झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई : वृंदावनलाल वर्मा (उपन्यास) Part 5

झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई : वृंदावनलाल वर्मा (उपन्यास) Part 5

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नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपूर्ण होते थे। लेकिन स्त्रियों को कभी नहीं सताते थे। और न किसी की धन-संपत्ति लूटते थे।

झाँसी की जनता उनसे भयभीत थी परंतु अपनी रानी पर मुग्ध थी। रानी शासन में कोई प्रत्यक्ष भाग नहीं लेती थीं, कितु राजा के कठोर शासन में जहाँ कहीं दया दिखाई पड़ती थी, उसमें जनता रानी के प्रभाव के आभास की कल्पना करती थी।

कंपनी का झाँसी प्रवासी असिस्‍टेंट पॉलीटिकल एजेंट राजा के कठोर शासन, अत्याचार इत्यादि के समाचार गवर्नर जनरल के पास बराबर भेजता रहता था। उनके किसी भी सत्कार्य का समावेश उन समाचारों में न किया जाता था। और राज्यों के साथ कलकत्ता में झाँसी राज्य की भी मिसिल तैयार होती चली जा रही थी।

अंग्रेजों का चौरस करनेवाला बेलन बेतहाशा, लगातार और जोर के साथ चल रहा था। अंग्रेज लोग अपनी दूकान में हिंदुस्थान को अधूरे या अधकचरे सौदे का रूप लिए नहीं देख सकते थे। एक कानून, एक जाब्ता, एक मालिक, एक नजर, इसमें अनैक्य को तिल-भर भी स्थान देने की गुंजाइश न थी। मौका मिलते ही छोटे-मोटे रजवाड़े साफ, हजम! भारतीय जनता के सुख के लिए!!

ऊँचे पदों पर भारतीय पहुँच नहीं पावें। भारतीय संस्कृति हेच और नाचीज है, इसलिए पनपने न पावे। भारत में बहुत फालतू सोना-चाँदी है, इसलिए अंग्रेजी दूकान की रोकड़ बढ़ती चली जावे। जनता स्वाधीनता का नाम ले तो उसको बड़ी रियासतों के अंधेरों का संकेत करके चुप कर दिया जावे। बड़ी रियासतोंवाले जरा-सा भी सिर उठावें तो छोटी रियासतों को किसी-न-किसी बहाने घोंट-घाँटकर बड़ी रियासतों को चुप रहने का सबक सिखाया जावे।

सबसे बड़ा काम जो अंग्रेजों ने हिदुस्थानी जनता की भलाई (!) के लिए किया, वह था पंचायतों का सर्वनाश। अंग्रेजों को इस बात के परखने में बिलकुल विलंब नहीं हुआ कि उनके कानून के सामने हिंदुस्थान की आत्मा का सिर तभी झुकेगा जब यहाँ की पंचायतें विलीन हो जाएँगी, और हिंदुस्थानी, अर्जियाँ लिए हुए उनकी बनाई हुई साहबी अदालतों के सामने मुँहबाए भटकते फिरेंगे।

यह सब उन्नीसवीं शताब्दी के वैज्ञानिक ढंग से हुआ। जो परिस्थिति कठोर- से-कठोर पठान या मुगल नरेश अपने प्रकट अत्याचारों से उत्पन्न नहीं कर पाए थे, वह अंग्रेजों ने अपनी वैज्ञानिक हिकमत से उत्पन्न कर दी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा और नवाब अपनी जनता का दामन छोड़कर अंग्रेजों का मुँह ताकने लगे। पुरुषार्थ की जरूरत न थी, इसलिए सिर डुबोकर विलासिता के पोखरों में घुस पड़े। अंग्रेजी बंदूक और संगीन उनकी पीठ पर थी, जनता की परवाह ही क्या की जाती?

अंग्रेजों को केवल एक बात का खुटका था-उनके इलाकों के हिंदू और मुसलमान धर्म के इतने ढकोसले क्यों मानते हैं? किसी दिन इन ढकोसलों की श्रद्धा में होकर हमें नफरत की निगाह से न देखने लगें? धर्म से लिपटी हुई आत्मा का कैसे उद्धार करके अपना भक्त बनाया जाए? बस, इनकी रूहानी भक्ति मिली कि हिंदुस्थान में अपना राज्य अमर और अक्षय हो गया।

इसलिए सरकारी पाठशालाओं में बाइबल की शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। अमेरिका हाथ से निकल गया तो क्या हुआ, सोने की चिड़िया, सोने के अंडे देनेवाली मुरगी- भारत-भूमि-तो हाथ में आई! यह न जाने पावे किसी तरह भी हाथ से! मंदिरों की मूर्तियाँ मत तोड़ो, मसजिदों को अपवित्र मत करो परंतु धर्म पर से श्रद्धा को हटा दो, फल उससे भी कहीं बढ़कर होगा। और कोने-कोने में डौंडी पीट दो कि हम धर्मों के विषय में बिलकुल तटस्थ हैं-हमारा एकमात्र आदर्श हिंदुस्थान के लूटेरों और डाकुओं का दमन करके शांति स्थापित करने का है, जिससे खेती-किसानी आबाद हो सके और व्यापार बेरोक-टोक चल सके। किसका व्यापार? किसके लिए खेती-किसानी? उसी अंग्रेज दूकानदार के लिए!

गंगाधरराव यह सब अच्छी तरह नहीं समझते थे परंतु उनके पहले पूना में एक दुबला-पतला व्यक्ति नाना फड़नवीस हुआ था। वह खूब समझता था, एक-एक नस, एक-एक रग, राई-रत्ती! उसने हिंदस्थान के तत्कालीन राजाओं को बहुत समझाया, बहुत सावधान किया; परंतु वे मूर्ख कुछ न समझे! अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की प्रेरणा में परस्पर कट मरे।

अंग्रेजों ने पंजाब को परास्त करके हाल में ही अपने हाथ में किया था। बिहार और बंगाल में राज्य था ही। मध्यदेश बपौती का रूप धारण करता चला जाता था। इन सबके बीच में दो बड़े-बड़े रोड़े थे-एक अवध की मुसलमानी नवाबी और दूसरी झाँसी की बड़ी हिंदू रियासत। ये दोनों किसी प्रकार खत्म हो जाएँ तो पाँचों घी में और फिर हो चौरस करनेवाले अंग्रेजी बेलन की जय!

गंगाधरराव के पास गार्डन और कुछ अन्य अंग्रेज आया करते थे परंतु गार्डन और वे, केवल दोस्ती निभाने नहीं आया करते थे। राज्य की भीतरी बातों का पता लगाकर गवर्नर जनरल को सूचना देना उनका प्रधान कर्तव्य था।

गंगाधरराव के कोई संतान उस समय तक नहीं हुई थी। दूसरा विवाह संतान की आकांक्षा से किया था। रानी गर्भवती भी थीं; परंतु यह अनिवार्य नहीं था कि उनके पृत्र ही उत्पन्न हो। यदि वह निस्संतान मर गए तो झाँसी को तुरंत अंग्रेजी राज्य में मिला लिया जाएगा। अंग्रेजों के अंतर्मन में यह निहित था। इसीलिए गार्डन इत्यादि गंगाधरराव की खरी-खोटी भी सुन लेते थे। एक दिन शायद आए जब झाँसी निवासी हमारी खरी-खोटी चक्रवृद्धि ब्याज के साथ सुनेंगे। भीतर-भीतर यह लालसा घर किए बैठी थी।

ठंड पड़ने लगी थी। तारे अधिक चमक-दमक के साथ चंद्रिका की अपनी विस्तृत झीनी चादर उड़ाकर आकाश में उपस्थित हुए। झाँसी स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर गार्डन और राजा गंगाधरराव महल के दीवानखाने में बातचीत कर रहे थे।

गंगाधरराव-‘बाजीराव पंतप्रधान के देहांत का समाचार मुझको मिल गया था, परंतु यह हाल में मालूम हुआ कि उसकी पेंशन जब्त कर ली गई है। यह अच्छा नहीं किया गया।’

गार्डन- ‘सोचिए सरकार, आठ लाख रुपया साल कितना होता है और फिर बिठूर की जागीर मुफ्त में! उस पर खर्च कुछ नहीं।’

गंगाधरराव-‘मुझको याद है, मुझको विश्वसनीय लोगों ने बतलाया है कि कंपनी ने सन्‌ १८०२ में (सन्‌ १८०२ ई० की संधि।) उक्त पंतप्रधान के साथ जो संधि की थी, उसमें गवर्नर जनरल ने अपने हाथ से लिखा था ‘यावच्चंद्र -दिवाकर’ कायम रहेगी। परंतु चंद्रमा और सूर्य सब जहाँ-के-तहाँ हैं। संधि-पत्र पर दस्तखत किए अभी ५० वर्ष भी नहीं हुए और सारा मैदान सफाचट कर दिया!’

