गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 6

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 6

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 6 कभी-कभी रात के विस्तार का कोई अंत नहीं होता। रात हमेशा साथ-साथ रहती है और अंधेरा कटे-फटे असंतुलित टुकड़ों में आसपास बिखरा रहता है। . . .फिर हम लोग ताऊ के साथ गांव चले गये। हमें बस रुलाई आती थी। हम रोते थे. . . पापा तो इधर-उधर देखने …

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गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 5

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 5

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 5 रात तीन बजे के आसपास अक्सर कोई जाना पहचाना आदमी आकर जगा देता है । किस रात कौन आयेगा? कौन जगायेगा? क्या कहेगा यह पता नहीं होता। जाग जाने के बाद रात के सन्नाटे और एक अनबूझी सी नीरवता में यादों का सिलसिला चल निकलता है। कड़ियां जुड़ती चली …

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गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 4

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 4

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 4 अब्बा और अम्मां नहीं रहे। पहले खाला गुजरी उसके एक साल बाद खालू ने भी जामे अजल पिया। मतलू मंज़िल में अब कोई नहीं रहता। खाना पकाने वाली बुआ का बड़ा लड़का बाहरी कमरे में रहता है। मल्लू मंजिल का टीन का फाटक बुरी तरह जंग खा गया है। …

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गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 3

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 3

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 3 मैं सिगरेट खरीदकर मुड़ा ही था कि मोहसिन टेढ़े के दीदार हो गये। दिल्ली की बाज़ार में कोई पुराना मिल जाये तो क्या कहने। मोहसिन टेढ़े ने भी मुझे देख लिया था और उसके चेहरे पर फुलझड़ियां छुट रही थीं।यार तुम कहां रहते हो. . .कसम खुदा की बड़ा …

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गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 2

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 2

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 2 ५—-गांव में मेरा भविष्य रहा है। एक बार दिल्ली में अपने भविष्य को खोकर मैं नहीं चाहता था कि बार-बार भविष्य मेरे हाथ से फिसलता रहे। मुझे पता हैं। कि खेती बाड़ी-बाग-बगीचा पर मैं आश्रित हूं और इसमें इतनी मेहनत की है, इतना वक्त लगाया है, इतना ध्यान दिया …

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गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 1

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 1

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 1 १ मेरे रंग-ढंग से सबको यह अंदाज़ा लग चुका था कि दिल्ली ने मेरी कमर पर लात मारी है और साल-डेढ़ साल नौकरी की तलाश में मारा-मारा फिरने के बाद मैं घर लौटा हूं। अपमानित होने का भाव कम करने के लिए मैं लगातार ऊपर वाले कमरे में पड़ा …

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मन-माटी (उपन्यासिका) : असग़र वजाहत

मन-माटी (उपन्यासिका) : असग़र वजाहत

मन-माटी (उपन्यासिका) : असग़र वजाहत पते की बात सीधी-सच्ची होती है। उसे बताने के लिए न तो चतुराई की जरूरत पड़ती है और न सौ तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। सीधी-सच्ची बात दिल को लगती है और अपना असर करती है। मैं यहां इन पन्नों में आपके सामने कुछ सच्ची बातें रखने जा रहा …

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मछुआरे (मलयालम उपन्यास) : तकषी शिवशंकर पिल्लै, अनुवादक-भारती विद्यार्थी Part 4

मछुआरे (मलयालम उपन्यास) : तकषी शिवशंकर पिल्लै, अनुवादक-भारती विद्यार्थी Part 4

मछुआरे (मलयालम उपन्यास) : तकषी शिवशंकर पिल्लै, अनुवादक-भारती विद्यार्थी Part 4 १८ कुछ दिन बाद चेम्पन का पागलपन उतर गया। लेकिन उसकी बुद्धि मन्द हो गई । कुछ वह बिलकुल मौन रहने लगा। उसका तौर-तरीका देखकर लगता था कि वह बिलकुल टूट गया है। उसका धन खत्म हो गया। उसके पास अब पैसा नहीं था …

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मछुआरे (मलयालम उपन्यास) : तकषी शिवशंकर पिल्लै, अनुवादक-भारती विद्यार्थी Part 3

मछुआरे (मलयालम उपन्यास) : तकषी शिवशंकर पिल्लै, अनुवादक-भारती विद्यार्थी Part 3

मछुआरे (मलयालम उपन्यास) : तकषी शिवशंकर पिल्लै, अनुवादक-भारती विद्यार्थी Part 3 १० चक्की की इच्छा थी कि शादी जरा धूम-धाम से की जाय। पड़ोसियों को भी एक अच्छे समारोह की आशा थी। चेम्पन के पास पैसा था। करुत्तम्मा उसको प्रथम पुत्री थी। ऐसी स्थिति में शादी धूम-धाम से होगी, ऐसी आशा करना स्वाभाविक ही था। …

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मछुआरे (मलयालम उपन्यास) : तकषी शिवशंकर पिल्लै, अनुवादक-भारती विद्यार्थी Part 2

मछुआरे (मलयालम उपन्यास) : तकषी शिवशंकर पिल्लै, अनुवादक-भारती विद्यार्थी Part 2

मछुआरे (मलयालम उपन्यास) : तकषी शिवशंकर पिल्लै, अनुवादक-भारती विद्यार्थी Part 2 ५ दूसरे दिन सुबह तीन बजे ही सब लोग घाट पर एकत्रित हुए। उस दिन चेम्पन की नाव को उतारना था। जब कोई नई नाव निकाली जाती है तब वह सब नावों के साथ एक ही साथ निकलती है। चक्की, करुत्तम्मा, पंचमी सब समुद्र …

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