Contents
- 1 73. प्रसेनजित् का कौतूहल : वैशाली की नगरवधू
- 2 74. यज्ञ : वैशाली की नगरवधू
- 3 75. राजनन्दिनी : वैशाली की नगरवधू
- 4 76. सेनापति कारायण : वैशाली की नगरवधू
- 5 77. प्रसेनजित् का निष्कासन : वैशाली की नगरवधू
- 6 78. बन्धुल का दांव -पेंच : वैशाली की नगरवधू
- 7 79 . कुटिल ब्राह्मण : वैशाली की नगरवधू
- 8 80. दुःखद अन्त : वैशाली की नगरवधू
- 9 81 . नाउन : वैशाली की नगरवधू
- 10 82 . दीहदन्त का अड्डा : वैशाली की नगरवधू
- 11 83. कोसल – दुर्ग : वैशाली की नगरवधू
- 12 84. नर्म साचिव्य : वैशाली की नगरवधू
- 13 85 . कठिन अभियान : वैशाली की नगरवधू
- 14 86. अभिषेक : वैशाली की नगरवधू
- 15 87. आत्मदान : वैशाली की नगरवधू
वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री Part 7
73. प्रसेनजित् का कौतूहल : वैशाली की नगरवधू
देवी कलिंगसेना से वृद्ध महाराज प्रसेनजित् का विवाह निर्विघ्न सम्पन्न हो गया । देवी कलिंगसेना ने विरोध नहीं किया । सारे कार्य सुचारु रूप से हो गए। गान्धारराज ने ब्याह के यौतुक में बहुत – सा धन भेंट किया । किंकिणीजालमण्डित चार घोड़ों के ब्याह सारथी – सहित सौ रथ ,मथुरा की एक सहस्र बछड़ेवाली दुधारू गौएं , सुवर्णाभरण से अलंकृत वायुवेगी अजानीय सौ अश्व और वायुवेगी सौ खच्चर, स्नान – खान – पान और उत्सव के समय सेवा करने में शिक्षिता , गौरांगी, सुवेशिनी, सुकेशिनी , सुप्रभा , रत्नाभरणभूषिता, तरुणी , सुन्दरी सौ यवनी दासियां। बहुत – से सधे हुए बालीक देश के अश्व , बहुमूल्य प्रावार , कोषेय प्रावार, कोजव , क्षौम , क्षौममिश्रित कम्बल , शाण , भंग आदि विविध वस्त्र और स्वर्ण के रत्नजटित ढेर – के – ढेर आभूषण दिए । महाराज ने भी गान्धारजनों को दान – मान – सत्कार से विदाई दी । परन्तु यज्ञ की धूमधाम में महाराज को कलिंगसेना से मिलने का अवकाश ही नहीं मिला । बहुत चाहने पर भी न मिला ।
अधिकृत भेंट की क्रीता दासी के महल से अकस्मात् पलायन करने की सूचना महाराज के कानों में पहुंची। बहुत यत्न – खोज करने पर भी उस दासी के सम्बन्ध में कोई नहीं बता सका कि वह राजमहालय के प्रबल अवरोध में से कहां चली गई । तब महाराज को भी इसके सम्बन्ध में कौतूहल हुआ और महाराज यज्ञ में दीक्षित होने पर भी अनियमित रूप से एक दिन रात्रि को देवी कलिंगसेना के प्रासाद में पधारे । देवी कलिंगसेना ने अभ्युत्थानपूर्वक महाराज का सम्मान किया । यथोचित आसन पर बैठने पर महाराज ने कहा
“ शुभे कलिंग, कोसल के राजमहालय में तुम्हारा स्वागत करने मैं अब से प्रथम नहीं आ सका , इसका मुझे खेद है। ”
“ महाराज के अमात्यों , भृत्यों और राज पौर जानपद -सभी ने मेरा यथेष्ट स्वागत किया महाराज ! मैं इसके लिए आपकी कृतज्ञ हूं और इसलिए भी कि आपने मात्र मुझ संगण्य नारी ही से सन्तुष्ट होकर उत्तर गान्धार के लिए सुदूरपूर्व का वाणिज्य – द्वार खोल दिया । महाराज , आप जानते ही हैं , बिना सुदूरपूर्व के वाणिज्य के हमारा गान्धार जानपद जी ही नहीं सकता। ”
महाराज ने हंसकर कहा – “ पर यह कैसी बात सुश्री कलिंग, कि तुम इस राजनीति में अपने मूल्य का अंकन करती हो । ”
“ निस्सन्देह महाराज, वह कथनीय नहीं है। ”
“ न -न , कलिंग , ऐसा नहीं, मैं तुम्हें …. ” .
“ समझ गई, महाराज मुझे बहुत चाहते हैं । सुनकर कृतकृत्य हुई महाराज ! ”
“ परन्तु वह क्रीता दासी ? ”
“ भाग गई ? जाने दीजिए। महाराज के अन्तःपुर में दासियों और रानियों की गणना ही नहीं है, फिर न सही एक दासी। ”
“ पर , विभ्रव्य कहता है, वह असाधारण सुन्दरी थी । ”
“ थी तो महाराज ! आपके अन्तःपुर में वैसी एक भी नहीं है।
“ क्या तुम भी कलिंग ? ”
“ मैं भी महाराज! ”
“ पर तुमने तो उसे देखा ही नहीं। ”
“ देखा था महाराज! पलायन के समय में मैं उससे कोसल – राजवंश की ओर से क्षमा मांगने गई थी । ”
“ क्या कहती हो ? क्या उसका पलायन तुमको विदित है ? ”
“ मैंने ही उसे भगाया है महाराज ! ”
“ किसलिए ? ”
“ दुष्कर्म-निवारण के विचार से । ”
“ दुष्कर्म क्या था ? ”
“ यही कि उसे क्रीता दासी बनाया गया था । ”
“ यह तो अति साधारण है कलिंग! ”
“ दुर्भाग्य से यह अति असाधारण था महाराज ! ”
“ क्या इसमें कुछ रहस्य है ? ”
“ हां महाराज! ”
“ वह क्या ? ”
“ वह दासी चम्पा के महाराज दधिवाहन की पुत्री सुश्री चन्द्रभद्रा शीलचन्दना थीं । ”
“ अरे , चम्पा की राजकुमारी! ”
“ हां महाराज ! ”
“ वह यहां कैसे दासों में बिकने आई ? ”
“ कर्म-विपाक से महाराज ! ”
“ और तुम कहती हो , वह अनिन्द्य सुन्दरी थी । ”
“ हां महाराज ! ”
“ तो महाराज दधिवाहन मर चुके , उनका राज्य भी भ्रष्ट हो गया । फिर वह दासी जब मूल्य देकर क्रय कर ली गई, तब मेरा उस पर अधिकार हो गया । ”
“ यही सोचकर मैंने उसे भगा दिया महाराज ! ”
“ क्या गान्धार को ? ”
“ नहीं महाराज! ”
“ तब ? ”
“ अकथ्य है । ”
“ कहो कलिंग! ”
“ नहीं महाराज । ”
“ कहना होगा ! ”
“ नहीं महाराज। ”
“ तुमने अपराध किया है! ”
“ तो आप दण्ड दे सकते हैं । ”
“ तब इस पर विचार किया जाएगा। ”
महाराज क्रुद्ध होकर कलिंगसेना के प्रासाद से उठ गए ।
74. यज्ञ : वैशाली की नगरवधू
पहले दिन सहस्र – दक्षिण चार दीक्षावाला सोमयाग प्रारम्भ हुआ और पुरोडाश चढ़ाया गया । इसके बाद श्रुतहोम , विष्णुयाग, चातुर्मास्य, वरुण प्रवास , शाकमधीय , शुनासीरीय और पंचवातीय याग का अनुष्ठान हुआ। आहवनीय अग्नि का देवताओं की दिशा में विस्तार किया गया । फिर ‘ इन्द्रतुरीय यज्ञ और अपामार्ग होम हुआ ।
आचार्य अजित केसकम्बली यज्ञ के अध्वर्यु और कणाद, औलूक , वैशम्पायन पैल , स्कन्द कात्यायन , जैमिनी , शौनक , कात्यायन , वररुचि , बोधायन , भारद्वाज , पतञ्जलि , शाम्बव्य, सांख्यायन आदि सोलह कर्मकाण्डी वेदपाठी ब्राह्मण ऋत्विक् थे। माल -मलीदे खाने वाले और बहुत – से ब्राह्मण , ब्रह्मचारी, वटुक और श्रमण निरन्तर राजधानी में आ रहे थे। आगत राजा – महाराजा कुछ आते थे, कुछ जाते थे। व्यवस्था करने पर भी अव्यवस्था बहत थी । देश – देशान्तर की वेश्याएं भी यज्ञ में आई थीं । वे हंस -हंसकर ब्राह्मणों और समागत जनों के अंग पर गन्ध -माल्य -लेपन और परिहास से उनका मनोरंजन कर रही थीं ।
अग्निदेव को निरन्तर घृत की धारा पान कराई जा रही थी । घी के कुप्पे के कुप्पे यज्ञस्थल में रखे थे। विविध साकल्य , वनस्पति ; पुरोडाश , बलि और आहवनीय पदार्थों से भरे सैकड़ों पात्र , दास – दासियां और राजपुत्र यज्ञभूमि में ला रहे थे। यज्ञवेदी से निकट यूप के चारों ओर एक बड़े बाड़े में घिरे देश- देशान्तर से लाए हुए बछड़े, बैल , भेड़ आदि पशु गवालम्भन – अनुष्ठान की प्रतीक्षा में विविध रंगों और पुष्पों से सुसज्जित और पूजित हो , हरी-हरी घास खा रहे थे। देवताओं को मांस का हविर्भाग अर्पण करके जो हविर्मांस बचता था , उसमें हरिण, वराह आदि मध्य पशुओं का मांस और कन्द – मूल – फल , तिल – मधु – घृत मिलाकर खांडव – राग तैयार किया जा रहा था । उसे वेदपाठी ब्राह्मण रुच-रुचकर बार बार मांग – मांगकर खा रहे थे। एक – एक देवता का आवाहन करके विविध पशुओं, पक्षियों , जलचरों और वृषभों की आहुति यज्ञकुण्ड में दी जा रही थी । ब्राह्मणों के साथ क्षत्रिय, वैश्य और व्रात्य आगत समागत यज्ञबलि का प्रसाद श्रद्धा- पूर्वक खा रहे थे। कहीं गृहस्थाश्रमीय श्रोत्रिय ब्राह्मणों के लिए दूध , खीर, खिचड़ी , यवागू , मांग, बड़े, सूप आदि खाद्य -पेय बनाए जा रहे थे ।
गौडीय , माध्वीक , द्राक्षा ढाली जा रही थी । सोपधान आराम से बैठे हुए आगत जन विविध प्रकार से भुने हुए कुरकुरे मांस के साथ सौवर्ण, राजत तथा मणिमय पात्रों में मद्य पान करके परस्पर विनोद कर रहे थे। आढ्य पुरुष रुच-रुचकर मांसोदन खा रहे थे। कुछ लोग सक्थु, घी और शर्करा मिलाकर आनन्द से खा रहे थे। सैकड़ों आरालिक, सूपकार और रागखाण्डविक लोग विविध खाद्य- संस्कारों में संलग्न थे।
गवालम्भन और पशुयाग को लेकर नगर में एक क्षोभ का वातावरण उठ खड़ा हुआ था । श्रमण महावीर और शाक्य गौतम , दोनों ही महापुरुष इस समय श्रावस्ती ही में थे। वे निरन्तर अपने प्रवचनों में यज्ञ -विरोधी भावना प्रकट करते रहते थे और इसके कारण अनेक सेट्टि गृहपति , सामन्त , राजपुत्र और विश यज्ञ के गवालम्भन को लेकर भीतर – ही – भीतर महाराज के प्रति विद्रोही होते जा रहे थे। प्रच्छन्न रूप से राजकुमार विदूडभ और आचार्य अजित केसकम्बली ऐसे लोगों को प्रोत्साहन दे रहे थे। राजधानी में सेनापति मल्ल बन्धुल नहीं थे। उनके बारहों बन्धु – परिजन मारे जा चुके थे । इससे राजा बहुत चिंतित और व्यग्र हो रहे थे। एक ओर जहां समारोह हो रहा था वहां दूसरी ओर भय , आशंका और विद्रोह की भावना ने राजा को अशान्त कर रखा था ।
गान्धारी नववधू कलिंगसेना से पहली ही भेट में राजा को क्षोभ हो गया था । वे इसके बाद फिर उनसे मिले भी नहीं। परन्तु इस अनिन्द्य सुन्दरी बाला को प्रथम परिचय ही में क्षुब्ध कर देने तथा चम्पा की हाथ में आई राजकुमारी को खो बैठने से वे भीतर – ही भीतर बहुत तिलमिला रहे थे। उधर यज्ञ के विविध अनुष्ठान् , व्रत -नियम , प्रक्रियाओं तथा प्रबन्ध- सम्बन्धी अनेक उलझनों ने उन्हें असंयत कर दिया था ।
राजकुमार विदूडभ ने इस सुयोग से बहुत लाभ उठाया था । उन्होंने समागत अनेक राजाओं को अपना मित्र बना लिया था । वे उनके सहायक और समर्थक हो गए थे। नगर के जो गृहपति , सेट्टी , पौरजन और निगम राजा पर आक्षेप लेकर आते, उनसे युवराज विदूडभ अपनी गहरी सहानुभूति दिखाते और राजा की मनमानी पर अपनी बेबसी और रोष प्रकट करते थे । इस प्रकार घर – बाहर उनके मित्रों , समर्थकों और सहायकों का एक दल और अनुकूल वातावरण बन गया था ।
एक दिन अवकाश पाकर उन्होंने आचार्य अजित केसकम्बली से एकान्त में वार्तालाप किया । राजकुमार ने कहा
“ आचार्य, अब यह यज्ञ – पाखण्ड और कितने दिन चलेगा ? ”
“ यह पुण्य समारोह है युवराज, सौ वर्ष भी चल सकता है, बारह वर्ष भी और अठारह मास पर्यन्त भी । ”
“ और इतने काल तक राज्य की सारी व्यवस्था इसी प्रकार रहेगी । ”
“ तो कुमार , एक ही बात हो सकती है, या तो राजा स्वर्ग के लिए पुण्यार्जन करें या दुनियादारी की खटपट में रहें । ”
“ बहुत पुण्य – संचय हो चुका, आचार्य! अब अधिक की आवश्यकता नहीं है। ”
आचार्य हंस पड़े । उन्होंने कहा – “ पुत्र , मैं तुम्हारे लिए असावधान नहीं हूं । ”
