बड़ी दीदी (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 1

बड़ी दीदी (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 1

प्रकरण 1

इस धरती पर एक विशिष्ट प्रकार के लोग भी वसते है। यह फूस की आग की तरह होते हैं। वह झट से जल उठते हैं और फिर चटपट बुझ जाते हैं। व्यक्तियों के पीठे हर समय एक ऐसा व्यक्ति रहना चाहिए जो उनकी आवश्यकता के अनुसार उनके लिए फूस जूटा सके।

जब गृहस्थ की कन्याएं मिट्टी का दीपक जलाते समय उसमें तेल और बाती डालती हैं, दीपक के साथ सलाई भी रख देती हैं। जब दीपक की लौ मद्धिम होने लगती है, तब उस सलाई की बहुत आवश्यकता होती है। उससे बात्ती उकसानी पड़ती है। यदि वह छोटी-सी सलाई न हो तो तेल और बात्ती के रहते हुए भी दीपक का जलते रहना असंभव हो जाता है।

सुरेन्द्र नाथ का स्वभाव बहुत कुछ इसी प्रकार का है। उसमें बल, बुद्धि और आत्मविश्वास सभी कुछ है लेकिन वह अकेला कोई काम पूरा नहीं कर सकता। जिस प्रकार वह उत्साह के साथ थोड़ा-सा काम कर सकता है, उसी तरह अलसा कर बाकी का सारा काम अधूरा छोड़कर चुपचाप बैठ भी सकता है और उस समय उसे ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता होती है, जो अधूरे काम को पूरा करने की प्रेरणा दे।

सुरेन्द्र के पिता सुदूर पश्चिम में वकालत करते हैं। वंगाल के साथ उनका कोई अधिक सम्बन्ध नहीं है। वहीं पर सुरेन्द्र ने बीस वर्ष की उम्र में एम.ए. पास किया था। कुछ तो अपने गुणों से और कुछ अपनी विमाता के गुणों से। सुरेन्द्र की विमाता एसे परिश्रम और लगन से उसके पीछे लगी रहती है कि अनेक अवसरों पर वह यह नहीं समझ पाता कि स्वयं उसका भी कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व है या नहीं। सुरेन्द्र नाम का कोई स्वतंत्र प्राणी इस संसार में रहता है या नहीं। विमाता की इच्छा ही मानव रूप धारण करसे उससे सोना, जागना, पढ़ना, लिखना, परीक्षाएं पास करना आदि सभी काम करा लेती है। यह विमाता अपनी संतान के प्रति बहुत कुछ उदासीन रहने पर भी सुरेन्द्र के प्रति जितनी सतर्क रहती है, उसकी कोई सीमा नहीं है। उसका थूकना-खखारना तक उसकी आंखों से नहीं छिप सकता। इस कर्तव्यपरायण नारी के शासन में रहकर सुरेन्द्र ने पढ़ना लिखना तो सीख लिया लेकिन आत्मनिर्भरता बिल्कुल नहीं सीखी। उसे अपने ऊपर रत्ती भर भी विश्वास नहीं है। उसे यह विश्वास नहीं है कि वह किसी भी काम को कुशलता से पूरा कर सकता है।

मुझे कब किस चीज की आवश्यकता होगी और कब मुझे क्या काम करना होगा, इसके लिए वह भी निश्चित नही कर पाता कि मुझे क्या नींद आ रही है, भूख लग रही है। जब से उसने होश संभाला है, तब से अब तक के पन्द्रह वर्ष उसने विमाता पर निर्भर रहकर ही विताएं है, इसलिए विमाता को उसके लिए ढेर सारे काम करने पड़ते हैं। रात-दिन के चौबीस घंटे में से बाईस धंटे तिरस्कार, उलाहने, डांट-फटकार और मुंह बिगाड़ने के कामों के साथ-साथ परीक्षा में पास होने के लिए उसे अपनी निंद्रा सुख से हाथ धो लेना पड़ता है। भला अपनी सौत के लड़के के लिए कौन कब इतना करता है। मोहल्ले-टोले के लोग एक मुख से राय-गृहणी की प्रशंसा करते हुए उधाते नहीं हैं।

सुरेन्द्र के प्रति उसके आंतरिक प्रयास में नाम के लिए भी कभी नहीं होती। यदि तिरस्कार और लांछना सुनने के बाद सुरेन्द्र की आंखें और चेहरा लाल हो जाता तो रायगृहणी उस ज्वर आने का लक्षण समझकर तीन दिन तक साबूदाना खाने की व्यवस्था कर देती। मानसिक विकास और शिक्षा-दीक्षा की प्रगति के प्रति उनकी दृष्टि और भी अघिक पैनी थी। सुरेन्द्र के शरीर पर साफ-सुथरे या आधुनिक फैशन के कपड़े देखते ही वह साफ समझ लेती थी कि ल़ड़का शौकीन बनने लगा है। बाबू बनकर रहना चाहता है और उसी समय दो-तीन सप्ताह के लिए सुरेन्द्र के कपड़े के धोबी के घर जाने पर रोक लगा देती है।

बस इसी तरह सुरेन्द्र के दिन बीतते थे। इस प्रकार स्नेहपूर्ण सतर्कता के बीच कभी-कभी वह सोचने लगता कि शायद सभी लोंगों के जीवन का प्रभात इसी प्रकार व्यतित होता हो, लेकिन बीच-बीच में कभी-कभी आस-पास के लोग उसके पीछे पड़कर उसके दिमाग में कुछ और ही प्रकाश के विचार भर देते थे।

एक दिन यही हुआ उसके एक मित्र ने आकर उसे परामर्श दिया कि अगर तुम्हारे जैसा बुद्धिमान लड़का इंग्लैंड चला जाए तो भविष्य में उसकी उन्नति की बहुत कुछ आशाएं हो सकती है और स्वदेश लौटकर वह अनेक लोगों पर अनेक उपकार कर सकता है। यह बात सुरेन्द्र को कुछ बुरी मालूम नहीं हुई। वन मे रहने वाले पक्षी की अपेक्षा पिंजड़े में रहने वाला पक्षी अधिक फडफड़ाता है। सुरेन्द्र की कल्पना की आंखों के आगे स्वाधीनता के प्रकाश से भरा स्वछन्द वातावरण झिलमलाने लगा। और उसके पराधीन प्राण पागलों की तरह पिंजेर के चारों और फ़ड़फड़ाकर धूमने लगे।

उसने पिता के पास पहुंचकर निवेदन किया कि चाहे जिस तरह हो मेरे इंग्लैंड जाने की व्यवस्था कर दी जाए। साथ ही उसने यह भी कह दिया कि इंग्लैंड जाने पर सभी प्रकार की उन्नति की आशा है। पिता ने उत्तर दिया, ‘अच्छा सोचुंगा।’ लेकिन घर की मालकिन कि इच्छा इसके बिल्कुल विरुद्ध थी। वह पिता और पुत्र के बीच आंधी की तरह पहुंच गई और इस तरह ठहाका मार कर हंस पड़ी कि वह दोनों सन्नाटे में आ गए।

गृहणी ने कहा, ‘तो फिर मुझे भी विलायत भेज दो। वरना वहां सुरेन्द्र को संभालेगा कौन? जो यही नहीं जानता कि कब क्या खाना होता है और कब क्या पहनना होता है उस अकेले विलायत भेज रहे हो? जिस तरह घर के घोड़े को विलायत भेजना है उसी तरह इसे भेजना है। धोड़े और वैल कम-से-कम इतना तो समझते हैं की उसे भूख लगी है या नींद आ रही है। लेकिन तुम्हारा सुरेन्द्र तो इतना भी नहीं समझता।’

और इतना कहकर वह फिर हंस पड़ी।

हास्य की अधिकता देख राय महाशय बहुत हि शर्मिदा हुए। सुरेन्द्र ने समझ लिया कि इस अखण्डनीय तर्क के विरुद्ध किसी भी प्रकार का प्रतिवाद नहीं किया जा सकता। उसने विलायत जाने की आशा छोड़ दी। यह सुनकर उसके मित्र को बहुत दुःख हुआ, लेकिन वह विलायत जाने का कोई अन्य उपाय नही बता सका। हां, यह जरूर कहा कि ऐसा पराधीन जीवन जीने की अपेक्षा भीख मांगकर जीना कही बहेतर है, और यह निश्चित है कि जो व्यक्ति इस तरह सम्मानपूर्वक एम.ए.पास कर सकता है, उस अपना पेट पालने में कोई कठिनाई नहीं होगी।

घर आकर सुरेन्द्र इसी बात को सोचने लगा। उसने जितना ही सोचा उतना ही अपने मित्र की कथन की सच्चाई पर विश्वास हो गया। उसने निश्चय कर लिया कि भीख मांगकर ही जिया जाए। सभी लोग तो विलायत जा नहीं सकते लेकिन इस तरह जिन्दगी और मौत के बीच रहकर भी उन्हें जीना नहीं पड़ता।

एक दिन अंधेरी रात में वह घर से नकला और स्टेशन पहुंच गया। और कलकत्ता का टिकट खरीदकर ट्रेन पर सवार हो गया। चलते समये उसने ड़ाक द्वारा पिता के पास पत्र भेड किया कि मैं कुछ दिनों के लिए घर छोड़ रहा हूं। खोजने से कोई विशेष लाभ नहीं होगा। और यदि मेरा पता चल भी गया तो मेरे लौटने की कोई सम्भावना नहीं है।

राय महाशय ने गृहिणी को पत्र दिखाया और बोले, ‘सुरेन्द्र अब बड़ा हो गया है। पढ़-लिख चुका है। अब उसके पंख निकल आए हैं। अगर वह अब भी उड़कर न भागेगा तो और कब भागेगा?’

फिर भी उन्होंने उस तलाश किया। कलकता में उनके जो भी परिचित थे उन्हें पत्र लिखे, लेकिन परिणाम कुछ न निकला। सुरेन्द्र का कोई पत्ता नहीं चला।

प्रकरण 2

कलकत्ता की भीड़ और कोलाहल भरी सड़कों पर पहुंचकर सुरेन्द्र नाथ धबरा गया। वहां न तो कोई डांटने-फटकारने वाला था और न कोई रात-दिन शासन करने वाला। मुंह सुख जाता तो कोई न देखता था और मुंह भारी हो जाता तो कोई ध्यान न देता। यहां अपने आप को स्वयं ही देखना पड़ता है। यहां भिक्षा भी मिल जाती है और करूणा के लिए स्थान भी है। आश्रय भी मिल जाता है लेकिन प्रयत्न की आवश्यकता होती है। यहां अपनी इच्छा से तुम्हारे बीच कोई नहीं आएगा।

यहां आने पर उसे पहली शिक्षा यहा मिली कि खाने की चेष्टा स्वयं करनी पड़ती है। आश्रय के लिए स्वयं ही स्थान खोजना पड़ता है और नींद तथा भूख में कुछ भेद है।

उसे घर छोड़े कई दिन बीत गए थे। गली-गली घमते रहने के कारण शरीर एकदम कमजोर पड़ गया था। पास के रुपये बी खत्म हो चले थे। कपड़े मैले और फटने लगे थे। रात को सोने तक के लिए कहीं ठिकाना नहीं था। सुरेन्द्र की आंखों मे आंसू आ गए। घर को पत्र लिखने की इच्छा नहीं होती, लज्जा आती है और सबसे बढ़कर जब उसे अपनी विमाता के स्नेहहीन कठोर चेहरे की याद आ जाती है तो घर जाने की इच्छा एकदम आकाश कुसुम बन जाती है। उसे इस बात को सोचते हुए भी डर लगता था कि वह कभी वहां था।

एक दिन उसने अपने जैसे ही एक दरिद्र आदमी की और देखकर पूछा, ‘क्यों भाई, तुम यहां खाते किस तरह हो?’ वह आदमी भी कुछ मुर्ख-सा ही था वरना सुरेन्द्र की हंसी न उड़ाता। उसने कहा, ‘नौकरी करके कमात-खाते हैं। कलकत्ता में रोजगार की क्या कमी है।’

सुरेन्द्र ने पूछा, ‘मुझे भी कोई नौकरी दिलवा सकते हो?’

