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आजाद-कथा (उपन्यास) : रतननाथ सरशार – अनुवादक Part 1 – प्रेमचंद
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 1
मियाँ आजाद के बारे में, हम इतना ही जानते हैं कि वह आजाद थे। उनके खानदान का पता नहीं, गाँव-घर का पता नहीं; खयाल आजाद, रंग-ढंग आजाद, लिबास आजाद दिल आजाद और मजहब भी आजाद। दिन भर जमीन के गज बने हुए इधर-उधर घूमना, जहाँ बैठना वहाँ से उठने का नाम न लेना और एक बार उठ खड़े हुए तो दिन भर मटरगश्त करते रहना उनका काम था। न घर, न द्वार; कभी किसी दोस्त के यहाँ डट गए, कभी किसी हलवाई की दुकान पर अड्डा जमाया; और कोई ठिकाना न मिला, तो फाका कर गए। सब गुन पूरे थे। कुश्ती में, लकड़ी-बिनवट में, गदके-फरी में, पटे-बाँक में उस्ताद। गरज, आलिमों में आलिम, शायरों में शायर, रँगीलों में रँगीले, हर फन मौला आदमी थे।
एक दिन मियाँ आजाद बाजार में सैर सपाटा कर रहे थे कि एक बुड्ढे ने एक बाँके से कहा कि मियाँ, बेधे आए हो, या जान भारी है, या छींकते घर से चले थे? यह अकड़ते क्यों चलते हो? यहाँ गरदन झुका कर चला कीजिए, नहीं तो कोई पहलवान गरदन नापेगा, सारी शेखी किरकिरी हो जायगी, ऐंड़ना भूल जाइएगा! इससे क्या वास्ता? यह शहर कुश्ती, पटे-बाँक और लकड़ी की टकसाल है। बहुत से लड़ंतिए आए, मगर पटकनी खा गए। हाथ मिलाते ही पहलवानों ने मारा चारों खाने चित्त। यह सुनते ही वह मियाँ बाँके आग-भभूका हो गए। बोले – जी, तो कहीं इस भरोसे भी न रहिएगा, यहाँ पटकनी खानेवाले आदमी नहीं हैं, बीच खेत पछाड़ें तो सही; बने रहें हमारे उस्ताद, जिन्होंने हमें लकड़ी सिखाई। टालों की लकड़ी फेंकना तो सभी जानते हैं, मैदान में ठहरना मर्दों ही का काम है। हमारे उस्ताद तीस-तीस आदमियों से गोहार लड़ते थे। और कौन लोग? गँवार-घामड़ नहीं, पले हुए पट्ठे, जिन पर उनको गरूर था। फिर यह खयाल कीजिए कि तीस गदके बराबर पड़े थे, मगर तीसों की खाली जाती थी। कभी आड़े हो गए, कभी गदके से चोट काट दी, कभी बनको समेट लिया, कभी पैंतरा बदल दिया। शागिर्दों को ललकारते जाते थे कि ‘लगा दे बढ़ के हाथ, आ घुसके।’ और वह झल्ला-झल्ला के चोटें लगाते थे, मगर मुँह की खाते थे। जब सके दम टूट गए और लगे हाँपने, तो गदके हाथ से छूट-छूट पड़े। मगर वाह रे उस्ताद! उनके वही खमदम, वही ताव-भाव, पहरों लकड़ी फेंकें, मगर दम न फूले; और जो कहीं भिड़ पड़े तो बात की बात में परे साफ थे। किसी पर पालट का हाथ जमाया, किसी को चाकी का हाथ लगाया। फिर यही मालूम होता था कि फुलझड़ी छूट रही है, या आतिशबाजी की छछूंदर नाच रही है, या चरखी चक्कर में है। जनेवा का हाथ तो आज तक कोई रोक ही न सका; वह तुला हुआ हाथ पड़ता था कि इधर इशारा किया, उधर तड़ से पड़ गया। बस, मौत का तीर था, गदका हाथ में आया और मालूम हुआ कि बिजली लौंकने लगी। मुमकिन नहीं कि आदमी की आँख झपकने पाए। ललकार दिया कि रोक चाकी, फिर लाख जतन कीजिए, भला रोक तो लीजिए। निशाना तो कभी खाली जाने ही नहीं पाता था। फरी उम्र-भर न छूटी। एक अंग ही लड़ा किए। छरहरा बदन, सीधे-सादे आदमी, सूरत देखे तो यकीन न आए कि उस्ताद हैं, मगर एक जरा सी बाँस की खपाच दे दीजिए, फिर दिल्लगी देखिए, कैसे जौहर दिखाते हैं! हम जैसे उस्तादों की आँखें देखे हुए हैं, किसी से दबनेवाले नहीं।
मियाँ आजाद तो ऐसे आदमियों को टोह में रहते ही थे, बाँके के साथ हो लिए और दोनों शहर में चक्कर लगाने लगे। चौक में पहुँचे, तो जिस पर नजर पड़ती है, बाँका-तिरछा; चुन्नटदार अँगरखे पहने, नुक्केदार टोपियाँ सिर पर जमाए, चुस्त घुटन्ने डाटे, ढाटे बाँधे हुए तने चने जाते हैं। तमंचे की जोड़ी कमर से लगी हुई, दो-दो विलायतियाँ पड़ी हुई, बाढ़ें चढ़ी हुई, पेशकब्ज, कटार, सिरोही, शेर-बच्चा, सबसे लैस। बाँके को देख कर एक दुकानदार की शामत आई, हँस पड़ा। बाँके ने आव देखा न ताव, दन से तमंचा दाग दिया। संयोग था, खाली गया। लोगों ने पूछा, क्यों भाई, क्यों बिगड़ गए? तीखे होकर बोले – हमको देख कर बचाजी मुसकिराए थे, हमने गोली लगाई कि दाँत पर पड़े और इनके दाँत खट्टे हो जायँ, मगर जिंदगी थी, बच निकले। मियाँ आजाद ने अपने दिल में सोचा। यह बाँके तो आफत के परकाले हैं, इनको नीचा न किया तो कुछ बात नहीं। एक तंबोली से पूछा – क्यों भाई, यहाँ बाँके बहुत हैं? उसने कहा – मियाँ, बाँका होना तो दिल्लगी नहीं, हाँ, बेफिक्रे बहुत हैं। और इन सबके गुरू-घंटाल वह हजरत हैं, जिन्हें लोग एकरंग कहते हैं। वह संदली रँगा हुआ जोड़ा पहन कर निकलते हैं, मगर मजाल क्या कि शहर भर में कोई संदली जोड़ा पहन तो ले एकरंग संदली जोड़ा कोई पहन नहीं सकता; कोई पहने तो गोली भी सर कर दे, इसके साथ यह भी है।
मियाँ आजाद ने सोचा कि इस एकरंग का टेटुआ न लिया, तो खाना हराम। दूसरे दिन आप भी संदली बूट, संदली घुटन्ना, संदली अँगरखा और टोपी डाटकर निकले। अब जिस गली-कूचे से निकलते हैं, उँगलियाँ उठती हैं कि यह आज इस ढब से कौन निकले हैं भाई! होते-होते एकरंग के चेले-चापड़ों ने उनके कान में भी भनक डाल दी। सुनते ही मुँह लाल चुकंदर हो गया। कपड़े पहन, हथियार लगा, चल खड़े हुए।
इधर आजाद तंबोली की दुकान पर टिक गए। उनका वेश देखते ही उसके होश उड़ गए। लगा हाथ जोड़ने कि भगवान के लिए मेरी ही टोपी ले लीजिए, या जूता बदल डालिए, नहीं तो वह आता ही होगा, मुफ्त की ठायँ-ठायँ से क्या वास्ता? इनको तो कच्चे घड़े की चढ़ी थी, कब मानते थे, गिलौरी ली और अकड़ कर खड़े हुए। शहर में धूम हो गई कि आज आजाद और एकरंग में तलवार चलेगी। तमाशा देखनेवाले जमा हो गए। इतने में मियाँ एकरंग भी दिखाई दिए। उनके आते ही भीड़ छट गई। कोई इधर कतरा गया, कोई गली में घुसा, कोई कोठे पर चढ़ गया। एकरंग ने जो इनको देखा, तो जल मरा। बोला – अबे ओ खब्ती, उतार टोपी, बदल जूता। हमारे होते तू संदली जोड़ा पहन कर निकले। उतार, उतार, नहीं तो मैं बढ़ कर काम तमाम कर दूँगा।
मियाँ आजाद पैंतरा बदल कर तीर की तरह झपट पड़े और बड़ी फुर्ती से एकरंग की तोंद पर तमंचा रख दिया। बस हिले और धुआँ उस पार! बोले और लाश फड़कने लगी! बेईमान, बड़ा बाँका बना है, सैकड़ों भले आदमियों को बेइज्जत किया। इतने चाबुक मारूँगा कि याद करेगा। अभी उतार टोपी, उतार, उतार, नहीं तो धुआँ उस पार! संयोग से एक दर्जी उधर से निकला, उसने एकरंग की टोपी उतार जेब में रखी। एकरंग की एक न चली। आजाद ने ललकारा – हौसला हो तो आओ, दो-दो हाथ भी हो जाएँ, खबरदार जो आज से सँदली जोड़ा पहना!
शहर भर में धूम हो गई कि मियाँ आजाद ने एकरंग के छक्के छुड़ा दिए, चुपचाप दर्जी से टोपी बदली। सच है, ‘दबे पर बिल्ली चूहे से कान कटाती है।’ मियाँ आजाद की धाक बँध गई। एक दिन उन्होंने मुनादी कर दी कि आज मियाँ आजाद छह बजे से आठ बजे तक अपने करतब दिखाएँगे, जिन्हें शौक हो आएँ। एक बड़े लंबे-चौड़े मैदान में आजाद अपने जौहर दिखाने लगे। लाखों आदमी जमा थे। मियाँ आजाद ने नीबू पर निशाना बनाया, और तलवार से उड़ाया, तो निशान के पास खट से दो टुकड़े। कसेरू उछाला और पाँच-छह बार में छील डाला! तलवार की बाढ़ से दस-बारह की आँखों में सुरमा लगाया। चिराग जलाया और खाँड़ा फेंकते-फेंकते गुल काट डाला, लौ अलग, बत्ती अलग। एक प्याले में दस कौड़ियाँ रखीं और दो पर निशान बना दिया। दोनों को तलवार से प्याले ही में काटा और बाकी कौड़ियाँ निलोह बच निकलीं। लकड़ी टेकी और बीस हाथ छत पर हो रहे। गदके का जरा इशारा किया और बीस हाथ उड़ गए। चालीस-चालीस आदमियों ने घेरा और यह साफ निकल भागे। पलंग के नीचे एक जंगली कबूतर छोड़ दिया गया। उन्होंने उसको निकलने न दिया। एक फिकैत ने ये करतब देखे तो बोला – अजी यह सब नट-विद्या है, मैदान में आएँ तो मालूम हो।
आजाद – अच्छा! अब तुम्हें भी मैदान में आने का दावा हुआ! तुम्हारे एकरंग का तो रंग फीका हो गया, अब तुम मुँह चढ़ते हो, तुम्हें भी देखूँगा।
फिकैत – चोंच सँभालो।
आजाद – तुम्हारी शामत ही आ गई है, तो मैं क्या करूँ। आजकल में तुम्हारी भी कलई खुली जाती है। तुम लोग बाँके नहीं, बदमाश हो; जिधर से निकल जाओ, उधर आदमी काँप उठें कि भेड़िया आया। कोई हँसा और तुमने बंदूक छतियाई, किसी ने बात की और तुमने चोट लगाई। भाई वाह, अच्छा बाँकपन है! तो बता क्या, जहाँ दस दिन डंड पेले और उबल पड़े, दो-चार दिन लकड़ी फेंकी और मोहल्लेवालों पर शेर हो गए। गुनी लोग सिर झुका ही के चलते हैं।
वही बातें हो रही थीं कि सामने से एक पहलवान ऐंड़ते हुए निकले, लँगोट बाँधे, मलमल की चादर ओढ़े दो-तीन पट्ठे साथ। एक कसेरूवाले के पास खड़े हो गए और उसके सिर पर एक धप लग दी। वह पीछे फिरकर देखता है, तो एक देव खड़े हैं। बोले, तो पथा जाय; कान दबा कर, धप खा कर, दिल ही दिल में कोसता हुआ चला गया।
थोड़ी ही देर में मियाँ पहलवान ने एक खोंचेवाले का खोंचा उलट दिया; तीन-चार रुपए कि मिठाई धूल में मिल गई। जब उसने गुल-गपाड़ा मचाया, तो पट्ठों ने दो-तीन गुद्दे, घूसे, मुक्के लगा दिए, दो-चार लप्पड़ जमा दिए। वह बेचारा रोता-चिल्लाता, दुहाई देता चला गया।
आजाद सोचने लगे, यह तो कोई बड़ा ही शैतान है, किसी के लप्पड़, किसी के थप्पड़, अच्छी पहलवानी है! सारे शहर में तहलका मचा दिया। इसकी खबर न ली, तो कुछ न किया। यह सोचते ही मेरा शेर झपट पड़ा और पहलवान के पास जाकर घुटने से ऐसा धक्का दिया कि मियाँ पहलवान ने इतना बड़ा डील-डौल रखने पर भी बीस लुढ़कनियाँ खाईं। मगर पहलवान सँभलते ही उनकी तरफ झपट पड़ा। तमाशाई तो समझे कि पहलवान आजाद को चुर्र-मुर्र कर डालेगा, लेकिन आजाद ने पहले ही से वह दाँव-पेंच किए कि पहलवान के छक्के छूट गए, ऐसा दबाया कि छठी का दूध याद आ गया। उसने जैसे ही आजाद का बायाँ हाथ घसीटा, उन्होंने दाहने हाथ से उसका हाथ बाँधा और अपना छुड़ा, चुटकियों में कूले पर लाद, घुटना टेक कर मारा – चारों खाने चित्त! पहलान अब तक कोरा था, किसी दंगल में आसमान देखने की नौबत न आई थी। आजाद ने जो इतने आदमियों के सामने पटकनी बताई, तो बड़ी किरकिरी हुई और तमाम उम्र के लिए दाग लग गया।
अब तो मियाँ आजाद जगत्-गुरु हो गए, एकरंग का रंग फीका पड़ गया, पहलवान ने पटकनी खाई, शहर भर में धूम हो गई। जिधर से निकल जाते, लोग अदब करते थे। जिससे चार आँखें हुई उसने जमीन चूम कर सलाम किया। अच्छे-अच्छे, बाँकों की कोर दबने लगी। जहाँ किसी शहजोर ने कमजोर को दबाया और उसने गुल मचाया – दोहाई मियाँ आजाद की, और यह बाँड़ी ले कर आ पहुँचे। किसी बदमाश ने कमजोर को दबाया और उसने डाँट बताई – नहीं मानते, बुलाऊँ मियाँ आजाद को? शोहदे-लुच्चे उनसे ऐसे थर्राते थे, जैसे चूहे बिल्ली से, या मरीज तिल्ली से। नाम सुना और बगलें झाँकने लगे; सूरत देखी और गली कूचों में दुबक रहे। शहर भर में उनका डंका बज गया।
एक दिन आजाद सिरोही लिए ऐंड़ते जा रहे थे कि एक दर्जी की दुकान के पास से निकले। देखते क्या हैं, रँगीले छैले, बाँके जवान छोटे पंजे का मखमली जूता पहने, जुल्फें लटकाए, छुरी कमर से लगाए दर्जी से तकरार कर रहे हैं। वाह मियाँ खजीफा! तुमने तो हमें उलटे छूरे मूड़ा! खुदा जाने, किस करतब्योंत में रहते हो। सीना-पिरोना तो नाम का है, हाँ, जबान अलबत्ता, करतनी की तरह चला करती है। तुमसे कपड़े सिलवाना अपनी मिट्टी खराब करना है। दम धागा देना खूब जानते हो। टोपी ऐसी मोंड़ी बनाई कि फबतियाँ सुनते-सुनते नाकों दम आ गया।
दर्जी – ऐ तो हुजूर, मैं इसको क्या करूँ? मेरा भला इसमें क्या कुसूर है? आपका सिर ही टेढ़ा है। मैं टोपी बनाता हूँ, सिर बनाना नहीं जानता।
बाँके – चोंच सँभाल, बहुत बढ़-बढ़ कर बातें न बना। बाँकों के मुँह लगता है? और सुनिए, हमारा सिर टेढ़ा है। अबे, तेरा सिर साँचे का ढला है? तेरे ऐसे दर्जी मेरी जेब में पड़े रहते हैं, मुँह बंद कर, नहीं दूँगा उल्टा हाथ, मुँह टेढ़ा हो जायगा। और तमाशा देखिए, हमारा सिर गोया कद्दू हो गया है।
दर्जी – आप मालिक हैं, मुल मेरी खता नहीं। जैसा सिर वैसी टोपी। ऐसा सिर तो मैंने देखा ही नहीं; यह नई गढ़ंत का सिर है, आप फरे लें, बस, मैं सी चुका। जब दाम देने का वक्त आया, तो यह झमेला किया।
यह सुनते ही बाँके ने दर्जी को इतना पीटा कि वह बेचारा बेदम हो गया। आखिर कफन फाड़ कर चीखा, दोहाई मियाँ आजाद की, दोहाई मेरे उस्ताद की। आजाद तो दूर से खड़े देख ही रहे थे, झट तलवार सैंत दुकान पर पहुँच गए। बाँके ने पीछे फिर कर देखा, तो मियाँ आजाद।
आजाद – वाह भाई बाँके, तुम सचमुच रुस्तम हो। बेचारे दर्जी पर सारी चोटें साफ कर दीं। कभी किसी कड़ेखाँ से भी पाला पड़ा है? कहीं गोहार भी लड़ा है? या गरीबों ही पर शेर हो? बड़े दिलेर हो तो आओ, हमसे भी दो-दो हाथ हो जाएँ। तुम ढेर हो जाओ, या हम नरका खायँ। आइए, फिर पैंतरा बदलिए, लगा बढ़ कर हाथ, इधर या उधर।
बाँके – हैं, हैं, उस्ताद, हमीं पर हाथ साफ करोगे, हम नौसिखिए तुम गुरू-घंटाल। मगर आप इस कमीने दर्जी की तरफ से बोलते हैं और शरीफों पर तलवार तौलते हैं! सुभान अल्लाह! आइए, आपसे कुछ कहना है।
आजाद – अच्छा, तोबा करो कि अब किसी गरीब को न धमकाएँगे।
बाँके – अजी हजरत, धमकाना कैसा, हम तो खुद ही बला में फँसे हैं; खुदा ही बचाए, तो बचें। यहाँ एक फिकैत है, उससे हमसे लाग-डाँट हो गई है। कल नौचंदी के मेले में हमें घेरेगा, कोई दो सौ बाँकों के जत्थे से हम पर हरबा करना चाहता है। हम सोचते हैं कि दरगाह न जायँ, तो बाँकपन में बट्टा लगता है, और जायँ, तो किस बिरते पर? यार, तुम साथ चलो तो जान बचे, नहीं तो बेमौत मरे।
आजाद – अच्छा, तुम भी क्या कहोगे! लो, बीड़ा उठा लिया कि कल तुमको ले चलेंगे और सबसे भिड़ पड़ेंगे, दो सौ हों, चाहे हजार, हम हैं और हमारी कटार, इतनी कटारें भोकूँ कि दम बंद हो जाय। मगर यह बता दो कि कुसूर तुम्हारा तो नहीं है?
बाँके – नहीं उस्ताद, कसम ले लो, जो मेरी तरफ से पहल हुई हो। मुझसे उन्होंने एक दिन अकड़ कर कहा कि तू तलवार न बाँधा कर। मैं भी, आप जानिए, इनसान हूँ। पित्ता तो मछली के भी होता है। मुझे भी गुस्सा आ गया। मैंने कहा, धत्! तू और हमसे हथियार रखवा ले? बस, बिगड़ ही तो गया और पंद्रह-बीस आदमी उसकी तरफ से बोलने लगे। मैंने भी जवाब दिया, दबा नहीं। मगर लड़ पड़ना मसलहत न थी। बाँका हूँ, तो क्या हुआ, बिना समझे बूझे बात नहीं करता। खैर, उसने ललकार कर कहा – अच्छा बचा, दरगाह में समझ लेंगे, अब की नौचंदी में हमीं न होंगे, या तुम्हीं न होंगे।
आजाद – अच्छा, तुम, लैस रहना, मैं दो घड़ी दिन रहे आऊँगा, घबराओ नहीं, तुम्हारा बाल-बाँका हो, तो मूँछ मुड़ा दूँ। ये दो सौ आदमी देखने ही भर के होंगे। सच्चे दिलेर उनमें दो-ही चार होंगे, जो आजाद की तलवार का सामना करें। मौत से लड़ना दिल्लगी नहीं है; कलेजा चाहिए!
