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आजाद-कथा (उपन्यास) : रतननाथ सरशार – अनुवादक Part 7 – प्रेमचंद
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 60
मियाँ शहसवार का दिल दुनिया से तो गिर गया था, मगर जोगिन की उठती जवानी देख कर धुन समाई कि इसको निकाह में लावें। उधर जोगिन ने ठान ली थी कि उम्र भर शादी न करूँगी। जिसके लिए जोगिन हुई, उसी की मुहब्बत का दम भरूँगी। एक दिन शहसवार ने जो सुना कि सिपहआरा कोठे पर से कूद पड़ी, तो दिल बेअख्तियार हो गया। चल खड़े हुए कि देखें, माजरा क्या है? रास्ते में एक मुंशी से मुलाकात हो गई। दोनों आदमी साथ-साथ बैठे; और साथ ही साथ उतरे। इत्तफाक से रेल से उतरते ही मुंशी जी को हैजा हो गया। देखते-देखते चल बसे। शहसवार ने जो देखा कि मुंशी के पास दौलत काफी है, तो फौरन उनके बेटे बन गए और सारा माल असबाब ले कर चंपत हो गए। सात हजार की अशर्फियाँ, दस हजार के नोट और कई सौ रुपए हाथ आए। रईस बन बैठे। फौरन जोगिन के पास लौट गए।
जोगिन – क्या गए नहीं?
शहसवार – आधी ही राह से लौट आए। मगर हम अमीर हो कर आए हैं।
जोगिन – अमीर कैसे! बोलो? हमको बनाते हो?
शहसवार – कसम खुदा की, हजारों ले कर आया हूँ। आँखें खुल जायँगी।
दुनिया के भी अजब कारखाने है। शहसवार को बाईस हजार तो नकद मिले और जब कपड़ों की गठरी खोली, तो एक टोपी निकल आई, जिसमें हीरे और मोती टँके हुए थे। जोगिन के आशिकों में एक जौहरी भी था। उसने यह टोपी बीस हजार में खरीद ली। जब जौहरी चला गया, तो शहसवार ने जोगिन से कहा – लो, अब तो अल्लाह मियाँ ने छप्पर फाड़ के दौलत दी। कहो, अब निकाह की ठहरती है? क्यों मुफ्त में जवानी खोती हो?
जोगिन – अब रंग लाई गिलहरी। ‘ओछे के घर तीतर, बाहर रखूँ कि भीतर।’ रुपए क्या मिल गए, अपने आपको भूल गए।
शहसवार सचमुच ओछा था। अब तक तो आप जोगिन की खुशामद करते थे, ढई दिए बैठे थे कि कभी न कभी तो दिल पसीजेगा; मगर अब जमीन पर पाँव ही नहीं रखते। बात-बात पर तिनकते हैं। जोगिन तो दुनिया से मुँह मोड़े बैठी थी, इनके चोंचले क्यों बर्दाश्त करती? शहसवार से नफरत करने लगी।
एक दिन शहसवार हवा के घोड़े पर सवार डींग मारने लगे – इस वक्त हम भी लाख के पेटे में हैं। और लाख रुपए जिसके पास होते हैं, उनको लोग तीन-चार लाख का आदमी आँकते हैं। अब दो घोड़े और लेंगे। मगर हम यह महाजनी कारखाना न रखेंगे कि चारजामा और जीनपोश। बस, अंगरेजी काठी और एक जोड़ी फिटन के लिए। जो देखे, कहे, रईस जाता है। और रईस के क्या दो सींग होते हैं सिर पर? एक कोठी भी बनवाएँगे। कोई ताल्लुकेदार अपना इलाका बेचे, तो खड़े-खड़े खरीद लें।
जोगिन – अच्छा, खाना तो खा लो।
शहसवार – आज खाना क्या पका है?
जोगिन – बेसन की रोटी।
शहसवार – यह तो रईसों का खाना नहीं।
जोगिन – रईस कौन है?
शहसवार – हम-तुम, दोनों। क्या अब भी रईस होने में शक है? हाँ, खूब याद आया, एक हाथी भी खरीदेंगे।
जोगिन – हाँ, बस इसी की कसर थी। दो तीन गधे भी खरीदना।
शहसवार – गधे तो रईसों के यहाँ नहीं देखे।
जोगिन – नई बात सूझी।
शहसवार – हाँ, खूब सूझ़ी।
जोगिन – फिर, यह सब कब खरीदोगे?
शहसवार – जब चाहें! रुपए का तो सारा खेल है। तीस-चालीस हजार रुपए बहुत होते हैं। इनसान गिने, तो बरसों में गिनती खतम हो।
जोगिन – अजी, दो-तीन आदमी तो इतने अर्से में मर जायँ, दस-पाँच की आँखें फूट जायँ।
उस दिन से शहसवार की हालत ही कुछ और हो गई। कभी रोते, कभी बहकी-बहकी बातें करते। आखिर जोगिन ने वहाँ से कहीं भाग जाने का इरादा किया। पड़ोस में एक आदमी रहता था, जो मोम के खिलौने खूब बनाता था। मोम के आदमी ऐसे बनाता कि असल का धोका होता था। उसे बुला कर जोगिन ने उसके कान में कुछ कहा और कारीगर दस दिन की मुहलत ले कर रुखसत हुआ।
नौ दिन तक तो जोगिन ने किसी तरह काटे, दसवें दिन एकाएक शहसवार ने उसे देखा, तो चुपचाप पड़ी है। बुलाया; जवाब नदारत। करीब जा कर देखा तो पछाड़ खा कर गिर पड़े। लगे दीवार से सिर टकराने। जी में आया कि जहर खा लें और इसी के साथ चले चलें। क्या लुत्फ से दिन कटते थे, अब ये रुपए किस काम आवेंगे। जान जाने का रंज नहीं, मगर यह रुपया कहाँ जाएगा? आखिर वसीयत लिखी कि मेरे बाद मेरी सारी जायदाद सिपहआरा को दी जाय। यह वसीयत लिख कर शहसवार ने सिर पीटना शुरू किया। खिलौना बनानेवाला कारीगर उसे समझाने लगा – सब्र कीजिए। हाय, क्या मिजाज था! यह कह कर वह अपने भाई को बुला लाया। दोनों ने लाश को खूब लपेट कर कंधे पर उठाया। मियाँ शहसवार पीछे-पीछे चले।
कारीगर – तुम क्यों आते हो? कब्रिस्तान बहुत दूर है।
शहसवार – कब्र तक तो चलने दो।
कारीगर – क्या गजब करते हो। थानेवालों को खबर हो गई तो मुफ्त में धरे जाओगे।
शहसवार – मिट्टी तो दे दूँ।
कारीगर – बस, अब साथ न आइए।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 61
कैदखाने से छूटने के बाद मियाँ आजाद को रिसाले में एक ओहदा मिल गया। मगर अब मुश्किल यह पड़ी कि आजाद के पास रुपए न थे। दस हजार रुपए के बगैर तैयारी मुश्किल। अजनबी आदमी, पराया मुल्क, इतने रुपयों का इंतजाम करना आसान न था। इस फिक्र में मियाँ आजाद कई दिन तक गोते खाते रहे। आखिर यही सोचा कि यहाँ कोई नौकरी कर लें और रुपए जमा हो जाने के बाद फौज में जायँ। मन मारे बैठे थे कि मीडा आ कर कुर्सी पर बैठ गई। जिस तपाक के साथ आजाद रोज पेश आया करते थे, उसका आज पता न था! चकरा कर बोली – उदास क्यों हो! मैं तो तुम्हें मुबारकबाद देने आई थी। यह उल्टी बात कैसी?
आजाद – कुछ नहीं। उदास तो नहीं हूँ।
मीडा – जरा आईने में सूरत तो देखिए।
आजाद – हाँ मीडा, शायद कुछ उदास हूँ। मैंने तुमसे अपने दिल की कोई बात कभी नहीं छिपाई। मुझे ओहदा तो मिल गया, मगर यहाँ टका पास नहीं। कुछ समझ में नहीं आता क्या करूँ?
मीडा – बस, इसीलिए आप इतने उदास हैं! यह तो कोई बड़ी बात नहीं। तुम इसकी कोई फिक्र न करो।
यह कह कर मीडा चली गई और थोड़ी देर बाद उसके आदमी ने आ कर एक लिफाफा आजाद के हाथ में रख दिय। आजाद ने लिफाफा खोला, तो उछल पड़े। इस्तंबोल-बैंक के नाम बीस हजार का चेक था। आजाद रुपए पा कर खुश तो हुए, मगर यह अफसोस जरूर हुआ कि मीडा ने अपने दिल में न जाने क्या समझा होगा। उसी वक्त बैंक गए, रुपए लिए और सब सामान ठीक करके दूसरे दिन फौज में दाखिल हो गए।
दोपहर के वक्त घड़घड़ाहट की आवाज आई। खोजी ने सुना, तो बोले – यह आवाज कैसी है भई? हम समझ गए। भूचाल आने वाला है। इतने में किसी ने कहा – फौज जा रही है। खोजी कोठे पर चढ़ गए। देखा, फौज सामने आ रही है। यह घड़घड़ाहट तोपखाने की थी। जरा देर में आजाद पर नजर पड़ी। घोड़े की बाग उउठाए, रान जमाए चले जाते थे। खोजी ने पुकारा – मियाँ आजाद! अेर मियाँ, इधर, उधर! वाह, सुनते ही नहीं। फौज में क्या हो गए, मिजाज ही नहीं मिलते। हम भी पलटन में रह चुके हैं, रिसालदार थे, पर यह न था कि किसी की बात न सुनें।
सारे शहर में एक मेला सा लगा हुआ था, कोठे फटे पड़ते थे। औरतें अपने शौहरों को लड़ाई पर जाते देखती थीं और उन पर फूलों की बौछार करती थीं। माँएँ अपने बेटों के लिए खुदा से दुआ कर रही थीं।
फौज तो मैदान को गई और मियाँ खोजी मिस मीडा से मिलने चले। मीडा की एक सहेली का नाम था मिस रोज। मीडा खोजी को देखते ही बोली – लीजिए, मैंने आपकी शादी मिस रोजी से ठीक कर दी। अब कल बरात ले कर आइए।
खोजी – खुदा आपको इस नेकी का बदला दे। मैं तो वजीर-जंग को भी नवेद दूँगा।
मीडा – अजी, सुलतान को भी बुलाइए।
खोजी – तो फिर बंदोबस्त कीजिए। शादी के लिए नाच सबसे ज्यादा जरूरी हैं। अगर तबले पर थाप न पड़ी, महफिल न जमी, तो शादी ही क्या?
मीडा – मगर यहाँ तो आदमी का नाच मना है। कहीं कोई औरत नाचे, तो गजब हो ही जाय।
खोजी – अच्छा, फिर किसी सबील से नाच का नाम तो हो जाय।
मीडा – इसकी तदबीर यों कीजिए कि किसी बंदर नचानेवाले को बुला लीजिए। खर्च भी कम और लुत्फ भी ज्यादा। तीन बंदरवाले काफी होंगे।
खोजी – तीन तो मनहूस हैं। पाँच हो जायँ तो अच्छा!
खैर, दूसरे दिन खोजी बरात सजा कर मीडा के मकान की ओर चले। आगे निशान का खच्चर था, पीछे रीछ और बंदर। दस पाँच लड़के मशालें लिए खोजी के चारों तरफ चले जाते थे; और खोजी टट्टू पर सवार, गेरुए रंग की पोशाक पहने सियाह पगड़ी बाँधे, अकड़े बैठे थे। टट्टू इतना मरियल था कि खोजी बार-बार उछलते थे, एड़-पर-एड़ लगाते थे, मगर वह दो कदम आगे जाता था तो चार कदम पीछे। एकाएक टट्टू बैठ गया। इस पर लड़कों ने उसे डंडे मारना शुरू किया। खोजी बिगड़ कर बोले – ओ मसखरो, तुम सब हँसते क्या हो! जल्द कोई तदबीर बताओ, वर्ना मारे करौलियों के बौला दूँगा।
साईस – हुजूर, मैं इस घोड़े की आदत खूब जानता हूँ। यहि बगैर चाबुक खाए उठने वाला नहीं।
खोजी – तू मसलहत करता है कि किसी तदबीर से टट्टू को मनाता है?
साईस – आप उतर पड़िए।
खोजी – उतर पड़े तो साईस ने टट्टू को मार-मार कर उठाया। खोजी फिर सवार होने चले। एक पैर रकाब पर रख कर दूसरा उठाया ही था कि टट्टू चलने लगा। खोजी अरा-रा करके धम से जमीन पर आ रहे। पगड़ी यह गिरी, करौली वह गिरी। डिबिया एक तरफ, टट्टू एक तरफ। साईस ने कहा – उठिए, उठिए। घोड़े से गिरना शहसवारों ही का काम है। जिसे घोड़ा नसीब नहीं, वह क्या गिरेगा?
खोजी – खैरियत यह हुई कि मैं घोड़े पर न गिरा, वर्ना मेरे बोझ से उसका काम ही तमाम हो जाता।
खोजी ने फिर सिर पर पगड़ी रखी, करौली कमर से लगाई और एक लड़के से पूछा – यहाँ आईना तो कहीं नहीं मिलेगा? फिर से पोशाक सजी है, जरा मुँह तो देख लेते।
लड़का – आईना तो नहीं है, कहिए पानी ले आऊँ। उसी में मुँह देख लीजिए। यह कह कर वह एक हाँड़ी में पानी लाया। खोजी पिनक में तो थे ही, हाँड़ी जो उठाई तो सारा पानी ऊपर आ रहा। बिगड़ कर हाँड़ी पटक दी। फिर आगे बढ़े। मगर दो-चार कदम चल कर याद आया कि मिस रोज का मकान तो मालूम ही नहीं; बरात जायगी कहाँ? बोले – यारो, गजब हो गया! जुलूस रोक लो। कोई मकान जानता है?
साईस – कौन मकान?
खोजी – वही जी जहाँ चलना है।
साईस – मुझे क्या मालूम? जिधर कहिए चलूँ।
खोजी – तुम लोग अजीब घामड़ हो। बरात चली और दुलहिन के घर का पता तक न पूछा।
साईस – नाम तो बताइए? किसी से पूछ लिया जाय।
खोजी – अरे भई, मुझे उनका नाम न लेना चाहिए। अटकल से चलो उसी तरफ।
साईस – अरे, कुछ नाम तो बताइए।
खोजी – कोहकाफ की परी कह दो। पूरा नाम हम न लेंगे।
एक तरफ कई आदमी बैठे हुए थे। साईस ने पूछा – यहाँ कोई परी रहती है?
एक आदमी ने कहा – मुझे और तो नहीं मालूम, मगर शहर-बाहर पूरब की तरफ जो एक तालाब है, वहाँ पार साल जो एक फकीर टिके थे, उनके पास एक परी थी।
खोजी – लो, चल न गया पता! उसी तालाब की तरफ चले चलो।
अब सुनिए। उस तालाब पर एक रईस की कोठी थी। उसकी बीवी मर गई थी। घर में मातम हो रहा था। दरवाजे पर जो यह शोर-गुल मचा, तो उसने अपने नौकरों से पूछा – यह कैसा गुल है? बाहर निकल कर खूब पीटो बदमाशों को! दो-तीन आदमी डंडे ले-ले कर फाटक से निकले।
खोजी – वाह रे आप के यहाँ का इंतजाम! कब से बरात खड़ी, और दरवाजे पर रोशनी तक नदारद!
एक आदमी – तू कौन है बे? क्या रात को बंदर नचाने आया है?
खोजी – जबान सँभाल। जा कर अपने मालिक से कह, बरात आ गई है।
आदमियों ने बरात को पीटना शुरू किया। खोजी पर एक चपत पड़ी, तो पगड़ी गिर पड़ी। दूसरे ने टट्टू पर डंडे जमाए।
खोजी – भई, ऐसी दिल्लगी न करो। कुछ कंबख्ती तो नहीं आई तुम सबकी?
बंदर वालों पर जब मार पड़ी तो वे सब भागे। लड़के भी चिराग फेंक फाँक कर भागे। टट्टू ने भी एक तरफ की राह ली। बेचारे खोजी अकेले पिट-पिटा कर होटल की तरफ चले।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 62
जोगिन शहसवार से जान बचा कर भागी, तो रास्ते में एक वकील साहब मिले। उसे अकेले देखा, तो छेड़ने की सूझी। बोले – हुजूर को आदाब। आप इस अँधेरी रात में अकेले कहाँ जाती हैं?
जोगिन – हमें न छे़ड़िए।
वकील – शाहजादी हो? नवाबजादी हो? आखिर हो कौन?
जोगिन – गरीबजादी हूँ।
वकील – लेकिन आवारा।
जोगिन – जैसा आप समझिए।
वकील – मुझे डर लगता है कि तुम्हें अकेला पा कर कोई दिक न करे। मेरा मकान करीब है, वहीं चल कर आराम से रहो।
जोगिन – मुझे आपके साथ जाने में कोई उज्र नहीं; मगर शर्त यही है कि मेरी इज्जत के खिलाफ कोई बात न हो।
वकील – यह आप क्या फर्माती हैं? मैं शरीफ आदमी हूँ।
वकील साहब देखने में तो शरीफ मालूम होते थे, मगर दिल के बड़े खोटे थे। जोगिन ने समझा कि इस वक्त और कहीं जाना तो मुनासिब नहीं। रात को यहीं रह जाऊँ, तो क्या हरज? वकील साहब के घर गई तो देखा, एक कमरे में टाट पर दरी बिछी है, और एक टूटी मेज पर कलम-दावात रखी है। समझ गई, यह कोई टुटपुँजिए वकील है।
रात ज्यादा आ गई थी। जब जोगिन सोई, तो वकील साहब ने अपने नौकर सलारबख्श को यों पट्टी पढ़ाई – तुम सुबह इनसे कहना कि वकील साहब बहुत बड़े रईस हैं। इनके बाप चकलेदार थे। इनके यहाँ दो बग्घियाँ हैं और आदमियों की तनख्वाह महीने में तीन सौ रुपए देते हैं।
सलारबख्श – भला वह यह न कहेंगी कि रईस हैं, तो फटेहालों क्यों रहते हैं? एक तो खटिया आपके पास, और उस पर ये बातें कि हम ऐसे और हम वैसे। हाँ, मैं इतना कह दूँगा कि हमारे हुजूर दिल के बड़े वह हैं।
वकील – वह के क्या माने?
