आग और धुआं (उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री Part 1
एक : आग और धुआं
इंगलैंड में आक्सफोर्डशायर के अन्तर्गत चर्चिल नामक स्थान में सन् १७३२ ईस्वी की ६ दिसम्बर को एक ग्रामीण गिर्जाघर वाले पादरी के घर में एक ऐसे बालक ने जन्म लिया जिसने आगे चलकर भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इस बालक का नाम वारेन हेस्टिंग्स पड़ा। बालक के पिता पिनासटन यद्यपि पादरी थे, परन्तु उन्होंने हैस्टर वाटिन नामक एक कोमलांगी कन्या से प्रेम-प्रसंग में विवाह कर लिया। उससे उन्हें दो पुत्र प्राप्त हुए। दूसरे प्रसव के बाद बीमार होने पर उसकी मृत्यु हो गई। पिनासटन दोनों पुत्रों को अपने पिता की देख-रेख में छोड़कर वहां से चले गए और कुछ दिन बाद दूसरा विवाह कर वेस्ट-इन्डीज में पादरी बनकर जीवनयापन करने लगे। उन दिनों लन्दन नगर का सामाजिक जीवन पादरियों के प्रभाव से बहुत सुखी नहीं था। पादरी वहाँ सर्वोपरि बने हुए थे। उन दिनों लन्दन नगर की छः लाख जनसंख्या में पचास हजार वेश्याएँ तथा इतनी ही खानगी व्यभिचारिणी स्त्रियाँ थीं। प्रत्येक मुहल्ले के आसपास धनपतियों ने अपने-अपने जुआखाने खोल रखे थे जहाँ रात को जुआ खेला जाता, मद्य पी जाती और व्यभिचार के खुले खेल खेले जाते थे। जुआघरों के बाहर तख्ती लटकी रहती थी, जिस पर लिखा होता था—साधारण मद्य का मूल्य एक पेंस, बेहोश करने वाली मद्य का मूल्य दो पेंस, साफ-सुथरी चटाई मुफ्त।
बालक वारेन अपने दादा के यहाँ पलकर एक छोटे स्कूल में पढ़ने लगा। बालक चंचल और कुशाग्रबुद्धि था, अपना पाठ झट याद कर लेता था। दादा पहले धनीसम्पन्न और प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, परन्तु कालचक्र ने उन्हें झकझोरकर साधारण स्थिति में डाल दिया। अब वृद्धावस्था में वे बालक वारेन को गोद में बिठाकर कभी-कभी अपनी पूर्व गौरवगाथा को सुनाया करते थे। वारेन उन सब बातों को बड़े ध्यान से सुनता। उन बातों को सुनने से उसमें साहस और महत्त्वाकांक्षाओं का उदय हुआ। आत्मोन्नति और संकल्प का अमोघ मंत्र दादा ने उसे दिया।
गाँव के छोटे स्कूल की शिक्षा समाप्त करके उसके चाचा हावर्ड ने वारेन को न्यू इंगटन बटस के बड़े स्कूल में भरती करा दिया। इस स्कूल में पढ़ाई का काम साधारण नहीं था, परन्तु चाचा ने बालक वारेन की प्रतिभा को देखकर उसकी पढ़ाई का भार अपने कंधों पर उठा लिया। वारेन परिश्रम से पढ़ने लगा। दो वर्ष वहाँ पढ़ने के बाद वह वेस्ट मिनिस्टर में पढ़ने गया। वेस्ट मिनिस्टर में बड़े-बड़े परिवारों के लड़के पढ़ते थे, अतः विलियम कूपर, लार्ड शैल बर्न, चार्ल्स चर्चिल और इलिजा इम्पे उसके सहपाठी बने। वेस्ट मिनिस्टर विद्यालय के प्रिंसिपल डाक्टर निकोलस वारेन की प्रखर बुद्धि और मित्रों से उसका सद्व्यवहार देखकर बहुत खुश रहते थे और उस पर विशेष कृपा करते थे। वारेन ने अपने विद्यार्थी जीवन के क्षणों को कभी व्यर्थ नहीं खोया। पढ़ना, मित्रों में वाद-विवाद करना तथा तैरना, बोटिंग दौड़ आदि उसका नियम था। ‘किंग्स स्कालरशिप’ की परीक्षा में वह सर्वप्रथम उत्तीर्ण हुआ और छात्रवृत्ति प्राप्त की। दो वर्ष तक यह छात्रवृत्ति मिलती रही। इसी समय वारेन के चाचा की मृत्यु हो गई। अपने चाचा की छत्रच्छाया हटने से उसे बहुत दुःख हुआ। उसकी शिक्षा का व्यय-भार उठाने वाला अब कौन था।
इसी समय वारेन का परिचय चिसविक नामक एक सुहृदय व्यक्ति से हुआ जो ईस्ट इंडिया कम्पनी के मैनेजिंग बोर्ड में डाइरेक्टर थे। इस समय वारेन की आयु १६-१७ वर्ष की थी। उन्होंने उसकी प्रतिभा से प्रसन्न होकर उसकी शिक्षा समाप्त कर उसे ईस्ट इंडिया कम्पनी में क्लर्की देना तय किया। वेस्ट मिनिस्टर विद्यालय से हटाकर एक अन्य विद्यालय में बहीखाता, हुण्डी, पुर्जा, बीजक आदि लिखने की शिक्षा लेने के लिए भरती कर दिया। एक वर्ष बाद उसे कम्पनी का क्लर्क बनाकर भारत में कलकत्ता भेज दिया। अक्तूबर १७५० में वारेन ने भारत-भूमि पर पैर रखा।
कलकत्ते का विलियम फोर्ट ईस्ट इंडिया कम्पनी के व्यापार की कोठी थी। फोर्ट विलियम के अन्दर सुन्दर उद्यान, तालाब, अस्पताल, गिर्जाघर और परामर्श भवन भी थे। प्रति रविवार को कम्पनी के कर्मचारी गिर्जाघर में आकर प्रार्थना करते और पादरी का उपदेश सुनते थे। वहाँ दो सौ व्यक्ति रहते थे। इसके जिन दो कमरों में बैठकर कम्पनी के गुमाश्ते काम करते थे, वह कच्ची ईंटों से बने थे।
अंग्रेज और फ्रेंच दोनों जातियाँ भारत में व्यापार बढ़ाने और बसने के लिए प्रयत्नशील थीं। फ्रेंच गवर्नर ड्यूपले अपने देश की हित-साधना के लिए सामरिक मार्ग भी अपनाते थे। वारेन से प्रथम क्लाइव ने भारत पहुँचकर कम्पनी के हित में सामरिक मार्ग को तीव्रता से कार्यान्वित किया, जिसके कारण फ्रेंच और अंग्रेज दोनों विदेशी जातियाँ अपने व्यापार और स्वामित्व के लिए युद्धप्रिय होती गईं। वारेन के आगमन के समय भारत के दक्षिण प्रान्त करनाटक में उत्तराधिकार का झगड़ा चल रहा था। क्लाइव ने निपुण योद्धा बनकर फ्रांसीसियों की आशा नष्ट कर दी थी। परन्तु दक्षिण के इन झगड़ों का प्रभाव बंगाल तक नहीं पहुँचा था। बंगाल में बसने वाले अंग्रेज और फ्रांसीसी व्यापारी परस्पर में मित्रभाव से व्यवहार करते थे। इन व्यापारियों का मुख्य विषय कम्पनी की कोठियों के बहीखाते तथा माल के बीजक थे। कलकत्ते की कोठियों का लेन-देन मध्याह्न तक होता था। मध्याह्न के बाद कम्पनी के कर्मचारी एकत्र होकर भोजन करते थे। भोजन करके कुछ लोग आराम करते, कुछ विचार-विनिमय करते। संध्या होने पर कोठियों से निकलकर बाहर घूमते थे। नौकाविहार, पालकी-पीनसों में बैठकर बाजारहाट घूमना, दो घोड़े अथवा चार घोड़ों की बग्घियाँ सजाकर उन पर अपनी प्रेयसी सहित नगर-भ्रमण करना उनका सांध्य-मनोरंजन होता था। इनमें कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते थे जो कम्पनी के कर्मचारी होने पर भी अपना पृथक् व्यापार करके मालामाल हो रहे थे। ऐसे धनी व्यापारी सांध्य-भ्रमण से लौटकर नाचरंग और बढ़िया रात्रि-भोजों का भी आयोजन करते रहते थे। कभी-कभी मद्यपान से उन्मत्त होकर उपद्रव भी कर बैठते थे।
वारेन हेस्टिंग्स इन सब आमोद-प्रमोद में रुचि नहीं लेता था। कोठी का कार्य समाप्त करके वह अपनी छोटी कोठरी में, जो फोर्ट विलियम में गंगा-तट की ओर बनी हुई थी, आकर भारतीय भाषाओं के सीखने में लग जाता था। अपने मित्रों के साथ काम कीही सब बातें करता था। दो वर्ष तक उसने फोर्ट विलियम कोठी में कार्य किया। अक्तूबर १७५३ में उसे कासिम बाजार की कोठी में जाकर काम करने की आज्ञा मिली। उस समय कासिम बाजार हुगली नदी के तट पर (गंगा और जलंगी दो नदियों के बीच स्थित) बंगाल का बहुत समृद्धशाली नगर था। दूर देशों से अनेक व्यापारी वहाँ एकत्र होते और व्यापार करते थे। अंग्रेज, फ्रांसीसी, डच, आमिनियन व्यापारियों की बड़ी-बड़ी कोठियाँ वहाँ बनी हुई थीं। रेशम के कारखाने, भारतीय जुलाहों की कपड़ों की दुकानें, बाजार में देश-देशान्तरों की वस्तुओं का क्रय-विक्रय, नदी-तट पर देशी-विदेशी वस्तुओं से भरे हुए जहाजों का आवागमन तथा सब देशों के व्यापारी अपनी-अपनी वेशभूषा में वहाँ आ वाणिज्य व्यवसाय करते थे। अतुल सम्पदा वहाँ भरी हुई थी।
कासिम बाजार में अंग्रेजों की कोठी में इंगलैंड से आया हुआ माल आता और बेचा जाता था। भारत में पैदा हुआ माल और बुना हुआ बढ़िया रेशमी कपड़ा इकट्ठा करके इंगलैंड भेजा जाता था। कोठियों की व्यवस्था एक कौंसिल करती थी। इसकी सुरक्षा के लिए छोटी-सी पल्टन भी रहती थी। हेस्टिग्स ने यहां आकर अपना कार्य-भार संभाल लिया। कासिम बाजार से दो मील दूर मुर्शिदाबाद था जो बंगाल, बिहार और उड़ीसा के नवाब की राजधानी थी। तत्कालीन नवाब सिराजुद्दौला यहाँ अपने महल में रहते थे। दीवानी-फौजदारी अदालतें भी यहीं थीं। हेस्टिग्स को कार्यवश मुर्शिदाबाद भी आना पड़ता था। यहाँ रेशमी माल बहुत मिलता था।
दो : आग और धुआं
१२वीं शताब्दी में शहाबुद्दीन ने पृथ्वीराज चौहान को बन्दी करके दिल्ली की गद्दी गुलाम कुतुबुद्दीन को दी। उसके १० वर्ष बाद उसने अपने सेनापति बख्तियार खिलजी को बंगाल-विजय के लिए भेजा। उस समय बंगाल में राजा लक्ष्मणसेन राज्य करता था। उसे हटाकर बख्तियार ने बंगाल पर अधिकार कर लिया।
इसके बाद शमसुद्दीन अल्तमश ने बंगाल के विद्रोह को दमन कर, उस पर अपना अधिकार जमाया। फिर जब अलाउद्दीन मसऊद दिल्ली के तख्त पर था, तब मंगोलों ने तिब्बत के रास्ते से बंगाल पर आक्रमण किया था, पर पराजित होकर भाग गये।
इसके बाद खिलजी वंश का वहाँ कुछ दिन अधिकार रहा। बुगराखाँ वहाँ का सूबेदार था।
मुगल-काल में कभी हिन्दू और कभी मुसलमान शाहजादे और अमीर बंगाल के सूबेदार हजहाँ के जमाने में शाहजादा शुजा और औरंग-जेब के जमाने में प्रथम मीर जुमला और बाद में शाइस्ताखाँ वहाँ के सूबेदार रहे।
इसके बाद नवाब अलीवर्दीखाँ बंगाल, बिहार तथा बंगाल और उड़ीसा के सूबेदार रहे। जब उन पर मराठों की मार पड़ी और कमजोर दिल्ली के बादशाह ने उनकी मदद न की, तो नवाब ने दिल्ली के बादशाह को सालाना मालगुजारी देना बन्द कर दिया। परन्तु वह बराबर अपने को बादशाह के आधीन ही समझता रहा।
अलीवर्दीखाँ एक सुयोग्य शासक था, और उसके राज्य में प्रजा बहुत प्रसन्न थी। बंगाल के किसानों की हालत उस समय के फ्रान्स अथवा जर्मनी के किसानों से कहीं अधिक अच्छी थी। बंगाल की राजधानी मुर्शिदाबाद शहर उतना ही लम्बा-चौड़ा, आबाद और धनवान था, जितना कि लन्दन शहर। अन्तर सिर्फ इतना था कि लन्दन के धनाढ्य से धनाढ्य मनुष्य के पास जितनी सम्पत्ति हो सकती थी, उससे बहुत ज्यादा मुर्शिदाबाद के निवासियों के पास थी।
अलीवर्दीखाँ के पास ३० करोड़ रुपया नकद था और उसकी सालाना आमदनी भी सवा दो करोड़ से कम नहीं थी। उसके प्रान्त समुद्र की ओर से खुले हुए थे। उसका राज्य सोने-चाँदी से लबालब भरा हुआ था। यह साम्राज्य सदा से निर्बल और अरक्षित रहा। बड़े आश्चर्य की बात है कि उस समय तक योरोप के किसी बादशाह ने, जिसके पास जल-सेना हो, बंगाल को फतह करने की कोशिश नहीं की। एक ही बार में अनन्त धन प्राप्त किया जा सकता था, जो कि ब्राजील और पेरू की सोने की खानों के मुकाबिले होता। मुगलों की राजनीति खराब थी। उनकी सेना और भी अधिक खराब थी। जल-सेना उनके पास नहीं थी। राज्य-भर में विद्रोह होते रहते थे। नदियाँ और बन्दरगाह दोनों विदेशियों के लिए खुले थे। यह देश इतनी ही आसानी से फतह हो सकता था, जितनी आसानी से स्पेनवालों ने अमेरिका के नंगे बाशिन्दों को अपने आधीन कर लिया था। तीन जहाजों में डेढ़ या दो हजार सैनिक इस शहर को फतह करने के लिए यथेष्ठ थे।
जब अंग्रेज बंगाल में आये और उन्होंने यहाँ के व्यापार से लाभ उठाना चाहा, तो वहाँ के हिन्दुओं से मिलकर उन्होंने मुस्लिमराज्य को पतित करने की चेष्टा की। एक पंजाबी धनी व्यापारी अमीचन्द को इसमें मिलाया गया, और उसके द्वारा चुपके-चुपके बड़े-बड़े हिन्दू-राजाओं को वश में किया गया। अमीचन्द को बड़े-बड़े सब्ज़ बाग दिखाये गये। अमीचन्द के धन और अंग्रेजों के वादों ने मिलकर, नवाब के दरबार को बेईमान बना डाला।
