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अदल-बदल (उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री Part 1
१ : अदल-बदल
माया भरी बैठी थी। मास्टर हरप्रसाद ने ज्योंही घर में कदम रखा, उसने विषदृष्टि से पति को देखकर तीखे स्वर में कहा—‘यह अब तुम्हारे आने का समय हुआ है? इतना कह दिया था कि आज मेरा जन्मदिन है, चार मिलने वालियां आएंगी, बहुत कुछ बन्दोबस्त करना है, ज़रा जल्दी आना। सो, उल्टे आज शाम ही कर दी।’
‘पर लाचारी थी प्रभा की मां, देर हो ही गई!’
‘कैसे हो गई? मैं कहती हूं, तुम मुझसे इतना जलते क्यों हो?
इस तरह मन में आंठ-गांठ रखने से फायदा? साफ क्यों नहीं कह देते कि तुम्हें मैं फूटी आंखों भी नहीं सुहाती!’
‘यह बात नहीं है प्रभा की मां, तनख्वाह मिलने में देर हो गई। एक तो आज इन्स्पेक्टर स्कूल में आ गए, दूसरे आज फीस का हिसाब चुकाना था, तीसरे कुछ ऑफिस का काम भी हैडमास्टर साहब ने बता दिया—सो करना पड़ा। फिर आज तनखाह मिलने का दिन नहीं था—कहने-सुनने से हैडमास्टर ने बन्दोबस्त किया।’
‘सो उन्होंने बड़ा अहसान किया। बात करनी भी तुमसे आफत है। मैं पूछती हूं कि देर क्यों कर दी—आप लगे आल्हा गाने। देखूं, रुपये कहां हैं?
मास्टर साहब ने कोट अभी-अभी खूटी पर टांगा ही था, उसके जेब से पर्स निकालकर आंगन में उलट दिया। दस-दस रुपये के चार नोट जमीन पर फैल गए। उन्हें एक-एक गिनकर माया ने नाक-भौं चढ़ाकर कहा—‘चालीस ही हैं, बस?’
‘चालीस ही पाता हूं, ज्यादा कहां से मिलते?’
‘अब इन चालीस में क्या करूं? ओढूं या बिछाऊ? कहती हूं, छोड़ दो इस मास्टरी की नौकरी को, छदाम भी तो कार की आमदनी नहीं है। तुम्हारे ही मिलने वाले तो हैं वे बाबू तोताराम —रेल में बाबू हो गए हैं। हर वक्त घर भरा-पूरा रहता है। घी में घी, चीनी में चीनी, कपड़ा-लत्ता, और दफ्तर के दस बुली चपरासी—-हाजिरी भुगताते हैं वह जुदा। वे क्या तुमसे ज्यादा पढ़े हैं? क्यों नहीं रेल-बाबू हो जाते?’
‘वे सब तो गोदाम से माल चुराकर लाते हैं प्रभा की मां। मुझसे तो चोरी हो नहीं सकती। तनखाह जो मिलती है, उसीमें गुजर-बसर करनी होगी।
‘करनी होगी, तुमने तो कह दिया। पर इस महंगाई के जमाने में कैसे?
‘इससे भी कम में गुज़र करते हैं लोग प्रभा की मां।’
‘वे होंगे कमीन, नीच। मैं ऐसे छोटे घर की बेटी नहीं हूं।’
‘पर अपनी औकात के मुताबिक ही तो सबको अपनी गुजर-बसर करनी चाहिए। इसमें छोटे-बड़े घर की क्या बात है? अमीर आदमी ही बड़े आदमी नहीं होते, प्रभा की मां।’
‘ना, बड़े आदमी तो तुम हो, जो अपनी जोरू को रोटी-कपड़ा भी नहीं जुटा सकते। फिर तुम्हें ऐसी ही किसी कछारिन-महरिन से ब्याह करना चाहिए था। तुम्हारे घर का धन्धा भी करती, इधर-उधर चौका-बरतन करके कुछ कमा भी लाती। बी० ए० एम० ए० होते तो वह भी बी० ए०एम० ए० आ जाती और दोनों ही बाहर मजे करते। क्या जरूरत थी गृहस्थ बसाने की?’
मास्टर साहब चुप हो गए। वे पत्नी से विवाद करना नहीं चाहते थे। कुछ ठहरकर उन्होंने कहा–‘जाने दो प्रभा की मां, आज झगड़ा मत करो।’ वे थकित भाव से उठे, अपने हाथ से एक गिलास पानी उड़ेला और पीकर चुपचाप कोट पहनने लगे। वे जानते थे कि आज चाय नहीं मिलेगी। उन्हें ट्यूशन पर जाना था।
माया ने कहा—‘जल्दी आना, और टयूशन के रुपये भी लेते आना।’
मास्टरजी ने विवाद नहीं बढ़ाया। उन्होंने धीरे से कहा–‘अच्छा!’ और घर से बाहर हो गए।
बहुत रात बीते जब वे घर लौटे तो घर में खूब चहल-पहल हो रही थी। माया की सखी-सहेलियां सजी-धजी गा-बजा रही थीं। अभी उनका खाना-पीना नहीं हुआ था। माया ने बहुत-सा सामान बाजार से मंगा लिया था। पूड़ियां तली जा रही थीं और घी की सौंधी महक घर में फैल रही थी।
पति के लोट आने पर माया ने ध्यान नहीं दिया। वह अपनी सहेलियों की आवभगत में लगी रही। मास्टर साहब बहुत देर तक अपने कमरे में पलंग पर बैठे माया के आने और भोजन करने की प्रतीक्षा करते रहे, और न जाने कब सो गए।
प्रातः जागने पर माया ने पति से पूछा—‘रात को भूखे ही सो रहे तुम, खाना नही खाया?’
‘कहां, तुम काम में लगी थीं, मुझे पड़ते ही नींद आई तो फिर आंख ही नहीं खुली।’
‘मैं तो पहले ही जानती थी कि बिना इस दासी के लाए तुम खा नहीं सकते। रोज ही चाकरी बजाती हूं। एक दिन मैं तनिक अपनी मिलने वालियों में फंस गई तो रूठकर भूखे ही सो रहे। सो एक बार नहीं सौ बार सो रहो, यहां किसीकी धौंस नहीं सहने वाले हैं।’
‘नहीं प्रभा की मां, इसमें धौंस की क्या बात है? मुझे नींद आ ही गई।’
‘आ गई तो अच्छा हुआ, अब महीने के खर्च का क्या होगा?’
‘ट्यूशन ही के बीस रुपये जेब में पड़े हैं, उन्हीं में काम चलाना होगा।’
‘ट्यूशन के बीस रुपये? वे तो रात काम में आ गए। मैंने ले लिए थे।
‘वे भी खर्च कर दिए?’
‘बड़ा कसूर किया, अभी फांसी चढ़ा दो।’
‘नहीं, नहीं, प्रभा की मां, मेरा ख्याल था—चालीस रुपयों में तुम काम चला लोगी, बीस बच रहेंगे। इससे दब-भींचकर महीना कट जाएगा।’
‘यह तो रोज का रोना है। तकदीर की बात है, यह घर मेरी ही फूटी तकदीर में लिखा था। पर क्या किया जाए, अपनी लाज तो ढकनी ही पड़ती है। लाख भूखे-नंगे हों, परायों के सामने तो नहीं रह सकते। वे सब बड़े घर की बहू-बेटियां थीं, कोई खटीक-चमारिन तो थी ही नहीं। फिर साठ-पचास रुपये की औकात ही क्या है?’
मास्टर साहब चिन्ता से सिर खुजलाने लगे। उन्हें कोई जवाब नहीं सूझा। महीने का खर्च चलेगा कैसे, यही चिन्ता उन्हें सता रही थी। अभी दूध वाला आएगा, धोबी आएगा। वे इस माह में जूता पहनना चाहते थे—बिलकुल काम लायक न रह गया था। परन्तु अब जूता तो एक ओर रहा, अन्य आवश्यक खर्च की चिन्ता सवार हो गई।
पति को चुप देखकर माया झटके से उठी। उसने कहा—‘अब इस बार तो कसूर हो गया भई, पर अब किसीको न बुलाऊंगी। इस अभागे घर में तो पेट के झोले को भर लिया जाए, तो ही बहुत है।’
उसने रात का बासी भोजन लाकर पति के सामने रख दिया।
मास्टर साहब चुपचाप खाकर स्कूल को चले गए।
माया ने कहा—‘बिना कहे तो रहा नहीं जाता—अब तेली, तम्बोली, दूधवाला आकर मेरी जान खाएंगे तो? तुम्हें तो अपनी इज्जत का ख्याल ही नहीं, पर मुझसे तो इन नीचों के तकाजे नहीं सहे जाते!’
मास्टरजी ने धीमे स्वर में नीची नजर करके कहा—‘करूंगा प्रबन्ध, जाता हूं।’
२ : अदल-बदल
आजाद महिला-संघ की अध्यक्षा श्रीमती मालतीदेवी चालीस साल की विधवा थीं। अपने पति महाशय के साथ उन्होंने तीन बार सारे योरोप में भ्रमण किया था। वह योरोप की तीन-चार भाषाएं अच्छी तरह बोल सकती थीं। उनका स्वास्थ्य और शरीर का गठन बहुत अच्छा था। चालीस की दहलीज पर आने पर भी वे काफी आकर्षक थीं। मिलनसार भी वे काफी थीं। पति की बहुत बड़ी सम्पत्ति की वे स्वतन्त्र मालकिन थीं। विदेश में स्त्रियों की स्वाधीनता को देखकर उन्होंने भारत की सारी स्त्रियों को स्वाधीन करने का बीड़ा उठाया था। और भारत में आते ही आजाद महिला-संघ का सूत्रपात आरम्भ कर दिया था। इस आन्दोलन से उनकी जान-पहचान ब हुत बड़े-बड़े लोगों से तथा परिवारों में हो गई थी। उनकी बातें और बात करने का ढंग बड़ा मनोहर और आकर्षक था। दांतों की बतीसी यद्यपि नकली थी, पर जब वे अपनी मादक हंसी हंसती थीं तब आदमी का दिल बेबस हो ही जाता था। भिन्न-भिन्न प्रकृति और स्थिति के व्यक्तियों को मोहकर उन्हें अपने अनुकूल करने की विद्या में वे खूब सिद्धहस्त थीं।
मायादेवी की एक सहेली ने उनसे मायादेवी का परिचय कराया था। मायादेवी मालतीदेवी पर जी-जान से लहालोट थी। वह हर बात में उन्हें आदर्श मान उन्हीं के रंग-ढंग पर अपना जीवन ढालती जाती थी। परन्तु, मालतीदेवी के समान न तो वह विदुषी थी न स्वतन्त्र। उसके पति की आमदनी भी साधारण थी। अत: ज्यों-ज्यों मायादेवी मालती की राह चलती गई, त्यों-त्यों असुविधाएं उसकी राह में बढ़ती गईं, खर्च और रुपये-पैसे के मामले में उसका बहुधा पति से झगड़ा होने लगता। उसका अधिक समय आजाद महिला-संघ में, मालतीदेवी की मुसाहिबी में, गुजरता। घर से प्रायः वह बाहर रहती। इससे उनकी घर-गृहस्थी बिगड़ती चली गई। परन्तु जब उसके बढ़े हुए खर्चे में पति की सारी तनख्वाह भी खत्म होने लगी और रोज के खर्चे का झंझट बढ़ने लगा तब तो मास्टर जी का भी धैर्य छूट गया। और अब असन्तोष और गृह-कलह ने बुरा रूप धारण कर लिया। परन्तु पति के सौजन्य और नर्मी का मायादेवी गलत लाभ उठाती चली गई। उसकी आवारागर्दी, बेरुखाई, फजूलखर्ची और विवाद की भावनाएं बढ़ती ही चली गईं। उसे कर्ज लेने की भी आदत पड़ गई।
एक दिन मायादेवी ने मालतीदेवी से कहा—‘श्रीमती मालतीदेवी, मैं आपका परामर्श चाहती हूं। मैं अपने इस जीवन से ऊब गई हूं। आप मुझे सलाह दीजिए, मैं क्या करूं।’
मालती ने उससे सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए कहा—‘मेरी तुमसे बहुत सहानुभूति है, और मैं तुम्हारी हर तरह सहायता करने को तैयार हूं।’
‘तो कहिए—मैं कब तक इन पुरुषों की गुलामी करूं।’
‘मत सहन करो बहिन, पच्छिम से तो स्वाधीनता का सूर्य उदय हुआ है। तुम स्वाधीन जीवन व्यतीत करो। जीवन बहुत बड़ी चीज है, उसे यों ही बर्वाद नहीं किया जा सकता।
‘इन पुरुषों की प्रभुता का जुआ हमें अपने कधे पर से उतार फेंकना होगा, हमें स्वतन्त्र होना होगा। हम भी मनुष्य हैं–पुरुषों की भांति। कोई कारण नहीं जो हम उनके लिए घर-गिरस्ती करें, उनके लिए बच्चे पैदा करें और जीवनभर उनकी गुलामी करती हुई मर जाएं!’
