वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री Part 8

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वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री Part 8


88 . सहभोग्यमिदं राज्यम् : वैशाली की नगरवधू

मध्याह्नोत्तर चतुरंगला छायाकाल में राजसभा का आयोजन हआ। कोसलपति महाराज विदूडभ छत्र – चंवर धारण किए सभाभवन में पधारे। उनके आगे- आगे सोमप्रभ नग्न खड्ग लिए और पीछे सेनापति कारायण खड्ग लिए चल रहे थे । सिंहासन पर बैठते ही महालय से शंखध्वनि हुई । वेदपाठी ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन पाठ और कुल – कुमारियों ने अक्षत – लाजा -विसर्जन किया । इसके बाद महाराज विदूडभ ने सिंहासन से खड़े होकर आचार्य अजित केसकम्बली को महामात्य का खड्ग देकर कहा – “ आचार्य, मैं आपको कोसल के महामात्य पद पर नियुक्त करता हूं। यह खड्ग ग्रहण कीजिए। ”

आचार्य ने खड्ग ग्रहण करके उच्चासन के निकट आकर उच्च स्वर से कहा – “ सहभोग्यमिदं राज्यम् , साथ – साथ भोगने योग्य राज्य को कोई अकेला नहीं भोग सकता , इसलिए मैं घोषणा करता हूं कि जो अमात्य और राज – कर्मचारी निष्ठापूर्वक अपने अधिकारों पर रहना चाहते हैं , वे शान्तिपूर्वक रहें । महाराज विदूडभ अपने राज्यकाल में उन्हें द्विगुणित भुक्त – वेतन देंगे। जिस अमात्य और राजकर्मचारी ने राजविद्रोह किया हो , उसका वह कार्य पूर्व महाराज प्रसेनजित् के प्रति आदर – भावना का द्योतक समझकर महाराज विदूडभ उसे क्षमा करते हैं । अब वह यदि राजनिष्ठा से राजसेवा करे तो उसकी नियुक्ति यथापूर्वक रहेगी । ऐसे लोग सेवा न करें तो पुत्र , परिजन , धन – सहित स्वेच्छा से जहां चाहें चले जाएं , कोई प्रतिबन्ध नहीं है । परन्तु जो कोई राज्य में विद्रोह करेगा या किसी प्रकार मन – वचन – कर्म से शान्ति – भंग करेगा , उसे कठोरतम दण्ड दिया जाएगा। ”

इस घोषणा के होने पर सभा में हर्ष – ध्वनि और महाराज विदूडभ का जय – जयकार हुआ । महामात्य ने फिर कहा – “ महाराज की आज्ञा से मैं सबसे प्रथम महाराज और कोसल राज्य की ओर से मागध राजमित्र और कोसल के मान्यराज – अतिथि श्री सोमप्रभदेव का अभिनन्दन करता हूं, जिनके शौर्य , विक्रम और मैत्री के फलस्वरूप हमें आज का शुभ दिन देखना नसीब हुआ । महाराज विदूडभ घोषित करते हैं कि आज से कोसल सदैव मगध का मित्र है। मगध का शत्रु कोसल का शत्रु और मगध का मित्र कोसल का मित्र है। कोसल के परममित्र मागध श्री सोमप्रभदेव के अनुरोध पर कोसलपति महाराज विदूडभ यह घोषणा करते हैं कि वत्सराज उदयन की मैत्री चाहे जिस भी मूल्य पर कोसल प्राप्त करेगा और मैत्री का सन्देश लेकर शीघ्र ही कोई राजपुरुष वत्सराज महाराजा उदयन की सेवा में जाएगा । अपनी मैत्री, सद्भावना और कृतज्ञता के प्रकाशन -स्वरूप महाराज विदूडभ मगध- सम्राट को काशी का राज्य भेंट करते हैं । ”

इस पर सब ओर हर्षध्वनि हुई । महामात्य ने कहा – “ अब सन्धिविग्रहिक के पद पर महासामन्त पायासी और अर्थमन्त्री के पद पर महाशाल लौहित्य की नियुक्ति की जाती है तथा राज्य -व्यवस्था के संचालनार्थ आठ अमात्यों का एक अमात्यमण्डल नियुक्त किया जाता है । उनके सामर्थ्य की परीक्षा उनके किए हुए कार्यों की सफलता से की जाएगी । महाबलाधिकृत सेनापति कारायण को और राजपुरोजित वसुभट्ट को नियत किया जाता है , जो शास्त्र – प्रतिपादित गुणों से युक्त , उन्नत कुल में उत्पन्न , षडंग वेदों के ज्ञाता, दंडनीति , ज्योतिष तथा अथर्ववेदोक्त मानुषी और दैवी विपत्तियों के प्रतिकार में निपुण हैं । ”

इसके बाद महाराज विदूडभ को भेंटें दी जाने लगीं । सबसे प्रथम मगध की ओर से सोमप्रभ ने एक रत्नजटित खड्ग भेंट किया । इसके बाद देश – देश के राजा , राजप्रतिनिधि और फिर श्रीमन्त , सेट्ठि तथा पौरगण और राजकर्मचारियों ने भेंटें अर्पण कीं । फिर मंगलवाद्य के साथ यह समारोह सम्पूर्ण हुआ ।

89. मार्मिक भेंट : वैशाली की नगरवधू

रात बीत गई थी । बड़ा सुन्दर प्रभात था । रात – भर सो चुकने के बाद अब सोम का मन बहुत हल्का था , पर गहन चिन्तना से उनका ललाट सिकुड़ रहा था । भविष्य के सम्बन्ध में नहीं, बीते हुए गिनती के दिनों के सम्बन्ध में । भाग्य ने उन्हें कैसे खेल खिलाए थे । खिड़की से छनकर प्रभात का क्षीण प्रकाश उनकी शय्या पर आलोक की रेखाएं खींच रहा था और वह सुदूर नीलाकाश में टकटकी बांधे मन्द स्मित कर रहे थे। शम्ब उनके पैरों के पास चुपचाप बैठा था । बहुत – सा रक्त निकल जाने से उनका घनश्याम वर्ण मुख विवर्ण हो रहा था , फिर भी वह अपने स्वामी के चिन्तन से सिकुड़े हुए ललाट को देख – देख मन- ही मन उद्विग्न हो रहा था । इसी समय जीवक कौमारभृत्य ने आकर कहा – “ महाराजाधिराज अभी आपको देखा चाहते हैं , भन्ते सेनापति ! ”

सोम तुरन्त तैयार हो गए। मुंह से उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा ।

विदूडभ एक छोटी शय्या पर लेटे हुए थे। सोम ने शय्या के निकट पहुंचकर कहा- “ अब देव कोसलपति का मैं और क्या प्रिय कर सकता हूं ? ”

विदूडभ अब भी बहुत दुर्बल थे। उन्होंने स्निग्ध दृष्टि से सोम की ओर देखा और दोनों हाथ उनकी ओर पसारकर धीमे स्वर से कहा – “ मित्र सोम , अधिक कहने के योग्य नहीं हूं। परन्तु मित्र, कोसल का यह राज्य तुम्हारा ही है। ”

“ सुनकर सुखी हुआ महाराज ! मेरी अकिंचन सेवाएं कोसल और कोसलपति के लिए सदा प्रस्तुत रहेंगी । ”

विदूडभ ने अर्द्धनिमीलित नेत्रों से सुदूर नीलाकाश को देखते हुए कहा – “ मैंने बहुत चाहा था मित्र, कि तुम्हें अपने प्राणों के समान अपने ही निकट रखू, परन्तु महाश्रमण महावीर और माता कलिंगसेना ने यह ठीक नहीं समझा । मित्र , राजनीति ही तुमसे मेरा विछोह कराती है ।

“ और भी बहुत – कुछ महाराज ! परन्तु राजनीति मानव – जनपद की चरम व्यवस्था है । उसके लिए हमें त्याग करना ही होगा। ”

“ सो , मैं प्राणाधिक मित्र को त्याग रहा हूं वयस्य ! ”विदूडभ की आंखों में आंसू भर आए और उन्होंने तनिक उठकर सोम को अंक में भर लिया।

सोम के होठ भी कुछ कहने को फड़के, परन्तु मंह से शब्द नहीं निकले । उन्होंने कांपते हाथ से विदूडभ का हाथ पकड़कर कहा – “ कामना करता हूं, महाराज सुखी हों , समृद्ध हों । मैं अब चला महाराज ! ”

“ कोसल को सब -कुछ देकर मित्र ! ”विदूडभ हठात् शय्या से उठ खड़े हुए । परन्तु जीवक ने उन्हें पकड़कर शय्या पर लिटाकर कहा – “ शान्त हों देव , भन्ते सेनापति फिर आएंगे। ”

सोम ने क्षण – भर रुककर विदूडभ की ओर देखे बिना ही वहां से प्रस्थान किया ।

90. चिरविदा : वैशाली की नगरवधू

उन्होंने चीनांशुक धारण किया था , जिसके किनारों पर लाल लहरिया टंका था । कण्ठ में उज्ज्वल मोतियों की माला थी जिसकी आभा ने उनकी कम्बुग्रीवा और वक्ष को आलोकित कर रखा था । कपोलों पर लोध्ररेणु से संस्कार किया था और सालक्तक पैरों में कुसुम – स्तवक – ग्रंथित उपानह थे। अंशुकान्त से बाहर निकले हुए उनके अनावृत मृदुल युगल बाहु मृणाल-नाल की शोभा धारण कर रहे थे। प्रवाल के समान अरुणाभ उत्फुल अधरोष्ठों के बीच हीरक – सी आभावाली उज्ज्वल धवल दन्तपंक्ति देखते ही बनती थी । गण्डस्थल की रक्ताभ कान्ति मद्यआपूरित स्फटिकचषक की शोभा को लज्जित कर रही थी । उज्ज्वल उन्नत ललाट पर उन्होंने मनःशिला की जो लाल श्री अंकित की थी , वह स्वर्णदीप में जलती दीपशिखा – सी दिख रही थी । अंसस्थलों में लगा लोध्ररेण उनके माणिक्य – कुण्डलों पर एक धूमिल आवरण – सा डाल रहा था । उनके लोचनों से एक अद्भुत मदधारा प्रवाहित हो रही थी । उनकी सघन -कृष्ण केशराशि पर गूंथे हुए बड़े- बड़े मौक्तिकों की शोभा सुनील आकाश में जगमगाते तारों की छवि धारण कर रही थी ।

प्रासाद के उद्यान में अशोक के बड़े- बड़े वृक्षों की कतार चली गई थी । उनके नवीन लम्बे अनीदार गहरे हरे रंग के पत्तों के बीच खिले लाल – लाल फूल बड़े सुहावने लग रहे थे। उसी वृक्षावली के बीच लताकुञ्ज था । कुञ्ज के चारों ओर माधवी लता फैली हुई थी । उसी लताकुञ्ज में वह तन्मय हो एक चित्र बना रही थीं । उनका कंचुक – बन्धन शिथिल हो गया था । भावावेश से उनका श्वास आवेगित था । नेत्रों की पलकें चित्र -फलक पर स्थिर और मग्न थीं । कोमल , चम्पकवर्णी, पतली उंगलियां कुर्चिका से लाजावर्त और मन शिला की रेखाएं चित्र पर खींच रही थीं । वायु शान्त थी , वातावरण में सौरभ बिखर रहा था । लतागुल्म स्तब्ध थे। वह यत्न से चित्र पर अन्तिम स्पर्श दे रही थीं । सारा चित्र एक वस्त्र – खण्ड से ढंका था । सोम के आने की आहट उन्हें नहीं मिली । वह दबे-पांव उनके पीछे जाकर खड़े हो गए ।

चित्र को पूरा करके उन्होंने उस पर का आवरण उठाया । एक बूंद अश्रु चित्र पर गिर पड़ा । उस दिन वसन्त का वह प्रभात लाल -लाल लावण्य -स्रोत से प्लावित हो अनुराग सागर की तरह तरंगों में डूबता – उतराता दीख रहा था ।

चित्र सोमप्रभ का था ।

सोम ने आगे बढ़कर कांपते स्वर में कहा – “ शील ! ”

वह चौंक उठीं । उन्होंने बड़ी – बड़ी पलकें उठाकर सोम को देखा । लज्जा से उनका मुख झेंप गया । दोनों हाथ निढाल – से होकर नीचे को लटक गए । सोम ने घुटनों के बल

बैठकर राजनन्दिनी के दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर अवरुद्ध कण्ठ से फिर कहा – “ शील

राजकुमारी ने बड़ी- बड़ी भारी पलकें उठाकर सोम को देखा और असंयत भाव से कहा – “ सोम , प्रियदर्शन , तुम आहत हो , बैठ जाओ, बैठ जाओ ! ”

“ तो तुमने मुझे क्षमा कर दिया शील ? यह मैं जानता था । मैं जानता था , तुम मुझे अवश्य क्षमा कर दोगी । परन्तु शील प्रिये , अपने को मैं कभी नहीं क्षमा करूंगा, कभी नहीं। ”

“ वह सब तुम्हें करना पड़ा, सोमभद्र ! ”

“ किन्तु प्रिये , मैंने जिस दिन प्रथम तुम्हें देखा था , अपना हृदय तुम्हें दे दिया था । मैंने प्राणों से भी अधिक तुम्हें प्यार किया। तुम मेरे क्षुद्राशय को नहीं जानतीं । मेरा निश्चय था कि विद्डभ राजकुमार को बन्दीगृह में मरने दिया जाए , कोसल – राजवंश का अन्त हो और अज्ञात -कुलशील सोम कोसलपति बनकर तुम्हें कोसल – पट्टराजमहिषी पद पर अभिषिक्त करे। सब कुछ अनुकूल था , एक भी बाधा नहीं थी । ”

“ मैं जानती हूं, प्रियदर्शन ! पर तुमने वही किया , जो तुम्हें करना योग्य था । किन्तु अब ? ”

“ अब मुझे जाना होगा प्रिये ! ”

“ तो मैं भी तुम्हारे साथ हं , प्रिय ! ”

“ नहीं शील, ऐसा नहीं हो सकता । मुझे जाना होगा और तुम्हें रहना होगा । मैं कोसल का अधिपति न बन सका , किन्तु तुम कोसल की पट्टराजमहिषी रहोगी, यह ध्रुव है । ”

“ मैं , सोम प्रियदर्शन , तुम्हारी चिरकिंकरी पत्नी होने में गर्व अनुभव करूंगी। ”

“ ओह, नहीं, एक अज्ञात – कुलशील नगण्य वंचक की पत्नी महामहिमामयी चम्पा राजनन्दिनी नहीं हो सकतीं। ”

“ किन्तु सोमभद्र, मैं तुम्हारी चिरदासी शील हूं। मैं तुम्हें आप्यायित करूंगी अपनी सेवा से , सान्निध्य से , निष्ठा से और तुम अपना प्रेम – प्रसाद देकर मुझे आपूर्यमाण करना। ”

“ मेरे प्रत्येक रोम- कूप का सम्पूर्ण प्रेम , मेरे शरीर का प्रत्येक रक्तबिंदु, मेरे जीवन का प्रत्येक श्वास आसमाप्ति तुम्हारा ही है शील । पर यह नहीं हो सकता , तुम्हें कोसल की पट्टराजमहिषी बनना होगा ! ”

“ किन्तु मैं तुम्हें प्यार करती हूं सोम , केवल तुम्हें । ”

“ और मैं भी तुम्हें , प्राणाधिक शील ! किन्तु पृथ्वी पर प्यार ही सब -कुछ नहीं है। सोचो तो , यदि प्यार ही की बात होती तो मैं विदुडभ का क्यों उद्धार करता ? क्यों अपने हाथों उसके सिर पर कोसल का राजमुकुट रखकर कोसलेश्वर कहकर अभिवादन करता ? प्रिये, चारुशीले , निष्ठा और कर्तव्य मानव -जीवन का चरम उत्कर्ष है। मैंने उसी को निबाहा । अब तुम मुझे सहारा दो । ”

सोम ने कुमारी के चरण – तल में बैठकर उसके दोनों हाथ अपने नेत्रों से लगा लिए । कुमारी कटे वृक्ष की भांति उनके ऊपर गिर गईं। उनकी आंखों से अश्रुधारा बह चली । बहुत देर तक दोनों निर्वाक् -निश्चल रहे । फिर कुमारी ने उठकर , धीरे – से , जैसे मरता हुआ मनुष्य बोलता है, कहा – “ मैं जानती थी , तुम यही करोगे। सोम , प्रियदर्शन , किन्तु मेरे प्रत्येक रोम में तुम्हारा वास है और आजीवन रहेगा – जीवन के बाद भी , अति चिरन्तन काल तक । ”

“ तुम्हारा कल्याण हो , तुम सुखी हो । कोसल पट्टराजमहिषी शीलचन्दना चन्द्रभद्रे, सुभगे ! ”सोम ने झुककर खड्ग उष्णीष से लगाकर राजसी मर्यादा से कुमारी का अभिवादन किया और कक्ष से बाहर पैर बढ़ाया । कुमारी ने एक पग आगे बढ़ाकर वाष्पावरुद्ध कण्ठ से कहा – “ सोमभद्र, मेरे धूम्रकेतु को लेते जाओ, वह बाहर है। उसे तुम पशु मत समझना और मेरी ही भांति प्यार करना । ”

“ ऐसा ही होगा शील! तुम्हारा यह प्रेमोपहार मेरे जीवन का बहुत बड़ा सहारा होगा। ”

फिर सोम एक क्षण को भी नहीं रुके। लम्बे – लम्बे पैर बढ़ाते हुए प्रासाद के बाहरी प्रांगण में आ खड़े हुए। वहां कुण्डनी और शम्ब उनकी प्रतीक्षा में खड़े थे। उन्होंने धूम्रकेतु पर प्यार की एक थपकी दी , फिर कुण्डनी की ओर देखकर , बिना मुस्कराए और एक शब्द बोले , तीनों प्राणियों ने उसी क्षण वैशाली के राजपथ पर अश्व छोड़ दिए ।

91 . सुप्रभात : वैशाली की नगरवधू

दीपस्तम्भ पर धरे सुवासित दीपों की लौ मन्द पड़ गई , गवाक्षों से उषा की पीत प्रभा कक्ष में झांकने लगी। अलिन्द से वीणा की एक झंकार के साथ एक कोमल कण्ठस्वर निषाद का वाद देकर आरोह- अवरोह में चढ़ – उतरकर वातावरण को आन्दोलित कर गया ।

अम्बपाली ने दुग्धफेन- सम शैया पर अंगड़ाई ली और अलस भाव से अपने मकड़ी के जाले के समान अस्त -व्यस्त परिधान को कुछ व्यवस्थित किया, उत्फुल्ल कमलदल के समान अपने नेत्रों को उसने खोलकर गवाक्ष की ओर देखा । वहां से सुरभित मलय – गन्ध लिए वासन्ती वायु प्रभात की स्वर्णरेख के साथ कक्ष में आ रहा था ।

कमल की पंखुड़ियों की भांति उसके होठ हिले , उसने सस्मित – स्वगत कहा – मदलेखा गा रही है। ”

उसने हाथ बढ़ाकर रजत – दण्ड से कांस्यघण्ट पर आघात किया । तत्क्षण एक आसन्न -प्रस्फुटित कलिका – सी सुन्दरी ने अवनत मस्तक हो मृदु- मन्द मुस्कान के साथ अम्बपाली को अभिवादन करके कहा – “ देवी प्रसन्न हों , आज मधुपर्व का सुप्रभात है। ”

अम्बपाली ने हंसकर कण्ठ से मुक्तामाल उतार उस पर फेंकते हुए कहा – “ तेरा कल्याण हो हला, जा शृंगार – गृह को सुव्यवस्थित कर। ”.

सुन्दरी मुक्तामाल को कण्ठ में धारण करके हंसती हुई चली गई ।

अम्बपाली अलस देह लिए चुपचाप शय्या पर पड़ी एक गवाक्ष से कक्ष में आती हुई स्वर्ण- रश्मि को देखती रहीं । उनका मन बाहर अलिन्द में झंकृत वीणा की मधुर ध्वनि के साथ मदलेखा के कोमल औडव आलाप में लग रहा था ।

एक दासी ने आकर गवाक्षों की रंगीन चक्कलिकाएं उघाड़ दीं । दूसरी दासी गन्धद्रव्य जलाकर गन्धस्तम्भों पर रख गई। दो – तीन दासियों ने विविध मधु- गन्ध वाले पुष्पों के उरच्छद -तोरण बांध दिए । कक्ष सुवास और आलोक से सुरक्षित और उज्ज्वल हो उठा ।

मधुलता ने आकर निवेदन किया – “ शृंगार- गृह तैयार है और नगर के मान्य सामन्तपुत्र एवं सेट्टिपुत्र देवी को मधुपर्व के प्रभात की बधाई देने उपस्थित हैं । ”

अम्बपाली ने हंसकर अंगड़ाई ली । वह शैया त्यागकर उठी । सम्मुख वृहत् आरसी में अपने मद- भरे नवयौवन को एक बार गर्व- भरे नेत्रों से देखा , फिर कहा – “ हला , शृंगार – गृह का मार्ग दिखा और आगत नागरिकों से कह कि मैं उनकी उपकृत हूं तथा अभी मैं आती हूं। ”

मधुलता एक बार आदर के लिए झुकी और ‘ इधर से देवी कहकर पुष्प -भार से झुकी माधवीलता की भांति एक ओर चल दी । पीछे-पीछे उद्दाम यौवन का मद बिखेरती हुई अम्बपाली भी ।

92. मधुपर्व : वैशाली की नगरवधू

वीणा के तारों में औडव सम्पूर्ण के स्वर तैर रहे थे। सुनहरी धूप प्रासाद के मरकतमणि – जटित झरोखों और गवाक्षों से छन – छनकर नेत्रों को आह्लादित कर रही थी । अम्बपाली के आवास के बाहरी प्रांगण में रथ , हाथी , अश्व और विविध वाहनों का तांता लगा था । संभ्रान्त नागरिक और सामन्तपुत्र अपनी नई -निराली सज – धज से अपने – अपने वाहनों पर देवी अम्बपाली की प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रांगण के भीतरी मार्ग में अम्बपाली का स्वर्णकलशवाला श्वेत कौशेय का महाघोष रथ आचूड़ विविधपुष्पों से सजा खड़ा था , उसमें आठ सैन्धव अश्व जुते थे , जिनकी कनौतियां खड़ी , थूथनी लम्बी और नथुने विशाल थे। वे स्वर्ण और मणिमालाओं के आभरणों से लदे थे। रथ के चूड़ पर मीनध्वज फहरा रही थी , वातावरण में जनरव भरा था । दण्डधर शुभ्र परिधान पहने दौड़ – दौड़कर प्रबन्ध -व्यवस्था कर रहे थे ।

हठात् गवाक्ष के कपाट खुले और देवी अम्बपाली उसमें अपनी मोहक मुस्कान के साथ आ खड़ी हुईं । नख से शिख तक उन्होंने वासन्ती परिधान धारण किया था , उनके मस्तक पर एक अतिभव्य किरीट था , जिसमें सूर्य की – सी कान्ति का एक अलभ्य पुखराज धक् – धक् दिप रहा था । कानों में दिव्य नीलम के कुण्डल और कण्ठ में मरकतमणि का एक अलौकिक हार था । उनकी करधनी बड़ी – बड़ी इक्कीस मणियों की बनी थी , जिनमें प्रत्येक का भार ग्यारह टंक था । वे माणिक्य उनकी देह – यष्टि में लिपटे हुए उस मधुदिवस के प्रभात की स्वर्ण- धूप में इक्कीस बालारुणों की छटा विस्तार कर रहे थे। उनकी घन – सुचिक्कण अलकें प्रभात की मन्द समीर में क्रीड़ा कर रही थीं । स्वर्णखचित – कंचुकी – सुगठित युगल यौवन दर्शकों पर मादक प्रभाव डाल रहे थे।

करधनी के नीचे हल्के आसमानी रंग का दुकूल उनके पीन नितम्बों की शोभा विस्तार कर रहा था , जिसके नीचे के भाग से उनके संगमरमर के – से सुडौल चरण युगल खालिस नीलम की पैंजनियों से आवेष्टित बरबस दर्शकों की गति – मति को हरण कर रहे थे।

इस अलौकिक वेशभूषा में उस दिव्य सुन्दरी अम्बपाली को देखकर प्रांगण में से सैकड़ों कण्ठों से आनन्द- ध्वनि विस्तारित हो गई । लोगों की सम्पूर्ण जीवनी शक्ति उनकी दृष्टि में ही केन्द्रित हो गई । फिर , ज्योंही अम्बपाली ने अपने दोनों हाथों की अञ्जलि में फूलों को लेकर सामन्त नागरिकों की ओर मृद- मन्द मुस्कान के साथ फेंका, त्योंही देवी अम्बपाली की जय , मधुपर्व की रानी की जय , जनपद- कल्याणी नगरवधू की जय के घोषों से दिशाएं गूंज उठीं । ।

दुन्दुभी पर चोटें पड़ने लगीं । वीणा में अब सम्पूर्ण अवरोह-स्वर वातावरण में बिखरे जा रहे थे, जिनमें दोनों मध्यम और कोमल निषाद विचित्र माधुर्य उत्पन्न कर रहे थे ।

नायक दण्डधर लल्लभट ने अपनी विशाल काया के भार को स्वर्णदण्ड के सहारे

सीढ़ियों पर चढ़ाकर अर्ध-निमीलित नेत्रों से देवी अम्बपाली के सम्मुख अभिवादन करके निवेदन किया – “ देवी की जय हो ,रथ प्रस्तुत है एवं सभी नागरिक शोभा -यात्रा को उतावले हो रहे हैं , एक दण्ड दिन भी चढ़ गया है । ”

