पथ के दावेदार (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 9

पथ के दावेदार (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 9

अध्याय 9

भारती प्रसन्नता भरे स्वर में पुकार उठी, “शशि बाबू, हम लोग आ गए। खिलाने-पिलाने का इंतजाम कीजिए। नवतारा कहां है? नवतारा!….नवतारा….!!”

शशि बोले, “आइए, नवतारा यहां नहीं है।”

डॉक्टर ने मुस्कराते हुए पूछा, “गृह गृहिणी शून्य क्यों है कवि? उसे बुलाओ। आकर हम लोगों का स्वागत करके अंदर ले जाए। नहीं तो हम यहीं खड़े रहेंगे। शायद भोजन भी नहीं करेंगे।”

शशि बोले, “नवतारा नहीं है डॉक्टर, वह सब घूमने गए हैं।”

उसका चेहरा देखकर भारती डर गई। उसने पूछा, “वह घूमने चली गई? आज के दिन? कैसी अद्भुत समझ है?”

शशि बोले, “विवाह हो जाने के बाद वह लोग रंगून घूमने गए हैं।”

“अपने पति को छोड़कर किसके साथ घूमने गई है?” भारती ने पूछा।

“नहीं, नहीं मेरे साथ विवाह नहीं हुआ। वह जो अहमद नाम का आदमी है, गोरा-गोरा-सा, देखने में सुंदर, कूट साहब की मिल का टाइम कीपर….आपने उसे देखा नहीं है। आज दोपहर को उसी के साथ नवतारा का विवाह हो गया था। उनका सब कुछ पहले से ही ठीक था। मुझे बताया ही नहीं।”

वे दोनों आश्चर्य से आंखें फाड़े देखते रह गए।

शशि उठकर कमरे के एक कोने से कपड़े का एक थैला उठा लाया और डॉक्टर के पैरों के पास रखते हुए बोला, रुपए तो मुझे मिल गए डॉक्टर। नवतारा को पांच हजार देने के लिए कहा था सो मैंने वह रुपए उसे दे दिए। बाकी बचे हैं साढ़े चार हजार। मैंने ले लिए लेकिन…..

डॉक्टर ने पूछा, “यह रुपए क्या मुझे दे रहे हो?”

शशि बोले, “हां, मैं क्या करूंगा? आपके काम आ जाएंगे।”

भारती ने पूछा, “लेकिन उसे कब रुपए दे दिए?”

शशि ने कहा, “कल रुपए पाते ही उसे दे आया था।”

“उसने ले लिए थे?”

शशि ने कहा, “हां, अहमद को तो कुल तीस रुपए तनख्वाह मिलती है। वह एक मकान खरीदेगी।”

“जरूर खरीदेगी।” यह कहकर डॉक्टर हंसते हुए मुड़कर देखा, आंखों पर आंचल रखे भारती बरामदे के एक ओर हटती जाती है।

शशि ने कहा, “प्रेसीडेंट ने आपसे एक बार भेंट करने को कहा है। वह सरावाया जा रही हैं।”

डॉक्टर ने पूछा, “कब जाएंगी?”

शशि ने कहा, “जल्दी ही। लिवा जाने को एक आदमी आया है।”

भारती ने लौटकर पूछा, “सुमित्रा जीजी क्या सचमुच ही चली जाने को कहती थीं शशि बाबू?”

शशि बोले, “हां सचमुच ही। उनकी मां के चाचा के पास अगाध सम्पत्ति थी। हाल ही में उनकी मृत्यु हुई है। इनके अलावा और कोई उत्तराधिकारी नहीं है। उसके बिना काम नहीं चलेगा।”

डॉक्टर बोले, “काम नहीं चलेगा? ….तब तो जरूर जाएगी।”

शशि ने भारती की ओर मुड़कर कहा, “खाने को सामान बहुत पड़ा है। कुछ खाइएगा?”

भारती से पहले ही डॉक्टर बोल उठे, “जरूर…चलो क्या है देखूं,” यह कहकर वह उसे अंदर ले गए।

शशि ने अंदर जाते हुए कहा, “और एक सूचना है डॉक्टर, अपूर्व बाबू लौट आए हैं।”

डॉक्टर आश्चर्य से बोले, “यह क्या कहते हो शशि? किससे सुना?”

शशि ने कहा, “कल बंगाल बैंक में अचानक भेंट हो गई थी। उनकी मां बीमार हैं।”

शशि ने बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कहा था। कमरे में पहुंचते ही देखा-खाने-पीने की ढेर सारी चीजें रखी थीं। कमरे का दक्षिणी भाग एकदम ठसा-ठस भरा हुआ है।

डॉक्टर का उल्लास सहसा कहकहा बनकर फट पड़ा, “ह:, ह:, ह:, ह:-गृहस्थ का जय-जयकार हो। शशि! कवि! ह: ह: ह: ह:।”

भारती और न सह सकी। मुंह फेरकर सजल आंखों से नाराजगी के साथ देखती हुई बोली, “भैया, क्या तुम्हारे मन में जरा भी दया-माया नहीं? क्या कर रहे हो बताओ तो?”

“वाह! जिनकी कृपा से अच्छी-अच्छी चीजें आज पेट भरकर खाऊंगा उनको थोड़ा-सा आशीर्वाद, वाह, ह: ह: ह: ह:।”

भारती रूठकर बरामदे में चली गई। दो-तीन मिनट बीतने पर शशि जाकर उसे लौटा लाया तो उसने प्लेट में मांस, फल-फूल, पुलाव, मिठाई आदि सजाकर डॉक्टर के सामने रख दिए और बनावटी नाराजगी से बोली, “लो, अब दांत निकालकर राक्षस की तरह खाओ। हंसी तो बंद हो जाए। नहीं तो मुहल्ले वालों की नींद टूट जाएगी।”

डॉक्टर ने एक सांस खींचकर कहा, “अहा, कैसा बढ़िया भोजन है। इसका तो स्वाद-गंध तक मैं भूल गया हूं।”

यह बात भारती के हृदय में जाकर बिंध गई। उसे उस रात का सूखा भात और जली मछली याद आ गई।

डॉक्टर ने भोजन शुरू करते हुए कहा, “कवि को नहीं दिया भारती?”

“ला रही हूं,” कहकर उसने प्लेट में भोजन सजाकर शशि के सामने रख दिया और डॉक्टर के सामने बैठकर बोली, “लेकिन सब खा लेना पड़ेगा भैया। फेंक नहीं सकते।”

“नहीं, लेकिन तुम नहीं खाओगी?”

“मैं? कोई भी स्त्री यह सब खा सकती है? तुम्हीं बताओ?”

“भोजन तो ऐसा पकाया है मानो अमृत।”

“इससे अच्छा अमृत बनाकर तो मैं रोजाना खिला सकती हूं भैया।”

डॉक्टर ने अपना बायां हाथ माथे से लगाकर कहा, “क्या करोगी बहिन, भाग्य की बात है। जिसको खिलाना चाहिए वह यह सब खाता ही नहीं है। जो खाएगा उसे एक दिन से अधिक दो दिन खिलाने की चेष्टा करने से ही तुम्हारा सुयश पूरे देश में फैल जाएगा।”

इस बार भारती हंस पड़ी। लेकिन तुरंत स्वयं को संभालकर लज्जित होकर बोली, “तुम्हारी दुष्टता की ज्वाला से हंसी रोकी नहीं जा सकती। लेकिन यह तो तुम्हारा भारी अन्याय है। पेट भर खा-पी चुकने के बाद रुपयों की थैली भी लेकर चले जाओगे क्या?”

डॉक्टर मुंह कौर निगलते हुए बोले, “जरूर, जरूर-आधे रुपए तो चले गए नवतारा के मकान बनाने के खाते में। शेष क्या अहमद अब्दुल्ला साहब की गाड़ी खरीदने के लिए छोड़ जाऊं? तमाशे को सर्वांग सुंदर बनाने के लिए तुमने कोई बुरी राय नहीं दी भारती। ह: ह: ह:।”

भारती बोली, “भैया तुमको हंसी-मजाक करते हुए मैंने पहले भी देखा है लेकिन इस तरह पागलों की तरह हंसते हुए तो मैंने कभी नहीं देखा।”

डॉक्टर उत्तर देने जा रहे थे लेकिन भारती के चेहरे को देखकर कुछ भी न कह सके।

भारती ने कहा, “स्त्री-पुरुष का प्रेम क्या तुम्हारी तरह सभी के लिए उपहास की वस्तु है भैया, या ताश के छक्के-पंजे की हार की तरह इसको भी हार-जीत में कहकहे लगाने के अलावा और कुछ करने के लिए शेष नहीं रह गया है? स्वतंत्रता-परतंत्रता के अतिरिक्त मनुष्य को व्यथित करने वाली कोई और भी चीज इस संसार में मौजूद है। इस बात को क्या तुम कभी सोचोगे भी नहीं? शशि बाबू की ओर देखो। एक ही पहर में इनकी कैसी हालत हो गई है। अपूर्व बाबू जिस दिन गए थे उस दिन भी तुम शायद इसी तरह हंस पड़े थे।”

“नही, नहीं, वह तो हुआ….।”

भारती बीच में ही रोककर बोली, “नहीं, नहीं। यह कैसे कहते हो भैया? शशि बाबू तुम्हारे स्नेह के पात्र हैं। तुम यह सोचकर खुश हो उठे कि उनको भोला-भाला पाकर नवतारा बहुत दु:ख देती। भविष्य में उस दु:ख में पड़ने से वह बच गए। लेकिन क्या भविष्य ही सब कुछ है मनुष्य के लिए? आज का यह एक ही दिन जो व्यथा के भार से उसके सारे भविष्य को लांघ गया, यह बात तुम किस तरह जानोगे! तुमने तो कभी किसी को प्यार किया ही नहीं।”

शशि ने किसी प्रकार कहना चाहा कि “यह दोष मेरा ही है। मेरी ही भूल है। सांसारिक बुध्दि न रहने से ही….।”

भारती व्यग्र स्वर में बोल उठी, “लज्जा करने की कौन-सी बात है शशि बाबू? यह भूल क्या संसार में अकेले आपने ही की है? आपसे सौगुनी भूल क्या मैंने नहीं की? और उससे भी हजार गुनी भूल करके जो अभागिन चुपचाप चिरकाल के लिए इस देश को छोड़ने के लिए तैयार हुई है, उसे क्या डॉक्टर नहीं पहचानते?”

