छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार Part 1

छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार Part 1

इंटरव्यू से पहले (अध्याय-1)

सत्यव्रत ठीक दस बजे उस कमरे में पहुँचा जहाँ इंटरव्यु के लिए और बहुत-से उम्मीदवार जमा थे। यद्यपि वह आर्यसमाज मन्दिर से साढ़े नौ बजे ही चल दिया था, फिर मी मन में थोड़ा चिन्तित था। वक्त का सही अनुमान न लगा पाने के कारण उसे लगता था कि कहीं पाँच-सात मिनट का विलम्ब न हो गया हो। किन्तु कमरे में पहुंचकर उसे सान्त्वना मिली। लोग एक-एक, दो-दो की टुकड़ी में बँटे हुए बातचीत कर रहे थे और ऐसा नहीं लगता था कि इंटरव्यू शुरू हो गए हैं।

“क्यों साहब, जब तक हम लोगों का इंटरव्यू शुरू हो, तब तक क्यों न हम एक-दूसरे का परिचय ही हासिल कर लें ?” ठाकुर ने बेंच से उठकर दोनों हाथ आगे फैलाते हुए एक्टराना अन्दाज में कहा और फिर खुद अपना परिचय देते हुए बोला, “बन्दे का नाम है राजेश्वर ठाकुर और असिस्टेंट टीचरी का उम्मीदवार हूँ।”

बात करने का अन्दाज और बात का वजन दोनों बराबर उतरे। हिन्दु इंटर कॉलेज, राजपुर के उस कमरे में पन्द्रह-बीस बेतरतीब-सी डेस्कों के पीछे लगी बेंचों पर बैठे उम्मीदवारों में जैसे जिन्दगी की हलचल दौड़ गई। अब तक खामोश-से बैठे प्रतीक्षाग्रस्त उम्मीदवार इस बात के प्रति ज्यादा सतर्क थे कि कहीं डेस्कों की दावात की सूखी स्याही का कोई धब्बा उनके साफ़ धुले कपड़ों पर न लग जाए। पर अब उन्हें लगा कि वक्त बातचीत करके भी गुज़ारा जा सकता है।
सत्यव्रत कोने में पड़ी एक बेंच पर बैठ गया। एक सिरे से खड़े होकर सबने अपना परिचय देना शुरू किया।
“रामस्वरूप पाठक नाम है, के.जी. कॉलेज में हिन्दी में सेकंड डिवीजन में एम.ए. किया है, हल्दौर से आया हूँ।”
मेरा नाम मुरारीमोहन माथुर है, मैंने भी हिन्दी में एम.ए.किया है, मैं झालू का रहनेवाला हूँ। और भी चार उम्मीदवारों ने खड़े हो-होकर अपना परिचय दिया। सबने हिन्दी में एम.ए. किया था और सब सेकंड डिवीजन में पास हुए थे। ये लोग हिन्दी की लेक्चररशिप के उम्मीदवार थे।

सहसा राजेश्वर ने कहा, “क्यों साहब, क्या एम.ए. हिन्दी में थर्ड डिवीजन नहीं होती ?”
असिस्टेंट टीचरी के अधिकांश उम्मीदवार इस बात पर मुस्करा दिए। कोई उत्तर न पाकर असरार ने डेस्क पर आगे झुकते हुए कहा, “एम.ए. की बात तो साहब, ये प्रोफ़ेसर लोग जानें, पर बी.ए. में थर्ड डिवीजन जरूर होती है और मुझे थर्ड डिवीजन में बी.ए. पास करने का फ़ख़्र हासिल है।”
इस पर श्रोत्रिय नाम के एक अन्य उम्मीदवार ने भी दूसरे शब्दों में यही बात दोहराई।

फिर जो परिचय का औपचारिक दायरा टूटा और डिवीजनों की बात चली तो मालूम हुआ कि असिस्टेंट टीचरी के दो पदों के लिए आमन्त्रित छह में से पाँच उम्मीदवार थर्ड डिवीजनर हैं और अनट्रेंड भी। राजेश्वर ठाकुर ने तो बी.ए. तीसरे साल सप्लीमेंटरी में पास किया था। पर सर्वसम्मति से सभी उम्मीदवारों ने उसे भी थर्ड डिवीज़नस में ही गिना । फिर एक-दूसरे को प्रशंसा और प्रेम की दृष्टि से देखकर सबने आत्मसन्तोष का अनुभव किया।

तभी अचानक राजेश्वर ने कोनेवाली एक बेंच पर अकेले बैठे हुए सत्यव्रत से उसकी डिवीजन पूछी तो फिर कई चेहरों से सन्तोष का भाव मिट गया और बेसब्री से सब उसकी ओर देखने लगे।

सांवला सा रंग, उभरे से नाक-नक्श, दुबला-पतला और झेंपू- सा वह युवक मुश्किल से चौबीस साल का होगा। घर की कती मोटी खादी के कपड़े और सिर पर एक-एक अंगुल के बाल, जिनके बीचोंबीच खड़ी छोटी-सी चोटी में गाँठ लगा दी गई थी। संक्षेप में सत्यव्रत सबको शास्त्री किस्म का नवयुवक लगा। और जब उसने बी.ए. में अपनी सेकंड डिवीजन बतलाई तब तो सभी ने उसकी और ऐसे घूरा जैसे उसने कोई भारी अपराध किया हो, अथवा वह झूठ बोल रहा हो।

“कॉलेज तो फटीचर ही लगता है। न बिजली है, न पंखे । डेस्क भी बाबा आदम के जमाने के हैं।” लेक्चररशिप के उम्मीदवार पाठक ने कहा। दरअसल सत्यव्रत की डिवीजन का पाठक वग़ैरा पर कोई असर न पड़ा था।

मगर असिस्टैंट टीचरी के उम्मीदवारों ने पाठक की बात को अहमियत नहीं दी । असरार की बराबर बैठे केशवप्रसाद को सत्यव्रत के प्रति अत्यधिक सहानुभूति उमड़ आई थी। उसके पास जाकर वह बोला, “आपने सेकंड डिवीजन में बी.ए. किया, फिर आप यहाँ सड़ने के लिए क्यों आ गए ?”
सत्यव्रत इस प्रश्न का कोई उत्तर न दे सका। उनके सांवले कपोलों और निश्छल आँखों में शर्म और असमर्थता का-सा भाव दौड़ गया।
श्रोत्रिय ने फिर पूछा, “क्या परसेंटेज था बी.ए. में आपके मार्क्स का ?”
“उनसठ प्रतिशत। सत्यव्रत ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया। फिर उसने बताया, “अंग्रेजी के अतिरिक्त अन्य विषय लेकर मैंने बी.ए. किया है, इसी वर्ष । संस्कृत में विशेष योग्यता मिली है। “
श्रोत्रिय और केशवप्रसाद की जिज्ञाना समाप्त हुई। सत्यव्रत के पास बी.ए. में अंग्रेजी न होने की बात सुनकर शायद और लोगों को भी कुछ राहत मिली क्योंकि उनके चेहरे पर फिर वही भाव लौट आया था।

मगर राजेश्वर ठाकुर ने विचारपूर्वक निर्णय दिया, “आजकल संस्कृत में ‘डिस्टिन्कशन’ का कोई मतलब नहीं होता, सत्यव्रतजी। इट इज ए डेड लैंग्वेज।” फिर कुछ सोचते हुए बोला, “क्या आपको इंग्लिश बिलकुल नहीं आती ?”
सत्यव्रत ने कहा, “जी, इस वर्ष केवल अंग्रेजी में बी.ए. करने की सोच रहा हूँ । वैसे …”

“तब तो आपने नाहक तकलीफ़ की।” राजेश्वर ने अफ़सोस जाहिर किया। उसके होंठ विचक गए और कन्धे ऊपर को उचककर अपनी जगह पर आ गए। फिर मन-ही-मन अपने सफ़ेद पेंट और बुश्शर्ट की सफेदी की तुलना जैसे सत्यव्रत के अपेक्षाकृत कम सफ़ेद कपड़ों से करता हुआ बोला, “फिर भी क्या हर्ज़ है लक ट्राइ करने में ! वैसे आपकी ‘क्वालिफिकेशन्स’ कुछ सूट नहीं करती हैं।” सत्यव्रत ने कोई प्रतिवाद नहीं किया।
मगर राजेश्वर की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि हिन्दी की लेक्चररशिप का उम्मीदवार पाठक बोल उठा, “माफ़ कीजिए ठाकुर साहब, आप अपनी ‘डिग्री’ वग़ैरा लेकर आए हैं न?”
“जी, हाँ।”
“और मार्क-शीट ?”
“वह भी है। दिखाऊँ आपको ?” राजेश्वर ने इस आकस्मिक प्रश्न को पूरी तवजह देते हुए पूछा।
“जी नहीं। बेहतर हो, आप खुद ही उन्हें एक बार देख लें।” पाठक ने व्यंग्य किया।

“जी!” राजेश्वर ने अचकचाकर कहा, और इधर-उधर लोगों की प्रतिक्रिया देखने लगा कि कितने लोग इस व्यंग्य को समझ सके हैं। सत्यव्रत के मुख पर निश्छल शान्ति थी। पर हिन्दी की लेक्चररशिप के सारे उम्मीदवार होंठों की कोरों में मुस्करा रहे थे।
असिस्टैंट टीचर-पद के उम्मीदवारों की प्रतिक्रिया पढ़ने का उसमें साहस नहीं हुआ। धड़कते दिल पर कृत्रिम आश्चर्य-मिश्रित झुंझलाहट का आवरण चढ़ाकर वह फिर बोला, “आपका मतलब मैं समझा नहीं।”

इस बार बात पाठक के बराबर बैठे हुए हिन्दी की लेक्चररशिप के ही दूसरे उम्मीदवार मुरारीमोहन माथुर ने पकड़ ली, बोला, “दरअसल आप नहीं समझे होंगे, क्योंकि पाठकजी ने जरा बारीक बात कह दी। दरअसल उनका मंशा यह था कि सत्यव्रतजी की ‘क्वालिफिकेशन्स’ की बजाय अगर आप अपनी ‘क्वालिफिकेशन्स’ पर गौर फरमाएँ तो शायद आपको अपनी ‘लक ट्राई’ करने की भी जरूरत महसूस न हो।

माथुर का इशारा राजेश्वर की सप्लीमेंटरी की तरफ़ था। मगर ये ‘लक ट्राई’ का खटका ऐसा हुआ कि सारे उम्मीदवार एकबारगी हँस दिए। सिर्फ सत्यव्रत नहीं हँसा। उसके शान्त, पवित्र-बौद्ध-मुख पर एक करुणा-सी उभर आई। उसे शायद लगा कि ठाकुर पर अत्याचार हो गया। और वह उसके पक्ष में कुछ कहने की सोचे कि तभी राजेश्वर खुद ही बोल पड़ा, “आप आखिर कहना क्या चाहते हैं?”
माथुर ने फिर उसी का वाक्य दोहरा दिया, “दरअसल आपने नाहक तकलीफ़ की। आपकी ‘क्वालिफिकेशन्स’ कुछ सूट नहीं करती हैं।”
हँसी का एक फ़व्वारा तेजी से कमरे में फैल गया।

राजेश्वर ने कुछ कहा, पर शोर में उसकी बात अनसुनी रह गई और वह हँसी के शान्त होने की प्रतीक्षा करने लगा। लोग हँस-हँसकर दुहरे-तिहरे हुए जा रहे थे। सत्यव्रत के मुख पर करुणा और उभर आई थी। वह हँसी बन्द होने की प्रतीक्षा में क्षमायाचना जैसा भाव लिए राजेश्वर की ओर निहारे जा रहा था। राजेश्वर मन का गुबार मुँह में लिए बैठा था। एक भाव तेजी से उसके मन में दौड़ रहा था कि ये सब दयनीय हैं। इन हँसनेवालों में से अधिकांश इंटरव्यू खत्म होते ही पिटे हुए सिपाही की तरह कमरे से बाहर निकलेंगे और तब वह उनकी ओर जिस अकड़ से देखेगा यह विजेता की अकड़ होगी। मगर अब…अब तो उसकी हेठी हुई। बड़ी हेठी हुई।…और इस विचार का अनुसरण एक तीखे से वाक्य ने किया जिसके उच्चरित होने से पूर्व ही अचानक मास्टर उत्तमचन्द्र बराबर वाले प्रिंसिपल के कमरे से यहाँ आ गए।

गंजा सिर, चौड़ा माथा, लम्बा-सा मुँह, उभरी हुई बड़ी-बड़ी आँखें, गोरा रंग, लम्बा कद और उस पर खादी का लम्बा-सा कुरता-पाजामा । उत्तमचन्द को देखते ही हॉल में खामोशी छा गई और लोग अनायास अपने-अपने स्थान से उठ खड़े हुए।

शायद हँसी की आवाज़ मैनेजिंग-कमेटी के सदस्यों के कानों तक भी पहुँच गई थी। और उन्हें अनायास ही यह बोध हो गया था कि काफ़ी देर हो चुकी है, अब इंटरव्यू शुरू हो जाना चाहिए। इसीलिए उन्होंने मास्टर उत्तमचन्द को वहाँ भेजा था। मास्टर उत्तमचन्द ने सबसे बैठने का इशारा करते हुए वाणी में बेहद मिठास लेकर कहा, “आपकी बेचैनी बिलकुल नेचुरल है। मगर प्लीज़, आप थोड़ा-सा धैर्य और रखें, पाँच मिनट के अन्दर ही हम इंटरव्यू शुरू कर देंगे। बस सेक्रेटरी साहब की वेट कर रहे हैं। और मास्टर उत्तमचन्द ने मुस्कराते हुए सबकी ओर देखा। लोगों ने सोचा, वे कुछ और कहेंगे पर तभी वे आकस्मिक रूप से बाहर निकल गए।

पाठक ने कहा, “मुझे आशा थी कि भाषण थोड़ा लम्बा चलेगा। मगर बेहद शरीफ़ आदमी निकला।” राजेश्वर ठाकुर जो मास्टर उत्तमचन्द के आ जाने के कारण अपनी बात कहने का अवसर न पा सका था और जिसके भीतर अपनी हेठी की भावना अभी भी कुलबुला रही थी, तेजी से बोला, “आपकी सारी आशाएँ गलत ही निकलती हैं, पाठकजी।”

इतना कहकर राजेश्वर ने हल्का-सा पाज दिया। लोगों की प्रतिक्रिया देखी। कोई नहीं हंसा तो उसे विफलता का अहसास और जोरों से हुआ; बोला, “हाँ तो माथुर साहब, आप मेरे बारे में फरमा रहे थे कि मेरी ‘क्वालिफिकेशन्स’ सूट नहीं करती। आइए तो फिर दस-बीस रुपए की शर्त हो जाए इसी बात पर!

फिर ठाकुर थोड़ा रुका और लोगों के भावशून्य-से चेहरों पर अपनी बात की प्रतिक्रिया खोजते हुए बोला, “किसमें इतना गुर्दा है जो मेरा सलेक्शन रोक दे! कॉलेज की ईट-से-ईट बज जाएगी। ठकुरात के तीन सौ लड़के हैं कॉलेज में। अगर मुस्लिम स्कूल में चले गए तो यहाँ तनख्वाह भी नहीं पटेगी मास्टरों की।” फिर थोड़ा रुककर बोला, “अपना क्या है, नौकरी मिली न मिली ।” फिर सत्यव्रत की ओर इशारा करके कहा, “मुझे तो इस बेचारे पर तरस आ रहा है। मेरे घर छह हलों की खेती है। एक हाली को एक मास्टर की तनख्वाह देता हूँ। न होगा एक हल ही संभाल लूँगा, पर इनके बस का तो वह भी नहीं।”

माथुर ने कहा, “आपका हृदय बहुत दयावान है। आपकी दया का सहारा पाकर सत्यव्रतजी का उद्धार हो गया। आप धन्य हैं।”

एक हल्का-सा ठहाका फिर गूंज उठा। ठाकुर का गोल मुंह और विकृत हो गया। उसका जतन से संभाला हुआ सन्तुलन बिखर पड़ा। कनपटियाँ सुर्ख हो गईं। बड़ी-बड़ी आँखों से चिंगारियों-सी उगलते हुए बोला, “तो साफ़-साफ़ ही सुन लीजिए। असिस्टेंट टीचरों और प्रोफेसरों का सेलेक्शन कभी का हो चुका। यह इंटरव्यू तो एक फारमेल्टी है, फारमेल्टी।” फिर उँगली से कोने में बैठे असरार साहब की ओर इशारा करते हुए राजेश्वर बोला, “मेरे साथ दूसरा एपाइंटमेंट इनका होगा। ये कोतवाल साहब के आदमी हैं, क्यों साहब ?” और उसने असरार की ओर देखा।
माथुर ने धीरे से पाठक के कान में कुछ कहा। असरार ने कोई उत्तर न दिया।

राजेश्वर ने उँगलियाँ फैलाकर डेस्क पर चपत मारी और मुट्ठी बाँधते हुए बोला, “मैं लिखकर देता हूँ अगर मेरी बात में जरा-सी भी चेंज हो जाए।” इतना कहकर विजेता के भाव से उसने फिर सारे उम्मीदवारों की ओर देखा।

और जैसे कोई जालिम मास्टर छोटे विद्यार्थियों की कक्षा में चिल्लाकर हुक्म दे, ‘चुप रहो’ और निःशब्द शान्ति छा जाए-कुछ उसी तरह की निस्तब्धता उस हॉल में छा गई। डरे हुए बच्चे जैसे अपनी कापी-किताब टटोलने लगते हैं वैसे ही सब लोग अपने कागज-पत्र और सर्टिफिकेट देखने लगे। सबको राजेश्वर ठाकुर की डेस्क पर रखी बन्द मुट्ठी में अपना भविष्य दिखाई देने लगा। मगर कोई कुछ नहीं बोला।
सत्यव्रत को लगा कि उसी के कारण वातावरण में इतनी कटुता आ गई है और अब उसे ही इसके निराकरण के लिए कुछ-न-कुछ करना चाहिए।

इस खामोशी का अहसास शायद राजेश्वर ठाकुर को भी हुआ और वह एक हल्की-सी बेमानी हँसी यूँ ही हँस दिया। मगर और उम्मीदवारों को वह हँसी भी चंगेज के उस अटहास-जैसी लगी जो उसने भारत की गलियों-सड़कों में खून की नदियाँ बहाकर किया था। आशंका और आतंकग्रस्त सब अपने-अपने भविष्य के अन्धकार में खो गए। जहाँ से चले थे वहीं जा पहुँचे। लगा जैसे अभी-अभी सब उम्मीदवार आकर उस कमरे में इकठे हुए हों। अपरिचय का मौन सबके बीच हो। अभी थोड़ी ही देर में सब एक-दूसरे से घुल-मिल जाएँगे। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। सब अपनी-अपनी व्यस्तता को बढ़ाने की कोशिश करने लगे। कोई अपनी ‘मार्क-शीट’ ढूँढने लगा तो कोई ‘डिग्री’।

“ईश्वर जाने मेरे करेक्टर सर्टिफिकेट कहाँ चले गए।’ यह वाक्य पाठक ने माथर से इतने धीरे से कहा कि माथुर ने कोई उत्तर नहीं दिया। केशव ने असरार से धीरे से जाने क्या बात की। पर उससे भी खामोशी कम नहीं हुई। एक बोझिल -सा अदृश्य जाल सबके ऊपर पड़ा था और सब जैसे उसके कोनों को कसकर पकड़े थे। सहसा सत्यव्रत ने उसका एक कोना छोड़ दिया; बोला,
“राजेश्वर भाई ने ठीक ही कहा है। मुझे पहले अंग्रेजी लेकर बी.ए. कर लेना चाहिए, तभी बात बनेगी।”
“वही तो।” राजेश्वर ठाकुर ने समझौते का भाव विस्तीर्ण करते हुए कहा, “वरना सत्यव्रतजी के टैलेंट में किसे शक है !”

दो-तीन बार गला साफ़ करने के बहाने खाँसकर राजेश्वर ने खामोशी को तोड़ दिया। फिर जेब से कैंची की डिब्बी निकालते हुए जाने किसे सम्बोधित करके कहा, “यहाँ सिगरेट पीने की मनाही तो नहीं होगी। ये कोई क्लास-रूम थोड़े ही

किसी ने प्रतिवाद नहीं किया। असरार ने वातावरण का रुख बदला, “सब चलता है, यार । हमारे तो एक टीचर क्लास में पढ़ाते हुए सिगरेट पिया करते थे। कहते थे, बिना सिगरेट के मुझे पढ़ाने का ‘इन्सपिरेशन’ ही नहीं मिलता। प्रिंसिपल ने भी एतराज किया, मगर उन्होंने साफ कह दिया कि साहब चाहे मुझे स्कूल से निकाल दीजिए, मगर मेरी सिगरेट नहीं छूट सकती। आखिर कुछ भी नहीं हुआ।”

श्रोत्रिय ने ठाकुर के पैकेट से सिगरेट निकालते हुए कहा, “अपने-अपने ढब की बात है भई ! हमारे स्कूल में तो ‘एक्सपलेनेशन काल’ हो गया था इसी बात पर एक टीचर का।” और उसने सिगरेट सुलगा ली। एक सिगरेट असरार ने ली। प्रोफ़ेसरी के उम्मीदवारों में से किसी ने सिगरेट नहीं ली हालांकि वे पीते थे। ठाकुर ने सबके सामने पैकेट घुमाया पर सत्यव्रत के सामने तक बढ़ाकर भी हाथ खींच लिया; बोला, “माफ़ कीजिए, आप तो पीते ही नहीं होंगे?”
“जी हाँ, मैं नहीं पीता।” सत्यव्रत ने कहा और सरलता से मुस्करा दिया।

सबके चेहरों पर पवित्र-सी हँसी फैल गई। वातावरण का बोझ कुछ हल्का-सा हुआ। लेक्चररशिप के उम्मीदवारों ने एक-दूसरे की ओर देखा। धीरे से पाठक माथुर से बोला, “तुम भी पियो न !”
माथुर बोला, “क्या आफ़त है, यार ! भाग्य का निर्णय हो ले, उसके बाद गूंगे की दुकान पर चलकर चाय भी पिएंगे और सिगरेट भी।”
पाठक आश्वस्त हो गया। सिगरेट पीने की प्रबल इच्छा को मारने के लिए उसने दोनों हाथ उठाकर एक जमुहाई ली और साँस छोड़ते हुए बोला, “ओ…म।”

अचानक ही श्रोत्रिय और असरार उछलकर खड़े हो गए और डेस्क से रगड़कर उन्होंने सिगरेटें बुझा दीं। उन्हें मास्टर उत्तमचन्द की झलक मिल गई थी। और लोग भी उठ खड़े हुए। राजेश्वर भी खड़ा हो गया। मगर उसने सिगरेट नहीं बुझाई। मुंह में धुआँ भरे वह मास्टर उत्तमचन्द की नजरें दूसरी ओर घूमने की प्रतीक्षा करने लगा।

उत्तमचन्द ने कहा, “आप शायद ‘स्मोकिंग’ कर रहे थे?” उनकी वाणी में मिठास पहले से कुछ कम थी। बोले, “मुझे बताएँ, कौन साहब स्मोकिंग कर रहे हैं?”
सब चुप रहे किन्तु राजेश्वर ने मुँह का धुआँ बाहर निकालते हुए कहा, “कहिए ! एक तो मैं था, और दूसरे असरार साहब और सोतीजी !”
असरार और श्रोत्रिय दोनों को बुरा लगा, मगर चुप रहे। उत्तमचन्द बोले, “क्या आपको मालूम नहीं कि ‘कॉलेज-प्रीमीसेज़’ में सिगरेट नहीं पीनी चाहिए?”
राजेश्वर ने कहा, “यहाँ कोई बोर्ड तो नहीं लगा है।”
इसके बाद राजेश्वर के साथ सभी की प्रश्नवाचक दृष्टियाँ मास्टर उत्तमचन्द के चेहरे पर जा लगीं।

मास्टर उत्तमचन्द के माथे पर दो बारीक बल पड़ गए। उन्होंने गौर से राजेश्वर की ओर देखा । पेंसिल निकालकर तीनों नाम नोट किए और तुरन्त शान्त होकर बोले, “अब इंटरव्यू शुरू होनेवाला है। हेड क्लर्क आप साहबान में से एक-एक का नाम पुकारेंगे। पहले हम असिस्टेंट टीचर्स का इंटरव्यू लेंगे, फिर हिन्दी-लेक्चरर्स का। इंटरव्यू के बाद भी कोई साहब यहाँ से जाएँ नहीं।”

और इतना कहकर वह तेजी से कुरता फरफराते दरवाजे से बाहर निकल गए और फिर एक ही क्षण बाद लौटकर पुनः प्रवेश करते हुए बोले, “आप साहबान एजुकेटेड लोग हैं, और यह कॉलेज एजुकेशन का मन्दिर है। आपका फर्ज है कि इसकी ‘सैन्कटिटी’ की रक्षा करें। आप सोचें कि यह स्थान सिगरेट पीने की जगह नहीं हो सकता।”

और मास्टर उत्तमचन्द फिर बाहर चले गए। उन्होंने क्या कुछ नहीं कहा था। मगर उनकी आवाज में लेश-मात्र भी कड़वाहट नहीं थी। आँखें बन्द करके कोई सुनता तो उनके वाक्य किसी जैन सन्त के प्रवचन प्रतीत होते।
उत्तमचन्द का सबसे ज़्यादा प्रभाव श्रोत्रिय पर पड़ा था। उनके जाते ही वह बोला, “नाम नोट करके ले गया है।” और एक आशंका से उसका दिल धड़क उठा।
राजेश्वर बोला, “अरे सैकड़ों फिरते हैं इस जैसे ! इसकी औकात क्या है ? मेम्बरों के पीछे दुम हिलाता फिरता है कुत्ते की तरह।”
असरार ने कहा, “औकात तो बहुत है इसकी, ठाकुर साहब ! कॉलेज का बिना ताज का बादशाह है। प्रिंसिपल तो नाम मात्र का होता है यहाँ। असली
प्रिंसिपल यही है। स्याह करे या सफ़ेद, पूरा सियासत-दाँ है।”
“तब तो बड़ा बुरा हुआ आप लोगों के हित में।” केशव ने उन सबके अन्धकारमय भविष्य की कल्पना में अपने उज्ज्वल भविष्य को निहारते हुए कृत्रिम सहानुभूति से कहा।

श्रोत्रिय हाँ में ‘हाँ’ मिलाने ही जा रहा था कि असरार ने फिर कहा, “नहीं जी, एपाइंटमेंट में इसका क्या हाथ ? हाँ, एपाइंटमेंट के बाद अलबत्ता तकलीफ़देह साबित हो सकता है।”
राजेश्वर ने कहा, “बहुत देखे हैं इस जैसे ! एक बार एपाइंटमेंट लेटर मिल जाए, फिर देखना। चूरन बनाकर फाँक जाऊंगा साले को। हमारी सियासत नहीं देखी अभी…”

और तभी बहुप्रतीक्षित क्लर्क, पवन बाबू लगभग लुड़कते हुए-से कमरे में आए। बातचीत का सिलसिला रुक गया। सब उनकी ओर देखने लगे। खासे मजेदार आदमी थे। लम्बाई-चौड़ाई एक-सी थी। गोलमटोल, छोटा कद। हाथ में एक फेहरिस्त लिए थे, जिसमें उम्मीदवारों के नाम लिखे थे। कमीज और नेकर पहन रखी थी। नाक पर आस्तीन का घिस्सा लगाते हुए पवन बाबू ने नेकर की जेब से लाल-नीली पेंसिल निकाली और उम्मीदवारों की हाजिरी लेनी शुरू की।
-मुरारीमोहन माथुर !
-यस प्लीज।
-रामस्वरूप पाठक!
-यस प्लीज।

फिर पांडे, निगम, गिरीश, हरीश, रोहतगी, वर्मा सबका नम्बर आया और सब, जो अब तक चुप थे, ‘यस प्लीज़’ बोलते गए। फिर असिस्टैंट टीचर्स की बारी आई।
-सुरेशचन्द्र सोत्री!
-यस सर।
-केशवपरसाद।
-यस सर।
-असरार अहमद!
-यस प्लीज।

-राजेश्वर ठाकुर।
-यस। -ठाकुर ने न ‘सर’ लगाया, न ‘प्लीज़’ । हथौड़े जैसा ‘यस’ पवन बाबू के सिर पर दे मारा। पवन बाबू सहसा हाजिरी लेते लेते ठिठके और चश्मे में से दोनों आँखें उसकी ओर धमकाई, फिर और सबको उँगलियों पर गिनते हुए बोले, “सब प्रिजेंट हैं।”
पवन बाबू हाजिरी लेकर चलने को हुए तो श्रोत्रिय ने पुकारकर कहा, “मास्साहब, एक मिनट। अँऽऽ, कुल कितने कैंडीडेट बुलाए गए हैं असिस्टैंट टीचरी के लिए ?”
“जितने यहाँ प्रिजेंट हैं।” पवन बाबू ने ऐनक को ऊपर उठाते हुए कहा।
“क्या इतने ही लोगों ने एप्लाइ किया था?” केशव ने फिर पूछा। दरअसल श्रोत्रिय और केशव यह जानना चाहते थे कि इंटरव्यू के लिए कैंडीडेट्स को किस आधार पर बुलाया गया है।
“एप्लाइ तो पचासियों ने किया था।” पवन बाबू बेरुखी से बोले।
“तो फिर इंटरव्यू के लिए लोगों को किस आधार पर बुलाया गया है ?” श्रोत्रिय ने सीधा-सा सवाल किया।
“ये बातें आप कमेटी के मेम्बरों से पुछिएगा।” पवन बाबू ने उसी बेरुखी से कहा और एक क्षण रुककर बोले, “श्री सते वरत !”

