आजाद-कथा (उपन्यास) : रतननाथ सरशार – अनुवादक Part 2 – प्रेमचंद

आजाद-कथा (उपन्यास) : रतननाथ सरशार – अनुवादक Part 2 – प्रेमचंद

आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 11

एक दिन आजाद शहर की सैर करते हुए एक मकतबखाने में जा पहुँचे। देखा, एक मौलवी साहब खटिया पर उकड़ू बैठे हुए लड़कों को पढ़ा रहे हैं। आपकी रँगी हुई दाढ़ी पेट पर लहरा रही है। गोल-गोल आँखें, खोपड़ी घुटी-घुटाई, उस पर चौगोशिया टोपी जमी-जमाई। हाथ में तसबीह लिए खटखटा रहे हैं। लौंडे इर्द-गिर्द गुल मचा रहे हैं। हू-हक मची हुई है, गोया कोई मंडी लगी हुई है। तहजीब कोसों दूर, अदब काफूर, मगर मौलवी साहब से इस तरह से डरते हैं, जैसे चूहा बिल्ली से, या अफीमची नाव से। जरी चितवन तीखी हुई, और खलबली मच गई। सब किताबें खोले झूम-झूम कर मौलवी साहब को फुसला रहे हैं। एक शेर जो रटना शुरू किया, तो बला की तरह उसको चिमट गए। मतलब तो यह कि मौलवी साहब मुँह का खुलना और जबान का हिलना और उनका झूमना देखें, कोई पढ़े या न पढ़े, इससे मतलब नहीं। मौलवी साहब भी वाजबी ही वाजबी पढ़े-लिखे थे, कुछ शुद-बुद जानते थे। पढ़ाने के फन से कोरे। एक शागिर्द से चिलम भरवाई, दूसरे से हुक्का ताजा कराया; दम-झांसे में काम लिया, हुक्का गुड़-गुड़ाया और धुआँ उड़ाया। शामत यह थी कि आप अफीम के भी आदी थे। चीनी की प्याली आई, अफीम घोली और उड़ाई। एक महाजन के लड़के ने बर्फी मँगवाई, आपने खूब डट कर चखी, तो पिनक ने आ दबोचा। ऊँघे, हुक्का टेढ़ा हो गया, गरदन अब जमीन पर आई, और अब जमीन पर आई। हुक्का गिरा और चकनाचूर हो गया। दो-एक लड़कों की किताबों पर चिनगारियाँ गिरीं। अब पिनक से चौंके, तो ऐसे झल्लाए कि किसी लड़के के चपत लगाई, किसी की खोपड़ी पर धप जमाई, एक के कान गरमाए। पिनक में आ कर खुद तो हुक्का गिराया और शागिर्दों को बेकसूर पीटना शुरू किया। खैर, इतने में एक लड़का किताब ले कर पढ़ने आया। उसने पढ़ा –

दिलम कुसूद कुसादम चु नाता अत गोई,
कलीदे बागे गुलिस्तान दिल कुसाई बूद।

(जब मैंने तेरा खत खोला, तो मेरा दिल खुल गया; गोया वह पत्र खुशी के बाग के दरवाजे की कुंजी था।)

अब मौलवी साहब का तरजुमा सुनिए –

तरजुमा – दिल तेरा खुला, खोला मैंने जो खत तेरा, कहे तू कुंजी दरवाजे बागदिल खोलने की थी।

माशा-अल्लाह, क्या तरजमा था। न मौलवी साहब ने खुद समझा, न लड़के ने। और दिल्लगी सुनिए कि मौलवी साहब भी शागिर्द के साथ पढ़ते जाते है और दोनों हिलते जाते हैं। जब यह पढ़ चुके, तो दूसरे साहब किताब बगल में दबाए आ बैठे।

मौलवी साहब – अरे गावदी, नई किताबें शुरू कीं, और चिरागी नदारद, शुकराना छप्पर पर! जा, दौड़ कर दो आने घर से ले आ।

लड़का – मौलवी साहब, कल लेता आऊँगा। आप तो हत्थे ही पर टोक देते हैं। आपको अपनी मिठाई ही से मतलब है कि मुफ्त के झगड़े से?

मौलवी – ये झाँसे किसी और को देना! अच्छा, अपने बाप की कसम खा कि कल जरूर लाऊँगा।

लड़का – मौलवी साहब के बड़े सिर की कसम, चढ़ते चाँद तक जरूर लाऊँगा।

इस पर सब लड़के हँस पड़े कि कितना ढीठ लड़का है! कसम भी खाई तो मौलवी साहब के सिर की, और सिर भी छोटा नहीं, बड़ा।

मौलवी – चुप गधे, मेरा सिर क्या कद्दू है? अच्छा, पढ़।

लड़का तो ऊटपटाँग पढ़ने लगा, मगर मौलाना साहब चूँ भी नहीं करते। उन्हें मिठाई की फिक्र सवार है। सोच रहे हैं, जो कल दो आने न लाया, तो खूब कोड़े फटकारूँगा, तस्मा तक तो बाकी रखूँगा नहीं।

दस-पाँच लड़के एक दूसरे को गुदगुदा रहे हैं और मौलवी साहब को दिखाने के लिए जोर-जोर से चिल्ला कर कोई शेर पढ़ रहे हैं।

आजाद को मकतब की यह हालत और लौडों को यह चिल्ल-पों देख सुन कर ऐसा गुस्सा आया कि अगर पाते, तो मौलवी साहब को कच्चा ही खा जाते। दिल में सोचे, यह मकतबखाना है या पागलखाना? जिधर देखिए, गुल-गपाड़ा, धौल-धप्पा हो रहा है। मालूम होता है, भरी बर्सात में मेंढक गाँव-गाँव या पिछले पहर कौवे काँव-काँव कर रहे हैं। घर पर आते ही मकतबों की हालत पर यह कैफियत लिख डाली –

(1) नूर के तड़के से झुटपुटे तक लड़कों को मकतबखाने में कैद रखना बेहूदगी है। लड़के दस बजे आएँ, चार बजे छुट्टी पाएँ, यह नहीं कि दिन भर दाँता-किल-किल, पढ़ना भी अजीरन हो जाय, और यही जी चाहे कि पढ़ने-लिखने की दुम में मोटा सा रस्सा बांधे, मौलवी साहब को हवा बताएँ और दिल खोल कर गुलछर्रे उड़ाएँ।

(2) यह क्या हिमाकत है कि जितने लड़के हैं, सबका सबक अलग दो-दो चार-चार, दस-दस का एक-एक दर्जा बना लीजिए, मेहनत की मेहनत बचेगी और काम ज्यादा होगा।

(3) जिधर देखता हूँ, अदब (साहित्य) की तालीम ही रही है। तालीम में सिर्फ अदब ही शामिल नहीं, हिसाब है, तवारीख है, जुगराफिया है, उकलैदिस है; मगर पढ़ाए कौन? मौलवी साहब को तो सौ तक गिनती नहीं आती।

(4) सब लड़कों का गुल मचा-कचा कर आवाज लगाना महज फजूल है। कोई खोंचेवाला, गँड़ेरीवाला, चने-परमलवाला इस तरह चिल्लाए, तो मुजायका नहीं; मटर-सटर, गोल-गप्पे, मसालेदार बैगन, मूली, तुरई, लो तरकारी – यह तो फेरी देनेवालों की सदा है, मकतब को मंडी बनाना हिमाकत है।

(5) तरजुमे पर खुदा की मार और शैतान की फटकार। ‘जाता हूँ बीच एक बाग के; वास्ते लाने अच्छी चीजों के, मैंने देखा मैंने, तू जाता है तू।’ वाह, क्या तू-तू मैं-मैं है! तरजुमा सही होना चाहिए, यह तो न कोई आवाज कसे कि लड़के बँगला बोल रहे हैं।

(6) पढ़ते वक्त लड़कों को हिलना ऐब है। मगर कहें किससे? मौलवी साहब तो खुद झूमते हैं।

(7) मतलब जरूर समझाना चाहिए; लड़का मतलब ही न समझेगा, तो उसको फायदा क्या खाक होगा?

(8) सबक को बरजबान रटना बुरी बात है। किताब बंद की और फर-फर दस सफे सुना दिए। हाफिजा कुछ मजबूत हुआ सही, मगर सितम यह है कि फिर तोते की तरह बात के सिवा कुछ याद नहीं रहता।

(9) छोटे-छोटे लड़कों को बड़ी-बड़ी किताबें पढ़ाना उनकी जिंदगी खराब करना है। जरा से टट्टू पर जब दो हाथियों का बोझ लादोगे, तो टट्टू बेचारा आँखें माँगने लगेगा, या नहीं? जरा सा बच्चा और पढ़े ‘मीना बाजार’।

(10) लड़के को शुरू ही से फारसी पढ़ाना उसका गला घोटना है। पहले उर्दू पढ़ाइए इसके बाद फारसी। शुरू से ही करीमा-मामकीमाँ पढ़ाना उसकी मिट्टी खराब करना है।

(11) मौलवी साहब लड़कों से चिलम भरवाना, हुक्का ताजा करवाना छोड़ दें। इसकी जगह इनको बात-चीत करने और मिलने-जुलने का आदाब सिखाएँ।

(12) अफीमची मौलवी छप्पर पर रखे जायँ। मौलवी ने अफीम खाई और लड़कों को शामत आई। वह पिनक में झूमा करेंगे।

यह इश्तिहार मोटे कलम से लिख कर मियाँ आजाद रातोंरात मकतब के दरवाजे पर चिपका आए। झट से निकल करके शहर में भी दो-चार जगह चिपका दिया। दूसरे दिन इश्तिहार के पास लोग ठट के ठट जमा हुए। किसी ने कहा, सम्मन चिपकाया गया है; कोई बोला, ठेठर का इश्तिहार है। बारे एक पढ़े-लिखे साहब ने कहा – यह कुछ नहीं है, मौलवी साहब के किसी दुश्मन का काम है। अब जिसे देखिए, कहकहा उड़ाता है। भाई वल्लहा, किसी बड़े ही फिकरेबाज का काम है। मौलवी बेचारे को ले ही डाला, पटरा कर दिया। मकतबखाने में लड़कों के चेहरे गुलनार हो गए। धत तेरे की! बचा रोज कमचियाँ जमाते थे, चपतें लगाते थे, अफीम घोली और सिर पर शेख-सद्दों सवार। अब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। मौलवी साहब तशरीफ का बक्चा लाए, तो लड़के उनका कहना ही नहीं मानते। मौलवी साहब कहते हैं, किताब खोलो। शार्गिद जवाब देते हैं, बस मुँह बंद करो। फर्माया कि अब बोला, तो हम बिगड़ जाएँगे। शार्गिदों ने कहा, हम खूब बनाएँगे। तब तो झल्लाए और डपट कर कहा, मैं बड़ा गर्म मिजाज हूँ। एक गुस्ताख ने मुसकिरा कर कहा, फिर हम ठंडा बनाएँगे। दूसरा बोला, किसी ठंडे मुल्क में जाइए। तीसरा बोला, दिमाग में गर्मी चढ़ गई है। मौलवी साहब घबराए कि माजरा क्या है। बाहर की तरफ नजर डाली, तो देखा, गोल के गोल तमाशाई खड़े कहकहे लगा रहे हैं। बाहर गए, तो इश्तिहार नजर आया। पढ़ा, तो कट गए। दिल ही दिल से लिखनेवाले को गालियाँ देने लगे। पाऊँ, तो कच्चा ही खा जाऊँ। इतने डंडे लगाऊँ कि छठी का दूध याद आ जाय। बदमाश ने कैसा खाका उड़ाया है! जभी तो लड़के इतने ढीठ हो गए हैं। मैं कहता हूँ आम, वे कहते हैं इमली। अब इज्जत डूबी। मकतबखाने में जाता हूँ, तो खौफ है, कहीं लौंडे रोज की कसर न निकालें और अंजर-पंजर ढीले कर दें। भाग जाऊँ, तो रोटियों के लाले पड़ें। खाऊँ क्या, अंगारे? आखिर ठान ली कि बोरिया-बँधना छोड़ो मुल्लागीरी से मुँह मोड़ो। भागे, तो घर पर दम लिया। लड़कों ने जो देखा कि मौलवी साहब पत्ता-तोड़ भागे जाते हें, तो जूतियाँ बगल में दवा, तख्तियाँ और बस्ते सँभाल दुम के पीछे चले। तमाशाइयों में बातें होने लगीं –

एक – अरे मियाँ यह भागा कौन जाता है बगटुट?

दूसरा – शैतान है, शैतान। आज लड़कों के दाँव पर चढ़ गया है, कैसा दुम दबाए भाग जाता है!

अब सुनिए कि मोहल्ले भर में खलबली मच गई। अजी, ऐसे मकतब की ऐसी-तैसी। बरसों से लौंडे पीटते हैं, एक हरफ न आया। लड़कों की मिट्टी पलीद की। पढ़ाना-लिखाना खैरसल्लाह, चिलमें भरवाया किए। सबने मिल कर कमेटी की कि मौलवी साहब का आम जलसे में इम्तिहान लिया जाय और मुनादी हो कि जिन साहब ने यह इश्तिहार लिखा है, वह जरूर आएँ। ढिंढोरिया मोहल्ले भर में कहता फिरा कि खलक खुदा का, मुल्क सरकार का, हुक्म कमेटी का कि आज एक जलसा होगा और मौलवी साहब का इम्तिहान लिया जायगा। जिसने इश्तिहार लिखा है, वह भी हाजिर हो।

मियाँ आजाद बहुत खुश हुए, शाम को जलसे में जा पहुँचे। जब दो-तीन सौ आदमी, अहाली-मवाली, डोम-डफाली, ऐरे-गैरे, नत्थू-खैरे, सब जमा हुए, तो एक मेंबर ने कहा – हजरत, यह तो सब कुछ है; मगर मौलवी साहब इस वक्त नदारद हैं। एकतरफा डिगरी न दीजिए। उन्हें बुलवाइए, तब इम्तिहान लीजिए। यों तो वह आएँगे नहीं। हम एक तदबीर बताएँ, जो दौड़े न आएँ, तो मूँछ मुड़ा डालें, हाथ कलम करा डालें। कहला भेजिए कि किसी के यहाँ शादी है, निकाह पढ़ने के लिए अभी बुलाते हैं! लोगों ने कहा, खूब सूझी, दूर की सूझी। आदमी मौलवी साहब के दरवाजे पर गया और आवाज दी – मौलवी साहब, अजी मौलवी साहब! क्या मर गए? इस घर में कोई है, या सबको साँप सूँघ गया? दरवाजा धमधमाया, कुँडी खटखटाई, मगर जवाब नदारद। तब तो आदमी ने झल्ला कर पत्थर फेंकने शुरू किए। दो-एक मौलवी साहब के घुटे हुए सिर पर भी पड़े। मौलवी साहब बोले, कौन है? आदमी ने कहा – बारे आप जिंदा तो हुए। मैंने तो समझा था, कफन की जरूरत पड़ी। चलिए, ईदूखाँ के यहाँ शादी है, निकाह पढ़ दीजिए। निकाह का नाम सुनते ही मौलाना खमीरी रोटी की तरह फूल गए, अंगरखे का बंद तड़ से टूट गया। कफन फाड़ कर चिल्ला उठे – आया, आया, ठहरे रहो, अभी आया। शिमला खोपड़ी पर जमा, अकीक का कंठा हाथ में ले, सुरमा लगा घर से चले। आदमी साथ है, दिल में कहते जाते हैं, आज-पौ-बारह हैं, बढ़ाकर हाथ मारा है, छप्पन करोड़ की तिहाई, हाथी के हौदे में घुटे। लंबे-लंबे डग भरते आदमी से पूछते जाते हैं – क्यों मियाँ, अब कितनी दूर मकान है? पास ही है न? देखें, निकाह पढ़ाई क्या मिलती है? सवा रुपए तो मामूली है; मगर खुदा ने चाहा तो बहुत कुछ ले मरूँगा। आदमी पीछे-पीछे हँसता जाता है कि मियाँ हैं किस खयाल में! बारे खुदा-खुदा करके वह मंजिल तय हुई, मकान में आए, तो होश उड़ गए। यह कैसा ब्याह है भाई, न ढोल, न शहनाई, हमारी शामत आई। कनखियों से इधर-उधर देख रहे हैं, अक्ल दंग है कि ये सब के सब हमीं को क्यों घूर रहे हैं। इतने में मीर-मजलिस ने कहा – जिन साहब ने इश्तिहार लिखा था, वह अगर आए हों तो कुछ फर्माएँ।

आजाद ने खड़े हो कर कहा – यह जो मौलवी साहब आप लोगों के सामने खड़े है, इनसे पूछिए कि मकतबखाने में अफीम क्यों पीते हैं? जब देखिए, पिनक में ऊँघ रहे हैं या मिठाई टूँग रहे हैं। लड़कों का पढ़ाना खाला जी का घर नहीं कि सिर घुटाया और मुल्ला बन गए, चूड़ी निगली और पीर जी बन गए।

मौलवी साहब ताड़ गए कि यहाँ मेरी दुर्गति होनेवाली है। भागने ही को थे कि एक आदमी ने टाँग पकड़ कर आँटी बताई, तो फट से जमीन पर आ रहे। अच्छे फँसे। खूब निकाह पढ़ाया। मुफ्त में उल्लू बने। खैर, मियाँ आजाद ने फिर कहा –

‘मौलवी साहब को किसी मजार का मुजाविर या कहीं का तकिएदार बना दीजिए, तो खूब मीठे टुकड़े उड़ाएँ और डंड पेलें। यह मकतबखाने में उल्लू का दसहरा उनको क्यों बना दिया? लड़कों की कैफियत सुनिए कि दिन भर गुल्ली-डंडा खेला करते हैं, चीखते हैं, चिल्लाते हैं, और दिन भर में अठारह मर्तबा पेशाब करने और पानी पीने जाते हैं। कोई कहता है, मौलवी साहब, देखिए, यह हमारी नाक पकड़ता है, कोई कहता है, यह हमसे लड़ता है। मौलवी साहब को इससे कुछ मतलब नहीं कि लड़के पढ़ते हैं या नहीं। वहाँ तो हिलते जाओ और ऐसा गुल मचाओ कि कान पड़े आवाज न सुनाई दे, उसमें चाहे जो कुछ ऊल-जलूल बको।’

मौलवी साहब फिर रस्सी तुड़ा कर भागने लगे। लोग लेना-देना करके दौड़े। गए थे रोजे बख्शाने, नमाज गले पड़ी। चिल्ला कर बोले – तुम कौन होते हो जी हमारा ऐब निकालनेवाले, हम पढ़ाएँ या न पढ़ाएँ, तुमसे मतलब!

आजाद – हजरत, आज ही तो पंजे में फँसे हो। रोज तोंद निकाले बैठे रहा करते थे। यह तोंद है या बेईमान की कब्र? या हवा का तकिया? अब पचक जाय, तो सही। खुदा जाने, कहाँ का गँवार बिठा दिया है। कल सुबह को इनका इम्तिहान लिया जाय।

मौलवी साहब – आप बड़े शैतान हैं!

आजाद – आप लंगूर है; मगर हैरत है कि यह ठुट्डी से दुम की कोंपल क्योंकर फूटी!

इस तरह जलसा खतम हुआ। लोगों ने दिल में ठान ली कि कल चाहे ओले पड़ें, चाहे कड़कड़ाती धूप हो, चाहे भूचाल आए; मगर हम आएँगे और जरूर आएँगे। मौलवी साहब से ताकीद की गई कि हजरत, कल न आइएगा, तो यहाँ रहना मुश्किल हो जाएगा – मौलवी साहब का चेहरा उतर गया था, मगर कड़क कर बोले – हम और न आएँ, आएँ और बीच खेत आएँ। हम क्या कोई चोर हैं, या किसी का माल मारा है?

मौलवी साहब घर पहुँचे, तो आजाद को लगे पानी पी-पी कर कोसने। इसकी जबान सड़े, मुँह फूल जाय; सारी चौकड़ी भूल जाय; आसमान से अंगारे बरसें; ऐसी जगह मरे, जहाँ पानी न मिले; डंकू फीवर चट करे; एंजिन के नीचे दब कर मरे। मगर इन गालियों से क्या होता था। रात किसी तरह कटी, दूसरे रोज नूर के तड़के लोग फिर जलसे में आ पहुँचे। मगर मौलाना ऐसे गायब हुए, जैसे गधे के सिर से सींग। बारे यारों ने तत्तो-थंभो करके सिर सुहलाते, सब्ज बाग दिखलाते घसीट ही लिया। मियाँ आजाद ने पूछा – क्यों मौलवी साहब, किस मनसूबे में हो?

मौलवी साहब – सोचता हूँ कि अब कौन चाल चलूँ? सोच लिया है कि अब मुल्लागिरी छोड़ प्यादों में नौकरी करेंगे। बस, वतन से जाएँगे, तो फिर लौट कर घर न आएँगे। अमीर-गरीब सब पर मुसीबत पड़ती है। फिर हमारी बिसात क्या? चारखाने का अँगरखा न सही, गाढ़े की मिरजई सही। मगर आप एक गरीब के पीछे नाहक क्यों पड़े हुए हैं? ‘कहाँ राजा भोज, कहाँ गँगुआ तेली?’

आजाद – ये झाँसे रहने दीजिए, ये चकमे किसी और को दीजिए।

मौलवी साहब – खुदा की पनाह! मैं आपका गुलाम और आपको चकमे दूँगा? आपसे क्या अर्ज करूँ कि कितना जी तोड़ कर लड़कों को पढ़ाता हूँ। इधर सूरज निकला और मैंने मकतब का रास्ता लिया। दिन भर लड़कों को पढ़ाया। क्या मजाल कि कोई लड़का गरदन तक उठा ले। कोई बोला, और मैंने टोप जमाई, खेला और शामत आई। समझ-बूझकर चलता था, अगर कोई लड़का मकतब में खिलौना लाता, तो उसे तुरत अँगीठी में डलवा देता। मगर आपने सारी मेहनत पर पानी फेर दिया। आपके सामने मेरी कौन सुनता है।

मीर-मजलिस ने कहा – मियाँ आजाद इन्हें बकने दीजिए, आप इनका इम्तिहान लीजिए।

मियाँ आजाद तो सवाल पूछने के लिए खड़े हुए, उधर मौलवी साहब का बुरा हाल हुआ। रंग फक, कलेजा शक, आँखों में आँसू, मुँह पर हवाइयाँ छूट रही हैं, कलेजा धक-धक करता है, हाथ-पाँव काँपने लगे किसी तरह खड़े तो हुए, मगर कदम न जमा। पाँव डगमगाए और लड़खड़ा कर गिरे। लोगों ने उन्हें उठा कर फिर खड़ा किया।

आजाद – यह शेर किस बहर में है –

मैंने कहा जो उससे ठुकरा के चल न जालिम;
हैरत में आके बोला – क्या आप जी रहे हैं?

मौलवी साहब – बहर (दरिया) में आप ही गोते लगाइए, और खुदा करे, डूब जाइए। जिसे देखो, हमीं पर शेर है। नामाकूल इतना नहीं समझते कि हम मौलवी आदमी लौंडे पढ़ाना जानें या शायरी करना। हमें शेर से मतलब? आए वहाँ से बहर पूछने!

आजाद – बेशुनो अज नैचूँ हिकायत मी कुनद;
वज जुदाईहा शिकायत मी कुनद।

इस शेर का मतलब बतलाइए!

मौलवी साहब – इसका बताना क्या मुश्किल है? नै कहते हैं चंडू की नै को। बस, उस जमाने में लोग चंडू पीते थे और शिकायत करते थे।

आजाद – बकरी की पिछली टाँगों को फारसी में क्या कहते हैं?

मौलवी साहब – यह किसी अपने भाई-बंद, बूचड़-कस्साब से पूछिए। बंदा न छीछड़े खाय; न जाने। वाह, अच्छा सवाल है! अब मुल्लाओं को बूचड़ों की शागिर्दी भी करनी चाहिए!

आजाद – हिंदुस्तान के उत्तर में कौन मुल्क है?

मौलवी – खुदा जाने। मैं क्या देखने गया था कि आपकी तरह मैं भी सैलानी हूँ।

आजाद – सबसे बड़ा दरिया हिंदोस्तान में कौन है?

मौलवी – फिरात, नहीं, वह देखिए, भूला जाता हूँ, अजी वहीं, दजला, दजला, खूब याद आया।

हाजिरीन – वाह रे गावदी, अच्छी उलटी गंगा बहाई। फिरात और दजला हिंद में हैं? इतना भी नहीं जानता।

आजाद – चाँद के घटने-बढ़ने का सबब बताओ?

मौलवी – वाह, क्या खूब, खुदाई कारखानों में दखल दूँ? इतना तो किसी की समझ में आता नहीं कि फ्रीमिशन क्या है, फिर भला यह कौन जाने कि चाँद कैसे घढ़ता-बढ़ता है। खुदा का हुक्म है, वह जो चाहता है, करता है।

आजाद – पानी क्योंकर बरसता है?

मौलवी – यह तो दादीजान तक को मालूम था। बादल तालाबों, नदियों, कुओं, गढों, हौजों से घुस-पैठ कर दो-तीन रोज खूब पानी पीता है; जब पी चुका, तब आसमान पर उड़ गया, मुँह खोला तो पानी रिस-झिम बरसने लगा। सीधी-सी तो बात है।

हाजिरीन – वल्लाह, क्या बेपर की उड़ाई है! आदमी हो या चोंच! कहने लगे, बादल पानी पीता है।

आजाद – गिनती आपको कहाँ तक याद है और पहाड़े कहाँ तक?

मौलवी – जवानी में रुपए के टके गिन लेता था; अब भी आठ-आठ आने एक दफे में गिन सकता हूँ। मगर पहाड़े किसी हलवाई के लड़के से पूछिए।

आजाद – एक आदमी ने तीन सौ पछत्तर मन गल्ला खरीदा, रात को चोरों ने मौका ताक कर एक सौ पचीस मन उड़ा लिया, तो बताओ उस आदमी को कितना घाटा हुआ?

मौलवी – यह झगड़ा जौनपुर के काजी चुकाएँगे। मैं किसी के फटे में पाँव नहीं डालता। मुझे किसी के टोटे-घाटे से मतलब? चोरी-चकारी का हाल थानेदारों से पूछिए। बंदा मौलवी है। मुल्ला की दौड़ मसजिद तक।

आजाद – शाहजहाँ के वक्त में हिंदोस्तान की क्या हालत थी और अकबर के वक्त में क्या?

मौलवी – अजी, आप तो गड़े मुर्दे उखाड़ते हैं! अकबर और शाहजहाँ, दोनों की हड्डियाँ गल कर खाक हो गई होंगी। अब इस पचड़े से मतलब?