सलाबख्श – अजी, चालाक हैं।
वकील – आज खाना दिल लगा कर पकाना।
सलारबख्श – तो किसी बावरची को बुला लीजिए न! दो रुपए खरचिए, तो अच्छे से अच्छे खाने पकवा दूँ। और इनके लिए कोई मामा रखिए। बे इसके बात न बनेगी। हाँ, चाहे मार डालिए, हमें, हम झूठ न बोलेंगे कभी।
वकील – देखो, सब फिक्र हो जायगी।
सलारबख्श – फिक्र क्या खाक होगी? मुकदमेवाले तो आते ही नहीं।
वकील – अजी, एक मुकदमे में उम्र भर की कसर निकल जायगी।
सलारबख्श – तो क्या मिलेगा एक मुकदमे में!
वकील – अजी, मिलने की न कहो! मिलें, तो दो लाख मिल जायँ।
सलारबख्श – ऐं, इतना झूठ! मियाँ, मैं नौकरी नहीं करने का। देखिए, छत न गिर पड़े कहीं! लोग कहते हैं, काल पड़ता है, हैजा आता है, मेंह नहीं बरसता। बरसे क्या खाक, इस झूठ को तो देखिए, कुछ ठिकाना है, दो लाख एक मुकदमे में आप पाएँगे! कभी बाबा राज ने भी दो लाख की सूरत देखी थी? हमने तो आपके बाबा को भी जूतियाँ चटकाते ही देखा। वह तो कहिए, फकीर की दुआ से रोटियाँ चली जाती हैं। यही गनीमत समझो?
वकील – तुम बड़े गुस्ताख हो!
सलारबख्श – में तो खरी-खरी कहता हूँ।
वकील – खैर, कल एक काम तो करना! जरा दो-एक आदमियों को लगा लाना।
सलारबख्श – क्या करना?
वकील – दो आदमियों को मुवक्किल बना कर ले आना, जिसमें यह समझें कि इनके पास मुकदमे बहुत आते हैं। हम तो रंग जमाते हैं न अपना। यह बात! समझे!
सलारबख्श – अगर दो-एक को फाँस-फूँस कर लाए भी, तो फायदा क्या? टका तो वसूल न होगा।
वकील – वह समझेंगी तो कि यह बहुत बड़े वकील हैं।
सलारबख्श – अच्छा, इस वक्त तो सोइए। सुबह देखी जायगी।
दोनों आदमी सोए। सबसे पहले जोगिन की आँख खुली। सलारबख्श से बोली – क्यों जी, इनका नाम क्या है?
सलारबख्श – इनका नाम है हींगन।
जोगिन – क्या? हींगन? तब तो शरीफ जरूर होंगे। और इनके बाप का नाम क्या है? बैंगन!
सलारबख्श – बाप का नाम मदारी।
जोगिन – वाह, बस, मालूम हो गया। और पेशा क्या है?
सलारबख्श – दलाली करते हैं।
जोगिन – ऐं, यह दलाल हैं?
सलारबख्श – जी, और क्या! बाप-दादे के वक्त से दलाली होती आती है।
वकील साहब लेटे-लेटे सुन रहे थे और दिल ही दिल में सलारबख्श को गालियाँ दे रहे थे कि पाजी ने जमा-जमाया रंग फीका कर दिया। इनते में बारह की तोप दगी और वकील साहब उठ बैठे।
वकील – पानी लाओ। आज वह दूसरा खिदमतगार कहाँ है?
सलारबख्श – हुजूर, चिट्ठी ले गया है।
वकील – और मामा नहीं आई?
सलारबख्श – रात उसके लड़का हुआ है।
वकील – और कालेखाँ कहाँ मर गया आज!
सलारबख्श – लालखाँ के पास गया है हुजूर!
वकील – और हमार मुहर्रिर?
सलारबख्श – उन्हें नवाब साहब ने बुलवा भेजा है।
वकील – सब मुवक्किल कहाँ हैं?
सलारबख्श – हुजूर सब वापस चले गए।
वकील – कुछ परवा नहीं। हमको मुकदमों की क्या परवा!
सलारबख्श – हुजूर के घर की रियासत क्या कम है!
वकील – (जोगिन से) आज तो आप खूब सोईं।
जोगिन – मारे सर्दी के रात भर काँपती रही। कसम ले लो, जो आँख भी झपकी हो। यह तो बताइए, आपका नाम क्या है!
वकील – हमारा नाम मौलवी मिर्जा मुहम्मद सादिकअली बेग, वकील अदालत।
जोगिन – ‘घर की पुटकी बासी साग।’
वकील – ऐ, और सुनिए।
जोगिन – तुम्हारा नाम हींगन है? और बैंगन के लड़के हो? दलाली करते हो?
वकील – हींगन किस पाजी का नाम है?
सलारबख्श – इनसे किसी ने हींगन कह दिया होगा।
वकील – तेरे सिवा और कौन कहने बैठा होगा?
सलारबख्श – तो क्या मैं ही अकेला आपका नौकर हूँ कुछ? पंद्रह-बीस आदमी हैं। किसी ने कह दिया होगा! इसको हम क्या करें ले भला?
वकील – ऊपर से हँसता है बेगैरत! (जोगिन से) हमसे एक फकीर ने कहा है कि तुम जल्द बादशाह होने वाले हो।
जोगिन – हाँ, फिर उल्लू तुम्हारे सिर पर बैठा ही चाहता है। दो ही तरह से गरीब आदमी बादशाह हो सकता है – या तो टाँग टूट जाय, या उल्लू सिर पर बैठे। अच्छा, आपकी आमदनी क्या होगी?
वकील – यह न पूछो। कुछ रुपया गाँव से आता है, कुछ वसीका है, कुछ वकालत से पैदा करते हैं।
जोगिन – और सवारी क्या है आपके पास?
वकील – आजकल तो बस, एक पालकी है और दो घोड़े।
जोगिन – बँधते कहाँ हैं?
सलारबख्श – इधर एक अस्तबल है, और उसके पास ही फीलखाना।
जोगिन – ऐं, क्या आपके पास हाथी भी है?
वकील – नहीं जी कहने दो इसे। यह यों ही कहा करता है।
जोगिन – अच्छा, वकालत में क्या मिलता होगा?
वकील – अब तो आजकल मुकदमें ही कम हैं।
जोगिन – तो भी भला?
सलारबख्श – इसकी न पूछिए, किसी महीने में दो-चार हाथी आ गए, किसी महीने दस-पाँच ऊँट मिल गए।
वकील – तू उठ जा यहाँ से। हजार बार कह दिया कि मसखरेपन से हमको नफरत है; मगर मानता ही नहीं शैतान! तुझसे कुछ कहा था हमने!
सलारबख्श – हाँ, हाँ, याद आ गया। लीजिए अभी जाता हूँ।
वकील साहब सलारबख्श के साथ बरामदे में आए कि कुछ और समझा दें, तो सलारबख्श ने कहा – अभी सबों को फाँसे लाता हूँ। आप इतमिनान से बैठें। मगर यह भी बैठी रहें, जिसमें लोग समझें कि वकील की बड़ी आमदनी है। मैं कह दूँगा कि गाना सुनने के लिए नौकर रखा है। सौ रुपए महीना देते हैं।
वकील – सौ नहीं दो सौ कहना!
सलारबख्श – वही बात कहिएगा, जो बेतुकी हो। भला किसी को भी दुनिया में यकीन आवेगा कि यह वकील दो सौ रुपए खर्च कर सकता है?
वकील – क्यों,क्यों?
सलारबख्श – अब आप तो हिंदी की चिंदी निकालते हैं। धेले-धेले पर तो आप मुकदमे लेते हैं; दो सौ की रकम भला आप क्या खर्च करेंगे?
वकील – अच्छा, बक न बहुत। जा, फाँस ला दो-चार को।
सलारबख्श बाहर जा कर दो-चार अड़ोसियों-पड़ोसियों को सिखा पढ़ा कर मूँछों पर ताव देते हुए आया और हुक्का भर का जोगिन के सामने पेश किया!
जोगिन – क्या कक्कड़वाले की दुकान से लाए हो? हटा ले जाओ इसे! तुम्हें मदरिया भी नहीं जुरता?
वकील – अरे, तू यह हुक्का कहाँ से उठा लाया? वह हुक्का कहाँ है, जो नसीरुद्दीन हैदर के पीने का था? वह गंगा-जमनी गुड़गुड़ी कहाँ है, जो हमारे साले ने भेजी थी।
सलारबख्श – वह हुजूर के बहनोई ले गए।
वकील – तो आखिर, पेचवान और चाँदी का हुक्का क्यों नहीं निकालते? यह भदेसल हुक्का उठा लाए वहाँ से।
सलारबख्श – खुदावंद, वह बस तो बंद हैं।
जोगिन – आखिर यह सब समान बंद कहाँ है? जरी सा तो मकान आपका, मुर्गी के टापे के बरब्बर। वह किन कोठों में बंद है सबका सब?
इतने में एक मुकदमेवाला आया। एक हाथ में झाड़ू, दूसरे में पंजा। आते ही झाड़ू कोने में खड़ी कर दी और पंजा टेक कर बैठ गया। वकील साहब सिर से पैर तक फुँक गए। पूछा – तुम कौन? उसने कहा – हम भंगी हैं साहब! जोगिन मुसकिराई। वकील ने सलारबख्श की तरफ देखा। सलारबख्श सिर खुजलाने लगा।
वकील – क्या चाहता है?
भंगी – हुजूर, मेरी टट्टी का एक बाँस कोई निकाल ले गया। हुजूर को वकील करने आया हूँ। गुलाम हूँ खुदावंद।
वकील – कोई है, निकाल दो इस पाजी को।
सलारबख्श – खुदावंद, अमीरों का मुकदमा तो आप लें, और गरीबों का कौन ले? वकील तो दर्जी की सुई है, कभी रेशम में, कभी लट्ठे में!
वकील – गरीबों का मुकदमा गरीब वकील ले।
सलारबख्श – अब तो हुजूर, इसकी फरियाद सुन ही लें। अच्छा मेहतर, बताओ क्या दोगे?
मेहतर – हमारे पास तो दो मट्टू-साही हैं।
वकील – (झल्ला कर) निकालो, निकालो इस कंबख्त को!
वकील साहब ने गुस्से में मेहतर की झाड़ू उठा ली और उस पर खूब हाथ साफ किया। वह झाड़ू-पंजा छोड़ कर भागा।
जोगिन – अच्छा, आप अब अलग ही रहिएगा। जा कर गुस्ल कीजिए।
वकील – आज तो बड़ी सर्दी है।
जोगिन – अल्लाह जानता है, गुस्ल करो, नहीं तो छुएँगे नहीं।
सलारबख्श – हाँ, सच तो कहती हैं।
वकील – तू चुप रह।
जोगिन ने सलारबख्श को हुक्म दिया कि तुम पानी भरो। सलारबख्श पानी भर लाए। वकील साहब ने रोते-रोते कपड़े उतारे, लुँगी बाँधी और बैठे। जैसे बदन पर पानी पड़ा, आप गुल मचा कर भागे। सलारबख्श चमड़े का डोल लिए हुए पीछे दौड़ा। फिर पानी पड़ा, फिर रोए। जोगिन मारे हँसी के लोट-लोट गई। बारे किसी तरह आपका गुस्ल पूरा हुआ। थर-थर काँप रहे थे। मुँह से बात न निकलती थी। उस पर सलारबख्श ने पंखा झलना शुरू किया, तब तो और भी झल्लाए और कस कर उसे दो-तीन लातें लगाईं। सलारू भाग खड़े हुए।
जोगिन – अब यह दरी तो उठवाओ।
वकील – क्यों, दरी ने क्या कसूर किया?
सलारबख्श – हुजूर, भंगी तो इसी पर बैठा था।
वकील – अरे, तू फिर बोला! कसम खुदा की, मारते-मारते उधेड़ कर रख दूँगा।
जोगिन – सलारबख्श, वह चाँदनी उठा ले जाओ।
दरी उठी, तो कलई खुल गई। नीचे एक फटा-पुराना टाट पड़ा थ, बाबा आदम के वक्त का। वकील कट गए। जोगिन ने कहा – ले, अब इस पर कोई फर्श बिछवाओ।
वकील – वह बड़ी दरी लाओ, जो छकड़े पर लद कर आई थी।
सलारबख्श – वह! उसको तो एक लौंडा चुरा ले गया।
जोगिन – खुदा की पनाह, छकड़े पर लद कर तो मुई दरी आई, और जरा सा लौंडा चुरा ले गया!
वकील- अच्छा, वह न सही, जाओ, और जो कुछ मिले उठा लाओ।
यह कह कर वकील साहब तो बरामदे में चले गए और सलारबख्श जा कर अपना कंबल और एक दस्तख्वान उठा लाया। वकील कमरे में आए, तो देखा कि दस्तरख्वान बिछा हुआ है और जोगिन खिलखिला कर हँस रही है। सलारबख्श एक कोठरी में छिप रहा था। वकील ने झल्ला कर डंडा निकाला और कोठरी में घुस कर उसे दो-तीन डंडे लगाए। फिर डाँट कर कहा – आखिर जो तू मेरा नमक खाता है, तो मेरा रंग क्यों फीका करता है? मैं एक कहूँ तो दो कहा कर। खैरख्वाही के माने यह हैं। सिखला दिया, समझा दिया; मगर तू हिंदी की चिंदी निकालता है।
सलारबख्श – अच्छा, हुजूर जैसा कहते हैं, वही करूँगा। और भी जो कुछ समझाना हो, समझा दीजिए। फिर मैं नहीं जानता।
वकील – अच्छा, हम जाते हैं, तू आ कर कहना कि कसूर माफ कीजिए। और रोना खूब।
वकील साहब यह हिदायत करके चले गए और जोगिन से बातें करने लगे। इतने में सलारबख्श रोता हुआ आया। जोगिन धक से रह गई। सलारू थोड़ी देर तक खूब रोए, फिर वकील के कदमों पर गिर कर कहा – हुजूर, मेरा कसूर माफ करें।
वकील – अबे, तो कोई इस तरह रोता है?
जोगिन – मैं तो समझी कि आपके अजीजों में से कोई चल बसा।
इतने में वकील साहब के नाम एक खत आया। जोगिन ने पूछा – किसका खत है?
वकील – साहब के पास से आया है।
जोगिन – कौन साहब? कोई अंगरेज हैं?
वकील – हाँ, जिले के हाकिम हैं। हमसे याराना है।
सलारबख्श – आपसे न! और उनसे भी तो याराना है, जिन्होंने जुर्माना ठोंक दिया था?
वकील – साहब ने हमें बुलाया है।
जोगिन – तो शायद आज तुम्हारी दावत वहीं है? तभी आज खाना-वाना नहीं पक रहा है। दोपहर होने को आई, और अभी तक चूल्हा नहीं जला।
वकील – अरे सलारू, खाना क्यों नहीं पकाता?
सलारबख्श – बाजार बंद है।
जोगिन – आग लगे तेरे मसखरेपन को! यहाँ आँतें कूँ-काँ कर रही हैं, और तुझे दिल्लगी सूझती है!
वकील ने बाहर जा कर सलारू से कहा – बनिये से आटा क्यों नहीं लाता?
सलारबख्श – हुजूर, कोई दे भी! कोई दस बरस से तो हिसाब नहीं हुआ। बाजार में निकलता हूँ, तो चारों तरफ से तकाजे होने लगते हैं।
वकील – अबे, इस वक्त तो किसी बहाने से माँग ला। आखिर कभी-न-कभी मुकदमे आवेंगे ही। हमेशा यों ही सन्नाटा थोड़े ही रहेगा?
खैर, सलारबख्श ने खाना पकाया, और कोई चार बजे आठ मोटी-मोटी रोटियाँ, एक प्याली में माश की दाल और दूसरे में आध पाव गोश्त रख कर लाया!
वकील – अबे, आज पुलाव नहीं पका?
सलारबख्श – हुजूर, बिल्ली खा गई।
वकील – और गोश्त भी एक ही तरह का पकाया?
सलारबख्श – हुजूर मैं पानी भरने चला गया, तो कुत्ता चख गया।
जोगिन – यहाँ की बिल्ली और कुत्ते बड़े लागू हैं।
सलारबख्श – कुछ न पूछिए।
इतने में किसी ने दरवाजे पर हाथ मारा।
सलारबख्श – कौन साहब हैं?
वकील – देखो, मामू साहब न हों। कह देना, घर में नहीं हैं।
सलारबख्श – हुजूर, वह है मम्मन तेली।
वकील – कह दो, हम तेल-वेल न लेंगे। रात को हमारे यहाँ मोमबत्तियाँ जलती हैं, और खाने में तेल आता नहीं। फिर तेली का यहाँ क्या काम?
सलारबख्श – मुकदमा लाया है हुजूर!
तेली मैले-कुचैले कपड़े पहने हाथ में कुप्पी लिए आ कर बैठ गया।
वकील – क्या माँगता है?
तेली – एक आदमी ने हम पर नालिश कर दी है हुजूर! अब आप ही बचावें तो बच सकता हूँ।
वकील – मेहनताना क्या दोगे?
सलारबख्श – हाय,हाय, पहले इसकी फरियाद तो सुनो कि वह कहता क्या है! बस, मुर्दा दोजख में जाय चाहे बिहिश्त में, आपको अपने हलवे-माँडे से काम। बताओ भई, क्या दोगे?
तेली – एक पली तेल।
वकील – निकाल दो इसे, निकाल दो!
तेली – अच्छा साहब, तीन पली ले लोक।
सलारबख्श – अच्छा, आधी कुप्पी तेल दे दो। बस, इतना कहना मानो।
वकील – हैं-हैं, क्यों शरह बिगाड़ते हो? तुम जाओ जी!
सलारबख्श – पहले देखिए तो! राजी भी होता है?
तेली आधी कुप्पी तेल देने पर राजी न हुआ और चला गया? थोड़ी देर के बाद सलारबख्श ने दबी जबान कहा – हुजूर शाम को क्या पकेगा?