‘यही मैं कहती हूं और यही चाहती भी हूं, पर समझ नहीं पा रही कि हूं कैसे अगला कदम उठाऊं।’
‘तुम आजाद महिला-संघ की सदस्या हो। तुम्हारे बिचार बड़े सुन्दर हैं, संघ तुम्हें सब तरह से मदद करेगा। वह तुम्हें जीवन देगा, मुक्ति देगा। जिसका हमें जन्मसिद्ध अधिकार है, वह हमें संघ में मिल सकता है।’
‘देखिए, वे स्कूल चले जाते हैं, तो मैं दिनभर घर में पड़ी-पड़ी क्या उनका इन्तजार करती रहूं या उनके बच्चे की शरारत से खीझती रहूं। यह तो कभी आशा ही नहीं की जा सकती कि वे मेरे लिए काई साड़ी लाएंगे या कोई गहना बनवाएंगे। आएंगे भी तो गुमसुम, उदास मुंह बनाए। आदमी क्या हैं बीसवीं सदी के कीड़े हैं। मालतीदेवी, क्या कहूं। उन्होंने कुछ ऐसी ठण्डी तबीयत पाई है कि क्या कहूं। मुझे तो अपनी मिलने वालियों में उन्हें अपना पति कहने में शर्म लगती है।”
‘हिन्दुस्तान में हजारों स्त्रियों की दशा तुम्हारी ही जैसी है बहिन। इससे उद्धार होने का उपाय स्त्रियों का साहस ही है।’
‘मैं तो अब इस जीवन से ऊब गई हूं। भला यह भी कोई जीवन है?’
‘अपने आत्मसम्मान की, अधिकारों की, स्वाधीनता की रक्षा करो।”परन्तु किस तरह, कैसे मैं इस बन्धन से मुक्ति पा सकती हूं।’
‘हिन्दू कोडबिल तुम्हारे लिए आशीर्वाद लाया है, नई जिन्दगी का संदेश लाया है। यह तुम्हारी ही जैसी देवियों के पैरों में पड़ी परतन्त्रता की बेड़ियों को काटने के लिए है। इससे तुम लाभ उठाओ।’
माया की आंखें चमकने लगीं। उसने कहा—‘यही तो मैं भी सोचती हूं श्रीमती जी। आपही कहिए, चालीस रुपये की नौकरी, फिर दूध धोए भी बना रहना चाहते हैं। आप ही कहिए, दुनिया के एक कोने में एक-से-एक बढ़कर भोग हैं, क्या मनुष्य उन्हें भोगना न चाहेगा?’
‘क्यों नहीं, फिर वे भोग बने किसके लिए हैं? मनुष्य ही तो उन्हें भोगने का अधिकार रखता है।’
‘यही तो। पर पुरुष ही उन्हें भोग पाते हैं। वे ही शायद मनुष्य हैं, हम स्त्रियां जैसे मनुष्यता से हीन हैं।’
‘हमें लड़ना होगा, हमें संघर्ष करना होगा। हमें पुरुषों की बराबर का होकर जीना होगा। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमने यह आजाद महिला-संघ खोला है। तुम्हें चाहिए कि तुम इसमें सम्मिलित हो जाओ। इसमें हम न केवल स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाते हैं, बल्कि स्त्रियों को स्वावलम्बी रहने के योग्य भी बनाते हैं। हमारा एक स्कूल भी है, जिसमें सिलाई, कसीदा और भांति-भांति की दस्तकारी सिखाई जाती है। गान-नृत्य के सीखने का भी प्रबन्ध है। हम जीवन चाहती हैं, सो हमारे संघ में तुम्हें भरपूर जीवन मिलेगा।’
‘तो में श्रीमतीजी, आपके संघ की सदस्या होती हूं। जब ये स्कूल चले जाते हैं मैं दिनभर घर में पड़ी ऊब जाती हूं। यह भी नहीं कि वे मेरे लिए कुछ उपहार लेकर आते हों या मेरे पास बैठकर दो बोल हंस-बोल लें। ईश्वर जाने कैसी ठण्डी तबियत पाई है। चुपचाप आते हैं, थके हुए, परेशान-से, और पूरे सुस्ता नहीं पाते कि ट्यूशन। प्रभा है, उनकी लड़की, उसीसे रात को हंसते-बोलते हैं। कहिए, यह कोई जीवन है? नरक, नरक सिर्फ मैं हूं जो यह सब सहती हूं।’
‘मत सहो, मत सहो बहिन, अपने आत्मसम्मान और स्वाधीनता की रक्षा करो।’
‘यही करूंगी श्रीमती जी। परन्तु हमारा सबसे बड़ा मुकाबला तो हमारी पराधीनता का है, माना कि कानून का सहारा पाकर हम वैवाहिक बन्धनों से मुक्त हो जाएं, परन्तु हम खाएंगी क्या? रहेंगी कहां? करेंगी क्या? हम स्त्रियां तो जैसे कटी हुई पतंग हैं, हमारा तो कहीं ठौर-ठिकाना है ही नहीं।’
“उसका भी बन्दोबस्त हो सकता है। पहिली बात तो यह है कि हिन्दू कोड बिल जब तुम्हें मुक्तिदान देगा तो तुम्हारे सभी बन्धन खोल देगा। तुम्हें सब तरह से आजाद कर देगा। पहले तो हिन्दू स्त्रियां पति से त्यागी जाकर पति से दूर रहकर भी विवाह नहीं कर सकती थीं, परन्तु अब तो ऐसा नहीं है। तुम मन चाहे आदमी से शादी कर सकती हो। अपनी नई गृहस्थी बना सकती हो, अपना नया जीवन-साथी चुन सकती हो। इसके अतिरिक्त तुम पढ़ी-लिखी सोशल महिला हो, तुम्हें थोड़ी भी चेष्टा करने से कहीं-न-कहीं नौकरी मिल सकती है। तुम बिना पति की गुलाम हुए, बिना विवाह किए, स्वतन्त्रतापूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकती हो।’
‘तो श्रीमती मालतीदेवी, क्या आप मेरी सहायता करेंगी? क्या आपके आसरे मैं साहस करूं? मैं तो बहुत डरती हूं। समझ नहीं पाती, क्या करूं।’
“आरम्भ में ऐसा होता है, पर बिना साहस किए तो पैर की बेड़ी कटती नहीं बहिन! तुम जब तक स्वयं अपने पैरों पर खड़ी न होगी तब तक दूसरा कोई तुम्हें क्या सहारा देगा?’
‘तो आप बचन देती हैं कि आप मेरी मदद करेंगी?’
‘जरूर करूंगी।’
‘लेकिन कानूनी झंझट का क्या होगा?’
‘मेरे एक परिचित वकील हैं, मैं तुम्हें उनके नाम परिचय-पत्र दे दूंगी। उनसे मिलने से तुम्हारी सभी कठिनाइयां हल हो जाएंगी।’
‘अच्छी बात है।’
‘मैं तुम्हारा अभिनन्दन करती हूं मायादेवी, मैं चाहती हूं तुम भी पुरुषों की दासता में फंसी दूसरी हजारों स्त्रियों के लिए एक आदर्श बनो। साहसिक कदम उठाओ और नई दुनिया की स्त्रियों की पथ-प्रदर्शिका बनो। मैं तुम्हारे साथ हूं।’
‘धन्यवाद मालतजी,आपका साहस पाकर मुझे आशा है, अब कोई भय नहीं। मैं अपने मार्ग से सभी बाधाओं को बलपूर्वक दूर करूंगी।’ ‘तो कल आना। हमारा वार्षिकोत्सव है, बहुत बड़ी बड़ी देवियां आएंगी, उनके भाषण होंगे, भजन होंगे, नृत्य होगा, गायन होगा, नाटक होगा, प्रस्ताव होंगे और फिर प्रीतिभोज होगा। कहो, आओगी न?’
‘अवश्य आऊंगी।’
‘तुम्हें देखकर चित्त प्रसन्न हुआ। याद रखो, तुम्हारी जैसी ही देवियों के पैरों में पड़ी परतन्त्रता की बेडियां काटने के लिए हमने यह संस्था खोली है।’
३ : अदल-बदल
मास्टर साहब टयूशन पर जाने की तैयारी में थे। माया ने कहा—‘सुनते हो, मुझे एक नई खादी की साड़ी चाहिए, और कुछ रुपये। महिला-संघ का जलसा है, मैंने उसमें स्वयं-सेविकाओं में नाम लिखाया है।’
‘किन्तु रुपये तो अभी नहीं हैं, साड़ी भी आना मुश्किल है, अगले महीने में…’
माया गरज पड़ी—‘अगले महीने में या अगले साल में! आखिर क्या में भिखारिन हूं? मैं भी इस घर की मालकिन हूं, ब्याही आई हूं—बांदी नहीं।
‘सो तो ठीक है प्रभा की मां, परन्तु रुपया तो नहीं है न। इधर बहुत-सा कर्जा भी तो हो गया है, तुम तो जानती ही हो..।’
‘मुझे तुम्हारे कर्जों से क्या मतलब? कमाना मर्दों का काम है या औरतों का? कहो तो मैं कमाई करूं जाकर?’
