बिराज बहू (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 2
8
पता नहीं किस तरह सुन्दरी को घर जाने की वात नमक-मिर्च लगाकर बिराज के कानो में पड़ गई। पड़ोस की बुआ आई थी। उसने खूब आलोचना की। बिराज ने सबकुछ सुनकर गंभीर स्वर में कहा- “बुआ माँ! आपको उनका एक कान काच लेना चाहिए था!”
बुआ बुगड़कर बोली- “तुम जैसी बातूनी इस गाँव में नहीं है।”
बिराज ने नीलाम्बर को बुलाकर कहा- “सुन्दरी के यहाँ कब गए थे?”
नीलाम्बर ने डरते हुए उत्तर दिया- “काफी दिन हो गए हैं, पूंटी का समाचार पूछने गया था।”
“अब मत जाना। मैंन सुना है कि उसका चरित्र खराब है।”
नीलाम्बर चुप रहा।
***
सूर्यदेव रोज अस्त होते हैं और उदय होते हैं।
उस दिन कोई उत्सव था।
छोटी बहू मोहिनी छूपकर आई, बोली- “दीदी! आज उत्सव है, चलो आज नदी में डुबकी लगा आए।”
जब से जमींदार के बेटे राजेन्द्र कुमार ने घाट बनाया था, तब से उन्हें उधर जाने की मना ही हो गई थी।
“अभी कोई जगा ही नहीं है, जल्दी लौट आएंगे।”
दोनों देवरानी-जेठानी चल पड़ीं। वै जैसे ही नहाकर बाहर निकलीं, वैसे ही उदण्ड राजेन्द्र उनसे सामने था।दोनों सहम गईं मोहिनी झट बिराज के पीछे खड़ी हो गई। बिराज उसके मन का कलुष समझ गई। वह उसे जलती निगाह से देखने लगी।
राजेन्द्र की निगाहें झुक गईं।
बिराज भड़ककर बोली- “आपकी जमींदारी कितनी ही बड़ी क्यों न हो, आप जिस जगह पर खड़े है, वह मेरी जमीन है।” फिर उस पार के घाट की ओर संकेत करके बोली- “आप कितने हैं या तो इस घाट की एक-एक इंट जानती है या मैं जानती हूँ। लगता है कि आपके घर में माँ-बहन नहीं हैं। मैंने कई दिनों पहले आपको अपनी दासी से कहलवाया था कि यहाँ न आया करें।”
राजेन्द्र फिर भी मौन रहा।
बिराज ने फिर कहा-“आप मेरे पति को नहीं जानते। यदि जानते होते तो इधर न आते। दुबारा आने के पहले उन्हें अच्छी तरह जान लीजिएगा।”
बिराज घर के पास पहँची ही थी कि पीताम्बर ने पूछा- “भाभी! अभी-अभी तुम किससे बात कर रही थीं? कहीं वे जमींदार बाबू तो नहीं थे?”
बिराज की आँखें लाल हो गई। चेहरा तमतमा उठा बोली- “हाँ” और वह भतर चली गई।
भीतर जाने के उपरान्त बिराज बहू को छोटी बहू की चिन्ता हुई। थोड़ी देर में ही उस घर में मार-पीट शुरू हो गई।
नीलाम्बर उठकर हाथ-मुंह धो रहा था कि उसे तर्जन-गर्जन सुनाई पड़ा। वह लपककर बेड़े के पास गया। उसने लात मारकर उसे तोड़ डाला। वह क्रोध से पागल हो रहा था। बेड़ा टूटने की ध्वनि ने पीताम्बर का ध्यान भंग किया। देखा सामने साक्षात यमराज-सा नीलाम्बर खड़ा था।
नीलाम्बर ने जमीन पर पड़ी बहू से कहा- “डरने की कोई बात नहीं। तुम भीतर चली जाओ बेटी।”
बहू कांपती-डरती भीतर चली गई। नीलाम्बर ने बड़े ही संयत स्वर में कहा- “बहू के सामने तेरा अपमान नहीं करूंगा, पर यह मते भूलो कि जब तक मैं इस घर में हूँ, तब तक यह अत्याचार नहीं चलने दूंगा। उस पर हाथ उठाया तो मैं तेरा हाथ तोड़ दूंगा”
वह जाने लगा तो पीताम्बर ने कहा- “घर पर मारने तो चले आए, पर उसका कारण भी जानते हो।”
“नहीं जानता और जानना भी नहीं चाहता।”
“लगता है, मुझे यह घर छोड़कर जाना पड़ेगा।”
नीलाम्बर ने पलभर उसकी ओर देखकर कहा- “मैं यह अच्छी तरहा जानता हूँ कि यह घर छोड़कर किसे जाना पड़ेगा और जब तक यह नहीं हो जाता तब तक धैर्य धारण करके बैठे रहो।”
पर वह नहीं बैठा। उसने नीलाम्बर से कहा- “आज तड़के भाभी व छोटी बहू नहाने गई थीं। वहाँ राजेन्द्र खड़ा था। बदनाम और चरित्रहीन! भाभी ने उससे आधे घण्टे तक बातचीत की।”
“क्या यह तुमने आँखों से देखा?”
पीताम्बर कुछ पीछे की ओर होकर बोला- “हाँ, मैंने आँखों से देखा।”
नीलाम्बर ने थोड़ी देर सोचकर कहा- “हाँ, यह तुमने कैसे जान लिया कि बात करना जरूरी नहीं है?”
पीताम्बर बोला- “यह तो मैं नहीं जान सका कि मेरा छोटी बहू को मारना-पीटना उचित था या नहीं, पर वह घाट छोटी बहू के लिए नहीं बनाया गया था।”
नीलाम्बर के तन-बदन में आग लग गई। वह क्रोधित होकर झपटा, फिर सहसा रुक गया। उसकी ओर घूरते हुए बोला- “तू जानवर हो गया है! मेरा छोटा भाई है, इसलिए तुम्हें शाप न देकरन क्षमा करता हूँ। मगर अपने बड़ों के लिए जो कुछ तुमने कहा है, उसके लिए भगवान तुम्हें क्षमा नहीं करेगा।” वह टूटा-टाटा-सा अपने घर के आंगन में घुस गया और टूटे बेड़े के सूत स्वयं बांधने लगा।
बिराज सबकुछ सुनकर लज्जा से भर गई। एक बार तो उसके मन में आया कि सारी बातें साफ कर दे, पर वह लज्जा के कारण ऐसा नहीं कर सकी। उसे बार-बार लगा कि वह कैसे अपने पति को कहे कि एक पराया मर्द उसे ललचाई निगाहों से देखता है।
बेड़ा बांधकर नीलाम्बर बाहर चला गया।
***
कई दिन बीत गए। बिराज और नीलाम्बर में वार्तालाप नहीं हो सका। बिराज भीतर-ही-भीतर घुटने लगी। मगर आन्तरिक संघर्ष के कारण वह ऐसा नहीं कर सकी।
उस दिन पूजा-पाठ करके नीलाम्बर उठने ही वाली था कि बिराज आंंधी की तरह आई और नीलाम्बर के समक्ष खड़ी होकर लम्बे-लम्बे सांस लेने लगी।
नीलाम्बर ने आश्चर्य से सिर ऊंचा किया, तब बिराज होंठ भींचकर कह उठी। “मैंने क्या दोष किया है कि तुम मुझसे बोलते नहीं, बोलो… बोलो…।”
नीलाम्बर हंस पड़ा, बोला- “वाह! यह भी खूब रही! तुम स्वयं भागती फिरती हो, मैं भला किससे बात करूंगा?”
“ठीक है, मैं भागती हूँ, पर तुम भी मझे बुला सकते थे!”
नीलाम्बर ने कहा- “जो व्यक्ति भागता फिरे, उसे पुकारना पाप है।”
“पाप… तो… तो तुमने छोटे बाबू की बातों पर विश्वास कर लिया है?” और क्रोध व पीड़ा के मारे सुबक पड़ी। फिर भर्राई आवाज में चीखकर बोली- “ओह! यह सब मिथ्या है… तुमने क्यों विश्वास किया?”
“नदी-तट पर तुमने राजेन्द्र से बातें नहीं की थीं?”
“की थीं।”
“तो क्या मैंने इतने-भर में विश्वास कर लिया?”
“फिर मुझे सजा क्यों नहीं देते?”
नीलाम्बर हंस पड़ा। उसकी निर्मल उज्ज्वल हंसी के बीच उसकी आकृति दीप्त हो उठी। दायां हाथ ऊंचा करके बोला- “जरा मेरे पास आओ… आओ मैं बचपन की तरह एक बार तुम्हारा कान फिर मल दूं।”
बिराज रो पड़ी। आज वह समझौता करना चाहती थी। वह समझती थी कि नीलाम्बर को उस पर बहुत विश्वास है।
“आज मैं दिनभर राजेन्द्र की प्रतीक्षा करता रहा।”
“क्यों?”
“उससे दो बातें किए बिना मैं अपने को दोषी समझूंगा।”
“ना… ना…।” भय और उत्तेजना से बिराज घिर गई, बोली- “अब इसे लेकर तुम एक शब्द भी नहीं बोलोगे।”
उसके नयनों के भावों से नीलाम्बर को बहुत ही भय हुआ, बोला- “एक पति होने के कारण मेरा कर्तव्य है।”
बिराज बिना कुछ कहे-सुने बोल पड़ी- “पहले एक पति के दूसरे कर्तव्य तो करो फिर यह करना।”
“ठीक है।” वह चुप हो गया। थोड़ी देर बाध बोला- “बिराज! मैं बहुत ही निकम्मा हूँ।”
बिराज कुछ कहना चाहती थी, परंतु उसके मुंह से कुछ भी नहीं निकला। कई दिनों बाद आज अनुग्रह की जो कड़ी जुड़ने वाली थी उन दोनों दु:खी दम्पति के बीच, अचानक फिर छिन्न-भिन्न हो गई।
9
दोपहर को सन्नाटा होने पर छोटी बहू रोती हुई आई और बिराज के पैरों पर गिर पड़ी। वहो दो दिनों इसी अवसर की तलाश में थी। पति को जो गलतफहमी हुई थी, उसी के भय से वह घबरा गई थी। रोती हुई बोली- “दीदी! उन्हें तुम शाप मत देना। उन्हें यदी कुछ हो गया तो मैं जी नहीं सकूंगी।”
बिराज ने उसका हाथ पकड़कर उठाते हुए कहा- “बहन! मैं शाप नहीं दूंगी। उनमें इतनी शक्ति नहीं है कि मेरा कोई अहित कर सकें किन्तु तुम जैसी सती-लक्ष्मी पर निरपराध हाथ उठाना, उसे तो माँ दुर्गा भी सहन नहीं करेगी।”
मोहिनी कांपती हुई आँसू पोंछकर बोली- “दीदी! मैं क्या करूं? उनका स्वभाव ही ऐसा है। जिस ईश्वर ने उन्हें क्रोधी बनाया, वे ही उन्हें क्षमा करेंगे। तो भी मैंने समस्त देवी-देवताओं की प्रार्थनाऐ की हैं। किन्तु मैं पापिन हँू, किसी ने मेरी प्रार्थना नहीं सुनी। दीदी! एक दिन भी ऐसा नहीं जाता…।” कहते-कहते वह सहसा रुक गई।
अभी तक बिराज का ध्यान छोटी बहू की कनपटी के काले दाग पर नहीं गया था। उसने आश्चर्य से पूछा- “तेरे यह मार का निशान है?”
छोटी बहू ने शरमाकर अपना सिर झुका लिया और गरदन हिला दी।
बिराज ने पूछा- “किससे मारा?”
मोहिनी वैसे ही सर झुकाए बोली- “अपने पांव की चट्टी से। क्रोध में वे पागल हो जाते हैं।”
“यह मुझे मालूम है, मगर…।” बिराज स्तब्ध-सी खड़ी रही उसकी आँखें जलने लगीं। थोड़ी देर बाद बोली- “यह सब तुमने कैसे सहन कर लिया?”
छोटी बहू ने विगलित स्वर में कहा- “मुझे आदत पड़ गई है।”
बिराज ने विषाक्त स्वर में कहा- “और उसी पशु को क्षमा करने के लिए तुम आई हो!”