डॉक्टर ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। लेकिन भारती ने उसकी परवाह नहीं की। कहने लगी, “सांसारिक बुध्दि आप में कम है। मुझमें कम नहीं थी? सुमित्रा जीजी की बुध्दि की तो तुलना नहीं की जा सकती फिर भी वह किसी के काम न आ सकीं। वह पराजित हो गईं तुम्हारी बुध्दि के सामने जो चिरकाल से अजेय है। जिसके मार्ग को कभी बाधा नहीं मिली, वह जो तुम्हारे पाषाण द्वार पर पछाड़ खाकर चूर-चूर हो गया। अंदर जाने का जरा-सा मार्ग उसे नहीं मिला।”

डॉक्टर ने इस अभियोग का उत्तर नहीं दिया। केवल उसके चेहरे की ओर देखकर जरा-सा हंस पड़े।

भारती ने कहा, “शशि बाबू, मैंने आपके प्रति बड़ा अपराध किया है। उसके लिए क्षमा चाहती हूं…..!”

शशि समझ न सका। लेकिन कुंठित हो उठा।

भारती पल भर चुप रहकर कहने लगी, “एक दिन भैया से मैंने आपके बारे में कहा था-कोई भी स्त्री आपको कभी प्यार नहीं कर सकती। उस दिन मैंने आपको पहचाना नहीं था। आज ऐसा लग रहा है कि जिसने अपूर्व बाबू को प्यार किया था वह अगर आपको पा जाती तो धन्य हो जाती। सभी आपकी उपेक्षा करते आए हैं। केवल एक व्यक्ति ने नहीं की। और वह हैं यही डॉक्टर। मनुष्य को पहचानने में इनसे गलती नहीं होती। इसलिए उस दिन दु:खी होकर इन्होंने मुझसे कहा था, “काश, शशि किसी दूसरी स्त्री को प्यार करता। लेकिन तुम मुझसे यह कभी नहीं कह सके कि भारती, इतनी बड़ी गलती तुम मत करो। पुरुष के दो आदर्श-तुम दोनों मेरे सामने बैठे हो। आज मेरी अरुचि की कोई सीमा ही नहीं है।”

डॉक्टर ने पूछा, “अपूर्व ने क्या कहा शशि?”

भारती ने उत्तर दिया, “मां बीमार है। इलाज कराना जरूरी है। लेकिन रुपए पास नहीं हैं। लौटकर छिपे ढंग से गुलामी करने पर कोई जान नहीं सकेगा। डर है तलवलकर का, और ब्रजेन्द्र का। लेकिन उसके काका हैं पुलिस कर्मचारी। इसलिए कोई व्यवस्था अवश्य ही हो गई होगी। भैया, मुझे और तुम्हें भी शायद छुटकारा नहीं मिलेगा। क्षुद्र, लोभी, संकीर्ण हृदय, डरपोक, छि:….।”

डॉक्टर मुस्कराकर बोले, “सच्चा प्यार करने पर इस तरह बदनाम नहीं किया जा सकता। कवि, अब तुम्हारी बारी है। सरस्वती का स्मरण करके अब तुम भी नवतारा के गुणों का कीर्तन करना आरम्भ कर दो।”

“भैया, तुमने मेरा तिरस्कार किया?”

“शायद ऐसी ही बात हो।”

अभिमान, व्यथा और क्रोध से भारती का चेहरा लाल हो उठा। बोली, “तुम कभी मुझे ऐसी कटूक्ति न सुना सकोगे। तुमने क्या यह सोचा है कि सभी शशि बाबू की तरह मुंह बंद करके सह सकते हैं। तुम क्या जानते हो कि मनुष्य की क्या दशा हो जाती है।” उत्तेजित वेदना से उसका गला रुंधा गया। बोली, “वह लौट आए हैं। अब तुम मुझे यहां से किसी दूसरी जगह ले चलो भैया। मैं भी किस अभागे के चरणों में अपना सर्वस्व विसर्जित करके बैठी हुई हूं….”कहते-कहते वह फर्श पर माथा रखकर बच्चे की तरह रोने लगी।

डॉक्टर मुस्कराते हुए चुपचाप भोजन करने लगे। उनका निर्विकार भाव देखकर यह पता न चल सका कि इन सब प्रणय-उच्छवासों ने इनको लेशमात्र भी विचलित किया है। पांच-सात मिनट के बाद भारती उठकर पास वाले कमरे में चली गई और आंख-मुंह अच्छी तरह धो-पोंछकर यथास्थान आकर बैठ गई।

उसने पूछा, ‘भैया, तुम लोगों को कुछ और दूं?”

डॉक्टर ने जेब से रूमाल निकालकर कहा, “ब्राह्मण का लड़का हूं। कुछ छन्ना बांध दो जिससे दो दिन निश्चिंत रह सकूं।”

मैला रूमाल लौटाकर भारती ने एक धुला हुआ तौलिया निकाला और खाने की तरह-तरह की चीजों की एक पोटली बांधकर डॉक्टर के सामने रखते हुए कहा, “यह है ब्राह्मण के लड़के का छन्ना और रुपयों की थैली।”

डॉक्टर ने हंसते हुए कहा, “यह हुई ब्राह्मण की भोजन-दक्षिणा।”

भारती बोली, “अर्थात् तुच्छ विवाहोत्सव के सिवा सभी असली आवश्यक कार्य निर्विघ्न समाप्त हो गए।”

हंसी रोककर डॉक्टर बोले, “यह मेरे लिए भगवान का कैसा अभिशाप है भारती कि ज्यों ही हंसी आने लगती है, मेरे मुंह से ठहाकों के सिवा और कुछ नहीं निकलता। ठहाकों जैसा रोना रोने के लिए तुम्हें साथ न लाया होता तो आज मुंह दिखाना कठिन हो जाता।”

“भैया, फिर मुझे परेशान करने लगे?”

“परेशान कर रहा हूं या कृतज्ञता प्रकट कर रहा हूं।”

भारती ने रूठकर मुंह दूसरी ओर फेर लिया।

शशि चुप था। अचानक अत्यंत गम्भीरता के साथ बोला, “अगर नाराज न हो तो एक बात कह सकता हूं? कुछ लोगों को संदेह है कि आपके साथ ही एक दिन भारती का विवाह होगा।”

डॉक्टर पलभर के लिए चौंक उठे, “यह क्या कहते हो शशि? तुम्हारे मुंह पर फूल-चंदन पड़े- ऐसा सुदिन इतने बड़े अभागे के भाग्य में आएगा? यह तो सपनों से भी परे की बात है कवि।”

शशि बोला, “लेकिन बहुत से लोग यही सोचते हैं।”

डॉक्टर ने कहा, ‘हाय, हाय! बहुत न सोचते, अगर एक ही व्यक्ति पलभर के लिए यह सोचता….।”

भारती हंसकर बोली, “अभागे का भाग्य तो पलभर में बदल सकता है भैया। तुम आज्ञा देकर यदि कह दो-भारती, कल ही तुम्हें मुझसे ब्याह करना होगा-तो मैं तुम्हारी शपथ लेकर कहती हूं कि एक दिन भी ठहरने को नहीं कहूंगी।”

डॉक्टर बोले, “लेकिन बेचारा अपूर्व, जो प्राणों का मोह छोड़कर लौट आया है, उसका क्या होगा।”

भारती बोली, “उसकी भावी पत्नी के रूप में किसी की कन्या देश में मौजूद है-उनके लिए चिंता मत करो। वह छाती फाड़कर नहीं मर जाएंगे।”

डॉक्टर गम्भीर होकर बोले, “लेकिन मुझसे विवाह करने के लिए राजी हो रही हो? तुम्हारा भरोसा तो कम नहीं है भारती।”

भारती ने कहा, “तुम्हारे हाथ पडूंगी, इसमें फिर डर कैसा?”

