हीराबाई वा बेहयाई का बोरका ( उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी

हीराबाई वा बेहयाई का बोरका ( उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी

हीराबाई वा बेहयाई का बोरका ( उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी पहिला परिच्छेद : अत्याचार “सर्पः क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात्क्रूरतरः खलः।मन्त्रौषधिवशः सर्पः खलः केन निवार्यते ॥”(हितोपदेशे) दिल्ली का ज़ालिम बादशाह अलाउद्दीन ख़िलजी जो अपने बूढे़ और नेक चचा जलालुद्दीन फ़ीरोज़ ख़िलजी को धोखा दे और उसे अपनी आंखों के सामने मरवाकर [सन् १२९५ ईस्वी] आप …

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खूनी औरत का सात खून : किशोरी लाल गोस्वामी Part 3

खूनी औरत का सात खून : किशोरी लाल गोस्वामी Part 3

खूनी औरत का सात खून : किशोरी लाल गोस्वामी Part 3 तेहरवाँ परिच्छेद : दो सज्जन उस बदजात थानेदार के जाने पर वे दोनों चौकीदार मुझसे बातचीत करने लगे। वे दोनों बेचारे बड़े भले आदमी थे। उनमें से एक ( दियानत हुसैन ) तो मुसलमान थे और दूसरे (रामदयाल) ब्राह्मण। बातों ही बातों में उन …

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खूनी औरत का सात खून : किशोरी लाल गोस्वामी Part 2

खूनी औरत का सात खून : किशोरी लाल गोस्वामी Part 2

खूनी औरत का सात खून : किशोरी लाल गोस्वामी Part 2 सातवाँ परिच्छेद : हितोपदेश माता मित्रं पिता चेति स्वभावात् त्रितयं हितम्। कार्यकारणतश्चान्ये भवन्ति हितबुद्धयः॥ (हितोपदेशे) यों कहकर भाईजी फिर मुझसे बोले,–“ दुलारी, अब तुम अपना बयान मेरे आगे कह जाओ; पर इतना तुम ध्यान रखना कि इस समय जो कुछ तुम कहो, उसे खूब …

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खूनी औरत का सात खून : किशोरी लाल गोस्वामी Part 1

खूनी औरत का सात खून : किशोरी लाल गोस्वामी

खूनी औरत का सात खून : किशोरी लाल गोस्वामी Part 1 प्रथम परिच्छेद : घोर विपत्ति “आकाशमुत्पततु गच्छतु वा दिगन्त- मम्बोनिधिं विशतु तिष्ठतु वा यथेच्छम्॥ जन्मान्तरा S र्जितशुभाSशुभकृन्नराणां, छायेव न त्यजति कर्मफलाSनुबन्धः॥“ (नीतिमंजरी) दुलारी मेरा नाम है और सात-सात खून करने के अपराध में इस समय में जेलखाने में पड़ी-पड़ी सड़ रही हूं। मैं जाति …

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कंकाल (उपन्यास) चतुर्थ खंड : जयशंकर प्रसाद

कंकाल (उपन्यास) चतुर्थ खंड : जयशंकर प्रसाद

कंकाल (उपन्यास) चतुर्थ खंड : जयशंकर प्रसाद (1) वह दरिद्रता और अभाव के गार्हस्थ्य जीवन की कटुता में दुलारा गया था। उसकी माँ चाहती थी कि वह अपने हाथ से दो रोटी कमा लेने के योग्य बन जाए, इसलिए वह बार-बार झिड़की सुनता। जब क्रोध से उसके आँसू निकलते और जब उन्हें अधरों से पोंछ …

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कंकाल (उपन्यास) तृतीय खंड : जयशंकर प्रसाद

कंकाल (उपन्यास) तृतीय खंड : जयशंकर प्रसाद

कंकाल (उपन्यास) तृतीय खंड : जयशंकर प्रसाद (1) श्रीचन्द्र का एकमात्र अन्तरंग सखा धन था, क्योंकि उसके कौटुम्बिक जीवन में कोई आनन्द नहीं रह गया था। वह अपने व्यवसाय को लेकर मस्त रहता। लाखों का हेर-फेर करने में उसे उतना ही सुख मिलता जितना किसी विलासी को विलास में। काम से छुट्टी पाने पर थकावट …

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कंकाल (उपन्यास) द्वितीय खंड : जयशंकर प्रसाद

कंकाल (उपन्यास) द्वितीय खंड : जयशंकर प्रसाद

कंकाल (उपन्यास) द्वितीय खंड : जयशंकर प्रसाद (1) एक ओर तो जल बरस रहा था, पुरवाई से बूँदें तिरछी होकर गिर रही थीं, उधर पश्चिम में चौथे पहर की पीली धूप उनमें केसर घोल रही थी। मथुरा से वृन्दावन आने वाली सड़क पर एक घर की छत पर यमुना चादर तान रही थी। दालान में …

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कंकाल (उपन्यास) प्रथम खंड : जयशंकर प्रसाद

कंकाल (उपन्यास) प्रथम खंड : जयशंकर प्रसाद

कंकाल (उपन्यास) प्रथम खंड : जयशंकर प्रसाद (1) प्रतिष्ठान के खँडहर में और गंगा-तट की सिकता-भूमि में अनेक शिविर और फूस के झोंपड़े खड़े हैं। माघ की अमावस्या की गोधूली में प्रयाग में बाँध पर प्रभात का-सा जनरव और कोलाहल तथा धर्म लूटने की धूम कम हो गयी है; परन्तु बहुत-से घायल और कुचले हुए …

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तितली (उपन्यास) चतुर्थ खंड : जयशंकर प्रसाद

तितली (उपन्यास) चतुर्थ खंड : जयशंकर प्रसाद

तितली (उपन्यास) चतुर्थ खंड : जयशंकर प्रसाद 1 मधुबन और रामदीन दोनों ही, उस गार्ड की दया से, लोको ऑफिस में कोयला ढोने की नौकरी पा गए। हबड़ा के जनाकीर्ण स्‍थान में उन दोनों ने अपने को ऐसा छिपा लिया, जैसे मधु-मक्खियों के छत्ते में कोई मक्‍खी। उन्‍हें यहाँ कौन पहचान सकता था। सारा शरीर …

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