अम्बपाली ने कानों तक ओठों को मुस्कराकर एक बार प्रांगण में बिखरे वैशाली के महाप्राणों को देखा और फिर सप्तभूमि प्रासाद की गगनचुम्बी अट्टालिका की ओर । फिर उनकी आंखें सम्मुख विस्तृत नीलपद्म सरोवर की अमल जलराशि पर फैल गईं। उन्होंने गर्व से अपनी हंस की – सी गर्दन उठाकर कहा – “ लल्ल , मुझे रथ का मार्ग दिखा ! ”

“ इधर से देवी ! ”लल्ल ने अति विनयावनत होकर कहा और अम्बपाली लाल कुन्तक के जूतों से सुसज्जित अपने हिमतुषार धवल – मृदुल पादपद्मों से स्फटिक की उन स्वच्छ सीढ़ियों को शत -सहस्र – गुण प्रतिबिम्बित करती हुईं , स्वर्ग से उतरती हुई सजीव सूर्य रश्मि – सी प्रतीत हुईं ।

युवकों ने अनायास ही उन्हें घेर लिया । उनके हाथों में माधवी और यथिका की मंजरी और उरच्छद थे। वे उन्होंने देवी अम्बपाली पर फेंकना आरम्भ किया । उनमें से कुछ अम्बपाली के अलभ्य गात्र को छूकर उनके चरणों में गिर गईं, कुछ बीच ही में गिरकर अनगिनत भीड़ के पैरों के नीचे कुचल गईं। ।

ज्योंही अम्बपाली अपने पुष्प – सज्जित रथ पर सवार हुईं , वेग से मृदंग , मुरज और दुन्दुभी बज उठे । दो तरुणियां उनके चरणों में अंगराग लिए आ बैठीं । दो उनके पीछे मोरछल ले खड़ी हो गईं। कुछ काम्बोजी अश्वों पर सवार हो रथ के आगे-पीछे चलने लगीं । युवक सामन्तपुत्रों एवं सेट्टिपुत्रों ने रथ को घेर लिया । बहुतों ने अपने – अपने वाहन त्याग दिए और रथ का धुरा पकड़कर साथ- साथ चलने लगे । बहुतों ने घोड़ों की रश्मियां थाम लीं । बहुत अपने – अपने वाहनों पर चढ़, अपने भाले और शस्त्र चमकाते आगे-पीछे दौड़ – धूप करने लगे ।

सड़कें कोलाहल से परिपूर्ण थीं । मार्ग के दोनों ओर के गवाक्षों में कुलवधएं बैठी हईं जनपद- कल्याणी अम्बपाली की मधुयात्रा निरख रही थीं । पौरजनों ने मार्ग में अपने – अपने घर और पण्य सजाए थे। सेट्ठियों और निगम की ओर से स्थान – स्थान पर तोरण बनाए गए थे, जो बहुमूल्य कौशेय वस्त्रों एवं विविध रंगबिरंगे फूलों से सुसज्जित हो रहे थे। उन पर बन्दनवार , मधुघट और पताकाओं की अजब छटा थी । प्रत्येक की सजधज निराली थी ।

अम्बपाली पर चारों ओर से फूलों की वर्षा हो रही थी । वह फूलों में ढकी जा रही थी । अट्टालिकाओं और चित्रशालाओं से सेट्ठि लोग फूलों के गुच्छ उन पर फेंक रहे थे और वह हंस -हंसकर उन्हें हाथ में उठा हृदय से लगा नागरिकों के प्रति अपने प्रेम का परिचय दे रही थीं । लोग हर्ष से उन्मत्त होकर जनपदकल्याणी देवी अम्बपाली की जय -जयकार घोषित कर रहे थे।

सेनानायक सबसे आगे एक पंचकल्याणी अश्व पर सवार स्वर्ण- तार के वस्त्र पहने चांदी का तूर्य बजा – बजाकर बारम्बार पुकारता जाता था

“ नागरिको , एक ओर हो जाओ, मधुपर्व की रानी जनपद- कल्याणी देवी अम्बपाली की सवारी आ रही है। देवी मधुवन को जा रही हैं , उन्हें असुविधा न हो , सावधान ! ” घोषणा करके ज्यों ही वह आगे बढ़ता , मार्ग नरमुण्डों से भर जाता। कोलाहल के मारे कान नहीं दिया जाता था ।

सूर्य तपने लगा । मध्याह्न हो गया । तब सब कोई मधुवन में पहुंचे। एक विशाल सघन आम्रकुञ्ज में अम्बपाली का डेरा पड़ा । उनका मृदु गात्र इतनी देर की यात्रा से थक गया था । ललाट पर स्वेदबिन्दु हीरे की कनी के समान चमक रहे थे।

आम्रकुञ्ज के मध्य में एक सघन वृक्ष के नीचे दुग्ध -फेन- सम श्वेत कोमल गद्दी के ऊपर रत्न – जटित दण्डों पर स्वर्णिम वितान तना था । अम्बपाली वहां आसन्दि – सोपधान पर अलस -भाव से उठंग गईं । उन्होंने अर्धनिमीलित नेत्रों से मदलेखा की ओर देखते हुए कहा – “ हला , एक पात्र माध्वीक दे। ”

मदलेखा ने स्वर्ण के सुराभाण्ड से लाल – लाल सुवासित मदिरा पन्ने के हरे – हरे पात्र में उड़ेल कर दी । उसे एक सांस में पीकर अम्बपाली उस कोमल तल्प – शय्या पर पौढ़ गईं ।

अपनी – अपनी सुविधा के अनुसार सभी लोग अपने – अपने विश्राम की व्यवस्था कर रहे थे। वृक्षों की छाया में , कुओं की निगूढ़ ओट में , जहां जिसे रुचा, उसने अपना आसन जमाया । कोई सेट्ठिपुत्र कोमल उपाधान पर लेटकर अपने सुकुमार शरीर की थकान उतारने लगा , कोई बांसुरी ले तान छेड़ बैठा, किसी ने गौड़ीय, माध्वीक और दाक्खा रस का आस्वादन करना प्रारम्भ किया । किसी ने कोई एक मधुर तान ली । कोई वानर की भांति वृक्ष पर चढ़ बैठा । बहुत – से साहसी सामन्तपुत्र दर्प से अपने – अपने अश्वों पर सवार हो अपने – अपने भाले और धनुष ले मृगया को निकल पड़े और आखेट कर – करके मधुपर्व की रानी के सम्मुख ढेर करने लगे । देखते – देखते आखेट में मारे हुए पशुओं और पक्षियों का समूह पर्वत के समान अम्बपाली के सम्मुख आ लगा । सावर, हरिण , शश , शूकर , वराह, लाव , तित्तिर, ताम्रचूड़ , माहिष और न जाने क्या – क्या जलचर , नभचर , थलचर, जीव प्राण त्याग उस रात को मधुपर्व के रात्रिभोज में अग्नि पर पाक होने के लिए मधुपर्व की रानी अम्बपाली के सम्मुख ढेर- के – ढेर इकट्ठे होने लगे । कोमल उपधानों का सहारा लिए अम्बपाली अपनी दासियों के साथ हंस -हंसकर इन उत्साही युवकों के आखेट की प्रशंसा कर रही थीं और उससे वे अपने को कृतार्थ मानकर और भी द्विगुण उत्साह से आखेट पर अपने अश्व दौड़ा रहे थे ।

93. आखेट : वैशाली की नगरवधू

दिन का जब तीसरा दण्ड व्यतीत हुआ और सूर्य की तीखी लाल किरणें तिरछी होकर पीली पड़ीं और सामन्त युवक जब मैत्रेय छककर पी चुके , तब अम्बपाली से आखेट का प्रस्ताव किया गया । अम्बपाली प्रस्तुत हुईं । यह भी निश्चित हुआ कि देवी अम्बपाली पुरुष- वेश धारणकर अश्व पर सवार हो , गहन वन में प्रवेश करेंगी। अम्बपाली ने हंसते हंसते पुरुष – वेश धारण किया । सिर पर कौशेय धवल उष्णीष जिस पर हीरे का किरीट, अंग पर कसा हुआ कंचुक, कमर में कामदार कमरबन्द । इस वेश में अम्बपाली एक सजीले किशोर की शोभा – खान बन गईं । जब दासी ने आरसी में उन्हें उनका वह भव्य रूप दिखलाया तो वह हंसते-हंसते गद्दे पर लोट – पोट हो गईं । बहुत – से सामन्त – पुत्र और सेट्ठि पुत्र उन्हें घेरकर खड़े- खड़े उनका यह रूप निहारने लगे।

युवराज स्वर्णसेन ने अपने चपल अश्व का हठपूर्वक निवारण किया और अम्बपाली के निकट आकर अभिनय के ढंग पर कहा

“ क्या मैं श्रीमान् से अनुरोध कर सकता हूं कि वे मेरे साथ मृगया को चलकर मेरी प्रतिष्ठा बढ़ाएं ? ”

अम्बपाली ने मोहक स्मित करके कहा

“ अवश्य, यदि प्रियदर्शी युवराज मेरा अश्व और धनुष मंगा देने का अनुग्रह करें। ”

“ सेवक अपना यह अश्व और धनुष श्रीमान् को समर्पित करता है । ”इतना कहकर युवराज अश्व से कूद पड़े और घुटने टेककर देवी अम्बपाली के सम्मुख बैठ अपना धनुष उन्हें निवेदन करने लगे ।

अम्बपाली ने बनावटी पौरुष का अभिनय करके आडम्बर – सहित धनुष लेकर अपने कंधे पर टांग लिया और तीरों से भरा हुआ तूणीर कमर से बांध वृद्ध दण्डधर के हाथ से बर्छा लेकर कहा – “ मैं प्रस्तुत हूं भन्ते। ”

“ परन्तु क्या भन्ते युवराज अश्वारूढ़ होने में मेरी सहायता नहीं करेंगे ! ”

“ क्यों नहीं भन्ते , यह तो मेरा परम सौभाग्य होगा । अश्वारूढ़ होने, संचालन करने और उतरने में मेरी विनम्र सेवाएं सदैव उपस्थित हैं । ”

स्वर्णसेन युवराज ने एक लम्बा – चौड़ा अभिवादन निवेदन किया और कहा “ धन्य वीरवर, आपका साहस ! यह अश्व प्रस्तुत है। ”

इतना कहकर उन्होंने आगे बढ़कर अम्बपाली का कोमल हाथ पकड़ लिया ।

अम्बपाली खिल -खिलाकर हंस पड़ीं , स्वर्णसेन भी हंस पड़े । स्वर्णसेन ने अनायास ही अम्बपाली को अश्व पर सवार करा दिया और एक दूसरे अश्व पर स्वयं सवार हो , विजन गहन वन की ओर द्रुत गति से प्रस्थान किया । वृद्ध दण्डधर ने साथ चलने का उपक्रम किया तो अम्बपाली ने हंसकर उसे निवारण करते हुए कहा – “ तुम यहीं मदलेखा के साथ रहो ,

लल्लभट्ट ! ”वे दोनों देखते – ही – देखते आंखों से ओझल हो गए । थोड़ी ही देर में गहन वन आ गया । स्वर्णसेन ने अश्व को धीमा करते हुए कहा

“ कैसा शान्त -स्निग्ध वातावरण है ! ”

“ ऐसा ही यदि मनुष्य का हृदय होता ! ”

“ तब तो विश्व के साहसिक जीवन की इति हो जाती। ”

“ यह क्यों ? ”

“ अशान्त हृदय ही साहस करता है देवी ! ”

“ सच ? ”अम्बपाली ने मुस्कराकर कहा।

युवराज कुछ अप्रतिभ होकर क्षण – भर चुप रहे। फिर बोले – “ देवी , आपने कभी विचार किया है ? ”

“ किस विषय पर प्रिया ? ”

“ प्रेम की गम्भीर मीमांसाओं पर , जहां मनुष्य अपना आपा खो देता है और जीवन फल पाता है ? ”

“ नहीं, मुझे कभी इस भीषण विषय पर विचार करने का अवसर नहीं मिला। ” देवी ने मुस्कराकर कहा

“ आप इसे भीषण कहती हैं ? ”

“ जहां मनुष्य आपा खो देता है और जीवन- फल पाता है – वह भीषण नहीं तो क्या है ? ”

“ देवी सम्भवतः उपहास कर रही हैं । ”

“ नहीं भद्र , मैं अत्यन्त गम्भीर हूं। ”अम्बपाली ने हठपूर्वक अपनी मुद्रा गम्भीर बना ली । स्वर्णसेन चुप रहे । दोनों अश्व धीरे – धीरे पर्वत की उस गहन उपत्यका में ठोकरों से बचते हुए आगे गहनतम वन में बढ़ने लगे । दोनों ओर के पर्वत – शृंग ऊंचे होते जाते थे और वन का सन्नाटा बढ़ता जाता था । सघन वृक्षों की छाया से छनकर सूर्य की स्वर्ण-किरणें दोनों अश्वारोहियों की मुखश्री की वृद्धि कर रही थीं ।

अम्बपाली ने कहा

“ क्या सोचने लगे युवराज ? ”

“ क्या सत्य कह दूं देवी ? ”

“ यदि अप्रिय न हो । ”

“ साहस नहीं होता । ”

“ अरे , ऐसे वीर युवराज होकर साहस नहीं कर सकते ? मैं समझती थी युवराज स्वर्णसेन परम साहसिक हैं । ”

“ आप उपहास कर सकती हैं देवी , पर मैं आपको प्यार करता हूं, प्राणों से भी बढ़कर। ”

“ केवल प्राणों से ही ? ”अम्बपाली ने हंस की – सी गर्दन ऊंची करके कहा ।

“ विश्व की सारी सम्पदाएं भी प्राणों के मूल्य की नहीं देवी ! क्या मेरा यह प्यार नगण्य है ? ”

“ नगण्य क्यों होने लगा प्रिय ? ”

“ तो आप इस नगण्य प्यार को स्वीकार करती हैं ? ” अम्बपाली ने वक्र मुस्कान करके कहा

“ इसके लिए तो मैं बाध्य हूं भन्ते युवराज ! वैशाली के प्रत्येक व्यक्ति को मुझे अपना प्यार अर्पण करने का अधिकार है,… वैशाली के ही क्यों जनपद के प्रत्येक व्यक्ति को । ”

“ परन्तु मेरा प्यार औरों … जैसा नहीं है देवी । ”

“ तो उसमें कुछ विशेषता है ? ”

“ वह पवित्र है, वह हृदय के गम्भीर प्रदेश की निधि है, देवी अम्बपाली , जिस दिन मैं समझंगा कि आपने मेरे प्यार को स्वीकार किया, उस दिन मैं अपने जीवन को धन्य मानूंगा। ”

“ वाह, इसमें दुविधा की बात ही क्या है ? तुम आज ही अपने जीवन को धन्य मानो युवराज , परन्तु देखो कोरे प्यार से काम न चलेगा प्रिय , प्यास से मेरा कण्ठ सूख रहा है , मुझे शीतल जल भी चाहिए । ”

“ वाह, तब तो हम उपयुक्त स्थान पर आ पहुंचेहैं । वह सामने पुष्करिणी है। घड़ी भर वहां विश्राम किया जाए, शीतल जल से प्यास बुझाई जाए और शीतल छाया में शरीर को ठण्डा किया जाए। ”

“ और पेट की आंतों के लिए ? ”

“ उसकी भी व्यवस्था है, यह झोले में स्वादिष्ट मेवा और भुना हुआ शूल्य मांस है , जो अभी भी गर्म है । वास्तव में वह यवनी दासी बड़ी ही चतुरा है, शूल्य बनाने में तो एक ही है। ”

“ कहीं तुम उसे प्यार तो नहीं करते युवराज ? ”

“ नहीं – नहीं , देवी, जो पुष्प देवता पर चढ़ाने योग्य है वह क्या यों ही ….।

“ यही तो मैं सोचती हूं ; परन्तु यह पुष्करिणी- तट तो आ गया । ”

युवराज तत्क्षण अश्व से कूद पड़े और हाथ का सहारा देकर उन्होंने अम्बपाली को अश्व से उतारा । एक बड़े वृक्ष की सघन छाया में गोनक बिछा दिया गया और अम्बपाली उस पर लेट गईं । फिर उन्होंने कहा – “ हां , अब देखू तुम्हारी उस यवनी दासी का हस्तकौशल । ”

स्वर्णसेन ने पिटक से निकालकर शूकर के भुने हुए मांस – खण्ड अम्बपाली के सामने रख दिए , अभी वे कुछ गर्म थे। अम्बपाली ने हंसते -हंसते उन्हें खाते हुए कहा – “ युवराज , तुम्हारी उस यवनी दासी का कल्याण हो , तुम भी तनिक चखकर देखो , बहुत अच्छे बने हैं । मुझे सन्देह है, कहीं इसमें प्रेम का पुट तो नहीं है ! ”

युवराज ने हंसकर कहा – “ क्या कोई ईर्ष्या होती है देवी ? ”

“ क्या दासी के प्रेम से ? नहीं भाई, मैं इस भीषण प्रेम से घबराती हूं। क्या मैं तुम्हें बधाई दूं युवराज ? ”

“ ओह देवी, आप बड़ी निष्ठुर हैं ! ”

“ परन्तु यह यवनी दासी कदाचित् नवनीत – कोमलांगी है ? ”

“ भला देवी की दासी से तुलना क्या ? ”

“ तुलना की एक ही कही युवराज, तुलना न होती तो यह अधम गणिका उसके प्रेम से ईर्ष्या कैसे कर सकती थी भला ! ”

युवराज स्वर्णसेन अप्रतिभ हो गए। उन्होंने कहा “ मुझसे अपराध हो गया देवी , मुझे क्षमा करें । ”

“ यह काम सोच-विचारकर किया जाएगा , अभी यह मधुर कुरकुरा शूकर मांस खण्ड चखकर देखो। ”उन्होंने हंसते -हंसते एक टुकड़ा स्वर्णसेन के मुख में ठंस दिया ।

हठात् अम्बपाली का मुंह सफेद हो गया और स्वर्णसेन जड़ हो गए। इसी समय एक भयानक गर्जना से वन -पर्वत कम्पायमान हो गए। हरी – हरी घास चरते हुए अश्व उछलने और हिनहिनाने लगे , पक्षियों का कलरव तुरन्त बन्द हो गया ।

परन्तु एक ही क्षण में स्वर्णसेन का साहस लौट आया । उन्होंने कहा – “ शीघ्रता कीजिए देवी , सिंह कहीं पास ही है। ”उन्होंने अश्वों को संकेत किया, अश्व कनौती काटते आ खड़े हुए। अश्व पर अम्बपाली को सवार करा स्वयं अश्व पर सवार हो , धनुष पर शर सन्धान कर वे, सिंह किस दिशा में है, यही देखने लगे ।

अम्बपाली अभी भी भयभीत थी , अश्व चंचल हो रहे थे। अम्बपाली ने स्वर्णसेन के निकट अश्व लाकर भीत मुद्रा से कहा – “ सिंह क्या बहुत निकट है ? ”

और तत्काल ही फिर एक विकट गर्जन हुआ , साथ ही सामने बीस हाथ के अन्तर पर झाड़ियों में एक मटियाली वस्तु हिलती हुई दीख पड़ी । अम्बपाली और स्वर्णसेन को सावधान होने का अवसर नहीं मिला। अकस्मात् ही एक भारी वस्तु अम्बपाली के अश्व पर आ पड़ी । अश्व अपने आरोही को ले लड़खड़ाता हुआ खड्ड में जा गिरा । इससे स्वर्णसेन का अश्व भड़ककर अपने आरोही को ले तीर की भांति भाग चला । स्वर्णसेन उसे वश में नहीं रख सके ।

94. रंग में भंग : वैशाली की नगरवधू

युवराज स्वर्णसेन को लेकर उनका अश्व जो बिगड़कर भागा तो युवराज के बहुत प्रयत्न करने पर भी बीच में रुका नहीं । स्वर्णसेन पर भी सिंह के आक्रमण का आतंक तो था ही , देवी अम्बपाली के सिंह द्वारा आक्रान्त होने का भारी विषाद छा गया । सूर्यास्त के समय जब अत्यन्त अस्त -व्यस्त दशा में अकेले स्वर्णसेन मधुवन में पहुंचे, तो वहां बड़ा कोलाहल हो रहा था । जगह-जगह लकड़ी के बड़े-बड़े ढेर जल रहे थे और उन पर शशक, वराह, महिष और तित्तिर भूने जा रहे थे। ढेर के ढेर मैरेय , द्राक्षा, माध्वीक पात्रों में भरी – धरी जा रही थी और उसे पी -पीकर सब लोग उन्मत्त हो रहे थे। मांस के भूनने की सोंधी सुगन्ध आ रही थी । कोई ताल – सुर से और कोई ताल – सुर भंग होकर भी निर्द्वन्द्व गा रहे थे।

स्वर्णसेन अपने अश्व पर लटक गए थे, अश्व पसीने से तर था और मुख से फेन उगल रहा था । ज्योंही लोगों की दृष्टि उन पर पड़ी , वे स्तम्भित – से आमोद -प्रमोद छोड़कर उनकी ओर दौड़े । देखते -देखते सामन्तपुत्रों , सेट्टिपुत्रों और राजकुमारों ने उन्हें घेर लिया , वे विविध भांति प्रश्न करने लगे।

देवी अम्बपाली को न देखकर प्रत्येक व्यक्ति विचलित हो रहा था । सहारा देकर सूर्यमल्ल ने युवराज को अश्व से उतारा, थोड़ी गौड़ीय एक पात्र में भरकर मुंह से लगाई, एक ही सांस में पीकर युवराज ने वेदनापूर्ण स्वर में कहा – “ मित्रो, अनर्थ हो गया ! देवी अम्बपाली को सिंह आक्रान्त कर गया ! ”

वज्रपात की भांति यह समाचार सम्पूर्ण शिविर में फैल गया । सभी आमोद- प्रमोद रुक गए और सर्वत्र सन्नाटा छा गया । धीरे- धीरे स्वर्णसेन ने सम्पूर्ण घटना कह सुनाई । वह कहने लगे – “ ज्योंही हिंस्र सिंह गर्जन करके देवी अम्बपाली के ऊपर झपटा मैंने बाण सन्धान किया , परन्तु शोक , सिंह के धक्के से विचलित होकर मेरा अश्व बेबस होकर भाग निकला। मैंने देवी अम्बपाली को सिंह की भारी देह के साथ गिरते देखा है । हाय , मित्रो , अब मैं जनपद में मुंह दिखाने योग्य नहीं रह गया । ”

महाअट्टवी -रक्षक सूर्यमल्ल ने तत्काल पुकारकर दीपशलाकाएं जलाने और अपना अश्व लाने की आज्ञा दी । उन्होंने घटनास्थल पूछताछ कर बाणों से भरा तूणीर अपने कन्धे पर डाल और नग्न खड्ग हाथ में लेकर गहन वन में प्रवेश किया । पचासों प्यादे मशालें ले लेकर उनके आगे-पीछे चले । अनेक सामन्तपुत्र अश्वों पर सवार हो हाथों में नग्न खड्ग , शक्ति , धनुष – बाण लिए साथ हो लिए ।

परन्तु सम्पूर्ण रात्रि अनुसंधान करने पर भी वे देवी अम्बपाली का शरीर न पा सके, उन्होंने देवी के अश्व का मृत शरीर देखा । सिंह ने अपनी थाप से उसकी दो पसलियां उखाड़ ली थीं , परन्तु देवी का कहीं पता न था । वन का कोना – कोना छान डाला गया । सिंह का शरीर भी वहां न था । सभी ने यही समझ लिया कि सिंह अम्बपाली के शरीर को किसी कन्दरा में उठा ले गया और महामहिमामयी वैशाली की जनपद- कल्याणी देवी अम्बपाली को खा गया ।

प्रभात के धूमिल प्रकाश में वे थकित, भग्न – हृदय , खिन्न योद्धा युवक नीचे मुंह लटकाए मधुवन में लौट आए। उन्हें देखते ही मधुवन का वासन्ती पवन लोगों के रुदन से भर गया । देवी अम्बपाली के बहुमूल्य मीनध्वज रथ पर सुकुमारी मदलेखा औंधा मुंह किए सिसक -सिसककर रो रही थी । सभी के मुंह से एक ही बात निकल रही थी कि देवी अम्बपाली को सिंह ने खा लिया ।

तत्काल ही जो जैसा था उसी स्थिति में मधुवन से चल दिया और एक दण्ड सूर्य बढ़ते – बढ़ते वैशाली की गली -गली में देवी अम्बपाली के सिंह द्वारा खा लिए जाने की कथा फैल गई। श्रेष्ठिचत्वर की सभी हाटें तुरन्त बन्द हो गईं। संथागार का गणसन्निपात तुरन्त स्थगित कर दिया गया । समस्त वैशाली का गण देवी अम्बपाली के सिंह द्वारा खा लिए जाने से शोक – सन्ताप – मग्न हो गया ।

95 . साहसी चित्रकार : वैशाली की नगरवधू

अम्बपाली ने आंखें खोलीं, उनकी स्मृति काम नहीं दे रही थी । उन्होंने आंखें फाड़ फाड़कर इधर – उधर देखा । सामने उनका अश्व मरा पड़ा था । उसके निकट ही वह भीमाकार सिंह भी । उसे देखते ही अम्बपाली के मुंह से चीख निकल पड़ी । इसी समय किसी ने हंसकर कहा – “ डरो मत मित्र, सिंह मर चुका है। ”

अम्बपाली ने देखा – एक छरहरे गात का लम्बा- सा युवक सामने एक शिलाखण्ड पर खड़ा मुस्करा रहा है । अम्बपाली से आंखें चार करते हुए उसने कहा -सिंह मर चुका मित्र; क्या तुम्हें अधिक चोट आई है ? मैं उठने में सहायता दूं ? ”