बिराज की ओर देखकर छोटी बहू ने कहा- “हाँ दीदी! यदि तुम प्रसन्न नहीं होगी तो उनका अनिष्ट हो जाएगा। जहाँ तक सहने का सवाल है, यह सब मैंने तुम से ही सीखा है। मेरा संबंध तो तुम्हारे चरणों से…।”
बिराज ने अधीर होकर कहा- “ना… ना… छोटी बहू, ना मिथ्या मत बोलो यह अपमान मैं सहन नहीं कर सकती।”
मोहिनी ने किंचित मुस्कराकर कहा- “दीदी! क्या अपना अपमान सहन करना ही पर्याप्त है? तुम्हारे सरीखा पति हर स्त्री के भाग्य में नहीं होता। फिर भी तुम जितना सहन करती हो, उतने में तो हमारा कचूमर निकल जाता है। उनके मुंह से हंसी गायब हो गई।हृदय प्रफुल्लित नहीं है। यह सब तुम्हें स्वयं को देखना पड़ता है। पति का इतना कष्ट संसार में सिवाय तुम्हारे कोई नहीं सहन कर सकता।”
बिराज चुप रही।
छोटी बहू ने उसके दोनों पांव पकड़कर कहा- “दीदी! बताओ, उन्हें क्षमा कर दिया न? इसे सुने बिना में तुम्हारे पांव नहीं छोड़ सकती। यदि तुम प्रसन्न नहीं हुई तो कोई नहीं बच पाएगा।”
बिराज ने छोटी बहू के उठाकर कहा- “जाओ क्षमा किया।”
एक बार फिर बिराज की चरण-धूलि लेकर माथे लगाई और छोटी बहू खुशी-खुशी घर चली गई।
किन्तु बिराज बड़ी देर तक ठगी-सी खड़ी रही उसी जगह पर। उसके अन्तकरण से कोई पुकार-पुकारकर कह रहा था- “बिराज… यह सब सीख… सीख…।”
उसके बाद छोटी बहू कई दिनों तक घर में नहीं आई, मगर उसके आँख-कान उस ओर लगे रहते थे। आज लगभग एक बजे बड़ी सावधानी से वह बिराज के पास आई।
बिराज रसोईघर के बरामदे में गाल पर हाथ धरे बैठी थी। उसे देखकर वह पूर्ववत ही रही।
छोटी बहू बिराज के चरण छूकर बोली- “दीदी! क्या तुम पागल हुई जा रही हो?”
बिराज ने मुंह घुमाकर कहा- “क्या तुम नहीं होती?”
छोटी बहू ने कहा- “दीदी! अपने साथ बराबरी करके मुझ पर पाप मत चढ़ाओ। मैं तुम्हारे पांवों की धूल के बराबर भी नहीं हूँ। मगर तुम ऐसा क्यों करती हो? आज तुमने जेठ जी को खाना भी नहीं दिया।”
बिराज ने कहा- “मैंने तो खाने के लिए मना नहीं किया था।”
छोटी बहू बोली- “यह तो ठीक है, पर एक बार निकट तो जाती। उन्होंने खाने के लिए बैठतक तुम्हें कितनी बार पुकारा और तुमने एक बार भी उत्तर नहीं दया। तुम्हीं कहो, इससे पीड़ा होती है या नहीं? एक बार तुम समीप चली जाती तो वे खाना खा लेते।”
बिराज चुप रही।
छोटी बहू फिर बोली- “दीदी! तुमने सदा सामने बैठकर उन्हें भोजन कराया है। तुम मझसे व्यस्तता का बहाना नहीं कर सकती। सदा सारे कार्य छोड़कर तुमने उन्हें खिलाया है। कभी भी इससे बढ़कर तुम्हारा काम नहीं रहा। और आज…।”
बीच में ही बिराज ने भावावेश में उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींच लिया और कहा- “फिर चलकर देख लो।” वह उसे रसोई की ओर ले गई और थाली की ओर संकेत करके कहा- “यह देख…।”
छोटी बहू ने ध्यान से देखा। एक काले रंक की पथरी में बिना साफ किए मोटो भात और उसी के समीप करेमू की थोड़ी-सी भाजी… और कोई साधन न होने के कारण बिराज उन्हें नदी के किनारे से तोड़ लाई थी।
छोटी बहू की आँखें भर आई, पर बिराज के नयन-कोर जरा भी नम नहीं हुए। दोनों देवरानी व जेठानी एक-दूसरे को अपलक देखती रहीं।
बिराज ने सहज स्वर में कहा- “तुम भी एक पत्नी हो, तुम्हों भी थाली में परोसकर पति को खिलाना पड़ता है, मगर क्या कोई पत्नी ऐसा खाना परेसकर पति के सामने संसार में बैठ सकती है? पहले बता, फिर मुझे भरपूर गाली दें। मैं एक शब्द भी नहीं कहूँगी।”
बिराज कहने लगी- “छाटी बहू, तुम नहीं जानती देवयोग से कभी रसोई अशुद्ध हो जाने से उन्होंने नहीं खाया तो मैं ही जानती हूँ मुझ पर क्या गुजरी है। और अब भूख के वक्त उनके सामने यह सब रखना पड़ता है तो महसूस होता है, अब यह भी नहीं मिलेगा।” कहकर बिराज एकदम खामोश हो गई। वह छोटी बहू की छाती पर पछाड़ खाकर गिर पड़ी और उससे लिपट-लिपट कर जोर-जोर से विलाप करने लगी। बड़ी देर तक दोनों सगी बहनों की तरह लिपटी पड़ी रहीं। काफी देर तक दोनों का अटूट नारी-हृदय खोमोशी से आँसूओं से भीगता रहा।
इसके बाद बिराज ने सिर उठाकर कहा- “ना, मैं तुमसे कुछ भी नहीं छुपाऊंगी, क्योंकि तुम्हारे सिवाय मेरा द:ख समझनेवाला कोई नहीं है। मैंने काफी सोच-विचारकर समझ लिया है कि जब तक मैं यहां से दूर नहीं चली जाऊंगी, उनका कष्ट व दु:ख नहीं होगा। यहाँ रहने पर मैं उनका मुख देखे बिना नहीं रह सकती। मैं चली जाऊंगी, बता, मेरे जाने के बाद तुम उनकी देखभाल कर लोगी?”
छोटी बहू ने आँख उठाकर कहा- “कहाँ जाओगी?”
बिराज के अधरों पर एक म्लान हंसी की रेखा खींच गई। कुछ हिचकिचाहट के बाद बोली- “यह नहीं जानती कि कहाँ जाऊंगी, कहाँ जाया जाता है? सुना है इससे बड़ा पाप कोई नहीं है। फिर भी दिन-रात की कुढ़न व घुटन तो मीट जाएगी!”
बात का मर्म समझकर मोहिनी सिहर उठी। उसके मुख पर हाथ रखकर उसने कहा- “छि:-छि: ऐसी बात जबान पर नहीं लानी चाहिए। दीदी! जो आत्महत्या की बात करता है, उसे पाप लगता है, और जो सुनता है उसे भी। छि:-छि: दीदी, यह तुम्हें क्या हो गया है?”
बिराज ने कहा- “यह भी नहीं जानती कि मुझे क्या हो गया है। बस, इतना ही जानकी हूँ कि मैं अब उन्हें खाना नहीं दे सकती। मुझे छूकर कहो कि जैसे भी होगा तुम भाईयौं में मेल करवा दोगी।”
“प्रतिज्ञा करती हूँ।” मोहिनी बैठ गई। फिर पूरी शक्ति से उसके दोनों पांवों को जोर से पकड़कर कहा- “कहो, आज मुझे भी एक भीख दोगी?”
बिराज ने पूछा- “क्या?”
“ठहरो, मैं आती हूँ।”
उसने जाने के लिए कदम उठाया ही था कि बिराज ने छोटी बहू का आंचल पकड़ लिया, कहा- “ना, मत जाओ। मैं तिल भी किसी से नहीं लूंगी।”
छोटी बहू ने कहा- “क्यों नही लोगी?”
बिराज ने तेजी से सिर हिलाते हुए कहा- “यह नहीं हो सकता। मैं किसी का कुछ भी नहीं ले सकती।”
छोटी बहू ने बिराज की आकृति की उत्तेजना को पलभर देखा। वह धम् से बैठ गई अपने पास खीचकर बिठाते हुए कहा- “तो सुनो दीदी, पता नहीं क्यों, तुम मुझे पहले प्यार नहीं करती थीं और न ही ठीक से वार्तालाप। इसके लिए मैं न जाने कितनी बार छिपकर रोई हूँ ओर कितने ही देवी-देवताओ की मनौती मानी है। उन्होंने भी आज सिर उठाकर देखा और तुमने भी बहन कहकर पुकारा। अब मझे इस स्थिति में देखकर तुम मुझे सुखी नहीं कर पाओगी तो कितनी आकुल-व्याकुल होओगी!”
बिराज सिर झुकाए निरुत्तर रहीं।
छोटी बहू ने शीघ्रता से एक टोकरी में खाने-पीने का सामान लाकर दे दिया।
बिराज स्थिर होकर देख रही थी। जब छोटी बहू समीप आकर उसके आंचल में एक सोने की मोहर बांधने लगी तो वह आतंकित होकर चीख पड़ी- “ना-ना… यह नहीं हो सकता… मर जाने पर भी नहीं हो सकता।”
मोहिनी संभल गई। वह भी दृढ़ स्वर में बोली- “होगा और जरूर होगा… क्यों नहीं होगा? मेरे जेठजी ने ही विवाह के समय इसे मुझे दिया था।”
उसने वह बिराज के आंचल में बांध दी। फिर चरण-धूलि लेकर तल पड़ी।
10
मागरा के गंज का पीतल का इतना पुराना कारखाना एकाएक बन्द हो गया। चांडाल जाति की उसकी परिचित लड़की यह समाचार सुनाने कि लिए आई। सांचो की बिक्री बन्द हो जाने के कारण, उसे क्या-क्या नुकसान हुआ, उनका ब्यौरा वह सिलसिलेवार देने लगी। बिराज चुपचाप सुनती रही और गहरा सांस छोड़कर वह रह गई। वह लड़की हताश थी, क्योंकि उसके दुःख का हिस्सा बंटानेवाला कोई नहीं था। वह दुःखी होकर चल पड़ी। परंतु उसे क्या पता, बिराज की इस सांस में न जाने कितने दर्द के तूफान छुपे हुए थे। वह क्या जाने कि शान्त-निश्चल पृथ्वी के नीचे कितने ज्वालामुखी छुपे पड़े है।
नीलाम्बर ने आकर बताया कि उसे काम मिल गया है। कलकत्ते की एक प्रसिद्ध कीर्तन-मण्डली में वह तबला बजाएगा।
इसे सुनते ही बिराज की आकृति म्लान हो गई। उसका स्वामी वेश्या के मातहत होकर, वेश्या के साथ, भले आदमियों के बीच तबला बजाता फिरेगा, तब कहीं उसे दो जून की रोटी मिलेगी। उसकी इच्छा लज्जा के कारण जमीन में धंस जाने की हुई, परंतु वह जबान से मना नहीं कर सकी। दूसरा कोई उपाय नहीं था। सांझ के धुंधलके में नीलाम्बर उसका चेहरा नहीं देख पाया, यह अच्छा ही रहा।
भाटे के खिंचाव में पानी पल-पल घटता रहता है, और तट-प्रान्त पर चिह्न अंकित करता जाता है, उसी तरह वह सूखती गई! मगर छोटी बहू उसका ध्यान रखती थी।
इधर कई दिनों से उसे तीसरे पहर सर्दी लगकर बुखार आ जाता था। उसी दशा में जलता हुआ दीया लेकर उसे रसोईघर में जाना पड़ता था। पति की अनुपस्थिति में वह प्रायः दिन में खाना नहीं बनाती थी। जब रात को खाना बनाती थी तो उसे ज्वर रहता था। पति के भोजन करने के बाद वह पड़ी रहती थी। बस इस तरह समय बीत रहा था। बिराज अपने ठाकुर देवता को इधर मुंह उठाकर देखने को नहीं कहती। पहले की तरह प्रार्थना नहीं करती। दैनिक पूजा के बाद गले में आंचल डालकर जब वह प्रणाम करती है तब यह कहती है कि प्रभु! मैं जिस राह जा रही हूँ, उस राह पर जल्दी से जा सकूं, बस!
