मनोरमा अध्याय 19
राजा विशाल सिंह ने इधर कई साल से राजकाज छोड़ रखा था। मुंशी वज्रधर और दीवान साहब की चढ़ बनी थी। प्रजा के सुख दुख की चिंता अगर किसी को थी, तो मनोरमा को थी। राजा साहब के सत्य और न्याय का उत्साह ठंडा पड़ गया था। मनोरमा को पाकर उन्हें किसी चीज की सुधि न थी, लेकिन इस बालक ने आकर राजा साहब के जीवन में एक नए उत्साह का संचार कर दिया। अब तक उनके जीवन का कोई लक्ष्य न था। मन में प्रश्न होता था कि किसके लिए करूं? अब जीवन का लक्ष्य मिल गया था। फिर वह राज काज से क्यों विरक्त रहते? मुंशीजी अब तक तो दीवान साहब से मिल कर अपना स्वार्थ साधते रहते थे; पर अब वह हर किसी को गिनने लगे थे। ऐसा मालूम होता था कि अब वही राजा हैं। दीवान साहब अगर मनोरमा के पिता थे, तो मुंशीजी राजकुमार के दादा थे। फिर दोनों में कौन दबता? कर्मचारियों पर कभी ऐसी फटकारें न पड़ी थीं। मुंशीजी को देखते ही बेचारे थर-थर कांपने लगते थे। अगर कोई अमला उनके हुक्म की तामील करने में देर करता, तो जामे से बाहर हो जाते। बात पीछे करते, निकालने की धमकी पहले देते।
सुनने वालों को ये बात ज़रूर बुरी मालूम होती थी। चक्रधर के कानों में कभी ये बात पड़ जाती, तो यह जमीन में गड़ से जाते थे। वह आजकल मुंशीजी से बहुत कम बोलते थे। अपने घर भी केवल एक बार गए थे। वहाँ माता की बातें सुनकर उनकी फिर आने की इच्छा न होती थी। मित्रों से मिलना जुलना उन्होंने बहुत कम कर दिया था। वास्तव में यहाँ का जीवन उनके लिए असह्य हो गया था। वह फिर अपने शांति कुटीर को लौट जाना चाहते थे। यहाँ आए दिन कोई न कोई बड़ी बात हो ही जाती थी, जो दिन भर उनके चित्त को व्यग्र करने को काफ़ी होती थीं। कहीं कर्मचारियों में जूती पैजार होती थी, कहीं गरीब आसामियों पर डांट-फटकार, कहीं रनिवास में रगड़-झगड़ होती थी, तो कहीं इलाकों में दंगा फसाद। उन्हें स्वयं कभी कर्मचारियों को तम्बीह करनी पड़ती। इस बार उन्हें विवश होकर नौकरों को मारना भी पड़ा था। सबसे कठिन समस्या यही थी कि उनके पुराने सिद्धांत भंग होते चले जाते थे। वह बहुत चेष्टा करते थे कि मुँह से कोई अशिष्ट शब्द न निकले, पर प्रायः नित्य ही ऐसे अवसर पड़ते थे कि उन्हें विवश होकर दंड नीति का आश्रय लेना ही पड़ता था।
लेकिन अहिल्या इस जीवन का चरम सुख भोग रही थी। बहुत दिनों तक दुख भोगने के बाद उसे यह सुख मिला था और वह उनमें मग्न थी। अपने पुराने दिन उसे बहुत जल्दी भूल गए और उनकी याद दिलाने से उसे दुख होता था। उसका रहन साहब सबकुछ बहुत बदल गया था। वह अच्छी खासी अमीरजादी बन गई थी।
अब चक्रधर अहिल्या से अपने मन की बातें कभी न कहते थे। यह संपदा उसका सर्वनाश किए डालती थी। क्या अहिल्या यह दुख विलास छोड़ कर मेरे साथ चलने को राजी होगी। उन्हें शंका होती थी कि कहीं वह इस प्रस्ताव को हँसी में न उड़ा दे या मुझे रुकने पर मजबूर न करे। इसी प्रकार के प्रश्न चक्रधर के मन में उठते रहते थे और वह किसी भांति अपने कर्तव्य का निश्चय न कर पाते थे। केवल एक बात निश्चित थी – वह इन बंधनों में पड़कर अपना जीवन नष्ट न करना चाहते थे। संपत्ति पर अपने सिद्धांतों को भेंट न कर सकते थे।
एक दिन चक्रधर मोटर पर हवा खाने निकले। गर्मी के दिन थे। जी बेचैन था। हवा लगी, तो देहात की ओर जाने का की चाहा। बढ़ते ही गए, यहाँ तक कि अंधेरा हो गया। शोफर को साथ न लिया था। ज्यों ज्यों आगे बढ़ते थे, सड़कें खराब आती जाती थीं। सहसा उन्हें रास्ते में एक बड़ा सांड दिखाई दिया। उन्होंने बहुत शोर मचाया, पर सांड न हटा। जब समीप आने पर भी सांड राह में ही खड़ा रहा, तो उन्होंने कतराकर निकल जाना चाहा। पर सांड सिर झुकाये ‘फों-फ़ों’ करता फिर सामने आ खड़ा हुआ। चक्रधर छड़ी हाथ में लेकर उतरे कि उसे भगा दें, पर वह भागने के बदले उनके पीछे दौड़ा। कुशल यह हुई कि सड़क के किनारे एक पेड़ मिल गया। जी छोड़ कर भागे और छड़ी फेंक पेड़ की एक शाखा पकड़ कर लटक गए। सांड एक मिनट तक तो पेड़ से टक्कर लेता रहा; पर जब चक्रधर न मिले, तो वह मोटर के पास चला आया और उसे सींगों से पीछे की ओर ठेलता हुआ दौड़ा। कुछ दूर के बाद मोटर सड़क से हटकर एक वृक्ष से टकरा गई। अब सांड पूंछ उठा उठा कर कितना ही जोर मारता है, पीछे हट-हट कर उसमें टक्करें मारता है, पर वह जगह से नहीं हिलती। तब उसने बगल में जाकर इतनी ज़ोर से टक्कर लगाई कि मोटर उलट गई। फिर भी सांड ने उसका पिंड न छोड़ा। कभी उसके पहियों से टक्कर लेता, कभी पीछे की ओर ज़ोर लगाता। मोटर के पहिए फट गये, कई पुर्जे टूट गये, पर सांड बराबर उस पर आघात किया जाता था।
सांड ने जब देखा कि शत्रु की धज्जियाँ उड़ गई और अब वह शायद फिर न उठ सके, तो डकारता हुए एक तरफ को चला गया। तब चक्रधर नीचे को उतरे और मोटर के समीप जाकर देखा, तो वह उल्टी पड़ी हुई थी। जब तक सीधी न हो जाये, तब तक कैसे पता चले कि क्या-क्या चीजें टूट गई और अब वह चलने योग्य है या नहीं। अकेले मोटर को सीधी करना एक आदमी का काम न था। पूर्व की ओर थोड़ी ही दूर पर एक गाँव था। चक्रधर उसी तरफ चले। वह बहुत छोटा सा पुरवा था। किसान लोग अभी थोड़ी ही देर पहले ऊख की सिंचाई करके आए थे। कोई बैलों को पानी सानी दे रहा था, कोई खाने जा रहा था, कोई गाय दुह रहा था। सहसा चक्रधर ने जाकर पूछा – ‘यह कौन सा गाँव है?’
एक आदमी ने जवाब दिया – ‘भैसोर!’
चक्रधर – ‘किसका गाँव है?’
किसान – ‘महाराज का! कहीं से आते हो।’
चक्रधर – ‘हम महाराज के यहाँ से ही आते हैं। वह बदमाश सांड किसका है, जो इस वक़्त सड़क पर घूमा करता है।’
किसान – ‘यह तो नहीं जानते जनाब, पर उसके मारे नाको दम है।’
चक्रधर ने सांड के आक्रमण का ज़िक्र करके कहा – ‘तुम लोग मेरे साथ चलकर मोटर को उठा दो।’
इस पर दूसरा किसान अपने द्वार से बोला – ‘सरकार! भला रात को मोटर उठाकर क्या कीजियेगा? वह चलने लायक तो होगी नहीं।’
चक्रधर – ‘तो तुम लोगों को उसे ठेलकर ले चलना होगा।’
पहला किसान – ‘सरकार रात भर यहीं ठहरें, सवेरे चलेंगे। न चलने लायक होगी, तो गाड़ी पर लादकर पहुँचा देंगे।’
चक्रधर ने झल्लाकर कहा – ‘कैसी बातें करते हो जी! मैं रात भर यहाँ पड़ा रहूंगा। तुम लोगों को इसी वक़्त चलना होगा।’
चक्रधर को उन आदमियों में से कोई न पहचानता था। समझे, राजाओं के यहाँ सभी तरह के लोग आते-जाते हैं, होंगे कोई। फिर वे सभी जाति से ठाकुर थे और ठाकुर से सहायता के नाम पर जो काम चाहे ले लो, बेगार के नाम पर उनकी त्योरियाँ बदल जाती हैं।
किसान ने कहा – ‘साहब! इस बखत तो हमारा जाना न होगा। अगर बेगार चाहते हो, तो वह उत्तर की ओर दूसरा गाँव है, वहाँ चले जाइये। बहुत चमार मिल जायेंगे।’
यह कहकर वह घर में जाने लगा।
चक्रधर को ऐसा क्रोध आया कि उसके हाथ पकड़कर घसीट लूं और ठोकर मारते हुए के चलूं, मगर उन्होंने जब्त करते हुए कहा – ‘मैं सीधे से कहता हूँ, तो तुम लोग उड़नघाईयाँ बताते हो। अभी कोई चपरासी आकर दो घुड़कियाँ जमा देता, तो सारा गाँव भेड़ की भांति उसके पीछे चला जाता।’
किसान वहीं खड़ा हो गया और बोला – ‘सिपाही क्यों घुड़कियां जमायेगा, कोई चोर हैं। हमारी खुशी, नहीं जाते। आपको जो करना है, कर लीजियेगा।’
चक्रधर से जब्त न हो सका। छड़ी हाथ में थी ही, वह बाज़ की तरह किसान पर टूट पड़े और धक्का देकर कहा – ‘चलता है या जमाऊं दो चार हाथ। तुम लात के आदमी भला बात से क्यों मानने लगे?’
