कायाकल्प (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद Part 5

कायाकल्प (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद Part 5

अठारह

चक्रधर को जेल में पहुँचकर ऐसा मालूम हुआ कि वह एक नई दुनिया में आ गए, जहां मुनष्य ही मनुष्य हैं, ईश्वर नहीं। उन्हें ईश्वर के दिये हुए वायु और प्रकाश के मुश्किल से दर्शन होते थे। मनुष्य के रचे हुए संसार में मनुष्य की कितनी हत्या हो सकती है, इसका उज्ज्वल प्रमाण सामने था। भोजन ऐसा मिलता था, जिसे शायद कुत्ते भी सूंघकर छोड़ देते। वस्त्र ऐसे, जिन्हें कोई भिखारी भी पैरों से ठुकरा देता, और परिश्रम इतना करना पड़ता था, जितना बैल भी न कर सके। जेल शासन का विभाग नहीं, पाशविक व्यवसाय है, आदमियों से जबरदस्ती काम लेने का बहाना, अत्याचार का निष्कंटक साधन। दो रुपए रोज का काम लेकर, दो आने का खाना खिलाना ऐसा अन्याय है, जिसकी कहीं नजीर नहीं मिल सकती। जिस परिश्रम से एक कुनबे का पालन होता हो, वह अपना पेट भी नहीं भर सकता। इन्साफ तो हम तब जानें, जब अपराधी को दंड दीजिए, उससे खूब काम लीजिए, लेकिन उसकी मेहनत के पैसे उसके घर पहुंचा दीजिए। अपराधी के साथ उसके घरवालों की प्राण-हत्या न कीजिए। अगर यह कहिए कि अपराधी घरवालों की सलाह से अपराध करता है, तो उसका प्रमाण दीजिए। बहुत-से कुकर्म ऐसे होते हैं, जिनकी घर-वालों को गन्ध तक नहीं मिलती। ऐसी दशा में घरवालों को क्यों दंड दिया जाए ? फिर नाबालिगों का क्या दोष! वह तो कुकर्म में शरीक नहीं होते। उनका क्यों खून करते हो? आदि से अंत तक सारा व्यापार घृणित, जघन्य, पैशाचिक और निंद्य है। अनीति की अक्ल यहां दंग है, दुष्टता भी यहां दांतों तले उंगली दबाती है।

मगर कुछ ऐसे भी भाग्यवान् हैं, जिनके लिए ये जेल कल्पवृक्ष से कम नहीं। बैल अनाज पैदा करता है, तो अनाज का भूसा खाता है। कभी-कभी खली-चोकर और दाना भी उसके कंठ तले पहुँच जाता है। कैदी बैल से भी गया-गुजरा है। वह नाना प्रकार के शाक-भाजी और फल-फूल पैदा करता है; पर उसकी गंध भी उसे नहीं मिलती। नित्य प्रति सब्जी, फल और फलों से भरी हुई डालियां हुक्काम के बंगलों पर पहुँच जाती हैं। कैदी देखता है और किस्मत ठोककर रह जाता है।

चक्रधर को चक्की पीसने का काम दिया गया। प्रातःकाल गेहूँ तौलकर दे दिया जाता और संध्या तक उसे पीसना जरूरी था। कोई उज्र या बहाना न सुना जाता था। बीच में केवल एक बार खाने की छुट्टी मिलती थी। इसके बाद फिर चक्की में जुत जाना पड़ता था। वह बराबर सावधान रहते थे कि किसी कर्मचारी को उन्हें कुछ कहने का मौका न मिले, लेकिन गालियों में बात करना जिनकी आदत हो, उन्हें कोई क्योंकर रोकता? प्रायः रोज फटकार और गालियां खानी पड़ती थीं और उनकी रातें सोने के बदले रोने और दिल को शांत करने में कट जाती थीं।

किंतु विपत्ति का अंत यहीं तक न था। कैदी लोग उन पर ऐसी अश्लील, ऐसी अपमानजनक आवाजें कसते थे कि क्रोध और घृणा से उनका रक्त खौल उठता, पर लहू का चूंट पीकर रह जाते थे। न कोई शिकायत सुनने वाला था, न घाव पर मरहम रखने वाला। सबसे बड़ी मुसीबत का सामना रात को होता था, जब दरवाजे बंद हो जाते थे और अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए बाहुबल के सिवा कोई साधन न होता था। उनके कमरे में पांच कैदी रहते थे। उनमें धन्नासिंह नाम का एक ठाकुर भी था, बहुत ही बलिष्ठ और गजब का शैतान। वह उनका नेता था। वे सब इतना शोर मचाते, इतनी गंदी, घृणोत्पादक बातें करते कि चक्रधर को कानों में उंगलियां डालनी पड़ती थीं। उन्हें प्रतिक्षण यह भय रहता था कि ये सब न जाने कब मेरी दुर्गति कर डालें। रात को जब तक वे सो न जाएं, वह खुद न सोते थे। हुक्म तो यह था कि कोई कैदी तंबाकू भी न पीने पाए, पर यहां गांजा, भंग, शराब, अफीम यहां तक कि कोकेन भी न जाने किस तिकड़म से पहुँच जाते थे। नशे में वे इतने उदंड हो जाते, मानो नर-तनधारी राक्षस हों।

धीरे-धीरे चक्रधर को इन आदमियों से सहानुभूति होने लगी। सोचा, इन परिस्थितियों में पड़कर कौन ऐसा प्राणी है, जिसका पतन न हो जाएगा? बहुत दिनों से सेवा-कार्य करते रहने पर भी पहले उनको कैदियों से मिलने-जुलने में झिझक होती थी। उनकी गंदी बातें सुनकर वह घृणा से मुंह फेर लेते थे। उन्हें सभी श्रेणी के मनुष्यों से साबिका पड़ चुका था; पर ऐसे निर्लज्ज, गालियां खाकर हंसने वाले, दुर्व्यसनों में डूबे हुए, मुंहफट बेहया आदमी उन्होंने अब तक न देखे थे। उन्हें न गालियों की लाज थी, न मार का भय। कभी-कभी उन्हें ऐसी-ऐसी अस्वाभाविक ताड़नाएं मिलती थीं कि चक्रधर के रोएं खड़े हो जाते थे, मगर क्या मजाल कि किसी कैदी की आंखों में आंसू आए। वह व्यापार देख-देखकर चक्रधर अपने कष्टों को भूल जाते थे। कोई कैदी उन्हें गाली देता, तो चुप हो जाते और इस ताक में रहते थे कि कब इसके साथ सज्जनता दिखाने का अवसर मिले।

तहसीलदार साहब का हुक्काम से मेल-जोल था ही। रियासत में नौकर हुए थे, यह मेल-जोल और भी बढ़ गया था। उन लोगों को देहातों से ला-लाकर कोई न कोई सौगात भेजते रहते थे। उसी मुलाहजे की बदौलत उन्हें समय-समय पर चक्रधर के पास खाने-पीने की चीजें भेजने में कोई दिक्कत न होती थी। चक्रधर इन चीजों को पाते ही कैदियों में बांट देते। ऐसी लूट मचती कि कभी-कभी उनको अपने मुंह में जरा-सा भी रखने की नौबत न आती। जेल के छोटे कर्मचारी तो चाहते थे कि हमीं सब कुछ हड़प कर जाएं, इसलिए जब वे चीजें उनके हाथ न लगकर कैदियों को मिल जाती थीं तो वे इसकी कसर चक्रधर से निकालते थे-काम लेने में और भी सख्ती करते, जरा-जरा सी बात पर गालियां देने पर तैयार हो जाते, लेकिन कैदियों पर चक्रधर की सज्जनता का कुछ न कुछ असर अवश्य होता था। चक्रधर के साथ उनका बर्ताव कुछ नम्र होता जाता था। जहां चक्रधर की हंसी उड़ाते थे, उन्हें मुंह चिढ़ाते थे, वहां अब उनकी बातों की ओर ध्यान देने लगे। आत्मा को आत्मा ही की आवाज जगा सकती है।

चक्रधर का जीवन कभी इतना आदर्श न था। कैदियों को मौका मिलने पर धर्म-कथाएं सुनाते, ईश्वर की दया और क्रोध का स्वरूप दिखाते। ईश्वर अपने भक्तों से कितना प्रसन्न होता है। उनके पापों को कितनी दया से क्षमा कर देता है। ईश्वर भक्तों की कथा इसका उज्ज्वल प्रमाण थी। केवल पश्चात्ताप का भाव मन में आना चाहिए। अजामिल और वाल्मीकि तर गए, तो क्या तुम और हम न तरेंगे? इन कथाओं को कैदी लोग इतने चाव से सुनते, मानो एक-एक शब्द उनके हृदय पर अंकित हो जाता था; किंतु इनका असर बहुत जल्दी मिट जाता था, इतनी जल्दी कि आश्चर्य होता था। उधर कथा हो रही है और इधर लात-मुक्के चल रहे हैं। कभी वे इन कथाओं पर अविश्वासपूर्ण टीकाएं करते और बात हंसी में उड़ा देते। एक कहता-लो धन्नासिंह, अब हम लोग बैकुंठ चलेंगे, कोई डर नहीं है। भगवान् क्षमा कर ही देंगे, वहां खूब जलसा रहेगा। दूसरा कहता– धन्नासिंह, मैं तुझे न जाने दूंगा, ऊपर से ऐसा ढकेलूंगा कि हड्डियां टूट जाएंगी। भगवान से कह दूंगा कि ऐसे पापी को बैकुंठ में रखोगे तो तुम्हारे नरक में सियार लोटेंगे। तीसरा कहता-यार, वहां गांजा मिलेगा कि नहीं? अगर गांजे को तरसना पड़ा, तो बैकुण्ठ ही किस काम का? बैकुण्ठ तो तब जानें कि वहां ताड़ी और शराब की नदियां बहती हों। चौथा कहता-अजी, यहां से बोरियों गांजा और चरस लेते चलेंगे, वहां के रखवाले क्या घूस न खाते होंगे? उन्हें भी कुछ दे-दिलाकर काम निकाल लेंगे। जब यहां जुटा लिया, तो वहां भी जुटा ही लेंगे। पर ऐसी अभक्तिपूर्ण आलोचनाएं सुनकर भी चक्रधर हताश न होते। शनैः-शनैः उनकी भक्ति-चेतना स्वयं दृढ़ होती जाती थी। भक्ति की ऐसी शिक्षा उन्हें कदाचित् और कहीं न मिल सकती।

बलवान् आत्माएं प्रतिकूल दशाओं ही में उत्पन्न होती हैं। कठिन परिस्थितियों में उनका धैर्य और साहस, उनकी सहृदयता और सहिष्णुता, उनकी बुद्धि और प्रतिभा अपना मौलिक रूप दिखाती है। आत्मोन्नति के लिए कठिनाइयों से बढ़कर कोई विद्यालय नहीं। कठिनाइयों ही में ईश्वर के दर्शन होते हैं और हमारी उच्चतम शक्तियां विकास पाती हैं। जिसने कठिनाइयों का अनुभव नहीं किया, उसका चरित्र बालू की भीत है, जो वर्षा के पहले ही झोंके में गिर पड़ती है। उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। महान् आत्माएं कठिनाइयों का स्वागत करती हैं, उनसे घबराती नहीं; क्योंकि यहां आत्मोत्कर्ष के जितने मौके मिलते हैं, उतने और किसी दशा में नहीं मिल सकते। चक्रधर इस परिस्थिति को एक शिक्षार्थी की दृष्टि से देखते थे और विचलित न होते थे। उन्हें विश्वास था कि प्रकृति उन्हीं प्राणियों को परीक्षा में डालती है, जिनके द्वारा उसे संसार में कोई महान उद्देश्य पूरा कराना होता है।

इस भांति कई महीने गुजर गए। एक दिन संध्या समय चक्रधर दिन भर के कठिन श्रम के बाद बैठे संध्या कर रहे थे कि कई कैदी आपस में बातें करते हुए निकले-आज इस दारोगा की खबर लेनी चाहिए। जब देखो, गालियां दिया करता है, सीधे मुंह तो बात ही नहीं करता। बातबात पर मारने दौड़ता है। हम भी तो आदमी हैं। कहाँ तक सहें! अब आता ही होगा। ऐसा मागे कि जन्म भर को दाग हो जाए! यही न होगा कि साल-दो साल की मीयाद बढ़ जाएगी। बचा की आदत तो छूट जाएगी। चक्रधर इस तरह की बातें अक्सर सुनते थे, इसलिए उन्होंने इस पर कुछ विशेष ध्यान न दिया; मगर भोजन के समय ज्योंही दारोगा साहब आकर खड़े हुए और एक कैदी को देर से आने के लिए मारने दौड़े कि कई कैदी चारों तरफ से दौड़ पड़े और ‘मारो-मारो’ का शोर मच गया। दारोगाजी की सिट्टी-पिट्टी भूल गई। कहीं भागने का रास्ता नहीं, कोई मददगार नहीं। चारों तरफ दीन नेत्रों से देखा, जैसे कोई बकरा भेड़ियों के बीच में फंस गया हो। सहसा धन्नासिंह ने आगे बढ़कर दारोगाजी की गर्दन पकड़ी और इतनी जोर से दबायी कि उनकी आंखें बाहर निकल आईं। चक्रधर ने देखा, अब अनर्थ हुआ चाहता है, तो तीर की तरह झपटे, कैदियों के बीच में घुसकर धन्नासिंह का हाथ पकड़ लिया और बोले-हट जाओ, क्या करते हो?

धन्नासिंह का हाथ ढीला पड़ गया; लेकिन अभी तक उसने गर्दन न छोड़ी।

चक्रधर-छोड़ो, ईश्वर के लिए।

धन्नासिंह-जाओ भी, बड़े ईश्वर की पूंछ बने हो। जब यह रोज गालियां देता है, बात-बात पर हंटर जमाता है, तब ईश्वर कहाँ सोया रहता है, जो इस घड़ी जाग उठा? हट जाओ सामने से नहीं तो सारा बाबूपन निकाल दूंगा। पहले इससे पूछो, अब तो किसी को गालियां न देगा, मारने तो न दौड़ेगा?

दारोगा-कसम कुरान की, जो कभी मेरे मुंह से गाली का एक हरफ भी निकले।

धन्नासिंह-कान पकड़ो।

दारोगा-कान पकड़ता हूँ।

धन्नासिंह-जाओ बचा,भले का मुंह देखकर उठे थे, नहीं तो आज जान न बचती; यहां कौन कोई रोनेवाला बैठा हुआ है।

चक्रधर-दारोगाजी, कहीं ऐसा न कीजिएगा कि जाकर वहां से सिपाहियों को चढ़ा लाइए और इन गरीबों को भुनवा डालिए।

दारोगा-लाहौल विला कूबत! इतना कमीना नही हूँ।

दारोगा चलने लगे, तो धन्नासिंह ने कहा-मियां, गारद सारद बुलाई, तो तुम्हारे हक में बुरा होगा, समझाए देते हैं। हमको क्या! न जीने की खुशी है, न मरने का रंज; लेकिन तुम्हारे नाम को कोई रोनेवाला न रहेगा।

दारोगाजी तो यहां से जान बचाकर भागे; लेकिन दफ्तर में जाते ही गारद के सिपाहियों को ललकारा, हाकिम-जिला को टेलीफोन किया और खुद बंदूक लेकर समर के लिए तैयार हुए। दम के दम में सिपाहियों का दल संगीनें चढ़ाए आ पहुंचा और लपक कर भीतर घुस पड़ा। पीछे-पीछे दारोगाजी भी दौड़े। कैदी चारों ओर से घिर गए।

चक्रधर पर चारों ओर से बौछार पड़ने लगी।

धन्नासिंह-अब कहो, भगतजी, छुड़वा तो दिया, जाकर समझाते क्यों नहीं? गोली चली

तो?

