Contents
- 1 11. राजगृह : वैशाली की नगरवधू
- 2 12. रहस्यमयी भेंट : वैशाली की नगरवधू
- 3 13. बन्दी की मुक्ति : वैशाली की नगरवधू
- 4 14. राजगृह का वैज्ञानिक : वैशाली की नगरवधू
- 5 15. मगध महामात्य आर्य वर्षकार : वैशाली की नगरवधू
- 6 16. आर्या मातंगी : वैशाली की नगरवधू
- 7 17. महामिलन : वैशाली की नगरवधू
- 8 18. ज्ञातिपुत्र सिंह : वैशाली की नगरवधू
- 9 19. मल्ल दम्पती : वैशाली की नगरवधू
वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री Part 2
11. राजगृह : वैशाली की नगरवधू
अति रमणीय हरितवसना पर्वतस्थली को पहाड़ी नदी सदानीरा अर्धचन्द्राकार काट रही थी। उसी के बाएं तट पर अवस्थित शैल पर कुशल शिल्पियों ने मगध साम्राज्य की राजधानी राजगृह का निर्माण किया था। दूर तक इस मनोरम सुन्दर नगरी को हरी भरी पर्वत-शृंखला ने ढांप रखा था। उत्तर और पूर्व की ओर दुर्लंघ्य पर्वत-श्रेणियां थीं, जो दक्षिण की ओर दूर तक फैली थीं। पश्चिम की ओर मीलों तक बड़े-बड़े पत्थरों की मोटी अजेय दीवारें बनाई गई थीं। पर्वत का जलवायु स्वास्थ्यकर था और वहां स्थान-स्थान पर गर्म जल के स्रोत थे। बहुत-सी पर्वत-कन्दराओं को काट-काटकर गुफाएं बनाई गई थीं, जिन्हें प्रासादों की भांति चित्रित एवं विभूषित किया गया था। नगर की शोभा अलौकिक थी तथा उसका कोट दुर्लंघ्य था। राजमहालय में पीढ़ियों की सम्पदा एकत्र थी। नगर के बाहर अनेक बौद्ध विहार बन गए थे। सम्राट् बिम्बसार स्वयं तथागत गौतम के उपासक बन चुके थे। सम्राट् के अनुरोध से गौतम राजगृह में आ चुके थे। राजगृह के विश्वविद्यालय की भारी प्रतिष्ठा थी। उस समय तक नालन्दा के विश्वविद्यालय को भी उतनी प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त हुई थी। राजगृह के जगद्विख्यात विश्वविद्यालय में दूर-दूर के नागरिक उपाध्याय, वटु, प्रकांड विद्वानों के चरणतल में बैठकर अपनी-अपनी ज्ञानपिपासा शान्त करते थे। वहां सुदूर चीन के लम्बी चोटी वाले, पीतमुख और छोटी आंखों वाले मंगोल; तिब्बत, भूटान के ठिगने-गठीले भावुक तरुण; दीर्घ, गौरवर्ण नीलनेत्र एवं स्वर्णकेशी पारसीक और यवन तरुण; सिंहल के उज्ज्वल श्यामवर्ण, चमकीली आंखों में प्रतिभा भरे स्वर्णद्वीप, यव-द्वीप, ताम्रपर्णी, चम्पा, कम्बोज और ब्रह्मदेशीय तरुण वटुकों के साथ बैठकर अपनी ज्ञानपिपासा मिटाते थे। कपिशा, तुषार, कूचा के पिंगल पुरुष भी वहां थे। उन दिनों मगध साम्राज्य का केन्द्र राजगृह विश्व की तत्कालीन जातियों का संगम हो रहा था।
कोसल के अधिपति प्रसेनजित् ने मगध-सम्राट् बिम्बसार को अपनी बहिन कोशलदेवी ब्याही थी और उसके दहेज में काशी का राज्य दे दिया था। इस समय काशी पर बिम्बसार के अधीन ब्रह्मदत्त शासन करता था। बिम्बसार की दूसरी राजमहिषी विदेहकुमारी कूकिना थी। उसके विषय में प्रसिद्ध था कि वह ब्रह्मविद्या की पारंगत पण्डित है। इन दिनों सम्पूर्ण भारत में चार राज्य ही प्रमुख थे—मगध, वत्स, कोसल और अवन्ती। इन चारों राज्यों में परस्पर संघर्ष रहता था, कोसल से सम्बन्ध होने पर भी मगध सम्राट की महत्त्वाकांक्षा ने कोसल और मगध में सदैव संघर्ष रखा। जिस समय की बात हम कर रहे हैं उस समय मगध-सम्राट् बिम्बसार ने स्वयं कोसल पर चढ़ाई की थी और उसके महान् सेनापति भद्रिकचण्ड ने चम्पा का घेरा डाला हुआ था, जिसे आठ मास बीत चुके थे। चम्पा और कोसल के इस अभियान का उद्देश्य यह था कि भारत के पूर्वीय और पश्चिमी वाणिज्य द्वार सर्वतोभावेन मागधों के हाथ में रहें। चम्पा उन दिनों सम्पूर्ण पूर्वी द्वीपसमूहों का एकमात्र वाणिज्य-मुख था। इसी समय मगधराज की राजधानी राजगृह में प्रसिद्ध मगध अमात्य वर्षकार, जिनकी बुद्धि-कौशल की उपमा बृहस्पति और शुक्राचार्य से ही दी जा सकती थी, बैठे शासन-चक्र चला रहे थे।
आर्यों के बोए वर्णसंकरत्व के विष-वृक्ष का पहला फल मगध साम्राज्य था, जिसने असुरवंशियों से रक्त-सम्बन्ध स्थापित करके शीघ्र ही भारत-भूमि के आर्य राजवंशों को हतप्रभ कर दिया था। ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने इतर जाति की युवतियों को अपने उपभोग में लेकर उनकी सन्तानों को अपने कुलगोत्र एवं सम्पत्ति से च्युत करके उनकी जो नवीन संकर जाति बना दी थी, इनमें तीन प्रधान थीं जिनमें मागध प्रमुख थे। इन्हीं मागधों ने राजगृह की राजधानी बसाई। मागध सम्राट् जरासन्ध ने महाभारत-काल में अपने दामाद कंस का वध हुआ सुनकर बीस अक्षौहिणी सैन्य लेकर मथुरा पर 18 बार चढ़ाई की थी। इस चढ़ाई में उसकी कमान के नीचे कारुष के राजा दन्तवक्र, चेदि के शिशुपाल, कलिंगपति शाल्व, पुण्ड्र के महाराजा पौण्ड्रवर्धन, कैषिक के क्रवि, संकृति तथा भीष्मक, रुक्मी, वेणुदार, श्रुतस्सु, क्राथ, अंशुमान, अंग, बंग, कोसल, काशी, दशार्ह और सुह्य के राजागण एकत्र हुए थे। विदेहपति मद्रपति, त्रिगर्तराज, दरद, यवन, भगदत्त, सौवीर का शैव्य, गंधार का सुबल, पाण्ड, नग्नजित्, कश्मीर का गोर्नद, हस्तिनापुर का दुर्योधन, बलख का चेकितान तथा प्रतापी कालयवन आदि भरत-खण्ड के कितने ही नरपति उसके अधीन लड़े थे। इनमें भगदत्त और कालयवन महाप्रतापी राजा थे। भगदत्त का हाथी ऐरावत के कुल का था और उसकी सेना में चीन और तातार के असंख्य हूण थे। कलिंगपति शाल्व के पास आकाशचारी विमान था। जरासन्ध ने उसे दूत बनाकर कालयवन के पास युद्ध में निमन्त्रण देने भेजा था। जरासन्ध के इस दूत का कालयवन ने मन्त्रियों सहित आगे आकर सत्कार किया था और जरासन्ध के विषय में ये शब्द कहे थे कि––”जिन महाराज जरासन्ध की कृपा से हम सब राजा भयहीन हैं, उनकी हमारे लिए क्या आज्ञा है?”
ऐसा ही जरासन्ध का प्रताप था जिसके भय से यादवों को लेकर श्रीकृष्ण अट्ठारह वर्ष तक इधर-उधर भटकते फिरे और अन्त में ब्रजभूमि त्याग द्वारका में उन्हें शरण लेनी पड़ी। महाभारत से प्रथम भीम ने द्वन्द्व में जरासन्ध को कौशल से मारा। उसके बाद निरन्तर इस साम्राज्य पर अनेक संकरवंश के राजा बैठते रहे। हम जिस समय का यह वर्णन कर रहे हैं उस समय मगध साम्राज्य के अधिपति शिशुनाग-वंशी सम्राट् का शासन था। सम्राट् बिम्बसार की आयु पचास वर्ष की थी। उनका रंग उज्ज्वल गौरवर्ण था, आंखें बड़ी-बड़ी और काली थीं, कद लम्बा था, व्यक्तित्व प्रभावशाली था। परन्तु उनके चित्त में दृढ़ता न थी, स्वभाव कोमल और हठी था। फिर भी वे एक विचारशील और वीर पुरुष थे और उन्होंने अपने साम्राज्य को समृद्ध किया था। इस समय मगध साम्राज्य में अस्सी हज़ार गांव लगते थे और राजगृह एशिया के प्रसिद्ध छ: महासमृद्ध नगरों में से एक था। यह साम्राज्य विंध्याचल, गंगा, चम्पा और सोन नदियों के बीच फैला हुआ था, जो 300 योजन के विस्तृत भूखण्ड की माप का था। इस साम्राज्य के अन्तर्गत 18 करोड़ जनपद था।
12. रहस्यमयी भेंट : वैशाली की नगरवधू
एक पहर रात जा चुकी थी। राजगृह के प्रान्त सुनसान थे। उन्हीं सूनी और अंधेरी गलियों में एक तरुण अश्वारोही चुपचाप आगे बढ़ता जा रहा था। उसका सारा शरीर काले लबादे से ढका हुआ था, उसके शरीर और वस्त्रों पर गर्द छा रही थी। तरुण का मुख प्रभावशाली था, उसके गौरवपूर्ण मुख पर तेज़ काली आंखें चमक रही थीं, उसके लबादे के नीचे भारी-भारी अस्त्र अनायास ही दीख पड़ते थे। तरुण का अश्व भी सिंधु देश का एक असाधारण अश्व था। अश्व और आरोही दोनों थके हुए थे। परन्तु तरुण नगर के पूर्वी भाग की ओर बढ़ता जा रहा था, उधर ही उसे किसी अभीष्ट स्थान पर पहुंचना था, उसी की खोज में वह भटकता इधर-उधर देखता चुपचाप उन टेढ़ी-तिरछी गलियों को पारकर नगर के बिलकुल बाहरी भाग पर आ पहुंचा। यहां न तो राजपथ पर लालटेनें थीं, न कोई आदमी ही दीख पड़ता था, जिससे वह अपने अभीष्ट स्थान का पता पूछे। एक चौराहे पर वह इसी असमंजस में खड़ा होकर इधर-उधर देखने लगा।
उसने देखा, एक पुराने बड़े भारी मकान के आगे सीढ़ियों पर कोई सो रहा है, तरुण ने उसके निकट जाकर उसे पुकारकर जगाया। जागकर सामने सशस्त्र योद्धा को देखकर वह पुरुष डर गया। डरकर उसने कहा––”दुहाई , मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है, मैं अति दीन भिक्षुक हूं, आज भीख में कुछ भी नहीं मिला, इससे इस गृहस्थ के द्वार पर थककर पड़ रहा हूं, आप जानते हैं कि यह कोई अपराध नहीं है।”
युवक ने हंसकर कहा––”नहीं, यह कोई अपराध नहीं है, परन्तु तुम यदि आज भूखे ही यहां सो रहे हो तो यह वस्तु तुम्हारे काम आ सकती है, आगे बढ़ो और हाथ में लेकर देखो!”
बूढ़ा कांपता हुआ उठा। तरुण ने उसके हाथ पर जो वस्तु रख दी वह सोने का सिक्का था। उस अंधेरे में भी चमक रहा था। उसे देख और प्रसन्न होकर वृद्ध ने हाथ उठाकर कहा––”मैं ब्राह्मण हूं, आपको शत-सहस्र आशीर्वाद देता हूं, अपराध क्षमा हो, मैंने समझा, आप दस्यु हैं, दरिद्र को लूटा चाहते हैं, इसी से…।” दरिद्र ब्राह्मण की बात काटकर तरुण ने कहा––”तो ब्राह्मण, तुम यदि थोड़ा मेरा काम कर दो तो तुम्हें स्वर्ण का ऐसा ही एक और निष्क मिल सकता है, जो तुम्हारे बहुत काम आएगा।”
“साधु , साधु, मैं समझ गया। आप अवश्य कहीं के राजकुमार हैं। आपकी जय हो! कहिए, क्या करना होगा?”
तरुण ने कहा––”तनिक मेरे साथ चलो और आचार्य शाम्बव्य काश्यप का मठ किधर है, वह मुझे दिखा दो।”
आचार्य शाम्बव्य काश्यप का नाम सुनकर बूढ़े ब्राह्मण की घिग्घी बंध गई। उसने भय और सन्देह से तरुण को देखकर कांपते-कांपते कहा––”किन्तु इस समय…”
“कुछ भय नहीं ब्राह्मण, तुम केवल दूर से वह स्थान मुझे दिखा दो।”
“परन्तु राजकुमार, आपको इस समय वहां नहीं जाना चाहिए। वहां तो इस समय भूत-प्रेत-बैतालों का नृत्यभोज हो रहा होगा!”
“तो मालूम होता है, तुम यह स्वर्ण निष्क नहीं लेना चाहते?”
“ओह, उसकी मुझे अत्यन्त आवश्यकता है भन्ते, परन्तु आप नहीं जानते, आचार्यपाद भूत-प्रेत बैतालों के स्वामी हैं।”
“कोई चिन्ता नहीं ब्राह्मण, तुम वह स्थान दिखा दो और यह निष्क लो।”
युवक ने निष्क ब्राह्मण की हथेली पर धर दिया। उसे भलीभांति टेंट में छिपाकर उसने कहा––”तब चलिए, परन्तु मैं दूर से वह स्थान दिखा दूंगा।”
आगे-आगे वह ब्राह्मण और पीछे-पीछे अश्वारोही उस अन्धकार में चलने लगे।
बस्ती से अलग वृक्षों के झुरमुट में एक अशुभ-सा मकान अन्धकार में भूत की भांति दीख रहा था। वृद्ध ब्राह्मण ने कांपते स्वर में कहा––”वही है भन्ते, बस। अब मैं आगे नहीं जाऊंगा। और मैं आपसे भी कहता हूं इस समय वहां मत जाइए।” ब्राह्मण की दृष्टि और वाणी में बहुत भय था, पर तरुण ने उस पर विचार नहीं किया। अश्व को बढ़ाकर वह अन्धकार में विलीन हो गया।
मठ बहुत बड़ा था। तरुण ने एक बार उसके चारों ओर चक्कर लगाया। मठ में कोई जीवित व्यक्ति है या नहीं, इसका पता नहीं लग रहा था, उसका प्रवेशद्वार भी नहीं दीख रहा था। एक बार उसने फिर उस मठ के चारों ओर परिक्रमा दी। इस बार उसे एक कोने में छोटा-सा द्वार दिखाई दिया। उसी को खूब ज़ोर से खट-खटाकर तरुण ने पुकारना प्रारम्भ किया। इस पर कुछ आशा का संचार हुआ। मकान की खिड़की में प्रकाश की झलक दीख पड़ी। किसी ने आकर खिड़की में झांककर बाहर खड़े अश्वारोही को देखकर कर्कश स्वर में पूछा––”कौन है?”
“मैं अतिथि हूं। आचार्यपाद शाम्बव्य काश्यप से मुझे काम है।”
“आए कहां से हो?”
“गान्धार से!”
“किसके पास से?”
“तक्षशिला के आचार्य बहुलाश्व के पास से।”
“क्या तुम सोमप्रभ हो?”
“जी हां!”
“तब ठीक है।”
वह सिर भीतर घुस गया। थोड़ी देर में उसी व्यक्ति ने आकर द्वार खोल दिया। उसके हाथ में दीपक था। उसी के प्रकाश में तरुण ने उस व्यक्ति का चेहरा देखा, देखकर साहसी होने पर भी वह भय से कांप गया। चेहरे पर मांस का नाम न था। सिर्फ गोल-गोल दो आंखें गहरे गढ़ों में स्थिर चमक रही थीं। चेहरे पर खिचड़ी दाढ़ी-मूंछों का अस्त-व्यस्त गुलझट था। सिर के बड़े-बड़े रूखे बाल उलझे हुए और खड़े थे। गालों की हड्डियां ऊपर को उठी हुई थीं और नाक बीच में धनुष की भांति उभरी हुई थी। वह व्यक्ति असाधारण ऊंचा था। उसका वह हाथ, जिसमें वह दीया थामे था, एक कंकाल का हाथ दीख रहा था।
उसने थोड़ी देर दीपक उठाकर तरुण को गौर से देखा, फिर उसके पतले सफेद होंठों पर मुस्कान आई। उसने यथासाध्य अपनी वाणी को कोमल बनाकर कहा––”अश्व को सामने उस गोवाट् में बांध दो, वहां एक बालक सो रहा है, उसे जगा दो—वह उसकी सब व्यवस्था कर देगा और तुम भीतर आओ।”
तरुण घोड़े से उतर पड़ा। उसने उस व्यक्ति के कहे अनुसार अश्व की व्यवस्था करके घर में प्रवेश किया। घर में प्रवेश करते ही वह सिहर उठा। एक विचित्र गंध उसमें भर रही थी। वहां का वातावरण ही अद्भुत था। भीतर एक बड़ा भारी खुला मैदान था। उसमें अन्धकार फैला हुआ था। कहीं भी जीवित व्यक्ति का चिह्न नहीं दीख रहा था। वही दीर्घकाय अस्थिकंकाल-सा पुरुष दीपक हाथ में लिए आगे-आगे चल रहा था और उसके पीछे-पीछे भय और उद्वेग से विमोहित-सा वह तरुण जा रहा था। उनके चलने का शब्द उन्हें ही चौंका रहा था। मठ के पश्चिम भाग में कुछ घर बने थे। उन्हीं की ओर वे जा रहे थे। निकट आने पर उसने उच्च स्वर से पुकारा––”सुन्दरम्!”
एक तरुण वटुक आंख मलता हुआ सामने की कुटीर से निकला। तरुण सुन्दर, बलिष्ठ और नवयुवक था। उसकी कमर में पीताम्बर और गले में स्वच्छ जनेऊ था। सिर पर बड़ी-सी चुटिया थी। युवक के हाथ में दीपक देकर दीर्घकाय व्यक्ति ने कहा––”इस आयुष्मान् की शयन-व्यवस्था यज्ञशाला में कर दो।” फिर उसने आगन्तुक की ओर घूमकर कहा––”प्रभात में और बात होगी। अभी मैं बहुत व्यस्त हूं।” इतना कह वह तेज़ी से अन्धकार में विलीन हो गया।
वटुक ने युवक से कहा––”आओ मित्र, इधर से।”
तरुण चुपचाप वटुक के पीछे-पीछे यज्ञशाला में गया। वहां एक मृगचर्म की ओर संकेत करके उसने कहा––”यह यथेष्ट होगा मित्र?”
“यथेष्ट होगा।”
वटुक जल्दी से एक ओर चला गया। थोड़ी देर में एक पात्र दूध से भरा तथा थोड़े मधुगोलक लेकर आया। उन्हें तरुण के सम्मुख रखकर कहा––”वहां पात्र में जल है, हाथ-मुंह धो लो, वस्त्र उतार डालो और यह थोड़ा आहार कर लो। बलि-मांस भी है, इच्छा हो तो लाऊं!”
“नहीं मित्र, यही यथेष्ट है। मैं बलि-मांस नहीं खाता।”
“तो मित्र, और कुछ चाहिए?”
“कुछ नहीं, धन्यवाद!”
