गृहदाह (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 2
(11)
साँझ के बाद सिर झुकाए जब महिम अपने डेरे की तरफ लौट रहा था, तो उसकी शक्ल देखकर किसी को कुछ कहने की मजाल न थी। उस समय उसका प्राण, पीड़ा से बाहर आने के लिये उसी के हृदय की दीवारों को खोद रहा था। कैसे सुरेश वहाँ पहुँचा, कैसे इतना घनिष्ठ हो गया-इसका विस्तृत इतिहास अभी उसे मालूम जरूर नहीं हो सका था, लेकिन असली बात अब उसकी अजानी न थी। केदार बाबू को वह चीद्दता था। उन्हें जहाँ रुपये की बू मिली है, वहाँ से वे सहज ही पलट नहीं सकते-इसमें कोई सन्देह नहीं। सुरेश को भी वह छुटपन से, बहुत रूपों में देखता आया है। दैवात किसे वह प्यार करता है, उसे पाने के लिये वह क्या नहीं दे सकता-यह कल्पना करना भी मुश्किल है। रुपया तो कोई चीज ही नहीं, यह तो उसके लिये सदा से तुच्छ रहा है। कभी उसी के लिये उसने मुँगेर की गंगा में अपनी जान की भी ममता नहीं की। आज अगर वह किसी दूसरे के प्रेम के प्रबलतर मोह में अपने उसी महिम का ख्याल न करे, तो वह उसे दोष कैसे दे? फलस्वरूप सारी घटना उसे एक मार्मिक दुर्घटना-सी लगने के अलावा उसने किसी को दोष नहीं दिया। लेकिन यह जो इतनी-इतनी प्रचण्ड विरोधी शक्तियाँ सहसा जाग उठी हैं; इनको रोककर अचला उसके पास लौट सकेगी-यह विश्वास उसे न था; इसीलिये अचला की अन्तिम बातों, अन्तिम आचरण ने क्षण भर के लिये चंचल करने के सिवा उसे कोई भरोसा नहीं दिया। अँगूठी की तरफ बार-बार देखकर भी उसे सान्त्वना नहीं मिली-फिर भी आखिरी फैसला तो जरूरी ही ठहरा! अपने को इस तरह भुलाकर तो अब एक पल भी नहीं चल सकता। होना है सो हो, इसका अन्तिम निर्णय वह जरूर ही कर लेगा-यही संकल्प करके वह अपने गरीब छात्रावास में रात के आठ बजे के बाद पहुँचा।
दूसरे दिन, तीसरे पहर वह केदारबाबू के यहाँ गया, तो पता चला-अभी-अभी वे लोग बाहर चले गये-कहीं न्योता है। उसके दूसरे दिन भी जाने पर भेंट नहीं हुई। बैरा ने कहा-सब बाइस्कोप देखने गये हैं, लौटने में देर होगी। सब कौन-बिना पूछे भी महिम समझ गया। अपमान और अभिमान चाहे जितना बड़ा हो, लगातार दो दिनों तक निराश लौट आना ही उसके जैसे आदमी के लिये काफी हो सकता था; लेकिन हाथ की अँगूठी ने उसे डेरे पर टिकने नहीं दिया, तीसरे दिन फिर उसे ठेलकर वहाँ भेजा। आज खबर मिली-बाबू घर में हैं, बैठक में बैठकर चाय पी रहे हैं। महिम को कमरे के पास देखकर, केदारबाबू ने गम्भीर स्वर में कहा-आओ महिम! महिम ने हाथ उठाकर नमस्ते किया।
वहाँ से कुछ दूर पर, खुले झरोखे के पास एक सोफा पर अगल-बगल अचला और सुरेश बैठे थे। अचला की गोद में तस्वीरों की एक भारी किताब थी; दोनों तस्वीरें देख रहे थे। सुरेश ने नजर उठाकर देखा और फिर तस्वीर देखने में मशगूल हो गया; लेकिन अचला ने उलट कर देखा भी नहीं। उसका झुका हुआ मुखड़ा देखा नहीं जा सका, पर वह अपनी किताब के पन्नों पर जिस आग्रह से झुकी थी, कि ऐसा सोचना असंगत नहीं कि पिता की आवाज, आगन्तुक के पैरों की आहट, कुछ भी उसके कानों तक न पहुँची।
महिम अन्दर जाकर एक कुर्सी खींचकर बैठ गया। केदार बाबू बड़ी देर तक कुछ न बोले-थोड़ी-थोड़ी करके चाय पीने लगे। प्याला जब खत्म हो चुका और चुप रहना जब निहायत नामुमकिन हो गया तो प्याले को रखते हुए बोले-तो अब क्या कर रहे हो? कानून का परीक्षाफल निकलने में तो, लगता है अभी महीने-भर की देर है!
महिम सिर्फ बोला-जी हाँ!
केदार बाबू बोले-मान लिया कि पास ही कर गये-और पास तुम होंगे, इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं-लेकिन कुछ दिन प्रैक्टिस करके कुछ रुपया जमा किये बिना तो और किसी तरफ मन को दौड़ा नहीं सकते। क्या ख्याल है, सुरेश, महिम की पारिवारिक हालत तो, सुनते हैं, अच्छी नहीं है!
सुरेश बोला नहीं। महिम जरा धीरे-धीरे हँसकर बोला-प्रैक्टिस करने से ही रुपये जमेंगे-इसका भी तो कोई ठिकाना नहीं?
केदारबाबू ने सिर हिलाकर कहा-नहीं, सो तो नहीं है-ईश्वर की मर्जी! लेकिन कोशिश से असम्भव कुछ भी नहीं!! हमारे शास्त्रकारों ने कहा है-पुरुषसिंह-तुम्हें वही पुरुषसिंह होना होगा। और किसी भी तरफ नजर नहीं रहे-बस उन्नति और उन्नति! उसके बाद घर बसाओ, जो जी चाहे करो, कोई दोष नहीं-नहीं तो महापाप! कहकर सुरेश की ओर एक बार देखकर बोले-क्यों सुरेश, परिवार को खिला-पहना न सकूँ, बच्चों को लिखा-पढ़ा न सकूँ-इसी तरह से तो हिन्दू लोग जहन्नुम में गये! हम ब्राह्म-समाजी भी अगर अच्छा आदर्श न दिखा पायें, तो सचमुच दुनिया के सामने मुँह तक न दिखा सकूँगा-ठीक है या नहीं? क्यों सुरेश?
सुरेश पहले की तरह ही मौन रहा। महिम मन-ही-मन असहिष्णु होकर बोला-आपके उपदेश को मैं याद रखूँगा! लेकिन आपने क्या मुझे इसी की चर्चा के लिये बुलाया था?
केदार बाबू उसके मन की बात समझ गये। बोले-नहीं, और भी बात है; लेकिन-कहकर उन्होंने सोफे की तरफ देखा।
सुरेश ने खड़े होकर कहा-तो हम लोग उस कमरे में जाकर बैठें! उसने झुककर अचला की गोद से तस्वीर वाली किताब उठा ली। उसका यह इशारा लेकिन अचला के आगे बिल्कुल बेकार हो गया। वह जैसी बैठी रही; बैठी रही उठने का उसमें कोई लक्षण ही न दिखाई दिया। केदार बाबू ने कहा-तुम दोनों जरा उस कमरे में जाकर बैठो बिटिया! मुझे महिम से कुछ बात करनी है।
अचला ने मुँह उठाकर पिता की ओर देखकर कहा-मैं रहूँ, बाबू जी?
सुरेश ने कहा-ठीक है, न हो मैं ही जाता हूँ। और एक प्रकार से नाराज होकर, हाथ की किताब उसकी गोद में फेंककर वह जोर से कमरे से निकल गया।
इस हुक्म-उदूली से बेटी पर केदार बाबू खुश नहीं हुए-यह उन्होंने चेहरे के भाव से साफ बता दिया। मगर जिद भी नहीं की। कुछ देर रंज होकर बैठे रहे; फिर कहा-महिम, तुम यह मत सोचो कि मैं तुमसे ऊबा हुआ हूँ; बल्कि तुम पर मेरी काफी श्रद्धा ही है! तभी एक बन्धु की नाईं सलाह दे रहा हूँ, कि इस समय किसी प्रकार की जिम्मेदारी कन्धे पर लादकर अपने को निकम्मा न बना लो। अपनी तरक्की करो, कृती बनो; फिर यह बोझ लेने का काफी समय मिलेगा।
महिम ने मुँह घुमाकर एक बार अचला की ओर देखा। देखते ही उसने नजर झुका ली। इस पर उसने केदार बाबू की ओर देखकर कहा-आपका आदेश सिर-आँखों! मगर आपकी बेटी की भी क्या यही राय है?
केदार बाबू छूटते ही कह उठे-बेशक! बेशक!! जरा देर वे स्थिर रहे और बोले-कम-से-कम इतना तो निश्चित है कि सारा कुछ जान-सुनकर, मैं तुम्हारे पल्ले बाँधकर बेटी को बहा नहीं दे सकता!
महिम ने शान्त स्वर से कहा-अँग्रेजों में एक प्रथा है-ऐसी हालत में वे एक-दूसरे के लिये इन्तजार करते हैं। मैं क्या आपका वही अभिप्राय मानूँ?
केदार बाबू जल-से उठे। बोले-सुनो महिम, तुम्हारे सामने शपथ लेने को मैंने तुम्हें नहीं बुलाया है! तुमने हमारे साथ जैसा सलूक किया है, और कोई बाप होता तो महाभारत मच जाता! पर मैं निहायत शान्ति चाहने वाला आदमी हूँ, कोई शोर-गुल, कोई हंगामा नहीं पसन्द करता। जहाँ तक सम्भव है, मीठी बातों से ही तुम्हें अपना इरादा बता दिया। अब तुम इन्तजार करोगे या नहीं-अँग्रेज लोग क्या करते हैं-इतनी कैफियत से हमें कोई मतलब नहीं! फिर हम अँग्रेज नहीं, बंगाली हैं; लड़की के बड़ी हो जाने से हमें नींद नहीं आती, खाना रहीं रुचता। यह तुम्हीं क्या नहीं जानते हो?
महिम का चेहरा और आँखें सुर्ख हो आयीं, मगर अपने को जब्त करके उसने धीर भाव से कहा-मैंने ऐसा क्या सलूक किया, कि और कोई होता तो महाभारत मच जाता-यह सवाल मैं आपसे नहीं पूछना चाहता! केवल आपकी बेटी के मुँह से एक बार यह सुनना चाहता हूँ, कि उनका भी यही अभिप्राय है या नहीं! और वह खुद उठकर अचला के पास गया-क्यों, यही तो?
अचला ने न सिर उठाया, न बात की।
उमड़ते हुए एक उच्छ्वास को पीकर महिम ने फिर कहा-एकान्त में तुम्हारी मंशा जानने-पूछने का मुझे मौका नहीं मिला-इसके लिये मैं क्षमा चाहता हूँ। उस दिन शाम को सनक में तुम जो कर बैठी थीं, उसके लिये भी तुम्हें जिम्मेवार न बनाऊँगा!! सिर्फ एक बार यह कहो, कि यह अँगूठी तुम वापस चाहती हो या नहीं?
आँधी की तेजी से कमरे के अन्दर आकर सुरेश ने कहा-मुझे माफ करना पड़ेगा केदार बाबू, अब एक मिनट भी ठहरने का समय मेरे पास नहीं है!
जो मौजूद थे, सबने अचरज से नजर उठाकर देखा। केदार बाबू ने पूछा-क्यों?
सुरेश ने नाटकीय भंगिमा से कहा-नहीं-नहीं, मेरी इस गलती के लिये माफी नहीं। मेरा अन्तरंग मित्र प्लेग से मरणासन्न है, और मैं यहाँ बैठा-बैठा नाहक ही समय बर्बाद कर रहा हूँ।
केदार बाबू ने घबराकर पूछा-कहते क्या हो सुरेश? प्लेग? तुम वहाँ जाओगे क्या?
सुरेश हँसकर बोला-बेशक! बहुत पहले ही मेरा वहाँ जाना उचित था।
केदार बाबू शंकित होकर बोले-मगर प्लेग है! वे क्या तुम्हारे ऐसे कोई खास आत्मीय है?
सुरेश ने कहा-आत्मीय? आत्मीय से बहुत बड़ा, केदार बाबू! महिम को कटाक्ष करके उसने यही पहली बार बात की-महिम, अपने निशीथ को कल रात से ही प्लेग हुआ है। जियेगा-यह आशा नहीं है। तुमसे भी बता देना उचित है-चलोगे उसे देखने?
महिम इस निशीथ को पहचान नहीं सका। पूछा-कौन निशीथ?
कौन निशीथ? कह क्या रहे हो महिम? इसी बीच तुम निशीथ को भूल गये? जिसके साथ तुम सारा सेकेण्ड-इयर पढ़ते रहे, ऐसी आफत की घड़ी में उसे भूल गये?-कहकर उसने अचला की तरफ देखकर व्यंग्य के स्वर में कहा-याद भी क्यों आये? प्लेग है न !
महिम ने इस व्यंग्य को चुपचाप सहकर पूछा-वे क्या भवानीपुर से आया करते थे?
सुरेश ने व्यंग्य से ही जवाब दिया-हाँ वही! मगर निशीथ तो दो-चार थे नहीं, कि अब तक तुम्हें याद नहीं आया। पूछता हूँ-चलोगे?
अब पहचान कर उसने पूछा-निशीथ इन दिनों कहाँ रहता है?
सुरेश बोला-और कहाँ? अपने घर, भवानीपुर में! ऐसे आड़े वक्त एक बार उससे मिलना क्या अपना कर्त्तव्य नहीं लगता तुम्हें? मैं डॉक्टर ठहरा, मुझे तो जाना ही पड़ेगा; और वैसी मिताई भूल नहीं गये हो तो तुम भी मेरे साथ चल सकते हो! केदार बाबू, मेरा ख्याल है-आप लोगों की बात खत्म हो चुकी। आशाा है, थोड़ी देर के लिये इसे फुर्सत दे सकेंगे।
यह व्यंग्य किस पर है-समझ न पाने के कारण केदार बाबू-कभी महिम और कभी बेटी की ओर उद्विग्न होकर ताकने लगे। अपने धनी भावी दामाद का मान-अभिमान किस बात में और कब तुनक पड़ता है-यह वे आज भी समझ न सके। उनके मुँह से बात न निकली; महिम भी काठ का मारा-सा देखता रहा। देखते-देखते अचला का चेहरा लाल हो उठा। वह धीरे-धीरे हाथ वाली किताब को मेज पर रखकर इतनी देर के बाद बोली-तुम्हें तो जाना ही चाहिए; मगर इनकी कानून की किताब में तो प्लेग का निदान नहीं लिखा है! ये किसलिये जायें?
इस एकबारगी अप्रत्याशित जवाब से सुरेश अवाक् हो गया। मगर दूसरे ही क्षण बोल उठा-मैं वहाँ डाक्टरी करने नहीं जा रहा हूँ; उसे डॉक्टरों की कमी नहीं है! मैं जा रहा हूँ, मित्र की सेवा करने!! मिताई को मैं अपनी जान से भी बड़ा मानता हूँ!!
एक निष्ठुर हँसी की झलक अचला के होंठों पर झलक आयी; बोली-हर आदमी तुम्हारी ही तरह महान होगा-ऐसी तो कोई बात नहीं! मिताई का इतना बड़ा बोध उन्हें न हो, तो मैं लज्जा का कारण भी नहीं समझती!!! जो भी हो, वहाँ इनका जाना हर्गिज न होगा!!!
सुरेश का चेहरा काला पड़ गया। केदार बाबू शंकित हो उठे। भय से कहने लगे-यह सब तू क्या कह रही है, अचला? सुरेश जैसा-सच ही तो-निशीथ बाबू जैसे. ..
अचला ने टोककर कहा-निशीथ बाबू को पहले तो ये पहचान ही नहीं सकूँ। फिर वे डॉक्टर हैं, वे जा सकते हैं। लेकिन दूसरे को नाहक ही मुसीबत में खींच ले जाना क्या?
चोट खाने पर सुरेश को होश नहीं रहता। उसने मेज पर जोरों की मुट्ठी मारी, और जो मुँह में आया, चिल्लाकर वही बोल उठा-मैं डरपोक नहीं, जान को डरता नहीं मैं! महिम की ओर इशारा करके बोला-इस नमकहराम से ही पूछ देखो, दो-दो बार मैने इसे मरने से बचाया या नहीं?
अचला ने जोर भरे शब्दों में कहा-नमकहराम ये हैं? खूब! मगर जिसे एक बार बचाया, कभी जी में आया तो उसका शायद खून भी कर दिया!!
केदार बाबू किंकर्त्तव्यविमूढ़-से बोल उठे-रुक भी अचला! ठहरो सुरेश! यह सब क्या है?
सुरेश ने लाल-लाल आँखों से केदार बाबू की ओर देखकर कहा-मैं प्लेग के पास जा सकता हूँ इसमें हर्ज नहीं! महिम की जान ही जान है, मेरी कुछ नहीं!!! देख लिया न आपने?
लज्जा और क्षोभ से अचला रो पड़ी। रुँधे स्वर में कहने लगी-जो अपनी जान देना चाहते है वे दें, मैं रोक नहीं सकती, किन्तु जहाँ रोकने का मुझे पूरा अधिकार है, वहाँ मैं जरूर रोकूँगी! मैं इन्हें वैसी जगह हर्गिज नहीं जाने दे सकती!! कहकर वह वहाँ से जाने लगी, कि केदार बाबू चीख उठे-जा कहाँ रही है अचला?
अचला ठिठक गयी। बोली-नहीं बाबू जी, रात-दिन इतना जुल्म अब मुझसे बर्दाश्त नहीं होता! जो बिल्कुल गैरमुमकिन है, प्राण रहते जो मैं कदापि नहीं कर सकूँगी-उसी के लिये तुम लोग रात-दिन मुझे बेध रहे हो!! उमड़ती हुई रुलाई को दबाती हुई वह कमरे से बाहर चली गयी। बूढ़े केदार बाबू हतबुद्धि-से जरा देर ताकते रहे, फिर बोले-सब बच्चे-से जुटे हैं-यह सब क्या है? कहो तो?
(12)
एक महीना के करीब बीता। केदार बाबू राजी हो गये-अगले रविवार को महिम से अचला की शादी तै पायी गयी। उस दिन सुरेश जैसी हरकत कर गया, वह सचमुच ही केदार बाबू के कलेजे में चुभी थी। लेकिन यह नहीं कि उसी अपमान को तौलकर-अन्त में महिम पर प्रसन्न होकर उन्होंने हामी भरी हो सुरेश खुद ही जाने कहाँ गायब हो गया, तब से आज तक उसका कोई पता ही नहीं। ऐसा सुनने में आया-वह कहीं पश्चिम चला गया है; कब लौटेगा? कोई नहीं जानता!
उस दिन अपनी रुलाई को दबाने के लिये अचला जब कमरे से बाहर चली गयी, तो बड़ी देर तक स्याह मुँह किये तीनों जने बैठे रहे थे। फिर बात पहले सुरेश ने ही की। केदार बाबू की तरफ मुखातिब होकर उसने कहा-मगर आपको आपत्ति न हो, तो आपके सामने ही मैं आपकी लड़की से दो-एक बातें कहना चाहता हूँ।
केदार बाबू ने कहा-बखूबी! तुम बात कहोगे, इसमें आपत्ति कैसी सुरेश? सब बचपने की बात-
तो फिर उसे बुलाइए, मुझे ज्यादा फुर्सत नहीं है!
उसके चेहरे और कण्ठ-स्वर की गम्भीरता से केदार बाबू के मन में शंका हुई! मगर जबर्दस्ती जरा हँसकर फिर वही टेक ले बैठे-सब बचपने की बात! उसे जरा सम्हलने का मौका दिये, बिना…. समझ गये सुरेश? यह प्लेग-प्लेग के नाम से ही-औरत का जी ठहरा न? सुना नहीं कि होश फाख्ता-समझ गये बेटे-
किसी तरह की कैफियत पर ध्यान देने जैसी मन की अवस्था सुरेश की न थी-वह अधीर होकर बोल उठा-सच मानिए, इन्तजार करने का मुझे बिल्कुल अवकाश नहीं!
सो तो है! सो तो-अरे, कौन है?-कहकर उन्होंने आवाज दी। कनखियों से महिम को देखा। महिम ने खड़े होकर नमस्ते किया और चुपचाप बाहर चला गया।
केदार बाबू खुद जब अचला को बुलाकर ले आये, तब पश्चिम के झरोखे-दरवाजे से, तीसरे पहर के सूरज की रंगीन किरणें कमरे-भर में बिखर गयी थीं। उस आभा में निखरी हुई इस युवती के दुबले-छरहरे बदन की ओर देखकर, पल के लिये सुरेश के कुढ़े मन में एक मोह और पुलक का स्पर्श खेल गया-लेकिन वह स्थायी न हो सका। उसके चेहरे पर नजर पड़ते ही उसका वह भाव तुरन्त काफूर हो गया। फिर भी उससे आँखें हटाते न बना, अपलक उसे देखते हुए स्तब्ध बैठा रहा। अचला के मुँह पर आसमान का प्रकाश नहीं पड़ रहा था, पर सामने की दीवार से छिटककर आती हुई ज्योति में उसका मुखड़ा, सुरेश को ब्रोंज की कठोर मूर्ति-सा लगा। उसने साफ देखा कि कैसी तो एक गहरी वितृष्णा ने उसकी सारी मधुरता, सारी कोमलता को सोख लिया है,और उसके मुख की एक-एक रेखा तक को-अडिग दृढ़ता से एक बारगी धातु की तरह सख्त कर दिया है। अचानक केदार बाबू के एक गहरे निःश्वास के आघात से सुरेश चौंक उठा, और सीधा बैठ गया।
केदार बाबू ने फिर अपनी वही पुरानी बात दुहराई-सब पागलपन, किससे क्या कहूँ? मैं सोच नहीं पाता-
अचला को लक्ष्य करके सुरेश खासी गम्भीरता से बोला-आप जो कह गयीं, वही ठीक है?
अचला ने सिर हिलाकर कहा-हाँ!
-इसमें कोई परिवर्तन की गुंजाइश नहीं?
अचला ने सिर हिलाकर कहा-नहीं!
खून के एक उबाल ने आग की लहक-सा-सुरेश के आँख-मुँह को चमका दिया; लेकिन वह आवाज को संयत करके ही बोला-जब मेरी जान की ही कोई कीमत नहीं, तभी मैं समझ रहा था।-उसकी छाती उस समय अन्दर से जल रही थी। कुछ देर स्थिर रहकर वह फिर बोला-अच्छा, यह पूछता हूँ-मैं ही क्या पहला शिकार हूँ कि और भी बहुत-से लोग जाल में फँसकर सिर-मुड़वा चुके हैं।
असह्य विस्मय से अचला ने आँखें बड़ी-बड़ी करके देखा। सुरेश ने केदार बाबू से कहा-सुना है, बाप-बेटी मिलकर शिकार फँसाने का व्यापार विलायत में नया नहीं है; मगर आपसे मैं यह भी कहे देता हूँ केदार बाबू, आपको किसी दिन जेल जाना पड़ेगा!
केदार बाबू चीख उठे-तुम यह सब क्या कर रहे हो सुरेश?
सुरेश ने उसी दृढ़ता के साथ कहा-चुप भी रहिए केदार बाबू, नाटक का अभिनय बहुत दिनों से चल रहा है। पुराना पड़ गया। मैं अब इससे बहलने का नहीं! रुपये मेरे गये, बला से-बदले में सबक भी कम नहीं मिला!! मगर काश यही अन्तिम हो!!!
अचला रो उठी-आपने इनके रुपये लिये क्यों बाबूजी ?
केदार बाबू एक टुकड़ा सादा कागज के लिये इधर-उधर हाथ बढ़ाते फिरे; आखिरकार एक पुराने अखबार को ही उठाकर चिल्ला उठे-मैं अभी हैण्ड नोट लिखे देता हूँ।
सुरेश ने कहा-रहने दीजिए, इस लिखा-पढ़ी की जरूरत नहीं! आप रुपये चुकायेंगे, सो मैं जानता हूँ। लेकिन उन थोड़े से-रुपयों के लिये नालिश करके मैं अदालत में खड़ा न हो सकूँगा।
जवाब देने के लिये केदार बाबू लगातार होंठ हिलाने लगे, पर एक भी शब्द न निकला।
सुरेश ने घूमकर अचला की तरफ देखा। उसके पीले-पड़े चेहरे और गीली आँखों को देखकर उसे बूँद भर दया न आयी, बल्कि अन्दर की ज्वाला सौ गुनी बढ़ गयी। वह पैशाचिक निष्ठुरता से बोल उठा-नाज करने लायक तुममें है क्या अचला, यही तो मुँह की खूबसूरती, यही तो लकड़ी का शरीर, यही रंग! फिर भी मैं लट्टू था-वह क्या तुम्हारे रूप से? ऐसा ख्याल भी न करना!
पिता के सामने ऐसे बेहया अपमान से, अचला दुःख और घृणा से दोनों हाथों से आँखें छिपाकर कोच पर औंधी पड़ गयी। सुरेश ने खड़े होकर कहा-ब्राह्म को मैं फूटी आँखों नहीं देख सकता। जिनकी छाया छू जाने से भी मुझे नफरत होती थी-उनके घर में कदम रखते ही जब मेरे आजन्म के संस्कार सदा का विद्वेष एक पल में धुल गया, तभी मुझे शंका होनी चाहिए थी कि यह जादू है! मुझ पर जो बीता बीते; परन्तु जाते समय मैं आप लोगों को हजारों धन्यवाद दिये बिना नहीं जा सकता। धन्यवाद अचला!