***
उस दिन सावन की संक्रान्ति थी। सुबह से ही मूसलाधार वर्षा हो रही थी। बिराज तीन दिनों से ज्वर-पीड़ित थी। वह भूख-प्यास से बेचैन होकर सांझ-बेला में बिस्तर से उठ गई। घर में नीलाम्बर नहीं था। पत्नी की बीमारी में भी, कुछ मिलने की आशा में, परसों उसे श्रीरामपुर के सम्पन्न शिष्य के यहाँ जाना पड़ा। उसने जाते-जाते कहा- वह शाम तक लौट आएगा। परंतु आज तीन दिन हो गए थे, उसके दर्शन दुए। कई दिनों के पश्चात बिराज आज दिन में कई बार रोई थी। वह दीया जलाकर बाहर आ गई। बाहर आकर वह रास्ते के किनारे आकर खड़ी हो गई। वह भीग गई थी। आशंकाओं से घिरती गई। उनका क्या हुआ होगा? वे बीमार तो नहीं पड़ गए। कहीं घोड़ागाड़ी के नीचे तो नहीं आ गए? क्यों करे? पीताम्बर भी घर में नहीं था। वह कल ही छोटी बहू को लेने चला गया था। घर में कुछ नहीं था। वह केवल पानी पीकर ही रह रही थी। भीगते-भीगते उसका सिर चकराने लगा। अपने को संभालकर वह किसी तरह खड़ी हो गई। चण्डी-मण्डप में आकर विलाप करने लगी।
तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया।
एक बार-दो बार।
उसने जाकर दरवाजा खोला।
किसान का बेटा था। उसने कहा- “माँजी! ठाकुर दादा ने एक सूखी धोती मंगवाई है।”
बिराज अच्छी तरह से समझ नहीं पाई, बोली- “धोती मंगवाते है।”
लड़के ने उत्तर दिया- “अभी-अभी वे गोपाल महाराज का दाह-संस्कार करके लौटे है।”
बिराज स्तम्भित रह गई बड़बड़ा उठी- “दाह-संस्कार करके?”
गोपाल चक्रवर्ती उनके दूर के रिश्तेदार थे। उनका वृद्ध पिता कई दिनों से बीमार था। दो दिन पहले ही गंगा-यात्रा (जब बीमार के बचने की कोई आशा नहीं होती तो उसे चारपाई के साथ गंगा या किसी नदी के पानी में रख देते है और उसकी मृत्यु तक ‘हरि बोल’ कहते रहते है) कराई थी। आज दोपहर को वे मर गए। सबकुछ बताकर लड़के ने कहा- “पास-पड़ोस में दादा ठाकुर से अच्छा नाड़ी देखनेवाला कोई नहीं है, इसलिए वे भी उसी दिन से उनके साथ हैं।”
बिराज ने लड़खड़ाते हुए धोती दी और टूटी-टूटी-सी बिस्तर पर आकर पड़ गई।
अंधकार में जिसकी पत्नी चिन्ताओं में घिरी भूखी-प्यासी, बीमार पड़ी हो, यह सब जानने के बाद भी जिसका पति परोपकार में लगा हुआ हो, उस अभागिन को कोई क्या कहे-सुने! आज उसके श्रान्त-कलान्त मन में वह विचार बार-बार आन लगा कि बिराज! तेरा इस संसार में कोई नहीं है। न माँ-बहन, न भाई-बहन और अब पति भी नहीं है। है तो बस केवल यमराज! उनके पास जाने के अलावा तुम्हारी आग कभी भी ठण्डी नहीं होगी। वर्षा की आवाज, झींगुरों की झंकार और हवाओं के सन्नाटों में यह ‘कोई नहीं… तेरा कोई नहीं’ कि आवाज उसके कर्णकुहरों के चारों ओर गूंजने लगी। भण्डार में भात नहीं था, कोठिला में धान नहीं, बाग में फल नहीं, पोखर में मछली नहीं, सुख नहीं, शान्ति नहीं, स्वास्थ्य नहीं और घर में छोटी बहू भी नहीं है; और ताज्जुब तो इस बात का है कि किसी के प्रति उसके मन में अधिक विशेष क्षोभ भी नहीं है।
साल-भर पहले की इस हृदयहीनता के सौवें हिस्से से भी वह पागल हो जाती थी, तिलमिला जाती थई, पर आज वह असीम अवसाद से मानो विचार-शून्य होती जा रही है।
वह निर्जिव-सी पड़ी हुई न जाने क्या-क्या विचारती रही। स्वाभावानुसार उसे याद आया कि उन्होंने दिन-भर से कुछ खाया-पीया नहीं है।
अब उसका धैर्य जाता रहा। दीया लेकर वह भण्डार-घर में गई और देखने लगी कि कुछ पकाने के लिए है या नहीं। मगर वहाँ कुछ नहीं मिला। अनाज के दाने के भी दर्शन नहीं हुए। वह बाहर आकर दीवार का सहारा लेकर सोचती रही।
इसके पश्चात फूंक मारकर दीया बुझा दिया। खिड़की खोलकर बाहर निकल गई।
घोर अंधेरा। भयानक सन्नाटों और घनी झाड़ियों का फिसल-भरा रास्ता भी उसके कदमों को नही रोक सका।
बाग का दूसरा छोर… जंगल जैसा। वहाँ चाण्डालों की छोटी-छोटी झोंपड़ियां थीं। बिराज उधर गई। दीवार नहीं थी, इसलिए आंगन में पहुंचकर पुकारा- “तुलसी!”
तुलसी हाथ में दीया लेकर बाहर आया। बिराज को देखकर वह अवाक रह गया। बोल पड़ा- “माँजी, आप?”
बिराज ने झट कहा- “थोड़ा चावल दे।”
“चावल दूं?” तुलसी को जैसे यकीन नहीं हुआ। वह इस विचित्र मांग का कोई मतलब ही नहीं समझ पाया।
बिराज ने उसकी ओर देखकर कहा- “तुलसी! मेरा मुंह मत देख… जल्दी कर।”
तुलसी ने एक-दो और प्रश्न किए। फिर चावल लाकर बिराज के आंचल में बांधकर कहा- “इन मोटे चावलों से आपका काम नहीं चलेगा। इन्हें आप खा नहीं पाएंगे।”
“खा लेंगे।”
तुलसी ने दीया लेकर रास्ता दिखाना चाहा, पर बिराज ने मना कर दिया। बोली- “ना रे… अकेले तू वापस नहीं आ सकेगा।”
और पलक झपकते वह आँखों से ओझल हो गई।
***
बिराज आज चाण्डाल के घर भीख मांगने आई। भीख मिल भी गई, फिर भी यह अपमान आज उसे नहीं बींध सका। सुख-दुःख, मान-अपमान, कुछ भी सोच सकने की शक्ति उसमें शेष नहीं रही।
घर में आकार देखा तो नीलाम्बर आ चुका था। पूरे दिनों से उसने पति को नहीं देखा था। देखते ही अथाह आकर्षण उसे खींचने लगा, पर उसने अपने को संभाल लिया!
अपने पति को देखकर वह बहुत ही शक्तिमय हो गई। फिर उसे सुन्न-सी देखती रह गई।
नीलाम्बर ने भी एक बार सिर उठाकर झुका लिया। तभी बिराज ने देख लिया कि उसकी दोनों आँखें जवा के फूल तरह लाल-लाल है। वह समझ गई कि मुर्दा फूंकने के दौरान इन्होंने कई-कई दिनों तक गांजा पिया है। कुछ पलों के उपरान्त उसने समीप आकर कहा- “खाना नहीं खाया?”
“नहीं।”
बिराज ने कोई सवाल नहीं किय। वह रसोईघर की ओर जाने लगी कि नीलाम्बर ने पूछा- “इतनी रात गए तुम कहाँ गई थी?”
“यमराज के घर गई थी।” यह कहकर बिराज रसोईघर में घुस गई।
एक घण्टे बाद थाली मे भात डालकर वह नीलाम्बर को बुलाने आई, नीलाम्बर ऊंघ रहा था। नशे के कारण उसका सिर भारी हो रहा था। वह सीधा होकर बैठ गया।
फिर वही सवाल- “कहाँ गई थी?”
बिराज को एक पल के लिए क्रोध आ गया। फिर भी वह संयत स्वर में बोली- “इस समय तो खा-पीकर सो जाओ, सुबह यह बात पूछ लेना।”
“ना… अभी सुनूंगा, बता, कहाँ गई थी?”
उसके हठ पर बिराज को भी हंसी आ गई, बोली- “अगर न बताऊं तो?”
नीलाम्बर बोला- “बतलाना ही पड़ेगा।”
बिराज ने कहा- “पहले खा-पी लो, तभी सुन सकोगे।”
नीलाम्बर ने इस हल्केपन पर कोई ध्यान नहीं दिया। आँखें तरेरकर सिर उठाया। आँखों में घृणा थी। उसने कठोर आवज में कहा- “तुम्हारी बात जाने बिना मैं तुम्हारे हाथ का पानी भी नहीं पीऊंगा।”
बिराज ऐसे चौंक पड़ी जैसे काले सांप के डसने पर भी आदमी नहीं चौंकता। लड़खड़ाते हुए पीछे हटती हुई बोली- “क्या कहा, मेरे हाथ का पानी तक नहीं पीओगे?”
“ना… ना… कभी नहीं!”
बिराज ने पूछी- “क्यों?”
नीलाम्बर चिल्लाया- “पूछ रही हो, क्यों?”
बिराज पति ओर देखती रह गई, बोली- “अब समझ गई। अब नहीं पूछूंगी… जब कल तुम्हारा नशा उतर जाएगा, तब तुम अपने-आप समझ जाओगे।”
नीलाम्बर गुस्से में कहने लगा- “तुम यही कहना चाहती हो न कि मैंने गांजा पीया है? मैंने गांजा आज पहली बार नहीं पीया है कि मैं अपने होश खो दूं। बल्कि मैं कहना चाहूँगा कि तुम होश में नहीं हो…. बुद्धिहीन हो गई हो।”
बिराज बस उसे देखती रही।
नीलाम्बर ने फिर कहा- “बिराज! तुम मेरी आँखों में धूल झोंकना चाहती होम? मैं ही मूर्ख हूँ कि पीताम्बर की बात पर उस दिन विश्वास नहीं किया। तुमने झूठ ही कहा है कि मैं घाट पर गई थी।”
बिराज की आँखें अंगारो-सी जलने लगी। फिर भी अपने को संयत करके बोली- “मैं झूठ इसलिए बोली थी कि तुम सबकुछ जानकर लज्जित हो उठोगे। फिर भात खा भी नहीं सकोगे। मगर अब लाज-शर्म की बात ही खत्म हो गई। तुम अब मनुष्य नहीं रहे। तुमने मुझसे झूठ बोला। इतना बड़ा कपट तो पशु भी नहीं करते, भले ही तुम अपनी बीमार पत्नी को छोड़कर तीन दिनों तक किसी चेले के यहाँ गांजा पीते रहो। बताओ!”
“बताता हूँ।” गुस्से में नीलाम्बर ने बिराज के सिर पर पनडिब्बा उठाकर तड़ाक से दे मारा। सिर पर लगकर जमीन पर गिरकर वह डिब्बा झनझना उठा। खून की धार बिराज की आँख के कोने से बहकर अधर तक फैल गई।
बिराज माथा दबाकर चीख पड़ी- “तुमने मुझे मारा।”
नीलाम्बर गुस्से से कांप रहा था, बोला- “नहीं, मारा नहीं, पतिता! मेरी आँखों से दूर रहो जा… अपना यह चेहरा मत दिखाना!”
बिराज ने कहा- “जाती हूँ।”
एक कदम चलकर वह फिर रुकी, बोली- “किंतु तुम सह सकोगे?”
कल जब याद आएगा कि मैंने अपनी पत्नी को बुखार में पीटा, घर से निकाल दिया। मैं तीन दिनों से भूखी हूँ… फिर भी घोर तिमिर में तुम्हारे लिए भीख मांगकर लाई। तब यह सह सकोगे? इस पतिता को छोड़कर रह सकोगे?”
रक्त बहना देखकर नीलाम्बर का नशा हिरन हो गया। वह चुपचाप खड़ा रह गया।
बिराज ने आंचल से खून पोंछकर कहा- “पूरे एक साल से मैं यहाँ से जाने की सोच रही थी, पर तुम्हें छोड़कर नहीं जा सकी। जरा आँखें खोलकर देखो- मेरे तन में क्या बचा है? नयनों की ज्योति भी सही नहीं, ढंग से चला-फिरा भी नहीं जाता। किंतु पति होकर तुमने मुझ पर लांछन लगाया है, अब तुम्हें अपना मुंह दिखा भी नहीं सकूंगी। तुम्हारे चरणों में मर जाने की मेरी तीव्र लालसा थी, यही लालसा मुझे आज तक रोके रही, पर आज उसे भी छोड़ती हूँ।” और बिराज खिड़की की राह बाग की तरफ चलकर अंधेरे में गुम हो गई।
नीलाम्बर कुछ कहना चाहता था, पर वह कह नहीं सका। वह पीछे भागना चाहता था, पर भाग नहीं सका।
गहरा जल-प्रवाह… सन्नाटा…. उसके पैरों तले काले पत्थर… काले घने मेघों से घिरा आकाश… आत्महत्या की काली इच्छा… वह वहाँ बैठकर अपने हाथ-पांव बांधने लगी।
11
भोर होते-होते आकाश में घने मेघ छा गये थे। टप्-टप् पानी बरसने लगा था। बीती रात खुले हुए दरवाजे की चौखट पर सिर रखकर नीलाम्बर सो गया था। अचानक उसके कानों में आवाज आई- “बहू माँ!”
