चरित्रहीन (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 2

चरित्रहीन (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 2

नौ

सतीश हतबुद्धि सा हो गया था। क्यों सावित्री अविश्राम आकर्षित करती है और क्यों पास आने पर इस तरह निष्ठुर आघात करके दूर हटा देती है? उस दिन सारी रात बराबर सोचते रहने पर भी, इसका कोई स्पष्ट कारण खोजकर वह न पा सका। पिछली रात की एक बात अब तक उसकी हड्डियों में झनझनाती हुई बज रही थी। इस कारण वह भोर में बाहर निकल पड़ा, और किराये का एक मकान ठीक करके आकर मज़दूर बुलाकर अपना सामान लदवाने लगा। यह काम देखकर बासा के सभी लोग आश्चर्य में पड़ गये। अधिक आश्चर्य में पड़ा बिहारी। उसने पास आकर धीरे-धीरे पूछा, “बाबू क्या घर जा रहे हैं?”

सतीश ने उसके हाथ में पाँच रुपये देकर कहा, “नहीं बिहारी, घर पर नहीं स्कूल के पास ही एक मकान पा गया हूँ, इसलिए जा रहा हूँ।”

बिहारी ने कहा, “किन्तु वह तो अभी तक आयी नहीं है बाबू?”

सतीश ने मुँह ऊपर उठाये बिना ही कहा, “आयी नहीं है? अच्छा तू मेरे बिछौने को बाँध दे, मैं तब तक राखाल बाबू के कमरे से आ रहा हूँ।” यह कह कर बासे का देना-पावना चुका देने के लिए वह राखाल बाबू के कमरे में चला गया। उस कमरे में बहुत से लोग उपस्थित थे। शायद यही आलोचना चल रही थी क्योंकि उसको देखते ही सभी निस्तब्ध हो गये। राखाल ने ज़रा हँसने की चेष्टा करके कहा, “सतीश बाबू, इस तरह अचानक कैसे?”

सतीश ने हाथ के रुपयों को मेज़ के एक किनारे रखकर कहा, “अचानक एक दिन मैं आया भी था, अचानक एक दिन जा रहा हूँ। इन्हीं रुपयों से शायद आपका हिसाब चुकता हो जायेगा, यदि न हो, तो हिसाब हो जाने पर मुझे ख़बरकर दीजियेगा, बाकी रुपये भेज दूँगा।”

राखाल ने कहा, “ख़बर कहाँ दूँगा?”

“मेरे स्कूल के पते से एक कार्ड लिखकर भेज दीजियेगा, मुझे मिल जायेगा।” यह कहकर सतीश और किसी सवाल-जवाब की प्रतीक्षा न करके बाहर चला गया। कमरे के अन्दर एक दबी हुई हँसी की आवाज़ सतीश के कानों में आ पहुँची। बिहारी निकट ही खड़ा था। कमरे में घुसकर हाथ की छोटी-सी गठरी किवाड़ की आड़ में उतारकर रख देने के बाद राखाल को लक्ष्य करके बोला, “बाबू, मेरा सत्रह दिन का वेतन हिसाब करके दे दीजिये, मुझे इसी दम बाबू के साथ जाना पड़ेगा।”

राखाल ने विस्मित और क्रुद्ध होकर कहा, “तू जायगा, यहाँ काम करेगा कौन? जाऊँगा कह देने से ही तो जाना नहीं होता।”

बिहारी ने कहा, “होगा क्यों नहीं बाबू? मुझे तो जाना ही पड़ेगा।”

राखाल ने अग्नि की तरह जलकर कहा, “जाना पड़ेगा कह देने से ही हो जायेगा? नियमानुसार नोटिस देना चाहिए, मालूम है?”

बिहारी ने कहा, “वह एक दिन समयानुसार आकर दे जाऊँगा। अभी वेतन दे दीजिये, मुझे माल-असबाब जुटाना पड़ेगा।”

राखाल और कुछ न कहकर तूफ़ान की गति से बाहर आया और सतीश के कमरे में घुसते ही बोल उठा, “सतीश बाबू, ये सब कैसे काम हैं?”

सतीश बिछौना बाँधते हुए बोला, “कौन सब?”’

राखाल ने उद्दण्ड भाव से कहा, “नौकरानी नहीं आयी, वह तो पहले ही चली गयी है। देख रहा हूँ, बिहारी को भी ले जाना चाहते हैं, क्यों? अपराध किया आपने, दण्ड हम लोग भोगेंगे?”

सतीश ने कहा, “आपकी बात मेरी समझ में नहीं आयी।”

राखाल ने कण्ठ का स्वर ऊँचा करके कहा, “समझेंगे क्यों? न समझने में ही तो सुविधा है। खुद न जाने से तो आपको निकाल बाहर करना ही पड़ता, लेकिन जो कुछ भी हो, एक सहज शिष्टता का बोध भी क्या नहीं रहना चाहिए?”

सतीश की दोनों आँखें जल उठीं। पास आकर वह बोला, “आप यह सब क्या कह रहे हैं, राखाल बाबू?”

ईर्ष्या की आग राखाल को जला रही थी। बोला, “ठीक कह रहा हूँ, आप भी ठीक समझ रहे हैं! सतीश बाबू, कोई भी बात हम लोगों से छिपी नहीं है। अच्छा, जाइये आप – क्या ही काला साँप मकान में लाया गया था। ऐसे बासे को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।

सतीश ने राखाल का एक हाथ थामकर कहा, “आप क्या कह रहे हैं, राखाल बाबू?”

राखाल ज़बरदस्ती अपना हाथ छुड़ाकर गरज उठा, “जाइये, ढोंग मत रचिये। जाइये आप, दूर हट जाइये!”

बिहारी ने कमरे में आकर कहा, “सतीश बाबू, जाने दें उनको, उनका मोह कहाँ है और कहाँ है उनकी जलन, यह बात मैं एक दिन आपको बताऊँगा। मैं सब जानता हूँ। आइये, हम लोग चीज़-सामान ठीक कर डालें।”

राखाल अपने पैरों की आवाज़ से मकान कँपा कर बाहर चला गया। सतीश ने चौकी पर बैठकर कहा, “यह सब क्या है बिहारी?”

बिहारी ने कहा, “मैं आपके साथ जाऊँगा, यहाँ रह न सकूँगा।”

सतीश ने आश्चर्य में पड़कर कहा, “मेरे साथ? यहाँ काम कौन करेगा?” बिहारी ने अविचलित दृढ़ता के साथ कहा, “जिसकी इच्छा हो वह करे, मैं साथ ही जाऊँगा! नौकर के बिना तो आपका काम चलेगा नहीं।”

इतनी देर में मामला समझ सकने पर सतीश पल भर चुप रहकर बोला, “यह बात पहले कह देने से ही तो ठीक रहता बिहारी।”

बिहारी कुछ नहीं बोला, चुपचाप चीज़-सामान बाँध-बटोरकर मज़दूर के सिर पर उठाने लगा। वह जायेगा ही इसमें और सन्देह नहीं रहा।

सतीश नये बासे पर आकर सोच रहा था, मैं कैसा हो गया हूँ? किस तरह ऐरा-गैरा कोई भी मेरा अपमान करने का साहस करता है। यही नहीं, अपमान करके स्वच्छन्दता से परित्राण पा जाता है, क्यों? मेरी असाधारण शारीरिक शक्ति एक तिल भी कम नहीं हुई है, फिर भी मैं क्यों मुँह ऊपर उठाकर ज़ोर लगाकर बात नहीं कह सकता? क्यों मैं सिर झुकाये ही सब सह लेता हूँ। अपने मन की यह शोचनीय दुर्बलता आज उसको बड़ी चोट पहुँचाने लगी और उससे भी अधिक चोट लगी इस दुःख की कि प्रतिकार करने का सामथ्र्य भी मानोआज उसक हाथ से निकल गया। राखाल की क्रोध भरी भाषा ने उस रात की घटना का ही उल्लेख किया है! इसमें सन्देह मात्र नहीं है कि इसी को याद करके सतीश लज्जा से गड़ गया। विपिन के आदमियों ने उसको किस तरह किस भाव से पकड़ लिया था। अँधेरे कमरे में किस तरह वह डर से मुर्दे की तरह पड़ा हुआ था, वे लोग बुद्धिमान थे और किस तरह सारी चालाकी समझ लेने पर ओढ़ने के अन्दर से उसे खींचकर ले गये थे इत्यादि चित्तग्राही दुर्लभ विवरण का सत्य-मिथ्या के अलंकार-आडम्बर से लपेटकर जो वर्णन किया गया होगा, उपस्थित सब लोगों ने किस प्रकार उत्कट आनन्द, आग्रह और ऊँची हँसी के साथ उसका उपभोग किया होगा, उसका आदि से अन्त तक कल्पना करके उसका चेहरा इतना ज़्यादा मर्मान्तक और वीभत्स हो कर दिखायी पड़ा कि अकेले कमरे के अन्दर भी सतीश का पूरा चेहरा वेदना से विकृत हो उठा। फिर उन्हीं लोगों के सामने ही राखवाल ने उसका अपमान करके विदा कर दिया, वह एक बात भी कह नहीं सका, यह सुनकर सावित्री क्या सोचेगी!

वह कुछ न कहेगी। सब सह लेगी, एक जवाब भी न देगी। उसका आत्मसम्मान- बोध कितना बड़ा है, इसको भी वह जैसे असंदिग्ध भाव से समझ गया था, उसके व्यथित चेहरे की आकृति वह कल्पना में आज स्पष्ट देखने लगा। सतीश ने मन ही मन कहा कि ज़रूर मेरी निर्बुद्धिता से जो आज दुर्घटना हो गयी है असहाय सावित्री को उसके बीच छोड़कर चला आना उचित नहीं हुआ। लेकिन उचित क्या हो सकता था, यह किसी तरह सोचने पर भी वह समझ नहीं सका। लेकिन सावित्री ने क्या खुद ही उसको चले जाने को नहीं कहा? उसने क्या गर्व के साथ ही नहीं सका। लेकिन सावित्री ने क्या खुद ही उसको चले जाने को नहीं कहा? उसने क्या गर्व के साथ ही नहीं कहा, इसमें वह कोई अपमान नहीं समझती।

बिहारी ने आकर कहा, “बाबू आपके स्नान का समय हो गया है।” आज उसके कण्ठस्वर में विशेष अर्थ था।

सतीश लज्जित होकर झटपट उठा और तौलिया कन्धे पर रखकर स्नान करने चला गया।

हाय रे, जब हृदय चूर-चूर हो रहा था तब भी नित्य के काम में लापरवाही करने का उपाय नहीं था। उस दिन वह स्कूल गया, लेकिन क्लास में न जा सका। बाहर घूम-घूमकर ही बासे पर लौट आया और कमरे में घुसते ही किसी तरह की निराशा से मानो उसका पूरा हृदय परिपूर्ण हो उठा। इस नये कमरे को सजाकर, सरियाकर ठीक-ठाक करने में बिहारी ने खूब परिश्रम किया है, यह बात समझ में आ गयी। लेकिन अपटु हाथ की प्रथम चेष्टा कहीं भी छिपी नहीं है, यह भी उसी तरह दृष्टि में पड़ गयी। बिहारी शरबत ले आया, तम्बाकू चढ़ाकर दिया और दुकान से पान का दोना खरीदकर ले आया। वृद्ध की अनभ्यस्त इन सब सेवाओं की चेष्टा से सतीश मन ही मन हँसने जा रहा था, पर रुलाई आ गयी और उसने नेत्र पोंछ डाले। रात को बिछौने पर लेटकर सतीश सोचने लगा, ‘जो कुछ होना था हो गया, इन सब बातों को वह अब मन में भी न लायेगा। लिखने-पढ़ने के लिए वह कलकत्ता आया था। तो इसी को लेकर रहेगा या घर लौट जायेगा। ‘लेकिन उस दिन मूच्र्छिता नारी के गरम शरीर के स्पर्श को लेकर वह घर लौट आया था, वह गरमी उसके समस्त संयम की चेष्टा को गलाकर खतम करने लगी। बिहारी मन ही मन सब समझ रहा था, लेकिन सान्त्वना देने का साहस उसको नहीं था। इसी कारण वह उदास चेहरे से चुपचाप दरवाज़े के बाहर बैठा रहा। प्रायः दस बज रहे थे। उसने धीरे-धीरे मुँह बढ़ाकर कहा, “बाबू बत्ती बुझा दूँ?”

सतीश ने कहा, “बुझा दे, लेकिन तू सोयेगा कहाँ बिहारी?”

“मैं यहीं हूँ बाबू! मैंने अपनी चटाई दरवाज़े पर ही बिछा दी है।”

सतीश ने पूछा, “क्या इस मकान में नौकरों के लिए सोने की जगह नहीं है?”

बिहारी ने कहा, “नीचे एक कमरा खाली है, शायद आपको कोई ज़रूरत पड़ जाये इसीलिए यहीं रहूँगा।”

सतीश ने व्यग्र होकर कहा, “यह कैसी बात?” तू वहीं सोने चला जा। बूढ़ा आदमी है, ओस में मत रहो।”

“ओस कहाँ बाबू!” कहकर बिहारी वहीं पर चादर ओढ़कर सो रहा।

कुछ क्षण चुप रहकर सतीश ने पूछा, “रात कितनी हो गयी रे?”

“ज़्यादा नहीं हुई है बाबू, शायद दस बजे हैं।”

सतीश फिर चुप सो रहा। कुछ क्षण बाद मृदु कण्ठ से उसने पूछा, “अच्छा, तू सावित्री का घर जानता है बिहारी?”

बिहारी उठकर बैठ गया। बोला, “जानता तो हूँ बाबू! काफ़ी दिनों तक उसे घर तक पहुँचा आया हूँ।”

सतीश और कुछ न बोला। बिहारी ने कहा, “एक बार जाकर देख आऊँ क्या?”

इस बार सतीश घबराबर बोल उठा, “नहीं, नहीं, तू जायेगा कहाँ? वह तो बहुत ही दूर है!”

बिहारी ने कहा, “दूर बिल्कुल नहीं है बाबू।

सतीश कुछ सोचने लगा, बोला नहीं।

बिहारी ने धीरे-धीरे कहा, “बाबू, यदि एक घण्टे की छुट्टी दें तो देख आऊँ। सबेरे वह काम पर आयी नहीं थी, शायद बीमार पड़ गयी है।”

फिर भी सतीश कुछ नहीं बोला।

बिहारी मन ही मन घबड़ा उठा। आज सारा दिन वह अपनी आदत के अनुसार बातें नहीं कह सका था, उस पर से कहने के लिए विषय इतने अधिक जमा हो चुके थे कि वह एक बार फिर बोला, “एक नयी जगह में नींद नहीं लग रही है बाबू, फिर एक बार तम्बाकू चढ़ा दूँ?”

वह अन्यमनस्क हो गया था, इसलिए उत्तर नहीं दिया। तो भी बिहारी कुछ देर तक उत्सुक होकर प्रतीक्षा करता रहा, अन्त में वह वहीं सो गया।

दूसरे दिन ठीक वक़्त पर सतीश स्कूल गया। दोपहर को बिहारी सब काम-काज पूरा करके हाल में ही रखे गये पाण्डे महाराज के ऊपर डेरे की देखभाल करने का भार देकर बाहर चला गया, और सत्रह दिन का वेतन वसूल करने के बहाने पुराने डेरे पर जा पहुँचा। फिर भी, उसको यह भय था कि राखाल बाबू, कहीं ऑफिस न गये हों। इसीलिए मकान में घुसते ही नये नौकर से ख़बर जान लेने पर वह निर्भय होकर रसोईघर के सामने चला गया, उसने कण्ठ का स्वर ऊँचा करके कहा, “महाराजजी, प्रणाम!”

महाराजजी गांजा पीकर दीवाल पर ओठंग कर नेत्र बन्द किये ध्यान कर रहे थे। चौंक उठे और बोले, “कल्याण हो!” उसके बाद माथा सीधा करके नेत्र खोलकर बोले, “कौन है, बिहारी, आ बैठ जा।”

बिहारी पास आकर पैरों की धूलि को सिर पर चढ़ाकर बैठ गया। चक्रवर्ती ने अंगोछे की खूँट खोलकर थोड़ा-सा गांजा निकाल बिहारी के हाथ में देकर कहा, “उस मकान में अब रसोई कौन बनाता है?”

बिहारी उठकर चला गया, हथेली में दो-चार बूँद पानी लेकर लौट आया और बोला, “एक गँवार ब्राह्मण! एकदम जानवर है!”

चक्रवर्ती ने खुश होकर सिर हिलाकर कहा, “भगवान उन लोगों को पूँछ देना भूल गये हैं, यही आश्चर्य की बात है। इसके बाद डेरे के नये नौकर को लक्ष्य करके बोले, “हमारे यहाँ कल ही एक भूत को पकड़ लाया गया है, उसकी समझ कैसी है उसको तो भला देखो बिहारी, आज सबेरे एक चिलम निकालकर मैंने उसे दी और कहा – ‘तैयार करके लाओ तो भैया! मैंने सोचा इसकी विद्या एक बार देख लेने से ही ठीक होगा। कहने से तू विश्वास न करेगा बिहारी, उल्लू ने चीज़ को मिट्ट में मिला दिया। पर तुम लोगों को वहाँ कष्ट न होगा। मेरी सावित्री चतुर लड़की है, दो ही दिन में सिखा-पढ़ाकर पक्का बना देगी।”

उसकी अपनी पन्द्रह आना विद्या भी उसी गुरु से सीखी हुई थी। उस बात को दबाकर वह झट बोला, “लेकिन मैं यह भी कहता हूँ, बिहारी, पकड़ बैठने से ही कुछ नहीं होता, भैया बाबू लोगों को खुश करना, उनकी थाली में परोस देना बहुत साधारण विद्या नहीं है। इसमें बभनई का ज़ोर चाहिए, ऐरे-गैरे क्या करेंगे लेकिन मेरा यहाँ काम करना अब हो नहीं सकता, यह तुझे पहले ही कहे देता हूँ, तू कह देना तो भला, मेरा नाम लेकर सावित्री से। वह उसी क्षण कहेगी, जाओ बिहारी, चक्रवर्ती को बुला लाओ, भले ही वह रुपया वेतन अधिक लेगा। सतीश बाबू भी कभी ‘नहीं’ न कहेंगे। मैं उनका मिजाज जानता हूँ। लेकिन बड़ी बात यह है कि ब्राह्मणस्य ब्राह्मण गति। मैं दो रुपया अधिक पाऊँगा तो वह कुपात्र में नहीं पड़ेगा।” इतना कह कर चक्रवर्ती महाराज हँसने लगे।

बिहारी अवाक होकर बोला, “महाराजजी सावित्री तो वहाँ नहीं है।”

चक्रवर्ती ने अविश्वास की हँसी हँसकर कहा, “अच्छा, नहीं है। तू मेरा नाम लेकर कह देना, उसके बाद जो कुछ होना होगा, मैं देख लूँगा।”

बिहारी बायें हाथ के पदार्थ को दायें हाथ में लेकर बोला, “तुम्हें छू कर शपथ ले रहा हूँ देवता, वह नहीं जाती वहाँ।”

इतनी बड़ी शपथ के बाद चक्रवर्ती फिर सन्देह न कर सके। आश्चर्य में पड़कर कहा, “तू कहता क्या है बिहारी! वह तो यहाँ भी नहीं आती! फिर चौबीसों घण्टे राखाल बाबू बेचारे सतीश बाबू को जो, अच्छा तू जा, एक बार उसको देख तो आ उसके बाद मैं हूँ और राखाल बाबू हैं। मुझे जैसा-तैसा ब्राह्मण मत समझ लेना बिहारी!”

उसके ब्राह्मणत्व में बिहारी की अगाध श्रद्धा थी। उसने चक्रवर्ती के हाथ में चिलम देकर पूछा, “अच्छा, सतीश बाबू ही क्यों चले गये? कहते हैं स्कूल दूर पड़ता है, लेकिन यह बात सही नहीं है।”

चक्रवर्ती ने कहा, “नहीं, इसके अन्दर कोई बात है।” इसके बाद दोनों ने मिलकर चिलम खत्म कर दी। बिहारी उठ पड़ा और उद्विग्न मुख से सावित्री के घर की तरफ़ चला। उसको विश्वास हो गया कि सावित्री बीमार हो गयी है।

सावित्री के घर का सदर दरवाज़ा खुला हुआ था। बिहारी चुपचाप अन्दर चला गया। प्रायः सभी कमरों के दरवाज़े बन्द थे, किरायेदार दिवानिद्रा में पड़े हुए थे। बिहारी धीरे-धीरे सावित्री के कमरे के सामने जाकर वज्राहत की भाँति स्तब्ध हो गया। किवाड़ का एक पल्ला बन्द था। बिहारी ने देखा उसकी आड़ में सावित्री धरती पर चुपचाप बैठी हुई है, और पास ही चौकी पर बिछौने पर विपिन शराब पीकर मतवाला बना हुआ सो रहा है। पाँव की आवाज़ से सावित्री मुँह बढ़ाकर अचानक बिहारी को देखकर एक ही क्षण में मानो बदहवास हो गयी। लेकिन दूसरे ही क्षण अपने को सम्भालकर बाहर आकर ज़ोर से हँसकर बोली, “आओ, बिहारी, बैठो।” उसको अपने साथ ले जाकर रसोईघर के बरामदे में उसने चटाई बिछा दी, और बड़े आदर से बिठाकर खुद पास ही फ़र्श पर बैठकर उसने पूछा, “समाचार सब अच्छा है बिहारी!” बिहारीने सिर हिलाकर बतलाया कि अच्छा है। उसके बाद सावित्री के मुँह से फिर बात नहीं निकली। दोनों ही चुपचाप बैठे रहे। कुछ देर बाद बिहारी एकाएक उठ जाने को तैयारे होकर बोला, “मैं जा रहा हूँ मुझे बहुत काम करने हैं।”

सावित्री ने पूछा, “अभी ही जाओगे! बैठो न।”

बिहारी ने सिर उठाकर कहा, “नहीं, जा रहा हूँ।”

सावित्री साथ ही साथ सदर दरवाज़े तक जाकर बोली, “हाँ बिहारी, बाबू लोग तो बहुत नाराज़ हो गये हैं!”

बिहारी ने चलते-चलते कहा, “मैं तो जानता नहीं हूँ, हम लोग वहाँ अब नहीं रहते।”

सावित्री ने व्यग्र होकर प्रश्न किया, “नहीं रहते! वह मेस क्या टूट गया है?”

बिहारी ने कहा, “नहीं टूटा तो नहीं है। सिर्फ़ सतीश बाबू उसे छोड़कर चले गये और मैं उनके साथ आया हूँ।”

“तुम लोग क्यों चले गये बिहारी!”

“ये सब बहुत बातें हैं।” कहकर फिर बिहारी चलने को तैयार हुआ तो सावित्री ने दोनों हाथों से उसका हाथ पकड़कर अनुनय के स्वर में कहा, “और एक बार चलकर बैठना पड़ेगा बिहारी।”

बिहारी ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं, मुझे समय नहीं है।”

“कल एक बार फिर आओगे, वचन दो।”

बिहारी ने पहले की भाँति कहा, “नहीं, मुझे समय न मिलेगा।”

क्षणभर सावित्री ने उसके चेहरे की ओर तीक्ष्ण दृष्टिपात करके हाथ छोड़ दिया। अभिमान से समस्त छाती को भरकर शान्त भाव से वह बोली, “अच्छा तो जाओ। यह बात उनसे कह देना।”

इस बात से बिहारी को ठेस लगी। उसने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “उन्होंने तो तुम्हारे सम्बन्ध में जानना नहीं चाहा।”

“नहीं चाहा।”

“नहीं।”

सावित्री स्थिर भाव से प्रतिघात सहकर रूखे स्वर से बोली, “किसी दिन जान लेना चाहेंगे तो शायद कह दोगे!”

बिहारी ने कहा, “नहीं, मैं औरत नहीं हूँ, मेरे शरीर में दया-माया है।” कहकर और किसी प्रश्न की प्रतीक्षा न करके तेजी से छोटी गली को पार करके वह चला गया।

सावित्री उसी जगह चौखट पर स्तब्ध होकर बैठ गयी। उसके अन्दर-बाहर फिर एक बार आग धधक उठी।

आज वह सबेरे घर में नहीं थी। कालीजी के दर्शन के लिए काली घाट गयी थी। इसी अवकाश में विपिन यार-दोस्तों को साथ लिए शराब पीये मतवाला बना आ गया और मोक्षदा के हाथ में दो नोट देकर सावित्री के कमरे का ताला खोलकर बिस्तर पर बैठ गया। और शराब मँगाकर घर भर के सभी लोगों को उसने पिलाई, पीकर सभी मतवाले हो गये। इन बातों को सावित्री कुछ भी जानती नहीं थी। दिन में बारह बजे उसने अपने मकान में घुसकर देखा, इस मकान की दो पुरानी किरायेदारिन शराब के नशे में ग़ाली-ग़लौज कर रही हैं, और उसकी मौसी मोक्षदा सामने के बरामदे में पड़ी हुई टूटी-फूटी आवाज़ में मौज से ‘विद्या सुन्दर’ पद गा रही है। सारे मकान में कहीं फरुही, कहीं उरद का दाना, कहीं बत्तख के अण्डों के छिलके, कहीं मछलियों के कांटे, कहीं केंकड़ों की हड्डी बिखरी पड़ी हैं – पैर रखने तक का स्थान भी नहीं है। मोक्षदा सावित्री को देखते ही अपने ढीले कपड़ों को कमर पर लपेटती उठ खड़ी हुई और उसका गला पकड़कर रोने लगी, “बेटी, ऐसे-ऐसे बाबू जिसके हैं, उसको फिर कष्ट कैसा? उसको फिर दूसरों की नौकरी करनी चाहिए? पर मैं तेरी ग़रीब मौसी हूँ, सावित्री।” उसके मुँह से शराब की गन्ध आ रही थी, गालों पर, माथे पर कपड़ों पर समूचे अंग पर हल्दी के पीले दाग़ पड़े थे, श्वास में कच्ची प्याज़ की तीव्र गन्ध थी। असहनीय घृणा से सावित्री उसको ज़ोर से ढकेलकर बोल पड़ी, “मौसी, तुम शराब पीती हो? तुम भी मतवाली हो रही हो?”

धक्का खाकर मोक्षदा रोना बन्द कर और आँखें लाल कर चिल्लाई, “मतवाली? ज़रूर मतवाली! मुहल्ले के लोगों से जाकर पूछ ले, वे कहेंगे मतवाली है। मेरा भी एक दिन था रे, मेरा भी एक दिन था। मेरा भी एक दिन था जब कि चौबीसों घण्टे शराब में डूबी रहती थी? तू इसका हाल क्या जानेगी, कल की छोकरी है तू्”

उनके गर्जन-तर्जन से कुण्ठित होकर सावित्री ने शान्त करने के अभिप्राय से कहा, “लेकिन तुम पीती नहीं हो, आज एकाएक पीने क्यों गयी!”

मोक्षदा ने और भी व्यथित होकर कहा, “एकाएक फिर क्या! मैं एकाएक पीने वाली नहीं हूँ। जाकर पूछ ले अपने बाबू से, जो एक गिलास पीकर औंधा पड़ा हुआ है। अरे, मर जाऊँगी तो भी अपनी मान-मर्यादा न खोऊँगी, “आँचल में दो नोट बाँध दिये हैं, तभी मैंने गिलास पकड़ा है।” यह कहकर गर्व के साथ आँचल को उठाकर कहा, “ज़रा-सा कह देने से ही दौड़कर पी जाऊँगी, वैसी मोक्षदा मैं नहीं हूँ।”

सावित्री ने चौंककर पूछा, “क्या बाबू आ गये हैं!”

मोक्षदा ने कहा, “नहीं तो इतना काण्ड करता कौन! यह भी कहती हूँ, पी लो कह देने से ही क्यों पीऊँगी! मान-इज्जत क्या नहीं है!”

इसके पहले बरामदे के उस किनारे की औरतें आपस में लड़-झगड़ रही थीं, गले की ऊँची आवाज़ सुनकर झगड़े का आभास पाकर वे पास ही आ खड़ी हुई। विधु ने कहा, “अजी, मान-इज्जत हम लोगों की भी है, ताने की बात हम लोग भी समझती हैं। फिर सावित्री तो लड़की की तरह है, उसका बाबू, मेरा हाथ पकड़कर अनुनय करने लगा, इसीलिए पीना पड़ा नहीं तो…।”

उसकी बात पूरी भी नहीं हो पाई कि मोक्षदा गरज उठी, “भले ही हो सावित्री का बाबू। भले ही हो दामाद। बीस रुपये आँचल में बाँध लिए हैं, तभी हाथ में गिलास छुआ है।” ये बातें सुनकर सावित्री लज्जा और घृणा से मरती जा रही थी। बोल उठी, “चुप रहो मौसी!”

