सेवासदन (उपन्यास) (भाग-3) : मुंशी प्रेमचंद
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शहर की म्युनिसिपैलिटी में कुल अठारह सभासद थे। उनमें आठ मुसलमान थे और दस हिन्दू। सुशिक्षित मेंबरों की संख्या अधिक थी, इसलिए शर्माजी को विश्वास था कि म्युनिसिपैलिटी में वेश्याओं को नगर से बाहर निकाल देने का प्रस्ताव स्वीकृत हो जाएगा। वे सब सभासदों से मिल चुके थे और इस विषय में उनकी शंकाओं का समाधान कर चुके थे, लेकिन मेंबरों में कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिनकी ओर से घोर विरोध होने का भय था। ये लोग बड़े व्यापारी, धनवान और प्रभावशाली मनुष्य थे। इसलिए शर्माजी को यह भय भी था कि कहीं शेष मेंबर उनके दबाव में न आ जाएं। हिन्दुओं में विरोधी दल के नेता सेठ बलभद्रदास थे और मुसलमानों में हाजी हाशिम। जब तक विट्ठलदास इस आंदोलन के कर्त्ता-धर्त्ता थे, तब तक इन लोगों ने उसकी ओर कुछ ध्यान न दिया था, लेकिन जब से पद्मसिंह और म्युनिसिपैलिटी के अन्य कई मेंबर इस आंदोलन में सम्मिलित हो गए थे, तब से सेठजी और हाजी साहब के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। उन्हें मालूम हो गया था कि शीघ्र ही यह मंतव्य सभा में उपस्थित होगा, इसलिए दोनों महाशय अपने पक्ष को स्थिर करने में तत्पर हो रहे थे। पहले हाजी साहब ने मुसलमान मेंबरों को एकत्र किया। हाजी साहब का जनता पर बड़ा प्रभाव था और वह शहर के सदस्य मुसलमानों के नेता समझे जाते थे। शेष सात मेंबरों में मौलाना तेगअली एक इमामबाड़े के वली थे। मुंशी अबुलवफा इत्र और तेल के कारखाने के मालिक थे। बड़े-बड़े शहरों में उनकी दुकानें थीं। मुंशी अब्दुललतीफ एक बड़े जमींदार थे, लेकिन बहुधा शहर में रहते थे। कविता से प्रेम था और स्वयं अच्छे कवि थे। शाकिरबेग और शरीफहसन वकील थे। उनके सामाजिक सिद्धांत बहुत उन्नत थे। शैयद शफकतअली पेंशनर डिप्टी कलेक्टर थे और खां साहब शोहरतखां प्रसिद्ध हकीम थे। ये दोनों महाशय सभा-समाजों से प्रायः पृथक् ही रहते थे, किंतु उनमें उदारता और विचारशीलता की कमी न थी। दोनों धार्मिक प्रवृत्ति के मनुष्य थे। समाज में उनका बड़ा सम्मान था।
हाजी हाशिम बोले– बिरादराने वतन की यह नई चाल आप लोगों ने देखी? वल्लाह इनको सूझती खूब है, बगली घूंसे मारना कोई इनसे सीख ले। मैं तो इनकी रेशादवानियों से इतना बदजन हो गया हूं कि अगर इनकी नेकनीयती पर ईमान लाने में नजात भी होती हो, तो न लाऊं।
अबुलवफा ने फरमाया– मगर अब खुदा के फजल से हमको भी अपने नफे नुकसान का एहसास होने लगा। यह हमारी तादाद को घटाने की सरीह कोशिश है। तवायफें नब्बे फीसदी मुसलमान हैं, जो रोजे रखती हैं, इजादारी करती हैं, मौलूद और उर्स करती हैं। हमको उनके जाती फेलों से कोई बहस नहीं है। नेक व बद की सजा व जजा देना खुदा का काम है। हमको तो सिर्फ उनकी तादाद से गरज है।
तेगअली– मगर उनकी तादाद क्या इतनी ज्यादा है कि उससे हमारे मजमुई वोट पर कोई असर पड़ सकता है?
अबुलवफा– कुछ-न-कुछ तो जरूर पड़ेगा, ख्वाह वह कम हो या ज्यादा। बिरादराने वतन को दोखिए, वह डोमड़ों तक को मिलाने की कोशिश करते हैं, उनके साए से परहेज करते हैं, उन्हें जानवरों से भी ज्यादा जलील समझते हैं, मगर महज अपने पोलिटिकल मफाद के लिए उन्हें अपने कौमी जिस्म का एक अजो बनाए हुए हैं। डोमड़ों का शुमार जरायम पेशा अकवाम में है। आलिहाजा, पासी, भर वगैरह भी इसी जेल में आते हैं। सरका, कत्ल, राहजनी, यह उनके पेशे हैं। मगर जब उन्हें हिन्दू जमाअत से अलहदा करने की कोशिश की जाती है, तो बिरादराने वतन कैसे चिरागपा होते हैं। वेद और शासतर की सनदें नकल करते फिरते हैं। हमको इस मुआमिले में उन्हीं से सबक लेना चाहिए।
सैयद शफकतअली ने विचारपूर्ण भाव से कहा– इस जरायमपेशा अकवाम के लिए गवर्नमेंट ने शहरों में खित्ते अलेहदा कर दिए। उन पर पुलिस की निगरानी रहती है। मैं खुद अपने दौराने मुलाजिमत में उनकी नकल और हरकत की रिपोर्ट लिखा करता था। मगर मेरे ख्याल में किसी जिम्मेदार हिंदू ने गवर्नमेंट के इस तर्जे-अमल की मुखालिफत नहीं की। हालांकि मेरी निगाह में सरका, कत्ल वगैरह इतने मकरूह फेल नहीं हैं, जितनी असमतफरोशी। डोमनी भी जब असमतफरोशी करती है, तो वह अपनी बिरादरी से खारिज कर दी जाती है। अगर किसी डोम या भर के पास काफी दौलत हो, तो इस हुस्न के खुले हुए बाजार में मनमाना सौदा खरीद सकता है। खुदा वह दिन न लाए कि हम अपने पोलिटिकल मफाद के लिए इस हद तक जलील होने पर मजबूर हों। अगर इन तवायफों की दीनदारी के तुफैल में सारे इस्लाम को खुदा जन्नत अता करे, तो मैं दोजख में जाना पसंद करूंगा। अगर उनकी तादाद की बिना पर हमको इस मुल्क की बादशाही भी मिलती हो, तो मैं कबूल न करूं। मेरी राय तो यह है कि इन्हें मरकज शहर ही से नहीं, हदूद शहर से खारिज कर देना चाहिए।
हकीम शोहरत खां बोले– जनाब, मेरा बस चले तो मैं इन्हें हिंदुस्तान से निकाल दूं, इनसे एक जजीरा अलग आबाद करूं। मुझे इस बाजार के खरीदारी से अक्सर साबिका रहता है। अगर मेरी मजहबी अकायद में फर्क न आए, तो मैं यह कहूंगा कि तवायफें हैजे और ताऊन का औतार हैं। हैजा दो घंटे में काम तमाम कर देता है, प्लेग दो दिन में, लेकिन यह जहन्नुमी हस्तियां रुला-रुलाकर और घुला-घुलाकर जान मारती हैं। मुंशी अबुलवफा साहब उन्हें जन्नती हूर समझते हों, लेकिन वे ये काली नागिनें हैं, जिनकी आखों में जहर है। वे ये चश्में हैं, जहां से जरायम के सोते निकलते हैं। कितनी ही नेक बीबियां उनकी बदौलत खून के आंसू रो रही हैं। कितने ही शरीफजादे उनकी बदौलत खस्ता व ख्वार हो रहे हैं। यह हमारी बदकिस्मती है कि बेशतर तवायफें अपने को मुसलमान कहती हैं।
शरीफ हसन बोले– इसमें तो कोई बुराई नहीं कि वह अपने को मुसलमान कहती हैं। बुराई यह है कि उन्हें राहे-रास्ते पर लाने की कोई कोशिश नहीं करता। हिंदुओं की देखा-देखी इस्लाम ने भी उन्हें अपने दायरे से खारिज कर दिया है। जो औरत एक बार किसी वजह से गुमराह हो गई, उसकी तरफ से इस्लाम हमेशा के लिए अपनी आंखें बंद कर लेता है। बेशक हमारी मौलाना साहब सब्ज इमामा बांधे, आंखों में सुरमा लगाए, गेसू संवारे, उनकी मजहबी तस्कीन के लिए जा पहुंचते हैं, उनके दस्तरख्वान से मीठे लुकमें खाते हैं, खुशबूदार खमीरे की कश लगाते हैं और उनके खसदान से मुअत्तर बीड़े उड़ाते हैं। बस, इस्लाम की मजहबी कूबते इस्लाम यहीं तक खत्म हो जाती है। अपने बुरे फैलों पर नादिम होना इंसानी खासा है। ये गुमराह औरतें पेशतर नहीं, तो शराब का नशा उतरने के बाद जरूर अपनी हालत पर अफसोस करती हैं, लेकिन उस वक्त उनका पछताना बेसूद होता है। उनके गुजरानी की इसके सिवा और कोई सूरत नहीं रहती कि वे अपनी लड़कियों को दूसरे को दामे-मुहब्बत में फंसाएं और इस तरह यह सिलसिला हमेशा जारी रहता है। अगर उन लड़कियों की जायज तौर पर शादी हो सके और उसके साथ ही उनकी परवरिश की सूरत भी निकल आए तो मेरे ख्याल से ज्यादा नहीं तो पचहत्तर फीसदी तवायफें इसे खुशी से कबूल कर लें। हम चाहे खुद गुनहगार हों, पर अपनी औलाद को हम नेक और रास्तबाज देखने की तमन्ना रखते हैं। तवायफों को शहर से खारिज कर देने से उनकी इस्लाह नहीं हो सकती। इस ख्याल को सामने रखकर तो मैं इस इखराज की तहरीक पर एतराज करने की जुरअत कर सकता हूं। पर पोलिटिकिल मफाद की बिना पर मैं उसकी मुखालिफत नहीं कर सकता। मैं किसी फैल को कौमी ख्याल से पसंदीदा नहीं समझता जो इखलाकी तौर पर पसंदीदा न हो।
तेगअली– बंदानवाज, संभलकर बातें कीजिए। ऐसा न हो कि आप पर कुफ्र का फतवा सादिर हो जाए। आजकल। पोलिटिकल मफाद का जोर है, हक और इंसाफ का नाम न लीजिए। अगर आप मुदर्रिस हैं, तो हिंदू लड़कों को फेल कीजिए। तहसीलदार हैं, तो हिंदुओं पर टैक्स लगाइए, मजिस्ट्रेट हैं, तो हिंदुओं को सजाएं दीजिए। सबइंस्पेक्टर पुलिस हैं तो हिंदुओं पर झूठे मुकदमे दायर कीजिए, तहकीकात करने जाइए, तो हिंदुओं के बयान गलत लिखिए। अगर आप चोर हैं, तो किसी हिंदू के घर में डाका डालिए, अगर आपको हुस्न या इश्क का खब्त है, तो किसी हिंदू नाजनीन को उड़ाइए, तब आप कौम के खादिम, कौम के मुहकिन, कौमी किश्ती के नाखुदा– सब कुछ हैं।
हाजी हाशिम बुड़बुड़ाए, मुंशी अबुलवफा के तेवरों पर बल पड़ गए। तेगअली की तलवार ने उन्हें घायल कर दिया। अबुलवफा कुछ कहना ही चाहते थे कि शाकिर बेग बोल उठे– भाई साहब, यह तान-तंज का मौका नहीं। हम अपने घर में बैठे हुए एक अमल के बारे में दोस्ताना मशविरा कर रहे हैं। जबाने तेज मसलहत के हक में जहरे कातिल है। मैं शाहिदान तन्नाज को निजाम तमद्दुन में बिल्कुल बेकार या मायए शर नहीं समझता। आप जब कोई मकान तामीर करते हैं, तो उसमें बदरौर बनना जरूरी खयाल करते हैं। अगर बदरौर न हो तो चंद दिनों में दीवारों की बुनियादें हिल जाएं। इस फिरके को सोसाइटी का बदरौर समझना चाहिए और जिस तरह बदरौर मकान के नुमाया हिस्से में नहीं होती, बल्कि निगाह से पोशीदा एक गोशे में बनाई जाती है, उसी तरह इस फिरके को शहर के पुरफिजा मुकामात से हटाकर किसी गोशे में आबाद करना चाहिए।
मुंशी अबुलवफा पहले के वाक्य सुनकर खुश हो गए थे, पर नाली की उपमा पर उनका मुंह लटक गया। हाजी हाशिम ने नैराश्य से अब्दुललतीफ की ओर देखा जो अब तक चुपचाप बैठे हुए थे और बोले– जनाब, कुछ आप भी फर्माते हैं? दोस्ती के बहाव में आप भी तो नहीं बह गए?
अब्दुललतीफ बोले– जनाब, बंदा को न इत्तहाद से दोस्ती, न मुखालफत से दुश्मनी। अपना मुशरिब तो सुलहेकुल है। मैं अभी यही तय नहीं कर सका कि आलमो बेदारी में हूं या ख्वाब में। बड़े-बड़े आलिमों को एक बे-सिर-पैर की बात की ताईद में जमीं और आसमान के कुलाबे मिलाते देखता हूं। क्योंकर बावर करूं कि बेदार हूं? साबुन, चमड़े और मिट्टी के तेल की दुकानों से आपको कोई शिकायत नहीं। कपड़े, बरतन आदवियात की दुकानें चौंक में हैं, आप उनको मुतलक बेमौका नहीं समझते! क्या आपकी निगाहों में हुस्न की इतनी भी वकअत नहीं? और क्या यह जरूरी है कि इसे किसी तंग तारीक कूचे में बंद कर दिया जाए! क्या वह बाग, बाग कहलाने का मुस्तहक है, जहां सरों की कतारें एक गोशे में हों, बेले और गुलाब के तख्ते दूसरे गोशे में और रविशों के दोनों तरफ नीम और कटहल के दरख्त हों, वस्त में पीपल का ठूंठ और किनारे बबूल की कलमें हों? चील और कौए दोनों तरफ तख्तों पर बैठे अपना राग अलापते हों, और बुलबुलें किसी गोश-ए-तारीक में दर्द के तराने गाती हों? मैं इस तहरीक की सख्त मुखालिफत करता हूं। मैं उसे इस काबिल भी नहीं समझता कि उस पर मतानत के साथ बहस की जाए।
हाजी हाशिम मुस्कुराए, अबुलवफा की आंखें खुशी से चमकने लगीं। अन्य महाशयों ने दार्शनिक मुस्कान के साथ यह हास्यपूर्ण वक्तृता सुनी, पर तेगअली इतने सहनशील न थे। तीव्र भाव से बोले– क्यों गरीब-परवर, अब की बोर्ड में यह तजवीज क्यों न पेश की जाए कि म्युनिसिपैलिटी ऐन चौक में खास एहतमाम के साथ मीनाबाजार आरास्ता करे और जो हजरत इस बाजार की सैर को तशरीफ ले जाएं, उन्हें गवर्नमेंट की जानिब से खुश नूदी मिजाज का परवाना अदा किया जाए? मेरे खयाल से इस तजवीज की ताईद करने वाले बहुत निकल आएंगे और इस तजवीज के मुहर्रिर का नाम हमेशा के लिए जिंदा हो जाएगा। उसकी वफात के बाद उसके मजार पर उर्स होंगे और वह अपने गोश-ए-लहद में पड़ा हुआ हुस्न की बहार लूटेगा और दलपजीर नगमे सुनेगा।
मुंशी अब्दुललतीफ का मुंह लाल हो गया। हाजी हाशिम ने देखा कि बात बढ़ी जाती है, तो बोले– मैं अब तक सुना करता था कि उसूल भी कोई चीज है, मगर आज मालूम हुआ कि वह महज एक वहम है। अभी बहुत दिन नहीं हुए कि आप ही लोग इस्लामी बजाएफ का डेपुटेशन लेकर गए थे, मुसलमान कैदियों के मजहबी तस्कीन की तजवीजें कर रहे थे और अगर मेरा हाफिजा गलती नहीं करता, तो आप ही लोग उन मौकों पर पेश नजर आते थे। मगर आज एकाएक इंकलाब नजर आता है। खैर, आपका तलब्वुन आपको मुबारक रहे। बंदा इतना सहलयकीन नहीं है। मैंने जिंदगी का यह उसूल बना लिया है कि बिरादराने वतन की हर एक तजवीज की मुखालिफत करूंगा, क्योंकि मुझे उससे किसी बेहबूदी की तबक्को नहीं है।
अबुलवफा ने कहा– आलिहाजा, मुझे रात को आफताब का यकीन हो सकता है, पर हिंदुओं की नेकनीयत पर यकीन नहीं हो सकता।
सैयद शफकत अली बोले– हाजी साहब, आपने हम लोगों को जमाना-साज और बेउसूल समझने में मतानत से काम नहीं लिया। हमारा उसूल जो तब था वह अब भी है और हमेशा रहेगा और वह है इस्लामी बकार को कायम करना और हर एक जायज तरीके से बिरादराने मिल्लत की बेहबूदी की कोशिश करना। अगर हमारे फायदे में बिरादराने वतन का नुकसान हो, तो हमको इसकी परवाह नहीं। मगर जिस तजवीज से उनके साथ हमको भी फायदा पहुंचता है और उनसे किसी तरह कम नहीं, उसकी मुखालिफत करना हमारे इमकान से बाहर है। हम मुखालिफत के लिए मुखालिफत नहीं कर सकते।
रात अधिक जा चुकी थी। सभा समाप्त हो गई। इस वार्तालाप का कोई विशेष फल न निकला। लोग मन में जो पक्ष स्थिर करके घर से आए थे, उसी पक्ष पर डटे रहे। हाजी हाशिम को अपनी विजय का जो पूर्ण विश्वास था, उसमें संदेह पड़ गया।
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इस प्रस्ताव के विरोध में हिंदू मेंबरों को जब मुसलमानों के जलसे का हाल मालूम हुआ तो उनके कान खड़े हुए। उन्हें मुसलमानों से जो आशा थी, वह भंग हो गई। कुल दस हिंदू थे। सेठ बलभद्रदास चेयरमैन थे। डॉक्टर श्यामाचरण वाइस-चेयरमैन। लाला चिम्मनलाल और दीनानाथ तिवारी व्यापारियों के नेता थे। पद्मसिंह और रुस्तमभाई वकील थे। रेशमदत्त कॉलेज के अध्यापक, लाला भगतराम ठेकेदार, प्रभाकर राव हिन्दी पत्र ‘जगत’ के संपादक और कुंवर अनिरुद्ध बहादुरसिंह जिले के सबसे बड़े जमींदार थे। चौक की दुकानों में अधिकांश बलभद्रदास और चिम्मनलाल की थीं। दालमंडी में दीनानाथ के कितने ही मकान थे। ये तीनों महाशय इस प्रस्ताव के विपक्षी थे। लाला भगतराम का काम चिम्मनलाल की आर्थिक सहायता से चलता था। इसलिए उनकी सम्मति भी उन्हीं की ओर थी। प्रभाकर राव, रेशमदत्त, रुस्तभाई और पद्मसिंह इस प्रस्ताव के पक्ष में थे। डॉक्टर श्यामाचरण और कुंवर साहब के विषय में अभी तक कुछ निश्चय नहीं हो सका था। दोनों पक्ष उनसे सहायता की आशा रखते थे। उन्हीं पर दोनों पक्षों की हार-जीत निर्भर थी। पद्मसिंह अभी बारात से नहीं लौटे थे। सेठ बलभद्रदास ने इस अवसर को अपने पक्ष के समर्थन के लिए उपयुक्त समझा और सब हिंदू मेंबरों को अपनी सुसज्जित बारहदरी में निमंत्रित किया। इसका मुख्य उद्देश्य यह था कि डॉक्टर साहब और कुंवर महोदय की सहानुभूति अपने पक्ष में कर लें। प्रभाकर राव मुसलमानों के कट्टर विरोधी थे। वे लोग इस प्रस्ताव को हिंदू-मुस्लिम विवाद का रंग देकर प्रभाकर राव को अपनी तरफ खींचना चाहते थे।
दीनानाथ तिवारी बोले– हमारे मुसलमान भाइयों ने तो इस विषय में बड़ी उदारता दिखाई, पर इसमें एक गूढ़ रहस्य है। उन्होंने ‘एक पंथ दो काज’ वाली चाल चली है। एक ओर तो समाज-सुधार की नेकनामी हाथ आती है, दूसरी ओर हिंदुओं को हानि पहुंचाने का एक बहाना मिलता है। ऐसे अवसर से वे कब चूकने वाले थे?
चिम्मनलाल– मुझे पालिटिक्स से कोई वास्ता नहीं है और न मैं इसके निकट जाता हूं। लेकिन मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि हमारे मुस्लिम भाइयों ने हमारी गर्दन बुरी तरह पकड़ी है। दालमंडी और चौक के अधिकांश मकान हिंदुओं के हैं। यदि बोर्ड ने यह स्वीकार कर लिया, तो हिंदुओं का मटियामेट हो जाएगा। छिपे-छिपे चोट करना कोई मुसलमानों से सीखे। अभी बहुत दिन नहीं बीते कि सूद की आड़ में हिंदुओं पर आक्रमण किया गया था। अब वह चाल पट पड़ गई, तो यह नया उपाय सोचा। खेद है कि हमारे कुछ हिंदू भाई उनके हाथों की कठपुतली बने हुए हैं। वे नहीं जानते कि अपने दुरुत्साह से अपनी जाति को कितनी हानि पहुंचा रहे हैं।
स्थानीय कौंसिल में जब सूद का प्रस्ताव उपस्थित था, तो प्रभाकर राव ने उसका घोर विरोध किया था। चिम्मनलाल ने उसका उल्लेख करके और वर्तमान विषय को आर्थिक दृष्टिकोण से दिखाकर प्रभाकर राव को नियम विरुद्ध करने की चेष्टा की। प्रभाकर राव ने विवश नेत्रों से रुस्तमभाई की ओर देखा मानो उनसे कह रहे थे कि मुझे ये लोग ब्रह्मफांस में डाल रहे हैं, आप किसी तरह मेरा उद्धार कीजिए। रुस्तमभाई बड़े निर्भीक, स्पष्टवादी पुरुष थे। वे चिम्मनलाल का उत्तर देने के लिए खड़े हो गए और बोले– मुझे यह देखकर शोक हो रहा है कि आपलोग एक सामाजिक प्रश्न को हिंदू-मुसलमानों के विवाद का स्वरूप दे रहे हैं। सूद के प्रश्न को भी यही रंग देने की चेष्टा की गई थी। ऐसे राष्ट्रीय विषयों को विवादग्रस्त बनाने से कुछ हिंदू साहूकारों का भला हो जाता है, किंतु इसमें राष्ट्रीयता को जो चोट लगती है, उसका अनुमान करना कठिन है। इसमें संदेह नहीं कि इस प्रस्ताव के स्वीकृत होने से हिंदू साहूकारों को अधिक हानि पहुंचेगी, लेकिन मुसलमानों पर भी इसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा। चौक और दालमंडी में मुसलमानों की दुकानें कम नहीं हैं। हमको प्रतिवाद या विरोध की धुन में अपने मुसलमान भाइयों की नीयत की सचाई पर संदेह न करना चाहिए। उन्होंने इस विषय पर जो कुछ निश्चय किया, वह सार्वजनिक उपकार के विचार से किया है; अगर हिंदुओं की इससे अधिक हानि हो रही है, तो यह दूसरी बात है। मुझे विश्वास है कि मुसलमानों की इससे अधिक हानि होती, तब भी उनका यही फैसला होता। अगर आप सच्चे हृदय से मानते हैं कि यह प्रस्ताव एक सामाजिक कुप्रथा के सुधार के लिए उठाया है, तो आपको उसे स्वीकार करने में कोई बाधा न होनी चाहिए, चाहे धन की कितनी ही हानि हो। आचरण के सामने धन का कोई महत्त्व न होना चाहिए।
प्रभाकर राव को धैर्य हुआ। बोला– बस, यही मैं कहने वाला था। अगर थोड़ी-सी आर्थिक हानि से एक कुप्रथा का सुधार हो रहा है, तो वह हानि प्रसन्नता से उठा लेनी चाहिए। आपलोग जानते हैं कि हमारी गवर्नमेंट को चीन से अफीम का व्यापार करने में कितना लाभ था। अठारह करोड़ से कुछ अधिक ही हो। पर चीन में अफीम खाने की कुप्रथा मिटाने के लिए सरकार ने इतनी भीषण हानि उठाने में जरा भी आगा-पीछा नहीं किया।
कुंवर अनिरुद्धसिंह ने प्रभाकर राव की ओर देखते हुए पूछा– महाशय,आप तो अपनी पत्रिका के संपादन में लीन रहते हैं, आपके पास जीवन के आनंद-लाभ के लिए समय ही कहां है? पर हम जैसे बेफ्रिकों को तो दिल बहलाव का कोई सामान चाहिए? संध्या का समय तो पोलो खेलने में कट जाता है, दोपहर का समय सोने में और प्रातःकाल अफसरों से भेंट-भांट करने या घोड़े दौड़ाने में व्यतीत हो जाता है। लेकिन संध्या से दस बजे रात तक बैठे-बैठे क्या करेंगे? आप आज यह प्रस्ताव लाए हैं कि वेश्याओं को शहर से निकाल दो, कल को आप कहेंगे कि म्युनिसिपैलिटी के अंदर कोई आज्ञा लिए बिना नाच, गाना, मुजरा न कराने पाए, तो फिर हमारा रहना कठिन हो जाएगा।
प्रभाकर राव मुस्कुराकर बोले– क्या पोलो और नाच-गाने के सिवा समय काटने का और कोई उपाय नहीं है? कुछ पढ़ा कीजिए।
कुंवर– पढ़ना हमलोगों को मना है। हमको किताब के कीड़े बनने की जरूरत नहीं। अपने जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए जिन बातों की जरूरत है, उनकी शिक्षा हमको मिल चुकी है। हम फ्रांस और स्पेन का नाच जानते हैं, आपने उनका नाम भी न सुना होगा। प्यानो पर बैठा दीजिए, वह राग अलापूं कि मोजार्ट लज्जित हो जाए।
अंग्रेजी रीति-व्यवहार का हमको पूर्ण ज्ञान है। हम जानते हैं कि कौन-सा समय सोला हैट लगाने का है, कौन-सा पगड़ी का। हम किताबें भी पढ़ते हैं। आप हमारे कमरे में कई-कई आल्मारियां पुस्तकों से सजी हुई देखेंगे, मगर उन किताबों में चिमटते नहीं। आपके इस प्रस्ताव से हम तो मर मिटेंगे।
कुंवर साहब की हास्य और व्यंग्य से भरी बातों ने दोनों पक्षों का समाधान कर दिया।
डॉक्टर श्यामाचरण ने कुंवर साहब की ओर देखकर कहा– मैं इस विषय में कौंसिल में प्रश्न करने वाला हूं। जब तक गवर्नमेंट उसका उत्तर दे, मैं अपना कोई विचार प्रकट नहीं करता।
यह कहकर डॉक्टर महोदय ने अपने प्रश्नों को पढ़कर सुनाया।
रेशमदत्त ने कहा– इन प्रश्नों को कदाचित् गवर्नमेंट कुछ उत्तर न देगी।
डॉक्टर– उत्तर मिले या न मिले, प्रश्न तो हो जाएंगे। इसके सिवा और हम कर ही क्या सकते हैं?
सेठ बलभद्रदास को विश्वास हो गया कि अब अवश्य हमारी विजय होगी। डॉक्टर साहब को छोड़कर सत्रह सम्मतियों में नौ उनके पक्ष में थीं। इसलिए अब वह निरपेक्ष रह सकते थे, जो सभापति का धर्म है। उन्होंने सारगर्भित वक्तृता देते हुए इस प्रस्ताव की मीमांसा की। उन्होंने कहा-सामाजिक विप्लव पर मेरा विश्वास नहीं है। मेरा विचार है कि समाज को जिस सुधार की आवश्यकता होती है, वह स्वयं कर लिया करता है। विदेश-यात्रा, जाति-पांति के भेद, खान-पान के निरर्थक बंधन सब-के-सब समय के प्रवाह के सामने सिर झुकाते चले जाते हैं। इस विषय में समाज को स्वच्छंद रखना चाहता हूं। जिस समय जनता एक स्वर से कहेगी कि हम वेश्याओं को चौक में नहीं देखना चाहते, तो संसार में ऐसी कौन-सी शक्ति है, जो उसकी बात को अनसुनी कर सके?
अंत में सेठजी ने बड़े भावपूर्ण स्वर में ये शब्द कहे– हमको अपने संगीत पर गर्व है। जो लोग इटली और फ्रांस के संगीत से परिचित हैं, वे भी भारतीय गान के भाव, रस और आनंदमय शांति के कायल हैं, किंतु काल की गति! वही संस्था जिसकी जड़ खोदने पर हमारे कुछ सुधारक तुले हुए हैं, इस पवित्र– इस स्वर्गीय धन की अध्यक्षिणी बनी हुई है। क्या आप इस संस्था का सर्वनाश करके अपने पूर्वजों के अमूल्य धन को इस निर्दयता से धूल में मिला देंगे? क्या आप जानते थे कि हममें आज जो जातीय और धार्मिक भाव शेष रह गए हैं, उनका श्रेय हमारे संगीत को है, नहीं तो आज राम, कृष्ण और शिव का कोई नाम भी न जानता! हमारे बड़े-से-बड़े शत्रु भी हमारे हृदय से जातीयता का भाव मिटाने के लिए इससे अच्छी और कोई चाल नहीं सोच सकता। मैं यह नहीं कहता कि वेश्याओं से समाज को हानि नहीं पहुंचती। कोई भी समझदार आदमी ऐसा कहने का साहस नहीं कर सकता। लेकिन रोग का निवारण मौन से नहीं, दवा से होता है। कोई कुप्रथा उपेक्षा या निर्दयता से नहीं मिटती। उसका नाश शिक्षा, ज्ञान और दया से होता है। स्वर्ग में पहुंचने के लिए कोई सीधा रास्ता नहीं है। वैतरणी का सामना अवश्य करना पड़ेगा। जो लोग समझते हैं कि वह किसी महात्मा के आशीर्वाद से कूदकर स्वर्ग में जा बैठेंगे, वह उनसे अधिक हास्यास्पद नहीं है, जो समझते हैं कि चौक से वेश्याओं को निकाल देने से भारत के सब दुःख-दारिद्रय मिट जाएंगे और चौक से नवीन सूर्य का उदय हो जाएगा।
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जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारने की आवाज सुनकर जाग जाता है, किंतु इधर-उधर देखकर फिर निद्रा में मग्न हो जाता है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध और ग्लानि का आवेश शांत होने पर अपने कर्त्तव्य को भूल गए। उन्होंने सोचा, मेरे यहां रहने से उमानाथ पर कौन– सा बोझ पड़ रहा है। आधा सेर आटा ही तो खाता हूं या और कुछ। लेकिन उसी दिन से उन्होंने नीच आदमियों के साथ बैठकर चरस पीना छोड़ दिया। इतनी सी बात के लिए चारों ओर मारे-मारे फिरना उन्हें अनुपयुक्त मालूम हुआ। अब वह प्रायः बरामदे ही में बैठे रहते और सामने से आने-जाने वाली रमणियों को घूरते। वह प्रत्येक विषय में उमानाथ की हां-में-हां मिलाते। भोजन करते समय सामने जितना आ जाता खा लेते, इच्छा रहने पर भी कभी कुछ न मांगते। वे उमानाथ से कितनी ही बातें ठकुरसुहाती के लिए करते। उनकी आत्मा निर्बल हो गई थी।
उमानाथ शान्ता के विवाह के संबंध में जब उनसे कुछ कहते, तो वह बड़े सरल भाव से उत्तर देते– भाई, तुम चाहो जो करो, इसके तुम्हीं मालिक हो। वह अपने मन को समझाते, जब रुपए इनके लग रहे हैं, तो सब काम इन्हीं के इच्छानुसार होने चाहिए।
लेकिन उमानाथ अपने बहनोई की कठोर बातें न भूले। छाले पर मक्खन लगाने से एक क्षण के लिए कष्ट कम हो जाता है, किंतु फिर ताप की वेदना होने लगती है। कृष्णचन्द्र की आत्मग्लानि से भरी हुई बातें उमानाथ को शीघ्र भूल गईं और उनके कृतघ्न शब्द कानों में गूंजने लगे। जब वह सोने गए तो जाह्नवी ने पूछा– आज लालाजी (कृष्णचन्द्र) तुमसे क्यों बिगड़ रहे थे?
उमानाथ ने अन्याय-पीड़ित नेत्रों से कहा– मेरा यश गा रहे थे। कह रहे थे, तुमने मुझे लूट लिया, मेरी स्त्री को मार डाला, मेरी एक लड़की को कुएं में डाल दिया, दूसरी को दुख दे रहे हो।
‘तो तुम्हारे मुंह में जीभ न थी? कहा होता, क्या मैं किसी को नेवता देने गया था? कहीं तो ठिकाना न था, दरवाजे-दरवाजे ठोकरें खाती फिरती थीं। बकरा जी से गया, खाने वाले को स्वाद ही न मिला। यहां लाज ढोते-ढोते मर मिटे, उसका यह फल।
इतने दिन थानेदारी की, लेकिन गंगाजली ने कभी भूलकर भी एक डिबिया सेंदूर न भेजा। मेरे सामने कहा होता, तो ऐसी-ऐसी सुनाती कि दांत खट्टे हो जाते, दो-दो पहाड़-सी लड़कियां गले पर सवार कर दीं, उस पर बोलने को मरते हैं। इनके पीछे फकीर हो गए, उसका यश यह है? अब से अपना पौरा लेकर क्यों नहीं कहीं जाते? काहे को पैर में मेंहदी लगाए बैठे हैं।’
‘अब तो जाने को कहते हैं। सुमन का पता भी पूछा था।’
‘तो क्या अब बेटी के सिर पड़ेंगे? वाह रे बेहया!’
‘नहीं, ऐसा क्या करेंगे। शायद दो-एक दिन वहां ठहरें।’
‘कहां की बात, इनसे अब कुछ न होगा। इनकी आंखों का पानी मर गया, जाके उसी के सिर पड़ेंगे, मगर देख लेना, वहां एक दिन भी निबाह न होगा।’
अब तक उमानाथ ने सुमन के आत्मपतन की बात जाह्नवी से छिपाई थी। वह जानते थे कि स्त्रियों के पेट में बात नहीं पचती। यह किसी-न-किसी से अवश्य ही कह देंगी और बात फैल जाएगी। जब जाह्नवी के स्नेह व्यवहार से वह प्रसन्न होते, तो उन्हें उसने सुमन की कथा कहने की बड़ी तीव्र आकांक्षा होती। हृदयसागर में तरंगें उठने लगतीं, लेकिन परिणाम को सोचकर रुक जाते थे। आज कृष्णचन्द्र की कृतघ्नता और जाह्नवी की स्नेहपूर्ण बातों ने उमानाथ को निःशंक कर दिया, पेट में बात न रुक सकी। जैसे किसी नाली में रुकी हुई वस्तु भीतर से पानी का बहाव पाकर बाहर निकल पड़े। उन्होंने जाह्नवी को सारी कथा बयान कर दी। जब रात को उनकी नींद खुली तो उन्हें अपनी भूल दिखाई दी, पर तीर कमान से निकल चुका था। जाह्नवी ने अपने पति को वचन दिया तो था कि यह बात किसी से न कहूंगी, पर अपने हृदय पर एक बोझ-सा रखा मालूम होता था। उसका किसी काम में मन न लगता था। वह उमानाथ पर झुंझलाती थी कि कहां से उन्होंने मुझसे यह बात कही। उसे सुमन से घृणा न थी, क्रोध न था, केवल एक कौतूहलजनक बात कहने की, मानव-हृदय की मीमांसा करने की सामग्री मिलती थी। स्त्री-शिक्षा के विरोध में कैसा अच्छा प्रमाण हाथ में आ गया। जाह्नवी इस आनंद से अपने को बहुत दिनों तक वंचित न रख सकी। यह असंभव था। यह उन दो-एक साध्वी स्त्रियों के साथ विश्वासघात था, जो अपने घर का रत्ती-रत्ती समाचार उससे कह दिया करती थीं। इसके अतिरिक्त यह जानने की उत्सुकता भी कुछ कम न थी कि अन्य स्त्रियां इस विषय की कैसी अलोचना करती हैं। जाह्नवी कई दिनों तक अपने मन को रोकती रही। एक दिन कुबेर पंडित की पत्नी सुभागी ने आकर जाह्नवी से कहा– जीजी, आज एकादशी है, गंगा नहाने चलोगी।
सुभागी का जाह्नवी से बहुत मेल था। जाह्नवी बोली– चलती तो, पर यहां तो द्वार पर यमदूत बैठा है, उसके मारे कहीं हिलने पाती हूं?