वटुक चला गया और युवक ने अन्यमनस्क होकर वस्त्र उतारे, शस्त्रों को खूंटी पर टांग दिया। मधुगोलक खाकर दूध पिया और मृगचर्म पर बैठकर चुपचाप अन्धकार को देखने लगा। उसे अपने बाल्यकाल की विस्तृत स्मृतियां याद आने लगीं। आठ वर्ष की अवस्था में उसने यहीं से तक्षशिला को एक सार्थवाह के साथ प्रस्थान किया था। तब से अब तक अठारह वर्ष निरन्तर उसने तक्षशिला के विश्व-विश्रुत विद्यालय में विविध शास्त्रों का अध्ययन किया था। वह अतीत काल की बहुत-सी बातों को सोचने लगा। इन अठारह वर्षों में उसने केवल शस्त्राभ्यास और अध्ययन ही नहीं किया, पार्शपुर यवन देश तथा उत्तर कुरु तक यात्रा भी की। देवासुर-संग्राम में सक्रिय भाग लिया। पार्शपुर के शासनुशास से सिन्धुनद पर लोहा लिया। इसके बाद लगभग सम्पूर्ण जम्बूद्वीप की यात्रा कर डाली। अब यह राजगृह का वह पुरातन मठ न मालूम उसे कैसा कुछ अशुभ, तुच्छ और अप्रिय-सा लग रहा था। इस दीर्घकाल में आचार्य की तो आकृति ही बदल गई थी।
अकस्मात्, एक अस्पष्ट चीत्कार से वह चौंक उठा। जैसे गहरी वेदना से कोई दबे कण्ठ से चिल्ला उठा हो। भय और आशंका से वह चंचल हो उठा। उसने खूंटी से खड्ग लिया और चुपचाप दीवार से कान लगाकर सुनने लगा। उस ओर कुछ होरहा था। ऐसा उसे प्रतीत हुआ कि कहीं कुछ अनैतिक कार्य किया जा रहा है। उसने दीवार टटोलकर देखा—शीघ्र ही एक छोटा-सा द्वार उसे दीख गया। यत्न करने से वह खुल गया। परन्तु द्वार खुलने पर भी अन्धकार के सिवा और कुछ उसे नहीं प्रतीत हुआ। फिर किसी के बोलने का अस्फुट स्वर उसे कुछ और साफ सुनाई पड़ने लगा। उसने साहस करके हाथ में खड्ग लेकर उस द्वार के भीतर अन्धकार में कदम बढ़ाया। टटोलकर उसने देखा तो वह एक पतली गलियारी-सी मालूम हुई। आगे चलकर वह गलियारी कुछ घूम गई। घूमने पर प्रकाश की एक क्षीण रेखा उसे दीख पड़ी। तरुण और भी साहस करके आगे बढ़ा। सामने नीचे उतरने की सीढ़ियां थीं। तरुण ने देखा वह, वह गर्भगृह का द्वार है, शब्द और प्रकाश दोनों वहीं से आ रहे हैं। वह चुपके से सीढ़ी उतरकर गर्भगृह की ओर अग्रसर हुआ। सामने पुरानी किवाड़ों की दरार से प्रकाश आ रहा था। उसी में से झांककर जो कुछ उसने देखा, देखकर उसकी हड्डियां कांप उठीं। गर्भगृह अधिक बड़ा न था। उसमें दीपक का धीमा प्रकाश हो रहा था। आचार्य एक व्याघ्रचर्म पर स्थिर बैठे थे। उनके सम्मुख कोई राजपुरुष वीरासन के दूसरे व्याघ्रचर्म पर बैठे थे। इनकी आयु भी साठ के लगभग होगी। इनका शरीर मांसल, कद ठिगना, सिर और दाढ़ी-मूंछे मुंडी हुईं, बड़ी-बड़ी तेजपूर्ण आंखें, दृढ़ सम्पुटित होंठ। उनके पास लम्बा नग्न खड्ग रखा था। वे एक बहुत बहुमूल्य कौशेय उत्तरीय पहने थे। उनके पास ही बगल में एक अतिसुन्दरी बाला अधोमुखी बैठी थी। उसका शरीर लगभग नग्न था। उसकी सुडौल गौर भुजलता अनावृत थीं। काली लटें चांदी के समान श्वेत मस्तक पर लहरा रही थीं। पीठ पर पदतलचुम्बी चोटी लटक रही थी। उसका गौर वक्ष अनावृत था, सिर्फ बिल्वस्तान कौशेय पट्ट से बंधे थे। कमर में मणिजटित करधनी थी जिससे अधोवस्त्र कसा हुआ था। इस सुन्दरी के नेत्रों में अद्भुत मद था। कुछ देर उसकी ओर देखने से ही जैसे नशा आ जाता था। विम्बाफल जैसे ओष्ठ इतने सरस और आग्रही प्रतीत हो रहे थे कि उन्हें देखकर मनुष्य का काम अनायास ही जाग्रत् हो जाता था। इस तरुणी की आयु कोई बीस वर्ष की होगी। इस समय वह अति उदास एवं भीत हो रही थी। तरुण ने झांककर देखा, तरुणी कह रही थी—”नहीं पिता, अब नहीं, मैं सहन न कर सकूंगी।” आचार्य ने कठोर मुद्रा से उसकी ओर ज्वाला-नेत्रों से देखा—”सावधान कुण्डनी, मुझे क्रुद्ध न कर।” उन्होंने हाथ के चमड़े का एक चाबुक हिलाकर रूक्ष-हिंस्र भाव से कहा—”दंश ले!”
बाला ने एक बार असहाय दृष्टि से आचार्य की ओर, फिर उस राजपुरुष की ओर देखकर पास रखे हुए पिटक का ढकना उठाया। एक भीमकाय काला नाग फुफकार मार और फन उठाकर हाथ भर ऊंचा हो गया। राजपुरुष भय से तनिक पीछे हट गए। बाला ने अनायास ही नाग का मुंह पकड़कर कण्ठ में लपेट लिया। एक बार फिर उसने करुण दृष्टि से आचार्य की ओर देखा और फिर अपने सुन्दर लाल अधरों के निकट अपनी जीभ बाहर निकाली और चुटकी ढीली कर दी। नाग ने फूं कर के बाला की जीभ पर दंश किया और उलट गया।
आचार्य ने सन्तोष की दृष्टि से राजपुरुष की ओर देखा। बाला ने सर्प को अपने गले से खींचकर दूर फेंक दिया। वह क्रुद्ध दृष्टि से आचार्य को देखती रही। सर्प निस्तेज होकर एक कोने में पड़ा रहा। बाला के मस्तक पर स्वेदबिन्दु झलकने लगे। यह देखकर तरुण का सारा शरीर भय से शीतल हो गया।
आचार्य ने एक लम्बी लौह-शलाका से सर्प को अर्धमूर्च्छित अवस्था में उठाकर पिटक में बन्द कर दिया और मद्यपात्र आगे सरकाकर स्नेह के स्वर में कहा—”मद्य पी ले कुण्डनी।” बाला ने मद्यपात्र मुंह से लगाकर गटागट सारा मद्य पी लिया।
राजपुरुष ने अब मुंह खोला। उन्होंने कहा—”ठीक है आचार्य, मैं कल प्रातःकाल ही कुण्डनी को चम्पा भेजने की व्यवस्था करूंगा, परन्तु यदि आप जाते तो…”
“नहीं, नहीं, राजकार्य राजपुरुषों का है—मेरा नहीं।” आचार्य ने रूखे स्वर से कहा। फिर युवती की ओर लक्ष्य करके कहा—
“कुण्डनी, तुझे अंगराज दधिवाहन पर अपने प्रयोग करने होंगे, पुत्री!”
कुण्डनी विष की ज्वाला से लहरा रही थी। उसने सर्पिणी की भांति होंठों पर जीभ का पुचारा फेरते हुए, भ्रांत नेत्रों से आचार्य की ओर देखकर कहा—”मैं नहीं जाऊंगी पिता, मुझ पर दया करो।”
आचार्य ने कठोर स्वर में कहा—”मूर्ख लड़की, क्या तू राजकाज का विरोध करेगी?”
“तो आप मार डालिए पिता, मैं नहीं जाऊंगी।”
आचार्य ने फिर चाबुक उठाया। तरुण अब अपने को आपे में नहीं रख सका। खड्ग ऊंचा करके धड़धड़ाता गर्भगृह में घुस गया। उसने कहा—”आचार्यपाद, यह घोर अन्याय है, यह मैं नहीं देख सकता।”
आचार्य और राजपुरुष दोनों ही अवाक् रह गए। वे हड़बड़ाकर खड़े हो गए। राजपुरुष ने कहा—
“तू कौन है रे, छिद्रान्वेषी? तूने यदि हमारी बात सुन ली है तो तुझे अभी मरना होगा।”
उन्होंने ताली बजाई और चार सशस्त्र योद्धा गर्भगृह में आ उपस्थित हुए। राजपुरुष ने कहा—”इसे बन्दी करो।”
युवक ने खड्ग ऊंचा करके कहा—”कदापि नहीं!”
आचार्य ने कड़ी दृष्टि से युवक को ताककर उच्च स्वर से कहा—
“खड्ग रख दो, आज्ञा देता हूं।”
एक अतर्कित अनुशासन के वशीभूत होकर युवक ने खड्ग रख दिया। सैनिकों ने उसे बांध दिया।
राजपुरुष ने कहा—”इसे बाहर ले जाकर तुरन्त वध कर दो।”
आचार्य ने कहा—”नहीं, अभी बन्द करो।”
राजपुरुष ने आचार्य की बात रख ली। सैनिक तरुण को ले गए। आचार्य ने राजपुरुष के कान में कुछ कहा, जिसे सुनकर वे चौंक पड़े। उनका चेहरा पत्थर की भांति कठोर हो गया।
आचार्य ने मुस्कराकर कहा—”चिन्ता की कोई बात नहीं। मैं उसे ठीक कर लूंगा। मेरे विचार में कुण्डनी के साथ इसी का चम्पा जाना ठीक होगा।”
राजपुरुष विचार में पड़ गए। आचार्य ने कहा—”द्विविधा की कोई बात नहीं है।”
“जैसा आपका मत हो, परन्तु अभी उसे उसका तथा कुण्डनी का परिचय नहीं दिया जाना चाहिए।”
“किन्तु आर्या मातंगी से उसे भेंट करनी होगी।”
“क्यों?”
“आवश्यकता है, मैंने आर्या को वचन दिया है।”
“नहीं, नहीं, आचार्य ऐसा नहीं हो सकता।”
आचार्य ने रूखे नेत्रों से राजपुरुष को देखकर कहा—”चाहे जो भी हो, मैं निर्मम नीरस वैज्ञानिक हूं, फिर भी आर्या का कष्ट अब नहीं देख सकता। आप राजपुरुष मुझ वैज्ञानिक से भी अधिक कठोर और निर्दय हैं!”
“किन्तु आर्या जब तक रहस्य का उद्घाटन नहीं करतीं…।”
“उन पर बल-प्रयोग का आपका अधिकार नहीं है।”
“किन्तु सम्राट की आज्ञा …।”
“अब मैं उनकी प्रतीक्षा नहीं कर सकता, मैं सम्राट् से समझ लूंगा, आप जाइए। कुण्डनी आपके पास पहुंच जाएगी।”
“अरे वह…खैर, वह तरुण भी?”
आचार्य हंस दिए। उन्होंने कहा—”उसका नाम सोमप्रभ है। वह भी सेवा में पहुंच जाएगा।”
राजपुरुष का सिर नीचा हो गया। वे किसी गहन चिन्ता के मन में उदय होने के कारण व्यथित दृष्टि से आचार्य की ओर देखने लगे। आचार्य ने करुण स्वर में कहा— “जाइए आप, विश्राम कीजिए, दुःस्वप्नों की स्मृति से कोई लाभ नहीं है।”
राजपुरुष ने एक दीर्घ श्वास ली और अन्धकार में विलीन हो गए। शस्त्रधारी शरीररक्षक उसी अन्धकार में उन्हें घेरकर चलने लगे।
13. बन्दी की मुक्ति : वैशाली की नगरवधू
बहुत देर तक राजगृह का वह अद्भुत वैज्ञानिक उस एकान्त भयानक कुञ्ज में चुपचाप अकेला टहलता रहा। वह होंठों-ही-होंठों में गुनगुना रहा था। कभी-कभी उसके हाथों की मुट्ठियां बंध जातीं और वह बहुत उत्तेजित हो जाता। सम्भवतः वह अतीत की अति कटु और वेदनापूर्ण स्मृतियों को विस्मृत करने की चेष्टा कर रहा था। थोड़ी देर में वह शान्त होकर एक व्याघ्र-चर्म पर बैठ गया। बहुत देर तक वह ध्यानस्थ वहीं बैठा रहा। फिर वह उठा, कक्ष का द्वार सावधानी से बन्द करके वह उसी अन्धकारपूर्ण गर्भगृह में टेढ़ी तिरछी सुरंगों में चलता रहा, एक जलती हुई मशाल उसके हाथ में थी। अन्त में वह एक गर्भगृह के द्वार पर आकर खड़ा हो गया। प्रहरियों ने उसका प्रणिपातपूर्वक अभिवादन किया। प्रहरी से उसने कहा—
“क्या बन्दी सो रहा है?”
“नहीं जाग रहा है।”
“तब ठीक है, द्वार खोल दो!”
प्रहरी ने द्वार खोल दिया। वैज्ञानिक ने भीतर जाकर देखा, युवक अशान्त मुद्रा में एक काष्ठफलक पर बैठा है। आचार्य ने स्निग्ध स्वर में कहा—”तुम्हारा ऐसा अविनय आयुष्मान्?”
“किन्तु मैं…”
“चुप, एक शब्द भी नहीं—मेरे पीछे आओ!” आचार्य ने द्वार की ओर मुंह किया। पीछे-पीछे युवक था। वे उन्हीं टेढ़ी-तिरछी सुरंगों में चलते गए। अन्त में एक कक्ष के द्वार पर आकर वे रुके। वह एक प्रशस्त कक्ष था। एक दीपक वहां जल रहा था। बहुत-से मृतक पशु-पक्षियों के शरीर वहां लटक रहे थे। अनेक जड़ी-बूटियां थैलियों में भरी हुई थीं। बहुत सी पिटक, भाण्ड और कांच की शीशियों में रसायन द्रव्य भरे थे। यह सब देखकर युवक भय और घबराहट से भौचक रह गया। एक शिलापीठ पर बैठकर आचार्य ने तरुण को भी निकट बैठने का संकेत किया। वे कुछ देर उसके नेत्रों की ओर देखकर बोले—”तुम्हें अपने बाल्यकाल की कुछ स्मृति है?”
“बहुत कम आचार्यपाद! “
“तुम आठ वर्ष की अवस्था तक मेरे पास यहीं रहे हो। स्मरण है?”
“कुछ-कुछ।”
“अब, जब तुम तक्षशिला से चले थे—तब वयस्य बहुलाश्व ने तुमसे मेरे विषय में कुछ कहा था?”
“कहा था आचार्य। आचार्य बहुलाश्व ने कहा था—’सोम, तुम्हें मैंने शस्त्र और शास्त्रों का पूर्ण अध्ययन करा दिया, तुम्हारी बुद्धि प्रखर कर दी। अठारह वर्षों में तुम एक अजेय योद्धा, रणपंडित और सर्वशास्त्र-निष्णात पंडित हो गए। अब इस शौर्य और प्रखर बुद्धि का उपयोग तुम्हें राजगृह के समर्थ सिद्ध योगेश्वर वयस्य शाम्बव्य काश्यप बताएंगे।”
“बस, इतना ही कहा था?”
“और भी कहा था। कहा था, ‘तुम सीधे उन्हीं के पास जाना, वे जो कुछ कहें वही करना। तुम पूर्वीय भारत के एक महान् साम्राज्य के महारथी सूत्रधार होगे। तुम्हारा दायित्व बहुत भारी होगा।”
“ठीक है, परन्तु अभी तुमने अविनय ही नहीं किया, गुरुतर अपराध भी किया है, जिसका दण्ड मृत्यु है; परन्तु इस बार तो मैंने तुम्हें बचा लिया, पर मैं सोच रहा हूं कि कहीं वयस्य बहुलाश्व ने तुम्हारे बुद्धिवाद के सम्बन्ध में धोखा तो नहीं खाया। गुरुजन के क्रिया कलाप पर इस प्रकार उत्तेजित हो जाना बड़ी ही मूर्खता की बात है।”
तरुण लज्जित हो गया। उसने कहा—”आचार्यपाद, मुझे क्षमा कीजिए, मैंने समझा, एक निरीह अबला पर अत्याचार हो रहा है।”
आचार्य ने क्रुद्ध होकर कहा—”वत्स, अत्याचार तुम्हारे—जैसे अविवेकी तरुण करते हैं, न कि हमारे जैसे विरक्त, जिन्होंने विश्व में अपने लिए घृणा, भय, विरक्ति और अशौच ही प्राप्त किया है। तुम्हें अभी यह जानना शेष है कि राजतन्त्र शस्त्रविद्या और बुद्धि-बल पर ही नहीं चलता। यदि ऐसा होता तो योद्धा लोग ही सम्राट् बन जाते। वत्स, राजतन्त्र के बड़े जटिल ताने-बाने हैं, उसके अनेक रूप बड़े कुत्सित, बड़े वीभत्स और अप्रिय हैं। राजवर्गी पुरुष को वे सब करने पड़ते हैं। जो सत्य है, शिव है वही सुन्दर नहीं है आयुष्मान्, नहीं तो मानव-समाज सदैव लोहू की नदी बहाना ही अपना परम पुरुषार्थ न समझता।”
यह कहते-कहते आचार्य उत्तेजना के मारे कांपने लगे। उनका पीला भयानक अस्थिकंकाल-जैसा शरीर एक प्रेत के समान दीखने लगा और उनकी वाणी प्रेतलोक से प्रेरित-सी होने लगी।
युवक भय और आचार्य के विचित्र प्रभाव से ऐसा अभिभूत हुआ कि कुछ बोल ही न सका। आचार्य एकाएक उठ खड़े हुए। उन्होंने कहा—”जाओ, अब तुम विश्राम करो, कल प्रातः तुम्हें आर्य वर्षकार की सेवा में उपस्थित होना होगा। तुमने अब तक जो सीखा है उसका यथावत् परिचय भी आर्य वर्षकार को देना होगा।”
आचार्य ने अपनी सूखी कांपती हुई उंगली उठाई। तीखी चितवन से देखा और युवक को जाने का संकेत किया। तरुण ने उठकर आचार्य को नमस्कार किया और कहा—”एक निवेदन और है। मुझे अभी तक मेरे माता-पिता का नाम नहीं मालूम है, मेरा क्या कुलगोत्र है यह भी मैं नहीं जानता हूं। क्या आचार्यपाद मुझे मेरे माता-पिता और कुलगोत्र से परिचित कर सकेंगे?”
“वयस्य बहुलाश्व ने क्या कहा था?”
“उन्होंने कहा था—’तुम्हारा आत्मपरिचय संसार में केवल तीन व्यक्ति जानते हैं, उनमें एक आचार्य शाम्बव्य काश्यप हैं।’ शेष दो का नाम नहीं बताया। इसी से मैंने आचार्यपाद से निवेदन किया।”
“वह समय पर जानोगे।”
और वे तेज़ चाल से एक ओर जाकर अन्धकार में विलीन हो गए। उस भयानक स्थान में तरुण अकेला ठहरने का क्षण-भर भी साहस न कर सका। वह शीघ्रता से यज्ञशाला में चला आया। इस अद्भुत वैज्ञानिक का विचित्र प्रभाव और उस आनन्द-सुन्दरी बाला का वह अप्रतिम रूप और वह सर्पदंश उसके मस्तक में तूफान उठाने लगा।
14. राजगृह का वैज्ञानिक : वैशाली की नगरवधू
“रात में सो नहीं पाए आयुष्मान्, तुम्हारी आंखें भारी हो रही हैं?”
“आचार्य, नहीं ही सो सका।”
“ठीक है, अकस्मात् ही तुम्हें अतर्कित तथ्य देखना पड़ा। परन्तु तुमने मेरी प्रयोगशाला देखी?”
“अभी मित्र सुन्दरम् ने जो यत्किंचित् दिखाई, वही।”
“अधिक तो समय-समय पर जानोगे सोम, ये सब विविध जन्तुओं के पित्त, रक्त और आंतों के रस, विविध द्रव्य-गुण-विपाक वाली वनस्पति, अमोघ सामर्थ्यवान् रस रसायन, जो इन पिटकों और भाण्डों एवं कांचकूप्यकों में देख रहे हो, वास्तव में इनमें जीवन और मृत्यु बन्द है।”
“जीवन और मृत्यु? इसका क्या अभिप्राय है आचार्य?”
“अभिप्राय है राजतन्त्र! तुमने योद्धा का कार्य किया है, तुम जानते हो, युद्ध करना और युद्ध में विजय पाना, दोनों भिन्न-भिन्न कार्य हैं और दोनों का मूल्य बहुत अधिक है। अपरिमित धन-जन नाश करके ही युद्ध के लिए जाते हैं और युद्ध जय किए जाते हैं।”
“यह तो सत्य है आचार्य।”
“परन्तु इन कांचकूप्यकों में बन्द रसायन उस कठिनाई को कम कर देते हैं। बहुत धन-जन का क्षय बच जाता है तथा जय निश्चित मिल जाती है।”
“किस प्रकार आचार्य?”
“इनमें बहुतों में ऐसे हलाहल विष हैं जिन्हें कूपों, तालाबों और जलाशयों में डाल देने से, उसके जल को पीने ही से शत्रु-पक्ष में महामारी फैल जाती है। बहुत-से ऐसे रसायन हैं कि शत्रु सैन्य विविध रोगों से ग्रसित हो जाता है। वायु विपरीत हो जाती है, ऋतु विपर्यय हो जाती है। इनमें कुछ ऐसे द्रव्य हैं कि यदि उन्हें हवा के रुख पर उड़ा दिया जाए तो शत्रु सैन्य के सम्पूर्ण अश्व, गज अन्धे हो जाएंगे। सैनिक मूक, बधिर और जड़ हो जाएंगे?”
“परन्तु यह तो अति भयानक है, आचार्य?”
“फिर भी युद्ध से अधिक नहीं! युद्ध तो जीवन की अपरिहार्य घटना है आयुष्मान! युद्ध ही मानव-सभ्यता का इतिहास है। युद्ध ही मानवता का विकास है, तुमने यही तो अपने जीवन में सीखा है!”
“मैंने और भी कुछ सीखा है!”
“और क्या सीखा है, आयुष्मान्?”
“मैंने सीखा है, ये युद्ध मानवता के प्रतीक नहीं, पशुता के प्रतीक हैं। मनुष्य में ज्यों ज्यों पशुत्व कम होकर मानवता का विकास होगा, वह युद्ध नहीं करेगा। जब वह पूर्ण मानव होगा तो उसमें से युद्ध-भावना नष्ट हो जाएगी। वह रोषहीन, संतृप्त मानव होगा।”
“अरे, यह तूने उस शाक्य श्रमण गौतम से ही सीखा है न आयुष्मान्, जो आर्य-धर्म का प्रबल विरोधी है। वह वेद-प्रतिपादित श्रेणी-विभाग को नहीं मानता है। वह आर्य-अनार्य को समान पद देता है। वह ब्राह्मणों के उत्कर्ष का विरोधी है। यज्ञों को हेय बताता है और स्त्रियों को निर्वाण का अधिकार देता है।”
“परन्तु आचार्य, मनुष्य तो जन्मतः विभागरहित है। आचरण और बुद्धि के विकास से ही तो सौष्ठव होता है, रहे वे यज्ञ जो मूक पशुओं के रुधिर में डूबे हुए हैं, वे झूठे देवताओं के नाम पर भारी ढोंग हैं।”
“शान्तं पापं, यह ब्राह्मण-विद्रोह है सौम्य, सम्राट् भी यही कहते हैं। वे भी उसी गौतम के शिष्य हो गए हैं। शारिपुत्र मौद्गलायन, अश्वजित् आचार्य महाकाश्यप और उनके भाई जो प्रख्यात विद्वान् कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे, सब उसके शिष्य बन गए हैं। मगध के सेट्ठी शतकोटिपति यश भी अपने चारों मित्रों के सहित उसके शिष्य बन गए हैं और तुम भी आयुष्मान्…”
“किन्तु आचार्य, यह छल-कपट…”
“यह कौशल है तात, अपनी हानि न कर शत्रु का सर्वनाश करना। सम्मुख युद्ध करके समान खतरा उठाना पशुबुद्धि है और कौशल से शत्रु को नष्ट कर देना तथा स्वयं सुरक्षित रहना मनुष्यबुद्धि है। यही कूटनीति है!”
