कायाकल्प (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद Part 9

कायाकल्प (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद Part 9

तैंतालीस

अभागिनी अहिल्या के लिए संसार सूना हो गया। पति को पहले ही खो चुकी थी। जीवन का एकमात्र आधार पुत्र रह गया था, उसे भी खो बैठी। अब वह किसका मुंह देखकर जिएगी। वह राज्य उसके लिए किसी ऋषि का अभिशाप हो गया। पति और पुत्र को पाकर अब वह टूटे-फूटे झोंपड़े में कितने सुख से रहेगी। तृष्णा का उसे बहुत दंड मिल चुका। भगवान्, इस अनाथिनी पर दया करो! अहिल्या को अब वह राजभवन फाड़े खाता था। वह अब उसे छोड़कर कहीं चली जाना चाहती थी। कोई सड़ा-गला झोंपड़ा, किसी वृक्ष की छांह, पर्वत की गुफा, किसी नदी का तट उसके लिए इस भवन से सहस्रों गुना अच्छा था। वे दिन कितने अच्छे थे, जब वह अपने स्वामी के साथ पुत्र को हृदय से लगाए एक छोटे से मकान में रहती थी। वे दिन फिर न आएंगे। वह मनहूस घड़ी थी, जब उसने इस भवन में कदम रखा था। वह क्या जानती थी कि इसके लिए उसे अपने पति और पुत्र से हाथ धोना पड़ेगा? आह ! जब उसका पति जाने लगा, तो वह भी उसके साथ ही क्यों न चली गई? रह-रहकर उसको अपनी भोग-लिप्सा पर क्रोध आता था, जिसने उसका सर्वनाश कर दिया था। क्या उस पाप का कोई प्रायश्चित नहीं है? क्या इस जीवन में स्वामी के दर्शन न होंगे? अपने प्रिय पुत्र की मोहिनी मूर्ति फिर वह न देख सकेगी? कोई ऐसी युक्ति नहीं है?

राजभवन अब भूतों का डेरा हो गया है। उसका अब कोई स्वामी नहीं रहा। राजा साहब अब महीनों नहीं आते। वह अधिकतर इलाके ही में घूमते रहते हैं। उनके अत्याचार की कथाएं सुनकर लोगों के रोएं खड़े हो जाते हैं। सारी रियासत में हाहाकार मचा हुआ है। कहीं किसी गांव में आग लगाई जाती है, किसी गांव में कुएं भ्रष्ट किए जाते हैं। राजा साहब को किसी पर दया नहीं। उनके सारे सद्भाव शंखधर के साथ चले गए। विधाता ने अकारण ही उन पर इतना कठोर आघात किया है। वह उस आघात का बदला दूसरों से ले रहे हैं। जब उनके ऊपर किसी को दया नहीं आती, तो वह किसी पर क्यों दया करें? अगर ईश्वर ने उनके घर में आग लगाई है, तो वह भी दूसरों के घर में आग लगाएंगे। ईश्वर ने उन्हें रुलाया है, तो वह दूसरों को रुलाएंगे। लोगों को ईश्वर की याद आती है, तो उनकी धर्मबुद्धि जागृत हो जाती है, लेकिन किन लोगों की? जिनके सर्वनाश में कुछ कसर रह गई हो, जिनके पास रक्षा करने के योग्य कोई वस्तु रह गई हो, लेकिन जिसका सर्वनाश हो चुका है, उसे किस बात का डर?

अब राजा साहब के पास जाने का किसी को साहस नहीं होता। मनोरमा को देख-देखकर तो वह जामे से बाहर हो जाते हैं। अहिल्या भी उनसे कुछ कहते हुए थर-थर कांपती है। अपने प्यारों को खोजने के लिए वह तरह-तरह के मनसूबे बांधा करती है, लेकिन कहे किससे? उसे ऐसा विदित होता है कि ईश्वर ने उसकी भोग-लिप्सा का यह दंड दिया है। यदि वह अपने पति के घर जाकर इसका प्रायश्चित करे, तो कदाचित् ईश्वर उसका अपराध क्षमा कर दें। उसका डूबता हुआ हृदय इस तिनके के सहारे को जोरों से पकड़े हुए है, लेकिन हाय रे मानव हृदय ! इस घोर विपत्ति में भी मान का भूत सिर से नहीं उतरता। जाना तो चाहती है, लेकिन उसके साथ यह शर्त है कि कोई बुलाए। अगर राजा साहब मुंशीजी से इस विषय में कुछ संकेत कर दें, तो उसके लिए अवश्य बुलावा आ जाए, पर राजा साहब से तो भेंट ही नहीं होती और भेंट भी होती है, तो कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ती।

इसमें संदेह नहीं कि वह अपने मन की बात मनोरमा से कह देती, तो बहुत आसानी से काम निकल जाता, लेकिन अहिल्या का मन मनोरमा से न पहले कभी मिला था, न अब मिलता था। उससे यह बात कैसे कहती? जो मनोरमा अब गाने-बजाने और सैर-सपाटे में मग्न रहती है, उससे वह अपनी व्यथा कैसे कह सकेगी? वह कहे भी, तो मनोरमा क्यों उसके साथ सहानुभूति करने लगी? वह दिन के दिन और रात की रात पड़ी रोया करती है। मनोरमा कभी भूलकर भी उसकी बात नहीं पूछती, अपने रंग में मस्त रहती है। वह भला, अहिल्या की पीर क्या जानेगी?

तो मनोरमा सचमुच राग-रंग में मस्त रहती है? हां, देखने में तो यही मालूम होता है। लेकिन उसके हृदय पर क्या बीत रही है, यह कौन जान सकता है? वह आशा और नैराश्य, शान्ति और अशान्ति, गंभीरता और उच्छृखलता, अनुराग और विराग की एक विचित्र समस्या बन गई है! अगर वह सचमुच हंसती और गाती है, तो उसके मुख की वह कांति कहाँ है, जो चंद्र को लजाती थी, वह चपलता कहाँ है, जो हिरन को हराती थी ! उसके मुख और उसके नेत्रों को जरा सूक्ष्म दृष्टि से देखो, तो मालूम होगा कि उसकी हंसी उसका आर्तनाद है और उसका राग-प्रेम, मर्मान्तक व्यथा का चिह्न। वह शोक की उस चरम सीमा को पहुँच गई है, जब चिंता और वासना दोनों ही का अंत हो जाता है, लज्जा और आत्मसम्मान का लोप हो जाता है, जब शोक रोग का रूप धारण कर लेता है। मनोरमा ने कच्ची बुद्धि में यौवन जैसा अमूल्य रत्न देकर जो सोने की गुड़िया खरीदी थी, वह अब किसी पक्षी की भांति उसके हाथों से उड़ गई थी। उसने सोचा था, जीवन का वास्तविक सुख धन और ऐश्वर्य में है, किंतु अब बहुत दिनों से उसे ज्ञात हो रहा था कि जीवन का वास्तविक सुख कुछ और ही है, और वह उससे आजीवन वंचित रही। सारा जीवन गुड़िया खेलने ही में कट गया और अंत में वह गुड़िया भी हाथ से निकल गई। यह भाग्य-व्यंग्य रोने की वस्तु नहीं, हंसने की वस्तु है। हम उससे कहीं ज्यादा हंसते हैं, जितना परम आनंद में हंस सकते हैं। प्रकाश जब हमारी सहन-शक्ति से अधिक हो जाता है, तो अंधकार बन जाता है, क्योंकि हमारी आंखें ही बंद हो जाती हैं।

एक दिन अहिल्या का चित्त इतना उद्विग्न हुआ कि वह संकोच और झिझक छोड़कर मनोरमा के पास आ बैठी। मनोरमा के सामने प्रार्थी के रूप में आते हुए उसे जितनी मानसिक वेदना हुई, उसका अनुमान इसी से किया जा सकता है, कि अपने कमरे से यहां तक आने में उसे कम-सेकम दो घंटे लगे। कितनी ही बार द्वार तक आकर लौट गई। जिसकी सदैव अवहेलना की, उसके सामने अब अपनी गरज लेकर जाने में उसे लज्जा आती थी, लेकिन जब भगवान् ने ही गर्व तोड़ दिया था, तो अब झूठी ऐंठ से क्या हो सकता था?

मनोरमा ने उसे देखकर कहा–क्या, रो रही थी, अहिल्या? यों कब तक रोती रहोगी?

अहिल्या ने दीन-भाव से कहा–जब तक भगवान् रुलावें!

कहने को तो अहिल्या ने यह कहा, पर इस प्रश्न से उसका गर्व जाग उठा और वह पछताई कि यहां नाहक आई। उसका मुख तेज से आरक्त हो गया।

मनोरमा ने उपेक्षा-भाव से कहा–तब तो और हंसना चाहिए। जिसमें दया नहीं, उसके सामने रोकर अपना दीदा क्यों खोती हो? भगवान् अपने घर का भगवान् होगा। कोई उसके रुलाने से क्यों रोए? मन में एक बार निश्चय कर लो कि अब न रोऊंगी, फिर देखू कि कैसे रोना आता है !

अहिल्या से अब जब्त न हो सका, बोली–तुम तो जले पर नमक छिड़कती हो, रानीजी! तुम्हारा जैसा हृदय कहाँ से लाऊं? और फिर रोता भी वह है, जिस पर पड़ती है। जिस पर पड़ी ही नहीं, वह क्यों रोएगा?

मनोरमा हंसी–वह हंसी, जो या तो मूर्ख ही हंस सकता है या ज्ञानी ही। बोली-अगर भगवान् किसी को रुलाकर ही प्रसन्न होता है, तब तो वह विचित्र ही जीव है। अगर कोई माता या पिता अपनी संतान को रोते देखकर प्रसन्न हों, तो तुम उसे क्या कहोगी-बोलो? तुम्हारा जी चाहेगा कि ऐसे प्राणी का मुंह न देखू क्या ईश्वर हमसे और तुमसे भी गया-बीता है? आओ, बैठकर गावें। इससे ईश्वर प्रसन्न होगा। वह जो कुछ करता है, सबके भले के लिए करता है। इसलिए जब वह देखता है कि उसे लोग अपना शत्रु समझते हैं, तो उसे दु:ख होता है। तुम अपने पुत्र को इसीलिए तो ताड़ना देती हो कि वह अच्छे रास्ते पर चले। अगर तुम्हारा पुत्र इस बात पर तुमसे रूठ जाए और तुम्हें अपना शत्रु समझने लगे, तो तुम्हें कितना दु:ख होगा? आओ, तुम्हें एक भैरवी सुनाऊं। देखो, मैं कैसा अच्छा गाती हूँ।

अहिल्या ने गाना सुनने के प्रस्ताव को अनसुना करके कहा–माता-पिता संतान को इसीलिए तो ताड़ना देते हैं कि वह बुरी आदतें छोड़ दे, अपने बुरे कामों पर लज्जित हो और उसका प्रायश्चित करे? हमें भी जब ईश्वर ताड़ना देता है, तो उसकी भी यही इच्छा होती है। विपत्ति ताडना ही तो है। मैं भी प्रायश्चित करना चाहती हूँ और आपसे उसके लिए सहायता मांगने आई हूँ। मुझे अनुभव हो रहा है कि यह सारी विडंबना मेरे विलास-प्रेम का फल है, और मैं इसका प्रायश्चित करना चाहती हूँ। मेरा मन कहता है कि यहां से निकलकर मैं अपना मनोरथ पा जाऊंगी। यह सारा दंड मेरी विलासांधता का है। आप जाकर अम्मांजी से कह दीजिए, मुझे बुला लें। इस घर में आकर मैं अपना सुख खो बैठी और इस घर से निकलकर ही उसे पाऊंगी।

मनोरमा को ऐसा मालूम हुआ, मानो उसकी आंखें खुल गईं। क्या वह भी इस घर से निकलकर सच्चे आनंद का अनुभव करेगी? क्या उसे भी ऐश्वर्य-प्रेम ही का दंड भोगना पड़ रहा है? क्या वह सारी अंतर्वेदना इसी विलास प्रेम के कारण है?

