वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री Part 10

वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री Part 10


127 . एकान्त पान्थ : वैशाली की नगरवधू

शरत्कालीन सुन्दर प्रभात था । राजगृह के अन्तरायण में अगणित मनुष्यों की भीड़ भरी थी । लोग अस्त्र – शस्त्रों से सुसज्जित इधर – उधर आ – जा रहे थे। प्रत्येक मनुष्य के मुंह पर युद्ध की ही चर्चा थी । नगर अशान्ति और उत्तेजना का केन्द्र स्थान बना हुआ था । लोग भय और आशंका से भरे हुए थे। शस्त्रधारी सैनिक झुण्ड – के – झुण्ड वीथियों और हट्टों में फिर रहे थे तथा आवश्यकता की सामग्री खरीद रहे थे। सम्राट और महामात्य वर्षकार के विग्रह की खूब बढ़ा – चढ़ाकर और नमक -मिर्च लगाकर चर्चाएं हो रही थीं । गुप्तचरों, सत्रियों का नगर में जाल बिछा था । मन्त्री, पुरोहित , अन्तर – अमात्य , दौवारिक, अन्तर्वेशिक, अन्तपाल , आटविक व्यस्तभाव से नगर में आ – जा रहे थे। हिरण्य और धान्यों से भरे हुए शकट सशस्त्र प्रहरियों के बीच राजभाण्डागार में जा रहे थे। अनेक सत्री और तीक्ष्ण पुरुष तथा गूढ़ाजीव अदिति , कौशिक स्त्रियां नगर में घूम रही थीं । कोई दैवज्ञ के वेश में , कोई भिक्षुकी के वेश में , कोई क्षपणक के वेश में परस्पर मिलने पर गूढ़ संकेत करते हुए घूम रहे थे। नगर की चर्चा का मुख्य विषय युद्ध – कौशल, शस्त्र – प्रयोग और युद्धप्रियता थी । थोड़ा भी कोलाहल होने पर लोगों की भीड़ किसी भी स्थान पर जमा हो जाती थी ।

पान्थागार के सम्मुख एक परदेसी एकान्त पान्थ अश्वारोही आकर रुक गया । अश्व और आरोही दोनों ही अद्भुत थे। अश्व ऊंची रास का एक मूल्यवान् सैन्धव था और अश्वारोही एक स्फूर्तियुक्त , बलिष्ठ किन्तु ग्रामीण – सा युवक था । ऐसा प्रतीत होता था जैसे उसने कोई बड़ा नगर देखा नहीं है तथा वह अकस्मात् राजगृह की इस तड़क – भड़क को देखकर विमूढ़ हो गया है । उसका अश्व मांसल, सुन्दर एवं चंचल था । अश्वारोही का गम्भीर मुख, बड़े-बड़े ज्योतिर्मय नेत्र , उन्नत मस्तक और दीर्घ वक्ष तथा दृढ़ अंग उसके उत्कृष्ट योद्धा होने के साक्षी थे और उसके ग्रामीण वेश तथा अद्भुत व्यवहार करने पर भी उसका सौष्ठव व्यक्त करते थे । एक विकराल खड्ग उसकी कमर में लटक रहा था । उसकी दृष्टि निर्भय थी । वह भीड़ में खड़ा लोगों की संदिग्ध दृष्टियों को उपेक्षा और अवज्ञा की दृष्टि से देख रहा था । उसके वस्त्र धूल से भरे थे और शरीर थकान से चूर – चूर था । यह स्पष्ट था कि वह अनवरत लम्बी यात्रा करता हुआ आया है । उसका अश्व भी पसीने से तर- बतर था ।

वह पान्थागार के अध्यक्ष से बातें कर रहा था । अध्यक्ष ने उसे सिर से पैर तक घूरकर कहा – “ मित्र, खेद है कि मैं तुम्हें स्थान नहीं दे सकता , सब घर घिर गए हैं । वैशाली से राजदूत आए हैं , उन्हीं के सब संगी- साथी तथा स्वयं राजदूत ने भी यहीं डेरा किया है । एक भी घर खाली नहीं है। ”

“ तो मित्र , तू मुझे अपना निजू अतिथि मान। मुझे विश्राम की अत्यन्त आवश्यकता है । ये दस कार्षापण तेरे लिए है। ”

सोने के दस चमचमाते टुकड़े हथेली पर रखे देख पान्थागार के अध्यक्ष के सब विचार बदल गए । उसने हंसकर कहा – “ यह तो बात ही कुछ और है भन्ते ! परन्तु दु: ख है कि मेरे पास पान्थागार में स्थान नहीं है, फिर भी आप एक प्रतिष्ठित सज्जन हैं , मैं आपकी कुछ सहायता कर सकता हूं। ”

“ किस प्रकार मित्र ! ”

“ मेरा एक मित्र है, वह सम्राट का प्रतीहार है। यहीं निकट ही उसका घर है, घर बड़ा और सुसज्जित है । सौभाग्य से वह बड़ा लालची है । ऐसे दस सुवर्ण पाकर तो वह अपने रहने का सजा – धजा कक्ष ही आपको अर्पण कर सकता है। इतने बड़े घर में वह और उसकी पत्नी केवल दो ही व्यक्ति रहते हैं । ”

“ तो मित्र यही कर , सुवर्ण की चिन्ता न कर । ”

अध्यक्ष उस प्रतीहार को बुला लाया । वह एक ढीला -ढाला मोटा वस्त्र पहने था । दुबला-पतला शरीर , मिचमिची आंखें , गंजी खोपड़ी , पतली गर्दन । उसने आकर सम्मान पूर्वक युवक का अभिवादन किया । युवक ने पूछा – “ यही वह व्यक्ति है ? ”

“ यही है भन्ते । ”

“ तब यह स्वर्ण है। ”उसने दस टुकड़े उसकी हथेली पर रखकर कहा – “ शेष तुम्हारा साथी समझा देगा । ” _

“ मैंने समझ लिया भन्ते , खूब समझ लिया , आइए आप । ”इतना कहकर अतिविनीत भाव से पान्थ को अपने साथ ले चला ।

प्रतीहार का घर छोटा था , परन्तु उसमें सब सुविधाएं जयराज के अनुकूल थीं । वहां वह नि : शंक आराम से टिक गए। यहां उन्हें एक सहायता और मिल गई । प्रतीहार ने उन्हें एक कृषक तरुण कहीं से ला दिया । यह बालक अठारह वर्ष का एक उत्साही और स्वस्थ नवयुवक था । जयराज ने उसे एक टाघन खरीद दिया और खूब खिला-पिलाकर परचा लिया । वह कृषक बालक छाया की भांति जयराज के साथ रहकर उनकी सेवा तथा आज्ञापालन करने लगा ।

128. प्रतीहार का मूलधन : वैशाली की नगरवधू

प्रतीहार का नाम मेघमाली था । जयराज अपने सुसज्जित कक्ष में पड़े अनेक राजनीतिक ताने -बाने बुन रहे थे। इसी समय प्रतीहार ने द्वार खटखटाया । अनुमति पाकर वह अन्दर आया और बारम्बार प्रणाम करके विनीत भाव से बोला – “ भन्ते , आपका शौर्य और उदारता दोनों ही अद्वितीय है , मैं आपका सेवक सदैव आपकी सेवा में उपस्थित हूं । परन्तु इस समय मैं प्रार्थी हूं, आप मेरी सहायता कीजिए। ”

जयराज ने विस्मय को दबाकर कहा –

“ कह मित्र , मैं तेरी क्या सहायता कर सकता हूं ? ” उसने कुछ क्षण रुककर कहा

“ मेरी स्त्री अति रूपवती है , वह चरित्र की भी उज्ज्वल है। दो वर्ष पूर्व मैंने उससे विवाह किया था । इसके लिए मेरा सब यत्न से संचित स्वर्ण भी खर्च हो गया । ससुराल से मुझे कुछ भी धन नहीं मिला। क्या कहूं , बड़ी विपत्ति में हूं। ”

जयराज हंसने लगे । हंसते – ही – हंसते उन्होंने कहा – “ तो मित्र , ससुराल से धन अब कैसे मिल सकता है तथा मैं इसमें क्या सहायता कर सकता हूं ? ”

“ विपत्ति कुछ और ही है भन्ते , “ वह रुका । फिर कुछ खांसकर बोला – “ भन्ते, वह कल रात से ही नहीं आई है । ”

“ रात से नहीं आई है! तब गई कहां ? ”

“ मेरा दुर्भाग्य है भन्ते , क्या कहूं, वह वणिक् सुखदास के पास गई थी । ”

“ सुखदास कौन है ? ”

“ एक दुष्ट विदेशी है भन्ते , वह बहुत – से सैन्धव अश्व और बहुत – से चीन देश के कौशेय वस्त्रों के जोड़े बेचने राजगृह आया है । मैंने उसे उसके पास एक सहस्र उत्तम अश्व और पांच सहस्र वस्त्रों के जोड़े खरीदने भेजा था , सम्राट युद्ध की तैयारी कर रहे हैं । मेरे पास कुछ निकम्मे अश्व थे। मैंने सोचा था , वे सब मिलाकर सम्राट् को बेच दूंगा । कुछ लाभ हो जाएगा। ”

“ पत्नी को वणिक के पास क्यों भेजा था , स्वयं क्यों नहीं गए ? ”

“ ये वणिक बड़े लुच्चे हैं भन्ते , सुन्दरी और नवयुवती स्त्रियों को देखते ही पानी हो जाते हैं , सौदा ठीक से हो जाता है । मेरी पत्नी सुन्दरी भी है और चतुर भी है । उसके सुन्दर रूप और मधुर वचनों से प्रसन्न होकर ये वणिक सौदे में खींचतान नहीं करते । जितना मूल्य वह हंसकर दे देती है, वे हंसकर ले लेते हैं । ”

जयराज को इस व्यक्ति में आकर्षण प्रतीत हुआ । उसने मन की हंसी दबाकर कहा – “ तो मित्र, तू अपनी पत्नी से दुहरा लाभ उठाता है ? ”

“ पर भन्ते , जितना स्वर्ण उसके लोभी पिता ने मुझसे लिया था , अभी उतना भी तो नहीं मिला है। ”

“ अस्तु; तू पत्नी की बात कह ! ”

“ वही कह रहा हूं भन्ते , मैंने उसे सुखदास के पास एक सहस्र अश्व और पांच सहस्र चीनांशुक क्रय करने को भेजा था । ”

“ यह तो मैंने सुना , इसके बाद ? ”

“ इसके बाद वह पाजी सुखदास , ऐसा प्रतीत होता है, मेरी स्त्री पर मोहित हो गया और उसे एकान्त में ले जाकर उसने कहा – मूल्य लेकर तो एक भी अश्व, एक भी चीनांशुक नहीं दूंगा , परन्तु हां , यदि तू आज रात मेरी सेवा में रहे, तो पांच सौ घोड़े और एक सहस्र चीनांशुक तेरी भेंट है। ”

“ “ और तेरी चरित्रवती स्त्री ने स्वीकार कर लिया ? ”

“ नहीं भन्ते , उस साध्वी ने कहा -मैं पति से पूछ लूं , वह आज्ञा देगा तो मैं तेरी बात रख लूंगी। ”

“ सो तैने आज्ञा दे दी ? ”

“ पांच सौ सैन्धव अश्व और एक सहस्र चीनांशुक भन्ते , कम नहीं होते । ऐसे मुर्ख भी बार- बार नहीं मिलते । मैंने सीधे स्वभाव कह दिया यदि एक ही रात्रि में पांच सौ अश्व और सहस्र चीनांशुक मिलते हैं , तो दोष नहीं है, तू ऐसा ही कर । ”

“ और तेरी वह साध्वी स्त्री तेरा आदेश मानकर वहां चली गई ? ”

“ यही बात हुई भन्ते, अब अश्व और चीनांशुक तो उसने भेज दिए ; पर स्वयं नहीं आ रही है। ”

“ उसने कुछ सन्देश भी भेजा है ? ”

“ सन्देश भेजा है भन्ते , उसने कहलाया है कि सत्त्वरहित और लोभी पति से तो वह पति अच्छा है, जो एक रात्रि के पांच सौ अश्व और सहस्र चीनांशुक दे सकता है। ”

“ अब तेरा क्या कहना है ? ”

“ मैं कहता हूं कि यह मात्र विनोद- वाक्य है। ऐसा वह बहुत बार कह चुकी है। उसका स्वभाव भी हंसोड़ है। ”

“ तेरा अनुमान यदि सत्य हो तो ?