“तो आचार्य, आपकी इन कांचकूप्यकों में सब कौशल-ही-कौशल बन्द हैं?”
“अधिक वही हैं, कहना चाहिए। इन कांचकूप्यकों के रसायन को छूकर, खाकर, देखकर मनुष्य और जनपद, अन्धा, बहरा, उन्मत्त, नपुंसक, मूर्च्छित तथा मृतक हो जाता है, वत्स!”
“ओह, कितना दुस्सह है आचार्य!”
“पर उससे अधिक नहीं, जब तुम स्वस्थ पुरुष के कलेजे में दया-भावहीन होकर खड्ग घुसेड़ देते हो; तुम्हारे बाण निरीह-व्यक्तियों की पसलियों में बलात् घुस जाते हैं; जब तुम जीवने, आशापूर्ण हृदय रखनेवाले तरुण का अनायास ही शिरच्छेद कर डालते हो। रणोन्माद में यही करना पड़ता है तुम्हें।”
“पर वह युद्ध है आचार्य!”
“यह भी वही है वत्स, उसमें शौर्य चाहिए, इसमें बुद्धि–कौशल। राजतन्त्र की धवल अट्टालिकाएं और राजमहलों के मोहक वैभव ऐसे ही कदर्य कार्यों से प्राप्त होते हैं। तुम देखोगे वत्स, कि जिस विजय का सेहरा तुम्हारी सेना के सिर बंधता है, वह इन्हीं पिटकों और कांचकूप्यकों से प्राप्त होती है। परन्तु अधिक वितण्डा से क्या, तुम्हें अभी आर्य वर्षकार के निकट जाना है। स्मरण रखो, तुम भरतखण्ड के एक महान् व्यक्तित्व के सामने जा रहे हो। आज पृथ्वी पर दो ही राजमंत्री पुरुष जीवित हैं; एक कौशाम्बी में यौगन्धरायण और दूसरे राजगृह में वर्षकार।”
“यौगन्धरायण को देख चुका हूं। आचार्य, कौशाम्बीपति उदयन के साथ मैं देवासुर-संग्राम में सम्मिलित हुआ हूं। तभी आर्य यौगन्धरायण का कौशल देखा था।”
“तो अब आर्य वर्षकार को देखो आयुष्मान्! परन्तु एक बात याद रखना, मगध साम्राज्य के प्रति, एकान्त एकनिष्ठ रहना और दो व्यक्तियों के प्रति अविनय न करना—एक सम्राट् के प्रति, दूसरे वर्षकार के प्रति।”
“और आचार्यपाद?”
“मैं तुम्हें अभय देता हूं, मेरे लिए तुम वही आठ वर्ष के बालक हो।”
“आचार्यपाद का यह आदेश याद रखूंगा, अनुग्रह भी।”
“तो तुम अभी कुण्डनी को लेकर वयस्य वर्षकार के पास जाओ और उनके आदेश का यत्नपूर्वक पालन करो।”
“कुण्डनी कौन।”
“कल रात जिसे देखा था।”
“वह कौन?”
“तुम्हारी भगिनी।”
“इस अज्ञातकुलशील भाग्यहीन की कोई भगिनी भी है?”
“कहा तो, है। परन्तु इससे अधिक जानने की चेष्टा न करो। गुरुजन के आदेशों पर कौतूहल ठीक नहीं, एक वचन दो सोम।”
“आचार्य की क्या आज्ञा है?”
“यदि वयस्य वर्षकार तुम्हें किसी अभियान पर कुण्डनी के साथ भेजें तो…”
“…अभियान पर कुण्डनी के साथ?”
“छी, छी, मैंने कहा था—गुरुजन के आदेश पर कौतूहल नहीं प्रकट करना चाहिए।”
“भूल हुई आचार्य, इस बार क्षमा करें!”
“मैं कह रहा था, यदि कुण्डनी के साथ तुम्हें यात्रा करनी पड़े तो प्राण देकर कुण्डनी की रक्षा करना।”
“ऐसा ही होगा आचार्य, किन्तु इस समय राजगृह पर मालवराज चण्डमहासेन के अभियान का भय है। मैं समझता था, यहां मेरी सेवाओं की आवश्यकता होगी।”
“यह मगध महामात्य के विचार का विषय है भद्र।” आचार्य ने उपेक्षा से कहा। फिर आचार्य ने उच्च स्वर से कुण्डनी को पुकारा। कुछ ही क्षण में वही रातवाली बाला आ खड़ी हुई। इस समय वह एक लम्बे वस्त्र से अपने को आवेष्टित किए हुए थी। उसका चम्पा की कली के समान पीतप्रभ मुख, उस पर वही विलासपूर्ण मदभरी आंखें और लालसा से लबालब होंठ, कुंचित भृकुटि-विलास, सब कुछ वही रातवाला था। देखकर युवक ने आंखें नीची कर लीं।
आचार्य ने कहा—”तो तुम बिलकुल तैयार हो? यह तुम्हारा भाई और रक्षक सोम है, इस पर विश्वास करना पुत्री! और यह लो, इसे अत्यन्त सावधानी से प्रयोग करना।” इतना कहकर एक हाथीदांत के मूंठ की छोटी-सी किन्तु अति सुन्दर कटार उसे पकड़ा दी। फिर उन्होंने दोनों हाथ उठाकर कहा—”शुभास्ते पन्थान: स्युः!” वे कुछ देर चुप रहे।
मालूम होता है, कहीं से आर्द्रभाव उनके नेत्रों में आ गया। उसे क्षण-भर ही में रोककर कहा—
“सौम्य, सोम, तुम्हें एक और आवश्यक काम करना होगा, महामात्य से आदेश लेकर जब राजगृह से प्रस्थान करने लगो, तब प्रस्थान से पूर्व तुम एक बार आर्या मातंगी से साक्षात् करना।”
“आर्या मातंगी कौन?”
आचार्य ने क्रुद्ध नेत्रों से सोम की ओर ताककर कहा—”फिर कौतूहल? क्या तुमने मेरा आदेश नहीं सुना?”
सोम ने नतशिर होकर कहा—”क्षमा आचार्य, मेरी भूल हुई!”
“तुम्हारे अश्व बाहर तैयार हैं।” आचार्य ने रुखाई से कहा—”अब आओ तुम।”
“कुण्डनी ने कटार को बेणी में छिपाकर भूमि में गिरकर आचार्य को प्रणिपात किया। फिर दृढ़ स्वर में कहा—”चलो सोम!”
सोम ने पाषाण-कंकाल के समान खड़े आचार्य का अभिवादन किया और मन्त्रप्रेरित-सा कुण्डनी के पीछे चल दिया।
15. मगध महामात्य आर्य वर्षकार : वैशाली की नगरवधू
मगध महामात्य के सौध, सौष्ठव और वैभव को देखकर सोम हतबुद्धि हो गया। उसने कुभा, कपिशा, काम्बोज, पार्शुक, यवन, पांचाल, अवन्ती और कौशाम्बी के राजवैभव देखे थे। कोसल की राजनगरी श्रावस्ती और साकेत भी देखी थीं, पर इस समय जब उसने कुण्डनी के साथ राजगृह के अन्तरायण के अभूतपूर्व वैभव को देखते हुए महामात्य के सौध के सम्मुख आकर वहां का विराट् रूप देखा तो वह समझ ही न सका कि वह जाग्रत् है या स्वप्न देख रहा है।
प्रतीक्षा-गृह में बहुत-से राजवर्गी और अर्थी नागरिक बैठे थे। दण्डधर और प्रतिहार दौड़-धूप कर रहे थे। राजकर्मचारी अपने-अपने कार्य में रत थे। सोम के वहां पहुंचते ही एक दण्डधर ने उसके निकट आकर पूछा—”भन्ते, यदि आप आचार्य शाम्बव्य काश्यप के यहां से आ रहे हैं तो अमात्य-चरण आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।”
“निस्संदेह मित्र, मैं वहीं से आया हूं, मेरा नाम सोमप्रभ है।”
“तो भन्ते, इधर से आइए!”
दण्डधर उसे भीतर ले गया। अनेक अलिन्दों और प्रकोष्ठों को पार कर जब वह अमात्य के कक्ष में पहुंचा तो देखा, अमात्य रजत-पीठ पर झुके हुए कुछ लिख रहे हैं। सोम को एक स्थान पर खड़ा कर दण्डधर चला गया, थोड़ी देर में लेख समाप्त कर अमात्य ने ज्यों ही सिर उठाया, उसे देखते ही सोमप्रभ भयभीत होकर दो कदम पीछे हट गया। उसने देखा—महामात्य और कोई नहीं, रात में आचार्य के गर्भगृह में जिन राजपुरुष को देखा था, वही हैं।
अमात्य भी सोम को देखकर एकदम विचलित हो उठे। वे हठात् आसन छोड़कर उठ खड़े हुए, परन्तु तत्क्षण ही वे संयत होकर आसन पर आ बैठे।
सोम ने आत्मसंवरण करके खड्ग कोश से निकालकर उष्णीष से लगा अमात्य को सैनिक पद्धति से अभिवादन किया। अमात्य पीठ पर निश्चल बैठे और कठोर दृष्टि से उसकी ओर कुछ देर देखते रहे। फिर भृकुटी में बल डालकर बोले—
“अच्छा, तुम्हीं वह उद्धत युवक हो, जिसे छिद्रान्वेषण की गन्दी आदत है?”
“आर्य, मैं अनजान में अविनय और गुरुतर अपराध कर बैठा था, किन्तु मेरा अभिप्राय बुरा न था।”
“तुमने तक्षशिला में शस्त्र, शास्त्र और राजनीति की शिक्षा पाई है न?”
“आर्य का अनुमान सत्य है।”
“तब तो तुम्हारे इस अपराध का गौरव बहुत बढ़ जाता है।”
“किन्तु आचार्य ने मेरी मनःशुद्धि को जानकर मेरा अपराध क्षमा कर दिया है, अब मैं आर्य से भी क्षमा–प्रार्थना करता हूं।”
अमात्य बड़ी देर तक होंठ चबाते और दोनों हाथों की उंगलियां ऐंठते रहे, फिर एक मर्मभेदिनी दृष्टि युवक पर डालकर कहा—
“हुआ, परन्तु क्या तुम अपने दायित्व को समझने में समर्थ हो?”
“मैं आर्य का अनुगत हूं।”
“क्या कहा तुमने?”
“मैं सोमप्रभ, मगध महामात्य का अनुगत सेवक हूं।”
“और मगध साम्राज्य का भी?”
“अवश्य आर्य, मैं सम्राट् के प्रति भी अपना एकनिष्ठ सेवा-भाव निवेदन करता हूं।”
अमात्य ने घृणा से होंठ सिकोड़कर कहा—”यह तो मैंने नहीं पूछा, परन्तु जब तुमने निवेदन किया है तो पूछता हूं—यदि सम्राट् और साम्राज्य में मतभेद हो तो तुम किसके अनुगत होगे?”
“साम्राज्य का, आर्य!”
अमात्य ने मुस्कराकर कहा—”और यदि अमात्य और साम्राज्य में मतभेद हुआ तब?”
क्षण-भर सोमप्रभ विचलित हुआ, फिर उसने दृढ़ स्वर में, किन्तु विनम्र भाव से कहा—
“साम्राज्य का, आर्य!”
अमात्य की भृकुटी में बल पड़ गए। उन्होंने रूखे स्वर में कहा—
“किन्तु युवक, तुम अज्ञात-कुलशील हो।”
“तो मगध महामात्य मेरी सेवाओं को अमान्य कर सकते हैं और अनुमति दे सकते हैं कि मैं आचार्य बहुलाश्व और आचार्यपाद काश्यप से की गई प्रतिज्ञाओं से मुक्त हो जाऊं।”
“अपने आचार्यों से तुमने क्या प्रतिज्ञाएं की हैं आयुष्मान्?”
“मगध के प्रति एकनिष्ठ रहने की, आर्य!”
“क्यों?”
“क्योंकि मैं मागध हूं। तक्षशिला से चलते समय बहुलाश्व आचार्यपाद ने कहा था कि तुम मगध साम्राज्य के प्रति प्राण देकर भी एकनिष्ठ रहना और आचार्यपाद काश्यप ने कहा था—”महामात्य के आदेश का पालन प्रत्येक मूल्य पर करना।”
“आचार्य ने ऐसा कहा था?” अमात्य ने मुस्कराकर कहा। फिर कुछ ठहरकर धीमे स्वर से बोले—
“यह यथेष्ट है आयुष्मान् कि तुम मागध हो। अच्छा, तो तुम याद रखो—मगध साम्राज्य और मगध अमात्य के तुम एक सेवक हो।”
“निश्चय आर्य!”
“ठीक है, कुण्डनी से तुम परिचित हुए?”
“वह मेरी भगिनी है आर्य!”
“और वयस्य काश्यप ने तुम्हें उसका रक्षक नियत किया है?”
“जी हां आर्य!”
“मैं तुम्हें अभी एक गुरुतर भार देता हूं। तुम्हें इसी क्षण एक जोखिम-भरी और अतिगोपनीय यात्रा करनी होगी।”
“मैं प्रस्तुत हूं!”
“तो तुम इसी क्षण कुण्डनी को लेकर चम्पा को प्रस्थान करो। तुम्हारे साथ केवल पांच योद्धा रहेंगे। वे मैंने चुन दिए हैं। सभी जीवट के आदमी हैं, वे बाहर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। किन्तु तुम्हारी यात्रा कोई जान न पाएगा, तथा तुम्हें कुण्डनी की रक्षा भी करनी होगी। उससे भी अधिक और एक वस्तु की—
“वह क्या आर्य?”
“यह”, वर्षकार ने एक पत्र सोमप्रभ को देकर कहा—”इसे जल्द से जल्द सेनापति चण्डभद्रिक को पहुंचाना होगा। पत्र निरापद उनके हाथ में पहुंचना अत्यन्त आवश्यक है।”
“आर्य निश्चिन्त रहें!”
“परन्तु यह सहज नहीं है आयुष्मान्, राह में दस्युओं और असुरों के जनपद हैं। फिर तुम्हें मैं अधिक सैनिक भी नहीं ले जाने दे सकता।”
“वचन देता हूं, पत्र और कुण्डनी ठीक समय पर सेनापति के पास पहुंच जाएंगे।”
“कुण्डनी नहीं, केवल पत्र। कुण्डनी सेनापति के पास नहीं जाएगी। सेनापति को उसकी सूचना भी नहीं होनी चाहिए।”
“ऐसा ही होगा आर्य, किन्तु कुण्डनी को किसके सुपुर्द करना होगा?”
“यह तुम्हें चम्पा पहुंचने पर मालूम हो जाएगा।”
“जो आज्ञा आर्य!”
अमात्य ने दण्डधर को कुण्डनी को भेज देने का संकेत किया। कुण्डनी ने अमात्य के निकट आकर उनके चरणों में प्रणाम किया। अमात्य ने उसके मस्तक पर हाथ धरकर कहा—
“कुण्डनी!”
कुण्डनी ने विह्वल नेत्रों से अमात्य की ओर देखा।
अमात्य ने कहा—”सम्राट् के लिए!”
कुण्डनी उसी भांति स्थिर रही—अमात्य ने फिर कहा—”साम्राज्य के लिए!”
कुण्डनी फिर भी स्तब्ध रही। अमात्य ने कहा—”मागध जनपद के लिए!”
कुण्डनी अब भी अचल रही। अमात्य ने कहा—”हाथ दो कुण्डनी!”
कुण्डनी ने अपना दक्षिण हाथ अमात्य के हाथ में दे दिया।
अमात्य ने कहा—”कांप क्यों रही हो कुण्डनी?”
कुण्डनी बोली नहीं। अमात्य ने उसके मस्तक पर हाथ धरकर कहा—”सोम की रक्षा करना, सोम तुम्हारी रक्षा करेगा, जाओ!”
कुण्डनी ने एक शब्द भी बिना कहे भूमि में गिरकर प्रणाम किया।
अमात्य ने एक बहुमूल्य रत्नजटित खड्ग तरुण को देकर कहा—”सोम, इसे धारण करो। आज से तुम मगध महामात्य की अंगरक्षिणी सेना के अधिनायक हुए।”
सोम ने झुककर खड्ग दोनों हाथों में लेकर अमात्य का अभिवादन किया और दोनों व्यक्ति पीठ फेरकर चल दिए।
अमात्य के मुख पर एक स्याही की रेखा फैल गई। उन्हें प्राचीन स्मृतियां व्यथित करने लगीं और वे अधीर भाव से कक्ष में टहलने लगे।
बाहर आकर सोम ने कहा—”कुण्डनी, अभी मुझे एक मुहूर्त—भर राजगृह में और काम है।”
“आर्या मातंगी के दर्शन न?”
“हां, क्या तुम जानती हो?”
“जानती हूं।”
“तो तुम कह सकती हो वे कौन हैं?”
“क्या तुम भूल गए सोम, राजनीति में कौतूहलाक्रान्त नहीं होना चाहिए?”
“ओह, मैं बारम्बार भूल करता हूं। पर क्या तुम भी साथ चलोगी?”
“नहीं, वहां प्रत्येक व्यक्ति का जाना निषिद्ध है।”
“तब मैं कैसे जाऊंगा?”
