श्रीकान्त (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 7
अध्याय 13
मनुष्य की परलोक की चिन्ता में शायद पराई चिन्ता के लिए कोई स्थान नहीं। नहीं तो, मेरे खाने-पहरने की चिन्ता राजलक्ष्मी छोड़ बैठी, इतना बड़ा आश्चर्य संसार में और क्या हो सकता है? इस गंगामाटी में आए ही कितने दिन हुए होंगे, इन्हीं कुछ दिनों में सहसा वह कितनी दूर हट गयी! अब मेरे खाने के बारे में पूछने आता है रसोइया और मुझे खिलाने बैठता है रतन। एक हिसाब से तो जान बची, पहले की सी जिद्दा-जिद्दी अब नहीं होती। कमजोरी की हालत में अब ग्यारह बजे के भीतर न खाने से बुखार नहीं आता। अब तो जो इच्छा हो वह, और जब चाहूँ तब, खाऊँ। सिर्फ रतन की बार-बार की उत्तेजना और महाराज की सखेद आत्म-भर्त्सना से अल्पाहार का मौका नहीं मिलता- वह बेचारा म्लान मुख से बराबर यही सोचा करता है कि उसके बनाने के दोष से ही मेरा खाना नहीं हुआ। किसी तरह इन्हें सन्तुष्ट करके बिस्तर पर जाकर बैठता हूँ। सामने वही खुला जँगला, और वही ऊसर प्रान्त की तीव्र तप्त हवा। दोपहर का समय जब सिर्फ इस छाया-हीन शुष्कता की ओर देखते-देखते कटना ही नहीं चाहता तब एक प्रश्न मुझे सबसे ज्यादा याद आया करता है, कि आखिर हम दोनों का सम्बन्ध क्या है? प्यार वह आज भी करती है, इस लोक में मैं उसका अत्यन्त अपना हूँ, परन्तु लोकान्तर के लिए मैं उसका उतना ही अधिक पराया हूँ। उसके धर्म-जीवन का मैं साथी नहीं हूँ- हिन्दू घराने की लड़की होकर इस बात को वह नहीं भूली है कि वहाँ मुझ पर दावा करने के लिए उसके पास कोई दलील नहीं, सिर्फ यह पृथ्वीा ही नहीं- इसके परे भी जो स्थान है, उसके लिए पाथेय सिर्फ मुझे प्यार करने से नहीं मिल सकेगा- यह सन्देह शायद उसके मन में खूब बड़े रूप में हो उठा है।
वह रही उन बातों को लेकर और मेरे दिन कटने लगे इस तरह। कर्महीन, उद्देश्यहीन जीवन का दिवारम्भ होता है श्रान्ति में, और अवसान होता है अवसन्न ग्लानि में। अपनी आयु की अपने ही हाथ से प्रतिदिन हत्या करते चलने के सिवा मानो दुनिया में मेरे लिए और कोई काम ही नहीं है। रतन आकर बीच-बीच में हुक्का दे जाता है, समय होने पर चाय पहुँचा देता है- बोलता-चालता कुछ नहीं। मगर उसका मुँह देखने से मालूम होता है कि वह भी अब मुझे कृपा की दृष्टि से देखने लगा है। कभी सहसा आकर कहता, “बाबूजी, जँगला बन्द कर दीजिए, लू की लपट आती है।” मैं कह देता, “रहने दे।” मालूम होता, न जाने कितने लोगों के शरीर के स्पर्श और कितने अपरिचितों के तप्त श्वासों का मुझे हिस्सा मिल रहा है। हो सकता है कि मेरा वह बचपन का मित्र इन्द्रनाथ आज भी जिन्दा हो, और यह उष्ण वायु अभी तुरन्त ही उसे छूकर आई हो। सम्भव है कि वह भी मेरी ही तरह बहुत दिनों के बिछुड़े हुए अपने सुख-दु:ख के बाल्य साथी की याद करता हो। और हम दोनों की वह अन्नबदा- जीजी! सोचता, शायद इतने दिनों में उसे समस्त दु:खों की समाप्ति हो गयी हो। कभी-कभी ऐसा मालूम होता कि इसी कोने में ही तो बर्मा देश है, हवा के लिए तो कोई रुकावट है नहीं, फिर कौन कह सकता है तक समुद्र पार होकर अभया का स्पर्श भी वह मेरे पास तक बहाती हुई नहीं ले आ रही है? अभया की बात याद आते ही कुछ ऐसा हो जाता है कि सहज में वह मेरे मन से निकलना ही नहीं चाहती। रोहिणी भइया शायद इस वक्त काम पर गये हैं और अभया अपने मकान का सदर दरवाजा बन्द करके सिलाई के काम में लगी हुई है। दिन में मेरी तरह वह सो नहीं सकती, शायद किसी बच्चे के लिए छोटी कँथड़ी, या उसकी तरह की किसी तकिये की खोल, या ऐसा ही कोई अपनी गृहस्थी का छोटा-मोटा काम कर रही है।
छाती के भीतर जैसे तीर-सा चुभ जाता। युग-युगान्तर से संचित संस्कार और युग-युगान्तर के भले-बुरे विचारों का अभिमान मेरे रक्त के अन्दर भी तो डोल-फिर रहा है- फिर कैसे मैं इसे निष्कपट भाव से ‘दीर्घायु हो’ कहकर आशीर्वाद दूँ! परन्तु, मन तो शरम और संकोच के मारे एकबारगी छोटा हुआ जाता है।
काम में लगी हुई अभया की शान्त प्रसन्न छवि मैं अपने हिये की ऑंखों से देख सकता हूँ। उसके पास ही निष्कलंक सोता हुआ बालक है। मानो हाल के खिले हुए कमल के समान शोभा और सम्पद से, गन्ध और मधु से, छलक रहा है। इस अमृत वस्तु की क्या जगत में सचमुच ही जरूरत न थी? मानव-समाज में मानव-शिशु का सम्मान नहीं, निमन्त्रण नहीं, स्थान नहीं, इसी से क्या घृणा भाव से उसको दूर कर देना होगा? कल्याण के धन को ही चिर-अकल्याण में निर्वासित कर देने की अपेक्षा मानव-हृदय का बड़ा धर्म क्या और है ही नहीं?
अभया को मैं पहचानता हूँ। इतना-भर पाने के लिए उसने अपने जीवन का कितना दिया है, सो और कोई न जाने, मैं तो जानता हूँ। हृदय की बर्बरता के साथ सिर्फ अश्रद्धा और उपहास करने से ही संसार में सब प्रश्नों का जवाब नहीं हो जाता। भोग! अत्यन्त स्थूल और लज्जाजनक देह का भोग! हो भी सकता है! अभया को धिक्कार देने की बात जरूर है!
बाहर की गरम हवा से मेरी ऑंखों के गरम ऑंसू पलक मारते ही सूख जाते। बर्मा से चले आने की बात याद आती। तब की बात जब कि रंगून में मौत के डर से भाई बहन को और लड़का बाप को भी ठौर न देता था, मृत्यु-उत्सव की उद्दण्ड मृत्यु-लीला शहर-भर में चालू थी- ऐसे समय जब मैं मृत्यु-दूत के कन्धों पर चढ़कर उसके घर जाकर उपस्थित हुआ, तब, नयी जमाई हुई घर-गृहस्थी की ममता ने तो उसे एक क्षण के लिए भी दुविधा में नहीं डाला। उस बात को सिर्फ मेरी आख्यायिका की कुछ पंक्तियाँ पढ़कर ही नहीं समझा जा सकता। मगर, मैं तो जानता हूँ कि वह क्या है! और भी बहुत ज्यादा जानता हूँ। मैं जानता हूँ, अभया के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। मृत्यु!- वह भी उसके आगे छोटी ही है। देह की भूख, यौवन की प्यास- इन सब पुराने और मामूली शब्दों से उस अभया का जवाब नहीं हो सकता। संसार में सिर्फ बाहरी घटनाओं को अगल-बगल लम्बी सजाकर उससे सभी हृदयों का पानी नहीं नापा जा सकता।
काम-धन्धे के लिए पुराने मालिक के पास अर्जी भेजी है, भरोसा है कि वह नामंजूर न होगी। लिहाजा फिर हम लोगों की मुलाकात होगी। इस अरसे में दोनों तरफ बहुत-सा अघटन घट गया है। उसका भार भी मामूली नहीं, परन्तु उस भार को उसने इकट्ठा किया है अपनी असाधारण सरलता से और अपनी इच्छा से। और, मेरा भार इकट्ठा हुआ है उतनी ही बलहीनता से और इच्छा-शक्ति के अभाव से। मालूम नहीं, इसका रंग और चेहरा उस दिन आमने-सामने कैसा दिखाई देगा।
अकेले दिन-भर में जब मेरा जी हाँफने लगता, तब दिन उतरने के बाद जरा टहलने निकल जाता। पाँच-सात दिन से यह टहलना एक आदत में शुमार हो गया था। जिस धूल-भरे रास्ते से एक दिन गंगामाटी में आया था, उसे रास्ते से किसी-किसी दिन बहुत दूर तक चला जाता था। अन्यमनस्क भाव से आज भी उसी तरह जा रहा था, सहसा-सामने देखा कि धूल का पहाड़-सा उड़ाता हुआ कोई घुड़सवार दौड़ा चला आ रहा है। डरकर मैं रास्ता छोड़कर किनारे हो गया। सवार कुछ आगे बढ़ जाने के बाद रुका और लौटकर मेरे सामने खड़ा होकर बोला, “आपका ही नाम श्रीकान्त बाबू है न? मुझे पहिचाना आपने?”
मैंने कहा, “नाम मेरा यही है, मगर आपको तो मैं न पहिचान सका।”
वह घोड़े से उतर पड़ा। मैली-कुचैली फटी साहबी पोशाक पहने हुए उसने अपना पुराना सोले का हैट उतारते हुए कहा, “मैं सतीश भारद्वाज हूँ। थर्ड क्लास से प्रमोशन मिलने पर सर्वे स्कूल में पढ़ने चला गया था, याद नहीं?”
याद आ गयी। मैंने खुश होकर कहा, “कहते क्यों नहीं, तुम हमारे वही मेंढक हो! यहाँ साहब बने कहाँ जा रहे हो?”
मेंढक ने हँसकर कहा, “साहब क्या अपने वश बना हूँ भाई! रेलवे कन्स्ट्रक्शन में सब-ओवरसियरी का काम करता हूँ, कुली चराने में ही जिन्दगी बीती जा रही है, हैट-कोट के बिना गुजर कहाँ? नहीं तो, एक दिन वे ही मुझे चराकर अलग कर दें। सोपलपुर में जरा काम था, वहीं से लौट रहा हूँ- करीब एक मील पर मेरा तम्बू है, साँइथिया से जो नयी लाइन निकल रही है, उसी पर मेरा काम है। चलोगे मेरे डेरे पर? चाय पीकर चले आना।”
नामंजूर करते हुए मैंने कहा, “आज नहीं, और किसी दिन मौका मिला तो आऊँगा।”
उसके बाद मेंढक बहुत-सी बातें पूछने लगा। तबीयत कैसी रहती है, कहाँ रहते हो, यहाँ किस काम से आय हो, बाल-बच्चे कितने हैं, कैसे हैं, वगैरह-वगैरह।
जवाब में मैंने कहा, तबीयत ठीक नहीं रहती, रहता हूँ गंगामाटी में, यहाँ आने के बहुत से कारण हैं, जो अत्यन्त जटिल हैं। बाल-बच्चा कोई नहीं है, लिहाजा यह प्रश्न ही निरर्थक है।
मेंढक सीधा-साधा आदमी है। मेरा जवाब ठीक न समझ सकने पर भी, ऐसा दृढ़ संकल्प उसमें नहीं है कि दूसरे की सब बातें समझनी ही चाहिए। वह अपनी ही बात कहने लगा। जगह स्वास्थ्यकर है, साग-सब्जी मिलती है, मछली और दूध भी कोशिश करने पर मिल जाता है, पर यहाँ आदमी नहीं हैं, साथी-सँगी कोई नहीं। फिर भी विशेष तकलीफ नहीं, कारण शाम के बाद जरा नशा-वशा कर लेने से काम चल जाता है। साहब लोग कैसे भी हों, पर बंगालियों से बहुत अच्छे हैं- टेम्परेरी तौर पर एक ताड़ी का शेड खोला गया है-जितनी तबीयत आवे, पीओ। पैसे तो एक तरह से लगते ही नहीं समझ लो- सब अच्छा ही है- कन्स्ट्रक्शन में ऊपरी आमदनी भी है, और चाहूँ तो तुम्हारे लिए भी साहब से कह-सुनकर आसानी से एक नौकरी दिलवा सकता हूँ- इसी तरह की अपने-सौभाग्य की छोटी-बड़ी बहुत-सी बातें वह कहता रहा। फिर अपने गठियावाले घोड़े की लगाम पकड़े मेरे साथ-साथ वह बहुत दूर तक बकता हुआ चला। बार-बार पूछने लगा कि मैं कब तक उसके डेरे पर पधारूँगा, और मुझे भरोसा दिया कि पोड़ापाटी में उसे अकसर अपने काम से जाना पड़ता है, लौटते वक्त वह किसी दिन मेरे यहाँ गंगामाटी में जरूर हाजिर होगा।
इस दिन घर लौटने में मुझे जरा रात हो गयी। रसोइए ने आकर मुझसे कहा कि भौजन तैयार है। हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदलकर खाने बैठा ही था कि इतने में राजलक्ष्मी की आवाज सुनाई दी। वह घर में आकर चौखट पर बैठ गयी, हँसती हुई बोली, “मैं पहले से कहे देती हूँ, तुम किसी बात पर एतराज न कर सकोगे।”
मैंने कहा, “नहीं, मुझे ज़रा भी एतराज नहीं।”
“किस बात पर, बिना सुने ही?”
मैंने कहा, “जरूरत समझो तो कह देना किसी वक्त।”
राजलक्ष्मी का हँसता चेहरा गम्भीर हो गया, बोली, “अच्छा।” सहसा उसकी निगाह पड़ गयी मेरी थाली पर। बोली, “अरे, भात खा रहे हो? जानते हो कि रात को तुम्हें भात झिलता नहीं- तुम क्या अपनी बीमारी न अच्छी करने दोगे मुझे, यही तय किया है क्या?”
भात मुझे अच्छी तरह ही झिल रहा था, मगर इस बात के कहने से कोई लाभ नहीं। राजलक्ष्मी ने तीव्र स्वर में आवाज दी, “महाराज!” दरवाजे के पास महाराज के आते ही उसे थाली दिखाते हुए राजलक्ष्मी ने पहले से भी अधिक तीव्र स्वर में कहा, “यह क्या है? तुम्हें शायद हजार बार मना कर दिया है कि रात में बाबू को भात न दिया करो- जाओ, जुरमाने में एक महीने की तनखा कट जायेगी।” मगर, इस बात को सभी नौकर-चाकर जानते थे कि रुपयों के रूप में जुर्माने के कुछ मानी नहीं होते, लेकिन फटकार के लिहाज़ से तो उसके मानी हैं ही। महाराज ने गुस्से में आकर कहा, “घी नहीं है, मैं क्या करूँ?”
“क्यों नहीं है, सो मैं सुनना चाहती हूँ।”
उसने जवाब दिया, “दो-तीन बार कहा है आपसे कि घी निबट गया है, आदमी भेजिए। आप न भेजें तो इसमें मेरा क्या दोष?”
घर-खर्च के लिए मामूली घी यहीं मिल जाता है, पर मेरे लिए आता है साँइथिया के पास के किसी गाँव से। आदमी भेजकर मँगाना पड़ता है। घी की बात या तो अन्यमनस्कता के कारण राजलक्ष्मी ने सुनी नहीं, या फिर वह भूल गयी। उससे पूछा, “कब से नहीं है महाराज?”
“हो गये पाँच-सात दिन।”
“तो पाँच-सात दिन से इन्हें भात खिला रहे हो?”
रतन को बुलाकर कहा, “मैं भूल गयी तो क्या तू नहीं मँगा सकता था? क्या इस तरह सभी मिलकर मुझे तंग कर डालोगे?”
रतन भीतर से अपनी माँजी पर बहुत खुश न था। दिन-रात घर छोड़कर अन्यत्र रहने और खासकर मेरी तरफ से उदासीन हो जाने से उसकी नाराजगी हद तक पहुँच चुकी थी। मालकिन के उलाहने के उत्तर में उसने भले आदमी का सा मँह बनाकर कहा, “क्या जानूँ माँजी, तुमने सुनी-अनसुनी कर दी तो मैंने सोचा कि बढ़िया कीमती घी की शायद अब जरूरत न हो। तभी तो भला पाँच-छह दिन से मैं कमजोर आदमी को भात खाने देता?”
राजलक्ष्मी के पास इसका जवाब ही न था, इसलिए नौकर से इतनी बड़ी चुभने वाली बात सुनकर भी वह बिना कुछ जवाब दिये चुपके से उठकर चली गयी?
रात को बिस्तर पर पड़े-पड़े बहुत देर तक छटपटाते रहने के बाद शायद कुछ झपकी-सी लगी होगी, इतने में राजलक्ष्मी दरवाजा खोलकर भीतर आई और मेरे पाँयते के पास बहुत देर तक चुपचाप बैठी रही; फिर बोली, “सो गये क्या?”
मैंने कहा, “नहीं तो।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “तुम्हें पाने के लिए मैंने जितना किया है, उससे आधा भी अगर भगवान के पाने के लिए करती तो अब तक शायद वे भी मिल जाते। मगर मैं तुम्हें न पा सकी।”
मैंने कहा, “हो सकता है कि आदमी को पाना और भी कठिन हो।”
“आदमी को पाना?” राजलक्ष्मी क्षण-भर स्थिर रहकर बोली, “कुछ भी हो, प्रेम भी तो एक तरह का बन्धन है, शायद यह भी तुमसे नहीं सहा जाता-ऑंसता है।”
इस अभियोग का कोई जवाब नहीं, यह अभियोग शाश्वत और सनातन है। आदिम मानव-मानवी से उत्तराधिकार-सूत्र में मिले हुए इस कलह की मीमांस कोई नहीं है- यह विवाद जिस दिन मिट जायेगा उस दिन संसार का सारा रस और सारी मधुरता तीती जहर हो जायेगी इसी से मैं उत्तर देने की कोशिश न करके चुप हो रहा।
परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि, जीवन के लिए राजलक्ष्मी ने कोई आग्रह या जबरदस्ती नहीं की, जीवन के इतने बड़े सर्वव्यापी प्रश्न को भी वह मानो एक निमेष में अपने आप ही भूल गयी। बोली, “न्यायरत्न महाराज किसी एक व्रत के लिए कह रहे थे-पर जरा कठिन होने से सब उसे कर नहीं सकते, और इतनी सुविधा भी कितनों के भाग्य में जुटती है?”
असमाप्त प्रस्ताव के बीच में मैं मौन रहा; वह कहने लगी, “तीन दिन एक तरह से उपवास ही करना पड़ता है, सुनन्दा की भी बड़ी इच्छा है- दोनों का व्रत एक ही साथ हो जाता- पर…” इतना कहकर वह खुद ही जरा हँसकर बोली, “पर तुम्हारी राय हुए बिना कैसे…”
मैंने पूछा, “मेरी राय न होने से क्या होगा?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “तो फिर नहीं होगा।”
मैंने कहा, “तो इसका विचार छोड़ दो, मेरी राय नहीं है।”
“रहने दो- मजाक मत करो।”
“मज़ाक नहीं, सचमुच ही मेरी राय नहीं है- मैं मनाही करता हूँ।”
मेरी बात सुनकर राजलक्ष्मी के चेहरे पर बादल घिर आय। क्षण-भर स्तब्ध रहकर वह बोली, “पर हम लोगों ने तो सब तय कर लिया है। चीज-वस्तु मँगाने के लिए आदमी भेज दिये हैं, कल हविष्य करके परसों से- वाह अब मनाही करने से कैसे होगा? सुनन्दा के सामने मैं मुँह कैसे दिखाऊँगी छोटे महाराज? वाह! यह सिर्फ तुम्हारी चालाकी है। मुझे झूठमूठ खिझाने के लिए- सो नहीं होगा, तुम बताओ, तुम्हारी राय है?”
मैंने कहा, “है। मगर तुम किसी दिन भी तो मेरी राय गैर-राय की परवाह नहीं करती लक्ष्मी, फिर आज ही क्यों अचानक मजाक करने चली आईं? मेरा आदेश तुम्हें मानना ही होगा, यह दावा तो मैंने तुमसे कभी किया नहीं।”
राजलक्ष्मी ने मेरे पैरों पर हाथ रखकर कहा, “अब कभी न होगा, सिर्फ अबकी बार खुशी मन से मुझे हुक्म दे दो।”
मैंने कहा, “अच्छा। लेकिन तड़के ही शायद तुम्हें जाना पड़ेगा। अब और रात मत बढ़ाओ, सोने जाओ।”
राजलक्ष्मी नहीं गयी, धीरे-धीरे मेरे पैरों पर हाथ फेरने लगी। जब तक सो न गया, घूम-फिरकर बार-बार सिर्फ यही मालूम होने लगा कि वह स्नेह-स्पर्श अब नहीं रहा। वह भी तो कोई ज्यादा दिन की बात नहीं है, आरा स्टेशन से जिस दिन वह उठाकर अपने घर लाई थी तब इसी तरह पाँवों पर हाथ फेरकर मुझे सुलाना पसन्द करती थी। ठीक इसी तरह नीरव रहती थी, पर मुझे मालूम होता था कि उसकी दसों उँगलियाँ मानो दसों इन्द्रियों की सम्पूर्ण व्याकुलता से नारी-हृदय का जो कुछ है सबका सब मेरे इन पैरों पर ही उंड़ेले दे रही है। हालाँकि मैंने चाहा नहीं था, माँगा नहीं था, और इसे लेकर कैसे क्या करूँगा, सो भी सोचकर तय नहीं कर पाया था। बाढ़ के पानी के समान आते समय भी उसने राय नहीं ली, और शायद जाते सयम भी, उसी तरह मुँह न ताकेगी। मेरी ऑंखों से सहज में ऑंसू नहीं गिरते, और प्रेम के लिए भिखमंगापन भी मुझसे करते नहीं बनता। संसार में मेरा कुछ भी नहीं है, किसी से कुछ पाया भी नहीं है, ‘दे दो’ कहकर हाथ फैलाते हुए भी मुझे शरम आती है। किताबों में पढ़ा है, इसी बात पर कितना विरोध, कितनी जलन, कितनी कसक और मान-अभिमान-न जाने कितना प्रमत्त पश्चात्ताप हुआ करता है- स्नेह की सुधा गरल हो उठने की न जाने कितनी विक्षुब्ध कहानियाँ हैं। जानता हूँ कि ये सब बातें झूठी नहीं हैं, परन्तु मेरे मन का जो वैरागी तन्द्रराच्छन्न पड़ा था, सहसा वह चौंककर उठ खड़ा हुआ, बोला, “छि छि छि!”
बहुत देर बाद मुझे सो गया समझकर, राजलक्ष्मी जब सावधानी के साथ धीरे से उठकर चली गयी तब वह जान भी न पाई कि मेरे निद्राहीन निमीलित नेत्रों से ऑंसू झर रहे हैं। ऑंसू बराबर गिरते ही रहे, किन्तु आज की वह आयत्तातीत सम्पदा एक दिन मेरी ही थी, इस व्यर्थ के हाहाकार से अशान्ति पैदा करने की मेरी प्रवृत्ति न हुई।
सबेरे उठकर सुना कि बहुत तड़के ही राजलक्ष्मी नहा-धोकर रतन को साथ लेकर चली गयी है। और यह भी खबर मिली कि तीन दिन तक उसका घर आना न होगा। हुआ भी यही। वहाँ कोई विराट काण्ड हो रहा हो सो बात नहीं- पर हाँ, दस-पाँच ब्राह्मण सज्जनों का आवागमन हो रहा है, और कुछ-कुछ खाने-पीने का भी आयोजन हुआ है, इस बात का आभास मुझे यहीं बैठे-बैठे अपने जँगले में से मिल रहा था। कौन-सा व्रत है, उसका कैसा अनुष्ठान है, उसके सम्पन्न करने से स्वर्ग का मार्ग कितना सुगम होता है, यह मैं कुछ भी न जानता था, और जानने के लिए ऐसा कुछ कुतहूल भी न था। रतन रोज शाम के बाद आया करता और
कहता, “आप एक बार भी गये नहीं बाबूजी?”
मैं पूछता, “इसकी क्या कोई जरूरत है?”
रतन कुछ मुसीबत में पड़ जाता। वह इस ढंग से जवाब देता- मेरा बिल्कु्ल न जाना लोगों की निगाह में कैसा लगता होगा! हो सकता है कि कोई समझ बैठे कि इसमें मेरी इच्छा नहीं है। कहा तो नहीं जा सकता?
नहीं, कहा कुछ भी नहीं जा सकता। मैं पूछता, “तुम्हारी मालकिन क्या कहती हैं?”
रतन कहता, “उनकी इच्छा तो आप जानते ही हैं, आप नहीं रहते हैं तो उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। लेकिन क्या करें, कोई पूछता है तो कह देती हैं, कमजोर शरीर है, इतनी दूर पैदल आने-जाने से तबीयत खराब होने का डर है। और आ के करेंगे ही क्या!”
