Contents
- 1 11. सूरत अधिवेशन में जाना
- 2 12. स्वराज्य दिवस मनाना
- 3 13. पुदुचैरी प्रवास व स्वदेशी का संबोधन पाना
- 4 14. देशभक्त क्रांतिकारी वांछीनाथन द्वारा कलेक्टर एश की हत्या
- 5 15. युवा शक्ति को स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ना
- 6 16. नीलकंठ ब्रह्मचारी
- 7 17. भारती और युवा खून
- 8 18. धनवान व धनहीन के समान रूप से दुलारे
- 9 19. भारती और देश की शीर्ष हस्तियाँ
- 10 20. बच्चों के साथ भारती
सुब्रह्मण्यम भारती : व्यक्तित्व और कृतित्व : मंगला रामचंद्रन part 2
11. सूरत अधिवेशन में जाना
‘आओ-आओ विजयी हाथों के साथ
आओ-आओ विनम्र शब्दों के साथ
आओ-आओ महान कार्यों को करना है
लोगों को एकता और शांति के जीवन में ढालना है।’
सन 1907 में सूरत (गुजरात) में काँग्रेस का अधिवेशन हुआ। तभी कोलकाता में बम बनना शुरू हुआ। जिससे पूरे देश में हलचल मच गई। वैसे कोलकाता के बाद नागपुर में अधिवेशन होना था।
जिन लोगों ने त्याग किए थे, शहीद हुए थे और देशप्रेम की मिसाल कायम की थी उनकी उपेक्षा की गई और नरम रवैया अपनाया जा रहा था। नागपुर के नेताओं को यह कदापि मंजूर नहीं था। इसीलिए गुजरात के सूरत शहर, जो कि नरम दल का गढ़ था, में अधिवेशन करने का तय किया। जिन वीरों ने त्याग किए या करने आगे आए उनकी अगुवाई लोकमान्य तिलक ने की। भारतीजी भी तिलक के अनुयायी थे। कलकत्ता में अँग्रेज सरकार के खिलाफ जो निश्चय किए गए, लो. तिलक उन्हें बदलने के पक्ष में नहीं थे। तिलक का पक्ष मजबूत करने के लिए भारतीजी के साथ सौ लोगों का जत्था तमिलनाडु से गया था।
सूरत में जो काँग्रेस का अधिवेशन हुआ वो भारतीजी के लिए यादगार बन गया था। भारतीजी ने कभी लोकमान्य तिलक को देखा नहीं था, बस उनके विचारों को जानकर ही उनके प्रति श्रद्धा हो गई थी। यहाँ उनको देखने, उनसे मिलने के विचार से उत्साहित और उत्तेजित थे। इस समय वहाँ बहुत बारिश हुई थी जिससे अधिवेशन के स्थान से ठहरने के स्थान तक सड़क बहुत खराब हो गई थी। श्री तिलक ने बहुत से कारीगरों को काम पर लगा कर उसे दुरुस्त करवाने का जिम्मा उठाया। भारतीजी अपने आवास से निकलकर अपने श्रद्धामूर्ति को खोजते रहे। तिलक कहीं नहीं मिले तो निराश होकर अपने कमरे की ओर हताश से भरे लौट रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि ढेरों कारीगर रास्ते को सुधार रहे हैं और एक व्यक्ति छाता लगाए उनकी निगरानी कर रहा है। थोड़ा पास आने पर कुछ शंका सी हुई और भारतीजी उस व्यक्ति के ठीक सामने आ गए। उस व्यक्ति की प्रदीप्त, आग उगलती आँखों को देख उन्हें तनिक भी शंका न रही और वो उस व्यक्ति (तिलक) के पाँव पर साष्टांग प्रणाम की मुद्रा में आ गए। भारती ने बाद में जब भी इस वाकए को किसी को बताया तो ये बताना नहीं भूले कि श्री तिलक की दोनों आँखों में आजादी की आग की भूख दिख रही थी। भारतीजी के मन में तिलक से मिल कर उनके प्रति सम्मान और बढ़ गया।
1905 का वर्ष एक खास अहमियत रखता है क्योंकि यही वह समय था जब पूरे देशवासियों की तंद्रा भंग हुई। यहीं से आजादी के लिए उनकी छटपटाहट प्रारंभ हुई थी। बंगाल के बँटवारे और श्री बाल गंगाधर तिलक द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए किए जा रहे प्रयत्न का ही यह नतीजा था। लोगों का स्वाभिमान जागने लगा था और इस आग में सब उतरने को तत्पर होने लगे। सूरत में अधिवेशन बुरी तरह असफल रहा और काँग्रेस के दो दल बन चुके थे। नरम और गरम दल। गरम दल (श्री तिलक वाला) के लोग कर्म में विश्वास करते थे। स्वतंत्रता को भीख की तरह नहीं पाना चाहते थे।
सन 1906 में पंजाब के लाला लाजपत राय और सरदार अजितसिंह को गिरफ्तार कर बर्मा (रंगून) भेज दिया गया। भारतीजी ने ‘लाजपत का प्रलाप’ नाम से एक लंबा गीत लिखा और उसे गाया। 1907 में तिलक दल ने लाजपत राय को काँग्रेस अध्यक्ष बनाने की मंशा जाहिर की। पर अँग्रेज सरकार के भड़क जाने के डर से नरम दल राजी नहीं हो रहा था। तभी रंगून से रिहा होकर लाला लाजपत राय सीधे सूरत अधिवेशन में पहुँच गए।
सूरत काँग्रेस में उग्रवादी दल की पैरवी करने वाली पत्रिकाओं के संपादकों ने मिलकर एक शैली अपनाने का फैसला किया। जिसके तहत पूरे देश में समरूप और संयुक्त रूप से कदम उठाये जाएँ। जिससे सरकार की ज्यादती के खिलाफ पूरे देश में एक साथ विरोध किया जाएँ। वरना उसको उस खास जगह एक छोटे विरोध के रूप में दमित कर दिया जाता था। चेन्नै का भार भारतीजी ने उठाया और लगातार उसके लिए प्रयासरत रहे। शारिरिक रूप से कमजोर दिखने वाले दुबले-पतले भारतीजी मन से बहुत बलशाली और प्रबल इच्छाशक्ति वाले थे। सूरत काँग्रेस के बाद उग्रवादियों की सोच के अनुरूप भारती और उनके युवा मित्रों ने मिलकर ”चेन्नै जनसंगम” नाम से एक दल बनाया। स्वदेशी वस्तुओं की बिक्री के लिए ”भारत भंडार” नामक दुकान भी प्रारंभ की।
12. स्वराज्य दिवस मनाना
‘स्वतंत्रता की हमारी प्यास न जाने कब बुझेगी
गुलामी से आजादी का वरदान कब मिलेगा’
उग्रवादी दल ने सन 1908 में तय किया कि एक खास दिन को पूरे देश में एक साथ ‘स्वराज दिन’ मनाना होगा। उसे शानो-शौकत से मनाने के लिए चेन्नै में कई मोहल्लों से जुलूस निकाला गया। भारती की ‘जनसंघम्’ दल ने तय किया कि सारे जुलूस समुद्र के किनारे इकट्ठा होंगे। पिछले कुछ दिनों में उन्होंने सुबह-शाम छोटे-छोटे झुंडों में छात्रों और अन्य लोगों में प्रचार का काम कर उन्हें तैयार कर लिया था। इस कार्य में उनके साथी सुरेंद्रनाथ आर्य व अन्य युवा साथी भी थे।
जिस समय अलग-अलग मुहल्लों में जुलूस जमा होकर छोटी-छोटी गलियों से समुद्र किनारे जा रहे थे, भारती अपने मन में कुछ अलग ठान कर रखे हुए थे। वे बैंड-बाजे के साथ गले में फूलों की माला पहने हुए राजमार्ग से निकले। इसके लिए उन्होंने लाइसेंस की अर्जी भी दी थी, हालाँकि मंजूरी की पावती प्राप्त नहीं हो सकी थी। बैंड दल के सदस्य हिचक रहे थे कि गिरफ्तार न हो जाएँ। भारतीजी ने उन्हें साहस दिला कर कहा – ‘भाइयों मैं हूँ ना, आप चिंता छोड़ दो।’
अचानक बैंड-बाजों के साथ निकले जुलूस से हक्का-बक्का रह गई पुलिस कुछ समझ पाती तब तक वे लोग समुद्र किनारे पहुँच गए। वहाँ पर विभिन्न छोटे-छोटे दल जमा होकर एक बड़ा जन सैलाब बन गया था। जिसका पुलिस दल कुछ बिगाड़ न सकी।
समुद्र किनारे रेत पर हुई विशाल और महत्वपूर्ण सभा में भारतीजी ने जिस ओजपूर्ण तरीके से भाषण दिया, कविताएँ सुनाई उसे सुन कर ब्रिटेन से आए पत्रकार हेनरी डब्ल्यू नेवीनसन बहुत प्रभावित हुए। वे भारतीजी से मिले भी। अपनी लिखी पुस्तक ‘भारत में नई आत्मा का उदय’ में भारतीजी के उद्बोधन को ‘समुद्रतट पर’ शीर्षक से विस्तार से गतिविधियाँ लिखी हैं। किस तरह वंदे मातरम के तमिल तरजुमे को एक बच्चे ने गाकर कार्यक्रम प्रारंभ किया। भारती ने सबसे प्रथम ‘लाजपत का प्रलाप’ कविता को गाया। लाला लाजपत राय को गिरफ्तार कर देश निकाले की सजा हुई थी तब उन्होंने इसे रचा था। यह गीत एक तरह से सभी देशभक्तों के लिए आदरांजलि की तरह था, जिन्हें भी सजा हुई थी।
दूसरा गीत ‘होमरूल’ पर व्यंग्य भरा संभाषण था। तीसरा गीत अँग्रेजों को उत्तर देता हुआ भारतवासी के मन की बात ‘आजादी की शान’ नामक गीत था। बाद में कुछ और लोगों ने भी भाषण दिए। अंत में ‘वंदे मातरम’ के जोरदार उद्घोष के साथ विसर्जित हुई।
पत्रकार नेवीनसन ने पूरे समय कार्यक्रम में बने रह कर इसका वर्णन किया है। जोशो-खरोश से भरे इतने सारे युवाओं की संख्या थी फिर भी बड़े सलीके और तरीके से कार्यक्रम निपट गया, जिसका उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। अपनी पुस्तक में इस अध्याय में उन्होंने पूरी घटना को विस्तार से लिखा तथा भारती के तीनों गीतों का अनुवाद भी दिया है। उनको इन सबसे बड़ा आश्चर्य तो ये हुआ कि पहले से सारी जानकारी होने के बाद भी एक भी पुलिस अफसर तो क्या सिपाही भी नहीं था। तभी वो समझ चुके थे कि भारतीजी में स्वतंत्रता की चेतना अपने उफान पर है और वे इसको जीतने के लिए किसी भी अंत तक जा सकते हैं।
सन 1908 में चेन्नै में भारतीजी और उनके साथियों ने सफलतापूर्वक ‘स्वराज्य दिवस’ मनाया। पर तूतूकुडी, तिरूनेलवेली आदि जगहों पर इस दिन बहुत उथल-पुथल मची। तिरूनेलवेली जिले में व.उ. चिदंबरम पिल्लै तथा उनके साथी सुब्रमण्यम शिवम ‘स्वराज्य दिवस’ मनाने की पूरी तैयारी में थे। चिदंबरम एक स्वदेशी जहाज को चलाने की कोशिश में कामयाब हो गए। जिसे देख कर अँग्रेज कुछ भयभीत से थे और उन्होंने तूतूकुड़ी के सब कलेक्टर को सख्त कदम उठाने का आदेश दे दिया। चिदंबरम और शिवम दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। यह कुछ इस तरह हुआ कि भीड़ बेकाबू हुई और भगदड़ मच गई, आगजनी हुई, पुलिस की ओर से गोलियाँ चली। इसमें काफी निर्दोष जनता हताहत हुई। तीन दिन तक जनता अँग्रेजों का विरोध करती रही। दोनों नेताओं को जेल में डाल दिया गया। उसी समय पंजाब में लाला लाजपत राय और अजित सिंह को गिरफ्तार किया था।
इन हालातों को लेकर भारतीजी ने अपने गुरुवर श्री बाल गंगाधर तिलक को 29 मई 1908 को विस्तार से पत्र लिखा था। दक्षिण भारत की सारी राजनैतिक गतिविधियों का ब्यौरा दिया। इसमें हिंदी कक्षाएँ चल रही थी ये भी बताया। साथ ही आगे चल कर सामूहिक रूप से क्या-क्या कदम उठाने होंगे ये जानकारी भी उनसे माँगी गई थी?