वकील – अबे, शाम तो हो गई। अब क्या पकेगा?
सलारबख्श – खुदावंद, इस तरह तो मैं टें हो जाऊँगा। आप न खायँ, हमारे वास्ते तो बतला दीजिए।
वकील – अपने वास्ते छिछड़े ले आ जा कर।
सलारबख्श – (आहिस्ता से) वे भी बचने जो पावें आपसे।
जोगिन को हँसी आ गई। वकील ने कहा – मेरी बात पर हँसती होगी? मैं ऐसी ही कहता हूँ। इस पर जोगिन को और भी हँसी आई।
वकील – अल्लाह री शोखी –
खूब रू जितने हैं दिल लेती है सबकी शोखी;
है मगर आपकी शोखी तो गजब की शोखी!
रात को जोगिन ने अपने पास से पैसे दे कर बाजार से खाना मँगवाया, और खा कर सोई। सुबह को वकील साहब की नींद खुली, तो देखा, जोगिन का कहीं पता नहीं। घर भर में छान मारा। हाथ-पाँव फूल गए। बोले – सलारू गजब हो गया! हमारी किस्मत फूट गई।
सलारबख्श – फूट गई खुदावंद, आपकी किस्मत फूट गई।
वकील – फिर अब?
सलारबख्श – क्या अर्ज करूँ हुजूर!
वकील – घर भर में तो देख चुके न तुम?
सलारबख्श – हाँ और तो सब देख चुका, अब एक परनाला बाकी है, वहाँ आप झाँक लें।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 63
जमाना भी गिरगिट की तरह रंग बदलता है। वही अलारक्खी जो इधर-उधर ठोकरें खाती-फिरती थी, जो जोगिन बनी हुई एक गाँव में पड़ी थी, आज सुरैया बेगम बनी हुई सरकस के तमाशे में बड़े ठाट से बैठी हुई है। यह सब रुपए का खेल है।
सुरैया बेगम – क्यों महरी, रोशनी काहे की है? न लैंप, न झाड़, न कँवल और सारा खेमा जगमगा रहा है।
महरी – हुजूर, अक्ल काम नहीं करती, जादू का खेल है। बस, दो अंगारे जला दिए और दुनिया भर जगमगाने लगी।
सुरैया बेगम – दारोगा कहाँ हैं? किसी से पूछें तो कि रोशनी काहे की है?
महरी – हुजूर, वह तो चल गए।
सुरैया बेगम – क्या बाजा है, वाह-वाह!
महरी – हुजूर, गोरे बजा रहे हैं।
सुरैया बेगम – जरा घोड़ों को तो देखो, एक से एक बढ़-चढ़ कर हैं। घोड़े क्या, देव हैं। कितना चौड़ा माथा है और जरा सी थुँथनी! कितनी थोड़ी सी जमीन में चक्कर देते हैं! वल्लाह, अक्ल दंग है!
महरी – बेगम साहब, कमाल है।
सुरैया बेगम – इन मेमों का जिगर तो देखो, अच्छे-अच्छे शहसवारों को मात करती हैं।
महरी – सच है हुजूर, यह सब जादू के खेल हैं।
सुरैया बेगम – मगर जादूगर भी पक्के हैं।
महरी – ऐसे जादूगरों से खुदा समझे।
इस पर एक औरत जो तमाशा देखने आई थी, चिढ़ कर बोली – ऐ वाह, यह बेचारे तो हम सबका दिल खुश करें, और आप कोसें! आखिर उनका कुसूर क्या है; यही न कि तमाशा दिखाते हैं?
महरी – यह तमाशे वाले तुम्हारे कौन हैं?
औरत – तुम्हारे कोई होंगे।
महरी – फिर तुम चिटकीं तो क्यों चिटकीं?
औरत – बहन, किसी को पीठ-पीछे बुरा न कहना चाहिए।
महरी – ऐ, तो तुम बीच में बोलने वाली कौन हो?
औरत – तुम सब तो जैसे लड़ने आई हो। बात की, और मुँह नोच लिया।
सुरैया बेगम के साथ महरी के सिवा और भी कई लौंडियाँ थी, उनमें एक का नाम अब्बासी था। वह निहायत हसीना और बला की शोख थी। उन सबों ने मिल कर इस औरत को बनाना शुरू किया –
महरी – गाँव की मालूम होती हैं!
अब्बासी – गँवारिन तो हैं ही, यह भी कहीं छिपा रहता है?
सुरैया बेगम – अच्छा, अब बस, अपनी जबान बंद करो। इतनी मेमें बैठी हैं, किसी की जबान तक न हिली। और हम आपस में कटी मरती हैं।
इतने में सामने एक जीबरा लाया गया। सुरैया बेगम ने कहा – यह कौन जानवर है? किसी मुल्क का गधा तो नहीं है? चूँ तक नहीं करता। कान दबा दौड़ा जाता है।
अब्बासी – हुजूर, बिलकुल बस में कर लिया।
महरी – इन फिरंगियों की जो बात है, अनोखी, जरा इस मेम को तो देखिए, अच्छे-अच्छे शहसवारों के कान काटे।
सवार लेडी ने घोड़े पर ऐसे-ऐसे करतब दिखाए कि चारों तरफ तालियाँ पड़ने लगीं। सुरैया बेगम ने भी खूब तालियाँ बजाई। जनाने दरजे के पास ही दूसरे दरजे में कुछ और लोग बैठे थे। बेगम साहब को तालियाँ बजाते सुना तो एक रँगीले शेख जी बोले-
कोई माशूक है इस परदए जंगारी में।
मिरजा साहब – रंगों में शोखी कूट-कूट कर भरी है।
पंडित जी – शौकीन मालूम होती हैं।
शेख जी – वल्लाह, अब तमाशा देखने को जी नहीं चाहता।
मिरजा साहब – एक सूरत नजर आई।
पंडित जी – तुम बड़े खुशनसीब हो।
ये लोग तो यो चहक रहे थे। इधर सरकस में एक बड़ा कठघरा लाया गया, जिसमें तीन शेर बंद थे। शेरों के आते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया। अब्बासी बोली – देखिए हुजूर, वह शेर जो बीच वाले कठघरों में बंद है, वही सबसे बड़ा है।
महरी – और गुस्सेवर भी सबसे ज्यादा। मालूम होता है कि आदमी का सिर निगल जाएगा।
सुरैया बेगम – कहीं कठघरा तोड़ कर निकल भागें तो सबको खा जायँ।
महरी – नहीं हुजूर, सधे हुए हैं। देखिए, वह आदमी एक शेर का कान पकड़ कर किस तौर पर उसे उठाता-बैठाता है। देखिए-देखिए हजूर, उस आदमी ने एक शेर को लिटा दिया और किस तरह पाँव से उसे रौंद रहा है।
अब्बासी – शेर क्या है, बिलकुल बिल्ली है। देखिए, अब शेर से उस आदमी की कुश्ती हो रही है। कभी शेर आदमी को पछाड़ता है, कभी आदमी शेर के सीने पर सवार होता है।
यह तमाशा कोई आध घंटे तक होता रहा। इसके बाद बीच में एक बड़ी मेज बिछाई गई और उस पर बड़े-बड़े गोश्त के टुकड़े रखे गए। एक आदमी ने सींख पर एक टुकड़ें में छेद दिया और गोश्त को कठघरे में डाला। गोश्त का पहुँचना था कि शेर उसके ऊपर ऐसा लपका जैसे किसी जिंदा जानवर पर शिकार करने के लिए लपकता है। गोश्त को मुँह में दबा कर बार-बार डकारता था और जमीन पर पटक देता था। जब डकारता, मकान गूँज जाता और सुनने वालों के रोंगटे खड़े हो जाते। बेगम ने घबरा कर कहा – मालूम होता है, शेर कठघरे से निकल भागा है। कहाँ हैं दारोगा जी, जरा उनको बुलाना तो!
बेगम साहब तो यहाँ मारे डर के चीख रही थीं और उनसे थोड़ी ही दूर पर वकील साहब और मियाँ सलारबख्श में तकरार हो रही थी –
वकील – रुक क्यों गया बे? बाहर क्यों नहीं चलता?
सलारबख्श – तो आप ही आगे बढ़ जाइए न!
वकील – तो अकेले हम कैसे जा सकते हैं?
सलारबख्श – यह क्यों? क्या भेड़िया खा जायगा? या पीठ पर लाद कर उठा ले जायगा, ऐसे दुबले पतले भी तो आप नहीं हैं। बैठिए तो काँख दें।
वकील – बगैर नौकर के जाना हमारी शान के खिलाफ हे।
सलारबख्श – तो आपका नौकर कौन है? हम तो इस वक्त मालिक मालूम होते हैं?
वकील – अच्छा, बाहर निकल कर इसका जवाब दूँगा; देख तो सही!
सलारबख्श – अजी, जाओ भी; जब यहाँ ही जवाब न दिया तो बाहर क्या बनाओगे? अब चुपके ही रहिए। नाहक-बिन-नाहक को बात बढ़ेगी।
वकील – बस, हम इन्हीं बातों से तो खुश होते हैं।
सलारबख्श – खुदा सलामत रखे हुजूर को। आपकी बदौलत हम भी दो गाल हँस-बोल लेते हैं।
वकील – यार, किसी तरह इस सुरैया बेगम का पता तो लगाओ कि यह कौन है। शिब्बोजान तो चकमा देकर चली गईं; शायद यही निकाह पर राजी हो जायँ!
सलारबख्श – जरूर! और खूबसूरत भी आप ऐसे ही हैं।
सुरैया बेगम चुपके-चुपके ये बातें सुनती और दिल ही दिल में हँसती जाती थी। इतने में एक खूबसूरत जवान नजर पड़ा। हाथ-पाँव साँचे के ढले हुए, मसें भीगती हुई, मियाँ आजाद से सूरत बिलकुल मिलती थी। सुरेया बेगम की आँखों में आँसू भर आए। अब्बासी से कहा – जरी, दारोगा साहब को बुलाओ। अब्बासी ने बाहर आ कर देखा तो दारोगा साहब हुक्का पी रहे हैं। कहा – चलिए, नादिरी हुक्म है कि अभी-अभी बुला लाओ।
दारोगा – अच्छा-अच्छा। चलते हैं। ऐसी भी क्या जल्दी है! जरा हुक्का तो पी लेने दो।
अब्बासी – अच्छा, न चलिए, फिर हमको उलाहना न दीजिएगा। हम जताए जाते हैं।
दारोगा – (हुक्का पटक कर) चलो साहब, चलो। अच्छी नौकरी है, दिन-रात गुलामी करो तब भी चैन नहीं। यह महीना खत्म हो ले तो हम अपने घर की राह लें।
दारोगा साहब जब सुरैया बेगम के पास पहुँचे तो उन्होंने आहिस्ता से कहा – वह जो कुर्सी पर एक जवान काले कपड़े पहन कर बैठा हुआ है, उसका नाम जा कर दर्याफ्त करो। मगर आदमियत से पूछना।
दारोगा – या खुदा, हुजूर बड़ी कड़ी नौकरी बोलीं। गुलाम को ये सब बातें याद क्यों कर रहेगी। जैसा हुक्म हो।
अब्बासी – ऐ, तो बातें कौन ऐसी लंबी-चौड़ी हैं जो याद न रहेंगी?
दारोगा – अरे भाई, हममें-तुममें फर्क भी तो है! तुम अभी सत्रह-अठारह वर्ष की हो और यहाँ बिलकुल सफेद हो गए हैं। खैर, हुजूर, जाता हूँ।
दारोगा साहब ने जवान के पास जा कर पूछा तो मालूम हुआ कि उनका नाम मियाँ आजाद है। बेगम साहब ने आजाद का नाम सुना तो मारे खुशी के आँखों में आँसू भर गए। दारोगा को हुक्म दिया, जा कर पूछ आओ, अलारक्खी को भी आप जानते हैं? आज नमक का हक अदा करो। किसी तरकीब से इनको मकान तक लाओ।
दारोगा साहब समझ गए कि इस जवान पर बीबी का दिल आ गया। अब खुदा ही खैर करे। अगर अलारक्खी का जिक्र छेड़ा और ये बिगड़ गए तो बड़ी किरकिरी होगी। और अगर न जाऊँ तो तह निकाल बाहर करेंगी। चले, पर हर कदम पर सोचते जाते थे कि न जाने क्या आफत आए। जा कर जवान के पास एक कुर्सी पर बैठ गए और बोले – एक अर्ज है हुजूर, मगर शर्त यह है कि आप खफा न हों। सवाल के जवाब में सिर्फ ‘हाँ’ या ‘नहीं’ कह दें।
जवान – बहुत खूब! ‘हाँ’ कहूँगा या ‘नहीं’।
दारोगा – हुजूर का गुलाम हूँ।
जवान – अजी, आप इतना इसरार क्यों करते हैं, आपको जो कुछ कहना हो कहिए। मैं बुरा न मानूँगा।
दारोगा एक बेगम साहब पूछती हें कि हुजूर अलारक्खी के नाम से वाकिफ हैं?
जवान – बस, इतनी ही बात! अलारक्खी को मैं खूब जानता हूँ। मगर यह किसने पूछा है?
दारोगा – कल सुबह को आप जहाँ कहें, वहाँ आ जाऊँ। सब बातें तय हो जायँगी।
जवान – हजरत, कल तक की खबर न लीजिए, वरना आज रात को मुझे नींद न आएगी।
दारोगा ने जा कर बेगम साहब से कहा – हुजूर वह तो इसी वक्त आने को कहते हैं। क्या कह दूँ! बेगम बोलीं – कह दो, जरूर साथ चलें।
उसी जगह एक नवाब अपने मुसाहबों के साथ बैठे तमाशा देख रहे थे नवाब ने फरमाया – क्यों मियाँ नत्थू, यह क्या बात निकाली है कि जिस जानवर को देखो, बस में आ गया। अक्ल काम नहीं करती।
नत्थू – खुदावंद, बस बात सारी यह है कि ये लोग अक्ल के पुतले हैं। दुनिया के परदे पर कोई ऐसी चीज नहीं जिसका इल्म इनके यहाँ न हो। चिड़िया का इल्म इनके यहाँ, हल चलाने का इल्म इनके यहाँ, गाने-बजाने का इल्म इनके यहाँ। कल जो बारहदरी की तरफ से हो कर गुजरा तो देखा, बहुत से आदमी जमा हैं। इतने में अंगरेजी बाजा बजने लगा तो हुजूर, जो गोरे बाजा बजाते थे, उनके सामने एक एक किताब खुली हुई थी। मगर बस, धोंतू, धोंतू,! इसके सिवा कोई बोल ही सुनने में नहीं आया।
मिरजा – हुजूर के सवाल का जवाब तो दो! हुजूर पूछते हैं कि जानवरों को बस में क्योंकर लाए!
नत्थू – कहा न कि इनके यहाँ हर बात का इल्म है। इल्म के जोर से देखा होगा कि कौन जानवर किस पर आशिक है। बस, वही चीज मुहैया कर ली।
नवाब – तसल्ली नहीं हुई। कोई खास वजह जरूर है।
नत्थू – हुजूर, हिंदोस्तान का नट भी वह काम करता है जो किसी और से न हो सके। बाँस गाड़ दिया, ऊपर चढ़ गया और अँगूठे के जोर से खड़ा हो गया।
मिरजा – हुजूर गुलाम ने पता लगा लिया जो कभी झूठ निकले तो नाक कटा डालूँ। बस, हम समझ गए। हुजूर आज तक कोई बड़े से बड़ा पहलवान भी शेर से नहीं लड़ सका मगर इस जवान की हिम्मत को देखिए कि अकेला तीन-तीन शेरों से लड़ता रहा। यह आदमी का काम नहीं है, और अगर है तो कोई आदमी कर दिखाए! हुजूर के सिर की कसम, यह जादू का खेल है। वल्लाह, जो इसमें फर्क हो तो नाक कटवा डालूँ।
नवाब – सुभान-अल्लाह, बस यही बात है।
नत्थू – हाँ, यह माना। यहाँ पर हम भी कायल हो गए। इंसाफ शर्त है।
नवाब – और नहीं तो क्या, जरा सा आदमी, और आधे दर्जन शेरों से कुश्ती लड़े! ऐसा हो सकता है भला! शेर लाख कमजोर हो जाय, फिर शेर है। ये सब जादू के जोर से शेर, रीछ और सब जानवर दिखा देते हैं। असल में शेर-वेर कुछ भी नहीं हैं। सब जादू ही जादू है।
नत्थू – हुजूर हर तरह से रुपया खींचते हैं। हुजूर के सिर की कसम। हिंदोस्तानी इससे अच्छे शेर बना कर दिखा दें। क्या यहाँ जादूगरी है ही नहीं? मगर कदर तो कोई करता ही नहीं। हुजूर, जरा गौर करते तो मालूम हो जाता कि शेर लड़ते तो थे; मगर पुतलियाँ नहीं फिरती थीं। बस, यहाँ मालूम हो गया कि जादू का खेल है।
जबरखाँ – वल्लाह, मैं भी यही कहने वाला था। मियाँ नत्थू मेरे मुँह से बात छीन ले गए।
नत्थू – भला शेरों को देख कर किसी को डर लगता था! ईमान से कहिएगा।
जबरखाँ – मगर जब जादू का खेल है तो शेर से लड़ने में कमाल ही क्या है?
नवाब – और सुनिए, इनके नजदीक कुछ कमाल ही नहीं! आप तो वैसे शेर बना दीजिए! क्या दिल्लगीबाजी है? कहने लगे, इसमें कमाल ही क्या है।
मिरजा – हुजूर यह ऐसे ही बेपर की उड़ाया करते हैं।
नत्थू – जादू के शेरों से न लड़े तो क्या सचमुच के शेरों से लड़े? वाह री आपकी अक्ल!
नवाब – कहिए, तो उससे, जो समझदार हो। बेसमझ से कहना फजूल हैं।
नत्थू – हुजूर, कमाल यह है कि हजारों आदमी यहाँ बैठे हैं, मगर एक की समझ में न आया कि क्या बात है।
नवाब – समझे तो हमीं समझे!