‘नहीं, नहीं, यह मेरा मतलब नहीं है। पर अपनी जितनी आमदनी है उतनी…’
‘भाड़ में जाए तुम्हारी आमदनी। मुझे साड़ी चाहिए, और दस रुपये।’
‘तो बन्दोबस्त करता हूं।’ मास्टर साहब और नहीं बोले, छाता सम्भालकर चुपचाप चल दिए।
पूरी तैयारी के साथ सज-धजकर जब माया जलसे में गई तो हद दरजे चमत्कृत और लज्जित होकर लौटी। चमत्कृत हुई वहां के वातावरण से, व्याख्यानों से, कविताओं और नृत्य से, मनोरंजन के प्रकारों से। उसने देखा, समझा—अहा, यही तो सच्चा जीवन है, कैसा आनन्द है, कैसा उल्लास है, कैसा विनोद है! परन्तु जब उसने अपनी हीनावस्था का वहां आनेवाली प्रत्येक महिला से मुकाबला किया तो लज्जित हुई। उसने दरिद्र, निरीह पति से लेकर घर की प्रत्येक वस्तु को अत्यन्त नगण्य, अत्यन्त क्षुद्र, अत्यन्त दयनीय समझा, और वह अपने ही जीवन के प्रति एक असहनीय विद्रोह और असन्तोष-भावना लिए बहुत रात गए घर लौटी।
मास्टर साहब उसकी प्रतीक्षा में जागे बैठे थे। प्रभा पिता की कहानियां सुनते-सुनते थककर सो गई थी। भोजन तैयार कर,आप खा और प्रभा को खिला, पत्नी के लिए उन्होंने रख छोड़ा था।
माया ने आते ही एक तिरस्कार-भरी दृष्टि पति और उस शयनगार पर डाली, जो उसके कुछ क्षण पूर्व देखे हुए दृश्यों से चकाचौंध हो गई थी। उसे सब कुछ बड़ा ही अशुभ, असहनीय प्रतीत हुआ। वह बिना ही भोजन किए, बिना ही पति से एक शब्द बोले, बिना ही सोती हुई फूल-सी प्रभा पर एक दृष्टि डाले चुप-चाप जाकर सो गई।
मास्टर साहब ने कहा—‘और खाना?’
‘नहीं खाऊंगी।’
‘कहां खाया?’
‘खा लिया।’
और प्रश्न नहीं किया। मास्टर साहब भी सो गए।
माया प्रायः नित्य ही महिला-संघ में जाने लगी। उन्मुक्त वायु में स्वच्छन्द सांस लेने लगी; पढ़ी-लिखी, उन्नतिशील कहाने वाली लेडियों-महिलाओं के संपर्क में आई; जितना पढ़ सकती थी, पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने लगी। उसने सुना—उन महामहिम महिलाओं में, जो सभाओं और जलसों में ठाठदार साड़ी धारण करके सभानेत्रियों के आसन को सुशोभित करती हैं, चारों ओर स्त्री-पुरुष जिनका आदर करते हैं, जिन्हें प्रणाम करते हैं, हंस-हंसकर झुककर जिनका सम्मान करते हैं, उनमें कोई घर को त्याग चुकी है, कोई पति को त्याग चुकी है; उनका गृहस्थ- जीवन नष्ट हो चुका है, वे स्वच्छन्द हैं, उन्मुक्त हैं, वे बाधाहीन हैं, वे कुछ घंटों ही के लिए नहीं, प्रत्युत महीनों तक चाहे जहां रह और चाहे जहां जा सकती हैं, उन्हें कोई रोकने वाला, उनकी इच्छा में बाधा डालने वाला नहीं है। उसे लगा, यही तो स्त्री का सच्चा जीवन है। वे गुलामी की बेड़ियों को तोड़ चुकी हैं, वे नारियां धन्य हैं।
ऐसे ही एक सामाजिक मिलन में उसका परिचय नगर के प्रख्यात डाक्टर कृष्णगोपाल से हुआ। डाक्टर से ज्योंही उसका अकस्मात् साक्षात् हुआ, उसने पहली ही दृष्टि में उसकी भूखी आंखों की याचना को जान लिया। उसने अनुभव किया कि सम्भवतः इस पुरुष से उसे मानसिक सुख मिलेगा। उधर डाक्टर भी अपने पौरुष को अनावृत करके निरीह भिखारी की भांति प्रशंसक वचनों पर उतर आया। याचक की प्रियमूर्ति, जिसके दर्शन से ही संचारीभाव का उदय होता है, और जिसका आतुर आकुल शरीर स्पर्श उष्णता प्रदान करता है, ऐसा ही यह व्यक्ति, उसे अनायास ही प्राप्त हो गया।
एक दिन सभा में जब सभानेत्री महोदया, तालियों की प्रचण्ड गड़गड़ाहट में ऊंची कुर्सी पर बैठी ( उपस्थित प्रमुख पुरुषों और महिलाओं ने उन्हें सादर मोटर से उतारकर फूलमालाओं से लाद दिया था ) तो माया के पास बैठी एक महिला ने मुंह बिचकाकर कहा—‘लानत है इसपर; यहां ये ठाट हैं, वहां खसम ने पीटकर घर से निकाल दिया है। अब मुकदमेबाजी चल रही है।’
दूसरी देवी ने कुतूहल से पूछा—‘क्यों? ऐसा क्यों है?’
‘कौन अपनी औरत का रात-दिन पराये मर्दो के साथ घूमते रहना, हंस-हंसकर बातें करना पसन्द करेगा भला? घर-गिरस्ती देखना नहीं, देशोद्धार करना या महिलोद्धार करना और घर- बाहर आवारा फिरना।’
‘तो फिर बीबी, बिना त्याग किए यों देशसेवा हो भी नहीं सकती।’
‘खाक देशसेवा है। जो अपने पति और बाल-बच्चों की सेवा नहीं कर सकती, अपनी घर-गिरस्ती को नहीं सभाल सकती, वह देशसेवा क्या करेगी ? देश के शांत जीवन में अशांति की आग अवश्य लगाएगी।’
माया को ये बातें चुभ रही थीं। उससे न रहा गया, उसने तीखी होकर कहा-‘क्या चकचक लगाए हो बहिन, घर-गिरस्ती जाकर संभालो न, यहां वक्त बरबाद करने क्यों आई हो?’
महिला चुप तो हो गई पर उसने तिरस्कार और अवज्ञा की दृष्टि से एक बार माया को और एक बार सभानेत्री को देखा।
माया सिर्फ स्त्रियों ही के जलसों में नहीं आती-जाती थी, यह उन जलसों में भी भाग लेने लगी, जिनमें पुरुष भी होते। बहुधा वह स्वयं सेविका बनती, और ऐसे कार्यों में तत्परता दिखाकर वाहवाही लूटती। उसकी लगन, तत्परता, स्त्री-स्वातन्त्र्य की तीव्र भावना के कारण इस जाग्रत् स्त्री-जगत में उसका परिचय काफी बढ़ गया। वह अधिक विख्यात हो गई। लीडर-स्त्रियों ने उसे अपने काम की समझा, उसका आदर बढ़ा। माया इससे और भी प्रभावित होकर इस सार्वजनिक जीवन में आगे बढ़ती गई और अब उसकी वह क्षुद्र-दरिद्र गिरस्ती, छोटी-सी पुत्री और समाज में अतिसाधारण-सा अध्यापक उसका पति, सब कुछ हेय हो गया।
वह बहुत कम घर आती। बहुधा मास्टर साहब को खाना स्वयं बनाना पड़ता, चाय बनाना तो उनका नित्य कर्म हो गया।पुत्री प्रभा की सार-संभार भी उन्हें करनी पड़ने लगी। वे स्कूल जाएं, टयूशन करें, बच्ची को संभालें, भोजन बनाएं और घर को भी संभालें, यह सब नित्य-नित्य सम्भव नहीं रहा। घर में अव्यवस्था और अभाव बढ़ गया। माया और भी तीखी और निडर हो गई। वह पति पर इतना भार डालकर, उनकी यत्किचित् भी सहायता न करके, उनकी सारी सम्पत्ति को अधिकृत करके भी निरन्तर उनसे क्रुद्ध और असन्तुष्ट रहने लगी। पति की क्षुद्र आय का सबसे बड़ा भाग उसकी साड़ियों में, चन्दों में, तांगे के भाड़े में और मित्र-मित्राणियों के चाय-पानी में खर्च होने लगा। मास्टर साहब को मित्रों से ऋण लेना पड़ा। ऋण मास-मास बढ़ने लगा और फिर भी खर्च की व्यवस्था बनी नहीं। दूध आना बन्द हो गया, घी की मात्रा कम हो गई, साग-सब्जी में किफायत होने लगी। मास्टरजी के कपड़े फट गए, उन्होंने और एक ट्यूशन कर ली। वे रात-दिन पिसने लगे। छोटी-सी बच्ची चुपचाप अकेली घर में बैठी पिता और माता के आगमन की प्रतीक्षा करने की अभ्यस्त हो गई। बहुधा वह बहुत रात तक, सन्नाटे के आलम में, अकेली घर में डरी हुई, सहमी हुई, बैठी रहती। कभी रोती, कभी रोती-रोती सो जाती, बहुधा मूखी- प्यासी।
४ : अदल-बदल
साढ़े आठ बज चुके थे। मास्टर हरप्रसाद अपनी दस वर्ष की पुत्री प्रभा के साथ बातचीत करके उसका मन बहला रहे थे। ऊपर से वे प्रसन्न अवश्य दीख रहे थे, परन्तु भीतर से उनका मन खिन्न और उदास हो रहा था। इधर दिन-दिनभर जो उनकी पत्नी मायादेवी घर से गायब रहने लगी थी। यह उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। उनके समुद्र के समान शान्त और गम्भीर हृदय में भी तूफान के लक्षण प्रकट हो रहे थे। फिर भी पिता-पुत्री प्रेम से बातचीत कर रहे थे।
प्रभा ने कहा-‘पिताजी आज आप मुझे कमरे में टंगी तस्वीरों में इन महापुरुषों को महिमा समझाइए।’
मास्टर ने प्रेम की दृष्टि से पुत्री की ओर देखा और फिर दीवार पर लगी बुद्ध की बड़ी-सी तस्वीर की ओर उंगली उठाकर कहा-‘यह हैं भगवान बुद्ध, जिन्होंने राज-सुख त्याग कठोर संयम व्रत लिया, और विश्व को अहिंसा का संदेश दिया। उन्होंने मूक प्राणियों की ऐसी भलाई की कि आधी दुनिया इनके चरणों में झुक गई।’