दूसरे दिन आजाद हथियार बाँध कर चले, तो रास्ते में बाँके मिल गए और दोनों साथ-साथ टहलते हुए दरगाह पहुँचे।
नौचंदी जुमेरात, बनारस का बुढ़वामगल मात; चारों तरफ चहल-पहल; कहीं ‘तमाशाइयों’ का हुजूम, हटो-बचो की धूम; आदमी पर आदमी टूटे पड़ते हैं, कोसों का ताँता लगा हुआ है, मेवेवाले आवाज लगा रहे हैं, तंबोली बीड़े बना रहे हैं, गँड़ेरिया हैं केवड़े की, रेवड़ियाँ हैं गुलाब की। आजाद घूरते-घारते फाटक पर दाखिल हुए, तो देखा, सामने तीस-चालीस आदमियों का गोल है। बाँके ने कान में कहा कि यही हजरत हैं, देख लीजिए, दंगे पर आमादा हैं या नहीं।
आजाद – भला, यहाँ तुम्हारा भी कोई जान-पहचान है? हो, तो दस-पाँच को तुम भी बुला लो; भीड़-भड़क्का तो हो जाय। लड़नेवाले हम क्या कम हैं – मगर दो-चार जमाली खरबूजे भी चाहिए, डाली की रौनक हो जाय।
बाँके – अभी लाया, आप ठहरें; मगर बाहर टहलिए, तो अच्छा है, यहाँ जोखिम है।
आजाद फाटक के बाहर टहलने लगे। फिकैत ने जो देखा कि दोनों खिसके, तो आपस में हाँड़ियाँ पकने लगीं – वह भगाया! वह हटाया! भागा है! उनके साथियों में से एक ने कहा – अजी, वह भागा नहीं है, एक ही काइयाँ है, किसी टोह में गया है। एक बिगड़ेदिल बाहर गए, तो देखा, बाँके पश्चिम की तरफ गर्दन उठाए चले जाते हैं, और मियाँ आजाद फाटक से दस कदम पर टहल रहे हैं। उलटे पाँव आकर खबर दी – उस्ताद, बस, यही मौका है, चलिए, मार लिया है, बाएँ हाथ चला जाता है, और अकेला है। सब दूसरे फाटक से चढ़ दौड़े। ठहर बे, ठहर! बस, रुक जा, आगे कदम बढ़ाया, और ढेर हुए! हिले, और दिया तुला हुआ हाथ। याद है कि नहीं, आज नौचंदी है। लोगों ने चारों तरफ से घेर लिया। बाँके का रंग फक कि गजब ही हो गया! अब कुत्ते की मौत करे। किस-किससे लड़ूँगा? एक ही दवा दो कि सौ। मियाँ आजाद को कोई खबर कर देता, तो वह झपट ही पड़ते; मगर जब तक कोई जाय-जाय, हमारा काम तमाम हो जायगा। एक यार ने बढ़कर बेचारे मुसीबत के मारे बाँके के एक लठ लगा दिया, बाएँ हाथ की हड्डी टूट गई। गुल-गपाड़े की आवाज आजाद ने भी सुनी। भीड़ काट कर पहुँचे, तो देखा, बाँके फँसे हुए हैं। तलवार को टेका और दन से उस पार हुए। खबरदार खिलाड़ी! हाथ उठाया और मैंने टेटुआ लिया। बाँके के दिल में ढाढ़स हुआ, जान बची, नई जिंदगी हुई। इतने में मियाँ आजाद ने तलवार म्यान से निकाली और पिल पड़े। तलवार का चमकना था कि फिकैत के सब साथी हुर्र हो गए, मैदान खाली, मियाँ आजाद और बाँके एक तरफ, फिकैत और दो साथी दूसरी रफ, बाकी रफूचक्कर। एक ने आजाद पर तमंचा चलाया, मगर खाली गया। आजाद ने झपट कर उसको ऐसा चरका दिया कि तिलमिला कर गिर पड़ा। दूसरे जवान दस कदम पीछे हट गए। बाँके भी खिसक गए। अब आजाद और फिकैत आमने-सामने रह गए। वह कड़क कर झुका, इन्होंने चोट रोक कर सिर पर हाथ लगाना चाहा, उसने रोका और चाकी का हाथ दिया। आध घंटे तक शपाशप तलवार चला की। आखिर आजाद ने बढ़ कर ‘जनेऊ’ का वह हाथ लगाया कि ‘भंडारा’ तक खुल गया, मगर फिकैत भी गिरते-गिरते ‘बाहरा’ दे हो गया। इधर यह, उधर वह धम से गिरे। तब बाँके दौड़े और आजाद को उठा कर घर ले गए।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 2
आजाद की धाक ऐसी बँधी कि नवाबों और रईसों में भी उनका जिक्र होने लगा। रईसों को मरज होता है कि पहलवान, फिकैत, बिनवटिए को साथ रखें, बग्घी पर ले कर हवा खाने निकलें। एक नवाब साहब ने इनको भी बुलवाया। यह छैला बने हुए, दोहरी तलवार कमर से लगाए जा पहुँचे। देखा, नवाब साहब, अपनी माँ के लाड़ले, भोले-भाले, अँधेरे घर के उजाले, मसनद पर बैठे पेचवान गुड़गुड़ा रहे हैं। सारी उम्र महल के अंदर ही गुजरी थी, कभी घर के बाहर जाने तक की भी नौबत न आई थी, गोया बाहर कदम रखने की कसम खाई थी। दिनभर कमरे में बैठना, यारों-दोस्तों से गप्पें उड़ाना, कभी चौसर रंग जमाया, कभी बाजी लड़ी, कभी पौ पर गोट पड़ी, फिर शतरंज बिछी, मुहरे खट-खट पिटने लगे। किश्त! वह घोड़ा पीट लिया, वह प्यादा मार लिया। जब दिल घबराया, तब मदक का दम लगाया, चंडू के छींटे उड़ाए, अफीम की चुसकी ली। आजाद ने झुक कर सलाम किया। नवाब साहब खुश हो कर गले मिले, अपने करीब बिठाया और बोले – मैंने सुना है, आपने सारे शहर के बाँकों के छक्के छुड़ा दिए।
आजाद – यह हुजूर का इकबाल है, वरना मैं क्या हूँ।
नवाब – मेरे मुसाहबों में आप ही जैसे आदमी की कमी थी, वह पूरी हो गई, अब खूब छनेगी।
इतने में मीर आगा बटेर को मूठ करते हुए आए और सलाम करके बैठ गए। जरा देर के बाद अच्छे मिर्जा गन्ना छीलते हुए आए और एक कोने में जा डटे। मियाँ झम्मन अँगरखे के बंद खोले, गुद्दी पर टोपी रखे खट से मौजूद। फिर क्या था, तू आ, मैं आ। दस-पंद्रह आदमी जमा हो गए, मगर सब झंडे-तले के शोहदे, छँटे हुए गुरगे थे। कोई चीनी के प्याले में अफीम घोल रहा है, कोई चंडू का किवाम बना रहा है, किसी ने गँडेरियाँ बनाईं, किसी ने अमीर-हमजा का किस्सा छेड़ा, सब अपने-अपने धंधे में लगे। नवाब साहब ने मीर आगा से पूछा – मीर साहब, आपने खुश्के का दरख्त भी देखा है?
मीर आगा – हुजूर, कसम है जनाब अमीर की, सत्तर और दो बहत्तर बरस की उम्र होने की आई, गुलाम ने आज तक आँखों से नहीं देखा, लेकिन होगा बड़ा दरख्त। सारी दुनिया की उससे परवरिश होती है, जिसे देखो, खुश्के पर हत्थे लगाता है।
अच्छे मिर्जा – कुरबान जाऊँ, दरख्त के बड़े होने में क्या शक है। कश्मीर से ले कर, कुरबान जाऊँ, बड़े गाँव तक और लंदन से ले कर विलायत तक, सबका इसी पर दारमदार है।
नवाब – मेरा भी खयाल यही है कि दरख्त होगा बहुत बड़ा; लेकिन देखने की बात यह है कि आखिर किस दरख्त से ज्यादा मिलता है। अगर यह बात मालूम हो जाय, तो फिर जानिए कि एक नई बात मालूम हुई। और भाई, सच पूछो, तो छान-बीन करने में जिंदगी का मजा है।
अच्छे मिर्जा – सुना बरगद का दरख्त बहुत बड़ा होता है। झूठ-सच का हाल खुदा जाने; नीम का पेड़ तो हमने भी देखा है, लेकिन किसी शायर ने नीम के दरख्त की बड़ाई की तारीफ नहीं की।
छुट्टन – हमने केले का पेड़, अमरूद का पेड़, खरबूजे का पेड़ सब इन्हीं आँखो देख डाले।
आजाद – भला, यहाँ किसी ने वाहवाह की फलियों का पेड़ भी देखा है?
छुट्टन – जी हाँ, एक दफे नैपाल की तराई में देखा था, मगर शेर जो डकारा, तो मैं झप से गेंदे के दरख्त पर चढ़ गया। कुछ याद नहीं कि पत्ती कैसी होती है।
नवाब – खुश्के के दरख्त का कुछ हाल दरियाफ्त करना चाहिए।
अच्छे मिर्जा – कुरबान जाऊँ, इन लोगों का एतबार क्या? सब सुनी-सुनाई कहते हैं! कुरबान जाऊँ, गुलाम ने वह बात सोची है कि सुनते ही फड़क जाइए।
नवाब – कहिए, कहिए! जरूर कहिए! आपको कसम है। मुझे यकीन हो गया कि आप दूर की कौड़ी लाए होंगे।
अच्छे मिर्जा – (कतारे को खड़ा करके) कुरबान जाऊँ, अगर खुश्के का दरख्त होगा, तो इस कतारे के बराबर ही होगा, न जौ भर बड़ा, न तिल भर छोटा।
नवाब – वाह मीर साहब, वाह, क्या बात निकाली!
मुसाहब – सुभान अल्लाह मीर साहब, क्या सूझ-बूझ है!
आजाद – आप तो अपने वक्त के लाल बुझक्कड़ निकले! मालूम होता है, सफर बहुत किया है।
अच्छे मिर्जा – कौन, मैंने सफर! कसम लो, जो नखास से बाहर गया हूँ। मगर, कुरबान जाऊँ, लड़कपन ही से जहीन था। अब्बाजान तो बिलकुल बेवकूफ थे, मगर अम्माँजान तो बला की औरत थीं, बात में बात पैदा करती थीं।
इतने में गुल-गपाड़े की आवाज आई। अंदर से मुबारककदम लौंडी सिर पीटती हुई आई – हुजूर, मैं सदके, जल्दी चलिए, यह हंगामा कहाँ हो रहा है? बड़ी बेगम साहबा खड़ी रो रही हैं कि मेरे बच्चे पर आँच न आ जाय।
नवाब साहब जूतियाँ छोड़कर अंदर भागे। दरवाजे सब बंद! अब किसी को हुक्म नहीं कि जोर से बोले। इतने में एक मुसाहब ने ड्योढ़ी पर से पुकारा – हुजूर, फिर आखिर मियाँ आजाद किस मरज की दवा हैं? गँड़ेरी छीलने के काम में नहीं, किवाम बनाना नहीं जानते, बटेर मुठियाना नहीं आता, इनको भेज कर दरियाफ्त न कराइए कि दंगा कहाँ हो रहा है।
मुबारककदम – हाँ, हाँ भेज दीजिए; कहिए, कुत्ते की चाल जाएँ और बिल्ली की चाल आएँ।
मियाँ आजाद ने कटार सँभाली और बाहर निकले। राह में लोगों से पूछते जाते हैं कि भाई, यह फिसाद क्या है? एक ने कहा, अजी चिकमंडी में छुरी चली। पाँच-चार कदम आगे बढ़े, तो दो आदमी बातें करते जाते थे कि पंसारी ने पुड़िया में कद्दू के बीजों की जगह जमाल-गोटा बाँध दिया। गाहक ने बिगड़ कर पंसारी की गर्दन नापी। और दस कदम चले तो एक आदमी ने कहा, वह तो कहिए खैरियत गुजरी कि जाग हो गई नहीं तो भेड़िया घर भर को उठा ले जाता। यह भेड़िया कैसा जी? हुजूर, एक मनिहार के घर से भेड़िया तीन बकरियाँ, दो मेंढ़े, एक खरहा और एक खाली पिंजड़ा उड़ा ले गया। उसकी औरत को भी पीठ पर लाद चुका था कि मनिहार जाग उठा अब आजाद चकराए कि भाई अजब बात है, जो है नई सुनाता है। करीब पहुँचे तो देखा, पंद्रह-बीस आदमी मिल कर छप्पर उठाते हैं और गुल मचा रहे हैं। जितने मुँह उतनी बातें। और हँसी तो यह आती है कि नवाब साहब बदहवास हो कर घर के अंदर हो रहे। वहाँ से लौट कर यह किस्सा बयान किया, तो लोगों की जान में जान आई, दरवाजे खुले, फिर नवाब साहब बाहर आए।
नवाब – मियाँ आजाद, तुम्हारी दिलेरी से आज जी खुश हो गया। आज मेरे यहाँ खाना खाना। आप ढाल नहीं बाँधते।
आजाद – हुजूर, ढाल तो जनानों के लिए है, हम उम्र भर एक-अंग लड़ा किए, तलवार ही से चोट लगाई और उसी पर रोकी, या खाली दी या काट गए। एक दिन आपको तलवार का कुछ हुनर दिखाऊँगा, आपकी आँखों में तलवार की बाढ़ से सुरमा लगाऊँगा।
नवाब – ना साहब, यह खेल उजड्डपन के हैं, मेरी रूह काँपती है, तलवार की सूरत देखते ही जूड़ी चढ़ आती है। हाँ, मिर्जा साहब जीवट के आदमी हैं। इनकी आँखों में सुरमा लगाइए, यह उफ करनेवाले नहीं।
अच्छे मिर्जा – कुरबान जाऊँ हुजूर, अब तो बाल पक गए, दाँत चूहों की नजर हुए, कमर टेढ़ी हुई, आँखों ने टका सा जवाब दिया, होश-हवास चंपत हुए। क्या कहूँ हुजूर, जब लोगों को गँड़ेरियाँ चूसते देखता हूँ, तो मुँह देख कर रह जाता हूँ।
इतने में मियाँ कमाली, मियाँ झम्मन और मियाँ दुन्नी भी आ पहुँचे।
कमाली – खुदाबंद, आज तो अजीब खबर सुनी, हवास जाते रहे। शहर भर में खलबली मची है, अल्लाह बचाए, अबकी गरमी की फसल खैरियत से गुजरती नहीं नजर आती, आसार बुरे हैं।
नवाब – क्यों? क्यों? खैर तो है! क्या कयामत आनेवाली है या आफताब सवा नेजे पर हो रहा? आखिर माजरा क्या है, कुछ बताओ तो सही।
अच्छे मिर्जा – ऐ हुजूर, यह जब आते हैं, एक नया शिगोफा छोड़ते हैं। खुदा जाने, कौन इनके कान में फूँक जाता है। ऐसी सुनाई की नशा हिरण हो गया, जम्हाइयाँ आने लगीं।
कमाली – अजी, आप किस खेत की मूली हैं, हमसे तो बड़े-बड़ों के नशे हिरण हुए हैं। जब पहली तारीख आएगी, तो आँखें खुल जाएँगीं, आटे-दाल का भाव मालूम हो जाएगा। और दो-चार दिन मीठे टुकड़े उड़ा लो। वाह साहब, हम तो ढूँढ़-ढूँढ़ कर खबरें लाएँ, आप दिनभर पिनक में ऊँघा करें, और हमी को उल्लू बनाएँ। पहली को कलई खुल जाएगी, बचा, सूरत बिगड़ जाए तो सही।
नवाब – क्या! क्या! पहली तारीख कैसी? अरे मियाँ, तुम तो पहेलियाँ बुझवाते हो, आखिर पहली को क्या होनेवाला है?
कमाली – ऐ हुजूर, यह न पूछिए, बस, कुछ कहा नहीं जाता। एक हलवाइन अभी जवान-जहान है। मारे हौके के औटा हुआ दूध जो पी गई तो पेट फूल कर कुप्पा हो गया। किसी ने कुछ बताया, किसी ने कुछ नुस्खा पिलाया; मगर वह अंटा-गाफिल हो गई। अब सुनिए कि जब चिता पर जाने लगी; कुलबुला कर उठ बैठी। अरे राम! अरे बाप-रे बाप! यू का भवा? हलवाइयों ने वह बम-चख मचाई कि कुछ न पूछिए। ‘यू देखो, लहास हिलत है! अरे यू का अंधेर भवा?’ आखिरकार दो-चार हलवाइयों ने जी कड़ा करके लाश को घसीट लिया और झटपट कफन फाड़ कर उसे निकाला, तो टैयाँ सी उठ बैठी। हुजूर, कसम है खुदा की, उसने वह वह बातें बयान कीं कि कहीं नहीं जातीं। जब मरी तो जमराज के दूतों ने मुझे उठा कर भगवान के पास पहुँचाया, सीता जी बैठी पूरी बेलत रहैं, हमका देखके भगवान बोले कि इसको ले जाओ। मुझे उसकी बोली तो याद नहीं, मगर मतलब यह था कि पहली को बड़ा अँधेरा घुप छा जाएगा और तूफान आएगा, जितने गुनहगार बंदे है सब जलाए जाएँगे, और अफीमची जिस घर में होंगे उसको फरिश्ते जला कर खाक-सियाह कर देंगे।
नवाब – मिर्जा साहब, ये बोरिया-बँधना उठाइए, आपका यहाँ ठिकाना नहीं। नाहक कहीं फरिश्ते मेरी कोठी फूँक दें तो कहीं का न रहूँ। बस, बकचा सँभालिए, कहीं और बिस्तर जमाइए।
अच्छे मिर्जा – कुरबान जाऊँ हुजूर, यह बड़ा बेईमान आदमी है। हुजूर तो भोलेभाले रईस हैं, जिसने जो कहा मान लिया। भला कहीं फरिश्ते घर फूँका करते हैं? मुझ बुड्ढे को न निकालिए, कई पुश्तें इसी दरबार में गुजर गईं, अब किसका दामन पकड़ूँ? अरे वाह से झूठे, अच्छी बेपर की उड़ाई, हलवाइन मरी भी और जी भी उठी, बेसिरपैर की बात।
नवाब – खैर, कुछ भी हो, आप अपना सुबीता करें। मेरे बाप-दादा की मिलकियत कहीं फरिश्ते फूँक दें तो बस! आप हैं किस मरज की दवा? चारपाइयाँ तोड़ा करते हैं।
अच्छे मिर्जा – वाह री किस्मत? यहाँ जान लड़ा दी, बकरे की जान गई, खानेवाले को मजा न आया। इस शैतान से खुदा समझे, जिसने मेरे हक में काँटे बोए। खुदा करे, इसका आज के सातवें ही दिन जनाजा निकले। जैसे ही आ कर बैठा, मेरी बाईं आँख फड़कने लगी, तो यह गुल खिला।
नवाब साहब मुसाहबों को यह नादिरी हुक्म दे कर जनानखाने में चले गए कि मिर्जा को निकलवा दो। उनके जाते ही मिर्जा की ले-दे शुरू हो गई।
कमाली – मिर्जा साहब, अफीम का डब्बा बगल में दबाइए और चलते फिरते नजर आइए। सरकार का नादिरी हुक्म है और छोटी बेगम साहिबा महनामथ मचा रही हैं कि इस बुड्ढे को खड़े-खड़े निकाल दो। सो अब खिसकिए, नहीं बुरी होगी।
झम्मन – वाजिबी बात है, सरकार चलते-चलते हुक्म दे गए थे। हम लोग मजबूर हैं, अब आप अपना सुबीता कीजिए, अभी सबेरा है, नहीं हम पर पिट्टस पड़ेगी। और भाई, जब फरिश्तों के आने का डर है तो कोई तुमको क्यों कर अपने घर में रहने दे? कहीं एक जरा सी चिनगारी रख दें, तो कहिए मकान जल कर खाकसियाह हो गया कि नहीं, फिर कैसी होगी?
अच्छे मिर्जा – अबे, तो फरिश्ते कहीं गाँव जलाया करते हैं। वह ऊटपटाँग बातें बकता है। लो साहब, हमारे रहने में जोखिम है, जो आठों पहर ड्योढ़ी पर बने रहते हैं। अच्छा अड़ंगा दिया।
झम्मन – अड़ंगा-बड़ंगा मैं नहीं जानता, अब आप खसकंत की ठहराइए, बहुत दिन मीठे टुकड़े उड़ाए, चुगलियाँ खा-खा कर रईस का मिजाज बिगाड़ दिया, किसी से जरा सी खता हुई और आपने जड़ दी। ‘भूस में चिनगी डाल जमालो अलग खड़ी।’ पचासों भलेमानसों की रोटी लो। इनसान से गलती हो ही जाती है, यह चुगली खाना क्या माने। ओ गफूर मिर्जा ने तुम्हें भी तो उखाड़ना चाहा था?
गफूर – अरे, यह तो अपने बाप की जड़ खोदनेवाले आदमी हैं, भीतर से बाहर तक कोई तो इनसे खुश नहीं।
दुन्नी – मिर्जा, अगर कुछ हया है तो इस मुसाहबी पर लात मरो; जिस अल्लाह ने मुँह चीरा है वह रोजी भी देगा।
मुबारककदम – गफूर। गफूर! छोटी बेगम साहबा का हुक्म है कि इस मुए अफीमची को शहर से निकाल दो। कहती हैं, जब तक यह न टलेगा दाहने हाथ का खाना हराम है।
अच्छे मिर्जा – शहर से निकाल दो। तमाम शहर पर बेगम साहब का क्या इजारा है? वह अभी कल आईं, यहाँ इस घर में उम्र बीत गई।
कमाली – अबे ओ नमकहराम, छोटा मुँह बड़ी बात! बेगम साहबा के कहने को दुलखता है। इतनी पड़ेंगी बेभाव की कि याद करोगे, चाँद गंजी कर दी जाएगी।
अच्छे मिर्जा – अब जो यहाँ पानी पिए उस पर लानत! यह कह कर मिर्जा ने अफीम की डिबिया उठाई और चले। मुसाहबों ने उनके जलाने के लिए कहना शुरू किया -मिर्जा जी, कभी-कभी आ जाया कीजिएगा। एक बोला – लाइए डिबिया, मैं पहुँचा दूँ। दूसरा बोला – कहिए तो घोड़ा कसवा दूँ। मिर्जा ने किसी को कुछ जवाब न दिया, चुपके से चले ही गए।
इधर पहली तारीख आई तो मियाँ कमाली चकराए कि अब मैं झूठा बना, और साख गई। लोगों ने नवाब को चंग पर चढ़ाया कि हुजूर, जो हम कहें वह कीजिए, तो आज की बला टल जाय। नवाब ने मुसाहबों को सारा अख्तियार दे दिया। फिर क्या था, एक तरफ ब्राह्मण देवता बैठे मंत्रों का जप कर रहे हैं, हवन हो रहा है, और स्वाहा-स्वाहा की आवाज आ रही है, दूसरी तरफ हाफिज जी कुरान पढ़ रहे हैं, और दीवानखाने में महफिल जमी हुई है कि फरिश्तों को झँझोटी को धुना सुना कर खुश कर लिया जाय।
झम्मन – मिर्जाजी न सिधारते तो खुदा जाने इस वक्त क्या कुछ हो गया होता।
नवाब – होता क्या, कोठी की कोठी भक से उड़ जाती। अब किसी अफीमची को आने तक न दूँगा।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 3
नवाब साहब के दरबार में दिनोंदिन आजाद का सम्मान बढ़ने लगा। यहाँ तक कि वह अक्सर खाना भी नवाब के साथ ही खाते। नौकरों को ताकीद कर दी गई कि आजाद का जो हुक्म हो, वह फौरन बजा लाएँ, जरा भी मीनमेख न करें। ज्यों-ज्यों आजाद के गुण नवाब पर खुलते जाते थे, और मुसाहबों की किर-किरी होती जाती थी। अभी लोगों ने अच्छे मिर्जा को दरबार से निकलवाया था, अब आजाद के पीछे पड़े। यह सिर्फ पहलवानी ही जानते हें, गदके और बिनवट के दो-चार हाथ कुछ सीख लिए हैं, बस, उसी पर अकड़ते फिरते हैं कि जो कुछ हूँ, बस, मैं ही हूँ। पढ़े-लिखे वाजिबी ही वाजिबी हैं, शायरी इन्हें नहीं आती, मजहबी मुआमिलों में बिलकुल कोरे हैं।
एक दिन नवाब साहब के सामने एक साहब बोल उठे – हुजूर, इस शहर में एक आलिम आया है, जो मंतिक (न्याय) के जोर से झूठ को सच कर दिखाता है। मगर खुदा को नहीं मानता, पक्का मुनकिर (नास्तिक) है। मियाँ आजाद को तो मंतकी बनने का दावा है। कहिए, उस आलिम को नीचा दिखाएँ।
आजाद – हाँ! हाँ, जब कहिए तब, मुझे तो ऐसे मुनकिरों की तलाश रहती है। लाइए मंतकी साहब को, खुदा का वह पक्का सबूत दूँ कि वह खुद फड़क जायँ, जरा यहाँ तक लाइए तो सही, भागे राह न मिले। जो फिर इस शहर में मुँह दिखाएँ, तो आदमी न कहना।
नवाब – हाँ! हाँ! मीर साहब, जरा उनको फाँस-फूँस कर लाइए, तो मियाँ आजाद के जौहर तो खुलें।
मीर साहब ने जोर से हुक्के के दो-चार दम लगाए और झप से उस आलिम को बुला लाए। हजारों आदमी बहस सुनने के लिए जमा हो गए, गोया बटेरों की पाली है। इतनी भीड़ थी कि थाली उछालिए तो सिर ही सिर जाय। आलिम ने आते ही पूछा कि कौन साहब बहस करेंगे? मियाँ आजाद बोले – हम हैं! अब सब लोग बेकरार हो रहे हैं कि देखें, क्या सवाल-जवाब होते हैं, चारों तरफ खिचड़ी पक रही है।
आलिम – जनाब, आप तो किसी अखाड़े के पट्ठे मालूम होते हैा, सूरत से तो ऐसा मालूम होता है कि आपको मंतिक छू भी नहीं गई।
आजाद – जी, सूरत पर न जाइएगा, कोई सवाल कीजिए, तो हम जवाब दें।
आलिम – अच्छा, पहले इन तीन सवालों का जवाब दीजिए –
(1) खुदा है, तो हमें नजर क्यों नहीं आता?