चक्रधर कसरती आदमी थे। किसान धक्का खाकर गिर पड़ा। यों वह भी करारा आदमी था। उलझ पड़ता, तो चक्रधर आसानी से उसे न गिरा सकते, पर यह रौब में आ गया। सोचा, कोई हकीम है, नहीं तो उसकी हिम्मत न पड़ती कि हाथ उठाए। संभलकर उठने लगा। चक्रधर ने समझा शायद यह उठकर मुझ पर वार करेगा। लपककर फिर एक धक्का दिया। सहसा सामने वाले घर से एक आदमी लालटेन लेकर निकल आया और चक्रधर को देखकर बोला – ‘अरे भगत जी! तुमने यह भेष कबसे धारण किया। मुझे पहचानते हो, हम भी तुम्हारे साथ जेल में थे।’
चक्रधर उसे तुरंत पहचान गये। यह उनका जेल का साथी धन्ना सिंह था। चक्रधर का सारा क्रोध हवा हो गया। लजाते हुए बोले, “क्या तुम्हारा घर इसी गाँव में है धन्ना!”
धन्ना सिंह – ‘हाँ साहब! यह आदमी जिसे आप ठोकरें मार रहे हैं, मेरा सगा भाई है। खाना खा रहा था। खाना खाकर जब तक उठे, तब तक तो गरमा ही गये। तुम्हारा मिजाज़ इतना कड़ा कबसे हो गया। कहां तो दरोगा को बचाने के लिए अपनी छाती पर संगीन रोक ली थी, कहां आज ज़रा सी बात पर इतने तेज पड़ गये। ‘
चक्रधर पर घड़ों पानी पड़ गया। वे अपनी सफ़ाई में एक शब्द भी न बोल सके। उनके जीवन की सारी कमाई, जो उन्होंने न जाने कौन-कौन से कष्ट सहकर बटोरी थी, यहीं लुट गई।
धन्ना सिंह ने अपने भाई को हाथ पकड़ कर बैठाना चाहा, तो वह ज़ोर से ‘हाय हाय’ कहके चिल्ला उठा। दूसरी बार गिरते समय उसका दाहिना हाथ उखड़ गया था। धन्ना सिंह ने समझा उसका हाथ टूट है। चक्रधर के प्रति उसकी रही सही भक्ति भी गायब हो गई। उनकी ओर आरक्त नेत्रों से देखकर बोला – ‘सरकार आपने तो इनका हाथ ही तोड़ दिया। (ओंठ चबाकर) क्या करें अपने द्वार पर आए हो और कुछ पुरानी बातों का खयाल है, नहीं तो इस समय क्रोध ऐसा आ रहा है कि इसी तरह तुम्हारे हाथ भी तोड़ दूं। अभी जाकर महाराज के द्वार पर फरियाद करें, तो तुम खड़े खड़े बंध जाओ। बाबू चक्रधर सिंह का नाम तो तुमने सुना होगा, अब किसी सरकारी आदमी की मजाल नहीं कि बेगार के सकें, तुम बेचारे किस गिनती में हो। तुम्हारे ही उपदेश में मेरी पुरानी आदत छूट गई। गांजा और चरस तभी छोड़ दिया, जुएं के बगीचे नहीं जाता। जिस लाठी से सैकड़ों सिर फोड़ डाले, अब वह टूटी हुई पड़ी है। मुझे तो तुमने यह उपदेश दिया और आप लगे गरीबों को कुचलने। मन्ना सिंह ने इतना ही न कहा था कि रात को यहीं ठहर जाओ, सवेरे हम तुम्हारी मोटर को पहुँचा देंगे। इसमें क्या बुराई थी।’
चक्रधर ने ग्लानि वेदना से व्यथित स्वर में कहा – ‘धन्ना सिंह! मैं बहुत लज्जित हूं। मुझे क्षमा करो। जो दंड चाहे, दो; मैं सिर झुकाये हुए हूँ, ज़रा भी सिर न हटाऊंगा, एक शब्द भी मुँह से न निकालूंगा।’
यह कहते कहते उनका गला फंस गया। धन्ना सिंह भी गदगद हो गया। बोला – ‘अरे भगत जी! ऐसी बातें न कहो। भैया, भाई का नाता बड़ा गहरा होता है। भाई चाहे अपना शत्रु भी हो, लेकिन कौन आदमी है, जो भाई को मार खाते देखकर क्रोध को रोक सके। मुझे अपना वैसा ही दास समझो, जैसा जेल में समझते थे। तुम्हारी मोटर कहाँ है? चलो मैं उठाए देता हूँ, हुक्म हो तो गाड़ी जोत दूं।’
चक्रधर ने रोककर कहा – ‘जब तक इसका हाथ अच्छा न हो जायेगा, तब तक मैं कहीं न जाऊंगा धन्ना सिंह। हाँ, कोई ऐसा आदमी मिले जो यहाँ से जगदीशपुर जा सके, तो उसे मेरी चिट्ठी दे दो।’
धन्ना सिंह – ‘जगदीशपुर में तुम्हारा कौन है भैया? क्या रियासत में नौकर हो गए हो?’
चक्रधर – ‘नौकर नहीं हूँ। मैं मुंशी वज्रधर का बेटा हूँ।’
धन्ना सिंह ने विस्मृत होकर कहा – ‘सरकार ही बाबू चक्रधर सिंह हैं। धन्य भाग थे कि सरकार के आज दरसन हो गये।’
इतना कहते हुए वह दौड़कर घर में गया और एक चारपाई लाकर द्वार पर डाल दी। फिर लपककर गाँव में खबर दे आया। एक क्षण में गाँव के सब आदमी आकर चक्रधर को नजरें देने लगे। चारों ओर हलचल सी मच गई। सबके सब उनके यश गाने लगे। जबसे सरकार आए हैं, हमारे दिन फिर गए हैं। आपका शील स्वभाव जैसा सुनते थे, वैसा ही पाया। आप साक्षात भगवान हैं।
धन्ना सिंह – ‘मैंने तो पहचाना ही नहीं था। क्रोध में जाने क्या क्या बक गया।’
दूसरा ठाकुर बोला – ‘सरकार अपने को खोल देते, तो हम मोटर को कंधे पर लादकर ले चलते।’
चक्रधर को इन ठकुरसुहाती बातों में जरा भी आनंद न आता था। उन्हें उन पर दया आ रही थी। वही प्राणी, जिन्हें उन्होंने अपने कोप का लक्ष्य बनाया था, उनके शौर्य और शक्ति की प्रशंसा कर रहा था। अपमान को निगल जाना चरित्र पतन की अंतिम सीमा है। और यही खुशामद सुनकर हम लट्टू हो जाते हैं। जिस वस्तु से घृणा होनी चाहिए। हम उस पर फूल नहीं समाते। चक्रधर को अब आश्चर्य हो रहा था कि मुझे इतना क्रोध आया कैसे? आज उन्हें अनुभव हुआ कि रियासत की बू कितनी गुप्त और अलक्षित रूप से उनमें समाती जा रही है, कितने गुप्त और अलक्षित रूप से उनकी मनुष्यता, चरित्र और सिद्धांत का ह्रास हो रहा है।
चक्रधर को रात भर नींद न आई। उन्हें बार बार पश्चाताप होता था कि मैं क्रोध के आवेग में क्यों आ गया? जीवन में यह पहला ही अवसर था, जब उन्होंने एक निर्बल प्राणी पर हाथ उठाया था। जिसका समस्त जीवन दीन जनों की सहायता में गुजरा हो, उसकी यह कायापलट नैतिक पतन से कम नहीं थी।
चक्रधर तो इस विचार में पड़े हुए थे। अहिल्या अपने सजे हुए शयनगार में मखमली गद्दों पर लेटी अंगड़ाइयाँ ले रही थी। जब चक्रधर ने कमरे में कदम रखा, तो अहिल्या त्योरियाँ चढ़ाकर बोली – ‘अब तो रात रात भर आपके दर्शन नहीं होते।’
चक्रधर – ‘तुम्हें कुछ खबर भी है। आधे घंटे तक तुम्हें जगाता रहा, जब तुम न जागी, तो चला गया। यहाँ आकर तुम सोने में कुशल हो गई हो।’
अहिल्या – ‘क्या मैं सचमुच बहुत सोती हूँ?’