उसने कहा–अच्छा, अहिल्या, मैं आज ही जाती हूँ।

इसके चौथे दिन मुंशी वज्रधर ने राजा साहब के पास रुखसती का संदेशा भेजा। राजा साहब इलाके पर थे। संदेशा पाते ही जगदीशपुर आए। अहिल्या का कलेजा धक-धक करने लगा कि राजा साहब कहीं आ न जाएं। इधर-उधर छिपती-फिरती थी कि उनका सामना न हो जाए । उसे मालूम होता था कि राजा साहब ने रुखसती मंजूर कर ली है, पर अब जाने के लिए वह बहुत उत्सुक न थी। यहां से जाना तो चाहती थी, पर जाते दुःख होता था। यहां आए उसे चौदह साल हो गए। वह इसी घर को अपना घर समझने लगी थी। ससुराल उसके लिए बिरानी जगह थी। कहीं निर्मला ने कोई बात कह दी तो वह क्या करेगी? जिस घर से मान करके निकली थी, वहीं अब विवश होकर जाना पड़ रहा था। इन बातों को सोचते-सोचते आखिर उसका दिल इतना घबराया कि वह राजा साहब के पास जाकर बोली-आप मुझे क्यों विदा करते हैं? मैं नहीं जाना चाहती।

राजा साहब ने हंसकर कहा–कोई लड़की ऐसी भी है, जो खुशी से ससुराल जाती हो? और कौन पिता ऐसा है, जो लड़की को खुशी से विदा करता हो? मैं कब चाहता हूँ कि तुम जाओ, लेकिन मुंशी वज्रधर की आज्ञा है; और यह मुझे शिरोधार्य करनी पड़ेगी। वह लड़के के बाप हैं, मैं लड़की का बाप हूँ, मेरी और उनकी क्या बराबरी? और बेटी, मेरे दिल में भी अरमान हैं, उसके पूरा करने का और कौन अवसर आएगा? शंखधर होता, तो उसके विवाह में वह अरमान पूरा होता। अब वह तुम्हारे गौने में पूरा होगा।

अहिल्या इसका क्या जवाब देती?

दूसरे दिन से राजा साहब ने विदाई की तैयारियां करनी शुरू कर दीं। सारे इलाके के सुनार पकड़ बुलाए गए और गहने बनने लगे। इलाके ही के दर्जी कपड़े सीने लगे। हलवाइयों के कढ़ाह चढ़ गए और पकवान बनने लगे। घर की सफाई और रंगाई होने लगी। राजाओं, रईसों और अफसरों को निमंत्रण भेजे जाने लगे। सारे शहर की वेश्याओं को बयाने दे दिए गए। बिजली की रोशनी का इंतजाम होने लगा। ऐसा मालूम होता था, मानो किसी बड़ी बारात के स्वागत और सत्कार की तैयारी हो रही है। अहिल्या यह सामान देख-देखकर दिल में झुंझलाती और शरमाती थी। सोचाती-कहाँ से कहाँ मैंने यह विपत्ति मोल ले ली। अब इस बुढ़ापे में मेरा गौना ! मैं मरने की राह देख रही हं, यहां गौने की तैयारी हो रही है। कौन जाने, यह अंतिम विदाई ही हो। राजा साहब ऐसे व्यस्त थे कि किसी से बात करने की भी फुर्सत उन्हें न थी। कहीं सुनारों के पास बैठे अच्छी नक्काशी करने की ताकीद कर रहे हैं। कहीं जौहरियों के पास बैठे जवाहरात परख रहे हैं। उनके अरमानों का पारावार ही न था। मन की मिठाई घी-शक्कर की मिठाई से कम स्वादिष्ट नहीं होती।

चवालीस

शंखधर को होश आया, तो अपने को मंदिर के बरामदे में चक्रधर की गोद में पड़ा हुआ पाया। चक्रधर चिंतित नेत्रों से उसके मुंह की ओर ताक रहे थे। गांव के कई आदमी आस-पास खड़े पंखा झल रहे थे। आह ! आज कितने दिनों के बाद शंखधर को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वह पिता की गोद में लेटा हुआ है! आकाश के निवासियो, तुम पुष्प की वर्षा क्यों नहीं करते?

शंखधर ने फिर आंखें बंद कर लीं। उसकी चिर सन्तप्त आत्मा एक अलौकिक शीतलता, एक अपूर्व तृप्ति, एक स्वर्गीय आनंद का अनुभव कर रही थी। इस अपार सुख को वह इतनी जल्द न छोड़ना चाहता था। उसे अपनी वियोगिनी माता की याद आई। वह उस दिन का स्वप्न देखने लगा, जब वह अपनी माता को भी इस परम आनंद का अनुभव कराएगा, उसका जीवन सफल करेगा।

चक्रधर ने स्नेह-मधुर स्वर में पूछा–क्यों बेटा, अब कैसी तबीयत है?

कितने स्नेह-मधुर शब्द थे। किसी के कानों ने कभी इतने कोमल शब्द सुने हैं? भगवान् इन्द्र भी आकर उससे बोलते, तो क्या वह इतना गौरवान्वित हो सकता था?

‘क्यों बेटा, कैसी तबीयत है’ वह इसका क्या जबाव दे ? अगर कहता है–अब मैं अच्छा हूँ, तो इस सुख से वंचित होना पड़ेगा। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। देना भी चाहता, तो उसके मुंह से शब्द न निकलते। उसका जी चाहा, इन चरणों पर सिर रखकर खूब रोए। इससे बढ़कर और किसी सुख की वह कल्पना ही न कर सकता था। संसार की कोई वस्तु कभी इतनी सुंदर थी? वायु और प्रकाश, वृक्ष और वन, पृथ्वी और पर्वत कभी इतने प्यारे न लगते थे। उनकी छटा ही कुछ और हो गई थी, उनमें कितना वात्सल्य था, कितनी आत्मीयता।

चक्रधर ने फिर पूछा–क्यों बेटा, कैसी तबीयत है?

शंखधर ने कातर स्वर से कहा-अब तो अच्छा हूँ। आप ही का नाम बाबा भगवानदास है? चक्रधर–हां मुझी को भगवानदास कहते हैं।

शंखधर–मैं आप ही के दर्शनों के लिए आया हूँ। बहुत दूर से आया हूँ। मैंने बेंदों में आपकी खबर पाई थी। वहां मालूम हुआ कि आप साईंगंज चले गए हैं। वहां से साईंगंज चला। सारी रात चलता रहा, पर साईंगंज न मिला। एक दूसरे गांव में जा पहुंचा-वह जो पर्वत के ऊपर बसा हुआ है। वहां मालूम हुआ कि मैं रास्ता भूल गया था। उसी वक्त इधर चला।

चक्रधर–रात को कहीं ठहरे नहीं?

शंखधर–यही भय था कि शायद आप कहीं और आगे न बढ़ जाएं?

चक्रधर–कुछ भोजन भी न किया होगा?

शंखधर–भोजन की तो ऐसी इच्छा न थी। आपके दर्शन हुए, मैं कृतार्थ हो गया। अब मेरे संकट कट जाएंगे। मैं आपका यश सुनकर आया हूँ। आप ही मेरा उद्धार कर सकते हैं।

चक्रधर–बेटा, संकट काटने वाला ईश्वर है, मैं तो उनका क्षुद्र सेवक हूँ, लेकिन पहले कुछ भोजन कर लो और आराम से सो रहो। मुझे कई रोगियों को देखने जाना है। मैं शाम को लौटूंगा, तो तुमसे बातें होंगी। क्या कहूँ, मेरे कारण तुम्हें इतना कष्ट उठाना पड़ा।

शंखधर ने मन में कहा–इस परम आनंद के लिए मैं क्या नहीं सह सकता था! अगर मुझे मालूम हो जाता कि अग्नि-कुंड में जाने से आपके दर्शन होंगे, तो क्या मैं एक क्षण का भी विलंब करता? कदापि नहीं। प्रकट में उसने कहा-मुझे तो यह स्वर्ग यात्रा-सी मालूम होती थी। भूख, प्यास, थकान कुछ भी नहीं थी।

चक्रधर का चित्त अस्थिर हो गया। उस युवक के रूप में और वाणी में न जाने कौन-सी बात थी, जो उनके मन में उससे बातचीत करने की प्रबल इच्छा हो रही थी। रोगियों को देखने न जाना चाहते थे, मन बहाना खोजने लगा। रोगियों को दवा तो दे ही आया हूँ, उनकी चेष्टा भी कुछ ऐसी चिंताजनक नहीं। जाना व्यर्थ है। जरा पूछना चाहिए कि यह युवक कौन है? क्यों मुझसे मिलने के लिए उत्सुक है? कितना सुशील बालक है ! इसकी वाणी में कितना विनय है और स्वरूप तो देवकुमारों का-सा है। किसी उच्च कुल का युवक है।

लेकिन फिर उन्होंने सोचा–मेरे न जाने से रोगियों को कितनी निराशा होगी? कौन जाने, उनकी दशा बिगड़ गई हो। जाना ही चाहिए। तब तक यह बालक भी तो आराम कर लेगा ! बेचारा सारी रात चलता रहा। मैं जानता, तो बेंदों में टिक गया होता।

एक आदमी पानी लाया। शंखधर ने मुंह-हाथ धोया और चाहता था कि खाली पेट पानी पी ले, लेकिन चक्रधर ने मना किया-हां-हां, यह क्या? अभी पानी न पियो। रात भर कुछ खाया नहीं और पानी पीने लगे। आओ, कुछ भोजन कर लो।

शंखधर–बड़ी प्यास लगी है।

चक्रधर–पानी कहीं भागा तो नहीं जाता। कुछ खाकर पीना, और वह भी इतना नहीं कि पेट में पानी डोलने लगे।

शंखधर–दो ही चूंट पी लूं। नहीं रहा जाता।

चक्रधर ने आकर उसके हाथ से लोटा छीन लिया और कठोर स्वर में कहा–अभी तुम एक बूंद भी पानी नहीं पी सकते। क्या जान देने पर उतारू हो गए हो?

शंखधर को इस भर्त्सना में जो आनंद मिल रहा था, वह कभी माता की प्रेम-भरी बातों में भी न मिला था। पांच वर्ष हुए, जब से वह अपने मन की करता आया है। वह जो पाता है, खाता है, जब चाहता है, पानी पीता है, जहां जगह पाता है, पड़ रहता है। किसी को इसकी कुछ परवा नहीं होती। लोटा हाथ से न छीना गया होता तो वह बिना दो-चार घुड़कियां खाए न मानता।

मंदिर के पीछे छोटा-सा बाग और कुआं था। वहीं एक वृक्ष के नीचे चक्रधर की रसोई बनी थी। चक्रधर अपना भोजन आप पकाते थे, बर्तन भी आप ही धोते थे, पानी भी खुद खींचते थे। शंखधर उनके साथ भोजन करने गया, तो देखा कि रसोई में पूरी, मिठाई, दूध, दही सब कुछ है। उसकी राल टपकने लगी। इन पदार्थों का स्वाद चखे हुए उसे एक युग बीत गया था, मगर उसे कितना आश्चर्य हुआ, जब उसने देखा कि ये सारे पदार्थ उसी के लिए मंगवाए गए हैं। चक्रधर ने उसके लिए तो खाना एक पत्तल में रख दिया और आप कुछ मोटी रोटियां और भाजी लेकर बैठे, जो खुद उन्होंने बनाई थीं।

शंखधर ने कहा–आप तो सब मुझी को दिए जाते हैं, अपने लिए कुछ रखा ही नहीं? चक्रधर–मेरे लिए तो यह रोटियां हैं। मेरा भोजन यही है।

शंखधर–तो फिर मुझे भी रोटियां ही दीजिए।

चक्रधर–मैं तो बेटा, रोटियों के सिवा और कुछ नहीं खाता। मेरी पाचन-शक्ति अच्छी नहीं है। दिन में एक बार खा लिया करता हूँ।

शंखधर–मेरा भोजन तो थोड़ा-सा सत्तू या चबेना है। मैंने तो बरसों से इन चीजों की सूरत तक नहीं देखी। अगर आप न खाएंगे, तो मैं भी न खाऊंगा।

आखिर शंखधर के आग्रह से चक्रधर को अपना नियम तोड़ना पड़ा। सोलह वर्षों का पाला हुआ नियम, बड़े-बड़े रईसों और राजाओं का भक्तिमय आग्रह भी न तोड़ सका, आज इस अपिरिचित बालक ने तोड़ दिया। उन्होंने झुंझलाकर कहा-भाई, तुम बड़े जिद्दी मालूम होते हो। अच्छा, लो, मैं भी खाता हूँ। अब तो खाओगे, या अब भी नहीं?

उन्होंने सब चीजों में से जरा-जरा-सा निकालकर अपनी पत्तल में रख लिया और बाकी चीजें शंखधर के आगे रख दीं। शंखधर ने अब भी भोजन में हाथ नहीं लगाया।

चक्रधर ने पूछा–अब क्या बैठे हो, खाते क्यों नहीं? तुम्हारे मन की बात हो गई? या अब भी कुछ बाकी है?

शंखधर–आपने तो केवल उलाहना छुड़ाया है। लाइए, मैं परस दूं।

चक्रधर–अगर तुम इस तरह जिद करोगे, तो मैं तुम्हारी दवा न करूंगा। तुम्हें अपने साथ रखूगा भी नहीं।

शंखधर–मुझे क्या, न दवा कीजिएगा, तो यहीं पड़ा-पड़ा मर जाऊंगा। कौन कोई रोने वाला बैठा हुआ है?