डॉक्टर ने शशि की ओर देखते हुए कहा, “सुन लो कवि! भविष्य में अगर इन्कार करे तो तुम्हें गवाही देनी होगी।”

भारती बोली, “किसी को गवाही नहीं देनी पड़ेगी भैया। मैं शपथ लेकर इन्कार नहीं करूंगी। केवल तुम्हारी स्वीकृति से काम बन जाएगा।”

डॉक्टर ने कहा, “अच्छा, तब देख लूंगा।’

“देख लेना”, भारती हंसकर बोली, “भैया, क्या मैं और सुमित्रा! स्वर्ग के इंद्रदेव भी अगर उर्वशी, मेनका और रम्भा को बुलाकर कहते कि उस प्राचीन युग के ऋषि-मुनियों के बदले तुम्हें इस युग के सव्यसाची की तपस्या भंग करनी होगी तो मैं निश्चित रूप से कहती हूं भैया कि उन्हें मुंह पर स्याही पोतकर वापस चले जाना पड़ता। रक्त-मांस का हृदय जीता जा सकता है लेकिन पत्थर के साथ क्या लड़ाई चल सकती है? पराधीनता के आग में जलकर तुम्हारा हृदय पत्थर बन गया है।”

डॉक्टर मुस्कराने लगे। भारती की दोनों आंखें श्रध्दा और स्नेह से भर आईं। बोली, “इतना विश्वास न रहने पर क्या मैं इस तरह तुम्हारे सामने आत्म-समर्पण कर सकती थी? मैं नवतारा नहीं हूं। मैं जानती हूं कि मुझसे बड़ी भारी गलती हो गई है। लेकिन इस जीवन में उसके सुधार का कोई दूसरा मार्ग भी नहीं है। एक दिन के लिए भी जिसे मन-ही-मन…..?”

भारती की आंखों से फिर आंसू बहने लगे। झटपट हाथ से उन्हें पोंछकर हंसने की चेष्टा करती हुई बोली, “भैया, क्या लौटने का समय अभी नहीं हुआ? भाटा आने में अभी कितनी देर है?”

डॉक्टर ने दीवार घड़ी की ओर देखकर कहा, “अभी देर है बहिन?’ फिर दायां हाथ भारती के सिर पर रखते हुए कहा, “आश्चर्य है, इतनी दुर्दशा में भी बंगाल का यह अमूल्य रत्न अब तक नष्ट नहीं हुआ! जाने दो नवतारों को। भारती तो हम लोगों की है। शशि सारी पृथ्वी पर इसकी जोड़ी नहीं मिलेगी। हजारों सव्यसाचियों में भी शक्ति नहीं है कि एक तुच्छ अपूर्व को ओट करके खड़े हो जाए। अच्छी बात है शशि, तुम्हारी शराब की बोतल कहां है?”

शशि लज्जित होकर बोला, “खरीदी नहीं। मैं अब नहीं पीऊंगा।”

भारती बोली, “तुम्हें याद नहीं, नवतारा ने प्रतिज्ञा कराई थी।”

शशि ने उसकी बात का समर्थन करते हुए कहा, “सचमुच ही नवतारा के सामने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं अब शराब नहीं पीऊंगा। उस प्रतिज्ञा को अब नहीं तोडूंगा डॉक्टर।”

डॉक्टर हंसकर बोले, “शराब गई, नवतारा गई। सर्वस्व बेचकर जो रुपए मिले थे वह भी चले गए। एक साथ इतना कैसे सहा जाएगा?”

शशि का चेहरा देखकर भारती को दु:ख हुआ। बोली, “मजाक करना सहज है भैया। सोचकर तो देखो।”

डॉक्टर बोले, “सोच-विचार करके ही कह रहा हूं भारती।” इन रुपयों पर शशि की कितनी आशा-आकांक्षाएं थीं, यह बात मुझसे अधिक कोई नहीं जानता। उसके परिचितों में ऐसा भी कोई नहीं है जिसने यह बात न सुनी हो। उसके बाद आई नवतारा। छ:-सात महीने तक थी। उसका ज्ञान-ध्यान था। और शराब-वह तो शशि के सुख-दु:ख की एकमात्र संगिनी है। कल सब कुछ था। लेकिन आज उसके जीवन का जो कुछ आनंद था, जो कुछ सांत्वना थी, वह सब एक ही दिन में एकाएक जैसे षडयंत्र करके उसे छोड़कर चली गई। फिर भी किसी के विरुध्द उसके मन में कोई विद्वेष नहीं। शिकायत नहीं, यहां तक कि आकाश की ओर देखकर एक बार भी आंसू भरी आंखों से यह न कह सका कि हे भगवान, मैंने किसी का अनिष्ट चिंतन नहीं किया। अगर भगवान वास्तव में हो तो इसका विचार करना।”

भारती लम्बी सांस लेकर बोली, “इसीलिए इन पर तुम्हारा इतना स्नेह है?”

डॉक्टर बोले, “केवल स्नेह ही नहीं श्रध्दा भी है। शशि साधु पुरुष है। इसका संपूर्ण हृदय गंगा जल के समान शुद्व और निर्मल है। मेरे जाने के बाद भारती, जरा इसकी देखभाल रखना। यह स्वयं दु:ख भोगेगा लेकिन किसी दूसरे को दु:ख नहीं देगा।

शशि का चेहरा लज्जा और संकोच से लाल हो उठा। इसके बाद कुछ देर तक शायद बात के अभाव से ही तीनों चुप बैठे रहे।

डॉक्टर ने पूछा, “अब तुम क्या करोगे कवि? तुम्हारे पास तो केवल बेहला ही बचा है। पहले की तरह फिर देश-देश में बजाते फिरोगे?”

शशि ने हंसते हुए कहा, “अपने काम में आप मुझे भर्ती कर लीजिए। मैं सचमुच अब शराब नहीं पीऊंगा।”

उसकी बात और कहने का अंदाज देखकर भारती हंस पड़ी।

डॉक्टर भी हंसने लगे। फिर स्नेह से भीगे स्वर में बोले, “नहीं कवि, इसमें तुम्हें भर्ती होने की आवश्यकता नहीं है। तुम मेरी इस बहिन के पास रहो, इसी में मेरा बहुत काम हो जाएगा।”

शशि ने पलभर मौन रहकर संकोच के साथ कहा, “पहले मैं कविता लिखा करता था डॉक्टर, शायद अब भी लिख सकता हूं।”

डॉक्टर ने खुश होकर कहा, “इसमें मेरा बहुत काम बन जाएगा।”

“मैं फिर आरम्भ करूंगा। अब केवल किसान-मजदूरों के लिए लिखूंगा।”

“लेकिन वह लोग तो पढ़ना जानते नहीं कवि?”

फिर बोले, ‘यह काम अस्वाभाविक होगा। और कोई भी अस्वाभाविक चीज टिकती नहीं है। अनपढ़ों के लिए अन्य क्षेत्र खोला जा सकता है। क्योंकि उन्हें भूख का ज्ञान है। लेकिन उनके सामने साहित्य नहीं परोसा जा सकता। उनके सुख-दु:ख का वर्णन करने को साहित्य नहीं कहते। किसी दिन अगर सम्भव हुआ तो अपने साहित्य की वह स्वयं ही रचना कर लेंगे। नहीं तो तुम्हारे कंठ से निकले गीत हलधारों के लिए गीत काव्य नहीं हो सकते। यह असम्भव प्रयास तुम मत करना कवि।”

“तो मैं क्या करूं?”

“तुम विप्लव के गीत गाना। जहां तुमने जन्म लिया है, जहां जाति आदमी बने हो, केवल उन्हीं के लिए। केवल शिक्षित और भद्र के लिए।”

भारती विस्मित होने के साथ व्यथित भी हुई। बोली, “भैया तुम भी जाति मानते हो? तुम्हारा ध्यान भी केवल भद्र जाति की ओर ही है।”

डॉक्टर बोले, “मैंने वर्णाश्रम की बात तो कही नहीं भारती। उस बलपूर्वक बने जाति भेद की चर्चा मैंने नहीं की। यह वैषम्य मुझमें नहीं है। लेकिन शिक्षित का जाति भेद माने बिना तो मैं रह नहीं सकता। यही तो सच्ची जाति है, यही तो भगवान के हाथ की बनी हुई सृष्टि है। ईसाई होने के कारण मैं तुम्हें ठेलकर क्या अलग रख सका हूं बहिन? तुम्हारी बराबरी का मुझे अपना कहने के लिए ओर कौन है?”

भारती ने श्रध्दा भरी नजरों से उनकी ओर देखते हुए कहा, “लेकिन तुम्हारा विप्लव गान तो शशि बाबू के मुंह से शोभा नहीं देगा भैया। तुम्हारे विप्लव का गीत, तुम्हारी गुप्त समिति का….”

डॉक्टर ने उसे बीच में ही रोककर कहा, “नहीं, मेरी गुप्त समिति का भार मेरे ही ऊपर रहने दो बहिन। उस बोझ को ढोने योग्य शक्ति…. नहीं, नहीं, उसे रहने दो…. वह केवल मेरे लिए है।”तुम से तो मैं कह चुका हूं भारती विप्लव का अर्थ केवल खून-खराबा नहीं है। विप्लव का अर्थ है-अत्यधिक तीव्रता से आमूल परिवर्तन। राजनीतिक विप्लव नहीं…. वह तो मेरा ही है। कवि, तुम दिल खोलकर सामाजिक विप्लव के गीत गाने शुरू कर दो। जो कुछ सनातन है, जो कुछ प्राचीन है, जीर्ण और पुराना है-धर्म, समाज, संस्कार-सब टूट-फूटकर ध्वंस हो जाए, और कुछ न कर सको शशि तो केवल इस महासत्य का ही मुक्त कंठ से प्रचार करो कि इससे बढ़कर बड़ा शत्रु भारत का और कोई नहीं है। उसके बाद देश की स्वाधीनता का भार मुझ पर रहने दो।”

सीढ़ी पर किसी की आहट सुनाई दी।

“कौन है?” शशि ने पूछा।

डॉक्टर पलक झपकते ही तेज चाल से बारमदे में चले गए। फिर तुरंत ही वापस आकर बोल, “भारती, सुमित्रा आ रही है।”

उस गहन रात्रि में सुमित्रा के आने का समाचार जैसा अप्रत्याशित था वैसा ही अप्रीतिकर भी था। भारती व्यथित और त्रस्त हो उठी। पलभर बाद सुमित्रा के आने पर डॉक्टर ने स्वाभाविक स्वर में स्वागत करते हुए कहा, “बैठो, क्या अकेली ही आई हो?”