उसने पूछा, ‘तुम क्या जानते हो?’

सुरेन्द्रनाथ कोई भी काम नहीं जानता था, इसलिए चुप रहकर कुछ सोचने लगा।

‘तुम भले घर के लड़के हो?’

सुरेन्द्रनाथ ने सिर हिला दिया।

‘तो लिखना-पढ़ना क्यों नही सीखा?’

‘सीखा है।’

उस आदमी ने कुठ सोचकर कहा, ‘तो फिर उस बड़े मकान में चले जाओ। इसमें एक बहुत बड़े जमींदार रहते है। वह कुछ-न-कुछ इंतजाम कर देंगे।’

यह कहकर वह चला गया।

सुरेन्द्र नाथ फाटक के पास गया। कुछ देर वहीं खड़ा रहा। फिर जरा पीछे हटा। एक बार फिर आगे बढ़ा और फिर पीछे हट आया।

उस दिन कुछ भी न हुआ। दूसरा दिन भी इसी तरह बीत गया।

दो दिन में साहस संजोकर उसने किसी तरह फाटक में कदम रखा। सामने एक नौकर खड़ा था। उसने पूछा, ‘क्या चाहत हो?’

‘बाबू साहब से…!

‘बाबू साहव घर पर नहीं है’

सुरेन्द्र नाथ का चेहरा खुशी से चमक उठा। एक बहुत ही मुश्किल काम से छुट्टी मिली। बाबू साहब घर पर नहीं है। नौकरी की बात, दुःख की कहानी कहानी नहीं पड़ी। यही उसकी खुशी का कारण था।

दूने उत्साह से लौटकर उसने दुकान पर बैठकर भरपेट भोजन किया। थोड़ी देर तक बड़ी प्रसन्नता से वह इधर-उधर घूमता रहा और मन-ही-मी वह सोचता रहा कि कल किस प्रकार बातचीत करने पर मेरा कुछ ठिकाना बन जाएगा।

लेकिन दूसरे दिन वह उत्साह नहीं रहा। जैसे-जैसे उस मकान के निकट पहुंचता गया, वैसे-वैसे उसकी लौट चलने की इच्छा वढ़ती गई। फिर जब वह फाटक के पास पहुंचा तो पूरी तरह हतोत्साहित हो गया। उसके पैर अस किसी भी तरह अन्दर की ओर बढ़ने के लिए तैयार नहीं थे। किसी भी तरह वह यह नहीं सोच पा रहा था कि आज वह स्वयं अपने लिए ही यहां आया है। ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने ठेलठालकर उसे यहां भेज दिया है, लेकिन आज वह दरवाजे पर खड़ा रहकर और अधिक अपेक्षा नहीं करेगा, इसलिए अन्दर चला गया।

फिर उसी नौकर से भेंट हुई। उसने कहा, ‘बाबू साहब घर पर हैं।’ ‘आप उनसे भेंट करेंगे?’

‘हां’

‘अच्छा तो चलिए।’

लेकिन यह और भी कठिनाई हुई। जमींदार साहव का मकान बहुत बड़ा है। बड़े सलीके से साहबी ढंग से साज-सामान सडे हुए हैं। कमरे-पर-कमरे, संगमरमर की सीढ़ियां, हर कमरे में झाड़-फानूस और उस पर सुर्ख कपड़े के गिलाफ शोभा पा रहे है। दीवारों पर लगे हुए बड़े-बड़े शीशे। न जाने कितने चित्र और फोटोग्राफ। दूसरों के लिए यह सब चीजें चाहे जैसेी हो लेकिन सुरेन्द्र के लिए नयी नहीं थी, क्योंकि उसके पिता का घर भी कोई निर्धन की कुटिया नहीं है और चाहे जो कुछ भी हो लेकिन वह दरिद्र पिता के आश्रय में पल कर इतना बड़ा नहीं हुआ है। सुरेन्द्र सोच रहा था कि उस आदमी की बात जिसे साथ भेंट करने कि लिए और जिससे प्रार्थना करने के लिए वह जा रहा है कि वह क्या प्रश्न करेंगे और मैं क्या उत्तर दूंगा।

लेकिन इतनी बात सोचने का समय नहीं मिला। मालिक सामने ही बैठे थे। सुरेन्द्रनाथ से बोले, ‘क्या काम है?’

आज तीन दिन से सुरेन्द्र यही बात सोच रहा था, लेकिन इस समय वह सारी बातें भूल गया। बोला, ‘मैं….मैं….।’

ब्रजनाथ लाहिड़ी पूर्व बंगला के जमींदार है। उनके सिर के दो-चार बाल भी पक गए है और वह बाल समय के पहले नहीं, बल्के ठीक उम्र में ही पके हैं। बड़े आदमी हैं, इसलिए उन्होंने फौरन सुरेन्द्रनाथ के आने का उद्देश्य समझ लिया और पूछा, ‘क्या चाहते हो?’

‘मुझे कोई एक…!’

‘क्या?’

‘नौकरी।’

ब्रजराज बाबू ने कुछ मुस्कुराकर कहा, ‘यह तुमसे किने कहा कि मैं नौकरी दे सकता हूं?’

‘रास्ते में एक आदमी से भेंट हुई थी। मैंने उससे पूछा था और उसने आपके बारे में….।’

‘अच्छी बात है, तुम्हारा मकान कहां है?’

‘पश्चिम में’

‘वहां तुम्हारे कौन है?’

सुरेन्द्र ने सब कुछ बता दिया।

वर्तमान स्थिति से सुरेन्द्र ने एक नया ढंग सीख लिया था। अटकते-अटकते बोला, ‘मामूली नौकरी करते हैं।’

‘लेकिन क्योंकि उससे काम नहीं चलता इसलिए तुम भी कुछ कमाना चाहते हो?’

‘जी हां।’

‘यहां कहां रहेत हो?’

‘कोई जगह निश्चित नहीं है…जहां, तहां।’

ब्रज बाबू को दया आ गई। सुरेन्द्र को बैठाकर उन्होंने कहा, ‘तुम अभी बच्चे हो। इस उम्र में तुम घर छोड़ने को विवश हुए तो यह जानकर दुख होता है। हालांकि मैं तो तुम्हें कोई नौकरी नहीं दे सकता लेकिन कुछ एसा उपाय कर सकता हूं कि तुम्हारी कुछ व्यवस्था हो जाए।’

‘अच्छा।’ सुरेन्द्र जाने लगा।

उसे जाते देख ब्रज बाबु ने उसे फिर बुलाकर पूछा, ‘तुम्हें और कुछ नहीं पूछना है?’

‘बस इतने से ही तुम्हारा काम हो गया? तुमने यग तक जानने-समझने को जरूरत नहीं समझी कि मैं तुम्हारे लिँ क्या उपाय कर सकता हूं।’

सुरेन्द्र सकपकाया-सा लौटकर ख़ड़ा हो गया। व्रज बाबू ने हंसते हुए पूछा, ‘अब कहा जाओगे?’

‘किसी दुकान पर।’

‘वहीं भोजन करोगे?’

‘हा, रोजाना ऐसा ही करता हूं।’

‘तुमने लिखना-पढ़ना कहां तक सीखा है?’

‘यों ही थोड़ा सा सीखा है।’

‘मेरे लड़कों को पढा सकते हो?’

सुरेन्द्र प्रसन्न होकर कहा, ! ‘हा, पढ़ा सकता हूं।’

ब्रज बाबू फिस हंस पडे। उन्होंने समझ लिया कि दुःख और गरीबी के कारण इसका दिमाग ठिकाने नहीं है। क्योंकि बिना यह जाने-समझे ही कि किसे पढ़ाना होगा और क्या पढ़ाना हो इस प्रकार प्रसन्न हो उठना, उन्हे कोरा पागलपन ही जान पड़ा। उन्होंने कहा, ‘अगर मैं कहूं कि वह बी.ए. में पढ़ता है तो तुम किस तरह पढ़ा सकोगे?’

सुरेन्द्र कुछ गंभीर हो गया। सोचकर बोला, ‘किसी तरह काम चला ही लूंगा।’

ब्रज बाबू ने कुछ और नहीं कहा। नौकर को बुलाकर बोले, ‘वंदू, इनके रहने के लिए जगह का इंतजाम कर दो और भोजन आदि कि व्यवस्था भी कर दो।’

फिर वह सुरेन्द्र की ओर देखकर बोले, ‘संध्या के बाद मैं तुम्हें बुलवा लूंगा। तुम मेरे मकान में ही रहो। जब तक किसी नौकरी का इंतजाम न हो तब तक तुम मजे में यहां रह सकते हो।’

दोपहर को जब ब्रज बाबू भोजन करने गए तो उन्होंने अपनी बड़ी लडकी माधवी को बुलाकर कहा, ‘बेटी, एक गरीब आदमी को घर में रहने के लिए जगह दे दी है।’

‘वह कौन है बाबुजी?’

‘गरीब आदमी है, इसके अलावा और कुछ नहीं जानता। लिखना-पढ़ना शायद कुछ जानता है, क्योंकि जब तुम्हारे बड़े भाई को पढ़ाने के लिए कहा तो वह राजी हो गया जो बी.ए. क्लास को पढ़ाने का साहक कर सकता है वह कम-से-कम तुम्हारी छो़टी बहन को तो जरूर ही पढ़ा सकेगा मैं सोचता हूं प्रमिला को वही पढ़ाया करे।’

माधवी ने इस पर कोई आपत्ति नहीं की।

संध्या के बाद ब्रज बाबू ने उसे बुलाकर यही बात कह दी। दूसरे दिन से सुरेन्द्रनाथ प्रमिला को पढ़ाने लगा।

प्रमिला की उम्र सात वर्ष की है। वह ‘बोधोदय’ पढ़ती है। अपनी बड़ी दीदी माधवी से अंग्रेजी की पहली पुस्तक ‘मेढ़क की कहानी’ तक पढ़ी थी। वह कॉपी, पुस्तक, स्लेट, पेंसिल, तस्वीर, लोजेंजस लाकर बैठ गई।

‘Do not move’ सुरेन्द्रनाथ ने कहा, ‘Do not mpve’ यानी हिलो मत।

प्रमिला पढ़ने लगी, ‘Do not move’ -हिलो मत।

इसके बाद सुरेन्द्रनाथ ने उसकी और ध्यान देकर स्लेट खींच ली ओर पेंसिल लेकर उस पर कुछ अंक लिखने लगा-प्राब्लम पर प्राब्लम साल्व होने लगे और घ़ड़ी में सात के बाद आठ और आठ के बाद नो बजने लगे। प्रमिला कभी इस करवट और कभी उस करवट होकर किताब के तस्वीरों वाले पन्ने उलटती, कभी लेट जाती, कभी उठकर बैठ जाती। कभी मुंह में लोजेजस रखकर चूसने लगती। कभी बेचारे मेंढ़क के सारे शरीर पर स्याही पोतती हुई पढ़ती, ‘Do not move’ – हिलो मत।

‘मास्टर साहब, हम अन्दर जाए?’