इसके बाद अंग्रेजों ने अपनी सैनिक-शक्ति बढ़ानी और किलेबन्दी शुरू कर दी। दीवानी के अधिकार वे प्रथम ही ले चुके थे। अलीवर्दीखाँ अंग्रेजों के इस संगठन को ध्यान से देख रहा था, पर वह कुछ कर न सका और उसका देहान्त हो गया।
भाग्यहीन युवक नवाब सिराजुद्दौला २४ वर्ष की आयु में अपने नाना की गद्दी पर सन् १७५६ में बैठा। उस समय मुगल-साम्राज्य की नींव हिल चुकी थी और अंग्रेजों के हौसले बढ़ रहे थे। उन्हें दिल्ली के बादशाह ने बंगाल में बिना चुंगी महसूल दिये व्यापार करने की आज्ञा दे दी थी। इस आज्ञा का खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग किया जाता था, और वे व्यापारिक आदेशपत्र किसी भी हिन्दुस्तानी व्यापारी को बेच दिये जाते थे; जिससे राज्य की बड़ी भारी हानि होती थी।
मरते वक्त अलीवर्दीखाँ ने सिराजुद्दौला को यह हिदायत दी थी-कि योरोपियन कौमों की ताकत पर नजर रखना। यदि खुद मेरी उम्र बढ़ा देता, तो मैं तुम्हें इस डर से बचा देता। अब मेरे बेटे! यह काम तुम्हें खुद करना होगा। तिलंगों के साथ उनकी लड़ाइयाँ और राजनीति पर नजर रखो-और सावधान रहो। अपने-अपने बादशाहों के घरेलू झगड़ों के बहाने इन लोगों ने मुगल बादशाह का मुल्क और उनकी प्रजा का धन छीनकर आपस में बाँट लिया है। इन तीनों कौमों को एक-साथ जेर करने का खयाल न करना; अंग्रेजों को ही पहले जेर करना। जब तुम ऐसा कर लोगे, तो बाकी कौमें तुम्हें ज्यादा तकलीफ न देंगी। उन्हें किले बनाने या फौज रखने की इजाजत न देना। यदि तुमने यह गलती की, तो मुल्क तुम्हारे हाथ से निकल जायगा।
सिराजुद्दौला पर इस नसीहत का भरपूर प्रभाव पड़ा था, और वह अंग्रेज-शक्ति की ओर से चौकन्ना हो गया। उसके तख्तनशीन होने पर नियमानुसार अंग्रेजों ने उसे भेंट नहीं दी थी। इसका अर्थ यह था कि वे उसे नवाब स्वीकार नहीं करते थे। वे प्रायः सिराजुद्दौला से सीधा सम्बन्ध भी नहीं रखते थे; आवश्यकता पड़ने पर अपना काम ऊपर-ही-ऊपर निकाल लेते थे।
धीरे-धीरे नवाब और अंग्रेजों का मन-मुटाव बढ़ता गया। अंग्रेजों ने जो कासिम बाजार में किलेबन्दी कर ली थी, नवाब उसका अत्यन्त विरोधी था। उसने वहाँ के मुखिया को बुलाकर समझाया-“यदि अंग्रेज शान्त व्यापारियों की भाँति देश में रहना चाहते हों तो खुशी से रहें। किन्तु सूबे के हाकिम की हैसियत से मेरा यह हुक्म है कि वे उन सब किलों को फौरन तुड़वाकर बराबर कर दें, जो उन्होंने हाल ही में बिना मेरी आज्ञा के बना लिये हैं।”
परन्तु इसका कुछ भी फल न हुआ। अन्त में नवाब ने कासिम बाजार में सेना भेजने की आज्ञा दे दी। अचानक कासिम बाजार में नवाबी सिपाही दीख पड़ने लगे। होते-होते और भी सैकड़ों सवार और बरकन्दाज आ-आकर शामिल होने लगे। सन्ध्या के प्रथम ही दो लड़ाके हाथी झूमते-झामते कासिम बाजार में आ पहुँचे। यह देखकर, अंग्रेजों के प्राण काँपने लगे। कोठी वाले अंग्रेज एक-एक करके भागने लगे। हेस्टिग्स भी भागकर अपने दीवान कान्ता बाबू के घर में छिप गया। सबने समझ लिया, रात्रि के अन्धकार के बढ़ने की देर है, बस नवाब की सेना बलपूर्वक किले में घुसकर अंग्रेजों के माल-असबाब का सत्यानाश कर, लूट-पाट मचा देगी। किले में जो नौकर तथा गोरे-काले सिपाही थे, वे तैयार होकर दरवाजे पर आ डटे। परन्तु बुद्धिमान नवाब ने आक्रमण नहीं किया। उसका मतलब खून बहाने का न था। वह केवल उनकी राजनीति के विरुद्ध, किले बनाने की कार्यवाही का विरोध करने और अपनी आज्ञा के निरादर का दण्ड देने आया था।
सोमवार, मंगल, बुध, बृहस्पतिवार भी बीत गया। नवाब की अगणित सेना किला घेरे खड़ी रही, पर आक्रमण नहीं किया। उस क्षुद्र किले को राख का ढेर बनाना क्षण-भर का काम था। इस चुप्पी से अंग्रेज बड़े चकित हुए, घबराये भी। न मालूम नवाब का क्या इरादा है! अन्त में साहस करके डॉ० फोर्थ साहब को दूत बनाकर नवाब की सेवा में भेजा गया।
उमरबेग ने फोर्थ को समझा दिया-“घबराओ मत, नवाब का इरादा खून-खराबी का नहीं है। आपके प्रधान वाट्सन साहब को नवाब के दरबार में एक मुचलका लिख देना होगा और उसे वे यदि राजी से न लिखेंगे, तो जबर्दस्ती लिखाया जायगा। सिर्फ इतनी सेना इसीलिये यहाँ आई है।”
पर वाट्सन साहब को आत्म-समर्पण करने का साहस नहीं हुआ। उन्होंने अत्यन्त नम्रतापूर्ण लिख भेजा-
“नवाब साहब का अभिप्राय ज्ञात हो जाने-भर की देर है। पश्चात् जो उनकी आज्ञा होगी-अंग्रेजों को वह स्वीकार होगा।”
इस पत्र का नवाब के दरबार से यही उत्तर मिला-“किले की चार-दीवारी गिरा दो-बस, यही नवाब का एकमात्र अभिप्राय है।”
अंग्रेजों ने बड़े शिष्टाचार और नम्रता से कहला भेजा कि-नवाब का जो हुक्म होगा, वही किया जायगा।
परन्तु अंग्रेज रिश्वत और खुशामद के जोर से मतलब निकालने की चेष्टा करने लगे। उन्होंने अमीर-उमरावों को रिश्वतें देकर अपने वश में कर लिया। अंग्रेज सिराजुद्दौला के स्वभाव और उद्देश्य को नहीं जानते थे। उन्होंने इस अभियान का यही मतलब समझा था कि रिश्वत और भेंट लेने के लिये यह नया जाल फैलाया गया है। काले लोगों को हीन समझने वाले इन बनियों के दिमाग में यह बात न आई कि सिराजुद्दौला युवक और ऐयाश है तो क्या है, वह देश का राजा है। विद्वान् सिराजुद्दौला, इन प्रलोभनों से ज़रा भी विचलित नहीं हुआ।
अन्त में वाट्सन साहब हाथ में रूमाल बाँधकर दरबार में हाजिर हुए। नवाब ने उनको अंग्रेजों के उद्दण्ड व्यवहार के लिये बहुत लानत-मलामत की। वाट्सन बेचारे भयभीत खड़े रहे। लोगों को भय था कि कहीं नवाब इन्हें कुत्तों से न नुचवा दे। परन्तु, उसने क्रोधित होने पर भी कर्तव्य का ख्याल किया। उसने साहब को अपने डेरे पर जाकर मुचलका लिखकर लाने की आज्ञा दी। वाट्सन साहब ने जल्दी-जल्दी मुचलका लिख दिया। उसका अभिप्राय यह था-
“कलकत्ते का किला गिरा देंगे। कुछ अपराधी, जो भागकर कलकत्ते जा छिपे हैं, उन्हें बांधकर ला देंगे। बिना महसूल व्यापार करने की सनद बादशाह से कम्पनी ने पाई है, और उसके बहाने बहुतेरे अंग्रेजों ने बिना महसूल व्यापार करके जो हानि पहुंचाई है, उसकी भरपाई कर देंगे। कलकत्ते में हॉलवेल के अत्याचारों से-देशी प्रजा जो कठिन क्लेश भोग रही है, उसे उनसे मुक्त करेंगे।”
मुचलका लिखवाकर वाट्सन और हेस्टिग्स को उसकी शर्तों के पालन होने तक मुर्शिदाबाद में नजरबन्द करके नवाब शान्त हुए। परन्तु पन्द्रह दिन बीतने पर भी मुचलके की शर्तों का कलकत्तेवालों ने पालन नहीं किया। वाट्सन की स्त्री और नवाब की माता में मेले-जोल था। वह अन्तःपुर में आकर बेगम-मण्डली में रोने-पीटने लगी। उसके करुण विलापों से पिघल-कर नवाब की माता ने पुत्र से दोनों को छोड़ देने का अनुरोध किया। माता की आज्ञा शिरोधार्य कर, नवाब को बिलकुल अनिच्छा से दोनों बन्दियों को छोड़ना पड़ा।
शीघ्र ही नवाब को मालूम हुआ कि अंग्रेज लोग मुचलके की शर्तों का पालन नहीं करेंगे। अतएव उसने व्यर्थ आलस्य में समय न खोकर कलकत्ते को एक दूत भेजा और स्वयं सेना ले चलने की तैयारी करने लगा।
अंग्रेजों ने यह समाचार पाकर झटपट ढाका, बालेश्वर, जगदिया आदि स्थानों की कोठियों को सूचना दे दी कि, बहीखाता आदि समेट-समाटकर सुरक्षित स्थानों में चले जाओ। कलकत्ते में गवर्नर ड्रेक नगर-रक्षा के लिये सैन्य-संग्रह और बन्दोबस्त करने लगे। वास्तव में वे सिराजुद्दौला को अस्थायी नवाब समझते थे। उनका ख्याल था, अनेक घरेलू शत्रुओं से घिरा रहकर वह हमारे इस तुच्छ काम पर क्या दृष्टि डालेगा? इसके सिवा, अभी तक अपनी घूस और रिश्वत पर उन्हें बहुत भरोसा था।
पर सिराजुद्दौला वास्तव में नीतिज्ञ पुरुष था। वह जानता था कि मेरे सभी सरदार मेरे विरोधी हैं। वे बार-बार उसे कलकत्ते न जाने की सलाह देते थे; क्योंकि प्रायः सभी नमकहराम और घूस खाये बैठे थे। पर नवाब ने किसी की न सुनी। वरन्, जिस-जिस पर उसे षड्यन्त्र का सन्देह हुआ, उस-उस को उसने अपने साथ ले लिया; जिससे पीछे का खटका भी मिट गया। राजवल्लभ, मीरजाफर, जगतसेठ, मानिकचन्द, सभी को अनिच्छा होने पर भी नवाब के साथ चलना पड़ा। अंग्रेजों ने स्वप्न में भी न सोचा था कि वह ऐसी बुद्धिमत्ता से राजधानी के सब झगड़े मिटाकर, बिलकुल बे-खटके होकर, इतनी सैन्य ले, कलकत्ते पर आक्रमण करेगा।
७ जून को खबर कलकत्ते पहुँची। नगर में हलचल मच गई। अंग्रेज लोग प्राणपण से तैयारी करने लगे। किले में अनेक तोपें लगा दी गई। जल-मार्ग सुरक्षित करने को, बागबाजार वाली खाई में लड़ाई के जहाज लगा दिये। १५०० सिपाही खाई के बराबर खड़े किये गये। चहारदीवारी की समस्त मरम्मत करवाकर उसमें अन्नादि भर दिया गया। मद्रास से मदद माँगने को हरकारा भेजा गया, और जिन फ्रांसीसी शत्रुओं के डर से किला बनाने का बहाना किया गया था, उनसे तथा डचों से भी सहायता मांगी गई।
डच लोग तो सीधे-सादे सौदागर थे। उन्होंने लड़ाई-झगड़े में फंसने से साफ इनकार कर दिया। परन्तु फ्रेंचों ने जवाब दिया-“यदि अंग्रेजी-शेर प्राणों से बहुत ही भयभीत हो रहे हैं, तो वे फौरन ही बिना किसी रोक-टोक के चन्दननगर में हमारा आश्रय लें। आश्रितों की प्राण-रक्षा के लिए फ्रांसीसी वीर सिपाही अपने प्राण देने में तनिक भी कातर न होंगे।”
इस उत्तर से अंग्रेज लज्जित हुए, और खीझे। कलकत्ता से ढाई कोस पर नंगा के किनारे नवाब का एक पुराना किला था। ५० सिपाही उसमें रहते थे। वह कभी किसी काम न आता था। अंग्रेजों ने दौड़कर उस पर हमला कर दिया। बेचारे सिपाही भाग गये। उनकी तोपें तोड़-फोड़कर अंग्रेजों ने गंगा में बहा दी, और बड़े गौरव से अपनी विजय-पताका उस पर फहरा दी। लोगों ने समझ लिया, बस, अब अंग्रेजों की खैर नहीं है। नवाब यह उद्दण्डता न सहन करेगा। दूसरे दिन २००० नवाबी सिपाही किले के सामने पहुंचे ही थे, कि अंग्रेज अफसर लज्जा को वहीं छोड़ किले से भागने लगे। भागते जहाजों पर तडातड़ गोले बरसने लगे। अंग्रेज अपना गोला- बारूद नष्ट कर, और अपनी झण्डी उखाड़, कलकत्ते लौट आये।
यहाँ आकर, उन्होंने कृष्णवल्लभ, जो राजवल्लभ का पुत्र था, और भागकर विद्रोह के अपराध में अंग्रेजों की शरण आ रहा था, उसे इस डर से कैद कर लिया कि कहीं यह क्षमा मांगकर नवाब से न मिल जाय।
अमीचन्द कलकत्ते का एक प्रमुख व्यापारी था। सेठों में जैसी प्रतिष्ठा जगतसेठ की थी, व्यापारियों में वही दर्जा अमीचन्द का था। यह व्यक्ति भारतवर्ष के पश्चिमी प्रदेश का बनिया था। अंग्रेजों ने उसी की सहायता से बंगाल में वाणिज्य-विस्तार का सुभीता पाया था। उसी की मार्फत अंग्रेज गाँव-गाँव रुपया बाँटकर कपास तथा रेशमी वस्त्र की खरीद में खूब रुपया पैदा कर सके थे। उसकी सहायता न होती, तो अंग्रेज लोगों को अपरिचित देश में अपनी शक्ति बढ़ाने और प्रतिष्ठा प्राप्त करने का मौका कदापि न मिलता।
केवल व्यापारी कहने ही से अमीचन्द का परिचय नहीं मिल सकता। विशाल महलों से सजी हुई उसकी राजधानी, तरह-तरह की पुष्प-बेलियों से परिपूरित उसका वृहत्राज-भण्डार, सशस्त्र सैनिकों से सुसज्जित उसके महल का विशाल फाटक देखकर औरों की तो बात क्या है स्वयं अंग्रेज उसे राजा मानते थे। अनेक बार अमीचन्द ही के अनुग्रह से अंग्रेजों की इज्जत बची थी।