सन 1908 से ही अँग्रेजों के विरुद्ध आवाज तेज होती जा रही थी। पत्र-पत्रिकाओं के मालिक, संपादक व अन्य कर्मचारियों की गिरफ्तारियाँ होने लगी। पत्र-पत्रिकाएँ ही अपने लेखों और कविताओं से जनता को उग्र होने के संदेश दे रही थी। ‘स्वदेश मित्रन’ जहाँ भारतीजी ने सबसे पहले कार्य किया था, के संपादक जी. सुब्रमण्यमन को गिरफ्तार कर लिया। अंदेशा हो गया था कि अब भारतीजी की गिरफ्तारी दूर नहीं है। हुआ भी यही, ‘इंडिया’ पत्रिका के संपादक की गिरफ्तारी का वारंट निकल गया। पुलिसवाला वारंट लेकर पत्रिका के दफ्तर पहुँचा और सीढ़ी चढ़ने लगा। भारतीजी सीढ़ी से नीचे उतर ही रहे थे। पुलिस ने उन्हें वारंट थमाया। वारंट को गौर से देखा, पढ़ा। संपादक के नाम का वारंट था। भारतीजी बोले – ‘मैं संपादक नहीं हूँ’ और सहज रूप से चले गए। भारतीजी ‘इंडिया’ का संपादकीय दायित्व अवश्य निभा रहे थे पर संपादक का नाम मु. श्रीनिवासन का जाता था। असल में ‘इंडिया’ पत्रिका के मालिक श्री एस.एन. तिरूमलाचार्य के गहरे और खास दोस्त थे श्रीनिवासन सो उन्हीं का नाम संपादक की हैसियत से रहता था। पुलिस उन्हीं को गिरफ्तार कर ले गई। इसके बाद पत्रिका के खास व्यक्ति भारतीजी का ही नंबर आता था। भारती के कुछ मित्र पुलिस इलाके से सूचना दिया करते थे। उनसे पता चला कि उनकी गिरफ्तारी कभी भी हो सकती है। उनके साथियों और नेताओं ने आपस में सलाह-मशविरा किया। ये तय किया गया कि भारती चेन्नै में और न रहें। फ्रेंच आधिपत्य वाली पुदुचैरी उनके लिए सुरक्षित रहेगी। वहाँ के एक पहचान के मित्र को पत्र लिख कर भारती को दिया और पुदुचैरी (पाँडिचेरी) भेजा।
ये प्रश्न हमेशा उठता रहा कि भारती श्रेष्ठ कवि हैं या देशभक्त। उनके जैसा ओज-तेज भरा युवा देश के हालात से अपने को अलग करके नहीं देख सकता था। सूरत से लौटकर ‘इंडिया’ पत्रिका में उन्होंने तिलक की बताई राह और सिद्धांत का जमकर अनुमोदन किया। सन 1908 में तिलक को छ वर्ष की सख्त सजा हो गई। उसके बाद उनके साथ के बड़े-बड़े नेता गिरफ्तार किए जा रहे थे। तमिलनाडु में ‘इंडिया’ पत्रिका पर वैसे भी नजर रखी जा रही थी। पहली गाज पत्रिका के प्रकाशक पर गिरी। इस समय भारती के शुभचिंतक और दोस्त समझ गए थे कि अब भारती की बारी है। भारती के लिए नाजुक समय था और दोस्त नहीं चाहते थे कि वे पकड़े जाएँ। कई लोगों ने इसे भारती की कायरता समझा जबकि वे गिरफ्तार होने को तैयार थे। मित्रों के हिसाब से गिरफ्तारी के लिए समय सही नहीं था। उन्हें अपनी वाणी और लेखनी से बहुत कुछ करना था।
13. पुदुचैरी प्रवास व स्वदेशी का संबोधन पाना
‘स्वप्नों का एक नगर है वहाँ
जहाँ परियाँ खेलती कूदती हैं। एक देश सपनों का भारत के नाम से वहाँ रहने वाले और आस-पास के सब प्रसन्न रहें।’
1908 में भारती को समझा बुझा कर पुदुचैरी (आज का पाँडिचेरी) भेजा गया। फ्रेंच सरकार के कब्जे में होने से अँग्रेज सरकार वहाँ उनका कुछ नहीं कर पाएँगी। पर पुदुचैरी पहुँच कर उन्होंने जो मानसिक संताप झेला वो भारतीजी के अनुसार अँग्रेजों की जेल से अधिक कष्टकारी ही था। वहाँ लोग उन्हें भगोड़ा और डरपोक मान रहे थे जो गिरफ्तारी के डर से भाग कर वहाँ छुप गया है। उनको कोई न घर में प्रवेश देने को तैयार था ना ही सार्वजनिक स्थान पर उनके साथ बैठने को। भारतीजी को समझ नहीं आ रहा था कि तमिल भाषी लोग जो उनके नाम से परिचित थे दूर क्यों भाग रहे हैं। भारती को डरपोक मानने वाले वास्तव में वही डरपोक थे।
जब भारती पुदुचैरी जा रहे थे तब पत्नी चेल्लमा गर्भावस्था के आखिरी चरण में थी। उसका दूसरा शिशु जन्म लेने वाला था। ‘स्वदेशमित्रन’ में कार्य करते हुए उनकी प्रथम पुत्री तंगम (अर्थात स्वर्ण) का जन्म हुआ था। भारतीजी को पत्नी के स्वास्थ्य की चिंता हो रही थी। उस समय उनके साले साहब के.आर. अप्पादुरै ने भारतीजी को दिलासा और हौसला देते हुए कहा – ‘आप परिवार की चिंता मुझे सौंपकर जाइए। मेरे लिए मेरी बहन उसके बच्चे भारस्वरूप नहीं होंगे। देश और उसकी जनता को आपकी अधिक आवश्यकता है।’
अप्पादुरै पोस्टमास्टर की नौकरी कर रहे थे। देश सेवा के लिए उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी। बहन चेन्नमा को अपने गाँव कडैयम ले गए। वहीं उनकी दूसरी पुत्री का जन्म हुआ। उस समय भारतीजी शाकुंतल का अध्ययन कर रहे थे सो पुत्री का नाम शकुंतला रखा। जब बच्ची छ माह की हो गई तो चेल्लमा भी बच्चों को लेकर पुदुचैरी पहुँच गई।
पुदुचैरी में भारतीजी के साथ जो बर्ताव हो रहा था, उसी समय उनके दोस्त म. श्रीनिवासचारी पुदुचैरी पहुँच गए। देशभक्तों का ये विचार था कि ‘इंडिया’ पत्रिका को वही से निकाला जाए। इस विचार पर अमल करते हुए सारा साजो सामान वहाँ पहुँचा दिया गया। एक किराए का मकान लेकर वहीं से पत्रिका का प्रकाशन पुनः प्रारंभ किया। भारती नई सोच के प्रगतिशील विचारों के, अपने समय से आगे की सोच रखने वाले कवि-लेखक थे। सो ‘इंडिया’ पत्रिका के लेख आदि सरकार की आँखों में आने ही थे। खास कर उनकी एक कविता ने तो सरकार की आँखों में उनको बहुत बड़ा अपराधी बना दिया। प्रसिद्ध कविता है :-
एन्रू तणीयूम इंद स्वतंत्र दाकम
एन्रू मडीयूम एगंल अडिमैयीन ‘मोकम’?
अर्थात – कब कम होगी ये स्वतंत्रता की प्यास
कब मिटेगा गुलामी का संत्रास?
असल में ‘मोकम’ का मतलब ‘मोह’ होता है। भारतीजी की बात का भावार्थ था कि हम दासता के जीवन को भी साधारण रूप से सामान्य मान कर गुजार रहे हैं। इस तरह हमें गुलामी से भी एक तरह का मोह हो गया है जबकि वो एक कलंक और संत्रास का जीवन है। भारतीजी की सोच और वाणी से सरकार सरकार कुछ भयभीत होने लगी। उनकी नई सोच प्रणाली और भयमुक्त होकर मन की बात को खुल कर बोलने से जहाँ अँग्रेज सरकार उनसे रुष्ट थी वहीं जनता भी नाराज थी। भारतीजी की कलम जो आग उगलती थी उससे उत्तेजित होकर ब्रिटिश पुलिस जनता को भी परेशान करती थी। यहाँ तक कि ‘इंडिया’ पत्रिका को पढ़ना तो सब चाहते थे पर छुप-छुप कर। भारती इस बात को हास्य स्वरूप कहते – ‘मेरी पत्रिका से सब प्रेमिका की तरह छुप-छुप कर मिलना चाहते हैं’ या ‘पत्रिका को एक रहस्यमयी आदर मिलता है।’
‘इंडिया’ पत्रिका को कितने तरह के दबावों के, कष्टों के बीच जारी रखा गया था ये भारतीजी और उनके साथी ही बता सकते हैं। ऊपर से आर्थिक संकट तो सबसे बड़ा, महासंकट था ही। अँग्रेजी सरकार के मातहत जो भारतीय सरकारी कर्मचारी थे सदा पत्रिका के प्रकाशन में अड़ंगा लगाने की तरकीबें सोचते रहते। डाकखाने से पत्रिका को भेजने में देरी करना और अधिकांश समय भेजना ही नहीं, यूँ ही पड़े रहने देना। मनी ऑर्डर कूपनों से पता प्राप्त कर पुलिस ग्राहक के घर पहुँच जाती। उसको धमकाती कि पत्रिका लोगे तो गिरफ्तार कर लेंगे। मनी ऑर्डर से जो पैसे पत्रिका को पहुँचने चाहिए वो पहुँचते ही नहीं। इन हालातों में पत्रिका का निरंतर प्रकाशन असंभव हो गया। पत्रिका के कर्मचारी और भारती कंगाल ही रहे। भारतीजी जैसे उत्साह और जोश से भरे व्यक्ति का साहस भी जवाब दे गया। सो ‘इंडिया’ पत्रिका का प्रकाशन बंद करना पड़ा। क्योंकि भावना और जोश के सहारे तो पत्रिका चल नहीं सकती।
न जाने क्यों हमारे देश में देशभक्ति का जज्बा गरीबों या साधनहीन में ही अधिक होता है। उस समय भी भारतीजी और उनके साथी जेल या फाँसी या किसी भी सजा के लिए मानसिक रूप से तैयार ही थे। जोश और भावनाएँ ही एक तरह से इन देशभक्तों के लिए उत्साह का स्रोत होता था।
पत्रिका के बंद होने से कुछ पहले ही भारतीजी का ठिकाना बदल दिया गया। जिससे उनका कार्य अबाध गति से चलता रहे। उनके मन में कभी भी ऊँची-नीची जात के फर्क का ख्याल था ही नहीं। वे एक चेट्टियार के यहाँ रहने लगे। वो इतने अच्छे व्यक्ति थे और भारतीजी से प्रभावित भी। उन्होंने कभी भी मकान किराया का पैसा माँगा ही नहीं। भारतीजी के आर्थिक संकट को वे जानते समझते थे। भारतीजी संगीत रसिक भी थे और स्वर लगाकर अच्छे से गाते भी थे। चेट्टियार उनके गाने को चुपचाप सुनते और फिर वहाँ से चले जाते। वो घर और खास कर घर का वो हिस्सा जहाँ भारतीजी रह रहे थे, कई प्रकार की गतिविधियों का अड्डा बन गया था। वहाँ संगीत, विचार विनिमय, अन्नदान, ज्ञानोपदेश मंच और इन सबके द्वारा स्वतंत्रता की भावना को बढ़ावा और उसके लिए युक्तियों की खोज। इन सारी बातों के लिए मानों वो जगह मंच या प्रेक्षागृह का कार्य संपादन कर रही थी।
सन 1909 में द. अफ्रीका में भारतीयों के साथ हुए अमानवीय व्यवहार के विरोध में बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी ने आवाज उठाई, सत्याग्रह किया। तभी भारतीजी गांधीजी की महत्ता पहचान गए थे। ‘इंडिया’ पत्रिका में उनके कदम की सराहना करते हुए लेख भी लिखा। द. अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों की सहायतार्थ निधि इकट्ठी की और अपनी तरफ से भी रकम मिला कर द. अफ्रीका भेजा।
वहाँ गांधीजी को गिरफ्तार किया गया जिसकी निंदा करते हुए ‘इंडिया’ के 18 दिसंबर 1909 अंक में एक कार्टून छापा। गांधीजी को गाय का रूप देकर, द. अफ्रीका के उद्योगपतियों को शेर का रूप दिया।
बाद में तो उन्होंने गांधीजी की महानता पर गीत बना कर गाए। पर 1909 में ही उनकी महत्ता को पहचान लेना भारतीजी की दूरदर्शिता को ही बताता है। स्वामी विवेकानंद अपने अंतिम समय में बहुत परेशान थे कि भारत के भविष्य का क्या होगा? पर भारतीजी को गांधीजी पर पूरा-पूरा भरोसा हो गया था। तभी उन्होंने भविष्यवाणी कर दी थी कि पूरी दुनिया गांधीजी के बताए मार्ग पर चलना चाहेगी। उनके साथियों को उनकी दूरदर्शिता और बुद्धिमानी पर आश्चर्य होता था।
जब ‘इंडिया’ पत्रिका का प्रकाशन चेन्नै में रोका गया, तब ‘विजया’ नाम से एक दैनिक का प्रकाशन प्रारंभ किया गया। ‘विजया’ के तीक्ष्ण अग्रलेख और अन्य सामग्री से सरकार ने अड़ंगे लगाने प्रारंभ कर दिए थे। सो बाद में ‘विजया’ को भी पुदुचैरी से प्रकाशित किया जाने लगा। सन 1909 के कृष्णजयंती से इसका प्रकाशन शुरू हो गया था। बाद में ‘इंडिया’ के बंद होते समय ‘विजया’ भी समाप्त हो गई। उस समय भारतीजी और उनके मित्र जोश खरोश में थे और जनता के मन में स्वतंत्रता प्राप्ति की ललक बढ़ा कर उन्हें इसमें प्रत्यक्ष हिस्सा लेने के लिए बाध्य कर रहे थे। इसके लिए अनेकों अन्य पत्रिकाएँ भी निकालने की योजना बनाई गई थी। जिनमें से एक ‘चित्रावली’ नामक पत्रिका थी, जिसमें कार्टून और चित्रों के माध्यम से सरकार से लड़ाई लड़ी जा रही थी। बच्चों के मन में देश प्रेम, बलिदान, चरित्र निर्माण के अन्य गुणों को विकसित करने हेतु ‘बाल भारत’ पत्रिका भी निकाली गई।
‘चित्रावली’ में तमिल और अँग्रेजी दोनों भाषाओं के संकेत थे। पर इसका कोई सबूत बाद में नहीं मिला। अगर सबूत मिल जाता तो यह भारत की प्रथम संपूर्ण कार्टून पत्रिका होती। सारी ही पत्रिकाएँ सन 1910 के अंत तक एक-एक करके बंद करवा दी गईं।
सन 1909 सितंबर में श्रीकृष्ण जयंती को भारतीजी ने अपनी स्वयं की पत्रिका ‘कर्मयोगी’ प्रारंभ करने की तैयारी की थी। पर वो संभव नहीं हुआ और सन 1910 पोंगल से ही प्रारंभ हो पाया। ‘कर्मयोगी’ कला और साहित्य की उच्चस्तरीय मासिक पत्रिका थी। धर्म, कला, उद्योग, शास्त्र, राजनीति आदि का भी स्तरीय, संतुलित समावेश था। भारतीजी की स्पष्ट, दूरदर्शी शैली की छाप साफ समझ आ जाती थी।
पिछले अनुभवों में जहाँ संपादक का कार्य करते हुए भी उनका नाम नहीं जाता था वे कुछ हतोत्साह थे। ‘कर्मयोगी’ में वो जैसा चाह रहे थे उसी तरह से कर पा रहे थे। उनके हाथ बँधे हुए नहीं थे और संपादक की जगह उन्हीं का नाम था – सी. सुब्रमण्यम भारती। गरिमापूर्ण रूप से गर्वित होने के लिए इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता था। उनको पैसे और अन्य भौतिक वस्तुओं की चाह ही कहाँ थी?