आजाद ने हाजिरीन से कहा – आप लोगों ने मौलवी साहब के जवाब सुन लिए, अब चाहे जो फैसला कीजिए।

हाजिरीन – फैसला यही है कि यह इसी दम अपना बोरिया-बँधना सँभाले। यह चरकटा है। इसे यही नहीं मालूम कि बहर किस चिड़िया का नाम है, बादल किसे कहते हैं, दो तक का पहाड़ा नहीं याद, गिनती जानता ही नहीं, दजला और फिरात हिंदोस्तान में बतलाता है! और चला है मौलवी बनने। लड़कों की मुफ्त में मिट्टी खराब करता है।

आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 12

आजाद तो इधर साँड़नी को सराय में बाँधे हुए मजे से सैर-सपाटे कर रहे थे, उधर नवाब साहब के यहाँ रोज उनका इंतिजार रहता था कि आज आजाद आते होंगे और सफशिकन को अपने साथ लाते होंगे। रोज फाल देखी जाती थी, सगुन पूछे जाते थे। मुसाहब लोग नवाब को भड़काते थे कि अब आजाद नहीं लौटने के; लेकिन नवाब साहब को उनके लौटने का पूरा यकीन था।

एक दिन बेगम साहबा ने नवाब साहब से कहा – क्यों जी, तुम्हारा आजाद किस खोह में धँस गया? दो महीने से तो कम न हुए होंगे।

महरी – ऐ, वह चंपत हुआ, मुआ चोर।

बेगम – जबान सँभाल, तेरी इन्हीं बातों पर तो मैं झल्ला उठती हूँ। फिर कहती है कि छोटी बेगम मुझसे तीखी रहती हैं।

नवाब – हाँ, आजाद का कुछ हाल तो नहीं मालूम हुआ; मगर आता ही होगा।

बेगम – आ चुका।

नवाब – चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय, मेरा आजाद सफशिकन को ला ही छोड़ेगा। दोनों में इल्मी बहस हो रही होगी। फिर तुम जानो, इल्म तो वह समंदर है, जिसका ओर न छोर।

बेगम – (कहकहा लगा कर) इल्मी बहस हो रही होगी? क्यों साहब, मियाँ सफशिकन इल्म भी जानते हैं? मैं कहती हूँ, आखिर अल्लाह ने तुमको कुछ रत्ती, तोला, माशा अक्ल भी दी है? मुआ बटेर, जरी सी जानवर, काकुन के तीन दानों में पेट भर जाय, उसे आप आलिम कहते हैं। मेरे मैके पड़ोस में एक सिड़ी सौदाई दिन-रात वाही-तवाही बका करता है। उसकी और तुम्हारी बातें एक सी हैं।

महरी – क्या कहती हो बीबी, उस सौदाई निगोड़े को इन पर से सदके कर दूँ!

नवाब – तुम समझी नहीं महरी, अभी तो अल्हड़पने ही के न दिन हैं इनके। खुदा की कसम, मुझे इनकी ये ही बातें तो भाती हैं। यह कमसिकनी का सुभाव है और दो-तीन बरस, फिर यह शोखी और चुलबुलापन कहाँ? यह जब झिड़कती या घुड़कती हैं, तो जी खुश हो जाता है।

महरी – हाँ, हाँ, जवानी तो फिर बावली होती ही है।

बेगम -अच्छा, महरी, तुझे अपने बुढ़ापे की कसम, जो झूठ बोले, भला बटेर भी पढ़े-लिखे हुआ करते हैं? मुँह देखी न कहना, अल्लाह लगती कहना।

महरी – बुढ़ापा! बुढ़ापा कैसा? बीबी, बस ये ही बातें तो अच्छी नहीं लगतीं, जब देखो, तब आप बूढ़ी कह देती हैं! मैं बूढ़ी कहो से हो गई? बुरा न मानिए तो कहूँ, आपसे भी टाँठी हूँ।

इतने में गफूर खिदमतगार ने पुकारा हुजूर, पेचवान भरा रखा है, वहाँ भेज दूँ, या बगीचे में रख दूँ?

नवाब – यह चाँदीवाली छोटी गुड़गुड़ी बेगम साहबा के वास्ते भर लाओ। कल बिसवाँ तंबाकू आया है, वही भरना। और पेचवार बाहर लगा दो, हम अभी आए।

यह कह कर नवाब ने बेगम साहबा के हँसी-हँसी में एक चुटकी ली और बाहर आए। मुसाहबबों ने खड़े हो-हो कर सलाम किए। आदाब बजा लाता हूँ हुजूर, तसलीमात अर्ज करता हूँ, खुदाबंद। नवाब साहब जा कर मसनद पर बैठे।

खोजी – उफ् ! मौत का सामना हुआ, ऐसा धचका लगा कि कलेजा बैठा जाता है, हत तेरे गीदी चोर की।

नवाब – क्यों, क्यों, खैर तो है?

खोजी – हुजूर, इस वक्त बटेरखाने की ओर गया था।

नवाब – उफ, भई, दिल बेकरार है, खोजी मियाँ, तुमको तो हमारी तसल्ली करनी चाहिए थी, न कि उल्टे खुद ही रोते हो, जिसमें हमारे हाथ-पाँव और फूल जायँ। सब सफशिकन से हाथ धोना चाहिए। हम जानते हैं कि वह खुदा के यहाँ पहुँच गए।

मुसाहब – खुदा न करे, खुदा न करे।

खोजी – (पिनक से चौंक कर) इसी बात पर फिर कुछ मिठाई नहीं खिलवाते।

नवाब – कोई है, इस मरदक की गरदन तो नापता। हम तो अपनी किस्मतों को रो रहे हैं, यह मिठाई माँगता है। बेतुका, नमकहराम!

खोजी – देखिए, देखिए, फिर मेरी गरदन कुंद छुरी से रेती जाती है। मैं मिठाई कुछ खाने के वास्ते थोड़े ही मँगवाता हूँ। इसलिए मँगवाता हूँ कि सफशिकन का फातिहा पढ़ूँ।

नवाब – शाबाश, जी खुश हो गया! माफ करना, बेअख्तियार नमकहराम का लफ्ज मुँह से निकल गया, तुम बड़े…

मुसाहब – तुम बड़े हलालकोर हो।

इस पर वह कहकहा पड़ा कि नवाब साहब भी लोटने लगे, और बेगम ने घर से लौंड़ी को भेजा कि देखना तो, यह क्या हँसी हो रही है।

नवाब – भई, क्या आदमी हो, वल्लाह, रोते को हँसाना इसी का नाम है। खोजी बेचारे को हलालखोर बना दिया।

खोजी – हुजूर, अब मैं यहाँ न रहूँगा। क्या बेवक्त की शहनाई सब के सब बजाने लगे! अफसोस, सफशिकन का किसी को खयाल तक नहीं।

नवाब साहब मारे रंज के मुँह ढाँप कर लेट रहे। मुसाहबकों में से कोई चंडूखाने पहुँचा, कोई अफीम घोलने लगा।

आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 13

इधर शिवाले का घंटा बजा ठनाठन, उधर दो नाकों से सुबह की तोप दगी दनादन। मियाँ आजाद अपने एक दोस्त के साथ सैर करते हुए बस्ती के बाहर जा पहुँचे। क्या देखते हैं, एक बेल-बूटों से सजा हुआ बँगला है। अहाता साफ, कहीं गंदगी का नाम नहीं। फूलों-फलों से लदे हुए दरख्त खड़े झूम रहे हें। दरवाजों पर चिकें पड़ी हुई हैं। बरामदे में एक साहब कुर्सी पर बैठे हुए हैं, और उनके करीब दूसरी कुर्सी पर उनकी मेम साहबा बिराज रही हैं। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। न कहीं शोर, न कहीं गुल। आजाद ने कहा – जिंदगी का मजा तो ये लोग उठाते हैं।

दोस्त – बेशक, देख कर रश्क आता है।

दोनों आदमी आगे बढ़े। कई छोटे-छोटे टट्टू तेजी से दौड़ते हुए नजर आए। उन पर खूबसूरत काठियाँ कसी हुई थीं और कई लड़के बैठे हुए हँसते-बोलते चले जाते थे। कपड़े सफेद, जैसे बगुले के पर; चेहरे सुर्ख, जैसे गुलाब का फूल। मियाँ आजाद कई मिनट तक उन अंगरेज-लड़कों का उछलना-कूदना देखते रहे। फिर अपने दोस्त से बोले – देखा आपने इस तरह बच्चों की परवरिश होती है। कुछ और आगे बढ़े, तो सौदागरों की बड़ी-बड़ी कोठियाँ दिखाई दी। इतनी ऊँची गोया आसमान से बातें कर रही हैं। दोनों आदमी अंदर गए, तो चीजों की सफाई और सजावट देख कर दंग रह गए। सुभान-अल्लाह! यह कोठी है या शीश-महल। दुनिया भर की चीजें मौजूद। आजाद ने कहा – यह तिजारत की बरकत है। वाह री तिजारत। तेरे कदम धो-धो कर पिए। इतने के सामने से कई बग्घियाँ आईं। सब पर अंगरेज बैठे हुए थे। किसी हिंदुस्तानी का कोसों तक पता ही नहीं। गोया उनके लिए घर से निकलना ही मना है। और आगे बढ़े, तो एक कुतुबखाना नजर आया। लाखों किताबें चुनी हुई, साफ-सुथरी, सुनहरी जिल्दें चढ़ी हुई। आदमी अगर साल भर जम कर बैठे, तो आलिम हो जाय। सुबह से आठ बजे तक लोग आते हैं, अखबार और किताबें पढ़ते हैं और दुनिया के हालात मालूम करते हैं। मगर हिंदुस्तानियों को इन बातों से क्या सरोकार?

दस बजे का वक्त आ गया। अब घर की सूझी। बस्ती में दाखिल हुए। राह में एक अमीर आदमी के मकान के दरवाजे पर दो लड़कों को देखा। नखसिख से तो दुरुस्त हैं; मगर कानों में बाले, भद्दे-भद्दे कड़े पड़े हैं, अँगरखा मैला-कुचैला, पाजामा गंदा, हाथों पर गर्द, मुँह पर खाक, दरवाजे पर नंगे पाँव खड़े हैं। मौलवी साहब ड्योढ़ी में बैठे दो और लड़कों को पढ़ा रहे हें। मगर ड्योढ़ी और पाखाना मिला हुआ है।

मियाँ आजाद – कहिए जनाब, वे टट्टुओं पर दौड़नेवाले अंगरेजों के बच्चे भी याद हैं? इनको देखिए, मैले-गंदे, दिन भर पाखाने का पड़ोस। भला ये कैसे मजबूत और तंदुरुस्त हो सकते हैं? हाँ, जेवर से अलबत्ते लसे हुए हैं! सच तो यह है कि चाहे लड़का जितने जेवर पहने हो, उसको वह सच्ची खुशी नहीं हासिल हो सकती, जो उन प्यारे बच्चों को हवा के झोंकों और टापों की खटपट से मिलती थी। लड़का तड़के गजरदम उठा, हम्माम में गया, साफ-सुथरे कपड़े पहने। यह अच्छा, या अच्छा कि लचके, पट्टे और बिन्नट्ट के कपड़ों में जकड़ दिया जाय, जेवर सिर से पाँव तक लाद दिया जाय और गढ़ैया पर बिठा दिया जाय कि कूड़े के टोकरे गिना करे।

ये बातें हो ही रही थीं कि सात-आठ जवान सामने से गुजरे। अभी उन्नीस ही बरस का सिन है, मगर गालों पर झुर्रियाँ, किसी की कमर झुकी हुई, किसी का चेहरा जर्द। सुर्ख और सफेद रंग धुआँ बन कर उड़ गया। और तुर्रा यह कि अलिफ के नाम वे नहीं जानते। एक नंबर अव्वल के चंडूबाज हैं, दूसरे बला के बातूनी। वह फर्राटे भरें कि भला-चंगा आदमी घनचक्कर हो जाय। एक साहब कॉलेज में तालीम पाते थे, मगर प्रोफेसर से तकरार हो गई, झट मदरसा छोड़ा। दूसरे साहब अपने दाहिने हाथ की दो उँगलियों से बाएँ हाथ पर ताल बजा रहे हैं – धिन ता धिन ता। दो साहब बहादुर नामी बटेर के घट जाने का अफसोस कर रहे हैं। किसी को नाज है कि मैं बाने की कनकइयाँ खूब लड़ाता हूँ, तुक्कल खूब बढ़ाता हूँ।

मियाँ आजाद ने कहा – इन लोगों को देखिए, अपनी जिंदगी किस तरह खराब कर रहे हैं। शरीफों के लड़के हैं, मगर बुरी सोहबत है। पढ़ना-लिखना छोड़ बैठे। अब मटर-गश्ती से काम है। किसी को कलम पकड़ने का शऊर नहीं।

इतने में दो साहब और मिले। तोंद निकाले हुए, मोटे थलथल। आजाद ने कहा – इन दोनों को पहचान रखिए। इन अक्ल के दुश्मनों ने रुपए को दफन कर रखा है। एक के पास दो लाख से ज्यादा हैं ओर दूसरे के पास इससे भी ज्यादा; मगर जमीन के नीचे। बीवी और लड़कों को कुछ जेवर तो बनवा दिए हैं, बाकी अल्लाह-अल्लाह, खैर-सल्लाह! अगर तिजारत करें, तो अपना भी फायदा हो, और दूसरों का भी। मगर यह सीखा ही नहीं। बंगाल-बंक और दिल्ली-बंक तो पहले सुना करते थे, यह जमीन का बंक आज नया सुना।

दोनों आदमी घर पहुँचे। खाना खा कर लेटे। शाम को फिर सैर करने की सूझी एक बाग में जा पहुँचे। कई आदमी बैठे हुक्के उड़ाते थे और किसी बात पर बहस करते थे। बहस से तकरार शुरू हुई। मिर्जा सईद ने कहा – भई, कलजुग है, कलजुग। इसमें जो न हो, वह थोड़ा। अब पुराने रस्मों को लोग दकियानूसी बताते हैं, शादी-ब्याह के खर्च को फिजूल कहते हैं। बच्चों को जेवर पहनाना गाली है। अब कोई इन लोगों से इतना तो पूछे कि जो रस्म बाप-दादों के वक्त से चली आती हे, उसको कोई क्योंकर मिटाए?

यकायक पूरब की तरफ से शोर-गुल की आवाज सुनाई दी। किसी ने कहा, चोर आया, लेना, जाने न पाए। कोई बोला, साँप है। कोई भेड़िया-भेड़िया चिल्ला उठा। किसी को शक हुआ कि आग लगी। सबके सब भड़भड़ा कर खड़े हुए, तो चोर न चकार, भेड़िया न सियार। एक मियाँ साहब लँगोट कसे लठ हाथ में लिए अकड़ खड़े हैं, और उनसे दस कदम के फासले पर कोई लाला जी बाँस की खपाच लिए डटे खड़े हैं। इर्द-गिर्द तमाशाइयों की भीड़ है। इधर मियाँ साहब पैतरे बदल रहे हैं, उधर लाल उँगलियाँ मटका-मटका कर गुल मचा रहे हैं। मिर्जा सईद ने पूछा – मियाँ साहब, खैर तो है? मियाँ – क्या अर्ज करूँ मिर्जा साहब, आपको दिल्लगी सूझती है और यहाँ जान पर बन गई है। यह लाला मेरे पड़ोसी हैं। इनका कायदा है कि ठर्रा पी कर हजारों गालियाँ मुझे दिया करते हैं। आज कोठे पर चढ़ कर खुदा के वास्ते लाखों बातें सुनाईं। अब फरमाइए, आदमी कहाँ तक जब्त करे? लाख समझाया कि भाई, आदमी से ऊँट और इनसान से बेदुम के गधे न बन जाओ, मगर यह बादशाह की नहीं सुनते, मैं किस गिनती में हूँ। ताल ठोक कर लड़ने को तैयार हो गए। खुदा न करे, किसी भलेमानस को अनपढ़ से साबिका पड़े।

लाला – और सुनिएगा,हम चार-पाँच बरस लखनऊ में रहे, अनपढ़ ही रहे। मियाँ-बारह बरस दिल्ली में रह कर तुमने क्या सीख लिया, जो अब चार बरस लखनऊ में रहने से फाजिल हो गए।

लाला – यह साठ बरस से हमारे पड़ोसी हैं, खूब जानते हैं कि बरस दिन का त्योहार है; हम शराब जरूर पिएँगे; चुस्की जरूर लगाएँगे, नशे में गालियाँ जरूर सुनाएँगे। अब अगर कोई कहे, शराब-कलिया छोड़ दो, तो हम अपनी पुरानी रस्म को क्योंकर छोड़ें?

मिर्जा सईद – अजी लाला साहब, बहुत बहकी-बहकी बातें न कीजिए। हमने माना कि पुरानी रस्म है, मगर ऐसी रस्म पर तीन हरफ! आप देखें तो कि इस वक्त आपकी क्या हालत है? कीचड़ में लतपत, सिर-पैर की खबर नहीं, भलेमानसों को गालियाँ देते हों और कहते हो कि यह तो हमारी रस्म है।

आजाद – मिर्जा सईद, जरा मुझसे तो आँखें मिलाइए। शर्माए तो न होंगे? अभी तो आप कहते थे कि पुरानी रस्म को कोई क्योंकर मिटाए। यह भी तो लाला जी की पुरानी रस्म है; जिस तरह होती आई है, उसी तरह अब भी होगी। यह धूप-छाँह की रंगत आपने कहाँ पाई? गिरगिट की तरह रंग क्यों बदलने लगे? जनाब, बुरी रस्म का मानना हिमाकत की निशानी है।

मिर्जा सईद बगलें झाँकने लगे। आजाद और उनके दोस्त और आगे बढ़े, तो देखते क्या हें कि एक गँवार औरत रोती चली जाती है, और एक मर्द चुपके-चुपके समझा रहा है – चुपाई मार, चुपाई मार। मियाँ आजाद समझे, कोई बदमाश है। ललकारा, कौन है बे तू, इस औरत को कहाँ भगाए लिए जाता है? उस गँवार ने कहा – साहब, भगाए नहीं लिए जात हौं; यो हमार मिहरिया आय, हमरे इहाँ रसम है कि जब मिहरिया मइका से ससुराल जात हे, तो दुइ-तीन कोस लौं रोवत है।

सईद – वल्लाह, मैं कुछ और ही समझा था। खुदा की पनाह, रस्म की मिट्टी खराब कर दी।

आजाद – बजा है, अभी आप उस बाग में क्या कह रहे थे? बात यह है कि पढ़े-लिखे आदमियों को बुरी रस्मों का मानना मुनासिब नहीं। यह क्या जरूरी है कि अक्ल की आँखों को पाकेट में बंद करके पुरानी रस्मों के ढर्रे पर चलना शुरू करें; और इतनी ठोकरें खायँ कि कदम-कदम पर मुँह के बल गिरें। खुदा ने अक्ल इसलिए नहीं दी कि पुरानी रस्मों में सुधार न करें, बल्कि इसलिए कि जमाने के मुताकि अदल-बदल करते रहें। अगर पुरानी बातों की पूरी-पूरी पैरवी की जाती, तो ये जामदानी के कुरते और शरबती के अँगरखे नजर न आते। लोग नंगे फिरते होते। पुलाव और कबाब के बदले हम पाढ़े और हिरन का कच्चा गोश्त खाते होते। खुदा ने आँखें दी हैं; मगर अफसोस कि हमने बंद कर लीं।

मिर्जा सईद – तो आप नाच-रंग के जलसों के भी दुश्मन होंगे? आप कहेंगे कि यह भी बुरी रस्म है?

आजाद – बेशक बुरी रस्म है। मैं उसका दुश्मन तो नहीं हूँ, मगर खुदा ने चाहा, तो बहुत जल्द हो जाऊँगा। यह कितनी बेहूदा बात है कि हम लोग औरतों को रुपए का लालच देकर इस तरह जलील करते हैं।

मिर्जा सईद – तो यह कहिए कि आप कोरे मुल्ला हैं। यह समझ लीजिए कि इन हसीनों का दम गनीमत है। दुनिया की चहल-पहल उनके दम से, महफिल की रौनक उनके कदम से। यहाँ तो जब तक तबले की गमक न हो, चाँद से मुखड़े की झलक न हो, कड़ों की झनकार न हो, छड़ों की छनकार न हो, छमाछम की आवाज न आए, कमरा न सजे, ताल न बजे, धमा-चौकड़ी न मचे, मेहँदी न रचें, रँगरलियाँ न मनाएँ, शादियाने न बजाएँ, आवाजें न करें, इत्र में न बसें, ताने न सुनें, सिर न धुनें, गलेबाजी न हो, आँखों में लाल डोरे न हों, शराब-कबाब न हो, परियाँ बुलबुल की तरह चहकती न हों, सेवती के फूल और हिना की टट्टियाँ महकती न हों, कहकहे न हों, चहचहे न हों, तो किस गौखे का दम भर जीने को जी चाहे? वल्लाह, महफिल बावले कुत्ते की तरह काट खाय –

महफिल में गुदगुदाती हो, शोखी निगाह की;
शीशों से आ रही हो, सदा वाह-वाह की।

इधर जामेमुल (शराब) हो, उधर सुराही की कुल-कुल हो, इधर गुल हो, उधर बुलबुल हो, महफिल का रंग खूब जमा हो, समाँ बँधा हो, फिर जो आपकी गरदन भी न हिल जाय, तो झुक कर सलाम कर लूँ। अब गौर फरमाइए कि ऐसे तायफे को, जो डिबिया में बंद कर रखने काबिल है, आप एक कलम मिटा देना चाहते हैं?

आजाद – जनाब, आपको अपनी तवायफें मुबारक हों। यहाँ इस फेर में नहीं पड़ते।

ये बातें करते हुए लोग और आगे बढ़े, तो क्या देखते हैं कि मस्त हाथी पर एक महंत जी सवार, गेरुए कपड़े पहने, भभूत रमाए, पालथी मारे, बड़े ठाठ से बैठे हैं। चेले-चापड़ साथ हैं। कोई घोड़े की पीठ पर सवार, कोई पैदल। कोई पीछे बैठा मुरछल हिलाता है, कोई नरसिंघा बजाता है। आजाद बोले- कोई इन महंत जी से पूछे कि आप खुदा की इबादत करते हैं, या दुनिया के मजे उड़ाते हैं? आपको इस टीम-टाम से क्या मतलब?

मिर्जा सईद – कुछ बाप की कमाई तो है नहीं, अहमकों ने जागीरें दे दीं, महंत बना दिया। अब ये मौजें करते हैं।

आजाद – जागीर देने वालों को क्या मालूम था कि उनके बाद महंत लोग यों गुलछर्रे उड़ाएँगे? यह तो हमारा काम है कि इन महंतों की गरदन पकड़ें, और कहें, उतर हाथी से, ले हाथ में कमंडल।

यकायक किसी ने छींक दिया। सईद बोले – हात्तेरे छींकनेवाले नाक का टूँ। यार, जरा ठहर जाओ, छींकते चलना बदशगुनी है।

आजाद – तो जनाब, हमारा और आपका साथ हो चुका। यहाँ छींक की परवा नहीं करते। आप पर कोई आफत आए, तो हमारा जिम्मा।

अभी दस कदम भी न गए थे कि बिल्ली रास्ता काट गई। सईद ने आजाद का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींच लिया। भई अजब बेतुके आदमी हो, बिल्ली राह काट गई और तुम सीधे चले जाते हो? जरा ठहरो, पहले कोई और जाय, तब हम भी चलें।

अब सुनिए कि आध घंटे तक मुँह खोले खड़े हैं। या खुदा, कोई इधर से आए। आजाद ने झल्ला कर कहा – भई, हमको आपका साथ अजीरन हो गया। यहाँ इन बातों के कायल नहीं। खैर वहाँ से खुदा-खुदा करके चले, तो थोड़ी देर के बाद सईद ने फिर आजाद को रोका। हाँय-हाँय, खुदा के वास्ते उधर से न जाना। मियाँ अंधे हो, देखते नहीं, गधे खड़े हैं। आजाद ने कहा – गधे तो आप खुद हैं। डंडा उठाया, तो दोनों गधे भागे। फिर जो आगे बढ़े, तो सईद की बाईं आँख फड़की। गजब ही हो गया। हाथ-पाँव फूल गए, सारी चौकड़ी भूल गए। बोले – यार, कोई तदबीर बताओ, बाईं आँख बेतरह फड़क रही है। मर्द की बाईं और औरत की दाहनी आँख का फड़कना बुरा शगून है। आजाद खिलखिला कर हँस पड़े कि अजीब आदमी हैं आप! छींक हुई और हवास गायब; बिल्ली ने रास्ता काटा, और होश पैतरे; गधे देखे और औसान खता; और जो बाईं आँख फड़की, तो सितम ही हुआ! मियाँ, कहना मानो, इन खुराफात बातों में न जाओ। यह वहम है, जिसकी दवा लुकमान के पास भी नहीं। मेरा और आपका साथ हो चुका। आप अपना रास्ता लीजिए, बंदा रुखसत होता है।

आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 14

मियाँ आजाद ठोकरें खाते, डंडा हिलाते, मारे-मारे फिरते थे कि यकायक सड़क पर एक खूबसूरत जवान से मुलाकात हुई। उसने इन्हें नजर भर कर देखा, पर यह पहचान न सके। आगे बढ़ने ही को थे कि जवान ने कहा –

हम भी तसलीम की खू डालेंगे;
बेनियाजी तेरी आदत ही सही।

आजाद ने पीछे फिर कर देखा, जवान ने फिर कहा –

गो नहीं पूछते हरगिज वो मिजाज;
हम तो कहते हैं, दुआ करते हैं।

‘कहिए जनाब, पहचाना या नहीं? यह उड़नघाइयाँ, गोया कभी की जान-पहचान ही नहीं’। मियाँ आजाद चकराए कि यह कौन साहब हैं! बोले – हजरत, मैं भी इस उठती ही जवानी में आँखें खो बैठा। वल्लाह, किस मरदूद ने आपको पहचाना हो।

जवान – ऐं, कमाल किया! वल्लाह, अब तक न पहचाना! मियाँ, हम तुम्हारे लँगोटिये यार हैं अनवर।

आजाद – अख्खाह, अनवर! अरे यार, तुम्हारी तो सूरत ही बदल गई। यह कह कर दोनों गले मिले और ऐसे खुश हुए कि दोनों की आँखों से आँसू निकल आए। आजाद ने कहा – एक वह जमाना था कि हम-तुम बरसों एक जगह रहे, साथ-साथ मटर-गश्ती की; कभी बाग में सैर कर रहे हैं, कभी चाँदनी रात में विहाग उड़ा रहे हैं, कभी जंगल में मंगल गा रहे हैं, कभी इल्मी बहस कर रहे हैं; कभी बाँक का शौक, कभी लकड़ी की धुन। वे दिन अब कहाँ!

अनवर ने कहा – भाई, चलो, अब साथ-साथ रहें, जिएँ या मरे; मगर चार दिन की जिंदगी में साथ न छोड़ें। चलो; जरा बाजार की सैर कर आएँ। मुझे कुछ सौदा लेना है। यह कह कर दोनों चौक चले। पहले बजाजे में धँसे। चारों तरफ से आवाजे आने लगीं -आइए, आइए, अजी मियाँ साहब, क्या खरीदारी मंजूर है? खाँ साहब, कपड़ा खरीदिएगा? आइए, वह-वह कपड़े दिखाऊँ कि बाजार भर में किसी के पास न निकलें। दोनों एक दुकान में जा कर बैठ गए। दुकान में टाट बिछा है, उस पर सफेद चाँदनी, और लाला नैनसुख या डोरिये का अँगरखा डाटे बड़ी शान से बैठे हैं। तोंद वह फरमायशी, जैसे रुपए के दो वाले तरबूज! एक तरफ तनजेब, शरबती, अद्धी के थानों की कतार है, दूसरी तरफ मोमी छींट और फलालैन की बहार है। अलगनी पर रूमाल करीने से लटके हुए लाल-भभूका या सफेद जैसे बगले के पर, या हरे-हरे धानी, जैसे लहबर। दरवाजा लाल रँगा हुआ, पन्नी से मढ़ा हुआ। दीवार पर सैकड़ों चिड़ियाँ टँगी हुईं।

अनवर – भई, स्याह मखमल दिखाना।

बजाज – बदलू, बदलू, जरी खाँ साहब को काली मखमल का थान दिखाओ, बढ़िया।

लाला बदलू कई थान तड़ से उठा लाए – सूती, बूटीदार। अनवर ने कई थान देखे, और तब दाम पूछे।

लाला – गजों के हिसाब से बताऊँ, या थान के दाम।

अनवर – भई, गजों के हिसाब से बताओ। मगर लाला, झूठ कम बोलना।

लाला ने कहकहा उड़ाया – हुजूर, हमारी दुकान में एक बात के सिवा दूसरी नहीं कहते। कौन मेल पसंद है? अनवर ने एक थान पसंद किया, उसकी कीमत पूछी।

लाला – सुनिए खुदाबंद, जी चाहे लीजिए, जी चाहे न लीजिए, मुल दस रुपए गज से कम न होगी।

अनवर – ऐं, दस रुपए गज! यार खुदा से तो डरो। इतना झूठ!