‘जाओ’

उसका सुबर का समय इसी प्रकार बीत जाता। लेकिन दोपहर का काम कुछ और ही तरह का था। ब्रज बाबू ने दया करके सुरेन्द्रनाथ की नौकरी का प्रबन्ध करने के लिए कुछ भले लोगों के नाम पत्र लिख दिए थे। सुरेन्द्रनाथ उन पत्रों को जेब में रखकर घर से निकल पड़ता। पता लगाकर उन लोगों के मकानों के सामने पहुंच जाता और देखता कि मकान कितना बड़ा है। उसमें कितने दरवाजे और खिड़कियां हैं। बाहर की ओर कितने कमरे हैं। मकान दो मंजिला है या तीन मंजिला। सामने कोई रोशनी का खभ्भा हे या नहीं, आदि। इसके बाद संध्या होने से पहले ही घर लौट आता।

कलकत्ता आने पर सुरेन्द्रनाथ ने कुछ पुस्तकें खरीदी थीं। उनके अलावा कुछ पुस्तकें घर से भी ले आया था। गैस की रोशनी मैं बैठकर वह उन्हीं पुस्तकों को पढ़ता रहता। ब्रज बाबू अगर कभी उससे काम-धन्धे की बात पूछते तो या तो वह चुप रह जाता या कह दिया करता कि उन सज्जन से भेंट नहीं हुई।

प्रकरण 3

लगभग चार वर्ष हुए, ब्रजराज बाबु की पत्नी का स्वर्गवास हो गया था। बुंढ़ापे के पत्नी वियोग का दुःख बूढ़े ही समझ सकते है, लेकिन इस बात को जाने दीजिए। उनकी लाडली बेटी माधवी इस सोलह वर्ष की उम्र में अपना पति गंवा बैठी है। उससे अपना पति गंवा बैठी है। उससे ब्रजराज बाबू के बदन का आधा लहू सूख गया है। उन्होंने बड़े शौक और धूमधाम से अपनी कन्या का विवाह किया था। वह स्वयं धन सम्पन्न थे, इसलिए उन्होंने धन की ओर बिल्कुल ध्यान नही दिया। लड़के के पास धन-सम्पत्ति हे या नहीं, इसकी खोज नहीं की। केवल यह देखा कि लड़का लिख-पढ़ रहा है, सुन्दर है, सुशील है, सीधा-साधा है। बस यही देखकर उन्होंने माधवी का विवाह कर दिया था।

ग्यारह वर्ष की उम्र में माधवी का विवाह हुआ था। तीन वर्ष तक यह अपने पति के यहां रही। प्यार, दुलार सब कुछ उसे मिला था, लेकिन उसके पति योगेन्द्रनाथ जीवित नहीं रहे। माधवी के इस जीवन के सारे अरमानों पर पानी फेरकर और ब्रजराज बाबू के कलेजे में बर्छी भोंककर वह स्वर्ग सिधाए गए। मरने के समय जब माधवी फूट-फूट कर रोने लगी, तब उन्होंने बहुत ही कोलम स्वर में कहा था, ‘माधवी! मुझे इसी बात का सबसे अधिक दुःख नहीं, दुःख है तो इस बात का कि तुम्हें जीवन भर कष्ट भोगने पड़ेगे। मैं तुम्हें आदर-सम्मान कुछ भी तो नहीं दे सका…।’

इसके बाद योगेन्द्रनाथ के सीने पर आंसुओं की धारा बह चली थी। माधवी ने उनके आंसू पोंछते हुए कहा था, ‘जब मैं फिर तुम्हारे चरणों में आकर मिलूं तब आदर मान देना…।’

योगेन्द्रनाथ ने कहा था, ‘माधवी, जो जीवन तुम मेरे सुख के लिए समर्पित करती, वह जीवन अब सभी के सुख के लिए समर्पित कर देना।

जिनके चेहरे पर दुःख और उदासी दिखाई दे, उसी चेहरे को प्रफुल्लित करने का प्रयत्न करना। और क्यां कहूं माधवी…।’ इसके बाद फिर आंसू मचलकर बहने लगे। माधवी ने उन्हें फिर पोंछ दिया।

‘तुम सत्यथ पर रहना। तुम्हारे पुण्य प्रताप से ही मैं तुम्हे फिर पासकूंगा।’

तभी में माधवी बिल्कुल बदल गई है। क्रोध, द्वेष, हिंसा आदि जो भी उसके स्वभाव में शामिल थे, उन सबको उसने अपने स्वामी की चिता की भस्म के साथ-साथ सदा-सदा-सर्वदा के लिए गंगा जल में प्रवाहित कर दिया है। जीवन में जो भी साध और आकांक्षाएं होती हैं विधवा हो जानें पर कहीं चली नहीं जातीं। जब मन में कोई साध सिर उठाती है तो वह अपने स्वामी की बात सोचने लगती है। जब वह नहीं है तब फिर यह सब क्यों? किसके लिए दूसरों से डाह करू? किससे लिए दूसरों की आंखों के आंसू बहाऊं? और वह सब हीन प्रवृत्तियां उसमें कभी थी भी नहीं, वह बड़े आदमी की बेटी है। ईर्ष्या-द्वेष उसने कभी सीखा भी नहीं था।’

उसके बगीचे में बहुत से फूल खिलते हैं। पहले वह उन फूलों की माला गूंथकर अपने स्वामी के गले में पहनाती थी, लेकिन अब स्वामी नहीं है, इसलिए उसने फूलों के पेड-पौधे कटवाए नहीं। अब भी उन पर उसी प्रकार फूल खिलते है, लेकिन वह धरती पर गिर कर मुरझा जाते है। अब वह उन फूलों की माला नहीं पिरोती। उन सबको इकट्ठा करके अंजूली भर-भरकर दीन-दुखियों के बांट देती है। जिनके पास नहीं है, उन्हीं को देती है। इसमें जरा भी कंजूसी नहीं करती, जरा भी मुंह भारी नहीं करती।

जिस दिन ब्रज बाबू की पत्नी परलोक सिधारीं उसी दिन से इस घर में, कोई व्यवस्था नहीं रह गई थी। सभी लोग अपनी-अपनी चिन्ता में रहते। कोई किसी की ओर ध्यान न देता। सभी के लिए एक-एक नौकर मुकर्रर था। हर नौकर केवल अपने मालिक का काम करता था। रसोई घर में रसोइया भोजन बनाता ओर एक बड़े अन्न सत्र की तरह सब अपनी-अपनी पत्तल बिछाकर बैठ जाते। किसी को खाना मिल पाता, किसी को न मिल पाता। कोई इस बात को जानने का प्रयत्न भी न करता।

लेकिन जिस दिन माधवी भादों मास की गंगा की तरह अपना रूप, स्नेह और ममता लेकर अपने पिता के घर लौट आई, उसी दिन से धर में एक नया बसन्त लोट आया। सभी लोग उसे बड़ी बहन कहकर पुकारते हैं। घर का पालतू कुत्ता तक शाम को एक बार बड़ी बहन को अवश्य देखना चाहता है। मानो इतने आदमियों में से उसने भी एक को स्नेहमयी और दयामयी मनाकर चुन लिया है। घर के मालिक से लेकर नायब, गुमाश्ते, दास-दासियां बड़ी दीदी पर ही निर्भर रहते हैं। कारण कुछ भी हो, लेकिन सभी के मन यह धारणा बैठ गई है कि बड़ी दीदी पर हमारा कुछ विशेष अधिकार है।

स्वर्ग का कल्पतरु हममें से किसी ने कभी नहीं देखा। यह भी नहीं जानते कि कभी देख पाएंगे या नहीं। इसलिए उसके बारे में कुछ कह नहीं सकते। लेकिन ब्रज बाबू की गृहस्थी के सभी लोगों ने एक कल्पवृक्ष पा लिया है। उसी कल्पवृक्ष के नीचे आकर वह हाथ फैलाते हैं और मनचाही वस्तु पाकर हंसते हुए लौट जाते है।

इस प्रकार के परिवार के बीच सुरेन्द्रनाथ ने एक नए ढंग का जीवन व्यतित करने का मार्ग देखा। जब सभी लोगों ने सारा भार एक ही व्यक्ति पर डाल रखा है तो उसने भी वैसा ही किया, लेकिन अन्य लोगों की अपेक्षा उसकी धारणा कुछ और ही प्रकार की है। वह सोचता है कि ‘बड़ी दीदी’ नाम का एक जीवित पदार्थ इस धर में रहता है। वही सबको देखता-सुनता है। सबके नाज-नखरे बर्दाश्त करता है और जिस-जिस चीज की आवश्यकता होती है, वह उसे मिल जाती है। कलकत्ता की सड़को पर धूम-धूमकर उसने अपनी चिन्ता करने की आवश्यकता थो़ड़ी-सी जानी-समझी थी, लेकिन इस घर में आने पर वह इस बात को एकदम भूल गया कि कोई एसा दिन भी था जब मुझे स्वयं अपनी चिन्ता करनी पड़ी थी या भविष्य में फिर कभी करनी पड़ेगी।’

कुर्ता, धोती, जूता, छाता, घड़ी-जो कुछ भी चाहिए सभी उसके लिए हाजिर है। रुमाल तक कोई उसके लिए अच्छी तरह सजाकर रख जाता है। पहले कौतूहल होता था और वह पूछता था, ‘यह सब चीजें कहां से आई।’ उत्तर मिलता, ‘बड़ी दीदी ने भेजी है।’ आजकल जलपान की प्लेट तक देखरक वह समझ लेता है कि यह बड़ी दीदी ने ही बड़े प्रयत्न से सजाया है।

गणित के प्रश्न हल करने बैठा तो एक दिन उसे कम्पास का ख्याल आया उसने प्रमिला से कहा, ‘प्रमिला, बड़ी दीदी के यहां से कम्पास लाओ।’

बड़ी दीदी को कम्पास से कोई काम नहीं पड़ता इसलिए उसके पास नहीं था। लेकिन उसने तत्काल ही आदमी को बाजार भेज दिया। संध्या को सुरेन्द्रनाथ टहलकर लौटा तो उसने देखा-टेबल पर वांछित वस्तु रखी हैं। दूसरे दिन सवेरे प्रमिला ने कहा, ‘मास्टर साहब, बडी बहन ने वह भेज दिया है।’

इसके बाद बीच-बीच में एकाध चीज एसी मांग बैठता जिसके लिए माधवी बड़ी संकट में पड़ जाती। बहुत खोज करती तब कहीं जाकर प्रार्थना पूरी कर पाती। फिर भी यह कभी न कहती कि मैं यह चीज नहीं दे सकूंगी।

