कुसुम कुमारी (उपन्यास) : देवकीनन्दन खत्री Part 3

कुसुम कुमारी (उपन्यास) : देवकीनन्दन खत्री Part 3

सत्ताईसवां बयान

थोड़ी ही दूर जाने पर रनबीरसिंह को मालूम हो गया कि वे सब लोग भी उसी तरफ जा रहे हैं जिधर बालेसिंह गया है या जिधर से जानेवाले थे। यद्यपि रात का समय था मगर आगे-आगे मशाल की रोशनी रहने के कारण रनबीरसिंह ने उन निशानों में से कई निशान देखे जो रास्ते में मिलने वाले थे और जिनके बारे में संन्यासी ने पता दिया था। यह रास्ता थोड़ा दूर तक चश्मे के किनारे-किनारे गया था और उसके बाद चक्कर खाकर ढालवी पहाड़ी उतरनी पड़ती थी। रनबीरसिंह उन लोगों के पीछे-पीछे घूम-घुमौवे और पेचीदे रास्ते पर नीचे की तरफ झुकते हुए पहर भर तक बराबर चले गए और इसके बाद एक मकान के पास पहुंचे। यह मकान बहुत लम्बा-चौड़ा पत्थरों से बना हुआ और चारों तरफ के ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों से इस तरह घिरा हुआ था कि रास्ते का हाल पूरा-पूरा जाने बिना यहां तक किसी का पहुंचना बहुत ही मुश्किल था। यद्यपि यह मकान बहुत बड़ा था मगर उसका दरवाजा इतना छोटा था कि एक-साथ दो आदमियों से ज्यादा उसके अन्दर नहीं जा सकते थे। नौजवान सवार ने दरवाजे के पास पहुंच कर एक सीटी बजाई जिसे सुनते ही चार आदमी मकान के बाहर निकल आए। नौजवान घोड़े पर से उतर पड़ा और उन चारों को कुछ कहकर मकान के अन्दर चला गया। उन चारों मे से एक आदमी उसका घोड़ा थाम कर चक्कर खाता हुआ मकान के पीछे की तरफ चला गया और तीन आदमी उस नौजवान के अन्दर जाते ही उन पांचों औरतों और मशालची तथा सिपाही को साथ लिए हुए मकान के अन्दर चले गए।

रनबीरसिंह दूर खड़े यह सब तमाशा देख रहे थे। जब मकान के बाहर सन्नाटा हो गया तो वे एक पत्थर की चट्टान पर यह सोचकर लेट रहे कि सवेरा होने पर जो कुछ होगा देखा जाएगा, मगर उनकी आंखों में नींद न थी क्योंकि वे इस बात को भी सोच रहे थे कि कहीं ऐसा न हो कि इस मकान के अन्दर से वे औरतें जिनके पीछे-पीछे हम जाए हैं या और कोई निकल कर बाहर चला जाए और उन्हें खबर तक न हो।

साफ सवेरा हो जाने पर वही नौजवान जो उन पांचों औरतों, सिपाही तथा मशालची को साथ लिए हुए यहां आया था। मकान के बाहर निकला और निगाह दौड़ा कर चारों तरफ देखने लगा। यकायक उसकी निगाह रनबीरसिंह पर पड़ी जो उससे थोड़ी ही दूर पर एक चट्टान पर लेटे हुए थे। एक नए आदमी को वहां देख उसे ताज्जुब मालूम हुआ और हालचाल मालूम करने के लिए वह रनबीरसिंह की तरफ बढ़ा। रनबीरसिंह ने उसे अपने पास आते देख आंखें बन्द कर लीं और घुर्राटा लेने लगे।

नौजवान रनबीरसिंह के पास पहुंचा और उन्हें गौर से देखने लगा, उसी समय रनबीरसिंह ने भी मानों पैर की आहट पाकर आंखें खोल दीं और चारों तरफ देख के बोले, ‘‘अहा! तू ही तो है!!’’

नौजवान–कहिए बाबाजी, आपका गुरुद्वारा कहां है और यहां किसके साथ आए?

रनबीर–अहा! तू ही तो है!! गुरुद्वारा गिरनार है। अहा, तू ही तो है। सतगुरु देवदत्त की जय!!

नौजवान–अहा, आप महात्मा देवदत्त की गद्दी के चेले हैं। तब तो आप हम लोगों के गुरु हैं1!

(1. उस मकान के रहने वाले जिनका असल हाल आगे चलकर मालूम होगा सतगुरु देवदत्त की गद्दी को मानते थे और उस गद्दी के चेलों को गुरु के समान मानते और उनसे डरते थे। )

रनबीर–(ताज्जुब से) क्या तुम हमारे चेले हो?

नौजवान–केवल मैं ही नहीं बल्कि (मकान की तरफ इशारा करके) इस मकान में जितने आदमी रहते हैं सब सतगुरु देवदत्तजी की गद्दी को मानते हैं और आपके चेले हैं।

रनबीर–(हंसकर) तब तो हम अपनी राजधानी में आ पहुंचे!!

नौजवान–बेशक।

रनबीर–(आसमान की तरफ देख के) अहा! तू ही तो है!!

नौजवान–(रनबीर का पैर छूकर) अब आप कृपा करके मकान के अन्दर चलिए तो हम लोग आपका चरणामृत लेकर कृतार्थ हों।

रनबीर–(सिर हिलाकर) नहीं-नहीं, मैं मकान के अन्दर तब तक न जाऊंगा जब तक मुझको यह न मालूम हो जाएगा कि मैं यहां क्योंकर आ पहुंचा। कल संध्या के समय मैं एक चश्मे के किनारे पर था रात को सतगुरु का ध्यान करने लगा। सतगुरु ने दर्शन दिया और कहा कि यहां क्यों घूम रहा है। कुछ काम कर अपने शिष्यों के पास जा और उन लोगों को नित्य-क्रिया का उपदेश दे क्योंकि वे लोग अपनी नित्य-क्रिया को बहुत दिनों तक छोड़ देने के कारण भूल गए हैं, और इससे उनके ऊपर एक भारी आफत आने वाली है। (कुछ सोचकर) न मालूम क्या बात थी कि मुझे यकायक नींद आ गई और आंख खुली तो अपने को यहां पाता हूं। अहा! तू ही तो है!! अब तो सबके पहले गुरु की आज्ञा का पालन करूंगा और अपने शिष्यों से मिलकर उन्हें उपदेश करूंगा, मैं तुम्हारे साथ उस मकान में नहीं जा सकता, (खड़े होकर) पहले मैं उन चेलों को खोजूंगा और उन्हें उपदेश करूंगा।

नौजवान–(पैरों पर गिरकर) बस-बस, अब मुझे निश्चय हो गया कि सतगुरु ने आपको हमारे ही लिए यहां भेजा है, हमीं लोग उपदेश पाने योग्य हैं और नित्य क्रिया भूले हुए हैं।

रनबीर–(झुककर) अहा, तू ही तो है। मगर मैं तुम्हारी बातें नहीं मान सकता, यहां से चले जाओ, आधी घड़ी के लिए मुझे छोड़ दो, हम सतगुरु से पूछ लें।

इतना कहकर रनबीरसिंह चट्टान पर बैठ गए और सिद्धासन होकर ध्यान करने लगे। नौजवान थोड़ी देर तक पास खड़ा रहा, इसके बाद जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता हुआ मकान के अन्दर चला गया और थोड़ी ही देर में उन्नीस-बीस आदमियों को साथ लिए रनबीरसिंह के पास आ पहुंचा। रनबीरसिंह अभी तक ध्यान में बैठे हुए थे इसलिए वे लोग उन्हें चारों तरफ से घेर चुपचाप अदब से बैठ गए। उन लोगों की पोशाक बेशकीमती और सिपाहियाना ठाठ की थी और वे लोग नौजवान और देखने में हाथ-पैर से मजबूत और लड़ाके मालूम होते थे।

थोड़ी देर बाद रनबीरसिंह ने आंखें खोलीं और अपने चारों तरफ भीड़ देखकर बोले, ‘‘तू ही तो है!’’ (नौजवान से) हां ठीक है, सतगुरु की आज्ञा हो गई, बेशक यहां के रहने वाले तीन आदमियों को छोड़कर बाकी सब हमारे चेले हैं, इसलिए मैं सभी को उपदेश करूंगा।

नौजवान–(जिससे पहले मुलाकात हुई थी) वे तीन आदमी कौन हैं जिन्हें आप अपना चेला नहीं मानते? बेशक सतगुरु उनसे रुष्ट हैं, यदि आप कृपा करके उन तीनों का पता सतगुरु से पूछ के हमें बतावें तो उन्हें अवश्य दण्ड दिया जाए।

रनबीर–(झूमकर) आहा! तू ही तो है! अच्छा देखा जाएगा, घबराओ मत, मुझे सतगुरु ने पन्दह दिन तक यहां रहने की आज्ञा दी है।

नौजवान–(खुश होकर) सतगुरु की हम लोगों पर बड़ी भारी कृपा है। अब आप कृपा करके मकान के अन्दर चलें तो हम लोगों का चित्त प्रसन्न हो।

थोड़ी देर तक मस्ताने ढंग की बातें करने के बाद रनबीरसिंह मकान के अन्दर जाने के लिए उठ खड़े हुए, नौजवान और उसके साथी बड़े ही आदर-सत्कार के साथ अपने अनूठे गुरु रनबीरसिंह को मकान के अन्दर ले गए और उनके रहने के लिए एक उत्तम स्थान का प्रबन्ध किया। इस मकान के अन्दर जाने और उसकी बनावट देखने से रनबीरसिंह को बहुत ताज्जुब हुआ क्योंकि यह मकान सैकड़ों आदमियों के रहने लायक और विचित्र ढंग का बना हुआ था और इसमें कई कैदखाने और तहखाने भी बने हुए थे जिनका कुछ-कुछ हाल आगे चलकर मालूम होगा।

रनबीरसिंह ने सत्कार पाने, स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ करने और मकान को अच्छी तरह देखने में वह समूचा दिन बिता दिया और संध्या होते ही हुक्म दे दिया कि जब तक मैं न बुलाऊं कोई मेरे पास न आवे।

महात्मा रनबीरसिंह को जो स्थान रहने के लिए दिया गया था उसके सामने ही एक छोटा-सा मन्दिर था जिसमें मां अन्नपूर्णा की मूर्ति स्थापित थी और एक बुढ़िया औरत के सुपुर्द वहां का बिलकुल काम था। रात आधी बीत गई, चारों तरफ सन्नाटा छा गया, उस मकान के अन्दर रहने वाले स्त्री, पुरुष अपने-अपने स्थान पर सो रहे होंगे मगर रनबीरसिंह की आंखों में नींद नहीं। वह उस मृगछाला पर से उठे जो उन्हें बिछाने के लिए दिया गया था और चुपचाप अन्नपूर्णाजी के मन्दिर की तरफ चले। जब उस छोटे से सभा-मण्डप में पहुंचे तो एक चटाई पर उस बुढ़िया पुजारिन को सोते हुए पाया। रनबीरसिंह ने उसे उठाया। वह चौंककर उठ खड़ी हुई और अपने सामने रनबीरसिंह को देखकर ताज्जुब करने लगी क्योंकि बुढ़िया रनबीरसिंह की फकीरी इज्जत को अच्छी तरह जानती थी, दिन भर सें जो खातिरदारी उनकी की गई थी उसे भी अच्छी तरह देख चुकी थी, और उसे मालूम था कि ये उन विकट मनुष्यों के गुरु हैं जो इस मकान में रहते हैं। रनबीरसिंह ने अपने कमर में से एक चिट्ठी निकाली और बुढ़िया के हाथ मे देकर कहा, ‘‘मैं खूब जानता हूं कि तू पढ़ी-लिखी है अस्तु इस चिट्ठी को बहुत जल्द बांच ले और इसके बाद जला कर राख कर दे।’’ बुढ़िया ने ताज्जुब के साथ वह चिट्ठी ले ली और पढ़ने के लिए उस चिराग के पास गई, जो मन्दिर के एक कोने में जल रहा था। उसने बड़े गौर से चिट्ठी पढ़ी और उसकी लिखावट पर अच्छी तरह ध्यान देने के बाद उसी चिराग में जलाकर रनबीरसिंह के पास लौट आकर बोली, ‘‘निःसन्देह आपने बड़ा ही साहस किया, परन्तु वह काम बहुत ही कठिन है जिसके लिए आप आए हैं।’’

रनबीर–बेशक वह काम बहुत ही कठिन है परन्तु जिस तरह मैं अपनी जान पर खेलकर यहां आया हूं उसे भी तू जानती ही है। उस चिट्ठी के पढ़ने से तुझे मालूम हुआ होगा कि यहां तुमसे ही सहायता पाने की आशा पर मैं भेजा गया हूं।

बुढ़िया–बेशक और मुझसे जहां तक होगा आपकी सहायता करूंगी। आह, आज एक भारी बोझ मेरी छाती पर से हट गया और एक बहुत पुराना भेद मालूम हो गया जिसके जानने की मैं इच्छा रखती थी। खैर, जो होगा देखा जाएगा, आप दो-तीन दिन तक चुपचाप रहें, इस बीच में मैं सब बन्दोबस्त करके आपको इत्तला दूंगी। तब तक आप यहां की तालियों का झब्बा किसी तरह अपने कब्जे में कर लीजिए। बस अब यहां से जाइए, ऐसा न हो कोई यहां आपको देख ले तो केवल काम ही में विघ्न न पड़ेगा वरन् मेरी आपकी दोनों ही की जान चली जाएगी।

अट्ठाईसवां बयान

रनबीरसिंह दो दिन के जागे हुए थे इसलिए नींद ने उन्हें अच्छी तरह धर दबाया, ऐसा सोये कि पहर दिन चढ़े तक आंख न खुली और उस मकान के रहने वालों में से किसी ने उन्हें न जगाया। आखिर जब आंख खुली तो ‘तू ही तो है!’ कहते हुए उठ बैठे। उस समय बीस-पचीस आदमी इनके सामने हाथ जोड़े खड़े थे जिन्हें देखकर रनबीरसिंह ने बैठने का इशारा किया और बोले, ‘‘तुम लोगों को जो कुछ कहना हो कहो।’’ उन आदमियों में वह नौजवान भी था जिसके पीछे-पीछे इस विचित्र स्थान में रनबीरसिंह आए थे और जिससे पहले पहल उस हाते में मुलाकात हुई थी। इस किस्से में जब तक उसको जरूरत पड़ेगी हम उसे नौजवान ही के नाम से लिखेंगे। जब सब कोई बैठ गए तो नौजवान ने हाथ जोड़कर रनबीरसिंह से कहा, ‘‘इस समय गुरु महाराज की जो कुछ आज्ञा हो हम लोग करने को तैयार हैं।’’

रनबीर–सिवाय इसके और कुछ भी कहना नहीं है कि सतगुरु की पूजा के लिए ग्यारह फल कहीं से ला दो।

नौजवान–(सिर झुकाकर) जैसी आज्ञा। (अपने साथियों में से एक की तरफ देखकर) तुम जाओ।

रनबीर–इस समय और कोई बात अगर न हो तो तुम लोग जाओ अपना-अपना काम करो, मेरे पास व्यर्थ बैठने की कोई जरूरत नहीं। अहा! तू ही तो है!!

नौजवान–हम लोग चाहते हैं कि आज की कचहरी आपके सामने की जाए और उसमें सब काम आप ही की आज्ञानुसार किया जाए। रनबीरसिंह और कुसुम कुमारी के हाथ से दुःखी होकर बालेसिंह यहां आया है और सतगुरु की मदद चाहता है, अब तक उसकी मदद बराबर की हई है, आगे के लिए जैसी आज्ञा हो। बालेसिंह बड़ा ही नेक, ईमानदार और सतगुरु का भक्त है।

रनबीर–बालेसिंह का हाल हमें मालूम हो चुका है और सतगुरु ने उसके विषय में जो कुछ कहना था वह भी दिया है, परन्तु सतगुरु की आज्ञा बालेसिंह को आज के पांचवे दिन सुनाई जाएगी।

नौजवान–बहुत अच्छा, तब तक यहां…

रनबीर–बस, बस, बस, चुप चुप। अहा, तू ही तो है!!