लाला – अच्छा, तो आप भी कुछ फर्माओ।

अनवर – हम चार रुपए गज से टका ज्यादा न देंगे।

आजाद ने अनवर से कहा – चार रुपए गज में न देगा।

अनवर – आप चुपके बैठे रहें, आपको इन बातों में जरा भी दखल नहीं हें। शेख क्या जाने साबुन का भाव?’

लाला – चार रुपए गज तो बाजार भर में न मिलेगी। अच्छा, आप सात के दाम दे दीजिए। बोलिए, कितनी खरीदारी मंजूर है? दस गज उतारूँ?

अनवर – क्या खूब, दाम चुकाए ही नहीं और गजों की फिक्र पड़ गई। वाजबी बताओ, वाजबी। हमें चकमा न दो, हम एक घाघ हैं।

लाला – अच्छा साहब, पाँच रुपए गज लीजिएगा? या अब भी चकमा है?

अनवर – अब भी महँगी है, तुम्हारी खातिर से सवा चार सही। बस पाँच गज उतार दो।

लाला ने नाक भौं चढ़ा कर पाँच गज मखमल उतार दी, और कहा – आप बड़े कड़े खरीदार हैं। हमें घाटा हुआ। इन दामों शहर भर में न पाइएगा।

आजाद – भई, कसम है खुदा की, मेरा ऐसा अनाड़ी तो फँस ही जाय और वह गच्चा खाय कि उम्र भर न भूले।

अनवर – जी हाँ, यहाँ का यही हाल है। एक के तीन माँगते हैं।

यहाँ से दोनों आदमी अनवर के घर चले। चलते-चलते अनवर ने कहा – लो खूब याद आया। इस फाटक में एक बाँके रहते हैं। जरी मैं उनसे मिल लूँ। मियाँ आजाद और अनवर, दोनों फाटक में हो रहे, तो क्या देखते हैं, एक अधेड़ उम्र का कड़ियल आदमी कुर्सी पर बैठा हुआ है। घुटन्ना चूड़ीदार, चुस्त, जरा शिकन नहीं। चुन्नटदार अँगरखा एड़ी तक, छाता गोल कटा हुआ, चोली ऊँची, नुक्केदार माशे भर की कटी हुई टोपी। सिरोही सामने रखी है और जगह-जगह करौली कटार, खाँड़ा, तलवारें चुनी हुई हैं। सलाम-कलाम के बाद अनवर ने कहा – जनाब, वह बंदूक आपने पचास रुपए की खरीदी थी; दो दिन का वादा था, जिसके छः महीने हो गए; मगर आप साँस-डकार तक नहीं लेते। बंदूक हजम करने का इरादा हो, तो साफ-साफ कह दीजिए, रोज की ठाँय-ठाँय से क्या फायदा?

बाँके – कैसी बंदूक, किसी बंदूक? अपना काम करो, मेरे मुँह न चढ़ना मियाँ, हम बाँके लोग हैं, सैकड़ों को गच्चे, हजारों को झाँसे दिए, आप बेचारे किस खेत की मूली हैं? यहाँ सौ पुश्त से सिपहगरी होती आई है। हम, और दाम दें?

अनवर – वाह, अच्छा बाँकपन है कि आँख चूकी, और कपड़ा गायब; कम्मल डाला और लूट लिया। क्या बाँकपन इसी का नाम है? ऐसा तो लुक्के-लुच्चे किया करते हैं। आज के सातवें दिन बाएँ हाथ से रुपए गिन दीजिएगा, वरना अच्छा न होगा।

बाँके ने मूँछों पर ताव देकर कहा – मालूम होता है, तुम्हारी मौत हमारे हाथ बदी है। बहुत बढ़-बढ़ कर बातें न बनाओ। बाँकों से टर्राना अच्छा नहीं।

इस तकरार और तू-तू, मैं-मैं के बाद दोनों आदमी घर चले। इधर इन बाँके का भांजा, जो अखाड़े से आया और घर में गया, तो क्या देखता है कि सब औरतें नाक-भौं चढ़ाए, मुँह बनाए, गुस्से में भरी बैठी हैं। ऐ खैर तो है? यह आज सब चुपचाप क्यों बैठे हैं? कोई मिनकता ही नहीं। इतने में उसकी मुमानी कड़क कर बोली – अब चूड़ियाँ पहनो, चूडियाँ! और बहू-बेटियों में दब कर बैठ रहो। वह मुआ करोड़ों बातें सुना गया, पक्के पहर भर तक ऊल-जलूल बका किया और तुम्हारे मामू बैठे सब सुना किए। ‘फेरी मुँह पर लोई, तो क्या करेगा कोई!’ जब शर्म निगोड़ी भून खाई, तो फिर क्या। यह न हुआ कि मुए कलजिभे की जबान तालू से खींच लें।

भांजे की जवानी का जोम था; शेर की तरह बफरता हुआ बाहर आया और बोला -मामूजान, यह आज आपसे किसकी तकरार हो गई? औरतें तक झल्ला उठीं और आप चुपके बैठे सुना किए? वल्लाह, इज्जत डूब गई। ले, अब जल्दी उसका नाम बताइए, अभी आँतों का ढेर किए देता हूँ।

मामू – अरे, वही अनवर तो है। उसका कर्जदार हूँ। दो बातें सुनाए भी तो क्या? और वह है ही बेचारा क्या कि उससे भिड़ता! वह पिद्दी, मैं बाज, वह दुबला-पतला आदमी, मैं पुराना उस्ताद। बोलने का मौका होता तो इस वक्त उसकी लाश न फड़कती होती? ले गुस्सा थूक दो; जाओ, खाना खाओ; आज मीठे टुकड़े पके हैं।

भांजा – कसम खुदा की, जब तक उस मरदूद का खून न पी लूँ, तब तक खाना हराम है। मीठे टुकड़ों पर आप ही हत्थे लगाइए। यह कह कर घर से चल खड़े हुए। मामू ने लाख समझाया, मगर एक न मानी।

इधर अनवर जब घर पहुँचे, तो देखते क्या हैं, उनका लड़का तड़प रहा है। घबराए, वह क्या, खैरियत तो है? लौंडी ने कहा – भैया यहाँ खेल रहे थे कि बिच्छू ने काट लिया। तभी से बच्चा तड़प कर लोट रहा है। अनवर ने आजाद को वहीं छोड़ा और खुद अस्पताल चले कि झटपट डॉक्टर को बुला लाएँ। मगर अभी पचास कदम भी न गए होंगे कि सामने से उस बाँके का भांजा आ निकला। आँखें चार हुई। देखते ही शेर की तरह गरज कर बोला – ले सँभल जा। अभी सिर खून में लोट रहा होगा। हिला और मैंने हाथ दिया। बाँकों के मुँह चढ़ना खाला जी का घर नहीं। बेचारे अनवर बहुत परेशान हुए। उधर लड़के की वह हालत, इधर अपनी यह गत। जिस्म में ताकत नहीं, दिल में हिम्मत नहीं। भागें, तो कदम नहीं उठते; ठहरें तो पाँव नहीं जमते। सैकड़ों आदमी इर्द-गिर्द जमा हो गए और बाँके को समझाने लगे – जाने दीजिए, इनके मुकाबिले में खड़े होना आपके लिए शर्म की बात है। अनवर की आँखें डबडबा आईं। लोगों से बोले – भाई, इस वक्त मेरा बच्चा घर पर तड़प रहा हे, डॉक्टर को बुलाने जाता था कि राह में इन्होंने घेरा। अब किसी सूरत से मुझे बचाओ। मगर उस बाँके ने एक न मानी। पैतरा बदल कर सामने आ खड़ा हुआ। इतने में किसी ने अनवर के घर खबर पहुँचाई कि मियाँ से एक बाँके से तलवार चल गई। जितने मुँह उतनी बातें। किसी ने कह दिया कि चरका खाया और गरदन खट से अलग हो गई। यह सुनते ही अनवर की बीबी सिर पीट-पीट कर रोने लगी। लोगो, दौड़ो, हाय, मुझ पर बिजली गिरी, हाय, मैं जीते-जी मर मिटी। फिर बच्चे से चिमट कर विलाप करने लगी – मेरे बच्चे, अब ते अनाथ हो गया, तेरा बाप दगा दे गया, हाय, मेरा सोहाग लुट गया।

मियाँ आजाद यह खबर पाते ही तीर की तरह घर से निकल कर उस मुकाम पर जा पहुँचे। देखा, तो यह जालिम तलवार हाथ में लिए मस्त हाथी की तरह चिंघाड़ रहा है। आजाद ने झट से झपट कर अनवर को हटाया और पैतरा बदल कर बाँके के सामने आ खड़े हुए। वह तो जवानी के नशे में मस्त था, पहले, हथकटी का हाथ लगाना चाहा, मगर आजाद ने खाली दिया। वह फिर झपटा और चाहा कि चाकी का हाथ जमाए, मगर यह आड़े हो गए।

आजाद – बचा, यह उडनघाइयाँ किसी गँवार को बताना। मेरे सामने छक्के छूट जायँ, तो सही। आओ चोट पर। वह बाँका झल्ला कर झपटा और घुटना टेक कर पलट कर हाथ लगाने ही को था कि आजाद ने पैतरा बदला और तोड़ किया – मोढ़ा। मोढ़ा तो उसने बचाया, मगर आजाद ने साथ ही जनेवे का वह तुला हुआ हाथ जमाया कि उसका भंडारा तक खुल गया। धम से जमीन पर आ गिरा। मियाँ आजाद को सबने घेर लिया, कोई पीठ ठोकने लगा, कोई डंड मलने लगा। अनवर लपके हुए घर गए। बीबी की बाँछें खिल गईं, गोया मुर्दा जी उठा।

दूसरे दिन अनवर और आजाद कमरे में बैठे चाय पी रहे थे कि डाकिया हरी-हरी वरदी फड़काए, लाल-लाल पगिया जमाए,खासा टैयाँ बना हुआ आया और एक अखबार दे कर लंबा हुआ। अनवर ने झटपट अखबार खोला, ऐनक लगाई और अखबार पढ़ने लगे। पढ़ते-पढ़ते आखिरी सफे पर नजर पड़ी, तो चेहरा खिल गया।

आजाद – यह क्यों खुश हो गए भई? क्या खबर है?

अनवर – देखता हूँ कि यह इश्तिहार यहाँ कैसे आ पहुँचा? अखबारों में इन बातों का क्या जिक्र? देखिए –

‘जरूरत है एक अरबी प्रोफेसर की नजीरपुर-कॉलेज के लिए। तनख्वाह दो सौ रुपए महीना।’

आजाद – अखबारों में सभी बातें रहती हैं, यह कोई तो नई बात नहीं। अखबार लड़कों का उस्ताद, जवानों को सीधी राह बताने वाला, बुड्ढों के तजुर्बे की कसौटी, सौदागरों का दोस्त, कारीगरों का हमदर्द, रिआया का वकील, सब कुछ है। किसी कालम में मुल्की छेड़-छाड़, कहीं नोटिस और इश्तिहार, अंगरेजी अखबारों में तरह-तरह की बातें दर्ज होती हैं और देसी अखबार भी इनकी नकल करते हैं। शतरंज के नक्श कौमी तमस्सुकों का निर्ख, घुड-दौड़ की चर्चा, सभी कुछ होता है। जब कभी कोई ओहदा खाली हुआ और अच्छा आदमी न मिला, तो हुक्काम इसका इश्तिहार देते हैं। लोगों ने पढ़ा और दरख्वास्त दाग दी; लगा तो तीर, नहीं तुक्का।

अनवर – अब तो नए-नए इश्तिहार छपने लगेंगे। कोई नया गंज आबाद करे, तो उसको छपवाना पड़ेगा। एक नौजवान साकिन की जरूरत है, नए गंज में दुकान जमाने के लिए; क्योंकि जब तक धुआँधार चिलमें न उड़ें, चरस की लौ आसमान की खबर न लाए, तब तक गंज की रौनक नहीं। अफीमची इश्तिहार देंगे कि एक ऐसे आदमी की जरूरत है, जो अफीम घोलने में ताक हो, दिन-रात पिनक में रहे; मगर अफीम घोलने के वक्त चौंक उठे। आराम-तलब लोग छपवाएँगे कि एक ऐसे किस्सा कहनेवाले की जरूरत है, जिसकी जबान पर हो, जमीन और आसमान के कुलाबे मिलाए, झूठ के छप्पर उड़ाए, शाम से जो बकना शुरे करे, तो तड़का कर दे। खुशामदपसंद लोग छपवाएँगे कि एक ऐसे मुसाहब की जरूरत है, जो आठों गाँठ कुम्मैत हो, हाँ में हाँ मिलाए, हमको सखावत में हातिम; दिलेरी में रुस्तम, अक्ल में अरस्तू बनाए – मुँह पर कहे कि हुजूर ऐसे और हुजूर के बाप ऐसे, मगर पीठ-पीछे गालियाँ दे कि इस गधे को मैंने खूब ही बनाया। बेफिक्रे छपवाएँगे कि एक बटेर की जरूरत है, जो बढ़-बढ़ कर लात लगाता हो; एक मुर्ग की, जो सवाए ड्योढ़े को मारे; एक मेढ़े की, जो पहाड़ से टक्कर लेने में बंद न हो।

इतने में मिर्जा सईद भी आ बैठे। बोले – भई, हमारी भी एक जरूरत छपवा दो। एक ऐसी जोरू चाहिए जो चालाक और चुस्त हो, नख-सिख से दुरुस्त हो, शोख और चंचल हो, कभी-कभी हँसी में टोपी छीनकर चपत भी जमाए, कभी रूठ जाएँ, कभी गुदगुदाए; खर्च करना न जानती हो, वरना हमसे मीजान न पटेगी; लाल मुँह हो; सफेद हाथ-पाँव हों, लेकिन ऊँचे कद की न हो, क्योंकि मैं नाटा आदमी हूँ; खाना पकाने में उस्ताद हो, लेकिन हाजमा खराब हो, हल्की-फुल्की दो चपातियाँ खाय, तो तीन दिन में हजम हो; सादा मिजाज ऐसी हो कि गहने-पाते से मतलब ही न रखे, हँसमुख हो, रोते को हँसाए, मगर यह नहीं कि फटी जूती की तरह बेमौका दाँत निकाल दे, दरख्वास्त खटाखट आएँ, हाँ, यह भर याद रहे कि साहब के मुँह पर दाढ़ी न हो।

आजाद – औरतों खैर, मगर यह दाढ़ी की बड़ी कड़ी शर्त है। भला क्यों साहब औरतें भी मुछक्कड़ हुआ करती हैं?

सईद – कौन जाने भई, दुनिया में सभी तरह के आदमी होते हैं। जब बेमूँछ के मर्द होते हैं, तो मूँछवाली औरतों का होना भी मुमकिन है। कहीं ऐसा न हो कि पीछे हमारी मूँछ उसके हाथ में और उसकी दाढ़ी हमारे हाथ में हो।

आजाद – अजी, जाइए भी औरत के भी कहीं दाढ़ी होती है?

सईद – हो या न हो, मगर यह पख हम जरूर लगाएँगे।

आपस में यही मजाक हो रहा था कि पड़ोस से रोने-पीटने की आवाज आई। मालूम हुआ कोई बूढ़ा आदमी मर गया। आजाद भी वहाँ जा पहुँचे। लोगों से पूछा इन्हें क्या बीमारी थी? एक बूढ़े ने कहा – यह न पूछिए, हुकूम की बीमारी थी।

आजाद – यह कौन बीमारी है? यह तो कोई नया मरज मालूम होता है। इसकी अलामतें तो बताइए।

बूढ़ा – क्या बताऊँ, अक्ल की मार इसका खास सबब है। अस्सी बरस के थे, मगर अक्ल के पूरे, तमीज छू नहीं गई! खुदा जाने, धूप में बाल सफेद किए थे या नजला हो गया था। हजरत की पीठ पर एक फोड़ा निकला। दस दिन तक इलाज नदारद। दसवें दिन किसी गँवार ने कह दिया कि गुलेअब्बास के पत्ते और सिरका बाँधो। झट-से राजी हो गए। सिरका बाजार से खरीदा, पत्ते बाग से तोड़ लाए और सिरके में पत्तों को खूब तर करके पीठ पर बाँधा। दूसरे रोज फोड़ा आध अंगुल बढ़ गया। किसी और मौखे ने कह दिया कि भटकटैया बाँधो, यह टोटका है। इसका नतीजा यह हुआ कि दर्द और बढ़ गया। किसी ने बताया कि इमली की पत्ती, धतूरा और गोबर बाँधो। वहाँ क्या था, फौरन मंजूर। अब तड़पने लगे। आग लग गई। मोहल्ले की एक औरत ने कहा – मैं बताऊँ, मुझसे क्यों न पूछा। सहल तरकीब है, मूली के अचार के तीन कतले लेकर जमीन में गाड़ दो तीन दिन के बाद निकालो और कुएँ में डाल दो। फिर उसी कुएँ का पानी अपने हाथ भर कर पी जाओ। उसी दम चंगे न हो जाओ, तो नाक कटा डालूँ। सोचे, भई, इसने शर्त बड़ी कड़ी की है। कुछ तो है कि नाक बदली। झट मूली के कतले गाड़े और कुएँ में डाल पानी भरने लगे उस पर तुर्रा यह कि मारे दर्द के तड़प रहे थे। रस्सी हाथ से छूट गई धम से गिरे, फोड़े में ठेस लगी, तिलमिलाने लगे यहाँ तक कि जान निकल गई।

आजाद – अफसोस, बेचारे की जान मुफ्त में गई। इन अक्ल के दुश्मनों से कोई इतना तो पूछे कि हर ऐरे गैरे की राय पर क्यों इलाज कर बैठते हो? नतीजा यह होता है, या तो मरज बढ़ जाता है, या जान निकल जाती है।

आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 15

मियाँ आजाद एक दिन चले जाते थे। क्या देखते हैं, एक पुरानी-धुरानी गड़हिया के किनारे एक दढ़ियल बैठे काई की कैफियत देख रहे हैं।कभी ढेला उठाकर फेंका, छप। बुड्ढे आदमी और लौंडे बने जाते हैं। दाढ़ी का भी खयाल नहीं। लुत्फ यह कि मुहल्ले भर के लौंडे इर्द-गिर्द खड़े तालियाँ बजा रहे हैं, लेकिन आप गड़हिया की लहरों ही पर लट्टू हैं। कमर झुकाए चारों तरफ ढेले और ठीकरे ढूँढ़ते फिरते हैं। एक दफा कई ढेले उठा कर फेंके। आजाद ने सोचा, कोई पागल है क्या। साफ-सुथरे कपड़े पहने, यह उम्र, यह वजा, और किस मजे से गड़हिया पर बैठे रँगरलियाँ मना रहे हैं। यह खबर नहीं कि गाँव भर के लौंडे पीछे तालियाँ बजा रहे हें। एक लौंडे ने चपत जमाने के लिए हाथ उठाया, मगर हाथ खींच लिया। दूसरे ने पेड़ की आड़ से कंकड़ी लगाई। तीसरे ने दाढ़ी पर घास फेंकी। चौथे ने कहा – मियाँ, तुम्हारी दाढ़ी में तिनका; मगर मेरा शेर जरा न मिनका। गड़हिया से उठे, तो दूर की सूझी। झप से एक पेड़ पर चढ़ गए, फुनगी पर जा बैठे और बंदर की तरह लगे उचकने। उस टहनी पर से उचके, तो दूसरी डाल पर जा बैठे। उस पर लड़कों को भी बुलाते जाते हैं कि आओ, ऊपर आओ। इमली का दरख्त था, इतना ऊँचा कि आसमान से बातें कर रहा था। हजरत मजे से बैठे इमली खाते और चिएँ लड़कों पर फेंकते जाते हैं। लौंडे गुल मचा रहे हैं कि मियाँ, मियाँ, एक चियाँ हमको इधर फेंको, इधर; हाथ ही टूटे, जो उधर फेंके। क्या मजे से गपर-गपर करके खाते जाते हैं, इधर एक चियाँ भी नहीं फेंकते। ओ कंजूस, ओ मक्खीचूस, ओ बंदर, अरे मुछंदर, एक इधर भी। थोड़ी देर में खटखट करते पेड़ से उतरे। इतने में कमसरियट के तीन-चार हाथी चारे और गन्ने से लदे झूमते हुए निकले। आपने लड़कों को सिखाया कि गुल मचा कर कहो – हाथी, हाथी गन्ना दे। लौंड़ो ने जो इतनी शह पाई, तो आसमान सिर पर उठा लिया। सब चीखने लगे – हाथी, हाथी, गन्ना दे। एकाएक एक रीछ वाला आ निकला। आपने झट रीछ की गरदन पकड़ी और पीठ पर हो रहे। टिक-टिक-टिक, क्या टट्टू है! रीछवाला चिल्ल-पों मचाया ही किया, आपने दो-तीन लड़कों को आगे-पीछे अगल-बगल बिठा ही लिया। मजे से तने बैठे हैं, गोया अपने वक्त के बादशाह हैं। थोड़ी देर के बाद लड़कों को जमीन पर पटका, खुद भी धम से जमीन पर कूद पड़े, और झट लँगोट कस, ताल ठोक, रीछ से कुश्ती लड़ने पर आमादा हो गए। तब तो रीछवाला चिल्लाया – मियाँ, क्यों जान के दुश्मन हुए हो! चबा ही डालेगा। यह तो हवा के घोड़े पर सवार थे, आव देखा न ताव, चिमट ही तो गए और एक अंटी बताई तो रीछ चारों खाने चित। लौडों ने वह गुल मचाया कि रीछ पूरब भागा, और रीछवाला पश्चिम। मुहल्ले भर में कहकहा उड़ने लगा। थोड़ी ही देर के बाद एक भड्डरी आ निकला। धोती बाँधे, पोथी बगल में दबाए, रुद्राक्ष की माला पहने, आवाज लगाता जाता है – साइत बिचारे, सगुन बिचारे। दढ़ियल के करीब से गुजरा, तो शिकार इनके हाथ आया। बोले – भई, इधर आना। उसकी बाँछें खिल गईं कि पौ बारह है। अच्छी बोहनी हुई। दढ़ियल ने हाथ दिखाया और पूछा – हमारी कितनी शादियाँ होंगी? उसने कन्या, मकर, सिंह, वृश्चिक करके बहुत सोच के कहा – पाँच। आपने उसकी पगड़ी उछाल दी। लड़कों को दिल्लगी सूझी, किसी ने सिर सुहलाया तो किसी ने चपत लगाया। अच्छी तरह बोहनी हुई। दढ़ियल ने कहा – सच कहना, आज साइत देख कर चले थे या यों ही? अपनी साइत देख लेते हो या औरों ही की राह बताते हो? अच्छा, खैर, बताओ, हमारे यहाँ लड़का कब तक होगा? भड्डरी ने कहा – बस, बस, आप और किसी से पूछिएगा। भर पाया। यह कह कर चलने ही को था कि दढ़ियल ने लड़कों को इशारा किया। वे तो इनको अपना गुरू ही समझते थे। एक ने पोथी ली, दूसरे ने माला छिपाई, तीसरे ने पगिया टहला दी। दस-पाँच चिमट गए। बेचारा बड़ी मुश्किल से जान छुड़ा कर भागा और कसम खाई कि अब इस मुहल्ले में कदम न रखूँगा। इतने में खोंचेवाले ने आवाज दी – गुलाबी रेवड़ियाँ, करारी खुटियाँ, दालमोट सलोने, मटर तिकोने। लौंडे अपने-अपने दिल में खुश हो गए कि दढ़ियल के हुक्म से खोंचा लूट लेंगे ओर खूब मिठाइयाँ चखेंगे। मगर उन्होंने मना कर दिया – खबरदार, हाथ मत बढ़ाना। जब खोंचेवाला पास आया, तब उन्होंने मोल-तोल करके दो रुपए में सारा खोंचा मोल ले लिया और लड़कों को खूब छका कर खिलाया। एक दस मिनट के बाद आवाज आई – खीरे लो, खीरे। आपने उचक कर टोकरा उलट दिया। खीरे जमीन पर गिर पड़े। जैसे ही लड़कों ने चाहा, खीरे बटोरें कि उन्होंने डाँट बताई। खीरेवाले के दोनों हाथ पकड़ लिए और लड़कों से कहा – खीरे उठा उठाकर इसी गड़हिया में फेंकते जाओ। पचास-साठ खीरे आनन-फानन गड़हिया में पहुँच गए। अभी यह तमाशा हो ही रहा था कि एक चिड़ीमार कंपा-जाल लिए हुए आ निकला। हाथ में तीन-चार जानवर, कुछ झोले के अंदर। सब फड़फड़ा रहे हैं। कहता जाता है – काला भुजंगा मंगल के रोज। दढ़ियल ने पुकारा – आओ मियाँ, इधर आओ। एक भुजंगा ले कर अपने ऊपर से उतार कर छोड़ दिया। चिड़मार ने कहा – टका हुआ। दूसरा जानवर एक लड़के पर से उतार कर छोड़ा। इसी तरह दस-पंद्रह चिड़ियाँ छोड़ कर चुपचाप खड़े हो गए। गोया कुछ मतलब ही नहीं। चिड़ीमार ने कहा – हुजूर, दाम। आपने फर्माया – तुम्हारा नाम? तब तो वह चकराया कि अच्छे मिले। बोला – हुजूर, धेली के जानवर थे। आप बोले – कैसी धेली और कैसा धेला! कुछ घास तो नहीं खा गया? भंग पी गया है या शराब का नशा है? इधर लड़कों ने जाल कंपा सब टहला दिया। थोड़ी देर रो-पीट कर उसने भी अपनी राह ली।

दढ़ियल ने लड़कों को छोड़ा और वहाँ से किसी तरफ जाना ही चाहते थे कि आजाद ने करीब आ कर पूछा – हजरत, मैं बड़ी देर से आपका तमाशा देख रहा हूँ, कभी खीरे गड़हिया में फेंके, कभी इमली पर उचक रहे, कभी चिड़ीमार की खबर ली, कभी भड्डरी को आड़े हाथों लिखा। मुझे खौफ है कि आप कहीं पागल न हो जाएँ, जल्दी फस्द खुलवाइए।

दढ़ियल मुझे तो आप ही पागल मालूम होते हैं। इन बातों के समझने के लिए बड़ी अक्ल चाहिए। सुनिए, आपको समझाऊँ। गड़हिया पर बिस्तर जमा कर ढेले फेंकने और पेड़ पर उचक कर इमली खाने और हाथी से गन्ने माँगने का सबब यह है कि लौंडे भी हमारी देखा-देखी उचक-फाँद में बर्क हो जाएँ, यह नहीं कि मरियल टट्टू की तरह जहाँ बेठे, वहीं जम गए। लड़कों को कम से कम दो घंटे रोज खेलना-कूदना चाहिए, वरना बीमारी सताएगी। रीछ वाले के रीछ पर उचक बैठने, रीछ को भगा दे और चिड़ीमार के जानवरों को मुफ्त बे कौड़ी-बेदाम छुड़ा देने का सबब यह है कि जब हम जानवरों को तकलीफ में देखते हैं, तो कलेजे पर साँप लोटने लगता है और इन चिड़िमारों का तो मैं जानी दुश्मन हूँ। बस चले, तो कालेपानी भिजवा दूँ। जहाँ देखा, कि दो चार भले मानुस खड़े हैं, लगे जानवरों को जोर से दबाने, जिसमें वे चीखें, और लोग उनकी हालत पर कुछ दे निकलें, इनकी हड्डियाँ चढ़ जायँ। खीरे इसलिए गड़हिया में फिकवा दिए कि आजकल हवा खराब है, खीरे खाने से भला-चंगा आदमी बीमार हो जाय। मगर इन कुँजड़ों-कबाड़ियों को इन बातों से क्या वास्ता? उन्हें तो अपने टकों से मतलब! मैंने समझा, एक कबाड़िए के नुकसान से पचासों आदमियों की जान बच जाय, तो क्या बुरा? देख लो, खोंचेवाले को हमने अपने पास से दो रुपए खनाखन गिन दिए। अब समझे, इस तमाशे का हाल?