अम्बपाली अपने पुरुषवेश को स्मरण कर संकट में पड़ी । उन्होंने घबराकर कहा – “ नहीं -नहीं, धन्यवाद, मुझे चोट नहीं आई, मैं ठीक हूं। ”यह कहकर वह व्याकुल सी अपने अस्त -व्यस्त वस्त्रों को ठीक करने लगीं ।

युवक ने तनिक निकट आकर हंसते हुए कहा – “ वाह मित्र, तुम्हारा तो कण्ठ- स्वर भी स्त्रियों – जैसा है, कदाचित् कोई सेट्टिपुत्र हो ? किसी सामन्तपुत्र के संगदोष से मृगया को निकल पड़े ? ”

अम्बपाली ने सिर हिलाकर सहमति प्रकट की ।

“ ठीक है, और कदाचित् आखेट में आने का यह प्रथम ही अवसर है ? ”

“ हां मित्र, पहला , “ अम्बपाली ने झेंप मिटाने को मुस्कराकर कहा। ।

युवक एक बार खूब ठठाकर हंस पड़ा । उसने कहा – “ और तुम्हें पहले – पहल सिंह के आखेट में आने के लिए तुम्हारे उसी मित्र ने सम्मति दी होगी जो तुम्हारे साथ था ? ”

“ जी हां , परन्तु वे हैं कहां ? ”

“ सम्भवतः वह सुरक्षित अपने डेरे में पहुंच गए होंगे । सिंह की गर्जना सुनकर उनका घोड़ा ऐसा भागा कि मैं समझता हूं कि वह बिना अपने वासस्थल पर गए रुकेगा नहीं। ”

इतना कहकर युवक फिर ही – ही करके हंसने लगा। उसने कहा – “ बड़ा कौतुक हुआ मित्र, मैं उस पुष्करिणी के उस छोर पर बैठा अस्तंगत सूर्य का एक चित्र बना रहा था । कोई आखेट करने इधर आए हैं , यह मैं तुम लोगों की बातचीत तथा अश्वों की भनक सुनकर समझ गया था । हठात् सिंह- गर्जन सुन मैंने इधर – उधर देखा तो तुम लोगों से दस हाथ दूरी पर सिंह को आक्रमण के लिए समुद्यत तथा तुम लोगों को असावधान देखकर मैं बरछा लिए इधर को लपका। सो अच्छा ही हुआ , ज्यों ही सिंह विकट गर्जन करके तुम्हारे अश्व पर उछला , मेरा बरछा उसकी पसलियों को चीरकर हृदय में जा अड़ा। तुम खड्ड में गिर पड़े । सिंह तुम्हारे अश्व को लेकर इधर गिरा, उधर तुम्हारे मित्र को लेकर उनका अश्व एकदम हवा हो गया । खेद है मित्र तुम्हारा वह सुन्दर काम्बोजी अश्व मर गया । ”

अम्बपाली अवाक् रहकर मृत अश्व को देखने लगीं। फिर उन्होंने कहा – “ धन्यवाद मित्र , तुमने प्राणरक्षा कर ली है। परन्तु अब मैं मधुवन तक कैसे पहुंचूं भला ? सूर्य तो अस्त हो रहा है । ”

“ असम्भव है । एक मुहूर्त में अन्धकार घाटी में फैल जाएगा। दुर्भाग्य से तुम्हारा अश्व मर गया है और इस समय अश्व मिलना सम्भव नहीं है, तथा मधुवन यहां से दस कोस पर है, जा नहीं सकते मित्र। पर चिन्ता न करो, आओ, आज रात मेरी कुटिया में विश्राम करो मेरे साथ। ”

“ तुम्हारे साथ ! आज रात ! असम्भव। ”अम्बपाली ने सूखते कण्ठ से कहा और व्याकुल दृष्टि से युवक की ओर देखा ।

युवक ने और निकट आकर कहा- “ असम्भव क्यों मित्र। परन्तु निस्सन्देह तुम बड़े सुकुमार हो , कुटिया तुम्हारे योग्य नहीं , पर कामचलाऊ कुछ आहार और शयन की व्यवस्था हो जाएगी । यहां पर तो अकेले वन में रात व्यतीत करना तुम्हारे – जैसे सुकुमार किशोर के लिए उपयुक्त नहीं, निरापद भी नहीं है। ”

अम्बपाली ने कुछ सोचकर कहा – “ मित्र , तुम क्या यहीं कहीं निकट रहते हो ? ”

“ कुछ दिन से , उस सामने की टेकरी पर, उस कुटिया को देख रहे हो न ? ”

“ देख रहा हूं , पर तुम इस विजन वन में करते क्या हो ?

युवक ने हंसकर कहा – “ चित्र बनाता हूं । यहां का सूर्यास्त उन पर्वतों की उपत्यकाओं में ऐसा मनोरम है कि मैं मोहित हो गया हूं। ”

“ तो तुम चित्रकार हो मित्र ?

“ देख नहीं रहे हो , यह रंग की कूर्चिका और यह चित्रपट ! ”

“ हं , और यह बर्ला ? यह अमोघ हस्तलाघव ? यह अभय पौरुष ? यह सब भी चित्रकला में काम आने की वस्तुएं हैं ? ”

युवक फिर हंस पड़ा। उसने कहा – “ मित्र , केवल कण्ठ -स्वर ही नहीं , बात कहने का और प्रशंसा करने का ढंग भी तुम्हारा स्त्रैण है, कुपित मत होना । इस हिंस्र अगम वन में एकाकी बैठकर चित्र बनाना , बिना इन सब साधनों के तो बन सकता नहीं , परन्तु बातों ही – बातों में सूर्य अस्त हो जाएगा तो तुम्हें कुटी तक पहुंचने में कठिनाई होगी । आओ चलें मित्र , क्या मैं तुम्हें हाथ का सहारा दूं ? कहीं चोट तो नहीं आई है ? ”

“ नहीं- नहीं, धन्यवाद ! मैं चल सकने योग्य हूं , तुम आगे- आगे चलो मित्र ! ”

और कुछ न कहकर अपनी रंग की तूलिका, कूर्च और चित्रपट हाथ में ले तथा बर्खा कन्धे पर डाल आड़ी-टेढ़ी पार्वत्य पगडण्डियों पर वह तरुण निर्भय लम्बे – लम्बे डग भरता चल खड़ा हआ और उसके पीछे अछताती -पछताती देवी अम्बपाली पुरुष- वेश के असह्य भार को ढोती हुईं ।

कुटी तक पहुंचते – पहुंचते सूर्यास्त हो गया । अम्बपाली को इससे बड़ा ढाढ़स हुआ । उनकी कृत्रिम पुरुष – वेश की त्रुटियां उस धूमिल प्रकाश में प्रकट नहीं हुईं , परन्तु इस नितान्त एकान्त निर्जन वन में एकाकी अपरिचित युवक के साथ रात काटना एक ऐसी कठिन समस्या थी जिसने देवी अम्बपाली को बहुत चल -विचलित कर दिया ।

कुटी पर पहुंचकर युवक ने देवी को प्रांगण में एक शिला दिखाकर कहा – “ इस

शिला पर क्षण – भर बैठो मित्र, मैं प्रकाश की व्यवस्था कर दूं। ”

इतना कहकर और बिना ही उत्तर की प्रतीक्षा किए वह कुटी में घुस गया । पत्थर घिसकर उसने आग जलाई । फिर उसने बाहर आकर कहा – “ उस मंजूषा में आवश्यक वस्त्र हैं और उस घड़े में जल है, सामने के ताक पर कुछ सूखा हरिण का मांस और फल रखे हैं , अपनी आवश्यकतानुसार ले लो । संकोच न करना । मैं थोड़ा ईंधन लेकर अभी आता हूं। ”

इतना कहकर कुटी द्वार से एक भारी कुल्हाड़ी उठा कंधे पर रखकर लम्बे – लम्बे डग भरता हुआ वह अन्धकार में विलीन हो गया ।

96 . मंजुघोषा का प्रभाव : वैशाली की नगरवधू

कुटिया में सामग्री बहुत संक्षिप्त थी । परन्तु कुटी में घुसते ही जिस वस्तु पर अम्बपाली की दृष्टि पड़ी , उसे देखते ही वह आश्चर्यचकित हो गईं। वह जड़वत् खड़ी उस वस्तु को देखती रह गईं । वह वस्तु एक महाघ वीणा थी जो चन्दन की चौकी पर रखी थी । वीणा का विस्तार तो अद्भुत था ही , उसका निर्माण भी असाधारण था । वह साधारण मनुष्य के कौशल से बनी प्रतीत नहीं होती थी । उस पर अति अलौकिक हाथीदांत की पच्चीकारी का काम हो रहा था और उसमें जो तुम्बे काम में लाए गए थे उनके विस्तार तथा सुडौलता का वर्णन ही नहीं हो सकता था । देवी अम्बपाली बड़ी देर तक उस वीणा को आंखें फाड़ – फाड़कर देखती रहीं , उन्होंने उसे पहचान लिया था । वह इस बात से बड़ी विस्मित थीं कि इस असाधारण वीणा को लाया कौन ? और इस कुटी के एकान्त स्थान में इस दिव्य वीणा को लेकर रहने तथाच अनायास ही दुर्दान्त सिंह को मार गिराने की शक्तिवाला यह सरल वीर तरुण है कौन ?

एक बार उन्होंने फिर सम्पूर्ण कुटिया में दृष्टि फेंकी, दूसरी ओर पर्णभित्ति पर दो तीन बर्छ, एक विशाल धनुष और दो तूणीर बाणों से सम्पन्न टंगे थे, एक भारी खड्ग भी एक कोने में लटक रहा था । कुटी के बीचोंबीच एक बड़ा – सा शिलाखण्ड था जिस पर एक सिंह की समूची खाल पड़ी थी । उस पर एक आदमी भलीभांति सो सकता था । एक कोने में एक काष्ठ -मंजूषा, दूसरे में मिट्टी की एक कुम्भकारिका जल से भरी रखी थी । यही उस कुटी की सम्पदा थी । यह सब घूमती दृष्टि से देख देवी अम्बपाली उसी अमोघ वीणा को ध्यानपूर्वक देखती ठगी – सी रह गईं। उनके मस्तिष्क में कौशाम्बीपति उदयन का मिलन क्षण चित्रित होने लगा ।

युवक ने वेग से सिर का बोझ एक ओर कुटी के बाहर फेंक दिया । फिर वह भारी भारी पैर रखता हुआ कुटी में आया । पदध्वनि सुन अम्बपाली ने युवक की ओर देखा । युवक ने अचकचाकर कहा

“ अरे , अभी तक तुमने वस्त्र भी नहीं बदले ? न थोड़ा आहार ही किया ? वहां खड़े उस वीणा को क्यों ताक रहे हो मित्र । ”

“ किन्तु यह वीणा तुमने पाई कहां से ? ”अम्बपाली ने खोये- से स्वर में पूछा।

“ तो तुम इसे पहचानते हो मित्र ?

“ निश्चय , यह कौशाम्बी के देव – गन्धर्व- पूजित महाराज उदयन की अमोघ वीणा मंजुघोषा है, जो गन्धर्वराज चित्रसेन ने महाराज को दी थी । ”

“ वही है, पर तुम इसे पहचानते कैसे हो मित्र ? इसका इतिहास तुम्हें कैसे विदित हुआ ? यह तो अतिगुप्त बात है ? ”तरुण ने कुछ आश्चर्य – मुद्रा में कहा ।

“ मैंने इसे बजते हुए देखा है। ”

“ बजते हुए देखा है ? असम्भव ! ”

“ देखा है मित्र ! ”अम्बपाली ने अति गम्भीर स्वर में कहा ।

“ कहां ? ”

“ देवी अम्बपाली के आवास में ? ”

“ देवी अम्बपाली के आवास में ? किसने इसे बजाया था मित्र, तुम स्वप्न देख रहे हो

“ कदाचित् स्वप्न ही हो , नहीं तो यह वीणा इस एकान्त कुटी में ? आश्चर्य! अति आश्चर्य ! ”

“ परन्तु इसे तुमने बजते देखा था ? किसने बजाया था मित्र ?

“ पृथ्वी पर एक ही व्यक्ति तो इसे बजा सकता है। ”

“ महाराज उदयन ? ”

“ हां वही । ”

“ और वे देवी अम्बपाली के आवास में आए थे ? ”

“ गत वसन्त में महाराज ने वीणा बजाई थी और देवी ने अवश नृत्य किया था । ”

“ और तुमने वह नृत्य देखा था मित्र ? देवी अम्बपाली के नृत्य को देखने की सामर्थ्य किसमें है ? उनकी दासियां जो नृत्य करती हैं वही देव – दानव और नरलोक के लिए दुर्लभ है । ”

“ परन्तु मैंने देखा था , इस अमोघ वीणा के प्रभाव से अवश हो देवी ने नृत्य किया था । ”

तरुण कुछ देर एकटक देवी अम्बपाली के मुंह की ओर देखता रहा , फिर बोला

“ तुम सत्य कहते हो मित्र , पर क्या देवी अम्बपाली से तुम्हारा परिचय है ? ”

“ यथेष्ट है। ”

“ यथेष्ट ? तब तुम क्या मुझे उपकृत करोगे ? ”

“ आज के उपकार के बदले में ? ”अम्बपाली ने हंसकर कहा ।

“ नहीं – नहीं मित्र, परन्तु मेरी एक अभिलाषा है। ”

“ क्या उसे मैं जान सकता हूं ? ”

“ गोपनीय क्या है मित्र , मैं चाहता हूं, एक बार देवी अम्बपाली मेरे सम्मुख वही नृत्य करें । ”

“ तुम्हारे सम्मुख ? तुम्हारा साहस तो प्रशंसनीय है मित्र ! ” अम्बपाली वेग से हंस पड़ीं ।

तरुण ने क्रुद्ध होकर कहा – “ इतना क्यों हंसते हो मित्र ?

परन्तु अम्बपाली हंसती ही रहीं; फिर उन्होंने हंसते -हंसते कहा – “ खूब कहा तुमने मित्र , देवी अम्बपाली तुम्हारे सम्मुख नृत्य करेंगी ! क्या तुम जानते हो , देवी का नृत्य देखने के लिए देव – गन्धर्व भी समर्थ नहीं हैं ! ”

तरुण खीझ उठा, उसने कहा – “ जितना तुम हंस सकते हो हंसो मित्र, पर मैं कहे देता हूं, देवी अम्बपाली को मेरे सम्मुख नृत्य करना पड़ेगा । ”

“ और तुम कदाचित् तब यह वीणा उसी प्रकार बजाओगे, जैसे महाराज उदयन ने बजाई थी । ”अम्बपाली ने प्रच्छन्न व्यंग्य करते हुए कहा।

“ निश्चय ! ”तरुण के नेत्रों से एक ज्योति निकलने लगी ।

तरुण के इस संक्षिप्त उत्तर से अम्बपाली विजड़ित हो गईं। उन्हें महाराज उदयन की वह अद्भुत भेंट याद आ गई। उन्होंने धीमे स्वर से कहा –

“ क्या कहा ? तुम इस वीणा को बजाओगे ?

“ निश्चय ! ”तरुण ने कुछ कठोर स्वर से कहा ।

“ क्या तुम इसे तीन ग्रामों में एक ही साथ बजा सकते हो मित्र ? ”

“ निश्चय ! ”तरुण उत्तेजना के मारे खड़ा हो गया ।

अम्बपाली ने कहा – “ किसने तुम्हें यह सामर्थ्य दी , सुनूं तो !

“ स्वयं कौशाम्बीपति महाराज उदयन ने । पृथ्वी पर दो व्यक्ति यह वीणा बजा सकते हैं । ”

“ एक महाराज उदयन, ” अम्बपाली ने तीखे स्वर में पूछा – “ और दूसरे ? ”

“ दूसरा मैं ! ”तरुण ने दर्प से कहा ।

अम्बपाली क्षण – भर जड़ रहकर बोलीं –

“ अस्तु , परन्तु तुम मुझसे क्या सहायता चाहते हो मित्र ? ”

“ अति साधारण , तुम देवी तक मेरा यह अनुरोध पहुंचा दो कि वे यहां मेरी कुटी में आकर एक बार मेरे सम्मुख वही नृत्य करें जो उन्होंने अमोघ गान्धर्वी मंजुघोषा वीणा पर महाराज उदयन के सम्मुख किया था । ”

“ इस कुटी में आकर ! तुम पागल तो नहीं हो गए मित्र! तुम मेरे प्राणत्राता अवश्य हो , पर मैं तुम्हारा अनुरोध नहीं ले जा सकता। देवी अम्बपाली तुम्हारी कुटी में आएंगी भला ! ”

“ और उपाय नहीं हैं मित्र , देवी के उस कुत्सित सर्वजन-सुलभ आवास में तो मैं नहीं जाऊंगा ! ”

अम्बपाली के हृदय के एक कोने में आघात हुआ , परन्तु उन्होंने उस अद्भुत तरुण से कुटिल हास्य भौंहों में छिपाकर कहा

“ तुम्हारा यह कार्य मैं कर दूंगा तो मुझे क्या मिलेगा ? ”

“ जो मांगो मित्र, इस वीणा को छोड़कर । ”

“ वीणा नहीं, केवल वह नृत्य मुझे देख लेने देना ? ”

“ यह न हो सकेगा, मानव- चक्षु उसे देख नहीं सकेंगे। महाराज का यही आदेश है। ”

“ तब मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता। ”

तरुण ने खीझकर कहा –

“ जाने दो मित्र, मैं अपना कोई दूसरा मार्ग ढूंढ़ लूंगा । किन्तु अरे , अभी मुझे भोजन व्यवस्था भी करनी है ; तुम वस्त्र बदलो मित्र , मैं घड़ी भर में आता हूं। ”

तरुण ने बर्छा उठाया और तेज़ी से बाहर चला गया ।

अम्बपाली ने बाधा देकर कहा

“ इस अन्धकार में अब वन में कहां भटकोगे मित्र ? ”

“ वह कुछ नहीं, यह मेरा नित्य व्यापार है। वहां उस कन्दरा में मेरा आखेट है, मैं अभी लाता हूं। ”

तरुण वैसे ही लम्बे – लम्बे डग भरता अन्धकार में खो गया , अम्बपाली उसे ताकती रह गईं ।

97 . एकान्त वन में : वैशाली की नगरवधू

उस एकान्त वन में गर्भ में स्थापित इस निर्जन कुटी में , दीपक के टिमटिमाते प्रकाश में देवी अम्बपाली एकाकिनी उस कुटी के मध्य में स्थापित शिलाखण्ड पर बैठी कुछ देर एकटक उस दिव्य वीणा को देखती रहीं ।

वह गत वर्ष की उस रहस्यपूर्ण भेंट को भूली नहीं थीं , जब कौशाम्बीपति उदयन रहस्यपूर्ण रीति से अम्बपाली के क्रीड़ोद्यान में पहुंचे थे। उनका दिव्य रूप, गम्भीर मुखमुद्रा और अप्रतिम सौकुमार्य देखकर अम्बपाली चित्रखचित – सी रह गई थीं और उनके इंगित पर इस वीणा के प्रभाव से अवश होकर उन्होंने अपार्थिव नृत्य किया था । पहले वह नृत्य के लिए तैयार नहीं थीं , परन्तु जिस समय वह अमोघ वीणा तीन ग्रामों में उस नररत्न ने बजाई , तब उसके हस्तलाघव तथा वीणा की मधुर झंकार से कुछ ही क्षणों में अम्बपाली आत्मविभोर होकर नृत्य करने लगी थीं । वीणा की गति के साथ ही आतर्कित रीति से उनका पद-निपेक्ष भी द्रुत – द्रुततर – द्रुततम होता गया था और अन्त में वह क्षण आया था जब अम्बपाली के रक्त का प्रत्येक बिन्दु वीणा की उस झंकार के साथ उन्मत्त – असंयत हो गया था । उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा था जैसे उनके अंग से ज्वालामुखी का अग्नि – समुद्र फूट पड़ा है । उससे वह तो विदग्ध नहीं हुईं, किन्तु उन्हें ऐसा भास होने लगा था , मानो वह अग्नि समुद्र विश्व को विदग्ध कर रहा है । तब देवी अम्बपाली ने अपने कुसुम – कोमल गात्र को देवविष्ट पाया था । वह मानो स्वयंभू विराट पुरुष की प्रतिमूर्ति बनीं , प्रलय – काल की महासमुद्र में उठी बाड़वाग्नि की ज्वालाओं के बीच प्रलय के ध्वंस से त्रास पाए नरलोक , धुलोक और सात पाताल के परे परमानन्द, तृप्ति और इन्द्रियातीत आनन्द से भरी, केवल चरण के अंगुष्ठ के एक नख – मात्र पर वसुन्धरा का भार स्थिर कर स्वयं अस्थिर भाव से नाच रही हैं और वह दिव्य गन्धर्व- रूप प्रियदर्शी उदयन विद्युत् – गति से उस महाघ वीणा के तारों पर महामेघ गर्जना के नाद से ब्रह्माण्ड को प्रकम्पित कर रहा है। कैसे वह नृत्य समाप्त हुआ था और कैसे महाराज उदयन उस दिव्य वीणा को लेकर अम्बपाली के उद्यान से सहसा अंतर्धान हो गए थे, यह सब आज अम्बपाली के मानस – चक्षुओं में घूम गया । वह बड़ी देर तक भावमग्न- सी जड़ बनी बैठी रहीं; फिर चैतन्य होने पर उन्होंने अपने पुरुष – वस्त्रों के भीतर वक्षस्थल में धारित महाराज उदयन की प्रदत्ता बड़े- बड़े गुलाबी मोतियों की माला को मोह- सहित स्पर्श किया । वह उस अद्भुत आश्चर्यजनक स्वप्न की – सी घटना को कभी स्वप्न में और कभी जाग्रत ही कितनी ही बार मानस – चक्षुओं से देख चुकी हैं । फिर भी वह अब भी उनकी स्मृति से मोह में पड़ जाती हैं । वह इतना ही समझती हैं कि आगन्तुक पुरुष गन्धर्व – अवतार कौशाम्बीपति महाराज उदयन दिव्य पुरुष हैं ।

आज इतने दिन बाद उसी असाधारण वीणा को यहां एकान्त कुटी में देख और यह जानकर कि यह एकान्तवासी युवक, जो भावुक , चित्रकार, सरल , अतिथिसेवी और दुर्धर्ष योद्धा तथा कठिन कर्मठ होने के अपने प्रमाण कुछ ही क्षणों में दे चुका है, वास्तव में इस महामहिमामयी दिव्य वीणा को भी बजा सकता है और कदाचित् उसी कौशल से , जैसे उस दिन महाराज उदयन ने बजाई थी , इसी से वह मेरा नृत्य भी कराना चाहता है, परन्तु उसकी स्पर्धा तो देखनी चाहिए कि वह मेरे आवास में जाने में अपना मान- भंग मानता है , जहां स्वयं प्रियदर्शी महाराज उदयन ने प्रार्थी होकर नृत्य – याचना की थी ।

कौन है यह लौह पुरुष ? कौन है यह साधारण और असाधारण का मिश्रण , कौन है यह अति सुन्दर, अति भव्य , अति – मधुर , अति कठोर ? यह पौरुष की अक्षुण्ण मूर्ति ! जीवन , प्रगति और विकास का महापुञ्ज ! कैसे वह उनकी अन्तरात्मा में बलात् प्रविष्ट होता जा रहा है ।

अम्बपाली की दृष्टि उसी वीणा पर थी , उन्हें हठात् उस वीणा के मध्य- से एक मुख प्रकट होता – सा प्रतीत हुआ, यह उसी युवक का मुख था । कैसा प्रफुल्ल गौर , कैसा प्रिय , अम्बपाली ने कुछ ऐसी अनुभूति की , जो अब तक उन्हें नहीं हुई थी । अपने हृदय की धड़कन वह स्वयं सनने लगीं । उनका रक्त जैसे तप्त सीसे की भांति खौलने और नसों में घूमने लगा । उनके नेत्रों के सम्मुख शत – सहस्र -लक्ष – कोटि रूपों से वही मुख पृथ्वी, आकाश और वायुमण्डल में व्याप्त हो गया । उस मुख से वज्र – ध्वनि में सहस्र – सहस्र बार ध्वनित होने लगा – “ नाचो अम्बपाली , नाचो, वही नृत्य , वही नृत्य !