सत्यव्रत इन लोगों की बातचीत में खोया था। अपना नाम सुना तो तुरन्त उठकर खड़ा हो गया। पवन बाबू ने उसे अपने पीछे आने का इशारा किया और बराबरवाले प्रिंसिपल के कमरे की ओर चल दिए, जहाँ कमेटी के सदस्य बैठे हुए थे।
पवन बाबू के जाने के बाद राजेश्वर बोला, “साला अब कैंडे पर आया। हम तो ‘यस प्लीज़’ और ‘यस सर’ कहें, और वे हमारे नाम के साथ ‘श्री’ या ‘मिस्टर’ तक नहीं लगा सकता।”
असरार, जो राजपुर का ही रहनेवाला था, बोला, “बड़ा जलैहंडा है। उत्तमचन्द का खास गुर्गा है यह। हर साल प्रिंसिपल को निकलवा देता है उससे मिलकर।”
“अच्छा !” श्रोत्रिय ने पूछा, “आजकल प्रिंसिपल कौन है?”
“उत्तमचन्द ही ऑफीशिएट’ कर रहा है।” असरार बोला, “प्रिंसिपल की तलाश है।”
“तलाश-वलाश की बात नहीं है,” राजेश्वर ने कहा, “उपप्रधानजी का छोटा लड़का इस साल बी.टी. में दाखिला ले रहा है। देख लेना, बी.टी. करते ही प्रिंसिपल न हो जाए तो!”
“मगर रूल्स के हिसाब से तो कमेटी के मेम्बर का कोई रिश्तेदार कॉलेज में नौकरी नहीं कर सकता।” केशव बोला।
राजेश्वर हँस दिया। पाठक ने कहा, “छोड़ो यार, रूल्स-वूल्स में क्या रखा है।”

और एक क्षण के लिए जैसे सब फिर किसी गहरे सोच में डूब गए। असिस्टैंट टीचर्स की पोस्ट के उम्मीदवारों को तो जैसे अपने भविष्य का पता था मगर हिन्दी के लेक्चररशिप के उम्मीदवार गहरे असमंजस में थे। श्रोत्रिय बराबर वही सोचे जा रहा था कि आज अगर वह सिगरेट न पीता तो क्या बिगड़ जाता? बड़ी गलती हुई। कभी-कभी उसे यह भी खयाल आता था कि पता नहीं चाचा वकील साहब के यहाँ गए भी होंगे या नहीं। कहीं यहाँ तक आना ही अकारथ न जाए।

सलेक्शन कमेटी (अध्याय-2)

इंटरव्यू खत्म हो चुके थे, मगर उस कमरे में गहमागहमी थी। अलग-अलग स्वरों में दस-बारह आवाजें एक-दूसरे पर प्रस्थापित होने की कोशिश कर रही थीं। खड़ी बोली एक तो यूं ही खड़ी होती है, फिर अपने उद्गम-स्थान ज़िला बिजनौर में वह जरा स्वाभाविक रूप में चलती है। इसलिए साधारण-सी बहस एक छोटे-मोटे बलवे का मजा दे रही थी। आखिर लाला हरीचन्द से न रहा गया। उन्होंने मेज पर एक छोटा-सा घूँसा मारकर कहा, “भय्यो ! जरा सोच्चो तो। बरोब्बर के कमरे में सारे मास्टर लोग बैठे हैं। कोई सुनेगा तो क्या कहवैगा ?”

मैनेजिंग-कमेटी के सारे सदस्य इंटरव्यू-कमेटी के भी सदस्य थे। चुनांचे प्रिंसिपल के कमरे से बड़ी मेज़ निकलवा दी गई थी ताकि तेरह कुरसियाँ और एक छोटी-सी मेज उसमें आ सके। एक अतिरिक्त कुरसी उम्मीदवार के बैठने के लिए रखी गई थी जो उस छोटी-सी मेज के बिलकुल सामने थी। मेज़ के बीच में कमेटी के प्रेसीडेंट लाला हरीचन्द, दाहिनी ओर वाइस प्रेसीडेंट चौधरी नत्थूसिंह और बाईं ओर सेक्रेटरी श्री गनेशीलाल बैठे थे। सेक्रेटरी की बराबर में एक बिना हत्थे की कुरसी पर ज्वाइंट-सेक्रेटरी गुलजारीमल और वाइस-प्रेसीडेंट के बाजू में कमरे के बाहर पड़ा हुआ एक स्टूल उठाकर मास्टर उत्तमचन्द बैठे हुए थे।

लाला हरीचन्दजी की बुजुर्गी की कस्बे में भी इज्जत थी और कमेटी के मेम्बर भी उसकी इज्जत करते थे। इसलिए थोड़ी देर के लिए कमरे का वातावरण शान्त हो गया और लोग धीरे-धीरे बातें करने लगे। मगर जब फिर किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाए तो आवाजें ऊँची उठने लगीं। एक मेम्बर दूसरे से ऊँचा बोलकर अपनी बात मनवाने की कोशिश करने लगा और इस प्रतिस्पर्धा ने फिर लाला हरीचन्द के कोमल हृदय को छू लिया। लालाजी बोले, “भय्यो, बड़े अफसोस का मुकाम है। अब लौ आप लोग किसी फैसले पर नहीं पहुंचे। इत्ती देर में तो सुनते हैं जरमनीवाले ने पूरा जापान जीत लिया था। तो भय्यो, मैं तो चला भट्टे पर। मेरी पचास हजार ईंटों का चक्कर पड़ा है। आप पंचों की जैसे मरजी हो मुझे वहीं खबर कर दीजो। मैं आप लोग्गों से बाहर थोड़े ही हूँ!

लालाजी का इंटों का खासा बड़ा कारोबार था। सारे इलाके के मकान उन्हीं के भट्ठे की ईंटों से बने थे। आजकल उनका बिजनेस शहर में ज़रूर मन्दा था, मगर आसपास के गाँवों में धड़ाधड़ पक्के मकान बनते जा रहे थे। लालाजी अपनी बात खत्म करते हुए उठने को हुए तो उनके साथ ही मास्टर उत्तमचन्द भी खड़े हुए। लालाजी को उनकी छड़ी देते हुए उत्तमचन्द दरवाजे की ओर बढ़ने ही वाले थे कि सेक्रेटरी गनेशीलाल अवसर का लाभ उठाकर बोले, “मामले को बिना चित्त-पट्ट करे हम आपको जाने नहीं देंगे, लालाजी ! हमारा भी बजार का दिन है आज। पचास कलदार का तो सैंधा नमक बिक गया होता अब लों। मगर मास्टरों के सलेक्शन का मामला अटका है तो इसका फैसला भी आप ही करेंगे।”

गनेशीलाल की पसरहट्टे की दुकान थी। लालाजी को उठते देख उन्हें सहसा दुकान का ध्यान आ गया और इस बात का भी कि आज बाजार का दिन है। और हालाँकि वह अपने छोटे भाई सोहन को, जो लेन-देन का काम करता था, दुकान पर छोड़ आए थे, पर उनके मन को तसल्ली नहीं हो रही थी। क्योंकि कागज पर अंगूठा लगवाकर रुपवा देना, और तराजू पर अँगूठा लगाकर सौदा देना, दो अलग चीजें होती हैं। और इस बारे में उन्हें अपने भाई की बुद्धि पर जरा भी भरोसा नहीं था। पर यहाँ भी उसी भाई की इज़्ज़त का सवाल था सो बीच में से कैसे उठते?

तभी वाइस-प्रेसीडेंट चौधरी नत्थूसिंह सिर की गोल टोपी सँभालते हुए बोल उठे, “हाँ, लालाजी, जब तो फैसला आपके ही हाथ में है।” फिर अपने साथियों की ओर देखकर वह बोले, “मैं अपनी तरफ से लालाजी को पूरे इख्तियार देता हूँ। जिसे चुन लेंगे मुझे मंजूर होगा।” अब कोई चारा ही न था। चूनाँचे तुरन्त ही सेक्रेटरी गनेशीलाल ने भी अपनी ओर से लालाजी को सारे अधिकार सौंप दिए। और लालाजी, जो इस स्थिति को टालने के लिए ही वहां से खिसक जाना चाहते थे, बुरी तरह फंस गए।

बात यह थी कि मास्टरों के चुनाव में लालाजी को छोड़कर शेष बारह मेम्बरों में से छह-छह के दल बन गए थे। एक दल गनेशीलाल के साथ था और दूसरा चौधरी नत्थूसिंह के। लालाजी ने आज तक किसी को नाराज करना सीखा ही न था। सदा ठकुर-सुहाती ही कही थी।
कुछ देर माथे पर हाथ रखकर सोचने के बाद लालाजी बोले, “अब देख्खो कित्ती सान्ती है। ऐसे में मन से विचार भी उपजता है।”

वास्तव में कमरे में निस्तब्धता छा गई थी। दोनों पक्षों के लोग अपनी-अपनी सफलता की आशा में मुँह बाए लालाजी की ओर ताक रहे थे। लालाजी पर सबको विश्वास था कि फैसला हमारे पक्ष में करेंगे। तभी लालाजी बोले, “जग-जाहिर बात है भय्यो कि मास्टरों के चुनाव में दुनिया के हर स्कूल में प्रिंसिपल जरूर रहवै है। मगर हमारे यहाँ कोई प्रिंसिपल नहीं है इसलिए अगर पंचों की राय हो तो उत्तमचन्द का वोट भी ले लिया जावै, और वो जिसकू कहै उसै ही हम रख लेवें।”

लालाजी ने अपनी समझ से अपने बच निकलने की पूरी तैयारी की थी। पर दोनों पक्ष आज जैसे लालाजी को अपने प्रति वफादारी को तौल लेना चाहते थे। अतः कोई राजी नहीं हुआ। गनेशीलाल ने तो यहाँ तक कहा कि उत्तमचन्द लौंडा है। चौधरी नत्थूसिंह ने कहा कि लालाजी के होते हुए उससे राय मांगना निहायत बेवकूफ़ी है।

अपना नाम सुनते ही उत्तमचन्द कुरसी से कुछ आगे को झुक आए मगर सेक्रेटरी और वाइस-प्रेसीडेंट की अपने सम्बन्ध में ऐसी राय सुनकर उन्होंने टेढ़ी करते हुए अपनी गर्दन झुकाई और मुख पर सहमति-सूचक सलज्ज मुस्कान बिखेरकर असमर्थता में हाथ जोड़ दिए।

लालाजी की व्यावहारिक बुद्धि को यह समझने में देर नहीं लगी कि अब उनकी परीक्षा का समय आ गया है। अतः उन्होंने अपना कर्तव्य निश्चित किया और बोले, “तो भय्यो, बखत कू क्यूँ बरबाद करा जावै। उधर मास्टर लोग भी सुबह से इन्तजारी में बैट्ठे हैं। अगर पंच बुरा न मान्नें तो दोन्नों तरफ का एक-एक आदमी रुक जाये, और बाक्की पंच लोग दूसरे कमरे में चले जावें।”

बात माकूल थी। किसी को एतराज नहीं हुआ। सारे मेम्बर खुद ही कमरे से उठकर चले गए। केवल गनेशीलाल और चौधरी नत्थूसिंह ही वहाँ रह गए। लालाजी ने कहा, “हाँ, भय्या गनेसीलाल, अब कहो क्या बात है ?”

गनेशीलाल खखारकर गला साफ़ करते हुए बोले, “लालाजी, आप तो जान्नै ही हैं। दसियों साल्लों से कमेटी का मिम्बर हूँ। आज लौं मैंन्ने सदा न्याय की बात करी है। अब यही लो। आपने हिन्दी के प्रोफेसरों में पाठक को चुना। मैंन्ने चूं-चकर करी ? भगवान जान्नै है मेरे साले की चिट्ठी धरी है मेरी जेब में। उनने रोहतगी के लियो लिक्खा था। पर मैंन्ने करा आपका विरोध ?” और इतना कहकर गनेशीलाल जेब से चिट्ठी निकालने लगे।

किन्तु उनसे पहले ही चौधरी नत्थूसिंह ने अपनी जेब से एक चिट्ठी निकालकर लालाजी के सामने धर दी। बोले, “चिट्ठी क्या मेरे पास नहीं आई ! वह जो वर्मा था, मेरे बड़े लड़के की बहू का सगा मुमेरा भाई था। बल्कि मेरे यहाँ ही ठहरा था। कित्ती हिजो होगी मेरी, लड़के की ससुराल में। पर मैंन्ने ही क्या कहा ? कायदे की बात पै सबको झुकना पड़ता है।”

लालाजी को इन चिट्ठियों का पता पहले ही लग चुका था। उनके पास तो इस मरतबा कोई चिट्टी नहीं आई, पर पाठक के लिए डिप्टी साहब का जबानी सन्देश उन्हें जरूर मिला था। पाठक डिप्टी साहब का भतीजा था, और डिप्टी साहब की अदालत में लालाजी के भट्टे से सम्बन्धित मामले रोजाना जाते ही रहते थे इसलिए जान-पहचान भी गाढ़ी थी। अतः उनका काम करना ही था। जब उन्हें उत्तमचन्द ने बताया कि गनेशीलाल और चौधरी नत्थूसिंह के पास भी हिन्दी के प्रोफेसर के लिए उनकी रिश्तेदारी से चिट्ठियाँ आई हैं तो लालाजी ने उत्तमचन्द की ही मदद लेकर सात और मेम्बरों को गाँठना शुरू किया। और भगवान की दया से बात बन गई। डिप्टी साहब की अदालत में किसे काम नहीं पड़ता ? इसलिए पाठक का नाम आते ही सात हाथ एकदम उठ गए और आठवाँ हाथ लालाजी का। हिन्दी के लेक्चरर के लिए निर्विरोध चुनाव हो गया पाठक का।

अतः दोनों चिट्ठियाँ बिना पढ़े ही लौटाते हुए लालाजी बोले, “चिट्ठी-पत्री तो आवै ही हैं, भय्या। पर हमें तो न्याय करना है। हमें तो ऐसा आदमी लेना है जो हमारे बच्चों कू चार अच्छी बातें सिखावै और आदमी बनावै। अब पाठक को ही लो। मेरा उससे क्या वास्ता, क्या रिस्ता ? वो ब्राह्मन, मैं बनिया। पर मुझे उसकी सिच्छा सुद्ध लगी। पंचों की राय मिली और हमने उसे ले लिया।”

गनेशीलाल और चौधरी नत्थूसिंह दोनों पाठक की शिक्षा की हकीकत समझते थे। पर मौक़ा कुछ कहने का नहीं था। अब तो झगड़ा असिस्टेंट टीचर्स के चुनाव का था। गनेशीलाल ने बात शुरू की। बोले, “बीती ताही बिसार दे-ऐसा बुजुर्गों ने कहा है। परन्तु लालाजी, न्याय के विरुद्ध जो बात होवै, सो मुझसे बरदास्त नहीं होती। अब इनसे पुच्छो। चौधरी साहब खामखाँ उस मुसलमान्न लौंडे को मास्टर रखना चाहें हैं। मैं तो कहूँ कि हिन्दू कॉलिज नाम रखकै अगर आप इसमें मुसलमान्नों कू भरै हैं तो कहाँ रयी आपकी मरयादा, कहाँ रया धरम ? क्या सारे हिन्दू लौंडे मर गए?”

गनेशीलाल ने अपने हिसाब से बात को सैद्धान्तिक मोड़ देकर धर्म के नुक्ते पर लाकर छोड़ दिया। वह जानते थे कि यह लालाजी का मर्म स्थान है। फिर बोले, “वह सोत्ती बच्चा है, बाह्मन है, पास का है। दस-बीस रुपए कम पर तैयार हो जावेगा। मैंने इनसे कया कि उस मुसलमान्न से तो वह बाह्मन का लौंडा ही लाख जगह अच्छा है। पर इनकी समझ में काए कू आवै।”
लालाजी बोले, “बोल्लो भय्या नत्थूसिंह, क्या कहो हो?”
नत्थूसिंह बोले, “लालाजी, बात हिन्दू-मुसलमान की नहीं है। बात दरअसल ये है कि इनके छोटे भाई सोहन के पास आज ही रामचन्दर वकील साहब का लम्बा-सा तार आया है बिजनौर से। इसीलिए ये सोती को लेना चाह रहे हैं।”
फिर अगली बात सोचने का अवसर ढूँढ़ते हुए बोले, “क्यों गनेशीलाल ! बोलो, क्या मैंने कुछ गलत कहा?”

गनेशीलाल फौरन सिद्धान्त की पटरी से उतर गए; बोले, “मैं ये कब कहूँ तार नई आया । सो मेरा सोत्ती के लिए कहना ठीक भी है। पर तुम्हारे पास तो कोई तार भी नई आया, फिर तुम क्यों उस मुसलमान लौंडे के पीछे पड़े हो? न सूरत, न सकल, न अकल। कम-से-कम सोत्ती…”
और सोती की प्रशंसा का वाक्य अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि लालाजी ने बात काटकर कहा, “मुझे कुछ खियाल नहीं आ रया, भैय्या। ये मुसलमान लौंडा कौन-सा था?”
“अजी वही इकरार या इसरार, क्या नाम है उसका ? वही जो भंडेलोबाला पजाम्मा पहने था।” गनेशीलाल ने विरक्ति से कहा।

चौधरी नत्थूसिंह को अपना पाला कमजोर पड़ता दिखाई दिया तो बोले, “कोतवाल साहब का भानजा है, लालाजी। आपको ख्याल नहीं रहा। जरा फिर से बुलाकर देखिए, तबियत खुश हो जाएगी। बड़ा होनहार लड़का है। चाल-चलन का बड़ा सच्चा है।”

कोई और दिन होता तो लालाजी कोतवाल के भानजे को ज़रूर ले लेते। पर आज वह डिप्टी साहब के भतीजे को ले चुके थे। थानेदार की क्या औकात है डिप्टी के सामने ! दूसरे, उन्हें यह भी लगा कि कोतवाल साहब ने खुद उनसे नहीं कहा। फिर वह चौधरी साहब को नाराज नहीं करना चाहते थे क्योंकि उनके और उनके डॉक्टर लड़के के हाथ में काफी वोट थे और लालाजी ‘म्युनिसिपल्टी’ का इलेक्शन लड़ने का पक्का निश्चय कर चुके थे।

लालाजी बड़े असमंजस में पड़े। दोनों अपने अपने पाले पर दृढ़ हैं। कोई हिलने को तैयार नहीं। तभी उन्हें ध्यान आया कि मावले के ठाकुर साहब से उन्होंने वादा किया था। कहीं उनके लड़के को लेकर भी तो इनमें मतभेद नहीं हो गया है। बोले, “अच्छा भय्या, जरा ये तो बताओ, दूसरा मास्टर कौन-सा पक्का हुआ?”

लालाजी के इस प्रश्न पर चौधरी नत्थूसिंह और गनेशीलाल दोनों ही एक साथ चौंक पड़े। गनेशीलाल का सबसे छोटा भाई इंडसाल का काम करता था और उसको सबसे ज़्यादा माल मावले के ठाकुर साहब के ही गाँव से मिलता था। गनेशीलाल ने सोचा, उस पोस्ट के लिए राजेश्वर की बात तो पहले ही पक्की हो चुकी है। फिर उसे दुबारा उठाकर लाला हरीचन्द किसी और को तो नहीं लेना चाह रहे ? लगभग इसी तरह की शंका चौधरी नत्थूसिंह के मन में भी आई जिनके बड़े लड़के की नई-नई होम्योपेथी की प्रेक्टिस को मावले के ठाकुर साहब द्वारा काफी मरीज मिल रहे थे। अतः फौरन बोले, “उसके लिए तो हम सब एक राय होकर राजेश्वर ठाकुर को पहले ही चुन चुके हैं। बड़ा अच्छा लड़का है।”

गनेशीलाल ने भी ताईद की तो लालाजी फ़ौरन बोले, “अरे हाँ, वो लौंडा। अच्छा है, बहुत अच्छा है।” फिर जैसे कुछ निर्णय की मुद्रा में आते हुए बोले, “हाँ तो भय्या गनेसीलाल, दूसरे मास्टर के लियो तुम सोत्ती का नाम ले रये हो और भय्या नत्थूसिंह तुम उसका, क्या नाम है, कोतवाल साहब के भानजे का? यही न?”
“जी हाँ,” दोनों ने लगभग एक साथ सहमति दी। राजेश्वर ठाकुर के चुने जाने पर दोनों ने ही चैन की एक लम्बी सांस ली थी।
“तो भय्या, मेरी बात मानोगे ? लालाजी ने पूछा। “जी,” दोनों ने उत्तर दिया।

“तो भय्या, तम्हारा वकील नाराज होवे है तो होने दो।” लालाजी ने गनेशीलाल की ओर मुख़ातिब होकर कहा और फिर चौधरी नत्थूसिंह की ओर देखकर बोले, “तुम भी भय्या कोतवाल को नाराज हो जाने दो। ज्यादा-से-ज्यादा चार-छह महीने का महमान ही तो है। जल्दी चाहोगे तो डिप्टी साहब से बात कर लेंगे। पर धरम की मरयादा, चाहे प्रान भले ही चले जावे, रहनी चाहिए। क्यों, क्या कहो हो ?”

दोनों कुछ सोच में पड़ गए थे। लालाजी ने मौन को स्वीकृति मानकर आगे कहा, “मुझे तो वह गुरुकुल का पढ़ा हुआ लौंडा भावै है। कैसी पवित्र आत्मा है उसकी। एकदम सच्चा और सुद्ध। फिर सबसे ज्यादा नम्बर भी उसी के हैं। और संस्कीरत का विद्वान। पूरा हिन्दू। बिलकुल वैसा ही हिन्दू जैसा भय्या गनेसीलाल चावै हैं। क्यों भय्या नत्थूसिंह, अब तुम भी कुछ अपने विचार सामने रक्खो ना !”
नत्थूसिंह के पास रखने को कोई विचार था ही नहीं। बोले, “ठीक है, मगर कुछ जंचता नहीं है।”

लालाजी ने भाँप लिया कि उनके निर्णय से कोई नाराज नहीं हुआ, तो वह फिर गनेशीलाल की और घूमे। गनेशीलाल ने कहा, “मेरे विचार से तो उसकू एक बार फिर से बुलाके इंटरव्यू कर लें।”

लालाजी को विश्वास हो गया कि आधी बाजी जीत ली है। इसीलिए तुरन्त गनेशीलाल की ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाकर उन्होंने कहा, “हाँ भय्या ! बच्चों की बात आजकल कू जनता को सिकायत होवै, क्या फायदा ? पहले से ही ठोक बजाकर देख लेना अच्छा है आदमी कू।” फिर घंटी बजाकर उन्होंने उत्तमचन्द को बुलाया, और उसे सत्यव्रत को बुलाने की आज्ञा दी। और मन-ही-मन समझौते के इस बिन्दु पर एकमत होते हुए तीनों आदमी इंटरव्यू लेने की मुद्रा में बैठ गए। चौधरी नत्थूसिंह ने कोट के बटन खोलते हुए अपनी गोल टोपी संभाली। गनेशीलाल ने हल्दी से रंगी अपनी धोती की पूंचड़ को लाँग में ठूँस लिया। लालाजी बोले, “इत्ती छोटी-छोटी बातों पर आपस में मनमुटाव नहीं करना चाहिए। मैं तो कहूँ हूँ इनसाप के लिए लोगों ने किते-किते त्याग कर दिए। अब यही लो, पाठक के लिए आप दोनों ने अपने अपने रिस्तेदारों को नाराज कर दिया तो भला वकील या कोतवाल किस खेत की मूली हैं?”