मैंने कहा, “सो तो ठीक बात है। इसके अलावा तुम तो जानते हो रतन, कि इन सब पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, धर्म-कर्मों के बीच मैं बिल्कुआल ही अशोभन-सा दिखाई देता हूँ। योग-यज्ञ के मामलों में मेरा जरा दूर-दूर ही रहना अच्छा है। ठीक है न?”
रतन हाँ में हाँ मिलाता हुआ कहता, “सो तो ठीक है!” मगर मैं राजलक्ष्मी की तरफ से समझता था कि मेरी उपस्थिति वहाँ… किन्तु जाने दो उस बात को।
सहसा एक जबरदस्त खबर सुनने में आयी। मालकिन को आराम और सहूलियत पहुँचाने के बहाने गुमाश्ता काशीनाथ कुशारी महाशय सस्त्रीक वहाँ उपस्थित हुए हैं।
“कहता क्या है रतन, एकदम सस्त्रीक?”
“जी हाँ। सो भी बिना निमन्त्रण के।”
समझ गया कि भीतर-ही-भीतर राजलक्ष्मी का कोई कौशल चल रहा है। सहसा ऐसा भी मालूम हुआ कि शायद इसीलिए उसने अपने घर न करके दूसरों के घर यह इन्तजाम किया है।
रतन कहने लगा, “बड़ी बहू का विनू को गोद में लेकर रोना अगर आप देखते! छोटी बहू ने खुद अपने हाथ से उनके पाँव धो दिये, खाना नहीं चाहती थीं सो अपने हाथ से आसन बिछाकर छोटे बच्चों की तरह उन्हें स्वयं खिलाया बैठकर। माँजी की ऑंखों से ऑंसू गिरने लगे। यह हाल देखकर बूढ़े कुशारी महाराज तो फूट-फूटकर रोने लगे- मुझे तो ऐसा मालूम होता है बाबू, काम-काज खतम हो जाने पर छोटी बहू अब उस खण्डहर की ममता छोड़-छाड़कर अपने मकान में जाकर रहेगी। यह अगर हो गया तो गाँवभर के सभी लोग बड़े खुश होंगे। और यह करामात है अपनी माँजी की ही, सो मैं बताए देता हूँ बाबूजी।”
सुनन्दा को जहाँ तक मैंने पहिचाना है, उससे इतनी बड़ी आशा मैं न कर सका; परन्तु राजलक्ष्मी के ऊपर से मेरा बहुत-सा अभिमान, शरत के मेघाच्छन्न आकाश की भाँति, देखते-देखते हटकर न जाने कहाँ बिला गया और ऑंखों के सामने बिल्कुाल स्वच्छ हो गया।
इन दोनों भाइयों और बहुओं का विच्छेद जिस तरह सत्य नहीं, उसी तरह स्वाभाविक भी नहीं। मन के भीतर जरा-सी खौंप न होने पर भी जहाँ बाहर से इतनी बड़ी फटन दिखाई दे रही है, उस फटे को जोड़ देने लायक हृदय और कौशल जिसमें है, उस जैसा कलाकार और है कहाँ? इसी उद्देश्य से कितने दिनों से वह गुप्त रूप से उद्योग करती आ रही है, कोई ठीक है! मैंने एकाग्र हृदय से आशीर्वाद दिया कि उसकी यह सदिच्छा पूर्ण हो। कुछ दिनों से मेरे हृदय के एकान्त कोने में जो भार संचित हो रहा था, आज उसके बहुत-कुछ हलका हो जाने से, आज का दिन मेरा बहुत अच्छी तरह बीता। कौन-सा शास्त्रीय व्रत राजलक्ष्मी ने लिया है, मैं नहीं जानता; परन्तु आज उसकी तीन दिन की मियाद पूरी हो जायेगी और कल उससे भेंट होगी, यह बात बहुत दिनों बाद फिर मानो मुझे नये रूप में याद आ गयी।
दूसरे दिन सबेरे राजलक्ष्मी आ न सकी, पर बहुत दु:ख के साथ रतन के मुँह से खबर भिजवाई कि ऐसा भाग्य है मेरा कि एक बार आ के सूरत दिखा जाने तक की फुरसत नहीं- दिन-मुहूर्त बीत जायेगा। पास ही कहीं वक्रेश्वर नाम का तीर्थ है, वहाँ जाग्रत देवता और गरम जल का कुण्ड है, उसमें अवगाहन स्नान करने से सिर्फ वही नहीं, उसके पितृ-कुल मातृ-कुल और श्वशुर-कुल के तीन करोड़ जन्मों के जो कोई जहाँ होंगे, उन सबका उद्धार हो जायेगा। साथी मिल गये हैं, दरवाजे पर बैलगाड़ी तैयार है, यात्रा का मुहूर्त हो ही रहा है। दो-एक बहुत जरूरी चीजें रतन ने दरबान के हाथ भेज दीं। वह बेचारा जी छोड़कर दौड़ा चला गया। सुना कि लौटने में पाँच-सात दिन लगेंगे।
और भी पाँच-सात दिन! शायद अभ्यास के कारण ही हो, आज उसे देखने के लिए मैं मन-ही-मन उन्मुख हो उठा था। परन्तु रतन के मुँह से अकस्मात् उसकी तीर्थयात्रा का समाचार सुनकर निराशा के अभिमान या क्रोध के बदले, सहसा मेरा हृदय करुणा और व्यथा से भर उठा। प्यारी सचमुच ही सम्पूर्णतया नि:शेष होकर मर गयी है, उसके कृतकर्म के दु:सह भार से आज राजलक्ष्मी के सम्पूर्ण देह-मन में जो वेदना का आर्तनाद उच्छ्वसित हो उठा है, उसे रोकने का रास्ता उसे ढूँढे नहीं मिल रहा है। यह जो अश्रान्त विक्षोभ है-अपने जीवन से दौड़कर निकल भागने की यह जो दिग्विहीन व्याकुलता है, इसका क्या कोई अन्त नहीं? पिंजड़े में बन्द पक्षी की तरह ही क्या यह दिन-रात अविश्राम सिर धुन-धुनकर मर मिटेगी? और उस पिंजडे क़ी लौह-शलाका के समान मैं ही क्या चिरकाल उसका मुक्ति का द्वार घेरे रहूँगा? संसार जिसे किसी भी चीज से किसी दिन बाँध न सका, उसी मेरे भाग्य से ही क्या भगवान ने अन्ततोगत्वा इतना बड़ा दुर्भोग लिख दिया है? मुझे वह सम्पूर्ण हृदय से चाहती है। मेरा मोह उससे छुटाए नहीं छूटता। इसी का पुरस्कार देने के लिए क्या मैं उसकी समस्त भावी सुकृति के पैरों की बेड़ी बनकर रहूँगा?
मैंने मन-ही-मन कहा, “मैं उसे छुट्टी दूँगा- उस बार की तरह नहीं- अबकी बार, एकाग्र चित्त से, अन्त:करण के सम्पूर्ण आशीर्वाद के साथ हमेशा के लिए उसे मुक्ति दूँगा। और हो सका तो उसके लौटने के पहले ही मैं इस देश को छोड़कर चला जाऊँगा। किसी भी आवश्यकता पर, किसी भी बहाने, सम्पदा और विपदा के किसी भी चक्कर में अब उसके सामने न आऊँगा। एक दिन मेरे अपने ही अदृष्ट ने मुझे अपने इस संकल्प में दृढ़ नहीं रहने दिया, परन्तु, अब मैं उसके आगे किसी भी तरह पराजय स्वीकार न करूँगा।”
मन-ही-मन बोला, “अदृष्ट इसी का नाम है। एक दिन जब मैं पटने से बिदा हुआ, तब प्यारी अपने ऊपर के बरामदे में चुपचाप खड़ी थी। उस समय उसके मुँह में जबान न थी, नीरव थी; फिर भी क्या उसके विरुद्ध अन्त:करण से निकली हुई मुझे वापस बुलाने वाली ऑंसूभरी पुकार रास्ते-भर मेरे कानों में बार-बार नहीं गूँजती रही थी? परन्तु, मैं लौटा नहीं। देश छोड़कर सुदूर विदेश में चला गया था, परन्तु वह जो रूपहीन, भाषारहित, दुर्निवार आकर्षण मुझे रात-दिन अपनी ओर खींचने लगा, उसके निकट यह देश-विदेश का व्यवधान कितना-सा था? फिर एक दिन वापस आना पड़ा। बाहर वाले मेरे उस पराजय की ग्लानि को ही देख सके, पर मेरे कण्ठ की अम्लान कान्ति जयमाला पर उनकी निगाह न पड़ी।”
ऐसा ही होता है। मैं जानता हूँ, निकट-भविष्य में ही फिर एक दिन मेरी बिदाई की घड़ी आ पहुँचेगी। उस दिन भी शायद वह उसी तरह नीरव ही बनी रहेगी, परन्तु मेरी उस अन्तिम बिदा की यात्रा में सम्पूर्ण मार्ग-व्यापी वह अभूतपूर्व निविड़ आह्नान शायद अब न सुनाई देगा।
मन-ही-मन सोचने लगा, “यह जो रहने का निमन्त्रण समाप्त हो जाना ही सिर्फ बाकी बच रहता है, सो कैसी व्यथा की वस्तु है! फिर भी, इस व्यथा का कोई भागीदार नहीं, सिर्फ मेरे ही हृदय में गढ़ा खोदकर इस निन्दित वेदना को हमेशा के लिए अकेला रहना होगा। राजलक्ष्मी से प्रेम करने का अधिकार संसार ने मुझे नहीं दिया; यह एकाग्र प्रेम, यह हँसना-रोना और मान-अभिमान यह त्याग, यह निविड़ मिलन- सब कुछ लोक-समाज की दृष्टि से जैसे व्यर्थ है। उसी तरह आपका मेरा यह आसन्न विच्छेद का असह्य अन्तर्दाह भी बाहर वालों की दृष्टि से अर्थहीन है।” आज यही बात मुझे सबसे ज्यादा चुभने लगी कि एक का मर्मान्तिक दु:ख जब कि दूसरे के लिए उपहास की वस्तु हो जाती है, तो इससे बढ़कर ट्रेजिडी संसार में और क्या हो सकती है? फिर भी, होती यही है। लोकसमाज में रहते हुए भी जिस आदमी ने लोकाचार को नहीं माना- विद्रोह किया है, वह फरियाद भी करे तो किससे? यह समस्या सनातन है, शाश्वत और प्राचीन है। सृष्टि के दिन से लेकर आज तक यह एक ही प्रश्न बार-बार घूमता हुआ चला आ रहा है, और भविष्य के गर्भ में भी जहाँ तक दृष्टि जाती है, इसका कोई समाधान दिखाई नहीं देता। यह अन्याय है-अवांछनीय है। तो भी, इतनी बड़ी सम्पदा- इतना बड़ा ऐश्वर्य, क्या मनुष्य के पास और कुछ है? अबाध्यै नर-नारी के इस आवांछित हृदय वेग की न जाने कितनी नीरव वेदनाओं के इतिहास को बीच में रखकर युग-युग में कितने पुराणों, कितनी कथाओं और कितने काव्यों के अभ्रभेदी सौध खड़े किये गये हैं, कोई ठीक है!
परन्तु आज अगर यह रुक जाय? मन-ही-मन कहा, जाने दो। राजलक्ष्मी की धर्म में रुचि हो, उसके वक्रेश्वर का मार्ग सुगम हो, उसका मन्त्रोच्चारण शुद्ध हो, आशीर्वाद करता हूँ कि उसका पुण्योपार्जन का मार्ग निरन्तर निर्विघ्न और निष्कण्टक होता जाय। अपने दु:ख का भार मैं अकेला ही ढोता रहूँगा।
दूसरे दिन नींद खुलने के साथ ही साथ ऐसा मालूम हुआ, मानो गंगामाटी के इस घर से, यहाँ के गली-कूचों और खुले मैदान से-सबसे मेरे सभी बन्धन एक साथ ही शिथिल हो गये हैं। राजलक्ष्मी कब लौटेगी, कोई ठीक नहीं, मगर मेरा मन ही अब एक क्षण भी यहाँ रहना नहीं चाहता। नहाने के लिए रतन ने ताकीद करना शुरू कर दिया। कारण, जाते समय राजलक्ष्मी सिर्फ कड़ा हुक्म देकर ही निश्चिन्त न हो सकी थी, रतन से उसने अपने पैर छुआकर सौगन्ध ले ली थी कि उसकी अनुपस्थिति में मेरी तरफ से जरा भी लापरवाही या अनियम न होने पायेगा। खाने का वक्त सबेरे ग्यारह बजे और रात को आठ बजे के भीतर तय हुआ है, और इसके लिए रतन को रोज घड़ी देखकर समय लिख रखना होगा। कह गयी है कि लौटने पर इसके लिए वह हर एक को एक-एक महीने की तनखा इनाम में देगी। मैं बिस्तर पर पड़ा-पड़ा ही जान रहा था कि रसोइया अपनी रसोई का काम खतम करके इधर-उधर डोल रहा है, और कुशारी महाशय सबेरा होते न होते नौकर के सिर पर साग-सब्जी, मछली, दूध वगैरह लादे स्वयं आ पहुँचे हैं। उत्सुकता अब किसी भी विषय में नहीं थी- अच्छी बात है, ग्यारह बजे और आठ बजे ही सही। मेरे कारण, एक महीने के अतिरिक्त वेतन से तुम लोग वंचित न होगे, यह निश्चित है।
कल रात को बिल्कुतल ही नींद नहीं आई थी, शायद इसीलिए आज खा-पीकर बिस्तर पर पड़ते ही सो गया।
नींद खुली करीब चार बजे। कुछ दिनों से मैं नियमित रूप से घूमने निकल जाता था, आज भी हाथ-मुँह धोकर चाय पीकर निकल पड़ा।
दरवाजे के बाहर एक आदमी बैठा था, उसने मेरे हाथ में एक चिट्ठी दी। सतीश भारद्वाज की चिट्ठी थी, किसी ने बहुत मुश्किल से एक पंक्ति लिखकर जताया कि वह बहुत बीमार है। मैं न जाऊँगा तो वह मर जायेगा।
मैंने पूछा, “क्या हुआ है उसे?”
उस आदमी ने कहा, “हैज़ा।”
मैं खुश होकर बोला, “चलो।” खुश इसलिए नहीं हुआ कि उसे हैज़ा हुआ है; बल्कि इस बात की खुशी हुई कि कम-से-कम कुछ देर के लिए तो घर से सम्बन्ध छूटने का मौका हाथ लगा और इसे मैंने बहुत बड़ा लाभ समझा।
एक बार सोचा कि रतन को बुलाकर कम-से-कम उसे कह तो जाऊँ, पर उसकी अनुपस्थिति से ऐसा न कर सका। जैसा खड़ा था वैसा ही चल दिया, घर के किसी भी आदमी को कुछ मालूम न हुआ।
लगभग तीन कोस रास्ता तय करने के बाद संध्याआ के समय सतीश के कैम्प पर पहुँचा। सोचा था कि रेलवे कन्स्ट्रक्शन के इन्चार्ज ‘एस.सी. बरदाज’ के यहाँ बहुत कुछ ऐश्वर्य दिखाई देगा, मगर वहाँ पहुँचकर देखा कि ईष्या करने लायक कोई भी बात नहीं है। छोटे-से एक छोलदारी डेरे में वह रहता है, उसके पास ही पुआल और डाली-पत्तों से छाई हुई एक झोंपड़ी है, उसमें रसोई बनती है। एक हृष्ट-पुष्ट बाउरी की लड़की आग जलाकर कुछ उबाल रही थी। वह मुझे अपने साथ तम्बू के भीतर ले गयी।
इस बीच में रामपुर हाट से एक छोकरा-सा पंजाबी डॉक्टर आ पहुँचा था। मुझे सतीश का बाल्य-बन्धु जानकर मानो वह जी-सा गया। रोगी के बारे में बोला, “केस सीरियस नहीं है, जान का कोई खतरा नहीं।” फिर कहने लगा, “मेरी ट्राली तैयार है, अभी रवाना न होने से हेड-क्वार्टर्स से पहुँचने में बहुत ज्यादा रात हो जायेगी- तकलीफ का ठिकाना न रहेगा।” मेरा क्या होगा, यह उसके सोचने का विषय नहीं। कब क्या करना होगा, इस बात का भी उपदेश दिया; और अपनी ठेलागाड़ी पर रवाना होते समय बैग में से दो-तीन डिब्बी और शीशियाँ मेरे हाथ में देते हुए उसने कहा, “हैज़ा छूत की बीमारी है। उस तलैया का पानी काम में लाने के लिए मना कर दीजिएगा।” कहते-कहते उसने सामने के एक मिट्टी निकाले हुए गढ़े की और इशारा किया, और फिर कहा, “और अगर आपको खबर मिले कि कुलियों में से किसी को हैज़ा हो गया है- हो भी सकता है, तो इन दवाओं को काम में लाइएगा।”
इतना कहकर रोग की किस अवस्था में कौन-सी दवा देनी होगी, यह सब भी उसने समझा दिया।
आदमी बुरा नहीं है, और दया-माया भी है। मुझे बार-बार समझाकर सावधान कर गया है कि अपने बाल्य-बन्धु की तबीयत का हाल कल उसे जरूर मिल जाय, और कुलियों पर भी निगाह रखने में भूल न हो।
यह अच्छा हुआ। राजलक्ष्मी गयी वक्रेश्वर की यात्रा करने, और नाराज होकर मैं निकला बाहर फिरने। रास्ते में एक आदमी से भेंट हो गयी। बचपन का परिचय था उससे, इसलिए बाल्य-बन्धु तो है ही। हाँ, इतना जरूर है कि पन्द्रह-सोलह वर्ष से उससे भेंट नहीं हुई थी, इसलिए सहसा उसे पहिचान न सका था। मगर इन दो ही चार दिनों के अन्दर यह कैसी घोर घनिष्ठता हो गयी कि उसके हैजे के इलाज का भार, तीमारदारी की जिम्मेवारी, और साथ ही उसके सौ-डेढ़ सौ मिट्टी खोदने वाले कुलियों की रखवारी का भार- वह तमाम आफत मुझ पर ही आ टूटी! बच रहा सिर्फ उसका सोले का हैट और टट्टू घोड़ा- और शायद वह मजदूर की लड़की भी। उसकी मानभूमि की अनिर्वचनीय बाउरी भाषा का अधिकांश मुझे खटकने लगा। सिर्फ एक बात मुझे नहीं खटकी, वह यह कि इन दस ही पन्द्रह मिनटों के दर्म्यान, मुझे पाकर उसे बहुत कुछ तसल्ली हो गयी। जाऊँ, अब इतनी कमी क्यों रक्खूँ, जाकर घोड़े को एक बार देख आऊँ।
सोचा कि मेरी तकदीर ही ऐसी है। नहीं तो उसमें राजलक्ष्मी ही क्यों कर आती, और अभया ही मेरे जरिए अपने दु:ख का बोझ कैसे ढुआती? और यह मेंढक और उसके कुलियों का झुण्ड- और किसी व्यक्ति को तो यह सब झाड़-फेंकने में क्षण-भर की भी देर न लगती। तब फिर मैं ही क्यों जिन्दगी-भर ढोता फिरूँ?
तम्बू रेल-कम्पनी का है। सतीश की निजी सम्पत्ति की सूची मैंने मन-ही-मन बना ली। कुछ एनामेल के बर्तन, एक स्टोव्ह, एक लोहे की पेटी, एक चीड़ का बॉक्स, और उसके सोने की कैम्बीस की खाट- जिसने बहुत ज्यादा इस्तेमाल होने से डांगी का रूप धारण कर लिया था। सतीश होशियार आदमी है, इस खाट के लिए बिस्तर की जरूरत नहीं पड़ती, कोई बिछौने जैसी चीज होने से ही काम चल जाता है, इसी से सिर्फ रंगीन दरी के सिवा उसने और कुछ नहीं खरीदा। भविष्य में हैजा होने की उसे कोई आशंका नहीं थी। कैम्बीस की खाट पर तीमारदारी करने में बहुत ही असुविधा मालूम हुई; और जो एकमात्र दरी थी, सो बहुत ही गन्दी हो चुकी थी, इसलिए उसे नीचे जमीन पर सुलाने के सिवा और कोई चारा ही नहीं था।
मैं यत्परोनास्ति चिन्तित हो उठा। उस लड़की का नाम था कालीदासी। मैंने उससे पूछा, “काली कहीं किसी से एक-दो बिछौने मिल सकते हैं?”
काली ने जवाब दिया, “नहीं।”
मैंने कहा, “थोड़ा-सा पयाल-अयाल ला सकती हो?”
काली ने चट से हँसकर जो कहा, उसका मतलब यह था कि यहाँ गाय-भैंसें थोड़े ही बँधी हैं!
मैंने कहा, “तो बाबू को सुलाऊँ किस पर?”
काली ने बिना किसी डर के जमीन दिखाकर कहा, “यहाँ। ये क्या बचने वाले हैं?”
उसके चेहरे की तरफ देखने में मालूम हुआ कि ऐसा निर्विकल्प प्रेम संसार में सुदुर्लभ है। मन-ही-मन बोला, तुम भक्ति की पात्र हो। तुम्हारी बातें सुन लेने पर फिर ‘मोह-मुद्गर’ पढ़ने की जरूरत नहीं रहती। परन्तु मेरी वैसी विज्ञानमय अवस्था नहीं है। अभी तो यह जिन्दा है, इसलिए कुछ तो बिछाने को चाहिए ही।
मैंने पूछा, “बाबू के पहिनने के एक-आध धोती-ओती भी नहीं है क्या?”
काली ने सिर हिला दिया। उसमें किसी तरह की दुबिधा या संकोच का भाव न था। वह ‘शायद’ नहीं कहती थी। बोली, “धोती नहीं है, पतलून है।”
माना कि पैण्ट साहबी चीज है, कीमती वस्तु है; पर उससे बिस्तर का काम लिया जा सकता है या नहीं, मेरी समझ में न आया। सहसा याद आया, आते वक्त नजदीक ही कहीं एक फटा तिरपाल देखा था; मैंने कहा, “चलो चलें, दोनों मिलकर उस तिरपाल को उठा लावें। पतलून बिछाने की बजाय वह अच्छा रहेगा।”
काली राजी हो गयी। सौभाग्यवश वह वहीं पड़ा था, लाकर उसी पर सतीश को सुला दिया। उसी के एक किनारे पर काली ने अत्यन्त विनय के साथ आसन जमा लिया, और देखते-देखते ही वह वहीं सो गयी। मेरी धारणा थी कि स्त्रियों की नाक नहीं बजती पर काली ने उसे गलत साबित कर दिया।
मैं अकेला उस चीड़ के बॉक्स पर बैठा रहा। इधर सतीश के हाथ-पैर बार-बार ऐंठ रहे थे, सेंकने-तपाने की जरूरत थी। बहुत बुलाने-पुकारने पर काली की नींद टूटी, लेकिन उसने करवट बदलकर जताया कि लकड़ी-वकड़ी कुछ है नहीं, वह आग जलाए तो कैसे? खुद कोशिश करके देख सकता था, मगर प्रकाश के नाम पूँजी वही एक हरीकेन थी। फिर भी उसकी रसोई में जाकर देखा तो मालूम हुआ कि काली ने झूठ नहीं कहा। उस एक झोंपड़ी के सिवा वहाँ और कोई ऐसी चीज़ नहीं थी जो जलाई जा सके। मगर साहस न हुआ कहीं प्राण निकलने से पहले ही उसका अग्नि संस्कार न कर बैठूँ! कैम्प-खाट और चीड़ का बॉक्स निकालकर उसी में दिया सलाई लगाकर आग जलाई, और अपना कुरता खोलकर उसकी पोटली-सी बना के, उससे कुछ-कुछ सेंक देने की कोशिश करता रहा, पर अपने को सान्त्वना देने के सिवा रोगी को उससे कुछ भी फायदा न पहुँच सका।
रात के दो बजे होंगे या तीन, खबर आई कि कुलियों को कै-दस्त शुरू हो गये हैं। उन लोगों ने मुझे डॉक्टर-साहब समझ लिया था। उन्हीं की बत्ती की सहायता से दवा-दारू लेकर कुली-लाइन तक पहुँचा। वे मालगाड़ी में रहते थे, छत नदारत, खुली गाड़ियाँ लाइन पर खड़ी हैं- मिट्टी खोदने की जरूरत पड़ने पर इंजन उन्हें गन्तव्य स्थान पर खींच ले जाता है और वहीं वे काम पर जाते हैं।
बाँस की नसैनी के सहारे गाड़ी पर चढ़ा। एक तरह वह बूढ़ा-सा आदमी पड़ा हुआ था। उसके चेहरे पर बत्ती का प्रकाश पड़ते ही समझ गया कि उसका रोग आसान नहीं है, बहुत दूर आगे बढ़ गया है। और दूसरी ओर पाँच-सात आदमी थे, स्त्री और पुरुष दोनों। कोई सोते से उठ बैठा है तो किसी की नींद ज्यों की त्यों बनी हुई है।
इतने में उनका जमादार आ पहुँचा। वह बंगला भाषा अच्छी बोल लेता था। मैंने पूछा, “और एक रोगी कहाँ है?”
