घास
खिले पुष्पों से आच्छादित भूमि में
अतीत में ही पैदा हुआ मैं घास बनकर
उस वक़्त भी आवाज़ सुनी
तुम्हारी बांसुरी की
मधुर रोमांच से खुल गई आँखे
आत्मा की आँखें खुलने पर
आश्चर्य से शिथिल हो गया मैं
उस रोमांच की लहर से ही तो मैं
आकाश तक विस्तृत हो सका
उत्तुंग मेरा मुख आकाशगंगा की
खंडित माला में संविलीन हो गया ।
उस मुहुर्त में मेरा मुख
श्वेत कमल पुष्प बन गया
फिर भी पाँवों के नीचे अभी भी नम है
भूमि द्वारा अतीत में लिपटाई गई मिट्टी
उस मिट्टी को छुड़ाऊँगा नहीं मैं
अन्यथा मेरा कमल पुष्प बिखर जाएगा न ।
मेरी मिट्टी में ही उगी है न
तुम्हारे होंठों की बाँसुरी भी तो ?