“ तो भन्ते राजकुमार, मेरी स्त्री मुझे दिलवा दीजिए। उसके बिना मैं जीवित नहीं रह सकूँगा , भूखों मर जाऊंगा। ”

“ यह तो सत्य है, जब तू भूखों मर जाएगा तो जीवित कैसे रह सकता है ? ”

“ भन्ते , मैं प्रतिष्ठित पुरुष हूं। ”

“ तो प्रतिष्ठित पुरुष, अभी तू जाकर शयन कर, सुख – स्वप्न देख , भोर होने पर मैं सुखदास के अश्वों को और तेरी उस साध्वी पत्नी को भी देखंगा । ”

प्रतीहार कुछ सन्तुष्ट होकर मन – ही – मन बड़बड़ाता हुआ चला गया ।

129.प्रतीहार – पत्नी : वैशाली की नगरवधू

दूसरे दिन जयराज भड़कीला परिधान धारण कर अश्व पर आरूढ़ हो , संग में कृषक – तरुण धवल्ल को ले सुखदास वणिक के निवास पर जा पहुंचे। सेवक सहित इस प्रकार एक भद्र पुरुष को देख सुखदास ने उनका सत्कार करके कहा – “ भन्ते , मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ? ”

जयराज ने इधर – उधर देखते हुए हंसकर कहा – “ मित्र , मैं किसी अच्छी वस्तु का क्रय करना चाहता हूं । सुना है, तू बड़ा प्रामाणिक व्यापारी है । ”

“ भन्ते , मेरे पास बहुत उत्तम जाति के अश्व हैं और बहुमूल्य चीनांशुक के जोड़े हैं । सम्राट युद्ध-व्यवस्था में रत हैं , उन्हें अश्वों की आवश्यकता है , इसी से मैं और मेरे ग्यारह मित्र भी अश्व लाए हैं । हमारे पास सब मिलाकर एक लाख अश्व हैं । ये सब सम्राट के लिए हैं भन्ते ! ”

“ इतर जनों को भी तूने माल बेचा है मित्र! ”

“ परन्तु मैं खुदरा बिक्री नहीं करता, थोक माल बेचता हूं। ”

“ थोक ही सही ; तब कह, पांच सौ सैन्धव अश्व और एक सहस्र जोड़े चीनांशुकों का तू क्या मूल्य लेता है ? ”

सुखदास वणिक सन्देह और भय से जयराज का मुंह ताकने लगा ।

जयराज ने कहा – “ कह मित्र , अभी कल ही तूने एक सौदा किया है। तू बड़ा व्यापारी अवश्य है, परन्तु एक ही दिन में इस छोटे- से सौदे को तो नहीं भूला होगा। ”

“ आप क्या राजपुरुष हैं भन्ते ? ”

“ परन्तु मैं राज – काज से नहीं आया हूं, अपने ही काम से आया हूं। ”

“ तो भन्ते , आपको क्या चाहिए , कहिए । मेरा कर्तव्य है कि आपकी आज्ञा का पालन करूं । ”

“ यह अच्छा है। सस्ते में क्रय करना और लाभ लेकर अधिक मूल्य में बेचना व्यापार की सबसे बड़ी सफलता है। ”

“ लाभ ही के लिए व्यापार किया जाता है भन्ते ! ”

“ यह बुद्धिमानी की बात है । इधर लिया उधर दिया , ठीक है न ? ”

“ बिल्कुल ठीक है भन्ते , लाभ मिलना चाहिए । ”

“ यह बुद्धिमानी की बात है, तो अभीष्ट वस्तु मिलने पर मैं मुंहमांगा दाम देता हूं , मेरे पास सुवर्ण की कमी नहीं है मित्र! ”

“ आप जैसे ही राजकुमारों के हम सेवक हैं भन्ते! ”

“ तो मूल्य कह दिया मित्र! ”

“ काहे का ? ”

“ उस स्त्री का , जिसको तूने कल खरीदा है। ” सुखदास वणिक का मुंह सूख गया । उसने कहा – “ कैसी स्त्री भन्ते ? ”

“ प्रतीहार – पत्नी रे , क्या मुझे चराता है! ”– जयराज ने व्याज – कोप से कहा । सुखदास थर – थर कांपने लगा । उसने कहा – “ दुहाई राजपुत्र , मैं निर्दोष हूं! ”

“ पर तू जानता है, सम्राट तुझे कभी क्षमा नहीं करेंगे , अभी तेरे बांधने को राजपुरुष आएंगे । वे तुझे ले जाकर सूली चढ़ा देंगे । ”

“ परन्तु वह स्वेच्छा से आई है भन्ते , अपने पति की अनुमति से । ”

“ वे अश्व और चीनांशुक तो एक ही रात के शुल्क हैं न ? ”

“ यह सत्य है, परन्तु वह अब उस लोभी वृद्ध और कृपण प्रतीहार के पास नहीं जाना चाहती । भन्ते , उस सुशीला से वह पतित हठ करके कुकर्म कराता है । केवल उस दुष्ट के अधीन होने से वह वणिकों के पास जा क्रय-विक्रय करती है । अपने चित्त से अपने योग्य काम समझकर नहीं। उसके रूप और सौन्दर्य को उस पतित ने अपना मूलधन बनाया हुआ है। ”

“ तो मित्र, मैं उस मूलधन को देखना चाहता हूं। ”

“ तो उससे पूछकर कह सकता हूं कि वह आपसे मिलकर बात करना चाहेगी या नहीं। ”

“ तो तू पूछ ले मित्र ! ” वणिक भीतर चला गया । थोड़ी देर में उसने आकर कहा

“ चलिए भन्ते , वह आपसे मिलने को सहमत है। ”

जयराज ने भीतर जाकर एक सुसज्जित कक्ष में उसे खड़े देखा । उसकी अवस्था बीस -बाईस वर्ष की थी । वह अतिकमनीय रूपवती बाला थी , सौंदर्य और लावण्य सुडौल मुख और अंग – अंग से फूटा पड़ता था । लाल -लाल पतले होंठ और बड़ी – बड़ी नुकीली आंखें काम -निमन्त्रण- सा दे रही थीं । इस अप्रतिम सौन्दर्य – प्रतिमा के मुख पर निष्कलंकता और अभय की आभा देखकर जयराज पुलकित हो गए। प्रफुल्लित रक्तिम आभा से प्रदीप्त मुखमंडल पर मुस्कान सुधा बिखेरकर उसने कहा

“ मैं आपका क्या प्रिय करूं , प्रिय ? ”

उसके कोमल कण्ठ को सुनकर जयराज ने कहा – “ सुन्दरी, मैं तेरे पति का मित्र हूं और तुझे यहां से उसके पास ले चलने को आया हूं । तेरी – जैसी चरित्रवती रूपवती के लिए इस प्रकार पुंश्चली की भांति पर पुरुष का सेवन करना अच्छा नहीं है। ”

“ आप ठीक कहते हैं भन्ते राजकुमार, पर यह दूषित कार्य मैंने अपनी इच्छा से अपने विलास के लिए नहीं किया है । आप ही कहिए , जिस लोभी ने आपत्ति के बिना मुझे अन्य पुरुष के हाथ बेच डाला , उस सत्त्वहीन निर्लज्ज के पास अब मैं कैसे जाऊं ? मेरी भी एक मर्यादा है भन्ते , यदि मैं वहां जाती हूं, तो वह बार -बार मुझे ऐसे ही प्रयोगों में डालेगा । यहां मैं एक सुसम्पन्न सुप्रतिष्ठित और उदार पुरुष की सेवा में हूं, जिसने एक ही रात में पांच सौ अश्व और सहस्र जोड़े चीनांशुक दे डाले हैं । ”

जयराज ने उसकी स्थिति और यथार्थता का समर्थन किया । फिर उसने उठते हए सुखदास वणिक से कहा – “ मित्र, तू यथेष्ट लाभ में रहा। स्मरण रख , सत्त्वहीन पुरुषों के पास धन और स्त्री नहीं ठहर सकते। ”

इतना कह, उस रूप , तेज कोमलता तथा प्रगल्भता की मोहिनी मूर्ति को मन में धारण कर जयराज अपने आवास को लौट आए ।

130.गणदूत : वैशाली की नगरवधू

गणदूत गान्धार काप्यक का बिम्बसार श्रेणिक ने बड़ी तड़क – भड़क से स्वागत किया । मागध सीमा में पहुंचते ही राज्य की ओर से प्रत्येक सन्निवेश पर उसके स्वागत एवं सुख- सुविधा के सब साधन जुटे हुए मिलने लगे। राजगृह आने पर पान्थागार में उसे राजार्ह भव्य निवास और सत्कार मिला । मागध संधिवैग्राहिक अभयकुमार विशेष रूप से गणदूत की व्यवस्था पर नियत हुआ ।

जयराज ने मार्ग में काप्यक से मिलने की बिल्कुल चेष्टा नहीं की , परन्तु राजगृह में इसे पान्थागार के अध्यक्ष के माध्यम से राजदूत से परिचय प्राप्त करने तथा उसके मैत्री लाभ करने के अभिनय का अच्छा सुअवसर मिल गया । प्रतीहार से घनिष्ठता होने पर कभी सांकेतिक भाषा में और कभी स्पष्ट मिलकर परस्पर विचार – विनिमय करने का सुअवसर उसे मिलने लगा । गणदूत और उसका पूर्वापर सम्बन्ध मागध संधिवैग्राहिक अभयकुमार भी नहीं भांप सका। जयराज कभी अश्व पर सवार होकर और कभी पांव प्यादा नगर , वीथी, हाट में जा -जाकर राजगृह के दुर्ग , सैन्य , अस्त्रागार और शस्त्रास्त्र निर्माण आदि युद्धोद्योगों को देखने तथा विविध मानचित्र , संकेतचित्र और विवरणपत्रिकाएं गूढ़ लिपि में तैयार करने लगा ।

प्रतीहार – पत्नी का वह क्षणिक परिचय उसकी आसक्ति में परिणत हो गया । उसकी आसक्ति भी अधिक काम आई। वह अन्त : पुर का राई – रत्ती हालचाल ला -लाकर जयराज को देने लगी । अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और उपयोगी सूचनाएं उससे उन्होंने प्राप्त कर लीं । सम्राट के दरबार में उपस्थित होकर उपानय उपस्थित करने और सम्राट् से मिलने का दिन नियत हो गया । काप्यक ने जयराज से मिलकर यह निर्णय कर लिया कि सम्राट् से गणदूत के रूप में काप्यक नहीं, जयराज ही मिलेगा । यह एक जोखिमपूर्ण योजना थी , परन्तु अनिवार्य थी । यह भी तय हआ कि सम्राट की भेंट के तत्काल बाद ही जयराज को राजगृह से प्रस्थान भी कर देना चाहिए । उसने यह सब व्यवस्था ठीक -ठीक कर ली और अपने कौशल तथा इन तीनों सहायकों की सहायता से वह अनायास ही गणदूत के रूप में सम्राट् के सम्मुख जा उपस्थित हुआ ।

कृषक-बालक उसके लिए बड़ा सहायक प्रमाणित हुआ। वह दिन – भर, अपने टाघन पर चढ़कर राजगृह के बाहर – भीतर यथेष्ट चक्कर लगाया करता, विविध जनों से मिलता , गप्पें मारता और बहुत – सी जानने योग्य बातें जयराज को आ बताता था । जयराज उससे हंसते -हंसते काम की बातें पूछ लेता, युक्ति और चतुराई से अभीष्ट कार्य, बिना ही मूल कारण प्रकट किए, करा लेता । तरुण कृषक-बालक विविध पक्वान्न और उत्तम भोजन पाकर तथा टाघन पर स्वच्छन्द घूमते रहकर अतिप्रसन्न हो तन – मन से जयराज की सब इच्छाओं और आदेशों की पूर्ति करने लगा ।

131. जयराज और दौत्य : वैशाली की नगरवधू

वज्जीगण प्रतिनिधि का भव्य स्वागत करने में मागध सम्राट ने कुछ भी उठा न रखा। प्रशस्त सभामण्डल यत्न से सुसज्जित किया गया । सम्राट् गंगा – जमुनी के सिंहासन पर विराजमान हुए। मस्तक पर रत्नजटित जाज्वल्यमान स्वर्ण-मुकुट धारण किया । पाश्र्व में देश – देश के विविध करद राजा, सामन्त और राजपरिजनों की बैठकें बनाई गईं । सम्राट् के ऊपर श्वेत रजतछत्र लग रहा था , जिस पर बहुत बड़े मोतियों की झालर टंगी थी । सिंहासन के सम्मुख राज अमात्य , पुरोहित और धर्माध्यक्ष का आसन था । पीछे महासेनापति आर्य भद्रिक और उदायि अपने संपूर्ण सेनाधिपतियों सहित यथास्थान अवस्थित थे। एक ओर गायक और नर्तकियां , मंगलामुखी वारवनिताएं संगीतसुधा बिखेरने को सन्नद्ध खड़ी थीं । राजा के पीछे चांदी की डांड का छत्र लिए एक खवास खड़ा था । दायें – बायें दो यवनी दासियां चंवर झल रही थीं । दक्षिण पाश्र्व में मुर्छलवाला था । उसके पीछे अन्यान्य दण्डधर, कंचुकी , द्वारपाल आदि यथास्थान नियम से खड़े थे । सम्राट् का तेजपूर्ण मुख उस समय मध्याह्न के सूर्य की भांति देदीप्यमान हो रहा था । बारह लाख मगध -निवासियों के निगम -जेट्ठक और अस्सी सहस्र गांवों के मुखिया भी इस दरबार में आमन्त्रित किए गए थे।

लिच्छवि राजप्रतिनिधि ने अपने अनुरूप भव्य वेश धारण किया था । उनका बहुमूल्य स्वर्ण-तारजटित कौर्जव और उत्तम काशिक कौशेय का उत्तरीय अपूर्व था । उनके साथ बहुमूल्य उपानय था , जिनमें बीस सैंधव अश्व , पांच भीमकाय हाथी , बहुत – से रत्नखचित शस्त्रास्त्र तथा स्वर्ण- तारग्रथित काशी वस्त्र थे ।

जयराज ने सभास्थल में प्रविष्ट होकर देखा – सम्राट् पूर्व दिशा में उदित सूर्य की भांति अचल भाव से अपने मंत्रियों और सभ्यों के बीच स्वर्ण-सिंहासन पर बैठे हैं । सभास्थल में बिछे हुए रत्न – कम्बलों की आभा बहुरंगी मेघों के समान भाषित हो रही थी । कौशेय और ऊनी रोएं , जो सुनहरी तार- पट्टी के गुंथे थे, ऐसे प्रतीत हो रहे थे, जैसे सूर्य रश्मियां शत – सहस्र आभा धारण करके भूमि पर अवतरित हुई हैं ।

जयराज ने सम्राट् के सम्मुख जा राज – निष्ठा के नियमानुसार उनका अभिवादन कर वज्जीगणपति का राजपत्र उपस्थित किया तथा गणपति की ओर से उपानय उपस्थित कर , उसे स्वीकार कर कृतार्थ करने का शिष्टाचार प्रदर्शित किया ।

सम्राट ने राजपत्र राजसम्मान- सहित ग्रहण कर उपानय के लिए आभार और सन्तुष्टि प्रकट कर कहा – “ कह आयुष्मान्, मैं तेरा और अष्टकुल के प्रतिष्ठित वज्जीसंघ का क्या प्रिय कर सकता हूं ? ”

जयराज ने धीमे किन्तु स्थिर स्वर में कहा – “ क्या देव मुझे स्पष्ट भाषण करने की अनुमति देते हैं ? ”

“ क्यों नहीं आयुष्मान्, तू कथनीय कह। ”

“ तो देव , बज्जीगण का अनुरोध है कि सम्राट् आर्य महामात्य को राजगृह में फिर से सुप्रतिष्ठित करें । ”

“ यह तो मगध राज्य का अपना प्रश्न है भद्र, वज्जी गणराज्य को अनुरोध करने का इसमें क्या अधिकार है ? अपितु राजदण्ड प्राप्त बहिष्कृत महामात्य को राज-नियम के विपरीत वज्जीगणसंघ ने प्रश्रय देकर मागध राज्य- संधि भंग की है, जिसका दायित्व वज्जीगण -संघ पर है। ”