पत्रिका का मुखपृष्ठ अनायास ही किसी का भी ध्यान खींच सकता था। श्रीकृष्ण रणभूमि में रथ के सारथी बने हुए अर्जुन को गीतोपदेश दे रहे हैं। पीछे सेना का एक बड़ा भाग भी दिख रहा है। इस मुखपृष्ठ के लिए उन्होंने पतरे और लकड़ियों की सहायता से प्रारूप बनाया था। ऐसा नवीन, विहंगम मुखपृष्ठ और उसी अनुसार अंदर की गहन चिंतन भरी सामग्री, जिसे लोगों ने अत्यधिक पसंद किया।
भारतीजी की ‘इंडिया’ का प्रकाशन बंद होने के बाद की बात है। सन 1910 में कोलकाता से बाबू अरविंद घोष पुदुचैरी पहुँच गए। अरविंद घोष के पुदुचैरी में पदार्पण और गुप्त प्रवास की योजना और तैयारी म. श्रीनिवासचार्य तथा भारतीजी ने की थी।
हालाँकि इसका सूत्रपात कुछ पहले ही हो चुका था। उस समय अरविंद घोष देश के प्रमुख नेताओं में से थे। बंगाल के माणिक टोला ‘बम कांड’ में उनको व उनके अनेक साथियों को गिरफ्तार किया था। कोर्ट में सबूत के अभाव में उन्हें बरी कर दिया गया था। इस बीच उन्होंने जो थोड़ा समय सलाखों के पीछे काटा उसने एक तरह से उनके ज्ञानचक्षु खोल दिए। अपने साथियों और अन्य देशभक्तों को जेल में देख कर मानों उन्हें कृष्ण के दर्शन हुए। उनका मन योग और साधना में रमने लगा। जेल से बरी होते ही उन्होंने अँग्रेजी में एक साप्ताहिक पत्रिका प्रारंभ की जिसका नाम रखा ‘कर्मयोगिन’। उनकी योग साधना भी बराबर चलती रहती थी जिसे सरकार और पुलिस ढोंग मानती थी और लगातार परेशान करती थी।
इसी समय स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी में हिस्सेदारों को जोड़ने के लिए श्रीनिवासचार्य के छोटे भाई पार्थसारथी उत्तर भारत की ओर गए। तभी भारतवर्ष की पूर्व दिशा में स्थित कोलकाता भी गए और अरविंद घोष से मिले। कंपनी की बातों के अलावा दक्षिण भारत की राजनैतिक गतिविधियों की जानकारी भी दी। ये भी बताया कि भारतीजी की ‘इंडिया’ पत्रिका बिना किसी अड़चन के पुदुचैरी से अबाध गति से प्रकाशित हो रही है। यही युक्ति अरविंद घोष को ठीक लगी।
सन 1910 मार्च महीने में एक बंगाली युवक अरविंदजी का एक पत्र लेकर पार्थसारथी के पास पहुँचा। पत्र में किस दिनांक को आएँगे ये लिखा था और फ्रेंच जहाज में आएँगे ये भी लिखा था। उन्हें जहाज से लेकर जाना और पुदुचैरी में छुप कर रहने की व्यवस्था करवाने की बात लिखी थी। इस पत्र को श्रीनिवासचार्य ने भारती को दिखाया। इन दोनों ने उनको शंकर चेट्टियार के घर तीसरी मंजिल पर सुरक्षित स्थान पर ठहराया। उनके वहाँ आ जाने के दो महीने बाद ही ब्रिटिश पुलिस को उनका सुराग मिला।
अरविंद घोष को पुदुचैरी आए छ महीने हुए थे तब एक दाढ़ी वाले मुसलमान सज्जन भी पुदुचैरी पहुँच गए। उन्होंने अपने आगमन को पुलिस से छुपाया भी नहीं। ये थे तिरूच्चि के श्री व.वे.सू. अय्यर। बैरिस्टर की शिक्षा के लिए लंदन गए थे। लंदन में उनको टी.एस.एस. राजन, विनायक दामोदर सावरकर आदि का साथ मिला। जिससे वो भी अँग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह में शामिल हो गए। इनके दल के मदनलाल धींगरा नामक पंजाबी युवक ने करसन वेली नामक अँग्रेजी अधिकारी को लंदन में मार दिया था। इस हादसे के कारण सावरकर को भी कैद कर लिया था। व.वे.सू. अय्यर छुप गए और बाद में दाढ़ी वाले सरदारजी बन कर, अपना नाम वीर विक्रम सिंह बता कर निकले। बाद में कैरों में पाँच वक्त की नमाज पढ़ने वाले मुसलमान की तरह अभिनय किया। दक्षिण अमेरिका के ब्राजील देश को जाने का बहाना कर टर्की से कोलंबो (आज का श्रीलंका) आकर पुदुचैरी पहुँचे थे।
भारती, श्रीनिवासचार्य, अय्यर और अरविंद के बीच शाम के समय लगभग चार बजे से चर्चा और वार्तालाप का दौर प्रारंभ होता जो रात तक चलता। कला, साहित्य, राजनीति, दर्शन कोई भी क्षेत्र उनसे नहीं छूटता।
अरविंदजी से पहचान बढ़ जाने पर भारती भी वेद ऋषि के गीतों में रुचि लेने लगे। उनका तमिल में अनुवाद भी किया। ‘वेद ऋषि’ की कविताएँ तथा ‘पतंजलि योग सूत्रम्’ दोनों का अनुवाद स्वामी विवेकानंद ने अँग्रेजी में किया था। भारती ने तमिल में किया।
भारती जब से पुदुचैरी आए लगभग तभी से पुलिस सी.आई.डी की एक टुकड़ी वहाँ डेरा डाले रहती थी। खान बहादुर जी.एस. अब्दुल करीम गुरूवप्प रंगचारी अय्यंगार नायडू इस विभाग के अधिकारीगण थे। नायडू को तो भारती चेन्नै से जानते थे। संयोग से फ्रेंच सरकार का डाक विभाग ब्रिटिश शासन के अंतर्गत था। भारती और उनके साथियों की तथा पत्रिकाओं की डाक और मनीऑर्डर आदि से पते प्राप्त करना कठिन नहीं था। पत्रिका के ग्राहकों को भी चेन्नै और दूसरे स्थानों पर धौंस दी जाती थी। फिर भी ‘इंडिया’ पत्रिका अच्छे से चल रही थी। तभी ‘इंडिया’ में एक समाचार प्रकाशित हुआ – ‘चेन्नै में बना विमान’ जिसने सनसनी फैला दी। असल में टांजील्स होटल के फ्रेंच मालिक ने तमिल कर्मचारियों की मदद से सिंपसन कंपनी की फैक्ट्री में यह विमान बनवाया। जिन्होंने मेहनत की, अपनी सेवाएँ दी वे तमिल भाषी लोग थे, जिसका भारती को बेहद गर्व था। राइट बंधुओं ने जो विमान बना कर उड़ाया था उसे मात्र छ वर्ष ही हुए थे। चेन्नै में बने विमान ने भी उड़ान का सफल परीक्षण किया। भारतीजी चाहते थे कि भारतवर्ष की प्रतिभा को भी सब जानें। इसीलिए इस खबर को उन्होंने प्रमुखता से छापा।
इसी बीच उनको फ्रेंच आधिपत्य वाले इलाके से निकाल कर ब्रिटिश इंडिया इलाके में लाने के षड्यंत्र और प्रयास लगातार हो रहे थे। तिरूनेलवेली के तत्कालीन कलेक्टर एश ने एटैयापुरम् के राजा (जमींदार) को अपने साथ मिलाते हुए भारती के खिलाफ एक साजिश की। भारती के नाना को पुदुचैरी भेजकर भारती को वापिस लाने का काम था। साथ ही ये भी बताना था कि उनको राजा के यहाँ नौकरी भी मिलेगी। भारती के नाना रामस्वामी अय्यर, नानी तथा मामा सांबशिवम पुदुचैरी पहुँच गए और भारती को आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता में डाल दिया। पर उनके आने का उद्देश्यों जानकर वे दुखी हो गए। उन्होंने जमींदार की नीच मनोवृत्ति की भर्त्सना की और चेतावनी भी दे डाली कि उसकी मनोकामना पूरी नहीं होगी।
पर अपने नाना-नानी को पाकर बहुत खुश हुए और हँसी से दोहरे होते हुए बोले – ‘इस अँग्रेज एश ने मुझ पर जो करुणा की, मुझे अपने नाना-नानी से मिलवा दिया, इसके लिए उसका सम्मान किस तरह करूँ!’
हर घटना पर उनका मन स्वतःस्फूर्त कविताएँ रचने लगता था। इस घटना पर उन्होंने कविताएँ बनाईं, जिनमें भारतमाता के प्रति उनका स्नेह और कर्तव्य झलकता है। पुदुचैरी की जनता इन लोगों को स्वदेशी कह के संबोधन करती थी।
14. देशभक्त क्रांतिकारी वांछीनाथन द्वारा कलेक्टर एश की हत्या
‘अच्छे दिन आ रहे हैं
अच्छे दिन आ रहे हैं।
विभिन्न धर्म और जाति के लोग आपस में हिल-मिल रहे हैं।
आपसी कलह और झगड़े खत्म हो रहे हैं।
जब शिक्षित व्यक्ति पाप करता है
गलत करता है तो वो नीचे-नीचे पतन की ओर जाएगा ही।’
सन 1911 में कलेक्टर एश को देशभक्त वांछीनाथन ने मार दिया। चेन्नै पुलिस को शंका थी कि इस हत्या में पुदुचैरी में रहने वाले भारती, अरविंद व उनके साथियों का इसमें हाथ है। भले ही इस घटना में इनमें से किसी का भी हाथ न हो पर पुलिस और सी.आई.डी. ने पुदुचैरी में एक तरह से डेरा ही डाल दिया। छोटी-छोटी टोलियों में इन सभी के घरों के आस पास बैठे दिख जाते थे। कई बार भेष बदलकर कभी भारती के प्रशंसक बन कर, कभी रत्न बेचने वाले तो कभी पढ़े-लिखे अँग्रेजी जानने वाले विद्वान की तरह आकर उनसे देश के हालात पर भारती के विचार जानने आते। जो भी आता उनकी बुद्धि का कायल हो जाता कि वो ताड़ जाते थे कि सामने वाले की असलियत क्या है। साथ ही ऐसे अधिकतर लोग उनकी देशभक्ति और कविताओं से प्रभावित होकर उनके प्रति आदर से भर कर लौटते।
भारती पुदुचैरी में जिस मकान में रहते थे उसे छोड़ना पड़ा। पत्नी और दोनों बच्चियाँ आ गई थी सो उस मकान के सामने एक दो मंजिला मकान था उसमें रहने लगे। जिस दिन उन्होंने मकान बदला उसी रात को भयंकर समुद्री तूफान आया। सैकड़ों पेड़, मकान आदि गिर गए और बहुत नुकसान हुआ। जहाँ पहले रह रहे थे उस मकान की दीवार भी गिर गई थी। भारती और चेल्लमा ने इस बारे में आपस में बातें करते हुए सोचा कि अगर वो लोग आज घर बदलते नहीं तो…? इस घटना और पत्नी से इस पर चर्चा के साथ भारती के मन में इससे संबंधित एक कविता का उदय हुआ।
विलियम टी.ए. एश की हत्या की साजिश कुछ पहले से ही चल रही थी। जो देशभक्त उग्रवादी दल के थे वे एश की कई गतिविधियों और भारतीयों के प्रति अपमान व निर्दयता के व्यवहार से क्रोधित थे। ऐसे एक स्वतंत्रता सेनानी एम पी टी आचार्य ने पेरिस से म. श्रीनिवासचार्य को एक पत्र लिखा। लंदन में जार्ज पंचम का राजतिलक होने वाला था, उसी समय कुछ महत्वपूर्ण काम निपटाने हैं। अगर वो कार्य पुदुचैरी में संभव न हों तो किसी सुरक्षित दूर के स्थान पर करवा दें।
सन 1908 में नीलकंठ ब्रह्मचारी नामक युवक शहर-गाँव घूम-घूम कर युवाओं को 1857 की तरह एक गदर की तैयारी में लगे थे। सन 1910 जून में उसकी मुलाकात वांछीनाथन से हुई जिसके जोश और वीरता से वो प्रभावित हुए। वांछीनाथन जंगल के किसी विभाग का कर्मचारी था और उसकी पत्नी और एक बेटी भी थी। इस युवा को नीलकंठ ने अपने दल में भर्ती किया। इस बीच जेल में बंद देशभक्तों से मिलने आने वालों से ‘एश’ की लगातार शिकायत आ रही थी। एश इन लोगों को तंग करने के नए-नए तरीके निकालता था। सन 1910 के आखिरी में वांछीनाथन पुदुचैरी में नीलकंठ से मिलने गया। नीलकंठ ब्रम्हचारी पुदुचैरी से बाहर गए हुए थे। वांछीनाथन एक सप्ताह वहीं रुक गया। तभी उसका परिचय क्रांतिवीर व.वे.सू अय्यर से हुआ। अय्यर पुदुचैरी में रहते हुए विद्रोह के कार्य में लगे ही हुए थे। वांछीनाथन से मिल कर उन्हें लगा कि एश को मारने के लिए वही उपयुक्त व्यक्ति होगा।
वांछीनाथन घर जाकर फिर लौट कर अपने मिशन को पूर्ण करने आ गया। उसे उम्दा पिस्तौल आदि उपलब्ध करा कर एश को खत्म करने का आदेश देकर भेजा गया। वांछीनाथन मि. एश पर नजर रखने लगा कि उनकी गतिविधियाँ क्या और कैसी रहती हैं। 17 जून 1911 को वो दक्षिण भारत की गर्मी से निजात पाने के लिए पत्नी सहित पर्वतीय स्थल कोडैकनाल जा रहे थे। ट्रेन एक जंक्शन पर रुकी और उनका पीछा कर रहा वांछीनाथन उनके डिब्बे (कंपार्टमेंट) में चढ़ गया। उसने एश पर गोली चला दी, उनके मरने की पुष्टि कर के प्लेटफॉर्म पर दौड़ लगा दी। उस समय दिन के ग्यारह बज रहे थे। उसका पीछा पुलिस की पलटन ने किया। प्लेटफॉर्म के अंत में बने शौचालय में घुस कर अंदर से चिटकनी लगा ली। पुलिस दरवाजा खुलवाने की कोशिश कर रही थी तभी अंदर से गोली चलने की आवाज आई। पुलिस ने दरवाजा तोड़ कर अंदर देखा कि वांछी के मुँह में पिस्तौल की नली है और वो वीरगति को प्राप्त हो चुका था।
15. युवा शक्ति को स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ना
‘मैंने अग्नि पक्षी के एक चूजे को देखा। उसे जतन से एक वृक्ष के कोटर में रख दिया। उससे पूरा वनप्रांत ही जल कर राख हो गया। उसी तरह हमें परिपक्व और युवा शक्ति में अंतर न कर संग्राम सें जोड़ना है।’
पुदुचैरी में जब इंडिया पत्रिका जम गई थी तो भारतीजी ने एटैयापुरम में अपने एक मित्र को पत्र लिखा कि कुछ देशभक्त युवकों को पत्रिका में काम करने भेजें। इस तरह पी.पी. सुबैया, वी.हरिहर शर्मा तथा एन. नागस्वामी तीनों वहाँ पहुँचे। सुबैया अच्छे लेखक थे और इनके आलेखादि प्रकाशित होते रहते थे। जब ‘इंडिया’ पत्रिका 1910 में बंद हो गई तो वापिस अपने गाँव जाकर एक पाठशाला को चलाने लगे।
