Contents
- 1 31. चम्पा में : वैशाली की नगरवधू
- 2 32. शत्रुपुरी में मित्र : वैशाली की नगरवधू
- 3 33. पशुपुरी का रत्न-विक्रेता : वैशाली की नगरवधू
- 4 34. असम साहस : वैशाली की नगरवधू
- 5 35. शंब असुर का साहस : वैशाली की नगरवधू
- 6 36. गुप्त पत्र : वैशाली की नगरवधू
- 7 37. आक्रमण : वैशाली की नगरवधू
- 8 38. मृत्युपाश : वैशाली की नगरवधू
- 9 39. पलायन : वैशाली की नगरवधू
- 10 40. चम्पा का पत : वैशाली की नगरवधू
- 11 41. वादरायण व्यास : वैशाली की नगरवधू
- 12 42. सम्मान्य अतिथि : वैशाली की नगरवधू
- 13 43. गर्भ-गृह में : वैशाली की नगरवधू
- 14 44. भारी सौदा : वैशाली की नगरवधू
- 15 45. भविष्य-कथन : वैशाली की नगरवधू
- 16 46. साम्राज्य : वैशाली की नगरवधू
- 17 47. दास नहीं, अभिभावक : वैशाली की नगरवधू
वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री Part 4
31. चम्पा में : वैशाली की नगरवधू
मगध-सेनापति चण्डभद्रिक ने पटमण्डप में प्रवेश करके कहा—”मित्रो, अब वैशाखी के केवल पांच ही दिन बाकी रह गए हैं। उन्हीं पांच दिनों में मागधी सेना का और चम्पा के प्राचीन राज्य के भाग्य का निपटारा होना है। यदि हम बैसाखी के दिन चम्पा के दुर्ग में प्रवेश कर पाते हैं तो मगध-साम्राज्य का विस्तार सुदूरपूर्व के सम्पूर्ण द्वीप-समूह पर हो जाएगा। परन्तु यदि हम ऐसा नहीं कर पाते तो निश्चय मागधी सेना का यहीं क्षय होगा और हममें से एक भी चम्पा महारण्य को पारकर जीवित मगध नहीं लौट सकेगा।”
मण्डप में बहुत से सेनानायक, उपनायक आदि सेनापति भद्रिक की प्रतीक्षा कर रहे थे। सेनापति के ये वाक्य सुनकर एक ने कहा—”परन्तु भन्ते सेनापति, हम बहुत ही विपन्नावस्था में हैं। आर्य वर्षकार ने हमें सहायता नहीं भेजी। मगध की इस पराजय का दायित्व हम पर नहीं, आर्य वर्षकार पर है।”
“नहीं भन्ते, ऐसा नहीं। जय-पराजय का उत्तरदायित्य तो हमीं पर है। हमें अपने बलबूते पर जो करने योग्य है, करना चाहिए।”
“हमने तीन मास से दुर्ग को घेर रखा है। यह कोई साधारण बात नहीं भन्ते सेनापति।”
“चाहे जो भी हो, परन्तु यदि बैशाखी के दिन हम दुर्ग में प्रविष्ट न हो सके तो साम्राज्य की ऐसी क्षति होगी, जिसका प्रतिकार शताब्दियों तक न हो सकेगा। यों कहना चाहिए कि सुदूर-पूर्व की सारी आशाएं सदा के लिए लुप्त हो जाएंगी। ब्रज, क्या रसद की कुछ आशा है?
“खेद है कि नहीं।”
“तब तो हम जो कुछ कर सकते थे, कर चुके।”
“फिर भी भन्ते सेनापति, हमें कुछ समय निकालना चाहिए। सम्भव है, राजगृह से सहायता मिल जाए।”
“परन्तु हमारे सभी सैनिक घायल हैं। एक भी अश्व युद्ध के काम का नहीं। हम भूख-प्यास और घावों से जर्जरित हैं। यदि हम युद्ध जारी रखते हैं तो इसका अर्थ आत्मघात करना होगा। क्या इससे अच्छा यह न होगा कि हम चम्पानरेश महाराज दधिवाहन की सन्धि-शर्तें स्वीकार कर लें? मैं समझता हूं, निश्चित पराजय की अपेक्षा यह अच्छा है।”
किसी ने उच्च स्वर से कहा—”क्या यह आर्य भद्रिक की वाणी मैं सुन रहा हूं, जिनके शौर्य की यशोगाथा पशुपुरी के शासानुशास गाते नहीं अघाते?”
भद्रिक ने सिर ऊंचा करके कहा, “कौन है यह आयुष्मान्?”
एक कोने से सोमप्रभ उठकर सेनापति के सम्मुख आया। वह साधारण किसान के वस्त्र पहने था। सेनापति ने उसे सिर से पैर तक घूरकर कहा—”कौन हो तुम आयुष्मान्—ऐसे कठिन समय में ऐसे तेजस्वी वचन कहने वाले?”
“भन्ते सेनापति, मेरा नाम सोमप्रभ है। मैं राजगृह से सहायता लेकर आया हूं। यह आर्य वर्षकार का पत्र है।”
युवक के वचन सुनकर सभी उत्सुकता से उसकी ओर देखने लगे। सेनापति ने पत्र लेकर मुहर तोड़ी और शीघ्रता से उसे पढ़ा। फिर कुछ चिन्तित होकर कहा—”परन्तु सहायता कहां है सौम्य? आर्य वर्षकार का आदेश है कि बैशाखी के दिन चम्पा में प्रवेश करना होगा।”
“वह प्रच्छन्न है, भन्ते सेनापति।”
“परन्तु हमारा कार्यक्रम?”
“क्या मैं निवेदन करूं आर्य?”
“अवश्य, आर्य वर्षकार ने तुम्हारे विषय में मुझे कुछ आदेश दिए हैं।”
“तब ठीक है। बैशाखी के दिन सूर्योदय होने पर चम्पावासी जो दृश्य देखेंगे, वह चम्पा दुर्ग पर फहराता हुआ मागधी झण्डा होगा।”
“परन्तु यह तो असाध्य-साधन है आयुष्मान्! यह कैसे होगा?”
“यह मुझ पर छोड़ दीजिए, भन्ते सेनापति।”
सेनापति ने अब अचानक कुछ स्मरण करके कहा—”परन्तु तुम शिविर में कैसे चले आए सौम्य?”
“किसी भांति आज का संकेत-शब्द जान गया था भन्ते।”
“यह तो साधारण बात नहीं है आयुष्मान्।”
“भन्ते, सोमप्रभ साधारण तरुण नहीं है।”
“सो तो देखूंगा, पर तुम करना क्या चाहते हो?”
“अभी हमारे पास चार दिन हैं। इस बीच में बहुत काम हो जाएगा।”
“पर चार दिन हम खाएंगे क्या?”
“आज रात को रसद मिल जाएगी।”
“परन्तु प्रतिरोध कैसे पूरा होगा? हमारे पास तो युद्ध के योग्य…”
‘एक सौ सशस्त्र योद्धा आज रात को आपके पास पहुंच जाएंगे?”
“केवल एक सौ!”
“आपको करना ही क्या है भन्ते! केवल प्रतिरोध ही न?”
“परन्तु शत्रु के बाण जो हमें बेधे डालते हैं। हमारे पास रक्षा का कोई साधन नहीं है।”
“यह तो बहुत सरल है भन्ते! उधर बहुत-सी टूटी नौकाएं पड़ी हैं, उनमें रेत भरकर उनकी आड़ में मजे से प्रतिरोध किया जा सकता है। मैंने सिन्धुनद के युद्ध में गान्धारों का वह कौशल देखा है।”
“तुम क्या गान्धार हो वत्स?”
“नहीं, मागध हूं। मैंने तक्षशिला में आचार्यपाद बहुलाश्व से शिक्षा पाई है।”
“अरे आयुष्मान्! तुम वयस्य बहुलाश्व के अन्तेवासी हो। साधु, साधु! तुम्हारी युक्ति बहुत अच्छी है।”
“बस, कुछ नावों को आज रात के अंधेरे में यहां खींच लाया जाय और उनमें रेत भर दिया जाय।”
“यह हो जाएगा। परन्तु तुम्हारे सौ सैनिक?”
“रात को तीसरे पहर तक पहुंच जाएंगे।”
“ठीक है, तब तक तुम…?”
“मैं एक चक्कर नगर का लगाकर उसका मानचित्र तैयार करता हूं।”
“तुम्हें कुछ चाहिए आयुष्मान्?”
“कुछ नहीं भन्ते? परन्तु अब मैं चला।” सोमप्रभ सेनापति का अभिनन्दन करके चल दिया। मागध योद्धाओं की सूखी आशा-लता पल्लवित हो उठी। घायल योद्धा भी बीर दर्प से हुंकार भरने लगे।
32. शत्रुपुरी में मित्र : वैशाली की नगरवधू
सोम बहुत-से गली-कूचों का चक्कर लगाते, वीथी और राजपथ को पार करते तंग गली में छोटे-से मकान पर पहुंचे। वहां उन्होंने द्वार पर आघात किया। अधेड़ वय के एक बलिष्ठ पुरुष ने द्वार खोला। सोम भीतर गए। वह पुरुष भी द्वार बन्द कर भीतर गया।
भीतर आंगन में एक भारी भट्ठी जल रही थी। वहां बहुत-से शस्त्रास्त्र बन रहे थे। अनेक कारीगर अपने-अपने काम में जुटे थे। जिसने द्वार खोला था, वह कोई चालीस वर्ष की आयु का पुरुष था। उसका शरीर बलिष्ठ और दृढ़ पेशियों वाला था। चेहरे पर घनी दाढ़ी-मूंछ थी। उसने कहा—
“कहो मित्र, सेनापति का क्या विचार रहा?”
“वे सब निराशा में डूब रहे थे, पर अब उत्साहित हैं। किन्तु मित्र अश्वजित् अब सब-कुछ तुम्हारी ही सहायता पर निर्भर है। कहो, क्या करना होगा?”
“बहुत सीधी बात है। दक्षिण बुर्ज पर बैशाखी के दिन तीन पहर रात गए मेरे भाई का पहरा है।”
“अच्छा फिर?”
“अब यह आपका काम है कि आप चुने हुए भटों को लेकर ठीक समय पर बुर्ज पर चढ़ जाएं।”
“ठीक है, परन्तु तुम कितने आदमी चाहते हो?”
“बीस से अधिक नहीं। परन्तु मित्र, दक्षिण बुर्ज नदी के मुहाने पर है और चट्टान अत्यन्त ढालू है। उधर से बुर्ज पर चढ़ना मृत्यु से खेलना है।”
“हम मृत्यु से तो खेल ही रहे हैं मित्र। यही ठीक रहा। हम ठीक समय पर पहुंच जाएंगे।”
“इसके बाद की योजना वहीं बन जाएगी।”
“ठीक है। और कुछ?”
“अजी, बहुत-कुछ मित्र। हमारे पास यथेष्ट शस्त्र तैयार हैं। मैंने मागध नागरिकों को बहुत-से शस्त्र बांट दिए हैं। बैशाखी के प्रातः ज्यों ही दुर्ग-द्वार पर आक्रमण होगा, नगर में विद्रोह हो जाएगा।”
“अच्छी बात है, परन्तु मुझे अभी आवश्यकता है।”
“किस चीज की?”
“सौ सशस्त्र सैनिकों की, जिनके पास पांच दिन के लिए भोजन भी हो।”
“वे मिल जाएंगे।”
“थोड़ी रसद और। सेनापति भूखों मर रहे हैं।”
“रसद और सैनिक आज रात को पहुंच जाएंगे।”
“परन्तु किस प्रकार मित्र?”
“उसी दक्षिण बुर्ज के नीचे से। उधर पहरा नहीं है और एक मछुआ मेरा मित्र है। मेरे आदमी शिविर में तीन पहर रात गए तक पहुंच जाएंगे। कोई कानों-कान न जान पाएगा।”
“वाह मित्र, यह व्यवस्था बहुत अच्छी रहेगी। परन्तु तुम्हारे पास मछुआ मित्र की मुझे भी आवश्यकता होगी।”
“कब?”
“उस बैशाखी की रात को।”
“ओह, समझ गया। सैनिकों को पहुंचाकर वह अपनी डोंगी-सहित वहीं कहीं कछार में चार दिन छिपा रहेगा। फिर समय पर आप उससे काम ले सकते हैं।”
“धन्यवाद मित्र! तो अब मैं आर्य को यह सुसंवाद दे दूं?”
“और मेरा अभिवादन भी मित्र!”
सोमप्रभ ने लुहार का आलिंगन किया और वहां से चल दिए।
33. पशुपुरी का रत्न-विक्रेता : वैशाली की नगरवधू
चम्पा के पान्थागार में पर्शुपुरी के एक विख्यात रत्न-विक्रेता कई दिन-से ठहरे थे। उनके ठाठ-बाट और वैभव को देखकर सभी चम्पा-निवासी चमत्कृत थे। पान्थागार के सर्वोत्तम भवन में उन्होंने डेरा किया था और राज्य की ओर से उनकी रक्षा के लिए बहुत से सैनिक नियुक्त कर दिए गए थे। रत्न-विक्रेता के पास सैनिकों की एक अच्छी-खासी सेना थी। रत्न-विक्रेता को अभी तक किसी ने नहीं देखा था। लोग उनके सम्बन्ध में भांति-भांति के अनुमान लगा रहे थे। इसका कारण यह था कि उनके सेवकों में अदना से आला तक सभी शाहखर्च थे। वे कार्षापण का सौदा खरीदते और स्वर्ण-दम्म देकर फिरती लेना भूल जाते। ऐसा प्रतीत होता था कि स्वर्ण को वे मिट्टी समझते हैं। परन्तु सबसे अधिक चर्चा की वस्तु रत्न-विक्रेता की पुत्री थी, जो प्रतिदिन प्रातः और संध्याकाल में अश्व पर सवार हो दासियों और शरीर-रक्षकों के साथ नित्य नियमित रीति से वायु-सेवन को जाती तथा मार्ग में स्वर्ण-रत्न दरिद्र नागरिकों को हंसती हुई लुटाती थी। उसके अद्भुत अनोखे रूप, असाधारण अश्व-संचालन और अविरल दान से इन चार-पांच ही दिनों में पशुपुरी के रत्न-विक्रेता के वैभव और उसके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में भांति-भांति की झूठी-सच्ची चर्चा नगर में फैल गई थी। अभी दो दिन पूर्व उनसे मिलने नगर के महासेट्ठि धनिक आए थे और रत्न-विक्रेता तथा उसकी पुत्री को उन्होंने कल निमन्त्रण दिया था। आज स्वयं चम्पा के अधीश्वर परम परमेश्वर महाभट्टारक श्री दधिवाहनदेव पान्थागार में पधार रहे थे। इसी से पान्थागार के द्वार मण्डप और लताओं से सजाए गए थे। भीतर-बाहर बहुत-सी दीपावलियां सजाई जा रही थीं। सैकड़ों मनुष्य काम में जुटे थे। राजमार्ग पर अश्वारोही सैनिक प्रबन्ध कर रहे थे।
रात्रि का प्रथम प्रहर बीतने पर चम्पाधिपति ने पान्थागार में राजकुमारी चन्द्रभद्रा के साथ प्रवेश किया। पशुपुरी के उस रत्न-विक्रेता ने द्वार पर आकर महाराज और राजकुमारी का स्वागत किया और सादर एक उच्चासन पर बैठाकर अपनी पुत्री से महाराज का अर्घ्य-पाद्य से सत्कार कराया। रत्न-विक्रेता के विनय और उससे अधिक उसकी पुत्री के रूप-लावण्य को देखकर महाराज दधिवाहन मुग्ध हो गए। कुमारी चन्द्रप्रभा ने हाथ पकड़कर हंसते हुए रत्न-विक्रेता की पुत्री को अपने निकट बैठा लिया। महाराज ने कहा—”चम्पा में आपका स्वागत है सेट्ठि! हमें आपको देखकर प्रसन्नता हुई है। मैंने सुना है, आप बहुत अमूल्य रत्न लाए हैं। राजकुमारी उन्हें देखना चाहती है।”
रत्न-विक्रेता ने अत्यधिक झुककर महाराज का अभिवादन किया, फिर एक दास को रत्न-मंजूषा लाने का संकेत किया। दास कौशेय-मण्डित पट्ट पर मंजूषा रख गया। उसमें से बड़े-बड़े तेजस्वी मुक्ताओं की माला लेकर रत्न-विक्रेता ने कहा—”देव चम्पाधिपति प्रसन्न हों। यह मुक्ता-माल मोल लेकर बेचने योग्य नहीं है। पृथ्वी पर इसका मूल्य कोई चुका नहीं सकता। यदि देव की अनुमति हो तो मैं यह मुक्ता-माल राजकुमारी को अर्पण करने की प्रतिष्ठा प्राप्त करूं।”
उन बड़े-बड़े उज्ज्वल असाधारण मोतियों को महाराज दधिवाहन आंख फाड़-फाड़कर देखते रह गए। रत्न-विक्रेता ने आगे बढ़कर वह अमूल्य मुक्ता-माल राजकुमारी के कण्ठ में डाल दी।
राजकुमारी ने आनन्द से विह्वल होकर दोनों हाथों में वह माला थाम ली।
इसके बाद रत्न-विक्रेता ने कहा—”अब यदि अनुमति पाऊं तो बिक्री-योग्य कुछ रत्न सेवा में लाऊं। कदाचित् कोई राजकुमारी को पसन्द आ जाए।”
“उसने संकेत किया और दास ने बड़ी-बड़ी रत्नमंजूषाएं कौशेय पट्ट पर रख दीं। उनमें एक-से-एक बढ़कर रत्नाभरण भरे पड़े थे। राजकुमारी ने कुछ आभरणों को छांट लिया। किन्तु महाराज दधिवाहन उन सब असाधारण रत्नों से अधिक रत्न-विक्रेता के कन्या रत्न की ओर आकर्षित हो रहे थे, जो रह-रहकर बंकिम कटाक्ष से उन्हें पागल बना रही थी।
चम्पाधिपति ने बहुत-से रत्नाभरण खरीदे। अन्त में उन्होंने उठते हुए कहा—”हम आपसे बहुत प्रसन्न हैं। इस समय मागध-सैन्य ने चम्पा को घेर रखा है, इससे आपको और आपकी सुकुमारी कन्या को असुविधा हुई होगी।”
“मेरी पुत्री का देव को इतना ध्यान है, इसके लिए अनुगृहीत हूं। यह बिना माता की पुत्री है। महाराज, राजकुमारी ने इसे सखी की भांति अपनाकर जो प्रतिष्ठित किया है, उससे इसे अत्यन्त आनन्द हुआ है।”
“राजकुमारी चाहती है, आप जब तक यहां हैं, आपकी पुत्री राजमहालय में उन्हीं के सान्निध्य में रहे। आपको इसमें कुछ आपत्ति है?” महाराज ने छिपी दृष्टि से रत्न-विक्रेता की पुत्री को देखकर कहा, जो मन्द मुस्कान से राजा के वचन का स्वागत कर रही थी।
रत्न-विक्रेता ने कहा—”यह तो उसका परम सौभाग्य है। राजकुमारी उसे अपने साथ ले जा सकती हैं। यहां परदेश में देव, यह अकेलापन बहुत अनुभव करती है।”
राजकुमारी ने हंसकर रत्न-विक्रेता की कन्या का हाथ पकड़कर कहा—”चलो सखी, हम लोग बहुत आनन्द से रहेंगे।”
उसने विनय से मस्तक झुकाया। प्रधान दास ने उत्तरी वासक उसके कन्धों पर डालते हुए अवसर पाकर धीरे-से उसके कान में कहा—”बैशाखी की रात को चार दण्ड रात्रि व्यतीत होने पर।”
और वह विनय से झुकता पीछे हट गया। रत्न-विक्रेता की पुत्री ने, जो वास्तव में कुण्डनी थी, पिता के चरणों में प्रणाम किया। दोनों ने दृष्टि-विनिमय किया।
महाराज राजकुमारी और रत्न-विक्रेता की कन्या को लेकर चले गए। उनके जाने पर रत्न-विक्रेता ने द्वार बन्द करने का आदेश दिया। फिर एकान्त पाकर अपने नकली केश और परिच्छद उतार फेंका। दास भी निकट आ खड़ा हुआ।
“सब ठीक हुआ न सोम?”