नीलाम्बर बड़बड़ाकर जाग गया। इसी तरह की मेघाच्छन्न आकाश से हो रही वर्षा में भी श्याम की तान सुनकर राधा व्याकुल होकर उठ बैठी थी। वह आँखें मलता हुआ बाहर आया।
उसने आँगन में तुलसी को खड़ा देखा। सारी रात नीलाम्बर जंगल-जंगल, नदी किनारे अपनी पत्नी को ढूंढकर घण्टे-भर पहले ही लौटा था। थककर चूर होने की वजह से उसे कब नींद आ गई थी, यह वह स्वयं नहीं जान सका।
तुलसी ने कहा- “बाबूजी, माँ कहाँ हैं?”
नीलाम्बर ने आश्चर्य से पूछा- “फिर तू किसे पुकार रहा था?”
तुलसी ने बताया- “मांजी को ही बुला रहा था। कली गहरी काली रात में मेरे घर आकर मोटा भात मांग लाई थीं। अभी दरवाजा खुला देखकर यह पूछने चला आया कि उन मोटो भात से काम चल गया क्या?”
नीलाम्बर बिराज के जाने का मकसद मन-ही-मन समझ गया।, किन्तु वह बोला नहीं। तुलसी ने फिर कहा- “फिर इतने तड़के सुबह खिड़की किसने खोली? क्या बहू जी घाट गई हैं?” कहकर तुलसी चला गया।
नदि के किनारे-किनारे जितने झाड़-झंखाड़, गड्ढे, मोड़ और स्थान थे, नीलाम्बर बिराज को खोजता रहा। उसने न तो स्नान किया था और न गी कुछ खाया-पीया था। सहसा वह रुका। सोचा-यह कैसी मूर्खता मेरे माथे सवार हुई? क्या अभी तक उसे इतना भी याद न होगा कि मैंने दिन-भर कुछ खाया नहीं? यदि यह याद हो आया तो वह पल-भर भी नहीं रुक सकती। तो फिर मैं सुबह से ही यह गड़बड़ काम क्यों कर रही हूँ? इस विचार से उसे इतनी सांत्वना मिली कि उसे साफ-साफ दिखाई देने लगा और उसकी चिन्ता-फिक्र मिट गई? वह नाले लांघता हुआ जल्दी-जल्दी घर की ओर दौड़ पड़ा।
दिन ढलने लगा था। पश्चिम आकाश से बादलों के झरोखों से सूर्य की लाल किरणें चमक रही थीं। वह सीधा रसोईघर में जाकर खड़ा हो गया। देखा-रात का भोजन पड़ा हुआ था। चूहे दौड़ रहे थे। आसन बिछा हुआ था। अंधेरे में तब उसने ध्यान नहीं दिया था, पर अब वह समझ गया था कि तुलसी के दिए हुए मोटे चावल यही है। ज्वर-पीड़ित उसकी बिरज अपने पति के लिए भीख मांगकर लाई थी। इसी के कारण उसने मार खाई, लांछन सुनकर लज्जा व क्षोभ के कारण वह वर्षा की भयंकर रात में घर छोड़कर चली गई।
नीलाम्बर दोनों हाथों में अपना मुंह छुपाकर बैठ गया और स्त्रियों तरह चिल्लाकर रो पड़ा। आभी तक लौटकर नहीं आयी तो अब उसे उसकी आशा भी नहीं रही। अपनी पत्नी को वह मन से जानता था। वह मानिनी अपने प्राण दे सकती है, पर दूसरे के आश्रय में रहने के कलंक को झेल नहीं सकती। नीलाम्बर का अन्तस् हाहाकार कर उठा। उसके पश्चात वह उल्टा गिर पड़ा और बार-बार पुकारने लगा- “बिराज! तू लौट आ, मैं यह सब नहीं सब पाऊंगा।”
सांझ हो गई। घर में न तो किसीने दीया-बत्ती की और न कोई रसोईघर में घुसा। रोते-रोते नीलाम्बर की आँखें सूज गईं, किन्तु किसीने कुछ भी नहीं पूछा। दो दिन के भूखे-प्यासे नीलाम्बर को किसीने खाने के लिए नहीं बुलाया। बाहर वर्षा होने लगी थी। घनघोर अंधेरे में बिजली की तड़क गूंज जाती थी, मानो वह किसी दुर्योग की खबर दे रही हो, फिर भी नीलाम्बर मुंह गड़ाए इसी तरह विलाप करता रहा।
***
जब उसकी आँख खुली को प्रभात हो गया था। बाहर अस्पष्ट शोरगुल सुनकर वह दौड़ आया। दैखा-दरवादे पर एक बैलगाडीं खड़ी थी। उसको देखते ही छोटी बहू मोहिनी घूंघट निकालकर गाड़ी से नीचे उतर आई। भाई पर वक्र-दृष्टि डालकर पीताम्बर उसकी ओर चला गया। छोटी बहू ने समाप आकर माथा टेककर उसे प्रणाम किया।
नीलाम्बर ने बुदबुदाकर कुछ आशीर्वद दिया और रो पड़ा। बहू आश्चर्य में डूब गई। उसके मुंह उठाने से पहले ही नीलाम्बर खिसक गया।
छोटी बहू पहली बार अपने पति से नाराज होकर खड़ी हो गई। उसने आँसूओं के बोझ से दबी अपनी पलकों को उपर उठाकर कहा- “तुम क्या पत्थर हो? दीदी ने लज्जा व दु:ख के मारे आत्महत्या कर ली और हम सब अब भी पराये बने रहेंगे? तुम अलग रह सको तो रहो, पर मैं आज से उस घर का सारा काम करूंगी।”
पीताम्बर चौंक पड़ा- “क्या कह रही हो?”
मोहिनी ने तुलसी के मुंह से जो भी सुना, उस पर सोचकर सारी घटना बता दी।
पीताम्बर सरलता के किसी पर विश्वास करने वाला नहीं था, बोला- “मगर उसकी लाश तो पानी में नहीं मिली!”
छोटी बहू ने अपने नयन-अश्रुओं को पोंछकर कहा- “मिल भी नहीं सकती, तीव्र प्रवाह में कहीं बह गई होगी। यह भी संभव है कि गंगा माता ने उसे अपनी गोद में ले लिया हो, आखिर वह सती लक्ष्मी थी… फिर खोजा भी किसने है?”
पीताम्बर को विश्वास नहीं हुआ, बोला- “अच्छा, मैं पहले खोजता हूँ।”
फिर जरा सोचकर उसने कहा- “कहीं भाभी अपने मामा के घर न चली गई हों?”
मोहिनी ने सिर हिलाकर कहा- “वह वहाँ कभी नहीं जा सकती। बड़ी स्वाभिमानी है, मुझे लग रहा है कि उसने नदी में कूदकर जान दे दी है।”
“ठीक है, मैं उसका भी पता लगाता हूँ।” पीताम्बर उदास मुंह लेकर बाहर निकल पड़ा। अचानक आज भाभी के लिए उसका मन दु:खी हो गया। भाभी को ढूंढने के लिए उसने आदमी दौड़ाए। जीवन में पहली बार उसने ऐसा करके पुण्य-कार्य किया। अपनी पत्नी को बुलाकर कहा- “यदु से कहो कि वह आंगन के बीच लगा बेड़ा तोड़ दे, और तुमसे जो कुछ हो सके करो। दादा की ओर तो देखा भी नहीं जाता।”
फिर वह उदास हो गया। थोड़ा-सा गुड़ खाकर तथा पानी पीकर वह बस्ता दबाकर काम पर चला गया। चार-पाँच दिनों से वह परेशान था। इतने दिनों का नागा उसके लिए काफी नुकसानदेह था।
छोटी बहू काम करते-करते सोच रही थी और आँसू भी बहा रही थी। जेठकी की दशा क्या हुई होगी, यह तो देखना भी कठिन है।
***
नीलाम्बर चण्डी-मण्डप में आँखे बन्द किए निश्चल बैठा था। सामने दीवार पर राधा-कृष्ण का चित्र टंगा था। यह चित्र बेहद सजीव था। उसकी ओर देखकर वह बोल पड़ा- “अन्तर्यामी प्रभु! तुम तो सर्वदर्शी हो। जब उसने कोई अपराध नहीं किया है तो सारे अपराध मुझ पर डालकर उसे स्वर्ग जाने दो। यहाँ उसने बड़ा दु:ख पाया है, अब कोई दु:ख न पाने दो!” उसकी बन्द आँखों के कोरों से नीर झरने लगा।
***
“पिताजी!”
नीलाम्बर ने चौंककर देखा तो उसके सामने छोटी बहू थोड़ा-सा घूंघट निकाले खड़ी थी। उसने सहज स्वर में फिर कहा- “पिताजी! आज से मैं आपकी बेटी हूँ। भीतर चलिए। आज आपको नहा-धोकर पूजा-वन्दना करके कुछ खाना ही होगा।”
नीलाम्बर हतप्रभ हो गया। वह छोटी बहू को निरन्तर देखता रहा, मानो उसे सालों से किसी ने भोजन पर नहीं बुलाया है।
छोटी बहू ने फिर कहा- “पिताजी! भोजन तैयार है, चलिए।”
इस बार नीलाम्बर सब कुछ समझ गया। उसका शरीर बुरी तरह कांप गया। फिर औंधा होकर वह रो पड़ा- “हाँ… हाँ… बेटी, भोजन तैयार है।”
***
जिन-जिन लोगों ने सुना, उन्हें पक्का विश्वास हो गया कि बिराज नदी में डूबकर मर गई है। विश्वास केवल चालाक पीताम्बर को नहीं था। वह सदा इस बात को लकर मन-ही-मन तर्क-कुतर्क किया करता था। आखिर नदी में इतने मोड़ हैं, झाड़-झंखाड़ हैं… कहीं-न-कहीं भाभी की लाश तो मिलती।
मोहिनी अब नीलाम्बर से बोलने लगी थी। थाली परोसकर वह आड़ में बैठ जाती थी। उसने पूछ-पूछकर सब जान लिया था कि सच क्या है और झूठ क्या है! केवल उसने ही जाना कितनी मर्मभेदी व्यथा उसके जेठ के सीने में दबी है।
नीलाम्बर ने कहा- “बेटी! चाहे मेरा कितना ही अपराध क्यों न हो, पर मैंने जान-बूझकर कुछ नहीं किया। फिर वह माया-ममता भुलाकर कैसे चली गई? क्या वह इसी कारण चली गई कि अब उसकी और अधिक सहने की क्षमता मर गई थी?”
मोहिनी भी बहुत अधिक जानती थी। एक बार उसके जी में आया कि सब कुछ बता दे। कह दे कि दीदी एक दिन जाने की बात कह रही थी और आपका भार मुझे सौंप गई थी, पर वह कुछ भी नहीं कह सकी। चुपचाप खड़ी रही।
***
पीताम्बर ने एक दिन पूछा- “क्या तुम दादा से वार्तालाप करती हो?”