“ तो आचार्य, यही ठीक समय है । न जाने बन्धुल सेनापति कब आ जाए। ”
“ अभी आ नहीं सकता , पुत्र ! सीमान्त पर वह जटिल कठिनाइयों में फंसा है । वयस्य यौगन्धरायण ने उसे विग्रह और भेद में विमूढ़ कर दिया है । ”
“ फिर भी आचार्य, यदि मैं इस समय विद्रोह करूं , तो सफलता होगी ? ”
“ अभी नहीं , रत्नहोम के बाद । आज द्वितीया है , त्रयोदशी को रत्नहोम संपूर्ण होगा । फिर पन्द्रह दिन खाली जाएंगे, यज्ञ की मुख्य क्रिया नहीं होगी, यजमान की उपस्थिति भी न होगी। इसके बाद आगामी चतुर्दशी को अभिषेक होगा । इसी अवकाश में पुत्र , तुम कार्यसिद्धि करना। अभी मैं सीमान्त से पायासी के लौटने की प्रतीक्षा कर रहा हूं । ”
“ क्या आपने कोई योजना स्थिर की है , आचार्य ? ”
“ हां पुत्र , मैं तुझे यथासमय अवगत करूंगा। ”
“ जैसी आपकी आज्ञा ! मैंने अनेक राजाओं को मिला लिया है और जनपद भी गवालम्भन के कारण क्षुब्ध है। ”
“ मैं भी यही समझकर श्रमण महावीर और शाक्य- पुत्र को सहन कर रहा हूं। उन्हें अपना काम करने दो । ”
“ परन्तु कारायण का क्या होगा ? ”
“ समय पर कहूंगा कुमार, अभी नहीं । अभी तुम राजा के अनुगत रहो , जिससे वह आश्वस्त रहें । तुमने देखा है , राजा बहुत क्षुब्ध हैं । ”
“ देख रहा हूं आचार्य। ”
“ तो पुत्र , तू निश्चिन्त रह। नियत काल में मैं तेरे ही सिर पर यज्ञपूत जल का अभिषेक करूंगा। ”
“ तो आचार्य, मैं भी आपका चिर अनुगत रहूंगा । ”यह कहकर राजकुमार विदूडभ ने आचार्य को प्रणाम कर विदा ली ।
75. राजनन्दिनी : वैशाली की नगरवधू
साकेत के सर्वसाधन – सुलभ प्रासाद में राजनन्दिनी चन्द्रप्रभा सुख से रहने लगीं । उसके लिए सुख के जितने साधन कोसल – राजकुमार प्रस्तुत कर सकते थे, उन्होंने यत्नपूर्वक कर दिए। उन्होंने यद्यपि राजकुमारी की केवल एक झलक – भर नौकारूढ़ होते समय देख पाई थी , पर उसी से उनका सुप्त तारुण्य सहस्र मुख से जागरित हो गया । परन्तु राजकुमार विदूडभ चरित्रवान् पुरुष थे। उन्होंने मागध मित्र से जो शब्द कहे थे, उनका मूल्यांकन करना वह जानते थे। उन्होंने यत्नपूर्वक अपने को राजकुमारी से तटस्थ रखा । फिर भी उनका मन रह -रहकर विद्रोह करने लगा । वे राजकुमारी को विविध सुविधाएं , सुख- साधन और मनोरंजन के साधन प्रस्तुत करने में हार्दिक आह्लाद की अनुभूति करते रहे । परन्तु बहुत इच्छा होने पर भी उन्होंने राजनन्दिनी को देखने की चेष्टा नहीं की , यद्यपि इसमें एक यह भी कारण था कि यज्ञ की उलझनों और अपनी अभिसंधि के ताने – बाने में वे बुरी तरह उलझे हुए थे।
राजनन्दिनी के साथ जो दस यवनी दासियां गान्धारी कलिंगसेना ने भेजी थीं , वे बड़ी चतुर थीं । उन्होंने विविध नृत्य – गान -विनोद और कौतुक – प्रदर्शन से कुमारी का अच्छा मनोरंजन किया । क्षण – भर को कुमारी यहां आकर अपनी विपन्नावस्था को भूल गईं ।
परन्तु सोम की स्मृति अब उन्हें अधिक संतप्त करने लगी। दिन -दिन उन्हें सोम का वियोग असह्य होने लगा । परन्तु उन्हें विश्वास था कि सोम उनके निकट हैं और उन्हें प्राप्त करने में अब कोई बाधा नहीं होगी। इसी विचार से वह प्रहर्षित थीं ।
सोम और कुण्डनी ने भी प्रच्छन्न भाव से साकेत तक राजनन्दिनी के साथ ही यात्रा की थी और एक सुयोग पाकर कुण्डनी प्रासाद में जा कुमारी से मिली भी । कुण्डनी को देख कुमारी अत्यन्त आनन्दित हुईं। उसका बहुविध आलिंगन करके उन्होंने विविध प्रश्न किए। पर कुण्डनी ने वाक्छल और चांचल्य से उन्हें तंग करने के बाद बताया कि सोम भी साकेत में हैं और कुमारी को देखना चाहते हैं तथा उनका भी प्रेमावेश कम नहीं है। यद्यपि यहां सोम के आने में कोई बाधा नहीं थी , फिर भी लज्जावश कुमारी ने सोम से छिपकर मिलना नहीं स्वीकार किया। उन्होंने बहु तरह से सोम की चर्चा की और फिर साहस करके कुण्डनी से कहा – “ सखी, उनसे कहो, वे भगवान् महाश्रमण से मिलकर अपने मन की बात कह दें । फिर वे जो कुछ आदेश दें । ”
कुमारी की इच्छा जानकर सोम और कुण्डनी श्रावस्ती आए। आकर सोम ने श्रमण महावीर से फिर साक्षात् किया । श्रमण महावीर ने बहुत देर मौन रहकर कहा – “ भद्र सोम , अपने हित के लिए तुम उनसे अभी दूर रहो। यथासमय मैं कर्तव्य -प्रदर्शन करूंगा । ”
सोम श्रमण महावीर की बात से बहत निराश हए । उन्होंने हठ करके श्रमण की इच्छा के विपरीत कुण्डनी को फिर साकेत भेजा । उसने कुमारी से साक्षात् कर श्रमण
महावीर का अभिप्राय यथारूप से कहा। कुमारी ने सुनकर कहा – “ तो हला कुण्डनी, जैसी भगवान् महाश्रमण की इच्छा है वैसा ही हो । तुम सोमभद्र से कहो कि जब तक आदेश न हो , वे यहां न आएं । यथासमय महाश्रमण स्वयं आदेश देंगे। ”
सोम कुण्डनी से कुमारी का यह उत्तर पाकर निराश और उदास रहने लगे । परन्तु सेनापति उदायि ने उन्हें कुछ आवश्यक आदेश दिए थे, वह उनके पालने में कई दिन तक बहुत व्यस्त रहे और एक प्रकार से उन्होंने कुमारी का ध्यान ही न किया । परन्तु अवसर पाते ही वह साकेत गए और राजकुमारी से भेंट की ।
उस समय कुमारी ने श्वेत पुष्प – गुच्छों का शृंगार कर श्वेत कौशेय धारण किया था । सोमप्रभ को देखते ही उनके नेत्र हंसने लगे ।
सोम ने अनुताप के स्वर में कहा
“ संयत न रह सका राजनन्दिनी ! महाश्रमण के आदेश के विपरीत आने का दुःसाहस मैंने किया है। ”
“ यह तो ठीक नहीं हुआ , प्रियदर्शन! ”
“ परन्तु मैं क्या करूं कुमारी, तुम्हीं ने इस अकिंचन को बांध लिया ! ”
“ प्रिय , ऐसा अधैर्य क्यों ? भगवान् महाश्रमण जानेंगे तब ? ”
“ प्रिये , तुम कह दो कि तुम मेरी हो , फिर मैं भगवान् महाश्रमण के प्रति अपराध का प्रायश्चित्त कर लूंगा। ”
“ और यदि मैं कुछ न कहूं तो ? ”कुमारी ने हास्य छिपाते हुए कहा ।
सोम ने दो चरण आगे रख कुमारी का अंचल हाथ में ले घुटनों के बल बैठ चूम लिया । उन्होंने कहा – “ प्रिये , चारुशीले , तुमने मुझे आप्यायित कर दिया , मैंने तुम्हारे नेत्रों में पढ़ लिया । ”
“ तो भद्र, मुझे भी आप्यायित करो। ”
“ कहो प्रिये, मुझे क्या करना होगा ? ”
“ अब बिना महाश्रमण की आज्ञा लिए यहां मत आना भद्र! ”
“ ओह , यह तो अति दुस्सह है । ”
“ सो क्या तुम्हारे ही लिए प्रिय ? ”
“ तो प्रिये , मैं सहन करूंगा। ”
“ यही उत्तम है, धर्मसम्मत है, गुरुजन – अनुमोदित है। सोम प्रियदर्शन , अब तुम जाओ, कोई दासी हमें साथ देखे, यह शोभनीय नहीं है।
“ जैसी राजनन्दिनी की इच्छा ! ”
सोम बार -बार प्यासी चितवनों से कुमारी को फिर -फिर देखते हुए वाटिका से निकले और शीघ्र श्रावस्ती की ओर चल दिए ।
76. सेनापति कारायण : वैशाली की नगरवधू
बन्दीगृह में जाकर राजकुमार विदूडभ ने कहा – “ सेनापति , तुम स्वतन्त्र हो , बाहर जाओ। ”
बन्दीगृह के अन्धकार में कारायण ने विदूडभ को नहीं पहचाना । उसने कहा
“ यह किसने मुझे उपकृत किया भन्ते ? ”
“ मैं विदूडभ हूं, मित्र! ”.
“ राजकुमार , मैं आपका किस प्रकार आभार मानूं ? ”
“ पहले इस कलुषित स्थान से बाहर आओमित्र , और बातें पीछे होंगी। ”
“ परन्तु मैं बेड़ियों के बोझ से चल नहीं सकता । ”
विडभ ने उसे उठाकर कन्धे पर बैठा लिया । बाहर आकर उन्होंने कहा – “ यहां एकान्त में क्षण – भर ठहरो सेनापति! मेरा एक मित्र लुहार निकट ही है, मैं उसे लाकर अभी बेड़ियां कटवाता हूं। ”
विदूडभ चले गए । लुहार ने आकर बेड़ियां काट दीं । कारायण ने मुक्त होकर राजकुमार को अभिवादन करके कहा – “ मैं राजकुमार का अनुगत सेवक हूं । ”
“ क्या आभार -भाराक्रान्त ?
“ नहीं भन्ते , पहले ही से । ”
“ परन्तु मित्र, तुम स्वतन्त्र हो , कोई बन्धन नहीं है। ”
“ मैं आपका अनुगत सेवक हूं कुमार ! ”
“ तो यह तलवार ग्रहण करो मित्र , मैं तुम्हें कोसल – सैन्य का प्रधान सेनापति नियत करता हूं । ”
“ क्या मैं आपको देव कोसलपति कहकर हर्षित होऊं ? ”
“ यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो यही सही मित्र ! ”
“ तो देव कोसलपति , आपकी क्या आज्ञा है ? ”
“ सेनापति , तुम अभी नगर को अधिकृत कर अपने प्रहरी और चौकियां बैठा दो । ”
“ जो आज्ञा देव ! और भी ? ”
“ हां , दो सौ अश्वारोही लेकर आज सूर्यास्त के समय नगर – द्वार पर स्वयं उपस्थित रहो । महाराज प्रसेनजित् आज जैतवन में श्रमण गौतम के दर्शन करने को जाएंगे । उन्हें जाने में बाधा देने की कोई आवश्यकता नहीं है, परन्तु जब वे लौटें तो दक्षिण द्वार पर उनका अवरोध करो । उन्हें बन्दी कर लो और एकाकी पूर्वी सीमान्त पर छोड़ आओ। उनके अंगरक्षक विरोध करें तो उन्हें काट डालो। सहायक सेना निकट ही रखो। परन्तु सब काम अत्यन्त चुपचाप होना चाहिए । ”
“ बहुत अच्छा महाराज , ऐसा ही होगा । ”
“ एक बात और! महिषी मल्लिका भी महाराज के साथ होंगी। उनसे राजमहालय में आने का अनुरोध करना तथा महाराज को सीमान्त पर पाथेय देना । ”
“ ऐसा ही होगा महाराज! और कुछ ? ”
“ हां , सेनापति , गुप्तचरों से पता लगा है, बन्धुल मल्ल सीमान्त से आ रहा है। उसे प्रत्येक मूल्य पर रोको । यदि मारना भी पड़े तो मार डालो। ”
“ बन्धुल मेरा आत्मीय है, परन्तु मेरे सम्पूर्ण उत्पीड़न का मूल है। मैं उसका शिरच्छेद करूंगा, आप निश्चिन्त रहें महाराज! ”
“ तो जाओ सेनापति , बन्धुल का आवास तुम्हारे लिए प्रस्तुत है । वहां तुम्हारे परिजन भी पहुंच गए हैं । विश्राम करो। अभी तुम्हारे पास यथेष्ट समय है। सावधान रहो और प्रत्येक प्रगति से मुझे सूचित करो। ”
77. प्रसेनजित् का निष्कासन : वैशाली की नगरवधू
जैतवन से महाराज प्रसेनजित् ने लौटकर देखा, नगरद्वार पर भारी अवरोध उपरोध उपस्थित है। सेनापति कारायण नग्न खड्ग लेकर राजा के सम्मुख आए। राजा ने उन्हें देखकर कहा – “ यह क्या बात है कारायण ? मैंने तुम्हें बन्दी किया था , किसने तुम्हें मुक्त किया ? ”
“ कोसल के अधिपति ने। ”
“ कोसल का अधिपति मैं हूं। मैंने तुझे मुक्त नहीं किया । ”राजा ने क्रोध से लाल लाल आंखें करके कहा ।
“ आप जैसा समझें। ”
“ तेरी यहां उपस्थिति का क्या कारण है ? ”
“ मैं आपको बन्दी करने के निमित्त यहां उपस्थित हूं ? ”
“ किसकी आज्ञा से ?
“ कोसल के अधिपति महाराज विदूडभ की आज्ञा से । ”
“ तेरा इतना साहस ? वंचक , कुटिल , मैं अभी तेरा शिरच्छेद करूंगा। ”राजा ने खड्ग कोश से खींच लिया ।
“ तो महाराज प्रसेनजित् , आप यदि इसी समय मृत्यु को वरण किया चाहते हैं तो आपकी इच्छा! आइए इधर। ”कारायण ने मैदान की ओर खड्ग से संकेत किया !