“हां, आर्य!”
“सेनापति भद्रिक की सहायता मिल जाएगी न?”
“सब ठीक हो गया है, आर्य।”
“आयुष्मान् अश्वजित अपना कार्य कर रहा है?”
“जी हां, वह लुहार बना हुआ है। चम्पा के सम्पूर्ण मागध नागरिकों को उसने सशस्त्र कर दिया है।”
“बहुत अच्छा हुआ। वे कितने हैं?”
“बारह सौ से अधिक।”
“ठीक है। सेट्ठि धनिक ने चम्पा के बहुत-से सार्थवाहों की हुंडियां मेरे आदेश से खरीद ली हैं। बैशाखी के दिन प्रभात ही वे भुगतान मांगेंगे। मैं जानता हूं, राजकोष में स्वर्ण नहीं है। महाराज दधिवाहन मेरे रत्नों के मूल्य में जो स्वर्ण देंगे वह चम्पा के स्वर्णवणिकों से लेकर। बस, खाली हो जाएंगे और वे नगर-सेट्ठि की हुंडियां नहीं भुगता सकेंगे।”
“इसी बीच मागध नागरिक नगर में विद्रोह कर देंगे और यह हुंडियावन ही उसका कारण हो जाएगा। किन्तु कुण्डनी?”
“वह अपना मार्ग खोज लेगी। वैशाखी की रात्रि के चौथे दण्ड के प्रारम्भ होते ही दधिवाहन मर जाएगा।”
“तो ठीक उसी समय चम्पा-दुर्ग के पच्छिमी बुर्ज पर मागध तुरही बजेगी और समय तक तमाम प्रहरी वश में किए जा चुके होंगे। इसके बाद दो ही घड़ी में उन्मुक्त द्वार से मगध सेनापति प्रविष्ट हो दुर्ग अधिकृत कर लेंगे।”
“उत्तम योजना है। अब मैं इसी क्षण प्रस्थान करूंगा। तुम मेरे रोगी होने का प्रचार करना तथा बैशाखी पर्व तक सब-कुछ इसी भांति रखना। परन्तु किसी से भेंट करने में असमर्थ बता देना।”
“जैसी आज्ञा, किन्तु…”
“ठहरो, तुम सोम, बैशाखी के दिन चार दण्ड रात्रि रहते ही श्रावस्ती की ओर प्रस्थान करना। चम्पा-दुर्ग पर मागधी पताका देखने के लिए प्रभात तक रुकना नहीं। वहां सम्राट् विपन्नावस्था में हैं।” इतना कहकर मगध महामात्य ने आसन त्यागकर ताली बजाई।
एक दास ने निकट आकर अभिवादन किया।
अमात्य ने कहा—”कितनी रात्रि गई अभय?”
“रात्रि का द्वितीय दण्ड प्रारम्भ है आर्य।”
“और मेरा अश्व?”
“वह तैयार है।”
“कहां?”
“निकट ही, उसी उपत्यका के प्रान्त में।”
“ठीक है।”
अमात्य आगे बढ़े। सोम ने कहा—”क्या मेरा असुर आर्य का पथ-प्रदर्शन करे?”
“नहीं, मेरी व्यवस्था है।”
वे एकाकी ही अन्धकार में अदृश्य हो गए।
34. असम साहस : वैशाली की नगरवधू
“तो आयुष्मान् सोम, तुम्हारी योजनाएं असफल हुईं?”
“यह क्यों, भन्ते सेनापति?”
“कल ही बैशाखी पर्व है, हम कुछ भी तो नहीं कर सके।”
“भन्ते, हमें अभी काम करने के लिए पूरे पांच प्रहर का समय है।”
“इन पांच प्रहरों में हम क्या कर लेंगे? दुर्ग पर आक्रमण के योग्य हमारे पास सेना कहां है?”
“भन्ते आर्य, इन चार दिनों में जो कुछ हम कर पाए हैं वह सब परिस्थितियों को देखते क्या सन्तोषप्रद नहीं है?”
“अवश्य है, परन्तु इससे लाभ? मेरी समझ में हमारा सर्वनाश और चार दिन के लिए टल गया। अब तो तुम आत्मसमर्पण के पक्ष में नहीं हो?”
“नहीं भन्ते सेनापति।”
“तो कल सूर्योदय के साथ हमारा सर्वनाश हो जाएगा।”
“नहीं भन्ते सेनापति, कल सूर्योदय से पूर्व हम दुर्ग अधिकृत कर लेंगे।”
“क्या तुम्हें किसी दैवी सहायता की आशा है?”
“नहीं भन्ते सेनापति, मैं अपने पुरुषार्थ पर निर्भर हूं।”
“तो तुम्हें अब भी आशा है?”
“आशा नहीं, भन्ते सेनापति, मुझे विश्वास है।”
“परन्तु आयुष्मान्, तुम करना क्या चाहते हो?”
“वह कल सूर्योदय होने पर आप देख लीजिएगा।”
“सौम्य सोम, तुम कोई असम साहस तो नहीं कर रहे। मैं तुम्हें किसी घातक योजना की अनुमति नहीं दूंगा।”
“हमारा कार्य अतिशय गुरुतर है सेनापति; और मेरी योजना भी वैसी ही गम्भीर है। परन्तु आप तनिक भी चिन्ता न कीजिए। आप केवल परिणाम को देखिए। कल सूर्योदय से पूर्व ही दुर्ग पर मागधी झंडा फहरता देखेंगे आप।”
“लेकिन कैसे आयुष्मान्?”
“भन्ते सेनापति, कृपा कर अभी आप मुझसे कुछ न पूछे। हां, आज की रात का संकेत-शब्द क्या है, कृपया यह बता दीजिए।”
“असम साहस ही सही।”
“बहुत ठीक, अब आप विश्राम कीजिए। अभी एक दण्ड रात गई है। मुझे बहुत समय है। मैं तनिक अपने आदमियों को ठीक-ठाक कर लूं।”
“तुम्हारा कल्याण हो आयुष्मान्, और कुछ?”
“कृपया याद रखिए कि रात्रि के चौथे दण्ड में ज्यों ही चम्पा दुर्ग के दक्षिण द्वार पर मागध तुरही बजे, आप ससैन्य दुर्ग में प्रविष्ट होकर दुर्ग को अधिकृत कर लें। दुर्ग-द्वार आपको उन्मुक्त मिलेगा।”
सोम ने अवनत होकर सेनापति भद्रिक को अभिवादन किया और तेज़ी के साथ पट-मण्डप से बाहर हो गए। सेनापति आश्चर्यचकित खड़े उसे देखते रह गए।
बाहर आते ही रात्रि के अन्धकार में एक वृक्ष की आड़ से निकलकर अश्वजित् उसके निकट आया। उसने आते ही सोम के कान के पास मुंह ले जाकर कहा—”सब ठीक है मित्र!”
“वह मांझी?”
“अपनी नाव-सहित वहां चन्दन के कछार में छिपा हुआ है।”
“उस पर विश्वास तो किया जा सकता है?”
“पूरा मित्र।”
“मित्र, स्मरण रखना, मगध का भाग्य इस समय उसी मांझी के हाथ में है।”
“वह पूरे विश्वास के योग्य है मित्र।”
“तब चलो उसके पास।”
दोनों व्यक्ति धीरे-धीरे निःशब्द पत्थर के छोटे-बड़े ढोंकों को पार करते हुए उसी सघन अन्धकार में चन्दन नदी के उस कछार पर पहुंचे, जहां वह मछुआ अपनी नाव एक वृक्ष से बांधे चुपचाप बैठा था। नदी के हिलोरों से नाव उथल-पुथल हो रही थी।
अश्वजित् ने संकेत किया। संकेत पाते ही मांझी कूदकर उनके निकट आ गया। निकट आकर उसने दोनों को अभिवादन किया।
सोम ने आगे बढ़कर उस अन्धकार में उसे सिर से पैर तक देखा और पूछा—”तुम्हारा क्या नाम है मित्र?”
“भन्ते आर्य, मैं सोमक मांझी हूं।”
“तो मित्र सोमक, तुम्हें मालूम है कि आज की रात तुम्हें एक जोखिम से भरा काम करना होगा, जिसमें तनिक भी असफल हुए तो बहुत भारी हानि होगी? हमें दक्षिण बुर्ज तक जाना होगा, वहां नाव को टिकाए रखना होगा। जानते हो, यह जान-जोखिम का काम है।”
“भन्ते आर्य, हम लोग तो तुच्छ मछलियों के लिए नित्य जान-जोखिम ही में रहते हैं, आप तनिक भी आशंका न करें।”
“आश्वस्त हुआ मित्र। तो कब उपयुक्त समय होगा?”
“चार दण्ड रात्रि व्यतीत होने पर भन्ते, तब चन्दना में ज्वार आएगा।”
“नहीं मित्र, तीन दण्ड रात्रि व्यतीत होने पर।”
“इसमें तनिक भय है सेनापति। किन्तु कोई हानि नहीं। ऐसा ही होगा।”
“यह तुम्हारा पारिश्रमिक है मित्र।”
“सोम ने स्वर्ण से भरी एक छोटी-सी थैली उसके हाथों में थमा दी, फिर धीरे से कहा—”हां, तुम्हारी नाव में बीस आदमी बैठ सकते हैं?”
“बहुत आराम से भन्ते सेनापति।”
“तब ठीक है। सावधानी से यहीं प्रतीक्षा करना मित्र!”
“आप निश्चिन्त रहिए, भन्ते आर्य!”
सोम ने वहां से हटकर अश्वजित् से कुछ परामर्श किया और अश्वजित् तेज़ी से किन्तु निःशब्द एक ओर को चला गया। फिर सोम भी लम्बे-लम्बे डग बढ़ाते हुए एक ओर को तेज़ी से चले।
35. शंब असुर का साहस : वैशाली की नगरवधू
चम्पा-दुर्ग के दक्षिण बुर्ज के निकट चन्दना के तट से थोड़ा हटकर एक शून्य चैत्य था। वह बहुत विशाल था, परन्तु इस समय वहां एकाध विहार को छोड़कर सब खंडहर था। उधर लोगों का आवागमन नहीं था। वहीं एक अपेक्षाकृत साफ-सुथरे अलिन्द में बीस भट एकत्र थे। वे सब शंब को लेकर आनन्द कर रहे थे। जो तरुण असुर सोम ने उस असुरपुरी से प्राणदान कर पकड़ा था, उसका नाम उन्होंने रखा था शंब। अपने इस नये नाम से वह बहुत प्रसन्न था। मागध तरुण उसे अच्छी-अच्छी मदिरा पिलाते तथा अनेक प्रकार के मांस और मिष्टान्न खिलाते थे इससे वह उनसे बहुत हिलमिल गया था। उसने जो असुरपुरी में कुण्डनी को नृत्य करते और मृत्यु-चुम्बन करते देखा था, इस समय वह उसी की नकल कर रहा था। वह बार-बार अपनी स्वर्ण करधनी छूकर, हाथ मटकाकर कभी-कभी भाण्ड में से मद्य ढालकर भटों को पिलाने का अभिनय करता और कभी कुण्डनी ही की भांति चुम्बन-निवेदन करता। सब लोग उसे घेरकर उसके नृत्य का आनन्द ले रहे थे। वह बार-बार अपना नवीन नाम शंब-शंब उच्चारण करता हुआ, आसुरी भाषा का कोई बढ़िया-सा प्रणय गीत गाता हुआ, सब भटों को चुम्बन-निवेदन कर रहा था और मागध भट उनके मोटे-मोटे काले होंठों के स्पर्श से बचने के लिए पास आने पर उसे धकेलकर हंस रहे थे। वाद्य के अभाव में एक भट पत्थर के सहारे लेटा अपना पेट ही बजा रहा था और सब लोग ही-ही करके हंस रहे थे।
क्षण-भर सोम यह सब देखता रहा। एक क्षीण हास्य-रेखा उसके होंठों पर फैल गई। फिर उसने पुकारा—”शंब, क्या आज तूने फिर बहुत मद्य पिया है?”
शंब ने एक बार झुककर स्वामी को प्रणाम किया, फिर भीत-भाव से उनकी ओर देखा। परन्तु सोम की मुद्रा देख वह हंस पड़ा। उसके काले काजल-से मुख में धवल दन्तपंक्ति बड़ी शोभायमान दीखने लगी।
उसने कहा—”नहीं स्वामी, नहीं।”
सोम ने उस पर से दृष्टि हटाकर बीसों भटों पर मार्मिक दृष्टि डाली और दृढ़ स्थिर स्वर में कहा—”मित्रो, आज हमें मृत्यु से खेलना होगा, कौन-कौन तैयार है?”
“प्रत्येक, भन्ते सेनापति!”