चक्रधर – ‘अच्छा अभी तुम्हें उस पर संदेह भी है। घड़ी में देखो। आठ बज गए हैं। तुम पांच बजे उठकर घर का धंधा करने लगती थी।’
अहिल्या – ‘तब की बात जाने दो। अब उतने सवेरे उठने की जरूरत ही क्या है?’
चक्रधर – ‘तो क्या तुम उम्र भर यहाँ मेहमानी खाओगी?’
अहिल्या ने विस्मित होकर कहा – ‘इसका क्या मतलब?’
चक्रधर – ‘इसका मतलब यही है कि हमें यहाँ आए बहुत दिन गुजर गए हैं। अब अपने घर चलना चाहिए।’
अहिल्या – ‘अपना घर कहाँ है?’
चक्रधर – ‘अपना घर वही है, जहाँ अपने हाथों की कमाई है। ससुराल की रोटियाँ बहुत खा चुका। खाने में तो वह बहुत मीठी मालूम होती हैं, पर उससे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। इतने ही दिनों में हम दोनों कुछ में कुछ हो गये। यहाँ कुछ दिन और रहा, तो कम से कम मैं तो कहीं का न रहूंगा। कल मैंने एक गरीब किसान को मारते मारते अधमरा कर दिया। उसका कसूर केवल इतना था कि वह मेरे साथ आने को राज़ी न होता था।’
अहिल्या – ‘यह कोई बात नहीं। गंवारों के उज्जड़पन पर क्रोध आ ही जाता है। मैं यहाँ दिन भर लौंडियों पर झल्लाती रहती हूँ। मगर मुझे तो कभी ये खयाल ही नहीं आया कि घर छोड़कर भाग जाऊं।’
चक्रधर – ‘तुम्हारा घर है। तुम रह सकती हो। लेकिन मैंने तो जाने का निश्चय कर लिया है।’
अहिल्या ने अभिमान से सिर उठाकर कहा – ‘तुम न रहोगे, तो मुझे यहाँ रहकर क्या लेना है। मेरे राज़ पाट तो तुम हो। जब तुम ही न रहोगे, तो अकेले पड़ी-पड़ी मैं क्या करूंगी? जब चाहे चलो, हाँ पिताजी से पूछ लो। उनसे बिना पूछे जाना तो उचित नहीं। मगर एक बात अवश्य कहूंगी। हम लोगों के जाते ही यहाँ का सारा कारोबार चौपट हो जायेगा। रियासत रेजबार हो जायेगी और एक दिन बेचारे लल्लू को ये सब पापड़ बेलने पड़ेंगे।’
चक्रधर समझ गए कि मैं आग्रह करूं, तो यह मेरे साथ जाने को राज़ी हो जायेगी। जब ऐश्वर्य और पतिप्रेम दो में से एक को लेने और दूसरे को त्याग देने की समस्या पड़ जायेगी, तो अहिल्या किस ओर झुकेगी, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं था; लेकिन वह उसे कठोर घोर संकट में डालना उचित न समझते थे। आग्रह से विवश हो कर यह उनके साथ चली ही गई, तो क्या! जब उसे कोई कष्ट होगा, तो मन ही मन झुंझलायेगी और बात बात पर कुढ़ेगी और लल्लू को यहाँ छोड़ना ही पड़ेगा। मनोरमा उसे एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ सकती। राजा साहब तो उसके वियोग में प्राण त्याग दें। पुत्र को छोड़ कर अहिल्या कभी जाने को तैयार न होगी और हो भी गई, तो बहुत जल्द लौट आयेगी।
चक्रधर बड़ी देर तक इन्हीं विचारों में मग्न बैठे रहे। अंत में उन्होंने बिना किसी से कहे सुने चले जाने का संकल्प किया। इसके सिवाय गला छुड़ाने का कोई उपाय न सूझता था।
चक्रधर ने अपने कमरे में जाकर दो-चार कपड़े और किताबें समेटकर रख दीं। कुछ इतना ही सामान था, जिसे एक आदमी आसानी से हाथ में लटकाए लिए जा सकता था। उन्होंने रात को चुपके से बकुचा उठाकर ले जाने का निश्चय किया।
यात्रा की तैयारी करके और अपने मन को अच्छी तरह समझाकर चक्रधर अपने शयनागार में सोने का बहाना करने लगे। वह चाहते थे कि यह से जाए, तो मैं अपना बाकुचा उठाऊं और लंबा हो जाऊं। मगर निंद्रा विलासिनी अहिल्या की आँखों से आज नींद कोसों दूर थी। वह कोई न कोई प्रसंग छेड़कर बातें करती जाती थीं। यहाँ तक कि जब आधी रात से अधिक बीत गई, तो चक्रधर ने कहा – ‘भई, अब मुझे सोने दो। आज तुम्हारी नींद कहाँ भाग गई?’
उन्होंने चादर ओढ़ ली और मुँह फेर लिया। गर्मी के दिन थे। कमरे में पंखा चल रहा था। फिर भी गर्मी मालूम होती थी। रोज किवाड़ खुले रहते थे। जब अहिल्या को विश्वास हो गया कि चक्रधर दो गए, तो उसने दरवाजे अंदर से बंद कर दिए और बिजली की बत्ती ठंडी करके सोई। आज वह न जाने क्यों इतनी सावधान हो गई थी। पगली! जाने वालों को किसने रोका है।
रात बीत चुकी थी। अहिल्या को नींद आते देर न लगी। चक्रधर का प्रेम कातर हृदय अहिल्या के यों सावधान होने पर एक बार विचलित हो उठा। वे अपने आंसुओं के वेग को न रोक सके। यह सोचकर उनका कलेजा फटा जाता था कि जब प्रातःकाल वह मुझे न पायेगी, तो क्या दशा होगी।
चारों ओर सन्नाटा छाया था। सारा राज भवन शांति में विलीन हो रहा था। चक्रधर ने उठकर द्वारों को टटोलना शुरू किया। पर ऐसा दिशा भ्रम हो गया था कि द्वारों का ज्ञान न हुआ। आखिर उन्होंने दीवारों को टटोल टटोलकर बिजली का बटन खोज निकाला और बत्ती जला दी। चुपके से बाहर के कमरे में आए, अपना हैंडबैग निकाला और बाहर निकले।
बाहर आकर चक्रधर ने राजभवन की ओर देखा। असंख्य खिड़कियों और दरीचों से बिजली का दिव्य प्रकाश दिखाई दे रहा था। उन्हें वह दिव्य भवन सहस्त्र नेत्रों वाले पिशाच की भक्ति जान पड़ा, जिसने उनका सर्वनाश कर दिया था। वह कदम बढ़ाते हुए आगे चले। वह दिन निकलते के पहले इतनी दूर निकल जाना चाहते थे कि फिर कोई उन्हें पा ना सके। दिन निकलने में अब बहुत देर न थी। तारों की ज्योति मंद हो चली। चक्रधर ने और तेजी से कदम बढ़ाया।
सहसा उन्हें सड़क के किनारे एक कुएं के पास का कई आदमी बैठे दिखाई दिए। उनके बीच में एक लाश हुई थी। कई आदमी लकड़ी के कुंदे लिए पीछे आ रहे थे। चक्रधर पूछना चाहते थे – कौन मर गया है? धन्ना सिंह की आवाज पहचान कर वह सड़क पर ही ठिठक गए। इसने पहचान लिया तो बड़ी मुश्किल होगी।
धन्ना सिंह कह रहा था, ‘कजा आ गई, तो कोई क्या कर डाक्टर है? बाबू जी के हाथ में कोई डंडा भी तो न था। दो चार घूंसे मारे होंगे और क्या। मगर उस दिन से फिर उठा नहीं।’
दूसरे आदमी ने कहा – ‘ठांव-कुठांव की बात है। मन्ना भाई को कुठांव चोट लग गई।’
धन्ना सिंह – ‘बाबूजी सुनेंगे, तो उन्हें बहुत रंज होगा। जेल में हम लोग उन्हें भगत जी कहा करते थे।’
एक बूढ़ा आदमी बोला – ‘भैया, जेल की बात दूसरी थी। तब दयावान रहे होंगे। राज पाकर दयावान रहें, तो जाने।’
धन्ना सिंह – ‘बाबा! वह राज पाकर फूल उठने वाले आदमी नहीं। तुमने देखा, यहाँ से जाते ही जाते माफी दिला दी।’
बूढ़ा – ‘अरे पागल! जान का बदला कभी माफ़ी से चुकता है। तुम बाबूजी को दयावान कहते हो, मैं तो उन्हें सौ हत्यारों का एक हत्यारा कहता हूँ। राजा हैं, इससे बचे जाते हैं। दूसरा होता, तो फांसी पर लटकाया जाता।’
चक्रधर वहाँ एक क्षण भी और खड़े न रह सके। उन आदमियों के सामने जाने की हिम्मत न रही।
पांच साल गुजर गये। पर चक्रधर का कुछ पता नहीं। फिर यही गर्मी के दिन हैं। दिन को लू चलती है, रात को अंगारे बरसते हैं। मगर अहिल्या को न अब पंखे की जरूरत है न खस की टट्टियों की। उस वियोगिनी को अब रोने के सिवाय दूसरा काम नहीं है। वह अपने को बार-बार देख करती है कि वह चक्रधर के साथ क्यों न चली गई।
शंखधर उनसे पूछता रहता है – ‘अम्मा बापू जी कब आयेंगे? वह क्यों चले गए अम्मा जी?’ रानी अम्मा कहती हैं – वह आदमी नहीं देवता हैं। फिर तो लोग उनकी पूजा करते होंगे। अहिल्या के पास इन प्रश्नों का उत्तर रोने के सिवाय का कुछ नहीं था। शंखधर कभी-कभी अकेले बैठकर रोता है। कभी-कभी अकेले सोचा करता है पिताजी कैसे आयेंगे?
