ब्राह्मण की बेटी (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 2

ब्राह्मण की बेटी (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 2

प्रकरण 4

संध्या का स्वास्थ्य पिछले कुछ दिनों से बिगड़ता जा रहा है, पिता के उपचार से लाभ होना, तो दूर रहा, उलटे हानि हो रही है। जगदधात्री डॉक्टर विपिन से सम्पर्क करने को कहती और संध्या असहमति में झगड़ा करती। आज शाम संध्या द्वारा बनाये साबूदाना को अनमने भाव से निगल गयी; क्योंकि यह पथ्य उसे कभी रुचिकर नहीं रहा, किन्तु आज माँ उपालम्भ से बचने के लिए वह न चाहते हुए भी निगल गयी। वह इस तथ्य से भली प्रकार परिचित थी कि उसकी माँ का सारा ध्यान इस ओर टिका होगा कि लड़की ठीक से खाती है या नहीं। खाने से पहले वह किसी पुस्तक को पढ़ रही थी। ज्यों ही वह गोद में खुली पड़ी पुस्तक को समेटने लगी, त्यों ही उसने खिड़की से अपने को बुलाये जाने की आवाज को सुना। बाहर आकर उसने देखा कि सामने अरुण खड़ा आवाज लगा रहा था, “चाची घर पर हो?”

समीप आकर अरुण बोला, “हाँ, किन्तु तुम इतनी मरियल कैसे हो गयी हो? कहीं फिर से बीमार तो नहीं पड़ गयीं?”

“यही लगता है, किन्तु तुम भी तो मुझे स्वस्थ नहीं दिखते?”

हंसकर अरुण बोला, “जब दिन-भर नहाना-खाना कुछ भी नसीब नहीं हुआ तो चेहरे का मुरझाना तो निश्चित था, तुमने पैटर्न की फरमाइश की थी, पूरे दिन उसकी खोज में भटकता फिरा।”

यह कहते हुए अरुण ने अपने बैग से कागड का एक बण्डल निकालकर सन्घ्या को थमा दिया और बोला, “चाचा तो बाहर निकल गये होंग, किन्तु चाची दिखाई नहीं देती, वह कहां गयी है? पिछले शनिवार को घर न आने पर तुम्हारा सामान लाने में देर हो गयी।”

संध्या बोली, “स्टेशन से घर न जाकर सीधे इधर चले आये हो, ऐसी क्या जल्दी थी? घण्टे-भर बाद आते, तो क्या अन्तर पड़ जाना था?”

अरुण बोला, “मेरा खाना-पीना तो संध्या के बाद होगा, कोई जल्दी नहीं, किन्तु तुम्हारा जल्दी जल्दी बीमार पड़ जाना भारी चिन्ता का विषय है।”

“संध्या के बाद” शब्दों मे श्लेष था. छिपा अर्थ-था पहले संध्या खोयेगी, तभी तो अरुण-खा सकेगा। इस तथ्य को समझते ही संध्या के कान लाल हो उठे और ह्दय में आनन्द दौ़ड़ गया, किन्तु ऊपर (बाहर) से संध्या ने अपने को ऐसा सामान्य दिखाया, मानो वह कुछ समझी ही न हो। फिर भी श्लेष का प्रयोग करती हुई संध्या बोली, “अब संध्या होने में बी कितना समय बचा है, अधिक देर करना ठीक नहीं, जाकर नहा-खा लो।”

हंसता हुआ अरुण उत्तर तो देना चाहता था, किन्तु सामने आ खड़ी चाची की मुखमुद्रा को देखकर चुप हो गया। क्रुद्ध जगदधात्री भुनभुनाती हुई कमरे से बाहर हो गयी। बाहर आने से पहेल लड़की से बोली, “बेटी, पहले मुंह रखे पान चबाना छोड़ो और थूककर बाहर फेंक दो, फिर जी-भरकर हंसी-मजाक करही रहो।”

चुपचाप खड़े अरुण न यह सब सुना, तो अपने को एकदम आहत अनुभव करने लगा। संध्या को माँ का कथन सही नहीं लगा। दोनों का चेहरा एकदम काला पड़ गया, मानो प्रकाश का स्थान संध्या के अन्धकार ने ले लिया हो। काफी देर तक हक्का-बक्का रहने के बाद संभली संध्या पान थूककर दुःखी स्वर में अरुण से बोली, “तुम अपने को अपमानित देखने के लिए इस घर में क्यों आते हो? क्या तुम हम लोगों का सर्वनाश करके प्रसन्न होओगे?”

कुछ देर की चुप्पी के बाद अरुण बोला, “संध्या, तुमने मुंह का पान थूक दिया है, इसका अर्थ है कि तुम मुझे सचमुच अछूत मानती हो।”

सहसा आँसू बहाती हुई संध्या बोली, “तुम्हारा न तो कोई धर्म है और न कोई जाति, किन्तु मैं पूछती हुँ कि तुमने मुझे क्यो छुआ है?”

चकित-विस्मित हुआ अरुण बोला, “संध्या, क्या कहती हो, मेरी कोई जाति और धर्म नहीं है?”

संध्या दृढ़ स्वर में बोली, “मैंने कुछ गलत नहीं कहा, तुम विलायत गये हो या नहीं? इसलिए तुम म्लेच्छ हो और इसीलिए तुम्हें उस दिन माँ ने पीतल के लोटे में पानी दिया था। क्या यह भी भूल गये हो?”

“नहीं, मुझे याद नहीं, किन्तु क्या तुम भी मुझे अछूच मानती हो?”

“मेरे मानने-न मानने से क्या होता है? तुम तो जिस दिन से लोगों की मनाही को इनकार कर विलायत गये हो, उसी दिन से सबकी दृष्टि में अछूत बन गये हो।”

अरुण बोला, “किन्तु मैं सोचता था…।”

“तुम क्या सोचते थे कि मैं बाकी लोगों से अलग हूँ?”

अरुक इसका कुछ भी उत्तर न दे सका, किन्तु कुछ देर बाद वह बोला, “इसका अर्थ हे कि मुझे अब इस घर में नहीं आना चाहिए, किन्तु मेरा तुमसे अनुरोध हे कि तुम मेरी उपेक्षा मत करो। मैंने ऐसा कोई भी काम नहीं किया, जिससे लिए मुझे लज्जित होना पड़े अथवा पश्चाताप करना पड़े।”

संध्या बोली, “अरुण भैया! क्या तुम्हें भूख-प्यास नहीं सताती, जो बेकार में इतनी देर से मुझसे उलझ रहे हो?”

“मैं तुमसे भला क्यो उलझाने लगा? अपने से धृणा करने वाले से उलझने में भला कौन-सी समझदारी है?”

यह कहकर अरुण बाहर चला गया और पाषाण-प्रतिमा बनी संध्या एकटक उसे देखती रह गयी।

प्रसन्न होकर लौटी संध्या की माँ बोली, “अच्छा हुआ, जो चला गया, अब कभी इधर मुंह नहीं करेगा।”

संध्या को मानो बिजली का करण्ट लगा, “क्या कहा?”

माँ बोली, “बेकार में तुझे छू गया, जा कपडे बदल ले।”

बेटी के मन की प्रतिक्रिया को माँ समझ न सकी, इसीलिए बोली, “अरुण क्रिस्तान जो ठहरा, कपड़े जो बदलने ही होंगे। अरी, कोई विधवा अथवा वृद्ध, तो उससे छू जाने पर स्नान के बाद ही शुद्ध होती। उस दिन रासो मौसी….। माना कि वह अपने मुंह मिया-मिट्ठु बनती हैं, फिर भी, यह तो मानना ही पड़ेगा कि आचार की रक्षा में वह आदर्श है। दूले की छोकरी के द्वारा न छूए जाने की कहने पर भी मौसी ने नातिन को नहलाकर ही दम लिया।”

संध्या ने कहा, “ठीक है, मैं वस्त्र बदलकर आती हूँ।”

माँ आदर्श के महत्व पर भाषण झाड़ने जा रही थी कि पीछे से आ रही पुकार को सुनकर रुक गयी, “जगदधात्री! घर में हो ने!” कहते हुए गोलोक चटर्जी उसके घर के आंगन में आ खड़े हुए।

चटर्जी महाशय का स्वागत करती हुई जगदधात्री बोली, “अहोभाग्य, जो आज सुदामा की कुटिया में कृष्ण बनकर मामा पधारे है।”

जगदधात्री मुस्कारा तो रही थी, किन्तु रासमणि की बात के याद आते ही वह चिन्तित हो उठी। संध्या उठकर खड़ी हो गयी और गोलोक जगदधात्री की उपेक्षा करके संध्या की और उन्मुख होकर बोला, “कैसी हो संध्या? कुछ दुबली लग रही हो? स्वास्थ्य तो ठीक चल रहा है न?”

