बर्रा उठा होगा।
हुस्नआरा – नहीं मामा, यह दिल्लगी करती हैं। चोर आया था।
मामा – ऐ, गया चूल्हे में निगोड़ा चोर! इधर आने का रुख करे, तो आँखे ही फूट जायँ। क्या हँसी ठट्ठा है।
सिपहआरा – देखो तो सही भला!
मामा – अभी बेगम साहबा सुन लें, तो दुनिया सिर पर उठा लें।
मामा ने जा कर बेगम से कहा – हुजूर, कुछ है न वै, बेकार को जगाया। न भेड़िया, न चोर, कोई सोते-सोते बर्रा उठा था।
बेगम – जरा बाहर जा कर तो पूछ कि यह गुल कैसा था?
महरी – बीबी, मैं अभी बाहर से आई हूँ, कोठे पर कलमुँहा आया था। मोठरी का कुलुफ तोड़ कर जब संदूक उठाया, तो जाग हो गई। इतने में नवाब साहब कोठे पर से नंगी तलवार लिए दौड़ आए।
बेगम – नवाब साहब के दुश्मनों को तो कहीं चोट-ओट नहीं आई?
महरी – ना बीबी, एक फाँस तक तों चुभी नहीं।
बेगम – चोर कुछ ले तो नहीं गया।
महरी – एक झंझी तक नहीं।
बेगम – चोर अब कहाँ है?
महरी – खादिमहुसैन थाने पर ले गया।
मामा – अब चक्की पीसनी पड़ेगी।
बेगम – तू तो कहती थी कि कोई सोते-सोते बर्रा उठा था। झूठी जमाने भर की। चल, जा, हट!
अब थाने का हाल सुनिए। थानेदार नदारद; जमादार शराब पिए मस्त; कांस्टेबिल अपनी-अपनी डयुटी पर। एक कांस्टेबिल पहरे पर पड़ा सो रहा था। खादिमहुसैन ने बहुत गुल मचाया। तब जाके हजरत की नींद खुली। बिगड़े कि मुझे जगाया क्यों? चोर को छोड़ दो।
खादिमहुसैन – वाह, छोड़ देने की एक ही कही। मैं भी थाने में मुहर्रिर रह चुका हूँ।
कांस्टेबिल – न छोड़ोगे तुम?
खादिमहुसैन – होश की दवा करो मियाँ! इसके साथ तुमको भी फँसाऊँ तो सही।
कांस्टेबिल – (चोर से) तुझे इन्होंने अपने यहाँ कै घंटे रखा था?
चोर – पकड़ के बस यहाँ ले आए?
कांस्टेबिल – दुत गौखे! अबे, तू कहना कि मैं राह-राह चला जाता था, इनसे मुझसे लागडाट थी। इन्होंने घात पा कर मुझे पकड़ लिया, खूब पीटा और चार घंटे तक अस्तबल की कोठरी में बद रखा।
चोर – लागडाट क्या बताऊँ!
कांस्टेबिल – कह देना कि मेरी जोरू पर यह बुरी निगाह डालते थे। बस, लागडाट हो गई।
चोर – मगर मेरी जोरू तो चार बरस हुए, एक के साथ निकल गई।
कांस्टेबिल – बस, तो बात बन गई! कह देना, इन्हीं की साजिश से निकली थी। तो इन पर दो जुर्म कायम होंगे। यह एक कि तुमको झूठ-मूठ फाँस लिया, दूसरे जबरदस्ती कैद रखा।
खादिमहुसैन – तुम्हारी बातों पर कुछ हँसी आती है, कुछ गुस्सा।
कांस्टेबिल – जब बड़ा घर देखोगे, सब हँसी का हाल खुल जायगा।
खादिमहुसैन – हमारे घर में चोरी हो और हमीं फँसे?
खैर कांस्टेबिल साहब रोजनामचा लिखने बैठे। खादिमहुसैन ने सारी दास्तान बयान की। जब उसने यह कहा कि नवाब साहब तलवार से ले कर दौड़े, तो कांस्टेबिल ने कलम रोक दिया और कहा – जरा ठहरो, तलवार का लैसंस उनके पास है?
खादिमहुसैन – उनके साथ तो बीस सिपाही तलवार बाँधे निकलते हैं। तुम एक लैसंस लिए फिरते हो!
आखिर रिपोर्ट खतम हुई और खादिम अपने घर आया।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 50
एक दिन मियाँ आजाद मिस्टर और मिसेज अपिल्टन के साथ खाना खा रहे थे कि एक हँसोड़ आ बैठे और लतीफे कहने लगे। बोले – अजी, एक दिन बड़ी दिल्लगी हुई। हम एक दोस्त के यहाँ ठहरे हुए थे। रात को उनके खिदमतगार की बीबी दस अंडे चट कर गई। जब दोस्त ने पूछा, तो खिदमतगार ने बिगड़ी बात बना कर कहा कि बिल्ली खा गई। मगर मैंने देख लिया था। जब बिल्ली आई तो वह औरत उसे मारने दौड़ी। मैंने कहा – बिल्ली को मार न डालना, नहीं तो फिर अंडे हजम न होंगे।
आजाद – बात तो यही है। खाय कोई, बिल्ली का नाम बद।
अपिल्टन – आप शादी क्यों नहीं करते?
हँसोड़ – शादी करना तो आसान है, मगर बीवी को सँभालना मुश्किल। हाँ, एक शर्त पर हम शादी करेंगे। बीवी दस बच्चों की माँ हो।
मेम – बच्चों की कैद क्यों की?
