गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 5

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 5

रात तीन बजे के आसपास अक्सर कोई जाना पहचाना आदमी आकर जगा देता है । किस रात कौन आयेगा? कौन जगायेगा? क्या कहेगा यह पता नहीं होता। जाग जाने के बाद रात के सन्नाटे और एक अनबूझी सी नीरवता में यादों का सिलसिला चल निकलता है। कड़ियां जुड़ती चली जाती है और अपने आपको इस तरह दोहराती है कि पुरानी होते हुए भी नयी लगती है।

ये उस ज़माने की बात है जब मैंने रिपोर्टिंग से ब्यूरो में आ गया था। हसन साहब चीफ रिपोर्टर थे। उन्होंने खुशी-खुशी मेरे प्रोमोशन पर मुहर लगायी थी। उसके बाद नये चीफ के साथ उनके मतभेद शुरू हो गये। हसन साहब उम्र की उस मंज़िल में थे जहां लड़ने झगड़ने से आदमी चुक गया होता है। रोज़-रोज़ के षड्यंत्रों और दरबारी तिकड़मों से तंग आकर उन्होंने एक दिन मुझसे कहा था “मियां मैं सोचता हूं दिल्ली छोड़ दूं।”

मुझे हैरत हुई थी। सन् बावन से दिल्ली के राजनैतिक, सामाजिक परिदृश्य के साक्षी हसन साहब दिल्ली छोड़ने की बात कर रहे हैं जबकि लोग दिल्ली आने के लिए तरसते हैं। इसलिए कि दिल्ली में ही तो लोकतंत्र का दिल है। यही से उन तारों को छेड़ा जाता है जो पद, प्रतिष्ठा और सम्मान की सीढ़ियों तक जाते हैं।

“ये आप क्या कह रहे हैं हसन भाई?”

“बहुत सोच समझ कर कह रहा हूं. . .देखो हम मियां, बीवी अकेले हैं. . .हम कहीं भी बड़े आराम से रह लेंगे. . .मैं किसी तरह का ‘टेंशन` नहीं चाहता. . .मैंने जी.एम. से बात कर ली है। अखबार से एक स्पेशल क्रासपाण्डेंट शिमला भेजा जाना है. . .हो सकता है, मैं चला जाऊं।”

“इतने सालों बाद दिल्ली. . .”

“मियां दिल्ली से मैंने दिल नहीं लगाया हैं।“

हसन साहब शिमला चले गये। सुनने में आता था बहुत खुश है। स्थानीय पत्रकारों से खूब पटती है। अपने स्वभाव, लोगों की मदद, हारे हुए के पक्ष में खड़े होने के अपने बुनियादी गुण के कारण बहुत लोकप्रिय हैं। शिमला से वे जो भेजते थे उसे चीफ रद्दी में डाल देते थे लेकिन उन्होंने कभी प्रतिरोध नहीं किया। पता नहीं जिंदगी के इस मोड़ पर उन्हें कहां से सहन करने की ताकत मिलती थी।

उनके शिमला जाने के कुछ साल बाद मैं तन्नो और हीरा के साथ शिमला गया था। वो वे मेरा सामान होटल से ‘लिली काटेज` उठा लाये थे। पहाड़ के ऊपर ब्रिटिश पीरियड की इस काटेज में वे और भाभी रहते थे। यहां से शिमला की घाटी दिखाई देती थी। उन्होंने बाग़वानी भी शुरू कर दी थी और शहद के छत्ते लगाये थे। ‘लिली काटेज` भी उनके साफ सुथरे और संभ्रांत अभिरुचियों से मेल खाती थी। नफ़ासत, तहजीब, तमीज़, खूबसूरती, मोहब्बत और रवायत के पैरवीकार हसन साहब अपनी जिंदगी से खुश थे। रोज कई किलोमीटर पैदल चलते थे। शाम बियर पीते हुए क्लासिकल संगीत सुनते थे। जाड़ों की सर्द रातों में आतिशदान के सामने बैठकर ‘रूमी’ और ‘हाफ़िज़` का पाठ करते थे। उन्हें देखकर मैं बहुत खुश हुआ था।

शिमले एक दिन मुझे जबरदस्ती घसीटते हुए पता नहीं क्यों मुख्यमंत्री से मिलवाने ले गये थे। सचिवालय में मुख्यमंत्री के पी.एस. ने बताया कि कैबनेट की मीटिंग चल रही है। मैं खुश हो गया था कि यार मुख्यमंत्री से मिलना टल गया। मुझे यकीन था कि तन्नो और तीन साल के हीरा को मुख्यमंत्री से मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं है लेकिन हसन साहब मानने वाले नहीं थे। न्यूज़ वाले जो ठहरे।

तन्नो और हीरा को ऑफिस में छोड़कर वे मुझे लेकर गैलरी में आ गये। फिर गैलरियों की भूल भुलइया से होते एक छोटे से कोटयार्ड में पहुँचे जहां उस कमरे की खिड़कियां थी जिनमें कैबनेट की मीटिंग हो रही थी। वहां से मुख्यमंत्री दिखाई पड़े। उन्होंने जब हसन साहब को देखा तो हसन साहब ने उन्हें हाथ से इशारा किया और मुझसे बोले “चलो निकल आयेगा।”

हम ऑफिस में आये तो मुख्यमंत्री मीटिंग से निकलकर अपने चैम्बर में आ चुके थे।

मुख्यमंत्री से हम लोगों का परिचय हुआ। परिचय के बाद मुख्यमंत्री बड़ी बेचैनी से बोले “लाइये. . .लाइये. . .” मतलब वे यह आशा कर रहे थे कि हम किसी काम से आये हैं। हमारे पास काई प्रार्थना पत्र है जिस पर उनके हस्ताक्षर चाहिए।

“ये लोग तो घूमने आये हैं”, हसन साहब ने बताया।

“घूमने आये हैं. . .तो मैनेजिंग डायरेक्टर टूरिज्म़ को फोन करो”, उन्होंने अपनी पी.एस. से कहा।

एक दो अनौपचारिक बातों के बाद मुख्यमंत्री कैबनेट बैठक में चले गये।

“आपने काफी काबू में किया हुआ है”, मैंने बाद में हसन साहब से कहा।

“अरे भई. . . ये तो चलता ही रहता है. . .अभी यहां तूफान आया था। एक अंदाजे के मुताबिक दस करोड़ का नुकसान हुआ है. .मुझसे ये कह रहे हैं मैं ‘द नेशन` में रिपोर्ट के साथ बीस करोड़ का नुकसान बताऊं. . .सेंटर से ज्यादा पैसा मिल जायेगा।”

शिमला जाने के कोई दस-ग्यारह साल बाद यह ख़बर मिली थी कि हसन साहब रिटायर होकर दिल्ली आ गये हैं ओर ‘नोएडा` में किराये का मकान लिया है। सन् बावन से दिल्ली में रहने वाले हसन साहब के पास शहर में कोई अपना मकान या फ्लैट नहीं है।

एक बार बता रहे थे। काफी पुरानी बात है। दिल्ली के किसी मुख्यमंत्री को किसी ‘घोटाले` के बारे में हसन साहब स्टोरी कर रहे थे। मुख्यमंत्री ने उन्हें ऑफिस बुलाकर उनके सामने पूरी ‘सेलडीड` के काग़ज़ात रख कर कहा था हसन साहब दस्तख़त कर दो. . .कैलाश कालोनी का एक बंगला तुम्हारा हो जायेगा।

हसन साहब ने उसी के सामने काग़ज फाड़कर फेंक दिये थे। उनके ‘नोएडा` वाले मकान में मैं कभी-कभी जाता था। रिटायरमेण्ट के बाद वे अपने नायाब ‘कलेक्शन` को ‘अरेन्ज` कर रहे थे। उनके पास सिक्कों का बड़ा ‘कलेक्शन` था। एफ. एम. हुसैन ने उन्हें कुछ स्केच बना कर दिए थे। बेगम अख्त़र ने उनके घर पर जो गाया था उसकी कई घण्टों की रिकार्डिंग थी। चीन यात्रा के दौरान उन्होंने बहुत नायाब दस्तकारी के नमूने जमा किये थे। जापान से वे पंखों का एक ‘कलेक्शन` लाये थे। इस सब में वे लगे रहते थे और वही उत्साह था, वही लगन, वही समर्पण और वही सहृदयता जो मैंने तीस साल पहले देखी थी।

एक ही आद साल पता चला उन्हें ‘थ्रोट कैन्सर` हो गया है। वह बढ़ता चला गया। उन्हें ‘ऐम्स` में भरती कराया गया। कुछ ठीक हुए। फिर बीमार पड़े और साले होते-होते ‘सीरियस` हो गये। ‘ऐम्स` में उनसे मिलने गया तो लिखकर बात करते थे। बोल नहीं सकते थे। आठ बजे रात तक बैठा रहा। घर आया तो खाना खाया ही था कि उमर साहब का फोन आया कि हसन साहब नहीं रहे।

भाभी को उमर साहब की बीवी लेकर चली गयी। हम लोगों ने रिश्तेदारों को फोन किए। रात में बारह के करीब उनकी ‘बॉडी` मिली। दफ्ऩ वगैरा तो सुबह ही होना था। सवाल यह था कि ‘बॉडी` लेकर कहां जायें। उमर साहब ने राय दी कि जोरबाग वाले इमाम बाड़े चलते हैं। वहीं सुबह गुस्ल हो जायेगा और दफ्ऩ का भी इंतिज़ाम कर दिया जायेगा।

इमामबाड़े वालों ने कहा कि रात में ‘डेड बॉडी` को अकेले नहीं छोड़ा जा सकता। आप लोगों को यहां रुकना पड़ेगा। जाड़े के दिन थे। हम वहां कहां रुकते ‘डेड बॉडी` के लिए जो कमरा था वहां ‘बॉडी` रख दी गयी थी। उसके बराबर के मैदान में मैंने गाड़ी खड़ी कर दी। मैंने और उमर साहब ने सोचा, गाड़ी रात गुज़ार देंगे।

जब सर्दी बढ़ने लगी तो उमर साहब ने कहा “अभी पूरी रात पड़ी है और गाड़ी में बैठना मुश्किल हो जायेगा. . .चलिए घर से कम्बल और चाय वगैरा ले आते हैं।”

उमर साहब ने बताया कि वे पास ही में रहते हैं। तुगल़काबाद एक्सटेंशन के पीछे उन्होंने मकान बनवाया है। गाड़ी लेकर चले तो पता चला कि तुगलकाबाद से चार पांच किलोमीटर दूर किसी ‘अनअथाराइज़` कालोनी में उमर साहब का मकान है। कालोनी तक पहुंचते-पहुंचते सड़क कच्ची हो गयी और इतनी ऊबड़-खाबड़ हो गयी कि गाड़ी चलाना मुश्किल हो गया। कई गलियों में गाड़ी मोड़ने के बाद उनके कहने पर मैंने जिस गली में गाड़ी मोड़ी वह गली नहीं तालाब था। पूरी गली में पानी भरा था। दोनों तरफ अधबने कच्चे, पक्के घर थे और गली में बिल्कुल अंधेरा था।

मैंने उनसे कहा “भाई ये तालाब के अंदर से गाड़ी कैसे निकलेगी।”

यहां से गाड़ियां निकलती है“ उन्होंने कहा।

“मैं निकाल दूं। पर अगर गाड़ी फंस गयी तो क्या होगा? रात का दो बजा है. . .”