सुमित्रा ने कहा, “हां।” फिर उसने भारती से पूछा, “अच्छी तरह हो न?”

इस एक ही मिनट में भारती ने न जाने क्या-क्या सोच डाला, इसका ठिकाना नहीं। उस दिन की तरह आज भी सुमित्रा उसकी कोई परवाह नहीं करेगी, यह वह निश्चित रूप से जानती थी। लेकिन इस कुशल प्रश्न से नहीं बल्कि उसकी आवाज में स्निग्ध कोमलता देखकर भारती मानो सहसा अपने हाथों में चंद्रमा को पा गई। बोली, ‘अच्छी तरह हूं जीजी, आप तो अच्छी तरह हैं न?”

“हां, अच्छी तरह हूं। कहकर सुमित्रा एक ओर बैठ गई।

डॉक्टर बोले, “शशि के मुंह से मैंने सुना कि तुम बहुत ही बड़ी सम्पत्ति की उत्तराधिकारी होकर जावा जा रही हो?”

“हां, मुझे ले जाने के लिए आदमी आया है।”

“कब जाओगी?”

“शनिवार को पहले स्टीमर से।”

“अब तो तुम बड़ी धनवान हो।”

“हां, सब मिल गया तो बन जाऊंगी।”

डॉक्टर बोले, “मिल ही जाएगा। एटॉर्नी की राय के बिना कोई काम मत करना। सावधान रहना। जो तुम्हें ले जाने के लिए आए हैं वह परिचित तो हैं न?”

सुमित्रा बोली, “हां, भरोसे के आदमी हैं। मैं पहचानती हूं।”

“तब कोई बात नहीं।”

अचानक शशि बोल उठा, “यह तो बहुत बुरी बात हुई डॉक्टर। जिन तीन बंगाली महिलाओं को आपने लिया था-नवतारा गई, स्वयं प्रेसीडेंट जाने को तैयार हैं। केवल भारती….।”

डॉक्टर हंसते हुए बोले, “चिंता मत करो। भारती भी महाजनों के पंथ का अनुसरण करेगी-यह एक प्रकार से निश्चित हो चुका है।”

भारती ने गुस्से से देखा।

डॉक्टर के परिहास में छिपी व्यथा का अनुमान करके शशि ने कहा, “आपको जल्दी ही चला जाना पड़ेगा। अब तो आप देखिए कि आपके ‘पथ के दावेदारों’ की एक्टिविटी कम-से-कम बर्मा में तो समाप्त हो गई। इसे अब कौन चलाएगा?”

वह उसी तरह हंसते हुए बोले, “यह कैसी बात कह रहे हो कवि? इतने समय से इतना देख-सुनकर भी अंत में सव्यसाची के लिए तुम्हारे ही मुंह से यह सर्टिफिकेट? तीन महिलाएं चली जाएंगी, क्या इसीलिए ‘पथ के दावेदार’ समाप्त हो जाएगा? शराब छोड़ देने का क्या यही फल हुआ है? इससे तो अच्छा है कि फिर पीना शुरू कर दो।”

बात मजाक-सी सुनाई पड़ने पर भी मजाक नहीं है, यह समझ लेने पर भी भारती ठीक-ठीक नहीं समझ सकी। कनखियों से उसने बड़े ध्यान से देखा, सुमित्रा आंखें झुकाए चुपचाप बैठी है।

उसने मुंह उठाकर डॉक्टर के चेहरे पर नजरें टिकाए रखकर कहा, “भैया, समझने के लिए मुझे तो शराब शुरू करने की जरूरत नहीं है, लेकिन फिर भी मैं कुछ नहीं समझ पाई। नवतारा कुछ भी नहीं है। और मैं तो उससे भी तुच्छ हूं। लेकिन सुमित्रा जीजी-जिन्हें तुमने प्रेसीडेंट का आसन दिया है, उनके चले जाने पर क्या तुम्हारे पथ के दावेदार को चोट नहीं पहुंचेगी, सच बताओ भैया, केवल किसी को लांछित करने के लिए ही नाराज होकर मत कहना।”

सुमित्रा जिस तरह मुंह झुकाए बैठी थी, उसी तरह चुपचाप नीचा मुंह किए मूर्ति की भांति बैठी रही।

डॉक्टर पल भर मौन रहे उसके बाद धीरे-धीरे बोले, “भारती, मैंने क्रोध में यह बात नहीं कही है। सुमित्रा अवहेलना की वस्तु नहीं है। तुम शायद नहीं जानती, लेकिन सुमित्रा स्वयं अच्छी तरह जानती है कि इन मामलों में अपनी हानि की गणना नहीं करनी चाहिए। इसके लिए किसके प्राण फालतू हैं? प्राणों का मूल्य किस चीज से निश्चित किया जा सकता है? बताओ तो। मनुष्य तो जाएगा ही। वह चाहे जितना भी बड़ा क्यों न हो, किसी के अभाव को ही हमें सर्वनाश नहीं समझ लेना चाहिए। जल के स्रोत के समान, एक का स्थान दूसरा स्वच्छंदता से और बिल्कुल अनायास ही पूरा कर सकता है, यही शिक्षा हमारी पहली और प्रधान शिक्षा है भारती।”

भारती बोली, “लेकिन ऐसा तो संसार में होता नहीं। उदाहरण के रूप में तुम्हीं को मान लिया जाए। तुम्हारा अभाव कोई किसी दिन पूरा कर सकता है-यह बात मैं सोच भी नहीं सकती भैया।”

डॉक्टर बोले, “तुम्हारी विचारधारा अलग ही है भारती और जिस दिन मुझे इसका पता चला, उसी दिन से मैं तुम्हें फिर से इस दल में खींच लाने में असमर्थ हो गया। मेरे मन में बार-बार यही विचार आया है कि संसार में तुम्हारे लिए यह नहीं, दूसरा काम है।”

भारती बोली, “और मुझे भी बराबर यही खयाल आता रहा है कि तुम मुझे अयोग्य समझ कर दूर हटा देना चाहते हो। अगर मेरे लिए दूसरा काम हो तो मैं उसी के लिए अभी से निकल पडूंगी। लेकिन मेरे प्रश्न का तो यह उत्तर नहीं है भैया। वास्तविक बात ही तुच्छ हो गई है। तुम्हारा अभाव जल के स्रोत के समान पूरा हो सकता है या नहीं? तुम कह रहे हो कि हो सकता है। और मैं कह रही हूं कि नहीं हो सकता। मैं जानती हूं कि नहीं हो सकता….मैं जानती हूं कि मनुष्य केवल जल का स्रोत नहीं है….तुम तो अवश्य ही नहीं हो।”

पल भर मौन रहकर उसने फिर कहा, “केवल इसी बात को जानने के लिए मैं तुम्हें परेशान न करती। लेकिन जो नहीं है। जिसे तुम स्वयं जानते हो कि वह सत्य नहीं है-मुझे उसी से फुसलाना चाहते हो?”

भारती ही ने फिर कहा, “इस देश में अब तुम्हारा ठहरना नहीं हो सकता। तुम जाने को बैठे हो। फिर तुम्हें वापस पाना कितना अनिश्चित है-यह सोचते ही हृदय में ज्वाला धधक उठती है। इसी से उसका सोच नहीं करती। फिर भी सत्य को प्रतिक्षण अनुभव किए बिना नहीं रह सकती। इस व्यथा की सीमा नहीं है। लेकिन इससे भी बढ़कर मेरी व्यथा यह है कि तुमको इस तरह पाकर भी मैं नहीं पा सकी। आज मुझे कितने प्रश्न याद आ रहे हैं भैया। लेकिन मैंने जब भी उन प्रश्नों को पूछा है-तुमने सच भी कहा है और झूठ भी कहा है। सच और झूठ मिलाकर भी कहा है। लेकिन किसी भी तरह मुझे सत्य क्या है, यह जानने नहीं दिया। तुम्हारे पथ के दावेदार की मैं सेक्रेटरी हूं फिर भी तुम्हारे कार्य-पध्दति में मेरी बिल्कुल श्रध्दा नहीं है। मैंने यह बात कभी नहीं छिपाई। तुम नाराज नहीं हुए। न अविश्वास ही किया। मुस्कराते हुए केवल मुझे अलग कर देना चाहा है। अपूर्व बाबू के जीवन-दान की बात भी मैं भूली नहीं हूं। मालूम होता है-मेरे छोटे से जीवन का कल्याण केवल तुम्हीं निर्देशित कर सकते हो। भैया, जाते समय अब अपने आपको छिपाकर मत जाओ। तुम्हारा, मेरा, सभी का जो परम सत्य है-उसे ही आज कपट छोड़कर स्पष्ट प्रकट कर दो।”

इस अनोखी प्रार्थना का अर्थ न समझ पाने के कारण शशि और सुमित्रा दोनों ही आश्चर्यचकित होकर ताकते रह गए और उनकी आंखों पर नजर डालकर भारती ने अपनी व्याकुलता से स्वयं ही लज्जित हो उठी। यह लज्जा डॉक्टर की नजरों से छिपी न रह सकी। उन्होंने हंसते हुए कहा, “सच, झूठ और सफेद झूठ-एक में मिलाकर तो सभी बोलते हैं भारती। इसमें मेरा विशेष दोष क्या है? इसके अतिरिक्त यदि किसी के लिए यह बात लज्जा करने की हो तो वह मेरे ही लिए है। लेकिन लज्जित तुम हो रही हो।”

