मछुआरे (मलयालम उपन्यास) : तकषी शिवशंकर पिल्लै, अनुवादक-भारती विद्यार्थी Part 1

मछुआरे (मलयालम उपन्यास) : तकषी शिवशंकर पिल्लै, अनुवादक-भारती विद्यार्थी Part 1

खण्ड : एक

“बप्पा नाव और जाल खरीदने जा रहे हैं।”

“तुम्हारा भाग्य।”

करुत्तम्मा से कोई जवाब देते नहीं बना। लेकिन उसने तुरन्त परिस्थिति पर काबू पा लिया। उसने कहा, “रुपये काफी नहीं हैं। क्या उधार दे सकते हो ?”

हाथ धोकर दिखाते हुए परी ने कहा, “मेरे पास रुपये कहाँ है ?”

करुत्तम्मा हँस पड़ी और कहा, “तब अपने को छोटा मोतलाली क्यों कहते फिरते हो ?”

“तुम मुझे छोटा मोतलाली कहकर क्यों पुकारती हो ?”

“नहीं तो और क्या कहकर पुकारूँ ?”

“सीधे परीकुट्टी कहकर पुकारा करो !”

करुत्तम्मा ने ‘परी’ तक कहा और खिलखिलाकर हँस पड़ी। परी ने पूरा नाम कहने का अनुरोध किया करुत्तम्मा ने हँसी को रोका और गम्भीर भाव से असहमति प्रकट करने के लिए सिर हिला दिया। उसने कहा, “ऊँ हँ, मैं नाम लेकर नहीं पुकारूँगी।”

“तो मैं भी तुम्हें करुत्तम्मा कहकर नहीं पुकारूँगा ?”

“तो फिर क्या कहकर पुकारोगे ?”

“मैं तुम्हें बड़ी ममाहिन कहकर पुकारूंगा।”

करुत्तम्मा हँस पड़ी। परीकुट्टी ने भी ठहाका मारा, खूब हँसा क्यों ? दोनों इस तरह क्यों हँसे ? कौन जाने! दोनों मानो दिल खोलकर हँसे ।

“अच्छा, नाव और जाल खरीदने के बाद नाव में जो मछली आयगी उसे व्यापार के लिए मुझे देने को अपने बप्पा से कहोगी ?”

“अच्छा दाम दोगे तो मछली क्यों न मिलेगी ?”

फिर जोरों की हँसी हुई। भला इसमें इतना हँसने की क्या बात भी कोई मजाक था क्या ! कोई भी बात हो, आदमी इस तरह कहीं हँसता है ! हँसते-हँसते करुत्तम्मा की आँखें भर आई थीं। हाँफते-हाँफते उसने कहा, “ओह मुझे इस तरह न हँसाओ, मोतलाली !”

“मुझे भी न हँसाओ, बड़ी मल्लाहिन जी “परी कुट्टी ने कहा ।

“बाप रे, कैसा आदमी है यह छोटा मोतलाली !”

दोनों फिर ऐसे हंस पड़े मानो एक ने दूसरे को गुदगुदा दिया हो। हंसी भी कैसी चीज है। यह आदमी को कभी गम्भीर बना देती है, तो कभी कलाकर छोड़ती है। करुत्तम्मा का चेहरा लाल हो गया था। उसने शिकायत के तौर पर नहीं, गुस्से में कहा, “मेरी तरफ इस तरह मत ताको !” उसकी हँसी खत्म हो चुकी थी। भाव बदल गया था। ऐसा लगा, मानो परीकुट्टी ने अनजाने में कोई गलती कर दी हो।

“करुत्तम्मा, तुम्हीं ने मुझे हँसाया और तुम्हीं…..”

“धत्त”, करुत्तम्मा के मुँह से निकला। वह अपनी छाती को हाथों से ढकती हुई घूमकर खड़ी हो गई। वह एकाएक सकुचा गई। उसकी कमर में सिर्फ एक लुंगी थी।

“ओह, यह क्या है? छोटे मोठलाली !”

इतने में घर से करुत्तम्मा को बुलाने की आवाज सुनाई पड़ी चक्की, उसकी माँ, जो मछली बेचने के लिए पूरब गई थी, लौट आई थी। करुतम्मा घर की ओर दौड़ गई। परीकुट्टी को लगा कि करुत्तम्मा नाराज होकर चली गई है। वह दुखी हुआ। उधर करुत्तम्मा को भी लगा कि वह परीकुट्टी के ही सामने क्यों, कहीं भी इस तरह नहीं हँसी थी। वह एक अजीब तरह का अनुभव था। कैसी थी वह हँसी! दम घुटाने वाली, छाती फाड़ डालने वाली। करुत्तम्मा को लगा था कि वह नग्न रूप में खड़ी है और एकदम अदृश्य हो जाना चाहती है। ऐसा अनुभव इसके पहले उसे कभी नहीं हुआ था। उस अनुभूति की तीव्रता में दिल को चुभने वाले कुछ कड़े शब्द उसके मुँह से निकल गए थे।

करुत्तम्मा का यौवन मानो जाग उठा था और प्रतिक्षण पूर्णत्व की ओर बढ़ रहा था। परी की नजर अचानक जब करुत्तम्मा की छाती पर जा टिकी थी तब उसे लगा कि उसका सारा शरीर सिहर उठा है। क्या इसी से हँसी की शुरुआत हुई थी ? करुत्तम्मा एक ही कपड़ा पहने हुए थी, और वह भी पतला!

परीकुट्टी को लगा कि कस्तम्मा नाराज होकर चली गई, उसके अशिष्ट व्यवहार से रुष्ट होकर चली गई। उसे यह भी डर लगा कि करुत्तम्मा फिर उसके पास नहीं आयगी ।

परी ने सोचा कि वह करुत्तम्मा से माफी माँग ले और उससे कह दे कि फिर ऐसी गलती नहीं होगी।

दोनों को एक-दूसरे से क्षमा मांगने की जरूरत महसूस हुई। करुत्तम्मा जब समुद्र-तट पर सीप बटोरकर खेलने वाली चार-पाँच साल की एक छोटी बच्ची थी तब उसे जो एक छोटा साथी मिला था वह साथी परीकुट्टी ही था पाजामे के ऊपर पीला कुर्ता पहने, गले में एक रेशमी रूमाल बांधे और सिर पर तुर्की टोपी लगाये परीकुट्टी को अपने बाप का हाथ पकड़े समुद्र-तट पर पहले-पहल जैसा उसने देखा था, वह उसे खूब याद था। उसके घर के दक्खिन की तरफ़ उन लोगों ने डेरा डाला था। अब भी वह डेरा वहीं पर था। पर अब परीकुट्टी ही वहाँ का व्यापार चलाता था।

समुद्र के किनारे पड़ोस में रहते हुए दोनों बड़े हुए थे।

रसोईघर में बैठी चूल्हा जलाती हुई करुत्तम्मा को एक-एक बात याद हो आई। आग चूल्हे के बाहर जलने लगी। उसी समय माँ वहाँ बाई और करुत्तम्मा की अन्यमनस्कता और बाह्र जलने वाली लकड़ी दोनों को थोड़ी देर तक देखती रही।

तब चक्की ने करुत्तम्मा को एक लात लगा दी। करुत्तम्मा मानो सपने में से चौंक उठी नाराजगी के साथ चक्की ने पूछा, “किसके बारे में बैठी-बैठी सोच रही है ?”

करुत्तम्मा का भाव देखकर कोई भी उससे ऐसा ही सवाल करता। चक्की का इसमें कोई दोष नहीं था। करुत्तम्मा दूसरी ही दुनिया में थी।

“अम्मा, समुद्र-तट पर रखी हुई उस बड़ी नाव की आड़ में दिदिया खड़ी-खड़ी छोटे मोतलाली के साथ हँस रही थी”-उसकी छोटी बहन पंचमी ने कहा। उसकी बात सुनकर करुत्तम्मा एकदम चौंक गई। वह दोषपूर्ण भेद-जो किसी को नहीं मालूम था, खुल गया। पंचमी नहीं रुकी। उसने आगे कहा, “ओहो, कैसी हँसी थी अम्मा, कुछ कहा नहीं जा सकता।” इतना कहकर वह करुत्तम्मा को इशारे से जताती हुई कि उसके पीछे पड़ने का यही नतीजा है, वहाँ से भाग गई।

करुत्तम्मा पंचमी को घर पर छोड़कर नाव की तरफ़ गई थी। इस कारण पंचमी पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने के लिए नहीं जा सकी थी। चेम्पन (बाप) का आदेश था कि कभी ऐसा न हो कि घर में एक आदमी भी न रहे। नाव और जाल खरीदने के लिए वह कुछ रुपये बचाकर घर में रखे हुए था। इस कारण पंचमी को घर पर रहना पड़ा था। उसी का उसने करुत्तम्मा से गुस्सा उतारा।

इस तरह की बात सुनकर क्या कोई माँ चुप रह सकती है ! चक्की ने करुतम्मा से पूछा, “अरी, मैं क्या सुन रही हूँ ?”

करुत्तम्मा ने कोई उत्तर नहीं दिया।

“तू क्या करने पर तुली हुई है री ?”

करुत्तम्मा के लिए जवाब देना जरूरी हो गया। एक जवाब उसे सूझ गया, “यों ही समुद्र तट पर जब गई…”

“समुद्र तट पर जब गई..?”

“छोटे मोतलाली नाव पर बैठे थे।”

“उसमें तेरे हँसने की क्या बात थी ?”

करतम्मा को एक और जवाब सूझा, “नाव और जाल खरीदने के लिए रुपया जो कम है वह मे मोठलाली से पैसा माँग रही थी।”

“अरी, उससे रुपये मदने का तेरा क्या काम था ?”

“उस दिन बप्पा और तुम आपस में बातें नहीं कर रहे थे कि मोतलाली से रुपया माँगना है ?”

वह सब तर्क व्यर्थ था। वह जवाब में कुछ-न-कुछ कहने की करुत्तम्मा की कोशिश मात्र थी। चक्की ने बेटी को एड़ी से चोटी तक ध्यान से देखा ।

चक्की भी उस उम्र से होकर गुजर चुकी थी। यह भी हो सकता है कि जब चक्की करुतम्मा की उम्र की थी तब तट पर डेरा डाले कुछ मोतलाली लोग भी रहते होंगे। उन्होंने भी किनारे पर रखी नाम की आड़ में चक्की के मन को गुद गुदाकर उसे हँसाया होगा। लेकिन चक्की एक ऐसी मल्लाहिन थी, जो उसी समुद्र-तट पर जन्म लेकर बड़ी हुई थी। इसलिए वह वहाँ के परम्परागत तत्त्व ज्ञान की अधिकारिणी थी।

प्रथम मल्लाह जब पहले-पहल लकड़ी के एक टुकड़े पर चढ़कर समुद्र की लहरों और ज्वार-भाटे का अतिक्रमण करके क्षितिज के उस पार गया तब उसकी पत्नी ने तट पर व्रत- निष्ठा के साथ पश्चिम की ओर देखकर खड़े-खड़े तपस्या की समुद्र में तूफान उठा, शार्क मुँह बाये नाव के पास पहुँचे, ह्वेल ने नाव को पूंछ से मारा और जल की अन्तर-धारा ने नाव को एक भँवर में खींच लिया। लेकिन आश्चर्यजनक रीति से वह मल्लाह सब संकटों से बचकर एक बड़ी मछली के साथ किनारे पर लौट आया। उस तूफ़ान के खतरों से वह कैसे बच्चा? शार्क उसे क्यों नहीं निगल गया? की मार से उसकी नाव क्यों नहीं दूब गई। अंदर से उसकी नाव कैसे निकल आई? यह सब कैसे हुआ? समुद्र-तट पर बड़ी उस पतिव्रता नारी की तपस्या का ही वह फल था!