“ इसके विपरीत देव , वज्जीगण – संघ की यह धारणा है कि सम्राट की अभिसंधि से महामात्य कूटनीति का अनुसरण कर तूष्णी युद्ध कर रहे हैं । ”

“ तो इस धारणा के वज्जी गणा-संघ के पास पुष्ट प्रमाण होंगे ? ”

“ देव , वज्जी गण- संघ सम्राट् की मैत्री का मूल्य समझता है । वह बिना प्रमाण कुछ नहीं करता , सम्राट को मैं विश्वास दिलाता हूं । ”

“ आयुष्मान, क्या कहना चाहता है, कह । ”

“ महाराज, वैशाली के अष्टकुल सम्राट् से मैत्री सम्बन्ध स्थिर किया चाहते हैं । ”

“ किन्तु किस प्रकार भद्र ? ”

“ मागध साम्राज्य के प्रति वैशाली के अष्टकुल के जैसे विचार हैं, वह मैं भली भांति जानता हूं। ”

“ मैं भी क्या उनसे अवगत हो सकता हूं , भद्र ! ”

“ महाराज, वज्जीगण सम्राट् की किसी भी इच्छा की अवहेलना नहीं करेंगे । ”

“ तब तो मुझे केवल यही विचार करना है कि मुझे उनसे क्या कहना चाहिए। ”

“ सम्राट् यदि स्पष्ट कहें । ”

“ यह तो व्यर्थ होगा आयुष्मान् ! ”

“ तो क्या मैं ही सम्राट् को वज्जी गण- संघ का संदेश निवेदन करूं ? ”

“ यह अधिक उपयुक्त होगा । ”

“ मैं स्पष्ट कहने के लिए सम्राट् से क्षमा -याचना करता हूं। ”

“ कह भद्र , कथनीय कह! ”

“ देव यह जानते हैं कि वह बात अब सार्वजनिक हो चुकी है। ”

“ आयुष्मान्, तेरा अभिप्राय क्या है ? ”

“ वह स्पष्ट है, देव यदि अष्टकुल की किसी कुलीन कुमारी से विवाह करना चाहते हैं तो यह सुकर है । ”

“ प्रस्ताव महत्त्वपूर्ण है और इससे मेरी प्रतिष्ठा होगी । ”

“ साथ ही अष्टकुल के वजी गणतन्त्र और मगध -साम्राज्य की मैत्री – समृद्धि भी बढ़ेगी । किन्तु इसके लिए एक वचन देना होगा । ”

“ कैसा वचन ? ”

“ केवल लिच्छवि कुमारी का पुत्र ही भावी मगध- सम्राट् होगा । ”

“ केवल यही ? और कुछ तो नहीं ? ”

“ नहीं देव ! ”

“ आयुष्मान् को कुछ और भी कथनीय है ? ”

“ यत्किंचित ; महाराज , देवी अम्बपाली वज्जीगण का विषय हैं , उन पर सम्पूर्ण गणजनपद का समान अधिकार है । अष्टकुल उन पर किसी एक का एकाधिकार सहन नहीं करेगा। ”

“ यह मैं समझ गया और कह भद्र! ”

“ और तो कुछ कथनीय नहीं है देव ! ”

“ कुछ भी नहीं ? ”

“ नहीं । ”

“ अच्छा, तो मैं अष्टकुल का प्रस्ताव अस्वीकार करता हूं । ”

“ क्या आप अष्टकुल की किसी भी कुमारी से विवाह करना अस्वीकार कर रहे हैं ? ”

“ यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है भद्र , किन्तु मैं इसे अपनी स्वेच्छा और भावना की बलि देकर नहीं स्वीकार कर सकता । रही देवी अम्बपाली की बात ; वज्जीगण के उस धिक्कृत कानून की बात मैं जानता हूं; परन्तु आयुष्मान् , कोई भी मागध स्त्री जाति के अधिकारों को हरण करनेवाले इस कानून के विरोध में खड्ग – हस्त होना आनन्द से स्वीकार करेगा। अच्छा आयुष्मान् , अब विदा! अपने प्रस्ताव के लिए अष्टकुल के वज्जीगण प्रमुखों से मेरी कृतज्ञता अवश्य प्रकट कर देना । ”

“ सम्राट्, मुझे यह भय है कि इस निर्णय का कोई भयानक परिणाम न हो , दो पड़ोसी राज्य -व्यवस्थाओं के बीच की सद्भावना न नष्ट हो जाए । ”

“ आयुष्मान् , महाराज्यों की एक मर्यादा होती है और सम्राट की भी । मागध – सम्राट की एक पृथक् मर्यादा है आयुष्मान्! जिसका तू स्वप्न देख रहा है, मेरी अभिलाषा उससे बड़ी है । ”

“ इससे सम्राट् का यह अभिप्राय तो नहीं है कि सम्राट् अष्टकुलों के स्थापित गणतन्त्र से युद्ध छेड़ चुके । ”

“ अष्टकुलों के गणपति ने क्या इसी से भयभीत होकर तुझे उत्कोच देकर मेरे पास भेजा है ? ”

“ महाराज, लिच्छवि गण -संघ छत्तीस राज्यों के संघ का केन्द्र है। हम गणशासित भलीभांति खड्ग पकड़ना जानते हैं । ”

“ सुनकर आश्वस्त हुआ भद्र , मैं यह बात स्मरण रखूगा । ”

इतना कहकर सम्राट आसन छोड़ उठकर खड़े हुए । जयराज क्रोध से तमतमाते हुए मुख से पीछे लौटे । चिन्ता की रेखाएं उनके सदा के उन्नत ललाट पर अपना प्रभाव डाल रही थीं ।

132 .गुह्य निवेदन : वैशाली की नगरवधू

एकान्त पाते ही मागध सन्धिवैग्राहिक अभयकुमार ने सम्राट से निवेदन किया – “ देव , वंचना हुई है। ”

“ कैसी, भणे ! ”

“ यह गणदूत नहीं, पारग्रामिक है; अथवा वह गणदूत नहीं, छद्मवेशी है। ”

“ कैसे भद्र ! ”

“ देव , जो गणदूत बनकर पान्थागार में राज – अतिथि बना हुआ था , उसे मैं भली भांति पहचानता हूं , उसने सभा में सम्राट् से भेंट नहीं की है। ”

“ तब किसने की ? ”

“ एक अन्य पुरुष ने , जो पान्थागार से पृथक् एक प्रतीहार के घर टिका हुआ था । ”

“ क्या इसकी कोई सूचना महामात्य ने नहीं भेजी थी ? ”

“ मुझे आर्य महामात्य की यही सूचना मिली थी कि प्रभंजन अगत्य की सूचना ला रहा है, परन्तु प्रभंजन का कोई पता ही नहीं लगता। न जाने वह कहीं लोप हो गया है । यह तो परिज्ञात है कि उसने इस पारग्रामिक का अनुसरण किया था । ”

“ यह अति भयानक बात है भणे ! इस पारग्रामिक और उस छद्मवेशी गणदूत दोनों को बन्दी बना लो । ”

“ किन्तु देव , दोनों ही ने राजगृह से चुपचाप प्रस्थान कर दिया है। ” सम्राट ने अत्यन्त कुपित होकर कहा

“ तो भणे , मैं अभी नगरपाल और सीमान्त -रक्खक को देखना चाहता हूं और तुझे आदेश देता हूं , कि उस छद्मवेशी का अनुसरण कर और उसे जीवित या मृत , जिस प्रकार सम्भव हो , मेरे सम्मुख उपस्थित कर! ”

अभयकुमार सम्राट को अभिवादन कर तुरन्त चल दिया । सम्राट् चिन्तित भाव से अपने कक्ष में टहलने लगे । कुछ ही काल में नगरपाल और सीमान्त रक्खक ने आकर सम्राट को अभिवादन किया । सम्राट ने क्रुद्ध होकर पूछा

“ भणे, वैशाली के गणदूत का कैसा समाचार है ? ”

“ देव , उसने दो दण्ड रात्रि रहते राजगृह से प्रस्थान कर दिया , अब उसका कोई पता ही नहीं लग रहा है । ”

“ उसे आने की अनुमति किसने दी ? ”

“ देव , इसका निषेध नहीं था । इसी से ….। ”

“ और वह पारग्रामिक ? ”

“ देव , उसके सम्बन्ध में तो हमें कुछ सूचना ही नहीं है।

“ क्या मागध-व्यवस्था अब ऐसे ही राजपुरुष करेंगे ? दोनों ही मृत जीवित जिस अवस्था में हों , बन्दी करके मेरे सम्मुख लाए जाएं –प्रत्येक मूल्य पर ! ”सम्राट् ने सीमान्त रक्खक को आदेश दिया ।

दोनों राजपुरुष घबराकर राजाज्ञा पालन करने को भागे।

133 . पलायन : वैशाली की नगरवधू

जयराज और काप्यक गान्धार ने पलायन की योजना पहले ही स्थिर कर ली थी । गणदूत के वेश में जिस दिन जयराज ने सम्राट से प्रकट भेंट की , उससे प्रथम ही रात्रि के समय चुपचाप गुप्त भाव से एकाकी गान्धार काप्यक महत्त्वपूर्ण चित्र , मानचित्र, लेख और सूचनाएं लेकर राजगृह से प्रस्थान कर गए थे। मार्ग में सुरक्षा और व्यवस्था उन्होंने यथावत् कर ली थी । शेष सैनिक और राजपरिच्छेद की व्यवस्था यह की गई थी कि वह प्रकट में प्रस्थान का प्रदर्शन तो करे , परन्तु राजगृह के बाहर जाते ही वे विघटित हो जाएं तथा छद्मवेश में राजगृह लौट आएं और राजगृह में गुप्त रूप में रहें । इस योजना के कारण वैशाली के गणदूत और उसकी छोटी – सी सैन्य तथा सेवक मण्डली कहां लोप हो गई, इसका किसी को कुछ पता ही नहीं लगा। गान्धार काप्यक को भी कोई नहीं पा सका।

जयराज सम्राट से मिलने के तत्क्षण बाद अपने डेरे पर गए ही नहीं । वे तुरन्त ही सबकी आंख बचा राजगृह से चल दिए । पूर्व- योजना के अनुसार उनका वह कृषक-बालक मित्र उनसे पहले ही जा चुका था और राजगृह से आठ योजन दूर एक चैत्य में उनकी प्रतीक्षा कर रहा था । इस प्रकार जयराज और उनके संगी- साथी , जिन्हें जाना था , वे पूर्व नियोजित योजना से सकुशल राजगृह से निकल गए । जिन्हें रहना था वे प्रच्छन्न भाव में रहे ।

अभयकुमार मोटी बुद्धि का तथा कुछ दीर्घसूत्री आदमी था ; वह सैनिक प्रथम था , राजनीतिज्ञ उसके बाद । वह राजकुमार था । अत : अनुशासित भी न था । उससे इस अगत्य के कार्य में अनेक त्रुटियां रह गईं । फिर भी उसने वैशाली के इन सफल भगोड़ों को जीवित या मृत पकड़ लाने के संकल्प से चुने हुए सैनिक लेकर प्रस्थान किया । सीमान्त -रक्षक ने भी चारों ओर सेना फैला दी ।

जयराज को तुरन्त ही इस व्यवस्था का पता लग गया । वह यथासंभव युद्ध से बचना चाह रहे थे और शीघ्र से शीघ्र सुरक्षित मागध राज्य की सीमा से निकल जाना चाहते थे। फिर भी उनकी एक – दो बार पीछा करने वालों से मुठभेड़ हो ही गई, पर जयराज ने युद्ध नहीं किया । पलायन ही करना श्रेयस्कर समझा । किन्तु अभयकुमार ने उनके मार्ग को घेर ही लिया और जयराज प्रति क्षण किसी गम्भीर परिणाम की आशंका करने लगे।

134. घातक द्वन्द्व युद्ध : वैशाली की नगरवधू

जयराज ने समझ लिया कि अब उनके और अभयकुमार के बीच एक घातक द्वन्द्व युद्ध होना अनिवार्य है। परन्तु उन्हें अपनी साहसिक यात्रा झटपट समाप्त कर डालनी थी । उन्होंने मुस्कराकर अपने संगी कृषक तरुण से कहा – “ मित्र , टटू की चाल का जौहर दिखाने का यही सुअवसर है, हमें शीघ्र यहां से भाग चलना चाहिए। ”

“ यही अच्छा है। ”युवक ने बहुत सोचने -विचारने की अपेक्षा अपने साथी के मत पर निर्भर होकर कहा।

दोनों ने अपने – अपने अश्वों को एड़ दी । जयराज ने निश्चय कर लिया था , कि जब तक वह सुरक्षित स्थान पर नहीं पहुंच जाएंगे, राह में विश्राम नहीं करेंगे । उनके कंचुक के भीतर बहुमूल्य हल्का लोह- वर्म था तथा उष्णीष के नीचे भी झिलमिल टोप छिपा था । बहुमूल्य लेखों और मानचित्रों को , जो उनके पास थे उन्होंने यत्न से अपने वक्षस्थल पर लोह- वर्म के नीचे छिपा लिया था और उन सबकी एक – एक प्रति सांकेतिक भाषा में तैयार करके अपने साथी के कंचुक में सी दी थीं ।