गार्डन-‘सरकार, संधि-पत्र मेरे सामने नहीं है, इसलिए ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि उसमें क्‍या लिखा है, परंतु सुनता हूँ, उनको जब १५-१६ वर्ष पीछे पेंशन दी गई तब यह लिखा था कि पेंशन को वह और उनका कंटुंब ही भोग सकेगा।’

गंगाधरराव-नाना धोंडूपंत जो अब जवान है, पंतप्रधान का दत्तक पुत्र है। क्या वह कुटुंबी नहीं माना जाएगा?’
गार्डन-‘हमारे देश के कानून में गोद नहीं मानी जाती।’
गंगाधरराव-‘पर हिंदुस्थान तो आपका देश नहीं है।’

गार्डन-‘अंग्रेज कंपनी का राज्य तो है। राजा अपना कानून बरतता है न कि प्रजा का। सरकार अपने राज्य में अपना ही कानून तो बरतते हैं न?’
गंगाधरराव-‘हमारा और हमारी प्रजा का काननू तो एक ही है।’

गार्डन-‘यह बिलकुल ठीक है सरकार। और, दीवानी मामलों में हमारे इलाकों में भी प्रजा का ही कानून माना और चलाया जाता है परंतु रियासतों के संबंध में यह बात लागू नहीं की जाती।’
गंगाधरराव-‘क्यों, रियासतें और उनके रईस क्या साधारण प्रजा से भी गए-बीते हैं ?’

गार्डन-‘सो सरकार मैं नहीं जानता। कंपनी सरकार इंग्लैंड में कानून बना देती है। कुछ कानून गवर्नर जनरल भी बनाते हैं। हमको उन्हीं के अनुसार चलना पड़ता है।’

गंगाधरराव-‘हमारे धर्म में विधान है कि यदि औरस पुत्र पिंडदान देने के लिए न हो तो दत्तक पुत्र ठीक औरस पुत्र की तरह पिंडदान दे सकता है। आप लोग क्या राजाओं को इससे वंचित करना चाहते हैं?’

गार्डन-‘नहीं सरकार। बड़ी रियासतों को यह अधिकार दे दिया गया है। परंतु जो रियासतें कंपनी सरकार की आश्रित हैं, उनमें गोदी गवर्नर जनरल की स्वीकृति के बिना नहीं ली जा सकती। यदि ली जावे तो गोद लिए लड़के को राजगद्दी का अधिकारी नहीं माना जा सकता। वह राजा की निजी संपत्ति अवश्य पा सकता है और पिंडदान मजे में दे सकता है। सरकार ने हमारे धर्म की पुस्तक पढ़ी? उसका हिंदी में अनुवाद हो गया है। छप गई है।’
गंगाधरराव-‘छप गई है अर्थात्?’

गार्डन-‘छापाखाना में छपती है। उसमें यंत्र होते हैं। वर्णमाला के अक्षर ढले हए होते हैं। उनको मिला-मिलाकर स्याही से कागज पर छाप लेते हैं। हजारों की संख्या में छप जाती है।’

गंगाधरराव-‘ऐं! यह विलक्षण यंत्र है। मैं ग्रंथों की नकल करवा-करवाकर हैरानी में पड़ा रहता हूँ और न जाने कितना रुपया व्यय किया करता हूँ। एक यंत्र हमारे लिए भी मँगवा दीजिए।

गार्डन को डर लगा। ऐसा भयंकर विषधर झाँसी में दाखिल किया जावे! पुस्तकें छपेंगी, समाचार-पत्र निकलेंगे। जनता सजग हो जाएगी। अंग्रेजों का रौब धूल में मिल जाएगा। जिस आतंक के बल-भरोसे कंपनी-सरकार राज्य चला रही है, वह हवा में मिल जाएगा। गार्डन ने सोचा था कि राजा को इस कड़वे प्रसंग से हटाकर किसी मनोरंजक प्रसंग में ले जाऊँ, परंतु यह प्रसंग तो और भी अधिक कटु निकला।

लेकिन गार्डन ने चतुराई से अपने को बचा लेने का प्रयत्न किया। बोला, ‘सरकार, गवर्नर जनरल की आज्ञा बिना कोई भी उस यंत्र को नहीं रख सकता।’
गंगाधरराव को रोष हुआ, आश्चर्य भी। बोले, ‘इसमें भी गवर्नर जनरल की आज्ञा, अनुमति? आप लोग थोड़े दिन में शायद यह भी कहने लगो कि हमारी आज्ञा बिना पानी भी मत पिओ।’
गार्डन हँसने लगा। राजा भी हँसे।
बात टालने की नीयत से उसने कहा, ‘सरकार, बड़ी देर से हुक्का नहीं मिला। आज क्या पान भी न मिलेगा?
राजा ने हुक्का दिया।

उसी समय एक हलकारे ने आकर खुशी-खुशी कहा, ‘महाराज की जय हो! झाँसी राज्य की जय हो।’ राजा को मालूम था कि रानी प्रसव-गृह में हैं। जय का शब्द सुनते ही समझ गए। भीतर का हर्ष भीतर ही दबाकर गंभीरता के साथ पूछा, ‘क्या बात है?’

हरकारा हर्ष के मारे उछला पड़ता था। उसने हर्षोन्मत्त होकर उत्तर दिया, ‘श्रीमंत सरकार, झाँसी को राजकुमार मिले हैं।’

और उसने नीचा सिर करके अपनी कलाइयों पर उँगलियों से कड़ों के वृत्त बनाए। राजा ने हँसकर कहा, ‘सोने के कड़े मिलेंगे और सिरोपाव भी। जा, तोपों की सलामी छुटवा। पर देख, बड़ी तोपें न छूटें। हल्ला बहुत करती है और बस्ती के पंचों और भले आदमियों को सूचना दे।’ गार्डन भी बहस से छुटकारा पाकर अपने घर चला गया।

गवर्नर जनरल को सूचना दे दी गई। झाँसी राज्य को अंग्रेजी इलाके में मिला लेने की घड़ी टल गई।

22

जिस दिन गंगाधरराव के पुत्र हुआ उस दिन संवत् १९०८ (सन् १८५१) की अगहन सुदी एकादशी थी। यों ही एकादशी के रोज मंदिरों में काफी चहल-पहल रहती थी, उस एकादशी को तो आमोद-प्रमोद ने उन्माद का रूप धारण कर लिया। अपनी प्यारी रानी के गर्भ से पुत्पत्ति का समाचार सुनकर झाँसी थोड़े समय के लिए इंद्रपुरी बन गई।
राजा ने बहुत खर्च किया, इतना कि खजाना करीब-करीब खाली कर दिया। दरिद्रों को जितना सम्मान उस अवसर पर झाँसी में मिला, उतना शायद ही कभी मिला हो।

दरबार हुआ। गवैए आए। मुगलखाँ का ध्रुवपद सिरे का रहा। उसको हाथी बख्शा गया। नर्तकियों में दुर्गाबाई खूब पुरस्कृत हुई। नाटक हुआ। परंतु उसमें मोतीबाई न थी। राजा के मन में आया कि उसको फिर से रंगशाला में बुलवा लिया जाए, परंतु न किसी ने सिफारिश की और न राजा अपने हठ को छोड़कर स्वयं प्रवृत्त हुए।
दरबार में सभी जागीरदारों को कुछ-न-कुछ मिला।