इसके आगे नौजवान की हिम्मत आगे न पड़ी कि कुछ कहे। थोड़ी देर बाद रनबीरसिंह ने फिर कहा–

रनबीर–सतगुरु की आज्ञा से तुम लोगों के सरदार को मैं कुछ उपदेश करूंगा, उसे जल्द बुलाओ।

नौजवान–(हाथ जोड़कर) वे तो काशी की तरफ गए हुए हैं, आज कल में…

रनबीर–बस, बस, बस, ज्यादे मत बोलो, किसी को भेजो आगे बढ़के उसे देखें और जल्द आने के लिए कहे।

नौजवान–जो आज्ञा।

नौजवान ने तुरन्त दो आदमियों को जाने का इशारा किया। रनबीरसिंह भी ‘अहा, तू ही तो है! अहा, तू ही तो है!!’ कहते हुए वहां से उठे और मकान के बाहर हो उसके चारों तरफ वाले खुशनुमा मैदान में टहलने लगे, और लोगों को उन्होंने अपना-अपना काम करने के लिए कहा।

इत्तिफाक की बात थी कि उन लोगों का सरदार जो किसी काम के लिए सफर में गया हुआ था इसी समय वहां आ पहुंचा, मगर इस बात को उन लोगों ने बाबा जी की ही करामात समझा और सभी को विश्वास हो गया कि सतगुरु देवदत्त की गद्दी के महात्माजी (रनबीर) निःसन्देह महान पुरुष हैं। नौजवान ने आगे बढ़कर सरदार को सतगुरु के आने का हाल कहा। जिसे सुनकर वह बहुत ही प्रसन्न हुआ। यद्यपि उन लोगों का काम डाकू-लुटेरों और बदमाशों का सा बल्कि इससे भी बढ़ा हुआ था परन्तु अपने गुरु के नाम तथा गद्दी की बड़ी ही इज्जत करते थे और समझते थे कि सतगुरु देवदत्त एक अवतार हो गए हैं और उन्हीं की कृपा से हम लोग अपना काम कर सकते हैं। उन लोगों का जब कोई काम बिगड़ता तो यही समझते कि आज सतगुरु देवदत्त हम लोगों से रंज हो गए हैं, इसी से यह काम बिगड़ गया है, यही कारण था कि सरदार ने गुरु का दर्शन किए बिना मकान के अन्दर जाना उचित न जाना और सब लोगों तथा नौजवान को लिए हुए मैदान के उस हिस्से की तरफ बढ़ा, जहां रनबीरसिंह ‘अहा, तू ही तो है!!’ कहते हुए मस्तानों की तरह झूम-झूम कर टहल रहे थे।

रनबीरसिंह ने दूर ही से देखा कि उस मकान के रहने वाले इकट्ठे होकर हमारी तरफ आ रहे हैं और उनके आगे-आगे एक आदमी जो हर तरह से सरदार मालूम होता है हाथ जोड़े हुए चला आ रहा है। जब वह सरदार रनबीरसिंह के पास पहुंचा तो दण्डवत करने के लिए जमीन पर लेट गया और उसकी देखा-देखी उसके साथियों ने भी यही किया, मगर उस सरदार को देखते ही रनबीरसिंह का कलेजा कांप गया और उनके चेहरे पर डर और तरद्दुद की निशानी दौड़ गई जिसे यद्यपि उन्होंने बड़ी मुश्किल और होशियारी से उन लोगों के उठने के पहले दूर कर दिया मगर कलेजे की धड़कन कुछ-कुछ रह ही गई, जिसे उद्योग करने पर भी दूर न कर सके, हां, इतनी चालाकी अवश्य की कि बैठ गए।

हम नहीं कह सकते कि उस सरदार से रनबीरसिंह के इतना डरने का क्या कारण था। क्या रनबीरसिंह उसे पहले कभी देख चुके थे। या उसके हाथों कुछ तकलीफ उठा चुके थे। या वे इस बात को नहीं जानते थे कि इस जगह हम किसी ऐसे आदमी को देखेंगे जिसके देखने की आशा न थी। या उन बाबाजी ने इस सरदार के बारे में कुछ परिचय दिया था जिसकी बदौलत यहां तक आए हैं, या और कोई सबब है सो तो वही जानें, मगर यह अवस्था उनकी ज्यादे देर तक न रही बल्कि तुरन्त ही दूसरी अवस्था के साथ बदल गई, अर्थात् जब सरदार हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया तो डर की जगह गुस्से ने अपना दखल जमा लिया और रनबीरसिंह के चेहरे पर वे निशानियां दिखाई देने लगीं जो दुश्मन से बदला लेने के समय बहादुर सिपाही के चेहरे पर दिखाई देती है। यद्यपि रनबीरसिंह ने इस अवस्था को भी बड़ी होशियारी के साथ दबाया तथापि माथे के बल और आंखों की लाली पर सरदार की निगाह पड़ ही गई और उसने बड़े ताज्जुब में आकर रनबीरसिंह से पूछा ‘‘क्या गुरु महाराज मुझ पर कुछ क्रोधित हैं?’’

रनबीर–(जमीन की तरफ देखकर) हां।

सरदार–क्यों।

रनबीर–इसलिए कि तुमने कई काम नियम और धर्म के विरुद्ध किए हैं।

यह एक साधारण-सी बात थी जो रनबीरसिंह ने सरदार से कही, और ऐसी बातें हर एक से कहकर उसका जी खुटके में डाला जा सकता है। क्योंकि दुनिया में कोई मनुष्य ऐसा न होगा जिससे नियम तथा धर्म के विरुद्ध कोई-न-कोई काम न हो गया हो, फिर ऐसे नालायकों से जिनका कि दिन और रात बुरे कामों में ही बीतता हो। यह रनबीरसिंह की केवल चालाकी थी, सो भी इसलिए कि उनके हाव-भाव को देखकर सरदार के दिल में किसी दूसरे प्रकार का खटका न पैदा हो। मगर सरदार ने उसकी बात सुन सिर नीचा करके कुछ सोचा और कहा, ‘‘ठीक है, परन्तु आशा है गुरु महाराज उस अपराध को क्षमा करेंगे।’’

रनबीर–(मुसकुराकर) सतगुरु देवदत्त से पूछकर तुम्हारा अपराध क्षमा किया जाएगा परन्तु तुम लोगों को कुछ प्रायश्चित करना होगा।

सरदार–आज्ञानुसार करने के लिए मैं तैयार हूं।

रनबीर–अच्छा इस समय तुम लोग जाओ, अपना-अपना काम करो कल संध्या को देखा जाएगा।

सरदार–(हाथ जोड़कर) गुरु महाराज भी मकान के अन्दर पधारें जिसमे हम लोग सेवा करके जन्म कृतार्थ करें।

रनबीर–आज हम (हाथ का इशारा करके) उस पेड़ के नीचे दिन भर और मकान के अन्दर रातभर उपासना करेंगे, इस बीच में बिना बुलाए मेरे पास कोई न आवे, कल देखा जाएगा। अहा! तू ही तो है सतगुरु की पूजा के लिए ग्यारह फल भेजो, बस जाओ। अहा! तू ही तो है! अहा! तू ही तो है!!

इस मकान के चारों तरफ की जमीन बहुत ही साफ-सुथरी और जगह-जगह कुदरती फूल-बूटों से बहुत ही भला मालूम देता था चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़ थे जिनमें से पानी के कई झरने गिर रहे थे जो नीचे आकर एक हो गए थे और दक्षिण तरफ ढालवी जमीन होने के कारण बहकर एक पहाड़ी के नीचे चले गए थे। रनबीरसिंह एक झरने के किनारे सुन्दर छाया देखकर बैठ गए और आंखें बन्द कर सोच विचार में दिन बिताने लगे। थोड़ी देर बाद एक आदमी ग्यारह फल लेकर आया और उनके पास रख कर चला गया।

रनबीरसिंह ने दिन भर उसी पेड़ के नीचे बिताया और वही ग्यारह फल खाकर आत्मा को सन्तोष कराया, संध्या होने पर मकान के अन्दर गए, अगवानी के लिए आदमियों के साथ सरदार को दरवाजे पर मौजूद पाया, झूमते और उन्हीं मामूली शब्दों का उच्चारण करते हुए मकान के अन्दर गए और अपने स्थान पर मृगछाला के ऊपर जा बिराजे। नैवेद्य की रीति पर खाने-पीने की सामग्री आगे रखी गई मगर रनबीरसिंह ने इनकार करके कहा, ‘‘मैं फल के सिवाय और कुछ भी नहीं खाता, इसके अतिरिक्त मैं तो तुमसे कह चुका हूं कि आज का पूरा दिन और रात उपासना में बिताऊंगा, अस्तु इसे ले जाओ कल देखा जाएगा। अब मैं दरवाजा बन्द करके ध्यान करना चाहता हूं मगर यह मकान सन्नाटे का नहीं है, उत्तर तरफ कोने में जो कोठरी है वह मुझे इस काम के लिए पसन्द है कल घूम फिर के देखने के समय उसे भी मैंने देखा था!’’ इसके जवाब में सरदार ने कहा, ‘‘जैसी इच्छा गुरु महाराज की चलिए।’’

रनबीरसिंह ने देखा कि आखिरी बात कहते समय सरदार के चेहरे की रंगत कुछ बदल गई परन्तु दिलावर रनबीर ने इसका कुछ खयाल न किया और उस स्थान पर चलने के लिए तैयार हो गए। सरदार ने भी रनबीर की इच्छानुसार सब सामान उसी कोठरी में ठीक से कर दिया, रनबीर ने भीतर से दरवाजा बन्द करके मृगछाला पर आराम किया, कोठरी में गर्मी बहुत थी जिसे पंखे से निवारण करने लगे।

यह कोठरी यद्यपि बहुत-चौड़ी तो न थी तथापि इसमें चार-पांच चारपाई बिछने लायक जगह थी। एक तरफ दीवार में छोटा-सा दरवाजा था जिसमें एक साधारण पुराना ताला लगा हुआ था। आधी रात जाने के बाद रनबीरसिंह के कान में एक आवाज आई, उन्हें साफ सुनाई दिया कि मानो किसी ने दिल के दर्द से दुःखी होकर कहा, ‘‘प्यारे रनबीर! तू इस दुनिया में है भी या नहीं। यह आवाज भारी और कुछ बूझी हुई थी, रनबीरसिंह को केवल इतना ही निश्चय नहीं हुआ कि यह आवाज किसी मर्द की है बल्कि उन्हें और भी कई बातों का निश्चय हो गया जिससे वे बेताब हो गए। इस समय यदि कोई उन्हें देखता तो ठीक वैसी ही अवस्था में पाता जैसी गोली लगने पर शेर की होती है और इसका अनुभव उन्हीं को हो सकता है जिन्होंने शेर का शिकार किया या अच्छी तरह देखा है।

रनबीरसिंह मृगछाला पर से उठ खडे हुए और सोचने लगे कि यह आवाज किधर से आई? उनकी आंखें सुर्ख हो गईं और क्रोध के मारे बदन कांपने लगा। उनका ध्यान उस छोटे से दरवाजे पर गया जिसमें साधारण छोटा-सा ताला लगा हुआ था। रनबीरसिंह उसके पास गए, कमर से कटार निकालकर धीरे से उस ताले का जोड़ खोल डाला और कुण्डे से ताला अलग करने के बाद दरवाजा खोल कर अन्दर की तरफ झांका। भीतर अन्धकार था जिससे कुछ मालूम न पड़ा। जहां रनबीरसिंह का आसन लगा हुआ था उसके पास ही एक दीवार के ऊपर चिराग चल रहा था, रनबीरसिंह ने वह चिराग उठा लिया और उस छोटी-सी खिड़की के अन्दर चले गए। यहां उन्होंने अपने को एक लम्बी-चौड़ी कोठरी में पाया। चारों तरफ दीवार में सैकड़ों खूंटियां गड़ी हुई थीं और उनमें तरह-तरह की पोशाकें लटक रही थीं, जिनमें से कोई-कोई पोशाक तो बहुत ही बेशकीमत थी मगर बहुत दिनों तक यों ही पड़े रहने के कारण बर्बाद सी हो रही थी कोई पोशाक सौदागरों की सी, कोई सिपाहियों की सी, और किसी-किसी खूंटी पर जानने कपड़े भी लटक रहे थे। रनबीरसिंह एक खूंटी के पास गए जिस पर एक बेशकीमत पोशाक लटक रही थी उस पर एक टुकड़ा सफेद कपड़े का सीया हुआ था और उस टुकड़े पर यह लिखा था, ‘‘यह भूदेवसिंह अपने को बड़ा ही बहादुर लगाता था।’’

इसके बाद एक दूसरी पोशाक के पास गए जो किसी जमींदार की मालूम पड़ती थी और उसके साथ भी सफेद कपड़े का टुकड़ा सीया हुआ था और उस पर यह लिखा था, ‘‘इसे अपनी जमींदारी का बड़ा ही घमण्ड था। किसी से डरता ही न था और अपने को जालिमसिंह के नाम से मशहूर कर रखा था।’’ इस पोशाक के बगल ही में एक जनानी साड़ी लटक रही थी और उस पर यह लिखा हुआ था, ‘‘यह चन्द्रावती रनबीरसिंह को अपनी गोद से उतारती ही न थी।’’ इस लिखावट ने रनबीरसिंह के गुस्से के साथ वह काम किया जो घी भभकती हुई आग के साथ करता है, मगर क्रोध का मौका न जानकर उन्होंने बड़ी कोशिश से अपने को सम्हाला तथा फिर और किसी पोशाक के पास जाने का इरादा न किया इतने ही में वह आवाज फिर सुनाई दी जिसे सुनकर रनबीरसिंह बेताब हुए थे मगर अबकी दफे शब्द बदले हुए थे अर्थात् कहने वाले ने यह कहा, ‘‘हाय कुसुम! तेरे साथ किसी ने दगा तो नहीं की!

रनबीरसिंह को निश्चय हो गया कि इन शब्दों का कहने वाला भी वही है क्योंकि बनिस्बत पहले के यह आवाज कुछ पास मालूम हुई। रनबीरसिंह का ध्यान जमीन की तरफ गया और एक तहखाने के दरवाजे पर निगाह पड़ी जो केवल जंजीर के सहारे बन्द था। रनबीरसिंह ने उस दरवाजे को खोला तो नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां दिखाई दीं, हाथ में चिराग लिए हुए नीचे (तहखाने में) उतर गए। यह तहखाना वास्तव में कैदखाना था क्योंकि यहां लोहे के छड़ों से बनी हुई एक कोठरी के अन्दर उदास सुस्त और हथकड़ी-बेड़ी से बेबस एक कैदी पर रनबीरसिंह की निगाह पड़ी और साथ ही इसके यह भी दिखाई दिया कि उस कैदखाने में आने-जाने के लिए एक दूसरी राह भी है जिसका अधखुला दरवाजा सामने की तरफ दिखाई दे रहा था।

कैदी के ऊपर रनबीरसिंह की निगाह पड़ने के पहले ही कैदी का निगाह रनबीरसिंह पर पड़ी क्योंकि कैदखाने का दरवाजा खुलने की आहट से चौंककर वह आने वाले को देखने के लिए पहले ही से तैयार था।

कैदी की अवस्था इस समय बहुत ही बुरी हो रही थी, सर और दाढ़ी के बाल बढ़े रहने और कैदी की तकलीफ बहुत दिनों तक उठाने के कारण उसकी उम्र का अन्दाजा करना इस समय बहुत ही कठिन है, उसकी बड़ी-बड़ी आंखें भी इस समय गड्ढे के अन्दर घुसी हुई थीं और शरीर के ऊपर अन्दाज से ज्यादे मैल चढ़ी हुई थी, इतने पर भी रनबीरसिंह ने उस कैदी को देखने के साथ ही पहचान लिया और कैदी ने भी इनको गहरी निगाह से देखने में किसी तरह की त्रुटि नहीं की। रनबीरसिंह ने जंगला खोला और अन्दर जाकर तेजी के साथ कैदी के पैरों पर गिर पड़े बोलने के लिए उद्योग किया मगर रुलाई ने गला दबा दिया, उधर उस कैदी ने मुहब्बत से रनबीरसिंह के सिर पर हाथ फेरा ही था कि सिर में एक छोटा-सा गड्ढा पाकर चौंक उठा और बोला, ‘‘यद्यपि तूने रंगकर अपना चेहरा और बदन बिगाड़ रखा है तथापि यह गड्ढ़ा और मेरा दिल गवाही देता है कि तू मेरा प्यारा पुत्र रनबीरसिंह है। है, है और अवश्य वही है!!’’