सकुचाती हुई संध्या बोली, “बाबा, मैं ठीक हूँ।”

माँ नकली मुस्कान चेहरे पर लाकर बोली, “मामा, वैसे तो लड़की ठीक है, किन्तु पिछले महीने से रह-रहकर ज्वर का आक्रमण हो जाता है। आज कितने दिनों के बाद सागूदाना खाया है।”

गोलोक बोला, “अच्छा तो यह बात है! अरे, विवाह न करके लड़की को कुंआरी रखोगी, तो यह सब होगा। जिसे अब तक दो-चार बच्चों की माँ होना चाहिए था, उसे तुमने कुंआरी रख छोड़ा है। कब इसका विवाह कर रही हो?”

गोलोक की बात को बदलती हुइ जगदधात्री बोली, “मैं ठरही औरत। तुम्हारे दामाद को इसकी चिन्ता ही नहीं है। वह तो अपनी डॉक्टरी में मस्त हैं। मामा, अपने पति के व्यवहार को देखकर तो मन में आता है कि झूठी मोह-माया छोड़कर काशी में सास के पास चली चाऊं। पीछे जो होना हो, होता रहे।” कहती हुई उसका गला रुंध गया और वह बिलखने लगी।

गोलोक ने पूछा, “वह पगला आजकल क्या करता है?”

जगदधात्री बोली, “वह ठीक से पागल बी तो नहीं, जो उन्हें घर में जंजीर से बांधकर रखूं वह न तो पागल है और न ही समझदार। मेरा जीवन तो इस घर में बर्बाद हो गया है।” कहती हुई अपने आँचल से आँसें पोंछने लगी।

सहानुभूति में गोलोक बोला, “इसमे तो कोई सन्देह नहीं, किन्तु बेटी, तुम भी तो अपनी लड़की के हाथ पीले करनेक को उत्सुक नहीं लगतीं। तुम सोचती हो कि स्वयं लड़के वाले तुम्हारे घर अलख जगायेंगे। बेटी, कुलीन परिवारो को यह सब शोभा नहीं देता। तुमने सुना ही होगा कि गंगायात्रा के प्रसग में भी कुलीनों ने अपने कुल-धर्म की उपेक्षा नहीं की। मधुसूदन, सबकी लाज रखना, तुम्हारा ही भरोसा है।”

जगदधात्री बोली, “मामा, अपसे यह किसने कहा कि हम भगवान के सहारे हाथ-पर-हाथ धरे बैठे है? आज तक जब किसी कायस्थ ने भी पैर नहीं धरे, तो मैं भाग्य के सिवाय और किसे दोष के सकती हूं? लड़की को कुएं में तो नहीं धकेला जा सकता, कुछ देखना तो पड़ता है।”

गोलोक बोला, “यह तो सही है। देखूंगा।”

जाने की इच्छा पर भी संध्या सिर झुकाये वही खड़ी रही। उसकी ओर देखकर धूर्त गोलोक बोला, “जगदधात्री, यदि तुझे लड़की के लिए स्वयं नारायण नहीं चाहिए, तो इसे मुझे क्यो नहीं दे देती? इस सम्बन्ध में कोई वाधा नहीं है। तुम्हारी लड़की रानी बनकर पूरे इलाके पर राज्य करेगी। क्यो नातिन! मेरे बारे में तुम्हारा क्या राय है?”

संध्या पूरी तरह चिढ़ गयी। अरुण और पिता के सम्बन्ध में माँ की बातों से वह पहले ही उखड़ी हुई थी, गोलोक के इस कथन ने उसके ह्दय में आग लगा दी। वह क्रुद्ध स्वर में बोली, “बाबा, अब तुम्हारी आयु चार जनो द्वारा उठाये जाने वाली घोड़ी पर चढ़ने की है। हाँ, तुम्हारे इस घोड़ी पर सवार होकर आने पर मैं फूलमाला अवश्य डाल दूंगी।” कहकर वह तेजी से भीतर कमरे में चली गयी।

लड़की की इस तीखी चोट से आहत गोलोक असन्तुलित होकर बोला, “लड़की तो तोप का गोला है। जगदधात्री, इस पर नियन्त्रण रखना। मैंने सुना है कि यह तो बाप को भी खरी-खोटी सूना देती है, किसी को नहीं छोड़ती।”

जगदयात्री को इस बात का पहले से डर था। बीच में उसे कुछ देर के लिए अवश्य लगा कि गोलोक मजाक कर रहा था। यदि लड़की सांप को बाम्बी से जबर्दस्ती न निकालती, तो वह शायद सारी बातचीत को मजाक में उड़ा भी देती, किन्तु अब तो स्थिति बिगड़ गयी थी। जगदधात्री गिड़गिड़ाती हुई बोली, “मामा लड़की नादान है, उसकी बात का बुरा न मानना। उसकी ओर से मैं माफी मांगती हूँ।”

गोलोक बोले, “मुझे उसका कथन अच्छा नहीं लगा और फिर तूने सुनकर भी उसे डांटा-डपटा नहीं। लगता है कि चींटी के पर निकलने लगे हैं। मधुसूदन तुम्हारा ही भरोसा है।”

जगदधात्री बोली, “मामा, तुम्हारे सामने मैंने जवान लड़की को डांटना ठीक नहीं समझा। अब उसकी एसी खबर लूंगी कि फिर किसी के आगे मुंह खोलने से पहले उसे दस बार सोचना पड़ेगा।”

गोलोक ने कहा, “जगदधात्री, मेरे कारण बेटी को दुर्गती न करना। नासमझ छोकरी पर घर-गृहस्थी का भार पड़ेगा, तो अपने-आप संभल जायेगी। अच्छा, यह बता कि अरुण अब भी इस घर में आता है?”

डरी हुई जगदधात्री को झूठ बोलना पड़ा, “नहीं तो।”

गोलोक ने कहा, “ठीक है, उसे मुंह न लगाना, लोग तरह-तरह की बातें बनाते हैं।”

संध्या बचपन से अरुण को भैया कहकर पुकारती है। अरुण के विलायत जाने से पहले दोनों काफी घनिष्ठता थी, किन्तु अरुण इतनी छोटी जाती का ब्राह्मण था कि जगदधात्री उसके साथ संध्या के विवाह का स्वप्न भी नहीं देख सकती थी। अरुण के विलायत से लौटने पर दोनों की निरन्तर और उतरोतर बढ़ रही घनिष्ठता और उनकी चढ़ती जवानी से जगदधात्री को दोंनो के एक-दूसरे को समीप आने की झलक मिलने लगी थी। फिर भी, इस सम्बन्ध के परिपुष्टि होने की सम्भावना न होने के कारण जगदधात्री विशेष चिन्तित नहीं हुई थी। अब दूसरों के मुंह से इस प्रकार के आरोप सुनने पर जगदधात्री के लिए इसकी अपेक्षा करना सम्भव न रहा। वह तीखे स्वर में गोलोक से बोली, “मामा, वैसे तो किसी के मुंह पर हाथ नहीं रखा जा सकता है, जिसके मुंह में जो आये, वह किसी के बारे में कुछ भी बक सकता है, किन्तु मैं पूछती हूँ कि लोग मेरी लड़की के ही पीछे हाथ धोकर क्यो पड़़े हैं। क्या सारे गाँव के लोगों के पास यही एक काम रह गया है?”