“पिता ने कुछ व्यवस्था कर दी होगी।”
“तब तुम सैनिकों को लेकर दक्षिण तोरण पर मेरी प्रतीक्षा करो और वहीं मैं आर्या मातंगी के दर्शन करके आता हूं।”
दोनों ने दो दिशाओं में अपने अश्व फेरे।
सोम आर्या मातंगी के मठ की ओर तथा कुण्डनी सैनिकों के साथ नगर के दक्षिण तोरण की ओर चल दिए।
16. आर्या मातंगी : वैशाली की नगरवधू
नगर के बाहर एक बहुत पुराना सूना मठ था। यह मठ गोविन्द स्वामी के मठ के नाम से प्रसिद्ध था। गोविन्द स्वामी अब नहीं हैं, केवल उनकी गद्दी है। राजगृह के आबालवृद्ध उस गद्दी की आज भी पूजा करते हैं। गोविन्द स्वामी वेदपाठी ब्राह्मण थे और उनके तप और दिव्य ज्ञान की बहुत गाथाएं राजगृह में प्रसिद्ध हैं। यह मठ बहुत विस्तार में था। कहते हैं कि जब राजगृह विद्यापीठ की स्थापना नहीं हुई थी तब इसी मठ में रहकर देश-देश के वटुक षडंग वेद का अध्ययन करते थे। यह भी कहा जाता है कि वर्तमान सम्राट् बिम्बसार के पिता को इन्हीं गोविन्द स्वामी ने अश्वमेध यज्ञ कराकर सम्राट् की उपाधि दी थी। यह भी कहा जाता है कि राजगृह का शिशुनाग-वंश असुरों का है। उन्हें आर्य धर्म में गोविन्द स्वामी ही ने प्रतिष्ठित किया और सर्वप्रथम ‘सम्राटोऽयमिति सम्राटोऽयमिति’ घोषित करके शिशुनागवंशी राजा को देवपद दिया। तभी से मगध के सम्राट् को ‘देव’ कहकर पुकारते हैं। सम्राट् के पिता गोविन्द स्वामी की बहुत पूजा, अर्चना तथा सम्मान करते थे। वे सदैव पांव–प्यादे उनसे मिलने जाते थे। उन्हीं के जीवन–काल में गोविन्द स्वामी की मृत्यु हुई। उस समय उन्होंने एक अबोध आठ वर्ष की बालिका अपने पीछे छोड़ी। उसे सम्राट् के हाथ में सौंपकर कहा था-‘सम्राट् इसकी रक्षा का भार लें’ और सम्राट् ने कहा था—’मेरे पुत्र बिम्बसार के बाद यही कन्या मेरी पुत्री है। राजपुत्री की भांति ही उसका लालन-पालन होगा।’ परन्तु गोविन्द स्वामी ने कहा—’नहीं, नहीं सम्राट्! मातंगी का लालन-पालन ब्राह्मण-कन्या की ही भांति होना चाहिए और उसकी शिक्षा भी उसी प्रकार होनी चाहिए।’ गोविन्द स्वामी की इस पुत्री के अतिरिक्त उनका एक शिष्य ब्राह्मण कुमार था। वह किसका पुत्र था, यह कोई नहीं जानता। सभी जानते थे कि गोविन्द स्वामी के किसी अतिप्रिय स्वजन का वह बालक है। गोविन्द स्वामी के पास वह बहुत छोटी अवस्था से था। उसका नाम वर्षकार था। वर्षकार और मातंगी साथ-ही-साथ बाल्यकाल में रहे। गोविन्द स्वामी ने बालक वर्षकार को भी, जो उस समय 11 वर्ष का था, सम्राट् को सौंपकर कहा—”यह मेरे एक अतिप्रिय आत्मीय का पुत्र है, इसके लक्षण राजपुरुषों के हैं और एक दिन यह बालक तुम्हारे साम्राज्य का कर्णधार होगा। इसकी शिक्षा-दीक्षा, देखभाल सावधानी से करना और इसे मगध का महामात्य बनाना।” परन्तु गोविन्द स्वामी ने अत्यन्त सतर्कता से सम्राट् से वचन ले लिया था कि वर्षकार और मातंगी दोनों ही अन्ततः इस मठ में उस समय तक रहें, जब तक दोनों का विवाह उपयुक्त समय पर उपयुक्त पात्रों से न हो जाए। सम्राट् के सन्देह करने पर गोविन्द स्वामी ने यह भी कह दिया था कि मातंगी के साथ कदापि वर्षकार का विवाह नहीं हो सकता। परन्तु मातंगी का विवाह उसके वयस्क होने पर उसकी स्वीकृति से ही किया जाना चाहिए।
गोविन्द स्वामी मर गए और सम्राट् ने भृत्यों और उपाध्यायों की व्यवस्था करके वर्षकार और मातंगी की शिक्षा का प्रबन्ध कर दिया। इस बालक वर्षकार के सम्बन्ध में केवल एक पागल अपवाद करता सुना गया था। वह कभी राजगृह में दिखाई दे जाता और पुकार-पुकारकर कहता—”देखो-देखो, इस पाखण्डी गोविन्द स्वामी को—इस बालक का मुंह इससे कितना मिलता है!” इसके बाद वह उन्मुक्त हास करता कहीं को भाग जाता था। गोविन्द स्वामी इस पागल से बहुत डरते थे। वह राजगृह में आया है, यह सुनकर वे बहुधा विचलित हो जाते थे। बहुत लोग सन्देह करने लगे थे कि हो न हो इस पागल से इस बालक का कुछ सम्बन्ध अवश्य है। एक बार तो यह अपवाद इस प्रकार स्पष्ट हो गया कि इसी पागल की परिणीता पत्नी से गोविन्द स्वामी ने जार करके यह पुत्र उत्पन्न किया है। इस पर क्रुद्ध होकर उसने पत्नी को मार डाला है और स्वयं पागल हो गया है। जो हो, सत्य बात कोई नहीं जानता था। मरने के समय गोविन्द स्वामी ने मातंगी से वर्षकार के विवाह का निषेध किया—इससे लोगों में शंका और घर कर गई। परन्तु गोविन्द स्वामी ने सम्राट से अति गोपनीय रीति से यह बात कही थी, इसी से वह बालक-बालिका दोनों ने सुनी भी नहीं। वही आठ वर्ष की बालिका मातंगी और ग्यारह वर्ष का बालक वर्षकार बाल-लीला समाप्त कर किशोर हुए और यौवन के प्रांगण में आ पहुंचे। युवक वर्षकार की तीक्ष्ण बुद्धि, प्रबल धारणा और बलिष्ठ देह, शस्त्र और शास्त्र में उसकी एकनिष्ठ सत्ता देख सभी उसका आदर करते थे। सम्राट् उसे पुत्रवत् समझते और राजवर्गी लोग उसकी अभ्यर्थना करते। युवराज बिम्बसार उसके अन्तरंग मित्र हो गए थे। दोनों बहुधा अश्व पर आखेट के लिए जाते, तथा भांति-भांति की क्रीड़ा करते। परन्तु उधर भीतर-ही-भीतर अनंग रंग जमा रहा था। देवी मातंगी का यौवन विकास पा रहा था और दोनों बालसखा परस्पर दूसरे ही भाव से एक-दूसरे के प्रति आकर्षित हो रहे थे। यह देखकर सम्राट की चिन्ता बढ़ गई। परन्तु उन्होंने युवक-युवती से कुछ कहना ठीक नहीं समझा। केवल वर्षकार को राजकाज सीखने के बहाने मठ से हटाकर राजमहालय में बुलाकर रख लिया। वर्षकार महालय में रहने लगे, परन्तु इससे दोनों ही प्राणी वियोग-विदग्ध रहने लगे। देवी मातंगी का रूप-यौवन असाधारण था। निराभरणा तापसी के वेश में उसका शरीर तप्त कांचन की भांति दमकता था। युवराज बिम्बसार भी उस पर मन-ही-मन विमोहित हो, मठ में अधिक आने-जाने लगे थे। परन्तु शीघ्र ही वर्षकार ने ये आंखें ताड़ लीं और एक बार उन्होंने खड्ग नंगा करके कहा—”वयस्य युवराज, मगध का सम्पूर्ण साम्राज्य तुम्हारा है, केवल मातंगी मेरी है, इस पर दृष्टि मत देना। नहीं तो मेरे-तुम्हारे बीच यह खड्ग है।” बिम्बसार ने हंसकर और मित्र का हाथ पकड़कर कहा—”नहीं मित्र, मातंगी तुम्हारी ही रहे। चिन्ता न करो।” पीछे जब वर्षकार को सम्राट ने राजमहालय में बुलाकर रखा, तो युवराज को मातंगी के एकान्त साहचर्य का अधिक अवसर मिल गया। उनके ही अनुग्रह से वर्षकार भी अत्यन्त गुप्त भाव से मातंगी से मिलते रहते थे।
अकस्मात् मातंगी ने देखा कि वह गर्भवती है। वह अत्यन्त भयभीत हो गई। परन्तु गर्भ युवराज और वर्षकार दोनों में से किसके औरस से था, मातंगी ने यह भेद दोनों पर प्रकट नहीं किया। वर्षकार और युवराज दोनों ने मिलकर इस अवस्था को सम्राट् से छिपा लिया और जब शिशु का जन्म हुआ तो वर्षकार ने उसे हठ करके दासी द्वारा कूड़े के ढेर पर फेंक आने को कहा। उसे सन्देह था कि वह उसका पुत्र नहीं है। मातंगी ने बहुत निषेध किया, रोई-पीटी, पर वर्षकार ने एक न सुनी। दासी एक सूप में नवजात शिशु को लेकर कूड़े पर फेंक आई। दैवयोग से उधर ही से राजगृह के महावैज्ञानिक सिद्ध शाम्बव्य काश्यप जा रहे थे। घूरे पर लाल वस्त्र में लपेटी कोई वस्तु पड़ी देखकर और उस पर कौओं को मंडराता देख, उनके मन में यह जानने की जिज्ञासा हुई कि यह क्या है। निकट जाकर देखा, एक सद्यःजात शिशु मुंह में अंगूठा डालकर चूस रहा है, निकट ही स्वर्ण दम्म से भरी एक चमड़े की थैली भी पड़ी है। आचार्य ने शिशु को उठा लिया और उत्तरीय से ढांपकर अपने मठ में ले आए तथा लालन-पालन करने लगे। उन्हें शीघ्र ही यह भी पता लग गया कि वह आर्या मातंगी का पुत्र है। उन्होंने उन पर और युवराज पर यह बात प्रकट भी कर दी। युवराज भयभीत हुए, परन्तु आचार्य ने आश्वासन दिलाया कि चिन्ता न करो। वे यह भेद न खोलेंगे। बालक का भी अनिष्ट न होगा। युवराज बिम्बसार ने आचार्य को बहुत-सा स्वर्ण देकर सन्तुष्ट कर दिया। परन्तु वर्षकार के इस ईर्ष्यापूर्ण क्रूर कृत्य से मातंगी का हृदय फट गया। उसकी कोमल भावनाओं पर बड़ा आघात हुआ और वह एकान्त में उदासीन भाव से रहने लगी। युवराज भी वर्षकार से भयभीत रहने लगे, क्योंकि उसे युवराज पर अब पूरा सन्देह था। इसी बीच सम्राट् की मृत्यु हो गई। मरने के समय उन्होंने युवराज बिम्बसार और वर्षकार को मृत्युशैया के निकट बुलाकर दो बातें कहीं। एक यह कि वर्षकार बिम्बसार के महामात्य होंगे। दूसरे अपने राज्य के तीसरे वर्ष बिम्बसार देवी मातंगी का उनकी पसन्द के वर से विवाह करके उन्हें आजीविका को अस्सी ग्राम दे दें। साथ ही एक पत्र गुप्तभाव से युवराज को देकर कहा—इसे तुम राज्यारोहण के तीन वर्ष बाद खोलना। तब मातंगी का विवाह करना।
सम्राट् मर गए। बिम्बसार सम्राट् और वर्षकार उनके महामात्य हुए। वर्षकार अब खुल्लमखुल्ला मठ में जाकर देवी मातंगी से मिलने लगे। मातंगी ने वर्षकार से विवाह करने का आग्रह किया। परन्तु वर्षकार ने कहा—”स्वर्गीय सम्राट् ने हमारे पूज्य पिता गोविन्द स्वामी के आदेश से यह व्यवस्था की है, कि सम्राट् बिम्बसार अपने राज्यारोहण के तीसरे वर्ष विवाह-व्यवस्था करेंगे।” मातंगी मन मारकर रहने लगी। परन्तु उसका चित्त उचाट रहने लगा। तीन वर्ष बीत गए और अपने राज्यारोहण की तीसरी वर्षगांठ के दिन सम्राट ने वह गुप्त पत्र खोला। उसमें लिखा था कि मातंगी वर्षकार की भगिनी है, उन दोनों का परस्पर विवाह नहीं हो सकता। किन्तु मातंगी की सहमति से सम्राट् उपयुक्त पात्र से उसका विवाह कर दें और अस्सी ग्राम उसकी आजीविका को दे दें।
वर्षकार और बिम्बसार दोनों ही भीत-चकित रह गए। भय का सबसे बड़ा कारण यह था कि मातंगी इस समय फिर गर्भवती थी और यह स्पष्ट था कि यह गर्भ वर्षकार का था। अतः इस दारुण और हृदयविदारक समाचार को उसे सुनाना सम्राट ने ठीक नहीं समझा और उन्हें समझा-बुझाकर जलवायु परिवर्तन के लिए वैशाली भेज दिया। कुछ दिन बाद एक कन्या को गुप्त रूप से जन्म देकर और स्वस्थ होकर मातंगी राजगृह में आईं और तभी उन्हें सत्य बात का पता चला। सुनकर वे एकबारगी ही विक्षिप्त हो गईं। उन्होंने मठ के सभी राजसेवकों को पृथक् कर दिया और कठोर एकान्तवास ग्रहण किया। वर्षकार का मठ में आना निषिद्ध करार दे दिया गया। सम्राट् बिम्बसार से भी मिलने से उन्होंने इन्कार कर दिया तथा अपने विवाह से भी। तब से किसी ने भी देवी मातंगी के दर्शन नहीं किए, किसी ने भी उन्हें नहीं देखा, तथापि उनका नाम अब भी राजगृह में आर्या मातंगी के नाम से घर-घर सम्मान के साथ लिया जाता था। वे एक पूर्ण ब्रह्मचारिणी तपस्विनी प्रसिद्ध थीं।
वर्षकार ने भी ग्लानि के मारे विवाह नहीं किया। आज आर्य वर्षकार की आयु साठ वर्ष की हो गई, तथा देवी मातंगी भी पचास को पार कर चुकीं। वर्षकार का तेज-प्रताप दिगन्त में व्याप्त हो गया। वे मगध के प्रतापी महामात्य और विश्व के अप्रतिम राजनीति विशारद प्रसिद्ध हुए। साथ ही किसी ने उनके अखण्ड ब्रह्मचर्य पर भी सन्देह नहीं किया। देवी मातंगी के साथ उनके तथा सम्राट् के सम्बन्ध की बात तथा उनके एक पुत्र और एक पुत्री की गुप्त जन्मकथा आचार्य शाम्बव्य काश्यप को छोड़कर और कोई जानता भी नहीं। सोमप्रभ मातंगी के गर्भ से जन्मे अवैध पुत्र हैं, यह बात आचार्य काश्यप, सम्राट् और स्वयं वे ही जानते हैं। परन्तु वे सम्राट् के पुत्र हैं, या वर्षकार के, यह केवल मातंगी ही जानती है : मातंगी की पुत्री कौन है, कहां है, यह बात एकमात्र आर्य वर्षकार ही जानते हैं, दूसरे नहीं। आर्य वर्षकार ने देवी मातंगी से एक बार मिलने का बहुत अनुनय-विनय किया था, परन्तु मातंगी ने भेंट करना स्वीकार नहीं किया। लाचार वर्षकार मन मारकर बैठे रहे। जो ग्राम देवी मातंगी को राज्य से दिए गए थे, उनकी आय सार्वजनिक कार्यों में खर्च करने की उन्होंने व्यवस्था की और स्वयं अत्यन्त निरीह भाव से रहने लगीं।
सोमप्रभ ज्यों ही मठ के द्वार को पार कर भीतर जाने लगे, वहां का सुनसानपन और निर्जन भाव देखकर उनका मन कैसा कुछ होने लगा। जैसे शताब्दियों से यहां कोई नहीं रहा है। वे लता-गुल्मों-भरी टेढ़ी-तिरछी वीथियों को पारकर अन्ततः एक पुष्करिणी के किनारे पहुंचे। पुष्करिणी में शतदल कमल खिला था, उसकी भीनी सुगन्ध वहां व्याप्त हो रही थी। पुष्करिणी के किनारे पर सघन वृक्षों की छाया थी, उसी शीतल छाया में क्षण—भर सोमप्रभ चुपचाप खड़े रहे। वे सोच रहे थे, किसलिए आर्या मातंगी के पास भेजा है।
एकाएक पीछे से पद-शब्द सुनकर वे चमक उठे, उन्होंने देखा, एक वृद्धा स्त्री जल का घड़ा लिए आ रही है। उसने युवक को देखकर आश्चर्यचकित होकर कहा—”तुम कौन हो और यहां कैसे चले आए? क्या तुम नहीं जानते, आर्या मातंगी की आज्ञा से यहां किसी भी मनुष्य का आना निषिद्ध है?”
“जानता हूं भद्रे, परन्तु मैं इच्छापूर्वक ही आया हूं। मैं आर्या मातंगी के दर्शन किया चाहता हूं।”
“यह सम्भव नहीं, आर्या किसी को दर्शन नहीं देतीं।”
“परन्तु भद्रे, मैं आचार्यपाद काश्यप की आज्ञा से आया हूं, मेरा नाम सोमप्रभ है।”
दासी ने अवाक् होकर क्षण-भर युवक को देखा, फिर उसने भयभीत दृष्टि से युवक को देखकर कहा—”आचार्य काश्यप ने! तब ठहरो भद्र, मैं देवी से जाकर निवेदन कर दूं।” वह बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए ही चली गई।
सोमप्रभ एक शिलाखण्ड पर बैठकर कुछ सोचने लगे—वे सोच रहे थे यह कैसा रहस्य है!
कुछ क्षणों बाद ही दासी ने आकर कहा—”आर्या तुमसे भेंट करेंगी, मेरे साथ आओ।” सोमप्रभ धीरे-धीरे वृद्धा के पीछे-पीछे चले। सामने एक स्वच्छ छोटा-सा कुटीर था, उसी में एक चटाई पर आर्या मातंगी अधोमुखी बैठी थीं। पद-शब्द सुनते ही उन्होंने आंखें उठाकर देखा, उनके होंठ कम्पित हुए, उन्होंने दोनों हाथों से आंखों की धुंध पोंछी, फिर अस्फुट स्वर से आप-ही-आप कहा—”कौन तुम, सोम…वही हो, वही, पहचानती हूं मेरे बच्चे!” और वे उसी प्रकार युवक की ओर दौड़ीं जैसे गाय बछड़े की ओर दौड़ती है। उन्होंने युवक को छाती से लगा लिया। उनकी आंखों से अविरल अश्रुधारा बह चली।
सोमप्रभ हतप्रभ होकर विमूढ़ हो गए। एक अचिन्तनीय आनन्द ने उनके नेत्रों को भी प्लावित कर दिया। उन्होंने प्रकृतिस्थ होकर कहा—
“आर्या मातंगी, अकिञ्चन सोम आपका अभिवादन करता है।”
“नहीं, नहीं, आर्या मातंगी नहीं, मां कहो वत्स!”
सोमप्रभ ने अटकते हुए कहा—”किन्तु आर्ये.”
“मां कहो वत्स, मां कहो!”
“आर्ये, हतभाग्य सोम अज्ञात-कुलशील अज्ञातकुलगोत्र है। कल्याणी मातंगी उसे इतना गौरव क्यों दे रही हैं?”
“मां कहो प्रिय, मां कहो। जीवन के इस छोर से उस छोर तक मैं यह शब्द सुनने को तरस रही हूं।” मातंगी के स्वर, भावभंगिमा और करुण वाणी से विवश हो अनायास ही बरबस सोम के मुंह से निकल गया—”मां…”
“आप्यायित हो गई मैं, मरकर जी गई मैं, वत्स सोम, अभी और कुछ देर हृदय से लगे रहो। अरे, मैंने 24 वर्ष तुम्हारी प्रतीक्षा की है भद्र!”
“किन्तु आर्ये…?”
“मैं कौन हूं, यही जानना चाहते हो। बच्चे, मैं अभागिनी तुम्हारी मां हूं।”
“आप आर्ये मातंगी! देवपूजित द्विज गोविन्द स्वामी की महाभागा पुत्री देवी मातंगी मुझ भाग्यहीन की मां हैं?”
“निश्चय वत्स, यह ध्रुव सत्य है। क्या आचार्य ने कहा नहीं?”
“नहीं, उन्होंने केवल इतना ही कहा था कि देवी के दर्शन करना अवश्य।”
“अभी मुहूर्त भर पूर्व उन्होंने मुझे संदेश भेजा था, कि तुम्हारा पुत्र आया है। वह तुमसे मिलने आ रहा है। सो सोम, तनिक तुम्हें देखूं। मेरे सामने खड़े तो हो जाओ प्रिय!”
और मातंगी अबोध बालक के समान सोम के सम्पूर्ण शरीर पर हाथ फेरने लगीं।
सोम ने धीरे-धीरे झुककर मस्तक मां के चरणों में टेककर कहा—
“मां, आज मैं सनाथ हुआ। परन्तु मुझे अधिक समय नहीं है, मुझे एक दुरूह यात्रा करनी है। इतना बता दो मेरे पिता कौन हैं?”
“पिता?” मातंगी के होंठ भय से सफेद हो गए और उनका चेहरा पत्थर की भांति भावहीन हो गया। उन्होंने डूबती वाणी से कहा—”पुत्र, उनका नाम लेना निषिद्ध है।”
“क्यों मां?”
“क्या तुमने मेरे आजन्म एकान्तवास को नहीं सुना?”
“सुन चुका हूं आर्ये?”
“तो बस, यही यथेष्ट है।”
“मैं क्या उनके विषय में कुछ भी नहीं जान सकता?”
“क्या जानना चाहते हो वत्स?”
“उनकी पद–मर्यादा।”
“वे विश्वविश्रुत विभूति के अधिकारी हैं।”
“जीवित हैं?”
“हां!”
“तो अभी यही यथेष्ट है, मां, शेष सब मैं अपने कौशल से जान लूंगा।”
“परन्तु पुत्र, मेरा आदेश मानना। इधर उद्योग मत करना, इससे तुम्हारा अनिष्ट होगा।”
“माता की जैसी आज्ञा, पर अब मैं जाऊंगा आर्ये!”
“क्या इतनी जल्दी भद्र, अभी तो मैंने तुम्हें देखा भी नहीं।”
“शीघ्र ही मैं लौटूंगा आर्ये!”
“अभी कुछ दिन रहो पुत्र!”
“नहीं रह सकता, आदेश है।”
“किसका भद्र?”
“आर्य वर्षकार का।”
मातंगी चौंककर दो कदम हट गईं। उसने कहा—”अच्छा, अच्छा, समझी! आर्य यहां तक पहुंच चुके?”
“आर्ये, आज प्रातः ही मुझे उनका दर्शनलाभ हुआ।”
“अब कहां जा रहे हो भद्र?”
“चम्पा।”
“एकाकी ही?”
“नहीं, भगिनी भी है मां, आप तो जानती हैं, मेरी एक भगिनी भी है।”
मातंगी ने कांपकर कहा—”किसने कहा भद्र?”
“आचार्यपाद ने।”
“कौन है वह।”
“कुण्डनी।”
“कुण्डनी! सर्वनाश। तुम उसके साथ जा रहे हो पुत्र? ऐसा नहीं हो सकेगा।”
“क्यों मां, क्या बात है?”
“नहीं, वह मैं नहीं कह सकूंगी, कहते ही शिरच्छेद होगा। किसने तुझे कुण्डनी के साथ जाने को कहा?”
“आर्य वर्षकार ने।”
“इन्कार कर दो। कह दो, देवी मातंगी की आज्ञा है।”
“आपकी आज्ञा क्या मगध महामात्य वर्षकार सुनेंगे?”
“उन्हें सुननी होगी। नहीं तो मैं स्वयं आज 28 वर्ष बाद पुष्करिणी के उस पार…”
“देवी मातंगी!” सामने से किसी ने पुकारा। दोनों ने देखा, आचार्य काश्यप हैं। उन्होंने कहा—”कोई भय नहीं है, देवी मातंगी! उसे जाने दो।”
“तुमने आचार्य, उसे कुण्डनी के सुपुर्द किया है?”
“नहीं मातंगी आर्ये, कुण्डनी राजकार्य से केवल उसकी सुरक्षा में चम्पा जा रही है।”
“सोम क्या जानता है कि कुण्डनी कौन है?”
“वह जानता है कि वह उसकी भगिनी है।”
“यह क्या यथेष्ट है?”
“है, आप निश्चिन्त रहिए।” फिर उन्होंने घूमकर कहा—”जाओ सोम, विलम्ब मत करो।”
आर्या ने आकुल नेत्रों से पुत्र को देखकर कहा—
“एक क्षण ठहरो, क्या तुमने महामात्य से कुछ प्रतिज्ञा भी की है?”
“की है, आर्ये!”
“कैसी?”
“एकनिष्ठ रहने की।”
“किसके प्रति?”
“साम्राज्य के।”
“और?”
“मगध महामात्य के?”
“और?”
“और किसी के प्रति नहीं।”
“और किसी के प्रति नहीं?”