मिरजा – हुजूर की क्या बात है। वल्लाह, खूब समझे!
इतने में एक खिलाड़ी ने एक रीछ को अपने ऊपर लादा और दूसरे की पीठ पर एक पाँव से सवार हो कर उसे दौड़ाने लगा। लोग दंग हो गए। सुरैया बेगम ने उस आदमी को पचास रुपए इनाम दिए।
वकील साहब ने यह कैफियत देखी तो सुरैया बेगम का पता लगाने के लिए बेकरार हो गए। सलारबख्श से कहा – भैया सलारू; इस बेगम का पता लगाओ। कोई बड़ी अमीर-कबीर मालूम होती है।
सलारबख्श – हमें तो यह अफसोस हैं कि तुम भालू क्यों न हुए। बस, तुम इसी लायक हो कि रस्सों से जकड़ कर दौड़ाए।
वकील – अच्छा बचा, क्या घर न चलोगे?
सलारबख्श – चलेंगे क्यों नहीं, क्या तुम्हारा कुछ डर पड़ा है?
वकील – मालिक से ऐसी बातें करता है? मगर यार, सुरेया बेगम का पता लगाओ।
मियाँ आजाद नवाब और वकील दोनों की बातें सुन-सुन कर दिल ही दिल में हँस रहे थे। इतने में नवाब साहब ने आजाद से पूछा – क्यों जनाब, यह सब नजरबंदी है या कुछ और?
आजाद – हजरत, यह सब तिलस्मात का खेल है। अक्ल काम नहीं करती।
नवाब – सुना है, पाँच कोस के उधर का आदमी अगर आए तो उस पर जादू का खाक असर न हो।
आजाद – मगर इनका जादू बड़ा कड़ा जादू है। दस मंजिल का आदमी भी आए तो चकमा खा जाए।
नवाब – आपके नजदीक वह कौन अंगरेज बैठा था?
आजाद – जनाब, अंगरेज और हिंदोस्तानी कहीं नहीं है। सब जादू का खेल है।
नवाब – इनसे जादू सीखना चाहिए।
आजाद – जरूर सीखिए। हजार काम छोड़ कर।
जब तमाशा खत्म हो गया तो सुरैया बेगम ने आजाद को बहुत तलाश कराया, मगर कहीं उनका पता न चला। वह पहले ही एक अंगरेज के साथ चल दिए थे। बेगम ने दारोगा जी को खूब डाँटा जौर कहा – अगर तुम उन्हें न लाओगे तो तुम्हारी खाल खिंचवा कर उसमें भुस भरूँगी!
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 64
सुरैया बेगम मियाँ आजाद की जुदाई में बहुत देर तक रोया कीं, कभी दारोगा पर झल्लाईं, कभी अब्बासी पर बिगड़ीं, फिर सोचतीं कि अलारक्खी के नाम से नाहक बुलवाया, बड़ी भूल हो गई; कभी खयाल करतीं की वादे के सच्चे हैं। कल शाम को जरूर आएँगे, हजार काम छोड़के आएँगे। रात भींग गई थी, महरियाँ सो रही थीं, महलदार ऊँघता था, शहर-भर में सन्नाटा था; मगर सुरैया बेगम की नींद मियाँ आजाद ने हराम कर दी थी –
भरे आते हैं आँसू आँख में ऐ यार क्या बाइस,
निकलते हें सदफ से गौहरे शहवार क्या बाइस?
सारी रात परेशानी में गुजरी, दिल बेकरार था, किसी पहलू चैन नहीं आता था, सोचतीं कि अगर मियाँ आजाद वादे पर न आए तो कहाँ ढूँढ़ूँगी, बूढ़े दारोगा पर दिल ही दिल में झल्लाती थीं कि पता तक नहीं पूछा। मगर आजाद तो पक्का वादा कर गए थे, लौट कर जरूर मिलेंगे, फिर ऐसे बेदर्द कैसे हो गए कि हमारा नाम भी सुना और परवा न की। यह सोचते-सोचते उन्होंने यह गजल गानी शुरू की –
न दिल को चौन मर कर भी हवाए यार में आए;
तड़प कर खुल्द से फिर कूचए दिलदार में आए।
अजब राहत मिली, कुछ दीन-दुनिया की नहीं परवा;
जुनूँ के साया में पहुँचे बड़ी सरकार में आए।
एवज जब एक दिल के लाख दिल हों मेरे पहलू में;
तड़पने का मजा तब फुरकते दिलदार में आए।
नहीं परवा, हमारा सिर जो कट जाए तो कट जाए,
थके बाजू न कातिल का न बल तलवार में आए।
दमे-आखिर वह पोछे अश्क ‘सफदर’ अपने दामन से;
इलाही रहम इतना तो मिजाजे यार में आए।
सुरैया बेगम को सारी रात जागते गुजरी।
सबेरे दारोगा ने आ कर सलाम किया।
बेगम – आज का इकरार है न?
दारोगा – हाँ हुजूर, खुदा मुझे सुर्खरू करे। अलारक्खी का नाम सुन कर तो वे बेखुद हो गए। क्या अर्ज करूँ हुजूर!
बेगम – अभी जाइए और चारों तरफ तलाश कीजिए।
दारोगा – हुजूर, जरा सबेरा तो हो ले, दो-चार आदमियों से मिलूँ, पूछूँ-वूछूँ, तब तो मतलब निकले। यों उटक्करलैस किस मुहल्ले में जाऊँ और किससे पूछूँ?
अब्बासी – हुजूर, मुझे हुक्म हो तो मैं भी तलाश करूँ। मगर भारी सा जोड़ा लूँगी।
बेगम – जोड़ा? अल्लाह जानता है, सिर से पाँव तक जेवर से लदी होगी।
बी अब्बासी बन-ठन कर चलीं और उधर दारोगा जी मियाने पर लद कर रवाना हुए। अब्बासी तो खुश-खुश जाती थी और यह मुँह बनाए सोच रहे थे कि जाऊँ तो कहाँ जाऊँ? अब्बासी लहँगा फड़काती हुई चली जाती थी कि राह में एक नवाब साहब की एक महरी मिली। दोनों में घुल-घुल कर बातें होने लगीं।
अब्बासी – कहो बहन खुश तो हो?
बन्नू – हाँ बहन, अल्लाह का फजल है। कहाँ चलीं?
अब्बासी – कुछ न पूछो बहन, एक साहब का पता पूछती फिरती हूँ।
बन्नू – कौन हैं, मैं भी सुनूँ।
अब्बासी – यह तो नहीं जानती, पर नाम है मियाँ आजाद। खासे घबरू जवान हैं।
बन्नू – अरे, उन्हें मैं खूब जानती हूँ। इसी शहर में रहनेवाले हैं। मगर हैं बड़े नटखट, सामने ही तो रहते हैं। कहीं रीझी तो नहीं हो? है तो जवान ऐसा ही।
अब्बासी – ऐ, हटो भी? यह दिल्लगी हमें नहीं भाती।
बन्नू – लो, यह मकान आ गया। इसी में रहते हैं! ‘जोरू न जाँता, अल्लाह मियाँ से नाता।’
बन्नू तो अपनी राह गई, अब्बासी एक गली में हो कर एक बुढ़िया के मकान पर पहुँची। बुढ़िया ने पूछा – अब किस सरकार में हो जी!
अब्बासी – सुरैया बेगम के यहाँ।
बुढ़िया – और उनके मियाँ का क्या नाम है?
अब्बासी – जो तजवीज करो।
बुढ़िया – तो क्वाँरी हैं या बेवा! कोई जान-पहचान मुलाकाती है या कोई नहीं है?
अब्बासी – एक बूढ़ी सी औरत कभी-कभी आया करती हैं। और तो हमने किसी को आते-जाते नहीं देखा।
बुढ़िया – कोई देवजाद भी आता-जाता है?
अब्बासी – क्या मजाल! चिड़िया तक तो पर नहीं मार सकती? इतने दिनों में सिर्फ कल तमाशा देखने गई थीं।
बुढ़िया – ऐ लो, और सुनो। तमाशा देखने जाती है और फिर कहती हो कि ऐसी-वैसी नहीं हैं? अच्छा, हम टोह लगा लेंगी।
अब्बासी – उन्होंने तो कसम खाई है कि शादी ही न करूँगी, और अगर करूँगी भी तो एक खूबसूरत जवान के साथ जो आपका पड़ोसी है। मियाँ आजाद नाम है।
बुढ़िया – अरे, यह कितनी बड़ी बात है! गो मैं वहाँ बहुत कम आती-जाती हूँ, पर वह मुझे खूब जानते हैं! बिल्कुल घर का सा वास्ता है। तुम बैठो, मैं अभी आदमी भेजती हूँ।
वह कह कर बुढ़िया ने एक औरत को बुला कर कहा – छोटे मिरजा के पास जाओ और कहो कि आपको बुलाती हें। या तो हमको बुलाइए या खुद आइए।
इस औरत का नाम मुबारक कदम था। उसने जा कर मिरजा आजाद को बुढ़िया का पैगाम सुनाया – हुजूर, वह खबर सुनाऊँ कि आप भी फड़क जायँ। मगर इनाम देने का वादा कीजिए।
आजाद – नहीं, अगर मालामाल न कर दें।
मुबारक – उछल पड़िएगा।
आजाद – क्या कोई रकम मिलने वाली है?
मुबारक – अजी, वह रकम मिले कि नवाब हो जाओ। एक बेगम साहबा ने पैगाम भेजा है। बस, आप मेरी बुढ़िया के मकान तक चले चलिए।
आजाद – उनको यहीं न बुला लाओ।
मुबारक – मैं बैठी हूँ, आप बुलवा लीजिए।
थोड़ी देर में बुढ़िया एक डोली पर सवार आ पहुँची और बोली – क्या इरादे हैं? कब चलिएगा?
आजाद – पहले कुछ बातें तो बताओ। हसीन है न?
बुढ़िया – अजी, हुस्न तो वह है कि चाँद भी मात हो जाय, और दौलत का तो कोई ठिकाना नहीं; तो कब चलने का इरादा है?
आजाद – पहले खूब पक्का-पोढ़ा कर लो, तो मुझे ले चलो। ऐसा न हो कि वहाँ चल कर झेंपना पड़े।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 65
हमारे मियाँ आजाद और इस मिरजा आजाद में नाम के सिवा और कोई बात नहीं मिलती थी। वह जितने ही दिलेर, ईमानदार, सच्चे आदमी थे; उतने ही यह फरेबी, जालिए और बदनियत थे। बहुत मालदार तो थे नहीं; मगर सवा सौ रुपए वसीके के मिलते थे। अकेला दम, न कोई अजीज, न रिश्तेदार; पल्ले सिरे के बदमाश, चोरों के पीर, उठाईगीरों के लँगोटिए यार, डाकुओं के दोस्त, गिरहकटों के साथी। किसी की जान लेना इनके बाएँ हाथ का करतब था। जिससे दोस्ती की, उसी की गरदन काटी। अमीर से मिल-जुल कर रहना और उसकी घुड़की-झिड़की सहना, इनका खास पेशा था। लेकिन जिसके यहाँ दखल पाया, उसको या तो लँगोटी बँधवा दी या कुछ ले-दे के अलग हुए। शहर के महाजन और साहूकार इनसे थरथर काँपते रहते! जिस महाजन से जो माँगा, उसने हाजिर किया और जो इनकार किया तो दूसरे रोज चोरी हो गई। इनके मिजाज की अजब कैफियत थी। बच्चों में बच्चे, बूढ़ों में बूढ़े, जवानों में जवान। कोई बात ऐसी नहीं जिसका उन्हें तजर्बा न हो। एक साल तक फौज में भी नौकरी की थी। वहाँ आपने एक दिन यह दिल्लगी की कि रिसाले के बीस घोड़ों की अगाड़ी-पिछाड़ी खोल डाली। घोड़े हिनहिना कर लड़ने लगे । सब लोग पड़े सो रहे थे। घोड़े जो खुले, तो सब के सब चौंक पडे। एक बोला – लेना-लेना! चोर-चोर! पकड़ लेना, जाने न पाए। बड़ी मुश्किल से चंद घोड़े पकड़े गए। कुछ जख्मी हुए, कुछ भाग गए। अब तहकीकात शुरू हुई। मिरजा आजाद भी सबके साथ हमदर्दी करते थे और उस बदमाश पर बिगड़ रहे थे जिसने घोड़े छोड़े थे। अफसर से बोले – यह शैतान का काम है, खुदा की कसम।
अफसर – उसकी गोशमाली की जायगी।
आजाद – वह इसी लायक है। मिल जाय तो चचा ही बन कर छोड़ूँ!
खैर, एक बार एक दफ्तर में आप क्लर्क हो गए। एक दिन आपको दिल्लगी सूझी, अब अमलों के जूते उठा कर दरिया में फेंक दिए। सरिश्तेदार उठे, इधर-उधर जूता ढूँढ़ते हैं, कहीं पता ही नहीं। नाजिर उठे, जूता नदारद। पेशकार को साहब ने बुलाया, देखते हैं तो जूता गायब।
पेशकार – अरे भाई, कोई साहब जूता ही उड़ा ले गए।
चपरासी – हुजूर, मेरा जूता पहन लें।
पेशकार – वाह, अच्छा लाला विशुनदयाल, जरा अपना बूट तो उतार दो।
लाला विशुनदयाल पटवारी थे। इनका लक्कड़तोड़ जूता पहन कर पेशकार साहब बड़े साहब के इजलास पर गए।
साहब – वेल-वेल पेशकार, आज बड़ा अमीर हो गया। बहुत बड़ा कीमती बूट पहना है।
पेशकार – हुजूर, कोई साहब जूता उड़ा ले गए। दफ्तर में किसी का जूता नहीं बचा।
बड़े साहब तो मुस्करा कर चुप हो गए; मगर छोटे साहब बड़े दिल्लगीबाज आदमी थे। इजलास से उठ कर दफ्तर में गए तो देखते हैं कि कहकहे पर कहकहे पड़ रहे हैं। सब लोग अपने-अपने जूते तलाश रहे हैं। छोटे साहब ने कहा – हम उस आदमी को इनाम देना चाहते हैं जिसने यह काम किया। जिस दिन हमारा जूता गायब कर दे, हम उसको इनाम दें।
आजाद – और अगर हमारा जूता गायब कर दे तो हम पूरे महीने की तनख्वाह दे दें।
एक बार मिरजा आजाद एक हिंदू के यहाँ गए। वह इस वक्त रोटी पका रहे थे। आपने चुपके से जूता उतारा और रसोई में जा बैठे, ठाकुर ने डाँट कर कहा – ऐं, यह क्या शरारत!
आजाद – कुछ नहीं, हमने कहा, देखें, किस तदबीर से रोटी पकाते हो।
ठाकुर – रसोई जूठी कर दी!
आजाद – भई, बड़ा अफसोस हुआ। हम यह क्या जानते थे। अब यह खाना बेकार जायगा?
ठाकुर – नहीं जी, कोई मुसलमान खा लेगा।
आजाद – तो हमसे बढ़ कर और कौन है?
आजाद बिस्मिल्लाह कह कर थाली में हाथ डालने को थे कि ठाकुर ने ललकारा – हैं – हैं, रसोई तो जूठी कर चुके, अब क्या बरतनों पर भी दाँत है?
खैर, आजाद ने पत्तों में खाना खाया और दुआ दी कि खुदा करे, ऐसा एक उल्लू रोज फँस जाए।
डोम-धारी, तबलिए, गवैए, कलावंत, कथक, कोई ऐसा न था जिससे मिरजा आजाद से मुलाकात न हो। एक बार एक बीनकार को दो सौ रुपए इनाम दिए। तब से उस गिरोह में इनकी धाक बैठ गई थी। एक बार आप पुलिस के इंस्पेक्टर के साथ जाते थे। दोनों घोड़ों पर सवार थे। आजाद का घोड़ा टर्रा था और इनसे बिना मजाक के रहा न जाए। चुपके से उतर पड़े। घोड़ा हिन-हिनाता हुआ इंस्पेक्टर साहब के घोड़े की तरफ चला? उन्होंने लाख सँभाला, लेकिन गिर ही पड़े। पीठ में बड़ी चोट आई।
अब सुनिए, बुढ़िया और अब्बासी जब बेगम साहब के यहाँ पहुँचीं तो बेगम का कलेजा धड़कने लगा। फौरन कमरे के अंदर चली गईं। बुढ़िया ने आ कर पूछा – हुजूर, कहाँ तशरीफ रखती हैं?
बेगम – अब्बासी, कहो क्या खबरें हैं?
अब्बासी – हुजूर के अकबाल से सब मामला चौकस है।
बेगम – आते हैं या नहीं? बस, इतना बता दो।
अब्बासी – हुजूर, आज तो उनके यहाँ एक मेहमान आ गए। मगर कल जरूर आएँगे।
इतने में एक महरी ने आ कर कहा – दारोगा साहब आए हैं।
बेगम – आ गए! जीते आए, बड़ी बात!
दारोगा – हाँ हुजूर, आपकी दुआ से जीता आया। नहीं तो बचने की तो कोई सूरत ही न थी।
बेगम – खैर, यह बतलाओ, कहीं पता लगा?
दारोगा – हुजूर के नमक की कसम कि शहर का कोई मुकाम न छोड़ा।
बेगम – और कहीं पता न चला? है न!
दारोगा – कोई कूचा, कोई गली ऐसी नहीं जहाँ तलाश न की हो।
बेगम – अच्छा, नतीजा क्या हुआ? मिले या न मिले?
दारोगा – हुजूर, सुना कि रेल पर सवार हो कर कहीं बाहर जाते हैं। फौरन गाड़ी किराए की और स्टेशन पर जा पहुँचा, मियाँ आजाद से चार आँखें हुईं कि इतने में सीटी कूकी और रेल खड़खड़ाती हुई चली। मैं लपका कि दो-दो बातें कर लूँ, मगर अंगरेज ने हाथ पकड़ लिया।
बेगम – यह सब सच कहते हो न?
दारोगा – झूठ कोई और बोला करते होंगे।
बेगम – सुबह से तो कुछ खाया न होगा?