(2) शैतान दोजख में जलाया जायगा। भला नारी (आग से बने हुए) को आग का क्या डर? आग आग में नहीं जल सकती।
(3) जो करता है, खुदा करता हैं, फिर इनसान का कसूर क्या।
चारों तरफ सन्नाटा पड़ गया कि वाह, क्या आलिम है, कैसे कड़े सवाल किए हैं कि कुछ जवाब ही नहीं सूझता। बिगड़े दिल लोग दाँत पीस रहे हैं कि बाहर निकले तो गरदन भी नापें। मियाँ आजाद कुछ देर तक तो चुपचाप खड़े रहें, फिर एक ढेला उठा कर उस आलिम की खोपड़ी पर मारा, बेचारा हाय करके बैठ गया। अच्छे जंगली से पाला पड़ा, मैं बहस करने आया था या लप्पा-डुग्गी। जब कुछ जवाब न सूझा तो पत्थर मारने लगे। जो मैं भी एक पत्थर खींच मारूँ तो कैसी हो? नवाब साहब, आप ही इन्साफ कीजिए।
नवाब – भाई आजाद, हमें यह तुम्हारी हरकत पसंद नहीं आई। इस ढेलेबाजी के क्या माने? माना कि मुनकिर गरदन मारने लायक होता है; मगर बहस करके कायल कीजिए, यह नहीं कि जूता खींच मारा या ढेला तान कर मारा।
कमाली – हुजूर, आलिम का जवाब देना कारेदारद है। ढेलेबाजी करना दूसरी बात है।
झम्मन – अजी, इसने बड़े-बड़े आलिमों को सर कर दिया, भला आजाद क्या इसके मुँह आएँगे।
नवाब – यह पत्थर क्यों फेंका जी, बोलते क्यों नहीं।
आजाद – हुजूर, मैंने तो इनके तीनों सवालों का वह जवाब दिया कि अगर कोई कदरदाँ होता तो गले से लगा लेता और करोड़ों रुपए इनाम भी देता, सुनिए –
(1) खुदा है, सो हमें नजर क्यों नहीं आता?
जवाब – अगर उस ढेले से उनको चोट लगी, तो चोट नजर क्यों नहीं आती?
सुभान अल्लाह का दौंगडा बरस गया। वाह उस्ताद! क्या जवाब दिया है कि दाँत खट्टे कर दिए।
(2) शैतान को जहन्नुम में जलाना बेकार है, वह तो खुद नारी (अग्निमय) है।
जवाब – इनसे पूछिए कि यह मिट्टी के ही पुतले हैं या नहीं? इनकी खोपड़ी मिट्टी की बनी है या रबड़ की? फिर मिट्टी का ढेला लगा, तो सिर क्यों भन्ना गया?
तमाशाइयों ने गुल मचाया – सुभान अल्लाह! वाह मियाँ आजाद! क्या मुँह तोड़ जवाब दिया है।
(3) जो करता है खुदा करता है।
जवाब – फिर ढेले मारने का इलजाम हम पर क्यों है?
चारों तरफ टोपियाँ उछलने लगीं – वाह मेरे शेर! क्या कहना है! कहिए, अब तो आप खुदा के कायल हुए, या अब भी कुछ मीनमेख है? लाख बातों की एक बात यह है कि जब आपका सिर मिट्टी का है और मिट्टी ही का ढेला मारा, तब आपकी खोपड़ी क्यों भन्नाई? मियाँ मुनकिर बहुत झेपें, समझ गए कि यहाँ शोहदों का जमघट है, चुपके से अपने घर की राह ली। आजाद की और भी धाक बँधी। अब तक तो पहलवान और फिकैत ही मशहूर थे, अब आलिम भी मशहूर हुए। नवाब ने पीठ ठोंकी – वाह, क्यों न हो! पहले तो मैं झल्लाया कि ढेलेबाजी कैसी; मगर फिर तो फड़क गया।
मुसाहबों का यह वार भी खाली गया, तो फिर हँड़िया पकने लगी कि आजाद को उखाड़ने की कोई दूसरी तदबीर करनी चाहिए। अगर यह यहाँ जम गया; तो हम सभी को निकलवा कर छोड़ेगा। यह राय हुई कि नवाब साहब से कहा जाय, हुजूर, आजाद को हुक्म दें कि बटेरों को मुठियाएँ, बटेरों को लड़ाएँ। फिर देखें, बचा क्या करते हैं। बगलें न झाँकने लगें तो सही। यह हुनर ही दूसरा है।
आपस में यह सलाह कर एक दिन मियाँ कमाली बोले – हुजूर, अगर मियाँ आजाद बटेर लड़ाएँ, तो सारे शहर में हुजूर की धूम हो जाय।
नवाब – क्यों मियाँ आजाद, कभी बटेर भी लड़ाए हैं?
झम्मन – आज हमारी सरकार में जितने बटेर हैं, उतने तो मिटयाबुर्ज के चिड़ियाखाने में भी न होंगे। एक-एक बटेर हजार-हजार की खरीद का, नोकदम के बनाने में तोड़े-के-तोड़े उड़ गए, सेरों मोती तो पीस कर मैंने अपने हाथों खिला दिए हैं, कुछ दिनों रोज खरल चलता था। मगर आप भी कहेंगे कि हम आदमी हैं! इस ड्योढ़ी पर इतने दिनों से हो, अब तक बटेरखाना भी न देखा? लो आओ, चलो, तुमको सैर कराएँ।
यह कह कर आजाद को बटेरखाने ले गए। मियाँ आजाद क्या देखते हैं कि चारों तरफ काबुकें ही काबुकें नजर आती हैं, और काबुकें भी कैसी, हाथीदाँत की तीलियाँ, उन पर गंगाजमुनी कलस, कारचोबी छतें, कामदार मखमली गिलाफें, रंगबिरंग सोने-चाँदी की नन्हीं-नन्हीं कटोरियाँ, जिनमें बटेर अपनी प्यारी-प्यारी चोंचों से पानी पिएँ, पाँच-पाँच छह-छह सौ लागत की काबुकें थीं, खूँटियाँ भी रंग-बिरंगी। दुन्नी मियाँ एक-एक काबुक उतार कर बटेर की तारीफ करने लगे, तो पुल बाँध दिए। एक बटेर को दिखा कर कहा – अल्लाह रखें, क्या मझोला जानवर है! सफशिकन (दलसंहार) जो आपने सुना हो, तो यही है। लंदन तक खबर के कागज में इनका नाम छप गया। मेरी जान की कसम, जरा इसकी आनबान तो देखिएगा। हाय, क्या बाँका बटेर है! यह नवाब साहब के दादाजान के वक्त का है। ऐसे रईस पैदा कहाँ होते हैं! दम के दम में लाखों फूँक दिए, रुपए को ठीकरा समझ लिया। पतंगबाजी का शौक हुआ, तो शहर भर के पतंगबाजों को निहाल कर दिया, कनकौवेवाले बन गए। अजी, और तो और, लौंडे, जो गली-कूचों में लंगर और लग्गे ले कर डोर लूटा करते हें, रोज डोर बेच-बेच कर चखौतियाँ करते थे। अफीम का शौक हुआ, तो इतनी खरीदी कि टके सेर से सोलह रुपए सेर तक बिकने लगी। मालवा खाली, चीन खुक्खल, बंबई तक के गन्ने आते थे।
आजाद – ऐसे ही कितने रईस बिगड़ गए!
कमाली – रइसों के बनने-बिगड़ने की क्या फिक्र! यहाँ तो जो शौक किया, ऐसा ही किया; फिर भला बटेरबाजी में उनके सामने कौन ठहरता। उनके वक्त का अब यह एक सफशिकन बाकी रह गया है। बुजुर्गों की निशानी है। बस, यह समझिए कि मुहम्मदअली शाह के वक्त में खरीदा गया था। अब कोई सौ वर्ष का होगा, दो कम या दो ऊपर, मगर बुढ़ापे मे भी वह दमखम है कि मुर्ग को लपक कर लात दे तो वह भी चें बोल जाय। पारसल की दिल्लगी सुनिए, नवाब साहब के मामूँ तशरीफ लाए। उनमें भी रियासत की बू है। कनकौवा तो ऐसा लड़ाते हें कि मियाँ विलायत उनके आगे पानी भरें। दो-दो तोले अफीम पी जायँ और वही खमदम! बटेरबाजी का भी परले सिरे का शौक है। उनका जफरपैकर तो बला का बटेर है, बटेर क्या है, शेर है। मेरे मुँह से निकल गया कि हुजूर को तो बटेरों का बहुत शौक है, करोड़ों ही बटेर देख डाले होंगे, मगर सफशिकन सा बटेर तो हुजू्र ने भी न देखा होगा। बोले, इसकी हकीकत क्या है, जफरपैकर को देखो तो आँखें खुल जायँ, बढ़कर एक लात दे, तो सफशिकन क्या, आपको नोकदम पाली बाहर कर दे। हौसला हो, तो मँगवाऊँ। ‘दूसरे दिन पाली हुई। हजारों आदमी आ पहुँची। शहर भर में धूम थी कि आज बड़े मार्के का जोड़ है। जफरपैकर इस ठाट से आया कि जमीन हिल गई, और मेरा तो कलेजा दहलने लगा। मगर शफशिकन ने उस दिन आबरू रख ली, जभी तो नवाब साहब इसको बच्चों से भी ज्यादा प्यार करते हैं। पहले इसको दाना खिलवा लेते हैं, फिर कहीं आप खाते हैं। एक दिन खुदा जाने; बिल्ली देखी या क्या हुआ कि अपने आप फड़कने लगा। नवाब समझे कि बूँदा हो गया, फिर तो ऐसे धारोधार रोए कि घर भर में कुहराम मच गया। मैंने नवाब साहब को कभी रोते नहीं देखा। मुहर्रम की मजलिसों में एक आँसू नहीं निकलता। जब बड़े नवाब साहब सिधारे तो आँसू की एक बूँद न गिरी। यह बटेर ही ऐसा अनमोल है। सच तो यह है कि उसने उस दिन नवाब की सात पीढ़ियों पर एहसान किया। वल्लाह, जो कहीं घट जाता, तो मैं तो जंगल की राह लेता। मियाँ, जग में आबरू ही आबरू तो है, और क्या। खैर साहब, जैसे ही दोनों चक्की खा चुके, जफरपैकर बिजली की तरह सफशिकन की तरफ चला! आते ही दबोच बैठा, चोटी को चोंच से पकड़ कर ऐसा झपेटा कि दूसरा होता तो एक रगड़े में फुर्र से भाग निकलता। नवाब का चेहरा फक हो गया, मुँह पर हवाइयाँ छूटने लगीं कि इतने में सफशिकन लौट ही तो पड़ा। वाह मेरे शेर! खूब फिरा!! पाली भर में आवाज गूँजने लगी कि वह मारा है! एक लात ऐसी जमाई कि जफरपैकर ने मुँह फेर लिया। मुँह का फेरना था कि सफशिकन ने उचक कर एक झँझौटी बतलाई। वाह पट्ठे, और लगा! आखिर जफरपैकर नोकदम पाली बाहर भागा। चारों तरफ टोपियाँ उछल गईं। आज यह बटेर अपना सानी नहीं रखता। मियाँ आजाद, अब आप बटेरखाना अपने हाथ में लीजिए।’
नवाब – वल्लाह, यही मैं भी कहनेवाला था।
झम्मन – काम जरा मुश्किल है।
दुन्नी – बटेरों का लड़ाना दिल्लगी नहीं, बड़े तजरबे की जरूरत है।
आजाद – हुजूर फरमाते हैं, तो बटेरखाने की निगरानी मैं ही करूँगा।
कहने को तो आजाद ने यह कह दिया; मगर न कभी बटेर लड़ाए थे, न जानते थे कि इनको कैसे लड़ाया जाता है। घबराए, अगर कहीं नवाब के बटेर हारे तो सारी बला मेरे सिर पर पड़ेगी। कुछ ऐसी तदबीर करनी चाहिए कि यह बला टल जाय। जब शाम हुई तो वह सबकी नजरें बचा कर बटेरखाने में गए और काबुकों की खिड़कियाँ खोल दीं बटेर सब फुर्र से भाग गए। पिंजरे खाली हो गए। कई पुस्तों की बसाई हुई बस्ती उजड़ गई। बटेरों को उड़ा कर आजाद ने घर की राह ली।
दूसरे दिन मियाँ आजाद सबेरे मुँह अँधेरे बाजार में मटरगस्त करते हुए नवाब साहब की तरफ चले। बाजार भर में सन्नाटा! हलवाई भट्ठी में सो रहा है, नानबाई बरतन धो रहा है, बजाजा बंद, कुँजड़ों की दुकान पर अरुई न शकरकंद, जौहरियों की दुकान में ताला पड़ा हुआ है। मगर तंबाकू वाला जगा हुआ है। मेहतर सड़क पर झाड़ू दे रहा है। मैदेवाला पिसनहारियों से आटा ले रहा है। इतने में देखते क्या है कि एक आदमी लुंगी बाँधे, हाथ में चिलम लिए, बौखलाया हुआ घूम रहा है कि कहीं से एक चिनगारी मिल जाय तो दम लगे, धुआँधार हुक्का उड़े। जहाँ जाते हैं, ‘फिर’,’भाग’ की आवाज आती है। भाई, ऐसा शहर नहीं देखा जहाँ आग माँगे न मिले, जानों इसमें छप्पन टके खर्च होते हैं। मुहल्लेवालों को गालियाँ देते हुए नानबाई की दुकान पर पहुँचे और बोले – बड़े भाई, एक जरी आग तो झप से दे देना, मेरा यार, ला तो झटपट।
नानबाई – अच्छा,अच्छा, तो दुकान से अलग रहो, छाती पर क्यों चढ़े बैठते हो? यहाँ सौ धंधे करने हैं, आपकी तरह कोई बेफिकर तो हूँ नहीं कि तड़का हुआ, चिलम ली, और लगे कौड़ी दुकान माँगने! मिल गई तो खैर, नहीं तो गालियाँ देनी शुरू कीं। सबेरे-सबेरे अल्लाह का नाम न रामराम। चिलम लिए दुकान पर डट गए। वाह, अच्छी दिल्लगी है! ऐसी ही तलब है तो एक कंडी क्यों नहीं गाड़ रखते कि रात भर आग ही आग रहे। ऐसे ही उचक्के तो चोरी करते है। आँख चूकी, और माल गायब! क्या सहला लटका है कि चिलम ले कर आग माँगने आए हैं। किसी दिन मैं चिलमविलम न तोडताड़ कर फेंक दूँ। तुम तड़के-तड़के दुकान पर न आया करो जी, नहीं तो किसी दिन ठायँ-ठायँ हो जाएगी।
हजरत की आँखों से खून टपकने लगा, दाँत पीस कर रह गए। यहाँ से चले, तो हलवाई की दुकान पर पहुँचे और बोले – मियाँ एक जरा सी आग देना, भाई हो न! हलवाई का दूध बिल्ली पी गई थी, झल्लाया बैठा था, समझा कि कोई फकीर भीख माँगने आया है। झिड़क कर बोला कि और दुकान देखो। सबेरे-सबेरे कौड़ी की पड़ गई। जाता है, कि दूँ धक्का! रहे कहीं, मरे कहीं, कौड़ी माँगने यहाँ मौजूद। दुनिया भर के मुर्दे नानामऊ घाट! अब खड़ा घूरता क्या है?
चिलमबाज – कुछ वाही हुआ है बे! अबे, हम कोई फकीर हैं, कहीं मैं आ कर एक घस्सा दूँ न! लो साहब! हम तो आग माँगने आए हैं, यह हमको भिख-मंगा बनाता है! अंधा है क्या?
हलवाई – भिखमंगा नहीं, तू है कौन? लँगोटी बाँध ली और चले आग माँगने! तुम्हारे बाबा का कर्ज खाया है क्या!
बेचारे यहाँ से भी निराश हुए, चुपके से कान दबाए चल खड़े हुए। आज तड़के-तड़के किसका मुँह देखा था कि जहाँ जाते हैं, झौड़ हो जाती है। इतने में देखा कि एक सुनार की दुकान पर आग दहक रही है। उधर लपके। सुनार दुकान पर न था। यह तो हुक्के की फिक्र में चौंधियाए हुए थे ही, झप से दुकान पर चढ़ गए। सुनार भी उसी वक्त आ गया और इनको देख कर आगभभूका हो गया। तू कौन है बे? वाह, खाली दुकान पर क्या मजे से चढ़ आए! (एक धप जमा कर) और जो कोई अदद जाता रहता? इतने में दस-पाँच आदमी जमा हो गए। क्या है मियाँ, क्या है? क्यों भले आदमी की आबरू बिगाड़े देते हो?
सुनार – है क्या! यह हमारी दुकान पर चोरी करने आए थे।
चिलमबाज – मैं चोर हूँ, चोरी की ऐसी ही सूरत होती है?
एक आदमी – कौन! तुम! तुम तो हमें पक्के चोर मालूम होते हो। अच्छा, तुम फिर उनकी दुकान पर गए क्यों? दुकानदार नहीं था, तो वहाँ तुम्हारा क्या काम? जो कोई गहना ले भागते, तो यह तुम्हें कहाँ ढूँढ़ते फिरते।
सुनार – साहब, इनका फिर पता कहाँ मिलता, जाते जमुना उस पार। चलो थाने पर।
लोगों ने सुनार को समझाया, भाई, अब जाने दो। देखो जी, खबरदार, अब किसी की दुकान पर न चढ़ना, नहीं पथे जाओगे। सुनार ने छोड़ दिया। जब आप चलने लगे, तो उसे इन पर तरस आ गया। बोला, अच्छा आग लेते जाओ। हजरत ने आग पाई और घर की राह ली। तड़के-तड़के अच्छी बोहनी हुई, चोर बने, मार खाई, झिड़के गए, थाने जाते-जाते बचे, तब कहीं आग मिली।
मियाँ आजाद यह दिल्लगी देख कर आगे बढ़े और नवाब की ड्योढ़ी पर आए।
नवाब – आज इतना दिन चढ़ गया, कहाँ थे?
आजाद – हुजूर, आज बड़ी दिल्लगी देखने में आई, हँसते-हँसते लोट जाइएगा। तलब भी क्या बुरी चीज है।
यह कह कर आजाद ने सारी दास्तान सुनाई।
नवाब – खूब दिल्लगी हुई। आग के बदले चपलें पड़ीं। अरे मियाँ, जरा खोजी को बुलाना। हाँ, जरा खोजी के सामने सुनाना। किसी दिन यह भी न पिटें।
खोजी नवाब के दरबार में मसखरे थे। ठेंगना कद, काले कौए का सा रंग, बदन पर माँस नहीं, पर आँखों में सुरमा लगाए हुए। लुढ़कते हुए आए और बोले – गुलाम को हुजूर ने याद किया है?
नवाब – हाँ, इस वक्त किस फिक्र में थे?
खोजी – खुदाबंद, अफीम घोल रहा था, और कोई फिक्र तो हुजूर की बदौलत करीब नहीं फटकने पाती। मैं फिक्र क्या जानूँ, ‘जोरू न जाँता, अल्लाह मियाँ से नाता।’
नवाब – अच्छा खोजी, इस हौज में नहाओ तो एक अशर्फी देता हूँ।
खोजी – हुजूर, अशर्फियाँ तो आपकी जूतियों के सदके से बहुत सी मिल जायँगी, मगर फिर जीना कठिन हो जाएगा। न मरे सही, लकिन ‘नकटा जिया बुरे हवाल!’ न साहब, मुझे तो कोई एक गोते पर एक अशर्फी दे, तो भी पानी में न पैठूँ, पानी की सूरत देखे बदन काँप उठता है।
दुन्नी – कैसे मर्द हो कि नहाने से डरते हो!
खोजी – हम नहीं नहाते तो आप कोई काजी हैं?