कभी वह अचानक ही प्रमिला से कह बैठता, ‘बड़ी दीदी से पांच पुरानी धोतियां ले आओ, भिखारियों को देनी हैं।’ नई और पुरानी धोतियां छांटने की फुर्सत माधवी को हर समय नहीं रहती। इसलिए वह पहनने की ही पांच धोतियां भेज देती और फिर ऊपर की खिड़की से देखती कि चार-पांच गरीब जय-जयकार करते चले जा रहे हैं। उन लोगों को कपड़े मिल गए हैं।

सुरेन्द्रनाथ के इस प्रकार के छोटे-मोटे आवेदन रूपी अत्याचार नित्य ही माधवी को सहने पड़ते, लेकिन धीरे-धीरे माधवी को इन सब बातों का ऐसा अभ्यास हो गया कि अब उसे कभी खयाल ही नहीं आता कि उसके घर में कोई नया आदमी आकर नित्य प्रति के कामों में नई तरह के छोटे-मोटे उपद्रव मचा रहा है।

केवल यही नहीं, इस नये व्यक्ति के लिए आजकल माधवी को बहुत ही सतर्क रहना पड़ता है। काफी खोज-खबर लेनी पड़ती है। यदि वह अपनी जरूरत की सभी चीजें स्वयं मांग लिया करता तो माधवी की महेनत आधी कम हो जाती, लेकिन सबसे बड़ी चिन्ता कि बात यह है कि वह अपने लिए कभी कोई चीज मांगता ही नहीं। पहले माधवी यह नहीं जान सकी कि सुरेन्द्रनाथ उदासीन प्रकृत्ति का आदमी है। सुबह की चाय ठण्डी हो जाती और वह पीता ही नहीं। जलपान को छूने तक का उसे ध्यान न रहता। कभी-कभी कुत्ते की खिला देता। खाने बैठता तो खाने की चीजों का रत्ती भर भी सन्मान न करता एक और हटाकर, नीचे डालकर, छिपाकर रख जाता, जैसे उसे कोई बी चीज न रुचती हो। नौकर-चाकर कहते, ‘भास्कर साहब तो पागल हैं, न कुछ देखते हैं, न कुछ जानते हैं। बस किताब लिए बैठे रहते है।’

ब्रज बाबू बीच-बीच में पूछते कि नौकरी की कोई व्यवस्था हुई या नहीं। सुरेन्द्र इस प्रश्न का कुछ यों ही-सा उत्तर दे दिया करता। माधवी यह सब बातें अपने पिता से सुनती और समझ जाती कि मास्टर साहब नौकरी पाने का रत्ती भर प्रयत्न नहीं करते। इच्छी भी नहीं है। जो कुछ मिल गया है उसी से संतुष्ट हैं।

सवेरे दस बजे ही बड़ी बहन की और से स्नान और भोजन का तकाजा आ जाता। अच्छी तरह भोजन न करने पर बड़ी दीदी की ओर से प्रमिला आकर शिकायत कर जाती। अधिक रता तक किताब लिए बैठे रहने पर नौकर आकर गैस की चाबी बन्द कर देता। मना करने पर अनसुना कर देता। कहता, ‘बड़ी बहन का हु्म्क है।’

एक दिन माधवी ने अपने पिता से हंसते हुए कहा, ‘बाबूजी, जैसी प्रमिला है, ठीक वैसे ही उसके मास्टर साहब हैं।’

‘क्यों बेटी?’

‘दोनों ही बच्चे हैं। जिस तरह प्रमिला नहीं समझती कि उसे कब किस चीज की आवश्यकता है, कब खाना चाहिए, कब क्या काम करना उचित है, उसके मास्टर भी वैसे ही हैं। अपनी आवश्यकताओं को नहीं जानते। फिर भी असमय एसी चीज मांग बैठते हैं कि होशहवास ठीक रहने की हालत में कोई व्यक्ति उसे नहीं मांग सकता।’

ब्रज बाबू कुछ समझ नहीं सके। माधवी के मुंह की ओर देखते रहे।

माधवी ने हंसेत हुए पूठा, ‘तुम्हारी बेटी प्रमिला समझती है कि उसे कब किस चोज की जरूरत है?’

‘नहीं समझती।’

‘ओर असमय उत्पात करती है।’

‘हां, सो तो करती है।’

‘मास्टर साहब भी ऐसा ही करते है।’

ब्रज बाबू ने हंसते हुए कहा, ‘मालूम होता है कि लड़का कुछ पागल है।’

‘पागल नहीं है। जान पड़ता है किसी बड़े आदमी के लड़के हैं।’

ब्रज बाबू ने चकित होकर पूछा, ‘कैसे जाना?’

माधवी जानती नहीं थी, केवल समझती थी। सुरेन्द्र अपना एक भी काम स्वयं नहीं कर सकता था। वह हंमेशा दूसरों पर निर्भर रहता था। अगर कोई दूसरा कर देता है तो काम हो जाता है और अगर नहीं करता तो नहीं होता। कार्य करने की क्षमता न होने के कारण ही माधवी उसे जान गइ है। वह सोचती है कि आरंभ से ही उसमें काम करने की आदत नहीं है। विशेष रूप से उसके नए ढंग से खाना खाने के तरीकों ने माधवी को और भी अधिक चकित कर दिया है। खाने की कोई-सी चीज उसे अपनी ओर पूरी तरह आकर्षित नहीं कर पाती। कोई भी चीज वह भरपेट नहीं खाता। किसी चीज के खाने की रुचि नहीं होती। उसका यह बूढ़ों जैसा वैराग्य, बच्चों जैसी सरलता, पागलों जैसी उपेक्षा…। कोई खाने को दे देता है तो खा लेता है, नहीं देता तो नहीं खाता। यह सब माधवी को बहुत ही रहस्यपूर्ण जाने पड़ता है, और इसलिए उसके मन में उसके प्रति दया और करुणा जाग उठी है। वह किसी की और देखता नहीं, इसका कारण लज्जा नहीं, बल्कि उसे आवश्यकता ही नहीं होती इसलिए वह किसी की भी ओर नहीं देखता, लेकिन जब उसे आवश्यकता होती है तो उसे समय और असमय का ध्यान ही नहीं रहता। एकदम बड़ी दीदी के पास उसका निवेदन आ पहुंचता है। उसे सुनकर माधवी मुस्कुराती और सोचती कि यह आदमी बिल्कुल बालकों जैसा सरब सीधा-सादा है।

प्रकरण 4

मनोरमा माधवी की सहेली है। बहुत दिनों से उसने मनोरमा को कोई पत्र नहीं लिखा था। अपने पत्र का उत्तर न पाकर मनोरमा रूठ गई थी। आज दोपहर को कुछ समय निकालकर माधवी उसे पत्र लिखने बैठी थी।

तभी प्रमिला ने आकर पुकारा, ‘बड़ी दीदी।’

माधवी ने सिर उठाकर पूछा, ‘क्या है री?’

‘मास्टर साहब का चश्मा कहीं खो गया है, एक चश्मा दो।’

माधवी हंस पड़ी, बोली, ‘जाकर अपने मास्टर साहब को कह दे कि क्या मैंने चश्मों की कोई दुकान खोल रखी है?’

प्रमिला दौड़कर जडाने लगी तो माधवी ने उसे पुकारा, ‘कहा जा रही है?’

‘उनसे कहने।’

‘इसके बजाय गुमाश्ता जी को बुला ला।’

प्रमिला जाकर गुमाश्ता जी को बुला लाई। माधवी ने उनसे कहा, ‘मास्टर साहब का चश्मा खो गया है। उन्हें एक अच्छा-सा चश्मा दिलवा दो।’

गुमाश्ता जी के चले जाने के बाद वह फिर मनोरमा को पत्र लिखने लगी, पत्र के अन्त में उसने लिखा-

‘प्रमिला के लिए बाबूजी ने एक टीचर रखा है, उसे आदमी भी कह सकते हैं और छोटा बालक भी कह सकते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि इससे पहले वह घर से बाहर कभी नहीं रहा। संसार का कुछ भी नहीं जानता। अगर उसका ध्यान न रखा जाए, उसकी देख-रेख न की जाए तो पलभर भी उसका काम नहीं चल सकता। मेरा लगभग आधा समय उसने छीन रखा है, तुम्हें पत्र कब लिखूं। अगर तुम जल्दी आईं तो मैं इस अकर्मण्य आदमी को दिखा दूंगी। ऐसा निकम्मा और नकारा आदमी तुमने अपने जीवन में नहीं देखा होगा। खाना दिया जाता है तो खा लेता है वरना चुपचाप उपवास करके रह जाता है शायद दिन भर भी उसे इस बात का ध्यान नहीं आता कि उसने खाना खाया हे या नहीं। एक दिन भी वह अपना काम आप नहीं चला सकता, इसलिए सोचती हूं की ऐसे लोग घर से बाहर निकलते ही क्यों हैं? सुना है, उसके माता-पिता हैं। लेकिन मुझे तो ऐसा लगता है कि उसके माता-पिता इन्सान नहीं पत्थर हैं। मैं तो शायद ऐसे आदमी को कभी आंख की ओट भी नहीं कर सकती।’

मनोरमा ने मजाक करते हुए उत्तर दिया- ‘तुम्हाके पत्र से अन्य समाचारों के साथ यह भी मालूम हुआ की तुमने अपने घर में एक बन्दर पाल लिया है और तुम उसकी सीता देवी बन बैठी हो। फिर भी सावधान किए देती हूं-तुम्हारी मनोरमा।’

पत्र पढ़कर माधवी उदास हो गई। उसने उत्तर में लिख दिया, ‘तुम मुहंजली हो, इसलिए वह नहीं जानती कि किसके साथे केसा मजाक करना चाहिए।’

प्रमिला से माधवी ने पूछा, ‘तुम्हारे मास्टर का चश्मा कैसा रहा?’

प्रमिला ने कहा, ‘ठीक रहा।’

‘मास्टर साहब उस चश्मे को लगातार खूब मजे से पढ़ते हैं। इसी से मालूम हुआ।’

‘उन्होंने खुद कुछ नहीं कहा?’ माधवली ने पूछा।

‘नहीं, कुछ नहीं।’

‘कुछ भी नहीं कहा? अच्छा है या बुरा है?’

‘नहीं, कुछ नहीं कहा।’

माधवी का हर समय प्रफुल्लित होने वाला चहेरा पलभर के लिए उदास हो गया, लेकिन फिर तुरन्त ही हंसते हुए बोली, ‘अपने मास्टर साहब से कह देना कि अपना चश्मा फिर कहीं न खो दें।’

‘अच्छा कह दूंगी।’

‘धत् पगली, भला ऐसी बातें भी कहीं कही जाती हैं। शायद वह अपने मन में कुछ खयाल करने लगें।’

‘तो फिर कुछ भी न कहुं?’

‘हां, कुछ मत कहना।’

शिवचन्द्र माधवी का भाई है। एक दिन माधवी ने उससे पूछा, ‘जानते हो, प्रमिला के मास्टर रात-दिन क्या पढ़ते रहते है?’

शिवचन्द्र बी.ए. पढ़ता था। प्रमिला के तुच्छ मास्टर जैसों को वह कुछ समझता ही नहीं था। उपेक्षा से बोला, ‘कुछ नाटक-उपन्यास पढ़ते रहते होंगे। और क्या पढेंगे?’