और अम्बपाली को अनुभव हुआ है कि कोई दुर्धर्ष विद्युत्धारा उनके कोमल गात में प्रविष्ट हो गई है । वह असंयत होकर उठीं । कब उनके कमनीय कुन्तलों से कृत्रिम पुरुष- वेष लोप हो गया , उन्हें भान नहीं रहा । उन्हें प्रतीत हुआ मानो वही प्रिय युवक उस चौकी पर बैठकर वैसे ही कोशल से वीणा पर तीन ग्रामों से अपना हस्तलाघव प्रकट कर रहा है, उसकी झंकार स्पष्ट उनके कानों में विद्युत्- प्रवाह के साथ प्रविष्ट होने लगी और असंयत , असावधान अवस्था में उनके चरण थिरकने लगे। आप – ही – आप उनकी गति बढ़ने लगी और वह आत्मविस्मृत होकर वही अपार्थिव नृत्य करने लगीं ।

98. अपार्थिव नृत्य : वैशाली की नगरवधू

युवक ने समूचा भुना हुआ हरिण कंधे पर लादकर ज्योंही कुटी में प्रवेश किया , वह वहां का दृश्य देखकर आश्चर्यचकित जड़वत् रह गया । उसने देखा – पारिजात – कुसुम – गुच्छ की भांति शोभाधारिणी एक अनिंद्य सुन्दरी दिव्यांगना कुटी में आत्म -विभोर होकर असाधारण नृत्य कर रही है ।

उसके सुचिक्कण, घने पादचुम्बी केश- कुन्तल मृदु पवन में मोहक रूप में फैल रहे हैं । स्वर्ण -मृणाल – सी कोमल भुज – लताएं सर्पिणी की भांति वायु में लहरा रही हैं । कोमल कदली -स्तम्भ – सी जंघाएं व्यवस्थित रूप में गतिमान होकर पीन नितम्बों पर आघात – सा कर कटि-प्रदेश को ऐसी हिलोर दे रही हैं जैसे समुद्र में ज्वार आया हो । कुन्दकली – सा धवल गात , चन्द्रकिरण – सी उज्ज्वल छवि और मुक्त नक्षत्र – सा दीप्तिमान् मुखमण्डल – सब कुछ अलौकिक था । क्षण- भर में ही युवक विवश हो गया । उसने आखेट एक ओर फेंककर वीणा की ओर पद बढ़ाया । अम्बपाली के पदक्षेप के साथ वीणा आप ही ध्वनित हो रही थी । युवक ने वीणा उठा ली , उस पर उंगली का आघात किया , नृत्य मुखरित हो उठा ।

अब तो जैसे ज्वालामुखी ने ज्वलित , द्रवित सत्त्व भूगर्भ से पृथ्वी पर उंडेलने प्रारम्भ कर दिए हों , जैसे भूचाल आ गया हो , पृथ्वी डगमग करने लगी हो । वीणा की झंकृति पर क्षण- भर के लिए देवी अम्बपाली सावधान होतीं और फिर भाव- समुद्र में डूब जातीं ।

उसी प्रकार देवी सम पर ज्योंही पदक्षेप करतीं और निमिषमात्र को युवक की अंगली सम पर आकर तार पर विराम लेती , तो वह निमिष – भर को होश में आ जाता । धीरे – धीरे दोनों ही बाह्यज्ञान – शून्य हो गए। सुदूर नील गगन में टिमटिमाते नक्षत्रों की साक्षी में , उस गहन वन के एकान्त कक्ष में ये दोनों ही कलाकार पृथ्वी पर दिव्य कला को मूर्तिमती करते रहे- करते ही रहे । उनके पार्थिव शरीर जैसे उनसे पृथक् हो गए। उनका पार्थिव ज्ञान लोप हो गया , जैसे वे दोनों कलाकार पृथ्वी के प्रलय हो जाने के बाद समुद्रों के भस्म हो जाने पर , सचराचर वसुन्धरा के शेष – लीन हो जाने पर , वायु की लहरों पर तैरते हुए , ऊपर आकाश में उठते चले गए हों और वहां पहुंच गए हों जहां भूः नहीं, भुवः नहीं , स्वः नहीं , पृथ्वी नहीं, आकाश नहीं, सृष्टि नहीं , सृष्टि का बन्धन नहीं , जन्म नहीं , मरण नहीं, एक नहीं , अनेक नहीं , कुछ नहीं , कुछ नहीं!

99 . पीड़ानन्द : वैशाली की नगरवधू

जब देवी अम्बपाली की संज्ञा लौटी , तब कुछ देर तक तो वह यही न जान सकीं कि वह कहां हैं । दिन निकल आया था – कुटी में प्रकाशरेख के साथ प्रभात की सुनहरी धूप छनकर आ रही थी । सावधान होने पर अम्बपाली ने देखा कि वह भूमि पर अस्त -व्यस्त पड़ी हैं । वह उठ बैठी, कुटी में कोई नहीं था । उन्होंने पूर्व दिशा की एक खिड़की खोल दी । सुदूर पर्वतों की चोटियां धूप में चमक रही थीं , वन पक्षियों के कलरव से मुखरित हो रहा था , धीरे- धीरे उन्हें रात की सब बातें याद आने लगीं । वीणा वैसी ही सावधानी से उसी चन्दन की चौकी पर रखी थी । तब क्या रात उसने स्वप्न देखा था ? या सचमुच ही उसने नृत्य किया था ! उसे स्मरण हो आया, एक गहरी स्मृति की संस्कृति उदय हो रही थी । वही युवक आत्मलीन होकर वीणा बजा रहा था । क्या सचमुच पृथ्वी पर महाराज उदयन को छोड़ दूसरा भी एक व्यक्ति वैसी ही वीणा बजा सकता है ? तब कौन है यह युवक ? क्या यह संसार -त्यागी,निरीह व्यक्ति कोई दैवशाप – ग्रस्त देवता है, अथवा कोई गन्धर्व, यक्ष , असुर या कोई लोकोत्तर सत्त्व मानव – रूप धर इस वन में विचरण कर रहा है !

देवी अम्बपाली अति व्यग्र होकर उसी युवक का चिन्तन करने लगीं । क्या उन्होंने सम्पूर्ण रात्रि अकेले ही उस कुटी में उसी के साथ व्यतीत की है ? तो अब वह इस समय कहां है ? कहां है वह ?

अम्बपाली एक ही क्षण में उस कुटी में उस युवक के अभाव को इतना अधिक अनुभव करने लगीं जैसे समस्त विश्व में ही कुछ अभाव रह गया हो । उनकी इच्छा हुई कि पुकारें – कहां हो , कहां हो तुम , अरे ओ, अरे ओ कुसुम – कोमल , वज्र – कठिन , तुमने कैसे मुझे आक्रान्त कर लिया ?….. देवी अम्बपाली विचारने लगीं, आज तक कभी भी तो ऐसा नहीं हुआ था , किसी पुरुष को देखकर , स्मरण करके जैसा आज हो रहा है । पुरुष – जाति -मात्र मेरी शत्रु है, मैं उससे बदला लूंगी । उसने मेरे सतीत्व का बलात् हरण किया है । जब से मैंने दुर्लभ सप्तभूमि प्रासाद में पदार्पण किया है, कितने सामन्त , सेट्टिपुत्र , सम्राट और राजपुत्र सम्पदा और सौन्दर्य लेकर मेरे चरणों से टकराकर खण्ड – खण्ड हो गए । क्या अम्बपाली ने कभी किसी को पुरुष समझा ? वे सब निरीह प्राणी अम्बपाली की करुणा और विराग के ही पात्र बनें । अचल हिमगिरि शंग की भांति अम्बपाली का सतीत्व अचल रहा , डिगा नहीं , हिला नहीं , विचलित हआ नहीं , वह वैसा ही अस्पर्श- अखण्ड बना रहा ……यह सोचते सोचते अम्बपाली गर्व में तनकर खड़ी हो गईं, फिर उनकी दृष्टि उस वीणा पर गई । वह सोचने लगीं -किन्तु अब यह अकस्मात् ही क्या हो गया ? वह अचल हिमगिरि – शृंग – सम गर्वीली अम्बपाली का अजेय सतीत्व आज विगलित होकर उस मानव के चरण पर लोट रहा है ? उन्होंने आर्तनाद करके कहा – “ अरे मैं आक्रान्त हो गई, मैं असम्पूर्ण हो गई , मैं निरीह नारी कैसे इस दर्पमूर्ति पौरुष के बिना रह सकती हूं ? परन्तु वह मुझे आक्रान्त करके छिप कहां गया ? उसने केवल मेरी आत्मा ही को आक्रान्त किया , शरीर को क्यों नहीं ? यह शरीर जला जा रहा है , इसमें आबद्ध आत्मा छटपटा रही है, इस शरीर के रक्त की एक – एक बूंद ‘प्यास-प्यास चिल्ला रही है, इस शरीर की नारी अकेली रुदन कर रही है। अरे ओ , आओ, तुम , इसे अकेली न छोड़ो ! अरे ओ पौरुष , ओ निर्मम , कहां हो तुम ; इसे आक्रान्त करो , इसे विजय करो; इसे अपने में लीन करो। अब एक क्षण भी नहीं रहा जाता । यह देह , यह अधम नारी- देह, नारीत्व की समस्त सम्पदा- सहित इस निर्जन वन में अकेली अरक्षित पड़ी है, अपने अदम्य पौरुष से अपने में आत्मसात् कर लो तुम , जिससे यह अपना आपा खो दे; कुछ शेष न रहे। ”

अम्बपाली ने दोनों हाथों से कसकर अपनी छाती दबा ली । उनकी आंखों से आग की ज्वाला निकलने लगी, लुहार की धौंकनी की भांति उनका वक्षस्थल ऊपर -नीचे उठने बैठने लगा । उसका समस्त शरीर पसीने के रुपहले बिन्दुओं से भर गया । उसने चीत्कार करके कहा – “ अरे ओ निर्मम , कहां चले गए तुम , आओ, गर्विणी अम्बपाली का समस्त दर्प मर चुका है , वह तुम्हारी भिखारिणी है, तुम्हारे पौरुष की भिखारिणी। ”उसने उन्मादग्रस्त – सी होकर दोनों हाथ फैला दिए ।

युवक ने कुटी -द्वार खोलकर प्रवेश किया । देखा , कुटी के मध्य भाग में देवी अम्बपाली उन्मत्त भाव से खड़ी है, बाल बिखरे हैं , चेहरा हिम के समान श्वेत हो रहा है , अंग – प्रत्यंग कांप रहे हैं ।

उसने आगे बढ़कर अम्बपाली को अपने आलिंगन -पाश में बांध लिया , और अपने जलते हुए होंठ उसके होंठों पर रख दिए , उसके उछलते हुए वक्ष को अपनी पसलियों में दबोच लिया , सुख के अतिरेक से अम्बपाली संज्ञाहीन हो गईं, उनके उन्मत्त नेत्र मुंद गए, अमल – धवल दन्तपंक्ति से अस्फुट सीत्कार निकलने लगा , मस्तक और नासिका पर स्वेद बिन्दु हीरे की भांति जड़ गए । युवक ने कुटी के मध्य भाग में स्थित शिला – खण्ड के सहारे अपनी गोद में अम्बपाली को लिटाकर उसके अनगिनत चुम्बन ले डाले – होठ पर, ललाट पर, नेत्रों पर , गण्डस्थल पर , भौहों पर, चिबुक पर। उसकी तृष्णा शान्त नहीं हुई । अग्निशिखा की भांति उसके प्रेमदग्ध होंठ उस भाव-विभोर युवक की प्रेम-पिपासा को शतसहस्र गुणा बढ़ाते चले गए।

धीरे – धीरे अम्बपाली ने नेत्र खोले । युवक ने संयत होकर उनका सिर शिला – खण्ड पर रख दिया । अम्बपाली सावधान होकर बैठ गईं, दोनों ही लज्ज़ा के सरोवर में डूब गए और उनकी आंखों के भीगे हुए पलक जैसे आनन्द -जल के भार को सहन न कर नीचे की ओर झुकते ही चले गए। युवक ही ने मौन भंग किया । उसने कहा – “ देवी अम्बपाली, मुझे क्षमा करना , मैं संयत न रह सका। ”

अम्बपाली प्यासी आंखों से उसे देखती रहीं । उसके बाद सूखे होठों में हंसी भरकर उन्होंने कहा – “ अन्ततः तुमने मुझे जान लिया प्रिय ! ”

“ कल जिस क्षण मैंने आपको नृत्य करते देखा था , तभी जान गया था देवी ! ”

“ वह नृत्य तुम्हें भाया ? ”

“ नरलोक में न तो कोई वैसा नृत्य कर सकता है और न देख ही सकता है देवी ! ”

“ और वह वीणा -वादन ? ”

“ कुछ बन पड़ता है, पर अभी अधिकारपूर्ण नहीं । मैं तुम्हारे साथ बजा सकुंगा इसकी आशा न थी , पर तुम्हारे नृत्य ने ही सहायता दी । ”

“ ऐसा तो महाराज उदयन भी नहीं बजा सकते प्रिय ! ”देवी ने मुस्कराकर कहा । युवक हंस दिया , कुछ देर तक दोनों चुप रहे । दोनों के हृदय आन्दोलित हो रहे थे । युवक पर अम्बपाली का परिचय एवं नाम प्रकट हो गया था , पर अम्बपाली अभी तक उस पुरुष से नितान्त अनभिज्ञ थीं , जिसने उनका दुर्जय हृदय जीत लिया था । किन्तु वह पूछने का साहस नहीं कर सकती थीं । कुछ सोच -विचार के बाद उन्होंने कहा – “ इसके बाद ?

युवक ने यन्त्र – चालित – सा होकर कहा – “ अब इसके बाद ? ”

“ मुझे अपने आवास में जाना होगा प्रिय , परन्तु मैं तुम्हारा कुल – गोत्र एवं तुम्हारे नाम से भी परिचित नहीं, अपना परिचय देकर बाधित करो। ”

“ मुझे तुम ‘ सुभद्र के नाम से स्मरण रख सकती हो । ”

“ अभी ऐसा ही सही, तो प्रिय , सुभद्र, अब मुझे जाना होगा । ”

“ अभी नहीं देवी अम्बपाली !

अम्बपाली ने प्रश्नसूचक ढंग से युवक की ओर देखा ।

युवक ने कहा – “ तुम्हें फिर नृत्य करना होगा । ”

“ नृत्य ? ”

“ हां , और उसमें कठिनाई यह होगी कि मैं वीणा न बजा सकूँगा। ”

“ परन्तु…. ”

“ मैं तुम्हारी नृत्य – छवि का चित्र खींचूंगा । ”

“ परन्तु अब नृत्य नहीं होगा । ”

“ निस्सन्देह इस बार नृत्य होगा तो प्रलय हो जाएगी , परन्तु नृत्य का अभिनय होगा। ”

“ अभिनय ? ”

“ हां , वह भी अनेक बार। ”

“ अनेक बार ! ”

“ मुझे प्रत्येक भाव-विभाव को चित्र में अंकित करना होगा देवी ! ”

“ और मेरा आवास में जाना ? ”

“ तब तक स्थगित रहेगा। ”

“ किन्त… “ अम्बपाली चुप रहीं ।

युवक ने कहा – “ किन्तु क्या देवी ? ”

“ यहां क्यों ? तुम आवास में आकर चित्र उतारो। ”

“ तुम्हारे आवास में ! जो सार्वजनिक है! जो तुम्हें तुम्हारे शुल्क में दिया गया है! देवी अम्बपाली, मैं लिच्छवि गणतन्त्र का विषय नहीं हूं । मैं इस धिक्कृत कानून को सहन नहीं कर सकता , जिसके आधार पर तुम्हारी अप्रतिम प्रतिमा बलात् सार्वजनिक कर दी गई । ”

“ तो वह तुम्हारी दृष्टि में एक व्यक्ति की वासना की सामग्री होनी चाहिए थी ? ”

“ क्यों नहीं, और वह एक व्यक्ति तुम्हीं स्वयं , और कोई नहीं ।

“ यह तो बड़ी अद्भुत बात तुमने कही भद्र, किन्तु मैं अपनी ही वासना की सामग्री कैसे ? ”

“ सभी तो ऐसे हैं देवी! व्याकरण का जो उत्तम पुरुष है, वही पृथ्वी की सबसे बड़ी इकाई है और वही अपनी वासना का भोक्ता है। उसकी वासना ही अपनी स्पर्धा के लिए , व्याकरण का मध्यम पुरुष नियत करती है । ”

अम्बपाली चुपचाप सुनती रहीं। युवक ने फिर कहा – “ इसी से तो जब तुम्हारी वासना का भोग , तुम्हारा वह अलौकिक व्यक्तित्व बलात् सार्वजनिक कर दिया गया , तब तुम कितनी क्षुब्ध हो गई थीं ! ”

अम्बपाली इस असाधारण तर्क से अप्रतिभ हो गईं । वह सोच रही थीं , पृथ्वी पर एक ऐसा व्यक्ति अन्ततः है तो , जिसके तलवों में मेरे आवास पर आते छाले पड़ते हैं , जो मुझे सार्वजनिक स्त्री के रूप में नहीं देख सकता । आह, मैं ऐसे पुरुष को हृदय देकर कृतकृत्य हुई , शरीर भी देती तो शरीर धन्य हो जाता। परन्तु इसे तो मैं बेच चुकी मुंह- मांगे मूल्य पर, हाय रे वेश्या जीवन ! ”

युवक ने कहा – “ क्या सोच रही हो देवी ? ”

“ यही कि जिसने प्राणों की रक्षा की उसका अनुरोध टाला कैसे जा सकता है ? ”

सुभद्र ने मुस्कराकर रंग की प्यालियों को ठीक किया और कूची हाथ में लेकर चित्रपट को तैयार करने लगा । कुछ ही क्षणों में दोनों कलाकार अपनी – अपनी कलाओं में डूब गए । चित्रकार जैसी – जैसी भाव -भंगी का संकेत अम्बपाली को करता , अम्बपाली यन्त्रचालिता के समान उसका पालन करती जाती थी । देखते – ही – देखते चित्रपट पर दिव्य लोकोत्तर भंगिमा – युक्त नृत्य की छवि अंकित होती गई । दोपहर हो गई, दोनों कलाकार थककर चूर – चूर हो गए। श्रमबिन्दु उनके चेहरों पर छा गए। हंसकर अम्बपाली ने कहा

“ अब नहीं, अब पेट में आंतें नृत्य कर रही हैं ; उतारोगे तुम इनकी छवि प्रिय ? ”

युवक सरल भाव से हंस पड़ा । उसने हाथ की कूची एक ओर डाल दी और अम्बपाली के पाश्र्व में शिला – खण्ड पर आ बैठा । अम्बपाली के शरीर में सिहरन दौड़ गई ।

युवक ने कहा – “ देवी अम्बपाली! कभी हम इन दुर्लभ क्षणों के मूल्य का भी अंकन करेंगे ? ”

“ उसके लिए तो जीवन की अगणित सांसें हैं । किन्तु तुम भी करोगे प्रिय ? ”

“ ओह, तुमने मेरी शक्ति देखी तो ? ”

“ देखी है । उस समय एक ही वार में अनायास ही सिंह को मार डालने में और इसके बाद उससे भी कम प्रयास से अधम अम्बपाली को आक्रान्त कर डालने में । अब और भी कुछ शक्ति -प्रदर्शन करोगे ? ”

“ इन दुर्लभ क्षणों के मूल्य का अंकन करने में देवी अम्बपाली, आपकी अभी बखानी हई मेरी सम्पूर्ण शक्ति भी समर्थ नहीं होगी। ”

वह हठात् मौन हो गया । अम्बपाली पीपल के पत्ते के समान कांपने लगीं । युवक का शरीर उनके वस्त्रों से छू रहा था । मध्याह्न का सुखद पवन धीरे – धीरे कुटिया में तैर रहा था , उसी से आन्दोलित होकर अम्बपाली की दो – एक अलकावलियां उनके पूर्ण चन्द्र के समान ललाट पर क्रीड़ा कर रही थीं । युवक ने अम्बपाली का हाथ अपने दोनों हाथों में लेकर कहा – “ देवी अम्बपाली , यदि मैं यह कहूं कि मैं तुम्हें प्यार करता हूं तो यह वास्तव में बहुत कम है ; मैं जो कुछ भी वाणी से कहूं अथवा अंग – परिचालन से प्रकट करूं वह सभी कम हैं , बहुत ही कम । फिर भी मैं एक बात कहूंगा देवी , अब और फिर भी सदैव याद रखना कि मैं तुम्हारा उपासक हूं , तुम्हारे अंग -प्रत्यंग का , रूप -यौवन का , तुम्हारी गर्वीली दृष्टि का , संस्कृत आत्मा का । तुम सप्तभूमि प्रासाद में विश्व की सम्पदाओं को चरण -तल से रूंधते हुए सम्राटों और कोट्याधिपतियों के द्वारा मणिमुक्ता के ढेरों के बीच में बैठी हुई जब भी अपने इस अकिंचन उपासक का ध्यान करोगी – इसे अप्रतिम ही पाओगी । ”

युवक जड़वत् अम्बपाली के चरणतल में खिसककर गिर गया । अम्बपाली भी अर्ध सुप्त – सी उसके ऊपर झुक गई । वह पीली पड़ गई थीं , उनका हृदय धड़क रहा था । बड़ी देर बाद उसके वक्षस्थल पर अपना सिर रखे हुए अम्बपाली ने धीरे से कहा – “ तुमने अच्छा नहीं किया भद्र, मेरा सर्वस्व हरण कर लिया , अब मैं जीऊंगी कैसे यह तो कहो ? ”उन्होंने युवक के प्रशस्त वक्ष में अपना मुंह छिपा लिया और सिसक -सिसककर बालिका की भांति रोने लगीं । फिर एकाएक उन्होंने सिर उठाकर कहा

“ मैं नहीं जानती तुम कौन हो , मुनष्य हो कि देव , गन्धर्व, किन्नर या कोई मायावी दैत्य हो , मुझे तुमने समाप्त कर दिया है भद्र ! चलो , विश्व के उस अतल तल पर , जहां हम कल नृत्य करते – करते पहुंच गए थे, वहां हम – तुम एक – दूसरे में अपने को खोकर अखण्ड इकाई की भांति रहें । ”

“ सो तो रहने ही लगे प्रियतमे , कल उस मुद्रावस्था में जहां पहुंचकर हम लोग एक हो गए हैं , वहां अखण्ड इकाई के रूप में हम यावच्चन्द्र दिवाकर रहेंगे। अब यह हमारा तुम्हारा पार्थिव शरीर कहीं भी रहकर अपने भोग भोगे , इससे क्या ! और यदि हम इसकी वासना ही के पीछे दौड़ें तो प्रिये, प्रियतमे , मैं अधम अपरिचित तो कुछ नहीं हूं, पर तुम्हारा सारा वैयक्तिक महत्त्व नष्ट हो जाएगा । ”

वह धीरे से उठा , अपने वक्ष पर जड़वत् पड़ी अम्बपाली को कोमल सहारा देकर उसका मुख ऊंचाकिया ।

एक मृद्- मधुर चुम्बन उसके अधरों पर और नेत्रों पर अंकित किया और कहा – “ कातर मत हो प्रिये प्राणाधिके , तुम – सी बाला पृथ्वी पर कदाचित् ही कोई हुई होगी, मैं तुम्हें अनुमति देता हूं – अपनी विजयिनी भावनाओं को विश्व की सम्पदा के चूड़पर्यन्त ले जाना , मेरी शुभकामना तुम्हारे साथ रहेगी प्रिये ! ”

अम्बपाली के मुंह से शब्द नहीं निकला ।

आहार करके सुभद्र ने कुछ समय के लिए कुटी से बाहर जाने की अनुमति लेकर कहा

“ मैं सूर्यास्त से प्रथम ही आ जाऊंगा प्रिये, तुम थोड़ा विश्राम कर लेना । तब तक यहां कोई भय नहीं है।

और सूर्यास्त के समय सन्ध्या के अस्तंगत लाल प्रकाश के नीचे गहरी श्यामच्छटा शोभा को निरखते हुए, वे दोनों असाधारण प्रेमी कुटी-द्वार पर स्थित शिलाखण्ड पर बैठे अपनी – अपनी आत्मा को विभोर कर रहे थे।

100 . अभिन्न हृदय : वैशाली की नगरवधू

उसी शिलाखण्ड पर गहन – तिमिराच्छन्न नीलाकाश में हीरे की भांति चमकते हुए तारों की परछाईं में दोनों प्रेमी हृदय एक – दूसरे को आप्यायित कर रहे थे। युवक शिला का ढासना लगाए बैठा था और अम्बपाली उसकी गोद में सिर रखकर लेटी हुई थी ।

अम्बपाली ने कहा – “ प्रिय , क्या भोग ही प्रेम का पुरस्कार नहीं है ? ”

“ नहीं प्रिये, भोग तो वासना का यत्किंचित् प्रतिकार है। ”

“ और वासना ? क्या वासना प्रेम का पुष्प नहीं ? ”

“ नहीं प्रिये , वासना क्षुद्र इन्द्रियों का नगण्य विकार है। ”

“ परन्तु प्रिय , इस वासना और भोग ने तो विश्व की सम्पदाओं को भी जीत लिया है। ”

“ विश्व की सम्पदाएं भी तो प्रिये, भोग का ही भोग हैं । ”

“ जब विश्व की सम्पदाएं भोग और वासनाओं को अर्पण कर दी गईं, तब प्रेम के लिए क्या रह गया ? ”

“ आनन्द ! ”

“ कौन- सा आनन्द प्रिय ? ”

“ जो इन्द्रिय के भोगों से पृथक् और मन की वासना से दूर है; जिसमें आकांक्षा भी नहीं, उसकी पूर्ति का प्रयास भी नहीं और पूर्ति होने पर विरक्ति भी नहीं, जैसी कि भोगों में और वासना में है। ”

“ परन्तु प्रिय , शरीर में तो वासना – ही – वासना है और भोग ही उसे सार्थक करते हैं

“ इसी से तो प्रेम के शैशव ही में शरीर भोगों में व्यय हो जाता है, प्रेम का स्वाद उसे मिल कहां पाता है ? प्रेम को विकसित होने को समय ही कहां मिलता है ! ”

“ तब तो …. ”

“ हां – हां प्रिये , यह मानव का परम दुर्भाग्य है, क्योंकि प्रेम तो विश्व – प्राणियों में उसे ही प्राप्त है , भोग और वासना तो पशु – पक्षियों में भी है पर मनुष्य पशु-भाव से तनिक भी तो आगे नहीं बढ़ पाता है। ”

“ तब तो प्रिय , यौवन और सौन्दर्य कुछ रहे ही नहीं। ”

“ क्यों नहीं , मनुष्य का हृदय तो कला का उद्गम है। यौवन और सौंदर्य – ये दो ही तो कला के मूलाधार हैं । विश्व की सारी ही कलाएं इसी में से उद्भासित हुई हैं प्रिये ; इसी से , यदि कोई यथार्थ पौरुषवान् पुरुष हो और यौवन और सौन्दर्य को वासना और भोगों की लपटों में झुलसने से बचा सके , तो उसे प्रेम का रस चखने को मिल सकता है । प्रिये, देवी अम्बपाली , वह रस अमोघ है । वह आनन्द का स्रोत है, वर्णनातीत है। उसमें आकांक्षा नहीं , वैसे ही तप्ति भी नहीं, इसी प्रकार विरक्ति भी नहीं। वह तो जैसे जीवन है, अनन्त प्रवाहयुक्त शाश्वत जीवन , अतिमधुर , अतिरम्य , अतिमनोरम ! जो कोई उसे पा लेता है उसका जीवन धन्य हो जाता है। ”

अम्बपाली ने दोनों मृणाल – भुज युवक के कण्ठ में डालकर कहा – “ प्रियतम, मैंने उसे पा लिया। ”

“ तो तुम निहाल हो गईं प्रिये, प्राणाधिके ! ”

“ मैं निहाल हो गई, निहाल हो गई , अपना सुख, अपना आनन्द मैं कैसे तुम्हें बताऊं ? ”उन्होंने आनन्द-विह्वल होकर कहा ।

“ आवश्यकता नहीं प्रिये ! प्रेम की अथाह धारा में प्रेम की मन्दाकिनी मिल गई है , तुम्हारे अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति मैं अपने रक्त – प्रवाह में कर रहा हूं। ”

युवक ने धीरे से नीचे झुककर अम्बपाली के प्रफुल्ल होंठों का चुम्बन लिया । अम्बपाली ने भी चुम्बन का प्रत्युत्तर देकर युवक के वक्षस्थल में अपना मुंह छिपा लिया ।

कुछ देर बाद युवक ने कहा

“ मौन कैसे हो गई प्रिये ? ”

“ कुछ कहने को तो रहा ही नहीं अब। ”

“ सब – कुछ जान गईं ? ”

“ सब- कुछ! ”

“ सब- कुछ समझ गईं ? ”

“ सब – कुछ। ”

“ तुम धन्य हुईं प्रिये , तुम अमर हो गईं!