और इतना कहकर लालाजी अपनी बात का असर देखने की कोशिश करने लगे उन दोनों पर। पता नहीं लालाजी की बात का असर था कि उन दोनों की अपनी मज़बूरी का-मगर दोनों ही सहमति की मुद्रा में दिखाई दे रहे थे।
तभी मास्टर उत्तमचन्द, सत्यव्रत के साथ कमरे में दाखिल हुए।

“बैट्ठो भय्या ! लालाजी ने बड़े प्रेम से सत्यव्रत को सम्बोधित करके कहा और चौधरी नत्थूसिंह और गनेशीलाल की ओर बारी-बारी से घूमकर बोले, “हाँ भय्या, पूछ लो जो कुछ पूछना होवै।”

पहले गनेशीलाल को ही पूछना पड़ा, क्योंकि उन्होंने ही सत्यव्रत के दुवारा इंटरव्यू का आग्रह किया था। सहसा कुछ सूझ न पड़ा तो सत्यव्रत की ओर मुंह करके,भाषा में जरा साहित्यिकता लाते हुए उन्होंने पूछा, “सुबह कै बजे उठते हो जी ?”
“चार बजे।” सत्यव्रत ने उत्तर दिया।
“फिर क्या करते हो?” “उठकर जंगल आदि के नित्य कर्म से निवृत्त होने के लिए एवं वायु-सेवन के लिए जाता हूँ और वहीं थोड़ा व्यायाम भी करता हूँ। घर आने पर सन्ध्या करता हूँ और रविवार के दिन यज्ञ। तदुपरान्त थोड़ा स्वाध्याय और घर का काम-काज देखता हूँ।”
“प्याज खाते हो?” “जी नहीं। प्याज, लहसुन या इस तरह की अन्य वस्तुएँ हमारे घर नहीं खाई जातीं।”
“ठीक है।” गनेशीलाल सन्तुष्ट होकर लालाजी की ओर देखने लगे। आगे पूछने के लिए उनके पास कोई प्रश्न न था।

लालाजी ने अब चौधरी नत्थूसिंह की ओर देखा। बाजी हाथ से जाते देख नत्थूसिंह ने सोचा, क्यों न बहती गंगा में हाथ धो लिए जाएँ कुछ प्रश्न पूछकर। कम-से-कम कहने को तो हो जाएगा कि इस आदमी को हमने योग्यता के आधार पर लिया है, और न्याय किया है। रही कोतवाल साहब की बात, उन्हें समझा दूंगा कि गनेशीलाल की बदमाशी के कारण ही असरार नहीं लिया गया। और यह सोचकर ही उनका मुँह प्रसन्नता से चमक उठा कि कोतवाल गनेशीलाल को कहाँ गच्चा देगा ! फिर गम्भीर होकर चौधरी साहब ने सत्यव्रत से पूछा, “एक अच्छे विद्यार्थी में क्या-क्या खूबियों होनी चाहिए, बता सकते हो?”

“चरित्र और अनुशासन।” सत्यव्रत ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया और फिर जैसे कुछ सोचकर विस्तार से समझाते हुए बोला, “चरित्र में सत्यप्रियता, बड़ों की आज्ञा का पालन करना, दया और प्रेम आदि सारी बातें सम्मिलित हैं। और अनुशासन में अध्ययन…”

“शाबास !” चौधरी साहब गद्गद होकर बोले, “आज विद्यार्थियों में आपस में प्रेम नहीं रहा है। मैं चाहता हूँ कि हमारे स्कूल के विद्यार्थी भाई-भाई की तरह आपस में प्रेम करें। तुम्हारा क्या ख़याल है ?”

“आपने बिलकुल उचित कहा। सत्यव्रत उनकी नाटकीयता से प्रभावित होकर बोला, “छात्रों में परस्पर प्रेम तो होना ही चाहिए। प्राचीन आश्रम-शिक्षा-पद्धति की यही सबसे बड़ी विशेषता थी जो आज लुप्त होती जा रही है। सत्यव्रत ने निश्छल भाव से अपने विचारों को रख दिया।
“बस, मुझे और कुछ नहीं पूछना।” चौधरी नत्थूसिंह ने मुख पर पूर्ण सन्तोष का भाव व्यक्त करते हुए लालाजी से कहा।

लालाजी का यह तीर अकस्मात् ही निशाने पर जा लगा था। अतः उन्हें जल्दी न थी। उन्होंने एक पल रुककर धीरे से कहा, “पंचों का निरणय सर-माथे।” फिर सत्यव्रत की ओर देखकर बोले, “तो भय्या सत्तेबरत, तुम समझो कि हमने तुम्हें लेई लिया। पर भय्या तुम अभी हो बच्चे। जानते हो सिच्छक का कार्य कित्ती जिम्मेवारी का होवे है।”

सत्यव्रत ने सिर झुका लिया कृतज्ञता से। शिक्षा-दान का जो पुनीत संकल्प उसके मन में था, आदर्श शिक्षा प्रणाली की जो रूपरेखा उसने बनाई थी और विद्यार्थियों को नैतिक अनुशासन के जिस साँचे में ढालने की उसने कल्पना की थी-वे सारे-के-सारे स्वप्न उसे साकार होते दिखाई देने लगे। अन्य उम्मीदवारों के बीच बैठकर उसने इस कॉलेज के बारे में कोई अच्छी धारणा नहीं बनाई थी, पर अब अचानक ही वह सारी भूमिका बदल गई। उत्तमचन्द जी का सिगरेट की निन्दा करना और मैनेजिंग कमेटी के इन तीन प्रमुख सदस्यों का चरित्र-निर्माण से सम्बन्धित प्रत्येक छोटी-छोटी बात पर ऐसे प्रश्न करना क्या इस बात का प्रमाण नहीं कि ये लोग साधु-प्रकृति के हैं और अपनी संस्था को आदर्श बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं? सत्यव्रत को प्रसन्नता हार्दिक हुई।
लालाजी फिर बोले, “क्यों भय्या ! तुम्हारे विचार में अच्छे सिच्छक में क्या गुण होने चाहिएँ? और तुमने सिच्छक होने का ही निश्चय क्यों करा?”

यह प्रश्न बिलकुल सत्यव्रत के मन का था। आवेदन-पत्र भेजते समय उसने क्या-क्या कल्पनाएँ नहीं की थीं! गुरुकुल की शिक्षा अधूरी न रह जाती तो वह समस्त भारत में शिक्षा और संस्कृत का प्रचार करता हुआ घूमता। किन्तु पिता की असमय मृत्यु और माँ की बीमारी के कारण उसे अपने छोटे-से गाँव में लौट आना पड़ा। लड़कपन में जब गुरुकुल गया था तो सत्यव्रत मुश्किल से सात वर्ष का था। बीच-बीच में वह थोड़े दिनों के लिए गांव आता भी रहा, किन्तु अब हमेशा के लिए लौट आया तो उसे बड़ा विषाक्त लगा गाँव का वातावरण । उसका दम घुटने लगा वहाँ। फिर भी उसका दोष उसने किसी को नहीं दिया बल्कि उन परिस्थितियों में भी सत्यव्रत ने अध्ययन जारी रखा। और उसने निश्चय किया कि घर पर ही तैयारी करके बी.ए. की परीक्षा दूँगा। खेती का काम छोड़कर अध्यापन का कार्य करूंगा। मेरे भीतर ज्ञान की छोटी-सी ज्योति ईश्वर ने जलाई है, उसका प्रकाश जब तक जन-जन में नहीं फैल जाएगा तब तक में गुरु-ऋण से मुक्त नहीं होऊँगा। वह अक्सर सोचा करता, ‘अहा ! कितना पवित्र कार्य है शिक्षक का, ज्ञान-दान ! दूसरों के जीवन का निर्माण करना, बच्चों को पढ़ाना, अर्थात् आकारहीन पत्थर के टुकड़ों को तराशकर उन्हें एक कलात्मक आकृति प्रदान करना। ऐसी शिलाएँ बनाना जिन पर भावी पीढ़ी की बुनियाद रखी जा सके।

सत्यव्रत ने अक्सर इन्हीं प्रश्नों पर गम्भीरता से सोचा था। अतः प्रश्न का उत्तर देने में कोई असुविधा न हुई उसे। तीनों सदस्य भी पूरी तरह सन्तुष्ट हो गए। लाला हरीचन्द को लगा कि चलो, दोनों में से कोई भी नाराज नहीं हुआ और एक सच्चे हिन्दू को चुनकर उन्होंने धर्म-सबाब का काम किया। वकील या कोतवाल उन्हें क्या देते? कोतवाल तो उनके पास तक नहीं आया !

चौधरी नत्थूसिंह को खुशी थी इस बात की कि अब कोतवाल गनेशीलाला से कांटे ज़रूर निकालेगा। असरार नहीं लिया गया तो श्रोत्रिय भी नहीं लिया जा सका। दोनों में से जीत किसी की नहीं हुई।

गनेशीलाल भी बिलकुल वही सोच रहे थे जो चौधरी नत्थूसिंह ने सोचा था। फर्क इतना था कि नत्थूसिंह की कल्पना में कोतवाल गनेशीलाल को सता रहा था और गनेशीलाल की कल्पना में नत्थूसिंह को।

फिर अचानक अपने-अपने काम का ध्यान आया तो सबसे पहले गनेशीलाल वहाँ से उठे। उनके साथ ही चौधरी नत्थूसिंह भी उठ खड़े हुए। अब सत्यव्रत का वहाँ बैठना फ़िजूल था। हाथ जोड़ते हुए वह उठा तो लालाजी भी छड़ी सँभाले हुए साथ ही उठ लिए और चलते हुए सत्यव्रत के कन्धे पर हाथ रखकर सनेह से कहा,
“तुम कल उत्तमचन्द से मिलकर अपनी नियुक्ति का पत्र अवश्य ले लेना, भय्या !”

सत्यव्रत का मस्तक स्वयमेव श्रद्धा से नत हो गया। उसे लालाजी में वह गंगा-तटवासी स्वामीजी दिखाई दिए जो ‘श’ को ‘स’ बोला करते थे मगर जिनकी दृष्टि भविष्य में झाँकती थी। उसने अपने इंटरव्यू के विषय में सोचा तो लगा कि यद्यपि गनेशीलाल और चौधरी साहब के प्रश्न भी चारित्रिक दृष्टि से बड़े महत्त्व के थे, पर लालाजी के प्रश्नों जैसी गहराई उनमें न थी।

गूँगे की दुकान (अध्याय-3)

राजपुर एक मामूली-सा गन्दा कस्बा सही किन्तु राजपुर की शाम अनन्त सौन्दर्य लेकर आती है। आकाश पर कुछ आकृतियाँ उभरती हैं और अबाबीलों की तरह पंख खोलकर धीरे-धीरे धरती पर उतरने लगती हैं। शहर के चारों ओर खड़े खजूर के मनहूस-से पेड़ सतर्क प्रहरियों की तरह तन जाते हैं। लखीरी ईटों के उदास खंडहरों पर लज्जा की लाली दौड़ जाती है। सोन नदी का काला जल सुनहरा हो उठता है। और छोटे तालाब के चारों और गोलाकार खड़े जामुन, नीम और खजूर के वृक्ष सामूहिक नृत्य की मुद्रा धारण कर लेते हैं।

शाम के इस सौन्दर्य की सबसे अधिक प्रतिक्रिया हिन्दू इंटर कॉलेज की इमारत पर होती है जो हर दृश्य के साथ रंग बदलती हुई एक धैर्यवान दर्शक की भाँति खड़ी रहती है। यों देखने में वह भी एक मामूली-ती पीली दुमंजिली इमारत है जो हर ओर से चौकोर नजर आती है। उसमें अन्दर जाने के लिए एक ही बड़ा-सा दरवाजा है जिस पर लोहे की मोटी नुकीली कीलें उभरी हैं और नीचे एक बड़ी-सी साँकल और कुन्दा लगा है। भीतर छोटा-सा आँगन है। दरवाजे से आँगन में घुसते ही बाईं ओर दफ्तर है जहाँ पवन बाबू बैठते हैं, फिर टीचर्स-रुम और लायब्रेरी है। और दाईं ओर ऊपर जाने का जीना, साइंसलैबोरेटरी तथा प्रिंसिपल का कमरा है। नीचे के शेष पाँच-सात कमरों में हाई स्कूल की कक्षाएं लगती हैं। और ऊपर की मंजिल में इंटरमीडिएट और छोटी कक्षाओं के छात्र बैठते हैं। यानी कुल मिलाकर इमारत का कोई खास प्रभाव दर्शक के मन पर नहीं पड़ता। किन्तु शाम होते ही इसमें भी तरंगें पैदा होने लगती हैं।

यही शाम शहर से कुछ दिलचस्पियों को बाँधे है वरना कॉलेज में नियुक्त होनेवाले नए अध्यापकों के सामने हर साल एक समस्या आती है कि यहाँ वक्त कैसे गुजारा जाए? राजपुर पच्चीस-तीस हजार की आबादी का एक छोटा-सा कस्बा है; जहाँ न कोई थियेटर है, न सिनेमा, न कोई सांस्कृतिक गतिविधि है, न साहित्यिक उत्साह । पूरे शहर में एक ही बड़ी सड़क है (जो बिजनौर से आती है) जिसमें इधर-उधर से रेंगती हुई सँकरी-सी कई गलियाँ आ मिलती हैं। गलियों में दिन-भर बच्चे, मकोड़े और नाबदान के कीड़े बिलबिलाते रहते हैं और सड़क पर गाँव से गुड़ या राव की गाड़ियाँ लेकर आए हुए किसानों पर, दलालों और आढ़तियों की मक्खियों-सी भीड़ भनभनाती रहती है।

संक्षेप में, पूरा शहर एक मंडी है जिसमें चारों तरफ़ से आवाजें उठती हैं। मोल-तोल करती हुई आवाजें, लड़ती-झगड़ती और उलझती हुई आवाजें, बहकाती-फुसलाती आवाजें और छीना-झपटी करती हुई आवाजें। और व्यापारिक आवाजों के इस भयंकर शोर में संवेदनशील लोग, जिन्दगी का एक स्वर खोजने के लिए तरस उठते हैं। वे अध्यापक, जो अकेले होते हैं, जिनके परिवार उनके साथ नहीं होते, कॉलेज टाइम के बाद, एक लमहे का सकून पाने के लिए दिन-भर शाम का इन्तजार करते हैं। उस घड़ी का इन्तजार-जब वे शहर की इस मनहूस चहारदीवारी को लाँघकर कॉलेज और रेलवे स्टेशन की ओर निकल जाएँगे।

शाम के साये आकाश से उतरकर धरती की ओर बढ़ते हैं। कॉलेज की पीली इमारत का रंग सुनहरे रंग में झिलमिला उठता है। कॉलेज के पीछे सड़क के साथ-साथ शहर में फैले मैदानों में देसी सदासुहागिन की बाढ़ पर फूलों के छोटे-छोटे चिराग जल उठते हैं। फुटबाल का खेल बन्द हो जाता है। शहर के ताँगे खड़-खड़ करते हुए बिजनौर जाने और बिजनौर से आनेवाली शटल गाड़ियों पर मुसाफिरों को लाने-पहुँचाने में व्यस्त हो जाते हैं। रेलवे स्टेशन पर आकर खत्म हो जानेवाली शहर की एकमात्र सड़क दिन भर के वैधव्य के बाद शाम को थोड़ी देर के लिए सुहागिन हो उठती है। और इतनी ही देर में जीवन को इंच-इंच कर जीने के आकांक्षी काफ़ी जीवन-रस प्राप्त कर लेते हैं।

सचमुच कॉलेज और उससे सौ-दो सौ कदम के फासले पर खड़ी रेलवे स्टेशन की इमारत शहर की जान है। हालांकि सुबह शटल गाडियों का मेल हो जाने के बाद स्टेशन पर शाम तक निपट सन्नाटा छाया रहता है, वैसे ही जैसे छुट्टी के दिन यह कॉलेज यात्रीहीन धर्मशाला-सा जान पड़ता है। मगर कॉलेज के गेट से लगी नींबुओं की बगिया में गूँगे हलवाई की दुकान वातावरण को सोने नहीं देती। गूँगे हलवाई की दुकान की वहाँ बड़ी रौनक है। यह कहना कठिन है कि उससे स्टेशन को अधिक लाभ है या कॉलेज को, मगर उसकी उपयोगिता सब अनुभव करते हैं। कॉलेज के छात्रों से लेकर स्टेशन के खलासियों तक-सबने उसकी दुकान की प्रसिद्धि में उन्मुक्त योग दिया है। और अब उसकी दुकान के रसगुल्लों की शोहरत उसकी दुश्चरित्रता की कहानियों से भी ज्यादा फैल गई है।

हर नए आदमी की तरह सत्यव्रत पर भी इस शोहरत का प्रभाव पड़ा था और उस शाम वह वहाँ दूध पीने के लिए चला आया था। यद्यपि स्वभावतः वह बाहर जाकर होटलों या ढाबों में खाना नहीं खाता, और जहाँ हाथ से भोजन बनाने की सुविधा नहीं होती वहां वह केवल दूध और केलों पर ही गुजर कर लिया करता है। पर राजपुर में, दो बजे इंटरव्यू खत्म होने के बाद, न उसे केले मिले थे और न दूध। यों भी जिन हलवाइयों की दुकान पर वह गया था वहाँ उनकी गन्दगी देखकर उसके मन में भारी अरुचि पैदा हो गई थी और उसने निश्चय किया था कि इन दुकानों पर कुछ खाने की बजाय वह तब तक व्रत रखना पसन्द करेगा जब तक खाने-पीने की कोई समुचित व्यवस्था न हो जाए। पर गूँगे की दुकान पर आकर उसने अपना निश्चय बदल दिया।

भूख जीवन का कितना ही बड़ा सत्य क्यों न हो किन्तु और सत्यों की भांति थोड़े समय के लिए उसे भी दबाया और कुचला जा सकता है। सत्यव्रत भी भूख को मारकर शाम होते ही आर्यसमाज मन्दिर की अपनी कोठरी से निकलकर शहर में घूमने चल दिया था। मुख्य सड़क पर आते ही हलवाइयों की दुकानों से उठती हुई गन्ध रह-रहकर उसके निश्चय के एकान्त में महकने लगी, पर वह विचलित नहीं हुआ। तभी संयोगवश असरार से उसकी भेंट हो गई जिसने बड़े जोरदार शब्दों में घूमने के लिए हिन्दू कॉलेज और खाने-पीने के लिए गूँगे की दुकान पर जाने की सिफारिश की और दुकान पर आकर सत्यव्रत को प्रसन्नता ही हुई।

मँजे हुए, साफ़-सुथरे पीतल के गिलास से दूध का एक घूँट भरते ही सत्यव्रत की आत्मा तृप्त होती चली गई। वास्तव में इतने अच्छे दूध की उसने आशा नहीं की थी। गूँगे की ईमानदारी पर उसे आन्तरिक खुशी हुई और इसीलिए पैसे देते वक़्त उसने दूध के गिलास की ओर इशारा करते हुए निर्विकार भाव से उसकी शुद्धता की तारीफ की। सोचा-लोग खामखा शहरों को बदनाम करते हैं कि वहाँ शुद्ध घी-दूध नहीं मिलता।

तभी गूँगा तड़पकर खड़ा हो गया। और सत्यव्रत के पैसोंवाले हाथ को पीछे करता हुआ ‘आँऽऽ आँऽऽ’ करके अपनी चौड़ी-चकली छाती पर हाथ मारता हुआ बिजनौर जानेवाली रेलवे लाइन की ओर इशारा करने लगा।

उसके चेहरे से लगता था कि वह उत्तेजित हो गया है और अगर बोल पाता तो गालियां दे रहा होता। दुकान पर उपस्थित लोग इस तमाशे में रस लेने लगे थे और सत्यव्रत इस अप्रत्याशित घटना से भौंचक्का-सा होकर सहायता के लिए इधर-उधर देखने लगा था। तभी पास के मूढ़े पर बैठा बीड़ी पीता हुआ एक दुबला-सा नवयुवक उठा और गूँगे के सामने खड़े होकर उसने गर्दन हिलाकर कुछ मना किया। फिर विस्तार से दोनों आँखें फैलाकर दाहिने हाथ की तर्जनी से उसी गिलास के अन्दर इशारा किया और तत्पश्चात् प्रशंसा सूचक मुस्कराहट अधरों पर लाकर स्वीकृति की मुद्रा में अपनी गर्दन ऊपर-नीचे हिलाने लगा। तत्काल गूँगा शान्त हो गया और उसने हँसते हुए हाथ बढ़ाकर सत्यव्रत से पैसे ले लिए।

सत्यव्रत ने मुक्ति की सांस ली। आभार और आश्चर्य-सहित वह उस नवयुवक की ओर देखने लगा, जिसने स्थिति संभालने के लिए अनायास ही एक छोटा-मोटा नाटक कर दिया था। सत्ताइस-अट्ठाइस साल की उम्र। देखने में सुशिक्षित और बुद्धिमान और पतले-दुबले कमजोर शरीर पर खादी के साफ़ कपड़े, बीड़ी पीने को छोड़कर सत्यव्रत को उसका पूरा व्यक्तित्व पसन्द आया। धन्यवाद देने के लिए वह कुछ शब्द खोज ही रहा था कि वह नवयुवक गूँगे की ओर संकेत करके बोल उठा, “इसकी आदत बड़ी खराब है। अपनी चीज की जरा-सी बुराई बरदाश्त नहीं कर सकता। वैसे आप भी स्वीकार करेंगे कि ईमानदार आदमी को अपनी मिथ्या आलोचना पर क्षोभ होता ही है।”

सत्यव्रत उस बीड़ी पीनेवाले नवयुवक की शिष्ट और संयत वाणी पर मुग्ध होते हुए बोला, “लेकिन मैंने इसकी आलोचना कहाँ की?”

“वही तो मैने समझाया कि ये तुम्हारी तारीफ़ कर रहे हैं। वरना वह आपको चैलेंज दे रहा था कि बिजनौर तक ऐसा दूध नहीं मिल सकता।” उस नवयुवक ने मुस्कराकर कहा और फिर पूछा, “आप बिजनौर के रहनेवाले तो नहीं हैं न?”
“जी नहीं,” सत्यव्रत ने कहा, “मैं तो मोजमपुर के पास एक गाँव है, तीरथनगर, वहाँ का रहनेवाला हूँ।”

“नए आए हैं यहाँ ?” उस नवयुवक ने पूछा। वह सोच रहा था कि न यह व्यापारी हो सकता है, न छात्र। फिर कौन है ? मगर उसके चेहरे पर जिज्ञासा नहीं, स्वागत का भाव था।
“जी हाँ, आज ही।” सत्यव्रत ने कहा और फिर पूरा परिचय देते हुए बोला, “सहायक अध्यापक के रूप में मेरी नियुक्ति इसी कॉलेज में हो गई है।”
“कब ?” घोर आश्चर्य व्यक्त करते हुए उस नवयुवक ने अपने प्रश्न को तुरन्त ही दोहरा दिया, “कब से ?”
“आज ही से।” सत्यव्रत ने जवाब दिया और नियुक्ति की प्रसन्नता से उसकी छाती फूल उठी। मन में असाधारणत्व का अनुभव करते हुए सौजन्य के नाते उसने पूछा, “और आप?”
“मैं भी यहीं मास्टर हूँ। उस नवयुवक ने अपने बारे में बताते हुए कहा, “मेरा नाम जयप्रकाश है।”

अब सत्यव्रत के विस्मित होने की बारी थी। उसका असाधारणत्व घट गया था और वह ‘आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई’ वाली औपचारिक मुद्रा में खड़ा जयप्रकाश की ओर देख रहा था कि तभी नजीबाबाद जानेवाली गाड़ी की सीटी गूँज उठी, और भक-भक करती हुई गाड़ी के चलने की आवाज सुनाई दी। सत्यव्रत औपचारिकता निभाने से बच गया।
स्टेशन से बचे-खुचे मुसाफ़िर और घूमने आए हुए लड़के शहर की ओर लौट पड़े। गूँगे के नौकर ने चिमनी साफ़ करके लालटेन जला दी।
जयप्रकाश ने जेब से बंडल निकालकर एक और बीड़ी सुलगाते हुए कुछ रुककर सत्यव्रत से कहा, “वापस लौटना हो तो आइए। साथ ही रहेगा।”
“जी हाँ, चलिए।” सत्यव्रत ने तुरन्त सहमत होते हुए कहा और दोनों एक-दूसरे से हुए इस आकस्मिक परिचय के विषय में सोचते शहर की ओर चल दिए।

सड़क सुनसान हो चुकी थी। कोई भटका हुआ पंछी पंख फड़फड़ाता हुआ सिर से गुजर जाता तो दोनों चौंककर पीछे देखने लगते थे। गूँगे की दुकान में लटकी हुई लालटेन की रोशनी बहुत मद्धिम हो गई थी और कॉलेज तथा रेलवे स्टेशन की इमारतें अँधेरे में डूबने लगी थीं। सिगनलों की लाल-लाल बत्तियाँ खेतों की बाड़ से झाँकती हुई आँख-मिचौनी खेल रही थीं। दूर जाते हुए विद्यार्थियों के जोरदार कहकहे, टेलीफ़ोन के खम्भों से उभरती हुई भायँ-भायँ की ध्वनियाँ और छोटे तालाब पर टिटहरियों की प्यासी आवाजें, सन्नाटे के तारों पर मरी हुई चमगादड़ों-जैसी टँगी थीं।
तभी अचानक सत्यव्रत ने पूछा, “भाईजी, ये कॉलेज से यहाँ तक सड़क के साथ-साथ चले आनेवाले खेत, क्या कॉलेज के ही हैं?”
जयप्रकाश तुरन्त सजग हो गया। सत्यव्रत के आत्मीय सम्बोधन को उसी आत्मीयता से स्वीकार करते हुए उसने कहा, “जी हाँ, मास्टर साहब ! ये सब कॉलेज की ही सम्पत्ति हैं।”
“क्या ये खेल के मैदान हैं?” सत्यव्रत ने अगला प्रश्न किया और अँधेरे में डूबे विशाल मैदानों की ओर देखने लगा। उत्तर में जयप्रकाश एक क्षण ठिठककर मौन हो गया जैसे वीणा के तार झनझनाकर सहसा रुक गए हों। उसके मन में आया कि वह कहे, ‘काश! ये खेल के मैदान होते!’
सत्यव्रत ने भी प्रश्न दोहराया नहीं। सोचा, ये खेल के मैदान ही हो सकते हैं। मगर जयप्रकाश सोच रहा था कि इन खेतों को खेल के मैदान में कैसे बदला जा सकता है!