समुद्र-माता की पुत्रियों ने इस तपश्चर्या का पाठ पढ़ा। चक्की को भी इस तत्त्व-ज्ञान की सीख मिली थी। यह भी सम्भव है कि जब चक्की एक नवयुवती थी तब एक मोतलाली ने उसे भी आँख गढ़ाकर देखा होगा और चक्की की माँ ने उस समय उसको भी समुद्र-माता की पुत्रियों की तपश्चर्या की कहानी और जीवन का तत्त्वज्ञान समझाया होगा ।

चक्की ने करुत्तम्मा की गलती समझी हो या नहीं उसने आगे कहा, “बिटिया, अब तू छोटी बच्ची नहीं है। एक मल्लाहिन हो गई है।” परीकुट्टी के शब्द ‘बड़ी मल्लाहिन’ करतमा के कानों में गूंज गये।

चक्की ने आगे कहा, “इस महासागर में सबकुछ है बिटिया, सब कुछ इसमें जाने वाले लोग कैसे लौट कर आते हैं यह तुझे क्या मालूम ! तट पर उनकी स्त्रियों के पवित्रता से रहने से हो यह होता है। वे पवित्रता का पालन न करें तो मल्लाह नाव सहित भँवर में पड़कर खत्म हो जाय। मछुआरों का जीवन वास्तव में तट पर रहने वाली उनकी स्त्रियों के हाथ में ही है।”

यह पहला अवसर नहीं था जब कि करुत्तम्मा ने उपर्युक्त आशय की बात सुनी हो। जहाँ चार मल्लाहिन इकट्ठी होती वहीं इन शब्दों को दुहराना एक मामूली बात थी।

फिर भी परीकुट्टी के साथ हँसने में क्या गलती हुई थी? किसी मछुआरे का जीवन उसे सौंपा तो गया नहीं था। जब सौंपा जायगा तब उसकी रक्षा वह जरूर करेगी। कैसे करना है यह भी उसे मालूम था मल्लाहिनों को यह किसी से सीखने की जरूरत नहीं है।

चक्की ने आगे कहा, “क्या तुझे मालूम है कि यह समुद्र कभी-कभी क्यों रंग बदलता है ? समुद्र-माता क्रोध आ जाने पर एक साथ सब नष्ट कर डालती है। नहीं तो अपनी सन्तान के लिए सब कुछ देती है। इसमें सोने की खान है बेटी, सोने की खान ।”

चक्की ने बेटी को फिर एक बड़ा उपदेश दिया, “पवित्रता ही सबसे बड़ी चीज है, बेटी ! मल्लाह की असली सम्पत्ति मल्लाहिन की पवित्रता हो है । कभी कभी छोटे मोतलाली लोग समुद्र-तट को अपवित्र कर देते हैं। पूर्व से स्त्रियाँ झिंगी पीटने और सूखी मछली को बोरों में भरने के लिए आया करती है और वह तट को अपवित्र कर देती हैं । समुद्र तट की पवित्रता का महत्त्व उन्हें क्या मालूम ! वे समुद्र माता की सन्तान तो हैं नहीं। लेकिन उसका फल भोगना पड़ता है मछुआरों को। …तट पर रखी हुई बड़ी नावों को आड़ और यहाँ की झाड़ियाँ बहुत खतर नाक जगह हैं। वहीं सतर्क रहने की जरूरत है।”

इतना कहकर चक्की ने बेटी को गम्भीरतापूर्वक सावधान किया, “तेरी अब उम्र हो गई है। छाती भर आई है बेहरा-मोहरा सब हृष्ट-पुष्ट हो गया है। हो सकता है, छोटे मोतलाली लोग और दूसरे नासमझ जवान लड़के तेरी ओर नजर गड़ाकर देखें।”

यह सुनकर करुत्तम्मा चौंक गई। नाव की आड़ में ठीक वही बात हुई थी। उसके मन में उस समय विरोध की जो भावना उठी थी, वह शायद परम्परा से प्राप्त भावना थी। यदि कोई छाती की ओर या नितम्बों की ओर आंख गड़ाकर देखे तो वह बात समुद्र माता की सन्तान की मर्यादा के विरुद्ध होगी ही।

“बिटिया मेरी, तू समुद्र में तूफान उठाकर मछुआरों की जीविका नष्ट न कर!”

करुत्तम्मा डर गई । चक्की ने आगे कहा, “वह तो विधर्मी है। उसे इन बातों की क्या परवाह होगी!”

चक्की इस तरह बोल रही थी मानो वह सारी बातें समझ गई हो। उस रात को करुत्तम्मा को नींद नहीं आई। पंचमी पर जिसने उसका भेद खोल दिया था, उसे कोई गुस्सा नहीं आया। उसने यह भी नहीं सोचा कि पंचमी ने क्यों कह दिया। क्योंकि उसने अपनी गलती महसूस की। समाज में सदियों से अविच्छिन्न रूप से चला आने वाला तत्त्वज्ञान उसमें भी अवश्य था। शायद वह निश्चित रूप धारण कर रहा था। वह शायद डरती भी होगी कि वह पय-भ्रष्ट हो जायगी। जब यह डर था तब तो पंचमी से नाराज होने का कोई कारण ही नहीं रहा । करुतम्मा जहाँ थी वहाँ से मानो उसे उखाड़ फेंकने की नीयत से एक गीत की कुछ कड़ियाँ समुद्र तट की ओर से आकर उसके कानों में समा गई।

करुत्तम्मा ने ध्यान से सुना ।

गाना परीकुट्टी गा रहा था। वह कोई गायक नहीं था। फिर भी नाव के एक तख्ते पर बैठा वह गा रहा था। अपने वहां बैठने की जो खबर देना चाहता था वह और किसी जरिये दे सकता था। जिसके लिए खबर थी, उसे खबर मिल गई। तीर निशाने पर जा लगा। करुत्तम्मा का मन विचलित हो उठा। ‘चुपके से उट कर चली जाय तो ! …परीकुट्टी फिर नजर गड़ाकर उसकी छाती और नितम्बों की ओर देखेगा जाना भी उसे नाव की आड़ में होगा ! और वह खतरनाक जगह है! परीवुड़ी विधर्मी भी तो है !”

गाने की वे कड़ियाँ मल्लाहों के एक गीत की कड़ियाँ थीं। थोड़ी देर और सुनती रहे तो यह जरूर निकलकर चली जायगी; ऐसा करुत्तम्मा को लगा। हृदय के भीतर घुस जाने वाली उन पैनी नजरों का प्रहार सहन करने में भी एक आनन्द था। …वह पट लेट गई और कानों में उँगलियाँ डालकर उन्हें बन्द कर दिया। फिर भी वह गाना भीतर घुसता रहा।

करुत्तम्मा रो पड़ी।

उस कोठरी का कमजोर दरवाजा खोला जा सकता था। वह टूट कर गिर भी सकता था। लेकिन करुत्तम्मा थी एक ऐसे घेरे के भीतर, जिसकी दीवार किसी भी तरह तोड़ी नहीं जा सकती थी। वह घेरा था समुद्र-माता की सन्तान के तत्त्व-ज्ञान की ऊँची और मोटी दीवार का घेरा। उसमें न खिड़कियाँ थीं, न दरवाजे ।

लेकिन क्या शरीर का गर्म खून उसे तोड़ नहीं देगा ? इस तरह का घेरा कभी टूटा नहीं है?

परीकुट्टी का गाना उस निर्जन समुद्र-तट पर फैल गया। वह एक मल्लाहिन को, रात के समय दरवाजा खुलवाकर बाहर निकालने के लिए तैयार किया हुआ गाना नहीं था। उसमें न लय थी, न ताल। गाने वाले की आवाज भी अच्छी नहीं थी, फिर भी उसमें एक विशेष आकर्षण था। परीकुट्टी का इरादा सिर्फ यह जता देना था कि वह वहाँ बैठा है। उसे तो करुतम्मा से माफी माँगनी थी। गाते-गाते उसका गला दुखने लगा ।

करुत्तम्मा ने कानों से उँगलियाँ निकाल लीं। बगल की कोठरी में उसके माँ-बाप आपस में बात कर रहे थे, नहीं झगड़ रहे थे। करुत्तम्मा के कान खड़े हो गए वे उसीके बारे में बातें कर रहे थे।

चेम्पन ने कहा, “मैं सब-कुछ जानता हूँ तेरे कुछ कहने की जरूरत नहीं है, मैं भी तो आदमी हूँ।”

चक्की गुर्राई – “ओ, आदमी हो ! जान लेना ही काफी नहीं है ! बिटिया कलंकित हो जायगी तब ?”

“जा, जा उसके पहले ही मैं उसे भेज दूंगा।”

“सो कैसे ? बिना रुपये लिये कौन ले जाने के लिए आयगा ?”

“सुन !” कहकर चेम्पन ने अपनी सारी योजना सुनानी शुरू की।

करुत्तम्मा वह विवरण सो बार पहले भी सुन चुकी थी।

चक्की ने दुःख और रोष से कहा, “अच्छा तो नाव और जाल खरीदते रहो!”

चेम्पन ने अपना निश्चय दुहराया- “कुछ भी हो, मैं उन रुपयों में से चार पैसे भी नहीं निकालूंगा, तुम उन पर आंख मत लगाओ!”

चक्की ने यह कहकर अपना गुस्सा उतारा, “बिटिया को कोई विधर्मी कुमार्ग पर ले जायगा। अब यह होने जा रहा है।”

चेम्पन ने कोई जवाब नहीं दिया। चक्की के डर की गुरुता उसके दिमाग में कैसे नहीं घुसती ! थोड़ी देर बाद उसने कहा, “मैं एक लड़का लाऊँगा।”

“बिना पैसे के ही ?”

चेम्पन ने हुँकारी भर दी।

चक्की ने कहा, “कोई ऐरा-मेरा होगा !”

“तू देखती रहना ।”

सन्तुष्ट न होकर चक्की ने आगे कहा, “ऐसा ही है तो लड़की को बांधकर समुद्र में फेंक देना अच्छा होगा।”

चेम्पन ने फटकारा, “धत् तेरे की।”

“यह नाव और जाल सब किसके लिए हैं ?”

चेम्पन ने जवाब नहीं दिया।

चक्की ने सुझाया, “उस वेल्लमणली वेलायुधन् के बारे में क्यों नहीं सोचते ?”

“नहीं, वह नहीं चाहिए।” क्यों उसमें क्या कमी है ?”

“वह सिर्फ एक मल्लाह है, मामूली मल्लाह ।”

“तब बिटिया के लिए मल्लाह नहीं तो और किसे लाने जा रहे हो ?”

इसका कोई जवाब नहीं था ।

माँ की यह बात कि कोई विधर्मी बेटी को कुमार्ग में ले जायगा, करुतम्मा के कानों में गूँज गई। लेकिन उसके बाप को उसका पूरा मतलब समझ में नहीं आया करुत्तम्मा का कलेजा धक् धक् करने लगा, मानो फट जायगा। विधर्मी ने क्या उस समय भी उसे कुमार्ग की ओर खींच नहीं लिया था !

दूसरे दिन करुत्तम्मा घर से बाहर नहीं निकली। परीकुट्टी के डेरे में उस दिन काम की भीड़ थी। ढेर लगाकर रखी हुई मछलियों को बोरों में भरने के लिए पूरब से औरतें आई हुई थीं।

जब करुत्तम्मा अकेली बिना काम के बैठी तब उसके मन में एक विचार बिजली की तरह कौंध गया। क्या परीकुट्टी उन औरतों की छाती की ओर भी नजर गड़ाकर देखता होगा !