भारती मुंह झुकाए बैठी रही।

सुमित्रा ने इसका उत्तर देते हुए कहा, “लेकिन अगर डॉक्टर, तुम्हारे पास लज्जा हो ही नहीं-तब? लेकिन स्त्रियां तो मुंह पर सच बात भी स्पष्ट रूप से कहने में लज्जा का अनुभव करती हैं। कोई-कोई तो कह ही नहीं सकती।”

यह बात किसको लक्ष्य करके किसलिए कही गई, यह किसी से छिपी नहीं रही लेकिन जो श्रध्दा और सम्मान उनके लिए सहज प्राप्य मालूम होते हैं उन्होंने ही सबको निरुत्तर कर दिया।

दो-तीन मिनट इसी तरह चुपचाप बीत जाने पर डॉक्टर ने भारती की ओर देखते हुए कहा, “भारती, सुमित्रा ने कहा है कि मुझ में लज्जा नहीं है। तुमने यह आरोप लगाया है कि मैं सुविधानुसार सच-झूठ दोनों ही बोला करता हूं। आज भी उसी तरह कुछ कहकर इस प्रसंग को मैं समाप्त कर सकता था। यदि इसके साथ मेरे पथ के दावेदार का कोई संबंध न होता। इसकी भलाई-बुराई से ही मेरा सच-झूठ निर्धारित होता है। यही मेरा नीति शास्त्र है। यही मेरी अकपट मूर्ति है।”

भारती अवाक् होकर बोली, “यह क्या कहते हो भैया। यही तुम्हारी नीति है? यही तुम्हारी अकपट मूर्ति है?”

सुमित्रा बोल उठी, “हां, ठीक यही है। यही इनका यथार्थ स्वरूप है। दया नहीं, ममता नहीं, धर्म नहीं-इस पत्थर की मूर्ति को मैं पहचानती हूं।”

सुमित्रा की बात पर भारती ने विश्वास कर लिया हो, ऐसी बात नहीं है। लेकिन सुनकर वह स्तब्ध हो गई।

डॉक्टर बोले, “तुम लोग कहा करती हो चरम सत्य, परम सत्य-और यह अर्थहीन, निष्फल शब्द तुम लोगों के लिए अत्यधिक मूल्यवान हैं। मूर्खों को भुलावे में डालने के लिए इससे बड़ा जादू-मंत्र और कोई नहीं है। तुम लोग सोचती हो कि झूठ को ही बनाना पड़ता है। सत्य शाश्वत, सनातन और अपौरुषेय है। यही झूठी बात है। झूठ की ही तरह सच को भी मानव जाति दिन-रात बनाती है। यह भी शाश्वत नहीं। इसका जन्म है, मृत्यु है। मैं झूठ नहीं बोलता, सत्य की सृष्टि करता हूं।”

यह परिहास नहीं, सव्यसाची के हृदय की उक्ति है, भारती सुनकर पीली पड़ गई अस्फुट स्वर में उसने पूछा, “भैया! क्या यही तुम्हारे पथ के दावेदार की नीति है?”

डॉक्टर ने उत्तर दिया, “भारती, ‘पथ के दावेदार’ मेरी तर्क शास्त्र की पाठशाला नहीं है। यह मेरी पथ पर चलने के अधिकार की शक्ति है। कौन, कब, किसे अज्ञात आवश्यकता के लिए नीति वाक्य की रचना कर गया-वही हो जाएगा पथ के दावेदारों के लिए सत्य? और इसके लिए जिसकी गर्दन फांसी के रस्सी से बंधी है, उसके हृदय का वाक्य हो जाएगा झूठ? तुम्हारा परम सत्य क्या है, मैं नहीं जानता। लेकिन परम मिथ्या यदि कहीं हो तो वह यही है।”

उत्तेजना से सुमित्रा की आंखें चमक उठीं। लेकिन इतनी भयानक बात सुनकर भारती आशंका से एकदम अभिभूत हो उठी।

“कवि।”

“जी।”

डॉक्टर हंस पड़े, “शशि की, कैसी भक्ति है, देख ली?”

लेकिन डॉक्टर की हंसी में कोई भी शामिल नहीं हुआ। डॉक्टर ने दीवार घड़ी की ओर देखकर कहा, “ज्वार समाप्त होने में अब देर नहीं है। मेरे जाने का समय हो गया। तुम्हारे तारा विहीन ‘शशि-तारा लॉज’ आने का समय अब मुझे नहीं मिलेगा।”

शशि ने कहा, “मैं यह मकान कल ही छोड़ दूंगा।”

“कहां जाओगे?”

“आपके आदेशानुसार भारती के घर।”

डॉक्टर हंसते हुए बोले, “देख रही हो भारती, शशि मेरा आदेश अमान्य नहीं करता। उस मकान का नाम क्या रखोगे शशि?….’शशि-भारती लॉज’ तुम्हें तीन बार धोखा खाते तो मैंने देखा है। इस बार शायद सफलता मिल जाए। भारती बहुत अच्छी लड़की है।”

इतने कष्ट में भी भारती हंस पड़ी। सुमित्रा ने भी हंसते हुए सिर झुका लिया।

डॉक्टर बोले, “तुम्हारे रुपयों की थैली, जिसे मैं साथ लेकर जा रहा था। भारती के पास छोड़ जाऊंगा, वह भी एक मकान खरीदेगी।”

भारती बोली, “क्या घाव पर नमक छिड़कना बंद नहीं होगा भैया?”

शशि ने कहा, “रुपए आप ले लीजिए डॉक्टर, मैंने आपको दे दिए। मेरे देश के घर-द्वार बेचकर मिले रुपए देश के काम में ही लगने दीजिए।”

डॉक्टर हंस पड़े। लेकिन दूसरे ही पल उनकी आंखें डबडबा उठीं। बोले, “रुपए मेरे पास हैं शशि, अब उनकी जरूरत नहीं है। इसके अतिरिक्त अब शायद रुपयों की कमी कभी भी न होगी।” कहकर वह हंसते हुए सुमित्रा की ओर देखने लगे।

सुमित्रा की दोनों आंखें कृतज्ञता से भर उठीं। उसने मुंह से कुछ नहीं कहा। लेकिन उसके सर्वांग से यही बात फूटकर बाहर निकल पड़ी-”सब कुछ तो तुम्हारा ही है। लेकिन क्या तुम उसे छुओगे?”

डॉक्टर अपनी दृष्टि दूसरी ओर हटाकर कुछ देर स्तब्ध रहने के बाद बोले, “कवि?”

“कहिए।”

“ब्राह्मण भोजन कुछ पहले ही पूरा कर डाला। इसलिए दु:खी मत होना। क्योंकि अब जब शुभ मुहूर्त आएगा तब मुझे अवकाश नहीं मिलेगा। लेकिन वह दिन आएगा अवश्य। तरह-तरह के भोजन से तृप्त होकर आज मैं तुम्हें वरदान दे रहा हूं-तुम सुखी होओ। लेकिन तुम दो काम कभी मत करना। शराब मत पीना और राजनीतिक विलप्व में भाग मत लेना। तुम कवि हो, देश के बहुत बड़े कलाकार हो। तुम राजनीति से बड़े हो- इस बात को मत भूलना।”

शशि ने दु:खी होकर कहा, “आप जिसमें हैं उसमें मेरे रहने से दोष होगा। क्या मैं आपसे भी बड़ा हूं?”

डॉक्टर ने कहा, “बड़े तो हो ही। तुम्हारा परिचय ही तो जाति का सच्चा परिचय है। तुम लोगों को छोड़ देने पर इसे किस चीज से तोला जाएगा? किसी दिन स्वाधीनता की इस समस्या का समाधान होगा ही। तब इसे दु:ख-दु:ख की कहानी का जनश्रुति से अधिक मूल्य नहीं मिलेगा। लेकिन तुम्हारे कार्यों का मूल्य-निर्धारण कौन करेगा? तुम ही तो देश की समस्त विच्छिन्न, विक्षिप्त धाराओं की माला की भांति गुंथ जाओगे।”

सुमित्रा बोली, “कब गूंथेंगे, यह बात वह ही जानते हैं। लेकिन तुमने बातें गूंथकर उनका जो मूल्य बढ़ा दिया है, उसे भारती कैसे संभालेगी।”

सुनकर सभी हंसने लगे।

डॉक्टर ने कहा, “शशि होगा हम लोगों का राष्ट्र-कवि। हिंदुओं का नहीं, मुसलमानों का नहीं, ईसाइयों का नहीं-केवल मेरे देश का कवि। सहस्र नद-नदी प्रवाहित हमारा बंग देश, हमारी सुजला-सुफला-शस्य श्यामलां, खेतों से भरी बंग भूमि। मिथ्या रोग का दु:ख नहीं, मिथ्या दुर्भिक्ष की क्षुधा नहीं, विदेशी शासन के दुस्सह अपमान की ज्वाला नहीं, मनुष्यत्व हीनता की लांछना नहीं-शशि तुम होगे उसी का चारण कवि। क्या तुम न हो सकोगे भाई?”

भारती का समूचा बदन रोमांचित हो उठा। शशि ‘भाई’ सम्बोधन की मधुरता से विगलित होकर बोला, “डॉक्टर चेष्टा करने पर मैं अंग्रेजी में भी कविता लिख सकता हूं। यहां तक कि….”