आजाद – अजी, सरकार का हुक्म है।
खोजी – चलिए, आपकी बला से। कहने लगे सरकार का हुक्म है। फिर कोई अपनी जान दे।
आजाद – हुजूर, जो इस वक्त यह हौज में धम से न कूद पड़ें, तो अफीम इन्हें न मिले।
खोजी – आप कौन बीच में बोलनेवाले होते हैं? अरसठ बरस से तो मैं अफीम खाता आया हूँ, अब आपके कहने से छोड़ दूँ, तो कहिए, मरा या जिया?
नवाब – अच्छा भाई, जाने दो। दूध खाओगे?
खोजी – वाह खुदावंद, नेकी और पूछ-पूछ। लेकिन जरी मिठास खूब हो। शाहजहाँपुर की सफेद शक्कर या कालपी की मिश्री घोलिएगा। अगर थोड़ा सा केवड़ा भी गबड़ दीजिए तो पीते ही आँखें खुल जाएँ।
इतने में एक चोबादार घबराया हुआ आया और बोला – खुदावंद, गजब हो गया। जाँबख्शी हो तो अर्ज करूँ, सब बटेर उड़ गए।
नवाब – अरे! सब उड़ गए?
चोबदार – क्या कहूँ, हुजूर, एक का भी पता नहीं।
मुसाहबों ने हाय-हाय करनी शुरू की, कोई सिर पीटने लगा, कोई छाती कूटने लगा। नवाब ने रोए हुए कहा, भाई और जो गए सो गए, मेरे सफशिकन को जो कोई ढूँढ़ लाए, हजार रुपए नकद दूँ। इस वक्त मैं जीते जी मर मिटा। अभी साँड़नी सवारों को हुक्म दो कि पचकोसी दौरा करें। जहाँ सफशिकन मिले, समझा-बुझा कर ले ही आएँ।
झम्मन – उनको समझाना, हुजूर, मुश्किल है। वह तो अरबी में बातें करते हैं। सारा कुरान उन्हें याद है। उनसे कौन बहस करेगा?
नवाब – मुझे तो उससे इश्क हो गया था जी, वह नोकीली चोंच, वह अकड़-अकड़ कर काकुन चुनना! सैकड़ों पालियाँ लड़ीं, मगर कोरा आया।
किस बाँकपन से झपट कर लात देता था कि पाली भर थर्रा उठती थी। उसकी विसात ही क्या थी, मझोला जानवर, लेकिन मैदान का शेर। यह तो मैं पहले ही से जानता था कि यह बटेर की सूरत में किसी फकीर की रूह है। अब सुना कि नमाज भी पढ़ता था।
झम्मन – हुजूर को याद होगा कि रमजान के महीने में उसने दिन के वक्त दाना तक न छुआ; हुजूर समझे थे कि बूँदा हो गया, मगर मैं ताड़ गया कि रोजे से है।
खोजी – खुदावंद, अब मैं हुजूर से कहता हूँ कि दस-पाँच दफा मैंने अफीम भी पिला दी; मगर वल्लाह, जो जरा भी नशा हुआ हो।
कमाली – हुजूर, यकीन जानिए, पिछले पहर से सुबह तक काबुक से हक-हक की आवाज आया करती थी। गफूर, तुमको भी तो हमने कई बार जगा कर सुनाया था कि सफशकिन खुदा को याद कर रहे हैं।
नवाब – अफसोस, हमने उसे पहचाना ही नहीं। दिल डूबा जाता है, कोई पंखा झलना।
मुसाहब – जल्दी पंखा लाओ।
नवाब -प्रीतम जो मैं जानती कि प्रीत किए दुख होय;
नगर ढिंढोरा पीटती कि प्रीत करै जनि कोय।
खोजी – (पिनक से चौंक कर) हाँ उस्ताद, छेड़े जा। इस वक्त तो मियाँ शोरी की रूह फड़क गई होगी।
नवाब – चुप, नामाकूल। कोई है? इसको यहाँ से टहलाओ। यह रईसों की सोहबत के काबिल नहीं। मुझको भी कोई गवैया समझा है। यहाँ तो जी जलता है, इनके नजदीक कौवाली हो रही है।
खोजी – खुदावंद, गुलाम तो इस दम अपने आपे में नहीं। हाय, सफशिकन की काबुक खाली हो और मैं अपने आपे में रहूँ! हुजूर ने इस वक्त मुझ पर बड़ा जुल्म किया।
नवाब – शाबाश खोजी, शाबास! मुआफ करना, मैं कुछ और ही समझा था। क्यों जी, साँड़नी-सवार दौड़ाया गया कि नहीं?
सवार – हुजूर, जाता तो हूँ, मगर वह मेरी क्या सुनेंगे, कोई मौलवी भी तो साथ भेजिए, मैं तो कुछ ऊँट ही चढ़ना जानता हूँ, उनसे दलील कौन करेगा भला!
आजाद – किसी अच्छे मोलवी को बुलवाना चाहिए।
मुसाहिबों ने एक मौलाना साहब को तजवीजा। मगर यारों ने उनसे कुल दास्तान नहीं बयान की। चोबदार ने मकान पर जा कर सिर्फ इतना कहा कि नवाब साहब ने आपको याद किया है। मौलवी साहब उसके साथ हो लिए और दरबार में आ कर नवाब साहब को सलाम किया।
नवाब – आपको इसलिए तकलीफ दी कि मेरी आँखों का नूर, मेरे कलेजे का टुकड़ा नाराज होकर चला गया है। बड़ा आलिम और दीनदार है, बहस करने में कोई उससे पेश नहीं पाता, आप जाइए और उसको माकूल करके ले आइए।
मौलाना – माँ-बाप का कड़ा हक होता है। वह कैसे नादान आदमी हैं?
खोजी – मौलाना साहब, वह आदमी नहीं हैं, बटेर हैं। मगर इल्म और अक्ल में आदमियों के भी कान कटते हैं।
कमाली – सफशिकन का नाम तो मौलाना साहब, आपने सुना होगा। वह तो दूर-दूर तक मशहूर थे। जनाब; बात यह है कि सरकार का बटेर सफशिकन कल काबुक से उड़ गया। अब यह तजबीज हुई है कि एक-एक साँड़नी-सवार जाय और उसे समझा-बुझा कर ले आए। मगर ऊँटवान तो फिर ऊँटवान, वह दलील करना क्या जाने, इसलिए आप बुलाए गए हैं कि साड़नी पर सवार हों, और उनको किसी तदबीर से ले आएँ।
मौलाना – ठीक, आप सब के सब नशे में तो नहीं हैं? होश की बातें करो। खुद मसखरे बनते हो। बटेर भी आलिम होता है, वह भी कोई मौलवी है, ला हौल! अच्छे-अच्छे गाउदी जमा हैं। बंदा जाता है।
नवाब – यह किस कोढ़मगज को लाए थे जी? खासा जाँगलू है।
आजाद – अच्छा, हुजूर भी क्या याद करेंगे कि इतने बड़े दरबार में एक भी मंतकी न निकला। अब गुलाम ने बीड़ा उठा लिया कि जाऊँगा और सफशिकन को लाऊँगा। मुझे एक साँड़नी दीजिए, मैं उसे खुद ही चला लूँगा। खर्च के लिए कुछ रुपए भी दिलवाइए, न जाने कितने दिन लग जायँ।
नवाब – अच्छा, आप घर जाइए और लैस हो कर आइए।
मियाँ आजाद घर गए तो और मुसाहिबों में खिचड़ी पकने लगी – यार, यह तो बाजी जीत ले गया। कहीं से एक आध बटेर पकड़ कर लाएगा और कहेगा, यही सफशिकन है। फिर तो हम सब पर शेर हो जाएगा। हमको आपको कोई न पूछेगा। खोजी जा कर नवाब साहब से बोले – हुजूर, अभी मियाँ आजाद दो दिन से इस दरबार में आए हैं, उनका एतबार क्या? जो साँड़नी ही लेकर रफूचक्कर हों, तो फिर कोई कहाँ उनका पता लगता फिरेगा।
कमाली – हाँ खुदावंद कहते तो सच हैं।
झम्मन – खोजी सूरत ही से अहमक मालूम होते हैं, मगर बात ठिकाने की कहते हैं। ऐसे आदमी का ठिकाना क्या?
दुन्नी – हम तो हुजूर को सलाह न देंगे कि मियाँ आजाद को साँड़नी और सफर-खर्च दीजिए। जोखिम की बात है।
नवाब – चलो, बस, बहुत न बको। तुम खुद जैसे हो, वैसा ही दूसरों को समझते हो। आजाद की सूरत कहे देती है कि कोई शरीफ आदमी है, और मान लिया कि साँड़नी जाती ही रहे, तो मेरा क्या बिगड़ जाएगा? सफशिकन पर से लाखों सदके हैं। साँड़नी की हकीकत ही क्या।
इतने में मियाँ आजाद घर से तैयार होकर आ गए। अशर्फियों की एक थैली खर्च के लिए मिली। नवाब ने गले लगा कर रुखसत किया। मुसाहब भी सलाम बजा आए। आजाद साँड़नी पर बैठे और साँड़नी हवा हो गई।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 4
आजाद यह तो जानते ही थे कि नवाब के मुहाहबों में से कोई चौक के बाहर जानेवाला नहीं इसलिए उन्होंने साँड़नी तो एक सराय में बाँध दी और आप अपने घर आए। रुपए हाथ में थे ही, सवेरे घर से उठ खड़े होते, कभी साँड़नी पर, कभी पैदल, शहर और शहर के आस-पास के हिस्सों में चक्कर लगाते, शाम को फिर साँड़नी सराय में बाँध देते और घर चले आते। एक रोज सुबह के वक्त घर से निकले तो क्या देखते हैं कि एक साहब केचुललेट का धानी रँगा हुआ कुरता, उस पर रुपए गजवाली महीन शरबती का तीन कमरतोई का चुस्त अँगरखा, गुलबदन का चूड़ीदार घुटन्ना पहने, माँग निकाले, इत्र लगाए, माशे भर की नन्ही सी टोपी आलपीन से अटकाए, हाथों में मेहँदी, पोर-पोर छल्ले, आँखों में सुर्मा, छोटे पंजे का मखमली जूता पहने, एक अजब लोच से कमर लचकाते, फूँक-फूँक कर कदम रखते चले आते थे। दोनों ने एक दूसरे को खूब जोर से घूरा। छैले मियाँ ने मुसकराते हुए आवाज दी – ऐ, जरी इधर तो देखो, हवा के घोड़े पर सवार हो! मेरा कलेजा बल्लियों उछलता है। भरी बरसात के दिन, कहीं फिसल न पड़ो, तो कहकहा उड़े।
आजाद – आप अपना मतलब कहिए, मेरे फिसलने की फिक्र न कीजिए।
छैला – गिरिएगा, तो मुझसे जरूर पूछ लीजिएगा।
आजाद – बहुत खूब, जरूर पूछूँगा, बल्कि आपको साथ ले कर, गिरूँ तो सही।
छैला – खुदा की कसम, आपके, काले कपड़ों से मैं समझा कि बनैला कुसुम के खेत से निकल पड़ा।
आजाद – और मैं आपको देख कर यह समझा कि कोई जनाना मटकता जाता है।
छैला – वल्लाह, आपकी धज ही निराली है। यह डबल कोट और लक्कड़तोड़ बूट! जाँगलू मालूम होते हो! इस वक्त ऐसे बदहवास कहाँ बगटुट भागे जाते हो? सच कहिएगा, आपको हमारी जान की कसम।
आजाद – आज प्रोफेसर लॉक संस्कृत पर एक लेक्चर देनेवाले हैं, बड़े मशहूर आलिम हैं। योरप में इनकी बड़ी शोहरत है।
छैला – भाई, कसम खुदा की, कितने भोंड़े हो। प्रोफेसर के मशहूर होने की एक ही कही। हम इतने बड़े हुए, कसम ले लो, जो आज तक नाम भी सुना हो। क्या दुन्नीखाँ से ज्यादा मशहूर हैं? भाई, जो कहीं ‘तुम्हारे घूँघरवाले बाल’ एक दफा भी उसकी जबान से सुन लो, तो उम्र-भर न भूलो। वल्लाह, क्या टीपदार आवाज है; मगर तुम ऐसे कोढ़मगजों को गलेबाजी से क्या वास्ता, तुम तो प्रोफेसर साहब के फेर में हो।
आजाद – तुम्हारी जिंदगी राग और लै ही में गुजरेगी। इस नाच और रंग ने आपकी यह गति बनाई कि मूँछ और दाढ़ी कतरवाई, मेहँदी लगवाई और मर्द से औरत बन गए। अरे, अब तो मर्द बनो, इन बातों से बाज आओ।
छैला – जी, तो आपके प्रोफेसर लॉक के पास चला जाऊँ? अपने को आपकी तरह गड्डामी बनाऊँ। किसी गली-कूचे में निकल जाऊँ तो तालियाँ पड़ने लगें।
आजाद – अब यह फरमाइए कि इस वक्त आप कहाँ के इरादे से निकले हैं?
छैला – कल रात को तीन बजे तक एक रँगीले दोस्त के यहाँ नाच देखता रहा। वह प्यारी-प्यारी सूरतें देखने में आईं कि वाह जी वाह! किस काफिर का उठने को जी चाहता हो। जलसा बरखास्त हुआ तो बस, कलेजे को दोनों हाथों से थाम कर निकले; लेकिन रात भर कानों में छमाछम की आवाज आया की। परियों की प्यारी-प्यारी सूरत आँखों में फिरा की। अब इस वक्त फिर जाते हैं, जरा सेक आएँ, भैरवी उड़ रही होगी –
‘रसीले नैनों ने फंदा मारा।’
आजाद – कल फुरसत हो तो हमसे मिलिएगा।
छैला – कल तक तो मेरी नींद का खुमार ही रहेगा।
आजाद – अच्छा, परसों सही।
छैला – परसों? परसों तो खुदा भी बुलाए तो बंदा न जाने का। परसों नवाब साहब के यहाँ बटेरों की पाली है, महीनों से बटेर तैयार हो रहे हैं।
आजाद – अच्छा साहब, परसों न सही, मंगल को सही।
छैला – मंगल को तड़के से बाने की कनकइयाँ लड़ेंगी, अभी बनारस से बाना मँगाया है, माही जाल की कदकइयाँ ऐसी सधी हैं कि हरदम काबू में, मोड़ो, गोता दो, खींचो, जो चाहे सो करो, जैसे खेत का घोड़ा।
आजाद – अच्छा, बुद्ध को फुरसत है!
छैला – वाह-वाह, बुद्ध को तो बड़े ठाट से भठियारियों की लड़ाई होगी। देखिए तो, कैसी-कैसी भटियारियाँ किस बाँकी अदा से हाथ चमका कर, उँगलियाँ मटका कर लड़ती हैं और कैसी-कैसी गालियाँ सुनाती हैं कि कान के कीड़े मर जायँ।
आजाद – बिरस्पत को तो जरूर मिलिएगा?
छैला – जनाब, आप तो पीछे पड़ गए, मिलूँ तो सब कुछ, जब फुरसत भी हो। यहाँ मरने तक की तो फुरसत नहीं, अब की नौचंदी जुमेरात है, बरसों से, मन्नतें मानी हैं, आपको दीनदुनिया की खबर तो है नहीं।
आजाद – तो मालूम हुआ, आपसे मुलाकात नहीं होगी। आज मुर्ग लड़ाइएगा, कल पतंग लड़ाइएगा, कहीं गाना होगा, कहीं नाच होगा, आप न हों तो रंग क्योंकर जमे। मेला-ठेला तो आपसे कोई काहे को छूटता होगा फिर भला मिलने की कहाँ फुरसत? रुखसत।
छैला – ऐ, तो अब रूठे क्यों जाते हैं?
आजाद – अब मुझे जाने दीजिए, आपका और हमारा मेल जैसे गन्ना और मदार का साथ। जाइए, देखिए, भैरवी का लुत्फ जाता है।
छैला – जनाब, अब नाच-गाने का लुत्फ कहाँ, वह चमक-दमक अब कहाँ, दिल ही बुझ गया। जो लुत्फ हमने देखे हैं, वह बादशाहों को ख्वाब में नसीब न हुए होंगे। यह कैसरबाग अदन को मात करता था। परियों के झुंड, हसीनों के जमघट, रात को दिन का समाँ रहता था। अब यहाँ क्या रह गया! गली कूचों में कुत्ते लौटते हैं। एक वह जमाना था कि साकिनों के मिजाज न मिलते थे। बाँके-तिरछे, रईसजादे एक-एक दम की दो-दो अशर्फियाँ फेंक देते थे। अब तो शहर भर में इस सिरे से उस सिरे तक चिराग लेकर ढूँढ़िए तो मैदान खाली है। कल नई सड़क की तरफ जो निकला, तो नुक्कड़ पर एक हाथी बँधा देखा। पूछा, तो मालूम हुआ कि बी हैदरजान का हाथी है। कसम खुदा की, ऐसा खुश हुआ कि आँखों में आँसू आ गया।
खुदा आबाद रक्खे लखनऊ को फिर गनीमत है;
नजर कोई न कोई अच्छी सूरत आ ही जाती है।
आजाद – अच्छा, यह सब जलसे आपने देखे और अब भी आँखों सेका ही करते हैं; मगर सच कहिएगा, बने या बिगड़े, बसे या उजड़े, नेकनाम हुए या बदनाम? यहाँ तो नतीजा देखते हैं।
छैला – जनाब यह तो बड़ा कड़ा सवाल है। सच तो यों है कि उम्र भर इस नाचरंग ही के फदे में फँसे रहे, दिन रात तबला, सारंगी, बायाँ, ढोल, सितार की धुन में मस्त रहे। खुदा की यादत ताक पर, इल्म छप्पर पर, छटे हुए शोहदे बन बैठे; लेकिन अब तो पानी में डूब गए, ऊपर एक अंगुल हो तो, और एक हाथ हो तो, बराबर है। आप लोग इस भरोसे में हों कि हमें आदमी बनाएँ तो यह खैर-सलाह है। बूढ़ें तोते भी कहीं राम-राम पढ़ते हैं?
आजाद – खैर, शुक्र है कि आप अपने को बिगड़ा हुआ समझते तो हैं। कड़ुए न हूजिए तो कहूँ कि इस जनाने भेस पर लानत भेजिए, यह लोच, यह चलक, यह मेहँदी, यह मिस्सी, कुछ औरतों ही को अच्छी मालूम होती है। जरा तो इस दाढ़ी-मूँछ का खयाल करो।
छैला – यह भर्रे किसी ऐसे-वैसे को दीजिए, यहाँ बड़े-बड़ों की आँखें देखी हैं। आपके झाँसे में कोई अनारी आए, हम पर चकमा न चलने का।
आजाद – आपको डोम-डारियों ही की सोहबत पसंद आई या किसी और की भी? लखनऊ में तो हर फन के आदमी मौजूद हैं।
छैला – हम तो हमेशा ऐसी ही टुकड़ी में रहे। घर फूँक तमाशा देखा। लँगोटी में फाग खेला। मियाँ शोरी के टप्पे, कदर मियाँ की ठुमरियाँ, घसीटखाँ की टीपदार आवाज प्यारेखाँ का खयाल छोड़ कर जायँ कहाँ? सारंगी-मँजीरे की आवाज सुनी तो छप से घुस पड़े, मसजिद में अजान हुआ करे, सुनता कौन है। बहुत गुजर गई, थोड़ी बाकी है।
आजाद – लखनऊ में ऐसे-ऐसे आलिम पड़े हैं कि जिनका नाम आफताब की तरह सारी खुदाई में रोशन है। कर्बला और मदीने तक के समझदार लोग इन बुजुर्गों का कलाम शौक से पढ़ते हैं। मुफ्ती सादुल्लाह साहब, सैयद मुहम्मद साहब, वगैरह उल्मा का नाम बच्चे-बच्चे की जबान पर है। अब शायरों को देखिए, ख्वाजा हैदरअली आतश, शेख नासिख अपने फन के खुदा थे। मरसिया कहना तो लखनऊ वालों का हिस्सा है। मीर अनीस साहब को खुदा बख्शे, जबान की सफाई तो यहाँ खत्म हो गई। मिर्जा दबीर तो गोया अपने फन के मवज्जिद थे। नसीम और सबा ने आतश को भड़का दिया। गोया तो गोया शायरी के चमन का बुलबुल था। मिर्जा रज्जबअली बेग सरूर ने वह नस्र लिखी कि कलम तोड़ दिए। यहाँ के कारीगरों के भी झंडे गड़े हैं। कुम्हार तो ऐसे दुनिया के पर्दे पर न होंगे। मिट्टी की मूरतें ऐसी बनाई कि मुसब्बिरों की किर-किरी हो गई। बस, यही मालूम होता है कि मूरत बोलना ही चाहती है। जिस अजायबघर में जाइएगा, लखनऊ के कुम्हारों की कारीगरी जरूर पाइएगा। खुशनवीसों ने वह कमाल पैदा किया कि एक-एक हर्फ की पाँच-पाँच अशर्फियाँ लीं। बाँके ऐसे कि शेर का पंजा तोड़ डालें, हाथी को डपटें तो चिग्घाड़ कर मंजिलों भागे। रुस्तम और इस्फंदियार को चुटकियों में लड़ा दें। उस्ताद मुहम्मद अली खाँ फिकैत, छरहरा बदन, लेकिन गदका हाथ में आने की देर थी। परे के परे दम में साफ कर दिए। कड़क कर तमाचे का तुला हाथ लगाया, तो दुश्मन का मुँह फिर गया। अखाड़े में गदका लेकर खड़े हुए, तो मालूम हुआ, बिजली चमक गई। एक दफा ललकार दिया कि रोक, बैठ गई! देख सँभल। खबरदार, यह आई, वह आई, वह पड़ गई! वाह-वाह की आवाज सातवें आसमान जा पहुँची। बला की सफाई, गजब की सफाई थी। जो मुँह चढ़ा, उसने मुँह की खाई। सामने गया और शामत आई। कामदानी वह ईजाद की कि उड़ीसा और कोचीन तक धूम हो गई। लेकिन आपको तो न इल्म से सरोकार, न फन से मतलब; आप तो ताल-सुर के फेर में पड़े हैं।
छैला – हजरत, इस वक्त भैरवी सुनने जाता था और ‘जागे भाग प्यारा नजर आया’ सुनने का शौक चर्राया था;लेकिन आपने पादरियों की तरह बकवास करके काया पलट दी। आप जो हमें राह पर लाते हो, तो इतना मान जाओ कि जरा कदम बढ़ाए हुए, हमारे साथ हाथ में हाथ दिए हुए, पाटेनाले तक चले चलो; देखूँ तो परस्तिान से क्योंकर भाग आते हो? उन्हीं हसीनों का सिजदा ना करो, तो कुद जुर्माना दूँ। उस इंद्र के अखाड़े से कोरे निकल आओ, तो टाँग की राह निकल जाऊँ।
आजाद – (घड़ी जेब से निकाल कर) ऐं! आठ पर इक्कीस मिनट! इस खुशगप्पी ने आज बड़ा सितम ढाया, लेक्चर सुनने में न आया। मुफ्त की बकबक झकझक! लेक्चर सुनने काबिल था।
छैला – अल्लाह जानता है, इस वक्त कलेजे पर साँप लोट रहे हैं! न जाने तड़के-तड़के किस मनहूस का मुँह देखा है कि भैरवी के मजे हाथ से गए?