सुभागी– बहन, इनकी बातें तुमसे क्या कहूं, लाज आती है। मेरे घर वाले सुन लें, तो सिर काटने पर उतारू हो जाएं। कल मेरी बड़ी लड़की को सुना-सुनाकर न जाने कौन कवित्त पढ़ रहे थे। आज सबेरे मैंने दोनों को कुएं पर हंसते देखा। बहन, तुमसे कौन पर्दा है? कोई बात हो जाएगी तो सारी बिरादरी की नाक कटेगी? यह बूढ़े हुए, इन्हें ऐसा चाहिए? मेरी लड़की सुमन से दो-एक साल बड़ी होगी और क्या? भला साली होती, तो एक बात थी। वह तो उनकी भी बेटी ही होती है। इनको इतना भी विचार नहीं है। कहीं पंडित सुन लें, तो खून-खराबी हो जाए। तुमसे कहती हूं, किसी तरह आड़ में बुलाकर उन्हें समझा दो।
अब जाह्नवी से न रहा गया। उसने सुमन का सारा चरित्र खूब नमक-मिर्च लगाकर सुभागी से बयान किया। जब कोई हमसे अपना भेद खोल देता, तो हम उससे अपना भेद गुप्त नहीं रख सकते।
दूसरे ही दिन कुबेर पंडित ने अपनी लड़की को ससुराल भेज दिया और मन में निश्चय किया कि इस अपमान का बदला अवश्य लूंगा।
33
सदन के विवाह का दिन आ गया। चुनार से बारात अमोला चली। उसकी तैयारियों का वर्णन व्यर्थ है। जैसी अन्य बारातें होती हैं, वैसी ही यह भी थी। वैभव और दरिद्रता का अत्यन्त करुणात्मक दृश्य था। पालकियों पर कारचोबी के परदे पड़े हुए थे, लेकिन कहारों की वर्दियां फटी हुईं और बेड़ौल थीं। गंगाजमुनी सोटे और बल्लम फटेहाल मजदूरों के हाथों में बिल्कुल शोभा नहीं देते थे।
अमोला यहां से कोई दस कोस था। रास्ते में एक नदी पड़ती थी। बारात नावों पर उतरी। मल्लाहों से खेवे के लिए घंटों सिरमगजन हुआ, तब कहीं जाकर उन्होंने नावें खोलीं। मदनसिंह ने बिगड़कर कहा– न हुए तुमलोग हमारे गांव में, नहीं तो इतना बेगार लेता कि याद करते। लेकिन पद्मसिंह मल्लाहों की इस ढिठाई पर मन में प्रसन्न थे। उन्हें इसमें मल्लाहों का सच्चा प्रेम दिखाई देता था।
संध्या समय बारात अमोला पहुंची। पद्मसिंह के मोहर्रिर ने वहां पहले से ही शामियाना खड़ा कर रखा था। छोलदारियां भी लगी हुई थीं। शामियाना झाड़, फानूस और हांडियों में सुसज्जित था। कारचोबी, मसनद, गावतकिए और इत्रदान आदि अपने-अपने स्थान पर रखे हुए थे। धूम थी कि नाच के कई डेरे आए हैं।
द्वार-पूजा हुई, उमानाथ कंधे पर एक अंगोछा डाले हुए बारात का स्वागत करते थे। गांव की स्त्रिया दालान में खड़ी मंगलाचरण गाती थीं। बाराती लोग यह देखने की चेष्टा कर रहे थे कि इनमें से कौन सबसे सुंदर है। स्त्रियां भी मुस्कुरा-मुस्कराकर उन पर नयनों की कटार चला रही थीं। जाह्नवी उदास थी, वह मन में सोच रही थी कि यह घर मेरी चन्द्रा को मिलता तो अच्छा होता। सुभागी यह जानने के लिए उत्सुक थी कि समधी कौन हैं। कृष्णचन्द्र सदन के चरणों की पूजा कर रहे थे और मन में शंका कर रहे थे कि यह कौन-सा उल्टा रिवाज है। मदनसिंह ध्यान से देख रहे थे कि थाल में कितने रुपए हैं।
बारात जनवासे को चली। रसद का सामान बंटने लगा। चारों ओर कोलाहल होने लगा। कोई कहता था, मुझे घी कम मिला, कोई गोहार लगाता था कि मुझे उपले नहीं दिए गए। लाला बैजनाथ शराब के लिए जिद कर रहे थे।
सामान बंट चुका, तो लोगों ने उपले जलाए और हांडियां चढ़ाई। धुएं से गैस का प्रकाश पीला पड़ गया।
सदन मसनद लगाकर बैठा। महफिल सज गई। काशी के संगीत-समाज ने श्याम-कल्याण धुन छेड़ी।
सहस्रों मनुष्य शामियाने के चारों ओर खड़े थे। कुछ लोग मिर्जई पहने, पगड़ी बांधे फर्श पर बैठे थे। लोग एक-दूसरे से पूछते थे कि डेरे कहां हैं? कोई इस छोलदारी में झांकता था, कोई उस छोलदारी में और कौतूहल से कहता था, कैसी बारात है कि एक डेरा भी नहीं, कहां के कंगले हैं। यह बड़ा-सा शामियाना काहे को खड़ा कर रखा है। मदनसिंह ये बातें सुन-सुनकर मन में पद्मसिंह के ऊपर कुड़बड़ा रहे थे और पद्मसिंह लज्जा और भय के मारे उनके सामने न आ सकते थे।
इतने में लोगों ने शामियाने पर पत्थर फेंकना शुरू किया। लाला बैजनाथ उठकर छोलदारी में भागे। कुछ लोग उपद्रवकारियों को गाली देने लगे। एक हलचल-सी मच गई। कोई इधर भागता, कोई उधर, कोई गाली बकता था, कोई मार-पीट करने पर उतारू था। अकस्मात् एक दीर्घकाय पुरुष सिर मुड़ाए, भस्म रमाए, हाथ में एक त्रिशूल लिए आकर महफिल में खड़ा हो गया। उसके लाल नेत्र दीपक के समान जल रहे थे और मुख-मंडल में प्रतिभा की ज्योति स्फुटित हो रही थी। महफिल में सन्नाटा छा गया। सब लोग आंखें फाड़-फाड़कर महात्मा की ओर ताकने लगे। यह साधु कौन है? कहां से आ गया?
साधु ने त्रिशूल ऊंचा किया और तिरस्कारपूर्ण स्वर से बोला– हा शोक! यहां कोई नाच नहीं, कोई वेश्या नहीं, सब बाबा लोग उदास बैठे हैं। श्याम-कल्याण की धुन कैसी है, पर कोई नहीं सुनता, किसी के कान नहीं, सब लोग वेश्या का नाच देखना चाहते हैं। या तो उन्हें नाच दिखाओ या अपने सर तुड़वाओ। चलो, मैं नाच दिखाऊं, देवताओं का नाच देखना चाहते हो? देखो, सामने वृक्ष की पत्तियों पर निर्मल चन्द्र की किरणें कैसी नाच रही हैं। देखो, तालाब में कमल के फूल पर पानी की बूंदें कैसी नाच रही हैं। जंगल में जाकर देखो, मोर पर फैलाए कैसा नाच रहा है! क्यों, यह देवताओं का नाच पसंद नहीं है? अच्छा चलो, पिशाचों का नाच दिखाऊं! तुम्हारा पड़ोसी दरिद्र किसान जमींदार के जूते खाकर कैसा नाच रहा है! तुम्हारे भाइयों के अनाथ बालक क्षुधा से बावले होकर कैसे नाच रहे हैं! अपने घर में देखो, विधवा भावज की आंखों में शोक और वेदना के आंसू कैसे नाच रहे हैं! क्या यह नाच देखना पसंद नहीं? तो अपने मन को देखो, कपट और छल कैसा नाच रहा है! सारा संसार नृत्यशाला है। उसमें लोग अपना-अपना नाच नाच रहे हैं। क्या यह देखने के लिए तुम्हारी आंखें नहीं हैं? आओ, मैं तुम्हें शंकर का तांडव नृत्य दिखाऊं। किंतु तुम वह नृत्य देखने योग्य नहीं हो। तुम्हारी काम-तृष्णा को इस नाच का क्या आनंद मिलेगा! हा! अज्ञान की मूर्तियो! हा! विषयभोग के सेवको! तुम्हें नाच का नाम लेते लज्जा नहीं आती! अपना कल्याण चाहते हो तो इस रीति को मिटाओ। कुवासना को तजो, वेश्या-प्रेम का त्याग करो।
सब लोग मूर्तिवत बैठे महात्मा की उन्मत्त वाणी सुन रहे थे कि इतने में वह अदृश्य हो गए और सामने वाले आम के वृक्षों की आड़ से उनके मधुर गान की ध्वनि सुनाई देने लगी। धीरे-धीरे वह भी अंधकार में विलीन हो गई, जैसे रात्रि में चिंता रूपी नाव निद्रासागर में विलीन हो जाती है। जैसे जुआरियों का जत्था पुलिस के अधिकारी को देखकर सन्नाटे में आ जाता है, कोई रुपये-पैसे समेटने लगता है, कोई कौड़ियों को छिपा लेता है, उसी प्रकार साधु के आकस्मिक आगमन, उनके तेजस्वी स्वरूप और अलौकिक उपदेशों ने लोगों को एक अव्यक्त अनिष्ठ भय से शंकित कर दिया। उपद्रवी दुर्जनों ने चुपके से घर की राह ली और जो लोग महफिल में बैठे अधीर हो रहे थे और मन में पछता रहे थे कि व्यर्थ यहां आए, वह ध्यानपूर्वक गाना सुनने लगे। कुछ सरल हृदय मनुष्य महात्मा के पीछे दौड़े, पर उनका कहीं पता न मिला।
पंडित मदनसिंह अपनी छोलदारी में बैठे हुए गहने-कपड़े सहेज रहे थे कि मुंशी बैजनाथ दौड़े हुए आए और बोले– भैया! अनर्थ हो गया। आपने यहां नाहक ब्याह किया।
मदनसिंह ने चकित होकर पूछा– क्यों, क्या हुआ, क्या कुछ गड़बड़ है?
‘हां, अभी इसी गांव का एक आदमी मुझसे मिला था, उसने इन लोगों की ऐसी कलई खोली कि मेरे होश उड़ गए।’
‘क्या ये लोग नीच कुल के हैं?’
‘नीच कुल के तो नहीं हैं, लेकिन मामला कुछ गड़बड़ है। कन्या का पिता हाल में जेलखाने से छूटकर आया है और कन्या की एक बहन वेश्या हो गई है। दालमंडी में जो सुमनबाई है, वह इसी कन्या की सगी बहन है।’
मदनसिंह को मालूम हुआ कि वह किसी पेड़ पर से फिसल पड़े। आंखें फाड़कर बोले– वह आदमी इन लोगों का कोई बैरी तो नहीं? विघ्न डालने के लिए लोग बहुधा झूठमूठ कलंक लगा दिया करते हैं।
पद्मसिंह– हां, ऐसी ही बात मालूम होती है।
बैजनाथ– जी नहीं, वह तो कहता था, मैं उनलोगों के मुंह पर कह दूं।
मदनसिंह– तो क्या लड़की उमानाथ की नहीं है?
बैजनाथ– जी नहीं, उनकी भांजी है। वह जो एक बार थानेदार पर मुकदमा चला था, वही थानेदार उमानाथ के बहनोई है, कई महीनों से छूटकर आए हैं।
मदनसिंह ने माथा पकड़कर कहा– ईश्वर! तुमने कहां लाकर फंसाया?
पद्मसिंह– उमानाथ को बुलाना चाहिए।
इतने में पंडित उमानाथ स्वयं एक नाई के साथ आते हुई दिखाई दिए। वधू के लिए गहने-कपड़े की जरूरत थी। ज्योंही वह छोलदारी के द्वार पर आकर खड़े हुए कि मदनसिंह जोर से झपटे और उनके दोनों हाथ पकड़कर झकझोरते हुए बोले– क्योंकि तिलकधारी महाराज, तुम्हें संसार में और कोई न मिलता था कि तुमने अपने मुख की कालिख मेरे मुंह लगाई?
बिल्ली के पंजे में फंसे हुए चूहे की तरह दीन भाव से उमानाथ ने उत्तर दिया– महाराज, मुझसे कौन-सा अपराध हुआ है?
मदनसिंह– तुमने वह कर्म किया है कि अगर तुम्हारा गला काट लूं, तो भी पाप न लगे। जिस कन्या की बहन पतिता हो जाए, उसके लिए तुम्हें मेरा ही घर ताकना था।
उमानाथ ने दबी हुई आवाज से कहा– महाराज, शत्रु-मित्र सब किसी के होते हैं। अगर किसी ने कुछ कलंक की बात कही हो तो आपको उस पर विश्वास न करना चाहिए। उस आदमी को बुलाइए। जो कुछ कहना हो, मेरे मुंह पर कहे।
पद्मसिंह– हां, ऐसा होना बहुत संभव है। उस आदमी को बुलाना चाहिए।
मदनसिंह ने भाई की ओर कड़ी निगाह से देखकर कहा– तुम क्यों बोलते हो जी। (उमानाथ से) संभव है, तुम्हारे शत्रु ही ने कहा हो, लेकिन बात सच्ची है या नहीं?
‘कौन बात?’
‘यही कि सुमन कन्या की सगी बहन है।’
उमानाथ का चेहरा पीला पड़ गया। लज्जा से सिर झुक गया। नेत्र ज्योतिहीन हो गए। बोले– महाराज…और उनके मुख से कुछ न निकला।
मदनसिंह ने गरजकर कहा– स्पष्ट क्यों नहीं बोलते? यह बात सच है या झूठ?
उमानाथ ने फिर उत्तर देना चाहा, किंतु ‘महाराज’ के सिवा और कुछ न कह सके।
मदनसिंह को अब कोई संदेह न रहा। क्रोध की अग्नि प्रचंड हो गई। आंखों से ज्वाला निकलने लगी। शरीर कांपने लगा। उमानाथ की ओर आग्नेय दृष्टि से ताककर बोले– अब अपना कल्याण चाहते हो, तो मेरे सामने से हट जाओ। धूर्त्त, दगाबाज, पाखंडी कहीं का! तिलक लगाकर पंडित बना फिरता है, चांड़ाल! अब तेरे द्वार पर पानी न पिऊंगा। अपनी लड़की को जंतर बनाकर गले में पहन– यह कहकर मदनसिंह उठे और उसे छोलदारी में चले गए जहां सदन पड़ा सो रहा था और जोर से चिल्लाकर कहारों को पुकारा।
उनके जाने पर उमानाथ पद्मसिंह से बोले– महाराज, किसी प्रकार पंडितजी को मनाइए। मुझे कहीं मुंह दिखाने को जगह न रहेगी। सुमन का हाल तो आपने सुना ही होगा। उस अभागिन ने मेरे मुंह में कालिख लगा दी। ईश्वर की यही इच्छा थी, पर अब गड़े हुए मुरदे को उखाड़ने से क्या लाभ होगा? आप ही न्याय कीजिए, मैं इस बात को छिपाने के सिवा और क्या करता? इस कन्या का विवाह तो करना ही था। वह बात छिपाए बिना कैसे बनता? आपसे सत्य कहता हूं कि मुझे यह समाचार संबंध ठीक हो जाने के बाद मिला।
पद्मसिंह ने चिंतित स्वर से कहा– भाई साहब के कान में बात न पड़ी होती, तो यह सब कुछ न होता। देखिए, मैं उनके पास जाता हूं, पर उनका राजी होना कठिन मालूम होता है।
मदनसिंह कहारों से चिल्लाकर कह रहे थे कि जल्द यहां से चलने की तैयारी करो। सदन भी अपने कपड़े समेट रहा था। उसके पिता ने सब हाल उससे कह दिया था।
इतने में पद्मसिंह ने आकर आग्रहपूर्वक कहा– भैया, इतनी जल्दी न कीजिए। जरा सोच-समझकर काम कीजिए। धोखा तो हो ही गया, पर यों लौट चलने में तो और भी जग-हंसाई है।
सदन ने चाचा की ओर अवहेलना की दृष्टि से देखा और मदनसिंह ने आश्चर्य से।
पद्मसिंह-दो-चार आदमियों से पूछ देखिए, क्या राय है?
मदनसिंह– क्या कहते हो, क्या जान-बूझकर जीती मक्खी निगल जाऊं?
पद्मसिंह– इसमें कम-से-कम जगहंसाई तो न होगी।
मदनसिंह– तुम अभी लड़के हो, ये बातें न जानो? जाओ, लौटने का सामान तैयार करो। इस वक्त जग-हंसाई अच्छी है। कुल में सदा के लिए कलंक तो न लगेगा।
पद्मसिंह– लेकिन यह तो विचार कीजिए कि कन्या की क्या गति होगी। उसने क्या अपराध किया है?
मदनसिंह ने झिड़ककर कहा– तुम हो निरे मूर्ख। चलकर डेरे लदाओ। कल को कोई बात पड़ जाएगी, तो तुम्हीं गालियां दोगे कि रुपए पर फिसल पड़े। संसार के व्यवहार में वकालत से काम नहीं चलता।
पद्मसिंह ने कातर नेत्रों से देखते हुए कहा– मुझे आपकी आज्ञा से इंकार नहीं है, लेकिन शोक है कि इस कन्या का जीवन नष्ट हो जाएगा।
मदनसिंह– तुम खामख्वाह क्रोध दिलाते हो। लड़की का मैंने ठेका लिया है? जो कुछ उसके भाग्य में बदा होगा, वह होगा। मुझे इससे क्या प्रयोजन?
पद्मसिंह ने नैराश्यपूर्ण भाव से कहा– सुमन का आना-जाना बिल्कुल बंद है। इन लोगों ने उसे त्याग दिया है।
मदनसिंह– मैंने तुम्हें कह दिया कि मुझे गुस्सा न दिलाओ। तुम्हें ऐसी बात मुझसे कहते हुए लज्जा नहीं आती? बड़े सुधारक की दुम बने हो। एक हरजाई की बहन से अपने बेटे का ब्याह कर लूं! छिः छिः तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई।
पद्मसिंह ने लज्जित होकर सिर झुका लिया। उनका मन कह रहा था कि भैया इस समय जो कुछ कह रहे हैं, वही ऐसी अवस्था में मैं भी करता। लेकिन भयंकर परिणाम का विचार करके उन्होंने एक बार फिर बोलने का साहस किया। जैसे कोई परीक्षार्थी गजट में अपना नाम न पाकर निराश होते हुए भी शोधपत्र की ओर लपकता है, उसी प्रकार अपने को धोखा देकर पद्मसिंह भाई साहब से दबते हुए बोला– सुमनबाई भी अब विधवाश्रम में चली गई है।
पद्मसिंह सिर नीचा किए बातें कर रहे थे। भाई से आंखें मिलाने का हौसला न होता था। यह वाक्य मुंह से निकला ही था कि अकस्मात् मदनसिंह ने एक जोर से धक्का दिया कि वह लड़खड़ाकर गिर पड़े। चौंककर सिर उठाया, मदनसिंह खड़े क्रोध से कांप रहे थे! तिरस्कार के वे कठोर शब्द जो उनके मुंह से निकलने वाले थे, पद्मसिंह को भूमि पर गिरते देखकर पश्चात्ताप से दब गए थे। मदनसिंह की इस समय वही दशा थी, जब क्रोध में मनुष्य अपना ही मांस काटने लगता है।
यह आज जीवन में पहला अवसर था कि पद्मसिंह ने भाई के हाथों धक्का खाया। सारी बाल्यावस्था बीत गई, बड़े-बड़े उपद्रव किए, पर भाई ने कभी हाथ न उठाया। वह बच्चों के सदृश्य रोने लगे, सिसकते थे, हिचकियां लेते थे, पर हृदय में लेशमात्र भी क्रोध न था। केवल यह दुख था कि जिसने सर्वदा प्यार किया, कभी कड़ी बात नहीं कही, उसे आज मेरे दुराग्रह से ऐसा दुख पहुंचा। यह हृदय में जलती हुई अग्नि की ज्वाला है, यह लज्जा, अपमान और आत्मग्लानि का प्रत्यक्ष स्वरूप है, यह हृदय में उमड़े हुए शोक-सागर का उद्वेग है। सदन ने लपककर पद्मसिंह को उठाया और अपने पिता की ओर क्रोध से देखकर कहा– आप तो जैसे बावले हो गए हैं!
इतने में कई आदमी आ गए और पूछने लगे– महाराज, क्या बात हुई है? बारात को लौटाने का हुकुम क्यों देते हैं? ऐसे कुछ करो कि दोनों ओर की मर्यादा बनी रहे, अब उनकी और आपकी इज्जत एक है। लेन-देन में कुछ कोर-कसर हो, तुम्हीं दब जाओ, नारायण ने तुम्हें क्या नहीं दिया है। इनके धन से थोड़े ही धनी हो जाओगे? मदनसिंह ने कुछ उत्तर नहीं दिया।
महफिल में खलबली पड़ गई। एक दूसरे से पूछता था, यह क्या बात है? छोलदारी के द्वार पर आदमियों की भीड़ बढ़ती ही जाती थी। \
महफिल में कन्या की ओर भी कितने ही आदमी थे। वह उमानाथ से पूछने लगे– भैया, ये लोग क्यों बारात लौटाने पर उतारू हो रहे हैं? जब उमानाथ ने कोई संतोषजनक उत्तर न दिया, तो वे सब-के-सब आकर मदनसिंह से विनती करने लगे– महाराज, हमसे ऐसा क्या अपराध हुआ है? और जो दंड चाहे दीजिए, पर बारात न लौटाइए, नहीं तो गांव बदनाम हो जाएगा। मदनसिंह ने उनसे केवल इतना कहा– इसका कारण उमानाथ से पूछो, वही बतलाएंगे।
पंडित कृष्णचन्द्र ने जब से सदन को देखा था, आनंद से फूले न समाते थे। विवाह का मुहूर्त निकट था। वह वर आने की राह देख रहे थे कि इतने में कई आदमियों ने आकर उन्हें खबर दी। उन्होंने पूछा– क्यों लौट जाते हैं? क्या उमानाथ से कोई झगड़ा हो गया है?
लोगों ने कहा– हमें यह नहीं मालूम, उमानाथ तो वहीं खड़े मना रहे हैं।
कृष्णचन्द्र झल्लाए हुए बारात की ओर चले। बारात का लौटना क्या लड़कों का खेल है? यह कोई गुड्डे-गुड्डी का ब्याह है क्या? अगर विवाह नहीं करना था, तो यहां बारात क्यों लाए? देखता हूं, कौन बारात को फेर ले जाता है? खून की नदी बहा दूंगा। कृष्णचन्द्र अपने साथियों से ऐसी ही बातें करते, कदम बढ़ाते हुए जनवासे में पहुंचे और ललकारकर बोले– कहां हैं पंडित मदनसिंह? महाराज, जरा बाहर आइए।
मदनसिंह यह ललकार सुनकर बाहर निकल आए और दृढ़ता के साथ बोले–
कहिए, क्या कहना है?
कृष्णचन्द्र– आप बारात क्यों लौटाए लिए जाते हैं?
मदनसिंह– अपना मन! हमें विवाह नहीं करना है।
कृष्णचन्द्र– आपको विवाह करना होगा। यहां आकर आप ऐसे नहीं लौट सकते।
मदनसिंह– आपको जो करना हो, कीजिए। हम विवाह नहीं करेंगे।
कृष्णचन्द्र– कोई कारण?
मदनसिंह– कारण क्या आप नहीं जानते?
कृष्णचन्द्र– जानता तो आपसे क्यों पूछता?
मदनसिंह– तो पंडित उमानाथ से पूछिए।
कृष्णचन्द्र– मैं आपसे पूछता हूं?
मदनसिंह– बात दबी रहने दीजिए। मैं आपको लज्जित नहीं करना चाहता।
कृष्णचन्द्र– अच्छा समझा, मैं जेलखाने हो आया हूं। यह उसका दंड है। धन्य है आपका न्याय।
मदनसिंह– इस बात पर बारात नहीं लौट सकती थी।
कृष्णचन्द्र– तो उमानाथ से विवाह का कर देने में कुछ कसर हुई होगी?
मदनसिंह– हम इतने नीच नहीं हैं।
कृष्णचन्द्र– फिर ऐसी कौन-सी बात है?
मदनसिंह– हम कहते हैं, हमसे न पूछिए।
कृष्णचन्द्र– आपको बतलाना पड़ेगा। दरवाजे पर बारात लाकर उसे लौटा ले जाना क्या आपने लड़कों का खेल समझा है? यहां खून की नदी बह जाएगी। आप इस भरोसे में न रहिएगा।
मदनसिंह– इसकी हमको चिंता नहीं है। हम यहां मर जाएंगे, लेकिन आपकी लड़की से विवाह न करेंगे। आपके यहां अपनी मर्यादा खोने नहीं आए हैं?
कृष्णचन्द्र– तो क्या हम आपसे नीच हैं?
मदनसिंह– हां, आप हमसे नीच हैं।
कृष्णचन्द्र– इसका कोई प्रमाण?
मदनसिंह– हां, है।
कृष्णचन्द्र– तो उसके बताने में आपको क्यों संकोच होता है?
मदनसिंह– अच्छा, तो सुनिए, मुझे दोष न दीजिएगा। आपकी लड़की सुमन जो इस कन्या की सगी बहन है, पतिता हो गई है। आपका जी चाहे, तो उसे दालमंडी में देख आइए।
कृष्णचन्द्र ने अविश्वास की चेष्टा करके कहा– यह बिलकुल झूठ है। पर क्षणमात्र में उन्हें याद आ गया कि जब उन्होंने उमानाथ से सुमन का पता पूछा था, तो उन्होंने टाल दिया था; कितने ही ऐसे कटाक्षों का अर्थ समझ में आ गया, जो जाह्नवी बात-बात में उन पर करती रहती थी। विश्वास हो गया और उनका सिर लज्जा से झुक गया। वह अचेत होकर भूमि पर गिर पड़े। दोनों तरफ के सैकड़ों आदमी वहां खड़े थे, लेकिन सब-के-सब सन्नाटे में आ गए। इस विषय में किसी का मुंह खोलने का साहस नहीं हुआ।
आधी रात होते-होते डेरे-खेमे सब उखड़ गए। उस बगीचे में अंधकार छा गया। गीदड़ों की सभा होने लगी और उल्लू बोलने लगे।
34
विट्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबंधकारिणी सभा के किसी सदस्य को इत्तिला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियों से यह बात बहुत दिनों तक गुप्त न रही। उन्होंने हिरिया को ढूंढ निकाला और उससे सुमन का पता पूछ लिया। तब अपने अन्य रसिक मित्रों को भी इसकी सूचना दे दी। इसका परिणाम यह हुआ कि उन सज्जनों की आश्रम पर विशेष रीति से कृपादृष्टि होने लगी। कभी सेठ चिम्मनलाल आते, कभी सेठ बलभद्रदास, कभी पंडित दीनानाथ विराजमान हो जाते। इन महानुभावों को अब आश्रम की सफाई और सजावट, उसकी आर्थिक दशा, उसके प्रबंध आदि विषयों से अद्भुत सहानुभूति हो गई थी। रात-दिन आश्रम की शुभकामना में मग्न रहते थे।
विट्ठलदास बड़े संकट में पड़े हुए थे। कभी विचार करते कि इस पद से इस्तीफा दे दूं। क्या मैंने ही इस आश्रम का जिम्मा लिया है? कमेटी में और कितने ही मनुष्य हैं, जो इस काम को संभाल सकते हैं। वह जैसा उचित समझेंगे, इसका प्रबंध करेंगे, मुझे अपनी आंखों से तो यह अत्याचार न देखना पड़ेगा। कभी सोचते, क्यों न एक दिन इन दुराचारियों को फटकारूं? फिर जो कुछ होगा, देखा जाएगा। लेकिन जब शांत चित्त होकर देखते, तो उन्हें सब्र से काम लेने के सिवा और कोई उपाय न सूझता। हां, उन लोगों से बड़ी रुखाई से बातचीत करते, उनके प्रस्तावों की उपेक्षा किया करते और अपने भावों से यह प्रकट करना चाहते थे कि मुझे तुम लोगों का यहां आना असह्य है। किंतु गरज के बावले मनुष्य देखकर भी अनदेखी कर जाते हैं। दोनों सेठ विनय और शील की साक्षात् मूर्ति बन जाते। तिवारीजी ऐसे सरल बन जाते, मानों उन्हें क्रोध आ ही नहीं सकता। इस कूटनीति के आगे विट्ठलदास की अक्ल कुछ काम न करती!
एक दिन प्रातःकाल विट्ठलदास इन्हीं चिंताओं में बैठे हुए थे कि एक फिटन आश्रम के द्वार पर आकर रुकी। उसमें से कौन लोग उतरे? अबुलवफा और अब्दुललतीफ।
विट्ठलदास मन में तिलमिलाकर रह गए। अभी सेठों ही का रोना था कि एक और बला आ पड़ी। जी में तो आया कि दोनों को दुत्कार दूं, पर धैर्य से काम लिया।
अबुलवफा ने कहा– आदाब अर्ज है, बंदानवाज। आज कुछ तबीयत परेशान है क्या? वल्लाह आपका ईसार देखकर रूह को सुरूर हो जाता है खुशनसीब है कौम, जिसमें आप जैसे खादिम मौजूद हैं। एक हमारी खुदगरज, खुशनुमा कौम है, जिसे इन बातों का एहसास ही नहीं। जो लोग बड़े नेकनाम हैं, वह भी गरज से पाक नहीं, क्यों मुंशी अब्दुललतीफ साहब?
अब्दुललतीफ—जनाब, हमारी कौम की कुछ न कहिए! खुदगरज, खुदफरोश, खुदमतलब, कजफहम, कजरौ, कजर्बी जो कुछ कहिए, थोड़ा है। बड़ों-बड़ों को देखिए, रंगे हुए सियार हैं, रिया का जामा पहने हुए। आपको जात मसदरे बरकात है। ऐसा मालूम होता है कि खुदाताला ने मलायक में से इंतखाब करके आपको इस खुशनसीब कौम पर नाजिल किया है।
अबुलवफा– आपकी पाकनफसी दिलों में खामख्वाह असर डालती है। क्यों आपके यहां सोजनकारी और बेलबूटे के काम तो होते ही होंगे? मेरे एक दोस्त ने सोजनकारी की कई दर्जन चादरों की फरमाइश लिख भेजी है। हालांकि शहर में कई जगह यह काम होता है, लेकिन मैंने यह खयाल किया कि आश्रम को प्राइवेट काम करने वालों पर तरजीह होनी चाहिए। आपके यहां नमूने मौजूद हों, तो दिखाने की तकलीफ कीजिए।
विट्ठलदास– मेरे यहां ये सब काम नहीं होते।
अबुलवफा– मगर होने की जरूरत है। आप दरियाफ्त कीजिए, कुछ मस्तूरात जरूर यह काम जानती होंगी। हमें ऐसी कोई उजलत नहीं है, फिर हाजिर होंगे। एक, दो, चार, दस बार आने में हमको इंकार नहीं है। आप अपना सब कुछ निसार कर रहे हैं, तो क्या मुझसे इतना भी न होगा? मैं इन मुआमलों में कौमी तफरीक मुनासिब नहीं समझता।
विट्ठलदास– मैं इस मेहरबानी के लिए आपका मशकूर हूं। लेकिन कमेटी ने यह फैसला कर दिया है कि यहां इस किस्म का कोई काम न कराया जाए। इस वजह से मजबूर हूं।
यह कहकर विट्ठलदास उठ खड़े हुए। अब दोनों सज्जनों को लौट जाने के सिवा और कोई उपाय न सूझा। मन में विट्ठलदास को गालियां देते हुए फिटन में सवार हो गए।
लेकिन अभी फिटन की आवाज कान में आ रही थी कि सेठ चिम्मनलाल की मोटरकार आ पहुंची। सेठजी शान से उतरे। विट्ठलदास से हाथ मिलाया और बोले– क्यों बाबू साहब! नाटक के विषय में आपने क्या राय की? शकुंतला नाटक भर्थरी का सबसे उत्तम ग्रंथ है। इसे अंग्रेज बहुत पसंद करते हैं। जरूर खेलिए। कुछ पार्ट याद कराए हों, तो मैं भी सुनूं।
कभी-कभी कठिनता में हमको ऐसी चालें सूझ जाती हैं, जो सोचने से ध्यान में नहीं आतीं। विट्ठलदास ने सोचा था कि इन सेठजी से कैसे पिंड छुड़ाऊं, लेकिन कोई उपाय न सूझा। इस समय अकस्मात् उन्हें एक बात सूझ गई। बोले– जी नहीं, इस नाटक के खेलने की सलाह नहीं हुई। मैंने इस मुआमिले में बड़े साहब से राय ली थी। उन्होंने मना कर दिया। समझ में नहीं आता ये लोग पोलिटिक्स का क्या अर्थ लगाते हैं। आज बातों-ही-बातों में मैंने बड़े साहब से आश्रम के लिए कुछ वार्षिक सहायता की प्रार्थना की, तो क्या बोले कि मैं पोलिटिकल कार्यों में सहायता नहीं दे सकता। मैं उनकी बात सुनकर चकित हो गया। पूछा, आप आश्रम को किस विचार से पोलिटिकल संस्था समझते हैं। इसका केवल यह उत्तर दिया कि मैं इसका उत्तर नहीं देना चाहता।
चिम्मनलाल के मुख पर हवाइयां उड़ने लगीं। बोले– तो साहब ने आश्रम को भी पोलिटिकल समझ लिया है!
विट्ठलदास– जी हां, साफ कह दिया।
चिम्मनलाल– तो क्यों महाशय, जब उनका यह विचार है, तो यहां आने-जाने वालों की देखभाल भी अवश्य होती होगी?
विट्ठलदास– जी हां, और क्या? लेकिन इससे क्या होता है? जिन्हे जाति से प्रेम है, वे इन बातों से कब डरते हैं?