लेकिन माधवी को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने प्रमिला के द्वारा सुरेन्द्र की एक पुस्तक चोरी से मंगवा ली और अपने भाई के हाथ में देकर बोली, ‘मुझे तो यह नाटक या उपन्यास नहीं दिखाइ देता।’

शिवचन्द्र ने सारी पुस्तक उलट-पुलट कर देखी लेकिन उसकी समझ में कुछ नहीं आया। बस इतना ही समझ पाया कि वह इस पुस्तक का एक भी अक्षर नहीं जानता और यह कोई गणित की पुस्तक है।

लेकिन बहन के सामने अपना सम्मान नष्ट करने की इच्छा नहीं हुई। उसने कहा, ‘यह गणित की पुस्तक है। स्कूल में छोटी क्लासों में पढा़यी जाती है।’

दुःखी होकर माधवी ने पूछा, ‘क्या यह किसी ऊंची क्लास की पुस्तर नहीं है? क्या कॉलेज में पढ़ायी जाने वाली पुस्तक नहीं है?’

शिवचन्द्र ने रुखे स्वर से उत्तर दिया, ‘नहीं, बिलकुल नहीं।’

लेकिन उस दिन से शिवचन्द्र सुरेन्द्रनाथ के सामने कभी नहीं पड़ता। उसके मन में यह डर बैठ कया है कि कहीं एसा न हो कि वह कोई बात पूछ बैठे, ‘जिससे सारी बातें खुल जाएं और फिर पिता की आज्ञा से उसे भी सवेरे प्रमिला के साथ मास्टर साहब के पास कॉपी, पेंसिल लेकर बैठना पड़े।’

कुछ दिन बाद माधवी ने पिता से कहा, ‘बाबूजी, मैं कुछ दिनो के लिए काशी जाऊंगी।’

ब्रज बाबू चिन्तित हो उठे, ‘क्यो बेटी, तुम काशी चली जाओगी तो इस गृहस्थी का क्या होगा?’

माधवी हंसकर बोली, ‘मैं लौट आऊंगी। हंमेशा के लिए थोड़े ही जा रही हूं।’

माधवी तो हंस पड़ी लेकिन पिता की आंखे छलक उठी।

माधवी ने समझ लिया कि ऐसा कहना उचित नहीं हुआ। बात संभालने के लिए बोली, ‘सिर्फ कुछ दिन घूम आऊंगी।’

‘तो चली जाओ, लेकिन बेटी यह गृहस्थी तुम्हारे बिना नहीं चलेगी।’

‘मेरे बिना गृहस्थी नहीं चलेगी?’

‘चलेगी क्यों नहीं बेटी! जरूर चलेगी, लेकिन उसी तरह जिस तरह पतवार के टूट जाने पर नाव बहाव की ओर चलने लगती है।’

लेकिन काशी जाना बहुत ही आवश्यत था। वहां उसकी विधवा ननद अपने इकलौते बेटे के साथ रहेती है। उसे एक बार देखना जरूरी है।

काशी जाने के दिन उसने हर एक को बुलाकर गृहस्थी का भार सौंप दिया। किसी दासी को बुलाकर पिता, भाई, और प्रमिला की विशेष रुप से देखभाल करने की हिदायक दी लेकिन मास्टर साहब के बारे में किसी से कुछ नहीं कहा। ऐसा उसने भूलकर साहब के बारे में किसी से कुछ नहीं कहा। एसा उसने भूलकर नहीं बल्कि जान बूझकर किया था। इस समय उस पर उसे गुस्सा भी आ रहा था। माधवी ने उसके लिए बहुत कुछ किया है, लेकिन इस समय उसने मुंह से एक शब्द भी कहकर कृतज्ञता प्रकट नहीं की, इसलिए माधवी विदेश जाकर इस निकम्मे, संसार से अनजान और उदासीन मास्टर को जतलाना चाहती है कि मैं भी कोई चीज हूं। जरा-सा मजाक करने में हर्ज ही क्या है? यह देख लेके में हानि ही क्या है उसके यहां न होने पर मास्टर के दिन किस तरह कटते हैं? इसलिए वह काशी जाते समय किसी से सुरेन्द्र के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कह गई।

सुरेन्द्रनाथ उस समय कोई प्राब्लम साल्ब कर रहा था। प्रमिला ने कहा, ‘रात को बड़ी बहन कासी चली गई।’

प्रमिला की बात उसके कानों तक नहीं पहुंची। उसने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया।

लेकिन तीन दिन के बाद जब उसने देखा कि दस बजे भोजन के लिए कोई आग्रह नहीं करता। किसी-किसी दिन एक और दो बज जाते हैं। नहाने के बाद धोती पहनते समय पता चलता है कि धोती पहले की तरह साफ नहीं है। जलपान की प्लेट पहले की तरह सजाई हुई नहीं है। रात को गैस की चाबी बन्द करने के लिए अब कोई नहीं आता। पढ़ने की झोंक में रात के दो और तीन-तीन बज जाते हैं, सुबह जल्दी नींद नहीं खुलती। उठने में देर हो जाती है। दिन भर नींद आंखो की पलके छोड़कर जाना ही नहीं चाहती और शरीर मानो बहुत ही शिथिल हो गया है। तब उसे पता चला कि इस गृहस्थी में कुछ परिवर्तन हो गया है। जब इंसान को गर्मी महसूस होती है, तब वह पंखे की तलाश करता है।

सुरेन्द्रनाथ ने पुस्तक पर से नजर हटा कर पूछा, ‘क्यों प्रमिला, क्या बड़ी बहन यहां नहीं है?’

उसने कहा, ‘वह काशी गई है।’

‘ओह, तभी तो।’

दो दिन के बाद उसने अचानक प्रमिला की ओर देखकर पूछा, ‘बड़ी बहन कब आएगी?’

सुरेन्द्रनाथ ने फिर पुस्तक की ओर ध्यान लगाय दिया और भी पांच दिन बीत गए। सुरेन्द्रनाथ ने पैंसिल पुस्तक के ऊपर रखकर पूछा ‘प्रमिला, एक महिने में और कितने दिन बाकी हैं।’

‘बहुत दिन।’

पैंसिल उठाकर सुरेन्द्रनाथ ने चश्मा उतारा। उसके दोनों शीशे साफ किए और फिर खाली आंखो से पुस्तक की ओर देखने लगा।

दूसरे दिन उसने पूछा, ‘प्रमिला, तुम बड़ी बहन की चिठ्ठी नहीं लिखती?’

‘लिखती क्यो नहीं?’

‘जल्दी आने के लिए नहीं लिखा?’

‘नहीं।’

सुरेन्द्रनाथ ने गरही सांस लेकर कहा, ‘तभी तो।’

प्रमिला बोली, ‘मास्टर साहब, अगर बड़ी बहन आ जाए तो अच्छा होगा?’

‘हां, अच्छा होगा।’

‘आने के लिए लिख दूं?’

‘हा, लिख दो।’ सुरेन्द्रनाथ ने खुश होकर कहा।

‘आपके बारे में भी लिख दूं?’

‘लिख दो।’

उसे ‘उसे लिख दो’ कहने में किसी प्रकार की दुविधा महसूस नहीं हुई। क्योंकि वह कोई भी लोक व्यवहार नहीं जानता। उसकी समझ में यह बात बिल्कुल नहीं आई कि बड़ी बहन से आने के लिए अनुरोध करना उसके लिए उचित नहीं है, सुनने में भी अच्छा नहीं लगता, लेकिन जिसके न रहने से उसे बहुत कष्ट होता है और जिसके न होने से उसका काम नहीं चलता, उसे आने के डरा भी अनुचित प्रतीत नहीं हुआ।

इस संसार में जिन लोगों में कौतूहल कम होता है वह साधारण मानव समाज से कुछ बहार होते हैं। जिस दिल में साधारण लोग रहते है, उस दल के साथ उन लोगों का मेल नहीं बैठता। साधारण लोगों के विचारों से उनके विचार नहीं मिलते। सुरेन्द्रनाथ के स्वभाव में कौतुहल शामिल नहीं है। उसे जितना जानना आवश्यक होता है वह बस उतना ही जानने की चेष्टा करता है। इससे बाहर अपनी इच्छा से एक कदम भी नहीं रखना चाहता। इसके लिए उसे समय भी नहीं मिल पाता, इसलिए उसे बड़ी बहन बारे मे कुछ भी मालूम नहीं था।

इस परिवार में उसके इतने दिन बीत गए। इत तीन महीनों तक अपना सारा भार बड़ी दीदी पर छोड़कर अपने दिन बड़े सुख से बिता दिए। लेकिन उसके मन में यह जानने की रत्ती भर भी जिज्ञासा नहीं हुई कि बड़ी दीदी नाम का प्राणी कैसा है? कितना बड़ा है? उसकी उम्र क्या है? देखने में कैसा है? उसमें क्या-क्या गुण है? वह कुछ भी नहीं जानता? जानने की इच्छा भी नहीं हुई और कभी ध्यान भी आया।

सब लोग उसे बड़ी दीदी कहते हैं, सो वह भी बड़ी दीदी कहता है। सभी उस स्नेह करते हैं, उसका सम्मान करते हैं। वह भी करता है। उसके पास संसार की हर वस्तु का भंडार भरा पड़ा है। जो भी मांगता है, उसे मिल जाता है और यदि उसक भंडार में से सुरेन्द्र ने भी कुछ लिया है तो इसमे अचम्भे की बात कौन-सी है। बादलों का काम जिस तरह पानी बरसाना है, उसी तरह बड़ी दीदी का काम सबसो स्नेह करना और सबकी खोज-खबर रखना है। जिस समय वर्षा होती है, उस समय जो भी हाथ बढ़ता है उसी को जब मिल जाता है। बड़ी दीदी के सामने हाथ फैलाने भी पर जो मांगो मिल जाता है। जैसे वह भी बादलों की तरह नेत्रों, कामनाओं और आकांक्षाओं से रहित है। अच्छी तरह विचार करके उसने अपने मन में इसी प्रकार की धारणा बना रखी है। आज भी वह जान गया है कि उनके बिना उसका काम एक पल भी नहीं चल सकता।

वह जब अपने घर था तब या तो अपने पिता को जानता था या विमाता को। वह यह भी समझता था कि उन दोनों के कर्तव्य क्या हैं। किसी बड़ी दीदी के साथ उसका कभी परिचय नहीं हुआ था और जबसे परिचय हुआ है तब से उसने उसे ऐसा ही समझा है, लेकिन बड़ी दीदी नाम के व्यक्ति को न तो वह जानता है और न पहचानता है। वह केवल उनके नाम को जाना है और नाम को ही पहचानता है। व्यक्ति का जैसे कोई महत्व ही नहीं है, नाम ही सब कुछ है।

लोग जिस प्रकार अपने इष्ट देवता को नहीं देख पाते, केवल नाम से ही परिचित होते हैं। उसी नाम के आगे दुःख और कष्ट के समय अपना सम्पूर्ण ह्दय खोलकर रख देते हैं, नाम के आगे घुटने टेक कर दया की भिक्षा मांगते हैं, आंखों मे आंसू आते हैं तो पोंछ डालते है और फिर सूनी-सूनी नजरों से किसी को देखना चाहते हैं लेकिन दिखाई नहीं देता। अस्पष्ट जिह्वा केवल दो-एक अस्फुट शब्दों का उच्चारण करके ही रुक जाती है। ठीक इसी प्रकार दुःख पाने पर सुरेन्द्रनाथ स्फुर शब्दों में पुकार उठा-बड़ी दीदी।

तब तक सूर्य उदय नहीं हुआ था। केवल आकाश में पूर्वी छोर पर उषा की लालिमा ही फैली थी। प्रमिला ने आकर सोए हुए सुरेन्द्रनाथ का गला पकड़ कर पुकारा, ‘मास्टर साहब?’