फिर उन्होंने शंकराचार्य की मूर्ति की ओर संकेत करके कहा-‘ये शंकर हैं, जिन्होंने ब्रह्म-पद पाया, संसार को मायाजाल से छुड़ाया, थोड़ी ही अवस्था में इन्होंने उत्तर से दक्षिण तक नये हिन्दू धर्म की स्थापना की।
मास्टर बड़ी देर तक उस मूर्ति की ओर एक टक देखते रहे, फिर उन्होंने प्रताप, शिवाजी की ओर संकेत करके कहा-‘ये वीरशिरोमणि प्रताप हैं, जिन्होंने पच्चीस वर्ष वन में दुःख पाए पर शत्रु को सिर नहीं झुकाया। ये शिवाजी हैं जिन्होंने हिन्दुओं की मर्यादा रक्खी, इन्होंने ऐसी तलवार चलाई कि दक्षिण में इनकी दुहाई फिर गई।’ अन्त में उन्होंने स्वामी दयानन्द की ओर देखकर कहा-‘ये स्वामी दयानन्द हैं, जिन्होंने वेदों का उद्धार किया, सोते हुए हिन्दू धर्म को, सत्य का शंख फूंककर जगा दिया।’
फिर मास्टरजी ने गांधीजी के चित्र की ओर उंगली उठाकर कहा-‘और ये…’प्रभा ने उतावली से कहा-‘बापू हैं, मैं जानती हूं।’
‘हां, जिन्होंने भारत की दासता की बेड़ियां काटी, प्रेम की गंगा भारत में बहाई, हमें जीवन दिया और अपना जीवन बलि- दान किया। जो विश्व-क्रान्ति के पिता-अहिंसा के पुजारी और सत्य के प्रतीक थे।’
बड़ी देर तक मास्टरजी दीवार पर लगी हुई उन महापुरुषों की तस्वीरों की प्रशंसा करते रहे। फिर उन्होंने कहा-‘पुत्री, जो कोई इन महापुरुषों के पदचिन्हों पर चलेगा, उसका जीवन धन्य हो जाएगा।’
प्रभा ने कहा-‘पिताजी मैं बड़ी होकर इन महापुरुषों की शिक्षाओं पर चलूंगी।’
मास्टरजी ने पुत्री की पीठ पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा- ‘पुत्री, ये सब हमारे देश के पूज्य पुरुष हैं, उनकी नित्य पूजा-सेवा करना बालकों का धर्म है।’
पिता-पुत्री इस प्रकार वार्तालाप में मग्न थे कि मायादेवी ने झपटते हुए घर में प्रवेश किया। सीधी अपने कमरे में चली गई।
प्रभा ने प्रसन्न मुद्रा से कहा-‘पिताजी! माताजी आ गई।’
मास्टरजी ने सहज स्वर में कहा-‘इतनी देर कर दी। बेचारी प्रभा भूखो बैठी है, कहती है, माताजी के साथ ही खाऊंगी।’
बालिका ने कहा-‘माताजी, अभी पिताजी ने भी तो भोजन नहीं किया है। आओ, हमको भोजन दो।’
मायादेवी इस समय शृंगार-टेबुल के सामने बैठकर जल्दी-जल्दी होंठों पर लिपिस्टिक फेर रही थी, उसने वहीं से कहा-‘मुझे फुर्सत नहीं है।’
माता का यह रूखा जवाब सुनकर भूखी पुत्री पिता की ओर देखने लगी।
मास्टरजी ने कहा-‘खाना खा लो प्रभा की मां।’
‘मैं तो खा आई हूं।’ फिर उसने दो-तीन साड़ियां उलट-पुलट करते हुए पति की ओर देखकर पूछा-‘ज़रा देखो तो,कौन-सी ठीक जंचेगी।’
परन्तु मास्टर ने थोड़ा क्रुद्ध होकर कहा.. ‘ये साड़ियां इस वक्त क्यों देखी जा रही हैं ?
‘मुझे जाना है।’ माया ने जल्दी-जल्दी हाथ चलाते हुए कहा।
मास्टर ने कहा-‘यह घर से बाहर जाने का समय नहीं है, बाहर से आकर आराम करने का समय है।’
‘भाई, तुमने तो नाक में दम कर दिया। मुझे जाना है। आज आजाद महिला-सघ में डान्स है, जानते तो हो-मेरे न होने से वहां कैसा बावैला मच जाएगा।’
‘तो दिन-दिनभर घर से बाहर रहना काफी न था, अब रात- रातभर भी घर से बाहर रहना होगा?’
‘पिजरे में बंद पंछी की तरह रहना मुझे पसन्द नहीं है।’
‘परन्तु नारी धर्म का निर्वाह घर ही में होता है। घर के बाहर पुरुष का संसार है। घर के बाहर स्त्री, पुरुष की छाया की भांति अनुगामिनी होकर चल सकती है, और घर के भीतर पुरुष पुरुषत्व धर्म को त्यागकर रह सकता है। यह हमारी युग-युग की पुरानी गृहस्थ-मर्यादा है।’ मास्टरजी ने आवेश में आकर कहा।
किन्तु माया दूसरे ही मूड में थी। उसने नाक-भौं सिकोड़कर कहा-‘इस सड़ी-गली मर्यादा के दिन लद गए। अब स्वतन्त्रता के सूर्य ने सबको समान अधिकार दिए हैं, अब आप नारी को बांधकर नहीं रख सकते।
बांधकर रखने की बात नहीं। नारी का कार्यक्षेत्र घर है, पुरुष का घर से बाहर। पुरुष अपने पुरुषार्थ से सुख-संपत्ति ढो-ढो-कर लाता है, नारी उसे सजाकर उपभोग के योग्य बनाती है पुरुष का काम प्रकट है। स्त्री का मुप्त है। पुरुष संचय करता है—स्त्री प्रेम दिखाकर उसे पुरस्कृत करती है। पुरुष संसार के झंझटों का बोझ ढो-ढोकर थका-मांदा जब घर आता है तो स्त्री प्रेम की वर्षा करके उसकी थकान दूर करती है। पुरुष का धर्म कठोर है, स्त्री का धर्म कोमल और दयनीय है। इसीलिए—नारी का स्थान प्यार है और वहीं रहकर वह पुरुषों पर अमृत की वर्षा कर सकती है।
‘और यदि स्त्री भी घर के बाहर अपना कर्मक्षेत्र बनाए तो?’
‘तो यह उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा। संसार के झंझटों का झंझावात उसके रूप-रस को सुखाकर उसे नीरस बनाडालेगा। घर से बाहर का कठिन संसार पुरुष के मस्तिष्क और बलवान भुजाओं से ही जीता जा सकता है, स्त्री के कोमल बाहुपाश और भावुक हृदय से नहीं।’
‘युग-युग से नारी को पुरुष ने घर के बन्धन में डालकर कमजोर बना दिया है, अब वे भी पुरुष के समान बल संचित कर घर के बाहर के संसार में विचरण करेंगी।’ मायादेवी ने उपेक्षा से पति की ओर देखते हुए कहा।
किन्तु मास्टरजी ने सहज शान्त भाव से कहा—‘तब उनमें से पुरुष को उत्साहित करने का जादू उड़छू हो जाएगा। उनके जिस स्निग्ध स्नेह-रस का पान कर पुरुष मस्त हो जाता है, वह रूप खत्म हो जाएगा। उनके पवित्र आंचल की बायु से पुरुषों की कायरता को नष्ट कर डालने के सामर्थ्य का लोप हो जाएगा। पुरुषों का घर सूना हो जाएगा। नारी का ध्रुव भंग हो जाएगा।’
‘यों क्यों नहीं कहते कि नारी के स्वतन्त्र होने से प्रलय हो जाएगी।’ मायादेवी ने तिनककर कहा।
अवश्य हो जाएगी। जैसे पृथ्वी अपने ध्रुव पर स्थिर होकर घूमती है, उसी प्रकार घर के केन्द्र में स्त्री को स्थापित करके ही संसार-चक्र घूमता है। स्त्री घर की लक्ष्मी है। समाज उन्हीं पर अवलम्बित है। स्त्री केन्द्र से विचलित हुई तो समाज भी छिन्न- भिन्न हो जाएगा।’
‘ऐसा नहीं हो सकता। जैसे पुरुष स्वतन्त्र भाव से घूम-फिर-कर घर लौट आता है, वैसे स्त्री भी लौट आ सकती है।’
‘नहीं आ सकती। पुरुष देखना और जानना चाहता है, अपनाना नहीं। क्योंकि उसमें केवल ज्ञान है। परन्तु स्त्री वस्तु-संसर्ग में आकर उससे लिप्त हो जाती है, क्योंकि उसमें निष्ठा है।’
‘क्यों?’
‘क्योंकि नारी की प्रतिष्ठा प्राणों में है, पुरुष की विचारों में। नारी समाज का हृदय है, पुरुष समाज का मस्तिष्क। इसलिए नारी सक्रिय है, और पुरुष निष्क्रिय है? नारी केन्द्रमुखी शक्ति है, और पुरुष केन्द्रविमुख है। इसीसे नारी को केन्द्र बनाकर पुरुष-संघ बना है जो नारी के चारों ओर चक्कर काटता रहता है।
‘पर जीवन की सामग्री पर नारी का अधिकार है, पुरुष का नहीं।’
‘हां, किन्तु नारी की इसी शक्ति ने नारी को पुरुषों से बांध रखा है।’
‘परन्तु अब नारी बन्धनमुक्त होकर रहेगी।’
‘तो वह स्वयं नष्ट होकर संसार को और समाज के संगठन को भी नष्ट कर देगी।’
‘ये सब पुरुषों के स्वार्थ की बातें हैं।’
‘यह वह सत्य है, जिसमें नर और नारी के दो रूप होने के भेद छिपे हैं। नर नर है, नारी नारी है।’
‘परन्तु नर-नारी दोनों समान हैं।’
‘समान नहीं हैं, दोनों मिलकर एक इकाई हैं। न पुरुष अकेला एक है, न स्त्री अकेली एक है। दोनों आधे हैं, दोनों मिलकर एक हैं।’
‘ऐसा नहीं है।’
‘ऐसा ही है। स्त्री पुरुष की भूखी है, पुरुष स्त्री का भूखा है, दोनों में दोनों की कमी है। दोनों एक-दूसरे को आत्मदान देकर जब एक होते हैं, तब वे पूर्ण इकाई बनते हैं।’
‘स्त्रियों को भी अधिकार है।’
‘जब स्त्री-पुरुष दोनों मिलकर एक इकाई हुए—तो पृथक अधिकार कहां रहे?’
‘वे रहेंगे, हम उन्हें प्राप्त करेंगी।’
‘अथवा जो प्राप्त हैं उन्हें भी खोएंगी?’