डॉक्टर बीच में ही रोककर बोल उठे, “नहीं, नहीं अंग्रेजी में नहीं। केवल बंगला में। केवल सात करोड़ अधिवासियों की मातृभाषा में। शशि, संसार की लगभग सभी भाषाएं मैं जानता हूं। लेकिन सहस्र दलों में विकसित ऐसी मधु से भरी भाषा और नहीं है। मैं अक्सर सोचता रहता हूं भारती, ऐसा अमृत इस देश में कब, कौन लाया।”

भारती की आंखों की कोरों में आंसू भर आए। उसने कहा, “मैं सोचा करती हूं भैया, देश को इतना प्यार करना तुम्हें किसने सिखाया था?”

शशि बोल उठा, “इस विगत-गौरव का गान ही मेरा गान होगा। यह प्रेम का सुर ही मेरा सुर होगा। अपने देश को हम लोग….जिससे फिर उसी तरह प्यार करने लगें ऐसी शिक्षा ही मेरी शिक्षा होगी।”

डॉक्टर ने आश्चर्य भरी नजरों से शशि की ओर देखा। सुमित्रा के चेहरे पर भी नजर डाली। और अंत में दोनों की समझ में नहीं आया। इसलिए वह दोनों ही अप्रतिभ हो गए।

डॉक्टर बोले, “क्या फिर उसी प्रकार प्यार करने लगोगे, तुमने जिस प्रकार के प्रेम का संकेत किया है! शशि, उस प्रकार का प्रेम बंगालियों नें कभी अपने बंग देश से नहीं किया। उसका तिलार्थ प्रेम भी होता तो क्या बंगाली ही विदेशियों के साथ षडयंत्र करके अपने सात करोड़ भाई-बहिनों को दूसरों के हाथों में सौंप सकते थे।? जननी भूमि-केवल कहने भर की बात थी। मुसलमान बादशाहों के पैरों के नीचे अंजलि देने के लिए हिंदू मानसिहं, हिंदू प्रतापादित्य को जानवर की तरह बांध कर ले गया था और उसके लिए रसद जुटाकर, रास्ता दिखाकर आए थे बंगाली। जब बर्मी लोग हमारा देश लूटने के लिए आते थे तब बंगाली लड़ते नहीं थे। सिर पर हांडी रखकर पानी में बैठे रहते थे। मुसलमान दस्यु मंदिर ध्वंस करके जब हमारे देवताओं के कान काट लेते थे, तब बंगाली सिर पर पांव रखकर भाग जाते थे। धर्म की रक्षा के लिए गर्दन नहीं देते थे। वह बंगाली हमारे कुछ भी नहीं लगते कवि। गौरव करने योग्य उनमें कुछ भी नहीं था। हम लोग उनको बिल्कुल अस्वीकार करके चलेंगे। उनका धर्म, उनका अनुशासन, उनकी भीरुता, उनकी देशद्रोहिता, उनकी रीति-नीति-उनका जो कुछ भी है, वही तो होगा तुम्हारा विप्लव गान। वही तो होगा तुम्हारा सच्चा देश-प्रेम।”

शशि विमूढ़-सा देखता रह गया।

डॉक्टर बोले, ‘उनकी कापुरुषता से हम लोग विश्व के सामने हेय हो रहे हैं। उनकी स्वार्थपरता के भार से संकटग्रस्त और पंगु हो गए हैं। यह केवल क्या देश ही की बात है? जिस धर्म को वह स्वयं नहीं मानते थे, जिस देवता पर उनके मन में श्रध्दा ही नहीं थी, उनकी ही दुहाई देकर वह समूची जाति के सिर से पांव तक युक्तिहीन विधि-निषेधों के हजारों बंधनों में क्या नहीं बांध गए हैं? यह अधीनता ही तो हमारे अनेक दु:खों की जड़ है।”

शशि ने कहा, “यह सब आप क्या कह रहे हैं?”

भारती बोली, “भैया, मैं आज ईसाई हूं। लेकिन वह लोग मेरे भी तो पूर्व पितामह हैं। उनके और अपराध जो भी रहे हों, लेकिन उनके धार्मिक विश्वास में भी छल-कपट था-ऐसी अन्याय पूर्ण कटूक्ति मत करो।”

सुमित्रा चुप बैठी सुन रही थी। अब बोल उठी। भारती की ओर देखकर बोली, “किसी के संबंध में कटूक्ति करना अन्याय है तो अश्रध्देय पर श्रध्दा करना भी अन्याय है। यहां तक कि भले ही वह अपने पूर्व पितामह ही क्यों न हों। इसमें धृष्टता हो सकती है। लेकिन तुम्हारी बात में कोई तर्क नहीं है भारती, कुसंस्कार है, उनको छोड़ना सीखो।”

भारती चुप बैठी रही।

डॉक्टर ने शशि से कहा, “कोई भी वस्तु, केवल प्राचीनता के बल पर सत्य नहीं हो सकती कवि। पुरातन का गुणगान कर पाना ही कोई बड़ा गुण नहीं। इसके अतिरिक्त हम लोग क्रांतिकारी हैं। पुराने का मोह हम लोगों के लिए नहीं है। हमारी दृष्टि, हमारी गति, हमारे लक्ष्य केवल सामने की ओर हैं। पुराने का ध्वंस करके ही तो हमें अपना रास्ता बनाना पड़ता है। इसमें माया-ममता के लिए स्थान कहां है? जीर्ण और मृत ही रास्ता रोके रहेंगे तो हम पथ के दावेदारों का पथ कहां पाएंगे?”

भारती ने कहा, “मैं केवल तर्क के लिए ही तर्क नहीं कर रही हूं। मैं सचमुच ही तुम्हारे पास रहकर अपने जीवन का पथ ढूंढती हुई घूम रही हूं। तुम पुराने के शत्रु हो, लेकिन कोई एक संस्कार या रीति-नीति केवल प्राचीन होने के कारण ही क्या निष्फल, व्यर्थ और त्याज्य हो जाएगी? तक मनुष्य किसी संशय के बिना किसके ऊपर निर्भर होकर खड़ा रहेगा?”

डॉक्टर बोले, “इतना भार सहने वाली वस्तु संसार में कौन-सी है, यह मैं नहीं जानता। लेकिन यह जानता हूं कि भारती कि समय के साथ एक दिन सभी चीजें प्राचीन, जीर्ण और निकम्मी हो जाने पर त्याज्य हो उठेंगी। प्रतिदिन मनुष्य आगे ही बढ़ते जाएंगे। और उनके पितामहों द्वारा प्रतिष्ठित हजारों वर्ष की पुरानी रीति-नीतियां एक ही स्थान पर अचल होकर रह जाएंगी। ऐसा हो तो शायद अच्छा ही हो, लेकिन ऐसा होता नहीं है। इसमें आफत तो यही है कि केवल वर्षों की संख्या से ही किसी एक संस्कार की प्राचीनता निरूपित नहीं की जा सकती। वरना तुम भी आज हमारे साथ आवाज मिलाकर कहतीं-भैया, जो कुछ पुराना है, जो कुछ जीर्ण है सबको कुछ विचार किए बिना ही ममता छोड़कर ध्वस्त कर डालो। नए जगत की प्रतिष्ठा हो जाए।”

भारती ने पूछा, “तुम क्या यह स्वयं कर सकते हो?”

“क्या कर सकता हूं बहिन?”

“जो कुछ प्राचीन है, सभी को कठोरता से ध्वस्त कर सकते हो?”

डॉक्टर बोले, “कर सकता हूं। यही तो हम लोगों का व्रत है। पुराने का अर्थ पवित्र नहीं होता भारती। कोई मनुष्य सत्तर वर्ष का पुराना हो जाने से दस वर्ष के बच्चे से अधिक पवित्र नहीं हो जाता। तुम अपनी ओर ही नजर डालकर देखो, मानव की अविश्राम यात्रा के मार्ग में भारत का वर्णाश्रम धर्म तो सब तरह ही असत्य हो गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र कोई भी तो अब उस आश्रम के आधार पर नहीं रहता। अगर कोई ऐसा करे तो उसे मरना होगा। उस युग के बंधन आज छिन्न-भिन्न हो गए हैं। फिर भी उसी को पवित्र मान रहा है, कौन?- जानती हो भारती? ब्राह्मण। चिरस्थायी व्यवस्था को ही अतिशय पवित्र समझकर कौन उसके साथ चिपका रहना चाहता है, जानती हो? जमींदार- उसका स्वरूप समझना तो कठिन नहीं है बहिन। जिस संस्कार के मोह से, अपूर्व आज तुम्हारी जैसी नारी को भी छोड़कर जा सकता है उससे बढ़कर असत्य और क्या है? और क्या केवल अपूर्व के वर्णाश्रम धर्म की ही ऐसी दशा है? तुम्हारा ईसाई धर्म भी वैसा ही असत्य हो गया है भारती। उसकी भी प्राचीनता का मोह तुम्हें त्याग देना पड़ेगा।”

भारती ने डरकर कहा, “जिस धर्म को मैं प्यार करती हूं, विश्वास करती हूं, तुम उसी को छोड़ देने को कह रहे हो भैया?”