शंकधर का जी अपने पिता की कीर्ति सुनने से कभी न भरता। मैं रोज अपनी दादी के पास जाता है और उनकी गोद में बैठा हुआ घंटों उनकी बातें सुना करता है। निर्मला दिन भर उनकी राह देखा करती है। उसे देखते ही निहाल हो जाती है। शंखधर ही अब उसके जीवन का आधार है। अहिल्या का मुँह भी अब वह नहीं देखना चाहती।
मुंशीजी का रियासत की तरफ से एक हजार रूपये वजीफा मिलता है। राजा साहब ने उन्हें रियासत के कामों से मुक्त कर दिया है। इसीलिए मुंशीजी अब अधिकांश घर पर ही रहते हैं। शराब की मात्रा तो धन के साथ नहीं बढ़ी बल्कि और घट गई है। लेकिन संगीत प्रेम बढ़ गया है। उनके लिए सबसे आनंद का समय वह होता है, जब वह शंखधर को गोद में लिए मोहल्ले भर के बालकों को पैसे बांटने लगते हैं। इससे बड़ी खुशी की वह कल्पना ही नहीं कर सकते।
एक दिन शंखधर नौ बजे ही पहुँचा। निर्मला उस समय स्नान करके तो उसी को जल चढ़ा रही थी। जब जल चढ़ाकर आई तो शंखधर ने पूछा – ‘दादी जी! तुम पूजा क्यों करती हो?’
निर्मला लेशन कदर को गोद में लेकर कहा – ‘बेटा भगवान से मनाती हूँ कि मेरी मनोकामना पूरी करें।’
शंखधर – ‘भगवान सबके मन की बात जानते हैं।’
निर्मला – ‘हाँ बेटा भगवान सब कुछ जानते हैं।’
दूसरे दिन प्रात काल शंकधर ने स्नान किया। लेकिन स्नान करके वह जलपान करने ना आया। न जाने कहाँ चला गया। अहिल्या इधर-उधर देखने लगी, कहाँ चला गया। मनोरमा के पास आकर देखा, वहाँ भी न था। अपने कमरे में भी ना था, छत पर भी ना था। दोनों रमणियां घबराई कि स्नान करके कहाँ चला गया। लौंडिया से भी पूछा तो उन सबों ने कहा हमने तो उन्हें नहाकर आते देखा। फिर कहाँ चले गए, यह हमें मालूम नहीं। चारों ओर होने लगी। दोनों बगीचे की ओर दौड़ी गई। वह भी वह न दिखाई दिया। ऐसा बगीचे के पल्ले सिरे पर, जहाँ दिन में भी सन्नाटा रहता है, उसकी झलक दिखाई दी। दोनों चुपके-चुपके वहाँ गई और एक पेड़ की आड़ में खड़ी होकर देखने लगी। शंकर तुलसी के चबूतरे के सामने आसन मारे आंखें बंद किए ध्यान सा लगाए बैठा था। उसके सामने कुछ फूल पड़े हुए थे। एक क्षण के लिए उसने आँखें खोली, तुलसी के चबूतरे कि कई बार परिक्रमा की और तुलसी की वंदना करके धीरे से उठा। दोनों महिलायें ओट से निकलकर उसके सामने खड़ी हो गई। शंखधर उन्हें देखकर कुछ लज्जित सा हो गया और बिना कुछ बोले आगे बढ़ा।
मनोरमा – ‘वहाँ क्या करते थे बेटा?’
शंखधर – ‘कुछ तो नहीं। ऐसे ही घूमता था।’
मनोरमा – ‘नहीं, कुछ तो कर रहे थे।’
शंकधर – ‘जाइए आप से क्या मतलब?’
अहिल्या – ‘तुम्हें ना बतायेंगे…मैं इसकी अम्मा हूँ…मुझे बता देगा। मेरा लाल मेरी कोई बात नहीं टालता। हाँ बेटे, बताओ क्या कर रहे थे? मेरे कान में कह दो। मैं किसी से न कहूंगी।’
शंखधर ने आँखों में आँसू भरकर कहा – ‘कुछ नहीं, मैं बाबूजी के जल्दी से लौट आने की प्रार्थना कर रहा था। भगवान पूजा करने से सबकी मनोकामना पूरी करते हैं।’
सरल बालक की है पितृभक्ति और श्रद्धा देखकर दोनों महिलायें रोने लगी। इस बेचारे को कितना दुख है।
शंखधर ने फिर पूछा – ‘क्यों माँ तुम बाबूजी के पास कोई चिट्ठी क्यों नहीं लिखती?’
अहिल्या ने कहा – ‘कहाँ लिखूं बेटा? उनका पता भी तो नहीं जानती।’
मनोरमा अध्याय 20
इधर कुछ दिनों से लौंगी तीर्थ करने चली गई। गुरुसेवक सिंह की वजह से उसके मन में यह धर्मोत्साह हुआ था। जबसे वह गई थी, दीवान साहब दीवाने हो गए थे। यहाँ तक कि गुरुसेवक सिंह को भी कभी-कभी यह मानना पड़ता था कि लौंगी का घर में होना पिताजी की रक्षा के लिए ज़रूरी है। घर में अब कोई नौकर एक सप्ताह से ज्यादा न टिकता था। कितने ही पहली फटकार में छोड़कर भागते थे। शराब की मात्रा नहीं दिनों-दिन बढ़ती जाती थी, जिससे भय होता था कि कोई भयंकर रोग न खड़ा हो जाये। भोजन अब वह बहुत थोड़ा करते थे। लौंगी दिन भर में दो-चार सेर उनके पेट में भर दिया करती थी, आधा पाव के लगभग घी भी किसी तरह पहुँचा दिया करती थी। इस कला में वह निपुण थी। पति की सेवा का अमर सिद्धांत, जो चालीस साल की सेवा के उपरांत भोजन को योजना ही पर विशेष आग्रह करता है, सदैव उसकी आँखों के सामने रहता था। ठाकुर साहब अब लौंगी की सूरत भी नहीं देखना चाहते थे। इसी आशय के पत्र उनको लिखा करते थे। हर एक पत्र में वह अपने स्वास्थ्य का विवरण अवश्य किया करते थे। उनकी पाचन शक्ति अब बहुत अच्छी हो गई थी। रुधिर के बढ़ जाने से जितने रोग उत्पन्न होते थे, उनकी अब कोई संभावना न थी।
दीवान साहब की पाचन शक्ति अब अच्छी हो गई थी, पर विचार शक्ति तो ज़रूर क्षीण हो गई थी। निश्चय करने की अब उनमें कोई सामर्थ्य न थी। ऐसी ऐसी गलतियाँ करते थे कि राजा साहब को उनका बहुत लिहाज करने पर भी ऐतराज़ करना पड़ता था। वह कार्यदक्षता, वह तत्परता, वह विचारशीलता, जिन्होंने उन्हें चपरासी से दीवान बनाया था, अब उनका साथ छोड़ गई थी। गुरुसेवक को भी अब मालूम होने लगा था कि पिता की आड़ में कोई दूसरी ही शक्ति रियासत का संचालन करती थी।
एक दिन उन्होंने पिताजी से कहा – ‘लौंगी कब तक घर आयेगी?’
दीवान साहब ने उदासीनता से कहा – ‘उसका दिल जाने। यहाँ आने की तो खास ज़रूरत नहीं मालूम होती। अच्छा है, अपनी कमी का प्रायश्चित ही कर ले। यहाँ आकर क्या करेगी?’
उसी दिन भाई बहन में भी इसी विषय में बातें हुई। मनोरमा ने कहा – ‘भैया, क्या तुमने लौंगी अम्मा को भुला ही दिया। दादाजी की दशा देख रहे हो कि नहीं। सूखकर कांटा हो गए हैं। जब से अम्मा का स्वर्गवास हुआ, दादाजी ने अपने को उसके हाथों बेच दिया। लौंगी ने न संभाला होता, तो अम्मा जी के शोक में दादाजी प्राण दे देते। मैंने किसी विवाहिता स्त्री में इतनी पति भक्ति नहीं देखी। दादाजी को बचाना चाहते हो, तो लौंगी अम्मा को ले आओ।’
गुरुसेवक – ‘मेरा जाना तो बहुत मुश्किल है नोरा।’
मनोरमा – ‘क्यों? क्या इसमें आपका अपमान होगा?’