दोनों के अश्व तीव्र गति से बढ़ चले । युवक अपने अश्व -संचालन की सब कला साथी को दिखाना चाहता था तथा अपने पार्वत्य टटू की जो वह बढ़- चढ़कर डींग हांक चुका था , उसे प्रमाणित किया चाहता था । इसी से वह साथी के साथ बराबर उड़ा जा रहा था । उसकी इच्छा साथी से वार्तालाप करने की थी , परन्तु जयराज गम्भीर प्रश्नों पर विचार करते जा रहे थे । द्रत गति से दौड़ते हए अश्व पर भी मनुष्य गम्भीर विषयों पर विचार कर सकता है, टेढ़ी राजनीति की वक्र चाल सोच सकता है, यह कैसे कहा जा सकता था ! पर यहां संधिवैग्राहिक जयराज भागते – भागते यही सब सोचते तथा गहरी से गहरी योजना बनाते जा रहे थे। वे प्रत्येक बात की तह तक पहुंचने के लिए अब तक की पूर्वापर सम्बन्धित सभी बातों की तुलना , विवेचना और आरोप की दृष्टि से देखने के लिए अपने मस्तिष्क में विचार स्थिर करते जा रहे थे। उन्होंने मन – ही – मन यह स्वीकार कर लिया कि सम्राट अद्भुत और तेजवान् पुरुष हैं । उन्हें सरलता से मूर्ख नहीं बनाया जा सकता है। फिर भी सम्राट की अम्बपाली के प्रति आसक्ति एवं अपने ही जीवन में उनके शून्यपने को भी वह समझ गए थे । उन्होंने यह समझ लिया था युद्ध तो अनिवार्य है ही , वह भी अनति विलम्ब । परन्तु मूल मुद्दा यह है कि देवी अम्बपाली ही का आवास एक छिद्र होगा , जहां से मगध साम्राज्य को विजय किया जा सकता है। आर्य वर्षकार की दुर्धर्ष कुटिल राजनीति के ताने बाने को छिन्न -भिन्न करके आर्य भद्रिक के प्रबल पराक्रम को नत किया जा सकता है । उसी कूटनीतिक छिद्र पर जयराज ने अपनी दृष्टि केन्द्रित की । उन्होंने मन – ही – मन कहा – “ सम्राट एक ऐसी उलझी हई गुत्थी है, जो जीवन में नहीं सुलझेगी। परन्तु इसी से सम्राट का पराभव होगा तथा ब्राह्मण वर्षकार की बुद्धि और भद्रिक का शौर्य कुछ भी काम न आएगा ।

उसने बड़े ध्यान से देखा था कि सम्पूर्ण मागध जनपद सम्पन्न और निश्चिन्त है । उसे यहां वह युद्ध की विभीषिका नहीं दिखाई दी थी , जो वैशाली में थी । वे अत्यन्त आश्चर्य से यह देख चुके थे कि वहां जनपद में बेचैनी के कोई चिह्न न थे। कृषक अपने हल -बैल लिए खेतों की ओर आराम से जा रहे थे। रंगीन वस्त्रों से सुसज्जित ग्रामीण मागध बालाएं छोटे छोटे सुडौल घड़े सिर पर रखे आती- जाती बड़ी भली लग रही थीं । वे गाने गाती जाती थीं , जिनमें यौवन जीवन – आनन्द, आशा और मिलन -सुख के मोहक चित्र चित्रित किए हुए थे । जयराज को ऐसा प्रतीत हो रहा था , जैसे चिड़ियां चहचहाती हुई उड़ रही हैं । सम्पूर्ण मागध जनपद शत -सहस्र मुख से कह रहा था – “ देखो , हम सुखी हैं , हम सन्तुष्ट हैं ! ”

जयराज सोचते जाते थे। हमारे वज्जी गणतन्त्र से तो यह साम्राज्यचक्र ही अधिक सुविधाजनक प्रतीत होता है । यदि साम्राज्य – तन्त्र में आक्रमण- भावना न होती , तो निस्सन्देह राजनीति के विकसित -स्थिर रूप को तो साम्राज्य ही में देखा जा सकता है । वे चारों ओर आंख उघाड़कर देखते जा रहे थे, पीले और पके हुए धान्य से भरपूर खेत खड़े थे । आम्र के सघन बागों में कोयले कूक रही थीं । स्वस्थ बालक ग्राम के बाहर क्रीड़ा कर रहे थे। बड़े -बड़े हरिणों के यूथ खेतों की पटरियों पर स्वच्छन्द घूम रहे थे। ऋतु बहुत सुहावनी बनी थी । कोई – कोई ग्रामीण सस्ते टटुओं पर इधर – उधर आते – जाते दीख पड़ रहे थे। ये टटू बड़े मज़बूत थे। उनके मुंह से निकल पड़ा – “ वाह , ये तो बड़ी मौज में हैं । ”

साथी युवक ने जयराज के होंठ हिलते देखे। वह अपना टट्ट बढ़ाकर आगे आया और उसने कहा – “ आपने कुछ कहा भन्ते ! ”

“ हां मित्र , मैं सोचता हूं कि तेरी और मेरी दोनों की ससुराल यहां कहीं किसी गांव में होती ; और ये रंगीन घाघरे पहने हुए जो वधूटियां छोटे- छोटे जल के घड़ेसिरों पर रखे इठलातीं, बलखातीं, लोगों के मन को ललचातीं आ रही हैं , इनमें ये कोई भी एक – दो हमारी-तेरी वधूटियां होतीं तथा हम और तू साथ – साथ इसी तरह इन गांवों में से किसी एक के श्वसुरगृह में आकर आदर – सत्कार पाते, तो कैसी बहार होती ! ”

साथी का यह रंगीन विनोद सुनकर युवक खिलखिलाकर हंस पड़ा । उसने थोड़ा लजाते हुए कहा – “ भन्ते , इधर ही उस ओर के एक ग्राम में मेरी ससुराल है और मैं वहां एक – दो बार जा चुका हूं । चलिए भन्ते , वहां चलें । ”

“ अच्छा, क्या वधूटी वहीं है ? ”

“ वहीं है भन्ते ! ”

“ ओहो, यह बात है मित्र, तो देखा जाएगा, वह ग्राम यहां से कितनी दूर है ? ”

“ यदि हम इसी प्रकार चलते रहे, राह में कहीं न रुके , तो सूर्यास्त तक वहां पहुंच जाएंगे। ”

“ और यदि हम घोड़ों को सरपट छोड़ दें ? ”

“ वाह, तब तो दण्ड दिन रहे पहुंच सकते हैं । ”

“ परन्तु तुम्हारे श्वसुर और श्यालक कहीं मुझे गवाट में तो नहीं बन्द कर देंगे ? ”

“ नहीं भन्ते , जब मैं उनसे कहूंगा कि आप राजकुमार हैं और सम्राट से बात करके आ रहे हैं , तो वे आपको सिर पर उठा लेंगे। मेरा श्यालक मेरा प्रिय मित्र भी है । ”

“ तब तो बढ़िया भोजन की भी आशा करनी चाहिए ! ”

“ ओह, वे लोग सम्पन्न हैं , इसकी क्या चिन्ता! ”

“ तो मित्र, यही तय रहा, आज रात वहीं व्यतीत करेंगे ? ”

उत्सुकता और आनन्द के कारण तरुण कृषक कुमार का मुंह लाल हो गया । वह उत्साह से अपने टटू पर जमकर बैठ गया ।

जयराज साथी से बातें करते जाते थे, पर खतरे से असावधान न थे । वृक्षों के सघन कुञ्ज को देखकर उनके मन में सिहरन उत्पन्न होती, एक गहरे नाले और ऊंचेटीले को देख वे ठिठक गए । वे दिन – भर चलते ही रहे थे, सन्ध्या होने में अब विलम्ब न था । इसी समय पीछे से उन्होंने कुछ अश्वारोहियों के आने की आहट सुनी । वह एक सुनसान जंगल था । दाहिनी ओर एक टीला था उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, उसी टीले के ऊपर तेरह अश्वारोही एक पंक्ति में खड़े हैं । वे उनसे कोई दस धनुष के अन्तर पर थे। इन दोनों को देखते ही तेरहों ने तीर की भांति अश्व फेंके। जयराज ने साथी से कहा – “ सावधान हो जा मित्र , शत्रु आ पहुंचे! ”इसी समय बाणों की एक बौछार उनके इधर -उधर होकर पड़ी । जयराज ने कहा – “ मित्र, साहस करना होगा , भागना व्यर्थ है , सामने समतल मैदान है और कोई आड़ भी नहीं है । हमारे अश्व थके हुए हैं , तू दाहिनी ओर को वक्रगति से टटू चला , जिससे शत्रु बाण लक्ष्य न कर सकें और अवसर पाते ही ससुराल के गांव में भाग जाना मेरे लिए रुकना नहीं। ”

“ किन्तु , भन्ते आप ? ” _ “ मेरी चिन्ता नहीं मित्र , तेरा श्वसुर – ग्राम निकट है, वहां से समय पर सहायता ला सके तो अच्छा है। ”

“ वृक्षों के उस झुरमुट के उस ओर ही वह ग्राम है; जीवित पहुंच सका, तो दो दण्ड में सहायता ला सकता हूं । मेरे दोनों श्यालक उत्तम योद्धा हैं । ”

इसी बीच बाणों की एक और बौछार आई। जयराज ने साथी को दाहिनी ओर वक्रगति से बढ़ने का आदेश दे स्वयं बाईं ओर को तिरछा अश्व चलाया । शत्रु और निकट आ गए। वे उन्हें घेरने के लिए फैल गए और निरन्तर बाण बरसाने लगे। जयराज ने एक बार साथी को खेतों में जाते देखा और स्वयं चक्राकार अश्व घुमाने लगा । शत्रु , अब एक धनुष के अन्तर से बाण बरसाने लगे। जयराज ने अश्व की बाग छोड़ दी और फिसलकर अश्व से नीचे आकर उसके पेट से चिपक गए । और अपना सिर घोड़े के वक्ष में छिपा लिया , तथा एक हाथ में खड्ग और दूसरे में कटार दृढ़ता से पकड़ ली ।

शत्रुओं ने साथी की परवाह न कर उन्हें घेर लिया । एक ने चिल्लाकर कहा – “ वह आहत हुआ , उसे बांध लो , जीवित बांध लो । परन्तु पहले देख , मर तो नहीं गया । ”

तीन अश्वारोही हाथ में खड्ग लिए उनके निकट आ गए । जयराज ने अब अपनी निश्चित मृत्यु समझ ली । परन्तु आत्मरक्षा के लिए तनिक भी नहीं हिले । वे उनके अत्यन्त निकट आ गए । जयराज ने एक के पाश्र्व में कटार घुसेड़ दी । दूसरे के कण्ठ में उनका खड्ग विद्युत्गति से घुस गया । दोनों गिरकर चिल्लाने लगे । तीसरा दूर हट गया । इसी समय अवसर पा जयराज ने फिर अश्व फेंका। शत्रु क्षण- भर के लिए स्तम्भित हो गए, पर दूसरे ही क्षण वे ‘ लेना – लेना करके उनके पीछे भागे ।

अन्धकार होने लगा । दूर वृक्षों के झुरमुट की ओट में सूर्य अस्त हो रहा था । जयराज ने एक बार उधर दृष्टि डाली । जब तक वे धनुषों पर बाण संधान करें , वह पलटकर दुर्धर्ष वेग से शत्रु पर टूट पड़े। दो को उन्होंने खड्ग से दो टूक कर डाला । एक ने आगे बढ़कर उनके मोढ़े पर करारा वार किया । अभयकुमार को पहचान कर जयराज आहत होने पर भी उस पर टूट पड़े। दो सैनिक पाश्र्व से झपटे , एक को उन्होंने बायें हाथ की कटार से आहत किया , दूसरा पैंतरा बदलकर पीछे हट गया । इसी समय जयराज ने अभयकुमार के सिर पर एक भरपूर हाथ खड्ग का मारा। वह मूर्छित होकर धड़ाम से धरती पर गिर गया ।

अब शत्रु सात थे। नायक के मूर्छित होने से वे घबरा गए थे, परन्तु जयराज भी अकेले तथा आहत थे। उनके मोढ़े से रक्त झर – झर बह रहा था । वे लड़ते – लड़ते ग्राम को लक्ष्य कर बढ़ने लगे। इसी समय अभयकुमार की मूर्छा भंग हुई , उसने चिल्लाकर कहा – “ मारो, उसे मार डालो , देखो, बचकर भागने न पाए । ”शत्रुओं ने फिर उन्हें घेर लिया । अब वे चौमुखा वार करके खड्ग चला रहे थे । पर क्षण – क्षण पर विपत्ति की आशंका थी । अवसर पा उन्होंने एक शत्रु को और धराशायी किया ।

इसी समय ग्राम की ओर से चार अश्वारोही अश्व फेंकते आते उन्होंने देखे। उन्हें देख जयराज उत्साहित हो खड्ग चलाने लगे । शत्रु घातक वार कर रहे थे। कृषक तरुण ने कहा – “ हम आ पहुंचे भन्ते राजकुमार! ”और साथियों को लेकर वह शत्रुओं पर टूट पड़ा । सब शत्रु काट डाले गए, अभयकुमार को बांध लिया गया । सब कोई ग्राम की ओर चले । इस समय रात एक दण्ड व्यतीत हो चुकी थी । ग्राम के निकट पहुंचकर जयराज ने कृषक युवक और उसके साथियों से कहा – “ मित्रो , आपने मेरे प्राणों की रक्षा की है, इसके लिए तुम्हारा आभार ले रहा हूं , परन्तु मुझे एक अच्छा अश्व दो । ”

“ यह क्या भन्ते ! क्या आप रात विश्राम नहीं करेंगे ?