राजा ने क्रोध से कांपते हुए सैनिकों को आज्ञा दी – “ सैनिको , इस वंचक को बन्दी करो। ”
किन्तु सब सैनिक चुपचाप सिर झुकाकर खड़े हो गए । यह देखकर राजा का हृदय भय से दहल उठा । वह कांपते हुए हाथों में खड्ग लिए काष्ठप्रतिमा के समान खड़े रह गए।
कारायण ने हंसकर कहा – “ महाराज प्रसेनजित् , विरोध- प्रदर्शन से कोई लाभ नहीं । चुपचाप महाराज विदूडभ की आज्ञा शिरोधार्य कीजिए। ”
“ कैसी भाग्य -विडम्बना है! क्या मैं नगर में नहीं जा सकता ? ”
“ नहीं । ”
“ तेरे महाराज – उस दासी – पुत्र की क्या आज्ञा है रे ? ”
“ यही कि यदि आप चुपचाप बन्दी होना स्वीकार कर लें तो आपको प्राणदान दे दिया जाय। ”
“ और यदि मैं न स्वीकार करूं … ? ”
“ तो महाराज की आज्ञा है कि आपका वध करके आपके शरीर के चार टुकड़े करके नगर की चारों दिशाओं में बलि -पिण्ड की भांति फेंक दिए जाएं । ”
राजा की आंखों से आंसू ढलकने लगे। उन्होंने हाथ का खड्ग पृथ्वी पर फेंक दिया , कण्ठ की मौक्तिक – माला तोड़कर उसके दाने धूल में बिखेर दिए। सिर का उष्णीष टुकड़े टुकड़े करके फेंक दिया । फिर कहा – “ तो धृष्ट भाकुटिक सेनापति , तू अपने वृद्ध असहाय राजा से जैसा व्यवहार करना चाहता है , कर । ”
“ तो महाराज प्रसेनजित्, आप अपने सेवकों सहित आगे बढ़कर मेरे इन सैनिकों के बीच में आ जाएं । ”
महाराज चुपचाप सैनिकों के मध्य में जा खड़े हुए । देवी मल्लिका भी चुपचाप राजा के साथ जा खड़ी हुईं । अनुगमन करती हुईं दासियों को निवारण करते हुए उन्होंने कहा – “ हज्जे , ऐसा ही काल उपस्थित हुआ है। तुम महालय में लौट जाओ और अपने राजा की सेवा करो। मुझे तुम्हारी सेवाओं की आवश्यकता नहीं रही । ”इतना कहकर उन्होंने अपने सब रत्नाभूषण उन्हें बांट दिए । दासियां खड़ी हो रोने लगीं ।
कारायण ने आगे बढ़कर कहा – “ पट्टराजमहिषी के चरणों में महाराज विदूडभ ने यह निवेदन किया है कि वे महालय में पधारकर अपने अनुगत पुत्र को आप्यायित करें । ”
“ पुत्र विदूडभ ने यह अपने योग्य ही कहा , भन्ते सेनापति ! पर मुझे अपना कर्तव्य विदित है । जहां महाराज , वहां मैं । पुत्र विदूडभ से कहना – वह कोसल के यशस्वी आर्यकुल की मर्यादा की रक्षा करें । मैं आशीर्वाद देती हूं – वह यशस्वी हो , वर्चस्वी हो , चिरंजीवी हो ! ” राजा ने भी अपने आभरण सेवकों के ऊपर फेंकते हुए कहा – “ भणे, तुम्हारा कल्याण हो । तुम राजसेवक हो । तुमने राजा की सेवा जीवन – भर की । अब यह प्रसेनजित् राजा नहीं रहा , तो उसका सेवकों से क्या काम ? तुम्हारा कल्याण हो । जाओ, राजा की सेवा करो। फिर उन्होंने कारायण की ओर मुंह करके कहा – “ तो भाकुटिक सेनापति , अब विलम्ब क्यों ? तू राजाज्ञा का पालन कर । ”
“ तो फिर ऐसा ही हो । ”उसने सैनिकों को संकेत किया और वे राजा- रानी के अश्वों को घेरकर चल दिए । दास -दासी खड़े रोते रहे । उस समय प्रतीची दिशा मांग में सिन्दूर भरे कौसुम्बिक चीनांशुक पहने वधूटी – सी प्रतीत हो रही थी । सूर्यकुल – प्रदीप महाराज प्रसेनजित्, मागध-विजयी, पांच महाराज्यों के अधिपति , अर्द्ध- शताब्दी तक लोकोत्तर वैभव भोगकर आज दिनांत में राज्यश्री भ्रष्ट हो अपने ही सेवकों द्वारा बन्दी होकर अदृष्ट विविध और नियतिवश अज्ञात दिशा को चले जा रहे थे।
78. बन्धुल का दांव -पेंच : वैशाली की नगरवधू
सीमान्त पर बन्धुल भारी उलझनों में फंस गया । वत्स – सैन्य ने सीमान्त के निकट ही स्कन्धावार स्थापित करके धान्वन, वन , संकट , पंक, विषम , नीहार आदि सत्र स्थापित किए थे और वह सैन्य छिपकर इन स्थलों पर गति करती थी । इससे यहां स्पष्ट कूटयुद्ध हो रहा था । शत्रु बन्धुल को दूष्य सेना तथा आटविक के द्वारा बार -बार थका डाल रहे थे। वे अवसर पाते ही धावा मारकर सीमान्त का उल्लंघन कर गाय , पशु और खाद्य – सामग्री लूट जाते या नष्ट कर जाते थे। कोसल के जो वीर प्रतिकार के लिए उधर जाते थे, उन्हें सत्रों में छिपकर मार डालते थे । बहुधा वे रात्रि में छापा मारते । लूटपाट करके या आग लगाकर भाग जाते । इससे कोसल सैनिक रात को सो ही न पा रहे थे। बहुधा चमड़े के खोल पैरों में बांधे हुए सैकड़ों हाथियों के द्वारा वे कोसल छावनी में घुसकर सोते हुए सैनिकों को कुचलवा डालते थे।
इन कठिनाइयों के कारण बन्धुल को बहुत ही सावधान रहना पड़ता था । पर उसकी दूसरी कठिनाई यह थी कि राजधानी से न तो उसे सूचना ही मिल रही थी , न सैन्य , न रसद । रसद समाप्त हो रही थी , कोष खाली हो चुका था , सेना अस्त -व्यस्त हो रही थी और बार- बार पत्र भेजने पर भी राजा सहायता नहीं भेज रहा था । वास्तव में यह विदूडभ की अभिसन्धि का परिणाम था । फिर भी बन्धुल को चरों के द्वारा इस अभिसन्धि का पता चल गया । उसने सीमापाल को सीमान्त की गतिविधि देखने की व्यवस्था सौंपकर श्रावस्ती की ओर अत्यन्त प्रच्छन्न भाव से प्रयाण किया । जिस दिन राजा का श्रावस्ती से निष्कासन हुआ , वह श्रावस्ती पहुंच गया था । उसने छद्मवेश में अपनी आंखों से राजा का निष्कासन देखा। वह निरुपाय था । सेना उसके हाथ में न थी । विदूडभ की सम्पूर्ण अभिसन्धि वह जान गया । कारायण का प्रबन्ध बहुत जाग्रत था और वह प्रकट होकर अब कुछ नहीं कर सकता था । कारायण को उसने राजा के साथ जाते देखा । उसने समझा कि अवश्य ही राजा को कहीं कैद कर दिया जाएगा । उसने सोचा, इसका पता लगाना असम्भव नहीं है। अतः उसने सबसे प्रथम विदूडभ को पकड़ने का विचार किया । यह साधारण कार्य न था ; परन्तु उसने सोचा कि यदि आज नहीं तो फिर कभी नहीं। कारायण की अनुपस्थिति से उसने पूरा लाभ उठाने का निश्चय किया । परन्तु वह जैसा योद्धा था , वैसा कूटनीतिज्ञ न था । फिर भी वह चुपचाप अपने गुप्त वासस्थान पर लौट आया । अपने चुने हुए मित्रों और सहायकों से उसने परामर्शकिया और विदूडभ के अपहरण की एक योजना बनाई ।
राजकुमार विदूडभ इस गहरी कूटनीति में घुसकर भी अपनी रक्षा की ओर से सर्वथा असावधान थे। वह आचार्य अजित केसकम्बली से गुप्त परामर्श करके एक भृत्य के साथ निश्शंक राजपथ पर जा रहे थे। रात्रि का अन्धकार राजपथ पर फैला हुआ था । दो चार जन इधर – उधर आ – जा रहे थे । बन्धुल ने अनायास सुयोग पा लिया । राजपथ के एक
विजन मोड़ पर बन्धुल के एक ही हाथ ने अनुचरों को धराशायी कर दिया और उसी समय उसके तीक्ष्ण जनों ने अंगवस्त्र डालकर राजकुमार को विवश कर दिया । क्षण – भर में यह कार्य हो गया । किसी को कानोंकान खबर नहीं लगी । बन्धुल के तीक्ष्ण जन राजकुमार को हाथोंहाथ उठाकर ले भागे।
परन्तु राजा और राजकुमार दोनों ही का इस प्रकार जो अप्रकाश्य रूप से राजधानी से विलोप हुआ, यह किसी भी मनुष्य ने नहीं जाना । अभिसन्धि की अंगीभूत योजना के अनुसार आचार्य अजित केसकम्बली ने रत्न – होम के बाद पन्द्रह दिन का अवकाश मुख्यानुष्ठान के लिए कर दिया था । साधारण होम और हविष्ययाग चल रहे थे, परन्तु उनमें यजमान के उपस्थित होने की आवश्यकता न थी । राजकुमार का हरण ऐसी गुप्त रीति से हुआ था कि आचार्य अजित को भी आठ पहर तक उसका पता नहीं लगा । परन्तु जब मागध वैद्य जीवक ने आचार्य को सूचना दी कि राजकुमार कल रात से राजधानी में नहीं हैं , तो वे एकबारगी ही चिन्ताकुल हो उठे । वे अधैर्य से कारायण के सीमान्त से लौटने की बाट देखने लगे । साथ ही उन्होंने शून्याध्यक्ष और राष्ट्रपाल को अत्यन्त सावधानी से नगर -रक्षण के लिए सचेत कर दिया ।
दिन के पिछले प्रहर में बन्धुल मल्ल आचार्य अजित के पास गया । जाकर अभिवादन कर एक ओर बैठ गया । उस समय आचार्य बहुत व्यस्त थे। यज्ञ से सम्बन्धित विविध आदेश विविध जनों को दे रहे थे। बन्धुल को देखकर आचार्य अथ से इति तक विदूडभ के लुप्त हो जाने का सब रहस्य जान गए। भीत भी हुए , परन्तु प्रकट में उन्होंने सेनापति का प्रहर्षित हो स्वागत करते हुए कहा – “ प्रसन्न तो रहा , सम्मोदित तो रहा सेनापति ? सीमान्त में सब भांति कुशल तो है ? ”
“ हां आचार्य, सब ठीक है । भला यहां यज्ञानुष्ठान तो ठीक -ठीक चल रहा है ? ”
“ सब ठीक है बन्धुल ! ”
“ मैंने सोचा, मैं भी तो यह समारोह देखू , इसी से आ गया । ”
“ साधु , साधु सेनापति ! परन्तु अभी तो रत्न -होम सम्पन्न हुआ है । अब दो पक्ष का अवकाश है । हविर्यज्ञ होता रहेगा, फिर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को अभिषेक होगा , तब तक ठहरना सेनापति ! ”
“ अवश्य आचार्य, किन्तु महाराज प्रसन्न तो हैं ? ”
“ बहुत थकित हैं बन्धुल ! यज्ञ – समारोह का पूरा भार , फिर व्रत – उपवास , कर्मकाण्ड । उन्हें क्या एक कार्य है ? अब जो अवकाश मिला है भाई, रत्ती – रत्ती काल गान्धारी रानी के लिए राजा ने सुरक्षित रख लिया । दर्शन ही नहीं होते । परन्तु हानि नहीं , अनुष्ठान निर्विघ्न चल रहे हैं । ”
“ यह अच्छा है आचार्य! कुमार विदूडभ तो प्रसन्न हैं ? ”
“ इधर देखा नहीं है बन्धुल ! ”
“ कदाचित् वे भी किसी नववधू के फेर में न हों आचार्य, आप देखते हैं – आय है। ”
हाय, परन्तलानी नादानों को
“ हां – हां , बन्धुल ! आचार्य हंस पड़े । बन्धुल भी हंसे , परन्तु दोनों ने दोनों को जलती आंखों से देखा। आचार्य ने कहा
“ तो बन्धुल सेनापति, देख रहे हैं , यज्ञ -व्यवस्था में बहुत व्यस्त हूं। आहार , विश्राम का समय भी नहीं मिलता। ”
“ तो आचार्य विश्राम करें , मैं भी चला । ” बन्धुल अभिवादन करके चल पड़ा।
79 . कुटिल ब्राह्मण : वैशाली की नगरवधू
अजित केसकम्बली ने जो कूटनीति का ताना -बाना इतनी चतुराई से फैलाया था , उसमें युवराज विदूडभ के अकस्मात् लुप्त हो जाने से बड़ा व्याघात पड़ गया । युवराज को मल्लबन्धुल ने ही उड़ाया है, इस सम्बन्ध में आचार्य को तनिक भी सन्देह नहीं रहा । आचार्य ने बन्धुल के जाते ही अस्वस्थता का ढोंग रचा और आस- पास के लोगों को विदा कर एकान्त में शय्या पर पड़ रहे । शय्या पर पड़कर उन्होंने एक शिष्य को बुलाकर कहा – “ सौम्य माधव , तू तनिक जाकर उस मागध वैद्य को बुला ला , मुझे उदर – पीड़ा है। ”
जीवक के आने पर आचार्य ने परामर्श किया । जीवक ने भी यही निश्चय किया कि कुमार को बंधुल ने ही उड़ाया है। दोनों इस बात पर सहमत थे कि कुमार का यह गोपन प्रकट न किया जाय । बन्धुल इसे प्रकट न करेगा, यह निश्चय है । वह उनके प्राण भी संकट में नहीं डालेगा , क्योंकि उसका अभिप्राय केवल यही है कि सम्राट का पता लगाया जाय । परन्तु अब विचारणीय बातें दो हैं – एक यह कि राजकुमार को छिपाया कहां गया है; दूसरी यह कि उनका उद्धार कैसे हो ? जीवक और आचार्य दोनों ही निरुपाय थे।
आचार्य ने कहा – “ जीवक, हमें सेनापति कारायण की प्रतीक्षा करनी होगी । ”
“ किन्तु आचार्य, राजपुत्र का एक मित्र है। ”
“ कौन है वह ? ”
“ वह एक मागध तरुण है। ”
“ वह कहां है ? ”
“ ढूंढ़ना होगा आचार्य! परन्तु वह निश्चय ही श्रावस्ती में है । ”
“ तब ढूंढ़ो प्रिय जीवक ! तब तक मैं अंतःपुर में क्या प्रतिक्रिया हो रही है, एक बार देखू। ”
वैद्य को विदा करके आचार्य ने शिष्य से कहा – “ पुत्र , तू राजमहल में देवी कलिंगसेना के हर्म्य में जा और कंचुकी बाभ्रव्य से कह कि आचार्य विष्णुपादामृत वेला में विशेष अनुष्ठान के लिए देवी के महल में आएंगे। देव – पूजन की सब व्यवस्था करके देवी स्नाता होकर तैयार रहें । उन्हें उपवास भी करना होगा।
शिष्य “ जो आज्ञा! ”कह महालय की ओर चला । आचार्य बहुत – सी बातों पर विचार करते हुए अपने शयन – कक्ष में पड़े रहे। इसी समय कारायण ने व्यग्र भाव से आकर कहा
“ यह क्या सुन रहा हूं मैं आचार्य ? ”
“ सेनापति , धैर्य से पूर्वापर – सम्बन्ध पर विचार कर कर्तव्य का निर्णय करो। ”
“ परन्तु मेरा कर्तव्य है कि सर्वप्रथम मल्ल बन्धुल को बन्दी करूं । ”
“ नहीं सेनापति , ऐसा करने से राजपुत्र का पता नहीं लगेगा । ”
“ तब क्या करना होगा ? ”
“ दो कार्य, एक नगर की रक्षा का सुदृढ़ प्रबन्ध , दूसरे बन्धुल की गतिविधि पर सतर्क दृष्टि । ”
“ तब ऐसा ही हो आचार्य ! परन्तु क्या हम कुमार की ओर से निश्चित बैठे रहें ? ”
“ निश्चिन्त क्यों सेनापति ? कुमार कहां हैं , पहले इसका पता लगाया जाए , पीछे उन्हें छुड़ाया जाए । बन्धुल अवश्य ही अत्यन्त गुप्त रूप से कुमार से मिलने जाएगा और उन्हें डरा – धमकाकर महाराज का पता पूछेगा। ऐसी स्थिति में उसका अत्यन्त छद्मवेश में बहुत सावधानी के साथ पीछा होना चाहिए। ”
“ ऐसा ही होगा आचार्य! ”
“ एक बात और, वत्स – राज्य की सीमा पर जो सेना है, उससे किसी भी दशा में बन्धुल का सम्बन्ध – सम्पर्क नहीं रहना चाहिए। इसके लिए पूरा सतर्क रहना होगा । उसका कोई चर सीमान्त पर न पहुंचने पाए , उसे तुरन्त बन्दी कर लिया जाए और बन्धुल को भी इसका पता नहीं लगना चाहिए ।
“ समझ गया , आचार्य, मैं ऐसी ही व्यवस्था करूंगा। ”
“ तो सेनापति , तुम समुचित व्यवस्था करो। एक बात और है ! ”
“ वह क्या ? ”
“ कुमार का मित्र एक मागध तरुण श्रावस्ती में है, उसे ढूंढ़ने में वैद्य जीवक को सहायता देनी होगी ।
“ अच्छा आचार्य! ” सेनापति अभिवादन कर वहां से चल दिया ।
80. दुःखद अन्त : वैशाली की नगरवधू
बन्दी राजदम्पती को लेकर सेनापति कारायण चलते ही गए । चलते – ही – चलते रात्रि का अन्त हो गया । प्राचीन में उज्ज्वल आलोक की एक किरण फूटी। इसी समय कोसल की सीमा आ गई । सीमान्त पर कारायण रुक गया । उसने अपने सैनिकों को एक ओर हटकर खड़े होने का आदेश किया । फिर राजदम्पती के निकट जाकर कहा – “ अब आप मुक्त हैं महाराज प्रसेनजित्! मैं राजाज्ञा का पालन कर चुका । अब आप स्वेच्छा से जहां जाना चाहें , जा सकते हैं । यह आपका पाथेय है। ”उसने स्वर्ण से भरी एक छोटी – सी थैली राजा के हाथ में थमा दी और बिना एक क्षण ठहरे और उत्तर की प्रतीक्षा किए ही वह तुरन्त लौट चला ।
उस टूटती रात में , एकान्त – शान्त निर्जन वन में दोनों वृद्ध राजदम्पती सर्वथा निरीह- एकाकी खड़े रह गए । वह स्वर्णदम्म से भरी सेनापति के द्वारा दी गई छोटी – सी थैली न जाने कब उनके हाथ से खिसककर भूमि पर जा गिरी ।