युवक ने धीरे से अम्बपाली को अपने बाहपाश से मुक्त करके कहा

“ तो अब विदा प्रिये, कल के सुप्रभात तक । ”

अम्बपाली का मुख सूख गया । उसने कहा

“ तुम कहां सोओगे ? ”

“ सामने अनेक गुफाएं हैं, किसी एक में । ”

“ किन्तु …. ”

“ किन्तु नहीं प्रिये ! ”युवक ने हंसकर एक बार अम्बपाली के होंठों पर और एक चुम्बन अंकित किया और भारी बर्छा कंधे पर रख, कंधे का वस्त्र ठीक कर , अंधकार में विलीन हो गया ।

अम्बपाली, देवी अम्बपाली उस भूमि पर जहां अभी -अभी युवक के चरण पड़े थे, अपना वक्ष रगड़ -रगड़कर आनन्द – विह्वल हो आंसुओं की गंगा बहाने लगीं ।

101. विदा : वैशाली की नगरवधू

सात दिन के अनवरत प्रयत्न से चित्र बनकर तैयार हो गया । इसके लिए अम्बपाली को प्रत्येक भाव -विभाव के लिए अनेक बार नृत्य करना पड़ा। जो चित्र सम्पूर्ण हुआ वह साधारण चित्र न था , वह मूर्तिमती कला थी । देवी अम्बपाली की अलौकिक शरीर – छटा और कला का विस्तार ही उस चित्र में न था , उसमें अम्बपाली की असाधारण संस्कृत आत्मा तक प्रतिबिम्बित थी । वह चित्र वास्तव में सम्पूर्ण रीति पर आंखों से नहीं देखा जा सकता था । उसे देखने के लिए दिव्य भावुकता की आवश्यकता थी । चित्र को देखकर अम्बपाली स्वयं भी चित्रवत् हो गईं ।

चित्र की समाप्ति पर सान्ध्य भोजन के उपरान्त जब युवक गुफा में शयन के लिए जाने लगा , तब उसने कहा

“ प्रियतमे , आज इस कुटी में तुम्हारी अन्तिम रात्रि है, कल भोर ही में हम नगर को चलेंगे। मैं अश्व लेता आऊंगा प्रिये ! तनिक जल्दी तैयार हो जाना । मैं सूर्योदय से प्रथम ही तुम्हें नगर – पौर पर छोड़कर लौट आना चाहता हूं । दिन के प्रकाश में मैं नगर में जाना नहीं चाहता । ”

कल उसे इस कुटिया से चला जाना होगा, यह सुनकर अम्बपाली का हृदय वेग से धड़क उठा; वह कहना चाहती थी – कल क्यों प्रिय , मुझे अभी और यहीं रहने दो , सदैव रहने दो , पर वह कह न सकीं । उनकी वाणी जड़ हो गई ।

युवक ने कहा – “ कुछ कहना है प्रिये ? ”

“ बहुत कुछ, परन्तु कहूं कैसे ? ”

“ कहो प्रिय , कहो ! ”

“ तुम छद्मवेशी गूढ पुरुष हो , मुझे अपने निकट ले आओ, प्रिय मुझे परिचय दो। ” युवक ने सूखी हंसी हंसकर कहा

“ इतना होने पर भी परिचय की आवश्यकता रह गई प्रिये ? मैं तुम्हारा हूं यह तो जान ही गईं; और जो ज्ञेय होगा, यथासमय जानोगी; उसके लिए व्याकुलता क्यों ? ”

कुछ देर चुप रहकर अम्बपाली ने कहा

“ तुमने कहां से यह अगाध ज्ञान – गरिमा प्राप्त की है भद्र, और यह सामर्थ्य ? ”

“ ओह, मैं तक्षशिला का स्नातक हूं प्रिये , तिस पर अंग -बंग , कलिंग, चम्पा , ताम्रपर्णी और सम्पूर्ण जम्बूद्वीपस्थ पूर्वीय उपद्वीपों में मैं भ्रमण कर चुका हूं और मेरा यह शरीर – सम्पत्ति पैतृक है । ”

क्षण – भर स्तब्ध खड़ी रहकर अम्बपाली युवक के चरणों में झुक गईं , उन्होंने कहा

“ भद्र , अम्बपाली तुम्हारी अनुगत शिष्या है। ”

“ और गुरु भी ! ”युवक ने अम्बपाली को हृदय से लगाकर कहा ।

“ गुरु कैसे ? ”

“ फिर जानोगी प्रिये, अभी विदा, सुप्रभात के लिए। ”

“ विदा प्रिय ! ”

“ युवक अन्धकार में खो गया और देवी अम्बपाली अपने – आप में ही खो गईं ।

वह रात- भर भूमि पर लेटी रहीं , युवक की पद- धूलि को हृदय से लगाए ।

एक दण्ड रात रहे, युवक ने कुटी – द्वार पर आघात किया ।

“ तैयार हो प्रिये ! ”

“ हां भद्र ! ”

युवक भीतर आ गया ।

“ क्या रात को सोईं नहीं प्रियतमे ? ”

“ सोना -जागना एक ही हुआ प्रिय ! ”

युवक कुछ देर चुप रहा । फिर एक गहरी सांस छोड़कर उसने कहा – “ अश्व बाहर है । क्या कुछ समय लगेगा ? ”

“ नहीं , चलो ! ”

युवक ने वह चित्र और वीणा उठा ली । उसने सिंह की खाल आगे रखकर कहा

“ यह उसी सिंह की खाल है । कहो तो इसे तुम्हारी स्मृति में रख लूं ? ”

“ वह तुम्हारी ही है प्रिय । इस अधम शरीर की खाल , हाड़ , मांस , आत्मा , भी । ” अम्बपाली की आंखों से मोती बिखरने लगे ।

दोनों धीरे -धीरे कुटी से बाहर हुए। अम्बपाली के जैसे प्राण निकलने लगे। नीचे आकर देखा – एक ही अश्व है ।

“ एक अश्व क्यों ? ”

“ तुम्हारे लिए। ”

“ और तुम ? ”

“ मैं तुम्हारा अनुचर पदातिक। ”

“ परन्तु पदातिक क्यों ? ”

“ तुम्हारे गुरुपद के कारण । ”

“ यह नहीं हो सकेगा, प्रिय ! ”

“ अच्छी तरह हो सकेगा, आओ, मैं आरोहण में सहायता करूं । ”

“ परन्तु तुम पदातिक क्यों भद्र ?

“ मुझे देवी अम्बपाली के साथ – साथ अश्व पर चलने की क्षमता नहीं है। प्रिये, देवी अम्बपाली लोकोत्तर सत्त्व हैं । ”

युवक का कण्ठ – स्वर कांपने लगा ।

अम्बपाली ने उत्तर नहीं दिया , वह चुपचाप अश्व पर चढ़ गईं। युवक पदातिक चलने लगा। दोनों धीरे- धीरे उपत्यका में उतरने लगे ।

उषा का प्रकाश प्राची दिशा को पीला रंग रहा था , वृक्ष और पर्वत अपनी ही परछाईं के अनुरूप अन्धकार की मूर्ति बने थे। उसी अन्धकार में से , वन के निविड़ भाग में होकर वह अश्वारोही और उसका संगी , दोनों धीरे – धीरे वैशाली के नगर – द्वार पर आ खड़े हुए ।

अभी द्वार बन्द थे। युवक ने आघात किया , प्रश्न हुआ

“ कौन है यह ? ”

“ चित्रभू, मित्र ! ”

“ ठीक है ठहरो , खोलता हूं। ”भारी सूचिका-यन्त्र के घूमने का शब्द हुआ और मन्द चीत्कार करके नगर – द्वार खुल गया ।

युवक ने अश्व के निकट जा अम्बपाली से मृदु कण्ठ से कहा –

“ विदा प्रिये! ”

“ विदा प्रियतम ! ”

दोनों ही के स्वर कम्पित थे, वीणा और चित्र देवी को देकर यवक तीव्र गति से लौटकर वन के अन्धकार में विलीन हो गया और अम्बपाली धीरे – धीरे अपने आवास की ओर चली ।

102. वैशाली की उत्सुकता : वैशाली की नगरवधू

जैसे देवी अम्बपाली के सिंह द्वारा आक्रान्त होकर निधन का समाचार आग की भांति वैशाली के जनपद में फैल गया था , वैसे ही देवी के अकस्मात् लौट आने से नगर में हलचल मच गई। सप्तभूमि प्रासाद के चमकते स्वर्ण – कलशों के बीच विविध मीन -ध्वज वायु में लहराने लगे। प्रासाद के सिंहपौर पर महादुन्दुभि अनवरत बजने लगी । उसका गम्भीर घोष सुनकर वैशाली के नागरिक निद्रा से जागकर आंखें मलते हए सप्तभूमि – प्रासाद की ओर दौड़ चले । देवी की आज्ञा से सम्पूर्ण प्रासाद फूलों , पताकाओं, तोरणों और रत्नजटित बन्दनवारों से सजाया गया । भृत्य और बन्दी चांदी के तूणीरों द्वारा बारम्बार गगनभेदी नाद करने लगे।

नागरिकों का ठठू प्रासाद के बाहरी प्रांगण और सिंहपौर पर एकत्रित हो गया था । सभी देवी के इस प्रकार अकस्मात् लोप हो जाने और फिर अकस्मात् ही अपने आवास में लौट आने की रहस्यपूर्ण अद्भुत कहानी विविध भांति कह रहे थे । सर्वत्र यह बात प्रसिद्ध हो गई कि देवी अम्बपाली को गहन वन में क्रीड़ारत गन्धर्वराज चित्ररथ गन्धर्वलोक में ले गए थे, वहां गन्धर्वराज ने मंजुघोषा वीणा स्वयं बजाई थी और समस्त दिव्यदेहधारी गन्धों के सम्मुख देवी अम्बपाली ने अपार्थिव नृत्य किया था । उसकी प्रतिच्छवि गन्धर्वराज ने स्वयं निर्मित की है तथा दिव्य मंजुघोषा वीणा भी देवी को गन्धर्वराज ने दी है ।

दिन – भर अम्बपाली अपने शयन – कक्ष में ही चुपचाप पड़ी रहीं । उन्होंने सन्ध्या से प्रथम किसी को भी अपने सम्मुख आने का निषेध कर दिया था । इससे बहुत से सेट्ठिपुत्र , राजवर्गी और सामन्तकुमार आ – आकर लौट गए थे। कुछ वहीं प्रांगण और अलिन्द में टहलने लगे थे। तब विनयावनत मदलेखा ने उन सबको स्फटिक कक्ष से मृदु- मन्द मुस्कान के साथ सन्ध्या के बाद आने को कहा । अभी देवी श्रान्त – क्लान्त हैं यह जानकर किसी ने हठ नहीं किया। किन्तु आज के सन्ध्या उत्सव की तैयारियां बड़े ठाठ से होने लगीं ।

स्फटिक के दीप – स्तम्भों पर सुगन्धि तेल से भरे स्नेह -पात्र रख दिए गए । तोरण और वन्दनवारों एवं रंग -बिरंगी पताकाओं से स्वागत – गृह सजाया जाने लगा। कोमल उपधान युक्ति से रख दिए गए। शिवि , कोजव , क्षौम बिछाए गए । आसन्दी सजाई गई । रत्नजटित मद्य- पात्रों में सुवासित मद्य भरा गया । स्थान – स्थान पर चौसर बिछाई गईं । सुन्दर दासियां चुपचाप फुर्ती से सब काम करतीं दौड़ – धूप कर रही थीं ।

सन्ध्या की लाल प्रभा अस्तंगत सूर्य के चारों ओर फैल गई और वह धीरे -धीरे अन्धकार में व्याप्त हो गई। सप्तभूमि प्रासाद सहस्र दीप – रश्मियों से आलोकित हो उठा । उसका प्रकाश रंगीन गवाक्षों से छन – छनकर नीलपद्म सरोवर पर प्रतिबिम्बित होने लगा । धीरे – धीरे नागरिक अपने – अपने वाहनों पर चढ़ – चढ़कर प्रासाद के मुख- द्वार पर आने लगे । दण्डधर और दौवारिक विविध व्यवस्था करने लगे । युवक नागरिक कौतूहल और उत्साह से भरे अम्बपाली को एक बार देख भर लेने को व्याकुल हो उठे । परन्तु प्रहर रात गए तक भी देवी अपने एकान्त कक्ष से बाहर नहीं निकलीं। इस समय वैशाली के श्रीमन्त तरुणों से अतिथि – गृह भर गया था । डेढ़ दण्ड रात बीतने पर अम्बपाली ने प्रमोद – गृह में प्रवेश किया । इस समय उनका परिधान बहुत सादा था । उनका मुख अभी भी सफेद हो रहा था । नेत्रों में विषाद और वेदना ने एक अप्रतिम सौन्दर्य ला दिया था । सेट्ठिपुत्र और सामन्त युवक देवी का स्वागत करने को आगे बढ़े। देवी अम्बपाली ने आगे बढ़कर मृदु- मन्द स्वर में कहा

“ मित्रो, आपका स्वागत है , आप सब चिरंजीव रहें ! ”

“ देवी चिरंजीवी हों – ” अनेक कण्ठों से यही स्वर निकला । देवी मुस्कराईं और आगे बढ़कर स्फटिक की एक आधारवाली पीठ पर बैठ गईं । उन्होंने स्वर्णसेन को देखकर आगे हाथ बढ़ाकर कहा

“ युवराज, आगे आओ; देखो, किस भांति हम पृथक् हुए और किस भांति अब फिर मिले, इसको जीवन का रहस्य कहा जा सकता है। ”

स्वर्णसेन ने द्रवित होकर कहा – “ किन्तु देवी , मैं साहस नहीं कर सकता । देवी की आपदा का दायित्व तो मुझी पर है। ”

“ आपदा कैसी मित्र ? ”

“ आह, उसे स्मरण करने से अब भी हृदय कांप उठता है! कैसा भयानक हिंस्र जन्तु था वह सिंह। ”

“ किन्तु वह तो एक दैवी प्रतारणा थी , मित्र , उसके बाद तो जो कुछ हुआ वह अलौकिक ही था ? ”

“ तब क्या यह सत्य है देवी , कि आपका वन में गन्धर्वराज से साक्षात् हुआ था ? ” एक अपरिचित युवक ने तनिक आगे बढ़कर कहा । युवक अत्यन्त सुन्दर, बलिष्ठ और गौरांग था , उसके नेत्र नीले और केश पिंगल थे, उठान और खड़े होने की छवि निराली थी , उसका वक्ष विशाल और जंघाएं पुष्ट थीं ।

देवी ने उसकी ओर देखकर कहा – “ परन्तु भद्र, तुम कौन हो ? मैं पहली ही बार तुम्हें देख रही हूं। ”

स्वर्णसेन ने कहा –

“ यह मेरा मित्र मणिभद्र गान्धार है, ज्ञातिपुत्र सिंह के साथ तक्षशिला से आया है । वहां इसने आचार्य अग्निदेव से अष्टांग आयुर्वेद का अध्ययन किया है और अब यह कुछ विशेष रासायनिक प्रयोगों का क्रियात्मक अध्ययन करने आचार्य गौड़पाद की सेवा में वैशाली आया है। ”

“ स्वागत भद्र! ”अम्बपाली ने उत्सुक नेत्रों से युवक को देखकर मुस्कराते हुए कहा -“ प्रियदर्शी सिंह तो मेरे आवास के विरोधी हैं । उन्होंने तुम्हें कैसे आने दिया प्रिय और आचार्य से कैसे प्रयोग सीखोगे ? ”

“ लौहवेध और शरीरवेध- सम्बन्धी। ”

“ क्या वे सब सत्य हैं , प्रिय भद्र ? आचार्य गौड़पाद से तो मैं बहुत भय खाती हूं। ”

“ भय कैसा देवी ? ”

“ आचार्य की भावभंगी ही कुछ ऐसी है। ”वह हंस पड़ी। युवक भी हंस पड़ा ।

अम्बपाली ने अपना हाथ फैला दिया । युवक ने देवी के हाथ को आदर से थाम कर कहा –

“ तो देवी , क्या यह सत्य है कि ….. ”

“ हां सत्य ही है प्रिय , उसी भांति जिस भांति तुम्हारे लौह वेध और शरीरवेध के वे विशिष्ट प्रयोग । ”

स्वर्णसेन ने शंकित – सा होकर कहा –

“ तो सिंह का आक्रमण क्या प्रतारणा थी ? ”

“ निस्सन्देह युवराज, क्या तुमने वह दिव्य वीणा और चित्र देखा नहीं ? ”

“ देख रहा हूं, देवी ! तो इस सौभाग्य पर मैं आपको बधाई देता हूं। ”

मणिभद्र ने कहा – “ मैं भी आर्ये! ”

“ धन्यवाद मित्रो, आज अच्छी तरह पान करो । आज मैं सम्पूर्ण हूं, कृतकृत्य हूं, मैं धन्य हूं। मित्रो, मैं देवजुष्टा हूं। ”

चारों ओर देवी अम्बपाली की जय – जयकार होने लगी और तरुण बारम्बार मद्य पीने और ‘ देवी अम्बपाली की जय चिल्लाने लगे ।

103. दो बटारू : वैशाली की नगरवधू

चम्पा , वैशाली और राजगृह का मार्ग जहां से तीन दिशाओं को जाता है, उस स्थान पर एक अस्थिक नाम का छोटा – सा गांव था । गांव में बस्ती बहुत कम थी , परन्तु राजमार्ग के इस तिराहे पर होने के कारण इस गांव में आने-जाने वाले बटारू सार्थवाह और निगमों की भीड़ – भाड़ बनी ही रहती थी । गांव राजमार्ग से थोड़ा हटकर था परन्तु राजमार्ग पर ठीक उस स्थान पर , जहां से तीन भिन्न दिशाओं के तीन मुख्य मार्ग जाते थे, सेट्टियों और निगमों ने अनेक सार्वजनिक और व्यक्तिगत आवास – अटारी आदि बनवाए थे। एक पान्थागार भी था , जिसका स्वामी एक बूढ़ा व्रात्य था । इन सभी स्थानों पर यात्री बने ही रहते थे।

सूर्य मध्याकाश में चमक रहा था । पान्थागार के बाहर पुष्करिणी के तीर पर एक सघन वृक्ष की छाया में एक ब्राह्मण बटारू सन्ध्या – वन्दन कर रहा था । स्थान निर्जन था । ब्राह्मण प्रौढ़ावस्था का था । उसका वेश ग्रामीण था । वह पान्थागार में भरी हुई यात्रियों की भीड़ से बचकर यहां एकान्त में आकर पूजा कर रहा था । इस बटारू ब्राह्मण का वेश ग्रामीण अवश्य था , परन्तु मुख तेजवान् और दृष्टि बहुत पैनी थी ।

इसी समय एक और बटारू ने उसके निकट आकर थकित भाव से अपने इधर – उधर देखा और वृक्ष की छाया में बैठकर सुस्ताने लगा । ऐसा प्रतीत होता था कि उसका तन -मन दोनों ही थकित हैं । सुस्ताकर उसने वस्त्र उतार पुष्करिणी में स्नान किया और पाथेय निकाल आहर करने बैठा तो उसने ब्राह्मण की ओर देख प्रणाम किया और पूछा

“ कहां के ब्राह्मण हैं भन्ते ? ”

“ मगध के । ”

“ तो भन्ते, मेरे पास पाथेय है- भोजन करिए! ”

“ जैसी तेरी इच्छा गृहपति ! तू कौन है ? ”

“ सेट्ठी। ”

“ कहां का गृहपति ? ”

“ वीतिभय का । ”

“ स्वस्ति गृहपति ! कहकर ब्राह्मण मौन हो गया ।

जिसे ब्राह्मण ने गृहपति कहकर सम्मानित किया था , उसने कुत्तक की गांठ खोल उसमें से एक बड़ा – सा मधुगोलक निकालकर श्रद्धापूर्वक ब्राह्मण के आगे धर दिया । दूसरा मधुगोलक वह वहीं वृक्ष की छाया में बैठकर खाने लगा । ब्राह्मण की ओर उसने पीठ कर ली ।

ब्राह्मण भी भूखा था । नित्यकर्म से वह निवृत्त हो चुका था । उसने भी मधुगोलक को खाना प्रारम्भ किया । परन्तु ज्यों ही उसने मधुगोलक को तोड़ा – उसमें से मुट्ठी- भर तेजस्वी रत्न निकल पड़े । ब्राह्मण आश्चर्यचकित हो उस बटारू के मलिन वेश और दीन दशा की ओर देखने लगा । आश्चर्य बढ़ता जा रहा था । यदि यह वास्तव में इतना श्रीमन्त है कि इस ब्राह्मण को गुप्त दान देना चाहता है तो फिर इस प्रकार इसका भिक्षुक – वेश क्यों है ?