उस दरबार में केवल एक व्यक्ति की इच्छा की पूर्ति न हो सकी। वे थे नवाब अलीबहादुर- राजा रघुनाथराव के पुत्र। जब अंग्रेजों ने रघुनाथराव के कुशासन काल में झाँसी का प्रबंध अपने हाथ में ले लिया था, तभी उनकी जागीर जब्त कर ली गई थी और उनको पाँच सौ रुपया मासिक पेंशन दी जाने लगी थी। जब गंगाधरराव को राज्याधिकार मिला, तब उन्होंने यह पेंशन जारी रखी। अलीबहादुर चाहते थे कि यथासंभव उनको वही जागीर मिल जाए। जागीर न मिल सके तो पेंशन में वृद्धि कर दी जाए। जागीर मिलती न देखकर अलीबहादुर ने पेंशन बढ़ाने के लिए विनय की। राजा ने पॉलीटिकल एजेंट से बात करने की बात कहकर नवाब को उस समय टाला। नवाब का मन मसोस खा गया। परंतु उन्होंने आशा नहीं छोड़ी। अनेक अंग्रेज अफसरों से उनका मेलजोल था, परस्पर आना-जाना था। इसलिए उस आश्रय को दृढ़तापूर्वक पकड़ने की उन्होंने अपने जी में ठानी।

दरबार में पगड़ी बंधवाने की प्रथा बहुत समय से चली आ रही थी। श्याम चौधरी नाम के एक सेठ के घरानेवाले ही ऐसे मौकों पर पगड़ी बाँधते थे। श्याम चौधरी लखपति था। कहते हैं कि उस समय झाँसी में ५२ लखपति थे। ये ५२ घर बावन बसने कहलाते थे। श्याम चौधरी पाग बाँधने के पहले अपना नेग-दस्तूर लेने के लिए बहुत मचला। राजा ने जब मोती जड़े सोने के कड़े देने का वचन दिया तब उसने राजा को पगड़ी बाँधी। नवाब अलीबहादुर का जी इससे और भी अधिक जल गया।

वह किसी भी तरह इस भावना को नहीं दबा पा रहे थे-मैं राजा का लड़का हूँ, मैं ही झाँसी का राजा होता, अब मेरे पास जागीर तक नहीं! छोटे-छोटे से लोगों का इतना आदर-सत्कार और मेरी पेंशन बढ़ाने तक के लिए पॉलीटिकल एजेंट की सलाह की जरूरत!

नवाब साहब ऊपर से प्रसन्न और भीतर से बहुत उदास अपनी हवेली को लौट आए। वे रघुनाथराव के नई बस्तीवाले महल में रहते थे। महल में तीन चौके थे। एक रंगमहल, दूसरा सैनिकों, हाथियों इत्यादि के लिए; तीसरा घोड़ों और गायों के लिए। महल का सदर दरवाजा चाँद दरवाजा कहलाता था। इस पर चढ़कर वे और उनके मुसलमान अफसर ईद के चाँद को देखते थे, इसलिए दरवाजे का नाम चाँद दरवाजा पड़ गया था। बिलकुल अगले सहन के आगे एक और विस्तृत सहन था, जिसके एक ओर इनका प्रिय हाथी मोतीगज बँधता था और दूसरी ओर राजा रघुनाथराव के जीवन-काल में इनकी माता लच्छोबाई के रहने के लिए हवेली थी। इस समय नवाब अलीबहादर के अधिकार में यह हवेली और सारा महल था।

बाहरवाली हवेली में उनके मेहमान या आश्रित ठहराए जाते थे। दरबार से लौटकर अलीबहादुर पहले इसी हवेली में गए। हवेली बड़ी थी। उसमें कई कक्ष थे। परंतु उजाला केवल दो कक्षों में था। बाकी सूनी और अँधेरी थी। बाहर पहरेदार थे। उजाला दीपकों का था। शमादानों में जल रहे थे, दो कमरों में अलग-अलग। दोनों कमरे एक दूसरे से काफी दूर।

जिस पहले कमरे में नवाब अलीबहादुर गए उसमें सिवाय खुदाबख्श के और कोई न था। अभिवादन के बाद उनमें बातचीत होने लगी। गंगाधरराव खुदाबख्श और नर्तकी मोतीबाई से अप्रसन्न हो गए थे और उन्हें दरबार से निकाल दिया गया था। खुदाबख्श ने अलीबहादुर से अपनी प्रार्थना राजा तक पहुँचाने के लिए निवेदन किया था।
खुदाबख्श ने अपनी आशामयी आँखों से कहा, ‘हुजूर ने मेरी विनती तो पेश की होगी?’
अलीबहादुर ने उत्तर दिया, ‘नहीं भाई, मौका नहीं आया। जानते हो, महाराज अव्वल दर्जे के जिद्दी हैं। एकाध दिन मौका हाथ आने दो, तब कहूँगा।’
खुदाबख्श-‘उस कमरे में बेचारी मोतीबाई उम्मीदें बाँधे बैठी है। उसका तो कोई कसूर ही नहीं है। उसके लिए आप कुछ कह सके?’
अलीबहादुर-‘क्या कहता? वहाँ तो बनियों और छोटे-छोटे लोगों की बन पड़ी। मेरे लिए ही कुछ नहीं हुआ।’
खुदाबख्श-‘ऐं!’

अलीबहादुर-‘जी हाँ। जागीर चूल्हे में गई-पेंशन बढ़ाने के लिए अर्ज की तो कह दिया कि बड़े साहब से सलाह करेंगे। मैं सोचता हूँ कि हमीं लोग बड़े साहब से क्यों न मिलें? आपके साथ काफी जुल्म हुआ है। आप मुद्दत से छिपे-छिपे फिर रहे हैं। जिस मोतीबाई के लिए राजा पलक-पाँबड़े बिछाते थे, वह बिचारी दर-दर फिर रही है। एक दिन मुझको यह और राजा के अनेक अत्याचार बड़े साहब के सामने साफ बयान करने हैं। आप भी चलना।’ खुदाबख्श-‘मैं तो आज तक किसी गोरे से नहीं मिला। आपकी उनसे दोस्ती है। आप जैसा ठीक समझें, करें।’
अलीबहादुर-‘मोतीबाई से अर्जी न दिलाई जाए? आपसे कुछ बातचीत हुई?’ खुदाबख्श-‘क्या कहूँ, वे तो मुझसे परदा करती हैं। आप ही पूछिएगा।’
अलीबहादुर-‘नाटकशालावाली भी परदा करती है! रंगमंच पर तो परदे का नामनिशान नहीं रहता, बल्कि उससे बिलकल उलटा व्योहार नजर आता है।’
अलीबहादुर की अवस्था ४२-४३ वर्ष की थी। स्वस्थ थे। रंगीन तबीयत के। उन्होंने बातचीत का सिलसिला जारी रखा-‘रंगमंच पर उनका नाच-गाना, हाव-भाव सभी पहले सिरे के देखे। यहाँ परदा कैसा? वे पीरअली के सामने तो निकलती हैं।’
पीरअली अलीबहादुर का खास नौकर और सिपाही था। बरताव एकांत में मित्रों सदृश्य। उसको बुलवाया गया।
पीरअली की मार्फत मोतीबाई से बातचीत होने लगी।
‘बड़े साहब’ को अर्जी देने के प्रस्ताव पर मोतीबाई ने कहलवाया, ‘मैं अर्जी नहीं देना चाहती हूँ। किसी अंग्रेज के सामने नहीं जाऊँगी। आप लोग बड़े आदमी हैं। आप लोगों के रहते मैं अंग्रेजों के बँगलों पर नहीं भटकना चाहती।’
अलीबहादुर ने कहा, ‘आपको कहीं जाना नहीं पड़ेगा। आपकी अर्जी मैं पेश कर आऊँगा।’
मोतीबाई ने उत्तर दिलवाया,’साहब से सब कुछ जबानी कह दीजिए। लिखी अर्जी नहीं दूंगी।’
खुदाबख्श ने समर्थन किया। बोला, ‘लिखा हुआ कुछ नहीं देना चाहिए। यदि कहीं अर्जी को साहब ने महाराज के पास फैसले के लिए भेज दिया तो हम सब विपद में पड़ जाएंगे।’

अलीबहादुर दूसरे के हाथ से अंगारे डलवाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने खुदाबख्श को समझाया, ‘आपका इससे बढ़कर तो अब और कुछ नुकसान हो नहीं सकता। बिना किसी अपराध के देश-निकाला दे दिया गया। घर-द्वार छूटा। जागीर गई। परदेश की खाक छानते फिर रहे हो। मेरी राय में आपको लिखी अर्जी जरूर देनी चाहिए। मैं साहब से सिफारिश करूँगा। वे राजा के पास न भेजकर सीधी लाट साहब गवर्नर जनरल बहादुर के पास भेज देंगे। कंपनी सरकार रियासतों के नुक्स तलाश करने में दिन-रात व्यस्त रहती है।’