मोक्षदा ने कहा, “चुप क्यों रहूँगी! जो कुछ कहूँगी सामने ही कहूँगी। सब जानते हैं, साफ़ कहने वाली यदि कोई है, तो वह है मुकी।”

इस बार विधु ने भी कण्ठ का स्वर ऊँचा बनाकर कहा, “साफ़ कहना केवल तू ही जानती है, ऐसी बात नहीं है, हम भी जानती हैं, दामाद से दो नोट लेकर शराब पी गयी हो, तीन पा लेने से न जाने…।”

मोक्षदा उछल पड़ी। बोली, “छोटे मुँह बड़ी बात!” और बोल न सकी। सावित्री ने हाथ से उसका मुँह बन्द कर दिया और ज़बर्दस्ती उसे घसीट कर अपने कमरे में ढकेलकर जंजीर चढ़ा दी। वहीं से मोक्षदा न सुनने योग्य भाषा लगातार बरसाने लगी।

लौट आने पर सावित्री विधु के दोनों हाथ पकड़कर बोली, “मौसी, मुझे क्षमा करो। सब दोष मेरा है।”

उसकी नम्र बातों से शान्त होकर विधु ने कहा, “तेरा दोष क्या है साबी? मोक्षदा को सदा से जानती हूँ, ज़रा सी पी लेने के साथ ही फिर रक्षा नहीं, कमर कसकर झगड़ा करने लगती है, यही उसका स्वभाव है। जा, तू अपने कमरे में जा।” यह कहकर वह चली गयी। सावित्री काठ की तरह खड़ी रही। रोष और क्षोभ से आत्मघात करने की उसकी इच्छा हो रही थी। सतीश इतना निर्लज्ज हो सकता है, खुले तौर पर दिन दहाड़े ऐसा उन्मत्त आचरण कर सकता है, यह तो वह सपने में भी सोच नहीं सकती थी। इसलिए काल्पनिक नहीं, एक सच्ची वेदना उसके हृदय के अन्दर विशाल तरंग की भाँति लुढ़कती हुई घूमने लगी। उसको मालूम होने लगा मानो उसका प्रियतम अकस्मात उसी के नेत्रों के सामने मर गया, जिसको केवल दो ही दिन पहले वह कड़ी बातों से अपमानित करके विदा करने को बाध्य हुई थी। वही जब कि इतना शीघ्र, इतने सहज भाव से अपने समस्त आत्मसम्मान को विसर्जित करके ऐसा हीन, ऐसा वीभत्स होकर वापस आ गया, तब भरोसा करने का, विश्वास करने का उसको और कुछ भी नहीं रह गया। उसकी दोनों आँखें जलने लगीं लेकिन एक बूँद भी आँसू की नहीं निकली। उसका सर्वस्व, उसका देवता, उसकी कल्पना का स्वर्ग, उसके भ्रष्ट जीवन का ध्रुवतारा, उसका इहकाल परकाल सब कुछ एक ही क्षण में उस इधर-उधर बिखरी हुई गन्दी चीज़ों, जूठन के ढेरों के बीच लोटने लगे। सावित्री स्थिर होकर खड़ी रही, कमरे की तरफ़ जाने के लिए किसी तरह भी उसके पैर नहीं उठे। उसे याद पड़ गया कि अभी उस दिन रात को उसको छूकर सतीश ने शपथ ली थी। आज ही इतनी जल्दी जब कि सब भूलकर मतवाला बनकर उसके बिछौने पर पड़ा हुआ है तब उसके मुँह की तरफ़ वह और देखेगी कैसे?

उसी समय नीचे मकान मालकिन के कण्ठ की आवाज़ सुनायी पड़ी। वह भी आज मकान में नहीं थीं। आते ही एक के मुँह से मोक्षदा और विधु का विवरण उसके साथ ही और जो कुछ भी रहा सब सुन लेने पर क्रोध के साथ ऊपर चढ़ रही थीं, कि एकाएक सामने जूठे काँटे देखकर स्थिर होकर खड़ी हो गयी। हाल में प्रयाग से सिर मुड़ा आने के बाद से उनके आचार-विचार का अन्त नहीं था। सावित्री को उस अवस्था में देखकर वह बोलीं, “साबी, तुझे तो मैं अच्छी लड़की ही जानती थी – यह सब कैसा अनर्थ का काम है, बता तो बच्ची!”

सावित्री ने संक्षेप में कहा, “मैं घर में नहीं थी।”

मकान मालकिन ने कहा, “इस समय तो तू है। अब सफाई करे कौन? मैं? नहीं बच्ची, मेरे मकान में यह सब दुराचार नहीं चलेगा। अपने-अपने कमरे में बैठकर जिसकी जो इच्छा हो करो, मैं कहने न जाऊँगी। लेकिन बाहर बैठाकर यह सब काण्ड नहीं होगा। मैं इस पर से पैर रखकर चलूँगी, छूआछूत करके जाति जन्म बिगाड़ूँगी, यह मैं न कर सकूँगी।” यह कहकर वह दीवाल से सट-सटकर लाँघ-लाँघकर किसी तरह अपने उस तरफ़ के कमरे में चली गयीं। सावित्री फिर खड़ी नहीं रही, जूठन साफ़ कर सारी जगह धो-पोंछकर फिर स्नान करके आ गयी, और एक सूखे कपड़े के लिए कमरे में चली गयी। अन्दर जाकर बिछौने की तरफ़ देखते ही वह भय से, आश्चर्य से चिल्ला उठी, “माँ रे, यह तो विपिन बाबू हैं!” शराबी गहरी नींद में डूबा हुआ था। वह जागा नहीं। बाहर का कोई यह आवाज़ सुन नहीं सका। सावित्री दो कदम पीछे हट आयी, उसका सारा शरीर काँपने लगा और माथे में हठात मूच्र्छा का लक्षण अनुभव करके दरवाज़े की आड़ में माथा रखकर निर्जीव की भाँति बैठ गयी। कुछ देर बाद उसकी वह दशा बीत ज़रूर गयी लेकिन सिर ऊपर उठाकर सीधी होकर वह बैठ न सकी। इसके पहले जिस क्षोभ से, जिस दुःख से उसका हृदय टुकड़े-टुकड़े होता जा रहा था, जिसके निर्लज्ज आचरण की लज्जा से उसको मर जाने की इच्छा हो रही थी वह लज्जा सच नहीं है। यह सतीश नहीं है, दूसरा ही है, यह आँखों से देख लेने पर भी उसका वह क्षोभ, वह दुःख मानो तिल मात्र भी डिगा नहीं वरन छाती और भारी हो गयी, हृदय में मानो और अन्धकार हो उठा। बिछौने की ओर वह फिर देख न सकी। उसकी दोनों आँखों से आँसू टपकने लगे।

हाय रे स्त्री का प्रेम! इतने दुःख में, इसी बीच किस समय गुप्त रूप से चुपचाप सतीश के सब अपराध उसने क्षमा कर दिये थे, उसकी सेवा करने के लिए स्वस्थ बना देने की प्यास से वह आत्र हो उठी थी और उसको देखने, उसके बातचीत करने की असह्य क्षुधा से उन्मत्त हो उठी थी – इसकी ख़बर शायद उसके अन्तर्यामी को भी नहीं लगती थी, अब उस ओर की समस्त आशाओं के एकाएक झूठ में विलीन हो जाने के साथ ही उसका अस्तित्व ही मानो दिशाविहीन शून्यता के बीच डूब गया। ठीक उसी समय उसके द्वार के बाहर बिहारी आकर खड़ा हो गया।

दस

सतीश के दिल में एक अग्निशिखा दिन-रात जलने लगी, इस बात को उसका मन अस्वीकार न कर सका। उस आग से जलता हुआ उसका इतना बड़ा सबल शरीर भी निस्तेज होता जा रहा है इसका स्पष्ट अनुभव करके वह उद्विग्न हो उठा। बिहारी को बुलाकर कहा, “माल-असबाब एक बार फिर बाँधना पड़ेगा, आज शाम की ट्रेन से घर जाना चाहता हूँ।”

बिहारी ने पूछा, “गाँव के घर या पछाँह के घर पर?” “पछाँह के घर पर।” कहकर सतीश ज़रूरी चीज़-सामान खरीदने का रुपया उसके हाथ में देकर स्कूल चला गया।

बिहारी के आनन्द की सीमा ही नहीं थी। उसका मकान मेदिनीपुर जिले में है, पश्चिम का मुँह उसने आज तक देखा नहीं था। उस पश्चिम की ओर आज रवाना होना पड़ेगा। उसी क्षण शोरगुल मचाकर बाँधना-छानना शुरू किया। पाण्डे ने आकर भोजन के लिए बुलाया। बिहारी ने हँसकर कहा, “महाराज जी, तुम नहाओ, खाओ। मेरा खाना एक तरफ़ ढककर रख दो, यदि समय मिला तो देखा जायेगा, अभी तो मुझे मरने की भी फुरसत नहीं है।” पाण्डेजी पहले वाली बात समझकर चले गये। बाद वाली बात समझ नहीं सके और समझने का प्रयत्न भी नहीं किया।

हाथ का काम सम्पन्न करके बिहारी बाहर चला गया। बाज़ार जाना है। इसके अलावा बासा के चक्रवर्ती को समाचार देना है। सावित्री से घृणा हो गयी थी, आज उसे मन में जगह नहीं दिया।

आज सबेरे से ही सतीश के सिर में दर्द होने लगा था। दिन में बारह बजे के बाद विधिवत ज्वर लेकर वह लौट आया। बिहारी मकान में नहीं था। वह दिन के तीन बजे के लगभग एक बोझ चीज़ें सिर पर लिए आकर बिल्कुल ही बैठ गया। इन दिनों प्रायः चारों तरफ़ बीमारी फैल रही थी। यह बात याद करके सतीश भी डर गया। दूसरे दिन ज्वर और दर्द दोनों ही बढ़ गये। संध्या के बाद सतीश ने चिन्तित मुँह से बिहारी से कहा, “ज्वर यदि शीघ्र न छोड़े तो तू अकेला सेवा कर सकेगा न?”

बिहारी ने डबडबाये हुए नेत्रों से कहा, “भय क्या है बाबू?”

सतीश क्षणभर चुप रहकर बोला, “एक बार उसको – यही सोच रहा हूँ बिहारी, एक बार सावित्री को ख़बर देना ठीक नहीं होगा? शायद डाक्टर भी बुलाना पड़े।”

किसी कारण से भी सावित्री को बुलाने की ज़रा भी इच्छा बिहारी की नहीं थी। लेकिन मन के भाव को रोककर उसने मृदु स्वर में कहा, “अच्छा, जा रहा हूँ।”

उसी समय सतीश उन्मुख हो गया। उसके ज्वर की वेदना मानो आप ही आप घट गयी। दो घण्टे के बाद बिहारी के अकेले लौट आने पर सतीश भय के साथ ताकता रह गया।

बिहारी ने कहा, “वह घर पर नहीं है बाबू।”

“घर पर नहीं है! उस डेरे पर एक बार जाकर देख आ।”

बिहारी ने कहा, “उस डेरे पर वह अब नहीं जाती। तीन-चार दिन से घर भी नहीं जाती, कहाँ चली गयी किसी को नहीं मालूम।”

“उसकी मौसी को भी नहीं मालूम?”

“नहीं, उसको भी बताकर नहीं गयी।”

सतीश चुप हो रहा। बिहारी किसी तरह आँसू पीकर बाहर आ खड़ा हुआ। सावित्री का जो इतिहास वह उसकी मौसी से सुन आया था, किसी प्रकार वह समाचार आज इस रोगी आदमी के सामने न कह सका।

अगले दिन डाक्टर आकर दवा दे गये। सतीश ने दवा की शीशी हाथ में लेकर खिड़की के पास बाहर फेंक दी। यह देखकर बिहारी फिर एक बार आँसू रोककर सावित्री की खोज में चला। मोक्षदा रसोई बना रही थी, बिहारी ने पूछा, “क्या आज भी वह नहीं आयी?” मोक्षदा ने कहा, “कितनी बार बताऊँ कि वह नहीं आयेगी। जब बुरे दिन थे तब थी मौसी, अब तो उसके अच्छे दिन हैं।”

डेरे पर वापस आकर बिहारी ने बताया, “आज भी सावित्री लौटकर नहीं आयी।”

दो दिन के बाद दवा न लेने पर भी सतीश का बुख़ार उतर गया। वह भात खाकर स्वस्थ होकर उठ बैठा। बिहारी से कहा, “अब नहीं, आज ही रवाना होना होगा।”

उसी दिन सतीश कलकत्ता से चला गया।

ग्यारह

सतीश के दुर्बल रूखे-सूखे मुख की तरफ़ देखकर उपेन्द्र बोला, “भैया का डाक्टरी सीखने का नमूना यही है क्या?”

सतीश ने हँसकर कहा, “मुझसे हो नहीं सका, उपेन भैया!”

उपेन्द्र ने विस्मित होकर पूछा, “क्या न हो सका रे?”

सतीश ने लज्जित होकर कहा, “डाक्टरी मुझसे सही नहीं गयी।”

उपेन्द्र ने सतीश के सुन्दर शरीर की ओर देखकर कहा “अच्छा ही हुआ। गाँव-देहात में जाकर बेकार जीवहत्या करता, उसके पाप से ईश्वर ने तुझे बचा लिया।”

एक महीने के बाद एक दिन उपेन्द्र ने सतीश को बुलाकर कहा, “मेरे साथ कलकत्ता चलना होगा सतीश।”

सतीश हाथ जोड़कर बोला, “यह हुक्म तो तुम मत दो उपेन भैया। कलकत्ता अच्छा शहर है, सुन्दर देश है, सब अच्छा है, लेकिन मुझे जाने के लिए न कहो।”

यह बात सतीश ने व्यंग्य के ही रूप में कही थी, लेकिन उसका वह छल उस की दबी हुई व्यथा को छिपा न रख सका। उसकी कृत्रिम हँसी वेदना की विकृति से ऐसी ही रूपान्तरित होकर दिखायी पड़ी कि उपेन्द्र आश्चर्य में पड़कर उसके मुख की ओर देखते रह गये। उन्होंने जान लिया कि सतीश ज़रूर वहाँ कोई ऐसा काम कर आया है जिसको वह उनसे छिपा रहा है। कुछ देर बार उन्होंने कहा, “तो रहने दे सतीश। तेरा स्वास्थ्य भी ठीक नहीं है, मैं अकेला ही जा रहा हूँ!”

उपेन्द्र के मन का भाव अनुमान से जानकर सतीश ने व्यथित होकर पूछा, “तुम कब जाओगे उपेन भैया?”

“आज ही।”

“अच्छा, चलो मैं भी चलूँ।” कहकर हठात राजी होकर सतीश घर लौट आया और क्षणभर में ही कलकत्ता जाने के लिए अधीर हो उठा। उसने बिहारी से कहा, “एक बार फिर बण्डल बाँध दे बिहारी, कलकत्ता जाना होगा।”

बिहारी ने चिन्तित मुख से पूछा, “कब जाओगे बाबू?”

सतीश ने हँसकर कहा, “आज ही रात की ट्रेन से।

“अच्छा!” कह बिहारी मुँह भारी बनाकर चल दिया।

सतीश ने उसका बिगड़ा चेहरा देखकर सोचा, “बिहारी को यहाँ तो काम-काज नहीं है, इसलिए मेहनत के डर से वहाँ जाना नहीं चाहता।” लेकिन अन्तर्यामी जानते हैं कि वृद्ध के मन की बात वह बिल्कुल समझ नहीं सका था।

इसके एक दिन पहले सतीश ने बात ही बात में बिहारी से कहा था, “अच्छा बिहारी, इतने दिनों में सावित्री तो अवश्य ही लौट आयी होगी, लेकिन उसी समय वह कहाँ चली गयी थी, तुझे मालूम है?”

बिहारी ने कहा, “नहीं बाबू!” चाहता तो वह बहुत-सी बातें कह सकता था, लेकिन एक दिन सावित्री के मुँह पर अपने पुरुषत्व का गर्व दिखा आया था, किसी तरह भी उस गर्व को न गँवा सका।

जिस दिन कलकत्ता से घर वापस आकर सतीश ने अपने कमरे में घुसते ही हाथ जोड़कर भावुक कण्ठ से कहा था, “भगवान, जो कुछ करते हो, तुम भला ही करते हो!” उस दिन सृष्टिकर्ता के विशेष कार्य को याद करके उसने इतना बड़ा धन्यवाद उच्चारण किया था, पूछने से वह शायद बता नहीं सकता। फिर भी कितने बड़े संकट के मुँह से वह वापस आ सका है, कितने बड़े अभेद्य जाल के फाँस को छिन्न-भिन्न करके वह बाहर आकर खड़ा हो सका है, इसको वह निश्चित रूप से जानता था और इस सौभाग्य को उसने कृतज्ञता के साथ ग्रहण करना चाहा था, लेकिन उसके अन्तरशायी अबोध मन ने उस तरफ़ दृष्टिपात तक भी नहीं किया, वह तो औंधा पड़ा हुआ दिन-रात एक ही तरह रोता हुआ समय बिता रहा था। फिर भी चेष्टा करके वह पहले की ही तरह अपने लड़कपन के इष्ट-मित्र, थियेटर, गाने-बजाने के अड्डे आदि में शामिल हो रहा था, लेकिन किसी तरह भी पहले की तरह मिल-जुल न सका। इसी तरह दिन बिताते रहने के बीच ही हठात आज कलकत्ता जाने का आह्नान सुनते ही उसकी विद्रोही गृहलक्ष्मी धूलि शय्या छोड़कर उठ बैठी। भविष्य के अच्छे-बुरे की ओर बिना ध्यान दिये यात्रा की ओर कदम बढ़ा दिये।

उसी रात को उपेन्द्र और सतीश मेल ट्रेन से सेकेण्ड क्लास में कलकत्ता चल दिये। सीटी बजाकर गाड़ी चल पड़ी। उपेन्द्र सो गये और सतीश खिड़की के बाहर झाँकता रहा।

मेल ट्रेन छोटे स्टेशनों पर नहीं रुकती। मैदान, नदी, गाँव-रास्तों को पार करती हुई दौड़ती चली जा रही है और उसकी उस तेज़ दौड़ का अनुकरण कर के ही शायद पास के पेड़-पौधे पल भर में अदृश्य होते जा रहे हैं। दिगंत में वृक्ष श्रेणियों और बाँस झाड़ियों ने अँधेरा कर रखा है और उसके ही नीचे नदी के टेढ़े-मेढ़े भाग में सफ़ेद जल-रेखा खिड़की के नीले काँच के भीतर से दिखायी पड़ रही है। बाहर वृक्षों, खेतों और लाइन के किनारे के जंगलों और सूखे गड्ढों में सर्वत्रम्लान चाँदनी बिखरी हुई है। सतीश की आँखों में आँसू आ गये। इस रास्ते से वह कितनी ही बार आया है, इस निस्तब्ध शान्त प्रकृति को कितनी ही बार वह म्लान चाँदनी के प्रकाश में देख गया है, लेकिन किसी दिन इस तरह वे उसकी दृष्टि मे पकड़ी नहीं गयी थीं। उसे जान पड़ा मानो सभी विच्छिन्न हैं, निर्लिप्त हैं, मृत हैं। कोई भी किसी के लिए व्याकुल नहीं है, कोई भी किसी का मुँह देखता हुआ प्रतीक्षा नहीं कर रहा है। सभी स्थिर हैं, सभी उद्वेग-रहित हैं, सभी आप ही आप सम्पूर्ण हैं। उस निर्विकार उदासीन धरती की तरफ़ देखने में उसे क्लेश-सा मालूम होने लगा। वह अपनी आँखें पोंछकर बेंच पर लेट गया। कुछ देर बाद बक्स खोलकर एक बाँसुरी निकालकर उपेन्द्र को लक्ष्य करके धीरे-से कहा – “गाड़ी के शोर से जब तुम्हें परेशानी नहीं होती तब बाँसुरी की आवाज़ से भी नहीं होगी। मैं तो सो नहीं पाता।” कहने के पश्चात वह पास आकर बैठ गया और बाहर की तरफ़ झाँककर बाँसुरी बजाने लगा।

उपेन्द्र की ओर से कोई जवाब नहीं मिला। भगवान ने सतीश को गाने के लिए गला और बजाने के लिए हाथ दिये हैं। इस ओर से वे कृपण नहीं रहे। बचपन से ही वह इसकी शिक्षा प्राप्त करता रहा। सतीश बाँसुरी बजाता रहा। इस अनिर्वचनयी संगीत को सुननेवाला कोई नहीं था। बाहर खण्डित चन्द्रमा उसका अनुसरण कर दौड़ रहा था। मिट्टी पर सुप्त ज्योत्सना की नींद टूट गयी। गाड़ी की गति जब धीमी पड़ गयी और समझ में आया कि स्टेशन नजदीक आ गया है, तब उसने बाँसुरी रख दी।

अगले दिन गाड़ी हावड़ा जाकर रुकी तो उपेन्द्र ने पूछा, “तू कहाँ जायेगा रे?”

सतीश ने विस्मित होकर कहा, “यह कैसी बात! तुम्हारे साथ।”

“तेरे जाने के लिए जगह नहीं है?’

“तुम तो खूब रहे!”

इस सम्बन्ध में फिर कोई बात नहीं हुई।

स्टेशन पर उतरते ही एक विलायती पोशाक पहने बंगाली साहब ने उपेन्द्र से हाथ मिलाया। ये उपेन्द्र के बाल्य-मित्र ज्योतिषराय बैरिस्टर थे। तार पाकर लेने आये थे। उनकी गाड़ी बाहर खड़ी थी। थोड़ी-बहुत जो भी चीज़ें साथ थीं, कुली ने उन्हें गाड़ी पर रख दिया। फिर तीनों ही अन्दर जा बैठे। बिहारी कोच बक्स पर बैठा। कोचवान ने गाड़ी चला दी। बहुत से रास्तों और गलियों को पार करके एक बड़े मकान के सामने आकर गाड़ी रुक गयी। तीनों उतर गये।

बारह

शाम होने में अब देर नहीं थी। उपेन्द्र और सतीश पाथुरियाघाट में एक तंग गली के मोड़ पर जा खड़े हुए।

उपेन्द्र ने कहा, “मैं समझता हूँ, अवश्य यही गली है।”

सतीश ने सन्देह प्रकट किया, इस गली में वह रह नहीं सकता, यह कदापि नहीं है। टूटी दीवाल पर वह जो टीन खड़ा हुआ है, सम्भव है कि इसी पर किसी दिन गली का नाम लिखा हुआ था, वह अब पढ़ा नहीं जाता। सतीश बोला, “अच्छी तरह जाने बिना जाया नहीं जा सकता। यह गली पाताल प्रवेश की सुरंग हो सकती है।”

उपेन्द्र हँसते हुए बोले, “तो तू पहरेदार बनकर रह, मैं अन्दर जाकर देख आता हूँ।”

सतीश ने पहले बाधा देने की चेष्टा की, बाद को उपेन्द्र के पीछे चलते-चलते बोला, “उपेन भैया, मेरी तरह डाकू आदमी भी इन सब जगहों में शाम के बाद आने का साहस नहीं करते, तुम्हारा साहस तो खूब है!”

उपेन्द्र हँसकर बोले, “बम्बबाजों का साहस भले आदमी के साहस से अधिक होता है सतीश? दुष्कर्म कर सकने को ही साहस नहीं कहते।”

सतीश उस बात का प्रतिवाद न करके अत्यन्त सावधानी से रास्ता देख-देखकर चलने लगा। पैरों के नीचे ही दुर्गन्ध कीचड़ से भरा खुला पनाला था, क्षीण दृष्टि वाले सतीश के उसमें गिर जाने की पूरी आशंका थी। एक जगह पर छोटी गली बहुत ही तंग और अँधेरी हो गयी थी। सतीश ने पीछे से उपेन्द्र के कुरते का खूंट खींचकर पकड़ लिया और कहा, “उपेन भैया, करते क्या हो, इसी रात को जान देना है क्या?”

उपेन्द्र ने हँसकर कहा, “इतनी देर में मुझे ठीक याद आ गया। और एक मकान के बाद ही तेरह नम्बर का मकान है। लगभग आठ साल पहले केवल एक दिन मैं यहाँ आया था, इसीलिए पहले मैं पहचान न सका। अब पहचान गया। ज़रूर यही रास्ता है।”

सतीश ने विश्वास नहीं किया। कहा, “रास्ता तो है ज़रूर, लेकिन तुम्हारे-हमारे लिए नहीं। जिन लोगों के लिए विशेष रूप से इस पथ की सृष्टि है, उनमें से किसी के साथ शरीर छू गया तो इस रात को स्नान करके मरना पड़ेगा, इस वक़्त चलो, लौट चलें।”

उपेन्द्र जवाब न देकर सतीश का हाथ पकड़कर खींचते हुए ले गये और कुछ दूर आगे जाकर एक मकान के सामने खड़े होकर बोले, “तू सिगरेट पीता है, तेरी जेब में दियासलाई होगी। एक बार जलाकर देख, यह कितने नम्बर का मकान है!”

सतीश ने माचिस जलाकर अच्छी तरह मकान का नम्बर जाँचकर कहा, अच्छी तरह पढ़ा नहीं गया, किन्तु चौखट के ऊपर खड़िया से 13 नं. लिखा हुआ है। शायद तुम्हारी बात ही ठीक है। किन्तु मैं पूछता हूँ, मकान नम्बर तेरह हो या तिरपन, यहाँ तुमको ज़रूरत ही क्या हो सकती है?”

उपेन्द्र उत्तर न देकर पुकारने लगे, “हारान भैया! ए हारान भैया!”

ऊपर, नीचे, निकट, दूरी पर सर्वत्र अँधेरा था, शब्दमात्र नहीं था। सतीश डर गया।

उपेन्द्र फिर पुकारने लगे।

बहुत देर में ऊपर की खिड़की खुली और साथ ही स्त्री-कण्ठ से आवाज़ आई, “कौन है?”

उपेन्द्र ने कहा, “दरवाज़ा खोलने को कह दें, हारान भैया कहाँ हैं?”

“आती हूँ, ज़रा ठहरिये।”

पलभर के बाद दरवाज़ा खुलने की आवाज़ के साथ ही क्षीण प्रकाश की रेखा रास्ते के ऊपर आ पड़ी। उपेन्द्र दरवाज़ा ठेलकर चौखट पर खड़े होकर स्तम्भित हो गये। वह स्त्री मिट्टी के तेल की डिबिया हाथ में लिए निकट ही खड़ी है। माथे पर थोड़े से आँचल के बीच से जूड़े का एक हिस्सा दिखायी दे रहा था। उसका एक भी केश स्थान-भ्रष्ट नहीं हुआ है। स्वच्छ सुन्दर मुँह पर दीप का प्रकाश पड़ जाने से दोनों भौंहों के बीच एक बिन्दी जगमगा उठी और ज़रा-सी झुकी इुई दोनों आँखों में से जो विद्युत प्रवाह बह चला, चारों ओर के निविड़ अन्धकार में उसकी अपूर्व ज्योति ने क्षणकाल के लिए दोनों को ही विभ्रान्त कर दिया। सतीश ने स्पष्ट देख लिया कि होंठों पर हँसी की रेखा बाधा पाकर बार-बार आकर लौट रही है। उसने उपेन्द्र के शरीर को ठेल लिया। उपेन्द्र चौंक पड़े, घबराहट के साथ बोल उठे, “कहाँ हैं हारान भैया?”

उस स्त्री ने कहा, “वह ऊपर ही हैं। पैदल चलने में असमर्थ हैं। माँ भी आज सात-आठ दिनों से खाट पर पड़ी हुई हैं। घर में केवल मैं ही ठीक हूँ। आप उपेन्द्र बाबू ही तो हैं? हम लोगों को अगामी कल आपके आने की आशा थी इसीलिए तैयार न थी। रसोईघर में रहने पर इस तरफ़ की आवाज़ सुनायी नहीं पड़ती, बहुत पुकारना-चिल्लाना पड़ता है। ऊपर आइये, यहाँ बड़ी सर्दी है।” कहकर रास्ता दिखाकर ऊपर जाने की सीढ़ियों पर चढ़ने लगी। दो-तीन कदम ऊपर चढ़कर मुँह घुमाकर हाथ की बत्ती को नीचे करके वह बोली, “सावधानी से चढ़ियेगा, सीढ़ियों की ईंटें बहुत-सी खिसक गयी हैं।”

इनकी यह आशंका निर्मूल नहीं है यह बात सीढ़ी देखने के साथ ही वे जान गये। इसीलिए बड़ी सावधानी से दोनों चढ़ने लगे। दो मंजिला पक्का मकान था। पहले ऊपर के हिस्से में पाँच-छः कमरे थे, उन में से दो-तीन गिर गये थे, एक अगली वर्षा में गिरने को तैयार था, बाकी तीनों में से सामने वाले कमरे में तीनों ने प्रवेश किया। प्रवेश करने के साथ ही समझ में आ गया कि अत्यन्त अनाधिकार प्रवेश हो गया है। चूहे उस कमरे में फटे-पुराने तोशक-तकियों से रूई निकालकर कमरे में सर्वत्र बिखेरकर इच्छानुसार विचरण कर रहे थे। असमय में प्रकाश हो जाने और जनसमागम से वे दौड़-धूप मचाकर चिल्लाहट के साथ छिपने लगे। कमरे में सर्वत्र टूटी हुई मेज़-कुर्सियाँ, काठ के पिटारे, टूटे हुए टीन, खाली शीशी-बोतल और अन्य कितने ही पुराने जमाने की गृह-सामग्री के टूटे अंश बिखरे हुए थे। उसमें एक किनारे पर चौकी पड़ी हुई थी। फटी गद्दी, फटी पोशाक, फटे तकिये वगैरह जमा करके ज़बर्दस्ती एक तरफ़ ठेलकर रख छोड़े गये थे, उसके ही एक हिस्से में एक चटाई बिछी हुई थी। यह कमरा मेहमानों के लिए था।

उस स्त्री ने फ़र्श पर चिराग रखकर कहा, “ज़रा प्रतिक्षा करें, मैं ख़बर देती हूँ।” यह कहकर वह ज्यों ही कमरे से बाहर गयी, त्यों ही सतीश जूता पहने मेहमानों के उस आसन पर उछलकर खड़ा हो गया।

उपेन्द्र भय के साथ बोले, “यह क्या! यह क्या किया!”

सतीश तड़पकर बोला, “पहले प्राण रक्षा करूँ उसके बाद भद्रता की रक्षा होगी। देख नहीं रहे हैं, पैरों के पास उजाला देखकर कमरे के सब साँप-बिच्छू दौड़े चले आ रहे हैं।” सतीश ने जिस तरह भय दिखाया, उसके विचार-तर्क का अवसर नहीं रहा। उपेन्द्र भी उछलकर चढ़ गये।

चौकी की उस तंग जगह में स्थानाभाव के कारण दोनों जब धक्कम-धक्का कर रहे थे तभी वह स्त्री लौट आयी और किवाड़ के सामने खड़ी होकर खिलखिलाकर हँस पड़ी। इनके डर जाने की बात वह समझ गयी थी। बोली, “यह है मेरे ससुर की डीह। आप लोग इस तरह अपमान कर रहे हैं?”