उसने अंधेरे की ओर अंगुली उठाकर दूसरा डिब्बा दिखाते हुए कहा, “वहाँ।”
फिर नसैनी के सहारे चढ़ना पड़ा, देखा कि वह स्त्री है। उमर पचीस-तीस से ज्यादा न होगी, दो बच्चे उसके पास पड़े सो रहे हैं। पति नहीं है- वह पिछली साल अरकाटी के फेर में पड़कर, दूसरी किसी अपेक्षाकृत कम उमर की औरत के साथ, आसाम के चाय के बगीचे में काम करने चला गया है।
इस गाड़ी में और भी पाँच-छै स्त्री-पुरुष मौजूद थे, उन्होंने उसके पाषाण-हृदय पति की निन्दा करने के सिवा रोगी की कोई भी सहायता नहीं की। पंजाबी डॉक्टर के उपदेशानुसार मैंने दोनों रोगियों को दवा दे दी और बच्चों को स्थानान्तरित करने की भी कोशिश की, परन्तु किसी को भी मैं उनका भार सँभालने के लिए राजी न कर सका।
सबेरे तक और एक लड़के को हैजा शुरू हो गया, उधर सतीश भारद्वाज की अवस्था भी उत्तरोत्तर खराब हो रही थी। बहुत खुशामद-बरामद के बाद एक आदमी को साँइथिया स्टेशन पर पंजाबी डॉक्टर को खबर देने के लिए भेजा। उसने शाम तक आकर खबर दी कि वे कहीं रोगी देखने चले गये हैं।
मेरे लिए सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि साथ में रुपये नहीं थे। और खुद कल से उपवास ही कर रहा था। सोना नहीं, आराम नहीं- खैर, यह नहीं तो न सही, पर पानी वगैर पीये कैसे जीऊँ? सामने की तलैया का पानी पीने के लिए सबको मना कर दिया था, पर किसी ने बात नहीं मानी। औरतों ने मन्द मुसकान के साथ बताया कि इसके सिवा पानी और है कहाँ डॉक्टर साहब? कुछ दूरी पर गाँव में पानी था, पर जाय कौन? ये लोग मर सकते हैं, पर बिना पैसे के यह व्यर्थ का काम करने को राजी नहीं।
इसी तरह, इन्हीं लोगों के साथ, मुझे मालगाड़ी पर ही दो दिन और तीन रात रहना पड़ा। किसी को भी बचा न सका, सभी रोगी मर गये, मगर मरना ही इस स्थिति में सबसे बड़ी बात नहीं। मनुष्य जन्म लेगा तो उसे मरना तो पड़ेगा ही; कोई दो दिन पहले तो कोई दो दिन पीछे- इस बात को मैं बड़ी आसानी से समझ सकता हूँ। बल्कि मेरी समझ में तो यह बात नहीं आती कि इस मोटी-सी बात के समझने के लिए मनुष्य को इतने वैराग्य-साधन और इतने प्रकार के तत्व-विचार की जरूरत आखिर क्यों होती है? लिहाजा, मनुष्य का मरना मुझे उतना चोट नहीं पहुँचाता जितना कि मनुष्यत्व की मौत। इस बात को मानो मैं कह ही नहीं सकता।
दूसरे दिन भारद्वाज का देहान्त हो गया। आदमियों की कमी से दाह-क्रिया न हो सकी, माता धारित्री ने ही उसे अपनी गोद में स्थान दिया।
उधर का काम मिटाकर फिर मालगाड़ी की तरफ लौट आया। न आता तो अच्छा होता, मगर ऐसा कर न सका। जनारण्य के बीच रोगियों को लेकर मैं बिल्कुहल अकेला बैठा था। सभ्यता के बहाने धनी का धन-लोभ मनुष्य को कितना हृदयहीन पुश बना सकता है, इस बात का अनुभव, इन दो ही दिनों में, मानो जीवन-भर के लिए मैंने इकट्ठा कर लिया।
प्रथम सूर्य के ताप से चारों ओर जैसे आग-सी बरसने लगी, उसी में तिरपाल की छाया के नीचे रोगियों के साथ बैठा हूँ। छोटा बच्चा कैसी भयानक तकलीफ से तड़पने लगा, उसकी कोई हद नहीं- एक घूँट पानी तक देने वाला कोई नहीं। सरकारी काम ठहरा, मिट्टी खोदना बन्द नहीं हो सकता, और मजा यह कि उन्हीं की जात का उन्हीं का लड़का है यह। गाँवों में देखा है कि हरगिज ये ऐसे नहीं हो सकते। मगर, यहाँ जो इन्हें अपने समाज से, घर से, सब तरह के स्वाभाविक बन्धनों से अलग करके सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक सिर्फ एक मिट्टी खोदने के लिए ही इकट्ठा करके लाया गया है और माल-गाड़ी में आश्रय दिया गया है, यहीं उनकी मानव-हृदय वृत्ति ऐसी नेस्तनाबूद हो गयी है कि उसका एक कण भी बाकी नहीं रहा। सिर्फ मिट्टी खोदना, मिट्टी ढोना और मजदूरी लेना। सभ्य समाज ने शायद इस बात को अच्छी तरह समझ लिया है। कि मनुष्य को वगैर पशु बनाए उससे पशुओं का काम ठीक तौर से नहीं लिया जा सकता।
भारद्वाज चला गया, पर उसकी अमर-कीर्ति ताड़ी की दूकान ज्यों की त्यों अक्षय बनी है। शाम के वक्त क्या औरत और क्या मर्द, सभी कोई झुण्ड बाँधकर, ताड़ी पीकर घर लौटे। दोपहर का भात पानी में भिगोकर रख दिया गया था, लिहाजा औरतें रसोई बनाने के झंझट से भी फारिग थीं। अब भला कौन किसकी सुनता है? जमादार की गाड़ी से ढोल और मंजीरे के साथ संगीत-ध्व।नि सुनाई देने लगी। कब तक वह खत्म होगी, सो मेरी समझ में न आया। और, किसी के लिए उन्हें कोई फिकर नहीं, जो सोचते-सोचते सिर में दर्द होने लगे। मेरे ठीक पास के ही एक डब्बे में एक औरत के शायद दो प्रणयी आ जुटे थे; रात-भर उनकी उद्दाम प्रेमलीला, बिना किसी विश्राम के, समान गति से चलती रही। इधर, इस डब्बे में एक हजरत कुछ ज्यादा चढ़ा गये थे; वह ऐसे ऊँचे शोरगुल के साथ अपनी स्त्री से प्रणय की भीख माँगने लगे कि मारे शरम के मैं गड़-गड़ गया। दूर के एक डब्बे में एक स्त्री रह-रहकर और कराह-कराह कर विलाप कर रही थी। उसकी माँ जब दवा लेने आई, तो पता लगा कि कामिनी के बच्चा होने वाला है। लज्जा नहीं, शरम नहीं, छिपाने लायक इनके यहाँ कहीं भी कुछ नहीं, सब खुला हुआ, सब अनढँका, अनावृत्त। जीवन-यात्रा की अबाध गति बीभत्स प्रकटता में अप्रतिहत वेग से चली जा रही है। सिर्फ मैं ही एक अलग था। मृत्युलोक के आसन्न यात्री माँ और उसके बच्चे को लिये इस गम्भीर अन्धकारमय रात्रि में अकेला बैठा हुआ हूँ।
लड़के ने माँगा, “पानी।”
मैंने उसके मुँह पर झुककर कहा, “पानी नहीं है बेटा, सबेरा होने दो।”
बच्चे ने गरदन हिलाकर कहा, “अच्छा।” उसके बाद वह ऑंखें मींचकर चुप हो गया।
प्यास बुझाने को पानी नहीं था, पर मेरी ऑंखें अपने को फाड़-फाड़कर पानी बहाने लगीं। हाय रे हाय! सिर्फ मानव की सुकुमार हृदय-वृत्ति ही नहीं, अपनी सुदु:सह यातना के प्रति भी यह कैसी भयानक और असीम उदासीनता है! यही तो पशुता है! यह धैर्य-शक्ति नहीं, बल्कि जड़ता है! यह सहिष्णुता मानवता से बहुत नीचे के स्तर की वस्तु है!
हमारे डब्बे के और सभी लोग बेफिक्र सो रहे थे। कालिख-लगी हरीकेन के अत्यन्त मलिन प्रकाश में भी मैं स्पष्ट देखा रहा था कि माँ और लड़के दोनों की ही सारी देह अकड़ी जा रही है। मगर मेरे करने लायक अब और था ही क्या?
सामने काले आकाश का बहुत-सा हिस्सा सप्तर्षिमण्डल के तेज से चमक रहा है। उस तरह देखकर मैं वेदना, क्षोभ और निष्फल पश्चात्ताप से बार-बार शाप देने लगा, “आधुनिक सभ्यता के वाहन हो तुम लोग- तुम मर जाओ। मगर जिस निर्मम सभ्यता ने तुम लोगों को ऐसा बना डाला है, उसे तुम लोग हरगिज क्षमा न करना। अगर ढोना ही हो, तो तुम उसे ढोते-ढोते, खूब तेजी के साथ, रसातल तक पहुँचा दो।”
सबेरे खबर मिली कि और भी दो जनें बीमार पड़े हैं। मैंने दवा दी, और जमादार ने साँइथिया खबर भेजी। आशा थी कि इस बार अधिकारियों का आसन डिगेगा।
नौ बजे के करीब लड़का मर गया। अच्छा ही हुआ। यही तो इनका जीवन है।
सामने के मैदान की पगडण्डी से दो भले आदमी छतरी लगाये जा रहे थे। मैंने उनके पास जाकर पूछा, “यहाँ से गाँव कितनी दूर है?”
जो वृद्ध थे, उन्होंने सिर को जरा ऊँचा करके कहा, “वह रहा।”
मैंने पूछा, “वहाँ खाने-पीने की चीज कुछ मिलती है?”
दूसरे आदमी ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, “मिलती नहीं कैसे! शरीफों का गाँव है, चावल-दाल, घी, तेल, तरकारी जो चाहिए, लीजिए। कहाँ से आ रहे हैं आप? आपका निवास? महाशय, आपकी…”
संक्षेप में उनका कुतूहल मिटाकर, सतीश भरद्वाज का नाम लेते ही वे रुष्ट हो उठे, वृद्ध ने कहा, “शराबी, बदमाश, जुआरी चोर!”
उसके साथी ने कहा, “रेल के आदमी और कितने अच्छे होंगे! कच्चा पैसा आता था काफी; इसी से न!
प्रत्युत्तर में सतीश की ताजी कब्र का टीला दिखलाते हुए मैंने कहा, “अब उसके विषय में आलोचना करना व्यर्थ है। कल वह मर गया, आदमियों की कमी से उसकी दाह-क्रिया नहीं की जा सकी, यहीं गाड़ देना पड़ा है।”
“कहते क्या हैं! ब्राह्मण की सन्तान को…”
“मगर उपाय क्या था?”
सुनकर दोनों ने क्षुब्ध होकर कहा कि, “शरीफों का गाँव है, जरा खबर मिलती तो कुछ-न-कुछ-कोई-न-कोई, उपाय हो ही जाता।” एक ने प्रश्न किया, “आप उनके कौन हैं?”
मैंने कहा, “कोई नहीं। मामूली परिचय था उनसे। इतना कहकर, संक्षेप में मैंने सारा किस्सा कह सुनाया और कहा कि दो दिन से कुछ खाया-पीया नहीं है, और उधर कुलियों में हैजा फैल रहा है, इसलिए उन्हें छोड़कर भी जाया नहीं जाता।”
खाना-पीना नहीं हुआ, सुनकर वे अत्यन्त उद्विग्न हुए, और साथ चले-चलने के लिए बार-बार आग्रह करने लगे। और एक ने यह भी जता दिया कि इस भयानक व्याधि में खाली पेट रहना बड़ा ही खतरनाक है।
ज्यादा कहने की जरूरत न हुई- कहने की जरूरत थी भी नहीं- भूख-प्यास के मारे मुरदा-सा हो रहा था, लिहाजा उनके साथ हो लिया। रास्ते में इसी विषय में बातचीत होने लगी। गँवई-गाँव के आदमी थे; शहर की शिक्षा जिसे कहना चाहिए, वह इनमें नहीं थी; मगर मजा यह कि अंगरेजी राज्य की खालिस पॉलिटिक्स या कूटनीति इनसे छिपी न थी। इस बात को तो मानो देश के लोगों ने यहाँ की मिट्टी, पानी, आकाश और हवा से ही अच्छी तरह संग्रह करके अपनी नस-नस में मिला लिया है।
दोनों ने ही कहा, “सतीश भारद्वाज का इसमें कोई दोष नहीं; हम होते तो हम भी ठीक ऐसे ही हो जाते। कम्पनी-बहादुर के संसर्ग में जो आयेगा, वह चोर हुए बिना रह ही नहीं सकता। यह तो इनकी छूत की करामात है।”
भूखे-प्यासे और बहुत ही थके हुए शरीर में ज्यादा बात करने की शक्ति नहीं थी, इसलिए मैं चुप बना रहा। वे कहने लगे, “क्या जरूरत थी साहब, देश की छाती चीरकर फिर एक रेल-लाइन निकालने की? कोई भी आदमी क्या इसे चाहता है? नहीं चाहता। मगर फिर भी होनी ही चाहिए। बावड़ी नहीं, तालाब नहीं, कुएँ नहीं, कहीं भी एक बूँद पानी पीने को नहीं- मारे गरमी के बछड़े बेचारे पानी की कमी से तड़प-तड़पकर मरे जाते हैं- कहीं भी जरा पीने को अच्छा पानी मिलता तो क्या सतीश बाबू इस तरह बेमौत मारे जाते? हरगिज नहीं। मलेरिया, हैजा, हर तरह की बीमारियों से लोग उजाड़ हो गये, मगर, काकस्य परिवेदना। कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती। सरकार तो सिर्फ रेलगाड़ी चलाकर-कहाँ किसके किसी के घर क्या अनाज पैदा हुआ है, उसे चूसकर, चालान कर देना चाहती है। क्यों साहब, आपकी क्या राय है? ठीक है न?”
मेरे गले में आलोचना करने लायक जोर न था, इसलिए सिर्फ चुपके से गरदन हिलाकर हाँ में हाँ मिलाता हुआ मैं मन-ही-मन हजारों बार कहने लगा-यही बात है, यही बात है, यही बात है! सिर्फ इसीलिए ही तैंतीस करोड़ नर-नारियों का कंठ दबाकर विदेशी शासन-तन्त्र भारत में बना हुआ है। सिर्फ एक इसी वजह से ही भारत के कोने-कोने और संघ-संघ में रेल-लाइन फैलाने की कोशिशें चल रही हैं। व्यापार के नाम पर धनिकों के धन-भण्डारों को विपुल से विपुलतर बना डालने की अविराम चेष्टा से कमजोरों का सुख गया, शान्ति गयी, रोटी गयी, धन गया- उनके जीने का रास्ता दिन पर दिन संकीर्ण होता जाता है, उनका बोझ असह्य होता जाता है- सत्य को तो किसी की दृष्टि से छिपाया नहीं जा सकता।
वृद्ध सज्जन ने मेरी इस मन की बात में ही मानो वाक्य जोड़कर कहा, “महाशय, बचपन में अपने ननिहाल में पला हूँ, पहले यहाँ बीस कोस के इर्द-गिर्द रेलगाड़ी नहीं थी, तब चीज़-बस्त इतनी सस्ती थी, और इतनी ज्यादा थी कि आपसे क्या बताऊँ! तब कोई चीज पैदा होती तो पाड़-पड़ोसी सभी को उसमें से कुछ-न-कुछ मिला करता था, और अब तो अकेला ‘थोड़’ और ‘मोचा¹’ तक-ऑंगन में लगे हुए शाक की दो पत्तियाँ भी, कोई किसी को नहीं देना चाहता। कहते हैं, रहने दो, साढ़े आठ बजे की गाड़ी से खरीददारों के हाथ बेच देने से दो पैसे तो भी आ जाँयगे। अब तो देने का नाम ही हो गया है फिजूलखर्ची। अरे साहब, कहाँ तक दुखड़ा रोया जाय, दु:ख की बात कहने में क्या है, पैसे बनाने के नशे में स्त्री-पुरुष सबके सब बिल्कुतल ही नीच हो गये हैं।
“और खुद भी क्या जी भर के कुछ भोग सकते हैं? सिर्फ आत्मीय-स्वजन और पड़ोसियों की ही बात नहीं, खुद अपने को भी सब तरफ से ठग-ठगकर रुपये पाने को ही मानो सबने अपना परमार्थ समझ लिया है।
“इन सब अनिष्टों की जड़ है यह रेलगाड़ी। नसों की तरह देश की संघ-संघ में रेल के रास्ते अगर न घुस पाते और खाने-पीने की चीजें चालान करके पैसा कमाने की इतनी सहूलियतें न होतीं, और उस लोभ से आदमी अगर पागल न हुआ होता, तो इतनी बुरी दुर्दशा देश की न होती।”
रेल के विरुद्ध मेरी शिकायतें भी कम नहीं हैं। वास्तव में, जिस व्यवस्था से मनुष्य के जीवित रहने के लिए अत्यन्त आवश्यक खाद्य वस्तु प्रतिदिन छीनी जाकर शौकीनी कूड़े-करकट से सारा देश भर उठता है, उसके प्रति तीव्र घृणा भाव पैदा हुए बगैर रही ही नहीं सकता। खासकर गरीब आदमियों का जो दु:ख और जो हीनता मैं अपनी ऑंखों से देख आया हूँ, किसी भी युक्ति-तर्क से उसका उत्तर नहीं मिलता; फिर भी मैंने कहा, “जरूरत से ज्यादा बच रहने वाली चीजों को बरबाद न करके अगर बेचकर पैसा पैदा कर लिया जाए, तो क्या वह बहुत खराब बात होगी?”
उन सज्जन ने रंचमात्र ऊहापोह न करके नि:संकोच भाव से कहा, “हाँ, निहायत ही खराब बात है, खालिस अकल्याण है।”
उनका क्रोध और घृणा मेरी अपेक्षा बहुत ज्यादा प्रचण्ड थी। बोले, “आपकी यह बरबादी की धारणा विलायत की आमद है, धर्म स्थान भारतवर्ष की भूमि में इसका जन्म नहीं हुआ- यहाँ हो ही नहीं सकता। महाशयजी, सिर्फ अपनी आवश्यकता ही क्या एकमात्र सत्य है? जिसके पास नहीं है, उसकी जरूरत मिटाने का क्या कोई मूल्य ही नहीं दुनिया में? अगर उतना बाहर भेजकर रुपये इकट्ठे न किये जाँय तो वह बरबादी हुई, अपराध हुआ? यह निर्मम और निष्ठुर बात हम लोगों के मुँह से नहीं निकली, यह निकली है उनके मुँह से जो विदेश से आकर कमजोरों के
मुँह का कौर छीनने के लिए अपने देशव्यापी जाल में फन्दे पर फन्दे डालते चले
¹ ‘थोड़’=केले के पेड़ के काण्ड का भीतर का कोमल हिस्सा।
‘मोचा’=केले की छोटी-छोटी फलियों का गोभी-सा ढका हुआ समूह।
जा रहे हैं।”
मैंने कहा, “देखिए, देश का अन्न विदेश ले जाने का मैं पक्षपाती नहीं हूँ; परन्तु, मैं पूछता हूँ कि एक के बचे हुए अन्न से दूसरे की भूख मिटती रहे, यह क्या अमंगल की बात है? इसके सिवा, वास्तव में विदेश में आकर तो वे जबरदस्ती छीन नहीं ले जाते? पैसे देकर ही तो खरीद ले जाते हैं?”
उन सज्जन ने तीखे कण्ठ से जवाब दिया, “हाँ, खरीदते तो हैं ही! वैसे ही, जैसे काँटे में खुराक लगाकर पानी में मछलियों को सादर निमन्त्रण देना।”
इस व्यंग्योक्ति का मैंने कुछ जवाब नहीं दिया। कारण, एक तो भूख-प्यास और थकावट के मारे वाद-विवाद की शक्ति नहीं थी; दूसरे, उनके वक्तव्य के साथ मूलत: मेरा कोई मतभेद भी न था।
परन्तु, मुझे चुप रहते देख वे अकस्मात् ही अत्यन्त उत्तेजित हो उठे, और मुझे ही प्रतिपक्षी समझकर अत्यन्त सरगर्मी के साथ कहने लगे, “महाशयजी, उनकी उद्दाम वणिक्बुद्धि के तत्व को ही आप सार सत्य समझ रहे हैं, परन्तु असल में, इतनी बड़ी असत् वस्तु संसार में दूसरी है ही नहीं। वे तो सिर्फ सोलह आने के बदले चौंसठ पैसे गिन लेना जानते हैं- सिर्फ देन-लेन की बात समझते हैं, और उन्होंने सीख रक्खा है सिर्फ भोग को ही मानव-जीवन का एकमात्र धर्म मानना। इसी से तो उनके दुनिया भर के संग्रह और संचय के व्यसन ने संसार के समस्त कल्याण को ढक रक्खा है। महाशयजी, यह रेल हुई; कलें हुईं; लोहे की बनी सड़के हुईं- यही तो सब पवित्र टमेजमक पदजमतमेज हैं- इन्हीं के भारी भार से ही तो दुनिया में कहीं भी गरीब के लिए दम लेने को जगह नहीं।”
जरा ठहरकर वे फिर कहने लगे, “आप कह रहे थे कि एक की जरूरत पूरी होने के बाद जो बच रहे, उसे अगर बाहर ने भेजा जाता तो, या तो वह नष्ट होता, या फिर उसे अभाव-ग्रस्त लोग मुक्त खा जाते। इसी को बरबादी कह रहे थे न आप?”
मैंने कहा, “हाँ, उसकी तरफ से वह बरबादी तो है ही।”
वृद्ध मेरे जवाब से और भी असहिष्णु हो उठे। बोले, “ये सब विलायती बोलियाँ हैं, नयी रोशनी के अधार्मिक छोकरों के हीले-हवाले हैं। कारण, जब आप और भी जरा ज्यादा विचारना सीख जाँयगे, तब आप ही को सन्देह होगा कि वास्तव में यह बरबादी है, यह देश का अनाज विदेश भेजकर बैंकों में रुपये जमा करना सबसे बड़ी बरबादी है। देखिए साहब, हमेशा से ही हमारे यहाँ गाँव-गाँव में कुछ लोग उद्यम-हीन, उपार्जन-उदासीन प्रकृति के होते आए हैं। उनका काम ही था- मोदी या मिठाई की दुकान पर बैठकर शतरंज खेलना, मुरदे जलाने जाना, बड़े आदमियों की बैठक में जाकर गाना-बजाना, पंचायती पूजा आदि में चौधराई करना आदि। ऐसे ही कार्य-अकार्यों में उनके दिन कट जाया करते थे। उन सबके घर खाने-पीने का पूरा इन्तजाम रहता हो, सो बात नहीं; फिर भी बहुतों के बचे हुए हिस्से में से किसी तरह सुख-दु:ख में उनकी गुजर हो जाया करती थी। आप लोगों का, अर्थात् अंगरेजी शिक्षितों का, सारा-का-सारा क्रोध उन्हीं पर तो है? खैर जाने दीजिए, चिन्ता की कोई बात नहीं। जो आलसी, ठलुए और पराश्रित लोग थे, उन सबों का लोप हो चुका। कारण, ‘बचा हुआ’ नाम की चीज अब कहीं बच ही नहीं रही, लिहाजा, या तो वे अन्नाभाव से मर गये हैं, या फिर कहीं जाकर किसी छोटी-मोटी वृत्ति में भरती होकर जीवन्मृत की भाँति पड़े हुए हैं। अच्छा ही हुआ। मेहनत-मजदूरी का गौरव बढ़ा, ‘जीवन-संग्राम’ की सत्यता प्रमाणित हो गयी- परन्तु इस बात को तो वे ही जानते हैं जिनकी मेरी-सी काफी उमर हो चुकी है, कि उनकी कितनी बड़ी चीज उठ गयी! उनका क्या चला गया! इस ‘जीवन-संग्राम’ ने उनका लोप कर दिया है- पर गाँवों का आनन्द भी मानो उन्हीं के साथ सहमरण को प्राप्त हो गया है।”
इस अन्तिम बात से चौंककर मैंने उनके मुँह की ओर देखा। खूब अच्छी तरह गौर के साथ देखने पर भी उनको मैंने अल्पशिक्षित साधारण ग्रामीण भले आदमी के सिवा और कुछ नहीं पाया- फिर भी उनकी बात मानो अकस्मात् अपने को अतिक्रमण करके बहुत दूर पहुँच गयी।
उनकी सभी बातों को मैं अभ्रान्त समझकर अस्वीकार कर सका हूँ सो बात नहीं, परन्तु अंगीकार करनें में भी मुझे वेदना का अनुभव होने लगा। न जाने कैसा संशय होने लगा कि ये सब बातें उनकी अपनी नहीं हैं, मानो यह और किसी न दीखने वाले की जबान बन्दी है।
बहुत ही संकोच के साथ मैंने पूछा, “और कुछ खयाल न करें…”
“नहीं-नहीं, खयाल किस बात का? कहिए?”
मैंने पूछा, “अच्छा, यह सब क्या आपकी अपनी अभिज्ञता है, अपने निजी चिन्तन का फल है?”
भले आदमी नाराज हो गये। बोले, “क्यों ये क्या झूठी बातें हैं? इसमें एक अक्षर भी झूठा नहीं- समझ लीजिएगा।”
“नहीं नहीं, झूठी तो मैं बताता नहीं, पर…”
“फिर ‘पर’ कैसी? हमारे स्वामीजी कभी झूठ नहीं बोलते। उनके समान ज्ञान और है कोई?”
मैंने पूछा, “स्वामीजी कौन?”