गुरुसेवक – ‘वह समझेगी, आखिर इन्हीं की तो गरज पड़ी। आकर और सिर चढ़ जाएगी। उसका मिजाज़ और भी आसमान पर जा पहुँचेगा।’
मनोरमा – ‘अच्छी बात है, तुम न जाओ। मगर मेरे जाने में तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है।’
गुरुसेवक – ‘तुम जाओगी।’
मनोरमा – ‘क्यों मैं क्या हूँ? क्या मैं भूल गई हूँ कि लौंगी अम्मा ही ने मुझे गोद में लेकर पाला है। जब मैं बीमार पड़ी थी, तो रात की रात मेरे सिरहाने बैठी रहती थी। क्या मैं इन बातों को भूल सकती हूँ? माता के ऋण से उऋण होना चाहे संभव हो, उसके ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो सकती, चाहे ऐसे-ऐसे दस जन्म लूं।’
गुरु सेवक लज्जित हुये। घर आकर उन्होंने देखा कि दीवान साहब लिहाफ ओढे पड़े हुए हैं। पूछा – ‘आपका जी कैसा है?’
दीवान साहब की लाल आँखें बड़ी हुई थी। बोले – ‘कुछ नहीं ज़रा सर्दी लग रही है।’
गुरु सेवक – ‘आपकी इच्छा हो, तो मैं ज़रा लौंगी को बुला ले आऊं?’
हर सेवक – ‘तुम? तुम उसे बुलाने क्या जाओगे? कोई ज़रूरत नहीं, उसका जी चाहे चाहे आए ना आए। हुंह! उसे बुलाने जाओगे। ऐसी कहाँ की अमीरजादी है।’
दूसरे दिन दीवान साहब को ज्वर हो आया। गुरुसेवक ने तापमान लगाकर देखा, जो ज्वर 104 डिग्री का था। घबराकर डॉक्टर को बुलाया। मनोरमा यह खबर पाते ही दौड़ी आई। उसने आते ही आते गुरु सेवक से कहा – ‘मैंने आपसे कल ही कहा था, जाकर लौंगी अम्मा को बुला लाइए! लेकिन आप न गए। अब तक तो आप हरिद्वार से लौटते होते। अब भी मौका है। मैं इन की देखभाल करती रहूंगी, तुम इसी गाड़ी से चले जाओ और उनके साथ लाओ। वह इनकी बीमारी की खबर सुनकर एक क्षण भी न रूकेंगी। वह केवल तुम्हारे भय से नहीं आ रही हैं।’
दीवान साहब मनोरमा को देखकर बोले – ‘आओ नोरा, मुझे तो आज ज्वर आ गया। गुरु सेवक कह रहा था कि तुम लौंगी को बुलाने जा रही हो। बेटी इसमें तुम्हारा अपमान है। भला दुनिया क्या कहेगी? सोचो, कितनी बदनामी की बात है।’
मनोरमा – ‘दुनिया जो चाहे काहे मैंने भैया जी को भेज दिया है।’
हर सेवक – ‘यह तुमने क्या किया? लौंगी कभी न आयेगी।’
मनोरमा – ‘आयेंगी क्यों नहीं? न आयेंगी, तो मैं खुद जाकर उन्हें मना लाऊंगी।’
हर सेवक – ‘तुम उसे मनाने जाओगे। रानी मनोरमा एक कहारिन को मनाने जायेगी?’
मनोरमा – ‘मनोरमा कहारिन लौंगी का दूध पीकर बड़ी न होती, तो आज रानी मनोरमा कैसे होती?’
हसीबा का मुरझाया चेहरा खिल उठा, बुझी हुई आँखें जगमगा उठी। प्रसन्नमुख होकर बोले – ‘नोरा तुम सचमुच दया की देवी हो। देखो, लौंगी आये और मैं न रहूं, तो उसकी खबर लेती रहना। उसने बड़ी सेवा की है। मैं कभी उसके एहसानों का बदला नहीं चुका सकता। गुरु सेवक उसे सतायेगा, उसे घर से निकालेगा, लेकिन तुम उस दुखिया की रक्षा करना। मैं चाहता तो अपनी सारी संपत्ति उसके नाम लिख सकता हूँ। लेकिन लौंगी कुछ न लेगी। वह दुष्ट मेरी जायदाद का एक पैसा भी न छुयेगी। वह अपने गहने पाते भी काम पड़ने पर इस घर के लिए लगा देगी। कोई उससे आदर के साथ बोले और उसे लूट ले। बस वह सम्मान चाहती है। वह घर की स्वामिनी बनकर भूखों मर जायेगी लेकिन दासी के बनकर सोने का एक कौर भी न छुयेगी। नोरा जिस दिन से वह गई है, मैं कुछ और ही हो गया हूँ। जान पड़ता है मेरी आत्मा ही कहीं चली गई है। तुम्हें अपने बचपन की याद आती है नोरा?’
मनोरमा – ‘बहुत पहले की बातें तो नहीं याद हैं। लेकिन लौंगी अम्मा का मुझे गोद में खिलाना ज़रूर याद है। अपनी बीमारी भी याद आती है, जब लौंगी अम्मा मुझे पंखा झला करती थी।’
हर सेवक ने अवरुद्ध कंठ से कहा – ‘उससे पहले की बात है नोरा, उस समय हर सेवक तीन बरस का था और तुम्हें तुम्हारी माता साल भर का छोड़कर चल बसी थी। मैं पागल हो गया था। यही जी में आता था कि आत्महत्या कर लूं। उस दशा में इस लौंगी ने ही मेरी रक्षा की। उसकी सेवा ने मुझे मुग्ध कर दिया। उसे तुम लोगों पर प्राण धरता देखकर मुझे उस पर प्रेम हो गया। तुम्हारी माता भी तुम लोगों का पालन इतना तन्मय होकर न कर सकती थी। गुरु सेवक को न जाने कौन सा रोग हो गया था। खून के दस्त आते थे और तिल-तिल कर। इसके बचने की कोई आशा न थी। गलकर कांटा हो गया था। यह लौंगी ही थी, जिसने उसे मौत के मुँह से निकाल लिया। और आज गुरु सेवक उसे घर से निकाल रहा है, समझता है कि लौंगी मेरे धन के लोभ से मुझे घेरे हुए है। मूर्ख नहीं सोचता कि लौंगी जिस समय उसका पज्जर गोद में लेकर रोया करती थी, उस समय धन कहाँ था। सच पूछो, तो यहाँ लक्ष्मी भी लौंगी के समय ही आई। क्यों नोरा, मेरे साथ कौन खड़ा है? कोई बाहरी आदमी है। कह दो, यहाँ से जाये।’
मनोरमा – ‘यहाँ तो मेरे सिवा कोई नहीं है। आपको कोई कष्ट हो रहा है? डॉक्टर को बुलाऊं।’
हर सेवक – ‘मेरी दवा लौंगी के पास है। उस सती का कैसा प्रताप था। जब तक पढ़ाई मेरे सिर में दर्द ना हुआ। मेरी मूर्खता देखो कि जब उसने तीर्थ यात्रा की बात कही, तब मेरे मुँह से एक बार भी न निकला कि तुम मुझे किस पर छोड़कर जाती हो। अगर मैं यह कह सकता, तो वह मुझे छोड़कर कभी न जाती।’
यह कहकर दीवान साहब फिर चौंक पड़े और द्वार की ओर आशंकित नेत्रों से देखकर बोले – ‘ये कौन अंदर आया नोरा? ये कौन लोग मुझे घेरे हुए हैं। मुझे कुछ नहीं हुआ। लेटा हुआ बातें कर रहा हूँ।’
मनोरमा ने धड़कते हुए हृदय से उमड़ने वाले आँसुओं को दबाकर पूछा – ‘क्या आपका जी घबरा रहा है?’
हर सेवक – ‘वह कुछ नहीं था नोरा। मैंने अपने जीवन में अच्छे काम कम किये, बुरे काम ज्यादा किये। अच्छे काम जितने किये, वे लौंगी ने किये हैं। बुरे काम जितने भी किये, वे मेरे हैं। उन दंड का भागी मैं हूँ। लौंगी के कहने पर चलता, तो आज मेरी आत्मा शांत होती।’
मनोरमा आँसुओं के वेग को रोके हुए थी। उसे उस चिर-परिचित स्थान पर आज एक विचित्र शंका जा आभास हो रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि सूर्य प्रकाश कुछ क्षीण हो गया। मानो संध्या हो गई। दीवान साहब के मुख की ओर ताकने की हिम्मत न पड़ती थी।
दीवान साहब छत की ओर टकटकी लगाए हुए थे। मानो उनकी दृष्टि अंत के उस पार पहुँचच जाना चाहती हो। सहसा उन्होंने क्षीण स्वर में पुकारा – ‘नोरा!’
मनोरमा ने उनकी ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा – ‘खड़ी हूँ दादाजी!’