बातचीत हो रही थी और मायादेवी का श्रृंगार भी हो रहा था। अब कंघी-चोटी से लैस होकर उन्होंने कहा—‘अच्छा, मैं जाती हूं।’
‘यह ठीक नहीं है प्रभा की मां।’
‘वापस आने पर मैं तुम्हारे उपदेश सुनूंगी, परन्तु अबतो समय बिलकुल नहीं है।’
मायादेवी तेजी से चल दी। उन्होंने उलटकर पुत्री और पति की ओर देखा भी नहीं।
५ : अदल-बदल
डाक्टर कृष्णगोपाल आज बहुत खुश थे। वे उमंग में भरे थे, जल्दी-जल्दी हाथ में डाक्टरी औजारों का बैग लिए घर में घुसे, टेबुल पर बैग पटका, कपड़े उतारे और बाथरूम में घुस गए। बाथरूम से सीटी की तानें आने लगी और सुगन्धित साबुन की महक घर भर में फैल गई। बाथरूम ही से उन्होंने विमलादेवी पर हुक्म चलाया कि झटपट चाइना सिल्क का सूट निकाल दें।
विमलादेवी ने सूट निकाल दिया, कोट की पाकेट में रूमाल रख दिया और पतलून में गेलिस चढ़ा दी। परन्तु डाक्टर कृष्ण-गोपाल जब जल्दी-जल्दी सूट पहन, मांग-पट्टी से लैस होकर बाहर जाने को तैयार हो गए—तो विमलादेवी ने उनके पास आकर धीरे से कहा—‘और खाना?’
‘खाना नहीं खाऊंगा।’
‘क्यों?’
‘पार्टी है, वहां खाना होगा।’
‘लेकिन रोज-रोज की ये पार्टियां कैसी हैं?’
‘तुम्हें इस पंचायत से वास्ता?’
‘आप नाहक तीखे होते हैं, आखिर यह घर है कि सराय! सुबह से निकले और अब नौ बजे हैं। दिनभर गायब। अब आए सो चल दिए। शायद एक-दो बजे आएंगे, शराब में बदहवास। अबमैं कहां तक रोज-रोज यह भुगतूं। यह कोनसा जिन्दगी का तरीका है।’
डाक्टर ने घड़ी पर नजर फेंककर कहा—‘ओफ, नौ यहीं बज गए? गजब हो गया। झटपट सेफ से दो सौ रुपये निकाल दो। देर हो रही है।’
‘दो सौ रुपये किसलिए?’
‘तुम्हारे क्रिया-कर्म के लिए। कहता हूं, देर हो रही है, और तुम अपनी हुज्जत ही नहीं छोड़तीं—अजीब जाहिल हो।’
‘जाहिल ही सही, मगर तुम्हारी पत्नी हूं। मुझे भी कुछ हक है।’
‘तो यह हक का दावा अदालत में दाखिल करना बाबा, मेरा वक्त बर्बाद न करो, रुपये निकाल दो।’
‘मैं पूछती हूं, किसलिए?’
‘तुम पूछने वाली कौन हो? मुझे जरूरत है।’
‘मैं जानना चाहती हूं—क्या जरूरत है।’
‘हद कर दी। अरी बेवकूफ औरत, मैं रुपये मांग रहा हूं, सुना कि नहीं।’
‘और मैं यह जानना चाहती हूं कि रोज-रोज रात-रातभर घर से बाहर रहने, शराबखोरी करने और इतना रुपया फूंकने का मतलब क्या है?
‘तबीयत कोफ्त कर दी। मैं कहता हूं, रुपया निकाल दो।’
‘मैं कहती हूं, रुपया नहीं मिलेगा।’
‘क्यों नहीं मिलेगा? क्या रुपया तुम्हारे बाप का है?’
‘बाप के रुपये पर हिन्दू स्त्री का अधिकार नहीं होता। रुपया मेरे पति का है। उसपर मेरा पूरा अधिकार है।’
‘अरी डायन, यह अधिकार तू मेरे मरने के बाद दिखाना, अभी तो मैं जिन्दा हूं और अपने रुपये का तथा हर एक चीज का मालिक मैं ही हूं।’
‘मुझे तुमसे बहस नहीं करनी है। लेकिन मैं तुम्हें आज नहीं जाने दूंगी।’
‘तू नहीं जाने देगी? और रुपया भी नहीं देगी?’
‘नहीं दूंगी।’
‘तेरी इतनी हिम्मत! मैं तुझे काटकर रख दूंगा।’
‘ऐसा कर सकते हो।
डाक्टर तेजी से आगे बढ़कर एकदम विमलादेवी के निकट आ गए, और दांत किटकिटाकर कहा-‘सेफ की चाभी दे !’
‘नहीं दूंगी।’
‘अरी चुडैल, बता चाभी कहां है ?’
‘नहीं बताऊंगी, नहीं दूंगी।’
‘क्या तू आज ही मरना चाहती है ?’
‘जब मरने का वक्त आएगा, खुशी से मरूंगी?’
‘तो मर फिर।’
डाक्टर ने जोर से उसका गला दबाकर उसे ऊपर उठा लिया और फिर जमीन पर पटक दिया। इसके बाद वे सेफ की चाभी घर भर में ढूंढ़ने को आलमारी और मेजों की ड्रावरों से सामान निकाल-निकालकर इधर-उधर छितराने लगे। विमला-देवी का दीवार से टकराकर सिर फट गया और वे खून में नहा गईं। पांच वर्ष की सोती हुई बच्ची जागकर चीख मार-मारकर रोने लगी। डाक्टर को आखिर चाभी मिल गई। वे सेफ की ओर लपके। पर विमलादेवी ने दौड़कर दोनों हाथों से सेफ पकड़ लिया। वह सेफ से सीना भिड़ाकर खड़ी हो गईं। डाक्टर ने तड़ा-तड़ सेफ की बड़ी चाभी की निर्दय मार विमलादेवी की उंगलियों पर मारनी शुरू की। विमलादेवी के हाथ लोहूलुहान हो गए। वे बेहोश होने लगीं । उन्हें एक ओर ढकेलकर डाक्टर कृष्णगोपाल ने सेफ का ताला खोल डाला और नोटों का बण्डल जेब में डाल तेजी से घर के बाहर हो गए। बेहोश और खून में लतपत पत्नी की ओर उन्होंने नजर नहीं डाली, भय और आतंक से माता की छाती पर सिसकती हुई पुत्री पर भी नहीं।
६ : अदल-बदल
डाक्टर जब क्लब में पहुंचे तो दस बज रहे थे। मायादेवी सुर्ख जार्जेट की साड़ी में मूत्तिमान मदिरा बनी हुई थीं। उन्होंने सफेद जाली की चुस्त स्लीवलेस वास्केट पहन रखी थी। अपनी कटीली बड़ी-बड़ी आंखों को उठाकर मायादेवी ने कहा- ‘ओफ, अब आपको फुर्सत मिली है, मर चुकी मैं तो इन्तजार करते-करते।’
‘मुझे अफसोस है मायादेवी, मुझे देर हो गई। क्या कहं, ऐसी जाहिल औरत से पाला पड़ा है कि जिन्दगी कोफ्त हो गई। जब देखिए-रोनी सूरत
मायादेवी से सटकर एक तरुण युवक और बैठा था। शीतल पेय के गिलास को टेबुल पर रख और सिगरेट का धुआं मुंह से उड़ाकर उसने कहा-‘डाक्टर अव शरीफ आदमियों को जाहिल औरतों से पिण्ड छुड़ा लेना चाहिए। अच्छा मौसम है। डाक्टर अम्बेडकर साहब को दुआ दीजिए और नेहरू साहब की खैर मनाइए कि जिनकी बदौलत हिन्दू कोडबिल पास हो रहा है । अब शरीफ एजुकेटेड हिन्दू लेडीज और जेन्टलमैन दोनों को राहत, आजादी और खुशी हासिल होगी।’
‘मगर ये कम्बख्त हिन्दू इसे कानून बनने दें तब तो ? खासकर ये ग्यारह नम्बर के चोटीधारी चण्डूल वह बावैला मचा रहे हैं कि जिसका नाम नहीं।’
‘लेकिन दोस्त, आज नहीं तो कल, कोडबिल बनकर ही रहेगा। इन दकियानूसों की एक न चलेगी।’
‘मगर अफसोस, तब तक तो मायादेवी बूढ़ी हो जाएंगी,इनका सब निखार ही उतर जाएगा।’
मायादेवी ने तिनककर कहा-‘अच्छा, अब मुझे भी कोसने लगे! यों क्यों नहीं कहते कि मायादेवी तब तक मर हीजाएगी।’
‘लाहौल बिला कूबत, ऐसी मनहूस बात जबान पर न लाना मायादेवी, कहे देता हूं। मरें तुम्हारे दुश्मन। और इस कोडबिल ने भी तबीयत कोफ्त कर दी। लो यारो, एक-एक पैग चढ़ाओ, जिससे तबीयत ज़रा भुरभुरी हो। उन्होंने जोर से पुकारा ‘बॉय।’
वैरा आ हाजिर हुआ। डाक्टर ने जेब से सौ का नोट निकाल कर कहा–‘झटपट दो बोतल ह्विस्की, बर्फ, सोडा।’
‘लेकिन हुजूर, आज तो ड्राई डे है!’
‘अबे ड्राई डे के बच्चे, ड्राई डे है तो मैं क्या करूं, क्लब से ला।’ उन्होंने एक सौ रुपये का नोट उस पर फेंक दिया। वैरा झुककर सलाम करता हुआ चला गया।
मायादेवी के साथ जो युवक था वह किसी बीमा कंपनी का एजेण्ट था। निहायत नफासत से कपड़े पहने था और पूरा हिन्दुस्तानी साहब लग रहा था। डाक्टर कृष्णगोपाल की गंजी खोपड़ी, अधपकी मूछे और कद्दू के समान कोट के बाहर उफनते हुए पेट को वह हिकारत की नजर से देख रहा था।
इस मण्डली में चौथे महाशय एक सेठजी थे। वे सिल्क का कुर्ता तथा महीन पाढ़ की धोती पर काला पम्पशू डाटे हुए थे। वे चुपचाप मुस्कराकर शराब पी रहे थे। रंग उनका गोरा, आंखें बड़ी-बड़ी और माथा उज्ज्वल था। उंगलियों में हीरे की अंगूठी थी। डाक्टर को ये भी तिरस्कार की नजर से देख रहे थे। बात यह थी कि ये तीनों जेंटलमैन मायादेवी के ग्राहक थे। भीतर से तीनों एक-दूसरे से द्वेष रखते थे। ऊपर से चिकनी-चुपड़ी बातें करते थे। मायादेवी सबको सुलगातीं। सबको खिलौना बनातीं। उनके साथ खेल करतीं, खिजाती थीं और उसीमें उन्हें मजा आता था।
उन्होंने ज़रा नाक-भौं सिकोड़कर कहा–‘आखिर यह कोडबिल है क्या बला?’