दारोगा – अगर एक घूँट पानी के सिवा कुछ और खाया हो तो कसम ले लीजिए।
अब्बासी – हुजूर, हम एक बात बताएँ तो इनकी शेखी अभी-अभी निकल जाए। कहारों को यहीं बुला कर पूछना शुरू कीजिए!
बेगम साहब हो यह सलाह पसंद आई। एक कहार को बुला कर तहकीकात करने लगीं।
अब्बासी – बचा, झूठ बोले तो निकल दिए जाओगे।
कहार – हुजूर, हमें तो सिखाया है, वह कह देते हैं।
अब्बासी – क्या कुछ सिखाया भी है?
कहार – सुबह से अब तक सिखाया ही किए या कुछ और किया? यहाँ से अपनी ससुराल गए। वहाँ किसी ने खाने को भी न पूछा तो वहाँ से एक मजलिस में गए। हिस्से लिए और चख कर बोले – कहीं ऐसी जगह चलो जहाँ किसी की निगाह न पड़े। हम लोगों ने नाक से बाहर एक तकिए में मियाना उतारा। दारोगा जी ने वहाँ नानबाई की दुकान से सालन और रोटी मँगा कर खाई। हम लोगों को चबैने के लिए पैसे दिए। दिन भर सोया किए। शाम को हुक्म दिया, चलो।
अब्बासी – दारोगा साहब, सलाम! अजी, इधर देखिए दारोगा साहब!
बेगम – क्यों साहब, यह झूठ! रेल पर गए थे? बोलिए!
दारोगा – हुजूर, यह नमकराम है, क्या अर्ज करूँ!
दारोगा का बस चलता तो कहार को जीता चुनवा देते मगर बेबस थे। बेगम ने कहा – बस, जाओ। तुम किसी मसरफ के नहीं हो!
रात को अब्बासी बेगम साहब से मीठी-मीठी बातें कर रही थीं कि गाने की आवाज आई। बेगम ने पूछा – कौन गाता है?
अब्बासी – हुजूर, मुझे मालूम है। यह एक वकील हैं। सामने मकान है। वकील को तो नहीं जानती, मगर उनके यहाँ एक आदमी नौकर है, उसको खूब जानती हूँ। सलारबख्श नाम है। एक दिन वकील साहब इधर से जाते थे। मैं दरवाजे पर खड़ी थी। कहने लगे – महरी साहब, सलाम! कहो, तुम्हारी बेगम साहब का नाम क्या है? मैंने कहा, आप अपना मतलब कहिए, तो कहने लगे – कुछ नहीं, यों ही पूछता था।
बेगम – ऐसे आदमियों को मुँह न लगाया करो।
अब्बासी – मुखतार है हुजूर, महताबी से मकान दिखाई देता है।
बेगम – चलो देखें तो, मगर वह तो न देख लेंगे। जाने भी दो।
अब्बासी – नहीं हुजूर, उनको क्या मालूम होगा। चुपके से चल कर देख लीजिए। बेगम साहब महताबी पर गईं तो देखा कि वकील साहब पलंग पर फैले हुए हैं और सलारू हुक्का भर रहा है। नीचे आईं तो अब्बासी बोली – हुजूर, वह सलारबख्श कहता था कि किसी पर मरते हैं।
बेगम – वह कौन थी, जरा नाम तो पूछना।
अब्बासी – नाम तो बताया था, मगर मुझे याद नहीं है। देखिए, शायद जेहन में आ जाय। आप दस-पाँच नाम तो लें।
बेगम – नजीरबेगम, जाफरीबेगम, हुसेनीखानम, शिब्बोखानम!
अब्बासी – (उछल कर) जी हाँ, यही, यहीर शिब्बोखानम नहीं, शिब्बोजान बताया था।
सुरैया बेगम ने सोचा इस पगले का पड़ोस अच्छा नहीं, जुल देके चली आई हूँ, ऐसा न हो, ताक-झाँक करे। दरवाजे तक आ ही चुका, अब्बासी और सलारू में बातचीत भी हुई; अब फकत इतना मालूम होना बाकी है कि यही शिब्बोजान हैं। कहीं हमारे आदमियों पर यह भेद खुल जाय तो गजब ही हो जाय। किसी तरह मकान बदल देना चाहिए। रात को इसी खयाल में सो रहीं। सुबह को फिर वही धुन समाई कि आजाद आएँ और अपनी प्यारी-प्यारी सूरत दिखाएँ। वह अपना हाल कहें, हम अपनी बीती सुनाएँ। मगर आजाद अब की मेरा यह ठाट देखेंगे तो क्या खयाल करेंगे। कहीं यह न समझें कि दौलत पा कर मुझे भूल गई। अब्बासी को बुला कर पूछा – तो आज कब जाओगी?
अब्बासी – हुजूर, बस कोई दो घड़ी दिन रहे जाऊँगी और बात की बात में साथ ले कर आ जाऊँगी।
उधर मिरजा आजाद बन-ठन कर जाने ही को थे कि एक शाह साहब खट-पट करते हुए कोठे पर आ पहुँचे। आजाद ने झुक कर सलाम किया और बोले – आप खूब आए। बतलाइए, हम जिस काम को जाना चाहते हैं। वह पूरा होगा या नहीं।
शाह – लगन चाहिए। धुन हो तो ऐसा कोई काम नही हो पूरा न हो।
आजाद – गुस्ताखी माफ कीजिए तो एक बात पूछूँ, मगर बुरा न मानिएगा।
शाह – गुस्ताखी कैसी, जो कुछ कहना हो शौक से कहो।
आजाद – उस पगली औरत से आपको क्यों मुहब्बत है?
शाह – उसे पगली न कहो, मैं उसकी सूरत पर नहीं, उसकी सीरत पर मरता हूँ। मैंने बहुत से औलिया देखे, पर ऐसी औरत मेरी नजर से आज तक नहीं गुजरी। अलारक्खी सचमुच जन्नत की परी है। उसकी याद कभी न भूलेगी। उसका एक आशिक आप ही के नाम का था।
इन्हीं बातों में शाम हो गई, आसमान पर काली घटाएँ छा गईं और जोर से मेंह बरसने लगा। आजाद ने जाना मुल्तवी कर दिया। सुबह को आप एक दोस्त की मुलाकात को गए। वहाँ देखा कि कई आदमी मिल कर एक आदमी को बना रहे हैं और तालियाँ बजा रहे हैं। वह दुबला-पतला, मरा-पिटा आदमी था। इनको करीने से मालूम हो गया कि वह चंडूबाज है। बोले – क्यों भाई चंडूबाज, कभी नौकरी भी की है?
चंडूबाज – अजी हजरत, उम्र भर डंड पेले और जोड़ियाँ हिलाईं। शाही में अब्बाजान की बदौलत हाथी-नशीन थे। अभी पारसाल तक हम भी घोड़े पर सवार हो कर निकलते थे। मगर जुए की लत थी, टके-टके को मुहताज हो गए। आखिर, सराय में एक भठियारी अलारक्खी के यहाँ नौकरी कर ली।
आजाद – किसके यहाँ?
चंडूबाज – अलारक्खी नाम था। ऐसी खूबसूरत कि मैं क्या अर्ज करूँ।
आजाद – हाँ, रात को भी एक आदमी ने तारीफ की थी।
चंडूबाज – तारीफ कैसी! तसवीर ही न दिखा दूँ?
यह कह कर चंडूबाज ने अलारक्खी की तसवीर निकाली।
आजाद – ओ-हो-हो!
अजब है खींची मुसव्विर ने किस तरह तसवीर;
कि शोखियों से वह एक रंग पर रहें क्योंकर!
चंडूबाज – क्यों, है परी या नहीं?
आजाद – परी, परी असली परी!
चंडूबाज- उसी सराय में मियाँ आजाद नाम के एक शरीफ टिके थे। उन पर आशिक हो गईं। बस, कुछ आप ही की सी सूरत थी।
आजाद – अब यह बताओ कि वह आजकल कहाँ है?
चंडूबाज – यह तो नहीं जानते, मगर यहीं कहीं हैं। सराय से तो भाग गई थीं।
आजाद ने ताड़ लिया कि अलारक्खी और सुरैया बेगम में कुछ न कुछ भेद जरूर है। चंडूबाज को अपने घर लाए और खूब चंडू पिलाया। जब दो-तीन छींटे पी चुके तो आजाद ने कहा – अब अलारक्खी का मुफस्सल हाल बताओ।
चंडूबाज – अलारक्खी की सूरत तो आप देख ही चुके, अब उनकी सीरत का हाल सुनिए। शोख, चुलबुली, चंचल, आगभभूका, तीखी चितवन, मगर हँसमुख। मियाँ आजाद पर रीझ गईं। अब आजाद ने वादा किया कि निकाह पढ़वाएँगे, मगर कौल हार कर निकल गए। इन्होंने नालिश कर दी, पकड़ आए, मगर फिर भाग गए। इसके बाद एक बेगम हुस्नआरा थीं, उस पर रीझे। उन्होंने कहा – रूम की लड़ाई में नाम पैदा करके आओ तो हम निकाह पर राजी हों। बस, रूम की राह ली। चलते वक्त उनकी अलारक्खी से मुलाकात हुई तो उनसे कहा – हुस्नआरा तुम्हें मुबारक हो, मगर हमको न भूल जाना। आजाद ने कहा- हरगिज नहीं।
आजाद – हुस्नआरा कहाँ रहती हैं?
चंडूबाज – यह हमें नहीं मालूम।
आजाद – अलारक्खी को देखो तो पहचान लो या न पहचानो?
चंडूबाज – फौरन पहचान लें। न पहचानना कैसा?
मियाँ चंडूबाज तो पिनक लेने लगे। इधर अब्बासी मिरजा आजाद के पास आई और कहा – अगर चलना है तो चले चलिए, वरना फिर आने जाने का जिक्र न कीजिएगा। आपके टालमटोल से वह बहुत चिढ़ गई हैं। कहती हैं, आना हो तो आएँ और न आना हो तो न आएँ। यह टालमटोल क्यों करते हैं?
आजाद ने कहा – मैं तैयार बैठा हूँ। चलिए।
यह कह कर आजाद ने गाड़ी मँगवाई और अब्बासी के साथ अंदर बैठे। चंडूबाज कोचबक्स पर बैठे। गाड़ी रवाना हुई। सुरैया बेगम के महल पर गाड़ी पहुँची तो अब्बासी ने अंदर जा कर कहा – मुबारक, हुजूर आ गए।
बेगम – शुक्र है!
अब्बासी – अब हुजूर चिक की आड़ बैठ जायँ।
बेगम – अच्छा, बुलाओ।
आजाद बरामदे में चिक के पास बैठे। अब्बासी ने कमरे के बाहर आ कर कहा – बेगम साहब फरमाती हैं कि हमारे सिर में दर्द है, आप तशरीफ ले जाइए।
आजाद – बेगम साहब से कह दीजिए कि मेरे पास सिर के दर्द का एक नायाब नुस्खा है।
अब्बासी – वह फरमाती हैं कि ऐसे-ऐसे मदारी हमने बहुत चंगे किए हैं।
आजाद – और अपने सिर के दर्द का इलाज नहीं कर सकतीं?
बेगम – आपकी बातों से सिर का दर्द और बढ़ता है। खुदा के लिए आप मुझे इस वक्त आराम करने दीजिए।
आजाद – हम ऐसे हो गए अल्लाह अकबर ऐ तेरी कुदरत;
हमारा नाम सुन कर हाथ वह कानों पर धरते हैं।
या तो वह मजे-मजे की बातें थीं; और अब यह बेवफाई!
बेगम – तो यह कहिए कि आप हमारे पुराने जाननेवालों में हैं। कहिए, मिजाज तो अच्छे हैं?
आजाद – दूर से मिजाजपुर्सी भली मालूम नहीं होती।
बेगम – आप तो पहेलियाँ बुझवाते है। ऐ अब्बासी, यह किस अजनबी को सामने ला कर बिठा दिया? वाह-वाह!
अब्बासी – (मुस्करा कर) हुजूर जबरदस्ती धँस पड़े।
बेगम – मुहल्लेवालों को इत्तिला दो।
आजाद – थाने पर रपट लिखवा दो और मुश्कें बँधवा दो।
यह कह कर आजाद ने अलारक्खी की तसवीर अब्बासी को दी और कहा – इसे हमारी तरफ से पेश कर दो। अब्बासी ने जा कर बेगम साहब को वह तसवीर दी। बेगम साहब तसवीर देखते ही दंग हो गईं। ऐं, इन्हें यह तसवीर कहाँ मिली? शायद यह तसवीर छिपा कर ले गए थे। पूछा – इस तसवीर की क्या कीमत है?
आजाद – यह बिकाऊ नहीं है।
बेगम – तो फिर दिखाई क्यों?
आजाद – इसकी कीमत देने वाला कोई नजर नहीं आता।
बेगम – कुछ कहिए तो, किस दाम की तस्वीर है!
आजाद – हुजूर मिला लें। एक शाहजादे इस तसवीर के दो लाख रुपए देते थे।
बेगम – यह तसवीर आपको मिली कहाँ?
आजाद – जिसकी यह तसवीर है उससे दिल मिल गया है।
बेगम – जरी मुँह धो आइए।
इस फिकरे पर अब्बासी कुछ चौंकी, बेगम साहब से कहा – जरा हुजूर मुझे तो दें। मगर बेगम ने संदूकचा खोल कर तसवीर रख दी।
आजाद – इस शहर की अच्छी रस्म है। देखने को चीज ली और हजम! बी अब्बासी, हमारी तसवीर ला दो।
बेगम – लाखों कुदूरतें हैं, हजारों शिकायतें।
आजाद – किससे?
कुदूरत उनको है मुझसे नहीं है सामना जब तक;
इधर आँखें मिलीं उनसे उधर दिल मिल गया दिल से।
बेगम – अजी, होश की दया करो।
आजाद – हम तो इस जब्त के कायल हैं।
बेगम – (हँस कर) बजा।
आजाद – अब तो खिलखिला कर हँस दीं। खुदा के लिए, अब इस चिक के बाहर आओ या मुझी को अंदर बुलाओ। नकाब और घूँघट का तिलस्म तोड़ो। दिल बेकाबू है।
बेगम – अब्बासी, इनसे कहो कि अब हमें सोने दें। कल किसी की राह देखते-देखते रात आँखों में कट गई।
आजाद – दिन का मौका न था, रात को मेंह बरसने लगा।
बेगम – बस बैठे रहो।
यह अबस कहते हो, मौका न था और घात न थी;
मेहँदी पाँवों में न थी आपके, बरसात न थी।
कजअदाई के सिवा और कोई बात न थी;
दिन को आ सकते न थे आप तो क्या रात न थी?
बस, यही कहिए कि मंजूर मुलाकात न थी।
आजाद – माशूकपन नहीं अगर इतनी कजी न हो।
अब्बासी दंग थी कि या खुदा, यह क्या माजरा है। बेगम साहब तो जामे से बाहर ही हुई जातीं हैं। महरियाँ दाँतों अँगुलियाँ दबा रही थीं। इनको हुआ क्या है। दारोगा साहब कटे जाते थे, मगर चुप।
बेगम – कोई भी दुनिया में किसी का हुआ है? सबको देख लिया। तड़पा तड़पा कर मार डाला! खैर, हमारा भी खुदा है।
आजाद – पिछली बातों को अब भूल जाइए।
बेगम – बेमुरौवतों को किसी के दर्द का हाल क्या मालूम? नहीं तो क्या वादा करके मुकर जाते!
आजाद – नालिश भी तो दाग ही आपने!
बेगम – इंतजार करते-करते नाक में दम आ गया।
राह उनकी तकते-तकते यह मुद्दत गुजर गई;
आँखों को हौसला न रहा इंतजार का।
आजाद, बस दिल ही जानता है। ठान ली थी कि जिस तरह मुझे जलाया है, उसी तरह तरसाऊँगी। इस वक्त कलेजा बाँसों उछल रहा है। मगर बेचैनी और भी बढ़ती जाती है! अब उधर का हाल तो कहो, गए थे!
आजाद – वहाँ का हाल न पूछो, दिल पाश-पाश हुआ जाता है।
सुरैया बेगम ने समझा कि अब पाला हमारे हाथ रहा। कहा – आखिर, कुछ तो कहो। माजरा क्या है?
आजाद – अजी, औरत की बात का एतबार क्या?
बेगम – वाह, सबको शामिल न करो। पाँचों अँगुलियाँ बराबर नहीं होतीं। अब यह बतलाइए कि हमसे जो वादे किए थे, वे याद हैं या भूल गए ?
इकरार जो किए थे कभी हमसे आपने;
कहिए, वे याद हैं कि फरामोश हो गए?
आजाद – याद हैं। न याद होना क्या माने?
बेगम – आपके वास्ते हुक्का भर लाओ।
आजाद – हुक्म हो तो अपने खिदमतगार से हुक्का मँगवा लूँ। अब्बासी, जरा उनसे कहो, हुक्का भर लाएँ।
अब्बासी ने जा कर चंडूबाज से हुक्का भरने को कहा। चंडूबाज हुक्का ले कर ऊपर गए तो अलारक्खी को देखते ही बोले – कहिए, अलारक्खी साहब, मिजाज तो अच्छे हैं?
सुरैया बेगम धक से रह गईं। वह तो कहिए, खैर गुजरी कि अब्बासी वहाँ पर न थी। वरना बड़ी किरकिरी होती। चुपके से चंडूबाज को बुला कर कहा – यहाँ हमारा नाम सुरैया बेगम हैं। खुदा के वास्ते हमें अलारक्खी न कहना। यह तो बताओ, तुम इनके साथ कैसे हो लिए। तुमसे इनसे तो दुश्मनी थी? चलते वक्त कोड़ा मारा था।
चंडूबाज – इसके बारे में फिर अर्ज करूँगा।
आजाद – क्या खुदा की शान है कि खिदमतगार को अंदर बुलाया जाय और मालिक तरसे!
बेगम – क्यों घबराते हो? जरा बातें तो कर लेने दो? उस मुए मसखरे को कहाँ छोड़ा?
आजाद – वह लड़ाई पर मारा गया।
बेगम – ऐ है, मार डाला गया! बड़ा हँसोड़ था बेचारा!