उपेन्द्र सकुचाकर तुरन्त उतर पड़े और सतीश पर नाराज़ होकर बड़बड़ाने लगे, “इसी ने भय दिखाया ऐसे ही….।”

सतीश उतरा नहीं। विनय दिखाकर बोला, “भय क्या दिखाता हूँ उपेन भैया! मेरी विद्या चाणक्य के श्लोकों से अधिक नहीं है। इतना ज़रूर सीख चुका हूँ कि आत्मरक्षा अति श्रेष्ठ धर्म है।”

उस स्त्री की ओर देखकर वह बोला, “अच्छा आप ही बताइये तो, आत्मरक्षा के निमित्त थोड़ा-सा निरापद स्थान खोज लेना क्या अन्याय है? आपके ससुर के डीह का अपमान करने का हमारा साहस नहीं है, बल्कि यथेष्ट सम्मान के साथ ही आपके आश्रित प्रजापुंज की राह छोड़कर इतनी थोड़ी-सी जगह में हम लोग खड़े हैं।”

तीनों हँस पड़े। इस परिहास ने दरिद्र लक्ष्मी को कुण्ठित नहीं किया, बल्कि इसके अन्दर जो सरलता और संवेदना छिपी थी, वह युवती अति सहज भाव से ही उसे समझ गयी, इसका स्पष्ट प्रकाश उसके हास्योज्जवल मुख पर देख कर उपेन्द्र ने मन ही मन अत्यन्त आराम अनुभव किया। उसके मुँह की तरफ़ देखकर मुसकुराकर बोले, “प्रजाजन आपके सामने कभी उसके ऊपर अत्याचार करने का साहस न करेंगे। अब वह आदमी नीचे उतर आ सकता है।”

“ज़रूर!” कहकर चिराग़ हाथ में उठाकर वधू सतीश की ओर देखकर मधुर हँसी हँसकर बोली, “अब निर्भयता के साथ राज-दर्शन के लिए चाहिए।”

थोड़े से हास-परिहास से, अपरिचित होने की दूरी जैसे एकदम घट गयी और तीनों प्रफुल्ल मुँह से कमरे से बाहर चले गये।

राजदर्शनेच्छु उपेन्द्र और सतीश हँसी से भरे चेहरे से एक कमरे में घुसते ही अवाक होकर खड़े हो गये। क्रुद्ध गुरूजी का अचानक ही थप्पड़ खाकर हास्यनिरत शिशु छात्र का मनोभाव जिस तरह बदल जाता है, इन दोनों आदमियों के मुँह की हँसी भी उसी तरह एक क्षण में ग़ायब हो गयी और चेहरे पर स्याही फैल गयी।

लांछित भाव दूर होते ही उपेन्द्र ने बिछौने के पास जाकर पुकारा, “हारान भैया!” हारान निर्जीव की भाँति पड़े हुए थे, वह धीरे से बोले, “आओ, भाई आओ! अब मैं उठ-बैठ नहीं सकता, तुमको मैंने कष्ट दिया।” इतना कहकर वे हाँफने लगे।

उपेन्द्र धप से बिछौने के एक तरफ़ बैठ गये। उनके दोनों नेत्र आँसू से भर गये और समूची छाती से पसली तक को हिलाकर, एक अदस्य वाष्पोच्छ्वास उन के कण्ठ की अन्तिम सीमा तक व्याप्त हो गया। बात कहने का उन्होंने साहस नहीं किया। दाँतों पर दाँत दबा खड़े होकर बैठे रहे। उधर सतीश एक बड़े काठ के सन्दूक पर सूखे चेहरे से बैठ गया। सैंकड़ों जगह से कटी-फटी खटिया के सिरहाने एक मिट्टी का चिराग़ टिमटिमा रहा था। अन्य कोई रोशनी नहीं है। इतना ही प्रकाश रक्तशून्य विवर्ण शीतल चेहरे पर लेकर हारान का मृतप्राय शरीर पड़ा हुआ था। सूर्य की रोशनी, आकाश की वायु से हमेशा के लिए विच्छिन्न होकर इस गृह की अस्थिमज्जा में जो जीर्णता और अन्धकार लालित और पुष्ट हो रहा है, वह इस कड़ाके की सर्दी में, अत्यन्त क्षीण प्रकाश में, कुष्ठ रोगी की तरह समस्त दीवालों पर प्रकट हो रहा है। दिन-रात बन्द रहने वाले घर की दूषित अवरुद्ध वायु, आत्महत्याकारी के मुँह से निकलने वाले जहरीले फेन की तरह निकलकर मानो गृहवासी की कण्ठ-नली प्रतिक्षण रुँधती चली आ रही थी। दरवाज़े पर मृत्युदूत का पहरा पड़ रहा था। चारों तरफ़ देख-देखकर सतीश बार-बार सिहर उठा। उसे मालूम होने लगा कि यदि वह चिल्लाकर दौड़कर बिल्कुल रास्ते पर भाग न जायेगा तो जान न बचेगी। यहाँ किसी आदमी का जीवन बचेगा कैसे? निकट ही वह खड़ी थी, उसी तरफ़ एक बार देखते ही वह डर गया। कहाँ चला गया वह अतुलनीय रूप! कहाँ वह हँसी! उसकी दृष्टि के सामने मानो किसी एक प्रेतलोक की पिशाचिनी उठ आयी। वह सोचने लगा, जिसके पति की ऐसी दशा है वह हँसती है कैसे, हँसी-मजाक़ में भाग कैसे लेती है, जूड़ा क्यों बाँधती है, बाल क्यों सँवारती है और बिन्दी क्यों लगाती है? पलभर के लिए उसके सामने समस्त नारी जाति के प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी।

ऐसे ही समय में हारान ने पुकारा, “किरण, उपेन आया है, यह बात माँ जानती हैं?”

वधू निकट आकर झुक पड़ी और धीरे-धीरे बोली, “माँ सो रही हैं, डाक्टर कह गये हैं, सो जाने पर जगाया न जाये।”

हारान ने मुँह बनाकर कहा, “चूल्हे में जाय वह डाक्टर, तुम जाओ, उनको बता दो।” उपेन्द्र पास ही बैठे सब कुछ सुन रहे थे। वह बोल उठे, “आज रात को ख़बर देने की ज़रूरत नहीं है हारान भैया! कल सबेरे ख़बर देने से ही काम चल जायेगा।”

उपेन्द्र समझ गये कि रोग के कष्ट भोगते रहने से हारान बहुत चिड़चिड़ा हो गया है। इसलिए इस निरपराधिनी सेवापरायण वधू का अकारण ही तिरस्कार होने से व्यथा अनुभव कर ज़रा-सी सान्त्वना इंगित करने के लिए एक बार उन्होंने मुँह की तरफ़ ध्यान से देखा। लेकिन कुछ भी दिखायी नहीं दिया। किरणमयी के झुके हुए मुँह पर दीपक का प्रकाश नहीं पड़ रहा था।

कुछ देर यों ही रहकर दूसरे ही क्षण तेजी से वह बाहर चली गयी।

उपेन्द्र उदास-चित्त बैठे रहे, और हारान पहले की तरह हाँफने लगे। निस्तब्ध कमरा सतीश के लिए और भी भीषण हो उठा। थोड़ी ही देर बाद हारान ने हाथ बढ़ाकर उपेन्द्र को छूकर पास आने का इशारा करके अति क्षीण कण्ठ से पूछा, “सात-आठ वर्ष बाद मुलाकात हुई है। इस बीच क्या एक बार भी तुम्हारा यहाँ आना नहीं हुआ?”

इसी बीच उपेन्द्र को अनेक बार इस तरफ़ आना पड़ा था, लेकिन उसको वह स्वीकार न कर सके। बोले, “क्या बीमारी है हारान भैया?”

हारान ने कहा, “ज्वर-खाँसी आदि। इस समय उस प्रसंग को उठाने की आवश्यकता नहीं है। सब कुछ खत्म हो चुका है।”

उधर सन्दूक़ पर बैठा उपेन्द्र मन ही मन सिर हिलाने लगा।

हारान ने फिर कहा, “मुझे भी तुम्हारी बात याद नहीं पड़ी, ठीक समय पर याद पड़ने से शायद काम बनता।”

पलभर चुप रहकर खुद ही बोले, “काम और क्या बनता, खै़र छोड़ो इन सब बातों को। एक काम करो भाई, मेरा दो हज़ार रुपये का जीवन बीमा है, और यह टूटा-फूटा मकान। तुम ठहरे वकील, एक लिखा-पढ़ी कर दो जिससे कि सभी चीज़ों पर तुम्हारा ही पूरा हाथ रहे। इसके बाद रह गये तुम और मेरी बुढ़िया माँ।”

उपेन्द्र ने कहा, “और तुम्हारी स्त्री?”

“मेरी स्त्री किरण? हाँ, वह तो है ही। उसके माँ-बाप कोई भी जीवित नहीं हैं, उसको भी तुम देखना।”

उपेन्द्र निर्निमेष दृष्टि से इस मुमुर्षु की ओर देखते हुए कुछ सोचने लगे।

सतीश जेब से घड़ी निकालकर उठ खड़ा हुआ और बोला, “उपेन्द्र भैया, रात के दस बज गये, वहाँ वे लोग शायद घबरा रहे हैं।”

हारान ने ध्यान से देखते हुए कहा, “यह कौन हैं उपेन?”

“मेरे मित्र हैं, मेरे साथ ही कलकत्ता आये हैं। अब मैं जा रहा हूँ, हारान भैया, कल फिर आऊँगा।”

“नहीं, कल नहीं, एमदम काग़ज़ तैयार करके परसों आना। जो कुछ मेरे पास है, और जो कुछ मुझे कहना है, उसी दिन कर दूँगा, यहाँ कहाँ ठहरे हो?”

“शहर ही में एक जगह अपने मित्र के घर ठहरा हुआ हूँ।”

जाने को तैयार होने पर हारान ने पुकारा, “किरण!”

उपेन्द्र ने तुरन्त रोककर कहा, “हारान भैया, सतीश की जेब में दियासलाई है, आराम से उतरकर जा सकूँगा। वह शायद काम में लगी हुई हैं।”

उसके जवाब में हारान ने क्या कहा, समझ में नहीं आया।

सतीश ने ज्योंही किवाड़ खोले, त्योंही मालूम हुआ मानो कोई तेज़ कदमों से हट गया। वह डरकर पीछे खड़ा हो गया।

उपेन्द्र ने पूछा, “क्या हुआ सतीश?”

“कुछ नहीं, तुम आओ।” कहकर वह उपेन्द्र का हाथ पकड़कर बाहर आ खड़ा हुआ। कैसा निविड़ अन्धकार था। एक तो कृष्णपक्ष की रात और दूसरी ओर ऊँचे-ऊँचे मकानों ने अँधेरे को ढकेलकर आँगन में ला रखा है। इस टूटे मकान को अँधेरे ने घेर लिया है। दोनों ने टटोलते हुए सीढ़ियों के निकट आते ही देखा, नीचे चिराग़ लिए किरणमयी स्थिर होकर बैठी हुई है। इनके आने के साथ ही वह उठ खड़ी हुई, बोली, “चिराग़ दिखा रही हूँ, सावधानी से उतर आइये। आप लोगों के लिए ही मैं बैठी हुई हूँ।”

इस अँधेरी ठण्डी रात में, इस प्रचण्ड जाड़े में, सील से भरी भींगी धरती पर एकाकिनी वधू को अपनी प्रतीक्षा में बैठी देखकर और आसन्न वैधव्य की बात याद करके उपेन्द्र के नेत्रों में जल भर आया।

सदर दरवाज़ा तब भी बन्द नहीं हुआ था। नीचे उतरते ही सतीश बिल्कुल ही गली में आकर खड़ा हुआ, लेकिन उपेन्द्र पीछे से बाधा पाकर घूमकर खड़े हो गये।

किरणमयी अपने सकरुण तीव्र दोनों नेत्र उनके मुँह पर रखकर एक विशेष रुख बनाये खड़ी है। पल भर के लिए उपेन्द्र हतबुद्धि की भाँति स्थिर हो रहे।

किरण ने पूछा, “उपेन बाबू, आप हमारे कौन हैं?”

इस अद्भुत प्रश्न का क्या उत्तर होना चाहिए उपेन्द्र समझ न सके। उसने फिर समझाकर कहा, “आप मेरे पति के कोई आत्मीय हैं? इतने दिनों से मैं इस मकान में आयी हूँ लेकिन किसी दिन आपका नाम उनसे सुना नहीं, माँ से भी नहीं सुना। केवल जिस दिन आपको पत्र लिखा गया, उस दिन सुना – इसीलिए पूछ रही हूँ।”

बाहर से सतीश ने पुकारा, “उपेन भैया, आओ न!”

उपेन्द्र ने कहा, “नहीं, आत्मीय नहीं हूँ – लेकिन विशिष्ट मित्र हूँ। बाबूजी जब नोआखली में थे, तब हारान भैया के पिता भी सरकारी स्कूल में मास्टरी करते थे, मुझे भी घर पर पढ़ाते थे, हारान भैया और मैं दोनों साथ-साथ बहुत दिन पढ़ते रहे।”

किरणमयी ने हँसकर कहा, “ओह यह बात है? इसी के लिए लिखा-पढ़ी करना? उपेन बाबू, आप सब कुछ अपने नाम लिख लेंगे न?”

यह देखकर सतीश ने मुँह बढ़ा दिया था, उसने झट ही जवाब दे दिया, “ऐसी ही बात तो पक्की हुई है।”

हारान के कमरे से बाहर निकलते समय कौन तेज़ी से बाहर चली गयी थी, इस बात को वह पहले ही समझ गया था।

वधू ने उसकी तरफ़ घूमकर कहा, “अच्छा तो आप भी हैं! अच्छी बात है! इतने दिनों तक इतने कष्ट उठाकर जैसे भी हो, दो वक्त दो मुट्ठी अन्न जुट जाता था – अब राह में खड़ी रहने की आवश्यकता पड़ेगी। ऐसा ही हो, आप लोग ही सब बँटवारा कर लें।”

उपेन्द्र आश्चर्यचकित हो गये।

सतीश ने उत्तर दिया, “जिसकी चीज़ है, यदि वही दे जाये तो किसी को कुछ कहने की गुंजाइश नहीं है।”

किरणमयी के दोनों नेत्र आग की तरह जल उठे। बोली, “मुझे है। मरने के समय मनुष्य की मति बिगड़ जाती है, मेरे पति को यही हुआ है। लेकिन आप लोग लिखकर लेने वाले होते कौन हैं?”

सतीश बोल उठा, “यह तो मैं नहीं जानता लेकिन हारान बाबू में आज भी बुद्धि है इस बात की सम्मति मेरी आत्मा दे रही है।”

किरणमयी ने विद्रूप के स्वर में उत्तर दिया, “बड़ा अच्छा सुझाव है! लोग बात-बात में कहा करते हैं – जाने दीजिये लोगों की बात, उपेन्द्र को लक्ष्य करके वह बोली, “लेकिन यह बात मैं पूछती हूँ, मैं कैसे जानूँगी कि अन्तिम समय में वह राह की भिखारिनी न बना देंगे, कैसे विश्वास करूँगी वह धोखा नहीं देंगे।”

इतना बड़ा आघात उपेन्द्र को मानो असह्य मालूम हुआ। कुछ कहने भी जा रहे थे, लेकिन न कहकर अपने को सम्भाल लिया।

सतीश ने कहा, “भाभी? जानने की आवश्यकता आपको नहीं है।”

किरणमयी भी उसी दम उत्तर ने दे सकी। इस व्यंग्यात्मक आत्मीय सम्बोधन स्पर्धा से वह अवाक हो गयी थी। पलभर देखती रहने पर केवल बोली, “भाभी। आवश्यकता नहीं है।”

सतीश ने कहा, “नहीं। अगर आप अपना अधिकार आप ही नष्ट न करतीं तो हारान बाबू को इस सतर्कता की आवश्यकता नहीं थी। इतनी रात को बेकार झगड़ा न कीजिये, ज़रा समझकर विचार कीजिये तो।”

तेज कार्बोलिक की गन्ध से जैसे साँप अपने उठाये हुए फन को पलभर में सम्भालकर आघात के बदले में आत्मरक्षा का उपाय खोजने लगता है, यह निरुपमा, यह लीला, कौशलमयी तेजस्विनी पलभर में उसी प्रकार से कुपित होकर बोली, “मेरे विषय में कैसी बात उन्होंने कहीं हैं, सुनूँ तो?”

उपेन्द्र से अब चुप न रहा गया। इस गर्विता नारी का संदिग्ध तिरस्कार उनको उत्तप्त शूल की तरह बिंधते रहने पर भी उनका उच्च शिक्षित भद्र अन्तःकरण सतीश की इस जासूसी के विरुद्ध विद्रोह कर उठा। वह अनुचित उत्तेजना से कुछ गुप्त रहस्य खींच निकालने की चेष्टा कर रहा थ, इसको वह समझ गये थे। सतीश को बाधा देकर उन्होंने किरणमयी से कहा, “क्यों आप सतीश के पागलपन पर ध्यान देकर अपने आपको उद्विग्न कर रही हैं! पति का सम्पत्ति से वंचित करने का अधिकार किसी को नहीं है। आप निश्चिन्त रहिये! मैं तो समझता हूँ, आपको विशेष सुविधा होगी, यह समझकर ही हारान भैया ने लिखा-पढ़ी की बात उठाई है। लेकिन आपकी राय के बिना तो वह किसी तरह भी न हो सकेगी। रात बहुत हो गयी है। किवाड़ बन्द कर दीजिये। चल, सतीश, अब देर मत कर।”

सतीश को ठेलकर गली में खड़े होकर मुसकराकर वे बोले, “कल-परसों फिर भेंट होगी – अच्छा, नमस्कार।”

तेरह

उस सुनसान गली से निकलकर दोनों एक किराये की गाड़ी पर चढ़ गये और खुली खिड़की से रास्ते में मन्दीभूत जनश्रोत की ओर चुपचाप देखते रहे। बातें करने योग्य मन की अवस्था किसी की नहीं थी। उपेन्द्र व्यथित चित्त से सोचने लगे, ‘कल ही घर लौट जाऊँगा। भला हो, बुरा हो, मुझे हाथ डालने की आवश्यकता नहीं है। केवल लौट जाने के पहले यही देखता जाऊँगा कि हारान भैया की चिकित्सा हो रही है – उसके बाद? उसके बाद और कुछ भी नहीं – आठ साल जो आदमी मन के बाहर पड़ा हुआ था, वह बाहर ही पड़ा रहेगा।” यह सोचकर शरीर पर लगे कीड़े-मकोड़ों की तरह इस विरक्तिकर चिन्ता को शरीर से झाड़-फेंककर उपेन्द्र गाड़ी में ही हर बार हिल-डुलकर बैठ गये। सतीश को पुकारकर बोले, “एक चुरुट दे तो, बहुत सर्दी है।”

सतीश ने जेब से चुरुट निकालकर दी और वैसे ही बाहर की तरफ़ देखता रहा, कोई बात उसने नहीं कही।

उपेन्द्र चुरुट सुलगाकर धुआँ उड़ाते हुए सतीश को सुनाकर बोले, “अन्दर का अन्धकार इसी तरह धुएँ की तरह बाहर निकल जाना चाहिए।”

सतीश ने हुंकारी तक भी नहीं भरी।

धड़धड़ाती हुई किराये की गाड़ी परिचित-अपरिचित रास्तों, गलियों, घरों और दुकानों को पार करती हुई चलने लगी। चुरुट जल गया, उसका धुआँ कहाँ आकाश में विलीन हो गया तब भी दोनों रास्ते के दानों तरफ़ वैसे ही चुपचाप ताकते रहे। उपेन्द्र ने मन ही मन सोचा, ‘सतीश अवश्य ही ये सब लेकर सोच रहा है, और जो भी हो, कुछ-न-कुछ निश्चय कर रहा है, नहीं तो वह इतनी देर तक चुप रहने वाला आदमी नहीं है’ और उसका आलोच्य विषय क्या है यह अनुमान करने पर उपेन्द्र को आदि से अन्त तक सब ही स्मरण हो गया। छिपे तौर से सिहर उठने पर वह मन ही मन बोले – क्या कुछ घटना घट गयी और जो घटना हो गयी है, वह कितनी ही शोचनीय क्यों न हो सभी का एक सही कारण उन्होंने इस बीच अनुमान कर लिया, लेकिन सतीश क्या सोचकर इस असहाया, अपरिचिता के साथ झगड़ा करने को तैयार हो गया था, इसी को वह किसी तरह समझ न सके। घर की बहू अपने ऊपर तत्काल आने वाली विपत्ति की आशंका से केवल आत्मरक्षा के निमित्त दो कड़ी बातें कह सकती है, ऐसी सीधी-सी बात भी सतीश समझ न सका, इसी को वह विश्वास करने में असमर्थ हो रहे थे। सतीश पढ़ा-लिखा आदमी भले ही न हो, नासमझ तो नहीं है। उपेन्द्र इस बात को जानते थे इसीलिए उन्होंने इतना अधिक दुःख अनुभव किया। हारान के वसीयतनामे के प्रस्ताव में एक विशेषता रहने के कारण ही उपेन्द्र थोड़े से समय में ही बहुत सी बातें सोच चुके थे। बाल्य-सखा के मृतप्राय शरीर के पास ही बैठकर उन्होंने सोच लिया था कि इन अनाथा दोनों रमणियों का आजीवन भरण-पोषण और रक्षणवेक्षण करूँगा। किसी स्वास्थ्यकर तीर्थस्थान में एक छोटा-सा मकान खरीद लूँगा। वह पेड़-पौधों से, भले और भद्र पड़ोसियों से शान्त तथा सृदृढ़ भाव से घिरा रहेगा। गृहपालित गाय-बछड़ों की सेवा करके, अतिथियों, ब्राह्मणों की पूजा करके, शुद्ध व्रतों का पालन करके इन दोनों स्त्रियों के दिन जिस प्रकार बीतने लगेंगे, इसका काल्पनिक चित्र कल्पना में मधुर हो उठा था। इस चित्र के एक तरफ़ पेड़-पौधों की आड़ में सभी ज़रूरी चीज़ों के पीछे अपने लिए थोड़ा-सा स्थान भी शायद अपनी गैर जानकारी में ही चिद्दित करने का प्रयास कर रहे थे, उसी समय किरणमयी के भद्दे अभियोग, संशयक्षुब्ध क्रुद्ध व्यवहार ने बवण्डर की तरह उस चित्र तक को भी लुप्त कर दिया! उपेन्द्र फिर चुप न रह सके। पुकारकर बोले, “सतीश, तू क्या सोच रहा है?”

सतीश बाहर की ओर से दृष्टि हटाकर उपेन्द्र की ओर देखते हुए बोला, “क्या सोचता हूँ जानते हो उपेन भैया, लड़कपन में एक बंगला उपन्यास पढ़ा था, उसी को सोच रहा हूँ।”

उपेन्द्र ने पूछा, “कौन-सा उपन्यास?”

सतीश ने कहा, “नाम याद नहीं है। लेखक का नाम भी ठीक याद नहीं है। लेकिन वह कहानी मुझे याद है – ऐसी ही सुन्दर है।”

उपेन्द्र उत्सुक होकर उसकी तरफ़ देखते रहे।

सतीश ने शिकायत के स्वर में कहा, “चिरकाल तक अंग्रेजी पढ़कर ही तुमने दिन बिताये उपने भैया। किसी दिन बँगला की तरफ़ तुमने देखा नहीं। लेकिन हमारे देश में ऐसी-ऐसी पुस्तकें हैं कि एक बार पढ़ने से ही ज्ञान उत्पन्न हो जाता है।” इतना कहकर वह एक लम्बी साँस लेकर चुप हो गया।

उपेन्द्र ने विरक्त होकर कहा, “पहले उपन्यास की कहानी कहो तो सुनूँ, उसके बाद देखा जायेगा कि कितना ज्ञान उत्पन्न होता है।”

सतीश हँसकर बोला, “पहले वचन दो गुस्सा तो न होगे।”

“नहीं, तू कह।”

सतीश ने कहा, “बहुत ही सुन्दर कहानी है। उस किताब में लिखा है एक धनी जमींदार नाव पर बैठकर कहीं जा रहे थे। एक दिन संध्या को एकाएक बादल घिर आने पर भयंकर आँधी-वर्षा शुरू हुई। वे तो डर के मारे उतरकर किनारे चले गये। सामने एक बहुत टूटा-फूटा मकान था, वर्षा के भय से उसी में घुस पड़े। उस मकान के सभी कमरों में अँधेरा था – कहीं भी कोई आदमी नहीं था। मकान में सब जगह घूम-घूमकर अन्त में ऊपर के एक कमरे में उन्होंने देखा, टिमटिमाता हुआ चिराग़ जल रहा है और फटे बिछौने पर एक आदमी मरणासन्न पड़ा हुआ है और उसकी पद्य पलासी, रूपवती स्त्री लोट-पोट कर रो रही है। उस रात को उसने कोई एक भयानक सपना देखा था। अच्छा उपेन भैया, क्या तुम सपने में विश्वास करते हो?”

उपेन्द्र ने कहा, “नहीं। उसके बाद!”

सतीश ने कहा, “उसके बाद उसी रात को वह आदमी चल बसा। जमींदार साहब ने उस सुन्दरी विधवा को अपने घर लाकर उससे बलपूर्वक विवाह कर लिया। चारों तरफ़ छिः! छिः! होने लगी और उस दुःख से उनकी पहली स्त्री ने विष खाकर आत्महत्या कर डाली।”

बार-बार पद्यपलाशाक्षी का ज़िक्र होने से उपेन्द्र समझ गये कि सतीश विषवृक्ष का पंकोद्वार कर रहा है ओर सतीश की इस अद्भुत स्मृति-शक्ति के परिचय से किसी दूसरे समय शायद वह खूब हँसते। लेकिन इस समय हँसी नहीं आयी। इस इधर-उधर बिखरे हुए आख्यान के भीतर से एक इंगित तीर की तरह आकर उनकी छाती में बिंध गया। उन्होंने मन में सोचा-यह तो सतीश की स्मृति नहीं है, यह उनकी आशंका है। यह आशंका क्या है, और जिसको आश्रय करके ‘विषवृक्ष’ की डाल-पत्तियों को तोड़कर उन्हें अपने ही सांचे में इसने गढ़ डाला है, उसी बात को याद करके उपेन्द्र गम्भीर लज्जा से सिकुड़ गये। सतीश ने अँधेरे में यह नहीं देखा कि पलभर के लिए उपेन्द्र का मुख पीला पड़ गया है। सतीश व्यथा पर व्यथा पहुँचाकर फिर बोला, “तालाब-खोदकर घड़ियाल मत बुलाओ उपेन भैया!”

उपेन्द्र उत्तर न दे सके। बहुत देर बाद बोले, “बंगला उपन्यास की बात छोड़ो। लेकिन कैसा उपदेश तुम देना चाहते हो, सुनूँ तो?”

सतीश हँसकर बोला, “यही देखो उपेन भैया, तुम गुस्सा हो गये। तुमको मैं उपदेश नहीं दे सकता – लेकिन पाँव पकड़कर अनुरोध कर सकता हूँ। वहाँ जाने की ज़रूरत नहीं है, वे अच्छे आदमी नहीं हैं।”

“कौन हैं वे लोग, सुनूँ तो?”

सतीश ने कहा, “तुम गुस्सा मत होना उपेन भैया, बहुवचन का प्रयोग तो भद्रता मात्र है। मैं हारान बाबू की बात नहीं कहता – वह भले-बुरे के बाहर चले गये हैं। उनकी माँ को भी मैंने आँखों से देखा नहीं है। मैंने तीसरे व्यक्ति का ज़िक्र किया है।”

“तीसरे व्यक्ति का अपराध? देखो सतीश, तुम्हारे बाबूजी अगर किसी दूसरे आदमी को अपना सर्वस्व लिख देने का संकल्प कर लें, तो शायद तुम खुशी न मनाओगे?”

“नहीं, तुम आशीर्वाद दो उपेन भैया, बाबूजी को उसकी आवश्यकता ही न पड़े। वह मुझे अपना भला लड़का कहकर खुशी नहीं मानते यह मैं जानता हूँ। मैं उनका खराब लड़का हूँ, लेकिन यह ख़राब उनकी मृत्यु के समय में सजावट-श्रृंगार करके माथे पर बिन्दी लगाकर घूमता न फिरेगा। आज मेरी वाचालता को तुम क्षमा करो उपेन भैया, लेकिन तुम्हारी ज़रा भी आँख रहती तो तुम देख पाते, हारान बाबू का ऐसा प्रस्ताव केवल मन का ख़्याल ही नहीं हैं बल्कि अनेक दिनों की अनेक चिन्ताओं का फल है।”

सतीश ने फिर कहा, “तुम यह ख़्याल मत करना कि हारान बाबू तुमको समस्त भार सौंप देते समय अपनी स्त्री की ही बात भूल गये थे, या लज्जा से कहने में असमर्थ हो रहे थे। बल्कि, मुझे विश्वास है, तुम यदि स्वयं ही उल्लेख न करते तो वह स्वेच्छा से कोई बात न कहते।”

उपेन्द्र मन ही मन विरक्त होते रहने पर भी इतनी देर तक मौन होकर सुन रहे थे, लेकिन पर-स्त्री के सम्बन्ध में यह सब संदिग्ध इंगित उनको असह्य हो उठा। वह कठोर स्वर में बोल उठे, “सतीश, तुम इतने नीच हो गये हो, यह मेरी धारणा नहीं थी, शायद तुम आलाप-परिचय के नीचे उतर गये हो।”

सतीश हँस पड़ा। बोला, “नीच कैसे? बुरे को बुरा कहता हूँ इसलिए?”

“भला हो या बुरा हो, इस तरह बोलने का तुम्हारा क्या अधिकार है?” “अधिकार? वह है अंग्रेजी ढाँचे की बात, बंगला में उसका अर्थ नहीं होता। हमारे समाज में इतना सूक्ष्म विचार नहीं चलता। जेलखाने के कैदी को चोर कहने में भी बहुत लोग आपत्ति करते हैं, लेकिन उस बात को तो साधारण पाँच आदमी मानकर नहीं चल सकते।”

“यह दूसरी बात है। चोरी साबित हो जाने पर उसको चोर कहते हैं, चारे जेल में जाता है, लेकिन इनके बारे में तुमको क्या सबूत मिला है?”