चिम्मनलाल– जी नहीं, मैं उन जाति-प्रेमियों में से नहीं। अगर मुझे मालूम हो जाए कि ये लोग रामलीला को पोलिटिकल समझते हैं, तो उसे भी बंद कर दूं। पोलिटिकल नाम से मेरा रोआं थरथराने लगता है। आप मेरे घर में देख आइए, भगवद्गीता की कापी भी नहीं है। मैं अपने आदमियों को कड़ी ताकीद कर दी है कि बाजार से चीजें पत्ते में लाया करें, मैं रद्दी समाचार-पत्रों की पुड़िया तक घर में नहीं आने देता। महाराणा प्रताप की एक पुरानी तस्वीर कमरे में थी, उसे मैंने उतारकर संदूक में बंद कर दिया है। अब मुझे आज्ञा दीजिए। यह कहकर वह तोंद संभालते हुए मोटर की ओर लपके। विट्ठलदास मन में खूब हंसे। अच्छी चाल सूझी। लेकिन इसका बिल्कुल विचार न किया था कि झूठ इतना बोलना पड़ा और इससे आत्मा का कितना ह्रास हुआ। यह सेवा धर्म का पुतला निज के व्यवहार में झूठ और चालबाजी से कोसों दूर भागता था, लेकिन जातीय कार्यों में अवसर पड़ने पर उनकी सहायता लेने में संकोच न करता था।
चिम्मनलाल के जाने के बाद विट्ठलदास ने चंदे का रजिस्टर उठाया और चंदा वसूल करने को उठे। लेकिन कमरे से बाहर भी न निकले थे कि सेठ बलभद्रदास को पैर-गाड़ी पर आते देखा। क्रोध से शरीर जल उठा। रजिस्टर पटक दिया और लड़ने पर उतारू हो गए।
बलभद्रदास ने आगे बढ़कर कहा– कहिए महाशय, कल मैंने जो पौधे भेजे थे, वह आपने लगवा दिए या नहीं? जरा मैं देखना चाहता हूं। कहिए तो अपना माली भेज दूं?
विट्ठलदास ने उदासीन भाव से कहा– जी नहीं। आपको माली भेजने की आवश्यकता नहीं, और न वह पौधे यहां लग सकते हैं।
बलभद्रदास– क्यों, लग नहीं सकते? मेरा माली आकर सब ठीक कर देगा। आज ही लगवा दीजिए, नहीं तो वे सब सूख जाएंगे।
विट्ठलदास– सूख जाएं चाहे रहें, पर वह यहां नहीं लग सकते।
बलभद्रदास– नहीं लगाने थे, तो पहले ही कह दिया होता। मैंने सहारनपुर से मंगवाए थे।
विट्ठलदास– बरामदे में पड़े हैं, उठवाकर ले जाइए।
सेठ बलभद्रदास अभिमानी स्वभाव के मनुष्य थे। यों वे शील और विनय के पुतले थे, लेकिन जरा किसी ने अकड़कर बात की, जरा भी निगाह बदली कि वे आग हो जाते थे। अत्यंत निर्भीक राजनीति-कुशल पुरुष थे। इन गुणों के कारण जनता उन पर जान देती थी। उसे उन पर पूरा विश्वास था। उसे निश्चय था कि न्याय और सत्य के विषय में ये कभी कदम पीछे न उठाएंगे, अपने स्वार्थ और सम्मान के लिए जनता का अहित न सोचेंगे। डॉक्टर श्यामाचरण पर जनता का यह विश्वास न था। जनता की दृष्टि में विद्या, बुद्धि और प्रतिभा का उतना मूल्य नहीं होता, जितना चरित्र-बल का।
विट्ठलदास की यह रूखी बातें सुनकर सेठ बलभद्रदास के तेवरों पर बल पड़ गए। तनकर बोले– आज आप इतने अनमने से क्यों हो रहे हैं?
‘मुझे मीठी बातें करने का ढंग नहीं आता।’
‘मीठी बातें न कीजिए, लेकिन लाठी न मारिए।’
‘मैं आपसे शिष्टाचार का पाठ नहीं पढ़ना चाहता।’
‘आप जानते हैं, मैं भी प्रबंधकारिणी सभा का मेंबर हूं।’
‘जी हां, जानता हूं।’
‘चाहता तो प्रधान होता।’
‘जानता हूँ।’
‘मेरी सहायता किसी से कम नहीं है।’
‘इन पुरानी बातों को याद दिलाने की क्या जरूरत?’
‘चाहूं तो आश्रम को मिटा दूं।’
‘असंभव।’
‘सभा के सब मेंबर मेरे इशारे पर नाच सकते हैं।’
‘संभव है।’
‘एक दिन में इसका कहीं पता न चले।’
‘असंभव।’
‘आप किस घमंड में भूले हुए हैं।’
‘ईश्वर के भरोसे पर।’
सेठजी आश्रम की ओर कुपित नेत्रों से ताकते हुए पैर-गाड़ी पर सवार हो गए। लेकिन विट्ठलदास पर उनकी धमकियों का कुछ असर न हुआ। उन्हें निश्चय था कि ये सभा मेंबरों से आश्रम के विषय में कुछ न कहेंगे। उनका अभिमान उन्हें इतना नीचे न गिरने देगा। संभव है, वह इस झेंप को मिटाने के लिए मेंबरों से आश्रम की प्रशंसा करें, लेकिन यह आग कभी-न-कभी भड़केगी अवश्य, इसमें संदेह नहीं था। अभिमान अपने अपमान को नहीं भूलता। इसकी शंका होने पर भी विट्ठलदास को वह क्षोभ नहीं था, जो किसी झगड़े के बाद मेघ के समान हृदयाकाश पर छा जाया करता है। इसके प्रतिकूल उन्हें अपने कर्त्तव्य को पूरा करने का संतोष था, और वह पछता रहे थे कि मैंने इसमें इतना विलंब क्यों किया? इस संतोष से वह ऐसी मौज में आए कि ऊंचे स्वर से गाने लगे–
प्रभुजी मोहि काहे की लाज।
जन्म-जन्म यों ही भरमायो अभिमानी बेकाज!
प्रभुजी मोहि काहे की लाज।
इतने में उन्हें पद्मसिंह आते दिखाई दिए। उनके मुख से चिंता और नैराश्य झलक रहा था, मानो अभी रोकर आंसू पोंछे हैं। विट्ठलदास आगे बढ़कर उनसे मिले और पूछा– बीमार थे क्या? बिल्कुल पहचाने नहीं जाते।
पद्मसिंह– जी नहीं, बीमार तो नहीं हूं, हां परेशान बहुत रहा।
विट्ठलदास– विवाह कुशलतापूर्वक हो गया?
पद्मसिंह ने छत की ओर ताकते हुए कहा– विवाह का कुछ समाचार न पूछिए। विवाह क्या हुआ, एक अबला कन्या का जीवन नष्ट कर आए। वह इसी सुमनबाई की बहन निकली। भैया को ज्योंही मालूम हुआ, वे द्वार से बारात लौटा लाए।
विट्ठलदास ने लंबी सांस लेकर कहा– यह तो बड़ा अन्याय हुआ। आपने अपने भाई साहब को समझाया नहीं?
पद्मसिंह– अपने से जो कुछ बन पड़ा, सब करके हार गया।
विट्ठलदास– देखिए, अब बेचारी लड़की की क्या गति होती है। सुमन सुनेगी तो रोएगी।
पद्मसिंह– कहिए, यहां कि क्या खबरें हैं? सुमन के आने से विधवाओं में हलचल तो नहीं मची? वे उससे घृणा तो अवश्य ही करती होंगी?
विट्ठलदास– बात खुल जाए तो आश्रम खाली नजर आए।
पद्मसिंह– और सुमन कैसी रहती है?
विट्ठलदास– ऐसी अच्छी तरह, मानो वह सदा आश्रम में ही रही है। मालूम होता है, वह अपने सद्व्यवहार से अपनी कालिमा को धोना चाहती है? सब काम करने को तैयार, और प्रसन्नचित्त से। अन्य स्त्रियां सोती ही रहती हैं और वह उनके कमरे में झाड़ू दे जाती है। कई विधवाओं को सीना सिखाती है, कई उससे गाना सीखती हैं। सब प्रत्येक बात में उसी की राय लेती हैं। इस चारदीवारी के भीतर अब उसी का राज्य है। मुझे ऐसी आशा कदापि न थी। यहां उसने कुछ पढ़ना भी शुरू कर दिया है और भाई, मन का हाल तो ईश्वर जाने, देखने में तो अब उसकी बिल्कुल कायापलट-सी हो गयी है।
पद्मसिंह– नहीं साहब, वह स्वभाव की बुरी स्त्री नहीं है। मेरे यहां महीनों आती रही थी! मेरे घर में उसकी बड़ी प्रशंसा किया करती थीं (यह कहते-कहते झेंप गए)। कुछ ऐसे कुसंस्कार ही हो गए, जिन्होंने यह अभिनय कराए। सच पूछिए तो हमारे पापों का दंड उसे भोगना पड़ा। हां, कुछ उधर का समाचार भी मिला? सेठ बलभद्रदास ने और कोई चाल चली?
विट्ठलदास– हां साहब, वे चुप बैठने वाले आदमी नहीं हैं। आजकल खूब दौड़-धूप हो रही हैं। दो-तीन दिन हुए हिन्दू मेंबरों की एक सभा भी हुई थी। मैं तो जा न सका, पर विजय उन्हीं लोगों की रही। अब प्रधान को दो वोट मिलाकर उनके पास छह वोट हैं और हमारे पास कुल चार। हां, मुसलमानों के वोट मिलाकर बराबर हो जाएंगे।
पद्मसिंह– तो हमको कम-से-कम एक वोट और मिलना चाहिए। है इसकी कोई आशा?
विट्ठलदास– मुझे तो कोई आशा नहीं मालूम होती।
पद्मसिंह– अवकाश हो तो चलिए, जरा डॉक्टर साहब और लाला भगतराम के पास चलें।
35
यद्यपि डॉक्टर साहब का बंगला निकट ही था, पर इन दोनों आदमियों ने एक किराए की गाड़ी की। डॉक्टर साहब के यहां पैदल जाना फैशन के विरुद्ध था। रास्ते में विट्ठलदास ने आज के सारे समाचार बढ़ा-चढ़ाकर बयान किए और अपनी चतुराई को खूब दर्शाया।
पद्मसिंह ने यह सुनकर चिंतित भाव से कहा– तो अब हमको सतर्क होने की जरूरत है। अंत में आश्रम का सारा भार हमीं लोगों पर आ पड़ेगा। बलभद्र अभी चाहे चुप रह जाएं, लेकिन इसकी कसर कभी-न-कभी निकालेंगे अवश्य।
विट्ठलदास– मैं क्या करूं? मुझसे यह अत्याचार देखकर रहा नहीं जाता। शरीर में एक ज्वाला-सी उठने लगती है। कहने को ये लोग विद्वान, बुद्धिमान हैं, नीति-परायण हैं, पर उनके ऐसे कर्म? अगर मुझमें कौशल से काम लेने की सामर्थ्य होती, तो कम-से-कम बलभद्रदास से लड़ने की नौबत न आती।
पद्मसिंह– यह तो एक दिन होना ही था। यह भी मेरे ही कर्मों का फल है। देखूं, अभी और क्या-क्या गुल खिलते हैं? जब से बारात वापस आई है, मेरी विचित्र दशा हो गई है। न भूख, न प्यास, रात-भर करवटें बदला करता हूं। यही चिंता लगी रहती है कि उस अभागिनी कन्या का बेड़ा कैसे पार लगेगा। अगर कहीं आश्रम का भार सिर पर पड़ा, तो जान ही पर बन आएगी। ऐसे अथाह दलदल में फंस गया हूं कि ज्यों-ज्यों ऊपर उठना चाहता हूं और नीचे दब जाता हूं।
यही बात करते-करते डॉक्टर साहब का बंगला आ गया। दस बजे थे। डॉक्टर साहब अपने सुसज्जित कमरे में बैठे हुए अपनी बड़ी लड़की मिस कान्ति से शतरंज खेल रहे थे। मेज पर दो टेरियर कुत्ते बैठे हुए बड़े ध्यान से शतंरज की चालों को देख रहे थे और कभी-कभी जब उनकी समझ में खिलाड़ियों से कोई भूल हो जाती थी, तो पंजों से मोहरों को उलट-पलट देते थे। मिस कान्ति उनकी इस शरारत पर हंसकर अंग्रेजी में कहती थीं, ‘यू नॉटी।’
मेज की बाईं ओर एक आराम-कुर्सी पर सैयद तेगअली साहब विराजमान थे और बीच-बीच में मिस कान्ति को चालें बताते जाते थे।
इतने में हमारे दोनों मित्र जा पहुंचे। डॉक्टर साहब ने उठकर दोनों सज्जनों से हाथ मिलाया। मिस कान्ति ने उनकी ओर दबी निगाह से देखा और मेज पर से एक पत्र उठाकर पढ़ने लगी।
डॉक्टर साहब ने अंग्रेजी में कहा– मैं आप लोगों से मिलकर बहुत प्रसन्न हुआ। आइए, आपलोगों को मिस कान्ति से इंट्रोड्यूस करा दूं।
परिचय हो जाने पर मिस कान्ति ने दोनों आदमियों से हाथ मिलाया और हंसती हुई बोली– बाबा अभी आप लोगों का जिक्र कर रहे थे। मैं आपसे मिलकर बहुत प्रसन्न हुई।
डॉक्टर श्यामाचरण– मिस कान्ति अभी डलहौजी पहाड़ से आई हैं। इनका स्कूल जाड़े में बंद हो जाता है। वहां शिक्षा का बहुत उत्तम प्रबंध है। यह अंग्रेजों की लड़कियों के साथ बोर्डिंग-हाऊस में रहती हैं। लेडी प्रिंसिपल ने अब की इनकी प्रशंसा की है।
कान्ति, जरा अपनी लेडी प्रिंसिपल की चिट्ठी इन्हें दिखा दो। मिस्टर शर्मा, आप कान्ति की अंग्रेजी बातें सुनकर दंग रह जाएंगे। (हंसते हुए) यह मुझे कितने ही नए मुहावरे सिखा सकती हैं।
मिस कान्ति ने लजाते हुए अपना प्रशंसा-पत्र पद्मसिंह को दिखाया। उन्होंने उसे पढ़कर कहा– आप लैटिन भी पढ़ती हैं?
डॉक्टर साहब ने कहा– लैटिन में अब की परीक्षा में इन्हें एक पदक मिला है। कल क्लब में कान्ति ने ऐसा अच्छा गेम दिखाया कि अंग्रेज़ लेडियां दंग रह गईं। हां, अब की बार आप हिन्दू मेंबरों के जलसे में नहीं थे?
पद्मसिंह– जी नहीं, मैं जरा मकान तक चला गया था।
डॉक्टर– आप ही के प्रस्ताव पर विचार किया गया। मैं तो उचित समझता हूं कि अभी उसे बोर्ड में पेश करने की जल्दी न करें। अभी सफलता की बहुत कम आशा है।
तेगअली बोले– जनाब, मुसलमान मेंबरों की तरफ से तो आपको पूरी मदद मिलेगी।
डॉक्टर– हां, लेकिन हिंदू मेंबरों में तो मतभेद है।
पद्मसिंह– आपकी सहायता हो जाए तो सफलता में कोई संदेह न रहे।
डॉक्टर– मुझे इस प्रस्ताव से पूरी सहानुभूति है, लेकिन आप जानते हैं, मैं गवर्नमेंट का नामजद किया हुआ मेंबर हूं। जब तक यह मालूम न हो जाए कि गवर्नमेंट इस विषय को पसंद करती है या नहीं, तब तक मैं ऐसे सामाजिक प्रश्न पर कोई राय नहीं दे सकता।
विट्ठलदास ने तीव्र स्वर से कहा– जब मेंबर होने से आपके विचार स्वातंत्र्य में बाधा पड़ती है, तो आपको इस्तीफा दे देना चाहिए।
तीनों आदमियों ने विट्ठलदास को उपेक्षा की दृष्टि से देखा। उनका कथन असंगत था। तेगअली ने व्यंग्य भाव से कहा– इस्तीफा दे दें, तो सम्मान कैसे हो? लाट साहब के बराबर कुर्सी पर कैसे बैठें? आनरेबल कैसे कहलाएं? बड़े-बड़े अंग्रेजों से हाथ मिलाने का सौभाग्य कैसे प्राप्त हो? सरकारी डिनर में बढ़-चढ़कर हाथ मारने का गौरव कैसे मिले? नैनीताल की सैर कैसे करें? अपनी वक्तृता का चमत्कार कैसे दिखाएं? यह भी तो सोचिए।
विट्ठलदास बहुत लज्जित हुए। पद्मसिंह पछताए कि विट्ठलदास के साथ नाहक आए।
डाक्टर साहब गंभीर भाव से बोले– साधारण लोग समझते हैं कि इस लालच से लोग मेंबरी के लिए दौंड़ते हैं। वह यह नहीं समझते कि वह कितना जिम्मेदारी का काम है। गरीब मेंबरों को अपना कितना समय, कितना विचार, कितना धन, कितना परिश्रम इसके लिए अर्पण करना पड़ता है। इसके बदले उसे इस संतोष के सिवाय और क्या मिलता है कि मैं देश और जाति की सेवा कर रहा हूं। ऐसा न हो, तो कोई मेंबरी की परवाह न करे।
तेगअली– जी हां, इसमें क्या शक है! जनाब ठीक फरमाते हैं। जिसके सिर पर यह अजीमुश्शान जिम्मेदारी पड़ती है उसका दिल जानता है।
ग्यारह बज गए थे। श्यामाचरण ने पद्मसिंह से कहा– मेरे भोजन का समय आ गया, अब जाता हूं। आप संध्या समय मुझसे मिलिएगा।
पद्मसिंह ने कहा– हां-हां, शौक से जाइए, उन्होंने सोचा, जब ये भोजन में जरा-सी देर हो जाने से इतने घबराते हैं, तो दूसरों से क्या आशा की जाए? लोग जाति और देश के सेवक तो बनना चाहते हैं, पर जरा-सा भी कष्ठ नहीं उठाना चाहते।
लाला भगतराम धूप में तख्ते पर बैठे हुक्का पी रहे थे। उनकी छोटी लड़की गोद में बैठी हुई धुएं को पकड़ने के लिए बार-बार हाथ बढ़ाती थी सामने जमीन पर कई मिस्त्री और राजगीर बैठे हुए थे। भगतराम पद्मसिंह को देखते ही उठ खड़े हुए और पालागन करके बोले– मैंने शाम ही को सुना था कि आप आ गए। आज प्रातःकाल आने वाला था, लेकिन कुछ ऐसा झंझट आ पड़ा कि अवकाश ही न मिला। यह ठेकेदारी का काम बड़े झगड़े का है। काम कराइए, अपने रुपए लगाइए, उस पर दूसरों की खुशामद कीजिए। आजकल इंजीनियर साहब किसी बात पर ऐसे नाराज हो गए हैं कि मेरा कोई काम उन्हें पसन्द नहीं आता। एक पुल बनवाने का ठेका लिया था। उसे तीन बार गिरवा चुके हैं। कभी कहते हैं, यह नहीं बना, कभी कहते हैं, वह नहीं बना। नफा कहां से होगा, उल्टे नुकसान की संभावना है। कोई सुनने वाला नहीं है। आपने सुना होगा, हिन्दू मेंबरों का जलसा हो गया।
पद्मसिंह– हां, सुना और सुनकर शोक हुआ। आपसे मुझे पूरी आशा थी। क्या आप इस सुधार को उपयोगी नहीं समझते?
भगतराम– इसे केवल उपयोगी ही नहीं समझता, बल्कि हृदय से इसकी सहायता करना चाहता हूं, पर मैं अपनी राय का मालिक नहीं हूं। मैंने अपने को स्वार्थ के हाथों में बेच दिया है। मुझे आप ग्रामोफोन को रेकार्ड समझिए, जो कुछ भर दिया जाता है, वही कह सकता हूं और कुछ नहीं।
पद्मसिंह– लेकिन आप यह तो जानते हैं कि जाति के हित स्वार्थ से पार्थक्य होनी चाहिए।
भगतराम– जी हां, इसे सिद्धांत रूप से मानता हूं, पर इसे व्यवहार में लाने की शक्ति नहीं रखता। आप जानते होंगे, मेरा सारा कारबार चिम्मनलाल की मदद से चलता है। अगर उन्हें नाराज कर लूं तो यह सारा ठाठ बिगड़ जाये। समाज में मेरी जो कुछ मान-मर्यादा है, वह इसी ठाठ-बाट के कारण है। विद्या और बुद्धि है ही नहीं, केवल इसी स्वांग का भरोसा है। आज अगर कलई खुल जाए, तो कोई बात भी न पूछे। दूध की मक्खी की तरह समाज से निकाल दिया जाऊं। बतलाइए, शहर में कौन है, जो केवल मेरे विश्वास पर हजारों रुपए बिना सूद के दे देगा, और फिर केवल अपनी ही फिक्र तो नहीं है। कम-से-कम तीन सौ रुपए मासिक गृहस्थी का खर्च है। जाति के लिए मैं स्वयं कष्ट झेलने के लिए तैयार हूं, पर अपने बच्चों को कैसे निरवलंब कर दूं?
जब हम अपने किसी कर्त्तव्य से मुंह मोड़ते हैं, तो दोष से बचने के लिए ऐसी प्रबल युक्तियां निकालते हैं कि कोई मुंह न खोल सके। उस समय हम संकोच को छोड़कर अपने संबंध में ऐसी-ऐसी बातें कह डालते हैं कि जिनके गुप्त रहने ही में हमारा कल्याण है। लाला भगतराम के हृदय में यही भाव काम कर रहा था। पद्मसिंह समझ गए कि आशा नहीं। बोले– ऐसी अवस्था में आप पर कैसे जोर दे सकता हूं? मुझे केवल वोट की फिक्र है, कोई उपाय बतलाइए, कैसे मिले?
भगतराम– कुंवर साहब के यहां जाइए। ईश्वर चाहेंगे तो उनका वोट आपको मिल जाएगा। सेठ बलभद्रदास ने उन पर तीन हजार रुपए की नालिश की है? कल उनकी डिगरी भी हो गई। कुंवर साहब इस समय बलभद्रदास से तने हुए हैं। वश चले तो गोली मार दें। फंसाने का एक लटका आपको और बताए देता हूं। उन्हें किसी सभा का प्रधान बना दीजिए। बस, उनकी नकेल आपके हाथ में हो जाएगी।
पद्मसिंह ने हंसकर कहा– अच्छी बात है, उन्हीं के यहां चलता हूं।
दोपहर हो गई थी, लेकिन पद्मसिंह को भूखे-प्यास न थी। बग्घी पर बैठकर चले। कुंवर साहब बरुना के किनारे एक बंगले में रहते थे। आध घंटे में जा पहुंचे।
बंगले के हाते में न कोई सजावट थी, न सफाई। फूल-पत्ती का नाम न था। बरामदे में कई कुत्ते जंजीर में बंधे खड़े थे। एक तरफ कई घोड़े बंधे हुए थे। कुंवर साहब को शिकार का बहुत शौक था। कभी-कभी कश्मीर तक चक्कर लगाया करते थे। इस समय वह सामने कमरे में बैठे हुए सितार बजा रहे थे। एक कोने में कई बंदूकें और बर्छियां रखी हुई थीं। दूसरी ओर एक बड़ी मेज पर एक घड़ियाल बैठा था। पद्मसिंह कमरे में आए, तो उसे देखकर एक बार चौंक पड़े। खाल में ऐसी सफाई से भूसा भरा गया था कि उसमें जान-सी पड़ गई थी।
कुंवर साहब ने शर्माजी का बड़े प्रेम से स्वागत किया– आइए, महाशय, आपके तो दर्शन दुर्लभ हो गए। घर से कब आए?
पद्मसिंह– कल आया हूं।
कुंवर– चेहरा उतरा हुआ है, बीमार थे क्या?
पद्मसिंह– जी नहीं, बहुत अच्छी तरह से।
कुंवर– कुछ जलपान कीजिएगा?
पद्मसिंह– नहीं क्षमा कीजिए, क्या सितार का अभ्यास हो रहा है?
कुंवर– जी हां, मुझे तो अपना ही सितार पसंद है। हारमोनियम और प्यानो सुनकर मुझे मतली-सी होने लगती है। इन अंग्रेजी बाजों ने हमारे संगीत को चौपट कर दिया, इसकी चर्चा ही उठ गई। जो कुछ कसर रह गई थी, वह थिएटरों ने पूरी कर दी। बस, जिसे देखिए, गजल और कव्वाली की रट लगा रहा है। थोड़े दिनों में धनुर्विद्या की तरह इसका भी लोप हो जाएगा। संगीत से हृदय में पवित्र भाव पैदा होते हैं। जब से गाने का प्रचार कम हुआ, हम लोग भाव-शून्य हो गए और इसका सबसे बुरा असर हमारे साहित्य पर पड़ा है। कितने शोक की बात है, जिस देश में रामायण जैसे अमूल्य ग्रंथ की रचना हुई, सूरसागर जैसा आनंदमय काव्य रचा गया, उसी देश में अब साधारण उपन्यासों के लिए हमको अनुवाद का आश्रय लेना पड़ता है। बंगाल और महाराष्ट्र में अभी गाने का कुछ प्रचार है, इसीलिए वहां भावों का ऐसा शैथिल्य नहीं है, वहां रचना और कल्पना-शक्ति का ऐसा अभाव नहीं है। मैंने तो हिन्दी साहित्य को पढ़ना ही छोड़ दिया। अनुवादों को निकाल डालिए, तो नवीन हिन्दी साहित्य में हरिश्चन्द्र के दो-चार नाटकों और चन्द्रकान्ता सन्तति के सिवा और कुछ रहता ही नहीं। संसार का कोई साहित्य इतना दरिद्र न होगा। उस पर तुर्रा यह है कि जिन महानुभावों ने दो-एक अंग्रेजी ग्रंथों के अनुवाद मराठी और बंगला अनुवादों की सहायता से कर लिए, वे अपने को धुरंधर साहित्यज्ञ समझने लगे हैं। एक महाशय ने कालिदास के कई नाटकों के पद्यबद्ध अनुवाद किए हैं, लेकिन वे अपने को हिन्दी का कालिदास समझते हैं। एक महाशय ने ‘मिल’ के दो ग्रंथों का अनुवाद किया है और वह भी स्वतंत्र नहीं, बल्कि गुजराती, मराठी आदि अनुवादों के सहारे, पर वह अपने मन में ऐसे संतुष्ट हैं, मानो उन्होंने हिन्दी साहित्य का उद्धार कर दिया। मेरा तो यह निश्चय हो जाता है कि अनुवादों से हिन्दी का अपकार हो रहा है। मौलिकता को पनपने का अवसर नहीं मिलने पाता।
पद्मसिंह को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कुंवर साहब का साहित्य से इतना परिचय है। वह समझते थे कि इन्हें पोलो और शिकार के सिवाय और किसी से प्रेम न होगा। वह स्वयं हिन्दी साहित्य से अपरिचित थे, पर कुंवर साहब के सामने अपनी अनभिज्ञता प्रकट करते संकोच होता था। उन्होंने इस तरह मुस्कुराकर देखा, मानो यह सब बातें उन्हें पहले ही से मालूम थीं, और बोले– आपने तो ऐसा प्रश्न उठाया, जिस पर दोनों पक्षों की ओर से बहुत कुछ कहा जा सकता है। पर इस समय मैं आपकी सेवा में किसी और ही काम से आया हूं। मैंने सुना है कि हिंदू मेंबरों के जलसे में आपने सेठों का पक्ष ग्रहण किया।
कुंवर साहब ठठाकर हंसे। उनकी हंसी कमरे में गूंज उठी। पीतल की ढाल, जो दीवार से लटक रही थी, इस झंकार से थरथराने लगी। बोले– सच कहिए, आपने किससे सुना?
पद्मसिंह इस कुसमय हंसी का तात्पर्य न समझकर कुछ भौंचक-से हो गए। उन्हें मालूम हुआ कि कुंवर साहब मुझे बनाना चाहते हैं। चिढ़कर बोले– सभी कह रहे हैं, किस-किस का नाम लूं?
कुंवर साहब ने फिर जोर से कहकहा मारा और हंसते हुए पूछा– और आपको विश्वास भी आ गया?