बहुत देर बाद राजा ने महिषी से कहा – “ अब , मल्लिका ? ”
“ महाराज , जिसका काल जानें । ”
“ तो मगध चलो , प्रिये ! ”
“ पराजित श्रेणिक बिम्बसार से पराभव पाने में क्या लाभ है, महाराज ? ”
“ श्रेणिक बिम्बसार मगधपति है। वह पूर्वी भारत का शीर्षस्थानीय नरपति है। वह कर्तव्याकर्तव्य को समझता है । उसका ईर्ष्या- द्वेष जो कुछ भी हो , कोसल के अधिपति के प्रति हो सकता है , प्रसेन के प्रति नहीं । प्रसेन अब एक निरीह पुरुष है । वह साधारण नागरिक भी नहीं है। वह राज्य – भ्रष्ट, श्री – भ्रष्ट, अधिकार – भ्रष्ट ,मित्र- बन्धु -सेवक और सम्पत्ति से रहित आगत शरणागत जन है । श्रेणिक बिम्बसार उसका स्वागत करेगा , उसे आश्रय देगा । फिर मैंने उसे कन्या दी थी , वह मेरा सम्बन्धी जामाता है, वह उसकी मर्यादा का भी पालन करेगा। ”
“ तो देव , जैसी आपकी इच्छा, मगध ही चलिए। परन्तु आपने तो पाथेय भी ग्रहण नहीं किया और सब आभरण हमने भृत्यों को दे दिए । मार्ग में पाथेय का क्या होगा ? ”
“ क्या मैं सेवक का दान ग्रहण करूंगा ? ”
“ तो महाराज ,, मार्ग में हम खाएंगे क्या ? ”
“ क्यों ? क्या भिक्षा नहीं मिलेगी ? ”
“ हन्त ! देव क्या भिक्षा ग्रहण करेंगे ? ”
महाराज ने एकाएक कुछ स्मरण करके हंसते हुए कहा
“ ओह देवी , पाथेय की व्यवस्था हो गई ? ”
“ किस प्रकार महाराज ? ”
“ मेरे दांतों में हीरक – कील है, उखाड़ लेने पर यथेष्ट होगा । ”
“ शान्तं पापं ! महाराज क्या दांत तोड़कर उससे हीरक -कील निकालेंगे ? ”
“ ये दांत अब किस काम आएंगे देवी मल्लिका ? सब त्यागा तो दांतों का मोह क्यों ? फिर ये सब विगलित होकर चल -विचलित हो गए हैं । तोड़ने में अधिक कष्ट नहीं होगा। ”
मल्लिका कुछ न कहकर रोने लगीं । राजा ने घोड़े से उतरते हुए कहा – “ रोने से क्या लाभ , मल्लिके ? अश्व से उतर आओ। कोसल राज्य का यह चिह्न भी हमारे काम का नहीं। प्रिये , तुम माली की बेटी हो , क्या पुष्पमाल नहीं गूंथ सकतीं ? ”
“ अति बाल – काल में गूंथी थी महाराज, गूंथ सकूँगी । ”
“ तो प्रिये, मैं उसे गृहस्थों के हाथ बेच आऊंगा। हमारा पाथेय चल जाएगा । चलो , प्रिये ! ”
राजा ने रानी का हाथ पकड़ा और वे दोनों पांव -प्यादे, कठोर , ऊबड़ – खाबड़ जन शून्य मार्ग पर अपने अनभ्यस्त चरणों से बढ़ चले । ।
दिन निकला , अस्त हुआ ; रात हुई, प्रभात हुआ । ये दोनों निरीह वृद्ध नियति – संतप्त राजदम्पती चलते ही चले गए । मार्ग में लोगों ने देखा , दया करके भोजन देना चाहा, पर उन्होंने उस ओर नहीं देखा । बहुतों ने नाम – धाम पूछा, उन्होंने उत्तर नहीं दिया । बहुतों ने मान किया , अपमान किया , उपहास किया, उन्होंने उनकी ओर नहीं देखा। चलते चले गए । उनके पैर लहू और घावों से भर गए, पिंडलियां तन गईं, वस्त्र गन्दे हो गए , वे झाड़ियों में उलझकर फट गए, मुंह सूख गया । भूख और प्यास से होठ जड़ हो गए। पर वे चलते ही चले गए। चलते ही चले गए ।
अन्त में वे राजगृह के द्वार पर जा पहुंचे। उस समय दो दण्ड रात्रि व्यतीत हो चुकी थी , द्वार बन्द थे। उन्होंने थकित वाणी से द्वारी से कहा – “ मित्र , द्वार खोल । ”
दो वृद्ध निरीह भिक्षुक पुरुष – स्त्री को अवज्ञा की दृष्टि से देखकर द्वारी ने कहा – “ क्या तुम्हारे आदेश से ? ”
“ आदेश नहीं मित्र, परन्तु हम दूर से आ रहे हैं । ”
“ तो उधर चैत्य में स्थान है, रात – भर रहो। प्रातः द्वार खुलने पर नगर में जाना । ”
राजा ने निराश दृष्टि से रानी की ओर देखा । उनमें खड़े होने और बोलने की शक्ति नहीं रही थी । रानी ने मन्द स्वर से कहा
“ ऐसा ही हो महाराज ! ”
राजा ने मुद्रिका उंगली से निकालकर दौवारिक को देते हुए कहा – “ तो मित्र , यह मुद्रिका अपने स्वामी मगध के सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार के लिए है , यह श्रेणिक बिम्बसार को दे। ”
दौवारिक राजमुद्रा देख आश्चर्यचकित हो गया । उसने थोड़ा आदर -प्रदर्शन कर कहा – “ कुछ सन्देश भी है भन्ते ! ”
“ नहीं। ”कहकर राजदम्पती चैत्य में आकर एक शिलाखण्ड पर पड़ रहे ।
शिला पर गिरते ही देवी मल्लिका के प्राण निकल गए । उन्हें गतप्राण देख महाराज प्रसेनजित् कुछ होठों में ही बड़बड़ाए और वे भी धीरे- धीरे देवी मल्लिका के शरीर पर गिर गए । उसी रात उनकी भी मृत्यु हो गई ।
मुद्रिका पाकर श्रेणिक बिम्बसार अमात्य – वर्ग सहित कोसलपति की अभ्यर्थना को
जब वहां आया , तो दोनों राजदम्पती चिथड़े अंग पर लपेटे चिर निद्रा में सो रहे थे। सम्राट ने राज -विधान के साथ उनका संस्कार किया और सारे साम्राज्य में सूतक मनाया ।
81 . नाउन : वैशाली की नगरवधू
नगर के प्रान्त – भाग में एक नाउन का घर था । घर कच्ची मिट्टी का था परन्तु इसकी स्वच्छता दिव्य और आकर्षक थी । नाउन घर में अकेली रहती थी । यौवन उसका चलाचली पर था , परन्तु उसकी देहयष्टि अति मोहक , आकर्षक और कमनीय थी । उसकी आंखें चमकदार थीं , परन्तु उनके चारों ओर किनारों पर फैली स्याही की रेखाएं नाउन के चिर विषाद को प्रकट कर देती थीं । उसका हास्य शीतकाल की दुपहरी की भांति सुखद था । वह श्याम लता के समान कोमलांगी तथा आकर्षक थी । नृत्य , गान , पान -वितरण , अंगमर्दन , अलक्तक – लेपन आदि कार्यों में वह पटु थी । उसके इन्हीं गुणों के कारण राजमहालय से लेकर छोटे – बड़े गृहस्थ गृहपतियों के अन्तःपुरों तक उसका आवागमन था ।
इसी नाउन के घर में सोम और कुण्डनी ने डेरा डाला था । राजनन्दिनी को खोकर सोम बहुत उदास और दुःखी दीख पड़ते थे। वे विमन से मागध सैन्य का संगठन कर रहे थे। सेनापति उदायि प्रच्छन्न भाव से उनसे मिलते रहते थे। यज्ञ समारोह की भीड़ – भाड़ और देश – देशान्तर के समागत लोगों से मिलकर उनके विचार , भावना जानने का सोम को यह बड़ा भारी सुयोग प्राप्त हुआ था । परन्तु विमन और खिन्न होने के कारण वे अधिकतर इस नाउन के घर पर चुपचाप कई – कई दिन पड़े रहते थे। कुण्डनी छद्मवेश में बहुधा अन्तःपुर में जाती रहती थी । नाउन भी कभी – कभी उसके साथ जाती थी । आवश्यकता से अधिक स्वर्ण पाकर नाउन बहुत प्रसन्न थी और दोनों अतिथियों को अभिसारमूर्ति समझ उनकी खूब आवभगत करती और उनकी प्रत्येक इच्छा की पूर्ति करने की चेष्टा करती थी ।
कुण्डनी ने बड़ी हड़बड़ी में बाहर से आकर सोते हुए सोम को जगाकर कहा-“ सोम , भयानक समाचार है ! ”
“ क्या लोग हमारा छिद्र पा गए हैं ? ”
“ नहीं – नहीं, महाराज प्रसेनजित् और विदूडभ, दोनों ही राजधानी में नहीं हैं । ”
“ राजधानी में नहीं हैं तो कहां गए ? ”
“ यही हमारी गवेषणा का विषय है। ”
“ तुमने कहाँ सुना ? ”
“ राजमहालय में । ”
“ परन्तु नगर में तो कोई हलचल नहीं है ? ”
“ नगरवासियों से यह समाचार छिपाकर रखा गया है । ”
“ यह कैसी बात है ? ”सोम उठकर बैठ गया । फिर कहा – “ अब कहो , तुमने कहां सुना ? ”
“ देवी कलिंगसेना के प्रासाद में । ”
“ किसके मुंह से । ”
“ आचार्य अजित केसकंबली के मुंह से । वे आज प्रातःकाल ही देवी कलिंगसेना को अनुष्ठान कराने के बहाने उनके प्रासाद में गए वहां विचार -विनिमय हुआ । महाराज प्रसेनजित् को राजकुमार ने बन्दी करके अज्ञात स्थान पर भेज दिया है । ”
“ यह तो मैं पहले ही समझ गया , परन्तु कुमार विदुडभ ? ”
“ उन्हें सम्भवतः बन्धुल मल्ल ने बन्दी कर लिया है । ”
“ बन्धुल क्या यहां है ? ”
“ वे कल ही सीमान्त से आए हैं । ”
“ तो कुण्डनी, इस सम्बन्ध में हमें क्या करणीय है ? ”
“ देवी कलिंग तुम्हें देखना चाहती हैं । ”
“ किसलिए ? ”
“ राजकुमार की मुक्ति के लिए वे तुमसे सहायता की याचना करेंगी। ”
“ परन्तु मैं क्यों सहायता करूंगा ? ”
“ देवी ने चम्पा की राजकुमारी की मुक्ति में हमारी सहायता की थी ? ”
“ की थी । ”सोम ने धीरे – से कहा। वे उठकर टहलने लगे। कुछ देर बाद उन्होंने कहा – “ कुण्डनी, मैं इसी समय आर्य उदायि से मिलना चाहता हूं। ”
“ ठहरो सोम , मुझे बताना होगा , किसलिए ? ”कुण्डनी की मुद्रा कठोर हो गई ।
सोम ने रूखे स्वर में कहा – “ अकथ्य क्या है ? मागधों के लिए यह स्वर्ण- सुयोग है ,
मागध बदला लेंगे। कोसल- जय का यह स्वर्णयोग है। वे कोसल को आक्रान्त करेंगे । ”
“ परन्तु किससे बदला लेंगे सोम ? ”
“ कोसलों से ? ”
“ कहां हैं वे कोसल , विचार तो करो ! क्या तुम विश्वासघात करने जा रहे हो सोम ?
“ किससे ? क्या शत्रु से ? उसमें विश्वासघात क्या है ? मेरे पास इस समय दस सहस्र मागध सेना है, मैं दो घड़ी में कोसल को आक्रान्त करके कोसल का अधीश्वर बन जाऊंगा। फिर मैं चम्पा की राजनन्दिनी को परिशोध दूंगा । ”
“ किस प्रकार ? ”
“ कोसल की पट्टराजमहिषी बनाकर । ”
“ तो सोम , विद्वानों का यह कथन सत्य है कि जन्म से जो पतित होते हैं उनके विचार हीन ही होते हैं । ”
“ इसका क्या अभिप्राय है कुण्डनी ? ”
“ यही कि तुम अज्ञात -कुलशील हो ! मैंने तुम्हारा शौर्य और तेज देख तुम्हें कुलीन समझा था , पर अब मैंने अपनी भूल समझ ली । ”
“ क्या ऐसी बात ? ”सोम ने कुण्डनी के मस्तक पर खड्ग ताना ।
“ सत्य है, सत्य है, यह समुचित होगा । पहले कुण्डनी का वध करो, फिर मित्र के साथ विश्वासघात करके कोसल का सिंहासन और चम्पा की राजकुमारी को एक ही दांव में प्राप्त करो। ”
“ मित्र के साथ विश्वासघात क्यों ? सोम ने चिल्लाकर कहा ।
“ क्या तुमने राजकुमार को मित्र नहीं कहा ? क्या उन्होंने राजकुमारी को धरोहर नहीं कहा ? क्या उन्होंने और राजमाता ने कुमारी की रक्षा करने में हमारी सहायता नहीं की ? क्या तुमने खड्ग छूकर राजकुमार से नहीं कहा था कि मित्र , यह खड्ग तेरी सेवा को सदा प्रस्तुत है ? ”
सोम ने खड्ग नीचे रख दिया । वे चुपचाप पृथ्वी पर बैठ गए । बहुत देर तक चुप रहने के बाद उन्होंने कहा
“ कुण्डनी, क्या करना होगा ? ”
“ कर सकोगे ? ”
“ और उपाय ही क्या है कुण्डनी ? ”
“ सत्य है, नहीं है । कल तुम्हें महालय में जाना होगा । ”
“ किस प्रकार ? ”
“ आचार्य का ब्रह्मचारी बनकर आशीर्वाद देने । ”
“ आचार्य ने क्या ऐसा ही कहा है ? ”
“ यही योजना स्थिर हुई है। और भी एक बात है। ”
“ क्या ? ”
“ मैंने वचन दिया है कि मैं युवराज की रक्षा करूंगी । तुम यदि न करोगे तो मुझे करनी होगी , सोम ! ”
“ मैं जब तक जीवित हूं , मैं करूंगा; तुम केवल मेरा पथ -प्रदर्शन करो। शुभे कुण्डनी , मैं तुम्हारा अनुगत सोम हूं। ”
“ तो सोम , प्रभात में हमें महालय चलना होगा । सारी योजना वहीं स्थिर की जाएगी। परन्तु अभी हमें एक काम करना है। ”
“ क्या ? ”
“ दीहदन्त के अड्डे पर जाना होगा। ”
“ वह तो बहुत दूषित स्थान है । ”
“ परन्तु हमें वहां जाना होगा। ”
“ क्यों ? ”
“ राजकुमार का पता वहीं लगने की सम्भावना है। ”
“ तो मैं वहां जाता हूं। ”
“ नहीं , हम तीनों को जाना होगा। नाउन उस पापी को पहचानती है। ”
“ नाउन क्या इस अभियान में विश्वसनीय रहेगी ? ”
“ वह सर्वथा विश्वास के योग्य है। ”
“ तब जैसी तुम्हारी इच्छा ! ”
“ तो हम लोग एक मुहूर्त में तैयार होते हैं । अभी एक दण्ड दिन है। ठीक सूर्यास्त के बाद हमें वहां पहुंचना होगा । तब तक तुम भी एक लुच्चे मद्यप का रूप धारण कर लो । ”
कुण्डनी का यह वाक्य सुनकर सोम असंयत होने पर भी हंस दिया । कुण्डनी चली गई ।
82 . दीहदन्त का अड्डा : वैशाली की नगरवधू
कुण्डनी ने कार्पास -कंचुक पहन कुसुम्भ – नमतक धारण किया , नेत्रों को अपांग से शृंगारित किया । स्तनों पर कौशेय पट्ट बांधा, स्वर्ण- वलय भुजा में पहने , अलक्तरागरंजित चरणों में झंकारयुक्त नूपुर धारण किए, माथे पर जड़ाऊ बन्धुल लगाया । फिर उसने हंसकर कहा- “ ठीक हुआ नाउन ? ”
“ अभी नहीं , ” नाउन ने हंसकर कहा। फिर उसने उठकर बहुत – सा लोध्ररेणु, उसके मुख पर पोतकर मुख को मैनसिल से लांछित कर दिया , स्याही से चिबुक और कपोल पर तिल बनाया और हाथों में रंगीन हस्तिदन्त के चूड़े पहनाए। फिर लम्बे कायबन्धन कमर में लटका चोलपट्ट पहनाया और तब कहा
“ अब हआ ! ”
“ तो अब तू भी साज सज । ”कुण्डनी ने उसका भी अपना ही – सा शृंगार किया । नाउन ने हंसकर कहा – “ समज्या – अभिनय करना होगा सखि , कर सकोगी ? ”
“ क्यों नहीं , परन्तु नई – नई देहात से जो आई हूं , अल्हड़ बछेड़ी हूं। – कुण्डनी ने नाउन की चुटकी भरते हुए कहा। फिर बोली, “ चल , अब देखें , नागर के कैसे रंग हैं ! ”
सोम ने एक नटखट नागर का उल्वण वेश धारण किया था । उसने शत – बल्लिक धारण किया था और कण्ठ में मंजरीक पहनी थी । कमर में कलावुक मुरज बांधा था । वह लाल उपानह पहन झट तैयार हो गया ।
तीनों जब राजमार्ग पर पहुंचे तो अलिन्द सूने थे, गवाक्षों के कपाट बन्द थे , वीथियों में जहां – तहां राजदीप जल रहे थे, परन्तु राजपथ का अन्धकार उनसे दूर नहीं हो रहा था ।
दीहदन्त का अड्डा श्रावस्ती के जनाकीर्ण अंतरालय में एक गन्दी और तंग गली में था । वहां उस समय मिट्टी के दीप जल रहे थे। मद्य की दुर्गन्ध आ रही थी । मद्यप , द्यूतकार , चोर, गलाकट तथा निम्न श्रेणी के विट, विदूषक और लंपट वहां बैठ मद्य पीते हुए भांति भांति के गपोड़े हांक रहे थे। बहुत – से लोग अपशब्द बक रहे थे । बहुत – से स्त्रियों के क्रय विक्रय की बात कर रहे थे। एक जुआरी ने चार दम्म में अपनी स्त्री को एक मित्र के पास गिरवी रख दिया था । अब वह वहां बैठा लोगों से अपने उस मित्र का सिर फोड़ देने का संकल्प भी प्रकट कर रहा था और गौडीय मद्य के बूंट भी गले से उतारता जा रहा था । एक दुबली – पतली नवयुवती मदपायियों को चषक भर – भर कर देती जा रही थी । मदोन्मत्त ग्राहक उसे छेड़ – छेड़कर गन्दी बातें बक रहे थे। लोग सुनकर हंस रहे थे।
तीनों ने वहां पहुंचकर एक अंधकारपूर्ण स्थान में खड़े होकर परामर्श किया । पहले नाउन अड्डे में गई। दीहदंत उसे देखते ही प्रसन्न हो गया । हंसते हुए उसने कहा
“ अरी, तेरी जय रहे रानी! आज इतने दिन बाद किधर ? ”
नाउन ने होठों पर उंगली रख संकेत से उसे अपने पास बुलाया और कान में धीरे से कहा
“ एक चिड़िया फांस लाई हूं। अड्डे में समज्या – अभिनय करेगी, ग्राहकों को मद्य देगी । अवसर पाकर बेच लेना । बीस दम्म से कम न मिलेंगे ?
