पिता की विवशता- अक्कित्तम अच्युतन नंबूदिरी-अनुवादक : कवि उमेश कुमार सिंह चौहान

पिता की विवशता

पीली, उभरी हुई, चूने जैसी आँखें घुमाते
चाँदी के तारों-सी दाढ़ी मूंछे सँवारे
फटे हुए वस्त्रों वाले एक बाबाजी
प्रातः सूर्य की किरणों के पीछे-पीछे
मेरे घर आ पहुंचे।

अल्प संकोच के साथ उन्होंने एक मुस्कान फेंकी
अक्षर-ज्ञान विहीन मेरे बेटे ने उनसे कुछ कहा।
बेटे के हाथ की चमड़े की गेंद में हो गये छेद को
देख चुके आगन्तुक ने तभी
अपनी जेब में विद्यमान
एक मात्र चाँदी के सिक्के
को स्वर्णिम रंग वाले बच्चे के हाथों में रखकर कहा,

‘एक नयी गेंद पाने का समय आने पर
उसे ख़रीदने के लिए
तू इसे सन्दूक में संभालकर रखना’,
वे जाने के लिए बाहर परिसर में बढ़ चले।

‘वापस दे दे’,
यह निर्देश देने पर
दोनों ही रोएँगे यह सोच
बच्चे के पीछे खड़ा रह गया मैं
विवशता के साथ।

 

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