पद्मसिंह को अब इसमें कोई संदेह न रहा कि यह सब मुझे झेंपने का स्वांग है, जोर देकर बोले, अविश्वास करने के लिए मेरे पास कोई कारण नहीं है।
कुंवर– कारण यही है कि मेरे साथ घोर अन्याय होगा। मैंने अपनी समझ में अपनी संपूर्ण शक्ति आपके प्रस्ताव के समर्थन में खर्च कर दी थी। यहां तक कि मैंने विरोध को गंभीर विचार के लायक भी न सोचा। व्यंग्योक्ति ही से काम लिया। (कुछ याद करके) हां, एक बात हो सकती है। समझ गया। (फिर कहकहा मारकर) अगर यह बात है, तो मैं कहूंगा कि म्युनिसिपैलिटी बिल्कुल बछिया के ताऊ लोगों से ही भरी हुई है। व्यंग्योक्ति तो आप समझते ही होंगे। बस, यह सारा कसूर उसी का है। किसी सज्जन ने उसका भाव न समझा। काशी के सुशिक्षित, सम्मानित म्युनिसिपल कमिश्नरों में किसी ने भी एक साधारण-सी बात न समझी। शोक! महाशोक!! महाशय, आपको बड़ा कष्ट हुआ। क्षमा कीजिए। मैं इस प्रस्ताव का हृदय से अनुमोदन करता हूं।
पद्मसिंह भी मुस्कुराए, कुंवर साहब की बातों पर विश्वास आया। बोले– अगर इन लोगों ने ऐसा धोखा खाया, तो वास्तव में उनकी समझ बड़ी मोटी है। मगर प्रभाकर राव धोखे में आ जाएं, यह समझ में नहीं आता, पर ऐसा मालूम होता है कि नित्य अनुवाद करते-करते उनकी बुद्धि भी गायब हो गई।
पद्मसिंह जब यहां से चले, तो उनका मन ऐसा प्रसन्न था, मानो वह किसी बड़े रमणीक स्थान की सैर करके आए हों। कुंवर साहब के प्रेम और शील ने उन्हें वशीभूत कर लिया था।
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सदन जब घर पर पहुंचा, तो उसके मन की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो बरसों की कमाई लिए, मन में सहस्रों मंसूबे बांधता, हर्ष से उल्लसित घर आए और यहां संदूक खोलने पर उसे मालूम हो कि थैली खाली पड़ी है।
विचारों की स्वतंत्रता विद्या, संगति और अनुभव पर निर्भर होती है। सदन इन सभी गुणों से रहित था। यह उसके जीवन का वह समय था, जब हमको अपने धार्मिक विचारों पर, अपनी सामाजिक रीतियों पर एक अभिमान-सा होता है। हमें उनमें कोई त्रुटि नहीं दिखाई देती, जब हम अपने धर्म के विरुद्ध कोई प्रमाण या दलील सुनने का साहस नहीं कर सकते, जब हममें क्या और क्यों का विकास नहीं होता। सदन को घर से निकल भागना स्वीकार होता, इसके बदले कि वह घर की स्त्रियों को गंगा नहलाने ले जाए। अगर स्त्रियों की हंसी की आवाज कभी मरदाने में जाती तो वह तेवर बदले घर में आता और अपनी मां को आड़े हाथों लेता। सुभद्रा ने अपनी सास का शासन भी ऐसा कठोर न पाया था। आत्म-पतन को वह दार्शनिक की उदार दृष्टि से नहीं, शुष्क योगी की दृष्टि से देखता था कि उसके गांव में एक ठाकुर ने एक बेड़िन बैठा ली थी, तो सारे गांव ने उसके द्वार पर आना-जाना छोड़ दिया था और इस तरह उसके पीछे पड़े कि उसे विवश होकर बेड़िन को घर से निकालना पड़ा। निःसंदेह वह सुमनबाई पर जान देता था, लेकिन उनके लौकिक-शास्त्र में यह प्रेम उतना अक्षम्य न था, जितना सुमन की परछाईं का उसके घर में आ जाना। उसने अब तक सुमन के यहां पान तक न खाया था। वह अपनी कुल-मर्यादा और सामाजिक प्रथा को अपनी आत्मा से कहीं बढ़कर महत्त्व की वस्तु समझता था। उस अपमान और निंदा की कल्पना ही उसके लिए असह्य थी, जो कुलटा स्त्री से संबंध हो जाने के कारण उसके कुल पर आच्छादित हो जाती। वह जनवासे में पंडित पद्मसिंह की बातें सुन-सुनकर अधीर हो रहा था। वह डरता था कि चाचा साहब को क्या हो गया है? अगर यही बातें किसी दूसरे मनुष्य ने की होतीं, तो वह अवश्य उसकी जबान पकड़ लेता। लेकिन अपने चाचा से वह बहुत दबता था। उसे उनका प्रतिवाद करने की बड़ी प्रबल इच्छा हो रही थी, उसकी तार्किक शक्ति कभी इतनी सतेज न हुई थी, और वाद-विवाद तर्क ही तक रहता, तो वह जरूर उनसे उलझ पड़ता। लेकिन मदनसिंह की उद्दंडता ने उसके प्रतिवाद की उत्सुकता को सहानुभूति के रूप में परिणत कर दिया।
इधर से निराश होकर सदन का लालसापूर्ण हृदय फिर सुमन की ओर लपका। विषय-वासना का चस्का पड़ जाने के बाद उसकी प्रेम-कल्पना निराधार नहीं रह सकती थी। उसका हृदय एक बार प्रेम-दीपक से आलोकित होकर अब अंधकार में नहीं रहना चाहता था। वह पद्मसिंह के साथ ही काशी चला गया।
किंतु यहां आकर वह एक बड़ी दुविधा में पड़ गया। उसे संशय होने लगा कि कहीं सुमनबाई को ये सब समाचार मालूम न हो गए हों। वह वहां स्वयं तो न रही होगी, लोगों ने उसे अवश्य ही त्याग दिया होगा, लेकिन उसे विवाह की सूचना जरूर दी होगी। ऐसा हुआ होगा तो कदाचित् वह मुझे सीधे मुंह बात न करेगी। संभव है, वह मेरा तिरस्कार भी करे। लेकिन संध्या होते ही उसने कपड़े बदले, घोड़ा कसवाया और दालमंडी की ओर चला। प्रेम-मिलाप की आनंदपूर्ण कल्पना के सामने वे शंकाएं निर्मूल हो गईं। वह सोच रहा था कि सुमन मुझसे पहले क्या कहेगी, और मैं उसका क्या उत्तर दूंगा। कहीं उसे कुछ न मालूम हो और वह जाते ही प्रेम से मेरे गले लिपट जाए और कहे कि तुम बड़े निठुर हो! इस कल्पना ने उसकी प्रेमाग्नि को और भी भड़काया, उसने घोड़े को एड़ लगाई और एक क्षण में दालमंडी के निकट आ पहुंचा। पर जिस प्रकार एक खिलाड़ी लड़का पाठशाला के द्वार पर भीतर जाते हुए डरता है, उसी प्रकार सदन दालमंडी के सामने आकर ठिठक गया। उसकी प्रेमकांक्षा मंद हो गई। वह धीरे-धीरे एक ऐसे स्थान पर आया, जहां से सुमन की अट्टालिका साफ दिखाई देती थी। यहां से उसने कातर नेत्रों से उस मकान की ओर देखा। द्वार बंद था, ताला पड़ा हुआ था। सदन के हृदय से एक बोझ-सा उतर गया। उसे कुछ वैसा ही आनंद हुआ, जैसा उस मनुष्य को होता है, जो पैसा न रहने पर भी लड़के की जिद से विवश होकर खिलौने की दुकान पर जाता है और उसे बंद पाता है।
लेकिन घर पहुंचकर सदन अपनी उदासीनता पर बहुत पछताया। वियोगी पीड़ा के साथ-साथ उसकी व्यग्रता बढ़ती जाती थी। उसे किसी प्रकार धैर्य न होता था। रात को जब सब लोग खा-पीकर सोए, तो वह चुपके से उठा और दालमंडी की ओर चला। जाड़े की रात थी, ठंडी हवा चल रही थी, चंद्रमा कुहरे की आड़ से झांकता था और किसी घबराए हुए मनुष्य के समान सवेग दौड़ता चला जाता था। सदन दालमंडी तक बड़ी तेजी से आया, पर यहां आकर फिर उसके पैर बंध गए। हाथ-पैर की तरह उत्साह भी ठंडा पड़ गया। उसे मालूम हुआ कि इस समय यहां मेरा आना अत्यंत हास्यास्पद है। सुमन के यहां जाऊं तो वह मुझे क्या समझेगी! उसके नौकर आराम से सो रहे होंगे। वहां कौन मुझे पूछता है! उसे आश्चर्य होता था कि मैं यहां कैसे चला आया! मेरी बुद्धि उस समय कहीं चली गई। अतएव वह लौट पड़ा।
दूसरे दिन संध्या समय वह फिर चला। मन में निश्चय कर लिया था कि अगर सुमन ने मुझे देख लिया और बुलाया तो जाऊंगा, नहीं तो सीधे अपनी राह चला जाऊंगा। उसका मुझे बुलाना ही बतला देगा कि उसका हृदय मेरी तरफ से साफ है। नहीं तो इस घटना के बाद वह मुझे बुलाने ही क्यों लगी। कुछ और आगे बढ़कर उसने फिर सोचा, क्या वह मुझे बुलाने के लिए झरोखे पर बैठी होगी। उसे क्या मालूम कि मैं यहां आ गया। यह नहीं, मुझे एक बार स्वयं उसके पास चलना चाहिए। सुमन मुझसे कभी नाराज नहीं हो सकती। और जो नाराज भी हो तो क्या मैं उसे मना नहीं सकता? मैं उसके सामने हाथ जोड़ूगा, उसके पैर पडूंगा और अपने आंसुओ से उसके मन का मैल धो दूंगा। वह मुझसे कितनी ही रूठे, लेकिन मेरे प्रेम का चिह्न अपने हृदय से नहीं मिटा सकती। आह! वह अगर अपने कमल नेत्रों से आंसू भरे हुए मेरी ओर ताके, तो मैं उसके लिए क्या न कर डालूंगा? यदि उसे कोई चिंता हो तो मैं उस चिंता को दूर करने के लिए अपने प्राण तक समर्पण कर दूंगा। तो क्या वह इस अपराध को क्षमा न करेगी? लेकिन ज्योंही दालमंडी के सामने पहुंचा, उसकी प्रेम-कल्पनाएं उसी प्रकार नष्ट हो गईं, जैसे अपने गांव में संध्या समय नीम के नीचे देवी की मूर्ति देखकर उसकी तर्कनाएं नष्ट हो जाती थीं। उसने सोचा, कहीं वह मुझे देखे और अपने मन में कहे, ‘वह जा रहे हैं, कुंवर साहब, मानो सचमुच किसी रियासत के मालिक हैं! कैसा कपटी, धूर्त है!’ यह सोचते ही उसके पैर बंध गए। आगे न जा सका।
इसी प्रकार कई दिन बीत गए। रात और दिन में उसकी प्रेम-कल्पनाएं, जो बालू की दीवार खड़ी करतीं, वे संध्या समय दालमंडी के सामने अविश्वास के एक ही झोंके में गिर पड़ती थीं।
एक दिन वह घूमते हुए वह क्वींस पार्क जा निकला। वहां एक शामियाना तना हुआ था लोग बैठे हुए प्रोफेसर रमेशदत्त का प्रभावशाली व्याख्यान सुन रहे थे। सदन घोड़े से उतर पड़ा और व्याख्यान सुनने लगा। उसने मन में निश्चय किया कि वास्तव में वेश्याओं से हमारी बड़ी हानि हो रही है। ये समाज के लिए हलाहल के तुल्य हैं। मैं बहुत बचा, नहीं तो कहीं का न रहता। उन्हें अवश्य शहर के बाहर निकाल देना चाहिए। यदि ये बाजार में न होतीं, तो मैं सुमनबाई के जाल में कभी न फंसता।
दूसरे दिन वह फिर क्वींस पार्क की तरफ गया। आज वहां मुंशी अबुलवफा का भावपूर्ण ललित व्याख्यान हो रहा था। सदन ने उसे भी ध्यान से सुना। उसने विचार किया, निःसंदेह वेश्याओं से हमारा उपकार होता है। सच तो है, कि ये न हों, तो हमारे देवताओं की स्तुति करने वाला भी कोई न रहे। यह भी ठीक ही कहा है कि वेश्यागृह ही वह स्थान है, जहां हिंदू-मुसलमान दिल खोलकर मिलते हैं, जहां द्वेष का वास नहीं है, जहां हम जीवन-संग्राम से विश्राम लेने के लिए, अपने हृदय के शोक और दुःख भुलाने के लिए शरण लिया करते हैं। अवश्य ही उन्हें शहर से निकाल देना उन्हीं पर नहीं, सारे समाज पर घोर अत्याचार होगा।
कई दिन के बाद वह विचार फिर पलटा खा गया। यह क्रम बंद न होता था। सदन में स्वच्छंद विचार की योग्यता न थी। वह किसी विषय के दोष और गुण तौलने और परखने का सामर्थ्य न रखता था। अतएव प्रत्येक सबल युक्ति उसके विचारों को उलट-पलट देती थी।
उसने एक दिन पद्मसिंह के व्याख्यान का नोटिस देखा। तीन ही बजे से चलने की तैयारी करने लगा और चार बजे बेनीबाग में जा पहुंचा। अभी वहां कोई आदमी न था। कुछ लोग फर्श बिछा रहे थे। वह घोड़े से उतर पड़ा और फर्श बिछाने में लोगों की मदद करने लगा। पांच बजते-बजते लोग आने लगे और आध घंटे में वहां हजारों मनुष्य एकत्र हो गए। तब उसने एक फिटन पर पद्मसिंह को आते देखा। उसकी छाती धड़कने लगी। पहले रुस्तम भाई ने एक छोटी-सी कविता पढ़ी, जो इस अवसर के लिए सैयद तेगअली ने रची थी। उनके बैठने पर लाला विट्ठलदास खड़े हुए। यद्यपि उनकी वक्तृता रूखी थी, न कहीं भाषण-लालित्य का पता था, न कटाक्षों का, पर लोग उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुनते रहे। उनके निःस्वार्थ सार्वजनिक कृत्यों के कारण उन पर जनता की बड़ी श्रद्धा थी। उनकी रूखी बातों को लोग ऐसे चाव से सुनते थे, जैसे प्यासा मनुष्य पानी पीता है। उनके पानी के सामने दूसरों का शर्बत फीका पड़ जाता था। अंत में पद्मसिंह उठे। सदन के हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी, मानों कोई असाधारण बात होने वाली है। व्याख्यान अत्यंत रोचक और करुणा से परिपूर्ण था। भाषा की सरलता और सरसता मन को मोहती थी। बीच-बीच में उनके शब्द ऐसे भावपूर्ण हो जाते कि रखने का प्रस्ताव इसलिए नहीं किया कि हमें उनसे घृणा है। हमें उनसे घृणा करने का कोई अधिकार नहीं है। यह उनके साथ घोर अन्याय होगा। यह हमारी ही कुवासनाएं, हमारे ही सामाजिक अत्याचार, हमारी ही कुप्रथाएं हैं जिन्होंने वेश्याओं का रूप धारण किया। यह दालमंडी हमारे ही जीवन का कलुषित प्रतिबिंब, हमारे ही पैशाचिक अधर्म का साक्षात स्वरूप है। हम किस मुंह से उनसे घृणा करें। उनकी अवस्था बहुत शोचनीय है। हमारा कर्त्तव्य है कि हम उन्हें सुमार्ग पर लाएं, उनके जीवन को सुधारें और यह तभी हो सकता है, जब वे शहर से बाहर दुर्व्यसनों से दूर रहें। हमारे सामाजिक दुराचार अग्नि के समान हैं, और अभागिन रमणियां तृण के समान। अगर अग्नि को शांत करना चाहते हैं तो तृण को उससे दूर कर दीजिए, तब अग्नि आप ही-आप शांत हो जाएगी।
सदन तन्मय होकर इस व्याख्यान को सुनता रहा। जब उसके पास वाले मनुष्य व्याख्यान की प्रशंसा करते या बीच-बीच में करतल ध्वनि होने लगती, तो सदन का हृदय गद्गद हो जाता था। लेकिन उसे यह देखकर आश्चर्य होता था कि श्रोतागण एक-एक करके उठे चले जाते हैं। उनमें अधिकांश वे लोग थे, जो वेश्याओं की निंदा और वेश्यागामियों पर चुभने वाली चुटकियां सुनने आए थे। उन्हें पद्मसिंह की यह उदारता असंगत-सी जान पड़ती थी।
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सदन को व्याख्यानों की ऐसी चाट पड़ी कि जहां कहीं व्याख्यान की खबर पाता, वहां अवश्य जाता, दोनों पक्षों की बातें महीनों सुनने और उन पर विचार करने से उसमें राय स्थिर करने की योग्यता आने लगी। अब वह किसी युक्ति की नवीनता का एकाएक मोहित न हो जाता था, वरन् प्रमाणों से सत्यासत्य का निर्णय करने की चेष्टा करता था। अंत में उसे यह अनुभव होने लगा कि व्याख्यानों में अधिकांश केवल शब्दों के आडंबर होते हैं, उनमें कोई मार्मिक तत्त्वपूर्ण बात या तो होती ही नहीं, या वही पुरानी युक्तियां नई बनाकर दोहराई जाती हैं। उसमें समालोचक दृष्टि उत्पन्न हो गई। उसने अपने चाचा का पक्ष ग्रहण कर लिया।
लेकिन अपनी अवस्था के अनुकूल उसकी समालोचना पक्षपात से भरी हुई और तीव्र होती थी। उसमें इतनी उदारता न थी कि विपक्षियों की नेकनीयती को स्वीकार करे। उसे निश्चय था कि जो लोग इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं, वह सभी विषय-वासना के गुलाम हैं, इन भावों का उस पर इतना प्रभाव पड़ा कि उसने दालमंडी की ओर जाना छोड़ दिया। वह किसी वेश्या को पार्क में फिटन पर टहलती या बैठी देख लेता, तो उसे ऐसा क्रोध आता कि उसे जाकर उठा दूं। उसका वश चलता तो इस समय वह दालमंडी की ईंट-से-ईंट बजा देता। इस समय नाच करने वाले और देखने वाले दोनों ही उसकी दृष्टि में संसार के सबसे पतित प्राणी थे। वह उन्हें कहीं अकेले पा जाता, तो कदाचित् उनके साथ कुछ असभ्यता से पेश आता। यद्यपि अभी तक उसके मन में शंकाएं थीं, पर इस प्रस्ताव के उपकारी होने में उसे कोई संदेह न था। इसलिए वह शंकाओं को दबाना ही उचित समझता था कि कहीं उन्हें प्रकट करने से उनका पक्ष निर्बल न हो जाए। सुमन अब भी उसके हृदय में बसी हुई थी, उसकी प्रेम-कल्पनाओं से अब भी उसका हृदय सजग होता रहता था। सुमन का लावण्यमय स्वरूप उसकी आंखों से कभी न उतरता था। इन्हीं चिंताओं से बचने के लिए एकांत में बैठना छोड़ दिया। सबेरे उठकर गंगा-स्नान करने चला जाता। रात को दस-ग्यारह बजे तक इधर-उधर की किताबें पढ़ता, लेकिन इतने यत्न करने पर भी सुमन उसकी स्मृति से न उतरती थी। वह नाना प्रकार के वेश धारण करके, हृदय नेत्रों के सामने आती और कभी उससे रूठती, कभी मनाती, कभी प्रेम से गले में बांहें डालती, प्रेम से मुस्कराती। एकाएक सदन सचेत हो जाता, जैसे कोई नींद से चौंक पड़े और विघ्नकारी विचारों को हटाकर सोचने लगता, आजकल चाचा इतने उदास क्यों रहते हैं। कभी हंसते नहीं दिखाई देते। जीतन उनके लिए रोज दवा क्यों लाता है? उन्हें क्या हो गया है? इतने में सुमन फिर हृदयसागर में प्रवेश करती और अपने कमलनेत्रों में आंसू भरे हुए कहती–
‘सदन’ तुमसे ऐसी आशा न थी। तुम मुझे समझते हो कि यह नीच वेश्या है, पर मैंने तुम्हारे साथ तो वेश्याओं का-सा व्यवहार नहीं किया, तुमको तो मैंने अपनी प्रेम-संपत्ति सौंप दी थी। क्या उसका तुम्हारी दृष्टि में कुछ भी मूल्य नहीं है?’ सदन फिर चौंक पड़ता और मन को उधर से हटाने की चेष्टा करता। उसने एक व्याख्यान में सुना था कि मनुष्य का जीवन अपने हाथों में है, वह अपने को जैसा चाहे बना सकता है, इसका मूलमंत्र यही है कि बुरे, क्षुद्र, अश्लील विचार मन में न आने पाएं; वह बलपूर्वक इन विचारों को हटाता रहे और उत्कृष्ट विचारों तथा भावों से हृदय को पवित्र रखे। सदन इस सिद्धांत को कभी न भूलता था। उस व्याख्यान में उसने यह भी सुना था कि जीवन को उच्च बनाने के लिए उच्च शिक्षा की आवश्यकता नहीं, केवल शुद्ध विचारों और पवित्र भावों की आवश्यकता है। सदन को इस कथन से बड़ा संतोष हुआ था। इसलिए वह अपने विचारों को निर्मल रखने का यत्न करता रहता। हजारों मनुष्यों ने उस व्याख्यान में सुना था कि प्रत्येक कुविचार हमारे इस जीवन को ही नहीं, आने वाले जीवन को भी नीचे गिरा देता है। लेकिन औरों ने, जो कुछ विज्ञ थे, सुना और भूल गए, सरल हृदय सदन ने सुना और गांठ से बांध लिया। जैसे कोई दरिद्र मनुष्य सोने की एक गिरी हुई चीज पा जाए और उसे अपने प्राण से भी प्रिय समझे। सदन इस समय आत्म-सुधार की लहर में बह रहा था। रास्ते में अगर उसकी दृष्टि किसी युवती पर पड़ जाती, तो तुरंत ही अपने को तिरस्कृत करता और मन को समझाता कि इस क्षण-भर के नेत्र-सुख के लिए तू अपने भविष्य जीवन का सर्वनाश किए डालता है। चेतावनी से उसकी मन को शांति होती थी।
एक दिन सदन को गंगा– स्नान के लिए जाते हुए चौक में वेश्याओं का एक जुलूस दिखाई दिया। नगर की सबसे नामी-गिरामी वेश्या ने एक उर्स (धार्मिक जलसा) किया था। ये वेश्याएं वहां से आ रही थीं। सदन इस दृश्य को देखकर चकित हो गया। सौंदर्य, सुवर्ण और सौरभ का ऐसा चमत्कार उसने कभी न देखा था। रेशम, रंग और रमणीयता का ऐसा अनुभव दृश्य, श्रृंगार और जगमगाहट की ऐसी अद्भुत छटा उसके लिए बिल्कुल नई थी। उसने मन को बहुत रोका, पर न रोक सका। उसने उन अलौकिक सौंदर्य-मूर्तियों को एक बार आंख भरकर देखा। जैसे कोई विद्यार्थी महीनों से कठिन परिश्रम के बाद परीक्षा से निवृत्त होकर आमोद-प्रमोद में लीन हो जाए। एक निगाह से मन तृप्त न हुआ, तो उसने फिर निगाह दौड़ाई, यहां तक कि उसकी निगाहें उस तरफ जम गईं और वह चलना भूल गया। मूर्ति के समान खड़ा रहा। जब जुलूस निकल गया तो उसे सुधि आई, चौंका, मन को तिरस्कृत करने लगा। तूने महीनों की कमाई एक क्षण में गंवाई? वाह! मैंने अपनी आत्मा का कितना पतन कर दिया? मुझमें कितनी निर्बलता है? लेकिन अंत में उसने अपने को समझाया कि केवल इन्हें देखने ही से मैं पाप का भागी थोड़े ही हो सकता हूं? मैंने इन्हें पाप-दृष्टि से नहीं देखा। मेरा हृदय कुवासनाओं से पवित्र है। परमात्मा की सौंदर्य सृष्टि से पवित्र आनंद उठाना हमारा कर्त्तव्य है।
यह सोचते हुए वह आगे चला, पर उसकी आत्मा को संतोष न हुआ। मैं अपने ही को धोखा देना चाहता हूं? यह स्वीकार कर लेने में क्या आपत्ति है कि मुझसे गलती हो गई। हां, हुई, और अवश्य हुई। मगर मन की वर्तमान अवस्था के अनुसार मैं उसे क्षम्य समझता हूं। मैं योगी नहीं, संन्यासी नहीं, एक बुद्धिमान मनुष्य हूं। इतना ऊंचा आदर्श सामने रखकर मैं उसका पालन नहीं कर सकता। आह! सौंदर्य भी कैसी वस्तु है! लोग कहते हैं कि अधर्म से मुख की शोभा जाती रहती है। पर इन रमणियों का अधर्म उनकी शोभा को और भी बढ़ाता है। कहते हैं, मुख हृदय का दर्पण है। पर यह बात भी मिथ्या ही जान पड़ती है।
सदन ने फिर मन को संभाला और उसे इस ओर से विरक्त करने के लिए इस विषय के दूसरे पहलू पर विचार करने लगा। हां, वे स्त्रियां बहुत सुंदर हैं, बहुत ही कोमल हैं, पर उन्होंने अपने स्वर्गीय गुणों का कैसा दुरुपयोग किया है? उन्होंने अपनी आत्मा को कितना गिरा दिया है? हां! केवल इन रेशमी वस्त्रों के लिए, इन जगमगाते हुए आभूषणों के लिए उन्होंने अपनी आत्माओं का विक्रय कर डाला है। वे आंखें, जिनसे प्रेम की ज्योति निकलनी चाहिए थी, कपट, कटाक्ष और कुचेष्टाओं से भरी हुई हैं। वे हृदय, जिनमें विशुद्ध निर्मल प्रेम का स्रोत बहना चाहिए था, कितनी दुर्गंध और विषाक्त मलिनता से ढंके हुए हैं। कितनी अधोगति है।
इन घृणात्मक विचारों से सदन को कुछ शांति हुई। वह टहलता हुआ गंगा-तट की ओर चला। इसी विचार में आज उसे देर हो गई थी। इसलिए वह उस घाट पर न गया, जहां वह नित्य नहाया करता था। वहां भीड़-भाड़ हो गई होगी, अतएव उस घाट पर गया, जहां विधवाश्रम स्थित था। वहां एकांत रहता था। दूर होने के कारण शहर के लोग वहां कम जाते थे।
घाट के निकट पहुंचने पर सदन ने एक स्त्री को घाट की ओर से आते देखा। तुरंत पहचान गया। यह सुमन थी, पर कितनी बदली हुई। न वह लंबे-लंबे केश थे, न वह कोमल गति, न वह हंसते हुए गुलाब के-से होंठ; न वह चंचल ज्योति से चमकती हुई आंखें, न वह बनाव-सिंगार, न वह रत्नजटित आभूषणों की छटा, वह केवल सफेद साड़ी पहने हुए थी। उसकी चाल में गंभीरता और मुख से नैराश्य भाव झलकता था। काव्य वही था, पर अलंकार-विहीन, इसलिए सरल और मार्मिक। उसे देखते ही सदन प्रेम से विह्वल होकर, कई पग बड़े वेग से चला, पर उसका यह रूपांतर देखा तो ठिठक गया, मानो उसे पहचानने में भूल हुई, मानो वह सुमन नहीं कोई और स्त्री थी। उसका प्रेमोत्साह भंग हो गया। समझ में न आया कि यह कायापलट क्यों हो गया? उसने फिर सुमन की ओर देखा। वह उसकी ओर तक ताक रही थी, पर उसकी दृष्टि में प्रेम की जगह एक प्रकार की चिंता थी, मानो वह उन पिछली बातों को भूल गई है या भूलना चाहती है। मानो वह हृदय की दबी हुई आग को उभारना नहीं चाहती। सदन को ऐसा अनुमान हुआ कि वह मुझे नीच, धोखेबाज और स्वार्थी समझ रही है। उसने एक क्षण के बाद फिर उसकी ओर देखा– यह निश्चय करने के लिए कि मेरा अनुमान भ्रांतिपूर्ण तो नहीं है। फिर दोनों की आंखें मिलीं, पर मिलते ही हट गईं। सदन को अपने अनुमान का निश्चय हो गया। निश्चय के साथ ही अभिमान का उदय हुआ। उसने अपने मन को धिक्कारा। अभी-अभी मैंने अपने को इतना समझाया है और इतनी देर में फिर उन्हीं कुवासनाओं में पड़ गया। उसने फिर सुमन की तरफ नहीं देखा। वह सिर झुकाए उसके सामने से निकल गई। सदन ने देखा, उसके पैर कांप रहे थे, वह जगह से न हिला, कोई इशारा भी न किया। अपने विचार में उसने सुमन पर सिद्ध कर दिया कि अगर तुम मुझसे एक कोस भागोगी, तो मैं तुमसे सौ कोस भागने को प्रस्तुत हूं। पर उसे यह ध्यान न रहा कि मैं अपनी जगह मूर्तिवत् खड़ा हूं। जिन भावों को उसने गुप्त रखना चाहा, स्वयं उन्हीं भावों की मूर्ति बन गया।
जब सुमन कुछ दूर निकल गई, तो वह लौट पड़ा और उसके पीछे अपने को छिपाता हुआ चला। वह देखना चाहता था कि सुमन कहां जाती है। विवेक ने वासना के आगे सिर झुका लिया।
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जिस दिन से बारात लौट गई, उसी दिन से कृष्णचन्द्र फिर से बाहर नहीं निकले। मन मारे हुए अपने कमरे में बैठे रहते। उन्हें अब किसी को अपना मुंह दिखाते लज्जा आती थी। दुश्चरित्रा सुमन ने उन्हें संसार की दृष्टि में चाहे कम गिराया हो, पर वह अपनी दृष्टि में कहीं के न रहे। वे अपने अपमान को सहन न कर सकते थे। वे तीन-चार साल कैद रहे, फिर भी अपनी आंखों में इतनें नीचे नहीं गिरे थे। उन्हें इस विचार से संतोष हो गया था कि दंड-भोग मेरे कुकर्म का फल है। लेकिन इस कालिमा ने उनके आत्मगौरव का सर्वनाश कर दिया। वह अब नीच मनुष्यों के पास भी नहीं जाते थे, जिनके साथ बैठकर वह चरस की दम लगाया करते थे। वह जानते थे कि मैं उनसे भी नीचे गिर गया हूं। उन्हें मालूम होता था कि सारे संसार में मेरी ही निंदा हो रही है। लोग कहते होंगे कि इसकी बेटी…यह खयाल आते ही वह मर्यादा का नाश करेगी, तो मैंने उसका गला घोंट दिया होता। यह मैं जानता हूं कि वह अभागिनी थी, किसी बड़े धनी कुल में रहने योग्य थी, भोग-विलास पर जान देती थी। पर यह मैं नहीं जानता था कि उसकी आत्मा इतनी निर्बल है। संसार में किसके दिन समान होते हैं? विपत्ति सभी पर आती है। बड़े-बड़े धनवानों की स्त्रियां अन्न-वस्त्र को तरसती हैं, पर कोई उनके मुख पर चिंता का चिह्न भी नहीं देख सकता। वे रो-रोकर दिन काटती है, कोई उनके आंसू नहीं देखता। वे किसी के सामने अपनी विपत्ति की कथा नहीं कहतीं। वे मर जाती हैं, पर किसी का एहसान सिर पर नहीं लेतीं। वे देवियां हैं। वे कुल-मर्यादा के लिए जीती हैं और उसकी रक्षा करती हुई मरती हैं, पर यह दुष्टा, यह अभागिन…और उसका पति कैसा कायर है कि उसने उसका सिर नहीं काट डाला! जिस समय उसने घर से बाहर पैर निकाला, उसने क्यों उसका गला नहीं दबा दिया? मालूम होता है, वह भी नीच, दुराचारी, नार्मद है। उसमें अपनी कुल-मर्यादा का अभिमान होता, तो यह नौबत न आती। उसे अपने अपमान की लाज न होगी, पर मुझे है और मैं सुमन को इसका दंड दूंगा। जिन हाथों से उसे पाला, खिलाया, उन्हीं हाथों से उसके गले पर तलवार चलाऊंगा। यही आंखें उसे खेलती देखकर प्रसन्न होती थीं, अब उसे रक्त में लोटती देखकर तृप्त होंगी। मिटी हुई मर्यादा के पुनरुद्धार का इसके सिवा कोई उपाय नहीं। संसार को मालूम हो जाएगा कि कुल पर मरने वाले पापाचरण का क्या दंड देते हैं।
यह निश्चय करके कृष्णचन्द्र अपने उद्देश्य को पूरा करने के साधनों पर विचार करने लगे। जेलखाने में उन्होंने अभियुक्तों से हत्याकांड के कितने ही मंत्र सीखे थे रात-दिन इन्हीं बातों की चर्चाएं रहती थीं। उन्हें सबसे उत्तम साधन यहीं मालूम हुआ कि चलकर तलवार से उसको मारूं और तब पुलिस में जाकर आप ही इसकी खबर दूं। मजिस्ट्रेट के सामने मेरा जो बयान होगा, उसे सुनकर लोगों की आंखें खुल जाएंगी। मन-ही-मन इस प्रस्ताव से पुलकित होकर वह उस बयान की रचना करने लगे। पहले कुछ सभ्य समाज की विलासिता का उल्लेख करूंगा, तब पुलिस के हथकंडों की कलई खोलूंगा, इसके पश्चात वैवाहिक अत्याचारों का वर्णन करूंगा। दहेज-प्रथा पर ऐसी चोट करूंगा कि सुनकर लोग दंग रह जाएं। पर सबसे महत्त्वशाली वह भाग होगा, जिसमें मैं दिखाऊंगा कि अपनी कुल-मर्यादा के मिटाने वाले हम हैं। हम अपनी कायरता से, प्राण-भय से, लोक-निंदा के डर से, झूठे संतान-प्रेम से, अपनी बेहयाई से, आत्मगौरव की हीनता से, ऐसे पापाचरणों को छिपाते हैं, उन पर पर्दा डाल देते हैं। इसी का यह परिणाम है कि दुर्बल आत्माओं का साहस इतना बढ़ गया है।
कृष्णचन्द्र ने यह संकल्प तो कर लिया, पर अभी तक उन्होंने यह न सोचा कि शान्ता की क्या गति होगी? इस अपमान की लज्जा ने उनके हृदय में और किसी चिंता के लिए स्थान न रखा था। उनकी दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो अपने बालक को मृत्यु-शैया पर छोड़कर अपने किसी शत्रु से बैर चुकाने के लिए उद्यत हो जाए, जो डोंगी पर बैठा हुआ पानी में सर्प देखकर उसे मारने के लिए झपटे और उसे यह सुधि न रहे कि इस झपट से डोंगी डूब जाएगी।
संध्या का समय था। कृष्णचन्द्र ने आज हत्या-मार्ग पर चलने का निश्चय कर लिया था। इस समय उनका चित्त कुछ उदास था। यह वही उदासीनता थी, जो किसी भयंकर काम के पहले चित्त पर आच्छादित हो जाया करती है। कई दिनों तक क्रोध के वेग से उत्तेजित और उन्मत्त रहने के बाद उनका मन इस समय कुछ शिथिल हो गया था। जैसे वायु कुछ समय तक वेग से चलने के बाद शांत हो जाती है। चित्त की ऐसी अवस्था में यह उदासीनता बहुत ही उपयुक्त होती है। उदासीनता वैराग्य का सूक्ष्य स्वरूप है, जो थोड़ी देर के लिए मनुष्य को अपने जीवन पर विचार करने की क्षमता प्रदान कर देती है, उस समय पूर्वस्मृतियां हृदय में क्रीड़ा करने लगती हैं। कृष्णचन्द्र को वे दिन याद आ रहे थे, जब उनका जीवन आनंदमय था, जब वह नित्य संध्या समय अपनी दोनों पुत्रियों को साथ लेकर सैर करने जाया करते थे। कभी सुमन को गोद में उठाते, कभी शान्ता को। जब वे लौटते तो गंगाजली किस तरह प्रेम से दौड़कर दोनों लड़कियों को प्यार करने लगती थी। किसी आनंद का अनुभव इतना सुखद नहीं होता, जितना उसका स्मरण। वही जंगल और पहाड़, जो कभी आपको सुनसान और बीहड़ प्रतीत होते थे, वह नदियां और झीलें जिनके तट पर से आप आंखें बंद किए निकल जाते थे, कुछ समय के पीछे एक अत्यंत मनोरम, शांतिमय रूप धारण करके स्मृतिनेत्रों के सामने आती है और फिर आप उन्हीं दृश्यों को देखने की आकांक्षा करने लगते हैं। कृष्णचन्द्र उस भूतकालिक जीवन का स्मरण करते-करते गद्गद हो गए। उनकी आंखों से आंसू की बूंदें टपक पड़ी। हाय! उस आनंदमय जीवन का ऐसा विषादमय अंत हो रहा है! मैं अपने ही हाथों से अपनी ही गोद की खिलाई हुई लड़की का वध करने को प्रस्तुत हो रहा हूं। कृष्णचन्द्र को सुमन पर दया आई। वह बेचारी कुएं में गिर पड़ी है। क्या मैं अपनी ही लड़की पर, जिसे मैं आंखों की पुतली समझता था, जिसे सुख से रहने के लिए मैंने कोई बात उठा नहीं रखी, इतना निर्दय हो जाऊं कि उस पर पत्थर फेकूं? लेकिन यह दया का भाव कृष्णचन्द्र के हृदय में देर तक न रह सका। सुमन के पापाभिनय का सबसे घृणोत्पादक भाग यह था कि आज उसका दरवाजा सबके लिए खुला हुआ है। हिंदू, मुसलमान सब वहां प्रवेश कर सकते हैं। यह खयाल आते ही कृष्णचन्द्र का हृदय लज्जा और ग्लानि से भर गया।
इतने में पंडित उमानाथ उनके पास आकर बैठ गए और बोले– मैं वकील के पास गया था। उनकी सलाह है कि मुकदमा दायर करना चाहिए!
कृष्णचन्द्र ने चौंककर पूछा– कैसा मुकदमा?
उमानाथ– उन्हीं लोगों पर, जो द्वार से बारात लौटा ले गए।
कृष्णचन्द्र– इससे क्या होगा?
उमानाथ– इससे यह होगा कि या तो वह फिर कन्या से विवाह करेंगे या हर्जाना देंगे।
कृष्णचन्द्र– पर क्या और बदनामी न होगी?
उमानाथ– बदनामी जो कुछ होनी थी हो चुकी, अब किस बात का डर है? मैंने एक हजार रुपए तिलक में दिए, चार-पांच सौ खिलाने-पिलाने में खर्च किए, यह सब क्यों छोड़ दूंगा? यही रुपए कंगाल-कुलीन को दे दूंगा, तो वह खुशी से विवाह करने पर तैयार हो जाएगा। जरा इन शिक्षित महात्माओं की कलई तो खुलेगी।
कृष्णचन्द्र ने लंबी सांस लेकर कहा– मुझे विष दे दो, तब यह मुकदमा दायर करो।
उमानाथ ने क्रुद्ध होकर कहा– आप क्यों इतना डरते हैं?
कृष्णचन्द्र– मुकदमा दायर करने का निश्चय कर लिया है?
उमानाथ– हां, मैंने निश्चय कर लिया है। कल सारे शहर में बड़े-बड़े वकील-बैरिस्टर जमा थे। यह मुकदमा अपने ढंग का निराला है। उन लोगों ने बहुत कुछ देखभाल कर तब यह सलाह दी है। दो वकीलों को तो बयाना तक दे आया हूं।
कृष्णचन्द्र ने निराश होकर कहा– अच्छी बात है। दायर कर दो।
उमानाथ– आप इससे असंतुष्ट क्यों हैं?
कृष्णचन्द्र– जब तुम आप ही नहीं समझते, तो मैं क्या बतलाऊं? जो बात अभी चार गांव में फैली है, वह सारे शहर में फैल जाएगी। सुमन अवश्य ही इजलास पर बुलाई जाएगी, मेरा नाम गली-गली बिकेगा।
उमानाथ– अब इससे कहां तक डरूं? मुझे भी अपनी दो लड़कियों का विवाह करना है। यह कलंक अपने माथे लगाकर उनके विवाह में क्यों बाधा डालूं?
कृष्णचन्द्र– तो तुम यह मुकदमा इसलिए दायर करते हो, जिसमें तुम्हारे नाम पर कोई कलंक न रहे।
उमानाथ ने सगर्व कहा– हां, अगर आप उसका यह अर्थ लगाते हैं तो यही सही। बारात मेरे द्वार से लौटी है। लोगों को भ्रम हो रहा है कि सुमन मेरी लड़की है। सारे शहर में मेरा ही नाम लिया जा रहा है। मेरा दावा दस हजार का होगा। अगर पांच हजार की डिग्री हो गई, तो शान्ता का किसी उत्तम कुल में ठिकाना लग जाएगा। आप जानते हैं, जूठी वस्तु को मिठास के लोभ से लोग खाते हैं। जब तक रुपए का लोभ न होगा शांता का विवाह कैसे होगा? इस प्रकार से मेरे कुल में भी कलंक लग गया। पहले जो लोग मेरे यहां संबंध करने में अपनी बड़ाई समझते थे, वे अब बिना लंबी थैली के सीधे बात भी न करेंगे, समस्या यह है।
कृष्णचन्द्र ने कहा– अच्छी बात है, मुकदमा दायर कर दो। उमानाथ चले गए तो कृष्णचन्द्र ने आकाश की ओर देखकर कहा– प्रभो, अब उठा ले चलो, यह दुर्दशा नहीं सही जाती। आज उन्हें अपमान का वास्तविक अनुभव हुआ। उन्हें विदित हुआ कि सुमन को दंड़ देने से यह कलंक नहीं मिट सकता, जैसे सांप को मारने से उसका विष नहीं उतरता। उसकी हत्या करके उपहास के सिवाय और कुछ न होगा। पुलिस पकड़ेगी; महीनों इधर-उधर मारा-मारा फिरूंगा और इतनी दुर्गति के बाद फांसी पर चढ़ा दिया जाऊंगा। इससे तो कहीं उत्तम यही है कि डूब मरूं। इस दीपक को बुझा दूं, जिसके प्रकाश से ऐसे भयंकर दृश्य दिखाई देते हैं। हाय! यह अभागिनी सुमन बेचारी शान्ता को भी ले डूबी। उसके जीवन का सर्वनाश कर दिया। परमात्मन्! अब तुम्हीं इसके रक्षक हो। इस, असहाय बालिका को तुम्हारे सिवाय और कोई आश्रय नहीं है। केवल मुझे यहां से उठा ले चलो कि इन आंखों से उसकी दुर्दशा न देखूं।
थोड़ी देर में शान्ता कृष्णचन्द्र को भोजन करने के लिए बुलाने आई। विवाह के दिन से आज तक कृष्णचन्द्र ने उसे नहीं देखा था। इस समय उन्होंने उसकी ओर करुण नेत्रों से देखा। धुंधले दीपक के प्रकाश में उन्हें उसके मुख पर एक अलौकिक शोभा दिखाई दी! उसकी आंखें निर्मल आत्मिक ज्योति से चमक रही थीं। शोक और मालिन्य का आभास तक न था। जब से उसने सदन को देखा था, उसे अपने हृदय में एक स्वर्गीय विकास का अनुभव होता था। उसे वहां निर्मल भावों का एक स्रोत-सा बहता हुआ मालूम होता था। उसमें एक अद्भुत आत्मबल का उदय हो गया था। अपनी मामी से वह कभी सीधे मुंह बात न करती थी, पर आजकल घंटों बैठी उसके पैर दबाया करती। अपनी बहनों के प्रति अब उसे जरा भी ईर्ष्या न होती थी। वह अब हंसती हुई कुएं से पानी खींच लाती थी। चक्की चलाने में उसे एक पवित्र आनंद आता था। उसके जीवन में प्रेम का उद्भव हो गया था। सदन उसे न मिला, पर सदन से कहीं उत्तम वस्तु मिल गई। यह सदन का प्रेम था।
कृष्णचन्द्र शान्ता का प्रफुल्ल बदन देखकर विस्मित ही नहीं, भयभीत भी हो गए। उन्हें प्रतीत हुआ कि शोक की विषम वेदना आंसुओं द्वारा प्रकट नहीं हुई, उसने भीषण उन्माद का रूप धारण किया है। उन्हें ऐसा आभासित हुआ कि वह मुझे अपनी कठोर यातना का अपराधी समझ रही है। उन्होंने उसकी ओर कातर नेत्रों से देखकर कहा– शान्ता!