“ नहीं मित्र , मुझे जाना होगा। इतना कह, उसे एक ओर ले जाकर स्वर्ण की एक भारी थैली उसके हाथ में रखकर कहा – “ मित्र , तू रात – भर यहां रहकर भोर होते ही वैशाली की राह पकड़ना और वैशाली के संथागार में पहुंचकर यह मुद्रा किसी भी प्रहरी को दे देना , वह तुझे मुझ तक पहुंचा देगा। ”

“ किन्तु आप आहत हैं भन्ते! ”

“ परन्तु मित्र , कार्य गुरुतर है । ”

“ तो मैं भी साथ हूं । ”

“ नहीं मित्र, रात्रि – भर ठहरकर प्रात: चलना, पर राह में अटकना नहीं, तेरे पास मेरी थाती है। ”

“ समझ गया भन्ते , किन्तु यह स्वर्ण ? ”

जयराज ने हंसकर कहा – “ संकोच न कर मित्र ! वधूटी का कोई आभूषण बनवाना, ला अश्व दे। ”

युवक ने ऊंची रास का अश्व श्यालक से दिला दिया । फिर उसने आंखों में आंसू भरकर कहा

“ तो भन्ते…. “

“ हां , मित्र मैं चला । ”

“ पर यह बन्दी ? ”

“ इसकी यत्न से रक्षा करना और राजगृह भेज देना , पाथेय और अश्व देकर । यह राजकुमार है। ”

“ ऐसा ही होगा भन्ते! ”

जयराज ने उसी अन्धकार में अश्व छोड़ दिया ।

135. चण्डभद्रिक : वैशाली की नगरवधू

प्रबल – प्रतापी मगध- सेनापति चण्डभद्रिक के शौर्य, तेज और समर – कौशल की गाथाएं उन दिनों सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में गाई जाती थीं । उस युग में उनका जैसा धीर , वीर , तेजस्वी और दूरदर्शी सेनापति दूसरा भारत में न था । उन्होंने वैशाली के महत्त्व और सत्ता पर भली – भांति विचार करके भागीरथ प्रयत्न से मागधी सेना का सर्वथा नये ढंग पर संगठन किया था । चम्पा , कोसल और मथुरा – अवन्ती के अभियान में जो मागधी सेना को क्षय और हानि हो गई थी , वह उन्होंने सब बात की बात में पूरी कर ली थी और अब राजगृह के घर घर में वैशाली – अभियान की ही चर्चा थी । लोग अमात्य वर्षकार के असाधारण निष्कासन को भी इस तरह भूल गए थे ।

एक दिन सम्राट और सेनापति ने अतिगोपनीय मंत्रणा की ।

सम्राट ने कहा – “ आर्य भद्रिक , यदि शिशुनाग -वंश के मस्तक पर चक्रवर्ती- छत्र नहीं आरोपित हुआ , तो इस वंश में बिम्बसार का जन्म लेना ही व्यर्थ हुआ और आपका मगध सेनानायक होना भी । ”

सेनापति ने हंसकर कहा -“ सो तो है देव , देखिए पृथ्वी पर हिमालय से दक्षिण समुद्र पर्यन्त अर्थात् उत्तर दक्षिण में हिमालय और समुद्र के बीच का , तथा एक सहस्र योजन तिरछा, अर्थात् पूर्व पश्चिम की ओर एक सहस्र योजन विस्तारवाला , पूर्व- पश्चिम – समुद्र की सीमा से भक्त देश चक्रवर्ती क्षेत्र कहाता है । इस चक्रवर्ती क्षेत्र में अरण्य , ग्राम्य , पार्वत , औदक , भौम , सम विषम जो भूभाग हैं उनका निरूपण इस मानचित्र में देखिए; और विचार कीजिए कि अब करणीय क्या है। प्रथम उत्तर – दक्षिण प्रदेश पर दृष्टि डालिए । अमात्य ने देव की अभिलाषा को चरितार्थ करने की ही यह योजना बनाई थी , कि दक्षिण समुद्र को मगध साम्राज्य यदि स्पर्श करे , तो उसे सर्वप्रथम चण्ड प्रद्योत , अवन्ति नरेश और उसके मित्र मथुरापति अवन्तिवर्मन का पराभव करना चाहिए । रोरुक सौवीर पर भी अधिकार होना चाहिए । परन्तु देव का आग्रह वैशाली – अभियान पर ही है और अमात्य विनियोजित हैं , तब अभी वैशाली से ही निबट लिया जाए , परन्तु देव से एक निवेदन करूंगा। यदि वैशाली के गणतन्त्र को छिन्न- भिन्न करना है, तो उसके संगी – साथी मल्ल – शाक्य, कासी – कोलिय और दूसरे गणसंघों के गुट्ट को भी आमूल तोड़- फोड़ देना होगा तथा मगध – राजधानी राजगृह से हटाकर या तो वैशाली ही को चक्रवर्ती- क्षेत्र का केन्द्र बनाना होगा , या फिर पाटलिग्राम को मागध राजधानी बनने का सौभाग्य प्रदान करना होगा। बिना ऐसा किए इन केन्द्रस्थ गणगुट्टों को हम तोड़ – फोड़कर आमूल नष्ट नहीं कर सकते क्योंकि इसके लिए मात्र सामरिक चेतना ही यथेष्ट नहीं है । वहां के जनपद की मनोवृत्ति बदलने की भी बात है; क्योंकि आर्यों की भांति वहां भी छिद्र मुख्य हैं । छिद्र यह कि इन गणराज्यों में गणप्रतिनिधि लिच्छवि , मल्ल शाक्य सभी ने यह नियम बनाया है, कि राज्य की सारी व्यवस्था अपने हाथ में रखी है । इनके राज्यों में आर्यों को कोई अधिकार ही नहीं है । इससे ब्राह्मण , विश और सेट्ठि सभी जन उनसे उदासीन हैं । विग्रह छिड़ने पर गणों को , जहां युद्ध में उलझना पड़ेगा , वहां इनकी रक्षा का भार भी ढोना होगा और वे लोग युद्ध में कुछ भी सहायता अपने गण की नहीं करेंगे। ”

“ तो यह छिद्र साधारण नहीं आर्य सेनापति , इसी से हम विजयी होंगे। ”

“ परन्तु सेना से नहीं, संस्कृति से । इसीलिए हमें उन्हीं के बीच या तो वैशाली में , नहीं तो फिर उनके निकट पाटलिपुत्र में राजधानी बनाकर रहना होगा । ”

“ तो ऐसा ही होगा सेनापति , परन्तु अभी हम दक्षिण समुद्र – तट नहीं छू सकते , यह मैं भी देख रहा हूं परन्तु मागधों को अवन्ति पर अभियान करना होगा , इधर चम्पा -विजय होने से पूर्वीय समुद्र – तट हमारा हो गया । यदि इसी के साथ हमारा कोसल का अभियान सफल होता , तो उत्तर गान्धार तक फिर कोई बाधा न थी । मेरे जीवन ही में मेरा स्वप्न पूर्ण हो जाता , परन्तु अब कदाचित् हमें दूसरी पीढ़ी तक प्रतीक्षा करनी होगी । विदूडभ दासीपुत्र कठिन हाथों से कोसल की व्यवस्था कर रहा है, यद्यपि वह प्रकट में आयुष्मान् सोमप्रभ से अति उपकृत है। ”

“ सो तो है ही देव , परन्तु हम राजनीति में प्रथम ही से कोई कल्पना नहीं कर सकते , परिस्थितियां क्षण- क्षण पर बदलती रहती हैं । इसलिए अभी हमें अपना ध्यान केवल वैशाली पर ही केन्द्रित करना चाहिए , जहां अमात्य आत्मयज्ञ कर रहे हैं और सोम कूटयुद्ध । फिर हमारे सोनगंगा और बागमती – तट के नये – पुराने दुर्ग हैं , जो सब भांति सज्जित हैं । इसके अतिरिक्त हमारी समर्थ जल – सैन्य है, जिसके सम्बन्ध में देव को सब कुछ विदित कर दिया गया है । ”

“ तो ऐसा ही हो , आर्यसेनापति , आपने किस प्रकार सैन्य -व्यवस्था की है ? ”

“ इस समय हमारे पास कुल एक अक्षौहिणी सैन्य सन्नद्ध है। इसे मैंने पांच भागों में विभक्त किया है। एक मौल बल मूलस्थान , अर्थात् राजधानी की रक्षा करने के लिए; इसका भार आचार्य शाम्बव्य पर है । इस सेना का कार्य केवल राजधानी की रक्षा ही नहीं , क्षय और व्यय की पूर्ति करना भी है । इस सेना में अधिक विश्वस्त अनुभवी और योग्य व्यक्तियों को आचार्य की अधीनता में रखा गया है, जिससे पीछे शत्रु भेद न डाल दे। अन्न , रसद, शस्त्रास्त्र और नये – नये भट निरन्तर मोर्चे पर भेजते रहने की सारी व्यवस्था यही सेना करेगी। आवश्यकता होने पर सम्मख -युद्ध भी कर सकेगी।…

“ दूसरी सेना भूतक बल है। इसमें वे ही योद्धा हैं जो केवल वेतन लेकर युद्ध करते हैं । शत्रु के पास भूतकबल बहुत कम है और अभी हमें भिन्न शक्तियों से प्राप्त सहायता मिलने में विलम्ब भी है, अत : यही सैन्य कठिन मोर्चों पर आगे बढ़कर कार्य करेगी । इसी सेना को शत्रु के यातायात – अवरोध पर भी लगाया जाएगा ।…

“ तीसरी श्रेणीबल है, जो जनपद में अपना – अपना कार्य करनेवाले शस्त्रास्त्र प्रयोग में निपुण पुरुषों की तैयार की गई है। शत्रु के पास श्रेणीबल यथेष्ट है । शत्रु से मन्त्र -युद्ध भी होगा और प्रकाश -युद्ध भी । ऐसी अवस्था में श्रेणीबल से हमें बड़ी सहायता प्राप्त होगी। ”

“ चौथा ‘मित्रबल है । मित्रबल हमारे पास बहुत है । सत्ताईस मित्र- राज्यों से हमें मित्रबल प्राप्त होगा । हम उसे मूलस्थान की रक्षा में भी लगा सकते हैं और शत्रु के साथ युद्ध करने भी ले जा सकते हैं । हमें बहुत कम यात्रा करनी है। वैशाली में अब तूष्णी युद्ध के स्थान पर व्यायाम युद्ध ही मुख्यतया होगा , इसलिए शत्रु की मित्र सेना या आटविक सेना को , जो कि उसके नगर में आकर ठहरी हुई होगी , पहले अपनी मित्र – सेना के साथ लड़ाकर , फिर अपनी सेना के साथ लड़ाऊंगा।….

“ इसके अतिरिक्त देव , हमारे पास विजित शत्र – सैन्य भी हैं । पहले मैं इसी को शत्र से भिड़ाऊंगा। दोनों में से जिस भी सैन्य का विनाश होगा , हमारा लाभ – ही – लाभ है । जैसे कुत्ते और सूअर के परस्पर लड़ने से दोनों में से किसी भी एक के मर जाने पर चाण्डाल का लाभ होता है, उसी प्रकार, देव ! ”

इतना कहकर मागध महाबलाधिकृत भद्रिक हंस दिए । सम्राट भी हंस पड़े । उन्होंने कहा – “ यह तो ठीक है आर्य सेनापति , परन्तु हमारी आटविक सैन्य की व्यवस्था सर्वोत्तम होनी चाहिए। ”

“ निस्सन्देह देव , मेरे चर भिन्न -भिन्न रूप में शत्रु- भूमि में फैले हुए वहां का राई रत्ती मानचित्र तैयार करने में जुटे हैं । वन , वीथी, उपत्यका नद, ह्रद , शृंग जहां जो हैं , उसका ठीक -ठीक चित्रण कर रहे हैं । कहां – कहां किन -किन युद्धोपयोगी वस्तुओं एवं व्यवहार्य पदार्थों का चय , उत्पादन , गोपन है, देख -भाल रहे हैं । ज्यों – ज्यों उनसे सूचनाएं मिलती जा रही हैं , हमारी आटविक सेना शिक्षित , अभिज्ञात होती जा रही है । वह भलीभांति सब मार्गों को जान गई है, उत्तम निर्धान्त पथ – प्रदर्शकों , सूत्रकों का सहयोग उसे प्राप्त है। शत्रु – भूमि में छद्म – युद्ध , पलायन – युद्ध और सम -युद्ध करने की उसे पूरी शिक्षा दी गई है । वह सब भांति आयुधों से सुसज्जित है। जैसे एक बिल्वफल दूसरे बिल्वफल के द्वारा टकराकर फोड़ दिया जाता है , उसी भांति हम आटविक बल को ले युद्ध प्रारम्भ कर देंगे और शत्रु के तृण , काष्ठ आदि छोटे- छोटे पदार्थों तक को उस तक न पहुंचने देंगे । बीच ही में नष्ट कर डालेंगे। ”

“ सुनकर सन्तुष्ट हुआ , आर्य सेनापति , और भी कुछ ज्ञातव्य है ? ”

“ हां देव , हमने औत्सुक्य सैन्य का भी संगठन किया है । यह एकनेता – रहित सेना है । इसमें भिन्न -भिन्न देशों के रहने वाले जन हैं । इसका काम शत्रु के देश में केवल लूटमार करना है । इसमें भरती होने के लिए किसी आज्ञा या अनुशासन की आवश्यकता नहीं है । नगर जनपद को लूटना , आग लगाना , खेतों और बाग – बगीचों को नष्ट करना, मार्गों और यातायात- साधनों को भंग करना तथा शत्रु के सम्पूर्ण राज्य में अव्यवस्था फैलाना ही इस सेना का कार्य होगा । इसके हमने दो भाग किए हैं – एक भेद्य , दूसरा अभेद्य । प्रतिदिन भत्ता लेकर अथवा मासिक हिरण्य नियमित वेतन के रूप में लेकर शत्रु- देश में लूटमार मचानेवाला भेद्य है । परन्तु दूसरी औत्साहिक सैन्य में विश्वस्त मागधजन ही हैं । यह अधिक सुगठित और सुसम्पन्न है। इस प्रकार देव , हमने यह सात प्रकार का बल सुसंगठित किया

“ साधु सेनापति , साधु ! अब क्षय, व्यय तथा लाभ पर भी विचार करना आवश्यक

“ अवश्य देव , मेरी रणनीति यह है कि क्षय और व्यय की दृष्टि से जिस काल में अत्यधिक गुणयुक्त लाभ की सम्भावना हो तभी आक्रमण किया जाए । अर्थों का ही अर्थों से सम्बन्ध है देव , हाथी ही से हाथी पकड़ा जा सकता है। ”

“ सत्य है, आर्य सेनापति , तो अब सेना के कूच की आज्ञा होनी चाहिए। ”

“ अच्छा देव , हम तो तैयार ही हैं ।

136 . दूसरी मोहन – मन्त्रणा : वैशाली की नगरवधू

महाबलाधिकृत सुमन के अधिकरण में मोहन – गृह में वज्जीगण की समर मन्त्रणा हुई । सन्धिवैग्राहिक जयराज ने अपना विवरण सुनाते हुए कहा – “ यद्यपि यह सत्य है कि मगध- सम्राट के पास उत्तम सेनापति और अच्छे सैनिक नही हैं , तथा उसकी सेना में बहुत छिद्र हैं , फिर भी आर्य वर्षकार का तूष्णी युद्ध और आर्य चण्डभद्रिक की व्यूह – योजना अद्वितीय है। हम यदि तनिक भी असावधान हुए तो हमारा पतन निश्चित है और हमारे साथ उत्तरपूर्वीय भारत के सब गणराज्य नष्ट हो जाएंगे। यह स्पष्ट है कि मगध- सम्राट् की सम्पूर्ण शक्ति इन दोनों ब्राह्मणों के हाथ में है और यही मागध राज्यसत्ता को साम्राज्य के रूप में संगठित कर रहे हैं , जो आर्यों की पुरानी कुत्सित राजव्यवस्था है। आर्यों के साम्राज्य इसलिए सफल हुए , कि उनमें आर्यों के शीर्ष स्थानीय क्षत्रिय और ब्राह्मण एकीभूत हो गए थे और निरीह प्रजावर्गीय संकर जातियों का कोई आश्रय ही न था ; परन्तु अब वह बात नहीं है । शिशुनाग वंश आर्य नहीं है । वह अपने ही स्वर्गीय जनों पर सम्राट् होकर रह नहीं सकते । ये आर्य ब्राह्मण, जो उस मूर्ख राजा की आड़ में आर्यों के ढांचे पर साम्राज्य गांठ रहे हैं वह अन्तत: विफल होगा । परन्तु अभी वह यदि वैशाली को आक्रान्त करता है और उधर प्रद्योत का भी पतन हो जाता है, तो हमारी सम्पूर्ण गणभावना नष्ट हो जाएगी और सम्पूर्ण जनपद फिर आर्यों के दासत्व में फंस जाएगा अथवा साम्राज्यवाद के मद में अन्धे बिम्बसार जैसे जातिघातक ही उनके अधिपति बन बैठेंगे! ”