“परन्तु मित्रो, हमारे आज के कार्य का प्रभाव मगध के भाग्य-परिवर्तन का कारण होगा।”
“हम प्राणों का उत्सर्ग करेंगे भन्ते!”
“आश्वस्त हुआ, मित्रो!”
“अभी एक दण्ड रात्रि व्यतीत हुई है, हम तीन दण्ड रात्रि रहते प्रयाण करेंगे। अभी हमारे पास चार घटिका समय है। आप तब तक एक-एक नींद सो लें।”
सब लोग चुपचाप सो गए। अब सोम ने शंब की ओर देखकर कहा—”शंब, तुझे एक कठिन काम करना होगा।”
शंब ने प्रसन्न मुद्रा से स्वर्ण-करधनी पर हाथ रखा।
सोम ने एक पतली लम्बी रस्सी को लेकर शंब को पीछे आने का संकेत दिया और वह दक्षिण बुर्ज की ओर चला। बुर्ज के निकट जाकर कहा—”शंब, तू जल में कितनी देर ठहर सकता है?” शंब ने संकेत से बताया कि वह काफी देर जल में ठहर सकता है। सोम ने वस्त्र उतार डाले और शंब के साथ जल में प्रवेश किया। इस समय चन्दना में ज्वार आ रहा था, बड़ी-बड़ी लहरें उठकर चट्टानों से टकरा रही थीं। दोनों ने दृढ़तापूर्वक रस्सी पकड़ रखी थी। वे ठीक बुर्जे के नीचे किसी चट्टान पर स्थिर होना चाहते थे, पर पानी की लहरें उन्हें दूर फेंक देती थीं। अन्त में वे वहां पहुंचने में सफल हुए। सोम एक चट्टान को दृढ़ता से पकड़कर और दांतों में रस्सी दबाकर बोले—”शंब, रस्से का दूसरा छोर लेकर पानी में गोता मार। देख तो, कितना जल है?”
शंब ने कमर में रस्सी बांधा, पैर ऊपर कर गोता लगाया, रस्सी पानी में घुसती ही चली गई। सोम की भुजाओं पर पूरा जोर पड़ रहा था, चट्टान छूटी पड़ रही थी दांत भी रस्सी के बोझ को नहीं संभाल पा रहे थे। एक-एक क्षण कष्ट और असह्य भार बढ़ रहा था। इसी समय रस्सी ढीली हुई और कुछ क्षण बाद ही शंब ने सिर निकाला। सोम ने रस्सी को नापकर जल का अनुमान किया। उसने सोचा, दो दण्ड- काल में जल चार हाथ और बढ़ जाएगा। उसने पांच हाथ ऊपर चट्टान में खूब मजबूती से वह रस्सी लपेट दी और उसका दूसरा छोर शंब के हाथ में देकर कहा—”शंब, खूब सावधानी से रहना, ज्योंही नाव यहां पहुंचे, रस्सी फेंक देना। ऐसा न हो कि नाव को लहरें दूर फेंक दें और ऊपर बुर्ज का भी ध्यान रखना। वहां से एक रस्सी नीचे लटकाई जाएगी। उसे भी तू थामे रहना। कर सकेगा ना?”
शंब बोला नहीं, उसने हंसकर स्वीकृति प्रकट की और जमकर चट्टान पर बैठ गया।
सोम ने गहरे जल में गोता लगाया और वहीं अदृश्य हो गया। अकेला असुर उस भयानक काली रात में अपनी कठिनाइयों के बीच बैठा रहा।
36. गुप्त पत्र : वैशाली की नगरवधू
सेनापति भद्रिक बड़ी देर तक शून्य अर्धरात्रि में अकेले चिन्तित भाव से पट-द्वार में इधर-उधर टहलते रहे। उस समय उनके मस्तिष्क में कुछ परस्पर-विरोधी ऐसे विचार चक्कर लगा रहे थे, जिनका उन्हें निराकरण नहीं मिल रहा था। उन्होंने बहुत देर तक कुछ सोचकर दीपक ठीक किया और आसन पर आ भोजपत्र निकाल लेखनी हाथ में ली। इसी समय किसी के पद-शब्द से चौंककर उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। सोम को देखकर उन्होंने आश्वस्त होकर कहा—
“तुम सोम, इस असमय में?”
“आर्य, एक चर है, राजगृह से पत्र लाया है।”
“पत्र क्या सम्राट् का है।”
“नहीं आर्य, सेनापति उदायि का पत्र है।”
“तो तुम पत्र ले आओ और चर की व्यवस्था कर दो।”
इतना कहकर सेनापति लिखने में लीन हो गए। सोम पत्र हाथ में लेकर चुपचाप मण्डप में खड़े हो गए।
लेख समाप्त होने पर सेनापति ने कहा—”भद्र, मुहर तोड़कर पत्र निकालो।”
सोम ने ऐसा ही किया।
सेनापति ने स्निग्ध-कोमल स्वर से कहा—”पत्र पढ़ो भद्र।” पत्र पर दृष्टि डालकर सोम ने कहा—”आर्य, पढ़ नहीं सकता, वह सांकेतिक भाषा में है।”
“अच्छा, तो कोई गुप्त पत्र है। वह संकेत-तालिका ले लो भद्र और तब सावधानी से पढ़ो।”
सोम ने पढ़ा— “…मैं आशा करता हूं कि शीघ्र ही आपको ‘महाराज’ कहकर सम्बोधित करूंगा।” सोम ने झिझककर सेनापति की ओर देखा। सेनापति ने मुस्कराकर कहा—
“पढ़ो भद्र, यह राजविद्रोही नहीं, राजनीति है। मगध-सम्राट् ही अकेले महाराज नहीं हैं और भी हैं। फिर अब सोमभद्र, जब तुमने आशा ही आशा हमें दी है तो फिर चम्पा के सिंहासन पर दधिवाहन के स्थान पर भद्रिक कुछ अनुपयुक्त भी नहीं है। कासियों का गण मगध साम्राज्य में मिल ही चुका है और अंग, बंग, कलिंग के महाराज मेरे अधीन हैं। मल्ल लड़खड़ा रहे हैं। मेरे अधीन भी पचास सहस्र सेना सुरक्षित है, जो इच्छानुसार उपयोग में लाई जा सकती है। फिर कलिंग महाराज ने बीस सहस्र सैन्य और सौ जलतरी देने का वचन दिया है…”
“परन्तु भन्ते सेनापति…”
“भद्र, पहले पत्र पढ़ लो।”
सोम ने फिर पढ़ना प्रारम्भ किया—
“आपका ध्यान मैं तीन बातों की ओर आकर्षित करना चाहता हूं। प्रथम यह कि सम्राट ने श्रावस्ती पर चढ़ाई कर दी है। श्रावस्ती के महाराज प्रसेनजित् कौशाम्बीपति उदयन से उलझ रहे हैं। सम्राट् इसी अभिसन्धि से लाभ उठाना चाहते हैं। उधर अवन्तिराज चण्डमहासेन ने भी उन्हें उकसाया है। परन्तु मुझे विश्वस्त सूत्र से मालूम हुआ है कि सम्राट के कोसल पर अभियान करने का छिद्र पाकर चण्डमहासेन मगध की ओर आ रहा है। आर्य वर्षकार इस ओर सावधान अवश्य हैं, परन्तु आपके चम्पा में फंस जाने तथा सम्राट के अवध पर अभियान करने से मगध की रक्षा चिन्तनीय हो गई है। तिस पर महामात्य कहीं गुप्त यात्रा पर गए हैं तथा नगर मेरे अधीन है। इससे इस समय चण्डमहासेन का मगध पर अभियान हमें बहुत भारी पड़ सकता है, यद्यपि चाणाक्ष आर्य वर्षकार एक युक्ति कर गए हैं।”
इतना पत्र सुन चुकने पर सेनापति आसन से उठकर टहलने और बड़बड़ाने लगे। वे कह रहे थे—”सम्राट् की मति मारी गई है, अथवा यह वर्षकार की अभिसन्धि है? वे क्या बन्धुल मल्ल के शौर्य को नहीं जानते? अस्तु, पढ़ो पत्र सोम?”
“देवी अम्बपाली को सम्राट ने उपहार भेजा था। वह उसने लौटा दिया। सम्राट् इस पर बहुत उद्विग्न हुए हैं। आर्य वर्षकार उन्हें इस कार्य के लिए उकसा रहे हैं। वे चाहते हैं कि जल्द किसी बहाने वैशाली पर आक्रमण हो जाए। असल बात यह है कि वे अम्बपाली से किसी प्रकार सम्राट की घनिष्ठता बढ़ाकर काश्यप की विषकन्या का अम्बपाली के आवास में प्रवेश कराना चाहते हैं। परन्तु सम्राट ने स्पष्ट रूप में मगध छोड़ते समय आदेश दिया था कि उसका प्रयोग चंपाधिपति पर किया जाए। आश्चर्य नहीं कि वह इस पत्र से प्रथम ही चंपा पहुंच चुकी हो।”
सोम के माथे से पसीना चूने लगा। सेनापति क्रुद्ध भाव से धम्म से आसन पर आ बैठे। बैठकर उन्होंने कहा—”समझा, वह कुटिल ब्राह्मण इसीलिए सेना नहीं भेज रहा था। अच्छा, और क्या लिखा है?”
सोम ने पढ़ा—”मथुरा का अवन्तिवर्मन, सुना है मगध पर आक्रमण की तैयारी कर रहा है।” इसी से सम्राट् ने मुझे उसका अवरोध करने को सीमा-प्रान्त पर जाने का आदेश दिया था। परन्तु आर्य वर्षकार ने वह आदेश रद्द कर दिया और राजधानी का कार्यभार मुझे सौंपकर स्वयं अन्तर्धान हो गए हैं।”
“ठहरो सोम, सोचने दो—वह कुटिल गया कहां?”
सोम चुपचाप खड़ा रहा। सेनापति ने एकाएक उद्विग्न होकर कहा—
“सोम, क्या यह सम्भव नहीं कि वर्षकार चम्पा ही में आया हो?”
“यदि ऐसा है तो आर्य, हमें बहुत सहायता मिलेगी।”
“परन्तु श्रेय?” सेनापति भद्रिक की भृकुटि टेढ़ी हुई। मगध के ख्यातनामा वीर सेनानायक की यह कुटिल राज्य-वासना देखकर सोम विचार में पड़ गया।
सेनापति ने बड़ी देर चुप रहकर दीर्घ निःश्वास लेकर कहा—”सोमप्रभ, चाहे जो हो, श्रावस्ती में सम्राट को अवश्य मुंह की खानी पड़ेगी। हां, वैशाली का गणतन्त्र मगध साम्राज्य की गहरी बाधा है। क्यों न फिर अम्बपाली ही हमारी सम्पूर्ण कूटनीति और विग्रह का केन्द्र रहे। होने दो सम्राट् की उस पर आसक्ति। हमारे लिए लाभ ही लाभ है। तो भद्र सोम, मैं तुम्हें दो गुरुतर संदेश देता हूं। कदाचित् अब हम लोग न मिल सकें। यदि तुम्हारी योजना सफल हो तब भी और न हो तब भी, जितना सम्भव हो, द्रुत गति से चम्पा से प्रस्थान करना और सेनापति उदायि से मिलकर मेरा मौखिक संदेश कहना कि जल्दी न करें। सर्वथा नष्ट कर देने की अपेक्षा अपनी कल्पनाओं को कुछ काल के लिए स्थगित कर देना अधिक अच्छा है।”
इतना कहकर सेनापति चुपचाप एकटक युवक के मुख की भावभंगी को देखते रहे। युवक लौह-स्तम्भ के समान स्थिर खड़ा रहा। उसने कहा—”भन्ते सेनापति का संदेश अक्षरशः आर्य उदायि की सेवा में पहुंच जाएगा।”
“तब दूसरी बात भी सुनो सौम्य,” सेनापति ने और निकट मुंह करके और भी धीरे-से कहा—
“मेरे महान् प्रतिद्वन्द्वी इस ब्राह्मण वर्षकार को अपना विश्वासपात्र बनाना। केवल वैशाली का पतन ही ऐसा है, जिस पर मैं, सम्राट् और यह कुटिल ब्राह्मण तीनों का त्रिकूट सहमत है, यद्यपि तीनों की भावनाएं पृथक् हैं। सम्राट् अम्बपाली को प्राप्त करना चाहते हैं और यह ब्राह्मण उत्तर भारत से सम्पूर्ण गणराज्यों का उन्मूलन किया चाहता है। किन्तु मेरा उद्देश्य कुछ और ही है।” कुछ देर ठहरकर सेनापति ने कहा—”भद्र सोम, उदायि से कहना कि ऐसा करें, जिससे यह कुटिल ब्राह्मण स्वयं वैशाली जाए और सूनी राजधानी में अकेले सम्राट् ही रह जाएं।”
सेनापति की आंखों से एक चमक निकलने लगी। उनका स्वर उद्विग्न हो गया। पर उन्होंने शान्त ही रहकर कहा—”सोम भद्र, थोड़ी बात और शेष है।”
“मेरी पचास सहस्र रक्षित सैन्य है, उसका मैं तुम्हें अधिनायक नियुक्त करता हूं। आवश्यकता होने पर उसका उपयोग मगध के लिए करना।”
युवक ने मौन भाव से सेनापति का आदेश ग्रहण किया। सेनापति ने कहा—”तो भद्र सोम, अब दो दण्ड रात्रि व्यतीत हो रही है। तुमने जिस कठिन असाध्य-साधन का संकल्प किया है उसकी बेला निकट है। अपना अद्भुत काम करो। मैं अनिमेष भाव से उसके फलाफल का निरीक्षण करूंगा।”
सोम अभिवादन करके जाने लगे तो सेनापति ने लपककर उन्हें खींचकर छाती से लगा लिया और कहा—”ऐसे नहीं सोमभद्र, आज के अभियान के सेनानायक मैं नहीं, तुम हो। अभिलाषा करता हूं कि सफल हो।”
सोम एक बार सेनानायक को मौन भाव से फिर अभिवादन करके चुपचाप चलकर फिर अन्धकार में समा गए।
37. आक्रमण : वैशाली की नगरवधू
चन्दना नद में ज्वार आ रहा था। अपने बीस आरोहियों को लेकर एक नौका जल में प्रबल थपेड़ों पर निःशब्द नाचती हुई आकर दक्षिण बुर्ज के नीचे रुक गई। साहसी मांझी ने यत्न करके पत्थर की चट्टानों से टकराती लहरों से नौका को बचाकर ठीक बुर्ज के नीचे उसी चट्टान के निकट लगा दिया। सोम सबसे प्रथम चुपचाप नीचे उतरा। उसके पीछे अश्वजित था। अश्वजित ने बुर्ज के तल में जाकर देखा, एक मजबूत रस्सी लटक रही है और शंब उसकी यत्न से रक्षा कर रहा है। सोम का संकेत पाकर बीस योद्धा अपने-अपने खड्ग कोश से खींच और दांतों में दबाकर रस्सी के सहारे बुर्ज पर चढ़ने लगे। तीन सौ हाथ ऊंची सीधी ढालू चट्टान पर स्थित उस बुर्ज पर चढ़ना कोई हंसी-खेल न था। परन्तु वीरों की यह टोली भी कोई साधारण टोली न थी। सबसे प्रथम शंब, फिर अश्वजित् और उसके बाद एक के बाद दूसरा, कुल बीस योद्धा और सबके अन्त में सोम बुर्ज पर पहुंच गए। प्रत्येक आदमी बुर्ज पर पेट के बल लेट गया। अश्वजित् का भाई पहरे पर नियुक्त था। उसने धीरे-से सोम के निकट आकर कहा—”पहरा बदलने का समय हो गया है। सबसे पहले नये प्रहरियों को काबू में करना होगा। वे चार हैं और आधे ही दण्ड में आनेवाले हैं।” सोम ने अपने योद्धाओं को आवश्यक आदेश दिए। प्रत्येक व्यक्ति चुपचाप प्राचीर पर लेटा हुआ था और प्रत्येक के हाथ में नग्न खड्ग था।
चारों नये प्रहरी बेसुध चले आए और अनायास ही काबू कर लिए गए। एक शब्द भी नहीं हुआ।
सोम ने कहा—”अब?”
“अब हमें सिंहद्वार के रक्षकों पर अधिकार करना होगा। कुल 16 हैं, परन्तु निकट ही दो सौ सशस्त्र योद्धा सन्नद्ध हैं। खटका होते ही वे आ जाएंगे।”
“देखा जाएगा। समय क्या है?”