सेठजी का नाम गोपालजी था। उन्होंने हुमसकर कहा-‘मजेदार चीज है । मायादेवी, ठीक मौसमी कानून है ।’ ‘मौसमी कैसा?’ मायादेवी ने गोपाल सेठ पर कटाक्षपात करते हुए कहा।
‘इतना भी नहीं समझतीं? मायादेवी जब उभर आई हैं तभी कोडबिल कानून भी उनकी मदद को आ खड़ा हुआ है। उसका मंशा यह है कि मायादेवी न किसीकी जरखरीद बांदी हैं,न किसीकी ताबेदार, वे स्वतन्त्र महिला हैं । अरे साहब, स्वतन्त्र भारत की स्वतन्त्र महिला, वे अपनी कृपादृष्टि से चाहे जिसे निहाल कर दें, चाहे जिसे बर्बाद कर दें।’
डाक्टर ने गिलास खाली करके मेज पर रखते हुए घुड़ककर सेठजी से कहा-‘बड़े बदतमीज हो, महिलाओं से बात करने का ज़रा भी सलीका नहीं है तुम्हें, कोडबिल की मंशा तो ज़रा भी नहीं समझते?
‘तो हजूरेवाला ही समझा दें। गोपाल सेठ ने बनते हुए कहा।
‘कोडबिल का मंशा यह है कि आजाद भारत की नारियां आजादी के वातावरण में आजादी की सांस लें। हजारों साल से पुरुष उन पर जो अपनी मिल्कियत जताते आते हैं, वह खत्म हो जाए। पुरुष के समान ही उनके अधिकार हों, पुरुष की भांति ही वे रहें, समाज में उनका दर्जा पुरुष ही के समान हो।’
‘वाह भाई वाह ! खूब रहा!’ सेठने जोर से हंसकर कहा-‘तब तो वे बच्चे पैदा ही न करेंगी, उनके दाढ़ी-मूछे भी निकल आएंगी। पुरुष की भांति जब वे सब काम करेंगी तो उनका स्त्री-जाति में जन्म लेना ही व्यर्थ हो गया। तब कहो-हम-तुम किसके सहारे जिएंगे, यह बरसाती हवा और पैग का गुलाबी सुरूर सब हवा हो जाएगा!’
‘वही गधेपन की हांकते हो। कोडबिल की यह मंशा नहीं है कि स्त्रियां मर्द हो जाएं, उनको दाढ़ी-मूछे निकल आएं या वे बच्चे न पैदा करें। यह तो कुदरत का प्रश्न है, इसमें कौन दखल दे सकता है। कोडबिल का मंशा सिर्फ यह है कि समाज में जो पुरुष उनके मालिक बनते हैं, उन्हें जबरदस्ती अपने साथ बांध रखते हैं, उनके ये मालिकाना अख्तियार खत्म हो जाएं। स्त्रियां समाज में पुरुषों के समान ही अधिकार सम्पन्न हो जाएं।’
‘लेकिन यह हो कैसे सकता है ?’ तरुण युवक ने जिसका नाम हरवंशलाल था-धुएं का बादल बनाते हुए कहा।
‘क्यों नहीं हो सकता?’ डाक्टर ने ज़रा तेज होकर कहा।
युवक हरवंशलाल ने कहा- ‘जनाब, गुस्सा करने की जरूरत नहीं। बातचीत कीजिए। समझिए, समझाइए। पहली बात तो यह कि स्त्रियों का समाज में समान अधिकार हो ही नहीं सकता। उनकी शारीरिक बनावट, मानसिक धरातल और सामाजिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वे स्वतन्त्र रह सकें। उन्हें पुरुषों के संर- क्षण में रहना ही होगा। उसमें बुराई भी क्या है, समाज में घर के बाहर बहुत भेदिये रहते हैं, उनसे उनकी हत्या होगी। स्त्रियों की हमारे घरों में एक मर्यादा है, उन्हें हम अपने से कमजोर, नीच या दलित नहीं समझते। हम उन्हें अपनी अपेक्षा अधिक पवित्र, पूज्य और सम्माननीय समझते हैं। युग-युग से पुरुषों ने स्त्रियों की मान-मर्यादा के लिए अपने खून की नदियां बहाई हैं, वह इसलिए कि समाज में पुरुष स्त्री का संरक्षक है। अब यदि वह समाज में बराबर का दर्जा पा जाएगी-तो पुरुषों की सारी सहानुभूति और संरक्षण खो बैठेगी। तथा उनकी दशा अत्यन्त दयनीय हो जाएगी।’
‘खाक दयनीय हो जाएगी।’ मायादेवी ने उत्तेजित होकर कहा-‘आप यहां चाहते है कि हम स्त्रियां आप पुरुषों की पैर की जूती बनी रहें। आप जो चाहें हमारे साथ जुल्म करें, और हमारी छाती पर मूंग दले और हम कुछ न कहें। चुपचाप बर्दाश्त करें। हजरत, अब यह नहीं हो सकता। हम लोगों ने गुलामी के इस कफन को फाड़ फेंकने तथा आजादी की हवा में सांस लेने का पक्का इरादा कर लिया है। दुनिया की कोई ताकत अब हमें इस इरादे से रोक नहीं सकती।’
‘श्रीमती मायादेवी!’ युवक ने हंसकर मादक दृष्टि से माया- देवी की ओर देखते हुए कहा-‘हम मर्दो का इरादा स्त्रियों के किसी इरादे में दखल देने का नहीं है। पर सच कहने की आप यदि इजाजत दें तो मैं एक ही बात कहूंगा कि आधुनिक काल का प्रत्येक शिक्षित पुरुष जब स्त्रियों के विषय में सोचता है तो वह उनकी उन्नति, आजादी तथा भलाई की ही बात सोचता है। परन्तु आधुनिक काल की प्रत्येक शिक्षित नारी तो पुरुषों के विषय में केवल एक ही बात सोचती है-कि कैसे उन पुरुषों को कुचल दिया जाए, उन्हें पराजित कर दिया जाए। वास्तव में यह ही खतरनाक बात है।’
‘खतरनाक क्यों है ?’ मायादेवी ने कहा।
‘इसलिए ऐसा करने से पुरुषों के हृदय में से स्त्रियों के प्रति प्रेम के जो अटूट सम्बन्ध हैं, वे टूट जाएंगे और उनमें एक परायेपन की भावना उत्पन्न हो जाएगी, तथा स्त्रियां पुरुषों के संरक्षण से बाहर निकलकर कठिनाइयों में पड़ जाएंगी।’
‘तब आप चाहते क्या हैं ? यही कि हम लोग सदैव आपकी गुलाम बनी रहें?
‘आपको गुलाम बनाता कौन है मायादेवी, हम पुरुष लोग तो खुद ही आप लोगों के गुलाम हैं । हमारी नकेल तो आप ही के हाथों में हैं। धन-दौलत जो कमाकर लाते हैं, घर में हम स्त्रियों को सौंप देते हैं। उन्हें हमने घर-बार की मालकिन बना दिया है।
संभव नहीं है कि हम उनकी रजामन्दी के विरुद्ध कोई काम भी कर सकें।’
‘लेकिन यह भी तो कहिए कि घर में हमारी इज्जत क्या है, हमारा अधिकार क्या है?’
‘क्या इज्जत नहीं है? छ: साल तक मुर्दो से लड़ाई करते हैं तब डाक्टर की डिग्री मिलती है। परन्तु स्त्री उससे ब्याह करते ही डाक्टरनी बन जाती है। ये सेठजी बैठे हैं पूछिए–कितनों का गला काटकर सेठ बने हैं; और इनकी बीबी तो इनसे ब्याह होते ही सेठानी बन गई। तहसीलदार की बीबी तहसीलदारिन, थानेदार की थानेदारिन स्वतः बन जाती है कि नहीं? फिर अधिकार की क्या बात? घर में तो आपका ही राज्य है मायादेवी, हमारी तो वहां थानेदारी चलती नहीं।’
‘परन्तु आप यह भी जानते हैं कि घर के भीतर स्त्रियों ने कितने आंसू बहाए हैं।’
‘सो हो सकता है, आप ही कहां जानती हैं कि घर के बाहर मर्दों ने कितना खून बहाया है! आंसू से तो खून ज्यादा कीमती है मायादेवी, यह तो अपनी-अपनी मर्यादा है। अपना-अपना कर्तव्य है। वक्त पर हंसना भी पड़ता है, रोना भी पड़ता है, जीना भी पड़ता है, और मरना भी पड़ता है। समाज नाम भी तो इसी मर्यादा का है?
सेठ गोपालजी खुश होकर बोले–‘बहस मजेदार हो रही है। कहिए मायादेवी, अब आप हरवंशलाल बाबू की क्या काट करती हैं।’
डाक्टर ने जोश में आकर कहा–‘हरवंश बाबू की बात की काट करूंगा मैं। आप यदि स्त्रियों को बच्चे पैदा करने की मशीन और अपनी वासना-पूर्ति का साधन नहीं बनाना चाहते तो जनाब आपको उन्हें आजाद करना पड़ेगा, उन्हें समाज में समानता के अधिकार देने पड़ेंगे।’
‘लेकिन किस तरह महाशय, समानता के अधिकारों से आपका मतलब क्या है? आप यह तो नहीं चाहते कि एक बार बच्चा स्त्री जने और दूसरी बार पुरुष। मासिक धर्म एक महीने स्त्री को हो, दूसरे महीने पुरुष को।’
‘यह आप बहस नहीं कर रहे हैं, बहस का मखौल उड़ा रहे हैं। मेरा मतलब यह है कि स्त्री-पुरुषों को समाज में समान अधिकार प्राप्त हों।’
‘तो इस बात से कौन इन्कार करता है। बात इतनी ही तो है कि पुरुष घर के बाहर काम करते हैं, स्त्रियां घर के भीतर। अब आप उन्हें घर से बाहर काम करने की आजादी देते हैं तो मेरी समझ में तो आप उन्हें उनकी प्रतिष्ठा तथा शान्ति को खतरे में डालते हैं।’
‘यह कैसे?’
‘मैं देख रहा हूं। अब से बीस-पचीस वर्ष पहले हमारे घर की बहू-बेटियां घर की दहलीज से बाहर पैर नहीं धरती थीं। वे पर्दा- नशीन महिलाओं की मर्यादा धारण करती थीं। रोती थीं तब भी घर की चहारदीवारी के भीतर और हंसती थीं तब भी वहीं। वे अपने पति पर आधारित थीं। पति ही उनका देवता और सब कुछ था। वे लड़ती भी थीं और प्यार भी करती थीं। पर यह बात घर से बाहर नहीं जाती थी। बाहरी पुरुषों के सामने न उनकी आंखें उठती थीं, न जबान खुलती थी। वे अधिक पढ़ी-लिखी भी न होती थीं। घर-गृहस्थी का काम, बच्चों की सार-संभाल और पति की सेवा–बस इसीमें उनका जीवन बीत जाता था। यह क्या बुरा था?
‘और अब?’