“ यह अत्यन्त भयानक बात होगी आयुष्मान्, सम्पूर्ण जनपद के मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए हमें लड़ना और जय पाना होगा । ”सेनाधिनायक सुमन ने कहा।

“ किन्तु सेनापति , यदि सत्य देखा जाए, तो हम गणराज्यों के विधाता भी तो ठीक-ठीक जनपद मानवीय अधिकारों का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे! हमने भी तो अपने गणराज्यों की राज्य-व्यवस्था में आर्यों का बहिष्कार कर रखा है ! ”सिंह ने गम्भीरतापूर्वक कहा ।

“ यह है, परन्तु इसके गम्भीर कारण हैं , तथा इस समय हमें केवल मूल विषय पर विचार करना है, आयुष्मान् ! अब हमें यह जान लेना चाहिए कि हमारे भय के दो मध्य बिन्दु हैं – एक ब्राह्मण वर्षकार और दूसरे आर्य चण्डभद्रिक। ”

“ एक तीसरा भय और है। ”

“ वह कौन ? ”

“ सेनापति सोमप्रभ । वह एक मागध तरुण है, जिसके स्थैर्य , रणापांडित्य और विलक्षण प्रतिभा पर तक्षशिला के आचार्य और छात्र दोनों ही स्पर्धा करते रहे हैं । सम्भवत : वह मागध ही तरुण मागध – सेना का संचालन करेगा। ”जयराज ने कहा।

“ यह तरुण कौन है भद्र ? ”

“ उसका परिचय रहस्यपूर्ण है, सम्भवत : एक ही व्यक्ति उसका परिचय जानता है , पर उसने होंठ सी रखे हैं ।

“ कौन व्यक्ति ? ”

“ आर्या मातंगी। ”

“ यह तो बड़ी अद्भुत बात है। तब फिर सम्राट् ने इस अज्ञात -कुलशील को इतना भारी दायित्व कैसे दे रखा है ? ”

“ चम्पा- युद्ध में उसने असाधारण रण – पाण्डित्य प्रदर्शन करके आर्य भद्रिक की प्रतिष्ठा बचाई थी । ”

“ तो क्या सम्राट् ने उसे सेनापति अभिषिक्त किया है ? ”

“ नहीं , मगध- सेनापति चण्डभद्रिक ही है । ”

“ भद्रिक के शौर्य से मैं अविदित नहीं हूं । भद्रिक मेरा सह – सखा है, मैं उसके सम्मुख असहाय हूं , वह महाप्राण पुरुष हैं , फिर भद्र, तू ऐसा क्यों कहता है कि श्रेणिक के पास अच्छे सेनापति नहीं हैं ? ”सेनापति सुमन ने कहा।

“ भन्ते सेनापति, आर्य भद्रिक की निष्ठा निस्सन्देह ऐसी ही है , परन्तु मगध में उनकी – सी चली होती , तो मगध – सेना अजेय होती। परन्तु सम्राट् सदैव उन पर सशंक रहते हैं । वे समझते हैं कि कहीं चण्डभद्रिक उन्हें मारकर सम्राट न हो जाएं । जैसे अवन्ती – अमात्य ने राजा को मारकर अपने पुत्र प्रद्योत को राजा बना दिया ।

“ यही सत्य है आयुष्मान् ! मैंने उसका कौशल देखा है। परन्तु आयुष्मान् सोमप्रभ कहां है ? कुछ ज्ञात हुआ ? ”

“ मगध में तो यही सुना है कि वह देश-विदेश में घूमकर ज्ञानार्जन कर रहा है। ”

“ मगध में जो सब कहते हैं वह तो सुना , परन्तु सन्धिवैग्राहिक जयराज क्या कहते हैं ? ”

जयराज हंस दिए। उन्होंने धीरे-से कहा – “ जयराज कहता है, वह सशरीर , सदलबल वैशाली में उपस्थित है। ”

जयराज की बात सुनकर सब अवाक् होकर उनका मुंह ताकने लगे। सेनापति ने कहा

“ यह क्या कहता है आयुष्मान् ?

सिंह ने उत्तेजित होकर कहा – “ ऐसा प्रबल शत्रु दल – बल – सहित वैशाली में उपस्थित है, और हमें इसका ज्ञान ही नहीं है! ”

“ ज्ञान न होता तो कहता कैसे ? ”

“ वह है कहां ? ”

“ मधुवन की उपत्यका में , ” कुछ रुककर उसने कहा-“ दस्यु बलभद्र ही सोमप्रभ है। ”

क्षण – भर के लिए सब स्तब्ध बैठे रहे । स्वर्णसेन विचलित हो गए । सिंह ने कहा- “ ठीक है, मैंने भी सन्देह किया था । अच्छा , उसके पास सैन्य कितनी है ? ”

“ पचास सहस्र , कुछ अधिक ही । इनमें दस सहस्र उत्कृष्ट अश्वारोही हैं । वे सब टुकड़ी बांधकर दस्यु -वेश में सम्पूर्ण जनपद में फैले हुए हैं । दिन -भर वे पर्वत -कन्दराओं में छिपे रहते हैं और रात्रि को आक्रमण करते हैं । ये सब मंजे हुए योद्धा हैं , उनमें कुछ राजमार्ग पर आते – जाते राजस्व , अन्न और दूसरी युद्धोपयोगी वस्तुओं को लूट लेते हैं । कुछ किसानों में मिल उन्हें बलि न देने और विद्रोह करने को उकसाते हैं । कुछ नगरों, वीथियों, गुल्मों पर छापा मारकर लूटपाट करते हैं ।

“ इतना ? ”

“ और भी भन्ते सेनापति , उसने मरुस्थल में धान्वन दुर्ग बनाए हैं , जंगलों में वन दुर्ग और झाड़ियों से भरे घने – गहन वनों में संकट – दुर्ग बना लिए हैं ; जहां दलदल हैं वहां ‘पंक बनाए हैं और पर्वतों पर शैल । पर्वतों की उपत्यकाओं में निम्न और विषम तथा गौओं और शकटों के चल – दुर्ग बनाए हैं । ये सब ‘ सत्र हैं और शत्रु के छिपकर घात करने के साधन हैं । इन सबको यथावत् निर्माण कर शत्रु कूटयुद्ध कर रहा है । वह बहुत धन – जन की हानि कर चुका है । ”

“ तो इधर ब्राह्मण का तूष्णी -युद्ध और उधर आयुष्मान् सोमप्रभ का कूटयुद्ध । तो अब श्रेणिक बिम्बसार के प्रकट -युद्ध के कैसे समाचार हैं ? ”

“ कहता हूं भन्ते सेनापति , प्रथम तो यह कि उसने सोन, गंगा और बागमती के तट के सब दुर्गों की मरम्मत करा ली है तथा सोलह नये दुर्गनिर्माण किए हैं । इन दुर्गों में साल के मोटे खम्भों के तिहरे प्राकार हैं । प्रत्येक दुर्ग में तीन से सात सहस्र तक शिक्षित भट , पादातिक, अश्वारोही, रथी और गजारोही हैं । अन्न , जल और अन्य सामग्री इतनी संचित है कि दुर्गवासी आवश्यकता होने पर एक वर्ष तक उससे काम चला सकते हैं । ”

यह विवरण सुनकर सेनाध्यक्ष ने कहा -“ इस अवस्था को देखते तो भद्रिक की जितनी प्रशंसा की जाय , थोड़ी है । ”

सिंह ने कहा – “ हुआ, आगे कहो! ”

जयराज ने कहा – “ उसने एक सुव्यवस्थित नौसेना भी तैयार कर ली है। इसमें बीस सहस्र नौकाएं हैं , जो तीन प्रकार की हैं : एक दीर्घा, जिनकी लम्बाई साठ हाथ और चौड़ाई चालीस हाथ है । ये हाथियों और अश्वों एवं रथों को स्थानान्तरित करती हैं । इनमें से प्रत्येक में सोलह नाविक और पचास धनुर्धर बैठ सकते हैं । दूसरी चपला , जो शीघ्र चलनेवाली , हल्की परन्तु अच्छी सुदृढ़ हैं । इनमें 8 नाविक और 20 धनु – खड्ग – शूलधारी बैठ सकते हैं । आर्य भद्रिक की योजना यह है कि विजय का पूरा दायित्व नौवाहिनी पर ही केन्द्रित रहे । सम्राट का कोष निस्सन्देह रिक्त था , पर सम्राट ने उसे परिपूर्ण कर लिया है। अनेक श्रेष्ठियों ने उसे भर दिया है। उनके शस्त्र और सैन्य भी हमसे अधिक तथा उत्तम हैं , अथच हमारी तैयारियों का उसे यथेष्ट ज्ञान है। इसमें जो उसके गुप्तचर श्रमण ब्राह्मणों के रूप में बिखरे हुए हैं , उसकी बहुत सहायता कर रहे हैं । अंग को विजय कर लेने पर वहां के कूट – दन्त जैसे बड़े- बड़े महाशाल ब्राह्मणों को उसने सम्मान और जागीर देकर अपने पक्ष में कर लिया है और भद्दिय के मेंढक सेट्ठी की भांति चम्पा के सम्पूर्ण वणिक भी श्रेणिक बिम्बसार का यशोगान करते हैं ; उन्होंने उसे सत्रह कोटि – भार सुवर्ण दिया है। आर्य भद्रिक ने वहां जो व्यवस्था की है, उससे सभी चम्पावासी प्रसन्न हैं । उधर उसने अपने को श्रमण गौतम का अनुयायी प्रसिद्ध कर दिया है। गत बार जब श्रमण गौतम राजगृह गए , तो वह निरभिमान हो बारह लाख मगध-निवासी ब्राह्मणों और गृहस्थों तथा अस्सी सहस्र गांवों के मुखियों को लेकर गृध्रकूट पर पहुंचा। वहां से गौतम को अपने राजोद्यान वेणुवन में ले आया और वह उद्यान उसने गौतम को भेंट कर दिया ।

“ बिम्बसार इस प्रकार अपने को बड़ा धार्मिक, श्रद्धालु और निरभिमान प्रकट करके प्रशंसा का पात्र हो रहा है। इन सब कारणों से हम कह सकते हैं , कि आज मगध सम्राट् युद्ध करने के लिए सर्वापेक्षा अधिक सक्षम है । ”

जयराज इतना कहकर चुप हुए । फिर उन्होंने कहा – “ उनकी कुछ सन्धियां भी हैं . जिनसे हम लाभ उठा सकते हैं । इनमें सबसे अधिक यह कि हममें से प्रत्येक लड़ेगा अपने संघ की स्वतंत्रता के लिए, परन्तु मागधी सेना के सब सैनिक आर्य रज्जुलों के सैनिक की भांति नौकरी के लिए लड़ते हैं ।

“ यह सत्य है कि सम्राट ने चम्पा से प्राप्त राज – कोष एवं चम्पा के सेट्ठियों से प्राप्त सत्रह कोटि – भार सुवर्ण प्राप्त करके अपना कोष परिपूर्ण कर लिया है। उसे अंग की लूट – मार का माल भी बहुत मिला है। उसकी सेना भी हमसे अधिक है, परन्तु उसकी बहुत – सी सेना उसके बिखरे हुए तथा अरक्षित साम्राज्य की सीमाओं पर फैली हुई है । अभी अंग की आग भी दबी नहीं है । वहां भी उसकी बहुत – सी सेना फंसी हुई है । उधर अवन्ती और मथुरा का भय सर्वथा निर्मूल नहीं हुआ है और सबसे अधिक यह कि मगध का प्राण वर्षकार हमारे हाथों में है। उसकी प्रत्येक चाल और गतिविधि से परिचित होना चाहिए। हमारी सेना के लिच्छवि सैनिक भी यह समझते हैं कि गण- शासन उनका अपना सुख – स्वातन्त्र्य से भरपूर शासन है; यहां उनसे न तो मनमाना कर लिया जाता है, न उनकी सुन्दरी कन्याएं बलपूर्वक हरण करके महल में डाल दी जाती हैं । न उनके अच्छे रथ और उनके घोड़े छीने जाते हैं । वज्जी ब्राह्मण – जेट्ठों और गृहपति -निगमों से हमें स्वेच्छा से सहयोग मिलने की आशा है। ”

सब विवरण सुनकर सेनापति सिंह ने कहा – “ मित्र जयराज ने जो कुछ वक्तव्य दिया , वह आपने सुना। अब मैं आपको अपनी सेना की स्थिति बताता हूं । हमने मागधों के नदी-तीर के प्रत्येक दुर्ग के सम्मुख दो – दो दुर्ग तैयार किए हैं । मिही- तट पर तो हमने दुर्गों का तांता ही बांध दिया है । मिही के उस पार की भूमि मल्लों की है, वे हमारे मित्र हैं , अत : वहां हम मिही के उस पार उतर सकते हैं ; आप देख चुके हैं कि मिही की धारा बहुत तीव्र है । इसलिए नीचे से ऊपर आने में नौकाओं को बहुत मन्द चाल से जाना पड़ता है । अत : शत्रु हमारे इन दुर्गों पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सकता । इसलिए हम यहां अपनी रक्षित सैन्य और शस्त्रास्त्र संचित कर सकते हैं ।…