बात उनकी समझ में आ गयी। बोले “मेरा घर यहां से ज्यादा दूर नहीं है। मैं कम्बल और चाय लेकर आता हूं। आप यहीं रुकिए।”

उमर साहब के जाने के बाद पता नहीं कहां से इलाके के करीब पच्चीस तीस कुत्तों ने गाड़ी घेर ली और लगातार भौंकने लगे. एक टार्च की रौशनी भी मेरे ऊपर पड़ी। मैं कुत्तों की वजह से उतर नहीं सकता था। लोगों का शक हो रहा था कि मैं कौन हूं और रात में दो बजे उनके घर के सामने गाड़ी रोके क्यों खड़ा हूं।

ख़ासी देर के बाद उमर साहब आये और हम इमामबाड़े आ गये। रातभर हम लोग हसन साहब के बारे में बातचीत करते रहे।

अगले दिन हसन साहब को दफ्ऩ कर दिया गया। उनके रिश्तेदार सुबह ही पहुंच गये थे। हम दस-पन्द्रह लोग थे कब्रिस्तान में किसी ने मेरे कान में कहा “वो हिम्मत से ज़िंदा रहे और हिम्मत से मरे।”


२५

“भई माफ करना. .. तुम्हारी बातें बड़ी अनोखी हैं. . .पहली बात तो ये कि मुझे अजीब लगती हैं. . .दूसरी यह कि उन पर यक़ीन नहीं होता. . .मैं यह सोच भी नहीं सकता कि कोई दिल्ली में पैदा हुआ। पला बढ़ा लिखा और उसने लाल किला, जामा मस्जिद नहीं देखी”, मैंने अनु से कहा।

“अब हम आपको क्या बतायें. . .पापा की छुट्टी इतवार को हुआ करती थी। स्कूल भी इतवार को बंद होते थे. ..पापा कहते थे कि हफ्त़े में एक दिन तो छुट्टी का मिलता है आराम करने के लिए. .. उसमें भी बसों के धक्के खायें तो क्या फ़ायदा. . .फिर कहते थे अरे घूमने फिरने में पैसा ही तो बर्बाद होगा न? उस पैसे से कुछ आ जायेगा तो पेट में जायेगा या घर में रहेगा. ..”

“और स्कूल वाले. . .”

“अली साहब. ..म्युनिस्पल स्कूल वाले पढ़ा देते हैं यही बहुत है. . .वे बच्चों को पिकनिक पर ले जायेंगे?”

“दूसरी लड़कियों के साथ।”

“वे भी हमारी तरह थीं. . .छुट्टी में लड़कियां गुट्टे खेलती थीं और हम गणित के सवाल लगाते थे. . .सब हमें पागल समझते थे”, अनु हंसकर बोली।

“तो तुमने आज तक लाल किला और जामा मस्जिद नहीं देखी?”

“हां अंदर से. . .बाहर से रेलवे स्टेशन जाते हुए देखी है।”

“क्या ये अपने आप में स्टोरी नहीं है?”

“स्टोरी?” वह समझ नहीं पाई।

“ओहो. . .तुम समझी नहीं. . . मैं कह रहा था कि क्या ये एक नयी और अजीब बात नहीं है कि दिल्ली में . . .”

“मेरी बड़ी बहन ने भी ये सब नहीं देखा है और छोटी बहन ने भी नहीं देखा।”

“तुम्हारा कोई भाई है?”

“नहीं भाई नहीं है. . .हम तीन बहने हैं।”

“ओहो. . .”

“चलो तुम्हें जामा मस्जिद दिखा दूं. . .चलोगी”, मैंने अचानक कहा।

“अभी?”

“हां. . . अभी?”

“चलिए”, वह उठ गयी।

दरियागंज में गाड़ी खड़ी करके हम रिक्शा पर बैठ गये। मेरी एक बहुत बुरी आदत है. . .इतनी बुरी कि मैं उससे बेहद तंग आ गया हूं. . .छोड़ना चाहता हूं पर छूटती नहीं. . .ये आदत है सवाल करने और गल़त चीज़ों को सही रूप में देखने की आदत. . .रिक्शे, भीड़, फुटपाथ पर होटल, फुटपाथ पर जिंदगी. . .अव्यवस्था, अराजकता. . .सड़क ही पतली है, उस पर सितम ये कि दोनों तरह से बड़ी-बड़ी गाड़ियां आ जा रही है। सड़क पर भी जगह नहीं है. . .क्योंकि ठेलियां खड़ी हैं। रिक्शेवाले फुटपथिया होटलों में खाना खा रहे हैं। फक़ीर बैठे हैं। लावारिस लड़के बूट पालिश कर रहे हैं। रिक्शेवाले रिक्शे पर सो रहे हैं। बूढ़े और बीमार फुटपाथ पर पसरे पड़े हैं। धुआं और चिंगारियां निकल रही हैं।

कौन लोग हैं ये? जाहिर है इसी फुटपाथ पर तो पैदा नहीं हुए होंगे। कहीं से आये होंगे? क्या वहां भी इनकी जिंद़गी ऐसी ही थी या इससे अच्छी या खराब थी? ये आये क्यों?

इसमें शक नहीं कि ये भूखों मर रहे हैं। इनकी जिंद़गी बर्बाद है और चाहे जो हो वह इन हालात को अच्छा और जीने लायक नहीं मान सकता।

अब सोचना ये है कि वे यहां भुखमरी से बचने के लिए अपने-अपने इलाकों से आये हैं लेकिन आते क्यों हैं। ये लोग पेड़ तो लगा सकते हैं? गांवों के आसपास से महुए के पेड़ कम होते जा रहे हैं। महुआ इनके लिए बड़ा उपयोगी पेड़ हे। ये लोग महुए के पेड़ क्यों नहीं लगाते? जानवर क्यों नहीं पालते? अगर गुजरात में सहकारी आंदोलन सफल हो सकता है तो यहां क्यों नहीं हो सकता? क्या इलाके के लोग मिलकर सड़क या रास्ता नहीं बना सकते? शायद समस्या है कि इन लोगों के सामूहिकता की भावना को, एकजुट होकर काम करने की लाभकारी पद्धति को विकसित नहीं किया गया। सागर साहब ने जिन गांवों में यह प्रयोग किए हैं वे सफल रहे हैं। फिर ऐसा क्यों नहीं होता?

सामूहिक रूप से अपने जीवन को बदलने और संघर्ष करने की प्रक्रिया इन्हें सशक्त करेगी और सत्ता शायद ऐसा नहीं चाहती। आम लोगों का सशक्तिकरण सत्ता के समीकरण बदल डालेगा। क्या इसका यह मतलब हुआ कि गरीब के हित में किए जाने वाले काम दरअसल सत्ता के लिए चुनौती होते हैं और सत्ता उन्हें सफल नहीं होने देती। सत्ता ने बड़ी चालाकी से विकास की जिम्मेदारी भी स्वीकार कर ली है। इसका मतलब यह है कि विकास पर उनका एकाधिकार हो गया है। विकास की परिकल्पना, स्वरूप, कार्यक्रम और उपलब्धियों से वे लोग बाहर कर दिए गये हैं जिनके लिए विकास हो रहा है।

“आप क्या सोच रहे हैं”, जब हम जामा मस्जिद की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे तो अनु ने पूछा।

“बहुत कुछ. . .सब बताऊंगा लेकिन अभी नहीं. . .अभी तुम्हें जामा मस्जिद के बारे में बताऊंगा क्योंकि यहां तुम पहली बार आ रही हो”, हम अंदर जाने लगे तो किसी ने रोका कि इस वक्त औरतें अंदर नहीं जा सकतीं।

“मैं प्रैस से हूं. . .’द नेशन` का एसोसिएट एडीटर. . .एस.एस. अली. .. इमाम साहब का दोस्त हूं. . .” वह आदमी घबरा कर पीछे हट गया।

“आप लोगों के बड़े ठाट हैं।”

“हां यार. . .ये लोगों ने अपने-अपने नियम बना रखे हैं. . .जितने भी नियम कायदे बनाये जाते हैं सब लोगों को परेशान करने के लिए, आदमी को सबसे ज्यादा मज़ा शायद दूसरे आदमी को परेशान करने में आता है।”

वह हंसने लगी।

“आप कह रहे थे कुछ बतायेंगे मस्जिद के बारे में।”

“सुनो एक मजे का किस्सा. . .शाहजहां चाहता था कि मस्जिद जल्दी से जल्दी बनकर तैयार हो जाये। एक दिन उसने दरबार में प्रधानमंत्री से पूछा कि मस्जिद बनकर तैयार हो गयी है क्या?” प्रधानमंत्री ने कहा “जी हां हुजूर तैयार है” इस पर सम्राट ने कहा ठीक है अगले जुमे की नमाज़ मैं वहीं पढ़ूंगा। दरबार के बाद मस्जिद के निर्माण कार्य के मुखिया ने प्रधानमंत्री से कहा कि आपने भी ग़ज़ब कर दिया। मस्जिद तो तैयार है लेकिन उसके चारों तरफ जो मलबा फैला हुआ वह हटाना महीनों का काम है। उसे हटाये बगैर सम्राट कैसे मस्जिद तक पहुंचेंगे? प्रधानमंत्री ने एक क्षण सोचकर कहा “शहर में डुग्गी पिटवा दो कि मस्जिद के आसपास जो कुछ पड़ा है उसे जो चाहे उठा कर ले जाये।”

ये समझो कि तीन दिन में पूरा मलबा साफ हो गया।

वह हंसने लगी।

यह लड़की मुझे अच्छी लगी है। मैं अब उसकी सहजता का रहस्य समझ पाया हूं।

“और बताइये?”

“सुनो. . .जैसा कि मैंने बताया शाहजहां चाहता था कि मस्जिद जल्दी से जल्दी बनकर तैयार हो जाये. . .मस्जिद का ‘बेस` और सीढ़ियाँ बनाकर ‘चीफ आर्कीटेक्ट` ग़ायब हो गया। काम रुक गया। सम्राट बहुत नाराज़ हो गया। सारे साम्राज्य में उसकी तलाश की गयी। वह नहीं मिला. . .अचानक एक दिन दो साल बाद वह दरबार में हाजिर हो गया। सम्राट को बहुत ग़ुस्सा आया। वह बोला “सरकार आप चाहते थे कि मस्जिद जल्दी से जल्दी बन जाये। लेकिन मुझे मालूम था कि इतनी भारी इमारत के ‘बेस` में जब तक दो बरसातों का पानी नहीं भरेगा तब तक इमारत

मजबूती से टिकी नहीं रह पायेगी। अगर मैं यहां रहता तो आपका हुक्म मानना पड़ता और इमारत कमज़ोर बनती। हुक्म न मानता तो मुझे सज़ा होती। इसलिए मैं गायब हो गया।”

“मेरी भी अच्छी कहानी है”, वह बोली।

“मस्जिद से जुड़ी. . .कहानियां तो दसियों हैं. . .नीचे देखो वहां सरमद का मज़ार है. . .कहते हैं औरंगजेब ने सरमद की खाल खिंचवा कर उनकी हत्या करा दी थी. . .मुझे पता नहीं यह बात कितनी ऐतिहासिक है लेकिन किस्सा मज़ेदार है और लोग जानते हैं। एक दिन औरंगजेब की सवारी जा रही थी और रास्ते में सरमद नंगा बैठा था। उसके पास ही एक कम्बल पड़ा था। औरंगजेब ने उसे नंगा बैठा देखकर कहा कि कम्बल तुम्हारे पास है, तुम अपने नंगे जिस्म को उससे ढांक क्यों नहीं लेते?” सरमद ने कहा “मेरे ऊपर तो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। तुम्हें कोई परेशानी है तो कम्बल मेरे ऊपर डाल दो।“ खैर सम्राट हाथी से उतरा। कम्बल जैसे ही उठाया वैसे ही रख उल्टे पैर लौटकर हाथी पर चढ़ गया।” सरमद हंसा और बोला “क्यों बादशाह, मेरे नंगा जिस्म छिपाना ज़रूरी है या तुम्हारे पाप?“ कहते हैं औरंगजेब ने जब कम्बल उठाया था तो उसके नीचे उसे अपने भाइयों के कटे सिर दिखाई दिए थे जिनकी उसने हत्या करा दी थी. . .कहो कैसी लगी कहानी?”