एक कैदी-गोली चली, तो पहले इन्हीं की चटनी की जाएगी।

चक्रधर-तुम लोग अब भी शांत रहोगे, तो गोली न चलेगी। मैं इसका जिम्मा लेता हूँ। धन्नासिंह-तुम उन सबों से मिले हुए हो। हमें फंसाने के लिए यह ढोंग रचा है।

दूसरा कैदी-दगाबाज है, मारके गिरा दो।

चक्रधर-मुझे मारने से अगर तुम्हारी भलाई होती हो तो यही सही।

तीसरा कैदी-तुम जैसे सीधे आप हो, वैसे ही सबको समझते हो, लेकिन तुम्हारे कारण हम लोग संत-मेंत में पिटे कि नहीं?

धन्नासिंह-सीधा नहीं, उनसे मिला हुआ है। भगत सभी दिल के मैले होते हैं। कितनों को देख चुका।

तीसरा कैदी-तुम्हारी ऐसी-तैसी, तुम्हें फांसी दिलाकर इन्हें राज ही तो मिल जाएगा। छोटा मुंह बड़ी बात।

चक्रधर ने आगे बढ़कर कहा-दारोगाजी, आखिर आप क्या चाहते हैं? इन गरीबों को क्यों घेर रखा है?

दारोगा ने सिपाहियों की आड़ से कहा-यही उन सब बदमाशों का सरगना है। खुदा जाने, किस हिकमत से उन सबों को मिलाए हुए है। इसे गिरफ्तार कर लो। बाकी जितने हैं, उन्हें खूब मारो, मारते-मारते हलवा निकाल लो सूअर के बच्चों का! इनकी हिम्मत कि मेरे साथ गुस्ताखी करें।

चक्रधर-आपको कैदियों को मारने का कोई मजाज नहीं है।

धन्नासिंह-जबान संभाल के दारोगाजी!

दारोगा-मारो इन सूअरों को।

सिपाही कैदियों पर टूट पड़े और उन्हें बन्दूकों के कुन्दों से मारना शुरू किया। चक्रधर ने देखा कि मामला संगीन हुआ चाहता है, तो बोले-दारोगाजी, खुदा के वास्ते यह गजब न कीजिए।

कैदियों में खलबली पड़ गई। कुछ इधर-उधर से फावड़े, कुदालें और पत्थर ला-लाकर लड़ने पर तैयार हो गए। मौका नाजुक था। चक्रधर ने बड़ी दीनता से कहा-मैं आपको फिर समझाता हूँ।

दारोगा-चुप रह सूअर का बच्चा !

इतना सुनना था कि चक्रधर बाज की तरह लपककर दारोगाजी पर झपटे। कैदियों पर कुन्दों की मार पड़नी शुरू हो गई थी। चक्रधर को बढ़ते देखकर उन सब ने पत्थरों की वर्षा शुरू की। भीषण संग्राम होने लगा।

एकाएक चक्रधर ठिठक गए। ध्यान आ गया, स्थिति और भंयकर हो जाएगी । अभी सिपाही बंदूक चलाना शुरू कर देंगे, लाशों के ढेर लग जाएंगे। अगर हिंसक भावों को दबाने का कोई मौका हो सकता है, तो वह यही मौका है। ललकार कर बोले-पत्थर न फेंको, पत्थर न फेंको ! सिपाहियों के हाथों से बंदूक छीन लो।

सिपाहियों ने संगीनें चढ़ानी चाहीं; लेकिन उन्हें इसका मौका न मिल सका। एक-एक सिपाही पर दस-दस कैदी टूट पड़े और दम-के-दम में उनकी बन्दूकें छीन लीं। सिपाहियों ने रोब के बल पर आक्रमण किया था। उन्हें विश्वास था कि कुंदों की मार पड़ते ही कैदी भाग जाएंगे। अब उन्हें मालूम हुआ कि हम धोखे में थे। फिर वे एक साथ में नहीं, इधर-उधर बिखरे खड़े थे। इससे उनकी शक्ति और भी कम हो गई थी। उन पर आगे-पीछे, दाएं-बाएं चारों तरफ से चोट पड़ सकती थी। संगीनें चढ़ाकर भी वे किसी तरह न बच सकते थे। कैदियों में पिल पड़ना उनकी सबसे बड़ी भूल थी। उनके ऐसे हाथ-पांव फूले, होश ऐसे गायब हुए कि कुछ निश्चय न कर सके कि इस समय क्या करना चाहिए। कैदियों ने तुरंत उनकी मुश्कें चढ़ा दीं और बंदूकें ले-लेकर उनके सिर पर खड़े हो गए। यह सब कुछ पांच मिनट में हो गया। ऐसा दांव पड़ा कि वही लोग जो जरा देर पहले हेकड़ी जताते थे, कैदियों को पांव की धूल समझते थे, अब उन्हीं कैदियों के सामने खड़े दया-प्रार्थना कर रहे थे, घिघियाते थे, मत्थे टेकते थे और रोते थे। दारोगाजी की सूरत तो तसवीर खींचने योग्य थी। चेहरा फक, हवाइयां उड़ी हुईं, थर-थर कांप रहे थे कि देखें, जान बचती है या नहीं।

कैदियों ने देखा, इस वक्त हमारा राज्य है, तो पुराने बदले चुकाने पर तैयार हो गए। धन्नासिंह लपका हुआ दारोगा के पास आया और जोर से एक धक्का देकर बोला-क्यों खां साहब, उखाड़ लूं दाढ़ी के एक-एक बाल?

चक्रधर-धन्नासिंह, हट जाओ।

धन्नासिंह-मरना तो है ही, अब इन्हें क्यों छोड़ें ?

चक्रधर-हम कहते हैं, हट जाओ, नहीं तो अच्छा न होगा।

धन्नासिंह-अच्छा हो चाहे बुरा, हमारे साथ इन लोगों ने जो सलूक किए हैं, उसका मजा चखाए बिना न छोड़ेंगे।

एक कैदी-हमारी जान तो जाती ही है, पर इन लोगों को न छोड़ेंगे।

दूसरा कैदी-एक-एक की हड्डियां तोड़ दो। दो-दो, चार-चार साल और सही। अभी कौन सुख भोग रहे हैं, जो सजा को डरें? आखिर धूम-घामके यहीं तो फिर आना है।

चक्रधर-मेरे देखते तो यह अनर्थ न होने पाएगा। हां, मर जाऊं तो जो चाहे करना!

धन्नासिंह-अगर ऐसे बड़े धर्मात्मा हो, तो इनको क्यों नहीं समझाया? देखते नहीं हो, कितनी सांसत होती है। तुम्हीं कौन बचे हुए हो। कुत्तों को भी मारते दया आती है। क्या हम कुत्तों से भी गये बीते हैं?

इतने में सदर फाटक पर शोर मचा। जिला-मैजिस्ट्रेट मिस्टर जिम सशस्त्र पुलिस के सिपाहियों और अफसरों के साथ आ पहुंचे थे। दारोगाजी ने अंदर आते वक्त किवाड़ बंद कर लिए थे, जिससे कोई कैदी भागने न पाए। यह शोर सुनते ही चक्रधर समझ गया कि पुलिस आ गई। बोले-अरे भाई, क्यों अपनी जान के दुश्मन हुए हो। बंदूकें रख दो और फौरन जाकर किवाड़ खोल दो। पुलिस आ गई।

धन्नासिंह-कोई चिंता नहीं। हम भी इन लोगों का वारा-न्यारा कर डालते हैं। मरते ही हैं, तो दो-चार को मार के मरें।

कैदियों ने फौरन संगीनें चढ़ाईं और सबसे पहले धन्नासिंह दारोगाजी पर झपटा। करीब था कि संगीन की नोक उनके सीने में चुभे कि चक्रधर यह कहते हुए, ‘धन्नासिंह, ईश्वर के लिए ….’दारोगाजी के सामने आकर खड़े हो गए। धन्नासिंह वार कर चुका था। चक्रधर के कंधे पर संगीन का भरपूर हाथ पड़ा। आधी संगीन धंस गई। दाहिने हाथ से कंधे को पकड़कर बैठ गए। कैदियों ने उन्हें गिरते देखा, तो होश उड़ गए। आ-आकर उनके चारों तरफ खड़े हो गए। घोर अनर्थ की आशंका ने उन्हें स्तंभित कर दिया। भगत को चोट आ गई ये शब्द उनकी पशुवृत्तियों को दबा बैठे।

धन्नासिंह ने बंदूक फेंक दी और फूट-फूटकर रोने लगा। मैंने भगत के प्राण लिए! जिस भगत ने गरीबों की रक्षा करने के लिए सजा पाई, जो हमेशा उनके लिए अफसरों से लड़ने को तैयार रहता था, जो नित्य उन्हें अच्छे रास्ते पर ले जाने की चेष्टा करता था, जो उसके बुरे व्यवहारों को हंस-हंसकर सह लेता था, वही भगत धन्नासिंह के हाथ जर पड़ा है। धन्नासिंह को कई कैदी पकड़े हुए हैं। ग्लानि के आवेश में वह बार-बार चाहता है कि अपने को उनके हाथों से छुड़ाकर वही संगीन अपनी छाती में चुभा ले; लेकिन कैदियों ने इतने जोर से जकड़ रखा है कि उसका कुछ बस नहीं चलता।

दारोगा ने मौका पाया तो सदर फाटक की तरफ दौड़े कि उसे खोल दूं। धन्नासिंह ने देखा कि यह हजरत, जो सारे फिसाद की जड़ हैं, बेदाग बचे जाते हैं, तो उसकी हिंसक वृत्तियों ने इतना जोर मारा कि एक ही झटके में वह कैदियों के हाथ से मुक्त हो गया और बंदूक उठाकर उनके पीछे दौड़ा। चक्रधर के खून का बदला लेना जरूरी था। करीब था कि दारोगाजी पर फिर वार पड़े कि चक्रधर फिर संभलकर उठे और एक हाथ से अपना कंधा पकड़े, लड़खड़ाते हुए चले। धन्नासिंह ने उन्हें आते देखा, तो उसके पांव रुक गए। भगत अभी जीते हैं, इसकी उसे इतनी खुशी हुई कि वह बंदूक लेकर पीछे की ओर चला और उनके चरणों पर सिर रखकर रोने लगा। ऐसी सच्ची खुशी उसे अपने जीवन में कभी न हुई थी!

चक्रधर ने कहा-सिपाहियों को छोड़ दो।

धन्नासिंह-बहुत अच्छा, भैया ! तुम्हारा जी कैसा है?

चक्रधर-देखना चाहिए, बचता हूँ या नहीं।

धन्नासिंह-दारोगा के बच जाने का कलंक रह गया।

सहसा मिस्टर जिम सशस्त्र पुलिस के साथ जेल में दाखिल हुए। उन्हें देखते ही सारे कैदी भर से भागे। केवल दो आदमी चक्रधर के पास खड़े रहे। धन्नासिंह उसमें एक था। सिपाहियों ने छूटते ही अपनी-अपनी बंदूकें संभाली और एक कतार में खड़े हो गए।

जिम-वेल दारोगा, क्या हाल है?

दारोगा-हुजूर के अकबाल से फतह हो गई। कैदी भाग गए।

जिम-यह कौन आदमी पड़ा है?

दारोगा-इसी ने हम लोगों की मदद की है, हुजूर! चक्रधर नाम है।

जिम-अच्छा ! यह चक्रधर है, जो बगावत के मामले में हमारे इजलास से सजा पाया था।

दारोगा-जी हां, हुजूर! अभी उसी के बदौलत हमारी जान बची। जो जख्म उसके कंधे में है, यह शायद इस वक्त मेरे सीने में होता।

जिम-इसने कैदियों को भड़काया होगा?

दारोगा-नहीं हुजूर, इसने तो कैदियों को समझा-बुझाकर ठंडा किया।

जिम-तुम कुछ नहीं समझता। यह लोग पहले कैदियों को भड़काता है, फिर उनकी तरफ से हाकिम लोगों से लड़ता है, जिसमें कैदी समझें कि यह हमारी तरफ से लड़ रहा है। यह कैदियों को मिलाने का हिकमत है। वह कैदियों को मिलाकर जेल का काम बंद कर देना चाहता है।

दारोगा-देखने में तो हुजूर, बहुत सीधा मालूम होता है, दिल का हाल खुदा जाने !

जिम-खुदा के जानने से कुछ नहीं होगा, तुमको जानना चाहिए। तुमको हर एक कैदी पर निगाह रखनी चाहिए। यही तुम्हारा काम है। यह आदमी कैदियों से मजहब की बातचीत तो नहीं करता?

दारोगा-मजहबी बातें तो बहुत करता है, हुजूर! इसी से कैदियों ने उसे ‘भगत’ का लकब दे दिया है।

जिम-ओह ! तब तो यह बहुत ही खतरनाक आदमी है। मजहबवाले आदमी पर बहुत कड़ी निगाह रखनी चाहिए। कोई पढ़ा-लिखा आदमी दिल से मजहब को नहीं मानता। मजहब पढ़े-लिखे आदमियों के लिए नहीं है। उसके लिए तो Ethics काफी है। जब कोई पढ़ा-लिखा आदमी मजहब की बात करे, तो फौरन समझ लो कि वह कोई साजिश करना चाहता है। Religion (धर्म) के साथ Politics (राजनीति) बहुत खतरनाक हो जाता है। यह आदमी कैदियों से बड़ी हमदर्दी करता होगा।

दारोगा-जी हां, हमेशा!

जिम-सरकारी हुक्म को खूब मानता होगा।

दारोगा-जी हां, हमेशा!

जिम-कभी कोई शिकायत न करता होगा। कड़े से कड़े काम खुशी से करता होगा?

