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भूतनाथ (उपन्यास) खण्ड 1 : देवकीनन्दन खत्री (तीसरा भाग)
तीसरा भाग : पहिला बयान
काशी शहर के बाहर उत्तर तरफ लाट भैरव का एक प्रसिद्ध स्थान है, पास ही में एक पक्का तालाब है और स्थान के इर्द-गिर्द कई पक्के कुएँ भी हैं वहीं पक्का तालाब कपालमोचन तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है, काशी में वहाँ स्नान करने का बड़ा ही महात्म्य लिखा है, इस तालाब के कोने पर (कुछ हट के) एक कुआँ है जिसकी जगत बहुत ऊँची है और ऊपर बैठने का स्थान भी बहुत प्रशस्त है तथा सीढ़ी के दोनों तरफ छोटे-छोटे दो दालान भी हैं जिनसे मुसाफिरों और यात्रियों का बहुत उपकार होता है तथा काशी के मनचले और आशिक-मिजाज लोगों को सैर-सपाटे के समय (यदि बरसात का मौसम हो तो) रोटी-बाटी बनाने में भी अच्छी सहायता मिलती है।
इस तालाब या कुएँ के पास में सिवाय जंगल-मैदान के किसी गृहस्थ का कोई कच्चा या पक्का मकान नहीं, अगर यहाँ दस-पाँच आदमी आपस में लड़-भिड़ जायें तो पास के किसी अड़ोसी-पड़ोसी की सहायता भी नहीं मिल सकती।
इसी कुएँ पर संध्या होने से कुछ पहिले हम काशी के पाँच-सात खुशमिजाज आदमियों को बैठे हँसी-दिल्लगी करते तथा भंग-बूटी के इन्तजाम में व्यस्त देख रहे हैं, कोई भंग धो रहा है, कोई पीसने का चिकना पत्थर धोकर जगह साफ करने की धुन में है, कोई टिकिया सुलगा रहा है और कोई गौरैया (मिट्टी के हुक्के) में पानी भर रहा है। इत्यादि तरह-तरह के काम में सब लगे हुए हैं और साथ-ही-साथ अपनी बनारसी अधकचरी तथा अक्खड़ भाषा में हँसी-दिल्लगी भी करते जाते हैं। उनकी बातें भी सुनने के ही लायक हैं यद्यपि इससे किसी तरह का उपकार तो नहीं हो सकता परन्तु मन-बहलाव जरूर है और इस प्रकार की जानकारी भी हो सकती है अस्तु सुनिए तो सही।
एक : (जो भंग धो रहा था) यार, देखो सारे दुकानदार ने मुफ्त ही चार पैसे ले लिए। हमें तो यह भंग दो पैसे की भी जमा नहीं दिखाई देती यह देखो निचोड़ने पर मुट्ठी–भर के भी नहीं होती!
दूसरा : (उचक के देख के) हाँ यार, यह तो कुछ भी नहीं हैं। तू हूँ निरे गौखे ही रह्यो, पहिले काहे नहीं कहा, सारे की टोपी उतार लेते और ऐसा गड्डो देते कि जनम-भर याद रखता।
तीसरा : ऐसे ही तो जमा मार के सरवा मुटा गया है, तोंद कैसी निकली हुई है सारे की!
चौथा : अच्छा अब कल समझेंगे चोंधर से।
पाचँवा : कल आती दफे धीरे-से उसकी दौरी ही उलट देंगे, ज्यादे बोलेगा तो लड़ जायेंगे और गुल करेंगे कि चार आना पैसा तो ले लिहिस है मगर भाँग देता ही नहीं।
छठा : (जो भला आदमी और कुछ पैसा वाला भी मालूम होता है क्योंकि उसके गले में सोने की सिरकी पड़ी हुई थी) नहीं-नहीं ऐसा न करना, कोई जान-पहिचान का देख लेगा और जाकर कह देगा तो मुफ्त की झाड़ १ सुननी पड़ेगी। (१. झाड़ अर्थात डांट।)
दूसरा : अरे रहो बाबू साहब, हम लोगन के साथ आया करो तो ऐसी भलमानसी घर छोड़ आया करो, हम लोग ऐसे दबा करें तो दिन-दुपहरिया लुट जायें! (लेखक : कंगाल बाँकड़े भी खूब ही लुटा करते होंगे!)
सातवाँ : (सुलग गई टिकिया हाथ में हिलाते हुए) अरे यारों, ये बाबू साहब ठहरे महाजन आदमी, भला ई लोग लड़ना-भिड़ना का (क्या) जानें, चाहे कोई धोती उतार के ले जाय। ई (यह) हम ही लोगन (लोगों) के काम हो कि कोई आँख दिखावे तो कान उपाय (उखाड़) लेई। हमी लोगन की बदौलत बाबू साहब बचत भी जात हैं नहीं तो गूदड़ सफरदा सरवा ऐसा रंग बाँधे लगा था कि बस कुछ पूछा ही नहीं, ओ रोज (उस दिन) चिथड़ू न होते तो गले की सिकरिये उतार लिए होता।
छठा : (अर्थात बाबू साहब) हाँ यह बात तो ठीक है और जी में तो उसी रोज आ गया था कि अब आज से इस रास्ते को छोड़ दें और रंडी-मुंडी का नाम भी न लें बल्कि कसम खाने के लिए भी तैयार हो गया था मगर क्या करें, ‘नागर’ की मुहब्बत ने ऐसा करने नहीं दिया, वह बेशक मुझे प्यार करती है और मुझ पर आशिक है।
सातवाँ (मुस्कुराते हुए) बल्कि तुम पर मरती हैं! एक दिन हमसे कहती थी
कि बाबू साहब हमें छोड़ देंगे तो हम जहर खा लेंगे!!
इसी तरह ये लोग बेतुकी और अक्खड़पन लिये हुए मिश्रित भाषा में बात-चीत कर रहे थे कि यकायक विचित्र ढंग का एक नया मुसाफिर यहाँ आ पहुँचा और उसने कुएँ के ऊपर चढ़ते हुए इस सातवें आदमी की आखिरी बात बखूबी सुन ली। इस आदमी की उम्र का पता लगाना जरा कठिन है, तथापि बाबू साहब की निगाह में वह पैंतीस वर्ष का मालूम पड़ता था। कद जरा लम्बा और चेहरा रोआबदार था, कपड़े की तरफ ध्यान देकर कोई नहीं कह सकता था कि यह किस देश का रहने वाला है। भीतर चाहे जैसी पोशाक हो मगर ऊपर एक स्याह अबा डाले हुए था और एक छोटी-सी गठरी हाथ में थी।
पहिले से जो लोग उस कुएँ पर बैठे हँसी-दिल्लगी कर रहे थे उनके दिल में आया कि इस नये मुसाफिर से कुछ छेड़छाड़ करें और यहाँ से भगा दें क्योंकि वास्तव में काशी के रहने वाले अक्खड़ मिजाज लोगों की आदत ही ऐसी होती है, जहाँ इस मिजाज के चार-पाँच आदमी इकट्ठे होते हैं वहाँ वे लोग अपने आगे किसी को कुछ समझते ही नहीं और दूसरे लोगों से बिना दिल्लगी किये नहीं रहते।
एक : (नये मुसाफिर से) कहाँ रहते हो साहब?
मुसाफिर : गयाजी
दूसरा : यहाँ कब आये?
मुसाफिर : आज ही तो आये हैं।
दूसरा : तभी आप इस कुएँ पर आए हैं, अगर कोई जानकर होता तो यहाँ कभी न आता।
चौथा : यहाँ शैतान और जिन्न लोग रहते हैं, जो कोई नया मुसाफिर आता उसे चपत लगाए बिना नहीं रहते।
मुसाफिर : ठीक है, तो तुम लोगों को भी उन्होंने चपत लगाया होगा?
दूसरा : (चिढ़ कर, जोर से) हम लोगों से वे लोग नहीं बोल सकते क्योंकि हम लोग यहाँ के रहने वाले हैं और उन सभों के दोस्त हैं!
चौथा : क्यों बे, मुँह सम्हाल के नहीं बोलता!
मुसाफिर : अबे-तबे करोगे बच्चा तो ठीक करके रख देंगे! हमें कोई मामूली मुसाफिर न समझना!!
पाँचवाँ : (ललकार कर) मार सारे के अढैया चपत।
इतना कहकर पाँचवाँ आदमी उठा और मुक्का तान कर उस मुसाफिर की तरफ झपटा। मारना ही चाहता था कि मुसाफिर ने हाथ पकड़ लिया और ऐसा झटका दिया कि वह कुएँ के नीचे जा गिरा और बहुत चुटीला हो गया। यह कैफियत देखते ही बाबू साहब तो डर के मारे कुएँ के नीचे उतर गए और किसी झाड़ी में जाकर छिप रहे मगर बाकी के सब आदमी उस मुसाफिर पर जा टूटे और एक ने अपनी कमर से एक छुरी भी निकाल ली।
मगर मुसाफिर ने उन सभों की कुछ भी परवाह न की। बात-की-बात में उसने और तीन आदमियों को कुएँ के नीचे ढकेल दिया और उसके बाद कमर से खंजर निकाल कर मुकाबिले को तैयार हो गया।
खंजर की चमक देखते ही सभों का मिजाज ठण्डा हो गया और मेल-माफत के ढंग की बातचीत करने लगे, मगर मुसाफिर का गुस्सा कम न हुआ और उसने लात तथा मुक्कों से खूब सभी की मरम्मत की, इसके बाद एक किनारे हट कर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘कहो अब क्या इरादा है?’’
मुसाफिर की हिम्मत और मर्दानगी देख कर सभों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनको इस बात का गुमान भी नहीं हो सकता था कि यह अकेला आदमी हम लोगों को इस तरह नीचा दिखा देगा। सभों ने समझा कि यह जरूर कोई राक्षस या जिन्न है जो आदमी का रूप धर के हम लोगों को छकाने के लिए आया है, अस्तु किसी ने भी उसकी बातों का जवाब नहीं दिया बल्कि डरते हुए अपना सामान और कपड़ा-लत्ता उठा कर भागने के लिए तैयार हो गये मगर मुसाफिर ने उन्हें ऐसा करने से रोका और कहा, ‘‘देखो तुम लोगों ने जान-बूझ कर मुझसे छेड़खानी की और तकलीफ उठाई अस्तु अब शान्त होकर बैठो और अपना-अपना काम करो। तुम्हारे कई साथियों को सख्त चोट आ गई है सो उसे धोकर पट्टी बाँधों और कुछ देर आराम लेने दो, और हाँ यह तो बताओ कि तुम्हारे वह सुन्दर-सलोने बाबू साहब कहाँ चले गये जिन पर बीबी नागर आशिक हो गई है?’’
एक : न-मालूम कहाँ चला गया, ऐसा भग्गू आदमी…
दूसरा : जाने दो, अगर भाग गया तो जहन्नुम में जाय, उसी के सबब से तो हम लोग तकलीफ उठाते हैं।
मुसाफिर : नहीं-नहीं, भागो मत, अपने साथी को आने दो बल्कि खोजो कि वह कहाँ चला गया है। यह कोई भलमनसी की बात नहीं है कि उसे इस तरह छोड़ कर सब कोई चले जाओ, हम तुम लोगों को कभी न जाने देंगे और खास करके तुम्हारे सुन्दर सलोने से तो जरूर ही बातचीत करेंगे।
मुसाफिर की बातों ने उन लोगों को और भी परेशान कर दिया। उसका रोब इन सभों पर ऐसा छा गया था कि उसकी तरफ आँख उठा कर देख नहीं सकते थे और उसे आदमी नहीं बल्कि देवता या राक्षस समझने लग गये थे, अस्तु इसका रोकना इन लोगों को और भी बुरा मालूम हुआ और सभों ने डरते हुए हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘बस अब कृपा कीजिए और हम लोगों को जाने दीजिए।’’
मुसाफिर : नहीं-नहीं, यह कभी न होगा, पहले तुम अपने साथी को तो खोजो।
एक : अब हम उसे कहाँ खोजें?
मुसा० : चलो हम भी तुम लोगों के साथ मिल कर उसे खोजें। वह कहीं दूर न गया होगा, इसी जगह किसी झाड़ी में छिपा होगा। तुम लोग डरो मत, अब हमारी तरफ से तुम्हें किसी तरह की तकलीफ न पहुँचेगी।
यद्यपि मुसाफिर ने उन लोगों को बहुत दिलासा दिया और समझाया मगर उन लोगों का जी ठिकाने न हुआ और डर उनके दिल से न गया बल्कि इस बात का ख्याल हुआ कि यह मुसाफिर बाबू साहब को खोजने के लिए जिद्द करता है तो इसमें कोई भेद जरूर है, बेशक बाबू साहब को खोज कर उन्हें तकलीफ देगा। मगर जो हो उन सभों को खोजना ही पड़ा।
उधर बाबू साहब उस कुएँ के पास ही झाड़ी में छिपे हुए सब देख-सुन रहे थे और डर के मारे उनका तमाम बदन काँप रहा था, जब उन्होंने देखा कि वह राक्षस सभों को लिए हुए उनकी खोज में कुएँ के नीचे उतरा है तब तो वह एकदम घबड़ा उठे और उनके मुँह से हजार कोशिश करके रोकने पर भी एक चीख की आवाज निकल ही पड़ी। आवाज सुनते ही वह मुसाफिर समझ गया कि इसी झाड़ी के अन्दर बाबू साहब छिपे हुए हैं, झपट कर वहाँ जा पहुँचा और झाड़ी के अन्दर से हाथ पकड़ के बाबू साहब को बाहर निकाला।
मालूम होता था कि बाबू साहब को इस समय जड़ैया बुखार चढ़ आया है। उनका तमाम बदन तेजी के साथ काँप रहा था। बाबू साहब जल्दी से मुसाफिर के पैरों पर गिर पड़े और आँसू बहाते हुए बोले, ‘‘ईश्वर के लिए मुझे माफ करो, मैं बड़ा ही गरीब हूँ किसी के भले-बुरे से मुझे कुछ सरोकार नहीं, मैंने आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ा!’’
मुसा० : डरो मत, मैंने तुम्हें किसी बुरी नीयत से नहीं ढूँढ़ा है, ये लोग तुम्हें वहाँ जंगल में छोड़ कर भागे जाते थे, इसीलिए मैंने सभी को रोक लिया और कहा कि अपने साथी को खोज कर अपने साथ लिए जाओ। अब तुम बेखौफ होकर अपने दोस्तों के साथ अपनी प्यारी नागर के पास चले जाओ, मुझसे बिलकुल मत डरो।
मुसाफिर की बातों से बाबू साहब को कुछ ढांढ़स हुई, वे सम्हल कर उठ खड़े हुए और मुसाफिर से कुछ कहा ही चाहते थे कि पास की दूसरी झाड़ी में से एक दूसरा आदमी निकल कर झपटता हुआ इन सभों के पास आ पहुँचा और मुसाफिर की तरफ देख के बोला, ‘‘तुम क्यों इस बेचारे सीधे और डरपोक आदमी को तंग कर रहे हो, नहीं जानते कि तुम्हारा गुरु चन्द्रशेखर इसी जगह छिपा हुआ तुम्हारी शैतानी का तमाशा देख रहा है!’’
उस आदमी की सूरत-शक्ल का अन्दाजा नहीं मिला सकता था क्योंकि उसका तमाम बदन स्याह कपड़े से छिपा हुआ था और चेहरे पर भी स्याह नकाब पड़ी हुई थी, मगर वह मुसाफिर उसकी बात सुन कर बड़े गौर में पड़ गया और आश्चर्य के साथ उसकी तरफ देखने लगा।
मुसा० : तुम कौन हो, पहिले अपना परिचय दो तो मैं तुमसे कुछ बात करूँ।
नया आदमी : तुम्हारा मुँह इस योग्य नहीं है कि मुझ से बात करो और परिचय के लिए यही काफी है कि मेरा नाम चन्द्रशेखर है। लेकिन अगर इससे भी विशेष कुछ जानने की इच्छा हो तो मैं और भी कुछ कहने के लिए तैयार हूँ! आह, वह धोखा देने वाली चाँदनी रात! बात की बात में चन्द्रमा बादलों में छिप गया और अंधकार हो जाने के कारण तरह-तरह की भयानक सूरतें दिखाई देने लगीं। उसी समय पहिले एक स्याह रंग का ऊँट दिखाई दिया जिसके सिर पर लम्बे-लम्बे सींघ बिजली की तरह चमक रहे थे।
मुसा० : (डर के मारे काँपता और पीछे की तरफ हटता हुआ) बस बस! मैं समझ गया कि तुम कौन हो!!
चन्द्रशेखर : उसके बाद एक सफेद रंग का हाथी दिखाई दिया जिसके ऊपर नागर और मनोरमा मशाल लिए हुए थीं और जोर-जोर से श्यामल को पुकार रही थीं क्योंकि वे चाहती थीं कि किसी तरह खून से लिखी हुई किताब उनके हाथ लगे।
मुसा० : (हाथ जोड़कर) मैं कह चुका और फिर भी कहता हूँ कि बस करो, माफ करो, दया करो, मैं तुम्हें पहिचान गया, अगर तुम्हें कुछ कहना ही हो तो किनारे चल कर कहो जिसमें कोई तीसरा न सुनने पावे।
चन्द्रशेखर : नहीं-नहीं, मैं इसी जगह सबके सामने ही कहूँगा क्योंकि इन बाबू साहब का इस मामले से बहुत घना सम्बन्ध है तथा इनके साथी लोग भी इसी जगह आकर इकट्ठे हो गये हैं और आश्चर्य भरी निगाहों से हम दोनों का तमाशा देख रहे हैं। हाँ तो मैं क्या कह रहा था? अच्छा, अब याद आया, उसी अंधेरी रात में एक बिल्ली भी आ पहुँची जो अपने मुँह से लम्बी गर्दन वाला स्याह रंग का ऊँट दबाये हुए थी और ऊँट के माथे पर लिखा हुआ था—
‘‘सर्वगुण सम्पन्न चांचला सेठ’’
‘‘बस बस बस!’’ कहता हुआ मुसाफिर पीछे की तरफ हटा और काँपता हुआ जमीन पर गिरने के साथ ही बेहोश हो गया।
इस नए आए हुए व्यक्ति तथा इस मुसाफिर की बातचीत से सभी को आश्चर्य तो हुआ ही था परन्तु मुसाफिर की अन्तिम अवस्था देख कर सभों को बड़ा विस्मय और आनन्द भी हुआ। इसके बाद जब मुसाफिर खौफ से बेहोश हो गया और नये आदमी अर्थात् चन्द्रशेखर ने बाबू साहब तथा उनके साथियों को बहुत जल्द वहाँ से चले जाने के लिए कहा तब वे लोग इस तरह वहाँ से भागे जैसे बाज के झपट्टे से बची हुई चिड़ियाएँ भागती हैं। जब वे लोग तेजी के साथ चल कर घने मुहल्ले में पहुँचे तब उन लोगों का जी ठिकाने हुआ और उन्होंने समझा कि जान बची।
तीसरा भाग : दूसरा बयान
पाठक महाशय, अब हम कुछ हाल जमानिया का लिखना मुनासिब समझते हैं और उस समय का हाल लिखते हैं जब राजा गोपालसिंह की कम्बख्ती का जमाना शुरू हो चुका था और जमानिया में तरह-तरह की घटनाएँ होने लग गई थीं।
जमानिया तथा दारोगा और जैपाल वगैरह के सम्बन्ध की बातें जो चन्द्रकान्ता सन्तति में लिखी जा चुकी हैं उन्हें हम इस ग्रन्थ में बिना कारण लिखना उचित नहीं समझते, उनके अतिरिक्त और जो बातें हुई हैं उन्हें लिखने की इच्छा है, हाँ यदि मजबूरी से कोई जरूरत आ ही पड़ेगी तो बेशक पिछली बातें संक्षेप के साथ दोहरायी जायँगी और राजा गोपालसिंह की शादी के पहिले का कुछ हाल लिखा जायगा।
इसका कारण यही है कि भूतनाथ चन्द्रकान्ता सन्तति का परिशिष्ट भाग समझा जाता है।
अपने संगी-साथियों को साथ लिए हुए बाबू साहब जो भागे तो सीधे अपने घर की तरफ नहीं गए बल्कि नागर रंडी के मकान पर चले गये क्योंकि बनिस्बत अपने घर के उन्हें उसी का घर प्यारा था और उसी को वे अपना हमदर्द और दोस्त समझते थे। जिस समय वे उस जगह पहुँचे तो सुना कि नागर अभी तक बैठी हुई उनका इन्तजार कर रही है। बाबू साहब को देखते ही नागर उठ खड़ी हुई और बड़ी खातिरदारी के साथ उनका हाथ पकड़ कर अपने पास एक ऊँची गद्दी पर बैठाया और मामूली के खिलाफ आज देर हो जाने का सबब पूछा, मगर बाबू साहब ऐसे बदहवास हो रहे थे कि उनके मुँह से कोई बात न निकलती थी। उनकी ऐसी अवस्था देख नागर को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और उसने लाचार होकर उनके साथियों से उनकी परेशानी और बदहवासी का कारण पूछा।
बाबू साहब कौन हैं और उनका नाम क्या है इसका पता अभी तक नहीं मालूम हुआ, खैर इसके जानने की विशेष आवश्यकता भी नहीं जान पड़ती इसलिए अभी उन्हें बाबू साहब के नाम ही से सम्बोधित करने दीजिए, आगे चल कर देखा जायगा।
बाबू साहब ने अपनी जुबान से अपनी परेशानी का हाल यद्यपि नागर से कुछ भी नहीं कहा मगर उनके साथियों की जुबानी उनका कुछ हाल नागर को मालूम हो गया और तब नागर ने दिलासा देते हुए बाबू साहब से कहा, ‘‘यह तो मामूली घटना थी।’’
बाबू साहब : जी हाँ, मामूली घटना थी! अगर उस समय आप वहाँ होतीं तो मालूम हो जाता कि मामूली घटना कैसी होती है!
नागर : (मुस्कराती हुई) खैर किसी तरह मुँह से बोले तो सही!
बाबू साहब : पहिले यह तो बताओ कि नीचे का दरवाजा तो बन्द है? कहीं कोई आ न जाय और हम लोगों की बातें सुन न ले।
नागर : आप जानते हैं कि आपके जाने के साथ ही लौंडियाँ फाटक बन्द कर दिया करती हैं। हमारे यहाँ सिवाय आपके दूसरे किसी ऐसे सर्दार का आना-जाना तो है ही नहीं कि जिससे मुझे किसी तरह का लगाव या मुहब्बत हो, हाँ बाजार में बैठा करती हूँ इसलिए कभी-कभी कोई मारा पीटा आ ही जाया करता है, सो भी जब आप आते हैं तो उसी वक्त फाटक बन्द कर दिया जाता है।
बाबू साहब इसका कुछ जवाब दिया ही चाहते थे कि एक आदमी यह कहता हुआ कमरे के अन्दर दाखिल हुआ, ‘‘झूठ भी बोलना तो मुँह पर!’’
इस आदमी की सूरत देखते ही बाबू साहब चौंक पड़े और घबराहट के साथ बोल उठे, ‘‘यही तो है!’’
यह वही आदमी था जिसे बाबू साहब और उनके संगी-साथियों ने कपालमोचन के कुएँ पर देखा था और जिसके डर से अभी तक बाबू साहब की जान पर सदमा हो रहा था।
बाबू साहब की ऐसी हालत देख कर उस आदमी ने जो अभी-अभी आया था कहा, ‘‘डरो मत, मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं हूँ बल्कि दोस्त हूँ!’’ इतना कह उस आदमी ने अपने हाथ की गठरी एक किनारे रख दी और मामूली कपड़े उतार कर इस तरह सजा दिये कि जैसे यह उसी का घर हो या इस घर पर उसका बहुत बड़ा अख्तियार हो और नित्य ही वह यहाँ आता-जाता हो।
यह आदमी असल में भूतनाथ (गदाधरसिंह) था जिससे नागर की गहरी दोस्ती थी मगर बाबू साहब को इसकी कुछ भी खबर न थी और न कभी ऐसा ही इत्तिफाक हुआ था कि इस जगह पर इन दोनों का सामना हुआ हो हाँ बाबू साहब ने गदाधरसिंह का नाम जरूर सुना था और यह भी सुना था कि वह मामूली आदमी नहीं है।
नागर ने जिस खातिरदारी और आवाभगत के साथ भूतनाथ का सम्मान किया और प्रेम दिखाया उससे बाबू साहब को मालूम हो गया कि नागर बनिस्बत मेरे इस आदमी को बहुत प्यार करती है।
खूँटियों पर कपड़े रख कर भूतनाथ बाबू साहब के पास बैठ गया और बोला, ‘‘भला मैंने आपको क्या तकलीफ दी है जो आप मुझसे इतना डरते हैं? एक ऐयाश और खुशदिल आदमी को इतना डरपोक न होना चाहिए। आप मुझे शायद पहिचानते नहीं, मेरा नाम गदाधरसिंह है, आपने अगर मुझे देखा नहीं तो नाम जरूर सुना होगा।’’
बाबू साहब : (आश्चर्य और डर के साथ) हाँ, मैंने आपका नाम सुना है और अच्छी तरह सुना है।
नागर : (मुस्कराती हुई, बाबू साहब से) आपके तो अब ये गहरे रिश्तेदार हो गये हैं और फिर आप इन्हें न पहिचानेंगे।
बाबू साहब : (कुछ शर्माते हुए) हाँ-हाँ, मैं बखूबी जानता हूँ मगर पहिचानता नहीं था, अफसोस की बात है कि इतने दिनों तक इनसे कभी मुलाकात नहीं हुई।
नागर : (बाबू साहब से) आपसे इनसे कुछ नातेदारी भी तो है?
बाबू साहब : हाँ, मेरी मौसेरी बहिन रामदेई १ इनके साथ ब्याही है। आज अगर मुझे इस बात की खबर होती कि आप ही मेरे बहनोई हैं तो मैं उस कुएँ पर इतना परेशान न होता बल्कि खुशी के साथ मुलाकात होती। (भूतनाथ से) हाँ, यह तो बताइये कि वह चन्द्रशेखर कौन था जिसके खौफ से आप परेशान हो गये थे! (१. रामदेई-नानक की माँ, जिसका जिक्र चन्द्रकान्ता सन्तति में आ चुका है।)
गदाधर : (कुछ डर और संकोच के साथ) वह मेरा बहुत पुराना दुश्मन है। मेरे हाथ से कई दफे जक उठा चुका और नीचा देख चुका है, अब वह मुझसे बदला लेने की धुन में लगा है। आज बड़े बेमौके मिल गया था क्योंकि मैं बेफिक्र था और वह हर तरह का सामान लेकर मेरी खोज में निकला था।
बाबू साहब : आखिर हम लोगों के चले आने के बाद क्या हुआ? आप से और उसकी कैसी निपटी?
गदाधर : मैं इस मौके को बचा गया और लड़ता हुआ धोखा देकर निकल भागा! खैर फिर कभी देखा जाएगा, अबकी दफे उस साले को ऐसा छकाऊँगा कि वह भी याद करेगा।
चन्द्रशेखर का नाम सुनकर नागर चौंक पड़ी और उसके चेहरे की रंगत बदल गई। मालूम होता था कि वह भूतनाथ से कुछ पूछने के लिए उतावली हो रही है मगर बाबू साहब के खयाल से चुप है और चाहती है कि किसी तरह बाबू साहब यहाँ से चले जायँ तो बात करें।
बाबू साहब : (भूतनाथ से) ठीक है वह बेशक आपका दुश्मन हो आज आठ-दस दिन हुए कि वह मुझसे बरना १ के किनारे एकान्त में मिला था। उस समय उसके साथ तीन चार औरतें भी थीं जिनमें से एक का नाम बिमला था। १. काशी के उत्तर में बहती हुई नदी का नाम वरुणा है।
गदाधर : (चौंक कर) बिमला?
बाबू साहब : हाँ बिमला, और एक मर्द भी उसके साथ था जिसे उसने एक दफे प्रभाकर सिंह के नाम से सम्बोधन किया था।
गदाधर : (घबड़ा कर) क्या तुम उस समय उसके सामने मौजूद थे?
बाबू० : जी नहीं, मैं उन सभों को वहाँ आते देख एक झाड़ी में छिप गया था।
गदाधर: तब तो तुमने और भी बहुत सी बातें सुनीं होंगी।
बाबू : नहीं मैं कुछ विशेष बातें न सुन सका, हाँ, इतना जरूर मालूम हुआ कि वह मनोरमा से और जमानिया के राजा से मिलने का उद्योग कर रहा है।
गदाधर : (कुछ सोच कर और बाबू साहब की तरफ खिसक कर) बेशक आपने और भी बहुत-सी बातें सुनी होंगी, और यह भी मालूम किया होगा कि वे औरतें वास्तव में कौन थीं।
बाबू० : सो मैं कुछ भी न जान सका, कि वे औरतें कौन थीं या वहाँ पहुँचने से उन लोगों का क्या मतलब था।
गदाधर : खैर मैं थोड़ी देर के लिए आपकी बातें मान लेता हूँ।
नागर : (बाबू साहब से) मगर मैंने तो सुना था कि आपका और उन लोगों का सामना हो गया था और आप उसी समय उनके साथ कहीं चले भी गये थे।
बाबू० : (घबड़ाने से होकर) नहीं-नहीं। मेरा-उनका सामना बिलकुल नहीं हुआ बल्कि मैं उन लोगों को उसी जगह छोड़कर छिपता हुआ किसी तरह निकल भागा और अपने घर चला आया क्योंकि मुझे उन लोगों की बातों से कोई सम्बन्ध नहीं था, फिर मुझे जरूरत ही क्या थी कि छिप कर उन लोगों की बात सुनता या उन लोगों के साथ कहीं जाता।
नागर : शायद ऐसा ही हो, मगर जिसने मुझे यह खबर दी थी उसे झूठ बोलने की आदत नहीं है।
बाबू० : तो उसने धोखा खाया होगा। अथवा किसी दूसरे को मौके पर देखा होगा।
नागर ने इस मौके पर जो कुछ बाबू साहब से कहा वह केवल धोखा देने की नियत से था और वह चाहती थी कि बातों के हेर-फेर में डालकर बाबू साहब से कुछ और पता लगा ले, अस्तु जो कुछ हो मगर इस खबर ने भूतनाथ को बहुत ही परेशान कर दिया और वह सर नीचा कर तरह-तरह की बातें सोचने लगा। उसे इस बात का निश्चय हो गया कि बाबू साहब ने जो कुछ कहा है वह बहुत कम है अथवा जान-बूझ कर वे असल बातों को छिपा रहे हैं।
कुछ देर तक सिर झुका कर सोचते-सोचते भूतनाथ को क्रोध चढ़ आया और उसने कुछ तीखी आवाज में बाबू साहब से कहा—
गदा० : सुनिए रामलाल जी १, इसमें कोई सन्देह नहीं कि आप मेरे नातेदार हैं और इस ख्याल से मुझे आपका मुलाहिजा करना चाहिए मगर ऐसी अवस्था में जब कि आप मुझसे झूठ बोलने और मुझे धोखा देने की कोशिश करते हैं अथवा यों कह सकते हैं कि आप मेरे दुश्मन से मिलकर उसके मददगार बनते हैं तो मैं आपका मुलाहिजा कुछ भी न करूंगा! हाँ यदि आप मुझसे सब-कुछ साफ-साफ कह दें तो फिर मैं भी…. (१. बाबू साहब का असली नाम रामलाल था।)
रामलाल : (अर्थात् बाबू साहब) ठीक है अब मुझे मालूम हो गया कि उन औरतों से और प्रभाकरसिंह से आप डरते हैं, यदि यह बात सच है तो डरपोक और कमजोर होने पर भी मैं आपसे डरना पसन्द नहीं करता…
रामलाल ने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी कि सीढ़ियों पर से जिसका दरवाजा इन लोगों के सामने ही था तेजी के साथ एक नकाबपोश आया और एक लिफाफा भूतनाथ के सामने फेंककर यह कहता हुआ वहाँ से निकल गया—‘‘बेशक डरने की कोई जरूरत नहीं है, और खासकर ऐसे आदमी से जो पूरा नमकहराम और बेईमान है तथा जिसने अपने मालिक और दोस्त दयाराम को अपने हाथ से जख्मी किया था, ईश्वर की कृपा थी वह बेचारा बच गया और जमानिया में बैठा हुआ भूतनाथ के इस्तकबाल की कोशिश कर रहा है।’’
इस आवाज ने भूतनाथ को एकदम परेशान कर दिया। उसने लिफाफा खोल कर चिट्ठी पढ़ने का इन्तजार न किया और खंजर के कब्जे पर हाथ रखता हुआ तेजी के साथ दरवाजे पर और फिर सीढ़ियों पर जा पहुँचा मगर किसी आदमी की सूरत उसे दिखाई न पड़ी। वह धड़धड़ाता हुआ सीढ़ियों के नीचे उतर आया और फाटक के बाहर निकलने पर उस नकाबपोश को कुछ ही दूरी पर जाते हुए देखा। भूतनाथ ने उसका पीछा किया मगर वह गलियों में घूम-फिर कर ऐसा गायब हुआ कि भूतनाथ को उसकी गन्ध तक न मिली और अन्त में वह लाचार होकर नागर के मकान में लौट आया। आने पर उसने देखा की बाबू साहब नहीं हैं, कहीं चले गये।
तब उसने उस लिफाफे की खोज की जो नकाबपोश उसके सामने फेंक गया था और देखना चाहा कि उसमें क्या लिखा हुआ है।
लिफाफा वहाँ मौजूद न देखकर भूतनाथ ने नागर से पूछा, ‘‘क्या वह लिफाफा तुम्हारे पास है?’’