अचला मुँह गाड़े हुए ही, रुँधे स्वर से बोल उठी-पिताजी, उन्हें चुप रहने को कहिए! हम पेड़ के नीचे रहेंगे-वह भी अच्छा, मगर आपने उनका जो लिया है, लौटा दीजिए।
सुरेश ने कहा-पेड़ के नीचे? कभी तुम लोगों को वह भी नसीब न होगा! कहे देता हूँ!! फिर भी उस दिन मुझे स्मरण, करना-कहकर वह उत्तर की राह देखे बिना ही जल्दी से चला गया।
केदार बाबू कुछ देर चुप रहे फिर एक लम्बी उसाँस लेकर बोले-उफ! कैसा खतरनाक आदमी!! ऐसा जानता तो मैं उसे घर में कदम रखने देता?
पिता की बात अचला के कानों पहुँची, पर वह कुछ न बोली। औंधी पड़ी जैसे रो रही थी, वैसी ही पड़ी आसूँ से अपनी छाती को भिगो रही थी। पास ही बैठे केदार बाबू सब देखते रहे, लेकिन दिलासे का एक शब्द भी कहने का उन्हें साहस नहीं हुआ। साँझ हो गयी। बैरा गैस की बत्ती जलाने आया, कि उठकर वह अपने कमरे में चली गयी।
महिम को लेकिन यह सब कुछ न मालूम हो पाया। सिर्फ उस दिन जब अन्ततः केदार बाबू ने अपनी बेटी के साथ उसके विवाह की सम्मति दी, वह कुछ देर के लिये विह्नल की नाईं स्तब्ध बैठा रहा। बहुत तरह की बातें, शंकाएँ उसके मन में उठीं जरूर-पर अपने इस सौभाग्य का खुद सुरेश ही मूल कारण है, इसकी कल्पना तक उसके मन में न उठ सकी। अचला के प्रति स्नेह, प्रेम और करुणा से उसका हृदय परिपर्णू हो उठा, मगर वह सदा से मौन प्रवृत्ति का आदमी ठहरा। आवेग और उच्छ्वास कभी प्रकट नहीं कर सकता, कर पाता भी तो यह उसकी जुबान के लिये निहायत अप्रत्याशित, अजीब-सा आचरण लोगों की नजर में लगता। बल्कि शाम को अकेले में केदार बाबू से कुछ बातें करके जब वह डेरे पर लौटा, तो और दिनों की तरह अचला से भेंट करके, उसे मामूली-सा नमस्कार भी न कर सका। बात केदार बाबू ने खुद उठायी थी। प्रसंग उठाने से लेकर के ब्याह की सम्मति, यहाँ तक कि दिन तै करना तक सब अकेले उन्होंने ही किया। मगर सब कुछ जैसे निरुपाय होकर किया।-उनके चेहरे पर उत्साह और उमंग की झलक तक न आयीं। फिर भी दिन बीतने लगे, और ब्याह का दिन आया।
परसों विवाह! मगर लड़की के विवाह में धूम-धाम न करने की सोच रखी थी, इसलिये आयोजन जितना चुपचाप हो सके-इसमें कुछ कसर न रखी।
आज तीसरे पहर भी वे यथा समय चाय पीने बैठे थे। कोई सिलाई लेकर अचला पास ही एक कोच पर बैठी थी। बहुत दिनों से तकलीफ में दिन काटते हुए, इन सौ दिनों से जो शान्ति उसके मन में बिराज रही थी, उसी की हलकी आभा से उसका पीला मुखड़ा, मद्धिम चाँदनी-सा ही स्निग्ध दीख रहा था। चाय पीते-पीते केदार बाबू बीच-बीच में यही देख रहे थे। झगड़कर सुरेश के चले जाने के बाद से, मनहूसियत से ही दिन काट रहे थे। लौटकर वह क्या करेगा, न करेगा-इसकी फिक्र। फिर भी इस सम्बन्ध में उन्हीं का अपना क्या कर्त्तव्य है-हैण्डनोट लिख देना, या रुपया चुका देने के लिये और कहीं कर्ज लेना, या कि इसकी जिम्मेदारी महिम के कन्धों लाद देना-क्या किया जाये, सोच-सोचकर कोई किनारा नहीं पा रहे थे। लेकिन कुछ करना जरूरी है, सुरेश के गायब हो जाने को दुहाई पर नहीं चलने का-या बेटी की तरह, अपनी धुन में मगन हो आँखें मूँदे रहने से यह आफत नहीं टलेगी-इसे वे खूब समझते थे। निराश प्रेमी अचानक एक दिन ताजा हो उठेगा-और उस दिन आकर, चारों तरफ यह बात फैलाकर एक हंगामा खड़ा कर देगा। रुपया उसने चेक से दिया है, लिहाजा अदालत में उससे इंकार करना मुश्किल होगा-सब सोच कर वे निस्सन्देह हो उठे थे; लेकिन बेटी से जरा राय-सलाह की भी गुंजाइश न थी। सुरेश का जिक्र करने में भी उन्हें डर लगता था। अभी अचला के शान्त-स्थिर मुख की छवि को देख-देखकर उन्हें जलन-सी हो रही थी, कि उनके सारे दुःखों की जड़ यह लड़की ही है-जबकि कैसी सहूलियत हो आयी थी, और भविष्य में जाने कितनी सहूलियत होती!
जो निर्दयी बेटी बाप के बारम्बार मना करने पर भी, उनके सुख-दुःख का ख्याल न कर सकी-सारा गुड़ जिसने गोबर कर दिया, उस स्वार्थी सन्तान पर उनका छिपा क्रोध जब-तब अभिशाप बनकर यही कामना करता-जिसमें उसे इसका फल मिले, जिसमें किसी दिन उसे रो-रोकर कहना पड़े कि तुम्हारे खिलाफ जाने की सजा मैं भोग रही हूँ, पिताजी! जहाँ तक लड़के का सवाल है, महिम सुरेश से कहीं अधिक वांछनीय है। यह धारणा उनके जी में ऐसी जम गयी थी, कि उससे नाता टूट जाने को वे बहुत बड़ा नुकसान मान रहे थे। मन में उन्हें उस पर क्रोध न था। इतना कुछ गुजर चुकने के बाद भी, अगर उसे फिर से पाने का कोई उपाय होता तो, तै-शुदा शादी को तोड़ देने में भी उन्हें देर न होती मगर कोई उपाय नहीं-कोई उपाय नहीं! अचला के सामने तो उसका आभास तक लाने का उपाय नहीं!!
सिलाई करते-करते अचानक सिर उठाकर अचला ने कहा-सुरेश बाबू के बारे में पढ़ा?
अचला की जबान पर सुरेश का नाम? केदार बाबू ने चौंककर उधर देखा। अपने कानों पर विश्वास न हुआ। सुबह का अखबार मेज पर पड़ा था। अचला ने उसे उठाकर फिर से वही पूछा-अखबार पर सवेरे उन्होंने जहाँ-तहाँ नजर फेरी थी, लेकिन किसी और की खबर के लिये वैसी दिलचस्पी इस समय उन्हें नहीं थी। बोले-कौन सुरेश?
अखबार में उस जगह को ढूँढ़ते हुए अचला बोली। शायद अपने ही सुरेश बाबू हैं!
केदार बाबू ने अचरज से दोनों आँखें फाड़ ली।
बोले-अपने सुरेश बाबू? क्या किया उन्होंने? कहाँ हैं वे?
अचला अखबार का वह स्थल पिता के हाथ पर रखते हुए बोली-पढ़ देखो न।
चश्में के लिये जेब टटोलते हुए केदार बाबू बोले-चश्मा शायद मैं कमरे में ही छोड़ आया। तुम्हीं पढ़ो न, क्या माजरा है?
अचला ने पढ़कर सुनाया-फैजाबाद से किसी सज्जन ने पत्र लिखा है-उस दिन शहर के गरीबों के मुहल्ले में जोरों की आग लग गयी। एक तो प्लेग फैला है, तिस पर यह दुर्घटना-लोगों के कष्ट की कोई सीमा न रही। कुछ दिनों से सुरेश नाम के एक भद्र युवक यहाँ आकर रुपये-पैसे, दवाई और शारीरिक श्रम लगाकर रोगियों की सेवा कर रहे हैं। इस मुसीबत के समय उन्हें खबर मिली-कोई बीमार औरत किसी जलते हुए घर के अन्दर घिर गयी है-उसे बचाने वाला कोई नहीं! संवाददाता ने इसके बाद लिखा-उस बेचारी की जान बचाने के लिये, किस प्रकार से वह दुस्साहसिक बंगाली युवक अपनी जान को हथेली पर रख कर लहकती आग में कूद पड़ा, आदि-इत्यादि।
पढ़ना खत्म हुआ। केदार बाबू बड़ी देर तक चुप बैठे रहे, फिर एक निःश्वास छोड़कर बोले-लेकिन यह अपना ही सुरेश है, तुम्हें ऐसा लगता है?
अचला ने शान्त-भाव से कहा-हाँ, ये अपने ही सुरेश बाबू हैं!
केदार बाबू फिर चौंक उठे! शायद अपने अजानते ही अचला के मुँह से, इस ‘अपने’ शब्द पर जरा ज्यादा जोर पड़ गया था। हो सकता है, निश्चित विश्वास जताने के लिये, पर केदार बाबू के कलेजे में वह और ही प्रकार से लगा और डूबता हुआ आदमी जैसे तिनका पकड़ने के लिये दोनों हाथ बढ़ा देता है, ठीक वैसे ही बूढ़े पिता ने बेटी के मुँह की इस बात को बड़े आग्रह से कलेजे में धर लिया। यही एक बात उनके कानों पलक-मारते कितनी-क्या असम्भव-सम्भावनाओं का द्वार खोल गयी, जिसकी सीमा नहीं। इतने दिनों के बाद आज उनका मुखड़ा एकाएक आशा के आनन्द से उद्भासित हो उठा। बोले-अचला बेटी, तुम्हें क्या ऐसा नहीं लगता कि. ..
पिता को हठात् थम जाते देख अचला ने उनकी ओर देखकर पूछा-नहीं लगता है बाबूजी?
केदार बाबू सावधानी से बढ़ने की नीयत से, मुँह की बात को दबा गये।
बोले-तुम्हें क्या ऐसा नहीं लगता कि सुरेश हम लोगों के साथ जो व्यवहार कर गया, उसके लिये वह बहुत ही अनुतप्त है?
अचला तुरन्त बोल उठी-मुझे ऐसा निश्चित लगता है पिताजी! केदार बाबू जोर से सिर हिलाकर बोले-बेशक! बेशक! हजार बार! ऐसा न होता, तो वह इस तरह भाग न जाता-कहाँ की एक मामूली स्त्री को बचाने के लिये आग में कूद पड़ा! मुझे ऐसा लगता है, वह सिर्फ इसी अफसोस में जल-मरने गया था! सच है न बिटिया?
पिता जी की बात के ठीक जवाब को टालकर, अचला धीरे-धीरे बोली-दूसरे को बचाने के लिये वे और भी कई बार अपनी जान खतरे में डाल चुके हैं।
बात केदार बाबू को वैसी अच्छी न लगी। बोले-वह और बात है अचला। यह तो आग में कूदना हुआ!! मौत को सीधे गले लगाना!!! दोनों का फर्क नहीं समझती?
अचला ने बात नहीं काटी। कहा-जी हाँ, सो है! लेकिन जो बड़े दिल वाले होते हैं, वे किसी भी अवस्था में, औरों की मुसीबत की घड़ी में अपनी मुसीबत भूल जाते हैं।
केदार बाबू उत्साह से उछल पड़े। दमकते स्वर में बोले-ठीक! ठीक कहती हो!! जभी तो तुझसे कहता हूँ, सुरेश एक महत्-प्राण व्यक्ति है!!! उससे क्या किसी की तुलना हो सकती है? इतने-इतने तो लोग हैं, मगर कौन-किसकी बात पर पाँच-पाँच हजार रुपये दे सकता है जी? उसने जो भी चाहे किया, बड़े दुःख से ही कर बैठा-यह मैं शपथ लेकर कह सकता हूँ!
मगर शपथ की कोई जरूरत नहीं थी। यह सत्य अचला खुद जितना जानती थी, उसका सौवाँ हिस्सा भी वे नहीं जानते थे। लेकिन वह जवाब न दे सकी-पलक की लज्जा कहीं खुल जाये, इस डर से गर्दन झुकाकर वह मौन ही रही। लेकिन बूढ़े की प्यासी आँखों से वह बच न सकी। वे पुलकित हृदय से कहने लगे-आखिर आदमी देवता तो है नहीं, वह आदमी ही है! उसका शरीर दोष-गुणमय है-लेकिन इसीलिये उसकी दुर्बल क्षणिक उत्तेजना को उसका स्वभाव नहीं मान लेना चाहिए। बाहर के जो चाहे सो कहें, मगर हम लोग भी अगर इसी को उसका दोष कहें-तो उनसे हमारा फर्क कहाँ रहेगा, बता? धनी तो बहुतेरे पड़े हैं, पर इस तरह से देना कौन जानता है? क्या लिखा है? एक बार फिर तो पढ़ बेटी! आग से उसे सुरक्षित निकाल लाया? ओः कितना बड़ा साहस! देवता और कहते किसे हैं? कहकर उन्होंने लम्बा निःश्वास छोड़ा।
अचला वैसे ही सिर झुकाये चुप बैठी रही।
केदार बाबू कुछ देर स्तब्ध बैठे रहे; फिर बोल उठे-अच्छा, तार भेजकर उसका कुशल मँगाना क्या उचित नहीं है? उसकी इस मुसीबत में भी क्या रूसना ठीक है?
अचला ने अब की सिर उठाकर कहा-मगर हमें उनका पता जो नहीं मालूम!
केदार बाबू बोले-पता? फैजाबाद में ऐसा भी कोई है, जो आज अपने सुरेश को नहीं पहचानता? उस पर मुझे बड़ा गुस्सा आया था, लेकिन अब कुछ नहीं है। एक तार लिखकर तुरन्त भेज दो बिटिया; उसके कुशल के लिये मैं व्यग्र हो उठा हूँ।
अभी भेज देती हूँ बाबूजी-वह तार का कागज लाने के लिये निकली कि खुद सुरेश सामने आ खड़ा हुआ।
हृदय में गहरा दुःख ढोने की थकावट इतनी जल्दी मनुष्य के मुखड़े को सूखा और श्रीहीन कर देती है-अपने जीवन में अचला ने यही पहली बार देखा।-चौंक उठी वह। कुछ देर तक किसी के मुँह से कोई बात नहीं निकली। उसके बाद वही बोली-बाबूजी बैठे हैं, चलिये, अन्दर चलिये! फैजाबाद से कब आये? अच्छे तो हैं?
अनजानते उसकी बातों में कितना स्नेह झलक गया, वह खुद न समझ सकी। लेकिन सुरेश मानो टूट-पड़ने को हो गया-फिर भी उसने अपने पिछले दिनों के कठोर सबक को बेकार नहीं होने दिया। तुरन्त उन दोनों रंगे चरणों में घुटने टेककर अपना सारा कुछ उड़ेल देने की दुर्जय आकांक्षा को जी-जान से दमन करके, अदब के साथ बोला-मेरे फैजाबाद जाने की बात को आपने कैसे जाना?
अचला ने वैसे ही स्नेह-भीगे स्वर में कहा-अखबार में पढ़कर बाबू जी तुरन्त मुझे तार भेजने को कह रहे थे। आपके लिये वे बड़े बेचैन हो उठे हैं। चलिये, उनसे जरा भेंट कर लीजिए! कहकर उसने मुड़ने की चेष्टा की, कि सुरेश बोला-वे बेचैन हो सकते हैं, मगर तुमने मुझे कैसे माफ किया अचला?
अचला के होंठों पर हँसी की हलकी-सी झलक दिखाई दी। बोली-उसकी मुझे जरूरत नहीं पड़ी। मैंने एक दिन के लिये भी आप पर गुस्सा नहीं किया। आइए, अन्दर आइए!
(13)
सुरेश ने जब बताया कि वह महिम के पत्र में शादी की खबर पाकर ही जल्दी-जल्दी आ गया है, तो केदार बाबू शर्म से चंचल हो उठे; मगर अचला के भाव में कुछ नहीं झलका।
सुरेश बोला-महिम के विवाह में आये बिना कैसे चले; वरना और कुछ दिन अस्पताल में रह गया होता, तो ठीक था!
केदार बाबू ने उतावली से पूछा-अस्पताल में क्यों सुरेश? वैसा कुछ तो…
सुरेश ने कहा-जी हाँ, खास कुछ नहीं; लेकिन शरीर ठीक न था।
केदार बाबू निश्चिन्त हो कर बोले-इसके लिये ईश्वर को प्रणाम करता हूँ! अचला ने जब अखबार से तुम्हारी अलौकिक कहानी पढ़कर सुनाई-तो क्या बताऊँ तुमसे-आनन्द और गर्व से मेरी आँखों से आँसू बहने लगे! मन-ही-मन कहा-हे ईश्वर, मैं धन्य हूँ कि मैं ऐसे आदमी का भी बन्धु हूँ! उन्होंने हाथ जोड़कर कपाल से लगाया। कुछ रुककर बोले-मगर यह भी कहूँ, बार-बार अपनी जान को खतरे में डालना भी क्या ठीक है? एक साधारण-से प्राण को बचाने में अगर ऐसा एक महत् प्राण चला जाता, तो संसार का ज्यादा नुकसान नहीं होता?
नुकसान ऐसा क्या होता!-कहकर सलज्ज भाव से नजर घुमाते ही उसने देखा, अचला अब तक एकटक उसी के चेहरे की तरफ ताक रही थी। अब उसने नजर झुका ली।
केदार बाबू बार-बार कहने लगे-ऐसी बात जबान पर भी नहीं लानी चाहिये! क्योंकि अपनों के दिल में इससे कितनी चोट लगती है, इसका ठिकाना नहीं!!
सुरेश हँसने लगा। बोला-अपना तो कोई नहीं है मेरा, केदार बाबू! हैं केवल एक फूफी। मेरे गुजर जाने से उन्हीं को शायद तकलीफ होगा।
गरचे सुरेश हँसते हुए बोला-तो भी यह सुनकर केदार बाबू की आँखें गीली हो गयीं कि उसका कोई नहीं है। बोले-केवल फूफी को ही कष्ट होगा सुरेश? नहीं-नहीं, इस बूढ़े को भी कुछ कम कष्ट नहीं होगा बेटे! खैर, मैं जब तक जिन्दा हूँ, इन कुछ दिनों अपने शरीर की हिफाजत रखो सुरेश-यही मेरा एकान्त अनुरोध है!
घड़ी में रात के दस बजे। लौटने को तैयार होकर, अचानक हाथ जोड़कर उसने कहा-एक विनती है मेरी, महिम का विवाह तो मेरे ही घर से होगा, यही तै हुआ है; लेकिन वह तो परसों होगा; कल रात भी लेकिन इस नाचीज के घर चरणों की धूल देनी पड़ेगी-नहीं तो मुझे यह यकीन न आयेगा कि मुझे माफी मिली है। कहिए, यह भीख देंगे आप? झुककर वह केदार बाबू के पैरों में धूल लेने बढ़ा।
केदार बाबू हड़बड़ी में जबर्दस्ती उसे रोकने लगे कि उसकी अस्फुट आह से उछल पड़े। पीठ पर मामूली जल जाने के कारण पट्टी बँधी थी-ऊनी चादर डालकर सुरेश ने उसको छिपा रखा था। अनजाने में खींचातानी करते समय उन्होंने पट्टी ही खिसका दी थी। खुले जख्म को देखकर केदार बाबू डर से चीख पड़े। बिजली की तरह झट अचला आ पहुँची, और पट्टी को थामकर बोली-ठहरिए, मैं ठीक से बाँध देती हूँ। सुरेश को बगल के सोफे पर बैठाकर जतन से पट्टी बाँधने लगी।
केदार बाबू धप्प से अपनी कुर्सी पर बैठ गये-आँखें बन्द कर लीं। बड़ी देरी तक उनके मुँह से शब्द ही न निकला। कोच की पीठ पर अपनी दोनों केहुँनी टेककर, पीछे खड़ी हो अचला पट्टी बाँध रही थी। देखते ही देखते उसकी दोनों आँखें आँसुओं से भर उठीं, और धीरे-धीरे मुक्ता जैसी बूँद एक-पर-एक टपकने लगीं। लेकिन सुरेश कुछ भी न देख पाया; इधर का उसे ध्यान ही न था। वह केवल निमीलित नयनों, स्थिर बैठा, अपने अपार प्रेम की अधिकारिणी के कोमल हाथों के करुण स्पर्श का हृदय में अनुभव करता रहा।
किसी कदर अपने आँसू पोंछकर, बीच में अचला ने चुपचाप कहा-आज मेरे आगे आपको एक प्रतिज्ञा करनी होगी!
सुरेश का ध्यान टूटा। वहा चौंका। लेकिन उसने भी उसी कोमलता से पूछा-कैसी प्रतिज्ञा?
-इस प्रकार से आप अपनी जान नहीं बर्बाद कर सकते!
-लेकिन जान देने तो मैं जानकर नहीं गया था! दूसरे की मुसीबत में मुझे होश-हवास ही नहीं रहता-यह तो मेरे बचपन का स्वभाव है अचला!
अचला ने बात नहीं काटी, लेकिन साथ ही उसके हृदय से एक विश्वास टूट गया। सुरेश को इसकी खाक भी खबर न हुई। पट्टी बँध गयी तो सुरेश ने खड़े होकर कहा-कल लेकिन इस गरीब के घर पैरों की धूल देनी पड़ेगी। उसकी आँखें भर आयीं, पर आवाज में कोई व्याकुलता नहीं झलकी।
सिर हिलाकर अचला ने कहा-अच्छा!
केदार बाबू को नमस्कार करके सुरेश ने हँसकर कहा-देखिए निराश न कीजिएगा। और फिर एक बार अचला की तरफ ताककर, अपना निवेदन चुपचाप बताकर वह धीरे-धीरे चला गया।
दूसरे दिन समय पर सुरेश की गाड़ी पहुँच गयी। केदार बाबू तैयार ही थे, बेटी के साथ न्योते पर चल पड़े।
सुरेश के फाटक के अन्दर दाखिल होते ही केदार बाबू दंग रह गये। सुरेश बड़ा आदमी है-यह मालूम था, लेकिन कितना बड़ा-केवल अन्दाज से इसका अनुमान करते थे। आज इस बात से वे निश्चिन्त हो गये।
सुरेश ने आकर दोनों का स्वागत किया। हँसकर बोला-महिम की जिद लेकिन तोड़ी न जा सकी। कल दोपहर से पहले, इस घर में कदम रखने को वह हर्गिज तैयार नहीं हुआ!!
केदार बाबू ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया। तीनों जने बैठक में पहुँचे, कि एक प्रौढ़ा स्त्री दरवाजे की ओट से अन्दर आकर, अचला का हाथ पकड़ कर उसे भीतर लिवा गयी। उनके कमरे के फर्श पर एक कालीन बिछा था। उसी पर जतन से अचला को बैठा कर अपना परिचय दिया। बोलीं-नाते में मैं तुम्हारी सास होती हूँ, बहू! मैं महिम की फूफी हूँ।
अचला ने प्रणाम करके उनके पैरों की धूल ली। अचरज से उनकी तरफ देखकर पूछा-आप यहाँ कब आयी?
महिम की फूफी हैं, इसका उसे पता न था। प्रौढ़ा उसके अचरज का कारण समझ गयी। हँसकर बोली-मैं यहीं रहती हूँ बिटिया-मैं सुरेश की फूफी हूँ! महिम भी तो मेरा बिराना नहीं, इसलिये उसकी भी फूफी लगती हूँ!!
उनके स्वाभाविक कोमल स्वर में कुछ ऐसा ही स्नेह और हार्दिकता जाहिर हुई, कि अचला का हृदय आलोड़ित हो उठा। उसके माँ नहीं, इस कमी को जरा भी पूरा करे, ऐसी कोई औरत भी घर में नहीं रही। होश होने तक पिता के ही स्नेह में पली; लेकिन उस स्नेह ने उसके हृदय के कितने अंश को खाली रख छोड़ा था, वह एक पल में साफ झलक पड़ा-जब पराये घर की, पराई फूफी ने ‘बहू’ कहकर उसे आदर से बैठाया। शुरू में इस नये सम्बोधन से वह शर्मा गयी थी-पर इसकी मधुरता, इसका गौरव उसके नारी-हृदय की अतल गहराई में देर तक गूँजता रहा!
देखते-ही-देखते दोनों में बातों का सिलसिला जम गया। अचला ने लजाते हुए पूछा-अच्छा फूफी, आपने तो मुझे अपने पास बैठाया, ब्राह्म लड़की के नाते घृणा तो नहीं की आपने?
फूफी ने झट अपनी अँगुली के छोर से उसका चुम्बन लेते हुए कहा-तुमसे घृणा क्यों करूँ बिटिया? जरा हँसकर कहा-चूँकि हम हिन्दू हैं, इसलिये क्या ऐसे निर्बोध, इतने ही न हैं बहू, कि अलग धर्म के नाते तुम्हारी जैसी लड़की को भी पास बैठाने में हिचकें? घृणा तो दूर की बात है!