मोहिनी ने उत्तर दिया- “हाँ, मैं उन्हें पिता कहती हूँ, इस लिहाज से वातचीत करती हूँ।”
पीताम्बर ने कहा- “लोग निन्दा-स्तुति करते हैं।”
“लोग इसके अलावा कर भी क्या सकते हैं? वे अपना काम करें और मैं अपना काम करुंगी। ऐसी दशा में मैं उन्हें बचा सकी तो सारी लोकनिन्दा सह लूंगी।” इतना कहकर वह अपने काम में व्यस्त हो गई।
12
पन्द्रह माह बीत गए…
शारदीय-पूजा के आनन्द का अभाव चारों ओर दिख रहा है। जल-थल-पवन और आकाश सब उदास-उदास।
दिन का तीसरा पहर। नीलाम्बर एक कम्बल ओढ़े आसन पर बैठा था। शरीर दुबला, चेहरा पीला-पीला। सिर पर छोटी-छोटी जटाएं तथा आँखों में विश्वव्यापी करुणा और वैराग्य! महाभारत का ग्रन्थ बन्द करके भाई की विधवा बहू को पुकारा- “बेटी, मालूम होता है कि पूंटी आदि आज नहीं आएंगे।”
छोटी बहू ने बिना किनारी की धोती पहन रखी थी। वह थोड़ी दूर बैठी। महाभारत सुन रही थी। समय का ध्यान करके वह बोली- “पिताजी! अभी समय है, वे आ सकते है।”
ससुर की मृत्यु के उपरान्त पूंटी स्वतंत्र हो गई थी। पति और नौकर-चाकरों के साथ आज वह पिता के घर आने वाली थी। यह समाचार उसने पहले ही भिजवा दिया था कि पूजा के दिनों में वह वहीं रहेगी। उसे यह भी नहीं मालूम था कि उसकी भाभी चली गई हैं और उसके छोटे भाई पीताम्बर को छ: माह पूर्व सांप ने काट लिया था और अब वह इस संसार में नहीं रहा है।
नीलाम्बर ने कहा- “अगर वह नहीं आती तो ही अच्छा। एक-साथ वह इतने दु:ख बर्दाश्त नहीं कर पाएगी।”
लम्बे समय के बाद आज उसकी आँखों में अपनी लाड़ली व स्नेहमयी बहन के लिए आँसू दिखलाई पड़े। सांप के काटने के बाद पीताम्बर ने कोई झाड़-फूंक नहीं करने दी। कोई दवा-दारु नहीं की। वह सिर्फ उपने भाई के चरणों को पकड़कर बार-बार यही कहता रहा- “दादा! मुझे कोई दवा नहीं चाहिए। मुझे अपने चरणों की धूलि माथे पर लगाने दो तथा मुंह में लेने दो। इससे अगर नहीं बचा तो मैं बचना भी नहीं चाहता।” आखिरी सांस तक वह उसके पांवों में सिर रगड़ता रहा। उसी दिन नीलाम्बर आखिरी बार रोया था। आज उसकी वही आँखें फिर भर आई। पतिव्रता साध्वी छोटी बहू भी चुपके से अपने आँसू पोंछने लगी।
नीलाम्बर ने कहा- “बेटी, पीताम्बर की तरह भगवान यदि बिराज को भी अपने पास बुला लेता तो आज मेरे लिए सुख का दिन होता। मगर यह सब हुआ नहीं। पूंटी अब समझदार हो गई है। अपनी भाभी के कलंक की बात सुनकर उसे घोर पीड़ा होगी। तब वह सिर ऊंचा करके देख भी नहीं सकेगी।”
***
सुन्दरी अपनी ही आत्मग्लानि में पागल-सी हो गई। कुछ दिनों बाद जब उसकी सहन-शक्ति खत्म हो गई, तब उसने दो माह बाद यह बता दिया था कि बिराज मरी नहीं, बल्कि वह राजेन्द्र बाबू के साथ भाग गई है। तब नीलाम्बर की आन्तरिक पीड़ा उससे देखी नहीं गई। उसने सोचा था कि ऐसी घिनौनी बात सुनकर वे गुस्से से उबल जाएंगे और बिराज की याद को अपने दिल से निकाल देंगे। यह बात घर आकर उसने छोटी बहू को बताई थी।
यही बात छोटी बहू को याद हो आई। थोड़ी देर चुप रहकर उसने कहा- “यह बात ननद जी को नहीं बताई जाएगी।”
“कैसे छुपाऊंगा बेटी?”
“जी सभी जानते हैं, उसे ही पूंटी को बता दिया जाएगा कि बिराज नदी में डूब मरी है।
“यह नहीं होगा बेटी! सुना है, पाप छुपाने से और बढ़ता है। हम उसके अपने हैं। अब हम उसके लिए पाप का बोझ नहीं बढ़ाएंगे।”
थोड़ी देर बाद मोहिनी बोली- “पिताजी! शायद यह बात झूठी हो।”
“क्या तुम्हारी दीदी की बातें?”
छोटी बहू सिर झुकाए खड़ी रही।
नीलाम्बर ने कहा- “बेटी! तुम्हें मालूम है कि गुस्से में वह पागल हो जाती थी। उसका स्वभाव बचपन से ही ऐसा था। फिर उस पर मैंने जितना अत्याचार और अनादर किया, उसे तो भगवान भी सहन नहीं कर सकता था।”
दो क्षण बाद नीलाम्बर ने हाथ से आँसू पोंछकर कहा- “बेटी! सभी बातों की याद आती है तो छाती फटने लगती है। उस अभागिन बिराज ने तीन दिनों से खाया-पीया नहीं था। बुखार में कांपते-कांपते, वर्षा में भीगते-भीगते मेरे लिए चावल मांगने गई थी। और इसी अपराध पर मैंने उसे…।” नीलाम्बर का कलेजा दर्द से भर आया। धोती का पल्लू मुंह में डालकर उसने अपने उच्छवास को रोकना चाहा।
छोटी बहू भी उसी तरह रो रही थी। वह भी एक शब्द नहीं बोली। थोड़ी देर संयत होकर अपने आँसू पोंछकर नीलाम्बर ने फिर कहा- “बेटी! बहुत-कुछ तुम्हें मालूम है, फिर भी सुनो, उसी रात वह उन्मत्त होकर सुन्दरी के घर पहुंच गई थी और उसी रात पैसों के लोभ में पड़कर सुन्दरी ने उसे राजेन्द्र के बजरे में पहुंचा दिया था।”
वात पूरी होने से पहले ही लज्जा और पीड़ा से तिलमिलाकर छोटी बहू चिल्ला पड़ी- “ना-ना… यह सच नहीं हो सकता, कदापि नहीं। पिताजी! मेरी दीदी जीते-जी ऐसा काम नहीं कर सकती। वह तो सुन्दरी को देखना भी पसन्द नहीं करती थी।”
नीलाम्बर बोला- “बेटी! शायद तुम्हारी बात ही सच हो। उसके शरीर में प्राण नहीं था। जब उसकी बात और बुद्धि ठीक थी, तभी उसने मुझे अपने प्राण अर्पण कर दिए थे।” नीलाम्बर ने अपनी आँखें बन्द कर ली, मानो वह अन्तर्मन से सबकुछ देखने की चेष्टा कर रहा हो।
सान्ध्य-दीप जलाते-जलाते छोटी बहू सोच रही थी-दीदी इन्हें पहचानती थी, इसलिए तो एक दिन भी इन्हें छोड़कर जीवित रहना नहीं चाहती थी।
***
चार साल के बाद पूंटी पीहर आई थी- एक बड़े आदमी की तरह। उसके साथ था उसका पति, पाँच-छ: माह का बेटा, चार दास-दासियां और ढेर सारा सामान!
नौकर यदु ने सबकुछ स्टेशन और घर के बीच ही बता दिया था। वह दादा की गोद में आकर फूट-फूटकर रो पड़ी। उस रात तो उसने पानी तक नहीं पीया। पहले वह भाभी का संकोच करती थी, उससे डरती थी। ससुराल जाने के एक दिन पूर्व उसे भाभी ने डांटा था तो वह भैया के गले में झूलकर खूब रोई थी। वह दादा को केवल पुरुष ही नहीं, बल्कि अपनी माँ भी मानती थी। उसी स्नेहमय दादा को उसने इतने दु:ख दिए। उसने दादा को जर्जर व पागल-सा बना दिया। उस पर उसके क्रोध व दु:ख की कोई सीमा नहीं थी। अपने दादा के दु:खों के सामने उसे अपने दु:ख बहुत छोटे लगे। उसे अपने ससुराल वालों से घृणा-सी हुई। छोटे भाई की सर्पदंश से हुई मृत्यु ने उसे अधिक व्यथित नहीं किया, बल्कि वह छोटी भाभी के प्रति उदासीन हो गई।
दो दिनों के बाद उसने अपने पति को बुलाकर कहा- “तुम सब कुछ लेकर चले जाओ। मैं दादा को लेकर पश्चिम की यात्रा करुंगी। अच्छा तो यह होगा कि आप भी मेरे साथ चलें।”
बहुत वाद-विवाद के बाद पूंटी के पति यतीन्द्र ने यह ठीक समझा कि वह अपना माल-असबाब लेकर वापस चला जाएगा। वह चला भी गया।
यात्रा की तैयारियां होने लगी। पूंटी ने गुप्त रुप से सुन्दरी को बुलाया था, पर वह नहीं आई। उसने कहलवा दिया था उसे जो कुछ कहना है, वह पहले ही कह चुकी है! अब मैं अपना मुंह और नहीं दिखा पाऊंगी।
पूंटी क्रोध में होंठ काटकर रह गई? पूंटी की उपेक्षा और निर्मम व्यवहार से छोटी बहू को भी कितनी ठेस लगी, वह भगवान ही जानते थे। वह मन-ही-मन कह उठी, दीदी! तुम्हारे सिवाय मुझे इस धरती पर कौन समझेगा? तुम जहाँ कहीं भी हो, सुखी रहो। यदि तुमने वहाँ से ही मुझे क्षमा कर दिया है तो वही मेरे लिए सर्वस्व है।
छोटी बहू सदा शान्त भाव से रहती थी और कभी भी उसने किसी से कोई शिकायत नहीं की। सबकी सेवा वह शान्त भाव से करती रही। जेठ को खिलाने का जिम्मा पूंटी ने ले लिया, अत: अब नीलाम्बर के पास भी नहीं बैठती थी।
रवानगी का दिन आ गया। नीलाम्बर ने आश्चर्य से कहा- “बहू! तुम नहीं चलोगी?”
छोटी बहू ने ‘न’ के लहजे में गर्दन हिला दी।
पूंटी भी बच्चे को गोद में लिए आ गई। नीलाम्बर ने कहा- “बेटी! यह नहीं हो सकता। तुम यहाँ अकेली कैसे रहोगी और रहकर भी तुम क्या करोगी? चलो।”
“नहीं पिताजी!” छोटी बहू ने गर्दन झुकाए हुए कहा- “मैं कहीं भी नहीं जा सकूंगी।”
छोटी बहू के पीहरवाले सम्पन्न थे। उन्होंने कई बार बुलाने की चेष्टा भी की थी, पर वह किसी भी कीमत पर जाने को तैयार नहीं हुई।
तब नीलाम्बर यही सोचता था कि वह मेरी वजह से पीहर जाना नहीं चाहती, पर अब वह सुनसान घर में अकेली क्यों रहना चाहती है? बोला- “क्यों बेटी, ऐसी क्या बात है कि तुम कहीं नहीं जा सकोगी?”
वह निरुत्तर रही।
“बेटी! यदि तुमने नहीं बताया तो मेरा भी जाना नहीं होगा।”
छोटी बहू ने कहा- “आप जाइए… मैं रहूंगी।”
“लेकिन क्यों?”
छोटी बहू खामोश रही। उसके भीतर एक द्वन्द्व चल रहा था। वह थूंक निगलकर बोली- “पिताजी! शायद दीदी आ जाएं, इसलिए मैं कहीं भी जाना नहीं चाहती।”
नीलाम्बर की आँखों के आगे अंधेरा छा गया। पलभर के लिए वह विमूढ़ रहा। तुरन्त ही अपने-आपको संभालकर होंठों पर क्षीण मुस्कान लाकर बोला- “बेटी! यदि तुम पागल हो गई तो मेरा क्या होगा?”
छोटी बहू ने क्षणभर आँखें मूंदकर सोचा। फिर बोली- “पिताजी! मैं पागल नहीं होऊंगी। आप कुछ भी सोचें, मगर जब तक चन्द्र-सूर्य है तब तक मैं ऊटपटांग बातों पर विश्वास नहीं कर सकती।”
पूंटी और नीलाम्बर अवाक उसे देख रहे थे। छोटी बहू ने फिर कहा- “पिताजी! आपके चरणों में मर जाने का जो वरदान दीदी ने मांगा था, वह झूठा नहीं हो सकता। सती-लक्ष्मी जैसी मेरी दीदी अवश्य आएंगी। जब तक जिऊंगी, इसी आशा में उनकी प्रतिक्षा करती रहूँगी। पिताजी! मुझे कहीं भी जाने के लिए मत कहिएगा।” वह निरन्तर बोल रही थी, इसलिए, हांफने लगी।
नीलाम्बर से नहीं रगा गया तो वह रो पड़ा। फिर वह एक ओर भाग गया।
पूंटी ने एक बार चारों ओर देखा, फिर छोटी बहू के समीप आई। बच्चे को उसके पांवों के पास बिठाकर भाभी के गले से लिपटकर फूट-फूट कर रोने लगी। वह अस्पष्ट स्वर में बुदबुदाई- “भाभी⌡! मुझे क्षमा कर दो, क्षमा… मैं तुम्हें पहचान नहीं सकी।”
छोटी बहू ने झुककर उसके बेटे को उठा लिया। फिर उसके मुंह से अपना मुंह सटाकर आँसूओं को छुपाने के लिए रसोईघर में भाग गई।
13
वैसे बिराज का मर जाना ही ठीक था, पर वह मरी नहीं। कई दनों से भूख और दु:ख-दर्द से आहत थी। अपमान की चोटों से उसका दुर्बल मस्तिष्क खराब हो गया। उसी रात मरने के चन्द क्षणों पूर्व उसने दूसरी राह पर अपने कदम बढ़ा दिए। मौत का इरादा करके वह अपने हाथ-पांव बांध रही थी, तभी बजली चमकी। भयभीत होकर उसने सिर उठाया। तेज रोशनी में नदी के पार घाट पर बनाए हुए मचान पर उसकी दृष्टि पड़ गई। लगा जैसे वह उसकी प्रतीक्षा में आँखें फाड़े हुए है। मानो उससे चार नजर हो गए हों और उसे बुला रहे हों। अचानक बिराज गरज उठी- “वे साधु-महात्मा तो मेरे हाथ का पानी नहीं पीएंगे, पर यह पापी तो पीएगा, ठीक है।”
लुहार की धौंकनी में जलते हुए कोयलों की तरह बिराज का अतुलनीय अमूल्य हृदय भी उसके मस्तिष्त की धधकती आग में स्वाहा हो गया। पति और मृत्यु-धर्म को भूलकर वह उस पार घाट को अपलक देखने लगी। घोर अंधेरे में आकाश की छाती को चीरती हुई बिजली फिर एक बार कौंध गई। उसने सिर उठाकर एक बार बन्धनों की ओर देखा, फर एक बार घर की ओर, और बन्धन खोलकर वह जंगल की ओर चल पड़ी। बुद्धि लुप्त हो गई। उसके कदमों की आहट से कितने ही जीव-जन्तु रास्ता छोड़कर हट गए, पर उसे कुछ होश नहीं रहा। वह सुन्दरी के पास जा रही थ। पंचानन ठाकुर के तल्ले में वह रहती थी। पूजा चढ़ाते जाते वक्त वह उसका घर कई बार देख आई थी। इस गाँव की बहू होने के बाद वह लगभग सभी रास्तों को जान गई थी।
इसके दो घण्टे बाद कंगाली मल्लाह ने अपनी नाव उस पार के लिए छोड़ दी। पैसे के लालच में रात के अंधेरे में उसने सुन्दरी को कई बार उस पार पहँुचाया था, पर आज वह एक की जगह दो स्त्रियों को ले जा रहा था जो एकदम चुपचाप थीं। अंधेरे में वह बिराज को पहचान नहीं सका। घाट के पास आकर अंधेरे में ही उसने एक लंबे कद का काया को देखा। उसने आँखें बन्द कर लीं।
सुन्दरी ने धीरे से पूछा- “किसने मारा इतनी निर्ममता से?”