नागर : हाँ, तुमको उस नकाबपोश के पीछे जाते देख मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे सीढ़ियाँ उतर कर फाटक तक चली गई थी। जब तुम दूर निकल गये तब मैं वापस लौट आई और देखा कि बाबू साहब उस लिफाफे को खोल कर चिट्ठी पढ़ रहे हैं। मुझको उसकी ऐसी नालायकी पर क्रोध चढ़ आया और मैंने उसके हाथ से यह चिट्ठी छीन कर बहुत-कुछ बुरा-भला कहा जिस पर वह नाराज होकर यहाँ से चला गया।
भूतनाथ : यह बहुत बुरा हुआ कि यह चिट्ठी उसने पढ़ ली। फिर तुमने उसे जाने क्यों दिया? मैं उसे बिना ठीक किये कभी न रहता और बता देता कि इस तरह की बदमाशी का क्या नतीजा होता है।
नागर : खैर अगर भाग भी गया तो क्या हर्ज है, जब तुम उसे सजा देने पर तैयार हो ही जाओगे तो क्या वह तुम्हारे हाथ न आवेगा?
भूत० : खैर वह चिट्ठी कहाँ है जरा दिखाओ तो सही।
नागर : (खुला हुआ लिफाफा भूतनाथ के हाथ में देकर) लो यह चिट्ठी है।
भूत० : (चिट्ठी पढ़कर) क्या तुमने यह चिट्ठी पढ़ी है?
नागर : नहीं, मगर यह सुनने की इच्छा है कि इसमें क्या लिखा है?
भूत० (पुनः उस चिट्ठी को अच्छी तरह पढ़ के और लिफाफे को गौर से देख कर) अन्दाज से मालूम होता है कि इस लिफाफे में केवल यही एक चिट्ठी नहीं बल्कि और भी कोई कागज था।
नागर : शायद ऐसा ही हो और बाबू साहब ने कोई कागज निकाल लिया हो तो मैं नहीं कह सकती।
भूत० : खैर देखा जायेगा, मेरा द्रोही मुझसे बच के कहाँ जा सकता है। फिर भी आज मैं जिस सायत से तुम्हारे पास आया था वह न हो सका, अच्छा अब मैं जाता हूँ।
नागर : नहीं-नहीं, मैं तुम्हें इस समय जाने न दूँगी, मुझे बहुत-सी बातें तुमसे पूछनी और कहनी हैं। मुझे इस बात का दिन-रात खुटका बना रहता है कि कहीं तुम अपने दुश्मन के फेर में न पड़ जाओ क्योंकि केवल एक तुम्हारे ही सहारे मेरी जिन्दगी है, मुझे सिवाय तुम्हारे इस दुनिया में और किसी का भी भरोसा नहीं है, और तुम्हारे दुश्मनों की गिनती दिन पर दिन बढ़ती ही जाती है।
भूत० : हाँ ठीक है। (कुछ सोचकर) मगर इस समय मैं यहाँ पर नहीं रह सकता है और….
नागर : कल मनोरमा जी भी तुमसे मिलने के लिए यहाँ आने वाली हैं।
भूत० : खैर देखा जायगा, बन पड़ेगा तो मैं कल फिर आ जाऊँगा।
इतना कहकर भूतनाथ खड़ा हुआ और सीढ़ियों के नीचे उतर कर देखते-देखते नजरों से गायब हो गया।
भूतनाथ के चले जाने के बाद नागर आधे घंटे तक चुपचाप बैठी रही, इसके बाद उसने उठकर अपनी लौंडियों को बुलाया और कुछ बातचीत करने के बाद एक लौंडी को साथ लिए हुए सीढ़ियों के नीचे उतरी।
चन्द्रकान्ता सन्तति में नागर के जिस मकान का हाल हम लिख आये हैं वह मकान इस समय नागर के कब्जे में नहीं है क्योंकि अभी तक जमानिया राज्य की वह हालत नहीं हुई थी और न उस इज्जत को अभी नागर पहुँची थी। इस समय नागर रण्डियों की-सी अवस्था में है और उसके कब्जे में एक मामूली छोटा-सा मकान है, फिर भी मकान सुन्दर और मजबूत है तथा उसके सामने एक छोटा-सा नजरबाग भी है।
यद्यपि अभी तक कम उम्र नागर की हैसियत बढ़ी नहीं है फिर भी उसकी चालाकियों का जाल अच्छी तरह फैल चुका है जिसका एक सिरा जमानिया राजधानी में भी जा पहुँचा है क्योंकि उस मनोरमा से इसकी दोस्ती अच्छी तरह हो चुकी है जिसने जमानिया की खराबी में सबसे बड़ा हिस्सा लिया हुआ था।
नागर सीढ़ियों से नीचे उतर कर नजरबाग में होती हुई सदर फाटक पर पहुँची और उसे बन्द करके एक मजबूत ताला उसकी कुण्डी में लगा दिया। इसके बाद लौटकर मकान की सीढ़ियों पर चढ़ने वाला दरवाजा भी अच्छी तरह बन्द करके अपने कमरे में चली आई।
लौंडी को कमरे का फर्श साफ करने की आज्ञा देकर नागर ऊपर छत पर चढ़ गई जहाँ एक बँगला था और इस समय उसके बाहर ताला लगा हुआ था। जमीन पर साफ-सुथरा फर्श बिछा हुआ था, एक तरफ सुन्दर मसहरी थी तथा छोटे-बड़े कई तकिए फर्श पर पड़े हुए थे। मगर यह कमरा खाली न था, इसमें इस समय मनोरमा बैठी हुई थी और जमानिया राजधानी का बेईमान दारोगा (बाबाजी) भी उसके साथ था। नागर भी उन दोनों के पास जाकर बैठ गई।
तीसरा भाग : तीसरा बयान
अब हम अपने पाठकों को पुनः उस घाटी में ले चलते हैं जिसमें कला और बिमला रहती थीं और जिसमें भूतनाथ ने पहुँचकर बड़ी ही संगदिली का काम किया था अर्थात् कला, बिमला और इन्दुमति के साथ-ही-साथ कई लौंडियों को भी कुएँ में ढकेल कर जिन्दगी का आईना गंदला किया था।
भूतनाथ यद्यपि अपने शागिर्द रामदास की मदद से उस घाटी में पहुँच गया था और अपनी इच्छानुसार उसने सब कुछ करके अपने दिल का गुबार निकाल लिया था मगर घाटी के बीच वाले उस बँगले के सिवाय वह वहाँ का और कोई स्थान नहीं देख सका जिसमें कला और बिमला रहती थीं या जहाँ जख्मी इन्दुमति का इलाज हुआ किया गया था, और न वहाँ का कोई भेद ही भूतनाथ को मालूम हुआ।
वह केवल अपने दुश्मनों को मार कर उस घाटी के बाहर निकल आया और फिर कभी उसके अन्दर नहीं गया। मगर प्रभाकरसिंह को उस घाटी का बहुत ज्यादा हाल मालूम हो गया था। कुछ तो उन्होंने बीच वाले बँगले की तलाशी लेते समय कई तरह के कागजों-पुर्जों और किताबों को देखकर मालूम कर लिया था और कुछ कला, बिमला ने बताया था और बाकी का भेद इन्द्रदेव ने बता कर प्रभाकर को खूब पक्का कर दिया था।
आज प्रातःकाल सूर्योदय के समय हम उस घाटी में प्रभाकरसिंह को एक पत्थर की चट्टान पर बैठे हुए देखते हैं। उनके बगल में ऐयारी का बटुआ लटक रहा है और हाथ में एक छोटी-सी किताब है जिसे वे बड़े गौर से देख रहे हैं। यह किताब हाथ की लिखी हुई है और इसके अक्षर बहुत ही बारीक हैं तथा इसमें कई तरह के नक्शे भी दिखाई दे रहे हैं जिन्हें वे बार-बार उलट कर देखते हैं और फिर कोई दूसरा मजमून पढ़ने लगते हैं।
इस काम में उन्हें कई घण्टे बीत गये। जब धूप की तेजी ने उन्हें परेशान कर दिया तब वे वहाँ से उठ खड़े हुए तथा बड़े गौर से दक्षिण और पश्चिम कोण की तरफ देखने लगे और कुछ देर तक देखने के बाद उसी तरफ चल निकले। नीचे उतर कर मैदान खत्म करने के बाद जब दक्षिण और पश्चिम कोण वाली पहाड़ी के नीचे पहुँचे तब इधर-उधर बड़े गौर से देख कर उन्होंने एक पगडंडी का पता लगाया और उसी सीध पर चलते हुए पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगे। करीब-करीब साठ कदम चले जाने के बाद उन्हें एक छोटी-सी गुफा मिली और वे लापरवाही के साथ उस गुफा के अन्दर चले गये।
यह गुफा बहुत बड़ी न थी और इसमें केवल दो आदमी एक साथ मिलकर चल सकते थे, फिर भी ऊँचाई इसकी ऐसी कम न थी कि इसके अन्दर जाने वाले का सिर छत के साथ टकराए, अस्तु प्रभाकरसिंह धीरे-धीरे टटोलते हुए इसके अन्दर जाने लगे। जब लगभग दो सौ कदम चले गये तब उन्हें एक छोटी-सी कोठरी मिली जिसके अन्दर जाने के लिए दरवाजे आदि की किसी तरह की रुकावट न थी, सिर्फ एक चौखट लाँघने ही के सबब से कह सकते हैं कि वे उस कोठरी के अन्दर जा पहुँचे। अन्धकार के सबब से प्रभाकरसिंह को कुछ दिखाई नहीं देता था इसलिए वे बैठकर वहाँ की जमीन हाथ से इस तरह टटोलने लगे मानों किसी खास चीज को ढूँढ़ रहे हैं।
एक छोटा-सा चबूतरा कोठरी के बीचोबीच मिला जो हाथभर चौड़ा और इसी कदर लम्बा था। उसके बीच में किसी तरह का खटका था जिसे प्रभाकरसिंह ने दबाया और साथ ही इसके चबूतरे के ऊपर वाला भाग किवाड़ के पल्ले की तरह खुल गया, मानों वह पत्थर का नहीं बल्कि किसी धातु या लकड़ी का बना हो।
अब प्रभाकरसिंह ने अपने बटुए में से मोमबत्ती निकाली और इसके बाद चकमक पत्थर निकाल कर रोशनी की। प्रभाकरसिंह ने देखा कि ऊपर का भाग खुल जाने से उस चबूतरे के अन्दर नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ लगी दिखायी देती हैं। प्रभाकरसिंह ने रोशनी में उस कोठरी को बड़े गौर से देखा। वहाँ चारों तरफ दीवार में चार आले (ताक) थे जिनमें से सिर्फ सामने वाले एक आले में गुलाब का बनावटी एक पेड़ बना हुआ था जिसमें बेहिसाब कलियाँ लगी हुई थीं और सिर्फ चार फूल खिले हुए थे, बाकी के तीन आले खाली थे।
प्रभाकरसिंह ने उस गुलाब के पेड़ और फूलों को बड़े गौर से देखा और यह जानने के लिए कि वह पेड़ किस चीज का बना हुआ है उसे हाथ से अच्छी तरह टटोला। मालूम हुआ कि वह पत्थर या किसी और मजबूत चीज का बना हुआ है।
प्रभाकरसिंह उन खिले हुए चार फूलों को देख कर बहुत ही खुश हुए और इस तरह धीरे-धीरे बुदबुदाने लगे जैसे कोई अपने मन से दिल खोल कर बातें करता हो।
उन्होंने ताज्जुब के साथ कहा, ‘‘हैं यह चार फूल कैसे! खैर मेरा परिश्रम सफल हुआ चाहता है। इन्द्रदेव जी का ख्याल ठीक निकला कि वे तीनों औरतें (जमना, सरस्वती और इन्दु) जरूर उस तिलिस्म के अन्दर चली गई होंगी अब इन खिले फूलों को देखकर मुझे भी विश्वास होता है कि उन तीनों से तिलिस्म में मुलाकत होगी और मैं उन्हें खोज निकालूँगा, मगर इन्द्रदेव जी ने कहा था कि जितने आदमी इस तिलिस्म में जायेंगे इस पेड़ के उतने ही फूल खिले दिखाई देंगे इसके अतिरिक्त उस कागज में भी ऐसा ही लिखा है अस्तु, यह चौथा आदमी इस तिलिस्म में कौन जा पहुँचा? इस बात का मुझे विश्वास नहीं होता कि किसी लौंडी को भी वे तीनों अपने साथ ले गई होंगी क्योंकि ऐसा करने के लिए इन्द्रदेव जी ने उन्हें सख्त मनाही कर दी थी।
यह सम्भव है कि विशेष कारण से वे किसी लौंडी को अपने साथ ले भी गई हों, खैर जो होगा देखा जायगा मगर ऐसा किया तो यह काम उन्होंने अच्छा नहीं किया।
इस तरह बहुत-सी बातें वे देर तक सोचते रहे, साथ ही इसके इस बात पर भी गौर करते रहे कि उन तीनों को तिलिस्म के अन्दर जाने की जरूरत ही क्या पड़ी।
प्रभाकरसिंह बेखटके उन सीढ़ियों के नीचे उतर गये। नीचे उतर जाने के बाद उन्हें पुनः एक सुरंग मिली जिसमें तीस या चालीस हाथ से ज्यादे जाना न पड़ा, जब वे उस सुरंग को खत्म कर चुके तब उन्हें रोशनी दिखायी दी तथा सुरंग के बाहर निकलने पर एक छोटा-सा बाग और कुछ इमारतों पर उनकी निगाह पड़ी। आसमान पर निगाह करने से खयाल हुआ कि दोपहर ढल चुकी है और दिन का तीसरा पहर बीत रहा है।
इस बाग में मकान, बारहदरी, कमरे, दालान, चबूतरे या इसी तरह की इमारतों के अतिरिक्त और कुछ भी न था अर्थात् फूल के अच्छे दरख्त दिखाई नहीं देते थे या अगर कुछ थे भी तो केवल जंगली पेड़ जो कि यहाँ बहते हुए चश्मे के सबब से कदाचित् बराबर ही हरे-भरे रहते थे, हाँ केले के दरख्त यहाँ बहुतायत से दिखाई दे रहे थे और उनमें फल भी बहुत लगे हुए थे।
प्रभाकरसिंह थक गये थे इसलिए कुछ आराम करने की नीयत से नहर के किनारे एक चबूतरे पर बैठ गये और वहाँ की इमारतों को बड़े गौर से देखने लगे। कुछ देर बाद उन्होंने अपने बटुए में से मेवा निकाला और उसे खाकर चश्में का बिल्लौर की तरह साफ बहता हुआ जल पीकर सन्तोष किया।
प्रभाकरसिंह सिपाही और बहादुर आदमी थे, कोई ऐयार न थे, मगर आज हम इनके बगल में ऐयारी का बटुआ लटका देख रहे हैं इससे मालूम होता है कि इन्होंने समयानुकूल चलने के लिए कुछ ऐयारी जरूर सीखी है, मगर इनका उस्ताद कौन है सो अभी मालूम नहीं हुआ।
हम कह चुके हैं कि यह बाग नाममात्र को बाग था मगर इसमें इमारतों का हिस्सा बहुत ज्यादे था। बाग के बीचोंबीच में एक गोल गुम्बद था जिसके चारों तरफ छोटी-छोटी पाँच कोठरियाँ थीं और वह गुम्बद इस समय प्रभाकरसिंह की आँखों के सामने था जिसे वह बड़े गौर से देख रहे थे। बाग के चारों तरफ चार बड़ी-बड़ी बारहदरियाँ थीं और उनके ऊपर उतने ही खूबसूरत कमरे बने हुए थे जिसके दरवाजे इस समय बन्द थे, सिर्फ पूरब तरफ वाले कमरे के दरवाजे में से एक दरवाजा खुला हुआ था और प्रभाकरसिंह को अच्छी तरह दिखाई दे रहा था।
प्रभाकरसिंह और कमरों तथा दालानों को छोड़ कर उसी बीच वाले गुम्बद को बड़े गौर से देख रहे थे जिसके चारों तरफ वाली कोठरियों के दरवाजे बन्द मालूम होते थे। कुछ देर बाद प्रभाकरसिंह उठे और उस गुम्बद के पास चले गये। एक कोठरी के दरवाजे को हाथ से हटाया तो वह खुल गया अस्तु वह कोठरी के अन्दर चले गये। इस कोठरी की जमीन संगमरमर की थी और बीच में स्याह पत्थर का एक सिंहासन था जिस पर हाथ रखते ही प्रभाकरसिंह का शरीर काँपा और वे चक्कर खाकर जमीन पर गिरने के साथ ही बेहोश हो गये तथा उसी समय उस कोठरी का दरवाजा भी बन्द हो गया।
दिन बीत गया। आधी रात का समय था जब प्रभाकरसिंह की आँख खुली। अँधेरी रात होने के कारण वे कुछ स्थिर नहीं कर सकते थे कि वे कहाँ पर हैं। घबराहट में उन्होंने अपने हर्बों को टटोला और फिर ऐयारी का बटुआ खोला, ईश्वर को धन्यवाद दिया कि वे सब चीजें उनके पास मौजूद थीं। इसके बाद वे विचारने लगे कि यह स्थान कैसा है तथा हमको अब क्या करना चाहिए। बहुत देर के बाद उन्हें मालूम हुआ कि वे किसी छोटे दालान में हैं और उनके सामने एक घना जंगल है। इस अंधकार के समय में उनकी हिम्मत न पड़ी की उठकर तिलिस्म में इधर-उधर घूमें या किसी बात का पता लगावें। अस्तु उन्होने चुपचाप उसी दालान में पड़े रह कर रात बिता दी।
रात बीत गई और सूर्य भगवान का पेशखेमा आसमान पर अच्छी तरह तन गया। प्रभाकरसिंह उठ खड़े हुए और यह जानने के लिए उस दालान में घूमने और दरोदीवार को अच्छी तरह देखने लगे कि वे क्योंकर इस स्थान में पहुँचे तथा उनके यहाँ आने का जरिया क्या है, परन्तु इस बात का उन्हें कुछ भी पता न लगा।
उस दालान के सामने जो जंगल था वह वास्तव में बहुत घना था और सिर्फ देखने से इस बात का पता नहीं लगता था कि वह कितना बड़ा है तथा उसके बाद किसी तरह की इमारत है या कोई पहाड़, साथ ही इसके उन्हें इस बात की फिक्र भी थी कि अगर कोई पानी का चश्मा दिखाई दे तो स्नान इत्यादि का काम चले।
जंगल में घूम कर क्या करें और किसको ढूँढे़ इस विचार में वे बहुत देर तक सोचते और इधर-उधर घूमते रह गये, यहाँ तक कि सूर्य भगवान ने चौथाई आसमान का सफर तै कर लिया और धूप में कुछ गर्मी मालूम होने लगी। उसी समय प्रभाकरसिंह के कान में यह आवाज आई, ‘‘हाय, बहुत बुरे फँसे, यह मेरे कर्मों का फल है, ईश्वर न करे किसी…’’ बस इसके आगे की आवाज इतनी बारीक हो गई कि प्रभाकरसिंह उसे अच्छी तरह समझ न सके।
इस आवाज ने प्रभाकरसिंह को परेशान कर दिया और खुटके में डाल दिया। आवाज जंगल के बीच में से आई थी अतएव उसी आवाज की सीध पर चल पड़े और उस घने जंगल में ढूंढ़ने लगे कि वह दुखिया कौन और कहाँ है जिसके मुँह से ऐसा आवाज आई है।
प्रभाकरसिंह को ज्यादा ढूँढ़ना न पड़ा। उस जंगल में थोड़ी ही दूर जाने पर उन्हें पानी का एक सुन्दर चश्मा दिखाई दिया और उसी चश्में के किनारे उन्होंने एक औरत को देखा जो बदहवास और परेशान जमीन पर पड़ी हुई थी और न मालूम किस तरह की तकलीफ से करवटें बदल रही थी।
प्रभाकरसिंह बड़े गौर से इस औरत को देखने लगे क्योंकि वह कुछ जानी-पहचानी-सी मालूम पड़ी थी, उस औरत ने प्रभाकरसिंह को देख के हाथ जोड़ा और कहा, ‘‘मेरी जान बचाइये, मैं बेतरह इस आफत में फँस गई हूं। मुझे उम्मीद थी कि अब कुछ ही देर में इस दुनिया से कूच कर जाऊँगी, परन्तु आपको देखने से विश्वास हो गया कि अभी थोड़ी जिन्दगी बाकी है। आप बड़े गौर से देख रहे हैं, मालूम होता है कि आपने मुझे पहिचाना नहीं। मैं आपकी ताबेदार लौंडी हरदेई हूँ, आपकी स्त्री और सालियों की बहुत दिनों तक खिदमत कर चुकी हूँ।’’
प्रभाकर : हाँ, अब मैंने तुझे पहिचाना, कला और बिमला के साथ मैंने तुझे देखा था मगर सामना बहुत कम हुआ इसलिए पहचानने में जरा कठिनाई हुई, अच्छा यह बता कि तीनों कहाँ हैं?
हरदेई : मैं उन्हीं की सताई होने पर भी उनकी ही खोज में यहाँ आई थी, एक दफे वे दिखाई देकर पुनः गायब हो गईं – आह अब मुझसे बोला नहीं जाता।
प्रभाकर : तुझे किस बात की तकलीफ है?
हरदेई : मैं भूख से परेशान हो रही हूँ। आज कई दिन से मुझे कुछ भी खाने को नहीं मिला …बस…प्राण निकला ही…
प्रभाकर : तुझे यहाँ आये कितने दिन हुए?
हरदेई : आज से सात…
बस इससे ज्यादे हरदेई कुछ भी न बोल सकी अस्तु प्रभाकरसिंह ने अपने बटुए में से कुछ निकाल कर खाने के लिए दिया और हाथ का सहारा देकर उसे बैठाया मेवा देख कर हरदेई खुश हो गई, भोजन किया और नहर का जल पीकर सम्हल बैठी और बोली, ‘‘अब मेरा जी ठिकाने हुआ, अब मैं बखूबी बातचीत कर सकती हूँ।’’
प्रभा० :(उसके पास बैठकर) अच्छा अब बता कि तुझे यहाँ आये कितने दिन हुए और तूने कला, बिमला तथा इन्दु को कहाँ और किस अवस्था में देखा तथा क्योंकर उनका साथ छूटा। क्या तू भी तीनों के साथ ही तिलिस्म में आई थी?
हरदेई : नहीं, मैं तो बेसबब और बिना कसूर के मारी गई। मैंने आज तक अपने मालिकों के साथ बुराई नहीं की थी मगर न-मालूम उन्होंने क्यों मुझे इस तरह की सजा दी! यद्यपि उन्होंने अपना धर्म बिगाड़ दिया था और जिस तरह सती-साध्वियों को चलना चाहिए उस तरह नहीं चलती थीं, अपनी सफेद और साफ चादर में बदनामी के कई धब्बे लगा चुकी थीं मगर मैंने आपसे भी इस बात की कभी शिकायत नहीं की और उनका भेद किसी तरह प्रकट होने न दिया, परन्तु ईश्वर की कृपा से मैं जीती बच गई। अब मेरी समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूँ और जो कुछ कहने की बातें हैं वह आपसे…
प्रभा० : (कुछ घबड़ा कर) तू क्या कह रही है! क्या कला और बिमला के सतीत्व में धब्बा लग चुका है? और क्या उन दोनों ने अपनी चाल-चलन खराब कर डाली है?
हर : बेशक ऐसी बात है। आज से नहीं बल्कि आपसे मुलाकात होने के पहिले ही से वे दोनों बिगड़ी हुई हैं और दो आदमियों से अनुचित प्रेम करके अपने धर्म को बिगाड चुकी हैं, बड़े अफसोस की बात है कि इन्दुमति को भी उन्होंने अपनी पंक्ति में मिला लिया है। ईश्वर ने इसी पाप का फल उन्हें दिया है। मेरी तरह वे भी इस तिलिस्म में कैद कर दी गई हैं और आश्चर्य नहीं कि वे भी इसी तरह की तकलीफें उठा रही हों। बस इससे ज्यादे और कुछ भी नहीं कहूँगी क्योंकि …
प्रभा० : नहीं–नहीं, रुक मत। जो कुछ तू जानती है बेशक कहें जा, मैं खुशी से सुनने के लिए तैयार हूँ।
हर : अगर मैं ऐसा करूँगी तो फिर मेरी क्या दशा होगी, यही मैं सोच रही हूँ।
हरदेई की बातों ने प्रभाकरसिंह के दिल में एक तरह का दर्द पैदा कर दिया। ‘कला और बिमला बदकार हैं और उन्होंने इन्दु को भी खराब कर दिया’। यह सुन कर उनका क्या हाल हुआ सो वे ही जानते होंगे नेक और पतिव्रता इन्दु की कोई बदनामी करे यह बात प्रभाकरसिंह के दिल में नहीं जम सकती थी मगर कला और बिमला पर उन्हें पहले भी एक दफे शक हो चुका था। जब वे उस घाटी में थे तभी उनकी स्वतन्त्रता देख कर उनका मन आशंकित हो गया था मगर जाँच करने पर उनका दिल साफ हो गया था। आज हरदेई ने उन्हें फिर उसी चिन्ता में डाल दिया, और साथ ही इसके इन्दु का भी आँचल गंदला सुन कर उनका कलेजा काँप उठा तथा वे सोचने लगे कि क्या यह बात सच हो सकती है?
केवल इतना ही नहीं, प्रभाकरसिंह के चित्त में चिन्ता और घृणा के साथ-ही-साथ क्रोध की भी उत्पति हो गई और बहुत कुछ विचार करने के बाद उन्होंने सोचा कि यदि वास्तव में हरदेई का कहना सच है तो मुझे फिर उन दुष्टाओं के लिए परिश्रम करने की आवश्यकता ही क्या है, परन्तु सत्य की जाँच तो आवश्यक है इत्यादि सोचते हुए उन्होंने हरदेई से पूछा –
प्रभाकर : हाँ तो जो कुछ असल मामला है तू बेखौफ होकर कहे जा, मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि तेरी रक्षा करूँगा और तुझे इस आफत से बचाऊँगा।
हरदेई : यदि आप वास्तव में प्रतिज्ञा करते हैं तो फिर मैं सब बातें साफ-साफ कह दूँगी।
प्रभा० : बेशक मैं प्रतिज्ञा करता हूँ मगर साथ ही इसके यह भी कहता हूँ कि अगर तेरी बात झूठ निकली तो तेरे लिए सबसे बुरी मौत का ढंग तजवीज करूँगा।
हर : बेशक मैं इसे मन्जूर करती हूँ।
प्रभा० : अच्छा तो जो कुछ ठीक-ठीक मामला है तू कह और यह बता कि वह सब कहाँ गईं और क्या हुईं और क्योंकर इस दशा को पहुँची।
हर : अच्छा तो मैं कहती हूँ, सुनिये, कला और बिमला की चालचलन अच्छी नहीं है। आप स्वयम सोच सकते हैं कि जिन्हें ऐसी नौजवानी में इस तरह की स्वतन्त्रता मिल गई हो रहने तथा आनन्द करने के लिए ऐसा स्वर्ग-तुल्य स्थान मिल गया हो तथा दौलत की भी किसी तरह कमी न हो तो वे कहाँ तक अपने चित्त को रोक सकती हैं? खैर जो कुछ हो, कला और बिमला दोनों ही ने अपने लिए दो प्रेमी निकाले और दोनों को औरतों के भेष में ठीक करके अपने यहाँ रख छोड़ा तथा नित्य नया आनन्द करने लगीं। मगर साथ ही इसके भूतनाथ से बदला लेने का भी ध्यान उनके दिल में बना रहा और उन दोनों मर्दों से भी इस काम में बराबर मदद माँगती रहीं, वे दोनों मर्द दिन तक इस घाटी में रह आनन्द करते और फिर कुछ दिनों के लिए कहीं चले जाया करते थे।
प्रभा० : (बात काट कर) उन दोनों का नाम क्या था?
हर : सो मैं नहीं कह सकती क्योंकि कला और बिमला ने बड़ी कारीगरी से उन दोनों का भेष बदल दिया, कभी-कभी मर्दाने भेष में रहने पर भी उनकी सूरत दिखाई नहीं देती थी, इसलिए मैं उनके नाम और ग्राम के विषय में ठीक तौर पर कुछ भी नहीं कह सकती, हाँ इतना जरूर है कि अगर मुझे कुछ मदद मिले तो मैं उन दोनों का पता जरूर लगा सकती हूँ क्योंकि एकान्त की अवस्था में छिप-लुक कर उन लोगों की बहुत-सी बातें सुन चुकी हूँ जिसका…
प्रभा० : खैर इस बात को जाने दे फिर देखा जायगा, अच्छा तब क्या हुआ?