सुरेन्द्रनाथ की नींद से बोझिल पलकें खुल गई, ‘क्या है प्रमिला?’

‘बड़ी दीदी आ गई।’

सुरेन्द्रनाथ उठकर बैठ गया। प्रमिला का हाथ पकड़कर बोला, ‘चलो देख आएं?’

बड़ी दीदी को देखने की इच्छा उसके मन में किस तरह पैदा हुई, कहा नहीं जा सकता और यह भी समझ में नहीं आता कि इतने दिनों बाद यह इच्छा क्यों पैदा हुई। प्रमिला का हाथ थामकर आंखें मलता हुआ अंदर चला गया। माधवी के कमरे के सामने पहुंचकर प्रमिला ने पुकारा, ‘बड़ी दीदी?’

बड़ी दीदी किसी काम में लगी थी। बोली, ‘क्या, है प्रमिला?’

‘मास्टर साहब…।’

वह दोनों कमरे में पहुच चुके थे। माधवी हड़बडाकर खड़ी हो गई और सिर पर एक हाथ लम्बा घूंघट खींचकर जल्दी से एक काने में खिसक गई।

सुरेन्द्रनाथ ने कहा, ‘बड़ी दीदी, तुम्हारे चले जाने पर मैं बहुत कष्टय…।’

माधवी ने घूंघट की आड़ में अत्यन्त लज्जा के कारण अपनी जीभ काटकर मन-ही-मन कहा, ‘छी!’ ‘छी!’

‘तुम्हारे चले जाने पर…।’

माधवी मन-ही-मन कह उठी, ‘कितनी लज्जा की बात है।’ फिर धीरे से बड़ी नर्मी से बोली, ‘प्रमिला, मास्टर साहब से बाहर जाने के लिए कह दे।’

प्रमिला छोटी होने पर भी अपनी बड़ी दीदी के व्यवहार को देखकर समझ गई कि यह काम अच्छा नहीं हुआ। बोली, ‘चलिए मास्टर साहब।’

सुरेन्द्र कुछ देर हक्का-बक्का खड़ा रहा, फिर बोला, ‘चलो।’

वह अधिक बातें करना नहीं जानता था, और अधिक बातें करना भी नहीं चाहता था, लेकिन दिन भर बादल छाए रहने के बाद जब सूर्य निकलता है तो जिस तरह बरबर सब लोग उसकी ओर देखने लगते है और पलभर मे लिए उन्हें इस बात का ध्यान नहीं रहता कि सूर्य को देखना उचित नहीं है या उसकी ओर देखने से उसकी आंखों में पीड़ा होगी, ठीक उसी प्रकार एक मास तक बादलों से धिर आकाश के नीचे रहेने के बाद जब पहले पहल सूर्य चमका तो सुरेन्द्रनाथ बड़ी उत्सुकता और प्रसन्नता से उसे देखने के लिए चला गया था, लेकिन वह यह नहीं जानता था कि इसका परिणाम यह होगा।

उसी दिन से उसकी देख-रेख में कुछ कमी होने लगी। माधवी कुछ लजाने लगी, क्योंकि इस बात को लेकर बिन्दुमती मौसी कुछ हंसी थी। सुरेन्द्रनाथ बी कुछ संकुचित-सा हो गया था। वह महसूस करने लगा था कि बड़ी दीदी का असीमित भंडार अस सीमित हो गया है। बहन की देख-रेख और माता का स्नेह उसे नहीं मिल पाता। कुछ दूर-दूर रहकर हट जाता है।

एक दिन उसने प्रमिला से पूछा, ‘बड़ी दीदी मुझसे कुछ नाराज है?’

‘हा।’

‘क्यों भला?’

‘आप उस दिन घर के अन्दर इस तरह क्यों चले गए थे?’

‘जाना नहीं चाहिए था, क्यों?’

‘इस तरह जाना होता है कही? बहन बहुत नाराज हुई थी।’

सुरेन्द्रनाथ ने पुस्तक बन्द करके कहा, ‘यही तो।’

एक दिन दोपहर को बादल धिर आए और खूब जोरों की वर्षा हुई। ब्रजराजबाबू आज दो दिन से मकान पर नहीं हैं। अपनी जमींदारी देखने गए हैं। माधवी के पास कोई काम नहीं था। प्रमिला बहुत शरारतें कर रही थी। माधवी ने कहा, ‘प्रमिला अपनी किताब ला। देखूं तो कहां तक पढ़ी है?’

प्रमिला एकदम काठ हो गई।

माधवी ने कहा, ‘जा किताब ले आ’

‘रात को लाऊंगी।’

‘नहीं, अभी ला।’

बहुत ही दुःखी मन से प्रमिला किताब लेने चली गई और किताब लाकर बोली, ‘मास्टर साहब कुछ नहीं पढाते, खुद ही पढ़ते रहते है।’

माधवी उससे पूछने लगी। आरभ्भ से अन्त तक सब कुछ पूछने पर वह समझ गई कि सचमुच मास्टर साहब ने कुछ नहीं पढ़ाया है, बल्कि पहले जो कुछ पढ़ा था, मास्टर लगाने के बाद इधर तीन-चार महिने में प्रमिला उसे भूल गई। माधवी ने नाराज होकर बिन्दु को बुलाया, ‘बिन्दु, मास्टर साहब से पूछकर आ कि इतने दिनों तक प्रमिला को कुछ भी क्यों नहीं पढ़ाया।’

बिन्दु जिस समय पूछने गई उस समय मास्टर साहब किसी प्राब्लम पर विचार कर रहे थे।

बिन्दु ने कहा, ‘मास्टर साहब, बड़ी दीदी पूछ रही हैं कि आपने प्रमिला को कुछ पढ़ाया क्यों नहीं?’

लेकिन मास्टर साहब को कुछ सुनाई नहीं दिया।

बिन्दु ने फिर जोर से पुकारा, ‘मास्टर साहब…।’

‘क्या है?’

‘बड़ी दीदी कहती हैं….।’

‘क्या कहती है?’

‘प्रमिला को पढ़ाया क्यों नहीं?’

अनपमे भाव से उसने उत्तर दिया, ‘अच्छा नहीं लगता’

बिन्दु ने सोचा, यह तो कोई बुरी बात नहीं है, इसलिए उसने यही बात जाकर माधवी को बताया। माधवी का गुस्सा और भी बढ़ गया।

उसने नीचे जाकर और दरवाजे की आड़ में खड़े होकर बिन्दु से पूछवाया, ‘प्रमिला को बिल्कुल ही क्यों नही पढ़ाया?’

दो-तीन बार पूछे जाने पर सुरेन्द्रनाथ ने कहा, ‘में नहीं पढ़ा सकूंगा।’

माधवी सोचने लगी, ‘यह क्या कह रहे है?’

बिन्दु ने कहा, ‘तो फिर आप यहां किसलिए रहते है?’

‘यहां न रहूं तो और कहा जाऊं?’

‘तो फिर पढ़ाया क्यों नहीं?’

सुरेन्द्रनाथ को अब होश आया। घूमकर बैठ गया और बोला,‘क्या कहती हो?’

बिन्दु ने जो कुछ कहा था उसे दोहरा दिया।

‘वह पढ़ती ही है, लेकिन आप भी कुछ देखते है?’

‘नहीं, मुझे समय नहीं मिलता।’

‘तो फिर किसलिए इस घर में रहते है?’

सुरेन्द्रनाथ चुप होकर इस बात पर विचार करने लगा।

‘तो फिर आप उसे नहीं पढ़ा सकेगें?’

‘नहीं, मुझ पढ़ाना अच्छा नहीं लगता।’

माधवी ने अंदर से कहा, ‘अच्छा तो बिन्दु पूछो कि फिर वह इतने दिनों से यहां क्यों रह रहे है?’

बिन्दु ने कह दिया।

सुनते ही सुरेन्द्रनाथ प्रोब्लम वाला जाल एकदम छिन्न-भिन्न हो गया। वह दुःखी हो उठा। कुछ सोचकर बोला, ‘यह तो मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई।’

‘इस तरह लगातार चार महिने तक भूल?’

‘हां, वही तो देख रहा हूं, लेकिन मुझे इस बात का इतना ख्याल नहीं था।’

दुसरे दिन प्रमिला पढ़ने नहीं आई। सुरेन्द्रनाथ ने भी कोई ध्यान नहीं दिया।

प्रमिला तीसरे दिन भी नहीं आई। वह दिन भी यों ही बीत गया। जब चौथे दिन भी सुरेन्द्रनाथ ने प्रमिला को नहीं देखा तो एक नौकर से कहा, ‘प्रमिला को बुला बाओ।’

नौकर ने अन्दर से वापस आकर उत्तर दिया, ‘अब वह आपसे नहीं पढ़ेगी।’

‘तो फिर किससे पढ़ेगी?’

नौकर ने अपनी समझ लगाकर कहा, ‘दूसरे मास्टर आएगा।’

उस समय लगभग नौ बजे थे। सुरेन्द्रनाथ ने कुछ देर सोचा और फिर दो-तीन किताबें बगल में दबा कर उठ खड़ा हुआ। चश्मा खाने में बन्द करके मेज परक रख दिया और धीरे-धीरे वहां से चल दिया।

नौकर ने पूछा, ‘मास्टर साहब, इस समय कहां जा रहे है?’

‘बड़ी दीदी से कह देना, मैं जा रहा हूं।’

‘क्या आप नहीं आएंगे?’

लेकिन सुरेन्द्रनाथ यह बात नहीं सुन पाया। बिना कोई उत्तर दिए फाटक से निकल गया।

दो बज गए लेकिन सुरेन्द्रनाथ लौटकर नहीं आया। उस समय नौकर ने जाकर माधवी को बताया कि मास्टर साहब चले गए।

‘कहां गए है?’

‘यह तो मैं नहीं जानता। नौ बजे ही चले गए थे। चलते समय मुझसे कह गए थे कि बड़ी दीदी से कह देना कि मैं जा रहा हूं।’

‘यह क्या रे? बिना खाए-पिए चले गए?’

माधवी बेचेन हो उठी। उसने सुरेन्द्रनाथ के कमरे में जाकर देखा, सारी चीते ज्यों की त्यों रखी हैं। मेज के ऊपर खाने में बंद किया चश्मा रखा है। केवल कुछ किताब नहीं हैं।

शाम हो गई। फिर रता हो गई, लेकिन सुरेन्द्र नहीं लौटा।

दूसरे दिन माधवी ने नौकरों को बुलाकर कहा, ‘अगर मास्टर साहब का पता लगाकर ले आओगे तो दस-दस रुपये इनाम मिलेंगे।’

इनाम के लालच में वह लोग चारों ओर दौड पड़े, लेकिन शाम को लौटकर बोले, ‘कहीं पत्ता नहीं चला।’

प्रमिला ने रोते हुए पूछा, ‘बड़ी दीदी, वह क्यों चले गए?’