अचला को बड़ी शर्म आयी। बोली-मुझे माफ करें फूफी! मुझे मालमू नहीं था। अपने समाज के बाहर की किसी स्त्री से मैं कभी मिल नहीं पायी; केवल सुना था कि वे हमसे बहुत घृणा करती हैं-यहाँ तक कि साथ बैठने-खड़े होने पर भी उन्हें स्नान करना पड़ता है।
फूफी ने कहा-वह घृणा नहीं है बेटी, वह एक आचार है! हमारे बाहरी आचरण देखकर बहुत बार हम ऐसी ही लगती हैं; पर सच मानो-वास्तव में घृणा हम किसी से नहीं करतीं!! हमारे गाँव में बागदी चाची अभी जिन्दा हैं। उसे मैं कितना चाहती हूँ, कह नहीं सकती!
कुछ क्षण रुककर बोलीं-अच्छा, तुमसे एक बात पूछूँ-सुरेश की बातचीत से या आज मुझे देखकर तुम्हें इसकी याद आयी?
सुरेश का जिक्र आ गया, सो अचला धीरे-धीरे बोली-हाँ, एक बार उन्होंने भी कहा था!
फूफी ने कहा-उसकी यही आदत है! कुछ ख्याल आये कि बस खैर नहीं-चारों तरफ वही कहता फिरेगा!! ब्राह्मों से कभी मिले बिना ही उसने सोच लिया कि वह उनसे बहुत घृणा करता है। इसी बात पर कितनी बार महिम से लड़ाई होते-होते रही। मगर मैंने ही तो उसे एक प्रकार से पाला है-मैं जानती हूँ, वह किसी से घृणा नहीं करता-करने की मजाल भी नहीं! यही समझो न, जिस रोज से उसने तुम लोगों को देखा…
लेकिन अपनी बात वे पूरी न कर सकीं, अचला के मुँह पर नजर पड़ते ही सहसा थम गयी। फूफी उन दोनों के सम्बन्ध के बारे में कहाँ तक जानती है, यह न समझते हुए भी, अचला को सन्देह हुआ कि कम-से-कम कुछ तो फूफी जानती है। कुछ क्षण के लिये दोनों चुप हो रहीं; अपनी क्षणिक शर्म को दबाकर अचला ने दूसरी बात छेड़ दी। कहा-सुरेश बाबू को क्या आपने ही पाला था, फूफी?
आवेग-विभोर होकर फूफी ने कहा-हाँ बेटी, मैंने ही तो पाला है! दो ही साल की उम्र में माँ-बाप को खो बैठा था। मेरा वह भार अभी तक सिर से नहीं उतरा। किसी की दुःख-तकलीफ, आफत-मुसीबत वह सह नहीं सकता, प्राण की आशा-भरोसा छोड़कर खतरे में कूद पड़ता है। मैं जो दिन-रात किस कदर डरते-डरते काटती हूँ, यह तुमसे क्या बताऊँ बहू!
अचला ने धीरे से पूछा-फैजाबाद वाली घटना सुनी आपने?
फूफी ने गर्दन हिलाकर कहा-क्यों नहीं बहू, सुनी है! तभी तो भगवान से मनाती रहती हूँ-हे भगवान, इन आँखों अब मुझे वह सब न देखना पड़े-माथे पर लात रखकर मुझे रसातल में मत बोर देना! यह मैं हर्गिज बर्दाश्त नहीं कर सकूँगी!! कहते-कहते उनका गला रुँध गया। उनकी मातृ-स्नेह से सनी उस कातर प्रार्थना को सुनकर अचला की आँखें सजल हो गयीं। करुण-कण्ठ से बोली-आप मना क्यों नहीं करतीं फूफी?
आँसुओं के अन्दर से जरा हँसकर फूफी ने कहा-मना! मेरे मना करने से क्या होना है बेटी? जिसके मना करने से कुछ हो सकता है, मैं कितने सालों से उसी को तो खोजती-फिरती हूँ! परन्तु वह तो जिस-तिस लड़की का काम नहीं!! जो उसे बचा सके, वैसी लड़की भगवान न मिलायें तो मैं कहाँ पाऊँ?
अचला थोड़ी देर चुप रही। उसके बाद पूछा-आपकी पसन्द की लड़की कहीं मिल नहीं रही है?
फूफी ने कहा-तुमसे कहा तो बिटिया, भगवान न मिलायें तो कोई कभी नहीं पाता। जो सुरेश इस बात पर कान ही नहीं देता, वह जब एक दिन खुद आकर बोला कि फूफी, अब तुम्हें एक दासी मैं ला दूँगा। उस दिन मुझे कितनी खुशी हुई, वह शब्दों में नहीं बतायी जा सकती! मन-ही-मन आशीर्वाद देकर मैं बोली-तेरे मुँह फूल-चन्दन बेटे! वह दिन कब आयेगा, जब बहू-बेटे को परछ कर घर लाऊँगी!! मैंने लाख कहा-सुरेश, एक बार मुझे दिखा तो ला; पर किसी भी तरह राजी न हुआ। हँसते हुए बोला-जिस दिन आशीर्वाद देने जाओगी, दिन तै कर आना! उसके बाद अचानक एक दिन आकर बोला-मामला ठीक बैठा नहीं फूफी। मैं रात को पश्चिम जा रहा हूँ। मैं पूछती रह गयी-क्या ठीक नहीं बैठा, खोलकर बात बता मुझे; लेकिन कोई बात न बतायी; रात ही चला गया। मैंने मन में सोचा-केवल मेरे बेटे की इच्छा से ही तो नहीं होने का; उस लड़की की भी तो जन्म-जन्मान्तर की तपस्या चाहिए! है न बेटी?
अचला ने चुपचाप सिर हिलाया। अब उसने समझा कि वह लड़की कौन है-फूफी यह नहीं जानतीं। एक बार तो लगा कि कलेजे पर से एक पत्थर उतर गया-मगर वह पत्थर यों ही नहीं उतरा, कलेजे के बहुत-से हिस्से को पीस-खरोंच गया है, यह दूसरे ही क्षण वह महसूस करने लगी।
खाने की तैयारी हुई, तो फूफी ने अचला को अलग बैठाकर खिलाया; और साथ-साथ एक-एक कमरा, एक-एक चीज घुमाकर दिखाने के बाद एक निःश्वास छोड़ती हुई बोली-बेटी, भगवान की दया से, कमी किसी बात की नहीं-मगर यह तो मानो लक्ष्मीविहीन बैकुण्ठ है! कभी-कभी तो मेरे आँसू रोके नहीं रुकते!!
नौकर ने आकर खबर दी-बाहर केदारबाबू जाने के लिये तैयार हैं। अचला ने उन्हें प्रणाम किया, पैरों की धूल ली। फूफी ने उसका हाथ थाम कर जरा झिझकती हुई फुसफुसाकर कहा-एक बात पूछूँ, अगर और कुछ न सोचो!
अचला उनकी ओर देखकर सिर्फ जरा हँसी।
फूफी बोलीं-सुरेश से मैंने तुम्हारे और महिम के बारे में सब कुछ सुना है। उसी से यह सुना कि चूँकि वह गरीब है, शायद इसलिये तुम्हारे पिता की इच्छा न थी। सिर्फ तुम्हारी ही वजह से…
सिर झुकाकर अचला ने धीमे से कहा-सच ही है फूफी!
फूफी अकस्मात, मानो उमड़े आवेग से अचला के दोनों हाथ पकड़कर बोल उठीं-यही चाहिए बेटी! जिसको प्यार किया है, उसके सामने रुपया-पैसा धन-दौलत की क्या बिसात? मन में कोई गिला न रक्खो। मैं महिम को खूब जानती हूँ, वह ऐसा ही लड़का है कि उसके लिये जितना ही दुःख चाहे क्यों न उठाओ-भगवान की दया से, एक दिन वह सब सार्थक होगा! भगवान् इतने महान प्यार की हर्गिज हेठी नहीं कर सकते, यह मैं निश्चित कह सकती हूँ!!
अचला ने झुककर फिर एक बार उनके चरणों की धूल ली। उसकी ठोढ़ी को छूकर चुम्बन करते हुए फूफी बोलीं-आह! काश ऐसी ही बहू के साथ मैं भी गिरस्थी कर पाती।
सुरेश ने जाकर दोनों को गाड़ी पर सवार कराया, और नमस्कार करके चुपचाप लौट आया। लौटते समय, लालटेन की रोशनी में उसके चेहरे ने पल को अचला का ध्यान खींचा; उस चेहरे में क्या था, ईश्वर जानें; लेकिन रुलाई उसके कण्ठ तक उमड़ आयी-घोड़ा गाड़ी तेजी से रास्ते पर पहुँच गयी। रास्ते की भीड़ कम हो गयी थी, उधर देखकर उसे अचानक लगा-अब तक वह मानो एक बहुत बड़ा ख्वाब देख रही थी। वह ख्वाब दुःख का था या सुख का-कहना मुश्किल था। केदार बाबू अब तक चुप ही थे-शायद सुरेश का ऐश्वर्य ही अभी तक उनके दिमाग में चक्कर काटता रहा था। अचानक एक लम्बा निःश्वास लेकर बोले-बेशक धनी है!
लेकिन लड़की की ओर से कोई चेष्टा न झलकी। उत्साह के अभाव में बाकी रास्ता वे चुप ही रहे।
गाड़ी जब उनके दरवाजे पर लगी और कोचवान दरवाजा खोलकर हटकर खड़ा हो गया, तो मानो एक बार उनको चेत हुआ। एक उसाँस खींच कर बोले-सुरेश को हम बिल्कुल नहीं पहचान सके! देवता है वह!!
(14)
आज अचला का विवाह था। विवाह-मण्डप की राह में एक पल के लिये सुरेश पर उसकी नजर पड़ी थी। उसके बाद वह न जाने कहाँ गायब हो गया, केदार बाबू के यहाँ रात-भर में उसका पता न चला।
ब्याह हो गया। दो-एक दिन अचला के मन में उथल-पुथल सी होती रही। उस रात सुरेश की फूफी ने जो कही, वे बातें वह भूल नहीं पा रही थी-आज उसका अन्त हुआ।
महिम की अटल गम्भीरता आज भी बनी रही। खुशी-गम का कुछ भी बाहरी प्रकाश उसके चेहरे पर न दिखा। तो भी शुभदृष्टि¹ की घड़ी में वही मुखड़ा देखकर अचला का हृदय आनन्द और माधुर्य से भर उठा। मन-ही-मन पति के चरणों पर सिर रखकर अपने तईं बोली-प्रभु, अब मुझे कोई डर नहीं; तुम्हारे साथ जहाँ भी, जिस अवस्था में ही क्यों न रहूँ, वहीं मेरा स्वर्ग है! आज से, तुम्हारा झोंपड़ा ही मेरा राजप्रासाद है!!
उसके ससुराल जाने के दिन, कुरते के आस्तीन से आँखें पोंछते हुए केदार बाबू ने कहा-मैं आशीर्वाद देता हूँ बेटी-पति के साथ दुःख और गरीबी का सामना करते हुए, जीवन के मार्ग पर, कर्त्तव्य के पथ पर आगे बढ़ो! ईश्वर तुम्हारा कल्याण करें।-कहते हुए उसी तरह आँखें पोंछते-पोंछते बगल के कमरे में चले गये।
उसके बाद सावन के एक धुँधले-से दिन को, दोपहर में, माथे पर बारिश थमे मेघ भरे आकाश, और नीचे सँकरी कीचभरी फिसलन वाली राह से, पालकी पर चढ़कर अचला अपनी ससुराल पहुँची। लेकिन इतने से ही रास्ते में उसके नये विवाह का आधा आनन्द उड़ गया।
देहात से उसका परिचय छापे के अक्षरों से ही था। उस परिचय में दुःख-दरिद्रता के हजारों संकेतों के बावजूद, एक-एक पंक्ति में कविता थी, कल्पना की खुशबू थी। पालकी से उतर कर घर के अन्दर जाकर उसने एक बार चारों तरफ देखा-कहीं से भी, किसी ओर से भी कवित्व का जरा भी माधुर्य उसके जी को न छू सका। उसकी कल्पना का गाँव, प्रत्यक्ष में ऐसा आनन्दहीन, ऐसा सूना है-कच्चे मकान के कमरे ऐसे सील वाले, अँधेरे दरवाजे, खिड़कियाँ इतनी छोटी और सँकरी, ऊपर बाँस का छप्पर इतना भद्दा-इसे वह स्वप्न में भी न सोच सकी। इसी घर में जिन्दगी बितानी पड़ेगी-यह सोच कर उसका कलेजा मानो टूक-टूक होने लगा। पति मिलन का सुख, विवाह की खुशियाँ सब माया-मरीचिका-सी उसके हृदय से तुरन्त काफूर हो गयीं। घर में सास, ससुर, नन्द, देवरानी-कोई नहीं। दूर के रिश्ते की एक दादीजी स्वेच्छा से, वर-वधू के परिछन के लिये दूसरे टोले से आयी थीं। ब्याह की जिस साज-पोशाक की वे आदी थीं, उनकी निहायत कमी देखकर वे अत्यन्त अचरज से कुछ देर चुप खड़ी रहीं; अन्त में बहू का हाथ पकड़ कर उसे अन्दर ले जाकर बैठा दिया। टोले की जो औरतें बहू को देखने के लिये दौड़ी आयीं, अचला की उम्र देखकर उन्होंने एक-दूसरे का मुँह देखा, एक-दूसरे के बदन पर चिकोटी काटी, और उनके लौटते समय अस्फुट स्वर में-बरह्म, म्लेच्छ आदि दो-एक मोटे शब्द भी अचला के कानों पहुँचे।
बात-की-बात में तमाम गाँव में यह बात फैल गयी, कि यह बात सच है कि महिम एक म्लेच्छ लड़की को उठा लाया है। विवाह के पहले ही ऐसी एक अफवाह, आन्दोलन और आलोचना चल चुकी थी; अब बहू को देखकर किसी को तिल-भर भी सन्देह न रहा, कि जो बात फैली थी वह सोलहों आने सही है!
पड़ोसिनों के लौट जाने पर दादीजी ने आकर कहा-तो बहु, आज अब चलती हूँ! काफी दूर जाना है, और बिना गये चलने का नहीं! छोटा पोता-इत्यादि कहते-कहते, आग्रह-अनुरोध का मौका दिये बिना ही वे चली गयीं। वे एक नाते की सोच कर ही अब तक जा नहीं पा रही थीं-और जाने को छटपटा रही थीं-अचला यह ताड़ गयी थी। दादीजी का दोष भी न था। अगर वे जानतीं कि मामला इस हद तक पहुँचेगा, तो शायद आती भी नहीं। क्योंकि गाँव में रहे और इन बातों से न डरे-देहात के इतिहास में इतने चौड़े-कलेजे का उदाहरण दुर्लभ है!
दादीजी के चल देने के बाद नौकर जद्दू, उड़िया रसोइया, और मैके से साथ आयी दाई हरिया की माँ के सिवा, विवाह वाला घर बिल्कुल सूना हो गया। थोड़ी देर के लिये बारिश थम गयी थी-फिर बूँदा-बाँदी शुरू हो गयी। हरिया की माँ नजदीक आकर बोली-दीदी, ऐसा घर तो मैंने देखा ही नहीं-कोई कहीं नहीं…
अचला मुँह नीचा किये बैठी थी। अनमनी-सी सिर्फ-‘हूँ’ बोली।
हरिया की माँ ने फिर कहा-दामाद जी तो नहीं दिख रहे हैं! बस एक बार झलक दिखाकर जो गये…
अचला ने इस बात का भी जवाब नहीं दिया।
वन-जंगल भरी इस शून्य पुरी में हरिया की माँ का अपना जी चाहे जितना धकधक करता हो-अचला को उसने छुटपन से ही पाला था; उसे जरा सचेत करने की गरज से बोली-डरना क्या, आखिर हम पानी में तो नहीं आ-डूबे हैं! दामादजी आ जायें, सब ठीक हो जायेगा! तब तक ये कपड़े उतारो, मैं बक्से में से कपड़े निकाल देती हूँ।
अभी छोड़ो हरिया की माँ-कहकर अचला उसी तरह सिर झुकाये, काठ की मूरत-सी बैठी रही। जीवन का सारा स्वाद, सारी खुशबू उड़ चुकी थी।
बारिश जम गयी। उस बढ़ती जाती वर्षा में न जाने कब दिन की क्षीण आभा बुझ गयी, कब सावन के गाढ़े मेघ-स्तर को चीर कर उदास गाँव में संध्या उतरी-कुछ भी पता न चला। सिर्फ अँधेरे कमरे के कोने-कोने में गीला अँधेरा चुपचाप गाढ़ा होने लगा। जद्दू ने आकर कमरे में लालटेन रख दी। हरिया की माँ ने पूछा-और दामादजी कहाँ हैं?
क्या पता-कहकर जद्दू लौटने लगा। उसके मुख्तसर और भद्दे जवाब से हरिया की माँ ने शंकित होकर कहा-यह ‘क्या पता’ क्या हुआ? वे बाहर नहीं है क्या?
नहीं-कहकर जद्दू चला गया। यह खूब समझ में आया कि वह इन आगन्तुकों से प्रसन्न नहीं है। बहुत भयभीत होकर हरिया की माँ अचला के पास जाकर बोली-रंग-ढंग तो मुझे अच्छा नहीं दीख रहा, दीदी! दरवाजे की कुण्डी लगा दूँ?
अचला ने अचरज से कहा-कुण्डी क्यों लगायेगी?
हरिया की माँ छुटपन में ही गाँव छोड़कर कलकत्ते आयी थी, फिर कभी नहीं गयी। देहात के चोर, डकैत, लठैत आदि के किस्सों की याद के सिवा सब कुछ उसके लिये धुँधला हो गया था। बाहर के अँधेरे पर एक चकित दृष्टि डालकर अचला के बदन से सटते हुए उसने कहा-कुछ कहना मुश्किल है दीदी! कहते-ही कहते उसके बदन के रोयें खड़े हो गये।
ठीक ऐसे समय आँगन में से आवाज आयी-दीदीजी कहाँ हैं?-और कहते-कहते ही, बीस-इक्कीस साल की एक दुबली-पतली-सी लड़की, भीगती हुई, दरवाजे के पास आकर खड़ी हुई: बोली-पहले आपको प्रणाम कर लूँ दीदीजी, फिर गीले कपडे़ बदलूँगी-और अचला के पैरों के पास झुककर उसने प्रणाम किया तथा अचला के मुँह के पास लालटेन उठाकर देखते हुए चीख उठी-सँझले भैया-ओ सँझले भैया!
घर आकर महिम खुद इस लड़की को लाने गया था। बगल के कमरे से आवाज आयी-क्या है मृणालिनी?
-इधर आओ न, बताती हूँ।
कमरे के बाहर खड़ा होकर महिम ने कहा-बोल?
मृणाल ने लालटेन की रोशनी में और एक बार अच्छी तरह से अचला का मुँह देखकर कहा-नः; तुम्हीं जीत गये! मुझसे शादी करके ठगा जाते भैया तुम!
महिम ने बाहर से डाँट बतायी-तू मेरी बात मानेगी नहीं मृणाल? फिर दिल्लगी? नहीं मानेगी तू?
वाः-दिल्लगी कैसी?-अचला की ओर देखकर बोली-मजाक नहीं दीदीजी, कसम ले लो! अच्छा, अपने उनसे ही पूछ देखो, कि कभी उन्होंने मुझे पसन्द किया था कि नहीं?
महिम ने कहा-तो तू करती रह बक-बक, मैं बाहर चला!
मृणाल बोली-सो जाओ, मैंने क्या पकड़ रक्खा है तुम्हें? बड़े स्नेह से एक बार अचला की ठोढ़ी को हिलाकर कहा-तुम्ही बताओ बहन, डाह नहीं होती? इस गिरस्ती की मालकिन मैं ही होने वाली थी! मगर मेरी मुँहजली माँ ने न जाने क्या मन्तर सँझले भैया के कानों भर दिया, कि मैं इसे फूटी आँखों से भी न सुहाने लगी। अरे जद्दू-घोषाल जी कहाँ गये?
जद्दू ने कहा-हाथ-पाँव धोने के लिये पोखरे की तरफ गये!
ऐं! इस अँधेरे में पोखरे की तरफ?-मृणाल का हँसता मुखड़ा एक ही क्षण में दुश्चिन्ता से मलिन हो गया। घबराकर बोली-जद्दू, जरा लालटेन लेकर देख भैया उन्हें! बूढ़ा आदमी कहीं गिर-पड़कर हाथ-पाँव तोड़ लेगा।
उसके बाद अचला की तरफ देखकर लजाती हुई बोली-क्या नसीब लेकर आयी थी, दीदीजी-कहाँ के एक महाबूढ़े को ला दिया मुझे-उसकी सेवा करते-करते और उसे सम्भालते-सम्भालते ही जान गयी मेरी! अच्छा बहन, पहले मैं गीले कपड़े बदलकर आऊँ, फिर बातें होंगी। मगर सौत कहकर नाराज न होना-कहे देती हूँ; मैं अपने बुड्ढे का भी हिस्सा दूँगी तुम्हें!-कहकर हँसी की छटा से सारे कमरे को चमकाती हुई वह जल्दी से चली गयी।
इस तरह के हँसी-मजाक से अचला को कभी साबका नहीं पड़ा। सारा मजाक उसे ऐसा भद्दा और कुरुचिपूर्ण लग रहा था, कि लज्जा के मारे वह सकुचा गयी। वह सोच भी नहीं सकती थी कि ऐसी निर्लज्ज-प्रगल्भता भी किसी औरत में हो सकती है। लिहाजा यह रसिकता उसके जीवन-भर की शिक्षा और संस्कार की बुनियाद पर चोट पहुँचा रही थी। इतने पर भी उसे लग रहा था कि इसके आ जाने से, उसके निर्वासन की पीड़ा का आधा तो छूमन्तर हो गया; और यह कौन है, कहाँ से आयी, इससे नाता क्या है-ये सब बातें जानने के लिये वह उत्सुक हो उठी।
हरिया की माँ ने पूछा-यह है कौन, दीदी? बड़ी मजाकिया है!
अचला ने गर्दन हिलाकर सिर्फ ‘हाँ’ कहा!
मृणाल कपड़े बदलकर आयी। बोली-हँसी-मजाक करके ही चली गयी दीदीजी, अपना असली परिचय अभी तक नहीं दिया मैंने। मगर परिचय भी वैसा क्या है? असल में तुम्हारे ‘वे’ जो हैं, वे मेरी माँ के बाप हैं। इसीलिये मैं छुटपन से सँझले भैया कहा करती हूँ। इतना कहकर वह एक क्षण चुप रहकर फिर बोली-मेरे पिता और तुम्हारे ससुर, दोनों बड़े दोस्त थे। अचानक गाड़ी के नीचे आ जाने से पिताजी का जब हाथ टूट गया और नौकरी चली गयी, तो तुम्हारे ससुर ने सबको अपने यहाँ जगह दी। उसके बहुत दिनों के बाद मेरा जन्म हुआ। सँझले दादा उस समय आठ साल के थे। उनकी माँ तो उनके जन्मते ही चल बसी थीं-दो बड़े लड़के पहले ही डिप्थीरिया से गुजर चुके थे। सो आते ही मेरी माँ इस घर की सब कुछ हो गयी थीं। उसके बाद मेरे पिताजी चल बसे-हम लोग यहीं रहे। उसके बाद तुम्हारे ससुर गुजर गये, हम लोग लेकिन रही गये यहाँ! पाँच साल हुए, पलासी के घोषाल-परिवार में मेरी शादी करके सँझले दादा ने मुझे दूर हटा दिया! माँ जिन्दा होती, तो कुछ भरोसा भी होता!
बड़ी बहू यहाँ हो? कहते हुए, नाटे कद के गोरे-गोरे-से एक बूढ़े सज्जन दरवाजे के पास आकर खड़े हुए।
मृणाल ने कहा-आओ-आओ! अचला की ओर देखकर होंठ दबाए हँसती हुई बोली-दीदीजी यही हैं अपने पतिदेव! अच्छा, तुम्ही बताओ, इस खूसट बूढ़े के बगल में सोहती हूँ मैं? इस जन्म का रूप-यौवन सब मिट्टी नहीं हो गया बहन?
अचला जवाब क्या दे, लाज से उसने सिर झुका लिया।
उन सज्जन का नाम था भवानी घोषाल। हँसकर बोले-आप इनकी सुनें मत दीदीजी-सब सफेद झूठ! इनकी यही कोशिश रहती है कि मुझे उड़ा दें! नहीं तो मेरी उम्र तो महज बावन या ति…
मृणाल बोली-चुप भी रहो, बहुत हुआ! यह सँझले दादा मेरा कितना दुश्मन है, भगवान ही जानते हैं! मुझे चारों तरफ से मिट्टी कर छोड़ा-अच्छा, इस बूढ़े के जिम्मे देने के बजाय, हाथ-पाँव बाँधकर मुझे पानी में डाल देना बेहतर नहीं होता, दीदीजी? तुम्हीं कहो बहन!
अचला वैसे ही सिर झुकाये बैठी रही।
घोषाल धीरे-धीरे अन्दर आये। अचला के लजीले झुके हुए मुख को कुछ देर चुपचाप देखते रहकर अचानक बोल उठे-आपने मेरी जान बचा ली दीदीजी-अब जाकर इस छोरी का गुमान जाता रहा! अचानक खूबसूरती के घमण्ड से यह आँख से देख नहीं पाती थी!! और पत्नी की ओर देखकर बोले-क्यों, हुआ न? जंगली इलाके में अब तक गीदड़ राजा; शहर का रूप किसे कहते हैं, आँख खोलकर देख लो!
मृणाल बोली-अच्छा, यह बात! मेरा घमण्ड जहाँ है-किसी की मजाल है जो तोड़े? कहकर उसने पति की तरफ छिपा कटाक्ष किया, लेकिन अचला ने देख लिया।
घोषाल हँसकर बोले-सुन लिया न दीदी-जरा सँभलकर रहियेगा! इन दोनों में जैसी पटती है, जैसा आना-जाना है कि कुछ कहा नहीं जा सकता!! और मैं तो खूसट बूढ़ा ठहरा, बीच में हूँ तो क्या, न हूँ तो क्या? अपने उनको सँभाले रहें-इस बूढ़े की यही बिनती है!