हर : बहुत दिनों तक कला और बिमला ने दोनों से सम्बन्ध रखा मगर जब इन्दु इस घाटी में लाई गई और आपका आना भी यहाँ हुआ तब वे दोनों कुछ दिन के लिए गायब कर दिए गये। मैं ठीक नहीं कह सकती कि वे कहाँ चले गये या क्या हुए मैं इस किस्से को बहुत मुख्तसर में बयान करती हूँ। फिर जब आप विजयगढ़ और चुनार की लडाई में चले गये और बहुत दिनों तक आपके आने की उम्मीद न रही तब पुनः वे दोनों इस घाटी में दिखाई देने लगे। संग और कुसंग का असर मनुष्य के ऊपर अवश्य पड़ा करता हैं कुछ ही दिनों के बाद इन्दुमति को मैंने उन दोनों में से एक के साथ मुहब्बत करते देखा और इसी कारण से कला, बिमला और इन्दुमति में अन्दर-अन्दर कुछ खिंचाव भी आ गया था।
मैं समझती हूँ कि भूतनाथ को इस विषय का हाल जरूर मालूम होगा जिसने उन दोनों को रिश्वत देकर अपने साथ मिला लिया और उस घाटी में आने-जाने का रास्ता देख लिया। इसी बीच में मैंने आपको उस घाटी में देखा पहिले तो मुझे विश्वास हो गया कि वास्तव में प्रभाकरसिंह ही लड़ाई में नामवरी हासिल करके यहाँ आ गये हैं परन्तु कुछ दिन के बाद मेरा खयाल जाता रहा और निश्चय हो गया कि असल में आपकी सूरत बना कर यहाँ आने वाला कोई दूसरा ही था।
मैं इस विषय में कला और बिमला को बार-बार टोका करती थी और कहा करती थी कि तुम लोगों के रहन-सहन का यह ढंग अच्छा नहीं है एक-न-एक दिन इसका नतीजा बहुत ही बुरा निकलेगा, मगर वे दोनों इस बात का कुछ ख्याल नहीं करती थीं और मुझे यह कह कर टाल दिया करती थीं कि खैर जो कुछ भी हुआ सो हुआ अब ऐसा न होगा। मगर मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी कि मेरे रोक-टोक करने से उसके दिल में रंज बैठता जाता है। मैंने अपने काम में और भी कई लौंडियों को शरीक कर लिया मगर इसका नतीजा मेरे लिए अच्छा न निकला।
एक दिन वह आदमी जो आपकी सूरत बनाये हुए था जब उस घाटी में आया तो उसके साथ और भी दस-बारह आदमी आये, जब वे लोग कला, बिमला और इन्दुमति से मिले तो उनका रंग-ढंग देख कर मैं डर गई और एक किनारे हट कर उनका तमाशा देखने लगी। थोड़ी देर के बाद जब संध्या हुई तब कला, बिमला और इन्दुमति उन सभों को साथ लिए हुए बँगले के अन्दर चली गई अस्तु इसके बाद क्या-क्या हुआ मैं कुछ भी न जान सकी, लाचार मैं अपनी हमजोलियों के साथ जा मिली और भोजन इत्यादि की साम्रगी जुटाने के काम में लगी।
पहर रात बीत जाने के बाद जब भोजन तैयार हुआ तब सभों ने मिल-जुल कर भोजन किया, तत्पश्चात हम लोगों ने भी खाना खाया मगर भोजन करने के थोड़ी देर बाद हम लोगों का सर घूमने लगा जिससे निश्चय हो गया कि आज के भोजन में बेहोशी की दवा मिलाई गई है। खैर जो हो, आधी रात जाते-जाते तक हम सब की सब बेहोश होकर दीन-दुनिया को भूल गईं। प्रातः काल जब मेरी आँख खुली तो मैंने अपने-आपको इसी स्थान पर पड़े हुए पाया। घबड़ा कर उठ बैठी और आश्चर्य के साथ चारों तरफ देखने लगी, उस समय मेरे सर में बेहिसाब दर्द हो रहा था।
तीन दिन और रात मैं घबड़ाई हुई इस जंगल में और (हाथ का इशारा करके) इस पास वाली इमारत और दालान में घूमती रही मगर न तो किसी से मुलाकात हुई और न यहाँ से निकल भागने के लिए कोई रास्ता ही दिखाई दिया, चौथे दिन भूख से बेचैन होकर मैं इसी जंगल में घूम रही थी कि यकायक इन्दुमति कुछ दूरी पर दिखाई पड़ी जो कि आपके गले में हाथ डाले हुए धीरे-धीरे पूरब की तरफ जा रही थी, मैं नहीं कह सकती कि वह वास्तव में आप ही के गले में हाथ डाले हुए थी या किसी दूसरे ऐयार के गले में जो आपकी सूरत बना हुआ था।
उसी के पीछे मैंने कला और बिमला को भी जाते हुए देखा। मैं खुशी-खुशी लपकती उनकी तरफ बढ़ी मगर नतीजा कुछ भी न निकला। देखते-ही-देखते इसी जंगल और झाड़ियों में घूम-फिर वे सब-की-सब न जाने कहाँ गायब हो गई, तब से आज तक कई दिन हुए मैं उनकी खोज में परेशान हूँ, अन्त में भूख के मारे बदहवास होकर इसी जगह गिर पड़ी और कई पहर तक तनबदन की भी सुध न रही, जब होश में आई तब आपसे मुलाकात हुई। बस यही तो मुख्तसर हाल है।
हरदेई की बात सुन कर प्रभाकरसिंह के तो होश उड़ गये वे ऐसे बेसुध हो गये कि उन्हें तनोबदन की सुध बिल्कुल ही जाती रही। थोड़ी देर तक तो ऐसा मालूम होता रहा कि वे प्रभाकरसिंह नहीं बल्कि कोई पत्थर की मूरत हैं, इसके बाद उन्होंने एक लम्बी साँस ली और बड़े गौर से हरदेई के चेहरे की तरफ देखने लगे, कई क्षण बाद उन्होंने सिर नीचा कर लिया और किसी गहरे चिन्ता-सागर में डुबकियाँ लगाने लगे हरदेई मन-ही-मन प्रसन्न होकर उनके चेहरे की तरफ देखने लगी जिसका रंग थोड़ी-थोड़ी देर पर गिरगिट के रंग की तरह बराबर बदल रहा था।
प्रभाकरसिंह के चेहरे पर कभी तो क्रोध, कभी दुःख, कभी चिन्ता, कभी घबराहट और कभी घृणा की निशानी दिखाई देने लगी। आह, प्रभाकर सिंह के जिस हृदय में इन्दुमति का अगाध प्रेम भरा हुआ था उसमें इस समय भयानक रस का संचार हो रहा था जो वीर हृदय सदैव करुण रस से परिपूरित रहता था वह क्षण मात्र के लिये अद्भुत रस का स्वाद लेकर रौद्र और तत्पश्चात वीभत्स रस की इच्छा कर रहा है! जिस हृदय में इन्दुमति पर निगाह पड़ते ही श्रृंगार रस की लहरें उठने लगती थीं वह अपनी भविष्य जीवनी पर हास्य करता हुआ अब सदैव के लिये शान्त हुआ चाहता है आह, इन्दुमति के विषय में स्वप्न में भी ऐसे शब्दों के सुनने की क्या प्रभाकरसिंह को आशा हो सकती थी? कदापि नहीं।
यह प्रभाकर सिंह की भूल है कि हरदेई की जुबान से विष-भरी अघटित घटना को सुन अनुचित चिन्ता करने लग गये हैं, वह नहीं जानते कि यह हरदेई वास्तव में हरदेई नहीं है बल्कि कोई ऐयार है। परन्तु हमारे प्रेमी पाठक इस बात को जरूर समझ रहे होंगे कि यह भूतनाथ का शागिर्द रामदास है जिसकी मदद से भूतनाथ ने उस घाटी में पहुँच कर बड़ा ही अनुचित और घृणित व्यवहार किया था। निःन्देह भूतनाथ ने जमना, सरस्वती और इन्दुमति के साथ जो कुछ किया वह ऐयारी के नियम के बिल्कुल ही बाहर था, ऐयारी का यह मतलब नहीं है कि वह बेकसूरों के खून से अपने जीवन की पवित्र चादर में धब्बा लगाए।
यदि प्रभाकरसिंह उसकी कार्रवाई का हाल सच्चा-सच्चा सुनते तो न–मालूम उनकी क्या अवस्था हो जाती, परन्तु इस समय रामदास ने उन्हें बड़ा ही धोखा दिया और ऐसी बेढंगी बातें सुनाई कि उनका पवित्र हृदय काँप उठा और इन्दुमति तथा कला बिमला की तरफ से उन्हें एक दम घृणा उत्पन्न हो गई। तब क्या प्रभाकरसिंह ऐसे बेवकूफ थे कि एक मामूली ऐयार अथवा लौंडी के मुँह से ऐसी अनहोनी बात सुन कर उन्होंने उस पर कुछ विचार न किया और उसे सच्चा मान कर अपने आपे से बाहर हो गये? नहीं प्रभाकरसिंह तो ऐसे न थे परन्तु प्रेम ने उनका हृदय ऐसा बना दिया था कि इन्दु के विषय में ऐसी बातें सुन कर वे अपने चित्त को सम्हाल नहीं सकते थे।
प्रेम का अगाध समुद्र थोड़ी ही सी आँच लगने से सूख सकता है, और प्रेमी का मन-मुकुर जरा ही सी ठेस लगने से चकनाचूर हो जाता है।
अस्तु जो हो प्रभाकर सिंह के दिल की उस समय क्या अवस्था थी वे ही ठीक जानते होंगे या उनको देख कर रामदास कुछ-कुछ समझता होगा क्योंकि वह उनके सामने बैठा हुआ उनके चेहरे की तरफ बड़े गौर से देख रहा था।
नकली हरदेई अर्थात रामदास के दिल की अवस्था भी अच्छी न थी। वह कहने के लिये तो सब कुछ कह गया परन्तु इसका परिणाम क्या होगा यह सोच कर उसका दिल डावाँडोल होने लगा। यद्यपि इस तिलिस्म में फँस कर वह बर्बाद हो चुका था बल्कि थोड़ी देर पहिले तो मौत की भयानक सूरत अपनी आँखों के सामने देख रहा था परन्तु प्रभाकरसिंह पर निगाह पड़ते ही उसकी कायापलट हो गई और उसे विश्वास हो गया कि अब किसी-न-किसी तरह उसकी जान बच जायगी, परन्तु इन्दुमति को बदनाम करके उसका चित्त भी शान्त न रहा और थोड़ी ही देर बाद सोचने लगा कि मैंने यह काम अच्छा नहीं किया यदि मैं कोई दूसरा ढंग निकालता तो कदाचित है यहाँ से छुटकारा मिल जाता परन्तु अब जल्दी छुटकारा मिलना मुश्किल हैं क्योंकि मेरी बात का निर्णय किए बिना प्रभाकरसिंह मुझे यहाँ से बाहर नहीं जाने देंगे।
अफसोस भूतनाथ को मदद पहुँचाने के ख्याल से मैंने व्यर्थ ही इन्दु को बदनाम किया इन्दुमति निःसन्देह सती और साध्वी है, उस पर कलंक लगाने का नतीजा मुझे अच्छा न मिलेगा। अफसोस खैर अब क्या करना चाहिये, जबान से जो बात निकल गई वह तो लौट नहीं सकती। तब? मुझे अपने बचाव के लिए शीघ्र ही कोई तरकीब सोचनी चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि इन्दुमति, कला और बिमला घूमती-फिरती इस समय यहाँ आ पहुँचे यदि ऐसा हुआ तो बहुत ही बुरा होगा। मेरी कलई खुल जायगी और मैं तुरन्त ही मारा जाऊँगा। यदि मैं उन सभी को बदनाम न किये होता तो इतना डर न था।
इसी तरह की बातें सोचते हुए रामदास का दिल बड़ी तेजी के साथ उछल रहा था, वह बड़ी बेचैनी से प्रभाकरसिंह की सूरत देख रहा था।
बहुत देर तक तरह-तरह की बातें सोचते हुए प्रभाकरसिंह ने पुनः नकली हरदेई से सवाल किया-
प्रभाकरसिंह : अच्छा यह तो बता कि कला और बिमला किसी विषय में किसी दिन तुझसे रंज भी हुई थीं?
हरदेई : (मन में) इस सवाल का क्या मतलब? (प्रकट) नहीं अगर कभी कुछ रंज हुई थीं तो केवल उसी विषय में जो आपसे बयान कर चुकी हूँ।
इस जवाब को सुनकर प्रभाकरसिंह चुप हो गये और फिर कुछ गौर करके बोले, ‘‘खैर कोई बात नहीं देखा जायगा, यह जगत ही कर्म-प्रधान है, जो जैसा करेगा वैसा फल भोगेगा। यदि वे तीनों इस तिलिस्म के अन्दर हैं तो मैं उन्हें जरूर खोज निकालूँगा, तू सब्र कर और मेरे साथ-साथ रह।’’
इतना कहकर प्रभाकरसिंह ने फिर वही छोटी किताब निकाली और पढ़ने लगे जिसे इस तिलिस्म के अन्दर घुसने के पहिले एक दफे पढ़ चुके थे।
प्रभाकरसिंह घंटे भर से ज्यादे देर तक वह किताब पढ़ते रहे और तब तक रामदास बराबर उनके चेहरे की तरफ गौर से देखता रहा। जब वे उस किताब में अपने मतलब की बात अच्छी तरह देख चुके तब यह कहते हुए उठ खड़े हुए कि ‘कोई चिन्ता नहीं, यहाँ हमारे लिए खाने-पीने का सामान बहुत कुछ मिल जायगा और हम उन सभी को जल्द ही खोज निकालेंगे। (नकली हरदेई) आ तू भी हमारे साथ चली आ।’
रामदास उस किताब के पढ़ने और इन शब्दों के कहने से समझ गया कि उस किताब में जरूर इस तिलिस्म का ही हाल लिखा हुआ है, अगर किसी तरह वह किताब मेरे हाथ लग जाए तो सहज में ही मैं यहाँ से निकल भागूँ बल्कि और भी बहुत सा काम निकालूँ।
रामदास अर्थात् नकली हरदेई को साथ लिए हुए प्रभाकरसिंह उसी जंगल में घुस गये और दक्षिण झुकते हुए पूरब की तरफ चल निकले। आधे घण्टे तक बराबर चले जाने के बाद उन्हें एक बहुत ऊँची दीवार मिली जिसकी लम्बाई का वे कुछ अन्दाज नहीं कर सकते थे और न इसकी जाँच करने की उन्हें कोई जरूरत ही थी। इस दीवार में बहुत दूर तक ढूँढ़ने के बाद उन्हें एक छोटा-सा दरवाजा दिखाई दिया। वह दरवाजा लोहे का बना हुआ था मगर उसमें ताला या जंजीर वगैरह का कुछ निशान नहीं दिखाई देता था।
रामदास का ध्यान किसी दूसरी तरफ था तथा वह जानना चाहता था कि यह दरवाजा क्योंकर खुलता है, परन्तु प्रभाकरसिंह ने उसे खोलने के लिए जो कुछ कार्रवाई की वह देख न सका यकायक दरवाजा खुल गया और प्रभाकरसिंह ने उसके अन्दर कदम रक्खा तो रामदास को भी अपने साथ आने के लिए कहा।
प्रभाकरसिंह और रामदास दरवाजे के अन्दर जाकर कुछ ही दूर आगे बढ़े होंगे कि दरवाजा पुनः ज्यों-का-त्यों बन्द हो गया। प्रभाकरसिंह एक ऐसे बाग में पहुँचे जहाँ केले और अनार के पेड़ बहुतायत के साथ लगे हुए थे और पानी का एक सुन्दर चश्मा भी बड़ी खूबसूरती के साथ चारों तरफ बह रहा था। इस बाग के अन्दर एक छोटा-सा बँगला भी बना हुआ था, जिसमें कई कोठरियाँ थीं और इस बंगले के चारों तरफ संगमरमर के चार चबूतरे बने हुए थे।
इस बाग में इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। प्रभाकरसिंह ने वहाँ के पके हुए स्वादिष्ट केले और अनार से पेट भरा और चश्मे का जल पीकर कुछ शान्त हुए तथा नकली हरदेई से भी ऐसा ही करने के लिए कहा।
जब आदमी की तबीयत परेशान होती है तो थोड़ी–सी भी मेहनत बुरी मालूम होती है और वह बहुत जल्द थक जाता है। प्रभाकरसिंह का चित्त बहुत ही व्यग्र हो रहा था और चिन्ता ने उदास और हताश भी कर दिया था अतएव आज थोड़ी ही मेहनत से थक कर वे एक संगमरमर के चबूतरे पर आराम करने की नियत से लेट गये और साथ ही निद्रादेवी ने भी उन पर अपना अधिकार जमा लिया।
यहाँ प्रभाकरसिंह ने बहुत ही बुरा धोखा खाया। नकली हरदेई की बातों ने उन्हें अधमरा कर ही दिया था और इस दुनिया से वे एक तौर पर विरक्त हो चुके थे, कारण यही था कि उन्होंने नकली हरदेई को पहचाना न था। अगर इन बातों के हो जाने के बाद भी वे जाँच कर लेते तो कदाचित सम्हल जाते परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया और नकली हरदेई को वास्तव में हरदेई मानकर अपने भाग्य का सब दोष समझ लिया, यही सबब था कि यहाँ पर भी वे रामदास की तरफ से बिल्कुल ही बेफिक्र बने रहे और चबूतरे पर लेट कर बेखिक्री के साथ खुर्राटे लेने लगे।
प्रभाकरसिंह को निद्रा के वशीभूत देखकर रामदास चौकन्ना हो गया, उसने ऐयारी के बटुए में से जिसे वह बड़ी सावधानी से छिपाये हुए था, बेहोशी की दवा निकाली और होशियारी से प्रभाकरसिंह को सुँघाया जब उसे विश्वास हो गया कि जब ये बेहोश हो गये तब उनकी जेब में से वह किताब निकाल ली जिसमें इस तिलिस्म का हाल लिखा हुआ था और जिसे प्रभाकरसिंह दो दफे पढ़ चुके थे।
किताब निकाल कर उसने बड़े गौर से थोड़ा-सा पढ़ा तब बड़ी प्रसन्नता के साथ सिर हिला कर उठ खड़ा हुआ और दिल्लगी के ढंग पर बेहोश प्रभाकरसिंह को झुक कर सलाम करता हुआ एक तरफ को चला गया।
बेहोशी का असर दूर हो जाने पर जब प्रभाकरसिंह की आँखे खुली तो वे घबड़ा कर उठ बैठे और बेचैनी से चारों तरफ देखने लगे। आसमान की तरफ निगाह दौड़ाई तो मालूम हुआ कि सूर्य भगवान का रथ अस्ताचल को प्राप्त कर चुका है परन्तु अन्धकार को मुँह दिखाने की हिम्मत नहीं पड़ती, वह केवल दूर ही से ताक-झांक रहा है हरदेई को जब देखना चाहा तो निगाहों की दौड़-धूप से उसका कुछ भी पता न लगा तब वे लाचार होकर उठ बैठे और उसे इधर-उधर ढूँढने लगे, परन्तु बहुत परिश्रम करने पर भी उसका पता न लगा, आखिर वे पुनः उस चबूतरे पर बैठ कर तरह-तरह की बातें सोचने लगे।
‘‘ हरदेई कहाँ चली गई। इस बाग में जहाँ तक सम्भव था अच्छी तरह खोज चुका मगर उसका कुछ भी पता न लगा। तब वह गई कहाँ? इस बाग के बाहर हो जाना तो उसके लिए बिल्कुल ही असम्भव है, तो क्या उसे किसी तरह की मदद मिल गई? मगर मदद भी मिली होती या कोई उसका दोस्त यहाँ आया होता तो भी बिना मेरी आज्ञा के उसे यहाँ से चले जाना मुनासिब न था (अपना सर पकड़ के) ओफ, सर में बेहिसाब दर्द हो रहा है। मालूम होता है कि जैसे किसी ने बेहोशी की दवा का मुझ पर प्रयोग किया हो ठीक है बेशक यह सरदर्द उसी ढंग का है तो यह हरदेई की सूरत में वह कोई ऐयार तो नहीं था जिसने मुझे धोखा दिया हो। (घबराहट के साथ जेब टटोल के) आह वह किताब तो जेब में है ही नहीं! क्या कोई ले गया? या हरदेई ले गई? ( पुनः उस किताब को अच्छी तरह खोज कर) हैं।
वह किताब निःसन्देह गायब हो गई और ताज्जुब नहीं कि वही किताब की मदद पाकर यहाँ से चला गया हो अगर वास्तव में ऐसा हुआ तो बहुत ही बुरा हुआ और मैंने बेढब धोखा खाया, लेकिन अगर वह वास्तव में कोई ऐयार था तो कला बिमला और इन्दुमति वाली बात भी उसने झूठ ही कही होगी ऐसी अवस्था में मैं उसका पता लगाये बिना नहीं रह सकता और इस काम में सुस्ती करना अपने हाथ से अपने पैर में कुल्हाड़ी मारना है।’’
इत्यादि बातों को सोच कर प्रभाकरसिंह पुनः उठ खड़े हुए और नकली हरदेई को खोजने लगे। अबकी दफे उनका खोजना बड़ी सावधानी के साथ था यहाँ तक कि एक-एक पेड़ के नीचे जा और खोज-खोज कर वे उसकी टोह लेने लगे यकायक केलों के झुरमुट में उन्हें कोई कपड़ा दिखाई दिया जब उसके पास गये और अच्छी तरह देखा तो मालूम हुआ कि वह हरदेई का कपड़ा है मुलाकात होने के समय वह यही कपड़ा पहिने हुए थी और भी अच्छी तरह देखने पर मालूम हुआ कि साड़ी का एक भाग है और खून से तर हो रहा हैं। वहाँ जमीन और पेड़ों के निचले हिस्से पर भी खून के छींटे दिखाई दिये।
अब प्रभाकरसिंह का खयाल बदल गया और वह सोचने लगे कि क्या यहाँ कोई हमारा दुश्मन आ पहुँचा और हरदेई उसके हाथ से मारी गई या जख्मी हुई! ताज्जुब नहीं कि वह हरदेई को गिरफ्तार भी कर ले गया हो। परन्तु यहाँ दूसरे आदमी का आना बिल्कुल ही असम्भव है?
हाँ हो सकता है कि कला, बिमला और इन्दु यहाँ पहुँची हों और उन्होंने हरदेई को दुश्मन समझ के उसका काम तमाम कर दिया हो? ईश्वर ही जाने यह क्या मामला है, पर वह तिलिस्मी किताब मेरे कब्जे से निकल गई, यह बहुत ही बुरा हुआ।
इत्यादि बातें सोचते हुए प्रभाकरसिंह बहुत ही परेशान हो गये वे और भी धूम-फिर कर हरदेई के विषय में कुछ पता लगाने का उद्योग करते परन्तु रात की अन्धेरी घिर आने के कारण कुछ भी न कर सके। साथ ही इसके सर्दी भी मालूम होने लगी और आराम करने के लिए वे आड़ की जगह तलाश करने लगे।
आज की रात प्रभाकरसिंह ने उसी बाग के बीच वाले बँगले में बिताई और तरह-तरह की चिन्ता में रात-भर जागते रहे। तिलिस्मी किताब के चले जाने का दुःख तो उन्हें था ही परन्तु इस बात का खयाल उन्हें बहुत ज्यादे था कि अगर वह किताब किसी दुश्मन के हाथ में पड़ गयी होगी तो वह इस तिलिस्म में पहुँचकर बहुत कुछ नुकसान पहुँचा सकेगा और यहाँ की बहुत-सी अनमोल चीजें भी ले जायगा।
यद्यपि वह किताब इस तिलिस्म की चाभी न थी और न उसमें यहाँ का पूरा-पूरा हाल ही लिखा हुआ था तथापि वह यहाँ के मुख्तसर हाल का गुटका जरूर थी और उसमें बहुत सी बातें इन्द्रदेव ने जरूरी समझ कर नोट करा दी थीं प्रभाकरसिंह उसे कई दफे पढ़ चुके थे परन्तु फिर भी उसके पढ़ने की जरूरत थी। इसी समय अपनी भूल से वे शर्मिन्दा हो रहे थे और सोचते थे कि इस विषय में इन्द्रदेव के सामने मुझे बेबकूफ बनना पड़ेगा।
ज्यों-त्यों कर के रात बीत गई सवेरा होते ही प्रभाकरसिंह बँगले के बाहर निकले मामूली कामों से छुट्टी पाकर चश्में के जल से स्नान किया और सन्ध्या-पूजा करके पुनः बंगले के अंदर चले गए। कई कोठरियों में घूमते-फिरते वे एक ऐसी कोठरी में पहुँचे जिसकी लम्बाई-चौड़ाई यहाँ की सब कोठरियों से ज्यादे थी। यहाँ चारों तरफ की दीवारों में बड़ी-बड़ी अलमारियाँ बनी हुई थीं और उन सभी के ऊपर नम्बर लगे थे।
सात नम्बर की अलमारी उन्होंने किसी गुप्त रीति से खोली और उसके अन्दर चले गये नीचे उतर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं अस्तु उसी राह से प्रभाकरसिंह नीचे उतर गए और एक दालान में पहुँचे।
बटुए में से मोमबत्ती निकालकर रोशनी की तो मालूम हुआ कि यह दालान लम्बा-चौड़ा है और यहाँ की जमीन में बहुत-सी लोहे की नालियाँ बनी हुई हैं जो सड़क का काम देने वाली हैं तथा उन पर छोटी-छोटी बहुत-सी गाड़ियाँ रक्खी हुई हैं जिन पर सिर्फ एक आदमी के बैठने की जगह है दालान के चारों तरफ दीवारों में बहुत-से रास्ते बने हुए हैं जिनमें से होकर के वे सड़के न-मालूम कहाँ तक चली गई हैं।
गौर से देखने पर प्रभाकरसिंह को मालूम हुआ कि उन छोटी-छोटी गाड़ियों पर पीठ की तरफ नम्बर लगे हुए हैं और उन नम्बरों के नीचे कुछ लिखा हुआ भी है प्रभाकरसिंह बड़ी उत्कण्ठा से पढ़ने लगे। एक गाड़ी पर लिखा हुआ था ‘जमानिया दुर्ग’ दूसरी पर लिखा था ‘खास बाग’ तीसरी पर लिखा हुआ था, ‘चुनाव विक्रमी केन्द्र’ चौथी पर लिखा हुआ था ‘केन्द्र’ इसी तरह किसी पर ‘मुकुट’ किसी पर सूर्य और किसी पर ‘सभा-मण्डप’ लिखा हुआ था, मतलब यह है कि सभी गाड़ियों पर कुछ-न-कुछ लिखा था प्रभाकरसिंह एक गाड़ी के ऊपर सवार हो गए जिसकी पीठ पर ‘चन्द्र’ लिखा हुआ था।
सवार होने के साथ ही वह गाड़ी चलने लगी, दालान के बाहर हो जाने पर मालूम हुआ कि वह किसी सुरंग के अन्दर जा रही है, जैसे-जैसे वह गाड़ी आगे बढ़ती जाती थी तैसे-तैसे उसकी चाल भी तेज होती जाती थी और हवा के झपेटे भी अच्छी तरह लग रहे थे। यहाँ तक कि उनके हाथ की मोमबत्ती बुझ गई और हवा के झपेटों से मजबूर होकर उन्होंने अपनी दोनों आँखें बन्द कर लीं।
आधे घण्टे तक तेजी के साथ चले जाने के बाद गाड़ी एक ठिकाने पहुँच कर रुक गई। प्रभाकरसिंह ने आँखें खोल कर देखा तो उजाला मालूम हुआ वे गाड़ी से नीचे उतर पड़े और गौर से चारों तरफ देखने लगे। वह स्थान ठीक उसी तरह का था जैसा कि कला और बिमला के रहने का स्थान था और उसे देखते ही प्रभाकरसिंह को शक हो गया कि हम पुनः उसी ठिकाने पहुँच गए जहाँ कला और बिमला से मुलाकात हुई थी। परंतु वहाँ की जमीन पर पहुँचकर उनका खयाल बदल गया और वे दूसरी निगाह से उस स्थान को देखने लगे।
यहाँ भी ठीक उसी ढंग का एक बँगला बना हुआ था जैसाकि कला और बिमला के रहने वाली घाटी में था मगर इसके पास मौलसिरी (मालश्री) के पेड़ न थे दक्षिण तरफ पहाड़ के ऊपर चढ़ जाने के लिए सीढ़ियाँ दिखाई दे रही थीं और जहाँ पर वह सीढ़ियाँ खत्म हुई थीं वहाँ एक सुन्दर मन्दिर बना हुआ था जिसके ऊपर का सुनहरा शिखर ध्वजा और त्रिशूल सू्र्य की रोशनी पड़ने से बड़ी तेजी के साथ चमक रहा था।
जब प्रभाकरसिंह गाड़ी से नीचे उतर पड़े तो वह गाड़ी पीछे की तरफ उसी तेजी के साथ चली गई जिस तेजी के साथ यहाँ आई थी।
प्रभाकरसिंह चारों तरफ अच्छी तरह देखने के बाद दक्षिण तरफ वाली पहाड़ी के नीचे चले गये और सीढ़ियाँ चढ़ने लगे, जब तमाम सीढ़ियाँ खतम कर चुके तब उस मन्दिर के अन्दर जाने वाला फाटक मिला अस्तु प्रभाकरसिंह उस फाटक के अन्दर चले गये।
इस पहाड़ी के ऊपर चढ़ने वाला इस मन्दिर के अन्दर आने के सिवाय और कहीं भी नहीं जा सकता था क्योंकि मन्दिर के चारों तरफ बहुत दूर तक फैली हुई ऊँची-ऊँची जालीदार चारदीवारी थी जिसके उत्तर तरफ सिर्फ एक फाटक था जो इन सीढ़ियों के साथ मिला हुआ था अर्थात इस सिलसिले की कई सीढ़ियाँ फाटक के अन्दर तक चली गई थीं। सीढ़ियों के अगल-बगल से भी कोई रास्ता या मौका ऐसा न था जिसे लाँघ या कूद कर आदमी दूसरी तरफ निकल जा सके। यह पहाड़ बहुत बड़ा और ऊपर से प्रशस्त था बल्कि यह कह सकते हैं कि ऊपर से कोसों तक चौड़ा था परन्तु इस मन्दिर में से न तो कोई उस तरफ जा सकता था और न उस तरफ से कोई इस मन्दिर के अन्दर आ सकता था।
प्रभाकरसिंह ने उस मन्दिर और चारदीवारी को बड़े गौर से देखा। मन्दिर के अन्दर किसी देवता की मूर्ति न थी केवल एक फौब्बारा बीचोंबीच बना हुआ था और दीवारों पर तरह-तरह की सुन्दर तस्वीरें लिखी हुई थीं, मन्दिर के आगे सभामण्डप में लोहे के बड़े-बड़े सन्दूक रक्खे हुए थे मगर उनमें ताले का स्थान बिल्कुल खाली था अर्थात यह नहीं जाना जाता था कि इसमें ताला लगाने को भी कोई जगह है या नहीं।
उन लोहे के सन्दूकों को भी अच्छी तरह देखते प्रभाकरसिंह मन्दिर के बाहर निकले और खड़े होकर कुछ सोच ही रहे थे कि उस जालीदार चारदीवारी के बाहर मैदान में मन्दिर की तरफ आती हुई कई औरतों पर निगाह पड़ी प्रभाकरसिंह घबड़ा कर दीवार के पास चले गए और इसके सुराखों में से उन औरतों को देखने लगे इस दीवार के सुराख बहुत बड़े-बड़े थे, यहाँ तक कि आदमी का हाथ बखूबी उन सूराखों के अन्दर जा सकता था, प्रभाकरसिंह ने देखा कि कला, बिमला और इन्दुमति धीरे-धीरे इसी मन्दिर की तरफ चली आ रही हैं और उन तीनों के चेहरे से हद दरजे की उदासी और परेशानी टपक रही है।
उस समय प्रभाकरसिंह को हरदेई वाली बात भी याद आ गई मगर क्रोध आ जाने पर भी उनका दिल उन तीनों के पास गये बिना बहुत बेचैन होने लगा। यद्यपि वे दीवार के पार जाकर उन सभों से मिल नहीं सकते थे तथापि सोचने लगे कि अब इन लोगों के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए? हरदेई की जुबानी जो कुछ सुना है उसे साफ-साफ कह देना चाहिए या धीरे-धीरे सवाल करके उन बातों की जाँच करनी चाहिए।
धीरे-धीरे चल कर वे तीनों औरतें भी मन्दिर की दीवार के पास आ पहुँची और एक पत्थर की चट्टान पर बैठ कर इस तरह बातचीत करने लगीं।
इन्दु० : (कला से) बहिन, अभी तक समझ में नहीं आया कि हम लोग किस तरह इस तिलिस्म के अन्दर आकर फँस गईं।
कला : मेरी बुद्धि भी किसी बात पर नहीं जमती और न खयाल ही को आगे बढ़ने का मौका मिलता है अगर कोई दुश्मन भी हमारी घाटी में आ पहुँचा होता तो समझते कि यह सब उसी की कार्रवाई है मगर …
बिमला : भला यह कैसे कह सकते हैं कि कोई दुश्मन वहाँ नहीं आया? अगर नहीं आया तो यह मुसीबत किसके साथ आई? हाँ यह जरूर कहेंगे कि प्रकट में सिवाय प्रभाकरसिंह जी के और कोई आया हुआ मालूम नहीं हुआ और न इसी बात का पता लगा कि हमारी लौंडियों में से किसी की नीयत खराब हुई या नहीं।
इन्दु० : (लम्बी साँस लेकर) हाय! इस बात का भी कुछ पता नहीं लगा कि उन पर (प्रभाकरसिंह) क्या बीती? एक तो लड़ाई में जख्मी होकर वे स्वयं कमजोर हो रहे थे, दूसरे यह नई आफत और आ पहुँची! ईश्वर ही कुशल करे!
बिमला : हाँ बहिन, मुझे भी जीजाजी के विषय में बड़ी चिन्ता लगी हुई है परन्तु साथ ही इसके मेरे दिल में इस बात का भी बड़ा ही खटका लगा हुआ है कि उन्होंने बदन खोल कर अपने जख्म जो घोर संग्राम में लगे थे हम लोगों को क्यों नहीं देखने दिये! इसके अतिरिक्त हम लोगों के भोजन में बेहोशी की दवा देने वाला कौन था? इस बात को जब मैं विचारती हूँ… (चौंक कर) इस चारदीवारी के अन्दर कौन है?
कला : अरे, यह तो जीजाजी मालूम पड़ते हैं!
बात करते-करते बिमला की निगाह मन्दिर की चारदीवारी के अन्दर जा पड़ी जहाँ प्रभाकरसिंह खड़े थे और नजदीक होने के कारण इन सभों की बातें सुन रहे थे, दीवार के जालीदार सुराख बहुत बड़े होने के कारण इनका चेहरा बिमला को अच्छी तरह दिखाई दे गया था।
कला, बिमला और इन्दु लपक कर प्रभाकरसिंह के पास आ गईं, प्रभाकरसिंह भी अपने दिल का भाव छिपा कर इन लोगों से बात करने लगे।
प्रभाकर : तुम तीनो यहाँ किस तरह आ पहुँचीं? मैं तुम लोगों की खोज में बहुत दिनों से बेतरह परेशान हो रहा हूँ। लड़ाई से लौट कर जब मैं तुम्हारी घाटी में गया तो उसे बिल्कुल ही उजाड़ देख कर मैं हैरान रह गया।
इन्दु० : यही बात मैं आपसे पूछने वाली थी मगर…
बिमला : ताज्जुब की बात है कि आप कहते हैं कि लड़ाई से लौटकर जब उस घाटी में आये तो उसे बिल्कुल उजाड़ पाया। क्या लड़ाई से लौटने के बाद आप हम लोगों से नहीं मिले? और आपको घायल देख कर हम लोगों ने इलाज नहीं करना चाहा? या यह कहिए कि आपका जख्मी घोड़ा आपको लड़ाई में से बचा कर भागता हुआ क्या हमारी घाटी के बाहर तक नहीं आया था?
प्रभा० : न मालूम तुम क्या कह रही हो? मैं लड़ाई से भाग कर नहीं आया बल्कि प्रसन्नता के साथ महाराज सुरेन्द्रसिंह से विदा होकर तुम्हारी तरफ आया था।
इन्दु० : (ऊँची साँस लेकर) हाय। बड़ा ही अनर्थ हुआ! हम लोग बेढब धोखे में डाले गये? हाय, आपका जख्मों को छिपाना हमें खटके में डाल चुका था परन्तु प्रेम! तेरा बुरा हो! तूने ही मुझे सम्हलने नहीं दिया।
प्रभा० : (मन में) मालूम होता है कि हरदेई का कहना ठीक है और कोई दूसरा गैर आदमी मेरी सूरत बन कर इन लोगों के पास जरूर आया था, परन्तु इन्दु के भाव से यह नहीं जाना जाता कि इसने जान-बूझ कर उसके साथ… अस्तु जो हो, संभव है कि यह अपने बचाव के लिए मुझे बनावटी भाव दिखा रही हो।
हाँ यह निश्चय हो गया कि हरदेई एकदम झूठी नहीं है, कुछ-न-कुछ दाल में काला अवश्य हैं, (प्रकट) मेरी समझ में नहीं आता कि तुम क्या कह रही हो, खुलासा कहो तो मालूम हो और विचार किया जाय कि मामला क्या है? क्या तुम्हारे कहने का वास्तव में यही मतलब है कि मैं लड़ाई से लौट कर तुम लोगों से मिल चुका हूँ?
इन्दु० : बेशक! आपका जख्मी घोड़ा आपके शरीर को बचाता हुआ वहाँ तक ले आया था और हम लोग आपको जबकि आप बिल्कुल बेहोश थे उठा कर घाटी के अन्दर ले आए थे।
प्रभा० : मगर ऐसा नहीं हुआ, हरदेई ने तुम लोगों का पर्दा खोलते समय यह भी कहा था कि कोई गैर आदमी प्रभाकरसिंह बन कर इस घाटी में आया था और बहुत दिनों तक इन्दुमति ने उनके साथ…
इन्दु० : (बात काट कर) क्या यह बात हरदेई ने आपसे कही थीं?
प्रभा० : हाँ बेशक! साथ ही इसके (बिमला की तरफ देख के) तुम लोगों के गुप्त प्रेम का हाल भी हरदेई ने मुझसे कह दिया था।
इन्दु० : हाय! अब मैं क्या करूँ? (आसमान की तरफ देख के) हे सर्वशक्तिमान जगदीश! तू ही मेरा न्याय करने वाला है?