अश्वजित् ने आकाश की ओर देखकर कहा—”तीन दण्ड रात्रि जा चुकी है।”
“तो अभी हमें एक दण्ड समय है।”
इसके बाद अश्वजित् के भाई बाहुक की ओर देखकर उसने कहा—”मित्र, तुम्हें अभी और भी हमारी सहायता करनी होगी।”
“मैं मगध का सेवक हूं।”
“तो मित्र, यह मद्यभाण्ड लो और झूमते हुए सिंहद्वार तक चले जाओ। जितना सम्भव हो, प्रहरियों को मद्य पिलाओ और तुम उन्मत्त का अभिनय करके वहीं पड़े रहो, जब तक कि हम लोग न पहुंच जाएं। ठीक चार दण्ड रात बीतने पर सेनापति दुर्गद्वार पर बाहर से आक्रमण करेंगे।”
अश्वजित् के भाई ने हंसकर कहा—”और तब तक यह सुवासित मद्य उनके पेट में अपना काम कर चुका होगा तथा सेनापति को द्वार उन्मुक्त मिलेगा। मैं अब चला, आपका कल्याण हो!”
सोम आवश्यक व्यवस्था में जुट गए और उनके आदेश को ले-लेकर उनके साहसी भट दांतों में खड्ग दबाए सिंहद्वार के चारों ओर को पेट के बल खिसकने लगे। सब कुछ निःशब्द हो रहा था।
बाहुक ने सिंहपौर पर लड़खड़ाते हुए पहुंचकर कहा—”तुम्हारा कल्याण हो सामन्त, किन्तु इसमें किसी का हिस्सा नहीं है।” उसने मद्यपात्र मुंह में लगाकर मद्य पिया।
एक प्रहरी ने हंसकर कहा—”अरे बाहुक, तुम हो? आज तो रंग है, कहां से लौट रहे हो?”
“रंगमहल से मित्र। बहार है। वहां वह पशुपुरी की अप्सरा आई है।”
कई प्रहरी जुट गए—”कौन आई है सामन्त?”
“चुप रहो, गुप्त बात है। पशुपुरी की रम्भा। महाराज आज पान-नृत्य में व्यस्त हैं। प्रहरियों को भी प्रसाद मिला है, यह देखो।”
“वाह-वाह, तो सामन्त, एक चषक हमें भी दो।”
“वहां जाओ और ले आओ। इसमें किसी का हिस्सा नहीं है।” उसने फिर पात्र मुंह में लगाया और एक ओर को लुढ़क गया।
एक प्रहरी ने मद्यपात्र छीनकर कहा—”वाह मित्र, हमें क्यों नहीं? अरे वाह, अभी बहुत है। पियो मित्रो! तेरी जय रहे सामन्त!”
सब प्रहरी मद्य ढालने लगे। बाहुक ने एक प्रेम-गीत गाना प्रारम्भ कर दिया। पीलू के स्वर उस टूटती रात में मद्य के घूंटों के साथ ही प्रहरियों के हृदयों को आन्दोलित करने लगे।
एक ने कहा—”सामन्त, वह पशुपुरी की अप्सरा देखी भी है?”
“देखी नहीं तो क्या, अरे! वह ऐसा नृत्य करती है और देव को मद्य ढालकर देती है—देखोगे?”
“वाह सामन्त, क्या बहार है। नाचो तो तनिक, उसी भांति मद्य ढालकर दो तो।”
बाहुक दोनों हाथ ऊंचे करके नृत्य करने लगा और नृत्य करते-करते उसने मद्य ढाल-ढालकर प्रहरियों को पिलाना आरम्भ कर दिया। प्रहरी उन्मत्त हो उठे—कई तो बाहुक के साथ नाचने लगे और कई उसके स्वर के साथ स्वर मिलाकर गाने लगे। मद्य-भाण्ड रिक्त हो गया।
सब मद्य प्रहरियों के उदर में पहुंच गया। तब बाहुक मद्य-भाण्ड को पेट पर रखकर लेट गया और पात्र को ढोल की भांति पीट-पीटकर बजाने और कोई विरह-गीत गाने लगा। प्रहरी हंसते-हंसते लोट-पोट हो गए और उस विशिष्ट मद्य के प्रभाव से फिर गहरी नींद में अचेत हो गए। बाहुक ने सावधान होकर प्रथम आकाश के नक्षत्र को, फिर चारों ओर अन्धकार से परिपूर्ण दिशाओं को देखा। अब चार दण्ड रात्रि व्यतीत हो रही थी।
38. मृत्युपाश : वैशाली की नगरवधू
महाराज दधिवाहन कुण्डनी के उज्ज्वल उन्मादक रूप पर मोहित हो गए। कुण्डनी के यौवन, मत्त नयन और उद्वेगजनक ओष्ठ, स्वर्ण देहयष्टि—इन सबने महाराज दधिवाहन को कामान्ध कर दिया। वे उस पर मोहित होकर ही उसे अपनी कन्या चन्द्रभद्रा की सखी बनाकर रंगमहल में लाए थे। पर जब उन्होंने जाना कि वह कुमारी है और पशुपुरी का वह रत्न-विक्रेता कोई ऐसा-वैसा व्यक्ति नहीं, सम्राटों के समकक्ष सम्पत्तिशाली है, तो महाराज के मन में रत्न-विक्रेता की कन्या से विवाह करने की अभिलाषा जाग्रत हो गई।
आज बैशाखी पर्व का दिन था। इस दिन महाराज की आज्ञा से कुमारी चन्द्रभद्रा ने अपनी सखी कुण्डनी के आतिथ्य में नृत्य-पान गोष्ठी का आयोजन किया था। उसमें महाराज दधिवाहन ने भी भाग लिया था। अर्द्धरात्रि व्यतीत होने तक पान-नृत्य-गोष्ठी होती रही। कुमारी अस्वस्थ होने के कारण जल्दी ही शयनागार में चली गई। कुण्डनी महाराज दधिवाहन का मनोरंजन करती रही। वह चषक पर चषक सुवासित मद्य महाराज को देती जा रही थी।
अवसर पाते ही महाराज ने दासियों और अनुचरों को वहां से चले जाने का संकेत किया। एकान्त होने पर महाराज ने कहा—”सुभगे कुण्डनी, तुम्हारा अनुग्रह अनमोल है।”
“देव तो इतना शिष्टाचार एक साधारण रत्न-विक्रेता की कन्या के प्रति प्रकट करके उसे लज्जित कर रहे हैं।”
“नहीं-नहीं, कुण्डनी, तुम्हारे पिता के पास अलौकिक रत्न हैं, पर तुम-सा एक भी नहीं।”
“किन्तु, देव आपके महल में एक-से-एक बढ़कर रत्न हैं।”
“नहीं प्रिये कुण्डनी, मुझे कहने दो। मैं तुम्हारा अधिक अनुग्रह चाहता हूं।”
“देव की क्या आज्ञा है?”
“कुण्डनी प्रिये, मैं जानता हूं—तुम अभी अदत्ता हो। क्या तुम चम्पा की अधीश्वरी बनना पसन्द करोगी?”
कुण्डनी ने हंसकर कहा—”तो देव, मुझे पट्ट राजमहिषी का कोपभाजन बनाया चाहते हैं! लीजिए एक पात्र।”
“परन्तु अनुग्रह-सहित।”
“कैसा अनुग्रह-देव।”
“इसे उच्छिष्ट कर दो प्रिये, अपने मृदुल अधरों का एक अणु रस इसमें मिला दो। प्रिये कुण्डनी, एक अणु रस।”
“यह चम्पाधिपति की मर्यादा के विपरीत है देव, चषक लीजिए। अभी मैं आपको कालनृत्य का अभिनय दिखाऊंगी।”
“तो यही सही प्रिये कुण्डनी, तुम्हारा नृत्य भी दिव्य है।”
कुण्डनी ने चषक महाराज के मुंह से लगाकर नृत्य की तैयारी की। धीरे-धीरे उसके चरणों की गति बढ़ने लगी। महाराज दधिवाहन स्वयं मृदंग बजाने लगे। कुण्डनी ने प्रत्येक सम पर महाराज के निकट चुम्बन निवेदन करना प्रारम्भ कर दिया और हर बार उस दुष्प्राप्य चुम्बन को प्राप्त न कर सकने पर चंपाधिपति अधीर हो गए। नृत्य की गति बढ़ती गई और मृदंग का गंभीर रव उस टूटती रात में एक उन्मत्त वातावरण उत्पन्न करने लगा। उस एकांत रात में अनावृत्त सुन्दरी कुण्डनी की मनोरम देह नृत्य की अनुपम शोभा विस्तार कर रही थी और कामवेग से महाराज दधिवाहन के रक्त की गति असंयत हो गई थी। कुण्डनी ने अपनी चोली से थैली निकाली और उसमें से महानाग ने अपना फन निकालकर कुण्डनी के मुंह के साथ नृत्य करना प्रारम्भ किया। महाराज दधिवाहन एक बार भीत हुए, परन्तु मद्य के प्रभाव से वे असंयत होकर भी मृदंग बजाते रहे। उनका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो गया था। परन्तु कुण्डनी की चरण-गति अब दुर्धर्ष हो रही थी। इसी समय उसने अपने अधरों पर दंश लिया।
नागराज कुण्डनी का अधर-चुम्बन कर शान्त-भाव से उसी बहुमूल्य थैली में बैठ गए। विष की ज्वाला से कुण्डनी लहराने लगी। नृत्य से थकित और दंश से विवश और उसकी पुष्पाभरण-भूषित सुरभित देहयष्टि धीरे-धीरे महाराज दधिवाहन के निकट और निकट आकर नृत्य की नूतनतम कला का विस्तार करने लगी। विलास और शृंगार का उद्दाम भाव उसके नेत्रों में आ व्यापा।
महाराज दधिवाहन ने मृदंग फेंककर कुण्डनी को आलिंगन-पाश में कस लिया और कुण्डनी फूलों के एक ढेर की भांति महाराज दधिवाहन के ऊपर झुक गई। महाराज दधिवाहन ने ज्यों ही कुण्डनी का अधरोष्ठ चुम्बन किया त्योंही वह तत्काल मृत होकर पृथ्वी पर गिर गए। कुण्डनी हांफते-हांफते एक ओर खड़ी होकर उनके निष्प्राण शरीर को देखने लगी।
39. पलायन : वैशाली की नगरवधू
इसी समय एक अग्निबाण वहां आकर गिरा, उसमें से अति तीव्र लाल रंग का अग्नि स्फुलिंग निकल रहा था। उससे क्षण-भर ही में उस सुसज्जित कक्ष में आग लग गई। बहुमूल्य कौशेय, उपाधान, पट्टवासक और मणिजटित साज-सज्जाएं जलने लगीं। देखते-देखते एक, दो, तीन फिर अनेक अग्निबाण रंगमहल के विविध स्थलों पर गिर-गिरकर आग लगाने लगे। महल धांय-धांय जलने लगा। अन्तःपुर में भीषण कोलाहल उठ खड़ा हुआ। मार-काट, शस्त्रों की झनकार, स्त्रियों के चीत्कार और योद्धाओं की हुंकार से दिशाएं भर गईं। बहुत-से सैनिक इधर-उधर दौड़ने लगे।
कुण्डनी ने महाराज दधिवाहन के पार्श्व में पड़ा खड्ग उठा लिया और एक कौशेय से कसकर अंग लपेट लिया। इसी समय रक्त से भरा खड्ग हाथ में लिए सोम ने आकर कहा—”कुन्डनी, शीघ्रता करो, एक क्षण विलम्ब करने से भी राजनन्दिनी की रक्षा नहीं हो सकेगी। तुम उन्हें लेकर गुप्त द्वार से अश्वशाला के पाश्र्वभाग में जाओ, वहां अश्व सहित शंब है, तुम सीधे श्रावस्ती का मार्ग पकड़ना। मेरी प्रतीक्षा में रुकना नहीं, अपना कार्य पूर्ण कर मैं कहीं भी मार्ग में मिल जाऊंगा।”
कुण्डनी ने एक क्षण भी विलम्ब नहीं किया। वह राजनन्दिनी के शयनकक्ष की ओर दौड़ चली। चारों ओर धुआं और अन्धकार फैला हुआ था। राजकुमारी अकस्मात् नींद से जागकर आकस्मिक विपत्ति से त्रस्त हो शयनकक्ष के द्वार पर अपने शयन-काल के असम्पूर्ण परिधान में ही विमूढ़ बनी खड़ी थी। कोई दासी, चेटी, कंचुकी या प्रहरी वहां न था। कुण्डनी को देखकर कुमारी दौड़कर उससे लिपट गई, उसने कातर कण्ठ से कहा—”क्या हुआ है हला? यह सब क्या हो रहा है?”
“दुर्भाग्य है राजनन्दिनी! दुर्ग पर शत्रुओं का अधिकार हो गया और वे अन्तःपुर में घुस आए हैं। महाराज दधिवाहन मारे गए। प्राण लेकर भागो राजकुमारी।”
राजकुमारी को काठ मार गया। उसके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। वह जड़वत् आंखें फाड़-फाड़कर कुण्डनी की ओर देखती रही।”
कुण्डनी लपकती हुई भीतर गई, एक उत्तरवासक उठा लाई और उसे कुमारी के शरीर पर लपेटती हुई बोली—”साहस करो हला, अभी गुप्त द्वार तक कदाचित् शत्रु नहीं पहुंचे हैं। आओ, हम भाग निकलें। अब एक क्षण का भी विलम्ब घातक होगा।”
एक प्रकार से वह उसे घसीटती हुई-सी गुप्त द्वार से बाहर ले आई। बाहर आकर उसने देखा अन्तःपुर से बड़ी-बड़ी आग की लपटें उठ रही हैं। चारों ओर योद्धा हाथों में मशालें लिए दौड़ रहे हैं। घायलों का आर्तनाद और मार-काट का घमासान बढ़ रहा था। राजकुमारी ने अश्रुपूरित नेत्रों से देखकर कुछ कहना चाहा, पर शब्द उसके होंठों से नहीं निकले, होंठ केवल कांपकर रह गए। उसका अंग भी बेंत की भांति कांप रहा था। कुण्डनी ने उसे अपने और निकट करके, ढाढ़स दिया। इसी समय शंब ने ओट से निकलकर अश्व उपस्थित किए।
कुण्डनी का प्रिय अश्व धूम्रकेतु और दो ऊंची रास के अश्व तैयार थे। कुमारी को कुण्डनी ने सहायता देकर धूम्रकेतु पर सवार कराया और स्वयं अश्व पर सवार होकर राजमार्ग पर आ गई। उसने कहा—”जमकर बैठना कुमारी, हमें द्रुत गति से भागना होगा।”
राजकुमारी ने शोकपूरित स्वर में कहा—”किन्तु हम जाएंगे कहां?”
“जहां आपके मित्र हों।”
“क्या तुम्हारे पिता हमारी रक्षा नहीं कर सकेंगे?”
“कौन जाने, वे निरापद भी हैं या नहीं।”
“किन्तु मैंने तुम्हें उनसे अपनी सुरक्षा में लिया था।”
“यह समय इन बातों पर विचार करने का नहीं है।”
“किन्तु तुम मेरे लिए विपत्ति में पड़ोगी सखी?” कुमारी की आंखों से झर-झर आंसू बह चले।
कुण्डनी ने कहा—”मैं प्राण देकर भी इस विपत्ति में तुम्हारी रक्षा करूंगी राजकुमारी।”
“परन्तु हम निरीह अबला…”
“क्यों, यह सेवक और वह मेरा दास।”
“वह कहां है?”
“मार्ग में मिल जाएगा। मुझे आशा है, हमारी सहायता को उसने यह सेवक भेजा है।”
“उस पर विश्वास किया जा सकता है सखी?”
कुमारी के प्रश्न पर कुण्डनी की आंखें भी गीली हो गईं। उसने कहा—”यह खड्ग लो कुमारी।”
“और तुम?”
“मेरे पास दूसरा शस्त्र है—शंब, तुम सावधानी से हमारे पीछे चलो।”
“तो कुमारी, क्यों न हम श्रावस्ती चलें?”