दीवान – ‘ज़रा कलम दवात लेकर मेरे समीप आ जाओ। कोई और तो यहाँ नहीं है, मेरा दान पत्र लिख दो। गुरुसेवक की लौंगी से न पटेगी। मेरे पीछे उसे बहुत कष्ट होगा। मैं अपनी सब जायदाद लौंगी को देता हूँ। जायदाद के लोभ में गुरुसेवक उससे दबेगा। तुम यह लिख को और तुम्हीं इसकी साक्षी देना। यह वसीयत तुम अपने ही पास रखना।‘
मनोरमा अंदर जाकर रोने लगी। आँसुओं का वेग अब उसके रोके न रूका।
थोड़ी देर में राजा साहब आ पहुँचे। अहिल्या भी उनके साथ थी। मुंशी वज्रधर को भी उड़ती हुई खबर मिली। दौड़े आये। रियासत के सैकड़ों कर्मचारी जमा हो गये। डॉक्टर भी आ पहुँचा। किंतु दीवान साहब ने आँख न खोली। अचेत पड़े हुए थे, किंतु आँसुओं की धार बह-बहकर गालों पर आ रही थी।
एकाएक द्वार पर एक बग्गी आकर रूकी और उसमें से एक स्त्री उतरकर घर में दाखिल हुई। शोर मच गया – ‘आ गई…आ गई।‘ यह लौंगी थी।
लौंगी आज ही हरिद्वार से चली थी। गुरुसेवक से उसकी भेंट न हुई थी। इतने आदमियों को जमा देखकर उसका ह्रदय दहल उठा। उसके कमरे में आते ही और लोग हट गए। केवल मनोरमा, उसकी भाभी और अहिल्या रह गये। लौंगी ने दीवान साहब के सिर पर हाथ रखकर भर्राई हुई आवाज़ में कहा – ‘प्राण नाथ! क्या मुझे छोड़कर चले जाओगे?’
दीवान साहब की आँखें खुल गई। उन आँखों में कितनी अपार वेदना थी, किंतु कितना प्रेम।
उन्होंने दोनों हाथ फैलाकर कहा – ‘लौंगी और पहले क्यों न आई?’
लौंगी ने दोनों फैले हुए हाथ के बीच अपना सिर रख दिया और अंतिम प्रेमालिंगन के आनंद में विहवल हो गई। आज उसे मालूम हुआ कि जिस के चरणों में मैंने अपने को समर्पित किया था, वह अंत तक मेरा रहा। यह शोकमय कल्पना भी कितनी मधुर और शांतिदायिनी थी।
वह इसी विस्मृती की दशा में थी कि मनोरमा का रोना सुनकर चौंक पड़ी। दीवान साहब के मुख की ओर देखा। तब उसने स्वामी के चरणों पर सिर रख दिया और फूट-फूट कर रोने लगी। एक क्षण में सारे घर में कोहराम मच गया।
ठाकुर हरसेवक सिंह का क्रियाकर्म हो जाने के बाद एक दिन लौंगी ने अपना कपड़ा लत्ता बांधना शुरू किया। उसके पास रुपये-पैसे जो कुछ भी थे, सब गुरुसेवक को सौंपकर बोली – ‘भैया मैं अब किसी गाँव में जाकर रहूंगी। उस घर में अब रहा नहीं जाता।’
वास्तव में लौंगी से अब इस घर में रहा नहीं जाता था। घर की एक-एक चीज उसे काटने को दौड़ती थी। पच्चीस वर्ष तक इस घर की स्वामिनी बनी रहने के बाद वह किसी की आश्रिता न बन सकती थी। वैध्तव के शोक के साथ यह भाव कि मैं किसी दूसरे की रोटियों पर पड़ी हूँ, उसके लिए असह्य था। हालांकि गुरुसेवक पहले से अब कहीं ज्यादा उसका लिहाज करते थे और कोई ऐसी बातें न होने देते थे, जिससे उसे रंज हो। फिर भी कभी-कभी ऐसी बातें हो ही जाती थी, जो उसकी पराधीनता की याद दिला देती थी। इसलिए अब वह यहाँ से जाकर किसी देहात में जाकर रहना चाहती थी। आखिर जब ठाकुर साहब ने उसके नाम कुछ नहीं लिखा, उसे दूध में मक्खी की भांति निकाल फेंका, तो वह यहाँ क्यों पड़ी दूसरों का मुँह क्यों जोहे। उसे अब टूटे-फूटे झोपड़े और एक टुकड़ा रोटी के सिवाय कुछ नहीं चाहिए।
गुरुसेवक ने कहा – ‘आखिर सुने तो, कहाँ जाने का विचार कर रही हो।’
लौंगी – ‘जहाँ भगवान के जाये, वहाँ चली जाऊंगी। कोई नैहर या दूसरी ससुराल है, जो उसका नाम बता दूं।’
गुरुसेवक – ‘सोचती हो, तुम चली जाओगी, तो मेरी कितनी बदनामी होगी। दुनिया यही कहेगी कि इससे एक बेवा का पालन न हो सका। मेरे लिए कहीं मुँह दिखाने की भी जगह न रहेगी। तुम्हें उस घर में जो शिकायत हो, मुझसे कहो; जिस बात की ज़रूरत हो, मुझे बतला दो। अगर मेरी तरफ से उसमें ज़रा भी कोर-कसर देखो, तो तुम्हें अख्तियार है, जो चाहे करना। यों मैं कभी जाने न दूंगा।’
लौंगी – ‘क्या बांधकर रखोगे?’
गुरुसेवक – ‘हाँ बांधकर रखेंगे।’
अगर उम्र भर में लौंगी को गुरुसेवक की कोई बात पसंद आई, तो वह यही दुराग्रह पूर्ण वाक्य था। लौंगी का हृदय पुलकित हो गया। इस वाक्य में उसे आत्मीयता जान पड़ी। उसने तेज आवाज़ में कहा – ‘बांधकर क्यों रखोगे? क्या तुम्हारी बेसाही हूँ?’
गुरुसेवक – ‘हाँ बेसाही हो। मैंने नहीं बेसाहा, मगर मेरे बाप ने तो बेसाहा है। बेसाही न होती, तो तीस साल यहाँ रहती कैसे? मैं तुम्हारे पैर तोड़कर रख दूंगा। क्या तुम अपने मन की हो कि जो चाहोगी करोगी और जहाँ चाहोगी जाओगी और कोई कुछ न बोलेगा। तुम्हारे नाम के साथ मेरी और मेरे पूज्य पिताजी की इज्जत बंधी हुई है।’
लौंगी के जी में आया कि गुरुसेवक के चरणों पर सिर रख कर रोऊं और छाती से लगाकर कहूं – ‘बेटा मैंने तो तुझे गोद में खिलाया है, तुझे छोड़कर भला मैं कहाँ जा सकती हूँ? लेकिन उसने क्रुद्ध भाव से कहा – ‘ये तो अच्छी दिल्लगी है। यह मुझे बांधकर रखेंगे।’
गुरुसेवक तो झल्लाए हुए भाव से बाहर चले गए और लौंगी अपने कमरे में जाकर खूब रोई। गुरुसेवक किसी महरी से क्या कह सकते थे कि हम तुम्हें बांध कर रखेंगे। कभी नहीं; लेकिन अपनी स्त्री से वह यह बात कह सकते हैं। क्योंकि उसके साथ उसकी इज्जत बंधी हुई है। थोड़ी देर बाद भाव उठकर एक महरी से बोला – ‘सुनती है रे! मेरे सिर में दर्द हो रहा है। ज़रा कर दबा दें।’
सहसा मनोरमा ने कमरे में प्रवेश किया और लौंगी को सिर में तेल डलवाते देखकर बोली – ‘कैसा जी है अम्मा? सिर में दर्द है क्या?’