शान्ता ने जिज्ञासु भाव से उनकी ओर देखा।
कृष्णचन्द्र कुंठित स्वर में बोले– आज चार वर्ष हुए कि मेरे जीवन की नाव भंवर में पड़ी हुई है। इस विपत्तिकाल ने मेरा सब कुछ हर लिया, पर अब अपनी संतान की दुर्गति नहीं देखी जाती। मैं जानता हूं कि यह सब मेरे कुकर्म का फल है। अगर मैं पहले ही सावधान हो जाता, तो आज तुमलोगों की यह दुर्दशा न होती। मैं अब बहुत दिन न जीऊंगा। अगर कभी अभागिन सुमन से तुम्हारी भेंट हो जाए, तो कह देना कि मैंने उसे क्षमा किया। उसने जो कुछ किया, उसका दोष मुझ पर है। आज से दो दिन पहले तक मैं उसकी हत्या करने पर तुला हुआ था। पर ईश्वर ने मुझे इस पाप से बचा लिया। उससे कह देना कि वह अपने अभागे बाप और अपनी अभागिनी माता की आत्मा पर दया करे।
यह कहते-कहते कृष्णचन्द्र रुक गए। शान्ता चुपचाप खड़ी रही। अपने पिता पर उसे बड़ी दया आ रही थी। एक क्षण बाद कृष्णचन्द्र बोले– मैं तुमसे भी एक प्रार्थना करता हूं।
शान्ता– कहिए, क्या आज्ञा है?
कृष्णचन्द्र– कुछ नहीं, यही कि संतोष को कभी मत छोड़ना। इस मंत्र से कठिन-से-कठिन समय में भी तुम्हारा मन विचलित न होगा।
शान्ता ताड़ गई कि पिताजी कुछ और कहना चाहते थे, लेकिन संकोचवश न कहकर बात पलट दी। उनके मन में क्या था, यह उससे छिपा न रहा। उसने गर्व से सिर उठा लिया और साभिमान नेत्रों से देखा। उसकी इस विश्वासपूर्ण दृष्टि ने वह सब कुछ और उससे बहुत अधिक कह दिया, जो वह अपनी वाणी से कह सकती थी। उसने मन में कहा, जिसे पातिव्रत जैसा साधन मिल गया है, उसे और किसी साधन की क्या आवश्यकता? इसमें सुख, संतोष और शांति सब कुछ है।
आधी रात बीत चुकी थी। कृष्णचन्द्र घर से बाहर निकले। प्रकृति सुंदरी किसी वृद्धा के समान कुहरे की मोटी चादर ओढ़े निद्रा में मग्न थी। आकाश में चंद्रमा मुंह छिपाए हुए वेग से दौड़ा चला जाता था, मालूम नहीं कहां?
कृष्णचन्द्र के मन में एक तीव्र आकांक्षा उठी। गंगाजली को कैसे देखूं। संसार में यही एक वस्तु उनके आनंदमय जीवन का चिह्न रह गई थी। नैराश्य के घने अंधकार में यही एक ज्योति उनको अपने मन की ओर खींच रही थी। वह कुछ देर तक द्वार पर चुपचाप खड़े रहे, तब एक लंबी सांस लेकर आगे बढ़े। उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो गंगाजली आकाश में बैठी हुई उन्हें बुला रही है।
कृष्णचन्द्र के मन में इस समय कोई इच्छा, कोई अभिलाषा, कोई चिंता न थी। संसार से उनका मन विरक्त हो गया था। वह चाहते थे कि किसी प्रकार जल्दी गंगातट पर पहुंचूं और उसके अथाह जल में कूद पड़ूं। उन्हें भय था कि कहीं मेरा साहस न छूट जाए। उन्होंने अपने संकल्प को उत्तेजित करने के लिए दौड़ना शुरू किया।
लेकिन थोड़ी दूर चलकर वह फिर ठिठक गए और सोचने लगे, पानी में कूद पड़ना ऐसा क्या कठिन है, जहां भूमि से पांव उखड़े कि काम तमाम हुआ। यह स्मरण करके उनका हृदय एक बार कांप उठा। अकस्मात् यह बात उनके ध्यान में आई कि कहीं निकल क्यों न जाऊं? जब यहां रहूंगा ही नहीं, तो अपना अपमान कैसे सुनूंगा? लेकिन इस बात को उन्होंने मन में जमने न दिया। मोह की कपट-लीला उन्हें धोखा न दे सकी। यद्यपि वह धार्मिक प्रकृति के मनुष्य नहीं थे। और अदृश्य के एक अव्यक्त भय से उनका हृदय कांप रहा था, पर अपने संकल्प को दृढ़ रखने के लिए वह अपने मन को यह विश्वास दिला रहे थे कि परमात्मा बड़ा दयालु और करुणाशील है। आत्मा अपने को भूल गई थी। वह उस बालक के समान थी, जो अपनी किसी सखा के खिलौने तोड़ डालने के बाद अपने ही घर में जाते डरता है।
कृष्णचन्द्र इसी प्रकार आगे बढ़ते हुए कोई चार मील चले गए। ज्यों-ज्यों गंगातट निकट आता जाता था, त्यों-त्यों उनके हृदय की गति बढ़ती जाती थी। भय से चित्त अस्थिर हुआ जाता था। लेकिन वह इस आंतरिक निर्बलता को कुछ तो अपने वेग और कुछ तिरस्कार से हटाने की चेष्टा कर रहे थे। हा! मैं कितना निर्लज्ज, आत्मशून्य हूं। इतनी दुर्दशा होने पर भी मरने से डरता हूं। अकस्मात् उन्हें किसी के गाने की ध्वनि सुनाई दी। ज्यों-ज्यों वे आगे बढ़ते थे, त्यों-त्यों वह ध्वनि निकट आती थी। गाने वाला उन्हीं की ओर चला आ रहा था। उस निस्तब्ध रात्रि में कृष्णचन्द्र को वह गाना अत्यंत मधुर मालूम हुआ। कान लगाकर सुनने लगे–
हरि सों ठाकुर और न जन को।
जेहि-जेहि विधि सेवक सुख पावै तेहि विधि राखत तिन को।।
हरि सों ठाकुर और न जन को।
भूखे को भोजन जु उदर को तृषा तोय पट तन को।।
लाग्यो फिरत सुरभि ज्यों सुत संग उचित गमन गृह वन को।।
हरि सों ठाकुर और न जन को।।
यद्यपि गान माधुर्य-रसपूर्ण न था, तथापि वह शास्त्रोक्त था, इसलिए कृष्णचन्द्र को उसमें बहुत आनंद प्राप्त हुआ था। उन्हें इस शास्त्र का अच्छा ज्ञान था। इसने उनके विदग्ध हृदय को शांति प्रदान कर दी।
गाना बंद हो गया और एक क्षण के बाद कृष्णचन्द्र ने एक दीर्घकाल जटाधारी साधु को अपनी ओर आते देखा। साधु ने उनका नाम और स्थान पूछा। उसके भाव से ऐसा ज्ञात हुआ कि वह उनसे परिचित है। कृष्णचन्द्र आगे बढ़ना चाहते थे कि उसने पूछा– इस समय आप इधर कहां जा रहे हैं?
कृष्णचन्द्र– कुछ ऐसा ही काम आ पड़ा है।
साधु– आधी रात को आपका गंगातट पर क्या काम हो सकता है?
कृष्णचन्द्र ने रुष्ट होकर उत्तर दिया– आप तो आत्मज्ञानी हैं। आपको स्वयं जानना चाहिए।
साधु– आत्मज्ञानी तो मैं नहीं हूं, केवल भिक्षुक हूं। इस समय मैं आपको उधर न जाने दूंगा।
कृष्णचन्द्र– आप अपनी राह जाइए। मेरे काम में विघ्न डालने का आपको क्या अधिकार है?
साधु– अधिकार न होता तो मैं आपको रोकता ही नहीं। आप मुझसे परिचित नहीं हैं, पर मैं आपका धर्मपुत्र हूं, मेरा नाम गजाधर पांडे है!
कृष्णचन्द्र– ओहो! आप गजाधर पांडे है। आपने यह भेष कब से धारण कर लिया? आपसे मिलने की मेरी बहुत इच्छा थी। मैं आपसे कुछ पूछना चाहता था।
गजाधर– मेरा स्थान गंगातट पर एक वृक्ष के नीचे है। चलिए, वहां थोड़ी देर विश्राम कीजिए। मैं सारा वृत्तांत आपसे कह दूंगा।
रास्ते में दोनों मनुष्यों में कुछ बातचीत न हुई। थोड़ी देर में वे उस वृक्ष के नीचे पहुंच गए, जहां एक मोटा– सा कुंदा जल रहा था। भूमि पर पुआल बिछा हुआ था और एक मृगचर्म, एक कमंडल और पुस्तकों का एक बस्ता उस पर रखा हुआ था।
कृष्णचन्द्र आग तापते हुए बोले– आप साधु हो गए हैं, सत्य ही कहिएगा, सुमन की यह कुप्रवृत्ति कैसे हो गई?
गजाधर अग्नि के प्रकाश में कृष्णचन्द्र के मुख की ओर मर्मभेदी दृष्टि से देख रहे थे। उन्हें उनके मुख पर उनके हृदय के समस्त भाव अंकित देख पड़ते थे। वह अब गजाधर न थे। सत्संग और विरक्ति ने उनके ज्ञान को विकसित कर दिया था। वह उस घटना पर जितना विचार करते थे, उतना ही उन्हें पश्चात्ताप होता था। इस प्रकार अनुतप्त होकर उनका हृदय सुमन की ओर से बहुत उदार हो गया था। कभी-कभी उनका जी चाहता था कि चलकर उसके चरणों पर सिर रख दूं।
गजाधर बोले– इसका कारण मेरा अन्याय था। यह सब मेरी निर्दयता और अमानुषीय व्यवहार का फल है। वह सर्वगुण संपन्न थी। वह इस योग्य थी कि किसी बड़े घर की स्वामिनी बनती। मुझ जैसा दुष्ट, दुरात्मा, दुराचारी मनुष्य उसके योग्य न था। उस समय मेरी स्थूल दृष्टि उसके गुणों को न देख सकी। ऐसा कोई कष्ट न था, जो उस देवी को मेरे साथ न झेलना पड़ा हो। पर उसने कभी मन मैला न किया। वह मेरा आदर करती थी। पर उसका यह व्यवहार देखकर मुझे उस पर संदेह होता था कि वह मेरे साथ कोई कौशल कर रही है। उसका संतोष, उसकी भक्ति, उसकी गंभीरता मेरे लिए दुर्बोध थी। मैं समझता था, वह मुझसे कोई चाल चल रही है। अगर वह मुझसे छोटी-छोटी वस्तुओं के लिए झगड़ा करती, रोती, कोसती, ताने देती, तो उस पर मुझे विश्वास होता। उसका ऊंचा आदर्श मेरे अविश्वास का कारण हुआ। मैं उसके सतीत्व पर संदेश करने लगा। अंत में वह दशा हो गई कि एक दिन, रात को एक सहेली के घर पर केवल जरा विलंब हो जाने के कारण मैंने उसे घर से निकाल दिया।
कृष्णचन्द्र बात काटकर बोले– तुम्हारी बुद्धि उस समय कहां गई थी? तुमको जरा भी ध्यान न रहा कि तुम इस अपनी निर्दयता से कितने बड़े कुल को कलंकित कर रहे हो?
गजाधर– महाराज, अब मैं क्या बताऊं कि मुझे क्या हो गया था? मैंने फिर उसकी सुध न ली। पर उसका अंतःकरण शुद्ध था। पापाचरण से उसे घृणा थी। अब वह विधवाश्रम में रहती है और सब उससे प्रसन्न हैं। उसकी धर्मनिष्ठा देखकर लोग चकित हो जाते हैं।
गजाधर की बातें सुनकर कृष्णचन्द्र का हृदय सुमन की ओर से कुछ नरम पड़ गया। लेकिन वह जितना ही इधर नरम था, उतना ही दूसरी ओर कठोर हो गया। जैसे साधारण गति से बहती जलधारा दूसरी ओर और भी वेग से बहने लगती है। उन्होंने गजाधर को सरोष नेत्रों से देखा, जैसे कोई भूखा सिंह अपने शिकार को देखता है। उन्हें निश्चय हो रहा था कि यह मनुष्य मेरे कुल को कलंकित करने वाला है। इतना ही नहीं उसने सुमन के साथ भी अन्याय किया है। उसे नाना प्रकार के कष्ट दिए हैं। क्या मैं उसे केवल इसलिए छोड़ दूं कि वह अब अपने दुष्कृत्यों पर लज्जित है? लेकिन उसने ये बातें मुझसे कह क्यों दीं? कदाचित् वह समझता है कि मैं उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यही बात है, नहीं तो वह मेरे सामने अपना अपराध इतनी निर्भयता से क्यों स्वीकार करता? कृष्णचन्द्र ने गजाधर के मनोभावों को न समझा। वह क्षण-भर आग की तरफ ताकते रहे, फिर कठोर स्वर में बोले– गजाधर, तुमने मेरे कुल को डुबो दिया। तुमने मुझे कहीं मुंह दिखाने योग्य न रखा। तुमने मेरी लड़की की जान ले ली– उसका सत्यानाश कर दिया, तिस पर भी तुम मेरे सामने इस तरह बैठे हो, मानो कोई महात्मा हो। तुम्हें चुल्लू-भर पानी में डूब मरना चाहिए।
गजाधर जमीन की मिट्टी खुरच रहे थे। उन्होंने सिर न उठाया।
कृष्णचन्द्र फिर बोले– तुम दरिद्र थे। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं। तुम अगर अपनी स्त्री का उचित रीति से पालन-पोषण नहीं कर सके, तो इसके लिए तुम्हें दोषी नहीं ठहराता। तुम उसके मनोभावों को नहीं जान सके, उसके सद्विचारों का मर्म नहीं समझ सके, इसके लिए भी मैं तुम्हें दोषी नहीं ठहराता। तुम्हारा अपराध यह है कि तुमने उसे घर से निकाल दिया। तुमने उसका सिर क्यों न काट लिया? अगर तुमको उसके पातिव्रत पर संदेह था, तो तुमने उसे मार क्यों नहीं डाला? और यदि इतना साहस नहीं था, तो स्वयं क्यों न प्राण त्याग दिया? विष क्यों न खा लिया? अगर तुमने उसके जीवन का अंत कर दिया होता, तो उसकी यह दुर्दशा न हुई होती, मेरे कुल में यह कलंक न लगता। तुम भी कहोगे कि मैं पुरुष हूं? तुम्हारी इस कायरता पर, निर्लज्जता पर धिक्कार है। जो पुरुष इतना नीच है कि अपनी स्त्री को दूसरों से प्रेम करते देखकर उसका रुधिर खौल नहीं उठता, वह पशुओं से भी गया-बीता है।
गजाधर को अब मालूम हुआ कि सुमन को घर से निकालने की बात कहकर वह ब्रह्मफांस में फंस गए। वह मन में पछताने लगे कि उदारता की धुन में मैं इतना असावधान क्यों हो गया? तिरस्कार की मात्रा भी उनकी आशा से अधिक हो गई। वह न समझे कि तिरस्कार यह रूप धारण करेगा और उससे मेरे हृदय पर इतनी चोट लगेगी। अनुतप्त हृदय वह तिस्कार चाहता है, जिसमें सहानुभूति और सहृदयता हो, वह नहीं जो अपमान सूचक और क्रूरतापूर्ण हो। पका फोड़ा नश्तर का घाव चाहता है, पत्थर का आघात नहीं। गजाधर अपने पश्चाताप पर पछताए। उनका मन अपना पूर्वपक्ष समर्थन करने के लिए अधीर होने लगा।
कृष्णचन्द्र ने गरजकर कहा– क्यों, तुमने उसे मार क्यों नहीं डाला?
गजाधर ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया– मेरा हृदय इतना कठोर नहीं था?
कृष्णचन्द्र– तो घर से क्यों निकाला?
गजाधर– केवल इसलिए कि उस समय मुझे उससे गला छुड़ाने का और कोई उपाय न था।
कृष्णचन्द्र ने मुंह चढ़ाकर कहा– क्यों, जहर खा सकते थे?
गजाधर इस चोट से बिलबिलाकर बोले– व्यर्थ में जान देता?
कृष्णचन्द्र– व्यर्थ जान देना, व्यर्थ जीने से अच्छा है।
गजाधर– आप मेरे जीने को व्यर्थ नहीं कह सकते। आपसे पंडित उमानाथ ने न कहा होगा, पर मैंने इसी याचना-वृत्ति से उन्हें शान्ता के विवाह के लिए पंद्रह सौ रुपए दिए हैं और इस समय भी उन्हीं के पास यह एक हजार रुपए लेकर जा रहा था, जिससे वह कहीं उसका विवाह कर दें।
यह कहते-कहते गजाधर चुप हो गए। उन्हें अनुभव हुआ कि इस बात का उल्लेख करके मैंने अपने ओछेपन का परिचय दिया। उन्होंने संकोच से सिर झुका लिया।
कृष्णचन्द्र ने संदिग्ध स्वर से कहा– उन्होंने इस विषय में मुझसे कुछ नहीं कहा।
गजाधर– यह कोई ऐसी बात भी नहीं थी कि वह आपसे कहते। मैंने केवल प्रसंगवश कह दी। क्षमा कीजिएगा मेरा अभिप्राय केवल यह है कि आत्मघात करके मैं संसार का कोई उपकार न कर सकता था। इस कालिमा ने मुझे अपने जीवन को उज्ज्वल बनाने पर बाध्य किया है। सोई हुई आत्मा को जगाने के लिए हमारी भूलें एक प्रकार की दैविक यंत्रणाएं हैं, जो हमको सदा के लिए सतर्क कर देती हैं। शिक्षा, उपदेश, संसर्ग किसी से भी हमारे ऊपर सुप्रभाव नहीं पड़ता, जितना भूलों के कुपरिणाम को देखकर संभव है आप इसे मेरी कायरता समझें, पर वही कायरता मेरे लिए शांति और सदुद्योग की एक अविरल धारा बन गई है। एक प्राणी का सर्वनाश करके आज मैं सैकड़ों अभागिन कन्याओं का उद्घार करने योग्य हुआ हूं और मुझे यह देखकर असीम आनंद हो रहा है कि यही, सद्प्रेरणा सुमन पर भी अपना प्रभाव डाल रही है। मैंने अपनी कुटी में बैठे हुए उसे कई बार गंगा-स्नान करते देखा है और उसकी श्रद्धा तथा धर्मनिष्ठा को देखकर विस्मित हो गया हूं। उसके मुख पर शुद्धांतःकरण की विमल आभा दिखाई देती है। वह अगर पहले कुशल गृहिणी थी, तो अब परम विदुषी है और मुझे विश्वास है कि एक दिन वह स्त्री समाज का श्रृंगार बनेगी।
कृष्णचन्द्र ने पहले इन वाक्यों को इस प्रकार सुना, जैसे कोई चतुर ग्राहक व्यापारी की अनुरोधपूर्ण बातें सुनता है। वह कभी नहीं भूलता कि व्यापारी उससे अपने स्वार्थ की बातें कर रहा है। लेकिन धीरे-धीरे कृष्णचन्द्र पर इन वाक्यों का प्रभाव पड़ने लगा। उन्हें विदित हुआ कि मैंने उस मनुष्य को कटु वाक्य कहकर दुःख पहुंचाया, जो हृदय से अपनी भूल पर लज्जति है और जिसके एहसानों के बोझ के नीचे मैं दबा हुआ हूं। हा! मैं कैसा कृतघ्न हूं! यह स्मरण कठोर हो जाता है, उतनी ही जल्दी पसीज भी जाता है।
गजाधर ने उनके मुख की ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा– इस समय यदि आप साधु के अतिथि बन जाएं तो कैसा हो? प्रातःकाल मैं आपके साथ चलूंगा। इस कंबल में आपको जाड़ा न लगेगा।
कृष्णचन्द्र ने नम्रता से कहा– कंबल की आवश्यकता नहीं है। ऐसे ही लेट रहूंगा।
गंजाधर– आप समझते हैं कि मेरा कंबल ओढ़ने में आपको दोष लगेगा, पर यह कंबल मेरा नहीं है। मैंने इसे अतिथि-सत्कार के लिए रख छोड़ा है।
कृष्णचन्द्र ने अधिक आपत्ति नहीं की। उन्हें सर्दी लग रही थी। कंबल ओढ़कर लेटे और तुरंत ही निद्रा में मग्न हो गए, पर वह शांतिदायिनी निद्रा नहीं थी, उनकी वेदनाओं का दिग्दर्शन मात्र थी। उन्होंने स्वप्न देखा कि मैं जेलखाने में मृत्युशैया पर पड़ा हुआ हूँ और जेल का दारोगा मेरी ओर घृणित भाव से देखकर कह रहा है कि तुम्हारी रिहाई अभी नहीं होगी। इतने में गंगाजली और उनके पिता दोनों चारपाई के पास खड़े हो गए। उनके मुंह विकृत थे और उन पर कालिमा लगी हुई थी। गंगाजली ने रोकर कहा, तुम्हारे कारण हमारी यह दुर्दशा हो रही है। पिता ने क्रोधयुक्त नेत्रों से देखते हुए कहा, क्या हमारी कालिमा ही तेरे जीवन का फल होगी, इसीलिए हमने तुमको जन्म दिया था? अब यह कालिमा कभी हमारे मुख से न छूटेगी। हम अनंतकाल तक यह यंत्रणा भोगते रहेंगे। तूने केवल चार दिन जीवित रहने के लिए हमें यह कष्ट-भोग दिया है, पर हम इसी दम तेरा प्राण हरण करेंगे। यह कहते हुए वह कुल्हाड़ा लिए हुए उन पर झपटे।
कृष्णचन्द्र की आंखें खुल गईं। उनकी छाती धड़क रही थी। सोते वक्त वह भूल गए थे कि मैं क्या करने घर से चला था। इस स्वप्न ने उसका स्मरण करा दिया। उन्होंने अपने को धिक्कारा। मैं कैसा कर्त्तव्यहीन हूं। उन्हें निश्चित हो गया कि यह स्वप्न नहीं, आकाशवाणी है।
गजाधर के कथन का असर धीरे-धीरे उनके हृदय से मिटने लगा। सुमन अब चाहे सती हो जाए, साध्वी हो जाए, इससे वह कालिमा तो न मिट जाएगी, जो उसने हमारे मुख में लगा दी है। यह महात्मा कहते हैं, पाप में सुधार की बड़ी शक्ति है। मुझे तो वह कहीं दिखाई नहीं देती। मैंने भी तो पाप किए हैं, पर कभी इस शक्ति का अनुभव नहीं किया। कुछ नहीं, यह सब इनके शब्दजाल हैं, इन्होंने अपनी कायरता को शब्दों के आडंबर में छिपाया है। यह मिथ्या है, पाप से पाप ही उत्पन्न होगा। अगर पाप से पुण्य होता, तो आज संसार में कोई पापी न रह जाता।
यह सोचते हुए वह उठ बैठे। गजाधर भी आग के पास पड़े हुए थे। कृष्णचन्द्र चुपके से उठे और गंगातट की ओर चले। उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब इन वेदनाओं का अंत ही करके छोड़ूंगा।
चंद्रमा अस्त हो चुका था। कुहरा और भी सघन हो गया। अंधकार ने वृक्ष, पहाड़ और आकाश में कोई अंतर न छोड़ा था। कृष्णचन्द्र एक पगडंडी पर चल रहे थे, पर दृष्टि की अपेक्षा अनुमान से अधिक काम लेना पड़ता था। पत्थरों के टुकड़ों और झाड़ियों से बचने में वह ऐसे लीन हो रहे थे कि अपनी अवस्था का ध्यान न था।
कगार के किनारे पहुंचकर उन्हें कुछ प्रकाश दिखाई दिया। वह नीचे उतरे। गंगा कुहरे की मोटी चादर ओढ़े पड़ी कराह रही थी। आसपास के अंधकार और गंगा में केवल प्रवाह का अंतर था। यह प्रवाहित अंधकार था। ऐसी उदासी छाई हुई थी, जो मृत्यु के बाद घरों में छा जाती है।
कृष्णचन्द्र नदी के किनारे खड़े थे। उन्होंने विचार किया, हाय! अब मेरा अंत कितना निकट है। एक पल में यह प्राण न जाने कहां चले जाएंगे। न जाने क्या गति होगी? संसार से आज नाता टूटता है। परमात्मन्, अब तुम्हारी शरण आता हूं, मुझ पर दया करो, ईश्वर मुझे संभालो।
इसके बाद उन्होंने एक क्षण अपने हृदय में बल का संचार किया। उन्हें मालूम हुआ कि मैं निर्भय हूं। वह पानी में घुसे। पानी ठंडा था। कृष्णचन्द्र का सारा शरीर दहल उठा। वह घुसते हुए चले गए। गले तक पानी में पहुंचकर एक बार फिर विराट तिमिर को देखा। यह संसार-प्रेम की अंतिम घड़ी थी। यह मनोबल की, आत्माभिमान की अंतिम परीक्षा थी। अब तक उन्होंने जो कुछ किया था, वह केवल इसी परीक्षा की तैयारी थी। इच्छा और माया का अंतिम संग्राम था। माया ने अपनी संपूर्ण शक्ति से उन्हें अपनी ओर खींचा। सुमन विदुषी वेश में दृष्टिगोचर हुई, शान्ता शोक की मूर्ति बनी हुई सामने आई। अभी क्या बिगड़ा है? क्यों न साधु हो जाऊं? मैं ऐसा कौन बड़ा आदमी हूं कि संसार मेरे नाम और मर्यादा की चर्चा करेगा? ऐसी न जाने कितनी कन्याएं पाप के फंदे में फंसती हैं। संसार किसकी परवाह करता है? मैं मूर्ख हूं, जो यह सोचता हूं कि संसार मेरी हंसी उड़ाएगा। इच्छा-शक्ति ने कितना ही चाहा कि इस तर्क का प्रतिवाद करे, पर वह निष्फल हुई, एक डुबकी की कसर थी। जीवन और मृत्यु में केवल एक पग का अंतर था। पीछे का एक पग कितना सुलभ था, कितना सरल, आगे का एक पग कितना कठिन था, कितना भयकारक।
कृष्णचन्द्र ने पीछे लौटने के लिए कदम उठाया। माया ने अपनी विलक्षण शक्ति का चमत्कार दिखा दिया। वास्तव में वह संसार-प्रेम नहीं था, अदृश्य का भय था।
उस समय कृष्णचन्द्र को अनुभव हुआ कि अब मैं पीछे नहीं फिर सकता। वह धीरे-धीरे आप-ही-आप खिसकते जाते थे। उन्होंने जोर से चीत्कार किया। अपने शीत-शिथिल पैरों को पीछें हटाने की प्रबल चेष्टा की, लेकिन कर्म की गति कि वह आगे ही को खिसके।
अकस्मात उनके कानों में गजाधर के पुकारने की आवाज आई। कृष्णचन्द्र ने चिल्लाकर उत्तर दिया, पर मुंह से पूरी बात भी न निकलने पाई थी कि हवा से बुझकर अंधकार में लीन हो जाने वाले दीपक के सदृश लहरों में मग्न हो गए। शोक, लज्जा और चिंतातप्त हृदय का दाह शीतल जल में शांत हो गया। गजाधर ने केवल यह शब्द सुने ‘मैं यहां डूबा जाता हूं’ और फिर लहरों की पैशाचिक क्रीड़ाध्वनि के सिवा और कुछ न सुनाई दिया।
शोकाकुल गजाधर देर तक तट पर खड़े रहे। वही शब्द चारों ओर से उन्हें सुनाई देते थे। पास की पहाड़ियां और सामने की लहरें और चारों ओर छाया हुआ दुर्भेद्य अंधकार इन्हीं शब्दों से प्रतिध्वनित हो रहा था।
39
प्रातःकाल यह शोक-समाचार अमोला में फैल गया। इने-गिने सज्जनों को छोड़कर कोई भी उमानाथ के द्वार पर संवेदना प्रकट करने न आया। स्वाभाविक मृत्यु हुई होती, तो संभवतः उनके शत्रु भी आकर चार आंसू बहा जाते, पर आत्मघात एक भंयकर समस्या है, यहां पुलिस का अधिकार है। इस अवसर पर मित्रदल ने भी शत्रुवत व्यवहार किया।
उमानाथ से गजाधर ने जिस समय यह समाचार कहा, उस समय वह कुएं पर नहा रहे थे। उन्हें लेश-मात्र भी दुःख व कौतूहल नहीं हुआ। इसके प्रतिकुल उन्हें कृष्णचन्द्र पर क्रोध आया, पुलिस के हथकंड़ों की शंका ने शोक को भी दबा दिया। उन्हें स्नान-ध्यान में उस दिन बड़ा विलंब हुआ। संदिग्ध चित्त को अपनी परिस्थिति के विचार से अवकाश नहीं मिलता। वह समय ज्ञात-रहति हो जाता है।
जाह्नवी ने बड़ा हाहाकार मचाया। उसे रोते देखकर उसकी दोनों बेटियां भी रोने लगीं। पास-पड़ोस की महिलाएं समझाने के लिए आ गईं। उन्हें पुलिस का भय नहीं था, पर आर्तनाद शीघ्र ही समाप्त हो गया। कृष्णचन्द्र के गुण-दोष की विवेचना होने लगी। सर्वसम्मति ने स्थिर किया कि उनमें गुण की मात्रा दोष से बहुत अधिक थी। दोपहर को जब उमानाथ घर में शर्बत पीने आए और कृष्णचन्द्र के संबंध में कुछ अनुदारता का परिचय दिया, तो जाह्नवी ने उनकी ओर वक्र नेत्रों से देखकर कहा– कैसी तुच्छ बातें करते हो।
उमानाथ लज्जित हो गए। जाह्नवी अपने हार्दिक आनंद का सुख अकेले उठा रही थी। इस भाव को वह इतना तुच्छ और नीच समझती थी कि उमानाथ से भी उसे गुप्त रखना चाहती थी। सच्चा शोक शान्ता के सिवा और किसी को न हुआ। यद्यपि अपने पिता को वह सामर्थ्यहीन समझती थी, तथापि संसार में उसके जीवन का एक आधार मौजूद था। अपने पिता की हीनावस्था ही उसकी पितृ-भक्ति का कारण थी, अब वह सर्वथा निराधार हो गई। लेकिन नैराश्य ने उसके जीवन को उद्देश्यहीन नहीं होने दिया। उसका हृदय और भी कोमल हो गया। कृष्णचन्द्र ने चलते-चलते उसे जो शिक्षा दी थी, उसमें अब उससे विलक्षण प्रेरणा-शक्ति का प्रादुर्भाव हो गया था। आज से शान्ता सहिष्णुता की मूर्ति बन गई। पावस की अंतिम बूंदों के सदृश मनुष्य की वाणी के अंतिम शब्द कभी निष्फल नहीं जाते। शान्ता अब मुंह से ऐसा कोई शब्द न निकालती, जिससे उसके पिता को दुःख हो। उनके जीवनकाल में वह कभी-कभी उनकी अवहेलना किया करती थी, पर अब वह अनुदार विचारों को हृदय में भी न आने देती थी। उसे निश्चय था कि भौतिक शरीर से मुक्त आत्मा के लिए अंतर और बाह्य में कोई भेद नहीं। यद्यपि अब वह जाह्नवी को संतुष्ट रखने के निमित्त कोई बात उठा न रखती थी, तथापि जाह्नवी उसे दिन में दो-चार बार अवश्य ही उल्टी-सीधी सुना देती। शान्ता को क्रोध आता, पर वह विष का घूंट पीकर रह जाती, एकांत में भी न रोती। उसे भय था कि पिताजी की आत्मा मेरे रोने से दुःखी होगी।
होली के दिन उमानाथ अपनी दोनों लड़कियों के लिए उत्तम साड़ियां लाए। जाह्नवी ने भी रेशमी साड़ी निकाली, पर शान्ता को अपनी पुरानी धोती ही पहननी पड़ी। उसका हृदय दुःख से विदीर्ण हो गया, पर उसका मुख जरा भी मलिन न हुआ। दोनों बहनें मुंह फुलाए बैठी थीं कि साड़ियों में गोट नहीं लगवाई गई और शान्ता प्रसन्न बदन घर का काम-काज कर रही थी, यहां तक कि जाह्नवी को भी उस पर दया आ गई। उसने अपनी एक पुरानी, लेकिन रेशमी साड़ी निकालकर शान्ता को दे दी। शान्ता ने जरा भी मान न किया। उसे पहनकर पकवान बनाने में मग्न हो गई।
एक दिन शान्ता उमानाथ की धोती छांटना भूल गई। दूसरे दिन प्रातःकाल उमानाथ नहाने चले, तो धोती गीली पड़ी थी। वह तो कुछ न बोले, पर जाह्नवी ने इतना कोसा कि वह रो पड़ी। रोती थी और धोती छांटती थी। उमानाथ को यह देखकर दुख हुआ। उन्होंने मन में सोचा, हम केवल पेट की रोटियों के लिए इस अनाथ को इतना कष्ट दे रहे हैं। ईश्वर के यहां क्या जवाब देंगे? जाह्नवी को तो उन्होंने कुछ न कहा, पर निश्चय किया कि शीघ्र ही इस अत्याचार का अंत करना चाहिए। मृतक संस्कारों से निवृत्त होकर उमानाथ आजकल मदनसिंह पर मुकदमा दायर करने की कार्यवाही में मग्न थे। वकीलों ने उन्हें विश्वास दिला दिया था कि तुम्हारी अवश्य विजय होगी। पांच हजार रुपए मिल जाने से मेरा कितना कल्याण होगा, यह कामना उमानाथ को आनंदोन्मत्त कर देती थी। इस कल्पना ने उनकी शुभाकांक्षाओं को जागृत कर दिया था। नया घर बनाने के मंसूबे होने लगे थे। उस घर का चित्र हृदयपट पर खिंच गया था। उसके लिए उपयुक्त स्थान की बातचीत शुरू हो गई थी। इस आनंद-कल्पनाओं में शान्ता की सुधि न रही थी। जाह्नवी के इस अत्याचार ने उनको शान्ता की ओर आकर्षित किया। गजाधर के दिए हुए सहस्र रुपए, जो उन्होंने मुकदमें के खर्च के लिए अलग रख दिए थे, घर में मौजूद थे। एक दिन जाह्नवी से उन्होंने इस विषय में कुछ बातचीत की। कहीं एक सुयोग्य वर मिलने की आशा थी। शान्ता ने ये बातें सुनीं। मुकदमें की बातचीत सुनकर भी उसे दुख होता था, पर वह उसमें दखल देना अनुचित समझती थी, लेकिन विवाह की बातचीत सुनकर वह चुप न रह सकी। एक प्रबल प्रेरक शक्ति ने उसकी लज्जा और संकोच को हटा दिया। ज्योंही उमानाथ चले गए, वह जाह्नवी के पास आकर बोली– मामा अभी तुमसे क्या कह रहे थे? जाह्नवी ने असंतोष के भाव से उत्तर दिया– कह क्या रहे थे, अपना दुःख रो रहे थे। अभागिन सुमन ने यह सब कुछ किया, नहीं तो यह दोहरकम्मा क्यों करना पड़ता? अब न उतना उत्तम कुल ही मिलता है, न वैसा सुंदर वर। थोड़ी दूर पर एक गांव है। वहीं एक वर देखने गए थे। शान्ता ने भूमि की ओर ताकते हुए उत्तर दिया– क्या मैं तुम्हें इतना कष्ट देती हूं कि मुझे फेंकने की पड़ी हुई है? तुम मामा से कह दो कि मेरे लिए कष्ट न उठाएं।
जाह्नवी– तुम उनकी प्यारी भांजी हो, उनसे तुम्हारा दुख नहीं देखा जाता। मैंने भी तो यही कहा था कि अभी रहने दो। जब मुकदमे का रुपया हाथ आ जाए, तो निश्चिंत होकर करना, पर वह मेरी बात मानें तब तो?