दारोगा-जी हां, शिकायत नहीं करता। ऐसा बेजबान आदमी तो मैंने कभी देखा ही नहीं।

जिम-ऐसा आदमी निहायत खौफनाक होता है। उस पर कभी एतबार नहीं करना चाहिए। हम इस पर मुकदमा चलाएगा। इसको बहुत कड़ी सजा देगा। सिपाहियों को दफ्तर में बुलाओ। हम सबका बयान लिखेगा।

दारोगा-हुजूर, पहले तो उसे डॉक्टर साहब को दिखा लूं? ऐसा न हो कि मर जाए , गुलाम को दाग लगे।

जिम-वह मरेगा नहीं। ऐसा खौफनाक आदमी कभी नहीं मरता; और मर भी जाएगा, तो हमारा कोई नुकसान नहीं।

दारोगा-जरा हुजूर उसकी हालत देखें। चेहरा जर्द हो गया है, खून से जमीन लाल हो गई है।

जिम-कुछ परवा नहीं।

यह कहकर साहब दफ्तर की ओर चले। धन्नासिंह अब तक इन्तजार में खड़ा था कि डॉक्टर साहब आते होंगे। जब देखा कि जिम साहब इधर मुखातिब भी न हुए, तो उसने चक्रधर को गोद में उठाया और अस्पताल की ओर चला।

उन्नीस

ठाकुर हरिसेवकसिंह दावत खाकर घर पहुंचे, तो डर रहे थे कि लौंगी पूछेगी तो क्या जवाब दूंगा। अगर यह कहूँ कि मुंशीजी ने मेरे साथ चाल चली, तो जिन्दा न छोड़ेगी, तानों से कलेजा छलनी कर देगी। जो कहूँ कि मनोरमा को पसंद है, तो मैं क्या करता, तो भी न बचने पाऊंगा। चुडैल वकीलों की तरह तो बहस करती है। बस, उसे राजी करने की एक ही तरकीब है। किसी पण्डित को फांसना चाहिए, जो उसके सामने यह कह दे कि राजा साहब की आयु एक सौ पचीस वर्ष की है। जब तक इस बात का उसे विश्वास न आ जाएगा, वह किसी तरह न राजी होगी।

ज्यों ही ठाकुर साहब घर में पहुंचे, लौंगी ने पूछा-वहां क्या बातचीत हुई?

दीवान-शादी ठीक हो गई, और क्या !

लौंगी-और मैंने इतना समझा जो दिया था?

दीवान-भाग्य भी तो कोई चीज है !

लौंगी-भाग्य पर वह भरोसा करता है, जिसमें पौरुष नहीं होता। लड़की को डुबो दिया, ऊपर से शरमाते नहीं, कहते हो भाग्य भी कोई चीज है?

दीवान-तुम मुझे जैसा गधा समझती हो, वैसा गधा नहीं हूँ। मैंने राजा साहब की कुंडली एक बड़े विद्वान ज्योतिषी को दिखलाई और जब उसने कह दिया कि राजा साहब की उम्र बहुत बड़ी है, कोई संकट नहीं है, तब जाकर मैने मंजूर कर लिया।

लौंगी-राजा ने किसी पंडित को सिखा-पढ़ाकर खड़ा कर दिया होगा। दीवान-क्या मुझे बिलकुल अनाड़ी ही समझ लिया है?

लौंगी-अनाड़ी तो तुम हो ही, न जाने किस तरह दीवानी कर लेते हो। अच्छा बताओ, वह कौन पंडित था?

दीवान-इसी शहर का नामी पंडित है। मेरी उनसे पुरानी मुलाकात है। वह मुझे कभी धोखा न देंगे। अगर कोई गड़बड़ होती, तो वह साफ-साफ कह देते। हम और वह अलग एक कमरे में बैठे थे। उन्होंने बड़ी देर तक कुंडली को देखकर कहा-कोई शंका की बात नहीं, आप भगवान का नाम लेकर विवाह स्वीकार कर लीजिए। राजा साहब की आयु एक सौ पच्चीस वर्ष की है।

लौंगी-तुम कल उन पंडितजी को यहां बुला देना। जब तक मेरे सामने न कह देंगे, मुझे विश्वास न आएगा।

दूसरे दिन प्रात:काल लौंगी ने पंडित की रट लगाई और दीवान साहब को विवश होकर मुंशी वज्रधर के पास जाना पड़ा।

वज्रधर सारी कथा सुनकर बोले-आपने यह बुरा रोग पाल रखा है। एक बार डांटकर कह दीजिए-चुपचाप बैठी रह, तुझे इन बातों से क्या मतलब? फिर देखू वह कैसे बोलती है !

दीवान-भाई, इतनी हिम्मत मुझमें नहीं है। वह कभी जरा रूठ जाती है, तो मेरे हाथपांव फूल जाते हैं। मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता कि उसके बिना मैं जिंदा कैसे रहूँगा। मैं तो उससे बिना पूछे भोजन भी नहीं कर सकता। वह मेरे घर की लक्ष्मी है। आपकी किसी ज्योतिषी से जान-पहचान है?

मुंशी-जान-पहचान तो बहुतों से है; लेकिन देखना तो यह है कि काम किससे निकल सकता है। कोई सच्चा आदमी तो यह स्वांग भरने न जाएगा। कोई पंडित बनाना पड़ेगा।

दीवान-यह तो बड़ी मुश्किल हुई।

मुंशी-मुश्किल क्या हुई ! मैं अभी बनाए देता हूँ। ऐसा पंडित बना दूंगा कि कोई भांप न सके। इन बातों में क्या रखा है?

यह कहकर मुंशीजी ने झिनकू को बुलाया। वह एक ही छंटा हुआ था। फौरन तैयार हो गया। घर जाकर माथे पर तिलक लगाया। गले में रामनामी चादर डाली, सिर पर एक टोपी रखी और एक बस्ता बगल में दबाए आ पहुंचा। मुंशीजी उसे देखकर बोले-यार, जरा-सी कसर रह गई। तोंद के बगैर पंडित कुछ जंचता नहीं। लोग यही समझते हैं कि इनको तर माल नहीं मिलते, जभी तो तांत हो रहे हैं। तोंदल आदमी की शान ही और होती है; चाहे पंडित बने, चाहे सेठ, चाहे तहसीलदार ही क्यों न बन जाए। उसे सब कुछ भला मालूम होता है। मैं तोंदल होता तो अब तक न जाने किस ओहदे पर होता। सच पूछो, तो तोंद न रहने के कारण अफसरों पर मेरा रोब न जमा। बहुत घीदूध खाया पर तकदीर में बड़ा आदमी होना न बदा था, तोंद न निकली; न निकली। तोंद बना लो, नहीं तो उल्लू बनाकर निकाल दिए जाओगे, या किसी तोंदूमल को पकड़ो।

झिनकू-सरकार, तोंद होती, तो आज मारा-मारा क्यों फिरता? मुझे भी न लोग झिनकू उस्ताद कहते! कभी तबला न होता तो तोंद ही बजा देता; मगर तोंद न रहने में कोई हरज नहीं है, यहां कई पंडित बिना तोंद के भी हैं।

मुंशी-कोई बड़ा पंडित भी है बिना तोंद का?

झिनकू-नहीं सरकार, कोई बड़ा पंडित तो नहीं है। तोंद के बिना कोई बड़ा कैसे हो जाए गा? कहिए तो कुछ कपड़े लपेटूं?

मुंशी-तुम तो कपड़े लपेटकर पिंडरोगी से मालूम होगे। तकदीर पेट पर सबसे ज्यादा चमकती है, इसमें कोई शक नहीं; लेकिन और अंगों पर भी तो कुछ न कुछ असर होता ही है, यह राग न चलेगा, भाई किसी और को फांसो।

झिनकू-सरकार, अगर मालकिन को खुश न कर दूं तो नाक काट लीजिएगा। कोई अनाड़ी थोड़े ही हूँ!

खैर, तीनों आदमी मोटर पर बैठे और एक क्षण में घर जा पहुंचे। दीवान साहब ने जाकर कहा-पंडितजी आ गए, बड़ी मुश्किल से आए हैं।

इतने में मुंशीजी भी आ पहुंचे और बोले-कोई नया आसन बिछाइएगा। कुर्सी पर नहीं बैठते। आज न जाने क्या समझकर इस वक्त आ गए, नहीं तो दोपहर के पहले कोई लाख रुपए दे, तो नहीं जाते।

पंडितजी बड़े गर्व के साथ मोटर से उतरे और जाकर आसन पर बैठे। लौंगी ने उनकी ओर ध्यान से देखा और तीव्र स्वर में बोली-आप जोतसी हैं? ऐसी ही सूरत होती है जोतसियों की? मुझे तो कोई भांड से मालूम होते हो !

मुंशीजी ने दांतों तले जबान दबा ली; दीवान साहब ने छाती पर हाथ रखा और झिनकू के चेहरे पर तो मुर्दनी छा गई। कुछ जवाब देते ही न बन पड़ा। आखिर मुंशीजी बोले-यह क्या गजब करती हो, लौंगी रानी! अपने घर पर बुलाकर महात्माओं की यह इज्जत की जाती है?

लौंगी-लाला, तुमने बहुत दिनों तहसीलदारी की है, तो मैंने भी धूप में बाल नहीं पकाए हैं। एक बहरूपिए को लाकर खड़ा कर दिया, ऊपर से कहते हैं, जोतसी हैं! ऐसी ही सूरत होती है जोतसी की? मालूम होता है, महीनों से दाने की सूरत नहीं देखी। मुझे क्रोध तो इन दीवान पर आता है, तुम्हें क्या कहूँ?

झिनकू-माता, तूने मेरा बड़ा अपमान किया है। अब मैं यहां एक क्षण भी नहीं ठहरूंगा। तुमको इसका फल मिलेगा, अवश्य मिलेगा।

लौंगी-लो, बस चले ही जाओ मेरे घर से! धूर्त, पाखंडी कहीं का! बड़ा जोतसी है तो बता मेरी उम्र कितनी है? लाला, अगर तुम्हें धन का लोभ हो, तो जितना चाहो, मुझसे ले जाओ। मेरी बिटिया को कुएं में न ढकेलो। क्यों उसके दुश्मन बने हुए हो? जो कुछ कर रहे हो, उसका दोष तुम्हारे ही सिर जाएगा। तुम इतना भी नहीं समझते कि बूढ़े आदमी के साथ कोई लड़की कैसे सुख से रह सकती है ! धन से बूढ़े जवान तो नहीं हो जाते।

झिनकू-माताजी राजा साहब की ज्योतिष विद्या के अनुसार-

लौंगी-तू फिर बोला? चुपका खड़ा क्यों नहीं रहता।

झिनकू-दीवान साहब, अब नहीं ठहर सकता।

लौंगी-क्यों, ठहरोगे क्यों नहीं? दच्छिना तो लेते जाओ!

यह कहते हुए लौंगी ने कोठरी में जाकर कजलौटे से काजल निकाला और तुरंत बाहर आ, एक हाथ से झिनकू को पकड़, दूसरे से उसके मुंह पर काजल पोत दिया। बहुत उछले-कूदे, बहुत फड़फड़ाए; पर लौंगी ने जौ भर भी न हिलने दिया, मानो बाज ने कबूतर को दबोच लिया हो। दीवान साहब अब अपनी हंसी न रोक सके। मारे हंसी के मुंह से बात तक न निकलती थी। मुंशीजी अभी तक झिनकू की विद्या का राग अलाप रहे थे और लौंगी झिनकू को दबोचे हुए चिल्ला रही थी-थोड़ा चूना लाओ, तो इसे पूरी दच्छिना दे दूं। मेरे धन्य भाग कि आज जोतसीजी के दर्शन हुए !

आखिर मुंशीजी को गुस्सा आ गया। उन्होंने लौंगी का हाथ पकड़कर चाहा कि झिनकू का गला छुडा दें। लौंगी ने झिनकू को तो न छोड़ा; एक हाथ से तो उसकी गर्दन पकड़े हुए थी, दूसरे हाथ से मुंशीजी की गर्दन पकड़ ली और बोली-मुझसे जोर दिखाते हो, लाला? बड़े मर्द हो, तो छुड़ा लो गर्दन ! बहुत दूध-घी बेगार में लिया होगा। देखें वह जोर कहाँ है !

दीवान-मुंशीजी, आप खड़े क्या हैं, छुड़ा लीजिए गर्दन।

मुंशी-मेरी यह सांसत हो रही है और आप खड़े हंस रहे हैं।

दीवान-तो क्या कर सकता हूँ। आप भी तो देवनी से जोर अजमाने चले थे। आज आपको मालूम हो जाएगा कि मैं इससे क्यों इतना दबता हूँ।

लौंगी-जोतसीजी, अपनी विद्या का जोर क्यों नहीं लगाते? क्यों रे, अब तो कभी जोतसी न बनेगा?

झिनकू-नहीं माताजी, बड़ा अपराध हुआ, क्षमा कीजिए।

लौंगी ने दीवान साहब की ओर सरोष नेत्रों से देखकर कहा-मुझसे यह चाल चली जाती है, क्यों? लड़की को राजा से ब्याहकर तुम्हारा मरतबा बढ़ जाएगा, क्यों? धन और मरतबा सन्तान से भी ज्यादा प्यारा है, क्यों? लगा दो आग घर में। घोंट दो लड़की का गला। अभी मर जाएगी. मगर जन्म-भर के दु:ख से तो छूट जाएगी । धन और मरतबा अपने पौरुष से मिलता है। लडकी बेचकर धन नहीं कमाया जाता। यह नीचों का काम है, भलेमानसों का नहीं। मैं तुम्हें इतना स्वार्थी न समझती थी, लाला साहब! तुम्हारे मरने के दिन आ गए हैं, क्यों पाप की गठरी लादते हो? मगर तुम्हें समझाने से क्या होगा ! इसी पाखंड में तुम्हारी उम्र कट गई, अब क्या संभालोगे! अब मरती बार भी पाप करना बदा था। क्या करते ! और तुम भी सुन लो, जोतसीजी ! अब कभी भूलकर भी यह स्वांग न भरना। धोखा करके पेट पालने से मर जाना अच्छा है। जाओ।

यह कहकर लौंगी ने दोनों आदमियों को छोड़ दिया। झिनकू तो बगटुट भागा, लेकिन मुंशीजी वहीं सिर झुकाए खड़े रहे। जरा देर के बाद बोले-दीवान साहब, अगर आपकी मरजी हो, तो मैं जाकर राजा साहब से कह दूं कि दीवान साहब को मंजूर नहीं है।

दीवान-अब भी आप मुझसे पूछ रहे हैं? क्या अभी कुछ और सांसत कराना चाहते हैं? मुंशी-सांसत तो मेरी यह क्या करती, मैंने औरत समझकर छोड़ दिया।

दीवान-आप आज जाके साफ-साफ कह दीजिएगा।

लौंगी-क्या साफ-साफ कह दीजिएगा? अब क्या साफ-साफ कहलाते हो? किसी को खाने का नेवता न दो, तो वह बुरा न मानेगा; लेकिन नेवता देकर अपने द्वार से भगा दो, तो तुम्हारी जान का दुश्मन हो जाएगा। अब साफ-साफ कहने का अवसर नहीं रहा। जब नेवता दे चुके, तब तो खिलाना ही पड़ेगा, चाहे लोटा-थाली बेचकर ही क्यों न खिलाओ। कहके मुकरने से बैर हो जाएगा।

दीवान-बैर की चिंता नहीं। नौकरी की मैं परवा नहीं करता।

लौंगी-हां, तुमने तो कारूं का खजाना घर में गाड़ रखा है। इन बातों से अब काम न चलेगा। अब तो जो होनी थी, हो चुकी। राम का नाम लेकर ब्याह करो। पुरोहित को बुलाकर साइत-सगुन पूछ-ताछ लो और लगन भेज दो। एक ही लड़की है, दिल खोलकर काम करो।

मुंशीजी को अपनी सांसत का पुरस्कार मिल गया। मारे खुशी के बगलें बजाने लगे। विरोध की अंतिम क्रिया हो गई।

आज ही से विवाह की तैयारियां होने लगीं। दीवान साहब स्वभाव से कृपण थे, कम से कम खर्च में काम निकालना चाहते थे, लेकिन लौंगी के आगे उनकी एक न चलती थी। उसके पास रुपए न जाने कहाँ से निकलते आते थे, मानो किसी रसिक के प्रेमोद्गार हों। तीन महीने तैयारियों में गुजर गए। विवाह का मुहूर्त निकट आ गया।

सहसा एक दिन शाम को खबर मिली कि जेल में दंगा हो गया और चक्रधर के कंधे में गहरा घाव लगा है। बचना मुश्किल है।

मनोरमा के विवाह की तैयारियां तो हो ही रही थीं और यों भी देखने में वह बहुत खुश नजर आती थी; पर उसका हृदय सदैव रोता रहता था। कोई अज्ञात भय, कोई अलक्षित वेदना, कोई अतृप्त कामना, कोई गुप्त चिंता, हृदय को मथा करती थी। अंधों की भांति इधर-उधर टटोलती थी; पर न चलने का मार्ग मिलता था, न विश्राम का आधार। उसने मन में एक बात निश्चय की थी और उसी में संतुष्ट रहना चाहती थी, लेकिन कभी-कभी वह जीवन इतना शून्य, इतना अंधेरा, इतना नीरस मालूम होता कि घंटों वह मूर्छित-सी बैठी रहती; मानो कहीं कुछ नहीं है, अनंत आकाश में केवल वही अकेली है।

यह भयानक समाचार सुनते ही मनोरमा को हौलदिल-सा हो गया। आकर लौंगी से बोली-लौंगी अम्मां, मैं क्या करूं? बाबूजी को देखे बिना अब नहीं रहा जाता। क्यों अम्मां, घाव अच्छा हो जाए गा न?