अमीचन्द का महल बहुत ही आलीशान था। उसके भिन्न-भिन्न विभागों में सैकड़ों कर्मचारी हर वक्त काम किया करते थे। फाटक पर पर्याप्त सेना उसकी रक्षा के लिये तैयार रहती थी। वह कोई मामूली सौदागर न था, बल्कि राजाओं की भाँति बड़ी शान-शौकत से रहता था। नवाब के दरबार में उसका बहुत आदर था और नवाब उसे इतना मानते थे कि कोई आफत-मुसीबत आने पर नवाब-सरकार से किसी तरह की सहायता लेने के लिये लोग प्रायः अमीचन्द की ही शरण लेते।
जिस समय नवाब की सेना कलकत्ते की तरफ आ रही थी, तो अमीचन्द के मित्र राजा रामसिंह ने गुप्त रूप से एक पत्र लिखकर अमीचन्द को चेता दिया था कि “तुम सुरक्षित स्थान में चले जाओ तो अच्छा है।” दैवयोग से यह पत्र अंग्रेजों के हाथ लग गया। बस, इसी अपराध पर धीर-वीर अंग्रेजों ने अमीचन्द को पकड़कर कैदखाने में लूंस देने का हुक्म अपनी फौज को दिया। अमीचन्द को इस विपत्ति की कुछ खबर न थी। एकाएक फौज ने उसे गिरफ्तार कर लिया, और अभियुक्तों की तरह बाँधकर ले चली। कलकत्ते के देशी लोगों में इस घटना से हाहाकार मच गया।
अमीचन्द का एक सम्बन्धी, जो सारे कारबार का प्रबन्धक था, अत्याचार से डरकर स्त्रियों को कहीं सुरक्षित स्थान में पहुँचाने का बन्दोबस्त करने लगा। अंग्रेजों ने जब यह सुना, तो अमीचन्द के घर पर धावा बोल दिया। अमीचन्द के यहाँ जगन्नाथ नामक एक बूढ़ा विश्वासी जमादार था। वह जाति का क्षत्रिय था। वह तत्काल अमीचन्द के नौकर बरकन्दाजों को इकट्ठा करके महल के फाटक पर रक्षा करने को कमर कसकर तैयार हो गया। अंग्रेजों ने आकर फाटक पर लड़ाई-दंगा शुरू कर दिया। दोनों पक्षों की मार-काट से खून की नदी बह निकली। अन्त में एक-एक करके अमीचन्द के सिपाही धराशायी हुए। मानुषिक-शक्ति से जो सम्भव था, हुआ। अंग्रेज बड़े जोरों से अन्तःपुर की ओर बढ़ने लगे। बूढ़े जगन्नाथ का पुराना क्षत्रिय-रक्त गर्म हो गया। जिन आर्य-महिलाओं को भगवान भुवन-भास्कर भी नहीं देख सकते थे, वे क्या विदेशियों द्वारा दलित होंगी? स्वामी के परिवार की लज्जावती कुल-कामिनियाँ भी क्या बाँधकर विधर्मियों की बन्दी की जायेंगी?
बस, पल-भर में बिजली तरह तड़पकर उसने इधर-उधर से टूटे-फूटे काठ किवाड़ और लकड़ी एकत्र कर आग लगा दी और नंगी तलवार ले, अन्तःपुर में घुस गया, तथा एक-एक कर १३ महिलाओं के सिर काट-काटकर आग में डाल दिए। अन्त में पतिव्रताओं के खून से लाल-वही पवित्र तलवार अपनी छाती में खोंस ली, और उसी रक्त की कीचड़ में गिर पड़ा।
देखते-ही-देखते आग और धुएँ का तूफान उठ खड़ा हुआ। बड़ी कठिनता से जगन्नाथ को सिपाहियों ने उठाकर कैद किया-उसके प्राण नहीं निकले थे। पर अंग्रेजों को भीतर घुसने का समय न मिला-धाँय-धाँय करके वह विशाल महल जलने लगा।
नवाब हुगली तक आ पहुँचा। गंगा की धारा को चीरती हुई सैकड़ों सुसज्जित नावें हुगली में जमा होने लगीं। डच और फ्रांसीसी सौदागरों ने नवाब से निवेदन किया कि ‘योरोप में अंग्रेजों से सन्धि होने के कारण वे इस लड़ाई में शरीक नहीं हो सकते हैं।’ नवाब ने उनकी इस नीति-युक्त वात को स्वीकार कर, उनसे गोला-बारूद की सहायता ले, उन्हें विदा किया।
नवाब के कलकत्ते पहुँचने की खबर बिजली की तरह फैल गई। अंग्रेज लोग किले में घुसकर फाटक बन्द कर, बैठे रहे। जिसको जिधर राह सूझी, भाग निकला। रास्तों, घाटों, जंगलों और नदियों के किनारों में दल-के-दल स्त्री-पुरुष कुहराम मचाते भागने लगे। पर सबसे अधिक दुर्दशा उन अभागों की हुई थी, जिन्होंने काले चमड़े पर टोप पहनकर अपने धर्म को तिलांजलि दी थी। इनसे देशवासी भी घृणा करते थे, और अंग्रेज भी निदान। उन्हें कहीं सब स्त्री, बच्चे, बूढ़े इकट्ठे होकर किले के द्वार पर सिर पीटने लगे। अन्त में उनके आर्तनाद से निरुपाय होकर अंग्रेजों ने उन्हें भी किले में आश्रय दिया।
नवाब की वृहदाकार तोपें भीषण गर्जन द्वारा जब अपना परिचय देने लगी, तो अंग्रेजों के छक्के छूट गये। उन्होंने अब भी मायाजाल फैलाने, घूस, देने, नजर-भेंट देने की बहुत चेष्टा की, पर नवाब ने इरादा नहीं बदला। उसका यही हुक्म था कि किला अवश्य गिराया जायेगा।
फोर्ट विलियम किला पूर्व की ओर २१० गज, दक्षिण की ओर १३० गज और उत्तर की ओर सिर्फ १०० गज था। मजबूत चहारदीवारी के चारों कोनों पर चार बुर्ज थे। प्रत्येक पर १० तोपें लगी थीं। पूर्व की ओर विशाल फाटक पर ५ वृहदाकार तोपें मुँह फैला रही थीं। इसके पश्चिम की ओर गंगा की प्रबल धारा समुद्र की ओर बह रही थी। पूरब की ओर फाटक के पास से गुजरती हुई लाल बाजार की सीधी और सुन्दर सड़क बलिया-घाट तक चली गई थी। इस किले पर पूर्व, उत्तर और दक्षिण की ओर तोपों के तीन मोर्चे और भी थे । कलकत्ते के तीन ओर मराठा-खाई थी। दक्खिन की ओर खाई न थी-घना जंगल था। पीछे गंगा में युद्ध-सज्जा से सजे जहाज तैयार थे। १८ जून को नवाब की तोप दगी। अंग्रेजों ने तत्काल किले और जहाजों से आग बरसानी शुरू की।
अंग्रेजों का ख्याल था कि लाल बाजार की ओर से ही नवाब आक्रमण करेगा। उस मोर्चे पर उन्होंने बड़ी-बड़ी तोपें लगा रखी थीं। पर अमीचन्द के उस जख्मी जमादार जगन्नाथ की सहायता से नवाब को यह भेद मालूम हो गया कि नगर के दक्षिण में मराठा-खाई नहीं है। अतएव नवाब ने उसी ओर आक्रमण किया।
लाल बाजार के रास्ते के ऊपर पूर्व की ओर जो तोपों का मंच बनाया गया था, उसके सामने ही कुछ दूर पर जेलखाना था। अंग्रेजों ने उसकी एक दीवार को फोड़कर कुछ तोपें जुटा रखी थीं। उनकी योजना थी कि लाल बाजार के रास्ते नवाबी सेना के अग्रसर होते ही जेलखाने और पूर्व वाले मोर्चों से आग बरसाकर सेना को तहस-नहस कर देंगे। परन्तु नवाब की सेना अनजानों की तरह तोपों के सामने सीधी नहीं आई। उसने सावधानी से सड़कवाला रास्ता ही छोड़ दिया। केवल पहरेदारों को मारकर वह उत्तर और दक्षिण को हटने लगी।
देखते-ही-देखते अंग्रेजी तोपों के तीनों मोर्चे घिर गये। अब तो नगर-रक्षा असम्भव हो गई। कलकत्ते के स्वामी हॉलवेल साहब और मोर्चे के अफसर कप्तान क्लेटन किले में भाग गये। मोर्चे नवाबी सेना के कब्जे में आ गये। अब उन्हीं तोपों से किले पर गोले बरसने लगे। किले में कुहराम मच गया।
किले के नीचे गंगा में कुछ नाव और हाज तैयार थे। उनके द्वारा स्त्रियों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देने की व्यवस्था शाम को हुई। स्त्रियों को जहाज तक पहुँचाने को दो अफसर मेनिहम और फ्रांकलेण्ड रात्रि के अन्धकार में चुपके-चुपके निकले। परन्तु जहाज पर पहुँचकर उन्होंने फिर किले में आने से साफ इन्कार कर दिया।
किले की भीतरी दशा अजीब थी। सब कोई दूसरों को सिखाने में लगे थे। पर स्वयं किसी की बात को कोई नहीं मानना चाहता था। बाहर तो नवाबी सेना उन्मत्तों की भाँति कूद-फाँद और शोर मचा रही थी, भीतर अंग्रेजों का आर्तनाद, सिपाहियों की परस्पर की कलह और सेनापतियों के मतिभ्रम इत्यादि से किले में शासन-शक्ति का सर्वथा लोप हो गया था।
बड़ी कठिनता से रात को दो बजे सामरिक सभा जुड़ी। इसमें छोटे-बड़े सभी थे। बहीखाता समेटकर भाग जाना ही निश्चय हुआ। प्रातःकाल जो भागने को एक गुप्त दरवाजा खोल गया, तो बहुत-से आदमियों ने उतावली से भागकर, किनारे पर आकर कोलाहल मचा दिया और नावों पर बैठने में छीना-झपटी करने लगे। परिणाम बुरा हुआ—नवाबी सेना ने सावधान होकर तीर बरसाने शुरू किये। कितनी नावें उलट गई। किसी तरह कुछ लोग जहाज तक पहुँचे। उस पर गोले बरसाये गये। फिर भी गवर्नर ड्रेक, सेनापति मनचन, कप्तान ग्राण्ट आदि बड़े-बड़े आदमी इस तरह से भाग गये।
अब कलकत्ते के जमींदार हॉलवेल साहब ही मुखिया रह गये। वे क्या करते? अंग्रेज समझते थे कि महामति ड्रेक घबराकर मति-भ्रम होने के कारण भाग गये हैं। शायद, वे विचार कर, सहकारियों को सज्जित करके अपने साथियों की रक्षा के लिये फिर आयें। पर आशा व्यर्थ हुई। ड्रेक साहब न आये। किलेवालों ने लौटने के बहुत संकेत किये-बराबर निवेदन किये। गवर्नर साहब न आये।
अब हारकर हॉलवेल साहब अपने पुराने सहायक अमीचन्द की शरण में गये, जो उन्हींके कैदखाने में बन्दी पड़ा था। अमीचन्द ने उस समय उनकी कुछ भी लानत-मलामत न कर, उनके कातर-क्रन्दन से द्रवीभूत हो नवाब के सेनानायक मानिकचन्द को एक पत्र इस आशय का लिख दिया-“अब नहीं। काफी शिक्षा मिल गई है। नवाब की जो आज्ञा होगी- अंग्रेज वही करेंगे।”
यह पत्र हॉलवेल साहब ने चहारदीवारी पर खड़े होकर बाहर फेंक दिया। पर इसका कोई जवाब नहीं आया। पता नहीं, वह पत्र ठिकाने पहुँचा भी या नहीं। एकाएक किले का पश्चिमी दरवाजा टूट गया, और धुआँधार नवाबी सेना किले में घुस आई। सब अंग्रेज कैद कर लिये गये। किले के फाटक पर नवाबी पताका खड़ी कर दी गई।
तीसरे पहर नवाब ने किले में पधारकर दरबार किया। अमीचन्द और कृष्णवल्लभ को खोजा गया। वे दोनों आकर जब नवाब के सामने नम्रतापूर्वक खड़े हुए, तो नवाब ने उनका आदर करके आसन दिया। यही कृष्णवल्लभ था जिसकी बदौलत इतने झगड़े हुए थे।
इसके बाद अंग्रेज कैदियों की तरह बाँधकर नवाब के सामने लाये गये। सामने आते ही हॉलवेल साहब से नवाब ने कहा-“तुम लोगों के उद्दण्ड-व्यवहार के कारण ही तुम्हारी यह दशा हुई है।” इसके बाद सेनापति मानिकचन्द को किले का भार सौंपकर दरबार बर्खास्त किया। थकी-माँदी सेना आराम का स्थान इधर-उधर खोजने लगी।
परन्तु हॉलवेल ने नवाब को बदनाम करने के लिए एक असत्य घटना, इस अवसर पर गढ़कर अपने मित्रों में प्रचारित की। उसने कहा-“नवाब ने १४६ अंग्रेज उस दिन रात को -१८ फुट आयतन की कोठरी में बन्द करवा दिये, जिसमें सिर्फ एक खिड़की थी और जिसमें लोहे के छड़ लगे हुए थे। प्रातःकाल जब दरवाजा खोला गया, सिर्फ २३ आदमी जिन्दा बचे।”
काल-कोठरी की यह बात इतनी प्रसिद्ध हो गई कि समस्त भारत और इंग्लैंड में बच्चा-बच्चा इस बात को जान गया। पर बाद में यह बात प्रमाणित हुई कि यह सिर्फ नवाब को बदनाम करने को हॉलवेल ने कहानी गड़ी थी, जो बड़ा मिथ्यावादी आदमी था।
अत्यन्त साधारण बुद्धिवाला व्यक्ति भी समझ सकता है कि १८ फुट की व्यासवाली कोठरी में १४६ आदमी, यदि वे बोरों की तरह भी लादे जाएँ, तो नहीं आ सकते। इसका जिक्र न तो किसी मुसलमान लेखक ने किया है, न कम्पनी के कागजों में ही कहीं इसका जिक्र है। उस समय मद्रासी अंग्रेजों और नवाब में जो पीछे हर्जाने की बात चली, उसमें भी काल-कोठरी का जिक्र नहीं है। क्लाइव ने जिस तेजी-फुर्ती के साथ नवाब से पत्र-व्यवहार किया था, उसमें भी काल-कोठरी के अत्याचार का जिक्र नहीं। यहाँ तक कि सिराजुद्दौला और अंग्रेजों की जो पीछे सन्धि-स्थापना हुई थी, उसमें भी इसका कुछ जिक्र नहीं है। क्लाइव ने नवाब को पद-च्युत करने पर कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स को, नवाब के अत्याचारों से परिपूर्ण जो चिट्ठी लिखी थी, उसमें भी काल-कोठरी का जिक्र नहीं है। अंग्रेजों ने मीरजाफर को अपने हरजाने का पैसा-पैसा भरपाई का हिसाब लिखा था, पर उसमें भी काल-कोठरी का जिक्र नहीं है।
किले पर आक्रमण करने से प्रथम किले में ९०० आदमी थे, जिनमें ६० यूरोपियन थे। इनमें से बहुतेरे ड्रेक के साथ भाग गये, ७० घायल पड़े थे। तिस पर भी १४६ आदमी कहाँ से बन्द किये गये?