हरिहर शर्मा भारतीजी के दूर के रिश्तेदार थे। ‘इंडिया’ पत्रिका के बंद होते ही स्वतंत्रता संग्राम के काम में जुट गए। बाद में गांधीजी के साथ उनके आश्रम में रहे और हिंदी प्रचारक बने। उन्होंने ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ का प्रसार किया। भारतीजी की मृत्यु के बाद ‘भारती प्रकाशन’ के तीन प्रकाशकों में से एक हरिहर शर्मा थे। भारतीजी की पुस्तकों का प्रकाशन और प्रसार में इनका योगदान अभूतपूर्व था। जून 1971 में चेन्नै में इनकी मृत्यु हुई।
एन नागस्वामी पुदुचैरी में ही बस गए थे। अत्यंत गरीबी में 18 मई 1971 में एक झोपड़ी में उनकी मृत्यु हुई थी। भारतीजी के बारे में लिखे उनके आलेख पुस्तकाकार में सुरक्षित है। यही नागस्वामी व.वे.सू. अय्यर के बाया हाथ थे। इन्होंने ‘धर्मालयम’ नामक वाचनालय तथा ‘धर्मम्’ नामक एक पत्रिका निकाल कर युवकों को स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ने में मदद की। शारीरिक-मानसिक विकास के साथ ही शस्त्रादि चलाने की शिक्षा, व अन्य कार्य कलापों को किस तरह पूरा करें, इन गतिविधियों में नागस्वामी के अलावा एक और प्रमुख व्यक्ति भी थे जिनका नाम था कण्णु पिल्ले। वांछीनाथन को जब एश का काम तमाम करने का बीड़ा दिया गया था तब इन्हीं दो प्रशिक्षकों ने उसके माथे पर रक्त तिलक लगा कर पिस्तौल देकर भेजा था।
भारतीजी की बड़ी बेटी तंगम का विवाह इन्हीं नागस्वामी के साथ करने की बात भी हो रही थ। नागस्वामी अरविंदजी को भी उतना ही मानते थे जितना भारती को। सन 1920 में नागस्वामी का विवाह एक क्रिश्चियन लड़की से ब्रम्ह-समाज रीति से अरविंद घोष ने करवाया।
कण्णु पिल्ले का पूरा नाम था मुत्तु कुमारस्वामी पिल्ले। इन्होंने पुदुचैरी में ही शिक्षा पूरी की और फ्रेंच सरकार के विद्यालय में तमिल के आचार्य की नौकरी की।
जवानी में कदम रखते ही स्वदेशी का जुनून सा हो गया था। भारती तथा व.वे.सू. अय्यर की संगत होने से सी.आई.डी. पुलिस इन पर भी नजर रखे हुए थी। उनके बारे में पुलिस ने गलत भ्रांति फैला कर अफवाहों को जन्म दिया था। जिस कारण कण्णु पिल्ले बहुत नाराज थे और उनको सबक सिखाना चाहते थे। सन 1914 में उन्होंने एक पुलिस वाले से उसकी डायरी छीन ली जिसमें वो क्रांतिकारियों के बारे में गतिविधियाँ नोट करता था। इसमें भारती, अरविंद घोष, व.वे.सू. अय्यर, श्री निवासचारी तथा कण्णु पिल्लै के बारे उन लोगों की क्या राय है ये पता चलता है। बाद में भारत की आजादी, फ्रेंच आधिपत्य से आजादी के लिए सदा जुटे रहे। सन 1943 में 63 वर्ष की आयु में परलोक सिधार गए।
सन 1910 में नीलकंठ ब्रह्मचारी ने तेनकाशी में एक गुप्त सभा बुलाई। इसमें स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े प्रसिद्ध व्यक्ति व.उ. चिदंबरम को अपना गुरु मानने वाले एस.एम. माडस्वामी पिल्लै इस सभा में आए। अपने खून से तिलक करवा कर नीलकंठ के संघ की शपथ ली। संघ के उपस्थित सदस्यों ने अपने-अपने बदले हुए नाम उपयोग करने का तय किया। नीलकंठ ब्रह्मचारी का नाम ‘कमलनायकी’ हुआ और माडस्वामी का ‘राममूर्ति’।
बहुत समय पहले गरीब माडस्वामी कोर्ट के किसी केस में फँस गया था। उस केस में व.उ. चिदंबरम ने अपने पिता के खिलाफ कोर्ट में बहस करके केस जीत लिया था। तब से माडस्वामी चिदंबरम के स्वदेशी राजनीति तथा जहाज कंपनी में जी जान से कार्य करने लगे। एक बार विरोधियों ने जहाज के नीचे बम लगा दिया था। पता चलते ही माडस्वामी ने अपनी जान पर खेल कर उसे नाकाम (कमनिेम) कर दिया था। व.उ. चिदंबरम तथा शिवा को जब ‘स्वराज्य दिवस’ के समय गिरफ्तार किया था। विरोध में जनता के प्रदर्शन में माडस्वामी भी एक आरोपी माना गया। गिरफ्तारी से बचने के लिए वो पुदुचैरी में आरूमुखम चेट्टियार के यहाँ छुप कर रहने लगा। एक दिन फ्रेंच पुलिस उनके यहाँ दबिश देने आ गई। एक कमरे में धान के बोरों के बीच में छिप कर किसी तरह बचने में कामयाब हो गया।
एश की हत्या के बाद वांछीनाथन के घर पर जाँच पड़ताल की गई। उसमें उसके मित्रों के पत्र मिले जिससे कुछ जानकारियाँ मिली। तब पुलिस ने एक नोटिस छपवाया था कि जो व्यक्ति माडस्वामी का पता बताएगा उसे एक हजार रुपये का ईनाम मिलेगा। इसके बाद वो कोलंबो जाकर न जाने कहाँ गायब हो गया। किसी ने कहा मलाया चला गया। बाद में किसी ने उन्हें गंजे सिर वाले संन्यासी के रूप में देखा।
16. नीलकंठ ब्रह्मचारी
उन दिनों दक्षिण भारत में पुलिस जिससे डरती थी वे व्यक्ति थे स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े हुए क्रांतिवीर नीलकंठ ब्रह्मचारी। भारती और व.उ. चिदंबरम बाल गंगाधर तिलक के अनुयायी थे और नियमबद्ध तरीके से आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। उस समय नीलकंठ ब्रह्मचारी युवकों को इकट्ठा कर, प्रशिक्षित कर अँग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ने की प्रेरणा दे रहे थे। वे तंजापुर के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। सन 1907 में विपिन चंद्र पाल का चेन्नै में क्रोध और आवेश से भरे भाषण से प्रभावित होकर राजनीति में कूद गए। धीरे-धीरे बंगाल के क्रांतिकारियों से जुड़ते गए और स्वयं भी क्रांतिकारी बन गए।
जर्मनी के राजा केयसर ने बड़ौदा और अन्य कुछ रियासतों के अधिपतियों को अँग्रेजों के खिलाफ उकसाया। इन रियासतों के अलावा बंगाल के अरविंद घोष व अन्य क्रांतिकारियों ने मिल कर जर्मनी से अस्त्र-शस्त्र लेकर अपनी एक अलग सेना बनाई। सन 1857 के गदर की तरह एक बड़ा विद्रोह कर अँग्रेजों को मार भगाने का उद्देश्यों था। इस उद्देश्यों में दक्षिण भारत से नीलकंठ ब्रह्मचारी प्रतिनिधि के रूप में थे। इन्हीं के शिष्य के रूप में वांछीनाथन इनके दल में शामिल हुआ था। एश की हत्या के मुकदमे में नीलकंठ को राजद्रोह का आरोपी बना कर सात साल की कड़ी सजा सुनाई गई थी।
तय योजनानुसार सन 1914 में जर्मनी ने प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत कर दी थी। नीलकंठ ब्रह्मचारी कैद से छुपते हुए निकल तो गए पर दुर्भाग्यवश तीसरे ही दिन फिर पकड़े गए। उनकी इस कारस्तानी के लिए सजा की अवधि छ महीने और बढ़ा दी गई। इस प्रकार आठ वर्ष जेल की कड़ी यातना भुगत कर वो छूट कर आए। गरीब और बेसहारा होकर वे भटक रहे थे। सन 1921 में पुदुचैरी में भारतीजी के घर पहुँच गए। वहाँ भरपेट खाना खाया और भारती की बेटी के दिए हुए दो आना (उस समय की मुद्रा) लेकर चले गए।
नीलकंठ जैसे देशभक्तों को देख कर भारती द्रवित हो गए और उनके कवि हृदय से विभिन्न उद्गार फूट पड़े। जिन्होंने उनके संग्रहों में भी जगह बना ली। भारतीजी के जीवन के आखिरी दिनों में जो लोग उनके पास बने हुए थे उनमें नीलकंठ भी एक थे। भारती की मृत्यु के बाद अपने एक मित्र के साथ कम्युनिस्ट पार्टी का प्रचार करते हुए पकड़े गए। फिर जेल में दस वर्ष की सजा काटी। इन दस वर्षों में जो यातना भुगती उसने उन्हें आत्ममंथन की ओर मोड़ दिया। जिससे उनके मन की उथल-पुथल, बेचैनी सब शांत हो गई। सन 1930 में वो रंगून की जेल से छूट कर बाहर आए। एक वर्ष तक तो वो पत्रिकाओं में लिखते-छपते रहे। बाद में संन्यासी होकर यायावरी हो गए।
संन्यासी बनने के बाद भी उनका संपर्क राजपरिवारों व बड़े लोगों से बना रहा। पर सबसे ऊब कर वे जगह-जगह घूमने लगे। अंत में मैसूर राज्य के कोलार जिले में पहाड़ी की तली में एक आश्रम बना कर एकांत में रहने लगे। सन 1978 में अठ्यासी (88) वर्ष की आयु में सद्गुरु ओंकार नामक क्रांतिकारी साधु के रूप में मृत्यु को प्राप्त हुए। इनकी कुछ बेहतरीन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।
17. भारती और युवा खून
वैसे तो भारती अपनी युवावस्था में ही थे पर उनके बुद्धिचातुर्य और मेधा से उनकी ओर आकर्षित होने वाले युवाओं की संख्या कम नहीं थी। पुदुचैरी के अनेक युवा उनसे मिलने, चर्चा करने के लिए एक तरह से लालायित ही रहते थे। भारती को भी उनसे वार्तालाप करना बहुत सुहाता था।
तिरुच्चि के एक नेता रंगस्वामी अय्यंगार ने अरविंद घोष के पुदुचैरी पहुँचने की खबर पाने के लिए एक युवा रामस्वामी अय्यंगार को भेजा। रामस्वामी पुदुचैरी पहुँच कर भारती और अरविंद दोनों से बहुत प्रभावित हुआ। लोग मजाक करते थे कि रामस्वामी दोनों में से किसका भक्त है!
ऐसे अनेकों युवा समय-समय पर आते रहते, कुछ समय उन लोगों के साथ रहते और स्वतंत्रता संग्राम के कार्यों में लग जाते। इन देशभक्तों और इनके कार्यों के लिए आर्थिक संसाधन जुटाना जरा भी आसान नहीं था। इस कठिन कार्य को युवा रामस्वामी अय्यंगार संपादित करते थे। इसके लिए इन्होंने घी के व्यापार और पुस्तक विक्रेता का ढोंग किया। पुदुचैरी में एक प्रमुख व्यापारी आरूमुकम चेट्टियार के यहाँ चेन्नै से घी के टिन आया करते थे। इसी घी में रुपयों के सिक्कों को डाल कर धन को भेजा जाता था। बुक पोस्ट में पुस्तकें आती और मुखपृष्ठ को फाड़ने पर रुपयों के नोट रखे मिलते।
अमृता नाम से जाने जाते आरावूमुद अय्यंगार ऐसे युवा थे जिसने भारतीजी को अपरिमित स्नेह और आदर दिया था। ये बाद में अरविंद आश्रम में एक जिम्मेदार पद पर काम करते रहे थे।
कनक सुबरत्नम भारती से अत्यंत प्रभावित युवा थे। उन्होंने ‘भारतीदासन’ उपनाम से काफी लिखा। ये युवा भारती से कभी मिले नहीं थे। एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे। कुछ कठिनाइयों के बाद उन्होंने इंडिया की प्रतियाँ प्राप्त की, ‘भारती गीतगंज’ (भारती के गीत) की प्रति भी उन्हें मिली। एक विवाह समारोह में इसी पुस्तक का एक गीत, स्वतंत्रता के बारे में उन्होंने भावपूर्ण होकर गाया। भारतीदासन ने गाते-गाते ध्यान दिया कोई भी उनकी ओर देख ही नहीं रहा है। बल्कि एक ऐसे व्यक्ति को सब ध्यान से देख रहे थे जो सुंदर नाक नक्श और ओजपूर्ण चेहरे का मालिक था। जब गीत समाप्त हुआ तो वही व्यक्ति करीब आए और प्रशंसा करते हुए बोले – ‘शब्दों को समझकर, दिल से बहुत अच्छा गाया।’ तब जाकर भारतीदासन को पता चला कि वही व्यक्ति गीत के रचनाकार और उनके आराध्य भारतीजी हैं। उस समय वो संकोच से भर गए। बाद में भारतीजी के प्रोत्साहन से वो स्वयं लिखने लगे, तभी अपने आपको ‘भारती दासन’ मान लिया और इसी उपनाम से लिखने लगे। बाद में इन्होंने एक पत्रिका ‘भारती कविता मंडलम्’ निकाली जिसे काफी अरसे तक चलाया। इसमें मात्र कविताओं को ही स्थान मिलता था, पूरी तरह से पद्य रचनाओं की पत्रिका थी। भारती से मित्रता के बाद इन्होंने समाज सुधार की कविताएँ लिखनी शुरू की। इनके अलावा भी अनेकों युवा भारती के कविताओं, आलेखों तथा ओज भरे उद्गारों से प्रभावित होकर देश सेवा की ओर मुड़े थे।
18. धनवान व धनहीन के समान रूप से दुलारे
भारती की अभिलाषा थी एक महान भारतवर्ष की जिसमें इस देश में कोई दरिद्र न हो, कोई गुलाम न हो, कोई अछूत न हो।
एश की हत्या के बाद जब पुलिस चौकसी और पहरेदारी भारती और उनके साथियों पर बढ़ गई तो पुदुचैरी में लोग उनसे बिदकते थे। पुलिस की पूछताछ से बचने के लिए इन ‘स्वदेशी’ लोगों से दूर ही रहते। ऐसे समय में भारती के सच्चे मित्र थे सुंदरेश अय्यर, पोन्नु मुरुकेशम पिल्लै तथा शंकर चेट्टियार। मुरुकेशम भारती के घर के करीब ही रहते थे और धनी भी थे। इन्हें फ्रेंच भाषा का अच्छा ज्ञान था और इनका झुकाव नास्तिकता की ओर था। ये भारती के देव भक्ति का मजाक उड़ा कर बस उकसाते भर थे। फिर दोनों में जम कर इस विषय पर बहस होती। इन्होंने भारती और साथियों को धन से मदद नहीं की थी पर अपने खेत की उपज को बहुत ही कम दामों में इनको बेचा करते। साथ ही अपना बड़ा सा घर और उनका परिवार सदैव उन लोगों की सेवा में तत्पर रहता। भारती तो अक्सर ही उन्हीं के घर रुक जाते थे और उनकी छत पर जो एक कमरा था वो भारती का ही हो गया। कई बार तो रात को भी वहीं रह जाते।