लौंगी ने करुण नेत्रों से देखकर कहा-अच्छा क्यों न होगा, बेटी ! भगवान चाहेंगे, तो जल्द अच्छा हो जाए गा।

लौंगी मनोरमा के मनोभावों को जानती थी। उसने सोचा, इस अबला को कितना दुःख है ! मन-ही-मन तिलमिलाकर रह गई। हाय ! चारे पर गिरनेवाली चिड़िया को मोती चुगाने की चेष्टा की जा रही है। तड़प-तड़पकर पिंजड़े में प्राण देने के सिवा वह और क्या करेगी ! मोती में चमक है, वह अनमोल है; लेकिन उसे कोई खा तो नहीं सकता। उसे गले में बांध लेने से क्षुधा तो न मिटेगी।

मनोरमा ने फिर पूछा-भगवान् सज्जन लोगों को क्यों इतना कष्ट देते हैं, अम्मां? बाबूजी का-सा सज्जन दूसरा कौन होगा ! उनको भगवान् इतना कष्ट दे रहे हैं ! मुझे कभी कुछ नहीं होता; कभी सिर भी नहीं दुखता। मुझे क्यों कभी कुछ नहीं होता, अम्मां?

लौंगी-तुम्हारे दुश्मन को कुछ हो बेटी, तुम तो कभी घड़ी भर चैन न पाती थीं। तुम्हें गोद में लिए रात भर भगवान् का नाम लिया करती थी।

सहसा मनोरमा के मन में एक बात आई। उसने बाहर आकर मोटर तैयार कराई और दम-के-दम में राजभवन की ओर चली। राजा साहब इसी तरफ आ रहे थे। मनोरमा को देखा, तो चौंके। मनोरमा घबरायी हुई थी।

राजा-तुमने क्यों कष्ट किया? मैं तो आ रहा था।

मनोरमा-आपको जेल के दंगे की खबर मिली?

राजा-हां, मुंशी वज्रधर अभी कहते थे।

मनोरमा-मेरे बाबूजी को गहरा घाव लगा है।

राजा-हां, यह भी सुना।

मनोरमा-तब भी आपने उन्हें जेल से बाहर अस्पताल में लाने के लिए कार्रवाई नहीं की? आपका हृदय बड़ा कठोर है।

राजा ने कुछ चिढ़कर कहा-तुम्हारे जैसा उदार हृदय कहाँ से लाऊं!

मनोरमा-मुझसे मांग क्यों नहीं लेते? बाबूजी को बहुत गहरा घाव लगा है, और अगर यत्न न किया गया, तो उनका बचना कठिन है। जेल में जैसा इलाज होगा, आप जानते ही हैं। न कोई आगे, न कोई पीछे न मित्र, न बन्धु। आप साहब को एक खत लिखिए कि बाबूजी को अस्पताल में लाया जाए ।

राजा-साहब मानेंगे?

मनोरमा-इतनी जरा-सी बात न मानेंगे?

राजा-न जाने दिल में क्या सोचें।

मनोरमा-आपको अगर बहुत मानसिक कष्ट हो रहा हो तो रहने दीजिए। मैं खुद साहब से मिल लूंगी।

राजा साहब यह तिरस्कार सुनकर कांप उठे। कातर होकर बोले-मुझे किस बात का कष्ट होगा। अभी जाता हूँ।

मनोरमा-लौटिएगा कब तक?

राजा-कह नहीं सकता।

यह कहकर राजा साहब मोटर पर जा बैठे और शोफर से मिस्टर जिम के बंगले पर चलने को कहा। मनोरमा की निष्ठुरता से उनका चित्त बहुत खिन्न था। मेरे आराम और तकलीफ का इसे जरा भी खयाल नहीं। चक्रधर से न जाने क्यों इतना स्नेह है। कहीं उससे प्रेम तो नहीं करती? नहीं, यह बात नहीं। सरल हृदय बालिका है। ये कौशल क्या जाने ! चक्रधर आदमी ही ऐसा है कि दूसरों को उससे मुहब्बत हो जाती है। जवानी में सहृदयता कुछ अधिक होती ही है। कोई मायाविनी स्त्री होती, तो मुझसे अपने मनोभावों को गुप्त रखती। जो कुछ करना होता, चुपके-चुपके करती; पर इसके निश्छल हृदय में कपट कहाँ? जो कुछ कहती है, मुझी से कहती है; जो कष्ट होता है, मुझी को सुनाती है। मुझ पर पूरा विश्वास करती है। ईश्वर करे, साहब से मुलाकात हो जाए और वह मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लें। जिस वक्त मैं आकर यह शुभ समाचार कहूँगा, कितनी खुश होगी!

यह सोचते हुए राजा साहब मिस्टर जिम के बंगले पर पहुंचे। शाम हो गई थी। साहब बहादुर सैर करने जा रहे थे। उनके बंगले में वह ताजगी और सफाई थी कि राजा साहब का चित्त प्रसन्न हो गया। उनके यहां दर्जनों माली थे, पर बाग इतना हरा-भरा न रहता था। यहां की हवा में आनंद था। इकबाल हाथ बांधे हुए खड़ा मालूम होता था। नौकर-चाकर कितने सलीकेदार थे, घोड़े कितने समझदार, पौधे कितने सुंदर, यहां तक कि कुत्तों के चेहरे पर भी इकबाल की आभा झलक रही थी।

राजा साहब को देखते ही जिम साहब ने हाथ मिलाया और पूछा-आपने जेल में दंगे का हाल सुना?

राजा-जी हां! सुनकर बड़ा अफसोस हुआ।

जिम-सब उसी का शरारत है, उसी बागी नौजवान का।

राजा-हुजूर का मतलब चक्रधर से है?

जिम-हां, उसी से! बहुत ही खौफनाक आदमी है। उसी ने कैदियों को भड़काया है।

राजा-लेकिन अब तो उसको अपने किए की सजा मिल गई। अगर बच भी गया, तो महीनों चारपाई से न उठेगा।

जिम-ऐसे आदमी के लिए इतनी ही सजा काफी नहीं। हम उस पर मुकदमा चलाएगा।

राजा-मैंने सुना है कि उसके कंधे में गहरा जख्म है और आपसे यह अर्ज करता हूँ कि उसे शहर के बड़े अस्पताल में रखा जाए , जहां उसका अच्छा इलाज हो सके। आपकी इतनी कृपा हो जाए तो उस गरीब की जान बच जाए , और जिले में आपका नाम हो जाए । मैं इसका जिम्मा ले सकता हूँ कि अस्पताल में उसकी पूरी निगरानी रखी जाएगी ।

जिम-हम एक बागी के साथ कोई रिआयत नहीं कर सकता। आप जानता है, मुगलों या मरहठों का राज होता, तो ऐसे आदमी को क्या सजा मिलता? उसका खाल खींच लिया जाता, उसके दोनों हाथ काट लिए जाते। हम अपने दुश्मन को कोई रिआयत नहीं कर सकता।

राजा-हुजूर, दुश्मनों के साथ रिआयत करना उनको सबसे बड़ी सजा देना है। आप जिस पर दया करें, वह कभी आपसे दुश्मनी नहीं कर सकता। वह अपने किए पर लज्जित होगा और सदैव के लिए आपका भक्त हो जाएगा।

जिम-राजा साहब, आप समझता नहीं। ऐसा सलूक उस आदमी के साथ किया जाता है, जिसमें कुछ आदमियत बाकी रह गया हो। बागी का दिल बालू का मैदान है। उसमें पानी का बूंद भी नहीं होता, और न उसे पानी से सींचा जा सकता है। आदमी में जितना धर्म और शराफत है, उसके मिट जाने पर वह बागी हो जाता है। उसे भलमनसी में आप नहीं जीत सकता।

राजा साहब को आशा थी कि साहब मेरी बात आसानी से मान लेंगे। साहब के पास वह रोज ही कोई-न-कोई तोहफा भेजते रहते थे। उनकी जिद पर चिढ़कर बोले-जब मैं आपको विश्वास दिला रहा हूँ कि उस पर अस्पताल में काफी निगरानी रखी जाएगी ; तो आपको मेरी अर्ज मानने में क्या आपत्ति है?

जिम ने मुस्कराकर कहा-यह जरूरी नहीं कि मैं आपसे अपनी पालिसी बयान करूं।

राजा-मैं उसकी जमानत करने को तैयार हूँ।

जिम-(हंसकर) आप उसकी जबान की जमानत तो नहीं कर सकते? हजारों आदमी उसे देखने को रोज आएगा। आप उन्हें रोक तो नहीं सकते? गंवार लोग यही समझेगा कि सरकार इस आदमी पर बड़ा जुल्म कर रही है। उसे देख-देखकर लोग भड़केगा। इसको आप कैसे रोक सकते हैं?

राजा साहब के जी में आया कि इसी वक्त यहां से चल दूं और फिर इसका मुंह न देखू। पर खयाल किया, मनोरमा बैठी मेरी राह देख रही होगी। यह खबर सुनकर उसे कितनी निराशा होगी। ईश्वर ! इस निर्दयी के हृदय में थोड़ी-सी दया डाल दो ! बोले-आप यह हुक्म दे सकते हैं कि उनके निकट संबंधियों के सिवा कोई उनके पास न जाने पाए !

जिम-मेरे हुक्म में इतनी ताकत नहीं है कि वह अस्पताल को जेल बना दे। यह कहते-कहते मिस्टर जिम फिटन पर बैठे और सैर करने चल दिए।

राजा साहब को एक क्षण के लिए मनोरमा पर क्रोध आ गया। उसी के कारण मैं यह अपमान सह रहा हूँ, नहीं तो मुझे क्या गरज पड़ी थी कि इसकी इतनी खुशामद करता। जाकर कहे देता हूँ कि साहब नहीं मानते, मैं क्या करूं। मगर उसके आंसुओं के भय ने फिर कातर कर दिया। आह ! उसका कोमल हृदय टूट जाए गा। आंखों में आंसू की झड़ी लग जाएगी । नहीं, मैं कभी इसका पिंड न छोडूंगा। मेरा अपमान हो, इसकी चिंता नहीं। लेकिन उसे दुःख न हो।

थोड़ी देर तक तो राजा साहब बाग में टहलते रहे। फिर मोटर पर जा बैठे और घंटे भर इधर-उधर घूमते रहे। आठ बजे वह लौटकर आए, तो मालूम हुआ, अभी साहब नहीं आए। फिर लौटे, इसी तरह घंटे -घंटे भर के बाद वह तीन बार आए, मगर साहब बहादुर अभी तक न लौटे थे।

सोचने लगे, इतनी रात गए अगर मुलाकात हो भी गई, तो बातचीत करने का मौका कहाँ? शराब के नशे में चूर होगा। आते-ही-आते सोने चला जाए गा। मगर कम-से-कम मुझे देखकर इतना तो समझ जाएगा कि यह बेचारे अभी तक खड़े हैं। शायद दया आ जाए।

एक बजे के करीब बग्घी की आवाज आई। राजा साहब मोटर से उतरकर खडे हो गए। जिम भी फिटन से उतरा। नशे से आंखें सुर्ख थीं। लड़खड़ाता हुआ चल रहा था। राजा को देखते ही बोला-ओ, ओ ! तुम यहां क्यों खड़ा है? बाग जाओ, अभी जाओ, बागो !

राजा-हुजूर, मैं हूँ राजा विशालसिंह।

जिम-ओ ! डैम राजा, अबी निकल जाओ। तुम भी बागी है। तुम बागी का सिफारिश करता है, बागी को पनाह देता है। सरकार का दोस्त बनता है। अबी निकल जाओ। राजा और रैयत सब एक है। हम किसी पर भरोसा नहीं करता। अपने जोर का भरोसा है। राजा का काम बागियों को पकड़वाना, उनका पता लगाना है। उनका सिफारिश करना नहीं। अबी निकल जाओ।

यह कहकर वह राजा साहब की ओर झपटा। राजा साहब बहुत ही बलवान् मनुष्य थे। वह ऐसे-ऐसे दो को अकेले काफी थे; लेकिन परिणाम के भय ने उन्हें पंगु बना दिया था। एक चूंसा भी लगाया और पांच करोड़ रुपए की जायदादहाथ से निकली। वह घूसा बहुत महंगा पड़ेगा। परिस्थिति भी उनके प्रतिकूल थी। इतनी रात को उसके बंगले पर आना इस बात का सबूत समझा जाए गा कि उनकी नीयत अच्छी नहीं थी। दीन भाव से बोले-साहब, इतना जुल्म न कीजिए। इसका जरा भी खयाल न कीजिएगा कि मैं शाम से अब तक आपके दरवाजे पर खड़ा हूँ? कहिए तो आपके पैरों पडूं। जो कहिए, करने को हाजिर हूँ। मेरी अर्ज कबूल कीजिए।

जिम-कबी नईं होगा, कबी नई होगा। तुम मतलब का आदमी है। हम तुम्हारी चालों को खूब समझता है।

राजा-इतना तो आप कर ही सकते हैं कि मैं उनका इलाज करने के लिए अपना डॉक्टर जेल के अंदर भेज दिया करूं?

जिम-ओ डैमिट! बक-बक मत करो। सुअर, अभी निकल जाओ, नहीं तो हम ठोकर मारेगा।

अब राजा साहब से जब्त न हुआ। क्रोध ने सारी चिंताओं को, सारी कमजोरियों को निगल लिया। राज्य रहे या जाए , बला से ! जिम ने ठोकर चलाई ही थी कि राजा साहब ने उसकी कमर पकड़कर इतने जोर से पटका कि वह चारों खाने चित्त जमीन पर गिर पड़ा। फिर उठना चाहता था कि राजा साहब उसकी छाती पर चढ़ बैठे और उसका गला जोर से दबाया। कौड़ी-सी आंखें निकल आईं, मुंह से फिचकुर बहने लगा। सारा नशा, सारा क्रोध, सारा रौब, सारा अभिमान, रफूचक्कर हो गया।

राजा ने गला छोड़कर कहा-गला घोंट दूंगा, इस फेर में मत रहना। कच्चा ही चबा जाऊंगा। चपरासी या अहलकर नहीं हूँ कि तुम्हारी ठोकरें सह लूंगा।

जिम-राजा साहब, आप सचमुच नाराज हो गया। मैं तो आपसे दिल्लगी करता था। आप तो पहलवान हैं। आप दिल्लगी में बुरा मान गया !