-मृणाल, तमाम रात तुम लोग यही करती रहोगी?-महिम ने आकर कहा।
-क्या करूँ?
-रसोई की तरफ नहीं जायेगी?
मृणाल उछल पड़ी-उफ् कैसी गलती हो गयी? उस उड़िया रसोइया को पहले ही देख आना चाहिए था। अच्छा, तुम लोग जाओ बाहर, हम जा रही हैं!
महिम ने पूछा-हम कौन?
मृणाल ने कहा-मैं और दीदीजी! फिर अचला से बोली-जब मैं आ गयी हूँ, तो इस गिरस्ती का सब कुछ तुम्हें समझाकर तब जाऊँगी!
महिम और भवानी बाहर चले गये। मृणाल ने अचला से कहा-मुझे दो दिन पहले आना चाहिए था। मगर सास के दमे के चलते, घर से निकल ही न पायी! अच्छा तुम कपड़े बदल डालो; मैं इतने में आती हूँ, आकर तुम्हें ले चलूँगी। मृणाल रसोई में चली गयी।
बारिश थम गयी थी, और गाढ़ी बदली छँटकर, नौमी की चाँदनी में आसमान बहुत कुछ साफ होता आ रहा था।
रसोई का सारा इन्तजाम करके मृणाल आकर अचला के पास बैठी। उसका एक हाथ अपने हाथ में लेकर बोली-इस दीदीजी से सँझली दी कहना कहीं अच्छा है, क्यों सँझली दी?
अचला ने धीमे से कहा-हाँ।
मृणाल बोली-रिश्ते में गरचे तुम बड़ी हो, मगर उम्र में मैं बड़ी हूँ। मुझे भी तुम मृणाल दीदी कहना, क्यों?
अचला ने कहा-अच्छा।
मृणाल बोली-आज तुम्हें रसोई दिखा लायी। कल एकबारगी भण्डार की कुंजी अँचरे के छोर में बाँध दूँगी, है न?
अचला ने कहा-कुँजी से मुझे कोई काम नहीं, बहन!
मृणाल बोली-काम नहीं है? बाप रे, यह कैसी बात! भण्डार आखिर कोई मामूली चीज है सँझली दी कि कह रही हो कुंजी से कोई काम नहीं? मालकिन की रियासत की वही तो राजधानी है!
अचला बोली-बला से राजधानी है, मुझे उसका लोभ नहीं! लेकिन तुम पर मुझे बहुत लोभ है!! इतनी आसानी से छोड़ नहीं देने की, मृणाल दीदी!!!
मृणाल ने दोनों बाँहों में अचला को लपेट लिया। कहा-सौत को झाड़ू मारकर भगाने के बजाय रोक रखना चाहती हो, तुम्हारी यह कैसी अकल है सँझली दी?
अचला ने धीमे-धीमे कहा-मगर तुम्हारे ये मजाक अच्छे नहीं लगे, बहन! इधर क्या सब ऐसे ही मजाक करते हैं?
मृणाल खिलखिलाकर हँस उठी-नहीं-नहीं दीदीजी, सब नहीं करते-मैं ही करती हूँ! सबको यह चीज नसीब कहाँ कि करें?
अचला बोली-नसीब हो तो भी हम ऐसी बात जबान पर नहीं ला सकतीं, बहन! हमारे कलकत्ते के समाज में, बहुत-से लोग तो शायद यह सोच भी नहीं सकते, कि कोई भद्र स्त्री यह सब जबान पर ला भी सकती है!
मृणाल मगर जरा भी लज्जित न हुई, बल्कि अचला को फिर एक बार गले से लगाते हुए बोली-तुम्हारे शहर की कितनी भद्र महिलाएँ इस तरह से गले लगा सकती हैं, यह तो कहो सँझली दी? सबसे क्या सब काम होता है? तुम्हें मैंने कितनी देर को देखा है, इसी में ऐसा लगता है कि मेरी कोई बहन न थी, एक छोटी बहन मिल गयी! और यह सहज बात नहीं, जिन्दगी भर मुझे इसका सबूत देना पड़ेगा, याद रखना!! इसमें हँसी-मजाक नहीं चलने का!!!
अचला पढ़ी-लिखी थी। गाँव के इस विरोधी समाज में उसका भावी जीवन कैसे कटेगा, यह घर में कदम रखते ही वह समझ गयी थी। उसने इस मौके को सहज ही नहीं छोड़ दिया। परिहास को गम्भीरता में बदलकर बोली-अच्छा, मृणाल दीदी, सच ही क्या इसका सबूत तुम जीवन-भर जुगाती रहोगी?
मृणाल ने कहा-आखिर हम शहर की तो हैं नहीं बहन-बेशक जुगाना होगा! तुम्हें छूकर जो शपथ ली, मर जाऊँ, मगर पलटा तो इसे सकती नहीं!!
उस बात को और ज्यादा न चलाकर अचला ने दूसरी बात उठायी। हँसकर कहा-जल्दी चली नहीं जाओगी, यह भी वैसे ही कहो!
मृणाल हँस पड़ी। बोली-बेवकूफ जानकर और भी फन्दे में डालना चाहती हो, सँझली दी? मगर मैंने तो पहले ही कह दिया-ठीक से तुम्हें सब समझाये-बुझाये बिना न मानूँगी!
अचला ने सिर हिलाकर कहा-यह चार्ज लेने का आग्रह मुझे बिल्कुल नहीं।
मृणाल ने कहा-वही मैं कर लूँगी, तब जाऊँगी! ज्यादा दिन तो घर छोड़ने की गुंजाइश नहीं, बहन! जानती हो, कितनी बड़ी गिरस्ती है मेरे माथे के ऊपर?
अचला ने सिर हिलाकर कहा-नहीं, नहीं जानती।
मृणाल ने चौंककर कहा-सँझले दादा ने मेरे बारे में पहले तुमसे जिक्र नहीं किया?
अचला बोली-नहीं, कभी नहीं! अपने घर-द्वार के बारे में सब कुछ बताया था; लेकिन जो सबसे पहले बताना चाहिए था, वही तुम्हारे बारे में क्यों जो नहीं बताया, मुझे बड़ा अचरज लग रहा है!
मृणाल ने अनमने भाव से कहा-सो तो है!
अचला कुछ देर चुप रही। फिर हँसती हुई धीमे से बोली-पहले शायद तुमसे इनकी शादी की बात चली थी?
मृणाल तब भी अनमनी-सी सोच रही थी कुछ। बोली-हाँ।
अचला ने कहा-फिर हुई क्यों नहीं? होना ही तो ठीक होता!
अब इस बात ने मृणाल के कानों में चोट की। अचला की ओर नजर उठाकर बोली-वह होना न था, न हुआ!
अचला ने तो भी पूछा-होने में अड़चन क्या थी? तुम कुछ उनके नाते-रिश्ते की तो थी नहीं? इसके सिवा छुटपन में जो प्रेम पनपता है, उसकी उपेक्षा करना भी तो ठीक नहीं!
उसके पूछने के ढंग से मृणाल एकाएक चौंक उठी। जरा देर थिर निगाहों से अचला की ओर ताककर कहा-इस तरह तुम क्या टटोल रही हो, सँझली दी? तुम्हारा क्या ख्याल है, छुटपन के हर प्यार का यही आखिरी अंजाम है? या कि मनुष्य ब्याह कर देने में समर्थ है? यह सिर्फ इस जन्म का नहीं सँझली दी, जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध है! जिनकी मैं सदा-सदा की दासी हूँ, उन्हीं के हाथों इन्होंने सौंप दिया मुझे। मनुष्य की इच्छा-अनिच्छा से क्या आता-जाता है?
अचला अप्रतिभ होकर बोली-ठीक है मृणाल दीदी-मैं वही पूछ रही थी।
बात वह पूरी नहीं कर सकी, चेहरा लाज से लाल हो उठा। मृणाल से यह छिपा न रहा। उसने अचला का हाथ अपनी मुट्ठी में लेकर स्नेह से कहा-सँझली दी, तुम्हें अभी उसी दिन पति मिला है, मगर मैं पाँच साल से उनकी सेवा कर रही हूँ! मेरी एक बात रखना, पति की इस दिशा को कभी अकल से आविष्कार करने की कोशिश मत करना! इसमें ठगी जाओ, वह भी बेहतर; लेकिन जीतने में लाभ नहीं!!
जद्दू ने बाहर से आवाज दी-दीदी, बाबुओं का आसन लगा दिया गया।
अच्छा, चल, मैं आयी-कहकर मृणाल हठात् दोनों हाथ बढ़ाकर अचला का मुखड़ा नजदीक खींचकर, उसे चूमकर जल्दी-जल्दी चली गयी।
(15)
-अरे ओ सँझली दी!
अचला घबराकर बगल के कमरे से आ पहुँची।
मृणाल ने कमर में फेंटा कस रक्खा था, और एक दराज को-अकेली ही सीधा करके रख रही थी। अचला के आते ही रंज होने का दिखावा करती हुई चिल्लाई-अरी मुँहजली, तुम हाथ-पाँव समेटे बैठी रहोगी, और तुम्हारे सोने का कमरा मैं सँवार दूँगी? उठाओ झाड़ू उस कोने को बुहार डालो! और हँसी न सँभाल पाकर खिलखिला उठी।
शोर सुनकर हरिया की माँ भी पीछे लगी आयी। बोली-तुम भी खूब कहती हो दीदी! इनके घर कितने तो नौकर-नौकरानी हैं-इन्हें झाड़ू छूने की कभी आदत भी है कि आप देहाती औरतों की तरह झाड़ू लगायें? मैं बुहार देती हूँ-कहकर वह झाड़ू उठाने लगी कि मृणाल ने डाँट बतायी-तू छोड़ भी! अपनी दीदी को मुझसे ज्यादा जानती है-कि बीच में पंच बनने आयी है? मृणाल ने जबरन झाड़ू अचला के हाथ में देकर कहा-अरे, तेरी दीदी चाहे तो वह काम करे, जो कोड़ियों देहाती स्त्रिायाँ ने कर सकें! अचला से बोली-लो तो सँझली दी, उस कोने को झटपट बुहार दो!
अचला बुहारने लगी-तुम जादू जानती हो, मृणाल दीदी?
-कैसे, कहो तो?
अचला बोली-नहीं तो मैं भला घर बुहारने को झाड़ू उठाती? यह जादू नहीं तो क्या है?
मृणाल बोली-तुम नहीं उठाओगी तो कौन उठायेगी? तुम्हारा घर बुहारने के लिये उस टोले से जद्दू की मौसी आयेगी? लो, बातों में समय मत बिताओ, साँझ हो चली!
काम करते-करते अचला ने हँसकर कहा-खुद भी घड़ी-भर को न बैठोगी, और मुझको भी काम करा-कराके मार डालोगी। सच कहती हूँ-ये पाँच-छः दिन तुमने मुझसे जो करारी मेहनत कराई-कि चाय-बागान के मालिक भी कुलियों से नहीं कराते!
उसकी ठोढ़ी पर अँगुली की मीठी चोट मारकर मृणाल बोली-जभी तो घर-अँगना देखकर लगता है कि लछमी आयी है! मेहनत की कहती हो सँझली दी? पति-पुत्र, घर-गिरस्ती के चलते जब नहाने-खाने का समय न पाओगी, तभी तो औरत का जनम सार्थक होगा। भगवान से मनाती हूँ, तुम्हारा वह दिन आये-मेहनत अभी हुई क्या है मलकिनी जी?-कहकर उसने हँसना चाहा, पर होंठ काँप गये।
हरिया की माँ अचानक फक् से रो पड़ी। बोली-यही आशीर्वाद दो दीदी, यही आशीर्वाद दो! उसे अचला की माँ की याद आ गयी। वह साध्वी जब असमय में ही चल बसीं, तो इत्ती-सी अपनी इस बच्ची को हरिया की माँ के ही हाथों सौंप गयी थीं। वही बच्ची अब इतनी बड़ी होकर पति की गिरस्ती करने आयी है।
मृणाल ने उसे डाँटकर कहा-अरी दईमारी, रोने क्या लगी? हरिया की माँ आँसू पोंछती हुई बोली-रोती क्या शौक से हूँ दीदी? तुम्हारी बात से, रुलाई रोके नहीं रुकती! तुम्हारी कसम, तुम नहीं आतीं-तो इस घर से हमारी एक रात भी कैसे कटती, सोच नहीं पाती हूँ!
छः दिन हुए मृणाल इस घर में आयी है। और आने के वक्त से ही, घर-द्वार से लेकर यहाँ के लोगों तक की शक्ल बदल देने में जुट गयी है। लेकिन उसके हर काम, हर हँसी-मजाक में उसके वापस जाने का आभास, अचला को बड़ा दुःखाता था। क्योंकि मृणाल के बात-काम, आचार-व्यवहार में एक इतनी बड़ी आत्मीयता थी कि उसकी ओट में खड़ी होकर, उझककर अचला अपने नये जीवन, अनचीन्ही गिरस्ती को चीन्ह लेने का मौका पा रही थी, और इससे भी एक बड़ी चीज को अच्छी तरह तथा खास तौर से पहचानने का कौतूहल हुआ था, वह स्वयं मृणाल को। उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं, यह उसके दो नंगे हाथों को देखने से ही समझ में आ जाता-फिर स्वास्थ्यविहीन बूढ़े स्वामी, जो किसी ओर से उसके उपयुक्त नहीं, तिस पर घर में मशक्कत की हद नहीं-बूढ़ी सास अब-मरी-तब मरी हालत में गले-से झूल रही है, वजह-बे-वजह उसकी बक-झक का अन्त नहीं-यह उसने मृणाल से ही सुना। लेकिन कोई भी प्रतिकूलता मानो सताकर, इस औरत को जीवन यात्रा के मार्ग में निश्चेष्ट करके नहीं बैठा सकती। मन के खुशी-गम के सिवा बाहर किसी चीज का जैसे कोई अस्तित्व ही नहीं-कुछ ऐसा ही भाव था इस देहाती स्त्री का। लगातार साथ रह कर वह समझ रही थी-कमल जैसे कीच में पैदा होते हुए भी कीच से परे है वैसे ही देहात की यह गरीब अपढ़ लड़की भी, रात-दिन हर तरह के दुःख-कष्टों की गोदी में रहते हुए भी, सभी प्रकार की व्यथा-पीड़ा से ऊपर ही तिरती चलती है। न तो उसे देह की क्लांति है, न मुँह की शान्ति। लिहाजा अचला को भी वह सारे अनभ्यस्त कामों में घसीटे चल रही थी। गोकि वैसे किसी काम से उसकी शिक्षा-दीक्षा, उसके संस्कार का कोई मेल नहीं था। तो भी अचला को यही लगता था कि मुँह फेरकर खड़ी रहना बहुत बड़ी शर्म की बात है। अपने भाग्य को कोसते हुए जरा देर बैठकर पछताए, इन छः दिनों में इतना भी समय उसे नहीं मिला-सारे समय को काम, गपशप, हँसी-खुशी से ऐसा ही भर रखा था उसने। इसीलिये जब वह लौट जाने को कहती, अचला को लगता-तुरन्त यह मिट्टी का मकान, द्वार-खिड़की समेत-पल भर में ताश के महल-सा औंधा उलट जायेगा। मृणाल दीदी के चले जाने पर वह एक पल भी यहाँ टिकेगी कैसे?
साँझ के बाद एक बार अचला ने कहा-यह हरघड़ी जो तुम चलने की कहती हो-मैके आकर कौन इतनी जल्दी लौट जाना चाहती है, कहो तो? यह नहीं होने का। जब तक मैं कलकत्ते नहीं लौट जाती, तुम्हें रहना ही पड़ेगा!!
मृणाल बोली-क्या करूँ सँझली दीदी, सास बूढ़ी न आप मरेगी, न मुझे जीने देगी! मैं कहती हूँ, तू मर जा बूढ़ी!! तेरे बेटे की उम्र साठ की हो गयी, क्या अन्त में उसको निगलकर तब तू जायेगी? मगर रात-दिन इतनी जो खाँसती है, दम तो फिर भी नहीं घुटता!
अचला हँसकर बोली-शायद तुमको वह देख नहीं सकतीं?
मृणाल सिर हिलाकर बोली-फूटी आँखों नहीं!
अचला ने पूछा-और तुम?
मृणाल बोली-मैं भी नहीं! मैंने तो मन्नत मान रखी है-कि बुढ़िया गुजरे तो सवा रुपये का प्रसाद चढ़ाऊँ!!
अचला ने सिर हिलाकर कहा-लेकिन यकीन नहीं आता, दीदी! तुम्हें संसार में कौन सुहाता है-तुम्हारी बातों से यह समझना मुश्किल है!! शायद हो कि इस बुढ़िया को ही तुम सबसे ज्यादा चाहती हो!!!
मृणाल ने कहा-सबसे ज्यादा चाहती हूँ? हो शायद! कहकर उसने अचला का गाल मसल दिया और चली गयी।
अब गयी, अब गयी करते-करते भी मृणाल के कुछ दिन निकल गये। एक दिन अचानक अचला को यह लगा कि उसे जाने की जितनी जुबानी जल्दी है, सचमुच जाने की उतनी नहीं! सचमुच ही जाने को वह वास्तव में उतनी उत्सुक नहीं। अब तक उसकी आड़ में खड़ी हो वह दुनिया को जैसे पहचाने ले रही थी; अब उसके आवरण के बाहर आकर दुनिया की वह शक्ल उसकी आँखों में न रही। यहाँ आने के बाद से ही जब भी उसे पति से कभी मजाक करते देखा-उसके जी में छन् से लगा, अब लेकिन बीच-बीच में सुई चुभने लगी है। यह सब कुछ भी नहीं, इसमें मजाक के सिवा और कुछ नहीं, जी-खराब करने की बात ही नहीं-मेरा ही मन बड़ा पापी है-इस तरह से अपने को रोकने की जितनी भी चेष्टा करती-उतने ही, जाने कहाँ से संशय के ठीक उलटे तर्क उसके हृदय में, न चाहते हुए भी बार-बार मुँह निकाल कर उसे मुँह चिढ़ाया करते। महिम की स्वाभाविक गम्भीरता उसे ज्यादती सी लगती। वह वितर्क करती-जब मन में कुछ है नहीं, तो मजाक के बदले मजाक करने में क्या गुनाह है? जो मजाक से उत्तर नहीं दे सकता, वह कम-से-कम हँसकर उसका लुत्फ तो ले सकता है! लेकिन वह साफ देखा करती, कि मृणाल मजाक किया चाहती कि महिम तुरन्त भागकर जान-बचाता। सो वह इन दिनों इस चिन्ता को किसी भी तरह अपने मन से नहीं निकाल पाती, कि इसमें कोई अन्याय जरूर छिपा है। लगातार मृणाल के साथ कामकाज करते हुए भी हजार बार उसके जी में आता-कि औरत होकर, जी में ईर्ष्या की पीड़ा पालते हुए भी जब मैं इसके किसी तरह से छोड़ नहीं सकती, तो इतने दिनों तक साथ रहकर-कोई पुरुष क्या इस स्त्री को प्यार किये बिना रह सकता है?
अचला को यह न मालूम था, कि मृणाल के आते ही उड़िया रसोइया की जान का छुटकारा हो जाता था। अब की वह छुट्टी पाकर घूमता-फिर रहा था। अचला लेकिन यही गौर से देखती रही, कि अपने हाथों पकाकर महिम को खिलाना मृणाल को हृदय से अच्छा लगता। आज सुबह अचानक वह बोल उठी-मृणाल दीदी, आज तुम्हारी छुट्टी!
मृणाल समझ नहीं सकी। पूछा-काहे की सँझली दी?
अचला ने कहा-रसोई की! आज मैं रसोई करूँगी।
मृणाल अवाक् होकर बोली-हाय रे नसीब, तुम क्या रसोई करोगी?
अचला ने सिर हिलाकर कहा-वाह, मैं जैसे जानती ही नहीं! घर में कितनी ही बार मैंने पकाया है! आज नहीं मानूँगी, मैं आज जरूर रसोई करूँगी!!
उसकी जिद्द देखकर मृणाल म्लान हो गयी! बोली-अरे, यह भी होता है कहीं! मेरे रहते तुम किस दुःख से धुएँ में कष्ट करोगी?
उसके भाव को ध्यान से देखकर अचला और अड़ गयी-फिर रसोइया के होते तुम्हीं क्यों कष्ट उठाती हो? इस बेला मैं जरूर रसोई करूँगी!
उसे क्यों यह जिद्द हुई, मृणाल कुछ भी समझ नहीं सकी। वह हँसी दबाकर, बनावटी रूसने के ढंग पर बोली-वाह री लड़की! एक-एक कर तुम मेरा सब कुछ छीन लिया चाहती हो? सब तो ले चुकीं, दो दिन पकाकर खिला जाऊँ, यह भी शायद बर्दाश्त नहीं हो रहा? सौत की डाह शुरू हो गयी!
अचला के कलेजे के अन्दर फिर छिन्-से लगा। मृणाल की अन्तिम बात ने उसकी डाह की पीड़ा पर चोट की। वह जरा देर गम्भीर हो गयी, और बोली-नहीं, आज मैं ही पकाऊँगी!
मृणाल ने देखा-अचला रंज हो गयी है। सो उसने और विवाद नहीं किया। उदास होकर बोली-ठीक है, तुम्हीं पकाओ! चलो, मैं तुम्हें दिखा आऊँ, कहाँ पर क्या है।
महिम घर ही में था-यह बात दोनों में से किसी को मालूम न थी। अचानक उसे सामने देखकर दोनों अप्रतिभ हो गयीं।
उसने अचला से कहा-जब तक मृणाल है, वही रसोई करे न!
एतराज वह क्यों कर रही थी-महिम यह जानता था; पर यह तो खोलकर कहा नहीं जा सकता।
अचला और भी जल उठी। लेकिन गुस्से को पीकर सिर्फ बोली-नहीं, मैं ही रसोई करूँगी-और किसी बात का इन्तजार किये बिना वह चली गयी।
अचला जबर्दस्ती रसोई करने चली गयी। रसोई करने में वह किसी से कम नहीं थी, लेकिन इस ओर वह ध्यान ही नहीं दे सकी। पिछले दिनों के सारे किस्से हिलते-डुलते उसे चुभने लगे। उसे लगने लगा-शायद महिम कभी भी उसे वैसा प्यार नहीं कर सका है! विवाह से कुछ ही पहले सुरेश से जो ठन गयी थी, उन बातों को खोद-खोदकर याद करके, आज वह मानो साफ देख पाई कि महिम सदा से ही उसके प्रति उदासीन है। यहाँ तक कि पिताजी की राय से पहला रिश्ता जब बिल्कुल टूट जाने को था, उस समय भी महिम जरा भी नहीं डगमगाया-इसमें उसे जरा भी सन्देह न रहा!!!
जब से यहाँ आयी, मृणाल और अचला एकसाथ खाने बैठती थीं। दोपहर को अचला ने, मृणाल को बुलाने के लिये हरिया की माँ को भेजा और इन्तजार करती रही। हरिया की माँ ने लौटकर बताया-उन्हें बुखार-सा हो आया है, वे नहीं खाएँगी!
अचला कुछ बोली नहीं। मृणाल के कमरे में गर्यी। मृणाल आँखें बन्द किये पड़ी थी। अचला ने कहा-मृणाल दीदी, चलो खा लें न!
मृणाल ने आँखें खोलकर देखा। मुस्कराती हुई बोली-तुम चलकर खा लो सँझली दी, मेरी तबियत ठीक नहीं!
अचला ने रूखे स्वर से पूछा-क्या हुआ? बुखार?
मृणाल ने कहा-वैसा ही लग रहा है! आजा फाका कर लूँ, ठीक हो जायेगा।
अचला ने झुककर मृणाल के कपाल का ताप देखकर कहा-मैं वैसी बेवकूफ नहीं हूँ दीदी, चलो खा लें न!
मृणाल सिर हिलाकर बोली-कसम सँझली दी, मैं कहती हूँ, खाने का उपाय नहीं! नाहक ही तुम कष्ट उठाकर मुझे बुलाने आयीं!! बल्कि चलो, मैं चलकर तुम्हारे पास बैठती हूँ!!!
अचला सख्त होकर बोली-एक भूखी मित्र को सामने बैठाकर खुद खाने की शिक्षा हमें नहीं मिली है, मृणाल दीदी!
मृणाल फिर भी हँसने की कोशिश करती हुई बोली-मगर मित्र के खाने की गुंजाइश न हो तब?
अचला ने उसी भाव से जवाब दिया-उपाय है क्यों नहीं, सुनूँ जरा? तुम्हें दरअसल बुखार नहीं हुआ है, हुआ है गुस्सा! खुद न खाकर मुझे भी भूखे मारने की ख्वाहिश हो, तो खोलकर कहो, मैं तंग न करूँगी!!
मृणाल झट उठकर झोंक में कह गयी-पति की सौगन्ध खाकर कहती हूँ सँझली दी, मैंने नाम को भी गुस्सा नहीं किया है! लेकिन खाने का सचमुच कोई उपाय नहीं!! चलो, मैं तुम्हें गोदी में बैठाकर खिलाऊँ!
अचला बोली-तो मतलब कि बुखार-उखार नहीं, बहाना है!