उनके साथी ने इसका जवाब दिया। बोले, “स्वामी वज्रानन्द। उमर कम है तो क्या अगाध पण्डित हैं, अगाध…”
“उन्हें आप लोग पहिचानते हैं क्या?”
“पहिचानते नहीं? खूब। उन्हें तो अपना ही आदमी कहा जा सकता हैं। इन्हीं के घर तो उनका मुख्य अवहै।” यह कहते हुए उन्होंने साथ के भले आदमी को दिखा दिया।
वृद्ध महाशय ने उसी वक्त संशोधन करते हुए कहा, “अवमत कहो नरेन, कहो, आश्रम। महाशय, मैं गरीब आदमी हूँ, जितनी बनती है, उतनी सेवा कर देता हूँ। मगर हाँ, हैं ऐसे जैसे विदुर के घर श्रीकृष्ण। मनुष्य तो नहीं, मनुष्य की आकृति में देवता हैं।”
मैंने पूछा, “फिलहाल वे हैं कितने रोज से आपके गाँव में?”
नरेन्द्र ने कहा, “करीब दो महीने हुए होंगे। इस तरफ न तो कोई डॉक्टर-वैद्य ही और न स्कूल। इसी के लिए वे इतना उद्योग कर रहे हैं। और फिर खुद भी एक भारी डॉक्टर हैं।”
अब साफ मेरी समझ में आ गया कि माजरा क्या है। ये अपने वही आनन्द हैं, साँइथिया स्टेशन पर भोजनादि कराकर राजलक्ष्मी जिन्हें परम आदर के साथ गंगामाटी ले आई थी। बिदाई की वे घड़ियाँ याद आ गयीं। राजलक्ष्मी कैसी रो रही थी। परिचय तो दो ही दिन का था, पर मालूम ऐसा होता कि मानो वह न जाने कितने भारी स्नेह की वस्तु को ऑंखों से ओझल करके किसी भयंकर विपत्ति के ग्रास की ओर बढ़ाए दे रही है- ऐसी ही उसकी व्यथा की। वापस आने के लिए उसकी वह कैसी व्याकुल विनय थी! परन्तु आनन्द है सन्यासी।- उसमें ममता भी नहीं, और मोह भी नहीं। नारी-हृदय की वेदना का रहस्य उसके लिए मिथ्या के सिवा और कुछ नहीं। इसी से इतने दिन इतने पास रहकर भी बिना प्रयोजन के दिखाई देने की जरूरत उसने पल-भर के लिए भी महसूस नहीं की, और भविष्य में भी शायद इस प्रयोजन का कारण न आएगा। परन्तु राजलक्ष्मी को यह बात मालूम होते ही कितनी गहरी चोट पहुँचेगी, सो मैं ही जानता हूँ!
अपनी बात याद आ गयी। मेरा भी विदा का मुहूर्त नजदीक आ रहा है- जाना ही होगा, इस बात को प्रतिक्षण महसूस कर रहा हूँ। राजलक्ष्मी के लिए मेरी जरूरत समाप्त हो रही है। सिर्फ इतना ही मेरी समझ में नहीं आता कि राजलक्ष्मी के उस दिन के दिनान्त का कहाँ और कैसे अवसान होगा!
गाँव में पहुँचा। गाँव का नाम है महमूदपुर। वृद्ध यादव चक्रवर्ती ने उसी का उल्लेख करके गर्व के साथ कहा, “नाम सुन के चौंकियेगा नहीं साहब, गाँव के चारों तरफ कहीं मुसलमानों की छाया तक नहीं पाएँगे आप। जिधर देखिए उधर ब्राह्मण, कायस्थ और भली जात। ऐसी जात की यहाँ बस्ती ही नहीं जिसके हाथ का पानी न चल सके। क्यों नरेन, कोई है?”
नरेन ने बार-बार हाँ में हाँ मिलाते हुए सिर हिलाकर कहा- “एक भी नहीं, एक भी नहीं। ऐसे गाँव में हम लोग रहते ही नहीं।”
हो सकता है कि यह सच हो, पर इसमें इतने खुश होने की कौन-सी बात है, मेरी समझ में नहीं आया।
चक्रवर्ती के घर वज्रानन्द से भेंट हुई। हाँ, वे ही हैं। मुझे देखकर उन्हें जितना आश्चर्य हुआ, उतना ही आनन्द।
“अहा भाई साहब! अचानक यहाँ कैसे?” इतना कहकर आनन्द ने हाथ उठाकर नमस्कार किया। इस नर-देहधारी देवता को सम्मान के साथ मेरा अभिवादन करते देख चक्रवर्ती विगलित हो उठे। अगल-बगल और भी बहुत-से भक्त थे, वे भी उठ के खड़े हो गये। मैं कोई भी क्यों न होऊँ, इस विषय में तो किसी को सन्देह ही न रह गया कि मैं मामूली आदमी नहीं हूँ।
आनन्द ने कहा, “आप पहले से कुछ लुटे-लुटे से दिखाई देते हैं, भाई साहब?”
इसका जवाब दिया चक्रवर्ती ने। दो दिन से मुझे आहार नहीं मिला, सोने का कोई ठिकाना नहीं रहा, और किसी बड़े पुण्य से मैं जिन्दा आ गया हूँ तथा कुलियों में महामारी आदि का ऐसा सुन्दर और सविस्तार वर्णन किया कि सुनकर मैं भी दंग रह गया।
आनन्द ने कोई खास व्याकुलता प्रकट नहीं की। जरा कुछ मुसकराकर औरों के कान बचाकर कहा, “दो दिन में इतना नहीं होता भाई साहब, इसके लिए जरा कुछ समय चाहिए। क्या हुआ था? बुखार?”
मैंने कहा, “ताज्जुब नहीं। मलेरिया तो है ही।”
चक्रवर्ती ने आतिथ्य में कोई त्रुटि नहीं की, खाना-पीना आज खूब अच्छी तरह ही हुआ।
भोजन के बाद चलने की तैयारी करने पर आनन्द ने पूछा, “आप अचानक कुलियों में कैसे पहुँच गये?”
मैंने कहा, “दैव के चक्कर से।”
आनन्द ने हँसते हुए कहा, “चक्कर तो है ही। गुस्से में आकर घर पर खबर भी न दी होगी शायद?”
मैंने कहा, “नहीं- मगर वह गुस्से में आकर नहीं। देना फिजूल है, समझकर ही नहीं दी। इसके सिवा आदमी ही कहाँ थे जो भेजता?”
आनन्द ने कहा, “यह एक बात जरूर है। परन्तु आपकी भलाई-बुराई जीजी के लिए फिजूल कब से हो उठी? वे शायद डर और फिक्र से अधमरी हो गयी होंगी।”
बात बढ़ाने से कोई लाभ नहीं। इस प्रश्न का मैंने फिर कुछ उत्तर ही नहीं दिया। आनन्द ने ऐसा समझ लिया कि जिरह में उन्होंने मेरा एकदम मुँह बन्द कर दिया। इसी से, स्निग्ध मृदु मुसकराहट के साथ कुछ देर तक आत्म-गौरव अनुभव करके वे बोले, “आपके लिए रथ तैयार है, मैं समझता हूँ शाम के पहले ही घर पहुँच जाँयगे। चलिए, आपको विदा कर आऊँ।”
मैंने कहा, “पर घर जाने से पहले मुझे जरा कुलियों की खबर लेने जाना है।”
आनन्द ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, “इसके मानी- अभी गुस्सा उतरा नहीं है। पर मैं तो कहूँगा कि दैव के चक्कर से दुर्भोग जो भाग्य में बदा था वह तो फल चुका। आप डॉक्टर भी नहीं, साधु-बाबा भी नहीं, गृहस्थ आदमी हैं। अब, सचमुच ही अगर खबर लेने लायक कोई बात रह गयी हो, तो उसका भार मुझ पर सौंपकर आप निश्चिन्त मन से घर चले जाइए। पर जाते ही मेरा नमस्कार जताकर कहिएगा कि उनका आनन्द अच्छी तरह है।”
दरवाजे पर बैलगाड़ी तैयार थी। गृहस्वामी चक्रवर्ती महाशय ने हाथ जोड़कर अनुरोध किया कि फिर कभी इधर आना हो तो इस घर में पद-धूलि जरूर पड़नी चाहिए। उनके आन्तरिक आतिथ्य के लिए मैंने सहस्र धन्यवाद दिया; परन्तु दुर्लभ पद-धूलि की आशा न दे सका। मुझे बंगाल प्रान्त शीघ्र ही छोड़ जाना होगा, इस बात को मैं भीतर ही भीतर महसूस कर रहा था; लिहाजा किसी दिन किसी भी कारण से इस प्रान्त में वापस आने की सम्भावना मेरे लिए बहुत दूर चली गयी थी।
गाड़ी में बैठ जाने पर आनन्द ने भीतर को मुँह बढ़ाकर धीरे से कहा, “भाई साहब, इधर की आब-हवा आपको माफिक नहीं आती। मेरी तरफ से आप जीजी से कहिएगा कि पछाँह के आदमी ठहरे आप, आपको वे वहीं ले जाँय।”
मैंने कहा, “इस तरफ क्या आदमी जीते नहीं आनन्द?”
प्रत्युत्तर में आनन्द ने रंचमात्र इतस्तत: न करके फौरन ही कहा, “नहीं। मगर इस विषय में तर्क करके क्या होगा भाई साहब? आप सिर्फ मेरा हाथ जोड़कर अनुरोध उनसे कह दीजिएगा। कहिएगा, आनन्द सन्यासी की ऑंखों से देखे बिना इसकी सत्यता समझ में नहीं आ सकती।”
मैं मौन रहा। कारण, राजलक्ष्मी को उनका यह अनुरोध जताना मेरे लिए कितना कठिन है, इसे आनन्द क्या जाने!
गाड़ी चल देने पर आनन्द ने फिर कहा, “क्यों भाई साहब, मुझे तो आपने एक बार भी आने का निमन्त्रण नहीं दिया?”
मैंने मुँह से कहा, “तुम्हारे कामों का क्या ठीक है, तुम्हें निमन्त्रण देना क्या आसान काम है भाई?”
मगर मन ही मन आशंका थी कि इसी बीच में कहीं वे स्वयं ही किसी दिन पहुँच न जाँय। फिर तो इस तीक्ष्ण-बुद्धि सन्यासी की दृष्टि से कुछ भी छुपाने का उपाय न रहेगा। एक दिन ऐसा था जब इससे कुछ भी बनता-बिगड़ता न था, तब मन ही मन हँसता हुआ कहा करता, “आनन्द, इस जीवन का बहुत कुछ विसर्जन दे चुका हूँ, इस बात को अस्वीकार न करूँगा, परन्तु मेरे नुकसान के उस सहज हिसाब को ही तुम देख सके और तुम्हारे देखने के बाहर जो मेरे संचय का अंक एकबारगी संख्यातीत हो रहा है सो! मृत्यु-पार का वह पाथेय अगर मेरा जमा रहे, तो मैं इधर की किसी भी हानि की परवाह न करूँगा।” लेकिन आज कहने के लिए बात ही क्या थी? इसी से चुपचाप सिर नीचा किये बैठा रहा। पल-भर में मालूम हुआ कि ऐश्वर्य का वह अपरिमेय गौरव अगर सचमुच ही आज मिथ्या मरीचिका में विलुप्त हो गया, तो इस गल-ग्रह, भग्न-स्वास्थ्य, अवांछित गृहस्वामी के भाग्य में अतिथि-आह्नान करने की विडम्बना अब न घटे।
मुझे नीरव देखकर आनन्द ने उसी तरह हँसते हुए कहा, “अच्छी बात है, नये तौर से न कहिए तो भी कोई हर्ज नहीं, मेरे पास पुराने निमन्त्रण की पूँजी मौजूद है, मैं उसी के बल-बूते पर हाजिर हो सकूँगा।”
मैंने पूछा, “मगर यह काम कब तक हो सकेगा?”
आनन्द ने हँसते हुए कहा, “डरो मत भाई साहब, आप लोगों के गुस्सा उतरने के पहले ही पहुँचकर मैं आपको तंग न करूँगा- उसके बाद ही पहुँचूगा।”
सुनकर मैं चुप हो रहा। गुस्सा होकर नहीं आया, यह कहने की भी इच्छा न हुई।
रास्ता कम नहीं था, गाड़ीवान जल्दी कर रहा था। गाड़ी हाँकने से पहले फिर उन्होंने एक बार नमस्कार किया और मुँह हटा लिया।
इस तरफ गाड़ी वगैरह का चलन नहीं और इसीलिए उसके लिए किसी ने रास्ता बनाकर भी नहीं रक्खा। बैलगाड़ी, मैदान और खाली खेतों में होकर, ऊबड़-खाबड़ ऊसर को पार करती हुई अपना रास्ता तय करने लगी। भीतर अधलेटी हालत में पड़े-पड़े मेरे कानों में आनन्द सन्यासी की बातें ही गूँजने लगीं। गुस्सा होकर मैं नहीं आया- और यह कोई लाभ की चीज नहीं और लोभ की भी नहीं; परन्तु, बराबर खयाल होने लगा, कहीं यह भी अगर सच होता? किन्तु सच नहीं, और सच होने का कोई रास्ता ही नहीं। मन ही मन कहने लगा, गुस्सा मैं किस पर करूँगा? और किसलिए? उसने कुसूर क्या किया है? झरने की जलधारा के अधिकार के बारे में झगड़ा हो सकता है, किन्तु उत्स-मुख में ही अगर पानी खत्म हो गया हो, तो सूखे जल-मार्ग के विरुद्ध सिर धुन के जान दे दूँ किस बहाने?
इस तरह कितना समय बीत गया, मुझे होश नहीं। सहसा नाले में गाड़ी रुक जाने से उसके धक्कों-दचकों से मैं उठकर बैठ गया। सामने को टाट का परदा उठाकर देखा कि शाम हो आई है। गाड़ी चलाने वाला लड़का-सा ही है, उमर शायद चौदह-पन्द्रह साल से ज्यादा न होगी। मैंने कहा, “और तू इतनी जगह रहते नाले में क्यों आ पड़ा?”
लड़के ने अपनी गँवई गाँव की बोली में उसी वक्त जवाब दिया, “मैं क्यों पड़ने लगा, बैल अपने आप ही उतर पड़े हैं।”
“अपने आप ही कैसे उतर पड़े रे? तू बैल सँभालना भी नहीं जानता?”
‘नहीं। बैल जो नये हैं।”
“बहुत ठीक! पर इधर तो अंधेरा हुआ जा रहा है, गंगामाटी है कितनी दूर यहाँ से?”
“सो मैं क्या जानूँ! गंगामाटी मैं कभी गया थोड़े ही हूँ!”
मैंने कहा, “कभी अगर गया ही नहीं, तो मुझ पर ही इतना प्रसन्न क्यों हुआ भई? किसी से पूछ क्यों नहीं लेता रे- मालूम तो हो, कितनी दूर है।”
उसने जवाब में कहा, “इधर आदमी हैं कहाँ? कोई नहीं है।”
लड़के में और चाहे जो दोष हो, पर जवाब उसके जैसे संक्षिप्त वैसे ही प्रांजल हैं, इसमें कोई शक नहीं।
मैंने पूछा, “तू गंगामाटी का रास्ता तो जानता है?”
वैसा ही स्पष्ट जवाब दिया। बोला, “नहीं!”
“तो तू आया क्यों रे?”
“मामा ने कहा कि बाबू को पहुँचा दे। ऐसे सीधा जाकर पूरब को मुड़ जाने से ही गंगामाटी में जा पड़ेगा। जायेगा और चला आयेगा।”
सामने अंधेरी रात है, और अब ज्यादा देर भी नहीं है। अब तक तो ऑंखें मींचकर अपनी चिन्ता में ही मग्न था। पर लड़के की बातों से अब मुझे डर-सा मालूम होने लगा। मैंने कहा, “ऐसे सीधे दक्षिण की बजाय उत्तर को जाकर पश्चिम को तो नहीं मुड़ गया रे?”
लड़के ने कहा, “सो मैं क्या जानूँ?”
मैंने कहा, “नहीं जानता तो चल दोनों जने अंधेरे में मौत के घर चले चलें। अभागा कहीं का, रास्ता नहीं जानता था तो आया ही क्यों तू? तेरा बाप है?”
“नहीं।”
“माँ है?”
“नहीं, मर गयी।”
“आफत चुकी। चल, तो फिर आज रात को उन्हीं के पास चला चल। तेरे मामा में अकेली अकल ही ज्यादा नहीं, दया-माया भी काफी है।”
और कुछ आगे बढ़ने के बाद लड़का रोने लगा, उसने जता दिया कि अब वह आगे नहीं जा सकता।
मैंने पूछा, “फिर ठहरेगा कहाँ?”
उसने जवाब दिया, “घर लौट जाऊँगा।”
“पर ऐसे बेवक्त मेरे लिए क्या उपाय है?”
पहले ही कह चुका हूँ कि लड़का अत्यन्त स्पष्टवादी है। बोला, “तुम बाबू उतर जाओ। मामा ने कह दिया है, किराया सवा रुपया ले लेना। कमती लेने से वे मुझे मारेंगे।”
मैंने कहा, “मेरे लिए तुम मार खाओगे, यह कैसी बात!”
एक बार सोचा कि इसी गाड़ी से यथास्थान लौट जाऊँ। मगर न जाने कैसी तबीयत हुई, लौटने का मन नहीं हुआ। रात हो रही है, अपरिचित स्थान है, गाँव-बस्ती कहाँ और कितनी दूर है, सो भी जानने का कोई उपाय नहीं। सिर्फ सामने एक बड़ा-सा आम-कटहल का बाग देखकर अनुमान किया कि गाँव शायद बहुत ज्यादा दूर न होगा। कोई न कोई आश्रय तो मिल ही जायेगा और अगर नहीं मिला, तो उससे क्या? न हो तो इस बार की यात्रा ऐसे ही सही।
उतरकर किराया चुका दिया। देखा कि लड़के की कोरम-कोर बात ही नहीं, अपनी बात पर अमली कार्रवाई करने का भी बिल्कुल स्पष्ट है। पलक मारते ही उसने गाड़ी का मुँह फेर दिया, और बैल भी घर लौटने का इशारा पाते ही पल-भर में ऑंखों से ओझल हो गये।
अध्याय 14
संध्या तो हो आई, पर रात के अन्धकार के घोर होने में अब भी कुछ विलम्ब था। इसी थोड़े से समय के भीतर किसी भी तरह से हो, कोई न कोई ठौर-ठिकाना करना ही पड़ेगा। यह काम मेरे लिए कोई नया भी न था, और कठिन होने के कारण मैं इससे डरा भी नहीं हूँ। परन्तु, आज उस आम-बाग के बगल से पगडण्डी पकड़ के जब धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा तो न जाने कैसी एक उद्विग्न लज्जा से मेरा मन भीतर से भर आने लगा। भारत के अन्यान्य प्रान्तों के साथ किसी समय घनिष्ठ परिचय था; किन्तु, अभी जिस मार्ग से चल रहा हूँ, वह तो बंगाल के राढ़-देश का मार्ग है। इसके बारे में तो मेरी कुछ भी जानकारी नहीं है। मगर यह बात याद नहीं आई कि सभी देश-प्रदेशों के बारे में शुरू-शुरू में ऐसा ही अनभिज्ञ था, और ज्ञान जो कुछ प्राप्त किया है वह इसी तरह अपने आप अर्जन करना पड़ा है, दूसरे किसी ने नहीं करा दिया।
असल में, किसलिए उस दिन मेरे लिए सर्वत्र द्वार खुले हुए थे, और आज, संकोच और दुविधा से वे सब बन्द से हो गये, इस बात पर मैंने विचार ही नहीं किया। उस दिन के उस जाने में कृत्रिमता नहीं थी; मगर आज जो कुछ कर रहा हूँ, यह तो उस दिन की सिर्फ नकल है। उस दिन बाहर के अपरिचित ही थे मेरे परम आत्मीय-उन पर अपना भार डालने में तब किसी तरह की हिचकिचाहट नहीं आई; पर वही भार आज व्यक्ति-विशेष पर एकान्त रूप से पड़ जाने से सारा का सारा भार-केन्द्र ही अन्यत्र हट गया है। इसी से आज अनजान अपरिचितों के बीच में से चलने में मेरे हर कदम पर उत्तरोत्तर भारी होते चले जा रहे हैं। उन दिनों की उन सब सुख-दु:ख की धारणाओं से आज की धारणा में कितना भेद है, कोई ठीक है! फिर भी चलने लगा। अब तो मेरे अन्दर इस जंगल में रात बिताने का न साहस ही रहा, और न शक्ति ही बाकी रही। आज के लिए कोई आश्रय तो ढूँढ़ निकालना ही होगा।
तकदीर अच्छी थी, ज्यादा दूर न चलना पड़ा। पेड़ के घने पत्तों में से कोई एक पक्का मकान-सा दिखाई दिया। थोड़ी दूर घूमकर मैं उस मकान के सामने पहुँच गया।
था तो पक्का मकान, पर मालूम हुआ कि अब उसमें कोई रहता नहीं। सामने लोहे का गेट था, पर टूटा हुआ- उसकी अधिकांश छड़ें लोग निकाल ले गये हैं। मैं भीतर घुस गया। खुला हुआ बरामदा है, बड़े-बड़े दो कमरे हैं, एक बन्द है, और दूसरा जो खुला है, उसके दरवाजे के पास पहुँचते ही उसमें से एक कंकाल-सा आदमी निकलकर मेरे सामने आ खड़ा हुआ। देखा कि उस कमरे के चारों कोनों में चार लोहे के गेट हैं, किसी दिन उसमें गद्दे बिछे रहते थे, परन्तु कालक्रम से अब उनके ऊपर का टाट तक लुप्त हो गया है। बाकी बची हैं सिर्फ नारियल की जटाएँ, सो भी बहुत कम। एक तिपाई है, कुल टीन और कलई के बरतन हैं, जिनकी शोभा और मौजूदा हालत वर्णन के बाहर पहुँच चुकी है। जो अनुमान की थी वही बात है। यह मकान अस्पताल है। यह आदमी परदेशी है। नौकरी करने आया था सो बीमार पड़ गया है। पन्द्रह दिन से वह यहाँ का इन्डोर पेशेण्ट हैं। उस भले आदमी से जो बातचीत हुई उसका एक चित्र नीचे दिया जाता है-
“बाबू साहब, चारेक पैसा देंगे?”
“क्यों, किसलिए?”
“भूख के मारे मरा जाता हूँ बाबूजी, कुछ चबेना-अवेना खरीद के खाना चाहता हूँ।”
मैंने पूछा, “तुम मरीज आदमी हो, अंट-संट खाने की तुम्हें मनाई नहीं है?”
“जी नहीं।”
“यहाँ से तुम्हें खाने को नहीं मिलता?”
उसने जो कुछ कहा, उसका सार यह है- सबेरे एक कटोरा साबू दिए गये थे, सो कभी के खा चुका। तब से वह गेट के पास बैठा रहता है- भीख में कुछ मिल जाता है तो शाम को पेट भर लेता है, नहीं तो उपास करके रात काट देता है। एक डॉक्टर भी हैं, शायद उन्हें बहुत ही थोड़ा हाथ-खर्च के लिए कुल मिला करता है। सबेरे एक बार मात्र उनके दर्शन होते हैं। और एक आदमी मुकर्रर है, उसे कम्पाउण्डरी से लेकर लालटेन में तेल भरने तक का सभी काम करना पड़ता है। पहले एक नौकर था, पर इधर छह-सात महीने से तनखा न मिलने के कारण वह भी चला गया है। अभी तक कोई नया आदमी भरती नहीं हुआ।
मैंने पूछा, “झाड़ु-आड़ु कौन लगाता है?”
उसने कहा, “आजकल तो मैं ही लगाता हूँ। मेरे चले जाने पर फिर जो नया रोगी आयेगा वह लगायगा- और कौन लगायगा?”
मैंने कहा, “अच्छा इन्तजाम है! अस्पताल यह है किसका, जानते हो?”
वह भला आदमी मुझे उस तरफ के बरामदे में ले गया। छत की कड़ी में लगे हुए तार से एक टीन की लालटेन लटक रही थी। कम्पाउण्डर साहब उस सिदौसे ही जलाकर काम खत्म करके अपने घर चले गये हैं। दीवार में एक बड़ा भारी पत्थर जड़ा हुआ है, जिसपर सुनहरी अंगरेजी हरूफों में ऊपर से नीचे तक सन् अंगरेजी तारीख आदि खुदे हुए हैं- यानी पूरा शिलालेख है। जिले के जिन साहब मजिस्ट्रेट ने अपरिसीम दया से प्रेरित होकर इसका शिलारोपण या द्वारोद्धाटन सम्पन्न किया था, सबसे पहले उनका नाम-धाम है, और सबसे नीचे है प्रशस्ति-पाठ। किसी एक राव बहादुर ने अपनी रत्नगर्भा माता की स्मृति-रक्षार्थ जननी-जन्मभूमि पर इस अस्पताल की प्रतिष्ठा कराई है। इसमें सिर्फ माता-पुत्र का ही वर्णन नहीं बल्कि ऊधर्वतन तीन-चार पीढ़ियों का भी पूरा विवरण है। अगर इसे छोटी कुल-कारिका कहा जाय, तो शायद अत्युक्ति न होगी। इसके प्रतिष्ठाता महोदय राज-सरकार की रायबहादुरी के योग्य पुरुष थे, इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं। कारण रुपये बरबाद करने की ओर से उन्होंने कोई त्रुटि नहीं की। ईंट और काठ तथा विलायती लोहे के बिल चुकाने के बाद अगर कुछ बाकी बचा होगा, तो वह साहब-शिल्पकारों के हाथ से वंग-गौरव लिखवाने में ही समाप्त हो गया होगा। डॉक्टर और मरीजों के औषधि-पथ्यादि की व्यवस्था करने के लिए शायद रुपये भी न बचे होंगे और फुरसत भी न हुई होगी।
मैंने पूछा, “रायबहादुर रहते कहाँ हैं?”