सुरैया बेगम ने अपने हाथों से गिलौरियाँ बनाईं और अपने ही हाथ से मिरजा आजाद को खिलाईं। आजाद दिल में सोच रहे थे कि या खुदा, हमने कौन सा ऐसा सवाब का काम किया, जिसके बदले में तू हम पर इतना मिहरबान हो गया है! हालाँकि न कभी की जान, न पहचान। यकीन हो गया कि जरूर हमने कोई नेक काम किया होगा। चंडूबाज को भी हैरत हो रही थी कि अलारक्खी ने इतनी दौलत कहाँ पाई। इधर-उधर भौचक्के हो-हो कर देखते थे, मगर सबके सामने कुछ पूछना अदब के खिलाफ समझते थे। इतने में आजाद बोले – जमाना भी कितने रंग बदलता है।
सुरैया बेगम – हाँ, यह तो पुराना दस्तूर है। लोग इकरार कुछ करते हैं और करते कुछ हैं।
आजाद – यों नहीं कहतीं कि लोग चाहते कुछ हैं और होता कुछ और है।
सुरैया बेगम – दो-चार दिन और सब्र करो। जहाँ इतने दिनों खामोश रहे, अब चंद रोज तक और चुपके रहो।
चंडूबाज – खुदावंद, ये बातें तो हुआ ही करेंगी, अब चलिए, कल फिर आइएगा। मगर पहले बी अला..।
सुरैया बेगम – जरा समझ-बूझ कर!
चंडूबाज – कुसूर हुआ।
आजाद – हम समझे ही नहीं, क्या कुसुर हुआ?
सुरैया बेगम – एक बात है। यह खूब जानते हैं।
आजाद – फिर अब चलूँ! मगर ऐसा न हो कि यह सारा जोश दो-चार दिन में ठंडा पड़ जाय। अगर ऐसा हुआ तो मैं जान दे दूँगा।
सुरैया बेगम – मैं तो खुद ही कहने को थी। तुम मेरी जबान से बात छीन ले गए।
आजाद – हमारी मुहब्बत का हाल खुदा ही जानता है।
सुरैया बेगम – खुदा तो सब जानता है, मगर आपकी मुहब्बत का हाल हमसे ज्यादा और कोई नहीं जानता। या (चंडूबाज की तरफ इशारा करके) यह जानते हैं। याद है न? अगर अब की भी वैसा ही इकरार है तो खुदा ही मालिक है।
आजाद – अब उन बातों का जिक्र ही न करो।
सुरैया बेगम – हमें इस हालत में देख कर तुम्हें ताज्जुब तो जरूर हुआ होगा कि इस दरजे पर यह कैसी पहुँच गई। वह बूढ़ा याद है जिसकी तरफ से आपने खत लिखा था?
आजाद मिरजा कुछ जानते होते तो समझते, हाँ-हाँ कहते जाते थे।
आखिर इतना कहा – तुम भी तो वकील के पास गई थीं? और हमको पकड़वा बुलाया था? मगर सच कहना, हम भी किस चालाकी से निकल भागे थे?
सुरैया बेगम – और उसका आप को फख्र है। शरमाओ न शरमाने दो।
आजाद – अजी, वह मौका ही और था।
सुरैया बेगम ने अपना सारा हाल कह सुनाया। अपना जोगिन बनना, शहसवार का आना, थानेदार के घर से भागना, फिर वकील साहब के यहाँ फँसना, गरज कर सारी बातें कह सुनाईं।
आजाद – ओफ्-ओह, बहुत मुसीबतें उठाईं!
सुरैया बेगम – अब तो जी चाहता है कि शुभ घड़ी निकाह हो तो सारा गम भूल जाय।
चंडूबाज – हम बेगम साहब की तरफ होंगे। आप ही ने तो कोड़ा जमाया था!
आजाद – कोड़ा अभी तक नहीं भूले! हम तो बहुत सी बातें भूल गए।
सुरैया बेगम – अब तो रात बहुत ज्यादा गई, क्यों न नीचे जा कर दारोगा साहब के कमरे में सो रहो।
आजाद उठने ही को थे कि अजान की आवाज कान में आई। बातों में तड़का हो गया। आजाद यहाँ से चले तो रास्ते में सुरैया बेगम का हाल पूछने लगे। क्यों जी, बेगम साहब हमको वही आजाद समझती हैं? क्या हमारी उनकी सूरत बिलकुल मिलती है?
चंडूबाज – जनाब, आप उनसे बीस हैं, उन्नीस नहीं।
आजाद – तुमने कहीं कह तो नहीं दिया कि और आदम है?
चंडूबाज – वाह-वाह, मैं कह देता तो आप वहाँ धँसने भी पाते? अब कहिए तो जा कर जड़ दूँ। बस, ऐसी ही बातों से तो आग लग जाती है?
ये बातें करते हुए आजाद घर पहुँचे और गाड़ी से उतरने ही को थे कि कई कान्स्टेबलों ने उनको घेर लिया, आजाद ने पैंतरा बदल कर कहा – ऐं, तुम लोग कौन हो?
जमादार ने आगे बढ़ कर वारंट दिखाया और कहा – आप मेरी हिरासत में हैं।
चंडूबाज दबके-दबके गाड़ी में बैठे थे। एक सिपाही ने उनको भी निकाला। आजाद ने गुस्से में आ कर दो कान्स्टेबलों को थप्पड़ मारे, तो उन सबों ने मिल कर उनकी मुश्कें कस लीं और थाने की तरफ ले चले। थानेदार ने आजाद को देखा तो बोले – आइए मिरजा साहब, बहुत दिनों के बाद आप नजर आए। आज आप कहाँ भूल पड़े?
आजाद – क्या मरे हुए से दिल्लगी करते हो। हवालात से बाहर निकाल दो तो मजा दिखाऊँ। इस वक्त जो चाहो, कह लो, मगर इज्जलास पर सारी कलई खोल दूँगा। जिस जिस आदमी से तुमने रिश्वत ली है, उनको पेश करूँगा, भाग कर जाओगे कहाँ?
थानेदार – रस्सी जल गई, मगर रस्सी का बल न गया।
आजाद तो डींगें मार रहे थे और चंडूबाज को चंडू की धुन सवार थी। बोले – अरे यारो, जरी चंडू पिलवा दो भई! आखिर इतने आदमियों में कोई चंडूबाज भी है, या सब के सब रूखे ही हैं?
थानेदार – अगर आज चंडू न मिले तो क्या हो?
चंडूबाज – मर जायँ और क्या हो?
थानेदार – अच्छा देखें, कैसे मरते हो? कोई शर्त बदता है? हम कहते हैं कि अगर इसको चंडू न मिले तो यह मर जाय।
इन्स्पेक्टर – और हम कहते हैं कि यह कभी न मरेगा।
चंडूबाज – वाह री तकदीर, समझे थे, अलारक्खी के यहाँ अब चैन करेंगे, चैन तो रहा दूर, किस्मत यहाँ ले आई।
थानेदार – अलारक्खी कौन? यह बता दो, तो चंडू मँगा दूँ।
चंडूबाज – साहब, एक औरत है जो सराय में रहती थी।
अब सुनिए, शाम के वक्त सुरैया बेगम बन-ठन कर बैठी आजाद का इंतजार कर रही थी। मगर आजाद तो हवालात में थे। वहाँ आता कौन? अब्बासी को आजाद के गिरफ्तार होने की खबर तो मिल गई, मगर उसने सुरैया बेगम से कहा नहीं।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 66
शाहजादा हुमायूँ फिर कई महीने तक नेपाल की तराई में शिकार खेल कर लौटे तो हुस्नआरा की महरी अब्बासी को बुलवा भेजा। अब्बासी ने शाहजादा के आने की खबर सुनी तो चमकती हुई आई। शाहजादे ने देखा तो फड़क गए। बोले – आइए, बी महरी साहबा हुस्नआरा बेगम का मिजाज तो अच्छा है? अब्बासी – हाँ, हुजूर!
शाहजादा – और दूसरी बहन? उनका नाम तो हम भूल गए।
अब्बासी – बेशक, उनका नाम तो आप जरूर ही भूल गए होंगे। कोठे पर से धूप में आईना दिखाए, घूरा-घरी किए और लोगों से पूछे – बड़ी बहन ज्यादा हसीन हैं या छोटी? है ताज्जुब की बात कि नहीं?
शाहजादा – हमें तो तुम हसीन मालूम होती हो।
अब्बासी – हुजूर तो मुझे शर्मिंदा करते हैं। अल्लाह जानता है, क्या मिजाज पाया है। यही हँसना-बोलना रह जाता है हुजूर!
शाहजादा – अब किसी तरकीब से ले चलो।
अब्बासी – हुजूर, भला मैं कैसे ले चलूँ! रईसों का घर, शरीफों की बहूबेटियों में पराए मर्द का क्या काम।
शाहजादा – कोई तरकीब सोचो, आखिर किस दिन काम आओगी?
अब्बासी – आज तो किसी तरह मुमकिन नहीं। आज एक मिस आनेवाली हैं।
शाहजादा – फिर किसी तरकीब से मुझे वहाँ पहुँचा दो। आज तो आँखें सेकने का खूब मौका है।
अब्बासी – अच्छा, एक तदबीर है। आज बाग ही में बैठक होगी। आप चल कर किसी दरख्त पर बैठ रहें।
शाहजादा – नहीं भाई, यह हमें पसंद नहीं। कोई देख ले तो नाहक उल्लू बनूँ। बस, तुम बागबान को गाँठ लो। यही एक तदबीर है।
अब्बासी ने आ कर माली को लालच दिया। कहा – अगर शाहजादा को अंदर पहुँचा दो तो दो अशर्फियाँ इनाम दिलवाऊँ। माली राजी हो गया। तब अब्बासी ने आ कर शाहजादे से कहा – लीजिए हजरत, फतह है! मगर देखिए, धोती और मिर्जई पहननी पड़ेगी और मोटे कपड़े की भद्दी सी टोपी दीजिए, तब वहाँ पहुँच पाइएगा।
शाम को हुमायूँ फर ने माली का वेश बनाया और माली के साथ बाग में पहुँचे तो देखा कि बाग के बीचोंबीच एक पक्का और ऊँचा चबूतरा है और चारों बहने कुर्सियों पर बैठी मिस फैरिंगटन से बातें कर रही हैं। माली ने फूलों का एक गुलदस्ता बना कर दिया और कहा – जा कर मेज पर रख दो। हुमायूँ फर ने मिस साहब को झुक कर सलाम किया और एक कोने में चुपचाप खड़े हो गए।
सिपहआरा – हीरा-हीरा, यह कौन है?
हीरा – हुजूर, गुलाम है आपका। मेरा भाँजा है।
सिपहआरा – क्या नाम है?
हीरा – लोग हुमायूँ कहते हैं हुजूर!
सिपहआरा – आदमी तो सलीकेदार मालूम होता है। अरे हुमायूँ, थोड़े फूल तोड़ ले और महरी को दे दे कि मेरे सिरहाने रख दे।
शाहजादा ने फूल तोड़ कर महरी को दिए और फूलों के साथ रूमाल में एक रुक्का बाँध दिया। खत का मजमून यह था –
‘मेरी जान,
अब सब्र की ताकत नहीं। अगर जिलाना हो तो जिला लो, वरना कोई हिकमत काम न आएगी!
हुमायूँ फर’
जब शाहजादा हुमायूँ फर चले गए तो सिपहआरा ने माली से कहा – अपने भाँजे को नौकर रख लो।
माली – हुजूर, सरकार ही का नमक तो खाता है! यों भी नौकर है, वों भी नौकर है।
सिपहआरा – मगर हुमायूँ तो मुसलमानों का नाम होता है।
माली – हाँ हुजूर, वह मुसलमान हो गया है।
दूसरे दिन शाम को सिपहआरा और हुस्नआरा बाग में आईं तो देखा, चबूतरे पर शतरंज के दो नक्शे खिंचे हुए हैं।
सिपहआरा – कल तक तो ये नक्शे नहीं थे। अहाहा, हम समझ गए। हुमायूँ माली ने बनाए होंगे।
माली – हाँ हुजूर, उसी ने बनाया है।
सिपहआरा – बहन, जब जानें कि नक्शा हल कर दो।
हुस्नआरा – बहुत टेढ़ा नक्शा है। इसका हल करना मुश्किल है (माली से) क्यों जी, तुम्हारे भाँजे को शतरंज खेलना किसने सिखाया?
माली – हुजूर, उसको शौक है, लड़कपन से खेलता है।
हुस्नआरा – उससे पूछो, इस नक्शे को हल कर देगा?
माली – कल बुलवा दूँगा हुजूर!
सिपहआरा – इसका भाँजा बड़ा मनचला मालूम होता है।
हुस्नआरा – हाँ, होगा। इस जिक्र को जाने दो।
सिपहआरा – क्यों-क्यों, बाजीजान! तुम्हारे चेहरे का रंग क्यों बदल गया?
हुस्नआरा – कल इसका जवाब दूँगी।
सिपहआरा – नहीं, आखिर बताओ तो? तुम इस वक्त खफा क्यों हो?
हुस्नआरा – यह मिरजा हुमायूँ फर की शरारत है।
सिपहआरा – ओफ ओह! यह हथकंडे!
हुस्नआरा – (माली से) सच-सच बता; यह हुमायूँ कौन है? खबरदार जो झूठ बोला!
सिपहआरा – भाँजा है तेरा?
माली – हुजूर! हुजूर!
हुस्नआरा – हुजूर-हुजूर लगाई है, बताता नहीं। तेरा भाँजा और यह नक्शे बनाए?
माली – हुजूर, मैं माली नहीं हूँ, जाति का कायस्थ हूँ, मगर घर-बार छोड़ कर बागवानी करने लगा। हमारा भाँजा पढ़ा-लिखा हो तो कौन ताज्जुब की बात है।
हुस्नआरा – चल झूठे, सच-सच बता। नहीं अल्लाह जानता है, खड़े-खड़े निकलवा दूँगी।
सिपहआरा अपने दिल में सोचने लगी कि हुमायूँ फर ने बेतौर पीछा किया। और फिर अब तो उनको खबर पहुँच ही गई है तो फिर माली बनने की क्या जरूरत है!
हुस्नआरा – खुदा गवाह है! सजा देने के काबिल आदमी है। भलमनसी के यह मानी नहीं हैं कि किसी के घर में माली या चमार बन कर घुसे। यह हीरा निकाल देने लायक है। इसको कुछ चटाया होगा। जभी फिसल पड़ा।
माली के होश उड़ गए। बोला – हुजूर मालिक हैं। बीस बरस से इस सरकार का नमक खाता हूँ; मगर कोई कुसूर गुलाम से नहीं हुआ। अब बुढ़ापे में हुजूर यह दाग न लगाएँ।
हुस्नआरा – कल अपने भाँजे को जरूर लाना।
सिपहआरा – अगर कुसूर हुआ है तो सच-सच कह दे।
माली – हुजूर, झूठ बोलने की तो मेरी आदत नहीं।
दूसरे दिन शाहजादा ने माली को फिर बुलवाया और कहा – आज एक बार और दिखा दो।
माली – हुजूर, ले चलने में तो गुलाम को उज्र नहीं, मगर डरता हूँ कि कहीं बुढ़ापे में दाग न लग जाय।
शाहजादा – अजी वह मौकूफ कर देंगी तो हम नौकर रख लेंगे।
माली – सरकार, मैं नौकरी को नहीं, इज्जत को डरता हूँ।
शाहजादा – क्या महीना पाते हो?
माली – 6 रुपए मिलते हैं हुजूर!
शाहजादा – आज से छः रुपए यहाँ से तुम्हारी जिंदगी भर मिला करेंगे। क्यों, हमारे आने के बाद औरतें कुछ कहती नहीं थीं?
माली – आपस में कुछ बातें करती थीं; मगर मैं सुन नहीं सका। तो मैं शाम को आऊँगा।
शाहजादा – तुम डरो नहीं, तुम्हारा नुकसान नहीं होने पाएगा।
माली तो सलाम करके रवाना हुआ और हुमायूँ फर दुआ माँगने लगे कि किसी तरह शाम हो। बार-बार कमरे के बाहर जाते, बार-बार घड़ी की तरफ देखते। सोचे, आओ जरा सो रहें। सोने में वक्त भी कट जायगा और बेकरारी भी कम हो जायगी। लेटे; मगर बड़ी देर तक नींद न आई। खाना खाने के बाद लेटे तो ऐसी नींद आई कि शाम हो गई। उधर सिपहआरा ने हीरा माली को अकेले में बुला कर डाँटना शुरू किया। हीरा ने रो कर कहा – नाहक अपने भाँजे को लाया। नहीं तो यह लथाड़ क्यों सुननी पड़ती।
सिपहआरा – कुछ दीवाना हुआ है बुड्ढे! तेरा भाँजा और इतना सलीकेदार? इतना हसीन?
हीरा – हुजूर, अगर भाँजा न हो तो नाक कटवा डालूँ।
सिपहआरा – (महरी से) जरा तू इसे समझा दे कि अगर सच-सच बतला दे तो कुछ इनाम दूँ।
महरी ने माली को अलग ले जा कर समझाना शुरू किया – अरे भले आदमी बता दे। जो तेरा रत्ती भर नुकसान हो तो मेरा जिम्मा।
हीरा – इस बुढ़ौती में कलंक का टीका लगवाना चाहती हो?
महरी – अब मुझसे तो बहुत उड़ो नहीं, शाहजादा हुमायूँ फर के सिवा और किसकी इतनी हिम्मत नहीं हो सकती। बता, थे वहीं कि नहीं?
हीरा – हाँ आए तो वही थे।
महरी – (सिपहआरा से) लीजिए हुजूर, अब इसे इनाम दीजिए।
सिपहआरा – अच्छा हीरा, आज जब वह आएँ तो यह कागज दे देना।
इत्तिफाक से हुस्नआरा बेगम भी टहलती हुई आ गईं। वह भी दफ्ती पर एक शेर लिख लाई थीं। सिपहआरा को दे कर बोलीं – हीरा से कह दो, जिस वक्त हुमायूँ फर आएँ, यह दफ्ती दिखा दे।
सिपहआरा – ऐ तो बाजी, जब हुमायूँ फर हों भी?
हुस्नआरा – कितनी सादी हो? जब हों भी?