दोपहर को समुद्र में गई हुई सब नावे लौटकर किनारे पर लग गई। चक्की टोकरी लेकर समुद्र-तट की ओर चली गई। चलते समय उसने करुत्तम्मा को फिर सावधान किया, “बिटिया, मैंने जो-जो कहा है सब याद रखना !” कम्मा को मालूम था कि क्या-क्या याद रखना है।

थोड़ी देर के बाद चेम्पन घर आया करुत्तम्मा ने भात परोस दिया। आज चम्पन ने बेटी को जरा गौर से देखा, जैसा इसके पहले कभी नहीं किया था। वह तो रोज ही उसे देखता था, लेकिन आज उस तरह देखने का क्या मतलब था ? करुतम्मा डर गई कि बाप को भी कहीं उसका रहस्य मालूम तो नहीं हो गया है ! लेकिन यदि मालूम हो भी गया होता तो वह जरूर गुस्सा दिखाता। उसके भाव में गुस्सा नहीं था।

चक्की ने पिछली ही रात को उसे याद दिलाया था कि घर में बेटी ब्याही जाने लायक बड़ी हो गई है। चेम्पन ने जब से होश संभाला था तब से अपनी नाव और जाल खरीदने की ही कोशिश में रहा है। अब एक और मुख्य बात की ओर उसका ध्यान खींचा गया है। बेटी अब युवती हो गई है। चक्की ने कहा था कि कोई विधर्मी उसे पथभ्रष्ट कर सकता है। यही सब याद करके चेम्पन ने बेटी को ध्यान से देखा था।

वह आज भी दूसरे की नाव में काम करके अपना हिस्सा कमा लाता था । शुरू में वह नाव में डाँड चलाने का काम करता था। अब वह पतवार-चालक का काम करता है। उसके जीवन का एक निश्चित उद्देश्य था अपनी कमाई का एक पैसा भी वह फिजूल खर्च नहीं करता था। अब तक उसने कुछ जमा भी कर लिया था लेकिन नाव और जाल खरीदने के लिए वह काफी नहीं था।

लड़की युवती हो गई है। उससे गलती भी हो सकती है। चक्की ने जो कहा है, सो ठीक ही कहा है। उसका डर बिना कारण नहीं था। नाव और जाल खरीदना चाहिए या बेटी की शादी कर देनी चाहिए, यह अब सोचने का विषय हो गया। चेम्पन ने भी बेटी से कुछ कहना जरूरी समझा- “बिटिया, तुझे अपनी मर्यादा की रक्षा करनी है।” बाप ने भी कह ही दिया।

करुत्तम्मा ने कोई जवाब नहीं दिया। चेम्पन ने भी जवाब की प्रतीक्षा नहीं की।

शाम को मजदूरों को भेज देने के बाद परीकुट्टी नाव के तख्ते पर जा बैठा था। आज भी शायद वह करुत्तम्मा की राह देखता होगा ।

चेम्पन परीकुट्टी के पास पहुँचा। करुत्तमा ने दोनों को बहुत देर तक बातें करते देखा। वे किस विषय पर बातें करते होंगे, इसका उसने अन्दाज लगाया उसको लगा कि उसका बाप परी से कर्ज माँगता होगा।

उस रात को पति-पत्नी ने बहुत देर तक आपस में गुप्त रूप से बातें कीं। वे क्या बातें कर रहे थे यह जानने की करुत्तम्मा की बड़ी इच्छा हुई।

परी ने उस दिन भी गाना गाया अपनी टूटी झोंपड़ी के अन्दर चुपचाप लेटी हुई करुत्तम्मा ने उसे सुना। उसे परी से अब तक एक ही बात कहनी थी कि वह उसकी छाती की ओर नजर गड़ाकर न देखे। अब उसे एक और बात कहनी है कि वह गाना भी न गावे ।

दो दिन पहले तक वह एक तितली की भांति सोल्लास दौड़ती फिरती थी। लेकिन दो ही दिन में उसमें ईसा परिवर्तन हो गया। बैठकर सोचने के लिए कोई बात मिल गई । वह अब अपने को पहचानने लगी है। क्या वह जीवन को गम्भीर बनाने वाली बात नहीं थी ? वह अपने को जाँचने लगी। एक-एक कदम सोच विचारकर आगे रखना था। पहले की तरह स्वच्छन्दता पूर्वक दौड़ती फिरना अब सम्भव नहीं था। एक मर्द ने उसकी छाती की ओर देखा है और वह बच्ची से अब एक स्त्री हो गई है।

तीसरे दिन परीकुट्टी का गाना नहीं सुनाई पड़ा। उस दिन भी चांदनी फैलकर मन को लुभा रही थी। समुद्र का एक रहस्यपूर्ण गीत नारियल के पत्तों में हिलोरें लेता हुआ पूरन की ओर फैल रहा था। अब जब परीकुट्टी गा नहीं रहा था, करुत्तम्मा के कान उसका गाना सुनने के लिए व्यग्र हो उठे। क्या वह आगे गायगा ही नहीं ?

रात का खाना खाने के बाद चेम्पन कही बाहर चला गया। चक्की सोई नहीं करुत्तम्मा ने कारण पूछा। माँ ने बेटी से सो जाने को कहा। लेटे-लेटे करुत्तम्मा की आँखें लग गई ।

एकाएक वह जाग उठी। कोई पूछ रहा था, “करुत्तमा अभी सोई नहीं है ?”

आवाज में सिर्फ उसी की पहचान में आने वाला जो कम्पन था उससे करुत्तम्मा ने आदमी को पहचान लिया। वह परीकुट्टी था ।

चक्की ने जवाब दिया- “वह सो गई है।”

चक्की की आवाज में जो एक संकोच था सो भी करुत्तम्मा ने समझ लिया । उसका सारा शरीर पसीने से तर हो गया। उसने उठकर टूटी दीवार की दरार से बाहर झाँका। परीकुट्टी और चेम्पन दोनों मिलकर एक भारी बोझ उठाकर भीतर रख रहे थे। एक नहीं, दो नहीं, छह-सात भरे हुए बोरे थे। सबमें सूखी मछलियाँ थीं।

करुलम्मा का कलेजा धक्-धक् करने लगा, मानो फट जायगा । बाहर आँगन में चक्की, परीकुट्टी और चेम्पन तीनों आपस में धीरे-धीरे बातें कर रहे थे।

दूसरे दिन करुत्तम्मा ने माँ से उन बोरों के बारे में पूछा। चक्की ने जरा छल के साथ जवाब दिया, “छोटे मोतलाली ने लाकर रखे हैं।”

करुत्तम्मा ने पूछा, “अपने यहाँ क्या वह नहीं रख सकता था ?”

“इधर रखने में तुझे क्या एतराज है ?” चक्की ने पूछा। कुछ क्षण के बाद उसने कड़ककर आगे कहा, “इस तरह पूछ-ताछ करने के लिए वह तेरा कौन है री ? तू अपने को सँभालकर रख समझी !”

करुत्तम्मा का बहुत-कुछ पूछने का मन था। परीकुट्टी उसका कोई नहीं था । लेकिन क्या वह चोरी नहीं थी? उसका मतलब था परीकुट्टी का कर्ज़दार बन जाना ! बाप ने मर्यादा की रक्षा करने की चेतावनी दी है। लेकिन इस तरह के काम से उसका कर्जदार बन जाय तो !..पर करुत्तम्मा ने कुछ कहा नहीं।

दूसरे दिन उन सूखी मछलियों की बिक्री हो गई। उसके बाद के दिन समुद्र में मछुआरों को बड़ी आमदनी हुई। चेम्पन की नाव किनारे पर एक बार ढेर लगाकर, दुबारा गई। चक्की माल बेचने के लिए पूरब गई थी। पंचमी भी घर पर नहीं थी। करुत्तम्मा अकेली थी।

परीकुट्टी आया।

करुत्तम्मा दौड़कर भीतर चली गई। परीकुट्टी बिना कुछ बोले ही थोड़ी देर बाहर खड़ा रहा। उसे भी संकोच हो रहा था। उसका मुँह और कण्ठ सूख गया था। उसने इतना ही कहा, “नाव और जाल खरीदने के लिए रुपये दे दिए हैं।”

कोई जवाब नहीं। रफी ने आगे कहा, “अब मुझे व्यापार के लिए मछली मिलेगी न ? दाम दूँगा।”

‘अच्छा दाम दोगे तो ने सकोगे’, यही जवाब मिलना चाहिए था। यही जवाब करुत्तम्मा ने पहली बार दिया था। पर इस बार उसने कोई जवाब नहीं दिया। उस दिन इस तरह की बातचीत के सिलसिले में दोनों खूब जोर से हँसे थे परी ने सोचा भी होगा कि वह हँसी फिर दुहराई जायगी, लेकिन आज ऐसा नहीं हुआ। करुतम्मा एकदम चुप थी।

परी ने पूछा, “करुत्तम्मा, तुम बोलती क्यों नहीं हो ? क्या मुझसे कुट्टी कर ली है ?” परी को लगा कि वह भीतर-ही-भीतर रो रही है। उसने पूछा, “रो रही हो करुत्तम्मा ?” उसने आगे कहा, “मेरा आना पसन्द नहीं है तो मैं जाता हूँ।” इसका भी कोई जवाब नहीं मिला। तब रुँधे हुए कण्ठ से परीकुट्टी ने पूछा, “क्या मैं जाऊँ करुत्तम्मा ?”

“मोतलाली! तुम एक विधर्मी हो”, करुत्तम्मा ने जवाब दिया मानो परी का आखिरी सवाल उसके हृदय में कहीं लग गया हो।

परीकुट्टी की समझ में बात नहीं आई। उसने पूछा, “इससे क्या ?”

इसका कोई जवाब नहीं था करुत्तम्मा के मन में भी यह सवाल उठा, ‘विधर्मी है तो क्या ?” झट से उसके मुँह से एक वाक्य निकला, “डेरे पर काम के लिए आने वाली मजदूरों को छाती की ओर जाकर नजर गड़ाओ !”

परी को लगा कि करुतम्मा ने उस पर भारी आरोप लगाया है। उसको लगा कि करुतम्मा सोचती है कि काम के लिए आने वाली मजदूरिनों के साथ उसका अनुचित सम्बन्ध है और इसीलिए वह नाराज है। उसकी समझ में नहीं आया कि वह कैसे अपनी निर्दोषिता का प्रमाण दे। उसने किसी को भी उस नजर से नहीं देखा था। उसने सचाई से कहा, “अल्लाह की कसम, मैं किसी को भी उस नजर से नहीं देखा है।”

परीकुट्टी अच्छा आदमी है, यह साबित हो जाता तो करुत्तम्मा को बड़ी खुशी होती, इसमें कोई सन्देह नहीं था। लेकिन वह अपने लिए परीकुट्टी से यह नहीं चाहती थी कि वह दूसरी औरतों को न देखे। वह क्या चाहती थी यह वह उसे कैसे कहे, यह वह खुद नहीं जानती थी उसे कैसा जीवन बिताना है, यह भारी तत्त्व जान, सारा का सारा सुनाना पड़ेगा और यह काम उससे नहीं होगा। इतनी हिम्मत उसमें नहीं थी।

निःशब्दता में काफी समय बीत गया, किसी ने कुछ नहीं कहा। उस चुप्पी की अवधि बढ़ जायगी मानो इसी डर से करुतम्मा ने कहा, “अम्मा अब आयगी।”

” इससे क्या ?”

डरकर उसने कहा, “बाप रे बाप, यह गलत है, यह अपराध है।”

“तुम भीतर हो, मैं बाहर हूँ। फिर क्या ?”

यह भी उसे समझाना होगा ! कैसे ? कहना शुरू करती तो कितना कहना पड़ता!

परी ने पूछा, “करुत्तम्मा ! तुम मुझसे प्रेम नहीं करतीं ?”

करुतम्मा ने झट से जवाब दिया, “करती है।”

परीकुट्टी ने आवेश के साथ पूछा, “तब तुम बाहर क्यों नहीं आतीं ?”

“मैं नहीं आती।”

“हँसाऊँगा नहीं। जरा देखकर चला जाऊँगा ।”

निस्सहाय भाव से करुतम्मा ने इतना ही कहा, “नहीं, नहीं। बाप रे बाप !”

“तो मैं जाता हूँ।”

जवाब के तौर पर भीतर से आवाज आई, “मैं सदा-सर्वदा प्रेम करती रहूँगी।”

इससे बढ़कर कौन-सी प्रतिज्ञा चाहिए थी ? परी वहाँ से चला गया। उसके चले जाने पर करुत्तम्मा को लगा कि जो कहना चाहिए था सो तो कहा नहीं और जो नहीं कहना चाहिए वही कह दिया।

उस रात को करुत्तम्मा ने माँ-बाप दोनों को रोशनी जलाकर रुपया गिनकर रखते देखा अब भी रुपया कम था तो भी चेम्पन को तसल्ली थी। उसने कहा, “ओसेप्प या किसी और गला काटने वाले के पल्ले पड़े बिना ही इतना तो हो गया ।”

चक्की ने भी सहमति प्रकट की- “मछुआरों को धोखा देने के लिए जेब में रुपये डालकर घूमने वालों से रुपया लिया होता तो…”

“तब तो न नाव रहेगी, न जाल; न लगाया हुआ रुपया ही मिलेगा।”

औसेप्य और गोविन्दन् हाल में भी पूछ रहे थे कि कर्जा चाहिए क्या चेम्पन ने जवाब में ‘ना’ कह दिया था। उनसे लेने पर कर्जा कभी चुकता ही नहीं। इतना ही नहीं, नाव और जाल भी जल्दी हो उन्हीं का हो जाता। गरीब मछुआरों के साथ ऐसा ही होता आया है। अभी रुपया कम है तो उसका क्या उपाय है?

चेम्पन ने कहा, “छोटा मोतलाली हो बाकी रुपया क्यों नहीं दे देता ?”