“नहीं।”
आर्या के नेत्रों में भय की भावना दौड़ गई, उनके होंठ कांपे। आचार्य के रूखे होंठों पर मुस्कान फैल गई, उन्होंने आगे बढ़कर कहा—”बस, अब और अधिक नहीं, देवी मातंगी किसी अनिष्ट की आशंका न करें। जाओ तुम सोमभद्र।”
17. महामिलन : वैशाली की नगरवधू
अम्बपाली अपने उपवन के लताकुंज में बैठी गहन चिन्तन में व्यस्त थी। वह सोच रही थी, जीवन के तत्त्व को। सप्तभूमि प्रासाद में आकर, वहां की अतुल सम्पदा, कोमल सुख-साधन, सान्ध्यबेला में आने वाले कामुक तरुणों के गर्मागर्म प्रेम-सम्भाषण, उनके प्रति अपने अनुराग का प्रदर्शन, हर्षदेव का प्रेमोन्माद और अपने पूर्ण जीवन का सम्पूर्ण वैशाली के प्रति विद्रोह। वह प्रयत्क्ष देख रही थी कि प्रारम्भ में जिस सुख-सज्जा को तुच्छ समझा था, वह उसके जीवन की अब अनिवार्य सामग्री हो गई है। उसके रूप की दोपहरी खिली थी और इसी अल्पकाल में उसके तेज, माधुर्य, विलास और अलौकिक बुद्धि-वैचित्र्य की कहानियां देश-देशांतरों में फैल चुकी थीं। उसकी आंखों के सामने अब अपने बाल्यकाल का वह चित्र कभी-कभी आ जाता था, जब वह एक साधारण कंचुक के लिए रोई थी। वह अपने पिता के अकपट स्नेह को याद कर बहुधा आंसू बहाती। आज उसके अंग यौवन के अमृत से स्नात होकर ऐसी सुषमा बिखेर रहे थे; कि बूढ़े और युवा, नगर के चौकीदार, चाण्डाल और कर्मकार से लेकर परिषद् के संभ्रांत सदस्य, तरुण सामन्त-पुत्र और सेट्ठिपुत्र, नागरिक, देश देशान्तर के श्रीमन्त, नरपति और सम्राट् जिसे एक आंख देखने भर के लिए प्राण न्योछावर करने को तैयार थे। अपनी इस विजय पर उसे गर्व था। वह जब शिविका पर सवार हो, राजपथ पर निकलती तो नागरिक उत्सव मनाते। नित्य प्रातःकाल से सन्ध्या तक, देश देशान्तरों से आए विदेशी और वैशाली के नागरिक उसके प्रति अपना उत्कट प्रेम प्रकट करने के लिए सप्तभूमि प्रासाद के तोरण पर बहमूल्य सुगन्धित पुष्पों की मालाएं चढ़ाते थे, उससे नित्य तोरण पट जाता था। अपने प्रेमियों से उसे अतुल धन मिलने लगा था, उसका गिनना असम्भव था। उसके कोषरक्षक तराजू से स्वर्ण तोला करते थे। कृषक वृद्ध सेट्ठियों और सम्राटों की जीवन-भर की संचित सम्पदा उसके ऊपर लुटाई जाती थी। प्रेमियों के प्रेम संदेश और मिलने वालों की प्रार्थनाओं से उसे सांस लेने का अवकाश न था। वह सोचने लगती—मैं क्या से क्या हो गई। वह कभी-कभी अपने प्रेमियों की बात सोचने लगती, जिनमें से प्रत्येक उसे आकर्षित करने में असमर्थसिद्ध हुआ था।
उसने देवताओं, प्रेतों, तांत्रिकों, सिद्धों और योगियों के विषय में बहुत-कुछ सुना था। वह इन विषयों पर सोचती रहती। कभी-कभी मित्रों से वार्तालाप करती। मारण, उच्चाटन, वशीकरण के प्रति कौतूहल प्रकट करती। अन्त में विरक्त हो, अनमनी हो, वह एकान्त में इसी कुंज में आ आत्मचिन्तन करती। उसके यहां ओझे, सयाने, तांत्रिक बहुधा आते, भविष्य-वर्णन करते। वह स्वयं कभी-कभी प्रसिद्ध सिद्धों से मिलने, भविष्य पूछने जाती। बहुत लोग उससे कहते—जीवन का उद्देश्य सुख भोग है। आओ, जीवन की बहार लूटें। इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होने वाली ज्ञान-अनुभूति ही सत्य है और सब असत्य है। मिथ्या है। परन्तु इन विचारों से, ऐसे लोगों से वह शीघ्र ही ऊब जाती। उनका तिरस्कार कर बैठती। जीवन के रहस्यों को समझने के लिए उसने दर्शनों और उसके तत्त्वों का अध्ययन किया था, पर उनसे उसे शान्ति नहीं मिली थी। उसका सर्वप्रथम विषय उसकी बाल्यावस्था की स्मृति थी, जो दिन-दिन उससे दूर होती जाती थी और अब सत्य यह था कि उसके अधर धधकती अग्नि के समान दाहक और मधु से मधुर थे। इन्हीं सब बातों पर विचार करते-करते वह कभी-कभी उत्तेजित होकर चिल्लाने लगती—”नहीं, नहीं , मैं किसी से प्रेम नहीं करती, नहीं कर सकती, किसी व्यक्ति से भी नहीं। मैं उन सबसे घृणा करती हूं जो आनन्दभोगी हैं। यह सप्तभूमि प्रासाद मेरे जीवन पर बोझ है। ये सान्ध्यमित्र मेरे हृदय पर रेंगने वाले घृणित कीट हैं, वह उनके स्त्रैण चरित्र और स्त्रैण वेशभूषा का स्मरण कर घृणा से होंठ सिकोड़ लेती। कभी-कभी विचलित होकर चिल्ला उठती।
फिर उसका ध्यान अपने अप्रतिम अंग-सौष्ठव पर जाता, वह अपने अद्भुत रूप को पुष्करिणी के स्वच्छ जल में निहारकर कभी-कभी बहुत प्रसन्न हो जाती। उस समय वे सब वासनाएं, जिनकी उसे चाट पड़ गई थी, एक-एक कर उसके निकट आकर उसके अंग-प्रत्यंग में पैठ जाती थीं और वह मन्द मुस्कान के साथ कहती—कोई हानि नहीं, इसी रूप की ज्वाला में, मैं विश्व को भस्म करूंगी। इस अछूते रूप को सदा अछूता रखूंगी, इस सुषमा की खान गात्र को किसी को छूने भी न दूंगी, विश्व इसे भोग न सकेगा। वह इसकी पूजा ही करे। उसका हृदय गर्व और तेज से भर आता। वह अब उन कवियों, चित्रकारों और कलाकारों का स्मरण करती, जिनकी कृति से वह प्रभावित हो चुकी थी और उन पर एक सन्तोष की विचारधारा दौड़ाकर बहुधा उसी लताकुञ्ज में उसी श्वेत मर्मर की श्वेत शीतल पटिया पर वह सो जाती।
उपवन में दर्श-विदश के बहुत-से वृक्ष लगे थे। उन्हें देश-देशान्तरों से लाने, उनकी प्रकृति के अनुकूल जलवायु में उन्हें पालने में बहुत द्रव्य खर्च हुआ था। उनकी सिंचाई के लिए निर्मल मीठे जल की एक कृत्रिम उपकुल्लिका पुष्करिणी से निकालकर उपवन के चारों ओर बहाई गई थी। काम-पुष्करिणी में कुशल शिल्पियों ने कई एक कृत्रिम पहाड़ियों, स्तम्भ-चिह्नों और कला की प्रतीक मूर्तियों का सर्जन किया था, जिनका प्रतिबिम्ब पुष्करिणी के मोती के समान जल में भव्य प्रतीत होता था। जिस लताकुञ्ज में अम्बपाली बैठी थी, उसमें जो प्रकाश आता था, वह पानी की पतली चादर से छनकर मद्धिम और रंगीन छटा धारण करता था। कुञ्ज में एक हाथीदांत का महार्घ छपरखट भी था जिसकी दुग्धफेन-सम शैया पर कभी-कभी अम्बपाली सुख की नींद लेती थी। रत्नजटित स्वर्ण के धूपदानों में वहां कीमती सुगन्ध-द्रव्य सदा जलते रहते थे। बड़े-बड़े आधारों में दुर्लभ रंग-बिरंगे पौधे सजाकर रखे गए थे। कुछ के फूल ऊदे रंग के थे, कुछ के पीत और कुछ के नील वर्ण। ऐसा ही वह अद्भुत लताकुञ्ज और उपवन था।
एकाएक आंख खुलने पर उसने देखा—उस सुरक्षित लताकुञ्ज में एक प्रभावशाली पुरुष उसके सम्मुख खड़ा है। उसकी अवस्था तरुणाई का उल्लंघन करने लगी है—परन्तु उसका गौर वर्ण, तेजस्वी मुख सूर्य के समान देदीप्यमान है। उसके सघन काले बाल काकपक्ष के रूप में पीछे को संवारे हुए हैं। प्रशस्त वक्ष और प्रलम्ब पुष्ट बाहु बहुमूल्य दुकूल से आवृत हैं। अधोअंग में एक कोमल पीत कौशेय सुशोभित है। उसकी सघन काली मूंछें उसके दर्शनीय मुख पर अद्भुत शोभाविस्तार कर रही हैं। कानों में हीरक-कुण्डल और कण्ठ में गुलाबी आभा के असाधारण दुर्लभ मुक्ता सुशोभायमान हैं। उसके बड़े-बड़े काले चमकीले नेत्रों और उत्फुल्ल सरस ओष्ठों से आनन्द, विलास और प्रेम की अटूट धारा प्रवाहित हो रही है। उसके एक हाथ में महार्घ अप्रतिम वीणा है। अम्बपाली हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई। उसने आश्चर्यचकित होकर उस पुरुषपुंगव की ओर देखा। अनायास ही उस पर उस पुरुष का प्रभाव छा गया। वह अम्बपाली, जो आज तक किसी पुरुष से प्रभावित नहीं हुई थी, इस पुरुष को देखकर क्षण-भर जड़-स्तम्भित रह गई। पुरुष ने ही पहले कहा—
“जनपदकल्याणी देवी अम्बपाली प्रसन्न हों! क्या मैंने तुम्हारे इस एकान्त विश्राम में व्याघात करके तुम्हें रुष्ट कर दिया है?”
“नहीं–नहीं। परन्तु आप भन्ते, यहां इस सुरक्षित कोष्ठ में बिना अनुमति कैसे आ पहुंचे? क्या प्रहरी सो गए हैं? या आपने उन्हें अपनी माया से मोहित कर दिया है?”
पुरुष ने हंसकर कहा—”नहीं कल्याणी, मैं अदृश्य होकर आकाश-मार्ग से आया हूं। बेचारे प्रहरी मुझे देख नहीं सके।”
अम्बपाली आश्चर्य-मूढ़ होकर बोली—”किन्तु आप हैं कौन भन्ते? क्या आप गन्धर्व हैं?”
“नहीं भद्रे, मैं मनुष्य हूं।”
“परन्तु आपका ऐसा आगमन…?”
“मुझे सिद्धियां प्राप्त हैं। मैं लोपाञ्जन विद्या और खेचर विद्या जानता हूं।”
अम्बपाली खड़ी हो गई। उसने पूछा—”आप साधारण पुरुष नहीं हैं। महानुभाव, आप क्या कोई देव, दानव, यक्ष मुझे ठगने आए हैं?”
“नहीं जनपदकल्याणी, मैंने तुम्हारे अप्रतिम रूप, लावण्य, असह्य तेज, दर्प और लोकोत्तर प्रतिभा की चर्चा अपने देश में सुनी थी। इसी से, केवल तुम्हें देखने मैं बहुत दूर से छद्मवेश में आया हूं। अब मैंने जाना कि सुनी हुई बातों से भी प्रत्यक्ष बहुत बढ़कर है। तुम-सी रूपसी बाला कदाचित् विश्व में दूसरी नहीं है।”
अम्बपाली का कौतूहल कुछ कम हो गया था और उसका साहस लौट आया था। उसने अपने रूप-लावण्य की प्रशंसा सुन कहा—”भन्ते, औरों की प्रशंसा करने और अपना गुप्त प्रेम प्रदर्शन करने में आप वैसे ही कुशल हैं जैसे अदृश्यरूप से आकाश मार्ग द्वारा किसी स्त्री के एकान्त आवास में पहुंच जाने में। किन्तु…”
“किन्तु भद्रे अम्बपाली, मेरे हृदय में तुम्हारा असाधारण प्रेम बहुत प्रथम घर कर गया था। तुम मुझे जीवन और आत्मा से भी अधिक प्रिय हो।”
“भन्ते, ज़रा संभलकर इस प्रेम-मार्ग पर कदम रखिए। कदाचित् वहां आपकी खेचर-सिद्धि और लोपाञ्जन माया काम न दे सकेगी।”
“भद्रे, प्रेम के सत्य मार्ग से सारी ही सिद्धियां तुच्छ हैं। किन्तु मेरा प्रेम वासना की आग में जलता हुआ नहीं है। मैं तुम्हें फलों की सुवासित मदिरा की अपेक्षा अधिक नित्य, अमर और अखण्ड समझता हूं, देवी अम्बपाली!”
“ओह, तो भन्ते! आपका यह प्रेम कुछ अलौकिक-सा प्रतीत होता है।” अम्बपाली ने मुस्कराकर कहा—”भन्ते, इस कोरी प्रशंसा से मेरे हाथ क्या आएगा?”
“प्रेम?”
“प्रेम का व्यवसाय करते यद्यपि मुझे अधिक काल नहीं बीता, फिर भी मैं अब और किसी नवीनता की आशा नहीं करती। आपकी बातें दार्शनिकों जैसी हैं, किन्तु भन्ते, प्रेम का रहस्य दार्शनिकों की अपेक्षा प्रेमीजन ही अधिक जानते हैं।”
“वैशाली की जनपदकल्याणी देवी अम्बपाली से मैं ऐसे ही प्रत्युत्तर की आशा करता था। परन्तु भद्रे, तुम्हें वशीभूत करने की एक और वस्तु मेरे पास है।”
“वह क्या भन्ते?”
भद्र पुरुष ने महार्घ वीणा का आवरण उठाया। उस पर आश्चर्यजनक हाथीदांत का काम हो रहा था और वह दिव्य वीणा साधारण वीणाओं से अद्भुत थी। अम्बपाली ने आश्चर्यचकित होकर कहा—
“निश्चय यह वीणा अद्भुत है। परन्तु भन्ते, आप मेरा मूल्य इससे आंकने का दुस्साहस मत कीजिए।”
“इसका तो अभी फैसला होगा, जब इस वीणावादन के साथ देवी अम्बपाली को अवश नृत्य करना होगा।”
“अवश नृत्य?”
“निश्चय!”
“असम्भव!”
“निश्चय!”
आगन्तुक रहस्यमय पुरुष वहीं श्वेतमर्मर के पीठ पर बैठ गए। उन्होंने वीणा को झंकृत किया। अम्बपाली मूढ़वत् बैठी रही। एक ग्राम, दो ग्राम, पर जब उस आश्चर्य पुरुष की उंगलियां नृत्य करने लगीं और वातावरण में वीणा का स्वर भर गया—तो अम्बपाली जैसे मत्त होने लगी। उसे अपने चारों ओर एक मूर्तिमान् संगीत, एक प्रिय सुखस्पर्शी घोष, एक सुषमा से ओतप्रोत वातावरण प्रतीत होने लगा।
वीणा बज रही थी। उसकी गति तीव्र से तीव्रतर होती जा रही थी। अम्बपाली को ऐसा प्रतीत हो रहा था कि तंतुवाद्य के कम्पन से जो स्वरलहरी उत्पन्न हो रही है, वह उसके चर्मकूपों को भेदकर उसके रक्त में प्रविष्ट हो रक्त को उत्तप्त कर रही है। उसका मुंह लाल हो गया, नेत्रों में मद छा गया, गात्र कांपने लगा। वह अपनी सम्पूर्ण सावधानता से उस पुरुषपुंगव के असाधारण वीणावादन को विस्फारित नेत्रों से देखती रही।
एकाएक ही वादक ने उंगलियों की गति में हेरफेर किया और तब अम्बपाली ने मूढ़ होकर देखा—वीणा एक ही काल में तीन ग्रामों में बज रही है। ऐसा तो न देखा, न सुना था। कुछ ही क्षणों में अम्बपाली विवश हो गई। उसे ऐसे प्रतीत हुआ, मानो उसके शरीर में रक्त के स्थान पर जलती हुई मदिरा बह रही है और अब वह स्थिर नहीं रह सकती। वह टकटकी बांधकर वीणा पर विद्युत्-वेग से थिरकती उंगलियों को देखते-देखते अचेत-सी हो गई। अब उसे ऐसा प्रतीत हुआ, उसका मृदुल गात्र ही वीणा के रूप में झंकृत हो रहा है। उसी अचेतनावस्था में उसने उठकर नृत्य करना आरम्भ कर दिया। पहले मंद, फिर तीव्र, फिर तीव्रतर, और अब उन उंगलियों में और उन चरणों में प्रगति की होड़ बदी थी। नृत्य और वादन एकीभूत हो गया था। वादक की उंगलियां और नर्तकी के चरण-चाप एक-मूर्त हो गए थे। कौन नृत्य कर रहा है, कौन वीणावादन और कौन उस अलौकिक दृश्य को देख-सुन रहा है, यह नहीं कहा जा सकता था। धीरे-धीरे अम्बपाली अवश होने लगी और वादक की उंगलियां भी विराम पर आने लगीं। अम्बपाली धीरे-से एक लतागुल्म पर झुक गई और महापुरुष ने महार्घ वीणा रखकर उसे हाथों ही में उठाकर श्वेतमर्मर की पीठिका पर लिटा दिया।
धीरे-धीरे अम्बपाली ने आंखें खोलीं। आगन्तुक महापुरुष ने मुस्कराकर कहा—”देवी, अम्बपाली की जय हो!”
“मैं परास्त हो गई, भन्ते!”
“भद्रे, प्रेम में जय-पराजय नहीं होती। वहां तो दो का भेद नष्ट होकर एकीकरण हो जाता है।”
“किन्तु भन्ते, जो कुछ अनुभूति मुझे इस समय हुई, वह अभूतपूर्व है। क्या आप स्वयं गन्धर्वराज चित्ररथ अलकापुरी से मुझे कृतकृत्य करने पधारे हैं?”
“भद्रे, मैं उदयन हूं।”
“आप कौशाम्बीपति महाराज उदयन हैं? देव, अज्ञान में हुई मेरी अविनय की क्षमा करें।”
“सत्य प्रेम में अविनय-विनय नहीं होती है, भद्रे!”
“देव कैसे तीन ग्रामों में एक ही काल में वीणावादन करने में समर्थ हैं! ऐसा त्रिलोकी में कोई पुरुष नहीं कर सकता है।”
“और न त्रिलोकी में कोई जीवधारी वैशाली की जनपदकल्याणी अम्बपाली के समान तीन ग्रामों की ताल पर नृत्य कर सकता है।”
“किन्तु देव, वह नृत्य मैंने अवश अवस्था में किया है। क्या अब मैं फिर वैसा ही नृत्य कर सकती हूं?”
“यदि फिर वैसा ही वीणावादन हो तो।”
“किन्तु देव, इस वीणा से तो जड़-जंगम सभी अवश हो जाते हैं।”
“तुम्हारे अप्रतिम नृत्य से भी कल्याणी।”
“तो देव, आपको छोड़कर और भी कोई मनुष्य इस प्रकार वीणावादन कर सकता है?”
“केवल गन्धर्वराज चित्ररथ, जिन्होंने यह वीणा अपनी सम्पूर्ण विद्या सहित मुझे दी थी।”
“देव कौशाम्बीपति, क्या मैं फिर एक बार आपसे वैसे ही वीणावादन की प्रार्थना कर सकती हूं?”
“नहीं भद्रे, परन्तु अब तुम दिव्य नृत्य कभी न भूलोगी। जब भी तीन ग्राम में यह वीणा कोई बजाएगा, तुम ऐसे ही अलौकिक नृत्य कर सकोगी।”
“तो देव, आप क्या अपनी शिष्या अम्बपाली का आज आतिथ्य ग्रहण करेंगे?”
“नहीं भद्रे, मैं जैसे आया था, वैसे ही गुप्त भाव से चला जाऊंगा।”
“क्या अम्बपाली आपका कोई प्रिय कर सकती है?”
“वह कर चुकी। मैं अपना प्राप्तव्य पा चुका।”
“किन्तु देव…!”
“ओह भद्रे, क्या मैंने नहीं कहा था, कि मेरा प्रेम वासना की अग्नि से जलता हुआ नहीं है? मैंने तुम्हें देखकर नेत्र सार्थक किए और तुम्हारा वह देवदुर्लभ नृत्य अपनी वीणाध्वनि के साथ अंगीभूत कर लिया।”
“देव कौशाम्बीपति, जब सम्पूर्ण जनपद मेरे चरणों में आंखें बिछाता है, लाखों प्राणधारी इन चरणों का चुम्बन करने को अपने प्राण भेंट देने को उत्सुक हैं, मेरी प्राप्ति के लिए जनपद में होड़, ईर्ष्या, निराशा और अभिलाषा का इतना संघर्ष हुआ है, कि इसके बोझ में पर्वत भी धसक जाएगा, तब क्या मैं आपका कुछ भी प्रिय नहीं कर सकती?”
“क्यों नहीं भद्रे, अम्बपाली, यदि मेरा प्रिय करना चाहती हो, तो मेरी यह साधारण स्नेह–भेंट स्वीकार करो, जिसे एक बार तुम अस्वीकार कर चुकी हो।”
यह कहकर महाराज उदयन ने अपने कण्ठ से वह अलौकिक मोतियों की माला उतारकर अम्बपाली के गले में डाल दी।
अम्बपाली ने कहा—”अनुगृहीत हुई, किन्तु क्या मैं अपना कौतूहल निवदेन करूं?”