राजा-बिल्कुल नहीं। मैं भी दिल्लगी कर रहा हूँ। अब तो आप फिर मेरे साथ दिल्लगी न करेंगे?

जिम-कबी नई, कबी नईं।

राजा-मैंने जो अर्ज की थी, वह आप मानेंगे या नहीं?

जिम-मानेंगे, मानेंगे; हम सुबह होते ही हुक्म देगा।

राजा-दगा तो न करोगे?

जिम-कभी नई, कभी नईं। आप भी किसी से यह बात न कहना।

राजा-दगा की, तो इसी तरह फिर पटकूंगा, याद रखना। यह कहकर राजा साहब मिस्टर जिम को छोड़कर उठ गए। जिम भी गर्द झाड़कर उठा और राजा साहब से बड़े तपाक के साथ हाथ मिलाकर उन्हें रुखसत किया। जरा भी शोरगुल न हुआ। जिम साहब के साईस के सिवा और किसी ने मल्लयुद्ध नहीं देखा था, और उसकी मारे डर के बोलने की हिम्मत न पड़ी।

राजा साहब दिल में सोचते जाते थे कि देखें, वादा पूरा करता है या मुकर जाता है। कहीं कल कोई शरारत न करे। उंह, देखी जाएगी । इस वक्त तो ऐसी पटकनी दी है कि बचा याद करते होंगे। यह सब वादे के तो सच्चे होते हैं। सुबह को देखूगा। अगर हुक्म न दिया, तो फिर जाऊंगा। इतना डर तो उसे भी होगा कि मैंने दगा की, तो वह भी कलई खोल देगा। सज्जनता से तो नहीं, पर इस भय से जरूर वादा पूरा करेगा। मनोरमा अपने घर चली गई होगी। तड़के ही जाकर उसे यह खबर सुनाऊंगा। खिल उठेगी। आह ! उस वक्त उसकी छवि देखने ही योग्य होगी!

राजा साहब घर पहुंचे, तो डेढ़ बज गए थे; पर अभी तक सोता न पड़ा था। नौकर-चाकर उनकी राह देख रहे थे। राजा साहब मोटर से उतरकर ज्योंही बरामदे में पहुंचे, तो देखा मनोरमा खड़ी है। राजा साहब ने विस्मित होकर पूछा-क्या तुम अभी घर नहीं गईं? तब से यहीं हो? रात तो बहुत बीत गई।

मनोरमा-एक किताब पढ़ रही थी। क्या हुआ? ।

राजा-कमरे में चलो, बताता हूँ।

राजा साहब ने सारी कथा आदि से अंत तक बड़े गर्व के साथ नमक-मिर्च लगाकर बयान की। मनोरमा तन्मय होकर सुनती रही। ज्यों-ज्यों वह वृत्तांत सुनती थी, उसका मन राजा साहब की ओर खिंच जाता था। मेरे लिए इन्होंने इतना कष्ट, इतना अपमान सहा। वृत्तांत समाप्त हुआ, तो वह प्रेम और भक्ति से गद्गद होकर राजा साहब के पैरों पर गिर पड़ी और कांपती हुई आवाज से बोली-मैं आपका यह एहसान कभी न भूलूंगी।

आज ज्ञात रूप से उसके हृदय में प्रेम का अंकुर पहली बार जमा। वह एक उपासक की भांति अपने उपास्य देव के लिए बाग में फूल तोड़ने आई थी; पर बाग की शोभा देखकर उस पर मुग्ध हो गई। फूल लेकर चली, तो बाग की सुरम्य छटा उसकी आंखों में समाई हुई थी। उसके रोम-रोम से यही ध्वनि निकलती थी-आपका एहसान कभी न भूलूंगी। स्तुति के शब्द उसके मुंह तक आकर रह गए।

वह घर चली, तो चारों ओर अंधकार और सन्नाटा था; पर उसके हृदय में प्रकाश फैला हुआ था और प्रकाश में संगीत की मधुर ध्वनि प्रवाहित हो रही थी। एक क्षण के लिए वह चक्रधर की दशा भी भूल गई, जैसे मिठाई हाथ में लेकर बालक अपने छिदे हुए कान की पीडा भूल जाता है।

बीस

मिस्टर जिम ने दूसरे दिन हुक्म दिया कि चक्रधर को जेल से निकालकर शहर के बड़े अस्पताल में रखा जाए । वह उन जिद्दी आदमियों में न थे, जो मार खाकर भी बेहयाई करते हैं। सवेरे परवाना पहुंचा। राजा साहब भी तड़के ही उठकर जेल पहुंचे। मनोरमा वहां पहले ही से मौजूद थी, लेकिन चक्रधर ने साफ कह दिया-मैं यहीं रहना चाहता हूँ। मुझे और कहीं भेजने की जरूरत नहीं।

दारोगा-आप कुछ सिड़ी तो नहीं हो गए हैं? कितनी कोशिश से तो राजा साहब ने यह हक्म दिलाया, और आप सुनते ही नहीं? क्यों जान देने पर तुले हो? यहां इलाज-विलाज खाक न होगा।

चक्रधर-कई आदमियों को मुझसे भी ज्यादा चोट आई है। मेरा मरना-जीना उन्हीं के साथ होगा। उनके लिए ईश्वर है, तो मेरे लिए भी ईश्वर है।

दारोगा ने बहुत समझाया, राजा साहब ने भी समझाया, मनोरमा ने रो-रोकर मिन्नतें कीं; लेकिन चक्रधर किसी तरह राजी न हुए। तहसीलदार साहब को अन्दर आने की आज्ञा न मिली; लेकिन शायद उनके समझाने का भी कुछ असर न होता। दोपहर तक सिरमगजन करने के बाद लोग निराश होकर लौटे।

मुंशीजी ने कहा-दिल नहीं मानता; पर जी यही चाहता है कि इस लौंडे का मुंह न देखू! राजा-इसमें बात ही क्या थी ! मेरी सारी दौड़-धूप मिट्टी में मिल गई।

मनोरमा कुछ न बोली। चक्रधर जो कुछ कहते या करते थे, उसे उचित जान पड़ता था। भक्त को आलोचना से प्रेम नहीं। चक्रधर का यह विशाल त्याग उसके हृदय में खटकता था; पर उसकी आत्मा को मुग्ध कर रहा था। उसकी आंखें गर्व से मतवाली हो रही थीं।

मिस्टर जिम को यह खबर मिली, तो तिलमिला उठे, मानो किसी रईस ने एक भिखारी को पैसे जमीन पर फेंककर अपनी राह ली हो। कीर्ति का इच्छुक जब दान करता है, तो चाहता है कि नाम हो, यश मिले। दान का अपमान उससे नहीं सहा जाता। जिसने समझा था कि चक्रधर की आत्मा का मैंने दमन कर दिया। अब उसे मालूम हुआ कि मैं धोखे में था। वह आत्मा अभी तक मस्तक उठाए उसकी ओर ताक रही थी। जिम ने मन में ठान लिया कि मैं उसे कुचलकर छोडूंगा।

चक्रधर दो महीने अस्पताल में पड़े रहे। दवा-दर्पण तो जैसी हुई, वही जानते होंगे, लेकिन जनता की दुआओं में जरूर असर था। हजारों आदमी नित्य उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करते थे

और मनोरमा को तो दान, व्रत और तप के सिवाय और कोई काम न था। जिन बातों को वह पहले ढकोसला समझती थी, उन्हीं बातों में अब उसकी आत्मा को शान्ति मिलती थी। पहली बार उसे प्रार्थना शक्ति का विश्वास हुआ। कमजोरी ही में हम लकड़ी का सहारा लेते हैं।

चक्रधर तो अस्पताल में पड़े थे, इधर उन पर नया अभियोग चलाने की तैयारियां हो रही थीं। ज्यों ही वह चलने-फिरने लगे, उन पर मुकदमा चलने लगा। जेल के भीतर ही इजलास होने लगा। ठाकुर गुरुसेवकसिंह आजकल डिप्टी मैजिस्ट्रेट थे। उन्हीं को यह मुकदमा सुपुर्द किया गया।

हमारे ठाकुर साहब बड़े जोशीले आदमी थे। यह जितने जोश से किसानों का संगठन करते थे, अब उतने ही जोश से कैदियों को सजाएं भी देते थे। पहले उन्होंने निश्चय किया था कि सेवा में ही अपना जीवन बिता दूंगा; लेकिन चक्रधर की दशा देखकर आंखें खुल गईं। समझ गए कि इन परिस्थितियों में सेवा कार्य टेढ़ी खीर है। जीवन का उद्देश्य यही तो नहीं है कि हमेशा एक पैर जेल में रहे, हमेशा प्राण सूली पर रहें, खुफिया पुलिस हमेशा ताक में बैठी रहे, भगवद्गीता का पाठ करना मुश्किल हो जाए । यह तो न स्वार्थ है, न परमार्थ, केवल आग में कूदना है, तलवार पर गर्दन रखना है। सेवा-कार्य को दूर से सलाम किया और सरकार के सेवक बन बैठे। खानदान अच्छा था ही, सिफारिश भी काफी थी, जगह मिलने में कोई कठिनाई न हुई। अब वह बड़े ठाठ से रहते थे। रहन-सहन भी बदल डाला, खान-पान भी बदल डाला। उस समाज में घुलमिल गए, जिसकी वाणी में, वेश में, व्यवहार में पराधीनता का चोखा रंग चढ़ा होता है। उन्हें लोग अब ‘साहब’, कहते हैं। ‘साहब’, हैं भी पूरे ‘साहब’, बल्कि ‘साहबों’ से भी दो अंगुल ऊंचे। किसी को छोड़ना तो जानते ही नहीं। कानून की मंशा चाहे कुछ हो, कड़ी से कड़ी सजा देना उनका काम है। उनका नाम सुनकर बदमाशों की नानी मर जाती है। विधाताओं को उन पर जितना विश्वास है, उतना और किसी हाकिम पर नहीं है इसीलिए यह मुकदमा उनके इजलास में भेजा गया है।

ठाकुर साहब सरकारी काम में जरा भी रू-रिआयत न करते थे, लेकिन यह मुकदमा पाकर वह धर्मसंकट में पड़ गए। धन्नासिंह और अन्य अपराधियों के विषय में कोई चिंता न थी, उनकी मीयाद बढ़ा सकते थे, काल कोठरी में डाल सकते थे, सेशन सिपुर्द कर सकते थे; पर चक्रधर को क्या करें! अगर सजा देते हैं, तो जनता में मुंह दिखाने लायक नहीं रहते। मनोरमा तो शायद उनका मुंह न देखे। छोड़ते हैं, तो अपने समाज में तिरस्कार होता है, क्योंकि वहां सभी चक्रधर से खार खाए बैठे थे। ठाकुर साहब के कानों में किसी ने यह बात भी डाल दी थी कि इसी मुकदमे पर तुम्हारे भविष्य का बहुत कुछ दारमदार है।

मुकदमे को पेश हुए आज तीसरा दिन था। गुरुसेवक बरामदे में बैठे सावन की रिमझिम वर्षा का आनंद उठा रहे थे। आकाश में मेघों की घुड़दौड़-सी हो रही थी। घुड़दौड़ नहीं, संग्राम था। एक दल आगे वेग से भागा चला जाता था और उसके पीछे विजेताओं का काला दल तोपें दागता, भाले चमकाता, गंभीर भाव से बढ़ रहा था, मानो भगोड़ों का पीछा करना अपनी शान के खिलाफ समझता हो।

सहसा मनोरमा मोटर से उतरकर उनके समीप ही कुर्सी पर बैठ गई।

गुरुसेवक ने पूछा-कहाँ से आ रही हो?

मनोरमा-घर से ही आ रही हूँ। जेलवाले मुकदमे में क्या हो रहा है?

गुरुसेवक-अभी तो कुछ नहीं हुआ। गवाहों के बयान हो रहे हैं।

मनोरमा-बाबूजी पर जुर्म साबित हो गया?

गुरुसेवक-हो भी गया और नहीं भी हुआ।

मनोरमा-मैं नहीं समझी।

गुरुसेवक-इसका मतलब यह है कि जुर्म का साबित होना या न होना दोनों बराबर हैं, मझे मुलजिमों को सजा करनी पड़ेगी। अगर बरी कर दूं, तो सरकार अपील करके उन्हें फिर सजा दिला देगी। हां, मैं बदनाम हो जाऊंगा। मेरे लिए यह आत्मबलिदान का प्रश्न है, सारी देवता मंडली मुझ पर कुपित हो जाएगी ।

मनोरमा-तुम्हारी आत्मा क्या कहती है?

गुरुसेवक-मेरी आत्मा क्या कहेगी? मौन है।

मनोरमा-मैं यह न मानूंगी। आत्मा कुछ-न-कुछ जरूर कहती है, अगर उससे पूछा जाए । कोई माने या न माने, यह उसका अख्तियार है। तुम्हारी आत्मा भी अवश्य तुम्हें सलाह दे रही होगी और उसकी सलाह मानना तुम्हारा धर्म है। बाबूजी के लिए सजा का दो-एक साल बढ़ जाना कोई बात नहीं, वह निरपराध हैं और यह विश्वास उन्हें तस्कीन देने को काफी है, लेकिन तुम कहीं के न रहोगे। तुम्हारे देवता तुमसे भले ही संतुष्ट हो जाए ; पर तुम्हारी आत्मा का सर्वनाश हो जाएगा।

गुरुसेवक-चक्रधर बिल्कुल बेकसूर तो नहीं है। पहले-पहल जेल के दारोगा पर वही गर्म पड़े थे। वह उस वक्त जब्त कर जाते, तो यह फिसाद न खड़ा होता। यह अपराध उनके सिर से कैसे दूर होगा?

मनोरमा-आपके कहने का यह मतलब है कि वह गालियां खाकर चुप रह जाते? क्यों?

गुरुसेवक-जब उन्हें मालूम था कि मेरे बिगड़ने से उपद्रव की संभावना है, तो मेरे खयाल में उन्हें चुप ही रह जाना चाहिए था।

मनोरमा और मैं कहती हूँ कि उन्होंने जो कुछ किया, वही उनका धर्म था। आत्मसम्मान की रक्षा हमारा सबसे पहला धर्म है। आत्मा की हत्या करके अगर स्वर्ग भी मिले, तो वह नरक है। आपको अपने फैसले में साफ-साफ लिखना चाहिए कि बाबूजी बेकसूर हैं। आपको सिफारिश करनी चाहिए कि एक महान् संकट में, अपने प्राणों को हथेली पर लेकर, जेल के कर्मचारियों की जान बचाने के बदले में उनकी मीयाद घटा दी जाए । सरकार अपील करे, इससे आपको कोई प्रयोजन नहीं। आपका कर्त्तव्य वही है जो मैं कह रही हूँ।

गुरुसेवक ने अपनी नीचता को मुस्कराहट से छिपाकर कहा-आग में कूद पडूं?