इतने ही में पीछे से आवाज आई, है, है, बेशक वही है! सतगुरु देवदत्त के नाम से धोखा देनेवाला यही रनबीर है! भला कमबख्त अब जाता कहां है!!

रनबीरसिंह ने चौंक कर पीछे की तरफ देखा तो उसी सरदार पर निगाह पड़ी जो इस जगह और यहां के रहने वालों का मालिक था।

उनतीसवां बयान

जिस समय रनबीरसिंह ने चौंककर पीछे की तरफ देखा और उस सरदार पर निगाह पड़ी जो वहां के रहने वालों का मालिक था तो उनका क्रोध चौगुना बढ़ गया। यद्यपि यह ऐसा मौका था कि देखने के साथ ही रनबीरसिंह उससे डर जाते मगर नहीं, डर के बदले में क्रोध से उनकी भुजा फड़क उठी क्योंकि उनका प्यारा बाप जो न मालूम कितने दिनों से दुःख भोग रहा था, कैदियों की तरह बेबस उनके सामने मौजूद था और जिसने उनके बाप को कैद कर रखा था और हर तरह का दुख दिया था उसने भी माफी मांगने के बदले में धमकी की आवाज दी थी।

इस समय रनबीरसिंह ने जितनी तेजी और फुर्ती दिखाई उससे ज्यादे कोई आदमी दिखा नहीं सकता था। उनके दिल में क्रोध के साथ ही साथ इस खयाल ने भी तुरन्त जगह पकड़ ली कि–‘‘कहीं यह सरदार इस जंगले वाली कोठरी का दरवाजा बाहर से बन्द करके मेरे पिता की तरह मुझे भी बेबस और मजबूर न कर दे।’’

अस्तु रनबीरसिंह बिजली की तरह लपक कर कोठरी के बाहर निकल आए और आते ही उन्होंने उस सरदार के गले में हाथ डाल दिया। यद्यपि वह सरदार ताकतवर और बहादुर था मगर इस समय रनबीरसिंह के सामने उसके बल-कौशल ने उसका कोई साथ न दिया, यहां तक कि वह म्यान से तलवार भी न निकाल सका। उसने कुश्ती के ढंग पर दांव-पेंच करना चाहा परन्तु रनबीर ने उसका भी जवाब देकर उसे जमीन पर पटक दिया और उसकी छाती पर चढ़कर ऐसा दबाया और एक दफे कूदे की उसकी तमाम पसलियां कड़कड़ाकर टूट गईं और उसने अपनी जिन्दगी की आखिरी निगाह रनबीर पर डालकर आंखें उलट दीं। उसके मुंह से खून का सोता-सा बह चला और वह फिर न उठा। दो-चार दफे सांस लेने के बाद उसकी आत्मा ने यमालय की तरफ प्रस्थान किया।

रनबीरसिंह उसकी छाती पर से उतरे और उसे अच्छी देखने और जांचने के बाद पुनः जंगले के अन्दर जाकर अपने बाप के पास पहुंचे जिनके मुंह से दो दफें ‘शाबाश, शाबाश’ की आवाज निकल चुकी थी।

हथकड़ी और बेड़ी खोलने के बाद वे बोले, ‘‘अब विलम्ब न कीजिए, उठिए और मेरे साथ ही साथ इस मकान के बाहर निकल चलिए।’’

जरा देर रुककर रनबीरसिंह ने पहले यही बात सोची कि किस राह से बाहर निकलना चाहिए? जिस राह से वे आए हैं उस राह से या जिस राह से यह सरदार आया था उस राह से निकल चलना चाहिए? पर अन्त में उन्होंने यही निश्चय किया कि जिस राह से हम आए हैं उसी राह से निकल चलने में सुबीता होगा।

रनबीरसिंह अपने पिता को लिए हुए कोठरी के बाहर निकले और ऊपर जाने वाली सीढ़ियों पर चढ़ना ही चाहते थे कि पीछे से आवाज आई, ‘‘नहीं-नहीं, आप इधर से आइए।’’

रनबीरसिंह ने फिर कर देखा, उसी बूढ़ी औरत पर निगाह पड़ी जिसके नाम की चिट्ठी वे लाए थे, जो यहां के मन्दिर की पुजारिन थी और जिसके साथ इस समय एक नौजवान भी था।

रनबीरसिंह उस नौजवान को देखकर हिचके मगर बुढ़िया ने उनके दिल का विचार समझकर तुरन्त कहा, ‘‘आप इसकी तरफ से (नौजवान की तरफ इशारा करके) कुछ चिन्ता न कीजिए यह मेरा लड़का है, और उस चिट्ठी में जो आप लाए थे इसी लड़के के बारे में इशारा किया हुआ था।’’

रनबीर–हां, तुम्हारा लड़का यही है!

बुढ़िया–जी हां, मेरा लड़का यही है।

रनबीर–जिस समय मैंने पहले पहल इसे देखा था उसी समय मेरे दिल ने गवाही दी थी कि जवान बहुत नेक और धर्मात्मा जान पड़ता है, परन्तु न जाने ऐसे दुष्ट पुरुषों का साथ क्यों दे रहा है।

नौजवान–(हाथ जोड़कर) इसका हाल भी आपको मालूम हो जाएगा परन्तु इस समय आप विलम्ब न कीजिए और हम लोगों के पीछे-पीछे चले आइए, हां पहले मुझे एक काम कर लेने दीजिए।

इतना कह वह नौजवान सीढ़ी चढ़कर उस कोठरी में चला गया जिसमें रनबीरसिंह ने अपना आसन जमाया था और भीतर से उस कोठरी को और उसके बाद वाली दूसरी कोठरी को भी अच्छी तरह बन्द करता हुआ नीचे उतरकर फिर बोला, ‘‘हां, अब आप लोग चले आइए!!’’

आगे-आगे वह नौजवान, उसके पीछे बूढ़ी औरत, फिर रनबीरसिंह के पिता और सबके पीछे रनबीरसिंह वहां से रवाना हुए। चौकठ पार हो जाने पर उन्होंने उस रास्ते को एक सुरंग की तरह पाया जिसके खत्म होने के बाद सीढ़ी की राह से ऊपर चढ़ना पड़ता था। वे लोग जब उस राह से बाहर निकले तो अपने को मकान के अन्त में पश्चिम तरफ की मामूली कोठरी के दरवाजे पर पाया उस समय रनबीरसिंह ने नौजवान से पूछा–

‘‘अब तुम्हारी क्या राय है?’’

नौजवान–पहले आप ही बताइए कि आपकी क्या राय है?

रनबीर–नहीं, पहले तुम्हीं को अपनी राय देनी चाहिए क्योंकि मैं यहां की हर एक बातों से अनजान हूं।

नौजवान–मान लीजिए कि यहां पर आप हर तरह से अनजान हैं मगर यह कहिए कि अगर हम लोग आपको न मिलते तो आप क्या करते?

रनबीर–अगर तुम लोग न मिलते तो मुझे बहुत कुछ सोचना और गौर करना पड़ता, क्योंकि मैंने कई दिन की जल्दी की थी।

बुढ़िया–(ताज्जुब से) तो क्या दो-चार दिन में यहां आपका कोई मददगार आने वाला है और क्या वह भी आप ही की तरह से आवेगा?

रनबीर–यह मैं नहीं कह सकता कि कौन और किस तरह आवेगा मगर बाबाजी ने इतना कहा था कि तुम्हारे पास फलाने दिन मदद पहुंच जाएगी, मगर यकायक (पिता की तरफ इशारा करके) इनकी आवाज पाकर मैं कैदखाने में चला गया और वहां तुम्हारे सरदार के पहुंच जाने से उसे भी मारना पड़ा।

बुढ़िया–मैं भी यही सोचे हुए थी कि आपको मुझसे मदद लेने की जरूरत पड़ेगी और आपका काम दो-एक रोज के बाद होगा, यही बात मैंने अपने लड़के से भी कही थी।

नौजवान–मुझे भी जब मां ने यह बताया कि आप फलाने हैं तो मैं हर एक बातों से होशियार हो गया। आज जब मैंने देखा कि सरदार को आप का शक हुआ है और वह इस राह से कैदखाने में जा रहा है तो हम दोनों भी छिपकर उसके पीछे-पीछे चले गए और वहां उसकी अनूठी मौत देखने में आई।

रनबीर–मैंने यह प्रण कर लिया था कि यहां जितने कैदी हैं सभी को छुड़ाऊंगा मगर अब एक तरद्दुद-सा मालूम होता है।

बुढ़िया–मगर सरदार का मरना दो दिन तक छिपा रहे तो सब कुछ हो सकता है मगर जिस समय (रनबीर के पिता की तरफ इशारा करके) इनको मामूली समय पर खाना देने के लिए वह आदमी जो नित्य जाया करता है जाएगा तो सब बातें खुल जाएंगी और सरदार के नौकर तथा साथी सब आफत मचा डालेंगे।

नौजवान–यह हो सकता है कि दो दिन तक खाना पहुंचाने का जिम्मा मैं ले लूं और किसी को कैदखाने में जाने न दूं।

बुढ़िया–तो बेहतर है कि यही किया जाए और लोगों को इस बात की खबर कर दी जाए कि गुरुजी महाराज ने सरदार को किसी गुप्त कार्य के लिए कहीं भेजा है और इधर इन्हें (रनबीर के पिता को) दो दिन तक कहीं छिपा रखा जाए, ऐसी अवस्था में दो दिन में कोई खराबी नहीं हो सकती।

रनबीर–बात तो बहुत अच्छी है मगर दो दिन तक रुके रहना बड़ा कठिन जान पड़ता है, यहां से इसी समय चल देना ही ठीक होगा।

नौजवान–मगर क्योंकर जा सकेंगे? यह तो आप जानते ही हैं कि रास्ता बहुत खराब और पथरीला है और पीछा करने वाले हम लोगों को बहुत जल्द पकड़ लेंगे।

रनबीर–हां, यह तो मैं जानता हूं मगर मैंने इसके लिए भी एक तरकीब सोची है।

नौजवान–वह क्या?

रनबीर–पहले यह तो बताओ कि रात कितनी बाकी होगी?

नौजवान–रात अभी पहर भर से भी ज्यादे बाकी है।

रनबीर–तब तो जो कुछ मैंने सोचा है वह बखूबी हो जाएगा, अच्छा यह कहो कि तुम अपने सरदार की कोठरी में जाकर उसके पहनने के कपड़े जिसे वह सफर में जाती समय पहनता हो, ला सकते हो?

नौजवान–हां, मैं ला सकता हूं मगर फिर…(कुछ रुक कर) अच्छा, अच्छा मैं समझ गया, वह कपड़ा आप इनको (रनबीर के पिता को) पहनावेंगे और यहां से निकाल ले चलेंगे। ठीक तो है, ऐसा करने से हम लोग सभी के देखते ही देखते यहां से निकल चलेंगे और कोई आदमी पीछा भी न करेगा, हां, उस समय हम लोगों का हाल यहां वालों को जरूर मालूम हो जाएगा जब कैदी को भोजन देने के लिए कोई आदमी तहखाने में जाएगा।

रनबीर–तब तक तो हम लोग बड़ी दूर निकल जाएंगे। और हां, एक काम चलते-चलते तुम और करना।

नौजवान–वह क्या।

रनबीर–चलते समय यहां के किसी ऐसे आदमी को जो तुम्हारे बाद बाकी नालायकों पर हुकूमत कर सकता हो कह देना कि तुमको और तुम्हारी मां को भी सरदार साहब और गुरु महाराज किसी काम के वास्ते कहीं लिए जा रहे हैं और हुक्म देना कि कल तक कोई आदमी फलाने कैदी को दाना-पानी न दे।

नौजवान–बात तो ठीक है, और ऐसा करने से हम लोग बेफिक्री के साथ चले जाएंगे। (कुछ जोश में आकर) उंह, अगर कोई कमबख्त हम लोगों का पीछा करेगा ही तो क्या होगा? केवल यहां से पांच कोस अर्थात सरहद के बाहर हो जाना चाहिए, फिर बीस-पचीस आदमी भी हमारा कुछ नहीं कर सकते, आपकी बहादुरी को मैं अच्छी तरह जान गया हूं और मैं भी आपकी ताबेदारी करने लायक हूं।

रनबीर–खैर तो तुम अब जाओ और जो कुछ मैंने कहा है उसे जल्दी करो जिसमें आधे घण्टे से ज्यादे देर न होने पावे और हम लोग अंघेरा रहते यहां से निकल चलें।

नौजवान–बहुत अच्छा, मैं अभी जाता हूं, आप लोग इसी जगह खड़े रहिए।

तीसवां बयान

बेचारी कुसुम कुमारी ने रनबीरसिंह का पता लगाने के लिए बहुत ही उद्योग किया परन्तु सब व्यर्थ हुआ। दो दिन बीते, चार दिन बीते, सप्ताह-दो सप्ताह के बाद महीने दिन की गिनती भी कुसुम ने अपनी नाजुक उंगलियों पर पूरी की, मगर रनबीरसिंह का कुछ हाल मालूम न हुआ। बेचारी कुसुम मुरझा गई, उसे कोई चीज, कोई बात अच्छी नहीं लगती थी, पर तिस पर भी आशा ने जान बचाने के लिए दूसरे-तीसरे कुछ थोड़ा सा अन्न खा लेती और तमाम रात आंखों में बिताकर ईश्वर से रनबीर को कुशलपूर्वक रखने की प्रार्थना किया करती थी।

बीरसेन को भी रनबीर से बड़ी मुहब्बत हो गई थी अतएव उसने भी रनबीर का पता लगाने के लिए कोई बात उठा नहीं रखी और उतना ही उद्योग किया जितना एक परले सिरे का उद्योगी मनुष्य कर सकते हैं, परन्तु परिणाम कुछ भी न हुआ।

आज जिस दिन का हम जिक्र कर रहे हैं वह शुक्ल पक्ष की द्वितीया का दिन है। संध्या होने के पहले ही कुसुम कुमारी अपनी अटारी पर चढ़ गई और आश्चर्य नहीं कि आज चन्द्रमा का दर्शन पृथ्वी के मनुष्यों में सबसे पहले उसी ने किया हो। यद्यपि अब चन्द्रदेव को निकले बहुत देर हो गई परन्तु कुसुम ने अभी तक उनकी तरफ से आंखें नहीं फेरी क्यों? क्या रनबीर से मिलने की आशा में चन्द्रमा से टपकते हुए अमृत को नेत्रों द्वारा पान करके कुसुम कुमारी अमर होना चाहती है? नहीं, ऐसा नहीं है, यदि ऐसा होता तो कलिकाल में प्राण रक्षा का सबसे बड़ा सहारा ‘अन्न’ कुसुम कुमारी के जी से न उतर जाता, तो क्या कुसुम कुमारी अपने कलेजे के दाग का चन्द्रमा के दाग से मिलान कर रही है? नहीं, यह भी नहीं है, क्योंकि इसका आनन्द बिना पूर्ण चन्द्रोदय के नहीं मिल सकता। तो क्या चन्द्रदेव से अपने टेढ़े नसीब को सीधा करने के लिए प्रार्थना कर रही है? नहीं-नहीं, चन्द्रदेव तो आज स्वयं ही बंक हो रहे हैं, उनसे ऐसी आशा बुद्धिमान कुसुम कुमारी को नहीं हो सकती। अच्छा कदाचित् कुसुम कुमारी इसलिए चन्द्रमा को बड़ी देर से देख रही है कि आज द्वितीया के चन्द्रमा का दर्शन आवश्यक होने के कारण रनबीर की आंखें भी चन्द्रदेव की ही तरफ लगी हुई होंगी, और नहीं तो इसी बहाने चार आंखें तो हो जाएंगी। ठीक है, यह बात ध्यान में आ सकती है, आश्चर्य नहीं कि अभी तक चन्द्रदेव की तरफ इसी लालच से कुसुम कुमारी देख रही हों।

यद्यपि चन्द्रदर्शन से उसकी तृप्ति नहीं होती थी और कदाचित् उसका इरादा बहुत देर तक वहां ठहरने का था परन्तु एक लौंडी ने अचानक वहां पहुंचकर ऐसी खबर सुनाई जिससे वह चौंक कर लौंडी की तरफ देखने लगी और बोली, ‘‘तूने क्या कहा?’’

लौंडी–रनबीरसिंह के पिता नारायणदत्त की सवारी शहर के पास आ पहुंची।

कुसुम–शहर के पास!!