हंसते हुए गोलोक ने कहा,“तुम्हारी शिकायत सही है, किन्तु दूसरों को कुछ कहने से पहले अपने को संभालने में ही बुद्धिमत्ता है।”

जगदधात्री इसका उत्तर देने ही जा रही थी कि उसने तालाब से नहाकर आती संध्या को देखा। उसके तन के कपड़े गीले थे, सिर के बालों से पानी चू रहा था। लगता था कि उसने सिर पोंछा तक नहीं है। इस स्थिति में लड़की को घर में प्रवेश करते देखकर गोलोक ने चिन्तित स्वर में कहा, “जगदधात्री, तुम तो कहती थी कि लड़की ज्वर-पीड़ित है। शाम के समय इसे नहाना तो नहीं चाहिए था।”

जगदधात्री बोली, “मामा, आजकल लड़कियों का यही हाल है।” मन-ही-मन वह समझ गयी कि लड़की ने अरुण के अपमान करने का दण्ड़ किया है।

गोलोक बोला, “इस तरह की बेपरवाही का परिणाम भयंकर हो सकता है।”

“जो भी भाग्य में लिखा होगा, वह भूगतूंगी। मेरे बस में क्या है मामा?”

“यह तो ठीक है। अच्छा, यह बताओ कि इस घर में किसका शासन चलता है, तुम्हारा, तुम्हारे पति का या तुम्हारी लड़की का?”

“इस घर में केवल मेरी नहीं चलती।”

“तो फिर अपने पति से कह देना कि मुहल्ले से दूले-बाग्दियों को यथाशीध्र चलता करें। यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया, तो मुझे हस्तक्षेप करना पड़ेगाय़। फिर मुझे कहने न आना। मधुसूदन तुम्हारा ही सहारा है।”

क्रुद्ध और उग्र स्वर में जगदधात्री ने पुकारा, “सन्धो, इधर आना।”

कमरे में बाल पोंछ रही संध्या ने मुंह निकालकर पूछा, “माँ, क्या बात है?”

जगदधात्री बोली, “उन शुद्रों को तु हटायेगी या फिर कल नहाने से पहले झाडू मार-मारकर मैं उन्हें भगाऊं?”

“माँ, दुःखी, असहाय एवं दरिद्र लोगों पर हाथ उठाना कौन-सा वीरता का काम है? यह तो कोई भी कर सकता है। फिर भी, उनके रहने में आपको क्या आपत्ति है?”

गोलोक ने कहा, “आपत्ति की बात कहती हो, तो सुनो। परसों मैं घूम-फिरकर घर लौट रहा था, तो देखा कि स़ड़क पर खड़ी बकरी को वह लड़की मा़ड़ पिला रही है। मांड़ छिटककर गिरना तो स्वाभाविक ही है न।”

गोलोक को अपने चेहरे पर ताकता देखकर समर्थन में बोली, “इसमें कोई संदेह थोड़ी हैं, मांड के छींटे तो पड़ते ही हैं मामा।”

गोलोक ने कहा, “अनजान में भले ही सांप का विष भी खा लिया जाये, किन्तु जान-बूझकर तो जीती मक्खी नहीं निगली जा सकती।”

संध्या की और उन्मुख होकर वह बोले, “नातिन, तुम्हारी बात अलग है। तुम्हारी आयु की लड़कीयां तो समय-असमय कभी भी स्नान कर सकती हैं, किन्तु मुझ-जैसे व्यक्ति के लिए तो यह सुविधाजनक नहीं हैं।”

अपने भीतर के उफान को दबाती हुई संध्या को कहना पड़ा. “हाँ. बाबा, यह तो सत्य ही है, किन्तु विचारणीय यह की बाबू जी ने जब उन निराश्रितों को आश्रय दिया है, तो उनके किसी दूसरे वैकल्पिक आवास की व्यवस्था किये बिना उन्हें उजाड़ना तो अन्याय होगा। इसके अलावा इस बाबू जी का भी अपमान ही कहा जायेगा।”

लड़की के इन तर्को पर माँ को इतना क्रोध आया कि उसे लड़की से बात करना ठीक नहीं लगा। गोलोक ने कहा, “ठीक है, वैकल्पिक व्यवस्था भी कुछ कठिन काम नहीं। अरुण के घर के पीछे बहुत सारी धरती-परती पड़ी है। उसे इन शुद्रों को बसाने के लिए कह दे। बाग्दी-दूले शुद्र होने पर भी स्वधर्मी हिन्दू ही तो हैं। उसे तो इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, इससे उसकी जात के जाने का कोई खतरा भी नहीं है।”

यह कहकर गोलोक माँ-बेटी के चेहरे पर ताकने और मन्द-मन्द मुस्कराने लगे। यह सुझाव जगदधात्री को उपयुक्त तो लगा, किन्तु अरुण के नाम पर अनाड़ी लड़की कहीं भड़की न उठे, इस आशंका से उसने कोई भी टिप्पणी करना ठीक नहीं समझा।

जगदधात्री की सोच सही थी। उत्तेजित लड़की उचित-अनुचित के विवेक को छोड़कर कठोर-कर्कश स्वर में बोली, “यदि जाति भ्रष्ट भी होती हो, तो इसकी चिन्ता अरुण भैया को नहीं है। जात-पात पर विश्वास न करने वाले इस बारे में सोचते ही कहां है?”

गोलोक ने हंसने की चेष्टा की, किन्तु उसका चेहरा बुझ गयाय़ वह झेंप मिटाने के लिए बोले, “इस विषय पर तुम्हारी उससे बातचीत होती होगी।”

खिलखिलाकर हंसती हुई संध्या बोली, “क्या बात करते हो, जब वह आप-जैसे बड़े लोगों को दो कौड़ी नहीं समझते, तो मेरे साथ कहां से बात करेंगे?”

यह कहकर वह प्रतिक्रिया अथवा प्रत्युतर की प्रतिक्षा किये बिना ही वहाँ से चलती बनी।

जगदधात्री से अपनी लड़की का आचरण सहन नहीं किया गया, इसलिए वह क्रुद्ध होकर बोली, “नादान लड़की, पराये लड़के पर मनगढंन्त आरोप क्यों लगाये जा रही हो? उसने मेरे साने आज तक ऐसी कोई बात नहीं की। इसके लिए मैं गंगा की शपथ लेकने को तैयार हूँ।”

पता नहीं, घर के भीतर घुसी संध्या ने सुना या नहीं सुना, किन्तु उसने उत्तर कुथ भी नहीं दिया। इस पर गोलोक ने कहा, “जगदधात्री, आजकल के सभी लड़के और लड़कीयां ऐसे ही हैं। तुम बेकार में ही परेशान हो रही हो। हम दो कौ़डी के हैं या लाख रुपये के हैं, यह तो तुम्हे समय बतायेगा, किन्तु आज तुम्हें यह चेतावनी देना आवश्यक समझता हूँ की इस तेज-तर्रार लड़की से जितनी जल्दी छुटकारा पा सकती हो, पा लो, नहीं तो हाथ मलती रह जाओगी।”

जगदधात्री गिड़गड़ाकर बोली, “मामा, मेरी अकल तो काम नहीं करती, तुम्हीं इस काम में मेरी कुछ सहायता करो न।”

गोलोक प्रसन्न भाव से सिर हिलाकर बोले, “ठीक है, अब मैं ही देखूंगा विचारणीय तथ्य यह है कि तुम्हारी लड़की है, यदि दूर ब्याही गयी, तो इसकी सूरत भी देखने को तरसती फिरोगी। समीप का लड़का मिल जाये, तो दो समय लड़की को देखकर जी ठण्डा कर सकोगी। इसलिए तुम्हें कहता हूँ कि लड़के की उम्र के पीछे मत जा। यह तो तुम जानती ही होगी कि कुछ पाने के लिए कुछ छोड़ना भी पड़ता है।”

भावुकता से आँसु पोंछती हुई जगदधात्री बोली, “मामा, मेरे ऐसे भाग्य कहां? किन्तु हाँ, यदि घर जमाई…।”

बीच में ही गोलोक बोल उठे, “अपने को ऐसी मन्दभाग्य क्यों कहती हो? घर-जमाई को तो यमराज समझना चाहिए, यदि कहीं से कोई गंवार-भोंदू फंसा बी तो गांजा-सुल्फा में सारी सम्पति फूंककर तुम्हे सड़क का भिखारी बना देगा।”

गोलोक के संकेत को समझकर तड़पती हुई जगदधात्री बोली, “मैं तो जीवन-भर के लिए तड़ना-जलना लिखा लाई हूँ मामा।”

मुस्कराकर गोलोक बोले, “उचित समय पर उचित काम न करने वाला सदैव अपने दुर्भाग्य को कोसते देखा जाता है।”

“जानती हूँ मामा, मैं सब जानती-समझती हूँ, किन्तु जरा यह भी सोचो कि एक अकेली स्त्री क्या कर सकती है?”

