आओ! मर्दो नामर्द बनो- विविध के स्वर-(हिन्दी कविता)-मेरी इक्यावन कविताएँ – अटल बिहारी वाजपेयी

आओ! मर्दो नामर्द बनो

मर्दों ने काम बिगाड़ा है,
मर्दों को गया पछाड़ा है
झगड़े-फसाद की जड़ सारे
जड़ से ही गया उखाड़ा है
मर्दों की तूती बन्द हुई
औरत का बजा नगाड़ा है
गर्मी छोड़ो अब सर्द बनो।
आओ मर्दों, नामर्द बनो।

गुलछरे खूब उड़ाए हैं,
रस्से भी खूब तुड़ाए हैं,
चूँ चपड़ चलेगी तनिक नहीं,
सर सब के गए मुंड़ाए हैं,
उलटी गंगा की धारा है,
क्यों तिल का ताड़ बनाए है,
तुम दवा नहीं, हमदर्द बनो।
आयो मर्दों, नामर्द बनो।

औरत ने काम सम्हाला है,
सब कुछ देखा है, भाला है,
मुंह खोलो तो जय-जय बोलो,
वर्ना तिहाड़ का ताला है,
ताली फटकारो, झख मारो,
बाकी ठन-ठन गोपाला है,
गर्दिश में हो तो गर्द बनो।
आयो मर्दों, नामर्द बनो।

पौरुष पर फिरता पानी है,
पौरुष कोरी नादानी है,
पौरुष के गुण गाना छोड़ो,
पौरुष बस एक कहानी है,
पौरुषविहीन के पौ बारा,
पौरुष की मरती नानी है,
फाइल छोड़ो, अब फर्द बनो।
आओ मर्दो, नामर्द बनो।

चौकड़ी भूल, चौका देखो,
चूल्हा फूंको, मौका देखौ,
चलती चक्की के पाटों में
पिसती जीवन नौका देखो,
घर में ही लुटिया डूबी है,
चुटिया में ही धोखा देखो,
तुम कलां नहीं बस खुर्द बनो।
आयो मर्दो, नामर्द बनो।

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