“ अरे वाह, यह तो बहुत बढ़िया बात है । वह क्या कोई अगारिका है ? ”
“ नहीं, नटनी है। ”
“ कोई हानि नहीं, किन्तु सुन्दरी है ? ”
“ देख ले , सुन्दरी क्या ऐसी – वैसी है ! ”
“ तो उसे पिछले द्वार से भीतर ला , वहां आलोक में देखें । ”
“ पर कहे देती हूं , दस दम्म लूंगी । एक भी कम नहीं। ”
“ पर पहले माल तो दिखा ? ”
“ हां माल देखो, खूब खरा है। ”
नाउन बाहर आई और कुण्डनी को भीतर ले गई । कुण्डनी का रूप देख दीहदन्त की आंखों में धुन्ध छा गई ।
उसने हाथ मलते हुए कहा – “ हन्दजे , तू क्या समज्या – अभिनय कर सकती है ? ”
कुण्डनी ने वीड़ा – लास्य दिखाकर और तनिक मुस्कराकर सिर हिला दिया ।
“ तब अच्छा है । तो नाउन , पांच दम्म ले , देख ले । अभी नई है , बहुत खिलाना पिलाना -सिखाना पड़ेगा। ”
“ नहीं रे, सिखाना नहीं , सब जानती है, देख । ” उसने जाकर कुण्डनी को संकेत किया ।
कुण्डनी ने जो नृत्य -लास्य किया और रूप का उभार दिखाया तो उपस्थित चोर और हलाकू लम्पट वाह -वाह करने लगे ।
जिस जुआरी ने अपनी औरत को गिरवी रख दिया था , उसने हाथ के दम्म उछालकर कहा – “ कह रे दीह, कितने में बेचेगा इस दासी को ? ”
उसके साथ वाले पुरुष ने उसे धकेलते हुए बांह से होठों का मद्य पोंछते हुए कहा
“ यह दासी मैं लूंगा । मुझे सौ दम्म को भी भारी नहीं। ”
इसी समय सोम नागरिक लम्पट का वेश धारण किए अड्डे में आ एक आसन पर बैठ गया । मद्य ढालनेवाली लड़की ने सुराभाण्ड और चषक उसके आगे धर दिए । सोम ने थोड़े- से स्वर्णखण्ड दीहदन्त के आगे फेंककर कहा – “ दे सबको मद्य । ”सब मद्यप प्रसन्न हो उठे और उसके चारों ओर आ जुटे । दीहदन्त ने उसे प्रसन्न करने को आसन्दी – आसिक्त सोपधान पर उसे बैठाया । नाउन ने कहा – “ यही वह है दन्त ? ”
“ वह कौन ? ”
“ राजपुत्र को जिसने उड़ाया है। देखते तो हो , कितना स्वर्ण है इसके पास। ” दीहदन्त ने हंसकर कहा – “ यह नहीं है, वह है। ”
उसने दोनों जुआरियों की ओर संकेत किया । नाउन ने उचककर उन्हें देखा और कुण्डनी को संकेत किया । कुण्डनी ने लीला-विलास करके उन्हें सम्मोहित कर दिया । दोनों झगड़ा बन्द कर हंसने और मद्य पीने लगे ।
सोम नाउन का संकेत पा उसके पास आ बैठा । उसने कहा
“ कह मित्र, दासी कैसी है ? ”
“ क्या कहने हैं , मित्र ! परन्तु इसे मैं मोल लूंगा। ”
“ किन्तु मित्र, यह सहज नहीं है। इस दुष्ट दीह ने इसे राजकुमार विदूडभ को भेंट करने का संकल्प किया है !
हाथ का मद्यपात्र रिक्त कर उसने हंसते हुए कहा – “ तो जाय यह कोसल दुर्ग में । ” सोम के कान खड़े हो गए। उसने कहा
“ कोसल- दुर्ग में इसे भेजना चाहिए मित्र ! कोई कौशल कर , वह उसी नटी के सम्बन्ध में दासी से बात कर रहा है । ले पी मित्र ! ”सोम ने मद्यपात्र उसके आगे करके कहा ।
“ बन्धुल मेरा मित्र है। वह सबका सेनापति है, मेरा नहीं। मेरा मित्र है। ”उसने हंसते हुए कहा ।
“ तो मित्र , फिर बाधा क्या है ? ”बन्धुल सेनापति यदि कोसल- दुर्ग में है, तो इस दीह को वहीं लाद दो । फिर दासी तेरी है, एक पण भी खर्च नहीं होगा । ”
“ मैं आज ही मित्र बन्धुल से कहूंगा मित्र! रहस्य की बात है-बंधुल मेरा चिरबाधित है । ”
“ और कुमार विदूडभ ?
“ ओह, उसकी क्या बात ? वह बन्दी है ? ”
“ क्या सच ? यह क्या कहते हो मित्र ? ”
“ चुप , कहने – योग्य नहीं । वह उसी कोसल- दुर्ग में बन्दी है। ”
“ नहीं मित्र, तुझे किसी ने भ्रमित किया है । ”
“ तू मूर्ख है मित्र! मैंने उसे स्वयं दुर्ग के बन्दीगृह में पहुंचाया है। अरे, जलगर्भ में बन्दी- घर का द्वार है ।
“ क्या कह रहा है मित्र ? ले मद्य पी । ” और चषक पीकर उसने कहा – “ क्या मेरी बात पर अविश्वास करते हो ? ”
“ विश्वास नहीं होता मित्र! तू झूठ बोलता है । ”
“ तो दांव बंद ! ”
“ मैं सौ दम्म दांव पर लगाता हूं। ”
“ क्या सौ दम्म ? ”उस पुरुष ने आश्चर्य से आंखें फाड़ – फाड़कर सोम को देखा ।
“ पूरे सौ दम्म ”, सोम ने दम्मों से परिपूर्ण थैली निकालकर दिखाते हुए कहा – “ तो अभी दिखा और सौ दम्म ले । ”
“ परन्तु रात है। ”
“ तो क्या हुआ। ”
“ राह अगम्य कानन में है । ”
“ अरे मित्र , यह खड्ग है। फिर मेरे पास बाहर दो बढ़िया अश्व हैं । ”
“ दम्म भी हैं , अश्व भी हैं , तब विलम्ब क्यों ? चल मित्र , अभी । ”
“ तो चल “
दोनों व्यक्ति अड्डे से बाहर आए और अश्व पर चढ़ एक ओर तेजी से बढ़कर अन्धकार में लीन हो गए।
83. कोसल – दुर्ग : वैशाली की नगरवधू
श्रावस्ती से तीन कोस दक्षिण दिशा में सरयू के तट पर एक सुदृढ़ दुर्ग था , जो कोसल – कोट के नाम से प्रसिद्ध था । इस कोट के एक ओर नदी और तीन ओर खाई थी । दुर्ग का रूप वर्गाकार था और इसकी हर एक भुजा सहस्र हाथ लम्बी थी । गढ़ की चारों दिशाओं में दो विशाल मुख्य द्वार और आठ छोटे प्रवेश- पथ थे। गढ़ की बाहरी प्राचीर मिट्टी की थी , जो तीस हाथ ऊंची थी और उसकी नींव का निचला भाग सौ हाथ मोटा था । प्राचीर के दोनों ओर तीन – चार आयत विस्तार का मोटा पक्का मसाले का पलस्तर था । उसके बाद पक्की ईंटों की पर्त लगी थी । जो छोटे – छोटे आठ द्वार थे, उनमें से प्रत्येक की चौड़ाई पचीस हाथ थी । इन द्वारों के भीतरी भाग में तेरह- तेरह हाथ के और भी द्वार थे। इन द्वारों के पार्श्व- भाग में पांच- छ : हाथ चौड़े और भी द्वार थे। सूर्यास्त के बाद बड़े द्वारों के बन्द हो जाने पर कोट के निवासी इन्हीं छोटे द्वारों से आते – जाते थे । प्रधान द्वार के पार्श्व- भाग में ऊंचे-ऊंचे तिरसठ हाथ लम्बे और अट्ठाईस हाथ चौड़े चतुष्कोण गुम्बज थे, जिन पर चढ़ने को सीढ़ियां बनी हुई थीं । दुर्ग में बीचोंबीच सोलह खम्भों पर सभा – भवन टिका था । खाई और मुख्य द्वार को एक काठ का बहुत भारी पुल जोड़ता था । सूर्यास्त के बाद यह पुल रस्सियों से उठा दिया जाता। उस समय दुर्ग में आना किसी भांति सम्भव नहीं था । श्रावस्ती से बाहर आते ही अगम कान्तार लग जाता था , उसमें कोई मार्ग या वीथी नहीं थी । सम्पूर्ण कान्तार बड़े-बड़े घने वृक्षों और गुल्मों से भरा था । वहां बहुत – से हिंस्र जन्तु रात -दिन विचरण करते थे। सर्वसाधारण की बात तो दूर रही , बड़े- बड़े जीवट के आदमियों को भी उधर जाने का साहस नहीं होता था । दुर्दान्त डाकू, भीषण अपराधी, पक्के जुआरी, हत्यारे , राजविद्रोही आदि राजदण्ड से बचने के लिए ही इस महाकान्तार में आश्रय लिया करते थे। दुर्ग में थोड़ी- सी सेना भी रहती थी । परन्तु सब सैनिक रात को दुर्ग में नहीं रहने पाते थे। दुर्ग के मुख्य द्वार से कोई सहस्र हाथ के अन्तर पर एक छोटी- सी बस्ती थी । इसी में इन सैनिकों के परिवार रहते थे। सैनिक भी रात को वहीं चले आते थे। दुर्ग में केवल गिने हए आवश्यक जन ही रह जाते थे। श्रावस्ती से एक घुमावदार कच्ची राह इस ग्राम तक आई थी ।
दुर्गपति एक वृद्ध क्षत्रप थे। वे सपरिवार दुर्ग ही में रहते थे। उनकी आयु साठ को पार कर गई थी । डील -डौल के लम्बे , हाथ -पैरों के मज़बूत और साहसी आदमी थे। उनका कण्ठ- स्वर बहुत भारी था और दृष्टि पैनी । परिवार में केवल एक किशोरी इकलौती पुत्री थी । उसे जिसने शिशुकाल से पोषण किया , वह एक क्रीता काली दासी थी । दासी को दुर्गपति और उनकी पुत्री दोनों बहुत मानते थे। विधि -विडम्बना से दुर्गपति भग्न – हृदय थे । उन्होंने एकान्त एकनिष्ठ जीवन स्वयं ही महाराज प्रसेनजित् से मांग लिया था । गत सत्रह वर्षों से वे निरन्तर इसी दुर्ग में रह रहे थे। एक बार भी वे इससे बाहर कभी नहीं निकले । इस दासी के सिवा उनका एक दास भी था । वह वज्र जड़ था । वह निपट बहरा और गूंगा था , परन्तु उसमें एक सांड़ के बराबर बल था । इसे दुर्गपति ने बहुत बाल्यावस्था में तीर्थयात्रा करते हुए अनार्य देश से मोल खरीदा था ।
मालिक की भांति दुर्गपति के दोनों सेवक भी विश्व के सम्बन्धों से पृथक् थे। ये दोनों भी कभी किसी नगर में नहीं गए । हां , दास और कभी- कभी दासी भी उस निकटवर्ती गांव में अवश्य चले जाते थे।
इन चार मूल प्राणियों के सिवा रात को पुल भंग होने के बाद केवल आठ सिपाही इस दुर्ग में रह जाते थे। वे केवल दुर्ग- द्वार पर पहरा देते थे।
दुर्ग के मुख्य पश्चिम द्वार के निकट , जिधर गहन कान्तार पड़ता था , एक दृढ़ प्रकोष्ठ पत्थरों का बना था । यह वास्तव में बन्दीगृह था । बन्दीगृह में कोई प्रकट प्रवेश – द्वार न था । केवल छत के पास एक आयत – भर का छिद्र था । इस छिद्र के द्वारा ही बन्दी को वायु , अन्न , जल और प्रकाश प्राप्त होता था । गुप्त द्वार जल के भीतर था । द्वार के ऊपर एक अलिन्द था , जिसमें लौह- फलक जड़े थे। उस अलिन्द में , जब वहां कोई बन्दी रहता था , तो आठ प्रहरी खास तौर पर रात -दिन पहरा देने को नियत रहते थे।
खाई के उस पार इस बन्दीघर के ठीक छिद्र के सामने एक छोटी – सी पक्की दमंज़िली अट्टालिका थी । यह अट्टालिका प्रायः सदा बन्द रहती थी । कभी -कभी इसमें रहस्यपूर्ण रीति से कोई राजपुरुष दो – चार दिन को आ ठहरते थे। वहां से दुर्ग के उस ओर वाली बस्ती को केवल एक छोटी- सी पगडंडी चली गई थी । बस्ती में सिपाहियों के घरों के सिवा कुछ घर कृषकों के भी थे। उन्होंने आसपास की थोड़ी – सी भूमि साफ करके अपने खेत बना लिए थे। कुल बस्ती में केवल एक दुकान मोदी की थी तथा एक पानागार था । रात्रि को बहुत देर तक उसी पानागार में चहल – पहल रहती थी । बस्ती के रहने वाले प्रायः वहां बैठकर पान करते हुए गप्पें लड़ाया करते थे ।
इस समय दुर्ग में एक बन्दी था । इससे बन्दीगृह के बाहरी अलिन्द में आठ सशस्त्र सैनिकों का पहरा बैठा था और खाई के उस पार जो घर था उसमें भी मनुष्यों के रहने का आभास मिल रहा था । परन्तु नियमित रूप से जैसी व्यवस्था चली आ रही थी , दुर्ग में वैसी ही चल रही थी । दुर्गपति साधारण नित्यनियम से रह रहे थे। केवल बन्दीगृह के प्रान्त को छोड़कर और कहीं कुछ नवीनता नहीं प्रकट हो रही थी ।
84. नर्म साचिव्य : वैशाली की नगरवधू
कीचड़ और मिट्टी में लथपथ सोमप्रभ ने सूर्योदय से प्रथम ही घर में प्रवेश किया । उनका अश्व भी बुरी तरह थक गया था । कुण्डनी और नाउन तमाम रात जागती रहकर सोम की प्रतीक्षा करती रही थीं । अब कुण्डनी ने कुछ आश्वस्त होकर , किन्तु संदेह – भरे नेत्रों से सोम को देखा । सोम ने संक्षेप में कहा – “ कुण्डनी , सब देख आया हूं। राजकुमार को छुड़ाना सहज नहीं है । परन्तु चलो , अब हम राजमहिषी से पहले मिल लें । मैं अभी एक मुहूर्त में तैयार होता हूं । तुम भी तैयार हो लो । ”
और बातें नहीं हुईं। सोम ने नित्यकर्म से निवृत्त हो खूब डटकर स्नान किया । आपाद श्वेत कौशेय धारण किया । मस्तक पर चन्दन का तिलक लगाया । सिर पर भंगपट्ट बांधा । उत्तरासंग को ब्रह्मचारी की भांति कन्धे पर डालकर कहा – “ कुण्डनी, अब इस वेश में खड्ग तो मैं नहीं ले जा सकुंगा। ”
“ उसकी आवश्यकता नहीं सोम ! ”
“ क्यों नहीं ? शत्रु के अन्तःपुर में छद्मवेश में प्रवेश करना होगा, फिर दिन -दहाड़े ! तू कहती है कि खड्ग की आवश्यकता नहीं ! ”
“ नहीं है सोम! हम शत्रु का उपकार करने उसी की नियुक्ति पर जा रहे हैं । ”
विशेष बातचीत नहीं हुई। तीनों जन चलकर राजद्वार पर पहुंचे। नाउन ने पुष्प करंडिका और गंगाजल की झझरी सोम के हाथ में दे दी । कुण्डनी और नाउन का द्वारी से परिचय था , अतः उसने मार्ग दे दिया । तीनों टेढ़ी -तिरछी वीथियों को पार करते हुए महिषी कलिंगसेना के हर्म्य में पहुंच गए ।
आचार्य केसकम्बली वहीं उपस्थित थे । देवी नन्दिनी भी तुरन्त आ उपस्थित हुईं ।
सोम ने भूमिका न बढ़ाकर कहा – “ आचार्य, राजकुमार कोसल – दुर्ग में बन्दी हैं , वहां से उनकी मुक्ति सहज नहीं होगी ? ”
“ परन्तु सौम्य , तुझे अपना पराक्रम दिखाना होगा । यह तेरी कोसल- राजवंश पर भारी अनुकम्पा होगी। ”
नन्दिनी देवी ने आंखों में आंसू भर कहा – “ कोसलगढ़ को मैं जानती हूं भद्र ! महाराज ने वहां मेरे पिता को बन्दी कर दिया था । उन्होंने मेरा समर्पण महाराज को करके अपना उद्धार किया था । ”
कलिंगसेना ने दृढ़ स्वर में कहा – “ भद्र, यदि तुम्हें कुछ असुविधा हो तो मैं स्वयं कोसल – दुर्ग में खड्गहस्त जाऊंगी। तुम्हें जो कुछ विदित है, वह कहो। ”
“ नहीं भद्रे, मैं जीवन के मूल्य पर भी राजकुमार का उद्धार करूंगा। ”सोम ने धीरे से कहा ।
“ साधु, साधु! भद्र , ऐसा ही होना चाहिए । मैं कारायण को तुम्हारी सहायता के लिए कह दूंगा । ”आचार्य ने गद्गद होकर कहा।
सोम ने कहा “ आचार्य, वहां युक्ति -बल से काम चलेगा। बन्दीघर का द्वार जलमग्न है। उसमें एक भारी यन्त्रक जुड़ा है । उसकी सूचिका चाहिए , यह एक बात है।…
“ दुर्ग के बाहर मल्ल बन्धुल स्वयं पचास भटों के साथ अत्यन्त सावधानी से बन्दी पर पहरा दे रहा है । उससे सम्मुख युद्ध नहीं हो सकता। कूटयुद्ध करना होगा। यह दूसरी बात है…..