उसने कहा, “ज्यादा दूर नहीं, पास ही रहते हैं।”
“अभी जाने से मुलाकात होगी?”
“जी नहीं, घर पर ताला लगा होगा, घर के सबके सब कलकत्ते रहते हैं।”
मैंने पूछा, “कब आया करते हैं, जानते हो?”
असल में वह परदेशी है, ठीक-ठीक हाल नहीं बता सका। फिर भी बोला कि तीनेक साल पहले एक बार आए थे- डॉक्टर के मुँह सुना था उसने। सर्वत्र एक ही दशा है, अतएव दु:खित होने की कोई खास बात नहीं थी।
इधर अपरिचित स्थान में संध्याी बीती जा रही थी और अंधेरा बढ़ रहा था; लिहाजा, रायबहादुर के कार्य-कलापों की पर्यालोचना करने की अपेक्षा और भी जरूरी काम करना बाकी था। उस आदमी को कुछ पैसे देकर मालूम किया कि पास ही चक्रवर्तियों का एक घर मौजूद है। वे अत्यन्त दयालु हैं, उनके यहाँ कम-से-कम रात भर के लिए आश्रय तो मिल ही जायेगा। वह खुद ही राजी होकर मुझे अपने साथ वहाँ ले चला; बोला, “मुझे मोदी की दुकान पर तो जाना ही है, जरा-सा घूमकर आपको पहुँचा दूँगा, कोई बात नहीं।”
चलते-चलते बातचीत से समझ गया कि उक्त दयालु ब्राह्मण-परिवार से उसने भी कितनी ही शाम पथ्यापथ्य संग्रह करके गुप्तरूप से पेट भरा है।
दसेक मिनट पैदल चलकर चक्रवर्ती की बाहर वाली बैठक में पहुँच गया। मेरे पथ-प्रदर्शक ने आवाज दी, “पण्डितजी घर पर हैं?”
कोई जवाब नहीं मिला। सोच रहा था, किसी सम्पन्न ब्राह्मण के घर आतिथ्य ग्रहण करने जा रहा हूँ; परन्तु, घर-द्वार की शोभा देखकर मेरा मन बैठ-सा गया। उधर से कोई जवाब नहीं, और इधर से मेरे साथी के अपराजेय अध्यजवसाय का कोई अन्त नहीं। अन्यथा यह गाँव और यह अस्पताल बहुत दिन पहले ही उसकी रुग्ण आत्मा को स्वर्गीय बनाकर छोड़ता। वह आवाज पर आवाज लगाता ही रहा।
सहसा जवाब आया, “जा जा, आज जा। जा, कहता हूँ।”
मेरा साथी किसी भी तरह विचलित नहीं हुआ, बोला, “कौन आये हैं, निकल के देखिए तो सही।”
परन्तु मैं विचलित हो उठा। मानो चक्रवर्ती का परम-पूज्य गुरुदेव घर पवित्र करने अकस्मात् आविर्भूत हुआ हो।
नेपथ्य का कण्ठ-स्वर क्षण में मुलायम हो उठा, “कौन है रे भीमा?”
यह कहते हुए घर-मालिक दरवाजे के पास आये दिखाई दिये। मैली धोती पहने हुए थे, सो भी बहुत छोटी। अन्धकारप्राय संध्यां की छाया में उनकी उमर मैं न कूत सका, मगर बहुत ज्यादा तो नहीं मालूम हुई। फिर उन्होंने पूछा, “कौन है रे भीमा?”
समझ गया कि मेरे संगी का नाम भीम है। भीम ने कहा, “भले आदमी हैं, ब्राह्मण महाराज हैं। रास्ता भूलकर अस्पताल में पहुँच गये थे। मैंने कहा, “डरते क्यों हैं, चलिए, मैं पण्डितजी के यहाँ पहुँचाए देता हूँ, गुरु की सी खातिरदारी में रहिएगा।”
वास्तव में भीम ने अतिशयोक्ति नहीं की, चक्रवर्ती महाशय ने मुझे परम समादर के साथ ग्रहण किया। अपने हाथ से चटाई बिछाकर बैठने के लिए कहा, और तमाखू पीता हूँ या नहीं, पूछकर भीतर जाकर वे खुद ही हुक्का भर लाये।
बोले, “नौकर-चाकर सब बुखार में पड़े हैं- क्या किया जाय!”
सुनकर मैं अत्यन्त कुण्ठित हो उठा। सोचा, एक चक्रवर्ती के घर से निकलकर दूसरे चक्रवर्ती के घर आ फँसा। कौन जानें, यहाँ का आतिथ्य कैसा रूप धारण करेगा। फिर भी हुक्का हाथ में पाकर पीने की तैयारी कर ही रहा था कि इतने में सहसा भीतर से एक तीक्ष्ण कण्ठ का प्रश्न आया, “क्यों जी, कौन आदमी आया है?”
अनुमान किया कि यही घर की गृहिणी हैं। जवाब देने में सिर्फ चक्रवर्ती का ही गला नहीं काँपा, मेरा हृदय भी काँप उठा।
उन्होंने झटपट कहा, “बड़े भारी आदमी हैं जी, बड़े भारी आदमी। ब्राह्मण हैं- नारायण। रास्ता भूलकर आ पड़े हैं- सिर्फ रातभर रहेंगे- भोर होने के पहले, तड़के ही चले जाँयगे।”
भीतर से जवाब आया, “हाँ हाँ, सभी कोई आते हैं रास्ता भूलकर। मुँहजले अतिथियों का तो नागा ही नहीं। घर में न तो एक मुट्ठी चावल है, न दाल-खिलाऊँगी क्या चूल्हे की भूभड़?”
मेरे हाथ का हुक्का हाथ में ही रह गया। चक्रवर्तीजी ने कहा, “ओहो, तुम यह सब क्या बका करती हो! मेरे घर में दाल-चावल की कमी! चलो चलो, भीतर चलो, सब ठीक किये देता हूँ।”
चक्रवर्ती-गृहिणी भीतर चलने के लिए बाहर नहीं आई थीं। बोलीं, “क्या ठीक कर दोगे, सुनूँ तो सही? सिर्फ मुट्ठीभर चावल है, सो बच्चों के पेट में भी तो राँधकर डालना है। उन बेचारों को उपास रखकर मैं उसे लीलने दूँगी? इसका खयाल भी न लाना।”
माता धारित्री, फट जा, फट जा! ‘नहीं-नहीं’ कहके न-जाने क्या कहना चाहता था परन्तु चक्रवर्ती जी के विपुल क्रोध में वह न जाने कहाँ बह गया। उन्होंने ‘तुम’ छोड़कर फिर ‘तू’ कहना शुरू किया। और अतिथि-सत्कार के विषय को लेकर पति-पत्नी में जो वार्तालाप शुरू हुआ, उसकी भाषा जैसी थी, गम्भीरता भी वैसी ही थी- उसकी उपमा नहीं मिल सकती। मैं रुपये लेकर नहीं निकला था- जेब में जो थोड़े-से पैसे पड़े थे, वे भी खर्च हो चुके थे। कुरते में सोने के बटन अलबत्ता थे। पर वहाँ कौन किसकी सुनता है! व्याकुल होकर एक बार उठके खड़े होने की कोशिश करने पर चक्रवर्तीजी ने जोर से मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा, “आप अतिथि-नारायण हैं। विमुख होकर चले जाँयगे तो मैं गले में फाँसी लगा लूँगा।”
गृहिणी इससे रंचमात्र भी भयभीत नहीं हुई, उसी वक्त चैलेद्बज एक्सेप्ट करके बोलीं, “तब तो जी जाऊँ। भीख माँग-मूँगकर अपने बच्चों का पेट भर सकूँगी।”
इधर मेरी लगभग हिताहित-ज्ञान-शून्य होने की नौबत आ पहुँची थी; मैं सहसा कह बैठा, “चक्रवर्तीजी, से न हो तो और किसी दिन सोच-विचार कर धीरे सुस्ते लगाइएगा- लगाना ही अच्छा है- मगर, फिलहाल या तो मुझे छोड़ दीजिए, और न हो तो मुझे भी एक फाँसी की रस्सी दे दीजिए, उसमें लटककर आपको इस आतिथ्य-दाय से मुक्त कर दूँ।”
चक्रवर्तीजी ने अन्त:पुर की तरफ लक्ष्य करके जोर से चिल्लाकर कहा, “अब कुछ शिक्षा हुई? पूछता हूँ, सीखा कुछ?”
जवाब आया, “हाँ।”
और कुछ ही क्षण बाद भीतर से सिर्फ एक हाथ बाहर निकल आया। उसने धम्म से एक पीतल का कलसा जमीन पर धर दिया, और साथ-ही-साथ आदेश दिया, “जाओ, श्रीमन्त की दुकान से, इसे रखकर, दाल-चावल-घी-नामक ले आओ। जाओ। देखना कहीं वह हाथ में पाकर सब पैसे न काट ले।”
चक्रवर्ती खुश हो उठे। बोले, “अरे, नहीं, नहीं, यह क्या बच्चे के हाथ का लडुआ है?”
चट से हुक्का उठाकर दो-चार बार धुऑं खींचने के बाद वे बोले, “आग बुझ गयी। सुनती हो जी, जरा चिलम तो बदल दो, एक बार पीकर ही जाऊँ। गया और आया, देर न होगी।”
यह कहते हुए उन्होंने चिलम हाथ में लेकर भीतर की ओर बढ़ा दी।
बस, पति-पत्नी में सन्धि हो गयी। गृहिणी ने चिलम भर दी, और पतिदेव ने जी भरके हुक्का पिया। फिर वे प्रसन्न चित्त से हुक्का मेरे हाथ में थमाकर कलसा लेकर बाहर चले गये।
चावल आयी, दाल आयी, घी आया, नमक आया, और यथासमय रसोईघर में मेरी पुकार हुई। भोजन में रंचमात्र भी रुचि नहीं थी, फिर भी चुपचाप उठकर उस ओर चल दिया। कारण, आपत्ति करना सिर्फ निष्फल ही नहीं बल्कि ‘ना’ कहने में खतरे की भी आशंका हुई। इस जीवन में बहुत बार बहुत जगह मुझे बिन-माँगे आतिथ्य स्वीकार करना पड़ा है। सर्वत्र ही मेरा समादर हुआ है यह कहना तो झूठ होगा; परन्तु, ऐसा स्वागत भी कभी मेरे भाग्य में नहीं जुटा था। मगर अभी तो बहुत सीखना बाकी था। जाकर देखा कि चूल्हा जल रहा है, और वहाँ भोजन के बदले केले के पत्तों पर चावल-दाल-आलू और एक पीतल की हँड़िया रक्खी है।
चक्रवर्ती ने बड़े उत्साह के साथ कहा, “बस चढ़ा दीजिए हँड़िया, चटपट हो जायेगा सब। मसूर की खिचड़ी, आलू-भात है ही, मजे की होगी खाने में। घी है ही, गरम-गरम।”
चक्रवर्ती महाशय की रसना सरस हो उठी। परन्तु मेरे लिए यह घटना और भी जटिल हो गयी। मैंने, इस डर से कि मेरी किसी बात या काम से फिर कहीं कोई प्रलय-काण्ड न उठ खड़ा हो, तुरन्त ही उनके निर्देशानुसार हँड़िया चढ़ा दी। चक्रवर्ती-गृहिणी नेपथ्य में छिपी खड़ी थीं। स्त्री की ऑंखों से मेरे अपटु हाथों का परिचय छिपा न रहा। अब तो उन्होंने मुझे ही लक्ष्य करके कहना शुरू किया। उनमें और चाहे जो भी दोष हो, संकोच या ऑंखों का लिहाज आदि का अतिबाहुल्य-दोष नहीं था, इस बात को शायद बड़े से बड़ा निन्दाकारी भी स्वीकार किये बिना न रह सकेगा। उन्होंने कहा, “तुम तो बेटा, राँधना जानते ही नहीं।”
मैंने उसी वक्त उनकी बात मान ली, और कहा, “जी नहीं।”
उन्होंने कहा, “वे कह रहे थे, परदेसी आदमी हैं, कौन जानेगा कि किसने राँधा और किसने खाया! मैंने कहा, सो नहीं हो सकता, एक रात के लिए मुट्ठीभर भात खिलाकर मैं आदमी की जात नहीं बिगाड़ सकती। मेरे बाप अग्रदानी ब्राह्मण हैं।”
मेरी हिम्मत ही न हुई कि कह दूँ कि मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं, बल्कि इससे भी बढ़कर बड़े-बड़े पाप मैं इसके पहले ही कर चुका हूँ- क्योंकि डर था कि इससे भी कहीं कोई उपद्रव न उठ खड़ा हो। मन में सिर्फ एक ही चिन्ता थी कि किस तरह रात बीतेगी और कैसे इस घर के नागपाश से छुटकारा मिलेगा। लिहाजा, उनके निर्देशानुसार खिचड़ी भी बनाई और उसका पिण्ड-सा बनाकर घी डालकर- उस तोहफे को लीलने की कोशिश भी की। इस असाध्यर को मैंने किस तरह साध्ये या सम्पन्न किया, सो आज भी मुझसे छिपा नहीं है। बार-बार यही मालूम होने लगा कि वह चावल-दाल का पिण्डाकार तोहफा पेट के भीतर जाकर पत्थर का पिण्ड बन गया है।
अध्य वसाय से बहुत कुछ हो सकता है। परन्तु उसकी भी एक हद है। हाथ-मुँह धोने का भी अवसर न मिला, सब बाहर निकल गया! मारे डर के मेरी सिट्टी गुम हो गयी; क्योंकि, उसे मुझे ही साफ करना पड़ेगा, इसमें तो कोई शक नहीं। मगर उतनी ताकत भी अब न रह गयी। ऑंखों की दृष्टि धुँधली हो आयी। किसी तरह मैं इतना कह सका, “चार-छह मिनट में अपने को सँभाले लेता हूँ, फिर सब साफ कर दूँगा।”
सोचा था कि जवाब में न जाने क्या-क्या सुनना पड़ेगा। मगर आश्चर्य है कि उस महिला का भयानक कण्ठ-स्वर अकस्मात् ही कोमल हो गया। वे अंधेरे में से निकलकर मेरे सामने आ गयीं। बोलीं, “तुम क्यों साफ करोगे बेटा, मैं ही सब किये देती हूँ। बाहर के बिछौना तो अभी कर नहीं पाई, तब तक चलो तुम, मेरी ही कोठरी में चलकर लेट रहो।”
‘ना’ कहने का सामर्थ्य मुझमें न था। इसलिए, चुपचाप उनके पीछे पीछे जाकर, उन्हीं की शतछिन्न शय्या पर ऑंख मींचकर पड़ रहा।
बहुत अबेर में जब नींद खुली, तब ऐसे जोर से बुखार चढ़ रहा था कि मुझमें सिर उठाने की भी शक्ति न थी। सहज में मेरी ऑंखों से ऑंसू नहीं गिरते, पर आज, यह सोचकर कि इतने बड़े अपराध की अब किस तरह जवाबदेही करूँगा, खालिस और निरवछिन्न आतंक से ही मेरी ऑंखें भर आयीं। मालूम हुआ कि बहुत बार बहुत-सी निरुद्देश यात्राएँ मैंने की हैं, परन्तु इतनी बड़ी विडम्बना जगदीश्वर ने और कभी मेरे भाग्य में नहीं लिखी। और फिर एक बार मैंने जी-जान से उठने की कोशिश की, किन्तु किसी तरह सिर सीधा न कर सका और अन्त में ऑंख मींचकर पड़ रहा।
आज चक्रवर्ती-गृहिणी से रू-ब-रू बातचीत हुई। शायद अत्यन्त दु:ख में से ही नारियों का सच्चा और गहरा परिचय मिला करता है। उन्हें पहिचान लेने की ऐसी कसौटी भी और कुछ नहीं हो सकती, और पुरुष के पास उनका हृदय जीतने के लिए इतना बड़ा अस्त्र भी और कोई नहीं होगा।
मेरे बिछौने के पास आकर वे बोलीं, “नींद खुली बेटा?”
मैंने ऑंखें खोलकर देखा। उनकी उमर शायद चालीस के लगभग होगी- कुछ ज्यादा भी हो सकती है। रंग काला है, पर नाक-ऑंख साधारण भद्र-गृहस्थ-घर की स्त्रियों के समान ही हैं, कहीं भी कुछ रूखापन नहीं, कुछ है तो सिर्फ सर्वांगव्यापी गम्भीर दारिद्य और अनशन के चिह्न-दृष्टि पड़ते ही यह बात मालूम हो जाती है।
उन्होंने फिर पूछा, “अंधेरे में दिखाई नहीं देता बेटा, पर, मेरा बड़ा लड़का जीता रहता तो तुम-सा ही बड़ा होता।”
इसका क्या उत्तर दूँ? उन्होंने चट से मेरे माथे पर हाथ रखकर कहा, “बुखार तो अब भी खूब है।”
मैंने ऑंखें मींच ली थीं। ऑंखें मींचे ही मींचे कहा, “कोई जरा सहारा दे दे, तो शायद, अस्पताल तक पहुँच जाऊँगा- कोई ज्यादा दूर थोड़े ही है।”
मैं उनका चेहरा तो न देख सका, पर इतना तो समझ गया कि मेरी बात से उनका कण्ठस्वर मानो वेदना से भर आया। बोलीं, “दु:ख की जलन से कल कई एक बातें मुँह से निकल गयी हैं, इसी से, बेटा, गुस्सा होकर उस जमपुरी में जाना चाहते हो? और तुम जाना भी चाहोगे तो मैं जाने कब दूँगी?” इतना कहकर वे कुछ देर तक चुपचाप बैठी रहीं, फिर धीरे से बोलीं, “रोगी से नियम नहीं बनता बेटा, देखो न, जो लोग अस्पताल में जाकर रहते हैं, उन्हें वहाँ किस-किसका छुआ हुआ नहीं खाना पड़ता है, बताओ? पर उससे जात थोड़े ही जाती है। मैं साबू बार्ली बनाकर दूँ, तो तुम न खाओगे?”
मैंने गरदन हिलाकर जताया कि इसमें मुझे रंचमात्र भी आपत्ति नहीं और सिर्फ बीमार हूँ इसलिए नहीं, अत्यन्त निरोग अवस्था में भी मुझे इससे कोई परहेज नहीं।
अतएव, वहीं रह गया। कुल मिलाकर शायद चारेक दिन रहा। फिर भी उन चार दिनों की स्मृति सहज में भूलने की नहीं। बुखार एक ही दिन में उतर गया, पर बाकी दिनों में, कमजोर होने के कारण, उन्होंने मुझे वहाँ से हिलने भी न दिया। कैसे भयानक दारिद्रय में इस ब्राह्मण-परिवार के दिन कट रहे हैं, और उस दुर्गति को बिना किसी कुसूर के हजार-गुना कड़घआ कर रक्खा है समाज के अर्थहीन पीड़न ने। चक्रवर्ती-गृहिणी अपनी अविश्रान्त मेहनत के भीतर से भी जरा सी फुरसत पाने पर, मेरे पास आकर बैठ जाती थीं। सिर और माथे पर हाथ फेर देती थीं। तैयारियों के साथ रोग का पथ्य न जुटा सकती थीं, पर उस त्रुटि को अपने व्यवहार और जतन से पूरा कर देने के लिए कैसी एकाग्र चेष्टा उनमें पाता था।
पहले इनकी अवस्था कामचलाऊ अच्छी थी। जमीन-जायदाद भी ऐसी कुछ बुरी नहीं थी। परन्तु, उनके अल्पबुद्धि पति को लोगों ने धोखा दे-देकर आज उन्हें ऐसे दु:ख में डाल दिया है। वे आकर रुपये उधार माँगते थे; कहते थे- हैं तो यहाँ बहुत-से बड़े आदमी, पर कितनों की छाती पर इतने बाल हैं? लिहाजा छाती के उन बालों का परिचय देने के लिए कर्ज करके कर्ज दिया करते थे। पहले तो हाथ चिट्ठी लिखाकर और बाद में स्त्री से छिपाकर जमीन गहने रखकर कर्ज देने लगे। नतीजा अधिकांश स्थलों पर जैसा होता है, यहाँ भी वैसी ही हुआ।
यह कुकार्य चक्रवर्ती के लिए असाध्य् नहीं, इस बात पर मुझे, एक ही रात की अभिज्ञता से, पूरा विश्वास हो गया। बुद्धि के दोष से धन-सम्पत्ति बहुतों की नष्ट हो जाती है, उसका परिणाम भी अत्यन्त दु:खमय होता है, परन्तु यह दु:ख समाज की अनावश्यक और अन्धी निष्ठुरता से कितना ज्यादा बढ़ सकता है, इसका मुझे चक्रवर्ती-गृहिणी की प्रत्येक बात से, नस-नस में, अनुभव हो गया। उनके यहाँ सिर्फ दो सोने की कोठरियाँ हैं, एक में लड़के-बच्चे रहते हैं और दूसरी पर बिल्कुयल और बाहर का आदमी होते हुए भी मैंने दखल जमा लिया। इससे मेरे संकोच की सीमा न रही। मैंने कहा, “आज तो मेरा बुखार उतर गया है और आप लोगों को भी बड़ी तकलीफ हो रही है। अगर बाहर वाली बैठक में मेरा बिस्तर कर दें, तो मुझे बहुत सन्तोष हो।”
गृहिणी ने गरदन हिलाकर जवाब दिया, “सो कैसे हो सकता है बेटा! बादल घिर रहे हैं, अगर वर्षा हुई तो उस कमरे में ऐसी जगह ही न रहेगी जहाँ सिर भी रखा जा सके। तुम अभी कमजोर ठहरे, इतना साहस तो मुझसे न होगा।”
उनके ऑंगन में एक तरफ कुछ पुआल पड़ा था, उस पर मैंने गौर किया था। उसी की तरफ इशारा करके मैंने पूछा, “पहले से मरम्मत क्यों नहीं करा ली? ऑंधी-मेह के दिन तो आ भी गये।”
इसके उत्तर में मालूम हुआ कि मरम्मत कराना कोई आसान बात नहीं। पतित ब्राह्मण होने से इधर का कोई किसान-मजूर उनका काम नहीं करता। आन गाँव में जो मुसलमान काम करने वाले हैं, वे ही घर छा जाते हैं। किसी भी कारण से हो, इस साल वे आ नहीं सके। इसी प्रसंग में वे सहसा रो पड़ीं, बोली, “बेटा, हम लोगों के दु:ख का क्या कोई अन्त है? उस साल मेरी सात-आठ साल की लड़की अचानक हैजे में मर गयी; पूजा के दिन थे, मेरे भइया गये थे काशीजी घूमने, सो और कोई आदमी न मिलने से छोटे लड़के के साथ अकेले इन्हीं को मसान जाना पड़ा। सो भी क्या किरिया-करम ठीक से हो सका? लकड़ी तक किसी ने काटने न दी। बाप होकर गङ्ढा खोद के गाड़-गूड़कर इन्हें घर लौट आना पड़ा।” कहते-कहते उनका दबा हुआ पुराना शोक एकबारगी नया होकर दिखाई दे गया। ऑंखें पोंछती हुई जो कुछ कहने लगीं, उसमें मुख्य शिकायत यह थी कि उनके पुरखों में किसी समय किसी ने श्राद्ध का दान ग्रहण किया था- बस यही कसूर हो गया- और श्राद्ध तो हिन्दू का अवश्य कर्त्तव्य है, कोई तो उसका दान लेगा ही, नहीं तो वह श्राद्ध ही असिद्ध और निष्फल हो जायेगा। फिर दोष इसमें कहाँ है? और दोष अगर हो ही, तो आदमी को लोभ में फँसाकर उस काम में प्रवृत्त ही क्यों किया जाता है?
इन प्रश्नों का उत्तर देना जितना कठिन है, इतने दिनों बाद इस बात का पता लगाना भी दु:साध्यन है कि उन पुरखों की किस दुष्कृति के दण्डस्वरूप उनके वंशधरों को ऐसी विडम्बना सहनी पड़ रही है। श्राद्ध का दान लेना अच्छा है या बुरा, सो मैं नहीं जानता। बुरा होने पर भी यह बात सच है कि व्यक्तिगत रूप से इस काम को वे नहीं करते, इसलिए वे निरपराध हैं। अफसोस तो इस बात का है कि मनुष्य, पड़ोसी होकर, अपने दूसरे पड़ोसी की जीवन-यात्रा का मार्ग, बिना किसी दोष के, इतना दुर्गम और दु:खमय बना दे सकता है, ऐसी हृदयहीन निर्दय बर्बरता का उदाहरण दुनिया में शायद सिर्फ हिन्दू समाज के सिवा और कहीं न मिलेगा।
उन्होंने फिर कहा, “इस गाँव में आदमी ज्यादा नहीं हैं, मलेरिया बुखार और हैजे से आधे मर गये हैं। अब सिर्फ ब्राह्मण, कायस्थ और राजपूतों के घर बचे हैं। हम लोग तो लाचार हैं बेटा, नहीं तो जी चाहता है कि कहीं किसी मुसलमानों के गाँव में जा रहें।”
मैंने कहा, “मगर वहाँ तो जात जा सकती है?”