खुदाबख्श ने कहा, ‘जरा सोच लूँ। फिर किसी दिन अर्ज करूँगा। आप तो मेरे शुभचिंतक हैं। आप अकेले का तो मुझको आधार ही है। आपके अहसानों के बोझ से दबा हूँ।’

अलीबहादुर ने सोचा, जल्दी न करनी चाहिए। पीरअली ने छिपे संकेत में हामी भरी। खुदाबख्श के खाने-पीने की व्यवस्था करके अलीबहादुर चले गए। अकेले रह जाने पर मोतीबाई भी अपने घर गई। जाते समय उसने एक बार खुदाबख्श की ओर देखा। खुदाबख्श को ऐसा जान पड़ा जैसे कमलों का परिमल छुटकाती गई हो।

23

लक्ष्मीबाई का बच्चा लगभग दो महीने का हो गया। परंतु वे सिवाय किले के उद्यान में टहलने के और कोई व्यायाम नहीं कर पाती थीं। शरीर अभी पूरी तौर पर स्वस्थ नहीं हुआ था। मन उनका सुखी था, लगभग सारा समय बच्चे के प्यार में जाता था। राजा भी उस बच्चे पर प्यार बरसाने में काफी समय उनके पास बिताते थे। राजा की प्रकृति में अद्भुत अंतर आ गया था। शासन की कठोरता में उन्होंने कमी कर दी। जनता उनको प्रजावत्सल कहने लगी।

उन्हीं दिनों तात्या टोपे झाँसी में आया। राजा का एक फौजी अफसर कर्नल मुहम्मद जमाखाँ था। उसी की हवेली के एक हिस्से में तात्या को डेरा मिला। पास ही जूही रहती थी।

तात्या को रानी से एकांत में बातचीत करने का अवसर मिला। उसने रानी से कहा, ‘आपको दादा के देहांत का हाल तो मालूम हो गया था परंतु पेंशन छीने जाने की बात किसी ने नहीं बतलाई! आश्चर्य है!!’ लक्ष्मीबाई दुखी स्वर में बोलीं, ‘मैं अस्वस्थ थी, इसलिए यह समाचार मुझ तक नहीं आने दिया गया। अंग्रेजों ने बड़ी बेईमानी की।’
तात्या-‘यह उन लोगों की न तो पहली बेईमानी है और न आखिरी। उन लोगों की नीति सारे देश को डसती चली जा रही है। गायकवाड़, होलकर, सिंधिया, अवध के नवाब-ये सब अफीम ही खाए बैठे हैं।’
रानी-‘पेंशन छीनने के विरुद्ध क्या उपाय किया?’

तात्या-‘अर्जी फरियाद की। बड़े लाट ने कोई सुनवाई नहीं की। विलायत को भी लिखा-पढ़ा एक होशियार आदमी भेजा, परंतु सबने कानों में तेल डाल लिया है।’
रानी-‘फिर क्या सोचा है?’
तात्या-‘कुछ नहीं। नाना साहब और रावसाहब ने आपके पास मुझको भेजा है। उनको आपके विवेक और तेज का भरोसा है।’
रानी-‘नवाब साहब के पास लखनऊ गए?’

तात्या-‘गया था। परंतु नवाब साहब के चारों तरफ गायिकाओं, नर्तकियों और भाँड़ों का पहरा लगा रहता है। उन लोगों ने कहा कि अगले साल मुलाकात का मुहूर्त निकलेगा।’

रानी हँस पड़ीं। जैसी संध्या के पीले बादलों में दामिनी दमक गई हो। रानी अपनी स्वाभाविक अरुणता अभी पुनः प्राप्त न कर पाई थीं।

तात्या ने कहा, ‘मैं नवाब के प्रधानमंत्री से मिला। वह हिंदू है। परंतु बिचारा क्या करता। उसने अपनी असमर्थता प्रकट की। फिर कई बड़े जमींदारों से मिला। उन्होंने कहा, कि कुछ पुरुषार्थ करो, हम साथ देंगे।’
रानी कुछ सोचने लगीं। सोचती रहीं।
तात्या बोला, ‘आप बिठूर में छत्रपति, और बाजीराव तथा छत्रसाल न जाने कितने नाम लिया करती थीं।’
रानी ने कहा, ‘ये नाम मैं कभी नहीं भूलूँगी। छत्रसाल का नाम इधर के लोगों में अब भी मंत्र का काम करता है।’
तात्या-‘यह और वे सब मंत्र कब काम आएँगे?’

रानी जरा मुसकराई। तात्या उस मुसकराहट को पहचानता था। उसके परिवेष्ठन में छुटपन की मन के छोटे निश्चय बड़ी दृढ़ता के साथ निकला करते थे। तात्या ने आशा से कान लगाए।

रानी ने कहा, ‘टोपे, अभी समय नहीं आया है। घड़ा अपूर्ण है-अभी भरा नहीं है। हम लोगों के आपसी उपद्रवों ने जनता को त्रस्त कर दिया है। उसको थोड़ा साँस लेने योग्य बन जाने दो। समर्थ रामदास का दिया हुआ स्वराज्य-संदेश, छत्रपति शिवाजी का पाला हुआ वह आदर्श, छत्रसाल का वह अनुशीलन अमर और अक्षय है।’

तात्या जरा अधीर होकर बोला, महारानी साहब, ये बातें कान और हृदय को अच्छी मालूम होती हैं, पर हिंदू और मुसलमान जनता तो अचेत-सी जान पड़ती है।’

रानी ने टोककर दृढ़ स्वर में कहा, ‘तात्या भाई, जनता कभी अचेत नहीं होती। उसके नायक अचेत या भ्रममय हो जाते हैं।’
तात्या-‘तब नाना साहब से जाकर क्या कहँ?’

रानी-‘यही कि कान और आँख खोलकर समय की प्रतीक्षा करें। मुझे अभी तो पूर्ण स्वस्थ होने में ही कुछ समय लगेगा, स्वस्थ होते ही अपने आदर्श के पालन में सचेष्ट होऊँगी। अपने आदर्श को कभी न भूलना-प्रयत्न की पहली और पक्की सीढ़ी है।’
तात्या चलने को हुआ।
रानी ने प्रश्न किया, ‘दिल्ली का क्या हाल है?’

तात्या ने उत्तर दिया, ‘बादशाह का? उन बिचारों को ९० हजार रुपया साल पेंशन मिलती है। कविता करते हैं और कवि सम्मेलन में उलझते रहते हैं। कंपनी ने उनकी नजर-भेंट बंद कर दी है और उनसे कह रही है कि अपने को बादशाह कहना छोड़ो, नहीं तो पेंशन बंद कर देंगे।’
रानी ने कहा, ‘मुसलमान नवाब और जन क्या इस चुनौती को यों ही पी जाएँगे?’
‘कह नहीं सकता, तात्या ने कहा। कुछ समय बाद तात्या चला गया।

तात्या झाँसी में और ठहरना चाहता था, परंतु बिठूर जल्दी जाना था और गंगाधरराव की नाटकशाला बंद थी। यद्यपि अभिनय करनेवालों का वेतन बंद नहीं किया गया।

24

गंगाधरराव का यह बच्चा तीन महीने की आयु पाकर मर गया। इसका सभी के लिए दुःखद परिणाम हुआ। राजा के मन और तन पर इस दुर्घटना का स्थायी कुप्रभाव पड़ा। वे बराबर अस्वस्थ रहने लगे।
लगभग दो वर्ष राजा-रानी के काफी कष्ट में बीते।

राजा की खीझ बढ़ गई। उन्होंने सनकों में काम करना शुरू कर दिया। एक दिन उनको मालूम हुआ कि खुदाबख्श नवाब अलीबहादुर के यहाँ कभी-कभी आता है। इस जरा से अपराध पर उन्होंने नवाब साहब का महल जब्त कर लिया। केवल बाहरवाली हवेली उनके रहने के लिए छोड़ी।

सन् १८५३ के शारदीय नवरात का महोत्सव हआ। उस दिन उनका स्वास्थ्य अच्छा जान पड़ता था, केवल कुछ कमजोरी थी। राजवैद्य प्रतापसाह मिश्र का उपचार था। राजा वैद्य पर बहुत खुश थे। वैद्य उदंड प्रकृति का था परंतु राजा उसको बहुत निभाते थे।