आजाद – आप भी निरे चोंच ही रहे। इतनी देर तक समझाया, सिरमगजन की, मगर वाह रे कुत्ते की दुम, बारह बरस बाद भी वह टेढ़ी ही निकली।
छैला – तो मेरे साथ आइए न, बगलें क्यों झाँकते हो? जब जाने कि निलोह निकल आओ।
आजाद – अच्छा चलिए, देखें, कौन सा हसीन अपनी निगाहों के तीर से हमें घायल करता है! बरसों के खयालों को कोई क्या मिटा देगा? हम, और किसी के थिरकने पर फिदा हो जायँ! तोबा! कोई ऐसा माशूक तो दिखाइए, जिसे हम प्यार करें। हमारा माशूक वह है जिसमें कमाल हो। जुल्फ और चोटी पर कोई और सिर धुनते हैं।
खुलासा यह कि आजाद छैले मियाँ के साथ हाफिज जी के मकान में जा पहुँचे। महफिल सजी हुई थी। तीन-चार हसीनें मिल कर मुबारकबाद गाती थीं। यही मालूम होता था कि राग और रागिनी हाथ बाँधे खड़ी हैं। जिसे देखो, गर्दन हिलाता है। पाजेब की छमाछम दिल को रौंदती है, कोई इधर से उधर चमक जाती है, कोई ऊँचे सुरों में तान लगाती है, कोई सीने पर हाथ रख कर ‘गहरी नदिया’ बताती है, कोई नशीली आँखों के इशारे से ‘नैना रसीले’ की छवि दिखाती है, धमा-चौकड़ी मची हुई है। छैले मियाँ ने एक हसीन से फरमाइश की कि हजरत मीर की यह गजल गाओ –
गैर के कहने से मारा उसने हम को बे-गुनाह;
यह न समझा वह कि वाकया में भी कुछ था या न था।
याद ऐयामे कि अपनी रोजोशब की जायबाश;
था दरे बाजे बयाबाँ, या दरे मयखाना था।
इस गजल ने वह लुत्फ दिखाया और ऐसा रंग जमाया कि मियाँ आजाद तक ‘ओ हो!’ कह उठते थे; इसके बाउद एक परी ने यह गजल गाई –
हाल खुले तो किस तरह यार की वज्दे-नाज का;
जो है यहाँ वह मस्त है अपनी ही सोजोसाज में।
इस गजल पर जलसे में कुहराम मच गया। एक तो गजल हक्कानी, दूसरे हसीना की उठती जवानी, तीसरे उसकी नाजुकबयानी। लोग इतने मस्त हुए कि झूम-झूम कर यही शेर बढ़ते थे –
हाल खुले तो किस तरह यार की वज्दे-नाज का;
जो है यहाँ वह मस्त है अपनी ही सोजोसाज में।
अब सबको शकी जगह यकीन हो गया कि अब किसी का रंग न जमेगा। हर तरफ से हक्काली गजलों की फरमाइश है। न धुर्पद का खयाल, न टप्पे की फिक्र, न भैरवी की धुन, न पक्के गाने का जिक्र, बस हक्कानी गजलों की धूम है।
अब दिल्लगी देखिए कि बुड्ढे-जवान सब के सब बेधड़क उस मोहनी को घूर रहे हैं। कोई उससे आखें लड़ाता है, कोई सिर धुनता है, कोई ठंडी आहें खींचता है। दो-चार मनचले रईसों ने हसीनों को बुला कर बड़े शौक से पास बैठाया। नोंक-झोंक, हँसी मजाक, चुहल-दिल्लगी, धोल-धप्पा होने लगा। हाफिज जी भी बेसींग के बछड़े बने हुए मजे से चौमुखी लड़ रहे हैं।
बूढ़े मियाँ – आजकल के लड़कों को भी हवा लगी है।
एक जवान – जनाब, अब तो हवा ही ऐसी चली है कि जवान तो जवान, बुड्ढों तक को बुढ़भस लगा है। सौ बरस का सिन, चार के कंधों पर लदने के दिन, मगर जवानी ही के दम भरते हैं।
बूढ़े मियाँ – अजी, हम तो जमाने भर के न्यारिये, हमें कोई क्या चंग पर चढ़ायगी; मगर तुम अभी जुमा-जुमा आठ दिन की पैदायश, ऐसा न हो, उनके फेर में आ जाओ; फिर दीन दुनिया दोनों को रो बैठो।
जवान – वाह जनाब, आपकी सोहबत में हम भी पक्के हो गए हैं; ऐसे कच्चे नहीं कि हम पर किसी के दाँव-पेंच चलें।
बूढ़े मियाँ – कच्चे-पक्के के भरोसे न रहिएगा, इन हसीनों का बड़े-बड़ें जाहिदों ने सिजदा किया है; तुम किस खेत की मूली हो।
जवान – इन बुतों को हम फकीरों से भला क्या काम है, ये तो तालिब जर के हैं और याँ खुदा का नाम है।
हसीना – इन बड़े मियाँ से कोई इतना तो पूछो कि बाल-बाल गल कर बर्फ सा सफेद हो गया और अब तक सियाहकारी न छोड़ी, यह समझाते किस मुँह से हैं? इनकी सुनता कौन है! जरा शेख जी, बहुत बढ़-बढ़ कर बातें न बनाया कीजिए; शाहछड़ेवाली गली में रोज बीस-बीस चक्कर होते हैं; ऐ, तुम थकते भी नहीं!
हाफिज जी – शेख जी जहाँ बैठते हैं, झगड़ा जरूर खरीदते हैं। आप हैं कौन? आए कहाँ से नासेह बन के! अच्छा, जी साहब, अपना कलाम सुनाइए; मगर शर्त यह है कि अब हम तारीफ करें तो झुक के सलाम कीजिए।
हसीना – आप हैं तो इसी लायक कि दूर ही से झुक कर सलाम कर लें।
इधर तों यह बातें हो रही थीं, उधर दूसरी टुकरी में गाली और फक्कड़ का छर्रा चलता था। तीसरे में धौल-धप्पा होता था। लड़के, जवान, बूढ़े बेधड़क एक दूसरे पर फबतियाँ कसते थे। इतने में दोपहर की तोप दगी, जलसा बरखास्त, तबल्चियों ने बोरिया-बँधना उठाया। चलिए, सन्नाटा हो गया।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 5
मियाँ आजाद की साँड़नी तो सराय में बँधी थी। दूसरे दिन आप उस पर सवार हो कर घर से निकल पड़े। दोपहर ढले एक कस्बे में पहुँचे। पीपल के पेड़ के साये में बिस्तर जमाया। ठंडे-ठंडे हवा के झोंकों से जरा दिल को ढारस हुई, पाँव फैला कर लंबी तानी, तो दीन दुनिया की खबर नहीं। जब खूब नींद भर कर सो चुके, तो एक आदमी ने जगा दिया। उठे, मगर प्यास के मारे हलक में काँटे पड़ गए। सामने इंदारे पर एक हसीन औरत पानी भर रही थी। हजरत भी पहुँचे।
आजाद – क्यों नेकबख्स, हमें एक जरा सा पानी नहीं पिलातीं। भरते न बनता हो तो लाओ हम भरें। तुम भी पियो, हम भी पिएँ, एहसान होगा।
औरत ने कोई जवाब न दिया, तीखी चितवन से देखकर पानी भरती रही।
आजाद – ‘सखी से सूम भला, जो देवे तुरत जवाब।’ पानी न पिलाओ, जवाब तो दे दो। यह कस्बा तो अपने हक में कर्बला का मैदान हो गया। एक बूँद पानी को तरस गए।
औरत ने फिर भी जवाब न दिया। पानी भर कर चली।
आजाद – भई, अच्छा गाँव है! जो बात है, निराली! एक लुटिया पानी न मिला, वाह री किस्मत! लोग तो इस भादों की जलती-बलती धूप में पौसरे बैठाते हैं, केवड़ा पड़ा हुआ पानी पिलाते हैं, यहाँ कोई बात तक नहीं सुनता।
मियाँ आजाद को हैरत थी कि इस कमसिन नाजनीन का यहाँ इस बीराने मे क्या काम। साये की तरह साथ हो लिए। वह कनखियों से देखती जाती थी; मगर मुँह नहीं लगाती थी। बारे, सड़क से दाएँ हाथ पर एक फाटक के सामने वह बैठ गई और पेड़ के साये में सुस्ताने लगी। आजाद ने कहा अगर यह बर्तन भारी हो तो लाओ मैं ले चलूँ, इशारे की देर है। कसम लो, जो एक बूँद भी पीऊँ, गो प्यास के मारे कलेजा मुँह को आता है और दम निकला जाता है; लेकिन तुम्हारा दिल दुखाना मंजूर नहीं।
हसीना ने इसका भी जवाब न दिया। फिर हिम्मत करके उस बर्तन को उठाया और फाटक के अंदर हो रही। मियाँ आजाद भी चुपके-चुपके दबे पाँव उसके पीछे-पीछे गए। हसीना एक खुले हुए छोटे से बँगले में जा बैठी और आजाद दरख्तों की आड़ में दबक रहे कि देखें, यहाँ क्या गुल खिलता है। उस बँगले के चारों तरफ खाई खुदी हुई थी, इर्द-गिर्द सरपत बोई हुई थी, ऐसी घनी कि चिड़िया तक का गुजर न हो; और वह तेज कि तलवार मात। बड़ा ऊँचा मेहराबदार फाटक लगा हुआ था। वह जौहरदार शीशम की लकड़ी थी कि बायद व शायद। क्यारियाँ रोज सींची जाती थीं, रविशों पर सुर्खी कटी थी, हरे भरे दरख्त आसमान से बातें कर रहे थे। कहीं अनार की कतार, कहीं लखवट की बहार, इधर आम के बाग, अमरूद और चकोतरों से टहनियाँ फटी पड़ती थीं, नारँगियाँ शाखों पर लदी हुई थीं, फूलों की बू-बास, कहीं गुलमेहँदी, कहीं गुल-अब्बास, नेवाड़ी फूली हुई, ठंडी-ठंडी हवा, ऊदी-ऊदी घटा, कलियों की चिटक, जूही की भीनी महक, कनैल की दमक। बाग के बीचों-बीच में एक तीन फुट का ऊँचा पक्का चबूतरा बना था। यह तो सब कुछ था; मगर रहनेवाले का पता नहीं। उस हसीना की चालढाल से भी बेगानापन बरसता था। एकाएक उसने बर्तन जमीन पर रख दिया और एक नेवाड़ की पलंगरी पर सो रही। इनको दाँव मिला, तो खूब छक कर मेवे खाए और बर्तन को मुँह से लगाया, तो एक बूँद भी न छोड़ा। इतने में पाँव की आहट सुनाई दी। आजाद झट अंगूर की टट्टी में छिप रहे; मगर ताक लगाए बैठे थे कि देखें, है कौन! देखा कि फाटक की तरफ से कोई आहिस्ता-आहिस्ता आ रहा था। बड़ा लंबा-तड़ंगा, मोटा-ताजा आदमी था। लँगोट बाँधे, अकड़ता उस बँगले की तरफ जा रहा था। समझे कि कोई पहलवान अपने अखाड़े से आया है। नजदीक आया, तो यह गुमान दूर हो गया। मालूम हुआ कि कोई शाह जी हैं। वह लँगोट, जिससे पहलवान का धोखा हुआ था, तहमद निकला। शाह साहब सीधे बँगले में दाखिल हुए। औरत को पलंग पर सोता पाया, तो पलंग पर हाथ मार कर चिल्ला उठे – उठ। हसीना घबराकर उठ बैठी और शाह जी के कदम चूमे। शाह जी एक तिरपाई पर बैठ गए और उससे यों बातें करने लगे – बेटी, आज तुमको हमारे सबब से बहुत राह देखनी पड़ी। यहाँ से दस कोस पर एक गाँव में एक राजा रहता है। अस्सी बरस का हो गया; मगर अल्लाह ने न लड़का दिया, न लड़की। एक दिन मुझे बुलवाया। मैं कहीं आता-जाता तो हूँ नहीं, साफ कहला भेजा कि तुम्हें गरज हो तो आओ, खुदा के बंदे खुदा के सिवा और किसी के द्वार पर नहीं जाते। आखिर रानी को लेकर वह आप आया और मेरे कदमों पर गिर पड़ा। मैंने रानी के सिर पर एक बिना सूँघा गुलाब का फूल दे मारा। पाँचवे महीने अल्लाह ने लड़का दिया और राजा मेरे पास दौड़ा आता था कि मैं राह में मिला। देखते ही मुझे रथ पर बिठा लिया। अब कहता है, रुपया लो, जागीर लो, गाँव लो, हाथी-घोड़े लो। मगर मैं कब माँगता हूँ। फकीरों को दुनिया से क्या काम। इस वक्त जा कर पीछा छूटा। तुम पानी तो लाई होगी?
हसीना – मैं आपकी लौंडी हूँ, यह क्या कम है कि आप मेरा इतना खयाल रखते हैं। वह पानी रखा हुआ है। आप फूँक डाल दें, तो मैं चली जाऊँ।
यह कह कर वह उठी; मगर बर्तन देखा, तो पानी नदारत। ऐं! यह पानी क्या हुआ! जमीन पी गई, या आसमान। अभी पानी भर कर रखा था, देखते-देखते उड़ गया। गजब खुदा का, एक बूँद तक नहीं; लबालब भरा हुआ था!
शाह जी – अच्छा, तो बता दूँ; मुझे जोग-बल से मालूम हो गया कि तुम आती हो। जब तुम सो रहीं, तो मैंने आँख बंद की, और यहाँ पहुँच गया। पानी पिया, तो फिर आँख बंद की और फिर राजा साहब के पास हो रहा। फूँक डालने की साइत उसी वक्त थी। टल जाती, तो फिर एक महीने बाद आती। अब तुम यह इलायची लो और कल आधी रात को मरघट में गाड़ दो। तुम्हारी मुराद पूरी हो जाएगी।
युवती ने इलायची ले ली। मियाँ आजाद चुपके-चुपके सब सुन रहे थे। अब उन्हें खूब ही मालूम हो गया कि शाह जी रँगे सियार हैं। लोटे का पानी तो मैंने पिया, और आपने यह गढा कि आँख बंद करते ही यहाँ आए, और पानी पी कर फिर किसी तरकीब से चल दिए। खूब खिल-खिला कर हँस पड़े। वाह रे मक्कार! जालिए! इतना बड़ा झूठा न देखा, न सुना। ऐसे बड़े वली हो गए कि इनकी दुआ से एक रानी पाँचवें ही महीने बच्चा जन पड़ी। झूठ भी तो कितना! हद तो यों है कि झूठों के सरदार हैं। पट्टे बढ़ा लिए, तहमद बाँध कर शाहजी बन गए। लगे पुजने। कोई बेटा माँगता है, कोई तावीज माँगता है, कोई कहता है मेरा मुकदमा जितवा दो तो नयाज चढ़ाऊँ, कोई कहता है नौकरी दिलवा दीजिए तो मिठाई खिलाऊँ। संयोग से कहीं उसकी मुराद पूरी हो गई, तो शाह साहब की चाँदी है, वरना किसकी मजाल की शिकायत का एक हर्फ मुँह से निकाले। डर है कि कहीं जबान न सड़ जाय। अल्लाह री धाक! बहुत से अक्ल के दुश्मन इन बने हुए फकीरों के जाल में फँस जाते हैं। आजाद ऐसे बने हुए सिद्ध और रँगे सियार फकीरों की कब्र तक से वाकिफ थे। सोचे, इनकी मरम्मत कर देनी चाहिए।
शाह साहब ने चबूतरे पर लुंगी बिछाई और उस पर लेट कर दुआ पढ़ने लगे; मगर पढ़े-लिखे तो थे नहीं, शीन-काफ तक दुरुस्त नहीं, अनाप-शनाप बकने लगे। अब मियाँ आजाद से न रहा गया, बोल उठे – क्या कहना है शाह जी, वल्लाह, आपने तो कमाल कर दिया। अब तो शाह जी चकराए कि यह आवाज किसने कही, यह दुश्मन कौन पैदा हुआ। इधर-उधर आँखें फाड़-फाड़ कर देखा; मगर न आदमी, न आदमजाद, न इनसान, न इनसान का साया। या खुदा, यह कौन बोला? यह किसने टोका? समझे कि यह आसमानी ढेला है। किसी जिन्न की आवाज है। डरपोक तो थे ही, बदन थरथराने लगा, हाथ-पाँव फूल गए, करामातें सब भूल गए, हवास गायब, होश कलाबाजी खाने लगे। कुरान की आयतें गलत-सलत पढ़ने लगे। आखिर चिल्ला उठे – महजरूल अजायब। तो इधर यह बोल उठे – लुंगी मयशाह जी गायब। अब शाह जी की घबराहट का हाल न पूछिए, चेहरा फक, काटो तो लहू नहीं बदन में। मियाँ आजाद ने भाँप लिया कि शाह साहब पर रोब छा गया, झट निकल कर पत्तों को खूब खड़-खड़ाया। शाह जी काँप उठे कि प्रेतों का लश्कर आ खड़ा हुआ। अब जान से गए। तब आजाद ने एक फारसी गजल खूब लै के साथ पढ़ी, जैसे कोई ईरानी पढ़ रहा हो। शाह जी मस्त हो गए, समझे कि यह तो कोई फकीर है। अब तो जान में जान आई। मियाँ आजाद के कदम लिए। उन्होंने पीठ ठोंकी। शाह जी उस वक्त नशे की तरंग में थे; खयाल बँध गया कि कोई आसमान से उतरा है।
आजाद – कीस्ती वो अज कुजाई व वामनत चे कार अस्त। (कौन है, कहाँ से आता है और मुझसे क्या काम है?)