मुरुकेशम की पत्नी भारती के नाश्ते, खाने आदि का बहुत ख्याल रखती। उनके दोनों बेटे राजाबहादुर तथा कनकराजा अपनी माँ की तरह भारती की सेवा करते और एक तरह से उनके रक्षक भी बने रहते।
प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ होने से पहले राजाबहादुर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पेरिस गए हुए थे। शिक्षा पूर्ण कर के जब लौट रहे थे युद्ध तीव्र हो चुका था। घर पर बेटे के स्वागत की तैयारी जोर-शोर से चल रही थी। तभी तार द्वारा सूचना मिली की राजाबहादुर जिस जहाज पर थे उसे जर्मन सेना की तोपों ने तहस-नहस कर दिया है। उसे पढ़ कर पिता तो बेहोश हो गए। भारती ने उन माता-पिता को दिलासा देने के लिए कई तरह के प्रयत्न किए। उसके बाद मुरुकेशम ने बिस्तर ही पकड़ लिया और चंद महीनों बाद इसी दुख में उनकी मृत्यु हो गई।
चमत्कार की बातें तो लगभग सभी ने सुनी है पर देखा बहुत कम लोगों ने होगा। पिता की मृत्यु के 27 वें दिन (सत्तासीवें) राजाबहादुर एकदम ठीक ठाक आ पहुँचे। बाद में ये पांडिचेरी विधानसभा में सन 1951 तक सचिव के पद पर रहे। इन्होंने अपने बेटे का नाम मुरूगेश भारती रखा था।
मुरूगेश पिल्लै का परिवार भारती को स्नेह करता ही था। पर आश्चर्य इस बात का था कि उनके घर काम करने वाली बुढ़िया को भारती पर अपार स्नेह था। यही नहीं उस बुढ़िया के तीनों पुत्र का भी यही हाल था। कई बार भारती अपनी जिद पर आकर अड़ जाया करते थे तब इसी वृद्धा ने उन्हें मनाया।
भारतीजी के कई प्रबुद्ध और प्रभावशाली दोस्त भी थे। इनमें से एक प्रोफेसर सुब्रमण्यम अय्यर थे जो फ्रेंच और अँग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे। संस्कृत और तमिल तो जानते ही थे। इनको भागवत-पुराण आदि कथा सुनने का चाव था।
दूसरे दोस्त शंकर चेट्टियार धनी और दयालु थे। अरविंद जी के आने पर अपने घर के ऊपरी मंजिल के कमरे में रहने की सुविधा दी थी। ‘स्वदेशी’ लोगों के ऊपर उन्हें अपार स्नेह था।
1911-1912 में भारती, अरविंद और उनके साथियों को पुदुचैरी से बाहर करने के लिए एक साजिश रची गई थी। अचानक एक नया कानून बन गया कि पाँच प्रतिष्ठित मजिस्ट्रेट से दस्तखत करा कर पुलिस से सत्यापन कराना पड़ेगा। वरना जो फ्रेंच नागरिक नहीं है उन्हें पुदुचैरी से बाहर निकल जाना होगा। शंकर चेट्टियार को जैसे ही विषय की जानकारी मिली तुरंत जाकर मजिस्ट्रेटों से हस्ताक्षर करा कर सत्यापन भी करवा लाएँ।
आरूमुकम चेट्टियार जिनके नाम से घी का टिन आता था और उसमें रामस्वामी अय्यंगार धन मँगवा लेते थे, बहुत सीधे, सज्जन व्यक्ति थे। इन्हीं के घर एश को मारने वाला माडस्वामी धान के बोरों के बीच में छिपा हुआ था।
भारतीजी ने इन्हीं दिनों कुछ हरिजनों को यज्ञोपवीत धारण करवाएँ। बाकायदा होम, हवन, मंत्रादि के साथ अपने मित्रों की उपस्थिति में ऐसा किया। उनका कहना था, समाज के चार वर्गों में से तीन जब यज्ञोपवीत धारण करता है तो चौथा क्यों नहीं कर सकता। इनमें से एक युवा कनकलिंगम ने एक उत्कृष्ट पुस्तक लिखी ‘एन गुरुनादर भारती’ (मेरे गुरुवर भारती)। यह पुस्तक सन 1947 में प्रकाशित हुई।
पुदुचैरी प्रवास के दौरान भारती कुछ साधु, स्वामी, संत आदि के संपर्क में आ गए थे। उनकी कुछ बातों से तो भारती ने जीवन के कुछ गूढ़ तत्वों को पाया। पर उनके संसर्ग में उन्हें अफीम की लत लग गई। अपनी गरीबी और पारिवारिक दायित्वों को भूलकर कल्पना लोक में डूबकर कवि कर्म में लगे रहने के लिए भी मानों एक बहाना मिल गया।
भारती के दो और साथियों का उल्लेख करना आवश्यक लगता है। एक सुब्रमण्यम शिवा और दूसरे नेलैयप्प पिल्लै। ‘स्वराज्य दिवस’ मनाने में तुतूकुड़ी में जो विद्रोह हुआ उसमें व.उ.चिदंबरम पिल्लै, सुब्रमण्यम शिवा, नेलैयप्प पिल्लै तथा स्वदेशी पद्मनाथ अय्यंगार प्रमुख नाम थे। इनको कैद किया गया और मुकदमा भी चला। इस मुकदमे में गवाह के रूप में भारती तथा श्रीनिवासचारी चेन्नै से तिरूनेलवेली जाते थे। सबको जेल हुई थी। जेल से छूटने के बाद नेलैयप्पर एक वर्ष के लिए अज्ञातवास में रहे। इस दौरान चिदंबरम पिल्लै कोयंबतूर की जेल में थे। नेलैयप्पर ने उनसे रहस्यमयी संपर्क बना कर उनकी योजनाओं को मूर्त रूप देने तथा सूचनाओं के आदान-प्रदान में मदद की। ये इंडिया पत्रिका में भारती के सहायक भी रहे और भारती के स्नेह के पात्र भी। भारती इन्हें अत्यंत स्नेह से ‘तंबी’ अर्थात छोटा भाई बुलाते थे। ये अच्छे कवि होने के साथ ही अच्छे संपादक के गुणों से भी युक्त थे। वैसे भी भारती से सात वर्ष छोटे थे। इन्होंने ही भारती की कविताओं को इकट्ठा कर 1917 में ‘लोक गीत’ के नाम से प्रकाशित किया। जिसका दूसरा संस्करण भी 1919 में आ गया। इस प्रकार भारती के देश प्रेम और देशभक्ति के गीतों का प्रचार-प्रसार जोरदार तरीके से हुआ। बाद में कुछ और प्रमुख पत्रिकाओं का भार वहन किया तब भी भारती के लेखन को प्रमुखता दी। अपनी सहज सरल लेखन शैली से इन्होंने अपने पाठकों को जीता। इनकी जीवन शैली भी इनके लेखन शैली की तरह सहज सरल और पारदर्शी हुआ करती थी। ये आजीवन ब्रह्मचारी बने रहे। एक कन्या को गोद लेकर उसका लालन-पालन कर विवाह कर दिया था। चेन्नै के भारती नगर में ही रहे और वही प्राण त्यागे।
19. भारती और देश की शीर्ष हस्तियाँ
‘भारतीय जिस तरह गुलामी
दरिद्रता और अनके तरह की परेशानियों में जी रहे हैं
इन्हें ऊँचा उठा कर अपनी मर्जी से जीने की आजादी दिलाने आए हैं। गांधीजी अमर रहे।’
(गांधीजी के प्रति उद्गार)
भारती ने जब से एक बड़े और विशाल जगत में प्रवेश किया वे दुनिया भर की हलचलों और खबरों से मानसिक रूप से जुड़ गए थे। जिसके कारण अपने पत्र-पत्रिकाओं में इन हलचलों को प्रमुखता से प्रकाशित करते थे। साथ ही प्रमुख व्यक्तियों, लेखक-कवि, राजनेताओं के बारे में उनकी राय बनी हुई थी जिसे वो प्रकट भी करते थे। ऐसे कुछ प्रमुख व्यक्तियों के बारे में। महात्मा गांधी भारती प्रथम बार गांधीजी से सन 1919 में राजाजी के घर पर मिले थे। गांधीजी सन 1919 में रूलेट एक्ट का विरोध करने के लिए, बाकी नेताओं से चर्चा करने राजाजी के घर चेन्नै आए हुए थ। राजाजी (चक्रवर्ती राजगोपालाचारी) के अलावा सत्यमूर्ति, ए. रंगस्वामी अय्यंगार आदि भी थे। भारती सीधे गांधीजी की गद्दी के सामने उन्हें अभिवादन कर पास में ही बैठ गए। बाकी लोगों को उनकी ये निडरता गांधीजी का अपमान सा लगा था। भारतीजी की एक जनसभा उस दिन शाम को थी और उनका लक्ष्य था कि अगर गांधीजी उस सभा में अध्यक्षता करें तो जनता को जोश और उत्साह कई गुना बढ़ जाएगा। सो उसी झोंक में उन्होंने गांधीजी से शाम की बात कही और गांधीजी ने अपने सचिव महादेव देसाई से पूछ कर उस दिन उनका पहले से ही तय कार्यक्रम बताया। भारती फिर रुके नहीं और उनकी चर्चा और पहल को शुभकामनाएँ देते हुए लौट गए।
भारती के प्रस्थान के बाद गांधीजी ने पूछ कर जाना कि वो महाकवि भारती हैं। तब गांधीजी ने कहा, इनकी देख भाल और हिफाजत आवश्यक है। इस बात का अलग-अलग व्यक्ति अलग अर्थ निकालने लगे। उस मुलाकात के बारे में कुछ लोगों की भारती के प्रति गलत धारणा भी बनी थी कि भारती ने गांधीजी के प्रति सही तरीके से आदर नहीं दिखाया। जबकि सन 1909 में ही उन्होंने ‘इंडिया’ पत्रिका में गांधीजी को काँग्रेस का सभापति चुनने का विचार देकर गांधीजी पर अपनी श्रद्धा और अपना विश्वास प्रकट कर दिया था। भारती के अनुसार गांधीजी में जनता को इकट्ठा कर एक लक्ष्य की ओर ले जाने का जो दम है वो और कोई नहीं कर सकता। सरकार के विरोध में एक भीड़ को खड़ा करना वो भी सात्विक तरीके से उसके लिए गांधीजी से बढ़ कर कोई नेता नहीं है।
सन 1919 में गांधीजी से प्रत्यक्ष मिल कर भारती इतने उत्साहित हुए कि उनके दिल से दो बहुमूल्य गीतों की उत्पत्ति हुई। ‘भारतमाता नवरत्न माला’ और पाँच पदों की ‘महात्मा गांधी पंचकम्’। महात्मा गांधी पर बने गीतों में यह सर्वश्रेष्ठ है।
भारती की मृत्यु के बाद की बात है। 1928 में उनकी गीतों को जब्त कर रोक लगाया गया। चेन्नै की अदालत में श्री सत्यमूर्ति ने पेटीशन दायर कर इसका विरोध किया। गांधीजी ने अपने ‘यंग इंडिया’ में इस घटना की भर्त्सना की और ‘न्याय पगला गया’ शीर्षक से प्रकाशित किया। इसी के साथ भारती के अठारह गीतों का राजाजी द्वारा किए गए अनुवाद व राजाजी की टिप्पणी सहित ‘यंग इंडिया’ के अंकों में प्रकाशित करते रहे। गांधीजी को भी इन गीतों ने प्रभावित किया और ‘नवजीवन’ में उन्होंने अपने विचार प्रकट किए। ‘गुजरात में भारती का नाम परिचित हो गया है’। ये बहुत अर्थवान बात है।
साबरमती आश्रम के उद्योग मंदिर के मुखपत्र मधुपुड़ में श्री जगतराम दवे ने ‘नेंच्चु पोरुकदिल्लै’ अर्थात ‘हृदय को तसल्ली नहीं होती’ का गुजराती अनुवाद छापा। जिसे गांधीजी ने सराहा और उनका विचार था कि हम भारतीजी के लेखन से बहुत कुछ सीख सकते हैं। भारतीजी ने जब भगवत गीता का तमिल अनुवाद किया तब गांधीजी ने उन्हें तमिल में ही आशीर्वचन लिख कर दिए।
भारती के ऊपर कितने ही लोगों ने कितनी ही पुस्तकें लिखी। इनमें से श्रीयुत मु. श्रीनिवासन (जो कि उच्च पदों पर रहे और विश्व की कई देशों की यात्रा की, तथा कलकत्ता में 1947 से 1995 तक रहे और अभी चेन्नैवासी हैं) ने अपने बुडापेस्ट प्रवास में वहाँ के राष्ट्र कवि बेट्टाफी के बारे में जाना। उन्हें भारती की कविताओं और बेट्टाफी की रचनाओं में कई गुणों में समानता लगी। दोनों ही श्रेष्ठ रचनाएँ हैं, ऐसा उनका मानना है। इसी तरह इटली (रोम) की स्वतंत्रता के लिए प्रयासरत रहे तीन प्रमुख व्यक्तियों में माजिनी एक थे। भारती ने इनके साहस और देशभक्ति तथा राजनीति में इनके सहयोग को सराहा और उस पर भावपूर्ण, बहुत ही सुंदर गीत लिखा।
वर्तमान में हममें से अधिकांश लोग वैश्वीकरण की पहल कर रहे हैं जिसकी पहल भारतीजी ने आज से सौ से भी अधिक वर्ष पूर्व कर लिया था। अपने छोटे से गाँव से निकल कर उन्होंने जो देखा, पाया उससे वे विशालमना दृष्टिकोण और उदार हृदय के स्वामी बने।
भारती जिन नायकों से अत्यधिक प्रभावित हुए थे उनमें बाल गंगाधर तिलक व अरविंद घोष, स्वामी विवेकानंद प्रमुख थे। अरविंद घोष के साथ तो वो, आठ वर्ष पुदुचैरी में रहे। कहने को दोनों अलग-अलग मकान में रहते थे पर बिना नागा प्रतिदिन शाम को मिलते और घंटों विभिन्न तरह की चर्चा में रत रहते थे। भारतीजी की पत्नी चेल्लमाँ ने अपनी एक पुस्तक में इस बारे में इस तरह लिखा है – ‘भारती प्रतिदिन बिना खाना खाए भले ही रह जाएँ पर अरविंदजी से बिना मिले नहीं रह सकते।’
अरविंद घोष बंगाल के एक प्रतिष्ठित परिवार में सन 1872 में पैदा हुए थे। उनके पिता ने उन्हें आठ वर्ष की उम्र में ही इंग्लैंड भेज दिया। वहाँ 1892 में ऑनर्स की डिग्री ली और अगले ही वर्ष आई.सी.एस. की परीक्षा भी पास की। पर घुड़सवारी में नाकाम हो जाने से उनका चयन नहीं हो पाया। इन्होंने लैटिन, ग्रीक भाषाएँ तो अच्छी से सीखी ही थी, साथ में इटालियन और जर्मन भाषा का भी काफी ज्ञान था। यूरोप की भाषाओं और आधुनिक रहन-सहन से भी भली भाँति परिचित थे। अपनी मातृभाषा बंगला का ज्ञान भी विदेश से लौट कर सन 1893 में ही प्राप्त किया। सन 1906 तक बड़ौदा महाराजा के यहाँ कार्य करते रहे। इसी समय इन्होंने मराठी और गुजराती बोलना भी सीख लिया।