उसने मेरी तरफ देखा। उसकी उदास और गहरी आंखों में संवेदना के तार झिलमिला रहे थे।


२६

तीन अकेलों के मुकाबले एक अकेला ज्यादा अकेला होता है। शकील को लगा था कि उसके क्षेत्र से उसे उखाड़ फेंकने की कोशिश हो रही है. .. वह क्षेत्र में चला गया। दिल्ली कभी-कभार ही आता है। अहमद राजदूत बनकर अपना ‘ऐजेण्डा` लागू कर रहा है। फोन करता रहता है लेकिन विस्तार से बात नहीं होती। बता रहा था उसके चार्ज लेते ही शूजा आ गयी थी। करीब एक हफ्ते रही। उसको रेगिस्तान बहुत पसंद नहीं आया क्योंकि वह अंदर के रेगिस्तान से बड़ा नहीं था, वापस चली गयी।

शाम की महफिलें नहीं जम पातीं। वैसे तो जानने वालों, परिचितों, जान-पहचान वाले दोस्तों की लंबी फेहरिस्त है लेकिन जो मज़ा दो पुराने दोस्तों के साथ ‘टेरिस` पर बैठकर गप्प-शप्प में आता था वह कहां बचा? जिससे मिलो, जिसके पास जाओ, उसके पास एक ‘ऐजेण्डा` होता है, ‘हमसे तो छूटी महफिलें।`

हीरा से लंबी बातचीत होती रहती है। वह एशियाई देशों के विकास पर एक प्रोजेक्ट कर रहा है और बांग्लादेश जाना चाहता है। तन्नो ने बिजनेस को समेटकर पैसा ‘ब्लूचिप कंपनियों` में ‘इनवेस्ट` कर दिया है। कहती है अब वह इतना काम नहीं कर सकती। उसने ‘पेंटिंग` करने का शौक चर्राया है और ‘आर्टिस्ट` से चेहरे बनाना सीख रही है। किसी होटल ‘चेन` को एसेक्स काउण्टी वाला ‘हीरा पैलेस` किराये पर दे दिया है कि वहां की देखभाल पर जो खर्च आता था और जो ‘टैक्स` पड़ते थे, वे लगातार बढ़ते जा रहे थे और मिर्जा साहब के ज़माने वाला ‘एक्टिव बिजनेस` भी रह गया था जिसके लिए शानदार पार्टियाँ ज़रूरी थी, जो वही दी जाती थीं।

मुझे लगता था कि अनु उसी तरह धीरे-धीरे ग़ायब हो जायेगी जैसे दूसरे समाचार देने वाले या कभी अखबार में रूचि लेने वाले आते हैं और चले जाते हैं। लेकिन कालम बंद होने के बाद भी वह चली आती है। उसने साफ बताया है कि वह शहर में बहुत कम लोगों को जानती है। उसका कोई दोस्त नहीं है। उसे मुझसे मिलना अच्छा लगता है। वह उम्र दराज़ लोगों को पसंद करती है क्योंकि उनमें ठहराव और संयम होता है। मैं उसकी इस बात से सहमत हूं कि उम्र चाहिए। अच्छे काम करने के लिए नव-सिखिए या अनाड़ी तो भाग खड़े होते हैं। नौजवान लोगों के हाथों से रिश्ते शीशे के प्याले की तरह फिसलकर टूट जाते हैं।

एक साल हो गया जब मैं उसे पहली बार जामा मस्जिद ले गया था। इसके बाद दिल्ली के कई कोने, कई दबी और विशाल इमारतों के बीच छिपी और खण्डहर हो गयी ऐतिहासिक धरोहरों मैं उसे दिखा चुका हूं,। ‘टूरिस्ट गाइड` बनना संतोषजनक काम है क्योंकि आप अपनी जानकारियां ‘शेयर` करते हैं और अगर यह लग जाये कि जिसके साथ ‘शेयर` कर रहे हैं वह गंभीर है, रूचि ले रहा है, कृतज्ञता भी दिखा रहा है तो आपका उत्साह बढ़ जाता है।

खुशी, विनम्रता और सहजता अनु के स्वभाव के बुनियादी बिन्दु हैं। वह अपनी क्षमताओं, योग्यताओं और उपलब्धियों पर पता नहीं क्यों कभी गर्व नहीं करती। गणित के साथ-साथ वह कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर की भी चैम्पियन है लेकिन उसे देखकर, उसके हाव-भाव से यह लगता है कि अपनी योग्यता, विलक्षण क्षमता पर उसे विश्वास तो है लेकिन गर्व नहीं है। मेरा निजी पी.सी. उसके हवाले है, तरह-तरह के प्रोग्राम डालती रहती है और मुझे समझाती है। उसने गुलशन को भी कम्प्यूटर चलना इतना सिखा दिया है कि खोल और बंद सकता है।

पहले मैं सोचकर परेशान रहा करता था कि वह ऐसा क्यों करती है? उसको क्या लाभ है? वह दरअसल चाहती क्या है? मैं प्रतीक्षा करता था कि उसका असली चरित्र नहीं बल्कि असली ‘ऐजेण्डा` कब खुलता है। लेकिन मुझे निराशा ही हाथ लगी। मैं प्रतीक्षा करता रहा। अब भी कर रहा हूं।

मुझे यह सब क्यों अच्छा लगता है? गाड़ी में बीसियों किलोमीटर का चक्कर काटकर उसे मेवात के मध्यकालीन खण्डहर क्यों दिखाता हूं? मुझे उसकी आंखों में जिज्ञासा, कृतज्ञता, सहमति और संतोष का भाव आकर्षित करता है। लोगों से सहज संबंध और कठिन परिस्थितियों में संयम बनाये रखने की आदत भी निराली मालूम होती है क्योंकि आज किसके पास धैर्य है? किसके पास संतोष है?

मेवात के एक बीहड़ इलाके से गुजरते हुए अचानक अनु ने अपने पर्स में से भुने हुए चने निकाल लिए और मुझे ऑफर कर दिए। हम ग्यारह बजे चले थे और अब एक बज रहा था लेकिन इन कच्ची-पक्की पगडण्डियों जैसे सड़कों पर कोई ढाबा नहीं मिल पाया था जहां कुछ खा-पी सकते।

‘अरे तुम चने लाई हो।`

‘ये तो हम हमेशा अपने पास रखते हैं।`

‘अच्छा? क्यों?`

‘हमें कभी-कभी तेज़ भूख लगती है. . .बस चने निकाले खा लिए।`

‘हूं` मैंने उसके कंधे पर हाथ रख दिया। वह बुरी तरह चौंक कर उछली। उसका सिर गाड़ी की छत पर टकराया। चने गाड़ी में बिखर गये। उसके चेहरे पर भय और आतंक छा गया, माथे पर पसीने की बूंदें उभर आयी और वह कांपने लगी।

मैंने गाड़ी एक पेड़ के साये में खड़ी कर दी। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि उसकी ऐसी प्रतिक्रिया क्यों हुई?

‘क्या बात है?` मैंने पूछा।

‘कुछ नहीं. . .कुछ नहीं. . .` वह माथे का पसीना पोंछती हुई बोली।

‘कुछ तो है?`

‘नहीं. . .नहीं. . .`

‘बताओ न? तुम पहली बार कुछ छिपा रही हो?`

उसने भयभीत निगाहों से मेरी तरफ देखा।

‘इससे पहले मुझे कभी नहीं लगा कि तुमने मुझसे कुछ छिपाया है।`

‘हम. . .` वह कहते-कहते रुक गयी। मैं प्रतीक्षा करता रहा।

‘हम बता देंगे. . .पर अभी नहीं. . .अभी हम डर गये हैं।`

‘किससे? मुझसे?`

‘नहीं आपसे नहीं।`

‘फिर?`

‘हमने कहा न. . .हम बता देंगे।`

‘इमरजेंसी` बैठक थी। तनाव बहुत था। इसलिए हम कुछ ज्यादा ही पी रहे थे। शकील भी क्षेत्र से आ गया था। अहमद का मसला क्योंकि ‘एजेण्डे` पर था इसलिए वह भी था। समस्या के हर पक्ष पर गंभीर चर्चा हो रही थी। अहमद के चेहरे से ही लग रहा था कि वह बहुत तनाव में है।

‘लेकिन दो-तीन महीने पहले तक तो ऐसा कुछ नहीं था`, शकील बोला ‘तुम उससे क्या लगातार मिलते रहे हो?`

‘देखो. . .पहले मैं उसे लेकर पेरिस गया था। बल्कि तुम्हीं ने बंदोबस्त किया था. . .फिर वह मेरे पास आई. . .उसके बाद हम ‘मानट्रियाल` में मिले जहां मैं ‘कामनवेल्थ` सेमीनार गया था. . .फिर लंदन में मुलाकात हुई थी. . .`

‘यार तुम काम हो जाने के बाद उससे इतना मिल क्यों रहे थे?` शकील ने दो टूक सवाल किया।

‘यार वो ज़ोर डालती थी. . .बहुत इसरार करती थी. ..फोन पर फोन आते थे. . .मैं क्या करता।`

‘लगता है तुमसे सचमुच प्यार करने लगी है`, मैंने कहा और अहमद ने घूर कर मुझे ज़हरीली नज़रों से देखा।

‘सत्तर चूहे खाके बिल्ली हज्ज को चली है`, शकील बोला।

‘सत्तर से भी ज्यादा. . .यार वो तो पता नहीं क्या है? लंदन में दो-दो दिन के लिए गायब हो जाया करती थी`, अहमद ने बताया।

‘क्या तुमने उससे साफ-साफ बात की है?`

‘बिल्कुल कई बार. . .मैंने कहा है कि तीन शादियां करते-करते और तलाक देते-देते मैं थक चुका हूं और अब शादी नहीं करना चाहता।`

‘फिर क्या कहती है?`

‘कहती है मुझसे बहुत ज्यादा प्यार करती है और किसी भी कीमत पर मुझे खोना नहीं चाहती`, अहमद ने कहा। मैंने उसकी तरफ देखा, हां इस उम्र में भी वह इतना शानदार लगता है कि कोई औरत उसे हमेशा-हमेशा के लिए पाना चाहेगी।

‘तो ठीक है. . .तुम हो तो उसके साथ`, मैंने कहा।

‘हां. . .`, वह दबी आवाज में बोला।

हम दोनों हंसने लगे।

‘यार खाने के बाद आज हुक्का पिया जाये`, शकील ने सुझाव दिया।

‘लखनऊ वाली तम्बाकू तो होगी?`

‘हां है`, मैंने गुलशन से हुक्का तैयार करने को कह दिया।

खाने के बाद हुक्का पीते हुए शकील ने कहा ‘यार एक बात समझ में नहीं आती. . . तुम लोग कुछ मशविरा दो?`

‘क्या?`

‘भई कमाल. . .की वजह से मैं फिक्रमंद हूं. . .पढ़ाई तो उसने छोड़ दी है. . .यहां उसका अपना अजीब-सा सर्किल है जिसमें कुछ प्रापर्टी डीलर, कुछ पॉलीटिशयन, कुछ अजीब तरह के लोग शामिल है. . .रात में देर तक गायब रहता है. . .मैं. . .कुछ पूछना चाहता हूं तो हमारे बीच तकरार शुरू हो जाती है।`

‘ये बताओ उसके पास पैसा कहां से आता है? तुम देते हो?`

‘पहले मैं दिया करता है. . .अब नहीं देता. . .फिर भी उसका कोई काम नहीं रुकता. . .