क्यों पदातिक एकाकी यात्रा कर रहा है ? फिर ऐसे मूल्यवान रत्नों के दाम तो बहुत हैं । ब्राह्मण सोचने लगा , इसमें कोई रहस्य है ।

जब दोनों भोजन कर चुके तब ब्राह्मण ने प्रसन्नदृष्टि से कहा

“ बैठ गृहपति , तेरा नाम क्या है ? ”

बटारू ने निकट बैठते हुए कहा – “ मैं कृतपुण्य हूं, वीतिभय के सेट्ठि धनावह का पुत्र । ”

“ अहा , सेट्टि धनावह ! अरे, वह तो मेरा यजमान था भन्ते ! तेरी जय रहे गृहपति , पर तू एकाकी कहां इस तरह दरिद्र बटारू की भांति यात्रा कर रहा है ? ”

“ मैं चम्पा जा रहा हूं भन्ते ! ”

“ चम्पा ? इस भांति साधन – रहित ? सुनूं तो क्यों ? ”

“ क्या कहूं , आर्य, मैं बड़ी विपन्नावस्था में हूं । ”

“ कह भद्र , मैं तेरा पुरोहित हूं, ब्राह्मण हूं।

“ तो आर्य, दुष्टा माता ने मुझे घर से बहिष्कृत किया है, अब मैं चम्पा जा रहा हूं । वहां मेरी मध्यमा पत्नी का पिता रहता है , वहीं उसके आश्रम में । ”

“ परन्तु इस अवस्था में क्यों ? ”

“ मेरे पास धन नहीं है आर्य! ”

“ पाथेय कहां पाया ? ”

“ माता से छिपाकर मध्यमा ने दिया । ”

ब्राह्मण कुछ-कुछ मर्म समझ गया । वह सन्देह की तीखी आंखों से बटारू को देखता रहा । फिर एकाएक अट्हास करके हंस पड़ा ।

उस हंसने से अप्रतिभ हो बटारू ने कहा –

“ आर्य के इस प्रकार हंसने का क्या कारण है ? ”

“ यही, कि गृहपति , तू भेद को छिपा नहीं सका। ” बटारू ने सूखे कण्ठ से कहा – “ भेद कैसा ? ”

“ तो तू सत्य कह , भद्र , तू कौन है ? ”

“ जो कहा, वह क्या असत्य है ? ”

“ असत्य ही है भद्र ! ”

“ कैसे जाना आर्य ? ”

“ तेरे नक्षत्र देखकर , तू तो सामन्तपुत्र है। ”

ब्राह्मण ने अपनी पैनी दृष्टि से बटारू के वस्त्रों में छिपे खड्ग की नोक की ओर ताकते हुए कहा।

बटारू ने इस दृष्टि पर लक्ष्य नहीं किया । उसने पृथ्वी में गिरकर ब्राह्मण को प्रणाम किया और कहा – “ आप त्रिकालदर्शी ब्राह्मण हैं , मैं सामन्तपुत्र ही हूं – उस दुष्टा सेट्टनी ने मुझे अपनी चार पुत्र – वधुओं में नियुक्त किया था , तथा यथेच्छ शुल्क देने का वचन दिया था । अब पांच संतति उत्पन्न कर मुझे उस मेधका ने छूछे-हाथ खदेड़ दिया । मध्यमा ने मुझे पाथेय दे चम्पा का संकेत किया है, वहां मैं उसकी प्रतीक्षा करूंगा। ”

“ परन्तु तू कौन है आयुष्मन् , अपना वास्तविक परिचय दे, मैं तेरी सब इच्छा पूरी करने में समर्थ हूं। ”

“ तो आर्य, मैं लिच्छवि हूं; और वैशाली से प्रताड़ित हूं। मैंने वैशाली को उच्छेद करने का प्रण किया है। ”

ब्राह्मण चमत्कृत हुआ । उसने उत्सुकता को दबाकर कहा -“ तू लिच्छवि होकर वैशाली पर ऐसा क्रुद्ध क्यों है ? ”

“ आर्य, वैशाली के गणों ने मेरी वाग्दत्ता अम्बपाली को नगरवधू बनाकर मेरे नागरिक अधिकारों का हरण किया है । ”

“ तो आयुष्मन्, तू कृतसंकल्प होकर कैसे नियुक्त हुआ ? और अब फिर तू उसी मोह में है। ”

“ तो आर्य, मैं क्या करूं ? ”

“ तू वैशाली का उच्छेद कर । ”

“ किस प्रकार आर्य ? ”

“ मेरा अनुगत होकर। ”

“ तो मैं आपका अनुगत हूं। ”

“ तो भद्र, यह ले। ”ब्राह्मण ने वस्त्र से निकालकर वे मुट्ठी- भर तेजस्वी रत्न उसके हाथ पर रख दिए।

रत्नों की ज्योति देख बटारू की आंखों में चकाचौंध लग गई। उसने कहा – “ ये रत्न , मैं क्या करूं ? ”

“ इन्हें ले , और यहां से तीन योजन पर पावापुरी हैं वहां जा । वहां मेरा सहपाठी मित्र इन्द्रभूति रहता है, उसे यह मुद्रिका दिखाना, वह तेरी सहायता करेगा। वहां उसकी सहायता से तू रत्नों को बेचकर बहुत – सी विक्रेय सामग्री मोल के दास -दासी – कम्मकर संग्रह कर ठाठ – बाट से एक सार्थवाह के रूप में चम्पा जा और अपने श्वसुर गृहपति का अतिथि कृतपुण्य होकर रह । परन्तु वहां तू मध्यमा की प्रतीक्षा में समय नष्ट न करना ! सब सामग्री बेच, श्वसुर से भी जितना धन उधार लेना सम्भव हो , ले भारी सार्थवाह के रूप में बिक्री करता और माल मोल लेता हुआ बंग, कलिंग, अवन्ती , भोज , आन्ध्र, माहिष्मती , भृगुकच्छ और प्रतिष्ठान की यात्रा कर। यह लेख ले और जहां – जहां जिन -जिनके नाम इसमें अंकित हैं , उन्हें यह मुद्रिका दिखा , उनके सहयोग से वैशाली के अभियान में अपना पूर्व परिचय गुप्त रख ‘ कृतपुण्य सार्थवाह होकर प्रवेश कर । आदेश मैं तुझे वहीं दूंगा । ”

ब्राह्मण की बात सुन और लक्षावधि स्वर्ण- मूल्य के रत्न उसके द्वारा प्राप्त कर उसने समझा कि यह ब्राह्मण अवश्य कोई छद्मवेशी बहुत बड़ा आदमी है। परन्तु वह उससे परिचय पूछने का साहस नहीं कर सका। उसने विनयावनत होकर कहा – “ जैसी आज्ञा , परन्तु आपके दर्शन कैसे होंगे ? ”

“ भद्र , वैशाली के अन्तरायण में नन्दन साहू की हट्ट है, वहीं तू बटारू ब्राह्मण को पूछना । परन्तु इसकी तुझे आवश्यकता नहीं होगी । यहां प्रतिष्ठा – योग्य स्थान लेकर अन्तरायण में निगम – सम्मत होकर हट्ट खोल देना । तेरा वैशाली में आगमन मुझ पर अप्रकट न रहेगा। ”

यह कहकर ब्राह्मण ने उसे एक लिखित भूर्जपत्र दिया और कहा – “ जा पुत्र अपना कार्य सिद्ध कर! ”

बटारू ने अपना मार्ग लिया । ब्राह्मण भी अपना झोला कंधे पर डाल , दण्ड हाथ में ले दूसरी ओर चला ।

104. दस्यु बलभद्र : वैशाली की नगरवधू

वैशाली में अकस्मात् ही एक अतर्कित भीति की भावना फैल गई। नगर के बाह्य और अन्तरायण सभी जगह बलभद्र की दु: साहसिक डकैतियों की अनेक आतंकपूर्ण साहसिक कहानियां जगह- जगह सुनी जाने लगीं । जितने मुंह उतनी ही बातें थीं । सभी परिजन और राजवर्गी उत्तेजित हो उठे । परिषद् का वातावरण भी क्षुब्ध हो गया था ।

पर दस्यु बलभद्र और उसके दुर्धर्ष दस्युओं को कोई पकड़ नहीं सका । अट्टी -रक्खकों को बारम्बार सावधान करने पर भी इधर – उधर राह चलते धनपति लुटने लगे। ग्रामों से अशान्त सूचनाएं आने लगीं। एक दिन परिषद् का राजस्व नगर में आते हुए मार्ग में लुट गया और उसके कुछ दिन बाद ही दिन – दहाड़े अन्तरायण भी लूट लिया गया । इस घटना से वैशाली में बहुत आतंक छा गया । लोग नगर छोड़कर भागने लगे। बहुतों ने अपने रत्न पृथ्वी में गाड़ दिए । परन्तु नगर के सामन्त पुत्र इन सब झंझटों से उदासीन थे। वे दिन – भर अलस भाव से सन्ध्या होने की प्रतीक्षा में आंखें बन्द किए पड़े रहते , सन्ध्या होने पर सज – धजकर अलंकृत हो स्वर्ण रत्न कुर्वक – कोष में भरकर और उत्सुक – आकुल भाव से सप्तभूमि प्रासाद के स्वर्ग- लोक में जाकर सुरा – सुन्दरी – संगीत के सुख- भोग और द्यूत -विनोद में आधी रात तक डूबते – उतराते। फिर आधी रात व्यतीत हो जाने पर सूना कुर्वककोष , सूने हृदय से उनींदी

आंखों को खोलते -मींचते मद्य के मद में लड़खड़ाते अपने – अपने भृत्यों के कंधों का सहारा लिए , अपने – अपने वाहनों में अर्ध मृतकों के समान पड़कर अपने घर जाते और मृतक – से अत्यन्त गर्हित भाव से बेसुध होकर दोपहर तक पड़े रहते थे । विश्व में कहां क्या हो रहा है , यह जैसे वे भूल गए थे। उन्हें एक वस्तु याद रह गई थी , अम्बपाली की मन्द मुस्कान , उसका स्वर्गसदन सप्तभूमि प्रासाद, सुगन्धित मदिरा और अनगिनत अछूते यौवन ।

105 .युवराज स्वर्णसेन : वैशाली की नगरवधू

स्वर्णसेन ने मद्य पीकर रिक्तमद्य-पात्र दासी की ओर बढ़ा दिया और अर्धनिमीलित नेत्रों से उसे घूरकर कहा – “ और दे! दासी पात्र हाथ में लिए अवनत – वदन खड़ी रही। इस बार उसने मद्य पात्र भरा स्वर्णसेन ने कहा – “ मद और दे हला ! ”

“ अब नहीं । ”

युवराज ने कुछ अधिक नेत्र खोलकर कहा- “ अब और क्यों नहीं, दे हन्दजे, मद

“ वह अधिक हो जाएगा भन्ते, ” दासी ने कातर वाणी से कहा ।

युवराज उठकर बैठ गए। उन्होंने कुछ उत्तेजित होकर “ दे हला , मद दे ” कहते हुए वेग से हाथ हवा में हिलाया ।

दासी ने एक बार फिर कातर नेत्रों से युवराज को देखा और फिर चुपचाप पात्र भरकर युवराज के हाथ में दे दिया । इसी समय एक दण्डधर ने आकर महाअट्टवी -रक्खक सूर्यमल्ल के आने की सूचना दी । सूर्यमल्ल स्वर्णसेन के अन्तरंग मित्र थे। उनके लिए कोई रोक-टोक नहीं थी । वे दण्डधर के पीछे ही पीछे चले आए। स्वर्णसेन ने उद्योग करके अपनी आंखें खोलकर जिज्ञासा – भरी दृष्टि से उनकी ओर देखा। उस देखने का अभिप्राय यह था कि इस असमय में क्यों ?

सूर्यमल्ल ने साभिप्राय दासी की ओर देखा। दासी नतमस्तक वहां से चली गई ।

सूर्यमल्ल ने कहा – “ सुना है तुमने स्वर्ण , आज अन्तरायण लुट गया है ? ”

मद्यपात्र अभी भी स्वर्णसेन के होंठों से लगा था । अब उन्होंने आंखें बन्द कर लीं । सूर्यमल्ल ने उत्तेजित होकर कहा

“ मैं महाबलाधिकृत का सन्देश लाया हूं। ”

“ महाबलाधिकृत ने असमय में क्या सन्देश भेजा है मित्र ? ”स्वर्णसेन ने लड़खड़ाती वाणी से पूछा ।

“ यही , कि हम अभी तत्काल दस सहस्र सेना लेकर मधुवन को घेर लें । ”

“ अभी क्यों ? फिर कभी क्यों नहीं ? ”उन्होंने मद्यपात्र एक ओरफेंकते हुए कहा ।

“ चर ने सन्देश दिया है कि दस्यु बलभद्र मधुवन में छिपा है । ”

“ दस्यु से तुम डरते हो सूर्यमल्ल ? धिक्कार है! ”

“ किन्तु गणपति का आदेश है कि हम अभी दस सहस्र सैन्य …. ”

“ परन्तु हम क्यों , तुम क्यों नहीं ? ”

“ मैं भी साथ चलता हूं। ”

“ तो चल मित्र , तनिक सहारा देकर उठा तो । ”

सूर्यमल्ल ने स्वर्णसेन को उठाकर खड़ा किया । स्वर्णसेन ने लड़खड़ाते हुए कहा – “ चलो अब। ”

“ कहां ? ”

“ देवी अम्बपाली के आवास को ! ”

“ और महाबलाधिकृत का आदेश ? ”

“ वह कल सूर्योदय के बाद देखा जाएगा । ”

“ परन्तु दस्यु …. ”

“ उस भाग्यहीन दस्यु को अभी कुछ क्षण मधुवन में विश्राम करने दो मित्र, सूर्योदय होने पर मैं उसे अपने खड्ग से खण्ड- खण्ड कर दूंगा । ”

सूर्यमल्ल ने कुद्ध होकर कहा – “ ऐसा नहीं हो सकता , महाबलाधिकृत का आदेश है। ”

“ होने दे मित्र , मेरी बात मान – चल अम्बपाली के आवास में , पी सुवासित मद्य , चख रूपसुधा , संगीतालाप और भोग स्वर्ग- सुख । चल मित्र ! ”उसने कसकर सूर्यमल्ल का हाथ पकड़ लिया ।

सूर्यमल्ल ने विरक्ति से कहा – “ तब तुम जाओ देवी के आवास की ओर , मैं अकेला ही मधुवन जाऊंगा। ”

“ अरे मित्र, तू नितान्त अरसिक है, यह चन्द्रमा की ज्योत्स्ना, यह शीतल मन्द सुगन्ध समीर , यह मादक यौवन , यह तारों- भरी रात ! चल मित्र , चल ! ”

युवराज एकबारगी ही सूर्यमल्ल के कंधे पर झुक गया और वे दोनों अंधकार पूर्ण राजपथ पर धीरे – धीरे चले अम्बपाली के आवास की ओर।

106 . प्रत्यागत : वैशाली की नगरवधू

कृतपुण्य सेट्ठी की वैशाली के अन्तरायण में धूम मच गई । सेट्रियों के निगम ने उसका स्वागत – सत्कार करने को गणनक्षत्र मनाया । नगरसेट्ठि ने उसे घर बुलाकर गंधमाल दे सम्मानित किया । उसके ठाठ -बाट , धनवैभव तथा विक्रेय सामग्री को देख वैशाली का सेट्ठिनिगम सन्न रह गया । सर्वत्र यही चर्चा होने लगी कि चम्पा का यह महासेट्ठि चम्पा के पतन के बाद राजकुल की संपूर्ण संपदा लेकर वैशाली में भाग आया है और अब वह वैशाली ही में रहकर व्यापार- वाणिज्य करेगा। सेट्ठि कृतपुण्य के साथ दासों , कम्मकरों , सेवकों की बड़ी भरमार थी । उनकी धन – सम्पत्ति , वाहन और अवरोध का वैभव विशाल था । घर – घर इस भाग्यवान् सार्थवाह के सौभाग्य की चर्चा थी , कि कालिका द्वीप में उसे स्वर्ण- रत्न की एक खान मिल गई थी और वह उससे अपना जहाज़ भर लाया है। परन्तु सबसे अधिक चर्चा की वस्तु उसके आठ समुद्री अश्व थे, जो वायु- वेग के समान चंचल और मूर्ति की भांति सुन्दर थे। इन अश्वों में से एक पर चढ़कर जब उसका पुत्र प्रात : और सन्ध्या समय वायु – सेवनार्थ अपने शिक्षकों और सेवकों के साथ राजमार्ग पर निकलता था , तो सब कोई अपने – अपने काम छोड़ – छोड़कर उन्हीं अश्वों की , अश्व के आरोही साक्षात् कार्तवीर्य के समान सुन्दर किशोर सेट्ठिपुत्र की और गृहपति कृतपुण्य सेट्ठि की चर्चा सत्य – असत्य काल्पनिक करने लगते । बहुत लोग बहुविध अटकल अनुमान लगाते ।

पाठक इस ‘ कृतपुण्य को भूले न होंगे । यह भाग्य -विदग्ध हर्षदेव का नूतन संस्करण था ।

वन में बटारू ब्राह्मण से विदा लेकर हर्षदेव पावापुरी गया और इन्द्रभूति ब्राह्मण से मिला। इन्द्रभूति ने उसे आदरपूर्वक अपने यहां ठहराकर विविध वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर अपने परिचितों, मित्रों और नगरनिगमों से उसका परिचय कराया तथा उसे सेट्ठिपुत्र कहकर उन्हें परिचय दिया । वहां उसने इन्द्रभूति की सहायता और सम्मति से बहुत – सी मूल्यवान् विक्रेय सामग्री मोल ली और उसे पचास अश्वतरियों पर लाद तथा चार दास और उत्तम अश्व मोल ले , अश्वारूढ़ हो वह चम्पा में जा पहुंचा। चम्पा के गृहपति सागरदत्त के घर पर पहुंच उसने कृतपुण्य कहकर अपना परिचय दिया । सागरदत्त सेट्ठि के अनेक जलयान ताम्रलिप्त और स्वर्णद्वीपों में विविध व्यापार की सामग्री लेने – बेचने जाते रहते थे और वह अतिसमृद्ध श्रीमन्त निगमपति सेट्ठि था । उसके कोई पुत्र न था , केवल एक वही मृगावती नाम की पुत्री थी जो कृतपुण्य को ब्याही थी । उसका चिरकाल से उसे कोई समाचार नहीं मिला था । अब वह अकस्मात् अपने जामाता को देख परम हर्षित हुआ । उसने बड़े प्रेम – सम्मान से उसका स्वागत किया । उसकी सहायता से उसका सब माल अच्छे मूल्य में बिक गया और महान् धनराशि उसे प्राप्त हुई । श्वसुर से कहकर उसने वीतिभय नगरी से मृगावती और उसके पुत्र को भी बुलवा लिया और वह कुछ काल स्त्री – पुरुष और ससुराल का परिपूर्ण आनन्द भोगता रहा। फिर ब्राह्मण की बात को स्मरण कर तथा वैशाली को लौटने की उत्सुकता से श्वसुर से आग्रह कर विविध बहुमूल्य वस्तुओं से तीन जहाज़ भर अपनी स्त्री मृगावती , पुत्र पुण्डरीक और दास – दासियों – कम्मकरों को संग ले जल -यात्रा को निकल पड़ा ।

वह माल लेता -बेचता , लाभ उठाता बंग, कलिंग, अवन्ती , भोज , आन्ध्र , माहिष्मती , भृगुकच्छ और प्रतिष्ठान, जल- थल में जैसा सुयोग मिला, घूमता फिरा । उसने ब्राह्मण की दी हुई सूची के अनुसार बंग में वैश्रमणदत्त , कलिंग में वीरकृष्ण मित्र, अवन्ती में श्रीकान्त , भोज में समुद्रपाल, आन्ध्र में स्यमन्तभद्र , माहिष्मती में सुगुप्त, भृगुकच्छ में सुदर्शन और प्रतिष्ठान में सुवर्णबल से मिलकर ब्राह्मण का गूढ़ सन्देश दिया और उनका गूढ़ सन्देश ब्राह्मण के लिए प्राप्त किया ।

इसी यात्रा के बीच जब वह पूर्वीद्वीप – समूहों में विचरण करता हुआ हस्तिशीर्ष द्वीप में पहुंचा, तो उसकी भेंट कई अन्य सार्थवाहों से हो गई , जो उसी की भांति विक्रेय वस्तु द्वीप- द्वीपान्तरों में बेचने जा रहे थे। हस्तिशीर्ष द्वीप से उसने उनके साथ ही मिलकर यात्रा की । दैवसंयोग से कुछ दिन समुद्र में यात्रा करते हुए उनके समुद्रयान झंझावात में फंस गए, वे सब यान टूट -फूटकर आरोहियों सहित समुद्र में डूब गए। केवल एक पोत , जिसमें कृतपुण्य और उसके पत्नी – पुत्र दास और धन -स्वर्ण था , किसी भांति कई दिन तक लहरों पर उथल – पुथल होता समुद्र-बीच अज्ञात और निर्जन कालिका द्वीप के किनारे जा टकराया । किसी प्रकार भूस्पर्श करने से उन लोगों को ढाढ़स हुआ । द्वीप में मीठा जल पी और स्वादिष्ट फल – मूल खाकर उन्होंने कई दिन की भूख -प्यास तृप्त की । परन्तु द्वीप जनरहित है, यह देख उन्हें दुःख हुआ। फिर भी स्वादिष्ट फल – मूल और मीठे जल की बहुतायत से उन्हें बड़ा सहारा मिला । उन्होंने अपने समुद्रयान की मरम्मत की तथा अनुकूल वायु की प्रतीक्षा में वहीं पड़े रहे।

इसी द्वीप में फल – मूल की खोज में घूमते – भटकते उसे माणिक्य और स्वर्ण की खाने मिल गईं। इस प्रकार दुर्भाग्य में से भाग्योदय देखकर वह उन्मत्त की भांति हर्ष से नाचने लगा । उसने दासों और कम्मकरों की सहायता से स्वर्ण और रत्न की राशि अपने जहाज में भर ली । इतना अधिक बेतोल स्वर्ण तथा सूर्य के समान तेजवान् त्रिलोक- दुर्लभ कुडव -प्रस्थ भार के माणिक्य पाकर उसके रक्त की एक – एक बूंद उसकी नाड़ियों में नाचने लगी । अब वह पृथ्वी पर सबसे बड़ा धन कुबेर था । मनुष्य की दृष्टि से न देखे गए रत्न उसके चरणों में

परन्तु उसके सौभाग्य की समाप्ति यहीं पर नहीं हुई । पूर्णिमा को चन्द्रोदय होने पर ज्यों ही समुद्र में ज्वार आया, बहुत – से अद्भुत समुद्री अश्व जल में बहकर द्वीप के तट पर आए और द्वीप में विचरण करने लगे । उन अद्भुत और विद्युत्वेग के समान चपल तथा मनुष्य – लोक में दुर्लभ महाशक्ति – सम्पन्न वाडव अश्वों को देख प्रथम तो कृतपुण्य और उसके संगी-साथी भयभीत होकर एक योजन दूर भाग गए, परन्तु जब समुद्र में ज्वार उतर गया और वे अश्व भी समुद्र – गर्भ में चले गए, तब वे लोग फिर समुद्र- तट पर आकर पराक्रमी अश्वों को देखते रहे ।

कृतपुण्य ने इन अश्वों को पकड़कर ले जाने का निश्चय किया । अन्तत : वह साहसिक सामन्त था । उसमें सुप्त आखेट – वासना जाग्रत हई और अश्वों को पकड़ने का सम्पर्ण आयोजन विचारकर वह आगामी पूर्णिमा तक समुद्र में ज्वार आने की प्रतीक्षा में उसी द्वीप में ठहर गया ।

समुद्र में पूर्ण चन्द्रोदय होने पर फिर ज्वार आया । फिर वैसे ही अनगिनत वाडव अश्व समुद्र की तरंगों पर तैरते हुए द्वीप में घुस आए। कृतपुण्य ने एक ऊंचे स्थान पर बैठकर वीणा बजानी प्रारम्भ की । वीणा की मधुर झंकृति से विमोहित हो वे अश्व उसी शब्द की ओर आकर्षित हो अपने लम्बे – लम्बे कान खड़े कर खड़े- के – खड़े रह गए । तब कृतपुण्य के संकेत से उसके दासों ने उन्हें विविध सुगन्ध – द्रव्य सुंघाए , विविध स्वादिष्ट मधुर खाद्य – पेय खाने को दिए। इस प्रकार वीणा की ध्वनि से विमोहित तथा विविध गन्ध – खाद्य – पेय से लुब्ध बने वे अश्व उन मनुष्यों से परिचित की भांति बारम्बार मुंह उठाकर खाद्य – पेय मांगने तथा खड़े- खड़े कनौतियां काटने लगे । समुद्र के पीछे लौटने का उन्हें भान ही न रहा। ज्वार उतर गया और कृतपुण्य के दासों ने उन्हें युक्ति से दृढ़ बन्धन से बांध लिया तथा जलयान पर चढ़ा लिया ।

इस अद्भुत और अतर्कित रीति से देव – मनुष्य – दुर्लभ वाडव अश्व और अमोघ रत्ननिधि इस अक्षेय द्वीप से लेकर कृतपुण्य ने अनुकूल वायु देख , जल – ईंधन और फल – मूल आदि भरकर प्रस्थान किया तथा देश – देश में होता हुआ वह भृगुकच्छ पहुंचा। भृगुकच्छ में उसने बहुत – सा माल क्रय किया , तथा स्थल – मार्ग से सार्थवाह ले चला । इस समय उसका सार्थवाह एक चतुरंगिणी सेना की भांति था । भृगु कच्छ में ठहरकर उसने चतुर, गुणी और शास्त्रज्ञ अश्वपालों एवं अश्वमर्दकों को नियुक्त किया जिन्होंने अश्वों के मुंह – कान बांध , वल्गु चढ़ा , तंग खींच, चाबुक और वेत्र की मार – मारकर विविध भांति आज्ञा पालन और चाल चलने की शिक्षा दी । इस प्रकार शिक्षण प्राप्त कर और बहुमूल्य रत्नाभरणों से सुसज्जित होकर जब ये अश्व लोगों की दृष्टि में पड़े, तब सब उन्हें देखते ही रह गए ।

इस प्रकार भाग्य की नियति से विक्षिप्तावस्था में वैशाली को त्यागने के सात वर्ष पश्चात् हर्षदेव ने महासेट्ठि सार्थवाह कृतपुण्य के रूप में वहां प्रवेश किया और उत्तरायण में सहस्र स्वर्णशिखरों वाला श्वेतमर्मर का हर्म्य बनवा , दास- दासियों, कम्मकरों , लेखकों , कर्णिकों, दण्डधरों, द्वारपालों , रक्खकों से सेवित हो देखते – ही – देखते सर्वपूजित हो वह वहां निवास करने लगा और अपनी दिनचर्या से ऐश्वर्य – चमत्कार दिखा-दिखाकर नगर , नागर और जनपद को चमत्कृत करने लगा , तो कुछ दिन तक तो लोग सब – कुछ भूलकर सेट्टि कृतपुण्य की ही चर्चा वैशाली में घर – घर करने लगे ।

107 . वैशाली में मगध महामात्य : वैशाली की नगरवधू

वैशाली के जनपद में इस बार फिर भूकम्प हुआ। वैशाली के महान् राजमार्ग पर एक दीर्घकाय ब्राह्मण पांव -प्यादा धीर – मन्थर गति से संथागार की ओर बढ़ रहा था । उसके पांव नंगे और धूलि – धूसरित थे, कमर में एक शाण – साटिका और कन्धे पर शुभ्र कौशेय पड़ा था , जिसके बीच से उसका स्वच्छ जनेऊ चमक रहा था । इस ब्राह्मण का वर्ण गौर, मुख मुद्रा गम्भीर और तेजपूर्ण नेत्र, दृष्टि पैनी, ललाट उन्नत , कन्धे और ग्रीवा मांसल , होंठ संपुटित , भालपट्ट चन्दन – चर्चित नंगे सिर पर शतधौत हिमश्वेत चोटी । वह अगल – बगल नहीं देख रहा था , उसकी दृष्टि पृथ्वी पर थी ।

उसके निकट आने तथा साथ चलने की स्पर्धा वैशाली में कोई नहीं कर सकता था । उससे पचास हाथ के अन्तर पर दो सहस्र ब्राह्मण नंगे पैर , नंगे बदन , नंगे सिर , केवल शाटिका कमर में पहने और जनेऊ हाथों में ऊंचे किए चुपचाप चल रहे थे। उनके पीछे सहस्रों नागरिक, ग्रामीण , सेट्ठि , सामन्त , विश, कम्मकर और अन्य पुरुष थे। घरों के झरोखों से मिसिका और अलिन्दों से कुलवधू , गृहपति पत्नियां आश्चर्य, कौतूहल और भीत मुद्रा से इस सूर्य के समान तेजस्वी ब्राह्मण को देख रहे थे । सब नि : शब्द चल रहे थे। सभी मन – ही -मन भांति – भांति के विचार कर रहे थे। कोई कानों – कान फुसफुसाकर बात कर रहे थे ।

यह ब्राह्मण विश्वविख्यात राजनीति का ज्ञाता, मगध का पदच्युत दुर्धर्ष अमात्य वर्षकार था । उसके राजविग्रह , राजकोप तथा राजच्युति के समाचार प्रथम ही विविध रूप धारण करके वैशाली में फैल गए थे।

संथागार के प्रांगण में वैशाली – गण – संघ के अष्टकुल – प्रतिनिधियों ने महामात्य का स्वागत किया और वे सब तेजस्वी ब्राह्मण को आगे कर संथागार में ले गए, जहां महासन्धिविग्रहिक जयराज और विदेश – सचिव ने आगे बढ़कर अमात्य का प्रति सम्मोदन करके अभ्यर्थना की । फिर उन्होंने उससे एक निर्दिष्ट आसन पर बैठने का अनुरोध किया । अमात्य ने अनुरोध नहीं माना और वह दो पग आगे बढ़कर वेदी के सम्मुख आ खड़े हुए । तब अमात्य ने जलद – गम्भीर वाणी से कहा – “ हुआ , बहुत शिष्टाचार सम्पन्न हुआ , परन्तु वज्जी के अष्टकुल भ्रम में न रहें । मैं आज मगध का अमात्य नहीं एक दरिद्र ब्राह्मण हूं । उदर के लिए अन्न की याचना करने आया हूं। अष्टकुल के गण – प्रतिनिधि ब्राह्मण को अन्न दें , तो यह ब्राह्मण राजसेवा करने को प्रस्तुत है। ”

विदेश – सचिव नागसेन ने आसन से उठकर कहा – “ आर्य अपने व्यक्तित्व में ही सुप्रतिष्ठित हैं । यह मगध का दुर्भाग्य है कि उसे आपकी राजसेवा से वंचित रहना पड़ा है , परन्तु राजसेवा के प्रतिदान का कोई प्रश्न नहीं है , वज्जीसंघ आर्य का वज्जी – भूमि में सम्मान्य अतिथि के रूप में स्वागत करता है। ”

“ सुनकर आश्वस्त हुआ , अष्टकुल का कल्याण हो ! यद्यपि मैं ब्राह्मण हूं , किन्तु भिक्षोपजीवी नहीं । वज्जीगण यदि राजसेवा लेकर अन्न दें तो मैं लूंगा, नहीं तो नहीं। ”

“ यह आर्य का गौरव है, परन्तु आर्य यह भली- भांति जानते हैं कि वज्जी – शासन में मात्र अष्टकुल के प्रतिनिधि ही सक्रिय रह सकते हैं -वर्णधर्मी आर्य नहीं । यह हमारी प्राचीन मर्यादा है । ”विदेश- सचिव नागसेन ने कहा ।

“ यह मैं नहीं जानता हूं । आयुष्मान् को सशंक और सावधान रहना चाहिए , यह भी ठीक है। परन्तु शासन में सक्रिय होने की मेरी अभिलाषा नहीं है । मैं तो अन्न का मूल्य देना चाहता हूं । ”

“ क्यों आर्य यह आज्ञा करते हैं , जबकि वज्जियों का यह संघ आर्य का सम्मान्य अतिथि के रूप में स्वागत करने को प्रस्तुत है ? ”

“ ठीक है, परन्तु आयुष्मान् पूज्य – पूजन की भी एक मर्यादा है। मैं अतिथि तो हूं नहीं, जीविकान्वेषी हूं अर्थी हूं! ”.