बिराज ने अधीर होकर कहा- “उनके अलावा मुझ पर कौन हाथ उठा सकता है।”
सुन्दरी हतप्रभ होकर चुप हो गई।
***
दो घण्टे के बाद सजे-सजाये बजरे का जब लंगर उठने लगा, तब बिराज ने पूछा- “सुन्दरी तुम नहीं चलोगी?”
“नहीं बहू!” सुन्दरी ने कहा- “मैं इधर नहीं रही तो लोग शक करेंगे। बहू! डरो नहीं, जाओ। फिर भेंट होगी।”
बिराज निरुत्तर रही। सुन्दरी उसी नाव से वापस अपने घर आ गई।
बिराज को लेकर जमींदार का सजा हुआ बजरा नदीं के बीच चलने लगा। वह त्रिवेणी की ओर जा रहा था। आंधी के कारण डांडों की आवाज मर गई थी। एक ओर राजेन्द्र चुपचाप बैठा शराब पी रहा था। उसका सिर झुका हुआ था। बिराज बुत की तरह बैठी-बैठी जलधारा को देख रही थी। राजेन्द्र ने आज अधिर सुरापान किया हुआ था। नशे में वह उन्मत्त हुआ जा रहा था। धीरे-धीरे बजरा सप्तमग्राम की समा पार कर गया। वह उठकर बिराज के पास आया। बिराज के सूखे बाल इधर-उधर उड़ रहे थे। सिर का आंचल खिससकर कंधे पर आ गया था। वह मदहोश थी उसका ध्यान उधर गया ही नहीं कि कौन आया है और कौन गया है।
परंतु राजेन्द्र को यह क्या हो गया? वह भयभीत हो गया। मन-ही-मन मानो किसी सूनी व डरावनी जगह में भूत-प्रेतों का भय जाग गया हो। वह देखता रहा, पर बातचीत नहीं कर सका।
और इस औरत के लिए उसने क्या नहीं किया। इसके लिए दो साल तक पागल बना रहा। सोते-जागते बस केवल इसकी एक झलक देखने के लिए तरसता रहा। वह जंगल-जंगल भटका। जिस बात की उसे सपने में भी आशा नहीं थी, उसी के लिए जब सुन्दरी ने उसे सोते में जगाया तो उसे अपने भाग्य पर घमण्ड हुआ।
नदी का घुमाव आ गया था। उसके दोनों ओर बरगद और पाकड़ के बड़े-बड़े पेड़ और बांस के झुरमुट थे। जगह-जगह बांस की पंक्तियां झुक आई थई, जिससे अंधेरा घना हो गया था। अब राजेन्द्र ने अपना साहस बटोरा औऱ बोला- “तुम… आप… आप जरा भीतर बैठ जाइए। यहाँ पेड़ों की डालियां वगैरह लग जाएंगी।”
बिराज ने सिर घुमाया। सामने एक छोटा-सा दीया जल रहा था। उसी के मन्द उजाले में दोनों की आँखें मिली। उस पल भी वह पापी परायी धरा पर खड़ा होकर उससे आँखें नहीं मिला पा रहा था। शराह में मदमस्त होने के बाद भी वह बिराज को ठीक से नहीं देख पा रहा था। उसका सिर झुका हुआ था।
बिराज भी देखती रह गई। पराये मर्द के पास बैठकर भी उसने न तो पर्दा कर रखा है और न आँचल ही व्यवस्थित कर रखा है। यहाँ नदी तंग थी। भाटे का प्रभाव था। इसलिए मल्लाहों ने डांडे चलाना बन्द कर दिया। राजेन्द्र ने उन्हें सावधान किया- “भाई, संभल के।”
उसने बिराज से कहा- “आप भीतर आ जाइए… कहीं चोट लग जाएगी।” कहकर खुद भीतर चला गया।
बिराज यंत्र-चालित-सी भीतर चली गई। भीतर पहुंचते ही वह चिल्ला पड़ी- “ओ माँ!”
राजेन्द्र चौंक गया। दीये के धुंधले उजास में बिराज की दोनों आँखें तथा खून से सना माथे का सिन्दूर चामुंडा के तीनों नेत्रों की तरह जल रहा था। शराबी-कबाबी राजेन्द्र कांप रहा था। भयभीत हो गया। वह ऐसे चौंकी जैसे उसका पांव अंधेरे में सांप पर पड़ गया हो! वह सिंहनी की तरह भागी और बोल पड़ी- “माँ… यह मैंने क्या किया?” और वह अंधेरे में अतल जलधारा में कूद गई।
नाविक शोर मचाते हुए इधर-उधर दौड़े। बजरा भी उलटते-उलटते बचा वे कुछ भी नहीं कर पाए। बहुत गौर से देखा, पर उन्हें कहीं भी कुछ भी दिखाई नहीं दिया। राजेद्र विमूढ़ हो गया। उसका सारा नशा हवा हो गया।
नाविक ने समीप आकर पूछा- “क्या किया जाए? पुलिस को सूचना दी जाए?”
राजेन्द्र ने विह्वल होकर कहा- “क्या जेल की हवा खाने के लिए? अरे गदाई! किसी तरह यहाँ से भाग निकलो!”
गदाई पुराना नाविक था। राजेन्द्र को पहचानता था। ऐसी घटना की परेशानियों व चिन्ताओं से सारे परिचित थे। राजेन्द्र की बात का मर्म समझ गए। देखते-देखते बजरा वहाँ से दूर, बहुत दूर निकल गया।
राजेन्द्र ने कलकत्ता पहुंचकर चैन की सांस ली। पिछली रात जो कुछ भी घटा था, उसे याद करके वह कांप जाता था। उसने सोच लिया था ति अब वह उधर कभी मुंह नहीं करेगा! आज तक उसका सामना बाजारु व छिनाल स्त्रियों से हुआ था, किसी सती-साध्वी से नहीं। वह आज से पहले नहीं जानता था कि सती क्या होती है। उस चरित्रहीन पापी को पहली बार यह लगा कि मरे सांप से खेला जा सकता है, पर जमींदार का बेटा होकर भी वह जिन्दा सांप से नहीं खेल सकता।
14
कई दिन बीत गए। बिराज हुगली अस्पताल में पड़ी हुई थी। साथ वाली औरत से जाना कि यह अस्पताल है। उसने अपनी बातों से याद करने की चेष्टा की। बहुत-कुछ बातें याद भी हो आई कि किस तरह उसके सतीत्व पर पति ने कटाक्ष किया था। पीड़ा और भूख से उसका टूटा व जर्जर शरीर निराधार आरोपों को सहन नहीं कर सका। अनेक दिनों से दुःख सहते-सहते वह पागल हो गई थी। घृणा और दंभ की मिली-जुली भावना के कारण उसने कह दिया कि उनका मुंह नहीं देखूंगी। मरने तो चली आई, पर वह मर नहीं सकी। फिर वह मानसिक दोष के कारण बजरे में चढ़ गई। नदी में कूद पड़ी और तैरकर किनारे आ गई। फिर एक घर के आगे चली गई। बस, इतना स्मरण था उसे। यह स्मरण नहीं कि उसे कौन लाया था। वह एक छिनाल है। पराये मर्द का सहारा लेकर वह घर से निकली है।
इसके आगे वह कुछ भी नहीं सोच पाती। वह सोचना भी नहीं चाहती। आहिस्ता-आहिस्ता वह अच्छी होने लगी, थोड़ा टहलने लगी, किंतु वह रात-दिन यह महसूस करती थी कि वह एक दर्दनाक घटना थी। उसको याद-भर करने से उसका शरी ठण्डा पड़ने लगता था और उसे चक्कर आने लगता था।
अगहन माह में एक स्त्री ने आकर कहा- “अब तुम स्वस्थ हो गई हो। यहाँ से जाना पड़ेगा।”
वह स्त्री अस्पताल की थी। उसने पूछा- “जो लोग तुम्हें यहाँ दाखिल करा गए थे, वे वापस नहीं आए। उनसे तुम्हारा कोई भी नाता-रिश्ता नहीं है क्या?”
“ना-ना… मैंने उन्हें तो देखा भी नहीं। वर्षा की एक रात मैं नदी में डूब गई थी। इसके बाद मुझे कुछ भी मालूम नहीं।”
“ओह! तो नदी में डूब गई थी! मगर तुम्हारा घऱ कहाँ है?” –उस स्त्री ने स्नेह से पूछा।
बिराज ने मामा के घर का नाम लेकर कहा- “मैं वहाँ जाऊंगी। वे मेरे घरवाले है।”
वह स्त्री आयु में उससे बड़ी थी। स्नेह से बोली- “बिटिया! वहाँ चली जाओ। परहेज से रहना! कुछ ही दिनों में अच्छी हो जाओगी।” वह स्त्री दयार्द्र हो उठी।
बिराज ने दर्द से विहंसकर कहा- “अब कहाँ अच्छी होऊंगी! यह आँख व हाथ ठीक नहीं हो सकते।”
रोग के बाद उसकी बाई आँख से दिखलाई देना बन्द हो गया था तथा उसका बायां हाथ भी बेकार हो गया था। उस स्त्री की आँखे भर आई, बोली- “कुछ नहीं कह सकते… अच्छा भी हो सकता है।”
दूसरे दिन वह कुछ खर्च और जाड़े के वस्त्र दे गई। प्रणाम करके जाते-जाते सहसा बिराज लौट आई, बोली- “अगर आपके पास कोई दर्पण हो तो दीजिए, मैं जरा अपना मुंह देखना चाहती हूँ।”
“हाँ-हाँ, अभी देती हूँ।”
स्त्री ने उसे एक दर्पण लाकर दे दिया। बिराज लोहे के पलंग पर वापस बैठ गई।
उसने जैसे ही दर्पण देखा, दर्द से कराह उठई। असीम वेदना से उसका रोम-रोम तड़प उठा। उसके लम्बे बाल सिर पर नहीं थे। चेहरा विकृत हो गया था। रग काला पड़ गया था। “है ईश्वर! आपने मुझे ऐसी सजै क्यों दी? हे दयामय! तुम्हें मुझे कुरुप बनाकर क्या मिल गया? मैं जब बीमार थी, तब मुझे अपने पति का मुंह साफ-साफ दिखाई देता था। मैंने जो कुछ किया, वह अचेतावस्था में किया। वे मेरा अपराध क्षमा नहीं करेंगे?” वह पश्चाताप की आग में जलती रही।
उसी वार्ड में एक और बीमार स्त्री थी। बिराज को इस तरह रोते देखकर उसके पास आई और पूछने लगी- “बहन! इस तरह क्यों रो रही हो?”