लौंडी–जी हां, अब दो कोस से ज्यादे दूर न होगी।

कुसुम–क्या जासूस यह खबर लेकर आया है?

लौंडी–जी नहीं, उन्होंने स्वयं अपना आदमी खबर करने के लिए भेजा है।

कुसुम–बड़ी खुशी की बात है, अच्छा मैं नीचे चलती हूं तू दौड़ी हुई जा और बीरसेन को मेरे पास बुला ला।

‘बहुत अच्छा’ कहकर लौंडी वहां से चली गई और कुसुम कुमारी भी नीचे उतरकर अपने कमरे में आ बैठी, थोड़ी ही देर में बीरसेन भी वहां पहुंचे जिन्हें देखते ही कुसुम ने कहा, ‘‘सुनती हूं कि महाराज की सवारी शहर के पास आ पहुंची है।’’

बीरसेन–जी हां, यह खबर लेकर उनका खास मुसाहब यहां आया है, मगर हमारे जासूस ने और भी एक खुशखबरी सुनाई है।

कुसुम–वह क्या?

बीरसेन–वह कहता है कि दो-तीन दिन के अन्दर ही रनबीरसिंह भी यहां आने वाले हैं।

कुसुम–(खुश होकर) इसका पता उसे कैसे लगा?

बीरसेन–नारायणदत्तजी के लश्कर में जब वह गया था तो उन्हीं लोगों में से कई आदमियों को रनबीरसिंह के विषय में तरह-तरह की बातें करते सुना था जिसका नतीजा उसने यह निकाला कि रनबीरसिंह भी शीघ्र ही यहां आने वाले हैं।

कुसुम–ईश्वर करे कि जासूस का खयाल ठीक निकले परन्तु रंगविरंग की गप्पें सुनकर सच्ची बात का पता लगा लेना बहुत कठिन है, हां यदि मैं उन बातों को पूरा सुनूं, जो जासूस ने सुनी है, तो मालूम हो कि जासूस ने अपने मतलब का नतीजा क्योंकर निकाला।

बीरसेन–यों तो जासूस ने बहुत सी बातें सुनी थीं परन्तु एक बात जो उसने सुनी है वह यदि सच है तो मैं भी कह सकता हूं कि रनबीरसिंह शीघ्र ही आने वाले हैं।

कुसुम–वह क्या?

बीरसेन–जासूस के सामने ही एक जमींदार ने फौजी अफसर से पूछा था कि महाराज नाराणदत्तजी ‘तेजगढ़’1 क्यों जा रहे है? इसके जवाब में अफसर ने कहा कि वहां उन्हें अपने लड़के रनबीरसिंह के पाने की आशा है। बस, यही बात जासूस ने सुनी थी।

(1. कुसुम कुमारी की राजधानी ‘तेजगढ़’। )

कुसुम–अगर यही बात है तो तुम्हें बहुत जल्द इसका सच्चा पता लग जाएगा क्योंकि महाराज की अगवानी (इस्तकबाल) के लिए तुमको और दीवान साहब को इसी समय जाना होगा।

बीरसेन–जी हां, दीवान साहब महाराज की खातिरदारी का इन्तजाम कर रहे हैं और मैं भी उसी बन्दोबस्त में लगा हूं, आधी घड़ी के अन्दर ही हम लोग चले जाएंगे।

कुसुम–शाबाश, देखो मैं तुम्हें भाई के बराबर समझती हूं और तुम पर बहुत भरोसा रखती हूं इसलिए कहती हूं कि मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ है, मैं आज कल अपने होश हवाश में नहीं हूं अस्तु जो कुछ मुनासिब समझो करो, ऐसा न हो कि किसी बात में कमी हो जाए और शर्मिन्दगी उठानी पड़े।

बीरसेन–नहीं-नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता, आप बेफिक्र रहें, किसी तरह की बदनामी न होने पावेगी, अच्छा त अब मुझे जाने की आज्ञा मिले क्योंकि अभी बहुत काम करना है।

कुसुम–अच्छा जाओ।

इकतीसवां बयान

अब हम अपने पाठकों को राजा नारायणदत्त के लश्कर में ले चलते हैं। कुसुम कुमारी की राजधानी तेजगढ़ से लगभग दो कोस की दूरी पर राजा नारायणदत्त का लश्कर उतरा हुआ है। लश्कर में हजार-बारह सौ आदमियों से ज्यादे की भीड़-भाड़ नहीं है और कोई बहुत बड़ा या शानदार खेमा वा शामियाना भी दिखाई नहीं देता, छोटी-मोटी मामूली रावटियों में अफसरों, सरदारों, तथा गल्ला इत्यादि बांटने वालों का डेरा पड़ा हुआ है और उसी तरह की एक रावटी में राजा नारायणदत्त का भी आसन लगा हुआ है। और रावटियों में राजा साहब की रावटी से यदि कुछ भेद है तो इतना ही कि राजा साहब की रावटी आसमानी रंग की है और बाकी सब रावटियां सफेद कपड़े की।

पहरभर से कुछ ज्यादे रात बीत जाने पर जिस समय कुसुम कुमारी के दीवान और बीरसेन वहां पहुंचे और आज्ञानुसार राजा साहब के पास हाजिर किए गए उस समय उन्होंने देखा कि राजा साहब एक चटाई पर साधु रूप से बैठे हुए हैं सिर के बाल संवारे न जाने के कारण बिखरे हुए हैं, ललाट में भस्म का त्रिपुण्ड और बीच में सिन्दूर की बिन्दी लगी हुई हैं बदन में गेरुए रंग के रेशमी कपड़े का एक चोगा है जिससे तमाम बदन ढंका हुआ है, खुशबूदार जल और इत्र से शरीर की सेवा न होने पर भी प्रताप और तपोबल उनके सुन्दर तथा सुडौल चेहरे से झलक रहा है और बड़ी-बड़ी आंखें एक ग्रन्थ की तरफ झुकी हुई है, जो लकड़ी की छोटी-सी चौकी पर उनके सामने रखा हुआ है और जिसके बगल में घी का बड़ा-सा चिराग जल रहा है।

पाठकों को आश्चर्य होगा कि नारायणदत्त राजा होने पर भी साधुओं की तरह क्यों रहते हैं? और ऐसी अवस्था में राजकाज कैसे देखते होंगे? इसके जवाब में यदि हम राजा साहब का असल हाल न कहें तो भी इतना कहना आवश्यक है कि राजा नारायणदत्त जब बिहार की गद्दी पर बैठे थे तब से साल भर तक तो उसी ढंग और टीमटाम के साथ रहे जिस तरह राजा लोग रहते हैं मगर उसके बाद उन्होंने अपना ढंग और रहन-सहन तथा खान-पान आदि बिल्कुल बदल दिया, सादा अन्न अपने हाथ से बनाकर खाना, सादा कपड़ा पहनना, जमीन पर सोना और दरबार का समय छोड़ दिन-रात ग्रन्थ देखने और ईश्वराधन में बिताना उनका काम था। वे शरीर सुख या मनोविलास के लिए काम न करते और प्रजा के हित साधन का ध्यान बहुत रखते थे और प्रजा भी उन्हें ईश्वर के तुल्य समझती थी। सतोगुण स्वभाव और आचरण रहने पर भी जब वे दरबार में बैठते थे तो दुष्टों को दण्ड की आज्ञा दिये बिना न रहते थे। उनकी पत्नी न थी और न कोई भाई-बन्द था हां रनबीरसिंह को लड़के से बढ़कर मानते और बड़ा स्नेह रखते थे। इस बात का ध्यान तो बहुत ही रखते थे कि राज्य की आमदनी राज्य और प्रजा ही के हित में लगे।

राजा नारायणदत्त में केवल इतनी ही बात न थी बल्कि एक दो बातें और भी थी। वे इस बात को भी अच्छी तरह समझते थे कि–‘‘हमारे ऐसा राजा औरों के लिए चाहे सुखदाई क्यों न हो परन्तु व्यापारियों के लिए दुःखदाई होता है। उससे व्यापार की कच्ची दीवार को धक्का लगता है, और ऐसा होने से देश में व्यापार की उन्नति नहीं होती।’’ इसलिए वे इनाम बहुत बांटते थे और इनाम में नकद रुपए न देकर अच्छे-अच्छे गहने, जेवर, कपडे, बर्तन इत्यादि बांटा करते थे, और इसी सबब से उनके मुसाहब नौकर कारगुजार और अन्य लोग भी उन्हें खुश करने की चेष्ठा करते थे और प्रजा को किसी बात की कमी नहीं रहती थी और न किसी तरह का कष्ट होता था।

राजा नारायणदत्त का हाल जो हम ऊपर लिख आए हैं दीवान को बीरसेन कुसुम कुमारी और उसकी रिआया को अच्छी तरह मालूम था, क्योंकि राजा साहब दूर रहने पर भी कुसुम कुमारी के हालचाल की खबर रखते थे और आवश्यकता पड़ने पर कुसुम कुमारी भी उनसे मदद और राय लिया करती थी।

जब दीवान साहब और बीरसेन राजा साहब के सामने पहुंचे तो दोनों ने प्रणाम किया। राजा साहब ने उन्हें अपने सामने चटाई पर बैठने की आज्ञा दी और प्रसन्नता के साथ बातचीत करने लगे–

राजा–कहो तुम लोग अच्छे तो हो?

दोनों–(हाथ जोड़ के) महाराज के आशीर्वाद से सब कुशल है।

राजा–कुसुम कुमारी और उसकी प्रजा प्रसन्न है?

दोनों–रानी कुसुम कुमारी महाराज का आगमन सुनकर बहुत प्रसन्न हैं और उनकी प्रजा भी दिन-रात महाराज का मंगल मनाया करती है।

बीरसेन–महाराज ने अपने आने की कोई सूचना नहीं दी थी इसलिए हम लोग इससे पहले सेवा में उपस्थित न हो सके।

राजा–यह तो हमारा घर है, घर में आने की सूचना कैसी? जब आवश्यकता हुई आ गए और जब समय आया चले गए।

दीवान–हम लोगों को इस बात की बड़ी लज्जा है कि आपका अमूल्य रत्न रनबीरसिंह हमारे यहां से खो गया, और हम लोग महाराज के आगे मुंह दिखाने योग्य नहीं रहे, यद्यपि अभी तक खोज ही रही है परन्तु पता नहीं लगा।

राजा–उसके लिए खेद करने की आवश्यकता नहीं, मुझे खबर मिल चुकी है कि वह प्रारब्ध और उद्योग का आनन्द लेने लगा है और अब शीध्र ही हम लोगों से मिलने वाला है।

बीरसेन–(उत्कंठा से) कब तक उनके दर्शन होंगे?

राजा–जहां तक मैं समझता हूं आज कल के बीच ही में हम लोग यकायक उसी कमरे में अन्दर देखेंगे जिसमें उसके तथा कुसुम कुमारी के सम्बन्ध की तसवीरें लिखी हुई हैं, और इसलिए मैं यहां आया भी हूँ। (कुछ सोचकर) ईश्वर की माया बड़ी प्रबल है, इसी दो दिन में कई छिपे हुए भेद भी खुलने वाले हैं और बिहार तथा तेजगढ़ दोनों राजधानियों की कायापलट होने वाली है, प्रारब्ध और उद्योग दोनों एक से एक बढ़ के हैं इसमें कोई सन्देह नहीं।

बीरसेन और दीवान साहब ने आश्चर्य के साथ राजा साहब की बातें सुनीं। उद्योग तथा प्रारब्ध के खटके ने उनके दिल में भी जगह पकड़ ली वे दोनों सिर नीचा करके सोचने लगे कि इस विषय में राजा साहब से और कुछ पूछना उचित होगा या नहीं?

राजा–(दीवान से) क्यों सुमेरसिंह, तुम्हें कुछ पिछली बातें याद हैं?

दीवान–(हाथ जोड़ के) बहुत अच्छी तरह से, वे बातें इस योग्य नहीं कि भूल जाऊं।

राजा–अच्छा जो कुछ भूला भटका हो उसे भी याद कर लो क्योंकि कल तुम लोग एक अनूठा और आश्चर्यजनक तमाशा देखने वाले हो।

दीवान–सो क्या महाराज?

राजा–सो सब कल ही मालूम होगा जब मैं उस चित्रवाले कमरे में बैठा होऊंगा जिसमें कुसुम और रनबीर के सम्बन्ध की तसवीरें लिखी हुई हैं।

दीवान–तो अब महाराज को यहां से प्रस्थान करने में क्या विलम्ब है?

राजा–कुछ नहीं, मैं वहां चलने के लिए तैयार बैठा हूं और इसलिए कुसुम के पास कहला भेजा था (बाहर की तरफ मुंह करके) कोई है?

इतना सुनते ही एक चोबदार रावटी के अन्दर घुस आया और हाथ जोड़ कर सामने खड़ा हो गया।

राजा–(चोबदार से) मैं इसी समय तेजगढ़ जाने वाला हूं लश्कर से सिवाय तुम्हारे और कोई आदमी मेरे साथ न जाएगा।

चोबदार–जो आज्ञा

इतना कहकर चोबदार चला गया और थोड़ी देर में फिर हाजिर होकर बोला, ‘‘सवारी तैयार है।’’

राजा–(दीवान से) आप दोनों आदमी अकेले आए हैं या कोई साथ आया है?

दीवान–हम दोनों के साथ तो केवल दो सवार आए हैं परन्तु तेजगढ़ के बहुत से आदमी महाराज के दर्शन की अभिलाषा से हम लोगों के पीछे-पीछे आए हैं और चले आ रहे हैं।

इतना सुनकर राजा साहब कुछ सोचने लगे और कुछ देर बाद सिर उठा कर चोबदार की तरफ देखा।

चोबदार–बहुत से आदमी महाराज के दर्शन की अभिलाषा से आए हुए हैं और चले ही आ रहे है छोटे दर्जे के आदमी दही दूध अन्न इत्यादि लेकर…

राजा–हमने तो तुमसे पहले ही कह दिया था।

चोबदार–जी महाराज, उस बात का प्रबन्ध पूरा-पूरा किया गया है,

राजा–तब कोई चिन्ता नहीं, अच्छा गोपीकृष्ण से कह दो कि सभी को जो तेजगढ़ से आए हैं, इनाम बांट दें और सूचना दे दें कि हम कल तुम लोगों को तेजगढ़ में ही देखेंगे।

इतना सुनते ही आधी घड़ी के लिए चोबदार बाहर चला गया, जब लौट आया तो महाराज उठ खड़े हुए और बीरसेन तथा दीवान साहब को साथ लिए हुए रावटी के बाहर निकले जहां कसे-कसाये तीन घोड़े नजर पड़े तथा मशालों की रोशनी भी बखूबी हो रही थी।

बीरसेन और दीवान साहब ने देखा कि उनके घोड़े जिन्हें वे लश्कर के छोर पर छोड़ आए थे उसी जगह खड़े हैं और उनके पास महाराज का घोड़ा खड़ा है। महाराज घोड़े पर सवार हो गये और उनकी आज्ञा पा बीरसेन तथा दीवान साहब भी घोड़े पर सवार हुए और महाराज के पीछे-पीछे तेजगढ़ की तरफ चल निकले। बीरसेन को इस बात से बड़ा ही आश्चर्य था कि इतने बड़े राजा होकर हम लोगों के साथ रात के समय अकेले तेजगढ़ की तरफ जा रहे हैं। थोड़ी दूर जाने के बाद पीछे से तीन घोड़ों के टापों की आवाज आई, बात की बात में मालूम हो गया कि साथ जाने वाला महाराज का चोबदार और दीवान साहब के दोनों सवार आ पहुंचे।

बत्तीसवां बयान

आज कुसुम कुमारी को आश्चर्य, उत्कंठा और प्रसन्नता ने इस तरह घेर लिया है कि उसकी आंखों में निद्रादेवी अपना प्रभाव नहीं जमा सकतीं। आधी रात के लगभग बीत चुकी है मगर वह अभी तक अपने कमरे में बैठी हुई बीरसेन और दीवान साहब के लौट आने की बाट देख रही है और खबर लेने के लिए बार-बार लौंडियों को बाहर भेजती है। इसी अवस्था में एक लौ़ड़ी दौड़ती और हांफती हुई कमरे के अन्दर आई और बोली, ‘‘महाराज यहां पहुंच गए। आपके पास बीरसेन और दीवान साहब को लिए हुए आ रहे हैं!!’’