सिपहआरा – अच्छा, हुमायूँ फर ही सही! यह शेर तो सुनाओ।
हुस्नआरा – हमने यह लिखा है –
असीरे हिर्स वशहवत हर कि शुद नाकाम मीबाशद;
दरीं आतश कसे गर पुख्ता बाशद खाम मीबाशद।
(जो आदमी हिर्स और शहवत में कैद हो गया, वह नाकाम रहता है। इस आग में अगर कोई पका भी हो तो भी कच्चा रहता है।)
हीरा ने झुक कर सलाम किया और शाम को हुमायूँ फर के मकान पहुँचा।
हुमायूँ – आ गए? अच्छा, ठहरो। आज बहुत सोए।
हीरा – खुदावंद, बहुत खफा हुई और कहा कि हम तुमको मौकूफ कर देंगे।
हुमायूँ – तुम इसकी फिक्र न करो।
हीरा – हुजूर, मुझे आध सेर आटे से मतलब है।
झुटपुटे वक्त हुमायूँ हीरा के साथ बाग में पहुँचे। यहाँ हीरा ने दोनों बहनों के लिखे हुए शेर हुमायूँ फर को दिखाए। अभी वह पढ़ ही रहे थे कि हुस्नआरा बाग में आ गई और हीरा को बुला कर कहा – तुम्हारा भाँजा आया?
हीरा – हाजिर है हुजूर!
हुस्नआरा – बुलाओ।
हुमायूँ ने आ कर सलाम किया और गरदन झुका ली।
हुस्नआरा – तुम्हारा क्या नाम है जी?
हुमायूँ – हुमायूँ।
हुस्नआरा – क्यों साहब, मकान कहाँ है?
हुमायूँ –
घर बार से क्या फकीर को काम;
क्या लीजिए छोड़े गाँव का नाम?
हुस्नआरा – अक्खाह, आप शायर भी हैं।
हुमायूँ – हुजूर, कुछ बक लेता हूँ।
हुस्नआरा – कुछ सुनाओ।
हुमायूँ – हुक्म हो तो जमीन पर बैठ जाऊँ।
सिपहआरा – बड़े गुस्ताख हो तुम। कहीं नौकर हो?
हुमायूँ – जी हाँ हुजूर, आजकल शाहजादा हुमायूँ फर की बहन के यहाँ नौकर हूँ।
इतने में बड़ी बेगम आ गईं। हुमायूँ फर मारे खौफ के भाग गए।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 67
सुरैया बेगम ने आजाद मिरजा के कैद होने की खबर सुनी तो दिल पर बिजली सी गिर पड़ी। पहले तो यकीन न आया, मगर जब खबर सच्ची निकली तो हाय-हाय करने लगी।
अब्बासी – हुजूर, कुछ समझ में नहीं आया। मगर उनके एक अजीज हैं। वह पैरवी करने वाले हैं। रुपए भी खर्च करेंगे।
सुरैया बेगम – रुपया निगोड़ा क्या चीज है। तुम जा कर कहो कि जितने रुपयों की जरुरत हो, हमसे लें।
अब्बासी आजाद मिरजा के चाचा के पास जा कर बोली – बेगम साहब ने मुझे आपके पास भेजा है और कहा है कि रुपए की जरूरत हो तो हम हाजिर हैं। जितने रुपए कहिए, भेज दें।
यह बड़े मिरजा आजाद से भी बढ़ कर बगड़ेबाज थे। सुरैया बेगम के पास आ कर बोले – क्या कहूँ बेगम साहब, मेरी तो इज्जत खाक में मिल गई।
सुरैया बेगम – या मेरे अल्लाह, क्या यह गजब हो गया?
बड़े मिरजा – क्या करूँ, सारा जमाना तो उनका दुश्मन है। पुलिस से अदावत, अमलों से तकरार। मेरे पास इतने रुपए कहाँ कि पैरवी करूँ। वकील बगैर लिए-दिए मानते नहीं। जान अजाब में है।
सुरैया बेगम – इसकी तो आप फिक्र ही न करें। सब बंदोबस्त हो जायगा। सौ दो सौ, जो कहिए, हाजिर है।
बड़े मिरजा – फौजदारी के मुकदमे में ऊँचे वकील जरा लेते बहुत हैं। मैं कल एक बैरिस्टर के पास गया था। उन्होंने कहा कि एक पेशी के दो सौ लूँगा। अगर आप चार सौ रुपए दे दें तो उम्मेद है कि शाम तक आजाद तुम्हारे पास आ जायँ।
बेगम साहब ने चार सौ रुपए दिलवा दिए। बड़े मिरजा रुपए ले कर बाहर गए और थोड़ी देर के बाद आ कर चारपाई पर धम से गिर पड़े और बोले – आज तो इज्जत ही गई थी, मगर खुदा ने बचा लिया। मैं जो यहाँ से गया तो एक साहब ने आ कर कहा – आजाद मिरजा को थानेदार हथकड़ी पहना कर चौक से ले जाएगा। बस, मैंने अपना सिर पीट लिया। इत्तिफाक से एक रिसालदार मिल गए। उन्होंने मेरी यह हालत देखी तो कहा – दो सौ रुपए दो तो पुलिसवालों को गाँठ लूँ। मैंने फौरन दो सौ रुपए निकाल कर उनके हाथ पर रखे। अब दो सौ और दिलवाइए तो वकीलों के पास जाऊँ। बेगम ने दो सौ रुपए और दिलवा दिए। बड़े मिरजा दिल में खुश हुए, अच्छा शिकार फँसा। रुपए ले कर चलते हुए।
इधर सुरैया बेगम रो रो कर आँखें फोड़े डालती थी। महरियाँ समझातीं, दिन-रात रोने से क्या फायदा, अल्लाह पर भरोसा रखिए; उसकी मर्जी हुई तो आजाद मिरजा दो-चार दिन में घर आएँगे। मगर ये नसीहतें बेगम साहब पर कुछ असर न करती थीं। एक दिन एक महरी ने आ कर कहा – हुजूर, एक औरत ड्योढ़ी पर खड़ी है। कहिए तो बुलाऊँ। बेगम ने कहा – बुला लो। वह औरत परदा उठा कर आँगन में दाखिल हुई और झुक कर बेगम को सलाम किया। उसकी सजधज सारी दुनिया की औरतों से निराली थी। गुलबदन का चुस्त पाजामा, बाँका अमामा, मखमल का दगला, उस पर हलमा कारचोबी का काम, हाथ में आबनूस का पिंजड़ा, उसमें एक चिड़िया बैठी हुई। सारा घर उसी की ओर देखने लगा। सब की सब दंग थीं कि या खुदा, यह उठती जवानी, गुलाब सा रंग और यों गली-कूचों की सैर करती फिरे! अब्बासी बोली – क्यों बीबी तुम्हारा मकान कहाँ है? और यह पहनावा किस मुल्क का है? तुम्हारा नाम क्या है बीबी?
औरत – हमारा घर मन-चले जवानों का दिल है और नाम माशूक।
यह कह कर उसने पिंजड़ा सामने रख दिया और यों चहकने लगी – हुजूर, आपको यकीन न आएगा। कल मैं परिस्तान में बैठी वहाँ की सैर देख रही थी कि पहाड़ पर बड़े जोरों की आँधी आई और इतनी गर्द उड़ी कि आसमान के नीचे एक और आसमान नजर आने लगा। इसके साथ ही घड़घड़ाहट की आवाज आई और एक उड़नखटोला आसमान से उतर पड़ा।
अब्बासी – अरे, उड़नखटोला! इसका जिक्र तो कहानियों में सुना करते थे।
औरत – बस हुजूर, उस उड़नखटोले में से एक सचमुच की परी उतरी और दम के दम में खटोला गायब हो गया। वह परी असल में परी न थी, वह एक इनसान था। मैं उसे देखते ही हजार जान से आशिक हो गई। अब सुना है कि वह बेचारा कहीं कैद हो गया है।
सुरैया बेगम – क्या, कैद है! भला, उस जवान का नाम भी तुम्हें मालूम है?
औरत – जी हाँ, हुजूर, मैंने पूछ लिया है। उसे आजाद कहते हैं।
सुरैया बेगम – अरे! यह तो कुछ और ही गुल खिला। किसी ने तुम्हें बहका तो नहीं दिया?
औरत – हुजूर, वह आपके यहाँ भी आए थे। आप भी उन पर रीझी हुई हैं।
सुरैया बेगम – मुझे तो तुम्हारी सब बातें दीवानों की बकझक मालूम होती हैं। कहाँ, परी, कहाँ आजाद, कहाँ उड़नखटोला! समझ में कोई बात नहीं आती।
औरत – इन बातों को समझने के लिए जरा अक्ल चाहिए।
यह कह कर उसने पिंजड़ा उठाया और चली गई।
थोड़ी देर में दारोगा साहब ने अंदर आ कर कहा – दरवाजे पर थानेदार और सिपाही खड़े हैं। मिरजा आजाद जेल से भाग निकले हैं। और वही आज औरत के भेस में आए थे। बेगम साहब के होश-हवास गायब हो गए! अरे, यह आजाद थे!
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 68
आजाद अपनी फौज के साथ एक मैदान में पड़े हुए थे कि एक सवार ने फौज में आ कर कहा – अभी बिगुल दो। दुश्मन सिर पर आ पहुँचा। बिगुल की आवाज सुनते ही अफसर, प्यादे, सवार सब चौंक पड़े। सवार ऐंठते हुए चले, प्यादे अकड़ते हुए बढ़े। एक बोला – मार लिया है। दूसरे ने कहा – भगा दिया है। मगर अभी तक किसी को मालूम नहीं कि दुश्मन कहाँ है। मुखबिर दौड़ाए गए तो पता चला कि रूस की फौज दरिया के उस पार पैर जमाए खड़ी है। दरिया पर पुल बनाया जा रहा है और अनोखी बात यह थी कि रूसी फौज के साथ एक लेडी, शहसवारों की तरह रान-पटरी जमाए, कमर से तलवार लटकाए, चेहरे पर नकाब से छिपाए, अजब शोखी और बाँकपन के साथ लड़ाई में शरीक होने के लिए आई है। उसके साथ दस जवान औरतें घोड़ों पर सवार चली आ रही हैं। मुखबिर ने इन औरतें की कुछ ऐसी तारीफ की कि लोग सुन कर दंग रह गए। बोला – इस रईसजादी ने कसम खाई है कि उम्र भर क्वाँरी रहूँगी। इसका बाप एक मशहूर जनरल था, उसने अपनी प्यारी बेटी को शहसवारी का फन खूब सिखाया था। रूस में बस यही एक औरत है जो तुर्कों से मुकाबला करने के लिए मैदान में आई है। उसने कसम खाई है कि आजाद का सिर ले कर जार के कदमों पर रख दूँगी।
आजाद – भला, यह तो बतलाओ कि अगर वह रईस की लड़की है तो उसे मैदान से क्या सरोकार? फिर मेरा नाम उसको क्योंकर मालूम हुआ?
मुखबिर – अब यह तो हुजूर, वही जानें, उनका नाम किस क्लारिसा है। वह आपसे तलवार का मुकाबिला करना चाहती हैं। मैदान में अकेले आप से लड़ेंगी, जिस तरह पुराने जमाने में पहलवानों में लड़ाई का रिवाज था।
आजाद पाशा के चेहरे का रंग उड़ गया। अफसरों ने उनको बनाना शुरू किया। आजाद ने सोचा, अगर कबूल किए लेता हूँ तो नतीजा क्या! जीता, तो कोई बड़ी बात नहीं। लोग कहेंगे, लड़ना-भिड़ना औरतों का काम नहीं। अगर चोट खाई तो जग की हँसाई होगी। मिस मीडा ताने देंगी। अलारक्खी आड़े हाथों लेंगी कि एक छोकरी से चरका खा गए। सारी डींग खाक में मिल गई। और अगर इनकार करते हैं तो भी तालियाँ बजेंगी कि एक नाजुकबदन औरत के मुकाबिले से भागे। तब खुद कुछ फैसला न कर सके तो पूछा – दिल्लगी तो हो चुकी, अब बतलाइए कि मुझे क्या करना चाहिए?
जनरल – सलाह यही है कि अगर आपको बहादुरी का दावा है तो कबूल कर लीजिए, वरना चुपके ही रहिए।
आजाद – जनाब, खुदा ने चाहा तो एक चोट न खाऊँ और बेदाग लौट आऊँ। औरत लाख दिलेर हो, फिर भी औरत है!
जनरल – यहाँ मूँछों पर ताव दे लीजिए, मगर वहाँ कलई खुल जायगी।
अनवर पाशा – जिस वक्त वह हसीना हथियार कस कर सामने आएगी, होश उड़ जाएँगे। गश पर गश आएँगे। ऐसी हसीन औरत से लड़ना क्या कुछ हँसी है? हाथ न उठेगा। मुँह की खाओगे। उसकी एक निगाह तुम्हारा काम तमाम कर देगी।
आजाद – इसकी कुछ परवा नहीं! यहाँ तो दिली आरजू है कि किसी नाजनीन की निगाहों के शिकार हों।
यही बातें हो रही थी कि एक आदमी ने कहा – कोई साहब हजरत आजाद को ढूँढ़ते हुए आए हैं। अगर हुक्म हो, तो बुला लाऊँ। बड़े तीखे आदमी हें। मुझसे लड़ पड़े थे। आजाद ने कहा, उसे अंदर आने दो। सिपाही के जाते ही मियाँ खोजी अकड़ते हुए आ पहुँचे।
आजाद – मुद्दत के बाद मुलाकात हुई, कोई ताजा खबर कहिए।
खोजी – कमर तो खोलने दो, अफीम घोलूँ, चुस्की लगाऊँ तो होश आए। इस वक्त थका-माँदा, मरा-मिटा आ रहा हूँ। साँस तक नहीं समाती है।
आजाद – मिस मीडा का हाल तो कहो!
खोजी – रोज कुम्मैत घोड़े पर सवार दरिया किनारे जाती हैं। रोज अखबार पढ़ती हैं। जहाँ तुम्हारा नाम आया, बस, रोने लगीं।
आजाद – अरे, यह अँगुली में क्या हुआ है जी! जल गई थी क्या?
खोजी – जल नहीं गई थी जी, यह अपनी सूरत गले का हार हुई।
आजाद – ऐ, यह माजरा क्या है? एक कान कौन कतर ले गया है?
खोजी – न हम इतने हसीन होते, न परियाँ जान देतीं!
आजाद – नाक भी कुछ चिपटी मालूम होती है।
खोजी – सूरत, सूरत! यही सूरत बला-ए-जान हो गई। इसी के हाथों यह दिन देखना पड़ा।
आजाद – सूरत-मूरत नहीं, आप कहीं से पिट कर आए हैं। कमजोर, मार खाने की निशानी; किसी से भिड़ पड़े होंगे। उसने ठोंक डाला होगा! यही बात हुई है न?
खोजी – अजी, एक परी ने फूलों की छड़ियों से सजा दी थी।
आजाद – अच्छा, कोई खत-वत लाए हो? या चले आए यों ही हाथ झुलाते?
खोजी – दो-दो खत हैं। एक मिस मीडा का, दूसरा हुरमुज जी का।
आजाद और खोजी नहर के किनारे बैठे बातें कर रहे थे। अब जो आता है, खोजी को देख कर हँसता है। आखिर खोजी बिगड़ कर बोले – क्या भीड़ लगाई है? चलो, अपना काम करो।
आजाद – तुमको किसी से क्या वास्ता, खड़े रहने दो।
खोजी – अजी नहीं, आप समझते नहीं हैं। ये लोग नजर लगा देंगे।
आजाद – हाँ, आपका कल्ला-ठल्ला देख कर नजर लग जाय तो ताज्जुब भी नहीं।
खोजी – अजी, वह एक सूरत ही क्या कम है! और कसम ले लो कि किसी मर्दक को अब तक मालूम हुआ हो कि हम इतने हसीन हैं! और हमें इसका कुछ गरूर भी नहीं – मुतलक नहीं गरूर जमालोकमाल पर।
आजाद – जी हाँ, बाकमाल लोग कभी गरूर नहीं करते, सीधे-सादे होते ही हैं। अच्छा, आप अफीम घोलिए, साथ है या नहीं?
खोजी – जी नहीं, और क्या! आपके भरोसे आते हैं? अच्छा, लाओ, निकलवाओ। मगर जरा उम्दा हो। कमसरियट के साथ तो होती होगी?
आजाद – अब तुम मरे। भला यहाँ अफीम कहाँ? और कमसरियट में? क्या खूब!
खोजी – तब तो बे-मौत मरे। भई, किसी से माँग लो।
आजाद – यहाँ अफीम का किसी को शौक ही नहीं।
खोजी – इतने शरीफजादे हैं और अफीमची एक भी नहीं? वाह!
आजाद- जी हाँ, सब गँवार हैं। मगर आज दिल्लगी होगी, जब अफीम न मिलेगी और तुम तड़पोगे, बिलबिलाओगे।
खोजी – यह तो अभी से जम्हाइयाँ आने लगीं। कुछ तो फिक्र करो यार!
आजाद – अब यहाँ अफीम न मिलेगी। हाँ, करौलियाँ जितनी चाहो, मँगा दूँ।
खोजी – (अफीम की डिबिया दिखा कर) यह भरी है अफीम! क्या उल्लू समझे थे! आने के पहले ही मैंने हुरमुज जी से कहा कि हुजूर, अफीम मँगवा दें। अच्छा, यह लीजिए हुरमुज जी का खत।
आजाद ने खत खोला तो यह लिखा था –
‘माई डियर आजाद,
जरा खोजी से खैर व आफियत तो पूछिए, इतना पिटे कि दो दाँत टूट गए, कान कट गए और घूँसे और मुक्के खाए। आप इनसे इतना पूछिए कि लालारुख कौन है?
तुम्हारा
हुरमुज।’
आजाद – क्यों साहब, यह लालारुख कौन है?
खोजी – ओफ ओह, हम पर चकमा चल गया। वाहरे हुरमुज जी, वल्लाह! अगर नमक न खाए होता तो जा कर करौली भोंक देता।
आजाद – नहीं, तुम्हें वल्लाह, बताओ तो, यह लालारुख कौन है?