कॉलेज की इस सौ बीघा जमीन में लाला हरीचन्द ने पिछले साल से खेती शुरू कराई थी और उसका नाम रखा था ‘कॉलेज-कृषि योजना’ । लालाजी के शब्दों में यह योजना उनके वर्षों के चिन्तन का निचोड़ थी और इसके साथ उनकी बड़ी-बड़ी आशाएँ जुड़ी थीं। फलस्वरूप जिस महत्त्वाकांक्षा और उत्साह से उन्होंने कृषि-योजना की बुनियाद डाली, उसी उत्साह और उल्लास से उन्हें इसमें छात्रों एवं अध्यापकों का सहयोग भी मिला। इंटर और हाईस्कूल की कक्षाओं में पढ़नेवाले गाँव के बड़े-बड़े लड़के पूरी लगन से कृषि-योजना में जुट गए और देखते-ही-देखते उन्होंने बड़े-बड़े बंजर मैदानों को उपजाऊ जमीन में बदल दिया।

लाला हरीचन्द विद्यार्थियों की इस श्रम-निष्ठा से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने प्रसन्न होकर उन्हें ‘श्रम-सेवकों’ की उपाधि दी थी। यही नहीं, मैनेजिंग कमेटी की एक विशेष बैठक में उन्होंने कृषि-योजना की मौलिकता और उसके पीछे निहित गांधीवादी कार्य-प्रणाली का विस्तार से विश्लेषण करते हुए योजना के संचालक मास्टर उत्तमचन्द और उनके सहकर्मी छात्रों की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और वाइस-प्रेसीडेंट चौधरी नत्थूसिंह एवं सेक्रेटरी गनेशीलाल के परामर्श से योजना में विशेष रुचि लेने के लिए उन्होंने गाँवों के बीस-पच्चीस बड़े-बड़े लड़कों को कॉलेज की ओर से अनेक सुविधाएँ दिलवा दी थीं; जैसे, फ़सल की बुवाई और कटाई के दिनों में अनुपस्थित रहने के बावजूद कक्षाध्यापकों के रजिस्टरों में उनकी हाजिरी लगती थी। गैरहाजिरी का कोई जुर्माना उन्हें नहीं देना पड़ता था और कृषि-योजना के बहाने वे जब चाहें, कॉलेज छोड़कर कहीं भी आ-जा सकते थे।

इस प्रकार योजना की उपादेयता और इन कुछ वरदानों के कारण गाँवों के लड़कों में कृषि-योजना शीघ्र ही लोकप्रिय हो गई। कुछ ही दिनों के अन्दर-अन्दर मास्टर उत्तमचन्द के कृषि-योजना-रजिस्टर में श्रम-सेवकों की संख्या दो सौ तक पहुँच गई और विद्यार्थी सुविधाओं के मोह में पढ़ाई-लिखाई से विरक्त होने लगे।

सबसे पहले कृषि-योजना के इस घातक पहलू को जयप्रकाश ने देखा और उसके बाद गाँवों के सभी अध्यापकों ने इसका विरोध शुरू कर दिया। आपस में मिलकर जगह-जगह वे इस योजना की आलोचना करने लगे, कृषि-योजना के नियामक उत्तमचन्द को बुरा-भला कहने लगे तथा विद्यार्थियों को बुला-बुलाकर उन्हें उनके वक्त की कीमत समझाने लगे। और यहाँ तक कहा जाने लगा कि कृषि-योजना द्वारा गाँवों के विद्यार्थियों का शोषण किया जा रहा है।

यह सचमुच एक भयंकर प्रतिक्रिया थी। गाँवों के अध्यापकों की कृषियोजना-सम्बन्धी यह प्रतिक्रिया मैनेजिंग कमेटी तक न पहुँची हो, ऐसी बात नहीं। और अध्यापकों की इन बेहूदी बातों पर चौधरी नत्थूसिंह और गनेशीलाल को क्रोध न आया हो, ऐसी भी बात नहीं। पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़ते देख लाला हरीचन्द ने सबको शान्त कर दिया था। कहा था, “भय्यो ! जहाँ चार आदमी होवें, वहाँ चार राय होवें ही हैं। पर हमें तो स्कूल का भला देखना है।”

उन्होंने तत्काल कोई कार्यवाही न करके केवल तत्कालीन प्रिंसिपल द्वारा सभी अध्यापकों के पास यह सूचना पहुंचा दी थी कि कृषि-योजना का विरोध मैनेजिंग कमेटी का विरोध है और ऐसा करनेवाले अध्यापकों के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही की जा सकेगी।

कमेटी की इस सूचना का मतलब सब अध्यापक इतनी अच्छी तरह समझते थे कि कृषि-योजना-विरोधी खुली-खली आवाजें थोड़े ही दिनों में कानाफूसी और फुसफुसाहटों में बदलती हुई धीरे-धीरे शान्त हो गई थीं। और जयप्रकाश सीने में असफल विद्रोह की चिंगारी दबाए गाँवों के विद्यार्थियों की अदूरदर्शिता और बुद्धिहीनता को कोसता रह गया था।

जयप्रकाश को अच्छी तरह याद है कि इस सिलसिले में उसने जब मास्टर उत्तमचन्द से यह कहा था कि कम-से-कम परीक्षाओं के दिनों में तो वह फसल की कटाई के लिए गाँवों के विद्यार्थियों को न भेजें तो उसे प्रिंसिपल द्वारा एक लिखित चेतावनी मिली थी। वह कागज अभी भी उसके पास है। उसमें कहा गया था, “अध्यापक जयप्रकाश कॉलेज में गाँव और शहर की बात उठाकर गाँवों के लड़कों का एक अलग दल बनाना चाहते हैं जो सर्वथा अवांछनीय है। इस तरह का वातावरण किसी भी संस्था के स्वस्थ विकास के लिए सर्वथा घातक है। यदि अध्यापक ने अपनी त्रुटि शीघ्र न सुधारी तो अनिच्छापूर्वक उन्हें संस्थान की सेवाओं से निवृत्ति दे दी जाएगी।”

और, इसी के साथ सारा तूफ़ान समाप्त हो गया था। गाँवों के अध्यापक आपस में मिलने और बोलने और कृषि-योजना पर बातें करने तक से कतराने लगे थे। और लड़कों ने इच्छा-अनिच्छापूर्वक रबी की फसल भी काटी थी और परीक्षा भी दी थी।

कृषि-योजना के एक वर्ष के इस संक्षिप्त-से इतिहास पर सोचते-सोचते जयप्रकाश अतीत में ऐसा खो गया कि उसे पता भी नहीं चला कि वह कब शहर की सीमा में घुस आया है। उसी के साथ-साथ चलनेवाला सत्यव्रत भविष्य में खोया था। किन्तु शहर में प्रविष्ट होकर आर्यसमाज गली के पास आते ही बोला, “तो भाईजी, मुझे आज्ञा है?”
“हाँ-हाँ।” चेहरे पर एकदम सरल निर्मल मुस्कान लाते हुए जयप्रकाश ने कहा, “कल कॉलेज खुल रहा है। मुलाकात होगी।”
और दोनों अपने अपने में खोए दो विपरीत दिशाओं की गलियों में मुड़ गए।
दोनों में अंधेरा था।

कोठरी (अध्याय-4)

कोठरी में पहुँचकर सत्यव्रत ने इत्मीनान की साँस ली। अपना ठौर, चाहे वह गीली मिट्टी का ही क्यों न हो, कितना प्यारा और विश्रान्तिदायक होता है। दिनभर इंटरव्यू के लिए आए उम्मीदवारों की उबा देनेवाली बातें, भूखे पेट में कुलबुलाती हुई विवशता, गूँगे का अशोभन रूप से आवेश में आ जाना और मास्टर जयप्रकाश से भेंट – सबकुछ बारी-बारी से उसके सामने आता चला जाता है। उसके विचारों में कहीं तनाव नहीं, मन में कहीं थकावट नहीं! केवल एक ऐसा सन्तोष है जो किसी सपने के पूर्ण होने पर ही हो सकता है।

आर्यसमाज मन्दिर की कोठरी में इच्छित काल तक रहने की सुविधा उसे मिल गई है। इसी कारण वह चौबीस घंटों में उससे इतना अपनत्व स्थापित कर बैठा है कि कहीं अजनबीपन का बोध ही नहीं होता। यद्यपि कभी-कभी यह मन ज़रूर होता है कि वह उड़कर घर पहुँच जाए और माँ से कहे, “माँ, देख, मुझे नौकरी मिल गई। वही नौकरी जिसे जीवन का ध्येय बनाकर मैं चला था। कौन कहता है माँ, कि मनुष्य के सारे सपने पूर्ण नहीं होते ? मेरा तो एक ही स्वप्न था, देख न, वह भी पूरा हो गया !” और माँ की प्रसन्नता की कल्पना करके सत्यव्रत भी प्रसन्न हो उठता है। हाँ, बहन की क्या प्रतिक्रिया होगी इसका ठीक अनुमान लगाने में उसे कुछ समय लगता है। खुशी तो खैर उसे भी होगी ही, पर वह उसे प्रकट करने के लिए कोई बच्चों-जैसी बात कहेगी, जैसी उस दिन विदा करते हुए उसने कही थी, ‘भैया, अगर तुम्हें वह नौकरी मिल गई तो मैं ज़रूर एक अच्छा-सा ब्लाउज़ सिलवाऊँगी, मेरी कोई भी सहेली अब कमीज़ नहीं पहनती, हाँ !’ और वह प्रत्येक वाक्य के साथ थोड़ी-थोड़ी नाराज़ होती गई थी। पर अन्तिम ‘हाँ’ कहते हुए तो उसका मुँह कचौरी – जैसा फूल गया था। और जब सत्यव्रत ने भी वैसा ही मुँह फुलाकर उसे चिढ़ाया तो वह खिलखिलाकर हँस पड़ी थी।

कल कॉलेज खुल रहा है। कल मंगलवार है। पाँच दिन बाद वह घर पहुँचकर खुद ही सबको यह खुशख़बरी दे देगा। पर माँ ने कहा था, ‘ख़त लिखना ।’ लेकिन ख़त ही कौन इस हफ़्ते से पहले पहुँच सकता है ? सिर्फ़ मंगलवार को ही गाँव में डाकिया जाता है और रविवार को वह खुद ही पहुँच जाएगा। माँ ने तो यह भी कहा था, ‘अपने खाने का खयाल रखना।’ लेकिन चाहने पर भी यहाँ खाने का क्या ख़्याल रखा जा सकता है ? कोई भी ऐसा भोजनालय नहीं, जहाँ शुद्ध भोजन मिल सके ! और तो और, एक हलवाई तक यहाँ नहीं है । मन्दिर के चारों तरफ़ मुसलमानों का मुहल्ला है। फाटक से बाहर निकलो तो बस सड़क तक पूरी गली में गोश्त -ही-गोश्त की दुकानें हैं। बस, दुकानों पर नाम मात्र को टूटी-फूटी चिक पड़ी रहती हैं जिनके पार लटके हुए बकरों के कटे – साबुत जिस्म और लाल गोश्त के बड़े-बड़े लोथड़े झाँकते रहते हैं ।

वह जब स्टेशन से मन्दिर का पता पूछता हुआ आया था तो इस गली में घुसते ही एक अजीब-सी गन्ध का अनुभव करके तथा खुजली-भरा जिस्म लिए रिरियाते कुत्तों और पिल्लों को देखकर उसे घोर वितृष्णा हुई थी । मक्खियों के मारे अलग उसकी नाक में दम हो गया था और उसने सोचा था कि उस जैसे व्यक्ति के लिए इस जगह बहुत दिनों तक रहना सम्भव न हो सकेगा । किन्तु आर्यसमाज मन्दिर में पहुँचकर उसने जो सफ़ाई और सुविधाएँ देखीं, उनसे उसका विचार बदल गया। जो कोनेवाली कोठरी उसे रहने के लिए दी गई उसमें पक्का सीमेंट का फ़र्श था, आलमारी थी और एक तख़्त भी पड़ा था । कोठरी के सामने ही साफ़-सुथरा आँगन था जिसके बीचोबीच चौबच्चे में एक हैंडपम्प लगा था । सहन के चारों ओर आयताकार बरामदा था और उसकी कोठरी से बाईं ओर दो-तीन कमरे छोड़कर यज्ञशाला थी, जहाँ आजकल एक स्वामीजी ठहरे हुए थे ।

सत्यव्रत को यह वातावरण बहुत पसन्द आया। यज्ञ की गन्ध और वेद मन्त्रों का अस्पष्ट संगीतभरा उच्चारण उसके कानों में अमृत घोल गया। इंटरव्यू से लौटने के बाद कोठरी में लेटा हुआ वह कुछ देर तक तो इस संगीत को सुनता रहा था, पर बाद में जब नहीं रहा गया तो वह स्वयं ही यज्ञशाला में जा पहुँचा। कैसा पवित्र दृश्य था ! यज्ञशाला के मुख्य द्वार से यज्ञ वेदी तक श्रद्धालु नर-नारियों की भीड़; आगे गन्ध बिखेरती यज्ञ की निर्धूमशिखा और उसके दूसरी ओर फल, सामग्री और घृत की आहुति डालते हुए पद्मासन लगाकर बैठे तेजोज्ज्वल मुखवाले स्वामी अभयानन्द सरस्वती । स्वामीजी के पीछे खड़े उनके दो सहयोगियों द्वारा उच्च स्वर में मन्त्रोच्चार और उन्हीं के साथ अस्फुट स्वर में स्वामीजी के मधुर कंठ की गुनगुनाहट ! कुल मिलाकर ऐसा सम्मोहक वातावरण था कि दोपहर की हल्की गर्मी का ताप सहन करके भी वह निश्चित-सा वेदी के निकट खड़ा यज्ञ की अग्नि- शिखा में अपना भूत-भविष्य देखता रहा ।

अचानक सत्यव्रत को महसूस हुआ कि कोठरी में अन्धकार भर गया है और आर्यसमाज की ओर से मिले दीये की बत्ती शायद तेल में सरककर बुझ गई है। आँगन में सन्नाटा है, केवल स्वामीजी के कमरे में कुछ लोग सम्भवतः अब भी बातचीत कर रहे हैं । उसका मन उठकर दीया जलाने को नहीं हुआ। पड़े-पड़े ही उसने झोले में से चादर निकाली और सिरहाने लगाकर फिर सोचने लगा। पहले उसने सोचा कि वह छात्रों को पढ़ाने की विधियों का विश्लेषण करके एक निश्चित प्रणाली तय कर ले। मगर फिर उसे लगा कि बिना पाठ्यक्रम देखे ऐसा सम्भव नहीं है। दूसरे, अन्य अध्यापकों के सहयोग एवं सम्मति की भी इसमें आवश्यकता पड़ेगी। फिर भी उसकी शिक्षण प्रणाली ऐसी होनी चाहिए कि छात्रों का व्यक्तित्व यज्ञ की अग्नि की भाँति ज्ञान की ज्योति से जगमगा उठे। उस चमक से आस-पास के लोग अभिभूत होकर श्रद्धावनत हो जाएँ। तभी उसका श्रम सार्थक है, तभी उसका शिक्षण सार्थक है । अन्यथा इस नाशवान संसार में ‘को मृते वा को न जायते ।’ शिक्षक का अर्थ ही यह है कि विद्यार्थी का संस्कार करके उसमें आदर्श की प्रतिष्ठा करे। तो उसका काम विद्यार्थियों के संस्कार से शुरू होगा ताकि वे ज्ञान और आदर्श को ग्रहण करने योग्य हो सकें।

इसी प्रसंग में अचानक उसे लगा कि छात्रों के संस्कार की बात उसके मन में यूँ ही नहीं आ गई बल्कि इसके पीछे एक सांस्कृतिक सिद्धान्त निहित है । संस्कृत-साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब गुरुओं ने किसी शिक्षार्थी को इस कारण शिक्षा देने से इनकार कर दिया कि वह उसका पात्र नहीं था। तो पहले पात्रता विकसित करनी पड़ती है। आज यज्ञ में आहुति देने के लिए स्वामीजी से कितने लोगों ने प्रार्थना की थी ! पर सभी तो उसके पात्र नहीं थे। इसीलिए उन्होंने किसी से स्नान करने के लिए कहा, किसी से हाथ-मुँह धोकर आने के लिए । छदम्मीलाल को तो उन्होंने अपनी कोरी धोती ही दे दी ताकि वह स्नान के बाद अलीगढ़ी पाजामा बदलकर उसे पहन सके । परन्तु सत्यव्रत को अवश्य उन्होंने अनायास ही बुला लिया था। उसने यों ही स्वामीजी की ओर देखा था और उन्होंने दो उँगलियाँ उठाकर हिलाईं और बराबर का आसन थपथपाकर आने का संकेत कर दिया। वह इसके लिए तैयार भी न था । दिन-भर इंटरव्यू की कशमकश, थकावट और पसीने का अहसास और दूसरे लोगों के प्रति स्वामीजी के वर्जनात्मक दृष्टिकोण से वह इतना संकुचित हो उठा कि उनके पास जाकर बैठने का उसमें साहस नहीं हुआ। स्वामीजी ने फिर दृष्टि उठाई तो वह सकपकाकर बोला, “जी, मैं स्नान कर आऊँ ?” हालाँकि वह सुबह ही स्नान कर चुका था परन्तु उसे लगा कि वह इतनी प्रखर दृष्टि का सामना नहीं कर पाएगा। वह बहुत देर से देख रहा था कि स्वामीजी जब खड़े होकर दायाँ पाँव आगे बढ़ाकर यज्ञ में आहुति डालते तो उनके मुख-मंडल पर अलौकिक तेज उभर आता था । आहुति डालने के पश्चात् जब वह हाथ उठाकर, लाल-लाल आँखों से आकाश की ओर तन्मयतापूर्वक निहारते हुए कुछ बुदबुदाते थे तो ऐसा लगता था मानो स्वर्गीय शक्तियों से बातचीत कर रहे हों। लोग श्रद्धा से नत- नत हो – हो जाते थे ।

एक क्षण के लिए सत्यव्रत को लगा उसका बहाना काम कर गया, किन्तु दूसरे ही क्षण उसका अनुमान गलत सिद्ध हुआ । अदृश्य से जाने क्या बातें करके स्वामीजी ने फिर उसे अपने पास आने का संकेत किया और सधी हुई गम्भीर वाणी में पहली बार बोले, “हम जानते हैं, तुम्हारी आत्मा शुद्ध है। आओ !” कोई चारा न देख, विवश होकर झिझकता हुआ-सा सत्यव्रत आगे बढ़ा और उसी प्रकार दृष्टि नीची किए स्वामीजी के दाएँ हाथ की ओर बैठ गया। बाएँ हाथ का आसन अब भी खाली पड़ा था।

यज्ञ वेदी के निकट होने के बावजूद अब उसे उतनी गर्मी नहीं लग रही थी क्योंकि कुछ श्रद्धालु पुरुष ताड़ का बड़ा-सा पंखा लेकर हवा करने लगे थे। तभी स्वामीजी के सहयोगियों में से एक ने ताज़ा हलुवे का एक बड़ा-सा थाल उनके सामने ला रखा। दूसरे सहयोगी ने आम की मोटी-मोटी लकड़ियाँ लगाकर यज्ञ की अग्नि प्रदीप्त की ।

शुद्ध घी में बसे हलुवे की गन्ध जब सत्यव्रत की नाक से होती हुई आमाशय तक पहुँची तो अनायास उसे ध्यान आया कि वह सुबह से भूखा है और उसकी अंतड़ियों में हल्का-सा दर्द होने लगा है। नियुक्ति की खुशी में उसे अब तक खाने की याद ही न आई थी ।

तभी स्वामीजी ने सामने रखी हवन सामग्री के दोनों बड़े-बड़े थालों को इधर-उधर अपने दाएँ-बाएँ खिसका दिया और हलुवे का थाल लेकर खुद उठ खड़े हुए ।

भूख के बारे में सोचते हुए कुछ क्षणों के लिए सत्यव्रत इतना खो गया कि उसे यह भी पता न चला कि कब स्वामीजी ने स्त्रियों की भीड़ में से संकेत द्वारा एक लड़की को आहुति-योग के लिए बुला लिया है। उसका ध्यान तब टूटा जब एक साफ़-सी सफ़ेद धोती में लिपटी हुई वह लड़की स्वामीजी के बाईं ओरवाले खाली आसन पर आकर बैठ गई ।

वेदी के दूसरी ओर बैठे हुए कुछ लोग भी सद्यः प्रज्वलित अग्नि की आँच न सह सकने के कारण खड़े हो गए थे। अधिकांश लोगों के चेहरों पर गर्मी के कारण सुर्खी उभर आई थी किन्तु बिना पूर्णाहुति का प्रसाद लिए कोई जाने का इच्छुक न था। स्वामीजी के साथ-साथ सत्यव्रत भी आप से आप मन्त्रोच्चारण करने लगा । मन्त्र की समाप्ति पर स्वाहा के साथ-साथ सत्यव्रत और वह लड़की दोनों यन्त्रवत् दाएँ हाथ की मुट्ठी में भरकर थोड़ी-थोड़ी सामग्री हवन कुंड की अग्नि पर फेंकते एक भाव-विह्वल होकर यह दृश्य देख रहे थे ।

धीरे-धीरे स्वामीजी ने यज्ञ के हलुवे के उस पूरे थाल की आहुति दे दी, मगर दूसरे ही क्षण फलों और मेवों से भरे दो थाल उनके सामने और आ गए और आहुति का क्रम फिर जारी हो गया। बड़े-बड़े ताज़े बम्बइया केले और सन्तरे अग्नि में पड़कर छटपटाते हुए झुलसने लगे। दो-चार सेब भी भुन चुके थे और उनकी चटर-पटर की आवाज़ सत्यव्रत को बरबस उसकी भूख का अहसास करा रही थी ।

तभी जाने किसके कहने से उस लड़की ने घी का बड़ा-सा कटोरा उठाकर लगभग आधा घी अग्नि के ऊपर उलट दिया। सहसा लपट ऊपर उठी और हवन कुंड की आँच तेज़ हो गई। सत्यव्रत ने आँखों को आँच से बचाने के लिए जैसे ही अपना मुँह बाईं ओर घुमाया, उसकी दृष्टि अनायास उस लड़की की दृष्टि से जा टकराई। वह भी शायद आँखों को आँच से बचाने के लिए ही उस ओर देखने लगी थी। सत्यव्रत को उधर देखते पाकर उसने अनजाने ही गर्दन को एक झटका-सा दिया और वेदी की ओर देखने लगी ।…

अनायास बेचैनी से सत्यव्रत ने करवट बदली कि तख़्त में उभरी हुई कोई छोटी-सी कील उनके सीने पर बाईं तरफ़ जा चुभी। वह उठकर बैठ गया और झोले से तुरन्त दूसरी चादर निकालकर उसने तख़्त पर बिछा ली। निश्चिन्त होकर वह फिर लेट गया । मन्दिर में निस्तब्धता थी और कहीं से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। रात की ख़ामोशी पूरी तरह छा गई थी । बराबर की कोठरी में ठहरे हुए महाशयजी के खर्राटे वातावरण की गम्भीरता को बढ़ा रहे थे। तभी खड़ाऊँ की हल्की-सी आवाज़ हुई और आर्यसमाज मन्दिर के प्रबन्धक महोदय स्वामीजी के कमरे से निकलकर सहन पार करते हुए अपनी कोठरी की तरफ़ चले गए।

सत्यव्रत अँधेरे में भी खड़ाऊँ की आहट से ही उन्हें पहचान गया । उन्होंने ही तो यज्ञ की पूर्णाहुति के बाद सत्यव्रत के संस्कृत – ज्ञान की प्रशंसा करते हुए यज्ञ के प्रमुख लोगों का परिचय दिया था, “वह अधेड़ से व्यक्ति जिन्हें स्वामीजी ने अपनी धोती पहनने को दी थी, आपके कॉलेज की प्रबन्ध समिति के सदस्य लाला छदम्मीलाल थे और वह विमलाजी, जो आपके साथ आहुति डाल रही थीं, प्रबन्ध समिति के उप-प्रधान चौधरी नत्थूसिंह की लड़की है।” सत्यव्रत को प्रबन्धक जी का यह सौजन्यपूर्ण व्यवहार और साथ ही उनका स्वभाव बहुत पसन्द आया। सुबह भी बिना किसी परिचय के ही उन्होंने कितनी सहजता से उसे यहाँ ठहरने की अनुमति दे दी थी। और शाम को वह इस बात पर नाराज़ हुए थे कि सत्यव्रत संकोचवश प्रसाद के लिए नहीं रुका।

“भाई, आप तो लड़कियों से भी अधिक संकोची हैं। आखिर विमला भी तो प्रसाद लेने के लिए रुकी रही।” प्रबन्धकजी की इस स्नेहपूर्ण नाराज़ी और सरल-से परिहास को याद करते-करते उसकी आँखें नींद से भारी हो आईं। वह तख़्त पर औंधा लेट गया, किन्तु तुरन्त सो नहीं सका, क्योंकि तख़्त में एक-दो जगह कीलें उभरी थीं। और इस बार फिर एक कील उसके सीने में चुभ गई थी ।

कृषि-योजना (अध्याय-5)

अगले दिन उठते ही सत्यव्रत को खाने-पीने की फ़िक्र हुई और स्नान एवं पूजा-पाठ से निबटने के बाद वह नौ बजे के लगभग बाज़ार की ओर चला ।

…. राह में मंडी के पासवाले मीठे कुएँ पर चरखी की धड़धड़ आवाज़ के साथ कुएँ में डोल डालते हुए पंजे पनवाड़ी ने पास ही बाल्टी से नहाते हिन्दू कॉलेज की कमेटी के एक मेम्बर छदम्मीलाल पर प्यार का हमला किया, “क्यों लाला, अब के तो लाला हरीचन्द और गनेसीलाल की पिंसन गई ? और बिचारे नत्थूसिंह को तो लौंडिया की शादी करनी थी । च… च… या परवरदिगार !”

…. सत्यव्रत बात को समझे बिना ही आगे बढ़ गया। मगर दूसरे लोगों के सिर पर उठे हुए डोल-भरे हाथ रुक गए और पंजे ने उनके कौतूहल का स्वयं ही समाधान करते हुए कहा, “फिर भय्या, सरकार कोई अन्धी थोड़े ही है जो हिन्दू कॉलेज को रुपए-पै-रुपए बाँटती चली जाएगी। आखिर इस साल हिन्दू कॉलेज में जितने लौंडे फेल हुए हैं उतने तो सारे जिले में नहीं हुए।”

पंजे मियाँ लोहे की दुकान करते थे और मुस्लिम स्कूल की कमेटी के मेम्बर थे। किसी ज़माने में उन्होंने पनवाड़ी की दुकान की थी सो पनवाड़ी उनके साथ तभी से जुड़ गया था। हिन्दू कॉलेज के मेम्बर को कोई विरोध न करते देखकर उन्होंने आगे कहा, “हमारे स्कूल में तो इस साल दाखिले को भी जगह नहीं रही । एक तारीख़ से दाखिला चालू हुआ है और समझ लो कि अब तक सारे क्लास फुल हो गए। हमारा हाईस्कूल का रिजल्ट भी जिले में दूसरे नम्बर पर है ।”

हिन्दू कॉलेज के मेम्बर छदम्मीलाल को इस गर्वोक्ति में साम्प्रदायिकता की बू आई । तड़पकर बोले, “अबे, क्या कहदे करें हैं- फस्ट फिर भी आर्यसमाज स्कूल आया है बिजनौर का ! तारीफ़ तो जब थी जब फस्ट आकै दिखाते तुम। हमारा स्कूल फिर भी जिले में दो बार फस्ट आ चुका है, एक बार इंटर में और एक बार हाईस्कूल में ।”

छदम्मीलाल के खानदानी बूढ़े मुकद्दम चाचा कुएँ की मन पर मैल छुटाने के लिए पाँव रगड़ते हुए बड़े ध्यान से इन दोनों की बातें सुन रहे थे। छदम्मीलाल की बात पर वह अपने को न रोक सके; बोले, “रहने दे छदम्मी, रहनै दे, तेरे का भी कोई लौंडा आज लो डिप्टी ना हुआ । दूर क्यों जावै, अपने खानदान में ही देख ले। जित्ते लौंडे पढ़े, कोई साला किसी रोज़गार – सिर लगा ? सब कनकव्वे उड़ा रएँ । बस यो है कि जुल्फों में तेल डाल लेवेंगे, सफेद कपड़े पहन लेवेंगे और चिकने- चुपड़े बनकै घूमेंगे। कोई इनसे पूच्छै – अबै सुसरो, कोई तुम्हारा साँग करना है या तुम्हें कोठे पै बैठना है ! पर पूच्छै कौन ?”