यह कहते-कहते शंखधर की आंखें सजल हो गईं। चक्रधर ने विकल होकर कहा–अच्छा लाओ, तुम्हीं अपने हाथ से दे दो। अपशब्द क्यों मुंह से निकालते हो? लाओ, कितना देते हो? अब से मैं तुम्हें अलग भोजन मंगवा दिया करूंगा।

शंखधर ने सभी चीजों में से आधी से अधिक उनके सामने रख दी और आप एक पंखा लेकर उन्हें झलने लगा। चक्रधर ने वात्सल्यपूर्ण कठोरता से कहा–मालूम होता है, आज तुम मुझे बीमार करोगे। भला, इतनी चीजें मैं खा सकूँगा?

शंखधर–इसीलिए तो मैंने थोड़ी-थोड़ी दी हैं।

चक्रधर–यह थोड़ी-थोड़ी हैं। तो क्या तुम सबकी सब मेरे ही पेट में लूंस देना चाहते हो? अब भी बैठोगे या नहीं? मुझे पंखे की जरूरत नहीं।

शंखधर–आप खाएं, मैं पीछे से खा लूंगा।

चक्रधर–भाई, तुम विचित्र जीव हो। तीन दिन के भूखे हो और मुझसे कहते हो, आप खाइए, मैं फिर खा लूंगा।

शंखधर–मैं तो आपका जूठन खाऊंगा।

उसकी आंखें फिर सजल हो गईं ! चक्रधर ने तिरस्कार के भाव से कहा–क्यों भाई, मेरा जूठन क्यों खाओगे? अब तो सब बातें तुम्हारे ही मन की हो रही हैं।

शंखधर–मेरी बहुत दिनों से यही आकांक्षा थी। जब से आपकी कीर्ति सुनी, तभी से यह अवसर खोज रहा था।

चक्रधर–तुम न आप खाओगे, न मुझे खाने दोगे।

शंखधर–मैं तो आपका जूठन ही खाऊंगा।

चक्रधर को फिर हार माननी पड़ी। वह एकांतवासी, संयमी, व्रतधारी योगी आज इस अपरिचित दीन बालक के दुराग्रहों को किसी भांति न टाल सकता था।

शंखधर को आज खड़े होकर पंखा झलने में जो आनंद, जो आत्मोल्लास, जो गर्व हो रहा था, उसका कौन अनुमान कर सकता है। इस आनंद के सामने वह त्रिलोक के राज्य पर भी लात मार सकता था। आज उसे यह सौभग्य प्राप्त हुआ कि अपने पूज्य पिता की कुछ सेवा कर सके। कठिन तपस्या के बाद आज उसे यह वरदान मिला है। उससे बढ़कर सुखी और कौन हो सकता है। आज उसे अपना जीवन सार्थक मालूम हो रहा है-वह जीवन, जिसका अब तक कोई उद्देश्य न था। आनंद के आंसू उसकी आंखों से बहने लगे।

चक्रधर जब भोजन करके उठ गए तो उसने उसी पत्तल में अपनी पत्तल की चीजें डाल ली और भोजन करने बैठा। ओह ! इस भोजन में कितना स्वाद था ! क्या सुधा में इतना स्वाद हो सकता है? उसने आज से कई साल पहले उत्तम से उत्तम पदार्थ खाए थे, लेकिन उनमें यह अलौकिक स्वाद कहाँ था?

चक्रधर हाथ–मुंह धोकर गद्गद कंठ से बोले-तुमने आज मेरे दो नियम भंग कर दिए। बिना जाने-बुझे किसी को मेहमान बना लेने का यही फल होता है। अब मैं आज कहीं न जाऊंगा। तुम भोजन कर लो और मुझसे जो कुछ कहना हो, कहो। मैं ऐसे जिद्दी लड़के को अपने साथ और न रखूगा। तुम्हारा पर कहाँ है? यहां से कितनी दूर है?

शंखधर–मेरे तो कोई घर ही नहीं।

चक्रधर–माता-पिता तो होंगे? वह किस गांव में रहते हैं?

शंखधर–यह मुझे कुछ नहीं मालूम। पिताजी तो मेरे बचपन ही में घर से चले गए और माताजी का पांच साल से मुझे कोई समाचार नहीं मिला।

चक्रधर को ऐसा मालूम हुआ, मानो पृथ्वी नीचे खिसकी जा रही है, मानो वह जल में बहे जा रहे हैं। पिता बचपन ही में घर से चले गए और माताजी का पांच साल से कुछ समाचार नहीं मिला? भगवान्, क्या यह वही नन्हा-सा बालक है ! वही, जिसे अपने हृदय से निकालने की चेष्टा करते हुए आज सोलह वर्षों से अधिक हो गए।

उन्होंने हृदय को संभालते हुए पूछा–तुम पांच साल तक कहाँ रहे बेटा, जो घर नहीं गए?

शंखधर–पिताजी को खोजने निकला था और अब जब तक वह न मिलेंगे, लौटकर घर न जाऊंगा।

चक्रधर को ऐसा मालूम हुआ, मानो पृथ्वी डगमगा रही है, मानो समस्त ब्रह्मांड एक प्रलयंकारी भूचाल से आंदोलित हो रहा है। वह सायबान के स्तम्भ के सहारे बैठ गए और एक ऐसे स्वर में बोले, जो आशा और भय के वेगों को दबाने के कारण क्षीण हो गया था। यह प्रश्न न था, बल्कि एक जानी हुई बात का समर्थन मात्र था। तुम्हारा नाम क्या है बेटा? इस प्रश्न का उत्तर क्या वही होगा, जिसकी संभावना चक्रधर को विकल और पराभूत कर रही थी? संसार में क्या ऐसा एक ही बालक है, जिसे उसका बाप बचपन में छोड़कर चला गया हो? क्या ऐसा एक ही किशोर है, जो अपने बाप को खोजने निकला हो? यदि उसका उत्तर वही हुआ, जिसका उन्हें भय था, तो वह क्या करेंगे? उनके सामने एक कठिन समस्या उपस्थित हो गई। वह धड़कते हुए हृदय से उत्तर की ओर कान लगाए थे, जैसे कोई अपराधी अपना कर्मदंड सुनने के लिए न्यायाधीश की ओर कान लगाए खड़ा हो ।

शंखधर ने जवाब दिया-मेरा तो नाम शंखधर सिंह है।

चक्रधर–और तुम्हारे पिता का क्या नाम है?

शंखधर–मुंशी चक्रधर कहते हैं।

चक्रधर–घर कहाँ है?

शंखधर–जगदीशपुर!

सर्वनाश ! चक्रधर को ऐसा ज्ञात हुआ कि उनकी देह से प्राण निकल गए हैं, मानो उनके चारों ओर शून्य है ! ‘शंखधर’ बस यही एक शब्द उस प्रशस्त शून्य में किसी पक्षी की भांति चक्कर लगा रहा था। ‘शंखधर !’ यही एक स्मृति थी, जो उस प्राण-शून्य दशा में चेतना को संस्कारों में बांधे हुई थी।

पैंतालीस

राजा विशालसिंह ने जिस हौसले से अहिल्या का गौना किया, वह राजाओं-रईसों में भी बहुत कम देखने में आता है। तहसीलदार साहब के घर में इतनी चीजों के रखने की जगह भी न थी। बर्तन, कपड़े, शीशे के समान, लकड़ी की अलभ्य वस्तुएं, मेवे, मिठाइयां, गायें, भैसें-इनका हफ्तों तक तांता लगा रहा। दो हाथी और पांच घोड़े भी मिले, जिनके बांधने के लिए घर में जगह न थी। पांच लौडियां अहिल्या के साथ आईं। यद्यपि तहसीलदार साहब ने नया मकान बनवाया था, पर वह क्या जानते थे कि एक दिन यहां रियासत जगदीशपुर की आधी संपत्ति आ पहुंचेगी? घर का कोना-कोना सामानों से भरा हुआ था। कई पड़ोसियों के मकान भी अंट उठे। उस पर लाखों रुपए नकद मिले, वह अलग। तहसीलदार साहब लाने को तो सब कुछ ले आए, पर अब उन्हें देख-देख रोते और कुढ़ते। कोई भोगने वाला नहीं! अगर यही संपत्ति आज से पचीस साल पहले मिली होती, तो उनका जीवन सफल हो जाता, जिंदगी का कुछ मजा उठा लेते, अब बुढ़ापे में इनको लेकर क्या करें? चीजों को बेचना अपमान की बात थी। हां, यार-दोस्तों को जो कुछ भेंट कर सकते थे, किया। अनाज की कई गाड़ियां मिली थीं, वह सब उन्होंने लुटा दीं। कई महीने सदाव्रत-सा चलता रहा। नौकरों को हुक्म दे दिया कि किसी आदमी को कोई चीज मंगनी देने से इंकार मत करो। सहालग के दिनों में रोज ही हाथी, घोड़े, पालकियां, फर्श आदि सामान मंगनी जाते। सारे शहर में तहसीलदार साहब की कीर्ति छा गई। बड़े-बड़े रईस उनसे मुलाकात करने आने लगे। नसीब जगे, तो इस तरह जगे। कहाँ रोटियां भी न मयस्सर होती थीं, आज द्वार पर हाथी झूमता है। सारे शहर में यही चर्चा थी।

मगर मुंशीजी के दिल पर जो कुछ बीत रही थी, वह कौन जान सकता है? दिन में बीसों ही बार चक्रधर पर बिगड़ते-नालायक। आप तो आप गया, अपने साथ लड़के को भी ले गया। न जाने कहाँ मारा-मारा फिरता होगा, देश का उपकार करने चला है। सच कहा है-घर की रोएं, बन की सोएं। घर के आदमी मरें, परवा नहीं, दूसरों के लिए जान देने को तैयार। अब बताओ, इन हाथी, घोड़े, मोटरों और गाड़ियों को लेकर क्या करूं। अकेले किस-किस पर बैलूं? बहू है, उसे रोने से फुर्सत नहीं। बच्चा की मां है, उनसे अब मारे शोक से रहा नहीं जाता। कौन बैठे? यह सामान तो मेरे जी का जंजाल हो गया। पहले बेचारे शाम-सबेरे कुछ गा-बजा लेते थे, कुछ सरूर भी जमा लिया करते थे अब इन चीजों की देखभाल ही में भोर जो जाता। क्षण भर भी आराम से बैठने की मुहलत न मिलती। निर्मला किसी चीज की ओर आंख उठाकर भी न देखती, मुंशीजी ही को सबकी निगरानी करनी पड़ती थी।

अहिल्या यहां आकर और भी पछताने लगी। वह रनिवास के विलासमय जीवन से विरक्त होकर यहां प्रायश्चित्त करने के इरादे से आई थी, पर वह विपत्ति उसके साथ यहां भी आई। वहां उसे घर-गृहस्थी से कोई मतलब न था, यहां वह विपत्ति भी सिर पड़ी। जिन वस्तुओं से उसे जरा भी मोह न था, उन्हीं के खो जाने की खबर हो जाने पर उसे दुःख होता था। वह माया को जीतना चाहती थी, पर माया ने उसी को परास्त कर दिया। संपत्ति से गला छुड़ाना चाहती थी, पर संपत्ति उससे और चिमट गई थी। वहां कुछ देर शांति से बैठ सकती थी, कुछ देर हंस-बोलकर जी बहला लेती थी, किसी के ताने-मेहने न सुनने पड़ते थे, यहां निर्मला बाणों से छेदती और घाव पर नमक छिड़कती रहती थी। बहू के कारण वह अपने पुत्र से वंचित हुई। बहू के ही कारण पोता भी हाथ से गया। ऐसी बहू को वह पान-फूल से न पूज सकती थी। संपत्ति लेकर वह क्या करे? चाटे? पुत्र और पौत्र के बदले में इस अतुल धन का क्या मूल्य था? भोजन वह अब भी अपने हाथों से ही पकाती थी। अहिल्या के साथ जो महराजिनें आई थीं, उनका पकाया हुआ भोजन ग्रहण न कर सकती थी। अहिल्या से भी वह छूत मानती थी। इन दिनों मंगला भी आई हुई थी। उसका जी चाहता था कि यहां की सारी चीजें समेट ले जाओ अहिल्या अपनी चीजों को तीन-तेरह न होने देना चाहती थी। इससे ननद-भावज में कभी-कभी खटपट हो जाती थी।

बर्तनों में कई बड़े-बड़े कंडाल भी थे। एक कंडाल इतना बड़ा था कि उसमें ढाई सौ कलसे पानी आ जाता था। मंगला ने एक दिन यह कंडाल अपने घर भिजवा दिया। कई दिन बाद अहिल्या को यह खबर मिली, तो उसने जाकर सास से पूछा-अम्मांजी, वह बड़ा कंडाल कहाँ है, दिखाई नहीं देता?

निर्मला ने कहा–बाबा, मैं नहीं जानती, कैसा कंडाल था। घर में है, तो कहाँ जा सकता है?

अहिल्या–जब घर में हो तब न?

निर्मला–घर में से कहाँ गायब हो जाएगा?