“वहीं चलो सखी। वहां भगवान् महावीर हैं। वे मेरे गुरु हैं।”
“तब तो बहुत अच्छा है।” और उसने अश्व को संकेत किया। असील जानवर हवा में तैरने लगे। उनका धूम्रकेतु समुद्र-पार के द्वीप से उपानय में आया हरे तोते के रंग का अद्भुत अश्व था। उस जाति के अश्व बहुत दुर्लभ थे। उसकी गति विद्युत् के समान और देह की दृढ़ता वज्र के समान थी। तीनों अश्वारोही तेज़ी से बढ़ते चले गए।
दिन का प्रकाश फैल गया, देखते-ही-देखते सूर्योदय हो गया। उसकी सुनहरी किरणें दोनों अश्वारोहियों के थकित चेहरों पर पड़कर उपहास-सा करने लगीं। शंब ने इधर-उधर देखा। उसने देखा, सामने एक पर्वत के शृंग पर सोम वस्त्रखण्ड हिला-हिलाकर संकेत कर रहे थे। शंब ने देखकर हर्ष से चीत्कार कर उधर ही अश्व फेंका। दोनों बालाओं ने भी उसी का अनुगमन किया। चलते-चलते कुण्डनी ने कहा—”वहां मीठा पानी, वनफल या आखेट अवश्य मिलेगा।” परन्तु राजनन्दिनी बोलने की चेष्टा करके भी बोल न सकी।
40. चम्पा का पत : वैशाली की नगरवधू
दुर्ग के दक्षिण बुर्ज पर मागध तुरही बजते ही दुर्ग के सिंह-द्वार पर आघात हुआ। प्रहरी मद्य से अचेत थे। एक-दो कुछ सचेत थे, उन्होंने कहा—”कौन है?”
बाहुक ने कहा—”पिशाच होगा। एक चषक मद्य मांगने आया है। वह मैं नहीं दूंगा। तुम पियो मित्र।” उसने भाण्ड प्रहरी के मुंह से लगा दिया। परन्तु भाण्ड में एक बूंद भी मद्य न था। प्रहरी को भी पूरा होश न था। उसने भाण्ड में हाथ डालकर कहा—”तुम गधे हो सामन्त! मद्य यहां कहां है?”
“क्या मैं गधा हूं? ठहर पाजी, बाहुक ने उसकी गर्दन में बांह डालकर गला दबोच लिया। प्रहरी दम घुटने से छटपटाने लगा। इसी समय पेट के बल रेंगते आकर एक आदमी ने खड्ग उसके कलेजे में पार कर दिया। उसी क्षण तीन-चार आदमी इधर-उधर से निकल आए और उन्होंने प्रहरी के वस्त्रों से चाभी निकालकर द्वार खोल दिया। जो एक-दो प्रहरी अब भी होश में थे, उन्होंने कुछ बोलने की चेष्टा की, पर वे तुरन्त मार डाले गए। फाटक खुल गया और सेनापति धड़धड़ाते हुए दुर्ग में घुस गए। उन्होंने दौड़कर दक्षिण बुर्ज पर मागध झंडा फहरा दिया। क्षण-भर ही में मार-काट मच गई। परन्तु ज्योंही महाराज दधिवाहन का मृत शरीर लाकर चौगान में डाला गया, चम्पा के सैनिकों के छक्के छूट गए। इसी समय पूर्व में सफेदी दिखाई दी और उसी के साथ चम्पा में विद्रोह के लक्षण दीख पड़ने लगे। सूर्योदय होते ही विद्रोहाग्नि फूट पड़ी। सैकड़ों नागरिक जलती मशालें और खड्ग लेकर नगर में आग लगाने और लोगों को मारने-काटने लगे। हाट, वीथी और जनपद सभी बन्द हो गए। चम्पा जय हो गया। एक दिन व्यतीत होते-होते दुर्ग और नगर सर्वत्र मगध सेनापति चण्डभद्रिक का अधिकार हो गया। उन्होंने एक ढिंढोरा पिटवाकर प्रजा को अभय दिया, तथा नई व्यवस्था कायम की। अब उन्हें सोम का स्मरण हुआ। उन्होंने सोमप्रभ को बहुत ढूंढ़ा, परन्तु सोमप्रभ का उन्हें पता नहीं लगा। कुमारी चन्द्रप्रभा का भी कोई पता नहीं लगा। राजकुल की अन्य स्त्रियों का समुचित प्रबन्ध कर दिया गया। महाराज दधिवाहन का मर्यादा के अनुरूप अग्नि-संस्कार किया गया।
41. वादरायण व्यास : वैशाली की नगरवधू
वैशाली के ठीक ईशान कोण पर—लगभग वैशाली और राजगृह के अर्धमार्ग में पाटलिपुत्र से थोड़ा पूर्व की ओर हटकर गंगा के उपकूल पर एक बहुत प्राचीन मठ था। वह मठ वादरायण मठ के नाम से प्रसिद्ध था। उस मठ की बड़ी भारी प्रतिष्ठा थी। देश-देशांतर के सम्राटों और सामन्तों के समय-समय पर अर्पित ग्राम, सुवर्ण और गौ तथा भू-सम्पति से मठ बहुत सम्पन्न था। राजा और सभी जनों का वहां नित्य आवागमन बना रहता था।
मठ की ख्याति और उसकी प्रतिष्ठा जो दिग्दिगंत में फैल रही थी, उसका कारण भगवान् वादरायण व्यास थे, जो इस मठ के गुरुपद थे। उनके चरणों में बैठकर देश देशांतरों के बटुक विविध विद्याओं का अध्ययन करते और ज्ञान-सम्पदा से परिपूर्ण होकर अपने देशों को लौटते थे।
भगवान् वादरायण कब से मठ के अधीश्वर हैं, यह कोई नहीं जानता, न कोई यही कह सकता है कि उनकी आयु कितनी है। वे आज जैसे हैं, वैसा ही लोग न जाने कब से उन्हें देखते आ रहे हैं।
भगवान् वादरायण धवल कौशेय धारण करते हैं। उनके सिर और दाढ़ी के बाल अति शुभ्र चांदी के समान हैं, जो उनके गौरवर्ण-तेजस्वीमुखमंडल पर अत्यन्त शोभायमान प्रतीत होते हैं। उनकी सम्पूर्ण दन्तपंक्ति बहुमूल्य मुक्तापंक्ति के समान शोभित है, उनका अनवरत मृदु-मन्द हास्य शरद्कौमुदी से भी शीतल और तृप्तिकारक है। वे बहुत कम शयन करते हैं, अपराह्न में केवल एक बार हविष्यान्न आहार करते हैं। आज तक किसी ने उन्हें क्रुद्ध होते नहीं देखा। उनका पाण्डित्य अगाध है और उनकी विचारधारा असन्दिग्ध। उनकी दार्शनिक सत्ता लोकोत्तर है। वे महासिद्ध त्रिकालदर्शी महापुरुष विख्यात हैं।
उनका कद लम्बा, देह दुर्बल किन्तु बलिष्ठ है। नासिका उन्नत, ललाट प्रशस्त, नेत्र मांसल, स्निग्धा और महातेजवान् है। उनमें भूतदया, दिव्य ज्ञान एवं समदर्शीपन की स्निग्धा धारा निरन्तर बहती रहती है।
कोई उन्हें भगवान् वादरायण कहते हैं, कोई केवल भगवान् कहते हैं, किन्तु बहुत जन उन्हें कोई सम्बोधन ही नहीं करते। वे उन्हें देखकर ससंभ्रम पीछे हट जाते हैं अथवा पृथ्वी में गिरकर प्रणिपात करते हैं।
वे दो पहर रात रहते शय्या त्याग देते हैं और गर्भगृह में जाकर समाधिस्थ विराजते हैं। फिर उषा का उदय होने पर मठ के अन्तराल में आकर प्रहर दिन चढ़े तक बटुथों को ज्ञान-दान देते हैं। इसके बाद व्याघ्रचर्म पर बैठकर सर्वसाधारण को दर्शन देते तथा उनसे वार्तालाप करते हैं। मध्याह्न होने पर वे आवश्यक मठ प्रबन्ध-सम्बन्धी व्यवस्थाओं की आज्ञाएं प्रचारित कराते और फिर अन्तरायण में जा विराजते हैं। उस काल वे शास्त्रलेखन अथवा अदृष्ट-गणना करते हैं अथवा किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर विचार गवेषणा करते हैं।
भगवान् वादरायण के इस नित्यविधान में कभी किसी ने व्यतिक्रम होते नहीं देखा। न कभी वे रोगी, पीड़ित, थकित या क्लान्त देखे गए। ऐसे ये भगवान् वादरायण व्यास थे, जिनकी ख्याति उन दिनों दिग्दिगन्त में फैली थी।
भादों का संध्याकाल था। आकाश पर काली घटाएं छा रही थीं। गंगा का विस्तार सागर के जैसा हो रहा था, उस पार दूर तक जल ही जल दीख पड़ता था। लता-गुल्म सब जलमग्न हो गए। वृक्ष आधे जल में डूबे दूर से लतागुल्म-जैसे प्रतीत होते थे। अभी दिन का थोड़ा प्रकाश शेष था।
बटुकगण सान्ध्य अग्निहोत्र कर चुके थे। भगवान् वादरायण मठ के पश्चिम ओर के प्रान्त-भाग में एक ऊंचे शिलाखण्ड पर खड़े भागीरथी गंगा का यह विस्तार देख रहे थे। उन्हीं के निकट एक ब्रह्मचारी युवा विनम्र भाव में खड़ा था। ब्रह्मचारी की आयु तीस-बत्तीस वर्ष थी। उसकी छोटी-सी काली दाढ़ी ने उसके तेजस्वी मुख की दीप्ति को और भी बढ़ा दिया था। उसका बलिष्ठ अंग कह रहा था कि वह ब्रह्मचारी असाधारण शक्ति सम्पन्न है।
भगवान् वादरायण बोले—”सौम्य मधु, गंगा का विस्तार तो बढ़ता ही जाता है। उस ओर के जो ग्राम डूब गए थे, वहां उपयुक्त सहायता भेज दी गई है न?”
ब्रह्मचारी ने विनयावनत होकर कहा—”भगवान् के आदेश के अनुसार दो सौ नावें कल ही भेज दी गई थीं। वे अपना कार्य कर रही हैं। औषध और अन्न-वितरण भी हो रहा है और पीड़ित क्षेत्र के स्त्री-बच्चों एवं वृद्धों को सर्वप्रथम उठा-उठाकर रक्षा-क्षेत्रों में पहुंचाया भी जा रहा है।”
“किन्तु क्या यह पर्याप्त है मधु?”
“पर्याप्त तो नहीं भगवन, परन्तु अभी और अधिक व्यवस्था नहीं हो सकी। हमारी बहुत-सी नौकाएं बह भी तो गई हैं! फिर मांझियों की भी कठिनाई है। प्रातःकाल और सौ नावें जा रही हैं।”
“यह अच्छा है, परन्तु चिकित्सा और खाद्य-सामग्री क्या प्रचुर मात्रा में हैं?”
“जी हां भगवन्, परन्तु चिकित्सकों की कमी है। फिर भी रक्षण-क्षेत्र में सर्वोत्तम चिकित्सा की व्यवस्था है।”
“व्यवस्था तो विपद्-क्षेत्रों में भी होनी चाहिए मधु। ये सभी ग्रामवासी अति निरीह हैं और इस बार तो उनका घर-बार, धन-धान्य सभी बह गया। क्यों न?”
भगवान् वादरायण की वाणी करुणा से आर्द्र हो गई।
ब्रह्मचारी ने कहा—
“सत्य है, परन्तु भगवन्, वैशाली और राजगृह से चिकित्सक बुलाए गए हैं, उनके आने पर सब व्यवस्था ठीक हो जाएगी और बाढ़ का जल घटते ही मठ की ओर से उनके घर-द्वार निर्माण करने एवं बीज देने की यथावत् व्यवस्था हो जाएगी।”
“ऐसा ही होना चाहिए। परन्तु क्या गणपति को तुमने सहायता के लिए नहीं लिखा? ये ग्राम तो वज्जीगण ही के हैं?”
“जी हां भगवन्, लिख दिया है। आशा है, उपयुक्त सहायता शीघ्र मिल जाएगी।”
भगवान् वादरायण हर-हर करती गंगा की अपरिसीम धारा को देखते रहे। फिर कुछ देर बाद स्निग्ध स्वर में कहा—”ठीक है मधु, सान्ध्य कृत्य का समय हो गया। चलो, अब भीतर चलें। परन्तु मधु, आज एक सम्भ्रांत अतिथि आने वाले हैं। वे गंगा की राह आएंगे या राजमार्ग से, यह नहीं कहा जा सकता। दोनों ही मार्ग अगम्य हैं, परन्तु वे आएंगे अवश्य, तुम उनकी प्रतीक्षा करना और उनके विश्राम आदि की यत्न से सम्यक् व्यवस्था कर देना, तथा उषाकाल में उन्हें मेरे पास गर्भगृह में ले आना।”
बटुक ने मस्तक नवाकर आदेश ग्रहण किया। फिर आगे-आगे भगवान् वादरायण व्यास और उनके पीछे वह ब्रह्मचारी, दोनों मठ की ओर चल दिए।
42. सम्मान्य अतिथि : वैशाली की नगरवधू
सान्ध्य कृत्य समाप्त हुआ। भगवान् वादरायण गर्भगृह में चले गए। ब्रह्मचारी उन्हें गर्भगृह के द्वार तक पहुंचाकर पादवन्दन करके प्रांगण में लौट आया। अन्य वटुक भी अपने-अपने स्थानों को लौट गए। पार्षदगण इधर-उधर दौड़-धूप करके अपना-अपना काम करने लगे। अनावश्यक दीप बुझा दिए गए। अपना कार्य समाप्त करके पार्षदगण भी विश्राम के लिए चले गए। केवल वही तरुण ब्रह्मचारी प्रांगण में रह गया। पार्षदों को उसने कुछ आवश्यक आदेश दिए। गुरुपद के आदेशों की पूर्ति भी उसने यथासाध्य की। फिर वह एक मर्मर स्तम्भ पर पीठ का सहारा ले एक व्याघ्र-चर्म पर चुपचाप बैठकर कुछ चिन्तन करने लगा।
आकाश में बादल घिर रहे थे। उनके बीच कभी-कभी चतुर्थी का क्षीणकाय चन्द्र दीख पड़ता था, जिससे रात्रि का अन्धकार थोड़ा प्रतिभासित हो उठता था। एकाध तारे भी कभी-कभी दृष्टिगोचर हो जाते थे। ब्रह्मचारी कभी आंखें बन्द किए और कभी खोलकर देख लेता था। उसका ध्यान गुरुपद की आज्ञा पर था। कौन वह सम्मान्य अतिथि आज रात को आनेवाले हैं, जिनके लिए गुरुपद ने इतने यत्न से आदेश दिया है! उन्हीं की अभ्यर्थना के लिए उसने हठपूर्वक रात्रि-जागरण करने का निश्चय कर लिया।
दो दण्ड रात्रि व्यतीत होने पर उस नीरव रात्रि में उसे प्रतीत हुआ—”जैसे सुदूर पर्वत उपत्यका से कुछ अस्फुट शब्द रुक-रुककर आ रहा है। थोड़ी ही देर में वह सावधान होकर सुनने लगा। वह समझ गया कि अश्वपद की ध्वनि है। अश्व एक नहीं, अधिक हैं। कुछ ही देर में मठ के पीछे के प्रान्त-द्वार पर प्राचीर के निकट कुछ आहट प्रतीत हुई। वह समझ गया, कुछ अश्वारोही उधर आए हैं। वह झटपट अपने उत्तरवासक को कमर में लपेटकर मठ के प्रान्त-द्वार पर गया। अंधेरे में पहले कुछ नहीं दीखा। फिर देखा, कोई दस हाथ के अन्तर पर एक मनुष्य की छाया है, पार्श्व में दो अश्व हैं।”
उसने दोनों हाथ ऊंचे करके कहा—”भन्ते अतिथि, आपका मठ में स्वागत है! मैं भगवान् वादरायण के आदेश से आपके स्वागतार्थ प्रतीक्षा कर रहा था।”
ब्रह्मचारी के वचन सुनकर छाया-मूर्ति अन्धकार से आगे बढ़ी। मन्दिर के क्षीण आलोक में ब्रह्मचारी ने देखा वह एक वृद्ध भट है। उसके शस्त्र तारों के क्षीण प्रकाश में चमक रहे थे। वृद्ध ने मस्तक झुकाकर ब्रह्मचारी को अभिवादन करके कहा—
“हमें क्षमा करें भन्ते, मार्ग में बहुत वर्षा होने से हमें अति विलम्ब हो गया और असमय में आपको कष्ट देना पड़ा।”
“कोई हानि नहीं, भगवान् ने मुझे प्रथम ही आदेश दे दिया था।”
परन्तु इतना कहकर भी ब्रह्मचारी कुछ असमंजस में पड़ गया। वह सोचने लगा, यह साधारण वृद्ध भट ही क्या वह सम्मान्य व्यक्ति है जिसने उसे ‘भन्ते’ कहकर और अभिवादन करके अपनी लघुता प्रकट की है! वह ध्यान से आगन्तुक को देखने लगा। आगुन्तक ने कहा—
“भगवान् वादरायण त्रिकालदर्शी हैं।” और तब पीछे खड़ी दूसरी छायामूर्ति की ओर देखा।
ब्रह्मचारी ने उसे अभी नहीं देखा था। वह छाया-मूर्ति भी आगे बढ़ी। ब्रह्मचारी उसे उस धूमिल प्रकाश में देखकर स्तम्भित हो गया। वह स्वप्न में भी नहीं सोच सका था कि जिस सम्मान्य अतिथि की वह प्रतीक्षा कर रहा था, वह कोई महिला है। उसने एक ही दृष्टि से देखा, महिला असाधारण सुन्दरी और गौरवशालिनी है। उसने आगे बढ़कर युवा ब्रह्मचारी से मधुर शब्दों में कहा—”भन्ते ब्रह्मचारिन्, हम लोग बहुत थक गए हैं, वस्त्र भी सब भीग गए हैं, अश्वों को भी दाना-पानी नहीं मिला। कष्ट करके अभी हमारे विश्राम की व्यवस्था कर दीजिए, प्रभात में हम भगवान् वादरायण की पादवन्दना करेंगे। असुविधा के लिए क्षमा कीजिए।”
तरुण ब्रह्मचारी को जब गुरुपद ने आग्रहपूर्वक एक सम्भ्रान्त अतिथि के आने का संकेत किया है, तब वह अवश्य ही कोई महामहिम अतिथि होगा, ऐसा समझकर युवक विनय से बोला—”देवी, इधर से पधारें।”
आगे-आगे ब्रह्मचारी और उसके पीछे अतिथि पेचीदे मार्गों से घूमते हुए मठ के भीतर प्रांगण में आए। वृद्ध भट ने संकोच से कहा—
“किन्तु अश्व?”