दशहरे के भरे दरबार में वैद्य ने अपने एक पड़ोसी का उलाहना दिया-‘सरकार, मैं हवेली बनाना चाहता हूँ। मेरे मकान में जगह थोड़ी है। पड़ोसी को मुँह-माँगा दाम देने को तैयार हूँ। वह पाजी है। बिलकुल नट गया है। मकान नहीं छोड़ता। मेरी हवेली नहीं बन पा रही है। वह मकान मुझको दिलवा दिया जाए।’
राजा ने इस प्रार्थना को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।

वैद्य ने हठपूर्वक कहा, ‘तब मैं कोट बाहर एक अलग छोटी-सी झाँसी बसाऊँगा। सरकार की अनुमति-भर चाहिए। या तो नगर में हवेली बनाकर रहूँगा या कोट बाहर बस्ती बसाऊँगा। और एक दृढ़ कोट उसके चारों ओर खिंचवाऊँगा।’

तीन साल पहले के गंगाधरराव होते तो वह इस प्रस्ताव पर वैद्यराज की खाल खिचवा डालते। परंतु उनका स्वभाव सनकों से भर गया था। बल के साथ तेज भी उनका ठंडा पड़ गया था।

राजा ने वैद्य को अनुमति दे दी। वैद्य का ध्यान उपचार से हटकर नया नगर बसाने और कोट खिचवाने की विशाल मूर्खता पर दृढ़ता के साथ जा अटका। नई बस्ती तो वैद्य नहीं बसा पाए परंतु उसने कोट खिंचवा लिया, जो अपने अखंड रूप में अब भी प्रतापसाह मिश्र के हठ का स्मारक बना बड़े गाँव फाटक के बाहर खड़ा है।

विजयदशमी के उपरांत गंगाधरराव को संग्रहणी रोग ने ग्रस लिया। बहुत दवादारू की गई, कुछ न हुआ। मर्ज बढ़ता ही चला गया।

उस समय झाँसी का असिस्टेंट पॉलिटिकल एजेंट मेजर मालकम था। उसको सूचना दी गई। उसने डॉक्टरी उपचार का अनुरोध किया परंतु वैद्यों और हकीमों ने प्रयत्न को अभी आशारहित नहीं समझा था, इसलिए उस अनुरोध पर विचार करने की भी नौबत नहीं आई।

महालक्ष्मी के मंदिर में, जो लक्ष्मी-फाटक बाहर है और जहाँ सदा ही धूमधाम रहती थी, पाठ बैठाया गया। झाँसी का कोई भी मंदिर न था जहाँ राजा के रोग-निवारण के लिए पूजा-अर्चा न कराई गई हो और जनता ने अपनी प्रार्थनाएँ भेंट न की हों।

नवंबर के तीसरे सप्ताह में राजा का स्वास्थ्य और भी अधिक बिगड़ गया। प्रतापसाह मिश्र ने बड़े दंभ के साथ ‘प्रताप लंकेश्वर रस’ बनाया, परंतु किसी भी रस का कोई प्रभाव न पड़ा।

राजा ने क्षीण मुसकराहट के साथ इतना जरूर कहा, ‘कोट खिंचवाने से कैसे अवकाश मिल गया?’

उसके बाद राजा यकायक बेहोश हो गए। रानी के पिता मोरोपंत और दीवान नरसिंहराव घबराए हुए आए।
राजा को पुनः चेत हो आया था।
नरसिंहराव ने कहा, ‘सरकार स्वस्थ हो जाएँगे। कोई चिंता की बात नहीं है। हम लोगों को आज्ञा दी जाए।’
राजा समझ गए। कुछ पहले से मन में जो बात उठी थी, उसको उन्होंने कहा, ‘मैं अभी जीऊँगा। प्रताप मिश्र का नया नगर देखने जाऊँगा, परंतु मैंने निश्चय किया है कि दत्तक ले लेूँ।’ मोरोपंत और नरसिंहराव राजा के मुँह की ओर देखने लगे।
राजा कहते गए, ‘हमारे कुटुंबी वासुदेवराव नेवालकर का एक पुत्र आनंदराव है। पाँच वर्ष का है। सुंदर और होनहार है। उसको मैं गोद लेना चाहता हूँ। यदि रानी साहब स्वीकार करें तो मैं आज ही शास्त्रानुसार गोद ले लूँ।’
मोरोपंत पूछ आए। रानी ने स्वीकार कर लिया।

तुरंत दत्तक विधान की तैयारी की गई। नगर की जनता के मुखिया निमंत्रित किए गए। मेजर मालकम की जगह मेजर एलिस असिस्टेंट पॉलिटिकल ऐजेंट होकर आ गया था और मालकम पॉलिटिकल एजेंट होकर चला गया था, उसको तथा अंग्रेजी सेना के अफसर कप्तान मार्टिन को भी बुलाया गया। इन सबके सामने राजा ने आनंदराव को विधिवत् गोद लिया।
आनंदराव का नाम बदलकर दामोदरराव रखा गया।

25

झाँसी की जनता के पंचों, सरदारों और सेठ-साहूकारों को, जो इस उत्सव पर निमंत्रित किए गए थे, इत्र, पान, भेंट इत्यादि से सम्मानित करके बिदा किया गया। केवल मेजर एलिस, कप्तान मार्टिन, मोरोपंत और प्रधानमंत्री नरसिंहराव वहाँ रह गए। निकट ही परदे के पीछे रानी लक्ष्मीबाई बैठी हुई थीं। राजा ने एक खरीता कंपनी सरकार के नाम लिखवाया। उसका सार यह है-

‘बुंदेलखंड में कंपनी सरकार का राज्य स्थापित होने के पहले से हमारे पूर्वज उनकी हर तरह की सहायता करते आए हैं और मैंने स्वयं जीवन-भर उनकी सहायता की है। मेरे घराने के साथ कंपनी सरकार की जो संधियाँ समय-समय पर हुई हैं उनसे हमारा हक बराबर पुष्ट होता चला आया है। मैं इस समय रोगग्रस्त हूँ। अच्छे होने की आशा है और यह भी आशा है कि स्वस्थ होने पर मेरे संतान हो, परंतु यह सोचकर कि कदाचित् मेरा देहांत हो जाए और बिना उत्तराधिकारी के यह राज्य नष्ट हो जाए, अपने कुटुंब के एक पंचवर्षीय बालक आनंदराव को हिंदू-धर्म शास्त्र के अनुसार गोद लिया है। वह नाते में मेरा पौत्र लगता है। यदि मैं स्वस्थ न हो सका और मेरा देहांत हो गया तो यही बालक, जिसका नाम गोद के उपरांत दामोदरराव रखा गया है, झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी होगा। जब तक मेरी पत्नी जीवित रहे, तब तक वह इस राज्य की स्वामिनी और इस बालक की माता समझी जाए और राज्य की व्यवस्था उसी के अधीन रहे। मैं चाहता हूँ कि उसको किसी प्रकार का कष्ट न हो।’

राजा ने खरीता अपने हाथ से एलिस के हाथ में दिया। राजा का गला रुद्ध हो गया और आँखों में आँसू भर आए। परदे के पीछे रानी की सिसक सुनाई पड़ी मानो उस खरीते पर इस सिसक की मुहर लगी हो। गले को किसी तरह काबू में करके राजा ने एलिस से कहा, ‘आपको मैं अपना मित्र मानता हूँ। बड़े साहब मालकम भी मेरे मित्र हैं। गार्डन जैसे मेरा छोटा भाई हो…’
राजा के हृदय में पीड़ा हुई। वे रुक गए। एलिस ध्यानपूर्वक राजा की बातें सुनने लगा।
राजा बोले, ‘इस समय गार्डन मेरे पास होता तो मुझको बड़ी खुशी होती।’ और मुसकराए।
पीड़ा-कंपित होंठों पर वह अर्द्धस्मित किसी असह्य कष्ट को जोर के साथ दबा गया।
‘गार्डन का हुक्का दीवाने-खास में रखा हुआ है, पिओ तो मँगवाऊँ।’
‘नहीं सरकार।’