“ तो आर्य प्रसन्न हों , वज्जीगण संघ को आशीर्वाद प्रदान करते रहें , आर्य की यही यथेष्ट सेवा होगी। ”

“ भद्र, मैं राजपुरुष प्रथम हूं और ब्राह्मण पीछे। मैं आशीर्वाद देने का अभ्यासी नहीं . राजचक्र चलाने का अभ्यासी हूं । ”

जयराज सन्धिविग्रहिक ने गणपति सुनन्द का संकेत पाकर खड़े होकर कहा

“ तब आर्य यदि वज्जीगण के समक्ष मगध- सम्राट् पर आर्य के प्रति कृतघ्नता अथवा अनाचार का अभियोग उपस्थित करते हैं , तो गण- सन्निपात उस पर विचार करने को प्रस्तुत हैं । ”

“ मगध- सम्राट् वज्जीगण का विषय नहीं है आयुष्मान्, इसलिए वज्जीगण सन्निपात इस सम्बन्ध में विचार नहीं कर सकता । फिर मेरा कोई अभियोग ही नहीं है, मैं तो अन्न का इच्छुक हूं। ”

“ तब यदि आर्य वजीसंघ में राजनियुक्त हों और वज्जीसंघ यदि मगध पर अभियान करे , तब आर्य कठिनाई में पड़ सकते हैं । ”

“ कठिनाई कैसी, आयुष्मान् ? ”

“ द्विविधा की , आर्य! ”

“ परन्तु वज्जीसंघ मगध पर अभियान क्यों करेगा ? उसकी तो साम्राज्य-लिप्सा नहीं है। ”

“ नहीं वज्जीसंघ न अभियान करे, मगध ही वजी पर अभियान करे , तब आर्य क्या करेंगे ? ”

“ जो उचित होगा, वही!

“ और औचित्य का मापदण्ड क्या होगा -विवेक , न्याय या राजनीति ? ”

“ राजनीति आयुष्मान् ! ”

“ किसकी राजनीति, आर्य ? ”जयराज ने हंसकर कहा।

कुटिल ब्राह्मण क्रोध से थर – थर कांपने लगा, उसने कहा

“ मेरी ही राजनीति , आयुष्मान् ! ”

“ तो आर्य क्या ऐसी आज्ञा देते हैं कि भविष्य में वज्ज़ियों का गण – शासन आर्य की राजनीति का अनुगमन करें ? ”

“ यदि यह ब्राह्मण उसके लिए हितकर होगा तो उसे ऐसा ही करना चाहिए। ”

“ तो आर्य, यह गण-नियम के विपरीत है । यह साम्राज्य -विधान में सुकर है गण शासन में नहीं। गण – शासन सन्निपात के छन्द के आधार पर ही शासित हो सकता है । ”

“ तो वज्जीसंघ आश्रित ब्राह्मण को आश्रय नहीं दे सकता है ? ”

अब गणपति सुनन्द ने कहा –

“ आर्य, आप भलीभांति जानते हैं कि हमारा यह संघशासित तन्त्र सर्वसम्मति से चलता है, इसलिए इस सम्बन्ध में सोच-विचारकर जैसा उचित होगा , आर्य से परामर्श करके निर्णय कर लिया जाएगा । तब तक आर्य वज्जी -गणसंघ के प्रतिष्ठित अतिथि के रूप में रहकर संघ की प्रतिष्ठा – वृद्धि करें । ”

“ तो गणपति राजन्य , ऐसा ही हो ! ”

आर्य वर्षकार ने हाथ ऊंचा करके कहा – “ तब तक मैं दक्षिण -ब्राह्मण- कुण्डग्राम सन्निवेश में आयुष्मान् सोमिल श्रोत्रिय का अन्तेवासी होकर ठहरता हूं । ”

विदेश – सचिव ने कहा – “ जिसमें आर्य प्रसन्न हों ! तब तक आर्य की सेवा के लिए सहस्र स्वर्ण प्रतिदिन और यथेष्ट दास -दासी संघ की ओर से नियुक्त किए जाते हैं ! ”

वर्षकार ने मौन हो स्वीकार किया और संथागार त्यागा ।

108. भद्रनन्दिनी : वैशाली की नगरवधू

बहुत दिनों बाद वैशाली में अकस्मात फिर उत्तेजना फैल गई । उत्तेजना के विषय दो थे, एक मगध महामात्य आर्य वर्षकार का मगध – सम्राट् से अनादृत होकर वैशाली में आना; दूसरा विदिशा की अपूर्व सुन्दरी वेश्या भद्रनन्दिनी का वैशाली में बस जाना । जिस प्रकार आर्य वर्षकार उस समय भू – खण्ड पर विश्व -विश्रुत राजनीति के पण्डित प्रसिद्ध थे , उसी प्रकार भद्रनन्दिनी अपने रूप , यौवन और वैभव में अपूर्व थी । देखते ही देखते उसने वैशाली में अपने वैभव का एक ऐसा विस्तार कर लिया कि अम्बपाली की आभा भी फीकी पड़ गई । नगर – भर में यह प्रसिद्ध हो गया कि भद्रनन्दिनी विदिशा के अधिपति नागराज शेष के पुत्र पुरञ्जय भोगी की अन्तेवासिनी थी । वह नागकुमार भोगी के असद्व्यव्हार से कुपित होकर वैशाली आई है । उसके पास अगणित रत्न , स्वर्ण और सम्पदा है । उसका रूप अमानुषिक है और उसका नृत्य मनुष्य को मूर्छित कर देता है । सभी महारागों और ध्वनिवाद्य में उसकी असाधारण गति है। वह चौदह विद्याओं और चौंसठ कलाओं की पूर्ण ज्ञाता , सर्वशास्त्र -निष्णाता दिव्य सुन्दरी है । वह अपने यहां आनेवाले अतिथि से केवल नृत्य -पान का सौ सुवर्ण लेती है। वह अपने को नागराज भोगी पुरञ्जय की दत्ता कहती है और किसी पुरुष को शरीर -स्पर्श नहीं करने देती । वैशाली के श्रीमन्त सेट्टिपुत्र और युवक सामन्त उसे देखकर ही उन्मत्त हो जाते हैं । उसका असाधारण रूप और सम्पदा ही नहीं , उसका वैचित्र्य भी लोगों में कौतूहल की उत्पत्ति करता है । नागपत्नी को देखने की सभी अभिलाषा रखते हैं । जो देख पाते हैं वे उस पर तन – मन वारने को विवश हो जाते हैं , परन्तु किसी भी मूल्य पर वह किसी पुरुष को अपना स्पर्श नहीं करने देती है । उसकी यह विशेषता नगर – भर में फैल गई है। लोग कहते हैं , इसने देवी अम्बपाली से स्पर्धा की है। कुछ कहते हैं , नागराज ने देवी अम्बपाली से प्रणयाभिलाषा प्रकट की थी , सो देवी से अनादृत होकर उनका मनोरंजन करने को यह दिव्यांगना छद्मवेश में नागराज ने भेजी है । भद्रनन्दिनी का द्वार सदा बन्द रहता था । द्वार पर सशस्त्र पहरा भी रहता था , पहरे के बीच में एक बहुत भारी दर्दुर रखा हुआ था , जो आगन्तुक सौ सुवर्ण देता , वही दर्दुर पर डंका बजाता , प्रहरी उसे महाप्रतिहार को सौंप देता और वह आगन्तुक को भद्रनन्दिनी के विलास कक्ष में ले जाता, जहां सुरा , सुन्दरियां और कोमल उपधान उसे प्रस्तुत किए जाते । एक नियम और था , सौ स्वर्ण लेकर एक रात्रि में वह केवल एक अतिथि का मनोरंजन करती थी । तरुण श्रीमन्तों का सामूहिक स्वागत करने का उसका नियम न था ।

कृष्णपक्ष की चतुर्दशी थी । रात अंधेरी थी , पर आकाश स्वच्छ था । उसमें अगणित तारे चमक रहे थे। माघ बीत रहा था । सर्दी काफी थी । नगर की गलियों में सन्नाटा था । डेढ़ पहर रात्रि व्यतीत हो चुकी थी । एक तरुण अश्व पर सवार धीर – मन्थर गति से उन सूनी वीथिकाओं में जा रहा था । भद्रनन्दिनी के सिंह- द्वार पर आकर वह अश्व से नीचे उतर पड़ा ।

ड्योढ़ी के एक दास ने आगे बढ़कर अश्व थाम लिया। प्रहरियों के प्रधान ने आगे बढ़कर कहा – “ भन्ते सेनापति , आप चाहते क्या हैं ? ”

जिस तरुण को सेनापति कहकर सम्बोधित किया गया था , उसने उस प्रतिष्ठित सम्बोधन से कुछ भी प्रसन्न न होकर एक भारी- सी किन्तु छोटी थैली उसकी ओर फेंक दी और आगे बढ़कर डंका उठा दर्दुर पर चोट की । दूर – दूर तक वह शब्द गूंज उठा । प्रहरी ने आदरपूर्वक सिर झुकाकर द्वार खोल दिया ।

प्रहरी विदेशी था । वह जितना शरीर से स्थूल था , वैसी ही स्थूल उसकी बद्धि भी थी । उसने डरते – डरते झुककर पूछा – “ सौ ही स्वर्ण हैं भन्ते , कम तो नहीं ? ”

“ कुछ अधिक ही है।

“ सौ तेरी स्वामिनी के लिए और शेष तेरे लिए हैं । ”तरुण ने मुस्कराकर कहा ।

प्रहरी खुश हो गया । उसने हंसकर कहा – “ आपका कल्याण हो भद्र, यह मार्ग है , आइए! ”

भीतर अलिन्द में जाकर उसने महाप्रतिहार पीड़ को पुकारा । प्रतिहार अतिथि को भद्रनन्दिनी के निकट ले गया । भद्रनन्दिनी ने उसे ले जाकर बहुमूल्य आसन पर बैठाया और हंसकर कहा – “ भद्र , कैसा सुख चाहते हैं – पान , नृत्य , गीत , द्यूत या प्रहसन ?

“ नहीं प्रिये, केवल तुम्हारा एकान्त सहवास , तुम्हारा मृदु- मधुर वार्तालाप । ”

“ तो भन्ते, ऐसा ही हो ! ”उसने दासियों की ओर देखा । दासियां वहां से चली गईं । द्वारों और गवाक्षों पर पर्दे खींच दिए गए। एक दासी एक स्वर्ण- पात्र में गौड़ीय स्फटिक पानपात्र और बहुत – से स्वादिष्ट भूने शल्य मांस -श्रृंगाटक रख गई ।

भद्रनन्दिनी ने कहा – “ अब और तुम्हारा क्या प्रिय करूं प्रिय ? ”

“ मेरे निकट आकर बैठो प्रिये !

नन्दिनी ने पास बैठकर हंसते -हंसते कहा -किन्तु भद्र! तुम जानते हो मैं नागपत्नी हूं, अंग से अस्पृश्य हूं। ”

“ सो मैं जानता हूं प्रिये , केवल तुम्हारे वचनामृत का ही आनन्द लाभ चाहता हूं। ”

नन्दिनी ने मद्यपात्र में सुवासित गौड़ीय उड़ेलते हुए पूछा

“ किन्तु भद्र, यह मुझे किस महाभाग के सत्कार का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है ? ”

“ वैशाली के एक नगण्य नागरिक का भद्रे! ”

“ वैशाली में ऐसे कितने नगण्य नागरिक हैं प्रिय , जो एक वीरांगना से केवल वाग्विलास करने का शुल्क सौ सुवर्ण दे सकते हैं ? ”

“ यह तो भद्रे, गणिकाध्यक्ष सम्भवत : बता सके , परन्तु उसके पास भी आगन्तुकों का हिसाब-किताब तो न होगा ।

“ जाने दो प्रिय , किन्तु , इस प्रियदर्शन नगण्यनागरिक का नाम क्या है ? ”

“ विदिशा की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी आज के शुभ मुहूर्त में उसका जो भी नाम निर्धारित करे , वही। ”

“ उस नाम को वैशाली का गणपद स्वीकार कर लेगा ? ”

“ न करे , उसकी क्या चिन्ता ! किन्तु विदिशा की सुन्दरी के आवास के भीतर तो उसी नाम का डंका बजेगा । ”

नन्दिनी ने हंसकर मद्यपात्र युवक के हाथ में दे दिया और हंसते हुए कहा – “ समझ गई प्रिय, आप छद्म-नाम धारण करना चाहते हैं , किन्तु इसका कारण ? ”

“ यदि यही सत्य है तो छद्म- नाम धारण करने का कारण भी ऐसा नाम धारण करने वाला भलीभांति जानता है, ” उसने मद्य पीते हुए कहा ।

“ ओह, तो मित्र , तुम कोरे तार्किक ही नहीं हो ? ”

“ नहीं प्रिये , मैं तुम्हारा आतुर प्रेमी भी हूं “ उसने खाली पात्र देते हुए कहा ।

नन्दिनी जोर से हंस दी और पात्र फिर से भरते हुए बोली – “ सत्य है मित्र, तुम्हारे प्रेम का सब रहस्य तुम्हारी आंखों और सतर्क वाणी में दीख रहा है। ”उसने दूसरा चषक बढ़ाया ।

चषक लेकर हंसते हुए युवक ने कहा – “ इसी से प्रिये, तुम चषक पर चषक देकर मेरे नेत्रों का रहस्य और वाणी की सतर्कता को धो बहाना चाहती हो । ”

“ नहीं भद्र, मेरी यह सामर्थ्य नहीं, परन्तु गणिका के आवास में आकर भी पान करने में इतना सावधान पुरुष वैशाली ही में देखा। ”

“ मगध में नहीं देखा प्रिये ? ”उसने गटागट पीकर चषक नन्दिनी को दिया । नन्दिनी विचलित हुई। रिक्त चषक लेकर क्षण – भर उसने युवक की ओर घूरकर देखा ।

युवक ने हंसकर कहा – “ यदि कुछ असंयत हो उठा होऊं तो यह तुम्हारे मद्य का दोष है; किन्तु क्या तुम्हें मैंने असन्तुष्ट कर दिया भद्रे ? ”

“ नहीं भद्र, किन्तु मैं मगध कभी नहीं गई। ”

“ ओह, तो निश्चय ही मुझे भ्रम हुआ , नीचे तुम्हारे प्रहरियों के नोकदार शिर – स्त्राण मागध व्रात्यों के समान थे इसी से । ”उसने मुस्कराकर तीखी दृष्टि से युवती को देखा ।

युवती क्षण – भर को चंचल हुई, फिर हंसती हुई बोली – “ हां , उनमें एक – दो मागध हैं , किन्तु । ”

बीच ही में उस युवक ने हंसते हुए कहा – “ समझ गया प्रिये, उन्हीं में से किसी एक ने राजगृह के चतुर शिल्पी का बना यह कुण्डल तुम्हें भेंट किया होगा! ”

नन्दिनी के होठ सूख गए । हठात् उसके दोनों हाथ अपने कानों में लटकते हुए हीरे के बहुमूल्य कुण्डलों की ओर उठ गए । उसने हाथों से कुण्डल ढांप लिए ।

युवक ठठाकर हंस पड़ा । हाथ बढ़ाकर उसने मद्यपात्र उठाकर आकण्ठ भरा और नन्दिनी की ओर बढ़ाकर कहा – “ पियो प्रिये, इस नगण्य नागरिक के लिए एक चषक । ”

नन्दिनी हंस दी । पात्र हाथ में लेकर उसने युवक पर बंकिम कटाक्षपात किया, फिर कहा – “ बड़े धूर्त हो भद्र । ”और मद्य पी गई ।

युवक ने हाथ बढ़ाकर जूठा पात्र लेते हुए कहा

“ आप्यायित हुआ प्रिय ! ”

“ क्या गाली खाकर ? ”

“ नहीं पान देकर । ”

नन्दिनी ने दूसरा चषक लेकर उसमें मद्य भरा और युवक की ओर बढ़ाकर कहा – “ अब और भी आप्यायित होओ प्रिय! ”

“ नागपत्नी की आज्ञा शिरोधार्य, ” उसने पात्र पीकर कहा – “ तो प्रिये, अब मैं चला । ”

“ किन्तु क्या मैं तुम्हारा और कुछ प्रिय नहीं कर सकती ? ”

“ क्यों नहीं प्रिये , इस चिरदास को स्मरण रखकर ! ”

युवक उठ खड़ा हुआ । नन्दिनी ने ताम्बूल – दान किया , गन्धलेपन किया और फिर उसके उत्तरीय के छोर को पकड़कर कहा – “ फिर कब आओगे भद्र ? ”

“ किसी भी दिन , नाग -दर्शन करने ! ” युवक हंसकर चल दिया । नन्दिनी अवाक् खड़ी रह गई ।

युवक ने बाहर आ दास को एक स्वर्ण दिया और वह अश्व पर सवार हो तेज़ी से चल दिया । नन्दिनी गवाक्ष में से उसका जाना देखती रही । वह कुछ देर चुपचाप सोचती रही। फिर उसने दासी को बुलाकर कहा- “ मैं अभी नन्दन साह को देखना चाहती हूं। ”

“ किन्तु भद्रे, रात तीन पहर बीत रही है , नन्दन साहु को उसके घर जाकर इस समय जगाने में बहुत खटपट होगी। ”

“ नहीं – नहीं , तू पुष्करिणी तीर पर जाकर वही गीत गा जो तूने सीखा है । साहु के घर के पीछे गवाक्ष है, वहीं वह सोता है। तेरा गीत सुनते ही वह यहां आएगा और कुछ करना नहीं होगा।

“ किन्तु भद्रे, यदि प्रहरी पकड़ लें ? ”

“ तो कहना भिखारिणी हं . भिक्षा दो । इच्छा हो तो वे भी गीत सनें । ”दासी ने फिर कुछ नहीं कहा। वह चुपचाप गुप्त द्वार से बाहर चली गई ।

नन्दिनी ने अपने भीतर कक्ष में जा यत्न से एक भोजपत्र पर कुछ पंक्तियां लिखीं और उसे मोड़कर उस पर गीली मिट्टी की मुहर कर दी । फिर वह चिन्तित होकर साहु के आने की प्रतीक्षा करने लगी।

109. नन्दन साहु : वैशाली की नगरवधू

वैशाली के अन्तरायण में नन्दन साह की हट्ट खूब प्रसिद्ध थी । उसकी हट्ट में जीवन सामग्री की सभी जिन्स बिक्री होती थी । हल्दी-मिरच और लहसुन से लेकर अन्त : पुर को सुरभित करने योग्य दासियों तक का क्रय -विक्रय होता था । प्रात : सूर्योदय से लेकर रात के दो पहर तक उसकी दुकान पर ग्राहकों की आवाजाही रहती थी । बढ़िया और काम – लायक सौदों की बिक्री का समय रात्रि का पिछला पहर ही होता था । उसकी विस्तृत दुकान में अनेक जिन्स अव्यवस्थित रूप से भरी रहती थी । उनकी कभी सफाई न होती थी । रात को एक दीपक हट्ट में जलता रहता था , जिसकी पीली और धीमी ज्योति में हट्ट की सभी वस्तुएं कांपती हुई – सी प्रतीत होती थीं । हट्ट, हट्ट का स्वामी , हट्ट का सारा सामान बहुत अशुभ और बीभत्स – सा लगता था , परन्तु गर्जू ग्राहक फिर भी वहां आते ही थे । एक पण में सात मसाले से लेकर सौ दम्म तक के सम्भ्रान्त ग्राहक वहां बने ही रहते थे।

इस हट्ट में भरी हुई असंख्यनिर्जीव वस्तुओं में चार सजीव वस्तु थीं , चारों में एक स्वयं गृहपति नन्दन साहु, दूसरी उसकी पत्नी ‘ भद्रा , तीसरी बेटी शोभा और चौथा पुत्र दामक । साह की आय साठ को पार कर गई थी , गंजे सिर पर गिनती के दो – चार बाल खड़े रहते थे। सम्भव है- उसने जीवन भर पेट भरकर भोजन नहीं किया था । उसी से उसका शरीर एक प्रकार से कंकाल -मात्र था । वह कमर में एक मैली धोती लपेटे प्रात : काल से आधी रात तक अपने थड़े पर बैठा – बैठा तोलता रहता था । कभी वह रोगी नहीं हुआ , कभी अपने आसन से अनुपस्थित नहीं हुआ, कभी किसी पर क्रोध नहीं किया । वह सबसे हंसकर बोलता , सावधानी से सौदा बेचता और कमाई के पणों को गिन -गिनकर सहेजता , यही उसके जीवन का नित्यकर्म था । वह मितभाषी भी पूरा था और बात का धनी भी । वह छोटे बड़े सबकी आवश्यकताएं पूरी किया करता । इसी से वैशाली में सब कोई नन्दन साहु के नाम से परिचित थे। परन्तु इन सब व्यवसायों के अतिरिक्त उसका और भी गूढ़ एक व्यवसाय था , जिसे कोई नहीं जानता था ।

110. दक्षिणा -ब्राह्मणा- कुण्डपुर – सन्निवश : वैशाली की नगरवधू

वैशाली नगर का बड़ा भारी विस्तार था । उसके अन्तरायण में तीन सन्निवेश थे, जो अनुक्रम से उत्तम , मध्यम और कनिष्ठ के नाम से विख्यात थे। उत्तम सन्निवेश में स्वर्ण कलशवाले सात सहस्र हर्म्य थे। यहां केवल सेट्ठि गृह- पति और निगमों का निवास था । मध्यम सन्निवेश में चौदह सहस्र चांदी के कलशवाली पक्की अट्टालिकाएं थीं । इनमें विविध व्यापार करनेवाले महाजन और मध्यम वित्त के श्रेणिक जन रहते थे। तीसरे कनिष्ठ सन्निवेश में तांबे के कलश -कंगूरवाले इक्कीस सहस्र घर थे। जहां वैशाली के अन्य पौर नागरिक उपजीवी जन रहते थे।