हॉलवेल साहब इसका एक स्मृति-स्तम्भ भी बनवा गये थे, पर पीछे वह अंग्रेजों ने ही गिरा दिया। अंग्रेजी राज्य में इसी कल्पित काल-कोठरी की यातना प्रत्येक जेल में प्रत्येक कैदी को भुगतनी पड़ती थी।
हॉलवेल साहब पहले डॉक्टर थे, और अंग्रेजों की कम्पनी से इन्हें ६०० रुपये तनख्वाह मिलती थी। नजर-भेंट में भी खासी आमदनी होती थी। पर ये काले लोगों के प्रति बड़े ही निर्दयी थे। इसी से नवाब ने मुचलका लिखाया था। जब कलकत्ता फतह हुआ, तो हॉलवेल साहब का सर्वनाश हुआ। साथ ही वे बन्दी करके मुर्शिदाबाद लाये गये। पर पलासी-युद्ध में मीरजाफर से घूस में एक लाख रुपया इन्हें मिला। तब उन्होंने कलकत्ता के पास थोड़ी-सी जमींदारी खरीद ली। कुछ दिन कलकत्ते के गवर्नर भी रहे। पर शीघ्र ही विलायत के अधिकारियों से लड़ने-भिड़ने के कारण अलग कर दिये गये, और जिस मीरजाफर ने इतना रुपया दिया था, उसे झूठा कलंक लगाकर राज्य-च्युत किया। अन्त में इंगलैंड जाकर मर गये।
कलकत्ते का शासन-भार राजा मानिकचन्द को दे, नवाब ने कलकत्ते से चलकर हुगली में पड़ाव डाला। डच और फ्रांसीसी सौदागर गले में दुपट्टा डाले आधीनता स्वीकार करने के लिए सम्मानपूर्वक नजर-भेंट लाये। डचों ने साढ़े चार लाख और फ्रेंचों ने साढ़े चार लाख रुपया नवाब को भेंट किया। नवाब ने वाट्सन और क्लेट को बुलाकर यह समझा दिया कि-
“मैं तुम लोगों को देश से बाहर निकालना नहीं चाहता, तुम खुशी से कलकत्ते में रहकर व्यापार करो।”
नवाब राजधानी को लौट गये। अंग्रेज कलकत्ते में वापस आये और अमीचन्द की उदारता की बदौलत उन्होंने अन्न-जल पाया।
इस यात्रा से लौटकर ११ जुलाई को नवाब ने राजधानी में गाजे-बाजे से प्रवेश किया। तोपों की सलामी दगी। नाच-रंग होने लगे। नवाब रत्न जटित पालकी पर अमीर-उमरावों के साथ नगर में होकर जब गाजे-बाजे से मोती-झील को जा रहा था, उस समय रास्ते में स्थित कारागार में बन्द हॉलवेल साहब पर उसकी नजर पड़ी। उसने तत्काल सब बाजे बन्द करवा दिये और पालकी से उतर, पैदल कारागार के द्वार पर जाकर चोबदार को हॉलवेल की हथकड़ी-बेड़ी खुलवाने का हुक्म दिया और हॉलवेल और उसके तीन साथियों को सर्वथा मुक्त कर दिया।
तीन : आग और धुआं
धीरे-धीरे अंग्रेज फिर कलकत्ते में आकर वाणिज्य करने लगे। पर शीघ्र ही एक दुर्घटना हो गई। एक अंग्रेज सर्जन ने एक निरपराध मुसलमान की हत्या कर डाली। बस, राजा मानिकचन्द की आज्ञा से सब अंग्रेज कलकत्ते से बाहर कर दिये गये। अंग्रेज लोग निरुपाय होकर पालताबन्दर पर इकठ्ठ होने लगे। इस अस्वास्थ्यकर स्थान में अंग्रेजों की बड़ी दुर्दशा हुई। प्रचण्ड गर्मी, तिस पर निराश्रय, और खाद्य पदार्थों का अभाव। जहाज का भण्डार खाली, पास में रुपया नहीं। न कोई बाजार! केवल कुछ- डच फ्रान्सीसी और काले बंगालियों की कृपा से कुछ खाद्य-पदार्थ मिल जाया करते थे।
दुर्दशा के साथ दुर्गति भी उनमें बढ़ गई। किसके दोष से हमारी यह दुर्दशा हुई?–इसी बात को लेकर परस्पर विवाद चला। सब लोग कलकत्ते की कौंसिल को सारा दोष देने लगे। कौंसिल के सब लोग परस्पर एक-दूसरे को दोष देने लगे। घोर वैमनस्य बढ़ा। अन्त में सब यही कहने लगे कि लोभ में आकर कृष्णवल्लभ को जिन्होंने आश्रय दिया, और कम्पनी के नाम से परवाने औरों को बेचकर जिन्होंने बदमाशी की, वे ही इस विपत्ति के मूल कारण हैं।
पाँचवीं अगस्त को मद्रास में भागकर आए हुए अंग्रेजों ने पहुंचकर कलकत्ते की दुर्दशा का हाल सुनाया। सुनकर सबके सिर पर वज्र गिरा। सब हत्-बुद्धि हो गये। एक विचार-कमेटी बैठी। खूब गर्जन-तर्जन हुआ। उन दिनों फ्रान्स से युद्ध छिड़ने के कारण अंग्रेजों का बल क्षीण हो रहा था, इस लिए वे कुछ निश्चय न कर सके।
उधर पालताबन्दर में अंग्रेज चुपचाप नहीं बैठे थे। यदि नवाब पालता-बन्दर तक बढ़ा चला आता, तो अंग्रेजों को चोरों की तरह भी भागने का अवसर न मिलता। पर उनका उद्देश्य केवल उनके दुष्ट व्यवहार का दण्ड देना ही था। अनेक बंगाली उन दुर्दिनों में भी लुक-छिपकर उनकी सहायता कर रहे थे। औरों की तो बात अलग रही-स्वयं अमीचन्द, जिसका अंग्रेजों ने सर्वनाश किया था, और जो इन्हीं की कृपा से शोक-ग्रस्त और मर्म-पीड़ित हो, पथ का भिखारी बन चुका था, वह भी नवाब के दरबार में उनके उत्थान के लिये बहुत-कुछ अनुनय-विनय कर रहा था। उसने एक गुप्त चिट्ठी अंग्रेजों को लिखी, जिसका आशय था-
“सदा की भाँति आज भी मैं उस भाव से आप लोगों का भला चाहता हूँ। यदि आप ख्वाजा वाजिद, जगतसेठ या राजा मानिकचन्द से गुप्त पत्र-व्यवहार करना चाहें, तो मैं आपके पत्र उनके पास पहुंचाकर जवाब मँगा दूंगा।”
इस पत्र से अंग्रेजों को साहस हुआ। शीघ्र ही मानिकचन्द की कृपा- दृष्टि उन पर हुई। उनके लिये बाजार खोल दिया गया, और तरह-तरह की नम्र विनतियों से नवाब के दरबार में व्यापार करने के आज्ञापत्र के साथ प्रार्थना-पत्र जाने लगे, और उनके सफल होने की भी कुछ-कुछ आशा होने लगी।
हेस्टिग्स ने पालता की केम्बल नामक एक अंग्रेज की विधवा तरुणी से प्रेम-प्रसंग उपस्थित होने पर विवाह कर लिया। अब हेस्टिग्स ने अपनी योग्यता और कार्य-निपुणता में ख्याति प्राप्त कर ली थी और वह एक चतुर, बुद्धिमान और कुशल सैनिक समझा जाने लगा था। उसने गवर्नर ड्रेक को कुछ ऐसी गुप्त सूचनाएँ, सुझाव और सहायता दी कि उसे अपना विश्वस्त सहायक समझने लगे।
कासिम बाजार से हेस्टिग्स ने लिखा- “मुर्शिदाबाद में बड़ी गड़बड़ी मची है। पूनिया के नवाब शौकतजंग ने दिल्ली के बादशाह से बंगाल, बिहार और उड़ीसा की नवाबी की सनद प्राप्त कर ली है। वह शीघ्र ही मुर्शिदाबाद भारी सैन्य लेकर सिराजुद्दौला को हटाकर स्वयं नवाब बनने आ रहा है। सभी ज़मींदार उसके पक्ष में तलवार उठायेंगे। अब सिराजुद्दौला का गर्व चूर्ण हुआ चाहता है।”
इस खबर के मिलते ही अंग्रेजों के इरादे ही बदल गये। अब वे शौकत-जंग से मेल बढ़ाने की व्यवस्था करने लगे। पर नवाब को इसकी कुछ खबर न थी। उसके पास बराबर अंग्रेजों के अनुनय-विनय भरे पत्र आ रहे थे। यदि उसे इस राज-विद्रोह की कुछ भी खबर लग जाती तो शायद पालता-बन्दर ही अंग्रेजों का समाधि-क्षेत्र बन जाता।
इधर मद्रास वाले अंग्रेजों ने दो महीने बाद कलकत्ते की रक्षा का निश्चय बड़े वाद-विवाद के बाद किया, और कर्नल क्लाइव तथा एडमिरल वाट्सन के साथ अधिक स्थल सेनाएँ भेज दी गईं। ये लोग ५ सैनिक जहाजों के साथ १३वीं अक्तूबर को चले। ५ जहाजों पर असबाब था। ९०० गोरे और १५०० काले सिपाही थे।
दिल्ली का सिंहासन धीरे-धीरे काल के काले हाथों से रँगा जा रहा था। पर अब भी उसके नाम के साथ चमत्कार था। नवाब ने सुना कि शाहजादा शौकतजंग आ रहा है तो उसने उसके आने से पूर्व ही शौकतजंग को परास्त करने का निश्चय किया। उसे यह मालूम था कि शौकतजंग बिलकुल मूर्ख, घमण्डी और दुराचारी आदमी है, और उसके साथी-स्वार्थी और खुशामदी। उसे हराना सरल है। परन्तु वह भी अलीवर्दीखाँ खानदान का था। अतएव उसने शौकतजंग को एक चिट्ठी लिखकर समझाना चाहा। उसका जवाब जो मिला वह यह था-
“हम बादशाह की सनद पाकर बंगाल, बिहार और उड़ीसा के नवाब हुए हैं। तुम हमारे परम आत्मीय हो। इसलिए हम तुम्हारे प्राण लेना नहीं चाहते। तुम पूर्वी बंगाल के किसी निर्जन स्थान में भागकर अपने प्राण बचाना चाहो, तो हम उसमें बाधा नहीं देंगे। बल्कि तुम्हारे लिये सुव्यवस्था कर देंगे, जिससे तुम्हारे अन्न-वस्त्र का कष्ट न हो। बस, देर मत करना, पत्र को पढ़ते ही राजधानी छोड़कर भाग जाओ। परन्तु-खबरदार! खजाने के एक पैसे में भी हाथ न लगाना। जितनी जल्दी हो सके, पत्र का जवाब लिखो। अब समय नहीं है। घोड़े पर जीन कसा हुआ है, पाँव रकाब में डाल चुका हूँ। केवल तुम्हारे जवाब की देर है।”
नवाब सिराजुद्दौला ने यह पत्र उमरावों को पढ़कर सुनाया। उसे आशा थी, सब कूच की सलाह देंगे, और बागी, गुस्ताख शौकत को सब बुरा कहेंगे। परन्तु ऐमा नहीं हुआ। मंत्री से लेकर दरबारियों तक ने विषय छिड़ते ही वाद-विवाद उठाया। जगतसेठ ने प्रतिनिधि बनकर साफ कह दिया-“जब आपके पास बादशाह की सनद नहीं है-शौकतजंग ने उसे प्राप्त कर लिया है, ऐसी दशा में कौन नवाब है-इसका कुछ निर्णय नहीं हो सकता।”
नवाब ने देखा, विद्रोह ने टेढ़े मार्ग का अवलम्बन किया है। उसने गुस्से में आकर दरबार बरखास्त कर दिया। फिर फौरन आक्रमण करने को पूनिया के निकट राजमहल की ओर कूच कर दिया।
शौकतजंग मूर्ख, घमण्डी और निकम्मा नौजवान था। वह किसी की राय न मान, स्वयं ही सिपहसालार बन गया। इसके प्रथम उसने युद्धक्षेत्र की कभी सूरत भी न देखी थी। अनुभवी सेनापतियों ने सलाह देनी चाही, तो उसने अकड़कर जवाब दिया- “अजी मैंने इस उमर में ऐसी-ऐसी सौ फौजों की फौजकशी की है। सेनानायक बेचारे अभिवादन कर-करके लौटने लगे। परिणाम यह हुआ कि इस युद्ध में शौकतजंग मारा गया। सिराजुद्दौला की विजय हुई। पूनिया का शासन-भार महाराज मोहनलाल को देकर और शौकत की माँ को आदर के साथ लाकर नवाब राजधानी में लौट आया, तथा शौकत की माँ सिराज की माँ के साथ अन्तःपुर में रहने लगी।