मुकद्दम चाचा अपनी साफ़गोई के लिए बदनामी की हद तक मशहूर थे। पिछले दिनों जब एक हजार रुपए इकट्ठे करके शहर के कुछ उत्साही लोग उनके पास रामलीला का चन्दा माँगने पहुँचे थे तो उन्होंने साफ़ कह दिया था, “मैं तुम्हें धेल्ला नईं दूँगा । सुसरो, सरम तुमैं नईं आत्ती, जिन लौंडों को रात में सीता माँ और भगवान् रामचन्दर बनावौ हो, उन्हीं के साथ दिन में इकलामबाजी करो हो !”

मुकद्दम चाचा की बातें इतनी बेबाक और दिलचस्प थीं कि कुएँ पर रस्सियों की ढील से घड़घड़ाती घिर्रियाँ ख़ामोश हो गईं और लोग मुकद्दम चाचा की बातें सुनने के मूड में आ गए। किसी ने कहा, “मुकद्दम चाचा ! मुस्लिम स्कूल का भी तो कोई लौंडा आज लो डिप्टी ना हुआ !”

“अबै ना हुआ तो हो जावैगा । वो स्कूल तरक्की कर रिया है। वो लौंडा कू पढ़ावैं हैं, उनसे हल नहीं जुतवात्ते । और तुम्हारा स्कूल जो है, यो सुसरा तनज्जुली की तरफ जा रिया है। धन्धा बना लिया इसे लोग्गों ने। अब मैं क्या कऊँ, सच्ची बात मिर्ची की तरयो लग जावै ।”

बाज़ार से केले लेकर लौटते हुए सत्यव्रत के कानों में फिर स्कूल की बात पड़ी तो वह ठिठक गया। और भी दो-चार तमाशबीन वहाँ इकट्ठे हो गए थे । यहाँ तक कि जो लोग नहाकर घर जानेवाले थे, वे भी मुकद्दम चाचा की बातें सुनने के लिए ठहर गए थे ।

छदम्मीलाल ने सोचा, चाचा की बक छूट गई है, अतः जल्दी से एक डोल और सिर पर डाला और धोती का तहमद लगाकर डोल-रस्सी उठाकर चल दिए । तमाशबीनों की उत्सुकता घट गई। जब मैदान में कोई जवाब देनेवाला नहीं होता तो बात का मज़ा आधा रह जाता है। मुकद्दम चाचा लगभग पन्द्रह मिनट तक बड़बड़ाते रहे और हिन्दू कॉलेज के मेम्बरों को कोसते रहे ।

कुएँ पर फिर शोर बढ़ गया था । घिर्रियों की घड़घड़ाहट और हैंडपम्प की धड़कयूँ में भी लोग एक-दूसरे से बातें करने लगे थे। कल्लू ढाबेवाले का लड़का हाईस्कूल में फ़ेल हो गया था और पंजे पनवाड़ी से उसके मुस्लिम स्कूल में दाखिले की बात कर रहा था, “मैं कौन किसी का दिया खाऊँ हूँ ? सुसरे नाराज होंगे तो होने दो। मुझे लौंडे की ज़िन्दगी बनानी है, भैया! तुम अपने स्कूल में करा दो उसका दाखिला !”

और पंजे पनवाड़ी अब हिन्दू कॉलेज के रिज़ल्ट पर आलोचना कम, अफ़सोस ज़्यादा ज़ाहिर कर रहे थे । आलोचना करनेवाले और बहुत-से लोग वहाँ आ गए थे । तरह-तरह की बातें निकल रही थीं। “…सब पैसा खाते हैं साले ! पढ़ाने लिखाने का नाम नहीं, दिन-भर प्रेसीडेंट और सिकटरी की चिलमें भरते रहते हैं ।”

सत्यव्रत को अध्यापकों के प्रति ऐसे उद्गार अत्यन्त अभद्र लगे ।

तभी किसी ने व्यंग्य में कहा, “स्कूल तरक्की कर रहा है, इस साल पिछले साल से चौगुने लड़के फेल हुए हैं । “

“ आश्चर्य की बात है कि इतनी नक़ल के बावजूद इतने लड़के फेल हो गए। सच कहा है किसी ने कि नक़ल को भी अकल चाहिए।” पंजे पनवाड़ी ने गर्दन हिलाते हुए आँखें मिचमिचाकर कहा । सत्यव्रत को वहाँ खड़े रहना कठिन प्रतीत होने लगा। अतः वहाँ से चल दिया।

मुकद्दम चाचा ने धोती निचोड़कर कन्धे पर डाल ली थी और मन से नीचे उतर रहे थे। पंजे की बात सुनकर बोले, “अरे भैया, लौंडे फेल हुए सो हुए, मिम्बरों का कोई रिस्तेदार बिना मास्टर हुए तो नई रै गिया। जित्ता गुड़ डाल्लोगे, उत्ता मीठा होवैगा । जैसे मास्टर रक्खोगे, वैसी ही पढ़ाई होवैगी। तो फिर दोस किसका है ?”

सत्यव्रत का मन हुआ कि वापस लौट पड़े और उन्हें अध्यापक के गुरु दायित्वों और कर्तव्यों के बारे में बताए। उन्हें प्यार से समझाए कि शिक्षक के प्रति ऐसी धारणाएँ बनाना उचित नहीं है। मगर उसे कॉलेज जाने के लिए देर हो रही थी ।

नए सत्र में कॉलेज खुलते ही यही चर्चा उस दिन हिन्दू कॉलेज में भी थी । कॉलेज-भवन के आँगन में खड़े बीसियों विद्यार्थी रिजल्ट पर बातें करते हुए एक-दूसरे के परचों और नम्बरों के बारे में पूछताछ रहे थे। और टीचर्स – रूम में बैठे हुए चन्द अध्यापक सोच रहे थे कि पिछले साल पचास प्रतिशत रिज़ल्ट रहा, फिर भी गर्मियों की छुट्टियों की आधी तनख़्वाहें काट ली गई थीं। इस साल तो इंटर का रिज़ल्ट दस प्रतिशत ही है। क्या होगा ?

पवन बाबू के दफ़्तर के सामने खड़े उन लड़कों में से कोई अपनी ‘काशन मनी’ चाहता था तो कोई अपनी मार्क्स-शीट, कोई अपना ‘स्कूल- लीविंग सर्टीफ़िकेट’ माँग रहा था तो कोई दाखिले का फ़ार्म। ज़्यादातर लड़के हाईस्कूल के पास या फेल होनेवालों में से थे । अतः पवन बाबू पर अपनी-अपनी फ़रमाइशों का तकाज़ा करके वे फिर रिज़ल्ट की चर्चा करने लगते थे ।

हाईस्कूल में अस्सी में से सत्रह लड़के पास हुए थे। पास होनेवाले छात्र रिज़ल्ट का प्रतिशत निकालते हुए फेल होनेवाले छात्रों से लम्बी-लम्बी साँसें छोड़कर कह रहे थे, “देखो भई, यहाँ से तो गाड़ी खिसक गई, अब आगे क्या होता है ?” उनकी संवेदनाएँ अपने-अपने संकटमय भविष्य की अकल्पित घोषणाएँ थीं ताकि फेल होनेवालों को इस कल्पना से तसकीन मिले कि असफलता के रास्ते पर वे अकेले नहीं हैं ।

टीचर्स – रूम के दरवाज़े पर पड़ी चिक के बाहर झाँकते हुए लम्बी साँस छोड़कर, नागरिक शास्त्र के लेक्चरर रामाधीन श्रीवास्तव बोले, “पिछले साल इस सहन में तिल रखने को जगह नहीं थी। मगर इस साल… ?”

टीचर्स – रूम में बैठे पाँचों अध्यापक बहुत देर से इस बात को लक्ष्य कर रहे थे। मगर श्रीवास्तव की बात का कोई जवाब दे कि तभी कमरे की चिक उठाकर असिस्टैंट टीचर रस्तोगी भीतरं दाखिल होते हुए बोला, “सुना भई, आप लोगों ने कुछ ? मुस्लिम स्कूल में सीटें फुल हो गई हैं। मैं अभी-अभी स्टेशन से आ रहा हूँ। वहाँ भी यही चर्चा थी । गूँगे हलवाई की दुकान और नींबू की बगिया में बैठे हुए विद्यार्थी तो विद्यार्थी, शहर के लोग भी हमारे रिज़ल्ट पर बातचीत कर रहे थे कि लड़के अपने-अपने सर्टीफ़िकेट लेकर बिजनौर के आर्यसमाज स्कूल में जा रहे हैं। मुस्लिम स्कूल में जगह नहीं रही । और इस साल हिन्दू कॉलेज की स्ट्रेंग्थ बहुत कम हो जाएगी।”

रस्तोगी की बात पर जयप्रकाश, इतिहास के लेक्चरर रामप्रकाश गुप्ता, नागरिकशास्त्र के लेक्चरर रामाधीन श्रीवास्तव और दो नवनियुक्त अध्यापक पाठक और राजेश्वर सतर्क होकर बैठ गए। मगर तभी रस्तोगी ने उसकी उत्सुकता पर पानी डालते हुए चेहरे पर कोमल दर्द के भाव फैलाकर अत्यन्त थकी-सी आवाज़ में कहा, “यह हम सभी के लिए कितनी लज्जा की बात है ! इसी रिज़ल्ट के कारण हम आज बाहरवालों के सामने मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं रहे ।”

और तुरन्त सबके माथे जैसे शर्म से झुक गए। राजेश्वर ने कुछ कहने की सोची, पर गम्भीर वातावरण के अनुकूल उसे कोई बात नहीं सूझी। विवश होकर वह इधर-उधर देखने लगा। कुर्सी के हत्थे पर तबला बजाता हुआ गुप्ताजी का हाथ रुक गया और वह उदास होने की चेष्टा करने लगे। जयप्रकाश के मुखं पर एक अजीब तनाव- सा आ गया और उसकी उँगलियाँ अकड़कर मेज़ पर फैलने लगीं। सब ख़ामोश हो गए।

बाहर लड़के शोर मचा रहे थे । और उस शोर से उभरती हुई पवन बाबू की झुंझलाहट टीचर्स – रूम में साफ़ सुनाई दे रही थी ।

लोगों की बेमतलब की ख़ामोशी से ऊबकर राजेश्वर ने पूछा, “क्यों साहब, आख़िर रिज़ल्ट बिगड़ने का कारण क्या है ? पिछले साल तो इतना ख़राब रिज़ल्ट नहीं था।”

इस प्रश्न ने कमरे का समूचा वातावरण बदल दिया । गुप्ताजी का पाँव फिर हिलने लगा और उँगलियाँ कुर्सी के हत्थे पर तबला बजाने लगीं। जयप्रकाश की उँगलियों का खिंचाव ढीला हो गया। पाठक ने मुस्कराकर रस्तोगी की ओर देखा । और रामाधीन श्रीवास्तव ने मुख की उदासी पर कृत्रिम उत्तेजना का रंग लाते हुए कुर्सी आगे खिसका ली ।

क्षणभर पहले की ख़ामोशी गरमागरम बहस में बदल गई।

“मेरे सब्जेक्ट में सिर्फ़ एक लड़का फेल हुआ है।” रामाधीन श्रीवास्तव ने मुख की उदासी पर उत्तेजना का रंग चढ़ाते हुए कहा, “अगर सब लोग अपने-अपने विषयों में मेहनत करते तो रिज़ल्ट इतना खराब कभी न रहता।”

यह एक मामूली सा तर्क था मगर गुप्ताजी ने श्रीवास्तव की इस बात को अपनी वैयक्तिक आलोचना समझा, तड़फकर विस्मयपूर्वक बोले, “क्या आप यह कहना चाहते हैं कि हमने अपने-अपने विषयों में मेहनत नहीं की ? माना कि इतिहास में मेरे पच्चीस में से पन्द्रह लड़के फेल हुए हैं, पर अंग्रेज़ी में तो अस्सी प्रतिशत से भी अधिक लड़के फेल हैं। तो क्या आपका ख़याल है कि उत्तमचन्द जी ने भी अपने विषय में मेहनत नहीं की ?”

उत्तमचन्द इंटर और हाईस्कूल के लड़कों को अंग्रेज़ी पढ़ाया करते थे । गुप्ताजी ने रामाधीन श्रीवास्तव के आत्म-प्रशंसात्मक सीधे-सादे वाक्य को जिस प्रकार उत्तमचन्द से जोड़ दिया था उससे श्रीवास्तवजी घबरा उठे। फ़ौरन क्षमायाचना की मुद्रा में हथियार डालते हुए बोले, “मैंने तो सिर्फ़ अपनी राय आपके सामने रखी थी। मेरा कोई और मतलब हरगिज़ न था। वैसे मैं इस बारे में आपके विचार ज़रूर जानना चाहूँगा।”

गुप्ता विजेता के भाव से मुस्करा दिए और कुछ सोचने का अभिनय करते हुए बोले, “रिज़ल्ट बिगड़ने का कारण है पुराने प्रिंसिपल का शिथिल एडमिनिस्ट्रेशन ।”

“यह तो कोई बात ही न हुई।” झुंझलाकर हाथ नचाते हुए रस्तोगी ने गुप्ताजी का तीव्र प्रतिवाद किया; बोला, “साहब, नाक को चाहे सीधे पकड़ो या गर्दन के पीछे से हाथ लाकर, बात एक ही है। मान लीजिए कि प्रिंसिपल का एडमिनिस्ट्रेशन बहुत अच्छा होता तो ? तो क्या उससे विद्यार्थियों को ‘पेपर्स आउट’ हो जाते ? एडमिनिस्ट्रेशन अच्छा होगा तो ज़्यादा से ज़्यादा प्रिंसिपल यही कर सकता है कि टीचर्स को और मेहनत से पढ़ाने के लिए प्रेरित करे या आदेश दे – और यही बात दूसरे शब्दों में श्रीवास्तवजी ने कही थी। आपकी और उनकी बात में अन्तर कहाँ रहा ?”

रस्तोगी का पलड़ा भारी पड़ते देख गुप्ताजी फ़ौरन एडमिनिस्ट्रेशन के लाभ बताने लगे; बोले, “इससे विद्यार्थियों को एक नैतिक बल मिलता है, उनमें अध्ययन की भावना जाग्रत होती है, केवल विज्ञप्तियाँ और आदेश जारी करना ही प्रशासन नहीं है। उसका क्षेत्र बड़ा व्यापक है।”

रस्तोगी उनकी बातों को ‘तर्क के लिए तर्क’ कहता हुआ जोर देकर बोला, “आप क्यों नहीं मान लेते कि इस साल बोर्ड की नीति ही बदली हुई थी; उन्होंने इम्पॉर्टेंट (महत्त्वपूर्ण) प्रश्नों की बजाय साधारण प्रश्नों पर ज़ोर दिया था ताकि विद्यार्थियों की वास्तविक योग्यता का पता चल सके।

संक्षेप में रस्तोगी ‘अनएक्सपेक्टड पेपर्स’ को रिज़ल्ट बिगड़ने का कारण बता रहा था और गुप्ताजी तत्कालीन प्रिंसिपल के शिथिल एडमिनिस्ट्रेशन को । और दोनों अपनी-अपनी धारणाओं पर दृढ़ एक-दूसरे से बुरी तरह उलझे थे ।

जब काफ़ी देर तक चलती हुई बहस ऊपर उठकर अनिर्णीत ही नीचे आने लगी तो जयप्रकाश अपनी ही ख़ामोशी से अकुला उठा। अपने दोनों हाथ दो विपरीत दिशाओं में फैलाते हुए बोला, “आप दोनों कुछ भी कहिए, पर मेरा तो निश्चित मत है कि रिज़ल्ट बिगड़ने का कारण कॉलेज की कृषि योजना है।”

जयप्रकाश की आवाज़ में आत्मविश्वास था । वह निर्णयात्मक लहजे में बोला, “देखिए न, फ़ेल होनेवाले लड़कों में पिचासी प्रतिशत गाँव के वे लड़के हैं जो कॉलेज की कृषि-योजना में काम करते थे। ज़रा सोचिए, अगर उनका वक़्त इतनी बेरहमी से बरबाद न किया गया होता तो क्या वे फ़ेल हो सकते थे ?”

रामप्रकाश गुप्ता ने जयप्रकाश का आवेश लक्षित किया और साथ ही एक भावी आशंका से उनकी छाती धड़क उठी। बावजूद सारी बातों के वे जयप्रकाश को पसन्द करते थे । उसकी बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता का लोहा मानते थे । वह अक्सर कहा करते थे कि बात करना कोई जयप्रकाश से सीखे। सारी बातें कह जाएगा मगर शिकायत लायक़ पकड़ की कोई बात नहीं छोड़ेगा । शब्दों का नपा – तुला प्रयोग और संयत तथा सुलझी हुई बातें – जयप्रकाश की अपनी विशेषताएँ थीं। और इन्हीं के कारण कोशिश करने पर भी गत वर्ष प्रिंसिपल को उसका कहा हुआ एक ऐसा वाक्य पकड़ में नहीं आया था जिससे यह सिद्ध होता कि उसने मैनेजिंग कमेटी का भी विरोध किया है और उसकी नौकरी जाते-जाते रह गई थी। मगर आज उसी जयप्रकाश को क्या हो गया है जो इतने खुले – खुले शब्दों में कृषि-योजना का विरोध कर रहा है।

…. कृषि – योजना का विरोध यानी कमेटी का विरोध !… रामाधीन श्रीवास्तव भी मन में यही सोच रहे थे। शायद जयप्रकाश पिछले साल की चेतावनी भूल गया है… या उसकी कहीं और नौकरी पक्की हो गई है।

जयप्रकाश ने बात ख़त्म करके समर्थन के लिए अपने साथियों पर दृष्टि डाली। राजेश्वर और पाठक अपनी-अपनी कुर्सियों से आगे झुक आए थे। मगर उसने गुप्ताजी की ओर देखा तो वह उससे आँखें चुराने की कोशिश करने लगे। श्रीवास्तवजी ने पीठ कुर्सी से टिका ली और भावशून्य आँखों से छत की ओर देखने लगे। रस्तोगी ने इधर-उधर ताकते हुए ज़ाहिर किया जैसे उसने जयप्रकाश की बात ही न सुनी हो ।

जयप्रकाश का चेहरा आवेश के कारण लाल हो गया था और रह-रहकर उसकी उँगलियाँ फड़क उठती थीं। मगर साथियों की ऐसी प्रतिक्रिया देखकर उसका उबाल भी ठंडा हो गया। और एक बार फिर चन्द मिनटों के लिए ख़ामोशी छा गई।

दूध के उफ़ान की तरह बार-बार बातों का सिलसिला बनता और टूट जाता। अध्यापकों के चेहरों पर अचानक किसी रोशनी का दीया टिमटिमाता और प्रकाश देने से पहले ही बुझ जाता । घुटी घुटी – सी आवाज़ें, कुछ बोलने को आतुर अकुलाते हुए-से मौन अक्षर और अपठनीय लिपि से अंकित अध्यापकों के बेजुबान चेहरे, इन सब बातों पर राजेश्वर ने जितना ध्यान दिया उतना ही वह उलझता गया ।

पाठक को भी जयप्रकाश की इतनी दिलचस्प बात पर अध्यापकों का मौन रहना अख़र गया। ऐसे शान्त प्रकृति के पोंगे अध्यापक उसने कहीं नहीं देखे थे । अतः स्वर में भरसक कोमलता लाते हुए जयप्रकाश से पूछ ही बैठा, “क्यों मास्टर साहब, यह कृषि योजना क्या बला है ?” और मन-ही-मन यही प्रश्न राजेश्वर ने भी दोहरा दिया।

जयप्रकाश को इस प्रश्न से बड़ी राहत मिली। यद्यपि कुछ ही मिनट पहले वे सकपकाकर चुप हो गया था, किन्तु भीतर-ही-भीतर निस्तब्धता उसे चुभ रही थी। गो कि प्रश्न अच्छा नहीं था, फिर भी उसने उसका उपयोग परिस्थिति को सँभालने में किया । हँसकर बोला, “धीरे-धीरे सब कुछ मालूम हो जाएगा, मास्टर साहब ! आज तो आपने ज्वाइन ही किया है।” और फिर वह ऐसी लापरवाह हँसी हँस दिया, जैसे एक मामूली-सी बात को खामखाह बहुत महत्त्व दे दिया गया हो। और अब यह खामोशी घट जानी चाहिए ।

शायद जयप्रकाश के करुणार्द्र मुख या शायद वातावरण पर दया करते हुए रामप्रकाश गुप्ता और रामाधीन श्रीवास्तव थोड़ा-सा मुस्करा दिए। रस्तोगी ने भी आँखें मिचमिचाईं । राजेश्वर को आशा बँधी कि अब वातावरण हल्का हो रहा है । पाठक को भी तनाव टूटता हुआ दिखाई दिया । किन्तु जयप्रकाश के स्वर की कड़वाहट को लोग अभी तक पूरी तरह पचा नहीं पाए थे। सबके मन में भय था कि उन्होंने मैनेजमेंट की कृषि – योजना- विरोधी चर्चा में भाग लिया है और सब तुरन्त कुछ ऐसा कर देना चाहते थे कि यह सिद्ध न हो सके ।

फलस्वरूप दो-चार मिनट तक उखड़ी – उखड़ी बातें करने के बाद, अपने बेक़सूर होने का सबूत देते हुए, सबसे पहले गुप्ताजी और फिर रस्तोगी वहाँ से खिसक लिए। फिर नागरिकशास्त्र के लेक्चरर रामाधीन श्रीवास्तव, पाठकों को लाइब्रेरी दिखाने के बहाने उठा ले गए। और टीचर्स – रूम में रह गए केवल दो आदमी। एक जयप्रकाश जो यह सोच रहा था कि क्या नए अध्यापकों की उपस्थिति में मुझे यह बात नहीं कहनी चाहिए थी और दूसरा राजेश्वर ठाकुर जिसके मन में कृषि-योजना को लेकर तीव्र उत्सुकता जग गई थी।

उसी समय बराबर के कमरे से पवन बाबू किसी लड़के को फ़ार्म भरने की विधि बतलाते हुए ज़ोर से चीख़ पड़े, “किस उल्लू के पट्ठे ने तुम्हें मिडिल का सर्टीफिकेट दे दिया। तुम एक शब्द तो ठीक लिख नहीं सकते ।”

जयप्रकाश का ध्यान उधर चला गया। सोचने लगा, अब ऐनक उतारकर पवन उस लड़के को उल्लू जैसी आँखों से घूर रहा होगा। और यह सोचकर उसे हँसी आने लगी। मगर राजेश्वर का ध्यान वहीं था। जयप्रकाश के होंठों पर मुस्कान आते देखकर वह फिर पूछ बैठा, “बताइए न मास्टर साहब, क्या है यह कृषि योजना ?”

“कृषि-योजना ?” अनायास तन्द्रा से चौंकते हुए जयप्रकाश ने उसी की बात दोहरा दी। फिर एक आत्मीय – सी मुस्कुराहट अधरों पर लाते हुए बोला, “आप कहाँ के रहनेवाले हैं ?”

“मावले का।” राजेश्वर ने उत्तर दिया। सोचा, शायद इस प्रश्न का उत्तर से कोई सम्बन्ध हो ।

किन्तु जयप्रकाश ने यह प्रश्न केवल यह निश्चय करने के लिए किया था कि वह राजेश्वर को इस बारे में कितना बताए या न बताए । मावले का नाम सुनकर वह चौंक पड़ा, “तो आप गाँव के रहनेवाले हैं ?”

“जी हाँ ।” राजेश्वर ने कहा। फिर मुस्कराकर सम्बन्धों की निकटता बढ़ाने की गर्ज़ से बोला,

“कोई गुनाह तो नहीं है गाँव का होना ?”

“गुनाह है साहब, बिलकुल गुनाह है।” जयप्रकाश ने तेजी से उसकी बात पलटते हुए कहा, “हर जगह की अपनी खूबियाँ होती हैं। कई जगहें ऐसी होती हैं जहाँ पान थूकना या सिगरेट-बीड़ी पीना गुनाह होता है और कई जगहें ऐसी होती हैं जहाँ बोलना चालना और हँसना- रोना भी गुनाह होता है । और आप देखेंगे कि ऐसी जगहें भी हैं जहाँ जीना भी गुनाह है। और लोग ये गुनाह कर रहे हैं क्योंकि उनके पास करने के लिए इससे ज़्यादा ठोस और इससे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण और कोई काम नहीं है ।”

राजेश्वर को उसका बात करने का नाटकीय अन्दाज़ बड़ा प्यारा लगा। पर उसने साथ ही यह भी महसूस किया कि यह विषयान्तर हो रहा है। अतः पुनः प्रश्न पर लौटते हुए बोला, “आपकी बात सही है। मगर आप मुझे कृषि योजना के बारे में बता रहे थे ।”

“मैं तो नहीं बता रहा था।” मुस्कराकर जयप्रकाश ने कहा, “अलबत्ता आपने सवाल जरूर किया था । “

“ चलिए, यही सही ।” राजेश्वर हँसकर बोला।

” आप कृषि – योजना के बारे में जानना चाहते हैं ?” “जी हाँ !” राजेश्वर ने पूरी उत्सुकता से कहा ।

” और आप गाँव के रहनेवाले हैं ?”

“हूँ तो ।”

“क्या आपने सानियों को ज़मीदारों की बेगार के लिए कभी कुइयाँ खोदते हुए देखा है ?” जयप्रकाश ने उसी तरह की मुस्कुराहट होंठों पर लिए हुए पूछा । “हाँ, देखा है।” राजेश्वर ने तपाक से उत्तर दिया। हालाँकि उसने गाँव में कुइयाँ नहीं, कुएँ की ही खुदाई देखी थी ।

जयप्रकाश ने अपनी बात को और स्पष्ट किया, बोला, “देखिए कुइयाँ और में बड़ा फ़र्क होता है। कुएँ, पैसे देकर, जनता द्वारा मज़दूरों से खुदवाए जाते हैं और कुइयाँ, भूड़ के ज़मींदार, परोपकार का हवाला देकर सानियों से फोकट में खुदवा लेते हैं। ये कुइयाँ साल दो साल बाद रेत के तूफ़ान में अँटकर बेकार हो जाती हैं। परोपकार का लाभ ज़मींदार को मिलता है जिन्हें पानी पीनेवाले मुसाफ़िर दुआएँ देते हैं और सानियों का श्रम पानी में मिल जाता है । “

” मगर कृषि योजना… ?”