मृणाल चुप रह गयी। अचला खुद भी कुछ देर स्तब्ध-सी रहकर एक निःश्वास छोड़कर बोली-अब समझी! लेकिन तुमने शुरू में ही कह दिया होता दीदी, कि तुम मेरा छुआ घृणा से मुँह में नहीं रख सकोगी-तो नाहक जिद करके मैं तुम्हें भी तकलीफ न देती-और नौकर-दासियों के आगे खुद भी शर्मिन्दगी में न पड़ती!! खैर, मुझे माफ करना बहन-लेकिन दूध तो नहीं छुआ ना, एक कटोरा दूध ही ला दूँ-और जद्दू दुकान से मिठाई ले आये, क्यों?
पहले तो मृणाल काठ की मारी-सी रह गयी, जरा देर में वह स्थिति जाती भी रही, तो भी वह कुछ बोली नहीं, मुँह झुकाए चुप बैठी रही।
अचला ने फिर टोका-क्या कहती हो?
आँचल से आँखें पोंछकर मृणाल बोली-अभी छोड़ो!
अचला कुछ क्षण चुपचाप खड़ी रही, फिर धीरे-धीरे चली गयी।
मृणाल ने न सिर उठाया, न बात की। बुढ़िया सास के लिये उसे पकाना पड़ता है। वे बेहद अन्धविश्वासी हैं। कहीं यह सुन लें, तो उसके हाथ का पानी तक न छुएंगी-अचला को उसने इसका आभास तक नहीं दिया।
अचला रसोई में गयी। वहाँ का काम-काज कर लिया-और हाथ धोकर अपने कमरे में जाकर पड़ रही। लेकिन और चाहे जिस कारण से भी हो, केवल घृणा से ही मृणाल ने उसके हाथ की रसोई नहीं खाई-इसे अचला मन में झूठ ही समझती थी, इसीलिये उसने जानकर इस तरह का आघात पहुँचाया। अगर सच समझती, तो वह मुँह से उच्चारण भी नहीं कर पाती। पर जिस सुबह की शुरुआत कलह से हुई, उसकी दोपहर को भगवान् ने किसी की किस्मत में भोजन नहीं दिया था-इसे दोनों ने मन-ही-मन समझा।
तीसरे पहर बैलगाड़ी दरवाजे पर आकर खड़ी हुई, मृणाल अचला के कमरे में गयी और कहा-नमस्ते करने आयी हूँ सँझली दी, अपने घर जा रही हूँ! जी में कभी आये, तो बुलाना, फिर हाजिर हो जाऊँगी!! थोड़ा थमकर बोली-जाने के समय बात भी नहीं करोगी बहन? कहकर कुछ देर उत्सुकता से देखती रही।
लेकिन अचला एक शब्द न बोली। जैसे बैठी थी, सिर झुकाये वैसी ही बैठी रही। उसके कमरे से निकलते ही मृणाल ने देख-महिम घर आ रहा है। बोली-जरा रुक जाओ सँझले दादा, तुम्हें भी प्रणाम कर लूँ!
महिम ने पूछा-बिना खाए ही चल दी मृणाल? न हो आज की रात रहकर सुबह जाना!
मृणाल सिर्फ जरा होठों में हँसकर बोली-नहीं-नहीं, जद्दू गाड़ी ले आया। आज मैं जाती हूँ!! फिर कभी ले आना!!! यह कहकर उसने गले में अँचरा डालकर उसे प्रणाम किया, और चरणों की धूल ली। कहा-मेरे सिर की कसम, और एक बार बुलाना भूल मत जाना!
आज महिम हँस पड़ा। बोला-जलमुँही, तेरी आदत क्या कभी जायेगी नहीं? मरने पर जायेगी, उसके पहले नहीं-फिर एक बार हँसकर वह गाड़ी पर जा बैठी।
मृणाल अचानक आज ही चली जा सकती है-अचला ने यह कल्पना भी न की थी। मृणाल ने खुद नहीं खाया, न ही उसे खाने दिया, इसकी सबसे बड़ी सजा कैसे देगी-कमरे में अकेली बैठी अब तक यही सोच रही थी। जो प्यार करता है, उसे घृणा करने का दोष लगाने जैसी बड़ी सजा दूसरी नहीं-यह बात प्यार ही कह देता है! मृणाल के लिये यही सजा तजबीज करके अचला बैठी थी। मृणाल इसे ब्राह्म लड़की समझकर हृदय से घृणा करती है-उठते-बैठते यही उलाहना देकर इसका बदला चुकाने का निश्चय किया था, सो बेकार हो गया।
लेकिन भूखी मृणाल जब विदा लेकर कमरे से बाहर चली गयी, तो उसकी भी आँखें आँसुओं से भर गयी थीं; पर मृणाल के होंठों की उस रत्ती-भर हँसी की आवाज ने लमहे में, सूखे मरु की नाईं उस निकले आँसू को सोख लिया-और किवाड़ की आड़ से उन दोनों की विदाई का दृश्य देख, ठीक वज्र-गिरे पेड़ की नाईं जलती रही।
थोड़ी देर में जब महिम अन्दर आया, तो अचला का स्वाभाविक धीरज जड़ से खत्म हो चुका था। फिर भी लेकिन उसकी सदा की शिक्षा और संस्कार ने उसे इतरता से बचाया। जी-जान से अपने को जब्त करके, वह सख्त हँसी हँसकर बोली-शहर के आदमी के देहात में आकर बसने जैसी विडम्बना थोड़ी ही है, है न?
महिम ने स्त्री के मुँह की तरफ देखा, और कुछ क्षण चुप रहकर बोला-तुम अपने बारे में कह रही हो न? मैं समझ रहा था-शुरू में तुम्हें तरह-तरह का कष्ट होगा; लेकिन मृणाल से तुम्हारी बनेगी नहीं, यह नहीं सोच सकता था। क्योंकि उससे कभी किसी की लड़ाई नहीं हुई।
अचला बोली-लेकिन मुझी से मुहल्ले भर की सदा लड़ाई होती है, यही तुमने कहाँ सुना?
महिम ने धीरे-धीरे कहा-तुमने दिनभर खाया-पीया नहीं-छोड़ो, इस बात की अभी जरूरत नहीं!
अचला और भी जल-भुनकर बोली-मृणाल दीदी भी तो बिना खाए ही घर गयीं, लेकिन उनसे तो हँसकर बात करने में तुम्हें आपत्ति नहीं हुई!
महिम ने आश्चर्य से कहा-यह सब तुम क्या कह रही हो?
अचला बोली-यही कह रही हूँ कि मैंने कौन-सा ऐसा बहुत बड़ा अपराध किया, कि जिसके लिये मेरा अपमान किये बिना नहीं चल रहा था?
महिम ने हतबुद्धि होकर वही प्रश्न फिर पूछा। कहाँ-क्या कह रही हो, मतलब क्या है इन बातों का?
अचला अचानक जोर से बोल उठी-मतलब यही कि किस कसूर पर मेरा यह अपमान किया तुमने? मैंने क्या किया?
महिम विह्नल हो उठा-मैंने तुम्हारा अपमान किया?
अचला ने कहा-हाँ, तुमने!
महिम ने प्रतिवाद किया-झूठी बात!
अचला क्षणभर के लिये स्तम्भित हो रही। उसके बाद स्वर को कोमल करके कहा-मैं कभी झूठ नहीं बोलती! खैर, उसे छोड़ो, अगर तुम्हें सत्यवादी होने का अभिमान हो तो सच्चा जवाब दो!!
महिम उत्सुक आँखों से सिर्फ देखता रहा।
अचला ने कहा-मृणाल दीदी आज जो कुछ करके चली गयीं, उसे क्या तुम्हारे देहाती समाज में अपमान नहीं कहते?
महिम बोला-लेकिन उसमें मुझे क्यों घसीट रही हो?
अचला ने कहा-बताती हूँ। पहले यह कहो कि उसे यहाँ क्या कहते हैं?
महिम बोला-खैर, वही अगर हो…
अचला ने टोककर कहा-अगर हो नहीं, ठीक जवाब दो!
महिम बोला-हाँ, गाँव में भी लोग अपमान ही समझते हैं।
अचला बोली-समझते हैं न? फिर सब जान-सुनकर तुमने अपमान कराया है! तुम्हें बेशक पता था कि वे मेरा छुआ नहीं खायेंगी!! ठीक है या नहीं? कहकर अपलक आँखों से ताकती हुई, वह महिम के कलेजे के भीतर तक अपनी जलती निगाह गड़ाने लगी। महिम वैसा ही अभिभूत-सा देखता रहा-मुँह से एक शब्द भी न निकला।
ठीक ऐसे समय में बाहर से सुरेश की आवाज आयी-महिम, अरे कहाँ हो भाई-
(16)
-अरे, सुरेश! आओ-आओ, अन्दर आओ!! सब मजे में?
महिम का स्वागत-भाषण समाप्त होने के पहले ही, सुरेश सामने आकर खड़ा हुआ। हाथ के ग्लैडस्टोन बैग को उतार कर बोला-हाँ, मजे में! मगर यह क्या अकेले खड़े हो? अचला बहूरानी पल में सचला होकर कहाँ अन्तध्र्यान हो गयीं? उनकी ऊँची आवाज ने तो मोड़ पर से ही-मुझे इस घर का पता बताया!
वास्तव में अचला की आखिरी बात नाराजगी में जरा जोर से निकली थी, वह घर के बाहर ही सुरेश के कानों तक पहुँची थी।
सुरेश ने कहा-देख लिया महिम, विदुषी स्त्री पाने का कितना बड़ा लाभ है? कै दिन हुए आये, और इसी बीच देहात के प्रेमालाप के ढंग तक को ऐसा हासिल कर लिया कि उसमें त्रुटि निकाल सके-देहात की स्त्री में भी ऐसी मजाल नहीं!
शर्म के मारे महिम का कान तक रंग गया। वह चुप खड़ा रहा।
सुरेश ने कमरे की ओर देखकर, अचला को लक्ष्य करके कहा-‘बड़े बेमौके आकर मजा किरकिरा कर दिया भाभी, माफ करना! महिम, अरे खड़े हो? बैठने को कुछ हो तो ले चलो, जरा बैठूँ! चलते-चलते तो पाँव की गाँठें टूट गयीं-अच्छी जगह घर बनाया था भैया! चलो-चलो!!
चलो-कहकर महिम ने उसे बाहरी बैठक में ले जाकर बैठाया!!
सुरेश ने कहा-भाभी मेरे सामने न आयेंगी क्या? पर्दानशीन?
सुरेश के जवाब देने से पहले ही, अचला बगल का दरवाजा ठेलकर अन्दर आयी। उसके चेहरे पर कलह की जरा भी निशानी नहीं। प्रसन्न मुख हो बोली-यह सौभाग्य तो आशातीत है! मगर यों अचानक?
उसके प्रसन्न-हँसते चेहरे से सुख-सौभाग्य के निखरे विकास की कल्पना करके, सुरेश का कलेजा डाह से मानो जल उठा। हाथ उठाकर उसने नमस्कार किया। कहा-लगता है, यों अचानक आकर मैंने ठीक नहीं किया है-मगर हो क्या रहा था अभी? जीमपत पितेज कपिमतमदबम या जब से आयी हैं, मतभेद चल रहा है? कौन-सा ठीक है?
अचला ने हँसते हुए कहा-कौन-सा सुनने पर आप खुश होंगे? दूसरा है न? तो फिर मेरा वही कहना ठीक है-अतिथि का मन छोटा करना ठीक नहीं!
सुरेश का मुँह गम्भीर हो गया। बोला-किसने कहा? घर की मालकिन का वही तो असली काम है, वही पक्का परिचय है!
अचला ने हँसते हुए कहा-घर ही नहीं, तो घर की मालकिन कैसी! गरीब के इस झोंपड़े में आपकी रात कैसे बीतेगी-इसी की चिन्ता हो रही है मुझे। मगर धन्य हैं आप, जान कर यह दुःख उठाने आये!
पति की ओर देखकर बोली-अच्छा, नयन बाबू से कहकर चन्द्र बाबू के यहाँ रात को इनके सोने का इन्तजाम नहीं कराया जा सकता? उनका घर पक्का है-बैठका भी है। इन्हें कोई तकलीफ न होगी!
सौजन्य की आड़ में दोनों के श्लेष के इन वारों से महिम का मन अधीर हो रहा था। मगर इसे रोके कैसे, समझ नहीं आ रहा था-ऐसे में सुरेश ने खुद ही इसका प्रतिकार किया। हाथ जोड़कर बोल उठा-पहले जरा चाय-वाय दो भाभी, पीकर जरा संजीदा हो लूँ, फिर नयन बाबू से कहो और श्रवण बाबू से कहो-चन्द्र बाबू के पक्के घर में सोने की सिफारिश पर भी राजी हूँ। मगर चाहे जो कहा महिम, इस गाँव-घर पर ऐसा खिंचाव होना तो खुशी की बात है!
महिम की ओर से अचला ने ही जवाब दिया। हँसकर कहा-खुशी होना न होना किसी के अपने ऊपर है; लेकिन यह मेरे ससुर का घर है-इस पर खिंचाव न हो ओर बड़े लाट के भवन पर हो, तो वही तो झूठ है! खैर, पहले संजीदा हो लीजिए, फिर बातें होंगी! मैं चाय के लिये पानी रखने को कह आयी हूँ। पाँचेक मिनट में चाय करती हूँ-तब तक मुँह बन्द करके जरा आराम कीजिए। कहकर हँसती हुई अचला चली गयी।
उसके वहाँ से जाते ही सुरेश के जी की जलन मानो बढ़ गयी। अपने को वह सदा कमजोर और चंचल चित्त का ही जानता था-और उसके लिये उसे लज्जा या क्षोभ भी न था। छुटपन में, महिम से उसकी तुलना करते हुए जब संगी-साथी उसे सनकी-ख्याली आदि कहा करते, तो वह मन-ही-मन खुश होकर कहता, कि यह सही है, कि मुझमें निश्चय की दृढ़ता नहीं, प्रवृत्ति से मैं मजबूर हूँ-किन्तु दिल मेरा साफ है, मैं कभी नीच या छोटा काम नहीं कर सकता। मैं अपनी आमदनी समझकर खर्च करना नहीं जानता, अच्छे-बुरे का विचार करके तब दान नहीं करता-मगर मेरा जी रो उठे तो बदन का कपड़ा तक किसी को दे आने में मुझे झिझक नहीं होती-सो जिसकी भी और जिस कारण से भी हो; मगर मेरे बारे में किसी को भी शिकायत करने की गुंजाइश नहीं कि सुरेश ने किसी से डाह की है या कि स्वार्थ के लिये ऐसा कुछ किया है-जो उसे नहीं करना चाहिए था। लिहाजा शुरू से दिल के मामले में जिसकी बेहद कमजोर होने की बदनामी थी-और खुद भी जिसे वह सत्य ही मानता था, उसी सुरेश ने जब अचला के सम्बन्ध में अन्तिम क्षण में अपने ऐसे कठोर संयम का परिचय पाया, तो अपने में इस अज्ञात शक्ति के आभास से न केवल खुश हुआ-बल्कि गर्व से उसकी छाती फूल गयी। अचला के विवाह के बाद दो दिनों तक वह अपने को यह कहता रहा कि मैं कमजोर और लाचार नहीं-प्रवृत्ति का गुलाम नहीं हूँ-जरूरत हो तो मन से सारी प्रवृत्ति को ही कुरेद कर फेंक दे सकता हूँ। अब मेरे मित्र और उनकी पत्नी यह सोचा करें-कि दोस्ती क्या चीज होती है और उसके लिये कोई कितना त्याग कर सकता है?
लेकिन किसी भी झूठ से ज्यादा दिनों तक कोई दरार भरकर नहीं रक्खी जा सकती। उसका आत्म-संयम सत्य न था, वह आत्म-प्रतारणा थी! नतीजा यह हुआ कि एक हफ्ता गुजरते-न-गुजरते उसके झूठे संयम का यह मोह-फूले हुए हृदय से धीरे-धीरे निकल कर उसे बड़ा संकुचित कर देने लगा। उसका मन बार-बार कहने लगा-इस त्याग से उसे क्या मिला? इस त्याग ने उसे क्या दिया? अब किस सहारे से वह अपने को खड़ा रक्खेगा? फूफी कहेंगी-बेटे, अब तुम ऐसी बहू ले आओ, उसके सहारे गिरस्ती सम्हालूँ।
एक दिन समाज के फाटक पर केदार बाबू से भेंट हो गयी। उन्होंने साफ कहा, कि गलती हो गयी। महिम से अचला के ब्याह में वे शुरू से ही राजी न थे-लेकिन चूँकि सुरेश उदासीन-सा रहा, इसलिये लाचारी में राजी होना पड़ा। घर लौट कर उसका मन शाप देने लगा-कि इस विवाह से दोनों में से कोई सुखी न हों! मेरे मित्र भी औकात से बाहर जाने की गलती महसूस करें, और अचला भी अपनी भूल समझकर अफसोस की आग में जले। लेकिन जो भी हो, उसका दिल छोटा नहीं है। इस बुरा-चाहने के लिये वह अपने मन को तरह-तरह से दबाने लगा, पर उसका दुःखी और प्रताड़ित मन वश में न आया-जिद्दी लड़के की नाईं बार-बार उसी को दुहराने लगा। इसी तरह उसने एक महीना तो काटा, और एक दिन कुतूहल को दबा न पाकर-हाथ में बैग लिये महिम के घर जा पहुँचा।
सुरेश ने दोस्त की तरफ ताककर कहा-अब समझ रहे हो महिम, मेरी बात कितनी सही थी?
महिम ने पूछा-कौन-सी बात?
सुरेश ने विज्ञ जैसा कहा-देहात में मैं रहता जरूर नहीं हूँ, पर उसका सब कुछ मैं जानता हूँ! मैंने आगाह नहीं किया था तुम्हें, कि गाँव से, समाज से बड़ा विरोध होगा?
महिम ने सहज ही कहा-कहाँ, विरोध तो वैसा कुछ नहीं हुआ!
-विरोध और किसे कहते हैं? तुम्हारे यहाँ किसी ने भोजन किया? यही क्या काफी बेइज्जती नहीं?
-मैंने किसी को खाने के लिये कहा नहीं।
-नहीं कहा? अच्छा हाँ, दावत का मुझे तो न्यौता ही नहीं दिया!
-दावत ही नहीं हुई!
सुरेश ने अचरज से कहा-दावत नहीं हुई? ओ, तुम्हारा तो-लेकिन ऐसे कब तक खैर मनाओगे? आफत-मुसीबत है, बाल-बच्चों का जनेऊ-ब्याह है-दुनियादारी करो तो है क्या नहीं? मैं कहता हूँ…
जद्दू से चाय का सरंजाम लिवाए, खुद मिठाई की रकाबी लेकर अचला आयी। सुरेश की अन्तिम बात उसके कानों पहुँची थी, पर चेहरे के भाव से सुरेश उसे समझ न सका। दोनों दोस्तों का नाश्ता और चाय पीना हो चुका, तो कन्धे पर चादर रखकर महिम उठ खड़ा हुआ। गाँव का जमींदार था मुसलमान। महिम उसके लड़के को अँग्रेजी पढ़ाता था। जमींदार खुद लिखा-पढ़ा न था, मगर उदार था और महिम पर अच्छा ख्याल रखता था। इसीलिये समाज की दुहाई देकर गाँव के लोग उस पर जुल्म करने की हिम्मत न कर सके।
अचला ने कहा-आज पढ़ाने न जाते तो क्या था?
महिम बोला-क्यों?
अचला के मन की शक्ति और हृदय की निर्मलता जितनी बड़ी भी क्यों न हो-सुरेश से उसका सम्बन्ध जैसा हो गया था, कि उसके इस अचानक आगमन से कोई भी स्त्री संकोच किये बिना नहीं रह सकती। सुरेश को वह पहचानती थी। उसका हृदय चाहे जितना बड़ा हो, उसकी सनक पर उसे आस्था न थी, बल्कि डर ही लगता था। उसी के साथ उसे अकेली छोड़कर जाने के इस प्रस्ताव से वह उत्कण्ठित हो उठी, मगर चेहरे पर उसे जाहिर न होने दिया और बोली-खूब! यह भी होता है? मेहमान को अकेला छोड़कर…
महिम ने कहा-मेहमान-नवाजी में इससे कमी न होगी। फिर, तुम तो हो ही. ..
अचला ने धुकचुक करके कहा-लेकिन मैं भी नहीं रह सकूँगी। यह जो उड़िया रसोइया है अपना, ऐसा पक्का है यह कि उसके साथ न रहो, तो एक कौर भी मुँह में रखना मुश्किल। मैं बताऊँ, तुम बल्कि…
महिम ने सिर हिलाकर कहा-नहीं-नहीं, सो न होगा! महज घण्टे-दो-घण्टे की तो बात है!! और उसने कोने से अपनी छड़ी उठा ली। एक तो यों ही महिम का नियम टूटना मुश्किल, तिस पर एक मामूली-सी बात के लिये बार-बार आग्रह करने में भी अचला को शर्म आने लगी-कहीं इस डर का राज सुरेश को मालूम हो जाये तो और भी शर्मिन्दा न होना पड़े।
महिम धीरे-धीरे चला गया। उसे सुनाते हुए सुरेश ने अचला से कहा-नाहक ही जबान खोलना! शुरू से जानता हूँ, वह ऐसा आदमी ही नहीं कि किसी का कहा माने!! तुम मुझे कोई किताब देकर अपने काम में चली जाओ, मेरा समय मजे में कट जायेगा।
यह बात अचला को अचानक लग गयी। सच ही महिम कभी उसका कोई अनुरोध नहीं मानता। यह उसका एक बड़ा गुण हो चाहे, फिर भी सुरेश के मुँह से पति की इस कर्त्तव्य-निष्ठा की बात, उसी के सामने-उसे अपमानजनक उपेक्षा-सी लगी। वह कुछ बोली नहीं। जद्दू से एक किताब भिजवाकर वह रसोई में चली गयी।
काफी रात हुए जब सब सोने गये, तो महिम ने पूछा-सुरेश ने तुमसे कुछ कहा कि कितने दिन यहाँ रहेगा?
एक तो यों ही आज कई कारणों से वह पति पर प्रसन्न न थी, तिस पर इस पूछने में कुछ टेढ़ा व्यंग्य है-यह सोचकर वह कुढ़ गयी। रुखाई से पूछा-इसका मतलब?
महिम अवाक् हो गया। उसने सहज ही ढंग से जानना चाहा था, व्यंग्य-मजाक नहीं किया था। असल में इतनी देर की बातचीत में, संकोचवश वह मित्र से यह बात पूछ न सका, न सुरेश ने ही बताया। उसे उम्मीद थी कि सुरेश ने अचला को जरूर ही बताया होगा।
महिम को चुप देख अचला आप ही बोली-इस बात का अर्थ इतना आसान है कि तुमसे पूछने की भी जरूरत नहीं! तुम्हारा ख्याल है, सुरेश बाबू कुछ नीयत लेकर आये हैं, और उसे पूरा होने में कितना समय लगेगा-मैं समझती हूँ। यही न?
महिम कुछ देर चुप रहकर बोला-मेरा ऐसा कोई ख्याल नहीं! लेकिन मृणाल के व्यवहार से आज तुम्हारा मन ठीक नहीं है, तुम कुछ भी धीर होकर समझ नहीं सकोगी। आज सो जाओ, कल बातें होंगी! कहकर उसने करवट बदल ली।
अचला भी लेट गयी, पर उसे किसी भी प्रकार की नींद न आयी। उसके मन में दिनभर जो खीझ जमा होती रही थी-वह किसी झगड़े के रूप में निकल जाती तो शायद उसे चैन मिलता-लेकिन इस तरह से उसकी जुबान ही बन्द कर देने के कारण वह भीतर-ही-भीतर जलती रही। वह प्रसंग तो बन्द हो गया, जबर्दस्ती उसे खोदकर झगड़ने में जो कमीनापन है, अचला के लिये वह भी असम्भव था। सो कल्पना में ही पति को विपक्ष में खड़ा करके, सुलगते सवालों से घायल करती हुई वह बिस्तर पर छटपटाती रही।
नींद जरा देर से टूटी। हड़बड़ा कर अचला बाहर निकली कि देखा-जद्दू चाय की केतली हाथ में लिये रसोई की तरफ जा रहा है। पूछा-बाबू कुछ कह गये हैं?
जद्दू ने कहा-कह गये हैं-पहर भर में लौटेंगे!
अचला ने पूछा-नये बाबू जग गये हैं?
जद्दू बोला-जी! उन्होंने तो चाय के लिये कहा है।
अचला ने झटपट मुँह धोया, कपड़े बदले और बाहर निकली। देखा-सुरेश कब का तैयार हो चुका है। कमरे की सारी खिड़कियाँ खोल दी हैं, दरवाजे के सामने एक कुर्सी रखकर कलवाली किताब पढ़ रहा है। अचला के पैरों की आहट से उसने नजर उठाकर देखा। अचला के चेहरे पर, रात के जागने के सारे ही लक्षण साफ झलक रहे थे। आँखों के नीचे स्याही-सी, गाल फीके, होंठ सूखे-सुरेश देखने लगा और उसका जी डाह की आग से जलने लगा; मगर अपनी नजर वह किसी भी तरफ हटा न सका । उसके देखने के ढंग से अचला को अचरज हुआ, लेकिन वह मतलब न समझ सकी। बोली-कब जगे आप? मुझे तो उठने में आज देर हो गयी।
वही तो देख रहा हूँ-कहकर सुरेश ने धीरे-धीरे गर्दन हिलाई, सामने की दीवार पर बड़ा-सा एक पुराना आयीना टँगा था-ठीक उसी समय आयीने की तरफ देखते ही, एक पल में अचला के सामने सुरेश की उस निगाह का अर्थ साफ हो गया, और अपनी श्रीहीनता की शर्म से वह मानो गड़ गयी। अपना यह मुँह वह कहाँ छिपाए, या सुरेश की मूल धारणा का प्रतिवाद करे-वह कुछ भी न सोच सकी, और जल्दी से कमरे से बाहर निकल गयी। कहती गयी-आपकी चाय ले आऊँ!