‘माधवी झिड़क कर बोली, बाहर जा, रो मत।’

दो दिन, तीन दिन करके जैसे-जैसे दिन बीतने लगे, माधवी की बेचैनी बढ़ने लगी।

बिन्दु ने कहा, ‘बड़ी दीदी, भला उसके लिए इतनी खोज और तलाश क्यों! क्या कलकत्ता शहर में कोई और मास्टर नहीं मिलेंगा?’

माधवी झल्ला कर बोली, ‘चल दूर हो। एक आदमी हाथ में बिना एक पैसा लिए चला गया है और तू कहती है कि तलाश क्यों हो रही हैं?’

‘यह कैसे पता चला कि उसके पास एक भी पैसा नहीं हैं?’

‘मैं जानती हूं, लेकिन तुझे इन सब बातों से क्या मतलब?’

बिन्दु चुप हो गई।

धीरे-धीरे एक सप्ताह बीत गया। सुरेन्द्र लौटकर न आया तो माधवी ने एक तरह जैसे अन्न, जल का त्याग ही कर दिया। उसे ऐसा लगता था जैसे सुरेन्द्र भूखा है। जो घर में चीज मांगकर नहीं खा सकता, वह बाहर दूसरे से क्या कभी कुछ मांग सकता है। उसे पूरा-पूरा विश्वास था कि सुरेन्द्र के पास खरीदकर कुछ खाने के लिए पैसे नहीं हैं। भीख मांगने की सामर्थ्य नहीं है, इसलिए या तो छोटे बालकों जैसी असहाय अवस्था में फूटपाथ पर बैठा रो रहा होगा या किसी पेड़ के नीचे किताबों पर सिर रखे सो रहा होगा।

जब ब्रज बाबू लौटकर आए और उन्होंने सारा हाल सुना तो माधवी से बोले, ‘बेटी, यह काम अच्छा नहीं हुआ।’

कष्ट के मारे माधवी अपने आंसू नहीं रोक पाई।

उधर सुरेन्द्रनाथ सड़को पर धुमता रहता। तीन दिन तो बिना कुछ खाए ही बिता दिया। नल के पानी में पैसे नहीं लगते, इसलिए जब भूख लगती तो पेटभर नल से पानी पी लेता।

एक दिन रात को भूख और थकान से निढ़ाल होकर वह काली घाट की और जा रहा था। कहीं सुन लिया था कि वहां खाने को मिलता है। अंधेरी रात थी। आकाश में बादल धिरे हुए थे। चौरंगी मोड़ पर एक गाड़ी उसके ऊपर आ गई। गाड़ीवान ने किसी तरह धोड़े की रफ्तार रोक ली थी, इसलिए सुरेन्द्र के प्राण तो नहीं गए लेकिन सीने और बगल में बहुत गहरी चोट लग जाने से बेहोश होकर गिरा पड़ा। पुलिस उसे गाड़ी पर बैठाकर अस्पताल ले गई। चार-पांच दिन बेहोशी की हालत में बीतने के बाद एक दिन रात को उसने आंखें खोलकर पुकारा, ‘बड़ी दीदी।’

उस समय मेडिकल कॉलेज का एक छात्र ड्यूटी पर था। सुनकर पाक आ खड़ा हुआ।

सुरेन्द्र ने पूछा, ‘बड़ी दीदी आई है?’

‘कल सवेरे आएंगी।’

दूसरे दिन सुरेन्द्र को होश तो आ गया लेकिन उसने बड़ी दीदी की बात नहीं की। बहुत तेज बुखार होने के कारण दिन भर छटपटाते रहने के बाद उसने एक आदमी से पूछा, ‘क्या मैं अस्पताल में हूं?’

‘हां।’

‘क्यों?’

‘आप गाड़ी के नीचे दब गए थे।’

‘बचने की आशा तो है?’

‘क्या नहीं?’

दुसरे किन उसी छात्र ने पास आकर पूछा, ‘यहां आप का कोई परिचित या रिश्तेदार है?’

‘कोई नहीं।’

‘तब उस दिन रात को आप ब़ड़ी दीदी कहकर किसे पुकार रहे थे? क्या वह यहां हैं?’

‘हैं, लेकिन वह आ नहीं सकेंगी। मेरे पिताजी को समाचार भेज सकते हैं?’

‘हां, भेज सकता हूं।’

सुरेन्द्रनाथ ने अपने पिता ता पत्ता बता दिया। उस छत्र ने उसी दिन पत्र उन्हें लिख दिया। इसके बाद बड़ी दीदी का पता लगाने के लिए पूछा।

‘अगर स्त्रियां आना चाहें तो बड़े आराम से आ सकती हैं। हम लोग उनका व्यवस्था कर सकते हैं। आपकी बड़ी दीदी का पता मालूम हो जाए तो उनके पाक भी समाचार भेज सकते है।’ उसने कहा।

सुरेन्द्रनाथ ने कुछ देर तक सोचने के बाद ब्रज बाबू का पता बता दिया।

‘मेरा मकान ब्रज बाबू के मकान के पास ही है। आज मैं उन्हें आपके बारे में बता दूंगा। अगर वह चाहेंगे तो देखने के लिए आ जाएंगे।’

सुरन्द्र ने कुछ नहीं कहा। उसने मन-ही-मन समझ लिया था कि बड़ी दीदी का आना असंभव है।

लेकिन छात्र ने दया करके ब्रज बाबू के पास समाचार पहुंचा दिया। ब्रज बाबू ने चौंककर पूछा, ‘बच तो जाएगा न?’

‘हां, पूरी आशा है।’

ब्रज बाबू ने घर के अन्दर आकर अपनी बेटी से कहा, ‘माधवी, जो सोचा था वही हुआ। सुरेन्द्र गाड़ी के नीचे दब जाने के कारण अस्पताल में है।’

माधवी का समूचा व्यक्तित्व कांप उठा।

‘उसने तुम्हारा नाम लेकर ‘बड़ी दीदी’ कहकर पुकारा था। उसे देखने चलोगी?’

उसी समय पास वाले कमरे में प्रमिला ने न जाने क्या गिरा किया। खूब जोर से झनझानहट की आवाज हुई। माधवी दौडकर उस कमरे में चली गई। कुछ देर बाद लौटकर बोली, ‘आप देख आइए, मैं नहीं जा सकूंगी।’

ब्रज बाबू दुःखित भाव से कुछ मुस्कुराते हुए बोले, ‘अरे वह जंगल का जानवर है। उसके ऊपर क्या गुस्सा करना चाहिए?’

माधवी ने कोई उत्तर नहीं दिया तो ब्रज बाबू अकेले ही सुरेन्द्र को देखने चले गए। देखकर बहुज दुःखी हुए। बोले, ‘अगर तुम्हारे माता-पिता के पास खबर भेज दी जाए तो कैसा रहे?’

‘खबर भेज दी है।’

‘कोई डर की बात नहीं। उनके आते ही मैं सारा इंतजाम कर दूंगा।’

रुपये-पैसे की बात सोचकर ब्रज बाबू ने कहा, ‘मुझे उन लोगों का पता बता दो जिससे मैं एसा इंतजाम कर दूं कि उन लोगों को यहां आने में कोई असुविधा न हो।’

लेकिन सुरेन्द्र‘ इन बातों को अच्छी तरह न समझ सका। बोला, ‘बाबूजी आ जाएंगे। उन्हें कोई असुविधा नहीं होगी।’

ब्रज बाबू ने घर लौटकर माधवी को सारा हल सुना दिया।

तब से ब्रज बाबू रोजाना सुरेन्द्र को देखने के लिए अस्पताल जाने लगे। उनके मन में उसके लिए स्नेह पैदा हो गया था।

एक दिन लौटकर बोले, ‘माधवी, तुमने ठीक समझा था। सुरेन्द्र के पिता बहुत धनवान हैं।’

‘कैसे मालूम हुआ?’ माधवी ने उत्सुकता से पूछा।

‘उसके पिता बहुत बड़े बकील हैं । वह कल रात आए हैं।’

माधवी चुप रही।

‘सुरेन्द्र घर से भाग आया था।’ ब्रज बाबू ने बताया।

‘क्यो?’

‘उसके पिता के साथ आज बातचीत हुई थी। उन्होंने सारी बातें बताई। इसी वर्ष उसने पश्चिम के एक विश्वविद्यालय से सर्वोच्च सम्मान के साथ एम.ए. पास किया है। वह विलायत जाना चाहता था, लेकिन लापरवाह और उदासीन प्रकृत्ति का लड़का है। पिता को विलायत भेजने का साहस नहीं हुआ, इसलिए नाराज होकर घर से भाग आया था। अच्छा हो दाने पर वह उसे घर ले जाएंगे।’

निःश्वास रोककर और उमड़ते हुए आंसुओं को पीकर माधवी ने कहा, ‘यही अच्छा है।’

प्रकरण 5

सुरेन्द्र को अपने घर गए हुए छः महिने बीत चुके हैं। इस बीच माधवी ने केवल एक ही बार मनोरमा को पत्र लिखा था। उसके बाद नहीं लिखा।

दर्गा पूजा के समय मनोरमा अपने मैके आई और माधवी के पीछे पड़ गई, ‘तू अपना बन्दर दिखा।’

माधवी ने हंसकर कहा, ‘भला मेरे पास बन्दर कहां है?’

मनोरमा उसकी ठोड़ी पर हाथ रखकर कोमल कंठ से बड़े सुर-ताल से गाने लगी,

‘सिख अपना बन्दर दिखला दे, मेरा मन ललचाता है।

तेरे इन सुन्दर चरणों में कैसी शोभा पाता है?’

‘कौन-सा बन्दर?’

‘वही जो तूने पाला था।’

‘कब?’

मनोरमा ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘याद नहीं? जो तेरे अतिरिक्त और किसी को जानता ही नहीं।’

माधवी समझ तो पहले ही गई थी और इसलिए उसके चेहरे का रंग बिगड़ता जा रहा था। तो भी अपने को संयत करते बोली, ‘ओह, उनकी चर्चा करती हो। वह तो चले गए।’

‘ऐसे सुन्दर कमल जैसे उसे पसंद नहीं आए?’

माधवी ने मुंह फेर लिया। कोई उत्तर नहीं दिया। मनोरमा ने बड़े प्यार से उसका मुंह हाथ से पकड़कर अपनी ओर घुमा लिया। वह तो मजाक कर रही थी। लेकिन माधवी की आंखों में मचलते आंसुओं को देखकर हैरान रह गई। उसने चकित होकर पूछा, ‘माधवी, यह क्या?’

माधवी अपने आप को संभाल न सकी। आंखों पर आंचल रखकर रोने लगी।

मनोरमा के आश्चर्य की सीमा न रही। कहने के लिए कोई उपयुक्त बात भी न खोज सकी। कुछ देर माधवी को रोने दिया, फिर जबर्दस्ती उसके मुंह पर से आंचल हटाकर उसने दुःखी स्वर में पूछा, ‘क्यों बहन, एक मामूली-सा मजाक भी बर्दास्त नहीं हुआ?’