बिमला : मालूम होता है कि हरदेई ने मेरे साथ दुश्मनी की।
प्रभा० : बेशक।
बिमला : और उसी ने घाटी में आपसे मिल कर…
प्रभा० : (बात काट कर) नहीं, वह मुझसे घाटी में नहीं मिली बल्कि तुम लोगों की सताई हुई हरदेई इसी तिलिस्म के अन्दर मुझसे मिली थी। बेशक उसने तुम लोगों का भण्डा फोड़ के तुम लोगों के साथ बड़ी दुश्मनी की मगर वह ऐसा क्यों न करती? तुम लोगों ने भी तो उसके साथ बड़ी बेदर्दी का बर्ताव किया था।
प्रभाकरसिंह के मुँह से इतना सुनते ही कला बिमला और इन्दुमति ने अपना माथा ठोंका और इसके बाद इन्दुमति ने एक लम्बी साँस लेकर प्रभाकरसिंह से कहाँ ‘‘अगर मुझमें सामर्थ्य होती तो मैं जरूर अपना कलेजा फाड़ कर आपको दिखाती, हाँ, जरूर दिखाती, नहीं-नहीं दिखाऊँगी, मेरे में इतनी सामर्थ्य है, परन्तु अफसोस! हम लोगों के पास इस समय कोई हर्बा नहीं है, और आप ऐसी जगह खड़े हैं जहाँ..
बिमला : अच्छा कोई चिन्ता नहीं जिसने धर्म को नहीं छोड़ा है ईश्वर उसका मददगार है! आप पहिले हम लोगों के पास आइए फिर जो कुछ होगा देखा जाएगा।
प्रभा० : मैं भी यही चाहता हूँ परन्तु क्योंकर तुम लोगों के पास आ सकता हँद यह विचारने की बात है।
बिमला : आप यदि उस सामने वाली पहाड़ी के ऊपर चढ़ते तो ऊपर ही ऊपर यहाँ तक आ जाते जहाँ मैं खड़ी हूँ और अब भी आप ऐसा कर सकते हैं या आज्ञा कीजिए तो हम लोग स्वयं उस राह से घूम कर आपके पास ..
बिमला और कुछ कहना ही चाहती थी कि राक्षस की तरह की भयानक सूरत का एक आदमी हाथ में नगी तलवार लिए हुए कला बिमला और इन्दुमति की तरफ आता प्रभाकरसिंह को दिखाई पड़ा क्योंकि वह तीनों के पीछे की तरफ से आ रहा था जिधर प्रभाकरसिंह का सामना पड़ता था।
प्रभाकरसिंह : (ताज्जुब के साथ) बिमला, क्या बता सकती हो कि वह आदमी कौन है जो तुम लोगों की तरफ आ रहा है?
बिमला कला और इन्दुमति ने घबड़ा कर पीछे की तरफ देखा और तीनों एकदम चिल्ला उठीं, बिमला ने चिल्लाते और आँसू गिराते हुए प्रभाकरसिंह से कहा, बचाइए बचाइए, आप जल्दी यहाँ आकर हम लोगों की रक्षा कीजिए, यही दुष्ट हम लोगों के खून का प्यासा है।’’
इतना कहकर वे वहाँ से भागने की चेष्टा करने लगीं परन्तु भाग कर जा ही कहाँ सकती थीं बात की बात में वह दुष्ट इन तीनों के पास आ पहुँचा और अपनी जलती हुई क्रोध से भरी आँखों से बिमला की तरफ देख कर बोलाः ‘क्यों कम्बख्त! अब बता कि तू मेरे हाथ से बच कर कहाँ जा सकती है? आज मैं तुम लोगों के खून से अपनी प्यासी तलवार को सन्तुष्ट करूँगा और…’’
बस इससे ज्यादे उसने क्या कहा सो प्रभाकरसिंह सुन न सके और न सुनने के लिए वे वहाँ खड़े रह सके। इस पहाड़ी के नीचे उतर कर और सामने वाले पहाड़ पर चढ़ कर ऊपर उन लोगों के पास पहुँचने की नीयत से प्रभाकरसिंह दौड़े और तेजी के साथ सीढ़ियाँ उतरने लगे।
प्रभाकरसिंह का मन इस समय बहुत ही व्यग्र हो रहा था और वे सोचते जाते थे कि क्या वहाँ पहुँचते तक मैं उन तीनों को जीती पाऊँगा और क्या वह दुष्ट मेरा मुकाबला करने के लिए वहाँ मुझे तैयार मिलेगा?
तीसरा भाग : चौथा बयान
अब देखना चाहिए कि नागर से विदा होकर भूतनाथ कहाँ गया और उसने क्या कार्रवाई की।
नागर के मकान से उतर कर भूतनाथ सीधे दक्खिन की तरफ रवाना हुआ और रात-भर बराबर चलता गया, सुबह होते-होते तक वह एक पहाड़ के दामन में पहुँचा जिसके पास एक सुन्दर तालाब था। उस तालाब पर भूतनाथ ठहर गया और कुछ देर आराम करने के बाद जरूरी कामों से निपटने के फेर में पड़ा जब स्नान संध्या इत्यादि से छुट्टी पा चुका तो बटुए में से मेवा निकाल कर खाया, जल पिया और इसके बाद पहाड़ पर चढ़ने लगा।
यहाँ से पहाड़ों का सिलसिला बराबर बहुत दूर तक चला गया। भूतनाथ पहाड़ के ऊपर चढ़ कर दोपहर दिन चढ़े तक बराबर चलता गया।
इसी बीच में उसने कई बड़े-बड़े और भयानक जंगल पार किये और अन्त में वह एक गुफा के मुहाने पर पहुँचा जहाँ साखू और शीशम के बडे-बड़े पेड़ों से अन्धकार हो रहा था। भूतनाथ वहाँ एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गया और किसी का इन्तजार करने लगा।
भूतनाथ को वहाँ बैठे हुए घण्टे-भर से कुछ ज्यादे देर हुई होगी कि उसका एक शागिर्द वहाँ आ पहुँचा जो इस समय एक देहाती जमींदार की सूरत बना हुआ था। उसने भूतनाथ को, जो इस समय अपनी असली सूरत में था, देखते ही प्रणम किया और बोला, ‘‘मैं श्यामदास हूँ, आपको खोजने के लिए काशी गया हुआ था।’’
भूत० : आओ हमारे पास बैठ जाओ और बोलो कि वहाँ तुमने क्या-क्या देखा और किन-किन बातों का पता लगाया।
श्यामदास : वहाँ बहुत कुछ टोह लेने पर मुझे मालूम हुआ कि प्रभाकरसिंह सही-सलामत लड़ाई पर से लौट आये और जब वे उस घाटी में गये तो जमना, सरस्वती और इन्दुमति को न पाकर बहुत ही परेशान हुए इसके बाद वे इन्द्रदेव के पास गये और अपने दोस्त गुलाबसिंह के साथ कई दिनों तक वहाँ मेहमान रहे।
भूत० : ठीक है यह खबर मुझे भी वहाँ लगी थी मैं इन्द्रदेव को देखने के लिए वहाँ गया था क्योंकि आजकल वे बीमार पड़े हुए हैं, अच्छा तब क्या हुआ?
श्याम० : इसके बाद मैं जमानिया गया, वहाँ मालूम हुआ कि कुँअर गोपाल सिंह की शादी के बारे में तरह-तरह की खिचड़ी पक रही है जिसका खुलासा हाल मैं फिर किसी समय आपसे बयान करूँगा, इसके अतिरिक्त आज पन्द्रह दिन से भैया राजा (गोपासिंह के चाचा) कहीं गायब हो गये हैं, बाबाजी (दारोगा) वगैरह उनकी खोज में लगे हुए हैं, बहुत-से-जासूस भी चारों तरफ भेजे गये हैं, मगर अभी तक उनका पता नहीं लगा।
भूत० : ऐसी अवस्था में कुँअर गोपालसिंह तो बहुत ही परेशान और दुखी हो रहे होंगे!
श्याम० : होना तो ऐसा ही चाहिए था मगर उनके चेहरे पर उदासी और तरद्दुद की कोई निशानी मालूम नहीं पड़ती और इस बात से लोगों को बड़ा ही ताज्जुब हो रहा है। आज तीन-चार दिन हुए होंगे कि कुँअर गोपालसिंह इन्द्रदेव से मिलने के लिए ‘कैलाश’ गये थे, दोपहर तक रहकर वह पुनः जमानिया लौट गये। सुनते हैं कि इन्द्रदेव भी दो-चार दिन में जमानिया जाने वाले हैं।
भूत० : इन्द्रदेव के बारे में जो कुछ सुना करो उसका निश्चय मत माना करो, वह बड़े विचित्र आदमी हैं और यद्यपि मुझे विश्वास है कि वह मेरे साथ कभी कोई बुराई न करेंगे मगर फिर भी मैं उनसे डरता हूँ। दूसरी बातों को जाने दो उनके चेहरे से इस बात का भी शक नहीं लगता कि आज वह खुश हैं या नाखुश।
श्याम० : शक क्या मुझे तो इस बात का यकीन-सा हो रहा है परन्तु हजार कोशिश करने पर भी इसका मुझे कोई पक्का सबूत नहीं मिला। अभी तक मैं इस विषय का भेद जानने के लिए बराबर कोशिश कर रहा हूँ।
श्याम० : ठीक है परन्तु मैं इसी बात को एक बहुत बड़ा सबूत समझता हूँ कि जमना और सरस्वती उस अद्भुत घाटी में रहती हैं जो एक छोटा-सा तिलिस्म समझा जा सकता है, क्या इन्द्रदेव के अतिरिक्त किसी दूसरे आदमी ने उन्हें ऐसी सुन्दर घाटी दी होगी? मुझे तो ऐसा विश्वास नहीं होता।
भूत० : जो हो, मगर फिर भी यह एक अनुमान है, प्रमाण नहीं। खैर इस विषय पर इस समय बहस करने की कोई जरूरत नहीं, मैं आज किसी दूसरे ही तरद्दुद में पड़ा हुआ हूँ जिसके सबब से मेरी तबीयत भी बेचैन हो रही है।
श्याम० : वह क्या?
भूत० : तुम जानते हो कि तुम्हारे भाई रामदास की मदद से मैं जमना, सरस्वती, इन्दुमति तथा उनकी लौंडियों को उस घाटी में एक कुएँ के अन्दर ढकेल कर जहन्नुम में पहुँचा दूँ।
श्याम० : जी हाँ, उसी में मेरा भाई भी तो़…
भूत० : बेशक मुझे रामदास के लिए बड़ी चिन्ता लगी हुई है मगर जिस अवस्था में मै रामदास को देख कर लौटा हूँ उसे विचारने से खयाल होता है कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति जीती बच गई हों तो कोई ताज्जुब नहीं।
श्याम० : सम्भव है कि ऐसा ही हुआ हो, परन्तु जीती बच जाने पर भी मैं समझता हूँ कि वे सब कुछ दिन बाद भूख और प्यास की तकलीफ से मर गई होंगी।
भूत० : नहीं ऐसा नहीं हुआ, अभी कल ही मैंने काशी में सुना है कि वे तीनों प्रभाकरसिंह के साथ बरना नदी के किनारे घूमती-फिरती देखी गई हैं।
श्याम० : (चौंक कर) हैं! अगर ऐसी बात है तो उन लोगों की तरह मेरा भाई भी बच कर निकल भागा होगा!!
भूत० : होना तो ऐसा ही चाहिए था मगर रामदास अभी तक मुझसे नहीं मिला।
श्याम० : तो आपने काशी में किसकी जुबानी ऐसा सुना था?
इसके जवाब में भूतनाथ ने बाबू साहब, नागर तथा चन्द्रशेखर का कुछ हाल ध्यान किया और कहा–
भूत० : जमना, सरस्वती और इन्दुमति के विषय में मेरा खयाल है कि रामलाल (बाबू साहब) भी कुछ जानता होगा, मगर उस समय डाँट-डपट बताने पर भी उसने मुझे कुछ नहीं कहा।
श्याम० : अगर आप आज्ञा दें और बुरा न मानें क्योंकि वह आपका साला है तो मैं उसे अपने फन्दे में फँसा कर असल भेद का पता लगा लूँ। मुझे विश्वास है कि अगर जमना और सरस्वती छूट कर आ गई हैं तो मेरा भाई भी उस आफत से जरूर बच गया होगा।
इतने में भूतनाथ की निगाह मैदान की तरफ जा पड़ी। एक आदमी को अपनी तरफ आते देख कर वह चौंका और बोला-
भूत० : देखो-देखो, वह कौन आ रहा है!!
श्याम० : (मैदान की तरफ देख कर) हाँ कोई आ रहा है! ईश्वर करे मेरा भाई रामदास ही हो!
भूत० : मेरे पक्षपाती के सिवाय दूसरा कोई यहाँ कब आ सकता है? देखते-ही-देखते वह आदमी भूतनाथ के पास आ पहुँचा और झुक कर सलाम करने के बाद बोला, ‘‘मेरा नाम रामदास है, पहिचान के लिए मैं ‘चंचल’ शब्द का परिचय देता हूँ, ईश्वर की कृपा से मेरी जान बच गई और मैं राजी-खुशी आप की खिदमत में हाजिर हो गया, खाली हाथ नहीं बल्कि अपने साथ एक ऐसी चीज लाया हूँ जिसे देख कर आप फड़क उठेंगे और बार-बार मेरी पीठ ठोकेंगे।’’
भूत० : (प्रसन्न होकर) वाह, वाह! तुम जो तारीफ का काम करो वह थोड़ा है! तुम्हारे जैसा नेक, ईमानदार और धूर्त शागिर्द पाकर मैं दुनिया में अपने को धन्य मानता हूँ। आओ मेरे पास बैठ जाओ और कहो कि किस तरह तुम्हारी जान बची और मेरे लिए क्या तोहफा लाए हो?
रामदास परिचय लेने के बाद अपने भाई श्यामदास के गले मिला और भूतनाथ के पास बैठ कर इस तरह बातचीत करने लगाः-
राम० : मेरी जान ऐसी दिल्लगी के साथ और ऐसे ढंग से बची है कि उसे याद करके मैं बार-बार खुश हुआ करता हूँ।
श्याम० : मैंने अभी-अभी ओस्तादजी से यही बात कही थी कि अगर जमना, सरस्वती और इन्दु बच कर निकल आई हैं तो मेरा भाई भी जरूर बच कर निकल आया होगा।
राम० : (ताज्जुब के ढंग पर) सो क्या! जमना, सरस्वती और इन्दुमति छूट कर कैसे निकल आईं?
भूत० : कैसे छूट कर निकल आईं सो तो मैं नहीं जानता मगर इतना सुना है कि तीनों प्रभाकरसिंह के साथ काशी में बरना नदी के किनारे टहलती हुई देखी गईं!
राम० : कब देखी गई हैं?
भूत० : आज आठ-दस दिन हुए होंगे।
राम० : और उन्हें देखा किसने?
भूत० : मेरे साले रामलाल ने।
राम० : झूठ, बिल्कुल झूठ! अगर आपने स्वयं अपनी आँखों से देखा होता तब भी मैं न मानता।
भूत० : सो क्यों?
राम० : अभी चौबीस घण्टे भी नहीं हुए होंगे कि मैं उन्हें तिलिस्म के अन्दर फँसी हुई छोड़कर आया हूँ।
भूत० : किस तिलिस्म में?
राम० : उसी तिलिस्म में, जिस कुएँ में आपने उन तीनों को फेंक दिया था। वह उसी घाटी वाले तिलिस्म का एक रास्ता है। उसके अन्दर गया हुआ आदमी मरता नहीं बल्कि तिलिस्म के अन्दर फँस जाता है, यही सबब है कि उन लोगों के साथ ही मैं भी उस तिलिस्म में जा फँसा। कुछ दिन के बाद प्रभाकरसिंह उन तीनों की खोज में उस तिलिस्म के अन्दर गये और वहाँ यकायक मुझसे मुलाकात हो गई। मुझे देखकर वे धोखे में पड़ गये क्योंकि ईश्वर की प्रेरणा से मैं उस समय भी हरदेई की सूरत में था। प्रभाकरसिंह ने मुझसे कई तरह के सवाल किए और मैंने उन्हें खूब ही धोखे में डाला।
उनके पास एक छोटी सी किताब थी जिसमें उस तिलिस्म का हाल लिखा हुआ था। उसी किताब की मदद से वे तिलिस्म के अन्दर गए थे। मैंने धोखा देकर वह किताब उनकी जेब में से निकाल ली उसी की मदद से मुझे छुटकारा मिला। तिलिस्म से निकलते ही मैं सीधा आपसे मिलने के लिए इस तरफ रवाना हुआ और उन सभी को तिलिस्म के अन्दर ही छोड़ दिया (बटुए में से किताब निकाल और भूतनाथ के हाथ में देकर) देखिये यही वह तिलिस्मी किताब है, अब आप इसकी मदद से बखूबी उस तिलिस्म के अन्दर जा सकते हैं।
भूत० : (किताब देखकर और दो-चार पन्ने उलट-पुल्ट कर रामदास की पीठ ठोंकता हुआ) शाबाश, तुमने वह काम किया जो आज मेरे लिए भी कदाचित् नहीं हो सकता था! वाह वाह वाह! अब मेरे बराबर कौन हो सकता है? अच्छा अब तुम हमारे साथ इस खोह के अन्दर चलो और कुछ खा पीकर निश्चिन्त होने के बाद मुझसे खुलासे तौर पर कहो कि उस कुएँ में जाने के बाद क्या हुआ! निःसंदेह तुमने बड़ा काम किया, तुम्हारी जितनी तारीफ की जाय थोड़ी है!
अच्छा यह तो बताओ कि यह तिलिस्मी किताब प्रभाकरसिंह को कहाँ से मिली, क्या इस बात का भी कुछ पता लगा?
राम० : इसके विषय में मैं कुछ भी नहीं जानता।
भूत० : खैर इसकी जाँच करने की कुछ विशेष जरूरत भी नहीं है।
राम० : मैं समझता हूँ कि आप उस तिलिस्म के अन्दर जरूर जायेंगे और जमना। सरस्वती तथा इन्दुमति को अपने कब्जे में करेंगे।
भूत० : जरूर क्या इसमें भी कोई शक है, अभी घंटे-डेढ घंटे में हम और तुम यहाँ से रवाना हो जायेंगे और आधी रात बीतने के पहिले ही वहाँ जा पहुँचेगे। अब तो हम लोग पास आ गये हैं सिर्फ तीन-चार घण्टे का ही रास्ता है। आज के पहिले जमना और सरस्वती का इतना डर न था जितना अब है।
अब उनके खयाल से मैं काँप उठता हूँ क्योंकि पहिले तो सिवाय दयाराम के मारने के और किसी तरह का इल्जाम वे मुझ पर नहीं लगा सकती थीं और उस बात का सबूत मिल भी नहीं सकता था क्योंकि मैंने ऐसा किया ही नहीं, परन्तु अब तो वे लोग कई तरह का इल्जाम मुझ पर लगा सकती हैं और बेशक इधर मैंने उन सभी के साथ बड़ी-बड़ी बुराइयाँ भी की हैं, ऐसी अवस्था में उनका बच जाना मेरे लिए बड़ा ही अनर्थ-कारक होगा।
अस्तु जिस तरह हो सकेगा मैं जमना, सरस्वती, इन्तुमति, प्रभाकर-सिंह और गुलाबसिंह को भी जान से मारकर बखेड़ा तै करूँगा। हाँ, गुलाबसिंह का पता है, वह कहाँ हैं और क्या कर रहा है? क्योंकि तुम्हारी जुबानी जो कुछ सुना है उससे मालूम होता है कि वह प्रभाकर सिंह के साथ तिलिस्म के अन्दर नहीं गया।
राम० : हाँ ठीक है, पर गुलाबसिंह का हाल मुझे कुछ भी मालूम नहीं हुआ अच्छा मैं एक बात आपसे पूछना चाहता हूँ।
भूत० : वह क्या?
राम० : आपने अभी जो अपना हाल बयान किया है उसमें चन्द्रशेखर का हाल सुनने से मुझे बड़ा ही ताज्जुब हो रहा है। कृपा कर यह बताइए कि वह चन्द्रशेखर कौन है और आप उससे इतना क्यों डरते हैं? क्या उसे अपने कब्जे में करने की सामर्थ्य आप में नहीं है?
भूत० : (उसकी याद से काँप कर) इस दुनिया में मेरा सबसे बड़ा दुश्मन वही है, ताज्जुब नहीं एक दिन उसी की बदौलत जीते-जागते रहने पर भी मुझे यह दुनिया छोड़नी पड़े। वह बड़ा ही बेढब आदमी है बड़ा ही भयानक आदमी है, तथा ऐयारी में वह कई दफे मुझे ज़क दे चुका है!
आश्चर्य होता है कि उसके बदन पर कोई हरबा असर नहीं करता! न-मालूम उसने किसी तरह का कवच पहिर रक्खा है या ईश्वर ने उसका बदन ही ऐसा बनाया है! उसके बदन पर मेरी दो तलवारें टूट चुकी हैं। उसकी तो सूरत ही देखकर मैं बदहवास हो जाता हूँ।
राम० : (आश्चर्य के साथ) आखिर वह है कौन?
भूत० : (कुछ सोच कर) अच्छा फिर कभी उसका हाल तुमसे कहेंगे, इस समय जो कुछ बातें दिमाग में पैदा हो रही हैं उन्हें पूरा करना चाहिए अर्थात जमना, सरस्वती और इन्दुमति के बखेड़े से तो छुट्टी पा लें फिर चन्द्रशेखर को भी देख लिया जायगा। आखिर वह अमृत पीकर थोड़े ही आया होगा।
इतना कहकर भूतनाथ उठ खड़ा हुआ और अपने दोनों शागिदों को साथ लिए हुए खोह के अन्दर चला गया। इस समय रात घण्टे भर से कुछ ज्यादे जा चुकी थी।
तीसरा भाग : पाँचवाँ बयान
दूसरी पहाड़ी पर चढ़कर ऊपर-ही-ऊपर जमना, सरस्वती और इन्दुमति के पास पहुँचने पर जल्दी करने पर भी प्रभाकरसिंह को आधे घण्टे से ज्यादे देर लग गई, ‘‘क्या इतनी देर तक दुश्मन ठहर सकता है? क्या इतनी देर तक ये नाजुक औरतें ऐसे भयानक दुश्मन के हाथ से अपने को बचा सकती हैं? क्या इस निर्जन स्थान में कोई उन औरतों का मददगार पहुँच सकता है? नहीं ऐसा तो नहीं हो सकता!’’ यही सब कुछ सोचते हुए प्रभाकरसिंह बड़ी तेजी के साथ रास्ता तै करके वहाँ पहुँचे जहाँ जमना, सरस्वती और इन्दुमति को छोड़ गये थे।
उन्हें यह आशा न थी कि उन तीनों से मुलाकात होगी, मगर नहीं, ईश्वर बड़ा ही कारसाज है, उसने इस निर्जन स्थान में भी उन औरतों के लिए एक बहुत बड़ा मददगार भेज दिया जिसकी बदौलत प्रभाकरसिंह के पहुँचने तक वे तीनों दुश्मन के हाथ से बची रह गईं।
प्रभाकरसिंह ने वहाँ पहुँचकर देखा कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति दुश्मन के खौफ से बदहवास होकर मैदान की तरफ भागी जा रही हैं और एक नौजवान बहादुर आदमी जिसके चेहरे पर नकाब पड़ी हुई है तलवार से उस दुश्मन का मुकाबला कर रहा है जो उन तीनों औरतों को मारने के लिए वहाँ आया था।
यह तमाशा देख प्रभाकरसिंह तरद्दुद में पड़ गये और सोचने लगे कि हम उन भागती हुई औरतों को ढाढ़स देकर लौटा लावें या पहिले इस बहादुर की मदद करें जो इस समय हमारे दुश्मन का मुकाबला बड़ी बहादुरी के साथ कर रहा है। उन दोनों बहादुरों की अद्भुत लड़ाई को देखकर प्रभाकरसिंह प्रसन्न हो गये।
थोड़ी देर के लिए उनके दिल से तमाम कुलफत जाती रही, और वे एकटक उन दोनों की लड़ाई का तमाशा देखने लगे।
शैतान जो जमना इत्यादि को मारने आया था यद्यपि बहादुर था और लड़ाई में अपनी तमाम कारीगरी खर्च कर रहा था, मगर उस नकाबपोश के मुकाबले वह बहुत दबा हुआ मालूम पड़ने लगा। यहाँ तक कि उसका दम फूलने लगा और नकाबपोश के मोढ़े पर बैठ कर उसकी तलवार दो टुकड़े हो गई।
कुछ देर के लिए लड़ाई रुक गई और दोनों बहादुर हटकर खड़े हो गये। उस शैतान दुश्मन को जिसका नाम इस मौके के लिए हम बैताल रख देते है, विश्वास था कि तलवार टूट जाने पर नकाबपोश उस पर जरूर हमला करेगा, मगर नकाबपोश ने ऐसा न किया, वह हट कर खड़ा हो गया और बैताल से बोला, ‘‘कहो अब किस चीज से लड़ोगे? मैं उस आदमी पर हर्बा चलाना उचित नहीं समझता जिसका हाथ हथियार से खाली हो।’’
इसका जवाब बैताल ने कुछ न दिया उसी समय नकाबपोश ने प्रभाकरसिंह की तरफ देखा और कहा, ‘‘मुझे तुम्हारी मदद की कोई जरूरत नहीं है, तुम (हाथ का इशारा करके) उन औरतों को सम्हालों और ढाढ़स दो जो इस शैतान के डर से बदहवास होकर भागी जा रही हैं या दुश्मन का मुकाबला करो तो मैं उन्हें जाकर समझाऊँ और यहाँ लौटा ले आऊँ।’’
प्रभाकरसिंह के दिल में यह खयाल बिजली की तरह दौड़ गया कि मैं उन औरतों की तरफ जाता हूँ तो यह नकाबपोश मुझे नामर्द समझेगा और अगर स्वयं दुश्मन का मुकाबला करके नकाबपोश को औरतों की तरफ जाने के लिए कहता हूँ तो क्या जाने यह भी उन सभी का दुश्मन ही हो और उन औरतों के पास जाकर कोई बुराई का काम कर बैठे। इस खयाल ने क्षणमात्र के लिए प्रभाकरसिंह को चुप कर दिया, इसके बाद प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘जो तुम कहों वही करूँ।’’
नकाब० : बेहतर होगा कि तुम उन्हीं औरतों की तरफ जाओ!
‘‘बहुत अच्छा’’ कह प्रभाकरसिंह बड़ी तेजी के साथ उनकी तरफ लपक पड़े जो भागती हुई अब कुछ-कुछ आँखों की ओट हो चली थीं। वे भागती चली जाती थीं और पीछे की तरफ फिर-फिर कर देखती जाती थीं। दौडते-दौड़ते वे एक ऐसे स्थान पर पहुँची जिसके आगे एक लम्बी और बहुत ऊँची दीवार थी और बीच में उस पार जाने के लिए एक दरवाजा बना हुआ था जो इस समय खुला था।
इन औरतों को इतनी फुर्सत कहाँ कि दीवार की लम्बाई-चौड़ाई की जाँच करती या दूसरी तरफ भागने की कोशिश करती? वे सीधी उस दरवाजे के अन्दर घुस गईं, खास करके इस खयाल से भी कि अगर इसके अन्दर दरवाजा बन्द कर लेंगे तो दुश्मन से बचाव हो जायगा।
उसी समय प्रभाकरसिंह भी नजदीक पहुँच गये और इन्दुमति की निगाह प्रभाकरसिंह के ऊपर जा पड़ी। प्रभाकरसिंह ने हाथ के इशारे से उसे रुक जाने के लिए कहा परन्तु उसी समय वह दरवाजा बन्द हो गया जिसके अन्दर जमना, सरस्वती, और इन्दुमति घुस गई थीं, प्रभाकरसिंह को यह चिन्ता उत्पन्न हुई कि यह दरवाजा खुद बन्द हो गया या इन्दुमति ने जान-बूझ कर दिया।
थोड़ी ही देर में प्रभाकरसिंह उस दरवाजे के पास पहुँचे और धक्का देकर उसे खोलना चाहा मगर दरवाजा न खुला। प्रभाकरसिंह ने चाहा कि आगे बढ़कर देखें कि यह दीवार कहाँ तक गई है परन्तु उसी समय सरस्वती की आवाज कान में पड़ने से वे रुक गए और ध्यान देकर सुनने लगे। यह आवाज उस दरवाजे के पास दीवार के अन्दर से आ रही थी मानों सरस्वती किसी दूसरे आदमी से बातचीत कर रही है, जैसा कि नीचे लिखा जाता है–
सरस्वती : हाय, यहाँ भी दुष्टों से हम लोगों का पिंड न छूटेगा! ये लोग इस तिलिस्म के अन्दर आ क्योंकर गये यही ताज्जुब है!
जवाब : (जो किसी जानकार आदमी के मुँह से निकली हुई आवाज मालूम पड़ती थी) खैर अब तो आ ही गए, अब तुम लोगों के निकाले हम लोग नहीं निकल सकते और अब तुम लोग जान बचा ही कर क्या करोगी क्योंकि प्रभाकरसिंह की निगाह में तुम लोगों की कुछ भी इज्जत न रही उन्हीं को नहीं बल्कि मुझे भी वह सब हाल मालूम हो गया। इस समय तुम लोग उसी पाप का फल भोग रही हो! अफसोस, मुझे तुम लोगों से ऐसी आशा कदापि न थी! अगर मैं ऐसा जानता तो इस पवित्र घाटी को तुम लोगों के पापमय शरीर से कभी अपवित्र होने न देता।
प्रभाकर : (ताज्जुब से मन में) हैं? क्या यह आवाज इन्द्रदेव की है!
सरस्वती : मेरी समझ में नहीं आता कि तुम क्या कह रहे हो! क्या किसी दुष्ट ने हम लोगों को बदनाम किया है? क्या किसी कमीने ने हम लोगों पर कलंक का धब्बा लगाना चाहा है? नहीं कदापि नहीं, स्वप्न ने भी ऐसा नहीं हो सकता! हम लोगों के पवित्र मनों को डावाँडोल करने वाला इस संसार में कोई भी नहीं है! मैं इसके लिए खुले दिल से कसम खा सकती हूँ।
जवाब : दुनिया में जितने बदकार आदमी होते है वे कसम खाने में बहुत तेज होते हैं! मुझसे तुम लोगों की यह चालाकी नहीं चल सकती। जो कुछ मैं इस समय कह रहा हूँ वह केवल किसी से सुनी-सुनाई बातों के कारण नहीं है बल्कि मुझे इस बात का बहुत ही पक्का सबूत मिल चुका है जिससे तुम कदापि इनकार नहीं कर सकतीं।
प्रभाकर : (मन में) बेशक वह बात ठीक मालूम होती है जो हरदेई ने मुझसे कही थी।
सर० : कैसा सबूत और कैसी बदनामी? भला मैं भी तो उसे सुनूँ।
जवाब : तुम तो जरूर ही सुनोगी, अभी नहीं तो और घंटे भर में सही प्रभाकरसिंह के सामने ही मैं इस बात को खोलूँगा और इस कहावत को चरितार्थ करके दिखा दूँगा कि ‘छिपत न दुष्कर पाप, कोटि जतन कीजे तऊ’।
सर० : कोई चिन्ता नहीं, मैं भी अच्छी तरह उस आदमी का मुँह काला करूँगी जिसने हम लोगों को बदनाम किया है और अपने को अच्छी तरह निर्दोष साबित कर दिखाऊँगी।
आवाज : अगर तुम्हारे किये हो सकेगा तो जरूर ऐसा करना।
सर० : हाँ-हाँ जरूर ही ऐसा करूँगी। मेरा दिल उसी समय खटका था जब प्रभाकरसिंह ने कुछ व्यंग्य के साथ बातें की थीं। मैं उस समय उनका मतलब कुछ नहीं समझ सकी थी मगर अब मालूम हो गया कि कोई महापुरुष हम लोगों को बदनाम करके अपना काम निकालना चाहते हैं।
जवाब : इस तरह की बातें तुम प्रभाकरसिंह को समझाना, मुझ पर इसका कुछ भी असर नहीं हो सकता, यदि मैं तुम्हारा नातेदार न होता तो मुझे इतना कहने की कुछ जरूरत भी न थी। मैं तुम लोगों का मुँह भी न देखता और अब भी ऐसा ही करूँगा। मैं नहीं चाहता कि अपना हाथ औरतों के खून से नापाक करूँ तथापि एक दफे प्रभाकरसिंह के सामने इन बातों को साबित जरूर करूँगा। जिसमें कोई यह न कहे कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति पर किसी ने व्यर्थ ही कलंक लगाया! अच्छा अब मैं जाता हूँ। फिर मिलूँगा।
सर० : अच्छा-अच्छा देखा जायगा, इन चालबाजियों से काम नहीं चलेगा। कान लगा कर ध्यान देने के बाद प्रभाकरसिंह पुनः उस दीवार के अन्दर जाने का उद्योग करने लगे। इस ख्याल से कि देखें यह दीवार कहाँ पर खतम हुई है वे दीवार के साथ-ही-साथ पूरब तरफ रवाना हुए।
दीवार बहुत दूर तक नहीं गई थी, केवल चार या पाँच बिगहे के बाद मुड़ गई थी, अस्तु प्रभाकरसिंह भी घूम कर दूसरी तरफ चल पड़े बीस-पचीस कदम आगे जाने के बाद उन्हें एक खुला दरवाजा मिला।
प्रभाकरसिंह उस दरवाजे के अन्दर चले गए और दूर से जमना, सरस्वती और इन्दुमति को एक पेड़ के नीचे बैठे देखा जो नीचे की तरफ सिर झुकाए हुए आँखों से गरम-गरम आँसू गिरा रही थीं। क्रोध में भरे हुए प्रभाकरसिंह उन तीनों के पास चले गये और सरस्वती की तरफ देख के बोले, ‘‘वह कौन आदमी था जो अभी तुमसे बातें कर रहा था?’’