गोलोक बोले, “अब तुम अकेली नहीं हो, जब तुमने मुझे यह काम सौंपा है, तो मैं तुम्हारे साथ हूँ। सोच-विचारकर देखूंगा कि क्या किया जा सकता है। इस समय देर हो रही है, अतः अब जाना चाहूंगा।”

जगदधात्री बोली, “मामा, क्या खड़े-खडे चले जाओगे? दो पल बैठने का कष्ट नहीं करोगे?”

गोलोक बोले, “पूजा का समय निकला जा रहा हा, अब जाने दो, फिर किसी दिन आकर बैठूंगा।” कहते हुए वह बाहर चल दिये। जगदधात्री सम्मान दिखाती घर के दरवाजे तक उन्हे छोड़ने के लिए उनके पीछे-पीछे चल दी।

प्रकरण 5

लोगों के मुक्त इलाज के प्रति समर्पित प्रयिनाथ प्रभात होते ही एक हाथ में डॉक्टरी की किताबें और दूसरे हाथ में दवाइयों का बक्सा थामे निकल पड़ते थे। आज उनके पीछे चलती हुई दूले की विधवा स्त्री खुशामद करती हुई चल रही थी। वह बोली, “महाराज! आपर ठुकरा दोगे, तो हम बेंसहारा और असहाय लोग किधर जायेंगे? आपके सिवाय हमारा और कौन है?”

बात करने के लिए फुरसत न होने से प्रियनाथ चलते-चलते बोल, “नहीं, अब तुम लोग यहाँ नहीं रह सकते। मैं जाने गया हूँ कि तुम लोग अपनी सीमा में नहीं रह सकते। अच्छा, यह बता कि क्या तुमने गली में बकरी को माड़ पिलायी?”

आश्चर्य प्रकट करती हुई देले की माँ बोली, “महाराज, सभी को बकरियां घास चरती है या माड़ पीती है?”

प्रियनाथ उतेजित होकर बोले, “हरामजादी, मुझे मूर्ख बनाती है। बकरियां घास चरती है या माड़ पीती है?”

“महाराज, घास-पत्ते भी खाते है और माड़ भी पीती है।”

हाथ हिलाते हुए प्रियनाथ ने कहा, “नहीं अब तुम लोग यहाँ नहीं रह सकोग। आज हीं यहाँ से चलते बनो, स्वयं गोलोक चटर्जी ने देखा हे कि तुम लोगो ने ब्राह्मणों के मुहल्ले में बकरकी को मांड़ पिलाया। अब में तुम लोगों पर दया नहीं कर सकता। तुम दया के पात्र नहीं हो।”

आखिरी दांव चलाती हुई दूले की विधवा बोली, “महाराज, तो क्या मांड को नाली में बहा देना चाहिए?”

“हाँ, यही ठीक होगा। गाय को पिलाने की अनुमति तो दी जा सकती है, किन्तु बकरी को मांड पिलाना और वह भी ब्राह्मणों के मुहल्ले की गली में… राम-राम छिः छः। मुझे देर हो रही है, मुझे रोककर मेरा और अपना समय नष्ट मत को, आज ही इस महल्ले को छोड़कर चलते बनो।”

प्रियनाथ के पीछे चलती दूले की विधवा बिलखकर बोली, “महाराज, लड़की ने कल से अन्न का एक दाना भी नहीं खाया?”

प्रियनाथ रुक गये और मुड़कर बोले, “दवा तो चल रही है न? क्या लड़की की जी मचल रहा है या उस दस्त रहे है?”

“हाँ, महाराज, हाँ।” दूले की बहू बिलखकर बोली।

“क्या कारण है? क्या पेट फूल गया है और भूख मर गयी है?”

“महाराज, भूख से तो बिलख रही है?”

“हूँ यह भी एक भयंकर रोग है। तब बताया क्यों नहीं?” जाच-परखकर एक खुराक वही दे देता।”

थोड़ी देर तक इधर-उधर करती गरीब विधवा बोली, “महाराज! दवाई की आवश्यकता नहीं। थोड़े-से चावल मिल जाते तो पकाकर भूखी लड़की को खिला देती।”

सुनकर रुष्ट हुए प्रियनाथ भड़कते हुए बोले, “ससुरी को दवा नहीं, चावल चाहिए। तुम लोगों के लिए मैंने जैसे भण्डार खोल रखा है। चल, हट, मेरी नजरों से दूर हो जा, पाजी कही की।”

निराश लौट रही उस बेचारी को बुलाकर प्रियनाथ ने कहा, “खाने को नहीं है, तो संध्या को क्यों नहीं बताया? उससे मांग लिया होता।”

गरीब महिला ने सिर उठाकर प्रियनाथ की ओर देखा और फिर वह चुपचाप चल दी।

प्रियनाथ बोले, “संध्या की माँ से कुछ मत कहना। घाट के पास खड़ी होकर संध्या की प्रतीक्षा करना औचर उसके आने पर उससे कहना। हाँ, किसी के बीमार पड़ने पर सबसे पहले मुझे खबर करना, विपिन के पाक मत जाना।” फिर किसी और को देखकर वह बोले, “अरे कौन, त्रिलोकी हो क्या? घर में सब स्वस्थ हैं ने?”

त्रिलोकी ने पूछा, “क्या आपके पास…?”

“बोलो, मुझसे क्या चाहते हो?”

“जमाई बाबू, बड़ा नाला पार कनेक में लोगो को काफी कष्ट होता है, उस पर मचान का एक पुल बनाना है, उसके लिए बांसो की आवश्यकता पड़ेगी। क्या आपसे बांस के झुरमुट से…?”

क्रुद्ध स्वर में बीच में ही प्रियनाथ बोल उठे, “मैं बांस नहीं दूंगा। क्या गाँव में और लोग नहीं है? उनसे ले लो न।”

अब तक चुप खड़ा बूढ़ा षष्ठीचरण बोला, “जमाई राजा, आप नाराज न हों, तो एक बात कहूं। इस गाँव में आप-जैसा उदार दानी दूसरा कोई है ही कहां, जिससे फरियाद की जाये? आप दया करेंगे, तो सारे गाँव को आराम हो जायेगा और मुंह से भले न कहें, किन्तु मन-ही-मन तो आपको असीसेंग।”

कुछ देर सोचने के बाद प्रियनाथ ने पूछ, “क्या सचमुच लोगों को आने-जाने में कष्ट होता है?”

त्रिलोकी बोला, “महाराज, रोज एक-गो के हाथ-पैर टूटते हैं। डर से मारे प्राण हथेली पर रखकर ही लोगों को चलना पड़ता है।”

प्रियनाथ बोले, “जगदधात्री को पता चलेगा, तो बहुत बिगड़ेगी।”

पष्ठीचरण बोला, “आप कहें, तो हम सब जाकर माँ जी के पैर पकड़ लेते है।”

कुछ देर तक सोच-विचार में डूबे प्रिय बाबू बोले, “लोगों को सचमुच कष्ट होता है, तो ले लीजिये, किन्तु संध्या की माँ को इसकी भनक नहीं पड़नी चाहिए।”

फिर बोले, “अच्छा, मुझे रसिक बाग्दी की बहू को देखने जाना है। कहीं रात में उसकी तबीयत बिगड़ न गयी हो। अच्छा मैं चलता हूँ।”

बूढ़े षष्ठीचरण को हंसता देखकर त्रिलोकी बोला, “चाचा, लोग इन्हे भले ही सनकी कहें, किन्तु गरीब-दुःखियों के प्रति इनके मन में जैसी दया-ममता है, वैसी तो बड़े-बड़े सेठों में देखने को नहीं मिलती। कितने सीधे और सरल प्रकृति के महाशय है यह? छल-कपट से तो जैसे इनका परिचय ही नहीं।” कहते हुए त्रिलोकी ने प्रियनाथ को लक्ष्य करक् उनके सम्मान में माथा टेक दिया।

षष्ठीचरण बोला, “त्रिलोकी, अब हुकुम हो गया है, तो देर मत करो, जल्दी से काम शूरू कर दो।”

त्रिलोकी बोला, “ठीक कहते हो चाचा।”

प्रकरण 6

संध्या के अन्धकार के गहरा जाने पर भी अरुण ने अपने कमरे में रोशनी नहीं की थी। वह अपनी स्टडी टेबल पर पैर रखे छत की ओर देखे जा रहा था। मेज पर खुली पड़ी पुस्तक को देखकर लगता है कि अरुण इस पुस्तक को पढ़ रहा होगा। इसके साथ पढ़ने की इच्छा बनी रहने के कारण उसने पुस्तक को बन्द नहीं किया होगा। वास्तव में, संध्या के घर से लौटने के दिन से ही वह काम पर नहीं जा सका था। उसके दिमाग मे एक बी बात ने हलचल मचा रखी है कि अब वह लोगों के लिए अस्पृश्य हो गया है। उसके स्पर्श मात्र से लोगों को नहाना पड़ता है।

अचानक द्वार पर आहट पाकर वह अपने चिन्तन से बाहर निकला और उसने आवाज देकर पूछा, “कौन है?”