“कृषि योजना भी एक कुइयाँ है जिसे उत्तमचन्द गाँव के विद्यार्थियों द्वारा इस आशा में खुदवा रहे हैं कि उन्हें प्रिंसिपल होने का लाभ मिलेगा मगर कुइयाँ खुदवाने का लाभ स्थायी कहाँ होता है ! देखिए न, उत्तमचन्द जी भी अस्थायी प्रिंसिपल हैं।” और इस उपमा पर वह इतनी ज़ोर से हँस दिया कि राजेश्वर की भी हँसी फूटे बिना न रह सकी।

हालाँकि जयप्रकाश ने राजेश्वर को हँसकर टाल दिया और कृषि – योजना के बारे में साफ़-साफ़ कुछ भी नहीं बताया, फिर भी वह इतना समझ गया कि कृषि-योजना में गाँव के विद्यार्थियों का श्रम और समय लगाकर उत्तमचन्द मैनेजमेंट पर अपनी कार्य-निष्ठा का प्रभाव डालना चाहता है। मगर उसका कौतूहल इतने से ही शान्त नहीं हुआ ।

अतः सब कुछ समझ जाने का भाव मुख पर लाते हुए उसने योजना कॉलेज के इन्हीं खेतों में चलती होगी ?”

जयप्रकाश ने गर्दन हिलाकर स्वीकार किया ।

पूछा, “कृषि राजेश्वर ने कुछ सोचते हुए कहा, “और गाँवों के लड़कों के खून-पसीने की कमाई मैनेजमेंट के बनिए हड़प जाते होंगे ?”

जयप्रकाश ने फिर गर्दन हिला दी।

यद्यपि राजेश्वर गाँव का रहनेवाला था और कृषि – योजना पर उसकी प्रतिक्रिया बड़ी अनुकूल थी, फिर भी जयप्रकाश के मन में आशंकाएँ उठ रही थीं। क्या जाने मैनेजमेंट के किस मेम्बर से उसके कैसे सम्बन्ध हों ? इसलिए वह उसकी बातों का जवाब सिर्फ़ गर्दन हिलाकर दे रहा था ।

राजेश्वर की कनपटियों की नसें उभरने लगीं और उसके चेहरे पर आक्रोशपूर्ण तनाव बढ़ता गया । मुँह का थूक सटकते हुए बड़ी घृणा से उसने कहा, उत्तमचन्द पूरा हरामी है, यह बात मैं इंटरव्यू के दिन ही समझ गया था। मगर मास्टर साहब, मैं आपसे बताए देता हूँ कि ये मैनेजमेंट के लोग इसके भी बाप हैं। क्या वे नहीं जानते थे कि इस कृषि-योजना द्वारा गाँव के लड़कों की ज़िन्दगियाँ बरबाद की जा रही हैं ?” और फिर एक लम्बी साँस छोड़ते हुए राजेश्वर बोला, “मुझे आश्चर्य है कि गाँव के होकर भी आपने ऐसी बातें कैसे बरदाश्त कर लीं ?”

बात राजेश्वर ने कुछ इस दर्द और अपनत्व से कही थी कि जयप्रकाश के सारे शरीर में झनझनी-सी दौड़ गई। जैसे विरोध और असन्तोष की दबी हुई बारूद में सहसा किसी ने चिंगारी लगा दी हो ।

भय तभी तक भय रहता है जब तक हम अपने-आपको अकेला और कमज़ोर महसूस करते हैं। विश्वासपूर्ण राजेश्वर की चुनौती ने जयप्रकाश को एक सहारा दिया । उसका मन हुआ कि वह फट पड़े, मगर भीतर का आक्रोश दबाकर ईमानदारी से बोला, “अकेला चना भाड़ नहीं भूँज सकता ठाकुर भाई, और मैं अपनों के होते हुए भी अकेला था। किसी ने कभी इतनी हिम्मत नहीं दिखाई कि मेरे स्वर को सहारा दे। मेरी आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बनकर रह गई । “

राजेश्वर तैश में बोला, “मैं तो बरदाश्त नहीं करूँगा ऐसी बातें। मैं गाँव का रहनेवाला हूँ और गाँव के लड़कों का हित देखना मेरा पहला फर्ज़ है । “

जयप्रकाश ने राजेश्वर को बड़ी आभारपूर्ण दृष्टि से देखा । उसे राजेश्वर में वह अग्नि दिखाई दी जिसकी वह खुद में कमी पाता था। वह शिखा जो बढ़कर दूसरे को छू सकती है, विस्फोट बनकर फैल सकती हैं और हर जगह प्रज्वलित हो सकती है। वह इसी शिखा की तलाश में तो था । बोला, “इसी बात पर आज से तुम मेरे मित्र हुए। पुराने ज़माने में लोग नई मित्रता के उपलक्ष्य में पगड़ी बदला करते थे। हम अपने-अपने विचार बदलेंगे ।”

और इसके बाद दोनों ने अपना-अपना हृदय खोलकर एक-दूसरे के सामने रख दिया। राजेश्वर की मित्रता पर भाव-विभोर होते हुए जयप्रकाश ने कहा, “अब देखना ठाकुर, अब गाँववालों का शोषण नहीं हो सकता। अब उनकी उन्नति होगी।” फिर एक पल रुककर बातचीत की गम्भीरता को हल्का बनाने के लिए उसने कहा, “मैं तो मरते समय अपनी औलाद के नाम वसीयत कर जाऊँगा कि मेरी कोई भी सन्तान इस मास्टरी के धन्धे में न पड़े, और मास्टरी भी करे तो प्राइवेट स्कूल-कॉलेज में न करे, और प्राइवेट कॉलेजों में भी करे तो राजपुर के इस हिन्दू कॉलेज में न आए।”

राजेश्वर को हँसी आ गई। जयप्रकाश की नियुक्ति की कथा जानने के लिए उसने पूछा, “मगर तुम यहाँ कैसे आ गए ?”

“मैं ?” जयप्रकाश थोड़ा गम्भीर हो गया, बोला, “बस वैसे ही जैसे तुम आ गए। इन्हें एक असिस्टैंट टीचर की ज़रूरत थी और सौभाग्य से उस साल इनके किसी रिश्तेदार ने एप्लाई नहीं किया था !”

“ऐसा !” राजेश्वर ने विस्मय से कहा, “बड़ी आसानी से आ गए। मगर मैं ऐसे नहीं आया !”

“तो ?” जयप्रकाश ने प्रश्न किया ।

“मुझे तो इन्होंने इंटरव्यू कार्ड तक नहीं भेजा था। मगर पिताजी मेरे ज़रा दबंग किस्म के आदमी हैं । वह लाला हरीचन्द के भट्टे पर ईंटें लेने आए थे कुछ दिन पहले, और उनसे साफ़-साफ़ कह गए थे कि अगर लड़के को स्कूल में नहीं रखा तो हमारे आठों गाँवों का एक भी लड़का यहाँ पढ़ने नहीं आएगा । और यही बात उन्होंने गनेशीलाल के छोटे भाई से भी कही थी जो खँडसाल का व्यापार करता है; बल्कि उससे तो उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि अगर राजेश्वर नहीं लिया गया तो समझ लो, इस बार चाहे सारी राब सोन में बहा देनी पड़े मगर तुम्हें एक मटकी नहीं मिलेगी। और तुम जानो, बनिये की जात पहले अपना व्यापार देखती है, इसलिए बी. ए. में सप्लीमेंटरी होने के बावजूद इन्हें मुझे लेना पड़ा।”

जयप्रकाश उसकी नियुक्ति के पीछे किसी-न-किसी सिफ़ारिश की आशा तो ज़रूर करता था मगर इस तरह की घटना का उसे अनुमान भी न था; इसलिए बहुत हँसा । और उसने भी एक-दो अध्यापकों की नियुक्तियों की कहानियाँ राजेश्वर को सुनाईं।

शायद नियुक्तियों के पीछे निहित इन्हीं अन्तर्कथाओं को लक्ष्य करके राजेश्वर बोला, “मास्टर साहब ! ऐसे माहौल में क्या पढ़ाई होती होगी लड़कों की, और क्या अध्यापक पढ़ाते होंगे ?”

जयप्रकाश खुद यही सोच रहा था कि शिक्षा के नाम पर हम कैसे मज़ाक कर रहे हैं। कॉलेज के संस्थापकों का उद्देश्य शिक्षा न होकर संस्था के द्वारा निजी प्रभुत्व का विस्तार करना है। अतः राजेश्वर की बात का उसने कोई उत्तर न दिया ।

तभी राजेश्वर ने आग्रह किया, “मुझे इस कॉलेज के बारे में कुछ और बताओ न! तुम तो चुप हो गए। “

इस आग्रह पर जयप्रकाश कुछ तय नहीं कर पाया कि वह क्या बताए । गाँवों के छात्रों के साथ परायों- जैसा व्यवहार । अध्यापकों की तनख़्वाहों में से कारण- अकारण कटौती। कुछ अध्यापकों को सौ रुपए देकर एक सौ बीस पर दस्तख़त कराना। कॉलेज के दिन-प्रतिदिन के कार्यों में मैनेजमेंट का हस्तक्षेप । हर साल नए अध्यापकों की नियुक्ति का अवसर प्राप्त करने के लिए पुराने अध्यापकों को निकाल बाहर करने की तिकड़में। कॉलेज के नाम पर इकट्ठे किए चन्दे की मोटी-मोटी रकमें हड़प कर जाना, या कृषि योजना का सुनहरा फरेब ? ये इतनी सारी बातें नक्शे की तरह उसके मानस पटल पर खुली पड़ी हैं। वह क्या बताए, क्या न बताए ?

राजेश्वर ने फिर आग्रह किया तो उसने वस्तुस्थिति की संक्षिप्त-सी रूपरेखा जाते हुए भारी दिल से कहा, “क्या बताऊँ ? यह शिक्षण संस्था नहीं है ठाकुर, कंसेंट्रेशन कैम्प है। यहाँ के हालात में कोई आदमी ज़हर खा सकता है, नौकरी नहीं कर सकता। मगर ठाकुर, जिस तरह मज़बूरी आदमी को मरने के लिए विवश करती है, उसी तरह कभी-कभी जीने के लिए भी बाध्य कर देती है । “

और जयप्रकाश के सामने फिर अपने गाँव के वे खेत घूम गए जिन्हें मालिनी नदी ने बरबाद कर रेत से भर दिया था और उसकी अनेक अर्जियों के बावजूद जिनका पूरा लगान उससे अब तक लिया जाता था। गाँव में, खेती से, साल भर खाने योग्य अन्न पाने का जो एकमात्र साधन था वह भी नष्ट हो चुका था। सारी ज़िम्मेदारी अब अकेले जयप्रकाश पर थी। बोला, “अगर मेरे ऊपर मेरे और मेरे स्वर्गीय भाई के पाँच बच्चों का दायित्व न होता तो मेरी सहनशीलता इस तरह हमेशा मेरे जवान खून का टेम्प्रेचर ऊपर चढ़ने से न रोक लेती।” जयप्रकाश बोलता जा रहा था और राजेश्वर को लग रहा था कि जैसे एक-एक शब्द में वह अपना कलेजा निकालकर रखे दे रहा है। गाँवों के विद्यार्थियों के फेल होने पर राजेश्वर भी दुखी था और उसे कृषि योजना की रचना एक छलावा प्रतीत हो रही थी, मगर जयप्रकाश के हाव-भाव और आवेशसहित बात करने के अन्दाज़ ने उसमें और ज़्यादा गर्मी पैदा कर दी थी। उसे लगा कि तुरन्त इसके लिए कुछ करना चाहिए, कुछ ऐसा कि जयप्रकाश को शान्ति मिले और उसका दिल हल्का हो। बोला, “क्या इस कृषि – योजना को बन्द नहीं कराया जा सकता ?”

यह जयप्रकाश का मर्मस्थल था जहाँ राजेश्वर ने उँगली रख दी। सबसे ताज़ा और रिसता हुआ ज़ख्म । इसी कृषि-योजना के द्वारा तो उसकी भावनाओं का गला घोंटा गया था। उसके कानों में आतंक का शोर हँसकर ज़बान पर आदेशों के ताले जड़ दिए गए थे, ताकि वह गाँव के भोले और नासमझ विद्यार्थियों के शोषण के विरुद्ध कुछ न बोल सके। मगर अहसास के रास्ते खुले थे, कुछ सोचते हुए वह बोला, “ मुश्किल तो कुछ नहीं, मगर ख़तरनाक है। मैं भुगत चुका हूँ।”

“ ख़तरनाक कुछ नहीं, तुम कहो तो मेरे गाँव के दो-तीन लड़के यहाँ हैं, उनसे बात करूँ कि ये क्या खेती-वेती का चक्कर लगा रखा है तुम लोगों ने ?” राजेश्वर ने लापरवाही से पूर्ण निश्चयात्मक स्वर में कहा ।

जयप्रकाश उठ खड़ा हुआ था मगर राजेश्वर का प्रस्ताव सुनकर फिर बैठ गया। बोला, “सोचकर बताऊँगा।”

उसकी उँगली सिर को खुजाने लगी थी और होंठों पर हमेशा पड़ी रहनेवाली मुस्कान ग़ायब हो चुकी थी। राजेश्वर और उसके इस प्रस्ताव के बारे में सोचते हुए उसे लगा कि इस आदमी में शक्ति और हौसला तो है पर सन्तुलन और दूरदर्शिता का अभाव है। एक क्षण को उसने सोचा कि क्यों न इस आदमी को सीधा उत्तमचन्द के मुक़ाबले पर खड़ा कर दूँ, पर दूसरे ही क्षण महसूस किया कि दोस्त बनाकर ऐसा विश्वासघात करना उचित नहीं होगा ।

किन्तु राजेश्वर पर उतावली सवार थी। वह चटपट कुछ कर डालना चाहता था। अतः बोला, “कुछ सोचा ?”

जयप्रकाश ने कहा, “देखो, ऐसे मामलों में मेरा सिद्धान्त है कि आवेश में सोची हुई हर बात को ‘पेंडिंग’ में डाल देना चाहिए। और तब तक उस पर नहीं सोचना चाहिए जब तक कि आवेश बिल्कुल शान्त न हो जाए । यह गुण मैंने उत्तमचन्द से सीखा है।” और कुछ रुककर, कहीं राजेश्वर हतोत्साह न हो जाए, इसलिए उसने फिर कहा, “पहले तुम विद्यार्थियों के नाम बताओ, जिनसे इस बारे में बात करोगे । भई, स्थिति यह है कि यहाँ अध्यापक ही नहीं, कुछ विद्यार्थी भी मैनेजमेंट के लिए जासूसी करते हैं । इसलिए बहुत सोच-समझकर क़दम उठाने की ज़रूरत है।”

राजेश्वर जयप्रकाश की बात से आश्वस्त हुआ । और फिर अपने गाँव के विद्यार्थियों के नाम बताने लगा, “गुलशेरसिंह, उम्मेदसिंह, सज्जन और रामपूजन…”

“रामपूजन ?” जयप्रकाश एकदम चौंककर बोला, “तुम्हारे गाँव का है यह लड़का ?”

और फिर बिना उत्तर लिए ही कहने लगा, “मेरा ख़ास स्टूडेंट था यह लड़का। इसके फेल होने का मुझे जितना अफसोस हुआ है, उतना खुद उसे भी नहीं होगा। खेल-कूद में वह अव्वल, फुटबाल का वह कैप्टेन और पढ़ने-लिखने और सांस्कृतिक गतिविधियों में वह सबसे आगे। मगर वाह रे उत्तमचन्द ! कृषि – योजना के श्रम सेवकों का संयोजक बनाकर तूने उसका भी साल बरबाद कर दिया !”

राजेश्वर ने कहा, “मेरे गाँव का ही नहीं, बल्कि खानदानी रिश्ते में मेरा भतीजा लगता है रामपूजन ।”

“बस, तो ठीक है।” जयप्रकाश ने खड़े होते हुए कहा, “सारे लड़कों से कहने की ज़रूरत नहीं, उसी से कह देना काफ़ी होगा। आओ ।”

और बातें करते हुए दोनों एक-एक कप चाय पीने के लिए गूँगे हलवाई की दुकान की तरफ़ चल दिए। तभी रास्ते में राजेश्वर को सत्यव्रत का ध्यान आ गया। बोला, “गाँव का एक साथी और भी तो आया है।”

इसलिए उसने फिर कहा, “पहले तुम विद्यार्थियों के नाम बताओ, जिनसे इस बारे में बात करोगे । भई, स्थिति यह है कि यहाँ अध्यापक ही नहीं, कुछ विद्यार्थी भी मैनेजमेंट के लिए जासूसी करते हैं । इसलिए बहुत सोच-समझकर क़दम उठाने की ज़रूरत है।”

राजेश्वर जयप्रकाश की बात से आश्वस्त हुआ । और फिर अपने गाँव के विद्यार्थियों के नाम बताने लगा, “गुलशेरसिंह, उम्मेदसिंह, सज्जन और रामपूजन…”

“रामपूजन ?” जयप्रकाश एकदम चौंककर बोला, “तुम्हारे गाँव का है यह लड़का ?”

और फिर बिना उत्तर लिए ही कहने लगा, “मेरा ख़ास स्टूडेंट था यह लड़का। इसके फेल होने का मुझे जितना अफसोस हुआ है, उतना खुद उसे भी नहीं होगा। खेल-कूद में वह अव्वल, फुटबाल का वह कैप्टेन और पढ़ने-लिखने और सांस्कृतिक गतिविधियों में वह सबसे आगे। मगर वाह रे उत्तमचन्द ! कृषि – योजना के श्रम सेवकों का संयोजक बनाकर तूने उसका भी साल बरबाद कर दिया !”

राजेश्वर ने कहा, “मेरे गाँव का ही नहीं, बल्कि खानदानी रिश्ते में मेरा भतीजा लगता है रामपूजन ।”

“बस, तो ठीक है।” जयप्रकाश ने खड़े होते हुए कहा, “सारे लड़कों से कहने की ज़रूरत नहीं, उसी से कह देना काफ़ी होगा। आओ ।”

और बातें करते हुए दोनों एक-एक कप चाय पीने के लिए गूँगे हलवाई की दुकान की तरफ़ चल दिए। तभी रास्ते में राजेश्वर को सत्यव्रत का ध्यान आ गया। बोला, “गाँव का एक साथी और भी तो आया है।”

“मैं मिल चुका हूँ।” जयप्रकाश ने निर्लिप्त भाव से कहा और अपने में खोए हुए जेब से एक बीड़ी निकालकर सुलगा ली। नींबू के नीचे पड़ी खाट पर बैठकर उसने एक लड़के को दो कप चाय लाने के लिए भेजा। राजेश्वर ने जेब से कैंची की सिगरेट निकालकर पेश की तो उसने हाथ जोड़ दिए। बोला, “क्यों मेरे मुँह का जायका ख़राब करते हो, अभी तो चाय पीनी है !”

लौटते हुए (अध्याय-6)

तीसरे पहर चार बजे के करीब, जब कॉलेज में छुट्टी का घंटा बजता है तो सारी इमारत लड़कों के भयंकर शोर से दहल उठती है । ‘हा-हा, हू-हू’ करती बेइन्तहा खुशी से उछलती हुई आवाज़ें, इमारत के प्रत्येक कमरे, दरवाज़े और बरामदे की छत से टकराती हुई ऊँघते से वातावरण में हलचल भर देती हैं। लड़के कक्षाओं से निकलकर ऐसे भागते हैं जैसे वर्षों की क़ैद काटकर छूट रहे हों । बेतरतीब किताबें, कापियाँ और बस्ते दबाए जल्दी से जल्दी सड़क पर आने की कोशिश करते हैं। और कभी-कभी तो घर पहुँचने के लिए आपस में छोटी-मोटी दौड़ प्रतियोगिता भी हो जाती है।

जब लड़के शहर के पास पहुँच जाते हैं तब कहीं अध्यापक निकलते हैं और दो-दो, चार-चार के समूहों में कॉलेज, घर और बाज़ार की बातें करते धीरे-धीरे शहर की ओर बढ़ते हैं। आमतौर पर सबसे आगे वे अध्यापक होते हैं जिनके घर शहर में हैं और जिनके बीवी-बच्चे उनका इन्तज़ार कर रहे होते हैं। फिर कुछ बुजुर्ग अध्यापकों का दल निकलता है, और सबसे पीछे निकलते हैं वे अध्यापक जिनका न कोई घर होता है और न कोई इन्तज़ार करनेवाला ।

उस दिन भी यही हुआ। शनिवार होने के कारण सत्यव्रत शाम की गाड़ी से घर जाने की सोच रहा था । वह स्कूल से जल्दी निकल जाना चाहता था ताकि साढ़े पाँच बजे तक फिर स्टेशन आ सके… मगर जयप्रकाश और राजेश्वर के कारण कॉलेज में ही सवा चार बज गए। और फिर वहाँ से निकले तो ऐसी चाल से चलना शुरू किया कि सत्यव्रत को लगा – चालीस मिनट से पहले वह आर्यसमाज मन्दिर नहीं पहुँच सकेगा ।

बार-बार सत्यव्रत के पाँवों की गति तेज़ होती और वह अपने बराबर चलनेवाले राजेश्वर और जयप्रकाश से कुछ क़दम आगे हो जाता। बार-बार जयप्रकाश की बातों का सिलसिला उसके लिए टूट जाता और बरबस उसका ध्यान अपने स्टेशन से गाँव तक के उस कच्चे रास्ते पर चला जाता जिसे आज सन्ध्या के अँधेरे में उसे तय करना था । राजपुर से चलकर शाम की गाड़ी सवा सात, साढ़े सात के लगभग मौजमपुर पहुँचती है। फिर वहाँ से गाँव तक पैदल जाना पड़ता है। हालाँकि डेढ़-दो मील की बात है, कोई ज़्यादा फ़ासला नहीं, पर रास्ता काफ़ी ख़तरनाक है।… मालिनी और लकड़हान, दो तो नदियाँ ही पड़ती हैं…और दोनों पहाड़ी नदियाँ। ऐसी कि यहाँ चाहे एक बूँद न पड़े पर पहाड़ पर बारिश हो जाए तो लबालब भर जाती हैं। हाँ, इतना ज़रूर है कि स्टेशन पर संग-साथ के लिए बिजनौर की जिला कचहरी से लौटते हुए, आस-पास के गाँवों में जानेवाले सहयात्री अक्सर मिल जाते हैं ।

“क्यों भाग रहे हो, यार ? तुम्हारी गाड़ी तो छह के भी बाद जाती है । फिर तुम्हें कौन ऐसा सामान बाँधना है ?” राजेश्वर ने सत्यव्रत के कुछ आगे निकल जाने पर अपनी झुंझलाहट प्रकट की। फिर जयप्रकाश के साथ तेज़ तेज़ क़दम बढ़ाने लगा । झेंपकर सत्यव्रत उन दोनों की बराबरी में आने के लिए ठिठक गया । उसने सोचा, सचमुच उसे सामान तो कुछ नहीं बाँधना, बल्कि गाँव से सामान लाने के लिए ही वह जा रहा है । फिर यहाँ सामान ही क्या है उसके पास ? हाँ प्रबन्धक को सूचित अवश्य करना है । सम्भवतः स्वामीजी भी उसी के साथ शाम को गाड़ी से नजीबाबाद जाएँ ।

“हाँ, तो मैं कह रहा था,” पास आते हुए, राजेश्वर ने सत्यंव्रत के कन्धे पर हाथ रखकर कहा, “तुम्हें इतनी जल्दी क्या है ? कोई इन्तज़ार कर रहा है ?”

‘कोई’ शब्द के साथ अनायास जिस तरह राजेश्वर ने दाईं ओर को गर्दन हिलाई उससे सत्यव्रत को सहसा विमला का ध्यान हो आया। हालाँकि उस दिन यज्ञवेदी पर बहुत ग़ोर से उसे नहीं देख सका था, फिर भी एक-दो बार उसने यह ज़रूर महसूस किया था कि आत्मीयता और भावविह्वल तन्मयता के क्षणों में विमला अपनी गर्दन को एक हल्का-सा झटका दे देती है। शायद यह उसकी आदत बन गई है।

परसों जब वह कॉलेज से लौटकर जा रहा था तो चौधरी साहब के घर के सामने से गुज़रते हुए दरवाज़े पर विमला खड़ी दिखाई दी थी। राजेश्वर ने फ़ौरन चुटकी लेकर उसका ध्यान उधर मोड़ दिया था।

तभी धीरे से मुस्कुराकर जयप्रकाश ने कहा था, “मैं साफ़ देख रहा हूँ कि हम तीन आदमियों के दल में उसकी दृष्टि सिर्फ़ तुम्हें देखने के लिए तरस रही है, वैसे ही जैसे वर्षा की भयंकर झड़ी में भी पपीहा एक स्वाति बूँद के लिए तरसता रहता है।”

बातें करते हुए तीनों आगे बढ़ आए थे, फिर भी जयप्रकाश की बात पर चप्पल ठीक करने के लिए नीचे झुके हुए सत्यव्रत की दृष्टि अनायास पीछे की ओर लौट गई थी। एक क्षण को उसे महसूस हुआ कि एक कोमल दृष्टि अब तक उसके पीछे-पीछे आ रही थी । उधर शायद सत्यव्रत के मुड़-मुड़कर देखने के इस तरीके को विमला भी समझ गई थी और स्वभाववश उसने गर्दन को एक हल्का-सा झटका दिया था। और उसी झटके से सत्यव्रत को निश्चय हो गया था कि हो न हो यह वही यज्ञवाली लड़की है ।

सत्यव्रत को कोई जवाब न देते देखकर राजेश्वर ने फिर चुटकी ली, “हाँ भई, बताया नहीं कौन इन्तज़ार कर रहा है ?”

सत्यव्रत चाहे राजेश्वर से कितना ही फ़ासला रखे और कितनी ही शिष्टता बरते मगर राजेश्वर उससे निहायत बेतकल्लुफ़ी से बातें करता है ।

“सम्भवतः स्वामीजी आज जाएँ।” सत्यव्रत ने राजेश्वर के मज़ाक़ पर गम्भीरतापूर्वक सोचते हुए कहा, “वैसे मेरा क्या, मैं तो कॉलेज से सीधा भी स्टेशन जा सकता था । किन्तु…”

” अरे वो स्वामीजी ! जिन्होंने तुमसे और नत्थूसिंह की लौंडिया से यज्ञ कराया था ?” उद्दंडता से राजेश्वर ने पूछा ।

“हाँ, वह ही ।” सत्यव्रत ने सादर उत्तर दिया ।

“बड़ा पाखंडी है !” राजेश्वर ने आँखें मींचकर जल्दी-जल्दी सिर हिलाया और मुँह से साँस की फुरहरी छोड़ते हुए जयप्रकाश से यह कहा, जैसे एक घृणा की भावना उसकी पूरी देह में फैल गई हो ।

जयप्रकाश चुपचाप दोनों की बातें सुन रहा था।

सत्यव्रत को राजेश्वर की बात उचित नहीं लगी। बोला, “आपने ऐसी धारणा सुनकर ही बना ली, राजेश्वर भाई ! मैं कहता हूँ यदि आप उन्हें निकट से कभी यज्ञ करते हुए या आहुति देते देखें तो निश्चय ही अभिभूत हो उठेंगे। आपको लगेगा कि वह वास्तव में सिद्धपुरुष हैं ।”

“रहने दो यार, देखा है मैंने !” राजेश्वर लापरवाही से बोला, “इंटरव्यू से पहले पिताजी के साथ एक दिन मैं भी आर्यसमाज मन्दिर के उस यज्ञ में जा फँसा था । मुझे तो लगता है कि हमारे भाई जयप्रकाश इस स्वामी के रोल को उससे कहीं अधिक अच्छा कर सकते हैं। एक्टिंग ही तो हैं- क्यों भाई ?”