“सबूत न मिलने पर भी बहुत से लोग जेल में जाते हैं, वह है जज साहब के हाथ में। हम लोग जिस बात को समझ नहीं सकते वे उसको समझ जाते हैं। फिर हम जिसको जेल की भाँति स्वच्छ देखते हैं – इतने बड़े जज साहब के सामने वह पहाड़-पर्वत-सा हो सकता है! आज तुम्हारे सम्बन्ध में भी यह बात लागू होती है। कुछ ख़्याल मत करना उपेन भैया, इतनी बड़ी दुनिया को आँखों के सामने रखकर भी बहुत से लोगों को ईश्वर का प्रमाण खोजने से नहीं मिलता। मैं जानता हूँ कि तुम नाराज़ होगे क्योंकि सदा से ही तुम भलों के साथ मिल-जुलकर, भला देखकर, भले ही बने हुए हो, लेकिन मेरी तरह बुरे-भले को देखकर यदि तुम पक्के हो गये होते, तो तुम्हें इतनी बातें कहने की आवश्यकता न पड़ती। तुम्हारी अपनी ही आँखों में बहुत-सी चीज़ें पकड़ में आ जातीं!”

उपेन्द्र पलभर चुप रहकर बोले, “सभी चीज़ों के आँखों में पड़ने की आवश्यकता मुझे नहीं है लेकिन पक्का हो जाने के लिए तेरी ही तरह नीच भी मैं न बन सकूँगा। तू इस प्रसंग को बन्द कर दे। गाड़ी फाटक के भीतर प्रवेश कर रही है। लेकिन एक बात तू याद रख सतीश, कच्चे का दाम क्या है, उसको केवल, तभी समझ सकेगा जब कि तू और भी पक्का हो जायगा।”

अगले दिन उपेन्द्र को उठने में देर हो गयी। बहुत देर पहले सूर्योदय हो चुका है, यह खिड़की के सूराख से आने वाली किरणों से ही समझ में आ गया। उपेन्द्र व्यस्त हो उठे। सतीश कमरे में नहीं था। वह कहाँ चला गया? बाहर बिहारी खड़ा था, आकर उसने ख़बर दी, सतीश बाबू सामने के बग़ीचे में कुश्ती लड़ रहे हैं और नीचे चाय दी जा चुकी है, वहाँ साहब वगैरह आपकी प्रतीक्षा में हैं।”

उपेन्द्र चटपट तैयार होकर ज्यों ही नीचे उतर पड़े ज्योतिष त्योंही हाथ पकड़कर चाय की मेज़ पर उनको ले गया। वहाँ उनकी बहन सरोजिनी प्रतीक्षा कर रही थीं। वह अखबार फेंककर हँसते हुए मुख से बोलीं, “कल रात को दस बजे तक हम आप लोगों की बाट देखते रहे। अन्त में मँझले भैया ने कहा – अवश्य ही कोई निर्दय मित्र रास्ते से पकड़कर ले गये हैं और आप लोग शायद रात को लौट ही न सकेंगे। लौटने में कल कितनी रात हो गयी थी उपेन बाबू?”

उपेन्द्र ने हँसकर कहा, “बारह। विशेष काम से आबद्ध हो जाने से मैंने सबको कष्ट दिया है।”

ज्योतिष ने कहा, “इसे हम लोग समझते हैं। हमने यह ख़्याल नहीं किया था कि तुम लोग झूठमूठ राह में घूमते हुए चक्कर काट रहे होगे। सतीश बाबू कहाँ चले गये?” बिहारी ने आकर निवेदन किया, “सतीश बाबू बगीचे के उस तरफ़ कुश्ती लड़ रहे हैं और उनको ख़बर दे दी गयी है।”

बिहारी के चले जाने पर ज्योतिष की तरफ़ देखकर बोले, “कुश्ती क्या जी! और भी कोई है क्या?”

उपेन्द्र ने कहा, “मैं जानता तो नहीं। कुश्ती शायद नहीं, लड़कपन से व्यायाम करने की आदत है, वही कर रहा है शायद।”

सरोजिनी कल दोपहर के समय म्यूजियम देखने गयी थी। संध्या के बाद घर लौटने पर उन्होंने सुना कि उपेन्द्र और उनके मित्र आ गये हैं। लेकिन उस समय व लोग पाथुरिया घाट चले गये थे। उन्होंने पूछा, “सतीश बाबू कौन हैं उपेन बाबू? मैंने तो देखा नहीं।”

“कल जिस समय हम लोग आये आप मौजूद नहीं थीं। सतीश मेरा बचपन का मित्र है, यद्यपि आयु में बहुत छोटा है यह – लो, आ तो गया।”

सतीश ने कमरे में प्रवेश किया। क्या ही सुन्दर भरा-पूरा शरीर है। माथे पर तब भी बूँद-बूँद पसीना चमक रहा था, सुन्दर गोल चेहरे पर लाल आभा पड़कर और सुन्दर दिखायी पड़ रहा था।

सरोजिनी ने पलभर देखकर ही आँखें झुका लीं।

ज्योतिष ने कहा, “बिहारी कह रहा था, आप कुश्ती लड़ रहे थे। लेकिन कुश्ती ही लड़ें या जो कुछ भी करें, आपके शरीर की तरफ़ देखने से ईर्ष्या होती है, हम लोगों की तरह चार-पाँच आदमी भी शायद आपके पास तक पहुँच नहीं सकते।”

सतीश तनिक हँसकर बोला, “बिना परीक्षा के इतना बड़ा सर्टिफिकेट मत दीजिये। इसके सिवा केवल शरीर का बल लेकर ही क्या होगा, मेरे पास और कोई ताकत ही नहीं।” बात के अन्तिम अंश में दुःख का आभास दिखायी पड़ा। सरोजिनी ने चाय डालते-डालते मन ही मन अनुमान किया कि सतीश बाबू की सांसारिक अवस्था शायद अच्छी नहीं है। ज्योतिष पहले ही उपेन्द्र से सुन चुके थे। वह चुप ही रहे। इसके बीच चाय की कटोरियाँ परिपूर्ण हो उठीं। सतीश उस तरफ़ नजर तक न डालकर, दीवाल पर टँगे एक चित्र की तरफ़ ताकता रहा।

ज्योतिष ने कहा, “आइये, सतीश बाबू, सब कुछ तैयार है।”

सतीश वहाँ से चला आया, तनिक हँसकर बोला, “आप लोग शुरू कर दें, मैं बिना स्नान किये कुछ भी नहीं खाता-पीता!”

“विलक्षण! मैं तो यह बात नहीं जानता था। तो जाइये, अब देर मत कीजियेगा – बेहरा…!”

‘नहीं-नहीं आप घबराइये मत! मेरा स्नान यथासमय ही होगा, इसके अलावा प्रातः काल खाने-पीने की मेरी आदत नहीं है। मध्याह्न का भोजन मेरा साधारण पाँच आदमियों से कुछ अधिक है, उसको असमय में चाय आदि बेकार की चीज़ें खा-पीकर मैं नष्ट कर देना पसन्द नहीं करता। इससे तो अच्छा है कि मैं उस हारमोनियम को खोलकर दो भजन ही गाऊँ। आप लोगों के दोनों ही काम चलें।

भजन गाने के प्रस्ताव से सरोजिनी अत्यन्त प्रफुल्ल हो उठीं। सिर उठाकर वह एकाएक बोल उठी, “अच्छा।” लेकिन दूसरे ही क्षण घबराकर उसने मुँह झुका लिया। वह बात उसके अपने ही कानों में कैसी सुनायी पड़ी। ज्योतिष हँसकर बोले, “मेरी बहिन गाना पा जाने से और कुछ भी नहीं चाहती। नहीं, नहीं, सतीश बाबू, आप कुछ…।”

उपेन्द्र इतनी देर से चुप रहकर मन ही मन कुढ़ते जा रहे थे, बोल उठे, “नहीं, नहीं, फिर क्या? वह स्नान किये बिना खाता-पीता नहीं, सबेरे कुछ भी नहीं खाता। हम लोग लगातार कोशिश-पैरवी करते रहें और इधर चाय की कटोरियाँ ठण्डी हो जायें। ले सतीश, तुझे क्या भजन-वजन करना है, कर ले, मुझे और भी काम है।” कहकर चाय की कटोरी उन्होंने मुँह से लगा ली।

ज्योतिष मन ही मन सन्तोष अनुभव कर मुस्कराने लगा।

सतीश दूर एक कुर्सी पर बैठ गया। इसके बाद उसमें गाने का उत्साह नहीं रहा।

सरोजिनी उदास होकर मुँह झुकाये चाय पिलाने लगी।

उपेन्द्र चाय पीते-पीते बोले, “इसके कारण कहीं चैन नहीं। दुनिया से बाहर उसका स्वभाव है, एक-न-एक उलझन पैदा कर ही देता है। उसने सबेरे ही गाना गाने के बदले बाँसुरी बजाने का सुझाव नहीं रखा, यही सौभाग्य है।”

किसी को इस बात में सत्य का आभास तनिक भी नहीं मालूम हुआ, सभी व्यंग्य समझकर हँसने लगे। तब तक चाय भी चलने लगी। वह कमरे के चित्रों को घूम-घूमकर देखने लगा।

संध्या के बाद एक समय सरोजिनी ने धीरे-धीरे उपेन्द्र से कहा, “आपने गाना सुनने नहीं दिया। आपका यह भारी अन्याय है।”

उपेन्द्र बोले, “अच्छा, इस समय उसका प्रतिकार हो सकेगा, आने दो सतीश को।”

ज्योतिष बोले, “वास्तव में उपेन, जैसी ठण्डक पड़ी है कहीं भी निकलने की इच्छा नहीं होती, ज़रा गाना-बजाना होने से बुरा नहीं होगा। लेकिन सतीश बाबू कहाँ हैं? डाक्टरी करने को तो नहीं गये हैं?”

उपेन्द्र बोले, “हो भी सकता है। शायद जान-पहचान के मित्रों के साथ भेंट करने गया है।”

सरोजिनी ने चकित होकर प्रश्न किया, “सतीश बाबू डाक्टर हैं क्या?”

उपेन्द्र ने हँसकर कहा, “हाँ!”

ज्योतिष बोले, “नहीं, उपेन, केवल स्कूल में पढ़ने से काम नहीं चलेगा। किसी अच्छे होमियोपैथ के साथ यदि कुछ दिन घूम सकें तभी कुछ सीख सकेंगे नहीं तो यह जो कहावत चली आ रही है, शतमारी सहस्रमारी – केवल मरीजों को मारते ही रहेंगे। तुम कहो तो मैं एक भले सज्जन डाक्टर के साथ परिचय करा सकता हूँ, लेकिन दोनों में कैसे पटेगी, कहा नहीं जा सकता, तुम जैसा सर्टिफिकेट दे रहे हो।”

उपेन्द्र बोले, “आदमी अच्छे होंगे तो अवश्य पटेगी वर्ना खून-ख़राबा हो सकता है।” सरोजिनी विस्मित होकर देखने लगी। ज्योतिष बोले, “और भी अच्छा है।”

उपेन्द्र ने कहा, “अच्छा ही है। उसको पहचानकर, उसके दोष-गुण सब समझकर, जो उसका मन पावेगा, वह बहुत ही अच्छी चीज़ पावेगा। लेकिन मन पाना ही कठिन है। वह जटिल है या दुर्बोध है यह बात नहीं। बल्कि खूब सीधा खूब स्पष्ट है। मुझे मालूम पड़ता है कि इतना स्पष्ट होने के कारण ही लोग उसको समझने में भी भूल करते हैं। मतभेद होने पर भी हम लोग जहाँ भद्रता की दुहाई देने लगते हैं, और शिष्ट भाव से मतभेद लेकर मन उदास बनाकर चले आते हैं, वह वहाँ हाथापाई करके मीमांसा ही कर आता है। बचपन से मैं उसको जानता हूँ, कभी मैंने नहीं देखा कि उसके मुँह से एक बात निकली हो और मन में कुछ दूसरी ही हो। इसी से मेरा उस पर इतना प्रेम भाव रहता है।”

ज्योतिष हँसकर बोले, “इसीलिए तुम कह रहे थे कि साधारण लोगों के बीच इसे लेकर चलना-फिरना कठिन है।”

उस समय ज्योतिष की ओर उपेन्द्र का मन नहीं था। इसलिए उनकी बातें कानों में पहुँचने पर भी हृदय में प्रवेश न कर सकीं। बाल्यसखा के विरुद्ध कल रात का व्यवहार और रूढ़ भाषा उन को भीतर ही भीतर क्लेश दे रही थी, इसीलिए बात ही बात में उनका मन पिछले दिनों के अति एकान्त स्थान में घूम रहा था। किशोरावस्था के छोटे-बड़े कलह विवादों में विभिन्न मुहल्लों के समान उम्र वालों के साथ हाथापाई, मार-पीट, वाद-विवाद, और दूसरी अनेक आपद-विपद में सर्वत्र सतीश बलिष्ठ शरीर लेकर उनके पास जा खड़ा होता था। उन्हीं सब याद पड़ने वाली और भूली हुई कहानियों के बीच में आकर अचानक उनका हृदय अत्यन्त अनुतप्त हो उठा, और ज्योतिष की बातों से जब उपेन्द्र बोला, “हाँ, इसीलिए, ठीक इसी लिए चिरकाल से उसको मैं इतना प्यार करता हूँ।” ज्योतिष और सरोजिनी दोनों ही आश्चर्य से उसकी तरफ़ देखते रह गये। इस असम्बद्ध बात का वे कोई भी अर्थ न समझ सके।

लेकिन दूसरे प्रश्न का कोई भी समय नहीं रहा। चुपचाप पर्दा हटाकर सतीश घुसा। उसको पहले सरोजिनी ने देखा। वह ही हँसकर बोली, “अच्छा हुआ सतीश बाबू आ गये!” सतीश सबको देखकर हँसते हुए बोला, “शायद मेरे विषय में बातें चल रही थीं! उपेन भैया मुझे किसी के सामने अब मुँह दिखाने योग्य न रखेंगे।” इतना कहकर वह पास ही एक कोच पर बैठने जा रहा था कि उपेन्द्र ने हाथ से हारमोनियम दिखाकर कहा, “ज़रा वहाँ जाकर बैठो, सरोजिनी अभी-अभी मुझे दोष दे रही थी, कि केवल मेरे ही कारण उस वक्त गाना नहीं हो सका।”

सतीश आसन पर बैठकर बोला, “इस समय तो गाना हो नहीं सकता। यह तो मेरे बाँसुरी बजाने का समय है, उपेन भैया!”

उस रात को कुछ देर से सभा भंग करने के बाद बिछौने पर लेटकर सरोजिनी लम्बी साँस लेकर मन ही मन बोली – वे यदि हमारे कोई आत्मीय होते तो उन्हीं से मैं सीखती। उसको संगीत सिखाने के लिए एक हिन्दुस्तानी शिक्षक नियुक्त था। उसी की जगह पर सतीश को नियुक्त करने के लिए तरह-तरह के उपाय सोचती हुई वह सो गयी।

चौदह

उपेन्द्र और सतीश के चले जाने पर किरणमयी किवाड़ बन्द करके वहीं खड़ी रही। अँधेरे में उसकी दोनों आँखें हिंस्र जन्तु की तरह जलने लगीं। उसे ऐसा लगा कि दौड़कर यदि किसी के वक्षः स्थल पर काट लूँ तो मेरी जान बचे। हाथ के चिराग़ को ऊँचाई पर उठाकर उन्मादों की तरह बोली, “आग लगा देने का उपाय होता तो आग लगा देती। आग लगाकर जहाँ इच्छा होती चली जाती। चिल्लाहट, पुकार मचाकर थोड़ा-थोड़ा करके वह जल जाते, शत्रुता करने का समय नहीं पाते।” जाड़े की रात में भी उसके ललाट पर पसीना निकल पड़ा था। उसे हाथ से पोंछते-पोंछते सहसा अपने को धिक्कार देकर वह बोल उठी, “क्यों मैं ख़बर भेजने गयी? क्यों अपने पैरों पर मैंने कुल्हाड़ी चला दी। लेकिन मैं निश्चित रूप से कह सकती हूँ कि यह सब अभागिनी बुढ़िया का काम है। अपने लड़के के साथ मिलकर उसी ने ऐसी हालत पैदा कर दी है।”

सतीश की बातें बिच्छू के डंक की भाँति रह-रहकर जलाने लगीं। इन दोनों आदमियों ने कुछ बातें अवश्य सुनी हैं, इसमें लेश मात्र सन्देह नहीं था, लेकिन कितना और क्या-क्या सुन चुके हैं, यह ठीक तौर से समझ न सकने के कारण वह और भी छटपटाने लगी। उसको पति और सास दोनों ने ही मिलकर समझाया था कि उपेन की तरह भला आदमी कोई नहीं है। उसके आ जाने से फिर कोई कष्ट न रहेगा! क्यों उसने विश्वास किया था? क्यों उसने अपने हाथ ही से पत्र लिखा था? अँधेरे सीड़दार आँगन में एक तरफ़ खड़ी रहकर यह क्रोधोन्मत्त नारी इन लोगों के झूठे, षड़यंत्रकारी, पैशाची स्वभाव आदि के कितने ही आरोप लगाकर भी तृप्ति न पा सकी! क्रोध और हिंसा ने उसके हृदय में भयंकर तूफ़ान उठा दिया था उसका कणमात्र व्यक्त कर देने की भाषा भी जब उसे याद नहीं पड़ी, तब वह तन-मन से प्रार्थना करने लगी कि वह अर्धमृत आज ही रात को समाप्त हो जाये।

दो दिन के बाद सबेरे रसोईघर में बैठी किरण तरकारी काट रही थी। नौकरानी ने आकर ख़बर दी, “डाक्टर साहब आये हैं!”

किरण ने कहा, “जाकर उनसे कह दे, माँ आज अच्छी हैं।”

दासी कुछ आश्चर्य में पड़ गयी। कुछ देर तक देखती रहकर बोली, “वह उसी कमरे में बैठे हुए हैं।”

उसकी बात के विशेष अर्थ की ओर तनिक भी ध्यान न देकर किरण ने सहज भाव से कहा, “उसकी दवा तो कोई खाता नहीं फिर भी वह क्यों आता है मैं नहीं जानती। तू अपने काम पर जा, वह स्वयं ही चला जायेगा।”

इस डाक्टर की दवा काम में नहीं आती, दासी के लिए यह कोई नयी बात नहीं थी। इसलिए इसके उल्लेख की कोई आवश्यकता नहीं थी, किन्तु, क्यों वह आता है यह प्रश्न पूर्ण रूप से नया था। वह आश्चर्य में पड़कर सोचने लगी, कल संध्या को मैं घर चली गयी थी, इसी बीच हठात कौन-सी ऐसी घटना हो गयी कि डाक्टर का इस मकान में आना तक अनावश्यक हो गया। फिर भी साहस करके वह एक बार बोली, “अच्छा, मैं तरकारी काट देती हूँ, तुम एक बार हो आओ न!”

किरणमयी अत्यन्त रूखे भाव से बोली, “तू जा। अपना कुछ काम-काज हो तो जाकर कर।”

इस आकस्मिक तथा अत्यन्त अनावश्यक उग्रता से दासी एकदम सहम गयी। इस घर में वह बिल्कुल ही पुरानी न होने पर भी नयी नहीं थी। इसके पूर्व भी ऐसे अकारण रूखेपन का परिचय वह पा चुकी है, किन्तु ठीक इस प्रकार की बात स्मरण न कर सकी। कोई और समय होता तो वह भी शायद क्रोध करती, किन्तु आज उसने नहीं किया। अति आश्चर्य से स्तब्ध रह गयी। थोड़ी देर चुप रहकर धीरे-धीरे उस कमरे के दरवाज़े के पास जाकर बोली, “वह काम में लगी हुई हैं, इस समय आप जायें।”

डाक्टर पैरों के पास बैग रखकर उसी चौकी के पास बैठा था, बोला, “काम में लगी हुई हैं? काम तो मुझे भी है।”

दासी ने कहा, “तो जाओ न बाबू।”

डाक्टर अवाक रह गया। बोला, “एक बार जाकर कह दो, मुझे एक विशेष काम है।”

दासी ने कहा, “आप समझते क्यों नहीं हो बाबू, मैंने खूब कहा है, और अधिक न कह सकूँगी। वह सब मैं कुछ नहीं जानती। आज आप जायें।” यह कहकर वह चली गयी।

इस अवहेलना और लांछना ने पहले तो डाक्टर को गम्भीर आघात पहुँचाया, किन्तु दूसरे ही क्षण एक लज्जाजनक दुर्घटना की सम्भावना उसके मन में उठने के साथ ही वह भीतरी बात क्या है सुनने के लिए व्याकुल हो उठा। उसको प्रतीक्षा करने में आपत्ति नहीं थी और प्रतीक्षा करता ही रहा किन्तु कोई भी लौटकर नहीं आया। तब खड़ा-खड़ा कितना क्या सोचकर चले जाने का विचार करके बैग उठाकर जब खड़ा हुआ और निगाह उठाई तो देखा कि दरवाज़े के सामने ही किरणमयी है। डाक्टर ने अपने उद्धत अभिमान को रोककर कहा, “ज़रा हटो, बड़ी देर हो गयी, और भी बहुत से रोगी राह देख रहे हैं, माँ जी अच्छी हैं न?”

“अच्छी हैं।” कहकर किरणमयी एक ओर हटकर खड़ी हो गयी।

किन्तु डाक्टर के पैर उठे नहीं। फिर भी जाने का प्रस्ताव स्वयं ही करके खड़ा रहना भी कठिन हो गया।

किरणमयी मुस्कराने लगी, बोली, “जाओ न।”

डाक्टर ने मुँह ऊपर उठाकर भौंहे सिकोड़कर कहा, “तुम क्या समझती हो कि मैं जाना नहीं जानता?”

“मैं क्या पागल हूँ कि समझूँगी कि तुम जाना नहीं जानते! हाँ, डाक्टर कितने रोगी तुम्हारी राह देखते होंगे सुनूँ तो?” कहकर और मुँह घुमाकर वह हँसने लगी।

कुपित डाक्टर की पहले यही इच्छा हुई कि उस मुँह पर थप्पड़ मारकर बन्द कर दे, किन्तु यह काम तो सम्भव नहीं था, केवल बोला, “तुम जाओ।”

“मैं कहाँ जाऊँगी? मकान है मेरा, जाना तो तुमको ही होगा!”

“मैं जा रहा हूँ।” कहकर ज्यों ही वह जाने को तैयार हुआ त्यों ही किरणमयी ने दोनों चौखटों पर हाथ रखकर मार्ग रोककर कहा, “जा रहे हो, किन्तु यह जानकर जाओ कि यही जाना अन्तिम जाना है।”

उसके कण्ठ-स्वर और चेहरे के आकस्मिक परिवत्रन से डाक्टर शंकित हो उठा, लेकिन मुँह से बोला, “अच्छी बात है, यही तो, यही अन्तिम जाना है।”

किरणमयी बोली, “सचमुच ही अन्तिम जाना है। जबकि तुम आ गये हो, तब स्पष्ट रूप से ही सब जान जाओ। अच्छा, वहाँ उसी जगह बैठ जाओ, अब खोलकर कहती हूँ।”

यह कहकर डाक्टर का बैग लेकर उसने स्वयं भूमि पर रख दिया और कुर्सी दिखाकर बोली, “रसोई बन रही है। समय नहीं है, संक्षेप में कहती हूँ…।”

इसी समय दासी ने आकर ख़बर दी, दो बाबू आ रहे हैं। उसके साथ ही जूते की आवाज़ सुनकर किरणमयी व्याधभय से भीत हरिणी की भाँति दासी को ज़ोर से ठेलकर कमरे से दौड़कर भाग गयी। डाक्टर और नौकरानी आश्चर्य में पड़कर एक-दूसरे के मुँह को ताकने लगे।

थोड़ी ही देर के बाद जूते की आवाज़ द्वार के निकट आकर रुक गयी। डाक्टर ने देखा, दो अपरिचित भले आदमी हैं। दोनों भले आदमियों ने देखा, डाक्टर हैं, उनके कोट के पाकेट से हृदयपरीक्षा के चोंगे ने अपनी गरदन बढ़ाकर परिचय दे दिया। उपेन्द्र और सतीश ने देखा डाक्टर का चेहरा अत्यन्त सूखा है। दुर्घटना की आशंका करके पूछा, “आपने कैसा हाल देखा डाक्टर साहब?”

डाक्टर मौन रहा। उसका चेहरा और भी काला हो गया।

उपेन्द्र ने और अधिक शंकित होकर प्रश्न किया, “अब कैसे हैं?”

तो भी डाक्टर ने बात नहीं कही, विह्नल की भाँति वह ताकता रहा।

दासी ने कहा, “तुम जाओ न डाक्टर साहब, “अभी खड़े क्यों हो?”

डाक्टर व्यग्र होकर बैग उठाकर बोला, “मैं जाता हूँ, मुझे बहुत काम है।” कहकर उपेन्द्र और सतीश के बीच से ही वह तेज़ी से नीचे उतर गया। और इस महाजन का पदानुसरण करके दासी कहाँ विलीन हो गयी यह बात जानी भी नहीं गयी।

उस सुनसान टूटे मकान के टूटे बरामदे में दिन के नौ बजे उपेन्द्र और सतीश चुपचाप आश्चर्य से एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।

कुछ देर बाद सतीश बोला, “उपेन्द्र भैया, हारान बाबू की माँ क्या पागल हैं?”

उपेन्द्र बोले, “वह हारान भैया की माँ नहीं हैं, और कोई है, सम्भवतः दासी है। किन्तु मैं सोचता हूँ, डाक्टर उस तरह क्यों चला गया?”

सतीश बोला, “ठीक चोर की भाँति मानो पकड़े जाने के भय से भाग गया।”

उपेन्द्र अन्यमनस्क भाव से बोले, “प्रायः कहीं कोई भी दिखायी नहीं पड़ता, वह कमरा हारान भैया का है न?”

सतीश बोला, “हाँ, चलो उसमें।”

किन्तु हठात घुसने का साहस नहीं हो रहा है। “मुझे डर लग रहा है, शायद कोई घटना हुई है।”

सतीश बोला, “ऐसी बात होने से रोने-धोने के लिए आदम जुट जाते – ऐसी बात नहीं है।”

ऐसे ही समय में दिखायी पड़ा, उस ओर बरामदे से घुसकर किरणमयी आ रही है। जान पड़ता था मानो अभी-अभी वह रो रही थी, आँखें पोंछकर चली आ रही है। कल दीपक के प्रकाश में जो मुँह सुन्दर दिखायी पड़ रहा था, आज दिन के समय, सूर्य के प्रकाश में स्पष्ट समझ में आ गया, ऐसा सौंदर्य पहले कभी दिखायी नहीं पड़ा जीवित भी नहीं, चित्रों में भी नहीं।

बहू ने कहा, “आज हम लोग तैयार नहीं थे। मैंने सोचा था कह जाने पर भी शायद न आ सकेंगे।” सतीश की ओर देखकर सहसा मुसकराकर बोली, “बबुआजी भी हैं।”

आज सतीश ने सिर झुका लिया।

उपेन्द्र ने पूछा, “हारान भैया कैसे हैं?”

बहू ने उत्तर दिया, “वैसे ही। चलिये, उस कमरे में चलें।”

हारान के कमरे में उनकी माँ अघोरमयी बिछौने के पास बैठी हुई थीं। उपेन्द्र के प्रणाम करते ही ऊँचे स्वर से रो पड़ीं।

हारान थके गले से मना करके बोला, “चुप भी रहो माँ।”

उपेन्द्र लज्जा से, दुःख से एक ओर बैठ गये।

सतीश इस तरह उस ओर देखकर मुँह को यथासाध्य भारी बनाकर उस काठ के सन्दूक़ पर जाकर बैठ गया।

बहू पलभर खड़ी रहकर सतीश की तरफ़ विद्युत कटाक्ष फेंककर बाहर चली गयी, मानो स्पष्ट धमका गयी, तुम लोग यह काम अच्छा नहीं कर रहे हो।

पन्द्रह

सतीश ने दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह डाक्टरी पढ़ना नहीं छोड़ेगा इसीलिए दूसरे दिन संध्या समय किसी से भी कुछ न कहकर वह बिहारी को साथ लिए अपने पुराने डेरे पर जा पहुँचा। वह मकान उस समय भी खाली पड़ा था। मकान मालिक से मिलकर उसने छः महीने का बन्दोबस्त कर लिया और निकट ही के हिन्दू आश्रम में जाकर पता लगाकर एक रसोईदार नियुक्त कर लिया और प्रसन्न होकर बाहर निकल पड़ा। बिहारी से उसने कहा, “हम लोग कल ही चले आयेंगे। क्या कहते हो बिहारी?”

बिहारी ने अपनी सहमति प्रकट की।

रास्ते में चलते-चलते सतीश बोला, “काम तो अच्छा नहीं हुआ बिहारी! जो भी हो उसने मेरे लिए बहुत कुछ किया है, इसके सिवा माना जाय तो मेरे लिए ही उसका डेरे का काम छूट गया। एक बार ख़बर देनी चाहिए।”

बिहारी समझ गया और चुप हो रहा।

सतीश कहने लगा, “जो कोई भी क्यों न हो, राह का भिखारी होने पर भी दुःख में पड़ने पर उसकी ख़बर लेनी चाहिए, नहीं तो मनुष्य-जन्म ही व्यर्थ है। किन्तु मैं उसके मकान के अन्दर न जाऊँगा, गली के अन्दर भी नहीं – मोड़ पर खड़ा रहूँगा, तू एक बार जाकर मालूम कर आना, कष्ट में पड़ी है या नहीं। कष्ट में तो अवश्य ही पड़ गयी है – वह मैं अच्छी तरह समझ रहा हूँ, इसीलिए किसी तरह कुछ दे आना चाहिए।” बिहारी चुपचाप पीछे चलने लगा। सतीश बोला, “किन्तु मुझसे ये बातें बतायेगी नहीं, तुमसे तो कुछ भी न छिपायेगी। तू समझ गया न बिहारी?”

बिहारी ने फिर भी कोई बात नहीं कही।

सावित्री की गली के मोड़ पर पहुँचकर सतीश खड़ा हो गया। बोला, “अधिक देर मत करना।”

बिहारी ने गली में प्रवेश किया। सतीश आसपास इधर-इधर टहलने लगा – दूर जाने का उसे साहस नहीं हुआ कि पीछे मूर्ख बिहारी उसको न देखकर और कहीं न चला जाये। दस मिनट बाद ही बिहारी लौटकर बोला, “वह नहीं है।”

सतीश ने उत्सुक होकर पूछा, “कब लौटेगी?”