अहिल्या–घर की चीज घर के आदमियों के सिवा और कौन छू सकता है?

निर्मला–तो क्या इस घर में सब चोर ही बसते हैं?

अहिल्या–यह तो मैं नहीं कहती, लेकिन चीज का पता तो लगना ही चाहिए।

निर्मला–तुम चीजें लादकर ले जाओगी, तुम्हीं पता लगाती फिरो। यहां चीजों को लेकर क्या करना है? इना चीजों को देखकर मेरी तो आंखें फूटती हैं। इन्हीं के लिए तो तुमने मेरे बच्चे को बनवास दे दिया। इन्हीं के पीछे अपने बेटे से हाथ धो बैठी। तुम्हें ये सारी चीजें प्यारी होंगी। मुझे तो नहीं प्यारी हैं।

बात कड़वी थी, पर यथार्थ थी। अगर धन-मद ने अहिल्या की बुद्धि पर पर्दा न डाल दिया होता तो आज उसे क्यों यह दिन देखना पड़ता? दरिद्र रहकर भी सुखी होती। मोह ने उसका सर्वनाश कर दिया। फिर भी वह मोह को गले लगाए हुए है। नैहर से उसकी आई हुई चीज अपनी न थी, सब कुछ अपना होते हुए भी उसका कुछ न था। जो कुछ अधिकार था, वह पुत्र के नाते। जब पुत्र की कोई आशा न रही, तो अधिकार भी न रहा, पर यहां की सब चीजें उसी की थीं। उन पर उसका नाम खुदा हुआ था। अधिकार में स्वयं एक आनंद है, जो उपयोगिता की परवा नहीं करता। उन वस्तुओं को देख-देखकर उसे गर्व होता था।

लेकिन आज निर्मला के कठोर शब्दों ने उसमें ग्लानि और विवेक का संचार कर दिया। उसने निश्चय किया, अब इन चीजों के लिए कभी न बोलूंगी। अगर अम्मांजी को किसी चीज का मोह नहीं है, तो मैं ही क्यों करूं? कोई आग लगा दे, मेरी बला से।

जब घर में कोई किसी चीज की चौकसी करने वाला न रहा, तो चारों ओर लूट मच गई। कुछ मालूम न होता कि घर में कौन लुटेरा आ बैठा है, पर चीजें एक-एक करके निकलती जाती थीं। अहिल्या देखकर अनदेखी और सुनकर अनसुनी कर जाती थी, पर अपनी चीजों को तहस-नहस होते देखकर उसे दुःख होता था। उसका विराग मोह का दूसरा रूप था-वास्तविक रूप से भी भयंकर और दाहक।

इस तरह कई महीने गुजर गए, अहिल्या का आशा-दीपक दिन-दिन मंद होता गया। वह कितना ही चाहती थी कि मोह-बंधन से अपने को छुड़ा ले, पर मन पर कोई वश न चलता था। उसके मन में बैठा हुआ कोई नित्य कहा करता था-जब तक मोह में पड़ी रहोगी, पति-पुत्र के दर्शन न होंगे। पर इसका विश्वास कौन दिला सकता था कि मोह टूटते ही उसके मनोरथ पूरे हो जाएंगे? तब क्या वह भिखारिणी होकर जीवन व्यतीत करेगी? संपत्ति के हाथ से निकल जाने पर फिर उसके लिए कौन आश्रय रह जाएगा? क्या वह फिर अपने पिता के घर जा सकती थी? कदापि नहीं। पिता ने इतनी धूमधाम से उसे विदा किया, इसका अर्थ ही यह था कि अब तुम इस घर से सदा के लिए जा रही हो।

अहिल्या बार-बार व्रत करती कि अब अपने सारे काम अपने हाथ से करूंगी, अब सदा एक ही जून भोजन किया करूंगी, मोटा से मोटा अन्न खाकर जीवन व्यतीत करूंगी, लेकिन उसमें किसी व्रत पर स्थिर रहने की शक्ति न रह गई थी। जब उसके स्नान कर चुकने पर लौंडी उसकी साड़ी छांटने चलती, तो वह उसे मना न कर सकती थी। जो काम आज सोलह वर्षों से करती आ रही थी, उसके विरुद्ध आचरण करना उसे अब अस्वाभाविक जान पड़ता था, मोटा अनाज खाने का निश्चय रहते हुए भी वह स्वादिष्ट भोजन को सामने से हटा न सकती थी। विलासिता ने उसकी क्रिया-शक्ति को निर्बल कर दिया था।

यहां रहकर वह अपने उद्धार के लिए कुछ न कर सकेगी, यह बात शनैः-शनैः अनुभव से सिद्ध हो गई।

लेकिन अब कहाँ जाए? जब तक मन की वृत्ति न बदल जाए, तीर्थयात्रा पाखंड-सी जान पड़ती थी। किसी दूसरी जगह अकेले रहने के लिए कोई बहाना न था, पर यह निश्चय था कि अब वह यहां न रहेगी, यहां तो वह बंधन में और भी जकड़ गई थी।

अब उसे वागीश्वरी की याद आई। सुख के दिन वही थे, जो उसके साथ कटे। असली मौका न होने पर भी जीवन का जो सुख वहां मिला, वह फिर न नसीब हुआ। अब उसे याद आता था कि मैं वहां से दुःख झेलने के लिए आई थी। वह स्नेह-सुख स्वप्न हो गया। सास मिली वह इस तरह की, ननद मिली वह इस ढंग की। मां थी ही नहीं, केवल बाप को पाया; मगर उसके बदले में क्या-क्या देना पड़ा। जिस दिन मालूम हुआ कि वह राजा की बेटी है, वह फूली न समाई थी। उसके पांव जमीन पर न पड़ते थे, पर आह ! क्या मालूम था कि उस क्षणिक आनंद के लिए उसे सारी उम्र रोना पड़ेगा।

अब अहिल्या को रात-दिन यही धुन रहने लगी कि किसी तरह वागीश्वरी के पास चलूं, मानो वहां उसके सारे दुःख दूर हो जाएंगे। इधर कई महीनों से वागीश्वरी का पत्र न आया था; पर मालूम हुआ कि वह आगरे ही में है। अहिल्या ने कई बार बुलाया था; पर वागीश्वरी ने लिखा था-मैं बड़े आराम से हूँ, मुझे अब यहीं पड़ी रहने दो। अब अहिल्या का मन वागीश्वरी के पास जाने के लिए अधीर हो उठा। वागीश्वरी भी उसी की भांति दुःखिनी है। सारी आशाओं एवं सारे माया-मोह से मुक्त हो चुकी है। वही उसके साथ सच्ची सहानुभूति कर सकती है, वही अपने मातृस्नेह से उसका क्लेश हर सकती है।

आखिर एक दिन अहिल्या ने सास से यह चर्चा कर ही दी। निर्मला ने कुछ भी आपत्ति नहीं की। शायद वह खुश हुई कि किसी तरह यहां से टले। मंगला तो उसके जाने का प्रस्ताव सुनकर हर्षित हो उठी। जब वह चली जाएगी, तो घर में मंगला का राज हो जाएगा। जो चीज चाहेगी, उठा ले जाएगी, कोई हाथ पकड़ने वाला या टोकने वाला न रहेगा। दो महीने भी अहिल्या वहां रह गई तो मंगला अपना घर भर लेगी। ज्यादा नहीं, तो आधी संपदा तो अपने घर पहुंचा ही देगी।

अहिल्या जब यात्रा की तैयारियां करने लगी, तो मंगला ने कहा–भाभी तुम चली जाओगी, तो यहां बिल्कुल अच्छा न लगेगा। वहां कब तक रहोगी?

अहिल्या–अभी क्या कहूँ बहिन, यह तो वहां जाने पर मालूम होगा।

मंगला–इतने दिनों के बाद जा रही हो, दो-तीन महीने तो रहना ही पड़ेगा। तुम चली जा रही हो, तो मैं भी चली जाऊंगी। अब तो रानी साहिबा से भी भेंट नहीं होती, अकेले कैसे रहा जाएगा। तुम्हीं दोनों जनों से मिलने तो आई थी। रानी साहिबा ने तो भुला ही दिया, तुम छोड़े चली जाती हो।

यह कहकर मंगला रोने लगी।

दूसरे दिन अहिल्या यहां से चली। अपने साथ कोई साज-सामान न लिया। साथ की लौंडियां चलने को तैयार थीं, पर उसने किसी को साथ न लिया। केवल एक बुड्ढे कहार को पहुंचाने के लिए ले लिया। और उसे भी आगरे पहुँचने के दूसरे ही दिन विदा कर दिया।

आज बीस साल के बाद अहिल्या ने इस घर में फिर प्रवेश किया था, पर आह ! इस घर की दशा ही कुछ और थी। सारा घर गिर पड़ा था। न आंगन का पता था, न बैठक का। चारों ओर मलवे का ढेर जमा हो रहा था। उस पर मदार और धतूरे के पौधे उगे हुए थे। एक छोटी-सी कोठरी बच रही थी। वागीश्वरी उसी में रहती थी। उसकी सूरत भी उस घर के समान ही बदल गई थी। न मुंह में दांत, न आंखों में ज्योति, सिर के बाल सन हो गए थे, कमर झुककर कमान हो गई थी। दोनों गले मिलकर खूब रोईं। जब आंसुओं का वेग कम हुआ तो वागीश्वरी ने कहा-बेटी, तुम अपने साथ समान नहीं लाईं-क्या दूसरी ही गाड़ी से जाने का विचार है? इतने दिनों के बाद आई भी, तो इस तरह ! बुढ़िया को बिल्कुल भूल ही गई! खंडहर में तुम्हारा जी क्यों लगेगा?

अहिल्या–अम्मां, महल में रहते-रहते जी ऊब गया, अब कुछ दिन इस खंडहर में ही रहूँगी और तुम्हारी सेवा करूंगी। जब से तुम्हारे घर से गई, तब से एक दिन भी सुख नहीं पाया। तुम समझती होगी कि मैं वहां बड़े आनंद से रहती हूँगी, लेकिन अम्मां, मैने वहां दुःख ही दुःख पाया, आनंद के दिन तो इसी घर में बीते थे।

वागीश्वरी–लड़के का अभी कुछ पता न चला?

अहिल्या किसी का पता नहीं चला, अम्मां! मैं राज्य-सुख पर लटू हो गई थी। उसी का दंड भोग रही हूँ। राज्य-सुख भोगकर तो जो कुछ मिलता है, वह देख चुकी, अब उसे छोड़कर देखूगी कि क्या जाता है, मगर तुम्हें तो बड़ा कष्ट हो रहा है, अम्मां?

वागीश्वरी–कैसा कष्ट बेटी? जब तक स्वामी जीते रहे, उनकी सेवा करने में सुख मानती थी। तीर्थ, व्रत, पुण्य, धर्म सब कुछ उनकी सेवा ही में था। अब वह नहीं हैं, तो उनकी मर्यादा की सेवा कर रही हूँ। आज भी उनके कितने ही भक्त मेरी मदद करने को तैयार हैं, लेकिन क्यों किसी की मदद लूं। तुम्हारे दादाजी सदैव दूसरों की सेवा करते रहे। इसी में अपनी उम्र काट दी। तो फिर मैं किस मुंह से सहायता के लिए हाथ फैलाऊं?