जयप्रकाश ज़ोर से हँस पड़ा। पर तुरन्त ही, कहीं सत्यव्रत की भावना को चोट न पहुँचे, इसलिए संयत होते हुए गम्भीर बनकर बोला, “लोगों के बारे में राय बनाने में तुम बहुत जल्दी करते हो, ठाकुर ! बल्कि कहूँ कि कभी-कभी तो ज़्यादती कर देते हो।”

सत्यव्रत को जयप्रकाश की बात सही लगी। राजेश्वर शायद जयप्रकाश का मूल भाव समझकर चुप हो गया। सत्यव्रत ने कातर दृष्टि से उन दोनों की ओर देखकर गर्दन लटका ली।

शहर शुरू हो गया था। मनिहारों की बस्ती की खपरैलोंवाली झोंपड़ियाँ, कच्चे कोठे और उनके बग़ल में खड़े बिटौड़े, जिनके भीतर शहर की सड़कों से इकट्ठा किए हुए गोबर के कंडे भरे थे, नज़दीक आते गए। करंजुओं और काँच की चूड़ियों के टुकड़ों से टीचने का खेल खेलते हुए लड़के अपने में खोए थे। सड़क से हटकर हमवार कच्ची ज़मीन पर उन्होंने कुछ गुच्चियाँ खोद ली थीं और उन्हीं में चूड़ियों के टुकड़ों और करंजुओं को निशाना साध – साधकर फेंक रहे थे। इस समय कॉलेज से आनेवाली भीड़ के वे इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि उन्होंने बिलकुल पास से गुज़र जानेवाले उन तीनों अध्यापकों पर ध्यान ही नहीं दिया।

सत्यव्रत ने देखा, झोंपड़ियों और बेतरतीब कच्चे कोठों के आगे बने मकान पक्के भी हैं और सिलसिलेवार भी । ये शायद अपेक्षाकृत अधिक मालदार मनिहारों के मकान हैं । इन्हीं मकानों का सिलसिला ख़त्म होने के बाद सड़क के बाईं ओर एक पुरानी-सी दुमंजिली इमारत है जिसकी ऊपरी मंज़िल के दरो-दीवार से शीरे की गन्ध आती है और दिनभर लाल बड़े ततैयों की भीड़ भनभनाती रहती है। नीचे एक बड़ा फाटक है जिसके दोनों ओर दो-दो बड़े-से रथखाने हैं। सामने लाला हरीचन्द का एक बड़ा-सा घेर है जिसके फाटक से लगी हुई एक छोटी-सी कोठरी का दरवाज़ा सड़क की तरफ़ भी खुलता है । कोठरी के सामने मुश्किल से एक फुट का चबूतरा है जिससे सरलतापूर्वक बराबरवाले चौधरी नत्थूसिंह के चबूतरे पर चढ़ा जा सकता है। सत्यव्रत ने अनुभव किया कि स्टेशन से शहर में प्रविष्ट होते ही पहला ढंग का मकान चौधरी साहब का पड़ता है जो बाहर से बैठकनुमा लगता है। आगे के दो कमरों में से पहला अर्थात् सामनेवाला कमरा चौधरी साहब के डॉक्टर लड़के के मरीज़ों के लिए है और दूसरा बाएँ हाथवाला स्वयं उनके बैठने उठने के लिए। इन दोनों कमरों के बीचोबीच, बरामदे से हवेली में जाने का दरवाज़ा है।

विमला परसों उसी दरवाज़े में खड़ी थी और आज फिर जब वे तीनों दरवाज़े के सामने से गुज़रे तो वह वहाँ खड़ी दिखलाई दी । सत्यव्रत की दृष्टि अनायास ही उधर चली गई थी मगर दूसरे ही क्षण उसने आँखें फिरा लीं और राजेश्वर तथा जयप्रकाश की ओर देखने लगा कि कहीं उन्होंने उसे देख तो नहीं लिया ।

तभी राजेश्वर ने जयप्रकाश के कुहनी छुआते हुए सत्यव्रत की ओर देखा। लज्जा से लाल होते हुए सत्यव्रत ने गर्दन झुका ली। मगर राजेश्वर बाज़ न आया, बोला, “अरे भलेमानस कोई इतनी तन्मयता से प्रतीक्षा कर रहा है, कम-से-कम एक नज़र भरकर देख तो ले !”

ढलती हुई दोपहर की धूप हल्की होती जा रही थी। पड़ोस के मकानों के छज्जों और दीवारों की परछाइयाँ धूप में फ्रेम से उखड़ी तसवीरों की तरह पड़ी थीं । नालियों के पास बैठे कुत्ते हाँफ रहे थे ।

राजेश्वर की फब्ती पर सत्यव्रत घबरा उठा। मारे विवशता के उसे कोई उत्तर न सूझा। शायद कुछ बोल न पाने की असमर्थता से पीड़ित होकर ही उसने मज़बूरन मुड़कर पीछे देखा। चाँदी-सी उजली धूप पार करके जब उसकी दृष्टि चौधरी साहब के बरामदे में पहुँची तो विमला घर में जाने के लिए पीठ मोड़कर खड़ी हो गई थी। एक क्षण को उसकी सफ़ेद धूप-सी साड़ी पर पड़ी वेणी सत्यव्रत को ऐसी लगी जैसे धूप बिखरी सड़क पर किसी खम्भे की छाया पड़ रही हो ।

“चली गई !” पीछे देखते हुए राजेश्वर ने होंठ बिचकाकर निराशा के साथ जयप्रकाश से कहा ।

जयप्रकाश किसी की नमस्ते का उत्तर दे रहा था। शहर की चहल-पहल शुरू हो गई थी और जान-पहचान के लोग और विद्यार्थी मिलने लगे थे। अगली दाहिनी गली के छोर पर जयप्रकाश का कमरा था। मगर उधर न मुड़कर वह सीधा इन्हीं लोगों के साथ चलता रहा। सामने पोस्ट ऑफ़िस था और पोस्ट ऑफ़िस से आगे एक खाली मैदान के बाद पक्के से अहाते में लाला छदम्मीलाल का घेर । आर्यसमाज मन्दिर को जानेवाली गली उसी घेर के नीचे से होकर जाती है।

छदम्मीलाल के इस बड़े-से अहाते में एक तरफ़ बूरा कुटती थी और दूसरी तरफ आटा पीसने, कुट्टी काटने और धान कूटने की मशीन लगी थी । अहाते का एक बड़ा-सा फाटक था जिसके सामने से गुज़रनेवाले लोग चक्की की ‘कुक-कुक’ कर गूँजती रहनेवाली आवाज़ से आकृष्ट होकर उधर ज़रूर देखते थे। आज मशीन का कोई पुर्ज़ा खराब हो गया था, इसलिए आने-जानेवाले बिना ध्यान दिए ही उधर से गुज़र जाते थे ।

यूँ तो उधर से गुजरनेवाले सारे अध्यापक छदम्मीलाल को नमस्कार करते ही थे, पर कई बार ऐसा भी हुआ कि जब उनके पास कोई मेहमान बैठा होता तो ये अध्यापक जरूर चुपचाप खिसकने की कोशिश करते थे। ऐसे अवसरों पर छदम्मीलाल को उनकी उपेक्षा अखरती थी और अक्सर उन्हें आवाज़ लगाकर मास्टरों को बुलाना पड़ता था और नमस्कार ग्रहण करने के बाद अपने मेहमान को परिचय देना पड़ता था, “ये हमारे स्कूल में मास्टर हैं। दो सौ ढाई सौ रुपए पाते हैं।”

आज भी उन्हें आवाज़ लगानी पड़ी, “आओ मास्टर साहब, कहाँ चले ?” और गली के दूसरी ओर से आते हुए प्रवीणचन्द्र शास्त्री को छदम्मीलाल के घेर में आना पड़ा। हाथ जोड़कर नमस्कार एवं बाबू साहब का परिचय प्राप्त करने के पश्चात् दोनों खाट पर बैठ गए। तभी फाटक से गुज़रते हुए जयप्रकाश ने छदम्मीलाल और बालिस्टर साहब को नमस्ते की तो उसे भी उन्होंने अन्दर आने का इशारा कर दिया, साथ ही दोनों साथियों को भी ।

सत्यव्रत ने शायद इशारा नहीं देखा था। जयप्रकाश उधर मुड़ने को हुआ तो सत्यव्रत बोला, “अच्छा, मैं तो चलूँगा, जय भाई !”

जयप्रकाश ने कहा, “यह हमारी कमेटी के मेम्बर हैं।”

” देखा तो मैंने है, पर कोई परिचय नहीं ।” बिना किसी अहम् या गर्व के सत्यव्रत ने कहा और बोला, “मुझे अभी गाड़ी भी पकड़नी है। “

“ठीक है ।” जयप्रकाश बोला और खुद राजेश्वर के साथ फाटक में घुस गया ।

लस्सी से भरी पतीली सामने रखे छदम्मीलाल ने एक उचाट-सी दृष्टि आनेवाले मास्टरों पर डाली और उन्हें खाट पर बैठने का इशारा करते हुए सामने कुर्सी पर बैठे एक बुजुर्ग से आदमी से थोड़ी और लस्सी लेने का आग्रह करने लगे ।

जयप्रकाश आँखों में परिचय और उत्सुकता का भाव भरकर उधर ही देखने लगा। बुजुर्ग सज्जन को छदम्मीलाल और उनकी बराबर में बैठे कॉलेज कमेटी के एक अन्य मेम्बर सागर उर्फ़ बालिस्टर साहब, बार-बार ‘बाबू साहब’ कहकर सम्बोधित कर रहे थे और बाबू साहब अपनी बुज़ुर्गी का अहसास कराते हुए बड़े ही रौबीले अन्दाज़ में उनसे बातें कर रहे थे। वह साठ वर्ष के मझोले क़द के तन्दुरुस्त आदमी थे और दोनों से ही उम्र में पन्द्रह-बीस वर्ष बड़े थे । इसलिए विषय के विवादास्पद होने के बावजूद बातचीत से एक लिहाज़ साफ़ ज़ाहिर हो रहा था।

बाद में परिचय होने पर जयप्रकाश को मालूम हुआ कि बाबू साहब बालिस्टर साहब के सगे चाचा हैं और हाल ही में एग्रीकल्चर – इन्स्पेक्टर के पद से रिटायर होकर आए हैं। अब भी वह बाग़ में चार-चार घंटे तक लगातार फावड़ा चला सकते हैं। उन्हें देखकर पहली ही झलक में यह लगता था कि यह दृढ़ प्रकृति का आदमी है।

बातचीत का केन्द्र बालिस्टर साहब का लड़का ईन्दल था जो इस साल दूसरी बार हाईस्कूल की परीक्षा में फेल हुआ था। बालिस्टर का विचार उसे बिजनौर दाखिला दिलाने का था जबकि छदम्मीलाल का कहना था कि ऐसा करने से हमारे स्कूल की बड़ी बदनामी होगी। इस विषय में बाबू साहब की राय की प्रतीक्षा थी।

आख़िर परिचय के बाद बाबू हरकरण सहाय ने कहा, “नहीं, नहीं, तुम नहीं समझते हो, छदम्मीलालजी, यह लड़के की ज़िन्दगी का सवाल है, स्कूल की बदनामी की इसमें कोई बात नहीं। हमेशा मुक़दमे में सबसे अच्छा वकील, बीमारी में सबसे अच्छा डॉक्टर और तालीम के लिए सबसे अच्छा स्कूल चुनना चाहिए।”

“मगर बाबूजी, हमीं लोग तो क्या कहदे करें, स्कूल के मेम्बर और करता – धरता हैं और हमारे ही बच्चे बाहर पढ़ने कू जानै लगे तो क्या कहदे करें, भला और लोगों पै क्या असर पड़ेगा ?” छदम्मीलाल ने अपना तर्क पेश किया ।

“नहीं, नहीं, तुम गधे हो, तुम अपनी पोजीशन ग़लत समझते हो। तुम लोग तो नाम मात्र के मेम्बर हो, कर्ता-धर्ता तो वह हरीचन्द ही है। मैं उसे चालीस साल जानता हूँ। वह बहुत बदमाश है।” बाबूजी ने अपनी बुजुर्गी और अनुभवों की दुहाई देते हुए कहा ।

जयप्रकाश को लगा, ‘तुम गधे हो’ – यह कहना, एक तरह से बाबू साहब का तकिया कलाम है जिसे वह अपने विपरीत राय प्रकट करनेवाले हर व्यक्ति से कहते हैं ।

छदम्मीलाल ने अपने विशेषण पर कोई आपत्ति नहीं की और न बाबू साहब की बात का ही खंडन किया। वह बालिस्टर की तरफ़ देखने लगे ।

“ यही बात मैं कहा करता हूँ।” बालिस्टर सागरमल अपने चाचा की बात पर उत्साहित होकर बोला, “हम लोग तो बस हाथ उठाने और दस्तख़त करने-भर के मेम्बर हैं। स्कूल के मालिक तो गनेसीलाल, लाला हरीचन्द और चौधरी नत्थूसिंह ही हैं । इसीलिए मैंने सोचा कि अबके चाहे पचास रुपए महीना खर्च हो जाए, पर इन्दल को भेजूँगा बिजनौर ही । “

“ठीक है, ठीक है ।” बाबू साहब ने गर्दन हिलाकर सहमति जताई और बोले, “देहातियोंवाला काम नहीं करना चाहिए । यहाँ पर उसकी पढ़ाई नहीं हो सकती।”

बाबू साहब की स्वीकृति से बालिस्टर सागरमल को बड़ा सहारा मिला । बाबू साहब के आगे-पीछे कोई न था, इसलिए उन्हें डेढ़ सौ रुपए के लगभग जो पेंशन प्रतिमास मिलनेवाली थी उसी से ईन्दल की पढ़ाई का खर्च निकालने की योजना बालिस्टर के दिमाग़ में थी। वह सोचने लगा कि रुपयों की बात अभी उठाई जाए या लड़के के दाखिले के बाद ।

छदम्मीलाल को भी मानना पड़ा कि हिन्दू कॉलेज में पढ़ाई का स्तर गिर गया है, और इसका कारण लाला हरीचन्द और गनेशीलाल का कॉलेज के मामलों में बेजा हस्तक्षेप ही है। मगर ईन्दल को बिजनौर दाखिला दिलाने की बात पर वह सहमत नहीं हुए, बोले, “अगर अपने स्कूल में पढ़ाई का वो, क्या कहदे करें, स्टेंडर गिर गया है तो उसे उठाओ। बल्कि मैं तो कहूँ हूँ अबके गनेसीलाल और हरीचन्द दोनों को कमेटी से सफा कर दो । तब तो हुई बात । वर्ना क्या कहदे करे, ये भी कोई बात हुई कि जिस पाँव में फोड़ा है उसे ही काट के फेंक दो !”

तभी घेर से लगी हवेली की साँकल बज उठी और छदम्मीलाल ने पुकारकर एक नौकर को भीतर हवेली में भेजा। फिर प्रसंग बदलते हुए अपने मास्टरों की ओर मुखातिब होकर शास्त्रीजी से कहा, “क्यों भई सास्त्रीजी, लगेगी तो तुम्हें बुरी, पर क्या कहदे करें, सच्ची बात को रोकना भी नईं चाहिए। तो मैं ये पूच्छ्रं कि सुसरी तुम्हारे स्कूल की पढ़ाई ही हर साल क्यों गिरती जा रई ? और भी तो स्कूल हैं… ?”

शास्त्रीजी ने सुरमे की डिबियों सरीखी आँखें विस्मय से मटकाते हुए ‘बेचैनी से गर्दन हिलाई और ठहरकर बोले, “यह प्रश्न तो, अधिक उत्तम हो, यदि आप प्रिंसिपल महोदय से पूछें !” और इसके साथ ही उन्होंने जयप्रकाश की ओर देखा ।

जयप्रकाश स्थिति में रस ले रहा था । वह बोलने के मूड में न था । मगर छदम्मीलाल ने भी उसकी ओर मुँह किया तो उसे बोलना पड़ा, “शास्त्रीजी ठ कहते हैं, लालाजी ! आखिर ज़िम्मेदारी तो प्रिंसिपल की ही होती हे ! मेरा तो सुझाव है कि आप उत्तमचन्दजी को प्रिंसिपल बना दीजिए… फिर देखिए…”

“मैं ! अरे, मेरा बस चले तो मैं उसे, क्या कहदे करें, चपरासी भी न रहने दूँ ! सारी इज़्ज़त धूल में मिला दी साले ने ! उसमें काबलियत क्या है सिवाय इसके कि हरीचन्द की गुलामी करता है ? उससे ज्यादा पुराने तो सास्त्रीजी हैं ।”

जयप्रकाश ने फ़ौरन शास्त्रीजी को कुहनी मारी और मूढ़ा आगे खिसकाकर बोला, “बालिस्टर साहब, आप बड़े ख़ामोश हैं आज, आपकी क्या राय है ?”

बालिस्टर और छदम्मीलाल की राय अलग-अलग नहीं होती। अतः वह तुरन्त बोले, “सास्त्रीजी की मैं भी इज्जत करता हूँ। ये भले आदमी हैं । ये प्रिंसिपल हो जावें तो मेरी भी आत्मा की तृप्ति होवैगी ।”

बाबू साहब के मन में आया कि वह भी कुछ कहें। तभी छदम्मीलाल बोले, “सोच-समझकर बातें करनी चाहिए, बालिस्टर ! कोई ऐसी मुश्किल बात नई है ये भी । अगर चाहोगे तो सास्त्रीजी भी प्रिंसिपल हो सकैं हैं । पर मेहनत करनी पड़ेगी।”

जयप्रकाश फ़ौरन शास्त्रीजी के हाथ पर हाथ मारकर खड़ा हो गया, बोला, “बस, आपने कह दिया तो समझो शास्त्रीजी प्रिंसिपल हो गए।”

और सबसे विदा माँगकर राजेश्वर और जयप्रकाश अहाते से बाहर निकलने लगे। उन्होंने सुना, बाबू साहब कह रहे थे, “हरीचन्द मुझे भी मेम्बर बना रहा है । तो तीन तो हमीं हो गए और तीन और मेम्बरों से कह देंगे…”

जयप्रकाश, घेर में बैठे हुए शास्त्रीजी पर होनेवाली प्रतिक्रिया की कल्पना करके हँस पड़ा। राजेश्वर ने कारण पूछा तो मुस्कराकर बोला, “यार ! अपना कॉलेज भी एक छोटा-मोटा म्युज़ियम है। ज़रा कल्पना करो कि अब शास्त्रीजी प्रिंसिपल होंगे !”

” हो जाएँगे ?” राजेश्वर ने पूछा ।

“ शायद !” लापरवाही से कन्धे ऊपर को उचकाते हुए जयप्रकाश बोला, “लेकिन सवाल होने न होने का नहीं है । ये कुपढ़ और अनपढ़ धुने – जुलाहे और अंसारी-पंसारी जब हमारे भाग्य विधायक हो सकते हैं तो फिर होने को आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं रह जाता। पर देखना, बाबू हरकरण सहाय के मेम्बर होते ही कॉलेज की राजनीति में भारी परिवर्तन होगा । “

प्रिंसिपल की कुरसी (अध्याय-7)

सोमवार को स्टाफ़ – कौंसिल की मीटिंग हुई जिसके ख़त्म होते ही हेडक्लर्क पवन बाबू ने अपनी कुरसी मास्टर उत्तमचन्द के पास खिसका ली और गोदी में रखे मोटे-मोटे रजिस्टरों को उनकी मेज पर रखते हुए बोले, “मैंने आपसे पहले ही कहा — था न कि यह राजेश्वर ठाकुर साँप का बच्चा है। इसे कॉलेज में नहीं आना चाहिए। अब देख लिया आपने।”

“देख तो लेता, मगर अपाइंटमेंट मेरे हाथ में होता तब ना !” उत्तमचन्द पवन बाबू की बात पर अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए झुंझलाए, “तुम तो समझ हो…” और उन्हें लगा कि कहीं कोई सुन न रहा हो ।

“आपने कोशिश ही नहीं की, वरना मैं जानता हूँ कि लाला हरीचन्द और सेक्रेटरी गनेशीलाल आपकी बात हरगिज़ न टालते ।” पवन बाबू ने उनकी बात काटकर कहा ।

“विश्वास करो, पवन, मैंने कहा था। और इन दोनों से ही नहीं बल्कि वाइस प्रेसीडेंट चौधरी नत्थूसिंह से भी कहा था।” फिर एक पल रुककर मास्टर उत्तमचन्द लगभग फुसफुसाहट के स्वर में बोले, “जाने इसकी कौन-सी ‘एप्रोच’ थी कि एक भी मेम्बर ने ‘अपोज़ीशन’ नहीं किया । “

“इसीलिए तो अब आपका ‘अपोज़ीशन’ हो रहा हैं। जयप्रकाश ने बग़ल में रखा है इस ठाकुर को देखते जाइए, क्या – क्या गुल खिलते हैं ।” पवन बाबू ने हर शब्द पर अपनी गर्दन दाएँ-बाएँ हिलाते हुए कहा ।

उत्तमचन्द को पवन बाबू की चेतावनी पर अविश्वास करने का कोई कारण न दिखा। अभी दस मिनट भी नहीं हुए थे कि राजेश्वर भरी मीटिंग में, विनम्रता से ही सही, मगर ऐसी बातें कह गया था जैसी आज तक उन्होंने किसी मास्टर तो क्या, लेक्चरर तक के मुँह से नहीं सुनी थीं । अतः मन में क्षुब्ध थे ।

फिर उत्तमचन्द और पवन बाबू की कुरसियाँ और निकट हो गईं। दोनों में बहुत धीरे-धीरे बातें होने लगीं। पवन बाबू की गोल-गोल आँखें बार-बार दरवाज़े की चिक और कमरे की छत पर जा टिकती थीं। ऐसा लगता था कि वह ऐनक उतार देंगे तो कमरे की रहस्यमयता भंग हो जाएगी। और हुआ भी यही । वातावरण प्रति पूर्णतः आश्वस्त होकर जैसे ही उन्होंने ऐनक उतारी कि उत्तमचन्द का वाक्य कान में पड़ा, “मैनेजमेंट के नाम से जयप्रकाश की रूह फ़ना होती है और नौकरी उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है – यह तुमने पिछले साल कृषि योजना के मामले में देख ही लिया । इस बार भी अगर प्रेसीडेंट या सेक्रेटरी उसे एक बार बुलाकर डाँट दें, तो फौरन घुटनों में आ जाएगा। फिर देख लेंगे इस राजेश्वर को ।”

“ बिलकुल ठीक।” पवन बाबू जोश में उछलते हुए बोले, “जयप्रकाश ही नहीं गाँव के सारे मास्टर पत्तों में पानी पीने लगेंगे, और राजेश्वर तो पिद्दी-न-पिद्दी का शोरवा…मगर हाँ…!” कुछ सोचकर पवन बाबू बोले, “जयप्रकाश के ख़िलाफ़ चार्जेज़ क्या होंगे ?”

“वही कृषि-योजना का विरोध, गाँव के लड़कों और मास्टरों की अलग पार्टी बनाना और मैनेजिंग कमेटी के मेम्बरों को गाली आदि देना ।”

पवन बाबू चार्जेज़ सुनकर अपना नेकर सँभालते हुए कुछ कहने ही वाले थे कि उत्तमचन्द फिर बोल उठे, “मगर सवाल इन्हें साबित करने का है । और हाँ, ये सारी बातें मैनेजमेंट के पास ‘इनडायरेक्टली’ (परोक्ष रूप से) पहुँचनी चाहिए।”

“तो ?” पवन बाबू ने आँखों पर ऐनक चढ़ाते हुए पूछा ।

“तो अब तुम सोचो। तुम भी तो अपने-आपको चाणक्य समझते हो ।” उत्तमचन्द गम्भीर चिन्ता में डूब गए।

कमरे में ख़ामोशी छा गई। पवन बाबू कोई ऐसी चाल सोच रहे थे कि राजेश्वर चारों खाने चित्त आ गिरे । वह ज्वाइंट सेक्रेटरी गुलज़ारीमल के सगे भानजे थे । उनसे बातें करते हुए सारे अध्यापक उनका लिहाज़ करते थे। मगर राजेश्वर की आज की बदतमीजी और इससे भी ज़्यादा इंटरव्यूवाले दिन का ‘यस’ उनके दिमाग़ में भन्ना रहा था ।

उत्तमचन्द थोड़ी ही देर पहले उसी कमरे में हुई बातों पर विचार कर रहे थे। स्थानापन्न प्रिंसिपल होने की हैसियत से उन्होंने अपने कमरे में आज स्टाफ़-कौंसिल की एक आवश्यक बैठक बुलाई थी । उद्देश्य केवल यही था कि नए-पुराने अध्यापकों का परिचय हो जाए और जब तक कोई प्रिंसिपल आए तब तक के लिए उसकी ‘ड्यूटीज़’ का एक अस्थायी – सा चार्ट बना लिया जाए।

इसी सिलसिले में चपरासी दीनदयाल प्रिंसिपल के नोट पर सब अध्यापकों से हस्ताक्षर कराकर लौट लाया था, किन्तु मास्टर जयप्रकाश और राजेश्वर ठाकुर उसे कहीं नहीं मिले थे। प्रिंसिपल होने के नाते उत्तमचन्द को यह बात अखरी थी कि उनके स्टाफ़ के लोग कॉलेज टाइम में इधर-उधर मटरगश्ती करते रहते हैं । इसलिए जब सारे अध्यापक इकट्ठे हो गए और जयप्रकाश तथा राजेश्वर ठाकुर बाद में आए तो उन्होंने ज़रा रौबीले और अफ़सराना अन्दाज़ में पूछा, “ मास्टर साहब ! आप लोग कहाँ थे ?”