इतना सुनते ही कुसुम कुमारी घबराकर उठ खड़ी हुई और खूंटी से लटकती हुई एक चादर उतार और अच्छी तरह ओढ़कर दरवाजे की तरफ लपकी। कमरे से बाहर निकल कर दालान में पहुंची ही थी कि महाराज के दर्शन हुए। कुसुम दौड़कर महाराज के पैरों पर गिर पड़ी और उसकी आंखों से आंसू की धारा बह चली।

राजा नारायणदत्त को कुसुम कुमारी पहले भी कई दफे देख चुकी थी और उन्हें अच्छी तरह पहचानती भी थी क्योंकि आवश्यकता पड़ने पर वे कई दफे कुसुम कुमारी के पास आ चुके थे मगर यह हाल रनबीरसिंह को मालूम न था। दालान में रोशनी बखूबी हो रही थी जिसके सबब से महाराज के प्रतापी चेहरे का हर एक हिस्सा साफ-साफ दिखाई दे रहा था।

इस समय महाराज के नेत्र भी अश्रुपूर्ण थे। उन्होंने बड़े प्यार से कुसुम कुमारी को उठाया और उसका सर अपनी छाती से लगा आशीर्वाद के तौर पर कहा, ‘‘बेटी! ईश्वर तुझे सदैव प्रसन्न रखे और तेरी अभिलाषा पूरी हो।’’

कुसुम–(अपने कमरे की तरफ इशारा करके) कमरे में चलिए।

राजा–नहीं, मैं इस कमरे में न जाऊंगा बल्कि उस चित्र वाले कमरे में डेरा डालूंगा जिसमें अपने प्यारे लड़के रनबीर और उसी के साथ ही साथ अपने एक सच्चे मित्र से मिलने की आशा है।

इन शब्दों के सुनने से कुसुम के दिल की मुरझाई हुई कली यकायक तरोताजा हो गई और उसे जितनी खुशी हुई उसका हाल स्वयं वही जान सकती थी। वह खुशी-खुशी महाराज को साथ लिए हुए उस कमरे की तरफ रवाना हुई और बीरसेन बैठने का सामान करने के लिए तेजी के साथ आगे बढ़ गए।

इसके थोड़ी ही देर बाद महाराज नारायणदत्त कुसुम कुमारी दीवान साहब और बीरसेन को हम उस चित्रवाले कमरे में बैठे हुए देखते हैं जिसमें से रनबीरसिंह यकायक गायब हो गए थे।

राजा–(चारों तरफ देख के) अहा! आज यहां एक सच्चे मित्र से मिलने की अभिलाषा मुझे कितना प्रसन्न कर रही है सो मैं ही जानता हूं। (दीवान से) क्यों सुमेरसिंह, अब कितनी रात बाकी होगी?

दीवान–(हाथ जोड़ के) जी, यही कोई डेढ़ पहर रात होगी।

राजा–अब समय निकट ही है।

बीरसेन–क्या रनबीरसिंहजी से इसी कमरे में मुलाकात होगी?

राजा–हां, वह अकस्मात इसी कमरे में दिखाई देगा।

बीरसेन–सो कैसे?

राजा–(मुसकराकर) वैसे ही जैसे यहां से गायब हो गया था।

कुसुम कुमारी सिर नीचा किये तरह-तरह की बातें सोच रही थी। उसे यकायक राजा नारायणदत्त के इस ढंग से यहां आने पर बड़ा ही आश्चर्य था और उसे यह भी विश्वास हो गया था कि आज यहां कोई नया गुल खिलने वाला है। राजा साहब की बातें उसे और भी आश्चर्य में डाल रही थीं और वह ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि–हे ईश्वर, जो कुछ अद्भुत और आश्चर्य जनक घटना तुझे दिखलानी हो शीघ्र दिखा!!

राजा–(दीवान से) इस जगह तीन-चार साधुओं के बैठने का सामान शीघ्र करना होगा।

दीवान–जो आज्ञा! (बीरसेन की तरफ देखकर) आप किसी को आज्ञा दे दें

राजा–नहीं-नहीं, बीरसेन को यहां बैठा रहने दीजिए, आप स्वयं बाहर जाकर इसका प्रबन्ध कीजिए, केवल इतना ही नहीं एक प्रबन्ध आपको और भी करना होगा।

दीवान–(खड़े होकर) आज्ञा?

राजा–हम लोगों के सिवाय कोई दूसरा आदमी इस कमरे में न आने पावे और यदि कोई बाहर हो तो इतनी दूर हो कि हम लोगों की बातें न सुन सके। दीवान साहब कमरे के बाहर चले गए और थोड़ी ही देर में सब बन्दोबस्त जैसा कि राजा साहब ने कहा था हो गया।

हम ऊपर लिख आए हैं कि इस कमरे में एक तरफ संगमरमर की दो बड़ी मूरतें थीं, उनमें से एक तो कुसुम कुमारी के पिता कुबेरसिंह की मूरत थी और दूसरी मूरत रनबीरसिंह के पिता इन्द्रनाथ की थी, इस समय सब कोई उसी मूरत के सामने बैठे हुए थे। यकायक दोनों मूरतें हिलने लगीं जिसे देख कुसुम कुमारी और बीरसेन को बड़ा ही ताज्जुब हुआ। तीन ही चार सायत के बाद वे दोनों मूरतें गज-गज भर अपने चारों तरफ की छत लिए हुए जमीन के अन्दर चली गई और उसके बदले में उसी गड़हे के अन्दर से पांच आदमी बारी-बारी से इस तरह निकलते हुए दिखाई दिए जैसे कोई धीरे-धीरे सीढ़ी चढ़कर ऊपर आ रहा हो।

उन पांचों आदमियों में से दो आदमियों को तो दीवान साहब बीरसेन और कुसुम कुमारी भी पहचान गई मगर बाकी के तीन आदमियों को जो फकीरी सूरत में थे सिवाय राजा नारायणदत्त के और किसी ने भी नहीं पहचाना।

जिस समय वे पांचों आदमी छत के नीचे से ऊपर आए उसी समय राजा नारायणदत्त, दीवान साहब और बीरसेन उठ खड़े हुए। बेचारी कुसुम कुमारी सहम कर एक तरफ हट गई। राजा नारायणदत्त दौड़कर उन तीनों साधुओं में से एक साधु के पैर पर गिर पड़े और आंसुओं की धारा से उसके चरण की धूलि धोने लगे। उस साधु ने मुहब्बत के साथ राजा साहब की पीठ पर हाथ फेरा और उठाकर कहा, ‘‘अपने सच्चे प्रेमी मित्र से मिलो!’’ यह कहकर दूसरे साधु की तरफ जो उनके बगल ही में था इशारा किया और राजा साहब झपट कर उसके गले के साथ चिमट गए। उस साधु ने भी बड़े प्रेम से राजा साहब को गले लगा लिया और दोनों की आंखों से आंसुओं की धारा बह चली।

रनबीरसिंह आगे बढ़कर दीवान साहब से साहबसलामत करने के बाद बीरसेन से मिले और तब मोहब्बत भरी एक गहरी निगाह कुसुम कुमारी पर डाली, उधर उसने भी अपने धड़कते हुए कलेजे को शान्ति देकर प्रेम पूरित दृष्टि से रनबीर को देखा और लज्जा से आंखें नीची कर ली।

इस समय का कौतुक देखकर दीवान साहब और बीरसेन तो हैरान थे ही मगर कुसुम कुमारी के दिल का क्या हाल था सो हमारे पाठक स्वयं अनुमान कर सकते हैं।

अपने मित्र साधु से जो वास्तव में रनबीर के पिता थे मिलने के बाद राजा नारायणदत्त तीसरे साधु से गले मिले और तब रनबीर के पिता कुसुम कुमारी की तरफ बढ़े। राजा नारायणदत्त ने कुसुम से कहा, ‘‘यह रनबीरसिंह के पिता है, इनके पैरों पर गिरो।’’

कुसुम कुमारी रनबीरसिंह के पिता के पैरों पर गिर पड़ी जिन्होंने बड़े प्रेम से उठाकर उसका सर छाती से लगाया और कहा, ‘‘बेटी कुसुम, आज का दिन हम लोगों को देखना नसीब होगा इसका तो गुमान भी न था, हां इतना जानते थे कि हम लोगों की वास्तविक प्रसन्नता में कोई बाधा नहीं डाल सकता, अच्छा बैठो और हम लोगों का जीवन चरित्र सुनो।’’ इतना कहकर इन्द्रनाथ (रनबीर के पिता) दीवान साहब और बीरसेन की तरफ घूमे और कुशलमंगल पूछने लगे, दीवान साहब और बीरसेन भी इन्द्रनाथ के पैरों पर गिरे और दीवान साहब ने कहा, ‘‘मुझे पूरा विश्वास था कि जो कुछ आपने कहा है वही होगा परन्तु आज के दिन की खबर न थी और न यही जानता था कि आज का दिन हम लोगों के लिए इतनी बड़ी खुशी का होगा।’’

हम ऊपर लिख आए हैं कि छत के नीचे से सीढ़ियां चढ़कर पांच आदमी निकले जिनमें से चार आदमियों का हाल तो हम लिख चुके हैं मगर पांचवे आदमी का परिचय अभी नहीं दिया गया, वहां पांचवां आदमी वही सरदार चेतसिंह था जिसका बयान पहले आ चुका है, जो बहुत से फौजी सिपाहियों को लेकर रनबीरसिंह की खोज में उस पहाड़ी के ऊपर गया था जिस पर कुसुम कुमारी और रनबीरसिंह की मूरत बनी हुई थी।

यह नेक सरदार पुरानी उम्र का था और दीवान साहब की तरह बहुत से भेदों को जानता था, कुसुम कुमारी के पिता इसे दोस्ती की निगाह से देखते थे और इस पर बहुत भरोसा रखते थे, कुसुम को इसने गोद में खिलाया था इसलिए कुसुम इससे किसी तरह का पर्दा नहीं करती थी। इन्द्रनाथ इत्यादि के साथ सरदार चेतसिंह को भी अद्भुत ढंग से उस कमरे में पहुंचते देख दीवान साहब बीरसेन और कुसुम कुमारी को बड़ा ही ताज्जुब हुआ पर यह विचार कर कुछ न पूछा कि थोड़ी ही देर में बहुत से भेद खुलने वाले हैं ताज्जुब नहीं कि उन्हीं के साथ सरदार चेतसिंह का हाल भी मालूम हो जाए।

थोड़ी देर तक आश्चर्य से सब कोई एक दूसरे को देखते रहे और जब राजा साहब की इच्छानुसार सब कोई बैठ गए तो उस नए साधु ने जिसके पैर पर राजा साहब गिरे थे कहा, ‘‘यह खुशी जो किसी कारणवश बहुत दिनों तक लोप हो गई थी आज यकायक विचित्र रूप से तुम लोगों के सामने आकर खड़ी हुई है, यह खुशी क्यों और कहां चली गई थी और आज यकायक कैसे आ पहुंची तथा अब क्या अवस्था होगी इसका पूरा-पूरा हाल जिसके जानने के लिए तुम बेचैन हो रहे होगे राजा इन्द्रनाथ और राजा कुबेरसिंह का हाल सुनने ही से तुम लोगों को मालूम हो जाएगा और यह हाल इस समय हमारा यह शिष्य (दूसरे साधु की तरफ इशारा करके) तुम लोगों से कहेगा परन्तु अपनी जुबान से कुसुम कुमारी की प्रसन्नता के लिए या उसके दिल का खुटका शीघ्र ही दूर करने के लिए इतना मैं कह देता हूं कि दुनिया में मित्रता का नमूना दिखाने वाले दोनों मित्र इन्द्रनाथ और कुबेरसिंह मेरे चेले हैं और आज इस जगह ये दोनों ही मित्र उपस्थित है, तथा (राजा नारायणदत्त की तरफ इशारा करके) यह नारायणदत्त वास्तव में कुसुम कुमारी के पिता कबेरसिंह हैं।

गुरु महाराज के मुंह से इतनी बात निकलते ही कुसुम कुमारी चीख उठी और–‘‘पिता, पिता, मेरे प्यारे पिता! इतने दिनों तक मुझ अभागिनी को छोड़कर तुम दूर क्यों रहे?’’ कहती हुई राजा नारायणदत्त के पैरों पर गिर पड़ी और रोने लगी। राजा नारायणदत्त की आंखें भी डबडबा आई और उन्होंने बड़े प्यार से कुसुम कुमारी को उठाकर कहा, ‘‘बेटी कुसुम, यद्यपि बहुत दिनों तक मैं तुझसे दूर रहा परन्तु तू खूब जानती है कि मैं तेरी तरफ से बेफिक्र नहीं रहा और बराबर तेरी हिफाजत करता रहा। इतने दिनों तक मैं दूर क्यों रहा? इसका हाल हमारे गुरु भाई अभी-अभी तुम लोगों से कहेंगे, शान्त होकर बैठ और हम दोनों मित्रों का विचित्र हाल सुन।’’ इतना कह कर राजा साहब चुप हो गए और सब कोई अपने-अपने ठिकाने बैठ गए।

सभी का जी राजा साहब के गुरुभाई की तरफ लगा हुआ था जिनकी जुबानी दोनों राजाओं का विचित्र हाल सुनने के लिए सब बेचैन हो रहे थे। अस्तु राजा साहब के गुरुभाई ने यों कहना प्रारम्भ किया–

‘‘राजा इन्द्रनाथ और राजा कुबेरसिंह बड़े प्रेमी और पूरे मित्र होने के कारण प्रायः एक साथ रहा करते थे, दोनों इन्हीं (गुरु बाबाजी की तरफ इशारा करके) गुरु महाराज के चेले हैं जिनका चेला मैं हूं। दोनों मित्रों को ज्योतिष पढ़ने का हद्द से ज्यादे शौक था और गुरु महाराज ने भी बड़े प्रेम से दोनों को ज्योतिष के ग्रन्थ पढ़ाए और ज्योतिष की गूढ़ बातें बताईं। उन दिनों इन दिनों मित्रों के पिता जीते थे और तेजगढ़ तथा बिहार का राज्य करते थे। एक दिन इन दोनों मित्रों ने एकान्त में बैठकर अपने-अपने पिता के विषय में ज्योतिष द्वारा भविष्यत् फल तैयार करना आरम्भ किया और जब दोनों को यह मालूम हुआ कि इन दोनों ही के पिता आज के चालीसवें दिन एक साथ संग्राम में मारे जाएंगे तो इन्हें बड़ा ही आश्चर्य और रंज हुआ। उन दिनों न तो किसी से लड़ाई लगी हुई थी और न उन दोनों राजाओं का कोई दुश्मन ही था। अतएव इस बात से दिनों को आश्चर्य हुआ कि इतनी जल्दी किस लड़ाई में दोनों के पिता मारे जाएंगे। इस समय इन दोनों मित्रों की अवस्था लगभग बीस बर्ष की होगी।

जब इन दोनों को अपने-अपने पिता का हाल हर तरह से मालूम हो गया तो दोनों ने इस बात को छिपा रखा और इस उद्योग में लगे कि चालीस दिन की जगह पचास दिन तक न तो किसी से लड़ाई होने पावे और न उसके पिता मारे जाएं, क्योंकि इन दोनों मित्रों को प्रारब्ध के साथ उद्योग पर बहुत कुछ भरोसा था।

उसके पांचवें दिन राजा इन्द्रनाथ की राजधानी में एक जौहरी के घर डाका पड़ा और राजा के कर्मचारियों ने तीन डाकुओं को और एक चौदह वर्ष की उम्र के लड़के को गिरफ्तार किया। उन तीनों डाकुओं में एक अपनी मण्डली का सरदार था और वह नौउम्र लड़का भी उसी का था। जब वे चारों दरबार में हाजिर किए गए तो उस समय राजा कुबेरसिंह के पिता भी उसी दरबार में मौजूद थे।

 इस जगह हमें यह भी कह देना आवश्यक है कि राजा इन्द्रनाथ के पिता और कुबेरसिंह के पिता भी आपस में बड़े मित्र थे और प्रायः मिला-जुला करते थे। जब दोनों राजाओं ने उन डाकुओं का हाल सुना और डाकुओं ने भी अपना दोष स्वीकार कर लिया तो राजा इन्द्रनाथ के पिता को उस डाकू लड़के के जीवट पर बड़ा ही आश्चर्य हुआ। तीनों डाकुओं को तो प्राणदण्ड की आज्ञा दे दी और उस लड़के के विषय में अपने मित्र कुबेरसिंह के पिता से राय ली। कुबेरसिंह के पिता ने कहा कि जब यह लड़का चौदह वर्ष की उम्र में इतना दिलेर और निडर है तो भविष्य में बड़ा ही शैतान और खूनी निकलेगा और सिवाय डाकूपन के कोई दूसरा काम न करेगा अतएव इस लड़के को भी प्राणदण्ड ही देना चाहिए, छोड़ देने में भलाई की आशा नहीं हो सकती।