बिहारी बोला, “वह अब न आयेगी। दो महीने बीत रहे हैं, एक दिन भी नहीं आयी!” सतीश गैस के खम्भे पर ओठंग कर खड़ा हो गया, भीषण कण्ठ से बोला, “झूठी बात है। तुझे धोखा दिया है!”

बिहारी ने भी दृढ़ भाव से सिर हिलाकर कहा, “किसी ने धोखा नहीं दिया – सचमुच ही वह अब नहीं आती। सचमुच ही वह अपने घर चली गयी है।”

“उसके घर की वस्तुएँ?”

“पड़ी हुई हैं। वे कौन ऐसी चीज़ें हैं बाबू, कि उनके लिए मोह होगा।”

सतीश ने क्रुद्ध होकर कहा, “वह कौन बहुत धनवान है कि मोह नहीं होगा। तू बिल्कुल ही मूर्ख है, इसीलिए तू समझकर चला आया कि वह अब आती ही नहीं! क्या यह हो सकता है बिहारी, वह लापता हो गयी और किसी ने उसका पता नहीं लगाया? मैं पुलिस को ख़बर कर दूँगा।”

बिहारी मौन होकर मुँह झुकाये खड़ा रहा।”

सतीश बोला, “मोक्षदा क्या कहती है, वह नहीं जानती? मैं विश्वास नहीं करता। वह अवश्य ही जानती है। मैं जा रहा हूँ उसके पास।”

बिहारी व्यग्र हो उठा, बोला, “अब आप मत जाइये बाबू!”

“क्यों नहीं जाऊँगा? क्यों वे लोग छिपा रहे हैं? मैं क्या किसी को खा डालने के लिए आया हूँ, कि मुझसे छिपाना चुराना! मैं कहता हूँ, जैसे भी हो सकेगा, मैं जानूँगा कि वह कहाँ है।”

बिहारी ने डरकर कहा, “उसकी मौसी का दोष नहीं है बाबू। सावित्री अपनी इच्छा से ही मकान छोड़कर चली गयी। झगड़ा करके गयी है – किसी को ख़बर देकर नहीं गयी है।”

सतीश धमकाकर बोला, “फिर भी तू कहता है कि वह कहकर नहीं गयी है! ज़रूर बताकर गयी है – अवश्य ही बता गयी है!”

बिहारी ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं। लेकिन वह शहर में ही है।”

“किसी जगह पर है? गधे की तरह मुँह बाये मत रह बिहारी? क्या हो गया बता?”

बिहारी क्षणभर स्थिर रहकर कुछ सोचकर बोला, “आपको दुःख होगा इसीलिए – नहीं तो सब बातें सभी को मालूम हैं – मैं भी जानता हूँ।”

सताीश अधीर हो उठा, “क्या जानता है, बता न?”

बिहारी फिर भी चुप रहा।

सतीश चिल्लाकर बोला, “तेरे पैरों पर गिरता हूँ हरामजादे, जल्दी बता।”

बिहारी उसी क्षण भूमि पर सिर टेककर जूते की धूलि सिर पर चढ़ाकर सिसकते हुए

बोला, “बाबू मुझे आपने नरक में डुबा दिया। तनिक आड़ में चलिये, कहता हूँ।” यह कहकर अँधेरी गली में घुसकर एक ओर खड़ा हो गया।

सतीश सामने खड़ा होकर बोला, “क्या है?”

बिहारी ने गला साफ़ करके कहा, “सावित्री की मौसी का विचार है कि वह आपके पास है। लेकिन मैं जानता हूँ ऐसी बात नहीं है!”

सतीश अधीर होकर बोला, “तू खूब पण्डित है? यह मैं भी जानता हूँ – उसके बाद क्या है बता?”

“रुकिये बाबू, बता रहा हूँ।” कहकर बिहारी फिर एक बार गला साफ़ करके बोला,

“मुझे खूब आशा हो रही है कि….।”

“क्या आशा हो रही है?”

बिहारी विवश होकर बोल उठा, “वह कहीं चली गयी है, उसी विपिन बाबू के पास ही।”

“कौन! हमारा विपिन!”

“हाँ बाबू, वे ही – हाँ, हाँ – वहाँ बैठियेगा मत, स्नान करना पड़ेगा! दुनिया भर के लोग वहाँ ही…।”

सतीश ने उस बात को कानों में ही जाने नहीं दिया। उस ओर की दीवाल पर पीठ टेककर सीधा होकर बैठकर सूखे गले से उसने पूछा, “तो फिर उसकी मौसी ने कैसे समझा कि वह मेरे पास है?”

बिहारी ने कहा, “सावित्री ने जिस दिन विपिन बाबू को अपमानित करके बिदा किया, उस दिन स्पष्ट रूप से उसने कहा था, वह सतीश बाबू के सिवा और किसी के पास न जायेगी – मकान के लोग आड़ में रहकर उन लोगों का झगड़ा सुन रहे थे।”

सतीश ने उठकर पूछा, “तो तुझे किस तरह पता लगा कि वह विपिन बाबू के पास गयी है?”

बिहारी चुप हो रहा।

सतीश ने कहा, “बता।”

बिहारी फिर एक बार हिचकिचा गया। सावित्री के आगे वही जो “न बतायेगा” कहकर घमण्ड दिखा आया था, वह बात याद पड़ गयी। बोला, “मैं अपनी ही आँखों से देख आया हूँ।”

सतीश चुपचाप सुनने लगा।

बिहारी ने कहा, “घर बदलने के दूसरे दिन दोपहर को मैं आया था, तब विपिन बाबू सावित्री के बिछौने पर सो रहे थे।”

सतीश ने डाँटकर कहा, “झूठी बात है!”

बिहारी ने पूछा, “सावित्री कहाँ थी?”

सावित्री उस कमरे में थी। बाहर निकलकर उसने मुझे चटाई बिछाकर बैठाया। पूछने लगी, “बाबू लोग नाराज़ हुए या नहीं, हम लोगों ने घर बदल क्यों दिया? यही सब।”

“फिर उसके बाद?”

“मैं बिगड़कर लौट आया। तब वह बाबू के साथ चली गयी।”

“इतने दिनों तक तूने क्यों नहीं बताया?”

बिहारी मौन रहा।

सतीश ने पूछा, “तूने स्वयं अपनी आँखों से देखा है या सुना है?”

“नहीं बाबू, अपनी ही आँखों से देखी हुई यह घटना है। बहुत ध्यान से देखा है!”

“मेरे पैर छूकर शपथ ले, तेरी आँखों से देखी हुई बात है! ब्राह्मण के पैरों पर हाथ रख रहा है, याद रहे!”

बिहारी सतीश के पैरों पर हाथ रखकर बोला, “यह बात मुझे दिन-रात याद रहती है बाबू! मेरी अपनी ही आँखों की देखी हुई घटना है।

सतीश ने पलभर चुप रहकर कहा, “तू डेरे पर चला जा, उपेन भैया से कहना, आज रात को मैं भवानीपुर जाऊँगा, लौटूँगा नहीं।”

बिहारी को विश्वास नहीं हुआ, वह रोने लगा।

सतीश ने आश्चर्य में पड़कर कहा, “यह क्या रे, रोता क्यों है?”

बिहारी ने आँखें पोंछते-पोंछते कहा, “बाबू, मैं आपके लड़के की तरह हूँ, मुझसे छिपाइयेगा मत। मैं भी साथ चलूँगा।”

सतीश ने पूछा, “क्यों?”

बिहारी ने कहा, “बूढ़ा तो हो गया हूँ ज़रूर, लेकिन जाति का अहीर हूँ। एक लाठी मिल जाने पर अब भी पाँच-छः आदमियों का सामना कर सकता हूँ। हम दंगा भी कर सकते हैं और ज़रूरत पड़ने पर मरना भी जानते हैं।”

सतीश ने शान्त स्वर से कहा, “मैं क्या दंगा करने जा रहा हूँ? मूर्ख कहीं का!” यह कहकर वह चला गया।

बिहारी अब जान गया, बात झूठी नहीं है। तब आँखें पोंछकर वह भी चला गया।

सतीश मैदान की तरफ़ तेजी से जा रहा था। कहाँ जाना होगा इसका निश्चय उसने नहीं किया, लेकिन कहीं उसको मानो शीघ्र ही जाना पड़ेगा। इस बात को वह निस्सन्देह अनुभव कर रहा था कि एक ही क्षण में उसके चेहरे पर एक ऐसा भद्दा परिवत्रन हो गया है, जिसे किसी जाने-पहचाने आदमी को दिखाना उचित नहीं।

मैदान के एक सुनसान भाग के नीचे बेंच पड़ी हुई थी। सतीश उस के ऊपर जाकर बैठ गया और निर्जन स्थान को देखकर शान्ति मिली। अँधेरे में वृक्ष के नीचे बैठकर पहले ही उसके मुँह से निकल पड़ा, “अब क्या करना चाहिए?” यह प्रश्न कुछ देर तक उसके कानों में अर्थहीन प्रलाप की भाँति घूमता रहा। अन्त में उसको उत्तर मिला, “कुछ भी नहीं किया जा सकता।”

उसने प्रश्न किया, “सावित्री ने ऐसा काम क्यों किया?”

उत्तर मिला, “ऐसा तो कुछ भी नहीं किया है, जिससे नये सिरे से उसको दोष दिया जा सके।”

उसने प्रश्न किया, “इतना बड़ा अविश्वास का काम उसने क्यों किया?”

उत्तर मिला, “कौन सा विश्वास उसने तुमको दिया था, यह पहले बताओ?”

सतीश कुछ भी बता न सका। वस्तुतः उसने तो कोई झूठी आशा दी नहीं थी। एक दिन के लिए भी उसने छलना नहीं की। बल्कि वह बार-बार सतर्क करती रही है, शुभ कामना प्रकट करती रही है, बहिन से भी अधिक स्नेह करती रही है, उस रात की बातें उसने याद कीं। उस दिन निष्ठुर होकर उसको घर से निकालकर उसने बचाया था। कौन ऐसा कर सकता था! कौन अपनी छाती पर वज्र रखकर उसको सुरक्षित रख सकता था? सतीश की आँखों की पलकें भीग गयीं, किन्तु यह संशय उसका किसी प्रकार भी दूर नहीं हो सका कि इस उत्तर में कहीं मानो एक भूल हो रही है।

उसने फिर प्रश्न किया, “किन्तु उसको तो मैंने प्यार किया है!”

उत्तर मिला, “क्यों प्यार किया? क्यों जान-बूझकर तुम कीचड़ में उतर गये?”

उसने प्रश्न किया, “यह मैं नहीं जानता। कमल लेने जाने पर भी कीचड़ तो लगता है?”

उसे उत्तर मिला, “यह है पुरानी उपमा – काम में नही आती! मनुष्य अपने घर में आते समय कीचड़ धोकर कमल ले आते हैं। तुम्हारा कमल ही कहाँ और यह कीचड़ तुम कहाँ धोकर अपने घर आते?”

उसने प्रश्न किया,“अच्छा भले ही मैं घर नहीं आता?”

उत्तर मिला, “छिः! उस बात को मुँह पर भी मत लाना!

इसके बाद कुछ देर तक मौन होकर नक्षत्र भरे काले आकाश की तरफ़ देखकर एकाएक बोल उठा, “मैंने तो उसकी आशा छोड़ ही दी थी। उसे मैं पाना भी नहीं चाहता था किन्तु मुझे उसने इस प्रकार अपमानित क्यों किया? एक बार पूछ क्यों नहीं लिया? किस दुःख से वह यह काम करने गयी? रुपये के लोभ से किया है, यह बात तो किसी प्रकार मैं सोच नहीं सकता। विपिन की तरह आचरणभ्रष्ट शराबी को मन ही मन में उसने प्यार किया था, इस बात पर विश्वास करूँ तो किस तरह? तो फिर क्यों?”

गंगाजी की शीतल वायु लगने से उसे जाड़ा लगने लगा। वह ज्योंही चादर नीचे से ऊपर तक ओढ़कर आँखें बन्द करके बेंच पर लेट गया, त्योंही सावित्री का चेहरा उज्जवल होकर स्पष्ट हो उठा। कलंक की कोई भी कालिमा उस चेहरे पर नहीं है! गर्व से दीप्त, बुद्धि स्थिर, स्नेह से स्निग्ध, परिणत यौवन के भार से गम्भीर, तो भी, रसों से, लीलाओं से चंचल – वही चेहरा, वहीं हँसी, वही दृष्टि, संयत परिहास, सबसे ऊपर उसकी वह अकृत्रिम सेवा! इस प्रकार स्नेह उसे इतनी उम्र में कब कहाँ मिला था! भस्माच्छादित अग्नि की भाँति उसके आवरण को लेकर खेल मचाते समय जो अग्नि बाहर निकल पड़ी है, उस की जलन से किस तरह, किस रास्ते से भागकर आज वह मुक्ति पावेगा! मुक्ति पा लेने से भी क्या हो जायेगा। उसकी दोनों आँखों से आँसू झर-झर गिरने लगे। आँसू को उसने रोकना नहीं चाहा – आँसू को पोंछ डालने की इच्छा भी नहीं की। आँसू इतना मधुर है, आँसू में इतना रस है, आज वह अपने परम दुःख में यह प्रथम उपलब्धि करके सुखी हो गया और जिसको उपलक्ष्य करके इतने बड़े सुख का आस्वाद वह जीवन में पहले पहल प्राप्त कर सका, उसी को लक्ष्य कर दोनों हाथ जोड़कर उसने नमस्कार किया।

सतीश चाहे जैसा भी क्यों न हो – भगवान हैं, उन्हें धोखा नहीं दिया जा सकता, छोटे-बड़े सभी को एक दिन उनके सामने उत्तरदायी के रूप में विवरण देना पड़ता है – इन बातों पर वह निस्सन्देह विश्वास करता था। आँखें पोंछकर वह उठ बैठा और मन ही मन बोला, “भगवान किसके हाथ से तुम किस समय किसको क्या देते हो, कोई बता नहीं सकता! आज तुम्हारी ही आज्ञा से सावित्री है दाता, मैं हूँ भिखारी। इसीलिए वह भली हो, बुरी हो, यह विचार और जो कोई भी करे मैं न करूँ। मेरे हृदय में सब जलन, विद्वेष तुम पोंछ डालो, उस के विरुद्ध मैं कृतघ्न न बनूँ।”

उधर ज्योतिष साहब के मकान में संध्या के पश्चात, बैठकखाने में सरोजिनी, ज्योतिष, उपेन्द्र और दूसरे एक नाटे कद के दाढ़ी-मूँछ साफ़ किये हुए हृष्ट-पुष्ट भले आदमी बैठे हुए हैं। इनका शुभ नाम है शशांकमोहन। ये विलायत हो आये हैं – इसीलिए साहब हैं। थोड़े ही दिनों में सरोजिनी के प्रति आकृष्ट हो गये हैं और इसे प्राणपण से व्यक्त कर देने का पूर्ण प्रयास कर रहे हैं। वह प्रयास कहाँ तक सफलता की ओर अग्रसर होता जा रहा था, इसे केवल विधाता ही जान रहे थे। आज सतीश का प्रसंग छिड़ गया था। उपेन्द्र उसके असाधारण शारीरिक बल तथा अलौकिक साहस का इतिहास समाप्त करके, आश्चर्यजनक कण्ठ-स्वर और उसकी अपेक्षा आश्चर्यजनक शिक्षा की बात उठा चुके थे। निकट ही सोफे पर बैठी हुई सरोजिनी दोनों हाथों पर अपनी ठुड्डी रखकर झुकी पड़ी हुई उदासीन चित्त से सुन रही थी। उसी समय बिहारी ने भग्न दूत की भाँति कमरे में प्रवेश करके सतीश के भवानीपुर चले जाने का समाचार घोषित कर दिया।

उपेन्द्र ने आश्चर्य में पड़कर प्रश्न किया, “उसके कौन हैं वहाँ?”

बिहारी संक्षेप में ‘नहीं जानता’ कहकर चला गया।

सतीश के लिए सभी प्रतीक्षा कर रहे थे, अतएव सभी निराश हो गये।

सरोजिनी सीधी होकर बैठ गयी और हठात लम्बी साँस लेकर बोली, “तो अब क्या होगा?”

ज्योतिष उनके मुख की ओर देखकर स्नेह के साथ धीरे से हँस पड़े।

लेकिन केवल शशांकमोहन निराश न हुए। बल्कि प्रसन्न होकर प्रस्ताव किया, अब सरोजिनी ही कर्णधार बन जाये। संगीत से कितने परिमाण में आनन्द प्राप्त करने की शक्ति उनमें थी इसे वही जानते थे। लेकिन सरोजिनी के आपत्ति प्रकट करते ही वे बोल उठे, “वरन मैं तो कहता हूँ, पुरुषों के गीत गाना उनके लिए भूल है, उनका गला स्वभावतः ही मोटा और भारी होता है, इसीलिए उनकी शिक्षा कितनी ही क्यों न हो, और कितनी ही अच्छी तरह गाने का प्रयत्न क्यों न करें, किसी तरह सुनने योग्य नहीं हो सकता।”

इस कथन का और किसी ने यद्यपि कुछ विरोध नहीं किया, लेकिन सरोजिनी ने किया। वह बोली, “आपके लिए अवश्य ही योग्य नहीं है। हारमोनियम पियानो के नीचे भारी मोटे परदों को तैयार करना सम्भवतः भूल है, लेकिन फिर भी वे सब तैयार हो रहे हैं, लोग खरीद भी रहे हैं।”

शशांकमोहन के पास इस बात का उत्तर नहीं था। वह अपने गोरे चेहरे को ज़रा लाल बनाकर कोई बात करने जा रहे थे, लेकिन सरोजिनी एकाएक उठ खड़ी हुई, बालीं, “माँ को ख़बर दे आऊँ – नहीं तो वे खाना लेकर बैठी रहेंगी।”

उपेन्द्र चौंककर बोले, “ओ हो! उसका खाना-पीना सम्भवतः उधर ही हो रहा होगा – हमबग!”

उपेन्द्र के कथन में आन्तरिक स्नेह के सिवा और कुछ भी नहीं था और सतीश उनका अत्यन्त स्नेह-पात्र यदि न रहता तो वे यह बात मुँह से निकाल भी नहीं सकते थे, इस बात को सरोजिनी ने भलीभाँति समझकर हँसकर कहा, “यह आपका भारी अन्याय है! उनकी रुचि यदि आपकी कुरुचि के साथ न मिले तो दोष आपका ही है, उनका नहीं! अच्छा, माँ को बताकर आती हूँ।” कहकर सरोजिनी शीघ्रता से बाहर चली गयी।

उसके चले जाने पर तुरन्त ही शशांकमोहन उपेन्द्र की ओर घूमकर बोले, “आपके मित्र सम्भवतः बड़े कट्टर सनातनी हैं।”

उपेन्द्र ज़रा हँसकर बोले, “कम नहीं। पूजा-आद्दिक भी करता है।”

सतीश कभी-कभी छिपकर शराब पीता था, यह बात वह जानते नहीं थे, शायद सपने में भी सोच नहीं सकते थे।

शशांकमोहन ने पूछा, “वह करते क्या हैं?”

उपेन्द्र बोले, “कुछ भी नहीं। कभी वह कुछ करेगा, ऐसी आशा भी किसी को नहीं है।”

इस समाचार से शशांकमोहन के मन के ऊपर से मानो एक पत्थर उतर गया। प्रसन्न होकर बोले, “इसी पर?”

ज्योतिष इतनी देर तक मौन रहकर सुन रहे थे। उपेन्द्र को लक्ष्य कर बोले, “यह बात तो उचित नहीं है उपेन। शारीरिक उत्कर्ष क्या कुछ भी नहीं है? इसके सिवा मैं तो उनकी गान-विद्या पर मुग्ध हो गया हूँ। जो कुछ उन्होंने किया है, हमारे देश में उसके योग्य सम्मान यदि उसको न मिला, तो दुःख की बात है इसमें सन्देह नहीं। लेकिन वह दोष तो हम लोगों का ही है, उसका नहीं और सच बात तो यह है कि मुझे तो तुम्हारे मित्र को देखकर सचमुच ही ईर्ष्या होती है। अच्छी बात है, बूढ़े की आमदनी कितनी है जी?”

उसी समय सरोजिनी ने चुपचाप कमरे में प्रवेश करके अपने भैया की कुर्सी की पीठ पर हाथ टेककर खड़ी होकर पूछा, “किसकी भैया?”

ज्योतिष ने कहा, “सतीश बाबू के पिता की।”

उपेन्द्र बोले, “ठीक नहीं जानता, सम्भवतः लगभव दो लाख।”

ज्योतिष दोनों आँखें फाड़कर बोला, “राजा हैं क्या जी?”

उपेन्द्र बोले, “नहीं राजा नहीं किन्तु सदा से ही वे बड़े जमींदार हैं। उस पर वृद्ध ने विशेष रूप से आमदनी बढ़ा ली है।”

ज्योतिष कुर्सी पर ओठंग कर एक लम्बी साँस लेकर बोले, “बिल्कुल ही सौभाग्य के प्रिय पुत्र। स्वास्थ्य, शक्ति, रूप, ऐश्वर्य! मनुष्य जिन सब की कामना करता है, एक पात्र में सभी विद्यमान हैं।”

उपेन्द्र हँसने लगे। अन्त में बोले, “एक भयंकर दोष भी है। दूसरों का दोष अपने ऊपर ले लेता है, असमय में अपने सिर विपत्ति ढोकर यदि मर न जाये, तो तुम जो कह रहे हो वह सब ठीक ही है!”

ज्योतिष सीधे हो उठ बैठे, बोले, “विपत्ति ढोकर मर जायेगा क्यों?”

उपेन्द्र बोले, “असम्भव नहीं है, और पहले हो भी चुका है। क्रोध नाम की वस्तु उसके शरीर में जैसी भयंकर है, प्राणों का मोह भी ठीक उसी परिमाण में कम है। इस कलियुग में रहते हुए भी जिनकी न्याय-अन्याय सम्बन्धी धारणा सतयुग की भाँति रहती है और क्रोध में आ जाने से जिसको हिताहित का ज्ञान नहीं रहता, उनके बचे रहने या न रहने पर मैं तो अधिक विश्वास नहीं रखता। सह सकना भी एक शक्ति है, बिना माँगी सहायता करने का लोभ रोक रखना भी विशेष अवस्था में आवश्यक होता है, इसको तो वह समझता ही नहीं। वह मानो उस युग के यूरोप का नाइट है, इस युग में बंगाल में आकर जन्म ग्रहण किया है।”

ज्योतिष हँसकर बोले, “लेकिन कुछ भी कहो, सुनकर श्रद्धा उत्पन्न होती है।”

उपेन्द्र बोले, “नहीं भी होती! संसार में रहना है तो बहुत सी छोटी-मोटी बुरी वस्तुओं को तुच्छ मान लेना पड़ता है – यह शिक्षा आज तक उसे नहीं मिली है। किसी दिन होगी या नहीं मैं नहीं जानता, लेकिन यदि नहीं हुई तो अन्तिम परिणाम अच्छा न होगा। उसका भी नहीं, उसके आत्मीय मित्रों का भी नहीं!

ज्योतिष बोले, “लेकिन तुम उसके आत्मीय-मित्र हो, तुम क्यों नहीं सिखाते?”

उपेन्द्र के मुँह पर हँसी फूट उठी, बोले, “मैं उसका मित्र हूँ अवश्य, लेकिन इस शिक्षा का भार ऐसे मित्र पर नहीं है जो सब मित्रों से बड़े होंगे, जो सभी आत्मीयों के ऊपर आत्मीय होंगे, इस विद्या को या तो वे ही सिखायेंगे या चिरकाल तक उसको अशिक्षित ही रहना होगा।”

सरोजिनी इतनी देर तक मौन होकर सुन रही थी। अब मुँह घुमाकर शायद उसने ज़रा हँसी छिपा ली।

उपेन्द्र बोले, “किन्तु सतीश की बात आज यहीं तक। मुझे उठना पड़ेगा, दो चिट्ठियाँ लिखनी हैं।”

ज्योतिष को भी आवश्यक काग़ज़-पत्र देखने थे, उनका भी बैठना सम्भव नहीं था, इसीलिए वे भी उठने-उठने की कह रहे थे। किन्तु सबके पहले उठ पड़ी सरोजिनी। इस बार जान पड़ा मानो उसने उपेन्द्र को कुछ कहना चाहा, किन्तु अन्त में कुछ भी नहीं कहा, किसी को भी एक छोटा नमस्कार तक भी नहीं किया। अन्यमनस्क की भाँति वह धीरे-धीरे बाहर चली गयी। आज की सभा जैसी जमने की बात थी, उस तरह वह जम नहीं सकी। बल्कि, भंग हो गयी और वह भी बुरी तरह।

उपेन्द्र न तो कुछ जानते ही थे, न वे कुछ जान सके।

सोलह

तीक्ष्ण बुद्धि किरणमयी पति की बीमारी के समय इन इने-गिने कई दिनों में उपेन्द्र को आत्मीय भाव से अपने पास पाकर पहचान गयी। इससे उसकी स्वार्थ हानि की व्याकुल आशंका ही समाप्त हो गयी, ऐसी बात नहीं, इस अपरिचित के प्रति एक गहरी श्रद्धा उत्पन्न हो गयी जिसके भार से सारा हृदय जलभाराक्रान्त मेघ की तरह बरसने को प्रस्तुत हो गया। ऐसा आदमी उसने कभी देखा नहीं था। ऐसे आदमी के सम्पर्क में आने के सौभाग्य की किसी दिन वह कल्पना भी न कर सकी थी। इसीलिए इस थोड़े समय के परिचय से ही उसने अपने भविष्य के सभी सुख-दुःखों को इनके ही हाथ में निःशंक होकर सौंप दिया, और निर्भय होकर निर्भर कर सकना किसे कहते हैं, इसको यही पहले-पहल अनुभव कर के उसका चिरकारारुद्ध प्राण मानो मुक्त-मार्ग का प्रकाश देख सका।

उपेन्द्र प्रातः से लेकर रात्रि तक मुमूर्ष की सेवा कर रहे थे। आवश्यकता की दृष्टि से इस सेवा का मूल्य नहीं था। क्योंकि हारान के जीवन की आशा तनिक भी नहीं थी – किन्तु इस सेवा ने किरणमयी की दृष्टि में अपने पति के सूखे शरीर को भी बहुमूल्य बना दिया। इस अर्धमृत शरीर के लोभ से ही वह अकस्मात व्याकुल हो उठी। इसके आचार-व्यवहार में यह अचिन्तनीय परिवत्रन मृत्यु के किनारे खड़े हारान ने भी लक्ष्य किया। बचपन में किरण आत्मीय के घर में पाली-पोसी गयी और बचपन में ही उससे भी अधिक अनात्मीय पति के घर आयी थी। सास अघोरमयी ने उसका किसी दिन आदर-सत्कार नहीं किया, बल्कि जितना सम्भव हो सका, उतना ही कष्ट पहुँचाती रही है। पति ने भी उसको एक दिन के लिए भी प्यार नहीं किया। वे दिन के समय स्कूल पढ़ाते थे, रात को स्वयं अध्ययन करते थे, और अपनी पत्नी को पढ़ाया करते थे। विद्योपार्जन करने के नशे ने उनको ऐसा ग्रसित कर लिया था कि दोनों में गुरु-शिष्य के कठोर सम्बन्ध के अलावा पति-पत्नी के मधुर सम्बन्ध का अवकाश ही नहीं मिला। इस प्रकार यह प्रखर बुद्धिशालिनी रमणी शैशव को पार कर के परिपूर्ण यौवन के बीच आ खड़ी हुई थी – इस प्रकार संसार के सौन्दर्य-माधुर्य से निर्वासिता शुष्क तथा कठोर हो उठी थी, और ऐसे ही स्नेह से वंचित होकर ही वह नारी के श्रेष्ठ धर्म को भी तिलांजलि देने को तैयार बैठी थी। अघोरमयी सब कुछ जानती थीं। उनकी रूपवती वधू इन दिनों सती धर्म की भी पूरी मर्यादा पालन करके नहीं चलती, इस बात को वे जानती थीं। किन्तु उनका पुत्र मृत्यु के मुख में था, दुःख के दिन प्रायः निकट थे, उसको ध्यान में रखकर ही सम्भवतः वह वधू के आचार-व्यवहार की उपेक्षा करती रहती थीं। जो डाक्टर हारान की चिकित्सा कर रहा था, वह किस आज्ञा से दाम लिये बिना दवा-पथ्य जुटा रहा था, और क्यों उनकी गृहस्थी का आधा खर्च दे रहा था, यह बात उनसे छिपी नहीं थी। किन्तु मृत्यु पथ के राही पुत्र की चिकित्सा के सामने किसी अन्याय को ही बड़ा करके देखने का साहस उनको नहीं था, ऐसी शिक्षा भी उनकी नहीं थी। इसके अतिरिक्त वे पुत्रवधू को प्यार नहीं करती थीं। उपेन्द्र भी इसी जाल में धीरे-धीरे बँधता जा रहा है, उसका मुक्तहस्त अर्थव्यय और अक्लान्त सेवा का गुप्त रहस्य बाल्यावस्था की मित्रता को अतिक्रम करके चुपके से एक-दूसरे स्थान में मूल विस्तार कर रहा है, इस सम्बन्ध में उनको कोई शंका नहीं थी। आपत्ति भी नहीं थी। कल से उपेन्द्र आया नहीं, यही बात अघोरमय अपनी कोठरी की चौखट के बाहर बैठकर एक जीर्ण-शीर्ण मैला लिहाफ़ ओढ़े सोच रही थीं।

जाड़े का सूर्य तब तक अस्त नहीं था, लेकिन इस मकान के अन्दर अन्धकार की छाया पड़ चुकी थी। सूर्यदेव कब उगते हैं, कब अस्त हो जाते हैं, अच्छे दिनों में भी इसकी ख़बर इस मकान के लोग नहीं रखते थे, अब दुःख के दिनों में उनके साथ प्रायः समस्त सम्बन्ध ही टूट गया था।

अघोरमयी ने पुकारा, “संध्या का दीया जलाकर एक बार यहाँ तो आओ बेटी! एक बात है।”

किरणमयी उन्हीं के कमरे में काम कर रही थी, बोली, “अभी तक संध्या नहीं हुई है माँ, तुम्हारा बिछौना बिछाकर आती हूँ।”

अघोरमयी बोली, “मेरा और बिस्तर बिछाना! सोते समय मैं ही बिछा लूँगी। नहीं, नहीं, तुम जाओ बेटी, दीया जलाकर ज़रा ठण्डी होकर बैठो। दिन-रात काम करते-करते तुम्हारा शरीर आधा हो गया, उस ओर भी ज़रा नज़र रखना ज़रूरी है बेटी।” यह कहकर लम्बी साँस लेकर वे चुप हो रहीं। थोड़ी ही देर बाद बहू निकट आकर बैठने लगी, तो वे रोककर बोलीं, “पहले दियाबत्ती…।”

बहू ने शान्त भाव से कहा, “तुम क्यों घबरा रही हो माँ, संध्या होने में अभी बहुत देर है!”