शाह जी के रहे-सहे हवास और गायब हो गए। जबान समझ में न आई। समझे कि जरूर आसमान का फरिश्ता है। हमारी जान लेने को आया है। दबे दाँतों बोले – समझता नहीं हूँगा कि आप क्या हुक्म देंगे। हमने बहुत गुनाह किए, अब माफ फरमाओ। कुछ दिन और जीने दो, तो यह ठगविद्या छोड़ दूँ। मैं समझ गया कि आप मेरी जान लेने आए हैं।
आजाद – यह बुढ़ापा और इतनी बदकारी, यह सिन और साल और यह चाल-ढाल। याद रख कि जहन्नुम के गड्ढे में गिरेगा और दोजख की आग में जलाया जाएगा। सुन, मैं न आसमान का फरिश्ता हूँ, न कोई जिन्न हूँ। मैं हकीम बलीनास की पाक रूह हूँ, हकीम हूँ, खुदा से डरता हूँ, मेरे कब्जे में बहुत से तिलस्म हैं, मेरा मजार इसी जगह पर था जहाँ तेरा चबूतरा है और जहाँ तू नापाक रहता है और शोरबा लुढ़काता है। खैर, तेरी जहालत के सबब से मैंने तुझे छोड़ दिया; लेकिन अब तूने यह नया फरफंद सीखा कि हसीनों को फाँसता है और उनसे कुछ ऐंठता है। उस जमाने में यह औरत मेरी बीवी थी। ले, अब यह हथकंडे छोड़, मक्र और दगा से मुँह मोड़, नहीं तो तू है और हम। अभी ठीक बनाऊँगा और नाच नचाऊँगा। तेरी भलाई इसी में है कि अपना कुल हाल कह चल, नहीं, तू जानेगा। मेरा कुछ न जायगा।
शाह जी ने शराब की तरंग में मारे डर के अपनी बीती कहानी शुरू की – चौदह बरस के सिन से मुझे चोरी करने की लत पड़ी और इतना पक्का हो गया कि आँख चूकी और गठरी उड़ाई, गाफिल हुआ और टोपी खिसकाई। पहले कुछ दिन तो लुटियाचोर रहे, मगर यह तो करती विद्या है, थोड़े ही दिनों में हम चोरों के गुरू-घंटाल हो गए। सेंद लगाना कोई हमसे सीखे, छत की कड़ियों में यों चिमट रहूँ, जैसे कोई छिपकली, उचकफाँद में बंदर मेरे मुकाबले में मात है, दबे पाँव कोसों निकल जाऊँ, क्या मजाल किसी को आहट हो। शहर भर के बदमाश, लुक्के, लुच्चे, शोहदे हमारी टुकड़ी में शामिल हुए। जिसने हेकड़ी की उसको नीचा दिखाया; जो टेढ़ा हुआ उसको सीधा बनाया। खूब चोरियाँ करने लगे। आज इसका माल मारा, कल उसकी छत काटी, परसों किसी नवाब के घर में सेंद दी। यहाँ तक कि डाके मारने लगे, सड़कों पर लूटमार शुरू कर दी। गोल में दुनियाभर के बेफिक्रे जमा हैं, कोई चंडू उड़ाता है, कोई चरस के दम लगाता है। गाँजे, भाँग, ठर्रे सबका शौक है। तानें उड़ रही हें, बोतलें चुनी हुई हैं, गड़ेरियों के ढेर लगे हुए हैं, मक्खियाँ भिन-भिन करती हैं, सबको यही फिक्र है कि किसी का माल ताकें। एक दिन शामत आई, एक नवाब साहब के यहाँ चोरी करने का शौक चर्राया। उनके खिदमतगार को मिलाया, नौकरानियों को भी कुछ चटाया, और एक बजे के वक्त घर से निकले। उसी मुहल्ले में एक महीने पहले ही एक मकान किराए पर ले रखा था। पहले उसी मकान में बैठे। नवाब का मकान कोई पचास ही कदम होगा। तीन आदमी दस कदम पर और पाँच बीस कदम पर खड़े हुए। हम, खिदमतगार और एक चोर साथ चले कि घर में धँस पड़ें। करीब गए तो ड्योढ़ी पर चौकीदार ने पुकारा, कौन? सन से जान निकल गई! उम्रभर में यही खता हुई कि चौकीदार को पहले से न मिला लिया। अब क्या करें। ‘पिली बुद्धि गँवार की!’ फिर चौकीदार ने ललकारा, कौन आता है? हमने कहा – हम हैं भाई। चौकीदार बोला – हम की एक ही कही, हम का कुछ नाम भी है? आखिर हमने चौकीदार को उसी दम कुछ चटा कर सेंद दी। घर में घुसे, तो क्या देखते हें कि एक पलंग पर नवाब साहब सोते हैं, और दूसरे पलंग पर उनकी बेगम साहबा मीठी नींद में मस्त हैं, मगर शमा रोशन है। अपने साथी से इशारा किया कि शमा को गुल कर दे। वह ऐसा घबराया कि बड़े जोर से फूँक मारी। मैंने कहा, खुदा ही खैर करे, ऐसा न हो कि नवाब जाग उठें तो लेने के देने पड़ें। आगे बढ़कर मैंने बत्ती को तेल में खिसका दिया, चलिए, चिराग गुल, पगड़ी गायब। बेगम साहबा के सिरहाने जेवर का संदूक रखा था, मगर आड़ में। हम तो महरी की जबानी कच्चा चिट्ठा सुन चुके थे, ‘घर का भेदी लंका ढाय’, फौरन संदूक उठाया और दूसरे साथी को दिया कि बाहर पहुँचाए। वह कुछ ऐसा घबराया कि मारे बौखलाहट के काँपने लगा और धम से गिर पड़ा। धमाके की आवाज सुनते ही नवाब चौंक पड़े, शेरबच्चा सिरहाने से उठा, पैतरे बदल-बदल कर फिकैती के हाथ दिखाने लगे। मैंने एक चाकी का हाथ दिया, और झट कमरे से निकल, दीवाल पर चढ़, पिछवाड़े कूदा और ‘चोर-चोर’ चिल्लाता हुआ नाके बाहर। बे दोनों सिरबोझिए नौसिखिए थे, पकड़ लिए गए। मगर वाह रे नवाब! बड़ा ही दिलेर आदमी है। दोनों को घेर लिया। वे तो जेल खाने गए, मैं बेदाग बच गया। अब मैंने वह पेशा छोड़ा और खून पर कमर बाँधी। एक महीने में कई खून किए। पहले एक सौदागार के घर में घुस कर उसे चारपाई पर ढेर कर दिया; जमा-जथा हमारे बाप की हो गई। फिर रेल पर एक मालदार जौहरी का गला घोट डाला और जवाहिरात साफ उड़ा लिए। तीसरा दफा दो बनजारे सराय में उतरे थे। हमें खबर मिली कि उनके पास सोने की ईंटें हैं। उनको सराय ही में अंटा-गफील करना चाहा। भठियारे ने देख लिया पकड़े गए और कैदखाने गए। वहाँ आठ दिन रहे थे, नवें दिन रात को मौका पा कर कालकोठरी का दरवाजा तोड़ा, एक बदकंदाज का सिर ईंट से फोड़ा, पहरे के चौकीदार को उसी की बंदूक से शहीद किया और साफ निकल भागे। अब सोचा, कोई नया पेशा अख्त्तियार करें, सोचते-सोचते सूझी कि शाह जी बन जाओ। चट फकीरों का भेस बदल कर एक पेड़ के नीचे बिस्तर जमा दिया। पुजने लगे। एक दिन इस गाँव के ठाकुर का लड़का बीमार हुआ। यहाँ हकीम, न डाक्टर! किसी ने कह दिया कि एक फकीर पकरिया के नीचे बैठे खुदा को याद किया करते हैं, चेहरे से नूर बरसता है, किसी से लेते हैं न देते हैं। ठाकुर ने सुनते ही अपने भाई को भेजा। हम साथ गए। खुशी से फूले न समाते थे कि आज पाला हमारे हाथ रहा तो उम्र भर चैन से गुजरेगी। हमारा पहुँचना था कि सब उठ खड़े हुए। हम किसी से बोले न चाले, जा कर लड़के के पास बैठ गए और कुछ बुदबुदा कर उठ खड़े हुए। देखा, लड़के का बुरा हाल है, बचना मुहाल है। ठाकुर कदमों पर गिर पड़ा। हमने पीठ ठोंकी और लंबे-लंबे डग बढ़ाते चल दिए। संयोग से एक योरोपियन डाक्टर दौरा करता हुआ उस गाँव में आया और उसकी दवा से मरीज चंगा हो गया। अब मजा देखिए, डाक्टर का कोई नाम भी नहीं लेता, सब हमारी तारीफ करते हैं। ठाकुर ने हमें एक हाथी और हजार रुपए दिए। यह हमने कबूल न किया। सुभान-अल्लाह! फिर तो हवा बँध गई। अब चारों तरफ हम ही हम हैं, कोई बीमार हो, तो हम पूछे जाएँ, कोई मरे तो हम बुलाए जाएँ। मियाँ-बीबी के झगड़ों में हम काजी बनते हैं, बाप-बेटे का झगड़ा हम फैसला करते हैं। सुबह से शाम तक डालियों पर डालियाँ आती रहती हैं।
आजाद ने यह किस्सा सुन कर शाह जी को खूब डाँटा – तू काफिर है, मलऊन है, तू अपनी मक्कारी से खुदा के बंदों को ठगता है, अब हमारी बात सुन, हमारा चेला बन जा, तो तुझे छोड़ दें। कल तड़के गजरदम गाँव भर में कह दे कि हमारे पीर आए हुए हैं। दो सौ ग्यारह बरस की उम्र बताना। जिसे जियारत करनी हो, आए। शाह जी की बाछें खिल गईं कि चलो, किसी तरह जान तो बची। नूर के लड़के गाँव भर में पुकार आए कि हमारे पीर आए हैं, जिसे देखना हो, देख ले। शाह जी की वहाँ धाक बँधी ही थी, जब लोगों ने सुना कि इनके भी बली-खंगड़ आए हैं, तो शौक चर्राया कि जियारत को चलें। दो दिन और दो रात मियाँ आजाद अपने घर पर आराम करते रहे। तीसरे दिन फकीराना भेस बदले हुए हरे-हरे पेड़ों के साये में आ बैठे। देखते क्या हैं, पौ फटते ही औरत-मर्द, ठट के ठट जमा हो गए। हिंदू और मुसलमान, जवान औरतें, गहनों से लदी हुई आ कर बैठी हुई हैं। तब आजाद ने खड़े हो कर कुरान की आयते पढ़ना शुरू कीं और बोले – ऐ खुदा के बंदो, मैं कोई वली नहीं हूँ, तुम्हारी ही तरह खुदा का एक नाचीज बंदा हूँ। अगर तुम समझते हो कि कोई इनसान चाहे कितना ही बड़ा फकीर क्यों न हो, खुदा की मरजी में दखल दे सकता है, तो तुम्हारी गलती है। होता वही है, जो खुदा को मंजूर होता है। हमारा फर्ज यही है कि तुम्हें खुदा की याद दिलाएँ। अगर कोई फकीर, कोई करामात दिखाकर अपना सिक्का जमाना चाहता हो, तो समझ लो कि वह मक्कार है। जाओ, अपना-अपना धंधा देखो।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 6
मियाँ आजाद मुँह-अँधेरे तारों की छाँह में बिस्तर से उठे, तो सोचे; साँड़नी के घास-चारे की फिक्र करके सोचा कि जरा अदालत और कचहरी की भी दो घड़ी सैर कर आएँ। पहुँचे तो क्या देखते हैं, एक घना बाग है और पेड़ों की छाँह में मेला साल लगा है। कोई हलवाई से मीठी-मीठी बातें करता है। कोई मदारिए को ताजा कर रहा है। कूँजड़े फलों की डालियाँ लगाए बैठे हैं। पानवाले की दुकान पर वह भीड़ है कि खड़े होने की जगह नहीं मिलती। चूरनवाला चूरन बेच रहा है। एक तरफ एक हकीम साहब दवाओं की पुड़िया फैलाए जिरियान की दवा बेच रहे हैं। बीसों मुंशी-मुतसद्दी चटाइयों पर बैठे अर्जियाँ लिख रहे हैं। मुस्तगीस हैं कि एक-एक के पास दस-दस बैठे कानून छाँट रहे हैं – अरे मुंशी जी, यो का अंट-संट चिघटियाँ सी खँचाय दिहो? हम तो आपन मजमून बतावत हैं, तुम अपने अढ़ाई चाउर अलग चुरावत हौ। ले मोर मुंसी जी, तनिक अस सोच-विचार के लिखो कि फरीक सानी क्यार मुकद्दमा ढिसमिसाय जाय। ले तोहार गोड़ धरित है, दुइ कच्चा अउर लै लेव। आजाद ने जो गवाह-घर की ओर रुख किया, तो सुभानअल्लाह! काले-काले चोगों की बहार नजर आई। कोई इधर से उधर भागा जाता है, कोई मसनद लगाए बैठा गँवारों से डींग मार रहा है। जरा और आगे बढ़े थे कि चपरासी ने कड़क कर आवाज लगाई – सत्तारखाँ हाजिर हैं? एक ठठोल ने कहा – वाह जनाब, गिरे तो मुझसे पूछ क्यों न लिया? आजाद जरा और आगे बढ़े, तो एक आदमी ने डाँट बताई – कौन हो? क्या काम है?
आजाद – इसी शहर में रहता हूँ। जरा सैर करने चला आया।
आदमी – कचहरी में खड़े रहने का हुक्म नहीं है, यहाँ से जाइए, वरना चपरासी को आवाज देता हूँ।
आजाद – बिगड़िए नहीं, बस इतना बता दीजिए कि आपका ओहदा क्या है?
आदमी – हम उम्मेदवारी करते हैं। तीन महीने से रोज यहाँ काम सीखते हैं। अब फर्राटें उड़ाता हूँ। डाकेट तड़ से लिख लूँ, नकशा चुटकियों में बनाऊँ। किसी काम में बंद नहीं। पंद्रह रुपए की नौकरी हमें मिला ही चाहती है। मगर पहले तो घास छीलना मुश्किल मालूम होता था, अब लुकमान बन गया?
आजाद – क्यों मियाँ, तुम्हारे वालिद कहाँ नौकर हैं?
उम्मेदवार – जनाब, वह नौकर नहीं है, दस गाँव के जमींदार हैं।
आजाद – क्या तुमको घर से निकाल दिया, या कुछ खटपट है?
उम्मेदवार – तो जनाब हम पढ़े-लिखे हैं कि नहीं!
आजाद – हजरत, जिसे खाने को रोटियाँ न हों, वह सत्तू बाँध कर नौकरी के पीछे पड़े, तो मुजायका नहीं। तुम खुदा के करम के जमीदार हो, रुपएवाले हो, तुमको यह क्या सूझी कि दस-पाँच की नौकरी के लिए एड़ियाँ रगड़ते हो? इसी से तो हिंदुस्तान खराब है; जिसे देखो, नौकरी पर आशिक। मियाँ, कहा मानो, अपने घर जाओ, घर का काम देखो, इस फेर में न पड़ो। यह नहीं कि आमामा बाँधा और कचहरी में जूतियाँ चटकाते फिरते हैं! मुहर्रिर पर लोट, अमानत पर उधार खाए बैठे हैं।
दूसरे उम्मेदवार की निस्बत मालूम हुआ कि एक लखपति महाजन का लड़का है। बाप की कोठी चलती है। लाखों का वारा-न्यारा होता है। बेटा बारह रुपए की नौकरी के लिए सौ-सो चक्कर लगाता है। चौथे दर्जे से मदर्सा छोड़ा और अपरेंटिस हुए। काम खाक नहीं जानते। बाहर जाते हैं, तो मुंसरिम साहब से पूछ कर। इस वक्त जब दफ्तरवाले अपने-अपने घर जाने लगे, तो हजरत पूछते क्या हैं – क्यों जी, यह सब चले जाते हैं, अभी छुट्टी की घंटी तो बजी ही नहीं।
स्कूल की घंटी याद आ गई!
मियाँ आजाद दिल ही दिल में सोचने लगे कि ये कमसिन लड़के, पंद्रह-सोलह बरस का सिन; पढ़ने-लिखने के दिन, मदर्सा छोड़ा, कॉलेज से मुँह मोड़ा और उम्मेदवारों के गोल में शामिल हो गए। ‘अलिफबे नगाड़ा, इल्म को चने के खेत में पछाड़ा!’ मेहनत से जान निकलती है, किताब को देख कर बुखार चढ़ आता है। जिससे पूछो कि भाई, मदर्सा क्यों छोड़ बैठे, तो यही जवाब पाया कि उकलेदिस की अक्ल से नफरत है। तवारीख किसे याद रहे, यहाँ तो घर के बच्चों का नाम नहीं याद आता। हम भी सोचे, कहाँ का झंझट! अलग भी करो, चलता धंधा करो, जिसे देखिए, नौकरी के पीछे पड़ा हुआ है। जमींदार के लड़के को यह ख्वाहिश होती है कि कचहरी में घुसूँ, सौदागर के लड़के को जी से लगी है कि कॉलेज से चंपत हूँ और कचहरी की कुर्सी पर जा डटूँ। और मुहर्रिर-मुंशी, अमले तो नौकरी के हाथों बिक ही गए हैं। उनकी तो घूँटी ही में नौकरी है। बाबू बनने का शौक ऐसा चर्राता है कि अक्ल को ताक पर रख कर गुलामी करने को तैयार हो जाते हैं।
यह सोचते हुए मियाँ आजाद और आगे चले, तो चौंक में आ निकले। देखते क्या हैं, पंद्रह-बीस कमसिन लड़े बस्ते लटकाए, स्लेटें दबाए, परे जमाए, लपके चले आते हैं। पंद्रह-पंद्रह बरस का सिन, उठती जवानी के दिन, मगर कमर बहत्तर जगह से झुकी हुई, गालों पर झुर्रियाँ, आँखें गड्ढे में धँसी हुई। यह झुका हुआ सीना, नई जवानी में यह हाल! बुढ़ापे में तो शायद उठ कर पानी भी न पिया जायगा। एक लड़के से पूछा, क्यों मियाँ, तुम सब के सब इतने कमजोर क्यों दिखलाई देते हो? लड़के ने जवाब दिया, जनाब, ताकत किसके घर से लाएँ? दवा तो है नहीं कि अत्तार की दुकान पर जायँ, दुआ नहीं कि किसी शाह जी से सवाल करें।, हम तो बिना मौत ही मरे। दस बरस के सिन में तो बीवी छमछम करती हुई घर में आई। चलिए, उसी दिन से पढ़ना-लिखना छप्पर पर रखा। नई धुन सवार हुई। तेरहवें बरस एक बच्चे के अब्बाजान हो गए। रोटियों की फिक्र ने सताया। हम दुबले-पतले न हों, तो कौन हो? फिर अच्छी गिजा भी मयस्सर नहीं; आज तक कभी दूध की सूरत न देखी, घी का सिर्फ नाम सुनते हैं।
मियाँ आजाद दिल में सोचने लगे, इन गरीबों की जवानी कैसी बर्बाद हो रही है। इसी धुन में टहलते हुए हजरतगंज की तरफ निकल गए, तो देखा, एक मैदान में दस-दस पंद्रह-पंद्रह बरस के अंगरेजों के लड़के और लड़कियाँ खेल रहे हैं। कोई पेड़ की टहनी पर झूलता है, कोई दीवार पर दौड़ता है। दो-चार गेंद खेलने पर लट्टू हैं। एक जगह देखा, दो लड़कों ने एक रस्सी पकड़ कर तानी और एक प्यारी लड़की बदन तौल कर जमीन से उस पार उचक गई। सब के सब खुश और तंदुरुस्त हैं। आजाद ने उन होनहार लड़कों और लड़कियों को दिल से दुआ दी और हिंदुस्तान की हालत पर अफसोस करते हुए घर आए।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 7
मियाँ आजाद साँड़नी पर बैठे हुए एक दिन सैर करने निकले, तो एक सराय में जा पहुँचे। देखा, एक बरामदे में चार-पाँच आदमी फर्श पर बैठे धुआँधार हुक्के उड़ा रहे हैं, गिलौरी चबा रहे हैं और गजलें पढ़ रहे हैं। एक कवि ने कहा, हम तीनों के तखल्लुस का काफिया एक है – अल्लामी, फहामी और हामी; मगर तुम दो ही हो – वकाद और जवाद। एक शायर और आ जायँ, तो दोनों तरफ से तीन-तीन हो जायँ। इतने में मियाँ आजाद तड़ से पहुँच गए।
एक ने पूछा – आप कौन?
आजाद – मैं शायर हूँ।
आप तखल्लुस क्या करते हैं?
आजाद ने कहा – आजाद। तब तो इन सबकी बाँछें खिल गईं। जवाद, वकाद और आजाद का तुक मिल गया। अब लोग गजलें पढ़ने लगे। एक आदमी शेर पढ़ता है, बाकी, तारीफ करते हैं – सुभान-अल्लाह, क्या तबीयत पाई है, वाह-वाह! फिर फरमाइएगा; कलम तोड़ दिए, कितनी साफ जबान है! इस बोल-चाल पर कुरबान। कोई झूमता है, कोई टोपियाँ उछालता है।
आजाद – मियाँ, सुनो, हम शायरी के कायल नहीं। आप लोग तो जबान पर मरते हैं और हम खयालों पर जान देते। हमें तो नेचर की शायरी पसंद है।
फहामी – अख्खाह, आप नेचरिए हैं! अनीसिए और दबीरिए तो सुनते थे, अब नेचरिए पैदा हुए। गजब खुदा का! आपको इन उस्तादों का कलाम पसंद नहीं आता, जो अपना सानी नहीं रखते थे?
आजाद – मैं तो साफ कहता हूँ, यह शायरी नहीं, खब्त है, बेतुकापन है, इसका भी कुछ ठिकाना है, झूठ के छप्पर उड़ा दिए। अब कान खोल कर नेचरी शायरी सुनो।
यह कह कर आजाद ने अंगरेजी की एक कविता सुनाई तो वह कहकहा पड़ा कि सराय भर गूँज उठी।
फहामी – वाह जनाब, वाह, अच्छी गिट-पिट है! इसी को आप शायरी कहते हैं?
आजाद – ‘शेख क्या जाने साबुन का भाव!’ ‘भैंस के आगे बीन बजाए, भैंस खड़ी पगुराय।’
आजाद तो नेचरल शायरी की तारीफ करने लगे, उधर वे पाँचों उर्दू की शायरी पर लोट-पोट थे। आतश और मीर की जबान, नासिख, अनीस, जौक, गालिब, मोमिन-जैसे उस्तादों के कलाम पढ़-पढ़ कर सुनाते थे। अब बताइए, फैसला कौन करे? भठियारिन झगड़ा चुकाने से रही, भठियारा घास ही छीलना जाने, आखिर यह राय तय पाई कि शहर चलिए! जो पढ़ा-लिखा आदमी पहिले मिले, उसी का फैसला सबको मंजूर। सबने हाथ पर हाथ मारा। चलने ही को थे कि भठियारिन ने इनको ललकारा और चमक कर मियाँ जवाद का दामन पकड़ा – मियाँ, यह बुत्ते किसी और को बताना, हम भी इसी शहर में बढ़ कर इतने बड़े हुए हैं। हूँ तो अभी आपकी लड़की के बराबर, मुल सैकड़ों ही कुओं का पानी पी डाला। पहले कौड़ी-कौड़ी बाएँ हाथ से रख जाइए, फिर असबाब उठाइए।
अल्लामी – नेकबख्त, हम शरीफ भलेमानस हैं। शरीफ लोग कहीं दो पैसे के लिए ईमान बेचा करते हैं? चलो, दामन छोड़ दो, अभी दम के दम में आए।
भठियारिन – इस दाम में बंदी न आएगी। ऐसे बड़े साहूकार खरे असामी हो, तो एक गंडा चुपके से निकाल दो न?
वकाद – यह मुड़चिरी है या भठियारिन? साहब, इससे पीछा छुड़ाओ। ऐसी भठियारिन तो कहीं देखी न सुनी।
भठियारिन – मियाँ, कुछ बेधे तो नहीं हुए हो, या बिल्ली नाँघ कर घर से चले थे? चुपके से पैसे रख कर तब कदम उठाइए।
मियाँ जवाद सीधे-सादे आदमी थे। जब उन्होंने देखा कि मुफ्त में घेरे गए, तो कहा – भाई, तुम पाँचों जाओ, हम यहाँ भी भठियारिन की खातिर से बैठे हैं। तुम लोग निपट आओ। वे सब तो उधर चले और जवाद सराय ही में भठियारिन की हिरासत में बैठे, मगर एक आने पैसे न दे सके। दो-चार मिनट के बाद पुकारा – भठियारी-भठियारी! मैं लेटा हूँ। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे पेट में चूहे दौड़े कि रफू-चक्कर हुए। फिर तीन मिनट के बाद गला फाड़-फाड़ चिल्लाने लगे – भठियारिन, हम भागनेवाले असामी नहीं है, तुम मजे से अपनी दाल बघारो। जब इन्होंने बार-बार छेड़ना शुरू किया, तो वह आग-भभूका हो गई और बोली – मियाँ, ऐसे दो पैसे से दरगुजरी, तुमने तो गुल मचा-मचा कर मेरा कलेजा पका दिया। आप जायँ, बल्कि खटिया समेत दफन हों, तो मैं खुश, मेरा अल्लाह खुश। ऐ वाह, ‘देखी तेरी कालपी और बावन पुरे उजाड़।’ मियाँ, हूँ तो अभी जुमा-जुमा आठ दिन की, मुल नाक पर तो मक्खी बैठने नहीं देती!
इधर मियाँ जवाद भठियारिन से चुहल कर रहे थे, उधर वे पाँचों आदमी सराय से चले, तो रास्ते में एक बुजुर्ग से मुलाकात हुई।
हामी ने कहा – या मौलाना, एक मसला हल कीजिए; तो एहसान होगा।
बुजुर्ग – मियाँ, मैं एक जाहिल, बेवकूफ, बेसमझ, गुमराह आदमी हूँ, मौलाना नहीं; मौलाना होना दुश्वार बात है। मुझे मौलाना कहना इस लफ्ज को बदनाम करना है।
हामी – अच्छा साहब, आप मौलाना न सही, मुंशी सही, मियाँ सही, आप एक झगड़े का फैसला कर दीजिए और घर का रास्ता लीजिए। आपका हमारे बुजुर्गों पर और बुजुर्गों के बुजुर्गों पर एहसान होगा। झगड़ा यह है कि यह साहब (आजाद की तरफ इशारा करके) नेचरी शायरी के तरफदार हैं, और हम चारों उर्दू-शायरी पर जान देते हैं। अब बतलाइए, हममें से कौन ठीक कहता है और कौन गलत?