जीवन में पहली बार करुत्तम्मा के मन में माँ-बाप के प्रति घृणा उत्पन्न हुई। माँ ने इस प्रस्ताव का विरोध क्यों नहीं किया ? इस विचार ने उसे और भी परेशान कर दिया।

परी के घर में, इसके बाद, मछली सुखा-सुखाकर बोरों में भरने का काम बड़ी तेजी से होने लगा। इसका रहस्य करुत्तम्मा को मालूम था। थोड़े ही दिनों में वह काफी होशियार हो गई थी।

जीवन में अभिवृद्धि लाने वाले परिवर्तन की खुशी में चक्की ने करुतम्मा से कहा, ‘बेटी, हमारी नाव और जाल के आने का समय आ गया ।”

करुत्तम्मा ने कुछ नहीं कहा। उस खुशी में वह भागीदार नहीं हो सकी। उसकी ऐसी ही प्रतिक्रिया थी।

चक्की ने कहा, “समुद्र-माता ने कृपा की है।”

करुत्तस्मा के मन में जो गुस्सा भरा था वह प्रकट हो गया, उसने कहा, “लोगों को धोखा देने से समुद्र-माता नाराज नहीं होंगी क्या ?”

चक्की ने करुत्तम्मा की ओर ग़ौर से देखा करुत्तम्मा विचलित नहीं हुई। उसे और भी पूछना था, “उस बेचारे को धोखा देकर नाव और जाल नहीं लाना चाहिए अम्मा? यह तो अन्याय है।”

“क्या कहा रही है री ? कि धोखा दिया है ?”

करुत्तम्मा ने हिम्मत के साथ कहा, “हाँ।”

“किसने ?”

करुत्तम्मा की चुप्पी ही इसका जवाब था चक्की ने कहा, “औसेय से कर्जा लिया जाता तो नाव और जाल उसीके हो जाते।”

“नहीं अम्मा, औसेप्प को सिर्फ सूद के साथ उसका रुपया लौटा देना पड़ता।”

“यह नहीं लौटाना है क्या ?”

करुत्तम्मा ने चक्की से सीधे ढंग से पूछा, “यह, यह – लौटाने के लिए लिया गया है क्या ?”

चक्की ने कहा कि परी से सूखी मछली लेने में कोई धाखेबाजी नहीं थी। चम्पन ने तो सिर्फ पूछा था, जोर नहीं दिया था। झूठ भी नहीं बोला था न धोखा ही दिया था। उसका रुपया जरूर लौटाया जायगा।

करुत्तम्मा ने पूछा, “आधी रात के समय बोरे उठवाकर रखे जाते हैं। यह लौटा देने के लिए है? ऐसा है तो दिन के समय लाने में क्या हर्ज था? ऐसे ही कामों से समुद्र में तूफान उठता है।”

करुत्तम्मा की अन्तिम बात जरा ज्यादा हो गई। पक्की को गुस्सा आ गया। उसने पूछा, “तू क्या कहती है री? तेरे ब… ने चोरी की है ?”

करुत्तम्मा चुप रही। माँ के अधिकारपूर्ण स्वर में चक्की ने आगे कहा, “वह विधर्मी छोकरा तेरा कौन है री ? तुझे क्यों इतना दर्द हो रहा है ?”

करुत्तम्मा कहना चाहती थी कि वह उसका कोई नहीं है।’ लेकिन उसके मुंह से कोई शब्द नहीं निकला। उसे लगा कि वह क्यों कहे कि परी उसका कोई नहीं है। क्या सचमुच वह उसका कोई नहीं है ?’ …उस समय उसे लगा कि परी वास्तव में उसका सब-कुछ है।

चक्की ने अपना सवाल दुहराते हुए कहा, “बाप रे बाप! लगता है कि लड़की समुद्र तट का सर्वनाश कर बैठेगी।”

करुतम्मा ने दृढ़ता के साथ माँ का विरोध किया- “मैं अपनी मर्यादा छोड़ने बाली नहीं हूँ।”

“फिर तुझे उसके लिए क्यों इतना दर्द होता है ?”

“इस हिसाब से तो उसे यहाँ से अपना डेरा डण्डा सब उठाकर चल देना होगा।”

चक्की ने बेटी को फटकारकर खूब डॉटा करुम्मा चुपचाप सुनती रही। उसे जरा भी नहीं अखरा चक्की उसी तरह बोलती गई। जब उसकी डॉट फटकार सीमा पार करने लगी तब करुतम्मा ने माँ से पूछा, “क्या उसने बप्पा पर विश्वास करके ही पैसा दिया है ?”

“नहीं तो फिर किस पर ?”

एकाएक चक्की को याद आया कि करुत्तम्मा ने उससे रुपया माँगा था और शायद वही बात याद करके वह पूछ रही है। उसने झल्लाकर कहा, “क्या तेरे माँगने से दिया है ?”

करुत्तम्मा यह नहीं कह सकती थी कि उसीके मांगने से परी ने रुपया दिया है। लेकिन वह जानती थी कि परी उसे प्यार करता है। उसने कहा, “मुझसे कुछ मत कहलवाओ अम्मा !”

“हूँ ऊँ !! क्या कहलवाना है परी ?” जरा रुककर चक्की ने फिर कहा, “तू यही कहना चाहती है कि मैं ही उसके पास नाचती हुई दौड़ी गई रुपया मांगने के लिए ?”

“अम्मा मुझे इतना उपदेश देकर उससे रुपया क्यों लिया ?अब उसका कर्ज़दार होकर…।”

आगे कुछ कहने में वह असमर्थ हो गई। उसका गला रुंध गया। चक्की का भी दिमाग जरा ठिकाने आ गया। करुत्तम्मा के कथन में तथ्य था। थोड़ी देर के लिए चक्की को भी बुरा लगा। उसे लगा कि कुछ गलती हो गई है और खतरे की ओर कदम बढ़ा दिया गया है। उसने पूछा, “क्या है बेटी, क्या हो गया ?”

कुरुत्तम्मा रोती रही ।

“क्या वह यहां आया था बिटिया ?”

करुत्तम्मा ने एक भारी झूठ बोल दिया, “नहीं।’

“तब क्या है बिटिया ?”

“अगर आवे तो मुझे क्या करना चाहिए अम्मा ?”

चक्की ने अपने को निरपराध साबित करना चाहा ! उसका तर्क था कि यह नहीं सोचा गया था। परी से सहायता मांगी और उसने सहायता दी। लोटाने के खयाल से ही उससे रुपया लिया गया है। तो भी करुत्तम्मा का डर ठीक था। परी बदचलन नहीं था, इसका चक्की को पूरा भरोसा था। फिर भी उसको उम्र तो कम ही थी। चक्की का मन एकाएक अशान्त हो गया। उस समय उसे लगा कि परी से रुपया नहीं लिया गया होता तो अच्छा होता। लेकिन चेम्पन को यह सब कहाँ मालूम था।

उस दिन भी करुत्तम्मा की शादी की बात को लेकर चक्की ने पति को तंग किया। उसने जोर देकर कहा कि वेलायुधन् से बातें करके देखना चाहिए। पहले यही काम होना चाहिए। नाव और जाल लेने के बारे में बाद में सोचना ठीक होगा। लेकिन चेम्पन इसके लिए तैयार नहीं था।

उससे सब-कुछ खोलकर कैसे कहे। उसने गुस्सा प्रकट करते हुए कहा, “अब तक तुम्हारे जाल और नाव के लिए पैसा इकट्ठा करने के विचार से मैं टोकरियाँ भर-भरकर बेचने जाया करती थी। आगे इस आमदनी की आशा मत रखना !”

चेम्पन ने अलक्ष्य भाव से चक्की की ओर देखकर कहा, “बिना सोचे-विचारे ही तू क्या बोल रही है ?”

चक्की ने चिढ़कर कहा, “मैं ठीक ही बोल रही हूँ ।”

“क्या ?”

“मुझे अपनी बेटी की रक्षा करनी है।”

“माने ?”

“उसकी अब उम्र हो गई है। उसे घर पर अकेली छोड़कर कहीं जाने का मेरा मन नहीं है। नहीं तो बेटी की शादी करा दो !”

चेम्पन चुप रहा; मानो उसकी समझ में बात आ गई। चक्की बेचने जाने का काम नहीं करेगी तो बड़ा घाटा होगा, यह निश्चित था। उसने पूछा, “क्यों री, कोई गड़बड़ी हो गई है? “

“नहीं, लेकिन हो जाय तो ?”

सावधान रहने की जरूरत तो थी हो लेकिन चेम्पन का पूरा विश्वास या कि करमाशील है, उच्छृंखल नहीं है, अकेली रह जाने पर भी वह कोई गलती नहीं करेगी।”

चक्की ने पूछा, “गलती करने के लिए कितना समय चाहिए ?”

चेम्पन ने जबाब नहीं दिया। अगले दिन चक्की पूरव नहीं गई। चेम्पन ने भी जोर नहीं दिया।

उस रात को भी सूखी मछलियां लाने की बात थी लेकिन इस बार चक्क ने विरोध किया, “हमें वह नहीं चाहिए।”

चम्पन ने पूछा, “क्यों?”

“उस लड़के को क्यों धोखा दे रहे हो ?”

“किसने कहा है कि धोखा दे रहा है ?”

“नहीं तो क्या उसका रुपया लोटा दोगे ?”

चेपन ने ‘हाँ’ कह दिया।

करुतम्मा को लगा कि परी को बता देना चाहिए कि रुपया वापिस नहीं मिलेगा। वह गुप्त रूप से यह बात उसे बता देने के मौके की ताक में रही। लेकिन मौका नहीं मिला।

रात को परी कुछ बोरे ढोकर माया और बिना किसी संकोच के लेपन ने सब उठाकर घर में रख लिए। परी से यह भी नहीं कहा कि कब उसका रुपया लौटा देगा। करुत्तम्मा को लगा कि उसमें बाप के सामने भी बोलने की हिम्मत है। उसने माँ को ही इसमें ज्यादा कसूरवार समझा ।

करुतम्मा को लगा कि सब दिन के लिए झुका देने वाला भार उठा लिया गया है ।

चेम्पन के पास पूरे रुपये जमा हो गए। वह रुपया लेकर नाव और जाल खरीदने चला गया।

समुद्र-तट पर वह एक चर्चा का विषय हो गया। किसी ने कहा कि चेम्पन को कोई निधि मिल गई है। एक दिन जब वह समुद्र तट पर गया तो उसे पत्थर के टुकड़े जैसी कोई चीज मिली थी, जो वास्तव में सोने का एक ढेला था। दूसरों ने असली बात का समर्थन किया कि उसने बड़ी होशियारी से बचा बचाकर रुपया जमा किया है। लेकिन यह बात सबों के विश्वास करने योग्य नहीं थी। उनका कहना था कि सब लोग चेम्पन की तरह ही कमाने वाले हैं। जब उन्हें खर्च के बाद कुछ बचत नहीं होती, तब सिर्फ चेम्पन ही कैसे इतना बचा सकता था ।

अच्चन चेम्पन की उम्र का था। चेम्पन के घर से सटा हुआ ही उत्तर में उसका घर था। दोनों बचपच के साथी थे। सब लोग अच्चन से सवाल करने लगे कि चेम्पन कितना रुपया लेकर गया है; कहाँ से इतना रुपया आया है, नाव और जाल आएगा, तब कौन-कौन नई नाव में काम करेंगे इत्यादि ।

अच्चन को कुछ मालूम नहीं था। तब भी उसने जानकार होने का भाव प्रकट किया। वेपन का महत्व बढ़ रहा था, तब उसके दिली दोस्त का भी महत्त्व बढ़ना ही चाहिए। अच्चन ने अपनी समझ के अनुसार सब सवालों का जवाब दिया और अपना महत्त्व प्रकट किया।

कोच्चू वेलु ने एक सवाल पूछा, “भाई, सुनने में आया है कि तुम्हारा भी इसमें हिस्सा है। क्या यह बात ठीक है ?”

यह सवाल अच्चन को पशोपेश में डालने वाला था। फिर भी वह चुप नहीं रहा। उसने कहा, ” ‘है’ यह भी नहीं कह सकता और नहीं है, यह भी नहीं कह सकता।”

अच्चन का भाव देखकर उसे बनाने के खयाल से ही बेलू ने वह सवाल किया था। उसका जवाब सुनकर सब ठठाकर हँस पड़े। अच्वन शरमा गया।

एक होशियार आदमी ने पूछा, “तुम लोग हंस क्यों रहे हो जी ? अच्चन बाहे तो अपने लिए नाव और जाल नहीं खरीद सकता ? फिर हिस्सेदार क्यों बने ?”

अच्चन को अपनी झेंप से ही एक जवाब सूझ गया- “सब लोग नाव और जाल खरीदेंगे तो काम कौन करेगा ?”