“उनकी व्यवस्था हो जाएगी, आप चिन्ता न करें।”
फिर कोई नहीं बोला। ब्रह्मचारी ने एक सुसज्जित कक्ष में अतिथियों को ला खड़ा किया। कक्ष में विश्राम और सुख के सब राजसी साधनों को देखकर अतिथि स्तम्भित रह गए। महिला ने मृदु-मन्द हास्य से कहा—
“भगवान् वादरायण का ऐसा वैभव है?”
ब्रह्मचारी ने संकुचित होकर कहा—”समुचित व्यवस्था नहीं कर सका। गुरुपद ने सन्ध्या-समय ही आदेश दिया था। आपको कोई आवश्यकता हो तो कहिए।”
“नहीं-नहीं, कुछ नहीं, हमें केवल विश्राम ही की आवश्यकता है।”
“तो देवी सुख से विश्राम करें, थोड़ा गर्म दूधा और हविष्यान्न मैं अभी भिजवाता हूं।”
“साधु ब्रह्मचारिन्। किन्तु भगवान् वादरायण को हमारे आगमन की सूचना होनी आवश्यक है।”
“उसकी आवश्यकता नहीं, भगवान् का आदेश है, कल उषाकाल में गुरुपद के आपको दर्शन होंगे। मैं स्वयं आपको गर्भगृह में ले जाऊंगा।”
“जैसी भगवान् वादरायण की इच्छा! तो अब हम विश्राम करेंगे।”
ब्रह्मचारी विनय से मस्तक झुकाकर मठ के बाहरी प्रांगण की ओर धीरे-धीरे अग्रसर हुआ। मठ के बाहरी प्रांगण में सन्नाटा था। वह प्रांगण को पार करता हुआ विश्राम के लिए अपनी कुटिया की ओर मठ के उत्तर प्रान्त से जा रहा था। मठ के उत्तर द्वार की पीठिका के निकट एक एकान्त स्थान पर उसकी कुटिया थी। वहां जाने के लिए उसे विस्तृत सम्पूर्ण प्रांगण, अन्तर्भूमि और बाहरी विस्तृत भू-भाग पार करना पड़ा। अभी केवल दो स्थूल दीप बाहरी दीपाधारों में जल रहे थे, उन्हीं के प्रकाश में उसने देखा, उत्तर-द्वार के सम्मुख बड़ी पौर के निकट एक मनुष्य-मूर्ति दीप-स्तम्भ के नीचे खड़ी है। प्रथम उसे भ्रम हुआ, फिर निश्चय होने पर उसने उसके तनिक निकट जाकर पुकारा—”कौनहै?”
उत्तर संक्षिप्त मिला—
“अतिथि।”
ब्रह्मचारी ने बिल्कुल निकट जाकर देखा। अतिथि असाधारण है। वह एक दीर्घकाय, बलिष्ठ एवं गौरवर्ण पुरुष है। उसकी मुखाकृति अति गम्भीर, आकर्षक और प्रभावशाली है। उसकी बड़ी-बड़ी आंखों से शक्ति का स्रोत बह रहा है। उसके वस्त्र बहुमूल्य हैं। उष्णीष की मणि उस अन्धकार में भी शुक्र नक्षत्र की भांति चमक रही है। कमर में एक विशाल खड्ग है और हाथ में एक भारी बर्छा। खड्ग पर मणि-माणिक्य जड़े हैं, जो उस अन्धकार में भी चमक रहे हैं। वह थकित भाव से अपने बर्छ का सहारा लिए खड़ा है।
देखकर ब्रह्मचारी दो कदम पीछे हट गया। फिर ससम्भ्रम आगे बढ़कर उसने कहा—”भन्ते, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?”
“मुझे रात्रि व्यतीत करने को थोड़ा स्थान चाहिए और यदि थोड़ा गर्म दूध मिल जाए तो अत्युत्तम है।”
ब्रह्मचारी कुछ असमंजस में पड़कर बोला—”किन्तु इस समय उपयुक्त…”
“नहीं, नहीं, आयुष्मान् शिष्टाचार की आवश्यकता नहीं, भगवान् वादरायण के पुनीत स्थान में सब उपयुक्त है।”
“तब आप आइए मेरी कुटी में।”
और बातचीत नहीं हुई। कुटी में आकर ब्रह्मचारी ने दीप जलाया। इस बार उसने फिर अतिथि की ओर देखा, अपनी क्षुद्र एवं दरिद्र कुटिया में इस अतिथि के लाने के कारण वह संकुचित हो गया।
कुटिया छोटी ही थी। उसके बीच में एक काष्ठ-फलक पर कृष्णाजिन बिछा था। एक भद्रपीठ पर जल का पात्र, थोड़ी पुस्तकें और एक-दो आवश्यक वस्तुएं ही वहां थीं। हां, प्रकुण्ड्य पर दो उत्तम धनुष एक विशाल बर्खा तथा कई उत्कृष्ट खड्ग लटक रहे थे। अतिथि ने क्षणभर में ही दृष्टि घुमाकर सारी कुटिया और वहां की सामग्री को देख डाला। फिर हंसकर कहा—”अच्छा, तो यह तुम्हारी ही कुटी है आयुष्मान्?”
“जी हां भन्ते!”
“और ये पुस्तकें, कृष्णाजिन?”
“सब मेरे ही उपयोग की हैं।”
“बहुत ठीक। परन्तु ये शस्त्रास्त्र?” उन्होंने हठात् एक धनुष को दीवार से खींचकर क्षणभर ही में उसकी प्रत्यंचा चढ़ा दी।
तरुण ने अतिथि के असाधारण सामर्थ्य और हस्तलाघव से चमत्कृत होकर कहा—”कभी-कभी गुरुपद मुझे अभ्यास कराते हैं।”
“साधु आयुष्मान्! इसकी कभी आवश्यकता पड़ सकती है।” उन्होंने रहस्यपूर्ण हास्य होंठों पर लाकर धनुष को दीवार पर टांग दिया। “तो मैं इस कृष्णाजिन पर विश्राम करूंगा, किन्तु तुम?”
“मेरे लिए बहुत व्यवस्था है भन्ते, इस पात्र में दूध है और सूखा हुआ कौशेय प्रावार और कौजव खूंटी पर है।”
“ठीक है आयुष्मन्, किन्तु तुम्हारा नाम क्या है?”
“माधव, भन्ते, किन्तु गुरुपद मुझे मधु कहते हैं।”
“तो मैं भी यही कहूंगा। मधु आयुष्मन्, अब मैं भी विश्राम करूंगा।”
“क्या भगवत्पाद में निवेदन करना होगा?”
“नहीं-नहीं, प्रभात में देखा जाएगा।”
बटुक क्षणभर कुछ सोचकर चला गया। वह सोच रहा था, यह अधिकारपूर्ण स्वर से बात करनेवाला तेजस्वी अतिथि कौन है? और वह असाधारण महिला? आज दो-दो महार्घ अतिथि मठ में आए हैं, परन्तु गुरुपद ने तो एक ही का संकेत किया था। वह संकेत किसके प्रति था?
बहुत देर तक बटुक विचार करता रहा। फिर वह अलिन्द के एक स्तम्भ का ढासना लगाकर सो गया।
43. गर्भ-गृह में : वैशाली की नगरवधू
गर्भगृह में माधव ब्रह्मचारी के साथ हठात् अम्बपाली को आते देख भगवान् वादरायण व्यास ने आश्चर्यमुद्रा से कहा—
“अरे देवी अम्बपाली!”
माधव ब्रह्मचारी ने ज्योंही वह अतिश्रुत नाम सुना, वह अचकचाकर अम्बपाली की ओर ताकता रह गया।
अम्बपाली ने पृथ्वी पर गिरकर प्रणिपात किया। भगवान् वादरायण ने स्वस्ति कहकर कहा—”तुम्हारा कल्याण हो, जनपदकल्याणी अम्बपाली कहो, तुम्हारा यह अकस्मात् आगमन क्यों?”
“अविनय क्षमा हो, मैं प्रथम से बिना ही आदेश पाए चली आई। किन्तु सर्वदर्शी भगवत्पाद ने इस अकिञ्चन के विश्राम-आतिथ्य की जो असाधारण व्यवस्था की, उससे मैं अति कृतार्थ हुई।”
“किन्तु-किन्तु!…” भगवान् वादरायण ने तरुण बटुक की ओर प्रश्न-सूचक दृष्टि से देखा।
ब्रह्मचारी ने अटकते हुए कहा—”भगवत्पाद का आदेश यथाशक्ति पालन किया गया है।”
“क्या रात्रि में और कोई अतिथि नहीं आए?”
माधव ने सावधान मुद्रा से कहा—”एक राजवर्गी सामन्त भी हैं।” इसी समय एक छाया ने गर्भगृह में प्रवेश किया। उसे देखकर भगवान् वादरायण कुछ असंयत हुए! उन्होंने दोनों हाथ उठाकर कहा—
“मगध-सम्राट की जय हो!”
तब तक मगध-सम्राट का मस्तक भगवान् वादरायण के चरणों में झुक गया।
सम्राट का नाम सुनते ही माधव स्तम्भित हो गया। वह अपनी अविनय पर विचार करने लगा। भगवत्पाद के संकेत से उसने आसन की व्यवस्था की।
स्वस्थ होकर बैठने के बाद सम्राट ने हंसकर कहा—”भगवत्पाद का आशीर्वाद विलम्ब से मिला। प्रसेनजित् ने मुझे करारी हार दी है, अभियान के समय मैं भगवत्पाद के दर्शन नहीं कर सका। वार्षभि विदूडभ ने मुझे डुबोया। उसी ने लिखा था कि श्रावस्ती पर अभियान का यही समय है, बूढ़े कामुक महाराज प्रसेनजित् अब कुछ न कर सकेंगे, वे कौशाम्बीपति उदयन से उलझे हुए हैं और सेनापति कारायण से मिलकर मैं सम्पूर्ण सेना में विद्रोह कर दूंगा।”
“और सम्राट् उसी के बल पर श्रावस्ती पर चढ़ दौड़े!” भगवान् वादरायण ने मन्द स्मित करके कहा। सम्राट ने लज्जा से सिर झुका लिया। भगवान् वादरायण फिर बोले—
“बन्धुल मल्ल और उसके बारह परिजनों के विक्रम का विचार नहीं किया?”
“आर्य वर्षकार ने आपत्ति की थी, वे पूरी शक्ति चम्पा-विजय में लगाकर तब इधर ध्यान देने के पक्ष में थे।”
कुछ देर चुप रहकर भगवान् वादरायण ने कहा—
“आप आए कब?”
“मध्य रात्रि के बाद। मैं अश्व पर निकला था, पर राह में वह मर गया। तब नौका पर चला। एक स्थल पर नौका उलट गई। तब मैं तैरकर मध्य रात्रि में यहां पहुंचा। आयुष्मान् मधु का मैंने रात आतिथ्य-ग्रहण किया और उसी की कुटिया में रात व्यतीत की।”
भगवान वादरायण ने प्रश्नसूचक दृष्टि से माधव की ओर देखा। मधु ने लज्जित होकर कहा—”अविनय क्षमा हो, मैं सम्राट को पहचान न सका। गुरुपद का आदेश कदाचित्…” वह अम्बपाली की ओर देखकर चुप हो गया।
अम्बपाली की ओर अभी तक सम्राट् की दृष्टि नहीं गई थी। अब उन्होंने भी इधर देखा। घृत-दीप के मन्द-पीत प्रकाश में अम्बपाली उन्हें एक सजीव चम्पक-पुष्प-गुच्छ-सी दीख पड़ी।
इसी समय भगवान् वादरायण खिलखिलाकर हंस पड़े। दोनों ने चकित होकर उनकी ओर देखा। उन्होंने कहा—
“खूब हुआ, सम्राट के लिए जो व्यवस्था की गई थी, उसका देवी अम्बपाली ने उपयोग किया, फलतः सम्राट को माधव की कुटिया के काष्ठफलक पर रात्रि व्यतीत करनी पड़ी।”
अम्बपाली ने आगे बढ़ और करबद्ध हो सम्राट् का अभिवादन किया। फिर मधुर कण्ठ से कहा—”सम्राट् की जय हो! मुझसे अनजाने ही यह अपराध हो गया है।”
सम्राट ने हंसकर कहा—”आप्यायित हुआ यह जानकर, कि जनपदकल्याणी देवी अम्बपाली ने मेरे लिए नियोजित कक्ष में शयन-सुख उठाया, और हर्षित हुआ।”
“अनुगृहीत हुई!”
“भला एक अनुग्रह तो स्वीकार किया देवी अम्बपाली ने। मुझे प्रसेनजित् से पराजित होने का क्षोभ नहीं है।” सम्राट ने हंसकर दोनों हाथ फैलाए।
भगवान् वादरायण ने हंसकर कहा—
“लाभ है, लाभ है, सुश्री अम्बपाली, तो मैं आज रात्रि में तुमसे वार्तालाप करूंगा।”
जैसी आज्ञा भगवन्! उसने प्रथम भगवान् वादरायण को और फिर मगध सम्राट को सिर झुकाकर अभिवादन किया और कक्ष से चली गई।
एकान्त होने पर भगवान ने कहा—
“तो आपकी महत्त्वाकांक्षा ने वर्षकार की बात पर विचार नहीं करने दिया?”
“इसी से तो भगवन् करारी हार खाई, परन्तु…।”
“वैशाली में ऐसा अवसर न आने पाएगा, क्यों?”
“भगवत्पाद जब हृद्गत भाव से अवगत हैं तो मैं आशीर्वाद की आशा करता हूं।”
“सम्राट् को उसकी क्या आवश्यकता है! विजय के लिए उनकी सेना और कूटनीति यथेष्ट है।”
“किन्तु यह तो भगवत्पाद का कोप वाक्य है। भगवान् प्रसन्न हों!”