यह कह कर उन्होंने अपनी राह ली और आजाद ने भी दिल में उनकी नेकनीयती की तारीफ करते हुए दूसरी तरफ का रास्ता लिया। अभी कुछ ही दूर गए थे कि सामने से एक साहब आते हुए दिखाई दिए। उन्होंने आजाद से पूछा – क्यों साहब, आप अफीम तो नहीं खाते?

आजाद – अफीम पर खुदा की मार! कसम ले लीजिए, जो आज तक हाथ से भी छुई हो। इसके नाम से नफरत है।

यह कह कर आजाद नदी के किनारे जा बैठे। वहाँ से पलट कर जो आए, तो क्या देखते हैं कि वही हजरत जमीन पर पड़े आँखें माँग रहे हैं। चेहरे पर मुर्दनी छाई है, होंठ सूख रहे हैं, आँखों से आँसू बह रहे हैं। न सिर की फिक्र है, न पाँव की। आजाद चकराए, क्या माजरा है। पूछा – क्यों भई, खैर तो है? अभी तो भले-चंगे थे, इतनी जल्द कायापलट कैसे हो गई?

अफीमची – भई, मैं तो मर मिटा। कहीं से अफीम ले आओ। पिऊँ, तो आँखें खुलें; जान में जान आए। छुटपन ही से अफीम का आदी हूँ। वक्त पर न मिले, तो जान निकल जाय।

आजाद – अरे यार, अफीम छोड़ो, नहीं इसी तरह एक दिन दम निकल जाएगा।

अफीमची – तो क्या आप अमृत पी कर आए हैं? मरना तो एक दिन सभी को है।

आजाद – मियाँ, हो बड़े तीखे; ‘रस्सी जल गई, मगर बल न गया।’ पड़े सिसक रहे हो, मगर जवाब, तुर्की ब तुर्की जरूर दोगे।

अफीमची – जनाब, अफीम लानी हो तो लाइए, वर्ना यहाँ बक-बक सुनने का दिमाग नहीं।

आजाद – अफीम लानेवाले कोई और ही होंगे, हम तो इस फिक्र में बैठे हैं कि आप मरें, तो मातम करें। हाँ, एक बात मानो तो अभी लपक जाऊँ, जरा लकड़ी के सहारे से उस हरे-भरे पेड़ के तले चलो; वहाँ हरी-हरी घास पर लोट मारो; ठंडी-ठंडी हवा खाओ, तब तक मैं आता हूँ।

अफीमची – अरे मियाँ, यहाँ जान भारी है। चलना-फिरना उठना-बैठना कैसा!

आखिर आजाद ने उन्हें पीठ पर लादा और ले चले। उनकी यह हालत कि आँखें बंद, मुँह खुला हुआ; मालूम ही नहीं कि जाते कहाँ हैं। आजाद ने उनको नदी में ले जा कर गोता दिया। बस कयामत आ गई। अफीमची आदमी, पानी की सूरत से नफरत, लगे चिल्लाने – बड़ा गच्चा दे गया, मारा, पटरा कर दिया! उम्र भर में आज ही नदी में कदम रखा; खुदा तुमसे समझे; सन से जान निकल गई ठिठुर गया; अरे जालिम, अब तो रहम कर। आजाद ने एक गोता और दिया। फिर ताबड़तोब कई गोते दिए। अब उनकी कैफियत कुछ न पूछिए। करोड़ों गालियाँ दी। आजाद ने उनको रेती में छोड़ दिया और लंबे हुए। चलते-चलते एक बरगद के पेड़ के नीचे पहुँचे, जिसकी टहनियाँ आसमान से बातें करती थीं और जटाएँ पाताल की खबर लेती थीं। देखा, एक हजरत नशे में चूर एक दुबली-पतली टटुई पर सवार टिक-टिक करते जा रहे हैं।

आजाद – इस टटुई पर कौन लदा है?

शराबी – अच्छा जी, कौन लदा है! ऐसा न हो कि कहीं मैं उतर कर अंजर-पंजर ढीले कर दूँ। यों नहीं पूछता कि इस हवाई घोड़े पर आसन जमाए, बाग उठो कौन सवार जाता है। आँखों के आगे नाक, सूझे क्या खाक। टट्टू ऐसे ही हुआ करते हैं?

आजाद – जनाब, कसूर हुआ, माफ कीजिए। सचमुच यह तो तुर्की नस्ल का पूरा घोड़ा है। खुदा झूठ न बुलाए, जमना पार की बकरी इससे कुछ ही बड़ी होगी।

शराबी – हाँ, अब आप आए राह पर। इस घोड़े की कुछ न पूछिए। माँ के पेट से फुदकता निकला था।

आजाद – जी हाँ, वह तो इसकी आँखें ही कहे देती हैं। घोड़ा क्या उड़न-खटोला है।

शराबी – इसकी कीमत भी आपको मालूम है?

आजाद – ना साहब! भला मैं क्या जानूँ। आप तो खैर गधे पर सवार हुए हैं, यहाँ तो टाँगों की सवारी के सिवा और कोई सवारी मयस्सर ही न हुई। मगर उस्ताद कितनी ही तारीफ करो, मेरी निगाह में तो नहीं जँचता।

शराबी – अच्छा, तो इसी बात पर कड़कड़ाए देता हूँ।

यह कह कर एड़ लगाई मगर टट्टू ने जुंबिश तक न की। वह और अचल हो गया। अब चाबुक पर चाबुक मारते हैं, एड़ लगाते हैं और वह टसकने का नाम तक नहीं लेता। आजाद ने कहा – बस ज्यादा शेखी में न आइए, ठंडी-ठंडी हवा खाइए।

यह कह कर आजाद तो चले, मगर शराबी के पाँव डगमगाने लगे। बाग अब छूटी और अब छूटी। दस कदम चले और बाग रोक ली। पूछा – मियाँ मुसाफिर, मैं नशे में तो नहीं हूँ?

आजाद – जी नहीं, नशा कैसा? आप होश की बातें कर रहे हैं?

शराबी इसी तरह बार-बार आजाद से पूछता था। आखिर जब आजाद ने देखा कि यह अब घुड़िया पर से लुढ़कना ही चाहते हैं, तो झट घुड़िया को एक खेत में हाँक दिया, और गुल मचाया कि ओ किसान, देख यह तेरा खेत चराए लेता है। किसान के मान में भनक पड़ी, तो लठ काँधे पर रख लाखों गालियाँ देता हुआ झपटा। आज चचा बना के छोड़ूँगा; रोज सुअरिया चरा ले जाते थे, आज बहुत दिन के बाद हत्थे चढ़े हो। नजदीक गया, तो देखता है कि टटुई है और एक आदमी उस पर लदा है। किसान चालाक था। बोला – आप हैं बाबू साहब! चलिए, आपको घर ले चलूँ। वहीं खाना खाइए और आराम से सोइए। वह कह कर घुड़िया की रास थामे हुए, काँजी हाऊस पहुँचा और टटुई को काँजी हाऊस में ढकेल कर चंपत हुआ। यह बेचारे रात भर काँजी हाऊस में रहे, सुबह को किसी तरह घर पहुँचे।

आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 16

मियाँ आजाद के पाँव में तो आँधी रोग था। इधर-उधर चक्कर लगाए, रास्ता नापा और पड़ कर सो रहे। एक दिन साँड़नी की खबर लेने के लिए सराय की तरफ गए, तो देखा, बड़ी चहल-पहल है। एक तरफ रोटियाँ पक रही हैं, दूसरी तरफ दाल बघारी जाती है। भठियारिनें मुसाफिरों को घेर-घार कर ला रही हैं, साफ-सुथरी कोठरियाँ दिखला रही हैं। एक कोठरी के पास एक मोटा-ताजा आदमी जैसे ही चारपाई पर बैठा, पट्टी टूट गई। आप गड़ाप से झिलँगे में हो रहे। अब बार-बार उचकते है; मगर उठा नहीं जाता। चिल्ला रहे हैं कि भाई, मुझे कोई उठाओ। आखिर भठियारों ने दाहिना हाथ पकड़ा, बाईं तरफ मियाँ आजाद ने हाथ दिया और आपको बड़ी मुश्किल से खींच खाँच के निकाला। झिलँगे से बाहर आए, तो सूरत बिगड़ी हुई थी। कपड़े कई जगह मसक गए थे। झल्ला कर भठियारी से बोले – वाह, अच्छी चारपाई दी! जो मरे हाथ-पाँव टूट जाते, या सिर फूट जाता, तो कैसी होती?

भठियारी – ऐ वाह मियाँ, ‘उलटा चोर कोतवाल को डाँटे!’ एक तो छपरखट को चकनाचूना कर डाला, पट्टी के बहत्तर टुकड़े हो गए, देंगे टका और छह रुपए पर पानी फेर दिया, दूसरे हमीं को ललकारते हैं!

आजाद – जनाब, इन भठियारियों के मुँह न लगिए, कहीं कुछ कह बैठें, तो मुफ्त ही झेंप हो। देख भाल कर बैठा कीजिए। कहाँ से आ रहे हैं?

हकीम – यहीं तक आया हूँ।

आजाद – आप आए कहाँ से हैं?

हकीम – जी गोपामऊ मकान है।

आजाद – यहाँ किस गरज आना हुआ?

हकीम – हकीम हूँ।

आजाद – यह कहिए कि आप तबीब है।

हकीम – तबीब आप खुद होंगे, हम हकीम हैं।

आजाद – अच्छा साहब, आप हकीम ही सही, क्या यहाँ हिकमत कीजिएगा?

हकीम – और नहीं तो क्या, भाड़ झोकने आया हूँ? या सनीचर पैरों पर सवार था? भला यह तो फर्माइए कि यह कैसी जगह है? लोग किस फैसन के हैं? आब-हवा कैसी है?

आजाद – यह न पूछिए जनाब। यहाँ के बाशिंदे पूरे घुटे हुए, आठों गाँठ कुम्मैत हैं। और आब-हवा तो ऐसी है कि बरसों रहिए, पर सिर में दर्द तक न हो। पाव भर की खुराक हो, तो तीन पाव खाइए। डकार तक आए, तो मुझे सजा दीजिए।

यह सुन कर हकीम साहब ने मुँह बनाया और बोले – तब तो बुरे फँसे!

आजाद – क्यों, बुरे क्यों फँसे? शौक से हिकमत कीजिए। आब-हवा अच्छी है, बीमारी का नाम नहीं।

हकीम – हजरत, आप निरे बुद्धू हैं। एक तो आपने यह गोला मारा कि आब-हवा अच्छी है। इतना नहीं समझते कि आब-हवा अच्छी है, तो हमसे क्या वास्ता, हमें कौन पूछेगा। बस, हाथ पर हाथ रखे मक्खियाँ मारा करेंगे। हम तो ऐसे शहर जाना चाहते हैं, जहाँ हैजे का घर हो, बुखार पीछा न छोड़ता हो, दस्त और पेचिश की सबको शिकायत हो, चेचक का वह जोर हो कि खुदा की पनाह। तब अलबत्ता हमारी हँड़ियाँ चढ़े। आपने तो वल्लाह, आते ही गोला मारा। आप फरमाते हैं कि यहाँ पाव भर के बदले तीन पाव गिजा हजम होती है। आमदनी टका नहीं और खायँ चौगुना। तो कहिए, मरे या जिए? बंदा सबेरे ही बोरिया-बँधना उठा कर चंपत होगा। ऐसी जगह मेरी बला रहे, जहाँ सब हट्टे-कट्टे ही नजर आते हैं। भला कोई खास मरज भी हैं यहाँ। या मरज का इस तरज गुजर ही नहीं हुआ?

आजाद – हजरत, यहाँ के पानी में यह असर हे कि बरसों का मरीज आए, और एक कतरा पी ले, तो बस, खासा हट्टा-कट्टा हो जाय।

हकीम – पानी क्या अमृत है! तो सही, जो पानी में जहर न मिला दिया हो।

आजाद – जनाब, हजारों कुएँ और पचासों बावलियाँ हैं, किस-किस में जहर मिलाते फिरएगा?

हकीम – खैर भाई, समझा जाएगा; मगर बुरे फँसे! इस वक्त होश ठिकाने नहीं है! ओ भठियारी, जरी हमको पंसारी की दुकान से तोला भर सिकंजबीन तो ला देना।

भठियारी – ऐ मियाँ, पंसारी यहाँ कहाँ? किसी फकीर की दुआ ऐसी है कि यहाँ हकीम और पंसारी जमने ही नहीं पाता। कई हकीम आए, मगर कब्र में हैं। कई पंसारियों ने दुकान जमाई मगर चिता में फूँक दिए गए। यहाँ तो बीमारी ने न आने की कसम खाई है।

हकीम – भई, बड़ा निकम्मा शहर है। खुदा के लिए हमें टट्टू किराए पर कर दो, तो रफू-चक्कर हो जायँ। ऐसे शहर की ऐसी-तैसी।

इन्हें पता बता कर आजाद सराय के दूसरे हिस्से में जा पहुँचे। क्या देखते हैं, एक बुजुर्ग आदमी बिस्तर जमाए बैठे हैं। आजाद बेतकल्लुफ तो थे ही,’सलाम अलेक’ कह कर पास जा बैठे। वह भी बड़े तपाक से पेश आए। हाथ मिलाया, गले मिले, मिजाज पूछा।

आजाद – आप यहाँ किस गरज से तशरीफ लाए हैं?

उन्होंने जवाब दिया – जनाब, मैं वकील हूँ। यहाँ वकालत करने का इरादा है। कहिए, यहाँ की अदालत का क्या हाल है?

आजाद – यह न पूछिए। यहाँ के लोग भीगी बिल्ली हैं; लड़ना-भिड़ना जानते ही नहीं। साल भर में दो-चार मुकदमें शायद होते हों। चोरी-चकारी यहाँ कभी सुनने ही में नहीं आती। जमीन, आराजी, लगान, पट्टीदारी के मुकद्दमे कभी सुने ही नहीं। कर्ज कोई ले न दे।

वकील साहब का रंग उड़ गया। मगर हकीमजी की तरह झल्ले तो थे नहीं, आहिस्ता से बोले – सुभान अल्लाह, यहाँ के लोग बड़े भले आदमी हैं। खुदा उनको हमेशा नेक रास्ते पर ले जाय। मगर दिल में अफसोस हुआ कि इस टीम-टाम, धूम-धाम से आए, और यहाँ भी वही ढाक के तीन पात। जब मुकद्दमे ही न होंगे, तो खाऊँगा क्या, दुश्मन का सिर। इन्हें भी झाँसा दे कर आजाद आगे बढ़े, तो देखा, चारपाई बिछाए शहतूत के पेड़ के नीचे एक साहब बैठे हुक्का उड़ा रहे हैं। आजाद ने पूछा – आपका नाम?

वह बोले – गुम-नाम हूँ।

आजाद – वतन कहाँ है?

वह – फकीर जहाँ पड़ रहे, वहीं उसका घर।

आजाद – आपका पेशा क्या है?

वह – खूने-जिगर खाना।

आजाद – तो आप शायर हैं, यह कहिए।

आजाद चारपाई के एक कोने पर बैठ गए और बेतकल्लुफ हो कर बोले – जनाब, हुक्का तो मेरे हवाले कीजिए और आप अपना कलाम सुनाइए। शायर साहब ने बहुत कुछ चुना-चुनी के बाद दूसरे का कलाम अपना कह कर सुनाया –

क्या हाल हो गया है दिले-बेकरार का

आजाद हो किसी को इलाही, न प्यार का।

मशहूर है जो रोजे-कयामत जहान में;

पहला पहर है मेरी शबे-इंतिजार का।

इमतास देखना मेरी वहशत के बलबले;

आया है धूमधाम से मौसम बहार का।

राह उनकी तकते-तकते जो मुद्दत गुजर गई;

आँखों को हौसला न रहा इंतिजार का।

आजाद – सुभान-अल्लाह, आपका कलाम बहुत ही पाकीजा है। कुछ और उस्तादों के कलाम सुनाइए।

शायर – बहुत खूब; सुनिए –

दाग दे जाते हैं जब आते हैं;
यह शिगूफा नया वह लाते हैं।

आजाद – सुभान-अल्लाह! दाग के लिए शिगूफा, क्या खूब!

शायर – यार तक वार कहाँ पाते हैं;

रास्ता नाप के रह जाते हैं।

आजाद – वाह, क्या बोलचाल है!

शायर – फिर जुनूँ दस्त न दिखलाए हमें;

आज तलवे मेरे खुजलाते हैं।

आजाद – वाह वाह, क्या जबान है!

शायर – फूल का जाम पिलाओ साकी;

काँटे तालू में पड़े जाते हैं।

आजाद – फूल के लिए काँटे क्या खूब।

शायर – कंघी के नाम से होते हैं खफा;

बात सुलझी हुई उलझाते हैं।

आजाद – बहुत खूब।

शायर- अच्छा जनाब, यह तो फर्माइए, यहाँ के रईसों में कोई शायरी का कदरदान भी है?

आजाद – किब्ला, यह न पूछिए। यहाँ मारवाड़ी अलबत्ता रहते हैं। शायर या मुंशी की सूरत से नफरत है। यहाँ के रईसों से कुछ भी भरोसा न रखिए।

शायर – तब तो यहाँ आना ही बेकार हुआ। आखिर, क्या एक भी रंगीन मिजाज रईस नहीं है?

आजाद – अब आप तो मानते ही नहीं। यहाँ कदरदाँ खुदा का नाम है।

आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 17

आजाद के दिल में एक दिन समाई कि आज किसी मसजिद में नमाज पढ़े, जुमे का दिन है, जामे-मसजिद में खूब जमाव होगा। फौरन मसजिद में आ पहुँचे। क्या देखते हैं, बड़े-बड़े जहिद और मौलवी,काजी और मुफ्ती बड़े-बड़े अमामे सिर पर बाँधे नमाज पढ़ने चले आ रहे हैं; अभी नमाज शुरू होने में देर है, इसलिए इधर-उधर की बातें करके वक्त काट रहे हैं। दो आदमी एक दरख्त के नीचे बैठे जिन्न और चुड़ैल की बातें कर रहे हैं। एक साहब नवजवान हैं, मोटे-ताजे; दूसरे साहब बुड्ढे हैं, दुबले-पतले।

बुड्ढे – तुम तो दिमाग के कीड़े चाट गए। बड़े बक्की हो। लाखों दफे समझाया कि यह सब ढकोसला है, मगर तुम्हें तो कच्चे घड़े की चढ़ी है, तुम कब सुननेवाले हो।

जवान – आप बुड्ढे हो गए, मगर बच्चों की सी बातें करते हैं। अरे साहब, बड़े-बड़े आलिम, बड़े-बड़े माहिर भूतों के कायल हैं। बुढ़ापे में आपकी अक्ल भी सठिया गई?

बुड्ढे – अगर आप भूत-प्रेत दिखा दें, तो टाँग के रास्ते निकल जाऊँ। मेरी इतनी उम्र हुई, कभी किसी भूत की सूरत न देखी। आप अभी कल के लौंडे हैं, आपने कहाँ देख ली?

जवान – रोज ही देखते हैं जनाब! कौन सा ऐसा मुहल्ला है, जहाँ भूत और चुड़ैल न हों? अभी परसों की बात है, मेरे एक दोस्त ने आधी रात के वक्त दीवार पर एक चुड़ैल देखी। बाल-बाल मोती पिराए हुए, चोटी कमर तक लटकती हुई, ऐसी हंसनी कि परियाँ झख मारें। वह सन्नाटा मारे पड़े रहे, मिनके तक नहीं। मगर आप कहते हैं, झूठ है।

बूड्ढे – जी हाँ झूठ है – सरासर झूठ। हमारा खयाल वह बला है, जो सूरत बना दे, चला-फिरा दे, बातें करते सुना दे। आप क्या जानें, अभी जुमा-जुमा आठ दिन की तो पैदाइश है। और मियाँ, करोड़ बातों की एक बात तो यह है कि मैं बिना देखे न पतियाऊँगा। लोग बात का बतंगड़ और सुई का भाला बना देते हैं। एक सही, तो निन्यानवे झूठ। और आप ऐसे ढुलमुलयकीन आदमियों का तो ठिकाना ही नहीं। जो सुना, फौरन मान लिया। रात को दरख्त की फुनगी पर बंदर देखा और थरथराने लगे कि प्रेत झाँक रहा है। बोले और गला दबोचा। हिले और शामत आई। अँधेरे-धुप में तो यों हो इनसान का जी घबराता है। जो भूत-प्रेत का खयाल जम गया, तो सारी चौकड़ी भूल गए। हाथ-पाँव सब फूल गए। बिल्ली ने म्याऊँ किया और जान निकल गई। चूहे की खड़बड़ सुनी और बिल ढूँढ़ने लगे। अब जो चीज सामने आएगी, प्रेत बन जाएगी। यहाँ सब पापड़ बेल चुके हैं। कई जिन्न हमने उतारे, कई चुड़ैलों से सँभाला। यों गप उड़ाने को कहिए, तो हम भी गप बेपर की उड़ाने लगें। याद रखो, ये ओझे-सयाने सब रँगे सियार हें। सब रोटी कमा खाने के लटके हैं। बंदर न नचाए, मुर्ग न लड़ाए, पतंग न उड़ाए, भूत-प्रेत ही झाड़ने लगे।

जवान – खैर, इस तू-तू मैं-मैं से क्या वास्ता? चलिए हमारे साथ। कोई दो-तीन कोस के फासले पर एक गाँव है, वहाँ एक साहब रहते हैं। अगर आपकी खोपड़ी पर उनके अमल से भूत न चढ़ बैठे, तो मूँछ मुड़वा डालूँ। कहिएगा, शरीफ नहीं चमार है। बस, अब चलिए, आपने तो जहाँ जरा सी चढ़ाई और कहने लगे कि पीर, पयंबर, देवी, देवता, भूत-प्रेत सब ढकोसला है। लेकिन आज ठीक बनाए जाइएगा।

यह कह कर दोनों उसे गाँव की तरफ चले। मियाँ आजाद तो दुनिया भर के बेफिक्रे थे ही, शौक चर्राया कि चलो, सैर देख आओ। यह भी पुराने खयालों के जानी दुश्मन थे। कहाँ तो नमाज पढ़ने मसजिद आए थे, कहाँ छू-छक्का देखने का शौक हुआ; मसजिद को दूर ही से सलाम किया और सीधे सराय चले। अरे, कोई इक्का किराए का होगा? अरे मियाँ, कोई भठियारा इक्का भाड़े करेगा?

भठियारा – जी हाँ, कहाँ जाइएगा?

आजाद – सकजमलदीपुर।

भठियारा – क्या दीजिएगा?

आजाद – पहले घोड़ा-इक्का तो देखें – ‘घर घोड़ा नखास मोल!

भठियारा – वह क्या कमानीदार इक्का खड़ा है और यह सुरंग घोड़ी है, हवा से बातें करती जाती है; बैठे और दन से पहुँचे।

इक्का तैयार हुआ। आजाद चले, तो रास्ते में एक साहब से पूछा – क्यों साहब, इस गाँव को सकजमलदीपुर क्यों कहते हैं?कुछ अजीब बेढंग सा नाम है। उसने कहा – इसका बड़ा किस्सा है। एक साहब शेख जमालुद्दीन थे। उन्होंने गाँव बसाया और इसका नाम रक्खा शेखजमालुद्दीनपुरा। गँवार आदमी क्या जाने, उन्होंने शेख का सक, जमाल का जमल और उद्दीन का दी बना दिया।

इक्केवाले से बातें होने लगीं। इक्केवाला बोला – हुजूर, अब रोजगार कहाँ! सुबह से शाम तक जो मिला, खा-पी बराबर। एक रुपया जानवर खा गया, दस-बारह आने घर के खर्च में आए, आने दो आने सुलफे-तमाखू में उड़ गए। फिर मोची के मोची। महाजन के पचीस रुपए छह महीने से बेबाक न हुए। जो कहीं कच्ची में चार-पाँच कोस ले गए, तो पुट्ठियाँ धँस गईं पैंजनी, हाल, धुरा सब निकल गया। दो-चार रुपए के मत्थे गई। रोजगार तो तुम्हारी सलामती से तब हो, जब यह रेल उड़ जाय। देखिए, आप ही ने सात गंडे जमलदीपुर के दिए, मगर तीन चक्कर लगा कर।

कोई पौने दो घंटे में आजाद सकजमलदीपुर पहुँचे। पता-वता तो इनको मालूम था ही, सीधे शाह साहब के मकान पर पहुँचे। ठट के ठट आदमी जमा थे। औरत-मर्द टूटे पड़ते थे। एक आदमी से उन्होंने पूछा – क्या आज यहाँ कोई मेला है? उसने कहा – मेला-वेला नाहीं, एक मनई के मूड़ पर देवी आई हैं, तौन मेहरारू, मनसेधू सब देखै आवत हैं। इसी झुंड में आजाद को वह बूढ़े मियाँ भी मिल गए, जो भूत-चुड़ैल को ढकोसला कहा करते थे। अकेले एक तरफ ले जा कर कहा – जनाब, मैंने मसजिद में आपकी बातें सुनी थीं। कसम खाता हूँ, जो कभी भूत-प्रेत का कायल हुआ हूँ। अब ऐसी कुछ तदबीर करनी चाहिए कि इन शाह साहब की कलई खुल जाय।

इतने में शाह साहब नीले रंग का तहमद बाँधे, लंबे-लंबे बालों में हिना का तेल डाले, माँग निकाले, खड़ाऊँ पहने तशरीफ लाए। आँखों में तेज भरा हुआ था। जिसकी तरफ नफर भर कर देखा, वही काँप उठा। किसी ने कदम लिए, किसी ने झुक कर सलाम किया। शाह साहब ने गुल मचाना शुरू किया – धूनी मेरी जलती है, जलती है और बलती है, धूनी मेरी जलती है। खड़ी मूँछोंवाला है, लंबे केसूवाला है, मेरा दरजा आला है। झूम-झूम कर जब उन्होंने यह आवाज लगाई तो सब लोग सन्नाटे में आ गए। एकाएक आपने अकड़ कर कहा – किसी को दावा हो, तो आ कर मुझसे कुश्ती लड़े। हाथी को टक्कर दूँ, तो चिग्घाड़ कर भागे; कौन आता है?