उफ! एक और ने बिराज से रोने का कारण पूछा। बिराज ने अपनी आँखें पोंछ लीं और तुरन्त ही वहाँ से चल पड़ी।
भीड़-ही-भीड़! शोरगुल! बिराज ने एक नए सिरे से अपनी यात्रा शुरु कर दी। एक नामालूम यात्रा। वह सोच में डूब गई। लम्बी सांसे लेन लगी। बिराज ने मन-ही-मन कहा- “है ईश्वर! शायद तुमने यह अच्छा ही किया अब कोई भी मेरी ओर आँख उठाकर देख नहीं पाएगा। वह कुरुप चेहरा और यह मन्द नयन-ज्योति कदाचित इसी यात्रा हेतु है। गाँव के लोग जानते है कि वह घर से भागनेवाली एक छिनाल है इसलिए वह गाँव की ओर तो नहीं जा सकती। ईश्वर! इस मूर्ख को ऐसी विषम स्थिति देना ही तेरा कल्याणकारी विधान है।”
और बिराज चलती ही गई।
***
दिन-पर-दिन बीतते जा रहे थे।
बिराज ने नौकरानी का काम करना चाहा, पर वह इतनी अशक्त हो गई थई कि चाहकर भी वह यह काम नहीं कर सकी। उसे कोई काम पर नहीं रखता था। हताश होकर उसने भीख मांगना शुरु कर दिया। भीख मांगकर वह पेड़ के नीचे खाना बना लेती और खाकर सो जाती थी। इस वर्तमान जीवन में अतीत का कोई चिह्न शेष नहीं था। उसे कोई नहीं पहचान सकता था। उसके कपड़े जगह-जगह से फटे हुए थे उसका कुंदन-सा तन आज माटी हो गया था। परंतु दो बातें उसे भूल नहीं पाती थी। पहली, आज भी ‘दो’ कहने के साथ उसका मुंह लज्जा से लाल हो जाता था। दूसरी बात यह थी उसे अपने घर से दूर जाकर मरना पड़ेगा उम्र भी उसकी केवल पच्चीस साल की थी। वह यह भी नहीं जानती थी कि कहाँ मरेगी। बस निरन्तर रास्ता तय करती जा रही थी। वह उस स्थान तक पहुंचना चाहती थी जहाँ उसका पति उसकी यह हालत ने देख पाए। उसने चाहे कैसी भी गलती की हो, पर उसका पति उसकी यह हालत धेकर दहाड़ मारकर रो पड़ेगा। यही बात भूल जाने के लिए वह निरन्तर भागती जा रही थी।
एक साल बीत गया था। वह साल-भर चलती रही, पर उसका गन्तव्य कहाँ था? वह कहाँ अपनी देह का विसर्जन करेगी?
आज वह दो दिनों से एक पेड़ के नीचे अशक्त-सी पड़ी है। रोग ने उसे दबोच लिया है- ज्वर, खांसी और छाती का दर्द! उसे बार-बार लग रहा था कि अस्पताल से अच्छी होकर वह कुछ सबल बन गई थी, पर अब लग रहा है कि वह अधिक दिनों तक नहीं टिक पाएगी। आज वह नयन मूंदे सोच रही थी कि उसी पेड़ के नीचे ही उसकी अन्तिम मंजिल है। क्या इसी गन्तव्य के लिए वह अविराम गति से चलती आई थी? अब क्या वह आगे नहीं चल पाएगी?
दिन बीत गया।
पेड़ की सबसे ऊंची चोटी पर सूर्य की किरण स्पर्श करके मिट गई। दूर से संध्याकालीन शंख-ध्वनि उसके कानों में पड़ी। उसकी मुंदी आंखों के सामने गृहस्थ जनों की मंगल मूर्तियां नाच उठीं। कौन इस समय क्या कर रही होगी, कौन दीया जला रही होगी, कौन आंचल डालकर प्रणाम कर रही होगी, कौन तुलसी के चबूतरे पर दीया जला रही होगी… नयन भर आए, वह रो पड़ी। उसे लगा कि न जाने कितने ही हजारों सालों से वह किसी घर में सान्ध्य-दीप नहीं जला पाई है। किसी के मुख-दर्शन करके भगवान से उसके लिए चिरायु व ऐश्वर्य की प्रार्थना नहीं कर सकी है।
इन्हीं सब बातों के कारण वह सो नहीं सकी। सारी रात आँखों में काट दी। उसे लगा कि कोई उसकी बन्द दृष्टि को खोलकर उसमें पवित्र माधुर्य भर गया है। अब पि से भेंट हो या न हो, पर एक पल के लिए भी उसे कोई उनसे अलग नहीं कर सकता। इस तरह उसे पाने की राह थी, चाह थी। फिर व्यर्थ ही वह इतने दिनों तक उसे अलग रहकर क्यों दुःख पाती रही? इस गलती के कारण वह वेदना से घिर गई। दुःख उसे दंश-पीड़ा देने लगे। उसे महसूस हुआ कि उसे उसका पति बुला रहा है। यह विश्वास था।
बिराज ने दृढ़तासे सोचा-यह ठीक है। क्या यह शरीर मेरा अपना है? उनकी आज्ञा के बिना इसे नष्ट करना क्या ठीक है? नहीं, इसे नष्ट करने का विचार तो वे ही कर सकतै है सभी बातें उनके चरणों में निवेदन करने के बाद ही मुक्ति मिलेगी।
बिराज लौट पड़ी।
उसका तन-मन आज हल्का हो गया था। उसके पांव मानो कठोर भूमि पर नहीं पड़ रहे थे। मन तृप्त था, उसमें जरा-सी ग्लानि नहीं। वह निरन्तर वही सोच रही थी कि यह उसकी कितनी बड़ी भूल थी। उसके सिर पर अहंकार कैसा लद गया था? यह कुरुप और कुत्सित मुख लिए और तो किसी का सामना करने में शर्म आई नहीं, पर जिनके समक्ष करने का अधिकार विधाता ने नौ साल की उम्र में दे दिया था, उनसे कैसी लाज?
15
पूंटी अपने भाई नीलाम्बर को एक पल भी चैन से नहीं बैठने देती थी। पूजा के दिनों से लेकर पूस के अन्त तक वे शहर-दर-शहर और एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ घूमते रहे। वह अभी नवयौवना थी। उसके शरीर में शक्ति थी। उसमें हर वस्तु को जानने की असीम जिज्ञासा भी थी।
नीलाम्बर उसके बराबर नहीं चल सकता था। वह जल्ही ही थक जाता था। वह चाहता था कि थोड़ा-सा विश्राम करता, पर पूंटी नहीं मानती थी।
उसका मन अपने घर की ओर लगा रहता था। उसका थका मन न जाने क्यों अपने गाँव जाना चाहता था। देश में या गाँव में क्या है? यहाँ स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। कभी-कभी छोटी बहू पूंटी को पत्र लिखती है। उसकी इच्छा यह है कि दादा पहले की तरह हो जाएं. चिन्ता के कारण उनकी देह कंकालवत् रह गई थी। पूंटी की इच्छा है कि उसके दादा हर घड़ी ठहाके लगाते रहे, गुनगुनाते रहे, पर उसके दादा उसके सारे प्रयासों को बेकार करते जा रहे थे। वह हताश नहीं हुई। सोचती थी कि कुछ दिनों के बाद सब ठीक हो जाएगा। इस तरह चार-पाँच महिने बीत गए, पर कोई लाभ नहीं हुआ। घर छोड़कर आने के दिन मोहिनी की बातों ने बिराज के प्रति करुणा के भाव जाग्रत कर दिए थे। उसे विश्वास-सा हो गया था कि वह निर्दोष है, पर पूंटी का विचार इसके विपरीत था। दादा क्या ठीक नहीं हो सकते? संसार में ऐसी पीड़ा की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी जिससे बिराज इस आदमी को इतने दुःखों में डालकर अलग हो सकती है। भाभी अच्छी थी या बुरी, यह बात अब पूंटी नहीं सोच सकती, किंतु उसके भाई को छोड़कर जाने वाली स्त्री की वह कट्टर शत्रु बन गई थी।
पूंटी एक सुबह मुंह फुलाए आई और उसने कहा- “दादा, चलो घर चलें।”
नीलाम्बर ने जरा अचरज से बहन को देखा, क्योंकि माघ के महिने में प्रयाग में रहने की बात तय हुई थी। दादा के मनोभावों को समझकर पूंटी ने कहा- “अब एक दिन भी रहना नहीं चाहती। कल ही चलेंगे।”
अपने चहेरे पर नीलाम्बर ने सूखी मुस्कान लाते हुए कहा- “पूंटी! क्या बात है?”
पूंटी अपने को संभाल नहीं पाई। फफक पड़ी। भर्राई आवाज में बोली- “जब तुम्हें यहाँ रहना ही अच्छा नहीं लगता, तब यहाँ रहने से लाभ क्या है? दिन-प्रतिदिन कमजोर होते जा रहे हो। ना… ना… मैं एक दिन भी अब नहीं रह पाऊंगी।”
नीलाम्बर ने स्नेह से उसका हाथ पकड़कर अपने पास बिठाया, कहा- “वहाँ लौट जाने से मैं अच्छा नहीं हो पाऊंगा पूंटी! अब इस देह के ठीक हो जाने की आशा मुझे नहीं है। चलो, घर को लौट चलें, कम-से-कम जो कुछ भी होना हो, घर पर ही हो।”
पूंटी अपने दादा की बात सुनकर रो पड़ी, बोली- “तुम सदा उसकी चिन्ता क्यों करते हो? बहुत कमजोर हो गए हो।”
“यह किसने कहा कि मैं सदा उसे स्मरण करता हूँ।”
पूंटी ने कहा- “कहेगा कौन? मैं स्वयं ही जानती हूँ।”
“तू उसे याद नहीं करती?”
“नहीं करती, उसे याद करने मात्र से पाप लगता है।”
“क्या लगता है?”
“पाप… उसका नाम लेने से मुंह अपवित्र हो जाता है। स्नान करना पड़ता है।”
नीलाम्बर के तेवर बदल गए। वह कठोर स्वर में बोला- “पूंटी!”
पूंटी सहमकर रह गई। वैसे पूंटी नीलाम्बर की लाड़ली बहन थी। उसने बचपन से लेकर आज तक हजारों गलतियां की, पर दादा की कभी भी उसने इतनी लाल आँखें नहीं देखीं। इतनी आयु में झिड़की खाकर उसे ग्लानि-सी हो गई। सिर झुक गया।
नीलाम्बर उठ गया। पूंटी फफक-फफककर रो पड़ी।
दोपहर को भोजन की थाल लेकर दादा के सामने नहीं आई। दासी के हाथ थाली भेज दी और आड़ में खड़ी हो गई।
नीलाम्बर ने बुलाया तो उसने बात नहीं की।
सांझ हो गई।
नीलाम्बर आसन पर बैठा था। वह पूजा-पाठ से निवृत्त हो गया था। पूंटी के दादा की पीठ पर अपना मुंह रख दिया। दादा से शिकायत करने का एक यही तरीका था। बचपन में भी यही करती थी। नीलाम्बर को सहसा कुछ याद हो आया। उसकी पलकें भीग गई।
पूंटी के सिर पर हाथ रखकर उसने कहा- “क्या है री, बेटी?”
पूंटी दादा की गोद में मुंह छुपाकर रोने लगी। नीलाम्बर उसके सिर पर हाथ रखकर बैठा रहा। थोड़ी देर के बाद पूंटी ने कहा- “दादा! अब मैं कभी नहीं कहूँगी।”
नीलाम्बर ने उसके बालों को सहलाकर का- “हाँ री, ऐसे कभी मत करना।”
कुछ रुककर नीलाम्बर ने आगे कहा- “हाँ पूंटी! उसने तुम्हें माँ की तरह पाला-पोसा है। बड़ी है, वह तुम्हारी माँ के समान है। कम-से-कम तेरे मुंह से इस तरह की बात शोभा नहीं देती।”
पूंटी ने आँखें पोंछते-पोंछते कहा- “यह मैं या भगवान ही जानता है। उस समय वह पागल हो गई थी। यदि उसे जरा भी होश होता तो वह आत्महत्या ही करती।”
पूंटी ने फिर पूछा- “दादा! वह अब आती क्यों नहीं?”
“वह जिस दशा में मुझे छोड़कर गई है, जरुर आ जाती। पूंटी तू स्वयं सारी बातें अच्छी तरह समझती ही है।”
“हाँ दादा!”