यह विचार जब उस डाकू सरदार ने सुना जिसका वह लड़का था, तो वह बड़े जोर से चिल्लाया और बोला, ‘‘महाराज! हम लोगों को प्राणदण्ड की आज्ञा हो चुकी है, खैर, कोई चिन्ता नहीं, हम लोग अपनी जिन्दगी का बहुत बड़ा हिस्सा ऐशोआराम में बिता चुके हैं किसी बात की हवस बाकी नहीं है, मगर इस बच्चे ने अभी दुनिया का कुछ भी नहीं देखा है अतएव आप कृपा कर इसे छोड़ दें, हम इस लड़के को कसम देकर कह देते हैं कि भविष्य के लिए यह डाकूवृत्ति को छोड़ दे और कोई दूसरा रोजगार करके जीवन निर्वाह करे।’’

डाकू सरदार ने बहुत कुछ कहा मगर महाराज ने कुछ भी न सुना और उस लड़के को भी फांसी की आज्ञा दे दी। बस उसी दिन से डाकुओं के साथ दुश्मनी की जड़ पैदा हुई और उन चारों के संगी-साथी डाकुओं ने उत्पात मचाना आरम्भ किया। दोनों राजाओं को भी इस बात कि जिद्द हो गई कि जहां तक बन पड़े खोज-खोज के डाकुओं को मारना और उनका नामनिशान मिटाना चाहिए। उस जमाने में डाकुओं की बड़ी तरक्की हो रही थी और भारतवर्ष में चारों तरफ वे लोग उत्पात मचा रहे थे।

धीरे-धीरे बदनसीबी के तीस दिन बीत गए और दस दिन बाकी रहे तब इन्द्रनाथ और कुबेरसिंह दोनों मित्रों ने विचार किया कि आजकल डाकुओं से बड़ी लागडांट चल रही है और डाकू लोग भी दोनों राजाओं को मार डालने की फिक्र में लगे हुए हैं, ऐसी अवस्था में ज्योंतिष की बात सच हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं, अस्तु कोई ऐसी तरकीब निकालनी चाहिए कि आज से पन्द्रह दिन तक दोनों राजा घर में ही बैठ कर बदनसीबी के दिन बिता दें। कुबेरसिंह की राय हुई कि अपने-अपने पिता को इस बात से होशियार कर देना चाहिए। यद्यपि यह बात इन्द्रनाथ को पसन्द न थी मगर सिवा इसके और कोई तरकीब भी न सूझी, आखिर जैसा कुबेरसिंह ने कहा था वैसा ही किया गया अर्थात् दोनों राजा ज्योतिष के भविष्यत्फल से सचेत कर दिए गए।

यद्यपि दोनों राजा जानते थे कि उनके लड़के ज्योतिष विद्या में होशियार और दक्ष हैं तथापि उन्होंने लड़कों की बात हंसकर उड़ा दी और कहा, हमें इन बातों का विश्वास नहीं है, और यदि हम लड़ाई में मारे ही गए तो हर्ज क्या है? क्षत्रियों का यह धर्म ही है। लाचार हो दोनों मित्र चुप हो रहे और किसी से लड़ाई न होने पावे छिपे-छिपे इसी बात का उद्योग करने लगे।

उनतालीस दिन मजे में बीत गये, चालीसवें दिन बाहर-ही-बाहर राजा इन्द्रनाथ के पिता अपने मित्र से मिलने के लिए तेजगढ़ की तरफ जा रहे थे जब रास्ते में सुना कि उनके मित्र शिकार खेलने के लिए शेरघाटी की तरफ आज ही रवाना हुए हैं। यह सुन इन्द्रनाथ के पिता भी शेरघाटी की तरफ घूम गए और शाम होते-होते बीच में ही उनसे जा मिले। दोनों का डेरा एक जंगल के किनारे पड़ा और वहां हजार बारह सौ आदमियों की भीड़भाड़ हो गई।

पहर रात गई होगी जब उन दोनों को खबर लगी कि कई आदमी जो पोशाक और रंग-ढंग से डाकू मालूम पड़ते हैं इधर-उधर घूमते दिखाई पड़े हैं।

राजा लोगों ने इस बात पर विशेष ध्यान न दिया और अपने आदमियों को होशियार रहने की आज्ञा देकर चुप हो रहे।

दो पहर रात से ज्यादे जा चुकी थी जब डाकुओं के एक भारी गिरोह ने उस डेरे पर छापा मारा जिसमें दोनों राजा दो खूबसूरत पलंगड़ियों पर सो रहे थे और चारों तरफ कई आदमी पहरा दे रहे थे। फौजी सिपाही भी वहां जा पहुंचे मगर जान से हाथ धोकर लड़ने वाले डाकुओं की उमंग को रोक न सके। दोनों महाराज भी तलवार लेकर मुस्तैद हो गए और चार-पांच डाकुओं को मारकर खुद भी उसी लड़ाई में मारे गए। इस लड़ाई में बहुत से डाकू मारे गए जिनमें चार-पाँच डाकू ऐसे भी मिले जिनकी जान तो नहीं निकली थी मगर जीने लायक भी न थे, इन्हीं की जुबानी मालूम हुआ कि उस गिरोह का सरदार अनगढ़सिंह नामी उस डाकू का बड़ा भाई था जिसे चौदह वर्ष की अवस्था में प्राणदण्ड दिया गया था।

यह खबर जब इन्द्रनाथ और कुबेरसिंह को लगी तो उन्हें बड़ा ही रंज हुआ यहां तक कि राज कहने की अभिलाषा दोनों के दिल से जाती रही। दोनों ने सोचा कि जब प्रारब्ध का लिखा हुआ मिट ही नहीं सकता और जो कुछ होना है सो होगा तो व्यर्थ की किचकिच में फंसे रहने से क्या मतलब? दो वर्ष तक तो इन्द्रनाथ किसी तरह से अपने पिता की गद्दी पर बैठे रहे, इसके बाद अपने दीवान को राज्य सौंप कर फकीर हो गए, उस समय रनबीरसिंह की उम्र पांच वर्ष की थी और कुसुम कुमारी की ढाई वर्ष की।

राजा इन्द्रनाथ अपनी स्त्री और लड़के को लेकर काशी चले चले गए और उसी जगह श्रीविश्वनाथ जी की आराधना में दिन बिताने लगे। राजा इन्द्रनाथ के राज्य छोड़ने का केवल एक वही सबब न था बल्कि उन्हें कई आपस वालों ने कई दफे जहर देकर मार डालने का उद्योग भी किया था मगर ईश्वर की कृपा से जान बच गई थी इसलिए उन्हें कुछ पहले से भी राज्य से घृणा हो रही थी। राजा कुबेरसिंह ने भी अपने मित्र का साथ देना चाहा मगर इन्द्रनाथ ने कसम देकर उन्हें ऐसा करने से रोका और कहा कि कुछ दिन और ठहर जाओ उसके बाद जो चाहना सो करना, आखिर राजा कुबेरसिंह ने उनका कहा मान लिया मगर राज्य का काम बेदिली के साथ करने लगे और महीने-दो महीने पर अपने मित्र से अवश्य मिलते रहे।

कुछ दिन बाद जब एक रोज दोनों मित्र इकट्ठे हुए अर्थात जब कुबेरसिंह काशी में जाकर इन्द्रनाथ से मिले तो बात ही बात में पुनः ज्योतिषविद्या की चर्चा होने लगी, दोनों मित्रों की इच्छा हुई कि एक दफे पुनः उद्योग करके अपने नसीब को देखना चाहिए और मालूम करना चाहिए कि अब आगे क्या होने वाला है। आखिर ऐसा ही हुआ, तीन दिन के उद्योग में दोनों ने कई वर्ष का फल तैयार कर लिया जिससे मालूम हुआ कि इन्द्रनाथ और कुबेरसिंह दोनों साधु हो जाएंगे, रनबीरसिंह और कुसुम कुमारी दोनों के लिए राज-सुख बदा नहीं है, कुसुम को कोई राजा जबर्दस्ती ब्याह ले जाएगा इसके अतिरिक्त और भी कई बातें मालूम हुईं। राजा इन्द्रनाथ ने कुबेरसिंह से कहा कि भाई पहली दफे तो हम लोग धोखे में रह गये परन्तु अबकी दफे देखना चाहिए कि उद्योग की सहायता से हम लोग अपने प्रारब्ध के साथ क्या कर सकते हैं, हम तो अब फकीर हो ही चुके हैं मगर तुम कदापि फकीर न होना, यद्यपि राजा बने रहने की इच्छा न भी रहे तो टेक निबाहने के लिए अपने देश के मालिक बने ही रहना। मालूम हुआ है कि कुसुम को कोई राजा जबर्दस्ती ब्याह ले जाएगा, सो तुम अभी ही कुसुम की शादी छिपे-छिपे रनबीर के साथ यहां ही कर दो और दो-तीन आदमियों को यह भेद बता दो जिसमें समय पर काम आवे और कोई गैर आदमी इस भेद को जानने न पावे। अपने घर में एक चित्रशाला बनवाओं जो इन भेदों को समय पड़ने पर खोल दे, उस घर में हमेशा ताला बन्द रहे और उसकी ताली किसी योग्य पुरुष के सुपुर्द रहे, इसके बाद तुम अन्तर्धान हो जाओ फिर सूरत बदल कर हमारी राजगद्दी पर बैठो देखो कि प्रारब्ध और उद्योग में कैसी निपटती है, हमारी राजगद्दी पर बैठ रहने से तुम कुसुम और रनबीर की हिफाजत भी कर सकोगे, इत्यादि।

कुबेरसिंह अपने मित्र की बात किसी तरह टाल नहीं सकते थे मगर एक खुटके ने उन्हें तरद्दुद में डाल दिया और सिर झुका कर सोचने लगे। जब कुछ देर हो गई तो इन्द्रनाथ ने पूछा, ‘‘आप क्या सोच रहे हैं?’’ इसके जवाब में कुबेरसिंह ने कहा कि मैं यह सोचता हूं कि आपने जो कुछ कहा उसे मैं जी जान से कर सकता हूं परन्तु विचार इस बात का है कि जब मैं लड़की की शादी रनबीर के साथ कर दूंगा तो आपके राज्य का मालिक मैं कैसे बन सकूंगा? आपकी आमदनी का एक पैसा भी मेरे काम आने से मैं लोक परलोक दोनों में से कहीं का न रहूंगा, और जब अपना राज्य अपनी लड़की को दे दूंगा तो उसमें से भी एक पैसा लेने लायक न रहूंगा, ऐसी अवस्था में आपकी आज्ञानुसार काम करके अपना जीवन निर्वाह मैं क्योंकर कर सकूंगा? साथ ही इसके कोई काम ऐसा भी न होना चाहिए जिसमें आपकी राजगद्दी चलाने के समय में लोगों को मेरे असल हाल का पता लग जाए।’’

कुबेरसिंह की बात सुनकर राजा इन्द्रनाथ ने कहा, ‘‘आपका सोचना बहुत ठीक है, मगर उसके लिए एक तरकीब हो सकती है अर्थात् कुसुम को राज्य दे देने और उसकी शादी करने के पहले ही आप अपने राज्य का कोई मौजा या परगना राज्य से अलग करके किसी ऐसे आदमी के सुपुर्द कर दीजिए जिस पर आप पूरा विश्वास कर सकते हों और जिसे आप इस भेद में भी शरीक करना पसन्द करते हों, बस वह आदमी आपके अलग किए हुए परगने की आमदनी किसी ढंग से आपको दिया करेगा और उसी से आप अपना काम चलाया करेंगे।

राजा कुबेरसिंह को यह बात बहुत पसन्द आई और वह गुप्तरीति से इसका बन्दोबस्त करने लगे। (दीवार की तरफ इशारा करके) यह देखिए उसी जमाने की तसवीर है, उन दिनों इन्द्रनाथ की स्त्री भी जो बड़ी पतिव्रता थी राजा साहब के साथ ही रहा करती थी और रनबीर के साथ खेलने के लिए वे जसंवत नामी एक लड़के को भी साथ रखते थे। जसवंत पर भी राजा साहब बड़ी कृपा रखते थे मगर उस कमबख्त ने अन्त में ऐसी करनी की कि जो सुनेगा उसके नाम से घृणा करेगा, अब तो वह मर ही गया उसका जिक्र करना फजूल है।

जब ऊपर कही हुई बात को दो बर्ष बीत गये और राजा कुबेरसिंह ने गुप्त रीति से सब बातों को पूरा-पूरा बन्दोबस्त कर लिया तब यात्रा करने के बहाने अपनी स्त्री और कुसुम को तथा और भी बहुत से आदमियों को साथ लेकर काशी जी गए। कुबेरसिंह को जो कुछ इरादा था उसकी खबर सिवाय उनकी स्त्री दीवान साहब और सरदार चेतासिंह के और किसी को भी न थी बल्कि और लोगों को यह भी मालूम न था क राजा इन्द्रनाथ अपनी स्त्री और लड़के के सहित काशी पुरी में रहते हैं। मगर जिस रात उस मकान में जिसमें इन्द्रनाथ रहते थे गुप्त रीति से कुसुम का विवाह हुआ और विवाह करने के लिए काशी के एक पंडित को बुलाया गया। उसी रात गोत्रोच्चारण के समय में उस पंडित को मालूम हो गया कि वह साधु वास्तव में राजा इन्द्रनाथ है और उसी पंडित की जुबानी जिसे इस विवाह में बहुत कुछ मिला भी था मगर जो पेट का हलका था, धीरे-धीरे कई आदमियों को इसकी खबर हो गई कि फला साधु या ब्रह्मचारी वास्तव में राजा इन्द्रनाथ है। (दीवार की तसवीर दिखाकर) देखिए यह कुसुम के विवाह के समय की तसवीर है। एक बात कहना तो हम भूल ही गए, देखिए इसी तसवीर में राजा इन्द्रनाथ के पीछे सिपाहियाना ठाठ से एक आदमी खड़ा है, यह इन पंडित जी का नौकर है जो विवाह कराने आये थे। डरपोक पंडित ने समझा कि कहीं ऐसा न हो कि विवाह कराने के बहाने ये लोग बेठिकाने ले जाकर उन्हीं का कपड़ा लत्ता छीन लें जैसा कि काशी में प्रायः हुआ करता है इसीलिए इस आदमी को अपने साथ लाए थे।

राजा इन्द्रनाथ ने तो समझा था कि ब्राह्मण का आदमी है, सीधा-सादा होगा मगर वह बड़ा ही शैतान और पाजी निकला और उसी के रुपए के लालच में पड़कर अन्त में इन्द्रनाथ का पता डाकुओं को दे दिया। कुसुम की शादी के थोड़े ही दिन बाद कुसुम की मां का देहान्त हुआ। उन दिनों कुबेरसिंह बहुत उदास रहा करते थे और उसी उदासी के जमाने में ये तसवीरें बनाई गई थीं। इन तसवीरों के बनाने में सरदार चेतसिंह ने बड़ी कारीगरी खर्च की है। यद्यपि ये मुसौवर नहीं थे मगर हम सबके काम को अपने हाथ से पूरा करने के लिए राजा कुबेरसिंह की आज्ञानुसार इन्होंने बड़ी कोशिश से मुसौवरी सीखी थी।

देखिए चारों तरफ की तसवीरें कुबेरसिंह और इन्द्रनाथ की दोस्ती और इनके लड़कपन के जमाने का हाल दिखा रही है। कुसुम की शादी के कई वर्ष बाद कुबेरसिंह ने कुसुम को गद्दी देकर दीवान साहब के सुपुर्द कर दिया और कुसुम कुमारी तथा और लोगों को यह कहकर कि मैं बद्रिकाश्रम जाता हूं, संन्यास लेकर उसी तरफ कहीं रहूंगा। घर से बाहर हो गए। जाती समय बहुत सी बातें कुसुम को समझा गए जो उस समय कुछ होशियार हो चुकी थी, तथा यह भी कह गए कि मेरी नसीहत को आखिरी नसीहत समझियो क्योंकि अब मैं कदाचित लौट कर घर भी न आऊंगा और यदि मेरे देहान्त की किसी तरह की खबर लगे तो क्रिया कर्म किया न जाए क्योंकि मैं यहां से जाने के साथ ही संन्यासी हो जाऊंगा।