“ हम लोग दुर्ग पर आक्रमण करके बलपूर्वक युवराज का उद्धार करेंगे, इसका गुमान भी यदि बन्धुल को हो गया तो वह राजकुमार की हत्या कर सकता है । अभी तक उसने जो उन्हें हनन नहीं किया , इसका कारण यही प्रतीत होता है कि वह उनसे महाराज का पता पूछना चाहता है । यह तीसरी बात है…..
“ दुर्गपति बड़ा कठोर और एकान्त व्यक्ति है। बन्दी के गृहद्वार की सुत्रिका उसी के पास रहती है, वहां से उसका प्राप्त होना असम्भव है । यह चौथी बात है…..
“ दुर्ग में बाहर – भीतर सब मिलकर सौ आदमी हैं । जिसमें पचास भट बन्धुल के साथ अट्टालिका में हैं । शेष उस गांव में । दुर्ग में केवल दो – दो भट एक – एक प्रहर बन्दीगृह पर पहरा देते हैं , परन्तु आवश्यकता होने पर तुरन्त सहायता प्राप्त हो सकती है।
आचार्य ने सब सुनकर कहा – “ क्या तुमने कोई योजना निश्चित की है सौम्य ? ”
“ की है, किन्तु वह अपूर्ण है आचार्य! मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं । ”
“ किसकी भद्र ? ”
“ एक लम्पट धूर्त की ? ”
“ किस अभिप्राय से ?
“ वह युवराज को उड़ाने के षड्यन्त्र में सम्मिलित था । उसने स्वर्ण लेकर मझे अपना सब भेद बता दिया है और सूत्रिका की सिक्थ -मुद्रा मुझे ला देने का वचन दिया है। वह मुझे दो दण्ड दिन चढ़े तक मिलेगा । वह अपने उद्योग में संलग्न है। ”
“ क्या भद्र, वह छल नहीं करेगा ? ”देवी नन्दिनी ने कहा ।
“ आशा तो नहीं है देवी । उसे भारी पारिश्रमिक मिल चुका है। केवल सुत्रिका की सिक्थ- मुद्रा ला देने से ही उसे सहस्र स्वर्ण की प्राप्ति और होगी, जो वह जीवन – भर में संग्रह नहीं कर सकता। ”
“ तो भद्र, तुम हमें क्या करने को कहते हो ? ”गान्धार – पुत्री कलिंगसेना ने सुनील नेत्रों से उसकी ओर देखकर कहा- “ मैं अपनी सामर्थ्य से दुर्ग में पहुंच भर सकती हूं। परन्तु यह क्या यथेष्ट होगा ?
“ नहीं भद्रे ! यथेष्ट भी न होगा और उचित भी नहीं होगा। ”
“ किन्तु भद्र, यदि तुम्हें सिक्थ-मुद्रा न मिली तो ? ”आचार्य ने चिन्तित भाव से पूछा ।
“ तो भी मैं देख लूंगा आचार्य ! किन्तु मैं अभी एक बार सेनापति कारायण से मिलना चाहता हूं। हां , आपको राजपुत्र की कब आवश्यकता होगी ? ”
“ कल तीन दण्ड सूर्य चढ़ने पर । वही मुहूर्त अभिषेक का है। अभी तक महाराज और राजपुत्र दोनों के अपहरण का समाचार अप्रकट है । सब यही जानते हैं , महाराज देवी के प्रासाद में हैं । यही मैं भी कहता हूं । मैं कल सूर्योदय होते ही यज्ञानुष्ठान साधारण रीति पर प्रारम्भ कर दूंगा । तीन दण्ड दिनमान होने पर महाराज को अभिषेक की वेदी पर आना होगा । ”
“ तो आचार्य , जैसे भी होगा , मैं ठीक समय पर राजपुत्र को अभिषेक वेदी पर ला बैठाऊंगा। यदि न ला सकू तो यही समझना कि सोमप्रभ जीवित नहीं है। ”
वह एकबारगी ही उठकर चल दिए । सबके हृदय आतंकित हो गए। कुण्डनी और नाउन ने उनका अनुगमन किया । सब स्तब्ध थे।
85 . कठिन अभियान : वैशाली की नगरवधू
सब योजना ठीक कर ली गई । सिक्थ – मुद्रा मिल गई । उस पर से सूत्रिका बन गई । नाउन को संग लेकर कुण्डनी ने एक पहर दिन रहे नटनी के वेश में दुर्ग की ओर प्रस्थान किया । चलती बार वह अपनी विषदग्ध कटार को यत्न से वेणी में छिपाना नहीं भूली।
सोम ने दिन – भर सोकर काटा था । सूर्यास्त के समय उन्होंने सर्वांग पर तैलाभ्यंग किया , एक कौपीन कसी और कठिन कंचुक पहन एक क्षौम प्रावार से शरीर को लपेट लिया । खड्ग उन्होंने वस्त्र में छिपा लिया ।
शम्ब को एक मजबूत बड़ी रस्सी और दण्डसत्थक दी गई। एक छोटा धनुष और कुछ बाण भी उसे दिए गए। उसे भी तैलासक्त कर कौपीन धारण कराया गया । इसके बाद दोनों ने एक दण्ड रात्रि व्यतीत होने पर गहन कान्तार में प्रवेश किया ।
इसी समय कारायण ने अपने दो सौ सैनिकों की टुकड़ी लेकर दूसरे मार्ग से कोसल दुर्ग की निकटवर्ती अट्टालिका की ओर कूच किया ।
कान्तार भूमि सोम ने भलीभांति देखकर मार्ग की खोज कर ली थी , इसलिए अन्धकार होने पर भी वे दो मुहूर्त ही में दुर्ग के दक्षिण द्वार के सामने पहुंच गए । अपने अश्वों को उन्होंने कान्तार में छिपाकर लम्बी बागडोर से बांध दिया । इसके बाद उन्होंने निःशब्द दुर्ग – द्वार की ओर प्रयाण किया ।
द्वार के बाहर जो अट्टालिका थी , उसमें काफी चहल -पहल थी । उसमें से नृत्य – गीत की और बीच- बीच में मनुष्यों के उच्च हास्य की ध्वनि आ रही थी । सोम ने समझ लिया कि यहां कुण्डनी का रंग जमा हुआ है। बन्दीघर के ऊपर अलिन्द पर प्रकाश न था । परन्तु दो छाया – मूर्तियां वहां घूमती दीख रही थीं । सोम पाश्र्व में पूर्व की ओर घूमकर एक अश्वत्थ वृक्ष के निकट पहुंचे। अश्वत्थ के तने में उन्होंने रस्सी का एक सिरा दृढ़ता से बांधा, तथा दूसरे को अच्छी तरह कमर में बांध दिया । शम्ब से कहा – “ शम्ब, सामने केवल दो छाया मूर्तियां अलिन्द में दीख रही हैं । आवश्यकता होने पर वे आठ हो सकती हैं । इससे अधिक नहीं। ध्यान से सुन , मैं जल में जाता हूं। तू रस्सी को थाम रह, ज्यों ही वह ढीली प्रतीत हो , तू वृक्ष पर चढ़कर छिपकर यत्न से बैठ जाना । तेरे तरकस में सोलह बाण हैं । याद रख , एक भी बाण व्यर्थ न जाए और अलिन्द पर एक भी जीवित पुरुष खड़ा न रहने पाए। परन्तु प्रथम रस्सी का ध्यान रखना। ”
शम्ब ने सिर हिलाकर स्वीकार किया। वह दण्डसत्थक को हाथ में ले दूसरे हाथ से रस्सी को थाम खाई के किनारे बैठ गया । सोम ने चुपचाप जल में प्रवेश कर निःशब्द डुबकी लगाई । रस्सी की बैंच बढ़ गई । वह वृक्ष के तने में अच्छी तरह बंधी हुई थी । शम्ब उसका छोर हाथ में लिए ध्यान से उसका तनाव देख रहा था ।
सोम निःशब्द जल के भीतर – ही – भीतर बन्दीगृह के द्वार पर जा पहुंचे। थोड़े ही यत्न से द्वार – सुरंग उन्हें मिल गई । वे द्वार – सुरंग में प्रविष्ट हो गए । सुरंग सीढ़ी की भांति उन्नत होती गई थी । दस पैढ़ी ऊपर जाने पर उनका सिर जल से बाहर निकला । क्षण – भर ठहरकर उन्होंने यहां सांस ली और रस्सी कमर से खोल दी । फिर वे चार – पांच पैढ़ी चढ़े । अब उन्हें वह लौह- द्वार मिला, जहां भारी यन्त्रक लगा था । सूत्रिका उनके पास थी , उससे उन्होंने यन्त्रक खोल डाला । गुहा में घोर अन्धकार था । वायु का भी प्रवेश न था । उस छोटी – सी जगह में उनका दम घुट रहा था । यन्त्रक खोलते ही वे एक दूसरी छोटी – सी कोठरी में जा पहुंचे, जो चारों ओर से पत्थरों की दीवारों से घिरी थी । उसमें कोई दूसरा द्वार न था । प्रकाश का साधन सोम के पास न था । वे टटोलकर चारों ओर उस कोठरी में घूमने लगे । वे सोच रहे थे, यदि यही बन्दीगृह है तो बन्दी कहां है ? यदि बन्दीगृह और है तो उसका मार्ग कहां है ? परन्तु उन्हें इसका कोई भी निराकरण नहीं मिल रहा था । वे अन्त को एक बार विमूढ़ हो उसी कोठरी में बैठ गए।
उधर, ज्यों ही सोम ने रस्सी कमर से खोली, रस्सी ढीली हो गई। शम्ब आश्वस्त हो हंसते हुए रस्सी का सिरा छोड़ अश्वत्थ पर चढ़ गया और अच्छी तरह ढासना मार आसन जमा बैठ गया । बैठकर उसने ध्यानपूर्वक आलिन्द की ओर देखा । दो छाया – मूर्तियां वहां अन्धकार में घूम रही थीं , शम्ब ने बाण सीधा किया और कान तक तानकर छोड़ दिया । बाण उस व्यक्ति की पसलियों को चीरता हुआ फेफड़े में अटक गया । वह व्यक्ति झूमकर अलिन्द के किनारे तक आया और छप से जल में गिर गया । दूसरे व्यक्ति को यह पता नहीं लगा कि क्या हुआ । वह आश्चर्य- मुद्रा में झुककर उस पुरुष को देखने लगा । इसी समय दूसरे बाण ने उसके कन्धे में घुसकर उसे भी समाप्त कर दिया । वह पुरुष भी वहीं अलिन्द में झूल पड़ा।
शम्ब अपनी सफलता पर बहुत प्रसन्न हुआ। वह अब ध्यान से तीसरे शिकार की ताक में बैठ गया । थोड़ी ही देर में दो सैनिक बातें करते हुए अलिन्द में आए और प्रहरी को इस भांति लटकते देख उनमें से एक ने उसका नाम लेकर पुकारा । उत्तर न पाकर वह निकट आया । निकट आकर देखा वह पुरुष मृत है। एक बाण उसके अंग में घुस गया है । दोनों प्रहरी भीत हो एक – दूसरे को देखने लगे । इसी समय शम्ब का तीसरा बाण सनसनाता हुआ आकर उनमें से एक के वक्षगह्वर में पार हो गया । वह पुरुष रक्त – वमन करता हुआ वहीं गिर गया ।
दूसरे सैनिक ने आतंकित हो तरही फंकी। तुरही की तीव्र ध्वनि शून्य में दूर – दूर तक गूंज उठी । उसी समय शम्ब का चौथा बाण उसके कण्ठ के आरपार हो गया । तुरही उसके हाथ से छूट पड़ी । वह मृत होकर वहीं गिर गया ।
परन्तु तुरही का शब्द अट्टालिका के लोगों ने सुन लिया । शब्द सुनते ही वहां के मनुष्यों में प्रगति प्रकट हुई। वाद्य – नृत्य बन्द हो गया और मनुष्यों की दौड़ – धूप, चिल्लाहट के शब्द सुनाई देने लगे। शस्त्रों की झनझनाहट भी सुनाई देने लगी ।
कारायण अपने दो सौ भटों को लिए पूर्व नियोजित योजना के अनुसार इस अट्टालिका के चारों ओर अत्यन्त अप्रकट रूप से घेरा डाले पड़े थे। उन्होंने सैनिकों को आवश्यक आदेश दिए और वे अट्टालिका से बाहर निकले मनुष्यों पर प्रहार करने को सन्नद्ध हो गए। परन्तु यह देखकर उनके आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा कि अट्टालिका का प्रकाश बुझ गया । वहां सन्नाटा छा गया । किसी जीवित प्राणी के वहां रहने का आभास ही नहीं रहा।
सेनापति कारायण अब विमूढ़ होकर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए! इसी समय दुर्ग में विपत्तिसूचक घण्टा बजा और निकटवर्ती ग्राम से सोते हुए सैनिक शस्त्र – सन्नद्ध होकर दौड़ते हुए दुर्ग की ओर जाते दीख पड़े । खाई पर बड़ी- बड़ी चर्खियां काष्ठ के भारी पुल को गिराने लगीं। कारायण ने यह देख अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया। उन्होंने पचास भट छांटकर अपने साथ लिए, शेष डेढ़ सौ सैनिक अपने अधिनायकों की अधीनता में तीन टुकड़ियों में विभक्त किए । पहली टुकड़ी के नायक को आदेश दिया कि वह तुरन्त दुर्ग – द्वार पर प्रच्छन्न भाव से जाकर खाई के पुल पर अधिकार कर ले । दुर्ग में किसी शत्रु सैनिक को प्रविष्ट न होने दे। प्रत्येक सैनिक को सामने आते ही जान से मार डाले । नायक अपने सैनिक लेकर दबे – पैर दुर्ग – द्वार की ओर दौड़ चला ।
दूसरे नायक को सेनापति ने आदेश दिया कि वह घूमकर पश्चिमी दुर्ग-द्वार के चारों ओर फैल जाए और ग्राम से आते हुए सैनिकों को काट डाले । नायक के उधर चले जाने पर सेनापति ने तीसरी टुकड़ी के नायक को आज्ञा दी कि मैं अट्टालिका पर आक्रमण करता हूं , तुम बाहर से इसकी रक्षा करना । किसी भी सैनिक को भीतर मत घुसने देना । इतनी व्यवस्था कर सेनापति ने अपने पचास भट लेकर अट्टालिका पर आक्रमण किया । साधारण आघात से द्वार भंग हो गया । परन्तु उसे यह देखकर अत्यन्त आश्चर्य हो रहा था कि अट्टालिका में इतने आदमियों की चहल – पहल थी , प्रकाश था , वहां से गान -वाद्य की ध्वनि आ रही थी , पर वहां से एक भी जन बाहर नहीं निकला। क्या कारण है कि अब वहां एकबारगी ही सन्नाटा छा गया ? क्या भूमि मनुष्यों को निगल गई । सेनापति कारायण ने सैनिकों को प्रकाश करने का आदेश दिया । प्रकाश में उन्होंने गान -पान के अवशेष देखे. परन्तु मनुष्य नहीं। उन्होंने अत्यन्त सावधानी से प्रत्येक प्रकोष्ठ को , प्रत्येक कोष्ठक को देखना प्रारम्भ किया । एक प्रकोष्ठ में उन्होंने कुण्डनी और नाउन को वस्त्रखण्ड से बंधी हुई पड़ी देखा । सेनापति ने उन्हें बन्धन – मुक्त करके उनके मुंह में लूंसा हुआ कपड़ा निकाला । सेनापति कुण्डनी और उसकी संगिनी से परिचित न थे। उसने पूछा