अघोरमयी बोली, “होने दो – नीचे तो अँधेरा है – ज़रा दिन रहते ही सीढ़ी की बत्ती जला देना अच्छा है। इसी समय शायद उपेन आ जायेगा, कल से वह आया नहीं – क्यों बहू, अभी तक तुम्हारा शरीर धोना, बाल बाँधना तक भी हुआ नहीं है, देख रही हूँ – क्या कर रही है इतनी देर तक?”

सास के कण्ठ-स्वर में अकस्मात विरक्ति का आभास देखकर आश्चर्य में पड़ी बहू क्षणभर उनके मुँह की तरफ़ देखती रही, फिर ज़रा हँसकर बोली, “मैं रोज इस समय किसी दिन हाथ-मुँह धोती हूँ या कपड़ा बदलती हूँ माँ? अभी तो मेरा रसोईघर का काम ही नहीं ख़त्म हो पाता। उसके बाद….।”

सास कुछ नाराज़ होकर बोल उठीं, “बाद का काम उसके बाद होगा बेटी, अभी मैं जो कहती हूँ उसे करो।”

बहू ने जाने को तैयार होकर कहाँ, “जा रही हूँ, दीया जलाकर तुम्हारे पास ही आकर बैठती हूँ।”

अघोरमयी खीझ उठीं, बोलीं, “मेरे पास अभी झूठ-मूठ बैठने से क्या होगा बेटी! काम पहले है, या बैठना पहले है? दिन पर दिन तुम कैसी होती जा रही हो बहू?”

उसका स्नेह हठात तिरस्कार का आकार धारण करने के साथ ही ये बातें अत्यन्त कठोर और रूखी होकर सभी के कानों में जाकर बिंध गयी। उसने भी क्रोध करके उत्तर दिया, “तुम लोग ही मुझे कैसी बनाती जा रही हो, माँ! हर समय उलटी-सीधी बातें कहते रहने से मानना तो चूल्हे में जाये, समझी भी तो नहीं जातीं। क्या कहना चाहती हो तुम स्पष्ट की कहो न!” यह कहकर उत्तर के लिए क्षणभर भी प्रतीक्षा न करके वह शीघ्रता से चली गयी। बहू का तेजी से चला जाना क्या है, इसे इस घर के सभी समझते थे। अघोरमयी भी समझ गयी।

किरणमयी नीचे-ऊपर दीपक जलाकर अपनी सास के कमरे में जब दिया जलाने आयी, तब सास रो रही थीं। उनको रुलाई जब जैसे-तैसे कारणों से ही फूट पड़ती थी।

किरणमयी ठिठककर खड़ी होकर बोली, “तुम्हारी हरिनाम की माला ला दूँ माँ!”

सास लिहाफ़ के कोने से आँखें पोंछकर रुआँसे स्वर में बोलीं, ‘ले आओ!”

वह कमरे में जाकर दीवाल पर टंगी माला की झोली उतारकर ले आयी और सास के हाथ में देने लगी तो उन्होंने झोली न लेकर बहू का हाथ पकड़ लिया। “ज़रा बैठो बेटी,” कहकर खींचकर अपने पास बैठाकर उसके मुँह पर, ललाट पर, माथे पर सहला दिया। ठोड़ी छूकर चुम्बन किया और बड़ी देर तक कुछ भी न कहकर रोने लगीं। किरणमयी कड़ी होकर बैठी यह सब स्नेहाभिनय सहती रही।

थोड़ी ही देर बाद अघोरमयी ने फिर एक बार लिहाफ़ के कोने से आँखों के आँसू पोंछकर कहा, “शोक से तप्त मैं पागल हो गयी हूँ, मेरी एक साधारण सी बात पर तुमने क्रोध क्यों किया, बताओ तो बेटी?”

किरण ने अविचलित भाव से कहा, “शोक-ताप तुम्हारे अकेले का नहीं है माँ! हम लोग भी मनुष्य हैं, उसे भूलकर एक ही बात कह देना ही तो यथेष्ट है, नहीं तो हजार बातों से क्रोध नहीं होता।”

अघोरमयी ने आँखे पोंछते-पोंछते कहा, “इस बात को क्या मैं नहीं जानती बेटी, जानती हूँ किन्तु मेरा एक-एक करके सब कुछ ही चला गया। अब तुम ही सब हो, तुम ही मेरी लड़के-लड़की हो। हारान के शोक से यदि छाती कड़ी रख सकूँगी तो तुम्हारा मुँह देखकर ही रख सकूँगी।” यह कहकर फिर एक बार लिहाफ आँखों पर रखकर वे रोने लगीं। किन्तु इस छलना से किरण भुलावे में नहीं पड़ी। वह मन ही मन जल उठने पर भी शान्त भाव से बोली, “तुम किस तरह छाती कड़ी करोगी, इसको तुमने अभी से ठीक कर रखा है, किन्तु मैं कैसे छाती कड़ी करूँगी, इस पर तो तुमने सोचा नहीं हैं माँ! फिर यह भी कहती हूँ ये सब बातें इस समय क्यों? जब सचमुच ही छाती कड़ी करने का दिन आयेगा तब समय की खींचा-तानी नहीं होगी, वह समय इतना थोड़ा सा नहीं आता माँ, कि पहले से तैयार न होने से समय ही नहीं मिलता।

बहू की बातें मधुर न लगने पर भी इनके भीतर कितना व्यंग्य छिपा हुआ था, अघोरमयी यह न जान सकीं। बल्कि वे बोलीं, “समय आने में देर ही क्या है बेटी, उपेन उस दिन जिस डाक्टर को ले आये थे, वे अच्छी बातें कुछ भी नहीं कह गये। मैं केवल यही कहती हूँ बेटी, उपेन यदि उस समय न आ जाता, तो उस दशा में हम लोगों की कैसी दुर्दशा होती।”

वह चुप रहकर सुन रही है देखकर वे उत्साहित होकर कहने लगीं, “उस को लड़कपन से ही मैं जानती हूँ। नोआखाली में वे दोनों भाइयों की तरह मेरे पास आते-जाते थे – तभी से मौसी कहकर पुकारता है। जैसे बड़े आदमी का लड़का है वैसे स्वयं भी यह बड़ा उदार हो गया है। उस दिन मुझे रोते देखकर बोला – ‘मौसी, मुझे हारान भैया का छोटा भाई ही समझ रखना, इससे अधिक कहने की बात मेरे पास कुछ भी नहीं है।’ मैंने कहा, ‘बेटा मुझे किसी तीर्थस्थान में छोड़ आना। जो इने-गिने दिन जीवित रहूँगी, मैं गंगा स्नान करते-करते गंगा माई की गोद में जाकर अपने हारान के पास रह सकूँ।”

फिर वह बोल न सकीं। इस बार वह व्याकुल होकर रो पड़ीं। बहू चुप हो गयी थी, चुप ही रह गयी। वे कुछ देर तक रोकर छाती का भार हलका करके अन्त में आँखें पोंछकर गीले स्वर में बोलीं, “रह-रहकर यही बात मन में उठ जाती है कि वह यदि नहीं आता तो – नीचे कोई पुकार रहा है क्या बेटी?”

बहू ने कहा, “नीचे दासी बरतन माँज रही है, किसी के बुलाने पर दरवाज़ा खोल देगी।”

सास ने घबराकर कहा, “नहीं नहीं बहू, तुम भी जाओ। जब दासी काम में लगी रहती है तब वह कुछ भी नहीं सुनती।”

किरण कुछ भी उद्वेग प्रकट न करके धीरे से बोली, “मुझे भी काम है माँ, रसोई पकाना. …।”

अघोरमयी अकस्मात भड़क उठीं, बोली, “रसोई तो कहीं भागी नहीं जा रही है बेटी! तुम क्यों नहीं समझतीं?”

किरण उठ खड़ी हुई, बोली, “मुझे समझने की ज़रूरत भी नहीं है। अपने सभी लोगों के चले जाने पर भी यदि हमारे दिन बीते हैं तो उपेन बाबू के न रहने पर भी काम न रुकेगा।” कहकर रसोईघर की ओर वह चली गयी।

अघोरमयी क्रोध से बातें न कह सकी और जितनी देर तक बहू दिखायी पड़ती रही, उतनी देर तक उनके जलते हुए दोनों नेत्र मानो उसे ठेलकर विदा करते रहे। इसके बाद अत्यन्त क्रोध के साथ दासी को पुकारने लगीं। उसकी भी आहट नहीं मिली। वह शीत के भय से संध्या के पहले खन्-खन्, झन्-झन् शब्द करके बरतन माँजने-धोने का काम समाप्त कर रही थी, उनका क्रुद्ध आह्नान उसे सुनायी नहीं पड़ा। तब अपने कमरे का दीपक हाथ में लेकर बरामदे के पास आकर चिल्लाकर बोलीं, “तूने क्या अपने कानों में रूई ठूँस ली है? क्या तुझे सुनायी नहीं पड़ता कि उपेन बाबू एक घण्टे से खड़े बाहर पुकार रहे हैं।”

यह भयंकर आरोप दासी ने सुन लिया और उपेन का नाम सुनकर उठ पड़ी। दौड़ती हुई जाकर उसने किवाड़ खोल दिया, लेकिन कोई भी नहीं था। बाहर गर्दन बढ़ाकर अन्धकार में जितनी दूर दिखायी पड़ा अच्छी प्रकर देखने पर भी किसी को न देख पाने पर वापस आकर बोली, “कोई भी तो नहीं है माँ!”

अघोरमयी दीपक हाथ में लिए उद्विग्न होकर प्रतीक्षा कर रही थीं। अविश्वास करके बोलीं, “नहीं क्या रे! मैंने तो अपने ही कानों से उनकी पुकार सुनी है, तूने गली में जाकर एक बार देखा क्यों नहीं?”

दासी ने कहा, “मैंने देखा है, कोई नहीं है।”

यह बात विश्वास करने के योग्य नहीं थी। उपेन कल आया नहीं तो क्या आज भी नहीं आयेगा? इसीलिए खीझकर बोलीं, “तू जा, फिर एक बार अच्छी तरह देख आ, कोई है या नहीं?”

बाहर अँधेरी गली में दासी को जाने में आपत्ति थी। उसने खीझकर उत्तर दिया, “तुम्हारी यह कैसी बात है माँ! वह क्या आँखमिचौनी खेल रहे हैं कि अँधेरी गली में जाकर हाथ से टटोलना पड़ेगा?” यह कहकर वह काम में लग गयी।

अघोरमयी अपने कमरे में वापस आकर निर्जीव की भाँति बिछौने पर लेट गयी। बीमार लड़के का समाचार जानने का उत्साह भी उनको नहीं रहा। उन को बार-बार केवल यही ख़्याल होने लगा कि, वह कल आया ही नहीं, आज भी नहीं आया। सम्भव-असम्भव तरह-तरह के कारणों के ढूँढ़ने में यह बात उनके मन में एक बार भी नहीं आयी कि वह कलकत्तावासी नहीं है, अन्यत्र उसका घर-बार और आत्मीय स्वजन हैं, वहाँ लौट जाना भी सम्भव है। सोचते-सोचते एकाएक उनको ख़्याल आया कि अप्रसन्न तो नहीं हो गया। इस बात को दुहराने के साथ ही उनका हृदय आशंका से भर गया, और बहू के पलभर पहले के आचरण के साथ मन ही मन मिलाकर देखते ही उनका सन्देह दृढ़ हो गया – “ऐसी ही तो बात है। बहू यदि अब….. वह फिर लेटी न रह सकीं, उठकर रसोईघर की तरफ़ चली गयीं।”

किरणमयी जलते हुए चूल्हे की ओर निहारती हुई चुपचाप बैठी हुई थी। जलते हुए अंगारे की लाल आभा का अत्यधिक प्रकाश उसके मुख पर पड़ रहा था। माथे पर कपड़ा नहीं था। आज उसने बाल भी बाँधे नहीं थे, इधर-उधर बिखरे हुए केशों को किसी तरह ठीक रह रखा था।

अघोरमयी दरवाज़े के सामने अवाक होकर खड़ी रहीं। आज जो वस्तु उनकी दृष्टि में पड़ी, उसको सम्पूर्ण रूप से हृदयंगम करने की सामथ्र्य उनका नहीं था। जिस स्तब्ध मुखमण्डल पर चूल्हे की लाल आभा से युक्त प्रकाश विचित्र तरंगों की भाँति खेलता हुआ घूम रहा था, वह मुँह उनकी समस्त अभिज्ञता के बाहर था, इस मुख में कोई त्रुटि है या नहीं इसकी आलोचना नहीं चल सकती। निर्दोष भी इसे नहीं कहा जा सकता। यह तो आश्चर्यजनक है। इसको पहले कभी नहीं देखा है – यह आश्चर्य है। निर्निमेष दृष्टि से बड़ी देरतक देखते रहने पर भी हठात उनके मुँह से लम्बी साँस निकल पड़ी।

उस शब्द से चौंककर बहू ने देखा, सास खड़ी हैं। गिरे हुए आँचल को माथे पर खींचकर उसने कहा, “तुम यहाँ क्यों माँ?”

कण्ठस्वर सुनकर वे और भी चौंक पड़ीं। ऐसा शान्त, ऐसा करुण कण्ठ-स्वर उन्होंने पहले कभी नहीं सुना था। झट बोल उठीं, “तुम अकेली ही रसोई पका रही हो बेटी, इसीलिए ज़रा बैठने के लिए आयी हूँ।”

बहू उनकी ओर पीढ़ा ठेलकर चूल्हे की तरफ़ देखती हुई चुप हो रही। उसके मन में फिर झुँझलाहट सिर उठाकर खड़ी हो गयी। गन्ध जिस तरह हवा का आश्रय ग्रहण करके फूल के बाहर चली आती है, किन्तु आँधी में उड़ जाती है, किरणमयी का तत्कालीन मनोभाव सास के आकस्मिक आगमन से उसी तरह क्षणभर में बाहर आने के साथ ही इस पद्म स्नेह के तूफ़ान से उड़ गया। यह सत्य नहीं है – भद्दी प्रतारणा मात्र है। किन्तु झगड़ा करना उसको अच्छा नहीं लग रहा था। निरन्तर झगड़ा करके वह सचमुच ही थक गयी थी। कुछ देर तक स्थिर रहकर अघोरमीय बोलीं, “दासी को बुला दूँ?”

किरणमयी अन्दर के समस्त विद्रोह को रोककर शान्त भाव से बोली, “क्या आवश्यकता है माँ। मैं नित्य ही अकेली रसोई पकाती हूँ – अकेली रहने का मेरा स्वभाव हो गया है, बल्कि वह कमरे में अकेले पड़े हैं – उनके पास जा कर कोई बैठता तो अच्छा होता।”

बीमार सन्तान का उल्लेख होने से जननी आघात पाकर व्यग्र होकर बोली – “तो मैं जाती हूँ, तुम भी जल्दी ही काम पूरा करके आ आना बेटी।”

इस बीच ही उपेन्द्र अपने घर चले गये थे, सतीश भी केवल एक ही दिन उपेन्द्र के साथ हारान को देखने आया था – फिर नहीं आया – वह अपनी व्यथा लेकर ही घबराहट में पड़ा था। उपेन्द्र ने उसका अन्यमनस्क भाव तथा इस घर में न आने की इच्छा जानकर उस को फिर नहीं बुलाया, चिकित्सा और अन्यान्य व्यवस्थाएँ वह स्वयं ही कर रहे थे। केवल कलकत्ता छोड़कर घर लौट जाने के दिन सतीश को बुलाकर बीच-बीच में ख़बर लेते रहने और उनको पत्र लिखकर समचार भेजने का अनुरोध करके चले गये थे। आज स्कूल से लौटते ही सतीश को उपेन्द्र का पत्र मिला। उन्होंने लिखा है, “मुझे आशा है, तुम्हारी पढ़ाई अच्छी तरह चल रही है। कई दिनों से हारान भैया का समाचार न मिलने से चिन्तित हूँ। यद्यपि मैं जानता हूँ, समाचार देने की आवश्यकता ही नहीं हुई, इसलिए तुमने नहीं दिया, तथापि उनकी चिकित्सा कैसी हो रही है, लिखना।”

सतीश की पीठ पर मानो कोड़े की मार पड़ी। उसने एक दिन भी जाकर खोज-ख़बर नहीं ली। इस बीच उस घर में कितनी ही घटनाएँ घटित हो सकती हैं, तो भी उसके ही ऊपर निर्भर रहकर उपेन भैया घर चले गये हैं। वह शीघ्रता से नीचे उतर गया। बिहारी जलपान ला रहा था, धक्का खाकर उसकी थाली और गिलास गिर पड़ा। सतीश ने घूमकर देखा ही नहीं। मार्ग में आकर एक ख़ाली गाड़ी पर चढ़ बैठा और तेज़ चलाने का अनुरोध करके मार्ग की ओर सत्रक होकर देखता रहा। उसको भय था कि कहीं पहचान में न आने से गली छूट न जाय। बीस मिनट के बाद, जब छोटी सी गली में पहुँचा, तब तक भी दिन का प्रकाश शेष था, पैरों के नीचे खुला पनाला और चलने का रास्ता था और ऊपर आकाश और प्रकाश तब तक भी मिलकर एक नहीं हुए थे। तेज़ क़दम बढ़ाकर 13 नम्बर के मकान के सामने पहुँचते ही किवाड़ खुल गये। कोई मानो उसके ही लिए प्रतीक्षा कर रहा था। सतीश का हृदय काँप उठा, एकाएक वह प्रवेश न कर सका।

द्वार के निकट ही किरणमयी खड़ी थी। उसने अपना हँसता हुआ मुख ज़रा बाहर निकालकर अत्यन्त आदर से कहा, “आओ बबुआजी, खड़े क्यों हो?”

फिर वही बबुआजी! लज्जा से सतीश का मुख लाल हो गया। लेकिन उसी क्षण सम्भलकर वह विनीत भाव से बोला, “लगता है, आपने अभी तक मुझे क्षमा नहीं किया।”

किरणमयी ने कहा, “नहीं, तुमने तो क्षमा माँगी नहीं। माँगने के पहले ही अपनी ही अच्छा से देने से मानो लोगों को मानहानि होती है। मानहानि करने योग्य कम दाम की वस्तु तो तुम हो नहीं बुआजी।”

उसके इस प्रसन्न रहस्यपूर्ण वार्तालाप के बीच भी ऐसी एक गम्भीर करुणा स्पष्ट हो उठी कि, सतीश ने मुँह झुका गम्भीर कण्ठ से कहा, “मेरा कुछ भी दाम नहीं है भाभी जी। मेरी कोई मानहानि न होगी – मुझे आप क्षमा करें!”

किरणमयी हँसकर बोली, “ऐसी बहुत-सी बातें हैं बबुआजी, जिनको क्षमा करने से ही वे समाप्त हो जाती हैं। आज तुमको माफ़ करने पर यदि फिर सतीश बाबू कहकर पुकारना पड़े तो उस दशा में यह मैं कहे देती हूँ बबुआजी, वह क्षमा तुम पाओगे नहीं। अपने को पकड़ रखने की वही जो थोड़ी-सी जंजीर तुमने स्वयं अपने हाथों से उठाकर दे दी है, उसको अपनी मीठी-मीठी बातों से भुलावे में डालकर वापस ले लोगे, उतनी मूर्ख यह भाभी नहीं है।” यह कहकर उस ने विशेष रूप से गरदन हिला दी। लेकिन सतीश चौंक उठा। यह जंजीर बाँधने कसने की उपमा उसे जँची नहीं। वरन हठात, उसे मालूम हुआ, उसको असावधान पाकर यह लड़की सचमुच ही कोई कहीं जंजीर उसके पैरों में बाँध रही है और क्षणभर में उसकी समस्त सहज बुद्धि आत्मरक्षा के लिए सजधज कर खड़ी हो गयी। घर में प्रवेश करते समय उसकी आँखों में जो दृष्टि कत्रव्यभ्रष्टता के धिक्कार से कुण्ठित और लज्जा से विनम्र दिखायी पड़ी थी, धक्का खाकर वह सन्दिग्ध और तीव्र हो उठी।

किरणमयी ने कहा, “तुम्हारा मुँह सूख गया है बबुआजी, शायद अभी तक तुमने जलपान भी नहीं किया है? आओ, ऊपर चलो, कुछ खा लो।”

सतीश ने कुछ भी न कहकर निमंत्रण स्वीकार कर लिया। इस सारे रहस्य-कौतुक में कितना रहस्य है और कितना नहीं, इस पर मन ही मन विचार करते हुए वह किरणमयी के पीछे चल पड़ा।

ऊपर चढ़कर बहू ने इधर-उधर देखकर कहा, “आज दासी को साथ लेकर माँ काली बाड़ी गयी हैं। रसोईघर में बैठकर तुम मेरी पूड़ियाँ बेल देना, मैं छान लूँगी। बेल सकोगे तो?” यह कहकर वह हँस पड़ी। बोली, “बेल सकोगे, यह तो तुमको देखने से ही ज्ञात होता है – आओ।”

सतीश ने अपने हृदय के द्वन्द्व को रोककर भले आदमी की तरह प्रश्न किया, “पूड़ी बेल सकता हूँ, यह बात क्या मेरे शरीर पर लिखी है, भाभी जी?”

किरणमयी बोली, “लिखावट पढ़ने की जानकारी रहनी चाहिए! उस रात मेरे शरीर पर ही क्या कुछ लिखा था – जिसे तुम पढ़ गये थे!”

सतीश ने फिर मुँह झुका लिया। उसके बाद दोनों मिलकर जब भोजन बनाने लग गये और इस संघर्ष की गरमी बहुत कुछ ठण्डी हो चली तब किरणमयी ने पूछा, “तुम्हारे बारे में बहुत-सी बातें तुम्हारे उपेन भैया के मुँह से मैं सुन चुकी हूँ। अच्छा, बबुआजी, वह इस समय यहाँ नहीं हैं, शायद घर लौट गये हैं?”

सतीश के हाँ कहने पर किरणमयी ने कहा, “वह यहाँ नहीं हैं, लेकिन माँ विश्वास करना नहीं चाहतीं। माँ कहती हैं, उनको बिना बताये उपेन बाबू न जायेंगे – उनको शायद एकाएक चला जाना पड़ा है।”

सतीश को इस बात की ठीक-ठीक जानकारी नहीं थी। वस्तुतः उसे कुछ भी ज्ञात नहीं था। इस बीच इन लोगों के कारण ही दोनों मित्रों में जो अप्रिय बातें हो चुकी हैं, वे भी कही नहीं जा सकतीं – सतीश चुप हो रहा। न कहकर चले जाने का कारण क्या है, इसका वह किसी तरह भी अनुमान न कर सका। लेकिन किरणमयी ने बात को दबाने नहीं दिया, बोली, “यह काम तुम्हारे भैया का अच्छा नहीं हुआ बबुआजी। कहकर जाने से कोई उनको पकड़कर नहीं रखता, फिर भी माँ इस तरह चिन्तित होकर विकल नहीं होतीं! मैं किसी भी तरह उनको समझा नहीं सकती कि उपेन बाबू बराबर यहाँ नहीं रहते, अन्यत्र उनका घर-द्वार है, काम-काज है, यह सब छोड़कर कोई मनुष्य कितने दिन दूसरे का दुर्भाग्य लेकर रुका रह सकता है? लेकिन बूढ़ी माँ के सामने युक्ति नहीं चलती। अपनी आवश्यकता के सामने संसार में वह कुछ देख नहीं सकतीं।”

सतीश उस बात का ठीक-ठीक उत्तर न देकर बोला, “उपेन भैया इतने दिन बाहर थे, यही तो आश्चर्य है! कहीं भी अधिक दिन रहने का उनका स्वभाव नहीं है। विशेषतः ब्याह के बाद से एक रात भी कहीं रखने के लिए हमें सिर पटकना-फोड़ना पड़ता है। पहले सभी विषयों में वह हम लोगों के स्वामी थे, अब एक-एक करके सब छोड़कर घर के कोने में जा छिपे हैं – कचहरी में बिल्कुल ही न जाने से काम नहीं चलता, इसीलिए शायद, एक बार चले जाते हैं, यही एक बार देखिए न – ।”

बहू ने बाधा देकर कहा, “बैठो बबुआजी, तुम्हारे लिए खाने की जगह ठीक कर दूँ तो बैठूँ। तुम खाते-खाते बातें करोगे, वह अच्छा होगा” यह कहकर आसन बिछाकर थाली में खाने की चीज़ें सजाकर वह पास बैठ गयी और अत्यन्त आग्रह के साथ बोली, “उसके बाद?”

सतीश पूड़ी का एक टुकड़ा मुँह में डालकर बोला, “वह एक विवाह कराने के लिए बारात में जाने की बात है भाभीजी! उपेन भैया बड़े अगुआ हैं – कितने लोगों के ब्याह उन्होंने कराये हैं, इसका ठिकाना नहीं है। हम लोगों के दल के ही एक लड़के का ब्याह था, अगुआई से आरम्भ करके सारा उद्योग-आयेजन उपेन भैया ने अपने हाथों किया। फिर भी, ब्याह की रात को भैया को देखा नहीं गया। ‘छोटी बहू की तबीयत ठीक नहीं है’ कहकर किसी तरह भी घर से बाहर नहीं निकले। ओह! हम सभी लोगों ने मिलकर कितना अनुरोध किया भाभी जी! लेकिन कुछ भी फल नहीं हुआ। पत्थर के देवता से वरदान मिल गया होता, लेकिन अपने भैया को सहमत नहीं किया जा सका। ‘मैं अच्छी तरह हूँ’ कहकर छोटी बहू ने स्वयं अनुरोध किया तो बोले, “तुम्हारे भले-बुरे का विचार करने का भार मेरे ऊपर है, तुम्हारे ऊपर नहीं, तुम चुप रहो।”

किरणमयी मौन होकर बैठी रही। उसका समस्त अतीत जीवन उसके ही अँधेरे अन्तस्तल में उतरकर टटोलकर न जाने किसको ढूँढता हुआ घूमने लगा। लेकिन सतीश कुछ न समझ सका। कौन कहानी कहाँ किस तरह जा लगती है, उसकी ख़बर क्या वह रखता है! वह कहने लगा, “इस अनुपस्थिति से किसने किस तरह निन्दा की, किसने क्या कहकर उपहास किया था, कितना आनन्द चौपट हो गया था, यह सब।”

लेकिन श्रोता कहाँ था? इस तुच्छ कहानी से तो किरणमयी तब बहुत दूर चली गयी थी।

एकाएक सतीश ने पूड़ी खाना और कहानी सुनाना बन्द करके पूछा, “आप सुन रही हैं या कुछ सोच रही हैं?”

किरणमयी चकित होकर हँसकर बोली, “सुनती तो अवश्य हूँ बबुआ। लेकिन मैं कहती हूँ, बीमारी-तकलीफ़ में सेवा करना ही तो अच्छा है।”

सतीश ने उत्तेजित होकर कहा, “अच्छा है, लेकिन यह ज़्यादती करना क्या अच्छा है? उस बार जब छोटी बहू को छोटी माता निकल पड़ी थीं, उपेन भैया आठ-दस दिन उनके सिरहाने से न उठे। घर में इतने लोग हैं, उनको नहाना-खाना बन्द करने की क्या आवश्यकता थी?”

किरणमयी ने क्षणभर उसके मुख की ओर चुपचाप देखते रहकर पूछा, “अच्छा बबुआजी, तुम्हारे उपेन भैया क्या छोटी बहू को बहुत ही प्यार करते हैं?”

सतीश बोला, “ओह! बहुत अधिक प्यार करते हैं।”

किरणमयी फिर कुछ देर तक चुप रहकर ताकती रही, बोली, “छोटी बहू देखने में कैसी हैं बबुआ जी? अत्यन्त सुन्दरी हैं?”

“हाँ, अत्यन्त सुन्दरी।”

किरणमयी ने मुस्काराकर कहा, “मेरी तरह?”

सतीश मुँह झुकाये रहा। क्षणभर बाद कुछ सोचकर मुँह ऊपर उठाकर उसने पूछा, “आप क्या यह बात सचमुच ही जान लेना चाहती हैं?”

“सचमुच ही बबुआ जी।”

सतीश बोला, “देखिये, मेरे मतामत का अधिक मूल्य नहीं है, लेकिन अगर कहना ही हो तो उस दशा में मैं यही कह सकता हूँ, आपकी तरह सुन्दरता शायद इस संसार में नहीं है।”

किरणमयी कोई एक उत्तर देने जा रही थी, लेकिन ठीक उसी समय नीचे चिल्लाहट की आवाज़ से उठ पड़ी। माँ वापस आ गयी थीं।

सतीश अपना जलपान समाप्त कर ज्योंही बाहर आया, त्योंही अघोरमयी के सामने पड़ गया। उन्होंने सतीश के मुँह की ओर देखकर बहू से पूछा, “यह उपेन के भाई हैं न बहू? वह कहाँ है?”

किरणमयी बोली, “वह अपने घर चले गये।”

अघोरमयी संक्षेप में ‘अच्छा’ कहकर अपना सिन्दूर-चन्दन चर्चित मुँह स्याह बनाकर अपने लड़के के कमरे में चली गयी।

सतीश ने कहा, “तो मैं अब जाता हूँ भाभी जी।”

किरणमयी अन्यमनस्क भाव से बोली, “जाओ।”

सतीश दो-एक क़दम जाकर ही लौटकर बोला, “उपेन भैया ने पत्र भेजा है। उन्होंने पूछा है, हारान भैया की चिकित्सा कैसी चल रही है?”