अब सुनिए, पहले से एक आदमी को सिखा-पढ़ा रखा था। वह तो सधा हुआ था ही, झट सामने आकर खड़ा हो गया और बोला – हम लड़ेंगे। बड़ा कड़ियल जवान था; गैंडे की सी गर्दन, शेर का सा सीना; मगर शाह साहब की तो हवा बँधी हुई थी। लोग उस पहलवान की हालत पर अफसोस करते थे कि बेधा है; शाह साहब चुटकियों में चुर्र-मुर्र कर डालेंगे।

खैर दोनों आमने-सामने आए और शाह साहब ने गरदन पकड़ते ही इतनी जोर से पटका कि वह बेहोश हो गया। आजाद ने बूढ़े मियाँ से कहा – जनाब, यह मिली भगत है। इसी तरह गँवार लोग मूड़े जाते हैं। मैं ऐसे मक्कारों की कब्र तक से वाकिफ हूँ। ये बाते हो ही रही थीं कि शाह साहब ने फिर अकड़ते हुए आवाज लगाई – कोई और जोर लगाएगा? मियाँ आजाद ने आव देखा न ताव, झट लँगोट बाँध; चट से कूद पड़े। आओ उस्ताद; एक पकड़ हमसे भी हो जाय। तब तो शाह साहब चकराए कि यह अच्छे बिगड़े दिल मिले। पूछा – आप अंगरेजी पढ़े हैं? आजाद ने कड़क कर कहा – अंगरेजी नहीं, अंगरेजी का बाप पढ़ा हूँ। बस, अब सँभलिए, मैं आ गया। यह कह कर, घुटना टेक कलाजंग के पेच पर मारा, तो शाह साहब चारों खाने चित जमीन पर धम से गिरे। इनका गिरना था कि मियाँ आजाद छाती पर चढ़ बैठे। अब बताओ बच्चा, काट लूँ नाक, कतर लूँ कान, बाँधू दुम में नमदा! बदमाश कहीं का! बूढ़े मियाँ ने झपट कर आजाद को गोद में उठा लिया। वाह उस्ताद, क्यों न हो। शाह साहब उसी दिन गाँव छोड़ कर भागे।

शाह साहब को पटकनी दे कर और गाँव के दुलमुल-यकीन गँवारों को समझा-बुझा कर आजाद बूढ़े मियाँ के साथ-साथ शहर की तरफ चल खड़े हुए। रास्ते में उन्हीं शाह साहब की बातें होने लगीं –

आजाद – क्यों, सच कहिएगा, कैसा अड़ंगा दिया? बहुत बिलबिला रहे थे। यहाँ उस्तादों की आँखें देखी हैं। पोर-पोर में पेंचैती कूट-कूट कर भरी है। एक-एक पेंच के दो-दो सौ तोड़ याद हैं। मैं तो उसे देखते ही भाँप गया कि यह बना हुआ है। लड़ेतिए का तो कैड़ा ही उसका न था। गरदन मोटी नहीं, छाती चौड़ी नहीं, बदन कटा-पिटा नहीं, कान टूटे नहीं। ताड़ गया कि घामड़ है। गरदन पकड़ते ही दबा बैठा।

बूढ़े मियाँ – अब इस गाँव में भूल कर भी न आएगा। एक मर्तबा का जिक्र सुनिए, एक बने हुए सिद्ध पलथी मार कर बैठे और लगे अकड़ने की कोई छिपा कर हाथ में फूल ले, हम चुटकियों में बता देंगे। मेरे बदन में आग लग गई मैंने कहा – अच्छा, मैंने फूल लिया, आप बतलाइए तो सही। पहले तो आँखें नीली-पीली करके मुझे डराने लगे। मैंने कहा – हजरत; मैं इन गीदड़-भभकियों में नहीं आने का। यह पुतलियों का तमाशा किसी नादान को दिखाओ। बस, बताओ, मेरे हाथ में क्या है? थोड़ी दूर तक सोच-सोच कर बोले – पीला फूल है। मैंने कहा – बिलकुल झूठ। तब तो घबराए और कहने लगे – मुझे धोखा हुआ। पीला नहीं, हरा फूल है। मैंने कहा – वाह भाई लालबुझक्कड़ क्यों न हो! हरा फूल आज तक देखा न सुना, यह नया गुल खिला। मेरा यह कहना था कि उनका गुलाब सा चेहरा कुम्हला गया। कोई उस वक्त उनकी बेकली देखता। मैं जामे में फूला न समाता था। आखिर इतने शरमिंदा हुए कि वहाँ से पत्तातोड़ भागे। हम ये सब खेल खेले हुए हैं।

आजाद – ऐसे ही एक शाह साहब को मैंने भी ठीक किया था। एक दोस्त के घर गया, तो क्या देखता हूँ कि एक फकीर साहब शान से बैठे हुए हैं और अच्छे-अच्छे, पढ़े-लिखे आदमी उन्हें घेरे खड़े हैं। मैंने पूछा – आपकी तारीफ कीजिए, तो एक साहब ने, जो उस पर ईमान ला चुके थे, दबे दाँतों कहा – शाह साहब गैबदाँ (त्रिकालदर्शी) हैं। आपके कमालों के झंडे गड़े हुए हैं। दस-पाँच ने तो उन्हें आसमान ही पर चढ़ा दिया। मैंने दिल में कहा – बचा, तुम्हारी खबर न ली, तो कुछ न किया। पूछा, क्यों शाह जी, यह तो बताइए, हमारे घर में लड़का कब तक होगा? शाह जी समझे, यह भी निरे चोंगा ही हैं। चलो, अनाप-सनाप बता कर उल्लू बनाओ और कुछ ले मरो। मेरे बाप, दादे और उनके बाप के परदादे का नाम पूछा। यहाँ याद का यह हाल है कि बाप का नाम तो याद रहता है, दादाजान का नाम किस गधे को याद हो। मगर खैर, जो जबान पर आया, ऊल-जलूल बता दिया। तब फर्माते क्या हैं, बच्चा दो महीने के अंदर ही अंदर बेटा ले। मैंने कहा – हैं शाह साहब, जरा सँभले हुए। अब तो कहा, अब न कहिएगा। पंद्रह दिन तो बंदे की शादी को हुए और आप फर्माते हैं कि दो महीने के अंदर ही अंदर लड़का ले। वल्लाह, दूसरा कहता, खून पी लेता। इस फिकरे पर यार लोग खिलखिला कर हँस पड़े और शाह जी के हवास गायब हो गए। दिल में तो करोड़ों की गालियाँ दी होंगी, मगर मेरे सामने एक न चली। जनाब, उस दयार में लोग उन्हें खुदा समझते थे। शाह जी कभी रुपए बरसाते थे, कभी बेफस्ल के मेवे मँगवाते थे, कभी घड़े को चकनाचूर करके फिर जोड़ देते थे। सैकड़ों ही अलसेंटे याद थी, मेरा जवाब सुना, तो हक्का-बक्का हो गए। ऐसे भागे कि पीछे फिर कर भी न देखा। जहाँ मैं हूँ, भला किसी सिद्ध या शाह जी का रंग जम तो जाय।

यही बातें करते हुए लोग फिर अपने-अपने घर सिधारे।

आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 18

मियाँ आजाद एक दिन चले जाते थे, तो देखते क्या हैं, एक चौराहे के नुक्कड़ पर भंगवाले की दुकान है और उस पर उनके एक लँगोटिए यार बैठे डींग की ले रहे हैं। हमने जो खर्च कर डाला, वह किसी को पैदा करना भी नसीब न हुआ होगा, लाखों कमाए, करोड़ों लुटाए, किसी के देने में न लेने में। आजाद ने झुक कर कान में कहा – वाह भई उस्ताद, क्यों न हो, अच्छी लंतरानियाँ हैं। बाबा तो आपके उम्र भर बर्फ बेचा किए और दादा जूते की दुकान रखते-रखते बूढ़े हुए। आपने कमाया क्या, लुटाया क्या? याद है, एक दफे साढ़े छह रुपए की मुहर्रिरी पाई, मगर उससे भी निकाले गए। उसने कहा – आप भी निरे गावदी हैं। अरे मियाँ, अब गप उड़ाने से भी गए? भंगवाले की दुकान पर गप न मारूँ, तो और कहाँ जाऊँ? फिर इतना तो समझो कि यहाँ हमको जानता कौन है। मियाँ आजाद तो एक सैलानी आदमी थे ही, एक तिपाई पर टिक गए। देखते क्या हैं, एक दरख्त के तले सिरकी का छप्पर पड़ा है, एक तख्त बिछा है, भंगवाला सिल पर रगड़ें लगा रहा है। लगे रगड़ा, मिटे झगड़ा। दो-चार बिगड़े-दिल बैठे गुल मचा रहे हैं – दाता तेरी दुकान पर हुन बरसे, ऐसी चकाचक पिला, जिसमें जूती खड़ी हो। थोड़ा सा धतूरा भी रगड़ दो, जिसमें खूब रंग जमे। इतने में मियाँ आजाद के दोस्त बोल उठे – उस्ताद, आज तो दूधिया डलवाओ। पीते ही ले उड़ें। चुल्लू में उल्लू हो जाएँ। दुकानवाले ने उन्हें मीठी केवड़े से बनी हुई भंग पिलवाई। आप पी चुके, तो अपने दोस्त हरभज को भंग का एक गोला खिलाया और फिर वहाँ से सैर करने चले। इन्हें मुटापे के सबब से लोग भदभद कहा करते थे। चलते-चलते हरभज ने पूछा – क्यों यार, यह कौन मुहल्ला है?

भदभद – चीनीबाजार।

हरभज – वाह, कहीं हो न, यह चिनियाबाजार है।

भदभद – चिनियाबाजार कैसा, चीनीबाजार क्यों नहीं कहते।

हरभज – हम गली-गली, कूचे-कूचे से वाकिफ हैं, आप हमें रास्ता बताते हैं? चिनियाबाजार तो दुनिया कहती है, आप कहने लगे चीनीबाजार है।

भदभद – अच्छा तो खबरदार, मेरे सामने अब चिनियाबाजार न कहिएगा।

हरभज – अच्छा किसी तीसरे आदमी से पूछो।

आजाद ने दोनों को समझाया – क्यों लड़े मरते हो? मगर सुनता कौन था। सामने से एक आदमी चला आता था। आजाद ने बढ़ कर पूछा – भाई, यह कौन मुहल्ला है? उसने कहा – चिनियाबाजार। अब हरभज और भदभद ने उसे दिक करना शुरू किया। चीनीबाजार है कि चिनियाबाजार, यही पूछते हुए आध कोस तक उसके साथ गए। उस बेचारे को इन भंगड़ों से पीछा छुड़ाना मुश्किल हो गया। बार-बार कहता था कि भई, दोनों सही हैं। मगर ये एक न सुनते थे। जब सुनते-सुनते उसके कान पक गए, तो वह बेचारा चुपके से एक गली में चला गया।

तीनों आदमी फिर आगे चले। मगर वह मसला हल न हुआ। दोनों एक दूसरे को बुरा-भला कहते थे; पर दो में से एक को भी यह तसकीन न होती थी कि चिनियाबाजार और चीनीबाजार में कौन सा बड़ा फर्क है।

हरभज – जानते भी हो, इसका नाम चिनियाबाजार क्यों पड़ा?

भदभद – जानता क्यों नहीं। पहले यहाँ दिसावर से चीनी आ कर बिका करती थी!

हरभज – तुम्हारा सिर? यहाँ चीन के लोग आ कर आबाद हो गए थे, जभी से यह नाम पड़ा;

भदभद – गावदी हो!

इस पर दोनों गुथ गए। इसने उसको पटका, उसने इसको पटका। भदभद मोटे थे, खूब पिटे।

आजाद ने उन दोनों को यहीं छोड़ा और खुद घूमते-घामते जौहरी बाजार की तरफ जा निकले। देख, एक लड़का झुका हुआ कुछ लिख रहा है। आजाद ने लिफाफा दूर से देखते ही खत का मजबून भाँप लिया। पूछा – क्यों भई इस गाँव का क्या नाम है?

लड़का – दिन को रतौंधी तो नहीं होती? यह गाँव है या शहर?

आजाद – हाँ, हाँ वही शहर। मैं मुसाफिर हूँ, सराय का पता बता दीजिए।

लड़का – सराय किस लिए जाइएगा? क्या किसी भठियारी से रिश्तेदारी है?

आजाद – क्यों साहब, मुसाफिरों से भी दिल्लगी! हम तरजुमा करते हैं! अर्जी का तरजुमा कर दो। एक चवन्नी दूँगा।

आजाद – खैर, लाइए, बोहनी कर लूँ। अर्जी पढ़िए।

लड़का – आप ही पढ़ लीजिए।

आजाद – (अर्जी पढ़ कर) सुभान-अल्लाह, यह अर्जी है या घर का दुखड़ा। भला तुम्हारे कितने लड़के-लड़कियाँ होंगी?

लड़का – अजी, अभी यहाँ तो शादी ही नहीं हुई।

आजाद – तो फिर यह क्या लिख मारा कि सारे कुनबे का भार मेरे सिर है। और नौकरी भी क्या माँगते हो कि जमाने भर का कूड़ा साफ करना पड़े! तड़का हुआ और बंपुलिस झाँकने लगे; कभी भंगियों से तकरार हो रही है; कभी भंगियों से चख चल रही है। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है, पढ़ो-लिखो, हम कर मेहनत करो, नौकरी की तुम्हें क्या फिक्र है?

लड़का – आप अर्जी लिखते हैं कि सलाह बताते हैं? मैं तो आपसे सलाह नहीं पूछता।

आजाद – मियाँ, पढ़ने-लिखने का यह मतलब नहीं है कि नौकरी ही करे। और न हीं, तो बंपुलिस का दारोगा ही सही। खासे जौहरी बने हो, ऐसी कौन सी मुसीबत आ पड़ी है कि इस नौकरी पर जान देते हो?

इतने में एक लाला साहब कलमदान लिए, ऐनक लगाए, आ कर बैठ गए।

आजाद – कहिए, आपको भी कुछ तरजुमा कराना है?

लाला – जी हाँ, इस अर्जी का तरजुमा कर दीजिए। मेरे बुढ़ापे पर तरस खाइए।

आजाद – अच्छा, अपनी अर्जी पढ़िए।

लाला – सुनिए –

‘गरीबपरवर सलामत,

अपना क्या हाल कहूँ, कोई दो दर्जन तो बाल-बच्चे हैं। आखिर, उन्हें सेर-सेर भर आटा चाहिए या नहीं। जोड़िए कितना हुआ। और जो यह कहिए कि सेर भर कोई लड़का नहीं खा सकता, तो जनाब, मेरे लड़के बच्चे नहीं हैं, कई-कई बच्चों के बाप हैं। इस हिसाब से 80 रु. का तो आटा ही हुआ। 10 रु. की दाल रखिए। बस, मैं और कुछ नहीं चाहता। मगर जो यह कहिए कि इससे कम में गुजर करूँ, तो जनाब, यह मेरे किए न होगा। रोटियों में खुदा का भी साझा नहीं।

मेरे लियाकत का आदमी इस दुनिया में तो आपको मिलेगा नहीं, हाँ शायद उस दुनिया में मिल जाय। बच्चे मैं खिला सकता हूँ, बाजार से सौदे ला सकता हूँ, बनिये के कान कतर लूँ, तो सही। किस्से-कहानियों का तो मैं खजाना हूँ। नित्य नई कहानियाँ कहूँ। मौका आ पड़े, तो जूते साफ कर सकता हूँ; मेम साहब और बाबा लोगों को गाकर खुश कर सकता हूँ। गरज, हरफन-मौला हूँ। पढ़ा-लिखा हूँ। बदनसीबी से मिडिल पास तो नहीं हूँ; लेकिन अपने दस्तखत कर लेता हूँ। जी चाहे इम्तहान ले लीजिए।

‘अब रही खानदान की बात। तो जनाब, कमतरीन के बुजुर्ग हमेशा बड़े-बड़े ओहदों पर रहे। मेरे बड़े भाई की बीवी जिसे फूफी कहते हैं और जिससे मजाक का भी रिश्ता है उसके बाप के ससुर के चचेरे भाई नहर के मोहकमे में 20 रु. महीने पर दारोगा थे। मेरे बाबाजान म्युनिसिपलिटी में सफाई के जमादार थे और 10 रु. महीना मुशहरा पाते थे। चूँकि सरकार का हुक्म है कि अच्छे खानदान के लोगों की परवरिश की जाय, इसलिए दो-एक बुजुर्गों का जिक्र कर दिया। वरना यहाँ तो सभी ओहदेदार थे। कहाँ तक गिनाऊँ।’

‘अब तो अर्जी में और कुछ लिखना नहीं बाकी रहा। अपनी गरीबी का जिक्र कर ही दिया। लियाकत की भी कुछ थोड़ी सी चर्चा कर दी और अपने खानदान का भी कुछ जिक्र कर दिया।’

‘अब अर्ज है कि हुजूर, जो हमारे आका हैं, मेरी परवरिश करें। अगर मुझ पर हुजूर की निगाह न हुई, तो मजबूर हो कर मुझे अपने बाल-बच्चों को मिर्च के टापू में भरती करना पड़ेगा।’

मियाँ आजाद ने जो यह अर्जी सुनी तो लोटने लगे। इतना हँसे कि पेट में बल पड़-पड़ गए। जब जरा हँसी कम हुई, तो पूछा – लाला साहब, इतना और बता दीजिए कि आप हैं कौन ठाकुर?

लाला – जी, बंदा तो अगिनहोत्री है।

आजाद – तो फिर आपके शरीफ-खानदान होने में क्या शक है। मियाँ, आदमी बनो। जा कर बाप-दादों का पेशा करो। भाड़ झोंकने में जो आराम है, वह गुलामी करने में नहीं। मुझसे आपकी अर्जी का तरजुमा न होगा।

आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 19

एक दिन मियाँ आजाद साँड़नी पर सवार हो घूमने निकले, तो एक थिएटर में जा पहुँचे। सैलानी आदमी तो थे ही, थिएटर देखने लगे, तो वक्त का खयाल ही न रहा। थिएटर बंद हुआ, तो बारह बज गए थे। घर पहुँचना मुश्किल था। सोचे, आत रात को सराय ही में पड़ रहें। सोए, तो घोड़े बेचकर। भठियारी ने आ कर जगाया – अजी, उठो, आज तो जैसे घोड़े बेच कर सोए हो! ऐ लो, वह आठ का गजर बजा। अँगड़ाइयों पर अँगड़ाइयाँ ले रहे हैं, मगर उठने का नाम नहीं लेते।

एक चंडूबाज भी बैठे हुए थे। बोले – तो तुमको क्या पड़ी है? सोने नहीं देतीं। क्या जाने, किस मौज में पड़े हैं। लहरी आदमी तो हई हैं। मगर सच कहना, कैसा धावत सैलानी है। दूसरा इतना घूमे, तो हलकान हो जाय। और जो जगाना ही मंजूर है, तो लोटे की टोंटी से जरा सा पानी कान में छोड़ दो। देखो, कैसे कुलबुला कर उठ बैठते हैं।

भठियारी ने चुल्लू से मुँह पर छींटे देने शुरू किए। दस ही पाँच बूँदें गिरी थीं कि आजाद हाँय-हाँय करते उठ खड़े हुए और बोले – यह क्या दिल्लगी है! कैसी मीठी नींद सो रहा था, लेके जगा दिया!

भठियारी – इतनी रात तक कहाँ घूमते रहे कि अभी नींद ही नहीं पूरी हुई?

आजाद – कहीं नहीं, जरा थिएटर देखने लगा था।

चंडूबाज – सुना, तमाशा बहुत अच्छा होता है। आज हमें भी दिखा देना। भई, तुम्हारी बदौलत थिएटर तो देख लें। कै बजे शुरू होता है?

आजाद – यही; कोई नौ बजे।

चंडूबाज – तो फिर मैं चल चुका। नौ बजे शुरू हो, बारह बजे खत्म हो। कहीं एक बजे घर पहुँचें। मुहल्ले भर में आग ढूँढ़ें, हुक्का भरें, तवा जमाएँ, घंटा भर गुड़गुड़ाएँ। पलंग पर जायँ, तो नींद उचाट। करवटों पर करवटें लें, तब कहीं चार बजते-बजते आँख लगे। फिर जो भलेमानुस चार बजे सोए, वह दोहर तक उठने का नाम न लेगा। लीजिए, दिन यों गया। रात यों गई। अब इनसान चंडू कब पिए, दास्तान कब सुने, पिनक के मजे कब उड़ाए? कौन जाय! क्या गुलाबो-शिताबो के तमाशे से अच्छा होता होगा? रीछवाले ही का तमाशा न देखे? मियाँ ऐंठा सिंह के मजे न उड़ाए, बकरी पर तने बैठे हैं, छींक पड़ी और खट से फँदनीदार टोपी अलग। भई, कोई बेधा हो, जो वहाँ जाय। और फिर रुपए किसके घर से आएँ? जब से अफीम सोलह रुपए सेर हो गई, तब से तो गरीबों का और भी दिवाला निकल गया। और चंडू के ठेकों ने तो सत्यानास ही कर दिया। सैलानी तो शहर का चूहा-चूहा है मगर टिकट का नाम न हो। और भई, साफ तो यों है कि हम लोग मुफ्त के तमाशा देखने वालों में से हैं। मेला-ठेला तो कोई छूटने ही नहीं पाता। सावन भर ऐशबाग के मेले न छोड़े; कभी इमलियों में झूल रहे हैं, कभी बंदरों की सैर देख रहे हैं। बहुत किया, तो एक गंडे के पौंडे लिए। दो पैसे बढ़ाए और साकिन की दुकान पर दम लगाया। चलिए, पाँच-छःह पैसे में मेला हो गया। सबसे बड़ी मुसीबत तो यह है कि वहाँ नादिरी हुक्म है कि कोई धुआँ न उड़ाए, नहीं तो हम सोचे थे कि चंडू का सामान लेते चलेंगे और मजे से किसी कोने में लेटे हुए उड़ाते जाएँगे। इसमें किसी के बाप का क्या इजारा!

भठियारिन – भई, टिकट माफ हो जाय, तो मैं भी चलूँ।

आजाद – उनको क्या पड़ी है भला, जो बंबई से अंगड़-खंगड़ ले कर इनी दूर बेगार भुगतने आएँ! वही बेठिकाने बात कहती हो, जिसके सिर न पैर।

चंडूबाज – अच्छा, तो तुम्हारी खातिर ही सही। तुम भी क्या याद करोगी। एक दिन हम भी चवन्नी गलाएँगे। तमाशा होता कहाँ है?

आजाद – यही छतरमंजिल में, दस कदम पर।

चंडूबाज – दस कदम की एक ही कही। तुम्हारी तरह यहाँ किसी के पाँव में सनीचर तो है नहीं। सात बजे से चलना शुरू करें, तो दस बजे पहुँचे। बग्घी किराए पर करें, तो एक रुपया आने का और एक रुपया जाने का और ठुक जाय। ‘मुफलिसी में आटा गीला।’

आजाद – अजी, मेरी साँड़नी पर बैठ लेना।

भठियारिन – मुझे भी उसी पर बिठा लेना। रात का वक्त है, कौन देखता है।

शाम हुई, तो मियाँ आजाद ने साँड़नी कसी और सराय से चले। भठियारी भी पीछे बैठ गई। मगर चंडूबाज ने साँड़नी की सूरत देखी, तो बैठने की हिम्मत न पड़ी। जब साँड़नी ने तेज चलना शुरू किया, तो भठियारी बोली – इस मुई सवारी पर खुदा की मार! अल्लाह की कसम, मारे हचकोलों के नाक में दम आ गया। आजाद को शरारत सूझी, तो एक एड़ लगाई वह और भी तेज हुई। तब तो भठियारी आग भभूका हो गई – यह दिल्लगी रहने दीजिए; मुझे भी कोई और समझे हो? मैं लाखों सुनाऊँगी। ले बस, सीधी तरह चलना हो तो चलो; नहीं मैं चीखती हूँ। पेट का पानी तक हिल गया। ऐसी सवारी को आग लगे। मियाँ आजाद ने जरा लगाम को खींचा, तो साँड़नी बलबलाने लगी। बी भठियारी तो समझीं कि अब जान गई। देखो, यह छेड़छाड़ अच्छी नहीं। हमें उतार ही दो। लो, और सुनो, जरा से हचकोले में मुँह के बल आ रहूँ, तो चकनाचूर ही हो जाऊँ। तुम मुसंडों को इसका क्या डर! रोको, रोको, रोको। हाय, मेरे अल्लाह, मैं किस बला में फँस गई! मियाँ, अपने खुदा से डरो, बस हमें उतार ही दो। इत्तफाक से साँड़नी एक दरख्त की परछाहीं देख कर ऐसी भड़की कि दस कदम पीछे हट आई। उसका बिचकना था कि बी भठियारी धम से जमीन पर गिर पड़ी। खुदा की मार! वह तो कहो, पक्की सड़क न थी। नहीं तो हड्डी-पसली चूर-चूर हो जाती।

चंडूबाज – शाबास है तेरी माँ को, पटकनी भी खाई, मगर वही तेवर। दूसरी हयादार होती, तो लाख बरस तक सवार होने का नाम न लेती। सवारी क्या है, जनाजा है।

भठियारी – चलिए, आपकी जूती की नोक से। हम बेहया ही सही। क्या झाँसे देने आए हैं, जिसमें मैं उतर पडूँ और आप मजे से जम जायँ। मुँह धो रखिए, हमने कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं।

मगर इस झमेले में इतनी देर हो गई कि जब थिएटर पहुँचे, तो तमाशा खत्म हो गया था। तमाशाई लोग बाहर निकल रहे थे।

आजाद – लीजिए, सारा मजा किरकिरा हो गया। इसी से मैं तुम लोगों को साथ न ले आता था।

चंडूबाज – औरतों को तो मेले-ठेले में ले ही न जाना चाहिए। हमेशा अलसेट होती है।

भठियारी – जी हाँ, और क्या। मेले-ठेले तो आप जैसे खुर्राटों ही के लिए होते हैं। आजाद तमाशाइयों की बातें सुनने लगे –

एक – यार, इनके पास तो सामान खूब लैस है।

दूसरा – वाह, क्या कहना, परदे तो ऐसे कि देखे न सुने। बस, यही यकीन होता है कि बारहदरी का फाटक हे या परीखाना! जंगल का सामान दिखाया, तो वही बेल-बूटे, वही दूब, वही पेड़, वही झाड़ियाँ, बस, बिलकुल सुंदरवन मालूम होता है।

तीसरा – और सब्जपरी की तारीफ ही न करोगे?

चौथा – हजरत, वह कहीं लखनऊ में छह महीने भी तालीम पाए, तो फिर आफत ही ढाए। लाखों लूट ले जाय, लाखों।

दूसरी तरफ गए, तो दो आदमी और ही तरह की बातें कर रहे थे –

एक – अजी, धोखा है, धोखा, और कुछ नहीं।

दूसरा – हाँ, टन-टन की आवाज तो आती है, बाकी खैर-सल्लाह।

अब आजाद यहाँ बैठ कर क्या करते। सोचे, आओ, साँड़नी पर बैठें और चल कर सराय में मीठी नींद के मजे लें। मगर बाहर आकर देखते हैं, तो साँड़नी गायब। थिएटर के अहाते में एक दरख्त से बाँध दिया था। मालूम नहीं, तड़प कर भागी या कोई चुरा ले गया। बहुत देर तक इधर-उधर ढूँढ़ा किए, मगर साँड़नी का पता न लगा। उधर और सवारियाँ भी तमाशाइयों को ले-ले कर चली गईं। तब आजाद ने भठियारी से कहा – अब तो पाँव-पाँव चलने की ठहरेगी।

भठियारी – ना साहब, मुझसे पाँव-पाँव न चला जायगा।

चंडूबाज – देखिए, कहीं कोई सवारी मिले, तो ले आइए। यह बेचारी पाँव-पाँव कहाँ तक चलेगी?

आजाद – तो तुम्हीं क्यों नहीं लपक जाते?

भठियारी (अलारक्खी) – ऐ हाँ, और क्या? चढ़ने को तो सबसे पहले तुम्हीं दौड़ोगे। तुम्हें बात-चीत करने की भी तमीज नहीं।

आजाद – सवारी न मिलेगी, ठंडे-ठंडे घर की राह लो, बात-चीत करते-करते चले चलेंगे।

दूसरे दिन आजाद ने साँड़नी के खोने की थाने में रपट कर दी। मगर जिस आदमी को भेजा था, उसने आकर कहा – हुजूर थानेदार ने रपट नहीं लिखी और आपको बुलाया है।

आजाद – कौन, थानेदार? हमसे थानेदार से वास्ता? उनसे कहो कि आपको खुद मियाँ आजाद ने याद किया है, अभी हाजिर हो।

अलारक्खी – ले, बस बैठे रहो। बहुत उजड्डपना अच्छा नहीं होता। वाह, कहने लगे, हम न जायँगे। बड़े वह बने हैं। आखिर साँड़नी की रपट लिखवाई है कि नहीं? फिर अब दौड़ो-धूपोगे नहीं, तो बनेगी क्योंकर? और वहाँ तक जाते क्या चूड़ियाँ टूटती हैं, या पाँव की मेहँदी गिर जायगी?