“मैं संध्या हूँ।” कहती हुई संध्या किवाड़ खोलकर कमरे में एक और खड़ी हो गयी।

मेज पर पैर उठाकर अरुण खड़ा हो गया और आश्चर्य प्रकट करता हुआ बोला, “संध्या तुम ऐसे समय यहाँ? आओ, भीतर आकर बैठ जाओ।”

संध्या बोली, “मेरे पास बैठने का समय नहीं है। मैं ताल पर मुंह-हाथ धोने के बहाने तुमसे एक निवेदन करने तुम्हारे पास चली आयी हूँ।”

“बोलो संध्या, क्या कहने आयी हो? क्या मैं तुम्हें किसी बात के लिए इनकार कर सकता हूँ?”

“मुझे इस बात का पता है और इसी भरोसे चली आयी हूँ।” कहकर कुछ देर के लिए संध्या चुर हो गयी, फिर बोली, “मुझे बाबू जी से मालूम हुआ कि तुमने उस दिन से काम पर जाना बन्द कर दिया है। घर से बाहर निकले तक नहीं। क्या इसका कारण क्या बता सकोगे?”

“मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं था, तो काम पर कैसे जाता?”

“स्वास्थ्य खराब होने पर काम-धन्धे पर न जाना समझ में तो आता है, किन्तु तुम्हारे सम्बन्ध में यह सत्य नहीं है। यदि सचमुच तुम्हारी तबीयत खराब होती, तो तुमने बाबू जी से कहा होता?”

अरुण की चुप्पी पर संध्या भी कुछ देर के लिए चुप हो गयी और फिर बोली, “मुझे वास्तविकता की जानाकारी है। अरुण भैया, मेरा तुमसे अनुरोध है कि तुम हमारे घर आने की सोचना तक नहीं।”

अरुण धीमे-से बोला, “सिर्फ तुम्हारे घर की नहीं, पूरे गाँव की यह कहानी है, इसीलिए सोचता हूँ की इस गाँव को छोड़कर किसी ऐसे स्थान पर डेरा जमा दूं, जहाँ मनुष्य के साथ मनुष्य-जैसा व्यवहार किया जाता हौ, किसी निर्दोष को अकारण अपमानित न किया जाता हो।”

संध्या ने पूछा, “क्या अपने जन्मस्थान से नाता तोड़ सकोगे?”

“जब जन्मभूमि ही नहीं अपनाना चाहती, तो क्या किया जा सता है? अब तुम ही देखो, मैं तुम्हारी दृष्टि में इतना पतित हो गया कि तुम्हेे अपने मुंह में रखा पान तक थूकना पड़ा। इस प्रकार लोगों की धृणा का पात्र बन जान पर भी क्या जन्मभूमि कहकर किसी स्थान से चिपका रहा जा सकता है?”

संध्या उत्तर न दे पाने के कारण सिर झुकाकर चुप खड़ी रही। अरुण ने कहा, “आचार की पवित्रता के नाम पर यह संस्कार तुम लोगों को उत्तराधिकार में मिले हैं। एक दिन इन धर्मगुरुओं को यह सोचना पड़ेगा कि उनकी इस आचार-व्यवस्था से समाज के दीन-हीन लोगों के दिलों पर क्या बीताती है, उन्हें कितना अधिक परेशान होना पड़ता है?”

कुछ देर तक सोचती संध्या बोली, “समाज के इस व्यवहार के लिए क्या तुम स्वयं भी कुछ रम उत्तरदायी नहीं हो?”

“क्या मालूम, तुम्हारे कथन में कितनी सत्य है? अच्छ संध्या, इसका कोई प्रायश्चित तो होगा! क्या इस बारे में तुम मुझे कुछ बता सकती हौ?”

“प्रायश्चित तो है, किन्तु एक दिन तुम्हें यह सब करने में अपना अपमान लगा था और इससे तुम इसके लिए सहमत नहीं हुए थे। यदि आज तुम्हारा विचार बदल भी गया हो, तो भी तुम्हे इस गाँव मे रहने की सलाह दूंगी।”

अरुण बोला, “किन्तु कहीं भी चले जाने पर तुम्हारी घृणा को भुलाकर सुख-चैन से रह पाना मेरे लिए सम्भव नहीं होगा।”

संध्या बोली, “अपने प्रति मेरे दृष्टिकोण की तुम चिता ही क्यों करते हो?”

“संध्या, क्या यह तुम कह रही हो?”

संध्या बोली, “अरुण भैया, तुमने मुझे अपनी मर्यादा, लज्जा और संकोच आदि की रक्षा ही कहां करने दी है? मैंने कितनी बार संकेतों से तुम्हें जताना चाहा कि हमारा सम्बन्ध नहीं जुड़ सकता। फिर भी, तुम मुझसे कुछ सकारात्मक सुनने की इच्छा से याचक बनकर डटे रहे। मेरे माता-पिता किसी प्रकार राजी हो भी जाएं, किन्तु मैं तो अपने उच्च बाह्मण वंश को मिट्टी में नहीं मिला सकती।”

आश्चर्यचकित अरुण बोला, “क्या मैं ब्राह्मण वंश में उत्पन्न नहीं हुआ हूँ?”

“निस्सेन्देह, तुम भी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हो, किन्तु बिल्ली और सिंह को एक ही पलड़े में तो नहीं रखा जा सकता।”

संध्या ने यह सब कह तो दिया, किन्तु वह अपने कथन के औचित्य पर विचार करने लगी।

अरुण चुप ही नहीं हो गया, अपितु उसने अपनी विस्मित और व्यथित दृष्टि भी संध्या के चेहरे से हटा ली।

संध्या ने बलपूर्वक हंसने की चेष्टा करते हुए कहा, “अरुण भैया, मैं भली प्रकार से जानती हूँ कि मैंने तुम्हारा इतना अधिक अपमान किया है कि वर्षो तक चाहकर भी तुम इसे भुला नहीं सकोगे। मैं तो यहाँ तक कह सकती हूँ कि इतना कठोर कभी किसी ने किसी के प्रति किया ही नही होगा।”

अरुण ने कहा, “छोड़ो इस विवाद को। पहले तुम अपने आने के प्रयोजन के बारे में बताओ?”

संध्या केवल मुस्करा दी और बोली, “संसार में एक से बढ़कर एक आश्चर्य होते देखे जाते हैं।” फिर थोड़ी देर चुप्पी के बाद सहमे स्वर में वह बोली, “अरुण भैया, मेरा सम्मान तुम्हारे हाथ में है। यदि तुमने मेरा कहा न माना, तो मैं कहीं की नहीं रहूंगी।”

अरुण बिना कुछ जाने क्या कहता? वह संध्या के चेहरे पर केवल प्रश्नवाचक दृष्टि से ताकता रहा।

संध्या बोली, “एक कोड़ी के बार ने अपनी विधवा बहू और पोती को अपने घर में निकाल बाहर किया है। मेरे बापू उन दोनों को ले आये थे और मैंने उन्हें अपने पिछवाड़े आश्रय दिया था।”

“कहां।”

“अपनी गौशाला में, किन्तु बाह्मणों का मुहल्ला होने के कारण उन शूद्रों के लिए वहाँ रहना सम्भव नहीं हो पा रहा है।”

“क्यों।”

“यह भी कोई पूछने की बात है? समाज के ठेकेदारों को शूद्रों का दिखना कहां रास आता है? पानी के लिए उन्हें हमारे तालाब पर आना पड़ेगा, फिर वे लोग रास्ते में बकरी को मांड पिलाते है। गोलोक-जैसे ऊंचे ब्राह्मण छींटा पड़ने अथवा छू जाने की आशंका से त्रस्त हैं। उन लोगों के विरोध को देखकर माँ ने उन्हे अपने घर से निकाल देने का विचार बनाया हैष अरुण भैया, तुम उन निराश्रित एवं अभाव-पीडितों को सिर छिपाने के लिए अपना थोडा़-सा स्थान दे दो।”

अरुण बोला, “मंजूर है, किन्तु उन्हें कहां स्थान दिलाना चाहती हो?”