शान्ता– मुझे वहीं क्यों नहीं पहुंचा देते?
जाह्नवी– विस्मित होकर पूछा– कहां?
शान्ता ने सरल भाव से उत्तर दिया– चाहे चुनार, चाहे काशी।
जाह्नवी– कैसी बच्चों की-सी बातें करती हो। अगर ऐसा ही होता, तो रोना काहे का था? उन्हें तुम्हें घर में रखना होता, तो यह उपद्रव क्यों मचाते?
शान्ता– बहू बनाकर न रखें, लौड़ी बनाकर तो रखेंगे।
जाह्नवी ने निर्दयता से कहा– तो चली जाओ। तुम्हारे मामा से कभी न होगा कि तुम्हें सिर चढ़ाकर ले जाएं और वहां अपना अपमान कराके फिर तुम्हें ले आएं। वह तो लोगों का मुंह कुचलकर उनसे रुपए भराएंगे।
शान्ता– मामी, वे लोग चाहे कैसे ही अभिमानी हों, लेकिन मैं उनके द्वार पर जाकर खड़ी हो जाऊंगी, तो उन्हें मुझ पर दया आ ही जाएगी। मुझे विश्वास है कि वह मुझे अपने द्वार पर से हटा न देंगे। अपना बैरी भी द्वार पर आ जाए, तो उसे भगाते संकोच होता है। मैं तो फिर भी…
जाह्नवी अधीर हो गई। यह निर्लज्जता उससे सही न गई। बात काटकर बोली– चुप भी रहो। लाज-हया तो जैसे तुम्हें छू नहीं गई। मान न मान, मैं तेरा मेहमान। जो अपनी बात न पूछे, वह चाहे धन्नासेठ ही क्यों न हो, उसकी ओर आंख उठाकर न देखूं। अपनी तो यह टेक है। अब तो वे लोग यहां आकर नकघिसनी भी करें, तो तुम्हारे मामा दूर से ही भगा देंगे।
शान्ता चुप हो गई। संसार चाहे जो कुछ समझता हो, वह अपने को विवाहिता ही समझती थी। विवाहिता कन्या का दूसरे घर में विवाह हो, यह उसे अत्यंत लज्जाजनक, असहृय प्रतीत होता था। बारात आने के एक मास पहले से वह सदन के रूप-गुण की प्रशंसा सुन-सुनकर उसके हाथों बिक चुकी थी। उसने अपने द्वार पर, द्वाराचार के समय, सदन को अपने पुरुष की भांति देखा है, इस प्रकार नहीं, मानों वह कोई अपरिचित मनुष्य है। अब किसी दूसरे पुरुष की कल्पना उसके सतीत्व पर कुठार के समान लगती थी। वह इतने दिनों तक सदन को अपना पति समझने के बाद उसे हृदय से निकाल न सकती थी, चाहे वह उसकी बात पूछे या न पूछे, चाहे उसे अंगीकार करे या न करे। अगर द्वाराचार के बाद ही सदन उसके सामने आता, तो वह उसी भांति मिलती, मानों वह उसका पति है। विवाह, भांवर या सेंदूर-बंधन नहीं, केवल मन का भाव है।
शान्ता को अभी तक यह आशा थी कि कभी-न-कभी मैं पति के घर अवश्य जाऊंगी, कभी-न-कभी स्वामी के चरणों में अवश्य ही आश्रय पाऊंगी, पर आज अपने विवाह की-या पुनर्विवाह की– बात सुनकर उसका अनुरक्त हृदय कांप उठा। उसने निःसंकोच होकर जाह्नवी से विनय की कि मुझे पति के घर भेज दो। यहीं तक उसका सामर्थ्य था। इसके सिवा वह और क्या करती? पर जाह्नवी की निर्दयतापूर्ण उपेक्षा देखकर उसका धैर्य हाथ से जाता रहा। मन की चंचलता बढ़ने लगी। रात को जब सब सो गए, तो उसने पद्मसिंह को एक विनय-पत्र लिखना शुरू किया। यह उसका अंतिम साधन था। इसके निष्फल होने पर उसने कर्तव्य का निश्चय कर लिया था।
पत्र शीघ्र समाप्त हो गया। उसने पहले ही से कल्पना में उसकी रचना कर ली थी। केवल लिखना बाकी था।
‘पूज्य धर्मपिता के चरण-कमलों में सेविका शान्ता का प्रणाम स्वीकार हो। मैं बहुत दुख में हूं। मुझ पर दया करके अपने चरणों में आश्रय दीजिए। पिताजी गंगा में डूब गए। यहां आप लोगों पर मुकदमा चलाने का प्रस्ताव हो रहा है। मेरे पुनर्विवाह की बातचीत हो रही है। शीघ्र सुधि लीजिए। एक सप्ताह तक आपकी राह देखूंगी। उसके बाद फिर आप इस अबला की पुकार न सुनेगें।’
इतने में जाह्नवी की आंखें खुली। मच्छरों ने सारे शरीर में कांटे चुभो दिये थे। खुजलाते हुए बोली– शान्ता! यह क्या कर रही है?
शान्ता ने निर्भय होकर कहा– पत्र लिख रही हूं।
‘किसको?’
>‘अपने श्वसुर को।’
‘चुल्लू-भर पानी में डूब नहीं मरती?’
‘सातवें दिन मरूंगी।’
जाह्नवी ने कुछ उत्तर न दिया, फिर सो गई। शान्ता ने लिफाफे पर पता लिखा और उसे अपने कपड़ों की गठरी में रखकर लेट रही।
40
पद्मसिंह का पहला विवाह उस समय हुआ था, जब वह कॉलेज में पढ़ते थे, और एम. ए. पास हुए, तो वह एक पुत्र के पिता थे। पर बालिका वधू शिशु-पालन का मर्म न जानती थी। बालक जन्म के समय तो हृष्ट-पुष्ट था, पर पीछे धीरे-धीरे क्षीण होने लगा था। यहां तक छठे महीने माता और शिशु दोनों ही चल बसे। पद्मसिंह ने निश्चय किया, अब विवाह न करूंगा। मगर वकालत पास करने पर उन्हें फिर वैवाहिक बंधन में फंसना पड़ा। सुभद्रा रानी वधू बनकर आई। इसे आज सात वर्ष हो गए।
पहले दो-तीन साल तक तो पद्मसिंह को संतान का ध्यान ही नहीं हुआ। यदि भामा इसकी चर्चा करती, तो वह टाल जाते। कहते, मुझे संतान की इच्छा नहीं। मुझसे यह बोझ न संभलेगा। अभी तक संतान की आशा थी, इसीलिए अधीर न होते थे।
लेकिन जब चौथा साल भी यों ही कट गया, तो उन्हें कुछ निराशा होने लगी। मन में चिंता हुई क्या सचमुच मैं निःसंतान ही रहूंगा। ज्यों-ज्यों दिन गुजरते थे, यह चिंता बढ़ती जाती थी। अब उन्हें अपना जीवन कुछ शून्य-सा मालूम होने लगा। सुभद्रा से वह प्रेम न रहा, सुभद्रा ने इसे ताड़ लिया। उसे दुख तो हुआ, पर इसे अपने कर्मों का फल समझकर उसने संतोष किया।
पद्मसिंह अपने को बहुत समझाते कि तुम्हें संतान लेकर क्या करना है? जन्म से लेकर पच्चीस वर्ष की आयु तक उसे जिलाओ, खिलाओ, पढ़ाओ तिस पर भी यह शंका लगी ही रहती है कि वह किसी ढंग की होगी भी या नहीं। लड़का मर गया, तो उसके नाम को लेकर रोओ। जो कहीं हम मर गए, तो उसकी जिंदगी नष्ट हो गई। हमें यह सुख नहीं चाहिए। लेकिन इन विचारों से मन को शांति न होती। वह सुभद्रा से अपने भावों को छिपाने की चेष्टा करते थे और उसे निर्दोष समझकर उसके साथ पूर्ववत् प्रेम करना चाहते थे, पर जब हृदय पर नैराश्य का अंधकार छाया हो, तो मुख पर प्रकाश कहां से आए? साधारण बुद्धि का मनुष्य भी कह सकता था कि स्त्री-पुरुष के बीच में कुछ-न-कुछ अंतर है। कुशल यही थी कि सुभद्रा की ओर से पतिप्रेम और सेवा में कुछ कमी न थी, दिनोंदिन उसमें और कोमलता आती जाती थी, वह अपने प्रेमानुराग से संतान-लालसा को दबाना चाहती थी, पर इस दुस्तर कार्य में वह उस वैद्य से अधिक सफल न होती थी, जो रोगी को गीतों से अच्छा करना चाहता हो। गृहस्थी की छोटी-छोटी बातों पर, जो अनुचित होने पर भी पति को ग्राह्य हो जाया करती हैं, उसे सदैव दबना पड़ता था और जब से सदन यहां रहने लगा था, कितनी ही बार उसके पीछे तिरस्कृत होना पड़ा। स्त्री अपने पति के बर्छों का घाव सह सकती है, पर किसी दूसरे के पीछे उसकी तीव्र दृष्टि भी उसे असह्य हो जाती है। सदन सुभद्रा की आंखों में कांटे की तरह गड़ता था। अंत को कल वह उबल पड़ी। गर्मी सख्त थी। मिसिराइन किसी कारण से न आई थी, सुभद्रा को भोजन बनाना पड़ा। उसने पद्मसिंह के लिए फुल्कियां पकाई। लेकिन गर्मी से व्याकुल थी, इसलिए सदन के लिए मोटी-मोटी रोटियां बना दी। पद्मसिंह भोजन करने बैठे, सदन की थाली में रोटियां देखीं, तो मारे क्रोध के अपनी फुल्कियां उसकी थाली में रख दीं। और उसकी रोटियां अपनी थाली में डाल लीं। सुभद्रा ने जलकर कुछ कटु वाक्य कहे, पद्मसिंह ने वैसा ही उत्तर दिया। फिर प्रत्युत्तर की नौबत आई। यहां तक कि वह झल्लाकर चौके से उठ गए। सुभद्रा ने मनावन नहीं किया। उसने रसोई उठा दी और जाकर लेट रही, पर अभी तक दो में से एक का भी क्रोध शांत नहीं हुआ। मिसिराइन ने आज खाना बनाया, पर न पद्मसिंह ने खाया, न सुभद्रा ने। सदन बारी-बारी से दोनों की खुशामद कर रहा था, पर एक तरफ से यह उत्तर पाता, अभी भूख नहीं है और दूसरी तरफ से जवाब मिलता खा लूंगी, यह थोड़े ही छूटेगा। यही छूट जाता, तो काहे किसी की धौंस सहनी पड़ती। आश्चर्य था कि सदन से सुभद्रा हंस-हंसकर बातें करती थी और वही इस कलह का मूल कारण था। मृगा खूब जानता है कि टट्टी की आड़ से आने वाला तीर वास्तव में शिकारी की मांस-तृष्णा या मृगया प्रेम है।
तीसरा पहर हो गया था, पद्मसिंह सोकर उठे थे और जम्हाइयां ले रहे थे। उनका हृदय सुभद्रा के प्रति अनुदार, अप्रिय, दग्धकारी भावों से मलिन हो रहा था। सुभद्रा के अतिरिक्त यह प्राणि-मात्र से सहानुभूति करने को तैयार बैठे थे। इसी समय डाकिए ने एक बैरंग चिट्ठी लाकर उन्हें दी। उन्होंने डाकिए को इस अप्रसन्नता की दृष्टि से देखा, मानों बैरंग चिट्ठी लाकर उसने कोई अपराध किया है। पहले तो उन्हें इच्छा हुई कि इसे लौटा दें, किसी दरिद्र मुवक्किल ने इसमें अपनी विपत्ति गाई होगी, लेकिन कुछ सोचकर चिट्ठी ले ली और खोलकर पढ़ने लगे। यह शान्ता का पत्र था। उसे एक बार पढ़कर मेज पर रख दिया। एक क्षण के बाद फिर उठाकर पढ़ा और तब कमरे में टहलने लगे। इस समय यदि मदनसिंह वहां होते, तो वह पत्र उन्हें दिखाते और कहते, यह आपके कुल-मर्यादाभिमान का– आपके लोक-निंदा, भय का फल है। आपने एक मनुष्य का प्राणाघात किया, उसकी हत्या आपके सिर पड़ेगी। पद्यसिंह को मुकदमें की बात पढ़कर एक प्रकार का आनंद-सा हुआ। बहुत अच्छा हो कि यह मुकदमा दायर हो और उनकी कुलीनता का गर्व धूल में मिल जाए। उमानाथ की डिग्री अवश्य होगी और तब भाई साहब को ज्ञात होता कि कुलीनता कितनी मंहगी वस्तु है। हाय! उस अबला कन्या के हृदय पर क्या बीत रही होगी? पद्मसिंह ने फिर उस पत्र को पढ़ा। उन्हें उसमें अपने प्रति श्रद्धा का एक स्रोत-सा बहता हुआ मालूम हुआ। इसने उनकी न्यायप्रियता को उत्तेजित-सा कर दिया। ‘धर्मपिता’ शब्द ने उन्हें वशीभूत कर दिया। उसने उनके हृदय में वात्सल्य के तार का स्वर कंपित कर दिया। वह कपड़े पहनकर विट्ठलदास के मकान पर जा पहुंचे, वहां मालूम हुआ कि वे कुंवर अनिरुद्धसिंह के यहां गए हुए हैं। तुरंत बाइसिकल उधर फेर दी। वह शान्ता के विषय में इसी समय कुछ-न-कुछ निश्चय कर लेना चाहते थे। उन्हें भय था कि विलंब होने से यह जोश ठंडा न पड़ जाए।
कुंवर साहब के यहां ग्वालियर से एक जलतरंग बजाने वाला आया हुआ था। उसी का गाना सुनने के लिए आज उन्होंने मित्रों को निमंत्रित किया था। पद्मसिंह वहां पहुंचे तो विट्ठलदास और प्रोफेसर रमेशदत्त में उच्च स्वर में विवाद हो रहा था और कुंवर साहब, पंडित प्रभाकर राव तथा सैयद तेगअली बैठे हुए इस लड़ाई का तमाशा देख रहे थे।
शर्माजी को देखते ही कुंवर साहब ने उनका स्वागत किया। बोले– आइए, आइए, देखिए यहां घोर संग्राम हो रहा है। किसी तरह इन्हें अलग कीजिए, नहीं तो ये लड़ते-लड़ते मर जाएंगे।
इतने में प्रोफेसर रमेशदत्त बोले– थियासोफिस्ट होना कोई गाली नहीं है। मैं थियासोफिस्त हूं और इसे सारा शहर जानता है। हमारे ही समाज के उद्योग का फल है कि आज अमेरिका, जर्मनी, रूस इत्यादि देशों में आपको राम और कृष्ण के भक्त और गीता, उपनिषद् आदि सद्ग्रंथों के प्रेमी दिखाई देने लगे हैं। हमारे समाज ने हिन्दू जाति का गौरव बढ़ा दिया है, उसके महत्त्व को प्रसारित कर दिया है और उसे उस उच्चासन पर बिठा दिया है, जिसे वह अपनी अकर्मण्यता के कारण कई शताब्दियों से छोड़ बैठी थी, यह हमारी परम कृतघ्नता होगी, अगर हम उन लोगों का यश न स्वीकार करें, जिन्होंने अपने दीपक से हमारे अंधकार को दूर करके हमें वे रत्न दिखा दिए हैं, जिन्हें देखने का हममें सामर्थ्य न था। यह दीपक ब्लाबेट्स्की का हो, या आल्क्ट का या किसी अन्य पुरुष का, हमें इससे कोई प्रयोजन नहीं। जिसने हमारा अंधकार मिटाया हो उसका अनुगृहीत होना हमारा कर्त्तव्य है। अगर आप इसे गुलामी कहते हैं, तो यह आपका अन्याय है।
विट्ठलदास ने इस कथन को ऐसे उपेक्ष्य भाव से सुना, मानो वह कोई निरर्थक बकवाद है और बोले– इसी का नाम गुलामी है, बल्कि गुलाम तो एक प्रकार से स्वतंत्र होता है, उसका अधिकार शरीर पर होता है, आत्मा पर नहीं। आप लोगों ने तो अपनी आत्मा को ही बेच दिया है। आपकी अंग्रेजी शिक्षा ने आपको ऐसा पद्दलित किया है कि जब तक यूरोप का कोई विद्वान किसी विषय के गुण-दोष प्रकट न करे, तब तक आप उस विषय की ओर से उदासीन रहते हैं। आप उपनिषदों का आदर इसलिए नहीं करते कि वह स्वयं आदरणीय है, बल्कि इसलिए करते हैं कि ब्लाबेट्स्की और मैक्समूलर ने उनका आदर किया है आपमें अपनी बुद्धि से काम लेने की शक्ति का लोप हो गया है। अभी तक आप तांत्रिक विद्या की बात भी न पूछते थे। अब जो यूरोपीय विद्वानों ने उसका रहस्य खोलना शुरू किया, तो आपको अब तंत्रों में गुण दिखाई देते हैं। यह मानसिक गुलामी उस भौतिक गुलामी से कहीं गई-गुजरी है। आप उपनिषदों को अंग्रेजी में पढ़ते हैं, गीता को जर्मन में। अर्जुन को अर्जुना, कृष्ण को कृशना कहकर अपने स्वभाषा-ज्ञान का परिचय देते हैं। आपने इसी मानसिक दासत्व के कारण उस क्षेत्र में अपनी पराजय स्वीकार कर ली, जहां हम अपने पूर्वजों की प्रतिभा और प्रचंडता से चिरकाल तक अपनी विजय-पताका फहरा सकते थे।
रमेशदत्त इसका कुछ उत्तर देना ही चाहते थे कि कुंवर साहब बोले उठे– मित्रो! अब मुझसे बिना बोले नहीं रहा जाता। लाला साहब, आप अपने इस ‘गुलामी’ शब्द को वापस लीजिए।
विट्ठलदास– क्यों वापस लूं?
कुंवरसाहब– आपको इसके प्रयोग करने का अधिकार नहीं है।
विट्ठलदास– मैं आपका आशय नहीं समझा।
कुंवरसाहब– मेरा आशय यह है कि हममें कोई भी दूसरों को गुलाम कहने का अधिकार नहीं रखता! अंधों के नगर में कौन किसको अंधा कहेगा? हम सब-के-सब राजा हों या रंक, गुलाम हैं। हम अगर अपढ़, निर्धन, गंवार हैं, तो थोड़े गुलाम हैं। हम अपने राम का नाम लेते हैं, अपनी गाय पालते हैं और अपनी गंगा में नहाते हैं, और हम यदि विद्वान, उन्नत, ऐश्वर्यवान हैं, तो बहुत गुलाम हैं, जो विदेशी भाषा बोलते हैं, कुत्ते पालते हैं और अपने देशवासियों को नीच समझते हैं। सारी जाति इन्हीं दो भागों में विभक्त है। इसलिए कोई किसी को गुलाम नहीं कह सकता। गुलामी के मानसिक, आत्मिक, शारीरिक आदि विभाग करना भ्रांतिकारक है। गुलामी केवल आत्मिक होती है, और दशाएं इसी के अंतर्गत हैं। मोटर, बंगले, पोलो और प्यानों यह एक बेड़ी के तुल्य हैं, जिसने इन बेड़ियों को नहीं पहना, उसी को सच्ची स्वाधीनता का आनंद प्राप्त हो सकता है, और आप जानते हैं, वे कौन लोग हैं? वे हमारे दीन कृषक है, जो अपने पसीने की कमाई खाते हैं, अपने जातीय भेष, भाषा और भाव का आदर करते हैं और किसी के सामने सिर नहीं झुकाते है।
प्रभाकर राव ने मुस्कराकर कहा– आपको कृषक बन जाना चाहिए।
कुंवरसाहब– तो अपने पूर्वजन्म के कुकर्मों को कैसे भोगूंगा? बड़े दिन में मेवे की डालियां कैसे लगाऊंगा? सलामी के लिए खानसामा की खुशामद कैसे करूंगा? उपाधि के लिए नैनीताल के चक्कर कैसे लगाऊंगा? डिनर पार्टी देकर लेडियों के कुत्तों को कैसे गोद में उठाऊंगा? देवताओं को प्रसन्न और संतुष्ट करने के लिए देशहित के कार्यों में असम्मति कैसे दूंगा? यह सब मानव-अधःपतन की अंतिम अवस्थाएं हैं। उन्हें भोग किए बिना मेरी मुक्ति नहीं हो सकती। (पद्मसिंह से) कहिए शर्माजी, आपका प्रस्ताव बोर्ड में कब आएगा? आप आजकल कुछ उत्साहहीन से दिख पड़ते हैं। क्या इस प्रस्ताव की भी वही गति होगी, जो हमारे अन्य सार्वजनिक कार्यों की हुआ करती है?
इधर कुछ दिनों से वास्तव में पद्मसिंह का उत्साह कुछ क्षीण हो गया था। ज्यों-ज्यों उसके पास होने की आशा बढ़ती थी, उनका अविश्वास भी बढ़ता जाता था। विद्यार्थी की परीक्षा जब तक नहीं होती, वह उसी की तैयारी में लगा रहता है, लेकिन परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने के बाद भावी जीवन-संग्राम की चिंता उसे हतोत्साह कर दिया करती है। उसे अनुभव होता है कि जिन साधनों से अब तक मैंने सफलता प्राप्त की है, वह इस नए, विस्तृत, अगम्य क्षेत्र में अनुपयुक्त हैं। वही दशा इस समय शर्माजी की थी। अपना प्रस्ताव उन्हें कुछ व्यर्थ-सा मालूम होता था। व्यर्थ ही नहीं, कभी-कभी उन्हें उससे लाभ के बदले हानि होने का भय होता था। लेकिन वह अपने संदेहात्मक विचारों को प्रकट करने का साहस न कर सकते थे, कुंवर साहब की ओर विश्वासपूर्ण दृष्टि से देखकर बोले, जी नहीं, ऐसा तो नहीं है। हां, आजकल फुर्सत न रहने से वह काम जरा धीमा पड़ गया है।
कुंवर साहब– उसके पास होने में तो अब कोई बाधा नहीं है?
पद्मसिंह ने तेगअली की तरफ देखकर कहा– मुसलमान मेंबरों का ही भरोसा है।
तेगअली ने मार्मिक भाव से कहा– उन पर एतमाद करना रेत पर दीवार बनाना है। आपको मालूम नहीं, वहां क्या चालें चली जा रही हैं। अजब नहीं है कि ऐन वक्त पर धोखा दें।
पद्मसिंह– मुझे तो ऐसी आशा नहीं है।
तेगअली– यह आपकी शराफत है। यहां इस वक्त उर्दू-हिन्दी का झगड़ा गोकशी का मसला, जुदागाना इंतखाब, सूद का मुआबिजा, कानून इन सबों से मजहबी तास्सुब के भड़काने में मदद ली जा रही है।
प्रभाकर राव– सेठ बलभद्रदास न आएंगे क्या, किसी तरह उन्हीं को समझाना चाहिए।
कुंवर साहब– मैंने उन्हें निमंत्रण ही नहीं दिया, क्योंकि मैं जानता था कि वह कदापि न आएंगे। वह मतभेद को वैमनस्य समझते हैं। हमारे प्रायः सभी नेताओं का यही हाल है। यही एक विषय है, जिसमें उनकी सजीवता प्रकट होती है। आपका उनसे जरा भी मतभेद हुआ और वह आपके जानी दुश्मन हो गए, आपसे बोलना तो दूर रहा, आपकी सूरत तक न देखेंगे, बल्कि अवसर पाएंगे, तो अधिकारियों से आपकी शिकायत करेंगे। अपने मित्रों की मंडली में आपके आचार-विचार, रीति-व्यवहार की आलोचना करेंगे। आप ब्राह्मण हैं तो आपको भिक्षुक कहेंगे, क्षत्रिय हैं तो आपको उजड्ड-गंवार कहेंगे। वैश्य हैं, तो आपको बनिए, डंडी-तौल की पदवी मिलेगी और शूद्र हैं तब तो आप बने-बनाए चांडाल हैं ही। आप अगर गाने में प्रेम रखते हैं, तो आप दुराचारी हैं, आप सत्संगी हैं तो आपको तुरंत ‘बछिया के ताऊ’ की उपाधि मिल जाएगी। यहां तक कि आपकी माता और स्त्री पर भी निंदास्पद आक्षेप किए जाएंगे। हमारे यहां मतभेद महापाप है और उसका कोई प्रायश्चित नहीं। अहा! वह देखिए, डॉक्टर श्यामाचरण की मोटर आ गई।
डॉक्टर श्यामाचरण मोटर से उतरे और उपस्थित सज्जनों की ओर देखते हुए बोले – I am sorry. I was late.
कुंवर साहब ने उनका स्वागत किया औरों ने भी हाथ मिलाया और डॉक्टर साहब एक कुर्सी पर बैठकर बोले– When is the performance going to begin!
कुंवर साहब– डॉक्टर साहब, आप भूलते हैं, यह काले आदमियों का समाज है।
डॉक्टर साहब ने हंसकर कहा– मुआफ कीजिएगा, मुझे याद न रहा कि आपके यहां मलेच्छों की भाषा बोलना मना है।
कुंवर साहब– लेकिन देवताओं के समाज में तो आप कभी ऐसी भूल नहीं करते।
डॉक्टर– तो महाराज, उसका कुछ प्रायश्चित्त करा लीजिए।
कुंवर साहब– इसका प्रायश्चित्त यही है कि आप मित्रों से अपनी मातृभाषा का व्यवहार किया कीजिए।
डॉक्टर– आप राजा लोग है, आपसे यह प्रण निभ सकता है। हमसे इसका पालन क्यों कर हो सकता है? अंग्रेजी तो हमारी Lingua Franca (सार्वदेशिक भाषा) हो रही है।
कुंवर साहब– उसे आप ही लोगों ने तो यह गौरव प्रदान कर रखा है। फारस और काबुल के मूर्ख सिपाहियों और हिंदू व्यापारियों के समागम से उर्दू जैसी भाषा का प्रादुर्भाव हो गया। अगर हमारे देश के भिन्न-भिन्न प्रांतों के विद्वज्जन परस्पर अपनी ही भाषा में संभाषण करते, तो अब तक कभी की सार्वदेशिक भाषा बन गई होती। जब तक आप जैसे विद्वान् लोग अंग्रेजी के भक्त बने रहेंगे, कभी एक सार्वदेशिक भाषा का जन्म न होगा। मगर यह काम कष्टसाध्य है, इसे कौन करे? यहां तो लोगों को अंग्रेजी जैसी समुन्नत भाषा मिल गई, सब उसी के हाथों बिक गए। मेरी समझ में नहीं आता कि अंग्रेजी भाषा बोलने और लिखने में लोग क्यों अपना गौरव समझते हैं। मैंने भी अंग्रेजी पढ़ी है। दो साल विलायत रह आया हूं और आपके कितने ही अंग्रेजी के धुरंधर पंडितों से अच्छी अंग्रेजी लिख और बोल सकता हूं, पर मुझे उससे ऐसी घृणा होती है, जैसे किसी अंग्रेज के उतारे हुए कपड़े पहनने से।
पद्मसिंह ने इन वादों में कोई भाग न लिया। ज्यों ही अवसर मिला, उन्होंने विट्ठलदास को बुलाया और उन्हें एकांत में ले जाकर शान्ता का पत्र दिखाया।
विट्ठलदास ने कहा– अब आप क्या करना चाहते है?
पद्मसिंह– मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता। जब से यह पत्र मिला है, ऐसा मालूम होता है, मानो नदी में बहा जाता हूं।
विट्ठलदास– कुछ-न-कुछ करना तो पड़ेगा।
पद्मसिंह– क्या करूं।
विट्ठलदास– शांता को बुला लाइए।
पद्मसिंह– सारे घर से नाता टूट जाएगा।
विट्ठलदास– टूट जाए। कर्त्तव्य के सामने किसी का क्या भय?
पद्मसिंह– यह तो आप ठीक कहते हैं, पर मुझसे इतनी सामर्थ्य नहीं। भैया को मैं अप्रसन्न करने का साहस नहीं कर सकता।
विट्ठलदास– अपने यहां न रखिए, विधवाश्रम में रख दीजिए, यह तो कठिन नहीं।
पद्मसिंह– हां, यह आपने अच्छा उपाय बताया। मुझे इतना भी न सूझा था। कठिनाई में मेरी बुद्धि जैसे चरने चली जाती है।
विट्ठलदास– लेकिन जाना आपको पड़ेगा।
पद्मसिंह– यह क्यों, आपके जाने से काम न चलेगा?
विट्ठलदास– भला, उमानाथ उसे मेरे साथ क्यों भेजने लगे?
पद्मसिंह– इसमें उन्हें क्या आपत्ति हो सकती है?
विट्ठलदास– आप तो कभी-कभी बच्चों-सी बातें करने लगते हैं। शान्ता उनकी बेटी न सही, पर इस समय वह उसके पिता हैं। वह उसे एक अपरिचित मनुष्य के साथ क्यों आने देंगे?
पद्मसिंह– भाई साहब, आप नाराज न हों, मैं वास्तव में कुछ बौखला गया हूं। लेकिन मेरे चलने में तो बड़ा उपद्रव खड़ा हो जाएगा। भैया सुनेंगें तो वह मुझे मार ही डालेंगे। जनवासे में उन्होंने जो धक्का लगाया था, वह अभी तक मुझे याद है।
विट्ठलदास– अच्छा, आप न चलिए, मैं ही चला जाऊंगा। लेकिन उमानाथ के नाम एक पत्र देने में तो आपको कोई बाधा नहीं?
पद्मसिंह– आप कहेंगे कि यह निरा मिट्टी का लौंदा है, पर मुझमें उतना साहस भी नहीं है। ऐसी युक्ति बताइए कि कोई अवसर पड़े, तो मैं साफ निकल जाऊं। भाई साहब को मुझ पर दोषारोपण का मौका न मिले।
विट्ठलदास ने झुंझलाकर उत्तर दिया– मुझे ऐसी युक्ति नहीं सूझती। भलेमानुस आप भी अपने को मनुष्य कहेंगे। वहां तो वह धुआंधार व्याख्यान देते हैं, ऐसे उच्च भावों से भरा हुआ, मानों मुक्तात्मा हैं और कहां यह भीरुता।
पद्मसिंह ने लज्जित होकर कहा– इस समय जो चाहे कह लीजिए, पर इस काम का सारा भार आपके ऊपर रहेगा।
विट्ठलदास– अच्छा, एक तार तो दे दीजिएगा, या इतना भी न होगा?
पद्मसिंह– (उछलकर) हां, मैं तार दे दूंगा। मैं तो जानता था कि आप राह निकालेंगे। अब अगर कोई बात आ पड़ी, तो मैं कह दूंगा कि मैंने तार नहीं दिया, किसी ने मेरे नाम से दे दिया होगा– मगर एक ही क्षण में उनका विचार पलट गया। अपनी आत्मभीरुता पर लज्जा आई। मन में सोचा, भाई साहब ऐसे मूर्ख नहीं है कि इस धर्मकार्य के लिए मुझसे अप्रसन्न हों और यदि हो भी जाएं, तो मुझे इसकी चिंता न करनी चाहिए।
विट्ठलदास– तो आज ही तार दे दीजिए।
पद्मसिंह– लेकिन यह सरासर जालसाजी होगी।
विट्ठलदास– हां, होगी तो, आप ही समझिए।
पद्मसिंह– मैं चलूं तो कैसा हो?
विट्ठलदास– बहुत ही उत्तम, सारा काम ही बन जाए।
पद्मसिंह– अच्छी बात है, मैं और आप दोनों चलें।
विट्ठलदास– तो कब?
पद्मसिंह– बस, आज तार देता हूं कि हमलोग शान्ता को विदा कराने आ रहे हैं, परसों संध्या की गाड़ी से चले चलें।
विट्ठलदास– निश्चय हो गया?