‘तुम्हारी बीवी देती है. . .`

‘हां वो देती है. . .और मैंने सुना है कुछ और ‘लोग` भी उसे पैसा देते हैं`, वह बोला।

‘और कौन?`

‘यार मैं वहां से लगातार एम.पी. होता हूं. . .मंत्री हूं. . .उसे कौन मना कर सकता है. . .“

शकील सोच में डूब गया फिर बोला – और अब पॉलीटिक्स में आना चाहते हैं“

– ये कौन सा जुर्म है“ अहमद बोला ।

बुरा नहीं है . . . लेकिन यार कम से कम बी.ए. तो कर ले. . . कोई काम धंधा पकड़ ले. . . ये ऊपर टंगे रहना तो ठीक नहीं हैं।“

– यार ये कैसी कोई प्राब्लम तो नहीं लगती .“ मैंने कहा ।

-कमाल तुम्हारे काम धंधे को देखता है न? शायद तुम्हें वहाँ ‘रिप्रजेण्ट` भी करता है?“

– हाँ वो मैं चाहता नहीं . . . मैंने सुना है अब वो कुछ उन लोगों से भी मिलने लगा है जो मेरे साथ नहीं है“

अरे ये क्यों?“

– पता नहीं . . . मैंने उससे कह रखा है कि तुम बी.ए. कर लो मैं तुम्हें एम. एल. ए. का टिकट दिला दूँगा. . . मैं जानता हूँ वो अगर किसी और पार्टी के टिकट पर खड़ा हो गया तो गज़ब हो जायेगा।

 क्या कुछ हो सकता है?“

-सब कुछ हो सकता है,“ वह लम्बी और गहरी सांस लेकर बोला।

अलवर के आसपास जिन ऐतिहासिक इमारतों की तलाश थी वे मिल गयी थी लेकिन उन्हें देखने में देर हो गयी थी और सूरज हुआ इधर-उधर छिपने की जगह तलाश कर रहा था।

पर्यटनवालों के कॉम्पलेक्स में चाय पीते हुए मैंने अनु की तरफ देखा। लंबा परिचय, अपेक्षाओं पर खरे उतरने के कारण एक दूसरे के प्रति विश्वास, पसंद करने वाली भावना, व्यक्तित्व का रहस्य मेरे देखने में व्याप्त था।

‘अब वापस दिल्ली पहुंचने में रात हो जायेगी।` वह जानती है

कि मैं रात में गाड़ी नहीं चलाता था कुछ कठिनाई होती है।

‘हां रात तो हो जायेगी।`

‘तो रात में यही ‘टूरिस्ट रिज़ाट` में रुक जायें?` इतने दिनों से अनु को देख रहा हूं। लुके छिपे आकर्षण महत्वपूर्ण हो गये हैं।

वह एक क्षण देखती रही। इस एक क्षण में उसने एक यात्रा तय कर ली या शायद उस छलांग की भूमिका पहले ही बन चुकी थी।

‘मुझे घर फोन करना पड़ेगा।`

‘कर दो`, मैंने रिसेप्शन की तरफ इशारा किया।

पुराने फैशन के इस विशाल कमरे में एक तरफ की दीवार पर ऊपर से नीचे तक शीशे की खिड़कियां हैं जो जंगल की तरफ खुलती हैं। एक दरवाजा बॉलकनी में खुलता है। ऊंची छत, डबल बेड, वार्डरोब के अलावा पढ़ने की मेज़ और कुर्सियां हैं इस कमरे में।

‘हम रात सोफे पर बैठे-बैठे बिता देंगे`, अनु ने कहा।

हम खाना खा चुके थे। रात का दस बज रहा था। मैंने खिड़की के पर्दे हटा दिये थे और जंगल कमरे के अंदर घुस आया था। जंगल की नीरवता पूरी तरह चारदीवारी के बीच ध्वनित हो रही थी।

‘ठीक है, तुम्हारा जो जी चाहे करो. . .पर एक बात सुन लो. . .मेरे जीवन में बहुत कम महिलाएं आयी हैं. . .और वे सब अपनी मर्जी से आई हैं. . .मेरे लिए इससे बड़ा कोई अपराध हो ही नहीं सकता कि मैं किसी लड़की के साथ उसकी मर्जी के बिना संबंध स्थापित करूं।`

अनु कुर्सी पर बैठ गयी। मैंने उससे पूछकर लाइट बंद कर दी। कमरे के अंदर बाहर का जंगल जीवंत हो गया।

‘रात भर बैठे-बैठे थक नहीं जाओगी?`

‘नहीं. . .मैंने इस तरह न जाने कितने रातें गुज़ारी हैं।`

‘क्या मतलब?` मैंने तकिए को दोहरा करके उस पर सिर रख लिया ताकि अंधेरे में वह जितना दिख सकती तो दिखे।

वह खामोश हो गयी। कुछ शब्द या वाक्य ख़ज़ाने की कुंजी जैसे होते हैं। अनु का वाक्य ऐसा ही था। मैं खामोश रहा। शब्द मानसिक अंतर्द्वन्द्व को बढ़ाते हैं और खामोशी समतल बनाती है। दीवार पर घड़ी की ‘टिक-टिक` और बाहर से आती झींगुर की तेज़ आवाज़ों के अलावा सन्नाटे का साम्राज्य पसरा पड़ा था।

‘हम कहां से शुरू करें`, उसकी आवाज़ अतीत के अनुभवों से टकरा कर मुझ तक आयी। स्वर और लहजे में सपाटपन था।

‘कहीं से भी. . .`

‘बात लंबी है।`

‘पूरी रात पड़ी है. . .कहो तो मैं भी कुर्सी पर बैठ जाऊं।`

‘नहीं. . .`, वह हंसने लगी।

‘हम उन बातों को याद भी नहीं करना चाहते।`

‘ठीक है. . .मत याद करो. . .लेकिन बड़ा बोझ जितना बांटा जाता है, उतना हल्का होता है।`

फिर वह खामोश हो गयी। सच्चाई विचलित करती हैं संतुलन बिगाड़ देती है। एक ऐसे धरातल पर ले आती है जहां चीज़ों और व्यक्तियों को देखने के नजरिये बदल जाते हैं लेकिन आखिरकार सच्चाई एक शांत नदी की तरह बहने लगती है। इस प्रक्रिया से गुज़रना आसान नहीं है।

सच्चाई या आत्म स्वीकृति शायद ऊंची आवाज़ में संभव नहीं है। वह उठी और बिस्तर पर आकर लेट गयी।

– हम आठवीं में थे। स्कूल से आने के बाद ब्लाक के पार्क में चले जाते थे. . .वहां खेलते थे। लड़कियां बैडमिंटन खेलती थीं और लड़के फुटबाल खेलते थे। शाम ढलने से पहले घर लौट आते थे. . .एक दिन हम खेल रहे थे। सी-४० वाली मिसिज़ वर्मा एक दो और आण्टियों के साथ उधर से निकली। मेरी तरफ इशारा करके मिसिज़ वर्मा ने कहा ‘इस लड़की की शादी हो रही है।` हम अपना रैकेट लेकर रोते हुए घर आ गये। मम्मी रसोई में खाना पका रही थी, हमने उनसे कहा कि देखा मिसिज़ वर्मा ने हमारे बारे में ऐसा कहा है। मम्मी ने हंसकर कहा, ‘नहीं झूठ बोलती हैं। तेरी शादी क्यों होगी अभी से. . .पर मम्मी ने मुझसे झूठ बोला था. . .`

धीरे-धीरे कक्षा आठ में पढ़ने वाली लड़की की सिसकियां अंधेरे कमरे में इस तरह सुनाई देने लगी जैसे संसार की सारी औरतें विलाप कर रही हों। मैं खामोश ही रहा। मैं जानता था कि मेरा एक शब्द इस सामूहिक रुदन को तोड़ देगा। मैं चुपचाप खामोशी से लेटा रहा। छत की तरफ देखता रहा। पंखा धीमी गति से चल रहा था और बाहर से आते मलगिजे उजाले में केवल उसके पर दिखाई दे रहे थे।

आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली लड़की रो रही थी।

‘हम पढ़ने में बहुत अच्छे थे। कुछ लड़कियां खासकर सरोज मुझसे बहुत जलती थी। उसने पूरे स्कूल में ये बात फैला दी. . .टीचर ने हमें बुला कर पूछा। हमने मना कर दिया. . .पर लड़कियां हमें छेड़ने लगीं. . .लड़के हमारे ऊपर हंसने लगे. . .हमें बहुत गुस्सा आया। हम पढ़ नहीं पाये स्कूल में. . .हमने टिफिन भी नहीं खाया. . .भूखे रहे दिनभर।`

सिसकियां फिर जारी हो गयी।

वह काफी देर तक रोती रही, मैंने उसे चुप कराने की कोशिश नहीं है। लगता था अंदर इतना भरा था अंदर इतना भरा हुआ है कि उसे बाहर निकल ही जाना चाहिए।

रोते-रोते उसकी हिचकियाँ धीरे-धीरे बंद हो गयी।

मैंने उठकर एक गिलास पानी उसको दे दिया। पानी पीने के बाद वह मेरी तरफ पीठ करके लेट गयी और धीरे-धीरे बोलने लगी – जैसे -जैसे दिन बीतते गये चिढ़ाने लगे हम सब से लड़ते थे घर में मम्मी ने बताया कि हमारा रिश्ता तय हो गया । शादी अभी नहीं होगी, लेकिन हम ये नहीं चाहते थे कि कोई शादी -वादी की बात करे. . . पर धीरे- धीरे घर बदल रहा था. . . सामान आ रहा था. . . घर में पुताई हो रही थी. . . कोई मुझे साफ-साफ नहीं बताता था पर हम इन तैयारियों से हम डर गये . . . हमने खाना छोड़ दिया. . . हम से कहा अब तुम शलवार -कमीज पहना करो, दुपट्टा ओढ़ा करो. . . हमने स्कूल जाना बंद कर दिया . . . हम सबसे लड़ नहीं सकते है. . . टीचरें हमें देखकर मुस्कुराती थी. . . हम खेलने भी नहीं जाते थे. . . हम भगवान जी से माँगते थे कि हम मर जाये. . . हम मर जायें. . .

धीरे-धीरे शब्द डूबते चले गये लेकिन फिर भी कक्षा आठ में पढ़ने वाली लड़की बोल रही थी


२७

मोहसिन टेढ़े की आँखों में आँसू हैं। वह पत्नी के मर जाने से कितना दुखी है ये तो कहना मुश्किल है लेकिन उसे देखकर उसके दुखी होने पर विश्वास-सा हो जाता है। उम्र ने उसके चेहरे की विद्रूपता को कुछ और उभार दिया है। गालों के ऊपर वाली हडि्डयां उभर आई हैं, गर्दन और पतली हो गयी है। पिचका हुआ सीना कुछ ज्यादा ही अंदर को धंस गया है। हाथ और पैर ज्यादा दुबले लगते हैं। पेट छोटे-सी मटकी की तरह फूला हुआ है। आंखों में लाल डोरे दिखाई देते हैं। सबसे बड़ी दिक्कत ये हो रही है कि पोलियो का पुराना मर्ज ज़ोर पकड़ रहा है और उसके पैरों की मांस पेशियां मर रही हैं। डॉक्टर इसका कोई इलाज नहीं बताते। मोहसिन कई जगह तरह-तरह के डॉक्टरों, हकीमों वैद्यों को दिखा चुका है लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अभी तो घर के अंदर थोड़ा बहुत चल फिर भी लेता है लेकिन अगर मर्ज बढ़ा तो बड़ी कयामत हो जायेगी।

मुझे मालूम था कि उसकी बीवी सख़्त बीमार है। पिछले कई साल से उसके गुर्दों का इलाज चल रहा था। इस बीच अस्पताल में भी दाखिल थी और फिर अस्पताल वालों ने जवाब दे दिया था। घर ले आये थे और एक तरह से सब उसके मर जाने का इंतिज़ार कर रहे थे। मोहसिन की एक छोटी साली आ गयी थी जिसने खाने पीने की जिम्मेदारी संभाल ली थी।

मोहसिन टेढ़े ने कभी अपने रिश्तेदारों से कोई ताल्लुक न रखा था। बहनोई से तो मुक़दमेबाज़ी तक हो गयी थी इसलिए जनाज़े में उसका कोई रिश्तेदार नहीं था। हां, ससुर आ गये थे जो मोहसिन से खुश नहीं

थे क्योंकि यह सबको पता था कि मोहसिन ने बीवी के इलाज पर ध्यान नहीं दिया था, पैसा नहीं खर्च किया था। इसीलिए दफ़न के बाद उसके ससुर अपनी छोटी लड़की को लेकर चले गये थे।

शाम के वक्त उसके घर में अजीब दमघोंटू सन्नाटा था। जीरो पावर के बल्ब मरी-मरी सी रौशनी फेंक रहे थे। खिड़कियों पर पर्दे न थे हर चीज़ खस्ता और गंदी नज़र आ रही थी। एक कुर्सी पर मोहसिन सिर झुकाए बैठा था।

“चलो तुम मेरे साथ यहां क्या रहोगे।”

उसने मेरी तरफ देखा और बोला “नहीं साजिद. . .कब तक तुम्हारे साथ रहूंगा. . .ये तो यार एक दिन होना ही था।”

“तुम्हारा काम कैसे चलेगा?”