“यह मैं क्या बताऊं? मैं तो केवल इतना जानती हूँ कि तुम्हारे सिवाय मेरा अपना कहलाने वाला दूसरा कोई नहीं।”

थोड़ा सोचकर अरुण बोला, “मेरा उड़िया माली अपने घर गया है। क्या उसकी कोठरी में इनका गुजर-बसर हो सकेगा?”

बिना कुछ उत्तर दिये संध्या ने सिर झुकाकर “क्यों नहीं” का संकेत दिया।

अरुण बोला, “तो ठीक, उन्हें भेज देना, कोठारी खोल दूंगा। माली के आने पर देख लिया जायेगा।”

संध्या चुप रहकर अनपे को संभालने का प्रयास करने लगी। फिर धीरे-से बोली, “इस समय मेरे मुंह में पान नहीं। हाथ-मुंह भी धोकर आयी हूँ। क्या तुम्हे प्रणाम करके तुम्हारी चरणरज ले सकती हूँ?”

कहती हुई संध्या घुटने टेककर अरुण को प्रणाम किया और उसके पैरों की धूलि को सिर पर रखा। इसके बाद बाहर निकली संध्या देखते-ही-देखते अदृश्य हो गयी।

अरुण ने संध्या को वापस बुलाने अथवा उससे कुछ पूछने की कोई चेष्टा नहीं की। उसे अदृश्य होने तक वह टकटकी लगाकर उसे देखता रहा।

प्रकरण 7

एक दिन तालाब से नहाकर घर लौटती जगदधात्री की रहा में अचानक रासमणि से भेंट हो गयी। रासमणि का चेहरा इस प्रकार उदास और बुझा हुआ था, मानो वह अभी-अभी कही से पिटकर आयी हो। समीप आकर आँसू बहाती हुई रासमणि रुंधे कण्ठ से बोली, “जगदधानी रानी, बड़ी भाग्यशाली हो और तुम्हारी लड़की भी लगता है कि पिछले जन्म मे बहुत पुण्य कर्म किये है।”

कुछ समझ पाती और लड़की के उल्लेख से परेशान हुई जगदधात्री बोली, “मौसी, कुछ साफ-साफ बता, तू कहना क्या चाहती है? तुम्हारी यह पहेली-जैसी बातें मेरी समझ से बाहर हैं।”

रासमणि बोली, “जो भाग्य तेरी लड़की लेकर आयी है, उस पर तो सबका ईर्ष्यालु होना स्वाभाविक है। अब तू इन्हीं भीगे कपड़ो और बालों से भगवान को प्रणाम करके कृतज्ञता का प्रदर्शन कर। गणेश, दुर्गा आदि कुलदेवियों का पूजन कर। हाँ, मेरा ईनाम देना न भूल जाना, मैं तो सने की गोट लूंगी, यह बात ध्यान में रख ले।”

हैरान-परेशान जगदधात्री बोली, “बे-सिर-पैर की हांके जाओगी या कुछ साफ-साफ बताओगी भी।”

हंसती हुई रासमणि बोली, “साफ सुनना चाहती है तो ले सुन। तुम माँ-बेटी के पिछले जन्म के पुण्यों का ही यह फल है। कहां तो लड़का मिलने की चिन्ता से दिन-रात घुल रही थी, कहां अब पूरे गाँव पर शासन करेगी।”

सुनकर जगदधात्री आँखें फाडकर रासमणि को देखने लगी। रासमणि अपनी रौ में कहती गयी, “मुझे भी पहले विश्वास नहीं हुआ था. सपना-जैसा लगता था, किन्तु बघाई हो, यह सत्य है।”

जगदधात्री ने कठोर स्वर में कहा, “मौसी, तुमहारी बकबक सुनते-सुनते मैं परेशान हो गयी हूँ। सीधे तोर पर साफ-साफ क्यों नहीं कहती?”

जगदधात्री के हाथ को अपने हाथ में लेकर धीरे-से उसके कान में रासमणि ने कहा, “जगदधात्री, इस बात को अभी अपने तक रखना, हवा न लगने देना। विध्न-बाधा डालने वाले अपना रंग दिखाने पर उतारू हो जाते है। चटर्जी भैया को केवल मुझ पर भरोसा है, इसलिए आज सुबह उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि संध्या की माँ को सूचित कर दे कि उसे लड़की के बारे में चिन्ता करने कोई आवश्यकता नहीं। उसका हाथ थामने के लिए मैं तैयार हूँ। अब वह अपनी टांग-पर-टाग रखकर चैन की नींद सोये। मैंने सोच-विचारकर यह निर्णय लिया है। इससे एक तो ब्राह्मण के वंश-धर्म की रक्षा हो जायेगी और दूसरे, गाँव की लड़की गाँव मे ही रह जायेगी।”

रासमणि की बात पूरी होने से पहले ही जगदधात्री पछाड़ खाकर धरती पर गिर पड़ी।

रासमणि ने पूछा, “क्या हुआ जगदधात्री?”

अपने को संभालकर जगदधात्री बोली, “मौसी, लगता है कि तूने धूप में बाल सफेद किया हैं, नहीं तो गोलोक मामे के मजाक को इतनी गभ्भीरता से न लेती। क्या चार जनों द्वारा उठाया जाने वाला बूढ़ा दूल्हा बनेगा?”

रासमणि बिना झेपे अपनी कहती रही, “बेटी, मर्द की भी कभी आयु देखी जाती है? स्वास्थ्य अच्छा हो तो सत्तर की आयु का मर्द सत्रह वर्ष की छोकरी से विवाह रचाता है। बेटी, मुझे भी पहले यह मजाक लगता था, किन्तु गोलोक न् कभी हलकी बात करता है और न ही झूठ बोलता है। उन्होंने पूरी गंभीरता से यह सब कहा है। मैं तो आशीर्वाद देती हूँ की यह सम्बन्ध स्थिर हो जाये। इसे अपना सौभाग्य समझो बेटी। जाओ, घर आनन्द मनाओ।”

जड़ बनी जगदधात्री चुपचाप खड़ी रही। उसके पैरों के नीचे से मानो धरती खिसक गयी थी।

रासमणि ने जगदधात्री के चेहरे को देखे बिना कहना चारी रखा। वह बोली, “इसी अगहन के महीने में विवाह हो जाना चाहिए, इसके बाद अच्छा लगन नहीं निकलता है। गोलोक भैया की इच्छा है… लड़की बी तो अप्सराओं से बढ़-चढ़कर है, बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों का मन भी डुला सकती है, फिर मुखजी भैया तो एक साधारण मनुष्य ही हैं।”

इसके बाद वह फिर बोली, “बेटी, तू गीले कपड़ों मे काफी देर से खड़ी है। जा, घर जाकर कपड़े बदल, मैं तुम्हारे घर आकर सारी बातें करूगी।”

यह कहकर रासमणि अपने घर को चल दी और जगदधात्री लड़खड़ाते पैरों से अपने घर आ गयी। घर पहुंचकर ठाकुरद्वार के बाहर बैठी वह टप-टप आँसू बहाने लगी।

इकलौती लड़की संध्या जहाँ अपने माँ-बाप की लाडली है, वहाँ रूप-सौन्दर्य और गुण-बुद्धि में भी अप्रतिम है। गोलोक को अपनी लड़की सौंपने की अपेक्षा उसे कुएं धकेल देना अधिक बेहतर समझती है। गोलोक लड़की के नाना की आयु का है। ऐसे बूढ़े से लड़की की ब्याहने से अच्छा तो उसकी हत्या कर देना है। जगदधात्री इस सत्य को भली प्रकार समझती है, किन्तु मुंह से “न” निकालते ही नहीं बनता, क्योंकि कुलीन ब्राह्मण परिवारों में तो यह सब चलता ही है। उसके सामने इस प्रकार के अनेक उदाहरण है, इसलिए वह अत्यधिक व्यथित, चिन्तित और परेशान है। लगातार रो रही है। उसे डर है कि कहीं ऐसी स्थिति न आ जाये कि इस नरपिशाच से पीछा छुड़ाना ही कठिन हो जाये?