पद्मसिंह– हां, निश्चय हो गया। आप मेरा कान पकड़कर ले जाइएगा।
विट्ठलदास ने अपने सरल-हृदय मित्र की ओर प्रशंसा की दृष्टि से देखा और दोनों मनुष्य जलतरंग सुनने जा बैठे, जिसकी मनोहर ध्वनि आकाश में गूंज रही थी।
41
जब हम स्वास्थ्य-लाभ करने के लिए किसी पहाड़ पर जाते हैं, तो इस बात का विशेष यत्न करते हैं कि हमसे कोई कुपथ्य न हो। नियमित रूप से व्यायाम करते है, आरोग्य का उद्देश्य सदैव हमारे सामने रहता है। सुमन विधवाश्रम में आत्मिक स्वास्थ्य लाभ करने गई थी और अभीष्ट को एक क्षण के लिए भी न भूलती थी, वह अपनी बहनों की सेवा में तत्पर रहती और धार्मिक पुस्तकें पढ़ती। देवोपासना, स्नानादि में उसके व्यथित हृदय को शांति मिलती थी।
विट्ठलदास ने अमोला के समाचार उससे छिपा रखे थे, लेकिन जब शान्ता को आश्रम में रखने का विचार निश्चित हो गया, तब उन्होंने सुमन को इसके लिए तैयार करना उचित समझा। कुंवर साहब के यहां से आकर उसे सारा समाचार कह सुनाया।
आश्रम में सन्नाटा छाया हुआ था। रात बहुत बीत चुकी थी, पर सुमन को किसी भांति नींद न आती थी। उसे आज अपने अविचार का यथार्थ स्वरूप दिखलाई दे रहा था। जिस प्रकार कोई रोगी क्लोरोफार्म लेने के पश्चात् होश में आकर अपने चीरे फोड़े के गहरे घाव को देखता है और पीड़ा तथा भय से मूर्छित हो जाता है, वही दशा इस समय सुमन की थी। पिता, माता और बहन तीनों उसे अपने सामने बैठे हुए मालूम होते थे। माता लज्जा तथा दुख से सिर झुकाए उदास हो रही थी, पिता खड़े उसकी ओर क्रोधोन्मत्त, रक्तवर्ण नेत्रों से ताक रहे थे और शान्ता शोक, नैराश्य और तिरस्कार की मूर्ति बनी हुई कभी धरती की ओर ताकती थी, कभी आकाश की ओर।
सुमन का चित्त व्यग्र हो उठा। वह चारपाई से उठी और बलपूर्वक अपना सिर पक्की जमीन पर पटकने लगी। वह अपनी ही दृष्टि में एक पिशाचिनी मालूम होती थी। सिर से चोट लगने से उसे चक्कर आ गया। एक क्षण के बाद उसे चेत हुआ, माथे से रुधिर बह रहा था। उसने धीरे से कमरा खोला। आंगन में अंधेरा छाया हुआ था। वह लपकी हुई फाटक पर आई, पर वह बंद था। उसने ताले तो कई बार हिलाया, पर वह न खुला, बुड्ढा चौकीदार फाटक से जरा हटकर सो रहा था। सुमन धीरे-धीरे उसके पास आई और उसके सिर के नीचे कुंजी टटोलने लगी। चौकीदार हकबकाकर उठ बैठा और ‘चोर! चोर!’चिल्लाने लगा। सुमन वहां से भागी और अपने कमरे में आकर किवाड़ बंद कर लिए।
किंतु सवेरे के पवन के सदृश चित्त की प्रचंड व्यग्रता भी शीघ्र ही शांत हो जाती है। सुमन खूब बिलखकर रोई। हाय! मुझ जैसी डाइन संसार में न होगी। मैंने विलास-तृष्णा की धुन में अपने कुल का सर्वनाश कर दिया, मैं अपने पिता की घातिका हूं, मैंने शान्ता के गले पर छुरी चलाई है, मैं उसे यह कालिमापूर्ण मुंह कैसे दिखाऊंगी? उसके सम्मुख कैसे ताकूंगी? पिताजी ने जिस समय यह बात सुनी होगी, उन्हें कितना दुख हुआ होगा। यह सोचकर वह फिर रोने लगी। यह वेदना उसे अपने और कष्टों से असह्य मालूम होती थी। अगर यह बात उसके पिता से कहने के बदले मदनसिंह उसे कोल्हू में पेर देते, हाथी के पैरों तले कुचलवा देते, आग में झोक देते, कुत्तों से नुचवा देते तो वह जरा भी चूं न करती। अगर विलास की इच्छा और निर्दय अपमान ने उसकी लज्जा-शक्ति को शिथिल न कर दिया होता, तो वह कदापि घर से बाहर पांव न निकालती। वह अपने पति के हाथों कड़ी-से-कड़ी यातना सहती और घर में पड़ी रहती। घर से निकलते समय उसे यह ख्याल भी न था कि मुझे कभी दालमंडी में बैठना पड़ेगा। वह बिना कुछ सोचे-समझे घर से निकल खड़ी हुई। उस शोक और नैराश्य की अवस्था में वह भूल गई कि मेरे पिता हैं, बहन है।
बहुत दिनों के वियोग ने उनका स्मरण ही न रखा। वह अपने को संसार में अकेली असहाय समझती थी। वह समझती थी, मैं किसी दूसरे देश में हूं और मैं जो कुछ करूंगी वह सब गुप्त ही रहेगा। पर अब ऐसा संयोग आ पड़ा कि वह अपने को आत्मीय सूत्र से बंधी हुई पाती थी। जिन्हें वह भूल चुकी थी, वह फिर उसके सामने आ गए और आत्माओं का स्पर्श होते ही लज्जा का प्रकाश आलोकित होने लगा।
सुमन ने शेष रात मानसिक विफलता की दशा में काटी। चार बजने पर वह गंगा-स्नान को चली। वह बहुधा अकेले ही जाया करती थी, इसलिए चौकीदार ने कुछ पूछताछ न की।
सुमन गंगातट पर पहुंच कर इधर-उधर देखने लगी कि कोई है तो नहीं। वह आज गंगा में नहाने नहीं, डूबने आई थी। उसे कोई शंका, भय या घबराहट नहीं थी। कल किसी समय शान्ता आश्रम में आ जाएगी। उसे मुंह दिखाने की अपेक्षा गंगा की गोद में मग्न हो जाना कितना सहज था।
अकस्मात् उसने देखा कि कोई आदमी उसकी तरफ चला आ रहा है। अभी कुछ-कुछ अंधेरा था, पर सुमन को इतना मालूम हो गया कि कोई साधु है। सुमन की अंगुली में एक अंगूठी थी। उसने उसे साधु को दान करने का निश्चय किया, लेकिन वह ज्यों ही समीप आया, सुमन ने भय, घृणा और लज्जा से अपना मुंह छिपा लिया। यह गजाधर थे।
सुमन खड़ी थी और गजाधर उसके पैरों पर गिर पड़े और रुद्ध कंठ से बोले– मेरा अपराध क्षमा करो!
सुमन पीछे हट गई। उसकी आंखों के सामने अपने अपमान का दृश्य खिंच गया। घाव हरा हो गया। उसके जी में आया कि इसे फटकारूं, कहूं कि तुम मेरे पिता के घातक, मेरे जीवन का नाश करने वाले हो, पर गजाधर की अनुकंपापूर्ण उदारता, कुछ उसका साधुवेश और कुछ विराग भाव ने, जो प्राणाघात का संकल्प कर लेने के बाद उदित हो जाता है, उसे द्रवित कर दिया। उसके नयन सजल हो गए, करुण स्वर से बोली– तुम्हारा कोई अपराध नहीं है। जो कुछ हुआ, वह सब मेरे कर्मों का फल था।
गजाधर– नहीं सुमन, ऐसा मत कहो। सब मेरी मूर्खता और अज्ञानता का फल है। मैंने सोचा था कि उसका प्रायश्चित्त कर सकूंगा, पर अपने अत्याचार का भीषण परिणाम देखकर मुझे विदित हो रहा है कि उसका प्रायश्चित नहीं हो सकता। मैंने इन्हीं आंखों से तुम्हारे पूज्य पिता को गंगा में लुप्त होते देखा है।
सुमन ने उत्सुक-भाव से पूछा– क्या तुमने पिताजी को डूबते देखा है?
गजाधर– हां, सुमन, डूबते देखा है। मैं रात को अमोला जा रहा था, मार्ग में वह मुझे मिल गए। मुझे अर्द्धरात्रि के समय गंगा की ओर जाते देखकर संदेह हुआ। उन्हें अपने स्थान पर लाया और उनके हृदय को शांत करने की चेष्टा की। फिर यह समझकर कि मेरा मनोरथ पूरा हो गया, मैं सो गया। थोड़ी देर में जब उठा, तो उन्हें वहां न देखा। तुंरत गंगातट की ओर दौड़ा। उस समय मैंने सुना कि वह मुझे पुकार रहे हैं, पर जब तक मैं निश्चय कर सकूं कि वह कहां हैं, उन्हें निर्दयी लहरों ने ग्रस लिया। वह दुर्लभ आत्मा मेरी आंखों के सामने स्वर्गधाम को सिधारी। तब तक मुझे मालूम न था कि मेरा पाप इतना घोरतम है, वह अक्षम्य है, अदंड्य है। मालूम नहीं, ईश्वर के यहां मेरी क्या गति होगी?
गजाधर की आत्मवेदना ने सुमन के हृदय पर वही काम किया, जो साबुन मैल के साथ करता है। उसने जमे हुए मालिन्य को काटकर ऊपर कर दिया। वह संचित भाव ऊपर आ गए, जिन्हें वह गुप्त रखना चाहती थी। बोली– परमात्मा ने तुम्हें सद्बुद्धि प्रदान कर दी है। तुम अपनी सुकीर्ति से चाहे कुछ कर भी लो, पर मेरी क्या गति होगी, मैं तो दोनों लोकों से गई। हाय! मेरी विलास-तृष्णा ने मुझे कहीं का न रखा। अब क्या छिपाऊं, तुम्हारे दारिद्रय और इससे अधिक तुम्हारे प्रेम-विहीन व्यवहार ने मुझमें असंतोष का अंकुर जमा दिया और चारों ओर पाप-जीवन का मान-मर्यादा, सुख-विलास देखकर इस अंकुर ने बढ़के भटकटैए के सदृश सारे हृदय को छा लिया। उस समय एक फफोले को फोड़ने के लिए जरा-सी ठेस बहुत थी। तुम्हारी नम्रता, तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी सहानुभूति, तुम्हारी उदारता उस फफोले पर फाहे का काम देती, पर तुमने उसे मसल दिया, मैं पीड़ा से व्याकुल, संज्ञाहीन हो गई। तुम्हारे उस पाशविक, पैशाचिक व्यवहार का जब स्मरण होता है, तो हृदय में एक ज्वाला-सी दहकने लगती है और अंतःकरण से तुम्हारे प्रति शाप निकल आता है। यह मेरा अंतिम समय है, एक क्षण में यह पापमय शरीर गंगा में डूब जाएगा, पिताजी की शरण में पहुंच जाऊंगी, इसलिए ईश्वर से प्रार्थना करती हूं कि तुम्हारे अपराधों को क्षमा करें।
गजाधर ने चिंतित स्वर में कहा– सुमन, यदि प्राण देने से पापों का प्रायश्चित हो जाता, तो मैं अब तक कभी का प्राण दे चुका होता।
सुमन– कम-से-कम दुखों का अंत हो जाएगा।
गजाधर– हां, तुम्हारे दुखों का अंत हो सकता है, पर उनके दुखों का अंत न होगा, जो तुम्हारे दुखों से दुखी हो रहे हैं। तुम्हारे माता-पिता शरीर बंधन से मुक्त हो गए हैं, लेकिन उनकी आत्माएं अपनी विदेहावस्था में तुम्हारे पास विचर रही हैं। वह सभी तुम्हारे सुख से सुखी और दुख से दुखी होंगे। सोच लो कि प्राणाघात करके उनको दुख पहुंचाओगी या अपना पुनरुद्धार करके उन्हें सुख और शांति दोगी? पश्चाताप अंतिम चेतावनी है, जो हमें आत्म-सुधार के निमित्त ईश्वर की ओर से मिलती है। यदि इसका अभिप्राय न समझकर हम शोकावस्था में अपने प्राणों का अंत कर दें, तो मानो हमने आत्मोद्धार की इस अंतिम प्रेरणा को भी निष्फल कर दिया। यह भी सोचो कि तुम्हारे न रहने से उस अबला शान्ता की क्या गति होगी, जिसने अभी संसार के ऊंच-नीच का कुछ अनुभव नहीं किया है। तुम्हारे सिवा उसका संसार में कौन है? उमानाथ का हाल तुम जानती ही हो, वह उसका निर्वाह नहीं कर सकते। उनमें दया है, पर लोभ उससे अधिक है। कभी-न-कभी वह उससे अवश्य ही अपना गला छु़ड़ा लेंगे। उस समय वह किसकी होकर रहेगी?
सुमन को गजाधर के इस कथन में सच्ची संवेदना की झलक दिखाई दी। उसने उनकी ओर विनम्रतासूचक दृष्टि से देखकर कहा– शान्ता से मिलने की अपेक्षा मुझे प्राण देना सहज प्रतीत होता है। कई दिन हुए, उसने पद्मसिंह के पास एक पत्र भेजा था। उमानाथ उसका कहीं और विवाह करना चाहते हैं। वह इसे स्वीकार नहीं करती।
गजाधर– वह देवी है।
सुमन– शर्माजी बेचारे और क्या करते, उन्होंने निश्चय किया है कि उसे बुलाकर आश्रम में रखें। अगर उसके भाई मान जाएंगे, तब तो अच्छा ही है, नहीं तो उस दुखिया को न जाने कितने दिनों तक आश्रम में रहना पड़ेगा। वह कल यहां आ जाएगी। उसके सम्मुख जाने का भय, उससे आंखें मिलाने की लज्जा मुझे मारे डालती है। जब वह तिरस्कार की आंखों से मुझे देखेगी, उस समय मैं क्या करूंगी और जो कहीं उसने घृणावश मुझसे गले मिलने में संकोच किया, तब तो मैं उसी क्षण विष खा लूंगी। इस दुर्गति से तो प्राण देना ही अच्छा है।
गजाधर ने सुमन को श्रद्धा भाव से देखा उन्हें अनुभव हुआ कि ऐसी अवस्था में मैं भी वही करता, जो सुमन करना चाहती है। बोले– सुमन, तुम्हारे यह विचार यथार्थ हैं, पर तुम्हारे हृदय पर चाहे जो कुछ बीते, शान्ता को हित के लिए तुम्हें सब कुछ सहना पड़ेगा। तुमसे उसका जितना कल्याण हो सकता है, उतना अन्य किसी से नहीं हो सकता। अब तक तुम अपने लिए जीती थीं, अब दूसरों के लिए जियो।
यह कह, गजाधर जिधर से आए थे, उधर ही चले गए। सुमन गंगाजी के तट पर देर तक खड़ी उनकी बातों पर विचार करती रही, फिर स्नान करके आश्रम की ओर चली, जैसे कोई मनुष्य समर में परास्त होकर घर की ओर जाता है।
42
शान्ता ने पत्र तो भेजा, पर उसको उत्तर आने की कोई आशा न थी। तीन दिन बीत गए, उसका नैराश्य दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। अगर कुछ अनुकूल उत्तर न आया, तो उमानाथ अवश्य ही उसका विवाह कर देंगे, यह सोचकर शान्ता का हृदय थरथराने लगता था। वह दिन में कई बार देवी के चबूतरे पर जाती और नाना प्रकार की मनौतियां करती। कभी शिवजी के मंदिर में जाती और उनसे अपनी मनोकामना कहती। सदन एक क्षण के लिए भी उनके ध्यान से न उतरता। वह उसकी मूर्ति को हृदय-नेत्रों के सामने बैठाकर उससे कर जोड़कर कहती– प्राणनाथ, मुझे क्यों नहीं अपनाते? लोकनिंदा के भय से! हाय, मेरी जान इतनी सस्ती है कि इन दामों बिके! तुम मुझे त्याग रहे हो, आग में झोंक रहे हो, केवल इस अपराध के लिए कि मैं सुमन की बहन हूं, यही न्याय है। कहीं तुम मुझे मिल जाते, मैं तुम्हें पकड़ पाती, फिर देखती कि मुझसे कैसे भागते हो? तुम पत्थर नहीं हो कि मेरे आंसुओं से न पसीजते। तुम अपनी आंखों से एक बार मेरी दशा देख लेते, तो फिर तुमसे न रहा जाता। हां, तुमसे कदापि न रहा जाता। तुम्हारा विशाल हृदय करुणाशून्य नहीं हो सकता। क्या करूं, तुम्हें अपने चित्त की दशा कैसे दिखाऊं?
चौथे दिन प्रातःकाल पद्मसिंह का पत्र मिला। शान्ता भयभीत हो गई। उसकी प्रेमाभिलाषाएं शिथिल पड़ गईं। अपनी भावी दशा की शंकाओं ने चित्त को अशांत कर दिया।
लेकिन उमानाथ फूले नहीं समाए। बाजे का प्रबंध किया। सवारियां एकत्रित कीं, गांव-भर में निमंत्रण भेजे, मेहमानों के लिए चौपाल में फर्श आदि बिछवा दिए। गांव के लोग चकित थे, यह कैसा गौना है? विवाह तो हुआ ही नहीं, गौना कैसा? वह समझते थे कि उमानाथ ने कोई-न-कोई चाल खेली है। एक ही धूर्त है। निर्दिष्ट समय पर उमानाथ स्टेशन गए और बाजे बजवाते हुए मेहमानों को अपने घर लाए। चौपाल में उन्हें ठहराया। केवल तीन आदमी थे। पद्मसिंह, विट्ठलदास और एक नौकर।
दूसरे दिन संध्या-समय विदाई का मुहूर्त था। तीसरा पहर हो गया, किंतु उमानाथ के घर में गांव की कोई स्त्री नहीं दिखलाई देती। वह बार-बार अंदर आते हैं, तेवर बदलते हैं, दिवालों को धमकाकर कहते हैं, मैं एक-एक को देख लूंगा। जाह्नवी से बिगड़कर कहते हैं कि मैं सबकी खबर लूंगा। लेकिन वे धमकियां, जो कभी नंबरदारों को कंपायमान कर दिया करती थीं, आज किसी पर असर नहीं करती। बिरादरी अनुचित दबाव नहीं मानती। घमंडियों का सिर नीचा करने के लिए वह ऐसे ही अवसरों की ताक में रहती है।
संध्या हुई। कहारों ने पालकी द्वार पर लगा दी। जाह्नवी और शान्ता गले मिलकर खूब रोईं।
शान्ता का हृदय प्रेम से परिपूर्ण था। इस घर में उसे जो-जो कष्ट उठाने पड़े थे, वह इस समय भूल गए थे। इन लोगों से फिर भेंट न होगी, इस घर के फिर दर्शन न होंगे, इनसे सदैव के लिए नाता टूटता है, यह सोचकर उसका हृदय विदीर्ण हुआ जाता था। जाह्नवी का हृदय भी दया से भरा हुआ था। इस माता-पिता विहीन बालिका को हमने बहुत कष्ट दिए, यह सोचकर वह अपने आंसुओं को न रोक सकती थी। दोनों हृदयों में सच्चे, निर्मल, कोमल भावों की तरंगें उठ रही थीं।
उमानाथ घर में आए, तो शान्ता उनके पैरों से लिपट गई और विनय करती हुई कहने लगी– तुम्हीं मेरे पिता हो। अपनी बेटी को भूल न जाना। मेरी बहनों को गहने-कपड़े देना, होली और तीज में उन्हें बुलाया, पर मैं तुम्हारे दो अक्षरों के पत्र को ही अपना धन्य भाग समझूंगी। उमानाथ ने उसको संबोधित करते हुए कहा– बेटी, जैसी मेरी और दो बेटियां हैं, वैसी ही तुम भी हो। परमात्मा तुम्हें सदा सुखी रखे। यह कहकर रोने लगे।
संध्या का समय था, मुन्नी गाय घर में आई, तो शान्ता उसके गले लिपटकर रोने लगी। उसने तीन-चार वर्ष उस गाय की सेवा की थी। अब वह किसे भूसी लेकर दौड़ेगी? किसके गले में काले डोरे में कौड़ियां गूंथकर पहनाएगी? मुन्नी सिर झुकाए उसके हाथों को चाटती थी। उसका वियोग-दुख उसकी आंखों से झलक रहा था।
जाह्नवी ने शान्ता को लाकर पालकी में बैठा दिया। कहारों ने पालकी उठाई। शान्ता को ऐसा मालूम हुआ कि मानो वह अथाह सागर में बही जा रही है।
गांव की स्त्रियां अपने द्वारों पर खड़ी पालकी को देखती थीं और रोती थीं।
उमानाथ स्टेशन तक पहुंचाने आए। चलते समय अपनी पगड़ी उतारकर उन्होंने पद्मसिंह के पैरो पर रख दी। पद्मसिंह ने उनको गले से लगा लिया।
जब गाड़ी चली तो पद्मसिंह ने विट्ठलदास से कहा– अब इस अभिनय का सबसे कठिन भाग आ गया।
विट्ठलदास– मैं नहीं समझा।
पद्मसिंह– क्या शान्ता से कुछ कहे-सुने बिना ही उसे आश्रम में पहुंचा दीजिएगा?
उसे पहले उसके लिए तैयार करना चाहिए।
विट्ठलदास– हां, यह आपने ठीक सोचा, तो जाकर कह दूं?
पद्मसिंह– जरा सोच तो लीजिए, क्या कहिएगा? अभी तो वह यह समझ रही है कि ससुराल जा रही हूं। वियोग के दुख में यह आशा उसे संभाले हुए है। लेकिन जब उसे हमारा कौशल ज्ञात हो जाएगा, तो उसे कितना दुख होगा? मुझे पछतावा हो रहा है कि मैंने पहले ही वे बातें क्यों न कह दीं?
विट्ठलदास– तो अब कहने में क्या बिगड़ा जाता है? मिर्जापुर में गाड़ी देर तक ठहरेगी, मैं जाकर उसे समझा दूंगा।
पद्मसिंह– मुझसे बड़ी भूल हुई।
विट्ठलदास– तो उस भूल पर पछताने से अगर काम चल जाए, तो जी भरकर पछता लीजिए।
पद्मसिंह– आपके पास पेंसिल हो तो लाइए, एक पत्र लिखकर सब समाचार प्रकट कर दूं।
विट्ठलदास– नहीं, तार दे दीजिए, यह और भी उत्तम होगा। आप विचित्र जीव हैं, सीधी-सी बात में भी इतना आगा-पीछा करने लगते हैं।
पद्मसिंह– समस्या ही ऐसी आ पड़ी है, मैं क्या करूं? एक बात मेरे ध्यान में आती है, मुगलसराय में देर तक रुकना पड़ेगा। बस, वहीं उसके पास जाकर सब वृत्तांत कह दूंगा।
विट्ठलदास– यह आप बहुत दूर की कौड़ी लाए, इसीलिए बुद्धिमानों ने कहा है कि कोई काम बिना भली-भांति सोचे नहीं करना चाहिए। आपकी बुद्धि ठिकाने पर पहुंचती है, लेकिन बहुत चक्कर खाकर। यही बात आपको पहले न सूझी।
शान्ता ड्योढ़े दरजे के जनाने कमरे में बैठी हुई थीं। वहां दो ईसाई लेडियां और बैठी थीं। वे शान्ता को देखकर अंग्रेजी में बातें करने लगीं।
‘मालूम होता है, यह कोई नवविवाहिता स्त्री है।’
‘हां, किसी ऊंचे कुल की है! ससुराल जा रही है।’
‘ऐसी रो रही है, मानों कोई ढकेले लिए जाता हो।’
‘पति की अभी तक सूरत न देखी होगी, प्रेम कैसे हो सकता है। भय से हृदय कांप रहा होगा।’
‘यह इनके यहां अत्यंत निकृष्ट रिवाज है। बेचारी कन्या एक अनजान घर में भेज दी जाती है, जहां कोई उसका अपना नहीं होता।’
‘यह सब पाशविक काल की प्रथा है, जब स्त्रियों को बलात् उठा ले जाते थे।’
‘क्यों बाईजी, (शान्ता से) ससुराल जा रही हो?’
शान्ता ने धीरे से सिर हिलाया।
‘तुम इतनी रूपवती हो, तुम्हारा पति भी तुम्हारे जोड़ का है?’
शान्ता ने गंभीरता से उत्तर दिया– पति की सुंदरता नहीं देखी जाती।
‘यदि वह काला-कलूटा हो तो?’
शान्ता ने गर्व से उत्तर दिया– हमारे लिए देवतुल्य है, चाहे कैसा ही हो।
‘अच्छा मान लो, तुम्हारे ही सामने दो मनुष्य लाए जाएं, एक रूपवान हो, दूसरा कुरूप, तो तुम किसे पसंद करोगी?’
शान्ता ने दृढ़ता से उत्तर दिया– जिसे हमारे माता-पिता पसंद करें।
शान्ता समझ रही थी कि दोनों हमारी विवाह-प्रथा पर आक्षेप कर रही हैं। थोड़ी देर के बाद उसने पूछा– मैंने सुना है, आप लोग अपना पति खुद चुन लेती हैं?
‘हां, हम इस विषय में स्वतंत्र हैं।’
‘आप अपने को मां-बाप से बुद्धिमान समझती हैं?’
‘हमारे मां-बाप क्या जान सकते हैं कि हमको उनके पसंद किए हुए पुरुषों से प्रेम होगा या नहीं?’
‘तो आप लोग विवाह में प्रेम मुख्य समझती हैं?’
‘हां, और क्या? विवाह प्रेम का बंधन है।’
‘हम विवाह को धर्म का बंधन समझती हैं। हमारा प्रेम धर्म के पीछे चलता है।’
नौ बजे गाड़ी मुगलसराय पहुंच गई। विट्ठलदास ने आकर शान्ता को उतार और दूर हटकर प्लेटफार्म पर ही कालीन बिछाकर उसे बिठा दिया। बनारस की गाड़ी खुलने में आध घंटे की देर थी।
शान्ता ने देखा कि उसके देशवासी सिर पर बड़े-बड़े गट्ठर लादे एक संकरे द्वार पर खड़े हैं और बाहर निकलने के लिए एक-दूसरे पर गिरे पड़ते हैं, एक दूसरे तंग दरवाजे पर हजारों आदमी खड़े अंदर के लिए धक्कमधक्का कर रहे हैं, लेकिन दूसरी ओर एक चौड़े दरवाजे से अंग्रेज लोग छड़ी घुमाते कुत्तों को लिए आते-जाते हैं। कोई उन्हें नहीं रोकता, कोई उनसे नहीं बोलता।
इतने में पंडित पद्मसिंह उसके निकट आए बोले– शान्ता, मैं तुम्हारा धर्मपिता पद्मसिंह हूं।
शान्ता खड़ी हो गई और दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया।
पद्मसिंह ने कहा– तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा कि हम लोग चुनार क्यों नहीं उतरे? इसका कारण यही है कि अभी तक मैंने भाई साहब से तुम्हारे विषय में कुछ नहीं पूछा। तुम्हारा पत्र मुझे मिला, तो मैं ऐसा घबड़ा गया कि मुझे तुम्हें बुलाना परमावश्यक जान पड़ा। भाई साहब से कुछ कहने-सुनने का अवकाश ही नहीं मिला। इसीलिए अभी कुछ दिनों तक बनारस रहना पड़ेगा। मैंने यह उचित समझा है कि तुम्हें उसी आश्रम में ठहराऊं, जहां आजकल तुम्हारी बहन सुमनबाई रहती हैं। सुमन के साथ रहने से तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट न होगा। तुमने सुमन के विषय में जो कलंकित बातें सुनी हैं, उन्हें हृदय से निकाल डालो। अब वह देवी है। उसका जीवन सर्वथा निर्दोष और उज्ज्वल हो गया है। यदि ऐसा न होता, तो मैं अपनी धर्मपुत्री को उसके साथ रखने पर कभी तैयार न होता। महीने-दो-महीने में, मैं भैया को ठीक कर लूंगा। यदि तुम्हें इस प्रबंध में कुछ आपत्ति हो, तो साफ-साफ कह दो कि कोई और प्रबंध करूं?
पद्मसिंह ने इस वाक्य को बड़ी मुश्किल से समाप्त किया। सुमन की उन्होंने जो प्रशंसा की, उस पर उन्हें स्वयं विश्वास नहीं था। मदनसिंह के संबंध में भी वे उससे बहुत अधिक कह गए, जो वह कहना न चाहते थे। उन्हें इस सरल-हृदय कन्या को इस भांति धोखा देते हुए मानसिक कष्ट होता था।
शान्ता रोते हुए पद्मसिंह के चरणों पर गिर पड़ी और लज्जा, नैराश्य तथा विषाद से भरे हुए ये शब्द उसके मुख से निकले– आपकी शरण में हूं, जो उचित समझिए, वह कीजिए।
शान्ता का हृदय बहुत हल्का हो गया। अब उसे अपने भविष्य के विषय में चिंता करने की आवश्यकता न रही, उसे कुछ दिनों के लिए अपना जीवन-मार्ग निश्चित मालूम होने लगा। वह इस समय उस मनुष्य के सदृश थी जो अपने झोंपड़े में आग लग जाने से इसलिए प्रसन्न हो कि कुछ देर के लिए वह अंधकार के भय से मुक्त हो जाएगा।
ग्यारह बजे ये तीनों प्राणी आश्रम में पहुंच गए। विट्ठलदास उतरे कि जाकर सुमनबाई को खबर दूं, पर वहां जाकर देखा, तो वह बुखार से बेसुध पड़ी थी। आश्रम की कई स्त्रियां उसकी सुश्रुषा में लगी हुई थीं। कोई पंखा झलती थी, कोई उसका सिर दबाती थी, कोई पैरों को मल रही थी। बीच-बीच में कराहने की ध्वनि सुनाई देती थी। विट्ठलदास ने घबराकर पूछा– डॉक्टर को बुलाया था? उत्तर मिला– हां, वह देखकर अभी गए हैं।
कई स्त्रियों ने शान्ता को गाड़ी से उतारा। शान्ता सुमन की चारपाई के पास खड़ी होकर बोली, ‘जीजी।’ सुमन ने आंखें न खोलीं। शान्ता मूर्तिवत् खड़ी अपनी बहन को करुण तथा सजल नेत्रों से देख रही थी। यही मेरी प्यारी बहन है, जिसके साथ मैं तीन-चार साल पहले खेलती थी। वह लंबे-लंबे काले केश कहां हैं? वह कुंदन-सा दमकता हुआ मुखचन्द्र कहां है? वह चंचल, सजीव मुस्कराती हुई आंखें कहां गई? वह कोमल, चपल गात, वह ईंगुर-सा भरा हुआ शरीर, वह अरुणवर्ण कपोल कहां लुप्त हो गए? यह सुमन है या उसका शव, अथवा उसकी निर्जीव मूर्ति? उस वर्णहीन मुख पर विरक्ति, संयम तथा आत्मत्याग की निर्मल, शांतिदायिनी ज्योति झलक रही थी। शान्ता का हृदय क्षमा और प्रेम से उमड़ उठा। उसने अन्य स्त्रियों को वहां से हट जाने का संकेत किया और तब वह रोती हुई सुमन के गले से लिपट गई और बोली– जीजी, आंखें खोलो, जी कैसा है? तुम्हारी शान्ति खड़ी है।
सुमन ने आंखें खोलीं और उन्मत्तों की भांति विस्मित नेत्रों से शान्ता की ओर देखकर बोली– कौन, शान्ति? तू हट जा, मुझे मत छू, मैं पापिन हूं, मैं अभागिन हूं, मैं भ्रष्टा हूं, तू देवी है, तू साध्वी है, मुझसे अपने को स्पर्श न होने दे। इस हृदय को वासनाओं ने, लालसाओं ने, दुष्कामनाओं ने, मलिन कर दिया है। तू अपने उज्जवल, स्वच्छ हृदय को इसके पास मत ला, यहां से भाग जा। वह मेरे सामने नरक का अग्निकुंड दहक रहा है, यम के दूत मुझे उस कुंड में झोंकने के लिए घसीटे लिए जाते हैं, तू यहां से भाग जा– यह कहते-कहते सुमन फिर से मूर्छित हो गई।
शान्ता सारी रात सुमन के पास बैठी पंखा झलती रही।
43
शान्ता को आश्रम में आए एक मास से ऊपर हो गया, लेकिन पद्मसिंह ने अभी तक अपने घर में किसी से इसकी चर्चा नहीं की। कभी सोचते, भैया को पत्र लिखूं, कभी सोचते, चलकर उनसे कहूं, कभी विट्ठलदास को भेजने का विचार करते, लेकिन कुछ निश्चय न कर सकते थे।
इधर उनके मित्रगण वेश्याओं के प्रस्तावों को बोर्ड में पेश करने के लिए जल्दी मचा रहे थे। उन्हें उसकी सफलता की पूरी आशा की। मालूम नहीं, विलंब होने से फिर कोई बाधा उपस्थित हो जाए। पद्मसिंह उसे टालते आए थे। यहां तक कि मई का महीना आ गया। विट्ठलदास और रमेशदत्त ने ऐसा तंग किया कि उन्हें विवश होकर बोर्ड में नियमानुसार अपने प्रस्ताव की सूचना देनी पड़ी। दिन और समय निर्दिष्ट हो गया।
ज्यों-ज्यों दिन निकट आता था, पद्मसिंह का चित्त अशांत होता जाता था। उन्हें अनुभव होता था कि केवल इस प्रस्ताव के स्वीकृत हो जाने से ही उद्देश्य पूरा न होगा। इसे कार्यरूप में लाने के लिए शहर के सभी बड़े आदमियों की सहानुभूति और सहकारिता की आवश्यकता है, इसलिए वह हाजी हाशिम को किसी-न-किसी तरह अपने पक्ष में लाना चाहते थे। हाजी साहब का शहर में इतना दबाव था कि वेश्याएं भी उनके आदेश के विरुद्ध न जा सकती थीं। अंत में हाजी साहब भी पिघल गए। उन्हें पद्मसिंह की नेकनीयती पर विश्वास हो गया।
आज बोर्ड में यह प्रस्ताव पेश होगा। म्युनिसिपल बोर्ड के अहाते में बड़ी भीड़भाड़ है। वेश्याओं ने अपने दलबल सहित बोर्ड पर आक्रमण किया है। देखें, बोर्ड की क्या गति होती है।
बोर्ड की कार्यवाही आरंभ हो गई। सभी मेंबर उपस्थित हैं। डॉक्टर श्यामाचरण ने पहाड़ पर जाना मुल्तवी कर दिया है, मुंशी अबुलवफा को तो आज रात-भर नींद ही नहीं आई। वह कभी भीतर जाते हैं, कभी बाहर आते हैं। आज उनके परिश्रम और उत्साह की सीमा नहीं है।
पद्मसिंह ने अपना प्रस्ताव उपस्थित किया और तुले हुए शब्दों में उसकी पुष्टि की। यह तीन भागों में विभक्त थाः
१. वेश्याओं को शहर के मुख्य स्थान से हटाकर बस्ती से दूर रखा जाए,
२. उन्हें शहर के मुख्य सैर करने के स्थानों और पार्कों में आने का निषेध किया जाए,
३. वेश्याओं का नाच कराने के लिए एक भारी टैक्स लगाया जाए, और ऐसे जलसे किसी हालत में खुले स्थानों में न हों।
प्रोफेसर रमेशदत्त ने उसका समर्थन किया।
सैयद शफयतअली (पें. डिप्टी कले.) ने कहा– इस तजवीज से मुझे पूरा इत्तिफाक है, लेकिन बगैर मुनासिब तरमीम के मैं इसे तसलीम नहीं कर सकता। मेरी राय है कि रिज्योल्यूशन के पहले हिस्से में यह अल्फाज बढ़ा दिए जाएं– बइस्तसनाय उनके, जो नौ माह के अंदर या तो अपना निकाह कर लें या कोई हुनर सीख लें, जिससे वह जाएज तरीके से जिंदगी बसर कर सकें।
कुंवर अनिरुद्धसिंह बोले– मुझे इस तरमीम से पूरी सहानुभूति है। हमें वेश्याओं को पतित समझने का कोई अधिकार नहीं है, यह हमारी परम धृष्टता है। हम रात-दिन जो रिश्वतें लेते हैं, सूद खाते हैं, दीनों का रक्त चूसते हैं, असहायों का गला काटते हैं, कदापि इस योग्य नहीं हैं कि समाज के किसी अंग को नीच या तुच्छ समझें। सबसे नीच हम हैं, सबसे पापी, दुराचारी, अन्यायी हम हैं, जो अपने को शिक्षित, सभ्य, उदार, सच्चा समझते हैं! हमारे शिक्षित भाइयों ही की बदौलत दालमंडी आबाद है, चौक में चहल-पहल है, चकलों में रौनक है। यह मीना बाजार हम लोगों ही ने सजाया है, ये चिड़ियां हम लोगों ने ही फांसी है, ये कठपुतलियां हमने बनाई हैं। जिस समाज में अत्याचारी जमींदार, रिश्वती राज्य-कर्मचारी, अन्यायी महाजन, स्वार्थी बंधु आदर और सम्मान के पात्र हों, वहां दालमंडी क्यों न आबाद हो। हराम का धन हरामकारी और कहां जा सकता है? जिस दिन नजराना, रिश्वत और सूद-दर-सूद का अंत होगा, उसी दिन दालमंडी उजड़ जाएगी, वे चिड़ियां उड़ जाएंगी– पहले नहीं। मुख्य प्रस्ताव इस तरमीम के बिना नश्तर का वह घाव है, जिस पर मरहम नहीं। मैं उसे स्वीकार नहीं कर सकता।
प्रभाकर राव ने कहा– मेरी समझ में नहीं आता कि इस तरमीम का रिज्योल्यूशन से क्या संबंध हैं? इसको आप अलग दूसरे प्रस्ताव के रूप में पेश कर सकते हैं। सुधार के लिए आप जो कुछ कर सकें, वह सर्वथा प्रशंसनीय है, लेकिन यह काम बस्ती से हटाकर भी उतना ही आसान है, जितना शहर के भीतर, बल्कि वहां सुविधा अधिक हो जाएगी।
अबुलवफा ने कहा– मुझे इस तरमीम से पूरा इत्तफाक है।
अब्दुललतीफ बोले– बिना तरमीम के मैं रिज्योल्यूशन को कभी कबूल नहीं कर सकता।
दीनानाथ तिवारी ने भी तरमीम पर जोर दिया है।
पद्मसिंह बोले– इस प्रस्ताव से हमारा उद्देश्य वेश्याओं को कष्ट देना नहीं, वरन उन्हें सुमार्ग पर लाना है, इसलिए मुझे इस तरमीम के स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं हैं।
सैयद तेगअली ने फर्माया-तरमीम से असल तजवीज की मंशा फीत हो जाने का खौफ है। आप गोया एक मकान का सदर दरवाजा बंद करके पीछे की तरफ दूसरा दरवाजा बना रहे हैं। यह गैरमुमकिन है कि वे औरतें, जो अब तक ऐश और बेतकल्लुफी की जिंदगी बसर करती थीं, मेहनत और मजदूरी की जिंदगी बसर करने पर राजी हो जाएं। वह इस तरमीम से नाजायज फायदा उठाएंगी, कोई अपने बालाखाने पर सिंगार की एक मशीन रखकर अपना बचाव कर लेंगी, कोई मोजे की मशीन रख लेंगी, कोई पान की दूकान खोल लेंगी, कोई अपने बालाखाने पर सेब और अनार के खोमचे सजा देंगी। नकली निकाह और फरजी शादियों का बाजार गर्म हो जाएगा और इस परदे की आड़ में पहले से भी ज्यादा हरामकारी होने लगेगी। इस तरमीम को मंजूर करना इंसानी खसलत से बेइल्मी का इजहार करना है।
हकीम शोहरत खां ने कहा– मुझे सैयद तेगअली के खयालात बेजा मालूम होते हैं। पहले इन खबीस हस्तियों को शहरबदर कर देना चाहिए। इसके बाद अगर वह जाएज तरीके पर जिंदगी बसर करना चाहें, तो काफी इत्मीनान के बाद उन्हें इंतहान शहर में आकर आबाद होने की इजाजत देनी चाहिए। शहर का दरवाजा बंद नहीं है जो चाहे यहां आबाद हो सकता है। मुझे काबिले यकीन है कि तरमीम से इस तजवीज का मकसद गायब हो जाएगा।
शरीफहसन वकील बोले– इसमें कोई शक नहीं कि पंडित पद्मसिंह एक बहुत ही नेक और रहमी बुजुर्ग हैं, लेकिन इस तरमीम को कबूल करके उन्होंने असल मकसद पर निगाह रखने के बजाए हरदिल अजीज बनने की कोशिश की है। इससे तो यही बेहतर था कि यह तजवीज पेश ही न की जाती। सैयद शराफतअली साहब ने अगर ज्यादा गौर से काम लिया होता, तो वह कभी यह तरमीम पेश न करते।
शाकिरबेग ने कहा– कंप्रोमाइज मुलकी मुआमिलात में चाहे कितना ही काबिल-तारीफ हो, लेकिन इखलाकी मामलात में वह सरासर काबिले-एतराज है। इससे इखलाकी बुराइयों पर सिर्फ परदा पड़ जाता है।
सभापति सेठ बलभद्रदास ने रिज्योल्यूशन के पहले भाग पर राय ली। नौ सम्मतियां अनुकूल थीं, आठ प्रतिकूल। प्रस्ताव स्वीकृत हो गया।
फिर तरमीम पर राय ली गई, आठ आदमी उसके अनुकूल थे, आठ प्रतिकूल, तरमीम भी पास हो गई। सभापति ने उसके अनुकूल राय दी। डॉक्टर श्यामाचरण ने किसी तरफ राय नहीं दी।
प्रोफेसर रमेशदत्त और रुस्तम भाई और प्रभाकर राव ने तरमीम के स्वीकृत हो जाने में अपनी हार समझी और पद्मसिंह की ओर इस भाव से देखा, मानों उन्होंने विश्वासघात किया है। कुंवर साहब के विषय में उन्होंने स्थिर किया कि बातूनी, शक्की और सिद्धांतहीन मनुष्य है।
अबुलवफा और उसके मित्रगण ऐसे प्रसन्न थे, मानों उन्हीं की जीत हुई। उनका यों पुलकित होना प्रभाकर राव और उसके मित्रों के हृदय में कांटे की तरह गड़ता था।
प्रस्ताव के दूसरे भाग पर सम्मति ली गई। प्रभाकर राव और उसके मित्रों ने इस बार उसका विरोध किया। वह पद्मसिंह को विश्वासघात का दंड देना चाहते थे। यह प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया। अबुलवफा और उनके मित्र बगलें बजाने लगे।
अब प्रस्ताव के तीसरे भाग की बारी आई। कुंवर अनिरुद्धसिंह ने उसका समर्थन किया। हकीम शोहरतखां, सैयद शफकतअली, शरीफ हसन और शाकिरबेग ने भी उसका अनुमोदन किया। लेकिन प्रभाकर राव और उनके मित्रों ने उसका भी विरोध किया। तरमीम के पास हो जाने के बाद उन्हें इस संबंध में अन्य सभी उद्योग निष्फल मालूम होते थे। वह उन लोगों में थे, जो या तो सब लेंगे या कुछ न लेंगे। प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया।
कुछ रात गए सभा समाप्त हुई। जिन्हें हार की शंका थी, वह हंसते हुए निकले, जिन्हें जीत का निश्चय था, उनके चेहरों पर उदासी छाई हुई थी।
चलते समय कुंवर साहब ने मिस्टर रुस्तम भाई से कहा– यह आप लोगों ने क्या कर दिया?