“ तुम कौन हो और कक्ष के और आदमी कहां हैं ? ”
कुण्डनी ने पूछा – “ क्या आप सेनापति कारायण हैं ? ”
“ हां , मैं कारायण हूं। ”
“ तो सेनापति , संकट सन्निकट है , शीघ्रता कीजिए। वह गर्भद्वार है । वहां सोलह सशस्त्र भट गए हैं । सम्भव है , सोमभद्र से उनका संघर्ष हो जाए । भीतर गर्भगृह में सोम एकाकी गए हैं । ”
कारायण ने नग्न खड्ग लेकर गर्भगृह में प्रवेश किया । परन्तु वहां अधिक जन नहीं जा सकते थे। सेनापति ने सोलह भट छांट लिए ।
लम्बी और पतली गुहा में चलते – चलते उन्होंने चार सशस्त्र तरुणों को सामने देखा । इन्हें देखते ही वे इन पर टूट पड़े, परन्तु सेनापति ने क्षण – भर ही में उन्हें काट डाला । आगे उन्होंने एक लौहद्वार को देखा जो बन्द था । सेनापति उसे देखकर हताश हो गए । वे द्वार तोड़ने या खोलने का उद्योग करने लगे।
कुण्डनी ने नाउन से कहा – “ चलो हला , अब हम अपने उद्योग का दूसरा प्रकरण पूरा करें । बाहर कहीं शम्ब हैं , पहले उसे देखना होगा । निश्चय उसी की प्रतिक्रिया होने से सैनिकों ने तुरही -नाद किया था , इससे वह बन्दीगृह के उस ओर कहीं होगा। ”
इतना कह कुण्डनी नाउन का हाथ पकड़कर बाहर आई। उसने उसी अश्वत्थ वृक्ष के नीचे खड़े होकर संकेत किया , शम्ब झट वृक्ष पर से कूद पड़ा ।
कुण्डनी ने कहा – “ शम्ब , तेरा स्वामी कहां है ? ”
“ वे जल में गए हैं । ”
“ कितना विलम्ब हुआ ? ”
“ बहुत , एक दण्ड काल। ”
“ तो शम्ब , वे विपद में पड़ सकते हैं , तू साहस कर ! ” शम्ब ने हुंकृति की ।
कुण्डनी ने कहा – “ वह बन्दीगृह देख रहा है ? ”
शम्ब ने सिर हिलाया । कुण्डनी ने कहा – “ उसका प्रवेशद्वार जलमग्न है । तू गोता लगा । ठीक उस अलिन्द के मध्य भाग के नीचे एक गुहा-छिद्र मिलेगा। वह उन्नत सोपान है । उसमें घुसकर तू बन्दीगृह में पहुंचेगा । उसी में तेरे स्वामी का मित्र बन्दी है, जिसके उद्धार के लिए सोम वहां एकाकी गए हैं । परन्तु उनके सामने सोलह योद्धा हैं । शम्ब , तू साहस कर। ”
शम्ब ने दण्डसत्थक दृढ़ता से हाथ में थामा और धनुष -बाण कुण्डनी को देकर कहा – “ इसमें से केवल चार बाण कम हुए हैं । बारह बाण अभी तूणीर में हैं । इससे देवी की रक्षा हो सकती है । मेरे लिए यह यथेष्ट है। ”उसने हंसकर दण्ड – सत्थक की ओर संकेत किया ।
कुण्डनी ने धनुष -बाण ले लिया । शम्ब ने रस्सी का छोर कमर से बांधते हुए कहा – “ यह रस्सी थामे रहें देवी । जब यह ढीली हो तो समझना , शम्ब ठीक स्थान पर पहुंच गया । कुण्डनी ने रस्सी थाम ली । शम्ब ने धीरे – से जल में प्रवेश किया और अदृश्य हो गया । थोड़ी ही देर में रस्सी ढीली हो गई।
कुण्डनी ने नाउन से कहा – “ हला, सोम को सहायता पहुंच गई । उधर से भी और इधर से भी । अब हमें इस अश्वत्थ पर चढ़कर बैठना चाहिए और परिणाम की प्रतीक्षा करनी चाहिए । ”
सोम उस कोष्ठक में चारों ओर घूमते , हाथों से टटोलते , खड्ग की मूठ से दीवार और फर्श ठोकते, परन्तु कोई फल न होता था । वहां से कहीं जाने का कोई द्वार नहीं दीख पड़ता था । वे हताश होकर बैठ जाते और फिर उद्योग करते । बहुत देर बाद उन्हें कोठरी में प्रकाश का आभास हुआ । वे ध्यान से देखने लगे कि प्रकाश यहां कहां से आया । उन्हें कुछ ही क्षणों में प्रतीत हो गया कि ऊपर छत में एक छिद्र है, प्रकाश वहीं से आ रहा है । इसी समय चार मनुष्य उस छिद्र में से उस कोष्ठक में कूद पड़े । एक के हाथ में प्रकाश था । सोम उन्हें देखकर फुर्ती से गुहाद्वार में छिप गए। चार मनुष्यों में से एक ने कहा – “ मैं बन्दी को देखता हूं , तुम यहीं यत्न से द्वार की रक्षा करो । ”उसने किसी युक्ति से तल – भूमि की एक शिला को हटा दिया और उसमें घुस गया । सोम ने देखा , वह मल बन्धुल था ।
सोम एकबारगी ही खड्ग लेकर उन मनुष्यों पर टूट पड़े । वे मनुष्य भी साधारण भट न थे। सोम ने क्षण- भर ही में कठिनाई को समझ लिया । सोम चाहते थे कि वे बन्धुल का अनुगमन करके दूसरे कक्ष में प्रविष्ट हों , परन्तु तीनों भटों ने कठिन अवरोध किया । प्रारम्भ ही में सोम एक घाव खा गए । इ
सी क्षण शम्ब ने कोष्ठक में प्रवेश कर दण्ड सत्थक का एक भरपूर हाथ एक भट के सिर पर मारा जिससे उसके कपाल के दो खण्ड हो गए और रक्त की बित्ता भर फुहार उठ खड़ी हुई । ठीक समय पर शम्ब का साहाय्य पाकर सोम ने हर्ष से चिल्लाकर कहा – “ वाह शम्ब , खूब किया ! रोक इन दोनों को , मैं भीतर जाता हूं । ”और सोम दुर्धर्ष वेग से खड्ग फेंकते हुए तलभूमि में प्रविष्ट हो गए।
बन्धुल खड्ग ऊंचा किए विदुडभ का हनन करने जा रहा था । बन्धुल ने कहा – “ दासीपुत्र, बता , महाराज कहां हैं ? या मर ! ”विदूडभ लौह- शृंखला से आबद्ध दीवार में चिपके हुए चुपचाप खड़े थे । उनके होठ परस्पर चिपक गए थे, उनकी आंखों से घृणा और क्रोध प्रकट हो रहा था । सोम ने पहुंचकर बन्धुल को ललकारते हुए कहा – “ बन्धुल , शृंखलाबद्ध बन्दी की हत्या से तेरा वीरत्व कलुषित होगा । आ इधर, मैंने अभी तक मल्लों का खड्ग देखा नहीं है।
“ तब देख । तू कदाचित् वही चोर की भांति अन्तःपुर में घुसनेवाला मागध है ? ” बन्धुल ने घूमकर कहा।
“ वही हूं बन्धुल ! ”
“ तब ले ! ”
बन्धुल ने करारा वार किया । सोम यत्न से बचाव और वार करने लगे। दोनों अप्रतिम सुभट उस छोटे कक्ष में भीषण खड्ग-युद्ध में व्यस्त हो गए ।
युवराज विदूडभ ने चिल्लाकर उदग्र हो कहा – “ अरे वाह मित्र, ठीक आए। परन्तु खेद है कि मैं सहायता नहीं कर सकता । ”फिर भी उन्होंने आगे बढ़कर शृंखलाबद्ध दोनों हाथ ज़ोर से बन्धुल के सिर पर दे मारे। बन्धुल के सिर से रक्त फूट पड़ा , उसने पलटकर राजकुमार पर खड्ग का एक वार किया । इसी क्षण सुयोग पा सोम ने बन्धुल के वाम स्कन्ध पर एक भरपूर हाथ मारा । बन्धुल और राजकुमार दोनों ही गिरकर तड़पने लगे ।
सेनापति कारायण हताश होकर जब गर्भमार्ग में लौहार्गल को खोल नहीं सके तो उन्होंने द्वार भंग करने का उद्योग किया । इसी समय द्वार खुला और कुछ भट सामने दीख पड़े । ये भट बन्धुल के थे, जो नीचे बन्दीगृह में युद्ध होता देख सहायता को लौटे थे। परन्तु सामने शत्रु को देख वे पीछे भाग पड़े । कारायण भी उनके पीछे अपने भट लेकर दौड़े । उनके पास प्रकाश था , दौड़ में बाधा नहीं हुई । बन्धुल के भट छत के छेद से प्रकोष्ठ में कूद पड़े । यही कारायण ने किया । इस समय एक भट शम्ब से जूझ रहा था । इनमें से एक ने शम्ब पर प्रहार किया और वह भीतर तलगृह में घुस गया ।
ठीक इसी समय बन्धुल और युवराज घायल होकर गिरे थे। सोम ने आहट पाकर पीछे शत्रु को देखा, परन्तु उनके पीछे कारायण और उनके भटों को आते देख हर्षनाद किया ।
देखते – ही – देखते सब भट काट डाले गए । बन्धुल को बन्दी कर लिया गया तथा आहत राजकुमार को लेकर वे सब गर्भमार्ग से चलकर दुर्ग से बाहर अट्टालिका में लौट आए।
बाहर कारायण के सैनिकों ने अनायास ही दुर्गरक्षक सेना के सिपाहियों को काट डाला था । वे सावधान नहीं थे, इससे कुछ प्रतिरोध भी न कर सके ।
दुर्गपति ने जो विपत्ति – घण्ट बजाया था उसे सुनकर जो सैनिक निकट के गांव से सहायतार्थ दौड़े थे, उन्हें मारकर कारायण के सैनिकों ने पुल पार कर दुर्गपति को सपरिवार बन्दी कर लिया था । दुर्गपति इस आक्रमण से सर्वथा असावधान थे। वे कारायण के सैनिकों को अपने सैनिक समझे थे।
दिन का प्रकाश इस समय तक पूर्वाकाश में फैल गया था । कुण्डनी और नाउन अश्वत्थ पर चढ़ीं सब गतिविधि देख रही थीं । अट्टालिका में अपने आदमियों को फिर से लौटा हुआ समझ वे भी वृक्ष से उतरकर वहीं आ गईं ।
सोम और विदूडभ दोनों आहत थे। कुण्डनी ने नाउन की सहायता से उनके घाव बांधे। इसके बाद उन्होंने शम्ब को चारों ओर देखा । शम्ब वहां नहीं था । सब लोग शम्ब को भूल ही गए थे । सोम को याद आया कि शम्ब को हमने गर्भगृह में युद्ध करते छोड़ा था ।
कुछ सैनिक फिर गर्भगृह में गए , परन्तु शम्ब वहां नहीं था ।
सबके चले जाने पर गर्भगृह में अन्धकार हो गया । शम्ब समझ ही नहीं सका कि सब कहां लुप्त हो गए । अपने प्रतिद्वन्द्वी को भूपतित करके शम्ब ने मार्ग की बहुत खोज टटोल की । अन्त को वह उसी जलगर्भ -स्थित मार्ग से लौटा । जब सब कोई शम्ब के लिए चिन्तित थे, कुण्डनी ने उसे जल में तैरते हुए देखा । जल से निकलकर वह स्वामी के निकट आया । वह बहुत प्रसन्न था ।
बन्दियों को सेनापति कारायण को सौंप , सोम ने शरीररक्षक सैन्य – सहित आहत राजकुमार को लेकर तुरन्त राजधानी की ओर कूच किया । शम्ब , कुण्डनी और नाउन भी उन्हीं के साथ चल दिए ।
86. अभिषेक : वैशाली की नगरवधू
यज्ञ – मण्डप में बड़ी भीड़ थी । अध्वर्य और सोलहों ऋत्विक अभिषेक – द्रव्य लिए उपस्थित थे। अनुगत राजा , क्षत्रप , माण्डलिक , गणपति , निगम , सेट्ठि , गृहपति , सामन्त और जानपद सभी एकत्र थे । राजा की प्रतीक्षा हो रही थी । राजा अन्तःपुर से नहीं आ रहे थे। राजा के इस विलम्ब के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की अटकलें लगाई जा रही थीं । बहुत लोग बहुविध कानाफूसी कर रहे थे।
आचार्य अजित केसकम्बली ने उच्च स्वर से कहा – “ अभिषेक का महायोग उपस्थित है, यजमान यज्ञभूमि में आकर वेदी पर बैठे ! ”
इसी समय यज्ञभूमि के प्रान्त में कोलाहल होने लगा। क्षण -भर बाद ही सोमप्रभ रक्त से भरा खड्ग हाथ में लिए हुए, रक्तलिप्त घायल राजपुत्र विदूडभ को सम्मुख किए , हठात् यज्ञभूमि में घुस आए। नग्न खड्ग हाथ में लिए कारायण और उनके भट उनके पीछे थे। यह दृश्य देखकर चारों ओर कोलाहल मच गया । अनेक क्षत्रपों , राजाओं और मांडलिकों ने खड्ग खींच लिए। सेना में भी हलचल मच गई और चारों ओर कोलाहल होने लगा ।
सोमप्रभ ने आगे बढ़कर वेदी पर विदडभ को प्रतिष्ठित करके खड्ग और हाथ ऊपर उठाकर उच्च स्वर से कहा – “ भंत्तेगण, राज – सभासद्, ब्राह्मण और पौर जानपद सुनें ! यह महाराज विदूडभ कोसलपति यहां उपस्थित हैं । अभिषेक महायोग है, अभिषेक प्रारम्भ हो । मैं मागध सोमप्रभ घोषित करता हूं कि कोसल के अबाध अधिपति परमेश्वर महाराज विदूडभ हैं । जो कोई विरोध का साहस करेगा , उसका सत्कार यह खड्ग करेगा। ”
उन्होंने वही रक्त से भरा हुआ खड्ग हवा में ऊंचा किया । बहुत से कण्ठों ने एक साथ ही जय – जयकार किया – “ महाराज कोसलपति की जय ! देव कोसलपति विदूडभ की जय ! ”
बहतों ने विरोध में शस्त्र निकाले । कारायण, उनके भट और सोम व्याघ्र की भांति उन पर टूट पड़े । देखते – ही – देखते यूप के चारों ओर मुर्दो के ढेर लग गए । यज्ञ – पश् अव्यवस्थित हो इधर – उधर भागने लगे । अनेक राजाओं, क्षत्रपों और मण्डलाधिपों ने इन वीरों का साथ दिया । वे गाजर – मूली की तरह विरोधियों को काटने लगे। पौर जानपद , निगम , श्रेणीपति सब बार -बार महाराज विदूडभ का जय – जयकार करने लगे । विरोधी दल का कोई नेता न रह गया ।
अध्वर्यु अजित केसकम्बली ने हाथ उठाकर कहा – “ सब कोई सुनें , कौन है जो नये महाराज का विरोधी है ? वह आगे आए। ”कोई प्रमुख पुरुष आगे नहीं बढ़ा। आचार्य ने पुकारकर फिर कहा – “ जिसे नये राजा से विरोध हो , वह अग्रसर हो । ”इस पर भी सन्नाटा रहा। तब तीसरी बार घोषणा हुई ।