इस बीच में उसे अंग्रेजों पर दृष्टि देने का अवकाश नहीं मिला था। अतः उन्होंने घूस-रिश्वत दे-दिलाकर बहुत-से सहायक बना लिये थे।
जगतसेठ को मेजर किलप्याट्रिक ने लिखा-“अंग्रेजों को अब आपका ही भरोसा है। वे कतई आप पर ही निर्भर हैं।”
जो अंग्रेज एक वर्ष पहले कलकत्ते में टकसाल खोलकर जगतसेठ को चौपट करने के लिये बादशाह के दरबार में घूस के रुपयों की बौछार कर रहे थे, वे ही अब जगतसेठ के तलुए चाटने लगे। मानिकचन्द को घूस देकर पहले ही मिला लिया गया था। सबने मिलकर अंग्रेजों को पुनः अधिकार देने के लिए नवाब से प्रार्थना की। नवाब राजी भी हुआ। परन्तु अंग्रेज इधर लल्लो-चप्पो कर रहे थे, उधर मद्रास से फौज मँगाने का प्रबन्ध कर रहे थे। मानिकचन्द ने नदी की ओर बहुत-सी तोपें सजा रखी थीं। पर सब दिखावा था। वे सब टूटी-फूटी थीं। किले में सिर्फ २०० सिपाही थे, और हुगली के किले में सिर्फ पचास । ये सब खबरें अंग्रेजों को मिल रही थीं।
क्लाइव और वाट्सन धीरे-धीरे कलकत्ते की ओर बढ़े चले आ रहे थे। दोनों ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ थे। कुछ दिन पहले मालाबार के किनारे पर युद्ध-व्यापार में दोनों ने खूब लाभ उठाया। मराठों ने उन दोनों की सहायता से स्वर्ण-दुर्ग को चट कर डाला था, और इसके बदले उन्हें १५ लाख रुपये मिले थे। उड़ीसा के किनारे पहुँचकर एक दिन जहाज पर दोनों में इस बात का परामर्श हुआ कि यदि बंगाल को हमने लूट पाया, तो लूट में से किसे कितना हिस्सा मिलेगा। बहुत वाद-विवाद के बाद दोनों में अद्धम-अद्धा तय हुआ।
जिन्होंने इन दोनों को बंगाल भेजा था-उन्होंने सिर्फ बंगाल में वाणिज्य-स्थापना करने की हिदायत कर दी थी, और बिना रक्त-पात के यह काम हो, इसीलिये निजाम से सिफारिशी चिट्ठियाँ भी सिराजुद्दौला के नाम लिखवाई थीं। पर ये लोग तो रास्ते ही में लूट के माल का हिसाब लगा रहे थे।
इधर पालताबंदर के अंग्रेजों की विनीत प्रार्थना से नवाब उन्हें फिर से अधिकार देने को राजी हो गया था। सब बखेड़ों का अन्त होने वाला था कि एकाएक नवाब खबर लगी, कि मद्रास से अंग्रेजों के जहाज फौज और गोला-बारूद लेकर पालताबन्दर आ गये हैं। इस खबर के साथ ही वाट्सन साहब का एक पत्र भी आया, जिसमें बड़ी हेकड़ी के साथ नवाब को अंग्रेजों के प्रति निर्दय-व्यवहार की मलामत की गई थी, और उन्हें फिर बसने देने और हर्जाना देने के सम्बन्ध में वैसी ही हेकड़ी के शब्दों में बातें लिखी थीं।
इनके साथ ही क्लाइव ने भी बड़ा अभिमानपूर्ण पत्र नवाब को लिखा। जिसमें लिखा-“मेरी दक्षिण की विजयों की खबर आपने सुनी ही होगी–मैं अंग्रेजों के प्रति किये गये आपके व्यवहार का दण्ड देने आया हूँ।”
कलकत्ते के व्यापारी लड़ाई को दबाना चाहते थे, क्योंकि नवाब ने उन्हें अधिकार देना स्वीकार कर लिया था। परन्तु क्लाइव और वाट्सन के तो इरादे स्पष्ट खून-खराबी के थे।
अंग्रेज शीघ्र ही सज्जित होकर कलकत्ते की ओर बढ़ने लगे। गंगा किनारे बजबज नामक एक छोटा किला था। अंग्रेजों ने उस पर धावा बोल दिया। मानिकचन्द ढोंग बनाने को कुछ देर झूठ-मूठ लड़ा, पर शीघ्र ही भाग-कर मुर्शिदाबाद जा पहुंचा। यही हाल कलकत्ते के किले वालों का भी हुआ। सूने किले में क्लाइव ने धूमधाम से प्रवेश किया।
इस बढ़िया विजय पर क्लाइव और वाट्सन में इस बात पर खूब ही झगड़ा हुआ कि किले पर कौन अधिकार जमाये? अन्त में क्लाइव ही उस का विजेता माना गया। अब ड्रेक साहब पुनः बड़े गौरव से कलकत्ते आकर गवर्नर बन गये।
किले के भीतर की सव वस्तुएँ ज्यों-की-त्यों थीं। नवाब ने उसे लूटा न था; न किसी ने कुछ चुराया था। किला फतह हो गया, मगर लूट तो हुई ही नहीं। क्लाइव को बड़ी आतुरता हुई। अन्त में हुगली लूटने का निश्चय हुआ। वह पुरानी व्यापार की जगह थी। वाणिज्य भी वहाँ खूब था। मेजर किलप्याट्रिक बहुत दिन से बेकार बैठे थे। उन्हें ही यह कीर्ति-सम्पादन का काम सौंपा गया। पैदल, गोलन्दाज सभी अंग्रेज हुगली पर टूट पड़े। नगर को लूट-पाटकर आग लगा दी गई।
हुगली को लूटकर जब अंग्रेज किले में लौटकर आये, तब उन्हें नवाब का पत्र मिला-
“मैं कह चुका हूँ कि कम्पनी के प्रधान ड्रेक ने मेरी आज्ञा के विपरीत आचरण करके मेरी शासन-शक्ति का उल्लंघन किया तथा दरबार को निकासी का पावना अदा न कर, मेरी भागी प्रजा को आश्रय दिया। मेरे बार-बार रोकने पर भी उन्होंने इसकी परवा नहीं की। इसी का मैंने उन्हें दण्ड दिया। अतएव राज्य और राज्य के निवासियों के कल्याण के लिए मैं तुम्हें सूचित करता हूँ कि किसी व्यक्ति को अध्यक्ष नियुक्त करो, तो पूर्व-प्रचलित नियम के अनुसार ही तुमको वाणिज्य के अधिकार प्राप्त होंगे। यदि अंग्रेजों का व्यवहार व्यापारियों जैसा रहेगा, तो इस सम्बन्ध में वे निश्चिन्त रहें कि मैं उनकी रक्षा करूँगा और वे मेरे कृपा-पान्न रहेंगे।”
नवाब के इस पत्र का अंग्रेजों ने इस प्रकार जवाब भेजा-
“आपने इस झगड़े की जड़ जो ड्रेक साहब का उद्दण्ड व्यवहार लिखा है—सो आपको जानना चाहिए कि शासक और राजकुमार लोग न आँख से देखते हैं, न कानों से सुनते हैं। प्रायः असत्य खबर पाकर ही काम कर बैठते हैं। क्या एक आदमी के अपराध में सब अंग्रेजों को निकालना उचित था। वे लोग शाही फरमान पर भरोसा रखकर उस रक्त-पात और उन अत्याचारों के बजाय—जो दुर्भाग्य से उन्हें सहने पड़े-सदैव अपने जान-माल को सुरक्षित रखने की आशा रखते थे। क्या यह काम एक शाहजादे की प्रतिष्ठा के योग्य था? इसलिये आप यदि बड़े शाहजादे की तरह न्यायी और यशस्वी बनना चाहते हैं, तो कम्पनी के साथ जो आपने बुरा व्यवहार किया है; उसके लिये उन बुरे सलाहकारों को जिन्होंने आपको बहकाया, दण्ड देकर कम्पनी को सन्तुष्ट कीजिये और उन लोगों को, जिनका माल छीना गया है—राजी कीजिये, जिससे हमारी तलवारों की वह धार म्यान में रहे, जो शीघ्र ही आपकी प्रजा के सिरों पर गिरने के लिये तैयार है। यदि आपको मि० ड्रेक के विरुद्ध कोई शिकायत है, तो आपको उचित है कि आप उसे कम्पनी को लिख भेजिये, क्योंकि नौकर को दण्ड देने का अधिकार स्वामी को होता है। यद्यपि मैं भी आपकी तरह सिपाही हूँ, तथापि यह पसन्द करता हूँ कि आप स्वयं अपनी इच्छा से सब काम कर दें। यह कुछ अच्छा नहीं होगा कि मैं आपकी निरपराध प्रजा को पीड़ित करके आपको यह काम करने पर बाध्य करूँ।”
यह पत्र वाट्सन साहब ने लिखा था। जिस समय नवाब को यह पत्र मिला, उस समय के कुछ पूर्व ही हुगली की लूट का भी वृत्तान्त मिल चुका था। नवाब अंग्रेजों के मतलब को समझ गया और अब उसने एक पत्र अंग्रेजों को लिखा—
“तुमने हुगली को लूट लिया और प्रजा पर अत्याचार किया। मैं हुगली आता हूँ। मेरी फौज तुम्हारी छावनी की तरफ धावा कर रही है। फिर भी यदि कम्पनी के वाणिज्य को प्रचलित नियमों के अनुकूल चलाने की तुम्हारी इच्छा हो, तो एक विश्वास-पात्र आदमी भेजो, जो तुम्हारे सब दावों को समझकर मेरे साथ सन्धि स्थापित कर सके। यदि अंग्रेज व्यापारी ही बनकर पूर्व नियमों के अनुसार रह सकें—तो मैं अवश्य ही उनकी हानि के मामले पर भी विचार करके उन्हें सन्तुष्ट करूँगा।
“तुम ईसाई हो, तुम यह अवश्य जानते होगे कि शान्ति-स्थापना के लिये सारे विवादों का फैसला कर डालना—और विद्वेष को मन से दूर रखना कितना उत्तम है। पर यदि तुमने वाणिज्य-स्वार्थ का नाश करके लड़ाई लड़ने ही का निश्चय कर लिया है, तो फिर उसमें मेरा अपराध नहीं है। सर्वनाशी युद्ध के अनिवार्य कुपरिणाम को रोकने के लिए ही मैं यह पत्र लिखता हूँ।”
हुगली की लूट और नवाब को गर्मागर्म पत्र लिख चुकने पर विलायत से कुछ ऐसी खबरें आईं कि फ्रेंचों से भयंकर लड़ाई आरम्भ हो रही है। भारतवर्ष में फ्रेंचों का जोर अंग्रेजों से कम न था। अंग्रेज लोग अब अपनी करतूतों पर पछताने लगे। शीघ्र ही उन्हें यह समाचार मिला कि नवाब सेना लेकर चढ़ा आ रहा है। अव क्लाइव बहुत घबराया। वह दौड़कर जगतसेठ और अमीचन्द की शरण गया। परन्तु उन्होंने साफ कह दिया कि नवाब अब कभी सन्धि की बात न करेगा। हुगली लूटकर तुमने बुरा किया है। परन्तु जब नवाब का उक्त पत्र पहुंचा, तो मानो अंग्रेजों ने चाँद पाया। उनको कुछ तसल्ली हुई।
कलकत्ते में वणिकराज अमीचन्द के ही महल में नवाब का दरबार लगा। आँगन का बगीचा तरह-तरह के बाग-बहारी और प्रदीपों से सजाया गया। चारों ओर नंगी तलवार लेकर सेनापति तनकर खड़े हुए। भारी-भारी बहुमूल्य रत्नजटित वस्त्र पहनकर लोग दुजानूं होकर, सिर नवाकर बैठे। बीच में सिंहासन, उसके ऊपर विशाल मसनद, ऊपर सोने के डण्डों पर चन्दोवा-जिस पर मोती और रत्नों का काम हो रहा था, लगाया गया। उसी रत्नजटित चम्पे के फूल जैसी खिली मुख-कान्ति से दीप्तमान-बंगाल, बिहार और उड़ीसा का युवक नवाब सिराजुद्दौला आसीन हुआ।