यह कहते-कहते वृद्धा का मुखमंडल गर्व से चमक उठा। उसकी आंखों में एक विचित्र स्फूर्ति झलकने लगी! अहिल्या का सिर लज्जा से झुक गया। माता, तुझे धन्य है ! तू वास्तव में सती है, तू अपने ऊपर जितना गर्व करे, वह थोड़ा है।

वागीश्वरी ने फिर कहा–ख्वाजा महमूद ने बहुत चाहा कि मैं कुछ महीना ले लिया करूं। मेरे मैके वाले कई बार मुझे बुलाने आए। यह भी कहा कि महीने में कुछ ले लिया करो। भैया बड़े भारी वकील हैं, लेकिन मैंने किसी का एहसान नहीं लिया। पति की कमाई को छोड़कर और किसी की कमाई पर स्त्री का अधिकार नहीं होता। चाहे कोई मुंह से न कहे, पर मन में जरूर समझेगा कि मैं इन पर एहसान कर रहा हूँ। जब तक आंखें थीं, सिलाई करती रही। जब से आंखें गईं, दलाई करती हूँ। कभी-कभी उन पर जी झुंझलाता है। जो कुछ कमाया, उड़ा दिया। तुम तो देखती ही थीं। ऐसा कौन-सा दिन जाता था कि द्वार पर चार मेहमान न आ जाते हों? लेकिन फिर दिल को समझाती हूँ कि उन्होंने किसी बुरे काम में तो धन नहीं उड़ाया ! जो कुछ किया, दूसरों के उपकार ही के लिए किया। यहां तक कि अपने प्राण भी दे दिए। फिर मैं क्यों पछताऊं और क्यों रोऊँ यश सेंत में थोड़े ही मिलता है, मगर मैं तो अपनी बातों में लग गई। चल, हाथ-मंह धो डालो कुछ खा-पी लो, फिर बातें करूं।

लेकिन अहिल्या हाथ-मुंह धोने न उठी। वागीश्वरी की आदर्श पति-भक्ति देखकर उसकी आत्मा उसका तिरस्कार कर रही थी। अभागिनी ! इसे पति-भक्ति कहते हैं ! सारे कष्ट झेलकर स्वामी की मर्यादा का पालन कर रही है। नैहर वाले बुलाते हैं और नहीं जाती, हालांकि इस दशा में मैके चली जाती, तो कोई बुरा न कहता। सारे कष्ट झेलती है और खुशी से झेलती है। एक तू है कि मैके की संपत्ति देखकर फूल उठी, अंधी हो गई। राजकुमारी और पीछे चलकर राजमाता बनने की धुन में तुझे पति की परवाह ही न रही, तूने संपत्ति के सामने पति को कुछ न समझा, उसकी अवहेलना की। वह तुझे अपने साथ ले जाना चाहते थे, तू न गई, राज्य-सुख तुझसे न छोड़ा गया! रो, अपने कर्मों को।

वागीश्वरी ने फिर कहा–अभी तक तू बैठी ही है। हां, लौंडी पानी नहीं लाई न, कैसे उठेगी! ले, मैं पानी लाए देती हूँ, हाथ-मुंह धो डाल। तब तक मैं तेरे लिए गरम रोटियां सेकती हूँ। देखू, तुझे अभी भी भाती हैं कि नहीं। तू मेरी रोटियों का बहुत बखान करके खाती थी।

अहिल्या स्नेह में सने ये शब्द सुनकर पुलकित हो उठी। इस ‘तू’ में जो सुख था वह आप और सरकार में कहाँ? बचपन के दिन आंखों में फिर गए। एक क्षण के लिए उसे अपने सारे दुःख विस्मृत हो गए। बोली-अभी तो भूख-प्यास नहीं है अम्मांजी, बैठिए कुछ बातें कीजिए। मैं आपसे अपने दु:ख की कथा कहने के लिए व्याकुल हो रही हूँ। बताइए, मेरा उद्धार कैसे होगा?

वागीश्वरी ने गंभीर भाव से कहा–पति-प्रेम से वंचित होकर स्त्री के उद्धार का कौन उपाय है, बेटी? पति ही स्त्री का सर्वस्व है। जिसने अपना सर्वस्व खो दिया, उसे सुख कैसे मिलेगा? जिसको लेकर तूने पति का त्याग किया, उसको त्याग कर ही पति को पाएगी। तू इतनी कर्त्तव्य-भ्रष्ट कैसे हो गई, यह मेरी समझ में ही नहीं आया। यहां तो धन पर इतना जान न देती थी। ईश्वर ने तेरी परीक्षा ली और तू उसमें चूक गई। जब तक धन और राज्य का मोह न छोड़ेगी, तुझे उस त्यागी पुरुष के दर्शन न होंगे।

अहिल्या–अम्मांजी, सत्य कहती हूँ, मैं केवल शंखधर के हित का विचार करके उनके साथ न गई।

वागीश्वरी–उस विचार में क्या तेरी भोग-लालसा न छिपी थी! खूब ध्यान करके सोच, तू इससे इनकार नहीं कर सकती!

अहिल्या ने लज्जित होकर कहा–हो सकता है, अम्मांजी, मैं इनकार नहीं कर सकती। वागीश्वरी–संपत्ति यहां भी तेरा पीछा करेगी, देख लेना।

अहिल्या–अब तो उससे जी भर गया, अम्मांजी !

वागीश्वरी–जभी तो वह फिर तेरा पीछा करेगी। जो उससे भागता है, उसके पीछे दौड़ती है। मुझे शंका होती है कि कहीं तू फिर लोभ में न पड़ जाए । एक बार चूकी, तो चौदह वर्ष रोना पड़ा, अब की चूकी तो बाकी उम्र ही गुजर जाएगी !

छियालीस

शंखधर को अपने पिता के साथ रहते एक महीना हो गया। न वह जाने का नाम लेता है, न चक्रधर ही जाने को कहते हैं। शंखधर इतना प्रसन्नचित्त रहता है, मानो अब उसके सिवा संसार में कोई दु:ख, कोई बाधा नहीं है। इतने ही दिनों में उसका रंग-रूप कुछ और हो गया है। मुख पर यौवन तेज झलकने लगा और जीर्ण शरीर भर आया है। मालूम होता है, कोई अखंड ब्रह्मचर्य व्रतधारी ऋषिकुमार है।

चक्रधर को अब अपने हाथों कोई काम नहीं करना पड़ता। वह जब एक गांव से दूसरे गांव जाते हैं, तो उनका सामान शंखधर उठा लेता है, उन्हें अपना भोजन तैयार मिलता है, बर्तन मंजे हुए, साफ-सुथरे। शंखधर कभी उन्हें अपनी धोती भी नहीं छांटने देता। दोनों प्राणियों के जीवन का वह समय सबसे आनंदमय होता है, जब एक प्रश्न करता और दूसरा उसका उत्तर देता है। शंखधर को बाबाजी की बातों से अगर तृप्ति नहीं होती, तो अल्पभाषी बाबाजी को भी बातें करने से तृप्ति नहीं होती। वह अपने जीवन के सारे अनुभव, दर्शन, विज्ञान, इतिहास की सारी बातें घोलकर पिला देना चाहते हैं। उन्हें इसकी परवाह नहीं होती कि शंखधर उन बातों को ग्रहण भी कर रहा है या नहीं, शिक्षा देने में वह इतने तल्लीन हो जाते हैं। जड़ी-बूटियों का जितना ज्ञान उन्होंने बड़े-बड़े महात्माओं से बरसों में प्राप्त किया था, वह सब शंखधर को सिखा दिया। वह उसे कोई नई बात बताने का अवसर खोजा करते हैं, उसकी एक-एक बात पर उनकी सूक्ष्म-दृष्टि पड़ती है। दूसरों से उसकी सज्जनता और सहनशीलता का बखान सुनकर उन्हें कितना गर्व होता है। वह मारे आनंद के गद्गद हो जाते हैं, उनकी आंखें सजल हो जाती हैं। सब जगह यह बात खुल गई कि यह युवक उनका पुत्र है। दोनों की सूरत इतनी मिलती है कि चक्रधर के इनकार करने पर भी किसी को विश्वास नहीं आता। जो बात सब जानते हैं, उसे वह स्वयं नहीं जानते और न जानना ही चाहते है।

एक दिन वह एक गांव में पहुंचे, तो वहां दंगल हो रहा था। शंखधर भी अखाड़े के पास जाकर खड़ा हो गया। एक पट्टे ने शंखधर को ललकारा। वह शंखधर का ड्योढ़ा था, पर शंखधर ने कुश्ती मंजूर कर ली। चक्रधर बहुत कहते रहे-यह लड़का लड़ना क्या जाने, कभी लड़ा हो तो जाने। भला, यह क्या लड़ेगा, लेकिन शंखधर लंगोट कसकर उखाड़े में उतर ही तो पड़ा ! उस समय चक्रधर की सूरत देखने योग्य थी। चेहरे पर एक रंग जाता था, एक रंग आता था। अपनी व्यग्रता को छिपाने के लिए अखाड़े से दूर जा बैठे थे, मानो वह इस बात से बिल्कुल उदासीन हैं। भला, लड़कों के खेल से बाबाजी का क्या संबंध? लेकिन किसी न किसी बहाने अखाड़े की ओर आ ही जाते थे। जब उस पढे ने पहली ही पकड़ में शंखधर को धर दबाया, तो बाबाजी आवेश में आकर स्वयं झुक गए। शंखधर ने जोर मारकर उस पढे को ऊपर उठाया, तो बाबाजी भी सीधे हो गए और जब शंखधर ने कुश्ती मार ली, तब तो चक्रधर उछल पड़े और दौड़कर शंखधर को गले लगा लिया। मारे गर्व के उनकी आंखें उन्मत्त-सी हो गईं। उस दिन अपने नियम के विरुद्ध उन्होंने रात को बड़ी देर तक गाना सुना।

शंखधर को कभी-कभी प्रबल इच्छा होती थी कि पिताजी के चरणों पर गिर पडूं और साफ-साफ कह दूं। वह मन में कल्पना किया करता कि अगर ऐसा करूं, तो वह क्या कहेंगे? कदाचित उसी दिन मुझे सोता छोड़कर किसी ओर की राह लेंगे। इस भय से बात उसके मुंह तक आके रुक जाती थी, मगर उसी के मन में यह इच्छा नहीं थी। चक्रधर भी कभी-कभी पुत्र-प्रेम से विकल हो जाते और चाहते कि उसे गले लगाकर कहूँ-बेटा, तुम मेरी ही आंखों के तारे हो, तुम मेरे ही जिगर के टुकड़े हो, तुम्हारी याद दिल से कभी न उतरती थी, सब कुछ भूल गया, पर तुम न भूले। वह शंखधर के मुख से उसकी माता की विरह-व्यथा, दादी के शोक और दादा के क्रोध की कथाएं सुनते कभी न थकते थे। रानीजी उससे कितना प्रेम करती थीं, यह चर्चा सुनकर चक्रधर बहुत दुःखी हो जाते। जिन बाबाजी की रूखे-सूखे भोजन से तुष्टि होती थी, यहां तक कि भक्तों के बहुत आग्रह करने पर भी खोये और मक्खन को हाथ से न छूते थे, वही बाबाजी इन पदार्थों को पाकर प्रसन्न हो जाते थे। वह स्वयं अब भी वही रूखा-सूखा भोजन ही करते थे, पर शंखधर को खिलाने में जो आनंद मिलता था, वह क्या कभी आप खाने में मिल सकता था?

इस तरह एक महीना गुजर गया और अब शंखधर को यह फिक्र हुई कि इन्हें किस बहाने से घर ले चलूं। अहा, कैसे आनंद का समय होगा, जब मैं इनके साथ घर पहुंचूंगा !

लेकिन बहुत सोचने से भी उसे कोई बहाना न मिला। तब उसने निश्चय किया कि माताजी को पत्र लिखकर यहीं क्यों न बुला लूं? माताजी पत्र पाते ही सिर के बल दौड़ी आएंगी। सभी आएंगे। तब देखू, यह किस तरह निकलते हैं? वह पछताया कि मैंने व्यर्थ ही इतनी देर लगाई। अब तक तो अम्मांजी पहुँच गई होतीं। उसी रात को उसने अपनी माता के नाम पत्र डाल दिया। वहां का पता-ठिकाना, रेल का स्टेशन, सभी बातें स्पष्ट करके लिख दीं! अंत में यह लिखा-आप आने में विलंब करेंगी, तो पछताएंगी। यह आशा छोड़ दीजिए कि मैं जगदीशपुर राज्य का स्वामी बनूंगा। पिताजी के चरणों की सेवा छोड़कर मैं राज्य का सुख नहीं भोग सकता। यह निश्चय है। इन्हें यहां से ले जाना असंभव है। इन्हें यदि मालूम हो जाए कि मैं इन्हें पहचानता हूँ, तो आज ही अंतर्धान हो जाएं। मैंने इनको अपना परिचय दे दिया है, आप लोगों की बातें भी सुनाया करता हूँ, पर मुझे इनके मुख पर जरा भी आवेश का चिह्न नहीं दिखाई देता, भावों पर इन्होंने अधिकार प्राप्त कर लिया है। आप जल्द से जल्द आवें।

वह सारी रात इस कल्पना में मग्न रहा कि अम्मांजी आ जाएंगी, तो पिताजी को झुककर प्रणाम करूंगा और पूछंगा-अब भागकर कहाँ जाइएगा? फिर हम दोनों उनका पल्ला न छोड़ेंगे, मगर मन की सोची हुई बात कभी पूरी हुई है?