कुबेरसिंह जिस समय वहां से जाने लगे घर और बाहर चारों तरफ हाहाकार मच गया और सभी का जी बड़ा ही दुःखी और उदास हुआ परन्तु कोई उनके इरादे को रोक नहीं सकता था अस्तु वह कार्य भी हो गया और तीन-चार आदमियों को छोड़ के फिर किसी को कुबेरसिंह का पता न लगा।

कुबेरसिंह घर से निकल कर बदरिकाश्रम नहीं गए बल्कि सीधे अपने मित्र इन्द्रनाथ के पास काशी पहुंचे और दोनों मित्र मिल-जुल कर रहने लगे। थोड़े दिन बाद जंगल की जड़ी-बूटियों की सहायता से कुबेरसिंह का रंग रूप बदल दिया गया और इन्द्रनाथ ने अपने दीवान को जो उनका सब हाल जानता था और जिसे मरे आज कई वर्ष हो गए हैं बुलवाकर बहुत कुछ समझाया और कुबेरसिंह को अपनी जगह राजा बनाने की आज्ञा देकर कुबेरसिंह के सहित उसे विदा किया। उस दिन से कुबेरसिंह ने अपना नाम नारायणदत्त रखा और बिहार के राजा कहलाने लगे। इसके थोड़े ही दिन बाद इन्द्रनाथ को मालूम हो गया कि डाकुओं को हमारा पता लग गया और वे लोग हमारी जान लेने की फिक्र कर रहे हैं। इन्द्रनाथ को अपनी जान प्यारी न थी मगर अपनी स्त्री और रनबीरसिंह का बड़ा ध्यान था इसलिए अपनी स्त्री और लड़के को अपने मित्र कुबेरसिंह के सुपुर्द करना चाहा परन्तु उनकी स्त्री ने स्वीकार न किया। उसने कहा कि लड़के को चाहे भेज दो मगर मैं आपका साथ न छोड़ूंगी, इस सबब से रनबीर को कुबेरसिंह के हवाले करने की कार्रवाई कुछ दिन के लिए रुकी रही। एक दिन रात के समय दो-तीन डाकू सेंध लगाकर उनके मकान में घुसे, ईश्वर इच्छा से इन्द्रनाथ जाग रहे थे इसलिए जान बच गई मगर फिर भी उन डाकुओं के साथ लड़ना ही पड़ा, उनकी स्त्री उसी दिन एक डाकू के हाथ से मारी गई मगर इन्द्रनाथ ने भी उन डाकुओं में से सिवाय एक के किसी को जीता न छोड़ा, वह एक डाकू जो बच गया था, इन्द्रनाथ की स्त्री के कपड़े की गठरी लेकर भाग गया, उस समय रनबीरसिंह और जसवंत चारपाई पर सो रहे थे जिन्हें इस लड़ाई की कुछ भी खबर न थी।

अब इन्द्रनाथ इस फेर में पड़े कि सवेरा होने पर जब इस डाके की खबर लोगों को होगी और राजकर्मचारी लोग इकट्ठे होकर तहकीकात करेंगे तो हमारा भेद खुल जाएगा और अगर हम रनबीर को लेकर कहीं चले जाएं, तो अपनी स्त्री की लाश का क्या करें, जो बेचारी इस समय डाकुओं के हाथ से मारी गई है (कुछ रुककर) अहा, ईश्वर की भी विचित्र महिमा है। इन्द्रनाथ इस फेर में पड़े हुए सोच ही रहे थे कि मैं जा पहुंचा और सब हाल मालूम करने के बाद उनका साथ देने के लिए तैयार हो गया। अपनी स्त्री की लाश कम्बल में बांध कर इन्द्रनाथ ने पीठ पर लादी और रनबीर को मैंने गोद में उठा लिया, जसवंत की उंगली पकड़ ली और उसी समय वहां से निकलकर बाहर हुए। तरनतारनी भगवती जाह्नवी के तट पर पहुंच कर और डोमडों को बहुत कुछ देकर रनबीर के मां की दाहक्रिया की गई और दो ही घण्टे में उस काम से भी छुट्टी पाकर हम लोग काशी के बाहर हो गए, फिर न मालूम पीछे क्या हुआ और लोगों ने क्या सोचा। रनबीर अपनी मां के मपने से बड़ा उदास और दुःखी हुआ, यद्यपि उस समय वह बालक ही था मगर घड़ी-घड़ी अपने पिता से यही कहता था कि मेरी मां को जिसने मारा उसका पता बता दो, मैं अपने हाथ से उसका सर काटूंगा। आखिर लाचार होकर इन्द्रनाथ ने उसे समझा दिया कि तेरी मां को किसी दूसरे ने नहीं मारा बल्कि वह अपने हाथ से अपना गला काट के मर गई।

इतना कहकर बाबाजी कुछ देर के लिए चुप हो गए क्योंकि यह हाल कहते-कहते उनका जी उमड़ आया था और रनबीर तथा कुसुम कुमारी की आंखों से भी आंसू की धारा बह रही थी। थोड़ी देर बाद बाबाजी ने फिर कहना शुरू किया–

‘‘काशी से बाहर होकर हम लोग तीन दिन तक बराबर चले ही गए और विन्ध्य की एक पहाड़ी पर जाकर विश्राम किया। इन्द्रनाथ ने एक खोह में डेरा डाला और मुझे कुबेरसिंह को बुलाने के लिए भेजा। जब कुबेरसिंह आए तो रनबीर तथा जसंवत को समझा-बुझाकर उनके हवाले किया और आप अकेले रहने लगे। उस दिन से फिर रनबीर को अपने बाप का कुछ हाल मालूम न हुआ।

इस जगह हम यह कहना पसन्द नहीं करते कि रनबीरसिंह किस तरह अपनी राजधानी में रहा करते थे क्योंकि कुसुम को छोड़ के और सभी को उसका हाल मालूम है तथापि रनबीर को पुनः जताने के लिए इतना अवश्य कहेंगे कि राजा नारायणदत्त (कुबेरसिंह) रनबीर को बराबर कहा करते थे कि जसवंत अच्छे खानदान का शुद्ध लड़का नहीं है अतएव तुम इस पर भरोसा न रखा करो और इसका साथ छोड़ दो।

थोड़े दिन तक उस पहाड़ी में ईश्वराधन करने के बाद इन्द्रनाथ वहां से उठकर अपने गुरु के पास गए और साल भर तक उनके पास रहने के बाद फिर अलग हुए क्योंकि उस जगह (जहां गुरुजी रहा करते थे) डाकुओं की आमदरफ्त शुरू हो गई थी और डाकुओं को उनका पता लग जाने का भय था अस्तु इन्द्रनाथ वहां से रवाना होकर मथुरापुरी की तरफ चले गए, फिर मुद्दत तक किसी को मालूम न हुआ कि राजा इन्द्रनाथ कहां गए, क्या हुए और उन पर क्या मुसीबत आई, तथापि राजा कुबेरसिंह और गुरु महाराज उनकी खोज में लगे रहे। इधर लगभग तीन वर्ष के हुआ होगा कि राजा कुबेरसिंह के एक जासूस ने आकर यह खबर दी कि राजा इन्द्रनाथ को बालेसिंह ने गिरफ्तार करके डाकुओं के हवाले कर दिया। इतना सुनते ही कुबेरसिंह गुरु महाराज के पास गए और सब हाल उनसे कहा और इसके बाद उसका पता लगाकर कैद से छुड़ाने की फिक्र होने लगी।

यह बात कई आदमियों को मालूम थी कि–बालेसिंह डाकुओं के किसी गिरोह का गुप्त रीति से साथी है और डाकुओं की बदौलत वह अपने को बड़ा ताकतवर समझता है और वास्तव में बात भी ऐसी ही थी। डाकुओं की बदौलत बालेसिंह बात की बात में अपने फौजी ताकत को तो बढ़ा ही लेता था, मगर वह खुद भी बड़ा काइयां और शैतान था। स्वयं राजा कुबेरसिंह ने उससे रंज होकर कई दफे उस पर चढ़ाई की थी मगर वह काबू में न आया, ईश्वर रनबीरसिंह पर सदैव प्रसन्न रहे जिसने अपनी बहादुरी से बालेसिंह को बेकाम कर दिया।

जिन दिनों गुरु महाराज को यह मालूम हुआ कि इन्द्रनाथ को बालेसिंह ने डाकुओं के हाथ में फसा दिया उन दिनों गुरु महाराज की सेवा में एक नौजवान बहादुर आया करता था जो बड़ा ही नेक और रहमदिल था। उसका बाप जो बालेसिंह का नौकर था मर चुका था, केवल उसकी एक मां थी, जो बालेसिंह के यहां रहा करती थी, वह नौजवान लड़का भी जिसका नाम रामसिंह था अपनी मां के साथ बालेसिंह के ही यहां रहा करता था परन्तु यद्यपि वह बालेसिंह के यहां रहता था और उसका नमक खाता था मगर बालेसिंह की चाल चलन उसे पसन्द न थी और इसलिए वह गुरु महाराज से कहा करता था कि कोई ऐसी तरकीब बताइए जिससे मैं अमीर हो जाऊं और बालेसिंह की मुझे कुछ परवाह न रहे, जिसके जवाब में गुरु महाराज यही कहा करते थे कि उद्योग करो, जो चाहते हो सो हो जाएगा, उद्योगी मनुष्य के आगे कोई बात दुर्लभ नहीं है। जब गुरु महाराज को इन्द्रनाथ का हाल मालूम हुआ तो उन्होंने इन्द्रनाथ का ठीक-ठीक पता लगाने का काम उसी नौजवान रामसिंह के सुपुर्द किया और कहा कि उद्योग करने का यही मौका है, यदि तेरे उद्योग से इन्द्रनाथ का ठीक-ठीक पता लग गया और इन्द्रनाथ डाकुओं के फन्दे से निकल गए तो तुझे अमीर कर देने का जिम्मा हम लेते हैं। रामसिंह ने बड़े उत्साह से गुरु महाराज की आज्ञा स्वीकार कर ली क्योंकि वह जानता था कि कई राजा लोग गुरु महाराज के चेले हैं, अगर ये चाहेंगे और मुझसे प्रसन्न होंगे तो निःसन्देह मुझे अमीर कर देंगे।

गुरु महाराज को इस बात का पूर्ण विश्वास था कि बालेसिंह को या किसी डाकू को यह नहीं मालूम है कि इन्द्रनाथ और कुबेरसिंह हमारे चेले हैं या उनसे और हमसे कुछ सम्बन्ध है इसलिए बेफिक्री के साथ रामसिंह को मदद दे सकते थे और रामसिंह को अपना भेद खुल जाने का भय न था।

फिर तो रामसिंह को यह धुन हो गई कि किसी तरह डाकुओं का सरदार मुझसे प्रसन्न हो जाए और बालेसिंह से मांग ले तो मेरा काम बन जाए, अस्तु उसने वर्षों की कोशिश में बालेसिंह को अपने ऊपर प्रसन्न कर लिया और ऐसे-ऐसे बहादुरी के काम कर दिखाए कि बालेसिंह उसे जी जान से मानने लग गया। जब-जब डाकुओं का सरदार मिलने के लिए बालेसिंह के पास जाता तब-तब वह उस नौजवान की तारीफ उससे करता। एक दिन डाकू सरदार ने रामसिंह से कहा कि मैं बालेसिंह की जुबानी तेरी बड़ी तारीफ सुना करता हूं परन्तु मैं अपनी आंखों से तेरी बहादुरी देखना चाहता हूं। कल हम लोग एक मुहिम पर जाने वाले हैं, तू हमारे साथ चल और अपनी बहादुरी का नमूना मुझे दिखला।

रामसिंह ने मन में प्रसन्न होकर कहा कि मैं आपके साथ चलने के लिए जी जान से तैयार हूं परन्तु मालिक की आज्ञा होनी चाहिए।

मुख्तसर यह है कि डाकू सरदार ने रामसिंह को आठ-दस दिन के लिए मांग लिया और अपने साथ एक मुहिम पर ले गया। डाकू सरदार को खुश करने का यह बहुत अच्छा मौका रामसिंह के हाथ लगा और उसने मुहिम पर जाकर ऐसी बहादुरी दिखलाई कि डाकू सरदार मोहित हो गया और मुहिम पर से लौटने के बाद बड़ी जिद्द करके उसने बालेसिंह से रामसिंह को मांग लिया। जब रामसिंह डाकू सरदार के साथ जाने लगा तब उसने कह-सुनकर अपनी मां को भी साथ ले लिया जो उसके दिन का हाल अच्छी तरह जानती थी।

गिरनार पहाड़ के पास ही कहीं पर सतगुरु देवदत्त का कोई स्थान है। हम नहीं जानते कि ये ‘सतगुरु देवदत्त’ कौन थे और उनकी गद्दी का क्या हाल है, मगर इतना रामसिंह की जुबानी मालूम हो गया था कि आजकल के डाकू लोग ‘सतगुरु देवदत्त’ की गद्दी के चेले हैं और उनके नाम की बड़ी इज्जत करते हैं।   

डाकू सरदार के पास जाने के बाद भी महीने में दो-तीन दफे रामसिंह गुरु महाराज के पास आया करता था। इसी महीने में जब डाकू सरदार ने खुश होकर रामसिंह को अपने सिपाहियों का सरदार बना दिया तब उसे मालूम हुआ कि इन्द्रनाथ इसी डाकू सरदार के कब्जे में पड़े हुए हैं, इसके पहले उसे इस बात का केवल शक था पर विश्वां न था।

जिस दिन इस किले के सामने मैदान में बालेसिंह से और रनबीरसिंह से लड़ाई हुई थी उसी दिन रामसिंह ने गुरु महाराज के पास आकर यह खुशखबरी सुनाई थी कि ‘इन्द्रनाथ का पता लग गया, वह उसी डाकू सरदार के कब्जे में है जिसके यहां मैं रहता हूं, आप जो कुछ उचित समझें करें और मुझे जो कुछ आज्ञा हो करने के लिए मैं तैयार हूं।

यह खुशखबरी सुनकर गुरु महाराज बहुत प्रसन्न हुए, रामसिंह को तो कई बातें समझा-बुझाकर विदा किया और मुझे यह आज्ञा दी कि रनबीरसिंह को इस ढब से मेरे पास ले आओ जिसमें किसी को कानों-कान खबर न हो। हम सरदार चेतसिंह के नाम पत्र लिख देते हैं, वह इस काम में तुम्हारी सहायता करेगा बल्कि एक पत्र और लिए जाओ वह भी सरदार चेतसिंह को देना और कह देना कि अपने किसी विश्वासपात्र के हाथ राजा नारायणदत्त के पास भेजवा दें।

गुरु महाराज की आज्ञा पाकर मैं यहां आया और सरदार चेतसिंह से मिलकर तथा सब हाल कहकर गुरु महाराज की चिट्ठी दी। सरदार चेतसिंह ने उसी समय अपने भतीजे को राजा नारायणदत्त के पास रवाना किया और रनबीरसिंह को यहां से ले जाने में मुझे सहायता दी। (उस गड़हे की तरफ इशारा करके जिस राह से ये लोग इस कमरे में आए थे) इसी राह से मैं इस कमरे में आया था, उस समय रनबीरसिंह और बीरसेन दोनों आदमी इस कमरे में सोये हुए थे और दोनों के सिरहाने पानी का भरा हुआ एक चांदी का बर्तन रखा हुआ था, मैंने दोनों के सिरहाने जाकर पानी के बर्तनों में एक प्रकार की दवा डाल दी, जो जख्मों को फायदा पहुंचाने के साथ-ही-साथ गहरी नींद में बेंहोश कर देने की शक्ति रखती थी और उलटे पैर यहां से लौट गया तथा यह रास्ता बन्द करता गया। दो घंटे के बाद जब मैं फिर इस कमरे में आया तो पानी का बर्तन देखने से मालूम हो गया कि दोनों ने इसमें से थोड़ा-थोड़ा जल पीया है, बस मैं बेफिक्री के साथ सरदार चेतसिंह की सहायता से रनबीरसिंह को यहां से उठा ले गया और जब अपने स्थान के पास पहुंचा तो एक पेड़ के नीचे इन्हें रख तथा इनके जख्मों पर अनूठी बूटी का रस लगाकर अलग हो गया।’’