बुजुर्ग – यह तो बहुत गौर करने की बात नहीं। आप चारों मुफ्त में झगड़ा करते हैं। आप सीधे अस्पताल जाइए और फस्द खुलवाइए, शायरी पर जान देना समझदारों का काम नहीं। जान खुदा की दी हुई है, उसी की याद में लगानी चाहिए। बाकी रही दूसरे किस्म की शायरी, मैंने उसका नाम भी नहीं सुना, उसके बारे में क्या अर्ज करूँ?
पाँचों आदमी यहाँ से निराश हो कर आगे बढ़े, तो एक मकतबखाना नजर से गुजरा। टूटा-फूटा मकान, पुरानी-धुरानी दालान, दीवारें बाबा आदम के वक्त की। एक मौलवी साहब लंबी दाढ़ी लटकाए, हाथ में छड़ी लिए, हिल हिल कर पढ़ा रहे हैं और बीच-पचीस लड़के जदल-काफिया उड़ा रहे हैं – एक लड़के ने दूसरे की चाँद पर तड़ से धप जमाई। मौलवी साहब पूछते हैं – अबे, यह क्या हुआ? लड़के कहते हैं – जी, कुछ नहीं, तख्ती गिर पड़ी। अबे, यह तख्ती की आवाज थी? जी हाँ, और नहीं तो क्या? इतने में दो-चार शरीर लड़कों ने मुँह चिढ़ाना शुरू किया। देखिए मौलवी साहब, यह मुँह चिढ़ाता है। नहीं मौलवी साहब, यह झक मारता है, मैं तो बाहर गया था। गुल-गपाड़े की आवाज ऐसी बुलंद है कि आसमान की खबर लाती है, कान-पड़ी आवाज नहीं सुनाई देती। जिधर देखो, चिल्ल-पों, जूती-पैजार! मगर सब के सब हिल-हिल कर बड़बड़ाते जाते हैं। किताब तो दो ही चार पढ़ रहे हैं; मगर वाही-तबाही, अनाप-शनाप बहुतों की जबान पर है।
एक – आज शाम को मैं बाने की कनकइया जरूर लड़ाऊँगा।
दूसरा – आगा तकी के बाग में कौवा हलाल है।
तीसरा – अरे माली, तुझे गुलबूटे की पहचान रहे।
चौथा – मौलवी साहब, गो पीर हुए, नादान रहे।
पाँचवाँ – पढ़ोगे-लिखोगे, तो होगे खराब,
खेलोगे-कूदोगे, होगे नवाब।
मगर सबकी आवाजें ऐसी मिल-जुल गई हैं कि खाक समझ में नहीं आता, क्या खुराफात बकते हैं। लौंडे तो जदल-काफिया उड़ा रहे हैं, उधर मौलवी साहब मजे से ऊँघते हैं। जब नींद खुली, तो एक लड़के को बुलाया – आओ, किताब लाओ, सबक पढ़ लो। वह सिर खुजलाता हुआ मौलवी साहब के करीब जा बैठा, और सबक शुरू हुआ, मगर न तो लड़के ने कुछ समझा कि मैंने क्या पढ़ा और न मौलवी साहब को मालूम हुआ कि मैंने क्या पढ़ाया। दोपहर के वक्त लड़के तख्ती ले कर बैठे, कोई गेंदे की पत्ती तख्ती पर मलता है, कोई कौड़ी से तख्ती को चिकनाता है। आध घंटे तक यही हुआ किया। फिर लड़के लिखने बैठे, मौलवी साहब कोठरी से मक्खियों को निकाल और दरवाजा बंद करके सो रहे। यहाँ खूब लप्पा-डुग्गी हुई। दो घंटे के बाद मौलवी साहब चौंके। कोठरी खोलते हैं, तो यहाँ दो लड़कों में चट-पट हो रही है, दोनों गुँथे पड़े हैं। निकलते ही एक के तमाचे लगाने शुरू किए। जो अमीर का लड़का था और मौलवी साहब की त्यवहारी और जुमेराती खूब दिया करता था, उससे तो न बोले, बेचारे गरीब पर खूब हाथ साफ किया। आजाद ने दिल में कहा –
गर हमीं मकतब अस्त वई मुल्ला,
कारे तिकलाँ तमाम ख्वाहद शुद।
(अगर यही मकतब है और यही मौलवी, तो लड़के पढ़ चुके।)
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 8
एक दिन मियाँ आजाद सराय में बैठे सोच रहे थे, किधर जाऊँ कि एक बूढ़े मियाँ लठिया टेकते आ खड़े हुए और बोले – मियाँ, जरी यह खत तो पढ़ लीजिए, और इसका जवाब भी लिख दीजिए। आजाद ने खत लिखा और पढ़ कर सुनाने लगे –
मेरे खूसट शौहर, खुदा तुमसे समझे!
आजाद – वाह! यह तो निराला खत है। न सलाम, न बंदगी। शुरू ही से कोसना शुरू किया।
बूढ़े – जनाब, आप खत पढ़ते हैं कि मेरे घर का कजिया चुकाते हैं? पराये झगड़े से आपका वास्ता? जब मियाँ-बीबी राजी है, तब आप कोई काजी हैं!
आजाद – अच्छा, तो यह कहिए कि आपकी बीवी-जान का खत है। लीजिए, सुनाए देता हूँ –
‘मेरे खूसट शौहर, खुदा तुमसे समझो! सिकंदर पाताल से प्यासा आया; मगर तुमने अमृत की दो-चार बूँदे जरूर पी ली हैं, जभी मरने का नाम नहीं लेते। कुछ ऊपर सौ बरस के हो हुए, अब आखिर क्या आकबत के बोरिए बटोरोगे? जरा दिल में शरमाओ, हजारों नौजवान उठते जाते हैं, और तुम टैयाँ से मौजूद हो। डंकू फीवर भी आया, मगर तुम मूँछों पर ताव ही देते रहे। हैजे ने लाखों आदमी चट किए, मगर आप तो हैजे को भी चट कर जायँ और डकार तक न लें। बुखार में हजारों हयादार चल बसे, मगर तुम और भी मोटे हो गए। तुम्हें लकवा भी नहीं मारता, लू के झोंके भी तुम्हें नहीं झुलसाते, दरिया में भी तुम नहीं फिसल जाते, और सौ बात की एक बात यह है कि अगर हयादार होते, तो एक चिल्लू काफी था; मगर तुम वह चिकने घड़े हो कि तुम पर चाहे हजारों ही घड़ें पड़ें; लेकिन एक बूँद न थम सके। वाह पट्ठे, क्यों न हो! किस बुरी साइत में तुम्हारे पाले पड़ी। किस बुरी घड़ी में तुम्हारे साथ ब्याह हुआ। माँ-बाप को क्या कहूँ, मगर मेरी गदरन तो कुंद छुरी से रेत डाली। इससे तो किसी कुएँ ही में ढकेल देते, कसाई के हवाले कर देते, तो यह रोज-रोज का कुढ़ना तो न होता। तुम खुद ही इंसाफ करो। तुम्हारे बुढ़भस से मुझ पर क्या गाज पड़ी। हाथ तो आपके काँपते हैं, पाँव में सकत नहीं, मुँह में दाँत न पेट में आँत, कमर कमान की तरह झुकी हुई, आँखों की यह कैफियत कि दिन को ऊँट नहीं सूझता। लाठी टेक कर दस कदम चले भी तो साँस फूल गई, दम टूट गया। सुस्ताने बैठे, तो उठने का नाम नहीं लेते। सुबह को नन्हीं-नन्हीं दो चपातियाँ खा लीं, तो शाम तक खट्टी डकारें आ रही हैं, तोला भर सिकंजवीन का सत्यानाश किया; मगर हाजमा ठीक न हुआ! हाफिजे का यह हाल कि अपने बाप का भी नाम याद नहीं। फिर सोचो तो कि ब्याह करने का शौक क्यों चर्राया। एक पाँव तो कब्र में लटकाया है और खयाल यह गुदगुदाया है कि दूल्हा बनें, दुलहिन लाएँ। खुदा-कसम, जिस वक्त तुम्हारा पोपला मुँह, सफेद भौंह, गालों की झुर्रियाँ, दोहरी कमर, गंजी चाँद और मनहूस सूरत याद आती हे, तो खाना हराम हो जाता है। वाह बड़े मियाँ, वाह! खुदा झूठ न बुलाए, तो हमारे अब्बाजान से पचास-साठ बरस बड़े होंगे, और अम्माजान को तुमने गोद में खिलाया हो तो ताज्जुब नहीं। खुदा गवाह है, तुम मेरे दादा के बाप से भी बड़े हो, मगर वाह री किस्मत, कि आप मेरे शौहर हुए! जमीन फट जाय, तो मैं धँस जाऊँ।
– तुम्हारी जवान बीबी
आजाद – जनाब, इसका जवाब किसी बड़े मुंशी से दिलवाइए।
बूढ़ा – बुढ़ापे में अब कभी शादी न करेंगे।
आजाद – वाह, क्या अभी शादी करने की हवस बाकी है? अभी पेट नहीं भरा!
बूढ़ा – अब इसका ऐसा जवाब लिखिए कि दाँत खट्टे हो जायँ।
आजाद – आप औरत के मुँह नाहक लगते हैं।
बूढ़ा – जनाब, उसने तो मेरी नाक में दम कर दिया, और सच पूछो, तो जिस दिन उसको ब्याह लाए, नाक ही कट गई। ऐसी चंचल औरत देखी न सुनी। मजाल क्या कि नाक पर मक्खी बैठ जाय।
आखिर, आजाद ने पत्र का जवाब लिखा –
‘मेरी अलबेली, छैल-छबीली, नादान बीवी को उसके बूढ़े शौहर की उठती जवानी देखनी नसीब हो। वह जुग-जुग जिए और तुम पूतों फलो, दूधों नहाओ, अठारह लड़के हों और अठारह दूनी छत्तीस छोकरियाँ। जब मैं दालान में कदम रखूँ, तो सब बच्चे, ‘अब्बा आए अब्बा आए, खिलौने लाए, पटाखा लाए’ कह कर दौड़ें। मगर डर यह है कि तुम भी अभी कमसिन हो, उनकी देखा-देखी कहीं मुझे अब्बा न कह उठना कि पास-पड़ोस की औरतें मुझे उँगलियों पर नचाएँ। मुझे तुमसे इतनी ही मुहब्बत है, जितनी किसी को अपनी बेटी से होती है। अपनी नानी को मैं ऐसा प्यारा न था, जितनी तुम मुझे प्यारी हो। और क्यों न हो, तुम्हारी परदादी को मैंने गोदियों में खिलाया है और मेरी बहन ने उसे दूध पिलाया है। मुझे तुम्हारी दादी का गुड़िया खेलना इस तरह याद है, जैसे किसी को सुबह का खाना याद हो। तुम्हारे खत ने मेरे दिल के साथ वह किया, जो बिजली खलिहान के साथ करती हे, लेकिन मुझमें एक बड़ी सिफत यह है कि परले सिरे का बेहया हूँ। और क्यों न हो, शर्म औरतों को चाहिए, मैं तो चिकना घड़ा हूँ। माना कि आँखों में नूर नहीं, मगर निगाह बड़ी बारीक रखता हूँ, बहरा सही, लेकिन मतलब की बात खूब सुनता हूँ, बुड्ढा हूँ, कमजोर हूँ, मगर तुम्हारी मुहब्बत का दम भरता हूँ। तुम्हारा प्यारा-प्यारा मुखड़ा, रसीली अँखियाँ, गोरी-गोरी बहियाँ जिस वक्त याद आती हें, कलेजे पर साँप लोटने लगता है। तुम्हारा चाँदनी रात में निखर कर निकलना, कभी मुसकिराना, कभी खिल-खिलाना-कितना शरमाना? कैसा लजाना? और तो और, तुम्हारी फुर्ती से दिल लोटपोट है, कलेजे पर चोट है। तुम्हारा फिरकी की तरह चारों ओर घूमना, मोरों की तरह झूमना, कभी खेलते-खेलते मेरी चपतगाह पर टीप जमाई, कभी शोखी से वह डाँट बताई कि कलेजा काँप उठा, कभी आप ही आप रोना, कभी दिन-दिन भर सोना, अल्हड़पन के दिन, बारह बरस का सिन, बीवीजान, तुम पर कुरबान, ले कहा मानो, हमें गनीमत जानो। मैं सुबह का चिराग हूँ, हवा चले या न चले, अब गुल हुआ, अब गुल हुआ। डूबता हुआ आफताब हूँ, अब डूबा, अब डूबा। मुझे सताना, मुए पर सौ दुर्रे! तुम खूब जानती हो कि मेरी बातें कितनी मीठी होती हैं। सत्तर बरस हो गए कि दाँत चूहे ले गए, तब से हलुए पर बसर है, फिर जो रोज हलुआ खायगा, उसकी बातें मीठी क्यों न होंगी। तुम लाख रूठो, फिर भी हमारी हो, बीवी हो, वह शुभ घड़ी याद करो; जब हम दूल्हा बने, पुराने सिर पर नई पगड़ी जमाए, सेहरा लटकाए, मेहँदी लगाए, मुर्गी के बराबर घोड़िया पर सवार, ‘मीठी पोई’ जाते थे, और तुम दुलहिन बनी, सोलह सिंगार किए पालकी में झाँक रही थीं। हमारे गालों की झुरियाँ, हमारा पोपला मुँह, हमारी टेढ़ी कमर देख कर खुश तो न हुई होगी? और क्या लिखूँ, एक नसीहत याद रखो, एक तो मेले-ठेले न जाना, दूसरे आस-पास की छोकरियों को गुइयाँ न बनाना। खुदा करे, जब तक जमीन और आसमान कायम है, तुम जवान रहो, और नादान रहो; हमारे सफेद बाल तुम्हें भाएँ, हासिद खार खाएँ।
– तुम्हारा बूढ़ा शौहर’
बूढ़ा – माशा-अल्लाह! आपने खूब लिखा, मगर इस खत को ले कौन जाय? अगर डाक से भेजता हूँ, तो गुम होने का डर, उस पर तीन दिन की देर। अगर आप इतना एहसान करें कि इसे वहाँ पहुँचा भी दें, तो क्या पूछना।
आजाद सैलानी तो थे ही, समझे, क्या हर्ज है, साँड़नी मौजूद है, चलूँ, इसी बहाने जरा दिल्लगी देख आऊँ। कुछ बहुत दूर भी नहीं, साँड़नी पर मुश्किल से दो घंटे की राह है। बोले – आप बुजुर्ग आदमी हैं। आपका हुक्म बजा लाना मेरा फर्ज है, लीजिए जाता हूँ।
यह कह कर साँड़नी पर बैठे और छुन-छुन करते जा पहुँचे। दरवाजे पर आवाज दी, तो एक कहारिन ने बाहर निकल कर पूछा – मियाँ कौन हो, कहाँ से आना हुआ किसकी तलाश है?
आजाद – बी महरी साहबा, सलाम। हम मुसाफिर परदेशी हैं।
कहारिन – वाह! अच्छे आए मियाँ, यह क्या कुछ सराय है?
आजाद – खुदा के लिए बेगम साहबा से कह दो कि बड़े मियाँ ने एक खत भेजा है।
महरी ने एक चौकड़ी भरी, तो घर के अंदर थी। जा कर बोली – बीबी, मियाँ के पास से एक साहब आए हैं, खत लाए हैं।
वह चौंक उठी – चल झूठी, किसी और को जा कर उड़ाना, यहाँ कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं। मियाँ किसी कब्रस्तान में मीठी नींद सो रहे होंगे कि खत भेजेंगे?
महरी – जरी, झरोखे से झाँकिए तो; वह क्या सामने खड़े हैं।
बेगम साहबा झरोखो की तरफ चलीं, तो अपनी बूढ़ी अम्माँ को आईना सामने रखे, बाल सँवारते देखा। छेड़ कर बोलीं – ऐ अम्माँ, आज तो वेतौर चोटी-कंघी की फिक्र है। कोई घूरे; तो इनसान निखार करे। कोई मरे, तो आदमी शिकार करे। तुम दो ऊपर अस्सी बरस की हुई, मगर जवानी की हवस न गई। खुदा ही खैर करे।
अम्माँ – मुझ नसीबों-जली की किस्मत में यही बदा था कि बेटी की जबान से ऐसी-ऐसी बातें सुनूँ। कोई और कहती, तो उसकी जबान निकाल लेती; लेकिन तुम तो मेरी आँखों की पुतली हो। हाय! ममता बुरी चीज है! बेटा, तुम ये बातें क्या जानो, अभी जवान हो, नादान हो, बनावट-सजावट तो मेरी घूँटी में पड़ी थी, और मैं न बनती-ठनती, तो तुम्हारी आँखों को तिरछी चितपन कौन सिखाता? बाहर जाओ, तुम्हारे मियाँ का आदमी आया है।
बीबी ने झरोखे से जो देखा, एक आदमी सचमुच खड़ा है और है भी अलबेला, छैला, जवान, तो तुरंत महरी को भेजा कि जा कर उन्हें बैठने के लिए कुर्सी निकाल दे। आजाद तो कुर्सी पर बैठे और चिक के उधर आप जा बैठीं। आजाद की उन पर निगाह पड़ी, तो तीर सा लग गया। कमर ऐसी पतली कि साये के बोझ से बल खाए, मुखड़ा बिन घने चाँद को लजाए, उस पर सियाह रेशमी लिबास और हिना की बू-बास। जोबन फटा पड़ता था, निगाह फिसली जाती थी।
महरी ने आजाद से पूछा – बड़े मियाँ तो आराम से हैं?
आजाद – हाँ, मैं उनका खत लाया हूँ। अपनी बेगम साहबा से मेरा सलाम कहो और यह खत उनको दो।
महरी – बेगम साहबा कहती हैं, आप खत लाए हैं, तो पढ़ कर सुना भी दीजिए।
आजाद ने खत पढ़कर सुनाया, तो उस नाजनीन का चेहरा मारे गुस्से के सुर्ख हो गया। बिना कुछ कहे-सुने समझ कर वहाँ से उठीं और अपनी माँ के पास आ कर खड़ी हो गईं। अम्माँजान इस वक्त चाँदनी की बहार देखने में मसरूफ थीं। बोलीं – बेटी, देख तो क्या नूर की चाँदनी छिटकी हुई है, चाँद इस वक्त दुलहिन बना हुआ है!
बेटी – अम्मीजान, तुम्हारी भी अनोखी बातें हैं। सरदी की चाँदनी, जैसे बूढ़े की नसीबों-जली बीवी की जवानी। आज तो आसमान यौं ही झक-झक कर रहा है, आज निकला तो क्या, जब जानें कि अँधेरे-धुप में शक्ल दिखाए। बुढ़िया ताड़ गई। बोली – बेटी, जरा सब्र करो, अपनी जवानी की कसम, बुड्ढा तो कब्र में पाँव लटकाए बैठा है, आज मुआ, कल दूसरा दिन, फिर हम तुमको किसी अच्छे घर ब्याहेंगे। अबकी खुदाई भर की खाक छान कर वह ढूँढ़ निकालूँ, जो लाखों में एक हो। सुबह-शाम खबर आना ही चाहती है कि बुड्ढा चल बसा।
यह सुन कर बेटी खिलखिला कर हँस पड़ी। बोली – अम्माँ, जब तुम अपनी जवानी की कसम खाती हो, तो मुझे बेअख्तियार हँसी आती है। तुम तो अपने को बिलकुल नन्हीं सी समझती हो। करोड़ों तो आपके गालों पर झुर्रियाँ, बगुले के पर का सा सफेद जूड़ा, सिर घड़ी का खटका बना हुआ, कमर टेढ़ी, मगर मेहँदी का लगाना न छूटा, न छूटा। रंगीन दुपट्टा ही उम्र भर ओढ़ा, जब देखा, कंघी-चोटी से लैस। खुदा-कसम, ऐसी अनगढ़ बूढ़ी देखी न सुनी।
बुढ़िया ने टुइयाँ तोते की तरह पोपले मुँह से कहा – प्यारी, तुम्हारी बातों से मुझे हौल होता है, अल्लाह मेरी बच्ची पर रहम खाए, बूढ़े के मरने की खबर सुनाए।
महरी – बड़ी बेगम, आपके नमक की कसम, साहबजादी को दिलोजान से आपसे प्यार है; मगर भोली नादान हैं, जो अनाप-शनाप मुँह में आया, कह सुनाया। अल्हड़पने के तो इनके दिन ही हैं, जुमा-जुमा आठ दिन की पैदायस, नेक-बद, ऊँच-नीच क्या जानें। जब सयानी होंगी, तो शहूर आपी-आप सीख जायँगी। बुढ़िया ने एक ठंडी साँस भरके कहा – जो मुझे इनकी बातों से रंज हुआ हो, तो खुदा मुझे जन्नत न दे। मगर करूँ क्या, बुरा तो यह मालूम होता है कि मुझको यह आए-दिन ताने देती है कि तुम बुढ़िया हो, बुढ़ापे में निखरती क्यों हो? मैं किससे कहूँ कि इसके गम ने मेरी कमर तोड़ डाली, इसको कुढ़ते देख कर घुली जाती हूँ, नहीं, अभी मेरा सिन ही क्या है! अच्छा, तू ही ईमान से कह, कोई और भी मुझे बूढ़ी कहता है?
महरी दिल में तो हँसती थी कि इन्हें जवान बनने का शौक चर्राया है, हौवा के साथ खेली होंगी, मगर अभी नन्हीं ही बनी जाती हैं; लेकिन छटी हुई औरत थी, बात बना कर बोली – ऐ तोबा, बुढ़ापे की आप में तो छाँह भी नहीं, मेरा अल्लाह जानता है, अब आप और बिटिया को कोई साथ देख लेता है, तो पहले आप पर नजर पड़ती है, पीछे इन पर। बल्कि, एक मुई दिलजली ने परसों चुटकी ली थी कि ‘छोटी बी तो छोटी बी; बड़ी बी सुभान अल्लाह।’ लड़की तो खैर, इसकी माँ ने तो खूब काठी पाई है। आपका चेहरा कुंदन की तरह दमकता है, जो देखता है, तरसता है।
बुढ़िया तो खिल गई लेकिन बेटी जल उठी। कड़क कर बोली – चल, चुप खुशामदिन! अल्लाह करे, तेरा मियाँ भी मेरे मियाँ का सा बुड्ढा हो जाय। और तुम खुशामद न करो, तो खाओ क्या? अम्माँ पर लोगों की नजर पड़ती है! झूठे पर शैतान की फटकार! बूढ़ी औरत, कुछ ऊपर सौ बरस का सिन, लठिया टेक कर दस कदम चलती हैं, तो घंटों हाँफा करती हैं। दिन को ऊँट और सारस नहीं सूझता, इनके बूढ़े नखरे देख कर हमको हँसी आती है। जी जलता है कि यह किस बिरते पर इतराती हैं, मुँह में दाँत न पेट में आँतें; भला कमर तो मेरे सबब से झुक गई, और दाँत क्या हुए?