“ दूसरी बात यह है कि इधर तो मल्लों की इस तट – भूमि को मागध अपने उपयोग में नहीं ला सकते और बहाव की ओर मिही के मार्ग से हमारी सैनिक नौकाएं तीर की भांति शत्रु पर टूट पड़ सकती हैं । इस समय हमारे पास दो सहस्र से अधिक सैनिक नौकाएं हैं , जिन पर पचास सहस्र भट डटकर युद्ध कर सकते हैं । आगामी दो मासों में हम और भी दो सौ रणतरी बना लेंगे। उधर मगध को वज्जी पर आक्रमण करने के लिए बड़ी – बड़ी नदियों को पार करना पड़ेगा । उनकी गतिविधि को रोकने के लिए हमें नौकाओं की अत्यन्त आवश्यकता होगी । वास्तव में सत्य यही है कि इस युद्ध में हम नौकाओं द्वारा ही विजयी हो सकते हैं । इस सम्बन्ध में हमें एक यह सुविधा है कि मगधों की अपेक्षा हमारे पास मल्लाहों के कुल अधिक हैं । बेगार और असुविधाओं के कारण तथा वज्जीतन्त्र में स्वतंत्रता , भूमि तथा अन्य सुविधा पाने से मगध के बहुत मल्लाह – कुल वज्जी में आ बसे हैं ; यह आप जानते हैं कि हमारे मल्लाह दास नहीं हैं , वे सुखी , सम्पन्न और हमारे गण के सहायक हैं । उनके जेटकों ने स्वेच्छा से ही अपनी सेवाएं हमें समर्पित की हैं । हमारे गान्धार मित्र काप्यक की सम्मति से हमने एक विशेष प्रकार की हल्की रणतरी बनाई है , जिनका कौशल गुप्त रखा गया है । ये हमें नौ -युद्ध में अति महत्त्वपूर्ण सहायता देंगी। हाथियों, रथों व अश्वों को पार कराने के लिए विशाल नौकाएं तथा उत्तम घाट बना लिए हैं ।…

“ अब यदि हम दक्षिण और पूर्वी सीमा पर दृष्टि देते हैं , तो हमारी पदाति सेना लगभग मगध सेना के समान ही संगठित एवं संख्या में बराबर है तथा उनकी शिक्षा आधुनिक गान्धार – पद्धति पर की गई है । अश्व , रथ , गज , हमारे पास मागधों से कम अवश्य हैं , परन्तु अवन्ती और मथुरा में बहुत – सी मागधी अश्वारोही तथा गजसेना वहां फंसी है । समय पर उसकी सहायता सम्भव नहीं है, फिर हमारे पास नौ मल्लगण और अठारह कासी – कोल के गणराज्यों का अक्षुण बल है। सब मिलाकर हम पौने दो अक्षौहिणी सेना समर में भेजने की आशा करते हैं । ”

अब नौबलाध्यक्ष स्यमन्तक ने कहा – “ मित्र ! सिंह ने जो अपना बल – परिचय दिया है, उसके सम्बन्ध में मैं केवल यही कहना चाहता हूं कि मेरी दृष्टि में हम मागधों से अधिक सुगठित हैं । हमें यह जान लेना चाहिए कि दक्षिण का युद्ध ही निर्णायक युद्ध होगा और मैं अपने मित्र काप्यक और उसके गान्धार वीरों की सहायता से , जिनकी हम प्रतीक्षा कर रहे हैं , बहुत आशान्वित हूं। मैं कह सकता हूं कि हमें मिही तटवर्ती दुर्ग और रणतरियां ही सफलता प्रदान करेंगी । मागध सब बातों का प्रत्युत्तर रखता है पर हमारी उन दो सहस्र रणतरियों का उसके पास कोई प्रत्युत्तर नहीं है। ”

काप्यक ने कहा – “ भन्ते , सेनापति और मित्रगण यह जानकर प्रसन्न होंगे कि मुझे समाचार मिला है कि गान्धार से जो वैद्यों और भटों का दल चला है, वह दो ही चार दिन में यहां पहुंचनेवाला है । यहां मैं नौका- युद्ध का एक रहस्य निवेदन करता हूं जिसे मैंने भलीभांति निरीक्षण किया है । मिही नदी दिधिवारा के पास गंगा में मिलती है , किन्तु सेना उससे बहुत नीचे पाटलिग्राम के सामने है । इससे मागधों को तो हम भरपूर हानि पहुंचा सकते हैं पर वे हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते । ”

इस पर सेनापति सिंह ने कहा – “ तो भन्ते सेनापति , मैं प्रस्ताव करता हूं कि हम अब तैयार हैं और हमें मागधों के आक्रमण की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए, तथा अवसर पाते ही प्रथम आक्रमण कर देना चाहिए। पहले आक्रमण के लिए तट की सेनाओं, नौकाओं और हाथियों को पहले तथा रथों , अश्वों और पदातिकों को बाद में प्रयुक्त करना चाहिए और मिही की रक्षित सेना को उस समय , जब शत्रु थक जाए ।

इस पर महाबलाध्यक्ष सुमन ने कहा – “ तो आयुष्मान्, ऐसा ही हो । तू सैन्य को तैयार रख और अवसर पाते ही आक्रमण कर ; मैं अमात्य वर्षकार और उनके सहायकों को बन्दी करने की आज्ञा प्रचारित करता हूं । ”

137. युद्ध विभीषिका : वैशाली की नगरवधू

वैशाली में आतंक छा गया । मगध – महामात्य ब्राह्मण वर्षकार और ब्राह्मण सोमिल , अनुचर, कलत्र और बटुकवर्ग- सहित बन्दी कर लिए गए। नन्दन साहु, सेट्ठि कृतपुण्य भी बन्दी हो गए ! उनका घर – द्वार सभी राजसैनिकों ने अपने अधीन कर लिया । सेट्टिपुत्र पुण्डरीक को आचार्य गौड़पाद के दायित्व पर उन्हीं के घर में दृष्टिबन्धक कर लिया गया । नगर के घाट- द्वार, राजमार्ग सभी बन्द कर दिए गए । बाहर जाने – आने के लिए सैनिक आज्ञापत्र लेना अनिवार्य हो गया । अन्तरायण के सब खाद्य – भण्डारों पर सैनिक अधिकार हो गया । विदेशियों की बारीकी से छानबीन होने लगी । बहुत जन संदिग्ध पाए जाकर बन्दी बना लिए गए । जलाशय , कूप , राजमार्ग, वीथी , दुर्ग , द्वार , तोरण स्तम्भ , बुर्ज – सभी पर सैनिकों का अनवरत पहरा बैठा दिया गया । सब स्वस्थ , वयस्क पुरुष अनिवार्य रूप में सैनिक बना दिए गए । संपूर्ण गृह और व्यवहार – उद्योग युद्धोद्योगों में परिणत हो गए । शस्त्रास्त्र और कवच एवं विविध युद्ध – साधनों का रात -दिन निर्माण होने लगा। लिच्छवि तरुणियां भी सेवा- सेना में भरती होकर शुश्रूषोपचार की शिक्षा पाने लगीं । सेना को शस्त्र बांट दिए गए । उनकी टुकड़ियां नगर के भीतर – बाहर चलती -फिरती दृष्टि पड़ने लगीं। सारे नगर में सैनिक अनुशासन की व्यवस्था कर दी गई । आज्ञा – उल्लंघन के लिए मृत्यु – दण्ड घोषित कर दिया गया । वैशाली के मनमौजी और स्वभाव ही से हंसोड़ लिच्छवियों के मुखों पर हास्य -विनोद के स्थान पर चिन्ता , व्यग्रता और उद्वेग दीख पड़ने लगे। तरुण भट अपने अपने शस्त्र चमकाते , अश्व कुदाते , बढ़- बढ़कर बातें बघारते इधर -उधर घूमते दीख पड़ने लगे ।

बहुत लोग बहुत भांति की बातें करते । कोई दस्यु बलभद्र की अद्भुत सर्वत्र गमन की शक्ति सत्ता को खूब बढ़ा – चढ़ाकर कहता , कोई मगध सम्राट की कामुकता , वीरता तथा साम्राज्यलिप्सा की आलोचना करता । बहत जन इस युद्ध का सम्बन्ध अम्बपाली से जोड़ते ।

अम्बपाली के आवास की आभा भी फीकी पड़ गई। सैनिक नियमों के आधार पर उसके आवास में सार्वजनिक प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया । अम्बपाली के आवास को विशेष रीति पर सैनिक निरीक्षण और संरक्षण में रख दिया गया । राजकोष , महत्त्वपूर्ण लेख और बहुमूल्य सामग्री भूमिगर्भ -स्थित भूगृहों में रख दी गई ।

वैशाली के सब आबाल- वृद्ध विचलित , व्यग्र और आशंकित हो उठे । युद्ध की विभीषिका ने उन्हें विमूढ़ कर दिया ।

138. मागध स्कन्धावार -निवेश : वैशाली की नगरवधू

वास्तुशिल्पियों ने वार्धकिजनों के सहयोग से मौहूर्तिकों से अनुशासित हो , आर्य भद्रिक के आदेश और विकल्प से पाटलिग्राम के पूर्वी स्कन्ध पर, गंगा और मिही-संगम के ठीक सम्मुख तट से तनिक हटकर , लम्बे परिमाण में गोलाकार मागध स्कन्धावार-निवेश स्थापित किया । उसमें चार द्वार, छ : मार्ग, नौ संस्थान बनाए गए। स्कन्धावार चिरस्थाई था , इस विचार से खाई, परकोटा और कुछ अटारियां भी बनाई गईं तथा एक मुख्य द्वार का निर्माण भी किया गया ।

स्कन्धावार के मध्य भाग में उत्तर की ओर नौवें भाग में सौ धनुष लम्बा तथा इससे आधा चौड़ा राजगृह बनाया गया । उसके पश्चिम की ओर उसके आधे भाग में अन्त: पुर निर्मित किया गया । अन्त : पुर की रक्षक सैन्य का स्थान उसके निकट ही रखा गया । राजगृह के सम्मुख राज उपस्थान गृह था । जहां बैठकर सम्राट् सेनापति और अभिलषित जनों से मिलते थे । राजगृह से दाहिनी ओर कोष- शासनकरण, अक्ष- पटल , कार्यकरण निर्मित हुआ । बाईं ओर सम्राट् के गज , रथ , अश्व के लिए स्थान बनाया गया । राजगृह के चारों ओर कुछ अन्तर पर चार बाड़ें लगाई गईं। पहली बाड़ शकटों की , दुसरी कांटेदार वृक्षों की शाखा की , तीसरी दृढ़ लकड़ी के स्तम्भों की , चौथी पक्की ईंटों की चुनी हुई थी । प्रत्येक बाड़ में परस्पर सौ – सौ धनुष का अन्तर था । पहली बाड़ के भीतर सामने की ओर मन्त्रियों और पुरोहित के स्थान थे। दाहिनी ओर कोष्ठागार, महानस और बाईं ओर कूप्यागार और आयुधागार था । दूसरी बाड़ के भीतर मौलभूत आदि सेनाओं के उपनिवेश थे तथा गज , रथ और सेनापति के स्थान थे। तीसरे घेरे में हाथी , श्रेणीबल तथा प्रशास्ता का आवास था । चौथे घेरे में विष्टि , नायक तथा स्वपुरुषाधिष्ठित मित्रामित्र सेना एवं आटविक सेना थी । यहीं व्यापारियों , वणिकों, वेश्याओं के आवास तथा बड़ा बाजार थे। बहेलिये शिकारी , बाजे तथा अग्नि के संकेत से शत्रु के आगमन की सूचना देने वाले ग्वाले आदि के वेश में छिपे हुए रक्षक पुरुष बाहर की ओर रखे गए थे।

जिस मार्ग के द्वारा स्कन्धावार पर शत्रु द्वारा आक्रमण की सम्भावना थी उस मार्ग में गहरे कुएं , खाई आदि खोदकर घास-फूंस से ढांप दिए थे। कहीं – कहीं कांटे, लोहे की कीलें ठुके हुए तख्ते बिछा दिए गए थे।

स्कन्धावार पर पहरे के लिए अठारह वर्गों का आयोजन था । कुल सेना मौलभृत छ:वर्गों में विभाजित थी । प्रत्येक के तीन – तीन अधिकारी थे – पदिक , सेनापति और नायक । प्रत्येक सेना के अपने- अपने अधिकारी की अधीनता में तीन -तीन वर्ग होकर छ: प्रकार की सेनाओं के इस प्रकार अठारह वर्ग थे। यही सब बारी -बारी से प्रतिक्षण स्कन्धावार की रक्षा सावधान रहकर करते रहते थे। शत्रु गुप्तचरों की तथा शत्रु की गतिविधि का निरीक्षण करने को गूढ़ पुरुषों की नियुक्ति थी । सैनिकों को लड़ने – झगड़ने , पान -गोष्ठी करने , जुआ आदि खेलने का नितान्त निषेध था । स्कन्धावार के बाहर -भीतर आने- जाने के लिए राजमुद्रा का कड़ा प्रबन्ध था , बिना आज्ञा युद्धभूमि तथा स्कन्धावार से भागने वाले सैनिक को शून्यपाल तुरन्त बन्दी कर ले – ऐसी कठोर राजाज्ञा प्रचारित कर दी गई थी ।

कण्टक -शोधनाध्यक्ष बहुत – से शिल्पी , कर्मकर और उनके प्रधानों के साथ मार्ग की रक्षा , जल -प्रबन्ध , मार्ग-स्थापन, जंगल साफ करने और हिंसक प्राणियों को स्कन्धावार से दूर भगाने में सतत संलग्न था ।

139 . प्रयाण : वैशाली की नगरवधू

स्थान , आसन और गमन का ठीक-ठीक विकल्प कर ग्राम – अरण्य आदि अध्वनिवेश में ईंधन, धान्य , जल , घास आदि की समुचित व्यवस्था -प्रबन्ध कर भोजन , वस्त्र , शस्त्रास्त्र को यत्नपूर्वक सुरक्षा में संग ले , मौहूर्तिकों से नक्षत्र दिखा , मागध सैन्य – सहित सम्राट ने प्रयाण किया ।

सेना के अग्रभाग में दस सेनापतियों का नायक , बीच में अन्त : पुर और सम्राट् इधर उधर शत्रु के आघात को रोकने वाली अश्वारोहिणी सैन्य चली । सेना के पिछले भाग में हाथी चले । अन्न , घास, भूसा आदि सामग्री सब ओर से ले जाया जाने लगा। जंगल में उत्पन्न होनेवाला आजीविका – योग्य अन्न, घास आदि सामग्री संग्रह होती चली । अन्न , वस्त्र आदि व्यवहार्य साधन लगातार छकड़ों , हाथियों पर लद – लदकर सेना के साथ चले । आसार अपसार को सुरक्षित कर सबसे पिछले भाग में सेनापति पर्याय से अपनी – अपनी सेना के पीछे नियत हो चले ।