मनोरमा-धर्म की रक्षा के लिए आग में कूद पड़ना कोई नई बात नहीं है। आखिर आपको किस बात का डर है? यही न, कि आपसे आपके अफसर नाराज हो जाएंगे? आप शायद डरते हों कि कहीं आप अलग न कर दिए जाए । इसकी जरा भी चिंता न कीजिए! मैं आशा करती हूँ….मुझे विश्वास है कि आपका नुकसान न होने पाएगा।

गुरुसेवक अपनी स्वार्थपरता पर झेंपते हुए बोले-नौकरी की मुझे परवाह नहीं है, मनोरमा ! मैं इन लोगों के कमीनेपन से डरता हूँ। इनको फौरन खयाल होगा कि मैं भी उसी टुकड़ी में मिला हुआ हूँ, और आश्चर्य नहीं कि मैं भी किसी जुल्म में फांस दिया जाऊं। मुझे इनके साथ मिलने-जुलने से इनकी नीचता का कई बार अनुभव हो चुका है। इनमें उदारता और सज्जनता नाम को भी नहीं होती। बस, अपने मतलब के यार हैं। इनका धर्म, इनकी राजनीति, इनका न्याय, इनकी सभ्यता केवल एक शब्द में आ जाती है, और वह शब्द है-‘स्वार्थ’। मैं सब कुछ सह सकता हूँ, जेल के कष्ट नहीं सह सकता। जानता हूँ, यह मेरी कमजोरी है; पर क्या करूं? मुझमें तो इतना साहस नहीं।

मनोरमा-भैयाजी, आपकी यह सारी शंकाएं निर्मूल हैं। मैं आपका जरा भी नुकसान न होने दूंगी। गवाहों के बयान हो गए कि नहीं?

गुरुसेवक-हां, हो गए। अब तो केवल फैसला सुनाना है।

मनोरमा-तो लिखिए, लाऊं कलम-दावात?

गुरुसेवक-लिख लूंगा, जल्दी क्या है?

मनोरमा-मैं बिना लिखवाए यहां से जाऊंगी ही नहीं। यही इरादा करके आज आई हूँ।

गुरुसेवक-जरा घर में जाकर लोगों से मिल आओ। शिकायत करती थीं कि अभी से हमें भूल गईं।

मनोरमा-टालमटोल न कीजिए। मैं सब सामान यहीं लाए देती हूँ। आपको इसी वक्त लिखना पड़ेगा।

गुरुसेवक-तो तुम कब तक बैठी रहोगी? फैसला लिखना कोई मुंह का कौर थोड़े ही है।

मनोरमा-आधी रात तक खत्म हो जाए गा? आज न होगा, कल होगा? मैं फैसला पढ़कर ही यहां से जाऊंगी। तुम दिल से चक्रधर को निर्दोष मानते हो, केवल स्वार्थ और भय तुम्हें दुविधा में डाले हुए हैं ! मैं देखना चाहती हूँ कि तुम कहाँ तक सत्य का निर्वाह करते हो।

सहसा दूसरी मोटर आ पहुंची। इस पर राजा साहब बैठे हुए थे। गुरुसेवक बड़े तपाक से उन्हें लेने दौड़े। राजा ने उनकी ओर विशेष ध्यान न दिया। मनोरमा के पास आकर बोले-तुम्हारे घर से चला आ रहा हूँ। वहां पूछा तो मालूम हुआ-कहीं गई हो; पर यह किसी को न मालूम था कि कहाँ! वहां से पार्क गया, पार्क से चौक पहुंचा, सारे जमाने की खाक छानता हुआ यहाँ पहुंचा हूँ। मैं कितनी बार कह चुका हूँ कि घर से चला करो, तो जरा बतला दिया करो।

मनोरमा-मैंने समझा था, आपके आने के वक्त तक लौट आऊंगी।

राजा-खैर, अभी कुछ ऐसी देर नहीं हुई। कहिए, डिप्टी साहब, मिजाज तो अच्छे हैं? कभी-कभी भूलकर हमारी तरफ भी आ जाया कीजिए। (मनोरमा से) चलो, नहीं तो शायद जोर से पानी आ जाए ।

मनोरमा-मैं तो आज न जाऊँगी।

राजा-नहीं-नहीं, ऐसा न कहो। वे लोग हमारी राह देख रहे होंगे।

मनोरमा-मेरा तो जाने को जी नहीं चाहता।

राजा-तुम्हारे बगैर सारा मजा किरकिरा हो जाएगा, और मुझे बहुत लज्जित होना पड़ेगा। मैं तुम्हें जबरदस्ती ले जाऊंगा।

यह कहकर राजा साहब ने मनोरमा का हाथ आहिस्ता से पकड़ लिया और उसे मोटर की तरफ खींचा। मनोरमा ने एक झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया और त्योरियां बदलकर बोली-एक बार कह दिया कि मैं न जाऊंगी।

राजा-आखिर क्यों?

मनोरमा-अपनी इच्छा!

गुरुसेवक-हूजूर, यह मुझसे जबरदस्ती जेलवाले मुकदमे का फैसला लिखाने बैठी हुई हैं। कहती हैं, बिना लिखवाए न जाऊंगी।

गुरुसेवक ने तो यह बात दिल्लगी से कही थी, पर समयोचित बात उनके मुंह से कम निकलती थी। मनोरमा का मुंह लाल हो गया। सनझी कि यह मुझे राजा साहब के सम्मुख गिराना चाहते हैं। तनकर बोली-हां, इसीलिए बैठी हूँ, तो फिर? आपको यह कहते हुए शर्म आनी चाहिए थी। एक निरपराध आदमी को आपके हाथों स्वार्थमय अन्याय से बचाने के लिए मेरी निगरानी की जरूरत है। क्या यह आपके लिए शर्म की बात नहीं है? अगर मैं समझती कि आप निष्पक्ष होकर फैसला करेंगे, तो मेरे बैठने की क्यों जरूरत होती? आप मेरे भाई हैं, इसलिए मैं आपसे सत्याग्रह कर रही हूँ। आपकी जगह कोई दूसरा आदमी बाबूजी पर जान-बूझकर ऐसा घोर अन्याय करता, तो शायद मेरा बस चलता, तो उसके हाथ कटवा लेती। चक्रधर की मेरे दिल में जितनी इज्जत है, उसका आप लोग अनुमान नहीं कर सकते।

एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया। गुरुसेवक का मुंह नन्हा-सा हो गया, और राजा साहब तो मानो रो दिए। आखिर चुपचाप अपनी मोटर की ओर चले। जब वह मोटर पर बैठ गए तो मनोरमा भी धीरे से उनके पास आई और स्नेह सिंचित नेत्रों से देखकर बोली-मैं कल आपके साथ अवश्य चलूंगी।

राजा ने सड़क की ओर ताकते हुए कहा-जैसी तुम्हारी खुशी।

मनोरमा-अगर इस मामले में सच्चा फैसला करने के लिए भैयाजी पर हाकिमों की अकृपा हुई, तो आपको भैयाजी के लिए कुछ फिक्र करनी पड़ेगी।

राजा-देखी जाएगी ।

मनोरमा तनकर बोली-क्या कहा?

राजा-कुछ तो नहीं। मनोरमा भैयाजी को रियासत में जगह देनी होगी।

राजा-तो दे देना, मैं रोकता कब हूँ?

मनोरमा-कल चार बजे आने की कृपा कीजिएगा। मुझे आपके साथ आज न चलने का बड़ा दुःख है, पर मजबूर हूँ। मैं चली जाऊंगी, तो भैयाजी कुछ का कुछ कर बैठेंगे। आप नाराज तो नहीं है ?

यह कहते-कहते मनोरमा की आंखें सजल हो गईं। राजा ने मन्त्र-मुग्ध नेत्रों से उसकी ओर ताका और गद्गद होकर बोले-तुम इसकी जरा भी चिंता न करो। तुम्हारा इशारा काफी है। लो, अब खुश होकर मुस्करा दो। देखो, वह हंसी आई!

मनोरमा मुस्करा पड़ी। पानी में कमल खिल गया। राजा साहब ने उससे हाथ मिलाया और चले गए। तब मनोरमा आकर कुर्सी पर बैठ गई।

इस समय गुरुसेवक की दशा उस आदमी की-सी थी, जिसके सामने कोई महात्मा धूनी रमाए बैठे हों, और बगल में कोई विहसित, विकसित रमणी मधुर संगीत अलाप रही हो। उसका मन तो संगीत की ओर आकर्षित होता है; लेकिन लज्जावश उधर न देखकर वह जाता है और महात्मा के चरणों पर सिर झुका देता है।

मनोरमा कुर्सी पर बैठी उनकी ओर इस तरह ताक रही थी, मानो किसी बालक ने अपनी कागज की नाव लहरों में डाल दी हो और उसको लहरों के साथ हिलते हुए बहते देखने में मग्न हो। नाव कभी झोंके खाती है, कभी लहरों के साथ बहती है और कभी डगमगाने लगती है। बालक का हृदय भी उसी भांति कभी उछलता है, कभी घबराता है और कभी बैठ जाता है।

कुर्सी पर बैठे-बैठे मनोरमा को एक झपकी आ गई। सावन-भादों की ठंडी हवा निद्रामय होती है। उसका मन स्वप्न-साम्राज्य में जा पहुंचा। क्या देखती है कि उसके बचपन के दिन हैं। वह अपने द्वार पर सहेलियों के साथ गुड़िया खेल रही है। सहसा एक ज्योतिषी पगड़ी बांधे, पोथी पत्रा बगल में दबाए आता है। सब लड़कियां अपनी गुड़ियों का हाथ दिखाने के लिए दौड़ी हुई ज्योतिषी के पास जाती हैं। ज्योतिषी गुड़ियों के हाथ देखने लगता है। न जाने कैसे गुड़ियों के हाथ लड़कियों के हाथ बन जाते हैं। ज्योतिषी एक बालिका का हाथ देखकर कहता है-तेरा विवाह एक बड़े भारी अफसर से होगा। बालिका हंसती हुई अपने घर चली जाती है। तब ज्योतिषी दूसरी बालिका का हाथ देखकर कहता है-तेरा विवाह एक बड़े सेठ से होगा। तू पालकी में बैठकर चलेगी। वह बालिका भी खुश होकर घर चली जाती है। तब मनोरमा की बारी आती है। ज्योतिषी उसका हाथ देखकर चिंता में डूब जाते हैं और अंत में संदिग्ध स्वर में कहते हैं-तेरे भाग्य में जो कुछ लिखा है, तू उसके विरुद्ध करेगी और दुःख उठाएगी। यह कहकर वह चल पड़ते हैं, पर मनोरमा उनका हाथ पकड़कर कहती है-आपने मुझे तो कुछ नहीं बताया। मुझे उसी तरह बता दीजिए, जैसे आपने मेरी सहेलियों को बताया है। त्योतिषी झंझलाकर कहते हैं-तू प्रेम को छोड़कर धन के पीछे दौड़ेगी; पर तेरा उद्धार प्रेम ही से होगा। यह कहकर ज्योतिषीजी अंतर्धान हो गए और मनोरमा खड़ी रोती रह गई।

यही विचित्र दृश्य देखते-देखते मनोरमा की आंखें खुल गईं। उसकी आखों से अभी तक आंसू बह रहे थे। सामने उसकी भावज खड़ी कह रही थी-घर में चलो, बीबी ! मुझसे क्यों इतना भागती हो? क्या मैं कुछ छीन लूंगी? और गुरुसेवक लैम्प के सामने बैठे तजवीज लिख रहे थे। मनोरमा ने भावज से पूछा-भाभी, क्या मैं सो गई थी? अभी तो शाम हुई है।

गुरुसेवक ने कहा-शाम नहीं हुई है, बारह बज रहे हैं।

मनोरमा-तो आपने तजवीज लिख डाली होगी?

गुरुसेवक-बस, जरा देर में खत्म हुई जाती है।

मनोरमा ने कांपते हुए स्वर में कहा-आप यह तजवीज फाड़ डालिए।

गुरुसेवक ने बड़ी-बड़ी आंखें करके पूछा-क्यों, फाड़ क्यों डालूं?

मनोरमा-यों ही! आपने इस मुकद्दमे का जिक्र ऐसे बेमौके कर दिया कि राजा साहब नाराज हो गए होंगे। मुझे चक्रधर से कुछ रिश्वत तो लेनी नहीं है। वह तीन वर्ष की जगह तीस वर्ष क्यों न जेल में पड़े रहें, पुण्य और पाप आपके सिर। मुझसे कोई मतलब नहीं।

गुरुसेवक-नहीं मनोरमा, मैं अब यह तजवीज नहीं फाड़ सकता। बात यह है कि मैंने पहले ही से दिल में एक बात स्थिर कर ली थी, और सारी शहादतें मुझे उसी रंग में रंगी नजर आती थीं। सत्य की मैंने तलाश न की थी, तो सत्य मिलता कैसे? अब मालूम हुआ कि पक्षपात क्योंकर लोगों की आंखों पर परदा डाल देता है। अब जो सत्य की इच्छा से बयानों को देखता हूँ, तो स्पष्ट मालूम होता है कि चक्रधर बिलकुल निर्दोष हैं। जान-बूझकर अन्याय न करूंगा।

मनोरमा-आपने राजा साहब की त्योरियां देखीं?

गुरुसेवक-हां,खूब देखीं; पर उनकी अप्रसन्नता के भय से अपनी तजवीज नहीं फाड सकता। यह पहली तजवीज है, जो मैंने पक्षपात रहित होकर लिखी है और जितना संतोष आज मुझे अपनी फैसले पर है, उतना और कभी न हुआ था। अब तो कोई लाख रुपए भी दे, तो भी इसे न फाड़ूँ।

मनोरमा-अच्छा, तो लाइए, मैं फाड़ दूं।

गरुसेवक-नहीं मनोरमा, आँघते हुए आदमी को मत ठेलो, नहीं तो फिर वह इतने ज़ोर से गिरेगा कि उसकी आत्मा तक चूर-चूर हो जाएगी। मुझे तो विश्वास है कि इस तजवीज से चक्रधर को पहली सजा भी घट जाएगी । शायद सत्य कलम को भी तेज कर देता है। मैं इन तीन घंटों में बिना चाय का एक प्याला पिये चालीस पृष्ठ लिख गया, नहीं तो हर दस मिनट में चाय पीनी पड़ती थी। बिना चाय की मदद के कलम ही न चलती थी।

मनोरमा-लेकिन मेरे सिर इसका एहसान न होगा?

गुरुसेवक-सचाई आप ही अपना इनाम है, यह पुरानी कहावत है। सत्य से आत्मा भी बलवान हो जाती है। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, अब मुझे जरा भी भय नहीं है।

मनोरमा-अच्छा, अब मैं जाऊंगी। लालाजी घबरा रहे होंगे।

भाभी-हां-हां, जरूर जाओ, वहां माताजी के स्तनों में दूध उतर आया होगा। यहां कौन अपना बैठा हुआ है?