सैंतालीस

एक महीना पूरा गुजर गया और न अहिल्या ही आई, न कोई दूसरा ही। शंखधर दिन भर उसकी बाट जोहता रहता। रेल का स्टेशन वहां से पांच मील पर था। रास्ता भी साफ था फिर भी कोई नहीं आया। चक्रधर जब कहीं चले जाते, तो वह चुपके से स्टेशन की राह लेता और निराश होकर लौट आता। आखिर एक महीने के बाद तीसरे दिन उसे एक पत्र मिला, जिसे पढ़कर उसके शोक की सीमा न रही। अहिल्या ने लिखा था-मैं बड़ी अभागिनी हूँ। तुम इतनी कठिन तपस्या करके जिस देवता के दर्शन कर पाए, उनके दर्शन करने की परम अभिलाषा होने पर भी मैं हिल नहीं सकती। एक महीने से बीमार हूँ, जीने की आशा नहीं, अगर तुम आ जाओ, तो तुम्हें देख लूं, नहीं तो यह अभिलाषा भी साथ जाएगी ! मैं कई महीने हुए, आगरे में पड़ी हूँ। जी घबराया करता है। अगर किसी तरह स्वामीजी को ला सको, तो अंत समय उनके चरणों के दर्शन भी कर लूं। मैं जानती हूँ, वह न आएंगे। व्यर्थ ही उनसे आग्रह न करना, मगर तुम आने में एक क्षण का भी विलंब न करना।

शंखधर डाकखाने के सामने खड़ा देर तक रोता रहा। माताजी बीमार हैं। पुत्र और स्वामी के वियोग से ही उनकी यह दशा हुई। क्या वह माता को इस दशा में छोड़कर एक क्षण भी यहां विलंब कर सकता है? उसने पांच साल तक अपना कोई समाचार न लिखकर माता के साथ जो अन्याय किया था, उसकी व्यथा से वह अधीर हो उठा।

उसका मुख उतरा हुआ देखकर चक्रधर ने पूछा–क्यों बेटा, आज उदास क्यों मालूम होते हो?

शंखधर–माताजी का पत्र आया है, वह बहुत बीमार हैं। मैं पिताजी को खोजने निकला था। वह तो न मिले, माताजी भी चली जा रही हैं। पिताजी इस समय मिल जाते, तो मैं उनसे अवश्य कहता….

चक्रधर–क्या कहते, कहो न?

शंखधर–कह देता कि..कि….आप ही माताजी के प्राण ले रहे हैं। आपका विराग और तप किस काम का, जब अपने घर के प्राणी की रक्षा नहीं कर सकते? आपके पास बड़ी-बड़ी आशाएं लेकर आया था, पर आपने भी अनाथ पर दया न की। आपको परमात्मा ने योगबल दिया है, आप चाहते, तो पिताजी की टोह लगा देते।

चक्रधर ने गंभीर स्वर में कहा–बेटा, मैं योगी नहीं हूँ, पर तुम्हारे पिताजी की टोह लगा चुका हूँ। उनसे मिल भी चुका हूँ। तुम नहीं जानते, पर वे गुप्त रीति से तुम्हें देख भी चुके हैं। आह ! उन्हें तुमसे जितना प्रेम है, उसकी कल्पना नहीं कर सकते। तुम्हारी माता को वह नित्य याद किया करते हैं, लेकिन उन्होंने अपने जीवन का जो मार्ग निश्चित कर लिया है, उसे छोड़ नहीं सकते और न स्वयं किसी के साथ जबरदस्ती कर सकते हैं। तुम्हारी माताजी अपनी ही इच्छा से वहां रह गई थीं। वह तो उन्हें अपने साथ लाने को तैयार थे।

शंखधर–आजकल तो माताजी आगरे में हैं। वागीश्वरी देवी से मिलने आई थीं, वहीं बीमार पड़ गईं, लेकिन आपने पिताजी से भेंट की और मुझसे कुछ न कहा। इससे तो यह प्रकट होता है कि आपको भी मुझ पर दया नहीं आती।

चक्रधर ने कुछ जवाब न दिया। जमीन की ओर ताकते रहे। वह अत्यंत कठिन परीक्षा में पड़े हुए थे। बहुत दिन के बाद, अनायास ही उन्हें पुत्र का मुख देखने का सौभाग्य प्राप्त हो गया था। वे सारी भावनाएं, सारी अभिलाषाएं, जिन्हें वह दिल से निकाल चुके थे, जाग उठी थी और इस समय वियोग के भय से आर्तनाद कर रही थीं। वह मोह-बंधन, जिसे वह बड़ी मुश्किल से ढीला कर पाए थे, अब उन्हें शतगुण वेग से अपनी ओर खींच रहा था, मानो उसका हाथ उनके अस्थिपंजर को चीरता हुआ उनके अंतस्तल तक पहुँच गया है।

सहसा शंखधर ने अवरुद्ध कंठ से कहा–तो मैं निराश हो जाऊँ?

चक्रधर ने हृदय से निकलते उच्छ्वास को दबाते हुए कहा–नहीं बेटा, संभव है, कभी वह स्वयं पत्र-प्रेम से विकल होकर तुम्हारे पास दौड़े जाएं। इसका निश्चय तुम्हारे आचरण करेंगे। अगर तुम अपने जीवन में ऊंचे आदर्श का पालन कर सके, तो तुम उन्हें अवश्य खींच लोगे। यदि तुम्हारे आचरण भ्रष्ट हो गए, तो कदाचित् इस शोक में वह अपने प्राण दे दें।

शंखधर–आपके दर्शन मुझे फिर कब होंगे? आपका पता कैसे मिलेगा? यद्यपि मुझे पिताजी के दर्शनों का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ, लेकिन पिता के पुत्र-प्रेम की मेरे मन में जो कल्पना थी, जिसकी तृष्णा मुझे पांच साल तक वन-वन घुमाती रही, वह आपकी दया से पूरी हो गई। मैंने आपको पिता-तुल्य ही समझा है और जीवन-पर्यंत समझता रहूँगा। यह स्नेह, यह वात्सल्य, यह अपार करुणा मुझे कभी न भूलेगी। इन चरण-कमलों की भक्ति मेरे मन में सदैव बनी रहेगी। आपके दर्शनों के लिए मेरी आत्मा सदैव विकल रहेगी और माताजी के स्वस्थ होते ही मैं फिर आपकी सेवा में आऊंगा।

चक्रधर ने आर्द्र कंठ से कहा–नहीं बेटा, तुम यह कष्ट न करना। मैं स्वयं कभी-कभी तुम्हारे पास आया करूंगा ! मैंने भी तुमको पुत्र-तुल्य समझा है और सदैव समझता रहूँगा। मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ रहेगा।

संध्या समय शंखधर अपने पिता से विदा होकर चला। चक्रधर को ऐसा मालूम हो रहा था, मानो उनका हृदय वक्ष-स्थल को तोडकर शंखधर के साथ चला जा रहा है। जब वह आंखों से ओझल हो गया तो उन्होंने एक लंबी सांस ली और बालकों की भांति बिलख-बिलखकर रोने लगे। ऐसा मालूम हुआ, मानो चारों ओर शून्य है। चला गया ! वह तेजस्वी कुमार चला गया, जिसको देखकर छाती गज भर की हो जाती थी, और जिसके जाने से अब जीवन निरर्थक, व्यर्थ जान पड़ता था ! उन्हें ऐसी भावना हुई कि फिर उस प्रतिभा संपन्न युवक के दर्शन न होंगे !

अड़तालीस

अहिल्या के आने की खबर पाकर मुहल्ले की सैकड़ों औरतें टूट पड़ी। शहर के बड़े-बड़े घरों की स्त्रियां भी आ पहुंची। शाम तक तांता लगा रहा। कुछ लोग डेपुटेशन बनाकर संस्थाओं के लिए चंदै मांगने आ पहुंचे। अहिल्या को इन लोगों से जान बचानी मुश्किल हो गई। किस-किससे अपनी विपत्ति कहे? अपनी गरज के बावले अपनी कहने में मस्त रहते हैं, किसी की सुनते ही कब हैं? इस वक्त अहिल्या को फटे हालों यहां आने पर बड़ी लज्जा आई। वह जानती कि यहां यह हरबोंग मच जाएगा, तो साथ दस-बीस हजार के नोट लेती आती। उसे अब इस टूटे-फूटे मकान में ठहरते भी लज्जा आती थी। जब से देश ने जाना कि वह राजकुमारी है, तब से वह कहीं बाहर न गई थी। कभी काशी रहना हुआ, कभी जगदीशपुर। दूसरे शहर में आने का यह पहला ही अवसर था। अब उसे मालूम हुआ कि धन केवल भोग की वस्तु नहीं है, उससे यश और कीर्ति भी मिलती है। भोग से तो उसे घृणा हो गई थी, लेकिन यश का स्वाद उसे पहली ही बार मिला। शाम तक उसने पंद्रह-बीस हजार के चंदे लिख दिए और मुंशी वज्रधर को रुपए भेजने के लिए पत्र लिख दिया। खत पहुँचने की देर थी। रुपए आ गए। फिर तो उसके द्वार पर भिक्षुकों का जमघट रहने लगा। लंगडों-अंधों से लेकर जोड़ी और मोटर पर बैठने वाले भिक्षुक भिक्षा दान मांगने आने लगे। कहीं से किसी अनाथालय के निरीक्षण करने का निमंत्रण आता, कहीं से टी-पार्टी में सम्मिलित होने का। कमारी-सभा, बालिका विद्यालय, महिला क्लब आदि संस्थाओं ने उसे मानपत्र दिए और उसने ऐसे सुंदर उत्तर दिए कि उसकी योग्यता और विचारशीलता का सिक्का बैठ गया। ‘आए थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास’ वाली कहावत हुई। तपस्या करने आई थी, यहां सभ्य समाज की क्रीडाओं में मग्न हो गई। अपने अभीष्ट का ध्यान ही न रहा।

ख्वाजा महमूद को भी खबर मिली। बेचारे आंखों से माजूर थे। मुश्किल से चल-फिर सकते थे। उन्हें आशा थी कि रानीजी मुझे जरूर सरफराज फरमाएंगी, लेकिन जब एक हफ्ता गुजर गया और अहिल्या ने उन्हें सरफराज न किया, तो एक दिन तामजान पर बैठकर स्वयं आए और लाठी टेकते हुए द्वार पर खड़े हो गए। उनकी खबर पाते ही अहिल्या निकल आई और बड़ी नम्रता से बोली-ख्वाजा साहब, मिजाज तो अच्छे हैं? मैं खुद ही हाजिर होने वाली थी, आपने नाहक तकलीफ की।

ख्वाजा–खुदा का शुक्र है। जिंदा हूँ। हुजूर तो खैरियत से रहीं?

अहिल्या–आपकी दुआ है, मगर आप मुझसे यों बातें कर रहे हैं, गोया मैं कुछ और हो गई हूँ। मैं आपकी पाली हुई वही लड़की हूँ, जो आज से पंद्रह साल पहले थी, और आपको उसी निगाह से देखती हूँ।

ख्वाजा साहब अहिल्या की नम्रता और शील पर मुग्ध हो गए। वल्लाह! क्या इन्कसार है, कितनी खाकसारी है ! इसी को शराफत कहते हैं कि इंसान अपने को भूल न जाए। बोले–बेटी, तुम्हें खुदा ने यह दरजा अता किया, मगर तुम्हारा मिजाज वही है, वरना किसे अपने दिन याद रहते हैं। प्रभुता पाते ही लोगों की निगाहें बदल जाती हैं, किसी को पहचानते तक नहीं, जमीन पर पांव तक नहीं रखते। कसम खुदा की, मैंने जिस वक्त तुम्हें नाली में रोते पाया था, उसी वक्त समझ गया था कि यह किसी बड़े घर का चिराग है। मैं यशोदानंदन मरहूम से भी बराबर यह बात कहता रहा। इतनी हिम्मत, इतनी दिलेरी, अपनी असमत के लिए जान पर खेल जाने का यह जोश, राजकुमारियों ही में हो सकता है। खुदा आपको हमेशा खुश रखे। आपको देखकर आंखें मसरूर हो गईं। आपकी अम्मांजान तो अच्छी तरह हैं? क्या करूं, पड़ोस में रहता हूँ, मगर बरसों आने की नौबत नहीं आती। उनकी सी पाकीजा सिफत खातून दुनिया में कम होंगी?

अहिल्या–आप उन्हें समझाते नहीं, क्यों इतना कष्ट झेलती हैं?

ख्वाजा–अरे बेटा, एक बार नहीं, हजार बार समझा चुका, मगर जब वह खुदा की बंदी मानें भी। कितना कहा कि मेरे पास जो कुछ है, वह तुम्हारा है ! यशोदानंदन मरहूम से मेरा बिरादराना रिश्ता है। सच पूछो तो मैं उन्हीं का बनाया हुआ हूँ। मेरी जायदादमें तुम्हारा भी हिस्सा है, लेकिन मेरी बातों का मुतलक लिहाज न किया। यह तवक्कुल खुदा की देन है। आपको इस मकान में तकलीफ होती होगी। मेरा बंगला खाली है, अगर कोई हरज न समझो, तो उसी में कयाम करो।

वास्तव में अहिल्या को उस घर में बड़ी तकलीफ होती थी। रात में नींद ही न आती। आदमी अपनी आदतों को एकाएक नहीं बदल सकता। पंद्रह साल से वह उस महल में रहने की आदी हो रही थी, जिसका सानी बनारस में न था। इस तंग, गंदे एवं टूटे-फूटे अंधेरे मकान में जहां रात भर मच्छरों की शहनाई बजती रहती थी, उसे कब आराम मिल सकता था? उसे चारों तरफ से बदबू आती हुई मालूम होती थी। सांस लेना मुश्किल था, पर ख्वाजा साहब के निमंत्रण को वह स्वीकार न कर सकी, वागीश्वरी से अलग वह वहां न रह सकती थी। बोली-नहीं ख्वाजा साहब, यहां मुझे कोई तकलीफ नहीं है। आदमी को अपने दिन न भूलने चाहिए। इसी में सोलह साल रही हूँ। जिंदगी में जो कुछ सुख देखा, वह इसी घर में देखा। पुराने साथी का साथ कैसे छोड़ दूं!