अपनी हँसी को रोकते हुए कोच्यूवे ने कहा, “ठीक ही है। इसीलिए अच्चन भय्या नाव और जाल नहीं खरीदता !”

अच्चन की समझ में अब बात आ गई कि साथी सब जान-बूझकर उसका मजाक उड़ा रहे हैं। उसके बाद जब कोई उससे चेम्पन की नाव और जाल के बारे में पूछता तब वह उसे खूब फटकार देता। लोग उससे तैश में आकर डॉट फटकार सुनाते देखने के लिए, कुछ-न-कुछ पूछ लिया करते ।

एक दिन मछुआरों की आमदनी कम हुई। अच्चन को तीन ही रुपये मिले । चाय वाले अहमद का पुराना कर्जा उस पर चला आता था। उस दिन अहमद ने उसे रोककर अपना पैसा वसूल कर लिया। इस तरह उस दिन उसे खाली हाथ घर लौटना पड़ा।

घर में उस दिन रात को खाना बनाने का उपाय न देखकर नल्लम्मा उसको राह देखती बैठी थी। पति-पत्नी में खूब झगड़ा हुआ। नल्लम्मा की शिकायत थी कि पति जो भी कमाता है सो चाय या शराब में खर्च कर देता है। अच्चन की सचाई पर उसे विश्वास नहीं था। शराब नहीं पी है यह प्रमाणित करने के लिए अच्चन ने पत्नी की नाक के पास जाकर अपना मुंह खोलकर सुंधाया। फिर भी नल्लम्मा को विश्वास नहीं हुआ। उसने कहा, “जो कमाता है सो पूरा पीने में ही खर्च हो जाता है। तुम्हें होश-हवास नहीं है। जिन्दगी कटेगी ?”

“अरी आज मैंने नहीं पी है ? झूठ बोलती है ?”

“आज नहीं पी तो क्या हुआ ? जब कमाते हो तब पी ही लेते हो न !”

घर वाली ने घर खर्च के लिए पैसा न होने के कारण शिकायत की थी। लेकिन अच्चन ने अधिकारपूर्वक डॉट के साथ कहा, “अरी, इस तरह बेअदबी से बोलती रहेगी ?”

“बेअदबी ? बचपन के साथी के पास अब अपनी नाव और जाल हो गए और तुम यहाँ खाने का खर्च भी नहीं जुटा पाते। इतना कहना बेअदबी की बात हो गई ?”

इसका जवाब अच्चन ने बोलकर नहीं, बल्कि पत्नी की पीठ पर कसकर दो थप्पड़ लगाकर दिया। उसकी कैसी दुर्गति हो रही थी ! चेम्पन ने नाव और जाल खरीदा तो उसके लिए तट पर सबों ने उसकी हँसी उड़ाई। घर पर भी उसकी बात को लेकर उसको परेशानी !!

“अरी, कोई नाव और जाल खरीदे तो उसके लिए मैं क्या करूँ ? कौन-सा प्रायश्चित्त करूँ ? चेम्पन ने पेट काटकर पैसा जमा किया है। उस तरह मुझ ही से क्या, यहाँ किसी और से भी नहीं हो सकता।”

चक्की और करुतम्मा अपने घर से यह झगड़ा सुन रही थीं। चक्की ने पुकार कर कहा, “अच्चन भाई ! हम लोग भूखे रहते थे तो एक जून भी तुम्हारे यहाँ माँगने नहीं गये ?”

अच्चन चक्की की ओर घूमा- “बस, बस । चेम्पन को मैं अच्छी तरह जानता हूँ । बचपन से ही जानता हूँ ।”

“तुम क्या जानोगे ! आज तुम्हारे यहां आग तक नहीं जलाई गई है न ! यह तुम्हारे और तुम्हारी औरत के मन की बुराई का फल है।”

“औरत ने क्या किया है री ? औरत के बारे में कुछ कहोगी तो… हाँ-आ..”नल्लम्मा ने कहा।

“अरी कौन-सी बुराई है ?” अध्यन ने चक्की से पूछा।

“ईर्ष्या।”

“किससे ? तुम्हारे मल्लाह से ?”

अपनी गहरी अवज्ञा प्रकट करने के लिए अच्चन ने खखारकर थूक दिया और कहा, “अरी उस घृणित आदमी से मर्दों को ईर्ष्या हो सकती है ?”

चक्की को गुस्सा भी चढ़ा, “अगर अंट-शंट बोलोगे तो…हाँ !”

अच्चन ने पूछा, “क्या करोगी ?”

“पूछते हो, क्या करूँगी !”

“अरी, चार पैसे पास में हो गए तो इसीसे इतना घमण्ड !”

झगड़ा बढ़ता देखकर करुत्तम्मा घबराई। उसने माँ का मुंह अपने हाथ से बन्द किया। अच्चन रुकता नहीं था। चक्की का भी दम फूल रहा था। करुत्तम्मा मां को घर के भीतर खींच ले गई।

जब गुस्सा जरा ठण्डा हुआ तब अच्चन ने ध्यान से एक-एक बात पर विचार किया। उस दिन घर में खाना नहीं बना था। इससे भी उस झगड़े ने उसे अधिक दुखी बना दिया। औरतें कभी-कभी आपस में भिड़ जाती थीं लेकिन वह खुद उस दिन तक न तो चेम्पन से झगड़ा था, न चक्की से; आज वह भी हो गया, उसे रात को नींद नहीं आई।

दूसरे दिन सवेरे समुद्र में जाने के पहले उसने नाव वाले से दो रुपया उधार लेकर घर दे दिया। दोपहर को कमाई का अपना हिस्सा पूरा-का-पूरा लाकर नस्लम्मा के हाथ में देते हुए कहा कि आगे से उसने ऐसा ही करने का निश्चय किया है।

“अरी, सुन, जो कमाऊँगा सब लाकर दे दिया करूँगा। हिफाजत से रखा करना ! हम भी जरा देखें कि चार पैसा बचा सकते हैं कि नहीं।”

यह विचार नल्लम्मा को बहुत पसन्द आया। उसने कहा, “तब तो अगर नाव और जाल न भी ले सकें, शाम को भूखे तो नहीं रहना पड़ेगा ।”

“कौन कहता है कि नाव और जाल नहीं ले सकेंगे? यह निश्चय से कहने की जरूरत नहीं है। हो सकता है कि हम भी ले लें।”

नल्लम्मा को लगा कि अच्चन ठीक कहता है। कोशिश करने का उसका भी मन था। उसने कहा, “कल तक एक समान रहने वालों को देखा नहीं ? अब वे बात भी नहीं करेंगे।”

अच्चन को यह अच्छा नहीं लगा। उसने कहा, “तुम क्यों दूसरों के बारे में बोला करती हो? हमारे लिए अपना ही काम देखना काफ़ी है।”

“नहीं, मैं तो यों ही कह रही थी। मालूम होता है कि चक्की अब बहुत घमण्डी हो गई है।”

अच्चन ने उपदेश दिया, “तुम अपना मुँह बन्द रखा करो तो बहुत अच्छा होगा ।”

“मैं कुछ भी बोलने नहीं जाती ।”

“हाँ वही अच्छा होगा, हम भी जरा देखें ।”

नल्लम्मा को एक ही पछतावा रहा कि अच्चन को ऐसा पहले क्यों नहीं सूझा !

अच्चन ने हामी भरी। नल्लम्मा ने ठीक ही कहा था। फिर भी मानो अपनी तसल्ली के लिए अच्चन ने कहा था, “अरी, मल्लाह को क्यों बचाकर रखना चाहिए ? उसकी सम्पत्ति पश्चिम में फैली हुई पड़ी है न! बाप-दादों का कहना था कि नाव और जाल घाट के सामूहिक काम के लिए हैं। लेकिन अब तो यह बात नहीं रही। कोशिश करने पर नाव और जाल कौन मल्लाह नहीं रख सकता ? “

“फिर भी बचपन के साथी के पास अब नाव और जाल हो गया ना,” अच्चन ने कहा, “बेम्पन होशियार है। उसका यही लक्ष्य रहा है।”

फिर उसने हुंकारी भरते हुए कहा, “देखूंगा।”

यह उसका निश्चय था।

शाम को जाल की मरम्मत करने के लिए उसे समुद्र पर जाना था। जाल के फटे रहने से उस दिन बहुत-सी मछलियाँ बाहर निकल गई थीं। जब अच्चन तट पर पहुंचा तब बाकी सब पहुँच चुके थे और काम में हाथ भी लगा चुके थे। वहाँ पर भी चेम्पन ही बातचीत का विषय था।

अच्चन ने कहा, “साथियो, तुम लोगों को और कोई काम नहीं है ? दूसरों के बारे में कुछ बोलने की क्या जरूरत है ? नहीं तो बोलते जाओ ! उसका पाप कटने दो !”

अच्चन ने पूछा, “तुम्हें इतना दुःख क्यों होता है ?”

अच्चन ने शान्त भाव से कहा, “कहो, मेरा कहना गलत है ?”

रामन् मूप्पन ने न्याय की एक बात उठाई : “चेम्पन के बारे में कुछ कहने का हमें अधिकार नहीं है?”

“कैसा अधिकार ?”

रामन् मूप्पन को आश्चर्य हुआ। उसने कहा, “सुनो भाई, कोई नौजवान इस तरह का सवाल करता तो समझ में आ सकता था। तुम तो एक पुराने मल्लाह हो न !”

अच्चन की समझ में बात नहीं आई। उसने सिर्फ दूसरों की बुराई न करने की बात कही थी। वह अच्छी ही बात तो थी। उसने पूछा, “क्यों, ऐसा तुमने क्यों कहा मूप्पन ?”

डोरा नीचे रखते हुए मूप्पन ने कहा, “समुद्र-तट के कुछ कायदे-कानून भी हैं कि नहीं ?”

अच्चन ने हामी भरी, “क्या चेम्पन पर वे लागू नहीं होते ?”

अच्चन ने ठीक समझा नहीं कि किस बात को लेकर वे सब व्यंग कर रहे हैं। रामन् मूप्पन ने सवाल खोल दिया, “इस घाट पर पुराने जमाने में क्यों, हाल तक भी क्या बड़ी उमर हो जाने पर लड़कियाँ घर में अविवाहित रहा करती थीं ?”

अच्चन ने बात पूरी की, “घाट पर उन दिनों घटवार रहता था।”

मूप्पन ने आगे सवाल उठाया, “वयस्क लड़की जब घर में है तब कौन नाव और जाल खरीदने की बात सोच सकता है ?”

पुराने जमाने में घटवार लड़कियों को ऐसे अविवाहित नहीं रहने देता था । घाट के नियमों का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता था। घटवार इस सम्बन्ध में हमेशा सावधान रहा करता था। उन नियमों का विशेष उद्देश्य था। वे मल्लाहों के कल्याण के लिए बने थे।

अच्चन ने पूछा, “नियम के अनुसार किस उम्र में लड़की की शादी होनी चाहिए ?”

बूढ़े मून ने कहा, “दस साल की उम्र में।”

वेल्लमण ली वेलायुधन् ने पूछा, “दस साल की उम्र में शादी नहीं हुई तो ?” जानकारी के लिए यह सवाल नहीं पूछा गया था। उसकी ध्वनि में नियम के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का भाव स्पष्ट था।

रामन मूप्पन ने ही उसे जवाब दिया, “पूछते हो, ‘नहीं हुई तो ?’ ऐसा तो होने नहीं दिया जाता था।”

बेलायुधन् ने आगे पूछा, “घटवार क्या करेगा ?”

“हुक्का तम्बाकू बन्द कर देगा और फिर घटवार पर रहना भी नहीं हो सकेगा।”

एक दूसरे नौजवान पुण्यन् ने कहा, “ये सब पुराने जमाने की बातें हैं।”

अच्चन ने गुस्से से कहा, “नहीं रे, आज भी वैसा ही होगा। तुम देखोगे हाँ दिखा देंगे। अब चेम्पन को परेशान होकर इधर-उधर दौड़ते दिखा देगे।”

रामन् मूप्पन ने इसका समर्थन किया और आगे पूछा, “सबों को नाव और जाल रखने का अधिकार है क्या ? अच्चन ?”

अच्चन ने जवाब दिया कि सब को अधिकार नहीं है। मूप्पन ने उस सवाल के जवाब को और भी स्पष्ट किया। समुद्र-माता की सन्तान तो अनमोल सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी है। उनका हाथ भरा-पूरा रहना साधारण-सी बात है। तब सबमें नाव और जाल रखने की शक्ति है ही। लेकिन घाट पर जितने भी लोग हैं। यदि वे सब नाव और जाल रखने लगेंगे तो काम पर कौन जायगा ! उसने पूछा, “इस घाट पर कौन ऐसा है जो चाहे तो नाव और जाल नहीं खरीद सकता ?”