“कहो भद्रे!”
“क्या मुझ-सी कोई स्त्री आपने देखी है?”
“देखी है, पर तुमसे श्रेष्ठ नहीं कल्याणी।”
“कौन है वह?”
“गान्धार कन्या कलिंगसेना।”
“उसमें त्रुटि क्या है?”
“तीनों ग्रामों पर नृत्य नहीं कर सकती।”
“क्या वह देव के सान्निध्य में है?”
“नहीं भद्रे, मैं उसे प्राप्त करके भी प्राप्त न कर सका।”
“प्राप्त करके भी प्राप्त न कर सके, देव!”
“ऐसा ही हुआ भद्रे।”
“कैसे देव, क्या देवी कलिंगसेना द्वितीय कामदेव के समान सुन्दर महाराज उदयन को प्यार नहीं कर सकीं—या तक्षशिला के महाराज ने इन्द्र के मित्र वात्स–नरेश सहस्रानीक के पुत्र को ही अयोग्य समझा, जिसके लिए देवराज इन्द्र अपना रथ भेजता था?”
“ऐसा नहीं हुआ भद्रे, इसमें कुछ कौतुक हुआ।”
“यदि देव कौतुक वर्णन करें तो अच्छा।”
“कहता हूं, सुनो। विगलित-यौवन कोसल-नरेश प्रसेनजित् ने गान्धारपति कलिंगसेन से उसे मांगा था। गान्धारपति राजतन्त्र के स्वार्थवश प्रसेनजित् को अप्रसन्न नहीं कर सकते थे। उन्होंने कोसलपति को कन्या देना स्वीकार कर लिया था। भाग्यविधि से कलिंगसेना की मित्रता मायासुर की कन्या सोभप्रभा से हो गई थी। उसी ने सखी के कल्याण की कामना से उससे कहा था कि—हेमन्त ऋतु की कमलिनी के समान तुम, उस चमेली के मुर्झाए हुए पुष्प प्रसेनजित् के योग्य नहीं हो। उसी ने उससे मेरा सत्यासत्य वर्णन करके उसे मेरे प्रति आकर्षित कर दिया था। मुझे भी इसकी सूचना मिल चुकी थी। परन्तु देवी अम्बपाली, मैं अवन्तीनरेश चण्डमहासेन को अप्रसन्न नहीं कर सकता था, इसी से गान्धारपति कलिंगसेन से मैंने उसकी दिव्य पुत्री नहीं मांगी।”
अम्बपाली ने हंसकर कहा—”देव को महादेवी वासवदत्ता का भी तो लिहाज करना उचित था, जिन्होंने शकुन्तला और ऊषा से भी बढ़कर साहस किया है। परन्तु क्या सुश्री कलिंगसेना बहुत सुन्दरी हैं?”
“भद्रे, अम्बपाली, विश्व की स्त्रियों में तुम्हीं उसकी होड़ ले सकती हो। केवल नृत्य को छोड़कर, जिसमें तुम उससे बढ़ गईं। परन्तु मय असुर की कन्या की मित्रता से वह अक्षययौवना हो गई है। असुरनन्दिनी ने उसे विन्ध्य-गर्भ में स्थित मायापुरी में ले जाकर दिव्यौषध भक्षण कराया है, तथा माया के यन्त्रों से भरा पिटक भी दिया है। इससे वह अद्भुतकर्मिणी हो गई है। एक दिन वह अपनी सखी असुरनन्दिनी की सहायता से इन्हीं यन्त्रों के विमान पर चढ़कर कौशाम्बी में आ गई।”
“तो देव, घर–बैठे गंगा आई।”
“हुआ ऐसा ही भद्रे, किन्तु राजसम्पदा भी कैसा दुर्भाग्य है!”
“राजसम्पदा ने क्या बाधा दी महाराज?”
“ज्योंही मैंने सुना कि गान्धार कन्या कलिंगसेना स्वयंवर की इच्छा से आई है, मैंने आर्य यौगन्धरायण को उसका सत्कार करने और विवाह का मुहूर्त देखने को कहा। परन्तु आर्य यौगन्धरायण ने सोचा कि त्रैलोक्य-सुन्दरी कलिंगसेना पर आसक्त होकर राजा मोह में फंस जाएगा, देवी वासवदत्ता संतप्त हो शोक में प्राण दे देंगी। पद्मावती भी उनके बिना न रह सकेंगी, इससे चण्डमहासेन और महाराज प्रद्योत दोनों ही शत्रु हो जाएंगे। इन सब बातों को विचारकर उन्होंने देवी कलिंगसेना के सत्कार-निवास का तो समुचित प्रबन्ध कर दिया, परन्तु विवाह में टालमटोल करते रहे।
“उन्होंने कोसलपति और गान्धारराज दोनों ही को इसकी सूचना दे दी। कोसलपति ने सैन्य भेजकर गान्धारराज को विवश कर दिया। कोसलपति को नाराज़ करने की सामर्थ्य गान्धारपति में नहीं थी। वे न उसकी सैन्य का सामना कर सकते थे और न सुदूरपूर्व के व्यापार-वाणिज्य का मार्ग बन्द होना ही सहन कर सकते थे। उन्होंने पुत्री को अपनी कठिनाइयां बताईं, तो देवी कलिंगसेना ने पिता और जनपद के स्वार्थरक्षण के लिए बलि दे दी और विगलित-यौवन प्रसेनजित् से विवाह करना अंगीकार करने वे श्रावस्ती चली गईं।”
“पूजार्ह हैं देवी कलिंगसेना, देव!”
“पूजार्ह ही हैं भद्रे, परन्तु जनपद के लिए आत्मबलि देने वाली पूजार्ह अकेली देवी कलिंगसेना ही नहीं हैं, देवी अम्बपाली भी हैं।”
“देव कौशाम्बीपति के इस अनुग्रह-वचन से आप्यायित हुई।”
“तो भद्रे, अब मैं जाता हूं, तुम्हारा कल्याण हो। मेरा यह अनुरोध रखना, कि किसी मनुष्य के सम्मुख दिव्य नृत्य न करना, जब तक कि तीन ग्रामों में वीणावादन करने वाला कोई पुरुष न मिल जाए।”
“ऐसा ही होगा महाराज!”
उदयन तत्क्षण अन्तर्धान हो गए। अम्बपाली विमूढ़ भाव से आश्चर्यचकित हो उसे श्वेतमर्मर की पीठ पर बैठी देखती रही।
18. ज्ञातिपुत्र सिंह : वैशाली की नगरवधू
ज्ञातिपुत्र सिंह तक्षशिला के विश्वविश्रुत विश्वविद्यालय में वहां के दिशा-प्रमुख युद्धविद्या के एकान्त आचार्य बहुलाश्व से रणचातुरी और राजनीति का अध्ययन कर ससम्मान स्नातक हो, दस वर्ष बाद वैशाली में लौटे थे। विश्वविद्यालय में अध्ययन करते हुए उन्होंने पर्शुपुरी के शासनुशास के साथ हुए विकट युद्धों में अपने धैर्य, प्रत्युत्पन्नमति और चातुरी का बड़ा भारी परिचय दिया था और उनके शौर्य पर मुग्ध हो आचार्य बहुलाश्व ने अपनी इकलौती पुत्री रोहिणी उन्हें ब्याह दी थी। सो ज्ञातिपुत्र बहुत सामान, बहुत-सा यश और चन्द्रकिरण के समान दिव्य देवांगना पत्नी को संग ले वैशाली आए थे। इससे वैशाली में उनके स्वागत-सत्कार की धूम मच गई थी। उनके साथ पांच और लिच्छवि तरुण विविध विद्याओं में पारंगत हो तक्षशिला के स्नातक की प्रतिष्ठा-सहित वैशाली लौटे थे। तथा गांधारपति ने वैशाली गणतन्त्र से मैत्रीबन्धन दृढ़ करने के अभिप्राय से गान्धार के दश नागरिकों का एक शिष्टदल, दश अजानीय असाधारण अश्व और बहुत-सी उपानय-सामग्री देकर भेजा था। इस दल का नायक एक वीर गान्धार तरुण था। वह वही वीर योद्धा था, जिसने उत्तर कुरु के देवासुर संग्राम में देवराज इन्द्र के आमन्त्रण पर असाधारण सहायता देकर असुरों को पददलित किया था और देवराज इन्द्र ने जिसे अपने हाथों से पारिजात पुष्पों की अम्लान दिव्यमाला भेंट कर देवों के समान सम्मानित किया था।
इन सम्पूर्ण बहुमान्य अतिथियों के सम्मान में गणपति सुनन्द ने एक उद्यान-भोज और पानगोष्ठी का आयोजन किया था। इस समारोह में सम्मिलित होने के लिए वैशाली के अनेक प्रमुख लिच्छवि और अलिच्छवि नागरिक और महिलाएं आमन्त्रित की गई थीं। गण-उद्यान रंगीन पताकाओं और स्वस्तिकों से खूब सजाया गया था, तथा विशेष प्रकार से रोशनी की व्यवस्था की गई थी। सुगन्धित तेलों से भरे हुए दीप और शलाकाएं स्थान-स्थान पर आधारों में जल रहे थे।
ज्ञातिपुत्र सिंह ने एथेन्स का बना एक महामूल्यवान् चोगा पहना था। यह चोगा यवन राजा ने उन्हें उस समय भेंट किया था, जब उन्होंने एथेन्स के वीरों के साथ मिलकर पर्शुपुरी के शासनुशास से युद्ध करके असाधारण शौर्य प्रकट किया था। उनके पैरों में एक पुटबद्ध लाल रंग का उपानह था और सिर पर लाल रंग के कमलों की एक माला यावनीक पद्धति से बांधी गई थी, जो उनके सुन्दर चमकदार केशों पर खूब सज रही थी। इस सज्जा में वे एक सम्पन्न यवन तरुण-से दीख पड़ रहे थे।
उनकी गान्धारी पत्नी रोहिणी ने सुरुचिसम्पन्न काशिक कौशेय का उत्तरीय, अन्तरवासक और कंचुकी धारण की थी। उसके सुनहरे केशों को ताज़े फूलों से सजाया गया था—जिसमें अद्भुत कला का प्रदर्शन था। चेहरे पर हल्का वर्णचूर्ण था; कानों में हीरक-कुण्डल और कण्ठ में केवल एक मुक्तामाला थी। उसकी लम्बी-छरहरी देहयष्टि अत्यन्त गौर, स्वच्छ, संगमर्मर-सा चिकना गात्र, कमल के समान मुख और बहुमूल्य नीलम के समान पानीदार आंखें उसे दुनिया की लाखों-करोड़ों स्त्रियों से पृथक् कर रही थीं। उस असाधारण तेज-रूप और गरिमामयी रमणी की ओर उस पानगोष्ठी में अनगिनत आंखें उठकर अपलक रह जाती थीं। अन्य स्नातकों ने और गान्धार शिष्टदल के सदस्यों ने भी अपनी-अपनी रुचि और समय के अनुकूल परिधान धारण किया था और वे सब बहुत ही शोभायमान हो रहे थे। वे जिधर भी जाते—नागरिक स्त्री-पुरुष उनका ससम्मान स्वागत कर रहे थे।
वैशाली के नागरिकों में महाबलाधिकृत सुमन थे, जिनकी श्वेत लम्बी दाढ़ी और गम्भीर चितवन उनके अधिकार और गौरव को प्रकट करते थे। नौबलाध्यक्ष चन्द्रभद्र अपने स्थूल किन्तु फुर्तीले शरीर के साथ उपस्थित थे। उनकी आयु साठ को पार गयी थी, उनका चेहरा रुआबदार था। उस पर श्वेत गलमुच्छे और छोटी-छोटी चमकीली आंखें उन्हें सबसे पृथक् कर रही थीं। वे जन्मजात सेनापति मालूम देते थे। वे फक्कड़, हंसमुख और मिलनसार थे और इधर-उधर चुहल करते फिर रहे थे। इस समय वे खूब भड़कीली पोशाक पहने थे। श्रोत्रीय आश्वलायन भी इस गोष्ठी की शोभा बढ़ा रहे थे। ये प्रसिद्ध गृहसूत्रों के निर्माता कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे। ये कमर में पाटम्बर पहने और कन्धे पर काशी का बहुमूल्य शाल डाले, लम्बी चुटिया फटकारे, बढ़-बढ़कर बातें बना रहे थे और बात-बात पर अपने गृहसूत्रों का ही राग अलाप रहे थे। इनकी कमर में श्वेत जनेऊ था। इनकी खोपड़ी गंजी, चेहरा सफाचट और दांत कुछ गायब, कुछ सड़े हुए, शरीर लम्बा, दुबला, जैसे हड्डियों पर खाल चढ़ा दी हो। अपनी मिचमिची आंखों से घूर-घूरकर सुन्दरियों को ताक रहे थे।
इनकी बगल में उपनायक शूरसेन अपने ठिगने गोल-मटोल शरीर को विविध शस्त्रों और आभरणों से सजाए किसी अभिनयकर्ता से कम नहीं प्रतीत होते थे। ये बड़े विनोदी पुरुष थे और संगीत की इन्हें सनक थी। इनके संगीत की प्रशंसा करने पर इनसे सब-कुछ लिया जा सकता था।
ब्राह्मण मठ के आचार्य महापंडित भारद्वाज अपनी लम्बी चुटिया फटकारे, तांबे के समान चमकदार शरीर पर स्वच्छ जनेऊ धारण किए, महाज्ञानी दार्शनिक गोपाल से उलझ रहे थे। गोपाल हंस-हंसकर अपना तर्क भी करते जाते थे और गोल-गोल ललचाई आंखों से सुन्दरियों की रूप-सुधा का पान भी करते जाते थे। उनके इस आचरण पर कुछ मुग्धाएं झेंप रही थीं और कुछ प्रौढ़ाएं मुस्करा रही थीं।
परन्तु एक व्यक्ति इन सबसे अलग-अलग मानो सबको अपने से तुच्छ समझता हुआ, सबका बारीकी से निरीक्षण करता हुआ, कुछ मुस्कराता, कुछ गुनगुनाता घूम रहा था। उसके वस्त्र बहुमूल्य, पर अस्त-व्यस्त थे। उसकी आयु का कुछ पता नहीं लगता था कि कितनी है। शरीर ऐसा सुगठित दीख रहा था कि कदाचित् वह एक मजबूत सांड़ को भी गिरा दे। कुछ लोग उससे बात किया चाहते थे, पर वह किसी को मुंह नहीं लगाता था। लोग उसकी ओर संकेत करके बहुत भांति की बातें करते थे। कुछ चमत्कृत नेत्रों से और कुछ संदिग्ध भाव से उसकी ओर ताक रहे थे। वास्तव में यह वैशाली का प्रसिद्ध कीमियागर वैज्ञानिक सिद्ध गौडपाद था जिसकी बाबत प्रसिद्ध था कि उसके पास पारसमणि है और वह पर्वत को भी स्वर्ण कर सकता है तथा उसकी आयु सैकड़ों वर्ष की है।
तरुण-मण्डल में युवराज स्वर्णसेन, उनके मित्र सांधिविग्रहिक जयराज और अट्टवी-रक्षक राजस्वर्णसेन, उनके मित्र सांधिविग्रहिक जयराज और अट्टवी-रक्षक महायुद्धवीर युवक सूर्यमल्ल का एक गुट था, जो हंस-हंसकर तरुणीजनों की व्याख्या, खासकर रोहिणी की रूप-ज्योति की अम्बपाली से तुलना करने में व्यस्त था। नगरपाल सौभद्र और उपनायक अजित ये दो तरुण घुसफुस अलग कुछ बातें कर रहे थे।
महिलाओं में उल्काचेल के शौल्किक की पत्नी रम्भा सबका ध्यान अपनी ओर आर्किषत कर रही थी। वह बसन्त की दोपहरी की भांति खिली हुई सुन्दरी थी। उसके हास्य-भरे होंठ, कटाक्ष-भरे नेत्र और मद-भरी चाल मन को मोहे बिना छोड़ती न थी। वह बड़ी मुंहफट, हाज़िरजवाब और चपला थी। एक प्रकार से जितनी लिच्छवि तरुणियां वहां उपस्थित थीं, वह उन सबकी नेत्री होकर गांधारी बहू रोहिणी को घेरे बैठी थी। उसके कारण क्षण-क्षण में तरुणी मण्डली से एक हंसी का ठहाका उठता था और गोष्ठी के लोग उधर देखने को विवश हो जाते थे। इसमें सन्देह नहीं कि रोहिणी एक दिव्यांगना थी और रूपच्छटा उसकी अद्वितीय थी, परन्तु एक असाधारण बाला भी यहां इस तरुणी-मण्डली में थी, जो लाजनवाई चुपचाप बैठी थी और कभी-कभी सिर्फ मुस्करा देती थी। उसकी लुनाई रोहणी से बिलकुल ही भिन्न थी। उसकी आंखें गहरी काली और ऐसी कटीली थीं कि उनके सामने आकर बिना घायल हुए बचने का कोई उपाय ही नहीं था। उसके केश अत्यन्त घने, काले और खूब चमकीले थे। गात्र का रंग नवीन केले के पत्ते के समान और चेहरा ताज़े सेब के समान रंगीन था। उसका उत्सुक यौवन, कोकिल-कण्ठ, मस्तानी चाल ये सब ऐसे थे जिनकी उपमा नहीं थी। पर इन सबसे अपूर्व सुषमा की खान उसकी व्रीड़ा थी। वह ओस से भरे हुए एक बड़े ताज़े गुलाब के फूल की भांति थी, जो अपने ही भार से नीचे झुक गया हो। इस भुवनमोहिनी कुमारी बाला का नाम मधु था और यह महाबलाधिकृत सुमन की इकलौती पुत्री थी।
इतने सम्मान्य अतिथिगण उद्यान में आ चुके थे और एक प्रहर रात्रि भी जा चुकी थी। भोज का समय लगभग हो चुका था, परन्तु एक असाधारण अतिथि नहीं आया था जिसकी प्रतीक्षा छोटे-बड़े सभी को थी वह थी देवी अम्बपाली। लोग कह रहे थे, आज यहां रूप का त्रिवेणी-संगम होगा।
सिंह को सम्मुख देखते ही नौबलाधिकृत चन्द्रभद्र दोनों हाथ फैलाकर आगे बढ़े। उन्होंने कहा—”स्वागत सिंह, वैशाली में तुम्हारा स्वागत है और गान्धारी स्रुषा का भी। आज आयुष्मान्, तुझे देखकर बहुत पुरानी बात याद आ गई। उस बात को आज बीस वर्ष बीत गए। पुत्र, तुम्हारे पिता अर्जुन तब महाबलाधिकृत थे और मैं उनका उपनायक था। उन्होंने किस प्रकार कमलद्वार पर सारी मागध सेना के हथियार रखवाए थे और एक नीच मागध बन्दी ने—जिसे तुम्हारे पिता ने कृपाकर जीवन-दान दिया था, धोखे से रात को मार डाला था। उस दिन हर्ष-विषाद के झूले में वैशाली झूली थी। पुत्र! वही मागध आज फिर अपनी लोल्प राज्यलिप्सा से हमारे गण को विषदृष्टि से देख रहे हैं।” सिंह ने हाथ उठाकर वृद्ध सेनापति का अभिवादन करके कहा—”भन्ते सेनापति, मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मागधों से पिता के प्राणों का मूल्य लूंगा, अपने रक्त की प्रत्येक बूंद देकर भी, एक सच्चे लिच्छवि तरुण की भांति।
“साधु सिंह, साधु, तो अब मुझे वृद्ध होने का खेद नहीं, परन्तु…”
“परन्तु क्या भन्ते?”
“आयुष्मान्, तेरा यह वेश तो बिल्कुल ही पराया है?”
“भन्ते सेनापति, आचार्य बहुलाश्व ने जब मुझे तक्षशिला से विदा किया था, तब दो बहुमूल्य वस्तुएं मुझे दी थीं—एक अपनी इकलौती पुत्री रोहिणी और दूसरी यह बात कि—पुत्र, विश्व के मानवों में परायेपन का भाव मत रखना।”
इस पर रम्भा ने हंसकर नटखटपने से कहा—”तो सिंह कुमार, इन दोनों बहुमूल्य वस्तुओं में से एक रोहिणी को तो मैं पसन्द करती हूं।”
“और दूसरी को मैं। आयुष्मान्, तुम रम्भा से सुलझो, मैं तब तक अन्य अतिथियों को देखूं।” वह हंसते हुए आगे बढ़ गए।
सेनापति चन्द्रभद्र ने श्रोत्रिय आश्वलायन को दूर से देखा, तो हर्ष से चिल्लाते हुए उनके पास दौड़े आए और कहा—”स्वागत मित्र आश्वलायन, खूब आए! कभी-कभी तो मिला करो। कहो, कैसे रहे मित्र!”
“परन्तु सेनापति, गृहसूत्रों के रचने से समय मिले तब तो। मैं चाहता हूं कि गृहस्थों की व्यवस्था स्थापित हो जाए और उनमें षोडश संस्कारों का प्रचलन हो जाए।”
“यह तो बहुत अच्छा है, परन्तु क्या रात-दिन सूत्र ही रचते हो, कभी अवकाश ही नहीं पाते?”
“पाता क्यों नहीं सेनापति, पर अवकाश के समय ब्राह्मणी जो भुजंगिनी–सी लिपटती है! अरे! क्या कहूं सेनापति, ज्यों-ज्यों वह बूढ़ी होती जाती है, उसका चाव-शृंगार बढ़ता ही जाता है। देखोगे…तो….”
“समझ गया, समझ गया! परन्तु आज कैसे ब्राह्मणी से अवकाश मिल गया, मित्र?”