जयप्रकाश ने इस प्रश्न को कोई महत्त्व नहीं दिया क्योंकि वाइस प्रिंसिपल होने के नाते कई बार उत्तमचन्द ने अस्थाई रूप से प्रिंसिपल का कार्य किया था और कई बार जयप्रकाश को उनके ऐसे प्रश्नों का लिखित और मौखिक जवाब देना पड़ा था । अतः एक खाली कुरसी पर बैठते हुए प्रत्यक्ष रूप से आवाज़ में भरसक मिठास लाकर उसने नम्रता से कहा, “कहीं नहीं, मास्टर साहब ! ज़रा गूँगे- की दुकान तक गए थे। खाली वक़्त में हम अध्यापकों की एक वही तो आरामगाह है ।”

इस उत्तर के बाद उत्तमचन्द को कुछ पूछने का साहस नहीं हुआ। हालाँकि एक बार उनकी इच्छा हुई कि वह कॉलेज टाइम में अध्यापकों को कॉलेज से बाहर न जाने का आदेश दे दें, मगर इससे सारे अध्यापकों के खिलाफ़ हो जाने की सम्भावना थी ।

तभी राजेश्वर ने उत्तमचन्द को सम्बोधित करके पूछा, “क्यों मास्टर साहब, क्या कॉलेज टाइम में अध्यापकों को बाहर तक जाने के लिए अनुमति लेनी पड़ती है ?”

निश्चय ही यह प्रश्न शरारतन किया गया था । किन्तु मास्टर उत्तमचन्द ने बात सँभालते हुए कहा, “नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। मगर कह देने से अच्छा रहता है।” और फिर तुरन्त ही इस प्रसंग को बदलते हुए कहने लगे, “मैं समझता हूँ सारे टीचर्स ‘प्रिजेंट’ हैं और हमें आज की कार्यवाही शुरू कर देनी चाहिए। तो आज की मीटिंग, एक तरह से इंट्रोडक्शन मीटिंग है । वैसे तो अब तक आप लोग एक-दूसरे से ‘इंट्रोड्यूस’ हो ही चुके होंगे मगर फिर भी पहले सबका परिचय एक-दूसरे से हो जाना चाहिए।”

और फिर राजेश्वर, सत्यव्रत और पाठक- तीनों नए अध्यापकों का स्वयं परिचय देने के बाद उत्तमचन्दजी ने पुराने अध्यापकों को नए अध्यापकों से परिचित कराने का दायित्व संस्कृत के लेक्चरर प्रवीणचन्द्र शास्त्री पर छोड़ दिया ।

शास्त्रीजी अपनी नाक से निकलनेवाली सुरीली आवाज़ में गद्य बोलते हुए बहुत कतराते थे । अतः परिचय जैसे मामूली कार्य के लिए उन्हें अपना उपयोग प्रीतिकर नहीं लगा। फिर भी अपने स्थूल शरीर के साथ कुरसी के हत्थे का सहारा लेते हुए वह उठे खड़े हुए। और मुख पर हमेशा छाई रहनेवाली विनम्रतापूर्ण मुस्कराहट को और चौड़ा करते हुए क्रम से “आप हैं” कहकर एक-एक अध्यापक का नाम और लेक्चरर के नाम के साथ उसका विषय पुकारते गए । सम्बोधित् अध्यापक उठकर नए अध्यापकों की ओर हाथ जोड़ते, और फिर अपनी सीट पर बैठ जाते। इस तरह परिचय की रस्म शान्तिपूर्ण किन्तु नीरस ढंग से पूरी हो गई । मगर शास्त्रीजी जैसे ही धोती का छोर हाथ में लेकर अपने स्थूल शरीर के साथ कुरसी में बैठने को हुए कि सत्यव्रत ने खड़े होकर परिचय देनेवाले महाशय का परिचय प्राप्त करने की जिज्ञासा प्रकट कर दी और वातावरण सरस हो उठा।

शास्त्रीजी बैठते-बैठते रुक गए। सोचा, हाथ जोड़ने की औपचारिकता निभाकर इकट्ठे ही बैठेंगे। मगर जब तत्काल कोई उनका परिचय देने के लिए खड़ा न हुआ तो वह चेहरे पर विनम्रता की समस्त भंगिमाएँ लाते हुए, अपनी बारीक आवाज़ में स्वयं ही बोले, “परिचय जैसी कोई विशेषता इस नश्वर शरीर में नहीं है। फिर भी स्नेह और कृपावश लोग इस दास को प्रवीणचन्द्र कहकर पुकारते हैं। यहाँ इंटर आदि के छात्रों को माँ सरस्वती की वाणी अर्थात् संस्कृत का यत्किंचित ज्ञान वितरित करता हूँ और ललित कलाओं में मेरी किंचित अभिरुचि है । “

इस पर सारे अध्यापक छिपकर मुस्करा दिए।

सबके संक्षिप्त से परिचय देने के बाद अपना परिचय देते हुए वह काफ़ी संकोच का अनुभव कर रहे थे और उनके स्थूल शरीर और गोल मोटी-मोटी आँखों से सौजन्यपूर्ण विनम्रता और संकोच टपके पड़ते थे। शास्त्रीजी बैठने को हुए तो जयप्रकाश उठ खड़ा हुआ, बोला, “शास्त्रीजी ने संकोचवश अपने विषय में कुछ बताया ही नहीं केवल यह कहकर रह गए कि ललित कलाओं में अभिरुचि है । वस्तुतः अभिरुचि उनकी रचनात्मक एवं सर्जनात्मक प्रतिभा के लिए बहुत ही छोटा-सा शब्द है । वह कवि हैं, गायक हैं, अभिनेता हैं और शिल्पकार भी हैं। संक्षेप उनकी प्रतिभा बहुमुखी है। वह हमारे कॉलेज की नाक हैं और सारे शहर को उन पर गर्व है।”

जयप्रकाश के परिचय पर अधिकांश अध्यापकों की मुस्कराहट मुखर हो उठी, केवल शास्त्रीजी ही दाँत निपोरे महान् व्यक्तियोंवाली मुद्रा में दोनों हाथ जोड़कर चारों और घूमे और अपनी कुरसी में गिर गए।

कुछ क्षण बाद मास्टर उत्तमचन्द फिर उठ खड़े हुए, बोले, “आमतौर पर जुलाई का महीना छुट्टी का समझा जाता है। इसमें न टीचर्स का पढ़ाने का ‘मूड’ होता है और न स्टूडेंट्स में पढ़ने की इच्छा। मगर अपने रिज़ल्ट को देखते हुए मैं सोचता हूँ कि….हमें अभी से स्टूडेंट्स की पढ़ाई के प्रति सीरियस हो जाना चाहिए।” रिज़ल्ट की बात पर अध्यापक गम्भीर हो गए।

उत्तमचन्दजी अध्यापकों पर अपने कथन की प्रतिक्रिया देखते हुए बोले, “इस साल और भी बहुत-सी योजनाएँ हमारे सामने हैं। अभी प्रेसीडेंट साहब के यहाँ कमेटी की मीटिंग हुई थी, उसमें छात्रों के लिए एक होस्टल खोलने की बात भी उठी। साथ ही इस साल से हम अपने यहाँ हॉकी भी शुरू करने की सोच रहे हैं। इसके अलावा ये भी ख़्याल है कि बिल्डिंग की कमी को पूरा करने के लिए छोटेवाले मैदान में टपरे डलवाकर ‘जूनियर क्लासेज़’ को वहाँ भेज दिया जाए। इन सब बातों के बारे में अगर आपके कुछ सुझाव या ‘सज़ेशन्स’ हों तो आप बड़े शौक से मुझे दें। मैं उन्हें कमेटी के पास भेज दूँगा।”

और मास्टर उत्तमचन्द एक क्षण के लिए रुककर जैसे अध्यापकों के सुझावों की प्रतीक्षा करने लगे। मगर किसी ने कोई सुझाव न दिया । सारे के सारे अध्यापक गर्दन नीची किए अपने – अपने ड्यूटी चार्ट देख रहे थे जो परिचय के दौरान पवन बाबू ने सबके हाथों में थमा दिए थे। अलबत्ता नए अध्यापकों की मास्टर उत्तमचन्द की बातों में दिलचस्पी जरूर थी ।

तभी सत्यव्रत अपने स्थान से उठा और उत्तमचन्द की आज्ञा लेकर बोला, “इतने बड़े कॉलेज में छात्रावास का न होना सचमुच बहुत खलता है। यहाँ हम विद्यार्थियों को पुस्तकीय ज्ञान देते हैं, सामाजिक ज्ञान और नैतिक आचरण की भी सैद्धान्तिक शिक्षा दे सकते हैं पर इसका वास्तविक और व्यावहारिक शिक्षण यहाँ सम्भव नहीं। इसके लिए छात्रावास की नितान्त आवश्यकता है।” और कुछ संकोच का अनुभव करते हुए उसने आगे कहा, “मैं हलवाई की दुकान पर छात्रों को निरुद्देश्य घूमते, बीड़ी पीते या गपशप करते हुए देखता हूँ तो बड़ा क्लेश होता है।”

“मगर इस बात की क्या गारंटी है कि होस्टल खुलते ही लड़के हलवाई की दुकान पर जाना या बीड़ी पीना बन्द कर देंगे ?” नागरिकशास्त्र के लेक्चरर रामाधीन श्रीवास्तव ने सत्यव्रत की बात को उछालते हुए पूछा ।

सत्यव्रत फिर उठ खड़ा हुआ, बोला, “ऐसा तो मैं भी नहीं सोचता कि छात्रावास खुलते ही छात्रों में तुरन्त कोई परिवर्तन हो जाएगा । किन्तु फिर भी इस माध्यम से उनको अध्यापकों के साथ निकट सम्पर्क स्थापित करने का अवसर अवश्य मिलेगा । और इस प्रकार अध्यापक के व्यक्तिगत चरित्र एवं अध्यवसाय से उन्हें अपने व्यक्तित्व को संगठित करने में भी सहायता मिल सकती है।

हालाँकि सभी अध्यापक मन-ही-मन सत्यव्रत की इस चरित्र – गठनवाली योजना पर मुस्कराए, पर प्रत्यक्ष रूप से इसका विरोधी उत्तर किसी ने नहीं दिया और सब जैसे निरुत्तर हो गए।

तब मास्टर उत्तमचन्द ने कहा, “सत्यव्रतजी ने जो एक ‘मोरल’ (नैतिक) सवाल हमारे सामने उठाया है, वह दरअसल आज की एक बड़ी ‘प्रॉब्लेम’ है और हम टीचर्स के लिए एक चुनौती है। इस पर हमें विचार करना है। मगर इस वक़्त मैं आपकी तवज्जह होस्टल, जूनियर क्लासेज़ के लिए बिल्डिंग का इन्तज़ाम और खेल-कूद के सामान की खरीद-फरोख्त की तरफ़ खींचना चाहता था। प्रेसीडेंट और सेक्रेटरी साहब इस बारे में शायद जल्दी ही आप सबसे भी बातें करें, मगर मैं चाहता हूँ कि तब तक हम लोग आपस में बातचीत ज़रूर कर लें ताकि हमारे पास उनके सामने रखने के लिए कोई ठोस स्कीम हो ।”

फिर किसी भी अध्यापक को ठोस स्कीम का कोई सुझाव न देते देखकर उन्होंने आगे कहा, “आप जानते हैं इस सबके लिए फंड्स की ज़रूरत है और हमारे पास पैसे की कमी है।”

जयप्रकाश की इच्छा हुई कि पिछले साल बिल्डिंग फंड के नाम से जो रुपया अध्यापकों की तनख़्वाह से काटा गया था उसके बारे में पूछे कि तभी उत्तमचन्द जैसे उसके मन की बात भाँपते हुए बोले, “ज़ाहिर है कि इतनी बड़ी रक्कम केवल टीचर्स के डोनेशन्स (चन्दा) के ज़रिए हासिल नहीं की जा सकती। इसके लिए हमें महीने में कम-से-कम एक ‘संडे’ (रविवार) आस-पास के गाँवों में जाने और वहाँ से चन्दा इकट्ठा करने के लिए निकालना पड़ेगा। इसके अलावा मैं सोचता हूँ कि अगर इस साल अपनी कृषि योजना पर हम ज़रा और मेहनत करें तो काफ़ी तगड़ी आमदनी हो सकती है।”

अपनी बात ख़त्म करके उत्तमचन्द कुरसी पर बैठ गए। अध्यापकों से किसी उत्तर की उपेक्षा उन्हें न थी और न कोई बोला ही । परन्तु उनकी बातों और कॉलेज के विकास की योजनाओं ने सत्यव्रत को अधिक प्रभावित किया। उसका नया खून अपनी संस्था के प्रति शत-प्रतिशत वफ़ादार रहना चाहता था और वह पूरी ईमानदारी से अपना अस्तित्व वहाँ सिद्ध करने के लिए कुछ ऐसा कर दिखाना चाहता था जो कॉलेज के लिए लाभदायक और हितकर हो । चन्दा एकत्र करनेवाली योजना उसे पसन्द आई और उसके प्रति उत्साह से उसका मन भर गया। फिर कृषि-योजना के प्रति उत्साह प्रदर्शित करते हुए उसने पूछा, “प्रिंसिपल साहब, क्या आप संक्षेप में कृषि-योजना पर भी प्रकाश डालने की कृपा करेंगे ?”

उत्तमचन्द ने कहा, “भई, दरअसल ये कृषि – योजना गांधीजी के उसूलों पर बनाई गई है और एक ऐसी चीज़ है जिससे विद्यार्थियों की ‘एक्सरसाइज़’ (व्यायाम) भी होती है और उनमें सेल्फ सपोर्टिंग यानी स्वावलम्बन की भी भावना आती है।” और फिर एक क्षण रुककर बोले, “हमारे कॉलेज के चारों ओर जो इतनी ज़मीन बेकार पड़ी थी उसी में पिछले साल से हमने विद्यार्थियों के सहयोग से खेती शुरू की है, और इस साल हम योजना को और भी मेहनत से चलाना चाहते हैं । “

चन्दे की योजना की भाँति सत्यव्रत को यह कृषि योजना भी सरल लगी। उसे लगा कि इसकी सफलता के लिए भी वह पूरा समय और सहयोग दे सकता है। तभी राजेश्वर उठ खड़ा हुआ, बोला, “क्या मैं इस योजना के बारे में कुछ पूछ सकता हूँ ।”

“हाँ, हाँ, जरूर।” उत्तमचन्द ने कहा, “आप ही की तो योजना है। बल्कि मैं तो चाहूँगा कि गाँव के टीचर्स में से ही कोई साहब इसे अपने हाथ में ले लें तो मेरा बोझ कम हो जाएगा।”

राजेश्वर ने पूछा, “मास्टर साहब ! कृषि-योजना में जुताई का कार्य किराए के ट्रैक्टरों से होता है या बैलों से ? और उन्हें क्या किराया दिया जाता है ?”

“भई, जुताई तो किराए से ही होती है मगर किराए के रूप में हमने तो पैदावार की अधबटाई कर दी थी । यही यहाँ सब लोग करते हैं ।” उत्तमचन्द ने बात और साफ़ करते हुए आगे कहा, “दरअसल सारे हल-बैल प्रेसीडेंट और वाइस प्रेसीडेंट साहब के थे, इसलिए कोई कठिनाई नहीं हुई । “

राजेश्वर ने फिर पूछा, “पिछले साल कुल कितने मन अनाज पैदा हुआ था ?”

“यही कोई दो सौ मन ।” उत्तमचन्द ने उत्तर दिया ।

“इसमें से सौ मन अनाज तो हल-बैलों के किराए में दे दिया गया होगा और शेष मज़दूरी वगैरह…”

“ मज़दूरों का सवाल कहाँ उठता है।” उत्तमचन्द ने वाणी में मिठास घोलते हुए कहा, “अगर हम मज़दूर रखने लगें तो स्टूडेंट्स में स्वावलम्बन की भावना पैदा करने का हमारा बेसिक मक़सद ही ख़त्म हो जाएगा।”

” मगर मास्टर साहब ! विद्यार्थी खेती की सारी बारीकियों को कैसे समझ सकते हैं जब तक कि कुछ अनुभवी मज़दूर उनके साथ न हों ?” राजेश्वर ने सरल बनकर पूछा ।

इस बात पर उत्तमचन्द थोड़ा-सा हँसे, फिर धीरे से बोले, “देखिए मास्टर साहब, हमारी कृषि योजना के सारे विद्यार्थी गाँव के हैं और सभी के घर खेती होती है । इसलिए वे सारी बारीकियाँ भी…”

उत्तमचन्द बात पूरी कर भी नहीं पाए थे कि तुरन्त राजेश्वर अफ़सोस जाहिर करते हुए बोल उठा, “तब तो आपका बेसिक मक़सद ही ख़त्म हो गया। देखिए न, आपने कृषि-योजना के दो फ़ायदे बताए – एक व्यायाम, दूसरा स्वावलम्बन । परन्तु आपकी कृषि योजना में जब सारे लड़के गाँव के ही हैं जिनके घर खेती होती है तो फिर वे स्वावलम्बन और व्यायाम की क्रियाओं से भी परिचित ही होंगे। अब सवाल ये है कि जो पहले से ही स्वावलम्बी हैं उन्हें स्वावलम्बन की शिक्षा देने से क्या फायदा ? आप यह स्वावलम्बन की भावना शहर के लड़कों में पैदा कीजिए न !”

उस पर तुरन्त जयप्रकाश भी बोल उठा, “हाँ मास्टर साहब, मैं भी यही सोच रहा था कि गाँव के लड़के तो हृष्ट-पुष्ट होते ही हैं, क्यों न कृषि-योजना की व्यायाम-प्रणाली से शहरी लड़कों को भी तन्दुरुस्त बनाया जाए ? आप स्वीकार करेंगे कि उन्हें इस योजना से वंचित रखकर अब तक हमने उनके साथ न्याय नहीं किया है । “

जयप्रकाश ने अपनी बात इतनी मासूमियत से कही थी कि सत्यव्रत और यहाँ.. तक कि शहर के संस्कृत के लेक्चरर प्रवीणचन्द्र शास्त्री ने भी उसका समर्थन किया ।

मास्टर उत्तमचन्द को सहसा कोई उत्तर न सूझा तो राजेश्वर ने फिर कहा, “आपने फ़रमाया था कि आप इस योजना को किसी गाँव के टीचर के सुपुर्द करना चाहते हैं, तो मैं हाज़िर हूँ। मुझे विश्वास है कि व्यायाम और खेती के अपने थोड़े-बहुत ज्ञान से मैं शहरी लड़कों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाते हुए उनमें स्वावलम्बन की भावना भर सकूँगा।”

मास्टर उत्तमचन्द इसके लिए बिलकुल तैयार न थे । अतः उनका मुँह फ़क हो गया। उत्तर के लिए उन्हें कुछ नहीं सूझा तो लगभग सच्चाई पर उतर आए, बोले, “देखिए, ये बात, एक बार मैनेजिंग कमेटी में उठी थी, पर स्वीकार नहीं हुई।” फिर बात को सँभालते हुए बोले, “शायद शहर के लड़कों ने भी कृषि-योजना में हाथ बँटाने से इनकार कर दिया था ।”

राजेश्वर ने तुरन्त कहा, “लड़कों की बात जाने दीजिए, मास्टर साहब ! लड़के तो किसी भी अच्छी बात को पसन्द नहीं करते। वे गूँगे की दुकान पर रसगुल्ले खाना पसन्द करते हैं । कोई थियेटर या नौटंकी आ जाए तो उसमें नाच देखना पसन्द करते हैं। भला यह कोई बात हुई ? मगर हमें तो उनका भविष्य देखना है।”

उत्तमचन्द निरुत्तर होते जा रहे थे कि तभी सत्यव्रत ने उठकर कहा, “राजेश्वर भाई की बात बिलकुल सही है । विद्यार्थियों के हित के लिए अगर हम थोड़ी कड़ाई से भी काम लें तो कोई हानि नहीं ।”

पवन बाबू ने उत्तमचन्द की स्थिति को भाँप लिया। अतः कमीज़ की आस्तीन नाक पर रगड़ते हुए बोले, “मास्टर साहब ! सवाल केवल लड़कों की ही इच्छा का नहीं, उनके गार्जियन्स की इच्छा का भी तो है । शहरी लोग अपने बच्चों से खेती कराना पसन्द नहीं करते।” और इतना कहकर उत्तमचन्द की कोहनी पर हाथ छुआते हुए उन्होंने कहा, “क्यों, मास्टर साहब ?”

उत्तमचन्द को पवन बाबू की बात से बहुत सहारा मिला । तुरन्त सँभलते हुए, “यही तो सबसे बड़ी दिक्कत है ।”

राजेश्वर बोला, “आप समझते हैं कि गाँवों के लड़कों के माँ-बाप अपने बच्चों से खेती कराना पसन्द करते हैं या उन्हें यहाँ हल जोतने के लिए भेजते हैं ? माफ़ कीजिए, अगर उन्हें यही काम कराना हो तो वे अपने बच्चों को आपकी कृषि – योजना में नहीं, किसी एग्रीकल्चर कॉलेज में भेजेंगे या फिर घर पर रखेंगे।”

जयप्रकाश ने मार्क किया कि राजेश्वर की आवाज़ में कुछ कड़वाहट उभर आई है । अतः बराबर से हाथ डालकर उसने राजेश्वर का कुरता थोड़ा झटक दिया। राजेश्वर फौरन बात समझ गया। अतः आवाज़ में कोमलता लाकर बोला, “मैं आपसे बताता हूँ कि हमारे गाँव का एक लड़का इंटर में और दो लड़के हाईस्कूल में थे। इत्तिफ़ाक से तीनों फ़ेल हो गए। माँ-बाप ने सबब पूछा तो कहने लगे कि हमसे तो इम्तिहानों के दिनों में रबी की कटाई कराई है और मास्टर उत्तमचन्दजी ने हमसे सारे साल हल जुतवाया है- हम पास कैसे होते ?”

मास्टर उत्तमचन्द ने इस इलज़ाम का प्रतिवाद करते हुए तेज़ी से कहा, “ये बिलकुल फिजूल – सी बातें हैं ।”

” वही तो मैंने भी कहा,” राजेश्वर तुरन्त बोला, “भला कोई अध्यापक जान-बूझकर क्यों अपने स्टूडेंट्स का साल ख़राब करेगा ! मगर वे कहने लगे कि साहब, जब प्रेसीडेंट और वाइस प्रेसीडेंट साहब के हल-बैल आते थे तो उनके नौकरों को उत्तमचन्दजी यह कहकर छुट्टी दे देते थे कि तुम जाकर और काम देखो, और हल हमें जोतना पड़ता था।

“ हद हो गई ।” उत्तमचन्द ने बेचैनी से कहा ।

“वही तो ।” राजेश्वर ने आगे कहा, “वह तो कहिए मेरी वजह से उनके माँ-बापों ने फिर उन्हें यहाँ भेज दिया वरना लड़के बिलकुल तैयार न थे। कहते थे कि साहब, कृषि योजना की सारी हरी फ़सल – जैसे चरी, मटर और जौ-चने-तो बिना बटाई के ही कट-कटकर इधर-उधर चले जाते थे ।”

इस पर जयप्रकाश उठ खड़ा हुआ, बोला, “उनकी बकवास को छोड़िए मास्टर साहब, शुरू-शुरू में मेरे मन में भी इसे लेकर शंका उत्पन्न हो गई थी। मगर अपने मन में हम सच्चे हों तो दुनिया आलोचना करती फिरे, क्या होता है ? अब हमें तो इस कृषि योजना के हित को देखना है, चलाना है। इसलिए कोई सुझाव आपके पास हो तो दीजिए।”

सहसा उत्तमचन्द को कुछ राहत मिली।

राजेश्वर ने कहा, “जी हाँ, इस पचड़े में खास बात तो रह ही गई। हाँ, तो मैं यह कह रहा था कि हमारे प्रिंसिपल साहब ने कृषि-योजना की जो पैदावार हमारे सामने रखी उससे स्पष्ट है कि वर्तमान स्थिति में इससे हमें कोई लाभ नहीं है। पिछले साल कुल दो सौ मन अनाज हुआ था जिसमें से सौ मन हल-बैलों की बटाई का निकल गया और पिछले और अगले साल का बीज निकाल देने के बाद हमारे पास लगभग सत्तर मन अनाज बचा। उसमें से भी ज़मीन का लगान, खाद और सौ विद्यार्थियों की एक साल की मज़दूरी निकाली जाए तो कॉलेज को हज़ार-पाँच सौ रुपए का घाटा ही बैठेगा। ऐसी सूरत में यह आवश्यक है कि इस साल हम हल-बैलों की बजाय खेतों की जुताई ट्रैक्टर से कराएँ जिसका खर्च बैलों की अपेक्षा आधे से भी कम पड़ेगा। और ट्रैक्टर का इन्तज़ाम मुझ पर छोड़ दीजिए।”

मगर राजेश्वर की लाभदायक बात उत्तमचन्द ने पूरी नहीं सुनी। उनके सिर में दर्द होने लगा था, बोले, “माफ़ कीजिए, मास्टर साहब ! ये बातें हम फुरसत से फिर कभी करें तो ज़्यादा अच्छा रहे। तब तक मैं प्रेसीडेंट साहब से भी मिल लूँगा । हाँ, अपने ड्यूटी चार्ट्स के बारे में आप लोग कुछ पूछना चाहें तो मैं शाम तक यहाँ हूँ।”

“नहीं, नहीं।” जयप्रकाश ने तुरन्त कहा, “आपकी तबीयत ठीक नहीं लग रही, मास्टर साहब ! आप आराम कीजिए। हमें तो जो पूछना है कल भी पूछ सकते हैं।”

और इसी के बाद एक-एक कर सारे अध्यापक कमरे से बाहर चले गए । केवल पवन बाबू रह गए वहाँ ।

अचानक कमरे का सन्नाटा भंग करते हुए पवन बाबू बोले, “अरे मास्टर साहब! किस सोच में पड़ गए ?”

“कुछ नहीं, ऐसे ही जयप्रकाश की बात का ख़याल आ गया था । देखा नहीं तुमने, राजेश्वर को सिखा-पढ़ाकर लाया था और मीटिंग में मीठी-मीठी चुटकियाँ रहा था। सोचता है कि मैं कुछ समझता ही नहीं । हूँ… !”

पवन बाबू ने एकदम गोल-गोल आँखें इधर-उधर घुमाते हुए कहा, “एक चीज़ हो सकती है। दीनदयाल के ज़रिए आज की सारी बातें प्रेसीडेंट के पास पहुँचवा दी जाएँ ।”

“इसमें पकड़ की कौन-सी बात है ?” उत्तमचन्द ने झल्लाकर कहा। दरअसल उन्हें जयप्रकाश के मिठवेपन से चिढ़ थी और आज की मीटिंग में जयप्रकाश ने कोई पकड़ में लाने लायक़ बात नहीं की थी।

निराश हो पवन बाबू बोले, “क्या करूँ, मास्टर साहब, एकाउंट्स का मामला न हुआ, नहीं तो साले को ऐसा गच्चा देता कि अब तक एक लाख की बिल्डिंग में नज़र आता। याद है, पिछले प्रिंसिपल को…”

“हाँ, हाँ, याद है।” पवन बाबू की गर्वोक्ति पर ध्यान न देते हुए उत्तमचन्द ने धीरे-से कहा, “एक दाँव मैंने सोच लिया है, तुम्हें आठ-दस लड़के तैयार करने पड़ेंगे।”

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