बात तो ठीक थी। पर अच्चन ने एक भारी सवाल पेश किया, “तब सबके पास नाव और जाल क्यों नहीं हैं।”

इसका भी कारण था। मछुआरे पांच जाति के है, अरयन, ‘जालवाला’, मछुआ, मरक्कान और एक पंचम जाति । इन सबके ऊपर पूरब के वालन हैं। इनमें ‘जालवाले’ को ही नाव और जाल रखने का अधिकार है। पुराने जमाने में घटवार ‘जालवाले’ को ही नाव और जाल खरीदने की अनुमति देता था। वह तब भी, जब कि ‘जालवाला’ नजराना देता था ।

वेलायुधन् ने पूछा, “चेम्पन काका इनमें किस जाति के हैं?”

पुण्यन् ने मुस्करा दिया।

मूप्पन ने जवाब दिया, “मछुआरे ।”

पुण्यन् ने मुस्कराते हुए कहा, “हाँ, चेम्पन काका की जाति-पांति तो अब यह पूछेगा ही।”

अच्चन ने कारण पूछा। पुण्यन् ने कहा, “उस लड़की से शादी की बात उठी है। इसीसे ।”

अच्चन ने कहा, “अच्छा है। लड़की बड़ी अच्छी है।”

पुण्यन् को अच्छा नहीं लगा। उसने कहा, “अच्चन को तो ऐसे भी चैम्पन का सब-कुछ अच्छा ही लगता है।”

फिर उसने वेलायुधन् को एक चेतावनी दी, “उस कंजूस से तो तुम्हें एक दमड़ी भी नहीं मिलेगी। यह याद रखना! यह लड़की भी कम नहीं है।”

अच्चन को गुस्सा आया उसने कहा, “तुम क्या कह रहे हो जी ? लड़की की शादी तय होती है तो उसे तोड़ना चाहिए ? यही मछुआरे का काम है ?”

अच्चन ने कहा, “मैं सच्ची बात बता रहा था।”

आण्टी ने, जो अब तक चुप था, एक सवाल पूछा और उससे बातचीत का विषय बदल गया । उसने जानना चाहा कि ‘जालवाले’ के अलावा और भी किसी व्यक्ति ने नाव और जाल खरीदा था। उसे जवाब मिला कि ऐसा हुआ है, लेकिन खरीददार उसका बहुत दिन तक उपभोग नहीं कर सका। अच्चन ने पूछा कि प्रत्येक घाट पर ‘जालवालों’ के कौन-कौन परिवार है।

इसका जवाब रामन् मूप्पन ने दिया, “चेर्तला में पल्लिकुन्नम ‘जालवाला’ आलप्पुषा में परुत्तिक्कवल ‘जालवाला’ और यहाँ कुन्नेल रामन् का परिवार। यह क्रम है।”

पुण्यन् ने सवाल किया कि जाल खरीदने के लिए घटवार को नजराने के तौर पर क्या दिया जाता है। उसका जवाब था, “तम्बाकू के चार पत्ते और पन्द्रह रुपये।”

इसके बाद घटवार के अधिकार और हक के बारे में बातें शुरू हुई। घटवारों का अधिकार बहुत बड़ा था। उसका विरोध करने के भाव से वेलायुधन् ने पूछा, “अपना पैसा लगाकर जब आदमी नाव और जाल खरीदे तब भी घटवार को कुछ देना ही चाहिए ?”

पुण्यन् ने जोड़ा, “देखो, देखो, यह चेम्पन काका का दामाद बन चुका है।”

अच्चन ने समर्थन करते हुए कहा, “घटवार को नजराना नहीं देगा तो नाव और जाल आने पर ससुर-दामाद दोनों मिलकर घटवार का सामना भी तो करेंगे। उस समय देखा जायगा ।”

यह एक चुनौती थी । चेम्पन जब नाव और जाल लायगा तब बिना घटवार की अनुमति के नाव कैसे समुद्र में जायगी, यह तो देखने ही लायक होगा। अच्चन ने स्पष्ट कह दिया कि यह नहीं हो सकता । वेलायुधन् ने उस चनौती को स्वीकार करना चाहा। लेकिन किस अधिकार से करता। फिर भी उसके विरोध में कहा, “तुम लोगों को ईर्ष्या हो गई है ?”

“मछुआरे को ईर्ष्या !”

“नहीं तो और क्या है ?”

ऐसा लगने लगा कि यह बातचीत एक झगड़े का रूप धारण कर लेगी। अच्चन ने बीच में पड़कर वेलायुधन् को चुप कराया ।

थोड़ी देर तक किसी ने कुछ नहीं कहा।

घाट पर जब इस तरह की अप्रत्याशित बातें हो रही थीं तब चक्की घर में दिवा स्वप्न देख रही थी। जल्दी ही वह एक नाव के मालिक की स्त्री कहलायगी। जीवन की एक बड़ी इच्छा पूरी होने जा रही थी। इसके लिए पति-पत्नी ने काफी परिश्रम किया था। पड़ोस की किसी भी स्त्री से वह देखने में अच्छी थी, नाव का मालिक होने के बाद, करसम्मा के लिए अभी जैसा लड़का मिल सकता था, उससे भी अच्छा लड़का मिल सकता है।

माँ ने बेटी से कहा, “तेरे बाप की बड़ी-बड़ी अभिलाषाएँ हैं। इस साल की आमदनी से जमीन और घर की व्यवस्था करेंगे। तब तेरी शादी करेंगे।”

करुत्तम्मा को कुछ कहना नहीं था। चक्की ने अपने-आप ही आगे कहा, “समुद्र माता की कृपा से किसी का कोई कर्जा नहीं है। आमदनी कम हो जाय तो भी यह तसल्ली रहेगी कि कोई तंग करने वाला नहीं है।”

चक्की का बोलना खत्म होने के पहले ही करुत्तम्मा ने पूछा, “अम्मा, तुम्हीं कहती हो कि कोई कर्जा नहीं है !”

चक्की समझ गई कि परी के रुपयों का खयाल करके ही करुत्तम्मा ने सवाल उठाया है। वह जरा झेंप गई। फिर किसी तरह एक जवाब दिया, “नहीं, उसे एक कर्जे के रूप में मानने की जरूरत नहीं है ।”

करुत्तम्मा ने जरा कड़ी आवाज में पूछा, “जरूरत क्यों नहीं है ?”

“अरी, नहीं नहीं, ऐसा नहीं। उसे तुरन्त नहीं भी चुकायें तो भी नाव और जाल कोई हड़प नहीं सकता !”

“ऐसा इसीलिए कहती हो न कि वह मोतलाली वडा सीधा-सादा आदमी है ?”

चक्की ने गुस्सा दिखाते हुए कहा, “इसका क्या मतलब है री? जब भी तू छोटे मोतलाली का नाम लेती है, तेरी आवाज इतनी मोटी क्यों हो जाती है ?”

करुत्तम्मा ने कुछ नहीं कहा, माँ के प्रश्न से उसमें कोई भाव-परिवर्तन भी नहीं हुआ । चक्की ने आगे कहा, “अपनी मर्यादा के भीतर हो रह! तभी तो कोई अच्छा लड़का मिलेगा। नहीं तो तेरा भाग्य जैसा है वैसा ही होगा।”

करुत्तम्मा जरा भी विचलित नहीं हुई। दृढ़ स्वर में उसने पूछा, “अम्मा, मुझ ही में मर्यादा की कमी है?”

चक्की ने सवाल किया मानो उसने सुना ही नहीं, “छोटा मोतनानी तेरा कौन है री ?”

करुत्तम्मा ने यह नहीं कहा कि वह उसका कोई नहीं है। फिर भी उसकी आँखें भर आई।

करुत्तम्मा ने क्या गलती की थीं? कुछ भी तो नहीं। यह चक्की को भी मालूम है। आज तक उसने कोई गलती नहीं की। वह एक बहुत सुशील और सहनशील लड़की रही है। परी का कर्जदार बनना ठीक नहीं था। उसका रुपया लौटा देने की बात जो करुत्तम्मा करती है उसमें गलती क्या है ? फिर भी करुत्तम्मा के मन में परी के प्रति प्रीति है। पहले ही शादी कराकर उसे भेज देना चाहिए था। लेकिन इसका मर्म बाप को कहाँ मालूम था !…चक्की ने आगे कहा, “बिटिया, तेरे ही लिए तेरा बाप इतना कष्ट उठा रहा है। बिटिया मेरी, तू यह सब व्यर्थ न कर !”

करुत्तम्मा चुप रही चक्की ने पूछा, “बेटी, एक बात पूछूं ? सच-सच कहना ! तू उस विधर्मी से प्रेम करती है ?”

करुत्तम्मा ने जहाँ ‘नहीं’ कहना चाहिए वहाँ कुछ नहीं कहा। उसके निश्चित मौन ने माँ को डरा दिया। चक्की की मानसिक शान्ति भंग हो गई। उसने विलाप करते हुए कहा, “हे भगवान्, उस महापापी ने मेरी बेटी को जादू-टोने से वश में कर लिया है, ऐसा लगता है।”

चक्की का मन यहाँ तक चला गया। करुत्तम्मा ने अपने हाथ से चक्की का मुँह बन्द करते हुए कहा, “यह कैसा पागलपन है अम्मा !”

चक्की ने कातर भाव से बेटी की ओर देखा और गिड़गिड़ाकर कहा, “बिटिया, माँ को धोखा न देना !”

इतना होने पर भी करुत्तम्मा ने यह नहीं कहा कि वह परी से प्रेम नहीं करती।

उस शाम को अच्चन चेम्पन के घर आया। घाट पर जो-जो बातें हुई थीं सब उसने चक्की को सुना दीं। वहाँ लोगों ने गड़बड़ी पैदा करने का निश्चय किया है। अच्चन और मूप्पन उनमें मुख्य हैं। लौटने पर चेम्पन को उबसे पहले इस नये संकट से बचने का उपाय करना चाहिए। उसने आगे कहा, “हम दोनों बचपन के साथी है। यह सब सुनकर मैं चुप नहीं रह सकता था।”

अब चक्की के मन की बची-खुची शान्ति भी काफूर हो गई। घाट के किसी के खिलाफ़ हो जाने का क्या मतलब है, यह चक्की जानती थी। उसके मन में सवाल उठा :

‘इस तरह की सजा के लिए हमने क्या कसूर किया है। क्या बेटी की शादी अभी तक नहीं की है-यही ?”

घाट वालों के प्रतिनिधि के तौर पर रामन् मुप्पन और अच्चन दो और आदमियों के साथ मुलाकात के लिए घटवार के पास गये। घाट की एक बड़ी अनिष्टकारी बात के सम्बन्ध में उन्हें शिकायत करनी थी। चेम्पन की बेटी बड़ी हो गई है; चम्पन ने अभी तक उसकी शादी नहीं की और वह स्वतन्त्र रूप से घाट पर घूमती फिरती है। यही वह बड़ी शिकायत थी। घटवार ने सब बातें ध्यान से सुनीं और कहा कि वह उचित कार्यवाही करेगा ।

अच्चन को लगा कि शिकायत को सुनकर घटवार पूरा प्रभावित नहीं हुआ है। घटवार के जवाब देने के बाद भी सब वहीं खड़े रहे। घटवार ने पूछा, क्यों खड़े हो ?”

“अब अच्चन को कुछ और शिकायत करनी थी, “जब बेटी घाट का सर्वनाश करने पर तुली है तब बाप नाव और जाल खरीदने गया है।”

घटवार को यह बात नहीं मालूम थी। उसने पूछा, “इसके लिए उसके पास “रुपया कहाँ से आया?”

मूप्पन और अच्चन आदि को भी यह नहीं मालूम था। अच्चन ने सविनय “एक प्रश्न किया, “चेमान ‘मछुआ’ है। आपने उसे नाव और जाल खरीदने की अनुमति दी है क्या ?”

“नहीं तो हमसे तो पूछा भी नहीं है।”

“हम घाट वाले क्या करें ?”