इस अन्तरायण के सिवा वैशाली के उत्तर -पूर्व में दो उपनगर और थे। एक तो उत्तर -ब्राह्मण – क्षत्रिय – सन्निवेश कहा जाता था । यह ज्ञातृवंशीय क्षत्रियों का सन्निवेश था । इसके निकट उनका कोल्लाग – सन्निवेश था , जिसे छूता हुआ ज्ञातृ- क्षत्रियों का प्रसिद्ध द्युतिपलाश नामक उद्यान एवं चैत्य था । दूसरे उपनिवेश का दूसरा भाग दक्षिण -ब्राह्मण कुण्डपुर – सन्निवेश कहलाता था । इसमें केवल श्रोत्रिय ब्राह्मणों के घर थे, जो परम्परा से वहीं पीढ़ी – दर – पीढ़ी रहते चले आए थे। वैशाली की पश्चिम दिशा में वाणिज्य – ग्राम था । इसमें विश जन और कम्मकर रहते थे जो अधिकतर कृषि और पशुपालन का धन्धा करते थे। इस सम्पूर्ण बस्ती को वैशाली नगरी कहा जाता था ।

दक्षिण -ब्राह्माण – कुण्डपुर – सन्निवेश में सोमिल ब्राह्मण रहता था । वह ब्राह्मण धनिक, सम्पन्न और पण्डित था । ऋगादि चारों वेदों का सांगोपांग ज्ञाता और ब्राह्मण -कार्य में निपुण था । बहुत – से सेट्ठिजन और राजा उसके शिष्य थे। बहुत – से बटुक देश- देशान्तरों से आकर उसके निकट विद्यार्जन करते थे। वह विख्यात काम्पिल्य शाखा का यजुर्वेदी ब्राह्मण था । वेदाध्यायियों से उसका घर भरा रहता था । उसके घर की शुक – सारिकाएं ऋग्वेद की ऋचाएं उच्चरित करती थीं । वे पद- पद पर विद्यार्थियों के अशुद्ध पाठ का सुधार करती थीं । उसका घर यज्ञ – धूम से निरन्तर धूमायित रहता था । सम्पूर्ण दक्षिण -ब्राह्मण- कुण्डपुर सन्निवेश में यह बात प्रसिद्ध थी कि श्रोत्रिय सोमिल के ऋषिकल्प पिता ऋषिभद्र के होमकालीन श्रमसीकर साक्षात् वीणाधारिणी सरस्वती अपने हाथों से पोंछती थीं । श्रोत्रिय सोमिल उषाकाल ही में हवन करने बैठ जाते ; दो दण्ड दिन चढ़े तक वे यज्ञ करते , बलि देते , फिर धुएं से लाल हुई आंखों और पसीने से भरा शरीर लिए, अध्यापन के लिए कुशासन पर बैठ जाते । वेदपाठी होने के साथ ही वे अपने युग के दिग्गज तार्किक भी थे। उनकी विद्वत्ता और ब्राह्मण्य का वैशाली के गणप्रतिनिधियों पर बड़ा प्रभाव था । राजवर्गी तथा जानपदीय सभी उनका मान करते थे।

इन्हीं सोमिल ब्राह्मण के यहां मगध के निर्वासित और पदच्युत महामात्य कूटनीति के आगार आर्य वर्षकार ने आतिथ्य ग्रहण कर निवास किया था । विज्ञापन के अनुसार लिच्छवि – राजकीय -विभाग से उनके लिए नित्य एक सहस्र सुवर्ण और आहार्य सामग्री आती। नगर के अन्य गण्यमान्य सेट्ठि -सामन्त भी इस ब्राह्मण के सत्कार के लिए वस्त्र , फल, स्वर्ण, पात्र निरन्तर भेजते रहते । पर यह तेजस्वी ब्राह्मण इस सब उपानय – सामग्री को छूता भी न था । वह उस सम्पूर्ण सामग्री को उसी समय ब्राह्मणों और याचकों में बांट देता था । इससे सूर्योदय के पूर्व ही से सोमिल ब्राह्मण के द्वार पर याचकों, ब्राह्मणों और बटुकों का मेला लग जाता था ।

देखते- ही – देखते इस तेजपुञ्ज ब्राह्मण के प्रतिदिन सहस्रसुवर्ण- दान – माहात्म्य और वैशिष्ट्य की चर्चा वैशाली ही में नहीं , आसपास और दूर – दूर तक फैल चली । याचक लोग याचना करने और भद्र संभ्रान्त जन इस ब्राह्मण का दर्शन करने दूर – दूर से आने लगे। ब्राह्मण स्वच्छ जनेऊ धारण कर विशाल ललाट पर श्वेतचन्दन का लेप लगा एक कुशासन पर बहुधा मौन बैठा रहता । एक उत्तरीय मात्र उसके शरीर पर रहता । वह बहुत कम भाषण करता तथा सोमिल की यज्ञशाला के एक प्रान्त में एक काष्ठफलक पर रात्रि को सोता था । वह केवल एक बार हविष्यान्न आहार करता । वह यज्ञशाला के प्रान्त में बनी घास की कुटीर के बाहर केवल एक बार शौचकर्म के लिए ही निकलता था ।

सहस्र सुवर्ण नित्य दान देने की चर्चा फैलते ही अन्य श्रीमन्त भक्तों ने भी सुवर्ण भेंट देना प्रारम्भ किया – सो कभी – कभी तो प्रतिदिन दस सहस्र सुवर्ण नित्य दान मिलने लगा । ब्राह्मण याचक आर्य वर्षकार का जय – जयकार करने लगे और अनेक सत्य – असत्य , कल्पित – अकल्पित अद्भुत कथाएं लोग उसके सम्बन्ध में कहने लगे । बहुमूल्य उपानय के समान ही यह ब्राह्मण भक्तों की तथा राजदत्त सेवा भी नहीं स्वीकार करता था । वज्जीगण के वैदेशिक खाते से जो दास – दासी और कर्णिक सेवा में भेजे गए थे, बैठे – बैठे आनन्द करते । ब्राह्मण उससे वार्ता तक नहीं करते, पास तक नहीं आने देते । केवल ब्राह्मण सोमिल ही आर्य वर्षकार के निकट जा पाता, वार्तालाप कर पाता । वही उन्हें अपने हाथ से मध्याह्नोत्तर हविष्यान्न भोजन कराता – जो सूद -पाचकों द्वारा नहीं, स्वयं गृहिणी , सोमिल की ब्राह्मणी, रसोड़े से पृथक् अत्यन्त सावधानी से तैयार करती थी , और जिसे सोमिल – दम्पती को छोड़ कोई दूसरा छु या देख भी नहीं सकता था । ऐसी ही अद्भुत दिनचर्या इस पदच्युत अमात्य ब्राह्मण की वैशाली में चल रही थी ।

111. हरिकेशीबल : वैशाली की नगरवधू

इस समय वैशाली में एक और नवीन प्राणी का आगमन हुआ था । यह एक आजीवक परिव्राजक था । वह अत्यन्त लम्बा, काला , कुरूप और एक आंख से काना था । उसकी अवस्था बहुत थी – वह अति कृशकाय था ; परन्तु उसकी दृष्टि पैनी , वाणी सतेज और शरीर का गठन दृढ़ था । वह कभी स्नान नहीं करता था , इससे उसका शरीर अत्यन्त मलिन और दूषित दीख पड़ता था । उसने अंग पर पांसुकुलिक धारण किए थे, जो श्मशान में मुर्दो पर से उतारकर फेंक दिए गए थे। वे भी फटकर चिथड़े-चिथड़े हो गए थे और गंदे होकर मिट्टी के रंग भी मिल गए थे।

यह आजीवक निर्द्धन्द्ध विचरण करता । गृहस्थों के द्वार पर , वीथी- हट्ट पर , राजद्वार , और राजपथ पर सर्वत्र अबाध रूप में निरन्तर घूमता था । उसका सोने – बैठने ठहरने का कोई स्थान न था । उसकी जीवन -यात्रा में सहायक सामग्री भी कुछ उसके निकट न थी । इस प्रकार यह कृशकाय , घृणित और कुत्सित मलिन भूत – सा व्यक्ति जहां जाता , वहीं लोग उसे तिरस्कारपूर्वक दुत्कार देते , उसे अशुभ रूप समझते। परन्तु उसे इस तिरस्कार घृणा की कोई चिन्ता न थी । वह जहां से भिक्षा मांगता , वहां जाकर कहता – “ मैं चाण्डालकुलोत्पन्न हरिकेशीबल हूं । मैं सर्वत्यागी संयमी ब्रह्मचारी हूं। मैं अपने हाथ से अन्न नहीं रांधता , मुझे भिक्षा दो । भिक्षा मेरी जीविका है । ”बहुत लोग उसे मारने दौड़ते , बहुत मार बैठते , बहुत उसे दुत्कार कर भगा देते ; पर वह किसी पर रोष नहीं करता था । वह मार , तिरस्कार और धक्के खाकर हंसता हुआ दूसरे द्वार पर वही शब्द कहकर भिक्षा मांगता था । कभी -कभी लोग उस पर दया करके उसे कुछ दे भी देते थे, पर उसे बहुधा निराहार ही किसी वृक्ष के नीचे पड़े रहना पड़ता था ।

वह घूमता हुआ एक दिन कुण्डग्राम के दक्षिणब्राह्मण – सन्निवेश में सोमिल श्रोत्रिय के द्वार पर जा पहुंचा। वहां ब्राह्मणों, ब्रह्मचारियों , श्रोत्रियों और वेदपाठी बटुकों की भीड़ लगी थी । आर्य वर्षकार एक छप्पर के नीचे बांस की बनी मींड पर बैठे अपनी आंखों स्वर्ण वस्त्र का बांटा जाना देख रहे थे। अनेक श्रोत्रिय बटुक इस आयोजन में हाथ बंटा रहे थे। इसी समय आजीवक हरिकेशीबल उन ब्राह्मणों की भीड़ में मिलकर जा खड़ा हुआ ।

इस अशुभ , अशुचि , घृणित श्मशान से उठाए हुए चीथड़े अंग पर लपेटे , काणे मनुष्य को देखकर सब ब्राह्मण , बटुक एवं श्रोत्रिय दूर हट गए । बहुतों ने मारने को दण्ड हाथ में लेकर कहा

“ तू कौन है रे भाकुटिक ? कहां से तू ब्राह्मणों में घुस आया ? भाग यहां से! ”

उसने सहज – शान्त स्वर में कहा – “ मैं चाण्डाल – कुलोत्पन्न हरिकेशीबल हूं। मैं सर्वत्यागी ब्रह्मचारी हूं । मैं अपना अन्न रांधता नहीं । भिक्षा मेरी जीविका है, मुझे भिक्षा दो । ”

बहुत ब्राह्मण अपना स्वच्छ जनेऊ हाथ में लेकर उसे मारने दौड़े – “ भाग रे चाण्डाल, भाग रे , भाकुटिक , ब्राह्मणों में घुस आया पतित ! ”

परन्तु हरिकेशी भागा नहीं । विचलित भी नहीं हुआ । उसने कहा – “ मैं संयमी हूं , दूसरे लोग अपने लिए जो अन्न रांधते हैं , उसी में से बचा हुआ थोड़ा अन्न मैं भिक्षाकाल में मांग लेता हूं । आप लोग यहां याचकों को बहुत स्वर्ण, वस्त्र , अन्न दे रहे हैं । मुझे स्वर्ण नहीं चाहिए , उससे मेरा कोई काम नहीं सरता । वस्त्र मैं श्मशान से उठा लाता हूं, मैं तो दिगम्बर आजीवक हूं, मुझे अन्न चाहिए । मुझे अन्न दो । आपके पास बहुत अन्न हैं , आप लोग खा – पी रहे हैं , मुझे भी दो , थोड़ा ही दो । मैं तपस्वी हूं , ऐसा समझकर जो बच गया हो वही दो ।

एक ब्राह्मण ने क्रुद्ध होकर कहा – “ अरे मूर्ख, यहां ब्राह्मणों के लिए अन्न तैयार होता है, चाण्डालों के लिए नहीं, भाग यहां से । ”

“ अतिवृष्टि हो या अल्पवृष्टि, तो भी कृषक ऊंची-नीची सभी भूमि में बीज बोता है और आशा करता है खेत में अन्न – पाक होगा । उसी भांति तुम भी मुझे दान दो । मुझ जैसे तुच्छ चाण्डाल मुनि को अन्न – दान करने से तुम्हें पुण्य – लाभ होगा। ”

इस पर बहुत – से ब्राह्मण एक बार ही आपे से बाहर होकर लगुड – हस्त हो उसे मारने को दौड़े । उन्होंने कहा – “ अरे दुष्ट चाण्डाल , तू अपने को मुनि कहता है! नहीं जानता , पृथ्वी पर केवल हम ब्राह्मण ही दान पाने के प्रकृत अधिकारी हैं , ब्राह्मण ही को दिया दान पुण्यफल देता है। ”

“ क्रोध , मान, हिंसा, असत्य, चोरी और परिग्रह से युक्त जनों को जाति तथा विद्या से रहित ही जानना चाहिए। ऐसे जन दान के पात्र नहीं हो सकते । वेद पढ़कर भी उसके अभिप्राय को न जाननेवाला पुरुष कोरा गाल बजाने वाला कहाता है, परन्तु ऊंच-नीच में समभाव रखनेवाला मुनि दान के योग्य सत्यपात्र है । ”

“ अरे काणे चाण्डाल , तू हम ब्राह्मणों के सम्मुख वेदपाठी ब्राह्मणों की निन्दा करता है ! याद रख, हमारा बचा हुआ यह अन्न सड़ भले ही जाए और फेंकना पड़े , पर तुम निगंठ चाण्डाल को एक कण भी नहीं मिल सकता , तू भाग । ”

“ सत्यवृत्ति एवं समाधि – सम्पन्न मन – वचन – कर्म से असत् -प्रवृत्तियों से मुक्त , जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी को यदि तुम अन्न नहीं दे सकते , तो फिर तुम पुण्य भी नहीं पा सकते हो । ”

इतनी देर बाद श्रोत्रिय ने चिल्लाकर कहा –

“ अरे कोई है, इसे डंडे मारकर भगाओ यहां से, मारो धक्के! गर्दन नापो, गर्दन ! ”

इस पर कुछ बटुक दण्ड ले – लेकर हरिकेशी को मारने लगे । हरिकेशी हंसता हुआ निष्क्रिय पिटता रहा ।

इसी समय एक परम रूपवती षोडशी बाला, बहुमूल्य मणि – सुवर्ण-रत्न धारण किए विविध बहमूल्य वस्त्रों से सुसज्जित दौड़ी आई और हरिकेशी के आगे दोनों हाथ फैलाकर खड़ी हो गई। उसे इस प्रकार खड़ी देख हरिकेशी को मारनेवाला ब्राह्मण बटुक रुक गया । युवती ने कहा – “ अलम्- अलम् ! मैं पूर्व विदेह की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा महापद्म की पुत्री जयन्ती हूं ; मेरे पिता ने मुझे इस महात्मा को प्रदान कर दिया था , परन्तु इस इन्द्रिय -विजयी ने स्वीकार नहीं किया । यह महातपस्वी , उग्र ब्रह्मचारी, घोर व्रत और दिव्य शक्तियों का प्रयोक्ता है । इसे क्रुद्ध या असन्तुष्ट न करना नहीं तो यह तुम सब ब्राह्मणों को अपने तेज से जलाकर भस्म कर डालेगा । ”

उस तथाकथित राजकुमारी षोडशी बाला की ऐसी अतर्कित वाणी सुनकर सब ब्राह्मण आश्चर्यचकित रह गए । बहुत – से भयभीत होकर उस घृणित चाण्डाल मुनि को देखने लगे । बहुत – से अब भी अपशब्द बकते रहे । इसी समय नन्दन साहु बहुत – सी खाद्य – सामग्री गाड़ी में भरे वहां आ उपस्थित हुआ । जब से आर्य वर्षकार का वहां सदाव्रत लगा था – नन्दन साहु सब रसद पहुंचाता था । साहु ने ज्यों ही वहां खड़े निगंठ चाण्डाल मुनि को देखा , वह दौड़कर उसके चरणों में लोट गया । उस महाकलुषित अशुभ चाण्डाल के चरणों में साहु को लोटता हुआ देख ब्राह्मणों को और भी आश्चर्य हुआ । उनके आश्चर्य तथा भीति को बढ़ाता हुआ साहु बोला – आर्यो, यह साक्षात् तेजपुंज तपस्वी हैं । आप जानते नहीं हैं , मन्द कान्तार यक्ष की चौकी पर यह उग्र मुनि तप करते हैं । वह भीषण यक्ष, जिसके भय से वैशाली का कोई जन रात्रि को उस दिशा में नहीं जाता , इस मुनि की नित्य चरण – सेवा करता है। यह मैंने आंखों से देखा है। आपने अच्छा नहीं किया , जो भिक्षाकाल में इस मुनि को असन्तुष्ट कर दिया । आर्यो, मेरा कहा मानो , आप इन महातेजोपुञ्ज तपस्वी के चरणों में गिरकर इनकी शरण जाओ, नहीं तो आपकी जीवन – रक्षा ही कठिन हो जाएगी। ”

परन्तु साहु की ऐसी भयानक बात सुनकर भी ब्राह्मण जड़वत् खड़े रह गए । इस काणे चाण्डाल के चरण छूने का किसी को साहस नहीं हुआ ।

साहु ने फिर चाण्डाल मुनि के चरण छुए और कहा – “ क्षमा करो, हे महापुरुष , इन ब्राह्मणों को जीवनदान दो । आइए समर्थ भदन्त , मेरे साथ मेरी भिक्षा ग्रहण कर मेरे कुल को कृतार्थ कीजिए। ”

इतना कहकर नन्दन साहु उस काणे तपस्वी चाण्डाल को बड़े आदरपूर्वक राह मार्ग को अपने उत्तरीय से झाड़ता हुआ अपने साथ ले चला । सब ब्राह्मण तथा पौरगण जड़वत् इस व्यापार को देखते रहे। प्रतापी मगध महामात्य भी निश्चल बैठे देखते रहे ।

112 . चाण्डाल मुनि का कोप : वैशाली की नगरवधू

हरिकेशीबल के वहां चले जाने पर भी वह तथाकथित राजकन्या वहां से नहीं गई । बहुत प्रकार से ब्राह्मणों को डराती – धमकाती रही। उसने कहा – “ हे ब्राह्मणो, तुमने अच्छा नहीं किया जो चाण्डाल मुनि को भिक्षा के काल में भिक्षा नहीं दी , उसे अपशब्द कहे , पीटा , उसे विरत किया । अब भी समय है, तुम उसके चरणों में पड़कर प्राण-भिक्षा मांग लो , नहीं तो मन्द कान्तार का यक्ष आज आप लोगों को जीवित नहीं छोड़ेगा। ”

बहुत से ब्राह्मण डर गए। बहुत संदिग्ध भाव से उस रूपसी बाला की बात सुनते रहे । कुछ ही देर में वे सब फिर कहने लगे – “ वाह, यह सब माया यहां नहीं चलेगी । हम ब्राह्मण वेदपाठी क्या उस काणे चाण्डाल के पैर छुएंगे! ”

सुन्दरी क्रुद्ध होती हुई चली गई । बहुत जन रूपसी के रूप की और कुछ उसकी अद्भुत वार्ता की आलोचना करते रहे। भोजन की वेला हुई और ब्राह्मण पंक्ति में बैठे ; ब्राह्मण- भोजन प्रारम्भ हुआ । भोजन के बाद स्वर्णवस्त्र उन्हें बांटे गए । परन्तु यह क्या आश्चर्य – चमत्कार हुआ , देखते – ही – देखते सभी ब्राह्मण उन्मत्तों की – सी चेष्टा करने लगे । वे हंसने -नाचने और अट्टहास करने लगे , अपने भूषण- वस्त्र उतार – उतारकर नंगे हो , बीभत्स और अश्लील चेष्टाएं करने लगे । बहुत लोग रक्त -वमन कर मूर्छित होने लगे। बहुत जन कटे काष्ठ के समान भूमि पर गिरकर पटापट मरने लगे ।

सोमिल ने भयभीत होकर आर्य वर्षकार से कहा- “ आर्य, यह सब क्या हो गया । ”

“ ठीक नहीं हुआ सोमिल , चाण्डाल मुनि का कोप ब्राह्मणों पर हुआ। सम्भवत : यक्ष ने कुपित होकर ब्राह्मणों को मार डाला है। ”

“ तो आर्य, अब क्या करना चाहिए। ”

“ सोमिल , सब ब्राह्मणों को लेकर तुम नन्दन साहु के घर पर जाकर जितेन्द्रिय मुनि की स्तुति करके उसे प्रसन्न करो, इसी में कल्याण देखता हूं। ”

तब सोमिल बहुत – से ब्राह्मणों को संग ले नन्दन साहु के घर पहुंचा जहां वह कुत्सित चाण्डाल मुनि उच्चासन पर बैठा आनन्द से विविध पक्वान्न और मिष्टान्न खा रहा था । उसे देख , हाथ जोड़, सोमिल को आगे कर सब ब्राह्मणों ने कहा

“ हे भदन्त , हमें क्षमा करो , हम मूढ़ और अज्ञानी बालक के समान हैं । हम सब मिलकर आपकी चरण – वन्दना करते हैं । हे महाभाग , हम आपका पूजन करते हैं । आप हम सब ब्राह्मणों के पूज्य हैं । यह हम विविध प्रकार के व्यंजन , अन्न और पाक आपके लिए लाए हैं । इन्हें ग्रहण कर हमें कृतार्थ कीजिए । हे भदन्त ! हे महाभाग! हम सब ब्राह्मण आपकी शरणागत हैं । ”

चाण्डाल मुनि ने सुनकर कहा – “ हे घमण्डी ब्राह्मणो! यदि सत्य ही तुम्हें अनुताप हुआ है, तो जाओ, मन्दकान्तार जा , साणकोष्ठक चैत्य में शूलपाणि यक्ष की अभ्यर्थना- पूजन करो। उसे प्रसन्न करो । नहीं तो सम्पूर्ण वैशाली ही का नाश हो जाएगा । हे ब्राह्मणो ! अपने पाप से वैशाली को नष्ट न करो। ”

यह सुनकर सब ब्राह्मण, बटुक ब्रह्माचारी , वेदपाठी श्रोत्रिय जन सहस्रों , भीत विस्मित , चमत्कृत नागर पौरजनों की भीड़ के साथ विकट विजन मन्दकान्तार वन में साणकोष्ठ चैत्य में जा अतिभयानक शूलपाणि यक्ष की मूर्ति के सामने भूमि पर गिरकर त्राहि माम् त्राहि माम् ! कहने लगे। तब उस अन्ध गुफा से मूर्ति के पीछे से रक्ताम्बर धारण किए और शूल हाथ में लिए वही सुन्दरी बाला बाहर आई और उच्च स्वर से कहने लगी – “ अरे मूढ़ जनो ! मैं तुम सब ब्राह्मणों का आज भक्षण करूंगी। मैं यक्षिणी हूं। तुमने ब्राह्मणत्व के दर्प में मनुष्य – मूर्ति का तिरस्कार किया है ; क्या तुम नहीं जानते कि ब्राह्मण और चाण्डाल दोनों में एक ही जीवन सत्त्व प्रवाहित है, दोनों का जन्म एक ही भांति होता है, एक ही भांति मृत्यु होती है, एक ही भांति सोते हैं , खाते हैं ; इच्छा , द्वेष , प्रयत्न के वशीभूत हो सुख – दुःख की अनुभूति करते हैं । अरे मूर्यो! तुमने कहा था कि तुम्हारा तप: पूत अन्न फेंक भले ही दिया जाए, पर चाण्डाल याचक को नहीं मिलेगा ? तुम मनुष्य -हिंसक , मनुष्य हितबाधक हो , तुम मनुष्य -विरोधी हो । मरो तुम आज सब ! ”

“ त्राहि माम् , त्राहि माम् ! हे देवी , हे यक्षिणी मात :, हमारी रक्षा करो! हमने समझा था – हमारा पूत अन्न …..। ”

“ अरे मूर्यो, तुम जल से शरीर की बाह्य शुद्धि करके उसे ही महत्त्व देते हो , तुम अन्तरात्मा की शुद्धि को नहीं जानते । अरे, यज्ञ करने वाले ब्राह्मणो, तुम दर्भयज्ञ , यूप , आहवनीय , गन्ध , तृण, पशुबलि , काष्ठ और अग्नि तक ही अपनी ज्ञानसत्ता को सीमित रखते हो ; तुमने असत्य का , चोरी का , परिग्रह का त्याग नहीं किया। तुम स्वर्ण, दक्षिणा और भोजन के लालची पेटू ब्राह्मण हो , तुम शरीर को महत्त्व देते हो , शरीर की सेवा में लगे रहते हो । तुम सच्चे और वास्तविक यज्ञ को नहीं जानते । ”

“ तो यक्षिणी मात:, हमें यज्ञ की दीक्षा दीजिए।

“ अरे मूर्ख ब्राह्मणो! कष्ट सहिष्णुता तप है, वही यज्ञाग्नि है, जीवन – तत्त्व यज्ञाधिष्ठान है । मन -वचन – कर्म की एकता यज्ञाहुति है । कर्म समिधा है और आत्मतुष्टि पूर्णाहुति है। विश्व के प्राणियों में आत्मानुभूति का अनुभव कर समदर्शी होना स्वर्ग- प्राप्ति

“ धन्य है मात :! धन्य है यक्षकुमारी! हम सब ब्राह्मण तेरी शरण हैं , हमारी रक्षा करो! हमारी रक्षा करो !! ”

इसी प्रकार रुदन करते , वे सब ब्राह्मण फिर भूमि पर उस सुन्दरी के चरणों में गिर गए । तब ब्राह्मण सोमिल के सिर को शूल से छूकर उस यक्षकुमारी ने कहा – “ उठ रे ब्राह्मण , अभी तुम्हें जीवन दिया है । ”

इतना कहकर वह तेजी से यक्षमूर्ति के पीछे गुहाद्वार में जा अन्धकार में लोप हो गई; और वे ब्राह्मण तथा पौर जानपद भय , भक्ति और विविध भावनाओं से विमूढ़ बने नगर की ओर लौटे ।

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