आजाद – भई; हमसे थानेदार से एक दिन चख चल गई थी। ऐसा न हो, वह कोतवाली के चबूतरे पर बैठकर जोम में आ जायँ तो फिर मैं ले ही पड़ूँगा। इतना समझ लेना, मैं आधी बात सुनने का रवादार नहीं। साँड़नी मिले या जहन्नुम में जाय, इसकी परवाह नहीं, मगर कोई एँड़ा-बेंड़ा फिकरा सुनाया और मैंने कुर्सी के नीचे पटका। क्यों सुनें, चोर नहीं कि कोतवाल से डरूँ, जुवाड़ी नहीं कि प्यादे की सूरत देखते ही जान निकले, बदमाश नहीं कि मुँह छिपाऊँ, मरियल नहीं कि दो बातें सह जाऊँ। कोई बोला और मैंने तलवार निकाली; फिर वह नहीं या मैं नहीं।

अलारक्खी – अरे, वह बेचारा तो एक हँसमुख आदमी है। लड़ाई क्यों होने लगी।

आजाद – खैर, तुम्हारी खुशी है, तो चलता हूँ। मगर चलो तुम भी साथ, रास्ते में दो घड़ी दिल्लगी ही होगी।

आखिर मियाँ आजाद और अलारक्खी दोनों थाने चले। एक कानिस्टिबिल भी साथ था। राह में एक आदमी अकड़ता हुआ जा रहा था। आजाद उसका अकड़ना देख कर आग हो गए। करीब जा कर एक धक्का जो दिया, तो उसने पचास लुढ़कनियाँ खाईं। थोड़ी दूर और चले थे कि एक आदमी चादर बिछाए, उस पर जड़ी-बूटी फैलाए बैठा गप उड़ा रहा था। इस बूटी से अस्सी बरस का बूढ़ा जवान हो जाय, इस जड़ी को पानी में घिस कर एक तोला पिए, तो शेर का पंजा फेर दे। आजाद उसकी तरफ झुक पड़े – कहो भाई खिलाड़ी, यह क्या स्वाँग रचा है? आज कितने अक्ल के अंधे, गाँठ के पूरे जाल में फँसे? यह कह कर एक ठोकर जो मारी, तो सारी बूटियाँ, पत्तियाँ, जड़ें एक में मिल गईं। और आगे चले, तो गुल-गपाड़े की आवाज आई। एक हलवाई ग्राहक से तकरार कर रहा था।

हलवाई – खाली भजिया नाहीं बिकत है हमरी दुकान पर, कस-कस देई भला।

ग्राहक – अबे, मैं कहता हूँ, कहीं एक गुद्दा न दूँ!

आजाद – गुद्दा तो पीछे दीजिएगा, मैं एक गुद्दा कहीं आपकी गुद्दी पर न जमाऊँ।

ग्राहक – आप कौन हैं बोलनेवाले?

आजाद – उस बेचारे हलवाई को तुम क्यों ललकारते हो?

आलारक्खी – ऐ है, मियाँ, तुम कोई खुदाई फौजदार हो? किसी के फटे में तुम कौन हो पाँव डालनेवाले?

कानिस्टिबिल – भइया, हो बड़े लड़ाका, बस काव कहों।

यहाँ से चले, तो थाने आ पहुँचे।

कानिस्टिबिल – हुजूर, ले आया, वह खड़े हैं।

थानेदार – अख्खाह! अलारक्खी भी हैं। मैं तो चाल ही से समझ गया था। कुछ बैठने को दो इन्हें, कोई है? सच कहना, तुम्हारी चाल से कैसा पहचान लिया?

आजाद – अपने-अपनों को सभी पहचान लेते हैं।

थानेदार – यह कौन बोला? कौन है भई?

अलारक्खी – ऐ, बस चलो, देख लिया। मुँह देखे की मुहब्बत है। घर की थानेदारी और अब तक मुई साँड़नी न मिली। तुमसे तो बड़ी-बड़ी उम्मीदें थीं।

थानेदार – (आजाद से)-कहो जी, वह साँड़नी तुम्हारी है न?

आजाद – ‘तुम’ का जवाब यहाँ नहीं देते; ‘आप’ कहिए; मैं कोई चरकटा हूँ।

भठियारी – हाय मेरे अल्लाह, मैं क्या करूँ? यह तो जहाँ जाते हैं, दंगा मचाते हैं।

थानेदार – क्या कुछ इनसे साँठ-गाँठ है? सच कहना, तुम्हें कसम है अपने शेख सद्दू की।

अलारक्खी – लो, तुम्हें मालूम ही नहीं। अच्छी थानेदारी करते हो। मैं तो इनके घर पड़ गई हूँ न।

थानेदार – तो यह कहिए, लाओ भई, साँड़नी काँजी-हाऊस से निकलवाओ?

साँड़नी आ मौजूद हुई। मियाँ आजाद सवार हुए। भठियारी भी पीछे बैठी।

आजाद – आज तुम कई आदमियों के सामने हमें अपना मियाँ बना चुकी हो। मुकर न जाना।

अलारक्खी – जरा चोंच सँभाले हुई; कहीं साँड़नी पर से ढकेल न दूँ।

अलारक्खी को यकीन हो गया कि आजाद मुझ पर रीझ गए। अब निकाह हुआ ही चाहता है। यों ही बहुत नखरे किया करती थी, अब और भी नखरे बघारने लगी। नौ का अमल हो गया था। चारपाई पर धूप फैली हुई थी, मगर मक्कर किए पड़ी हुई थी। इतने में चंडूबाज आए। आते ही पुकारा – मियाँ आजाद, मियाँ आजाद! अलारक्खी! यह आज क्या है यहाँ, खुदा ही खैर करे। दस का अमल और अभी तक खटिया ही पर पड़े हैं। कल रात को तमाशा भी तो न था। (दरख्त की तरफ देखकर और साँड़नी बँधी हुई पा कर) जभी खुश खुश सो रहे हैं। अरे मियाँ, क्या साँप सूँघ गया? यह माजरा क्या है? हाँ, अल्लाह कह कर उठ तो बैठ मेरे शेख।

आजाद – (अँगड़ाई ले कर) अरे, क्या सुबह हो गई?

चंडूबाज – सुबह गई खेलने, आँख तो खोलो, अब कोई दम में बारह की तोप दगा चाहती है दन से। देखना, आज दिन भर सुस्ती न रहे तो कहना। वह तो जहाँ आदमी जरा देर करके उठा और हाथ-पाँव टूटने लगे। अब एक काम करो, सिर से नहा डालो।

आजाद – क्या बक-बक लगाई है, सोने नहीं देता।

अलारक्खी चुपके-चुपके सब सुन रही है, मगर उठती नहीं। चंडूबाज उसकी चारपाई की पट्टी पर जा बैठे और बोले – ऐ उठ अल्लाह की बंदी, ऐसा सोना भी क्या? यह कह कर आपने उसके बिखरे हुए बाल, जो जमीन पर लटक रहे थे, समेट कर चारपाई पर रखे। उधर मियाँ आजाद की आँख खुल गई।

चंडूबाज (गुदगुदा कर) – उठो, मेरी जान की कसम, वह हँसी आई, वह मुसकिराई।

आजाद – ओ गुस्ताख, अलग हट कर बैठ, हमारे सामने यह बेअदबी!

चंडूबाज – उँह-उँह, बड़े वारिस अलीखाँ बन बैठे! भई, आखिर तुमको भी जो जगाया था, अब इनको जगाना शुरू किया, तिनगते क्यों हो भला? मैं तो सीधा-सादा, भोला-भाला आदमी हूँ।

आजाद – जी हाँ, हमें तो कंधा पकड़ कर जगाया। यह मालूम हुआ कि चारपाई को जूड़ी चढ़ी या भूचाल आ गया और उन्हें गुदगुद कर जगाते हो। क्यों बचा?

अलारक्खी जागी तो थी ही, खिलखिला कर हँस पड़ी, ऐ हट मरदुए, यह पलंग पर आ कर बैठ जाना क्या; मुझे कोई वह समझ रखा है?

चंडूबाज ने तैश खा कर कहा – वाह-वाह, पलंग की अच्छी कही। ‘रहें झोंपड़ों में और ख्वाब देखें महलों को।’ कभी बाबाराज ने भी पलंग देखा था।

अलारक्खी – मियाँ, मुझसे यह जली-कटी बातें न कीजिएगा जरी। वाह, हम झोंपड़ों ही में रहती हैं सही; अब तो एक भलेमानस के घर पड़नेवाले हैं। क्यों मियाँ आजाद, है न, देखो, मुकर न जाना।

आजाद – वाह, मुकरने को एक ही कही, ‘नेकी और पूछ-पूछ?’

अलारक्खी – तिस पर भी तुम्हें शरम नहीं आती कि इस उचक्के ने मुझे हाथ लगाया और तुम मुलुर-मुलुर देखा किए। दूसरा होता, तो महनामथ मचा देता।

चंडूबाज – क्यों लड़वाती हो भला मुफ्त में? हमें क्या मालूम था कि यहाँ निकाह की तैयारियाँ हो रही हैं।

मियाँ आजाद हाथ-मुँह धोने बाहर गए, तो चंडूबाज और अलारक्खी में यों बाते होने लगीं।

चंडूबाज – यार, फाँसा तो बड़े मुड्ढ को? अब जाने न देना। ऐसा न हो, निकल जाय। भई, कसम खुदा की, औरत क्या, बिस की गाँठ है तू।

अलारक्खी – मगर तुम भी कितने बेशहूर हो, उसके सामने आपने गुदगुदाना शुरू किया। अब वह खटकै कि न खटकै? तुम्हारी जो बात है, दुनिया से अनोखी। ताड़ सा कद बढ़ाया, मगर तमीज छू नहीं गईं।

चंडूबाज – अब तुमसे झगड़े कौन? मैं किसी के दिल की बात थोड़े ही पढ़ा हूँ। मगर भई, पक्की कर लो।

अलारक्खी – हाँ पक्की-पोढ़ी होनी चाहिए। किसी अच्छे वकील से सलाह लो। वह कौन वकील हैं, जो कुम्मैत घोड़े की जोड़ी पर निकलते हैं – अजी वही, जो गबरू से हैं अभौ।

चंडूबाज – वकीलों की न पूछो, तेरह सौ साठ हैं। किसी के पास ले चलेंगे।

अलारक्खी – नहीं, वाह, किसी बूढ़े वकील के यहाँ तो मैं न जाऊँगी। ऐसी जगह चलो, जो जवान हो, अच्छी सलाह दे।

चंडूबाज – अच्छा, आज इतवार है। शाम को मियाँ आजाद से कहना कि हमें अपनी बहन के यहाँ जाना है। बस, हम फाटक के उस तरफ दबके खड़ें रहेंगे, तुम आना। हम-तुम चल कर सब मामला भुगता देंगे।

अलारक्खी – अच्छा अच्छा, तुम्हें खूब सूझी।

इतने में आजाद मुँह-हाथ धो कर आए, तो अलारक्खी ने कहा – हमें तो आज बहन के यहाँ न्योता है, कोई कच्ची दो घड़ी में आ जाऊँगी।

आजाद – जरा साली की सूरत हमें भी तो दिखा दो। ऐसा भी क्या परदा है, कहो तो हम भी साथ-साथ चले चलें।

अलारक्खी – वाह मियाँ, तुम तो उँगली पक़़डते ही पहुँचा पकड़ने लगे! यह कह कर अलारक्खी कोठरी में गई और सोलह सिंगार करके निकली तो आजाद फड़क गए। पटियाँ जमी हुई, गोरी-गोरी नाक में काली-काली लौंग, प्यारे-प्यारे मुखड़े पर हलका सा घूँघट, हाथों में कड़े, पाँव में छड़े, छम-छम करती चली।

चंडूबाज – उनके सामने चमक-चमक के बातें करना यह नहीं कि झेपने लगो।

अलारक्खी – मुझे और आप सिखाएँ। चमकना भी कुछ सिखाने से आता है। मेरी तो बोटी-बोटी यों ही फड़का करती है। तुम चलो तो, जो मेरी बातों और आँखों पर लट्टू न हो जायँ, तो अलारक्खी नहीं। कुछ ऐसा करूँ कि वह भी निकाह पर रजामंद हो जायँ, तो उनसे और आजाद से जरा जूती चले।

वकील साहब अपने बाग में तख्त पर बैठे दोस्तों के साथ बातें कर रहे थे कि खिदमतगार ने आ कर कहा – हुजूर, एक औरत आई है। कहती है, कुछ कहना है।

दोस्त – कैसी औरत है भई? जवान है या खप्पट?

खिदमतगार – हुजूर, यह तो देखने से मालूम होगा, मुल है अभी जवान।

वकील – कहो, सुबह आवे।

दोस्त – वाह-वाह, सुबह की एक ही कही। अजी बुलाओ भी। हमारे सर की कसम, बुलाओ। कहो, टोपी तुम्हारे कदमों पर रख दें।

अलारक्खी छड़ों को छम-छम करती, अजब मस्धानी चाल से इठलाती, बोटी-बोटी फड़काती हुई आई। जिसने देखा, फड़क गया। सब रँगीले, बिगड़े दिल, बेफिक्रे जमा थे। एक साहब नवाब थे, दूसरे साहब मुंशी। आपस में मजाक होने लगा –

नवाब – बंदगी अर्ज है! खुदा की कसम, आप एक ही न्यारिए हैं।

मुंशी – भई, सूरत से तो भलेमानस मालूम होते थे, लेकिन एक ही रसिया निकले।

वकील – भई, अब हम कुछ न कहेंगे। और कहें क्या, छा गई। बी साहिबा, आप किसके पास आई हैं? कहाँ से आना हुआ?

अलारक्खी – अब ऐसी अजीरन हो गई।

वकील – नहीं-नहीं, वाह बैठो, इधर तख्त पर आओ।

अलारक्खी – हाँ, बनाइए, हम तो सीधे-सादे हैं साहब।

नवाब – आप भोली हैं, बजा है!

वकील – औरत हैं या परिस्तान की परी!

नवाब – रीझे-रीझे, लो बी, अब पौ-बारह हैं।

अलारक्खी – हुजूर, हम ये पौ-बारह और तीन काने तो जानते नहीं, हमारा मतलब निकल जाय, तो आप सब साहबों का मुँह मीठा कर देंगे।

दोस्त – आपकी बातें ही क्या कम मीठी हैं!

इतने में चंडूबाज भी आ पहुँचे।

चंडूबाज – हुजूर तो इन्हें जानते न होंगे, ये अलारक्खी हैं। इनका नाम दूर-दूर तक रोशन है।

वकील – इनका क्या इनके सारे खानदान का नाम रोशन है।

चंडूबाज – सराय में आजाद नामी जवान आ कर ठहरे हैं। वह इनके ऊपर जान देते हैं और यह उन पर मरती हैं। कई आदमियों के सामने वह कबूल चुके हैं कि इनके साथ निकाह करेंगे। मगर आदमी है रँगीले, ऐसा न हो कि इनकार कर जायँ। बस, इनकी यही अर्ज है कि हुजूर कोई ऐसी तदबीर बताएँ कि वह निकल न सकें।

अलारक्खी – मुझ गरीबनी से कोई छप्पन टके तो आपको मिलने नहीं हैं। रहा, इतना सवाब कीजिए, जिसमें यह शिकंजे में जकड़ जायँ।

मुंशी – अगर निकाह ही करने का शौक है तो हम क्या बुरे हैं?

वकील – एक तुम्हीं क्या, यहाँ सब झंडे-तले के शोहदे छटे हुए लुच्चे जमा हैं! जिसको यह पसंद करें, उसी के साथ निकाह हो जाय।

अलारक्खी – हुजूर लोग तो मुझसे दिल्लगी करते हैं।

वकील – अच्छा, कल आओ तो हम तुम्हें वह तरकीब बताएँ कि तुम भी याद करो।

अलारक्खी – मगर बंदी ने कभी सरकार-दरबार की सूरत देखी नहीं। आप वकालत कीजिएगा?

मुंशी – हाँ जी हाँ; इसमें मिन्नत ही क्या है। मगर जानती हो, ये वकील तो रुपए के आशना हैं।

अलारक्खी – वाह, रुपया यहाँ अल्लाह का नाम है। हम हैं, चाहे बेच लो।

वकील – अच्छा, कल आओ, पहले देखो तो वह क्या कहते हैं।

अलारक्खी अब यहाँ से उठना चाहती थी, मगर उठे कैसे। कनखियों से चंडूबाज की तरफ देखा कि अब यहाँ से चलना चाहिए। वह भी उसका मतलब समझ गए, बोले – ऐ हुजूर, जरी घड़ी को तकलीफ दीजिएगा, देखिए तो, कै बजे हैं।

अलारक्खी – मैं अटकल से कहती हूँ, कोई बारह बजे होंगे।

चंडूबाज – मैं भी कहूँ, यह जम्हाइयों पर जम्हाइयाँ क्यों आ रही हैं। नशे का वक्त टल गया। हलवाइयों की दुकानें भी बढ़ गई होंगी। भलाई से भी गए। हुजूर, अब तो रुखसत कीजिए। अब तो चंडू की लौ लगी है, आज सवेरे-सवेरे आजाद की मनहूस सूरत देखी थी, जभी यह हाल हुआ।

अलारक्खी – ले खबरदार, अब की कहा तो कहा, अब आजाद का नाम लिया, तो मुझसे बुरा कोई नहीं; जबान खींच लूँगी। नाहक किसी पर छुरा रखना अच्छा नहीं।

नवाब – अरे भई, कोई है, देखो, दूकानें बढ़ न गई हों, तो इनको यहीं चंडू पिलवा दें। जरा दो घड़ी और बी अलारक्खी से सोहबत गरमावें।

खिदमतगार – जाने को कहिए मैं जाऊँ, मुल दुकानें कब की बढ़ गई है; बाजार भर में सन्नाटा पड़ा है; चिड़ियाँ चुनगुन तक सो रही हैं; अब कोई दम में चक्कियाँ चलेंगी।

अलारक्खी – ऐ, क्या आधी रात ढल गई? ले, अब तो बंदी रुखसत होती है।

मुंशी – वाह, इस अँधेरी रात में ठोकरें खाती कहाँ जाओगी!

अलारक्खी – नहीं हुजूर, अब आँखें बंद हुई जाती हैं। बस, अब रुखसत। हुजूर, भूलिएगा नहीं। इतनी देर मजे से बातें की हैं। याद रखिएगा लौंडी को।

मुंशी – वह हँसते आए, यहाँ से हमें रुलाके चले;

न बैठे आप मगर दर्द-दिल उठा के चले।

वकील – दिखा के चाँद सा मुखड़ा छिपाया जुल्फों में;

दुरंगी हमको जमाने की वह दिखाके चले।

नवाब – न था जो कूचे में अपना कयाम मद्दे-नजर;

तो मेरे बाद मेरी खाक भी उड़ा के चले।

खुदा के लिए इतना तो इकरार करती जाओ कि कल जरूर मिलेंगे, हाथ पर हाथ मारो।

अलारक्खी – आप लोगों ने क्या जादू कर दिया; अब रुखसत कीजिए।

वकील – यह भी कोई हँसी है कि रुखसत का ले के नाम;

सौ बार बैठे-बैठे हमें तुम रुला चले।

नवाब- आँखों-आँखों में ले गए वह दिल;

कानों-कानों हमें खबर न हुई।

अलारक्खी यहाँ से चली, तो राह में डींग मारने लगी – क्यों, सबके सब हमारी छवि पर लोट गए न? यहाँ तो फकीर की दुआ है कि जिस महफिल में बैठ जाऊँ, वहीं कटाव होने लगे।

दोनों सराय में पहुँचे, तो देखा, आजाद जाग रहे हैं।

अलारक्खी – आज क्या है कि पलक तक न झपकी? यह किसकी याद में नींद उचाट है?

आजाद – हाँ, हाँ जलाओ, दो-दो बजे तक हवा खाओ और हमसे आ कर बातें बनाओ।

अलारक्खी – ऐ वाह, यह शक, तब तो मीजान पट चुकी। अब इनके मारे कोई भाई-बहन छोड़ दे। अब यह बताओ कि निकाह को कौन दिन ठीक करते हो? हम आज सबसे कह आए कि मियाँ आजाद के घर पड़ेंगे।

आजाद – क्या सचमुच तुम सबसे कह आईं? कहीं ऐसा करना भी नहीं। मैं दिल्लगी करता था। खुदा की कसम फकत दिल्लगी ही थी। मैं परदेशी आदमी, शादी ब्याह करता फिरूँगा, और भठियारी से? माना कि तुम हो परी, मगर फिर भठियारिन ही तो! चार दिन के लिए सराय में आ कर टिके, तो यहाँ से यह बला ले जायँ!

अलारक्खी – ऐ चोंच सँभाल मरदुए! और सुनिएगा, हम बला हैं, जिस पर सारे शहर की निगाह पड़ती हैं? दूसर कहता, तो खून खराब कर डालती। मगर करूँ क्या, कौल हार चुकी हूँ। बिरादरी भर में कलंक का टीका लगेगा। बला की अच्छी कही; तुम्हारे मुँह से मेरी एड़ी गोरी है, चाहे मिला हो।

आजाद – तो बी साहबा, सुनिए, किसी शादी और किसका ब्याह!

अलारक्खी – इन बातों से न निकलने पाइएगा। कल ही तो मैं नालिश दागती हूँ। इकरार करके मुकर जाना क्या खाला जी का घर है? मियाँ, मैं तो अपनीवाली पर आई, तो बड़ा घर ही दिखाऊँगी। किसी और भरोसे न भूलना मुझसे बुरा कोई नहीं।

आजाद – खुदा की पनाह, मैं अब तक समझता था कि मैं ही बड़ा घाघ हूँ, मगर इस औरत ने मेरे भी कान काटे। भुला दी सारी चौकड़ी। खुदा तड़का जल्दी से हो, तो मैं दूसरी कोठरी लूँ।

अलारक्खी (नाक पर उँगली रख कर) – रो दे, रो दे! इससे छोकरी ही हुए होते तो किसी भले मानस का घर बसता। भला मजाल पड़ी है कि कोई भठियारी टिकाए?

आजाद – तो सारे शहर भर में आपका राज है कुछ?

अलारक्खी – हई है, हई है, क्या हँसी-ठट्ठा है? कल-परसों तक आटे-दाल का भाव मालूम हो जाएगा?

आजाद – चलिए, आपकी बला से!

चंडूबाज – बला-बला के भरोसे न रहिएगा। दो-चार दिन ताथेइया मचेगी।

आजाद – जरी आप चुपके बैठे रहिएगा। यह तो कामिनी हैं, लेकिन तुम्हारी मुफ्त में शामत आ जायगी।

चंडूबाज – मेरे मुँह न लगिएगा, इतना कहे देता हूँ!

आजाद ने उठ कर दो-चार चाँटे जड़ दिए। अलारक्खी ने बीच-बचाव कर दिया।

अल्लाह करे, हाथ टूटें, लेके गरीब को पीट डाला।

चंडूबाज – मेरी भी तो दो-एक पड़ गई जा!

अलारक्खी – ऐ चुप भी रह, बोलने को मरता है।

इस तरह लड़-झगड़ कर तीनों सोए।

आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 20

दूसरे दिन सवेरे आजाद की आँख खुली तो देखा, एक शाह जी उनके सिरहाने खड़े उनकी तरफ देख रहे हैं। शाह जी के साथ एक लड़का भी है, जो अलारक्खी को दुआएँ दे रहा है। आजाद ने समझा, कोई फकीर है, झठ उठ कर उनको सलाम किया। फकीर ने मुसकिरा कर कहा – हुजूर, मेरा इनाम हुआ। सच कहिएगा, ऐसे बहुरूपिए कम देखे होंगे। आजाद ने देखा गच्चा खा गए, अब बिना इनाम दिए गला न छूटेगा। बस, अलारक्खी की भड़कीली दुलाई उठाकर दे दी। बहुरूपिए ने दुलाई ली, झुक कर सलाम किया और लंबा हुआ। लौंडे ने देखा कि मैं ही रहा जाता हूँ। बढ़ कर आजाद का दामन पकड़ा। हुजूर, हमें कुछ भी नहीं? आजाद ने जेब से एक रुपया निकाल कर फेंक दिया। तब अलारक्खी चमक कर आगे बढ़ीं और बोलीं – हमें?

आजाद – तुम्हारे लिए जान हाजिर है।

चंडूबाज – यह सब जबानी दाखिल है। बीवी को यह खबर ही नहीं कि दुलाई इनाम में चली गई। उलटे चली हैं माँगने। यह तो न हुआ कि चाँदी के छड़े बनवा देते, या किसी दिन हमी को दो-चार रुपए दे डालते। जाओ मियाँ, बस, तुमको भी देख लिया। गौं के यार हो,’चमड़ी जाय दमड़ी न जाय।’

अलारक्खी – कहीं तेरे सिर गरमी तो नहीं चढ़ गई। जरा चंदिया के पट्ट करतवा डाल। यह चमड़ी और दमड़ी का कौन मौका था। यह बताइए, अब निकाह की कब तैयारियाँ हैं?

आजाद – अभी निकाह की उम्मेद आपको है? वल्लाह, कितनी भोली हो!

अल्लारक्खी – तो क्या आप निकल भी जाएँगे? ऐ, मैं तो चढ़ूँगी अदालत! कह-कह कर मुकर जाना क्या हँसी-ठट्ठा है!

आजाद – तो क्या नालिश कीजिएगा?

अलारक्खी – क्यों, क्या कोई शक भी है! हम क्या किसी के दबैल हैं?

चंडूबाज – और गवाह को देख रखिए। दुलाई क्या झप से उठ दी। परायी दुलाई के आप कौन देनेवाले थे? अजी, मैं तो वह – वह सवाल-जवाब करूँगा कि आपके होश उड़ जायँगे।

आजाद – अच्छी बात है, यह शौक से नालिश करें और आप गवाही दें। इन्हें तो क्या कहूँ, पर तुम्हें समझूँगा।

चंडूबाज – मुझसे ऐसी बातें न कीजिएगा, नहीं मैं फिर गुद्दा ही दूँगा।

अलारक्खी – चल, हट, बड़ा आया वहाँ से गुद्दा देने वाला। अभी मैं चिमट जाऊँ, तो चीखने लगे, उस पर गुद्दा देंगे।

आजाद – तो फिर जाइए वकील के यहाँ, देर हो रही है।

अलारक्खी – तो क्या सचमुच तुम्हें इनकार है? मियाँ, आँखें खुल जाएँगी। जब सरकार का प्यादा आएगा, तो भागने को जगह न मिलेगी।

चंडूबाज – यह हैं शोहदे, यों नहीं मानने के। चलो चलें, दिन चढ़ता आता है। अभी कंघी-चोटी में तुम्हें घंटों लगेंगे और वह सरकारी-दरबारी आदमी ठहरे। मुवक्किल सुबह-शाम घेरे रहते हैं। जब देखो, बग्घियाँ, टमटम, फिटन, जोड़ी, गाड़ी, हाथी, घोड़े, पालकी, इक्के, ताँगे, याबू, फिनस, म्याने दरवाजे पर मौजूद।

आजाद – क्या और किसी सवारी का नाम याद नहीं था? आज सरूर खूब गठे हैं।

चंडूबाज – अजी, यहाँ अलारक्खी की बदौलत रोज ही सरूर गठे रहते हैं।

अलारक्खी ने कोठरी में जा कर सिंगार किया और निखर कर चलीं, तो आजाद की निगाह पड़ ही गई। चार आँखें हुईं, तो दोनो मुस्किरा दिए। चंडूबाज ने यह शेर पढ़ा –

उनको देखो तो यह हँस देते हैं;

आँख छिपती ही नहीं यारी की।

अलारक्खी एक हरी-हरी छतरी लगाए छम-छम करती चली। बिगड़े-दिल आवाजें कसते थे, पर वह किसी तरफ आँख उठा कर न देखती थी। चंडूबाज ‘हटो, बचो’ करते चले जाते थे। जरी हट जाना सामने से। ऐं, क्या छकड़ा आता है, क्यों हट जायँ? अख्खाह, यह कहिए, आपकी सवारी आ रही है। लो साहब, हट गए। एक रसिया ने पीछा किया। ये लोग आगे-आगे चले जा रहे हैं और मियाँ रसिया पीछे-पीछे गजलें पढ़ते चले आ रहे हैं। चंडूबाज ने देखा कि यह अच्छे बिगड़े-दिल मिले। साथ जो हुआ, तो पीछा ही नहीं छोड़ते। आप हैं कौन? या आगे बढ़िए या पीछे चलिए। किसी भलेमानस को सताते क्यों हैं? इस पर अलारक्खी ने चंडूबाज के कान में चुपके से कहा – यह भी तो शकल-सूरत से भलेमानस मालूम होते हैं। हमें इनसे कुछ कहना है।

चंडूबाज – आप तो वकील के पास चलती थीं, कहाँ इस सिड़ी-सौदई से साँठ-गाँठ करने की सूझी? सच है, हसीनों के मिजाज का ठिकाना ही क्या। बोले – अजी साहब, जरी इधर गली में आइएगा, आपसे कुछ कहना है।

रसिया – वाह, ‘नेकी और पूछ-पूछ!’