“यार यहां खाना लग जाता है. . .खाना लगवा लूंगा. . और क्या काम है?”

मैं उसे हैरत से देखने लगा। मुझे उस पर दया भी आई और गुस्सा भी आया। वह समझता है बस दो रोटी मिलती रहे तो बस और कोई काम नहीं है। घर बेहद गंदी हालत में है। कपड़े शायद वह कभी महीने दो महीने में ही धोता या धुलवाता होगा। चादरें मैली कीचट है, तकिये के ग़िलाफ़ काले पड़ गये हैं। पूरे घर के हर कमरे में ज़ीरो पावर के बल्ब लगे हैं जो अजीब मनहूस सी रौशनी देते हैं। घर में फ्रिज नहीं है। कहता है यार मुझे ताज़ा खाना पसंद है। फ्रिज में रखा खाना नहीं खा पाता। ए.सी. नहीं लगवाया है। कहता है यार ये ए.सी. और कूलर मुझे सूट नहीं करते. . .नज़ला हो जाता है। पूरा घर कबाड़ खाना बना हुआ है। मैंने कई बार कहा कि किसी को पार्टटाइम सफाई के लिए बुला लिया करो। इस पर कहता है यार नौकर चोर होते हैं। मैं बहुतों को आज़मा चुका हूं। अब तो अच्छा है कोई नौकर न रखा जाये।

एक बार मुझे गुस्सा आ गया था और मैंने सख्ती से कहा था “देखो ये जो तुम कंजूसी करते हो. . .एक-एक पैसा दांत से पकड़ते हो . . . किसके लिए? तुम्हारा कोई आगे पीछे है नहीं, ले देके एक बहन और बहनोई हैं जिनसे तुम्हारी मुक़दमेबाज़ी हो चुकी है और वे तुम्हारे खून के प्यासे हैं। क्या तुम उन्हीं के लिए ये सब जमा कर रहे हो।”

“नहीं यार तौबा करो।”

“तो फिर?”

वह खामोश हो गया। खाली खाली आंखों से देखने लगा। लेकिन पांच साल बाद भी वही हाल था। दस साल बाद भी वही हाल और मुझे यकीन हो गया था कि मोहसिन टेढ़े को पैसा बचाने में इतना सुख मिलता, इतना मज़ा आता है, इतना संतोष होता है, इतना नशा आता है कि वह पैसा बचाने से आगे की बात सोचता ही नहीं. . .बिल्कुल वैसे ही जैसे तेज़ नशा करने वाले ये नहीं सोचते कि नशा उतरने के बाद क्या होगा।

“न तो संविधान किसी को कुछ दे सकता है और न कानून ही किसी को कुछ दे सकता है। हज़ारों साल की सामाजिक संरचना और उससे जुड़ी सामाजिक मान्यताएं एकदम या पच्चीस पचास साल में तो टूट नहीं सकतीं।” सरयू ने कहा।

“लेकिन तुम वह सब ‘जस्टिफाई` नहीं कर सकते हो जो रावत के साथ किया जा रहा है।” मैंने कहा।

ताज मानसिंह के टेरेस गार्डेन में रात ढल रही है। लताओं और पौधों के पीछे से दूधिया रौशनी अपनी अंदर एक छद्म हरियाली लिए बाहर आ रही है। कोई एक पाँच सौ हज़ार लोग तो होंगे इस लोकार्पण समारोह में। मैं और सरयू थोड़ा हटकर किनारे बैठे थे।

“तुमने कभी सोचा था ऐसे भी हुआ करेंगे लोकार्पण समारोह” मैंने सरयू से पूछा।

“ये . . .अब क्या बताऊं. . .ये लोकार्पण नहीं है और फिर लोकार्पण है. . .किताब का दाम पच्चीस हज़ार रुपये है. . .विषय है भारत की “आधुनिक आध्यात्मिक कला।”

“इस्पानसर किसने किया है?”

“बीना रंजू ने. . .जिसने पिछले साल सौ करोड़ का ‘आक्शन` किया था. . .कहा जा रहा है यह भारतीय कला के लिए बिकने की दृष्टि

से स्वर्णिम युग है. . .करोड़ की रकम छोटी हो गयी है।”

फ्हिंदी लेखन का यह कौन सा युग चल रहा है?” मैंने सरयू से चुटकी ली।

“इतने सुंदर वातावरण में एक दुख भरी दास्तान क्यों सुनना चाहते हो?” वह हंसकर बोला।

“तो अच्छा ही हुआ मैंने कहानियां लिखना बंद कर दिया. .”

“अब क्या कहें यार. . .तुमने दो चार अच्छी कहानियां लिखी थीं।”

राजधानी में साहित्य, कला, संगीत, पत्रकारिता, मीडिया, फैशन, प्रकाशन के जितने भी नामी और बड़े लोग हैं सब यहां देखे जा सकते हैं। अब ऐसा कोई ‘इवेण्ट` हो ही नहीं सकता जिसका ‘बिजनेस एन्गिल` न हो।

“हां तो तुम कुछ रावत के बारे में कह रहे थे।”

“वो यहां आया हुआ है. . .देखो लाता हूं. . .तुम यही बैठना।” सरयू उठकर चला गया।

रावत को मैंने बहुत दिनों बाद देखा वह झटक गया है।

“कहो क्या हाल है?” मैंने पूछा।

“बस समझो यु—-चल रहा है।” वह बड़े तनाव में लग रहा था।

“क्या मतलब?”

“यार वो मैंने तुझे कहानी सुनाई थी न कि मेरा पिता भेड़ियों से लड़ गया था. . .तो मैं भी साला इन भेड़ियों से लड़ रहा हूं. . .

“अरे यार तुम इसको इतनी गंभीरता से क्यों ले रहे हो. . .ये तो सरकारी ऑफिसों में होता ही है।” सरयू ने कहा।

रावत को गुस्सा आ गया। उसका चेहरा जो पहले से लाल था कुछ और लाल हो गया।

“सीरियसली न लूं? वो साले मेरे नौकरी ले लेना चाहते हैं। मुझे जेल भिजवाना चाहते हैं. . .तुम कह रहे हो सीरियसली न लो।”

“यार मेरा ये मतलब नहीं था। मैं कह रहा करो सब पर दिल पर न लो. . .हाई ब्लड प्रेशर वगैरा का चक्कर अच्छा नहीं है।”

“अरे यार चेक करा लिया है. . .बहुत थोड़ा है. . .डॉक्टर ने दवा दी है. . .।”

“लेकिन तुम पी क्यों रहे हो?”

“मैंने पूछ लिया है यार डॉक्टर से. . .वह कहता है थोड़ी बहुत चलेगी।”

“तुम्हारा डॉक्टर कौन है?”

“वही यार ब्लाक के मोड़ पर बैठता है. . .अच्छा होम्योपैथ है।”

मैंने और सरयू ने एक दूसरे को देखा लेकिन हम कुछ बोले नहीं।

“पिछले हफ्त़े मुझे एक फाइल पकड़ा दी गयी है. . .एक ‘इन्क्वायरी` करना है मुझे. . .कुछ अधिकारियों पर पांच करोड़ हज़म कर जाने का आरोप है। मिनिस्टर ने ‘इन्क्वायरी आर्डर` की है, फाइल घूमती फिरती मेरे पास आ गयी है। अब मैं वो काम करूंगा जो सी.बी.आई. करती है. . .और थोड़ी गफ़लत हो गयी तो मैं भी चपेट में आ जाऊंगा. . .यार ये काम होता है डायरेक्टर मीडिया का?” वह खामोश हो गया।

“पानी अब सिर से ऊपर जा रहा है. . .तुम इन साले अफसरों के नाम बताओ. . .मैं इनकी नाक में नकेल डलवाता हूं।” मैंने कहा।

“तुम क्या करोगे।” वह बोला।

“यार मेरे दोस्त की गर्लफ्रेण्ड कैबनिट सेक्रेटरी की गर्लफ्रेण्ड भी है।” मैंने उत्साह से कहा।

सरयू हंसने लगा और पूरी फ़िज़ा अगंभीर हो गयी।

“देखो मैं चूड़ियां नहीं पहनता. . .मैं सालों को ज़मीन चटा दूंगा . . . बस देखते जाओ।” वह उत्तेजना में बोला।

“चलो अब जैसी तुम्हारी मर्जी।”

रावत जल्दी चला गया क्योंकि उसके पास मंत्रालय की गाड़ी थी। हम दोनों को जल्दी नहीं थी। सरयू पीने पर आता है तो आउट हुए बिना नहीं मानता। मैं भी आज मूड़ में हूं। दोनों ने सोचा, खूब पी जाये. . . फिर जामा मस्जिद जाकर खाना खाया जाये।

“तुम्हें पता है नवीन रिटायर हो गया।” सरयू ने कहा।

“अरे यार वो है कहां?”

“घर पर ही है. . .”

“तो अब क्या कर रहा है?”

“कह रहा था यार सेहत ऐसी है नहीं कि कोई ‘जॉब` पकड़ू . . .बस वैसे ही लिखना पढ़ना होता रहेगा।”

“गुड. . .अपने अखब़ार में उसे जगह दो।”

“हां हां. . .


२८

मैं जानता था कि मेरा बोलना एक विस्फोट की तरह लिया जायेगा। मैं खामोश था। कुछ लोग मेरी तरफ इस तरह देख रहे थे जैसे ये उम्मीद कर रहे हों कि मैं अपनी बात भी सामने रखूं लेकिन मैं खामोश था। मुझे मालूम था कि मैंने अगर कुछ कहा तो ‘द नेशन` के दफ्तर में मेरे लिए तंग करने की नयी रणनीति तय कर ली जायेगी। उनका यह दुर्भाग्य ही है कि मैं उस ज़माने से काम कर रहा हूं जब परमानेंट नौकरी नाम की कोई चीज़ हुआ करती थी और दिल्ली पत्रकार संघ नाम की एक सक्रिय और प्रभावशाली यूनियन थी। आज हालात ये हैं कि मैंनेजमेण्ट जब चाहे जिसकी नौकरी ले सकता है। नाकरी ले लेना केवल शब्द नहीं है।

एडीटर-इन-चीफ विस्तार से बता रहे थे कि अब अखबार का वह ‘रोल` नहीं रह गया है जो तीस साल पहले हुआ करता था। अब अखबार भी एक ‘प्रोडक्ट` है और उसे खरीदने वाले ‘पाठक` नहीं बल्कि ‘बायर` हैं। मार्केट की ज़रूरतें हैं। सम्पन्न मध्यवर्ग की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व अखबार में नहीं होगा तो उसे कौन खरीदेगा। खासतौर से टी.वी. चैनलों की इस ‘रेलपेल` में अखबार खो जायेगा। उन्होंने कहा ‘न्यूज़ इज़ गुड न्यूज़`

हरीश कह रहा था ‘अली साब, हम आप अखबारों को रोते हैं। चैनलों की तरफ देखिए तो आंखें खुल जाती हैं. . .