आखिर, महरी ने उसे समझा-बुझा कर बात टाल दी, और बोली – वह मियाँ बाहर बैठे हैं, उनके लिए आप क्या कहती हैं? उसने महरी की बात का कुछ जवाब न दिया। वहाँ से उठ कर बगीचे में आई और इठला-इठला कर टहलने लगी। बाल बिखरे हुए, यही मालूम होता था कि साँप लहरा रहा है। कमर लाखों बल खा रही हैं। मियाँ आजाद ने चिक की दराजों से जो उसे बेनकाब देखा, तो सन से जान निकल गई! कलेजे पर साँप लोटने लगा। संयोग से उस रमणी ने कहीं इनको देख लिया कि आँखें सेक रहे हैं और दूर ही से जोबन लूट रहे हैं, तो बदन को छिपाए, आँख चुराए, बिजली की तरह लौंक कर नजर से गायब हो गईं। आजाद हैरान कि अब क्या करूँ। आखिर, दिल की बेकरारी ने ऐसा मजबूर किया कि आठ-आठ आँसू रो कर यह गजल गाने लगे –
क्या जानिए कि वस्ल में क्या बात हो गई;
आँखें नहीं मिलाते हैं शरमाए जाते हैं।
दिल मेरा लेके क्या कहीं भूल आए हैं हुजूर?
खोए हुए से आप जो कुछ पाए जाते हैं।
काले डसें जो जुल्फ तुम्हारी कमी छुएँ!
लो, अब तुम्हारे सिर की कसम खाए जाते हैं।
तमकनत को न काम फरमाओ;
एक नजर मुड़के देखती जाओ।
आशिकों से न इस कदर शरमा;
एक निगह के लिए न आँख चुरा।
जाने-जाँ, कुछ तरस न खाओगी?
यों तड़पता ही छोड़ जाओगी?
वह इन-ऐसों की कब सुननेवाली थी, मुड़ कर देखना गाली थी। आजाद ने जब देखा कि यहाँ दाल गलने की नहीं, कोई यों टहलते हुए देख ले, तो लेने के देने पड़ें, तो बेचारे रोते हुए घर आए।
उधर उस नाजनीं ने जवानी की उमंग में यह ठुमरी भैरवी की धुन में लहरा-लहरा कर गाई –
पिया के आवन की भई बिरियाँ, दरवजवा ठाढ़ी रहूँ;
मोरे पिया को बेगि ले आओ री, निकसत जियरा जाय;
पिया दरवजवा ठाढ़ी रहूँ!
इसके जवाब में उनकी अम्माँजान टीपदार आवाज में कहती हैं –
जोबनवाँ हो, चार दिना दीन्हों साथ।
जोबन रितु जात सभी मुख मोरत, ‘कदर’न पूछे बात रे।
जोबनवाँ हो, चार दिना दीन्हों साथ।
मियाँ आजाद ने चलते-चलते बाहर से यह तान लगाई –
तेरे नैनों ने मुझे मारा, रसीली मतवारियों ने जादू डारा।
महरी ने देखा कि सबने अपने-अपने हाल के मुताबिक हाँक लगाई। एक मैं ही फिसड्डी रह गई, तो वह भी कफन फाड़कर चीख उठी –
जाओ-जाओ, काहे ठाढ़े डारे गल-बाहीं रे?
घेरे रहत नित नेरे जैसे छाई रे।
जानत हूँ जो हमसे चहत हो
नाहक इतनी बिनती करत हो,
‘कदर’ करत हो अरे नाहीं-नाहीं रे।
जाओ चलो, काहे ठाढ़े डारे गल-बाहीं रे!
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 9
आजाद को नवाब साहब के दरबार से चले महीनों गुजर गए, यहाँ तक कि मुहर्रम आ गया। घर से निकले, तो देखते क्या हैं, घर-घर कुहराम मचा हुआ है, सारा शहर हुसेन का मातम मना रहा है। जिधर देखिए, तमाशाइयों की भीड़, मजलिसों की धूम, ताजिया-खानों में चहल-पहल और इमामबाड़ों में भीड़-भाड़ है। लखनऊ की मजलिसों का क्या कहना! यहाँ के मर्सिये पढ़नेवाले रूम और शाम तक मशहूर हैं। हुसेनाबाद का इमामबाड़ा चौदहवीं रात का चाँद बना हुआ था। उनके साथ एक दोस्त भी हो लिए थे। उनकी बेकरारी का हाल न पूछिए। वह लखनऊ से वाकिफ न थे, लोटे जाते थे कि हमें लखनऊ का मुहर्रम दिखा दो; मगर कोई जगह छूटने न पाए। एक आदमी ने ठंडी साँस खींच कर कहा – मियाँ; अब वह लखनऊ कहाँ? वे लोग कहाँ? वे दिन कहाँ? लखनऊ का मुहर्रम रंगीले पिया जान आलम के वक्त में अलबत्ता देखने काबिल था। जब देखो, बाँकों की तलवार मियान से दो उंगल बाहर। किसी ने जरा तींखी चितवन की, और उन्होंने खट से सिरोही का तुला हुआ हाथ छोड़ा, भंडारा खुल गया। एक-एक घंटे में बीस-बीस वारदातों की खबर आती थी, दुकानदार जूतियाँ छोड़-छोड़ कर सटक जाते थे। वह धक्कमधक्का, वह भीड़-भड़ाका होता था कि वाह जी वाह! इंतजाम करना खालाजी का घर न था। अब कोई चूँ भी नहीं करता, तब छोटे-छोटे आदमी हजारों लुटाते थे, अब कोई पैसा भी खर्च नहीं करता। अब न अनीस हैं, न दबीर, न जमीर हैं, न दिलगीर।
अफसोस जहाँ से दोस्त क्या-क्या न गए;
इस बाग से क्या-क्या गुलेराना न गए।
था कौन सा बाग, जिसने देखी न खिजाँ,
वो कौन से गुल खिले जो मुरझा न गए।
दबीर का क्या कहना था, एक बंद पढ़ा और सुननेवाले लोट गए। अनीस को खुदा बख्शे, क्या कलाम था, गोया जवाहिरात के टुकड़े हैं। लेकिन हाथी लुटेगा भी, तो कहाँ तक! अब भी इस शहर की ऐसी ताजियादारी दुनियाँ भर में कहीं नहीं होती।
आजाद और उसके दोस्त चले जाते थे। राह में वह भीड़ थी कि कंधे से कंधा छिलता था। हवा भी मुश्किल से जगह पाती थी। गरीब-अमीर, बूढ़े-जवान उमड़े चले आते हैं। जिधर देखो, निराली ही सज-धज। कोई हुसेन के मातम में नंगे ही सिर चला जाता है, कोई हरा-हरा जोड़ा फड़काता है। हसीनों की मातमी पोशाक, बिखरे हुए बाल, कभी लजाना, कभी मुसकिराना। शोहदों का सौ-सौ चकफेरियाँ लगाना तमाशाइयों की बातें, दिहातिनें बेंदी लगाए, फरिया फड़काय, गोंद से पटिया जमाए बातें कर रही हैं। लीजिए, आगा बाकर के इमामबाड़े में खट से दाखिल। वाह मियाँ बाकर, क्यों न हो, नाम कर गए। चकाचौंध का आलम है। लेकिन गली तंग, तमाशाइयों की अक्ल दंग। मगर लोग घुस-पैठ कर देख ही आते हैं। नाक टूटे या सिर फूटे, आगा बाकर का इमामबाड़ा जरूर देखेंगे।
दोनों आदमी वहाँ से आगे बढ़े, तो कच्चे पुल पहुँचे। देखते क्या हैं, एक बाबा आदम के जमाने के बूढ़े अगले वक्तों के लोगों को रो रहे हैं। वाह-वाह! लखनऊ के कुम्हार, क्या कमाल है। बुड्ढा ऐसा बनाया कि मालूम होता है, पोपले मुँह से अब बोला, और अब बोला। वही सन के से बाल, वही सफेद भौंहें, वही चितवन, वही माथे की शिकन, वही हाथों की झुर्रियाँ, वही टेढ़ी कमर, वही झुका हुआ सीना। वाह रे कारीगर, तू भी अपने फन में यकता है। वहाँ से जो चले, तो दरोगा वाजिदअली के इमामबाड़े में आए। यहाँ सूरजमुखी पर वह जोबन था कि आफताब अगर एक नजर छिप कर देख पाता, तो शर्म के मारे मुँह छिपा लेता। बेधड़क जा कर कुर्सियों पर बैठ गए। इलायची, चिकनी डली पेश की गई। वहाँ से हुसेनाबाद पहुँचे। सुभान-अल्लाह! यह इमामबाड़ा है या जन्नत का मकान! क्या सजावट थी; बुर्जों पर कंदीलें रोशन थीं, मीनारों पर शमा जलती हुई चिरागों की कतार हवा के झोंकों से लहरा-लहरा कर अजब समाँ दिखाती थी। नजर जो देखी, तो आँखें ठंडी हो गईं।
अब इनके दोस्त को शौक चर्राया कि तवायफों के इमामबाड़ों की जियारत करें। पहले मियाँ आजाद झिझके और बोले – बंदा ऐसी जगह नहीं जाने का, अपनी शान के खिलाफ हैं। दोस्त ने कहा – भाई, तुम बड़े रूखे-फीके आदमी हो। हैदर, मुश्तरी, गौहर और आबादी के मर्सिये न सुने, तो किसी से क्या कहेंगे कि लखनऊ का मुहर्रम देखा। आजकल वहाँ जाना हलाल है! इन दस दिनों में मजे से जहाँ चाहे जाइए, रंगीन कमरों में दो गाल हँस-बोल आइए, कोई कुछ नहीं कह सकता।
आजाद – यह कहिए तो खैर, बंदा भी लहू लगा कर शहीदों में दाखिल हो जाय। पहले गौहर के यहाँ पहुँचे। अच्छे-अच्छे रईस-जादे बैठे हुए हैं। एक बड़े मालदार जौहरी साहब मटकते हुए आए। दस रुपए की कारचोबी टापी सिर पर, प्याजी अतलस की भड़कीली अचकन पहने हुए। खिदमतगार के कंधे पर कीमती दुशाला। यह ठाट-बाट, मगर बैठते ही टोके गए। बैठे तो जरीह (ताजिया) की तरफ पीठ करके! गौहर ने एक अजीब अदा से झिड़क दिया – ऐ वाह, बड़े तमीजदार हो। जरीह की तरफ पीठ कर ली। सीधे बैठो, आदमियत के साथ!
मियाँ आजाद ने चुपके से दोस्त के कान में कहा – मियाँ, इस टीम-टाम से तो आए, मगर घुड़की खा कर मिनके तक नहीं।
दोस्त – भाईजान, गौहर लखनऊ की जान है, लखनऊ की शान है। ऐसा खुशनसीब कोई हो तो ले कि इसकी घुड़कियाँ सहे।
लोग अदब से गदरन झुकाए बैठे कनखियों से आँखों को सेक रहे थे, लेकिन किसी के मुँह से बात न निकलती थी। यहाँ से उठे, तो फिरंगी-महल में हैदरजान के यहाँ पहुँचे। वहाँ मर्सिया हो रहा था –
निकले खेमे से जो हथियार लगाए अब्बास,
चढ़ के रहबार पर मैदान में आए अब्बास।
इस शेर को ऐसी प्यारी आवाज से अदा किया कि सुननेवाले लोटन कबूतर हुए जाते थे। राग और रागिनी तो उसकी लौंडियाँ थीं। सबके सब सिर धुनते थे, क्या प्यारा गला पाया है! मियाँ आजाद की बाँछें खिली जाती थीं और गरदन तो घड़ी का खटका हो गई थी!
यहाँ से उठे, तो मुश्तरी के कमरे में पहुँचे। देखने वालों का वह हुजूम था कि तिल रखने की जगह नहीं।
‘खंजर जो बेसा गाहे पयंबरा पै चल गया’ इसको झँझौटी की धुन में इस लुत्फ से पढ़ा कि लोग फड़क उठे।
दोस्त – क्यों यार, क्या लखनऊ में जेवर पहनने की कसम है?
आजाद – भाई, तुम बिलकुल ही गँवार हो। मातम में जेवर का क्या जिक्र है? गोरे-गोरे कानों में काले-काले करनफूल, हाथों में सियाह चूडियाँ, बस यही काफी है। लेकिन यह सादगी भी अजीब लुत्फ दिखाती है।
यहाँ से उठ कर दोनों आदमी मातम की मजलिसों में पहुँचे। जिधर जाते हैं, रोने-पीटने की आवाज आती है; जिसे देखिए, आँखों से आँसू बहा रहा है। सारी रात मजलिसों में घूमते रहे, सुबह अपने घर पहुँचे।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 10
वसंत के दिन आए। आजाद को कोई फिक्र तो थी ही नहीं, सोचे, आज वसंत की बहार देखनी चाहिए। घर से निकल खड़े हुए, तो देखा कि हर चीज जर्द है, पेड़-पत्ते जर्द, दरो-दीवार जर्द, रंगीन कमरे जर्द, लिबास जर्द, कपड़े जर्द। शाहमीना की दरगाह में धूम है, तमाशाइयों का हुजूम है। हसीनों के झमकड़ें, रँगीले जवानों की रेल-पेल, इंद्र के अखाड़े की परियों का दगल है, जंगल में मंगल है। वसंत की बहार उमंग पर है, जाफरानी दुपट्टों और केसरिये पाजामों पर अजब जोबन है। वहाँ से चौक पहुँचे। जौहरियों की दुकान पर ऐसे सुंदर पुखराज हैं कि पुखराज-परी देखती, तो मारे शर्म के हीरा खाती और इंद्र का अखाड़ा भूल जाती। मेवा बेचनेवाली जर्द आलू, नारंगी, अमरूद, चकोतरा, महताबी की बहार दिखलाती है, चंपई दुपट्टे पर इतराती है। मालिन गेंदा, हजारा, जर्द गुलाब की बू-बास से दिल खुश करती है। और पुकार-पुकार कर लुभाती है, गेंदे का हार है, गले की बहार है। हलवाई खोपड़े की जर्द बर्फी, पिस्ते की बर्फी, नानखताई, बेसन के लड्डू, चने के लड्डू दुकान पर सजाए बैठा है। खोंचेवाले पापड़, दालमोट, सेव वगैरह बेचते फिरते हैं। आजाद यही बहार देखते, दिल बहलाते चले जाते थे। देखते क्या हैं, लाला वसंतराय के मकान में कई रँगीले जवान बाँकी टोपियाँ जमाए, वसंती पगिया बाँधे, केसरिये कपड़े पहने बैठे हैं। उनके सामने चंद्रमुखी औरतें बैठी नौबहार की धुन में बसंत गा रही हैं। कालीन जर्द है, छतपोश जर्द, कंबल जर्द, जर्द झालर से मकान सजाया है, वसंत-पंचमी ने दरो-दीवार तक को वसंती लिबास पहनाया है। कोई यह गीत गाती है –
ऋतु आई वसंत अजब बहार;
खिले जर्द फूल बिरवों की डार।
चटक्यो कुसुम, फूलै लागी सरसों;
झूमत चलत गेहूँ की बार
हर के द्वारे माली का छोहरा;
गरबा डारत गेंदों के हार।
टेसू फूले, अंबा बौरे;
चंपा के रुख कलियन की बहार।
गरबा डारे उस्ताद के द्वारे;
चलो सब सखियाँ कर-कर सिंगार।
कोई मियाँ अमानत की यह गजल गाती है –
है जलवाए तन से दरो-दीवार बसंती;
पोशाक जो पहने है मेरा यार बसंती।
क्या फस्ले बहारी में शिगूफे हें खिलाए;
माशूक हैं फिरते सरे-बाजार बसंती।
गेंदा है खिला बाग में, मैदान में सरसों;
सहरा वह बसंती है, यह गुलजार बसंती।
मुँह जर्द दुपट्टे के न आँचल से छिपाओ;
हो जाय न रंगे गुले-रुखसार बसंती।
आजाद चले जाते थे कि एक नई सज-धज के बुजुर्ग से मुठभेड़ हुई। बड़े तजुर्बेकार, खर्राट आदमी थे। आजाद को देखते ही बोले – आइए-आइए खूब मिले। वल्लाह, शरीफ की सूरत पर आशिक हूँ। चीन, माचीन, हिंद और सिंध, रूम और शाम, अलगरज, सारी खुदाई की बंदे ने खाक छानी है, और तू यार जानी है। सफर का हाल सुन, घुँघरू बोले छुन-छुन। ऐसी बात सुनाऊँ, परी को लुभाऊँ, जिन को रिझाऊँ, मिसर की दास्तान सुनाऊँ।
यह तकरीर सुन कर आजाद के होश पैतरे हो गए, समझ में न आया, कोई पागल है, या पहुँचा हुआ फकीर। मगर आसार तो दीवानेपन के ही हैं।
खुर्राट ने फिर बड़-बड़ाना शुरू किया – सुनो यार, कहता है खाकसार, हम सो रहें तुम जागो, फिर हम उठ बैठे, तुम सो रहो, सफर यार का है, सोते-जागते राह काटें, सफर का अंधा कुआँ उन्हीं ईंटों से पाटें।
यह कह कर खुर्राट ने एक खोंचेवाले को बुलाया और पूछा – खुटियाँ कितने सेर? बर्फी का क्या भाव? लड्डू पैसे के कै? बोलो झटपट, नहीं हम जाते हैं। खोंचेवाले ने समझा, कोई दीवाना है। बोला – पैसे भी हैं या भाव ही से पेट भरोगे?
खुर्राट – पैसे नहीं है, तो क्या मुफ्त माँगते हैं? तौल दे सेर भर मिठाई।
मिठाई ले कर आजाद को जिद करके खिलाई, ठंडा पानी पिलवाया और बोले – शाम हुई, अब सो रहो, हम असबाब ताकते हैं। मियाँ आजाद एक दरख्त के नीचे लेटे, खुर्राट ने ऐसी मीठी-मीठी बातें कीं कि उन्हें उस पर यकीन आ गया। दिन भर के थके थे ही, लेटते ही नींद आ गई। सोए तो घोड़े बेच कर, सिर-पैर की खबर नहीं, गोया मुर्दों से शर्त लगाई है। वह एक काइयाँ, दुनिया भर का न्यारिया, उनको गाफिल पाया, तो घड़ी सोने की चेन, चाँदी की मूठवाली छड़ी, चाँदी का गिलौरीदान ले कर चलता हुआ। आध घंटे में आजाद की नींद खुली, तो देखा कि खुर्राट गायब है, घड़ी और चेन, डब्बा और छड़ी भी गायब। चिल्लाने लगे – लूट लिया, जालिम ने लूट लिया। झाँसा दे गया। ऐसा चकमा कभी न खाया। दौड़ कर थाने में इत्तला की। मगर खुर्राट कहाँ, वह तो यहाँ से दस कोस पर था। बेचारे रो-पीट कर बैठ रहे। थोड़ी ही दूर गए होंगे कि एक चौराहे पर एक जवान को मुश्की घोड़े पर सवार आते देखा। घोड़ा ऐसा सरपट जा रहा था कि हवा उसकी गर्द तक को न पहुँचती थी। अँधेरा हो ही गया था, एक कोने में दबक रहे कि ऐसा न हो, कहीं झपेटे में आ जायँ। इतने में सवार उनके सिर पर आ खड़ा हुआ। झट घोड़े की बाग रोकी और इनकी तरफ नजर भर कर देखने लगा। यह चकराए, माजरा क्या है? यह तो बेतरह घूर रहा है, कहीं हंटर तो न देगा।
जवान – क्यों हजरत, आप किसी को पहचानते भी हैं? खुदा की शान, आप और हमको भूल जायँ!
आजाद – मियाँ, तुमको धोखा हुआ होगा। मैंने तो कभी तुम्हारी सूरत भी नहीं देखी।
जवान – लेकिन मैंने तो आपकी सूरत देखी है; और आपको पहचानता हूँ। क्या इतनी जल्दी भूल गए? यह कह कर वह जवान घोड़े से उतर पड़ा और आजाद से चिमट गया।
आजाद – आपको सचमुच धोखा हुआ।
जवान – भाई, बड़े भुलक्कड़ हो! याद करो, कॉलेज में हम-तुम, दोनों एक ही दर्जे में पढ़ते थे। वह किश्ती पर हवा खाने जाना और दरिया के मजे उड़ाना; वह मदारी खोंचेवाला, वह उकलैदिस के वक्त उड़ भागना; सब भूल गए? अब मियाँ आजाद को याद आई। दोस्त के गले से लिपट गए और मारे खुशी के रो दिए।
जवान – तुम्हें याद होगा, जब मैं इंटरमीडिएट का इम्तिहान देने को था, तो मेरे पास फीस का भी ठिकाना न था। रुपए की तलाश में इधर-उधर भटकता फिरता था कि राह में अस्पताल के पास तालाब पर तुमसे मुलाकात हुई और तुमने मेरे हाल पर रहम करके मुझे रुपए दिए। तुम्हारी मदद से मैंने बी.ए. तक पढ़ा। लेकिन इस वक्त तुम बड़े उदास नजर आते हो, इसका क्या सबब है?
आजाद – यार, कुछ न पूछो। एक खुर्राट के चकमे में आ गया। यहीं घास पर लेट रहा, और वह मेरी घड़ी-चेन वगैरह ले कर चलता हुआ!
जवान – भई वाह! इतने घाघ बनते हो, और एक खुर्राट के भर्रे में आ गए! आप के बटन तक उतार ले गया और आप को खबर नहीं। ले अब कान पकड़िए कि अब फिर किसी मुसाफिर की दोस्ती का एतबार न करेंगे। मिठाई तो आप खा ही चुके हैं, चलिए, कहीं बैठ कर वसंती गाना सुनें।