खोजी – अच्छा हुरमुज जी समझेंगे?
सौदा करेंगे दिल का किसी दिलरुबा के साथ
इस बावफा को बेचेंगे एक बेवफा के हाथ।
हाय लालारुख, जान जाती है, मगर मौत भी नहीं आती।
आजाद – पिटे हुए हो, कुछ हाल तो बतलाओ। हसीन है?
खोजी – (झल्ला कर) जी नहीं, हसीन नहीं है। काली-कलूटी हैं। आप भी वल्लाह, निरे चोंच ही रहे! भला, किसी ऐसी-वैसी की जुर्रत कैसे होती कि हमारे साथ बात करती! याद रखो, हसीन पर जब नजर पड़ेगी, हसीन ही की पड़ेगी। दूसरे की मजाल नहीं।
‘गालिब’ इन सीमी तनों के वास्ते, चाहनेवाला भी अच्छा चाहिए।
आजाद – अच्छा, अब लालारुख का तो हाल बताओ।
खोजी – अजी, अपना काम करो, इस वक्त दिल काबू में नहीं है। वह हुस्न है कि आपके बाबाजान ने भी न देखा होगा। मगर हाथों में चुल है। घंटे भर में पाँच सात बार जरूर चपतियाती थीं। खोपड़ी पिलपिली कर दी। बस, हमको इसी बात से नफरत थी। वरन, नखशिख से दुरुस्त! और चेहरा चमकता हुआ, जैसे आबनूस! एक दिन दिल्लगी-दिल्लगी में उठ कर एक पचास जूते लगा दिए, तड़-तड़-तड़! हैं, हैं, यह क्या हिमाकत है, हमें यह दिल्लगी पसंद नहीं, मगर वह सुनती किसकी हैं! अब फरमाइए, जिस पर पचास जूते पड़ें, उसकी क्या गति होगी। एक रोज हँसी-हँसी में कान काट लिया। एक दिन दुकान पर खड़ा हुआ सौदा खरीद रहा था। पीछे से आ कर दस जूते लगा दिए। एक मरतबे एक हौज में हमको ढकेल दिया। नाक टूट गई। मगर हैं लाखों में लाजवाब।
तर्जे-निगाह ने छीन लिए जाहिदों के दिल, आँखें जो उनकी उठ गईं दस्ते दुआ के साथ।
आजाद – तो यह कहिए, हँसी-हँसी में खूब जूतियाँ खाईं आपने!
खोजी – फिर यह तो है ही, और इश्क कहते किसे हैं? एक दफा मैं सो रहा था, आने के साथ ही इस जोर से चाबुक जमाई कि मैं तड़प कर चीख उठा। बस, आग हो गईं कि हम पीटें, तो तुम रोओ क्यों? जाओ, बस; अब हम न बोलेंगी। लाख मनाया, मगर बात तक न की। आखिर यह सलाह ठहरी कि सरे बाजार वह हमें चपतियाएँ और हम सिर झुकाए खड़े रहें।
लब ने जो जिलाया तो तेरी आँख ने मारा;
कातिल भी रहा साथ मसीहा के हमेशा।
परदा न उठाया कभी चेहरा न दिखाया;
मुश्ताक रहे हम रुखे जेबा के हमेशा।
आजाद – किसी दिन हँसी-हँसी में आपको जहर न खिला दे?
खोजी- क्यों साहब खिला दें क्यों नहीं कहते? कोई कंडेवाली मुकर्रर की है। वह भी रईसजादी हैं! आपकी मिस मीडा पर गिर पड़ें तो यह कुचल जायँ। अच्छा हमारी दास्तान तो सुन चुके, अपनी बीती कहो।
आजाद – एक नाजनीन हमसे तलवार लड़ना चाहती है। क्या राय है? पैगाम भेजा है कि किसी दिन आजाद पाशा से और हमसे अकेले तलवार चले।
खोजी – मगर तुमने पूछा तो होता कि सिन क्या है? शक्ल-सूरत कैसी है?
आजाद – सब पूछ चुके हैं। रूस में उसका सानी नहीं है। मिस मीडा यहाँ होतीं तो खूब दिल्लगी रहती। हाँ, तुमने तो उनका खत दिया ही नहीं। तुम्हारी बातों में ऐसा उलझा कि उसकी याद ही न रही।
खोजी ने मीडा का खत निकाल कर दिया। यह मजमून था –
‘प्यारे आजाद,
आजकल अखबारों ही में मेरी जान बसती है। मगर कभी-कभी खत भी तो भेजा करो। यहाँ जान पर बन आई है, और तुमने वह चुप्पी साधी है कि खुदा की पनाह। तुमसे इस बेवफाई की उम्मेद न थी।
यों तो मुँह-देखे की होती है मुहब्बत सबको,
जब मैं जानूँ कि मेरे बाद मेरा ध्यान रहे।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 69
दूसरे दिन आजाद का उस रूसी नाजनीन से मुकाबिला था। आजाद को रातभर नींद नहीं आई। सवेरे उठ कर बाहर आए तो देखा कि दोनों तरफ की फौजें आमने-सामने खड़ी हैं और दोनों तरफ से तोपें चल रही हैं।
खोजी दूर से एक ऊँचे दरख्त की शाख पर बैठे लड़ाई का रंग देख रहे थे और चिल्ला रहे थे, होशियार, होशियार! यारों, कुछ खबर भी है? हाय! इस वक्त अगर तोड़ेदार बंदूक होती तो परे के परे साफ कर देता। इतने में आजाद पाशा ने देखा कि रूसी फौज के सामने एक हसीना कमर में तलवार लटकाए, हाथ में नेजा लिए, घोड़े पर शान से बैठी सिपाहियों को आगे बढ़ने के लिए ललकार रही है। आजाद की उस पर निगाह पड़ी तो दिल में सोचे, खुदा इसे बुरी नजर से बचाए। यह तो इस काबिल है कि इसकी पूजा करे। यह, और मैदान जंग! हाय-हाय, ऐसा न हो कि उस पर किसी का हाथ पड़ जाय। गजब की चीज है यह हुस्न, इंसान लाख चाहता है, मगर दिल खिंच ही जाता है, तबीयत आ ही जाती है।
उस हसीना ने जो आजाद को देखा तो यह शेर पढ़ा –
सँभल के रखियो कदम राहे-इश्क में मजनूँ,
कि इस दयार में सौदा बरहनः पाई है।
यह कह कर घोड़ा बढ़ाया। आजाद के घोड़े की तरफ झुकी और झुकते ही उन पर तलवार का वार किया। आजाद ने वार खाली दिया और तलवार को चूम लिया। तुर्कों ने इस जोर से नारा मारा कि कोसों तक मैदान गूँजने लगा। मिस कलरिसा ने झल्ला कर घोड़े को फेरा और चाहा कि आजाद के दो टुकड़े कर दे, मगर जैसे ही हाथ उठाया, आजाद ने अपने घोड़े को आगे बढ़ाया और तलवार को अपनी तलवार से रोक कर हाथ से उस परी का हाथ पकड़ लिया। तुर्कों ने फिर नारा मारा और रूसी झेंप गए। मिस क्लारिसा भी लजाई और मारे गुस्से के झल्ला कर वार करने लगीं। बार-बार चोट आती थी, मगर आजाद की यह कैफियत थी कि कुछ चोटें तलवार पर रोकीं और कुछ खाली दीं। आजाद उससे लड़ तो रहे थे, मगर वार करते दिल काँपता था। एक दफा उस शेरदिल औरत ने ऐसा हाथ जमाया कि कोई दूसरा होता, तो उसकी लाश जमीन पर फड़कती नजर आती, मगर आजाद ने इस तरह बचाया कि हाथ बिलकुल खाली गया। जब उस खातून ने देखा कि आजाद ने एक चोट भी नहीं खाई तो फिर झुँझला कर इतने वार किए कि दम लेना भी मुश्किल हो गया। मगर आजाद ने हँस-हँस कर चोटें बचाईं। आखिर उसने ऐसा तुला हुआ हाथ घोड़े की गरदन पर जमाया कि गरदन कट कर दूर जा गिरी। आजाद फौरन कूद पड़े और चाहते थे कि उछल कर मिस क्लारिसा के हाथ से तलवार छीन लें कि उसने घोड़े के चाबुक जमाई और अपनी फौज की तरफ चली। आजाद सँभलने भी न पाए थे कि घोड़ा हवा हो गया। आजाद घोड़े पर लटके रह गए।
जब घोड़ा रूस की फौज में दाखिल हुआ तो रूसियों ने तीन बार खुशी की आवाजें लगाई और कोई चालीस-पचास आदमियों ने आजाद को घेर लिया। दस आदमियों ने एक हाथ पकड़ा, पाँच ने दूसरा हाथ। दो-चार ने टाँग ली। आजाद बोले – भई, अगर मेरा ऐसा ही खौफ है तो मेरे हथियार खोल लो और कैद कर दो। दस आदमियों का पहरा रहे। हम भाग कर जायँगे कहा? अगर तुम्हारे यही हथकंडे हैं तो दस पाँच दिन में तुर्क जवान आप ही आप बँधे चले आएँगे। मिस क्लारिसा की तरह पंद्रह-बीस परियाँ मोरचे पर जायँ तो शायद तुर्की की तरफ से गोलंदाजी ही बंद हो जाय!
एक सिपाही – टँगे हुए चले आए, सारी दिलेरी धरी रह गई!
दूसरा सिपाही – वाह री क्लारिसा! क्या फुर्ती है!
आजाद – इसमें तो शक नहीं कि इस वक्त शिकार हो गए। मिस क्लारिसा की अदा ने मार डाला।
एक अफसर – आज हम तुम्हारी गिरफ्तारी का जश्न मनाएँगे।
आजाद – हम भी शरीक होंगे। भला, क्लारिसा भी-नाचेंगी?
अफसर – अजी, वह आपको अँगुलियों पर नचाएँगी। आप हैं किस भरोसे?
आजाद – अब तो खुदा ही बचाए तो बचें। बुरे फँसे।
तेरी गली में हम इस तर से हैं आए हुए;
शिकार हो कोई जिस तरह चोट खाए हुए।
अफसर – आज तो हम फूले नहीं समाते। बड़े मूढ़ को फाँसा।
आजाद – अभी खुश हो लो; मगर हम भाग जाएँगे! मिस क्लारिसा को देख कर तबीयत लहराई, साथ चले आए।
अफसर – वाह, अच्छे जवाँमर्द हो! आए लड़ने और औरत को देख फिसल पड़े। सूरमा कहीं औरत पर फिसला करते हैं?
आजाद – बूढ़े हो गए हो न! ऐसा तो कहा ही चाहो।
अफसर – हम तो आपकी शहसवारी की बड़ी धूम सुनते थे। मगर बात कुछ और ही निकली। अगर आप मेरे मेहमान न होते तो हम आपके मुँह पर कह देते कि आप शोहदे हैं। भले आदमी, कुछ तो गैरत चाहिए।
इतने में रूसी सिपाही ने आ कर अफसर के हाथ में एक खत रख दिया। उसने पढ़ा तो यह मजमून था –
(1) हुक्म दिया जाता है कि मियाँ आजाद को साइबेरिया के उन मैदानों में भेजा जाय, जो सबसे ज्यादा सर्द हैं।
(2) जब तक यह आदमी जिंदा रहे, किसी से बोलने न पाए। अगर किसी से बात करे तो दोनों पर सौ-सौ बेंत पड़ें।
(3) खाना सिर्फ एक वक्त दिया जाय। एक दिन आध सेर उबाला हुआ साग और दूसरे दिन गुड़ की रोटी। पानी के तीन कटोरे रख दिए जायँ, चाहे एक ही बार पी जाय चाहे दस बार पिए।
(4) दस सेर आटा रोज पीसे और दो घंटे रोज दलेल बोली जाय। चक्की का पाट सिर पर रख कर चक्कर लगाए। जरा दम न लेने पाए।
(5) हफ्ते में एक बार बरफ में खड़ा कर दिया जाय और बारीक कपड़ा पहनने को दिया जाय।
आजाद – बात तो अच्छी है, गरमी निकल जायगी।
अफसर – इस भरोसे भी न रहना। आधी रात को सिर पर पानी का तड़ेड़ा रोज दिया जायगा।
आजाद मुँह से तो हँस रहे थे मगर दिल काँप रहा था कि खुदा ही खैर करे।
ऊपर से हुक्म आ गया तो फरियाद किससे करें और फरियाद करें भी तो सुनता कौन है? बोले, खत्म हो गया या और कुछ है।
अफसर – तुम्हारे साथ इतनी रियायत की गई है कि अगर मिस क्लारिसा रहम करें तो कोई हलकी सजा दी जाय।
आजाद – तब तो वह जरूर ही माफ कर देंगी।
यह कह कर आजाद ने यह शेर पढ़ा –
खोल दी है जुल्फ किसने फूल से रुखसार पर?
छा गई काली घटा है आन कर गुलजार पर।
अफसर – अब तुम्हारे दीवानापन में हमें कोई शक न रहा।
आजाद – दीवाना कहो, चाहे पागल बनाओ। हम तो मरमिटे।
सख्तियाँ ऐसी उठाईं इन बुतों के हिज्र में!
रंज सहते-सहते पत्थर सा कलेजा हो गया।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 70
शाम के वक्त हलकी-फुलकी और साफ-सुथरी छोलदारी में मिस क्लारिसा बनाव-चुनाव करके एक नाजुक आराम-कुर्सी पर बैठी थी। चाँदनी निखरी हुई थी, पेड़ और पत्ते दूध में नहाये हुए और हवा आहिस्ता-आहिस्ता चल रही थी! उधर मियाँ आजाद कैद में पड़े हुए हुस्नआरा को याद करके सिर धुनते थे कि एक आदमी ने आ कर कहा – चलिए, आपको मिस साहब बुलाती हैं। आजाद छोलदारी के करीब पहुँचे तो सोचने लगे, देखें यह किस तरह पेश आती है। मगर कहीं साइबेरिया भेज दिया तो बेमौत ही मर जाएँगे। अंदर जा कर सलाम किया और हाथ बाँध कर खड़े हो गए। क्लारिसा ने तीखी चितवन कर कहा – कहिए मिजाज ठंडा हुआ या नहीं?
आजाद – इस वक्त तो हुजूर के पंजे में हूँ, चाहे कत्ल कीजिए, चाहे सूली दीजिए।
क्लारिसा – जी तो नहीं चाहता कि तुम्हें साइबेरिया भेजूँ, मगर वजीर के हुक्म से मजबूर हूँ! वजीर ने मुझे अख्तियार तो दे दिया है कि चाहूँ तो तुम्हें छोड़ दूँ, लेकिन बदनामी से डरती हूँ। जाओ रुखसत!
फौज के अफसर ने हुक्म दिया कि सौ सवार आजाद को ले कर सरहद पर पहुँचा आएँ। उनके साथ कुछ दूर चलने के बाद आजाद ने पूछा – क्यों यारो, अब जान बचने की भी कोई सूरत है या नहीं?
एक सिपाही – बस, एक सूरत है कि जो सवार तुम्हारे साथ जायँ वह तुम्हें छोड़ दें।
आजाद – भला, वे लोग क्यों छोड़ने लगे?
सिपाही – तुम्हारी जवानपी पर तरस आता है। अगर हम साथ चले तो जरूर छोड़ देंगे।
तीसरे दिन आजाद पाशा साइबेरिया जाने को तैयार हुए। सौ सिपाही पहरे जमाए हुए, हथियारों से लैस, उनके साथ चलने को तैयार थे। जब आजाद घोड़े पर सवार हुए तो हजारहा आदमी उनकी हालत पर अफसोस कर रहे थे। कितनी ही औरतें रूमाल से आँसू पोछ रही थीं। एक औरत इतनी बेकरार हुई कि जा कर अफसर से बोली – हुजूर, यह आप बड़ा गजब करते हैं। ऐसे बहादुर आदमी को आप साइबेरिया भेज रहे हैं।
अफसर – मैं मजबूर हूँ। सरकारी हुक्म की तामील करना मेरा फर्ज है।
दूसरी स्त्री – इस बेचारे की जान का खुदा हाफिज है। बेकुसूर जान जाती है।
तीसरी स्त्री – आओ, सब की सब मिल कर चलें और मिस साहब से सिफारिश करें। शायद दिल पसीज जाय।
ये बातें करके वह कई औरतों के साथ मिस क्लारिसा के पास जा कर बोलीं – हुजूर, यह क्या गजब करती हैं! अगर आजाद मर गए तो आपकी कितनी बड़ी बदनामी होगी?
क्लारिसा – उनको छोड़ना मेरे इमकान से बाहर है।
वह स्त्री – कितनी जालिम! कितनी बेरहम हो! जरा आजाद की सूरत तो चल कर देख लो।
क्लारिसा – हम कुछ नही जानते!
अब तक तो आजाद को उम्मेद थी कि शायद मिस क्लारिसा मुझ पर रहम करें लेकिन जब इधर से कोई उम्मेद न रही और मालूम हो गया कि बिना साइबेरिया गए जान न बचेगी तो रोने लगे। इतने जोर से चीखे कि मिस क्लारिसा के बदन के रोएँ खड़े हो गए और थोड़ी ही दूर चले थे कि घोड़े से गिर पड़े।
एक सिपाही – अरे यारो, अब यह मर जायगा।
दूसरा सिपाही – मरे या जिए, साइबेरिया तक पहुँचाना जरूरी है।
तीसरा सिपाही – भई, छोड़ दो। कह देना, रास्ते में मर गया।
चौथा सिपाही – हमारी फौज में ऐसा खूबसूरत और कड़ियल जवान दूसरा नहीं है। हमारी सरकार को ऐसे बहादुर अफसर की कदर करनी चाहिए थी।
पाँचवाँ सिपाही – अगर आप सब लोग एक-राय हों तो हम इसकी जान बचाने के लिए अपनी जान खतरे में डालें। मगर तुम लोग साथ न दोगे।
छठा सिपाही – पहले इसे होश में लाने की फिक्र तो करो।
जब पानी में खूब छींटे दिए गए तो आजाद ने करवट बदली। सवारों को जान में जान आई। सब उनको ले कर आगे बढ़े।