हँसोड़ – आप नहीं समझीं। अगर जवान, आई, तो उसके नखरे उठाते-उठाते नाक में दम आ जायगा; अधेड़ बीवी हुई तो नखरे न करेगी और बच्चे बड़े काम आएँगे।
आजाद – वह क्या?
हँसोड़ – कहत के दिनों में बेच लेंगे।
इतने में क्या देखते हैं कि मियाँ खोजी लुढ़कते हुए चले आते हैं। एक सूखा कतारा हाथ में हैं।
आजाद – आइए। बस, आप ही की कसर थी।
खोजी – मुझे बैठे-बैठे खयाल आया कि किसी से पूछूँ तो कि यह समुंदर है क्या चीज और किसकी दुआ से बना है?
हँसोड़ – मैं बताऊँ! अगले जमाने में एक मुल्क था घामड़-नगर।
खोजी – जरी ठहर जाइएगा। वहाँ अफीम भी बिकती थीं?
हँसोड़ – उस मुल्क के बाशिंदे बड़े दिलेर होते थे, मगर कद के छोटे। बिलकुल टेनी मुर्गे के बराबर।
खोजी – (मूँछों पर ताव दे कर) हाँ-हाँ, छोटे कद के आदमी तो दिलेर होते ही हैं।
हँसोड़ – और कोई बगैर करौली बाँधे घर से न निकलता था।
खोजी – (अकड़ कर) क्यों मियाँ आजाद, अब न कहोगे?
हँसोड़ – मगर उन लोगों में एक ऐब था, सब के सब अफीम पीते थे।
खोजी – (त्योरियाँ चढ़ा कर) ओ गीदी!
आजाद – हैं-हैं। शरीफ आदमियों से यह बदजबानी।
खोजी – हम तो सिर से पाँव तक फुँक गए, आप शरीफ लिए फिरते हैं।
हँसोड़ – वहाँ की औरतें बड़ी गरांडील होती थीं। जहाँ मियाँ जरा बिगड़े, और बीवी ने बगल में दबा कर बाजार में घसीटा।
खोजी – अहाहा, सुनते हो यार! वह बहुरूपिया वहीं का था। अब तो उस गीदी का मकान भी मिल गया। चचा बन कर छोड़ूँ, तो सही।
हँसोड़ – वे सब रिसालदारी करते थे।
खोजी – और वहाँ क्या-क्या होता था? उस मुल्क के आदमियों की तसवीरें भी आपके पास हैं?
हँसोड़ – थीं तो, मगर अब नहीं रहीं। बस, बिलकुल तुम्हारे ही से हाथ पाँव थे। करारे जवान। पौंडे बहुत खाते थे।
खोजी – ओहोहो! वे सब हमारे ही बाप-दादा थे। देखो भाई आजाद, अब यह बात अच्छी नहीं। वहाँ से तो लंबे-चौड़े वादे कर के लाए थे कि करौली जरूर ले देंगे, और यहाँ साफ मुकर गए। अब हमें करौली मँगा दो, तो खैरियत है, नहीं तो हम बिगड़ जायँगे। वल्लाह, कौन गीदी दम भर ठहरे यहाँ।
आजाद – और यहाँ से आप जायँगे कहाँ? जहन्नुम में?
वेनेशिया – कुछ रुपए भी हैं? जहाज का किराया कहाँ से दोगे?
आजाद – मैं इनका खजानची हूँ। यह घर जायँ, किराया मैं दे दूँगा।
हँसोड़ – इस खजानची की लफ्ज पर हमें एक लतीफा याद आया। शादी के पहले नौजवान लेडियाँ अपने आशिक को अपना खजाना कहती हैं। शादी होने के बाद उसे खजानची कहने लगती हैं। खजानची के खजानची और मियाँ के मियाँ।
वेनेशिया – अच्छा हुआ, तुम्हारी बीवी चल बसी; नहीं तो तुम्हारी किफायत उनकी जान ही ले लेती।
हँसोड़ – अजीब औरत थी, शादी के बाद ऐसी रोनी सूरत बनाए रहती थी कि मालूम होता था, आज बाप के मरने की खबर आई है। दो बरस के बाद हमसे छह महीने के लिए जुदाई हुई। अब जो देखता हूँ, तो और ही बात है। बात-बात पर मुसकिराना और हँसना। बात हुई और खिल गई। मैंने पूछा, क्या तुम वही हो जो नाक-भौं चढ़ाए रहती थीं? मुसकिरा कर कहा – हाँ, हूँ, तो वही। मैंने कहा – खैर, काया-पलट तो हुई। हँस के बोली – वाह इसमें ताज्जब काहे का। एक दिन मुझे खयाल आ गया, बस, तब से अब हर वक्त हँसती हूँ। तब तो मैंने अपना मुँह पीट लिया। रोनी सूरत बना कर बोला – हम तो खुश हुए थे कि अब हमसे तुमसे खूब बनेगी, मगर मालूम हो गया कि तुम्हारी हँसी और रोने, दोनों का एतबार नहीं। अगर तुम्हें इसी तरह बैठे-बैठे किसी दिन खयाल आ गया कि रोना अच्छा, तो फिर रोना ही शुरू कर दोगी।
आजाद – मुझे भी एक बात याद आ गई। हमारे मुहल्ले में एक ख्वाजा साहब रहते थे। उनके एक लड़की थी, इतनी हसीन कि चाँद भी शरमा जाय। बात करते वक्त बस यही मालूम होता था कि मुँह से फूल झड़ते हैं। उसकी शादी एक गँवार जाहिल से हुई, जो इतना बदसूरत था कि उससे बात करने का भी जी न चाहता था। आखिर लड़की इसी गम में कुढ़-कुढ़ कर मर गई।