मनोरमा-भाभी, लौंगी अम्मां को तुम जितना नीच समझती हो, उतनी नीच नहीं हैं। तुम लोगों के लिए वह अब भी रोया करती हैं।

भाभी-अब बहुत बखान न करो, जी जलता है। वह तो मरती भी हो, तो भी देखने न जाऊं। किसी दूसरे घर में होती, तो अभी तक बरतन मांजती होती। यहां आकर रानी बन गई। लो उठो चलो; आज तुम्हारा गाना सुनूंगी। बहुत दिनों के बाद पंजे में आयी हो।

मनोरमा घर न जा सकी। भोजन करके भावज के साथ लेटी। बड़ी रात तक दोनों में बातें होती रहीं। आखिर भाभी को नींद आ गई, पर मनोरमा की आंखों में नींद कहाँ? वह तो पहले ही सो चुकी थी, वही स्वप्न उसके मस्तिष्क में चक्कर लगा रहा था। वह बार-बार सोचती थी, इस स्वप्न का आशय क्या यही है कि राजा साहब से विवाह करके वह सचमुच अपना भाग्य पलट रही है? क्या वह प्रेम को छोड़कर धन के पीछे भागी जा रही है?वह प्रेम कहाँ है, जिसे उसने छोड़ दिया है? उसने तो उसे पाया ही नहीं। वह जानती है कि उसे कहाँ पा सकती है; पर पाए कैसे? वह वस्तु तो उसके हाथ से निकल गई। वह मन में कहने लगी-बाबूजी, तुमने कभी मेरी ओर आंख उठाकर देखा है? नहीं, मुझे इसकी लालसा रह ही गई। तुम दूसरों के लिए मरना जानते हो, अपने लिए जीना भी नहीं जानते। तुमने एक बार मुझे इशारा भी कर दिया होता, तो मैं दौड़कर तुम्हारे चरणों में लिपट जाती। इस धन-दौलत पर लात मार देती, इस बंधन को कच्चे धागे की भांति तोड़ देती; लेकिन तुम इतने विद्वान होकर भी इतने सरल हृदय हो ! इतने अनुरक्त होकर भी इतने विरक्त ! तुम समझते हो, तुम्हारे मन का हाल नहीं जानती? मैं सब जानती हूँ, एक-एक अक्षर जानती हूँ लेकिन क्या करूं? मैंने अपने मन के भाव उससे अधिक प्रकट कर दिए थे, जितना मेरे लिए उचित था। मैंने बेशर्मी तक की, लेकिन तुमने मुझे न समझा, या समझने की चेष्टा ही न की। अब तो भाग्य मुझे उसी ओर लिए जा रहा है, जिधर मेरी चिता बनी हुई है। उसी चिता पर बैठने जाती हूँ। यही हृदयदाह मेरी चिता होगी और यही स्वप्न-संदेश मेरे जीवन का आधार होगा। प्रेम से मैं वंचित हो गई और अब मुझे सेवा ही से अपना जीवन सफल करना होगा। वह स्वप्न नहीं, आकाशवाणी है ! अभागिनी इससे अधिक और क्या अभिलाषा रख सकती है?

यही सोचते-सोचते वह लेटे-लेटे यह गीत गाने लगी–

करूं क्या, प्रेम समुद्र अपार!

स्नेह सिन्धु में मग्न हुई मैं, लहरें रहीं हिलोर,

हाथ न आए तुम जीवन धन, पाया कहीं न छोर,

करूं क्या, प्रेम समुद्र अपार!

झूम-झूमकर जब इठलायी सुरभित स्निग्ध समीर,

नभ मंडल में लगा विचरने मेरा हृदय अधीर।

करूं क्या, प्रेम समुद्र अपार।

इक्कीस

हुक्काम के इशारों पर नाचने वाले गुरुसेवकसिंह ने जब चक्रधर को जेल के दंगे के इलजाम से बरी कर दिया, तो अधिकारी मंडल में सनसनी-सी फैल गई। गुरुसेवक से ऐसे फैसले की किसी को आशा न थी। फैसला क्या था, मानपत्र था, जिसका एक-एक शब्द वात्सल्य के रस में सराबोर था। जनता में धूम मच गई। ऐसे न्यायवीर और सत्यवादी प्राणी विरले ही होते हैं, सबके मुंह से यही बात निकलती थी। शहर के कितने ही आदमी तो गुरुसेवक के दर्शनों को आए और यह कहते हुए लौटे कि यह हाकिम नहीं, साक्षात् देवता है। अधिकारियों ने सोचा था, चक्रधर को चार-पांच साल जेल में सड़ाएंगे, लेकिन अब तो खूटा ही उखड़ गया, उछलें किस बिरते पर? चक्रधर इस इल्जाम से बरी ही न हुए, बल्कि उनकी पहली सजा भी एक साल घटा दी गई।

मिस्टर जिम तो ऐसा जामे से बाहर हुए कि बस चलता, तो गुरुसेवक को गोली मार देते। और कुछ न कर सके, तो चक्रधर को तीसरे ही दिन आगरे भेज दिया, लेकिन ईश्वर न करे कि किसी पर हाकिमों की टेढ़ी निगाह हो। चक्रधर की मीयाद घटा दी गई, लेकिन कर्मचारियों को सख्त ताकीद कर दी गयी थी कि कोई कैदी उनसे बोलने तक न पाए, कोई उनके कमरे के द्वार तक भी न जाने पाए, यहां तक कि कोई कर्मचारी भी उनसे न बोले। साल भर में दस साल की कैद का मजा चखाने की हिकमत सोच निकाली गई। मजा यह कि इस धुन में चक्रधर को कोई काम भी न दिया गया। बस, चारों पहर उसी चार हाथ लम्बी और तीन हाथ चौड़ी कोठरी में पड़े रहो।

जेल के विधाताओं में चाहे जितने अवगुण हों, पर वे मनोविज्ञान के पण्डित होते हैं। किस दंड से आत्मा को अधिक से अधिक कष्ट हो सकता है, इसका उन्हें सम्पूर्ण ज्ञान होता है। मनुष्य के लिए बेकारी से बड़ा और कोई कष्ट नहीं है, इसे वे खूब जानते हैं। चक्रधर के कमरे का द्वार दिन में केवल दो बार खुलता था। वार्डन खाना रखकर किवाड़ बंद कर देता था। आह ! कालकोठरी ! तू मानवी पशुता की सबसे क्रूर लीला, सबसे उज्ज्वल कीर्ति है। तू वह जादू है, जो मनुष्य को आंखें रहते अन्धा, कान रहते बहरा, जीभ रहते गूंगा बना देती है। कहाँ हैं सूर्य की वे किरणें जिन्हें देखकर आंखों को अपने होने का विश्वास हो? कहाँ है वह वाणी,जो कानों को जगाए? गंध है, किंतु ज्ञान तो भिन्नता में है। जहां दुर्गंध के सिवा और कुछ नहीं, वहां गंध का ज्ञान कैसे हो? बस, शून्य है, अंधकार है ! वहां पंच भूतों का अस्तित्व ही नहीं। कदाचित् ब्रह्मा ने इस अवस्था की कल्पना ही न की होगी, कदाचित् उनमें यह सामर्थ्य ही न थी। मनुष्य की आविष्कार शक्ति कितनी विलक्षण है! धन्य हो देवता, धन्य हो!

चक्रधर के विचार और भाव इतनी जल्द बदलते रहते थे कि कभी-कभी उन्हें भ्रम होने लगता था कि मैं पागल तो नहीं हुआ जा रहा हूँ? कभी सोचते ईश्वर ने ऐसी सृष्टि की रचना ही क्यों की, जहां इतना स्वार्थ, द्वेष और अन्याय है? क्या ऐसी पृथ्वी न बन सकती थी, जहां सभी मनुष्य, सभी जातियां प्रेम और आनंद के साथ संसार में रहती? यह कौन-सा इंसाफ है कि कोई तो दुनिया के मजे उड़ाए, कोई धक्के खाए? एक जाति दूसरी का रक्त चूसे और मूंछों पर ताव दे? दूसरी कुचली जाए और दाने-दाने को तरसे? ऐसा अन्यायमय संसार ईश्वर की सृष्टि नहीं हो सकता। पूर्व संसार का सिद्धान्त ढोंग मालूम होता है, जो लोगों ने दुखियों और दुर्बलों के आंसू पोंछने के लिए गढ़ लिए हैं। दो-चार दिन यही संशय उनके मन को मथा करता। फिर एकाएक विचारधारा पलट जाती। अंधकार में प्रकाश की ज्योति फैल जाती, कांटों की जगह फूल नजर आने लगते। पराधीनता एक ईश्वरीय विधान का रूप धारण कर लेती, जिसमें विकास और जागृति का मंत्र छिपा हुआ है। नहीं, पराधीनता दंड नहीं है; यह शिक्षालय है, जो हमें स्वराज्य के सिद्धान्त सिखाता है, हमारे पुराने कुसंस्कारों को मिटाता है; हमारी मुंदी हुई आंखें खोलता है, इसके लिए ईश्वर का गिला करने की जरूरत नहीं। हमें उनको धन्यवाद देना चाहिए।

अंत को इस अंतर्द्वन्द्व में उनकी आत्मा ने विजय पाई। सारी मन की अशांति, क्रोध और हिंसात्मक वृत्तियां उसी विजय में मग्न हो गईं। मन पर आत्मा का राज्य हो गया। इसकी परवाह न रही कि ताजी हवा मिलती है या नहीं, भोजन कैसा मिलता है, कपड़े कितने मैले हैं, उनमें कितने चिलवे पड़े हुए हैं कि खुजाते-खुजाते देह में दिदोरे पड़ जाते हैं। इन कष्टों की ओर उनका ध्यान ही न जाता। मन अंतर्जगत् की सैर करने लगा। यह नई दुनिया, जिसका अभी तक चक्रधर को बहुत कम ज्ञान था, इस लोक से कहीं ज्यादा पवित्र, उज्ज्वल और शांतिमय थी। यहां रवि की मधुर प्रभात किरणों में, इन्दु की मनोहर छटा में, वायु के कोमल संगीत में, आकाश की निर्मल नीलिमा में एक विचित्र ही आनंद था। वह किसी समाधिस्थ योगी की भांति घंटों इस अंतर्लोक में विचरते रहते। शारीरिक कष्टों से अब उन्हें विराग-सा होने लगा। उनकी ओर ध्यान देना वह तुच्छ समझते थे। कभी-कभी वह गाते। मनोरंजन के लिए कई खेल निकाले। अंधेरे में अपनी लुटिया लुढ़का देते और उसे एक ही खोज में उठा लाने की चेष्टा करते। अगर उन्हें किसी चीज की जरूरत मालूम होती, तो वह प्रकाश था। इसलिए नहीं कि वह अंधकार से ऊब गये थे, बल्कि इसलिए कि वह अपने मन में उमड़ने वाले भावों को लिखना चाहते थे। लिखने की सामग्रियों के लिए उनका मन तड़पकर रह जाता। धीरे-धीरे उन्हें प्रकाश की भी जरूरत न रही। उन्हें ऐसा विश्वास होने लगा कि मैं अंधेरे में भी लिख सकता हूँ। यही न होगा कि पंक्तियों सीधी न होंगी, पर पंक्तियों को दूर-दूर रखकर और शब्दों को अलग-अलग लिखकर वह इस मुश्किल को आसान कर सकते थे। सोचते, कभी यहां से बाहर निकलने पर उस लिखावट को पढ़ने में कितना आनंद आएगा, कितना मनोरंजन होगा ! लेकिन लिखने का सामान कहाँ? बस, यही एक ऐसी चीज थी, जिसके लिए वह कभी-कभार विकल हो जाते थे। विचार को ऐसे अथाह सागर में डूबने का मौका फिर न मिलेगा और ये मोती फिर हाथ न आएंगे, लेकिन कैसे मिलें? चक्रधर के पास कभी-कभी एक बूढ़ा वार्डन भोजन लाया करता था, वह बहुत ही हंसमुख आदमी था। चक्रधर को प्रसन्नमुख देखकर दो-चार बातें कर लेता था। आह ! उससे बातें करने के लिए चक्रधर लालायित रहते थे। उससे उन्हें बन्धुतत्व-सा हो गया था। वह कई बार पूछ चुका था कि बाबूजी चरस-तंबाकू की इच्छा हो, तो हमसे कहना। चक्रधर को खयाल आया, क्यों न उससे एक पेंसिल और थोड़े-से कागज के लिए कहूँ? इस उपकार का बदला कभी मौका मिला तो चुका दूंगा। कई दिनों तक तो वह इसी संकोच में पड़े रहे कि उससे कहूँ या नहीं। आखिर एक दिन उनसे न रहा गया, पूछ ही बैठे-क्यों जमादार, यहां कहीं कागज-पेंसिल तो मिलेगी?

बूढ़ा वार्डन उनकी पूर्व कथा सुन चुका था, कुछ लिहाज करता था। मालूम नहीं किस देवता के आशीर्वाद से उसमें इतनी इंसानियत बच रही थी। और जितने वार्डन भोजन लाते, वे या तो चक्रधर को अनायास दो-चार ऐंड़ी-बेंडी सुना देते, या चुपके से खाना रखकर चले जाते। चक्रधर को चरित्र ज्ञान प्राप्त करने का यह बहुत ही अच्छा अवसर मिलता था। बूढ़े वार्डन ने सतर्क भाव से कहा-मिलने को तो मिल जाएगा, पर किसी ने देख लिया, तो क्या होगा?

इस वाक्य ने चक्रधर को संभाल लिया। उनकी विवेक बुद्धि जो क्षण भर के लिए मोह में फंस गई थी, जाग उठी। बोले-नहीं, मैं यों ही पूछता था। यह कहते-कहते लज्जा से उनकी जबान बंद हो गई। जरा-सी बात के लिए इतना पतन !