अरविंद एक संपन्न घराने के पुत्र थे। जबकि भारती एक छोटे गाँव के साधारण परिवार से थे। जिन्होंने माँ को बाल्यावस्था तथा पिता को किशोरावस्था में खो दिया। सदा कष्टों और दरिद्रता में ही जीवन बिताया। भले ही दरिद्रता को एक तरह से उन्होंने ही अपनी दरियादिली से दान-पुण्य दे देकर न्यौता दिया हो। भारती को अपनी अवस्था पर हीनता बोध नहीं होता था। शायद इसीलिए वो जिसे पसंद करते थे, आदर करते थे उनसे बिना झिझक मिलते और खुल कर बात करते थे।
अरविंद घोष 1893 से लगभग आठ-नौ वर्ष तक ‘इंदु प्रकाश’ नामक पत्रिका में राजनीति से संबंधित पत्र लिखते रहे। 1902 में ही उन्होंने तीव्र गतिविधियों में प्रवेश किया। खास कर सन 1905 में बंग-विभाजन के बाद तो जनता में भी सरकार के प्रति विरोध की भावना जाग उठी थी। उस समय भारती और अरविंद ने अपने आपको देश पर समर्पित कर दिया।
सन 1905 में काशी में हुए काँग्रेस महाअधिवेशन से कलकत्ता लौट कर अरविंद विपिन चंद्र पाल की ‘वंदे मातरम्’ पत्रिका से जुड़ गए। 1906 में दादाभाई नौरोजी के नेतृत्व में कोलकाता में जुड़े काँग्रेस अधिवेशन मे देशी शिक्षा व विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार ये दो मुद्दे खास थे। 1907 में सूरत अधिवेशन में एक प्रमुख मोड़ आया। बा.गं. तिलक, लाला लाजपत राय, अरविंद घोष, विपिन चंद्र पाल आदि तीव्रवादियों (उग्रवादी) ने दल से बाहर आकर अपना अलग दल बनाया। दक्षिण भारत से भारती और व.उ. चिदंबरम आदि भी इस अधिवेशन में गए थे। लौट कर भारती ने एक पुस्तक ‘एंगल काँग्रेस यात्रै’ अर्थात ‘हमारी काँग्रेस यात्रा’ लिख कर प्रकाशित की।
जहाँ तक पता चला भारती की अरविंद से पहली भेंट सूरत में ही हुई। भारती उनसे इतने प्रभावित हुए कि ‘इंडिया’ के हर अंक में उनका जिक्र करते थे। भारती और अरविंद दोनों ही के लेखों से ब्रिटिश सरकार उनसे खार खाती थी। दोनों को कैद करने के बहाने ही ढूँढ़ा करती थी। चाहे फिर खुदीराम बोस और जग्गी द्वारा मजिस्ट्रेट किंग्ज फोर्ड की गाड़ी पर फेंका गया बम हो, जिसमें दो महिलाएँ मारी गईं। ‘जुगांधर’ नामक क्रांतिकारी दल के 26 सदस्यों के साथ अरविंद को कैद कर लिया गया। उन पर दो आरोप लगाए गए एक देशद्रोह का दूसरा किंग्ज फोर्ड की हत्या की साजिष का। उस समय अरविंद की आर्थिक हालत बहुत खराब थी। उनकी पैरवी चित्तरंजनदास नामक नामी और देशभक्त वकील ने की। लगभग 126 दिन चले इस मुकदमे में अरविंद के छोटे भाई तथा एक और को फाँसी की सजा सुनाई गई। कई अन्य को विविध सजाएँ सुनाई गई। अरविंद निर्दोष साबित हुए। इतने दिन अलीपुर जेल में रहे थे। ऐसा कहा जाता है कि जेल में रहते हुए उन्हें ईश्वर के दिव्य दर्शन हुए।
शायद इसीलिए जेल से बाहर आकर उनका व्यवहार कुछ बदला हुआ लगा। लोगों से बातें करते हुए एक क्रांतिकारी देशभक्त की तरह न लग कर एक दिव्यात्मा की तरह लगते थे। पर उनके इस बदले व्यवहार पर भी शक करने के कारण उन्हें पुदुचैरी में अज्ञातवास करना पड़ा। भारती और वो लंबे समय साथ रह पाएँ। अरविंद का आश्रम जो पांडिचेरी में अरविंदो आश्रम से प्रसिद्ध है। इस आश्रम के प्रमुख पदाधिकारी अमृता (आरावुमुद अय्यंगार) भारती को भी आदर और स्नेह करते थे। उनके अनुसार इन दो महान विभूतियों के मिलन, मित्रता और साथ रहने से साहित्य पुनः पल्लवित, पुष्पित हुआ। अरिवंदजी की शरण में जाने से पूर्व ही अमृता भारतीजी से प्रभावित हो गए थे। भारती के जीवन और कार्यशैली के कारण ही अमृता भी पुरानी परिपाटी, अंधविश्वास आदि छोड़ कर विशाल और उदार हृदय के बने। इन्होंने लिखा है भारती के जीवन को समुचित रूप से देखने बाद लगता है कि वो पैदायशी कवि थे। बाद में जब उन्हें लगा कि वे भारत माँ के पुत्र हैं तब अपने आपको उन्होंने शक्तिपुत्र के रूप में पाया।
उन्होंने नवरात्रों में देवी की शक्तिपूजा के गीत बना कर गाए। कई अवसरों पर उनकी शक्तिपूजा के उदाहरण मिलते हैं।
अरविंदजी के प्रथम शिष्य जो उनके साथ लंबे समय तक रहे नलिन कांत गुप्ता ने लिखा है – शाम को वे अपने आसन पर बैठते और हम सब उनके ईर्द-गिर्द। भारती और मैं इस कक्षा के सबसे अधिक उत्साहित ‘छात्र’ थे। भारतीजी ने इसके बाद जो गीत लिखे उनमें से कुछ एक तरह से अरविंद द्वारा प्रेरित थे। खास कर ‘अग्नि’ तथा ‘वेलवी’ (बलिदान)
भारती अरविंद के वेदज्ञान को सराहते थे और इसके लिए आदर भी करते थे। अरविंद के कविता संग्रह ‘अहना’ की समीक्षा में लिखते हैं – अरविंद का वेदों का गूढ़ चिंतन और शोधरूपी ज्ञान तो दिखता ही है, साथ ही सात्विक तरीके से वेद ऋषियों की तरह पारदर्शी ज्ञान भी दिखता है।
अरविंद के एक शिष्य कपाली शास्त्री भारती से जब पहली बार मिले तो उनका वेदज्ञान देख कर बहुत प्रभावित हुए। फिर उनको पता चला कि उन्होंने ये ज्ञान अरविंदजी से अर्जित किया।
भारती की बड़ी बेटी तंगम ने कहा था कि वो अपने लिखे नए गीतों को पहले पत्नी चेल्लमा को सुनाते तत्पश्चात अरविंद, श्रीनिवासचारी, व-वे-सू अय्यर को सुनाते थे। कई बार उन सभी की आर्थिक हालत बहुत खराब हो जाती और अगले भोजन का भी ठिकाना नहीं होता। उस समय अरविंद ने कहा है – ‘काश हम लोग भी इस चिंता से मुक्त होकर भारती की तरह जीना सीख लें।’ उन्हें उस समय एक जोड़ी चप्पलों की अत्यधिक आवश्यकता थी। उनकी पुरानी जोड़ी भारती पहन कर चले गए थे। ऐसी थी इन लोगों की मित्रता।
कुछ समय पुलिस अधिक परेशान करते हुए रात-बेरात तलाशी लेने आ जाती थी। तब जितनी महिलाएँ थी वो मुरूगेश पिल्लै के यहाँ और जितने पुरुष वो अरविंदजी के घर सोया करते। नए-नए नियम-कानून बनाने और लागू करने की बातें इन लोगों के कानों में पड़ती और सब चिंतित हो जाते। अरविंद के चेहरे पर भी चिंता झलकती क्योंकि ये कानून इनका मनोबल तोड़ने के लिए ही बनते थे। सबको आश्चर्य इस बात का होता था कि भारती पर इन सब बातों का कोई असर ही नहीं पड़ता। न तो उनका मनोबल टूटता ना ही उनका हास्य और देशप्रेम का जज्बा।
अरविंदजी को दक्षिण भारतीय खाना पसंद था, खास कर सांभार और दक्षिण भारतीय पापड़। इतना सब होने के बावजूद भारती का मन पुदुचैरी में नहीं लग रहा था। आर्थिक स्थिति भी इसका एक प्रमुख कारण था। जिसे भुलाने के लिए वो कभी आम के बगीचे में तो कभी समुद्र किनारे निकल जाते। अरविंदजी तो अपने आत्म साधना में लीन रहने लगे। आखिर भारती ने पुदुचैरी छोड़ने का मन बना ही लिया। तब आखिरी बार दोनों मिले तो अरविंदजी की शांत आँखों में आँसुओं का समुद्र था और भारती की वीरता से भरी आँखें भी सजल थी।
बंगाल के प्रबुद्ध लेखक-कवि एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति जिनके लेखन और वाक्चातुर्य से भारती चमत्कृत थे उनका नाम है गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर। भारती से उम्र में 20 वर्ष बड़े तथा भारती की मृत्यु के बाद 20 वर्ष तक जीवित रहे गुरुदेव रवींद्रनाथ चेन्नै आए जरूर पर दोनों मिले नहीं। एनी बेसेंट जो भारती को अच्छे से जानती थी और उन्हें जेल से छुड़ाने में मदद भी की थी, उन्हीं के घर कवि गुरु रुके थे। भारती ने टैगोर के बारे में लगातार अपनी पत्र-पत्रिकाओं में लिखा, उनकी कई रचनाओं का अनुवाद किया और छापा। रचनाओं को सराहा और जापान में उनके भाषण पर खुशी जाहिर करते हुए कहा कि ‘जो व्यक्ति मात्र स्वयं के लिए लिखता है वो बड़ी बात नहीं है। जो अपने लेखन से अपने देश के लिए सम्मान प्राप्त करता है वो अहम बात है।’ उन्होंने लोक गुरु शीर्षक से इस आलेख को लिखा था, जिससे हम समझ सकते हैं कि उनके मन में टैगोर के प्रति कितना आदर-सम्मान था। वे देशवासियों से भी इसके लिए आह्वान करते हैं। संगीत प्रेमी भारती गुरुदेव के रवींद्र संगीत से भी प्रभावित थे तथा अपने आलेख गुरुदेव के कथन को उद्धृत करते हुए लिखा था – ‘यूरोपीय संगीत जड़ है जबकि भारतीय संगीत सूक्ष्म है। उनका लौकिक है तो भारतीय अलौकिक, उनके संगीत में मानवी शक्ति दिखती है और हमारे संगीत में दैवीय शक्ति।’
भारती ने उनकी अनेक कहानियों व अन्य रचनाओं का अँग्रेजी से तमिल अनुवाद किया। कलकत्ता के मॉडर्न रिव्यू में प्रकाशित पाँच आलेखों को ‘पंच व्यासम’ शीर्षक से पुस्तकाकार में प्रकाशित किया।
उनकी अनुवादित कहानियों के संग्रह को उनकी मृत्यु के उपरांत सन 1923 में, उनको स्नेह करने वाले मित्र श्री मंडेयम श्रीनिवासचारी द्वारा प्रकाशन में आया। इसमें प्राक्कथन वरिष्ठ प्राध्यापक श्री यज्ञनारायण ने लिखा था।
भारती द्वारा टैगोर के प्रति स्नेह और आदर सम्मिलित भाव बार-बार देखे गए। आश्चर्य इस बात का है कि गुरुदेव ने क्या भारती के प्रति अपने कोई उद्गार जाहिर नहीं किए? जबकि उस समय तक भारती प्रसिद्ध कवि हो चुके थे।
सूरत में काँग्रेस अधिवेशन में भारती बाल गंगाधर तिलक से पहली बार मिले। पर उनके विचारों से बहुत पहले से परिचित थे और उन्हें अपना राजनैतिक गुरु मान चुके थे। बा.गं. तिलक सन 1856 में एक स्कूल अध्यापक के घर पैदा हुए थे। 1880 में एल.एल.बी. किया और उन्हें तुरंत सरकारी नौकरी मिल सकती थी, जैसा कि उन दिनों ये आम बात थी। पर तिलक और उनके दोस्त ने अपने छात्र-जीवन में ही सोच लिया था कि वो लोग सरकारी नौकरी नहीं करेंगे। उन्होंने मानवीय सेवा और सामाजिक कार्य करने का ठान लिया था। उस समय देश की जनता का जीवन स्तर सुधारने और उनको स्वाभिमानी और देशभक्त बनाने के लिए सबसे आवश्यक था शिक्षा का प्रसार। इसके लिए तिलक व उनके मित्र आगरकर ने प्राचार्य चिपलूनकर के साथ मिल कर न्यू इंग्लिश स्कूल प्रारंभ किया। यही बाद में डेक्कन एज्यूकेशन सोसाइटी के नाम से पुष्पित-पल्लवित हुआ। इसी के साथ 1881 में तिलक ने दो पत्रिकाएँ मराठी में ‘केसरी’ तथा अँग्रेजी में ‘मराठा’ प्रारंभ की। ‘केसरी’ जन साधारण में चेतना जागृत करने व अशिक्षा को दूर करने के लिए था। ‘मराठा’ उच्च शिक्षित और नई तथा स्वयं की सोच रखने वालों को अधिकार पूर्वक अपना विचार रखने का मंच बन गया।
तिलक ने शिवरात्रि में शिवालयों में उत्सवों तथा गणेश चतुर्थी उत्सव द्वारा जनता में आत्मविश्वास, देशभक्ति, वीरता आदि भावों का प्रचार ही किया। इसी बीच 1896 में महाराष्ट्र में अकाल पड़ा और प्लेग का धावा भी हुआ। अकाल निवारण के कार्य में लगे तिलक अपने उद्देश्यों को भी पूरा कर रहे थे। इसी बीच प्लेग की दवाई बाँटने, टीका लगाने तथा जाँच के बहाने घरों में जब-तब घुसने वाले अफसरों की क्रूरता बढ़ती जा रही थी। महिलाओं से अशालीन व्यवहार आदि से लोग बौखला गए और दो अफसरों को दामोदर चापेकर ने मार डाला। तिलक ने ‘केसरी’ में सरकार के व्यवहार की तीखी आलोचना की। फलस्वरूप उन पर भी राजद्रोह का मुकदमा चला कर 18 महीने की कड़ी सजा हुई। पर वे छ माह में ही छूट गए।
1904 में जब भारती अपने दड़बे से निकल कर ‘स्वदेश मित्रन’ के सहायक संपादक बने उन्हें देश की हलचल का पता चलने लगा। उनके देशभक्ति का जज्बा भी तभी प्रकट हुआ और तिलक के प्रति उनका आदर व अनुराग भी जागा। तिलक की तरह भारती को भी लगा कि भारतीय जनों को उनकी नींद से जगाना चाहिए। ऐसा लगता था मानों लोग गुलामी की मीठी नींद में सो रहे हों। 1905 में बंग विभाजन से ही लोगों में चेतना आई, एक तरह से नींद से उठे। हिंदू-मुस्लिम एकता का बहुत अच्छा उदाहरण इस समय दिखा। तिलक का उग्रवादी रवैया भारती के जवान, जोशीले और उत्साही तबीयत को भा गया। भारती ने उस समय काँग्रेस के उदारवादी दल के व्यवहार को हास्य रस की कविताएँ बना कर खिल्ली उड़ाई थी। तिलक की बताई राह व तरीके उन्होंने दक्षिण भारत में अपनाए। हिंदी भाषा की कक्षा दक्षिण में प्रारंभ करने वाले वे प्रथम व्यक्ति थे।