‘देखो मुझे तो लगता है फिलहाल लोग हर मोर्चे पर लड़ाई हार चुके हैं।`

‘यु—-तो नहीं हारे हैं अली साहब।`

‘मैं तो ये सोचता हूं हमें अब तो ये तय करना पड़ेगा कि युद्ध शुरू कहां से किया जाये? हमारे जो जाने बूझें तरीके थे वे तो शायद कुंठित हो गये हैं. . .देख रहे हो ट्रेड यूनियन आंदोलन खत्म हो गया। किसानों के बड़े-बड़े संगठन लापता हो गये। पत्रकारों के संघ छिन्न-भिन्न हो गये. . .और सब ख़ामोश हैं। अखबार किसानों की आत्महत्याओं को चौथे पाँचवें पेज पर डाल देते हैं. . .संवेदन हीनता सरकार, प्रशासन, संस्थाओं पर ही नहीं पूरे समाज पर अधिकार जमा चुकी है।`

‘अली साब आज की मीटिंग में आप कुछ बोले नहीं?` हरीश ने कहा।

‘मैं क्या बोलता तुम जानते हो। यह भी जानते हो उससे क्या होता? तुम तो ये भी जानते हो कि नौकरी मेरे लिए मजबूरी नहीं है. . .`

‘एक करोड़ का तो अपना बंगला है।`

‘वो मेरी ‘वाइफ` का है।`

वाइफ` भी तो आपकी है।`

‘हां, टेक्नीकली सही कह रहे हो।`

वह हंसने लगा।

‘देखो अकेले आदमी के बोलने और झगड़ने से क्या होगा? थोड़ा चीजों को समझने की कोशिश करते हैं। मैंने जिंदगीभर ‘रुरल इंडिया` पर रिर्पोटिंग की है। चार किताबें हैं। एवार्ड्स हैं लेकिन आज जब किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं तो मेरा अखबार मुझसे यह नहीं कहता कि मैं उन इलाकों का दौरा करूं और लिखूँ। क्यों? अख़बार ने अपनी प्राथमिकताएं तय कर ली है। . . .पहले भी सरकार, प्रशासन, कानून, न्यायालय, विकास योजनाएं केवल दो प्रतिशत लोगों के लिए थीं लेकिन यह माना जाता था कि गरीबों और पिछड़े हुओं की ज़िम्मेदारी भी हमारे ऊपर है। पर अब यह नहीं माना जाता है। यह ‘पैराडाइम शिफ्ट` है। पहले भी बड़े उद्योगपति अपने हितों को पूरा करने के लिए अखबार निकालते थे पर अब वे एक जीवनशैली, एक विचार, एक सिद्धांत जो उन्हें फलने-फूलने में मदद करता है, के लिए समाचार-पत्र निकाल रहे हैं, टी.वी. चैनल चला रहे हैं. . .और यह सिद्धांत पूंजी की सत्ता. . .

यानी पूंजी ही सब कुछ है. . .उसके अतिरिक्त और कुछ भी कुछ नहीं है. . .और पूंजी अपने सत्ता के रास्ते में किसी को नहीं आन देती. . .जो आता है उसे बर्बाद कर देती है. . .वह जानती है कि लोगों की इच्छा शक्ति उससे बड़ी है. . .इसलिए सबसे पहले वह लोगों को तोड़ती है, . . .ऐसे समाज का निर्माण कर रही है तो उसके साथ चले, उसे समर्थन दे, उसके शोषण में शामिल हो, उसका शोषण किया जा सके और वह दूसरे का शोषण कर सके. . .बिल्कुल निर्मम और अमानवीय तरीके से. . .`

‘ये बातें आपने मीटिंग में क्यों नहीं कही?`

‘यार तुम्हारे ये सवाल पूछने से अपने एक पुराने दोस्त की याद आ गयी और उनका एक लतीफा याद आ गया. . .हमारे इन दोस्त का नाम जावेद कमाल था. . .रामपुर के पठान थे। अलीगढ़ में कैंटीन चलाते थे। शायर थे। दुनिया का कोई ऐसा काम नहीं है जो उन्होंने न किया हो। अव्वल नंबर के गप्पबाज़ और दोस्त नवाज़ आदमी थे। रामपुर के लतीफ़े सुनाया करते थे। उनके लतीफ़ों में ‘हब्बी` नाम का एक पात्र आया करता था जो अर्धपागल बुद्धिमान चरित्र था। एक बार हुआ यह कि पता नहीं हब्बी के दिमाग में क्या आई कि शहर के सबसे बड़े चौराहे पर खड़े होकर शहर के दरोगा को गालियां देने लगा। ख़ैर साहब नवाब का ज़माना। शहर दरोगा के पेशाब से चिराग जला करता था। उसे खबर हो गयी। उसने चार सिपाही भेजे और ‘हब्बी` को पकड़कर थाने बुलाया लिया। वहां ‘हब्बी` की बहुत कटाई की। बुरी तरह से पिटे ठुके हब्बी घर आये। बिस्तर पर पड़ गये। हल्दी-वल्दी लगाई गयी। लोग देखने आने लगे। किसी ने पूछा क्यों हब्बी, दरोगा जी को फिर गालियां दोगे?` हब्बी ने कहा ‘दूंगा और ज़रूर दूंगा लेकिन अपने झोपड़े में।`

‘तो आप भी क्रांतिकारी बातें अपने कैबिन ही में करेंगे?` हरीश ने कहा।`

‘हां, यही समझ लो. . .बात दरअसल में है कि हमारे पास रास्ता नहीं है. . .रास्ते की तलाश करनी चाहिए।`

‘आप तो अपना अख़बार शुरू कर सकते हैं अली साहब`, हरीश ज़ोर देकर बोला।

‘हां, कर सकता हूं. . .किसके लिए और किन शर्तों पर. . .और किस व्यवस्था के अंतर्गत? दिल को तस्कीन देने के लिए कुछ किया जा सकता है, पर मकसद दिल को तस्कीन देना तो नहीं है।`

‘अली साब आप जो ‘क्लैरिटी` चाहते हैं वह कभी मिलेगी?` उसने बुनियादी सवाल किया और मैं खुश हो गया।

‘हां ये बिल्कुल ठीक कहा तुमने. . .बिल्कुल ठीक।`

कमरे का अंधेरा धीरे-धीरे आकृतियों को मिटा रहा था। ऊपर पंखे पर अदृश्य हो गये थे। बस सर सर की आवाज़ धीमे-धीमे रो रही थी।

. . .हम स्कूल से लौट कर आये तो देखा कपड़ों और सामान का ढेऱ लगा हुआ है। नये-नये कपड़े, गहने, सामान. . .सब रखा था. . .गांव से ताऊ और ताई आ गये थे। ताई जब भी आती थीं हमें टोकने-टाकने का काम शुरू हो जाता था। ऐसे मत बैठो, ऐसे लड़कियां नहीं बैठतीं. . .ताऊ जी कहते. . .अब इसे सलवार कमीज़ पहनाया करो . . .बड़ी हो गयी है. . .पर स्कूल की ड्रेस तो यही है. . .वे बुरा-सा मुंह बनाकर अपनी सफेद मूंछों को मरोड़ते हुए कहते क्या विद्वान बनाओगे इसे. . .हम डर जाते थे कि पता नहीं कब हमारा नाम स्कूल से कटवा दिया जाये. . .ऐसे मत बैठा करो, ऐसे मत चला करो, ऐसे मत हंसा करो. . .ऐसे मत खाया करो. . .इसको ये मत खिलाया करो, ताड़ की तरह लंबी हो जायेगी. . .रोटी ऐसे नहीं डाली जाती, ऐसे डालते हैं . . . अचार डालना सिखाया है? ऐसे टुकुर-टुकुर क्या देखती रहती है . . .हमने ताऊजी और ताईजी के पैर छुए। ताऊजी ने पिताजी से कहा ‘बस यही आयु है. . .तुम सही समय पर विवाह कर रहे हो।` हम सुनकर भौंचक्के रह गये। कमरे में आ गये और रोने लगे। मम्मी खाने के लिए बुलाने आयी। तो हमने उनके दोनों हाथ पकड़कर पूछा- ‘हमारी शादी तो नहीं हो रही है न?` मम्मी हंसने लगी, ‘अरे पगली शादी तो हर लड़की की होती है।`

‘तो तुमने मुझसे झूठ बोला था।`

‘चल, मां-बाप में सच-झूठ कुछ नहीं होता।`

‘मैं शादी नहीं करूंगी. . .पढ़ूंगी. . .स्कूल में सब मुझे छेड़ते हैं।`

‘अरे तो छेड़ने। दे`

‘नहीं. . .मेरा मन पढ़ाई में नहीं लगता।`

‘अरे तो क्या है. . .`

‘मैं शादी नहीं करूंगी. . .नहीं करूंगी. . .नहीं करूंगी. . .जोर डालोगे तो ज़हर खा लूंगी।`

‘चल हट, पागल हुई है क्या. . .आ खाना खा ले।`

‘नहीं, पहले ये कहो कि मेरी शादी नहीं होगी।`

‘चल कह दिया नहीं होगी।`

‘ये नहीं. . .ऐसे कहो कि अनु तुम्हारी शादी नहीं होगी।`

‘चल कह दिया, अनु तेरी शादी नहीं होगी।`

‘झूठ तो नहीं बोल रही हो?` मम्मी हंसने लगी। हमें गुस्सा आ गया।

‘हम पढ़ना चाहते हैं. .. हमें गणित अच्छी लगती है. . .हम पढ़ना चाहते हैं।`

‘अरे तो तुझे पढ़ने से कौन रोक रहा है. . .जितना पढ़ना है उतना पढ़. . .रोकता कौन है।`

. . .शाम को हम बाहर निकल रहे थे तो ताऊजी ने कहा, ‘कहां जा रही है?`

‘सहेली के यहाँ।`

‘बस अब सब बंद. . .जा अंदर जाकर बैठ। ताई के पैर दाब।`

हम खड़े सोचते रहे। पापा भी वहीं बैठे थे। वे चुप रहे। हमें पापा पर गुस्सा आया। बोलते क्यों नहीं। ताऊ जी जब भी आते हैं पापा का मुंह बंद हो जाता है। बस हां भइया हां भइया. . .करते रहते हैं।

कमरे में सिसकियां उभरने लगीं. . . दबी-दबी और भीतर तक आत्मा को छीलती सिसकियां. . .

. . .हमने ये सब किसी को कभी नहीं बताया है. . .हमारी कोई फ्रेण्ड नहीं है। स्कूल में थे। पता नहीं कहां चले गये. . .कॉलिज हम कभी गये नहीं. . .हमारी कोई फ्रेण्ड. . .ये हमने किसी को नहीं बताया है. . .आपको बता रहे हैं. . .आपको. . .पता नहीं क्यों. . .जी चाहता है. . .बताने को. . .

मेरा हाथ अनु के कंधे पर चला गया। वह खिसक कर और पास आ गयी। स्पर्श की भाषा शब्दों की भाषा से ज्यादा विकसित है।

. . .फिर तो ये हमारी आदत हो गयी. . .जब कोई दुख हमें होता तो अपने को ही चोट पहुंचाते. . .इससे शांति मिलती थी। दर्द होता था, हम रोते थे. . .रोते रहते थे. . .।

. . .स्कूल में टीचरें हमें देखने आती थीं. . .हंसती थीं कि देखो इतनी छोटी लड़की की शादी हो रही है. . .हम डरकर भाग जाते थे. . फील्ड में बैठ जाते थे. . .टीचरें कहती थीं कैसे जाहिल मां-बाप हैं. . हमें ये अच्छा नहीं लगता था. . .लड़कियां. . .तो. . .बस. . .एक दिन गणित की टीचर ने बुलाया. . .हमें बहुत चाहती थी। पार्क में ले गयी। पूछती रहीं कि तुम्हारी शादी किससे हो रही है? इतनी जल्दी क्या है . . .हम क्या बताते. . .हम बोलते तो रुलाई छुट जाती. . .हम सिर हिलाकर या चुप रहकर जवाब देते रहे. . .फिर हमें देखकर गणित की टीचर की आंखों में आंसू आ गये. . .उन्होंने हमें गले लगाया. . .तो हम रो पड़े. . .वे हमारे सिर पर हाथ फेरती रहीं. . .कहने लगीं. . .कितनी लड़कियां हैं जिनके कक्षा एक से लेकर सात तक गणित में हमेशा सौ में सौ नंबर आये हैं. . .क्या ये तुम्हारे पिताजी को नहीं मालूम?. . .हम क्या बोलते. . .

हम पढ़ना चाहते थे. . .मम्मी कहती थीं जाओ न स्कूल कौन रोकता है. . .लेकिन हम क्या जाते . . .लगता था हमारा दिमाग फट जायेगा. . .हम घर में गणित के सवाल हल करते थे तो अच्छा लगता था. . .फिर हमें शहला के भाई ने दसवें की गणित की किताब दे दी. . .उसे हम पढ़-पढ़कर सवाल हल करने लगे . . .बस यही हमें अच्छा लगता था. . .