‘देखो मेजर साहब, दामोदरराव कितना सुंदर है। यह बड़ा होनहार है। मेरी रानीसी माता को पाकर झाँसी को चमका देगा। मेरी झाँसी को ये दोनों बड़ा भारी नाम देंगे।”
परदे के पीछे फिर सिसकी सुनाई दी। एलिस ने आँख के एक कोने से उस ओर देखकर मुँह फेर लिया।
राजा ने परदे की ओर मुँह फेरकर रुद्ध स्वर में मुश्किल से कहा, ‘यह क्या है? रोती हो? मैं अच्छा हो रहा हूँ। पर मुझे अपनी बात तो कह लेने दो।’
रानी ने धीरे से खाँसकर कंठ संयत किया।
राजा स्थिर होकर बोले,’मेजर साहब, हमारी रानी स्त्री जरूर है परंतु इसमें ऐसे गुण हैं कि संसार के बड़े-बड़े मर्द इसके पैरों की धूल अपने माथे पर चढ़ाएँगे।’
बहुत प्रयत्न करने पर भी राजा अपने आँसुओं को न रोक सके।
एलिस ने कहा, ‘महाराज, थोड़ी बात करें, नहीं तो तबीयत देर में अच्छी हो पाएगी।’
रानी ने जरा जोर से खाँसा, मानो राजा को निवारण कर रही हों।
दुर्बल हाथों से राजा ने आँसू पोंछे। गले को नियंत्रित किया।
बोले, ‘रानी बहुत अच्छी व्यवस्था करेगी। आप लोग दामोदरराव की नाबालिगी के कारण परेशान मत होना।’
राजा के हृदय में पीड़ा बढ़ी।

किसी प्रकार उसको काबू में करके उन्होंने कहा, ‘मुझे झाँसी के लोग बहुत प्यारे हैं। मैं चाहता हूँ, मेरी जनता सुखी रहे। मैंने जिसको जो कुछ दिया है, वह सब उसके पास बना रहना चाहिए। मुगलखाँ बहुत बड़ा गवैया है, मेजर साहब।’
एलिस ने सोचा, गंगाधरराव का दिमाग फिरने को है। जरा चिंतित हुआ।
राजा बोले, ‘उसको मैंने इनाम में हाथी दिया है। वह उसी के पास रहेगा, और हाथी के व्यय के लिए मैंने जो कुछ लगा दिया है, वह भी उसी के पास रहना चाहिए।’

इसके उपरांत राजा को खाँसी आई और साथ ही रक्त। प्रतापसाह वैद्य बाहर मौजूद था। बुला लिया गया। दवा दी गई। राजा को कुछ चैन मिला। पर वे जान गए कि यह क्षणिक है।
बोले, ‘एलिस साहब, ये हमारे वैद्यजी बड़े हठी हैं। अपना एक अलग नगर बसा रहे हैं। मैंने अनुमति दे दी है। इनके हठ को कोई तोड़े नहीं।’
वैद्य की आँखों में भी एक आँसू आ गया। उसको वैद्य ने किसी बहाने पोंछ डाला। वैद्य बाहर चला गया।
राजा के होंठों पर एक क्षीण मुसकराहट फिर आई।
‘मैं चाहता हूँ कि मेरी नाटकशाला में चाहे खेल हों या न हों, परंतु पात्रों के लिए जो वेतन खजाने से दिया जाता है, वह उनको मिलता रहे।’
राजा फिर खाँसे। अब की बार ज्यादा खून आया। वैद्य फिर भीतर आया। उसने आज्ञा के स्वर में प्रतिवाद किया, ‘महाराज, अब बिलकुल न बोलें।’
राजा ने तुरंत कहा, ‘थोड़ा-सा और, फिर बस। तुम्हारी और तुम्हारी दवा की कोई जरूरत न रहेगी।’

राजा की आकृति बिगड़ी। सब लोग चिंतित और भयभीत हुए। राजा बहुत कष्ट के साथ बोले, ‘मेजर साहब, एक अंतिम प्रार्थना-बस एक-झाँसी अनाथ न होने पावे।’
कराहने लगे, आँखें फिरने लगीं।
कप्तान मार्टिन एक ओर चुप बैठा हुआ था। उसने एलिस को चल देने का संकेत किया। एलिस उठना ही चाहता था कि राजा बोले, ‘चित्रकार सुखलाल, हृदयेश कवि…’
एलिस उठा। उसने प्रणाम करके राजा से कहा, ‘सरकार, हम लोग जाते हैं। समाचार मिलते ही तुरंत हाजिर होंगे।’
राजा ने आँखें स्थिर की। कहा, ‘मेजर साहब, भूलना मत। हमको आपका भरोसा है। हमारी प्रार्थना को ध्यान में रखना। लाट साहब को मेरी विनती…’
इसके बाद वे नहीं बोल सके और बेसुध हो गए।
एलिस और मार्टिन चले गए।

लक्ष्मीबाई तुरंत परदे से बाहर निकल आई। पति की उस दशा को देखकर चीत्कार कर उठीं। मोरोपंत ने दामोदरराव को बुलवा लिया। नाना भोपटकर लेकर आए। रानी को सांत्वना मिली।

26

जिस इमारत में आजकल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का दफ्तर है, वह उस समय डाकबंगले के काम आता था। पास ही झाँसी प्रवासी अंग्रेजों का क्लब घर था। एलिस और मार्टिन राजा के पास से आकर सीधे क्लब गए। वहाँ और कई अंग्रेज आमोद-प्रमोद में मग्न थे। यहाँ इन दोनों का जी हलका हुआ।
उन अंग्रेजों ने महल का हाल पूछा।
‘राजा बीमार है। बच नहीं सकता।’
‘इलाज वही दकियानूसी होगा।’
‘एक मूर्ख वैद्य कुछ पीस-पासकर मधु के साथ खिला रहा है।’
‘कैप्टिन एलन का इलाज करवाओ।’ ‘खुशी से,
परंतु ये लोग ऐसे कट्टर-धर्मी हैं कि शायद राजा एलन के हाथ की छुई हुई दवा न खाएगा।’
‘शायद अच्छा हो जाए। न हुआ तो क्या होगा?’
‘राजा ने एक लड़के को गोद लिया है।’
‘कब?’
‘आज हम लोगों के सामने।’
‘गोद! यानी झाँसी में वही मनमानी और कानूनहीन व्यवस्था जारी रहने दी जाएगी?’
एलिस ने इस प्रसंग को आगे नहीं बढ़ने दिया। तब वार्तालाप की धारा दूसरी ओर मुड़ गई और बातचीत में सभी शरीक हो गए।
‘सुनते हैं, रानी बहुत सुंदर है। अच्छी घुड़सवार है। यदि नाचना सीखे तो उसका नृत्य अजीब होगा।’ एक अंग्रेज ने कहा।

‘चुप मूर्ख, एलिस बोला, ‘अभी, उसी के राज में बैठे हो। हिंदुस्थानी लोग अपने राजा-रानी के बारे में ऐसी बात सुनना बिलकुल पसंद नहीं करते।’

‘हिश! (डैम इट) वह तो गधों का झुंड है। फिर भी मैं तुम्हारी बात मानता हूँ। इसलिए नहीं कि रानी-वानी से डरता हूँ, कितु इसलिए कि प्याले के ऊपर मीठा-मीठा पवन बहना चाहिए न कि बहस-वाहिसे की गरम आँधी। वरना मैं अपने पूरे महीने की तनख्वाह की होड़ लगाता। तो भी मेजर, मैं सुनता हूँ, राजा नाचता अच्छा था। किसी जमाने में उसकी नाटकशाला में बड़ी सुंदर शकलें थीं। बहुत बढ़िया नाच।’