अब आचार्य अजित केसकम्बली ने कहा – “ सब कोई सुनें ! पुराना राजा यहां पर मण्डप में उपस्थित नहीं है और न कोई उसका प्रतिनिधि समर्थक ही है। राज्य एक क्षण भी राजा के बिना नहीं रह सकता । नया राजा उसका औरस पुत्र है । उसका कोई विरोध नहीं करता । अतः मैं घोषणा करता हूं कि वही अब इस यज्ञ का यजमान है । तो महाराज विदूडभ, मैं तुम्हें यज्ञपूत करता हूं । कहो तुम – मैं इस राजसूय महानुष्ठान के लिए आपको वरण करता है। ”
“ मैं वरण करता हूं। ”विद्डभ ने तीन बार कहकर आचार्य का वरण किया ।
आचार्य ने घोषणा की – “ हे विश्वदेवा , सुनो ! हे ब्राह्मणो, सुनो ! हे मनुष्यो , सुनो । हम वरण किए गए सोलहों ऋत्विक विधिवत् अब इस राजसूय के महत् अनुष्ठान में देव कोसलपति विदूडभ का अभिषेक करते हैं । ”
आचार्य के संकेत से बहुत शंख एक साथ बज उठे ।
अभिषेक – अनुष्ठान प्रारम्भ हो गया । राजा लोग अपने हाथों में अभिषेक सामग्री से भरे पात्रों को विधिपूर्वक सजाकर पद-मर्यादा के क्रम से खड़े हो गए । रेणु विदेहराज ने श्वेत रंग का काम्बोज अश्व भेंट किया। अस्सक के राजा ब्रह्मदत्त ने स्वर्णमण्डित रथ ला उपस्थित किया । कलिंगराज सत्तभू ने रथ पर ध्वजारोपण किया । मगध सम्राट का भेजा हुआ रत्नमाल और मणिग्रथित उष्णीष मागध अमात्य ने राजा को धारण कराया। शाक्यों के गण प्रतिनिधि ने रथ में स्वर्णमण्डित जुआ जोड़ा । किसी ने मणिजटित जूते , किसी ने तरसक , किसी ने खड्ग राजा को धारण कराया । किसी ने गन्धमाल्य दिया ।
अब अजित केसकम्बली, कणाद , औलूक , वैशम्पायन पैल , स्कन्द कात्यायन , जैमिनी और शौनक ने राज्याभिषेक – विधि का प्रारम्भ किया । वेद -पाठ होने लगा । कुरुसंघ राज्य के श्रुत सोम और धनञ्जय श्वेत छत्र लेकर राजा के पीछे खड़े हुए ।
सौवीर भरत , विदेहराज रेणु , काशिराज , धत्तरथ , सेतव्य हिरण्यनाभ राजा पर चंवर डुलाने लगे । अठारह दक्षिणावर्त शंख फूंके गए। फिर उन्हीं शंखों में भर – भरकर सत्रह तीर्थों का जल और एक सूर्यकिरणों का जल , कुल अठारह प्रकार के जल , जो यूप की उत्तर दिशा में उदुम्बर – पात्रों में पृथक्- पृथक् रखे हुए थे, उनसे राजा का अभिषेक किया जाने लगा ।
पहले सरस्वती नदी के जल से , फिर बहाववाली नदी के जल से , फिर प्रतिलोम जल से, मार्गान्तर के जल से , समुद्र -जल से , भंवर के जल से , स्थिर जल से , धूप की वर्षा के जल से , तालाब के जल से , कुएं के जल से, ओस के जल से , फिर तीर्थों के विविध जलों से , भिन्न -भिन्न मन्त्र पढ़कर राजा का अभिषेक किया गया ।
अब सोम – पान होकर गवलम्भन हुआ। फिर बारह ‘पार्थहोम किए गए और नये महाराज को घृतप्लुत वस्त्र पहनाया गया । उस पर यज्ञ -पात्रों के चित्र सुई से कढ़े हुए थे । उस पर बिना रंगी ऊन का पाण्डव कम्बल और उसके ऊपर लम्बा चोगा पहनाया गया । ऋषियों ने पुकारा – “ यह क्षत्र की नाभि है ? ”
अध्वर्यु ने धनुष चढ़ाकर कहा – “ यह इन्द्र का वृत्रहन्ता भुज है। ”और उसके दोनों छोर मन्त्रपूत करके महाराज को दिया । फिर उसने मन्त्रपूत तीन बाण राजा को दिए और यज्ञ में बैठे हुए पंडक के मुंह में तांबा किया । अब दिग्विजय का होम – पाठ हुआ । यजमान की बांह पकड़कर उसे अध्वर्युने चारों ओर घुमाया । प्रति दिशा में कुछ पैंड चलाकर कहा
“ प्राची को चढ़, गायत्री छन्द , रथन्तर साम , त्रिवृत् स्तोम, वसन्त ऋतु और ब्रह्मधन तेरी रक्षा करें !
“ दक्षिण को चढ़ , त्रिष्टुभ छन्द, बृहत् साम, पंचदश स्तोम , ग्रीष्म ऋतु और क्षत्रधन तेरी रक्षा करें !
“ पश्चिम को चढ़ , जगती छन्द , वैरूप साम, सप्तदश स्तोम ,वर्षाऋतु और विशधन तेरी रक्षा करें !
“ उत्तर को चढ़, अनुष्टुप् छन्द , वैराज साम , एकविंश स्तोम, शरद् ऋतु और फलरूपी धन तेरी रक्षा करें ! ”
“ ऊपर को चढ़, पंक्ति छन्द, शाक्वर रैवत साम, सत्ताईस और तैंतीस स्तोम, हेमन्त शिशिर ऋतु और वर्चस् धन तेरी रक्षा करें ! ”
फिर राजा ने व्याघ्रचर्म के नीचे रखे सीसे को ठोकर मारी, अध्वर्यु ने मन्त्र पढ़ा, फिर राजा व्याघ्रचर्म पर बैठा। सोने का एक चन्द्र राजा के पैरों पर रखा गया । अध्वर्यु ने कहा – “ मृत्यु से बचा ! ”
सौ छिद्रवाला स्वर्ण का मुकुट सिर पर धारण कराया गया । अध्वर्यु ने कहा – “ तू ओज है, अमृत है, विजय है ! ”
राजा ने दोनों भुजा ऊंची करके घोष किया
“ हे मित्र वरुण , अपने रथ पर चढ़ो और दिति – अदिति सीमाबद्ध और असीम को देखो। ”
अब अध्वर्यु और पुरोहित ने पलाश के पात्र में रखे जलों से फिर राजा का अभिषेक किया । ब्रह्मा ने मन्त्र -पाठ किया। अध्वर्यु ने फिर उच्च स्वर से घोषित किया – “ हे देवो , इसे उत्तेजित करो। कोई इसका सपत्न न हो । बड़े क्षत्र के लिए, बडे बड़प्पन के लिए , बड़े मनुष्यों पर राज्य के लिए, इन्द्र के इन्द्रिय के लिए, कोसल जनपद के लिए यह राजा महाराजा विदूडभ तुम कोसलों का राजा है। हम ब्राह्मणों का राजा सोम है। ”
तब अठारह दक्षिणावर्त शंख एक साथ फिर फूंके गए ।
अब रथविमोचनीय होम हआ और भिन्न-भिन्न मन्त्र पढ़कर रथ के अंग – प्रत्यंग होम किए गए ।
राजा को व्याघ्रचर्म के ऊपर खदिर की चौकी पर रखे हुए सिंहासन पर बैठाया गया और राजा ध्रुतव्रत घोषित किया गया ।
फिर द्यूत हुआ । बहेड़े के पांसे लाए गए। रत्न राजा को घेरकर बैठे । अध्वर्यु ने राजा को यज्ञकाष्ठ से पीटा ।
राजा ने कहा – ब्रह्मन् !
अध्वर्यु- तू ब्रह्मा है, तू सत्यप्रणेता सविता है ।
राजा ब्रह्मन् !
अध्वर्यु- तू ब्रह्मा है, तू प्रजाओं का बलवान् इन्द्र है ।
राजा – ब्रह्मन् !
अध्वर्यु-तू ब्रह्मा है, तू कृपालु रुद्र है ।
राजा ब्रह्मन् !
अध्वर्यु -तू ब्रह्मा है।
इस प्रकार अभिषेक समाप्त हुआ। इसके दसवें दिन दाशपेय याग हुआ । सोम से भरे हुए दस प्याले एक यजमान और नौ ऋत्विकों के लिए रखे गए । दासों को कमर झुकाकर प्यालों की ओर रेंगना पड़ा और अपने दादा से लेकर पहले के और पीछे के दस पुरखों के नाम लेने पड़े, जो सोमयाजी रहे हों । उस समय मन्त्र पाठ हुआ
“ सविता प्रेरणा करने वाले से , सरस्वती वाणी से , त्वष्टा बनाए रूपों से , पूषा पशुओं से , यजमान इन्द्र से , बृहस्पति ब्रह्मा से , वरुण ओज से , अग्नि तेज से , सोम राजा से , विष्णु दसवें देवता से, प्रेरित होकर मैं रेंगता हूं। ”
प्रत्येक प्याले में दस – दस जनों ने पिया । एक ऋत्विक और नौ और । यों सौ जनों ने सोमपान किया । राजा ने सबको सोने के कमलों की मालाएं पहनाईं ।
अब यज्ञ की समाप्ति पर सहस्र शंखध्वनि हुई । विदुडभ राजा ने सींगों में सोना मढ़कर सौ गाएं तथा ग्यारह युवती सुन्दरी स्वर्णालंकारों से अलंकृता दासियां प्रत्येक श्रोत्रिय ब्राह्मण को दीं । ब्रह्मा, उद्गाता तथा अन्य ऋत्विजों को उनकी मर्यादा के अनुसार बहुत – सा स्वर्ण, रत्न , वस्त्र , दासी और बछड़े दिए गए ।
दान – मान – सत्कार , दक्षिणा, आतिथ्य , भोजन आदि से सन्तुष्ट हो ब्राह्मण महाराज विदूडभ की जय – जयकार करते हुए विदा हुए । समागत राजाओं, जानपद प्रधानों और सेट्रियों , जेटकों आदि को भी विविध भेंट – दान – मान से नये राजा ने विदा किया । जो मित्र , बन्धु और राजा नहीं आए थे, उन्हें गाड़ियों और छकड़ों में सामग्री भरकर भेज दी गई । जो विरोधी यज्ञ-विद्रोह में मारे गए, उनके उत्तराधिकारी पुत्र – परिजनों को दान , मान, पदवी और पुरस्कार से सत्कृत कर सन्तुष्ट किया गया ।
इस प्रकार यज्ञ में आए सब ब्राह्मण, यति, ब्रह्मचारी, राजा , राजवर्गी, पौर जानपद, सब भांति सन्तुष्ट -प्रसन्न हो महाराज विदूडभ का दिग्दिगन्त में यशोगान करते हुए अपने – अपने घर गए। भाग्यहीन विगलित – यौवन गतश्री प्रसेनजित् को किसी ने स्मरण भी नहीं किया ।
87. आत्मदान : वैशाली की नगरवधू
राजमहालय के एक सुसज्जित कक्ष में सोमप्रभ शय्या पर पड़े थे। उनके घाव अब भर गए थे, परन्तु दुर्बलता अभी थी । कुण्डनी उनकी शय्या के निकट चुपचाप बैठी थी । शम्ब कक्ष के एक कोने में बैठा स्वामी को चुपचाप देख रहा था । सोम किसी गम्भीर चिन्तना से व्याकुल थे। उनकी चिन्तना का गहन विषय था कि राजनन्दिनी चन्द्रप्रभा को ले जाकर कहां रखा जाय ? वे उससे विवाह करने के भी अधिकारी हैं या नहीं ? क्या उन जैसे अज्ञात – कुलशील व्यक्ति का इतने बड़े राज्य के अधिपति की पुत्री से विवाह करना समुचित होगा ? विशेषकर उस दशा में , जबकि वही राजकुमारी के पिता के हन्ता , उनके राज्य के हर्ता और राजनन्दिनी की विपत्ति के आधार थे! उन्हें क्या राजकुमारी की अवश अवस्था और परिस्थिति से ऐसा अनुचित लाभ उठाना चाहिए ? यदि यह परिस्थिति न उत्पन्न हो जाती तो क्या चम्पा – राजनन्दिनी उन्हें प्राप्त हो सकती थी ? क्या स्वार्थवश उन्हें राजनन्दिनी का अहित करना उचित है ? यही सब विचार थे , जो उन्हें उद्विग्न और विचलित कर रहे थे ।
इसी समय महाश्रमण भगवान् महावीर वहां आ उपस्थित हुए । कुण्डनी ने आसन पर बैठकर उनका अभिवादन किया ।
श्रमण महावीर ने कहा – “ भद्र सोमप्रभ , मैं तेरे ही लिए आया हूं । अपने सुख को देख , पुण्य को देख , मलरहित हो । पुत्र यह शरीर बहु मलों का घर है। इसमें काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है, एषणाएं हैं । सो पुत्र, यह समुद्र के समान है। समुद्र में आठ अद्भुत गुण हैं , इसी से असुर महासमुद्र में अभिरमण करते हैं । वह क्रमशः निम्न , क्रमशः प्रवण, क्रमशः प्रारम्भार होता है । वह स्थिर – धर्म है, किनारे को नहीं छोड़ता । वह मृत शरीर को निवास नहीं करने देता , बाहर फेंक देता है । सब महानदी , गंगा , यमुना , अचिरवती , शरभू , मही, जब महासमुद्र को प्राप्त होती हैं तो अपना नाम- गोत्र त्याग देती हैं । और भी पानी , धारा , अन्तरिक्ष का वर्षा जल समुद्र में जाता है, परन्तु महासमुद्र में ऊनता या पूर्णता कभी नहीं होती । वह महासमुद्र एक रस है । वह रत्नाकर है – शंख, मोती , मूंगा , वैदूर्य , शिला, रक्तवर्ण मणि , मसाणगल्ल समुद्र में रहती हैं । वह महासमुद्र महान् प्राणियों का निवास है – तिमि , तिमिंगिल , तिमिर, पिंगल , असुर , नाग, गन्धर्व उसमें वास करते हैं । उनमें सौ योजनवाले शरीरधारी भी हैं , तीन सौ योजन वाले भी हैं , चार सौ योजनवाले भी हैं ।…..
“ सो पुत्र , धर्ममय जीवन भी समुद्र की भांति क्रमशः गहरा , क्रमशः प्रवण , क्रमशः प्रारम्भार है, एकदम किनारे से खड़ा नहीं होता । सो धर्मजीवन में क्रमशः क्रिया , मार्ग, आज्ञा और प्रतिवेध होता है । उसी का क्रमशः अभ्यास करने से मनुष्य अनागामी भी होता है । यह जीवन का ध्रुव ध्येय है। सो सोमभद्र, तू महासमुद्र के अनुरूप बन , पुण्य कर और मलरहित हो निर्वाण को प्राप्त कर । ”
सोम ने कहा – “ तो भगवन, आप जैसा मेरे लिए हितकर समझें। ”
“ यही तो भद्र ! तूने विदूडभ को राजा बनाया , यह तेरा सत्कर्म हुआ । पर शील का भार अब भी तुझ पर है, उसे भी उतार । वह तेरे लिए सह्य न होगा , कल्याणकर न होगा । ”
“ भगवान् श्रमण जैसा ठीक समझें। ”
“ उसे तू कोसल की पट्टराजमहिषी बनने दे भद्र ! बस , इसी में सब हो गया । ”
सोम का मुंह रक्तहीन श्वेत हो गया । मृत पुरुष की भांति शय्या पर वह पड़ रहे , परन्तु उन्होंने स्थिर वाणी से कहा
“ भगवन् , ऐसा ही हो । आप सत्य कहते हैं , मैं वह भार वहन नहीं कर सकता। ”
“ तेरा कल्याण हो आयुष्मान् ! मैं कुमारी से कहूंगा , राजकुमार से भी । ”
“ आप्यायित हुआ भगवन् , चिरबाधित हुआ भगवन् ! ”सोम ने यन्त्रवत् कहा। वह काष्ठवत् शय्या में पड़े रह गए। कुण्डनी ने सुना । उसका मुंह सूख गया । भगवन् महावीर कक्ष से धीरे- धीरे चले गए ।