रुस्तम भाई ने व्यंग्य भाव से उत्तर दिया– जो आपने किया, वही हमने किया। आपने घड़े में छेद कर दिया, हमने उसे पलट दिया। परिणाम दोनों का एक ही है।
सब लोग चले गए। अंधेरा हो गया। चौकीदार और माली भी फाटक बंद करके चल दिए, लेकिन पद्मसिंह वहीं घास पर निरुत्साह और चिंता की मूर्ति बने हुए बैठे थे।
44
पद्मसिंह की आत्मा किसी भांति इस तरमीम के स्वीकार करने में अपनी भूल स्वीकार न करती थी। उन्हें कदापि यह आशा न थी कि उनके मित्रगण एक गौण बात पर उनका इतना विरोध करेंगे। उन्हें प्रस्ताव के एक अंश के अस्वीकृत हो जाने का खेद न था कि इसका दोष उनके सिर मढ़ा जाता था, हालांकि उन्हें यह संपूर्णतः अपने सहकारियों की असहिष्णुता और अदूदर्शिता प्रतीत होती थी। इस तरमीम को वह गौण ही समझते थे। इसके दुरुपयोग की जो शंकाएं की गई थीं, उन पर पद्मसिंह को विश्वास न था। वह विश्वास इस प्रस्ताव की सारी जिम्मेदारी उन्हीं के सिर डाल देता था। उन्हें अब यह निश्चय होता जाता था कि वर्तमान सामाजिक दशा के होते हुए इस प्रस्ताव से जो आशाएं की गई थीं, उनके पूरे होने की संभावना नहीं है। वह कभी-कभी पछताते कि मैंने व्यर्थ ही यह झगड़ा अपने सिर लिया। उन्हें आश्चर्य होता था कि मैं कैसे इस कांटेदार झाड़ी में उलझा और यदि इस भावी सफलता का भार इस तरमीम से सिर जा पड़ता तो वह एक बड़ी भारी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते, पर यह उन्हें दुराशा-मात्र प्रतीत होती थी। अब सारी बदनामी उन्हीं पर आएगी, विरोधी दल उनकी हंसी उड़ाएगा, उनकी उद्दंडता पर टिप्पणियां करेगा और यह सारी निंदा उन्हें अकेले सहनी पड़ेगी। कोई उनका मित्र नहीं, कोई उन्हें तसल्ली देने वाला नहीं। विट्ठलदास से आशा थी कि वह उनके साथ न्याय करेंगे, उनके रूठे हुए मित्रों को मना लाएंगे, लेकिन विट्ठलदास ने उल्टे उन्हीं को अपराधी ठहराया। वह बोले– आपने इस तरमीम को स्वीकार करके सारा गुड़ गोबर कर दिया, बरसों की मेहनत पर पानी फेर दिया। केवल कुंवर अनिरुद्धसिंह वह मनुष्य थे, जो पद्मसिंह के व्यथित हृदय को ढाढस देते थे और उनसे सहानुभूति रखते थे।
पूरे महीने भर पद्मसिंह कचहरी न जा सके। बस अकेले बैठे हुए इसी घटना की आलोचना किया करते! उनके विचारों में एक विचित्र निष्पक्षता आ गई थी। मित्रों के वैमनस्य से उन्हें जो दुःख होता था, उस पर ध्यान देकर वह सोचते थे कि जब ऐसे सुशिक्षित, विचारशील पुरुष एक जरा-सी बात पर अपनी निश्चित सिद्धांतों के प्रतिकूल व्यवहार करते हैं, तो इस देश का कल्याण होने की कोई आशा नहीं। माना कि मैंने तरमीम को स्वीकार करने में भूल की, लेकिन मेरी भूल ने उन्हें क्यों मार्ग से विचलित कर दिया?
पद्मसिंह को इस मानसिक कष्ट की अवस्था में पहली बार अनुभव हुआ कि एक अबला स्त्री चित्त को सावधान करने की कितनी शक्ति रखती है। अगर संसार में कोई प्राणी था, जो संपूर्णतः उनकी अवस्था को समझता था, तो वह सुभद्रा थी। वह उस तरमीम को उससे कहीं अधिक आवश्यक समझती थी, जितना वह स्वयं समझते थे। वह उनके सहकारियों की उनसे कहीं अधिक तीव्र समालोचना करना जानती थी। उसकी बातों से पद्मसिंह को बड़ी शांति होती थी। यद्यपि वह समझते थे कि सुभद्रा में ऐसे गहन विषय के समझने और तौलने का सामर्थ्य नहीं और यह जो कुछ कहती है, वह केवल मेरी ही बातों की प्रतिध्वनि है, तथापि इस ज्ञान से उनके आनंद में कोई विघ्न न पड़ता था।
लेकिन महीना पूरा भी न हो पाया था कि प्रभाकर राव ने अपने पत्र में इस प्रस्ताव के संबंध में एक लेखमाला निकालनी आरंभ कर दी। उसमें पद्मसिंह पर ऐसी-ऐसी मार्मिक चोटें करने लगे कि उन्हें पढ़कर वह तिलमिला जाते थे। एक लेख में उन्होंने पद्मसिंह के पूर्व चरित्र और इस तरमीम में घनिष्ठ संबंध दिखाया। एक-दूसरे लेख में उनके आचरण पर आक्षेप करते हुए लिखा, यह वर्तमान काल के देशसेवक है, जो देश को भूल जाएं, पर अपने को कभी नहीं भूलते, जो देश-सेवा की आड़ में अपना स्वार्थ साधन करते हैं। जाति के नवयुवक कुएं में गिरते हों तो गिरें, काशी के हाजी की कृपा बनी रहनी चाहिए। पद्मसिंह को इस अनुदारता और मिथ्या द्वेष पर जितना क्रोध आता था, उतना ही आश्चर्य होता था। असज्जनता इस सीमा तक जा सकती है, यह अनुभव उन्हें आज ही हुआ। यह सभ्यता और शालीनता के ठेकेदार बनते हैं, लेकिन उनकी आत्मा ऐसी मलिन है! और किसी में इतना साहस नहीं कि इसका प्रतिवाद करे।
संध्या का समय था। यह लेख चारपाई पर पड़ा हुआ था। पद्मसिंह सामने मेज पर बैठे हुए लेख का उत्तर लिखने की चेष्टा कर रहे थे, पर कुछ लिखते न बनता था कि सुभद्रा ने आकर कहा– गर्मी में यहां क्यों बैठे हो? चलो, बाहर बैठो।
पद्मसिंह– प्रभाकर राव ने मुझे आज खूब गालियां दी हैं, उन्हीं का जवाब लिख रहा हूं।
सुभद्रा– यह तुम्हारे पीछे इस तरह क्यों पड़ा हुआ है?
यह कहकर सुभद्रा वह लेख पढ़ने लगी और पांच मिनट में उसने उसे आद्योपांत पढ़ डाला।
पद्मसिंह– कैसा लेख है?
सुभद्रा– यह लेख थोड़े ही है, यह तो खुली हुई गालियां है। मैं समझती थी कि गालियों की लड़ाई स्त्रियों में ही होती है, लेकिन देखती हूं, पुरुष तो हम लोगों से भी बढ़े हुए हैं। ये विद्वान भी होंगे?
पद्मसिंह– हां, विद्वान क्यों नहीं है, दुनिया-भर की किताबें चाट बैठे हैं।
सुभद्रा– और उस पर यह हाल!
पद्मसिंह– मैं इसका उत्तर लिख रहा हूं। ऐसी खबर लूंगा कि वह भी याद करें कि किसी से पाला पड़ा था।
सुभद्रा– मगर गालियों का क्या उत्तर होगा?
पद्मसिंह– गालियां।
सुभद्रा– नहीं, गालियों का उत्तर मौन है। गालियों का उत्तर गाली तो मूर्ख भी देते हैं, फिर उनमें और तुममें अंतर ही क्या है?
पद्मसिंह ने सुभद्रा को श्रद्धापूर्ण नेत्रों से देखा। उसकी बात उनके मन में बैठ गई। कभी-कभी हमें उन लोगों से शिक्षा मिलती है, जिन्हें हम अभिमानवश अज्ञानी समझते हैं।
पद्मसिंह– तो मौन धारण कर लूं?
सुभद्रा– मेरी तो यही सलाह है। उसे जो जी में आए, बकने दो। कभी-न-कभी वह अवश्य लज्जति होगा। बस, वही इन गालियों का दंड होगा।
पद्मसिंह– वह लज्जित कभी न होगा। ये लोग लज्जित होना जानते ही नहीं। अभी मैं उसके पास जाऊं, तो मेरा बड़ा आदर करेगा, हंस-हंसकर बोलेगा, लेकिन संध्या होते ही फिर उस पर गालियों का नशा चढ़ जाएगा।
सुभद्रा– तो उसका उद्यम क्या दूसरों पर आक्षेप करना है?
पद्मसिंह– नहीं, उद्यम तो यह नहीं है, लेकिन संपादक लोग अपने ग्राहक बढ़ाने के लिए इस प्रकार कोई-न-कोई फुलझड़ी छोड़ते रहते हैं। ऐसे आक्षेपपूर्ण लेखों से पत्रों की बिक्री बढ़ जाती है। जनता को ऐसे झगड़ों में आनंद प्राप्त होता है और संपादक लोग अपने महत्त्व को भूलकर जनता के इस विवाद-प्रेम से लाभ उठाने लगते हैं। गुरुपद को छोड़कर जनता के कलह-प्रेम का आवाहन करने लगते हैं। कोई-कोई संपादक तो यहां तक कहते हैं कि अपने ग्राहक को प्रसन्न रखना हमारा कर्त्तव्य है। हम उनका खाते हैं, तो उन्हीं का गाएंगे।
सुभद्रा– तब तो ये लोग केवल पैसे के गुलाम हैं। इन पर क्रोध करने की जगह दया करनी चाहिए।
पद्मसिंह मेज से उठ आए। उत्तर लिखने का विचार छोड़ दिया। वह सुभद्रा को ऐसी विचारशील कभी न समझते थे। उन्हें अनुभव हुआ कि यद्यपि मैंने बहुत विद्या पढ़ी है, पर इसके हृदय की उदारता तक मैं नहीं पहुंचा। यह अशिक्षित होकर भी मुझसे उच्च विचार रखती है, उन्हें आज ज्ञान हुआ कि स्त्री संतानहीन होकर भी पुरुष के लिए, शांति, आनंद का एक अविरल स्रोत है। सुभद्रा के प्रति उनके हृदय में एक नया प्रेम जाग्रत हो गया। एक लहर उठी, जिसने बरसों के जमे हुए मालिन्य को काटकर बहा दिया। उन्होंने विमल, विशुद्ध भाव से उसे देखा। सुभद्रा इसका आशय समझ गई और उसका हृदय आनंद से विह्वल हो गद्गद हो गया।
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सदन जब सुमन को देखकर लौटा, तो उसकी दशा उस दरिद्र मनुष्य की-सी थी, जिसका वर्षों का धन चोरों ने हर लिया हो।
वह सोचता था, सुमन मुझसे बोली क्यों नहीं, उसने मेरी ओर ताका क्यों नहीं? क्या वह मुझे इतना नीच समझती है? नहीं, वह अपने पूर्व चरित्र पर लज्जित है और मुझे भूल जाना चाहती है। संभव है, उसे मेरे विवाह का समाचार मिल गया हो और मुझे अन्यायी, निर्दयी समझ रही हो। उसे एक बार फिर सुमन से मिलने की प्रबल उत्कंठा हुई। दूसरे दिन वह विधवा-आश्रम के घाट की ओर चला, लेकिन आधे रास्ते से लौट आया। उसे शंका हुई कि कहीं शान्ता की बात चल पड़ी, तो मैं क्या जवाब दूंगा। इसके साथ ही स्वामी गजानन्द का उपदेश भी याद आ गया।
सदन अब कभी-कभी शान्ता के प्रति अपने कर्त्तव्य पर विचार किया करता। महीनों तक सामाजिक अवस्था पर व्याख्या सुनने का उस पर कुछ प्रभाव न पड़ता– यह असंभव था। वह मन में स्वीकार करने लगा था कि हम लोगों ने शान्ता के साथ अन्याय किया है, मगर अभी तक उस कर्त्तव्यात्मक शक्ति का उदय न हुआ था, जो अपमान करती है और आत्मा की आज्ञा के सामने किसी की परवाह नहीं करती।
वह इन दिनों बहुत अध्ययनशील हो गया था। दालमंडी और चौक की सैर से वंचित होकर अब उसकी सजीवता इस नए मार्ग पर चल पड़ी। आर्यसमाज के उत्सव में उसने व्याख्यान सुने थे, जिनमें चरित्र-गठन के महत्त्व का वर्णन किया गया था। उनके सुनने से उसका यह भ्रम दूर हो गया था कि मुझे जो कुछ होना था, हो चुका। वहां उसे बताया गया था कि बहुत विद्वान होने से ही मनुष्य आत्मिक गौरव नहीं प्राप्त कर सकता। इसके लिए सच्चरित्र होना परमावश्यक है। चरित्र के सामने विद्या का मूल्य बहुत कम है। वह उसी दिन से चरित्र-गठन और मनोबल संबंधी पुस्तकें पढ़ने लगा और दिनों-दिन उसकी यह रुचि बढ़ती जाती थी। उसे अब अनुभव होने लगा था कि मैं विद्याहीन होकर भी संसार क्षेत्र में कुछ काम कर सकता हूं। उन मंत्रों में इंद्रियों को रोकने तथा मन को स्थिर करने के जो साधन बताए गए थे, उन्हें वह कभी भूलता न था।
वह म्युनिसिपल बोर्ड के उस जलसे में मौजूद था, जब वेश्या संबंधी प्रस्ताव उपस्थित थे। उस तरमीम के स्वीकृत हो जाने से वह बहुत उदासीन हो गया था और अपने चाचा की भूल को स्वीकार करता था, लेकिन जब प्रभाकर राव ने पद्मसिंह पर आक्षेप करना शुरू किया, तो वह अपने चचा के पक्ष का समर्थन करने के लिए उत्सुक होने लगा। उसने दो-तीन लेख लिखे और प्रभाकर राव के पास डाक-द्वारा भेजे। कई दिन तक उसके प्रकाशित होने की आशा करता रहा। उसे निश्चय था कि उन लेखों के छपते ही हलचल मच जाएगी, संसार में कोई बड़ा परिवर्तन हो जाएगा। ज्योंही डाकिया पत्र लाता, वह उसे खोलकर अपने लेखों को खोजने लगता, लेकिन उनकी जगह केवल द्वेष और द्रोह से भरे हुए लेख दिखाई देते। उन्हें पढ़कर उसका धैर्य हाथ से जाता रहा। उसने निश्चय किया कि अब चाहे जो कुछ हो, संपादक महाशय की खबर लेनी चाहिए। अगर वह सज्जन होता, तो मेरे लेखों को छापता। उसकी भाषा अशुद्ध सही, पर वह तर्कहीन तो न थे। उन्हें छिपा रखने से साबित हो गया कि वह सत्यासत्य का निर्णय नहीं करना चाहता, केवल जनता को प्रसन्न करने के लिए नित्य गालियां बकता जाता है। उसने अपने विचारों को किसी पर प्रकट नहीं किया। संध्या समय एक मोटा-सा सोटा लिए हुए ‘जगत’ कार्यालय में पहुंचा। कार्यालय बंद हो चुका था, पर प्रभाकर राव अपने संपादकीय कुटीर में बैठे हुए कुछ लिख रहे थे। सदन बेधड़क भीतर जाकर उनके सामने खड़ा हो गया। प्रभाकर राव ने चौंककर सिर उठाया, तो एक लंबे-चौड़े युवक को डंडा लिए हुए उद्दंड भाव से देखा। रुष्ट होकर बोले– आप कौन हैं?
सदन– मेरा मकान यहीं है। मैं आपसे केवल यह पूछना चाहता हूं कि आप इतने दिनों से पंडित पद्मसिंह को गालियां क्यों दे रहे हैं?
प्रभाकर– अच्छा, आपने ही दो-तीन लेख मेरे पास भेजे थे?
सदन– जी हां, मैंने ही भेजे थे।
प्रभाकर– उनके लिए धन्यवाद देता हूं। आइए, बैठ जाइए। मैं तो आपसे स्वयं मिलना चाहता था, पर आपका पता न मालूम था। आपके लेख बहुत उत्तम और सप्रमाण हैं और मैं उन्हें कभी का निकाल देता, पर गुमनाम लेखों का छापना नियम विरुद्ध हैं, इसी से मजबूर था। शुभ नाम?
सदन ने अपना नाम बताया। उसका क्रोध कुछ शांत हो चला था।
प्रभाकर– आप तो शर्माजी के परम भक्त मालूम होते हैं?
सदन– मैं उनका भतीजा हूं।
प्रभाकर– ओह, तब तो आप अपने ही हैं। कहिए, शर्माजी अच्छे तो हैं? वे तो दिखाई नहीं दिए।
सदन– अभी तक तो अच्छे हैं, पर आपके लेखों का यही तार रहा तो ईश्वर ही जाने, उनकी क्या गति होगी। आप उनके मित्र होकर इतना द्वेष कैसे करने लगे?
प्रभाकर– द्वेष? राम-राम! आप क्या कहते हैं? मुझे उनसे लेशमात्र भी द्वेष नहीं है। आप हम संपादकों के कर्त्तव्य को नहीं जानते। हम पब्लिक के सामने अपना हृदय खोलकर रखना अपना धर्म समझते हैं। अपने मनोभावों को गुप्त रखना हमारे नीति-शास्त्र में पाप है। हम न किसी के मित्र हैं, न किसी के शत्रु। हम अपने जन्म के मित्रों को एक क्षण में त्याग देते हैं और जन्म के शत्रुओं से एक क्षण में गले मिल जाते हैं। हम सार्वजनिक विषय में किसी को क्षमा नहीं करते, इसलिए कि हमारे क्षमा करने से उनका प्रभाव और भी हानिकारक हो जाता है।
पद्मसिंह मेरे परम मित्र हैं और मैं उनका हृदय से आदर करता हूं। मुझे उन पर आक्षेप करते हुए हार्दिक वेदना होती है। परसों तक मेरा उनसे केवल सिद्धांत का विरोध था, लेकिन परसों ही मुझे ऐसे प्रमाण मिले हैं, जिनमें विदित होता है कि उस तरमीम के स्वीकार करने में उनका कुछ और ही उद्देश्य था। आपसे कहने में कोई हानि नहीं है कि उन्होंने कई महीने हुए सुमनबाई नाम की वेश्या को गुप्त रीति से विधवा आश्रम में प्रविष्ट करा दिया और लगभग एक मास से उसकी छोटी बहन को भी आश्रम में ही ठहरा रखा है। मैं अब भी चाहता हूं कि मुझे गलत खबर मिली हो, लेकिन मैं शीघ्र ही किसी और नीयत से नहीं, तो उसका प्रतिवाद कराने के लिए ही इस खबर को प्रकाशित कर दूंगा!
सदन– यह खबर आपको कहां मिली?
प्रभाकर– इसे मैं नहीं बता सकता, लेकिन आप शर्माजी से कह दीजिएगा कि यदि उन पर यह मिथ्या दोषारोपण हो तो मुझे सूचित कर दें। मुझे यह मालूम हुआ है कि इस प्रस्ताव के बोर्ड में आने से पहले शर्माजी हाशिम के यहां नित्य जाते थे। ऐसी अवस्था में आप स्वयं देख सकते हैं कि मैं उनकी नीयत को कहां तक निस्पृह समझ सकता था?
सदन का क्रोध शांत हो गया। प्रभाकर राव की बातों ने उसे वशीभूत कर लिया।
वह मन में उनका आदर करने लगा और कुछ इधर-उधर की बातें करके घर लौट आया। उसे अब सबसे बड़ी चिंता यह थी कि शान्ता सचमुच आश्रम में लाई गई है।
रात्रि को भोजन करते समय उसने बहुत चाहा कि शर्माजी से इस विषय में कुछ बातचीत करे, पर साहस न हुआ। सुमन को तो विधवा-आश्रम में जाते उसने देखा ही था, लेकिन अब उसे कई बातों का स्मरण करके, जिनका तात्पर्य अब तक उसकी समझ में न आया था, शान्ता के लाए जाने का संदेह भी होने लगा।
वह रात-भर विकल रहा। शान्ता आश्रम में क्यों आई है? चचा ने उसे क्यों यहां बुलाया है? क्या उमानाथ ने उसे अपने घर में नहीं रखना चाहा? इसी प्रकार के प्रश्न उसके मन में उठते रहे। प्रातःकाल वह विधवा आश्रम वाले घाट की ओर चला कि अगर सुमन से भेंट हो जाए, तो उससे सारी बातें पूछूं। उसे बैठे थोड़ी ही देर हुई थी कि सुमन आती हुई दिखाई दी। उसके पीछे एक और सुंदरी चली आती थी। उसका मुखचंद्र घूंघट से छिपा हुआ था।
सदन को देखते ही सुमन ठिठक गई। वह इधर कई दिनों से सदन से मिलना चाहती थी। यद्यपि पहले मन में निश्चय कर लिया था कि सदन से कभी न बोलूंगी, पर शान्ता के उद्धार का उसे इसके सिवा कोई अन्य उपाय न सूझता था। उसने लजाते हुए सदन से कहा– सदनसिंह, आज बड़े भाग्य से तुम्हारे दर्शन हुए। तुमने तो इधर आना ही छोड़ दिया। कुशल से तो हो?
सदन झेंपता हुआ बोला– हां, सब कुशल है।
सुमन– दुबले बहुत मालूम होते हो, बीमार थे क्या?
सदन– नहीं, बहुत अच्छी तरह हूं। मुझे मौत कहां?
हम बहुधा अपनी झेंप मिटाने और दूसरों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए कृत्रिम भावों की आड़ लिया करते हैं।
सुमन– चुप रहो, कैसा अपशकुन मुंह से निकालते हो। मैं मरने की मनाती, तो एक बात थी, जिसके कारण यह सब हो रहा है। इस रामलीला की कैकेयी मैं ही हूं। आप भी डूबी और दूसरों को भी अपने साथ ले डूबी। खड़े कब तक रहोगे, बैठ जाओ। मुझे आज तुमसे बहुत-सी बातें करनी हैं। मुझे क्षमा करना, अब तुम्हें भैया कहूंगी। अब मेरा तुमसे भाई-बहन का नाता है। मैं तुम्हारी बड़ी साली हूं अगर कोई कड़ी बात मुंह से निकल जाए, तो बुरा मत मानना। मेरा हाल तो तुम्हें मालूम ही होगा। तुम्हारे चाचा ने मेरा उद्धार किया और अब मैं विधवा आश्रम में पड़ी अपने दिनों को रोती हूं और सदा रोऊंगी। इधर एक महीने से मेरी अभागिन बहन भी यहां आ गई हैं, उमानाथ के घर उसका निर्वाह न हो सका। शर्माजी को परमात्मा चिरंजीवी करे, वह स्वयं अमोला गए और इसे ले आए। लेकिन यहां लाकर उन्होंने भी इसकी सुधि न ली। मैं तुमसे पूछती हूं, भला यह कहां की नीति है कि एक भाई चोरी करे और दूसरा पकड़ा जाए? अब तुमसे कोई बात छिपी नहीं है, अपने खोटे नसीब से, दिनों के फेर से, पूर्वजन्म के पापों से मुझ अभागिन ने धर्म का मार्ग छोड़ दिया। उसका दंड मुझे मिलना चाहिए था और वह मिला। लेकिन इस बेचारी ने क्या अपराध किया था जिसके लिए तुम लोगों ने इसे त्याग दिया? इसका उत्तर तुम्हें देना पड़ेगा! देखो, अपने बड़ों की आड़ मत लेना, यह कायर मनुष्य की चाल है। सच्चे हृदय से बताओ, यह अन्याय था या नहीं? और तुमने कैसे ऐसा घोर अन्याय होने दिया? क्या तुम्हें एक अबला बालिका का जीवन नष्ट करते हुए तनिक भी दया न आई?
यदि शान्ता यहां न होती, तो कदाचित् सदन अपने मन के भावों को प्रकट करने का साहस कर जाता। वह इस अन्याय को स्वीकार कर लेता। लेकिन शान्ता के सामने वह एकाएक अपनी हार मानने के लिए तैयार न हो सका। इसके साथ ही अपनी कुल मर्यादा की शरण लेते हुए भी उसे संकोच होता था। वह ऐसा कोई वाक्य मुंह से न निकालना चाहता था, जिससे शान्ता को दुःख हो, न कोई ऐसी बात कह सकता था, जो झूठी आशा उत्पन्न करे। उसकी उड़ती हुई दृष्टि ने, जो शान्ता पर पड़ी थी, उसे बड़े संकट में डाल दिया था। उसकी दशा उस बालक की-सी थी, जो किसी मेहमान की लाई हुई मिठाई को ललचाई हुई आंखों से देखता है, लेकिन माता के भय से निकालकर खा नहीं सकता। बोला– बाईजी, आपने पहले ही मेरा मुंह बंद कर दिया है, इसलिए मैं कैसे कहूं कि जो कुछ किया, मेरे बड़ों ने किया। मैं उनके सिर दोष रखकर अपना गला नहीं छुड़ाना चाहता। उस समय लोक-लज्जा से मैं भी डरता था। आप भी मानेंगी कि संसार में रहकर संसार की चाल चलनी पड़ती है। मैं इस अन्याय को स्वीकार करता हूं, लेकिन यह अन्याय हमने नहीं किया, उस समाज ने किया है, जिसमें हम लोग रहते हैं।
सुमन– भैया, तुम पढ़े-लिखे मनुष्य हो। मैं तुमसे बातों में नहीं जीत सकती, जो तुम्हें उचित जान पड़े, वह करो। अन्याय ही है, चाहे कोई एक आदमी करे या सारी जाति करे। दूसरों के भय से किसी पर अन्याय नहीं करना चाहिए। शान्ता यहां खड़ी है, इसलिए मैं उसके भेद नहीं खोलना चाहती, लेकिन इतना अवश्य कहूंगी कि तुम्हें दूसरी जगह धन, सम्मान, रूप, गुण, सब मिल जाए, पर यह प्रेम न मिलेगा। अगर तुम्हारे जैसा उसका हृदय भी होता, तो यह आज अपनी नई ससुराल में आनंद से बैठी होती, लेकिन केवल तुम्हारे प्रेम ने उसे यहां खींचा।
सदन ने देखा कि शान्ता की आंखों से जल बहकर उसके पैरों पर गिर रहा है! उसका सरल प्रेम-तृषित हृदय शोक से भर गया। अत्यंत करुण स्वर से बोला– मेरी समझ में नहीं आता कि क्या करूं? ईश्वर साक्षी है कि दुःख से मेरा कलेजा फटा जाता है।
सुमन– तुम पुरुष हो, परमात्मा ने तुम्हें सब शक्ति दी है।
सदन– मुझसे जो कुछ कहिए, करने को तैयार हूं।
सुमन– वचन देते हो?
सदन– मेरे चित्त की जो दशा हो रही है, वह ईश्वर ही जानते होंगे, मुंह से क्या कहूं?
सुमन– मरदों की बातों पर विश्वास नहीं आता।
यह कहकर सुमन मुस्काराई। सदन ने लज्जित होकर कहा– अगर अपने वश की बात होती, तो अपना हृदय निकालकर आपको दिखाता। यह कहकर उसने दबी हुई आंखों से शान्ता की ओर ताका।
सुमन– अच्छा, तो आप इसी गंगा नदी के किनारे शान्ता का हाथ पकड़कर कहिए कि तुम मेरी स्त्री हो और मैं तुम्हारा पुरुष हूं, मैं तुम्हारा पालन करूंगा।
सदन के आत्मिक बल ने जवाब दिया। वह बगलें झांकने लगा, मानो अपना मुंह छिपाने के लिए कोई स्थान खोज रहा है। उसे ऐसा जान पड़ा कि गंगा मुझे छिपाने के लिए बढ़ी चली आती है। उसने डूबने मनुष्य की भांति आकाश की ओर देखा और लज्जा से आंखें नीची किए रुक-रुककर बोला– सुमन, मुझे इसके लिए सोचने का अवसर दो। सुमन ने नम्रता से कहा– हां, सोचकर निश्चय कर लो, मैं तुम्हें धर्मसंकट में नहीं डालना चाहती। यह कहकर वह शान्ता से बोली– देख, तेरा पति तेरे सामने खड़ा है। मुझसे जो कुछ कहते बना उससे कहा, पर वह नहीं पसीजता। वह अब सदा के लिए तेरे हाथ से जाता है। अगर तेरा प्रेम सत्य है और उसमें कुछ बल है, तो उसे रोक ले, उससे प्रेम-वरदान ले ले।
यह कहकर सुमन गंगा की ओर चली गई। शान्ता भी धीरे-धीरे उसी के पीछे चली गई। उसका प्रेम मान के नीचे दब गया। जिसके नाम पर वह यावज्जीवन दुख झेलने का निश्चय कर चुकी थी, जिसके चरणों पर कल्पना में अपने को अर्पण कर चुकी थीं, उसी से वह इस समय तन बैठी। उसने उसकी अवस्था को न देखा, उसकी कठिनाइयों का विचार न किया, उसकी पराधीनता पर ध्यान न दिया। इस समय वह यदि सदन के सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो जाती, तो उसका अभीष्ट सिद्ध हो जाता पर उसने विनय के स्थान पर मान करना उचित समझा।
सदन एक क्षण वहां खड़ा रहा और बाद में पछताता हुआ घर को चला।