‘उनको क्या? मैं तो यह देखता हूं कि अच्छे-अच्छे घरानों की लड़कियां ग्रेजुएट बन गईं। उनकी व्याह की उम्र ही बीत गई। अब वे ऑफिसों में, स्कूलों में, सिनेमा में अपने लिए काम की खोज में घूम रही हैं। इस काम से उनकी कितनी अप्रतिष्ठा हो रही है तथा कितना उनके चरित्र का नाश हो रहा है, इसे आंखवाले देख सकते हैं।’
मायादेवी अब तक चुप थीं। अब ज़रा जोश में आकर बोलीं– ‘तो आप यही चाहते हैं कि स्त्रियां पुरुषों की सदा गुलाम बनी रहें, उन्हीं पर आधारित रहें।’
‘यदि थोड़ी देर के लिए यही मान लिया जाए श्रीमती मायादेवी, कि वे पुरुषों की गुलाम ही हैं तो दर-दर गुलामी की भीख मांगते फिरने से, एक पुरुष की गुलामी क्या बुरी है?’
‘यदि वे कोई काम करती हैं, नौकरी करती हैं तो इसमें गुलामी क्या है?’
‘अफसोस की बात तो यही है मायादेवी, कि सारा मामला रुपयों-पैसों पर आकर टिक जाता है। टीचर, डाक्टर बनकर या नौकरी करके वे जो पैदा कर सकती हैं–सिनेमा-स्टार बनकर लाखों पैदा कर सकती हैं–मोटर में शान से सैर कर सकती हैं। परन्तु सामाजिक जीवन का मापदण्ड रुपया-पैसा ही नहीं है। स्त्री-पुरुष की परस्पर की जो शारीरिक और आत्मिक भूख है, वही सबसे बड़ी चीज है। उसीकी मर्यादा में बंधकर हिन्दू गृहस्थ की स्थापना हुई है। वही हिन्दू गृहस्थ आज छिन्न-भिन्न किया जा रहा है।’
‘पर यह हिन्दू गृहस्थ भी तो आर्थिक ही है। उसकी जड़ में तो रुपया-पैसा ही है?’
‘कैसे?’
‘अत्यन्त प्राचीन काल में, हिन्दुओं में गृहस्थ की मर्यादा न थी। स्त्री-पुरुष उन्मुक्त थे। स्त्रियां स्वतन्त्र थीं। वे जब जिस पुरुष से चाहतीं, सम्बन्ध स्थापित करके बच्चा पैदा कर सकती थीं। वे ही बच्चे की मालकिन कहलाती थीं, पुरुष का उससे कोई सम्बन्ध न था। बाद में जब धन-सम्पत्ति बढ़ी, नागरिकता का उदय हुआ, और पुरुष अपनी विजयिनी शक्ति के कारण उसका मालिक हुआ तो–वह धीरे-धीरे स्त्रियों का भी मालिक बनता चला गया। वह जमाना था ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’। एक दल दूसरे से लड़ता था–तो जीतनेवाला दल हारने वाले दल का घर-बार, सामान सब लूट लेता था–उसी लूट में वह स्त्रियों को भी लूट लाता और अपने घर की दासी बनाकर रखता। तरुणी और सुन्दरी, ये विजिता दासियां आगे चलकर आधीन पत्नियां बनती गई। समाज में बहु-पत्नीत्व का प्रचलन हुआ और स्त्रियां पुरुष के अधीन हुई।’
‘किन्तु अब?’
‘अब स्त्रियों की आर्थिक दासता ही उनकी सामाजिक स्वाधीनता की बाधक है। वे घर में रहकर यदि गृहस्थी चलाएं तो कुछ कमा तो सकतीं नहीं। केवल पति की आमदनी पर ही उन्हें निर्भर रहना पड़ता है है। पर इतना अवश्य है कि गृहस्थी में गृहिणी पति की कमाई पर निर्भर रहकर भी उतनी निरुपाय नहीं है। उसकी बहुत बड़ी सत्ता है, बहुत भारी अधिकार है। पति तो उसके लिए सब बातों का ख्याल रखता ही है–पुत्र भी उसकी मान-मर्यादा का पालन करते हैं।’
मायादेवी ने तिनककर कहा–‘क्या मर्यादा पालन करते हैं? पति के मरने पर वह पति की संपत्ति की मालिक नहीं बन सकती, मालिक बनते हैं लड़के लोग। जब तक पति जीवित है वह उसके आगे हाथ पसारती हैं, और उसके मरने पर पुत्रों के आगे। उसकी दशा तो असहाय भिखारिणी जैसी है।”
‘यह ठीक है, बुरे पति और बेटे स्त्रियों को कष्ट देते हैं। इसका कानून से निराकरण अवश्य होना चाहिए। पर कोडबिल तो कुछ दूसरी ही रचना करता है। यह हिन्दू गृहस्थी को भंग करता है।”
‘किस प्रकार?’
‘तलाक का अधिकार देकर।’
‘लेकिन तलाक का अधिकार तो अब रोका नहीं जा सकता।’ डाक्टर ने तेज़ी से कहा।
‘हां, मैं भी यही समझता हूं परन्तु मैं इसका कुछ दूसरा ही कारण समझता हूं, और आप दूसरा।’
‘मेरा तो कहना यही है कि तलाक का अधिकार स्त्री को पुरुष के और पुरुष को स्त्री के जबर्दस्ती बन्धन से मुक्त करने के लिए है।’ डाक्टर ने कहा।
‘परन्तु मेरा विचार दूसरा है। असली बात यह है कि अंग्रेजों से हमने जो नई बातें अपने जीवन में समावेशित की हैं, उनमें एक नई बात ‘एक पत्नीव्रत’ है। हिन्दू लॉ के अनुसार हिन्दू गृहस्थ एक ही समय में एक से अनेक पत्नियों से विवाह कर और रख सकता है। आप जानते ही हैं कि प्राचीन काल के राजा-महाराजाओं के महलों में महिलाओं के रेवड़ भरे रहते थे। अंग्रेजों के संसर्ग से हमने दो बातें ही सीखीं। पहला ‘एक पत्नीव्रत’, दूसरा समाज में स्त्रियों का समान अधिकार। यद्यपि भारत में भी राम जैसे एक पत्नीव्रती पुरुष हो गए हैं–पर कानूनन अनेक पत्नी रखना निषिद्ध न था। अब भी हिन्दू लॉ के अधीन अनेक पत्नी रखी जा सकती हैं। परन्तु व्यवहार में यह हीन कर्म माना जाता है। अभी तक ‘एक पत्नीव्रत’ का कानून नहीं बना था। पुरुष चाहते तो अपनी स्त्री को त्याग दे सकते थे– वह सिर्फ खाना-कपड़ा पाने का दावा कर सकती थी और पुरुष झट से दूसरा विवाह कर लेते थे। उसमें कोई बाधा न थी–परन्तु अब जब, ‘एका पत्नीव्रत’ कानूनन कायम हो जाएगा तो स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों ही का तलाक अनिवार्य बन जाएगा। बिना तलाक की स्थापना के पुरुष एक मिनट भी तो ‘एक पत्नीव्रत’ को सहन नहीं कर सकता।’
‘क्यों नहीं कर सकता?’-इतनी देर बाद सेठजी ने मुंह खोला।
‘इसलिए कि वह अपने लम्पट स्वभाव से लाचार है। ‘एक पत्नीव्रत’ का अर्थ ही यही है कि जब तक पत्नी है तब तक दूसरी स्त्री उसकी पत्नी नहीं बन सकती। अब यदि वह दूसरी स्त्री पर अपना अधिकार कायम रखना चाहता है तो उसे एकमात्र तलाक ही का सहारा रह जाता है। बिना तलाक दिए वह नई नवेलियों का, जीवनभर आनन्द नहीं उठा सकता।’
सेठजी ने जोर से हंसकर कहा–’बात तो पते की कही । हमी को देखो, अपनी बुढ़िया को घसीटे लिए जा रहे हैं । गले में चिपटी पड़ी है। मरे तो दूसरी शादी का डौल करें।’
‘जब तलाक चल गया तो मरने की जरूरत ही न रही साहेब। तलाक दीजिए-और दूसरी शादी कीजिए।’
‘और वह स्त्री ?
‘वह भी दूसरी शादी करे।’
‘बाह ! तो यों कहो कि तलाक का मसला—अदल-बदल का मसला है। अर्थात् बीबी बदलौवन ।’
‘बेशक, मगर इसकी जड़ में दो बड़ी गहरी बुराइयां हैं। एक तो यह कि हमारे गृहस्थ में जो पति-पत्नी में गहरी एकता- विश्वास और अभंग सम्बन्ध कायम है-वह नष्ट हो जाएगा। पति-पत्नी के स्वार्थ भिन्न-भिन्न हो जाएंगे। और दाम्पत्य-जीवन छिन्न-भिन्न हो जाएगा।’
‘और दूसरा ?’
‘दूसरा इससे भी खराब है। आप जानते हैं कि पुरुष स्त्री के यौवन का ग्राहक है। स्त्रियों का यौवन ढलने पर उन्हें कोई नहीं पूछता। अब तक हमारे गृहस्थ की यह परिपाटी थी कि स्त्री की उम्र बढ़ती जाती थी, वह पत्नी के बाद मां, मां के बाद दादी बनती जाती थी, इसमें उसका मान-रुतबा बढ़ता ही जाता था। अब पुरुष तो पुरानी औरतों को तलाक देकर, नई नवेलियों से नया व्याह रचाएंगे। स्त्रियां भी, जब तक उनका रूप-यौवन है, नये-नये पंछी फसाएंगी। पर रूप-यौवन ढलने पर वे असहाय और अप्रतिष्ठित हो जाएंगी। उनकी बड़ी अधोगति होगी।’
सेठजी विचार में पड़ गए। बोले-‘इस मसले पर तो हमने कोई विचार ही नहीं किया। क्या कहती हो मायादेवी ?’
‘मैं तो आप लोगों को हिमाकत को देख रही हूं। क्या दकि- यानूसी मनहूस बहस शुरू की है। शाम का मजा किरकिरा कर दिया। जाइए आप, अपनी औरतों को बांधकर रखिए। मैं तो अन्याय को दाद न दूंगी। मैं स्त्री की आजादी के लिए पुरुषों से लड़गी, डटकर।”
‘और श्रीमती मायादेवी, यह बन्दा इस नेक काम में जी-जान से आपकी मदद करेगा।’ डाक्टर ने लबालब शराब से भरा गिलास मायादेवी की ओर बढ़ाते हुए कहा-‘लीजिए, हलक तर कीजिए इसी बात पर।’
‘शुक्रिया, पर मैं ज्यादा शौक नहीं करती। हां कहिए, श्रीमती विमलादेवी कैसी हैं । आजकल उनसे कैसी पट रही है ?’