वाट्सन और स्क्राफ्टन अंग्रेजों के प्रतिनिधि बनकर आये। नवाब के ऐश्वर्य को देखकर क्षण-भर वे स्तम्भित रहे। पीछे हिम्मत बाँध, धीरे-धीरे सिंहासन की ओर बढ़े और सम्मानपूर्वक अभिवादन करके नवाब के सामने खड़े हुए।
नवाब ने मधुर स्वर और सम्यक् भाषा में उनका कुशल प्रश्न पूछा, और समझाकर कहा—“मैं तुम्हारे वाणिज्य की रक्षा करना चाहता हूँ, और अपने तथा तुम्हारे बीच में सन्धि-स्थापना करना ही मेरे इतना कष्ट उठाने का कारण है।”
अंग्रेजों ने झुककर कहा—”हम लोग भी सन्धि को उत्कण्ठित हैं, और झगड़े-लड़ाई से हममें बड़ी बाधाएँ पड़ती हैं।”इसके बाद नवाब ने सन्धि की शर्ते तय करने के लिए उन दोनों को दोपहर को डेरे में जाने की आज्ञा दे,दरबार बर्खास्त कर दिया।
षड्यन्त्रकारियों ने देखा-काम तो बड़ी खूबी से समाप्त हो गया है। उन्होंने इस अवसर पर एक गहरी चाल खेली।
मानिकचन्द ने बड़े शुभचिन्तक की तरह अंग्रेजों के कान में कहा-“देखते क्या हो, जान बचाना हो तो भाग जाओ। वहाँ डेरों में तुम्हारी गिरफ्तारी की पूरी-पूरी तैयारियाँ हैं। यह सब नवाब का जाल है। नवाब की तोपें पीछे रह गई हैं। इसीलिये यह धोखा दिया जा रहा है। भागो, मशाल गुल कर दो।” इतना कह, मानिकचन्द झपटकर घर में घुस गया और दोनों अंग्रेज हत्बुद्धि होकर भागे।
उस दिन रात-भर अंग्रेजों ने विश्राम नहीं किया। क्लाइव जलते अंगारे की तरह लाल-लाल होकर सैन्य-सज्जित करने लगा। हेस्टिग्स भी अपने भाग्योदय का अवसर देख, उसमें सम्मिलित हुआ। वाट्सन ने ६०० जहाजी गोरे माँगकर अपनी पैदल सेना में मिलाये, और रात के तीन बजे नवाब के पड़ाव पर आक्रमण कर दिया। नवाब के पड़ाव में उस समय साठ हजार सिपाही, दस हजार सवार और चालीस तोपें थीं। सब मजे में सो रहे थे। क्लाइव ने यह न सोचा, विशाल सैन्य के जागने पर क्या अनर्थ होगा? उसने एकदम तोपें दाग दीं।
एकदम ‘गुडम्-गुड़म्’ सुनकर नवाब की छावनी में हलचल मच गई। जल्दी-जल्दी लोग सजने लगे। सिपाही मशाल जला, हथियार ले, तोपों के पास आने लगे। फिर तो नवाब की तोपें भी प्रचण्ड अग्नि-वर्षा करने लगीं। सवेरा हो जाने पर चारों तरफ धुँआ था। कुछ न दीखता था-तोपों का गर्जन चल रहा था। जब अच्छी तरह सूरज निकल आया, तव लोगों ने आश्चर्य से देखा—क्लाइव की समर-पिपासा वुझ गई है,और उसकी गर्वोन्मत्त पल्टन किले की ओर भाग रही है। नवाबी सेना उनका पीछा कर रही थी। अंग्रेजों के कटे सिपाही जहाँ-तहाँ धूल में पड़े लोट रहे थे। उनकी तोपें भी छिन गई थीं।
क्लाइव की हठधर्मी से अंग्रेजों का सर्वनाश हो गया। इस तुच्छ सेना में १२० अंग्रेजों के प्राण गये।
नवाब ने जब इस एकाएक युद्ध का कारण मालूम किया, तो उसे अपने मन्त्रियों का क्रूर-कौशल मालूम हुआ। उसे पता लगा, उसका सेनापति मीरजाफर स्वयं उस नीच काम में लिप्त है। उसने आक्रमण रोकने की आज्ञा दी। सुरक्षित स्थान पर डेरे डलवाये और अंग्रेजों को फिर सन्धि के लिए बुला भेजा।
क्लाइव बहुत भयभीत हो गया था और सन्धि के लिये घवरा रहा था। परन्तु वाट्सन उसकी बात को न माना। नवाब ने अंग्रेजों की इच्छानुसार ही सन्धि कर ली। अंग्रेजों ने जो माँगा—नवाब ने उन्हें वही दिया। उन्हें व्यापार के पुराने अधिकार भी मिले, किला भी बना रहने देना स्वीकार कर लिया, टकसाल कायम करके शाही सिक्के ढलाने की भी आज्ञा मिल गई, नवाब ने अंग्रेजों की पिछली शर्त की पूर्ति भी स्वीकार की।
इस उदार सन्धि में अंग्रेजों को किसी बात की शिकायत न रह गईथी।परन्तु नवाब को यह न मालूम था कि फ्रांस के साथ जो जाति ६०० वर्ष से लड़कर भी रक्त-पिपासा को शान्त न कर सकी,वह किस प्रकार प्रतिज्ञा-पालन करेगी? नवाब ने समझा था,बनिये हैं, चलो टुकड़े दे-दिलाकर ठण्डा करें—ताकि रोज का झगड़ा मिटे।
परन्तु सन्धि को एक सप्ताह भी न हुआ था, कि अंग्रेज अपने प्रतिद्वन्दी फ्रांसीसियों को सदा के लिये निकाल देने की तैयारी करने लगे। उन्होंने इस पर नवाब का भी मन लिया।सुनकर नवाब को बड़ा क्रोध आया और उसने साफ जवाब दे दिया कि अंग्रेजों की तरह फ्रांसीसी भी मेरी प्रजा हैं। मैं कदापि अपने आश्रितों पर तुम्हारा कोई अत्याचार न होने दूंगा। क्या यही तुम्हारी शान्ति-प्रियता है? अंग्रेज चुप हो गये। नवाब ने कलकत्ते से प्रस्थान किया, पर मार्ग में ही उसे समाचार मिला कि अंग्रेज फ्रांसीसियों का चन्दननगर लूटने की तैयारियां कर रहे हैं। नवाब ने वाट्सन को फिर लिखा—
“सारे झगड़ों को शान्त करने ही के लिए मैंने तुम्हें सब अधिकार तुम्हारी इच्छा के अनुसार दिए हैं। परन्तु मेरे राज्य में तुम फिर क्यों कलह-सृष्टि कर रहे हो? तैमूरलंग के समय से अब तक कभी यूरोपियन यहाँ परस्पर नहीं लड़े। अभी उस दिन सन्धि हुई, अब तुम फिर युद्ध ठान देना चाहते हो। मराठे लुटेरे थे, पर उन्होंने भी सन्धि नहीं तोड़ी। तुमने सन्धि की है। इसका पालन तुम्हें करना होगा। खबरदार, मेरे राज्य में लड़ाई-झगड़ा न मचे। मैंने जो-जो प्रतिज्ञाएँ की हैं—उनका पालन करूँगा।”
पत्र लिखकर ही नवाब शान्त न हुआ। उसने प्रजा की रक्षा के लिए महाराजा नन्दकुमार की अधीनता में हुगली, अमरद्वीप और पलासी में सेनाएँ नियुक्त कर दीं।
मुर्शिदाबाद पहुँचकर नवाव ने सुना कि अंग्रेजों ने चन्दननगर पर आक्रमण करना निश्चय कर लिया है। उसने फिर एक फटकार-भरा पत्र लिखा—”बाइबिल की कसम और खीष्ट की दुहाई ले-लेकर भी सन्धि का पालन न करना शर्म की बात है।”
अबकी बार अंग्रेजों ने जो जवाब लिखा, उसका सार इस प्रकार था–
“आप फ्रांसीसियों के साथ युद्ध से सहमत नहीं हैं—यह मालूम हुआ। फ्रांसीसी यदि हमसे सन्धि कर लें तो हम न लड़ेंगे, पर आपको सूबेदार की हैसियत से उनका जामिन होना पड़ेगा।”
नवाब ने इस कूट-पत्र का सीधा जवाब दिया–“फ्रांसीसी यदि तुमसे लड़ेंगे, तो मैं उनको रोकूँगा। मेरा अभिप्राय प्रजा में शान्ति रखने का है। सन्धि के लिए मैंने फ्रांसीसियों को लिखा है।”
यथासमय फ्रान्सीसियों का प्रतिनिधि सन्धि के लिए कलकत्ते पहुँचा, परन्तु अंग्रेजों ने सन्धि-पत्र पर दस्तखत करती बार अनेक विवाद खड़े किये। वाट्सन साहब इनमें मुख्य थे। निदान, सन्धि नहीं हुई।
पत्र में नवाब ने यह भी लिखा था कि दिल्ली से अब्दाली की सेना मेरे विरुद्ध आ रही है। यदि तुम मेरी मदद अपनी सेना से करोगे, तो मैं तुम्हें एक लाख रुपया दूंँगा।
अव फ्रांसीसी दूत को वापस भेजकर वाट्सन साहब ने लिखा— “यदि आप हमें फ्रांसीसियों को नाश करने की आज्ञा दें,तो हम आपकी सहायता अपनी सेना से कर सकते हैं।”
इस बार सिराजुद्दौला घोर विपत्ति में पड़ गया। दिल्ली की फौज बड़े जोरों से बढ़ रही थी। उधर अंग्रेज फ्रान्सीसियों के नाश की तैयारियां कर रहे थे। नवाब पदाश्रित फ्रान्सीसियों का सर्वनाश करवाकर अंग्रेजों की सहायता मोल ले-या स्वयं संकट में पड़े।
वाट्सन का ख्याल था कि नवाब के सामने धर्म-अधर्म कोई वस्तु नहीं। अपने मतलब के लिए वह अंग्रेजों को राजी करेगा ही। परन्तु नवाब ने वाट्सन को कुछ जवाब न देकर स्वयं सैन्य-संग्रह करने को तैयारियां की। उधर अंग्रेजों की कुछ नई पल्टन बम्बई और मद्रास से आ गई। सब विचारों को ताक पर रखकर अंग्रेजों ने फ्रान्सीसियों से युद्ध की ठान ली, और नवाब को संकटापन्न देख, वाट्सन ने नवाब को लिख भेजा—
“अब साफ-साफ कहने का समय आ गया है। शान्ति की रक्षा यदि आपको अभीष्ट है, तो आज से दस दिन के भीतर-भीतर हमारा सब पावना रुपया हर्जाना का चुका दीजिये, वरना अनेक दुर्घटनाएं उपस्थित होंगी। हमारी बाकी फौज कलकत्ते पहुँचने वाली है,जरूरत पड़ने पर और भी जहाज सेना लेकर आवेगे,और हम ऐसी युद्ध की आग भड़कावेंगे जो तुम किसी तरह भी न बुझा सकोगे।”
नवाब ने इस उद्धृ त पत्र का भी नर्म जवाब लिखकर भेज दिया— “सन्धि के नियमानुसार मैं हर्जाना भेजता हूँ। मगर तुम मेरे राज्य में उत्पात मत मचाना। फ्रान्सीसियों की रक्षा करना मेरा धर्म है। तुम भी ऐसा ही करते, यदि कोई शत्रु भी तुम्हारी शरण आता। हाँ, यदि वे शरारत करें, तो मैं उनका समर्थन न करूंगा।”
अंग्रेजों ने समझ लिया, नवाब की सहायता या आज्ञा मिलना सम्भव नहीं है। उन्होंने जल-मार्ग से वाट्सन की कमान में और स्थलमार्ग से क्लाइव की अधीनता में सेनाएँ चन्दननगर पर रवाना कर दी।
७ फरवरी को सन्धि-पत्र लिखा गया,और ७ ही मार्च को चन्दननगर के सामने अंग्रेजी डेरे पड़ गये। इस प्रकार बाइबिल और मसीह की कसम खाकर जो सन्धि अंग्रेजों ने की थी, उसकी एक ही मास में समाप्ति हो गई।