‘हम सब जानते हैं, पर देखा नहीं है। वैसे और हिंदुस्थानी नर्तकियों का नाच बहुत देखा। मगर मजा नहीं आता। इस देश के नाच तक में कोई ढंग नहीं, कोई मोहकता नहीं।’
‘पर नर्तकियाँ हैं हसीन। मैं शर्त लगाता हूँ, नाच-गान चाहे उनका उतना खूबसूरत न हो।’
‘ये लोग हमारे नाचने-गाने को भद्दा समझते हैं। मैंने हिंदुस्थानियों का अपने नृत्यगृह में आना बंद कर दिया है। केवल नवाब अलीबहादुर आता है। वह समझदार है।’
‘सिर तो जरूर बहुत हिलाता है।’
‘ओह! बहुत काम का आदमी है। तुम जानते हो।’
‘वह अपने दो-एक दोस्तों को साथ लाना चाहता है।’
‘बेकार है। मैं पसंद नहीं करता।’
‘यहाँ से ले क्या जाएगा?’
‘हम लोगों का स्त्रियों के बारे में बुरा खयाल फैलाएगा।’
‘कोई परवाह नहीं। बुरा खयाल फौज और पुलिस में नहीं फैलना चाहिए।’
‘एक से एक बढ़कर बेदिमाग हैं। उन कारतूसों को मुंह से खोलने से इनकार किया तो हमने रगड़ दिया। रह गए। जितना वेतन हम इन लोगों को देते हैं, उतना इनको दुनिया में कहीं भी नहीं मिल सकता।’
‘और तुम्हारे रिसाले में जो कुछ ब्राह्मण माथा रंग-रँगाकर परेड में आते थे उनका तो अनुशासन कर दिया?’
‘हाँ। पहले उन्होंने कहा, हमारा टीका है। धर्म की बात। फिर हमने पुंछवा दिया। डैम इट ऑल। भाई कितनी जहालत-भरा मुल्क है!’
‘जरूर। परेड से छुट्टी पाकर बारक में न सिर्फ माथे पर बल्कि माथे से लेकर पैर की उँगली तक टीकों से देह को रँगलो, हमको फिकर नहीं। इस धर्म से हमको महान् कष्ट होता है।’
‘अभी यह कौम बिलकुल नादान और जाहिल है। अंग्रेजी पढ़ने से अकल कुछ सुधरेगी। बाइबल का पढ़ाना मदरसों में इसीलिए जरूरी रखा गया है। जब अंग्रेजी का प्रचार हो जाएगा और बाइबल की संस्कृति इनके खून में बैठ जाएगी तब धरातल कुछ ऊँचा होगा।’
‘हाँ, और कदाचित् तब इस देश के लोग हमारे शेक्सपियर, वाल्टर स्कॉट, वायरन की पूजा कर उठे। यहाँ के लोग पूजा, नमाज बहुत जल्दी कर उठते हैं।’
‘गंगाधरराव की नाटकशाला में जो नाटक खेले जाते थे, वे कौन-सी बला होते हैं?’
‘महज कूड़ा-करकट तो नहीं है। शकुंतला नाटक तो मैंने भी पढ़ा है। मोनियर विलियम्स का अनुवाद। खूबसूरत चीज है। यद्यपि टैंपेस्ट की मिरांडा को शकुंतला नहीं पहुँचती, फिर भी एक चीज है…’
‘ऐसी कितनी पुस्तकें हिंदू-मुसलमानों के पास होंगी?’
‘हिंदुओं की गाँठ में शकुंतला, कुछ वेद और कुछ ऐसा ही साहित्य है। मुसलमानों के पास कुरान, गुलिस्ताँ, बोस्तां और उमरखैयाम की रुबाइयाँ। बस खतम। बाकी सब कूड़ा, महज रद्दी।’
‘तुम तो लार्ड मैकाले की भाषा में बोल रहे हो पट्ठे।’
‘मैकाले क्या गलत कहता है? उसने तो हिंदू-मुसलमानों को बहुत बड़ा गौरव दिया जो यह कह दिया कि इनकी सारी अच्छी पुस्तकें एक छोटी-सी अलमारी में बंद की जा सकती हैं।’
‘मैं कमस खाता हैं, मैकाले ने ‘छोटी-सी’ अलमारी नहीं कहा है। मैं कहता हूँ कि इनकी अच्छी पुस्तकें अलमारी के एक ही कोने में आ सकती हैं।’
‘जाने दो, इनकी नर्तकियाँ अवश्य कभी-कभी परियों-सी जान पड़ती हैं।’
‘जब वे ढेरों जेवर लादकर सामने आती हैं तब जान पड़ता है मानो फूलों में जुगनू जड़ दी गई हों।’
‘कभी-कभी नाच के कुछ कदम भले लगते हैं।’
‘लेकिन गाना बिलकुल चीख-चिल्लाहट। हाँ, सारंगी का बाजा मीठा लगता है और जब तबला धीमी लय में बजता है तब नाच उठने को जी चाहने लगता है।’
‘हिंदुस्थान की जलवायु, प्रकृति, अनाज, दूध सब अच्छा, लेकिन देश कुसंस्कारों से भरा हुआ है। किसान बहुत मेहनती नहीं हैं।’
‘और चोर-डाकुओं के मारे चैन नहीं ले पाते हैं।’
‘हम लोग हिंदुस्थान में उन्हीं का नाश करने के लिए तो मौजूद हैं।’
‘रियासतों में बड़ा अंधेर, बड़ा अत्याचार होता है।’

‘सुनता हूँ, किसी रियासत में एक इत्रफरोश गया। एक सरदार ने छत्तीस हजार रुपयों का इत्र खरीद डाला। जब इत्रफरोश ने कहा कि अभी मेरे पास बेचे हए इत्र से भी बढ़िया और मौजूद है, तब उस सरदार ने वह सब खरीदा हुआ इत्र अपनी घुड़सार के घोड़ों की पूँछों पर उड़ेल दिया और कहा, यह इत्र तो हमारे लायक नहीं। घोड़ों की पूँछ की बू जरूर इससे दूर हो जाएगी और तुम्हारा जो इससे बढ़िया इत्र है, वह यदि बेचो तो गधेरों के गधों की पूंछ पर छिड़कवा दूंगा। जब राजा के पास यह समाचार पहुँचा तब उसने सरदार को शाबाशी दी और खजाने से छत्तीस के दगुने बहत्तर हजार रुपया सरदार के पास भेज दिए!’
‘यह झाँसी के राजा का ही किस्सा है।’ ‘मैंने सुना है कि इस कहानी का संबंध दिल्ली के बुड्ढे बादशाह बहादुरशाह से है।’
‘वह तो कविता करने में मस्त रहता है।’
‘उसको बादशाह कौन कहता है?’
‘शिष्टाचार। केवल शिष्टाचार।’
‘ऐसा कैसा शिष्टाचार! बादशाह सिर्फ एक है। एक के सिवाय दूसरा किसी प्रकार नहीं हो सकता। वह है इंग्लैंड का बादशाह। थ्री चियर्स। हुरे!’
‘हुरे! इन सब कठपुतलियों को खाक करो। कहाँ के राजा और कहाँ के बादशाह! कमबख्त किलों और महलों में बैठे-बैठे गुलछर्रे उड़ाते हैं। गरीबों की औरतों को सताते हैं और डाके डलवाते हैं। डैम दैम ऑल।’
‘चुप-चुप, अभी नहीं। जरा ठहरकर सब होगा। सब मुकुट और ताज हमारे पैरों पर गिरेंगे। पर होगा सब धीरे-धीरे। कुछ दिनों में सारा हिंदुस्थान ईसाई हो जाएगा। और इंग्लैंड का राज्य अमर।’

‘धीरे-धीरे बेवकूफ, अभी कसर है। इस समय चोर, डाकुओं और फसादियों को ठंडा करके व्यापार और खेती को बढ़ाना है। जनता हमको श्रद्धा की दृष्टि से देखेगी। जो हिंदुस्थानी अंग्रेजी पढ़-लिख जाएँ उनको छोटी-मोटी नौकरियाँ देकर अंग्रेजों का अदब करना सिखाया जाएगा। वे उस अदब को जनता में फैला देंगे। जनता हमेशा कृतज्ञ रहेगी और हमारे हाथ जोड़ते नहीं अघावेगी। हमारे छोकरे सदा-सर्वदा हमारा आतंक बनाए रखेंगे! वही आतंक हमारा सब कुछ होगा।’
‘ओह डियर मी। तुम तो बिलकुल अरस्तू और सुकरात हो गए।’
‘हिश! हमारे मन को केवल एक बात दिक करती है-ये राजा और नवाब।’

‘फिर वही हिमाकत। कह दिया कि धीरज धरो। इंग्लैंड के राजनीतिज्ञ काफी होशियार और कुशल हैं और हिंदुस्थान में गवर्नर जनरल को अब अपनी काउंसिल की सम्मति को रद्द करने का पूरा अधिकार है। यहाँ की जनता को मुट्ठी में रखने के लिए कुछ राजा-नवाबों का बनाए रखना बहुत जरूरी है। और यह भी बहुत जरूरी है कि ऐसे बड़े-बड़े राजाओं और नवाबों की रियासतों में अत्याचार होते रहें, जिससे अंग्रेजी इलाके की प्रजा अपनी बेहतर हालत का, रियासती प्रजा की बदतर हालत से सदा मुकाबला करती रहे, तौलती रहे। और पुकार-पुकारकर कहती रहे कि हिंदुस्थानी हुकूमत से अंग्रेजी हुकूमत बहुत अच्छी। समझे!’
‘जनता में ऊँची-नीची श्रेणियाँ कायम रखने की जरूरत है।’