सुरेश कुछ नहीं बोला, एक लम्बी उसाँस भरकर वह सूनी आँखों देखता हुआ मौन बैठा रहा।
दसेक मिनट के बाद चाय लेकर अचला आयी, तो सुरेश अपने को सम्हाल चुका था। चाय का घूँट लेते हुए वह बोला-तुमने नहीं पी?
अचला हँसकर बोली-मैं अब नहीं पीती।
क्यों?
अब अच्छी नहीं लगती! तिस पर यह जगह शायद गर्म है, पीने से नींद नहीं आती। कल तो तमाम रात सो ही नहीं सकी। एक रात नींद न आये तो ऐसी बन जाती है सूरत, कि यह जला मुँह किसी को दिखाना मुश्किल! कहकर शर्माती हुई वह हँसने लगी। सुरेश कुछ क्षण चुप रहकर बोला-मगर यह तो तुम्हारी बचपन की आदत है! महिम अनुरोध नहीं करता, पीने का?
अचला हँसकर बोली-करे भी तो सुनता कौन है? और यह ऐसी चीज ही क्या है कि पिए बिना न चले?
अचला की यह हँसी सूखी थी, यह सुरेश ने स्पष्ट देखा। वह फिर कुछ देर चुप रहकर बोला-तुम्हें तो मालूम है, भूमिका बनाकर बात करने की मेरी आदत नहीं, मुझसे बनता भी नहीं! मगर तुमसे जी-खोलकर दो-एक बात पूछूँ तो नाराज होगी?
अचला हँसकर बोली-खूब है आपकी बात! नाराज क्यों होने लगी?
सुरेश ने कहा-खैर! तो यह पूछूँ, तुम यहाँ सुखी हो?
अचला का हँसता मुखड़ा लाल हो उठा। बोली-आपका यह पूछना भी उचित नहीं!
-उचित क्यों नहीं?
अचला सिर हिलाकर बोली-नहीं! मैं सुखी नहीं हूँ-यह बात आपके मन में आना ही नाजायज है!!
सुरेश जरा फीका हँसा। बोला-मन क्या कुछ जायज-नाजायज सोचकर विचार करता है अचला? महज दो महीने पहले, ऐसा सोचना मेरे लिये उचित ही नहीं, अधिकार था? इन दो महीनों के अरसे में वह अधिकार मेरा जाता रहा है, तो जाये, उसकी नालिश नहीं करूँगा-अब मैं केवल यह हकीकत जानकर जाना चाहता हूँ। जब से आया हूँ, कभी तो लगता है कि जीत गयी हो, कभी लगता है, हार गयी हो। मेरा मन भी तुमसे छिपा नहीं, एक बार सच-सच कहो तो क्या है?
रुलाई का एक बेरोक उफान अचला के गले तक उठ आया-लेकिन जी-जान से उसे रोककर, जोरों से सिर हिलाकर बोली-मैं मजे में हूँ।
सुरेश ने धीमे से कहा-ठीक है!
इसके बाद कुछ देर तक, दोनों में से किसी को जैसे कोई शब्द ढूँढ़े न मिला।
अचानक चौंककर सुरेश बोला-और एक बात, मैंने तुम्हारे लिये इतना झेला, यह तुम्हें कभी…
अचला ने दोनों कानों में अँगुली डालकर कहा-माफ करें, यह चर्चा आप न करें!
दोनों हाथ खुले दरवाजे में फैलाकर, भागने की राह रोकते हुए सुरेश ने कहा-नहीं, माफ मैं नहीं कर सकता, तुम्हें सुनना ही पड़ेगा!
सुरेश की आँखों में वही दृष्टि-जिसकी याद आते ही अचला आज भी सिहर उठती है। थोड़ा पीछे हटकर डरती हुई बोली-अच्छा, कहिए।
सुरेश बोला-डरो मत, बदन में हाथ न लगाऊँगा-इतना होश अभी है! सुरेश फिर कुर्सी पर बैठ गया। बोला-इतना तो तुम्हें याद रखना ही होगा कि तुम पर अपना अधिकार मैं गर्चे खो चुका हूँ, पर मेरे ऊपर तुम्हारा सारा अधिकार है! टोककर अचला ने कहा-इसे याद रखने में मुझे कोई लाभ नहीं, लेकिन… कहते-कहते उसने देखा, इस बात ने चोट पहुँचाकर सुरेश को बदरंग बना दिया, और तुरन्त खुद भी उसने महसूस किया कि उसे भी अफसोस ने चोट की है।
वह कुछ देर चुप रही। फिर बोली-सुरेश बाबू, यह बातें सुनना मेरे लिये पाप है, और आपका भी बोलना उचित नहीं! आप ये बातें उठाकर मुझे क्यों दुःखाते हैं?
उसके चेहरे पर नजर रोककर सुरेश ने कहा-दुःख होता भी है, अचला?
अचला के मुँह से एकाएक निकल पड़ा-आखिर मैं क्या पत्थर हूँ?
सुरेश ने अपनी निगाह अचला पर से नहीं हटायी, पर अचला की आँखें झुक गयीं। सुरेश ने धीरे-धीरे कहा-बस, यही मेरे जीवन-भर का सहारा रहा-इससे ज्यादा नहीं चाहता मैं!
वह कुछ क्षण स्थिर रहकर फिर बोला-जब तुम पत्थर नहीं हो, तो इस अन्तिम भीख से तुम मुझे वंचित नहीं कर सकतीं! तुम्हारे सुख की जिम्मेदारी जिस पर है, रहे; लेकिन तुम्हारे हाथों जब दुःख ही मिलता रहा है, तो तुम्हारे दुःख का बोझा भी आज से मेरा रहे-यही वरदान मैं माँगता हूँ-यही भीख दो! कहते-कहते आँसुओं से उसका गला रुँध गया। अचला की आँखों से भी-उसके पिछले दिन और रात की सारी संचित वेदना, न चाहते हुए भी गल कर झरने लगी।
इतने में दरवाजे के बाहर जूतों का शब्द सुनाई पड़ा, और तुरन्त ही अन्दर दाखिल होते हुए महिम ने कहा-क्यों भई, सुरेश, चाय-वाय पी?
सुरेश से तुरन्त जवाब देते न बना। उसने किसी प्रकार सिर झुकाकर धोती के छोर से आँखें पोंछीं और अचला आँचल से मुँह छिपाए महिम के बगल से जल्दी से निकल गयी। महिम एक पाँव चौखट के अन्दर और एक बाहर रखकर, काठ मारा-सा खड़ा रह गया।
(17)
अपने को जब्त करके महिम अन्दर एक कुर्सी पर बैठ गया।
जिस स्थिति में मनुष्य का मन निहायत बेहयाई और तपाक से झूठ गढ़ सकता है, सुरेश के मन की वही स्थिति थी। उसने झट हाथ से आँसू पोंछकर शर्माया-सा कहा-सचमुच मैं बेहद कमजोर ही पड़ा हूँ! लेकिन महिम ने इसके लिये कोई बेचैनी न दिखाई, यहाँ तक कि इसका कारण भी न पूछा।
तब सुरेश आप अपनी कैफियत देने लगा। बोला-कहने को जो चाहे कहें लोग, मगर मैं यह जोर के साथ कह सकता हूँ-कि इन लोगों की आँखों में आँसू देखकर, जाने कहाँ से तो अपनी आँखों में भी आँसू आ जाता है-रोके नहीं रुकता! मैं नहीं पहुँच गया होता, तो केदार बाबू तो इस बार हर्गिज नहीं बचते। मगर बड़ा अजीब बदमिजाज है! महिम, इकलौती लड़की-उसे भी खबर नहीं करने दी। शादी होने के दिन से ही जो नाराज हैं, सो नाराज ही हैं! मैंने कहा-होना था सो तो हो ही चुका।
महिम ने पूछा-चाय तो मिली?
सुरेश ने सिर हिलाकर कहा-हाँ, मिल गयी! मगर बाप से ऐसा सलूक मिले तो किसकी आँखों में आँसू न आये!! कहो, मर्द ही नहीं झेल सकते, फिर यह तो औरत ठहरी!!!
महिम बोला-बजा है! रात सोने में दिक्कत तो नहीं हुई, नींद आयी थी ठीक! नयी जगह…
सुरेश झट बोल उठा-नहीं, नयी जगह में मुझे नींद में कोई दिक्कत न हुई। एक ही करवट में सबेरा हो गया! अच्छा महिम, केदार बाबू ने अपनी बीमारी के बारे में कतई बताया ही नहीं? अजीब बात है!
महिम ने बिल्कुल सहज भाव से कहा-बेशक अजीब है! फिर जरा हँसकर कहा-मुँह धोकर जरा घूमने नहीं चलोगे? जाओ, झटपट तैयार हो लो-मुझे फिर घण्टे-भर में ही निकलना पड़ेगा। मेरा तो सुबह का नित्यकर्म भी नहीं हुआ!
सुरेश ने किताब में ध्यान गड़ाते हुए कहा-कहानी मजे की लग रही है, खत्म ही कर डालूँ।
वही करो। मैं दो घण्टे के अन्दर-अन्दर लौट आऊँगा।-कहकर महिम वहाँ से उठ गया।
उसके मुड़ते ही सुरेश ने नजर उठाकर देखा। लगा-किसी अदेखे हाथ ने मानो उसके समूचे चेहरे पर शर्म की स्याही फेर दी।
जिस दरवाजे से महिम गया, उसी खुले दरवाजे की ओर एकटक देखता हुआ सुरेश काठ-जैसा सख्त हो रहा। लेकिन अन्दर-ही-अन्दर उसके अयाचित उत्तरदायित्व की सारी विफलता, कुढ़न से उसके सर्वांग में डंक मारती रही।
महिम ने नजर उठायी, कि अचला ने अस्वाभाविक स्वर में पूछा-मेरे पिताजी ने कोई बहुत बड़ा अपराध किया है?
अचानक ऐसे सवाल का मतलब न समझ कर, महिम उत्सुक होकर उसको केवल देखता रहा।
अचला ने फिर पूछा-मेरी बात शायद समझ नहीं सके।
महिम ने कहा-नहीं। प्रिय न होते हुए भी बात साफ है, मगर मतलब समझना मुश्किल है-कम-से-कम मेरे लिये!
भीतर के क्रोध को भरसक दबाते हुए अचला ने कहा-कठिन तुम्हारे लिये दोनों में से कोई नहीं-कठिन है कबूल करना! जो बात सुरेश को तुम सहज ही जता आये, वही बात मुझे बताने की तुम्हें हिम्मत नहीं पड़ रही है शायद। महिम, आज मैं तुमसे साफ पूछना चाहती हूँ, कि मेरे पिताजी तुम्हारे लिये इतने नाचीज हैं कि उनकी सख्त बीमारी की बात पर भी ध्यान देना तुम जरूरी नहीं समझते?
महिम ने कहा-बेशक जरूरी समझते हैं! मगर जहाँ यह जरूरी न हो, वहाँ मुझे क्या करने को कहती हो?
अचला ने कहा-कहाँ जरूरी नहीं है, सुनूँ जरा?
महिम ने चुपचाप एक बार स्त्री की ओर ताका, और कड़े स्वर में कह बैठा-जैसे अभी-अभी सुरेश के लिये नहीं था! और जैसे इसके लिये तुम्हारा भी नाराज होकर मेरे मुँह से कठोर शब्द कहलाना जरूरी न था। खैर छोड़ो! जिसके नीचे कीचड़ है, उस पानी को कदोड़ करना मैं बुद्धिमानी नहीं समझता। कहकर महिम बाहर आ रहा था, अचला ने झपटकर सामने से रास्ता रोक लिया। जरा देर वह दाँतों से अपना होंठ जोरों से दबाये रही, ठीक जैसे किसी आकस्मिक चोट को-मार्मिक चीख को जी-जान से दबा रही हो, ऐसा लगा। उसके बाद बोली-बाहर क्या कोई जरूरी काम है? दो मिनट रुक नहीं सकोगे?
महिम बोला-रुक सकता हूँ।
अचला बोली-तो फिर बात साफ ही हो ले! पानी जब हट जाता है-कीचड़ का पता तभी चलता है, यही?
महिम ने सिर हिलाकर कहा-हाँ!
अचला ने कहा-नाहक ही पानी को कदोड़ करने की मैं भी हिमायती नहीं, मगर इस डर से पंकोद्धार भी बन्द रखना क्या ठीक है? कदोड़ होता हो तो हो-मगर कीचड़ से छुटकारा मिले! क्या ख्याल है?
महिम ने सख्त होकर कहा-मुझको एतराज नहीं, लेकिन उससे भी जरूरी काम पड़ा है-अभी समय नहीं है!
अचला ने वैसी ही सख्त आवाज में कहा-तुम्हारे इस ज्यादा जरूरी काम के हो जाने पर तो मिलेगी फुर्सत? खैर, न होगा, मैं तब तक इन्तजार करूँगी! कहकर वह रास्ते से हट गयी।
महिम कमरे से बाहर हो गया। जब तक वह दीखता रहा, तब तक वह स्थिर खड़ी रही, उसके बाद किवाड़ बन्द कर लिया।
घण्टे भर बाद जब नहाने को कहने के लिये वह सुरेश के कमरे में पहुँची, तो उसकी थकी और शोकभरी सूरत का अनुभव सुरेश नजर उठाते ही कर सका। वह समझ गया-हो-न-हो, महिम से उसकी कुछ खटपट हुई है। वह सिमट-सा गया, मगर प्रश्न करने की हिम्मत न हुई।
अचला चुप खड़ी रही, फिर पूछा-यह क्या हो रहा है?
सुरेश कपड़ों को बैग में सहेज रहा था। बोला-गाड़ी तो एक ही बजे जाती है।
पहले से सब ठीक-ठाक किये लेता हूँ!
अचला ने आश्चर्य से पूछा-आप क्या आज ही चले जायेंगे?
सुरेश ने सिर बिना उठाये ही कहा-हाँ!
अचला बोली-लेकिन क्यों भला?
सुरेश ने उसी तरह सिर झुकाये हुए ही कहा-और ज्यादा रहना क्या? तुम लोगों से एक बार भेंट करनी थी, हो गयी!
अचला जरा देर चुप रही। बोली-तो आप इधर आ जाइए। यह सब काम औरतों का है, आप लोगों का नहीं! मैं सब सहेज देती हूँ। वह आगे बढ़ आयी। सुरेश बोल उठा-अरे नहीं-नहीं, तुम छोड़ दो-यह भी ऐसा क्या काम है-यह तो…
लेकिन उसके मुँह की बात खत्म होने से पहले ही अचला ने बैग उसके हाथ से ले लिया। उसकी चीजों को बाहर निकाला, और तह किये हुए कपड़ों को फिर से चपोत-चपोत कर बैग में भरने लगी। पास खड़ा सुरेश सकुचा कर कहता गया-कोई जरूरत नहीं थी इसकी… अगर… मैं खुद ही वगैरा-वगैरा।
अचला ने थोड़ी देर तक उसकी किसी बात का जवाब नहीं दिया। काम करते-करते कहने लगी-आपकी बहन या स्त्री होती तो यह काम वही करती-आपको नहीं करने देती! मगर आपको डर है, कहीं आपके दोस्त आकर देख न लें-है न? मगर देखें तो क्या? यह काम तो औरतों का ही है!
सुरेश चुप खड़ा रहा। अभी-अभी महिम के साथ उसका जो कुछ हो चुका, अचला उसे बेशक नहीं जानती, लिहाजा उस बात का जिक्र करके उसे दुखाने की हिम्मत न हुई; लेकिन डर भी लगता रहा-कहीं महिम आकर फिर अपनी आँखों से न देख ले।
बैग को ढंग से सजाकर अचला ने धीरे-धीरे कहा-पिताजी की बीमारी का जिक्र न करना ही ठीक था, इससे उनका महज अपमान ही हुआ-उन्होंने तो डकार भी न ली।
सुरेश ने चकित होकर कहा-महिम ने तुमसे क्या कहा?
अचला ने उसकी बात का जवाब नहीं दिया, आँख के इशारे से बगल के दरवाजे को दिखाकर कहा-वहाँ खड़ी होकर मैंने अपने कानों सब सुना।
सुरेश ने अप्रतिभ होकर कहा-इसके लिये मैं तुमसे माफी चाहता हूँ, अचला!
अचला ने हँसकर कहा-क्यों?
अफसोस के साथ सुरेश बोला-कारण तो तुमने खुद ही बनाया! अपनी गलती से मैंने तुम्हारा और उनका, दोनों का अपमान किया है। खास करके इसीलिये तुमसे क्षमा माँगता हूँ।
अचला ने नजर उठाकर देखा। अचानक भीतर के आवेग से उसकी आँखें, उसका चेहरा दमक उठा; बोली-आपने किया चाहे जो कुछ भी हो सुरेश बाबू, किया मेरे ही लिये है न? मुझे शर्मिन्दगी से बचाने के लिये ही तो यह शर्मिन्दगी आपको झेलनी पड़ी! फिर भी आपको मुझसे माफी माँगनी पड़े, ऐसी अनाड़ी मैं नहीं हूँ!! आप किसलिये लज्जित हो रहे हैं? जो किया ठीक ही किया!
सुरेश की ठगी-सी सूरत देखकर अचला ने समझा-वह उसकी बात का मर्म समझ नहीं सका। इसलिये थोड़ी देर चुप रहकर बोली-आप आज न जायें सुरेश बाबू! यहाँ आपको अगर कुछ शर्मिन्दा होना पड़ा है, तो वह मेरी लाज ढाँकने के लिये; वरना अपने लिये आपको पड़ी भी क्या थी! और यह घर अकेले आपके मित्र का नहीं है, इस पर मेरा भी तो कुछ अधिकार है। उसी बल पर मैं आपको आमंत्रित करती हूँ, आप मेरे अतिथि होकर और कुछ दिन रहें!
उसका साहस देखकर सुरेश ठक् रह गया। दुविधा में पड़कर वह कुछ कहना ही चाहता था कि देखा-महिम आ रहा है।
अचला उस समय तक सामने बैग को रखे, इधर को पीठ किये बैठी थी। महिम के आने की बात न जानकर कहीं वह और कुछ न बोल उठे, इस डर से सुरेश सकुचाकर बोल उठा-तुम्हारा काम हो चुका महिम?
-हाँ, हो गया! कहकर अन्दर आते ही, अचला को उस हालत में देखकर बोला-यह क्या हो रहा है?
अचला ने मुँह फेरकर देखा, मगर उस सवाल का जवाब न देकर पिछले प्रसंग के सिलसिले में बोली-आप हमारे मित्र हैं, और मित्र ही क्यों, आपने जो कुछ हमारे लिये किया है, उससे आप मेरे आत्मीय हैं! आपके इस तरह चले जाने से मेरी लज्जा और क्षोभ की सीमा न रहेगी!! आज तो मैं आपको हर्गिज नहीं जाने दे सकती!!!
सुरेश सूखी हँसकर बोला-जरा सुन लो महिम! तुम लोगों से मिलने आया था। मिलना हो तो गया, बस! मगर इस जंगल में मुझे ज्यादा दिन रोकने से तुम लोगों को लाभ क्या होगा, और मेरे लिये ही यह दुःख सहने का नतीजा क्या?
महिम ने धीर भाव से कहा-शायद नाराज होकर चले जा रहे थे-यह इनको पसन्द नहीं!
अचला ने तीखे स्वर में कहा-तुम्हें पसन्द है क्या?
महिम ने कहा-मेरी बात तो हो नहीं रही।
सुरेश मन-ही-मन अत्यन्त उत्कण्ठित हो उठा; इस अप्रिय प्रसंग को किसी प्रकार दबा देने की नीयत से, खुशी का नाटक करता हुआ बोला-झूठ आरोप क्या लगाना। मैं नाराज क्यों होने लगा भला, गजब के आदमी हो तुम लोग तो!! खैर यही चाहते हो, तो दो-एक दिन और ठहर जाऊँगा। भाभी, कपड़े सहजने की जरूरत नहीं, निकाल दो! चलो महिम, तुम लोगों के पोखरे में ही आज नहाएँ-ऐसा ही होगा तो घर जाकर कुनैन की शरण लूँगा!!
चलो-कहकर महिम कपड़े बदलने के लिये कमरे से बाहर चला गया।
(18)
नये जूते की तीखी चिकोटी को चुपचाप बरदाश्त करके जो बेपरवा होने का दिखावा करता है-ठीक उसी आदमी जैसा सुरेश ने हँसी-खुशी में तमाम दिन काट दिया। लेकिन दूसरे से-जिसे और भी छिपे तौर पर उस चिकोटी की पीड़ा सहनी पड़ी-ऐसा करते न बना।
पति के अटूट गाम्भीर्य के आगे इस घिनौनी बनावट और बेहयाई के क्षोभ और अपमान से, उसे सिर पीटकर मरने को जी चाहने लगा। उसे वह मन की ओर से बेशक आज भी नहीं पहचान पाई थी, पर बुद्धि की ओर से पहचाना था। उसने साफ देखा कि इस तेजस्वी बुद्धि वाले स्वल्पभाषी व्यक्ति के सामने यह नाटक नितान्त विफल हो रहा है, और शर्म की सियाही हर पल मानो उसी के चेहरे पर गाढ़ी पुतती जा रही है। आज सुबह के बाद महिम कहीं बाहर नहीं गया, सो दिन से लेकर रात को भोजन तक प्रायः सारा समय इसी तरह बीत गया।
रात में बड़ी देर तक बिछावन पर छट-पट करते हुए अचला ने कहा-रात-भर बत्ती जलाकर पढ़ने से दूसरा कोई सो नहीं सकता-तुमसे इतनी भी दया की क्या मैं आशा नहीं कर सकती?
उसकी उस आवाज से चौंककर महिम ने बत्ती उतार दी। कहा-मुझसे गलती हो गयी, माफ करो! और उसने बत्ती बुझा दी। किताब रखकर बिस्तर पर लेट रहा। इस माँगी हुई कृपा को पाकर अचला ने एहसान नहीं जताया लेकिन इससे उसकी नींद में भी कोई सुविधा न हुई। बल्कि जितना ही समय बीतने लगा, यह मौन अँधेरा मानो पीड़ा से बोझिल होकर, हरपल उसके लिये दुस्सह हो उठने लगा। जब सहा नहीं गया, तो उसने धीरे-धीरे पूछा-अच्छा, जानते हो, अजानते हो, दुनिया में गलती करने ही से सजा भोगनी पड़ती है। यह क्या सच है?
महिम ने सहज ही उत्तर दिया-पण्डित लोग ऐसा ही तो कहते हैं!
अचला फिर जरा देर चुप रही। उसके बाद बोली-तो फिर हम दोनों ने जो गलती की है-जिसका बुरा अंजाम आरम्भ से ही शुरू हो गया है, उसका अन्तिम परिणाम क्या होगा? अन्दाज कर सकते हो तुम?
महिम ने कहा-नहीं।
अचला बोली-मैं भी नहीं कर सकती! लेकिन सोच-सोचकर मैंने इतना-भर समझा है कि और बातें छोड़ भी दें, तो भी मर्द होने के नाते इस सजा का ज्यादा हिस्सा मर्द को उठाना चाहिए।
महिम बोला-थोड़ा और सोचो तो देखोगी-औरत का बोझ इससे एक तिल भी कम नहीं होता! मगर यह मर्द है कौन? मैं या सुरेश?
अचला सिहर उठी-महिम अँधेरे में भी जान गया। थोड़ी देर चुप रहकर अचला ने कहा-कभी मेरे मुँह पर ही तुम मेरा अपमान करना शुरू कर दोगे, यह मैंने नहीं सोचा था; और यह भी जानती हूँ कि एक बार यह शुरू हो जाये, तो कोई कह नहीं सकता कि कहाँ जाकर खत्म होगा! मगर झगड़ना मेरे बस का नहीं; और चूँकि ब्याह हो गया है, इसलिये लड़-झगड़कर तुम्हारी गिरस्ती करती रहूँ, यह भी न होने का!! कल हो चाहे परसों, मैं पिताजी के पास लौट जाऊँगी!!!
महिम ने कहा-तुम्हारे पिता चकित होंगे?
अचला बोली-नहीं! वे इसको जानते थे, इसलिये बार-बार मुझे सचेत करने की कोशिश की थी कि इसका नतीजा अच्छा न होगा। कलकत्ते में चल सकता है, लेकिन गँवई-गाँव में समाज, सगे-सम्बन्धी, हित-मित्र सबको छोड़कर, सिर्फ स्त्री के साथ किसी का ज्यादा दिन नहीं चल सकता। लिहाजा, वे और चाहे जो हों, चकित नहीं होंगे!
महिम ने कहा-तो तुमने उनकी मनाही मानी क्यों नहीं?
जी-जान से एक उच्छ्वसित निःश्वास को दबाकर वह बोली-मैं समझती थी, बिना समझे-बूझे तुम कुछ भी नहीं करते!
-वह ख्याल जाता रहा?
-हाँ!
-इसीलिये साझेदारी के व्यापार में मुनाफा न हुआ, यह जानकर दुकान उठाकर लौट जाना चाहती हो?
-हाँ!
महिम कुछ क्षण चुप रहकर बोला-तो फिर चली जाना। लेकिन तुमने अगर इसे व्यापार समझना ही सीखा है, तो मुझसे तुम्हारे विचार का कभी मेल न होगा! मगर यह भी न भूलना कि व्यापार को समझने में भी समय लगता है। तुम्हारी यह धारणा कभी टूटे तो मुझे सूचित करना, मैं जाकर लिवा लाऊँगा!