सेना का अग्रभाग मकर -व्यूह रचकर , पश्चात् भाग शकट -व्यूहबद्ध होकर आगे बढ़ा । पाश्र्वभाग की सैन्य वज्र – व्यूह से , तथा चारों ओर का बहि : सैन्य सर्वतोभद्र -व्यूह में बद्ध हो आगे बढ़ा। कहीं- कहीं तंग घाटियों में , दरारों में , सूची – व्यूह भी बनाना पड़ा । इस प्रकार सर्वतोभावेन रक्षा -व्यवस्था क्रम स्थापित कर मागध सैन्य ने प्रयाण किया । पहले कुछ दिन प्रतिदिन एक योजन , फिर दो योजन मार्ग सैन्य ने काटा।

धन- धान्य से समृद्ध शत्रु के नगरों को नष्ट करते हुए, पृष्ठस्थित केन्द्रों तथा शत्रु और अपने देशों के मध्यवर्ती सामन्तों एवं उदासीन राजाओं को साम , दाम , दण्ड , भेद नीति से वशवती करते हुए, संकट -विषम राह को साफ करते हुए, कोश, दण्ड , मित्र शत्रु आटविक सैन्य, विष्टि और मुख्य सैन्य सबकी सुख – सुविधा और अनुकूल ऋतु का विचारकर सम्राट कभी धीरे – धीरे , कभी द्रुत गति से वैशाली की ओर अग्रसर हुए ।

कभी हाथियों द्वारा छिछली नदियों को पार किया । कभी नदी में स्तम्भ – संक्रम करके , कभी सेतुबन्धन , कभी नाव , लकड़ी तथा बांस के बेड़े बनाकर, कभी तूम्बी , चर्मकाण्ड, दूति , गण्डिका और वेणिका आदि साधनों से मागध सैन्य ने नदियों को पार किया ।

कठिन मार्गों, भारी दलदल , गहरे जल , गुफा, पर्वत , आदि को पार करती हई , पर्वतों पर चढ़ती – उतरती , तंग, पथरीले, विषम पहाड़ी मार्गों पर होती हुई भूख, प्यास और थकान से खिन्न हो बीच -बीच में सुस्ताती, ज्वर, संक्रामक महामारी तथा दुर्भिक्ष की बाधाओं को सहन करती; बीमार , पैदल, हाथी , अश्वों के साथ मागध सैन्य आगे बढ़ती चली गई । धीरे – धीरे सेना ने स्कन्धावार में प्रवेश कर वहां उपनिवेश किया । निरन्तर आने वाली मागध सैन्य का राजगृह और वैशाली के बीच राजमार्ग पर तांता लग गया ।

140. शुभ दृष्टि : वैशाली की नगरवधू

“ तो हमें कल ही उल्काचेल चल देना चाहिए। ”-सिंह ने कहा ।

“ निश्चय , क्योंकि हमें सम्पूर्ण गंगातट का सैनिक दृष्टि से निरीक्षण करना है, फिर मिही के सब दुर्गों को एक बार देख डालना है । हम ग्यारहों नायक चलेंगे, तभी ठीक होगा मित्र सिंह! ”गान्धार काप्यक ने कहा ।

“ परन्तु मित्र काप्यक , मिही का ही तट हमारे अधीन है। दूसरे तट से हमारी नावों के प्रयोगों को शत्रु के गुप्तचर देख सकते हैं । ”

“ यह तो असम्भव नहीं है । ”

“ तब क्यों न मर्कट – ह्रद सरोवर में रणतरी के प्रयोग किए जाएं ? ”

“ यह अधिक अच्छा होगा , वहीं पर हम रणतरियों का परीक्षण, सैनिकों का शिक्षण और नाविकों का संगठन कर डालेंगे और वहीं से आवश्यकता होने पर मिही – तट पर उन्हें भेजना प्रारम्भ कर देंगे। परन्तु हमें अधिक- से – अधिक लौहशिल्पियों को एकत्र करना चाहिए । ”

“ जो हो , हमें सूर्योदय से प्रथम ही उल्काचेल चल देना चाहिए । ”

“ तो मित्र काप्यक , तुम साथ के लिए थोड़े- से चुने हुए गान्धार सेनानी ले लो । अच्छा है, राह- घाट वे देख लेंगे। यदि हम एक पहर रात्रि रहे चल दें , तो मार्ग के शिविरों को देखते -भालते हम दो दण्ड दिन चढ़े तक उल्काचेल पहुंच जाएंगे । वहां के घाट -रक्षक अभीति को मैंने सन्देश भेज दिया है । वह हमारा स्वागत करने को तैयार रहेगा । ”

काप्यक ने कहा – “ फिर ऐसा ही हो ! ”

नदी – तट पर धीरे – धीरे घूमते हुए सिंह और काप्यक गान्धार में ये बातें हुईं और दूसरे दिन वे मध्याह्न तक उल्काचेल जा पहुंचे। चुने हुए पचास गान्धार अश्वारोही उनके साथ थे।

उपनायक अभीति ने आगे बढ़कर सिंह और उपनायक काप्यक का सैनिक अभिवादन किया तथा गान्धार सैनिकों का हार्दिक स्वागत करते हुए कहा – “ मैं उल्काचेल में आपका और आपके मित्रों का स्वागत करता हूं । मेरे उपनायक अशोक आपको यहां सेना व्यवस्था का सम्पूर्ण विवरण बताएंगे । परन्तु मैं चाहता हूं कि मुख्य स्थान मैं आपको दिखा दूं । मैंने अपने और शत्रु के दुर्ग का जो मानचित्र तैयार किया है, वह यह है; इससे आप सब बातें जान लेंगे। इसमें यह भी लिख दिया है कि कहां हमारी कितनी सेना है। ”

“ यह बड़े काम की वस्तु होगी नायक! ”–सिंह ने कहा।

अभीति नायक बोले – “ आपकी आज्ञानुसार दक्षिण सेना के बहुत से नायक, उपनायक , सेनानी भी उल्काचेल आ पहुंचे हैं । आप पहले भोजन करके थोड़ा विश्राम कर लीजिए, फिर उनसे बातचीत करना ठीक होगा । ”

“ ऐसा ही हो , नायक ! सिंह ने मानचित्र पर ध्यान करते हुए कहा ।

फिर सब लोगों ने स्नान – भोजन कर थोड़ा विश्राम किया । पहर दिन रह गया था , जब सिंह ने दक्षिण सैन्य के सेनानियों में से , एक – एक को बुलाकर आदेश देने प्रारम्भ किए । सिंह ने उनके सैन्यबल के सम्बन्ध में सारी बातें पूछी और एक ताल – पत्र पर लिखते गए । सूर्यास्त तक यह काम समाप्त हुआ ।

स्वच्छ चांदनी रात थी । नायक अभीति ने कहा – “ इस समय गंगा – तट के कितने ही नव – निर्मित दुर्गों का परीक्षण किया जा सकता है । यदि विश्राम की इच्छा न हो तो मैं नाव मंगाऊं । ”

सिंह ने कहा- “ विश्राम की कोई बात नहीं है। नायक , तुम शीघ्र नाव तैयार कराओ। ”

नायक अभीति, सिंह और काप्यक तीनों आदमी नाव में जा बैठे । तीर -तीर नाव चलने लगी। सामने गंगा के उस पार पाटलिग्राम में मागध शिविर पड़ा था । उसमें जलती हुई आग का प्रकाश मीलों तक फैला दीख रहा था । नाव धीरे – धीरे गंगा -मिही -संगम पर दिधिवारा की ओर जा रही थी । नाविक सब सावधान और अपने कार्य में दक्ष थे। गंगा में व्यापारिक बड़ी – छोटी नावें और माल से भरी नावें तैर रही थीं । किसी-किसी नाव में दीपक का क्षीणप्रकाश भी प्रकट हो रहा था । गंगा-किनारे के सब दुर्गों में पूर्ण निस्तब्धता थी । न प्रकाश था , न शब्द । अभीति की इस सम्बन्ध में कड़ी आज्ञा थी । दिधिवारा तक कुल पांच दुर्ग वज्जियों के थे। सेनानायकों ने सभी का निरीक्षण किया । नाव को घाट तक लगते देखते ही प्रहरी पुकारकर संकेत करता । नाव पर से नायक संकेत करता, प्रहरी तत्काल दुर्गाध्यक्ष को सूचना देता और ये नाविक चुपचाप नाव से उतरकर दुर्ग का निरीक्षण कर आते तथा अध्यक्ष को आवश्यक आदेश दे आते। घाट से दुर्ग तक के मार्ग गुप्त और घूम – घुमौअल बनाए गए थे। अपरिचित व्यक्ति का वहां पहुंचना शक्य न था । सैनिक नावें इस प्रकार छिपाकर रखी थीं कि उस पार से तथा इस पार से भी उन्हें देख पाना शक्य न था । विशाल मर्कट – ह्रद को एक छोटी – सी टेढ़ी नहर द्वारा नदी से मिला दिया गया था । आवश्यकता पड़ने पर सब नावें सैनिकों सहित क्षण भर में गंगा की बड़ी धारा में पहुंच सकती थीं । यद्यपि यह निरीक्षण बिना सूचना के हो रहा था , परन्तु प्रत्येक प्रहरी सावधान एवं सजग था ।

पहर रात गए सेनानियों की नौका दिधिवारा के दुर्ग में जा पहुंची। यह औरों से बड़ा था । यहां की व्यवस्था भी उत्तम थी । दोनों नवीन नायक सैनिकों से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित कर रहे थे।

पौ फट रही थी , जब ये सेनानी उल्काचेल पहंचे। पीछे लौटकर सिंह ने कहा नायक अभीति , मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूं मित्र, तुमने यथेष्ट व्यवस्था की है । ”

नायक ने हंसकर सेनापति का अभिवादन किया । इसके बाद सबने विश्राम किया । दिन भर जयराज के चर शत्रु – सेना का संवाद लाते रहे। उससे विदित हो गया कि बिम्बसार अभी सेनापति भद्रिक की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसलिए मगध -सम्राट् अभी युद्ध प्रारम्भ करने का निर्णय नहीं कर पाए हैं ।

रात को फिर तीनों सेनानी गंगा के नीचेमिही और गंगा के संगम पर स्थित दुर्गों को देखने चले । यह एक रात में समाप्त नहीं हो सकता था । वे दिन – भर किसी दुर्ग में विश्राम करते और रात में देखी बातों के संस्मरण लिखते । संध्या होने पर फिर आगे चलते । वे तीसरे दिन बागमती संगमतट पर के दुर्ग में पहुंचे। भटों की तत्परता और सतर्कता पर सेनानियों ने सन्तोष किया । उन्हें आवश्यक आदेश दिए और तक्षशिला की नई रणचातुरी सिखाने के लिए उन्हें उल्काचेल आने को कहा।

अभी महानदी के दुर्गों को देखना शेष था । एक दिन उल्काचेल में तरुण सेनानियों ने विश्राम किया तथा आवश्यक आदेश वैशाली और भिन्न -भिन्न केन्द्रों को भेजे ।

दूसरे दिन चन्द्रोदय के साथ ही काप्यक और सिंह ने मिही की ओर नाव छोड़ी । दिधिवारा के संगम से ऊपर धार तीव्र थी , इसलिए घूमकर नौका ले जानी पड़ी । मिही के पूर्वी तट पर हरी घास का मैदान था , जहां सहस्रों गायें चर रही थीं । बीच में आदमियों और पशुओं के लिए छोटी- छोटी कुटियां बनी थीं । वे लिच्छवी और अलिच्छवी दोनों थे ।

चार दिन में मिही के दुर्गों का निरीक्षण हुआ । उन्हें नायक शान्तनु और उसके आठ उपनायकों को सौंप दिया गया , जिससे वे नाविकों को नवीन कौशल सिखा सकें । यह करके दोनों मित्र फिर उल्काचेल चले आए। यहां से काप्यक तो कुछ नौ – सधार के लिए वैशाली चले गए और सिंह ने सेनानियों को नौ युद्ध के कुछ नवीन और गुप्त रहस्य सिखाए। आठ दिन में यह कार्य सम्पन्न हुआ ।

अब सिंह ने अपने सम्पूर्ण कार्य का विवरण महाबलाध्यक्ष सुमन के पास वैशाली लिख भेजा। बलाध्यक्ष पश्चिमी और पूर्वी सीमान्त पर नौ -युद्ध की नवीन पद्धति की परीक्षा की बात जानकर अति सन्तुष्ट हुए ।

अब सिंह ने अपना ध्यान दूसरी ओर किया । जयराज को उन्होंने लिखा कि चरों की संख्या बढ़ा दी जाए और सोन – तट और गंगा – तट पर शत्रु जो नई कार्रवाई कर रहा है , इसकी क्षण- क्षण की सूचना हमें मिलती जाए। सिंह ने यत्नपूर्वक यह भी जान लिया कि राजगृह और उसके मार्ग की रक्षा का क्या प्रबन्ध किया गया है। जयराज ने अनेक चर परिव्राजक, निगंठ , आजीवक , भिक्षु आदि वेशों में ; कुछ व्यापारी और ज्योतिषी बनाकर शत्रु की ओर भेज दिये । उन्होंने बताया कि चण्डभद्रिक बड़ी द्रुत गति से राजधानी के दुर्गों की मरम्मत करा रहे हैं ; तथा गंगा – तट से वहां तक उन्होंने उचित स्थानों पर नाकेबन्दियां कर रखी हैं । नालन्द, अम्बालिष्टिका की दो योजन भूमि में उसकी तैयारियां और भी अधिक थीं । अभिप्राय स्पष्ट था कि चतुर चाणाक्ष चण्डभद्रिक को भय था कि लिच्छवि कहीं राजगृह तक न दौड़ जाएं । सिंह सेनापति उल्काचेल लौट आए ।

चर सिंह के पास क्षण -क्षण में सूचना ला रहे थे और मगधराज की सम्पूर्ण गतिविधि का पता उन्हें लग रहा था । वे सूचनाओं के साथ – साथ अपनी योजनाएं भी सेनापति और गणपति के पास भेज रहे थे।

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