भगवान वादरायण ने मन्द हास करके कहा—
“नहीं-नहीं सम्राट्, कोप नहीं। परन्तु सम्राटों और विरक्तों का दृष्टिकोण सदा ही पृथक् रहता है।”
“परन्तु भगवन् जहां जनपद-हित और व्यवस्था का प्रश्न है, वहां सम्राट् और विरक्त एक ही मत पर रहेंगे।”
“फिर भी सम्राट विरक्त सदैव कत्र्तव्य पर विचार करेगा और सम्राट अधिकारों पर। ये ही अधिकार युद्ध, रक्तपात और अशांति की जड़ हैं—यद्यपि वे सदैव जनपद-हित और व्यवस्था के लिए किए जाते हैं।”
“अविनय क्षमा हो भगवन्, इस युद्ध, रक्तपात और अशांति में भी एक लोकोत्तर कल्याण-भावना है। भगवान् भलीभांति जानते हैं कि छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्य छोटे-छोटे स्वार्थों के कारण परस्पर लड़ते रहते हैं, साम्राज्य ही उन्हें शांत और समृद्ध बनाता है। साम्राज्य में राष्ट्र का बल है, साम्राज्य जनपद की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है।”
भगवत्पाद हंस दिए। उन्होंने कहा—”इसी से सम्राट् छोटे-से वैशाली के गणतन्त्र को मगध साम्राज्य में मिलाना चाहते हैं?”
सम्राट् ने कुछ लज्जित होकर कहा—”भगवन्, स्वाधीनता सर्वत्र ही अच्छी वस्तु नहीं है, यह दासता की ध्वनि है और इसके मूल में आपाद अशांति, अव्यवस्था और उत्क्रान्ति है।”
भगवान् ने किंचित हास्य कर कहा—”तो कौशाम्बीपति उदयन ने श्रावस्ती अभियान में आपको सहायता नहीं दी?”
“यही तो हुआ भगवन्, विदूडभ ने यही तो कहा था कि कौशाम्बीपति ससैन्य सीमाप्रांत पर सन्नद्ध हैं; ज्योंही मगध सैन्य का आक्रमण होगा, वे उस ओर से घुस पड़ेंगे।”
“यह अभिसन्धि कदाचित् बन्धुल मल्ल ने पूरी नहीं होने दी?”
“नहीं भगवन्! आर्य यौगन्धरायण ने उदयन को आक्रमण न करके हमारे युद्ध का परिणाम देखने की सम्मति दी। यौगन्धरायण मृत मांस खाना चाहता था।”
भगवान् वादरायण जोर से हंस दिए! सम्राट भी हंसे।
“मैं भगवत्पाद के हास्य का कारण समझ गया। कदाचित् कौशाम्बीपति यौगंधरायण की सम्मति अमान्य करते, पर गान्धारनन्दिनी कलिंगसेना का अनुरोध न टाल सके। देवी कलिंगसेना ही के लिए उदयन ने कोसल पर आक्रमण किया था, परंतु कलिंगसेना ने ही जब यह संदेश भेजा कि मैंने कोसलेश को आत्मसमर्पण कर दिया है, कौशाम्बीपति का मेरे लिए अभियान धर्मसम्मत नहीं है। तब कौशाम्बीपति निरुपाय हो युद्धविरत हो गए।”
भगवान् वादरायण ने कहा—”तो सम्राट् अब नित्यकर्म से निवृत्त हो विश्राम करें। अभी और बातें फिर होंगी।” वे उठ खड़े हुए। सम्राट भी उठे। भगवान् ने कहा—”मधु, सम्राट के लिए…।”
सम्राट् ने बाधा देकर कहा—”नहीं-नहीं… भगवन्! मधु की कुटिया मुझे बहुत प्रिय है और मधु उससे भी अधिक।”
“कदाचित् इसलिए कि वह साधु कम और सैनिक अधिक है।”
“भगवन्! मुझे मधु-जैसे सैनिकों की बड़ी आवश्यकता है!”
“तो सम्राट् जैसे प्रसन्न हों।”
तीनों गर्भ-गृह से बाहर निकले।
44. भारी सौदा : वैशाली की नगरवधू
अम्बपाली ने अपने कक्ष में सम्राट को आमन्त्रित किया। सम्राट के आने पर उनका अर्घ्य-पाद्य से सत्कार करके अम्बपाली ने उन्हें उच्च पीठ पर बिठाकर कहा—”तो क्या मैं आशा करूं कि सम्राट ने मेरा अपराध क्षमा कर दिया?”
“कौन-सा अपराध? पहले अभियोग उपस्थित होना चाहिए।”
अम्बपाली ने मन्द स्मित करके कहा—
“गुरुतर अपराध सम्राट्, मैंने सम्राट के लिए व्यवस्थित कक्ष और अभ्यर्थना का अपहरण जो किया।”
यह अपराध तो बहुत प्रिय है और सुखद है देवी अम्बपाली। मैं चाहता हूं, मेरे जीवन के पल-पल में देवी यह अपराध करें।”
“देव, क्या ऐसी ही भावुकता से न्याय-विचार करते हैं?”
“यदि अभियुक्त कोमल कवि कल्पना की सजीव प्रतिमूर्ति हो तो फिर सम्राट् क्या और वधिक क्या, उसे भावुक बनना ही पड़ेगा।”
“देव, यह तो मगध-सम्राट् की वाणी नहीं है।”
“सत्य है देवी अम्बपाली, यह एक आतुर प्रणयी का आत्म-निवेदन है।”
“सम्राट् की जय हो! देव राजमहिषी के प्रति अन्याय कर रहे हैं।”
“देवी अम्बपाली प्रसन्न हों, वे सम्राट के साथ अत्याचार कर रही हैं।”
“किस प्रकार देव?”
“वहां खड़ी रहकर। यहां पास आकर बैठो, एक तथ्य सुनो प्रिये!”
अम्बपाली ने एक पीठ पर बैठते हुए कहा —
“देव की क्या आज्ञा होती है?”
“सुनो प्रिये, सम्राट् पर करुणा करो, इसे प्रसेनजित् से ही पराजित नहीं होना पड़ा…”
“शांतं पापं, क्या देव कोई दूसरी दुर्भाग्य-कथा सुनाना चाहते हैं?”
“कथा नहीं, तथ्य प्रिये। इस भाग्यहीन बिम्बसार को प्रणय क्षेत्र में तो जीवन के प्रारम्भ में ही हार खानी पड़ी है।”
“देव, यह क्या कह रहे हैं?”
“वही, जो केवल देवी अम्बपाली से ही कह सकता था। प्यार की वह निधि तो प्रिये अम्बपाली, अभी तक वहीं उस पुराण हृदय में धरी है, किसी की धरोहर की भांति और मैं आजीवन उसके धनी को ही खोजता रहा हूं।”
“हाय-हाय, और देव उसे अभी तक पाने में समर्थ नहीं हुए?”
“आज हुआ प्रिये, संभाल लो वह सब अपनी पूंजी और इस शुष्क, निस्संग बिम्बसार के जलते हुए सूने जीवन में प्यार की एक बूंद टपका दो। देवी अम्बपाली, प्रिये, मैं आज से नहीं, कब से तुम्हारी बाट जोह रहा हूं। तुमने सदैव मेरी भेंट अस्वीकार करके लौटा दी, मुझे दर्शन देना भी नहीं स्वीकार किया। किन्तु आज प्रिये, मैंने अनायास ही तुम्हें पा लिया। ओह, प्रसेनजित् का ही यह प्रसाद मुझे मिला। आज हारकर ही मैं भाग्यशाली बना प्रिये अम्बपाली।”
सम्राट् उठ खड़े हुए और दोनों हाथ पसारकर अम्बपाली की ओर बढ़े।
अम्बपाली खड़ी हो गई। उसका हास्य उड़ गया। उसने सूखे कंठ से कहा “देव, संयत हों। मैं देव से ही सुविचार की अभिलाषा रखती हूं।”
“मैं अन्ततः सुविचार करूंगा प्रिये।”
“तो देव मेरा निवेदन है कि सम्राट की यह प्रणय-याचना निष्फल है।”
“आह प्रिये, तुमने तो एकबारगी ही आशाकुसुम दलित कर दिया।”
“सुनिए महाराज, आप सम्राट् हैं और मैं वेश्या। हम दोनों ने ही प्रणय के अधिकार खो दिए हैं।”
“किंत प्रिये हम मानव तो हैं, मानव के अधिकार?”
“वे भी हमने खो दिए।”
“तो जाने दो। कृमि-कीट, पतंग, पशु जितने प्राणी हैं, क्या उनकी भांति भी हम प्रेम का आनन्द नहीं ले सकते? दो निरीह पक्षियों की भांति भी नहीं…?”
“नहीं देव, नहीं। जैसे वेश्या होना मेरे लिए अभिशाप है, वैसे ही सम्राट् होना आपके लिए। प्रेम के राज्य में प्रवेश करना हम दोनों ही के लिए निषिद्ध है। हम लोग प्रेम का पुनीत प्रसाद पाने के अधिकारी ही नहीं रहे।”
“तब आओ प्रिये, हम इस अभिशाप को त्याग दें। मैं इस दूषित अभिशापित सम्राट पद को त्याग दूं और तुम…तुम…”
“इस…गर्हित वेश्या-जीवन को? सम्राट् यही कहा चाहते हैं? परन्तु यह संभव नहीं है देव। जैसे मैं अपनी इच्छा से वेश्या नहीं बनी हूं, उसी प्रकार आप भी अपनी इच्छा से सम्राट् नहीं बने। हम समाज के बन्धनों और कर्तव्यों के भार से दबे हैं, बचकर निकलने का कोई मार्ग ही नहीं है।”
“कोई मार्ग ही नहीं है? ओह, बड़ी भयानक बात है यह! प्रिये अम्बपाली, सखी, तो फिर क्या कोई आशा नहीं?”
सम्राट ने वेदनापूर्ण दृष्टि से अम्बपाली को देखा। वे धम से आसन पर बैठ गए। अम्बपाली ने खोखले स्वर से नीचे दृष्टि करके कहा—”आशा क्यों नहीं है सम्राट्, बहुत आशा है।”
“ओह तो प्रिये, फिर झटपट मेरे सौभाग्य का विस्तार करो।” वे फिर उठकर और दोनों हाथ फैलाकर अम्बपाली की ओर चले।
अम्बपाली ने पत्थर की मूर्ति की भांति स्थिर बैठकर कहा—”देव! आप आसन पर विराजमान हों। मैं निवेदन करती हूं। हमारी आशा यही है देव, कि में वैश्या हूं और आप सम्राट् हैं।”
“यह कैसी बात प्रिये? यही तो हमारा परम दुर्भाग्य है!”
“सुनिए देव, सम्राट को मगध के भावी सम्राट की माता के हृदय का एक कांटा दूर करना होगा, नहीं तो आपके पुत्र को लजाना पड़ेगा।”
“कहो अम्बपाली, अपना अभिप्राय कहो।” सम्राट ने आसन पर बैठकर जलद गम्भीर स्वर में कहा।
“दुहाई सम्राट की! लिच्छवि गणतन्त्र ने मुझे बलपूर्वक अपने धिक्कृत कानून के अनुसार वेश्या बनाया है।”
सम्राट का मुंह लाल हो आया।
अम्बपाली ने आंखों में आंसू भरकर कहा—”देव, मेरा अपराध केवल यही था कि मैं असाधारण सुन्दरी थी। मेरा यह अभियोग है कि वैशाली गण को इसका दण्ड मिलना चाहिए।”
सम्राट् ने हाथ उठाकर कहा, “मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं अष्टकुल के लिच्छवि गणतन्त्र का समूल नाश करूंगा।”
“और सप्तभूमि प्रासाद के कलुषित वातावरण में…” अम्बपाली के होंठ कांप गए।
सम्राट ने कहा—”नहीं-नहीं, प्रिये, देवी अम्बपाली को मैं राजगृह के राजमहालय में ले जाकर पट्ट राजमहिषी के पद पर अभिषिक्त करूंगा। प्रतिज्ञा करता हूं।”
“अनुगृहीत हुई देव, आज मेरा स्त्री-जन्म सार्थक हुआ। अब मुझे एक निवेदन करना है।”
“कहो प्रिये, अब मैं और तुम्हारा क्या प्रिय कर सकता हूं?”
“देव, आपकी चिरकिंकरी अम्बपाली इस समय तक विशुद्ध कुमारी है और वह आपकी आमरण प्रतीक्षा करेगी।”
“मैं कृतार्थ हुआ प्रिये, आह्लादित हुआ!”
सम्राट उठ खड़े हुए। अम्बपाली ने उनके चरण छुए। सम्राट ने उसके मस्तक पर अपना हाथ रखा और कक्ष से बाहर हो गए। अम्बपाली आंखों में आंसू भरे वैसी ही खड़ी रह गई। उसके होठ कांप रहे थे।
45. भविष्य-कथन : वैशाली की नगरवधू
भगवान् वादरायण दीपाधार के निकट बैठे एक भूर्जपत्र पर कुछ लिख रहे थे। माधव ने भू-प्रणिपात करके देवी अम्बपाली के आगमन का संदेश दिया। दूसरे ही क्षण अम्बपाली ने साष्टांग दण्डवत् किया। भगवान् ने कहा—”अब कहो शुभे अम्बपाली, मैं तुम्हारा क्या प्रिय कर सकता हूं?”
अम्बपाली मौन रही। संकेत पाकर माधव चले गए। उनके जाने पर अम्बपाली ने कहा—”भगवन्, इस समय क्या किसी गुरुतर कार्य में संलग्न हैं?”
“नहीं, नहीं, मैं तुम्हारी ही गणना कर रहा था।”
“इस भाग्यहीन के भाग्य में अब और क्या है?”
“बहुत-कुछ कल्याणी। तुम्हारा सौदा सफल है, तुम मगध के सम्राट् की माता होगी! किन्तु…”
अम्बपाली ने विस्मित होकर कहा—
“भगवान् सर्वदर्शी हैं, पर किन्तु क्या?”
“…किन्तु सम्राज्ञी नहीं।”
अम्बपाली के होंठ कांपे, पर वह बोली नहीं। भगवान् ने फिर कहा—
“और एक बात है शुभे!”
“वह क्या भगवन्?”
“तुम वैशाली गणतन्त्र की जन हो, वैशाली का अनिष्ट न करना!”
अम्बपाली के भ्रू कुञ्चित हुए। यह देख भगवान् वादरायण हंस दिए। उन्होंने कहा—”गणतन्त्र पर तुम्हारा रोष स्वाभाविक है, उसी कानून के सम्बन्ध में न?”
“भगवन्, उसी धिक्कृत कानून के सम्बन्ध में।”
“पर यह बात तो अब पुरानी हुई। फिर तुमने उसका मुंहमांगा शुल्क भी पाया। अब भी तुम्हारा रोष नहीं गया?”
“नहीं भगवन्, नहीं।”
“फिर यह सौभाग्य?”
“मगध-सम्राज्ञी न होते हुए मगध-साम्राज्य की राजमाता का लांछित हास्यास्पद पद?” अम्बपाली ने घृणा से होंठ सिकोड़े और क्रोध से उसके नथुने फूल गए।
भगवान् वादरायण विचलित नहीं हुए। वे मन्द स्मित करते अचल बैठे रहे। अम्बपाली एकटक उनकी भृकुटि में चिन्ताप्रवाह देखती रही। भगवान् ने मृदु-मन्द स्वर में कहा—”केवल यही नहीं…”
“क्या और भी कुछ?”
“बहुत-कुछ।”
“वह क्या?”
भगवत्पाद क्षण-भर गहन चिन्ता में डूबे रहे, फिर जलद-गंभीर वाणी में बोले—”शुभे अम्बपाली, तुम विश्वविश्रुत साध्वी प्रसिद्ध होगी।”
“भगवन्! मैं अधम वेश्या…”
“शुभे, जिसके चरणतल की अपेक्षा मगध-साम्राज्य का चक्र भी लघु है, उसे यह आत्म-प्रतारणा शोभा नहीं देती।” फिर उन्होंने भाव-गंभीर हो दोनों हाथ उठाकर कहा—”तुम्हारा कल्याण हो, परन्तु तुम वैशाली की जनपद-कल्याणी हो। एक बार तुमने आत्मदान करके वैशाली को गृहयुद्ध से बचा लिया था, अब अपने तामसिक रोष में जनपद का अनिष्ट न करना। व्यक्ति से समष्टि की प्रतिष्ठा भी बड़ी है, स्वार्थ भी बड़ा है। व्यक्ति का स्वार्थ हेय है, परन्तु समष्टि का स्वार्थ उपादेय।” भगवत्पाद यह कहकर कुछ देर मौन रहे! फिर बोले—”त्याग संसार में महाश्रेष्ठ है, त्याग से अरिष्ट-अनिष्ट सब टल जाते हैं। तुम जब देखो कि तुम्हारे द्वारा वैशाली का, उत्तराखंड के इस एकमात्र गणतन्त्र का अनिष्ट हो रहा है, तब कोई महान् त्याग करना, अनिष्ट टल जाएगा। मेरा यह वचन भूलना नहीं शुभे, नहीं तो वह महासौभाग्य तुम्हें प्राप्त नहीं होगा।”
“मैं याद रखूंगी भगवन्!”