किरणमयी बोली, “चिकित्सा बन्द है। जो डाक्टर चिकित्सा कर रहा था, उनसे कराने की राय नहीं है, लेकिन, राय क्या है, यह भी बताकर नहीं गये हैं।”

सतीश आश्चर्य में पड़कर बोला, “यह कैसी बात! चिकित्सा बिल्कुल ही बन्द करके बैठी हुई हैं – यह कैसी व्यवस्था है?”

“व्यवस्था न करके ही वह चले गये। मुझे मालूम हो रहा है, मानो एक बार उन्होंने कहा था, सतीश यहीं रहता है, वही व्यवस्था करेगा – पर तुम भी तो नहीं आते बबुआ जी!”

सतीश क्षणभर अवाक होकर खड़ा रहा, बोला, “कल सबेरे ही आऊँगा।” कहकर वह शीघ्रता से बाहर चला गया।

सतीश के जाने के बाद किरणमयी पति के कमरे के दरवाज़े को ज़रा-सा खोलकर भीतर की ओर देखा – वे एक मोटी तकिया के सहारे लेटे माँ से बातें कर रहे हैं। आज भी उन्हें बुख़ार नहीं आया है, यह समाचार लेकर वह वापस आ गयी। बाहर अँधेरे में बैठकर अपूर्व ममता के साथ इस बात को लेकर आत्ममग्न हो गयी। आज सतीश की जबानी उपेन्द्र के अधःपतन के इतिहास ने उसके हृदय में माधुर्य भर दिया था, इसीलिए आज जो कुछ यहाँ आ गया, वही मधुर बनकर किरणमयी को अनिवर्चनीय रस में स्निग्ध करने लगा।

सत्रह

उस रात सतीश के चले जाने पर बड़ी देर तक किरणमयी अँधेरे बरामदे में चुपचाप बैठी रही। अन्त में उठकर रसोईघर में जाकर, रसोई चढ़ाकर फिर स्तब्ध होकर बैठी रही। उसके हृदय में आज सतीश अपने अनजाने में सुरबाला आदि अपरिचित नर-नारियों का दल लाकर यह जो एक अद्भुत नाटक का अस्पष्ट नाटक आरम्भ करके चला गया, सूने कमरे में अकेली बैठकर उसको स्पष्ट रूप से देखने का लोभ एक ओर किरणमयी में जैसा प्रबल हो उठा दूसरी ओर कोई अनिश्चित आशंका उसके हाथ-पैर, नेत्रों की दृष्टि को उसी प्रकार भारी बनाने लगा। उसे ऐसा जान पड़ा मानो अँधेरी रात के भूत की कहानी की भाँति यह संस्मरण उसको लगातार एक हाथ से खींचने और दूसरे हाथ से ठेलने लगा। इसी प्रकार विचित्र स्वप्नजाल में पड़ी हुई वह जब अत्यन्त अभिभूत हो रही थी, उसी समय जूते की आवाज़ सुनकर चौंककर निगाह दौड़ाते ही उसने देखा, दरवाज़े के बाहर ही डाक्टर अनंगमोहन खड़े हैं।

किरणमयी माथे के कपड़े को थोड़ा-सा खींचकर उठ खड़ी हुई। डाक्टर ने यह देखकर भौंहें तान लीं।

इसके पूर्व यह डाक्टर ठीक इसी स्थान पर अनेक बार आकर खड़े हुए हैं और उसके कर-कमलों की बनी रसोई के लोभ से अतिथि बनने का आवेदन करके कई बार हँसी-मज़ाक कर गये हैं। उसी पुरातन इतिहास की पुनरावृत्ति की कल्पना करके ही किरणमयी का चित्त तिक्त हो उठा। वह कठोर बनकर उसी की प्रतीक्षा करके खड़ी रही। लेकिन डाक्टर ने मज़ाक नहीं किया, क्रुद्ध गम्भीर मुँह से कुछ देर तक चुप रहकर कहा, “दस-बारह दिन मुझे बाहर रहना पड़ा, इसलिए हारान बाबू के लिए मैं बहुत ही चिन्तित हो गया था, लेकिन आकर देख रहा हूँ, उद्वेग का कुछ भी कारण नहीं था।”

किरणमयी ने गरदन हिलाकर कहा, “नहीं, वह अच्छी तरह ही थे।”

“अच्छी तरह रहें वही अच्छा है। अब तो मेरी कोई आवश्यकता है नहीं? क्या राय है?”

किरणमयी ने इसके उत्तर में गरदन हिलाकर कहा, “नहीं।”

डाक्टर ने कहा, “तुम लोगों को मेरी आवश्यकता न रहने पर भी मेरी आवश्यकता अभी तक समाप्त नहीं हुई। यही बात कहने के लिए मुझे इतनी दूर आना पड़ा है।”

किरणमयी ने मुँह न उठाकर ही धीरे-धीरे कहा, “अच्छी बात तो है, माँ अभी तक जाग रही हैं, उनसे कह देना ज़रूरी है – मुझसे कहना बेकार है।”

डाक्टर ने अपने मुँह को अत्यन्त गम्भीर बनाकर कहा, “मैं उनके पास से ही आ रहा हूँ, उनका भी कहना है, ज़रूरत नहीं है। ज़रूरत ख़त्म हो गयी है, यह मैं भी समझ गया हूँ, लेकिन ‘डाक्टर की बिदाई’ एक कहावत है, उसको भूल जाने से काम नहीं चलता।” किरणमयी चुप हो रही।

डाक्टर व्यंग्य करके कहने लगे, “आज पाँच-छः महीने के बाद यह भार तुम ही लोगी, अथवा तुम्हारी सास ही लेंगी, यह तुम लोगों की आपसी बात है। किन्तु ‘जाओ’ कह देने से ही तो डाक्टर नहीं चला जाता किरण।”

डाक्टर के मुँह से अपना नाम सुनकर आज वह मानो उसको तीर की भाँति बींध गया। वह इस तरह सिहर उठी कि उस क्षीण प्रकाश में भी डाक्टर ने उसे देख लिया।

किरणमयी ने मधुर कण्ठ से पूछा, “क्या चाहते हैं आप, रुपया?”

डाक्टर ने हँसी का बहाना दिखाकर कहा, ‘आप’ क्यों कहती हो? यहाँ और कोई उपस्थित नहीं है, ‘तुम’ कहने में भी दोष नहीं होगा। लेकिन इतने दिनों तक मैं क्या माँगता रहा हूँ, सुनूँ? क्या वह रुपया था?”

पुनः किरणमयी का समूचा शरीर कण्टकित हो उठा।

डाक्टर बोले, “रुपया नहीं चाहता यह बात कहना बहुत कठिन है। अब तुमको जबकि उसका अभाव नहीं है, तब रुपया देकर ही विदा कर दो। मैं दोनों ही ओर से ठगे जाने को राजी नहीं हूँ। लेकिन तुमको इतने दिनों में मेरे मन की बात ज्ञात हो गयी है, इसके लिए मैं तुमको धन्यवाद देता हूँं। आज अब मैं ज़्यादा तंग न करूँगा। क्या मैं कल एक बार आ सकता हूँ?”

यह मनुष्य भीतर ही भीतर किस तरह जल रहा था और यह सब उसका ही फेंका उत्तप्त भस्मावशेष है, इसे निश्चित समझकर भी किरणमयी ने शान्त दृढ़ स्वर में मुँह ऊपर उठाकर कहा, “नहीं। आप ठहरिये, मैं इसी समय ला देती हूँ।” कहकर पास का दरवाज़ा खोलकर वह शीघ्रता से चली गयी।

इस बार डाक्टर शंकित हो उठे। किरण को वे पहचानते थे। कहाँ क्या लेने के लिए गयी है, हठात् इतनी रात को कैसा एक असम्भव काण्ड कर कहाँ का हंगामा कहाँ खींच लायेगी! वह चोट खाकर गयी है, लौटकर निर्दय प्रतिघात अवश्य करेगी। उसके सुनिश्चित प्रतिशोध की कठोरता की कल्पना कर अनंगमोहन आशंका से स्तम्भित हो रहे।

किरणमयी को लौट आने में विलम्ब नहीं हुआ। उसने चुपचाप मुँह झुकाये आँचल में बँधे हुए कुछ आभूषण डाक्टर के पैरों के निकट बिखेरकर धीरे-धीरे कहा, “यह ले लीजिये, आपका पावना कितना है, उसका हिसाब इतने दिनों के बाद करना व्यर्थ है। इतना समय भी मेरे पास नहीं है, धीरज भी न रहेगा – जो कुछ मेरे पास था, सब ही आपको लाकर मैंने दे दिया है, इसी को लेकर हमें छुटकारा दीजिये – आप जाइये।”

अनंग चुप हो रहे। किरण ने कहा, “देर कर रहे हैं किसलिए? विश्वास कीजिये, मेरे पास और कुछ भी नहीं है। जो कुछ था, सब लाकर मैंने दे दिया है – रात हो रही है, आप विदा होकर जाइये।”

अनंग भयग्रस्त होकर बोले, “मैंने तो तुम्हारे शरीर के गहने माँगे नहीं – केवल रुपया माँगा था। वह भी…”

किरण अत्यन्त उग्र भाव से बोली, “गहने भी रुपये हैं, यह बात समझने की उमर आपकी हो गयी हैं। व्यर्थ ही बहाना करके क्यों झूठमूठ देर कर रहे हैं!”

इस बार अनंग ज़ोर से सिर हिलाकर बोल उठे, “नहीं, मैं किसी तरह भी यह सब न ले सकूँगा।”

किरणमयी निकट ही बैठ गयी थी, विद्युत वेग से उठ खड़ी हुई और बोली, “क्या? क्यों न ले सकेंगे? आप दया कर रहे हैं किस पर? आपको जो कुछ मैंने दिया, उसे किसी तरह भी मैं वापस न ले सकूँगी, यह बात मैं निश्चित रूप से कहे देती हूँ।” एक क्षण मौन रहकर उसने कहा, “आप यदि न भी लेंगे तो कल यह सब ही ग़रीबों में बाँट दूँगी, लेकिन घर में रखकर किसी तरह भी पति का अकल्याण न करूँगी।” यह कहकर पैरों से उन सब को ज़रा ठेलकर उसने कहा, “लीजिये, उठाइये इन सबको।” अन्तिम बात इतनी कड़ी सुनायी पड़ी कि हतबुद्धि अनंगमोहन झुककर उन सबको बटोरने लगा।

किरणमयी क्षणभर उस ओर ताकती रही, फिर अपनी उग्रता को सम्भालकर घृणा के साथ उसने कहा, “ले जाये, ये सब चिद्द इस मकान में जब तक रहेंगे, तब तक मेरे मुँह में अन्न न रुचेगा, न आँखों में नींद आयेगी।”

डाक्टर सबको समेटकर उठ खड़ा हुआ। किरणमयी ने अधीर भाव से कहा, “रात तो बहुत हो गयी!”

डाक्टर ने कहा, “जा रहा हूँ। लेकिन तुमने भी भूल की। ये गहने मैंने तो दिये नहीं, सब ही तुम्हारे अपने हैं। तो भी, क्यों मेरे न लेने से तुम ग़रीब-दुखियों में बाँट दोगी, यह मैं समझ न सका। मुझे तुम क्षमा करो किरण।”

किरण धमकाकर बोली, “फिर मेरा नाम लेते हैं! हाँ, वे सब मेरी ही वस्तुएँ हैं अवश्य, लेकिन उन सबके मोह से ही मैंने आपसे सहायता ली थी। रात बहुत हो गयी है। डाक्टर साहब।”

डाक्टर ने अपने नाम का छपा कार्ड निकालकर कहा, “मेरे मकान का यह पता…।”

“दीजिये!” कहकर किरणमयी ने हाथ बढ़ाकर ले लिया, और पीछे की ओर जाकर जलते हुए चूल्हे में उसे फेंककर कहा, “इससे अधिक मुझे ज़रूरत न पड़ेगी। आप अभी-अभी मुझसे क्षमा माँग रहे थे न? आपको पूर्णरूप से क्षमा कर सकूँगी, इसीलिए मैंने आपका सब ऋण, सब सम्बन्ध समाप्त कर डाला। किसी दिन किसी कारण से भी आपकी कोई बात मेरे मन में न आये, जाते समय केवल यही बात आप कहते जाइये।” और किसी तरह के प्रश्नोत्तर की प्रतीक्षा न करके किवाड़ बन्द करके वह अपनी रसोई की जगह पर वापस जाकर बैठ गयी।

बाहर डाक्टर के पैरों का शब्द जब उसके कानों के बाहर चला गया, तब उसने एक लम्बी साँस लेकर देखा, चूल्हा बुझ गया है। फूँककर उसे जलाकर और एक लम्बी साँस लेकर वह फिर चुपचाप बैठ गयी।

बाहर डाक्टर के पैरों का शब्द जब उसके कानों के बाहर चला गया, तब उसने एक लम्बी सास लेकर देखा, चूल्हा बुझ गया है। फूँककर उसे जलाकर और एक लम्बी साँस लेकर वह फिर चुपचाप बैठ गयी।

प्यास से गला सूख गया था, तब भी वह उठ न सकी। उसको ख़्याल होने लगा, मानो बाहर के अन्धकार में तब भी कोई एक आतंक उसके लिए हाथ बढ़ा कर प्रतीक्षा कर रहा है। छाती के अन्दर ऐसा ही कुछ अशान्त हो उठा कि दोनों बाहुओं से ज़ोर लगाकर उसने उसे दबा रखा। बिदाई के इस कार्य को एक दिन उसको पूरा करना ही पड़ेगा, यह बात वह निश्चित रूप से जानती थी। कारण एक आकाश बेल उसके सर्वांग को घेरता जा रहा था, यह बात जितनी याद करती, उतना ही उसका मन विषाक्त होता जा रहा था, फिर भी इस वीभत्स बन्धन से छुटकारा पाने का साहस अपने आप में जुटा नहीं पा रही थी। ऐसे ही दिन गुज़र रहे थे, अनुक्षण सहती रही, पर कुछ कह नहीं सकी। इतना बड़ा कठिन कार्य आज सहज ही सम्पन्न हो गया। यही बात आज अपने अन्तर में अनुभव कर रही थी। प्रयोजन आ पड़ने से उसने जिस पाप को अपने घर में बुलाकर पाल-पोसकर बड़ा किया था वह आज ‘जाओ’ कह देने से ही चला गया, असम्भव काम कैसे हो गया। मान-भिक्षा, मान-मनौवल, रोना-धोना, अनुनय-विनय आदि असम्भव घटनाएँ तप्त शलाकों की तरह बिंधते रहे, वह सब बाकी रह गये। वह क्या एक दिन के लिए या हमेशा के लिए समाप्त हो गये?

हठात दरवाज़ा खुलने की आवाज़ से किरण ने चकित होकर मुँह ऊपर उठा कर देखा, दासी कह रही है, “चूल्हा बुझकर तो पानी हो गया बहू! रात भी कम नहीं हुई है।”

किरणमयी झटपट उठ पड़ी, उसके पास जाकर चुपके-चुपके उसने पूछा, “डाक्टर है या चला गया रे?”

हाथ के दीये को तेज़ करते-करते वह बोली, “उनको तो गये लगभग दो घण्टे हो गये। लकिन तुमको कहे देती हूँ बहूजी।” अकस्मात उसकी जीभ रुक गयी। दीये को ऊपर उठाकर आभूषणहीन बहू का सर्वांग बार-बार निरीक्षण करके फ़र्श के ऊपर दीपक को रखकर वह बैठ गयी और बोली, “यह सब कैसा काण्ड है बहू!”

अठारह

दिवाकर के बड़े दुःख की रात बीत गयी और सवेरा हो गया। कल सबेरे उसे गुप्त रूप से बी.ए. की परीक्षा में फेल होने की ख़बर मिली थी और संध्या को अपने ही विवाह के बारे में, अपने ही कमरे के सामने खड़े होकर उपेन भैया को प्रसन्नचित्त से, परम उत्साह के साथ भट्टाचार्यजी के साथ बातचीत करते सुनकर वास्तव में ही उसने निश्छल हृदय से अपनी मृत्यु-कामना की थी। सद्यः पुत्रहारा जननी जिस प्राकर दुःख से सोती है, दुःख से जागती है, उसी अभागिन की तरह वह भी दुःख से जाग उठा। आँखें खोलकर उसने देखा कि पूर्व दिशा के शीशे में प्रकाश झलमला रहा है। आज इस प्रकाश से अपना कोई सम्बन्ध है, इसे अनुभव नहीं कर सका। नित्य दिवस के इस किरण को सबेरे उठते ही अभिवादन करना चाहिए – इसका भी ज्ञान नहीं रहा। पथिकशाला के सम्पूर्ण अपरिचित अतिथि की तरह इन किरणों को उसने उदास भाव से देखते हुए बिस्तर पर पड़ा रहा। स्वच्छ काँच के बाहर असीम नीलाकाश दिखायी पड़ रहा था। एकाएक उसके मन में यह ख़्याल उठा कि इस विराट सृष्टि के किसी कोने में भी उसके लिए ज़रा भी स्थान है या नहीं। उसके बाद जितनी दूर तक दिखायी पड़ा, ध्यान से उसने देखा, नहीं, कहीं भी नहीं है। सृष्टिकर्ता ने इतना सृजन किया है ज़रूर, लेकिन ऊपर, नीचे, आसपास, जल में, थल में, सूई की नोक बराबर स्थान भी उसके लिए नहीं रखा है। उसकी माँ नहीं है, उसका बाप नहीं है, घर नहीं है, सम्भवतः जन्मभूमि भी नहीं है। वास्तव में अपना कहलाने वाला कहीं भी कोई नहीं है। यही जो अत्यन्त छोटा-सा कमरा है, शत-सहस्र बन्धनों से जिसके साथ वह जकड़ा हुआ है, होश होने के बाद से जिसने उसको मातृस्नेह की भाँति आश्रय दे रखा है, वह भी उसका अपना नहीं है – यह उसके मामा का घर है। यह आश्रय उसकी जननी का नहीं है – विमाता का है।

इस तरह दुःख की चिन्ताएँ जब क्रमशः जटिल और विस्तृत होती जा रही थीं, अकस्मात उपेन्द्र का कण्ठ-स्वर सुनकर एक ही क्षण में वह सीधे मार्ग को लौट गया। वह झटपट उठ बैठा, खिड़की खोलकर मुँह बढ़ाकर उसने देखा, उपेन्द्र नौकर को कुछ उपदेश बाहर चले गये, वे तो किसी तरफ़ न देखकर सीधे चले गये, लेकिन दिवाकर ने अपनी उन दोनों आँखों में व्यथा अनुभव करके मुँह घुमा लिया। उसको ज्ञात हुआ, मानो छोटे भैया के उन्नत ललाट पर कुछ-कुछ सूर्य-किरणें धक्का खाकर उसके नेत्रों पर आकर पछाड़ खाकर गिर पड़ीं। वह फिर एक बार शय्या का आश्रय लकर निर्जीव की भाँति आँखें बन्द करके लेट गया और दुश्चिन्ताओं ने उसी क्षण उसको फिर दबा दिया।

आज भी आदत की तरह भोर में नींद खुल गयी थी, पर पिछली रात को वह सो नहीं सका था। सारी रात दुःस्वप्न में भूत-प्रेतों के दल इस शरीर को लेकर खींचातानी कर रहे थे। उनके साँसों की बदबू अभी तक इस कमरे में मौजूद है, आँख बन्द कर लेने पर भी वह इसे अनुभव कर रहा था। फिर याद आया कि वह फेल हो गया है। इतनी मेहनत से की गयी पढ़ाई-लिखाई व्यर्थ हो गयी है। आज इस बात की जानकारी सभी को हो जायगी। इसके बाद? इसके बाद जिस प्रकार धुआँ रसोईवाले कमरे में फैल जाता है, ठीक उसी प्रकार एक निष्फलता ने छोटे द्वार से प्रवेश कर निराशा के अन्धकार से उसके मन को आच्छादित कर लिया है।

दिन के लगभग आठ बज गये हैं। दोनों हाथों की मुट्ठी बाँधकर वह उठ बैठा और बोला, “नहीं, किसी भी तरह नहीं। छोटे भैया भले ही रुष्ट हों या भाभी ही दुःख मानें, यह काम मैं किसी भी प्रकार न कर सकूँगा। जो गृहलक्ष्मी होगी वे या तो मेरे ही घर में आयेगी, या किसी दिन भी न आयेगी। रख सकूँगा तो आने पर मैं सम्मान के साथ रखूँगा, न रखूँगा तो कम से कम असम्मान के बीच में खींचकर न लाऊँगा। इस संकल्प से कोई भी मुझे विचलित न कर सकेगा।”

दिवाकर ने धीरे पद से अन्तःपुर में प्रवेश करके पुकारा, “भाभी!”

अन्दर से मृदु कण्ठ की आवाज़ आयी, “आओ!”

दिवाकर ने प्रवेश करके देखा, आलमारी खोलकर उसका सामान निकालकर सुरबाला मुँह झुकाये सन्दूक में सजा रही है। उसने पूछा, “छोटे भैया कहीं बाहर गाँव में जायेंगे?”

सुरबाला ने उसी दशा में कहा, “नहीं, कलकत्ता जायेंगे।”

इसके बाद फिर दिवाकर के मुँह से कोई बात न निकली। अपने कमरे से जो शक्ति उसको ठेलकर ले आयी थी, आवश्यकात के समय वह शक्ति लुप्त हो गयी।वह मौन होकर सोचने लगा, किस तरह आरम्भ किया जाये।

ऐसे ही समय में जूते की आवाज़ सुनायी पड़ी और दूसरे ही क्षण उपेन्द्र परदा हटाकर कमरे में चले आये। दिवाकर अत्यन्त संकुचित होकर भाग जाने की तैयारी कर रहा था कि, उपेन्द्र “खड़ा रह” कहकर आराम से खटिया पर बैठ गये और कुरता उतारते-उतारते उन्होंने पूछा, “तू फेल हो गया कैसे? रोज रात को एक बजे तक जाग-जागकर इतने दिन तू क्या कर रहा था?”

इस बात का और उत्तर ही क्या था? दिवाकर मुँह झुकाये खड़ा रहा।

उपेन्द्र कहने लगे, “इस घर में रहने से तेरा कुछ भी न होगा, देखता हूँ। जा, कलकत्ता जाकर पढ़, तभी तू आदमी बन सकेगा।”

उसके बाद हँसकर बोले, “भाभी जी के पास तू क्या दरबार करने के लिए आया था? ब्याह न करेगा, यही तो?”

बात सुनकर दिवाकर बच गया। उसका समस्त दुःख मानो धुल-पुछ गया, उसने एकाएक मुस्कराकर मुँह ऊपर उठाकर देखा।

उपेन्द्र हँस पड़े। यद्यपि उस हँसी का मर्म किसी ने नहीं समझा। उसके बाद वह बोले, “अच्छा, अब तू जाकर मन लगाकर पढ़, अगले अगहन तक तेरी छुटी है, उसमें अभी बहुत देर है।” पत्नी की ओर देखकर बोले, “सतीश ने तार भेजा है, हारान भैया की हालत बहुत ख़राब है – मैं रात की गाड़ी तक प्रतीक्षा न कर सकूँगा, इसी ग्यारह बजे की गाड़ी से जाऊँगा। ज़रा थरमामीटर मुझे दो तो देखूँ। ज्वर छूट गया या नहीं – यह क्या, इतना बड़ा ट्रंक क्या होगा? एक छोटी पेटी दो न।”

सुरबाला कपड़े तहियाकर सन्दूक़ में भर रही थी। काम करते-करते मृदु स्वर से बोली, “छोटी पेटी में दो आदमियों के कपड़े न अंटेंगे। मैं भी साथ चलूँगी।”

उपेन्द्र ने अवाक होकर कहा, “तुम जाओगी! पागल हो क्या?”

सुरबाला ने मुँह ऊपर न उठाकर ही कहा, “नहीं।” फिर दिवाकर को लक्ष्य करके कहा, “बबुआजी, ज़रा जल्दी ही स्नान करके खा लो, तुमको मेरे साथ चलना पड़ेगा।”

दिवाकर ज्योंही आश्चर्य के साथ उपेन्द्र के मँुह की तरफ़ देखने लगा, त्यों ही वे हँस पड़े, बोले, “तू भी पागल हो गया? हारान भैया सख़्त बीमार हैं, शायद दिन पूरे हो चुके हैं। मैं जा रहा हूँ उनकी अन्त्येष्टि क्रिया करने, तुम लोग इसके बीच जाओगे कहाँ? जा, तू अपने काम पर जा।”

सुरबाला न इस बार मुँह ऊपर उठाया। दिवाकर की ओर देखकर शान्त लेकिन दृढ़ स्वर से बोली, “मैं आदेश देती हूँ बबुआजी, तुम जाकर तैयार हो जाओ। तुम्हारे छोटे भैया तीन दिन से ज्वर में पड़े रहे, आज भी ज्वर छूटा नहीं है। इसीलिए मैं साथ जाऊँगी, तुमको भी चलना पड़ेगा। जाओ, देर मत करो।”

उपेन्द्र मन ही मन आश्चर्य में पड़ गये। इसके पहले किसी दिन उन्होंने सुरबाला का इस तरह कण्ठस्वर नहीं सुना था। वह स्वच्छन्द भाव से किसी पुरुष को ऐसे छोटे लड़के की तरह आज्ञा दे सकती है, यह अपने ही कानों से न सुनने पर शायद वह विश्वास ही न कर सकते थे। तिरस्कार के स्वर में बोले, “मैं जा रहा हूँ विपत्ति के बीच। तुम लोग क्यों साथ जाकर मेरी उस विपत्ति को बढ़ाना चाहते हो? तुम्हारा जाना नहीं होगा।” उनकी अन्तिम बात कुछ कड़ी सुनायी पड़ी।

सुरबाला उठ खड़ी हुई, पति के मुँह की तरफ़ देखकर पूर्ववत् दृढ़ कण्ठ से बोली, “तुम सबके सामने सभी बातों में मुझे क्यों डाँटते हो? तुम बीमारी ही हालत में बाहर जाओगे तो मैं साथ चलूँगी ही। नौ बज रहे हैं, तुम खड़े मत रहो बबुआजी, जाओ।”

दिवाकर के सामने अपनी रूढ़ता से उपेन ने अत्यन्त लज्जित होकर कहा, “डाटूँगा क्यों तुमको, मैं कुछ डाँट नहीं रहा हूँ। लेकिन बाबूजी सुनेंगे तो क्या सोचेंगे बताओ तो? जा दिवाकर, खा ले।”

सुरबाला ने कहा, “बाबूजी ने मुझे जाने को कहा है।”

“इसके बीच तुम उनके पास भी गयी थीं?”

“हाँ। जाऊँ, तुम्हारा दूध ले आऊँ।” यह कहकर सुरबाला कमरा छोड़कर चली गयी, उपेन्द्र ने अरगनी को ताककर चादर उसी पर फेंक दी और चित होकर लेट रहे। सुरबाला साथ जायेगी ही, पति के बीमार शरीर को किसी तरह भी अपनी दृष्टि के बाहर न छोड़ेगी इसमें किसी को सन्देह नहीं रहा। दिवाकर तैयार होने के लिए धीरे-धीरे बाहर चला गया। उपेन्द्र सोचने लगे – जिद करके सुरबाला ने यह जो एक नयी समस्या उत्पन्न कर दी, इसका कौनसा समाधान कलकत्ता पहुँचकर किया जायेगा। कहाँ चलकर ठहरा जायेगा! हारान भैया के यहाँ तो असम्भव है क्योंकि, वहाँ स्थानाभाव है, यही बात नहीं है, वहाँ किरणमयी का पति मर रहा है और उसकी ही आँखों के सामने सुरबाला अपने पति की बीमारी के प्रति रत्तीभर भी उपेक्षा न करेगी। शोभन-अशोभन कुछ भी न मानेगी। पति के स्वास्थ्य पर प्रतिक्षण पहरा देती हुई घूमती रहेगी। इस बात का ख़्याल आते ही उनको लज्जा मालूम हुई। ज्योतिष के घर पर जाना भी उसी तरह की बात है। सुरबाला कट्टर हिन्दू है, इसी उम्र में विधिपूर्वक जप-तप इसने आरम्भ कर दिया है, उस घर से तनिक-सा भी अहिन्दू आचार आँखों से देखने से शायद पानी-पीना भी छोड़ देगी। इसके सिवा जहाँ सरोजिनी प्रायः इसकी समवयस्का है, उसके ही घर में ठहरकर उसी को बार-बार यह मत छूना, वह मत छूना करते रहना न तो सुख की बात होगी और न उचित ही। बाकी रहा सतीश। उपेन्द्र ने सुना था, अपने नये डेरे में वह अकेला रहता है। स्थान भी यथेष्ट है। विशेषतः वह भी जप-तप के इस दल के अन्तर्गत है। सतीश और दिवाकर – आचार-परायण इन दोनों देवरों के साथ सुरबाला अच्छी तरह ही रहेगी।

उपेन्द्र ने तुरन्त सतीश को तार दिया कि हम आ रहे हैं।

ख़बर मिलने पर सतीश स्टेशन की ओर रवाना हो गया।

भगवान ने सचमुच ही सतीश को तन-मन से खूब ही बलिष्ठ बनाया था। इसलिए उस दिन मुमुर्षु हारान के अभागे परिवार का भारी बोझ सिर पर लेकर जैसे वह ढो रहा था, सावित्री विपिन के इतिहास को भी उसी प्रकार बर्दाश्त कर लिया था।

इस इतिहास को जानता था केवल बिहारी और उसके परम पूज्यवाद रसोइया महाराज। बिहारी का ख़्याल था, कि वह सावित्री को अत्यन्त घृणा करता है। इसीलिये कल दोपहर को भी महाराज का प्रसाद पाकर छोटी-सी चिलम को उलटकर लम्बी साँस लेकर उसने कहा, “छिः! छिः! देवताजी, इस स्त्री ने यह क्या कर डाला! मेरे बाबू को उसने पहचाना नहीं, इसलिए सोना फेंककर आँचल में मिट्टी बाँध ली। अन्त में सुनता हूँ विपिन बाबू के साथ चली गयी।”

चक्रवर्ती ने सिर हिलाकर उत्तर दिया, “बिहारी, निमाई-सन्यास में लिखा है – “मुनीनांच मतिभ्रम” नहीं तो सावित्री की तरह की स्त्री ऐसी बेवकू़फ़ी क्यों करती? लेकिन यही बात मैं तुमको कहे देता हूँ, उसको पछताना पड़ेगा ही। वह स्त्री देखने-सुनने में भी कोई बुरी नहीं थी, मेरे साथ बैठकर, खड़ी रहकर, सुनते-सुनते, वह बाबू भैया लोगों के साथ दो-चार बातें करना भी सीख गयी थी, युवावस्था में सतीश बाबू की निगाह में भी पड़ गयी थी। टिकी रह सकती तो अन्त में अच्छा ही होता लकिन मेरा एक भी परामर्श तो उसने माना नहीं। अरे भाई, घोड़ा हटाकर घास खाने से कहीं काम चलता है? दुनिया भर के लोग ही आफत में पड़कर दौड़ते हुए आकर इन्हीं चक्रवर्ती जी के पैर पकड़ लेते हैं, ऐसा क्यों? अभी उसी दिन सदी का माँ…..।”

सदी की माँ की भलाई-बुराई के लिए बिहारी को कौतुहल नहीं था। वह बातचीत के बीच में ही बोल उठा, “लेकिन कुछ भी कहो, देवता बाबू यदि किसी को कहा जाय तो मेरे मालिक को ही। बड़े लोगों को कलकत्ता में मैंने बहुत देखा है, लेकिन ऐसा युवक, ऐसी चौड़ी छाती वाला तो मैंने किसी को नहीं देखा है, जैसे हाथी के दाँत मरद की बात। वही जो मैंने उस दिन कह दिया था, बाबू अब नहीं, बस रहने दें। उसी दिन से घृणा से एक दिन भी उन्होंने उसका नाम तक मुँह से नहीं निकाला, फिर भी कितना अधिक उसे प्यार करते थे – समझे महाराज जी?”