ख्वाजा–बाबू चक्रधर का अब तक कुछ पता न चला?

अहिल्या–इसी लिहाज से तो मैं बड़ी बदनसीब हूँ, ख्वाजा साहब ! उनको गए पंद्रह साल गुजर गए। पांच साल से लड़का भी गायब है। उन्हीं की तलाश में निकला हुआ है। लोग समझते होंगे कि इसकी-सी सुखी औरत दुनिया में न होगी ! और मैं अपनी किस्मत को रोती हूँ। इरादा था कुछ दिनों अम्मांजी के साथ अकेली पड़ी रहूँगी, पर अमीरी की बला यहां भी सिर से न टली। कहिए, अब यहां तो आपस में दंगा-फिसाद नहीं होता?

ख्वाजा–जी नहीं, अभी तक तो खुदा का फजल है, लेकिन यह देखता हूँ कि आपस में पहले की-सी मुहब्बत नहीं है। दोनों कौमों में कुछ ऐसे लोग हैं, जिनकी इज्जत और सरवत दोनों को लड़ाते रहने पर ही कायम है। बस, वह एक न एक शिगूफा छोड़ा करते हैं। मेरा तो यह कौल है कि हिंदू रहो, चाहे मुसलमान, खुदा के सच्चे बंदे रहो। सारी खूबियां किसी एक ही कौम के हिस्से में नहीं आईं। न सब मुसलमान पाकीजा हैं, न सब हिंदू देवता हैं, इसी तरह न सभी हिंदू काफिर हैं, न सभी मुसलमान मोमिन। जो आदमी दूसरी कौम से जितनी नफरत करता है, समझ लीजिए कि वह खुदा से उतनी दूर है। मुझे आपसे कमाल हमदर्दी है, मगर चलने-फिरने से मजबूर हूँ, वर्ना बाबू साहब जहां होते, वहां से खींच लाता।

ख्वाजा साहब जाने लगे, तो अहिल्या ने इस्लामी यतीमखाने के लिए पांच हजार रुपए दान दिए। इस दान से मुसलमानों के दिलों पर भी उसका सिक्का बैठ गया। चक्रधर की याद फिर ताजी हो गई। मुसलमान महिलाओं ने भी उसकी दावत की।

अहिल्या को अब रोज ही किसी-न-किसी जलसे में जाना पड़ता, और वह बड़े शौक से जाती। दो ही सप्ताह में उसका कायापलट-सा हो गया। यश-लालसा ने धन की उपेक्षा का भाव उसके दिल से निकाल दिया ! वास्तव में वह समारोहों में अपनी मुसीबतें भूल गई। अच्छे-अच्छे व्याख्यान तैयार करने में वह इतना तत्पर रहने लगी, मानो उसे नशा हो गया है। वास्तव में यह नशा ही था। यह लालसा से बढ़कर दूसरा नशा नहीं।

वागीश्वरी पुराने विचारों की स्त्री थी। उसे अहिल्या का यों घूम-घूमकर व्याख्यान देना और रुपए लुटाना अच्छा न लगता था। एक दिन उसने कह ही डाला-क्यों री अहिल्या, तू अपनी संपत्ति लुटाकर ही रहेगी?

अहिल्या ने गर्व से कहा–और है ही किसलिए, अम्मांजी? धन में यही बुराई है। कि इससे विलासिता बढ़ती है, लेकिन इसमें परोपकार करने की सामर्थ्य भी है।

वागीश्वरी ने परोपकार के नाम से चिढ़कर कहा–तू जो कर रही है, यह परोपकार नहीं, यश-लालसा है। अपने पुरुष और पुत्र का उपकार तो तू कर न सकी, संसार का उपकार करने चली है!

अहिल्या–तुम तो अम्मांजी आपे से बाहर हो जाती हो।

वागीश्वरी–अगर तू धन के पीछे अंधी न हो जाती, तो तुझे यह दंड न भोगना पड़ता। तेरा चित्त कुछ-कुछ ठिकाने पर आ रहा था, तब तक तुझे यह नई सनक सवार हो गई। परोपकार तो तब समझती, जब तू वहीं बैठे-बैठे गुप्त रूप से चंदे भिजवा देती। मुझे शंका हो रही है कि इस वाह-वाह से तेरा सिर न फिर जाए । धन का भूत तेरे पीछे बुरी तरह पड़ा हुआ है और अभी तेरा कुछ और अनिष्ट करेगा।

अहिल्या ने नाक सिकोड़कर कहा–जो कुछ करना था, कर चुका, अब क्या करेगा? जिंदगी ही कितनी रह गई है, जिसके लिए रोऊं?

दूसरे दिन प्रात:काल डाकिया शंखधर का पत्र लेकर पहुंचा, जो जगदीशपुर और काशी से घूमता हुआ आया था। अहिल्या पत्र पढ़ते ही उछल पड़ी और दौड़ी हुई वागीश्वरी के पास जाकर बोली-अम्मां, देखो, लल्लू का पत्र आ गया। दोनों जने एक ही जगह हैं। मुझे बुलाया है।

वागीश्वरी–ईश्वर को धन्यवाद दो बेटी। कहाँ हैं?

अहिल्या–दक्षिण की ओर हैं, अम्मांजी! पता-ठिकाना सब लिखा हुआ है।

वागीश्वरी–तो बस, अब तू चली जा। चल, मैं भी तेरे साथ चलूंगी।

अहिल्या–आज पूरे पांच साल के बाद खबर मिली है, अम्मांजी ! मुझे आगरे आना फल गया। यह तुम्हारे आशीर्वाद का फल है, अम्मांजी।

वागीश्वरी–मैं तो उस लड़के के जीवट को बखानती हूँ कि बाप का पता लगाकर ही छोड़ा। अहिल्या–इस आनंद में आज उत्सव मनाना चाहिए, अम्मांजी।

वागीश्वरी–उत्सव पीछे मनाना, पहले वहां चलने की तैयारी करो। कहीं और चले गए, तो हाथ मलकर रह जाओगी।

लेकिन सारा दिन गुजर गया और अहिल्या ने यात्रा की कोई तैयारी न की। वह अब यात्रा के लिए उत्सुक न मालूम होती थी। आनंद का पहला आवेश समाप्त होते ही वह इस दुविधा में पड़ गई थी कि वहां जाऊं या न जाऊं? वहां जाना केवल दस-पांच दिन या महीने के लिए जाना न था, वरन् राजपाट से हाथ धो लेना और शंखधर के भविष्य को बलिदान करना था। वह जानती थी कि पितृभक्त शंखधर पिता को छोड़कर किसी भांति न आएगा और मैं भी प्रेम के बंधन में फंस जाऊंगी। उसने यही निश्चय किया कि शंखधर को किसी हीले से बुला लेना चाहिए। उसका मन कहता था कि शंखधर आ गया, तो स्वामी के दर्शन भी उसे अवश्य होंगे। शंखधर ने पत्र में लिखा था कि पिताजी को मुझसे अपार स्नेह है। क्या यह पुत्र-प्रेम उन्हें खींच न लाएगा? वह चाहे संन्यासी ही के रूप में आएं, पर आएंगे जरूर, और जब अबकी वह उनके चरणों को पकड़ लेगी, तो फिर वह नहीं छुड़ा सकेंगे। शंखधर के राजसिंहासन पर बैठ जाने के बाद यदि स्वामीजी की इच्छा हुई, तो वह उनके साथ चली जाएगी और शेष जीवन उनके चरणों की सेवा में काटेगी। इस वक्त वहां जाकर वह अपनी प्रेमाकांक्षाओं की वेदी पर अपने पुत्र के जीवन को बलिदान न करेगी। जैसे इतने दिनों पति वियोग में जली है, उसी तरह कुछ दिन और जलेगी। उसने मन में यह निश्चय करके शंखधर के पत्र का उत्तर दे दिया। लिखा–‘मैं बहुत बीमार हं, बचने की कोई आशा नहीं, बस, एक बार तुम्हें देखने की अभिलाषा है। तुम आ जाओ, तो शायद जी उडूं, लेकिन न आए तो समझ लो अम्मां मर गई।’ अहिल्या को विश्वास था कि यह पत्र पढ़कर शंखधर दौड़ा चला आएगा और स्वामी भी यदि उसके साथ न आएंगे, तो उसे आने से रोकेंगे भी नहीं।

अभागिनी अहिल्या ! तू फिर धन-लिप्सा के जाल में फंस गई। क्या इच्छाएं भी राक्षसों की भांति अपने ही रक्त से उत्पन्न होती हैं? वे कितनी अजेय हैं। जब ऐसा ज्ञात होने लगा कि वे निर्जीव हो गई हैं, तो सहसा वे फिर जी उठी और संख्या में पहले से शतगुण होकर। पंद्रह वर्ष की दारुण वेदना एक क्षण में विस्मृत हो गई। धन्य रे तेरी माया !

संध्या समय वागीश्वरी ने पूछा–क्या जाने का इरादा नहीं है?

अहिल्या ने शरमाते हुए कहा–अभी तो अम्मांजी मैंने लल्लू को बुलाया है। अगर वह न आवेगा, तो चली जाऊंगी।

वागीश्वरी–लल्लू के साथ क्या चक्रधर भी आ जाएंगे? तू ऐसा अवसर पाकर भी छोड़ देती है। न जाने तुझ पर क्या आने वाली है !

अहिल्या अपने सारे दुःख भूलकर शंखधर के राज्याभिषेक की कल्पना में विभोर हो गई।

उनचास

गाड़ी अंधकार को चीरती हुई चली जाती थी। सहसा शंखधर हर्षपुर’ का नाम सुनकर चौंक पड़ा। वह भूल गया, मैं कहाँ जा रहा हूँ, किस काम से जा रहा हूँ और मेरे रुक जाने से कितना बड़ा अनर्थ जो जाएगा? किसी अज्ञात शक्ति ने उसे गाड़ी छोड़कर उतर आने पर मजबूर कर दिया। उसने स्टेशन को गौर से देखा। उसे जान पड़ा, मानो उसने इसे पहले भी देखा है। वह एक क्षण तक आत्मविस्मृति की दशा में खड़ा रहा। फिर टहलता हुआ स्टेशन के बाहर चला गया।

टिकट बाबू ने पूछा–आपका टिकट तो आगरे का है?

शंखधर ने लापरवाही से कहा–कोई हरज नहीं।

वह स्टेशन से बाहर निकला, तो उस समय अंधकार में भी वह स्थान परिचित मालूम हुआ। ऐसा जान पड़ा, मानो बहुत दिनों तक यहां रहा है। वह सड़कों पर हो लिया और आबादी की ओर चला। ज्यों-ज्यों बस्ती निकट आती थी, उसके पांव तेज होते जाते थे। उसे एक विचित्र उत्साह हो रहा था, जिसका आशय वह स्वयं कुछ न समझ सकता था। एकाएक उसके सामने एक विशाल भवन दिखाई दिया। भवन के सामने एक छोटा-सा बाग था। वह बिजली की रोशनी से जगमगा रहा था। उस दिव्य प्रकाश में भवन की शुभ्र छटा देखकर शंखधर उछल पड़ा। उसे ज्ञात हुआ, यही उसका पुराना घर है, यहीं उसका बालपन बीता है। भवन के भीतर का एक-एक कमरा उसकी आंखों में फिर गया ! ऐसी इच्छा हुई कि उड़कर अंदर चला जाऊं। बाग के द्वार पर एक चौकीदार संगीन चढ़ाए खड़ा था। शंखधर को अंदर कदम रखते देखकर बोला-तुम कौन हो?

शंखधर ने डांटकर कहा–चुप रहो, महारानीजी के पास जा रहे हैं।

वह रानी कौन थी, वह क्यों उसके पास जा रहा था, और उसका रानी से कब परिचय हुआ था, यह सब शंखधर को कुछ याद न आता था। दरबान को उसने जो जवाब दिया था, वह भी अनायास ही उसके मुंह से निकल गया था। जैसे नशे में आदमी का अपनी चेतना पर कोई अधिकार नहीं रहता, उसकी वाणी, उसके अंग, उसकी कर्मेद्रियां उसके काबू के बाहर हो जाती हैं, वही दशा शंखधर की भी हो रही थी। चौकीदार उसका उत्तर सुनकर रास्ते से हट गया और शंखधर ने बाग में प्रवेश किया। बाग का एक-एक पौधा, एक-एक क्यारी, एक-एक कुंज, एक-एक मूर्ति, हौज, संगमरमर का चबूतरा उसे जाना-पहचाना-सा मालूम हो रहा था। वह नि:शंक भाव से राजभवन में जा पहुंचा।

एक सेविका ने पूछा–तुम कौन हो?