सरस्वती : मुझे नहीं मालूम कि वह कौन था।
प्रभा० : फिर तुमसे इस तरह की बात करने की उसे जरूरत ही क्या थी?
सरस्वती : सो भी मैं कुछ कह नहीं सकती।
प्रभा० : हाँ ठीक है, मुझसे कहने की तुम्हें जरूरत ही क्या है! खैर जाने दो, मुझे भी विशेष सुनने की कोई आवश्यकता नहीं है, मैं तो पहिले ही हरदेई की जुबानी तुम लोगों की बदकारियों का हाल सुनकर अपना दिल ठंडा कर चुका था।
अब इस आदमी की बातें सुनकर और भी रहा-सहा शक जाता रहा, यद्यपि तुम लोग इस योग्य थीं कि इस दुनिया से उठा दी जातीं और यह पृथ्वी तुम्हारे असह्य बोझ से हलकी कर दी जाती, परन्तु नहीं, उस आदमी की तरह जो अभी तुम से बातें कर रहा था मैं भी तुम लोगों के खून से अपना हाथ अपवित्र नहीं करना चाहता। खैर तुम दोनों बहिनों से तो मुझे कुछ कहना नहीं है, रही इन्दुमति सो इसे मैं इस समय से सदैव के लिए त्याग करता हूँ, शास्त्र में लिखा हुआ है कि किसी का त्याग कर देना मार डालने के ही बराबर है।
इन्दु० : (रोती हुई हाथ जोड़ कर) प्राणनाथ! क्या तुम दुश्मनों की जुबानी गढ़ी-गढ़ाई बातें सुन कर मुझे त्याग कर दोगे!!
प्रभा० : हाँ त्याग कर दूँगा, क्योंकि जो कुछ बातें तुम्हारे विषय में मैने सुनी हैं उन्हें यह दूसरा सबूत मिल जाने के कारण मैं सत्य मानता हूँ। केवल इतना ही नहीं, तुम्हारी ही जुबान से उन बातों की पुष्टि हो चुकी है। अब इसकी भी कोई जरूरत नहीं कि तुम लोगों को इस तिलिस्म के बाहर ले जाने का उद्योग करूँ, अस्तु अब मैं जाता हूँ। (छाती पर हाथ रख कर) मैं इस वज्रकी चोट को इसी छाती पर सहन करूँगा और फिर जो कुछ ईश्वर दिखावेगा देखूँगा, मुझे विश्वास हो गया कि बस मेरे लिए दुनिया इतनी ही थी।
इतना कह कर प्रभाकरसिंह वहाँ से रवाना हो गए। इन्दुमति रो-रोकर पुकारती ही रह गई मगर उन्होंने उसकी कुछ भी न सुनी। जिस खिड़की की राह वे इस दीवार के अन्दर गये थे उसी राह से वे बाहर चले आये और उस तरफ रवाना हुए जहाँ नकाबपोश और बैताल को लड़ते हुए छोड़ आये थे।
वहाँ पहुँचकर प्रभाकरसिंह ने दोनों में से एक को भी न पाया, न तो बैताल ही पर निगाह पड़ी और न नकाबपोश ही की सूरत दिखाई दी। ताज्जुब के साथ प्रभाकरसिंह चारों तरफ देखने और सोचने लगे कि कहीं मैं जगह तो नहीं भूल गया या वे दोनों ही तो आपुस में फैसला करके कहीं नहीं चले गये।
कुछ देर तक इधर-उधर ढूँढ़ने के बाद प्रभाकरसिंह एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गये और झुकी हुई गर्दन को हाथ का सहारा दे कर तरह-तरह की बातें सोचने लगे। उन्हें इन्दुमति को त्याग देने का बहुत ही रंज था और वे अपनी जल्दबाजी पर कुछ देर के बाद पछताने लग गये थे। वे अपने दिल में कहने लगे कि अफसोस मैंने इस काम में जल्दबाजी की। यद्यपि इन्दुमति की बदकारी का हाल सुन कर मेरे सिर से पैर तक आग लग गई थी, मगर मुझे उसका कुछ सबूत भी तो ढूँढ़ लेना चाहिए था। सम्भव है कि हरदेई इन सभों की दुश्मन बन गई हो और उसने हम लोगो को रंज पहुँचाने के खयाल से ऐसी मनगढंत कहानी कह कर और इन्दुमति पर इलजाम लगा कर अपना कलेजा ठण्डा किया हो।
अगर वास्तव में यही बात हो तो कोई ताज्जुब नहीं क्योंकि हरदेई का उन तीनों के साथ न रहकर अलग ही तिलिस्म के अन्दर दिखाई देना कोई मामूली बात नहीं है बल्कि इसका कोई खास सबब जरूर है। अच्छा तो वह दूसरा आदमी कौन हो सकता है जिसने उस दीवार के अन्दर सरस्वती से बातचीत की थी? सम्भव है कि बैताल की तरह वह भी इन्दुमति, जमना और सरस्वती का दुश्मन हो और मुझे सुनाने और धोखे में डालने के लिए उसने यह ढंग रचा हो। हो सकता है, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
साथ ही इसके यह भी तो सोचना चाहिये कि अगर जमना सरस्वती को ऐसा ही बुरा काम करना होता तो वे मुझे और इन्दुमति को अपने घर क्यों लातीं और मेरे साथ ऐसा अच्छा सलूक क्यों करती? नहीं-नहीं, इन्दुमति से मुझे ऐसी आशा नहीं हो सकती। वह इन्दुमति जो लड़कपन से आज तक अपने विशुद्ध आचरण के कारण बराबर अच्छी और नेक गिनी गई है आज ऐसा कर्म करे यह कब सम्भव है? और हो भी तो क्या आश्चर्य है, आदमी के दिल को बदलते क्या देर लगती है? जो हो मगर मुझे ऐसी जल्दी न करनी चाहिए थी। और कुछ नहीं तो इन्दुमति से हरदेई वाली बात खुलासे तौर पर कह कर उसका जवाब भी तो सुन लेना उचित था।
आह, मैंने जो कुछ किया वह कर्तव्य के विरुद्ध था। हरदेई ने जरूर मुझे धोखे में डाला, वह दगाबाज थी, अगर ऐसा न होता तो मेरे जेब से तिलिस्म की किताब चुरा कर क्यों भाग जाती?
परन्तु उसके भाग जाने का भी तो कोई सबूत नहीं है। उसका खून से भरा हुआ कपड़ा केलों के झुरपुट में मिला था जिससे खयाल हो सकता है कि वह दुश्मनों के हाथ पड़ गई लेकिन अगर ऐसा ही था और दुश्मन उसके सर पर आ गया था तो उसने चिल्लाकर मुझे जगा क्यों न दिया! सम्भव है कि वह खून से भरा हुआ कपड़ा हरदेई ही के हाथ का रक्खा हो।
इस तरह की बातें थोड़ी देर तक प्रभाकरसिंह सोचते और दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होने से बेचैन होते रहे, परन्तु इस बात का ठीक निश्चय नहीं कर सकते थे कि उन्होंने जो कुछ बर्ताव इन्दुमति के साथ किया वह उचित था या अनुचित।
इस तरह की चिन्ता करते-करते संध्या हो गई, सूर्य भगवान इस दुनिया तो छोड़ किसी दूसरी ही दुनिया को अपनी चमक-दमक से प्रफुल्लित करने के लिए चले गये। यह बात औरों को चाहे बुरी मालूम हो परन्तु खुले दिल से मुँह दिखाने वालों में आसमान के सितारों को बहुत भली मालूम हुई, अस्तु वे दुनिया के विचित्र मामले को लापरवाही के साथ देखने के लिए निकल आये और औरों के साथ ही प्रभाकरसिंह की अवस्था पर अफसोस करने लगे। प्रभाकरसिंह अपने विचारों में ऐसा डूबे हुए थे कि उनको इस बात की कुछ खबर ही न थी।
जब रात कुछ ज्यादे बीत गई और सर्दी लगने लगी तब प्रभाकरसिंह चैतन्य हुए और आसमान की तरफ देख कर आश्चर्य करने लगे तथा अपने ही आप बोल उठे, ‘‘ओह बहुत देर हो गई। मैंने इस तरफ कुछ ध्यान ही नहीं दिया और न अपने लिए कुछ बन्दोबस्त ही किया। अस्तु अब तो रात इसी जंगल मैदान में बिता देनी पड़ेगी।’’
अपनी चिन्ता में निमग्न प्रभाकरसिंह को खाने-पीने की तथा और किसी जरूरी काम की फिक्र न रही और वे पुनः उसी तरह सिर नीचा करके सोचने लग गये। ऐसी अवस्था में निद्रादेवी ने भी उनका साथ छोड़ दिया और उन्हें अपने खयाल में डूबे रहने दिया।
आधी रात बीत जाने के बाद अपनी बाई तरफ कुछ उजाला देख प्रभाकरसिंह चौंक पड़े और उजाले की तरफ देखने लगे।
यह रोशनी उसी दीवार के अन्दर से आ रही थी जिसके अन्दर जाकर प्रभाकरसिंह ने जमना, सरस्वती और इन्दुमति से मुलाकात की थी और अनुचित अवस्था में उनका तिरस्कार किया था।
यह रोशनी मामूली नहीं थी बल्कि बहुत ज्यादे और दिल में खुटका पैदा करने वाली थी। मालूम होता था कि कई मन लकड़ियाँ बटोर कर उससें किसी ने आग लगा दी हो। प्रभाकरसिंह का दिल धड़कने लगा और वे घबराहट के साथ उस पल-पल में बढ़ती हुई रोशनी को बड़े गौर से देखते हुए उठ खड़े हुए।
प्रभाकरसिंह के दिल की इस समय क्या अवस्था थी इसका कहना बड़ा ही कठिन है। यद्यपि वे उस दीवार के अन्दर जाकर उस रोशनी का कारण जानने के लिए उत्कंठित हो रहे थे परन्तु दिल की परेशानी और घबड़ाहट ने मानों उनकी कठिनता से अपने दिल को सम्हाला और धीरे-धीरे कदम उठाकर उसी दीवार की तरफ आने लगे। जब उस दीवार के पास पहुँचे तो उसी खिड़की की राह उसके अन्दर घुसे जिस राह से पहिले गये थे। इस समय वह रोशनी जो एक दफे बड़ी तेजी के साथ बढ़ चुकी थी धीरे-धीरे कम होने लगी थी।
जहाँ पर जमना, सरस्वती और इन्दुमति से मुलाकात हुई थी वहाँ पहुँच कर प्रभाकरसिंह ने देखा कि एक बहुत बड़ी चिता सुलग रही है और बहुत ध्यान देने पर मालूम होता है कि उसके अन्दर कोई लाश भी जल रही है जो अब अन्तिम अवस्था को पहुँचकर भस्म हुआ ही चाहती है। धुएँ में बदबू होने से भी इस बात की पुष्टि होती थी।
प्रभाकरसिंह का दिल बड़ी तेजी के साथ उछल रहा था और वे बेचैनी और घबराहट के साथ उस चिता को देख रहे थे कि यकायक उनकी आँखे डबडबा आई और गरम-गरम आँसू उनके गुलाबी गालों पर मोतियों की तरह लुढकने लगे। इससे भी उनके दिल की हालत न सम्हली और वे बड़े जोर से पुकार उठे, ‘‘हाय इन्दे! क्या इस धधकती हुई अग्नि के अन्दर तू ही तो नहीं है? इतना कह कर प्रभाकरसिंह जमीन पर बैठ गए और सर हाथ रख कर अपने दिल को काबू में लाने की कोशिश करने लगे।
घंटे भर तक अपने को सम्हालने का उद्योग करने पर भी वे कृतकार्य न हुए-और फिर उठ कर बड़ी बेदिली के साथ पुनः उस चिता की तरफ देखने लगे जो अब लगभग निर्धूम हो रही थी परन्तु उसकी रोशनी दूर-दूर तक फैल रही थी।
यकायक प्रभाकरसिंह की निगाह किसी चीज पर पड़ी जो उस चिता से कुछ दूरी पर थी परन्तु आग की रोशनी के कारण अच्छी तरह दिखाई दे रही थी। प्रभाकरसिंह उसके पास चले गये और बिना कुछ सोचे-विचारे उसे उठा कर बड़े गौर से देखने लगे। यह कपड़े का एक टुकड़ा था जो हाथ भर से कुछ ज्यादे बड़ा था। प्रभाकरसिंह ने पहिचाना कि यह इन्दुमति की उसी साड़ी में का टुकड़ा है जिसे पहिरे हुए उसे आज उन्होंने उस जगह पर देखा था। इस टुकड़े ने उनके दिल को चकनाचूर कर दिया और उस समय तो उनकी अजीब हालत हो गई जब उस टुकड़े के एक कोने में कुछ बँधा हुआ उन्होंने देखा। खोलने पर मालूम हुआ कि वह एक चिट्ठी है जिसकी लिखावट ठीक इन्दुमति के हाथ की लिखावट की-सी है, परन्तु अफसोस कि इस रोशनी में तो वह पढ़ी ही नहीं जाती और चिता की आँच अपने पास आने की इजाजत नहीं देती। अब उस चिता में इतनी रोशनी भी नहीं रह गई थी कि दूर ही से इस लिखावट को पढ़ सकें।
इस समय कोई दुश्मन भी प्रभाकरसिंह की बेचैनी को देखता तो कदाचित् उनके साथ हमदर्दी का बरताव करता।
धीरे-धीरे चिता ठंडी हो गई मगर प्रभाकरसिंह ने उसका पीछा न छोड़ा, उस के पास ही बैठकर रात बिता दी। हाथ में वह कागज लिए हुए कई घण्टे तक प्रभाकरसिंह सुबह की सुफेदी का इन्तजार करते रहे और जब पत्र पढ़ने योग्य चाँदनी हो गयी तब उसे बड़ी बेचैनी के साथ पढ़ने लगे। यह लिखा हुआ थाः-
‘‘प्राणनाथ! बस हो चुका, दुनिया इतनी ही थी। मैं अब जाती हूँ और तुम्हें दयामय परमात्मा के सुपुर्द करती हूँ। मैं जब तक इस दुनिया में रही बहुत ही सुखी रही, तरह-तरह के दुःख भोगने पर भी मुझे विशेष कष्ट न हुआ क्योंकि तुम्हारे प्रेम का सहारा हरदम मेरे साथ था। इसके अतिरिक्त आशालता की हरियाली जिसका सब कुछ सम्बन्ध तुम्हारे ही शरीर के साथ था, मुझे सदैव प्रसन्न रखती थी, परन्तु अब इस दुनिया में मेरे लिए कुछ नहीं जब तुम्हीं ने मुझे त्याग दिया तो अब क्यों और किसके लिए जीऊँ?
मैं इसी विचार से बहुत सन्तुष्ट हूँ कि तुम्हें मेरे लिए दुःख न होगा क्योंकि किसी दुष्ट की कृपा से तुम मुझसे रुष्ट हो चुके हो इसलिए तुमने मुझे त्याग दिया और तुम्हें मेरे मरने का कुछ भी दुःख न होगा, परन्तु यदि कदाचित् किसी समय इस जालसाजी का भंडा फूट जाय और तुम्हारे विचार से मैं बेकसूर समझी जाऊँ तो यही प्रार्थना है कि तुम मेरे लिए कदापि दुःखी न होना। बस…’’
इस पत्र को पढ़कर प्रभाकरसिंह बहुत बेचैन हुए। मालूम था कि किसी ने अन्दर घुस और हाथ से पकड़ के उनका कलेजा ऐंठ दिया है। यद्यपि उन्होंने इन्दुमति का तिरस्कार कर दिया था परन्तु इस समय उनके दिल ने गवाही दे दी कि ‘हाय, तूने व्यर्थ इन्दुमति को त्याग दिया! वह वास्तव में निर्दोष थी इसी कारण तेरे उन शब्दों को बर्दाश्त न कर सकी जो उसके सतीत्व में धब्बा लगाने के लिए तूने त कहे थे! हाय इन्दे!
अब मुझे मालूम हो गया कि तू वास्तव में निर्दोष थी, आज नहीं तो कल इस बात का पता लग ही जायगा’। इतना कहकर प्रभाकरसिंह ने पुनः उस चिता की तरफ देखा और कुछ सोचने के बाद गरम-गरम आँसू बहाते हुए वहाँ से रवाना हुए मगर उनकी भृकुटी, उनके फड़कते हुए होंठ और उनकी लाल-लाल आँखों से जाना जाता है कि इस समय किसी से बदला लेने का ध्यान उनके दिल में जोश मार रहा था।
उस दीवार के बाहर हो जाने के बाद प्रभाकरसिंह को यकायक यह खयाल पैदा हुआ कि इन्दुमति का हाल तो जो कुछ मालूम हो गया, परन्तु जमना और सरस्वती के विषय में कुछ मालूम न हुआ, सम्भव है कि वहाँ उन लोगों ने भी इसी तरह कुछ लिखकर रख दिया हो जिसके देखने से उन लोगों का कुछ हाल मालूम हो जाय।
यदि उन लोगों से मुलाकात हो गई तो उनकी जुबानी इन्दुमति की अन्तिम अवस्था का ठीक-ठाक हाल मालूम हो जायगा। यह सोचकर प्रभाकरसिंह पुनः पलट पड़े और उस चिता के पास जाकर इधर-उधर देखने लगे परन्तु और किसी बात का पता न लगा, लाचार प्रभाकरसिंह लौट कर उस दीवार के बाहर निकल आये।
अब दिन घण्टे-भर से ज्यादे चढ़ चुका था। दीवार के बाहर निकल कर प्रभाकरसिंह कुछ सोचने लगे और इधर-उधर देखने के बाद कुछ सोच कर एक पेड़ के ऊपर चढ़ गये और दूर तक निगाह दौड़ा कर देखने लगे। यकायक उनकी निगाह हरदेई के ऊपर पड़ी जो उसी दीवार की तरफ बढ़ी जा रही थी जिसके अन्दर जमना, सरस्वती और इन्दुमति को प्रभाकरसिंह ने छोड़ा था। हरदेई को देखते ही प्रभाकरसिंह पेड़ के नीचे उतरे और बड़ी तेजी के साथ उसी तरफ जाने लगे।
यह हरदेई वही नकली हरदेई थी जो एक दफे प्रभाकरसिंह को धोखे में डाल चुकी थी अर्थात् भूतनाथ का शागिर्द रामदास इस समय भी हरदेई की सूरत बना हुआ भूतनाथ के साथ ही इस तिलिस्म के अन्दर आया हुआ था और पुनः जमना, सरस्वती, इन्दुमति और प्रभाकरसिंह को धोखे में डालकर अपना या अपने ओस्ताद का कुछ काम निकालना चाहता था, मगर इस समय उसे यह खबर न थी कि प्रभाकरसिंह मुझे देख रहे हैं और न प्रभाकरसिंह से मिला ही चाहता था।
रामदास ने जब आशा के विरुद्ध प्रभाकरसिंह को अपनी तरफ आते देखा तो ताज्जुब में आकर चौंक पड़ा तथा भाग जाना मुनासिब न समझ कर खड़ा हो गया और सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए।
प्रभाकरसिंह : (नकली हरदेई के पास पहुँच कर) हरदेई, तू यहाँ कैसे आई?
हरदेई : मेरी किस्मत मुझे यहाँ ले आई। मैं तो उसी समय अपनी जान से हाथ धो चुकी थी जिस समय आपसे अलग हुई थी, मगर मेरी किस्मत में अभी कुछ और जीना बदा था इसलिए एक महापुरुष की मदद से बच गई।
प्रभाकरसिंह : आखिर तुम पर यहाँ क्या आफत आई थी सो तो सुनूँ?
हरदेई : आप जब थकावट मिटाने के लिए चबूतरे पर लेट गये तो उसी समय आपकी आँख लग गई, मैं बड़ी देर तक चुपचाप बैठी-बैठी घबड़ा गई थी इसलिए उठ कर इधर-उधर टहलने लगी। घूमती-फिरती मैं कुछ दूर निकल गई, उसी समय यकायक पत्तों के झुरमुट में से एक आदमी निकल आया जो स्याह कपड़े और नकाब से अपने बदन और चेहरे को छिपाये हुए था।
मैं उसे देखकर घबड़ा गई और दौड़ कर आपकी तरफ आने लगी मगर उसने झपट कर मुझे पकड़ लिया और एक मुक्का मेरी पीठ पर इस जोर से मारा कि मैं तिलमिला कर बैठ गई। उसने मुझे जबरदस्ती कोई दवा सुँघा दी जिससे मैं बेहोश हो गई और तनोबदन की सुधि जाती रही। दूसरे दिन जब मैं होश में आई तो अपने को मैदान और जंगल में पड़े हुए पाया, तब से मैं आपको बराबर खोज रही हूँ।
प्रभाकरसिंह : (हरदेई की बेतुकी बातों को ताज्जुब से सुन कर) आखिर उसने तुझे इस तरह सता कर क्या फायदा उठाया?
हरदेई : (कुछ घबड़ानी सी होकर) सो तो मैं कुछ भी नहीं जानती।
प्रभाकरसिंह : उसने छुरी या खंजर से तुझे जख्मी तो नहीं किया?
हरदेई : जी नहीं।
प्रभाकरसिंह : मैं जब सोकर उठा तो तुझे ढूँढने लगा। एक जगह केले के झुरमुट में तेरे कपड़े का टुकड़ा खून से भीगा हुआ देखा था जिससे मुझे खयाल हुआ कि हरदेई को किसी ने खंजर या छुरी से जख्मी किया है।
हरदेई : जी नहीं, मुझे तो इस बात की कुछ भी खबर नहीं।
प्रभाकरसिंह : और वह महात्मा पुरुष कौन थे जिन्होंने तुझे बचाया? अभी-अभी तो तू कह चुकी है कि ‘बेहोशी के बाद जब मैं होश में आई तो अपने को मैदान और जंगल में पड़े हुए पाया’ अस्तु कैसे समझा जाय कि किसी महापुरुष ने तुझे बचाया?
नकली हरदेई के चेहरे पर घबराहट की निशानी छा गई और वह इस भाव को छिपाने के लिए मुड़ कर पीछे की तरफ देखने लगी मगर प्रभाकरसिंह इस ढंग को अच्छी तरह समझ गए और जरा तीखी आवाज में बोले, ‘‘बस मुझे ज्यादे देर तक ठहरने की फुरसत नहीं है, मेरी बातों का जवाब जल्दी-जल्दी देती जा!’’
हरदेई : जी हाँ, जब मैं खुलासे तौर पर अपना हाल कहूँगी तब आपको मालूम हो जाएगा कि वह महात्मा कौन था और अब कहाँ है जिसने मुझे बचाया था, मैंने संक्षेप में ही अपना हाल आप से कहा था।
प्रभा० : खैर तो वह खुलासा हाल कहने में देर क्या है! अच्छा जाने दे खुलासा हाल भी मैं सुन लूँगा, पहिले तेरी तलाशी लिया चाहता हूँ।
हरदेई० : (घबरा कर) तलाशी कैसी और क्यों?
प्रभा० : इसका जवाब मैं तलाशी लेने के बाद दूँगा।
हरदेई० : आखिर मुझ पर आपको किस तरह का शक हुआ?
प्रभा० : मुझे कई बातों का शक हुआ जो मैं अभी कहना नहीं चाहता। इतना कहते ही कहते प्रभाकरसिंह ने हरदेई का हाथ पकड़ लिया क्योंकि उसके रंग-ढंग से मालूम होता था कि वह भागना चाहती है। हरदेई ने पहिले तो चाहा कि झटका देकर अपने को प्रभाकरसिंह के कब्जे से छुड़ा ले मगर ऐसा न हो सका। प्रभाकरसिंह ने जब देखा कि यह धोखा देकर भाग जाने की फिक्र में है तब उन्हें बेहिसाब क्रोध चढ़ आया और एक मुक्का उसकी गरदन पर मार कर जबरदस्ती उन्होंने उसके ऊपर का कपड़ा खैंच लिया।
रामदास यद्यपि ऐयार था मगर उसमें इतनी ताकत न थी कि वह प्रभाकरसिंह का मुकाबला कर सकता। प्रभाकरसिंह के हाथ का मुक्का खाकर वह बेचैन हो गया और उसकी आँखों के आगे अन्धेरा छा गया, और फिर उसकी हिम्मत न पड़ी कि वह भाग जाने के लिए उद्योग करे।
प्रभाकरसिंह को भी विश्वास हो गया कि यह हरदेई नहीं बल्कि कोई ऐयार है। मामूली कपड़ा उतार लेने के साथ ही प्रभाकरसिंह का बचा-बचाया शक भी जाता रहा, साथ ही इसके उन्होंने यह भी निश्चय कर लिया कि हमारी तिलिस्मी किताब जरूर इसी ऐयार ने चुराई है।
तिलिस्मी किताब पा जाने की उम्मीद में प्रभाकरसिंह ने जहाँ तक हो सका बड़ी होशियारी के साथ उसकी तलाशी ली और उसके ऐयारी के बटुए में भी, जिसे वह छिपा कर रक्खे हुए था, देखा मगर किताब हाथ न लगी। तलाशी में केवल ऐयारी का बटुआ, खंजर और एक कटार उसके पास से मिला जिसे प्रभाकरसिंह ने अपने कब्जे में कर लिया और पूछा, ‘‘बस अब तो तेरा भेद अच्छी तरह खुल गया। खैर यह बता कि तेरा क्या नाम है और मेरे साथ तूने इस तरह की दगाबाजी क्यों की?’’
राम० : क्या जो कुछ मैं बताऊँगा उस पर आप विश्वास कर लेंगे?
प्रभाकर० : नहीं।
राम० : फिर इसे पूछने से फायदा क्या?
प्रभाकरसिंह ने क्रोध-भरी आँखों से सिर से पैर तक उसे देखा और कहा, ‘‘बेशक कोई फायदा नहीं मगर तूने मेरे साथ बड़ी दगाबाजी की और व्यर्थ ही बेचारी इन्दुमति पर झूठा कलंक लगा कर उसे और साथ-ही-साथ इसके मुझे भी बर्बाद कर दिया।’’
राम० : बेशक मैंने किया तो बहुत बुरा मगर मैं तो ऐयार हूँ, मालिक की भलाई के लिए उद्योग करना मेरा धर्म है। जो कुछ मुझसे बन पड़ा किया, अब आपके कब्जे में हूँ जो उचित और धर्म समझिए कीजिए।
प्रभाकर : (क्रोध को दबाते हुए) तू किसका ऐयार है?
राम० : मैं पहिले ही कह चुका हूँ कि मेरी बातों पर आपको विश्वास न होगा, फिर इन सब बातों को पूछने से फायदा क्या है?
प्रभाकरसिंह का दिल पहिले ही से जख्मी हो रहा था, अब जो मालूम हुआ कि हरदेई वास्तव में हरदेई नहीं हैं बल्कि कोई ऐयार है और इसने धोखा देकर अपना काम निकालने के लिए इन्दुमति, जमना और सरस्वती को बदनाम किया था तो उनके दुःख और क्रोध की सीमा न रही तिस पर रामदास की ढिठाई ने उनकी क्रोधाग्नि को और भड़का दिया, अस्तु वे उचित-अनुचित का कुछ भी विचार न कर सके।
उन्होंने रामदास की कमर में एक लात ऐसी मारी कि वह सम्हल न सका और जमीन पर गिर पड़ा, इसके बाद लात और जूते से उसकी ऐसी खातिरदारी की कि वह बेहोश हो गया और उसके मुँह से खून भी बहने लगा। इतने पर भी प्रभाकरसिंह का क्रोध शान्त न हुआ और उसे कुछ और सजा दिया चाहते थे कि सामने से आवाज आई, ‘‘हाँ हाँ, बस जाने दो, हो चुका, बहुत हुआ।’’
प्रभाकरसिंह ने आँख उठाकर सामने की तरफ देखा तो एक वृद्ध महात्मा पर उनकी निगाह पड़ी जो तेजी के साथ प्रभाकरसिंह की तरह बढ़े आ रहे थे।
तीसरा भाग : छठवाँ बयान
वृद्ध महात्मा का ठाठ कुछ अजब ही ढंग का था, सिर से पैर तक तमाम बदन में भस्म लगे रहने के कारण इनके रंग का बयान करना चाहे कठिन हो परंतु फिर भी इतना जरूर कहेंगे कि लगभग सत्तर वर्ष की अवस्था हो जाने पर भी उनके खूबसूरत और सुडौल बदन में अभी तक कहीं झुर्री नहीं पड़ी थी और न उनके सीधेपन में कोई झुकाव आया था।
बड़ी-बड़ी आँखों में अभी तक गुलाबी डोरियाँ दिखाई दे रही थीं और उनके कटाक्ष से जाना जाता था कि अभी तक उनकी रोशनी और ताकत में किसी तरह की कमी नहीं हुई है। रोआबदार चेहरा, चौड़ी छाती तथा मजबूत और गठीले हाथ-पैरों की तरफ ध्यान देने से कहने को जी चाहता है कि यह शरीर तो छत्र और मुकुट धारण करने योग्य है न कि जटा और कम्बल की कफनी के योग्य।
महात्मा के सिर पर लम्बी जटा थी जो खुली हुई पीठ की तरफ लहरा रही थी। मोटे और मुलायम कम्बल का झगा बदन में और लोहे का एक डण्डा हाथ में था, बस इसके अतिरिक्त उनके पास और कुछ भी दिखाई नहीं देता था।
महात्मा को देखते ही प्रभाकरसिंह ने झुक के प्रणाम किया। बाबाजी ने भी पास आकर आशीर्वाद दिया और कहा, ‘‘प्रभाकरसिंह, बस जाने दो, बहादुर लोग ऐयारों को जान से नहीं मारते और ऐयार भी जान से मारने योग्य नहीं होते बल्कि कैद करने के योग्य होते हैं। तुम इस समय यद्यपि यदि कहो तो हम इसका प्रबन्ध कर दें क्योंकि इस तिलिस्म के अन्दर हम इस बात को बखूबी कर सकते हैं।’’
प्रभाकर : (बात काटकर) आपकी आज्ञा के विरुद्ध मैं कदापि न करूँगा। आप बड़े हैं, मेरा दिल गवाही देता है और कहता है कि यदि आप वास्तव में साधु न भी हों तो भी मेरे पूज्य और बड़े हैं। जो कुछ आज्ञा कीजिए मैं करने को तैयार हूं, पर आपको कदाचित् यह न मालूम हुआ होगा कि इसने मुझे कैसी-कैसी तकलीफें दी हैं और किस तरह मेरा सर्वनाश किया है, और इस समय भी यह कैसी ढिठाई के साथ बातें कर रहा है, अपना नाम तक नहीं बताता।
बाबा : मैं सबकुछ जानता हूँ, तुमने स्वयं भूलकर अपने को इसके हाथ फँसा दिया है, अगर वह किताब जिसमें इस तिलिस्म का कुछ थोड़ा-सा हाल लिखा हुआ था और इन्द्रदेव ने तुमको दी थी, इसने तुम्हारी जेब से न निकाल ली होती तो यह कदापि यहाँ तक पहुँच न सकता, मगर तुमने पूरा धोखा खाया और उस किताब की भी बखूबी हिफाजत न कर सके।
प्रभाकर : बेशक ऐसा ही है, मुझसे बड़ी भूल हो गई। अभी तक मुझे इस बात का पता न लगा कि वास्तव में यह कौन है।
बाबा : हाँ तुम इसे नहीं जानते, हरदेई समझकर तुम इसके हाथ से बर्बाद हो गए, यह असल में गदाधरसिंह का शागिर्द रामदास है। इसी ने असली हरदेई को धोखा देकर गिरफ्तार कर लिया और स्वयं हरदेई की सूरत बन जमना और सरस्वती को धोखे में डाला, इसने तिलिस्म घाटी का रास्ता देख लिया और भूतनाथ को इस घाटी के अन्दर लाकर जमना, सरस्वती और इन्दुमति को आफत में फँसा दिया। भूतनाथ ने अपने हिसाब से तो उन तीनों को मार ही डाला था परन्तु ईश्वर ने उन्हें बचा लिया, सुनो हम इसका खुलासा हाल तुमसे बयान करते हैं।
इतना कहकर बाबाजी ने भूतनाथ और रामदास का पूरा-पूरा हाल जो हम ऊपर के बयानों में लिख आये हैं कह सुनाया अर्थात जिस तरह रामदास ने हरदेई को गिरफ्तार किया, स्वयं हरदेई की सूरत बनकर कई दिनों तक जमना, सरस्वती के साथ रहा, घाटी में आने-जाने का रास्ता देख कर भूतनाथ को बताया, प्रभाकरसिंह की सूरत बन कर जिस तरह भूतनाथ इस घाटी के अन्दर आया और जमना, सरस्वती, इन्दुमति तथा और लौंडियों को भी कुएँ के अन्दर फेंक कर बखेड़ा तै किया और अन्त में रामदास स्वयं जिस तरह कुएँ के अन्दर जाकर खुद भी उसमें फँस गया आदि-आदि रत्ती-रत्ती हाल बयान किया, जिसे सुन कर प्रभाकरसिंह हैरान हो गये और ताज्जुब करने लगे।
प्रभाकर : (आश्चर्य से) यह सब हाल आपको कैसे मालूम हुआ?
बाबा : इसके पूछने की कोई जरूरत नहीं, जब हमको तुम पहिचान जाओगे तब स्वयं तुम्हें इसका सबब मालूम हो जायगा। (रामदास की तरफ देख के) क्यों रामदास, जो कुछ हमने कहा वह सब सच है या नहीं?