“अरे उस पापिष्ठा अम्बपाली को देखने का कौतूहल खींच लाया। उसके आवास में तो हीरे-मोती बिखेरने वाले ही जा सकते हैं, मेरे जैसे दरिद्र ब्राह्मण नहीं।”
“अच्छा, यह बात है? मित्र आश्वलायन, किन्तु क्या ब्राह्मणी से यह बात कह आए हो?”
“अरे नहीं, नहीं। कहता तो क्या यहां आ पाता? जानते हैं सेनापति, डायन इतनी ईर्षा करती है, इतना सन्देह करती है कि क्या कहूं! तनिक किसी दासी ने हंसकर देखा कि बिना उसे बेचे चैन नहीं लेगी। उस दिन एक चम्पकवर्णा तरुणी दासी को चालीस निष्क पर बेच डाला। वह कभी-कभी इस बूढ़े ब्राह्मण की चरणसेवा कर दिया करती थी। सेनापति, कृत्या है कृत्या!”
“तो मित्र आश्वलायन, उस पापिष्ठा अम्बपाली को देखने के लिए इतनी जोखिम क्यों उठा रहे हो?”
“यों ही सेनापति, विश्व में पाप-पुण्य दोनों का ही स्पर्श करना चाहिए।”
“तो मित्र, खूब मज़े में स्पर्श-आलिंगन करो, यहां ब्राह्मणी की बाधा नहीं है।”
ब्राह्मण खूब ज़ोर से हंस पड़ा। इससे उसके कुत्सित-गन्दे दांत बाहर दीख पड़े। उन्होंने कहा—”आपका कल्याण हो सेनापति, पर वह पापिष्ठा यहां आएगी तो?”
“अवश्य आएगी मित्र, आयुष्मान् सिंह और उससे अधिक उसकी गान्धारी पत्नी को देखने के लिए देवी अम्बपाली बहुत उत्सुक है।”
“यह किसलिए सेनापति?”
“उसने सुना है कि सिंह और उसके तरुण मित्रों ने उसकी उपेक्षा की है। देखते नहीं, वह गान्धारीकन्या देवकन्या–सी ऐसी अप्रतिम रूपज्योति लेकर वैशाली में आई है, जिससे अम्बपाली को ईर्ष्या हो सकती है।”
“ऐसा है, तब तो सेनापति, उस गान्धारीकन्या को भी भलीभांति देखना होगा।”
“सब कुछ देखो मित्र, आज यहां रूप की हाट लग रही है।”
“यह देखो, वे नायक शूरसेन और महापंडित भारद्वाज इधर ही को आ रहे हैं। खूब आए शूरसेन, आओ, मैं मित्र आश्वलायन श्रोत्रिय से तुम्हारा परिचय…।”
“हुआ, परन्तु सेनापति, देवी अम्बपाली अभी तक क्यों नहीं आईं—कह सकते हैं?”
“नहीं, नायक।”
“परन्तु वह आएंगी तो?”
“अवश्य आएंगी नायक शूरसेन, पर तुम उनके लिए इतने उत्सक क्यों हो?”
शूरसेन ने ही-ही-ही हंसते हुए कहा—”देखूंगा—एक बार देखूंगा। सुना है, उसने कोसल प्रसेनजित् को निराश कर दिया है।”
महापंडित भारद्वाज ने हाथ उठाकर नाटकीय ढंग से कहा—”अरे, वह वैशाली की यक्षिणी है। मैं उसे मन्त्रबल से बद्ध करूंगा।”
गणित और ज्योतिष के उद्भट ज्ञाता त्रिकालदर्शी सूर्यभट्ट ने अपने बड़े डील-डौल को पीछे से हिलाकर कहा—”मैं कहता हूं, महापंडित जन्म-जन्मांतर से उस यक्षिणी से आवेशित हैं।”
सबने लौटकर देखा, सूर्यभट्ट और महादार्शनिक गोपाल पीछे गम्भीर मुद्रा में खड़े हैं। सूर्यभट्ट की बात सुनकर दार्शनिक और तार्किक गोपाल बोले—”हो भी सकता है। नहीं भी हो सकता है। यह नहीं–कि नहीं हो सकता है।” इस पर सब हंस पड़े।
इन महार्घ पुरुषों के सामने की एक स्फटिक-शिला पर युवराज स्वर्णसेन, सूर्यमल्ल, सांधिविग्रहिक जयराज और आगार कोष्ठक सौभद्र बैठे थे।
युवराज ने कहा—”क्यों सौभद्र, क्या कारण है कि तुम कल रात मेरी पान-गोष्ठी में नहीं आए और यहां अभी से उपस्थित हो?”
“इसका कारण तो स्पष्ट है, वहां देवी अम्बपाली के आने की कोई संभावना नहीं थी और यहां अवश्य उनका दर्शन-लाभ होगा।”
“यह बात है? तो तुम कब से देवी अम्बपाली की कृपा के भिखारी बन गए?”
“कौन, मैं? मैं तो जन्म-जन्म से देवी की कृपा का भिखारी रहा हूं।”
उन्होंने सामने खड़े सूर्यभट्ट की ओर देखकर मुस्कराकर कहा—”परन्तु युवराज, हम उचित नहीं कर रहे हैं। हमें ज्ञातिपुत्र सिंह और उनकी पत्नी का अभिनन्दन करना चाहिए।”
“चाहिए तो, परन्तु अब समय कहां है? वह देवी अम्बपाली का आगमन हो रहा है।”
सबने चकित होकर कहने वाले की ओर घूमकर देखा, आचार्य गौड़पाद भावहीन रीति से मुस्करा रहे हैं। तरुणों ने उनकी उपस्थिति से अप्रतिभ होकर कहा—
“नहीं, नहीं, अभी भी समय है। पान आरम्भ नहीं हुआ। चलो, हम लोग सिंह के पास चलें।” तीनों तरुण तेज़ी से उधर चल दिए—जहां तरुण मण्डल से घिरे सिंह उनके विविध प्रश्नों के उत्तर में उनके कौतूहल को दूर कर उनका मनोरंजन कर रहे थे।
देवी अम्बपाली अपनी दो दासियों के साथ आई थीं। उन्होंने अपना प्रिय श्वेत कौशेय का उत्तरीय और लाल अन्तर्वासक पहना था। वे कौशाम्बीपति उदयन की दी हुई गुलाबी रंग की दुर्लभ मुक्ताओं की माला धारण किए थीं। उनकी दृष्टि में गर्व, चाल में मस्ती और उठान में सुषमा थी। अम्बपाली को देखते ही लोगों में बहुविध कौतूहल फैल गया। क्षण भर को उनकी बातचीत रुक गई और वे आश्चर्यचकित हो उस रूपज्वाला की अप्रतिम देहयष्टि को देखने लगे।
पान प्रारम्भ हो गया। दास-दासी दौड़-दौड़कर मेहमानों को मैरेय, माध्वीक और दाक्खा देने लगे।
अम्बपाली हंसती हुई उनके बीच राजहंसिनी की भांति घूमने और कहने लगी—”मित्रो! अभिनन्दन करती हूं और अभिलाषा करती हूं खूब पियो!”
वह मन्द गति से घूमती हुई वहां पहुंची जहां तरुण-तरुणियों से घिरे हुए सिंह अपने संगियों के साथ हंस-हंसकर विविध वार्तालाप कर रहे थे। उसने रोहिणी के निकट पहुंचकर कहा—”गान्धार कन्या का वज्जी भूमि पर स्वागत! सिंह ज्ञातिपुत्र, तुम्हारा भी और तुम्हारे सब साथियों का भी।” फिर उसने हंसकर रोहिणी से कहा—
“वैशाली कैसी लगी बहिन?”
“शुभे, क्या कहूं! अभी बारह घड़ी भी इस भूमि पर आए नहीं हुईं। इसी बीच में इतनी आत्मीयता देख रही हूं। देखिए, रम्भा भाभी को, इनके स्पर्श मात्र से ही मार्ग के तीन मास की थकान मिट गई।”
“स्वस्ति रम्भा बहिन, तुम्हारी प्रशंसा पर ईर्ष्या करती हूं।”
“देवी अम्बपाली की ईर्ष्या मेरे अभिमान का विषय है।”
अम्बपाली ने मुस्कराकर सिंह से कहा—”मित्र सिंह, तुम्हें मैं तक्षशिला से ऐसी अनुपम निधि ले आने पर बधाई देती हूं।” फिर रोहिणी की ओर देखकर कहा—”भद्रे रोहिणी, वज्जीभूमि क्या तुम्हें गान्धार-सी ही दीखती है? कुछ नयापन तो नहीं दीखता?”
“ओह, एक बात मैं वज्जीभूमि में सहन नहीं कर सकती हूं?”
“वह क्या बहिन?”
“ये दास!”
उसने एक कोने में विनयावनत खड़ी अम्बपाली की दोनों दासियों की ओर संकेत करके कहा—”कैसे आप मनुष्यों को भेड़-बकरियों की भांति खरीदते-बेचते हैं? और कैसे उन पर अबाध शासन करते हैं?” वह शरच्चन्द्र की कौमुदी में निर्मल पुष्करिणी में खिली कुमुदिनी की भांति स्निग्ध-शीतल सुषमा बिखरने वाली अम्बपाली की यवनी दासी मदलेखा के निकट आई, उसकी लज्जा से झुकी हुई ठोड़ी उठाई और कहा—” कैसे इतना सहती हो बहिन, जब हम सब बातें करते हैं, हंसते हैं, विनोद करते हैं, तुम मूक-बधिर-सी चुपचाप खड़ी कैसे रह सकती हो? निर्मम पाषाण-प्रतिमा सी! यही विनय तुम्हें सिखाया गया है? ओह! तुम हमारे हास्य में हंसती नहीं और हमारे विलास से प्रभावित भी नहीं होतीं?” रोहिणी ने आंखों में आंसू भरकर मदलेखा को छाती से लगा लिया। फिर पूछा—”तुम्हारा नाम क्या है, हला?” मदलेखा ने घुटनों तक धरती में झुककर रोहिणी का अभिवादन किया और कहा—”देवी, दासी का नाम मदलेखा है।”
“दासी नहीं, हला। अच्छा देवी अम्बपाली, जब तक हम यहां हैं, कुछ क्षणों के लिए मदलेखा और उसकी संगिनी को…क्या नाम है उसका?”
“हज्जे चन्द्रभागा।”
“सुन्दर! मदलेखा और चन्द्रभागा को स्वच्छन्द इस पानगोष्ठी में भाग लेने और आमोद-प्रमोद करने की स्वाधीनता दे दी जाए।”
“जिसमें गान्धारकुमारी का प्रसाद हो!” अम्बपाली ने हंसते हुए कहा। फिर उसने स्वर्णसेन की ओर हाथ करके कहा—
“युवराज, क्यों नहीं तुम वज्जी में दासों को अदास कर देते हो?”
रोहिणी ने कहा—”क्या युवराज ऐसा करने की क्षमता रखते हैं?”
“नहीं भद्रे, मुझमें यह क्षमता नहीं है। इन दासों की संख्या अधिक है। फिर वज्जीभूमि में अलिच्छवियों के दास ही अधिक हैं।”
“वज्जी में अलिच्छवि?”
“हां भद्रे, वे लिच्छवियों से कुछ ही कम हैं। वे सब कर्मकर ही नहीं हैं, आर्य हैं। उनमें ब्राह्मण हैं, वैश्य हैं। उन्हें वज्जी-शासन में अधिकार नहीं हैं, पर उनमें बहुत-से भारी-भारी धनकुबेर हैं। उनके पास बहुत धरती है, लाखों-करोड़ों का व्यापार है जो देश देशान्तरों में फैला हुआ है। उनके ऊपर किसी प्रकार का राजभार नहीं, न वे युद्ध करते हैं। वे स्वतन्त्र और समृद्ध जीवन बिताते हैं। उन्हें नागरिकता के सम्पूर्ण अधिकार वज्जीभूमि में प्राप्त हैं। उनका बिना दासों के काम चल ही नहीं सकता। फिर यवन, काम्बोज, कोसल और मगध के राज्यों से बिकने को निरन्तर दास वज्जीभूमि में आते रहते हैं।”
“परन्तु युवराज, वे कर्मकर जनों से वेतन-शुल्क देकर अपना काम करा सकते हैं।”
“असम्भव है शुभे, इन अलिच्छवियों की गुत्थियां हमारे सामने बहुत टेढ़ी हैं। ये आचार्य आश्वलायन यहां विराजमान हैं। इन्हीं से पूछिए, ये श्रोत्रिय ब्राह्मण हैं और अलिच्छवियों के मुखिया हैं।” आर्य आश्वलायन अपनी मिचमिची आंखों से इन सुन्दरियों की रूप-सुधा पी रहे थे, अब उन्होंने उनकी कमल-जैसी आंखें अपनी ओर उठती देखकर कहा—”शान्तं पापं! शान्तं पापं, भद्रे दास दास हैं और आर्य आर्य हैं। मैं श्रोत्रिय ब्राह्मण हूं, नित्य षोडशोपचार सहित षड्कर्म करता हूं। षडंग वेदों का ज्ञाता हूं, दर्शनों पर मैंने व्याख्या की है और गृह्यसूत्रों का निर्माण किया है। सो ये अधम क्रीत दास क्या मेरे समान हो सकते हैं? आर्यों के समान हो सकते हैं?”
उन्होंने अपने नेत्रों को तनिक और विस्तार से फैलाकर और अपने गन्दे-गलित दांतों को निपोरकर मैरेय के घड़े में से सुरा-चषक भरते हुए तरुण काले दास की ओर रोषपूर्ण ढंग से देखा।
देवी अम्बपाली खिलखिलाकर हंस पड़ी। उन्होंने अपनी सुन्दरी दासी मदलेखा की ओर संकेत करके कहा—”और आर्य, उस नवनीत-कोमलांगी यवनी के सम्बन्ध में क्या राय रखते हैं?”
आर्य आश्वलायन का रोष तुरन्त ठण्डा हो गया। उन्होंने नेत्रों में अनुराग और होंठों में हास्य भरकर कहा—”उसकी बात जुदा है, देवी अम्बपाली, पर फिर भी दास-दास हैं और आर्य आर्य।”
“किन्तु आर्य, यह तो अत्यन्त निष्ठुरता है, अन्याय है। कैसे आप यह कर पाते हैं और कैसे इसे वह सहन करते हैं? इस विनय, संस्कृति, शोभा और सौष्ठव की मूर्ति मदलेखा को ‘आहज्जे’ कहकर पुकारने में आपको कष्ट नहीं होता?” रोहिणी ने कहा।
“किन्तु भद्रे, हम इन दासों के साथ अत्यन्त कृपा करते हैं, फिर वज्जी के नियम भी उनके लिए उदार हैं, वज्जी के दास बाहर बेचे नहीं जाते।”
“किन्तु आर्य, समाज में सब मनुष्य समान हैं।”
“नहीं भद्रे, मैं समाज का नियन्ता हूं, समाज में सब समान नहीं हो सकते। इसी वज्जी में ये लिच्छवि हैं, जिनके अष्टकुल पृथक्-पृथक् हैं। ये किसी अलिच्छवि माता-पिता की संतान को लिच्छवि नहीं मानते। अभिषेक-पुष्करिणी में वही लिच्छवि स्नान कर पाता है–जिसके माता-पिता दोनों ही लिच्छवि हों और उसका गौर वर्ण हो, इसके लिए इन लिच्छवियों के नियम बहुत कड़े हैं। फिर हम श्रोत्रिय ब्राह्मण हैं, शुद्ध आर्य, गृहपति वैश्य हैं, जो सोलह संस्कार करते हैं और पंच महायज्ञ करते हैं। अधगोरे कर्मकर हैं और काले दास भी हैं, जो मगध, चम्पा, ताम्रपर्णी से लेकर तुर्क और काकेशस एवं यवन तक से वज्जीभूमि में बिकने आते हैं। भद्रे, इन सबमें समानता कैसे हो सकती है? सबकी भाषा भिन्न, रंग भिन्न, संस्कृति भिन्न और रक्त भिन्न हैं।”
“किन्तु आर्य, हमारे गान्धार में ऐसा नहीं है, वहां सबका एक ही रंग, एक ही भाषा, एक ही रक्त है। वहां हमारा सम्पूर्ण राष्ट्र एक है। ओह, कैसा अच्छा होता आर्य, यदि यहां भी ऐसा ही होता!”
“ऐसा हो नहीं सकता बहिन,” अम्बपाली ने हंसकर कहा। “अब तुम गान्धार के स्वतन्त्र वातावरण का सुखस्वप्न भूल जाओ। वज्जी संघ को आत्मसात् करो, जहां युवराज स्वर्णसेन जैसे लिच्छवि तरुण और आर्य आश्वलायन जैसे श्रोत्रिय ब्राह्मण रहते हैं, जिन्हें बड़े बने रहना ही होगा। इन्हें दास चाहिए, दासी चाहिए और भोग चाहिए। किन्तु क्या बातों में ही रहेंगी शुभे गान्धारपुत्री! अब थोड़ा पान करो। हज्जे मदलेखा, गान्धारी देवी को मद्य दे।”
“नहीं, नहीं, सौम्ये, तुम यहां आकर मेरे निकट बैठो, मदलेखा!”
“तो ऐसा ही हो, भद्रे! मदलेखा, गान्धारी देवी जैसा कहें वैसा ही कर।”
“जेदु भट्टिनी, दासी…।”
“दासी नहीं, हला, यहां बैठो, हां, अब ठीक है। युवराज स्वर्णसेन आपको कुछ आपत्ति तो नहीं?”
“नहीं भद्रे, आपकी उदारता प्रशंसनीय है, परन्तु मुझे भय है इससे आप उनका कुछ भी भला न कर सकेंगी।”
“कैसे दुःख की बात है प्रिय, गान्धार से आते हुए मैंने जब प्राची के समृद्ध नगरों की पण्य-वीथियों में पड़े हुए स्वर्ण-रत्न और ठसाठस साधन-सामग्री देखी, तो मुझे बड़ा आह्लाद हुआ। मैं स्वीकार करती हूं कि हम गान्धारगण इतना ठाठ-बाट नहीं रखते, पर जब दासों, चाण्डालों और कर्मकरों के टूटे-फूटे झोंपड़े और उनके घृणास्पद उच्छिष्ट आहार तथा उन पर पशुओं की भांति आर्य नागिरकों का शासन देखा तो मेरा हृदय दुःख से भर गया। दासता और दारिद्र्य का यह दायित्व किस पर है प्रिय?” गान्धारी ने सिंह से कहा।
सिंह ने हंसकर पत्नी से कहा—”कदाचित् उस बूढ़े राजा पर, जिसे तुमने कल्माषदम्ब में देखा था, जिसके झुर्री-भरे मुंह पर अशोभनीय दाढ़ी थी और पिलपिले सिर पर एक भारी मुकुट था, जिसमें सेरों सोना-हीरा-मोती जड़ा हुआ था।”
“उस पर क्यों प्रिय?”
“क्योंकि वह अधिकार को बहुत महत्त्व देता है, वह अपने राज्य का सबसे धनी, सबसे बड़ा और सबसे स्वच्छन्द व्यक्ति है। उसके पास बिना ही कोई काम किए दुनिया भर की दौलत चली आती है, राज्य भर में फैले हुए दास, कर्मकर और प्रजावर्गीय जन उसी की सम्पत्ति हैं। यह दासों का तो अधिपति है ही, प्रजा के सर्वस्व का भी स्वामी है। वह उनकी युवती पुत्रियों को अपनी विलास-कामना के लिए अपने अन्तःपुर में जितनी चाहे भर सकता है, उनके तरुण पुत्रों को अपने अकारण युद्धों में मरवा सकता है, वह प्रजा की पसीने की कमाई को बड़े-बड़े महल बनवाने और उन्हें भांति-भांति के सुख-स्वप्नों से भरपूर करने में खर्च कर सकता है, उसकी आज्ञा सर्वोपरि है।”
“छिः–छिः, कैसे लोग यह सहन करते हैं प्रिय?
“यह तो अभ्यास की बात है। तुमने देखा नहीं, पश्चिम गान्धार कैसे पशुपुर के शासानुशास का शासन मान रहा है, कैसे उसने कलिंगसेना जैसी नारी को प्रसेनजित् के अन्तःपुर में भेज दिया? फिर वह सावधान और भयभीत भी तो रहता है, वह अनेकानेक विधि-विधानों से अपने को सुरक्षित रखता है।”
अम्बपाली ने हंसकर कहा—”कदाचित् गांधारपुत्री पर यह विदित नहीं है कि उनके जल को, ताम्बूल को, आहार को, जब तक कोई चख न ले, वे नहीं खाते-पीते।”
“यह किसलिए?”
“अपने प्राणनाश का जो उन्हें भय रहता है, सम्पूर्ण प्रजा का भार उन्हीं पर लदा रहता है, उनके बहुत गुप्त और प्रकट शत्रु होते हैं।”
“ओह, तो उन पर केवल उनके शरीर पर लदे हीरे-मोतियों ही का बोझ नहीं है, जीवन का भी बोझ है? फिर ये भाग्यहीन उस बोझ को लादे क्यों फिरते हैं? अपने जीवन में ये रज्जुले इतने भयभीत और भारवाही होने पर भी अन्य देशों को विजित करने की लिप्सा नहीं छोड़ सकते?”