1908 में जब तिलक को 6 वर्ष की सजा हुई थी, वे जेल में लगातार लिखते रहे। ‘गीता रहस्य’ तथा ‘कर्मयोग शास्त्र’ जैसी गंभीर, बड़ी रचनाएँ भी लिखी। कानपुर में तिलक ने जाति-प्रथा के खिलाफ जोरदार भाषण दिया था। भारती ने उसके सार तत्व को उतने ही जोरदार, समर्पित भाव से पत्रिका में छापा। तिलक महाराष्ट्र के वैदिक ब्राह्मण के वंशज थे और वेदशास्त्र का उन्होंने गहन अध्ययन भी किया था। इसलिए उनका जाति-प्रथा का विरोध सही अर्थों में बहुत मायने रखता है। इस बात को भारती ने बहुत महत्व दिया और जन साधारण को समझाने की कोशिश की। तिलक के उच्च और नए विचार भारती को आकर्षित करते थे। उनके प्रति आदर की वृद्धि के साथ ही वो तिलक के बारे में तथा उनके कथन को प्रमुखता से अपनी पत्रिका में स्थान देते थे। एक तरह से तिलक को भगवान स्वरूप मानते थे। यहाँ तक कि अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाते हुए वे कहते हैं – ‘मैंने, धर्मराज का चेहरा देखा है, उसमें तिलक के चेहरे की प्रतिछाया देखी।’
भारती के हिसाब से भारत राष्ट्र में देशभक्तों के क्रम में सबसे ऊपर के दो क्रम बाल गंगाधर तिलक तथा महात्मा गांधी ही होंगे।
तिलक के बाद जिस देशभक्त को भारती ने बहुत सराहा वे थे विपिनचंद्र पाल। विपिनचंद्र के साथ भारती के अच्छे, सतत संपर्क रहे थे। मध्यम वर्ग के, फारसी भाषा के जानकार रामचंद्र पाल ढाका के न्यायालय में पेशकार थे। सन 1858 में इनके बेटे विपिनचंद्र पाल का जन्म हुआ। अपने उम्र के 10 वें वर्ष में अँग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ रहे थे। 1874 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में बी.ए. की परीक्षा दी पर आसफल रहे। 1879 में कटक के एक स्कूल में प्रधान आचार्य के पद पर कार्य करने लगे। तभी ब्रह्म समाज में दाखिल हुए और अपने पिता से उनका संबंध टूट गया। 1881 में नित्य कल्याणी नाम की बाल-विधवा से मुंबई में विवाह किया। एक वर्ष बैंगलूर (आज का बंगलुरु) में नौकरी की फिर कोलकाता लौट आए।
विपिनचंद्र के पिताजी का स्वास्थ्य खराब हो रहा था, उन्होंने बेटे को बुलवा भेजा। इस भेंट से दस वर्ष बाद दोनों के बीच की कड़वाहट दूर हो गई। पर उसी वर्ष अर्थात 1886 में उनके पिता का देहांत हो गया। उसी साल उन्होंने काँग्रेस में प्रवेश किया। 1887 में चेन्नै में हुए काँग्रेस अधिवेशन में शामिल भी हुए और सरकार के व्यवहार को लेकर कुछ मुद्दे पर तीखी आलोचना भी की। ब्रह्म समाज के भी अग्रणी नेता बन गए थे। कुछ समय लाहौर के ‘ट्रिब्यून’ में संपादक रहे।
1905 में बंग विभाजन के बाद ‘वंदे मातरम्’ पत्रिका प्रारंभ की। बीच-बीच में इंग्लैंड, अमेरिका जैसे देशों में जाकर ‘ब्रह्म समाज’ का महत्व, स्वरूप आदि पर भाषण दिए। साथ ही भारत के बिगड़े राजनैतिक हालात व उनके सुधार के उपाय आदि पर भी उद्बोधन देते रहे। पूरे देश में स्वदेशी, विदेशी वस्त्र का बहिष्कार तथा देशीय शिक्षा पद्धति इन त्रिसूत्रीय योजना का प्रचार-प्रसार विपिन चंद्र ने किया।
कलकत्ता में हुए काँग्रेस अधिवेशन में भारती ने विपिन चंद्र पाल को तमिलनाडु में आने का निमंत्रण दिया जिसे उन्होंने स्वीकार किया। आंध्र प्रदेश के अनेक हिस्सों तथा कटक में उनके भाषणों के बाद, भारती उन्हें तमिलनाडु लेकर आए। अप्रैल 27, 1907 का दिन चेन्नै के लिए यादगार हो गया था। चेन्नै के तिरूवल्लीकेनी के समुद्र तट पर उनके जोश भरे, विचारोत्तेजक उद्बोधन को सुनने मानव समुद्र वहाँ जमा हुआ था। इस कार्यक्रम के सभापति थे ‘स्वदेशमित्रन’ के जी. सुब्रम्हणीय अय्यर। नरम दल के किसी नेता या सदस्य ने सामने आने का साहस नहीं किया। उनके भाषण के अंश भारती ने ‘इंडिया’ पत्रिका में दिए।
विपिन चंद्र ने कहा – ‘हमारा लक्ष्य है स्वराज्य प्राप्त करना, सबके लिए रोजगार तथा स्थिर और ठोस जमीन मुहैया कराना। बिना स्वराज्य की चाह के इनसान उस खेत की तरह हैं जो बिना खाद के क्षीण होता जा रहा हो, जिसकी उर्वरा शक्ति खत्म हो रही हो। इनसान भी इसी तरह गरीबी, रोग, कमजोरी और अधर्म को प्राप्त होगा।’
अगले दिन प्रमुख समाचार पत्रों में इसी भाषण की चर्चा और प्रशंसा थी। हर जगह ‘वंदे मातरम्’ के नारे का बोलबाला था। आंध्र प्रदेश में तो विपिन चंद्र पाल के आगमन व भाषण ने एक नई जान फूँक दी। विश्वविद्यालय के छात्र चाँदी के लॉकेट पर ‘वंदे मातरम्’ लिखवा कर छाती पर लगाकर विश्वविद्यालय गए। कुछ छात्रों को विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया, जिससे करीब 200 छात्र स्वयं ही निकल गए।
विपिन चंद्र पाल का चेन्नै आगमन व उसकी सफलता का श्रेय भारती को जाता है। उनके भाषणों को दो पुस्तकों (भाषणों का संग्रह) में प्रकाशित किया गया।
राष्ट्र के प्रति समर्पित देशभक्तों जिन्होंने भारती को प्रभावित किया उनमें सबसे वयोवृद्ध और आदरणीय नाम है दादाभाई नौरोजी का। ये सन 1825 में एक गरीब पारसी परिवार में पैदा हुए थे। इनके पिता पुरोहित थे। दादाभाई के बाल्यकाल में उनके पिता का देहांत हो गया तथा उनकी माता ने ही उनको पाला। बंबई (आज की मुंबई) के एलफिनस्टन कॉलेज में एक तेजस्वी और मेधावी छात्र थे। उनकी मेधा को देख कर बंबई न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने उन्हें इंग्लैंड जाकर आई.सी.एस. की परीक्षा के लिए आर्थिक सहायता की पेशकश की। पर स्वाभिमानी दादाभाई ने इस सहायता को नकार कर एलफिनस्टन कॉलेज में ही पढ़ाने लगे। यहीं पर बाद गणित के प्रोफेसर भी रहे। अपने 24 वें वर्ष की वय में अपने कुछ मित्रों के साथ, पुरातन पंथियों द्वारा रोक-रुकावटों का महत्व न देकर बालिकाओं के लिए चार पारसी हाईस्कूल तथा तीन हिंदू हाईस्कूल की स्थापना की। डेढ़ सौ से भी अधिक वर्ष पहले इन सब बातों के बारे में सोचना भी मुमकिन नहीं था, वही उन्होंने कर दिखाया।
पारसी समुदाय में सदियों से जमी हुई पुरानी सड़ी गली परिपाटी को बदलने और प्रगति की राह पर चलने के लिए उन्होंने सदैव प्रयत्न किया और सफल भी हुए। इसी उद्देश्यों से एक पत्रिका ‘रस्त गोफ्तार’ महीने में दो बार प्रकाशित करने लगे। 1855 में लंदन में ‘कामा प्रबंध समिति’ से जुड़ गए। 1859 में इन्होंने स्वयं ही एक कंपनी प्रारंभ की। 1866 में ‘लंदन इंडियन संघ’ की स्थापना की तथा ‘ईस्ट इंडियन एसोसिएशन’ की स्थापना में भी मदद की। अपना शेष जीवन उन्होंने देश की स्वतंत्रता के संघर्ष में लगा दिया।
सन 1872 में बड़ौदा राज्य के दीवान के रूप में समाज सुधार के कार्य किए। 1883 में बंबई नगर सभा में कार्य करते हुए जल-विनियोग के कार्य को सुधारा।
सन 1886 में कलकत्ता अधिवेशन, 1894 में लाहौर तथा 1906 में फिर कलकत्ता काँग्रेस अधिवेशन, तीनों के सभापति दादाभाई नौरोजी ही रहे। 1905 से भारती अपनी पत्रिकाओं में इनके बारे में उल्लेख करते रहे। इन्होंने देशवासियों में देश के प्रति गर्व और अभिमान का एहसास जगाया जो उस समय अत्यंत आवश्यक था। बंग-विभाजन के समय नरम दल-गरम दल जो बँटवारा हुआ था उससे नरम दल के फिरोज शाह मेहता, गोखले आदि ने गरम दल के तिलक को 1906 के काँग्रेस अधिवेशन का सभापति न बनने देने के लिए बहुत प्रयत्न किया। दादाभाई नौरोजी को सभापति बनने को राजी किया। भारती ने ‘इंडिया’ पत्रिका में इस घटना का हवाला देते हुए लिखा कि नरम दल को लगा कि दादाभाई उनका समर्थन करेंगे। पर वे तो तिलक से भी अधिक तीव्रवादी थे मानों उनके भी गुरु हों।
भारती के अनुसार तब तक अँग्रेजों से स्वशासन की माँग करने वालों को दादाभाई ने ही ‘स्वराज्य’ की धारणा दी। ‘स्वराज्य’ शब्द अपना, हमारा देशी लगता है। विदेशी वस्तुओं का, लोगों का तिरस्कार ही एकमात्र उपाय है और हमें स्वराज्य अवश्य मिलेगा। हम ‘स्वराज्य’ को भीख की तरह भी नहीं लेंगे।
दादाभाई नौरोजी के दृढ़ कथन को भारती ने कहा – ‘विश्वास का दूसरा नाम दादाभाई है और विश्वास की कभी मृत्यु नहीं होती। विश्वास के साथ साधे गए कार्य अवश्य पूरे होते हैं।’ देशवासियों में चेतना, शिक्षा आदि का प्रसार कर विश्वास जगाने का काम दादाभाई नौरोजी ने लगभग सत्तर (70) वर्ष किया। उनकी मृत्यु के पहले देशवासी जाग गए और देशवासियों की ताकत में वृद्धि होते हुए देख कर ही उनके प्राण निकले। जून 30, 1917 को इस समाजसेवी, विद्वान, देशभक्त ने प्राण त्यागे। पीछे रह गए देशवासियों के लिए प्रेरणा पुंज बन कर गए।
सन 1863 में पैदा हुए नरेंद्र दत्त और भारती की जीवन रेखा एक दम बराबर थी। दोनों ही अपनी उम्र के 39 वें साल में मृत्यु को प्राप्त हुए। नरेंद्र दत्त भारती के जन्म से उन्नीस (19) वर्ष पूर्व पैदा हुए थे। नरेंद्र ने विवेकानंद के रूप में संन्यासी धर्म अपनाया और जगत के मोह-माया से तटस्थ रहे। पर देश प्रेम से अपने आपको अलग नहीं किया। भारती के हिसाब से स्वामी विवेकानंद का यह उपकार देश के लिए वरदान ही सिद्ध हुआ। स्वामीजी का दृढ़ चरित्र और प्रगतिशील सोच ने एक नए भारत के निर्माण में बुनियाद या नींव का महत्वपूर्ण कार्य किया है। भारती का कहना है – ‘रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र को विवेकानंद बनाया और विवेकानंद ने भारत का नवनिर्माण किया।’
सन 1904 से पूर्व भारती स्वामीजी के बारे में कुछ नहीं जानते थे। स्वदेशमित्रन के सहायक संपादक बन कर, तथा उसके लिए तमिल-अँग्रेजी अनुवाद कर के वे दुनिया भर से व दुनिया की खबरों से जुड़ते जा रहे थे। भारती 1906 में कोलकाता के काँग्रेस अधिवेशन में संवाददाता के रूप में गए थे। वापसी में डमडम नामक जगह पर भगिनी निवेदिता से भेंट करने गए। (यहाँ पर लेखकों में कुछ मतभेद हैं। एक लेखक ने लिखा है कि 1905 के काशी में हुए अधिवेशन से लौटते हुए कलकत्ता के डमडम नामक स्थान पर जाकर भगिनी निवेदिता से भेंट की)। इतना निश्चित है कि उनसे भेंट हुई और स्वामी विवेकानंद के बारे में बहुत सी जानकारी प्राप्त की। स्वामीजी और उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस के बारे में भारती बहुत उच्च विचार रखते थे। स्वामी विवेकानंद के उद्गारों को उद्धृत करते हुए भारती ने लिखा है – ‘अगले पचास वर्षों तक हम अपने सोते हुए ईश्वरों को भूल जाएँ। हमारे सामने, आस-पास हमारी जनता है जिसके विराट स्वरूप को देखें। इस ईश्वर को आत्मविश्वास, स्वाभिमान दिलाने का प्रयत्न करें। भूखे को भोजन, अशिक्षित को शिक्षा देने का प्रबंध करें। संक्षेप में कहें तो ईश्वर को देखना है या पाना है तो इन मानवों की सेवा करें।’
भारती भी इसी बात पर जोर देते रहे हैं। दोनों ही धनहीन और साधनहीन को ऐसी शिक्षा देने का कहते हैं जिससे उनका पेट भरे, स्वाभिमान जागे और आत्मविश्वास बढ़े।
भारत के शाश्वत वेदांत को विश्वव्यापी विस्तार देने वाले स्वामी विवेकानंद ही थे। अपने स्वार्थ को भुला कर जगत की भलाई के लिए स्वामीजी और भारती ने सेवा की जो एक मिसाल बन गई।
भारती की छोटी पुत्री शकुंतला ने अपनी पुस्तक ‘एन तंदै’ (मेरे पिता) में इस बात का उल्लेख किया है कि उनके घर में प्रतिवर्ष विवेकानंद जयंती मनाई जाती रही है। प्रथम वर्ष भारती ने स्वयं इसके लिण् वंदना एवं चरित्र चित्रण लिख कर दिया और बेटी से पढ़वाया था।
स्वामीजी निवेदिता द्वारा स्थापित विद्यालय में अक्सर आकर देखा करते थे। 28 जून 1902 में वो निरीक्षण करने विद्यालय आए थे और 4 जुलाई को बेलूर मठ में उनका निधन हो गया।