रामदास : बेशक आपने जो कुछ कहा सब सच है।
बाबाः (रामदास से) अब तो बताओ कि तुम्हारा गुरु भूतनाथ कहाँ है?
रामदास : मुझे नहीं मालुम।
बाबा : (हँस कर) अगर तुम्हें मालूम नहीं हैं तो मुझे जरूर मालूम है! (प्रभाकरसिंह से) अच्छा अब हम जाते हैं, जरूरत होगी तो फिर मुलाकात करेंगे केवल इसीलिए तुम्हारे पास आये थे कि इस रामदास और भूतनाथ की चालबाजी से तुम्हें होशियार कर दें, जिसमें इन लोगों के बहकाने में पड़कर तुम जमुना, सरस्वती और इन्दुमति के साथ किसी तरह की बेमुरौवती न कर जाओ।
मगर अफसोस हमारे पहुँचने के पहिले ही तुमने इन लोगों के धोखे में पड़ कर इन्दुमति और साथ ही उसके जमना-सरस्वती का तिरस्कार कर दिया और उन लोगों के साथ ऐसा बर्ताव किया जो तुम्हारे ऐसे बुद्धिमान के योग्य न था।
प्रभाकर : (डबडबाई हुई आँखों से और लम्बी साँस लेकर) बेशक मैंने बहुत बुरा धोखा खाया, मेरी किस्मत ने मुझे डुबा दिया और कहीं का न रखा! (आसमान की तरफ देखकर) हे सर्वशक्तिमान जगदीश्वर! क्या मैं इसीलिए इस दुनिया में आया था कि तरह-तरह की तकलीफें उठाऊँ? जबसे मैंने होश सम्भाला तब से आज तक साल-भर सुख से बैठना नसीब न हुआ। किस-किस दुःख को रोऊँ और किस-किस को याद करूँ!
हाय, माता-पिता की अवस्था पर ध्यान देता हूँ तो कलेजा मुँह को आता है, अपनी दुर्दशा पर विचार करता हूँ तो दुनिया अन्धकारमय दिखाई पड़ती है। तो फिर क्या मैं ऐसा ही बदकिस्मत बनाया गया हूँ? क्या यह मेरे कर्मों का फल है! कदाचित् ऐसा भी हो तो फिर दुनिया में जितने आदमी हैं सभी तो अपने-अपने कर्म का फल भोग रहे हैं, फिर मुझमें और अन्य अभागों में भेद ही किस बात का ठहरा? और जब अपने ही कर्मों का फल भोगना ही ठहरा तो तुम्हारा भरोसा ही करके क्या किया? अगर यह कहो कि इस भरोसे का फल किसी और समय मिलेगा तो यह भी कोई बात न ठहरी, जब मेरे समय पर तुम्हारा भरोसा काम न आया तो खेत सूखे पर वर्षा वाली कहावत सिद्ध हुई।
बाबा : (बात काटकर) बेटा, घबड़ाओ मत और परमेश्वर का भरोसा मत छोड़ो वह तुम्हारे सभी दुःखो को दूर करेगा। उसकी कृपा के आगे कोई बात कठिन नहीं है, यदि वह दयालू होगा तो तुम्हें तुम्हारे माता-पिता से भी मिला देगा और तुम्हारी स्त्री इन्दुमति भी पुनः तुम्हारी सेवा में दिखाई दे जायेगी। बस अब मैं जाता हूँ, ईश्वर तुम्हारा भला करे।
प्रभाकर : (बाबाजी को रोक कर) कृपा कर और भी मेरी दो-एक बातों का जवाब देते जाइये।
बाबा : पूछो क्या पूछना चाहते हो!
प्रभाकर : जिस मनुष्य के विषय में यह कहा जा सकता है कि वह पंच तत्त्व में मिल गया भला उससे पुनः क्योंकर मुलाकात हो सकती है!
बाबा : ईश्वर की माया बड़ी प्रबल है, मैं यह नहीं कह सकता कि ऐसा अवश्य ही होगा परन्तु यह जरूर कहूँगा कि ईश्वर पर भरोसा रखने वाले के लिए कोई भी बात असंभव नहीं, अच्छा पूँछो और क्या पूँछते हो।
प्रभाकर : मैं यह जानना चाहता हूँ कि आज के बाद मैं आपसे मिलना चाहूँ तो क्योंकर मिल सकता हूँ?
बाबा : तुम अपनी इच्छानुसार मुझसे नहीं मिल सकते।
प्रभाकर : आपका परिचय जान सकता हूँ?
बाबा : नहीं।
इतना कहकर बाबाजी वहाँ से रवाना हो गये और देखते-देखते प्रभाकरसिंह की नजरों से गायब हो गये।
बाबाजी के चले जाने के बाद कुछ देर तक प्रभाकरसिंह खड़े कुछ सोचते रहे, इसके बाद क्रोध भरी आँखो से रामदास की तरफ देखा और कहा, ‘‘रामदास यद्यपि लोग कहते हैं कि ऐयारों को मारना न चाहिए बल्कि कैदकर रखना चाहिए परन्तु यह काम ऐयारों का और राजा लोगों का है।
मैं न तो ऐयार हूँ और न राजा ही हूँ, इसके अतिरिक्त मेरे पास कोई ऐसी जगह भी नहीं है जहाँ तुझे कैद करके रक्खूँ अतएव मैं तुझ पर किसी तरह का रहम नहीं कर सकता, (रामदास का खंजर उसके आगे फेंक कर) ले अपना खंजर उठा ले और मेरा मुकाबला कर क्योंकि मैं उस आदमी पर वार करना पसन्द नहीं करता जिसके हाथ में किसी तरह का हर्बा नहीं है, साथ ही तूने मुझ पर जो जुल्म किया है उसे मैं बर्दाश्त भी नहीं कर सकता।
राम० : (खंजर उठाकर) तो क्या मैं किसी तरह भी माफी पाने लायक नहीं?
प्रभा० : नहीं, अगर इन्दुमति इस दुनिया से उठ न गई होती तो कदाचित् मैं तेरा अपराध क्षमा कर सकता मगर इन्दुमति का वियोग, जो केवल तेरी ही दुष्टता के कारण हुआ है, मैं सह नहीं सकता।
राम० : अगर तुम्हारी इन्दुमति को तुमसे मिला दूँ तो?
प्रभा० : अरे दुष्ट! क्या अब भी तू मुझे धोखा दे सकेगा? जिसकी चिता मैं अपनी आँखों से देख चुका हूँ उसके विषय में तू इस तरह की बातें करता है मानों बह्मा तू ही है।
राम० : नहीं-नहीं, आपने मेरा मतलब नहीं समझा।
प्रभा० : तेरा मतलब मैं खूब समझ चुका अब समझाने की जरूरत नहीं है, बस अब सम्हल जा और अपनी हिफाजत कर।
इतना कह कर प्रभाकरसिंह ने म्यान से तलवार खींच ली और रामदास को ललकारा। रामदास ने जब देखा कि अब वह भाग कर भी अपने को प्रभाकरसिंह के हाथ से नहीं बचा सकता तब उसने खंजर सम्हाल कर प्रभाकरसिंह का मुलाबला किया। दो ही चार हाथ के लेने-देने के बाद प्रभाकरसिंह की तलवार से रामदास दो टुकड़े होकर जमीन पर गिरा पड़ा और वहाँ की मिट्टी से अपनी तलवार साफ करके प्रभाकरसिंह पुनः उसी दीवार की तरफ रवाना हुए जिसके अन्दर इन्दुमति सुलगती हुई चिता देख चुके थे।
तरह-तरह की बातें सोचते हुए प्रभाकरसिंह धीरे-धीरे चलकर उसी चिता के पास पहुँचे जो अभी तक निर्धूम हो जाने पर भी बड़े अंगारों के कारण धधक रही थी और जिसके बीच-बीच में हड्डियों के छोटे-छोटे टुकडे़ दिखाई दे रहे थे।
तीसरा भाग : सातवाँ बयान
यद्यपि सूर्य भगवान अभी उदय नहीं हुए थे तथापि उनके आने का समय निकट जान अंधकार ने पहिले ही से अपना दखल छोड़ना आरम्भ कर दिया था और धीरे-धीरे भाग कर पहाड़ की कन्दराओं और गुफाओं में अपने शरीर को सिकोड़ता या समेटता हुआ घुसा चला जा रहा था।
एक छोटे मैदान में जिसे चारों तरफ से ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों ने घेर रक्खा है हम एक विचित्र तमाशा देख रहे हैं। वह मैदान चार या पाँच बिगहे से ज्यादा न होगा जिसके बीचोबीच में स्याह पत्थर का पुरसे भर ऊँचा बहुत और खूबसूरत चबूतरा बना हुआ था, जिसके ऊपर जाने के लिए चारों तरफ सीढ़ियाँ बनी थीं।
हौज के चारों कोनों पर चार हंस इस कारीगरी से बनाये और बैठाये हुए थे कि जिन्हें देख कर कोई भी न कह सकेगा कि ये हंस असली नहीं बल्कि नकली हैं। देखने वाला जब तक उन्हें अच्छी तरह टटोल न लेगा तब तक उसके दिल से असली हंस होने का शक न मिटेगा। इसी तरह हौज के अन्दर उतरने वाली सीढ़ियों पर भी मोर और सारस इत्यादि कई जानवर दिखाई दे रहे थे और वे भी उन्हीं हंसों की तरह नकली, किसी धातु के बने हुए थे, मगर देखने में ठीक असली जान पड़ते थे।
इनके अतिरिक्त उसी हौज के अन्दर संगमर्मर की सीढ़ी पर एक निहायत हसीन और खूबसूरत औरत भी बेहोश पड़ी हुई दिखाई दे रही थी जिसके खुले हुए बाल सुफेद पत्थर की चट्टान पर बिखरे हुए थे बल्कि बालों का कुछ भाग जल की हलकी लहरों के कारण हिलता हुआ बहुत ही भला मालूम होता था।
पहिले तो मेरे दिल में आया कि मैं और जानवरों की तरह औरत को भी नकली और बनावटी समझूँ मगर उसकी खूबसूरती और नजाकत को देख कर मैं सहम गया, आह, क्या ही खूबसूरत चेहरा, बड़ी-ब़ड़ी मगर इस समय पलकों से ढकी हुई आँखें, चौड़ी पेशानी में सिंदूर की केवल एक बिन्दी कैसी अच्छी मालूम होती थी कि हजार रोकने पर भी मुँह से निकल ही पड़ा कि यह जरूर स्वर्ग की देवी है’ चाहे उसके हाथों में सिवाय दस-बारह पतली स्याह चूड़ियों के और कुछ भी न हो किसी अंग मे किसी तरह का कोई भी गहना दिखाई देता न हो, परन्तु उसकी खूबसूरती किसी गहने की मुहताज न थी।
मैं खड़ा यही सोच रहा था कि यह औरत असली है या बनावटी और यह इरादा भी हो चुका था कि जिस तरह ऊपर वाले हँस को टटोल कर देख चुका हूँ उसी तरह नीचे की सीढ़ियों पर बैठे हुए जानवरों के साथ–ही-साथ इस औरत को भी टटोल कर देखूँ और निश्चय करूँ कि असली है या नकली कि इतने ही में उस औरत ने गर्दन हिलाते और अपना चेहरा जल की तरफ से घुमाकर सीढ़ी की तरफ कर दिया बस फिर क्या था, मेरी खुशी का कोई ठिकाना न रहा मुझे विश्वास हो गया कि और जानवरों की तरह यह औरत बनावटी नहीं है।
फिर मैं सोचने लगा कि इसे किसी तरह जगाना चाहिए अस्तु मैने जोर से कई तालियाँ बजाई मगर इसका असर कुछ भी न हुआ। उस समय मुझे पुनः उसकी सच्चाई पर शक हुआ और मैं यह जाँचने के लिए कि देखूँ इस औरत की साँस चलती है या नहीं उसके पेट की तरफ गौर से देखने लगा जिसके आधे भाग का कपड़ा खिसक जाने के कारण खुला हुआ था, मगर साँस चलने की आहट मालूम न हुई! इतने ही में हवा का एक बहुत कड़ा झपेटा आया, मैंने तो समझा कि इस झपेटे के लगते ही वह जाग जायगी और उसके बदन का कपड़ा भी जो लापरवाही के साथ हर तरह से ढीला पड़ा हुआ है जरूर खिसक जायगा और उसका सुन्दर तथा सुडौल बदन मुझे अच्छी तरह देखने का मौका मिलेगा मगर अफसोस, ऐसा न हुआ, न तो उसकी निद्रा ही भंग हुई और न उसके बदन पर से कपड़ा ही खिसका।
मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ और अन्त में मैंने निश्चय कर लिया कि स्वयं हौज के अन्दर उतर कर उस औरत की निद्रा भंग करूँगा, क्योंकि उसकी खूबसूरती और उसके अंग की सुडौली मेरे दिल को बेतरह मसोस रही थी।
मैं दिल कड़ा करके हौज के अन्दर उतरने लगा। एक सीढ़ी उतरा, दूसरी सीढ़ी उतरा, तीसरी सीढ़ी पर पैर रक्खा ही था कि मैं डर कर उठा और मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा। क्योंकि यकायक वे चारों हंस जो हौज के ऊपर खड़े थे और जिन्हें मैं अच्छी तरह देखभाल चुका था कि वे असली नहीं, बनावटी हैं, अपनी जगह छोड़ और गरदन ऊँची कर इधर-उधर और बड़ी बेचैनी के साथ मेरी तरफ देखने लगे मानों मेरा हौज के अन्दर उतरना उन्हें बहुत बुरा मालूम हुआ। यह बात सिर्फ दस-बारह सायत तक रही, इसके बाद वे अपने बड़े-बड़े परों को फैला कर बेतरह मुझ पर टूट पड़े जिसे देख मैं डर गया और अपना दाहिना हाथ (जिसमें खंजर था) आगे की तरफ बढ़ाये हुए पीछे हट कर चौथी सीढ़ी पर उतर गया।
हौज के अन्दर सीढ़ी पर उतर जाना तो मेरे लिए बड़ा ही भयानक हुआ। हौज के अन्दर सीढ़ियों पर जो बहुत-से बनावटी जानवर (परिन्दे) थे, वे भी ऊपर वालें हंस की तरह अपनी क्रोध वाली अवस्था दिखाते हुए पर फैला कर इस तरह मुझ पर झपट पड़े मानों ये सब बात-की-बात में मुझे नोच कर खा जायेगे। केवल इतना ही नहीं। वह औरत भी उठ कर बैठ गई और गरदन ऊँची करके क्रोध –भरी आँखों से मेरी तरह देखने लगी।
वह दृश्य बड़ा ही भयंकर था, जानवरों के बेतरह झपट पड़ने से मैं कदापि न डरता यदि वह वास्तव में सच्चे होते और मैं उन्हें अपने खंजर से काट सकता परन्तु मैं तो अच्छी तरह जाँच कर समझ चुका था कि वे सब असली नहीं हैं फिर भी जब उन्होंने हमला किया तब मैंने अपने खंजर से उन्हें रोकना चाहा, परन्तु खंजर ने भी उनके बदन पर कुछ असर न किया मानो उसका बदन फौलाद का बना हुआ हो, ऐसी अवस्था में उन सभों को एकसाथ मिल कर हमला करना मुझे जरूर नुकसान पहुँचा सकता था अस्तु आश्चर्य के साथ-ही-साथ भय ने भी मुझ पर अपना असर जमा लिया। इसके अतिरिक्त उस औरत का एक अजीब ढंग से मेरी तरफ देखना और भी घबराहट पैदा करने लगा।
पहिले तो मैंने चाहा कि जिस तरह हो सके इस बावली के बाहर निकल जाऊँ मगर ऐसा न हो सका, लाचार पीछे की तरफ हट मैं और भी दो सीढ़ी नीचे उतर गया मगर वहाँ भी ठहरने की हिम्मत न पड़ी क्योंकि उन जानवरों का हमला और भी तेज हो गया तथा औरत भी इतनी जोर से चिल्ला उठी कि मैं घबड़ा गया तथा और भी कई सीढ़ी नीचे उतर कर उस औरत के पास जा पहुँचा। बस उसी समय औरत ने मेरा पैर पकड़ लिया और एक ऐसा झटका दिया कि मैं जल के अन्दर जा पड़ा और बेहोश हो गया।
इसके बाद क्या हुआ इसकी मुझे कुछ खबर ही नहीं है। छोटी-छोटी चार पहाड़ियों के अन्दर एक खुशनुमा बाग है। इसमें सुन्दर-सुन्दर बहुत-सी क्यारियाँ बनी हुई हैं, हर तरफ छोटी-छोटी नहरें जारी हैं और पेड़ों के ऊपर बैठ कर बोलने वाली तरह-तरह की चिड़ियों की सुरीली आवाज़ से वह सुबह का सुहावना समय और भी मजेदार मालूम हो रहा है।
इस बाग के पूरब तरफ बहुत बड़ी इमारत है जिसमें सैकड़ों आदमियों का खुशी से गुजारा हो सकता है, यह इमारत तिमंजिली है। नीचे के हिस्से में एक बहुत बड़ा दीवानखाना है और दीवानखाने के दोनों तरफ बाहरदरियाँ हैं। ऊपर की मंजिलों में छोटे-बड़े बहुत-से खूबसूरत दरवाजे दिखाई दे रहे हैं, उसके अन्दर क्या है सो तो इस समय नहीं कह सकते मगर अन्दाज से मालूम होता है कि ऊपर भी कई कमरे, कोठरियाँ, दालान, शहनशीन और बारहदरियाँ जरूर होंगी।
नीचे वाला दीवानखाना मामूली नहीं बल्कि शाही ढंग का बना हुआ है।
छः पहले चालीस खम्भों पर इसकी छत कायम है। खम्भे स्याह पत्थर के हैं और उन पर सोने से पच्चीकारी का काम किया हुआ है। बाहर के रुख पर बड़े-बड़े पाँच महराब हैं और उन महाराबों पर भी निहायत खूबसूरत पच्चीकारी का काम किया हुआ है। अन्दर की तरफ अर्थात् पिछली दीवार पर भी जहाँ एक जड़ाऊ सिंहासन रक्खा है जड़ाऊ तथा मीनाकारी का काम बना हुआ है जिसमें कारीगर ने जंगली सीन और शिकारगाह की तस्वीरों पर कुछ ऐसा मसाला चढ़ाया हुआ है जिसमें मालूम होता है कि ये दोनों दीवारें बिल्लौरी शीशे की बनी हुई हैं।
सिंहासन पिछली दीवार के साथ मध्य में रक्खा हुआ है और उस सिंहासन से चार हाथ ऊपर एक खूबसूरत दरीची (खिड़की) है जिसमें एक नफीस चिक पड़ी हुई है और उस चिक के अन्दर कदाचित् कोई औरत बैठी हुई है, और आवाज से यही जान पड़ता है कि बेशक वह औरत ही है। सिंहासन के ऊपर एक खूबसूरत और बहादुर नौजवान ने ऊपर खिड़की की तरफ मुँह करके बयान किया है। जब उस जवान ने यह कहा कि ‘इसके बाद क्या हुआ इसकी मुझे कुछ भी खबर नहीं, तब उस चिक के अन्दर से यह बारीक आवाज आई- ‘‘आखिर तुम यहाँ तक क्योंकर पहुँचे?’’
नौजवान : जब मेरी आँखें खुलीं और मैं होश में आया तो अपने को इसी बाग में एक रविश के ऊपर पड़े हुए पाया। उस समय वहाँ कई औरतें मौजूद थीं जिन्होंने मुझसे तरह-तरह के सवाल किए और इसके बाद मुझे इस दीवानखाने में पहुँचा कर वह सब न-मालूम कहाँ चली गईं।
चिक के अन्दर से : अच्छा अब तुम क्या चाहते हो बताओ?
नौजवान : पहिले तो मैं यहाँ के मालिक का परिचय लिया चाहता हूँ।
चिक के अन्दर से : समझ लो कि यहाँ कि मालिक मैं ही हूँ!
नौजवान : मगर यह मालूम होना चाहिए कि आप कौन हैं?
चिक के अन्दर से : मैं एक स्वतंत्र औरत हूँ, यहाँ की रानी कह कर मुझे संबोधन करते हैं।
नौजवान : आपका कोई मालिक या अफसर भी यहाँ नहीं है?
चिक के अन्दर से : मैं एक राजा की लड़की हूँ, मेरा बाप मौजूद है और अपनी रियासत में है, मुझे उसने तिलिस्म के अन्दर कैद कर रक्खा है मगर मैं अपने को यहाँ स्वतन्त्र समझती हूँ और खुश हूँ, दु:ख इतना ही है कि इस तिलिस्म के बाहर मैं नहीं जा सकती।
नौजवान : आपके पिता ने आपको कैद क्यों कर रक्खा है?
चिक के अन्दर से : इसलिए कि मैं शादी करना मंजूर नहीं करती और इसमें वह अपनी बेइज्जती समझता है।
नौजवान : क्या आपका और आपके पिता का नाम मैं सुन सकता हूँ?
‘चिक के अन्दर से : नहीं, पहिले मैं आपका नाम सुनना चाहती हूँ।
नौजवान : मेरा नाम प्रभाकरसिंह है।
चिक के अन्दर से : हैं, क्या आप सच कहते हैं? मुझे विश्वास नहीं होता!!
प्रभाकर : बेशक मैं सच कहता हूँ, झूठ बोलने की मुझे जरूरत ही क्या है?
चिक के अन्दर से : और आपके पिता का नाम क्या है?
प्रभाकर : दिवाकरसिंहजी।
चिक के अन्दर से : आह, क्या यह सम्भव है! फिर भी मैं कहती हूँ मुझे विश्वास नहीं होता!!
प्रभाकर : अगर आपको मेरी बातों पर विश्वास नहीं होता तो लाचारी है, मुझे कोई ऐसी तरकीब नहीं सूझती जिससे मैं आपको विश्वास दिला सकूँ।
चिक के अन्दर से : हाँ मुझे एक तरकीब याद आई है।
प्रभाकर : वह क्या!
चिक के अन्दर से : लड़कपन में गेंद खेलते समय आपको जो चोट लगी थी उसे मैं देखूँगी तो जरूर विश्वास कर लूँगी!
प्रभाकर : (आश्चर्य से) यह बात आपको कैसे मालूम हुई!
चिक के अन्दर से : सो मैं पीछे बताऊँगी।
इतना सुनते ही प्रभाकर सिंह ने अपना कपड़ा उतार दिया और दाहिने मोढ़े के नीचे पीठ पर एक बड़े जख्म का निशान चिक की तरफ दिखा कर कहा, ‘‘यही वह निशान है।’’
इसके जवाब में चिक का परदा उठ गया और एक बहुत ही हसीन औरत उस खिड़की में बैठी हुई प्रभाकरसिंह को दिखाई दी, उसे देखने के साथ ही प्रभाकर सिंह बदहवास से हो गये और उनके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा।
तीसरा भाग : आठवाँ बयान
अब हम थोड़ा हाल जमना, सरस्वती और इन्दुमति का बयान करते हैं। नकली हरदेई अर्थात् रामदास से जमना, सरस्वती और इन्दुमति की तरफ से प्रभाकर सिंह का दिल जिस तरह खट्टा कर दिया था उसे हमारे प्रेमी पाठक अच्छी तरह पढ़ ही चुके हैं, इसके बाद बाबाजी ने जब रामदास का असली भेद खोल कर सच्चाहाल प्रभाकर सिंह को बता दिया तब प्रभाकर सिंह चैतन्य हो गये और समझ गए कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति वास्तव में निर्दोष हैं और उनके बारे में जो कुछ हमने सोचा-समझा और किया वह सब अनुचित था अस्तु प्रभाकरसिंह को अपनी कार्रवाई पर बड़ा खेद हुआ।
यह सब कुछ था परन्तु जमना, सरस्वती और इन्दुमति के दिल पर जो गहरी चोट बैठी चुकी थी उसकी तकलीफ किसी तरह कम न हुई और न उन तीनों को इस बात का पता ही लगा कि किसी बाबाजी ने पहुँच कर हमारी तरफ से प्रभाकर सिंह का दिल साफ कर दिया।
अपने शागिर्द की मदद से प्रभाकर सिंह वाली तिलिस्म किताब पाकर भूतनाथ वहाँ की बहुत-सी बातों का जानकार हो चुका था जो सिर्फ काम चलाने और जरूरी कार्रवाई करने के लिए इन्द्रदेव ने तैयार करके प्रभाकरसिंह को दे दी थी, परन्तु भूतनाथ ऐसे धूर्त और शैतान के लिए वही बहुत थी।
उसी की मदद से भूतनाथ ने अपने कई शार्गिर्दों के साथ उस तिलिस्म के अन्दर पहुँच कर जमना, सरस्वती और इन्दुमति को बेतरह सताया और दु:ख दिया जिसका हाल हम खुलासे तौर पर नीचे लिखते हैं।
ग्रहदशा की सताई हुई जमना, सरस्वती और इन्दुमति को जब भूतनाथ ने तिलिस्मी कूप में ढकेल दिया तो वहाँ उन्हें एक मददगार मिल गया जिसके सबब से तीनों की जान बच गई और उसी आदमी की मदद से वे तिलिस्म के अन्दर किसी कार्यवश स्वतन्त्रता के साथ घूम रही थीं। वह मददगार कौन था और उस कुएं के अन्दर ढकेल देने के बाद उन लोगों की जान क्योंकर बची इसका हाल फिर किसी मौके पर बयान किया जायगा, इस समय हम वहाँ से उन तीनों का हाल बयान करते हैं जहाँ से तिलिस्म के अन्दर प्रभाकरसिंह ने उन तीनों को देखा था।
जमना, सरस्वती और इन्दुमति का जो मददगार था वह बराबर अपने चेहरे पर नकाब डाले रहता था इससे उन तीनों ने उसकी सूरत नहीं देखी थी कि उनका मददगार किस सूरत का और कैसा आदमी है, यही सबब था कि जब भूतनाथ उस तिलिस्म के अन्दर गया तो उसने भी जमना और सरस्वती के मददगार को नहीं पहिचाना, हाँ पहिचानने के लिए उद्योग बराबर करता रहा।
एक दफे जमना ने मददगार से प्रार्थना भी की थी कि अपनी सूरत दिखा दे और अपना परिचय दे, परन्तु नकाबपोश ने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की थी, हाँ इतना जरूर कह दिया था कि तुम लोग मुझे अपने बाप के बराबर समझो और जब कभी संबोधन करने की जरूरत पड़े तो नारायण के नाम से संबोधन किया करो अस्तु अब हम भी आगे चल कर मौका पड़ने पर उसे नारायण ही के नाम से संबोधन किया करेंगे।
जब मन्दिर की जालीदार दीवार के अन्दर से प्रभाकरसिंह ने जमना, सरस्वती और इन्दुमति को देखा था और कुछ रूखी-सूखी बातचीत भी की थी उस समय जो आदमी उन तीनों को मारने के लिए आया था और जिसे हम बेताल के नाम से संबोधन कर चुके हैं, वास्तव में भूतनाथ ही था।
प्रभाकरसिंह को तो उसके हाथ से उन तीनों की रक्षा करने के लिए वहाँ तक पहुँचने में देर लगी परन्तु नारायण ने बहुत जल्द वहाँ पहुँच कर उस शैतान के हाथ से उन तीनों को बचा लिया। नारायण जानते थे कि वह वास्तव में भूतनाथ है और जमना, सरस्वती तथा इन्दुमति को भी शक हो चुका था कि वह भूतनाथ है क्योंकि उससे घंटे भर पहिले वह तीनों से मिल चुका था और अपना विचित्र ढंग दिखला कर अच्छी तरह धमका चुका था। मगर उस समय उसे काम करने का मौका नहीं मिला था। यही सबब था कि उसकी सूरत देखते ही वे तीनों चिल्ला उठीं और बिमला (जमना) ने आँसू गिराते हुए चिल्लाकर प्रभाकरसिंह से कहा था- ‘‘बचाइये, आप जल्दी यहाँ आकर हम लोगों की रक्षा कीजिये, यही दुष्ट हम लोगों के खून के प्यासा है!’’
इसके बाद जब प्रभाकरसिंह दूसरी पहाड़ी पर चढ़ कर ऊपर-ही-ऊपर वहाँ पहुँचे तो देखा कि बैताल अर्थात् भूतनाथ से एक नकाबपोश मुकाबला कर रहा है। यही नकाबपोश नारायण था। नारायण ने वहाँ पहुँच कर उन तीनों औरतों को भाग जाने का इशारा करके भूतनाथ का मुकाबला किया और बड़ी खूबी के साथ लड़ा। जब प्रभाकरसिंह वहाँ पहुँचे और नारायण के कहे मुताबिक जमना, सरस्वती और इन्दुमति के पीछे चले तब पुन: भूतनाथ और नारायण से लड़ाई होने लगी। भूतनाथ का कोई हर्बा नारायण के बदन पर कारगर नहीं होता था बल्कि नारायण के मोढ़े पर बैठ कर भूतनाथ की तलवार टूट चुकी थी, अन्त में नारायण के हाथ से जख्मी होकर भूतनाथ ने मुकाबले से मुंह फेर लिया।
उसे विश्वास हो गया कि अगर थोड़ी देर तक और मुकाबला करूँगा तो बेशक मारा जाऊँगा, अस्तु वह धोखा देकर वहाँ से भाग खड़ा हुआ और नारायण ने भी उसका पीछा किया।
नारायण यद्यपि लड़ाई में भूतनाथ से ज्यादा ताकतवर और होशियार था मगर दौड़ने में उसका मुकाबला किसी तरह नहीं कर सकता था इसलिए भूतनाथ को पकड़ न सका और वह भाग कर नारायण की आँखों की ओट हो गया।
प्रभाकरसिंह ने जमना, सरस्वती और इन्दुमति का पीछा किया। वे तीनों दीवार के दूसरी तरफ चली गईं मगर दरवाजा बन्द हो जाने के कारण प्रभाकरसिंह उसके अन्दर न जा सके।
उसी समय बाहर ही खड़े-खड़े सुना कि सरस्वती से और किसी गैर आदमी से बातचीत हो रही है। गैर आदमी जमना, सरस्वती और इन्दुमति को बदकार साबित किया चाहता था और उसकी बातों से प्रभाकरसिंह के दिल की खटाई और भी बढ़ गई थी। मगर वास्तव में मामला दूसरा ही था। वह आदमी जो प्रभाकरसिंह को सुना-सुना कर सरस्वती से बातें कर रहा था असल में भूतनाथ का एक शागिर्द था और उसका मतलब यही था कि अपनी बातों से प्रभाकरसिंह का दिल जमना, सरस्वती और इन्दुमति की तरफ से फेर दे, साथ ही उसके उस ऐयार ने यह भी चालाकी की थी कि अपनी सूरत में उन औरतों के पास न जाकर उसने एक जमींदार की सूरत बनाई थी और बातचीत करने के बाद बिना किसी तरह की तकलीफ दिए जमना, सरस्वती और इन्दुमति के सामने से चला गया।
इसके बाद प्रभाकरसिंह स्वयं जमना, सरस्वती और इन्दुमति से जाकर मिले और जिस तरह से बातचीत करके इन्दु का परित्याग किया आप लोग पढ़ ही चुके हैं, अब हमें इस जगह केवल उन औरतों ही का हाल लिखना है।
जब प्रभाकरसिंह इन्दुमति का त्यागकर उन तीनों के सामने से चले गए तब इन्दुमति बहुत ही उदास हुई और देर तक बिलख-बिलखकर रोती रही। अन्त में उसने जमना से कहा, ‘‘बहिन, अब मेरे लिए जिन्दगी अपार हो गई, जब पति ने ही मुझे त्याग कर दिया तब इस पापमय शरीर को लेकर इस दुनिया में रहना और चारों तरफ मारे-मारे फिरना मुझे पसन्द नहीं, अस्तु मैं इस शरीर को इसी जगह त्याग कर बखेड़ा तै करूँगी।’’
जमना : नहीं बहिन, तुम इस काम में जल्दी मत करो और इस तरह यकायक हताश भी मत हो जाओ। मालूम होता है कि किसी दुश्मन ने उन्हें भड़का दिया है और इसी से उनका मिजाज बदल गया है। मगर यह बात बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सकती। धर्म हमारी सहायता करेगा और एक-न-एक दिन असल भेद खुल जाने से वे अपने लिए पश्चात्ताप करेंगे।
इन्दुमति : मगर बहिन, मैं कब तक उस दिन का इन्तजार करूँगी?
जमना : इन बातों का फैसला बहुत जल्द हो जायगा, हम लोगों को ज्यादे इन्तजार न करना पड़ेगा।
इन्दुमति : खैर अगर तुम्हारी बात मान ली जाय तो भी दुश्मन के हाथ से बचे रहने की क्या तरकीब हो सकती है जो बार-बार हम लोगों का पीछा करके भी शान्त नहीं होता। अगर नारायण की मदद न होती तो वह….
इन्दुमति इसके आगे कुछ कहने ही को थी कि उसने सामने से अपने मददगार नारायण को आते देखा। इस समय नारायण की पीठ पर एक गठरी थी जिसमें कोई आदमी बंधा था।
नारायण तेजी के साथ कदम बढ़ाता हुआ जमना, सरस्वती और इन्दुमति के पास आया। गठरी जमीन पर रख तथा अपना परिचय देकर इन्दुमति से बोला, ‘‘इन्दु, मुझे मालूम हो गया है कि तेरे दुश्मनों ने तुझे, बल्कि जमना-सरस्वती को भी व्यर्थ बदनाम किया है और तुम लोगों की तरफ से प्रभाकरसिंह का दिल फेर दिया है। यह काम भूतनाथ के खास ऐयार का है जिसने हरदेई की सूरत बनकर तुमको और प्रभाकरसिंह को धोखा दिया। आजकल में जरूर उसकी खबर लूँगा। इस समय मैं तुम्हारे जिस दुश्मन से लड़ रहा था वह वास्तव में ही भूतनाथ था।’’
इन्दुमति : (ताज्जुब से बात काटकर) क्या वह भूतनाथ है? मगर इस तिलिस्म के अन्दर वह क्योंकर आ पहुँचा?