लौंगी – ‘नहीं बेटा! जी तो अच्छा है। आओ बैठो।’
मनोरमा ने महरी से कहा – ‘तुम जाओ। मैं दबाये देती हूँ।’
महरी चली गई। मनोरमा सिर दबाने बैठी तो लौंगी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली – ‘नहीं बेटा! तुम रहने दो। दर्द नहीं था। यों ही बुला लिया था। कोई देखे, तो कहे बुढ़िया पगला गई है। रानी से सिर दबवाती है।’
मनोरमा ने सिर दबाते हुए कहा – ‘रानी जहाँ हूं, वहाँ हूँ। यहाँ तो तुम्हारी गोद में खिलाई हुई नोरा हूँ। आज तो भैया जी यहाँ से जाकर तुम्हारे ऊपर खूब बिगड़ते रहे। मैं उसकी टांग तोड़ दूंगा, गर्दन काट दूंगा। कितना पूछा – कुछ बताओ तो, बात क्या है। पर गुस्से में कुछ सुने ही न। भाई हैं, तो क्या? उनका यह अन्याय मुझसे नहीं देखा जाता। दादाजी उनकी नीयत को पहले ही ताड़ गए थे। मैंने तुमसे अब तक नहीं कहा था अम्माजी, मगर आज उनकी बातें सुनकर कहती हूँ, दादाजी ने अपनी सारी जायदाद तुम्हारे नाम लिख दी है।’
लौंगी पर इस सूचना का ज़रा भी असर न हुआ। किसी प्रकार का उल्लास, प्रफुल्लता या गर्व उसके चेहरे पर न दिखाई दिया। वह उदासीन भाव से चारपाई पर पड़ी रही।
मनोरमा ने फिर कहा – ‘मेरे पास उनकी लिखवाई हुई वसीयत रखी हुई है। और मुझी को उन्होंने उसका साक्षी बनाया है। जब यह महाशय वसीयत देखेंगे, तो आँखें खुलेंगी।’
लौंगी ने गंभीर स्वर में कहा – ‘नोरा तुम यह वसीयत नामा उन्हीं को जाकर दे दो। तुम्हारे दादाजी ने व्यर्थ ही वसीयत लिखवाई। मैं उनकी जायदाद की भूखी नहीं थी। उनके प्रेम की भूखी थी। और ईश्वर की साक्षी देकर कहती हूँ बेटी कि इस विषय में मेरे जैसा भाग्य बहुत कम स्त्रियों का होगा। मैं उनका प्रेमधन पाकर ही संतुष्ट हूँ। इसके सिवाय मुझे और किसी धन की इच्छा नहीं है। गुरुसेवक को मैंने गोद में खिलाया है, उसे पाला पोसा है। वह मेरे स्वामी का बेटा है। उसका हक मैं किस तरह छीन सकती हूँ। उसके सामने की थाली किस तरह खींच सकती हूँ। वह फाड़कर फेंक दी। वह कागज लिखकर उन्होंने अपने साथ और गुरुसेवक के साथ अन्याय किया है। गुरुसेवक अपने बाप का बेटा है, तो मुझे आदर से रखेगा। वह मुझे माने न माने, मैं उसे अपना ही समझती हूँ। तुम बैठी मेरा सिर दबा रही हो, क्या धन में इतना सुख मिल सकता है। गुरुसेवक के मुँह से अम्मा सुनकर मुझे वह खुशी होगी, जो संसार की रानी बनकर भी नहीं हो सकती। तुम उनसे इतना ही कह देना।’
यह कहते कहते लौंगी की आँखें सजल हो गई। मनोरमा उसकी ओर प्रेम, श्रद्धा, गर्व और आश्चर्य से ताक रही थी, मानो वह कोई देवी हो।
मनोरमा अध्याय 21
जगदीशपुर के ठाकुर द्वारे पर नित सादगी महात्मा आते रहते थे। शंखधर उनके पास जा बैठता और उनकी बातें बड़ी ध्यान से सुनता। उसके पास चक्रधर की तस्वीर थी, उससे मन ही मन साधुओं की तस्वीर का मिलान करता। परंतु उस सूरत का साधु उसे न दिखाई देता। किसी की भी बातचीत से चक्रधर की टोह न मिलती।
एक दिन मनोरमा के साथ शंखधर भी लौंगी के पास गया। लौंगी बड़ी देर तक अपनी तीर्थ यात्रा की चर्चा करती रही। शंखधर उसकी बात गौर से सुनने के बाद बोला – ‘क्यों दाई, तुम्हें तो साधु सन्यासी बहुत मिले होंगे।’
लौंगी ने कहा – ‘हाँ बेटा! मिले क्यों नहीं? एक साधु तो ऐसा मिला था कि हूबहू तुम्हारे बाबूजी से सूरत मिलती थी। बदले हुए भेष में ठीक से पहचान न सकी, लेकिन मुझे ऐसा मालूम होता था, मानो वहीं हैं।’
शंखधर ने बड़ी उत्सुकता से पूछा – ‘जटा बड़ी-बड़ी थी।’
लौंगी – ‘नहीं जटा-सटा तो नहीं थी, न ही वस्त्र गेरूये रंग के थे। हाँ, कमंडल अवश्य लिए हुए थे। जितने दिन मैं जगन्नाथ पुरी में रही, वह एक बार रोज़ मेरे पास आकर पूछ जाते – क्यों माताजी! आपको किसी बात का कष्ट तो नहीं है? और यात्रियों से भी वह यही बात पूछते थे।’
शंखधर बोला – ‘दाई! तुमने यहाँ तार क्यों न दिया। हम लोग फौरन पहुँच जाते।’
लौंगी – ‘अरे तो कोई बात भी तो हो बेटा। न जाने कौन था, कौन नहीं था। बिना जाने-बूझे कैसे तार दे देती।’
शंखधर – ‘मैं यदि उन्हें एक बार देख पाऊं, तो फिर कभी साथ ही न छोड़े। क्यों दाई, आजकल वे सन्यासीजी कहाँ होंगे?’
मनोरमा – ‘अब दाई यह क्या जाने? अब सन्यासी कहीं एक जगह रहते हैं, जो वह बता दें।’
शंखधर – ‘अच्छा दाई, तुम्हारे खयाल में सन्यासीजी की उम्र क्या रही होगी?’
लौंगी – ‘मैं समझती हूँ कि उनकी उम्र चालीस वर्ष की रही होगी।’
शंखधर ने कुछ हिसाब करके कहा – ‘रानी अम्मा! यही तो बाबूजी की भी उम्र होगी।’
मनोरमा ने बनावटी क्रोध से कहा – ‘हाँ हाँ! वही सन्यासी तुम्हारे बाबूजी हैं। बस, अब माना। अभी उम्र चालीस की कैसे हो जायेगी?’
शंखधर समझ गया कि मनोरमा को यह जिक्र बुरा लगता है। इस विषय मैं फिर मुख से एक शब्द न निकाला। लेकिन वहाँ रहना अब उसके लिए असंभव था। पुरी का हाल तो उसने भूगोल में पढ़ा था। लेकिन अब उस अल्पज्ञान से उसे संतोष न हो सकता था। वह जानना चाहता था कि पुरी कौन रेल जाती है। घर के पुस्तकालय में शायद कोई ऐसा ग्रंथ मिल जाए, यह सोचकर वह बाहर आया। शोफर से बोला – ‘मुझे घर पहुँचा दो।’
घर आकर पुस्तकालय में जा ही रहा था कि गुरुसेवक सिंह मिल गये।
शंखधर उन्हें देखते ही बोला – ‘गुरुजी! ज़रा कृपा करके मुझे पुस्तकालय से कोई ऐसी पुस्तक निकाल दीजिए, जिसमें तीर्थ स्थानों का पूरा-पूरा हाल लिखा हो।’
गुरुसेवक ने कहा – ‘ऐसी तो कोई किताब पुस्तकालय में नहीं है।’
शंखधर – ‘अच्छा तो मेरे लिए ऐसी कोई किताब मंगवा दीजिये।’
यह कह कर वह लौटा ही था कि कुछ सोचकर बाहर चला गया और एक मोटर तैयार करके शहर चला। अभी उसका तेरहवां ही साल था, लेकिन चरित्र में इतनी दृढ़ता थी कि जो बात मन में ठान लेता, उसे पूरा करके ही छोड़ता। शहर जाकर उसने अंग्रेजी पुस्तकों की कई दुकानों में तीर्थ यात्रा संबंधी पुस्तकें देखीं और किताबों का एक बंडल लेकर घर आया।
राजा साहब भोजन करने बैठे, तो शंखधर वहाँ न था। अहिल्या ने जाकर देखा तो वह अपने कमरे में बैठा कोई किताब देख रहा था।
अहिल्या ने कहा – ‘चलकर खाना खा लो। दादाजी बुला रहे हैं।’
शंखधर – ‘अम्मा जी! आज मुझे बिल्कुल भूख नहीं है।’
अहिल्या ने उसके सामने से खुली हुई किताब उठा ली और दो चार पंक्तियाँ पढ़कर बोली – ‘इसमें तो तीर्थों का हाल लिखा हुआ है – जगन्नाथ, बद्रीनाथ, काशी और रामेश्वर। यश किताब कहाँ से लाये?’
शंखधर – ‘आज ही तो बाजार से लाया हूँ। दाई कहती थी कि बाबूजी की सूरत का एक सन्यासी उन्हें जगन्नाथ में मिला था।’
अहिल्या ने शंखधर को दया सजल नेत्रों से देखा; पर उसके मुख से कोई बात न निकली। आह! मेरे लाल तुममें इतनी पितृ भक्ति क्यों है? तू पिता के वियोग में क्यों इतना पागल हो गया है? तुझे तो पिता की सूरत भी याद नहीं। तुझे तो इतना भी याद नहीं कि कब पिता की गोद में बैठा था, कब उनकी प्यार की बातें सुनी थी। फिर भी तुझे उन पर इतना प्रेम है? और वह इतने निर्दयी हैं। आँसुओं के वेग को दबाते हुए वह बोली – ‘बेटा तुम्हारा उठने का जी न चाहता हो, तो यहीं लाऊं।’
शंखधर – ‘अच्छा खा लूंगा माँ। किसी से खाना भिजवा दो, तुम क्यों लाओगी।’
अहिल्या एक क्षण में छोटी सी थाली में भोजन लेकर आयी और शंखधर के सामने रखकर बैठ गई।
शंखधर को इस समय खाने की रुचि न थी, यह बात नहीं थी। उसे अब तक निश्चिंत रूप से अपने पिता के विषय में कुछ मालूम न था। वह जानता था कि वह किसी दूसरी जगह आराम से होंगे। आज उसे यह मालूम हुआ कि वह सन्यासी हो गए हैं। अब वह राजसी भोजन कैसे करता? इसलिए उसने अहिल्या से कहा था कि भोजन किसी के हाथों भेज देना, तुम न आना। अब वह थाल देखकर वह बड़े धर्म संकट में पड़ा। अगर नहीं खाता, तो अहिल्या दुखी होती; अगर खाता, तो कौर मुँह में न जाता। उसे खयाल आया कि मैं यहाँ चांदी के थाल में मोहन भोग लगाने बैठा हूँ और बाबूजी पर न जाने उस समय क्या गुजर रही होगी। बेचारे किसी पेड़ के नीचे पड़े होंगे, न जाने कुछ खाया होगा या नहीं। वह थाली पर बैठा, लेकिन कौर उठाते ही फूट-फूट कर रोने लगा। अहिल्या उसके मन का भाव ताड़ गई और स्वयं रोने लगी। कौन किसे समझाता?