नीलाम्बर ने भावावेश में कहा- “यही सोच लो बहन! वह आना चाहती है, पर आ नहीं पाती। पूंटी! तू नहीं समझती, पर मैं जैसे ही आँखें बन्द करता हूँ, वैसे ही वह मुझे दिखने लगती है। बस, यही बात मुझे सुखाती जा रही है।”
“हूँ!” पूंटी फिर रो पड़ी।
नीलाम्बर ने भी अपनी आँखें पोंछते हुए कहा- “उस अभागिन की बस केवल दो ही कामनाएं थीं। पहली कि अन्त समय उसके प्राण मेरी गोद में निकलें और दूसरी यह कि मरने के बाद वह सीता-सावित्री के पास जाए। पर अभागिन की ये दोनों साधे पूरी नहीं हुई।”
पूंटी चुपचाप सुनती रही।
नीलाम्बर रुंधे स्वर को साफ करके बोला- “सब लोग उसे ही दोष देते हैं, पर भगवान जानता है कि वह किसके अत्याचार से डूबी। तू ही कह कि मैं किस मुंह से उसे दोष दूं! दुनिया की नजरों में चाहे वह कितनी ही कलंकिनी हो, पर मैं उसे कभी कोई दोष नहीं दूंगा। उसे आशीर्वाद दिए बिना मैं कैसे रहूँ? अपनी ही गलती से मैंने उसे इस जन्म में पाकर खो दिया। ईश्वर करे, अगले जन्म में वह मिल जाए” उसका गला रुंध गया।
पूंटी जल्दी से उठकर अपने भाई के आँसू पोंछने लगी। वह स्वयं रो पड़ी- “दादा! जहाँ जी चाहे चलो, मगर मैं तुम्हें नहीं छोडंगी… एक पल के लिए भी नहीं।”
नीलाम्बर ने सिर उठाकर जरा हंसने का असफल प्रयास किया।
***
बिराज रास्ता तय करती जा रही थी। वह जगन्नाथ पुरी के रास्ते से लौट रही थी, अनिर्दिष्ट मृत्यु-शैय्या की खोज में। वह सदा यह सोचती थी कि यदि शरीर निष्पाप है, तभी पति के चरणों में पत्नी प्राण त्याग सकती है। दामोदर नदी के पार पहुंचते-पहुंचते वह थक गई थी। वह काफी अशक्त हो चली थी। पेड़ के नीचे पड़ी-पड़ी वह हर घड़ी पति के चरणों की वन्दना करती थ। बस यात्रा करती जा रही थी।
***
तारकेश्वर में बाजार लगा हुआ था। बैलगाड़ियों का आना-जाना हुआ था। एक बूढ़े को रो-धोकर उसने ले जाने के लिए राजी कर लिया।
उस दिन आकाश में बादल छाए हुए थे। तीसरा पहर होते-होते अंधकार-सा छा गया। सुबह मुंह से बहुत खून निकल जाने से बिराज और भी कमजोर हो गई थी। वह मन्दिर के पीछे मुंह छुपाए पड़ी रही। उसके मन में अनेक तरह के भावों का आना-जाना लगा रहा। उसने तय किया कि अब वह भीख नहीं मांगेगी। दरअसल भीख का भाव अब उसके चेहरे पर नहीं था। एक अजीब-सा विद्रोह था जो अभिमान की दीप्ति से झिलमिला रहा था।
वह परिक्रमा की राह के पास लेटी हुई थी। अचानक किसी का पांव उसके हाथ पर पड़ा। उसे दारुण वेदना हुई। वह कराह उठी- “आह!”
अपरिचित आदमी चौंककर कह उठा- “हाय, यहाँ कौन पड़ा है? मुझसे पाप हो गया। ज्यादा चोट तो नहीं आई?”
बिराज ने अपने मुंह से कपड़ा हटाकर देखा तो वह नीलाम्बर ही था। लेकिन वहाँ रुका नहीं था।
नीलाम्बर ने पूंटी से कहा- “पूंटी! वह स्त्री मुझसे कुचल गई है। उस भिखारिन की कुछ सहायता कर दो।”
पूंटी ने आकर भिखारिन से पूछा- “अजी! तुम्हारा घर कहाँ है?”
“सप्तग्राम!” वह हंस पड़ी।
बिराज की न भूलने वाली जो चीज थी, वह थी उसकी हंसी। उसे एक बार जिसने देख लिया, वह भूल नहीं सकता।
“अरे! यह तो भाभी है।” पूंटी उस जीर्ण-शीण देह पर पड़ गई और लिपटकर रो पड़ी।
नीलाम्बर ने सब-कुछ समझ लिया। लपककर आया, बोला- “पूंटी! यहाँ मत रो… उठ!”
नीलाम्बर उस कमजोर सूखी देह को बच्चे की तरह उठाकर अपने डेरे की ओर चल पड़ा।
***
नीलाम्बर ने चाहा कि बिराज को किसी अच्छी जगह ले जाया जाए जहाँ वह स्वस्थ हो सके, पर बिराज ने बार-बार यही कहा कि उसे अपने घर ले चलो, अपनी चारपाई पर लिटा दो।
उसे घर ले आया गया।
नीलाम्बर उसकी चारपाई नहीं छोड़ता था। बिराज रात-दिन ज्वर में अचेत रहती थी। थोड़ा-सा भी चेत आता तो घर की हर वस्तु को गौर से देखती थी। घर के प्रति उसके तीव्र सम्मोह को देखकर नीलाम्बर बेचैन हो जाता था।
दो हफ्ते गुजर गए।
कल से बिराज की तबियत और अधिक खराब लगने लगी थी। दिन भर प्रलाप करके वह थोड़ी देर के लिए सो गई थी। शाम होने के बाद उसकी आँखें फिर खुलीं। पूंटी रोती-रोती उसके पांवो के पास सो गई थी। छोटी बहू सिरहाने बैठी थी।
बिराज ने कहा- “छोटी बहू!”
छोटी बहू उसके नजदीक अपना मुंह लाकर बोली- “दीदी! मैं हूँ मोहिनी।”
“पूंटी कहाँ है?”
छोटी बहू ने संकेत करके कहा- “तुम्हारे पास सो रही है।”
“वे कहाँ हैं?”
छोटी बहू ने बतलाया- “उस ओर संध्या-पूजा कर रहै हैं।”
“मैं भी करुंगी।” उसने आँखें बन्द की और मन-ही-मन भगवान को याद करने लगी। थोड़ी देर बाद दाहिना हाथ माथे से छुआकर प्रणाम किया।
फिर क्षणभर मोहिनी की ओर देखकर उसने धीरे-धीरे कहा- “बहन! लगता है आज मुझे जाना है। मगर मेरी कामना है कि दूसरे जन्म में मैं तुम्हें फिर पाऊं।”
कल ही सब जान गए थए कि बिराज का अन्तिम समय आ गया है। छोटी बहू रोने लगी।
बिराज होश में थी। उसने मन्द स्वर में कहा- “छोटी बहू! सुन्दरी को एक बार बुलवा सकती हो?”
छोटी बहू ने भरे गले से कहा- “अब उसे क्यों बुला रही हो? वह किसी भी कीमत पर नहीं आएगी।”
बिराज ने दृढ स्वर में कहा- “आएगी… जरुर आएगी… उसे बुलवा तो भेजो! मैं उसे क्षमा करके आशीर्वाद देती जाऊं। अब मुझे किसी पर क्रोध और लोभ नहीं। भगवान ने मुझे क्षमा करके मुझे अपने पति के पास लौटा दिया, इसलिए मैं भी उसको क्षमा करना चाहती हूँ।”
छोटी बहू ने रोते-रोते कहा- “दीदी! भगवान तुम्हें इतनी सजा क्यों दे रहा है? कोई अपराध भी तो नहीं हुआ। एक हाथ लेकर भी तुम्हें हमारे लिए छोड़े देते!”
बिराज हंस पड़ी, बोली- “बहन! गाँव-नगर में मेरी बदनामी हो गई है। मेरे जीवित रहने से कोई फायदा नहीं।”
“फायदा है।” छोटी बहू ने कहा- “तुम्हारी बदनामी झूठी है। झूठी बदनामी से हम क्यों डरे?”
“पर मैं डरती हूँ।” बिराज ने कहा- “मेरा अपराध जने कितना ही छोटा या बड़ा हो, पर एक हिन्दु स्त्री को इसके बाद जिन्दा रहने का कोई हक नहीं है। यही मुझ पर भगवान की दया है, परंतु…!”
पूंटी रोती हुई आर्तनाद कर उठी- “ओह! भगवान की बड़ी दया है? असल पापी को कुछ नहीं हुआ और सज़ा हमें दे रहा है?”
बिराज ने बनावटी गुस्से में कहा- “चुप रह कलमुंही, चिल्ला मत!”
पूंटी उसके गले से लिपट गई और रो पड़ी, बोली- “तुम रोओ मत भाभी… तुम कुछ दिन और जीओ।”
नीलाम्बर भी पूजा छोड़कर आ गया। उसने पूंटी का रोना सुन लिया था।
बिराज उखड़े हुए गले से बार-बार कहने लगी- “पूंटी बेटी, रो मत… सुन!”
नीलाम्बर आड़ में खड़ा होकर सुनने लगा। वह जान गया था बिराज की सारी चेतना लौट आई है।
बिराज कहने लगी- “पूंटी! भगवान को बिना कारण दोष मत दो। इस बात को आज मैं ही जानती हूँ कि मेरा मरना ही मेरा जीना है। तू कहती है कि उन्होंने मेरा एक हाथ और आँख ले ली है… तो क्या हुआ। कुछ दिनों बाद इस शरीर का अन्त हो जाएगा। ईश्वर ने इतनी सजा देकर मुझे तुम लोगों की गोद में तो लौटा दिया।”
“खाक लौटा दिया!” पूंटी फिर रोड पड़ी।
बिराज को पूंटी का विचार अविचार ही लगा। कुछ देर बाद बिराज ने कहा- “पूंटी! जरा एक बार अपने दादा को बुलाओ तो!”
नीलाम्बर तो आड़ में खड़ा ही था, आकर उसके सिरहाने बैठ गया। नीलाम्बर उसकी नाड़ी देखने लगा। हाँ, बिराज! सचमुच सब कुछ भी नहीं रह गया। नीलाम्बर ने समझ लिया था कि ज्वर के वेग में वह इतनी बातें कर रही है। इसके बाद शायद वह समाप्त हो जाए। नाड़ी का तो यही कहना है।
बिराज ने कहा- “खूब हाथ देखो।”
अचानक वह मर्मभेदी परिहास कर उठी। दोनों को यह बात याद हो आई कि इसी बात को लेकर अनर्थ हुआ था। बिराज ने खेद के साथ कहा- “ना… ना… यह मैंने नहीं कहा। सच-सच कहो, अब कितनी देर है?”
उसने अपना माथा पति की गोद में रख दिया, कहा- “सुनो! सबके सामने यह कह दो कि मैंने तुम्हें क्षमा किया।”
“किया।” नीलाम्बर की आँखें भर आई औऱ गला भी।
बिराज आँखें मूंदे पड़ी रही। धीरे-धीरे कहने लगी- “इतने साल मैंने तुम्हारे घर-बाहर को संभालने में कितनी गलतियां की हैं। छोटी बहू, तुम भी सुनो! पूंटी तुम भी। तुम सभी लोग सब कुछ भूलकर मुझे क्षमा कर दो। जाती हूँ…। बिराज हाथ बढ़ाकर पति का चरण खोजने लगी। नीलाम्बर ने तकिया हटाकर अपना पांव आगे बढ़ा दिया। उसकी पद-घूलि माथे लगाकर बिराज ने कहा- “इतने दिनों के बाद मेरा सब कुछ सार्थक हुआ। अब कोई चिन्ता नहीं मेरी देह शुद्ध है, पापहीन है, अब चलती हूँ… वहाँ तुम्हारी राह देखूंगी।”
करवट बदलकर उसने अपना मुंह पति की गोद में छुपा लिया, कहा- “इसी तरह मुझे लिए रहो। छोड़कर कहीं मत जाना…।” वह खामोश हो गई। लगा कि काफी थक गई है।
सभी उदास-उदास से बैठे रहे। रात के बारह बजने के बाद वह फिर प्रलाप करने लगी। नदी में कूद जाने की बात… अस्पताल की बात… निरुद्देश्य यात्रा की बात… यही सब बकती रही। परंतु उन सभी बातों में केवल उसका असीम पति-प्रेम था। वह बार-बार बकती रही कि किस तरह पलभर के मनोविकार ने, भ्रम ने किस तरह उस सती-साध्वी को जलाया।
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इधर कई दिनों से बिराज के सामने बैठकर नीलाम्बर को भोजन करना होता था।
उस दिन वह बार-बार कभी पूंटी को कभी छोटी बहू को पुकार-पुकारकर रातभर प्रलाप करती रही। सुबह उसने पुकारना और बुलाना बन्द कर लिया। सांस उल्टी चलने लगी। फिर उसने किसी की ओर नहीं देखा, किसी से कोई बात नहीं की। अपने पति परमेश्वर की गोद में सिर रखे हुए सूर्य भगवान के उदय के साथ-साथ उस दुखियारी का भी अन्त हो गया।
समाप्त