डॉक्टर बोले, “हां, कह रहा हू। क्योंकि सभी धर्म असत्य हैं। आदिम दिनों के कुसंस्कार हैं। विश्व-मानवता के इतने बड़े शत्रु और कोई भी नहीं हैं।”

भारती उदास और स्तब्ध होकर बैठी रही। बहुत देर के बाद वह धीरे-धीरे बोली, “भैया, तुम जहां भी रहो, मैं तुमको प्यार करती रहूंगी। लेकिन अगर यही तुम्हारा यथार्थ मत हो तो आज से मेरा और तुम्हारा रास्ता बिल्कुल अलग है। मैंने एक दिन भी यह नहीं सोचा था कि तुम्हारे पथ के दावेदार का मार्ग इतने भयंकर पाप का मार्ग है।”

डॉक्टर ने जरा मुस्करा दिया।

भारती ने कहा, “मैं निश्चयपूर्वक जानती हूं कि तुम्हारे इस दयाहीन, निष्ठुर ध्वंस के पथ में कल्याण कदापि नहीं है। मेरा स्नेह का पथ, करुणा का मार्ग, धार्मिक विश्वास की राह-यही मेरा श्रेय है। यही पथ सत्य है।”

“इसीलिए तो तुमको खींचना नहीं चाहा भारती, तुम्हारे संबंध में गलती की थी सुमित्रा ने। लेकिन मुझसे कभी गलती नहीं हुई। अपने मार्ग से ही चलो। स्नेह के आयोजन, करुणा की संस्थाएं संसार में खोजने पर अनेक मिल जाएंगी। मिलेगा नहीं तो केवल ‘पथ का दावेदार’।”-कहते-कहते उनकी आंखों की दृष्टि पलभर के लिए जलकर फिर बुझ गई। लेकिन उनका कंठ स्वर स्थिर और गम्भीर था।

भारती और सुमित्रा दोनों ही समझ गईं कि सव्यसाची की यह शांत मुखश्री, यह संयत-अचंचल भाषा ही सबसे अधिक भीषण है।

सव्यसाची ने मुंह उठाकर कहा, “तुमसे तो कई बार कह चुका हूं भारती कि मुझे कल्याण की कामना नहीं है। मुझे तो कामना है केवल स्वाधीनता की। राणा प्रताप ने चितौड़ को जब जनहीन वन में परिणत कर दिया था तब सारे राजपूताने में उनसे बढ़कर अकल्याण की मूर्ति और कहीं भी नहीं थी। यह घटना जब हुई तब से कितनी शताब्दियां बीत गईं फिर भी वह अकल्याण ही आज हजारों कल्याणों से बड़ा हो गया है। लेकिन जाने दो इन व्यर्थ के तर्कों को। जो मेरा व्रत है उसके सामने मेरे लिए कुछ भी असत्य नहीं है, कुछ भी अकल्याण नहीं है।”

भारती चुपचाप बैठी रही। तर्क और मतभेद तो पहले भी अनके बार हो चुके हैं। लेकिन इस प्रकार के नहीं।

डॉक्टर ने घड़ी की ओर देखा, उसके बाद हंसते हुए कहा, “लेकिन नदी में फिर ज्वार आने का समय हो गया भारती, उठो।”

भारती उठकर बोली, “चलिए।”

डॉक्टर खाने की पोटली उठाकर बोले, “सुमित्रा ब्रजेन्द्र कहां है?”

सुमित्रा ने उत्तर नहीं दिया। चुपचाप बैठी रही।

“तुमको मैं पहुंचा आऊं क्या?”

सुमित्रा ने गर्दन हिलाकर कहा, “नहीं।”

डॉक्टर बोले, “अच्छा।” फिर भारती से उन्होंने कहा, “अब देर मत करो बहिन, चलो।” यह कहकर वह बाहर चले गए।

सुमित्रा उसी तरह मुंह झुकाए बैठी रही। भारती ने उसको नमस्कार किया और डॉक्टर के पीछे-पीछे चल पड़ी।

भारती नाव पर आकर इस तरह बैठ गई जैसे सपनों में खोई हो। नदी के पूरे रास्ते वह बराबर चुपचाप ही बैठी रही।

रात का शायद तीसरा पहर हो चुका था। आकाश के असंख्य नक्षत्रों के प्रकाश से पृथ्वी का अंधकार स्वच्छ होता चला आ रहा था। नाव जाकर उस पार के घाट पर लग गई। हाथ पकड़कर भारती को उतार चुकने पर सव्यसाची स्वयं भी उतरने को तैयार हो रहे थे कि उसी समय भारती ने उन्हें रोकते हुए कहा, “मुझे पहुंचाने की आवश्यकता नहीं है भैया। खुद चली जाऊंगी।”

“अकेली जाते समय डर नहीं लगेगा?”

“लगेगा। लेकिन इसके लिए तुम को चलने की जरूरत नहीं है।”

सव्ययाची ने कहा, “थोड़ी दूर ही तो चलना है। चलो न, तुम्हें झटपट पहुंचा आऊं बहिन,” इतना कहकर उन्होंने ज्यों ही नीचे सीढ़ी पर पैर बढ़ाया, भारती ने हाथ जोड़कर कहा, “मुझे बचाओ भैया, तुम मेरे साथ चलकर मेरे भय को हजार गुना मत बढ़ाओ। तुम घर चले जाओ।”

वास्तव में साथ जाना अत्यंत संकटपूर्ण काम था, इसमें संदेह नहीं था। इसीलिए डॉक्टर ने भी जिद नहीं की। लेकिन भारती के चले जाने के बाद भी वह नदी किनारे स्थिर भाव से खड़े रहे।

घर पहुंचकर भारती ने ताला खोलकर अंदर कदम रखा। दीपक जलाकर चारों ओर सावधानी से निरीक्षण किया। उसके बाद किसी तरह बिछौना बिछाकर लेट गई। शरीर थक गया था। दोनों आंखें थकान से मुंदी जा रही थीं। लेकिन उसे किसी भी तरह नींद नहीं आई। घूम फिर कर सव्ययाची की यही बात उसे बराबार याद आने लगी कि परिवर्तनशील संसार में सत्य की उपलब्धि नाम की कोई शाश्वत वस्तु नहीं है। जन्म है, मरण है, युग-युग में, समय-समय पर उसे नया रूप धाारण करके आना पड़ता है। अतीत के सत्य को वर्तमान में भी सत्य स्वीकार करना चाहिए, यह विश्वास भ्रांत है। यह धारणा कुसंस्कार है।

भारती मन-ही-मन बोली-मानव की आवश्यकता के लिए अर्थात भारत की स्वाधीनता की आवश्यकता के लिए नए सत्य की सृष्टि करना ही भारतवासियों के लिए सबसे बड़ा सत्य है। अर्थात इसके सामने कोई भी असत्य नहीं है। कोई भी उपाय या कोई भी अभिसंधि हेय नहीं है। यह जो कारखानों के गंदे कुली-मजदूरों को सत्य मार्ग पर लाने का उद्यम है, यह जो उनकी संतान को विद्या-शिक्षा देने का आयोजन है, उनके लिए यह जो रात्रि पाठशालाएं हैं, इन सबका लक्ष्य कुछ और ही है। इस बात को निस्संकोच स्वीकार कर लेने में सव्यसाची को कोई दुविधा नहीं हुई। लज्जा मालूम नहीं हुई। पराधीन देश की मुक्ति-यात्रा में पथ चुनने की छानबीन कैसी?

एक दिन सव्यसाची ने कहा था, ‘पराधीन देश में शासकों और शासितों की नैतिक बुध्दि जब एक हो जाती है तब देश के लिए इससे बढ़कर दुर्भाग्य की और कोई भी बात नहीं होती भारती।’ उस दिन इस बात का अर्थ नहीं समझ सकी थी। आज वह मतलब उसके सामने स्पष्ट प्रकट हो गया।

घड़ी में तीन बज गए। इसके बाद वह कब सो गई, पता नहीं, लेकिन उसे यह याद रहा कि नींद के आवेश में उसने बार-बार यह दोहराया था कि भैया, तुम अति मानव हो। तुम्हारे ऊपर मेरी भक्ति, श्रध्दा और स्नेह हमेशा अचल बना रहेगा। लेकिन तुम्हारी इस विचार बुध्दि को मैं किसी तरह भी ग्रहण न कर सकूंगी। भगवान करे, तुम्हारे हाथों से ही देश को मुक्ति मिले। लेकिन अन्याय को कभी न्याय की मूर्ति बनाकर खड़ा मत करना। तुम महान पंडित हो। तुम्हारी बुध्दि की सीमा नहीं है। तर्क में तुमको जीता नहीं जा सकता। तुम सब कुछ कर सकते हो। विदेशियों के हाथ से, पराधीनों के हाथ से, पराधीनों को जितनी लांछना मिलती है, दु:ख के इस सागर में हमारा प्रयोजन कितना है। देश की लड़की होकर क्या मैं यह नहीं जानती भैया? इसलिए अगर आवश्यकता को ही सर्वोच्च स्थान देकर दुर्बल चित्त मनुष्यों के सामने अधर्म को ही धर्म बना डालोगे तो फिर इस दु:ख का तुम्हें कभी अंत ही नहीं मिलेगा।

दूसरे दिन जब भारती की नींद टूटी, दिन चढ़ चुका था। लड़के दरवाजे के बाहर खड़े होकर पुकार रहे थे। झटपट हाथ-मुंह धोकर वह नीचे आ गई। दरवाजा खोलते ही कुछ छात्र-छात्राएं पुस्तकें-स्लेटें लिए अंदर आ गए। उन्हें बैठने को कहकर भारती कपड़े बदलने ऊपर जा रही थी कि तभी होटल के मालिक सरकार महाराज आ गए। बोले, “अपूर्व तुम को कल रात से ही….।”

भारती ने बात काटकर पूछा, “रात को आए थे?”

महाराज बोला, “आज भी सवेरे से बैठे हैं। भेज दूं?”