“यही तो प्रिय, राजसत्ता और गणतन्त्र में मूलभेद है। गणतन्त्र तो एक जनतन्त्र तक सीमित है। उसका शासन अधिकार के सिद्धान्त पर नहीं, कर्तव्य के सिद्धान्त पर है। वह शासन करने के लिए नहीं, जन में सुव्यवस्था और सामूहिक सामंजस्य बनाए रखने के लिए है। परन्तु ये रज्जुले तो अधिकार के लिए हैं। उनकी नीति ही यह है कि उन्हें शासन करने को ऐसे अनेक राष्ट्र दरकार हैं, जो एक-दूसरे के विरुद्ध समय-समय पर उनकी सहायता करते रहें। फिर इन राजाओं की यह भी नीति है कि राष्ट्रों में फूट डालते रहें। आर्यों ही के राज्यों को ले लो। देखा नहीं तुमने प्रिय, हस्तिनापुर, काम्पिल्य कान्यकुब्ज, कोसल और प्रतिष्ठान, जहां-जहां आर्यों के रज्जुले हैं, वहां राष्ट्र टूटा-फूटा है। वहां ब्राह्मण हैं, क्षत्रिय हैं, वैश्य हैं और कर्मकर हैं, वे सब अपने को दूसरे से भिन्न समझते हैं। ये सभी बातें राजाओं की स्वेच्छाचारिता में बड़ी सहायक हैं। परन्तु गणशासन की बड़ी बाधा है। यहां वैशाली ही को लो। लिच्छवि सब एक हैं, पर अलिच्छवि आर्य और कर्मकर राजशासन में अधिकार न रखते हुए भी इस भिन्नता के कारण हमारी बहुत बड़ी बाधाएं हैं।
रम्भा ने इन बातों से ऊबकर कहा—”किन्तु स्रुषा गान्धारी, इस गहरी राजनीति से अपने हाथ कुछ न आएगा। कुछ खाओ-पियो भी।”
पान-भोजन प्रारम्भ हुआ। मैरेय, शूकर-मार्दव, मृग, गवन ओदन और मधुगोलक आदि भोजन-सामग्री परोसी जाने लगी। देवी अम्बपाली धर्मध्वज मण्डली से चुहल कर रही थीं। किन्तु उनकी सुन्दर दासियों को गान्धारी रोहिणी ने नहीं छोड़ा था—वे उसके पास बैठीं महिला–मण्डली के साथ-साथ खा-पी रही थीं। भोजन की समाप्ति पर सब नर नारियों ने अपनी-अपनी रुचि के अनुसार नृत्य किया और अर्द्धरात्रि व्यतीत होने पर यह समारोह समाप्त हुआ।
19. मल्ल दम्पती : वैशाली की नगरवधू
वसन्त की मस्ती वातावरण में भर रही थी। शाल वृक्षों पर लदे सफेद फूलों की सुगन्ध वन को सुरभित कर रही थी। एक तरुण और एक तरुणी अश्व पर सवार उस सुरभित वायु का आनन्द लेते, धीरे-धीरे बातें करते चले जा रहे थे। तरुणी का घुटने तक लटकने वाला अन्तर्वासक हवा में फड़फड़ा रहा था और उसके कुंचित, काली नागिन-से उन्मुक्त केश नागिन की भांति हवा में लहरा रहे थे। तरुण ने अपने घोड़े की रास खींचते हुए और अपने सुन्दर दांतों की छटा दिखाते हुए कहा—”वाह क्या बढ़िया आखेट है। वह देखो, पुष्करिणी के तीर पर वह सूअर अपनी थूथन कीचड़ में गड़ा-गड़ाकर क्या मज़े में मोथे की जड़ खा रहा है।”
“तो मैं अपना बाण सीधा करूं प्रिय?”
“ठहरो प्रिये, वह देखो, एक और मोटा वराह इधर ही को आ रहा है, हृदय पर बाण-संधान करना।”
तरुणी ने बाण धनुष पर चढ़ाकर अश्व को घुमाया।
तरुण ने भी फुर्ती से बाण को धनुष पर चढ़ा लिया। फिर उसने तरुणी के बराबर अश्व लाकर कहा—”सावधान रहना, यदि लक्ष्यच्युत हुआ तो पशु सीधा अश्व पर आएगा। हां, अब बाण छोड़ो।”
तरुणी ने कान तक खींचकर बाण छोड़ दिया। बाण सन्न से जाकर वराह की पसलियों में अटक गया। पशु ने वेदना से चीत्कर किया और क्रुद्ध हो घुर्र-घुर्र शब्द करता हुआ सीधा तरुणी के अश्व पर टूटा।
तरुण ने भी इसी बीच तानकर एक बाण चलाया, वह उसकी आंख फोड़ता हुआ गर्दन के पार निकल गया, पशु भूमि पर गिरकर छटपटाने लगा।
तरुणी ही-ही करके हंसने लगी। तरुण घोड़े से उतर पड़ा। वह पशु को खींचकर एक वृक्ष के नीचे ले गया। तरुणी ने भी घोड़े से उतर दोनों घोड़ों को बाग-डोर से बांध दिया। फिर तरुण ने पशु की खाल निकाली, मांस-खण्ड किए, तरुणी सूखी लकड़ियां बीन लाई और फिर उन्होंने मांस-खण्ड भून-भूनकर खाना प्रारम्भ किया।
तरुणी ने सुराचषक तरुण के मुंह लगाते हुए कहा-“प्रिय, कितना स्वाद है इसमें, कहो तो?”
“निस्संदेह, विशेषतः इसलिए कि इसमें हमारी स्वतन्त्रता भी समावेशित है।”
“यही तो, परन्तु प्रिय, कुशीनारा छोड़ते मेरी छाती फटती है। क्या कुशीनारा को बंधुल मल्ल की आवश्यकता ही नहीं है?”
“नहीं है प्रिये मल्लिके, तभी तो जब मैंने स्नातक होकर तक्षशिला को छोड़ा था, तो गुरुपद ने कहा था—यह आयुष्मान् जा रहा है, समस्त हस्तलाघव और राजकौशल सीखकर, मल्लों के गौरव की वृद्धि करने। और मेरा हस्तलाघव क्या कुशीनारा ने चार साल में देखा नहीं? गणपति ने इन चार वर्षों में जो गुरुतर राजकाज मुझे सौंपा, मैंने उसे सम्यक् पूर्ण किया, परन्तु गणसंस्था का मुझ पर सन्देह बना ही रहा प्रिये, मल्लों का सन्निपात जब जब हुआ, गणसदस्यों ने ईर्ष्यावश बाधा दी और मुझे उपसेनापति का पद भी मल्लों ने नहीं दिया। सदैव काली छन्द-शलाकाओं का ही बाहुल्य रहा सन्निपात में।”
मल्लिका ने सुराचषक भरा और कुरकुरा मांस-खण्ड भूनकर उसे पति को देते हुए कहा—”प्रिय, जाने दो, अमर्ष करने से क्या होगा! परन्तु कुशीनारा अपनी जन्मभूमि है।”
“जन्मभूमि? अपनी मां है, उसी से मेरा शरीर बना है। परन्तु कुशीनारा में तो मैं अब नहीं रहूंगा प्रिये, मेरी तो यहां आवश्यकता ही नहीं है। कितने ही सम्भ्रांत मल्ल मुझसे डाह करते हैं, क्योंकि उन्होंने मुझे सर्वप्रिय होते देखा है।”
“परन्तु इससे तो उन्हें प्रसन्न होना चाहिए था, उन पर तुम्हारे सभी अलौकिक गुण प्रकट हैं, क्या और भी किसी मल्ल ने तक्षशिला में इतना सम्मान पाया है?”
“नहीं,” बन्धुल ने प्याला खाली करके एक ओर रख दिया और उदास दृष्टि से वह मल्लिका की ओर देखकर बोला—”मैंने इच्छा की थी, कि मल्लों को मगध की लोलुप दृष्टि से अभय करूंगा, परन्तु अब नहीं।”
“तो फिर प्रिय, रज्जुले की श्रावस्ती ही क्यों–लिच्छवियों की वैशाली क्यों नहीं? महाली लिच्छवि तो तुम्हारा परम मित्र है, तक्षशिला में वह तुम्हारा सहपाठी भी रहा है। वह उस दिन आया था तो तुम्हारे गुणों का बखान करते थकता न था। सुना है, वह वैशाली के नगर-द्वार रक्षकों का अध्यक्ष है।”
“जानता हूं प्रिये, परन्तु महाली तो सदैव ही बन्धुल की कृपा का भिखारी रहा है, आज बन्धुल अपनी लाज खोलकर उसके पास नहीं जाएगा। फिर लिच्छवियों का गण आज अम्बपाली के स्त्रैण युवकों का गण है, वहां सुरासुन्दरी ही प्रधान हैं, उसका संगठन भी नष्ट हो रहा है, उसका विनाश होगा प्रिये!”
“ऐसा न कहो प्रिय, यहां रज्जुलों के बीच हमारे जो दो-चार छोटे-छोटे गण हैं, उनमें वैशाली के लिच्छवियों ही का गण समृद्ध है।”
“परन्तु स्थायी नहीं प्रिये, इससे तो श्रावस्ती ही ठीक है। कोसल के राजा प्रसेनजित् के बहुत लेख आ चुके हैं। वह हमारा आदर करेगा। हम दस वर्ष तक्षशिला में साथ-साथ पढ़े हैं! वह मेरे गुणों और शक्ति को जानता है और उसे मेरी आवश्यकता है।”
“किन्तु प्रिय, तुम्हीं ने तो कहा—”मल्लों ने तुम्हारे गुणों से ईर्ष्या की है, तुम वहां भी क्या ईर्ष्या से बचे रहोगे? गुणी और सर्वप्रिय होना जैसा अभ्युदय का कारण है, वैसा ही ईर्ष्या का भी। फिर, वह पराया जनपद, वह भी रज्जुलों का, जहां हम गणपद के स्वतन्त्र जनों की थोड़ी भी आस्था नहीं है।”
“तुम्हारा कहना यथार्थ है। ईर्ष्या होगी तो फिर यह खड्ग तो है पर अभी श्रावस्ती ही चलना श्रेयस्कर है। कोसलपति पांच महाराज्यों का अधिपति है। वह मूर्ख, आलसी और कामुक है। शत्रुओं से घिरा है। उसे एक विश्वस्त और वीर सेनापति की आवश्यकता है। आशा है, वह हमारा समादर करेगा।”
“ऐसा ही सही प्रिय, बहुत विलम्ब हुआ, बहुत सुस्ता लिए, अब चलें।”
दोनों ने अपने-अपने अश्व संभाले और आगे बढ़े। सूर्य ढलने लगा। दोनों यात्रियों की पीठ पर उसकी पीली धूप पड़ रही थी। मल्लिका ने कहा—”रात्रि कहां व्यतीत होगी, प्रिय?”
“ब्राह्मणों के मल्लिग्राम में, वहां मेरे मित्र सांकृत्य ब्राह्मण हैं, जो मल्ल जनपद में ख्यातिप्राप्त योद्धा हैं। वे हमारा सत्कार करेंगे। वह सामने अचिरावती की श्वेत धार दीख रही है प्रिये, उसी के तट पर उन सघन वृक्षों के झुरमुट के पीछे मल्लिग्राम है। घोड़े को बढ़ाओ, हम एक मुहूर्त में वहां पहुंच जाते हैं।”
दोनों ने अपने-अपने अश्व फेंके। असील जानवर अपने-अपने अधिरोहियों का संकेत पा हवा में तैरने लगे। सान्ध्य समीर और कोमल होकर उनकी पीठ पर थपकियां दे रहा था।
ग्राम सामने आ गया। अचिरावती की श्वेत धारा रजत-सिकताकणों में मन्द प्रवाह से बह रही थी। अश्वारोहियों ने अपने-अपने घोड़ों की लगाम ढीली की। अश्व तृप्त होकर शीतल जल पीने लगे।
एक तरुणी मशक पीठ पर लिए नदी-तीर पर आई। उसके पिंगल केश हवा में लहरा रहे थे। कन्धों पर होकर श्वेत ऊनी कम्बल वक्ष ढांप रहा था। कमर में लाल दुकूल था। यात्रियों को देखकर तरुणी ने कहा—
“कहां से आ रहे हो प्रिय अतिथियो!”
“कुशीनारा से।”
“जहां बन्धुल मल्ल रहते हैं?”
“मैं बन्धुल मल्ल हूं।”
“तुम? तो ये श्रीमती मल्लिका हैं, स्वागत बहिन, मैं सांकृत्य गौतम की पुत्री हूं।”
“तू लोमड़ी गोपा है?” बन्धुल हंसते हुए घोड़े से उतर पड़े।”
“मैं जल भर लूं तब चलें, पिता घर पर ही हैं, देखकर प्रसन्न होंगे।”
“तू अश्व को थाम, मैं जल भरता हूं।”
“ऐसा ही सही।” गोपा ने मशक बन्धुल को दे दी। बन्धुल ने मशक भरकर कन्धे पर रखी। गोपा घोड़े की रास थामे पैदल चली। मल्लिका अश्व पर सवार रही।
“आज किधर भूल पड़े बन्धुल?”
“भूल नहीं पड़ा, इच्छा से आया हूं।”
“बहुत दिन बाद!”
“सचमुच, तब तू बहुत छोटी थी।”
“पर मैं तुम्हें याद करती थी बन्धुल! देवी मल्लिका, अब कितने दिन मेरे पास रहेगी?”
“आज रात-भर गोपा, तुझे सोने न दूंगी, खूब गप्पें होंगी। क्यों?”
“मित्र गौतम करते क्या हैं?”
“वही सूत्र रचते हैं। हंसी आती है बन्धुल, सूत्र में एक मात्रा कर पाते हैं तो खूब हंसते हैं।”
“और अहल्या रोकती नहीं?”
“मां की वे परवाह कहां करते हैं? मैं ही उन्हें समय पर स्नान-आह्निक कराती हूं। वह सामने घर आ गया। पिताजी द्वार पर खड़े हैं।…पिताजी, देखो तो, मैं किसे ले आई हूं!”
बन्धुल को देखकर गौतम सांकृत्य बाहर आकर बोले—”अरे मित्र बन्धुल, स्वस्ति, स्वस्ति!”
“स्वस्ति मित्र गौतम, कहो न्यायदर्शन पूरा हुआ या नहीं?”
“अभी नहीं मित्र, इस धूर्त बोधायन को मैं कहता हूं, मसल डालूंगा। मैंने धर्मसूत्र रचे हैं बन्धुल!”
“सच, तो मित्र गौतम सांकृत्य योद्धा, दार्शनिक और धर्माचार्य हैं!”
“ये दुष्ट द्रविड़ कुछ करने दें तब न? अनार्य संस्कृति को आर्य संस्कृति में घुसेड़ रहे हैं। उधर यह ज्ञातिपुत्र महावीर, परन्तु अरे मल्लिकादेवी का स्वागत करना तो मैं भूल ही गया।”
“घर में स्वागत कैसा मित्र, फिर गोपा ने नदी-तीर पर ही यह शिष्टाचार पूरा कर दिया।”
“बहुत याद करती है गोपा तुम्हें बन्धुल! तुम्हारे उस आखेट की उसे याद है, जब उस गवय को एक ही बाण से तुमने मारा था। किन्तु हां, बेटी गोपा, जैमिनी कहां गया?”
“समिधा लाने गया था, वह आ रहा है।”
“जैमिनी, ये हमारे मित्र मल्ल बन्धुल आए हैं, मल्लिका भी है, एक वत्सतरी को लाकर काट तो मेरे द्वार पर वत्स, इन सम्मान्य अतिथियों के सम्मान में। क्यों मित्र, कोमल वत्सतरी का मांस, ओदन और मधु कैसा रहेगा?”
“बहुत बढ़िया, मित्र गौतम!”
“तो बेटी गोपा, देवी मल्लिका को भीतर ले जा और बन्धुल के लिए अर्घ्यपाद्य ला। क्यों मित्र, यहीं देवद्रुम की छाया में बैठा जाए?”
“यहीं अच्छा है। मित्र गौतम, बोधायन की क्या बात कह रहे थे?”
“कह रहा था, किन्तु ठहरो। गोपा, थोड़ा शूकर-मार्दव आग पर भून ला और पुरानी मैरेय भर ला, बन्धुल थका हुआ है।”
“आग तैयार है, मैं अभी भून लाती हूं। सोमक के हाथ मैरेय भेज रही हूं।”
“बैठ मित्र, हां, बोधायन नास्तिक कहता है—स्त्री के साथ अथवा यज्ञोपवीत बिना किए बालकों के साथ भोजन करने में दोष नहीं है, बासी खाना भी बुरा नहीं है और मामा फूफू की कन्या से विवाह भी विहित है। वह भारत के तीन खण्ड करता है और गंगा-यमुना के मध्य देश को सर्वोत्तम कहता है। वह भारत के आरट्ट, दक्षिण के कारस्कर, उत्पल के पुण्ड्र तथा बंग, कलिंग के सौवीरों को प्रायश्चित्त-विधान कहता है।”
“परन्तु मित्र गौतम, ऐसा दीखता है कि तुम्हारा न्यायदर्शन अब धरा रह जाएगा।”
“ऐसा क्यों मित्र!”
“तुमने क्या शाक्यपुत्र गौतम का नाम नहीं सुना?”
“सुना क्यों नहीं, वह क्या आजकल काशी में है?”
“नहीं, राजगृह गया है, परन्तु उसका धर्म आग की भांति फैल रहा है। उसके आगे तेरा धर्मसूत्र और न्यायदर्शन कुछ न कर पाएगा।”
“देखा जाएगा मित्र। ले मैरेय पी, ला गोपा, गर्म-गर्म भुने-कुरकुरे मांस-खण्ड दे। कह, कैसे हैं मित्र!”
“बड़े स्वादिष्ट, मुझे नमक के साथ भुने-कुरकुरे मांस में बहुत स्वाद आता है।”
“तो यथेच्छा खा मित्र!”
“खूब खा रहा हूं। परन्तु मित्र गौतम, तुम जो ब्राह्मणों को अन्य जातियों से उत्कर्ष देते हो, यह ठीक नहीं है।”
“वाह, ठीक क्यों नहीं है? देखते नहीं, इन रज्जुलों ने ब्रह्मवाद को लेकर परिषद् प्रारम्भ की है और उसमें वे गुरुपद धारण किए बैठे हैं। वे ब्राह्मणों को हीन बनाना चाहते हैं। देखा नहीं, उस अश्वपति कैकेय ने मेरे साथ कैसा नीच व्यवहार किया था। मेरे पुत्र ही के सामने मेरा अपमान किया और मुझे समित्पाणि होकर उसके आगे जाना पड़ा। उसने गर्व से कहा—”बैठ गौतम, ब्राह्मणों में सबसे प्रथम मैं तुझे यह ब्रह्मविद्या बताता हूं, आज से प्रथम किसी ब्राह्मण को यह विद्या नहीं आती थी।”
“फिर वह गुह्य विद्या तो तुम सीख आए मित्र?”
“खाक सीख आया। अरे कुछ विद्या भी हो! छल है छल। कोरा पाखण्ड! यज्ञ के ब्रह्मा को बना दिया ब्रह्म! पहले ब्रह्मा को लूट के माल में काफी हिस्सा देना पड़ता था, उनके अधीन रहना पड़ता था, उनके द्वारा यज्ञ-अनुष्ठान कराकर महाराज और सम्राट् की उपाधि ली जाती थी। पर अब तो वे ब्रह्म को जान गए, ब्रह्मज्ञानी हो गए। अरे मित्र बन्धुल, इस ब्रह्म के ढकोसले को मैं अच्छी तरह समझ गया हूं।”
“तो मुझे भी तो समझा मित्र गौतम!”
“सीधी बात है मित्र, यज्ञों में देवताओं के नाम पर गन्ध-शाली का भात, वत्सतरी का मांस और कौशेय, दास-दासी, हिरण्य-सुवर्ण, वडवा रथ दिया जाता था और समझा जाता था—यह देवता की कृपा से है; पर तुम जानते हो मित्र, ये भाग्यहीन देवता भी पूरे ढकोसले ही थे। इनमें से किसी एक को भी आज तक किसी ने देखा नहीं। अब लोग यह सन्देह न करेंगे कि ये देवता सचमुच हैं भी या नहीं? बस, इन सबों ने बैठे-ठाले ब्रह्म की कल्पना कर ली। उसे देखने की कोई इच्छा ही नहीं कर सकता। वह आकाश की भांति देखने-सुनने का विषय ही नहीं।”
गौतम खूब ठठाकर हंसने लगे। बन्धुल ने भी हंसकर कहा—”तो इसी में आरुणि जैसे ब्राह्मण भी भटक गए।”
“यही तो मज़ा है और उस याज्ञवल्क्य को देखो, इन विदेहों के पीछे कैसे गुड़ का चिऊंटा बनकर चिपटा है पट्ठा, उनके ब्रह्म की ऐसी गम्भीर व्याख्या करता है मित्र, कि देखकर हंसी आती है।”
“तो तुम हंसा करो गौतम। क्योंकि तुम मूर्ख हो मित्र, ऐसा न करे तो वह सहस्र स्वर्ण कार्षापण और सहस्र गौ कहां से पाए! तू भी यदि उनकी हां में हां मिलाए तो कदाचित् अहल्या कौशेय पहने।”
उसकी मुझे आवश्यकता नहीं मित्र! यह रज्जुलों के कौशल हैं, राजभोग को भोगने के लिए यह आवश्यक है, कि जो सन्देह करे उसकी बुद्धि को कुण्ठित कर दिया जाए; कुछ को उत्तम आहार खाने को, उत्तम प्रासाद रहने को और सुन्दरी दासियां भोगने को दे दी जाएं। वे उन्हीं का गीत गाएंगे।”
“सच कहते हो मित्र गौतम।”
“अरे मैंने वे नियम बनाए हैं मित्र, कि तू भी क्या कहेगा। यदि शूद्र किसी द्विज को गाली दे या मारे तो उसका वही अंग काट डाला जाए, उसने वेदपाठ सुना हो तो कान में टीन या शीशा पिघलाकर भर दिया जाए। वेद पढ़ा हो तो उसकी जीभ काटकर टुकड़े कर दिए जाएं।”
“अरे वाह मित्र गौतम, अनर्थ किया तूने। बेचारे शूद्रों और…”
“तो और उपाय ही क्या है? भाई देखते नहीं, ब्राह्मणों का कैसा ह्रास हो रहा है।”
“अच्छा फिर, देखूं कब तक तेरा सूत्र सम्पूर्ण होगा। अभी तो विश्राम करना चाहिए।”
“तो विश्राम कर मित्र, शय्या तैयार है।”