अचला की आँख से आँसू की एक बूँद लुढ़क पड़ी; हाथ से उसे पोंछकर कुछ देर वह थिर रही, फिर कण्ठ-स्वर को संयत करके बोली-भूल किसी से बार-बार नहीं होती! मैं नहीं समझती कि तुम्हें यह कष्ट कभी उठाने की जरूरत पड़ेगी!!
महिम बोला-जिसे समझा नहीं जा सकता, उसे भविष्य कहते हैं। इसीलिये उस भविष्य की फिक्र भविष्य पर छोड़कर आज तो मुझे बख्शो, मुझसे अब बकबक नहीं किया जाता!
अचला को चोट लगी। बोली-मजाक कर रहे हो? मजाक करना भूल है लेकिन! सच ही मैं कल-परसों चली जाना चाहती हूँ!!
महिम ने कहा-मैं सचमुच तुम्हें जाने देना नहीं चाहता!
अचला अचानक तैश में आकर बोली-तुम क्या मेरी इच्छा के विरुद्ध मुझे, रोककर रक्खोगे? यह हर्गिज नहीं कर सकते, पता है?
महिम ने शान्त स्वर में सहज भाव से कहा-ठीक है, मगर वह भी आज रात की बात नहीं। कल-परसों जब जाओगी, सोचकर देखा जायेगा! कहकर उसने तकिये को उल्टा कर बात कतई बन्द कर दी, और थोड़ी ही देर में सो भी गया शायद।
सबेरे चाय के लिये बैठकर सुरेश ने पूछा-महिम तो शायद आज भी खेतों की निगरानी को निकल गया है?
अचला सिर हिलाकर बोली-दुनिया इधर से उधर हो जाये, उनका अपना नियम नहीं टूट सकता!
चाय का प्याला होंठों से अलग करते हुए सुरेश ने कहा-एक हिसाब से वह हम लोगों से बहुत अच्छा है! उसके काम की एक गति है, जो कल के पहिये-सी तब तक जरूर चलेगी, जब तक उसमें कुंजी भरी है!!
अचला ने कहा-आप क्या कल-से होने को ही ठीक कहते हैं?
सुरेश गर्दन पर बल देकर बोला-हाँ, कहता हूँ; क्योंकि ऐसा कर सकना अपनी क्षमता के बाहर है! दुर्बल होना भी कितना बड़ा गुनाह है, यह तो मैं जानता हूँ; इसीलिये जो स्थिर मिजाज का है, उसकी प्रशंसा किये बिना मैं नहीं रह सकता!! लेकिन आज मुझे छुट्टी दो, मैं चलूँ।
अचला तुरन्त राजी हो गयी। बोली-जाइए। मैं कल जाऊँगी!
सुरेश ने आश्चर्य से पूछा-तुम कहाँ जाओगी कल?
-कलकत्ते!
-अचानक? कहाँ, कल तो यह इरादा नहीं सुना था!
-पिताजी बीमार है। उन्हें देखने जाऊँगी।
सुरेश के चेहरे पर उद्वेग की छाया उग आयी। बोला-बीमार पिता को देखने की इच्छा दुनिया में अनहोनी नहीं; मगर डर लगता है, कहीं मेरे कारण नाराज-वाराज होकर…
अचला ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। सामने से जद्दू जा रहा था। सुरेश ने पुकारकर पूछा-क्यों रे जद्दू, तेरे बाबूजी खेत से लौट आये?
जद्दू ने कहा-जी, आज सवेरे तो वे कहीं गये ही नहीं। अपने पढ़ने के कमरे में सो रहे हैं।
अचला झटपट गयी। दरवाजे से झाँककर देखा-महिम एक कुर्सी पर ओठंग कर, सामने की मेज पर दोनों पाँव रखे सो रहा है। रात की अधूरी नींद कोई इस तरह पूरी कर रहा है, यह कोई अनोखी बात नहीं; लेकिन अचला के आश्चर्य का वास्तव में ही ठिकाना न रहा, जब उसने देखा कि उसके पति दिन का काम बन्द करके असमय में सो गये हैं। वह पैर दबाए अन्दर गयी और चुपचाप उसकी ओर ताकने लगी। सामने के झरोखे में से छनकर, सवेरे की हल्की आभा उस सोये हुए मुखड़े पर पड़ रही थी। आज अचानक ही एक ऐसी चीज पर नजर पड़ी, जिसे इसके पहले उसने कभी नहीं देखा था। आज उसने देखा-शान्त मुखड़े पर मानो अशान्ति का महीन जाल-सा पड़ा है; ललाट पर जो कुछ लकीरें झलक रही हैं, साल-भर पहले वे नहीं थीं। उसे लगा-सारा चेहरा किसी छिपी वेदना से श्रान्त और पीड़ित है। वह चुपचाप आयी थी, चुपचाप ही चली जा रही थी; लेकिन पीकदान को पैरों की ठोकर लग गयी, उसी आहट से महिम ने आँखें खोल दीं। अचला ने पूछा-इस समय सो रहे हो? तबीयत तो खराब नहीं है?
महिम ने आँखें मलते हुए कहा-क्या पता! तबीयत खराब नहीं, यही तो ताज्जुब है!!
अचला ने और कुछ न पूछा-कमरे से बाहर चली गयी।
खा-पी चुकने के बाद सुरेश जाने की तैयारी कर रहा था-महिम पास ही एक कुर्सी पर बैठकर उससे बात कर रहा था। अचला दरवाजे के पास आकर बिना किसी भूमिका के बोल उठी-मैं भी कल जा रही हूँ।
सुविधा हो तो आप जरा पिताजी से मिल लेंगे!
सुरेश ने अचरज से कहा-अच्छा! फिर महिम की तरफ निगाह करके पूछा-भाभी जी को तुम कल ही कलकत्ते भेज रहे हो क्या?
स्त्री की इस जबर्दस्ती खिलाफत से महिम जल-भुन उठा, परन्तु चेहरे के भाव को प्रसन्न रखकर ही वह बोला-दूसरी कोई अड़चन नहीं थी पर देहात के गृहस्थ घर में नाटक करने का रिवाज नहीं। कल क्या, आज ही तुम्हारे साथ भेज सकता था!
सुरेश का चेहरा शर्म के मारे तमतमा उठा। यह देखकर अचला तुरत जबरन हँसती हुई बोली-सुरेश बाबू, हम लोगों का घर शहर में है, इसके लिये शर्म महसूस करने की कोई वजह नहीं! बीमार पिता को देखने जाना अगर गाँव में जायज नहीं है, तो मेरे ख्याल में अपने शहर का नाटक कहीं बेहतर है!! न हो तो आज-भर आप रुक जायें न सुरेश बाबू, कल साथ ही चलेंगे!!!
उसकी इस बेहद ढिठाई से सुरेश का चेहरा फक् हो गया; वह सिर झुकाकर कहने लगा-नहीं-नहीं, मेरे रुकने की अब गुंजाइश नहीं भाभीजी! जाना हो तो कल जाइए आप, मैं तो आज ही चला!! कहते-कहते उत्तेजना में वह अचानक बैग लेकर खड़ा हो गया।
उसकी उत्तेजना के इस आवेग ने अचला को भी एक बार मानो भूल से झकझोर दिया। वह व्याकुल होकर बोल उठी-गाड़ी को अभी काफी देर है सुरेश बाबू, तुरन्त मत जाइए; रुक जाइए थोड़ी देर! कृपा करके मेरी दो बातें सुन जाइए। उसके आर्त्त-करुण अनुरोध से दोनों ही श्रोता चौंक उठे।
अचला बिना किसी तरफ देखे कहने लगी-मैं आपके किसी भी काम न आ सकी सुरेश बाबू, मगर आपके सिवा हमारा बुरे वक्त का मित्र कौन है? आप जाकर पिताजी से कह दें-इन लोगों ने मुझे बन्द करके रक्खा है, कहीं जाने नहीं देंगे-मैं यहाँ मर जाऊँगी! आप लोग मुझे यहाँ से ले चलें, सुरेश बाबू। जिसे प्यार नहीं करती, उसकी गिरस्ती करने को आप लोग मुझे यहाँ न छोड़ें।
महिम विह्वल-सा चुपचाप ताकता रहा। सुरेश ने मुड़कर दोनों आँखें ढमका कर जोर से कहा-तुम्हें पता है महिम, ये ब्राह्म हैं! स्त्री हुईं तो क्या, इन पर पाशविक बल-प्रयोग का तुम्हें अधिकार नहीं!!
महिम जरा देर के लिये खो-सा गया था। अपने को जब्त करके उसने कहा-तुम किसलिये-क्या कर रही हो, जरा सोचकर देखो अचला! फिर वह सुरेश से बोला-पशु-बल या मनुष्य-बल-मैंने कभी किसी पर किसी भी बल का प्रयोग नहीं किया! खैर, अगर रुक सको तो तुम आज रुक ही जाओ सुरेश, कल इन्हें साथ लेकर ही जाना!! मैं खुद जाकर गाड़ी पर सवार करा आऊँगा, इससे गाँव वालों की आँखों को इतना बुरा भी न दीखेगा!!! कुछ क्षण रुककर बोला-मुझे जरा काम है, मैं जाता हूँ। आज अब जब जाना ही न हुआ, तो कपड़े बदल डालो सुरेश, मैं आधे घण्टे में लौट आता हूँ! और वह धीरे-धीरे बाहर हो गया।
अचला जैसी खड़ी थी, मूरत की नाईं चौखट थामे उसी तरह खड़ी रही। सुरेश एक मिनट तो सिर झुकाए खड़ा रहा, फिर ठहाका मारकर हँसते हुए बोला-वाह, मजे का अभिनय हो गया एक अंक का! तुमने भी कुछ बुरा नहीं किया, मगर मैंने तो कमाल का किया!! उसके घर में, उसी की स्त्री के लिये, उसी पर आँखें तरेर दीं मैंने!!! इससे ज्यादा क्या चाहिए? और मेरे दोस्त एक मीठी हँसी हँसकर, मानो वाहवाही देकर चल दिये। मैं शर्त बदकर यह कह सकता हूँ, अचला-वह सिर्फ जी-खोलकर हँसने के लिये, काम का बहाना बनाकर चला गया!! खैर, जरा आईना तो ला दो भाभी, एक बार देख लूँ-क्या शक्ल बनी है अपनी!! यह कहने के बाद सुरेश ने देखा, अचला का चेहरा बिल्कुल सफेद हो गया है। वह कुछ बोली नहीं-सिर्फ एक लम्बा निःश्वास छोड़कर वहाँ से चली गयी।
(19)
जिस सेज को छूने में भी अचला को आज नफरत होनी चाहिए थी, रोज की तरह शाम को वही सेज जब वह बिछाने के लिये कमरे में गयी, तो उसका मन कहाँ और किस दशा में था-जिनको भी मानव-मन की थोड़ी-बहुत जानकारी है, उनसे यह अजाना नहीं रह सकता।
मशीनी पुतले की नाईं नियमित काम करके जब वह लौट रही थी, कि सामने की मेज पर नजर पड़ गयी और एक साँस में वह पैड पर पड़ी एक छोटी-सी चिट्ठी को पढ़ गयी। महज दो-तीन पंक्ति। दिन नहीं, तारीख नहीं-मृणाल ने लिखा था-सँझले दादाजी, आखिर क्या कर रहे हो यह? परसों से तुम्हारी राह देखते-देखते तुम्हारी मृणाल की आँखें घिस गयीं।
बड़ी देर तक अचला की पलक नहीं हिली। ठीक पत्थर की बनी प्रतिमा-जैसी पलक-विहीन दृष्टि उसी एक पंक्ति पर गड़ाए वह स्थिर खड़ी रही। यह चिट्ठी कब की है, कब-कौन दे गया-यह सब उसे कुछ भी मालूम नहीं। मृणाल का घर किधर को है, किस मुँह को है, उसके घर का दरवाजा, किस रास्ते पर, क्यों वह इस उत्सुकता और आकुलता से राह में अपनी नजर बिछाए है-कुछ भी जानने की गुंजाइश नहीं। सामने स्याही की यह लकीर सिर्फ इतना ही बता रही थी, कि जाने किस परसों से कोई किसी की राह में नजर बिछाकर अपनी आँखें चौपट कर रही है, मगर दर्शन नहीं मिलते।
इधर उस झुटपुटे कमरे के अन्दर एकटक देखते-देखते उसकी अपनी आँखें दुःख से दुखा गयीं, और काले-काले हरूफ पहले तो धुँधले, फिर मानो छोटे-छोटे कीड़े-से कागज पर रेंगने लगे। पता नहीं कब तक वह इसी तरह देखती रह जाती; लेकिन अपने अजानते अब तक उसके अन्दर जो निःश्वास जमता आ रहा था, वही जब रुँधे स्रोत के बाँध तोड़ देने की तरह अचानक जोर से निकल पड़ा, तो उसी की आवाज से चौंककर वह आपे में आयी। नजर उठाकर बाहर देखा-आँगन में साँझ का अँधेरा उतर आया था, और जद्दू बाहर के कमरे में लालटेन देने के लिये चला जा रहा था। पूछा-जद्दू, बाबू लौट आये?
जद्दू ने कहा-नहीं माँजी, अभी तक तो नहीं लौटे!
अब अचला को याद आया-दोपहर के उस शर्मनाक अभिनय के एक अंक के बाद ही वे बाहर गये हैं, और तब से नहीं लौटे। पति के रोज-रोज के रवैये में आज उसे जरा भी सन्देह न रहा। सुरेश के आने के बाद से घर में झगड़ा-लड़ाई का रोज-रोज एक ऐसा सिलसिला जारी हुआ-कि उसमें उलझकर अचला और सब कुछ भुला बैठी थी। वह अपने पति को प्यार नहीं करती, मगर गलती से उससे विवाह किया है-इसी भूल की जिन्दगी-भर गुलामी करने के खिलाफ उसका चंचल मन बगावत की घोषणा करके रात-दिन जूझ रहा था। मृणाल की बात वह एक तरह से भूल गयी थी, पर आज साँझ के धँुधलके में जब उसी मृणाल की एक पंक्ति-सारी जलन लिये पलटकर बह आयी, तो पल में यह प्रमाणित हो गया कि भूल से अपना पति बनाए हुए पुरुष का और किसी नारी से अनुरक्त होने का सन्देह, जी को जलाने के लिये दुनिया की और किसी चिन्ता से हर्गिज छोटा नहीं!
उसने फिर एक बार चिट्ठी पढ़ने के ख्याल से हाथ बढ़ाया, लेकिन शहरी घृणा से उसका हाथ आप ही लौट आया। चिट्ठी वहीं खुली पड़ी रही। अचला बाहर आयी और खम्भे के सहारे स्तब्ध खड़ी रही।
अचानक उसे लगा-सब झूठ है! यह घर-द्वार, पति-परिवार, खाना-पहनना, सोना-बैठना-कुछ भी सत्य नहीं। किसी भी चीज के लिये मनुष्य को हाथ बढ़ाने की जरूरत नहीं। आदमी केवल मन के भ्रम से ही छटपटाता रहता है, वरना क्या शहर, यह झोंपड़ा और राजमहल ही क्या, पति-पत्नी, माँ-बाप, भाई-बहन का रिश्ता ही कहाँ? आखिर किसलिये यह लड़ाई-झगड़ा, रोना-पीटना! दोपहर की उस उतनी बड़ी घटना के बाद भी, जो पति स्त्री को अकेली छोड़कर घण्टों बाहर रह सकता है, उसके मन की बात को जानने के लिये सिरदर्द ही क्यों? सब झूठ है, सब कुछ धोखा है-मरीचिका-सा ही भ्रम है! परन्तु दुनिया उसके लिये ऐसी सूनी नहीं हो जाती, यदि वह मृणाल की भाषा पर ही सारी चिन्ता न लगाकर, मृणाल को ही जरा समझने की कोशिश करती! दूसरी स्त्री से इस गँवई, सदा आनन्दमयी नारी के आचरण की तुलना करती, तो उसकी बातों की कालिमा ही उसके मन को इस कदर काला शायद नहीं कर पाती।
जद्दू उधर से लौटा। लौटकर उसने कहा-बाबूजी ने पूछा, चाय का पानी उबल रहा है?
अचला मानो नींद से जगी-किन बाबू ने?
जद्दू ने जोर देकर कहा-जी, अपने बाबूजी ने! वे लौट आये हैं। चाय का पानी तो कब का तैयार हो चुका है, माँ जी।
अच्छा, चलती हूँ!-अचला रसोई की ओर बढ़ी। थोड़ी देर में चाय और नाश्ता नौकर के हाथ देकर वह बाहर गयी। देखा-महिम अँधेरे बरामदे में पायचारी कर रहा है, और सुरेश कमरे में लालटेन के सामने ध्यान से अखबार पढ़ रहा है। गोया किसी को किसी की मौजूदगी का आज पता ही नहीं। इस अत्यन्त लज्जाकर संकोच ने जो इन दो आजीवन मित्रों के सहज शिष्टाचार की राह भी बन्द कर दी है, उसके उपलक्ष की याद से अचला के कदम आप-ही-आप रुक गये।
अचला को देखकर महिम ने खड़े होकर पूछा-सुरेश को चाय देने में इतनी देर हो गयी?
अचला के मुँह से बात ही न निकली। वह कुछ देर सिर झुकाए खड़ी रही, फिर धीरे-धीरे अन्दर आयी।
जद्दू चाय का सामान मेज पर रखकर बाहर चला गया। सुरेश ने अखबार से नजर हटायी; कहा-महिम कहाँ है, अभी लौटा नहीं है?
उसका कहना था और महिम अन्दर आया। एक कुर्सी खींचकर बैठा; किन्तु वह दसेक मिनट उसके कान के पास ही-बरामदे में चहल-कदमी कर रहा था-यह बताने का उसने प्रयोजन नहीं समझा। फिर सब चुपचाप। नजर झुकाए हुए ही अचला ने दो प्यालों में चाय बनाई। एक प्याला सुरेश को दे, दूसरा पति की ओर बढ़ाकर चुपचाप चली जा रही थी, कि महिम की पुकार पर खड़ी हो गयी।
महिम ने कहा-जरा रुक जाओ! और झट से उठकर किवाड़ की चटखनी चढ़ा दी। लमहे में सुरेश को उसकी छः नली पिस्तौल की याद आ गयी और हाथ का प्याला डगमगाया, छलककर कुछ चाय नीचे गिर पड़ी। मुर्दे की तरह अपना चेहरा फीका बनाकर उसने पूछा-दरवाजा क्यों बन्द कर दिया?
उसकी आवाज, उसकी सूरत और सवाल करने के ढंग से तुरन्त अचला को भी वही शंका हुई, और उसके सिर के बाल तक खड़े हो गये। उसने चीखने की भी शायद कोशिश की, मगर यह कोशिश कामयाब न हुई। अचला का यह हाल देखकर महिम समझ गया। सुरेश की ओर ताककर बोला-कहीं नौकर न आ जाये, इसीलिये-नहीं तो अपनी पिस्तौल जैसे सदा बक्स में बन्द रहती है, आज भी बन्द पड़ी है। तुम लोग इस कदर डर जाओगे, यह मालूम होता, तो दरवाजा नहीं बन्द करता!
सुरेश ने चाय का प्याला रख दिया, और मानो हँस रहा हो-ऐसा चेहरा बनाकर बोला-खूब, डरने क्यों लगा? तुम मुझ पर गोली चलाओगे?-खूब! जान का डर? मुझे? कब-कब देखा तुमने? खैर जो हो!
उसकी बेसिलसिलेवार कैफियत खत्म होने के पहले ही महिम ने कहा, तुम्हें डरते सच ही कभी नहीं देखा! जान की ममता तुम्हें नहीं है, यही मैं जानता था!! सुरेश, तुम्हारे अपने दुःख से तुम्हारे पतन की चोट मेरे कलेजे में आज ज्यादा लगी। जो तुम जैसे आदमी को भी इतना गिरा दे-न; सुरेश, कल तुम जरूर घर चले जाओ! किसी बहाने अब रुको मत!!
सुरेश फिर भी कुछ जवाब देना चाह रहा था; लेकिन अबकी उसके गले से आवाज भी न निकली, वह गर्दन भी न उठा सका-उसके अजानते ही मानो गर्दन झुक गयी।
तुम अन्दर जाओ, अचला-कहकर दरवाजा खोलकर महिम अँधेरे में बाहर निकल गया।
अब सुरेश ने सिर उठाया। जबरदस्ती हँसकर बोला-सुन लो जरा बात! जाने ऐसी कितनी बन्दूक-पिस्तौल से खेलकर बुड्ढा हो गया, अब उसकी टूटी-फूटी पिस्तौल के डर के मारे मर गया मैं? हँसी आती है-और सुरेश खींच-खींचकर हँसने लगा। उसकी हँसी में साथ देने लायक अचला के सिवा कमरे में कोई न था। अचला लेकिन जैसे सिर झुकाए खड़ी थी, वैसे ही कुछ देर खड़ी रही; फिर बगल के दरवाजे से चुपचाप अन्दर चली गयी।
घण्टे-भर बाद महिम अपने कमरे में आया। देखा-कोई नहीं है। बगल के कमरे में जाकर देखा-जमीन पर चटायी बिछाकर, हाथ पर मुँह रखे अचला लेटी है। पति को अन्दर आते देख वह उठ बैठी। पास ही एक खाली चौकी पड़ी थी, उस पर बैठकर महिम ने कहा-तो कल तुम्हारा मैके जाना तै है न?
अचला नीचे देखती रही, कुछ बोली नहीं। महिम ने थोड़ा इन्तजार करके कहा-जिसे प्यार नहीं करतीं, उसी की गिरस्ती सम्हालो-पति होकर भी मैं तुम पर इतना बड़ा जुल्म नहीं ढा सकता।
मगर अचला फिर भी बुत बनी बैठी रही-यह देख महिम कहने लगा-लेकिन तुमसे मुझे दूसरी शिकायत है! मेरा स्वभाव तो जानती हो। ब्याह के बाद से ही तो नहीं, बहुत पहले से भी तो मुझे जानती थीं, कि सुख या दुःख जो भी हो, अपने हक के सिवा तिलभर भी ऊपरी पाने की उम्मीद मैं नहीं रखता, मिलने पर भी नहीं लेता! मुहब्बत पर जोर-जबरदस्ती नहीं चल सकती, अचला! मुहब्बत न कर सको-तो दुःख की चाहे हो, शर्म की बात नहीं!! फिर क्यों नाहक इतने दिनों से कष्ट झेल रही थीं? मुझे जताए बिना ही यह क्यों सोच लिया था कि मैं तुम्हें रोक रक्खूँगा? वे तुम्हें यहाँ से निकाल ले जायेंगे, तभी तुम्हारी जान बचेगी-और मुझे कहने से क्या कोई उपाय नहीं होता? तुम्हारी जान की कीमत क्या केवल वही समझते हैं?
आँसू से स्पष्ट हुई आवाज को भरसक और स्वाभाविक करती हुई अचला ने कहा-तुम भी तो प्यार नहीं करते!
महिम ने चकित होकर कहा-यह किसने कहा? मैंने तो कहा नहीं कभी!
अचला को गर्म होते देर न लगी; बोली-कहना ही क्या सब कुछ है? मुँह की बात ही केवल सच होती है, बाकी सब झूठ? गुस्से में, मन के कष्ट से जो बात मुँह से निकल पड़ती है, उसी को सत्य मानकर तुम जबर्दस्ती किया चाहते हो? तुम्हारी तरह तौल-तौल कर नहीं कह पाऊँ, तो क्या ढकेलकर डुबा देना चाहिए? कहते-कहते गला रुँध गया।
महिम कुछ भी न समझ सका। बोला-इसका मतलब?
उमड़ती हुई रुलाई को दबाकर अचला बोली-यह न सोचा कि तुम्हारे जैसे सावधान आदमी भी झूठ को सदा छिपा कर रख सकते हैं! तुमसे भी कितनी भूल हो सकती है, इसका सबूत अपनी मेज पर जाकर देखो!! सिर्फ हमसे ही…
महिम ने हतबुद्धि होकर पूछा-मेरी मेज पर क्या है?
