आओ, मन की गांठें खोलें
यमुना तट, टीले रेतीले,
घास–फूस का घर डाँडे पर,
गोबर से लीपे आँगन मेँ,
तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर,
माँ के मुंह मेँ रामायण के दोहे-चौपाई रस घोलें!
आओ, मन की गांठें खोलें!
बाबा की बैठक मेँ बिछी
चटाई बाहर रखे खड़ाऊं,
मिलने वालोँ के मन मेँ
असमंजस, जाऊँ या न जाऊँ?
माथे तिलक, नाक पर ऐनक, पोथी खुली, स्वयम से बोलें!
आओ, मन की गांठें खोलें!
सरस्वती की देख साधना,
लक्ष्मी ने संबंध न जोड़ा,
मिट्टी ने माथे का चंदन,
बनने का संकल्प न छोड़ा,
नये वर्ष की अगवानी मेँ, टुक रुक लें, कुछ ताजा हो लें!
आओ, मन की गांठें खोलें!
(25 दिसम्बर 1994, जन्म-दिवस पर)