शंखधर ने कहा–साधु हूँ। जाकर महारानी को सूचना दे दें।

सेविका–महारानीजी इस समय पूजा पर हैं। उनके पास जाने का हुक्म नहीं है।

शंखधर–क्या बहुत देर तक पूजा करती हैं?

सेविका–हां, कोई तीन बजे रात को पूजा से उठेंगी। उसी वक्त नाम मात्र को पारण करेंगी और घंटे भर आराम करके स्नान करने चली जाएंगी। फिर तीन बजे रात तक एक क्षण के लिए भी आराम न करेंगी। यही उनका जीवन है।

शंखधर–बड़ी तपस्या कर रही हैं!

सेविका–और कैसी तपस्या होगी, महाराज? न कोई शौक है, न श्रृंगार है, न किसी से हंसना, न बोलना। आदमियों की सूरत से कोसों भागती हैं। दिन-रात जप-तप के सिवा और कोई काम ही नहीं। जब से महाराज का स्वर्गवास हुआ है, तभी से तपस्विनी बन गई हैं। आप कहाँ से आए हैं और उनसे क्या काम है?

शंखधर–साधु-संतों को किसी से क्या काम? महारानी की साधु-सेवा की चर्चा सुनकर चला आया।

सेविका–आपकी आवाज तो मालूम होता है, कहीं सुनी है, लेकिन आपको देखा नहीं।

यह कहते-कहते वह सहसा कांप उठी। शंखधर की तेजमयी मूर्ति में उसे उस आकृति का प्रतिबिंब अमानुषीय प्रकाश से दीप्त दिखाई दिया, जिसे उसने बीस वर्ष पूर्व देखा था ! वह सादृश्य प्रतिक्षण प्रत्यक्ष होता जाता था, यहां तक कि वह भयभीत होकर वहां से भागी और रानी कमला के कमरे में जाकर सहमी हुई खड़ी हो गई।

रानी कमलावती ने आग्नेय नेत्रों से देखकर पूछा–तू यहां क्या करने आई? इस समय तेरा यहां क्या काम है?

सेविका–महारानीजी, क्षमा कीजिए। प्राणदान मिले तो कहूँ। आंगन में एक तेजस्वी पुरुष खड़ा आपको पूछ रहा है। मैं क्या कहूँ महारानीजी, उसका कंठ-स्वर और आकृति हमारे महाराज से इतनी मिलती है कि मालूम होता है, वही खड़े हैं। न जाने, कैसी दैवी लीला है ! अगर मैंने कभी किसी का अहित चेता हो, तो मैं सौ जन्म नरक भोगू।

रानी कमला पूजा पर से उठ खड़ी हुई और गंभीर भाव से बोली–डर मत, डर मत, उन्होंने तुझसे क्या कहा?

सेविका–सरकार, मेरा तो कलेजा कांप रहा है। उन्होंने सरकार का नाम लेकर कहा कि उन्हें द्वारे आने की सूचना दे दे।

रानी–उनकी क्या अवस्था है?

सेविका–सरकार, अभी तो मसें भीग रही हैं।

रानी कमला देर तक विचार में मग्न खड़ी रहीं। क्या हो सकता है। क्या इस जीवन में अपने प्राणाधार के दर्शन फिर हो सकते हैं? बीस ही वर्ष तो हुए उन्हें शरीर त्याग किए हुए। क्या ऐसा कभी हो सकता है?

उसकी पूर्व स्मृतियां जागृत हो गईं। एक पर्वत की गुफा में महेन्द्र के साथ रहना याद आया। उस समय भी वह ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे थे। उनके कितने ही अलौकिक कृत्य याद आ गए, जिनका मर्म वह अब तक न समझ सकी थी। फिर वायुयान पर उनके साथ बैठकर उड़ने की याद आई। आह ! वह गीत याद आया, जो उस समय उसने गाया था। उस समय प्राणनाथ कितने प्रेमविहल हो रहे थे। उनकी प्रेम-प्रदीप्त छवि उसके सामने छा गई। हाय ! उन नेत्रों में कितनी तृष्णा थी, कितनी अतृप्त लालसा! उस अपार सुखमय अशांति, उस मधुर व्यथापूर्ण उल्लास को याद करके वह पुलकित हो उठी। आह ! वह भीषण अंत ! उसे ऐसा जान पड़ा, वह खड़ी न रह सकेगी।

सेविका ने कातर स्वर में पूछा–सरकार, क्या आज्ञा है?

रानी ने चौंककर कहा–चल, देखू तो कौन है?

वह हृदय को संभालती हुई आंगन में आई। वहीं बिजली के उज्ज्वल प्रकाश में उसे शंखधर की दिव्य मूर्ति ब्रह्मचर्य के तेज से चमकती हुई खड़ी दिखाई दी; मानो उसका सौभाग्य सूर्य उदित हो गया हो। क्या अब भी कोई संदेह हो सकता था? लेकिन संस्कारों को मिटाना भी तो आसान नहीं। संसार में कितना कपट है, क्या इसका उसे काफी अनुभव न था ! यद्यपि उसका हृदय उन चरणों से दौड़कर लिपट जाने के लिए अधीर हो रहा था, फिर भी मन को रोककर उसने दूर ही से पूछा-महाराज, आप कौन हैं और मुझे क्यों याद किया है?

शंखधर ने रानी के समीप जाकर कहा–क्या मुझे इतनी जल्द भूल गईं, कमला? क्या इस रूपांतर ही से तुम्हें यह भ्रम हो रहा है? मैं वही हूँ, जिसने न जाने कितने दिन हुए, तुम्हारे हृदय में प्रेम के रूप में जन्म लिया था, और तुम्हारे प्रियतम के रूप में तुम्हारे सत्, व्रत और सेवा में अमर होकर आज तक उसी अपार आनंद की खोज में भटकता फिरता हूँ। क्या कुछ और परिचय दूं? वह पर्वत की गुफा तुम्हें याद है? वह वायुयान पर बैठकर आकाश में भ्रमण करना याद है? आह ! तुम्हारे उस स्वर्गीय संगीत की ध्वनि अभी तक कानों में गूंज रही है। प्रिये, कह नहीं सकता, कितनी बार तुम्हारे हृदय-मंदिर के द्वार पर भिक्षुक बनकर आया, लेकिन दो बार आना याद है। मैंने उसे खोलकर अंदर जाना चाहा, पर दोनों ही बार असफल रहा। वही अतृप्त आकांक्षा मुझे फिर खींच लाई है, और…

रानी कमला ने उन्हें अपना वाक्य पूरा न करने दिया। वह दौड़कर उनके चरणों पर गिर पड़ी और उन्हें अपने आंसुओं से पखारने लगी। यह सौभाग्य किसको प्राप्त हुआ है? जिस पवित्र मूर्ति की वह बीस वर्ष से उपासना कर रही थी, वही उसके सम्मुख खड़ी थी। वह अपना सर्वस्य त्याग देगी, इस ऐश्वर्य को तिलांजलि दे देगी और अपने प्रियतम के साथ पर्वतों में रहेगी। वह सब कुछ झेलकर अपने स्वामी के चरणों से लगी रहेगी। इसके सिवा अब उसे कोई आकांक्षा, कोई इच्छा नहीं है।

लेकिन एक ही क्षण में उसे अपनी शारीरिक अवस्था की याद आ गई। उसके उन्मत्त हृदय को ठोकर-सी लगी। यौवन काल के रूप-लावण्य के लिए उसका मन लालायित हो उठा, वे काले-काले लंबे केश, वह पुष्प के समान विकसित कपोल, वे मदभरी आंखें, वह कोमलता, वह माधुर्य अब कहाँ? क्या इस दशा में वह अपने स्वामी की प्राणेश्वरी बन सकेगी?

सहसा शंखधर बोले–कमला, कभी तुम्हें मेरी याद आती थी?

रानी ने उनका हाथ पकड़कर कहा–स्वामी, आज बीस वर्ष से तुम्हारी उपासना कर रही हूँ। आह ! आप उस समय आए हैं, जब मेरे पास प्रेम नहीं, केवल श्रद्धा और भक्ति है। आइए, मेरे हृदय-मंदिर में विराजिए।

शंखधर–ऐसा क्यों कहती हो, कमला?

कमला ने सजल नेत्रों से शंखधर की ओर देखा, पर मुंह से कुछ न बोली। शंखधर ने उसके मन का भाव ताड़कर कहा–प्रिये, मेरी दृष्टि में तुम वही हो, जो आज से बीस वर्ष पहले थीं। नहीं, तुम्हारा आत्मस्वरूप उससे कहीं सुंदर, कहीं मनोहर हो गया है, लेकिन तुम्हें संतुष्ट करने के लिए मैं तुम्हारा कायाकल्प कर दूंगा। विज्ञान में इतनी विभूति है कि काल के चिह्नों को भी मिटा दे?

कमला ने कातर स्वर में कहा–प्राणनाथ, क्या यह संभव है?

शंखधर–हां प्रिये, प्रकृति जो कुछ कर सकती है, वह सब विज्ञान के लिए संभव है। यह ब्रह्मांड एक विराट् प्रयोगशाला के सिवा और क्या है?

कमला के मनोल्लास का अनुमान कौन कर सकता है? आज बीस वर्ष के बाद उसके होठों पर मधुर हास्य क्रीडा करता हुआ दिखाई दिया। दान, व्रत और तप के प्रभाव का उसे आज अनुभव हुआ। इसके साथ ही उसे अपने सौभाग्य पर भी गर्व हो उठा। यह मेरी तपस्या का फल है ! मैं अपनी तपस्या से प्राणनाथ को देवलोक से खींच लायी हूँ! दूसरा कौन इतना तप कर सकता है? कौन इंद्रिय सुखों को त्याग सकता है?

यह भाव मन में आया ही था कि कमला चौंक पड़ी ! हाय ! यह क्या हुआ? उसे ऐसा मालूम हुआ कि उसकी आंखों की ज्योति क्षीण हो गई है। शंखधर का तेजमय स्वरूप उसे मिटा-मिटा-सा दिखाई दिया और सभी वस्तुएं साफ नजर न आती थीं, केवल शंखधर दूर-दूर होते जा रहे थे।

कमला ने घबराकर कहा–प्राणनाथ, क्या आप मुझे छोड़कर चले जा रहे हैं ! हाय ! इतनी जल्द?

शंखधर ने गंभीर स्वर में कहा–नहीं प्रिये, प्रेम का बंधन इतना निर्बल नहीं होता।

कमला–तो आप मुझे जाते हुए क्यों दीखते हैं?

शंखधर–इसका कारण अपने मन में देखो!

प्रात:काल शंखधर ने कहा–प्रिये, मेरी प्रयोगशाला की दशा क्या है?

कमला–चलिए, आपको दिखाऊं।

शंखधर–उस कठिन परीक्षा के लिए तैयार हो?

कमला–आपके रहते मुझे क्या भय है?

लेकिन प्रयोगशाला में पहुँचकर सहसा कमला का दिल बैठ गया। जिस सुख की लालसा उसे माया के अंधकार में लिए जाती है, क्या वह सुख स्थायी होगा? पहले ही की भांति क्या फिर दुर्भाग्य की एक कुटिल क्रीड़ा उसे इस सुख से वंचित न कर देगी? उसे ऐसा आभास हुआ कि अनंत काल से वह सुख-लालसा के इसी चक्र में पड़ी हुई यातनाएं झेल रही है। हाय रे ईश्वर ! तूने ऐसा देवतुल्य पुरुष देकर भी मेरी सुख-लालसा को तृप्त न होने दिया।

इतने में शंखधर ने कहा–प्रिये, तुम इस शिला पर लेट जाओ और आंखें बंद कर लो। कमला ने शिला पर बैठकर कातर स्वर में पूछा–प्राणनाथ, तब मुझे ये बातें याद रहेंगी? शंखधर ने मुस्कराकर कहा–सब याद रहेंगी प्रिये, इससे निश्चित रहो।

कमला–मुझे यह राजपाट त्याग करना पड़ेगा?

शंखधर ने देखा, अभी तक कमला मोह में पड़ी हुई है। अनंत सुख की आशा भी उसके मोह-बंधन को नहीं तोड़ सकी। दुःखी होकर बोले-हां, कमला, तुम इससे बड़े राज्य की स्वामिनी बन जाओगी। राज्य सुख में बाधक नहीं होता, यदि विलास की ओर न ले जाए।

पर कमला ने ये शब्द न सुने। शिला से प्रवाहित विद्युत शक्ति ने उसे अचेत कर दिया था। केवल उसकी आंखें खुली थीं। उनमें अब भी तृष्णा चमक रही थी।

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