इसके बाद उस वार्डन ने फिर कई बार पूछा-कहो तो पिसिन-कागद ला दूं, मगर चक्रधर ने हर दफा यही कहा-मुझे जरूरत नहीं।

बाबू यशोदानंदन को ज्यों ही मालूम हुआ कि चक्रधर आगरा जेल में आ गए हैं, वह उनसे मिलने की कई बार चेष्टा कर चुके थे, पर आज्ञा न मिलती थी। साधारणत: कैदियों को छठे महीने अपने घर के किसी प्राणी से मिलने की आज्ञा मिल जाती थी। चक्रधर के साथ इतनी रियायत भी न की गई थी, पर यशोदानंदन अवसर पड़ने पर खुशामद भी कर सकते थे। अपना सारा जोर लगाकर अंत में उन्होंने आज्ञा प्राप्त कर ही ली-अपने लिए नहीं, अहिल्या के लिए। उस विरहणी की दशा दिनोंदिन खराब होती जाती थी। जब से चक्रधर ने जेल में कदम रखा, उसी दिन से वह भी कैदियों की-सी जिंदगी बसर करने लगी। चक्रधर जेल में भी स्वतन्त्र थे, वह भाग्य को अपने पैरों पर झुका सकते थे। अहिल्या घर में भी कैद थी; वह भाग्य पर विजय न पा सकती थी। वह केवल एक बार बहुत थोड़ा-सा खाती और वह भी रूखा-सूखा। वह चक्रधर को अपना पति समझती थी। पति की ऐसी कठिन तपस्या देखकर उसे आप ही आप बनाव-श्रृंगार से, खाने-पीने से, हंसने-बोलने से अरुचि होती थी। कहाँ पुस्तकों पर जान देती थी, कहाँ अब उनकी ओर आंख उठाकर न देखती। चारपाई पर सोना भी छोड़ दिया था। केवल जमीन पर एक कंबल बिछाकर पड़ी रहती। बैसाख-जेठ की गरमी का क्या पूछना, घर की दीवारें तवे की तरह तपती हैं। घर भाड़-सा मालूम होता है। रात को खुले मैदान में भी मुश्किल से नींद आती है, लेकिन अहिल्या ने सारी गरमी एक छोटी-सी बंद कोठरी में सोकर काट दी।

माघ की सरदी का क्या पूछना? प्राण तक कांपते हैं। लिहाफ के बाहर मुंह निकालना मश्किल होता है। पानी पीने से जूड़ी-सी चढ़ आती है। लोग आग पर पतंगों की भांति गिरते हैं, लेकिन अहिल्या के लिए वही कोठरी की जमीन थी और एक फटा हुआ कंबल। सारा घर समझाता था-क्यों इस तरह प्राण देती हो? तुम्हारे प्राण देने से चक्रधर का कुछ उपकार होता, तो एक बात भी थी। व्यर्थ काया को क्यों कष्ट देती हो? इसका उसके पास यही जवाब था-मुझे जरा भी कष्ट नहीं। आप लोगों को न जाने कैसे मैदान में गरमी लगती है, मुझे तो कोठरी में खूब नींद आती है। आप लोगों को न जाने कैसे सरदी लगती है, मुझे तो कंबल में ऐसी गहरी नींद आती है कि एक बार भी आंख नहीं खुलती। ईश्वर में पहले भी उसकी भक्ति कम न थी, अब तो उसकी धर्मनिष्ठा और भी बढ़ गई। प्रार्थना में इतनी शांति है, इसका उसे पहले अनुमान न था। जब वह हाथ जोड़कर आंखें बंद करके ईश्वर से प्रार्थना करती, तो उसे ऐसा मालूम होता कि चक्रधर स्वयं मेरे सामने खड़े हैं। एकाग्रता और निरंतर ध्यान से उसकी आत्मा दिव्य होती जाती थी। इच्छाएं आप ही आप गायब हो गईं। चित्त की वृत्ति ही बदल गई। उसे अनुभव होता था कि मेरी प्रार्थनाएं उस मातृ-स्नेहपूर्ण अंचल की भांति, जो बालक को ढंक लेता है, चक्रधर की रक्षा करती रहती हैं।

जिस दिन अहिल्या को मालूम हुआ कि चक्रधर से मिलने की आज्ञा मिल गई है उसे आनंद के बदले भय होने लगा-वह न जाने कितने दुर्बल हो गए होंगे, न जाने उनकी सूरत कैसी बदल गई होगी। कौन जाने, हृदय बदल गया हो। यह भी शंका होती थी कि कहीं मुझे उनके सामने जाते ही मूर्छा न आ जाए , कहीं मैं चिल्लाकर रोने न लगूं। अपने दिल को बार-बार मजबूत करती थी।

प्रात:काल उसने उठकर स्नान किया और बड़ी देर तक बैठी बंदना करती रही। माघ का महीना था, आकाश में बादल छाए हुए थे। इतना कुहरा पड़ रहा था कि सामने की चीज न सूझती थी। सर्दी के मारे लोगों का बुरा हाल था। घरों की महरियां अंगीठियां लिए ताप रही थीं, धन्धा करने कौन जाए । मजदूरों को फाका करना मंजूर था; पर काम पर जाना मुश्किल मालूम होता था। दुकानदारों को दुकान की परवाह न थी, बैठे आग तापते थे; यमुना में नित्य स्नान करने वाले भक्तजन भी आज तट पर नजर न आते थे। सड़कों पर, बाजार में, गलियों में, सन्नाटा छाया हुआ था। ऐसा ही कोई विपत्ति का मारा दुकानदार था, जिसने दुकान खोली हो। बस, अगर चलते-फिरते नजर आते थे, तो वे दफ्तर के बाबू थे, जो सर्दी से सिकुड़े, जेब में हाथ डाले, कमर टेढ़ी किए, लपके चले जाते थे। अहिल्या इसी वक्त यशोदानंदनजी के साथ गाड़ी में बैठकर जेल चली। उसे उल्लास न था, शंका और भय से दिल कांप रहा था, मानो कोई अपने रोगी मित्र को देखने जा रहा हो।

जेल में पहुँचते ही एक औरत ने उसकी तलाशी ली और उसे पास के एक कमरे में ले गई, जहां एक टाट का टुकड़ा पड़ा था। उसने अहिल्या को उस टाट पर बैठने का इशारा किया। तब एक कुर्सी मंगवाकर आप उस पर बैठ गई और चौकीदार से कहा-अब यहां सब ठीक है, कैदी को लाओ।

अहिल्या का कलेजा धड़क रहा था। उस स्त्री को अपने समीप बैठे देखकर उसे कुछ ढाढ़स हो रहा था, नहीं तो शायद वह चक्रधर को देखते ही उनके पैरों से लिपट जाती। सिर झुकाए बैठी थी कि चक्रधर दो चौकीदारों के साथ कमरे में आए। उनके सिर पर कनटोप था और देह पर एक आधी आस्तीन का कुरता; पर मुख पर आत्मबल की ज्योति झलक रही थी। उनका रंग पीला पड़ गया था, दाढ़ी के बाल बढ़े हुए थे और आंखें भीतर को घुसी हुई थीं; पर मुख पर एक हल्कीसी मुस्कराहट खेल रही थी। अहिल्या उन्हें देखकर चौंक पड़ी, उसकी आंखों से बे-अख्तियार आंसू निकल आए। शायद कहीं और देखती तो पहचान भी न सकती। घबरायी-सी उठकर खड़ी हो गई। अब दो के दोनों खड़े हैं, दोनों के मन में हजारों बातें हैं, उद्गार पर उद्गार उठते हैं, दोनों एक-दूसरे को कनखियों में देखते हैं, जिनमें प्रेम, आकांक्षा और उत्सुकता की लहरें-सी उठ रही हैं, पर किसी के मुंह से शब्द नहीं निकलता। अहिल्या सोचती है, क्या पूछूं, इनका एक-एक अंग अपनी दशा आप सुना रहा है। उसकी आंखों में बार-बार आंसू उमड़ आते हैं पर पी जाती है। चक्रधर भी यही सोचते हैं, क्या पूछं, इसका एक-एक अंग इसकी तपस्या और वेदना की कथा सुना रहा है। बार-बार ठंडी सांसें खींचते हैं, पर मुंह नहीं खुलता। वह माधुर्य कहाँ है, जिस पर ऊषा की लालिमा बलि जाती थी? वह चपलता कहाँ है, वह सहास छवि कहाँ है, जो मुखमंडल की बलाएं लेती थी। मालूम होता है, बरसों की रोगिणी है। आह ! मेरे ही कारण इसकी यह दशा हुई है। अगर कुछ दिन और इसी तरह घुली, तो शायद प्राण ही न बचें। किन शब्दों में दिलासा दूं, क्या कहकर समझाऊं?

इसी असमंजस और कण्ठावरोध की दशा में खड़े-खड़े दोनों को दस मिनट हो गए। शायद उन्हें ख्याल ही न रहा कि मुलाकात का समय केवल बीस मिनट है। यहां तक कि उस लेडी को उनकी दशा पर दया आई, घड़ी देखकर बोली-तुम लोग यों ही कब तक खड़े रहोगे? दस मिनट गुजर गए, केवल दस मिनट और बाकी हैं।

चक्रधर मानो समाधि से जाग उठे। बोले-अहिल्या, तुम इतनी दुबली क्यों हो? बीमार हो क्या?

अहिल्या ने सिसकियों को दबाकर कहा-नहीं तो, मैं बिलकुल अच्छी हूँ। आप अलबत्ता इतने दुबले हो गए हैं कि पहचाने नहीं जाते।

चक्रधर-खैर, मेरे दुबले होने के तो कारण हैं, लेकिन तुम क्यों ऐसी घुली जा रही हो? कमसे-कम अपने को इतना तो बनाए रखो कि जब मैं छूटकर आऊं, तो मेरी कुछ मदद कर सको। अपने लिए नहीं, तो मेरे लिए तो तुम्हें अपनी रक्षा करनी ही चाहिए। अगर तुमने इसी भांति घुलघुलकर प्राण दे दिए, तो शायद जेल से मेरी भी लाश ही निकले। तुम्हें वचन देना पड़ेगा कि तुम अब से अपनी ज्यादा फिक्र रखोगी। मेरी ओर से तुम निश्चिंत रहो। मुझे यहां कोई तकलीफ नहीं है। बड़ी शांति से दिन कट रहे हैं। मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि मेरे आत्म-सुधार के लिए इस तपस्या की बड़ी जरूरत थी। मैंने अंधेरी कोठरी में जो कुछ पाया, वह पहले प्रकाश में रहकर न पाया था। मुझे अगर उसी कोठरी में सारा जीवन बिताना पड़े, तो भी मैं न घबराऊंगा। हमारे साधु-संत अपनी इच्छा से जीवन-पर्यंत कठिन से कठिन तपस्या करते हैं। मेरी तपस्या उनसे कहीं सरल और सुसाध्य है। अगर दूसरों ने मुझे इस संयम का अवसर दिया, तो मैं उनसे बुरा क्यों मानूं? मुझे तो उनका उपकार मानना चाहिए। मुझे वास्तव में इस संयम की बड़ी जरूरत थी, नहीं तो मेरे मन की चंचलता मुझे न जाने कहाँ ले जाती। प्रकृति सदैव हमारी कमी को पूरा करती रहती है, यह बात अब तक मेरी समझ में न आई थी। अब तक मैं दूसरों का उपकार करने का स्वप्न देखा करता था। अब ज्ञात हुआ कि अपना उपकार ही दूसरों का उपकार है ! जो अपना उपकार नहीं कर सकता, वह दूसरों का उपकार क्या करेगा? मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, यहां बड़े आराम से हूँ और इस परीक्षा में पड़ने से प्रसन्न हूँ। बाबूजी तो कुशल से हैं?

अहिल्या-हां, आपको बराबर याद किया करते हैं। मेरे साथ वह भी आए हैं, पर यहां न आने पाए। अम्मां और बाबूजी में कई महीनों से खटपट है। वह कहती हैं, बहुत दिन तो समाज की चिंता में दुबले हुए, अब आराम से घर बैठो, क्या तुम्हीं ने समाज का ठेका ले लिया है? बाबूजी कहते हैं, यह काम तो उसी दिन छोडूंगा, जिस दिन प्राण शरीर को छोड़ देगा। बेचारे बराबर दौडते रहते हैं। एक दिन भी आराम से बैठना नसीब नहीं होता। तार से बुलावे आते रहते हैं। फुरसत मिलती है, तो लिखते हैं। न जाने ऐसी क्या हवा बदल गई है कि नित्य कहीं-न-कहीं से उपद्रव की खबर आती रहती है। आजकल स्वास्थ्य भी बिगड़ गया है; पर आराम करने की तो उन्होंने कसम खा ली है। बूढ़े ख्वाजा महमूद से न जाने किस बात पर अनबन हो गई है। आपके चले जाने के बाद कई महीने तक खूब मेल रहा, लेकिन अब फिर वही हाल है।

अहिल्या ने ये बातें महत्त्व की समझकर न कहीं, बल्कि इसलिए कि वह चक्रधर का ध्यान अपनी तरफ से हटा देना चाहती थी। चक्रधर विरक्त होकर बोले-दोनों आदमी फिर धर्मान्धता के चक्कर में पड़ गए होंगे। जब तक हम सच्चे धर्म का अर्थ न समझेंगे, हमारी यही दशा रहेगी। मुश्किल यह है कि जिन महान् पुरुषों से अच्छी धर्मनिष्ठा की आशा की जाती है, वे अपने अशिक्षित भाइयों से भी बढ़कर उद्दंड हो जाते हैं। मैं तो नीति ही को धर्म समझता हूँ और सभी सम्प्रदायों की नीति एक-सी है। अगर अंतर है तो बहुत थोड़ा। हिन्द, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, सभी सत्कर्म और सद्विचार की शिक्षा देते हैं। हमें कृष्ण, राम, ईसा, मुहम्मद, बौद्ध सभी महात्माओं का समान आदर करना चाहिए। ये मानव जाति के निर्माता हैं। जो इनमें से किसी का अनादर करता है या उनकी तुलना करने बैठता है, वह अपनी मूर्खता का परिचय देता है। बुरे हिंदू से अच्छा मुसलमान उतना ही अच्छा है, जितना बुरे मुसलमान से अच्छा हिंदू । देखना यह चाहिए कि वह कैसा आदमी है, न कि यह कि किस धर्म का आदमी है, संसार का भावी धर्म, सत्य, न्याय और प्रेम के आधार पर बनेगा। हमें अगर संसार में जीवित रहना है, तो अपने हृदय में इन्हीं भावों का संचार करना पड़ेगा। मेरे घर का तो कोई समाचार न मिला होगा?

अहिल्या-मिला क्यों नहीं, बाबूजी हाल ही में काशी गए थे। जगदीशपुर के राजा साहब ने आपके पिताजी को पचास रुपए मासिक बांध दिया है, इससे अब उनको धन का कष्ट नहीं है। आपकी माताजी अलबत्ता रोया करती हैं! छोटी रानी साहब की आपके घर वालों पर विशेष कृपा दृष्टि है।

चक्रधर ने विस्मित होकर पूछा-छोटी रानी कौन?

अहिल्या-रानी मनोरमा, जिनसे अभी थोड़े ही दिन हुए, राजा साहब का विवाह हुआ है। चक्रधर-तो मनोरमा का विवाह राजा साहब से हो गया?

अहिल्या-यही तो बाबूजी कहते थे।

चक्रधर-तुम्हें खूब याद है, भूल तो नहीं रही हो?

अहिल्या-खूब याद है, इतनी जल्दी भूल जाऊंगी !

चक्रधर-यह तो बड़ी दिल्लगी हुई, मनोरमा का विवाह विशालसिंह के साथ ! मुझे तो अब भी विश्वास नहीं आता। बाबूजी ने नाम बताने में गलती की होगी।

अहिल्या-बाबूजी को स्वयं आश्चर्य हो रहा था। काशी में भी लोगों को बड़ा आश्चर्य है। मनोरमा ने अपनी खुशी से विवाह किया है, कोई दबाव न था। मनोरमा किसी से दबने वाली है। ही नहीं। सुनती हूँ, राजा साहब बिलकुल उनकी मुट्ठी में हैं। जो कुछ वह करती है, वही होता है। राजा साहब तो काठ के पुतले बने हुए हैं। बाबूजी चंदा मांगने गए थे, तो रानीजी ही ने पांच हजार दिए। बहुत प्रसन्न मालूम होती थीं।

सहसा लेडी ने कहा-वक्त पूरा हो गया। वार्डन, इन्हें अन्दर ले जाओ।

चक्रधर क्षण भर भी और न ठहरे। अहिल्या को तृष्णापूर्ण नेत्रों से देखते हुए चले गए। अहिल्या ने सजल नेत्रों से उन्हें प्रणाम किया और उनके जाते ही फूट-फूटकर रोने लगी।

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