नारायण : हाँ, वह भूतनाथ ही है। इन्द्रदेव ने प्रभाकरसिंह को हाथ की लिखी हुई एक छोटी-सी किताब दी थी, उसी किताब को पढ़कर प्रभाकरसिंह इस तिलिस्म के अन्दर आये थे, भूतनाथ के उसी ऐयार ने जो हरदेई बना हुआ था धोखा देकर वह किताब प्रभाकरसिंह की जेब से निकाली और अपने गुरु भूतनाथ को दे आया। उस किताब की मदद से भूतनाथ इस तिलिस्म के अन्दर आ पहुँचा है और तुम तीनों को तथा प्रभाकरसिंह को मारने का उद्योग कर रहा है। खैर कोई चिन्ता नहीं जहाँ तक हो सकेगा मैं तुम लोगों की मदद करूँगा।
अफसोस इसी बात का है कि इस समय मैं यहाँ अकेला हूँ मगर भूतनाथ अपने कई ऐयारों को साथ लेकर आया हुआ है और तुम लोगों की मदद करते हुए इस समय मुझे इतनी फुरसत नहीं है कि घर जाकर अपने आदमियों के ले आऊँ या इन्द्रदेव को ही इस मामले की खबर करूँ, अगर चार पहर की भी मोहलत मिल जाय तो मैं इन्द्रदेव को खबर पहुँचा सकता हूँ, वह अगर यहाँ आ जायगा तो फिर किसी दुश्मन के लिए कुछ न हो सकेगा।
इन्दु० : तो हम लोगों को आप अपने साथ इन्द्रदेव के पास क्यों नहीं ले चलते?
नारायण : हाँ, तुम लोगों को मैं अपने साथ वहाँ ले जा सकता हूँ मगर प्रभाकरसिंह की मदद भी तो करनी है। अगर उन्हें इसी अवस्था में छोड़कर तुम लोगों को साथ लेकर चला जाऊँ तो भूतनाथ का ऐयार उन्हें जरूर मार डालेगा क्योंकि वह अभी हरदेई की सूरत में है और प्रभाकरसिंह उस पर विश्वास करते हैं।
जमना : तो उन्हें इस मामले की खबर कर देनी चाहिए।
नारायण : मैं इसी फिक्र में हूँ। तुम्हारे जिस दुश्मन से मैं लड़ रहा था वह अर्थात् भूतनाथ जख्मी होकर मेरे सामने से भाग गया, मैं उसी के पीछे दौड़ा हुआ चला गया था मगर उसे पकड़ न सका क्योंकि बीच में उसका एक शार्गिद पहुँच गया और उसने मेरा मुकाबला किया। अन्त में वह मेरे हाथ से मारा गया। मैं उसी को इस गठरी में बाँध लाया हूँ।
अब इसी जगह चिता बनाकर इसे फूँक दूँगा, इसके बाद तुम लोगों को यहाँ से ले चलूँगा और किसी अच्छे ठिकाने बैठाकर प्रभाकरसिंह के पास जाऊँगा। अब ज्यादे देर तक बातचीत करना मैं मुनासिब नहीं समझता क्योंकि काम बहुत करना है और समय कम है, तुम लोग मेरी मदद करो और जल्दी से लकड़ी बटोर कर चिता बनाओ।
बात-की-बात चिता तैयार हुई और नारायण ने उस ऐयार की लाश को चिता पर रख कर आग लगा दी। थोड़ी देर तक इन्दुमति खड़ी उस चिता की तरफ देखती और कुछ सोचती रही, इसके बाद नारायण से बोली, ‘‘आपके बगल में बटुआ लटक रहा है, इससे मालूम होता है कि आप भी कोई ऐयार हैं, अगर मेरा खयाल ठीक है तो आपके पास लिखने का सामान भी जरूर होगा!’’
नारायण : हाँ-हाँ, मेरे पास लिखने का सामान है, क्या तुमको चाहिए?
इन्दुमति : जी हाँ, कागज का एक टुकड़ा कलम- दावात चाहिए।
नारायण ने अपने बटुए में से कागज का टुकड़ा और स्याही से भरी हुई एक सोने की जड़ाऊ कलम निकाल कर इन्दु को दी, इन्दु ने उसी कागज पर कुछ लिखा और अपने आँचल में से कपड़े का टुकड़ा फाड़ कर उससे उसी कागज को बाँध कर एक तरफ फेंक दिया। यही वह चीठी थी जो प्रभाकरसिंह को उस चिता के पास मिली थी।
इन्दुमति ने उस पुर्जे में क्या लिखा है सो इस समय इसने किसी से न बताया और न किसी ने उससे पूछा ही, हाँ कुछ देर बाद उसने यह भेद कला और बिमला पर खोल दिया।
जमना, सरस्वती और इन्दु को साथ लिए हुए नारायण वहाँ से रवाना हुए। वे उस तरफ नहीं गए जिस तरफ़ दीवार थी बल्कि उसके विपरीत दूसरी तरफ़ रवाना हुए। थोड़ी दूर जाने के बाद उन लोगों को जंगल मिला, वे लोग जंगल में चले गये। क्रमश: वह जंगल घना मिलता गया यहाँ तक कि लगभग दो कोस के जाते वे लोग एक ऐसी भयानक जगह में जा पहुँचे जहाँ बारीक-बारीक सैकड़ों पगडंडियाँ थीं और उनमें से अपने मतलब का रास्ता निकाल लेना बड़ा ही कठिन था मगर तीनों औरतों को लिए हुए नारायण अपने रास्ते पर इस तरह चले जाते थे मानों उन्हें सिवाय एक रास्ते या पगडण्डी के कोई दूसरी पगडण्डी दिखाई देती नहीं थी।
उस भयानक जंगल में थोड़ी दूर चले जाने के बाद उन्हें ढालवीं जमीन मिली और वे लोग पहाड़ी के नीचे उतरने लगे। जंगल पतला होता गया और वे लोग क्रमश: मैदान की हवा खाते हुए नीचे की तरफ जाने लगे।
लगभग आधा घण्टे और चले जाने के बाद वे लोग खूबसूरत मकान के पास पहुँचे जो बड़ी ऊँची चहारदीवारी से घिरा हुआ था और अन्दर जाने के लिए सिर्फ पूरब तरफ एक बहुत बड़ा लोहे का फाटक था।
वह मकान यद्यपि बाहर से देखने में खूबसूरत और शानदार मालूम होता था मगर उसके अन्दर एक सहन और दस-बारह कमरे तथा कोठरियों के सिवाय और कुछ भी न था। मकान क्या मानों कोई महाराजी धर्मशाला था।
मकान के चारों तरफ बाग था मगर इस समय उसकी अवस्था जंग की सी दिखाई दे रही थी। उसके चारों तरफ ऊँची चारदीवारी थी मगर वह भी कई जगह से मरम्मत के लायक हो रही थी।
तीनों औरतों को साथ लिए नारायण उस चारदीवारी के अन्दर घुसे और इधर-उधर देखते हुए उस इमारत के अन्दर चले गये जहाँ एक कमरे के अन्दर जाकर वे जमना से बोले, ‘‘देखो जमना, यह बाग के अन्दर जाने का दरवाजा है। इस मकान में जितने कमरे हैं उन सभी को कहीं-न-कहीं जाने का रास्ता समझना चाहिए। मैं तुम लोगों को जिस स्थान में ले जाना चाहता हूँ वहाँ का रास्ता यही है।
मैं इस दरवाजे का भेद तुमको दिखा और समझा देना चाहता हूँ जिसमें यहाँ से जाने-आने के लिए तुम किसी की मुहताज न रहो। भूतनाथ जिस किताब को पाकर फूल रहा है और जिसकी मदद से वह इस तिलिस्म के अन्दर चला आया है उस किताब में इस इमारत का हाल कुछ भी नहीं लिखा है इसलिए समझ रखना कि भूतनाथ इसके अन्दर आकर तुम लोगों को सता नहीं सकता। (सामने की दीवार की तरफ इशारा करके) देखो दीवार में जो वह अलमारी दिखाई देती है वही यहाँ से जाने का रास्ता है। इसमें एक ही पल्ला है और खैंचने के लिए मुट्ठा लगा हुआ है, इसी मुट्ठे को चाभी समझना चाहिए। और देखो उस अलमारी के ऊपर क्या लिखा हुआ है?’’ इतना कह कर नारायण ठहर गए और जमना का मुँह देखने लगे जो उन हरूफों को बड़े गौर से देख रही थी। इन्दुमति आगे बढ़ गई और उसने उन अक्षरों को पढ़कर नारायण को सुनाया। यह लिखा हुआ था-
दक्षिण श्रृषि वसु वाम, पुनरपि चन्द्रादित्य इमि
पुनि इमि गनहुँ सुजान, जौलों वेद न पूरहीं।
नारायण : ठीक है, यही लिखा हुआ है, अच्छा बताओ इसका मतलब क्या है?
इन्दुमति : मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया, चाहे शब्दों का अर्थ कुछ निकाल सकूँ मगर यह लिखा क्या है सो आप जानिए।
नारायण : यह इस दरवाजे को खोलने के विषय में लिखा है। इसका मतलब यह है कि इस मुट्ठे को (जो दरवाजे में लगा हुआ है) सात दफे दाहिने, आठ दफे बायें, फिर एक दफे दाहिने और बारह दफे बाएँ घुमाओ, इस तरह चार दफे करो तो दरवाजा खुल जायगा।
जमना : (कुछ देर तक उस लेख पर गौर करके) ठीक है, इस लेख का यही मतलब है, मगर पढ़ने वाला यह कैसे जान सकेगा कि यह लेख इसी मुट्ठे को घुमाने के विषय में लिखा है?
नारायण : यह बात होशियार आदमी अपनी अक्ल से समझ सकता है, तिलिस्म बनाने वाले बिल्कुल साफ-साफ तो लिखेंगे नहीं।
जमना: ठीक है।
नारायण : अच्छा तो अब आगे बढ़ो और अपने हाथ से दरवाज़ा खोलो।
नारायण की आज्ञानुसार जमना ने ऊपर लिखे ढंग से मुट्ठे को घुमाया। दरवाजा खुल गया और नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ दिखाई दीं। सामने एक आला था और उसमें एक छोटा-सा पीतल का सन्दूक रक्खा हुआ था जिसमें किसी तरह का ताला लगा हुआ न था। नारायण ने वह सन्दूक खोल कर सभों को दिखाया कि इसमें रोशनी करने का काफी सामान मौजूद है अर्थात कई मोमबत्तियाँ और चकमक पत्थर वगैरह उसमें मौजूद हैं।
एक मोमबत्ती जलाई गई और उसी की रोशनी के सहारे दरवाजा बन्द करने के बाद सब कोई नीचे उतरे। जिस तरह दरवाजा खुलता था उसी ढंग से बन्द भी होता था और यह बात दरवाजे के पिछली तरफ लिखी हुई थी।
कई सीढ़ियाँ नीचे उतर जाने के बाद एक सुरंग मिली। ये चारों आदमी सुरंग के अन्दर चले गये और सुरंग जब खत्म हुई तो सब कोई एक सरसब्ज मैदान में पहुँचे जहाँ दूर तक खुशनुमा पहाड़ी गुलबूटे लगे हुए थे और एक छोटा-सा सुन्दर मकान भी मौजूद था जिसके आगे छोटा-सा झरना बह रहा था और झरने के किनारे बहुत-से केले के दरख्त लगे हुए थे जिनमें कच्चे और पक्के सभी तरह के फल मौजूद थे।
नारायण ने जमना, सरस्वती और इन्दुमति से कहा, ‘‘अब दो-तीन दिन तक तुम लोग इसी मकान में रहो तब तक मैं जाकर देखता हूँ कि नकली हरदेई और प्रभाकरसिंह में क्योंकर निपटी। नकली हरदेई की तरफ से उन्हें होशियार कर देना बहुत जरूरी है। (एक छोटी-सी किताब जमना के हाथ में देकर) लो इस किताब को तुम तीनों अच्छी तरह पढ़ जाओ और जहाँ तक हो सके खूब याद कर लो। इसमें उससे ज्यादे हाल लिखा है जो इन्द्रदेव ने तुम्हें बताया है या उस किताब में लिखा हुआ है जो प्रभाकरसिंह के हाथ से निकल कर भूतनाथ के कब्जे में चली गई है।’’
इतना कह कर नारायण वहाँ से चले गए।
तीसरा भाग : नौवाँ बयान
जमानिया में आधी रात के समय तिलिस्मी दारोगा १ अपने मकान में बैठा किसी विषय पर विचार कर रहा है। उसके सामने कई तरह के कागज और चीठियों के लिफ़ाफे फैले हुए हैं, जिनमें से एक चीठी को यह बार-बार उठ कर गौर से देखता और फिर जमीन पर रख कर सोचने लगता है। दारोगा के बगल में सट कर एक कमसिन खूबसूरत और हसीन औरत बैठी हुई है। उसके कपड़े और गहने के ढंग तथा भाव से मालूम होता है कि वह बाबाजी (दारोगा) की स्त्री या गृहस्थ औरत नहीं है बल्कि कोई वेश्या है जो कि तिलिस्मी दारोगा अर्थात् बाबाजी से कोई घना संबंध रखती है। (१. तिलिस्मी दारोगा का परिचय चन्द्रकान्ता सन्तति में दिया जा चुका है। इस समय बेईमान कुँअर गोपालसिंह के बाप राजा गिरधरसिंह का खास मुसाहब था और दीवानी के काम में भी दखल दिया करता था।)
एक चीठी पर कुछ देर तक विचार करने के बाद दारोगा ने उस औरत की तरफ देखा और कहा– ‘‘बीवी मनोरमा, वास्तव में यह चीठी गदाधरसिंह के हाथ जरूर लिखी हुई है। इस चीठी को देकर तुमने मुझ पर बड़ा अहसान किया, अब वह जरूर कब्जे में आ जायगा। मैं उसे अपना साथी बनाने के लिए बहुत दिनों से उद्योग कर रहा हूँ पर वह मेरे कब्जे में नहीं आता था, मगर अब उसे भागने की जगह न रहेगी।
मनोरमा : (मुस्कुराती हुई) ठीक है, मगर मैं अफसोस के साथ कहती हूँ कि इस चीठी को जो गदाधरसिंह के हाथ की लिखी हुई है बल्कि उसकी लिखी हुई और चीठियों को भी जो आपके सामने पड़ी हुई हैं और जबर्दस्ती नागर से ले आई हूँ आज ही वापस ले जाऊँगी क्योंकि नागर से तुरन्त ही वापस कर देने का वादा करके ये चीठियाँ आपको दिखाने के लिए मैं लाई थी।
दारोगा : (कुछ उदास चेहरा बना के) ऐसा करने से मेरा काम नहीं चलेगा।
मनोरमा : चाहे जो कुछ हो, आपने भी तो तुरन्त वापस देने का वादा किया था।
दारोगा : ठीक है, मगर अब जो मैं देखता हूँ तो इन चीठियों की बदौलत मेरा बहुत काम निकलता दिखाई देता है।
मनोरमा : तो आप क्या चाहते हैं कि मैं नागर से झूठी बनूँ और वह मुझे दगाबाज कह के दुश्मनी की निगाह से देखे जिसे मैं अपनी बहिन से भी ज्यादा बढ़ कर मानती हूँ।
दारोगा : नहीं नहीं, ऐसा क्यों होने लगा, जब तुम उसे बहिन से बढ़ कर मानती हो और वह भी तुम्हें ऐसा ही मानती है तो क्या वह दो-तीन चीठियाँ तुम्हारी खुशी के लिए नहीं दे सकती और तुम मेरी खुशी के लिए उन्हें मेरे पास नहीं छोड़ सकतीं?
मनोरमा : नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। गदाधरसिंह और नागर में बहुत गहरी मुहब्बत का बर्ताव है, क्या उसे आप मेरे ही हाथ से खराब कराना चाहते हैं?
दारोगा : नहीं नहीं, मैं ऐसा नहीं चाहता, अगर तुम और नागर चाहोगी तो गदाधरसिंह की मुहब्बत का सिलसिला ज्यों-का-त्यों कायम रहेगा।
मनोरमा : क्या खूब! आप भी कैसी भोली-भोली बातें करते हैं! इन्हीं चीठियों को दिखा कर तो आप गदाधरसिंह को अपने कब्जे में किया चाहते हैं और फिर कहते हैं कि इन चीठियों के बारे में गदाधरसिंह को कुछ भी खबर न होगी कि वे आपके कब्जे में आ गई हैं।
दारोगा : (शर्मिन्दा होकर) तुम जानती हो कि मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूँ और किस तरह तुम्हारे लिए जान तक देने को तैयार हूँ।
मनोरमा : मैं खूब जानती हूँ और इसीलिए आपकी खातिर इन चीठियों को थोड़ी देर के लिए नागर से माँग लाई हूँ नहीं तो क्या गदाधरसिंह की शैतानी और उद्दण्डता को नहीं जानती! वह बात-की-बात में बिगड़ खड़ा होगा और मुझको तथा नागर को जहन्नुम में मिला देगा, बल्कि मैं जहाँ तक समझती हूँ इन चीठियों का भेद खुलने से वह आपका दुश्मन हो जायगा।
दारोगा : नहीं, ऐसा नहीं है, इन चीठियों का भेद खुलने से यद्यपि वह हम लोगों का दुश्मन हो जायगा मगर वह हम लोगों को तब तक तकलीफ़ न दे सकेगा जब तक ये चीठियाँ पुन: लौट कर उसके कब्जे में न चली जायें। मगर ऐसा होना बिल्कुल ही असम्भव है, इन चीठियों को ऐसी जगह रक्खूँगा कि उसके देवता को भी पता न लगने पावेगा।
मनोरमा : यह सब आपका खयाल है। आपने सुना नहीं कि जब बिल्ली मजबूर होती तब कुत्ते के ऊपर हमला करती है। न-मालूम नागर के ऊपर गदाधरसिंह को कितना भरोसा है कि ये सब खबरें गदाधरसिंह ने नागर को लिखीं, नहीं तो भूतनाथ ऐसे होशियार आदमी को ऐसी भूल न करनी चाहिए थी। इन चीठियों को पढ़ करके एक अदना आदमी भी समझ सकता है कि दयाराम का घातक गदाधरसिंह ही है और वही अब उनकी जमना, सरस्वती नाम की दोनों स्त्रियों को मारना चाहता है।
क्या ऐसी चीठी का प्रकट हो जाना गदाधरसिंह के लिए कोई साधारण बात है? और ऐसा होने पर वह नागर को जीता छोड़ देगा?
कदापि नहीं। इसके अतिरिक्त अभी तो चीठियों का सिलसिला जारी ही है और वह जमना तथा सरस्वती को मारने के लिए तिलिस्म के अन्दर घुसी ही है, आगे चलकर देखिए कि कैसी-कैसी चीठियाँ आती हैं और उनमें क्या-क्या खबरें वह लिखता है। सिर्फ इन्हीं दो-चार चीठियों पर अभी आप क्यों इतना फूल रहे हैं?
दारोगा इसका जवाब कुछ दिया ही चाहता था कि दरवाजे की तरफ से घंटी बजने की आवाज आई। उसके जवाब में दारोगा ने भी एक घंटी बजाई जो उसके पास पहिले ही से रक्खी हुई थी। एक लड़का लपकता हुआ दारोगा के सामने आया और बोला, ‘‘गदाधरसिंह आये हैं, दरवाजे पर खड़े हैं।’’
लड़के की बात सुनकर दारोगा ने मनोरमा की तरफ देखा और कहा, ‘‘आया तो है बड़े मौके पर!’’
‘‘मौके पर नहीं बल्कि बेमौके!’’ इतना कह कर मनोरमा ने वे चीठियाँ दारोगा के सामने से उठा लीं जो गदाधरसिंह के हाथ की लिखी हुई थीं या जिनके बारे में बड़ी देर से बहस हो रही थी, और यह कहकर उठ खड़ी हुई कि, ‘‘मैं दूसरे कमरे में जाती हूँ, उसे बुलाइये मगर मेरे यहाँ रहने की उसे खबर न होने पावे!’
तीसरा भाग : दसवाँ बयान
गदाधरसिंह को लेने के लिए दारोगा खुद दरवाजे तक गया और बड़े आवभगत के साथ अपनी बैठक में ले आया। मामूली बातचीत और कुशल-मंगल पूछने के बाद दोनों में इस तरह की बातचीत होने लगी-
दारोगा : मैंने आपके घर आदमी भेजा था मगर वह मुलाकात न होने के कारण सूखा ही लौट आया और उसी की जुबानी मालूम हुआ कि आप कई दिनों से किसी कार्यवश बाहर गए हुए हैं।
गदाधर : ठीक है, मैं कई दिनों से अपने घर पर नहीं हूँ, मगर आपको आदमी भेजने की जरूरत क्यों पड़ी?
दारोगा : आप जानते हैं कि मैं जब किसी तरद्दुद में पड़ जाता हूँ तब सब से पहिले आपको याद करता हूँ क्योंकि मेरे दोस्तों में सिवाय आपके कोई भी ऐसा लायक और हिम्मतवर नहीं है जो समय पर मेरी मदद कर सके।
गदाधर : कहिए क्या काम है? मैं आपके लिए हर वक्त तैयार रहता हूँ और आपसे भी बहुत उम्मीद रखता हूँ। मैं सच कहता हूँ कि आपकी दोस्ती का मुझे बहुत बड़ा घमण्ड है और यही सबब है कि मैं इस समय आपके पास आया हूँ क्योंकि इधर महीनों से मैं सख्त मुसीबत में गिरफ्तार हो रहा हूँ, अगर मेरी इस मुसीबत का शीघ्र अन्त न होगा तो मुझे इस दुनिया से एकदम अन्तर्ध्यान हो जाना पड़ेगा।
दारोगा : आपने तो बड़े ही तरद्दुद की बात सुनाई! कहिए तो सही क्या मामला है?
गदाधर : पहिले आप ही कहिए कि मुझे क्यों याद किया था?
दारोगा : नहीं पहिले मैं आपका हाल सुन लूँगा तो कुछ कहूँगा।
गदाधर : नहीं, पहिले आपका हाल सुने बिना कुछ भी नहीं बताऊँगा।
दारोगा : अच्छा पहिले मेरी ही राम कहानी सुन लीजिए। आप जानते ही हैं कि शहर के आसपास ही में कोई कमेटी १ है जिसके स्थान का सभासदों को कुछ भी पता नहीं लगता। (१. इस कमेटी का हाल चन्द्रकांता सन्तति में लिखा जा चुका है। इसी कमेटी का हाल इन्दिरा ने अपने किस्से में दोनों कुमारों से बयान किया था।)
गदाधर : हाँ मैं सुन चुका हूँ, (मुस्कराकर) मगर मेरा तो ख्याल है कि आप भी उसी कमेटी के मेम्बर हैं।
दारोगा : हरे-हरे, आप अच्छी दिल्लगी करते हैं, भला जिस राजा की बदौलत मैं इस दर्जे को पहुँच रहा हूँ और इतना सुख भोग रहा हूँ उसी के विपक्ष में हुई किसी कमेटी का मेम्बर हो सकता हूँ? आज भी अगर मुझे उस कमेटी का पता लग जाय और सभासदों का नाम मालूम हो जाय तो मैं एक-एक को चुन कर कुत्ते की मौत मारूँ और कलेजा ठंडा करूँ!
गदाधर : (मुस्कराता हुआ) कदाचित् ऐसा ही हो। मगर इस विषय में आप मुझसे बहस न कीजिए, अपना हाल कहिए। मैं उस कमेटी का हाल अच्छी तरह जानता हूँ।
दारोगा : (जिसका चेहरा गदाधरसिंह की बातों से कुछ फीका पड़ गया था) आप ही की तरह हमारे महाराज के छोटे भाई शंकरसिंहजी को भी उस कमेटी के विषय में मुझ पर शक पड़ गया है। उनका भी यह कथन है कि मैं उस कमेटी का मेम्बर हूँ।
गदाधर : ठीक है, शंकरसिंहजी बड़े ही होशियार और बुद्धिमान आदमी हैं आपके महाराज की तरह बोदे और बेवकूफ नहीं है जिन्हें आप मदारी के बन्दर की तरह जिस तरह चाहते हैं नचाया करते हैं।
दारोगा : बेशक वे बहुत होशियार और तेज आदमी हैं मगर मुझे विश्वास हो गया है कि वे मेरी जड़ खोदने के लिए तैयार हैं। यद्यपि मैं अपने को चालाक और धूर्त लगाता हूँ मगर सच कहता हूँ कि शंकर सिंह जी का मुकाबला किसी तरह नहीं कर सकता।
तिलिस्म के विषय में भी जितनी जानकारी उनको है उतनी हमारे महाराज को नहीं है, कुंवर गोपालसिंहजी को भी वह हद से ज्यादे प्यार करते हैं। अभी थोड़े दिन का जिक्र है कि स्वयम् मुझे लाल-लाल आँखें करके धमका चुके हैं और कह चुके हैं कि देख दारोगा, होशियार हो जा, अपने राजा के भरोसे पर भूला न रहियो। मैं बहुत जल्द साबित कर दूँगा कि तू उस कमेटी का मेम्बर है और इसके बाद तुझे सूअर के गलीज में रख कर फुँकवा दूँगा। खबरदार, मेरे धमकाने के हाल भाईसाहब से कदापि न कहियो नहीं तो दुर्दशा का दिन…..’
गदाधरसिंह : इससे मालूम होता है कि आपकी उस गुप्त कमेटी का हाल उन्हें मुझसे ज्यादा मालूम हो चुका है, ऐसी अवस्था में आपको चाहिए कि उन्हें इस दुनिया से उठाकर हमेशा के लिए निश्चिन्त हो जाइए नहीं तो उनका जीते रहना आपके लिए सुखदाई न रहेगा।
दारोगा : (कुछ देर तक आश्चर्य से भूतनाथ का मुँह देख कर) क्या यह बात आप हमदर्दी के साथ कह रहे हैं?
गदाधर : बेशक, मैं आपसे दिल्लगी नहीं करता।
दारोगा : अगर मैं ऐसा करने के लिए तैयार हो जाऊँ तो जरूरत पड़ने पर क्या आप मेरी मदद करेंगे?
गदाधर : जरूर मदद करूँगा मगर शर्त यह है कि आप अपना कोई भेद मुझसे छिपाया न करें।
दारोगा : मैं तो अपना कोई भेद आपसे नहीं छिपाता और भविष्य के लिए भी कहता हूँ कि न छिपाऊँगा।
गदाधर : बेशक आप छिपाते हैं।
दारोगा : नमूने के तौर पर कोई बात कहिये?
गदाधर : पहिले तो इस कमेटी के विषय में ही देख लीजिए, आज तक आपने इस विषय में मुझसे कुछ कहा?
दारोगा : (कुछ देर तक सिर नीचा करके सोच के) अच्छा मैं अपनी भूल स्वीकार करता हूँ और कसम खाकर एकरार करता हूँ कि इस कमेटी का भेद और स्थान तुमको बता दूँगा।
गदाधर : मैं भी कसम खाकर एकरार करता हूँ कि हर एक काम में आपकी मदद तब तक करता रहूँगा जब तक आप मेरे साथ या मेरे दोस्त इन्द्रदेव के साथ किसी तरह की दगाबाजी न करेंगे।
दारोगा : मैं आपके इस एकरार से बहुत ही प्रसन्न हुआ, मगर आश्चर्य की बात है कि आपने अपने साथ-ही-साथ इन्द्रदेव को शरीक कर लिया! मैं खूब जानता हूँ कि आजकल इन्द्रदेव आपके साथ दोस्ती का बर्ताव नहीं करता। यद्यपि वह मेरा गुरुभाई है और मैं भी उसका भरोसा करता हूँ मगर बात जो वाजिब है वह कहने में आती है।
गदाधर : इन्द्रदेव की बातों को आप नहीं समझ सकते खास करके मेरे संबंध में, यों तो आपने जो कुछ देखा या सुना हो मगर मैं इन्द्रदेव पर भरोसा रखता हूँ। मेरी और उनकी दोस्ती का अन्त सिवाय मौत के और कोई नहीं कर सकता।
दारोगा : खैर, कह चुका हूँ कि वह मेरा गुरुभाई है मैं उसका भरोसा रखता हूँ। ऐसी अवस्था में मैं भला उसके साथ क्या दुश्मनी कर सकता हूँ, अच्छा अब आप अपने तरद्दुद का हाल बयान करिये कि आजकल आप किस मुसीबत में फँसे हैं।
गदाधर : मेरी मुसीबत को बढ़ाने वाले भी आपके शंकरसिंह ही हैं और कुछ-कुछ इन्द्रदेव ने भी चांड लगा रक्खी है, मगर मैं इसके लिए इन्द्रदेव को बदनाम नहीं कर सकता क्योंकि जिसकी वे मदद कर रहे हैं वे खास रिश्तेदार और आपस वाले लोग हैं।
दारोगा : अगर यह बात है तो आपको भी जरूर शंकरसिंह से दुश्मनी हो गई होगी?
गदाधर : नि:सन्देह।
दारोगा : अच्छा खुलासा तो कहिए।
गदाधर : बात वही पुरानी है- दयाराम वाली।
दारोगा : (आश्चर्य से) क्या यह बात प्रसिद्ध हो गई कि आप दयाराम के घातक हैं?
गदाधर : अगर प्रसिद्ध हो नहीं गई तो कुछ दिन बाद प्रसिद्ध हो जाने में कुछ सन्देह भी नहीं रहा, क्योंकि दयाराम की दोनों स्त्रियाँ जिन्हें तमाम जमाना मुर्दा समझे हुए था जीती-जागती पाई गई हैं और उन्हें इस बात का विश्वास है कि उनके पति को गदधरसिंह ने मारा है यद्यपि वह बात बिल्कुल निर्मूल है…
दारोगा : (बात काटकर आश्चर्य से) क्या वास्तव में दयाराम की दोनों स्त्रियाँ अभी तक जीती हैं? फिर उनके मरने की गप्प किसने और क्यों उड़ाई?
गदाधर : यह सब तिलिस्म इन्द्रदेव के ही बाँधे हुए हैं और अब उन दोनों की मदद भी इन्द्रदेव ही कुछ-कुछ कर रहे हैं, मगर बीच में शंकरसिंह का कूद पड़ना मेरे लिए बड़ा ही दु:खदाई हो रहा है।
इन्द्रदेव की मदद तो नाममात्र ही के लिए थी, मगर ये हजरत जी छोड़ कर उन दोनों की मदद कर रहे हैं और मुझे जहन्नुम में मिलाने के लिए तैयार हैं, क्या करें, तिलिस्म के अन्दर की बात है नहीं तो मैं दिखा देता कि गदाधरसिंह के साथ दुश्मनी करने का नतीजा कैसा होता है।
दारोगा : यह तो बड़ा ही नाजुक मामला निकला… .
इसके बाद कुछ कहता-कहता दारोगा रुक गया क्योंकि उसे यह बात याद आ गई कि मनोरमा इसी जगह दूसरी कोठरी में छिपी हुई हम लोगों की बातें सुन रही है। सम्भव है कि दारोगा इसके आगे की बातचीत मनोरमा से छिपाना चाहता हो, अस्तु धीरे-धीरे से गदाधरसिंह से कुछ कह आँख का इशारा करने के बाद वह उठ खड़ा हुआ और गदाधरसिंह का हाथ पकड़े हुए दूसरे कमरे में चला गया।
तीसरा भाग : ग्यारहवाँ बयान
जमना सरस्वती और इन्दुमति तिलिस्म के अंदर (जहाँ नारायण उन्हें रख गये थे) बैठी हुई आपस में कुछ बातें कर रही हैं। यद्यपि रात आधी से कुछ ज्यादे ढल चुकी है परन्तु चन्द्रमा की किरणों द्वारा फैली चाँदनी के कारण दूर-दूर तक की चीजें बखूबी दिखाई दे रही हैं और पहाड़ी छटा का एक अपूर्व आनन्द मिल रहा है। बातें करती हुई जमना की निगाह उस तरफ़ जा पड़ी जिधर से झरने का पानी बड़ी सफाई के साथ बहता हुआ जा रहा था और ऐसा मालूम होता था कि तिलिस्मी कारीगिरी ने इस पानी के ऊपर भी चांदी की कलई चढ़ा दी है। किसी आदमी की आहट पाकर जमना चौकी और बोली, ‘‘बहिन, देखो तो सही वह क्या है? मैं समझती हूँ कि कोई आदमी है।’’
इन्दुमति : मुझे भी ऐसा ही मालूम होता है।
सरस्वती : यद्यपि किसी आदमी का यहाँ तक आ पहुँचना असम्भव है परन्तु मैं यह भी नहीं कह सकती कि यह आदमी नहीं कोई जानवर है।
जमना : (जोर देकर) बेशक आदमी है!!