उन्होंने इस प्रश्न का ठीक जवाब नहीं दिया, बोलीं, “नाते में मेरे एक चचिया-ससुर लगते हैं, वे दुमका गये थे, नौकरी करने, सो ईसाई हो गये थे। उन्हें अब कोई तकलीफ नहीं है।”
मैं चुप रह गया। कोई हिन्दू-धर्म छोड़कर दूसरा धर्म ग्रहण करने को मन ही मन उत्सुक हो रहा है, यह सुनकर मुझे बड़ा दु:ख होता है। मगर उन्हें सान्त्वना भी देना चाहूँ तो दूँ क्या कहकर? अब तक मैं यही समझता था कि सिर्फ अस्पृश्य नीच जातियाँ ही हिन्दू-समाज में अत्याचार सहा करती हैं, मगर आज समझा कि बचा कोई भी नहीं है। अर्थहीन अविवेचन से परस्पर एक-दूसरे के जीवन को दूभर कर डालना ही मानो इस समाज का मज्जागत संस्कार है। बाद में बहुतों से मैंने पूछा है, और बहुतों ने इस बात को स्वीकार करते हुए कहा है, कि यह अन्याय है, यह गर्हित है, बुरी बात है; फिर भी इसके निराकरण का वे कोई भी मार्ग नहीं बतला पाते। वे इस अन्याय के बीच में से जन्म से लेकर मौत तक चलने के लिए राजी हैं, पर प्रतिकार की प्रवृत्ति या साहस- इन दोनों में से कोई भी बात उनमें नहीं। जानने-समझने के बाद भी अन्याय के प्रतिकार कर नेकी शक्ति जिनमें से इस तरह बिला गयी है, वह जाति अधिक दिनों तक कैसे जीवित रह सकती है, यह सोच-समझ सकना मुश्किल ही है।
तीन दिन के बाद, स्वस्थ होकर, मैं जब सबेरे ही जाने को तैयार हुआ, तो मैंने कहा, “माँ, आज मुझे विदा दीजिए।”
चक्रवर्ती-गृहिणी की दोनों ऑंखों में ऑंसू भर आये। कहा, “दु:खियों के घर बहुत दु:ख पाया बेटा, तुम्हें कड़घई बातें भी कम सुननी पड़ीं।”
इस बात का उत्तर ढूँढे न मिला। “नहीं, नहीं सो कोई बात नहीं- मैं बड़े आराम से रहा, मैं बहुत कृतज्ञ हूँ।” इत्यादि मामूली शराफत की बातें कहने में भी मुझे शरम होने लगी। वज्रानन्द की बात याद आयी। उसने एक दिन कहा था, “घर त्याग आने से क्या होता है? इस देश में घर माँ-बहिनें मौजूद हैं, हमारी मजाल क्या है कि हम उनके आकर्षण से बचकर निकल जाँय।” बात असल में कितनी सत्य है!
अत्यन्त गरीबी और कमअक्ल पति के अविचारित रम्य या ऊटपटाँग कार्यकलापों ने इस गृहस्थ-घर की गृहिणी को लगभग पागल बना दिया है, परन्तु जब उनको अनुभव हुआ कि मैं बीमार हूँ, लाचार हूँ- तब तो उनके लिए सोचने की कोई बात ही नहीं रह गयी। मातृत्व के सीमाहीन स्नेह से मेरे रोग तथा पराये घर ठहरने के सम्पूर्ण दु:ख को मानो उन्होंने अपने दोनों हाथों से एकबारगी पोंछकर अलग कर दिया।
चक्रवर्तीजी कोशिश करके कहीं से एक बैलगाड़ी जुटा लाये। गृहिणी की बड़ी भारी इच्छा थी कि मैं नहा-धो और खा-पीकर जाऊँ, परन्तु धूप और गरमी बढ़ जाने की आशंका से वे ज्यादा अनुरोध न कर सकीं। चलते समय सिर्फ देवी-देवताओं का नाम-स्मरण करके ऑंखें पोंछती हुई बोलीं, “बेटा, यदि कभी इधर आओ, तो एक बार यहाँ जरूर हो आना ।”
उधर जाना भी कभी नहीं हुआ, और वहाँ जरूर हो आना भी मुझसे न बन सका। बहुत दिनों बाद सिर्फ इतना सुना कि राजलक्ष्मी ने कुशारी महाशय के हाथ से उन लोगों का बहुत-सा कर्जा अपने ऊपर ले लिया है।
करीब तीसरे पहर गंगामाटी, घर पर पहुँचा। द्वार के दोनों तरफ कदलीवृक्ष और मंगल-घट स्थापित थे। ऊपर आम्र-पल्लवों के बन्दनवार लटक रहे थे। बाहर बहुत से लोग इकट्ठे बैठे तमाखू पी रहे थे। बैलगाड़ी की आहट से उन लोगों ने मुँह उठाकर देखा। शायद इसी के मधुर शब्द से आकृष्ट होकर और एक साहब अकस्मात् सामने आ खड़े हुए- देखा तो वज्रानन्द हैं। उनका उल्लसित कलरव उद्दाम हो उठा, और तब कोई आदमी दौड़कर भीतर खबर देने भी चला गया। स्वामीजी कहने लगे कि “मैंने आकर सब हाल सबसे कह सुनाया है। तबसे बराबर चारों तरफ आदमी भेजकर तुम्हें ढूँढ़ा जा रहा है- एक ओर जैसे कोशिश करने में कोई बात उठा न रखी गयी, वैसे ही दूसरी ओर दुश्चिन्ता की भी कोई हद नहीं रही। आखिर माजरा क्या था? अचानक कहाँ डुबकी लगा गये थे, बताइए तो? गाड़ीवान छोकरे ने तो जाकर कहा कि आपको वह गंगामाटी के रास्ते में उतारकर चला आया है।”
राजलक्ष्मी काम में व्यस्त थी, उसने आकर पैरों के आगे माथा टेककर प्रणाम किया और कहा, “घर-भर को, सबको तुमने कैसी कड़ी सजा दी है, कुछ कहने की नहीं।” फिर वज्रानन्द को लक्ष्य करके कहा, “मेरा मन जान गया था कि आज ये आयेंगे ही।”
मैंने हँसकर कहा, “द्वार पर केले के थम्भ और घट-स्थापना देखकर ही मैं समझ गया कि मेरे आने की खबर तुम्हें मिल गयी है।” दरवाजे की ओट में रतन आकर खड़ा था। वह चट से बोल उठा, “जी नहीं, इसलिए नहीं- आज घर पर ब्राह्मण-भोजन होगा न, इसीलिए। वक्रनाथ के दर्शन कर आने के बाद से माँ…”
राजलक्ष्मी ने डाँट लगाकर उसे जहाँ का तहाँ रोक दिया, “अब व्याख्या करने की जरूरत नहीं, तू जा, अपना काम देख।”
उसके सुर्ख चेहरे की तरफ देखकर वज्रानन्द हँस दिया, बोला, “समझे नहीं भाई साहब, किसी भी काम में लगे रहने से मन की उत्कण्ठा बहुत बढ़ जाती है। सही नहीं जाती। यह ब्राह्मण-भोजन का आयोजन सिर्फ इसीलिए है। क्यों जीजी, है न यही बात?”
राजलक्ष्मी ने कोई जवाब नहीं दिया, “वह गुस्सा होकर वहाँ से चल दी। वज्रानन्द ने पूछा, “बड़े दुबले-से मालूम पड़ते हो भाई साहब, इस बीच में क्या बात हो गयी थी, बताइए तो? घर न आकर अचानक गायब क्यों हो गये थे?”
गायब होने का कारण विस्तार के साथ सुना दिया। सुनकर आनन्द ने कहा, “भविष्य में अब कभी इस तरह न भागियेगा। किस तरह इनके दिन कटे हैं, सो ऑंख से देखे बगैर विश्वास नहीं किया जा सकता।”
यह मैं जानता था। लिहाजा, ऑंखों से बिना देखे ही मैंने विश्वास कर लिया। रतन चाय और हुक्का दे गया। आनन्द ने कहा, “मैं भी बाहर जाता हूँ भाई साहब। इस वक्त आपके पास बैठे रहने से कोई एक जनी शायद इस जनम में मेरा मुँह न देखेंगी।” यह कहकर हँसते हुए उन्होंने प्रस्थान किया।
कुछ देर बाद राजलक्ष्मी ने प्रवेश करके अत्यन्त स्वाभाविक भाव से कहा, “उस कमरे में गरम पानी, अंगौछा, धोती, सब रख आई हूँ- सिर्फ सिर और देह अंगौछकर कपड़े बदल डालो जाकर। बुखार में, खबरदार, सिर पर पानी न डाल लेना, कहे देती हूँ।”
मैंने कहा, “मगर स्वामीजी से तुमने गलत बात सुनी है; बुखार मुझे नहीं है।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “नहीं है तो न सही, पर होने में देर कितनी लगती है?”
मैंने कहा, “इसकी खबर तो तुम्हें ठीक दे नहीं सकता, पर मारे गर्मी के मेरा तो सारा शरीर जला जा रहा है, नहाना जरूरी है मेरे लिए।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “जरूरी है क्या? तो फिर अकेले तुमसे न बन पड़ेगा। चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूँ।” इतना कहकर वह खुद ही हँस पड़ी और बोली, “क्यों झगड़ा करके मुझे तकलीफ दे रहे हो और खुद भी परेशानी उठा रहे हो। इतनी अबेर में मत नहाओ, मान जाओ, तुम्हें मेरी कसम है।”
इस ढंग की बात करने में राजलक्ष्मी बेजोड़ है। अपनी इच्छा को ही जबर्दस्ती दूसरे के कन्धों पर लाद देने के कड़घएपन को वह स्नेह के मधुर रस से इस तरह भर दे सकती है कि उस जिद के विरुद्ध किसी का भी कोई संकल्प सिर नहीं उठा सकता। बात बिल्कुाल तुच्छ है, स्नान न करने से भी मेरा चल जायेगा; किन्तु जिन्हें किये बिना नहीं चल सकता ऐसे कामों में भी, बहुत बार देखा है कि, उसकी इच्छा-शक्ति को अतिक्रम करके चलने की शक्ति मुझमें नहीं। मुझमें ही क्यों, किसी में भी वह शक्ति मैंने नहीं देखी। मुझे उठाकर वह भोजन लाने चली गयी। मैंने कहा, “पहले तुम्हारे ब्राह्मण-भोजन का काम निबट जाने दो न?”
राजलक्ष्मी ने आश्चर्य के साथ कहा, “माफ करो तुम, वह काम निबटते-निबटते तो साँझ हो जायेगी।”
“सो हो जाने दो।”
राजलक्ष्मी ने हँसते हुए कहा, “ठीक है। ब्राह्मण-भोजन को मेरे ही सिर रहने दो, उसके लिए तुम्हें भूखा रखने से मेरी स्वर्ग की सीढ़ी ऊपर के बदले बिल्कुकल पाताल की ओर चली जायेगी।” यह कहकर वह भोजन लेने चल दी।
कुछ ही समय बाद जब वह मेरे पास भोजन कराने बैठी, तब देखा कि सामने रोगी का पथ्य है। ब्रह्मभोज की सारी गुरुपाक वस्तुओं के साथ उसका कोई सम्बन्ध न था। मालूम हुआ कि मेरे आने के बाद ही उसने उसे अपने हाथ से तैयार किया है। फिर भी, जबसे आया हूँ, उसके आचरण में- उसकी बातचीत के ढंग से, कुछ ऐसा अनुभव कर रहा था जो केवल अपरिचित ही नहीं था, अतिशय नूतन भी था। वही खिलाने के समय बिल्कुरल स्पष्ट हो गया, परन्तु वह कैसे और किस तरह सुस्पष्ट हो गया, कोई पूछता तो मैं उसे अस्पष्टता से भी न समझा सकता। शायद यही बात प्रत्युत्तर में कह देता कि जान पड़ता है मनुष्य की अत्यन्त व्यथा की अनुभूति को प्रकाश करने की भाषा अब भी आविष्कृत नहीं हुई। राजलक्ष्मी खिलाने बैठी, किन्तु खाने-न खाने के सम्बन्ध में उसकी पहले जैसी अभ्यस्त जबर्दसती नहीं थी, था सिर्फ व्याकुल अनुनय। जोर नहीं, भिक्षा। बाहर के नेत्रों से वह चीज नहीं पकड़ी जाती, केवल मनुष्य की निभृत हृदय की अपलक ऑंखें ही देख सकती हैं।
भोजन समाप्त हो गया। राजलक्ष्मी बोली, “तो अब मैं जाऊँ?”
अतिथि सज्जन बाहर इकट्ठे हो रहे थे। मैंने कहा, “जाओ।”
मेरे जूठे बर्तन हाथ में लेकर जब वह धीरे-धीरे कमरे से बाहर हो गयी; तब बहुत देर तक मैं अन्यमनस्क होकर उस ओर चुपचाप देखता रहा। खयाल आने लगा कि राजलक्ष्मी को जैसा छोड़ गया था, इन थोड़े से दिनों में ठीक वैसा तो उसे नहीं पाया। आनन्द कहता था कि दीदी कल से ही एक तरह से उपवास कर रही हैं, आज भी जलस्पर्श नहीं किया है; और कल कब उनका उपवास टूटेगा इसका भी कोई निश्चय नहीं। यह असम्भव नहीं। हमेशा से ही देखता आ रहा हूँ कि उसका धर्मपिपासु चित्त कभी किसी भी कृच्छ साधना से पराङ्मुख नहीं रहा। यहाँ आने के बाद से तो सुनन्दा के साहचर्य से उसकी वह अविचलित निष्ठा बढ़ती ही जा रही थी। आज उसे थोड़ी ही देर देखने का अवकाश पाया है, किन्तु जिस दुर्जेय रहस्मय मार्ग पर वह अविश्रान्त द्रुतगति से पैर उठाती हुई चल रही है; उसे देखते हुए खयाल आया कि उसके निन्दित जीवन की संचित कालिमा चाहे जितनी अधिक हो वह उसके समीप तक नहीं पहुँच सकती। किन्तु मैं? उसके मार्ग के बीच उत्तुंग गिरिश्रेणी के समान सब कुछ रोककर खड़ा हूँ।
काम-काज समाप्त करके राजलक्ष्मी ने जब नि:शब्द पैर रखते हुए घर में प्रवेश किया तब शायद दस बज चुके थे। रोशनी कम करके, बहुत ही सावधानी से मेरी मशहरी खींचकर वह अपनी शय्या पर सोने जा रही थी कि मैंने कहा, “तुम्हारा ब्रह्मभोज तो संध्याा के पहले ही समाप्त हो गया था; फिर इतनी रात कैसे हो गयी?”
राजलक्ष्मी पहले चौंकी, फिर हँसकर बोली, “मेरी तकदीर! मैं तो डरती-डरती आ रही हूँ कि तुम्हारी नींद न टूट जाय, परन्तु तुम तो अब तक जाग रहे हो, नींद नहीं आई?”
“तुम्हारी आशा से ही जाग रहा हूँ।”
“मेरी आशा से? तो बुलवा क्यों न लिया?” यह कहकर वह पास आई और मसहरी का एक किनारा उठाकर मेरी शय्या के सिरहाने बैठ गयी। फिर हमेशा के अभ्यास के अनुसार मेरे बालों में उसने अपने दोनों हाथों की दसों अंगुलियाँ डालते हुए कहा, “मुझे बुलवा क्यों न लिया?”
“बुलाने से क्या तुम आतीं? तुम्हें कितना काम रहता है!”
“रहे काम! तुम्हारे बुलाने पर ‘ना’ कह सकूँ यह मेरे वश की बात है?”
इसका कोई उत्तर न था। जानता हूँ, सचमुच ही मेरे आह्नान की परवा न करने की शक्ति उसमें नहीं है। किन्तु, आज इस सत्य को भी सत्य समझने की शक्ति मुझमें कहाँ है?
राजलक्ष्मी ने कहा, “चुप क्यों हो रहे?”
“सोच रहा हूँ।”
“सोच रहे हो? क्या सोच रहे हो?” यह कहकर उसने धीरे से मेरे कपाल पर अपना मस्तक झुकाकर आहिस्ते से कहा, “मुझ पर गुस्सा होकर घर से चले गये थे?”
“तुमने यह कैसे जाना कि गुस्सा होकर चला गया था?”
राजलक्ष्मी ने मस्तक नहीं उठाया, आहिस्ते से कहा, “यदि मैं गुस्सा होकर चली जाऊँ तो क्या तुम नहीं जान पाओगे?”
बोला, “शायद जान लूँगा।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “तुम ‘शायद’ जान पाओ, परन्तु मैं तो निश्चयपूर्वक जान सकती हूँ और तुम्हारे जानने की अपेक्षा बहुत ज्यादा जान सकती हूँ।”
मैंने हँसकर कहा, “ऐसा ही होगा। इस विवाद में तुम्हें हराकर मैं विजयी नहीं होना चाहता लक्ष्मी, स्वयं हार जाने की अपेक्षा तुम्हारे हारने से मेरी बहुत अधिक हानि है।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “यदि जानते हो तो फिर कहते क्यों हो?”
मैं बोला, “कहाँ कहता हूँ! कहना तो बहुत दिनों से बन्द कर दिया है, यह बात शायद तुम्हें मालूम नहीं।”
राजलक्ष्मी चुप हो रही। पहले होता तो राजलक्ष्मी मुझे सहज में न छोड़ती- हजारों प्रश्न करके इसकी कैफियत तलब करके ही मानती, किन्तु इस समय वह मौन-मुख से स्तब्ध ही रही। कुछ समय बाद मुँह उठाकर उसने दूसरी बात छेड़ दी। पूछा, “तुम्हें क्या इस बीच ज्वर आ गया था? घर पर मुझे खबर क्यों न भेजी?”
खबर न भेजने के कारण बतलाए। एक तो खबर लाने वाला आदमी नहीं था, दूसरे, जिनके पास खबर भेजनी थी वे कहाँ हैं यह भी मालूम न था। किन्तु मैं कहाँ और किस हालत में था, यह सविस्तार बतलाया। चक्रवर्ती-गृहिणी के पास से आज सवेरे ही विदा लेकर आया हूँ। उस दीन-हीन गृहस्थ परिवार में जिस हाल में मैं आश्रय लिया था और जिस प्रकार बेहद गरीबी में गृहिणी ने अज्ञात कुलशील रोगग्रस्त अतिथि की पुत्र से भी अधिक स्नेह-शुश्रूषा की थी वह कहने लगा तो कृतज्ञता और वेदना से मेरी ऑंखें ऑंसुओं से भर गयीं।
राजलक्ष्मी ने हाथ बढ़ाकर मेरे ऑंसू पोंछ दिये और कहा, “तो वे ऋणमुक्त हो जाँय, इसके लिए उन्हें कुछ रुपये क्यों नहीं भेज देते?”
मैंने कहा, “रुपये होते तो भेजता, पर मेरे पास रुपये तो हैं नहीं।”
मेरी इन बातों से राजलक्ष्मी को मर्मान्तक पीड़ा होती थी। आज भी वह मन ही मन उतनी ही दु:खित हुई, लेकिन, उसका सब पैसा-रुपया मेरा ही है, यह बात आज उसने उतने जोर से प्रकट नहीं की। पहले तो इस बात पर वह कलह करने के लिए तैयार हो जाया करती थी। वह चुप रही।
उसमें आज यह नयी बात देखी। मेरी इस बात पर उसका इस प्रकार शान्त चुपचाप बैठे रहना मुझे भी अखरा। थोड़ी देर बाद वह एक दीर्घ नि:श्वास छोड़कर सीधे बैठ गयी। मानो इस दीर्घ नि:श्वास से उसने अपने चारों ओर छाये हुए वाष्पाच्छन्न आवरण को फाड़ देना चाहा। घर की धीमी रोशनी में उसका चेहरा अच्छी तरह नहीं देख सका; लेकिन, जिस समय उससे बात की उससे कण्ठ-स्वर में मैंने एक आश्चर्यजनक परिवर्तन पाया। राजलक्ष्मी बोली, बर्मा से तुम्हारी चिट्ठी का जवाब आया है। दफ्तर का बड़ा लिफाफा है, जरूरी समझकर आनन्द से पढ़वा लिया है।”
“उसके बाद?”
“बड़े साहब ने तुम्हारी दरखास्त मंजूर कर ली है और जतलाया है कि वापस जाने पर पहली नौकरी फिर मिल जायेगी।”
“अच्छा?”
“हाँ। लाऊँ वह चिट्ठी?”
“नहीं, ठहरो। कल सुबह देखूँगा।”
फिर हम दोनों चुप हो रहे। क्या कहूँ, किस तरह यह चुप्पी भंग करूँ, यह न सोच सकने के कारण मन ही मन उद्विग्न होने लगा। अकस्मात् मेरे सिर पर ऑंसू की एक बूँद टपक पड़ी। मैंने धीरे से पूछा, “मेरी दरखास्त मंजूर हुई है, यह तो बुरी खबर नहीं है। लेकिन तुम रो क्यों पड़ीं?”
राजलक्ष्मी ऑंचल से ऑंसू पोंछकर बोली, “तुम फिर अपनी नौकरी के लिए विदेश चले जाने की चेष्टा कर रहे हो, यह बात तुमने मुझे बतलाई क्यों नहीं? क्या तुमने समझा था कि मैं रोकूँगी?”
मैंने कहा, “नहीं, बल्कि बतलाने पर तो तुम और उत्साहित करतीं। लेकिन, इसलिए नहीं- मालूम होता है कि मैंने सोचा था कि इन सब छोटी बातों के सुनने के लिए तुम्हारे पास समय न होगा।”
राजलक्ष्मी चुप हो रही। लेकिन उसने अपना उच्छ्वसित नि:श्वास रोकने के लिए प्राण-पण से जो कोशिश की, वह मुझसे छिपी न रही। पर यह हालत क्षण भर ही रही। उसके बाद उसने मीठे स्वर में कहा, “इस बात का जवाब देकर अपने अपराध का बोझ और न बढ़ाऊँगी। तुम जाओ, मैं बिल्कुथल न रोकूँगी।”
यह कहकर वह थोड़ी ही देर चुप रहकर फिर बोली, “तुम यहाँ न आते तो ऐसा मालूम होता है कि मैं कभी यह जान ही न पाती कि मैं तुम्हें कैसी दुर्गति मैं खींच लाई हूँ। यह गंगामाटी का अन्धकूप स्त्रियों के लिए गुजारे लायक हो सकता है, लेकिन पुरुषों के लिए नहीं। यहाँ का बेकार और उद्देश्यहीन जीवन तो तुम्हारे लिए आत्महत्या के समान है। यह मैंने तुम्हारी ऑंखों से स्पष्ट देखा है।”
मैंने पूछा, “या तुम्हें किसी ने दिखा दिया है?”
राजलक्ष्मी बोली, “नहीं। मैंने खुद ही देखा है। तीर्थयात्रा की थी, पर भगवान को नहीं देख पाई। उसके बदले केवल तुम्हारा लक्ष्य-भ्रष्ट नीरस चेहरा ही दिन-रात दिखाई देता रहा। मेरे लिए तुम्हें बहुत त्याग करना पड़ा है; किन्तु अब और नहीं।”
इतनी देर तक मेरे मन में एक जलन ही थी; किन्तु उसके कण्ठ-स्वर की अनिर्वचनीय करुणा से मैं विह्वल हो गया। बोला, “तुम्हें क्या कम त्याग करना पड़ा है लक्ष्मी? गंगामाटी तुम्हारे लायक भी तो नहीं है?”
लेकिन, यह बात कहकर मैं संकोच से भर गया, क्योंकि, मेरे मुख से लापरवाही से भी जो गर्हित बात निकल गयी, वह इस तीक्ष्ण बुद्धिशालिनी रमणी से छिप न सकी। पर आज उसने मुझे माफ कर दिया। मालूम होता है, बात की अच्छाई बुराई पर मान अभिमान का जाल बुनकर नष्ट करने के लिए उसके पास समय ही नहीं था, बोली, “बल्कि मैं ही गंगामाटी के योग्य नहीं हूँ- सभी यह बात नहीं समझ सकेंगे; पर तुम्हें यह समझना चाहिए कि मुझे सचमुच ही कुछ त्याग नहीं करना पड़ा। लोगों ने एक दिन पत्थर की तरह मेरी छाती पर जो भार रख दिया था क्या सिर्फ वही दूर हो गया है? नहीं। आजीवन तुम्हीं को चाहा था, इसलिए, तुम्हें पाकर जो मुझे त्याग से असंख्य गुना बदला मिल गया है, सो क्या तुम नहीं जानते?”
जवाब न दे सका। जैसे कोई अन्तरतम का वासी मुझसे यह बात कहने लगा, “भूल हुई है, तुमसे भारी भूल हुई है। उसे न समझकर तुमने बड़ा अविचार किया है।”
राजलक्ष्मी ने ठीक इसी तार पर चोट की। कहा, “सोचा था कि तुम्हारे ही लिए कभी यह बात तुम्हें न बतलाऊँगी; लेकिन, आज मैं अपने को और नहीं रोक सकी। मुझे सबसे अधिक दु:ख इसी बात का हो रहा है कि तुम अनायास ही यह कैसे सोच सके कि पुण्य के लोभ का मुझे ऐसा उन्माद हो गया है कि मैंने तुम्हारी उपेक्षा करनी शुरू कर दी है? क्रुद्ध होकर चले जाने के पहले यह बात तुम्हें एक बार भी याद न आई कि इस काल और पर काल में राजलक्ष्मी के लिए तुम्हारी अपेक्षा लाभ की चीज और कौन-सी है!”