माधवी ने आंसू पोछते हुए कहा, ‘बहन, मैं विधवा जो हूं।’

इसके बाद दोनो काफी देर तक चुपचाप बैठी रही। फिर चुपके-चुपके रोने लगीं। माधवी विधवा थी। उसके दुःख से दुःखी होकर मनोरमा रोने लगी थी, लेकिन माधवी के रोने कार कारण कुछ और ही था। मनोरमा ने बिना सोचे-समझे जो मजाक किया था कि ‘वह तेरे अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता,’ माधवी इसी के बारे में सोच रही थी। वह जानती थी कि बात बिल्कुल सच है।

बहुत देर के बाद मनोरमा ने कहा, ‘लेकिन काम अच्छा नहीं हुआ।’

‘कोन-सा काम?’

‘बहन, क्या यह भी बताना होगा? मैं सब कुछ समझा गई हूं।’

पिछले छः महिने से माधवी जिस बात को बड़ी चेष्टा से छिपाती चली आ रही थी, मनोरमा से उसे छिपा नहीं सकी। जब पकड़ी गई तो मुंह छिपाकर रोने लगी। और एकदम बच्चे की तरह रोने लगी।

अन्त में मनोरमा ने पूछा, ‘लेकिन चल क्यों गए?’

‘मैंने ही जाने के लिए कहा था।’

‘अच्छा किया था-बुद्धिमानी का काम किया था।’

माधवी समझ गई कि मनोरमा कुछ भी समझ नहीं पाई है, इसलिए उसने धीरे-धीरे सारी बातें समझाकर बता दीं। फिर बोली, ‘मनोरमा, अगर उनकी मृत्यु हो जाती तो शायद मैं पागल हो जाती।’

मनोरमा ने मन-ही-मन कहा, ‘और अब भी पागल होने में क्या कसर रह गई है?’

मनोरमा उस दिन बहुत दुःखी होकर घर लौटी और उसी रात अपने पति को पत्र लिखने लगी-

‘तुम सच कहते हो-स्त्रियां का कोई विश्वास नहीं। मैं भी अब यही कहती हूं। क्योंकि माधवी ने आज मुझे यह शिक्षा दी है। मैं उसे बचपन से जानती हूं। इसलिए उसे दोष देने को जी नहीं चाहता। साहस ही नहीं हो रहा। समूची नारी जाति को दोष दे रही हूं। विधाता को दोष दे रही हूं कि उन्होंने इतने कोमल और जल जैसे तरल पदार्थ से नारी के ह्दय का निर्माण क्यों किया। उनके चरणों में मेरी विनम्र प्रार्थना है कि वह नारी ह्दय को कठोर बनाया करे, और मैं तुम्हारे चरणों पर सिर रखकर तुम्हारे मुंह की ओर देखती हुई मरूं। माधवी को देखकर बहुत ही डर लगता है। उसने मेरी जन्म-जन्मांतर की धारणाएं उलट-पुलट दी हैं। मेरा भी अघिक विश्वास न करना और जल्दी आकर ले जाना।’

उसके पति ने उत्तर में लिखा-

‘जिसके पास सौदर्य है, गुण है, वह उसका प्रदर्शन करेगा ही। जिसके ह्दय में प्रेम है, जो प्रेम करना जानता है वह प्रेम करेगा ही। माधवी की लता आम के वृक्ष का सहारा लेती है। संसार की यही रीति है। इसमें हम-तुम क्या कर सकते हैं। मैं तुम पर अत्यधिक विश्वास करता हूं। इसके लिए तुम चिन्तित मत होना।’

मनोरमा ने अपने पत्र को माथे से लगाकर और उनके चरणों में प्रणाम करके लिखा–

‘मुहंजली माधवी-उसने वह किया है जो एक-विधवा को नहीं करना चाहिए था। उसने मन-ही-मन एक और आदमी को प्रेम किया है।’

पत्र पाकर मनोरमा के पति मन-ही-मन हंसे। फिर उन्होंने मजाक करते हुए लिखा—

‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि माधवी मुंहजली है, क्योंकि उसने विधवा होकर मन-ही-मन एक और आदमी को प्रेम किया है। यह तुम लोगों के नाराज होने की बात है कि विधवा होकर सधवाओं के अधिकार में हाथ क्यों डाला? मैं जब तक जीता रहूंगा तब तक तुम्हारे लिए चिन्ता की कोई बात नहीं है।’ यदि ऐसी सुविधा तुम्हें मिल तो कभी मत छोड़ना खूब मजे से किसी आदमी के साथ प्रेम कर लो, लेकिन मनोरमा, तुम मुझे चकित नहीं कर सकी हो। मैंने एक बार एक लता देखी थी। लगभग आधा कोस जमीन पर रेंगती-रेंगती अंत में एक वृक्ष पर चढ़ गई थी। अब उसमें न जाने कितने पत्ते और कितनी पुष्प मंजरियां निकल आई हैं। जब तुम यहां आओगी, तब हम दोनों उसे देखने चलेंगे।’

मनोरमा ने नाराज होकर इस पत्र का कोई उत्तर नहीं दिया।

लेकिन माधवी के आंखो के कोनों मे लालिमा छा गई थी। उसका हर समय फूल की तरह खिला रहने वाला चेहरा कुछ गंभीर हो गया था। काम-धन्धे में उतना जी नहीं लगता था। एक प्रकार की कमजोरी-सी आ गई थी। आज भी उसमें उसी प्रकार की सबकी देखभाल करने और सबसे प्रति आत्मीयता पूर्ण व्यवहार करने की इच्छी पहले जितनी ही है। बल्कि पहले की अपेक्षा वढ़ गई हैं, लेकिन अब सारी बातें पहले की तरह याद नहीं रहती। बीच-बीच में भूल हो जाती है।

अब भी सब लोग उसे बड़ी दीदी कहते हैं। अब भी सब लोग उसी कल्पतरू की ओर देखते है, उसी के सामने हाथ फैलाते हैं
और इच्छित फल प्राप्त कर लेते है। लेकिन अब वह कल्पवृक्ष उतना सरल नहीं हैं। पुराने आदमियों को बीच-बीच में आशंका होने लगती है कि कहीं आगे चलकर यह सूख न जाए।

मनोरमा रोजाना आती है और-और बातें तो होती हैं, लेकिन यही बात नहीं होती। मनोरमा समझती है कि माधवी को इससे दुःख होता है। अब इन बातों की आलोचना जितनी न हो उतना ही अच्छा है। मनोरमा यह भी सोचती है कि किसी तरह यह अभागी यह सब भूल जाए।

सुरेन्द्र अच्छा होकर अपने पिता के घर चला गया है। विमाता उस पर नियंत्रण रखना कुछ कम कर दिया है। इसी से सुरेन्द्र का शरीर कुछ ठीक होने लगा है, लेकिन वह पूरी तरह ठीक नहीं हो पाया है। उसके अंतर में एक व्यथा है। सौंदर्य और यौवन की आकांक्षा और प्यास अभी तक उसके मन में पैदा नहीं हुई है। यह सब बाते वह नहीं सोचता अब भी वह पहले की तरह लापरवाह है। आत्म-निर्भता उसमें नहीं है, लेकिन किस पर निर्भर रहना चाहिए, वह यह नहीं खोज पाता। खोज नहीं पाता क्योंकि वह अपना काम आप कर ही नहीं पाता। अब भी अपने काम के लिए वह दूसरों के मूंह की ओर देखता रहता है, लेकिन अब पहले की तरह किसी भी काम में उसका मन नहीं लगता। सभी कामों में उसे कुछ-न-कुछ कमी दिखाई देती है। थो़ड़ा बहुत असंतोष प्रकट करता है। उसकी विमाता यह सब देख सुनकर कहती है, ‘सुरेन्द्र अब बदल गया हा।’

बीच में उसे ज्वर हो गया था। बहुत कष्ट हुआ। आंखों में आंसू बहने लगे। विमाता पास ही बैठी थी। उन्होंने यह नई बात देखी तो उसकी आंखों से भी आंसू बहने लगे। बड़े प्यार से उसके आंसू पोंछ कर पूछा, ‘क्या हुआ सुरेन्द्र बेटा?’

सुरेन्द्र ने कुछ बताया नहीं।

उसने एक पोस्ट कार्ड मंगाया और उक पर टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा ‘बड़ी दीदी, मुझे बुखार चढ़ा है, बहुत कष्ट हो रहा है।’

लेकिन वह पत्र लेटर बोक्स तक नहीं पहुंचा। पहले उसके पलंग पर से जमीन पर गिरा पड़ा। उसके बाद जो नौकर उस कमरे में झाड़ देने आया, उसने अनार के छिलको, बिस्कुट टुकडों और अंगूर के डंठलों के साथ वह पत्र भी बुहार कर फेंक दिया। सुरेन्द्र ह्दय की आकांक्षा धूल में मिलकर, हवा में उड़कर, ओस में भीगकर, ओर अंत में धूप खाकर एक बबूल के पेड़ के नीचे पड़ी रह गई।

पहले तो वह अपने पत्र के उत्तर की मूर्तिमती आशा की टकटकी लगाए रहा, उसके बाद हस्ताक्षरों की, लेकिन बहुत दिन बीत गए, उत्तर नहीं आया।

इसके बाद उसके जीवन में एक नई घटना हुई। यद्यपि नई थी लेकिन बिल्कुल स्वभाविक थी। सुरेन्द्र के पिता राय महाशय बहुत पहले से इसे जानते थे और इसकी आशा कर रहे थे।

सुरेन्द्र के नाना पवना जिले के बीच के दजें के जमींदार थे। बीस-पच्चीस गावों में उनकी जमींदारी थी। लगभग पचास हजार रुपये सालाना कि आमदनी थी। उनके पास कोई लड़का-बच्चा नहीं था, इसलिए खर्च बहुत कम था। उस पर वह एक प्रसिद्ध कंजूस थे। यह इसलिए वह अपने लम्बे जीवन में ढेर सारा धन इकट्ठी कर सके थे। यहा राय महाशय इस बात कि निश्चित रूप से जानते थे कि उसकी मृत्यु के बाद उनकी सारी धन-सम्पति उनके एकमात्र दोहित्र सुरेन्द्रनाथ को ही मिलेगी। ऐसा ही हुआ भी। राय महाशय को समाचार मिला कि उनके ससुर मृत्यु शैया पर पड़ हैं। वह लड़के के लेकर तत्काल पवना चले गए, लेकिन उनके पहुंचने से पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया था।

बड़ी धूमधाम से उनका श्राद्ध हुआ। व्यवस्थित जमींदारी और अधिक व्यवस्थित हो गई। अनुभवी, बुद्धिमान, पुराने वकील राय महाशय की कठोर व्यवस्था में प्रजा और भी अधिक परेशान हो उठी। अब सुरेन्द्र का विवाह होना भी आवश्यक हो गया। विवाह कराने बाले नाइयों के आने-जाने से गांव भर में एक तूफान-सा आ गया। पचास कोस के बीच जिस धर में भी सुन्दर कन्या थी, उस घर में नाइयों के दल बार-बार अपनी चरणधूल पहुंचाकर कन्या के माता-पिता को सम्मानित और आशान्वित करने लगे।

इसी प्रकार छह महीने बीत गए।

अंत में विमाता आई और उसके रिश्ते-नाते के जितने भी लोग थे, सभी आ गए। बन्धु-बान्धवों से घर भर गया।

इसके बाद एक दिन सवेरे तुरही बजाकर ढोल-ढक्के की भीषण आवाजों और करतालों की खनखनाहट से सारे गांव को गुंजायमान कर सुरेन्द्रनाथ अपना विवाह कर लाया।

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