चक्रवर्ती ने सिर हिलाकर उत्तर दिया, “यह बात तो आरम्भ में ही मैंने कह दी थी। इसी से तो खून-खराबियाँ, जेल-फाँसियाँ होती हैं। एक बार आँखें लड़ जाने से फिर क्या बच सकती है बिहारी!”

बिहारी सिहर उठा। पीले चेहरे से भयाग्रस्त होकर बोला, “नहीं-नहीं, महाराजजी, मेरे बाबू ऐसे स्वभाव के मनुष्य नहीं हैं। किन्तु कहाँ पर वह इस समय हैं क्या तुम जनते हो? इसके बीच कहीं घाट-बाट में…।”

चक्रवर्ती ठठाकर हँस पड़े। बोले, “मूर्ख कहते हैं किसको? वह क्या विपिन बाबू के यहाँ दासीवृत्ति करने गयी है, बिहारी को राह में घाट में भेंट हो जायेगी? उसने स्वयं ही इस समय कितने ही नौकर-नौकरानियों को रख लिया होगा, जाकर देख ले।”

बिहारी निरुद्विग्न हो गया। मुस्कराकर सिर हिलाते हुए बोला, “यही बात है। इसीलिए तो मैंने सोचा, चलूँ तो एक बार महाराज जी के पास। देखूँ वे क्या कहते हैं! यही कहो देवता, आशीर्वाद दो, वह राज़रानी हो जाये, गाड़ी पालकी पर चढ़कर घूमे, दोनों की भेंट फिर आमने-सामने न होने पाये।” यह कहकर वह आनन्दमन से चक्रवर्ती की पदधूलि माथे पर चढ़ाकर बाहर चला गया।

इस बार कलकत्ता आने के बाद सतीश डेरे से निकलकर जबतक घर वापस नहीं आ जाता था तब तक बिहारी को इस बात का बराबर भय बना रहता था कि कहीं दोनों का सामना न हो जाय। सतीश बहुत ही क्रोधी, कड़े स्वभाव का है, यह ख़बर वह मकान के पुराने नौकर-नौकरानियों के मुँह से सुनता आ रहा था, और सावित्री ने जितना बड़ा निन्दनीय कार्य किया है, उससे खून-खराबी, मारपीट तक की भी नौबत आ सकती है यह बात भी उसे इतनी उम्र में अविदित नहीं थी। केवल यही सम्भावना किसी दिन उसके दिमाग़ में घुसती नहीं थी कि सावित्री किसी दिन दास-दासियों को लेकर मोटर आदि सवारियों पर घूमने-फिरने निकल सकती है। आज चक्रवर्ती के मुँह से आश्वासन पाकर वह निर्भय हो गया। सावित्री पर उसे बड़ा क्रोध हो आया। वह शान्तिपूर्वक रास्ता चलते-चलते प्रतिक्षण आशा करने लगा कि शायद किसी बड़ी-सी बग्घी पर रानी के वेश में वह सावित्री को देख लेगा। सावित्री को बिहारी सचमुच ही प्यार करता था। उसका कैसे, किस मार्ग से रानी बनना सम्भव होगा, यह सब वह नहीं सोचता था। हमेशा उसे श्रद्धा की दृष्टि से देखता आया है। वह दुखिया है, वह हम जैसे लोगों के साथ एक आसन पर खड़े होकर दासीवृत्ति करने में संकोच नहीं करती थी, लज्जित नहीं होती थी, तथापि उसी दिन से हृदय में बड़ा दुःख, बड़ी यातना पाकर बिहारी उसके ऊपर रुष्ट हो गया था। लेकिन आज ज्योंही उसने सुना, सावित्री उसके मालिक के रास्ते का कण्टक नहीं है, सुख में विघ्न नहीं है, वह पूरे हृदय से आशीर्वाद देने लगा – सावित्री सुखी हो, निर्विघ्न हो, राजेश्वरी बने!

उन्नीस

हारान के जीवन-मरण की लड़ाई ने क्रमशः मानो एक करुण तमाशे का रूप धारण कर लिया था। भूखे साँप की भाँति मृत्यु उसको जितने ही अविच्छिन्न आकर्षण से अपने जठर में खींच रही थी, मेढ़क की भाँति उतना ही वह अपने पैरों से उसके जबड़े को रोककर किसी एक अद्भुत कौशल से दिन पर दिन मृत्यु से बचता चला जा रहा था। वस्तुतः अशेष दुःखपूर्ण उसका प्राण किसी तरह भी समाप्त न होगा, ऐसा ही ज्ञात हो रहा था।

इस विपत्त्ति में सतीश सहायता करने आया था। किरणमयी की पति-सेवा देखकर वह आश्चर्य से हतबुद्धि हो गया। स्त्रियों के लिए पति से बढ़कर कोई नहीं है, यह भी वह जानता था, किन्तु कुछ भी कारण क्यों न हो, सब कुछ जान बूझकर इतना बड़ा निरर्थक परिश्रम कोई मनुष्य इस तरह प्राणों की बाजी लगाकर कर सकता है, इसकी तो वह कल्पना भी न कर सकता था।

यह कैसी आश्चर्यजनक सेवा है! प्रतिदिन सारी रात एक ही दिशा में बिछौने के पास बैठकर जागते रहना, सारा दिन अक्लान्त परिश्रम करते रहना फिर भी मुख पर थकावट या विषाद का चिद्द तक नहीं! मुख देखकर समझा नहीं जा सकता कि उसके माथे पर कितनी बड़ी विपत्ति लटक रही है।

सतीश अपनी इस भाभी को सचमुच ही बड़ी बहिन की तरह प्यार करने लगा था। उसकी इस अत्यन्त उद्वेग रहित पति-सेवा को देखकर अत्यन्त व्यथा के साथ केवल यही सोचता था कि जिस कारण से ही हो, भाभी को यह आशा है कि उनके पति बच जायेंगे। अतः अन्त तक उनके मन को वेदना कैसी चोट पहुँचायेगी इसी की कल्पना करके वह व्याकुल हो उठता था। और किस उपाय से इस अप्रिय सत्य की जानकारी करा दी जाय, यही उसके लिए प्रतिक्षण की चिन्ता का कारण हो उठा था।

एक दिन था, जब अपने विषय में सतीश को भारी विश्वास था कि वह बुद्धिमान है। मानव-चरित्र समझने में यह विशेष पारंगत है। लेकिन सावित्री से चोट खाने के बाद से उसका यह दर्प टूट गया था। सावित्री उसको छोड़कर विपिन के पास चली गयी, संसार में यह भी जब सम्भव हो सका, तभी उसको पता चल गया कि वह मानव-चरित्र कुछ भी नहीं समझता। मनुष्य के मन के भीतर क्या है, क्या नहीं इसके बारे में जिसको जैसी रुचि हो उसकी आलोचना करता हुआ घूमता रहे, लेकिन अब वह कम से कम नहीं करेगा। इस विषय की याद आने पर उसकी लज्जा और उसके अनुताप का अन्त नहीं रहता कि अपनी इस बुद्धि के गर्व से ही उसने इस भाभी के विषय में बहुत-सी बातें सोची थीं, और उपेन भैया को सिखाने गया था।

आज सबेरे सतीश ने उस घर में उपस्थित होकर देखा, किरणमयी वैसे ही प्रसन्न चेहरे से अकेली गृहकार्य कर रही है। दो-तीन दिनों से सासजी फिर बीमार पड़ गयी हैं। पिछली रात ज्वर कुछ बढ़ जाने से अभी तक बिछौने से उठी नहीं हैं। किरणमयी का मुख देखकर किसी बात का अनुमान करना कठिन था। इसी से प्रतिदिन सतीश को सभी बातें पूछकर ही जान लेनी पड़ती थीं। आज प्रश्न करते ही उसने काम छोड़कर मुँह ऊपर उठाकर क्षणभर देखकर कहा, “बबुआजी, अब देर करने की ज़रूरत नहीं है। अपने भैया को एक बार आ जाने के लिए लिख दो।”

सतीश ने डरकर पूछा, “क्यों भाभी?”

किरणमयी के मुखमण्डल पर से मानो शरत के बादल का टुकड़ा उड़ गया। एक लम्बी साँस लेकर वह बोली, “इस बार शायद यंत्रणा का अन्त हो गया है – तुम एक तार भेज दो।”

सतीश क्षणभर चुपचाप देखते रहकर बोला, “मैं जानता था भाभी। लेकिन यह सोचकर कि कहीं तुम डर न जाओ, मैंने कहने का साहस नहीं किया।”

किरणमयी ने सहज भाव से कहा, “डरने की बात ही है। उनकी साँस का लक्षण परसों मुझे मालूम हो गया, कल रात को कुछ और बढ़ गयी है। यह घटेगी नहीं इसीलिए एक बार उनको आ जाने को कहती हूँ।”

सतीश यह ख़बर जानता नहीं था। चौंककर बोला, “इसका तो मुझे पता चला ही नहीं। तुमने भी बताया नहीं।”

किरणमयी ने कहा, “नहीं, इतना धीरे-धीरे बढ़ती गयी है कि दूसरों को पता लगने की बात ही नहीं। लेकिन आज विशेष भय नहीं है। फिर विपत्ति के ऊपर विपत्ति, कल से माँ की बीमारी ने भी टेढ़ा-मेढ़ा मार्ग पकड़ लिया है। अभी-अभी मैंने देखा, खूब ज्वर है, बीच-बीच में अनाप-शनाप भी बक रही है।” यह कहकर वह ज़रा हँस पड़ी, लेकिन यह हँसी देखने से रुलाई आती है।

सतीश की आँखों में आँसू आ गये। उसने सजल कण्ठ से धीरे-धीरे कहा, “उपेन भैया आ जायें।”

किरणमयी ने कहा, “और एक ख़बर सुनोगे बबुआजी?”

सतीश मौन रहकर ताकता रहा। किरणमयी बोलीं, “चौथे दिन तीसरे पहर को एक वकील की मुझे चिट्ठी मिली, उससे मालूम हुआ दो साल पहले उन्होंने एक मित्र को अपनी जमानत पर तीन हजार रूपये क़र्ज में दिलाये थे। मित्र व्यवसाय में फेल होकर प्रायः चार हजार रुपये इनके सिर पर चढ़ाकर, विष खाकर मर गये हैं। वह रुपया इस टूटे-फूटे मकान की ईंट लकड़ी बेचकर चुकाया जा सकेगा या नहीं, इस ख़बर को वकील साहब ने अवश्य जान लेना चाहा है।” यह कहकर वह उसी तरह हँस पड़ी।

सतीश मुँह को नीचे झुकाकर भूमि की ओर निहारता रहा। उसने आँखें ऊपर उठाकर देखने का साहस नहीं किया, प्रश्न का उत्तर देने का भी प्रयास नहीं किया।

सतीश उपेन्द्र के पास तार भेजकर जब लौट आया, तब दिन के दस बजे थे। धीरे-धीरे वह रसोईघर में जा पहुँचा। किरणमयी सास के लिए साबूदाना बना रही थी, मुँह ऊपर उठाकर बोली, “बैठो बबुआजी!” उसका स्वर ज़रा भारी था। सतीश ने ध्यान के साथ देखा आँखों में आँसू तो नहीं थे, लेकिन दोनों पलकें भींगी थीं। वह पास ही फ़र्श पर बैठ गया। आज किरणमयी ने आसन देने की बात भी नहीं उठायी। वह कहाँ बैठ गया, उसने क्या किया, शायद उसने देखा ही नहीं। किसी साधारण बात में भी ज़रा-सी उसकी त्रुटि सतीश ने अब तक देखी नहीं थी। इतने दिनों से उसका आना-जाना चल रहा है, इतना मेलजोल बढ़ गया है, पर एक दिन के लिए भी उसको भाभी के सहज-सरल व्यवहार में सौजन्य का, घनिष्ठता का, थोड़ा-सा भी अभाव, बिन्दु मात्र भी ढूँढ़ने पर नहीं मिला था। इसीलिए आज इतनी थोड़ी-सी ही अवहेलना ने मानो उसकी आँखों में उँगली डालकर उसको दिखा दिया। किसी भारी बोझ से भाभी का समूचा मन आच्छन्न हो गया है!

बड़ी देर तक दोनों ही चुप रहे। एकाएक किरणमयी अपने आप ही तीव्र व्यंग्य करके हँस पड़ी। शायद इतनी देर तक वह इसी चिन्ता में ही मग्न थी, बोली, “अच्छा बताओ तो बबुआजी, यमराज के साथ वह यह सब देना-पावना का झमेला मिट जाने के बाद, मेरे लिए नौकरी करना उचित होगा या भीख माँगना?”

यह बात सतीश समझ गया। बोला, “उपेन भैया से पूछो, वही उत्तर देंगे।”

किरणमयी ने कहा, “पूछे बिना ही समझ रही हूँ। हो सकता है कि कृपा करके वह मुझे दो कौर खाने को देंगे, लेकिन दूसरे पर निर्भर रहना ही तो भीख माँगना हुआ बबूआजी।”

सतीश शायद एकाएक इसका प्रतिवाद करने चला, लेकिन बात ढूँढ़ने पर नहीं मिली, मुँह पर नहीं आयी तो चुप रहकर ताकने लगा।

किरणमयी ने उसके मन का भाव समझकर ज़रा हँसकर कहा, “मुँह खोलकर साफ़ कह देने से ही बात ज़रा कड़ी हो जाती है, यह मैं जानती हूँ बबुआजी, लेकिन यह बात तो सत्य है।” थोड़ी देर तक रुकी रहकर बोली, “यह ख़्याल मत करना कि तुम्हारे भैया को मैं पहचानती नहीं। मैं समझ गयी हूँ, अनाथ को देना वह जानते हैं। लेकिन केवल देना ही तो नहीं है, लेना भी तो है। देकर कभी मैंने देखा नहीं है, लेकिन सारा जीवन दूसरे का मन प्रसन्न रखकर निभा सकना भी कम कठिन नहीं है, यह मैं समझ चुकी हूँ।”

सतीश को इस बार भी ढूँढ़ने पर उत्तर नहीं मिला। किरणमयी का झक मानो बढ़ गया था, प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा बिना किये बोली, “इस दुनिया के साथ कारोबार अधिक दिनों का नहीं है, देना-पावना चुका लेने में अभी बहुत बाकी है। इस दीर्घ जीवन के हिसाब-किताब में दोष-त्रुटि, भूल-भ्रान्ति रह भी सकती है। तब वह भी क्या कहकर देंगे और मैं भी किस मुँह से हाथ फैलाऊँगी। उस समय मुझे फिर अपनी ही राह पर आप ही चलना पड़ेगा।”

इतनी देर तक सतीश श्रद्धा के साथ, व्यथा के साथ उसकी भावी आशंका की बातों को सुन रहा था, लेकिन अन्तिम बात से मानो ठोकर खाकर चौंक उठा। उसने कहा, “यह कैसी बात है भाभी? दोष-त्रुटि तो होती ही है, सभी से होती है, पर तुमसे भूल-भ्रान्ति होगी क्यों?”

किरणमयी सतीश का उत्कण्ठित आश्चर्य देखकर हँस पड़ी। एक क्षण में अपने व्यग्र सन्तप्त कण्ठ-स्वर को कोमल बनाकर उसने कहा, “कौन जाने बबुआजी, मैं भी तो मनुष्य ही हूँ।”

सतीश अपनी भूल समझ गया। क्षणभर की उत्तेजना से उसका मन कुत्सित अर्थ ग्रहण करने चला गया था। उसी लज्जा से सिर झुकाकर बोला, “मुझे क्षमा करो भाभी, मैं जैसा नासमझ हूँ, वैसा ही अपवित्र भी।”

किरणमयी ने जवाब नहीं दिया, केवल ज़रा-सा हँस पड़ी।

अकस्मात सतीश का अनुतप्त अपराधी मन उत्तेजित हो उठा, वह ज़ोर लगा कर बोल उठा, “किन्तु केवल उपेन भैया की ही बात होगी क्यों? क्या वे ही सब कुछ हैं, मैं कोई नहीं? तुमको उनका आश्रय लेने न दूँगा।”

किरणमयी ने हँसकर कहा, “वह तो एक ही बात है बबुआजी, तुम और तुम्हारे भैया तो पराये नहीं हो। तुम्हारे आश्रय में रहकर भी तो तुम्हारे मन को प्रसन्न रखकर तुमसे भीख लेनी पड़ेगी।”

सतीश बोला, “नहीं, नहीं पड़ेगी, इसका कारण यह है कि मैं हूँ तुम्हारा छोटा भाई, किन्तु उपेन तुम्हारे पति के मित्र हैं। आवश्यकता पड़ेगी तो अपनी बहिन का भार मैं लूँगा।”

“लेकिन यदि तुम्हारा मन प्रसन्न रखकर न चल सकूँ?”

“मैं भी तुम्हारा मन प्रसन्न रखकर न चलूँगा।”

किरणमयी ने प्रश्न किया, “यदि मैं कोई अपराध करूँ?”

सतीश ने उत्तर दिया, “तब तो भाई-बहिन में झगड़ा होगा।” किरणमयी ने फिर प्रश्न किया, “जीवन में यदि भूल-भ्रान्ति हो जाये तो उसे क्या मेरा यह छोटा भाई क्षमा कर सकेगा?”

सतीश मुँह ऊपर उठाकर क्षणभर ताकता रहा फिर सहसा अत्यन्त व्यथित स्वर से बोला, “इस भूल-भ्रान्ति के अर्थ मैं समझ नहीं सकता भाभी। छोटे भाई को अर्थ समझाकर कहना आवश्यक समझो तो बताओ, आवश्यक न समझो तो मत बताओ; लेकिन तुम्हारा अर्थ जो भी हो, जो अपराध मन में लाया भी नहीं जाता, वह भी यदि सम्भव हो जाये तो भी मैं भूल न सकूँगा बहिन, कि मैं तुम्हारा छोटा भाई हूँ।”

उसे सावित्री की बात याद आ गयी। उसने कहा, “भाभी, आज अपने इस छोटे भाई के अहंकार को क्षमा करो, लेकिन जिस अपराध को जीवन में क्षमा कर सका हूँ, उस अपराध को क्षमा करने में स्वयं भगवान की छाती में भी आघात पहुँचता।”

यह कहकर उसने देखा, किरणमयी की दोनों आँखों से आँसू लुढ़ककर गिर रहे हैं। सतीश अच्छी तरह बैठ गया। फिर भरे स्वर से बोला, “आज मुझे अच्छी तरह तुम एक बार देखो तो बहिन, जिस सतीश ने अपनी दुर्बुद्धि से तुमको भाभी कहकर व्यंग्य किया था, वह तुम्हारा भाई नहीं था। कहते-कहते उसका समूचा मुख मण्डल प्रदीप्त हो उठा। उसने प्रबल वेग से सिर हिलाकर कहा, “नहीं, नहीं, वह मैं नहीं था! वह कभी तुमको पहचान नहीं सका, उसने कभी तुम्हारी पूजा करना नहीं सीखा, इसीलिए उसने जगन्नाथ को काठ का पुतला कहकर उपहास किया था। अपने महापाप का बोझ लेकर वह डूब गया है भाभी, वह अब नहीं है।” यह कहकर वह गरदन झुकाकर अपने हृदय के अन्दर टटोलकर देखने लगा।

किरणमयी अनिमेष दृष्टि से उसकी ओर देखती रही। उसके बाद धीरे-धीरे अति मृदु स्वर से उसने प्रश्न किया, “किस प्रकार मुझे तुम पहचान गये भाई?”

सतीश ने गरदन झुकाये कहा, “वह बात गुरुजनों के सामने कहने योग्य नहीं भाभी!”

“कहने योग्य नहीं हैं? यह कैसी बात!” अकस्मात सन्देह से, भय से किरणमयी का मुख बदरंग हो गया। उसने पुकारा, “बबुआजी!”

“क्यों भाभी?”

“मुँह ऊपर उठाओ तो देखूँ।”

सतीश ने क्षणभर चुप रहकर मुँह ऊपर उठाया।

किरणमयी कुछ देर देखती रही, फिर बोली, “बबुआजी, तुम एक बड़ी व्यथा लेकर आते-जाते हो, इसका पता मुझे बहुत दिनों से लग गया था। लेकिन पूछने का अधिकार नहीं था इसलिए मैंने नहीं पूछा। लेकिन; आज तुम मेरे भाई हो – क्या हो गया है बताओ?” सतीश सिर झुकाकर बोला, “वह तो बड़ी लज्जा की बता है भाभी।”

किरणमयी ने कहा, “भले ही लज्जा की बात हो। तो भी अपनी इस बहिन को उसका हिस्सा देना पड़ेगा। तुमको अकेले में व्यथा ढ़ोते हुए घूमने न दूँगी।”

इसके बाद थोड़ा-थोड़ा करके उसके दुःख का इतिहास बहुत कुछ संग्रह करके किरणमयी ने कहा, “लेकिन क्यों तुमने ऐसा कार्य किया?”

सतीश चुप हो रहा।

किरणमयी ने प्रश्न किया, “कौन है वह?”

सतीश मुँह झुकाकर अस्पष्ट स्वर से बोला, “अभागिनी।”

“लेकिन कहाँ है वह?”

“नहीं जानता।”

“पता नहीं लगाया?”

सतीश ने मृदु स्वर से कहा, “नहीं। उसकी आवश्यकता नहीं है। मैंने सुना है वह अच्छी तरह है।”

किरणमयी ने व्यथित होकर कहा, “अच्छी तरह है? छिः! छिः! क्यों इस प्रकार तुमने अपने को धोखे में डाल दिया!”

इस बार सतीश ने फिर एक बार मुँह ऊपर उठाया। अस्पष्ट कण्ठ से उसने उत्तर दिया, “मैंने धोखा नहीं खाया भाभी, क्योंकि मैं प्यार कर सका था। लेकिन धोखा खा गयी वह – वह प्यार नहीं कर सकी है।”

“उसके बाद?”

सतीश ने कहा, “पहले वह अपना मन समझ नहीं सकी। लेकिन जब समझ सकी, तब वह चली गयी।”

“बिना बताये वह चली गयी?”

सतीश सिर हिलाकर बोला, “नहीं, यह बात भी नहीं है, जाने के पहले वह कह गयी, ‘एक अस्पृश्य कुलटा को प्यार करके भगवान के दिये इस मन के ऊपर कालिख न पोतो।”

गम्भीर आश्चर्य से सीधी हो बैठकर किरणमयी बोली, “क्या कहकर गयी?”

सतीश के फिर बात कहने पर किरणमयी कुछ देर तक उन बातों को धीरे-धीरे बार-बार दोहराकर हठात बोली, “लेकिन फिर जब उससे भेंट हो, बबुआजी, तो मुझे एक बार दिखलाना।”

सतीश विपिन की बात याद करके बोला, “अब तो भेंट न होगी भाभी!”

किरणमयी के होंठों पर म्लान हँसी दिखायी पड़ी। उन्होंने कहा, “फिर भेंट हो जायगी।”

“कब होगी? न हो तो ही कुशल है।”

किरणमयी ने गरदन हिलाकर कहा, “कब होगी, यह मैं नहीं जानती, लेकिन यदि कभी दुःख पड़ जाय, विपत्ति पड़ जाय, तभी भेंट होगी। उस भेंट से कल्याण के सिवा अकल्याण न होगा। बबुआजी, वह चाहे जहाँ भी क्यों न रहे, तुम्हारी अधिक शुभाकांक्षिणी है, इस बात को तुम किसी दिन भी मत भूलना।”

उसी दिन संध्या के ठीक पहले किरणमयी मुमुर्षु पति की उत्तम शय्या से उठकर क्षणभर के लिए बाहर आ खड़ी हुई। दरवाज़े के पास दीवाल पर ओठंग कर सतीश चुपचाप बैठा हुआ था। थकावट के कारण सम्भवतः वह सो गया था। किरणमयी ने आश्चर्य में पड़कर कहा, “क्यों बबुआजी, इस तरह बैठे हुए हो? डेरे पर गये नहीं?”

सतीश तन्द्रा टूट जाने पर घबराते हुए उठकर बोला, “नहीं भाभी।”

“कहाँ थे इतनी देर तक?”

“इधर-उधर घूमता रहा, आज अब डेरे पर न जाऊँगा।”

किरणमयी ने आपत्ति प्रकट करके कहा, “छिः! छिः! यह कैसी बात? न खाना होगा, न सोना। नहीं डेरे पर चले जाओ, आज तुमको कोई डर नहीं है।”

सतीश ने गरदन हिलाकर कहा, “डर रहे या न रहे, आज मैं तुमको अकेली छोड़कर न जा सकूँगा। इसके सिवा मैं दूकान से खा आया हूँ।”

किरणमयी ने कहा, “यह तो हो न सकेगा। मैं जानती हूँ, दुकान के खाने से तुम्हारा पेट नहीं भरता। मुझे तो इस दशा में फिर रसोई बनानी पड़ेगी। रसोई बना सकती हूँ लेकिन इधर कई दिनों से तुम्हारा ठीक समय पर नहाना-खाना नहीं हुआ। कल-परसों तुम अच्छी तरह सो नहीं सके, शरीर पर काफ़ी अत्याचार हो गया है बबुआजी, अब नहीं। आज रात को यहाँ रहोगे तो बीमार पड़ जाओगे यह मैं किसी तरह भी न होने दूँगी।”

सतीश ने क्रोध करके कहा, “दो दिन आहार-निद्रा ज़रा कम होने से मैं बीमार पड़ जाऊँगा, और तुम तो इधर एक महीने से सो नहीं सकीं? जो खाकर दिन-भर बिता रही हो, उसे किसी मनुष्य को देखने नहीं देती हो, लेकिन भगवान तो देख रहे हैं। उसके बाद लगातार यह मेहनत… इतने पर भी तुम खड़ी हो, और इतने से ही मैं मर जाऊँगा?”

किरणमयी ने कहा, “इसका अर्थ क्या यह है कि तुम भी एक महीने तक खाये-सोये बिना रह सकते हो?”

सतीश ने कहा, “यह बात मैं नहीं कहता लेकिन….।”

किरणमयी ने हँसकर कहा, “इसमें फिर लेकिन है किस जगह पर? बबुआजी, मैं तो स्त्री ठहरी! स्त्रियों को क्या कभी बीमारी होती है, या स्त्री मरती है? क्या तुमने कभी सुना है, देख-भाल के बिना, अत्याचार से स्त्रियाँ मर गयी हैं?”

सतीश ने कहा, “नहीं, नहीं, वरन् सुना हैं स्त्रियाँ अमर हैं।”

किरणमयी ने हँसकर कहा, “सचमुच ही यही बात है। प्राण रहने से ही जाता है। न रहने से तो जाता नहीं। भगवान ने स्त्रियों के शरीर में उसे क्या दिया है कि वह चला जायेगा! मुझे तो ज्ञात होता है कि इस जाति को गले में रस्सी बाँधकर यदि दस-बीस वर्ष तक लटकाकर रखा जाय तब भी यह नहीं मरेगी।”

सतीश ने क्रुद्ध होकर कहा, “तुम्हारा यह परिहास मैं सुनना नहीं चाहता भाभी। सुनने से भी पाप लगता है।”

किरणमयी ने इस बार गम्भीर होकर कहा, “अच्छा बबुआजी, अचानक स्त्रियों के प्रति इतने हमदर्द क्यों हो गये हो, बताओ तो?”

सतीश बोला, “भाभी, मैं खूब समझता हूँ। जब-तब तुम स्त्रियों का नाम लेकर अपने ही ऊपर कठोर व्यंग्य करती हो, क्या मैं नहीं जानता। लेकिन तुम्हारे सम्बन्ध में व्यंग्य तुम्हारे अपने मुँह से भी सुनकर मैं नहीं सह सकता। इससे मुझे चोट लगती है। अच्छा, मैं जा रहा हूँ।”

“सुनो बबुआजी!”

सतीश घूमकर खड़ा हो गया। बोला, “क्या है?”

“तुम सचमुच ही क्या रुष्ट हो गये?

“क्रोध आ जाता है भाभी। संसार में दो आदमियों को मैं देवता की तरह श्रद्धा करता हूँ – उपेन भैया को और तुमको। एक को स्मरण करने से ही मैं तुम दोनों को देखता हूँ। यहाँ निम्नकोटि का परिहास मुझसे सहा नहीं जाता। मैं जाता हूँ, शायद भोजन करके फिर आऊँगा।” यह कहकर सतीश झटपट नीचे उतर गया।

किरणमयी आँखें बन्द कर चौखट पर सिर रखे निस्पन्द की भाँति खड़ी रह गयी। उसके कानों में रह-रहकर यही प्रतिध्वनि होने लगी – एक को स्मरण करने पर तुम दोनों को देखता हूँ।

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