घटवार ने थोड़ी देर सोचकर कहा, “वह सोचता होगा कि जमाना अब बदल -गया है।”

अच्चन ने हामी भरी। घटवार ने अपना निर्णय सुनाया, “नाव और जाल लाने दो ! उसमें काम पर कोई भी हमसे पूछे बिना न जाय।”

अच्चन ने कहा, “ऐसा ही होगा।”

घटवार ने अपना विचार प्रकट किया, “लेकिन कुछ नौजवान लोग हैं, उनका क्या रुख होगा, मालूम नहीं ।”

अच्चन के मन में उस समय वेलायुधन् का खयाल आया। घटवार के लिए यह कोई बड़ा सवाल नहीं था। क्योंकि वह जानता था कि खुल्लमखुल्ला उसका ‘विरोध करने की हिम्मत किसी को नहीं हो सकती। उसने कहा, “अच्छा, इसका उपाय में स्वयं करूँगा। तुम लोग सब घाट वालों को सूचना मात्र दे देना कि नाव और जाल खरीदने की अनुमति मैंने नहीं दी है।”

मूप्पन और अच्चन की अपनी जीत हो गई- ऐसा भाव लेकर मूप्पन और अच्चन लौट आए। घर-घर जाकर उन्होंने घटवार की सूचना सबको दे दी। अच्चन का खयाल था कि सिर्फ वेलायुधन् ही घटवार को आज्ञा का उल्लंघन करेगा और उसका फल भोगेगा ।

चक्की को सब बात मालूम हो गई।

घाट वालों के क्रोध का पात्र बनने से घर डुबा देने की कहानी उसने सुनी थी। रातों-रात परिवार के परिवार घाट छोड़कर भाग भी गये हैं। इस तरह घाट छोड़ कर आने वाले दूसरी जगह जाकर मछुआरे के रूप में जम जायें और अपनी जीविका चलायें, ऐसा नहीं हो सकता था। वे जहाँ कहीं भी जायँ सामाजिक नियमों का प्रतिबन्ध लगा ही रहता था। इसलिए ऐसे लोग साधारणतः अपना धर्म-परिवर्तन कर लेते थे। अब उस नियम का बन्धन जरा ढीला पड़ गया है। जमाना ही बदल गया है न ! फिर भी अगर घटवार हुक्म दे तो आज भी कोई काम पर नहीं जायगा, ऐसी स्थिति हो सकती है। ऐसा भी हो सकता है कि जन्म-मरण आदि के अवसरों पर कोई घर में न आय। इस तरह की रोक-थाम की बातें आज भी हो सकती हैं। नाव और जाल लेने के लिए जाने के पहले नजराना देकर अनुमति ले लेना आवश्यक था।

उन लोगों ने किसका क्या बिगाड़ा है ? घाट पर सब जगह घटवार के प्रति बन्ध के बारे में चर्चा होने लगी। स्त्रियों के बीच यह बात उठी कि वयस्क लड़की का ब्याह लोग नहीं करा रहे हैं, यही उनका बड़ा अपराध है। करुत्तम्मा को अपने जीवन से विरक्ति हो गई। उसको लगा कि उसके कारण माँ-बाप को क्या-क्या परेशानी उठानी पड़ रही है। लड़की होकर जन्म लेना उसके वश की बात तो थी नहीं, घाट की पवित्रता को भी उसने नष्ट नहीं किया है। उसके अविवाहित रहने से किसका क्या बिगड़ता है? लेकिन इस तरह का तर्क किसी को भी मान्य नहीं हो सकता था ।

माँ-बेटी दोनों बड़ी आतुरता से चेम्पन के आने की प्रतीक्षा करने लगीं। काली के घर में चार-पाँच स्त्रियां बैठकर बातें कर रही थीं। बात उन्हीं लोगों के बारे में थी। चक्की छिपकर उनकी बातें सुन रही थी। एक ने कहा कि परी का करुत्तम्मा से सम्बन्ध है; उसने उन दोनों को नाव की आड़ में आपस में हँसते-बोलते देखा है; इसी कारण माँ-बाप उसका ब्याह नहीं करा रहे हैं।

आदमी सब कुछ सह सकता है। लेकिन एक माँ अपनी बेटी के बारे में इस तरह की बातें कभी बर्दाश्त नहीं कर सकती । चक्की आड़ में से एक गुस्सा भरे चीते की तरह उन लोगों के बीच में कूद पड़ी। झगड़ा बढ़ गया।

किसी ने कहा कि जवानी में चक्की ने खुद घाट की पवित्रता नष्ट की थी। चक्की ने काली के एक बच्चे के असली पिता का नाम पूछा और कहा कि उसे मालूम है कि उसका जन्मदाता वह मोतलाली है, जो उन दिनों सूखी मछली बेचने के लिए घर-घर घूमा करता था। वहाँ जितनी औरतें थीं उनकी और उनकी माताओं की, सबकी अलग-अलग कहानी सुनाई गई।

चक्की तथा बाकी औरतों के बीच एक वाक् युद्ध छिड़ गया, चक्की अकेली ही बाकी सबसे जूझ रही थी।

घेरे के पास खड़ी करुत्तम्मा ने सब कुछ सुना। वे सब बातें सुनकर वह स्तम्भित रह गई उसकी माँ ने भी जवानी में किसी से प्रेम किया है क्या ? क्या यह सम्भव है कि इन सबों ने घाट की पवित्रता नष्ट की है ? तो क्या घाट की पवित्रता का तत्त्वज्ञान एक निरर्थक बात ही है? इन सबों के बारे में ऐसी कहानियों के रहते हुए भी समुद्र पहले की तरह आज भी पश्चिम में लहरा रहा है; आज भी इसमें पहले की तरह ज्वार-भाटे आते हैं; आरों की आमदनी भी वैसी ही होती है; उनका जीवन-कम भी पहले ही जैसा चलता है तब इस पवित्रता की कहानी का क्या मतलब है ?

झगड़ा बढ़ते-बढ़ते करसम्मा के बारे में ही बातें होने लगीं। करसम्मा को अपने कान बन्द कर लेने पड़े। कैसी-कैसी झूठी बातें कही जा रही थीं! परी ने उसे रखेल बना रखा है, इस जंगी घोड़े पर मोतलाली ही लगाम कस सकता है, आमदनी कम हो जाने के डर से उसकी शादी कराकर नहीं भेज रहे हैं, आदि आदि ।

तब तो माँ के बारे में उन औरतों ने जो कहा है और उनके बारे में माँ ने जो-जो कहा है सब झूठ ही होगा ।

चक्की की बातों का जवाब देना मुश्किल पाकर काली ने कहा, “देखती रहो, तुम लोगों का क्या होने जा रहा है ! घटवार ने तय कर लिया है।”

चक्की चुप नहीं हुई। मुकाबला करने का भाव बढ़ता ही गया, सबों का मुकाबला करने का भाव। उसने कहा, “क्या तय किया है री ? घटवार क्या करने जा रहा है ?”

पेणम्मा ने कहा, “मर्यादा त्यागकर काम करने वालों के साथ क्या करना चाहिए, यह घटवार को मालूम है।”

चक्की ने दृढ़ता के साथ कहा, “क्या करेगा घटवार ? हम इस्लाम अपना लेगे। नहीं तो ईसाई हो जायेंगे। तब वह क्या करेगा ?”

एक ने कहा, “हूँ !! अब बात मुँह से निकल ही तो गई तो सोच-विचार करके ही बिटिया को मुसलमान छोकरे के साथ छोड़ दिया है !”

एक दूसरी ने कहा, “माँ-बेटी दोनों के लिए वही अच्छा होगा।”

चक्की ने पूछा, “अरी, इसमें बुराई ही क्या है ?

करुत्तम्मा को ऐसी घबराहट हुई जैसी इसके पहले कभी नहीं हुई थी। कोई दर्द हुआ ? – दर्द नहीं कहा जा सकता। कोई गहरी खुशी ? – यह भी नहीं कह जा सकता। एक मर्म वेदना के साथ करुतम्मा ने मां को पुकारा। उसकी आवाज में एक घबराहट थी। चक्की चली आई।

घर में आने पर चक्की बोलती रही। क्रुतम्मा न जाने क्या-क्या पूछना चाहती थी, पर हिम्मत नहीं हुई। ‘इस्लाम अपना लेगे’ ये शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे। उसकी शिराएँ गरम हो गई। कैसी असा गरमी उसे मालूम हो रही थी।

यह स्वाभाविक ही था उसका हृदय अपहृत हो चुका था। आदर्श जीवन के लिए बनाये गए सदाचार, निष्ठा और विश्वास के दुखदायी तथा खतरों से भरे किले के भीतर वह जी रही थी, उसे अब बाहर निकलने का रास्ता दिखाई देने लगा। एक निश्चय की ही जरूरत थी। उसके बाद सब ठीक हो जायगा।

इस्लाम धर्म अपना लेना ! तब वह कैसी लगेगी ! कुर्ता और गोटेदार कपड़ा पहने, कान को ऊपर से नीचे तक छिदवाकर उसमें सोने की ‘रिंग’ डाले और सिर को कपड़े से ढके जब वह परी के पास जायगी तब उसे कितनी खुशी होगी। तब तो परी को उसके साथ पूरी आजादी होगी। अपने बन्धन के कारण, जिसे वह पूर्ण रूप से नहीं समझ रही थी वरन् महसूस कर रही थी, उसके बाहर निकलने का वह रास्ता था। मछुआरे की पत्नी होकर रहने की जरूरत नहीं रहेगी। यदि उस समय पर आ जाता तो वह कह भी देती कि उसके घर वाले इस्लाम धर्म अपनाने जा रहे हैं। सुनकर परी के आनन्द की सीमा न रहती।

लेकिन माँ ने क्या वास्तव में सोचकर ऐसा कहा था? उस समय गुस्से में कहा होगा। ‘क्या सचमुच इस्लाम अपनाने का विचार है क्या’ – यह सवाल पूछने में ही उसे डर लगा। पूछने पर माँ सोचेगी कि वह अपनी इच्छा ही प्रकट कर रही है करुत्तम्मा इस तरह के विचार में डूबी रही।

घटवार के यहाँ से तीन-चार आदमी आये। पर चेम्पन अभी तक नहीं लौटा था। चार-पांच दिन के बाद घाट पर चेम्पन की नाव आ गई। जाल भी था। पल्लिक्कुन्नम ‘जालवाला’ कण्डनकोरन की वह नाव थी। एक दिन वह नाव बहुत ही मशहूर थी। अब थोड़ी पुरानी-सी हो गई है। बस, इतना ही।

इस घाट वालों ने भी उस नाव को चेर्तला घाट पर अजेय होकर चलते देखा था। पुरानी होने पर भी कण्डनकोरन ने इसे कैसे बेच दिया, यही आश्चर्य की बात थी। हाँ, उसकी स्थिति जरा बिगड़ी हुई जरूर थी। वह था भी बड़ा शानियल और जरा फिजूलखर्च।

सबने आकर नाव को देखा। किसी ने सीधे कुछ नहीं कहा। फिर भी चैम्पन को एक ऐसी अच्छी ऐश्वर्यशालिनी नाव मिली है, यह बयान सदके मन में पैदा हुआ।

अच्चन ने साथियों से कहा, “पल्लिक्कुन्नम का ऐश्वर्य इस नाव के साथ चम्पन के पास चला आया ।”

अच्चन ने उसे फटकारा, “उस खानदानी का ऐश्वर्य इस मछुआरे को कहाँ से मिलेगा जी! उसका सोने का-सा रंग सौद के ऊपर सफेद-स्वच्छ कपड़ा पहने और काली किनारी की महीन चादर कन्धे पर लटकाये, नाव किनारे लगते समय उस तट पर आकर उसका खड़ा होना ! -उसमें और चेम्पन में क्या समानता हो सकती है।”

मुप्पन ने भी अपनी राय प्रकट की, “तब तो पतली-दुबली काली चक्की भी कण्डनकोरन की घर वाली के बराबर हो जायगी ! क्या तुमने कण्डनकोरन की घर वाली को देखा है ?”

“हाँ-हाँ, उसका चेहरा देखते ही आँखें चौंधिया जाती हैं।”

घर पहुँचते ही चैम्पन को बड़ा धक्का लगा। वह बड़ा उत्साह लेकर लौटा था। उस नाव का मिलना एक बड़ा भाग्य था। पल्लिक्कुलम कण्डनकोरन के यहाँ वह कैसे गया, कैसे वहाँ खाना खाया-आदि-आदि बातें चक्की को सुनानी थी। कोरन की पत्नी के बारे में भी उसे कहना था। ये सब उसे बातें मन में सोचता हुआ वह लौटा था, लेकिन घर लौटते ही उसे एकाएक एक धक्का लगा।

इसके पहले कभी भी उसे इस तरह का बोझीलापन नहीं मालूम हुआ था। उसके सामने सिर्फ एक लक्ष्य था, जो आज सफलीभूत हो गया। लेकिन अब काम आगे नहीं बढ़ेगा, ऐसा लगने लगा।

नाव और जाल खरीदने के पहले वह घटवार से नहीं मिला, यही उसका सबसे बड़ा अपराध था । बात ठीक भी थी। उसने पुराने जमाने से चले आने वाले रिवाज का उल्लंघन किया था। कितनी मुश्किल से उसने नाव और जाल के लिए रुपये जुटाये ! अब ऊपर से… पन्द्रह-बीस रुपये और खर्च के लिए प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं था। उसने सोचा ही नहीं कि यह इतनी भारी गलती मानी जायगी।

निस्सहाय भाव से उसने अपनी पत्नी से पूछा, “हमने दूसरों का क्या बिगाड़ा है री?”