फ्रान्सीसियों ने किले की रक्षा का पूरा-पूरा प्रबन्ध किया था। पास ही महाराज नन्दकुमार की अध्यक्षता में सेना चाक-चौबन्द उनकी रक्षा के लिये खड़ी थी। क्लाइव, जो बड़े जोरों में आ रहा था-यह सब देखकर भयभीत हुआ। अन्त में अमीचन्द की मार्फत महाराज नन्दकुमार को भरा गया। वे तत्काल अपनी सेना ले,दूर जा खड़े हुए। फिर मुट्ठी-भर फ्रान्सीसियों ने बड़ी वीरता से,२३ तारीख तक चन्दननगर के किले की रक्षा की, और सब वीरों के धराशायी होने पर किले का पतन हुआ। इस प्रकार इस युद्ध में अंग्रेज विजयी हुए।
इधर नवाब नन्दकुमार को वहाँ भेजकर इधर की तैयारी कर रहा था। अहमदशाह अब्दाली की चढ़ाई की खबर गर्म थी,और अंग्रेजों ने घूस खाकर मीरजाफर, जगतसेठ, रायदुर्लभ आदि नमकहरामों ने नवाब के मन में अब्दाली के विषय में तरह-तरह की शंकाएँ, भय तथा विभीषिकाएँ भर रखी थीं। खेद की बात है, नन्दकुमार ने भी नमकहरामी की। फिर भी नवाब ने अपना कर्तव्य-पालन किया। जो फ्रान्सीसी भागकर किसी तरह प्राण बचाकर मुर्शिदाबाद पहुँच गये, उन्हें अन्न, वस्त्र, धन की सहायता दे, कासिम बाजार में स्थान दिया गया।
इस घृणित विजय से गर्वित अंग्रेजों ने जब सुना कि नवाब ने भागे हुए फ्रान्सीसियों को सहायता दी है, तो वे बहुत बिगड़े। वे इस बात को भूल गये कि नवाब देश का राजा है। शरणागतों और खासकर प्रजा की रक्षा करना उसका धर्म है। पहले उन्होंने लल्लो-चप्पो का पत्र लिखकर नवाब से फ्रान्सीसियों को अंग्रेजों के समर्पण करने को लिखा। पीछे जब नवाब ने दृढ़ता न छोड़ी, तो गर्जन-तर्जन से युद्ध की धमकी दी।
नवाब ने कुछ जवाब नहीं दिया। अब वह चुपचाप, सावधान होकर अंग्रेजों के इरादों का पता लगाने लगा। इधर अंग्रेज बाहर से तो फ्रान्सीसियों के नाश के लिये नवाब से कभी लल्लो-चप्पो और कभी घुड़क-फुड़क से काम ले रहे थे, और उधर नवाब को सिंहासन से उतारने की तैयारी कर रहे थे।
चन्दननगर पर अधिकार होते ही क्लाइव ने सवको समझा दिया था कि बस, इतना करके बैठे रहने से काम न चलेगा-कुछ दूर और आगे बढ़कर नवाब को गद्दी से उतारना पड़ेगा। उसके इस मन्तव्य से सब सहमत हुए।
अंग्रेजों ने गहरी चाल चली। घूस की मदद से नवाब के उमरावों द्वारा यह वात नवाब से कहलाई कि फ्रांसीसियों के कासिम बाजार में रहने से शान्ति-भंग होने की आशंका है, आप इन्हें पटना भेज दें-वहाँ यह सुरक्षित रहेंगे। नवाब ने इस बात को साधारण समझकर फ्रेंच सेनापति लॉस को पटना जाने का हुक्म दे दिया। लॉस एक बुद्धिमान अफसर था। उसने कुछ दिन दरबार में रहकर सब व्यवस्था भली-भाँति जांच ली थी। उसने नवाव से कहा—
“आपके बजीर और फौजी सरदार सव अंग्रेजों से मिले हैं, और आपको गद्दी से उतारने की कोशिश कर रहे हैं; केवल फ्रांसीसियों के भय से खुलने का साहस नहीं करते। हमारे हटते ही युद्धानल प्रज्वलित होगी।” नवाब ने सव बात समझकर भी लाचार हो कहा—”आप लोग भागलपुर के पास रहें, मैं बगावत की सूचना पाते ही आपको खबर दूंगा।”
सेनापति लॉस ने आँखों में आँसू भरकर सिर्फ इतना ही कहा—“यही अन्तिम भेंट है-अब हमारा आपका साक्षात न होगा।”
नवाब ने नमकहराम मानिकचन्द को अपराधी पाकर कैद कर लिया। परन्तु पीछे बहुत अनुनय-विनय कर, १० लाख रुपये दे, छूट गया। उसके छूटने से ही भयंकर षड्यन्त्र की जड़ जमी।
इससे जगतसेठ, अमीचन्द, रायदुर्लभ आदि सभी भयभीत हुए— और जगतसेठ का भवन गुप्त-मन्त्रणा का भवन बना। जैन जगतसेठ, मुसलमान मीरगंज मीरजाफर, वैद्य राजवल्लभ, कायस्थ रायदुर्लभ, सूदखोर अमीचंद और प्रतिहिंसा परायण मानिकचंद—इनमें से न किसी का मत मिलता था, न धर्म, न स्वभाव, न काम। वे केवल स्वार्थान्ध होकर एक हुए। उनके साथ ही कृष्णनगर के राजा महाराजेन्द्र कृष्णचन्द्र भूप बहादुर भी मिले। जब आधे बंगाल की अधीश्वरी रानी भवानी को राजा साहब की इस कालिमा का पता चला, तो उसने इशारे से उपदेश देने को उनके पास चूड़ी और सिन्दूर का उपहार भेजा, किन्तु स्वार्थ के रंग में राजा को उस अपमान का कुछ ख्याल न हुआ।
नवाब का ख्याल था कि फ्रांसीसियों से जब ये सब लोग और अंग्रेज भी चिढ़ रहे हैं, तो उन्हें हटा देने से सब सन्तुष्ट हो जायेंगे, नवाब ने सुना कि फ्रांसीसियों को ध्वंस करने को अंग्रेजी पल्टन जा रही है, तो नवाब ने क्रोध में आकर वाट्सन से कहला भेजा—“या तो इसी समय फ्रांसीसियों का पीछा न करने का मुचलका लिख दो, वरना इसी समय राजधानी त्यागकर चले जाओ।”
यह खबर पाकर वाट्सन ने तुरन्त व्यापारी नौकाएँ सजवाईं। उनमें भीतर गोला-बारूद था और ऊपर चावल के बोरे। उनके ऊपर भी ४० सुशिक्षित सैनिक थे। इस प्रकार ७ नावों को लेकर क्लाइव कलकत्ता रवाना हुआ। साथ ही कासिम बाजार के खजाने को कलकत्ता भेजने का गुप्त आदेश भी कर दिया गया।
इसके बाद वाट्सन ने नवाब को अन्तिम पत्र लिखा—
“एक भी फ्रांसीसी के जिन्दा रहते अंग्रेज शान्त न होंगे। हम कासिम बाजार को फौज भेजते हैं, और शीघ्र ही फ्रांसीसियों को बाँध लाने को “पटना फौज भेजी जायगी। इन सब कामों में आपको अंग्रेजों की सहायता करनी पड़ेगी।”
यारलतीफखाँ, पहले जगतसेठ के यहाँ रोटियों पर नौकर था। समय पाकर सिराजुद्दौला की सेवा में २००० सवारों का अधिपति मीरजाफर द्वारा अंग्रेजों को मदद देने का सन्देश सर्वप्रथम उसी के द्वारा अंग्रेजों के पास पहुँचा। दूसरे दिन एक अरमानी सौदागर ख्वाजा विदू ने, जो पहले पालताबन्दर पर भी अंग्रेजों की जासूसी करता था—खबर दी कि मीरजाफर इस शर्त पर आपकी मदद को तैयार है कि आप उसे नवाब बनाइए, पीछे वह आपकी इच्छानुसार कार्य करने को तैयार है। जगतसेठ आदि सब सरदार आपके पक्ष में होंगे। यह भी सलाह हुई कि इस समय क्लाइव को लौट जाना चाहिए। नवाब शीघ्र ही पटना की तरफ अहमदशाह गया। अब्दाली की फौज से लड़ने को कूच करेगा। तव राजधानी पर हमला करना उत्तम होगा।
क्लाइव तत्काल लौट गया, और नवाब को अंग्रेजों ने लिखा—”हम तो सेना लौटा लाये। अव आपने पलासी में क्यों छावनी डाल रखी है?” जो दूत इस पत्र को लेकर गया था, वह वाट्सन साहब के लिये यह चिट्ठी भी ले गया—”मीरजाफर से कहना, घवराये नहीं। मैं ऐसे ५ हजार सिपाहियों को लेकर उसके पक्ष में आ मिलूंगा, जिन्होंने युद्ध में कभी पीठ नहीं दिखाई।”
परन्तु अहमदशाह अब्दाली वापस लौट गया, इसलिये नवाब को पटना जाना ही नहीं पड़ा। इसके सिवा उसने अंग्रेजों की जाली नौकाएँ रोक लीं, और पलासी में ज्यों-की-त्यों छावनी डाले रहा। अंग्रेजों के पीछे गुप्तचर छोड़ दिये दिये। फ्रान्सीसियों को भागलपुर ठहरने को कहला भेजा, और मीरजाफर को १५ हजार सेना लेकर पलासी में रहने का हुक्म दिया।
इधर मीरजाफर से एक गुप्त सन्धि-पत्र लिखाकर १७ मई को कलकत्ते में उस पर विचार हुआ। इस सन्धि-पत्र में एक करोड़ रुपया कम्पनी को, दस लाख कलकत्ते के अंग्रेजों, अरमानी और बंगालियों को, तीस लाख अमीचन्द को देने का मीरजाफर ने वादा किया था। इसके सिवा बगावत के प्रधान सहायकों और पथ-प्रदर्शकों की रकमें अलग एक चिट्ठ में दर्ज की गई थीं। राजकोष में इतना रुपया नहीं था। परन्तु रुपया है या नहीं इस पर कौन विचार करता? चारों ओर लूट ही तो थी!
मसौदा भेजते समय वाट्सन साहब ने लिखा—”अमीचन्द जो माँगता है, वही मंजूर करना। वरना, सब भण्डाफोड़ हो जायगा।”
पहले तो अमीचन्द को मार डालने की ही बात सोची गयी। पीछे क्लाइव ने युक्ति निकाली। उसने दो दस्तावेज लिखाये—एक असली, दूसरा जाली लाल कागज पर। इसी जाली पर अमीचन्द की रकम चढ़ाई गई थी। असली पर उसका कुछ जिक्र न था। वाट्सन ने इस जाली दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया। पर, चतुर क्लाइव ने उसके भी जाली दस्तखत बना दिये।
धोखे से काम निकालने में क्लाइव को ज़रा भी संकोच न होता था, और वह इसमें ज़रा-से भी कष्ट का अनुभव करता। यही दुर्दान्त अंग्रेज युवक था, जिसने अंग्रेजी साम्राज्य की नींव भारत में जमाई, और अंत में आत्मघात करके मरा।
मीरजाफर से संधि पर हस्ताक्षर होने बाकी थे। पर गुप्तचर चारों ओर छूटे हुए थे। वाट्सन साहब बहादुर पर्देदार पालकी में चूंघटवाली स्त्रियों का वेश धर प्रतिष्ठित मुसलमान घराने की स्त्रियों की तरह सीधे मीरजाफर के जनानखाने में पहुँचे, और मीरजाफर ने कुरान सिर पर रख, तथा पुत्र मीरन पर हाथ धर, सन्धि-पत्र पर दस्तखत कर दिये। इस पर भी अंग्रेजों को विश्वास न हुआ, तो उन्होंने जगतसेठ और अमीचन्द को जामिन बनाया। भाग्यविधान से अन्तिम समय मीरजाफर के हाथ कोढ़ से गल गये, और उसके पुत्र मीरन पर अकस्मात् बिजली गिरी थी।
अमीचन्द को धोखा देकर ही अंग्रेज शान्त न रहे, बल्कि वे उसे कलकत्ते में लाकर अपनी मुट्ठी में लाने की जुगत करने लगे। यह काम स्क्वायल के सुपुर्द हुआ। उसने अमीचन्द से कहा-“बातचीत तो समाप्त हो गई। अब दो-ही-चार दिन में लड़ाई छिड़ जायगी। हम तो घोड़े पर चढ़कर उड़न्तू होंगे, तुम बूढ़े हो–क्या करोगे! क्या घोड़े पर भाग सकोगे?”