स्वामी विवेकानंद की शिष्या व धर्मपुत्री भगिनी निवेदिता से भारती का मिलना महत्वपूर्ण रहा। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में दो विदेशी महिलाओं की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। एक थियोसोफिकल संघ की अध्यक्ष एनी बेसेंट तथा दूसरी मारग्रेट एलिजाबेथ नोबल। यही मारग्रेट स्वामीजी की शिष्या भगिनी निवेदिता थी। सन 1884 से 1894 तक इंग्लैंड में स्कूली शिक्षिका थी। 1893 में शिकागो में हुए सर्वसमय पार्लियामेंट में भाग लेने गई थीं। 1895 में स्वामी लंदन गए तो वहाँ भी मिली। उन्होंने उनके सभी उद्बोधनों को सुना और प्रभावित हो गई। स्वामीजी ने मारग्रेट को भारत आकर स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए कुछ कार्य करने को कहा। मारग्रेट 1898 में जहाज पर बैठ कर कलकत्ता आ गई। पहले उन्होंने माँ शारदा देवी से आशीर्वाद लिया फिर स्वामीजी से दीक्षा लेकर निवेदिता बन गई। उनका सेवा व्रत उसी दिन से प्रारंभ होकर 1911 तक जब उनकी मृत्यु हुई तब तक चला। मृत्यु के समय उनकी आयु थी मात्र 44 वर्ष।
तत्कालीन भारत में स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए सर्वप्रथम उन्हें शिक्षित करना आवश्यक था। 1898 में भगिनी निवेदिता ने लड़कियों के लिए एक विद्यालय प्रारंभ किया। पर उसमें पहले दिन मात्र तीन लड़कियाँ भर्ती हुईं। छ महीने में आर्थिक तंगी के कारण विद्यालय बंद करना पड़ा। तत्पश्चात वो स्वामीजी के साथ यूरोपीय देशों की तथा अमेरिका की यात्रा पर गई। वहाँ अपने भाषणों, उद्बोधनों तथा अलग-अलग पत्रिकाओं में लिख कर राशि जमा की। अमेरिका व इंग्लैंड में एक निधि कोष ‘दि निवेदिता गिल्ड ऑफ हेल्प’ की स्थापना कर उससे भी रकम जुटा कर स्कूल चलाने में मदद ली। उस समय विद्यालय का नाम ‘रामकृष्ण बालिका विद्यालय’, ‘विवेकानंद विद्यालय’ तो कभी ‘निवेदिता विद्यालय’ कह कर लिया जाता। निवेदिता की मृत्यु के पश्चात उसको रामकृष्ण मिशन ने अधिगृहीत कर चलाया। 1963 में रामकृष्ण शारदा मिशन ने इस विद्यालय को चलाने का जिम्मा उठाया। विशाल बरगद की तरह वह विद्यालय अब ‘रामकृष्ण शारदा मिशन भगिनी निवेदिता बालिका विद्यालय’ नाम से बहुत अच्छे से चल रहा है।
स्वामीजी की मृत्यु के बाद निवेदिता ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूपों से भारत की आजादी के संग्राम में योगदान किया। विद्यालय की छात्राओं को त्याग, बलिदान, भारत के वीरों की कहानियों के साथ देशभक्ति का पाठ पढ़ाया। अँग्रेजों की दमनकारी नीतियों से बिना डरे, बिना दबे विद्यालय में ‘वंदे मातरम्’ का गान अनिवार्य कर दिया। स्वदेशी और देशी शिक्षा पर जोर दिया।
वनस्पतिशास्त्री जगदीश चंद्र बोस की वो मित्र तथा आलोचक-समीक्षक भी रही। उनके शोध के लिए एक अमेरिकी महिला से आर्थिक सहायता भी करवाती रही। उनकी शोध पुस्तक को विश्वव्यापी प्रशंसा और स्वीकृति मिलने पर सबसे अधिक खुशी उन्हें ही हुई। भगिनी निवेदिता अपने विदेश भ्रमण में डा. बोस व उनकी पत्नी को कई बार लेकर गई। वहाँ अन्य वैज्ञानिकों से उन्हें परिचित करवाती रहीं। निवेदिता की मृत्यु डा. जगदीश चंद्र बोस के दार्जिलिंग स्थित आवास में हुई थी।
1905 के काशी काँग्रेस अधिवेशन में गोपाल कृष्ण गोखले सभापति थे। भगिनी निवेदिता उनकी सचिव थी। उनको गोखले पर अगाध श्रद्धा थी। पर जब मतभेद के कारण काँग्रेस के दो दल बन गए तब निवेदिता को बहुत दुख हुआ। वो बाल गंगाधर तिलक के विचारों से सहमत थी। इसी वर्ष भारती भगिनी निवेदिता से कलकत्ता के डमडम में मिले थे।
इन विदुषी मनीषी से जब भारतीजी मिले तो उन्हें प्रेम और स्नेह का एक नया और विस्तृत रूप मिला जो अद्भुत था। भगिनी निवेदिता ने उन्हें कहा – ‘पुत्र, सबसे पहले अपने मन से विभाजन की रेखा को मिटाओ। जात, धर्म, कुल, गोत्र का जो अंतर एक मानव और दूसरे मानव में होता है उसे भूल जाओ। यह भी एक तरह की असभ्यता है कि हम इनके द्वारा फर्क करते हैं। बस स्नेह ही एक शाश्वत सत्य है जो बिना भेदभाव के सभी को दिया जा सकता है। वही करो। भगिनी निवेदिता ने अगला ही प्रश्न पूछा – ‘अविवाहित हो क्या? बस फिर एक के बाद दूसरा, तीसरा प्रश्नों की झड़ी लग गई।
भारतीजी ने प्रथम प्रश्न का उत्तर दिया – ‘विवाहित हूँ और दो पुत्रियों का पिता भी हूँ।’
‘फिर पत्नी को साथ क्यों नहीं लाएँ?’
‘हम लोगों में पत्नी हर जगह साथ नहीं आती। वैसे भी काँग्रेस अधिवेशन में उनको साथ ले जाने का कोई अर्थ नहीं है।’ – भारतीजी सादगी से बोले।
भगिनी निवेदिता रोष से भर गई – ‘समाज की आधी जनसंख्या (नारी जाति) अगर दासता में जकड़ी हो तो शेष आधे (पुरुष) की स्वतंत्रता का क्या अर्थ रह जाता है?
फिर कुछ रुक कर मानों भारतीजी को दिलासा दे रही हों – ‘जो हुआ, जितना हुआ उसे छोड़ो और आगे बढ़ो। भविष्य में पत्नी को अलग से मत देखो, अपना बायाँ हाथ समझो और मन और कर्म से उसका बराबरी से आदर करो।’
भारतीजी उनकी बातों से अभिभूत हो गए थे। उन्होंने वादा किया कि वो पत्नी के साथ ऐसा ही व्यवहार करेंगे।
निवेदिता देवी ने उन्हें एक पत्ता दिया जो पीपल के पत्ते की तरह दिखता था। निवेदिता देवी उस पत्ते को हिमालय से लाई थी। भारतीजी ने उस पत्ते को अपने अंतिम क्षण तक सँभाल कर रखा। कई मित्रों ने उसे ऊँची कीमत पर खरीदने की इच्छा जताई पर उन्होंने नहीं दिया। उनकी मृत्यु के पश्चात वो पत्ता न जाने कहाँ चला गया।
निवेदिता देवी से भेंट के बाद भारतीजी उनसे बहुत प्रभावित हुए। एक समाज सेवी सन्यासिनी का उनका रूप भारतीजी को इतना प्रभावशाली लगा कि उन्होंने निवेदिता देवी को अपना ज्ञान गुरु ही मान लिया।
एक बार निवेदिता देवी बहुत बीमार पड़ गई। तब भारती ने नवंबर 1906 के ‘इंडिया’ अंक में उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की प्रार्थना करते हुए एक आलेख लिखा। भारती के जीवन को नई सोच और प्रगतिशील दिशा देने में भगिनी निवेदिता ने बहुत अहम भूमिका निभाई थी। खास कर महिलाओं के प्रति उनकी सोच में।
सन 1908 में भारती की ‘स्वदेश गीतंगल’ (देश या राष्ट्र के गीत) तथा 1909 में ‘जन्मभूमि’ (जो स्वदेशगीतंगल) का दूसरा भाग है) प्रकाशित हुई। दोनों ही पुस्तकों को उन्होंने भगिनी निवेदिता के चरणों में भक्तिभाव से समर्पित किया है।
20. बच्चों के साथ भारती
मनुष्य-मनुष्य के बीच धर्म या जाति का कोई अलगाव नहीं है। ऐसा अंतर करना पाप है। ऐसा नहीं है कि जो शिक्षित और बुद्धिमान है वो ऊँची जात के ही हों। (भारती का बच्चों को उद्बोधन)
बाल लेखन या बच्चों के लिए लिखने की प्रथा अभी कुछ वर्षों से ही प्रारंभ हुई है। कुछ बाल-पत्रिकाओं ने चार-पाँच दशक पूर्व अपनी पहचान बनाई भी थी। पर बाल-साहित्य के बारे में गंभीरतापूर्वक विचार एक दशक से ही प्रारंभ हुआ। आज से एक शताब्दी पूर्व भारतीजी ने बालकों को एक स्वतंत्र इकाई मान कर लेखन किया था। बच्चों की मानसिकता के अनुकूल सरल, सरस भाषा में आचार-विचार-व्यवहार व चरित्र-निर्माण पर जोर देते हुए कविताएँ, कहानियाँ तथा आलेख लिखे। आज भी इन रचनाओं की सामयिकता बनी हुई है। कुछ वर्षों पूर्व केंद्रीय विद्यालयों में सर्वभाषा प्रार्थना व गीतों को स्कूलों में सिखाया गया था। इनमें तमिल के श्री सुब्रमण्यमन भारती का ‘ओडी विलैयाडु पापा, नी चुम्म इरूक्का आकादु पापा’ को चुना।
पापा का अर्थ होता बालक-बालिका। बच्चों दौड़ों, खेलों-कूदों यूँ ही बैठे मत रहा करो। घरों में बच्चों को अधिक से अधिक देर तक के लिए पढ़ाई करने बैठा दिया जाता है। पर कविवर भारतीजी का कहना था कि लड़के-लड़कियों दोनों को ही शाम को कुछ समय भाग-दौड़ के खेल खेलना चाहिए। वो स्वयं दुबले-पतले थे इसका उन्हें दुख था। शारीरिक तंदुरुस्ती के लिए व्यायाम और खेल को बहुत महत्वपूर्ण मानते थे। साथ ही बच्चों के मनोभावों को समझ कर उसके अनुसार व्यवहार करने की बात भी करते। बचपन से ही बच्चों में परिश्रम की महत्ता और उससे होने वाले लाभ के बारे में धीरे-धीरे समझाएँ। परिश्रम से कोई बीमार नहीं पड़ता वरन शरीर उसका आदि होते जाता है और वो बीमार भी कम पड़ता है। उसकी शारीरिक ताकत और व्याधियों से लड़ने की शक्ति बढ़ जाती है।
भारतीजी को इस बात का दुख था कि हमारे देश में वीर पैदा नहीं होते हैं। कुछ पैदाइशी वीर या जन्मजात वीर होते भी हैं तो बचपन में उनकी ऐसी परवरिश करते हैं कि वीरता समाप्त हो जाती है। वीरों की तथा वीरता की कमी का दूसरा कारण बताते थे, संवेदना की कमी से दूसरों की परेशानी से कोई सरोकार ना रखना। यही सोचना कि हमें क्या करना है! बच्चों को सिखाया जाता है कि दुष्टों से दूर रहो। इसे बच्चे मान भी लेंगे, पर उनके मन में डर पैदा होता है तो ये तरीका ठीक नहीं है। बच्चों को खाने-पीने, रोज के कार्य करवाने में किसी का डर बता कर दबाव में काम नहीं होना चाहिए। उन्होंने बच्चों के लिए लिखी कविता में अपने भावों को सुंदर तरीके से उजागर किया है। दुष्टों और गलत कार्य करने वालों से डरना नहीं चाहिए, विरोध करना चाहिए। हमारे देश में वीरों को सही सम्मान नहीं मिलता है ये उनका ऐसा दुख था जिससे वो मायूस हो जाते थे।
कवि भारती सदा ही नई सोच, नई बाते, नए प्रयोग के हिमायती थे। बच्चों को सदा कहते कि कुएँ के मेंढक की तरह मत जियो। नए विचार, नई सोच पर विचार करो और उदार बन कर उन्हें अपनाओ। यहाँ तक कि वेदों तक को नया बनाने का कहते जो कि बहुत ही बड़ा क्रांतिकारी कदम हो। वैसे उनका आशय ये होता कि सड़ी-गली पुरानी मान्यताओं को छोड़, युग और समय के अनुसार नवीनता को अपनाओ। उनके इन विचारों की कविता हो या लेख हो मात्र एक जात या धर्म के बच्चों के लिए नहीं होता। देश ही नहीं दुनियाभर के बच्चों के लिए उनका संदेश सही, सटीक और व्यावहारिक होता।
जीवन के अनुभवों को भी वो शिक्षा की तरह लेते थे। अनुभव खराब होते तो उसे सीख की तरह लेते। अच्छे अनुभवों का आनंद लेते थे वो भी पूरी मस्ती में व सबके साथ। बच्चों को भी वे यही सीख देते कि अनुभवों से शिक्षा लो और किसी भी हालत में आशा मत छोड़ो। निराशा मन में पालने से ही इनसान हारता है। उनके हिसाब से जीवन का अनुभव एक सर्वकला पाठशाला है।
बच्चों में निडरता को वो सद्गुण मानते थे, चाहे वो बालक हो या बालिका। उनका कथन था कि निडरता वहीं होती है जहाँ सच्चाई, ईमानदारी और साहस होगा। सभी बच्चों में चारित्रिक दृढ़ता के लिए वो इन गुणों को आवश्यक मानते थे। पुदुचेरी में परिवार के साथ रहते हुए एक बार बड़ी बेटी तंगम को भी अरविंद जी के यहाँ ले गए। अरविंद ने तंगम से कई प्रश्न पूछे, जिसका जवाब तंगम या तो संक्षिप्त या सिर हिला कर देती रही। भारती व्यथित हो गए कि वो तो समस्त बच्चों की निडरता की बात करते है और स्वयं उनकी पुत्री साधारण प्रश्नों के उत्तर देने में संकोच और शर्म अनुभव कर रही है। उन्हें गुस्सा भी आया और उन्होंने खीजते हुए पूछा – ‘अरविंद जी के हाथ में अस्त्र-शस्त्र थे ना?’
तंगम आश्चर्य से बोली – ‘नहीं तो’
‘फिर डर क्यों रही थी? भारत देश में ऐसी नारियाँ पैदा हुई है जो शेरों से भी नहीं डरी। भारत की नारियों को वही वीरता फिर प्राप्त करनी पड़ेगी और गुलामी की जंजीरों को तोड़ना होगा।’
एक बार पुदुचैरी के समुद्र तट पर अमावस्या स्नान पर भारी भीड़ थी। ज्वार-भाटा का समय होने से लहरें बहुत ऊँची और वेग से आ रही थी। तंगम वहाँ नहाने या पानी में जाने से ही घबरा रही थी। भारती ने ही उसे हौसला दिला कर कहा – ‘सागर कितना भी उमड़े पर डरने की आवश्यकता नहीं है। यदि विवेक से काम लिया जाएँ तो कभी किसी भी बात या घटना से डरने की आवश्यकता नहीं है।’ वे स्वस्फूर्त कवि और गीतकार थे – सो तुरंत गाने लगे –
अच्चम ईलै, अच्चम ईल्लै (अर्थात – डर नहीं है, डर नहीं है…)