यह कहते-कहते उसकी ऑंखों के ऑंसू झर-झर के मेरे मुँह पर आ पड़े।
बातों से तसल्ली देने की भाषा उस समय मन में न आ सकी, सिर्फ माथे के ऊपर रक्खा हुआ उसका दाहिना हाथ अपने हाथ में ले लिया। राजलक्ष्मी बायें हाथ से ऑंसू पोंछकर कुछ देर चुपचाप बैठी रही।
उसके बाद बोली, “मैं देख आऊँ, लोगों का खाना-पीना हो चुका या नहीं। तुम सो जाओ।”
यह कहकर वह आहिस्ते से हाथ छुड़ाकर बाहर चली गयी। उसे पकड़ रखना चाहता तो रख सकता था; लेकिन चेष्टा नहीं की। वह भी फिर लौटकर नहीं आई। जब तक नींद नहीं आई तब तक यही बात सोचता रहा कि जबर्दस्ती रोक रखता तो लाभ क्या होता? मेरी ओर से तो कभी कोई जोर था ही नहीं; सारा जोर उसकी तरफ से था। आज अगर वही बन्धन खोलकर मुझे मुक्त करते हुए अपने आपको भी मुक्त करना चाहती है, तो मैं उसे किस तरह रोकूँ?
सुबह जागने पर पहले उसकी खाट की ओर नजर डाली तो मालूम हुआ कि राजलक्ष्मी कमरे में नहीं है। रात को वह आई ही नहीं, या बड़े तड़के ही उठकर बाहर चली गयी, यह भी मैं न समझ सका। बाहरी कमरे में जाकर देखा तो वहाँ कुछ कोलाहल-सा हो रहा है। रतन केटली से गरम चाय पात्र में डाल रहा है और उसके पास ही बैठी राजलक्ष्मी स्टोव पर सिंघाड़े और कचौरियाँ तल रही है। वज्रानन्द खाद्य-सामग्री की ओर अपनी निस्पृह निरासक्त दृष्टि से देख रहे हैं। मुझे आते देख राजलक्ष्मी ने अपने भीगे बालों पर ऑंचल खींच लिया और वज्रानन्द कलरव कर उठे, “आ गये भाई, आपको देरी होते देख समझा था कि कहीं सब कुछ ठण्डा न हो जाय।”
राजलक्ष्मी ने हँसकर कहा, “हाँ, तुम्हारे पेट में जाकर सब ठण्डा हो जाता।”
आनन्द ने कहा, “बहन, साधु-सन्यासी का आदर करना सीखिए। ऐसी कड़ी बात न कहिए।”
फिर मुझसे कहा, “कहो, तबीयत तो ठीक नहीं दिखती, जरा हाथ तो देखूँ।”
राजलक्ष्मी ने घबराकर कहा, “रहने दो आनन्द, तुम्हारी डॉक्टरी की जरूरत नहीं है; उनकी तबीयत ठीक है।”
“यही निश्चय करने के लिए तो एक बार हाथ…”
राजलक्ष्मी बोली, “नहीं, तुम्हें हाथ देखने की जरूरत नहीं। तुम्हें क्या लगता है, अभी साबूदाने की व्यवस्था दे दोगे।”
मैंने कहा, “साबूदाना मैंने बहुत खाया है, इसलिए, मैं उसकी व्यवस्था देने पर भी नहीं सुनूँगा।”
“तुम्हें सुनने की जरूरत भी नहीं है।” कहकर राजलक्ष्मी ने थोड़े से गरम सिंघाड़ों और कचौरियों की प्लेट मेरी ओर बढ़ा दी और फिर रतन से कहा, “अपने बाबू को चाय दे।”
वज्रानन्द ने सन्यासी होने के पहले डॉक्टरी पास की थी, अत: वे सहज ही हार मानने वाले नहीं थे; गर्दन हिलाते हुए बोलने लगे, “लेकिन बहन, आप पर एक उत्तरदायित्व…”
राजलक्ष्मी ने बीच ही में उनकी बात काट दी, “लो सुनो, इनका उत्तरदायित्व मुझ पर नहीं तो क्या तुम पर है? आज तक जितना उत्तरदायित्व कन्धों पर लेकर इन्हें खड़ा रखा गया है, उसे यदि सुनते तो बहिन के पास डॉक्टरी करने न आते।”
यह कहकर राजलक्ष्मी ने बाकी की सारी की सारी खाद्य-सामग्री एक थाल में रखकर उनकी ओर सरकाते हुए हँसकर कहा, “अब खाओ यह सब, बातें बन्द करो।”
आनन्द ‘हें हें’ करते हुए बोला, “अरे, क्या इतना खाया जा सकता है?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “न खाया जायेगा तो सन्यासी बनने क्यों गये थे? और पाँच भले-मानसों की तरह गृहस्थ बने रहते!”
आनन्द की दोनों ऑंखें सहसा भर आयीं। बोला, “आप जैसी बहिनों का दल इस बंगाल में है तभी तो सन्यासी बना हूँ, नहीं तो, कसम खाकर कहता हूँ कि यह गेरुआ-एरुआ अजया के जल में बहाकर घर चला जाता। लेकिन, मेरा एक अनुरोध है बहिन। परसों से ही तुमने एक तरह से उपास कर रक्खा है, इसलिए आज पूजा-पाठ आदि से जरा जल्दी ही निबट लेना। इन चीजों में अब भी कोई स्पर्श-दोष नहीं लगा है। यदि आप कहें- न हो तो” कहकर उन्होंने सामने की भोज्य सामग्री पर नजर डाली।
राजलक्ष्मी डरकर ऑंखें फाड़ती हुई बोली, “यह कहते क्या हो आनन्द, कल तो हमारे सारे ब्राह्मण आ नहीं सके थे!”
मैंने कहा, “तो वे पहले भोजन कर जावें, उसके बाद सही।”
आनन्द बोला, “ऐसा है तो लो, मुझे ही उठना पड़ा। उनके नाम और पते दो-पाखण्डियों को गले में अंगोछा डालकर खींच लाऊँगा और भोजन कराकर छोड़ूँगा।”
यह कहकर वह उठने के बदले थाल खींचकर भोजन करने लगा!
राजलक्ष्मी हँसकर बोली, “सन्यासी हैं न, देव-ब्राह्मणों में बड़ी भक्ति है!”
इस तरह हमारा सबेरे का चाय-नाश्ते का काम जब पूरा हुआ तो आठ बज चुके थे। आकर बाहर बैठ गया। शरीर में भी ग्लानि नहीं थी और हँसी-ठट्ठे से मन भी मानों स्वच्छ प्रसन्न हो गया था। राजलक्ष्मी की विगत रात्रि की बातों और आज की बातों तथा आचरण में कोई एकता नहीं थी। उसने अभिमान और वेदना से दु:खित होकर ही वैसी बातें की थीं, इसमें सन्देह नहीं रहा। वास्तव में रात के स्तब्ध अन्धकार के आवरण में तुच्छ और मामूली घटना को बड़ी और कठोर कल्पना करके जिस दु:ख और दुश्चिन्ता को भोगा था, आज दिन के प्रकाश में, उसे याद करके मैं मन ही मन लज्जित हुआ और कौतुक भी अनुभव किया।
कल की तरह आज उत्सव-समारोह नहीं था, तो भी, दिन-भर बीच-बीच में न्यौते और बिना न्यौते लोगों के भोजन का सिलसिला बराबर जारी रहा। फिर एक बार हम लोग चाय का सरो-सामान लेकर कमरे के फर्श पर आसन लगाकर बैठ गये। शाम का काम-काज समाप्त करके राजलक्ष्मी भी थोड़ी देर के लिए हम लोगों के कमरे में आयी।
वज्रानन्द बोले, “स्वागत है, बहिन।”
राजलक्ष्मी ने उनकी ओर हँसते हुए देखकर कहा, “मैं समझती हूँ कि अब सन्यासी की देव-सेवा आरम्भ हो गयी है, इसीलिए न इतना आनन्द है!”
आनन्द ने कहा, “तुमने झूठा नहीं कहा बहिन, संसार में जितने आनन्द हैं उनमें भजनानन्द और भोजनानन्द ही श्रेष्ठ हैं, और शास्त्र का कथन है कि त्यागी के लिए तो दूसरा ही सर्वश्रेष्ठ है।”
राजलक्ष्मी बोली, “हाँ, तुम जैसे सन्यासियों के लिए!”
आनन्द ने जवाब दिया, “यह भी झूठ नहीं है, बहिन। आप गृहिणी हैं, इसीलिए इसका मर्म नहीं ग्रहण कर सकीं। तभी तो हम त्यागियों का दल इधर मौज कर रहा है और आप तीन दिन से सिर्फ दूसरों को खिलाने में लगी हैं और खुद उपवास करके मर रही हैं!”
राजलक्ष्मी बोली, “मर कहाँ रही हूँ, भाई? दिन पर दिन तो देख रही हूँ, इस शरीर की श्रीवृद्धि ही हो रही है।”
आनन्द बोले, “इसका कारण यही है कि वह होने के लिए बाध्यो है। उस बार भी आपको देख गया था, इस बार भी आकर देख रहा हूँ। आपकी ओर देखकर ऐसा नहीं मालूम होता कि कोई संसार की चीज देख रहा हूँ, यह जैसे दुनिया से अलग और ही कुछ है।”
राजलक्ष्मी का मुँह लज्जा से लाल हो उठा।
मैंने उससे हँसकर कहा, “देखी तुमने अपने आनन्द की युक्ति-प्रणाली?”
यह सुनकर आनन्द भी हँसकर बोला, “यह तो युक्ति नहीं,- स्तुति है। भैया, यदि यह दृष्टि होती तो क्यों नौकरी की दरखास्त देने बर्मा जाते? अच्छा बहिन, किस दुष्ट-बुद्धि देवता ने भला इस अन्धे आदमी को तुम्हारे मत्थे मढ़ दिया था? उसे क्या और कोई काम नहीं था?”
राजलक्ष्मी हँस पड़ी। फिर अपने माथे पर हाथ ठोककर बोली, “देवता का दोष नहीं है भाई, दोष इस ललाट का है और इनको तो इनका बड़ा भारी दुश्मन भी दोष दे नहीं सकता।” यह कहकर उसने मुझे दिखाते हुए कहा- “पाठशाला में ये थे सबके सरदार। जितना पढ़ाते न थे उससे बहुत ज्यादा मारते थे। उस समय पढ़ती तो थी सिर्फ ‘बोधोदय’। पर, पुस्तक का बोध तो क्या होना था, बोध हुआ और एक तरह का। बच्ची थी, फूल कहाँ पाती, जंगली करौंदों की माला गूँथकर इन्हें एक दिन वरमाला पहिना दी। सोचती हूँ उस समय अगर उन फलों के साथ काँटे भी गूँथ देती!”
बोलते-बोलते उसका कुपित कण्ठ-स्वर दबी हँसी की आभा से सुन्दर हो उठा।
आनन्द बोला, “ओह! कैसा भयानक गुस्सा है!”
राजलक्ष्मी बोली, “गुस्सा नहीं तो क्या है? काँटे लाकर देनेवाला कोई और होता तो जरूर गूँथ देती। अब भी पाऊँ तो गूँथ दूँ।”
यह कहकर वह तेजी से बाहर जा रही थी कि आनन्द ने पुकारकर कहा, “भागती हो?”
“क्यों, क्या और कोई काम नहीं है? चाय की प्याली हाथ में लिये उन्हें कलह करने का समय है, मुझे नहीं है।”
आनन्द ने कहा, “बहन, मैं तुम्हारा अनुगत हूँ। पर इस अभियोग में शह देने में तो मुझे भी लज्जा का अनुभव होता है। ये मुँह से एक भी बात निकालते, तो इन्हें इसमें घसीटने की चेष्टा भी की जाती; पर एकदम गूँगे आदमी को कैसे फन्दे में डाला जाए? और डाला भी जाए तो धर्म कैसे सहन करेगा?”
राजलक्ष्मी बोली, “इसी की तो मुझे सबसे बड़ी जलन है। अच्छा, अब जो धर्म को सहन हो वही करो। चाय बिल्कुतल ठण्डी हो गयी। मैं तब तक एक बार रसोईघर का चक्क़र लगा आऊँ।”
यह कहकर राजलक्ष्मी कमरे के बाहर हो गयी।
वज्रानन्द ने पूछा, “बर्मा जाने का विचार क्या अब भी है भाई साहब? लेकिन बहिन साथ हर्गिज नहीं जाँयगी, यह मुझसे कह चुकी हैं।”
“यह मैं जानता हूँ।”
“तो फिर?”
“तब अकेले ही जाना होगा।”
वज्रानन्द ने कहा, “देखिए, यह आपका अन्याय है। आप लोगों को पैसा कमाने की जरूरत तो है नहीं, फिर क्यों जाँयगे दूसरे की गुलामी करने?”
“कम से कम उसका अभ्यास बनाये रखने के लिए!”
“यह तो गुस्से की बात हुई भाई।”
“पर गुस्से के सिवाय क्या मनुष्य के लिए और कोई कारण नहीं होता आनन्द?”
आनन्द बोला, “हो भी, तो वह दूसरे के लिए समझना कठिन है।”
इच्छा तो हुई कि कहूँ, “यह कठिन काम दूसरे करें ही क्यों”, पर वाद-विवाद से चीज पीछे कड़वी हो जाती है, इस आशंका से चुप हो गया।
इसी समय बाहर का काम निबटाकर राजलक्ष्मी ने कमरे में प्रवेश किया। इस बार वह खड़ी न रहकर भलमनसी के साथ आनन्द के पास स्थिरतापूर्वक बैठ गयी। आनन्द ने मुझे लक्ष्य करके कहा, “बहिन, इन्होंने कहा है कि कम से कम गुलामी का अभ्यास बनाये रखने के लिए इन्हें विदेश जाना चाहिए। मैंने कहा कि यदि यही चाहिए तो आइए मेरे काम में योग दीजिए, विदेश न जाकर देश की गुलामी में ही दोनों भाई जिन्दगी बिता दें।”
राजलक्ष्मी बोली, “लेकिन, यह तो डॉक्टरी नहीं जानते आनन्द।”
आनन्द बोला, “क्या मैं सिर्फ डॉक्टरी ही करता हूँ? स्कूल पाठशालाएँ भी तो चलाता हूँ और उन लोगों की दुर्दशा आज कितनी ओर से और कितनी अधिक हो रही है, इसे बराबर समझाने की चेष्टा करता हूँ।”
“पर वे समझते हैं क्या?”
आनन्द ने कहा, “आसानी से नहीं समझते। किन्तु, मनुष्य की शुभ इच्छा यदि हृदय से सत्य होकर बाहर निकलती है, तो चेष्टा व्यर्थ नहीं जाती, बहिन।”
राजलक्ष्मी ने मेरी ओर तिरछी नजर से देखकर धीरे से सिर हिला दिया। मालूम होता है कि उसने विश्वास नहीं किया और वह मेरे लिए मन ही मन सशंक हो उठी। पीछे कहीं मैं भी सम्मति न दे बैठूँ, कहीं मैं भी…
आनन्द ने पूछा, “सर क्यों हिला दिया?”
राजलक्ष्मी ने पहले कुछ हँसने की चेष्टा की, फिर स्निग्ध मधुर कण्ठ से कहा, “देश की दुर्दशा कितनी बड़ी है, यह मैं भी जानती हूँ आनन्द। पर तुम्हारे अकेले की चेष्टा से क्या होगा भाई?” फिर मेरी ओर इशारा करके कहा, “और ये सहायता करने जाँयगे? तब तो हो गया, फिर तो मेरी तरह तुम्हारे दिन भी इन्हीं की सेवा में कटेंगे; और कोई काम न करना होगा।”
यह कहकर वह हँस पड़ी।
उसको हँसते देख आनन्द भी हँसकर बोला, “तो इनको ले जाने की जरूरत नहीं है बहिन, ये चिरकाल तक तुम्हारी ऑंखों के मणि होकर रहें। पर यह अकेले-दुकेले की बात नहीं है। अकेले मनुष्य की भी आन्तरिक इच्छा-शक्ति इतनी बड़ी होती है कि उसका परिमाण नहीं होता- बिल्कुलल वामनावतार के पाँव की तरह। बाहर से देखने पर छोटा है, पर वही छोटा-सा पाँव जब फैलता है सब सारे संसार को ढँक देता है।”
मैंने देखा कि वामनावतार की उपमा से राजलक्ष्मी का चित्त कोमल हो गया है; किन्तु जवाब में उसने कुछ नहीं कहा।
आनन्द कहने लगा, “शायद आपकी ही बात ठीक है, मैं विशेष कुछ नहीं कर सकता। लेकिन, एक काम करता हूँ। जहाँ तक हो सकता है, दुखियों के दु:खों का अंश मैं बँटाता हूँ बहिन।”
राजलक्ष्मी और भी आर्द्र होकर बोली, “यह मैं जानती हूँ आनन्द। यह तो मैंने उसी दिन समझ लिया था जिस दिन तुम्हें पहले-पहल देखा था।”
मालूम होता है कि आनन्द ने इस बात पर ध्याथन नहीं दिया और वह अपनी ही बात के सिलसिले में कहने लगा, “आप लोगों की तरह मुझे भी किसी चीज का अभाव नहीं है। बाप का जो कुछ है वह आनन्द से जीवन बिताने के लिए जरूरत से ज्यादा है, पर मेरा उससे कुछ सरोकार नहीं है। इस दुखी देश में सुखभोग की लालसा भी यदि इस जीवन में रोककर रख सकूँ तो मेरे लिए यही बहुत है।”
रतन ने आकर बतलाया कि रसोइए ने भोजन तैयार कर लिया है।
राजलक्ष्मी ने उसे आसन तैयार करने का आदेश देकर कहा, “आज तुम लोग भोजन से जल्दी ही निबट लो आनन्द, मैं बहुत थक गयी हूँ।”
वह थक गयी थी, इसमें सन्देह नहीं, लेकिन थकने की दुहाई देते उसे कभी नहीं देखा था। हम दोनों चुपचाप उठ बैठे। आज का प्रभात हम लोगों की एक बड़ी भारी प्रसन्नता में से होकर हँसी-दिल्लगी के साथ आरम्भ हुआ था और संध्याझ की मजलिस भी जमी थी। हास-परिहास से उज्ज्वल होकर, किन्तु समाप्त हुई मानो निरानन्द के मलिन अवसाद के साथ। जिस समय हम लोग भोजन करने के लिए रसाईघर की ओर चले उस समय किसी के मुँह से कोई बात नहीं निकली।
दूसरे दिन सबेरे वज्रानन्द ने प्रस्थान की तैयारी कर दी। और कभी यदि किसी के कहीं जाने की चर्चा उठती तो राजलक्ष्मी हमेशा आपत्ति किया करती। अच्छा दिन नहीं है, अच्छी घड़ी नहीं है, आदि कारण बतलाकर, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, करके बहुत बाधा डालती थी। लेकिन, आज उसने मुँह से एक बात भी नहीं निकाली। विदा लेकर आनन्द जिस समय तैयार हुआ उस समय पास जाकर उससे मीठे स्वर से पूछा, “आनन्द, अब क्या न आओगे भाई?”
मैं पास ही था, इसलिए, स्पष्ट देख सका, सन्यासी की ऑंखों की दीप्ति अस्पष्ट सी हो गयी है, किन्तु तत्काल ही आत्म-संवरण करके वह मुँह पर हँसी लाते हुए बोला, “आऊँगा क्यों नहीं बहिन, अगर जीवित रहा तो बीच-बीच में उत्पात करने के लिए हाजिर होता रहूँगा।”
“सचमुच?”
“जरूर।”
“लेकिन, हम लोग तो जल्द ही चले जाँयगे। जहाँ हम रहेंगे वहाँ आओगे क्या?”
“हुक्म देने पर आऊँगा क्यों नहीं।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “आना। अपना पता मुझे लिख दो, मैं तुम्हें चिट्ठी लिखूँगी।”
आनन्द ने जेब से कागज-पेन्सिल निकालकर पता लिखा और उसके हाथ में दे दिया। सन्यासी होकर भी दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से लगाते हुए उसने हम दोनों को नमस्कार किया और रतन ने आकर उसकी पद-धूलि ग्रहण की। उसे आशीर्वाद दे वह धीरे-धीरे मकान के बाहर हो गया।
सन्यासी वज्रानन्द अपना औषधियों का बॉक्स और केनवास का बैग लेकर जिस दिन बाहर गया उस दिन से जैसे वह इस घर का आनन्द ही छीन-छानकर ले गया। यही नहीं, मुझे ऐसा लगा मानो वह उस शून्य स्थान को छिद्रहीन निरानन्द से भर गया। घने सिवार से भरे हुए जलाशय का जल, जो अपने अविश्रान्त चांचल्य के अभिघातों से निर्मल हो रहा था, मानो उसके अर्न्तध्याजन होने के साथ ही साथ लिपटकर एकाकार होने लगा। तो भी, छह-सात दिन कट गये।
राजलक्ष्मी प्राय: सारे दिन घर से बाहर रहती है। कहाँ जाती है, क्या करती है, नहीं जानता, उससे पूछता भी नहीं। शाम को जब एक बार उससे भेंट होती है तो उस वक्त वह या तो अन्यमनस्क दिखाई देती है या गुमाश्ताजी साथ होते हैं और काम-काज की बातें होती रहती हैं। अकेले घर में उस ‘आनन्द’ की बार-बार याद आती है जो मेरा कोई नहीं है। खयाल आता, यदि वह अकस्मात् आ जाय, तो सिर्फ मैं ही खुश होता यह बात नहीं है, बरामदे की दूसरी ओर चिराग की रोशनी में बैठी हुई राजलक्ष्मी भी, जो न जाने क्या करने की चेष्टा कर रही है, मैं समझता हूँ, उतनी ही खुश होती। ऐसा ही लगने लगा। एक दिन जिनके उन्मुख युग्म-हृदय जिस बाहर का सब प्रकार का संस्रव परिहार करके एकान्त सम्मिलन की आकांक्षा से व्याकुल रहते थे, आज टूटने-विच्छिन्न होने के दिन उसी बाहर की उन्हें कितनी बड़ी जरूरत है? ऐसा लगता है कि चाहे कोई भी हो यदि वह एक बार बीच में आकर खड़ा हो जाय, तो मानो जान बच जाय।
इस तरह जब दिन कटना मुश्किल हो गया, तब रतन एकाएक आकर उपस्थित हो गया। वह अपनी हँसी दबाने में असमर्थ था। राजलक्ष्मी घर पर थी नहीं, इसलिए उसे डरने की ज़रूरत नहीं थी, तो भी वह एक बार सावधानी से चारों ओर नज़र दौड़ाकर आहिस्ते से बोला, “मालूम होता है आपने सुना नहीं।”
मैं बोला, “नहीं, क्या बात है?”
रतन बोला, “दुर्गा माता कृपा करें कि माँ की यही बुद्धि अन्त तक बनी रहे। हम सब दो-चार दिन में ही यहाँ से चल रहे हैं।”
“कहाँ चल रहे हैं?”
रतन ने एक बार और दरवाजे के बाहर देख लिया और कहा, “यह तो ठीक-ठीक अब भी नहीं मालूम कर सका हूँ। या तो पटना या काशी और या- लेकिन, इनके अतिरिक्त तो और कहीं माँ का अपना मकान है नहीं।”
मैं चुप रहा। इतनी बड़ी बात पर भी मुझे चुप और उत्सुकता रहित देखकर उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं उसकी बात पर विश्वास नहीं कर रहा हूँ, इसीलिए, वह अपने दबे गले की सारी ताकत लगाकर बोल उठा, “मैं सच कह रहा हूँ। हमारा चलना निश्चित है। आ:, जान बचे तब तो, है न ठीक?”