तीनों गली में गए, तो अलारक्खी ने कहा – कहीं तुम्हारे मकान भी है? यहाँ इस गलियारे में क्या कहूँ, कोई आवे, कोई जाय। खड़े-खड़े बातें हुआ करती हैं?

चंडूबाज ने सोचा कि दूसरा गुल खिला चाहता है। पूछा – मियाँ, तुम्हारा मकान यहाँ से कितनी दूर है। जो काले कोसों हो, तो मैं लपक कर बग्घी किराया कर लूँ। इनसे इतनी दूर न चला जायगा। इनको तो मारे नजाकत के छतरी ही का सँभालना भारी है।

रसिया – नहीं साहब, दूर नहीं है। बस, कोई दस कदम आइए। रसिया ने छतरी ले ली और खिदमतगार की तरह छतरी लगा कर साथ-साथ चलने लगे। चंडूबाज ने देखा, अच्छा गावदी मिला। खुद की छतरी के साये में रईस बने हुए चलने लगे। थोड़ी देर मे रसिया के मकान पर पहुँचे।

रसिया – वह आएँ घर में हमारे, खुदा की कुदरत है,

कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं।

यहाँ तो सच्चे आशिक हैं। जिसको दिल दिया, उसको दिया। जान जाय; माल जाय; इज्जत जाय; सब मंजूर है।

चंडूबाज – अच्छा, अब इनका मतलब सुनिए। यह बेचारी अभी अठारह-उन्नीस बरस की होंगी? अभी कल तो पैदा हुई हैं। अब सुनिए कि इनके मियाँ इनसे लड़-झगड़ कर हैदराबाद भाग गए। वहाँ किसी को घर में डाल लिया। अब यह अकेली हैं, इनका जी घबराता है, इतने में एक शौकीन रईस सराय में उतरे, बड़े खूबसूरत कल्ले-छल्ले के जवान हैं।

अलारक्खी – मियाँ, आँखें तो ऐसी रसीली कि देखी न सुनी।

चंडूबाज – ऐ, तो मुझी को अब कहने दो। तुम तो बात काटे देती हो। हाँ, तो मैं कहता था कि इनकी-उनकी आँखें चार हुई, तो इधर यह, उधर वह, दोनों घायल हो गए। पहले तो आँखों ही आँखों में बातें हुआ की। फिर खुल के साफ कह दिया कि हम तुमको ब्याहेंगे। फिर न जाने क्या समझ कर मुकर गए। अब इनका इरादा है कि उन पर नालिश ठोंक दें।

रसिया – अजी, उनको भाड़ में झोंको। जो ब्याह ही करना है, तो हमसे निकाह पढ़वाओ। उनका पता बताओ।

अलारक्खी – सच कहूँ, तुम मर्दों का हमें एतबार दमड़ी भर भी नहीं रहा। अब जी नहीं चाहता कि किसी से दिल मिलाएँ।

रसिया – तुमने अभी हमें पहिचाना ही नहीं। पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं। हम शरीफजादे हैं!

अलारक्खी – लोग यही समझते हैं कि अलारक्खी बड़ी खुशनसीब है। मगर मियाँ, मैं किससे कहूँ, दिल का हाल कोई क्या जाने।

चंडूबाज – यही देखिए, अर्जीदावा है।

रसिया – अरे, यह किस पागल ने लिखा है जी? ऐसा भला कहीं हो सकता है कि सरकार आजाद से तुम्हारा निकाह करवा ही दे? हाँ, इतना हो सकता है कि हरजा दिलवा दे। पर उसका सबूत भी जरा मुश्किल है।

अलारक्खी – अजी, होगा भी, मसौदा फाड़ डालो। आजाद से अब मतलब ही क्या रहा?

रसिया – हम बताएँ, नालिश तो दाग दो। हरजा मिला तो हर्ज ही क्या है। बाकी ब्याह किसी के अख़्तियार मे नहीं। उधर तुमने मुकदमा जीता, इधर हम बरात ले कर आए।

अलारक्खी – तो चलो, तुम भी वकील के यहाँ तक चले चलो न।

रसिया – हाँ, हाँ, चलो।

तीनों आदमी वकील के यहाँ पहुँचे। लेकिन बड़ी देर तक बाहर ही टापा किए। यह रईस आए, वह अमीर आए। कभी कोई महाजन आया। बड़ी देर के बाद इनकी तलबी हुई; मगर वकील साहब जो देखते हैं, तो अलारक्खी का मुँह उतरा हुआ है, न वह चमक-दमक है, न वह मुसकिराना और लजाना। पूछा – आखिर, माजरा क्या है? आज इतनी उदास क्यों हो? कहाँ वह छवि थी, कहाँ यह उदासी छाई हुई है? अलारक्खी ने इसका तो जवाब कुछ न दिया, फूट-फूट कर रोने लगी। आँसू का तार बंध गया। वकील सन्नाटे में। आज यह क्या माजरा है, इनकी आँखों में आँसू!

चंडूबाज – हुजूर, यह बड़ी पाकदामन हैं। जितनी ही चंचल हैं, उतनी ही समझदार। मेरा खुदा गवाह है, बुरी राह चलते आज तक नहीं देखा। इनकी पाकदामनी की कसम खानी चाहिए। अब यह फरमाइए, मुकदमा कैसे दायर किया जाय।

रसिया – जी हाँ, कोई अच्छी तदबीर बताइए। जबरदस्ती शादी तो हो नहीं सकती। अगर कुछ हरजाना ही मिल जाय, तो क्या बुरा? भागते भूत की लँगोटी ही सही। कुछ तो ले ही मरेंगी।

चंडूबाज – मरें इनके दुश्मन, आप भी कितने फूहड़ हैं, वाह!

वकील – अच्छा, यह तो बताइए कि वह रईस कहाँ से आएँगे, जो कहें कि हमसे और इनसे ब्याह की ठहरी थी?

रसिया – अब बता ही दूँ। बंदा ही कहेगा कि हमसे महीनों से बातचीत है, आजाद बीच में कूद पड़े। वल्लाह, वह-वह जवाब दूँ कि आप भी खुश हो जायँ।

वकील – वाह तो फिर क्या पूछना। हम आपको दो-एक चुटकिले बता देंगे, कि आप फर्राटे भरने लगिएगा। मगर दो-एक गवाह तो ठहरा लीजिए।

चंडूबाज – एक गवाह तो मैं ही बैठा हूँ, फर्राटेबाज।

खैर तीनों आदमी कचहरी पहुँचे। जिस पेड़ के नीचे जा कर बैठे, वहाँ मेला सा लग गया। कचहरी भर के आदमी टूटे पड़ते हैं। धक्कमधक्का हो रहा है। चंडूबाज वारिसअलीखाँ बने बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं। जाओ भई, अपना काम करो, आखिर यहाँ क्या मेला है, क्या भेड़िया-धसान है।

एक – आप लाए ही ऐसी हैं।

दूसरा – अच्छा, हम खड़े हैं, आपका कुछ इजारा है? वाह अच्छे आए।

तीसरा – भाई, जरी हँस-बोल लें, आखिर मरना तो है ही।

जब एक बजा, तो बी अलारक्खी इठलाती हुई सवाल देने चलीं। चंडूबाज एक हाथ में हुक्का लिए हैं, दूसरे में छतरी। खिदमतगार बने चले जाते हैं। लोग इधर-उधर झुंड के झुंड खड़े हैं; पर कोई बताता नहीं कि अर्जी कहाँ दी जाती है। एक कहता है, दाहिने हाथ जाओ। दूसरा कहता है, नहीं-नहीं, बाएँ-बाएँ। बड़ी मुश्किल से इजलास तक पहुँची।

उधर आजाद पड़े-पड़े सोच रहे थे कि इस बेफिक्री का कहीं ठिकाना है? जो कहीं नवाब के आदमी छूटें तो चोर के चोर बनें और उल्लू के उल्लू बनाए जायँ। किसी को मुँह दिखाने लायक न रहें। आबरू पर पानी फिर गया। अभी देखिए, क्या-क्या होता है। कहाँ-कहाँ ठोकरें खाते हैं!

इतने में सराय में लेना-लेना का गुल मचा। यह भी भड़भड़ा कर कोठरी से बाहर निकले, तो देखते हैं कि साँड़नी ने रस्सी तोड़-ताड़ कर फेंक दी है और सराय भर में उचकती फिरती है। पहले एक मुसाफिर के टट्टू की तरफ झुकी ओर उसको मारे पुस्तों के बौखला दिया। मुसाफिर बेचारा एक लग्गा लिए खटाखट हाथ साफ कर रहा है। फिर जो वहाँ से उछली, तो दो-तीन बैलों का कचूमर ही निकाल डाला। गाड़ीवान हाँय-हाँय कर रहा है; लेकिन इस हाँय-हाँय से भला ऊँट समझा किए हैं। यहाँ से झपटी, तो तीन-चार इक्कों के अंजर-पंजर अलग कर दिए। आजाद तो बड़ा दिखा रहे हैं और आवाजें कर रहे हैं। लोग तालियाँ बजा देते हैं, तो वह और भी बौखला जाती है। बारे बड़ी मुश्किल से नकेल उनके हाथ में आई। उसे बाँध कर कहीं जाने की तैयारी कर रहे थे कि अलारक्खी और चंडूबाज अदालत के एक मजकूरी के साथ आ पहुँचे। आजाद ने मुँह फेर लिया और मीठे सुरों में गाने लगे –

ठानी थी दिल में, अब न मिलेंगे किसी से हम;

पर क्या करें कि हो गए लाचार जी से हम।

मजकूरी – हुजूर, सम्मन आया है।

आजाद – तुम मेरे पास होते हो गोया;

जब कोई दूसरा नहीं होता।

मजकूरी – सम्मन आया है, गाने को तो दिन भर पड़ा है, लीजिए, दस्तखत तो कर दीजिए।

आजाद – धो दिया अश्के-नदामत को गुनाहों ने मेरे;

तर हुआ दामन, तो बारे पाक-दामन हो गया।

मजकूरी – अजी साहब, मेरी भी सुनिएगा?

आजाद – क्या हमसे कहते हो?

मजकूरी – और नहीं तो किससे कहते हैं?

आजाद – कैसा सम्मन, लाओ, जरा पढ़ें तो। लो, सचमुच ही नालिश जड़ दी।

मजकूरी ने सम्मन पर दस्तखत कराए और अलारक्खी को घेरा। आज तो हाथ गरमाओ, एक चेहराशाही लाओ। अलारक्खी ने कहा – ऐ, तो अभी सूत न कपास, इनाम-विनाम कैसा? मुकदमा जीत जायँ, तो देते अच्छा लगे।

मजकूरी – तुम जीती दाखिल हो बीबी। अच्छा, कल आऊँगा।

मियाँ आजाद के पेट में चूहे कूदने लगे कि यह तो बेढब हुई। मैंने जरा दिल-बहलाव के लिए दिल्लगी क्या कर दी कि यह मुसीबत गले आ पड़ी। अब तो खैरियत इसी में है कि यहाँ से मुँह छिपाकर भाग खड़े हों। बी अलारक्खी चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगीं – अब तो चाँदी है। जीते, तो घी के चिराग जलाएँगे। एक ने कहा – यह न कहा, मुँह मीठा करेंगे; गुलगुले खिलाएँगे। दूसरे ने कहा – न खिलाएगी, तो निकाह के दिन ढोलक कौन बजाएगा? आजाद मौके की ताक में थे ही, अलारक्खी की आँख चूकते ही झट से काठी कसी और भागे। नाके तक तो उनको किसी ने न टोका, मगर जब नाके से कोई गोली भर के टप्पे पर बाहर निकल गए तो मियाँ चंडूबाज से आँखें चार हुईं। अरे! गजब हो गया, अब धर लिए गए।

चंडूबाज – ऐ बड़े भाई, किधर की तैयारियाँ हैं? यह भाग जाना हँसी-ठट्ठा नहीं है कि काठी कसी और चल खड़े हुए। आँखों में खाक झोंक कर चले आए होंगे। ले बस, उतर पड़ो, आओ, जरी हुक्का तो पी लो।

आजाद – इस दम में हम न आएँगे। ये फिकरे किसी गँवार को दीजिए। आप अपना हुक्का रहने दें। बस, अब हम खूब पी चुके। नाकों दम कर दिया बदमाशों ने! चले थे मुकदमा दायर करने! किस मजे से कहते हैं कि हुक्का पिए जाओ। ऐसे ही तो आप बड़े दोस्त हैं!

चंडूबाज – नेकी का जमाना ही नहीं। हमने तो कहा, इतने दिन मुलाकात रही है, आओ भाई, कुछ खातिर कर दें, अब खुदा जाने, कब मिलना हो।

आजाद – खुदा न करे, तुम जैसे मनहूसों की सूरत ख्वाब में भी नजर आए।

चंडूबाज ने गुल मचाना शुरू किया – दौड़ो, चोर है, लेना, चोर, चोर! मियाँ आजाद ने चंडूबाज पर सड़ाक से कोड़ा फटकारा और साँड़नी को एक एड़ लगाई। वह हवा हो गई। शहर से बाहर हुए, तो राह में दो मुसाफिरों को यों बातें करते सुना –

पहला – अरे मियाँ, आजकल लखनऊ में एक नया गुल खिला है! किसी न्यारिये ने करोड़ों रुपए के जाली स्टांप बनाए और लंदन तक में जा कर कूड़े किए। सुना, काबुल में दो जालिए पकड़े गए, मुश्कें कस ली गईं ओर रेल में बंद करके यहाँ भेज दिए गए। अल्लाह जानता है, ऐसा जाल किया कि जौ भर भी फर्क मालूम हो, तो मूँछें मुड़वा लो! सुना है, कोई, डेढ़ सौ दो सौ बरस से बेचते थे और कुछ चोरी-छिपे नहीं, खुल्लमखुल्ला।

दूसरा – वाह, दुनिया में भी कैसे-कैसे काइयाँ पड़े हैं। ऐसों के तो हाथ कटवा डाले।

पहला – वाह, वाह, क्या कदरदानी की है! उन्होंने तो वह काम किया कि हाथ चूम लें, जागीरें दें।

आजाद को पहले मुसाफिर की गपोड़ेबाजी पर हँसी आ गई। क्या झप से जालियों को काबुल तक पहुँचा दिया और हिंदुस्तान के स्टांप लंदन में बिकवाए। पूछा – क्यों साहब, कितने जाली स्टांप बेचे?

मुसाफिरों ने समझा, यह कोई पुलिस अफसर है, टोह लेने चले हैं, ऐसा न हो कि हमको भी गिरफ्तार कर लें। बगलें झाँकने लगे।

आजाद – आप अभी कहते न थे कि जालिए गिरफ्तार किए गए हैं?

मुसाफिर – कौन? हम? नहीं तो!

आजाद – जी, आप बतों नहीं कर रहे थे कि स्टांप किसी ने बनाए और डेढ़ दो सौ बरस से बेचते चले आए?

मुसाफिर – हुजूर, हमको तो कुछ मालूम नहीं।

आजाद – अभी बताओ सुअर, नहीं हम तुमको बड़ा घर दिखाएगा और बेड़ी पहनाएगा।

मियाँ आजाद तो उनकी चितवनों से ताड़ गए कि दोनों के दोनों चोंगा हैं, मारे डर के स्टांप का लफ्ज जबान पर नहीं लाते। जैसे ही उन्होंने डाँट बताई, एक तो बगटुट पच्छिम की तरफ भागा और दूसरा खड़भड़ करता हुआ पूरब की तरफ। मियाँ आजाद आगे बढ़े। राह में देखा, कई मुसाफिर एक पेड़ के साये में बैठे बातें कर रहे हैं –

एक – कोई ऐसी तदबीर बताइए कि लू न लगे। आजकल के दिन बड़े बुरे है।

दूसरा – इसकी तरकीब यह है कि प्याज की गट्ठी पास रखे। या दो-चार कच्चे आम तोड़ लो, आमों को पहले भून लो, जब पिलपिले हों, तो गूदा निकाल कर छिलका फेक दो और जरा सी शकर, पानी में घोल कर पी जाओ।

पहला – कहीं ऐसा गजब भी न करना! पानी में तो बरफ डालनी ही न चाहिए। पानी का गिलास बरफ में रख दो, जब खूब ठंडा हो जाय, तब पियो। बरफ का पानी नुकसान करता है।

दूसरा – वाह, लाखों आदमी पीते हैं।

पहला – अजी, लाखों आदमी झख मारते हैं। लाखों चोरियाँ भी तो करते हैं, फिर इससे मतलब? हमने लाखों आदमियों को देखा है कि गढ़ों और तालाबों का पानी सफर में पीते हैं। आप पीजिएगा? हजारो आदमी धूप में चल कर खड़े-खड़े तीन-चार लोटे पानी पी जाते हैं। मगर यह कोई अच्छी बात थोड़े ही है।

और आगे बढ़े, तो एक भड्डरी आ निकला। वह आजाद को पहचानता था। देखते ही बोला – तुम्हारी नवाब साहब के यहाँ बड़ी तलाश है जी। तुम गायब कहाँ हो गए थे ऊँट ले कर? अब मैं जा कर कहूँगा कि मैंने प्रश्न देखा, तो निकला, आजाद पाँच कोस के अंदर ही अंदर हैं। जब तुम लुपदेनी पहुँच जाओगे, तो फिर हमारी चढ़ती कला होगी। तुमको भी आधे-आध बाँट देंगे। मगर भंडा न फोड़ना। चढ़ बाजी है।

आजाद – वल्लाह, क्या सूझी है। मंजूर है।

भड्डरी ने पोथी सँभाल अपनी राह ली और नवाब के यहाँ धर धमके।

खोजी – अजी, जाओ भी, तुम्हारी एक बात भी ठीक न निकली।

नवाब – बरसों हमारा नमक तुमने खाया है, एक-दो दिन नहीं बरसों। अब इस वक्त कुछ परशन-वरशन भी देखोगे, या बातें ही बनाओगे? हमको तो मुसलमान भाई तुम्हारी वजह से काफिर कहने लगे और तुम कोई अच्छा सा हुक्म नहीं लगाते।

भड्डरी – वह हुक्म लगाऊँ कि पट ही न पड़े!

खोजी – अजी, डींगिये हो खासे। कहीं किसी रोज मैं करौली न भोंक दूँ। सिवा बे-पर की उड़ाने के, बात सीखी ही नहीं। भले आदमी, साल भर में एक दफे तो सच बोला करो।

झम्मन – वाह, सच बोलते, तो कसाई के कुत्ते की तरह फूल न जाते।

नवाब – यह क्या वाहियात बात?

भड्डरी – हुजूर,हमसे-इनसे हँसी होती है। यह हमें कहते हैं, हम इन्हें। अब आप कोई फूल मन में लें।

नवाब – ये ढकोसले हमको अच्छे नहीं मालूम होते। हमें साफ-साफ बता दो कि मियाँ आजाद कब तक आएँगे?

भड्डरी ने उँगलियों पर कुछ गिन-गिना कर कहा – पानी के पास हैं।

झम्मन – वाह उस्ताद! पानी के पास एक ही कही। लड़की न लड़का, दोनों तरह अपनी ही जीत।

भड्डरी – यहाँ से कोई तीन कोस के अंदर हैं।

दुन्नी – हुजूर, यह बड़ा फैलिया है। आप पूछते हैं; आजाद कब आएँगे। यह कहता है, तीन कोस के अंदर ही अंदर हैं। सिवा झूठ, सिवा झूठ।

भड्डरी – अच्छा, जा कर देख लो। जो नाके के पास आजाद आते न मिलें, तो नाक कटा डालूँ, पोथी जला दूँ। कोई दिल्लगी है?

नवाब – चाबुक-सवार को बुला कर हुक्म दो कि अभी सरपट जाय और देखे, मियाँ आजाद आते हैं या नहीं। आते हों, तो इस भड्डरी का आज घर भर दूँ। बस, आज से इसका कलमा पढ़ने लगूँ।

चाबुक-सवार ने बाँका मुड़ासा बाँधा और सुरंग घोड़ी पर चढ़ चला। मगर पचास ही कदम गया होगा कि घोड़ी भड़की और तेजी में दूसरे नाके की राह ली। चाबुक सवार बहुत अकड़े बैठे हुए थे; मगर रोक न सके, धम से मुँह के बल नीचे आ रहे। खोजी ने नवाब साहब से कहा – हुजूर, घोड़ी ने नाजिरअली को दे पटका, और क्या जाने किस तरफ निकल गई।

नवाब – चलो, खैर समझा जायगा। तुम टाँघन कसवाओ और दौड़ जाओ।

खोजी – हुजूर, मैं तो बूढ़ा हो गया और रही-सही सकत अफीम ने ले ली। टाँघन है बला का शरीर। कहीं फेक-फाक दे, हाथ-पाँव टूटें, तो दीन-दुनिया, दोनों से जाऊँ। आजाद खुद भी गए और हम सबको भी बला में डाल गए।

इधर चाबुक-सवार ने पटकनी खाई उधर लौंडों ने तालियाँ बजाईं। मगर शह-सवार ने गर्द झाड़ी, एक दूसरा कुम्मैत घोड़ा कसा और कड़कड़ा दिया। हवा से बातें करते जा रहे हैं। बगिया में पहुँचे, तो देखा, साँड़िनी की काकरेजी झूल झलक रही है और ऊँटनी गरदन झुकाए चौतरफा मटक रही है। जा कर आजाद के गले से लिपट गए।

आजाद – कहिए, नवाब के यहाँ तो खैरियत है?

सवार – जी हाँ, खैर-सल्लाह के ढेर हैं। मगर आपकी राह देखते-देखते आँखें पथरा गईं। ओ मियाँ, कुछ और भी सुना? उस बटेर की कब्र बनाई गई है। सामने जो बेल-बूटों से सजा हुआ मकबरा दिखाई देता है, वह उसी का है।

आजाद – यह कहिए, यार लोगों ने कब्र भी बनवा दी! वल्लाह, क्या-क्या फिकरेबाज हैं।

सवार – बस, तुम्हारी ही कसर थी। कहो, हमने सुना, खूब गुलछर्रे उड़ाए। चलो, पर अब नवाब ने याद किया है।

आजाद – ऐं, उन्हें हमारे आने की कहाँ से खबर हो गई?

सवार – अजी, अब यह सारी दास्तान राह में सुना देंगे।

आजाद – अच्छा, तो पहले आप हमारा खत नवाब के पास ले जायँ। फिर हम शान के साथ चलेंगे।

यह कह कर आजाद ने खत लिखा –

‘आज कलम की बाँछे खिली जाती हैं; क्योंकि मियाँ सफशिकन की सवारी आती है। हुजूर के नाम की कसम, इधर पाताल तक और उधर सातवें आसमान तक हो आया, तब जा के खोज पाया। शाह जी साहब रोज ढाढ़ें मार-मार कर रोते हैं। कल मैंने बड़ी खुशामद की और आपकी याद दिलाई। तो ठंडी आह खींच कर रह गए। बड़ी-बड़ी दलीलें छाँटते थे। पहले फरमाया – दरों बज्म रह नेस्त बेगाना रा, मैंने छूटते ही जवाब दिया – कि परवानगी दाद परवाना रा।

खिलखिला कर हँस पड़े, पीठ ठोंकी और फरमाया – शाबास बेटे, नवाब साहब की सोहबत में तुम बहुत बर्क हो गए। पूरे दो हफ्ते तक मुझसे रोज बहस रही। आखिर मैंने कहा – आप चलिए, नहीं मैं जहर खा कर मर जाऊँगा। मुझे समझाया कि जिंदगी बड़ी न्यामत है। खैर, तुम्हारी खातिर से चलता हूँ। लेकिन एक शर्त यह है कि जब मैं वहाँ पहुँचूँ, तो नवाब के सामने खोजी पर बीस जूते पड़ें। मैंने कौल दिया, तब कहीं आए।’

सवार यह खत लेकर हवा की तरह उड़ता हुआ नवाब साहब के यहाँ पहुँचा।

नवाब – कहो, बेटा कि बेटी? जल्दी बोलो। यहाँ पेट में चूहे कूद रहे हैं!

सवार – हुजूर, गुलाम ने राह में दम लिया हो, तो जरबाना दूँ।

खोजी – कितने बेतुके हो मियाँ! ‘कहें खेत की, सुन खलिहान की।’ भला अपनी कारगुजारी जताने का यह कौन मौका है? मारे मशीखत के दुबले हुए जाते हैं!

सवार ने आजाद का खत दिया। मुंशी जी पढ़ने के लिए बुलाए गए। खोजी घबराए कि आजाद ने यह कब की कसर ली। बोले – हुजूर, यह मियाँ आजाद की शरारत है। शाह साहब ने यह शर्त कभी न की होगी। बंदे से तो कभी गुस्ताखी नहीं हुई।

नवाब – खैर, आने तो दो। क्यों भाई मीर साहब, रम्माल ने तो बयान किया था कि सफशिकन के दुश्मन जन्नत में दाखिल हुए। यह मियाँ आजाद को कहाँ से मिल गए।

मीर साहब – हुजूर, खुदा का भेद कौन जान सकता है?