“तुम्हारा कल्याण हो भद्रे, अब तुम अपने आवास को जाओ।”
अम्बपाली बड़ी देर तक भगवान् वादरायण व्यास के चरणों में चुपचाप पृथ्वी पर पड़ी रही। फिर आंखों में आंसू बहाती हुई उठकर चल दी।
46. साम्राज्य : वैशाली की नगरवधू
“अब?”
“भगवत्पाद जो आदेश दें!”
“साम्राज्यों के विधाता विचारशील मनुष्य नहीं होते सम्राट, वे लोहयन्त्र होते हैं। वे अपनी गति पर तब तक चलते जाएंगे, जब तक वे टूटकर चूर-चूर नहीं हो जाते। उनकी राह में जो आएगा उसी का विध्वंस होगा।”
“किन्तु भगवन्, जन्म का मूल उद्देश्य निर्माण है, विध्वंस नहीं। फिर बाधाएं यदि ध्वस्त न हों तब?”
“निर्माण का अतिरेक भी एक अभिशाप है सम्राट्। यदि निर्माण ही के लिए ध्वंस हो?”
“नहीं भगवन, आवश्यकता ही के लिए निर्माण होता है।”
“तो जनपद को सैन्यबल से आक्रांत करने की क्या आवश्यकता है? निरन्तर युद्ध कितनी घृणा, संदेह और वैर बिखेरते हैं?”
“परन्तु व्यवस्था भी तो स्थापित करते हैं!”
“व्यवस्था जहां अधिकार पर आरूढ़ होती है, वहां जनपद-कल्याण नहीं होता। वह व्यवस्था जनपद-कल्याण के लिए होती भी नहीं, अधिकारारूढ़ कुछ व्यक्तियों ही के लिए होती है, जिनकी आवश्यकताएं इतनी बढ़ जाती हैं कि वे जनपद का सम्पूर्ण प्राण, धन और श्रम अपहरण करके भी भूखी और प्यासी ही बनी रहती है।”
“किन्तु भगवन्, शक्ति का विराट संगठन सदैव जनपद का रक्षण करता है।”
“कहां? कुरुक्षेत्र में आर्यों और संकरों की चरम शक्ति का प्रदर्शन हुआ, परन्तु शक्ति संचय के द्वारा जनपद-कल्याण करने में वासुदेव कृष्ण कृत्य नहीं हुए। कुरुक्षेत्र में केवल महाविनाश ही होकर रह गया।”
“इसमें दोष कहां था?”
“आपात दोष था। किस सदुद्देश्य से कुरुक्षेत्र में 18 अक्षौहिणी सैन्य का संहार किया गया? जनपद-कल्याण की किस भावना से पृथ्वी के लाखों तरुणों को बर्बर पशु की भांति उत्तेजित करके एक-दूसरे के हाथ से निर्दयतापूर्वक वध करा डाला गया? पांडवों को राज्य का भाग दिलाने के लिए जनपद का इतना धन-जन क्यों क्षय किया गया? सम्राट्, आज आप भी वही प्रयोग कर देखिए। नई-नई सेनाएं भरती कीजिए, उनके द्वारा जनपदों को लुटवाइए, फिर उस लूट का कुछ स्वर्ण उन भाग्यहीन मूर्ख तरुण सैनिकों के पल्ले बांध दीजिए, जो निरर्थक नरहत्या को वीरकृत्य समझते हैं। कुछ उन पुरोहित ब्राह्मणों को दीजिए, जो आपकी यशोगाथा गा-गाकर यह प्रचार करें कि आपका यह सामर्थ्य और अधिकार देवी है और यज्ञ के देवता आप पर प्रसन्न हैं। बस, शेष सम्पदा आप जैसे चाहे भोगिए, लक्षावधि निरीह जनपद उसे सहन कर जाएगा।”
भगवान् वादरायण कुछ देर दूर क्षितिज में टिमटिमाते तारे को देखते रहे, फिर उन्होंने कहा—”सम्राट् आर्यों ने अपने पाप का फल पा लिया। उन्होंने जीवन में भूलों पर भूलें कीं, भारत की उर्वरा भूमि में आकर भी उन्होंने अपना विनाश किया। हिमालय के उस ओर से आनेवाली कुरु-पांचालों की शाखाओं से यदि उत्तर कुरु के भरतों का संघर्ष न होकर दोनों की संयुक्त जाति बनती तो कैसा होता? परन्तु उत्तर कुरु के देवगण अपनी विजय के गर्व में मत्त रहे, वहीं खप गए। आर्यावर्त में उनका प्रसार ही न हो पाया। इधर ये पौरव दक्षिण में द्रविणों को आक्रान्त कर उनसे मिल गए। आर्यों की यह पहली भूल थी। इसके बाद उन्होंने राजन्यों की, पुरोहितों की, फिर विशों की न्यारी-न्यारी शाखाएं चलाईं। अनुलोभ-प्रतिलोभ विवाह प्रचलित किए। ब्राह्मणों ने दक्षिणा में और क्षत्रियों ने विजयों में सुन्दरी दासियों के रेवड़ भर लिए। परिणाम वही हुआ जो होना था। अनगिनत वर्णसंकर सन्तानें उत्पन्न होने लगीं। पहले उन्होंने उन्हें पिता के कुलगोत्र में ही रखा और दाय भाग भी नहीं दिया। परन्तु बाद में उन्हें इन आर्यों ने अपने कुलगोत्र से च्युत कर दिया। दायभाग तब भी नहीं दिया। पहले प्रतिलोभ सन्तान ही संकर थी, अब अनुलोभ-प्रतिलोभ प्रत्येक सन्तान संकर बना दी गई और उन्हें अपना उपजीवी बनाकर उनकी पृथक् जातियां बना दी गईं। यह आर्यों की दूसरी भूल थी। सभी संकर मेधावी, परिश्रमी, सहिष्णु एवं उद्योगी थे—जैसा कि होता ही है; आर्य अधिकार-मद पी मद्यप, आलसी, घमण्डी और अकर्मण्य होते गए। अब वे या तो थोथे यज्ञाडम्बरों की हास्यापद विडम्बना में फंसे हैं, या कोरे कल्पित ब्रह्मवाद में। इसी से सम्राट्, आज आर्यों में प्रसेनजित् जैसे सड़े-गले राजा रह गए। आज सम्पूर्ण भरतखंड में आर्य केवल प्रजावर्गीय रह गए हैं, राजसत्ता उन कर्मठ संकरों के हाथ में आती जा रही है। एक दिन भाग्यहीन प्रसेनजित् अति दयनीय दशा में प्राणों के भार को त्यागेगा।”
“किन्तु भगवन् मेरा स्वप्न क्या सत्य होगा?”
“जम्बूद्वीप पर अखंड साम्राज्य-स्थापन का? इसके लिए तो पूर्व में आपका उद्योग चल ही रहा है। उधर पश्चिम में पार्शव सम्राट भी इसी आयोजन में है।”
“परन्तु भगवन्, आर्य कभी उसे न अपनाएंगे।”
“क्यों नहीं, बहुत बार उसने इन्द्रपद ग्रहण किया है। सभी आर्यों ने तो उसका पूजन किया।”
“किन्तु वासुदेव कृष्ण ने जो उसका प्रबल विरोध किया था, वह क्या भगवान् को विदित नहीं?”
“क्यों नहीं!”
“भगवन्, मैं शिशुनागवंशी बिम्बसार वासुदेव कृष्ण का अनुवंशी हूं, आर्य नहीं; मैं पार्शव सम्राट का विरोध करूंगा।”
“सम्राट की इस वासना को मैं जानता हूं।”
“तो भगवत्पाद का अब मुझे क्या आदेश है?”
“सम्राट तुरन्त राजगृह जाएं।”
“किसलिए भगवन्?”
“राजगृह में कुछ घटनाएं होने वाली हैं।”
“अच्छी या बुरी?”
“यह सम्राट् को समय पर मालूम होगा, परन्तु उन्हें दोनों ही प्रकार की घटनाओं को देखने की आशा रखनी चाहिए।”
“यही भगवत्पाद का मुझे आदेश है?”
“राजगृह में शीघ्र ही श्रमण गौतम पहुंचेंगे, वे सम्राट् को समुचित आदेश देंगे।”
भगवान् वादरायण फिर नहीं बोले। एकबारगी ही वे समाधिस्थ हो गए। इसी समय मधु ने कहा—”सम्राट के सैनिक आ पहुंचे हैं। वे सम्राट को अपना अभिवादन निवेदन कर रहे हैं।”
सम्राट् ने भगवान् वादरायण के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और चल दिए।
47. दास नहीं, अभिभावक : वैशाली की नगरवधू
पूरा दिन चारों अश्वारोहियों ने घोड़े की पीठ पर व्यतीत किया। वे नगर, जनपद, वीथी सबको बचाते हुए गहन वन में चलते ही गए। मार्ग में दो-एक हिंसक जन्तु मिले। शंब ने उनका आखेट किया। परन्तु सोम अत्यन्त खिन्न मुद्रा से सबके आगे-आगे जा रहे थे। उनमें बातचीत का भी दम नहीं था। उनके पीछे कुण्डनी राजकुमारी को दाहिने करके चली जा रही थी। राजकुमारी अत्यन्त म्लान, थकित और शोकाकुला थीं। परन्तु जब-जब उनसे विश्राम के लिए कहा गया, उन्होंने कहा—
“नहीं, चले ही चलो, मैं और चल सकती हूं।”
शंब सबके पीछे चारों ओर देखता, सावधानी से चल रहा था। एकाध बात कुण्डनी कर लेती थी। फिर सन्नाटा हो जाता था। कभी-कभी वायु लम्बे वृक्षों और पर्वत-कन्दराओं से टकराकर डरावने शब्द करती थी। कुमारी का चेहरा पत्थर की भांति भावहीन और सफेद हो गया था और उनके नेत्रों की ज्योति जैसे बुझ चुकी थी।
सोम ने अतिविनय से एक-दो बार कुमारी से विश्राम कर लेने और थोड़ा-बहुत आहार करने को कहा था, परन्तु कुमारी बहुत भीत थीं। उन्होंने हर बार भीत दृष्टि से कुण्डनी की ओर ताककर कहा—”नहीं हला, अभी चले चलो। धूमकेतु थका नहीं है, मैं भी थकी नहीं हूं।”
सोम कुमारी की व्यग्रता तथा वैकल्प को समझते थे। इसी से वह चुप हो रहे। वे चलते ही गए। मध्याह्न की प्रखर धूप धीमी पड़ गई। अश्वारोही और अश्व एकदम थक गए। सोम ने एक ऊंचे स्थान पर चढ़कर चारों ओर दृष्टि फेंकी। कुछ दूर उन्हें बस्ती के चिह्न प्रतीत हुए। उन्होंने तनिक रुककर शंब से कहा—”शंब, आखेट का ध्यान रख।” और फिर कुण्डनी के निकट जाकर कहा—”वहां बस्ती मालूम होती है। आज रात वहीं व्यतीत करनी होगी।”
और उसने बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए उधर ही प्रस्थान कर दिया। सूर्यास्त होने तक ये लोग नगर उपकूल में पहुंच गए। नगर में न जाकर उन्होंने नगर के प्रान्त-भाग में अवस्थित एक चैत्य में विश्राम करना ठीक समझा। चैत्य बहुत पुराना और भग्न था। उसके एक कक्ष की दीवार बिलकुल टूट गई थी, फिर भी वहां विश्राम किया जा सकता था। निकट ही एक पुष्करिणी थी।
अश्वों ने जल पिया और अश्वारोहियों ने भी। राजकुमारी के विश्राम की सम्पूर्ण व्यवस्था कर सोम ने चिन्तित भाव से कुण्डनी की ओर देखा। शंब ने एक सांभर मारा था। उसकी ओर निराशा से ताककर सोम ने कहा—”कुण्डनी, यह क्या राजनन्दिनी के आहार के लिए यथेष्ट होगा?”
“परन्तु किया क्या जाय? नगर में जाने से कदाचित् थोड़ा दूध मिल सके। परन्तु आज आखेट पर ही रहें।”
शंब अपनी सफलता पर बहुत प्रसन्न था। सांभर बहुत भारी था। उसने जल्दी-जल्दी राजकुमारी और कुण्डनी के विश्राम की व्यवस्था की और हरिणी का मांस भूनने लगा। सोम ने कहा—”तनिक इधर-उधर मैं देख लूं, यदि थोड़ा दूध मिल जाय।”
उन्होंने अपना बर्छा उठाया और चल दिए। निवृत्त होकर कुण्डनी ने कुमारी के मनोरंजन की बहुत चेष्टा की। वह उनके निकट आकर बातें करने लगी। कुण्डनी ने कहा—
“राजकुमारी प्रसन्न हों, भाग्य-दोष से समय-कुसमय जीवन में आता ही है। इतना खिन्न न हों राजकुमारी।”
“खिन्न नहीं हूं हला, लज्जित हूं, तुम्हारे और तुम्हारे इस सौम्य दास के उपकार के लिए। कब कैसे बदला चुका सकूंगी?”
“राजकुमारी; हम सब तो आपके सेवक हैं। आपको कभी सुखी देखकर हमें कितना आनन्द होगा।” कुण्डनी ने आर्द्र होकर कहा।
“किन्तु सखी, क्या सचमुच वह वीर तुम्हारा दास है?” राजकुमारी ने नीची दृष्टि से सोम की ओर देखकर कहा।
“मेरा ही नहीं, आपका भी राजनन्दिनी।”
“नहीं, नहीं उसका तेज, शौर्य सत्साहस श्लाघ्य हैं। वह तो किसी भी राजकुल का भूषण होने योग्य है। फिर उसका विनय और कार्य-तत्परता कैसी है!”
“इसकी उसे शिक्षा मिली है हला।”
“क्या नाम कहा—सोम?”
“हां, सोम।”
“और उस दास के दास का नाम शंब?”
“जी हां, दास के दास का शंब।” कुण्डनी हंस दी।
राजकुमारी होंठों ही में मुस्कराईं। उन्होंने कोमल भाव से कहा—
“सखी, इस विपन्नावस्था में ऐसे अकपट सहायक मित्रों से दासवत् व्यवहार करना ठीक नहीं है। वे हमारे आत्मीय ही हैं।”
“किन्तु राजनन्दिनी, दास दास हैं, सेवा उनका धर्म है। उनके प्रति उपकृत होना उन्हें सिर चढ़ाना है।”
“ऐसा नहीं हला, अन्ततः मनुष्य सब मनुष्य ही हैं और वह तो एक श्रेष्ठ पुरुष है। मैं उन्हें दास नहीं समझ सकती।”
“तो आप राजकुमार समझिए राजनन्दिनी। यह आपके हृदय की विशालता है।”
“नहीं, वे राजकुमार से भी मान्य पुरुष हैं हला।” राजकुमारी का मुंह लज्जा से लाल हो गया और आंख से आंसू झरने लगे।
इसी समय सोम कुछ आहार-द्रव्य और थोड़ा दूध ले आए। शंब ने भी हरिण को भून-भान लिया था। राजकुमारी क्षण-भर को अपनी विपन्नावस्था भूलकर फुर्ती से आहार को स्वयं परोसने लगीं। उन्होंने पलाश-पत्र पर आहार्य संजोकर अपनी बड़ी-बड़ी पलकें सोम की ओर उठाईं और कहा—”भद्र, भोजन करो।”
सोम ने विनयावनत होकर कहा—
“नहीं राजनन्दिनी, पहले आप और कुण्डनी आहार कर लें, पीछे हम लोग खाएंगे।”
“नहीं-नहीं, ऐसा नहीं।”
“दास का निवेदन है…”
“दास नहीं, भद्र, अभिभावक कहो।”
राजनन्दिनी का गला भर आया। उन्होंने फिर उन्हीं भारी-भारी पलकों को उठाकर सोम की ओर गीली आंखों से ताका। उस मूक अनुरोध से वशीभूत होकर सोम ने और आग्रह नहीं किया। उन्होंने कहा—
“तो फिर, राजनन्दिनी की जैसी आज्ञा हो, हम लोग साथ ही बैठकर भोजन करें।”
राजकुमारी ने भी जल्दी-जल्दी कुण्डनी और अपने लिए आहार परोसा। शंब को भी दिया, पर शंब किसी तरह साथ खाने को राजी न हुआ। वे तीनों भोजन करने लगे।