‘तुम्हारा सिर। उनमें जाँत-पात, ऊँच-नीच बहुत संख्या में जमानों से है। केवल जमींदारी, ताल्लुकेदारी प्रथा को मजबूती के साथ दाखिल करना रह गया है। बंगाल में हो गया है। सब जगह कर दिया जाएगा। सिर उठानेवाली जनता को ये जमींदार, ताल्लुकेदार ही कुचल दिया करेंगे। हमको हाथ जमाने की परवाह ही न करनी पड़ेगी। सब बंदोबस्त आराम से होता चला जाएगा।’
‘मुझको यह शब्द ‘बंदोबस्त’ बहुत प्यारा लगता है। हर जगह कोने-कोने में बंदोबस्त होना चाहिए।’
‘तुमने अभी-अभी कहा, ‘तुम्हारा सिर’। वापस लो इसको। तुम क्या मुझसे होड़ लगा सकते हो कि हिंदुओं की जाँत-पात और मुसलमानों का ऊँच-नीच हमारा सहायक नहीं है?’

‘बेशक होड़ लगा सकता हूँ। यह सब होते हुए भी इन लोगों में बड़े-बड़े राजा और बादशाह हुए हैं। फिर भी हो सकते हैं। इसलिए इस देश को अनंत काल तक अपने हाथ में बनाए रखने के लिए-हिंदुस्थानियों के लाभ और अपने रोजगार के हेतु-वही दूसरी तरकीब बेहतर है। हम-तुमसे कहीं ज्यादा चतुर राजनीतिज्ञों ने इस संपूर्ण समस्या पर यों ही माथापच्ची नहीं की है।’
प्यालों का दौर और अखंड साम्राज्य की कल्पना, अनेक अवसरों की तरह क्लब में लगभग उफान पर आ रही थी कि क्लब के बाहर तेजी से दौड़कर आनेवाली घुड़सवारों की आहट सुनाई पड़ी।
पहरेवाले ने सलाम किया और कहा, ‘हुजूर, राजा के यहाँ से खबर आई है कि वे बेहोश पड़े हैं।’
सबने अपने-अपने प्याले रख दिए। सतर्क हो गए। एक दूसरे की ओर देखने लगे। एलिस ने कहा, ‘सूचना दो कि मैं थोड़ी देर में आता हूँ।’ पहरेवाला चला गया।

मार्टिन ने एलिस से पूछा, ‘राजा मरनेवाला है या शायद मर भी गया हो। हिंदुस्थानी लोग असल बात को देर तक छुपाए रखने के अभ्यासी होते हैं। यदि राजा मर भी गया हो तो क्या वह गोद स्वीकार कर ली जाएगी? मेरे खयाल में लार्ड डलहौजी झाँसी को अंग्रेजी इलाके में मिला लेंगे।’
‘हिश!’ एलिस ने उँगली से वर्जित करके कहा, ‘कुछ ज्यादा पी गए हो, मालूम होता है।’
उसी क्षण और घुड़सवार आए। पहरेवाला भीतर आया। बोला, ‘हुजूर, अब महल से दूसरा समाचार यह आया है कि महाराज अच्छे हैं और हुजूर को तुरंत बुलाया है।’
‘डैम इट।’ धीरे से मार्टिन के मुंह से निकल पड़ा। पहरेदार ने सुन लिया। सिर नवाकर बाहर चला गया। उसके कलेजे में कुछ कसक गया।
एलिस ने आँखें तरेरी। मार्टिन ने अंगूठा दिखाकर उपेक्षा की।
कहा, ‘हमारा नौकर है। राजा का नौकर नहीं।’
एलिस डॉक्टर एलन को लेकर राजमहल चला गया।

गंगाधरराव को रनवास के कक्ष में पहुंचा दिया गया था। जब एलिस और एलन पहुँचे, राजा होश में थे। एलिस को देखकर वे प्रसन्न हुए। बोलने की चेष्टा की। टूटे-टूटे बोले।

उसी दिन जो खरीता राजा ने एलिस के हाथ में दिया था उसका स्मरण दिलाया और उसको सूचित किया कि पॉलीटिकल एजेंट मेजर मालकम के पास भी एक खरीता भेज दिया है-केवल एक बात उसमें विशेष है कि सन् १८१७ में रामचंद्रराव के साथ जो संधि कंपनी सरकार की हुई थी उसमें झाँसी राज्य दवाम के लिए, चिरकाल के लिए शिवराम भाऊ के वंशजों के अधिकार में रहने की बात लिख दी गई थी। उस लिखे हुए वचन का पालन किया जाना चाहिए।

एलिस राजा की हालत को देखकर उनको बातचीत करने से रोकता रहा। वे बोलने का प्रयत्न करते-करते फिर अचेत हो गए। उन्हें बातचीत करते-करते बीच में बेहोशी आ-आ जाती थी।
एलिस ने डॉक्टर एलन की ओषधि खाने के लिए अनुरोध किया। वह उनके पास गया, परंतु क्लब में शराब पी थी। मुँह से गंध आ रही थी। राजा की बहुत अवहेलना हुई।
उसने सोचा, अहिंदू की छुई हुई दवा न खाएंगे। प्रस्ताव किया, ‘सरकार, इसमें गंगाजल मिला दिया जाएगा। दवा पवित्र हो जाएगी, आप पिएँ। शीघ्र आराम मिलेगा।’

राजा की आकृति से ऐसा जान पड़ा मानो उन्होंने स्वीकार कर लिया हो। वे शायद शराब की बू से छुटकारा पाना चाहते थे। कैसा भी कुसंस्कृत हिंदू हो, मरने के समय कैसे भी सुसंस्कृत हिंदू या अहिंदू को शराब की बू फैलाते पसंद नहीं करेगा।
एलिस ने तुरंत एक ब्राह्मण के हाथ दवा भेजी। राजा ने छूने तक से इनकार कर दिया।
एक दिन और पीड़ा में काटने को था। उस दिन (२० नवंबर को) दुपहरी में कुछ नींद आई। ४ बजे आँख खुली। महल के सामने झाँसी की जनता कुशल-समाचार के लिए व्याकुल खड़ी थी।
राजा गंगाधरराव को पल-पल पर बेहोशी आ रही थी। ज्यों-त्यों करके वह दिन कटा। दूसरे दिन उनकी अवस्था असाध्य हो गई। अंत में मुँह से केवल यह निकला, ‘गंगाजल।’
उनको तुरंत गंगाजल दिया गया। एक क्षण के लिए उनको ऐसा जान पड़ा मानो रोगमुक्त हो गए हों।
तत्क्षण सचेत होकर बोले, ‘मैंने बहुत अपराध किए हैं, बहुतों को सताया है, सब क्षमा करें ॐ हरि…’
कुछ क्षण उपरांत राजा का देहांत हो गया।
महल में हाहाकार मच गया। जिस रानी को कभी किसी ने विह्वल नहीं देखा था, वह करुणा के बाँध तोड़े जा रही थी। मोरोपंत और नाना भोपटकर ने क्रंदन करते हुए दामोदरराव को रानी की गोदी में रख दिया।

लक्ष्मी दरवाजे बाहर, लक्ष्मी ताल के किनारे गंगाधरराव के शव का दाह धूमधाम के साथ किया गया। श्मशान भूमि पर एलिस और मार्टिन भी उपस्थित थे। दूर रेग्यूलर केवलरी के सिपाही भी। काले बिल्ले बाँधे हुए। एलिस और मार्टिन कुतूहल के साथ अंतिम क्रियाकर्म देख रहे थे और हिंदुस्थानी सिपाही रुदन करती हुई झाँसी की जनता के साथ रुद्ध-कंठ थे।

एलिस ने २० नवंबर सन् १८५३ को राजा गंगाधरराव का एक दिन पहले का दिया हुआ खरीता पॉलिटिकल एजेंट कैथा (उस समय बुंदेलखंड और रीवा का पॉलिटिकल एजेंट कैथा, जिला हमीरपुर में रहता था।) के पास भेज दिया था। २१ नवंबर को राजा गंगाधरराव का देहांत हुआ। यह समाचार भी उसने अविलंब पहुँचा दिया।

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