एक पत्र को पढ़ती हुई भीतर प्रविष्टहोती संध्या ने आवाज दी, “माँ, कहां हो तुम?”

तुरन्त ही आँसू पोंछकर सामान्य बनने की चेष्टा करती हुई जगदधात्री बोली, “हाँ, कहो बिटिया! क्या बात है।”

“माँ के रुंध गले से चौंकी संध्या ने सपीम आकर धीरे-से सहानुभूति दिखाते हुए पूछा, “मां, क्या हुआ है?”

लड़की के चेहरे से अपना चेहरा हटाती हुई माँ बोली, “कुछ भी तो नहीं?”

माँ के और अधिक समीप आकर अपने आँचल से उसके आँसू पोंछती हुई संध्या ने पूछा, “क्या बाबू जी ने कुछ उल्टा-सीधा कह दिया है?”

जगदधात्री ने कहा, “नहीं तो।”

माँ के कथन पर विश्वास न करती संध्या माँ के समीप बैठ गयी और दार्शनिक शैली में बोली, “माँ, सबको सदैव मनचाहा नहीं मिलता। इसमें दुःख मनाने वाली कोई बात नहीं। एक बात और, जब सब लोग बाबू जू को सनकी कहते हैं, तो तुम भी उन्हें ऐसा समझदार उनके सुने को अनसुना क्यों नहीं कर देती हो?”

जगदधात्री बोली, “लोगों का क्या आता-जाता है? वे जिसे जो समझना-कहना चाहें स्वतंत्र हैं, किन्तु मैं ऐसा समझ भी लूं, तो क्या मुझे उनकी जली-कटी सूनने से मुक्ति मिल जायेगी?”

संध्या आज तक यह नहीं समझ पायी थी कि किसकी जली-कटी को सुनकर सुनने बाले के मन पर क्या बीतती है, उसे कैसी गहरी वेदना झेलनी पड़ती है? आज भी उसकी स्थिति वही थी। अतः संध्या आज भी माँ की बात सुनकर अपने निरीह, सरल, परोपकारी और लोकसेवा के प्रति समर्पित पिता का बचाव करती हुई बोली, “माँ, यदि मेरे वश में होता, तो मैं पिता जी को लेकर ऐसे किसी वन-प्रान्त अथवा पर्वत-प्रदेश में चली जाती, जहाँ पिताजी का ऐसे लोगों से पाला ही न पड़ता।”

लड़की की ठोड़ी को चूमकर जगदधात्री हंसती हुई बोली, “पिता के लिए तेरी यह चिन्ता और भावना सचमुच प्रशंसनीय है, किन्तु मेरे लिए तो उससे आधा स्नेह भी नहीं, मानो मैं तुम्हारी सौतेली माँ हूं।”

“अच्छा तो माँ, क्या तुम समझती हो कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करती?”

“किन्तु पिता के लिए तो तू अपने प्राण न्यौछावर करने को तैयार रहती है, मेरे ऐसा भाग्य कहां? अब इसी एक बात को देख ले, तुझे भली प्रकार से मालूम है कि तुम्हारे बाबू की दवाई से किसी रोग की कोई लाभ नहीं होता, फिर भी, बाबू की दवा के सिवाय औक किसी की दवा को लेने को तैयार नहीं। यहाँ तक कि अपने स्वास्थ्य के उत्तरोत्तर बिगड़ते जाने की भी तुम्हें कोई चिन्ता नहीं है।”

प्यार से माँ के गले में अपने दोनों हाथ डालकर हंसती हुई संध्या बोली, “माँ, यह तो सत्य है। मैं किसी भी दूसरे डॉक्टर को बाबू के समकक्ष मान ही नहीं सकती।”

“मानती हो न कि तुम अपने पिता में असीम भक्ति रखती हो?”

संध्या बोली, “माँ रहने दो, पिताजी के उपचार से मुझे काफी लाभ हुआ है, अब में पहले से काफी ठीक हूँ।” इसके बाद विषय बदलने की गरज से संध्या बोली, “माँ, दूले की बहू चली गयी। यह अच्छा ही हुआ कि इस आफत से छुटकारा मिला। क्यों. ठीक है न मां।”

आश्चर्य प्रकट करती हुई माँ ने पूछा. “कबी गयी?”

“ठीक से मालूम नहीं, शायद सवेरा होते ही चली गयी है।”

संध्या के भोलेपन का अभिनय माँ को छल न सका। उसने पूछा. “तुझे तो यह मालूम ही होगा कि वह कहां गयी है।”

संध्या ने उदासीनता और बेपरवाही से कहा, “शायद अरुण भैया ने उसे अपनी कोठी के पीछे बाग में जगह दे दी है। वहाँ उड़िया माली की एक कोठरी खाली पड़ी थी, वही उसे दे दी गयी है।”

माँ ने पूछा. “अरुण के पास तूने उसे भेजा होगा?”

संध्या मन-ही-मन इस उलझन से मुक्त होने का उपाय सोचने लगी। असत्य का आश्रय लेती हुई वह बोली, “अरुण भैया के पास मैं किसी को क्यों भेजने लगी? इस बारे में मुझे कुछ भी मालूम नहीं।”

इसके बाद इस विषय की चर्चा से माँ का ध्यान हटाने की नीयत से संध्या ने अपने हाथ में थामा पत्र माँ के सामने रख दिया और बोली, “असल बात जो तुम्हें बतानी थी, वह तो बतायी नहीं। मेर संन्यासिनी दादी की यह पत्र आया है। वह कभी झूठ नहीं बोलती। इससे लगता कि वह यहाँ साथ रहने के लिए आ रही है।”

जगदधात्री ने पूछा, “सासू माँ का पत्र है क्या? कब आ रही हैं वही?”

यही सासू माँ काशी छोड़कर एक दिन के लिए इधर आने को कभी सहमत नहीं हुई थीं। जगदधात्री ने इकलौती बेटी संध्या के विवाह में सम्मिलित होने के लिए बहुत अनुनय विनय की थी। सास कन्यादान का पुण्य लेने को तो सहमत नहीं हुई थी, किन्तु उसने विवाह में सम्मिलित होने का अनुरोध मान लिया था।

अपने विवाह के उल्लेख से शर्माती हुई संध्या बोली, “माँ, अपने पत्र के उत्तर को स्वयं पढ़ लो न?”

इसी के साथ पत्र माँ के हाथ में देकर संध्या बोली, “माँ, अभी तक तुमने गीली धोती ही पहन रखी है। मैं अभी तुम्हारे सुखे वस्त्र लायी।” कहती हुई संध्या तेजी से चली गयी।

पत्र को माथे ले लगाकर जगदधात्री अपने से बोली, “माँ बहुत दिनों के बाद तुम्हारा चित द्रवित हुआ है।”

करती हुई धीरे-से ठाकुरद्वारे की ओर चल दी। इसी बीच प्रियनाथ ऊंचे स्वर में चिल्लाते हुए घर में प्रविष्ट हुए। वह बोले जा रहे थे, “दो दिन देखने नहीं जा पाया तो “हाईकोपाड्रिया” ने जोर पकड़ लिया।”

जगदधात्री की अपने पति से प्रायः बातचीत होती ही नहीं थी, किन्तु आज अचानक बारह बजे उनके घर आ जाने और बड़बड़ाने पर उसने पूछ ही लिया, “किसे क्या हो गया है?”

प्रियनाथ बोले, “अरुण को हाइकोपाड्रिया हो गया है। मेरी जाचं-परख में मीन-मेख निकालना किसी के बाप के भी बस में नहीं है। विपिन तो इस रागवाचक शब्द के अर्थ तक को नहीं जानता होगा।”

अरुण का नाम इस चर्चा से न जुड़ा होता, तो जगदधात्री इस बातचीत में रुचि न दिखाती, किन्तु अब स्थिति भिन्न थी। उसने उत्सुक होकर पूछा, “क्या हुआ अरुण को?”