आज से अहिल्या को हरदम यही संशय रहने लगा कि शंखधर पिता की खोज में कहीं भाग न जाये। उसने सब को मना कर दिया कि शंखधर के सामने पिता की चर्चा न करें। कहीं शंखधर पिता के गृह त्याग का कारण न जान ले। कहीं वह यह ना जान जाए कि बाबूजी को राज पाठ से घृणा है। नहीं तो फिर इसे कौन रोकेगा।
उसे अब हरदम यही पछतावा होता रहता कि मैं शंखधर को लेकर स्वामी के साथ क्यों न चली गई। राज के लोभ में वह पति को पहले ही खो बैठी थी, कहीं पुत्र को भी तो न खो बैठेगी।
शंखधर का नाम स्कूल में लिख दिया गया है। स्कूल से छुट्टी पाकर वह सीधा लौंगी के पास जाता है और उसे तीर्थ यात्रा की बातें पूछता है। यात्री लोग ठहरते हैं, कहाँ खाते हैं; जहाँ रेलें नहीं हैं, वह लोग कैसे जाते हैं, चोर तो नहीं मिलते? लौंगी उसके मनोभाव को ताड़ती है। लेकिन इच्छा न होते हुए भी उसे सारी बातें बतानी पड़ती है। वह झुंझलाती है, घुड़क बैठती है, लेकिन जब वह किशोर आग्रह करके उसकी खोज में बैठ जाता है, तो उसे दया आ जाती है।
छुट्टियों के दिन शंखधर पितृ गृह के दर्शन करने अवश्य जाता है। वह घर उसके लिए तीर्थ है। निर्मला की आँखों से देखने से तृप्त ही नहीं होती। दादा और दादी दोनों उसके बालोत्साह से भरी बातें सुनकर मुग्ध हो जाते हैं। उनके हृदय पुलकित हो उठते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि चक्रधर स्वयं बाल्य रूप धरकर उनका मन हरने आ गया है।
एक दिन निर्मला ने कहा – ‘बेटा तुम यहीं आकर क्यों नहीं रहते? तुम चले जाते हो, तो घर काटने को दौड़ता है।’
शंखधर ने कुछ सोचकर गंभीर भाव से कहा – ‘अम्मा जी तो आती ही नहीं। वह क्यों कभी यहाँ नहीं आती दादी जी।’
निर्मला – ‘क्या जाने बेटा, मैं उसके मन की बात क्या जानू? तुम कभी कहते नहीं। आज कहना देखो क्या कहती है?’
शंखधर – ‘नहीं दादीजी! वह रोने लगेंगी। जब थोड़े दिन में मैं गद्दी पर बैठूंगा, तो यही मेरा राजभवन होगा। तभी अम्मा जी आयेंगी।’
जब वह चलने लगा, तो निर्मला द्वार पर खड़ी हो गई।
सहसा शंखधर ड्योढ़ी पर खड़ा हो गया और बोला – ‘दादी जी आपसे कुछ मांगना चाहता हूँ।’
निर्मला ने विस्मित होकर सजल नेत्रों से उसे देखा और गदगद होकर बोली – ‘क्या मांगते हो बेटा?’
शंखधर – ‘मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मेरी मनोकामना पूरी हो।’
निर्मला ने पोते को कंठ से लगाकर कहा – ‘भैया, मेरा तो रोंया-रोंया तुझे आशीर्वाद देता है। ईश्वर तुम्हारी मनोकामनायें पूरी करें।’
शंखधर घर पहुँचा, तो अहिल्या ने पूछा – ‘आज इतनी देर कहाँ लगाई बेटा? मैं कब से तुम्हारी राह देख रही हूँ।’
शंखधर – ‘अभी तो बहुत देर नहीं हुई अम्मसी। ज़रा दादी जी के पास चला गया था। उन्होंने तुम्हें आज एक संदेश भेजा है।’
अहिल्या – ‘क्या खबर है, सुनूं। कहीं तुम्हारे बाबूजी की कोई खबर तो नहीं मिली है।’
शंखधर – ‘नहीं बाबूजी की खबर नहीं मिली है। तुम कभी कभी वहाँ क्यों नहीं चली जाती।’
अहिल्या ने ऊपरी मन से हाँ तो कह दिया, लेकिन भाव से साफ़ मालूम होता था कि वह वहाँ जाना उचित नहीं समझती। शायद वह कह सकती, तो कहती – वहाँ से तो एक बार निकाल दी गई थी, अब कौन मुँह लेकर जाऊं? क्या अब मैं कोई दूसरी हो गई हूँ।
अहिल्या तश्तरी में मिठाईयाँ और मेवे लेकर आई और एक लौंडी से पानी लाने को कहकर बेटे से बोली – ‘वहाँ तो कुछ जलपान न किया होगा। खा लो। आज तुम इतने उदास क्यों हो?’
शंखधर ने तश्तरी की ओर बिना देखे ही कहा – ‘क्यों अम्मा जी! बाबूजी को हम लोगों की याद भी कभी आती होगी।’
अहिल्या ने सजल नेत्र होकर कहा – ‘क्या जाने बेटा, याद आती, तो काहे कोसो दूर बैठे रहते।’
शंखधर – ‘क्या वे बड़े निष्ठुर हैं अम्मा?’
अहिल्या रो रही थी। कुछ न बोल सकी। उसका कंठ स्वर अश्रुप्रवाह में समा जा रहा था।
शखधर ने फिर कहा – ‘मुझे तो मालूम होता है अम्मा जी कि वे बहुत निर्दयी हैं। इसी से उन्हें हम लोगों का दुख नहीं जान पड़ता। मेरा तो कभी-कभी ऐसा चित्त होता है कि देखूं तो प्रणाम तक न करूं। कह दूं, आप मेरे होते कौन हैं? आप ही ने हम लोगों को त्याग दिया है।’
अब अहिल्या चुप न रह सकी। कांपते हुए स्वर में बोली – ‘बेटा, उन्होंने हमें त्याग नहीं दिया है। वहाँ उनकी जो दशा हो रही होगी, उसे मैं ही जानती हूँ। हम लोगों की याद एक क्षण को भी उनके चित्त से न उतरती होगी। खाने पीने का ध्यान भी न रहता होगा। यह सब मेरा ही दोष है बेटा। उनका कोई दोष नहीं।’
शंखधर ने कुछ लज्जित होकर कहा – ‘अच्छा अम्मा जी, मुझे देखें, तो वह पहचान जायेंगे कि नहीं?’
अहिल्या – ‘तुम्हें, मैं तो जानती हूँ कि न पहचान सकेंगे। तब तक जरा सा बच्चा था। आज उनको गए दसवां साल है। भगवान करे, जहाँ रहें, कुशल से रहें। बदा होगा, तो कभी भेंट हो ही जायेगी।’
शंखधर अपनी ही धुन में मस्त था। उसने यह बातें सुनी ही नहीं। बोला – ‘लेकिन अम्मा जी! मैं तो उन्हें देखकर फौरन पहचान जाऊं। वह चाहे किसी वेश में हो, मैं पहचान लूंगा।’
अहिल्या – ‘नहीं बेटा, तुम भी उन्हें न पहचान सकोगे। तुमने उनकी तस्वीरें ही तो देखीं हैं। ये तस्वीरें बारह साल पहले की है। फिर उन्होंने केश भी बढ़ा लिये होंगे।’
शंखधर ने कुछ जवाब न दिया। बगीचे में जाकर दीवारों को देखता रहा, फिर अपने कमरें में आया और चुपचाप बैठकर कुछ सोचने लगा। वह यहाँ से भाग निकलने को विकल हो रहा था।
एकाएक उसे खयाल आया कि ऐसा न हो कि लोग मेरी तलाश में निकले, थाने में हुलिया लिखायें, खुद भी परेशान हों और मुझे भी परेशान करें। इसलिए उन्हें बता देना चाहिए कि मैं कहाँ और किस काम के लिए जा रहा हूँ। अगर किसी ने मुझे जबरदस्ती लाना चाहा, तो अच्छा न होगा। हमारी खुशी है, जब चाहेंगे आयेंगे; हमारा राज्य तो कोई नहीं उठा ले जायेगा। उसने एक कागज पर पत्र लिखा और अपने बिस्तर पर रख दिया।
आधी रात बीत चुकी थी। शंखधर एक कुत्ता पहने कमरे से निकला। बगल के कमरे में राजा साहब आराम कर रहे थे।
वह पिछवाड़े की तरफ बाग में गया और एक अमरूद के पेड़ पर चढ़कर बाहर की ओर कूद गया। अब उसके सिर पर तरीका मंडित नीला आकाश था, सामने विस्तृत मैदान और छाती में उल्लास और आशा से धड़कता हृदय। वह बड़ी तेजी से कदम बढ़ाता हुआ चला। कुछ नहीं मालूम कि किधर जा रहा है, तकदीर कहाँ लिए जाती है।
(अधूरी रचना)