भड्डरी – मेरा प्रश्न कैसा ठीक निकला जो हैं सो, मानों निशाने पर तीर खट से बैठ गया।

इतने में अंदर छोटी बेगम को खबर हुई। बोलीं – इनका जैसा पोंगा आदमी खुदाई भर में न होगा। जरी-सा तो बटेर और पाजियों ने उसका मकबरा बनवा दिया। रोज कहाँ तक बकूँ।

लौंडी – बीबी, बुरा मानो या भला, तुम्हें वे राहें ही नहीं मालूम कि मियाँ काबू में आ जायँ।

बेगम – मेरी जूती की नोक को क्या गरज पड़ी है कि उनके बीच में बोले। मैं तो आप ही डरा करती हूँ कि कोई मुझी पर तूफान न बाँध दे।

उधर नवाब ने हुक्म दिया कि सफशिकन की सवारी धूम से निकले। इतना इशारा पाना था कि खोजी और मीरसाहब लगे जुलूस का इंतजाम करने। छोटी बेगम कोठे पर खड़ी-खड़ी ये तैयारियाँ देख रही थीं और दिल में हँस रही थीं। उस वक्त कोई खोजी को देखता, दिमाग नहीं मिलते थे। इसको डाँट, उसको डपट, किसी पर धौल जमाई, किसी के चाँटा लगाया; इसको पकड़ लाओ, उसको मारो। कभी मसालची को गालियाँ दीं, कभी पंशाखेवाले पर बिगड़ पड़े। आगे-आगे निशान का हाथी था। हरी-हरी झूल पड़ी हुई। मस्तक पर सूंदूर से गुल-बूटे बने हुए। इसके बाद हिंदोस्तानी बाजा कक्कड़-झय्यम! इसके पीछे फूलों के तख्त-चमेली खिला ही चाहती है, कलियाँ चिटकने ही को हैं। चंडूबाजों के तख्त ने तो कमाल कर दिया। दो-चार पिनक में हैं, दस-पाँच ऊँघे पड़े हुए। कोई चंडूबाजाना ठाट से पौंड़ा छील रहा है। एक गँड़ेरी चूस रहा है। शिकार का वह समा बाँधा कि वाह जी वाह। एक शिकारी बंदूक छतियाए, घुटना टेके, आँख दबाए निशाना लगा रहा है। बस, दाँय की आवाज आना ही चाहती है। हिरन चौकड़ियाँ भरते जाते है। इसके बाद अंगरेजी बाजा। इसके बाद घोड़ों की कतार-कुम्मैत, कुछ सुरंग, नुकरा, सब्जा, अरबी, तुर्की, वैलर छम-छम करते जा रहे हैं। घोड़े दुलहिन बने हुए थे। इसके बाद फिर अरगन बाजा; फिर तामदान, पालकी, नालकी, सुखपाल। इसके बाद परियों के तख्त एक से एक बढ़ कर। सबके पीछे रोशन चौकीवाले थे। रोशनी का इंतजाम भी चौकस था। पंशाखे और लालटेनें झक-झक कर रही थीं। इस ठाट से जुलूस निकला। सारा शहर यह बरात देखने को फटा पड़ता था। लोग चक्कर में थे कि अच्छी बरात है, दूल्हे का पता ही नहीं। बारात क्या, गोरख-धंधा है।

जब जुलूस बगिया में पहुँचा, तो आजाद हाथी पर सवार होकर सफशिकन को काबुक में बिठाये हुए चले।

खोजी – मसल मशहूर है – ‘सौ बरस के बाद घूरे के भी दिन बहुरते हैं।’ हमारे दिन आज बहुरे कि आप आए और शाह जी को लाए। नवाब के यहाँ सन्नाटा पड़ा हुआ था। सफशिकन के गम में सब पर मुर्दनी छाई हुई थी। बस, लोग यही कहते थे कि आजाद साँड़नी ले कर लंबे हुए। एक मैं ही तुम्हारी हिमायत किया करता था।

मीर साहब – जी हाँ, हम भी आप ही की तरफ से लड़ते थे, हम और यह, दोनों।

आजाद – भई, कुछ न पूछो। खुदा जाने, किन-किन जंगलों की खाक छानी, तब कहीं यह मिले।

खोजी – यहाँ लोग गप उड़ा रहे थे। किसी ने कहा – भाँड़ों के यहाँ नौकरी कर ली। कोई तूफान बाँधता था कि किसी भठियारी के घर पड़ गए। मगर मैं यही कहे जाता था कि वह शरीफ आदमी हैं। इतनी बेहयाई कभी न करेंगे।

खोजी और मीर साहब, दोनों आजाद को मिलाना चाहते थे, मगर वह एक ही उस्ताद। समझ गए कि अब नवाब के यहाँ हमारी भी तूती बोलेगी, तभी ये सब हमारी खुशामद कर रहे हैं। बोले – अजी, रात जाती है या आती है? अब देर क्यों कर रहे हो? पंखाखे चढ़ाओ। घोड़े चलाओ। जब जुलूस तैयार हुआ, तो आजाद एक हाथी पर जा डटे। बटेर की काबुक को आगे रख लिया। खोजी और मीर साहब को पीछे बिठाया और जुलूस चला। चौक में तो पहले ही से हुल्लड़ था कि नवाब वाला बटेर बड़ी शान से आ रहा है। लाखों आदमी चौक में तमाशा देखने को डटे हुए थे, छतें फटी पड़ती थीं। बाजे की आवाज जो कानों में पड़ी, तो तमाशाई लोग उमड़ पड़े। निशान का हाथी झंडे का फुरेरा उड़ाता सामने आया। लेकिन ज्यों ही चौक में पहुँचा, वैसे ही दीवानी के दो मजकूरियों ने डाँट कर कहा – हाथी रोक ले। आजाद के नाम वारंट आया है।

लोगों के होश उड़ गए। फीलवान ने जो देखा कि सरकारी आदमी लाल-लाल पगिया बाँधे, काली-काली वरदी डाटे, खाकी पतलून पहने, चपरस लटकाए हाथी रोके खड़े हैं, तो सिटपिटा गया और हाथी को जिधर उन्होंने कहा उधर ही फेर दिया। जुलूस में हुल्लड़ मच गया। कोई तख्त लिए भागा जाता है, कोई झंडे लिए दबका फिरता है। घोड़े थान पर पहुँचे। तामदान और पालकियों को छोड़कर कहार अड्डे पर हो रहे। बाजेवाले गलियों में घुस गए।

आजाद और खोजी मजकूरियों के साथ चले, तो शहर के बाहर जा पहुँचे। एका एक हाथी जो गरजा, तो खोजी और मीर साहब पिनक से चौंक पड़े।

खोजी – ऐं, पंशाखे चढ़ाओ, पंशाखे! अबे, यह क्या अँधेर मचा रखा है! जरा यों ही आँख झपक गई, तो सारी करी-कराई मिहनत खाक में मिला दी। अब मैं उतर कर कोड़े फटकारूँगा।, तब मानेंगे। लातों के आदमी कहीं बातों से मानते हैं!

मीर साहब – हैं, हैं! ओ फीलवान! यह हाथी क्या आतशबाजी से भड़कता है? बढ़ा ले चलो। मील-मील, धत-धत। अरे भई खोजी, यह किस मैदान में आ निकले? आखिर यह माजरा क्या है भाई?

खोजी – पंशाखे चढ़ाओ, पंशाखे। और इन बाजेवालों को क्या साँप सूँघ गया है? जरा जोर-जोर छेड़े जाओ। अब तो विहाग का वक्त है, बिहाग का।

मीर साहब – अजी, आँखें तो खोलिए, रोशनी का चिराग गुल हो गया।

मुसीबत में आ फँसे। आप वही बेवक्त की शहनाई बजा रहे हैं। इस जंगल में आपको बिहाग की धुन समाई है।

खोजी – पंशाखे चढ़ाओ पंशाखे। नहीं, मैं कच्चा पैसा तो दूँगा नहीं। झप से चढ़ाना तो पंशाखे। शाबाश है बेटा!

मीर साहब तो जले-भुने बैठे ही थे; खोजी ने जब कई बार पंशाखों की रट लगाई तो वह झल्ला उठे। खोजी को हाथी पर से नीचे ढकेल ही तो दिया। अरा-रा-रा-धंम। कौन गिरा? जरी टोह तो लेना, कौन गिरा?

आजाद – तुम गिरे, तुम। आप ही तो लुढ़के हैं, टोह क्या लें?

खोजी – अरे, मैं! यह तो कहिए, हड्डी-पसली बच गई? यारो, जरी देखना तो, हमारा सिर बचा या नहीं?

मजकूरी – बचा है, बचा। नहीं फूटा। पहिरि लिहिन सुथना, और चले फारसी छाँटे। ई बोझ उठाव।

खोजी – हाँय-हाँय, कोई मजदूर समझा है! शरीफ और पाजी को नहीं पहचानता? ले, अब उतारता है बोझ, या नाले में फेंक दूँ? ओ गीदी! लाना तो मेरी करौली। क्या मैं गधा हूँ?

मीर साहब – गधे नहीं, तो और हो कौन?

मजकूरी – तैं को हँस रे? अरे तैं को हँस? उतर हाथी पर से। उतरत है कि हम आवन फिर, तैं अस न मनि है।

मीर साहब – कहता किससे है? कुछ बेधा तो नहीं है? कुछ नाविर हैं, हम, लो आए।

मजकूरी – अच्छा, तो यह बोझ उठा। थरिया-लोटिया रख मूड़े पर और अगुवा।

मीर साहब ने नीचे उतर कर देखा, तो सरकारी प्यादा वरदी डाटे खड़ा है। लगे थर-थर काँपने। चुपके से बोझ उठाया और मचल-मचल कर चलने लगे। दोनों मजकूरी हाथी पर जा बैठे। खोजी और मीर साहब, दोनों लदे-फँदे गिरते पड़ते जाने लगे।

खोजी – वाह री किस्मत। क्यों जी मीर साहब, हम तो खुदा की याद में थे, तुमको क्या हुआ था?

मीर साहब – जहाँ आप थे, वहीं मैं भी था। यह सारी शरारत आजाद की है।

आजाद – जरी चोंच सम्हाले हुए, नहीं मैं उतरता हूँ।

चलते-चलते तड़क हो गया। खोजी बोले – लो भाई, हमारा तो भोर ही हो गया। अब जो बोझ उठाकर ले चले, उसकी सत्तर पुश्त पर लानत। यह कह कर बोझ फेंक दिया। जब जरा दिन चढ़ा, तो गोमती के किनारे पहुँचे। एक मजकूरी ने कहा – ओ फीलवान, हाथी रोक दे, नहाय लेई।

फीलवान – अरे तो नहा लेना, कैसे गवँरदल हो?

आजाद – कहो खोजी, नहाओगे?

खोजी – यों ही न गला घोंट डालो?

नदी के पार पहुँचे तो चंडूबाज की सूरत नजर पड़ी।

चंडूबाज – बड़े भाई, सलाम। कहो, खैर सल्लाह? आँखें तुमको ढूँढ़ती थीं, देखने को तरस गए। अब कहो, क्या इरादे हैं? अलारक्खी ने यह खत दिया है, पढ़कर चुपके से जवाब लिख दो।

आजाद ने खत खोला और पढ़ा –

‘क्यों जी, इसी मुँह से कहते थे कि तुमसे ब्याह करूँगा? तुम तो चकमा देकर सिधारे और यहाँ दिल कराहा करता है। नहा धोकर कुरान शरीफ पर हाथ धरो कि ब्याह का वादा नहीं किया था? क्यों नाहक इंसाफ का गला कुंद छुरी से रेतते हो? इस खत का जवाब लिखना, नहीं मैं अपनी जान दे दूँगी।’

आजाद ने जवाब लिखा –

‘सुनो बीबी, हम कोई उठाई गीरे नहीं हैं। हम ठहरे शरीफ, तुम हो भठियारी। भला, फिर हमसे क्योंकर बने। अब उस खयाल को दिल से निकाल दो। तुम्हारे कारण मजकूरियों की कैद में हूँ। तुम्हें मुँह न लगाता, तो इतना जलील क्यों होता?’

चंडूबाज तो खत ले कर रवाना हुए, उधर का किस्सा सुनिए। नवाब झूम-झूम कर बगीचे में टहल रहे थे, आँखें फाड़-फाड़ कर देखते थे कि जुलूस अब आया, और अब आया। एकाएक चोबदार ने आ कर कहा – खुदाबंद, लुट गए! लुट गए! वह देखो साहब तुम्हारे, लुट गए।

नवाब – अरे कुछ मुँह से कहेगा भी, क्या गजब हो गया?

चोबदार – खुदाबंद, बरात को उठाईगीरों ने लूट लिया!

नवाब – बरात? बरात किसकी? कहीं शाह जी की सवारी से तो मजलब नहीं है? उफ्, हाथों के तोते उड़ गए।

चोबदार – वह देखो साहब तुम्हारे, बारात चली आ रही थी। तमाशाई इतने जमा थे कि छतें फटी पड़ती थीं। देखो साहब तुम्हारे, जैसे बादशाह की सवारी हो। मुदा जैसे ही चौक में पहुँचे कि देखो साहब तुम्हारे, दो चपरासियों ने हाथी को फेर दिया। बस साहब तुम्हारे, सारी बरात तितर-बितर हो गई। कहाँ तो बाजे बज रहे थे, कहाँ साहब तुम्हारे, सन्नाटा छा गया।

नवाब – भला शाह जी कहाँ है?

चोबदार – हुजूर, शाह जी को लिए फिरते हैं। यहाँ देखो साहब तुम्हारे –

नवाब – कोई है, इधर आना, इसके कल्ले पर खड़े हो, जितनी बार इसके मुँह से ‘वह देखो साहब तुम्हारे’ निकले, उतने जूते इस पर पड़ें। गधा एक बात कहता है, तो तीन सौ साठ दफे ‘ओ देखो साहब तुम्हारे।’

चाबुक – सवार-हुजूर, इस वक्त गुस्से का मौका नहीं, कोई ऐसी फिक्र कीजिए कि शाह जी तो छूट आएँ।

नवाब – ऐं, क्या वह भी गिरफ्तार हो गए?

सवार – जी, आजाद, खोजी, हाथी, सबके सब पकड़ लिए गए?

नवाब – तो यह कहिए, बेड़े का बेड़ा गया है। हमें यह क्या मालूम था भला, नहीं तो एक गारद साथ कर देते। आखिर, कुछ मालूम भी हुआ कि यह धर-पकड़ कैसी थी? सच तो यों है कि इस बख्त मेरे हाथ-पाँव फूल गए। रुपए हमसे लो, और दौड़-धूप तुम लोग करो।

मुसाहबों की बन आई। अब क्या पूछना है! आपस में हँड़िया पकने लगी। वल्लाह, ऐसा मौका फिर तो हाथ आएगा नहीं। जो कुछ लेना हो, ले लो, और उम्र भर चैन करो। इस वक्त यह बौखलाया हुआ है। जो कुछ कहोगे, बेधड़क दे निकलेगा। लेकिन, एक काम करो, दस-पाँच आदमी मिल-जुल कर बातें बनाओ। एक आदमी के किए कुछ न होगा। कहीं भड़क गया, तो गजब ही हो जाएगा। खुदा करे रोज इसी तरह वारंट जारी रहे। मगर इतना याद रखिएगा कि कहीं अंदर खबर हुई, तो बेगम साहब छछूँदर की तरह नाचेंगी। फिर करते-धरते कुछ न बन पड़ेगा।

मुबारककदम दरवाजे के पास खड़ी सब सुन रही थी। लपक कर गई और छोटी बेगम को बुला लाई। जरी जल्दी-जल्दी कदम उठाइए, ये सब जाने क्या वाही-तबाही बक रहे हैं। मुँह झुलस दे पकड़ के। बेगम साहबा दबे पाँव गईं, तो सुन कर मारे गुस्से के लाल हो गईं और नवाब को अंदर बुलाया।

मुबारककदम – ये हुजूर के मुसाहब, अल्लाह जानता है, एक ही अड़ीमार हैं, जिनके काटे का मंतर ही नहीं। जो है, वह झूठों का सरदार। मगर हुजूर उनको क्या जाने क्या समझते हैं। पछुआ हवा चलती, तो ठंडा पानी पीते, अब दिन भर शोरे का झला पानी मिलता है पीने को, और खुदा ने न्यामत खाने को दी। फिर उन्हें दूर की न सूझे, तो किसे सूझे।

बेगम – ऐसे ही झूठे खुशामदियों ने तो लखनऊ का सत्यानाश कर दिया।

नवाब – यह आज क्या है, क्या?

बेगम – है क्या? तुम्हारे मुसाहब मुँह पर तो तुम्हारी झूठी तारीफें करते हैं और पीठ पीछे तुम्हें गालियाँ सुनाते हैं। इन सबको दुत्कार क्यों नहीं देते?

इधर तो ये बातें हो रही थीं, उधर मजकूरियों ने आजाद को एक बाग में उतारा।

खोजी – मियाँ फीलबान, जरी जीना लगा देना।

फीलवान -अब आपके लिए जीना, बनवाऊँ, ऐसे तो खूबसूरत भी नहीं हैं आप?

मीर साहब – जीना क्या ढूँढ़ते हो, हाथी पर से कूदना कौन सी बड़ी बात है।

यह कह कर मीर साहब बहुत ही अकड़ कर दुम की तरफ से कूदे, तो सिर नीचे और पाँव ऊपर। रोक रोक, हत् तेरे फीलवान की! सच है, गाड़ीवान, शुतुरवान, कोचवान जितने वान है, सब शरीर। लाख बचे, मगर औंधे हो गए। हमारा कल्ला ही जानता है। खट से बोला। वह तो कहिए, मैं ही ऐसा बेहया हूँ कि बातें करता हूँ, दूसरा तो पानी न माँगता।

खोजी खिलखिला कर हँस पड़े। अब कहिए, हमने जो जीना माँगा, तो हमें बनाने लगे।

मीर साहब – मियाँ, उतरे हो कि दूँ धक्का।

खोजी बेचारे जान पर खेल कर जैसे ही उतरने को थे कि हाथी उठ खड़ा हुआ। या अली, या अली, बचाइयो, खुदा, मैं बड़ा गुनहगार हूँ।

इतना कह चुके थे कि अररर-धम, जमीन पर आ कर ढेर हो गए।

मीर साहब ने कहा – शाबाश मेरे पट्ठे, ले झपाके से उठ तो जा।

खोजी – यहाँ हड्डी-पसली का पता नहीं, आप फरमाते हैं, उठ तो जा! कितने बेदर्द हो!

दो आदमी वहीं बैठे कुछ इधर-उधर की बातें कर रहे थे। खोजी और मीर साहब तो लकड़ियाँ खोजने लगे कि और नहीं तो सुलफा ही उड़े और आजाद इन दोनों अजनबियों की बातें सुनने लगे –

एक – भई, आखिर मुँह फुलाए क्यों बैठे हो? क्या मुहर्रम के दिनों में पैदा हुए थे?

दूसरा – हाँ यार, क्यों न कहोगे। यहाँ जान पर बनी है, आप मुहर्रम लिए फिरते हैं। हमने बी अलारक्खी मे कई रुपए महीने भर के वादे पर लिए थे। उसको दो साल होने आए। अब वह कहती है, यह हमारे रुपए दो, या हमारे मुकदमें में गवाह हो जाओ। नहीं तो हम दाग देंगे और बड़ा घर दिखाएँगे। वहाँ चक्की पीसनी होगी। सोचते हैं, गवाही दें, तो किस बिरते पर। मियाँ आजाद की तो सूरत ही नहीं देखी। और न दें, तो वह नालिश जड़े देती हैं। बस, यही ठान ली है कि आज शाम को झप से चल खड़े हों। रेल को खुदा सलामत रखे कि भागूँ तो पता भी न मिले।

दूसरा – अरे मियाँ, वह तरकीब बताऊँ, जिसमें ‘साँप मरे न लाठी टूटे।’ तुम मियाँ आजाद से मिल जाओ; उधर अलारक्खी से भी मिले रहो। गवाही में गोल-मोल बातें कही और मूँछों पर ताव देते हुए अदालत से आओ। बचा, तुम हो किस भरोसे पर। चार-चार गंडे में तुमको गवाह मिलते हैं, जो तड़ से झूठा कुरान या झूठी गंगा उठा लें, हमको कोई दो ही रुपए दे, कुरान उठवा ले। जो चाहे कहवा ले। फिर वाही हो, खासे दस मिलते हैं, दस! तुम्हें झूठ-सच से मतलब? सच वही है, जिसमें कुछ हाथ लगे। भई, यह तो कलयुग है। इसमें सच बोलना हराम है। और जो कुत्ते ने काटा हो, तो सच ही बोलिए।

पहला – हजरत सुनिए, सच फिर सच है, और फिर झूठ। इतना याद रखिएगा।

दूसरा – अबे जा, लाया वहाँ से झूठ फिर झूठ है। अरे नादान, इस जमाने में झूठ ही सच है। एक जरा सा झूठ बोलने में दस चेहरेशाही आए गए होते हैं। जरा जबान हिला दी, और दस रुपए हजम। दस रुपए कुछ थोड़े नहीं होते। हमें किसी से तुम दो गंडे ही दिलवा दो। देखो, हलफ उठा लेते हैं या नहीं।

आजाद – क्यों भई, और जो अपनी बात से फिर जाय, तो फिर कैसी हो? औरत की बात का एतबार क्या? बेहतर है कि अलारक्खी से स्टांप के कागज पर लिखवा लो।

पहला – वल्लाह, क्या सूझी है।

दूसरा – कैसा स्टांप जी? हम क्या जानें क्या चीज है, बातें कर रहे हैं, आप आए वहाँ से स्टांप पर लिखवा लो! क्या हम कोई चोर हैं!

दोनों मजकूरियों ने उपले जलाए और खाना पकाने लगे। आजाद ने देखा, भागने का अच्छा मौका है। दोनो की आँख बचा कर चल दिए, चट से स्टेशन पर जा कर टिकट ले लिया और एक दर्ज़े में जा बैठे। दो-तीन स्टेशनों के बाद रेल एक बड़े स्टेशन पर ठहरी। मियाँ आजाद ने असबाब को बग्घी पर लादा और चल खड़े हुए। खट से सराय में दाखिल। एक कोठरी में जा डटे और बिछौना बिछा, खूब, लहरा-लहरा कर गाने लगे –

वहशत अयाँ है खाक से मुझ खाकसार की,

भड़के हिरन भी सूँघ के मिट्टी मजार की।

एकाएक एक शाह साहब फालसई तहमत बाँधे, शरबती का केसरिया कुरता पहने, माँग निकाले, आँखों में सुरमा लगाए, एक जवान, चंचल हसीन औरत के साथ आ कर आजाद की चारपाई पर डट गए और बोले – बाबा, हमारा नाम कुदमी शाह है। हसीनों पर जान देना हमारा खास काम है। इस वक्त आपने जो यह शेर पढ़ा, तो तबीयत फड़क गई। मगर बिना शराब के गाने का लुत्फ कहाँ? शौक हो, तो निकालूँ प्याला और बोतल, खूब रंग जमे और सरूर गठे।

आजाद – मैं तो तौबा कर चुका हूँ।

शाह जी – बच्चा, तौबा कैसी? याद रख, तौबा तोड़ने के लिए और कसम खाने के लिए है।

वह कह कर शाह जी ने झोली से सौंफ की बिलायती मीठी शराब निकाली और बोले –

सब्ज बोतल में लाल-लाल शराब;

खैर ईमान का खुदा हाफिज।

शाह जी मैकदे में बैठे हैं;

इस मुसलमान का खुदा हाफिज।

यह कह कर उस जवान औरत की तरफ देख कर शराब को प्याले में ढालने का इशारा किया। नाजनीन एक अदा से आकर आजाद की चारपाई पर डट गई और शराब का प्याला भरने लगी। भठियारी ने जो यह हाल देखा, तो बिजली की तरह चमकती हुई आई और कड़क कर बोली ‘ऐ वाह मियाँ, अठारह-अठारह साँड़ों को लेकर खटिया पर बैठते हो, और जो पाटी खट से टूट जाय, तो किसके माथे? ऐसे मुसाफिर भी नहीं देखे। एक तो खुद ही दुबले पतले हैं, दूसरे दस-दस को ले कर बैठते हैं। ले चारपाई खाली कीजिए, हम ऐसे किराए से बाज आए! आजाद की तो भठियारियों के नाम से रूह काँपती थी, चुपके से चारपाई खाली कर दी और जमीन पर दरी बिछवा कर आ बैठे। नाजनीन ने प्याला आजाद की तरफ बढ़ाया। पहले तो बहुत नहीं-नहीं करते रहे, लेकिन जब उसने कसमें खिला दीं, तो मजबूर हो कर प्याला लिया और चढ़ा गए। दौर चलने लगा। वह भर-भरके जाम पिलाती जाती थी और आजाद के जिस्म में नई जान आती जाती थी। अब तो वह मजे में आ कर खुल खेले, खूब पी। ‘मुफ्त की शराब काजी को भी हलाल है।’ यहाँ तक कि आँखें झपकने लगीं, जबान लड़खड़ाने लगी। बहकी-बहकी बातें करने लगे और आखिर नशे में चूर हो कर धड़ से गिरे। शाह जी तो इस घात में आए ही थे, झपाक से कपड़े बाँधे, जमा-जथा ली और चलता धंधा किया। औरत भी उनके साथ-साथ लंबी हुई। मियाँ आजाद रात भर बेहोस पड़े रहे। तड़के आँख खुली, तो हाल पतला। न शाह साहब हैं, न वह औरत, न दरी। जमीन पर पड़े लोट रहे हैं। प्यास के मारे गले में काँटे पड़े जाते हैं। उठे, तो लड़खड़ा कर गिर पड़े, फिर उठे, फिर मुँह के बल गिरे। बारे बड़ी मुश्किल से खड़े हुए, पानी ला कर मुँह-हाथ धोये और खूब पेट भर कर पानी पिया, तो दिल को तसकीन हुई। एकाएक चारपाई पर निगाह पड़ी। देखा सिरहाने एक खत रखा हुआ है। खोल कर पढ़ा-

‘क्यों बच्चा! और पियो! अब पियोगे, तो जियोगे भी नहीं। कितने बड़े पियक्कड़ हो, बोतल की बोतल मुँह से लगा ली। अब अपनी किस्मत को रोओ। धत तेरे की! क्या मजे से माशूक के पास बैठे हुए गट-गट उड़ा रहे थे। गठरी घूम गई न! भई, हमारी खातिर से एक जाम तो लो। कहो, तो उसी के हाथ भेजूँ। ले, अब हम जताए देते हैं, खबरदार, मुसाफिर, का एतबार न करना, और सफर में तो किसी पर भरोसा रखना ही नहीं। देखो, आखिर हम ले-दे कर चल दिए। उम्र भर सफर किया मगर आदमी न बने।’

यह खत पढ़ कर मियाँ आजाद पर सैकड़ों घड़े पड़ गए। बहुत कुछ गुल-गपाड़ा मचाया, सराय भर को सिर पर उठाया, भठियारे को दो-चार चपतें लगाईं, मगर माल न मिला, न मिला। लोगों ने सलाह दी कि जाओ, थाने पर रपट लिखाओ। गिरते-पड़ते थाने में पहुँचे, तो क्या देखते हैं, थानेदार साहब बैठे हाँक रहे हैं – मैंने फ्लाँ गाँव में अट्ठारह डाकुओं से मुकाबिला किया और चौंतीस बरस की चोरी बरामद की। सिपाही हाँ जी में हाँ मिलाते और भर्रे देते जाते थे कि आप ऐसे और आप वैसे, और आप डबल वैसे। इतने में आजाद पहुँचे। सलाम-बंदगी हुई।

थानेदार – कहिए, मिजाज कैसे हैं?

आजाद – मिजाज फिर पूछ लेना, अब गठरी दिलवाओ उस्ताद जी!

थानेदार – उस्तादजी किस भकुए का नाम है, और गठरी कैसी? आप भंग तो नहीं पी गए?

आजाद – जरा जबान सँभाल कर बातें कीजिएगा। मैं टेढ़ा आदमी हूँ।

थानेदार – अच्छे-अच्छे टेढ़ों को तो हमने सीधा बनाया, आप हैं किसी खेत की मूली? कोई है? वह हुलिया तो मिलाओ, हम तो इन्हें देखते ही पहचान गए।

ज्ञानसिंह ने हुलिया जो मिलाया, तो बाल का भी फर्क नहीं। पकड़ लिए गए, हवालात में हो गए। मगर एक ही छटे हुए आदमी थे। कानस्टिबल को वह भर्रे दिए, बातों-बातों में दोस्ती पैदा कर ली कि वह भी उनकी दम भरने लगा। अब उसे फिक्र हुई कि इनको हवालात से टहला दे। आखिर रात को पहरेदार की आँख बचा कर हवालात का दरवाजा खोल दिया। आजाद चुपके से खिसक गए। दाएँ-बाएँ देखते दबे-पाँव जाने लगे। जरा आहट हुई, और इनके कान खड़े हुए। बारे खुदा-खुदा करके रास्ता कटा। सराय में पहुँचे और भठियारी को किराया दे कर स्टेशन पर जा पहुँचे।

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