भारती का मुंह उतर गया। बोली, “मुझसे उन्हें क्या काम है?”

ब्राह्मण ने कहा, “वह तो मैं नहीं जानता बहिन जी। शायद उनकी मां बीमार हैं। उसी के संबंध में कुछ कहना चाहते हैं।”

भारती अप्रसन्नता से बोली, “मां बीमार हैं तो मैं क्या करूं?”

ब्राह्मण आश्चर्य में पड़ गया। अपूर्व बाबू को वह अच्छी तरह पहचानता था। वह सम्भ्रांत व्यक्ति हैं। पिछले दिनों इसी घर में उनके स्वागत-सत्कार की कोई कमी नहीं थी। लेकिन आज इस असंतोष भरे भाव का कारण वह नहीं समझ सका। बोला, “मैं जाकर उनको भेज देता हूं।”

यह कहकर वह जाने लगा तो भारती बोली, “इस समय लड़के-लड़कियां आ गए हैं। उनको पढ़ाना है। कह दो इस समय भेंट नहीं होगी।”

ब्राह्मण बोला, “फिर दोपहर या शाम को मिलने के लिए कह दूं?”

भारती बोली, “नहीं, मेरे पास समय नहीं है।”

इस प्रस्ताव को यहीं समाप्त करके वह ऊपर चली गई।

स्नान करने के बाद तैयार होकर घंटे भर बाद वह जब नीचे उतरी तब तक लड़के-लड़कियों से कमरा भर गया था और उनके पढ़ने की आवाजों से सारा मुहल्ला गूंज उठा था। भारती पढ़ाने के लिए बैठी लेकिन मन नहीं लगा। पाठ देने में और सुनने में उसे आज केवल असफलता ही नहीं बल्कि आत्मवंचना-सी मालूम होने लगी और सभी भावनाओं के बीच-बीच में आकर लगातार बाधा पहुंचाने लगी अपूर्व की चिंता। उसे इस प्रकार लौटा देना अशोभनीय ही क्यों न हो, उसे प्रश्रय देना बहुत बुरा है। इस विषय में भारती के मन में किसी भी बहाने से भेंट करके वह पहले के अस्वाभाविक संबंध को और भी विकृत कर देना चाहता है। नहीं तो अगर मां बीमार है तो वह यहां बैठा क्या कर रहा है? मां तो उसकी है, भारती की तो है नहीं।

उनकी खतरनाक बीमारी का समाचार पहुंचाकर उनकी रोग-शय्या के पास पहुंचना पुत्र का प्रथम और प्रधान कर्त्तव्य है। यह विषय क्या दूसरे से परामर्श करके समझना होगा? उसे यह बात याद आ गई कि रोग के मामले में अपूर्व बहुत डरता है। उसका कोमल मन व्यथा से व्याकुल होकर बाहर से कितना ही क्यों न छटपटाता रहे, रोगी की सेवा करने की उसमें न तो शक्ति है न साहस। यह भार उस पर सौंप देने के समान सर्वनाश और नहीं है। भारती यह सब जानती थी। वह यह भी जानती थी कि अपनी मां को अपूर्व कितना प्यार करता है। मां के लिए वह जो न कर सके ऐसा कोई भी काम संसार में उसके लिए नहीं है।

उनके ही पास न जा सकने का अपूर्व को कितना दु:ख है। इसकी कल्पना करके एक ओर उसके मन में जिस प्रकार करुणा पैदा हुई दूसरी ओर इस असहनीय भीरुता से, क्रोध के मारे उसका सारा शरीर जलने लगा।

भारती ने मन-ही-मन कहा, “सेवा नहीं कर सकता तो क्या इसी कारण बीमार मां के पास जाने में कोई लाभ नहीं है? इसी उपदेश की क्या अपूर्व मुझसे प्रत्याशा करता है?”

भूख न होने के कारण आज भारती ने रसोई बनाने की चेष्टा नहीं की।

दिन का जब तीसरा पहर बीत चला तब एक घोड़ागाड़ी आकर उसके दरवाजे पर खड़ी हो गई। भारती ने ऊपर की खिड़की से देखा तो आश्चर्य और आशंका से उसका हृदय भर उठा। गठरी-पोटरी आदि अपना सारा समान गाड़ी की छत पर लादकर शशि आ धमका था। पिछली रात के हंसी-मजाक को संसार में कोई भी मनुष्य ऐसी वास्तविकता में परिवर्तित कर सकता है शायद भारती इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकती थी।

भारती नीचे उतरकर बोली, “यह क्या शशि बाबू?”

शशि बोला, “मकान छोड़कर आ रहा हूं।” फिर गाड़ीवान को आदेश दिया, “सामान ऊपर ले जाओ।”

भारती बोली, “ऊपर जगह कहां है शशि बाबू?”

शशि बोला, “बहुत अच्छा, तो नीचे के कमरे में रख दो।”

भारती बोली, “नीचे के कमरे में तो पाठशाला है।”

शशि चिंतित हो उठा।

भारती ने उसे तसल्ली देते हुए कहा, “एक काम किया जाए शशि बाबू! होटल में डॉक्टर का कमरा खाली है। आप वहां अच्छी तरह रहेंगे। खाने-पीने का भी कष्ट नहीं होगा। चलिए।”

“लेकिन कमरे का किराया तो देना होगा?”

भारती हंसकर बोली,’नहीं। भैया छ: महीने का किराया दे गए हैं।”

शशि प्रसन्न न होते हुए भी इस व्यवस्था से सहमत हो गया। सारे सामान के साथ कवि को महाराज के होटल में प्रतिष्ठित करके भारती ऊपर अपने सोने के कमरे में लौट आई।

दूसरे दिन जब नींद टूटी तब भूखे रहने के कारण कमजोरी से उसका शरीर थका हुआ था।

जिस आदमी से भारती की मां ने विवाह किया था वह बड़ा दुराचारी था। उसके साथ इकट्ठे बैठकर ही भारती को भोजन करना पड़ता था। फिर भी किसी बासी या अस्वच्छ वस्तु को उसने कभी अपना खाद्य पदार्थ नहीं बनाया, छुआछूत की भावना उसमें नहीं थी लेकिन जहां-तहां, जिस-तिस के हाथों का भोजन ग्रहण करते हुए उसे घृणा होती थी। मां की मृत्यु के बाद से वह अपने ही हाथ से रसोई बनाकर खाती थी। लेकिन आज रसोई बना पाने की शक्ति उसके शरीर में नहीं थी। इसलिए होटल में रोटी और कुछ तरकारी तैयार कर देने के लिए उसने महाराज के पास सूचना भेज दी।

दासी भोजन की थाली लेकर आई तो भारती ने अपनी थाली और कटोरी लाकर मेज पर रख दी। दासी ने दूर ही से उसकी थाली में रोटी और कटोरी में तरकारी डालकर कहा, “लो भोजन कर लो।”

भारती ने बड़ी नर्मी से कहा, “तुम जाओ, मैं खा लूंगी।”

दासी बोली, “जाती हूं। नौकर तो उनके साथ चला गया था। अकेले सब धोना-मांजना-जो हो, लौटकर बीस रुपए मेरे हाथ में देकर बाबू रोकर बोले, ‘दाई, अंत समय में तुमने जो किया, उतना मां की बेटी भी पास रहते हुए नहीं कर सकती थी।’ वह रोने लगे तो मैं भी रोने लगी। बहिन जी, आह, कितना कष्ट उठाया। परदेश की भूमि, कोई अपना आदमी पास नहीं। समंदर का रास्ता, तार भेज देने से ही तो बहू-बेटे उड़कर आ नहीं सकते थे। उन लोगों का भी क्या दोष है।”

भारती का हृदय उद्वेग और अज्ञात आशंका से बर्फ-सा हो गया लेकिन मुंह खोलकर वह कुछ भी न पूछ सकी।

दासी कहने लगी, “महाराज जी ने बुलाकर कहा, ‘बाबू की मां बहुत बीमार हैं, तुमको वहां जाना पड़ेगा ज्ञाना।’ मैं तब नहीं, न कह सकी। एक तो निमोनिया की बीमारी, उस पर धर्मशाला की भीड़। जंगले-किवाड़ सब टूटे हुए। एक भी बंद नहीं होता था…..कैसा संकट। पांच बजने पर प्राण निकल गए। लेकिन मेस के बाबूओं को खबर देते, बुलाते-बुलाते शव उठा रात को दो-ढाई बजे। उनके लौटकर आने पर दिन चढ़ आया था। अकेली मुझे ही सब धोना-पोंछना….।”

भारती ने पूछा, “क्या अपूर्व बाबू की मां मर गई?”

दासी ने गर्दन हिलाकर कहा, “हां बहिन जी, मानो उनके लिए बर्मा में जमीन खरीद ली गई थी। वही जो एक कहावत है-‘ताहि तहां ले जाए।’ ठीक यही बात हुई। इधर से अपूर्व बाबू ने प्रस्थान किया, उधर वह भी लड़के से झगड़ा करके जहाज पर बैठ गईं। बस एक नौकर साथ था। जहाज ही में बुखार आ गया। धर्मशाला में उतरते ही एकदम बेहोशी छा गई। घर पहुंचते ही बाबू वापसी जहाज से लौट आए। यहां आकर उन्होंने देखा, मां जा रही है। वास्तव में चली ही गईं। लेकिन अब बातें करने का समय नहीं है बहिन जी, इसी समय सभी बाहर निकल पड़ेंगे। फिर शाम को आऊंगी।” कहकर वह चली गई।

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