आज सिन्धु में ज्वार उठा है
आज सिंधु में ज्वार उठा है
नगपति फिर ललकार उठा है
कुरुक्षेत्र के कण–कण से फिर
पांचजन्य हुँकार उठा है।
शत–शत आघातों को सहकर
जीवित हिंदुस्थान हमारा
जग के मस्तक पर रोली सा
शोभित हिंदुस्थान हमारा।
दुनियाँ का इतिहास पूछता
रोम कहाँ, यूनान कहाँ है
घर–घर में शुभ अग्नि जलाता
वह उन्नत ईरान कहाँ है?
दीप बुझे पश्चिमी गगन के
व्याप्त हुआ बर्बर अँधियारा
किंतु चीर कर तम की छाती
चमका हिंदुस्थान हमारा।
हमने उर का स्नेह लुटाकर
पीड़ित ईरानी पाले हैं
निज जीवन की ज्योति जला–
मानवता के दीपक बाले हैं।
जग को अमृत का घट देकर
हमने विष का पान किया था
मानवता के लिये हर्ष से
अस्थि–वज्र का दान दिया था।
जब पश्चिम ने वन–फल खाकर
छाल पहनकर लाज बचाई
तब भारत से साम गान का
स्वार्गिक स्वर था दिया सुनाई।
अज्ञानी मानव को हमने
दिव्य ज्ञान का दान दिया था
अम्बर के ललाट को चूमा
अतल सिंधु को छान लिया था।
साक्षी है इतिहास प्रकृति का
तब से अनुपम अभिनय होता है।
पूरब से उगता है सूरज
पश्चिम के तम में लय होता है।
विश्व गगन पर अगणित गौरव
के दीपक अब भी जलते हैं
कोटि–कोटि नयनों में स्वर्णिम
युग के शत–सपने पलते हैं।
किन्तु आज पुत्रों के शोणित से,
रंजित वसुधा की छाती,
टुकड़े-टुकड़े हुई विभाजित,
बलिदानी पुरखों की थाती।
कण-कण पर शोणित बिखरा है,
पग-पग पर माथे की रोली,
इधर मनी सुख की दीवाली,
और उधर जन-जन की होली।
मांगों का सिंदूर, चिता की
भस्म बना, हां-हां खाता है,
अगणित जीवन-दीप बुझाता,
पापों का झोंका आता है।
तट से अपना सर टकराकर,
झेलम की लहरें पुकारती,
यूनानी का रक्त दिखाकर,
चन्द्रगुप्त को है गुहारती।
रो-रोकर पंजाब पूछता,
किसने है दोआब बनाया,
किसने मंदिर-गुरुद्वारों को,
अधर्म का अंगार दिखाया?
खड़े देहली पर हो,
किसने पौरुष को ललकारा,
किसने पापी हाथ बढ़ाकर
माँ का मुकुट उतारा।
काश्मीर के नंदन वन को,
किसने है सुलगाया,
किसने छाती पर,
अन्यायों का अम्बार लगाया?
आंख खोलकर देखो! घर में
भीषण आग लगी है,
धर्म, सभ्यता, संस्कृति खाने,
दानव क्षुधा जगी है।
हिन्दू कहने में शर्माते,
दूध लजाते, लाज न आती,
घोर पतन है, अपनी माँ को,
माँ कहने में फटती छाती।
जिसने रक्त पीला कर पाला,
क्षण-भर उसकी ओर निहारो,
सुनी सुनी मांग निहारो,
बिखरे-बिखरे केश निहारो।
जब तक दु:शासन है,
वेणी कैसे बंध पायेगी,
कोटि-कोटि संतति है,
माँ की लाज न लुट पायेगी।