मैंने कहा, “हाँ।”
रतन बहुत खुश होकर बोला, “दो-चार दिन और सबके साथ तकलीफ झेल लीजिए, बस। अधिक से अधिक एक हफ्ते की बात और है, इससे ज्यादा नहीं। माँ गंगामाटी की सारी व्यवस्था कुशारी महाशय के साथ ठीक कर चुकी है। अब सामान बाँध-बूँधकर एक बार ‘दुर्गा दुर्गा’ कहकर चल देना ही बाकी रहा है। हम सब ठहरे शहर के निवासी, क्या यहाँ हमारा मन कभी लग सकता है?” यह कहकर वह प्रसन्नता के आवेग में उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही बाहर चला गया।
रतन को कोई बात अज्ञात नहीं थी। उसकी समझ में मैं भी राजलक्ष्मी के अनुचरों में से एक था, इससे अधिक और कुछ नहीं। वह जानता था कि किसी के भी मतामत का कोई मूल्य नहीं है, सबकी पसन्द और नापसन्द मालकिन की इच्छा और अभिरुचि पर ही निर्भर है।
जो आभास रतन दे गया उसका मर्म वह खुद नहीं समझता था, लेकिन, उसके वाक्य का वह गूढ़ अर्थ, देखते ही देखते, मेरे चित्त-पट में चारों ओर से परिस्फुट हो उठा। राजलक्ष्मी की शक्ति की सीमा नहीं है। उस विपुल शक्ति को लगाकर वह संसार में जैसे अपने आपको लेकर ही खेल खेल रही है। एक दिन इस खेल में मेरी ज़रूरत हुई थी, उसकी उस एकाग्र-वासना के प्रचण्ड आकर्षण को रोकने की क्षमता मुझमें नहीं थी। मैं झुककर आया था, मुझे वह बड़ा बनाकर नहीं लाई थी। सोचता था, मेरे लिए उसने अनेक स्वार्थ-त्याग किये हैं; पर आज दिखाई पड़ा कि ठीक यही बात नहीं है। राजलक्ष्मी के स्वार्थ का केन्द्र इतने समय तक देखा नहीं था, इसीलिए ऐसा सोचता आया हूँ। धन, अर्थ, ऐश्वर्य-बहुत कुछ उसने छोड़ा है, लेकिन क्या मेरे ही लिए? इन सबने कूड़े के ढेर की तरह क्या उसका निजी प्रयोजन का ही रास्ता नहीं रोका है? राजलक्ष्मी के निकट मेरे और मुझे प्राप्त करने के बीच कितना प्रभेद है यह सत्य मुझ पर आज प्रकट हुआ। आज उसका चित्त इस लोक के सब-कुछ पाये हुए को तुच्छ करके अग्रसर होने को तैयार हुआ है। उसके उस पथ के बीच खड़े होने के लिए मुझे स्थान नहीं है। इसलिए, अन्यान्य कूड़े-कचरे की तरह अब मुझे भी रास्ते के एक तरफ अनादर से पड़ा रहना पड़ेगा, चाहे वह कितना ही दु:ख दे। पर अस्वीकार करने के लिए मार्ग नहीं है। अस्वीकार किया भी नहीं कभी।
दूसरे दिन सबेरे ही जान पाया कि चालाक रतन ने जो तथ्य संग्रह किया था वह गलत नहीं है। गंगामाटी-सम्बन्धी सारी व्यवस्था स्थिर हो गयी है। राजलक्ष्मी के ही मुँह से मुझे इस बात का पता लगा है। प्रात:काल नियमित पूजा-पाठ करके वह और दिनों की तरह बाहर नहीं गयी। धीरे-धीरे आकर मेरे पास बैठ गयी और बोली, “परसों इसी वक्त अगर खा-पीकर हम सब यहाँ से निकल सकें तो साँईथिया में पच्छिम की गाड़ी आसानी से मिल सकती है, न?”
मैं बोला, “मिल सकती है।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “यहाँ का सब बन्दोबस्त मैं एक तरह से पूरा कर चुकी हूँ। कुशारी महाशय जिस तरह देख-रेख रखते थे, उसी तरह रखेंगे।”
मैंने कहा, “अच्छा ही हुआ।”
राजलक्ष्मी कुछ देर चुप रही। मालूम होता था कि प्रश्न को ठीक तौर से आरम्भ नहीं कर सकती थी, इसीलिए अन्त में बोली, “बंकू को चिट्ठी लिख दी है कि वह गाड़ी रिजर्व करके स्टेशन पर हाजिर रहेगा। लेकिन रहे तब तो?”
मैंने कहा, “जरूर रहेगा। वह तुम्हारा हुक्म नहीं टालेगा।”
राजलक्ष्मी बोली, “नहीं, जहाँ तक हो सकेगा टालेगा नहीं, तो भी- अच्छा तुम क्या हमारे साथ नहीं चल सकोगे?”
कहाँ जाना होगा, यह प्रश्न नहीं कर सका। सिर्फ इतना ही मुँह से निकला, “अगर मेरे चलने की जरूरत समझो तो चल सकता हूँ।”
इसके प्रत्युत्तर में राजलक्ष्मी कुछ न बोल सकी। कुछ देर चुप रहने के बाद सहसा घबराकर बोल उठी, “अरे, तुम्हारे लिए चाय तो अब तक लाया ही नहीं।”
मैं बोला, “मालूम होता है वह काम में व्यस्त है।”
वास्तव में चाय लाने का समय काफी गुजर चुका था। और दिन होता तो वह नौकरों का ऐसा अपराध कभी क्षमा न कर सकती, बक-झककर तूफान-वर्षा कर देती, लेकिन उस समय जैसे वह एक प्रकार की लज्जा से मर गयी और एक भी बात न कहकर तेजी से कमरे के बाहर हो गयी।
निश्चित दिन को प्रस्थान के पहले समस्त प्रजाजन आये और घेरकर खड़े हो गये। डोम की लड़की मालती को फिर एक बार देखने की इच्छा थी, लेकिन, उसने इस गाँव को छोड़कर किसी और ही गाँव में अपनी गृहस्थी जमा ली है, इसलिए नहीं देख सका। पता लगा कि उस जगह वह अपने पति के साथ सुखी है। दोनों कुशारी-बन्धु अपने परिवार सहित रात रहते ही आ गये। जुलाहे का सम्पत्ति-सम्बन्धी झगड़े का निबटारा हो जाने से वे फिर एक हो गये हैं। राजलक्ष्मी ने कैसे यह सब किया इसे विस्तारपूर्वक जानने का कौतूहल भी नहीं था, और न जाना ही। उनके मुँह की ओर देखकर केवल इतना ही जान सका कि झगड़े का अन्त हो गया है और पूर्व-संचित अनबन की ग्लानि अब किसी भी पक्ष के मन में मौजूद नहीं है।
सुनन्दा आई और उसने अपने बच्चे को लेकर मुझे प्रणाम किया। कहा, “हम सबको आप जल्दी न भूल जाँयगे, यह मैं जानती हूँ। इसके लिए तो प्रार्थना करना व्यर्थ है।”
मैंने हँसकर कहा, “तो मुझसे और किस बात के लिए प्रार्थना करोगी बहिन?”
“मेरे बच्चे को आप आशीर्वाद दें।”
मैं बोला, “यही तो व्यर्थ प्रार्थना है, सुनन्दा। तुम जैसी माँ के बच्चे को क्या आशीर्वाद दिया जाय, यह तो मैं भी नहीं जानता, बहिन।”
राजलक्ष्मी किसी काम से पास ही से जा रही थी। यह बात ज्यों ही उसके कानों पड़ी, वह कमरे के अन्दर आ खड़ी हुई और सुनन्दा की ओर से बोली, “इस बच्चे को यह आशीर्वाद दे चलो कि यह बड़ा होकर तुम्हारे ही जैसा मन पाये।”
मैंने हँसकर कहा, “बड़ा अच्छा आशीर्वाद है! शायद तुम्हारे बच्चे से लक्ष्मी मजाक करना चाहती है, सुनन्दा।”
बात समाप्त होने के पहले ही राजलक्ष्मी बोल उठी, “मजाक करना चाहूँगी अपने ही बच्चे के साथ, और वह भी चलने के समय?”
यह कहकर वह क्षण-भर स्तब्ध रहकर बोली, “मैं भी इसकी माँ के समान हूँ। मैं भी भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि वे इसे यही दें। इससे बड़ा तो मैं कोई और वर जानती नहीं।”
सहसा मैंने देखा, उसकी दोनों ऑंखों में ऑंसू भर आये हैं। और कुछ भी न कहकर वह कमरे से बाहर चली गयी।
इसके बाद सबसे मिलकर, ऑंखों में ऑंसू भरे हुए, गंगामाटी से विदा ली। यहाँ तक कि रतन भी फिर-फिरकर ऑंखें पोंछने लगा। जो यहाँ रहने वाले थे उन्होंने हम सबसे फिर आने के लिए अत्यधिक अनुरोध किया और सबने उन्हें फिर आने का वचन भी दिया, केवल मैं ही न दे सका। मैंने ही निश्चित रूप से समझा था कि इस जीवन में अब मेरा यहाँ लौटना सम्भव नहीं है। इसलिए जाते समय इस छोटे-से गाँव को बार-बार फिर-फिरकर देखते समय मन में केवल यही विचार उत्पन्न होने लगा कि अपरिमेय माधुर्य और वेदना से परिपूर्ण एक वियोगान्त नाटक की यवनिका अभी ही गिरी है; नाट्यशाला के दीप बुझ गये हैं और अब मनुष्यों से परिपूर्ण संसार की सहस्र-विधा भीड़ में से मुझे रास्ते पर बाहर निकलना पड़ेगा। किन्तु, जिस मन को जनता के बीच बड़ी होशियारी से कदम रखने की जरूरत है, मेरा वही मन जैसे नशे की खुमारी से एकदम आच्छन्न हो रहा।
शाम के बाद हम सब साँईथिया आ पहुँचे। राजलक्ष्मी के किसी भी आदेश और उपदेश की बंकू ने अवहेलना नहीं की। सब इन्तजाम करके वह स्टेशन के प्लेटफार्म पर खुद उपस्थित था। यथासमय गाड़ी आई और वह सरो-सामान लादकर, रतन को नौकरों के डिब्बे में चढ़ा, विमाता को लेकर गाड़ी में बैठ गया। लेकिन, उसने मेरे साथ कोई घनिष्ठता दिखाने की चेष्टा नहीं की, क्योंकि, अब उसका मूल्य बढ़ गया है; घर-बार रुपये-पैसे लेकर अब संसार में वह विशेष आदमियों में गिना जाने लगा है। बंकू विलक्षण व्यक्ति है। सभी अवस्थाओं को मानकर चलना जानता है। यह विद्या जिसे आती है, संसार में उसे दु:ख-भोग नहीं करना पड़ता।
गाड़ी छूटने में अब भी पाँच मिनट की देरी है; लेकिन, मेरी कलकत्ते जानेवाली गाड़ी तो आयेगी प्राय: रात के पिछले पहर। एक ओर स्थिर होकर खड़ा था। राजलक्ष्मी ने गाड़ी की खिड़की से मुँह निकालकर हाथ के इशारे से मुझे बुलाया। पास पहुँचते ही कहा, “जरा अन्दर आओ।” अन्दर जाने पर उसने हाथ पकड़कर मुझे पास बिठा लिया और कहा, “तुम क्या बहुत जल्दी ही बर्मा चले जाओगे? जाने के पहले क्या एक बार और नहीं मिल सकोगे?”
मैं बोला, “अगर जरूरत हो तो मिल सकता हूँ।”
राजलक्ष्मी धीरे से बोली, “संसार जिसे जरूरत कहता है वह नहीं। केवल एक बार और देखना चाहती हूँ। आओगे?”
“आऊँगा।”
“कलकत्ते पहुँचकर चिट्ठी भेजोगे?”
“भेजूँगा।”
बाहर गाड़ी छूटने का अन्तिम घण्टा बज उठा और गार्ड ने अपनी हरी रोशनी बार-बार हिलाकर गाड़ी छोड़ने का संकेत किया। राजलक्ष्मी ने झुककर मेरे पाँवों की धूल ली और मेरा हाथ छोड़ दिया। मैंने ज्यों ही नीचे उतरकर गाड़ी का दरवाजा बन्द किया, गाड़ी रवाना हो गयी। रात अंधेरी थी, अच्छी तरह कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था, सिर्फ प्लेटफार्म के मिट्टी के तेल के लैम्पों ने धीरे-धीरे सरकती हुई गाड़ी की उस खुली खिड़की की एक अस्पष्ट नारी-मूर्ति पर कुछ रोशनी डाली।
कलकत्ता आकर मैंने चिट्ठी भेजी और उसका जवाब भी पाया। यहाँ कोई अधिक काम तो था नहीं, जो कुछ था वह पन्द्रह दिन में समाप्त हो गया। अब विदेश जाने का आयोजन करना होगा। लेकिन, उसके पहले वादे के अनुसार एक बार फिर राजलक्ष्मी से मिल आना होगा। दो सप्ताह और भी यों ही बीत गये। मन में एक आशंका थी कि न जाने उसका क्या मतलब हो, शायद आसानी से छोड़ना नहीं चाहे, या इतनी दूर जाने के विरुद्ध तरह-तरह के उज्र और आपत्तियाँ खड़ी करके जिद करे- कुछ भी असम्भव नहीं है। इस समय वह काशी में है। उसके रहने का पता भी जानता हूँ; इधर उसके दो-तीन पत्र भी आ चुके हैं, और यह भी विशेष रूप से लक्ष्य कर चुका हूँ कि मेरे वादे को याद दिलाने के सम्बन्ध में कहीं भी उसने इशारा करने का प्रयत्न नहीं किया है। न करने की तो बात ही है। मन ही मन कहा, अपने को इतना छोटा बनाकर मैं भी शायद मुँह खोलकर यह नहीं लिख सकता कि तुम आकर एक बार मुझसे मिल जाओ। देखते-देखते अकस्मात् मैं जैसे अधीर हो उठा। और इस जीवन के साथ वह इतनी जकड़ी हुई है, यह बात इतने दिन कैसे भूला हुआ था, यह सोचकर अवाक् हो गया। घड़ी निकालकर देखी, अब भी समय है, गाड़ी पकड़ी जा सकती है। तब समान डेरे पर पड़ा रहा और मैं बाहर निकल पड़ा।
इधर-उधर फैली हुई चीजों को देखकर मन में आया, रहें ये सब पड़ी हुईं। मेरी जरूरतों को जो मुझसे भी अधिक अच्छी तरह जानती है, उसी के उद्देश्य से-उसी से मिलने के लिए, जब यात्रा करना है, तब यह जरूरतों का बोझा नहीं ढोऊँगा। रात को गाड़ी में किसी तरह नींद नहीं आई, अलस तन्द्रा के झोंकों से मुँदी हुई दोनों ऑंखों की पलकों पर कितने विचार और कितनी कल्पनाएँ खेलती हूई घूमने लगीं उनका आदि-अन्त नहीं। शायद, अधिकांश ही विशृंखल थीं, परन्तु, सभी जैसे मधु से भरी हुईं। धीरे-धीरे सुबह हुई, दिन चढ़ने लगा, लोगों के चढ़ने-उतरने, बोलने-पुकारने और दौड़-धूप करने की हद नहीं, तेज धूप के कारण चारों ओर कहीं भी कुहरे का चिह्न नहीं रहा; पर, मेरी ऑंखें बिल्कुईल वाष्पाछन्न हो रहीं।
रास्ते में गाड़ी लेट हो जाने के कारण राजलक्ष्मी के काशी के मकान पर जब मैं पहुँचा तो बहुत देरी हो गयी थी। बैठक के सामने एक बूढ़े से ब्राह्मण हुक्का पी रहे थे। उन्होंने मुँह उठाकर पूछा, “क्या चाहते हैं?”
यह सहसा नहीं बतला सका कि क्या चाहता हूँ। उन्होंने फिर पूछा, “किसे खोज रहे हैं?”
किसे खोज रहा हूँ, सहसा यह बतलाना भी कठिन हो गया। जरा रुककर बोला, “रतन है क्या?”
“नहीं, वह बाजार गया है।”
ब्राह्मण सज्जन व्यक्ति थे। मेरे धूलि-भरे मलिन मुख की ओर देखकर शायद उन्होंने अनुमान कर लिया कि मैं दूर से आ रहा हूँ, इसलिए दयापूर्ण स्वर में बोले- “आप बैठिए, वह जल्द आएगा। आपको क्या सिर्फ उसी की जरूरत है?”
पास ही एक चौकी पर बैठ गया। उनके प्रश्न का ठीक उत्तर न देकर पूछ बैठा, “यहाँ बंकू बाबू हैं?”
“हैं क्यों नहीं।”
यह कहकर उन्होंने एक नये नौकर को कहा कि बंकू बाबू को बुला दे।
बंकू ने आकर देखा तो पहले वह बहुत विस्मित हुआ। बाद में मुझे अपनी बैठक में ले जाकर और बिठाकर बोला, “हम लोग तो समझते थे कि आप बर्मा चले गये।”
इस ‘हम लोग’ का क्या मतलब है, यह मैं पूछ नहीं सका। बंकू ने कहा, “आपका सामान अभी गाड़ी पर ही है क्या?”
“नहीं, मैं साथ में कोई सामान नहीं लाया।”
“नहीं लाये? तो क्या रात की ही गाड़ी से लौट जाना है?”
मैंने कहा, “सम्भव हुआ तो ऐसा ही विचार करके आया हूँ।”
बंकू बोला, “तब ठीक है, इतने थोड़े वक्त के लिए सामान की क्या जरूरत!”
नौकर आकर धोती, गमछा और हाथ-मुँह धोने को पानी आदि जरूरी चीजें दे गया; पर, और कोई मेरे पास नहीं आया।
भोजन के लिए बुलाहट हुई, जाकर देखा, चौके में मेरे और बंकू के बैठने की जगह पास पास ही की गयी है। दक्षिण का दरवाजा ठेलकर राजलक्ष्मी ने अन्दर प्रवेश करके मुझे प्रणाम किया। शुरू में तो शायद उसे पहिचान ही न सका। जब पहिचाना तो ऑंखों के सामने मानो अन्धकार छा गया। यहाँ कौन है और कौन नहीं, नहीं सूझ पड़ा। दूसरे ही क्षण खयाल आया कि मैं अपनी मर्यादा बनाये रखकर, कुछ ऐसा न करके जिसमें कि हँसी हो, इस घर से फिर सहज ही भले मानस की तरह किस तरह बाहर हो सकूँगा।
राजलक्ष्मी ने पूछा, “गाड़ी में कुछ तकलीफ तो नहीं हुई?”
इसके सिवा वह और क्या पूछ सकती थी? मैं धीरे से आसन पर बैठकर कुछ क्षण स्तब्ध रहा, शायद एक घड़ी से अधिक नहीं और फिर मुँह उठाकर बोला, “नहीं, तकलीफ नहीं हुई।”
इस बार उसके मुँह की ओर अच्छी तरह देखा तो मालूम हुआ कि उसने न केवल सारे आभूषण ही उतार कर शरीर पर एक सादी किनारी की धोती धारण कर रक्खी है, बल्कि, उसकी पीठ पर लटकने वाली मेघवत् सुदीर्घ केशराशि भी गायब है। माथे के ऊपर, ललाट के नीचे तक, ऑंचल खिंचा हुआ है, तो भी उसमें से कटे बालों की दो-चार लटें गले के दोनों ओर निकलकर बिखर गयी हैं। उपवास और कठोर आत्म-निग्रह की एक ऐसी रूखी दुर्बलता चेहरे से टपक रही है कि अकस्मात् जान पड़ा कि इस एक ही महीने में वह उम्र में भी मानो मुझसे दस साल आगे बढ़ गयी है।
भात के ग्रास मेरे गले में पत्थर की तरह अटकते थे, तो भी, जबर्दस्ती निगलने लगा। बार-बार यही खयाल करने लगा कि इस नारी के जीवन से हमेशा के लिए पुँछकर विलुप्त हो जाऊँ और आज, सिर्फ एक दिन के लिए भी, यह मेरे कम खाने की आलोचना करने का अवसर न पावे।
भोजन समाप्त होने के बाद राजलक्ष्मी ने कहा, “बंकू कहता था कि तुम आज रात की ही गाड़ी से वापस चले जाना चाहते हो?”
मैंने कहा, “हाँ।”
“ऐसा भी कहीं होता है! लेकिन, तुम्हारा जहाज तो उस रविवार को छूटेगा।”
इस व्यक्त और अव्यक्त उच्छ्वास से विस्मित होकर उसके मुँह की ओर देखा। देखते ही वह हठात् जैसे लज्जा से मर गयी और दूसरे ही क्षण अपने को सँभालकर धीरे से बोली, “उसमें तो अब भी तीन दिन की देरी है?”
मैंने कहा, “हाँ पर और भी तो काम हैं।”
राजलक्ष्मी फिर कुछ कहना चाहती थी; पर चुप रही। शायद मेरी थकावट, और अस्वस्थ होने की सम्भावना के खयाल से उस बात को मुँह पर न ला सकी। कुछ देर और चुप रहकर बोली, “मेरे गुरुदेव आये हैं।”
समझ गया कि बाहर जिस व्यक्ति से पहले-पहल मुलाकात हुई थी वही गुरुदेव हैं। उन्हीं को दिखाने के लिए ही वह एक बार मुझे इस काशी में खींच लाई थी। शाम को उनके साथ बातचीत हुई। मेरी गाड़ी रात को बारह बजे के बाद छूटेगी। अब भी बहुत समय है। आदमी सचमुच अच्छे हैं। स्वधर्म में अविचल निष्ठा है और उदारता का भी अभाव नहीं है। हमारी सभी बातें जानते हैं, क्योंकि, अपने गुरु से राजलक्ष्मी ने कोई बात छिपाई नहीं है। उन्होंने बहुत-सी बातें कहीं। कहानी के बहाने उपदेश भी कम न दिये; पर वे न उग्र थे और न चोट करने वाले। सब बातें याद नहीं हैं, शायद मन लगाकर सुनी भी नहीं थीं; तो भी, इतना याद है कि कभी न कभी राजलक्ष्मी का इस रूप में परिवर्तन होगा, यह वे जानते थे। दीक्षा के सम्बन्ध में भी वे प्रचलित रीति नहीं मानते हैं। उनका विश्वास है कि जिसका पाँव फिसला है, सद्गुरु की, औरों की अपेक्षा, उसी को अधिक आवश्यकता है।
इसके विरुद्ध मैं कहता ही क्या? उन्होंने फिर एक बार अपनी शिष्या की भक्ति, निष्ठा और धर्मभीरुता की भूरि-भूरि प्रशंसा करके कहा, “ऐसी स्त्री दूसरी नहीं देखी।”
बात वास्तव में सच थी, पर मैं इसे खुद भी उनके कहने की अपेक्षा कम नहीं जानता था। किन्तु, चुप हो रहा।
समय होने लगा, घोड़ागाड़ी दरवाजे के सामने आकर खड़ी हो गयी। गुरुदेव से विदा लेकर मैं गाड़ी पर जा बैठा। राजलक्ष्मी ने सड़क पर आकर और गाड़ी के अन्दर हाथ बढ़ाकर बार-बार मेरे पाँवों की धूलि अपने माथे पर लगाई, पर मुँह से कुछ भी न कहा। शायद उसमें यह शक्ति ही नहीं थी। अच्छा ही हुआ जो अंधेरे में वह मेरा मुँह नहीं देख सकी। मैं भी स्तब्ध हो रहा, क्या कहूँ, नहीं खोज सका। अन्तिम विदा नि:शब्द ही पूरी हुई। गाड़ी चल पड़ी। मेरी दोनों ऑंखों से ऑंसू गिरने लगे। मैंने अपने सर्वान्त:करण से कहा, “तुम सुखी होओ, शान्त होओ, तुम्हारा लक्ष्य ध्रुव हो, तुम्हारी ईष्या न करूँगा; लेकिन, जिस अभागे ने सब कुछ त्यागकर एक साथ एक दिन अपनी नौका छोड़ दी थी, इस जीवन में उसे अब किनारा नहीं मिलेगा।”
गाड़ी गड़गड़ाती हुई रवाना हो गयी। उस दिन की विदा के समय जो सब बातें मन में आई थीं, वही फिर जाग उठीं। मन में आया कि यह जो एक जीवन-नाटक का अत्यन्त स्थूल और साधु उपसंहार हुआ है इसकी ख्याति का अन्त नहीं है। इतिहास में लिखने पर इसकी अम्लान दीप्ति कभी धूमिल नहीं होगी। श्रद्धा और विस्मय के साथ मस्तक झुकाने वाले पाठकों का भी किसी दिन संसार में अभाव न होगा- लेकिन, मेरी आत्म-कहानी किसी को भी सुनाने की नहीं है। मैं चला अन्यत्र। मेरे ही समान जो पाप-पंक में डूबी है, जिसे अच्छे होने का कोई मार्ग नहीं रहा है, उसी अभया के आश्रय में। मन ही मन राजलक्ष्मी को लक्ष्य करके बोला, “तुम्हारा पुण्य-जीवन उन्नत से भी उन्नततर हो, धर्म की महिमा तुम्हारे द्वारा उज्ज्वल से उज्ज्वलतर हो, मैं अब क्षोभ नहीं करूँगा।” अभया की चिट्ठी मिली है। स्नेह, प्रेम और करुणा से अटल अभया ने, बहन से भी अधिक स्नेहमयी विद्रोहिणी अभया ने, मुझे सादर आमन्त्रित किया है। आने के समय छोटे से दरवाजे पर उसके जो सजल नेत्र दिखे थे, वे याद आ गये और याद आ गया उसका समस्त अतीत और वर्तमान इतिहास। चित्त की शुद्धता, बुद्धि की निर्भरता और आत्मा की स्वाधीनता से वह जैसे मेरे सारे दु:खों को एक क्षण में ढँककर उद्भासित हो उठी।
सहसा गाड़ी के रुकने पर चकित होकर देखा तो स्टेशन आ गया है। उतरकर खड़े होते ही एक और व्यक्ति कोच-बॉक्स से शीघ्रतापूर्वक उतरा और उसने मेरे पैरों पर पड़कर प्रणाम किया।
“कौन है रे, रतन?”
“बाबू, विदेश में चाकर की जरूरत हो तो मुझे खबर दीजिएगा। जब तक जीवित रहूँगा। आपकी सेवा में त्रुटि न होगी।”
गाड़ी की बत्ती की रोशनी उसके मुँह पर पड़ रही थी। मैं विस्मित होकर बोला, “तू रोता क्यों है?”
रतन ने जवाब नहीं दिया, हाथ से ऑंखें पोंछकर पाँव के पास फिर झुककर प्रणाम किया और वह जल्दी से अन्धकार में अदृश्य हो गया।
आश्चर्य, यह वही रतन है!