मूर्ख बनिया घबराकर नवाब से आज्ञा ले, मुर्शिदाबाद भाग गया।
सिराजुद्दौला को मीरजाफर के साथ हुई इस सन्धि का पता चल गया। वाट्सन साहब सावधान हो, घोड़े पर चढ़ हवाखोरी के बहाने भाग गये। नवाब ने अंग्रेजों को अन्तिम पत्र लिखकर अन्त में लिखा–“ईश्वर को धन्यवाद है कि मेरे द्वारा संधि भंग नहीं हुई।”
१२ जून को अंग्रेजों की फौज चली। जिसमें ६५० गोरे, १५० पैदल गोलन्दाज, २१ नाविक, २१०० देशी सिपाही थे। थोड़े पुर्तगीज भी थे। सब मिलाकर कुल ३००० आदमी थे। गोला-बारूद आदि लेकर २०० नावों पर गोरे चले। काले सिपाही पैदल ही गंगा के किनारे-किनारे चले। रास्ते में हुगली, काटोपा, अग्रद्वीप, पलासी की छावनियों में नवाब की काफी फौज पड़ी थी। परन्तु अंग्रेजों ने सबको खरीद लिया था। किसी ने रोक-टोक न की। उधर नवाब ने सब हाल जानकर भी मीरजाफर को उसके अपराधों को क्षमा करके महल में बुला भेजा। लोगों ने उसे गिरफ्तार करने की भी सलाह दी थी, परन्तु नवाब ने समझा-अलीवर्दी के नाम और इस्लाम धर्म का ख्याल कर समझाने-बुझाने से वह सीधे मार्ग पर आ जायगा। पर मीरजाफर डरकर राजमहल में नहीं गया।
अन्त में आत्माभिमान को छोड़कर नवाब स्वयं पालकी में बैठकर मीरजाफर के घर पहुँचा। मीरजाफर को अब बाहर निकलना पड़ा। उसकी आँखों में शर्म आई। उसने अपने प्यारे मित्र सरदार के मुख से करुणा-जनक धिक्कार सुनी। मीरजाफर ने नवाव के पैर छूकर सव स्वीकार किया। कुरान उठायी और सिर से लगाकर ईश्वर और पैगम्वर की कसम खाकर, उसने अंग्रेजों से सम्बन्ध तोड़कर–नवाब की सेवा धर्मपूर्वक करने की प्रतिज्ञा की।
घर की इस फूट को प्रेमपूर्वक मिटाकर नवाब को सन्तोष हुआ। अब उसने सेना का आह्वान किया। पर बागियों के बहकाने से सेना ने पहले विना वेतन पाये, युद्ध-यात्रा से इनकार कर दिया। नवाब ने वह भी चुकाया। मीरजाफर प्रधान सेनापति बना। यारलतीफखाँ, दुर्लभराय, मीर मदनमोहनलाल और फ्रेंच सिनफ्रे एक-एक विभाग के सेनाध्यक्ष बने।
मीरजाफर ने क्लाइव को, नवाब के साथ जो कसम-धर्म हुआ था–सब लिख भेजा। साथ ही यह भी लिख दिया– “बढ़े चले आओ, मैं अपने वचनों का वैसा ही पक्का हूँ।”
पर क्लाइव को आगे बढ़ने का साहस नहीं हुआ। वह पाटुली में छावनी डालकर पड़ गया। सामने कोठाया का किला था। यह निश्चय हो चुका था कि सेनाध्यक्ष मीरजाफर कुछ देर बनावटी युद्ध करके पराजय स्वीकार कर लेगा। क्लाइव ने पहले इसी की सचाई जाननी चाही। मेजर कूट २०० गोरे और ३०० काले सिपाही लेकर किले पर चढ़ा। मराठों के समय में गहरी-गहरी लड़ाइयों के कारण भागीरथी और अजम के संगम का यह किला वीरों की लीला-भूमि प्रसिद्ध हो चुका था। परन्तु इस बार फाटक पर युद्ध नहीं हुआ। कुछ देर नवाबी सेना नाटक-सा खेलकर जगह-जगह अपने ही हाथों से आग लगाकर भाग गई। क्लाइव ने विजय-गर्वित की तरह किले पर अधिकार किया। नगर-निवासी प्राण लेकर भागे–अंग्रेजों ने उनका सर्वस्व लूट लिया। केवल चावल ही इतना मिल गया था–जो १० हजार सिपाहियों को १ वर्ष तक के लिये काफी था। फिर भी क्लाइव विश्वास और अविश्वास के बीच में झकझोरे ले रहा था।
वह बड़ा ही भयभीत था। यदि कहीं हार जाता तो हार का समाचार ले जाने के लिए भी एक आदमी को जिन्दा वापस जाने का मौका नहीं मिलता।
२२ जून को गंगा पार करके मीरजाफर के बनाये संकेतों पर वह आगे और रात्रि के दो बजे पलासी के लक्खीबाग में मोर्चे जमाये। नवाब का पड़ाव उसके नजदीक ही तेजनगरवाले विस्तृत मैदान में था। परन्तु उसकी सेना का प्रत्येक सिपाही मानो उसका सिपाही न था। वह रात-भर अपने खेमे में चिन्तित बैठा रहा।
रात बीती। प्रभात आया। अंग्रेजों ने बाग के उत्तर की ओर एक खुली जगह में व्यूह-रचना की। नवाब की सेना मीरजाफर, दुर्लभराय, यारलतीफखाँ–इन तीन नमकहरामों की अध्यक्षता में अर्द्धचन्द्राकार व्यूह-रचना करके बाग को घेरने के लिये बढ़ी।
अंग्रेज क्षण-भर को घबराये। क्लाइव ने सोचा कि यदि यह चन्द्र-व्यूह तोपों में आग लगा दे, तो सर्वनाश है। पर जब उसने उस सेना के नायकों को देखा तो धैर्य हुआ। क्लाइव की गोरी पल्टन चार दलों में विभक्त हुई, जिसके नायक क्लिप्याट्रिक, ग्राण्ट क्रट और कप्तान गप थे। बीच में गोरे, दाएं-बाएँ काले सिपाही थे। नवाब की सेना के एक पार्श्व में फ्रेंच-सेनापति सिनफे, एक में मोहनलाल और उनके बीच में मीरमदन। फौजकशी का भार मीरमदन ने लिया। अंग्रेजों ने देखा–नवाब का व्यूह दुर्भेद्य है।
प्रातः आठ बजे मीरमदन ने तोपों में आग लगाई। शीघ्र ही तोपों का दोनों ओर से घटाघोप हो गया। आधे घण्टे में १० गोरे और २० काले आदमी मर गये। क्लाइव की युद्ध-पिपासा इतने ही में मिट गई। उसने समझ लिया, इस प्रकार प्रत्येक मिनट में एक आदमी के मरने और अनेकों के जख्मी होने से यह ३०० सिपाही कितनी देर ठहरेंगे? क्लाइव को पीछे हटना पड़ा। उसकी फौज ने बाग के पेड़ों का आश्रय लिया। वे छिपकर गोले दागने लगे। पर उनकी दो तोपें बाहर रह गईं। चार तोपें बाग में थीं। नवाब की तोपों का मोर्चा चार हाथ ऊँचा था। अतएव मीरमदन की तोपों से तडातड़ गोले दग रहे थे।
यह देखकर क्लाइव घबरा गया। उस समय वह अमीचन्द पर बिगड़ा। क्लाइव ने अमीचन्द से क्रोधित होकर कहा–“ऐसा ही वायदा था कि मामूली लड़ाई लड़कर शाही फौज भाग खड़ी होगी। ये सब बातें झूठी हो रही हैं।
अमीचन्द ने कहा–“सिर्फ मीरमदन और मोहनलाल ही लड़ रहे हैं। ये नवाब के सच्चे सहायक हैं। किसी तरह इन्हीं को हराइये। दूसरा कोई सेनापति हथियार न चलायेगा।”
मीरमदन वीरतापूर्वक गोले चला रहा था। उस समय मीरजाफर की सेना यदि आगे बढ़कर तोपों में आग लगा देती, तो अंग्रेजों की समाप्ति थी। मगर वे तीनों पाजी खड़े तमाशा देखते रहे। क्लाइव ने १२ बजे पसीने से लथपथ सामरिक मीटिंग की। उसमें निश्चय किया कि दिन-भर बाग में छिपे रहकर किसी तरह रक्षा करनी चाहिए।
इतने ही में एकाएक मेंह बरसने लगा। मीरमदन की बहुत-सी बारूद भीग गई। फिर भी वह वीरतापूर्वक भागी हुई सेना का पीछा कर रहा था। इतने में एक गोले ने उसकी जाँघ तोड़ डाली। अव मोहनलाल युद्ध करने लगा। मीरमदन को लोग हाथों-हाथ उठाकर नवाब के पास ले गये। उसने ज्यादा कहने का अवसर न पाया। सिर्फ इतना कहा–“शत्रु बाग में भाग गये। फिर भी आपका कोई सरदार नहीं लड़ता। सब खड़े तमाशा देखते हैं।” इतना कहते-कहते ही उसने दम तोड़ दिया। नवाब को इस वीर पर बहुत भरोसा था। इसकी मृत्यु से नवाब मर्मा-हत हुआ। उसने मीरजाफर को बुलाया। वह दल बाँधकर सावधानी से नवाब के डेरे में घुसा। उसके सामने आते ही नवाब ने अपना मुकुट उसके सामने रखकर कहा–“मीरजाफर! जो हो गया, सो हो गया। अलीवर्दी के इस मुकुट को तुम सच्चे मुसलमान की तरह बचाओ।”
मीरजाफर ने यथोचित् रीति से सम्मानपूर्वक मुकुट को अभिवादन करते हुए, छाती पर हाथ मारकर बड़े विश्वास के साथ कहा–“अवश्य ही शत्रु पर विजय प्राप्त करूँगा। पर अब शाम हो गई है, और फौजें थक गई हैं। सवेरे मैं कयामत वर्पा कर दूंगा।”
नवाब ने कहा–“अंग्रेजी फौज रात को आक्रमण करके क्या सर्वनाश न कर देगी!”
मीरजाफर ने गर्व से कहा–“फिर हम किसलिए हैं?”
नवाब का भाग्य फूट गया। उसे मति-भ्रम हुआ। उसने फौजों को पड़ाव से लौटने की आज्ञा दे दी। तब महाराज मोहनलाल वीरतापूर्वक धावा कर रहे थे। उन्होंने सम्मानपूर्वक कहला भेजा–“बस अब दो-ही-चार घड़ी में लड़ाई का खात्मा होता है। यह समय लौटने का नहीं है। एक कदम पीछे हटते ही सेना का छत्र-भंग हो जायगा। मैं लौटूंगा नहीं, लड़ूँगा।”
मोहनलाल का यह जवाब सुन, मीरजाफर थर्रा गया। उसने नवाब को पट्टी पढ़ाकर फिर आज्ञा भिजवाई। बेचारा मोहनलाल साधारण सरदार था–क्या करता? क्रोध से लाल होकर कतारें बाँध, पड़ाव को लौट आया।
मीरजाफर की इच्छा पूरी हुई। उसने क्लाइव को लिखा- “मीरमदन मर गया। अब छिपने का कोई काम नहीं। इच्छा हो, तो इसी समय, वरना रात के तीन बजे आक्रमण करो-सारा काम बन जायगा।”
मोहनलाल को पीछे फिरता देख, और मीरजाफर का इशारा पा, क्लाइव ने स्वयं फौज की कमान ली, और बाग से बाहर निकल धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। यह रंग-ढंग देख बहुत-से नवाबी सिपाही भागने लगे, पर मोहनलाल और सिनफ्रे फिर घूमकर खड़े हो गये।
इधर दुर्लभराय ने नवाब को खबर दी कि आपकी फौज भाग रही है। आप भागकर प्राण बचाइये। नवाब का प्रारब्ध टूट चुका था। सभी हरामी, शत्रु और दगाबाज थे। उसने देखा–मेरे पक्ष के आदमी बहुत ही कम हैं। राजवल्लभ ने उसे राजधानी की रक्षा करने की सलाह दी। अतः नवाब ने २००० सवारों के साथ हाथी पर सवार हो, रण-क्षेत्र त्यागा। तीसरे पहर तक मोहनलाल और फ्रेंच सिनफ्रे लड़े। परन्तु विश्वासघातियों से खीझकर अन्त में उन्होंने भी रण-भूमि छोड़ी। नवाब के सूने खेमे पर क्लाइव और मीरजाफर ने अधिकार कर लिया।
जिस सेना ने इस युद्ध में विजय पाई थी-उसके झण्डे पर सम्मानार्थ “पलासी” लिख दिया गया और उस वाग के एक आम के वृक्ष की लकड़ी का एक सन्दूक बनाकर अंग्रेजों ने महारानी विक्टोरिया को भेंट किया। आज भी उस स्थान पर एक जय-स्तम्भ खड़ा अंग्रेजों की वीरता की कहानी कह रहा है।
राजधानी में नवाब के पहुंचने से पहले ही नवाब के हारने की खबर सर्वत्र फैल गई। चारों ओर भाग-दौड़ मच गई। अंग्रेजों की लूट के डर से लोग इधर-उधर भागने लगे। नवाब के सरदारों को बुलाकर दरबार करना चाहा। मगर औरतें तथा स्वयं उसके श्वसुर मुहम्मद रहीम खाँ ही उधर ध्यान न दे, भाग खड़े हुए। देखा-देखी सभी भाग गये।
अब सिराजुद्दौला ने स्वयं सैन्य-संग्रह के लिये गुप्त खजाना खोला। सुबह से शाम तक और शाम से रात-भर सिपाहियों को प्रसन्न करने को खूब इनाम बाँटा गया। शरीर-रक्षक सिपाहियों ने खुला खजाना पाकर खूब गहरा हाथ मारा, और यह धर्म प्रतिज्ञा करके कि प्राण-पण से सिंहासन की रक्षा करेंगे-एक-एक ने भागना शुरू किया। धीरे-धीरे खासमहल के सिपाही भी भागने लगे। एकाएक रात्रि के सन्नाटे में मीरजाफर को विकराल तोपों का गर्जन सुन पड़ा। अभागा सज्जन और ऐयाश नबाव अन्त में गौरवान्वित सिंहासन को छोड़कर अकेला चला। पीछे-पीछे पुराना द्वारपाल और प्यारी बेगम लुत्फुिन्निसा छाया की तरह हो लिये।
प्रातः मीरजाफर ने शीघ्र ही सूने राजमहल में अधिकार जमाकर नवाब की खोज में सिपाही दौड़ाये। नवाब की हितू-बन्धु-स्त्रियाँ कैद कर ली गईं। मोहनलाल घायल अवस्था में कैद किया गया, और नीच दुर्लभराय ने उसे मार डाला। फिर भी मीरजाफर को सिंहासन पर बैठने का साहस न हुआ। वह क्लाइव का इन्तजार करने लगा। पर क्लाइव का कई दिनों तक नगर में आने का साहस न हुआ। २६ जून को २०० गोरे, ५०० काले सिपाहियों के साथ क्लाइव ने राजधानी में प्रवेश किया।
शाही सड़क पर उस दिन इतने आदमी जमा थे कि यदि वे अंग्रेजों के विरोध का संकल्प करते तो केवल लाठी, सोटों, पत्थरों ही से सब काम हो जाता।
अन्त में राजमहल में आकर क्लाइव ने मीरजाफर को नवाब बनाकर सबसे पहले कम्पनी के प्रतिनिधि-स्वरूप नजर पेश करके बंगाल और उड़ीसा का नवाब कहकर अभिवादन किया।
इसके बाद बाँट-चूंट, जो होना था, कर लिया गया। शाहपुर के पास सिराजुद्दौला को मार्ग में मीरकासिम ने पकड़ लिया। उसकी असहाय बेगम लुत्फुिन्निसा के गहने लूट लिये और बाँधकर राजधानी लाया गया। मुर्शिदाबाद में हलचल मच गई। बगावत के डर से नये नवाब ने अपने पुत्र मीरन के हाथ से उसी रात को सिराजुद्दौला को मरवा डाला।
वध करने का काम मुहम्मदखाँ के सुपुर्द हुआ। यह नमकहराम भी जाफर और मीरन की तरह सिराज के टुकड़ों पर पला था। मुहम्मदखाँ हाथ में एक बहुत तेज तलवार ले, सिराजुद्दौला की कोठरी में जा दाखिल हुआ। उसे इस तरह सामने देख, सिराजुद्दौला ने घबड़ाकर कहा-“क्या तुम मुझे मारने आये हो?”
उत्तर मिला-“हाँ।”
अन्तिम समय निकट आया समझ, सिराजुद्दौला ने ईश्वर-प्रार्थना के लिये हाथ-पैरों की जंजीर खोलने की प्रार्थना की। पर वह नामंजूर हुई। डर के मारे उसका गला चिपक गया था। उसने पानी माँगा, पर पानी भी न दिया गया। लाचार हो, जमीन पर माथा रगड़कर सिराजुद्दौला बार-बार ईश्वर का नाम लेकर अपने अपराधों की क्षमा माँगने लगा। इसके बाद लपटती जबान और टूटे स्वर से उसने नमकहराम, टुकड़खोर मुहम्मदखां से कहा-“तब, वे लोग मुझे तिल-भर भी जगह न देंगे। टुकड़ा खाने को भी न देंगे। इस पर भी वे राजी नहीं हैं?” यह कहकर के लिये चुप हो गया।
फिर कुछ देर में बोला-“नहीं, इस पर भी वे राजी नहीं हैं। मुझे करना ही पड़ेगा।”
आगे बोलने का उसे अवसर न मिला। देखते-ही-देखते मुहम्मदखाँ की तेज तलवार उसकी गर्दन पर पड़ी। खून का फव्वारा बह निकला, और देखते-ही-देखते बंगाल, बिहार और उड़ीसा का युवक नवाब ठण्डा हो गया। हत्यारे मुहम्मदखाँ ने उसके जिस्म के टुकड़े-टुकड़े करके, उन्हें एक हाथी पर लदवाकर शहर में घुमाने का हुक्म दिया।
क्लाइव से अगले दिन मीरजाफर ने इसका जिक्र करके क्षमा मांगी। क्लाइव ने मुस्कराकर कहा- “इसके लिये यदि माफी न मांगी जाती, तो कुछ हर्ज न था।”