पाठक महाशय, अब तो आपको मालूम हो गया होगा कि यह साधु बाबा वही हैं जिनका हाल हम ऊपर पचीसवें बयान में लिख आए हैं और यह साधु महाशय अपने साथ रनबीर को लेकर जिस बाबाजी के पास गए थे या जिसने रनबीर की सूरत बदलकर डाकुओं की तरफ रवाना किया था वह गुरु महाराज ही थे जिनका हाल छब्बीसवें बयान में लिखा जा चुका है।

ऊपर लिखा हुआ हाल कहकर साधु बाबा दम लेने के लिए कुछ रुक गए और फिर इस तरह कहने लगे, ‘‘जब रनबीरसिंह की आंखें खुलीं तो मेरा लिखा हुआ एक पुर्जा पढ़कर जिसे मैंने उसके पास वाले एक पेड़ के साथ चिपका दिया था पश्चिम की तरफ चल निकले और थोड़ी ही देर बाद इनकी मुझसे मुलाकात हुई। मैंने गुरु महाराज की आज्ञा से इन्द्रनाथ का कुछ हाल कागज पर पहले से ही लिख के इसलिए रख छोड़ा था कि इन्द्रनाथ का पता न लगेगा तो यह कागज कुसुम कुमारी के पास भेज देंगे। वही कागज मैंने रनबीर के आगे रख दिया जिसके पढ़ने से इन्हें सब हाल मालूम हो गया। इसके बाद मैं रनबीर को गुरु महाराज के पास ले गया और सब हाल कहा। गुरु महाराज ने इन्हें डाकुओं का सब भेद बताया, जहां वे रहते थे वहां का पता दिया, और यह भी कहा कि ये डाकू लोग सत्तगुरुदेवदत्त की गद्दी तथा उनके चेलों और नाम को हद से ज्यादे मानते हैं, तुम सत्तगुरुदेवदत्त के नकली चेले बन के वहां जाओ और अपने पिता को छुड़ाने का उद्योग करो। वहां डाकुओं के मकान में माई अन्नपूर्णा का एक स्थान है जिसकी पूजा एक औरत करती है, वह और उसका लड़का रामसिंह तुम्हारी मदद करेगा, हम बुढ़िया के नाम की एक चिट्टी लिख देते हैं, इस बात की खबर राजा नारायणदत्त के पास भेज दी गई है, तीन-चार दिन के अन्दर तुम्हारे पास मदद भी पहुंच जाएगी, मगर तुम अपना काम बड़ी होशियारी से करना जिसमें डाकू सरदार को तुम पर शक न होने पावे नहीं तो सब काम चौपट हो जाएगा, इस भरोसे पर मत रहना कि डाकू सरदार की जिन्दगी में उसके मकान की हद के अन्दर फौजी मदद (जो तुम्हारे पास भेजी जाएगी) कुछ काम कर सकेगी। तुम्हें मदद पहुंचने के पहले ही डाकू सरदार पर अपना कब्जा कर लेना चाहिए। इत्यादि बातें समझा-बुझाकर एक बूटी का रस लगा कर इनका रंग काला कर दिया और उस तरफ रवाना किया।

इतना कहकर साधु महाशय दम लेने के लिए फिर रुके और उस समय बीरसेन ने पूछा, ‘‘जब डाकू लोग सत्तगुरु देवदत्त को मानते हैं तो माई अन्नपूर्णा की पूजा क्यों करते हैं?’’

साधु–माई अन्नपूर्णा का वह स्थान जिसका मैंने जिक्र किया है डाकुओं का बनाया हुआ न था बल्कि रामसिंह की मां ने बनवाया था क्योंकि वह माई अन्नपूर्णा की उपासना और भक्ति बहुत दिनों से करती है।

बीरसेन–ठीक है, अच्छा तब क्या हुआ?

साधु–इसके आगे का हाल यदि रनबीरसिंह बयान करें तो अच्छा होगा।

कुबेरसिंह–मैं भी यही अच्छा समझता हूं और रनबीर की जबानी सविस्तार हाल सुनने की इच्छा रखता हूं।

रनबीर–जैसी आज्ञा।

रनबीरसिंह ने डाकुओं के घर जाकर कार्रवाई करने का हाल जैसा कि हम ऊपर लिख आए हैं बयान किया इसके बाद अपना बाकी का हाल जिसे हम छोड़ आए हैं यों कहना शुरू किया– ‘‘जैसाकि अभी कह चुका हूं उस ढंग से जब मैं, रामसिंह, उसकी मां और अपने पिता को साथ लेकर पैदल ही वहां से रवाना हुआ तो मैंने रामसिंह से पूछा कि वे पांचों औरतें कौन थीं जिन्हें तुम मेरे देखते-देखते इस मकान में ले आए थे? इसके जवाब में रामसिंह ने कहा, वे पांच औरतें राजा कुबेरसिंह के रिश्तेदार मन्मथसिंह के घर की हैं जो डाकू सरदार की आज्ञानुसार इसलिए गिरफ्तार की गई हैं कि उनके बदले में बहुत-सा रुपया लेकर तब छोड़ी जाएं क्योंकि डाकू सरदार ने कुसुम कुमारी को भी गिरफ्तार करने की आज्ञा दी थी।’’

इतना सुनते ही राजा कुबेरसिंह चौंक पड़े और बोले, ‘‘हैऽ! मन्मथसिंह के घर की औरतें।

रनबीर–जी हां।

कुबेर–अब वे औरतें कहां हैं?

रनबीर–(उस गड़हे की तरफ इशारा करके) नीचे बैठी हुई हैं यदि इच्छा हो तो बुला ली जाएं।

कुबेर–(गुरु महाराज की तरफ देख के) यदि आज्ञा हो तो वे ऊपर बुला ली जाएं?

गुरु–जल्दी न करो, वे आराम से नीचे बैठी हुई हैं, जहां तक हम समझते हैं सिवाय इन लोगों के जो यहां मौजूद हैं और किसी को भी तुम लोगों का हाल मालूम न होना चाहिए।

कुबेर–सो तो ठीक है।

इन्द्रनाथ–बेशक हम लोगों का हाल किसी को मालूम न होना चाहिए।

मन्मथसिंह के घर की औरतों का नाम सुनकर कुसुम कुमारी के दिल की अजीब हालत हुई, अगर बड़े लोग वहां उपस्थित न होते या रनबीरसिंह के बदले में कोई दूसरा आदमी इस किस्से को सुनाता होता तो कुसुम कुमारी अपने दिल को न रोक सकती कुछ-न-कुछ जरूर पूछती और उन लोगों को देखने की इच्छा प्रकट करती मगर इस समय लज्जा ने उसे रोका और वह ज्यों की त्यों चुपचाप बैठी रहीं।

कुबेर–(गुरु जी से) क्या उन औरतों को इन्द्रनाथ का हाल मालूम नहीं है।

गुरु–अगर मालूम भी है तो केवल इतना ही कि यह कैदी वास्तव में राजा इन्द्रनाथ है जिन्हें छुड़ाने के लिए रनबीरसिंह आए थे।

कुबेर–(रनबीर से) अच्छा तब क्या हुआ और उन औरतों को तुमने किस तरह छुड़ाया?

रनबीर–(कुबेर से) जैसे ही हम लोग डाकुओं की सरहद के बाहर हुए वैसे ही आपके पांच सौ फौजी सिपाही जिन्हें गुरु महाराज की आज्ञानुसार आपने भेजा था मिले, उस समय मैंने रामसिंह से पूछा कि अब क्या करना चाहिए? यदि कहो तो इस छोटी-सी फौज को लेकर मैं पीछे की तरफ लौटूं और जितने डाकू वहां हैं सभी को मारकर बाकी कैदियों को भी छुड़ाऊं, रामसिंह ने जवाब दिया कि बेशक ऐसा ही करना चाहिए, डाकू सरदार मारा ही गया और जो सभी का अफसर था आपके साथ हूं अस्तु अब वे लोग कुछ भी नहीं कर सकते, आपकी राय अगर ढीली भी हो तो मैं जोर देकर कहता हूं कि लौटिए और उन कमबख्तों को मारिए जिसमें भविष्य के लिए मुझे किसी तरह का डर न रहे। आखिर ऐसा ही हुआ, बस हम लोग उस छोटी सी फौज को साथ लेकर लौट पड़े, और डाकुओं के उस मकान को घेर लिया जिसमें पिताजी कैद थे। रामसिंह की बहादुरी की मैं जहां तक तरीफ करूं उचित है, उसने कोठरियों और तहखानों में घुस-घुस करके डाकुओं को खोज निकाला और मारा। मेरी इच्छा तो बालेसिंह को वहां से ले आने की थी मगर उस मार-काट में रामसिंह की तलवार ने उसका सर भी अलग कर दिया और उसके साथियों में से भी किसी को न छोड़ा जो उसकी खबर उसके घर पहुंचाता।

दीवान–अच्छा हुआ जो वह कमबख्त मारा गया। उसने हम लोगों को बड़ा ही तंग किया था, परसाल उसने कुसुम से अपने शादी के लिए कितना जोर मारा और दिक किया कि मैं कह नहीं सकता। जब उसे रनबीरसिंह का हाल मालूम हुआ तो उसने अपने इलाके में रनबीरसिंह को फंसाने के लिए पहाड़ पर कुसुम तथा रनबीर की मूरतें बनाई क्योंकि उसे यह खबर लग चुकी थी। आजकल शिकार खेलते हुए रनबीरसिंह वहां तक आया करते हैं। यद्यपि हम लोगों को उसकी खबर हो गई थी मगर सिवाय निगरानी के हम लोग और कुछ भी नहीं कर सकते थे, अगर साल भर पहले ही हम रनबीरसिंह और जसवंतसिंह के हाल से कुसुम को होशियार न कर दिए होते और दोनों की तसवीरें कुसुम को न दिखा दिए होते तो बड़ा ही गड़बड़ मचता। अच्छा हुआ जो उस कमबख्त को रामसिंह ने जहन्नुम में पहुंचाया।

इन्द्रनाथ–कुसुम को अपनी शादी का पूरा-पूरा हाल कब मालूम हुआ?

दीवान–दो साल से ऊपर हुआ, जब कुसुम कुमारी एक दिन ताला तोड़कर इस कमरे में चली आई थी क्योंकि वह बराबर सभी से इस कमरे का हाल पूछती थी मगर कोई कुछ बताता न था, आखिर एक दिन क्रोध में आकर उसने ताला तोड़ ही डाला, और जब इन तसवीरों को देखा तो मुझे बुलवा भेजा और इन तसवीरों का हाल पूछा, लाचार होकर मुझे कुछ थोड़ा-सा हाल कहना ही पड़ा। मैंने केवल उसकी शादी के विषय में थोड़ा-सा हाल कहा और रनबीर तथा जसवंत की तस्वीर का परिचय देकर बताया कि वह रनबीरसिंह राजा नारायणदत्त का लड़का है। बस इससे ज्यादे कुछ हाल कुसुम कुमारी को मालूम न हुआ।

कुबेर–मुझे याद है, आपने एक दिन मुझसे मिलकर यह बात कही भी थी। (रनबीर से) अच्छा तब क्या हुआ?

रनबीर–डाकुओं के मारने के बाद उनका माल असबाब सब लूट लिया और उन लोगों को भी जो उनके यहां कैद थे छुड़ा गुरु महाराज के स्थान पर आए। गुरु महाराज की आज्ञानुसार कई फौजी आदमियों को साथ करके और खर्च इत्यादि देकर सब कैदियों को उनके घर भेजवा दिया। इसके बाद गुरु महाराज ने (कुबेरसिंह की तरफ देखकर) लालसिंह को जो उन फौजी सिपाहियों का अफसर था और जिसे आपने गुरु महाराज की आज्ञानुसार काम करने की आज्ञा दी थी बाकी फौजी आदमियों के सहित आपके पास लौट जाने की आज्ञा दी और उसी के हाथ एक पत्र भी आपको भेजा जिससे आपको हम लोगों का सब हाल मालूम हुआ होगा।

इतना कहकर रनबीरसिंह चुप हो गए। कुसुम कुमारी उठकर पुनः अपने पिता के पैरों पर गिर पड़ी और बोली, ‘‘पिता! अब तो तुम मुझसे जुदा न होओगे?’’ और रोने लगी।

कुसुम कुमारी के रोने ने सभी का कलेजा पानी कर दिया, कुबेरसिंह इन्द्रनाथ और गुरु महाराज ने समझा-बुझाकर उसे शान्त किया। इसके बाद कुसुम और बीरसेन ने उस रास्ते को बड़े गौर से देखा जिधर से इन्द्रनाथ वगैरह इस कमरे में आये थे। मालूम हुआ कि वह छत का छोटा-सा टुकड़ा जंजीरों के सहारें टंगा हुआ रहता है और नीचे कमरे में जंजीरों को खींचने और ढीला करने के लिए चर्खियां लगी हुई हैं। इसी कमरे के आगे सरदार चेतसिंह के रहने का कमरा था।

तैंतीसवां बयान

इस विचित्र ढंग से अपने पिता से मिलने का जैसा आनन्द रनबीरसिंह और कुसुम कुमारी को हुआ इसका लिखना कठिन है। आश्चर्य नहीं कि हमारे पाठकों को भी दोनों राजर्षि राजाओं के उद्योग और प्रारब्ध का हाल पढ़ कर कुछ आनन्द मिला हो। अब इस किस्से की समाप्ति में थोड़ा-सा हाल लिखना और बाकी रह गया। वह यह है कि घण्टे भर बाद मन्मथसिंह के घर की औरतें ऊपर बुलाई गई और कुसुम कुमारी बड़े प्रेम से उनसे मिली मगर इन औरतों को रनबीरसिंह के अतिरिक्त दोनों राजाओं और गुरु महाराज का परिचय नहीं दिया गया और वे सब इसी समय अच्छी तरह से अपने घर पहुंचा देने के लिए सरदार चेतसिंह के हवाले की गईं उन्हें केवल इतना ही मालूम हुआ कि राजा रनबीरसिंह ने हम लोगों को छुड़ाया। रनबीरसिंह ने बहुत उद्योग किया कि उनके पिता इन्द्रनाथ अब उनके पास ही रहें मगर उन्होंने न माना और गुरु महाराज ने भी कहा कि अब ये राज्य करने और तुम्हारे पास रहने लायक न रहे क्योंकि ये संन्यास ले चुके हैं, शहर में रहने से कोई काम इनसे ऐसा हो ही जाएगा जिससे यह पालकी होंगे और धर्म में बाधा पड़ेगी, मगर तुम्हें इन सब बातों का खयाल न करके अपना राज्य करना ही होगा और इन्द्रनाथ को हम इसी समय यहां से ले जाएंगे।

लाचार रोते और सिसकते हुए रनबीर को उनकी आज्ञा माननी ही पड़ी और उसी समय अपने चेले बाबाजी और इन्द्रनाथ को लेकर गुरु महाराज जिस राह से आए थे उसी राह से रवाना हो गए।

दूसरे दिन राजा नारायणदत्त चोर दरवाजे के पहरेदार चंचलसिंह को प्राणदण्ड की आज्ञा देने के बाद रनबीरसिंह की इच्छानुसार तेजगढ़ की राजधानी रामसिंह के सुपुर्द करके कुसुम कुमारी रनबीरसिंह दीवान साहब सरदार चेतसिंह और उनके लड़के बालों को साथ लेकर बिहार चले गए। इसके महीने भर के बाद वे रनबीरसिंह को राजतिलक देकर अपने मित्र इन्द्रनाथ के अनुगामी और पक्षपाती होकर जंगल की तरफ पधार गए और फिर उन दोनों मित्रों का हाल किसी को मालूम न हुआ और कुसुम कुमारी तथा रनबीरसिंह को यह दुःख सहना ही पड़ा। साल भर के बाद दीवान साहब को मालूम हुआ कि बालेसिंह के लश्कर से भागी हुई कालिन्दी को उन्हीं के दो नौकरों ने नदी पार उतारने के बहाने से डोंगी पर चढ़ाकर गिरफ्तार कर लिया था और जब उसे घसीट कर दीवान साहब के पास लाने लगे तो कालिन्दी ने आत्महत्या कर ली थी। मगर इस खबर से दीवान साहब को किसी तरह का रंज न हुआ और वह बहुत दिनों तक जीते रहकर कुसुम कुमारी और रनबीरसिंह के सुख भोगने का आनन्द लेते रहे।

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