इन्दुमति : देखो इसी तरफ चला आ रहा है, कुछ इधर आ जाने से सब साफ मालूम होता है कि आदमी है, जरा रुककर दबकता और आहट लेता हुआ आ रहा है, इससे मालूम होता है कि हमारा दोस्त नहीं बल्कि दुश्मन है। देखो यह मेरी दाहिनी आँख फड़की, ईश्वर ही कुशल करे। (रुक कर) बहिन, वह देखो उसके पीछे और भी एक आदमी मालूम पड़ता है।
सरस्वती : (अच्छी तरह देख कर) हाँ ठीक तो है, दूसरा आदमी भी साफ मालूम पड़ता है, आश्चर्य नहीं कि कोई और भी दिखाई दे! बहिन, मुझे भी खुटका होता है और दिल गवाही देता है कि ये आने वाले हमारे दोस्त नहीं बल्कि दुश्मन हैं।
जमना : बेशक ऐसा ही है, अब इनके मुकाबले के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
इन्दुमति : इनसे मुकाबला करना मुनासिब होगा या भाग कर अपने को छिपा लेना? लो अब तो वे बहुत नजदीक आ गये और मालूम होता है कि उन्होंने हम लोगों को देख भी लिया।
जमना : बेशक उन लोगों ने हमें देख लिया, चलो हम लोग भाग कर मकान के अन्दर चलें और दरवाज़ा बन्द कर लें, मुकाबला करना ठीक न होगा।
इतना कह कर जमना मकान की तरफ तेजी के साथ चल पड़ी। सरस्वती तथा इन्दुमति ने भी उसका साथ दिया।
यह मकान देखने में यद्यपि छोटा था मगर अन्दर से गुंजाइश बहुत ज्यादे थी और बनिस्बत ऊपर के इसका बहुत बड़ा हिस्सा जमीन के अन्दर था इसके रास्तों का पता लगाना अनजान आदमी के लिए कठिन ही नहीं बल्कि बिल्कुल ही असंभव था। दो-चार आदमी तो क्या पचासों आदमी इसके अन्दर छिप कर रह सकते थे। जिनका पता सिवाय जानकार के कोई दूसरा नहीं लगा सकता था। इस मकान के अन्दर कैसी-कैसी कोठरियाँ, कैसे-कैसे तहखाने और कैसी-कैसी सुरंगें या रास्ते थे इसे इस तिलिस्म से संबंध रखने वाला भी हरएक आदमी नहीं जान सकता था, परन्तु नारायण ने जो किताब जमना को दी थी उसमें वहाँ का कुल हाल चाल अच्छी तरह लिखा हुआ था।
अब हम यह लिख सकते हैं कि वे दोनों आने वाले कौन थे जिन्हें देख कर जमना, सरस्वती और इन्दुमति भाग कर घर में चली गई थीं।
ये दोनों भूतनाथ और तिलिस्मी दारोगा साहब थे। दारोगा भूतनाथ की मदद पर तैयार हो गया और उसने प्रतिज्ञा की थी कि तुम्हें तिलिस्म के अंदर ले चल कर जमना, सरस्वती और इन्दुमति को गिरफ्तार करा दूंगा। इसी तरह भूतनाथ ने भी दारोगा से वादा किया था कि महाराज जमानिया के भाई शंकरसिंह के मारने में मैं तुम्हारी मदद करूँगा और यह कार्रवाई इस ढंग से की जायगी कि किसी को इस बात का गुमान भी न होगा कि शंकरसिंह कब और कहाँ मारे गए या उन्हें किसने मारा-इत्यादि। यही सबब था कि ये दोनों इस समय तिलिस्म के अन्दर दिखाई दिए। यहाँ का बहुत कुछ हाल दारोगा को मालूम था मगर शंकरसिंह को यह आशा न थी कि दारोगा उनके साथ यहाँ तक बुरा बर्ताव कर गुजरेगा, अस्तु वे दारोगा की तरफ से बिल्कुल ही बेखबर थे।
दारोगा और भूतनाथ दोनों आदमी सूरत बदलने के अतिरिक्त चेहरे पर नकाब भी डाले हुए थे इसलिए उन्हें कोई पहिचान नहीं सकता था।
जिस समय ये तीनों औरतें भाग कर मकान के अन्दर चली गईं उसके थोड़ी ही देर बाद भूतनाथ और दारोगा मकान के दरवाजे पर आ पहुँचे। उन्होंने तीनों को भाग कर मकान के अन्दर जाते हुए देख लिया था अस्तु तिलिस्मी ढंग से दरवाजा खोलने के लिए दारोगा साहब ने हाथ बढ़ाया ही था कि पीछे से किसी ने आवाज दी, ‘‘कौन है?’’
दारोगा और भूतनाथ को इस बात निश्चय नहीं था कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति तिलिस्म के अन्दर किस ठिकाने पर हैं परन्तु भूतनाथ ने अपने कई शागिर्द इस तिलिस्म के अन्दर पहुँचा दिये थे जो कि नारायण की कार्रवाई पर बराबर ध्यान रखते थे। जब भूतनाथ और दारोगा तिलिस्म के अन्दर आये तब भूतनाथ का एक शागिर्द उन्हें मिला जिसके माथे पर अपना खास निशान देखकर भूतनाथ ने पहिचान लिया और उससे वहाँ का हाल पूछा।
उस शागिर्द ने बता दिया कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति को नारायण ने फलाने मकान में रक्खा है, उसी के दिए निशान के अन्दाजे पर भूतनाथ और दारोगा वहाँ आये थे और उन्होंने जमना, सरस्वती और इन्दुमति को अपनी आँखों से मकान के अन्दर जाते देख लिया था। जब दारोगा ने मकान का दरवाजा खोलने के लिए हाथ बढ़ाया उसी समय पीछे से आवाज़ आई, ‘‘कौन है?’’ दारोगा ने अपना हाथ खैंच लिया और पीछे फिर कर देखा। एक आदमी पर निगाह पड़ी जिसने सिर से पैर तक अपने को स्याह लबादे से ढाँक रक्खा था। भूतनाथ हाथ में खंजर लिए हुए उस आदमी के पास चला गया और डपट कर बोला, ‘‘तू कौन है!’’
उस आदमी ने भूतनाथ की बात का कुछ भी जवाब न दिया और पीछे की तरफ हटने लगा। भूतनाथ भी उसी के साथ उसकी तरफ आगे बढ़ता गया और उसने कई दफे डपटकर उस आदमी से तरह-तरह के सवाल किए और कटु वचन भी कहे परन्तु भूतनाथ की किसी बात का भी उसने जवाब न दिया और बराबर पीछे की तरफ हटता चला गया।
भूतनाथ भी उसके साथ-ही-साथ आगे बढ़ता गया, यहाँ तक कि एक झाड़ी के पास पहुँचकर वह आदमी रुक गया और उसने अपने दोनों हाथ लबादे के बाहर निकाले जिनमें से एक में ढाल और दूसरे में तलवार थी। यहाँ पर घनी झाड़ी होने के कारण चन्द्रमा की चाँदनी नहीं पहुँचती थी अस्तु अपने लिए उत्तम स्थान समझ कर उस आदमी ने जवान खोली और भूतनाथ से कहा, ‘‘हाँ, अब तुझको बताना पड़ेगा कि तू कौन है और तिलिस्म के अन्दर क्योंकर आया?’’ पाठक, थोड़ी देर के लिए हम इस आदमी का नाम ‘‘भीम’’ रख देते हैं। भीम की बात सुनकर पहले तो भूतनाथ चुप हो गया मगर फिर कुछ सोचकर बोला, ‘‘मैं तुम्हारी बात का जवाब क्योंकर दे सकता हूँ जबकि तुमने खुद मेरी बात का कुछ भी जवाब नहीं दिया?’’
भीम : यद्यपि मैंने वहाँ पर तुम्हारी बातों का कुछ भी जवाब नहीं दिया परन्तु अब तुम्हारी हर एक बात का जवाब देने के लिए तैयार हूँ मगर शर्त यह है कि तुम ठीक-ठीक ईमानदारी के साथ अपना परिचय दो।
भूतनाथ : बेशक मैं ईमानदारी के साथ अपना परिचय दूँगा, मेरा नाम रंगनाथ ऐयार है, मैं मिर्जापुर का रहने वाला हूँ।
भीम : (खिलखिला कर हँसने के बाद) वाह-वाह! खूब ईमानदारी के साथ अपना परिचय दिया। रंगनाथ तो आजकल हमारे यहाँ मेहमान है, यह दूसरा रंगनाथ कहाँ से आया?
भूतनाथ : (कुछ सकपकाना-सा होकर) नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता अगर कोई आदमी रंगनाथ के नाम का तुम्हारे पास आया है तो बेशक उसने तुमको धोखा दिया, असल रंगनाथ मैं ही हूँ और मैं प्रभाकरसिंह को इस कैद से छुड़ाने के लिए यहाँ आया हूँ!
भीम : अगर तुम्हारा कहना सच है और रंगनाथ के नाम से किसी दूसरे आदमी ने मेरे यहाँ आकर धोखा दिया है तो तुम उसे जरूर पहिचान सकते हो, उसकी तस्वीर मेरे पास है। तुम देखो और पहिचानो। उसका कथन है कि भूतनाथ इस तिलिस्म के अन्दर आया है और कई आदमियों को धोखा दिया चाहता है।
भूतनाथ : (बड़ी चाह के साथ) मैं जरूर उसकी तस्वीर देखूँगा और पहिचानूँगा।
भीम ने अपनी जेब से निकाल कर एक पीतल की डिबिया भूतनाथ के हाथ में दी और कहा; ‘‘देखो हिफाजत से खोलो, इसी के अन्दर उसकी तस्वीर है।’’
भूतनाथ ने भीम के हाथ से डिबिया ले ली और दो कदम चलकर चन्द्रमा की चाँदनी में वह डिबिया खोलने लगा। डिबिया बड़ी मजबूती के साथ बन्द थी और हल्के हाथों से उसका खुलना कठिन था अस्तु गर्दन झुकाकर और दोनों हाथों से जोर लगा कर भूतनाथ ने वह डिबिया खोली। उसके अन्दर बहुत हल्की और गर्द के समान बारीक बुकनी भरी हुई थी जो झटके के साथ डिबिया खुलने के कारण उसमें से उछली और उड़कर भूतनाथ की आँख और नाक में पड़ गई।
वह बहुत ही तेज बेहोशी की बुकनी थी जिसने भूतनाथ को बात करने की भी मोहलत न दी, वह तुरन्त ही चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़ा और बेहोश हो गया। भीम ने झपटकर अपनी डिबिया सम्हाली और भूतनाथ के हाथ से लेकर अपनी जेब में रख ली, इसके बाद अपने लबादे में भूतनाथ की गठरी बाँधी और उसे पीठ पर लाद एक तरफ का रास्ता लिया।
अब उधर का हाल सुनिये। भीम के साथ जाकर भूतनाथ तो बहुत दूर निकल गया मगर दारोगा अपनी जगह से न हिला। उसने मकान का दरवाजा खोला और जमना, सरस्वती तथा इन्दुमति को गिरफ्तार करने का उद्योग करने लगा दरवाजा खोलता हुआ वह एक दालान में पहुँचा, जिसके दोनों तरफ़ दो कोठरियाँ थीं और उन सभी कोठरियों के दरवाजे किस तरह खुलते थे, इसका पता केवल देखने से नहीं लग सकता। किसी खास तरकीब से दारोगा ने बाई तरफ वाली कोठरी का दरवाजा खोला और हाथ में नंगी तलावर लिए हुए उसके अन्दर घुसा। यह छोटी-सी सुरंग थी जिसमें दस-बारह हाथ चल कर दारोगा एक बहादुरी में पहुँचा जहाँ बिल्कुल ही अंधकार था, सिर्फ दो-तीन जगह किसी सुराख की राह से चन्द्रमा की रोशनी पड़ रही थी मगर उससे वहाँ का अन्धकार दूर न हो सकता था।
दारोगा को विश्वास था कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति जरूर इसी दालान में होंगी और उनके हाथ में किसी तरह का कोई हर्बा भी जरूर होगा, इसी ख्याल से उसकी हिम्मत न पड़ी कि वह इस अन्धकार में आगे की तरफ बढ़े अस्तु चुप-चाप खड़ा रहकर वहाँ की आहट लेने लगा। कुछ ही देर बाद किसी के धीरे-धीरे बोलने की आवाज उसके कान में आई और उसके बाद मालूम हुआ कि कई आदमी आपस में धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं।
आवाज़ हल्की और नाजुक थी इसलिए दारोगा समझ गया कि जरूर यह जमना, सरस्वती और इन्दुमति हैं। दारोगा ऐयारी का छोटा-सा बटुआ अपने कपड़ों के अन्दर छिपाये हुआ था जिसमें से उसने टटोल कर एक छोटी डिबिया निकाली, उस डिबिया में कई तरह के खटके और पुरजे लगे हुए थे, दारोगा ने खटका दबाया जिससे वह डिबिया चमकने लगी और उसकी रोशनी ने वहाँ के अन्धकार को अच्छी तरह दूर कर दिया।
अब दारोगा ने देख लिया कि उसके सामने दालान में तीन औरतें हाथ में खंजर लिए खड़ी हैं। जमना, सरस्वती और इन्दुमति को दारोगा अच्छी तरह पहिचानता न था मगर सुनी-सुनाई बातों से वह अनुमान जरूर कर सकता था। इस मौके पर तो उसे यह मालूम ही था कि यहाँ पर जमना, सरस्वती और इन्दुमति विराज रही हैं और वे तीनों औरतें अपनी असल सूरत में भी थीं इसलिए दारोगा को विश्वास हो गया कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति ये ही हैं।
दारोगा ने उसी जगह खड़े रह कर जमना की तरफ देखा और कहा, ‘‘तुम लोग मुझसे व्यर्थ ही डर कर भाग रही हो! मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं हूँ और न तुम्हारे किसी दुश्मन का भेजा हुआ हूँ।’’
जमना : फिर तुम कौन हो और हम लोगों का पीछा क्यों कर रहे हो?
दारोगा : मैं इस तिलिस्म का पहरेदार हूँ और प्रभाकरसिंह का भेजा हुआ तुम लोगों के पास आया हूँ। उनका हुक्म है कि तुम तीनों को अपने साथ ले जाकर उनके पास पहुँचा दूँ!
जमना : तुम्हारी बातों का हमें क्योंकर विश्वास हो? क्या उनके हाथ की कोई चीठी भी लाये हो?
दारोगा : हाँ, मैं चीठी लाया हूँ। उन्होंने खुद ही खयाल कर के एक चीठी भी अपने हाथ से लिख कर दी है।
जमना : अगर ऐसा है तो लाओ, वह चीठी मुझे दो, मैं पहिले उसे पढ़ लूँ तब तुम्हारी बातों पर विचार करूँ।
दारोगा : हाँ, लो मैं चीठी देता हूँ, यह रोशनी जो मेरे साथ में है ज्यादे देर तक ठहर नहीं सकती इसलिए पहिले मैं दूसरी रोशनी का इन्तजाम कर लूँ तब चीठी तलाश कर दूँ।
इतना कह कर दारोगा ने वह डिबिया जमीन पर रख दी उसी की रोशनी में उसने अपना बटुआ खोलकर एक खाकी रंग की मोमबत्ती निकाली और चकमक से आग पैदा करके उससे रोशनी करने के बाद वह डिबिया बन्द करके अपने बटुए में रख ली। अब दालान भर में उसी मोमबत्ती की रोशनी फैली हुई थी।
वह मोमबत्ती कुछ खास तरकीब और कई दवाइयों के योग से तैयार की गई थी। उसका रंग खाकी था और जलने पर उसमें बेहोशी पैदा करने वाला बहुत ज्यादा धुआँ निकलता था। दारोगा ने यह सोचकर कि शायद आज भी कार्रवाई में इस मोमबत्ती की जरूरत पड़े, पहिले से ही अपने बचाव का बंदोबस्त कर लिया था अर्थात् किसी तरह की दवा खा या सूँघ ली थी मगर जमना, सरस्वती और इन्दुमति अपने को इस धुएँ से बचा नहीं सकती थीं और न इस बात का उन्हें गुमान ही हुआ कि बेहिसाब धुआँ पैदा करने वाली मोमबत्ती में कोई खास बात है।
दारोगा ने मोमबत्ती बालकर जमीन पर जमा दी और उसकी रोशनी में प्रभाकरसिंह के हाथ की चीठी खोजने के बहाने से अपना बटुआ टटोलने लगा।
कभी बटुए की तलाशी लेता, तभी अपने जेबों को टटोलता, और कभी कमर में देख कर बनावटी ताज्जुब से हाथ पटकता और कहता कि ‘न मालूम चीठी कहाँ रख दी है! मेरे जैसा बेवकूफ भी कोई न होगा। भला ऐसी जरूरी चिट्ठी को इस तरह रखना चाहिए कि समय पर जल्दी मिल न सके’!
चीठी की खोज और कपड़ों की तलाशी में दारोगा ने बहुत देर लगा दी और तब तक उस मोमबत्ती का धुआँ तमाम कमरे में फैल गया। बेचारी जमना, सरस्वती और इन्दुमति चीठी की चाह में बड़ी उत्कण्ठा से दारोगा की हरकतों को खड़ी-खड़ी देख रही थीं मगर उन लोगों को यह नहीं मालूम होता था कि इस धुएँ की बदौलत हम लोगों की हालत बदलती चली जा रही है। थोड़ी देर में ही वे तीनों बेचारी औरतें बेहोश होकर जमीन पर लेट गईं और अब दारोगा ने बड़ी फतह-मन्दी और खुशी की निगाह से उन तीनों की तरफ देखा।
तीसरा भाग : बारहवाँ बयान
यह नहीं मालूम होता कि कृष्णपक्ष है या शुक्लपक्ष अथवा रात या दिन क्योंकि हम इस समय जिस स्थान पर पहुँचे हैं वहाँ चिराग या इसी तरह की किसी रोशनी के सिवाय और किसी सच्चे उजाले या चाँदनी का गुजर नहीं हो सकता। हम यह भी नहीं कह सकते कि यह कोई तहखाना है या सुरंग, अंधकारमय कोई कोठरी है या बालाखाना, सिर्फ इतना ही देख रहे हैं कि एक मामूली कोठरी में जिसमें सिवाय एक मद्विम चिराग के और किसी तरह की रोशनी नहीं है, जमना, सरस्वती और इन्दुमति बैठी हुई हैं। उन तीनों के पैर बँधे हुए हैं और किसी मोटी रस्सी के सहारे वे एक लकड़ी के खंबे के साथ भी बँधी हुई हैं जिसमें पैर से चलना तो असंभव ही है खिसक कर भी दो कदम इधर-उधर न जा सकें।
उन तीनों के सामने बैठे हुए तिलिस्मी दारोगा पर निगाह पड़ने से ही विश्वास होता है कि इन तीनों पर इतनी सख्ती होने का कारण यही बेईमान दारोगा है।
पहिले क्या-क्या हो चुका है सो हम कुछ नहीं कह सकते परन्तु इस समय हम देखते हैं कि वे तीनों अपनी बेबसी और मजबूरी पर जमीन की तरफ देखती हुई गर्म-गर्म आँसू गिरा रही हैं और इस अवस्था में कभी कोई सर उठा कर दारोगा की तरफ देख भी लेती है।
कुछ देर तक सन्नाटा रहने के बाद जमना ने एक लम्बी साँस ली और सर उठा कर दारोगा की तरफ देख धीमी आवाज से कहा– ‘‘बहुत देर तक सोचने के बाद अब मैं आपको पहिचान गई कि आप जमानिया राज के कर्ता-धर्ता दारोगा साहब हैं।’’
दारोगा : बेशक मैं वहीं हूँ, इस समय अपने-आप को छिपाना नहीं चाहता इसलिए असली सूरत में तुम लोगों के सामने बैठा हुआ हूँ।
जमना : ठीक है, तो मैं समझती हूँ कि उस तिलिस्म के अन्दर हम लोगों को बेहोश करके यहाँ ले आने वाले भी आप ही हैं।
दारोगा : बेशक!
जमना : आखिर इसका कारण क्या है! हम लोगों ने आपका क्या बिगाड़ा है जो आप हमारे साथ इतनी सख्ती का बर्ताव कर रहे हैं?
दारोगा : मेरा तुम लोगों ने कुछ भी नहीं बिगाड़ा मगर मेरे दोस्त भूतनाथ को तुम लोग व्यर्थ सता रही हो इसलिए मुझे मजबूर होकर तुम लोगों के साथ ऐसा बर्ताव करना पड़ा।
जमना : (क्रोध में आकर कुछ तेजी से) क्या भूतनाथ को हम लोग सता रही हैं! क्या वह हम लोगों को मिट्टी में मिला कर भी अभी तक बाज नहीं आता और बराबर जख्म लगाये नहीं जा रहा है!!
दारोगा : कदाचित् ऐसा ही हो परन्तु उसका कहना तो यही है कि तुम लोग व्यर्थ ही उसे कलंकित करके दुनिया में रहने के अयोग्य बनाने की चेष्टा कर रही हो।
जमना : आह! बड़े अफसोस की बात है कि आप अपने मुँह से ऐसे शब्द निकाल रहे हैं और अपने को उन बातों से पूरा-पूरा अनजान साबित किया चाहते हैं?
दारोगा : सो क्या? मुझे इन बातों से मतलब?
जमना : अगर कुछ संबंध नहीं है तो हम लोगों को वहाँ से क्यों कैद कर लाये?
दारोगा : केवल अपने दोस्त की मदद कर रहा हूँ।
जमना : और आप इस बात को नहीं जानते कि हमारा पति इसी दुष्ट के हाथ से मारा गया है? और क्या आपकी मण्डली में यह बात मशहूर नहीं है?
दारोगा : हाँ दो-चार आदमी ऐसा कहते हैं, परन्तु भूतनाथ का कथन है कि इसका कारण तुम ही हो, अर्थात केवल तुम ही लोगों ने यह बात व्यर्थ मशहूर कर रक्खी है। मुझे स्वयम् इस विषय में कुछ भी नहीं मालूम है।
जमना : (ताने के ढंग पर) बहुत सच्चे! अगर यह बात आपको मालूम नहीं है तो भूतनाथ आपका दोस्त नहीं है।
दारोगा : भूतनाथ मेरा दोस्त जरूर है और वह मुझसे कोई बात छिपा नहीं रखता! खैर थोड़ी देर के लिए अगर यह भी मान लिया जाय कि तुम्हारा ही कहना ठीक है तो मैं तुमसे पूछता हूँ कि तुम भूतनाथ को बदनाम करके क्या फायदा उठा सकती हो? भूतनाथ इस समय स्वतंत्र है किसी रियासत का ताबेदार नहीं जो उस पर नालिश कर सकेगी, फिर ऐसी अवस्था में उससे दुश्मनी करके तुम अपना ही नुकसान कर रही हो।
इसके अतिरिक्त मैं खूब जानता हूँ कि भूतनाथ तुम्हारे पति का सच्चा और दिली दोस्त था और तुम्हारे पति भी उसको ऐसा ही मानते थे, ऐसी अवस्था में यह संभव है कि स्वयं भूतनाथ अपने ही हाथों से तुम्हारे पति को मारे। ऐसा करके वह क्या फायदा उठा सकता था? क्या तुमको विश्वास है कि भूतनाथ ने तुम्हारे पति को मारा? अच्छा तुम बताओ कि ऐसा करके उसने क्या फायदा उठाया?
जमना : हम लोगों ने एक तौर पर इस दुनिया ही को छोड़ा हुआ है और बिल्कुल मुर्दे की हालत में पहाड़ी खोह और कन्दराओं में रह कर जिन्दगी के दिन बिता रही हैं, इसलिए आजकल की दुनिया का हाल मालूम नहीं है अस्तु मैं नहीं कह सकती कि उसने मेरे पति को मार कर क्या फायदा उठाया, परन्तु इतना मैं जरूर जानती हूँ कि मेरे पति की मौत भूतनाथ के ही हाथ से हुई है।
दारोगा : यह बात तुमसे किसने कही?
जमना : सो मैं तुमसे नहीं कह सकती।
दारोगा : खैर न कहो तुम्हें अख्तियार है, मगर मैं फिर भी इतना जरूर कहूँगा कि तुम्हारा खयाल गलत है। भूतनाथ ने तुम्हारे पति को कदापि नहीं मारा और कदाचित धोखे में ऐसा हो गया हो तो धोखे की बात पर सिवाय अफसोस करने के और कुछ भी उचित नहीं है।
कई दफे ऐसा होता है कि धोखे में माँ का पैर बच्चे के ऊपर पड़ जाता है, तो क्या इसका बदला बच्चे को माँ से लेना चाहिए? कभी नहीं। तुम खुद जानती हो कि भूतनाथ से, जो वास्तव में गदाधरसिंह है, तुम्हारे पति की कैसी दोस्ती थी।
जमना : बेशक मैं इस बात को जानती हूँ और यह भी मानती हूँ कि कदाचित् धोखे ही में भूतनाथ से वह काम हो गया हो, परन्तु आप ही बताइए कि क्या इस अधर्म को छिपाने के लिए भूतनाथ को हम लोगों का पीछा करना चाहिए?
दारोगा : हाँ, ये बेशक भूल है, इसके लिए मैं उसे ताड़ना दूँगा परन्तु मैं तुम्हें सच्चे दिल और हमदर्दी के साथ राय देता हूँ कि तुम भूतनाथ के साथ दुश्मनी के ख्याल छोड़ दो नहीं तो पछताओगी और तुम्हारा सख्त नुकसान होगा क्योंकि तुम भूतनाथ का मुकाबला नहीं कर सकतीं। तुम अबला और निर्बल ठहरीं और वह होशियार ऐयार, तिस पर उसके दोस्त भी बहुत गहरे लोग हैं।
जमना : मैं जानती हूँ कि उसके और हमारे बीच हाथी और चिऊंटी का-सा फर्क है और आप जैसे समर्थ लोग उसको दोस्त भी हैं, और इस बात को भी मानती हूँ कि मैं उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती, परन्तु आप ही बताइए कि ऐसी अवस्था में वह अबलाओं से डरता ही क्यों है?
दारोगा : सिर्फ बदनामी के खयाल से डरता है, क्योंकि अगर वह झूठा कलंक उस पर लग जायगा और वह दयाराम का घाती मशहूर हो जायगा तो फिर वह दुनिया में किसी को मुँह न दिखा सकेगा; और अगर तुम माफ कर दोगी तो वह खुशी से किसी रियासत में रह कर अपनी जिन्दगी बिता सकेगा और जन्म-भर तुम्हारा मददगार भी बना रहेगा।
जमना : मुझे उसकी मदद की कोई जरूरत नहीं है और न मेरे दिल का बहुत बड़ा जख्म जो उसके हाथों में पहुँचा है, उसमें आराम हो सकता है। समझ लीजिए कि अब चूहे और बिल्ली में दोस्ती कायम नहीं हो सकती।
दारोगा : यह समझना तुम्हारी नादानी है। मैं कह चुका हूँ कि ऐसा करने से तुम्हें सख्त तकलीफ़ पहुँचेगी।
जमना : बेशक ऐसा ही है। तभी तो मैं कैद करके यहाँ लाई गई हूँ।
दारोगा : तुम खुद ही सोच लो कि यह कैसी बात है, अगर तुम मार ही डाली जाओगी तो फिर दुनिया में इसके लिए उससे बदला लेने वाला कौन रह जायगा?
जमना : मेरे पीछे उसका पाप उससे बदला लेगा या इस बात के मशहूर हो जाने से वह दीन-दुनिया के लायक न रहेगा और यही उस बात का बदला समझा जायगा।
आपने उसकी मदद की है और इसलिए हम लोगों को यहाँ कैद कर लाये हैं तो बेशक हम लोगों को मार कर अपना कलेजा ठंडा कर लीजिए, हम लोग तो खुद अपने को मुर्दा समझे हुई हैं, मगर इस बात को समझ रखिएगा कि हम लोगों के मारे जाने से उसकी बदनामी का झंडा जो बड़ी मजबूती के साथ गाड़ा जा चुका है गिर न पड़ेगा और उस झंडे के उड़ाने वाले तथा उससे बदला लेने वाले कई जबर्दस्त आदमी कायम रह जायेंगे!
दारोगा : यह तुम्हारा खयाल-ही-खयाल है, जिस तरह तुम केवल उसकी इच्छा मात्र से गिरफ्तार कर ली गई हो उसी तरह उसके और दुश्मन भी बात-की-बात में गिरफ्तार हो जायेंगे।
जमना : इस बात को मैं नहीं मान सकती।
दारोगा : नहीं मानोगी तो मैं मना दूँगा। इसका काफी सबूत मेरे पास है।
जमना : हाँ, अगर मेरा दिल भर जाने के लायक कोई सबूत मिल जायगा तो मैं जरूर मान जाऊँगी।
दारोगा : अच्छा-अच्छा, पहिले मैं तुमको इस बात का सबूत दे लूँगा तब तुमसे बात करूँगा।
इतना कहकर दारोगा अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और उस जगह गया जहाँ खंबे के साथ ये तीनों औरतें बँधी हुई थीं। उस खंभे में से जमना, सरस्वती और इन्दुमति को खोला मगर उनकी हथकड़ी तथा बेड़ी नहीं उतारी, हाँ, बेड़ी की जंजीर जरा ढीली कर दी जिसमें वे धीरे-धीरे कुछ दूर तक चल सकें। इसके बाद उन तीनों को लिए सामने की दीवार के पास गया जहाँ एक छोटा-सा दरवाजा था और उसमें मजबूत ताला लगा हुआ था। दारोगा ने कमरे में से ताली निकाल कर दरवाजा खोला और उन तीनों को लिए उसके अन्दर घुसा। यह रास्ता सुरंग की तरह था जोकि दस-बारह कदम जाने के बाद खतम हो जाता था अस्तु उसी अंधकारमय रास्ते में उन तीनों को लिए हुए दारोगा चला गया। जब रास्ता खत्म हुआ तब उसने एक खिड़की खोली जोकि जमीन से छाती बराबर ऊँची थी। उस खिड़की के खुलने से उजाला हो गया और तब दारोगा ने उन औरतों को नीचे की तरफ झाँक कर देखने के लिए कहा।
उस समय जमना, सरस्वती और इन्दुमति को मालूम हुआ कि वे तीनों जमीन के अन्दर किसी तहखाने में कैद नहीं हैं बल्कि उनका कैदखाना किसी मकान के ऊपरी हिस्से पर है।
खिड़की की राह से नीचे की तरफ झाँककर उन्होंने देखा कि एक छोटा-सा मामूली नजरबाग है जिसके चारों तरफ़ की दीवारें बहुत ऊँची-ऊँची हैं। उस बाग में एक टूटे पेड़ के साथ हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर प्रभाकरसिंह बँधे हुए हैं। उन्हें देखते ही इन्दुमति का कलेजा काँप गया और जमना तथा सरस्वती के रोंगटे खड़े हो गये।
उस समय दारोगा ने जमना की तरफ देखकर कहा, ‘‘तुम लोगों ने अच्छी तरह देख लिया कि तुम्हारे प्यारे प्रभाकरसिंह, जो तुम लोगों के बाद भूतनाथ पर कलंक लगा सकते थे तुम लोगों के साथ ही गिरफ्तार कर लिए गए, बताओ अब तुम्हें किस पर भरोसा है?’’
जमना : भरोसा तो हमें केवल ईश्वर पर ही है मगर फिर भी इतना जरूर कहूँगी, मेरे मददगार कोई और ही लोग हैं जिनका नाम तुम्हें किसी तरह भी मालूम नहीं हो सकता!
दारोगा : तुम्हारा यह कहना भी व्यर्थ है, मुझसे और भूतनाथ से कुछ भी छिपा नहीं है।
इतना कहकर दारोगा ने खिड़की बन्द कर दी और वहाँ पुन: अंधकार हो गया। इसके बाद उन तीनों को लिए पहिले स्थान पर चला आया और उसी खम्भे के साथ पुन: तीनों को बाँध कर पैर की जंजीर कस दी।
प्रभाकरसिंह को कैद की हालत में देखकर वे तीनों बहुत ही परेशान हुईं और उनके दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होने लगीं। दारोगा ने पुन: जमना की तरफ देखकर कहाँ, ‘‘मैं फिर कह सकता हूँ कि भूतनाथ से दुश्मनी रख कर तुम लोग इस दुनिया में नहीं रह सकतीं।’’
जमना : (ऊँची साँस लेकर) अब मेरे लिए इस दुनिया में क्या रक्खा है! किस सुख के लिए मैं जीवन की लालसा कर सकती हूँ, दुनिया में अगर लालसा है तो केवल इस बात की कि भूतनाथ से बदला लूँ।
दारोगा : सो हो नहीं सकता और न भूतनाथ ने वास्तव में तुम्हारा कुछ बिगाड़ा ही है। तुम खुद सोच लो और समझ लो, मैं सच कहता हूँ कि भूतनाथ अब भी तुम्हारी खिदमत करने के लिए हाजिर है। अगर तुम उसे अपना सूबेदार मान लोगी तो तीन दिनों में वह उद्योग करके तुम्हारे पति के घातक को भी खोज निकालेगा, नहीं तो अब तुम लोग उसके पंजे में आ ही चुकी हो। तुम लोग मुफ्त में अपनी जान दोगी। और अपने साथ बेकसूर इन्दुमति और प्रभाकर सिंह को भी बर्बाद करोगी क्योंकि इन दोनों की जान का संबंध भी तुम्हारी जान के साथ है। मं तुमको दो घंटे की मोहलत देता हूँ तब तक तुम अपने भले-बुरे को अच्छी तरह सोच लो।
दो घण्टे बाद जब मैं आऊँगा तो भूतनाथ भी मेरे साथ होगा, उस समय या तो तुम लोग भूतनाथ को अपना सच्चा दोस्त समझकर उसके निर्दोष होने का एक पत्र उसे लिखा दोगी और फिर दूसरी अवस्था में तुम तीनों ठंडे-ठंडे दूसरी दुनिया की तरफ रवाना हो जाओगी और प्रभाकरसिंह भी तुम तीनों के साथ-ही-साथ खबरदारी के लिए वहाँ रवाना कर दिये जायेंगे।
इतना कहकर दारोगा साहब वहाँ से रवाना हो गया और जब वह बाहर हो गया तो पुन: उस जहन्नुमी कैदखाने का दरवाजा बन्द हो गया और बाहर से भारी जंजीर की आवाज़ आई।
।। तीसरा भाग समाप्त ।।