उसके शरीर के कम्पन को मैं पूरी तरह महसूस कर रहा था। अंधेरा होने के बाद भी आंसू चमक जाते थे. . .ऐसा लगता था जैसे दुख का बांध टूट गया हो और तूफानी वेग के साथ पानी अपने साथ सब कुछ बहाये लिए जा रहा हो. . .हम दोनों उसी तूफान में बहने लगे. . . हो न हो. . .आदमी को आदमी का सहारा चाहिए ही होता है. . .जब कोई अपने दिल की बात कहता है तो सीधे दूसरे दिल तक पहुंचती है. . . दुख पास लाता है और सुख दूर करता है. . .मैं गुस्सा होने वाली मानसिकता से निकल चुका था। शुरू-शुरू में मेरी यह प्रतिक्रिया थी कि अनु के साथ जिन लोगों ने घोर अन्याय, अत्याचार किया है उन्हें सज़ा मिलनी चाहिए लेकिन फिर लगा दुख का सम्मान द्रवित होकर ही किया जा सकता है. . .और यही दुख का निदान है. . .जो होना था हो चुका है. . .बीत चुका है. . .पर वह हमारे अंदर है. . .जीवित है. . .उसका हम यही कर सकते हैं कि उसे बांट लें. . .

अनु रात कितने बजे सो गयी मैं ही कह सकता क्योंकि मैं समय की सीमाओं से बाहर हो गया था। हो सकता है मेरी भी पलक एक-दो मिनट को झपकी हो लेकिन मैं लगातार पंखे की गति के साथ रातभर घूम रहा था।

सुबह जब दोनों की आंख एक साथ खुली और हम दोनों को कुछ क्षण यह अजीब लगा कि रातभर हम इतना पास, इतनी निकट रहे हैं।

वह हड़बड़ाकर नहीं धीरे-धीरे उठी।

अहमद बहुत गुस्से में था ये वाजिब भी था। वह फोन पर दहाड़ रहा था। मैं चुपचाप सुन रहा था। जाहिर है वह दिल का गुबार कम करने के लिए ऐसा कर रहा था क्योंकि उसे अच्छी तरह मालूम था कि मैं इस सिलसिले में कुछ नहीं कर सकता। न तो सरकार में मेरा अमल-दखल है और न मेरे पास इस तरह के काम कराने की सलाहियत है।

‘कहीं तुमने सुना है या देखा है कि ‘एम्बैस्डर` की ‘टर्म` पूरी होने से पहले ही ‘कालबैक` किया गया हो. . .एम.ई.ए. ने टास्क फोर्स

बनाई है तो उसे कोई ज्वाइंट सेक्रेटरी ‘हेड` कर सकता है। मुझमें क्या सुर्खाब के पर लगे हैं?`

‘तुमने सेक्रेटरी से बात की?`

‘हां. . .वो कहते हैं. . .कैबनेट डिसीजन` है. . . हम कुछ नहीं कर सकते।`

‘अरे कैबनेट ने तो ‘पॉलिसी डिसीजन` लिया होगा. . .ये तो नहीं कहा होगा कि तुम. . .`

‘हां. . .इस तरफ के फैसलों में नाम कहां होते हैं।`

‘फिर तुम्हारा नाम कैसे जुड़ गया इस फैसले में?`

‘पहले तो मैं नहीं समझ पाया था. . .लेकिन शूजा के फोन आने के बाद ‘क्लियर` हो गया।`

‘क्या? शूजा।`

‘हां।`

‘तुम ‘श्योर` हो. . .मुझे नहीं लगता सरकार में उसकी इतनी चलती है।`

‘ये तुम नहीं जानते. . .उसकी पहुंच कहां नहीं है।`

‘तो ये फैसला. . .`

मेरी बात काटकर वह बोला ‘कई महीने से मुझे फोन कर रही थी कि कहीं मिलो. . .मैं टाल रहा था. . .बराबर टाल रहा था. . .उसे ये आदत नहीं है कि कोई उसकी बात टाले. . . उसने ही ये शगूफ़ा . . .

‘लेकिन यार समझ में नहीं आता?`

‘मेरी समझ में तो आ गया. . .सुबह उसका फोन आया था. . बड़ी खुश थी कि में दिल्ली आ रहा हूं।`

‘तुमने क्या कहा?`

‘मैं क्या कहता यार. . .ज़ाहिर है कि. . .तुम जानते ही हो. .“

एक हफ्त़े के अंदर-अंदर अहमद को दिल्ली आना पड़ा। उसे साउथ ब्लाक में ऑफिस मिल गया। उसे एक ऐसी कोठी मिल गयी जो

उसके ‘रैंक` के किसी ऑफीसर को मिल ही नहीं सकती।

शाम वाली बैठकें आबाद हो गयी हैं। इस दौरान कभी अनु आ जाती है तो देर हम लोगों के साथ बैठा देखकर गुलशन के बच्चों को पढ़ाने चली जाती हैं। वह जानती है कि अहमद उसे पसंद नहीं करता। अहमद दरअसल साधारण चीज़ों, लोगों, संबंधों, जगहों को बहुत नापसंद करता है। मुझसे कई बार कह चुका कि यार कहीं ‘कुछ` करना है तो अपने स्टैण्डर्ड में जाओ. . .ये क्या तुम अनाड़ी टाइप की लौण्डियों को मुंह लगाते हो। मैं उसे टाल जाता हूं क्योंकि कुछ बताने का मतलब पूरी राम कहानी सुनाना होगा जो मैं नहीं चाहता। और वह सुनेगा भी नहीं।

एक शाम अहमद कुछ देर से आया। हमें मालूम था कि आज तक उसका बंगला सजाया जा रहा है और यह काम शूजा ने अपने हाथ में ले लिया है और आजकल अहमद शूजा के साथ रह रहा है।

दो ‘ड्रिंक` लेने के बाद बोला ‘यार ये शूजा का मामला उलझता जा रहा है।`

‘हम तो समझ रहे थे कि सीधा होता जा रहा है`, शकील ने दाढ़ी खुजाते हुए कहा।

‘नहीं यार. . .सच पूछो. . .तो. . .`

‘बता यार बात क्या है? शर्म आती है।`

‘नहीं शर्म की क्या बात. . .मैं उसकी ‘डिमाण्ड्स` पूरी नहीं सकता।`

‘क्या मतलब?`

‘यार वो. . .’निम्फ़ो` है।`

‘आहो. . .`

‘मत पूछो. . .मेरे लिए इस उम्र में. . .कितना मुश्किल होगा . . . वह मेरे लिए कुछ ‘स्ट्रांगपिल्स` ले आई है।`

‘यार ये तुम उसके हाथ में खिलौना क्यों बन गये हो।`

‘नहीं नहीं ऐसी बात नहीं है।`

‘बात तो ऐसी ही है`, मैंने कहा।

‘जिंदगीभर इसने औरतों को खींचा है और अब इसे एक औरत

खींच रही है तो परेशान हो रहा है`, शकील बोला।

‘तुम्हारी कोठी ठीक होने के बाद शायद वह तुम्हारे साथ आ जायेगी?` उसके चेहरे का रंग उतर गया। लेकिन संभलकर बोला- ‘जरूरी नहीं है।`

कुछ देर बाद बोला, ‘मैं उससे पीछा छुड़ाना चाहता हूं।`

‘तो फिर तुम उसे अपने निजी कामों में इतना दखल क्यों देने देते हो।`

वह खामोश हो गया। कुछ नहीं बोला। हम दोनों हैरानी से उसे देखते रहे।

अहमद ने कोठी में जो पहली पार्टी दी उसमें शूजा बिल्कुल उसकी पत्नी जैसा व्यवहार कर रही थी। वेटरों को ऑर्डर देना। मेहमानों की ख़ातिर तवाज़ों, राजदूतों के साथ-साथ चलना, अहमद से हंस-हंसकर बातें करना, बहुत शानदार और महंगे कपड़ों में अपने को श्रेष्ठ दिखा रही थी।


२९बगैर सोचे समझे ज़िंदगी गुज़र रही है। सुबह क्यों उठ जाता हूं? क्यों गुलशन चाय ले आता है? क्यों दस बजे के करीब नहाने चला जाता हूं? क्यों ग्यारह बजे नाश्ता करता हूं। ऑफिस की गाड़ी आती है। बैठता हूं चल देता हूं। रिसेप्शन से होता, एक-दो के सलाम लेता-देता ऊपर पहुंचता हूं। मैं जानता हूं कि मेरे लिए लगभग कोई काम नहीं है। दो चार अखबार पढ़ना है। एक-दो चैनल देखने हैं। बड़े अधिकारी बुलायें तो जाना है और बस खत़्म. . .कभी-कभी संकट हो जाता है तो सम्पादकीय लिख देता हूं. . .

पूरी जिंद़गी बगैर सोचे विचारे बीत रही है। उसका क्या उद्देश्य है और क्या करना है? बड़े-बड़े सपने छोटे होते चले गये और अब छोटे होते-होते, होते-होते इतने छोटे हो गये कि मेरे सिफारिशी ख़त से किसी को नौकरी मिल जाती है तो लगता है सपना पूरा हो गया है।

मैं ही नहीं मेरी पीढ़ी और मेरा युग मिट चुका है। मेरा देश और मेरा समय हार चुका है ओर हम सपनों की राख के हिमालय पर बैठे हैं। सब कहते हैं निराश और उदास होना मेरी आदत है। विदेशी मुद्रा से देश का ख़ज़ाना भर गया है, आई.टी. में भारत ने बड़े-बड़े देशों को पीछे छोड़ दिया है। विदेशों से खरबों डालर देश में ‘इनवेस्ट` हो रहा है। आज शहरों में जो चमक-दमक, पैसे की रेल-पेल, मल्टी प्लेक्स, कारें, लक्जरी अपार्टमेंट्स, फार्म हाउसेस है जो कि पहले कभी न थे। मैं इन सब बातों को मानता हूं लेकिन मुझे गालिब का एक शेर याद आता है

तारीफ़ जो बेहेश्त की सुनते हैं सब दुरुस्त

लेकिन खुदा करे वो तेरी ज्लवागाह हो।

मतलब यह कि स्वर्ग की जितनी प्रशंसा सुनते हैं सब ठीक है लेकिन ईश्वर करे वह —-स्वर्ग—-तेरी —-प्रेमी/प्रेमिका—-की ज्लवागाह —-जहां वह दिखाई देता है—-हो. . .मैं कहता हूं करोड़ों, खरबों डालर की विदेशी मुद्रा हमारे ख़जाने में हैं, बहुत अच्छा आई.टी. के हम लीडर हैं, बहुत उत्तम, हज़ारों अरब डालर का निवेश हो रहा है, उत्तम है, मध्यम वर्ग में ऐसी सम्पन्नता कभी थी ही नहीं, बहुत अच्छा, लेकिन खुदा करे इस नये भारत में गऱीब कम हो, बेरोज़गारी कम हो, दवा-इलाज की सुविधा, बच्चे स्कूल में पढ़ सकते हों, पीने का पानी मिल सकता हो, भ्रष्टाचार न हो, शासन का डण्डा न चलता हो, धर्मों और जातियों के बीच भयानक हिंसा न हों . . .विस्थापन. . .न हो लेकिन मेरी दुआ पूरी नहीं होती। दो प्रतिशत लोगों के जीवन में जो शानो शौकत आई है उसकी क्या क़ीमत देनी पड़ी है?

“सर. . .” मैं चौंक गया।

लिफ्टमैन दूसरे “लोर पर लिफ्ट रोके खड़ा था और मैं अपने सवालों में खोया हुआ था।

मैं लिफ्ट से बाहर आ गया।

एस.एस. अली. . .मेरा ये नाम कैसे हो गया? नौकरी की शुरुआत की थी और पहली बार कार्ड छपकर आये थे तो उन पर यही नाम था। सैयद साजिद अली. . .की जगह एस.एस.अली सुविधाजनक. . .छोटा . . . उच्चारण में आसान. . .