‘कुछ न पूछो-मुझे तो उसकी सूरत से नफरत है। जब देखो, मनहूस सूरत लिए मिनमिनाती रहती है।’
‘तो हजरत, कभी-कभी यहां सोसाइटी ही में लाइए। तरीके सिखाइए। बातें आप बड़ी-बड़ी बनाते हैं मगर करनी कुछ नहीं। मैं कहती हूं-जो कहते हैं उस पर अमल कीजिए।’
‘करूंगा, जरूर करूंगा मायादेवी, बस आप जरा मेरी पीठ पर रहिए।’
सेठजी ने हंसकर कहा-‘वाह, क्या बात कही। अच्छा एक दौर चले इसी बात पर।”
सबने गिलास भरे और गला सींचने लगे।
७ : अदल-बदल
मायादेवी आकर अपने कमरे में सो गईं। दिन निकलने पर भी सोती ही रहीं। तमाम दिन वे सोती ही रहीं। मास्टर साहब यद्यपि पत्नी के स्वेच्छाचार से खुश न थे, फिर भी उन्होंने उसे एक-दो बार उठने के लिए कहा पर मायादेवी ने हर बार जवाब दिया कि तबीयत अच्छी नहीं है। विवश मास्टर बेचारे स्वयं खापकाकर पुत्री को लेकर स्कूल चले गए। स्कूल से लौटकर जब शाम को उन्होंने देखा कि मायादेवी अब भी सो रही हैं और जो भोजन वे बनाकर उनके लिए रख गए थे, वह भी उन्होंने खाया-पिया नहीं है तब वे उनके कमरे में जाकर बोले-
‘क्या बात है प्रभा की मां, तमाम दिन बीत गया, कब तक सोती रहोगी।
माया ने क्रोध से कहा-‘तुम बड़े निर्दयी आदमी हो। आदमी की तबीयत का भी ख्याल नहीं रखते। मैं मर रही हूं और तुम्हें परवाह नहीं।’
‘तुम्हें हुआ क्या है ?
‘मेरी तबीयत बहुत खराब है।’
मास्टर ने उसका अंग छूकर कहा-‘बुखार तो मालूम नहीं होता।’
‘तुम क्या डाक्टर हो, और तुम्हें मालूम क्योंकर होगा, मैं जब तक मर न जाऊं, तुम्हें मेरी बीमारी का विश्वास क्यों आने लगा।
‘तो तुम चाहती क्या हो, डाक्टर बुला लाऊं?’
‘डाक्टर क्या चाहने से बुलाया जाता है ? फिर तुम डाक्टर को बुलाओगे क्यों ? रुपया जो खर्च हो जाएगा।’
मास्टर ने क्षणभर सोचा। फिर धीरे से कहा-‘जाता हूं,डाक्टर बुला लाता हूं।’
माया ने कहा-‘कौनसा डाक्टर लाओगे?’
‘किसे लाऊं?
‘उस मुहल्ले के डाक्टर का क्या नाम है, परसों पड़ोस में आया था। एक दिन की दवा में आराम हो गया। उसीको बुलाओ!’
मास्टर जाकर कृष्णगोपाल को बुला लाए। डाक्टर ने मायादेवी की भली भांति जांच को। दिल देखा, नब्ज देखी, जबान देखी, पीठ उंगली से ठोकी, आंखें देखी और कुछ गहरे सोच में गुम-सुम बैठ गए।
मास्टर ने शंकित दृष्टि से डाक्टर को देखकर कहा-‘डाक्टर साहब, क्या हालत है ?
डाक्टर ने मास्टर को एक तरफ ले जाकर कहा-‘अभी कुछ नहीं कह सकता। बुखार तो नहीं है, मगर हथेली और तलुओं में जितनी गर्मी होनी चाहिए उतनी नहीं है, आंखों का रंग हर पल में बदलता है, ओठ सूख गए हैं, नाड़ी की चाल बहुत खराब तो नहीं है, परन्तु अनियमित है, उधर दिल की धड़कन…’ डाक्टर एकाएक चुप हो गए। जैसे वे किसी गम्भीर समस्या को हल कर रहे हों।
मास्टर साहब ने घबराकर कहा-‘कहिए, कहिए, दिल की धड़कन!’
डाक्टर ने हाथ की घड़ी पर एक नजर डाली। फिर कहा–
‘मैं ज़रा द्विविधा में पड़ गया हूं।’ फिर कुछ सोचकर कहा– ‘सुई लगानी ही पड़ेगी!’
मास्टर ने डरते-डरते कहा–‘सूई!’ और उन्होंने माया की ओर घबराई दृष्टि से देखा। माया ने डाक्टर की ओर एक बार देखकर आंखें नीची कर लीं। डाक्टर ने प्रिस्किप्शन लिखकर धीरे से कहा–‘जी हां, सूई लगाना जरूरी है, यह प्रिस्किप्शन लीजिए और जरा जल्दी से डिस्पेन्सरी तक चले जाइए, यह दवा ले आइए।’
‘और आप तब तक?’ मास्टर ने प्रिस्किप्शन हाथ में लेकर कहा।
‘फिक्र मत कीजिए। हां ज़रा गर्म पानी•••’
मास्टर ने प्रभा से कहा–‘बेटी, मैं अभी दवा लेकर आता हूं। तुम ज़रा अंगीठी जलाकर पानी गर्म तो कर दो।’
मास्टर तेज़ी से चले गए। डाक्टर ने सीटी बजाते हुए मायादेवी की ओर देखा, फिर प्रभा से कहा–‘ज़रा जल्दी करो बेटी। हां, इधर धुआं मत करो, तुम्हारी माताजी को तकलीफ होगी। अंगीठी उधर बाहर ले जाओ।’
प्रभा ने कहा–‘बहुत अच्छा!’ वह बाहर जाकर अंगीठी जलाने लगी।
अब डाक्टर ने इत्मीनान से मायादेवी के पास कुर्सी खींचकर बैठते हुए कहा– ‘कहिए हुजूर, क्या इरादा है? आप झूठ-मूठ किसलिए बीमार बनी हैं, देखने में तो आप असल हीरे की कनी हैं।’
मायादेवी ने मुस्कराकर कहा–‘बड़े चंट हैं आप डाक्टर, दोनों को भेज दिया, लेकिन मैं सचमुच बीमार हूं।’
‘बीमारी क्या है?’
‘आप इतने बड़े डाक्टर हैं, पता लगाइए!’
‘नहीं लगा सकता मायादेवी, अब आप ही मदद कीजिए।’
‘आपकी डाक्टरी को ज़ंग लग गई क्या?’
‘ज़ंग ही लग गई समझिए, आप हैं ही ऐसी कि देखते ही आदमी की अक्ल पर पत्थर पड़ जाते हैं!’
‘अच्छा ही है, मगर मैं परेशान हूं!’
‘किससे?’
‘बीमारी से और किससे!’
‘लेकिन हुजूर, बीमारी क्या है?’
‘रातभर नींद नहीं आती।’
‘वाह, इस बीमारी का तो मैं स्पेशलिस्ट हूं। मगर यह कहिए कि आपके दिल में कुछ अनोखे-अनोखे खयाल तो नहीं आते?’
‘अनोखे खयाल?’
‘जी हां, जिनमें दिल की उमंगें उमड़ती हों, बढ़े-चढ़े हौसले हों, जीवन का भरपूर सुख लेने, दुनिया को जी भरकर देखने के इरादे हों।’
‘हां, हां आते हैं, परन्तु यह भी कोई बीमारी है?’
‘बड़ी भारी बीमारी है, मगर यह कहिए मायादेवी, इस भैंसे के साथ आपकी कैसे पटती होगी। माशाअल्ला, आप एक अप- टुडेट, ऊंचे खयाल की स्मार्ट लेडी हैं, ऐसा मालूम होता है जैसे आपका जन्म खुश होने और खेलने-खाने के लिए ही हुआ हो। लेकिन बुरा मत मानिए मायादेवी, मास्टर साहब अजब बागड़- बिल्ला–मेरा मतलब आपके लायक तो वे किसी हालत में नहीं मालूम होते।’
‘ओफ, आप यह क्या कह रहे हैं?’
‘श्रीमतीजी, स्त्री का जन्म प्रेम के लिए हुआ है। जो स्त्री प्रेम के तत्त्व को जानती है, मैं उसके चरणों का दास हूं।’
‘आपने तो मेरा दुःख बढ़ा दिया। मेरा दुखता फोड़ा छू दिया।’
‘अब इस फोड़े को चीरकर इसका सब मवाद निकालकर अच्छा करूंगा।’
‘डाक्टर, आप आशाओं का बहुत बोझ मत लादिए।’
‘वाह, आशा का संदेश तो आप ही की में है।’ डाक्टर ने मायादेवी की तरफ एक दुष्टताभरी दृष्टि से देखकर हंस दिया।
मायादेवी ने नकली क्रोध से कहा–‘ओफ, आप गोली मारकर हंसते हैं डाक्टर!’
‘गोली मारना वीरता का काम है, और गोली मारकर हंसना, तो वीरता से भी बढ़कर है। तो आपके कथन का मतलब यह हुआ कि मैं अपने से भी बड़ा हूं।’
इतना कहकर उस डाक्टर ने एकाएक मायादेवी का हाथ पकड़ लिया,और कहा–‘मायादेवी, मैं समझता हूं कि तुम गलत जगह पर आई हो, मैं तुम्हारा हाथ पकड़कर संसार में उतर पड़ना चाहता हूं।’
‘मैं ऊब गई हूं।’ माया ने वेग से सांस लेकर कहा।
‘तो साहस करो!’ डाक्टर ने माया का नर्म हाथ अपनी मुट्ठी में कस लिया।
‘मगर कैसे?’ मायादेवी ने बेचैन होकर कहा।
‘हिन्दू कोडबिल हम पर आशीर्वाद की वर्षा करेगा, समझ लो, वह तुम्हारे और मेरे लिए ही बन रहा है। आओ, दुनिया के सामने नया आदर्श उपस्थित करो।’
मायादेवी ने घबराकर अपना हाथ डाक्टर के हाथ से खींचकर कहा–‘ठहरो, मुझे कुछ सोचने दो।’
इसी समय मास्टर साहब ने झपटते हुए आकर पुत्री को पुकारकर कहा—
‘पानी गर्म हुआ बेटी?’
‘जी हां, गर्म हो गया।’
डाक्टर ने सूई लगाकर कहा—‘मास्टर, साहब,श्रीमतीजी को शायद बारह सूई लगानी पड़ेंगी। मेरा निरन्तर आना मुश्किल है, बहुत काम रहता है। अच्छा होता, श्रीमतीजी बारह-एक बजे दोपहर को डिस्पेन्सरी में आ जाया करें, उसी समय ज़रा फुर्सत रहती है। ज्यादा समय नहीं लगेगा।’
मास्टर साहब ने सिर खुजाकर कहा—‘लेकिन वह तो मेरे स्कूल जाने का समय है।’
‘तो क्या हर्ज है, श्रीमतीजी बच्चे के साथ या किसी नौकर को लेकर आ सकती हैं, ज्यादा दूर भी तो नहीं है।’
मास्टर साहब ने कहा—‘तब ठीक है, ऐसा ही होगा। आपका मैं बहुत कृतज्ञ हूं।’ उन्होंने फीस देकर डाक्टर को विदा किया।