मुँह पर आँचल रखकर अचला चटायी पर औंधी लेट गयी। उससे कोई जवाब न पाकर महिम धीरे-धीरे अपनी मेज पर देखने गया। पढ़ने के कमरे में मेज पर कुछ किताबें पड़ी थीं, दस मिनट तक उनको उलट-पुलट कर उनके नीचे, बगल में सब देख गया, पर पत्नी की शिकायत का कोई मतलब न निकाल पाया। विमूढ़ की नाईं लौट चला, कि सोने के कमरे में कदम रखते ही मृणाल की चिट्ठी पर नजर गयी। उसे उठाकर उसने पढ़ा। पढ़ते ही अँधेरे में जैसे बिजली कौंध जाती हो, महिम को पल-भर में रास्ता सूझ गया। अचला का इशारा समझने में जरा भी देर न लगी। चिट्ठी को हाथ में लेकर महिम बिस्तर पर बैठ गया, और सूनी निगाहों से बाहर अँधेरे की ओर ताकता रहा। मृणाल पहले दिन जैसे आयी थी, जैसे चली गयी थी, सौत कहकर उसने अचला से जो-जो हँसी-मजाक किया-एक-एक कर उसे सब याद आने लगा। गँवई-गाँव के ऐसे मजाकों की जो स्त्री आदी नहीं हो-उसे हर रोज यह कैसा चुभता रहा और वह खुद भी जब वैसी दिल्लगियों में खुले जी से साथ न दे सका, बल्कि स्त्री के सामने लज्जित होकर बार-बार रोकने की कोशिश की-उसकी वह लज्जा अगर इस शिक्षिता बुद्धिमती स्त्री के ख्याल में, अपराधी की सही शर्म के रूप में जमती गयी हो, तो आज उसकी बुनियाद को उखाड़ कर कैसे फेंका जा सकता है? बाहर के अँधेरे में से ही बहुत-से सत्य निकल कर उसे दिखाई देने लगे। दिन-दिन अचला का हृदय कैसे हटता गया है, स्वामी-संग कैसे दिन-दिन विषाक्त बनता गया है, स्वामी की पनाह उसके लिये कैद कैसे बनाती गयी है-सब कुछ मानो वह साफ देख पाने लगा। इस दम घोंटने वाली रुकावट से मुक्ति पाने की वह जो आकुल कामना, सुरेश के सामने उस समय उबल पड़ी थी-वह उसके अन्तरतम् की कौन-सी गहराई से निकली थी, यह भी आज महिम के मन की आँखों से अगोचर न रही। अचला को वास्तव में उसने हृदय से प्यार किया था। इतने दिन इतनी पास होते हुए भी, उसी अचला के मन की पीड़ा से लापरवाह रहने को उसने अपना बहुत बड़ा अपराध गिना। मगर ऐसे तो अब एक पल भी नहीं चलने का! स्त्री के हृदय को फिर से पाने की सम्भावना भी है या नहीं, वह कितनी दूर हट गया है-आज इसका अन्दाज कर सकना भी गैर-मुमकिन है। लेकिन अनेक विरोधों से लड़कर भी एक दिन जिसको उसने पति कहकर अपनाया था, उसी से अपमान और फजीहत उठा कर आज उसे लौट जाना पड़ रहा है, इतनी बड़ी भूल से तो उसे आगाह कर ही देना है।
महिम उठा। धीरे-धीरे अचला के दरवाजे पर पहुँचा। किवाड़ बन्द मिला। ठेलकर देखा-अन्दर से बन्द था। धीरे-धीरे दो-एक बार आवाज दी, और जब कोई जवाब न मिला, तो नाहक ही उसकी शान्ति को भंग करने की इच्छा न हुई-इसीलिये नहीं, बल्कि एक मुश्किल इम्तहान से बहरहाल छुटकारा मिल गया, इसीलिये जैसे वह बच गया।
महिम जाकर बिस्तर पर लेट रहा; लेकिन जिसके लिये सेज सूनी पड़ी रही, वह दूसरे कमरे में जमीन पर भूखी पड़ी है-यह सोच-सोचकर उसकी आँखों में नींद नहीं आयी। उसे बुलाकर ले आना ठीक है या नहीं-यही आगा-पीछा करते-करते, बहुत रात बीत जाने पर शायद कुछ देर के लिये उसकी आँखें लग गयी थीं। एकाएक मुँदी पलकों पर तीखी रोशनी का अनुभव करके उसने आँखें खोल दीं। सिरहाने के पास की खिड़की तथा छप्पर की फाँकों से, बेहिसाब धुएँ और प्रकाश से कमरा भर गया था। और पास से ही एक ऐसी आवाज उठ रही थी, जो कानों में प्रवेश करते ही सर्वांग को बेबस किये देती है। आग कहाँ लगी है; यह तो वह ठीक जान गया, फिर भी कुछ देर के लिये हाथ-पाँव न हिला सका। लेकिन उसी क्षण के अन्दर उसके दिमाग में सारी दुनिया घूम गयी। उछलकर वह उठ खड़ा हुआ। दरवाजा खोलकर बाहर निकला। देखता क्या है कि रसोई-घर, और जिस कमरे में अचला सो रही थी-उसके बरामदे के एक कोने से आग की उठती लपटों ने ऊपर के जामुन गाछ को लाल कर दिया है। गाँव में फूस के घर में आग लग जाये, तो बुझाने की कल्पना भी पागलपन है। उसकी कोई कोशिश ही नहीें करता। मुहल्ले के लोग अपने असबाब और गाय-गोरू को हटाने में लग जाते हैं, और दूसरे टोले के लोग-औरत एक तरफ, मर्द एक तरफ खड़े होकर मौखिक हाय-हाय करते हैं। कितना सामान जल रहा है, कैसे यह आफत आयी?-इसी की चर्चा करते हुए, जब तक घर जलता रहता है, खड़े रहते हैं। उसके बाद अपने-अपने घर जाकर बाकी रात सो रहते हैं। और सवेरे लोटा लेकर मैदान जाते देखे जाते हैं और अगले दिन के लिये उस चर्चा को वहीं खत्म करके नहाने-खाने चले जाते हैं। लेकिन किसी के घर की राख की ढेरी, दूसरे की रोजमर्रा की जिन्दगी में कोई अड़चन नहीं डालती।
महिम देहात का ही था, सब कुछ जानता था। सो नाहक ही शोर मचाकर उसने मुहल्ले के लोगों की नींद हराम नहीं की। जरूरत भी न थी। क्योंकि उसके आम-कटहल के बड़े बगीचे को लाँघ कर आग और किसी के घर को छूएगी-यह सम्भावना न थी। बाहर की कतार के जिन कमरों में सुरेश तथा नौकर-चाकर सोऐ थे, उन तक आग के फैलने में देर थी। देर न थी सिर्फ अचला वाले कमरे में। उसने उसी के दरवाजे पर जोर का धक्का मार कर पुकारा-अचला!
अचला जैसे जग ही रही हो, इस ढंग से बोली-क्या है?
महिम बोला-दरवाजा खोलकर निकल आओ!
अचला ने थकी-सी आवाज में कहा-क्यों? मैं तो मजे में हूँ!
महिम ने कहा-देर न करो, निकल आओ! घर में आग लग गयी है।
जवाब में अचला भीत कण्ठ से चीख उठी, उसके बाद चुप! महिम के फिर घबराकर पुकारने का जवाब भी न दिया। महिम को इसी का डर था, क्योंकि घर में आग लगना क्या होता है-इसकी कोई धारणा ही अचला को न थी। महिम ने समझ लिया-अब तक वह आँखें मूँदे ही बात कर रही थी। लेकिन आँख खोलते ही जिस नज्जारे ने उसको भी कुछ देर के लिये बेबस बना दिया था, उसी बेहिसाब प्रकाश से भरे घर को देखकर अचला का होश जाता रहा। इस दुर्घटना के लिये महिम तैयार ही था। उसने किवाड़ के एक पल्ले को उठाया, और साँकल खोलकर अन्दर हो गया। मूर्च्छित पड़ी स्त्री को गोदी में उठाकर वह तुरन्त बाहर निकल गया।
अब घर के और लोगों को जगा देने के लिये वह नाम ले-लेकर पुकारने लगा। सुरेश फक हुआ चेहरा लिये बाहर निकल आया। जद्दू आदि नौकर भी दौड़कर निकले। उसके बाद जोरों की एक आवाज से चेत में आकर, अचला ने दोनों बाँहों से पति की गर्दन पकड़ ली और फफक कर रो पड़ी।
सबके लेकर महिम जब बाहर की खुली जगह में जा खड़ा हुआ, तो बड़े कमरे में आग सुलग गयी। उसे याद पड़ गया-अचला के गहने-पाते आदि जो भी कीमती सामान है, सब उसी में है; और अब थोड़ी भी देर हो, तो कुछ भी हाथ नहीं आने का।
अचला होश में आ गयी थी; वह जोर से पति का हाथ दबाकर बोली, नहीं, यह नहीं हो सकता! बदला चुकाने का यही मौका तुम्हें मिला? मैं तुम्हें उसके अन्दर हर्गिज नहीं जाने दे सकती! जलने दो, खाक हो जाये सब!!
-बिना गये काम न चलेगा अचला-कहते हुए जबर्दस्ती अपना हाथ छुड़ाकर, वह दौड़ा हुआ धुएँ के उस पहाड़ में जा धँसा। जद्दू चीखता हुआ पीछे-पीछे दौड़ा।
सुरेश अब तक हक्का-बक्का-सा करीब ही खड़ा था। अचानक वह आपे में आया। अचानक दौड़ने की कोशिश करते ही उसकी धोती का छोर थामकर अचला ने कठोर स्वर में कहा-आप कहाँ चले?
सुरेश ने खींच-तान करते हुए कहा-महिम जो गया…
अचला रूखे स्वर में बोली-वे तो अपनी चीज बचाने गये। आप कौन हैं? आपको मैं हर्गिज नहीं जाने दूँगी!
उसके स्वर में स्नेह का नाम भी न था-यह मानो अनधिकारी के उत्पात को फटकार से दबाया उसने।
दो-तीन मिनट के बाद ही महिम-दोनों हाथों में दो पेटियाँ, और जद्दू माथे पर एक बहुत बड़ा बक्स लेकर निकला। पेटी को अचला के पैरों के पास रखकर महिम ने कहा-गहने की पेटी को छोड़ना मत-हम लोग जरा कोशिश कर देखें, अगर बाहर के कमरे से कुछ निकाल सकें! अचला के मुँह से एक भी शब्द न निकला। उसकी मुट्ठी में तब भी सुरेश की धोती का छोर था। वैसा ही रहा। महिम ने एक नजर उधर देखा, और जद्दू के साथ तुरन्त ओझल हो गया।
(20)
सुबह की पहली जोत में पति के चेहरे पर नजर पड़ते ही अचला का हृदय हा-हाकार करके रो उठा। किसी भी तरह से वह अपने आँसू रोक न सकी। यह क्या हो गया। धूल, बालू राख से सिर के बाल रूखे; सूखे-रूखे चेहरे को झुलसाकर आग की लपटों ने उसके पति को एक ही रात में बूढ़ा बना दिया था। चारों तरफ घूम-फिरकर बस्ती के लोग शोर कर रहे थे। काँसे-पीतल के बर्तन-बासन तो सब गये-दिखाई ही दे रहे थे। खैर, बर्तन जायें, मगर शाल-दुशाले, गहने-पाते ही एक बक्स में कितने बच रहे होंगे-इसी पर खासी समालोचना चल रही थी। थोड़ी ही दूर पर बुझते हुए अग्नि-स्तूप की तरफ सूनी निगाहों से देखता हुआ महिम चुप खड़ा था। सुन वह सब कुछ रहा था, पर लोगों का कौतूहल मेटने-जैसी मन की अवस्था नहीं थी। उस टोले के भीखू बनर्जी-जाने-माने आदमी, बात की तकलीफ के कारण अब तक पहुँच नहीं पाये थे। अब लाठी के सहारे लोगों के साथ उन्हें आते देखकर महिम उनकी ओर बढ़ा। बनर्जी बाबू तरह-तरह से विलाप करने के बाद बोले-महिम, तुम्हारे पिता को गुजरे थोड़े दिन हो गये, मगर हम दोनों दो नहीं थे। एक जान दो कालिब!
महिम गर्दन हिलाकर उत्सुक आँखों ताकता रहा। पास ही घेरे की आड़ में सामान के पास अचला बैठी थी। वह भी उद्विग्न हो उठी-इतनी ही भूमिका के बाद बनर्जी बाबू कहने लगे-ब्रह्मा का क्रोध तो कुछ यों ही नहीं होता, बेटे! हम लोगों से पूछा तक नहीं, एक इतने बड़े ब्राह्मण के लड़के होकर क्या कुकर्म कर बैठे?
महिम समझ नहीं सका। अपनी बात की विस्तार से व्याख्या करने के लिये अपने अनुचरों की ओर ताककर वे कहने लगे-हम सभी यही कहा करते थे कि कुछ-न-कुछ होगा ही! भला और किसी पर ब्रह्मा का क्रोध क्यों नहीं उमड़ा? बेटे ब्राह्म जो है, ईसाई भी वही है! साहब को कहते हैं ईसाई, और बंगाली हो, तो ब्राह्म!! यह हमसे-जिन्हें शास्त्र का ज्ञान है-नहीं छिप सकता!!!
जो वहाँ मौजूद थे, सबने हामी भरी। उत्साहित होकर वे बोल उठे, करने को जो चाहे करो बेटे, पहले इसका प्रायश्चित करके और उसे त्याग कर…
महिम ने हाथ उठाकर कहा-रुकिये! आप लोगों का मैं अनादर नहीं करना चाहता, मगर ऐसी बात न कहिए, जो कि है नहीं!! मैं जिन्हें ले आया हूँ, उनके पुण्य से घर रहे तो ठीक, नहीं तो बार-बार जल जाये-मुझे यह भी कबूल है!! कहकर वह दूसरी तरफ चला गया।
बनर्जी बाबू जमात के साथ कुछ देर हा किये खड़े रहे, फिर लाठी ठक-ठकाते हुए घर लौट गये। मन-ही-मन जो कहते गये, उसे जबान पर न लाना ही बेहतर।
अचला ने सब सुना। उसकी आँखों से आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें टपकने लगीं।
जद्दू ने आकर कहा-माँ जी, बाबूजी ने कहा है-आपसे पूछ कर मैं पालकी-कहार बुला दूँ। बुला दूँ?
आँचल से आँखें पोंछकर अचला ने कहा-बाबू को एक बार बुलाओ तो जद्दू!
-और पालकी?
-रहने दो अभी!
महिम के नजदीक आकर खड़े होते ही उसकी आँखों में फिर आँसू आ गये। उसने झुककर अचानक उसके पैरों की धूल ली, कि महिम चकित और व्यग्र हो पड़ा। शायद हो कि वह पति के हाथ पकड़कर पास बैठाती, याकि और कोई बचपना कर बैठती-क्या करती यह उसके अन्तर्यामी ही जानें; लेकिन सवेरा हो चुका था, चारों तरफ उत्सुक लोग थे। अचला ने अपने को संयत करके कहा-पालकी किसलिये?
महिम ने कहा-नौ बजे वाली गाड़ी पकड़ना ही तो सब तरह से अच्छा रहेगा! एक बजे तक घर पहुँच कर नहा-खा सकोगी। रात भी तो तुमने नहीं खाया।
-और तुम?
-मैं?-महिम ने जरा सोचकर कहा-मेरा भी कोई-न-कोई उपाय हो ही जायेगा!
-तो फिर मेरा भी होगा। मैं नहीं जाऊँगी!!
-कौन-सा उपाय होगा, कहो!
अचला इस बात का जवाब न दे सकी। एक बार तो उसकी जुबान पर आया-जंगल में पेड़-तले! मगर वास्तव में तो यह सम्भव नहीं। और बस्ती में किसी के यहाँ घण्टे-भर के लिये भी पनाह लेना कितना अपमानजनक है-उसका आभास तो अभी-अभी अच्छी तरह से वह पा चुकी है। मृणाल की बात याद नहीं आयी, सो नहीं-बार-बार याद आयी; पर शर्म से वह बोल नहीं सकी। कुछ देर चुप रहकर बोली-तुम भी मेरे साथ चलो।
महिम ने आश्चर्य से कहा-मैं साथ चलूँ? लाभ?
अचला ने कहा-लाभ-हानि देखना अब मेरे जिम्मे रहा! तुम्हारे हितू यहाँ ज्यादा हैं नहीं-यह मैं खूब देख चुकी। फिर तुम्हारी सूरत रात ही भर में कैसी हो गयी है-तुम नहीं देख पा रहे हो, मैं देख रही हूँ। मेरा गला भी काट डालो, तो भी तुम्हें यहाँ अकेला छोड़कर मैं नहीं जाऊँगी!
महिम के मन में उथल-पुथल होने लगी-लेकिन वह स्थिर ही रहा।
अचला बोली-तुम इतना सोच क्यों रहे हो? मेरे गहने तो हैं। इनसे पश्चिम में जहाँ भी हो, कोई छोटा-सा मकान हम मजे में खरीद सकेंगे। जहाँ भी रहूँ, मुझे तुम भूखी न मारोगे! कोशिश तुम्हें करनी ही होगी, और कह तो दिया-वह भार अबके मुझ पर रहा!!
जद्दू ने आकर पूछा-पालकी ले आऊँ माँ जी?
जवाब के लिये अचला उत्सुक हो पति की ओर ताकने लगी। महिम ने जवाब दिया। जद्दू को पालकी लाने का हुक्म दिया और स्त्री से कहा-मगर मैं तो अभी नहीं जा सकता!
सुनकर अनिर्वचनीय शान्ति और तृप्ति से अचला का हृदय भर गया। मन के आवेग को दबाकर उसने कहा-मानती हूँ, तुरन्त चल सकना तुम्हारा नहीं हो सकता; मगर यह कहो कि साँझ की गाड़ी से जरूर जाओगे? नहीं तो मैं भोजन के लिये बैठी सोचती रहूँगी, और…
मगर उसका मंतव्य महिम के निःश्वास में मानो डूब गया। वह उदास होकर बोली-साँझ को नहीं जा सकोगे? तो फिर अँधेरी रात में किसके यहाँ-पर कहते-कहते वह रुक गयी। जिसके यहाँ पति के रात बिताने की सम्भावना थी-उसकी याद आते ही उसका चेहरा फीका हो गया। महिम ने शायद उसके मन की बात नहीं समझी। पूछा-कलकत्ते में मुझे कहाँ जाने को कहती हो?
अचला ने तुरन्त जवाब दिया-क्यों, पिताजी के यहाँ!
महिम ने सिर हिलाकर कहा-नहीं!
-नहीं क्यों? वह भी क्या तुम्हारा अपना घर नहीं?
महिम ने वैसे ही सिर हिलाकर कहा-नहीं!
अचला ने कहा-न हो तो वहाँ दो ही दिन रहकर हम पश्चिम चले जायेंगे।
-नहीं!
अचला जानती थी-उसे डिगाना मुमकिन नहीं। कुछ सोचकर बोली-तो चलो, यहीं से हम पश्चिम के किसी शहर को चलें! मैं खूब जानती हूँ, मैं साथ दूँगी तो हमें कहीं तकलीफ न होगी!! लेकिन गहने तो बेचने पड़ेंगे, यह काम कलकत्ते के सिवा कैसे होगा?
महिम दूसरी ओर देखता हुआ चुप हो रहा। अचला ने अकुलाकर पूछा-पश्चिम में तो बड़े शहर हैं, वहाँ भी तो बेचा जा सकता है? मेरे बक्स में लगभग दो सौ रुपये हैं। उनसे जाना तो हो ही जायेगा! चुप हो? जल्दी बोलो न!
महिम स्त्री की नजर की ओर न देख सका। मगर जवाब दिया-तुम्हारे जेवर मैं नहीं ले सकूँगा, अचला!
कोई भारी धक्का खाकर अचला जैसे पीछे हट गयी-क्यों नहीं ले सकोगे, जान सकती हूँ क्या?
महिम ने इसका कुछ जवाब न दिया। कुछ देर तक दोनों निस्तब्ध हो रहे। अचानक अचला ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी-संसार में पति क्या अकेले एक तुम ही हो? आड़े वक्त में आखिर वे कैसे लेते हैं? स्त्री का गहना रहता किसलिये है? इतने कष्ट से आखिर तुम इन्हें बचाने ही क्यों गये? यह कहकर टिन के छोटे-से बक्स को हाथ से ठेलकर कहा-मुसीबत की घड़ी में ये काम ही न आयें, तो यह बोझ ढोते-फिरने से क्या लाभ? आग तो अभी जल ही रही है-मैं इसे उसी में डालकर निश्चिन्त होकर चली जाती हूँ; तुम्हारे जी में जो हो, वही करना! उसने आँचल से आँखें दबा लीं।
दो-एक मिनट चुप रहकर महिम ने धीरे-धीरे कहा-मैंने सब सोच देखा है अचला! मगर तुम्हें तो मालूम है, मैं कोई काम झोंक में नहीं करता। और कोई करे, यह भी नहीं चाहता! तुम जो देना चाह रही हो, उसे अपना समझ कर मैं ले सकता तो आज मेरे सुख की सीमा नहीं रहती। लेकिन किसी भी प्रकार से ले नहीं सकता। मेरी तकलीफ देखकर और भी बहुतेरे लोगों ने बहुत-बहुत देना चाहा था, लेकिन वह जैसी दया थी, यह भी वैसी ही दया है। लेकिन इसमें न तुम लोगों का, न अपना, किसी का भला न होगा-ऐसा ही मेरा विश्वास है!
अचला और न सह सकी। रोना भूलकर, शायद प्रतिवाद करने के लिये ही, दोनों जलती आँखें ऊपर उठाकर स्वामी की नजर का अनुसरण करते ही देखा-थोड़ी दूर पर उन लोगों का जो पोखरा है, उसी के घाट के पास वेदी बँधे नीमगाछ के नीचे, हाथ पर सिर टिकाए सुरेश पड़ा-पड़ा आसमान की ओर ताक रहा है। अचला के मुँह की बात मुँह में रह गयी, और उसका उठा हुआ सिर आप-ही-आप झुक गया।
लेकिन महिम बहुत कुछ अपमानित-सा अपने-आप ही कहने लगा-यह नहीं कि मुझे कभी चैन नहीं मिलेगा; बल्कि बार-बार तुम्हें वंचित करूँ, हममें यही सम्बन्ध कभी नहीं हुआ! थोड़ी देर रुककर बोला-अचला, अपने को उजाड़कर दान करने का दुःख बहुत बड़ा है! सनक में कभी पलभर में वह किया तो जा सकता है, पर उसका नतीजा भोगना पड़ता है जिन्दगी भर! मैं जानता हूँ, एक भूल के चलते तुम लोगों के अफसोस का हद्दोहिसाब नहीं। एक भूल और बन जाये-तो न तो कभी तुम खुद को माफ कर सकोगी, न मुझको! इस नुकसान को सहने का तुम्हारे पास कोई सम्बल नहीं, इस बात का पता मुझको आज चाहे न चले, दो दिन बाद चलेगा!! इसीलिये तुमसे मैं कुछ भी नहीं ले सकता!!!
ये बातें अचला के कलेजे में चुभीं। पति की नजरों में वह कितनी परायी है-इस बात का अनुभव उसने आज जितना किया, और कभी नहीं किया था; तथा साथ-ही-साथ मृणाल की याद आते ही वह गुस्से से भर उठी। वह भी सख्त होकर बोल उठी-इतनी देर से तुम मुझे जो समझा रहे हो, वह मैंने समझा! शायद हो कि तुम्हारा कहना सही है, या तुम्हारा मुँह देखकर दया से ही मैंने अपना सर्वस्व देना चाहा था। शायद दो दिन के बाद वास्तव में ही मुझे इसके लिये पछताना पड़ता-सब सही है; लेकिन देखो, दूसरों के मन की भावना को समझ लेने की जितनी भी शक्ति तुम्हें हो, लेकिन तुम्हें समझा देने वाली बात भी है। स्त्री की चीजों को जबर्दस्ती लेने की बात तो जाने दो, हाथ फैलाकर ही लेने का तुम्हें कौन-सा सहारा है? तुमसे अब तर्क नहीं करूँगी। आज से मेरी यही सान्त्वना रही कि इतनी-सी विवेक-बुद्धि तुममें है। लेकिन मैं जहाँ-कहीं भी रहूँ, कभी-न-कभी सारा कुछ तुम्हें समझना ही पड़ेगा! और हथेलियों से मुँह छिपाकर उसने अपनी रुलाई रोकी।
नौ बजे की गाड़ी से सुरेश भी घर लौट रहा था। रात की अगलग्गी ने उसे कैसा तो कर दिया। उसे मानो किसी से बात करने की शक्ति ही न थी। गाड़ी को कुछ देर थी। महिम को स्टेशन के एक किनारे ले जाकर सुरेश ने कहा-महिम, इस अगलग्गी के लिये तुम्हें मुझ पर तो सन्देह नहीं है?
उसके दोनों हाथों को कसकर, दबाकर महिम ने कहा-छिः!
सुरेश की आँखें डबडबा गयीं। रुँधे स्वर से बोला-कल से इसी के लिये मुझे चैन नहीं है, महिम!
महिम ने चुपचाप उसके हाथ को सिर्फ दबा दिया । उसके बाद बोला-एक सच्चा गुनाह, बहुतेरे झूठे गुनाहों को ढो लाता है, सुरेश! लेकिन बेहद दुःख पाकर तुम और चाहे जो करो-जिसे ‘क्राइम’ कहते हैं, वह नहीं कर सकते-ऐसा आज भी मेरा विश्वास है!! जरा रुककर बोला-तुम भगवान को नहीं मानते सुरेश, लेकिन जो मानते हैं, वे सदा यही प्रार्थना करते हैं कि भगवान जिनमें हैं, उनके इस विश्वास को न तोड़ दें।
गाड़ी आ लगी। औरतों के डिब्बे में अचला और उसकी नौकरानी को चढ़ाकर सुरेश के पास आते ही, उसने खिड़की से हाथ निकालकर महिम का हाथ पकड़ कर कहा-तुमने मेरी कल की क्षति-पूर्ति करने की प्रार्थना न मानी, पर ईश्वर तुम्हारी प्रार्थना को मंजूर करें भाई। मुझको वे और छोटा न करें-कहकर उसने हाथ छुड़ाकर मुँह फेर लिया।
उधर खिड़की पर मुँह रखकर अचला अब तक जद्दू से चुप-चुप में जाने क्या कह रही थी। महिम के करीब आते ही उसने पूछा-मृणाल दीदी के पति क्या आज गुजर गये?
महिम ने सिर हिलाकर कहा-हाँ, सुना, थोड़ी देर पहले चल बसे!
अचला ने पूछा-दस-बारह दिन से न्यूमोनिया के शिकार थे। मुझे यह बताना भी तुमने आवश्यक नहीं समझा?
महिम ने इसका जवाब देना चाहा-पर कैसे क्रम बिठाकर कहे, यही सोचते-सोचते सीटी बजाकर गाड़ी खुल गयी।