चक्की ने जवाब दिया, “कुछ बिगाड़ने की आवश्यकता है? ईर्ष्या है, ईर्ष्या !”

“यह ठीक है। लेकिन बीस-पच्चीस रुपये का उपाय हो जाय तो सब ठीक हो जायगा। क्या किया जाय ? नाव पर भी थोड़ा और खर्च करना जरूरी है। अभी तो सिर्फ एक ही जाल है।”

चेम्पन ने एक-एक करके सब जरूरतें बतलाई चक्की को नहीं बतलाता तो किसको बतलाता ! सुनने के लिए और कौन था ? लेकिन चक्की ने सान्त्वना देने के बदले पूछा, “तब क्यों बेकार ही यह झंझट सिर पर उठा लिया ?”

चेम्पन ने कुछ नहीं कहा। शायद उसे भी लगा होगा कि उसने अपनी शक्ति के बाहर बोझा उठा लिया है। पैसा सब खत्म हो चुका था । लोग भी खिलाफ़ हो गए।

चक्की ने कहा, “पास में जो पैसा था उससे बेटी की शादी ही करा दी होती तो कम-से-कम यह हालत तो न होती !”

चेम्पन ने इसका भी जवाब नहीं दिया। बड़ी अभिलाषाएँ होने से शान्ति नहीं रहती क्या ? क्या इसके यही मानी है कि आदमी जितना है उसी में निभाता जाय !

असल में वह दिन खुशी मनाने का था जब कि जीवन की उसकी एक बड़ी अभिलाषा पूरी हुई थी। लेकिन उसका घर उस दिन उदासी में डूबा हुआ था।

काफ़ी रात होने पर चेम्पन ने पत्नी से कहा, “पैंतीस रुपये हो जायें तो सब काम बन जायगा ।”

चक्की ने पूछा, “कैसे ?”

चेम्पन ने सुनाया, “कल घटवार से जाकर मिलूंगा । तब सब ठीक हो जायगा ।”

“मछली का जाल और सहारे का जाल ?”

“सब कुछ हो जायगा ।”

चक्की ने बाँस की नली में बन्द करके जमीन में गाड़कर जो रुपया बचा रखा था उसे भी वह निकालकर दे चुकी थी। इस तरह उसकी छोटी पूंजी भी खत्म हो चुकी थी, जिसके लिए उसने चैम्पन को दोषी ठहराया।

उसने कहा, “देखा, अभी कैसी मुसीबत में फँस गए हो ! एक रत्ती सोने का भी कुछ बनवाकर रख लिया होता तो! मैं जब-जब कहती थी तब तो तुम कान ही नहीं देते थे।”

चेम्पन ने मान लिया और आगे कहा, “एक ही रास्ता है चक्की !”

“कौन-सा ?”

कहने में मानो चेम्पन को संकोच हो रहा था चक्की ने अपना सवाल दुहराया। चेम्पन ने कहा, “उसी छोकरे को पकड़ने से काम बनेगा ।”

चक्की ने चेम्पन का मुंह बन्द कर दिया। उसको मालूम नहीं था कि करुत्तम्मा सोई हुई है या जागी है। पत्नी का हाथ हटाते हुए चेम्पन ने कहा,

“क्या है री ?

“धीरे से बोलो !”

“ऊँ !-क्या है ?”

इसमें जो बात थी वह चेम्पन को मालूम नहीं होनी चाहिए थी। किसी भी पिता को ऐसी बातें मालूम नहीं होने देनी चाहिए। फिर भी कुछ जवाब देना तो जरूरी था । चेम्पन ने सवाल दुहराया। चक्की ने उसके कान में कहा, “करुत्तम्मा कहती है कि इससे अपमान होता है। उसे मालूम हो जायगा तो वह लड़ पड़ेगी।”

“इसके अलावा और कौन-सा रास्ता है ?”

“मैं भी वही सोच रही है।”

थोड़ी देर बाद चम्पन ने पूछा, “वह होगा वहाँ ?”

“होगा।”

“मैं जरा जाकर देख आता हूँ ।”

चक्की ने कुछ नहीं कहा। चेम्पन दरवाजा खोलकर बाहर चला गया।

करुत्तम्मा सोई हुई थी। उसे कुछ मालूम नहीं हुआ। थोडी देर बाद चेम्पन लौट आया। वह प्रसन्न था। उसे देखते ही मालूम होता था कि काम हो गया है।

“बड़ा भोला-भाला लड़का है वह बहुत अच्छा उसका स्वभाव है। उसके पास तीस रुपये थे। उसने निकालकर दे दिए।”

चिन्ता दूर हो जाने पर भी चक्की के मन में एक कसक रह गई। क्या उसकी उदारता बिलकुल निरुद्देश्य है ? जब-जब माँगा गया तब-तब उसने बिना कुछ कहे ही रुपया क्यों दे दिया ? – यह एक बड़ा सवाल था। लगता है करुत्तम्मा के कारण ही उसने ऐसा किया है।

दूसरे दिन चेम्पन घटवार से मिलने गया घटवार ने पहले उसे बहुत डाँटा । लेकिन बाद में वह शान्त हो गया। उसने आदेश दिया कि लड़की का ब्याह जल्दी से-जल्दी हो जाना चाहिए। नाव की आमदनी का उसका हिस्सा भी रोजाना अपने पास पहुँचा देने को उसने कहा चेम्पन ने घाट वालों की ईर्ष्या की शिकायत की। घटवार ने उसका उपाय करने का आश्वासन दिया।

इस तरह उस समय वायु-मंडल शान्त हो गया। पूर्ण सजावट और शान शौकत के साथ नाव को उतारने में पांच सौ रुपये का खर्च था। वह भी करना तय हुआ।

“कैसे होगा ?” यह सवाल चक्की ने किया।

चेम्पन ने कहा, “परी से ही यह भी लेना होगा।”

चक्की स्तब्ध रह गई। करुतम्मा के जाने बिना दोनों में लड़ाई हो गई । ‘पति के अधिकार के साथ वेम्पन ने हुक्म दिया, “तुमको माँगना होगा।”

“मुझसे नहीं होगा।”

“तो नाव पड़ी रहेगी।”

“पड़ी रहने दो !”

लेकिन चक्की को यह पसन्द नहीं आया कि नाव ऐसे ही पड़ी रहे । चेम्पन की बात से चक्की को लगा कि वह आगे स्वयं कुछ नहीं करेगा। चेम्पन भी चाहता था कि चक्की ऐसा महसूस करे। चक्की ने पूछा, “अच्छा, ये सब रुपये उसे लौटा दोगे न ?

चेम्पन ने सूद सहित लौटा देने का निश्चय प्रकट किया।

इस तरह इस बार चक्की ने खुद जाकर मांगा। रात को परी के डेरे में सूखी मछली की बिक्री हुई। चेम्पन की नाव की सजावट और सब तैयारियाँ पूरी हो गई।

सब कुछ ठीक हो गया। काम पर जाने वालों को निश्चित करने का समय आया । घटवार ने पुराने मछुआरों को बुलाकर सब इन्तजाम कर दिया। घाट वालों का विरोध वास्तव में नहीं के बराबर था। नाव को देखते ही सबके मन में उस पर काम के लिए जाने की इच्छा हुई थी। अच्चन ने आशा की थी कि चेम्पन उससे राय लेगा और उसे काम के लिए बुलायगा। इस बात को लेकर उसके पर एक झगड़ा भी हो गया था। जरूरत पड़ने पर वह घटवार के खिलाफ भी खड़ा होने को तैयार था। बचपन से ही दोनों साथी थे न ! लेकिन दो-तीन बार मिलने पर भी चैम्पन ने उससे कुछ नहीं कहा। घाट वालों में से चेम्पन ने जिन बारह व्यक्तियों को चुना था उनमें अच्चन नहीं था ।

नाव उतारने के प्रथम दिन एक भोज देने की प्रथा है। भोज का सब सामान चम्पन ने हसन दुकानदार से उधार लिया। काक्कापात और पुन्नप्रा गाँवों में रहने वाले बन्धुजनों को निमंत्रण देना था। इसके लिए चेम्पन ने करुत्तम्मा को भेजा।

करुत्तम्मा विचार-मग्न अवस्था में समुद्र तट पर चली जा रही थी कि अचानक “मछली हमारे हाथ बेचोगी ?” यह छोटा-सा सवाल सुनकर चौंक पड़ी।

परी सामने खड़ा था। कहाँ से आया, कौन जाने । करुत्तम्मा ने कोई जवाब नहीं दिया। वह अब पुरानी करुत्तम्मा नहीं रही। वह सिर झुकाये खड़ी थी।

परी ने पूछा, “तुमने मुझसे कुट्टी कर ली है क्या करुत्तम्मा ?”

करुतम्मा ने जवाब नहीं दिया। उसका हृदय इस तरह धक्-धक् करने लगा, मानो फट जायगा।

“पसन्द न हो तो मैं कुछ नहीं कहूंगा।”

वास्तव में उसे बहुत कुछ पूछना था। ‘इस्लाम को अपनावे ?’- यहाँ तक पूछना था।

वह किनारे लगी नाव की आड़ में कुछ देर तक चुपचाप खड़ी रही। उस समय पर उसके उन्नत वृक्ष को देख रहा था। उसने अब परी को वैसा करने से मना नहीं किया। सिर उठाकर उसने पूछा, “मोतलाली ! मैं जाऊँ ?”

क्या जाने के लिए उसे परी की अनुमति की जरूरत थी? क्या वह जा नहीं सकती थी ?

एकाएक करुत्तम्मा ने डरकर कहा, “ओह, कोई देख लेगा ।”

अब वह आगे बढ़ी। कुछ कदम आगे बढ़ने पर उसे पीछे से उसका नाम लेकर पुकारने की आवाज सुनाई पड़ी उस पुकार में एक विशेषता थी, जिसका अनुभव उसके पहले न उसके कान को हुआ था, न हृदय को ।

काँटे में कैसी मछली की तरह वह बड़ी हो गई। उसने प्रतीक्षा की होगी कि परी उसकी ओर आयगा । लेकिन परी नहीं आया।

कितनी देर तक दोनों एक-दूसरे को देखते खड़े रहे। इसका खयाल उन्हें नहीं रहा। करुत्तम्मा के मन में क्या-क्या विचार उठे होंगे !

समुद्र में न तूफान उठा, न आंधी आई। उल्टे ऐसा लगा कि समुद्र-माता मन्द पवन के सहारे लहरों में हिलोरें पैदा करते हुए उनके बुलबुलों के ऊपर सफेद फेनों के जरिये मुस्करा रही हो।

क्या इस तरह का प्रेम-नाटक उस समुद्र तट पर इसके पहले भी नहीं खेला गया था ?

परी को जो कुछ कहना था, पूछना था, सब एक प्रश्न के रूप में मुखरित हो उठा, “तुम मुझसे प्रेम करती हो करसम्मा ?”

बिना सोचे-समझे करुत्तम्मा ने जवाब दिया, “हाँ।”

आतुरतापूर्वक एक और सवाल परी ने पूछा, “क्या सिर्फ मुझसे ही प्रेम करती हो?”

परी को तुरन्त उसका भी जवाब मिल गया, “हाँ, सिर्फ तुमसे हो।”

करुत्तम्मा को उसकी अपनी ही आवाज ने एक मेघ गर्जन की तरह चौंका दिया । शायद अब उसे होश भी आ गया और उसे अपने शब्दों का अर्थ भी स्पष्ट हो गया उसको लगा कि उसके शब्द सामने मूर्तिमान होकर उसे फटकार रहे हैं। उसने परी की ओर सिर उठाया । आँखें चार हो गई। जो कुछ कहना था,सब-कुछ कहा जा चुका था। हृदय की बात हृदय ने जान ली।

करुत्तम्मा आगे चल दी।

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