शीशा लगी काली मेज़ पर कुछ नहीं है। मेरा ये सख्त़ आदेश है कि मेज़ खाली रहना चाहिए। सामने कुर्सियां उनके पीछे सोफा, बराबर में कांफ्रेंस टेबुल जो ज़रूरत पड़ने पर डाइनिंग टेबुल भी बन जाती है।

ऑफिस की एक दीवार शीशे की बड़ी खिड़की है जिससे अंग्रेज़ों की बनाई दिल्ली दिखाई देती है।

ऑफिस में बैठकर सोचा यार मैं कितना सुरक्षित, कितने मज़े में, कितनी मस्ती में हूं. . .मैं ‘द नेशन` का एसोसिएट एडीटर हूं. . .मैं सत्ता के एक खम्बे का हिस्सा हूं। मैं बड़े-से-बड़े सरकारी अधिकारी से सीधे फोन पर बात कर सकता हूं। मंत्री खुशी-खुशी समय देते हैं। बड़ा से बड़ा काम, मुश्किल से मुश्किल काम यहां से हो जाता है. . .मेरी सेक्रेटरी करा देती है. . .बस कहने की देर है। हर त्यौहार पर कमरा उपहारों और मिठाई के डिब्बों से भर जाता है। नये साल, बड़े दिन और क्रिसमस के मौके पर दूतावासों से डालियां आती है जिनमें स्काच विस्की के अलावा और न जाने क्या-क्या पटा पड़ा रहता है। पब्लिक सेक्टर भी पत्रकारों को उत्कृष्ट करने में आगे आ गया है। हूं तो ठाठ ही ठाठ है . . .जब तक नौकरी है तब तक ठाठ है. . .तो ठाठ मेरे नहीं ठाठ तो पद के हैं. . .और उसका क्या मतलब. . . ज़िंदगी सब की कटती है . . .किसी की बहुत आराम से, किसी की तकलीफ से, लेकिन कट जाती है. . .और यह सोचना ही पड़ता है कि क्यों जिंद़गी कटने का उद्देश्य क्या है, मकसद क्या है? मौज, मस्ती, मज़ा, पैसा, औरत, शराब, सैर सपाटा? अफसोस कि मैं इस बात से अपने को ‘कन्विन्स` नहीं पाता. . .कुछ और करना चाहता हूं जो कुछ ज्यादा बड़ा आधार दे सके। ज्यादा आनंद दे सके, ज्यादा संतोष दे सके. . .

शिप्रा अंदर आई मेरा आज के ‘एप्वाइंटमेंण्ट्स` और कार्यक्रम सामने रख दिया।

“सर आज आपको ‘एडोटोरियल` देना है।”

“दो लोग आउट ऑफ स्टेशन हैं।”

“ठीक है. . .बैठ जाओ।”

चौबीस साल की अति सुंदर और अति स्मार्ट शिप्रा पाश्चात्य शैली के कपड़े पहने सामने बैठ गयी।

“जाओ, एडीटोरियल लिखो।” मैंने उससे कहा।

“जी?” वह कुरसी से उछल पड़ी।

“हां. . .इसमें हैरत की क्या बात।

“मैं? सर मैंने कभी ‘एडीटोरियल` नहीं लिखा।”

“और मैं जब पैदा हुआ तो ‘एडीटोरियल` लिख रहा था।

“नहीं. . .नहीं. . .”

“जाओ लिखो. . .लेकिन ‘इफ़`, ‘बट`, ‘परहैप्स`, ‘लाइकली` वगैरा वगैरा का अच्छा इस्तेमाल करना. . .”

“सर . . .ऑफिस में लोग. . .”

“हां मैं जानता हूं. . .मेरे खिलाफ हैं. . .बात का बतंगड़ बनायेंगे. . .कहेंगे शिप्रा से ‘एडीटोरियल` लिखवाता है. . .बहस होगी . . .मीटिंग होगी. . .मैं यही तो चाहता हूं. . .यही . . .और जो ‘ईडियट्स` ‘एडीटोरियल` लिखते हैं उनमें और तुममें क्या फर्क है? तुम ज्यादा ‘इंटीलिजेंट` हो।

वह हंसने लगी।

मैं उठकर खिड़की के पास आ गया। दूर तक अंग्रेज़ों की बनाई हुई दिल्ली फैली है। सुखद है कि यह हरी है। इस दिल्ली में पेड़ हैं। घास के मैदान है। हमने जो दिल्ली बनाई वह बंजर दिल्ली है। यह अंग्रेजों ने नहीं बनाई। हमें इसका ‘क्रेडिट` या ‘डिस्क्रेडिट` जाता है। यमुना जैसी सुंदर नदी को नाले में बदलने का काम भी अंग्रेज़ों ने नहीं किया है। दिल्ली के मास्टर प्लान से खिलवाड़ भी हमीं ने किया है। शहर के चारों तरफ बड़ी मात्रा में ‘सलम` भी हमने ही बनाये हैं। हमने ही अपने लोगों को बिजली और पानी के लिए तरसाया है।

“क्या कर रहे हो उस्ताद।”

पीछे मुड़कर देखा तो नवीन. . .नवीन जोशी।

“आओ बैठो।”

अब उसके चेहरे पर इतमीनान वाला भाव आ गया है। सहजता दिखाई देती है। पता नहीं क्या होता पर कोई न कोई ‘कैमिस्ट्री` काम करती है, ‘रिटायर` आदमी के हाव-भाव, भाव भंगिमाएं, चलने फिरने का तरीका, सुनने-सुनाने के अंदाज़ बदल जाते हैं। ‘रिटायर` होने का एक अजीब किस्म का असहजबोध चेहरे पर आ जाता है जिसका मेरे ख्याल से कोई औचित्य नहीं है।

“कहो क्या हाल है?”

“अरे यार, क्या हाल होंगे. . .हमें कौन पूछता है?”

“मतलब. . .?”

“यार सरयू को फोन करता हूं, वो नहीं उठाता. . .वो तो अपना यार साहित्य की राजनीति में डूब चुका है. . .पिछले साल नेशनल एवार्ड लिया, इस साल उसकी जूरी में आ गया है, अगले साल. . .

“शायद तुम्हारा नंबर आ जाये।” मैंने कहा और वह हंसने लगा।

“यार साजिद तुम्हें तो याद होगा।” वह कुछ ठहरकर बोला।

“हां प्यारे याद है. . . उस ज़माने में पूरी मण्डली का काम तुम्हारे बिना न चलता था. . .यार हम सब तो दिल्ली में बाहर से आये थे. . .तुम तो दिल्ली में ही पैदा हुए थे. . .असली दिल्ली वाले तो तुम थे।”

“मैं हर मर्ज की दवा हुआ करता था।” वह बोला।

“हां. . .ये तो है ही यार।”

चाय पीते हुए मैंने पूछा “और बताओ रावत का क्या हाल है?”

“यार दरअसल मैं आया ही रावत के बारे में बात करने था।”

“क्या बात है।”

“यार. . .भाभी का फोन आया था कि ऑफिस से आठ-नौ बजे से पहले नहीं आते। उसके बाद पीने बैठ जाते हैं। इस बीच थोड़ी सी बात भी मर्जी के खिलाफ़ हो जाये तो चिल्लाने लगते हैं. . .रात को सो नहीं पाते. . .उठ-उठकर टहलते हैं. . .बड़े तनाव में. . .।”

“तो तुमने रावत से बात की?”

“लाओ यार. . .ऑफिस का फोन दो।”

मैंने उसे घूरकर देखा।

“साले किसी की ज़िंदगी का सवाल है और तुम अपना फोन का बिल बचा रहे हो।”

“नहीं यार. . .दरअसल मोबाइल चार्ज नहीं किया है।”

हम दोनों ने रावत से लंबी बातचीत की। ऑफिस में होने की वजह से वह खुलकर बोल नहीं रहा था। लेकिन इतना तो पता चल रहा था कि वह भयानक तनाव में है और किसी दूसरे से मदद लेना अपमान समझता है। जितना हो सकता था हम लोगों ने उसे समझाया और मिलने के प्रोग्राम पर बात ख़त्म हो गयी।

– तुम क्या कर रहे हो? क्या सोचा है?“

– यार देखे नौकरी तो बहुत कर ली . . . और फिर सेहत भी

अब. . . तुम जानते ही हो. . .

– हम सब जानते और मानते है कि तुमने ऐसी सेहत में जो कुछ किया है वह क़ाबिले तारीफ है“

वह धीरे से बोला है – ठीक है यार . . .

– आगे क्या सोचा है?“

– कुछ सोचना ही पड़ेगा. . . घर में सब अपने-अपने कामों पर निकल जाते हैं मैं पड़ा-पड़ा क्या करता हूँ? कहाँ तक टी.वी. देखू. . .“

– लायबे्ररी चले जाया करो . . .

– यार गाड़ी कहाँ रहती है . . . बच्चे गाड़ी नहीं छोड़ते“

– घर पर लिखा करो“

– हाँ यार . . . यहीं सोचा है . . . लेकिन यार लिखने के लिए माहौल जरूरी है. . . और पुराने दोस्त हमें पूछते नहीं, सब साले बडे -बडे लोग हो गये है।“

– तुम्हारे लिए नहीं“ मैंने कहा वह हँसने लगा।

दो-तीन घण्टे नवीन से बात होती रही। मैंने अंदाजा लगाया कि वह गुज़रे जमाने की बातें बता रहा है, अपने परिवार के पुराने किस्से सुना रहा है रिटायरमेंट के बाद दोस्तों के बदल जाने की चर्चा कर रहा है।

मुझे बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि मोहसिन टेढ़े इतना खुश होगा। अंधेरे, छोटे और चारों तरफ से बंद कमरे में वह उसी तरह बैठा है जैसे अक्सर बैठाता है। लेकिन चेहरे पर खुशी फूटी पड़ रही है। मैंने इधर-उधर देखा। कोई वजह ऐसी नज़र न आई जो मोहसिन टेढ़े की खुशी की वजह हो।

“कहो. . .कैसे हो?”

“बस यार साजिद. . .परेशान आ गया था. . .खाने नाश्ते वाले चक्कर से तो. . .एक लड़की को लगा लिया है।”

“मैं तो तुमसे पहले ही कह रहा था।”

एक नेपाली-सी लगने वाले लड़की किचन से निकली जिसने जीन्स और छोटा-सा टाप पहन रखा था। लड़की की उम्र करीब बाइस-तेइस साल लगी। खूबसूरत कही जा सकती है। बाल लंबे और सीधे हैं। नाक चपटी है। आंखें छोटी हैं। गाल के ऊपर की हडि्डयां उभरी हुई हैं. . .लेकिन मुहावरा है कि जवानी में तो गधी सी सुंदर होती है।

उसने चाय मेज पर रख दी।

“इनको आदाब करो. . .ये मेरे भाई हैं।” मोहसिन ने उससे कहा।

लड़की ने बड़े अदब से झुककर मुझे आदाब किया।

“यार साजिद मैं इसे अपना कल्चर सिखा रहा हूं।” वह गर्व और खुशी से बोला।

“माशा अल्लाह” मैंने व्यंग्य में कहा। वह हंसने लगा।

“इसका नाम क्या है?”

“इधर आओ. . .बताओ कि तुम्हारा नाम क्या है?”

“जी मेरा नाम रिकी है. . .दार्जिलिंग में घर है।” वह किचन में चली गयी।

“तो तुमने इसे मुस्तकिल मुलाज़िम रखा हुआ है।”

“नहीं यार, इतना पैसा कौन देगा. . .ये पार्ट टाइम आती है।”

“और तुम इसे अपना कल्चर सिखा रहे हो।” मैंने कहा। वह हंसने लगा।

“सुबह आती है. . .एक घण्टे के लिए. . .शाम को आती है एक घण्टे के लिए. . .यार बहुत दुखी लड़की है।”

“तो इसका दुख बांट तो नहीं रहे हो।”

मोहसिन टेढ़े हो-हो करके हंसने लगा।

“तुम तो इसे ‘फुल टाइम` रख लो।

“नहीं यार” वह घबरा कर से बोला।

“क्या लेगी. . .चार-पांच हज़ार . . .और क्या? कपड़े वगैरा तो तुम दिला ही दिया करोगे।”

“नहीं. . .नहीं यार लफड़ा हो जायेगा।”

“अभी क्या सिलसिला है।”

वह आगे झुक आया। इसे कभी-कभी मैं रात में रोक लेता हूं। रुक जाती है। यार साजिद बिस्तर में लावे की तरह लगती है। यार मैं तो पागल हो जाता हूं।

“ज़रा संभलकर. . .तुम पचास के हो।”

“हां-हां यार. . .”

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