प्रियनाथ के कहा, “अभी तो सब बताया है, किन्तु इस शब्द के अर्थ को जब ठीक से अरुण ही नहीं समझ सका, तो तुम लोग क्या समझोगे? विपिन थोड़ी-बहुत प्रैक्टिस तो करता है, फिर भी, इस रोग के बारे में वह कुछ नही जानता। सब लोग अपना माल-असबाबा बांध रहे थे, जमीन-जायदाद बेचकर इस स्थान को छोड़कर किसी दूसरे स्थान पर जाने की तैयारी चल रही थी। हारान कुण्डू को सूचना दे दी गयी थी कि संयोगवश मैं वहाँ पहुंच गया। अब क्या करुं, जहाँ एक दिन जाना नहीं हों पाता, वही कि स्थिति बिगड़ जाती है। मैं अकेला आदमी ठहरा, जाऊं भी, तो कहां-कहां जाऊं? अरी संध्या बेटी, जरा, “मेडिका-मेटेरिया” पुस्तक तो ला दे, ताकि अरुण के लिए दवाई का चुनाव कर लूं?”

पिता की आवाज को सुनकर एक मोट-सी पुस्तक को हाथ में लिए संध्या बोली, “आयी पिताजी।”

जगदधात्री व्याकुल होकर अपने पति से बोली, “ठीक से बताओ, अरुण को क्या हुआ है?”

चौंककर प्रियबाबू बोले, “बताया तो है, वह मनोरोग से ग्रस्त हो गया है। अपना सारा सामान हारन कुण्डू को कौड़ियों के दाम बेचकर आज ही यहाँ से कूच करना चाहता है? यह सब मेरे होते कैसे सम्भव है? दो सौ पावर की एक बूद…।”

सुनकर संध्या का चेहरा बुझ गया। जगदधात्री व्याकुल कण्ठ से बोली, “सारी सम्पत्ति बेचकर गाँव को छोडने की बात करना तो पागलपन का लक्षण है।”

हाथ के संकेत से प्रियनाथ ने कहा, “इसे पूरे तौर पर पूरा पागलपन नहीं कहा जा सकता। पागलपन को इन्सेनिटी कहते हैं और उसकी ओषधि अलग है। हाँ, विपिन के लिए इस अन्तर को समझाना अवश्य सहज नहीं।”

लड़की की ओर देखने के बाद पति को घूरती हुई जगदधात्री दृढ़ स्वर में बोली, “मुझे तुम्हारी बेकार की बातों को सुने में कोई रुचि नहीं। सीधे-सीधे यह बताओ कि क्या अरुण ने गाँव छोड़ने का मन बना लिया है?”

“ऐसा था और इस दिशा में तैयारी चल रही थी, किन्तु…।”

“क्या हारान कुण्डू से सारी सम्पति खऱीदने की बातचीत कर ली गयी है?”

“हाँ, उस पाजी के तो पौ बारह हो रहे है, किन्तु मैं…।”

“अच्छा, क्या इस तथ्य की जानकारी गाँव के अन्य लोगों को भी है?”

“मेरे सिवाय किसी भी अन्य व्यक्ति को कुछ मालूम नहीं।”

“क्या तुम मेरा एक काम करने की कृपा करोगे? अरुण को केवल यह कहना है कि तुझे चाची ने इसी समय घर पर बुलाया है।”

संध्या चुपचाप खड़ी सब सुन रही थी, उसने एक भी शब्द मुंह से नहीं बोला था। जगदधात्री की दृष्टि उस पर गयी, तो वह यह देखकर चकित हो गयी कि लड़की का चेहरा उतर गया है। उसके होंठ कांप रहे हैं और उसका अंग-अंग शिथिल हो गया है, फिर भी, वह संभलकर दृढ़ स्वर में बोली “माँ, उन्हें यहा बुलाकर क्या एक बार फिर अपमानित करना चाहती हो? उन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, जिसका दण्ड तुम उन्हें देना चाहती हो?”

चकित हुई माँ ने पूछा, “संध्या, यहाँ अपमान किये जाने की बात कहां से आ गयी?”

संध्या बोली, “माँ, मैं नहीं चाहती कि तुम उन्हें अपने इस घर में बुलाओ।”

जगदधात्री ने कहा, “क्या घर में बुलाकर सुख-दुःख बांटना भी कोई अपराध है?”

संध्या बोली, “माँ, उनके सुख-दुःख से हमें क्या लेना-देना? वह चाहे इस गाँव में रहे या यहाँ से चले जायें, हमें इससे क्या अंतर पड़ता है। तुम उनके बारे में इतनी परेशान क्यों हो रही हो? फिर पिता की और उन्मुख होकर वह बोली, “पिताजी, आपको उन्हें बुलाने के लिए जाने की कोई आवश्यकता नहीं।” इसके बाद वह माँ से दृढ़ शब्दों में बोली, “यदि तुमने हठ नहीं छोड़ा, तो मैं उनके आने से पहले ही तालाब में डूब मरूंगी।”

यह कहती हुई संध्या माँ के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही वहाँ से दूर चली गयी।

चिन्तित-विस्मत होने से जड़ बनी जगदधात्री वहीं खड़ी रही। प्रियनाथ उच्च स्वर में बोले, “बेटी, पुस्तक दे जाती, तो औषधि ढूंढ़ लेता।”

संध्या न लौटकर पुस्तक ला दी और प्रियनाथ पुस्तक में से दवा ढूंढ़ने में व्यस्त हो गये।

कुछ देर की चुप्पी के बाद जगदधात्री अपने पति से बोली, “क्या तुमने लड़की को कुंआरी रखने की ठान ली है?”

“ऐसी बात क्यों कहती हो? उसका विवाह होगा और अवश्य होगा।”

“आखिर कब होगा? जब बूढ़ी हो जायेगी, तब?”

प्रियनाथ “हूँ” करके रह गये।

“एक दिन रसिकपुर क्यो नहीं चले जाते?”

विशिष्ट दवा पर अंगुली रखकर प्रियनाथ ने पूछा, “क्या वहाँ किसी को कोई कष्ट है? क्या किसी ने सन्देश देकर बुलाया है।”

ठण्डी सांस छोड़कर बोली, “जयराम मुखर्जी के नाती के साथ बात चल रही थी न। जाकर एक बार लड़के को देख तो आओ।”

प्रियनाथ बोले, “जाना चाहूं तो, तो कब जाऊं? एक समय भी यहाँ मेरे न रहेने पर लोग किनते अधिक परेशान हो जाते है? अरुण का हाल तो तुम्हें मालूम है, चटर्जी का आदमी भी उसकी साली की जाचं के लिए बुला गया है।”

जगदधात्री ने आश्चर्य से पूछा, “ज्ञानदा को क्या हो गया है?”

प्रियनाथ बोले, “खान-पान की बदपरहेजी से अपच हो गया लगता है, इससे उसका जी मचलाता है। अरुण के पास से लौटता हुआ ज्ञानदा को देखता आऊंगा।”

जगदधात्री बोली, “चटर्जी के यहाँ डॉक्टरों की कोई कमी नहीं है। तुम अपने कर्तव्य-कर्म को महत्व दो। रसिकपुर जाकर एक बार लड़के को देख आओ, फिर जो मन में आये, वह करते रहो।”

पत्नी की विह्वलता से द्रवित प्रियनाथ थोड़ा होश मे आये और धीमे-से बोले, “देखना क्या है, सुना है लड़का एकदम आवारा है।”

जगदधात्री आँसू टपकाते हुए बोली, “नशा करता है, तो क्या आवारागर्दी करता है, तो क्या उससे विवाह करते लड़की सुहागिन तो बन जायेगी। जब मेरे माँ-बाप ने तुम-जैसे आदमी के हाथ सौंपने में क्या आपति है? कहती हुई वह अपने आँचल से आँसू पोंछकर बाहर को चल दी।”

प्रियनाथ कुछ देर तक जड़ बने बैठे रहे, फिर सांस छोड़कर अपने से बोले, दो-दो रोगियों की चिकित्सा करनी है। इस तनाव की स्थिति में कही औषधि का चुनाव करना सम्भव है? कहकर उन्होंने पुस्तक को बगल में दवाया और बाहर की राह ली।

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