चरित्रहीन (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 4
उनतीस
भोजन करने के बाद बरामदे में दो कुर्सियों पर दोनों ही आमने-सामने बैठे थे।
सरोजिनी ने कहा, “एक बात हम लोगों में से किसी के ध्यान में नहीं आयी कि भैया के मकान का पता यदि महाराज ढूँढने पर न लगा सका तो स्वयं ही एक गाड़ी बुला लावेगा। लेकिन यह यदि न हो सका तो क्या होगा सतीश बाबू?”
सतीश ने कहा, “यह बात ध्यान में आने पर भी विशेष कोई लाभ न होता। इतनी रात को इतनी दूर कोई गाड़ी वाला भी सम्भवतः आना नहीं चाहता। या तो आपको यहीं रात्रिवास करना पड़ेगा, या फिर पैदल चलना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त तीसरा उपाय नहीं है।”
“मैं पैदल चल सकती हूँ, लेकिन आपके अतिरिक्त किसी अन्य के साथ नहीं।”
“इसका अर्थ? मेरे साथ जाने से ही क्या विपत्ति की सम्भावना नहीं है?”
“क्यों नहीं? लेकिन उसकी पूरी जिम्मेदारी आपके ऊपर है। जवाबदेही आपको करनी पड़ेगी, मुझे नहीं।”
सतीश ने कहा, “मुझे क्यों जवाबदेही करनी पड़ेगी? मेरा अपराध?”
“और किसी के सामने आप भले ही न करें, अपने सामने तो करनी ही पड़ेगी।” यह कहकर एकाएक सरोजिनी चुप हो गयी।
सतीश ने फिर उसका प्रतिवाद नहीं किया। लेकिन उसने स्पष्ट अनुभव किया, दोनों की क्षणिक नीरवता के बीच से लज्जा की हवा का एक झोंका बह गया।
“कोई आ रहा है न?” यह कहकर सरोजिनी कुर्सी छोड़कर उठ पड़ी और कुछ देर तक बरामदे की रेलिंग पर टिककर अँधेरे बग़ीचे की ओर देखती हुई खड़ी रही।
थोड़ी ही देर के बाद जब ‘कोई नहीं है’ कहकर वह अपने स्थान पर लौट आयी और अपने कपड़े-लत्ते एक बार फिर अच्छी तरह सम्भालकर बैठ गयी, तब सतीश कोई बात ही न कह सका।
इसके बाद दोनों ही चुप होकर बैठे रहे। तब तक बाहर तूफ़ान बन्द हो जाने पर भी वर्षा रुकी नहीं थी। एकान्त स्थान में स्वल्प प्रकाशयुक्त बरामदे में ये दोनों तरुणावस्था के नर-नारी एक-दूसरे के आमने-सामने जब नीरव हो बैठे रहे, तब एक और अन्धे देवता अन्तरिक्ष में अवश्य ही मुँह दबाकर हँसे होंगे। यह हँसी काले मेघों के भीतर छिपा खेल खेलता रह गया।
बाह्य प्रकृति आकाश-वातास, प्रकाश-अन्धकार के माध्यम से कैसे मनुष्य के मनोभावों व चित्तवृत्ति को आकर्षिक करती है, इसकी ख़बर सतीश को कुछ दिन पहले पता लगी थी। जिस दिन बिहारी के मुँह से सावित्री के विपिन के साथ चले जाने की बात सुनकर, अपने भविष्य को दुःख के सागर में डूबा हुआ समझकर बिल्कुल ज्ञानशून्य हो गया था और अकेला निर्जन स्थान में जाकर पड़ गया था, उस दिन ऐसे ही काले आकाश ने अपने शीतल हस्त से उसके हृदय की ज्वाला शान्त करके सावित्री को क्षमा करना सिखाया था। और आज की यह उद्दाम चंचल प्रकृति अपनी सजीवता के स्पर्श से उसके निराशा पीड़ित चित्त को दुर्निवार वेग से किसी दूसरे ही रास्ते की ओर ठेल रही थी।
सरोजिन ने एकाएक प्रश्न किया, “आपके इस वनवास का अर्थ क्या है?”
सतीश बोला, “अर्थ कुछ अवश्य ही है।”
“वह तो है ही। लेकिन किसी को भी न बताकर क्यों भाग आये?”
“लेकिन मैं भाग आया हूँ, यह समाचार किसने दिया?”
सरोजिनी ने ज़रा हँसकर कहा, “समाचार का मैंने स्वयं ही आविष्कार किया है। आप जिस दिन सबेरे चले आये उस दिन मैं स्वयं आपके डेरे पर जा पहुँची थी।”
सतीश ने आश्चर्य से कहा, “समझ गया। उपेन भैया सम्भवतः मुझ ढूँढने के लिए गये थे और आप उनके साथ थीं। वे जायेंगे यह मैं जानता था। लेकिन मुझे अनुपस्थित पाकर उन्होंने क्या कहा?”
सरोजिनी ने कहा, “उन्होंने अवश्य ही कुछ कहा था, लेकिन मैंने सुना नहीं। क्योंकि
वे स्वयं वहाँ नहीं गये, मेरे हाथ से उन्होंने चिट्ठी भिजवा दी थी।”
सतीश ने पूछा, “उसके बाद?”
सरोजिनी ने कहा, “मैंने जाने पर सुना, आप सबेरे की गाड़ी से चले गये हैं। मन में न जाने क्या विचार आया कि ब्राह्मण महाराज से कहकर दरवाज़ा खुलवाकर सारे डेरे को घूम-घूमकर मैंने देखा। बाहर के बरामदे में एक साड़ी सूख रही थी, पूछने पर ज्ञात हुआ कि यह कपड़ा है माईजी का। वे बीमार हैं, आप उनको लेकर पश्चिम को चले गये हैं। अच्छा, वह कौन हैं? कहाँ, इस डेरे में तो उनको मैं देख नहीं रही हूँ।”
सतीश का चेहरा पीला पड़ गया। कुछ देर तक मौन रहकर कहा, “ब्राह्मण महाराज ने कहा कि मैं उनको साथ लेकर पश्चिम को चला गया हूँ? बदमाश! झूठा! उपेन भैया ने उस पर विश्वास कर लिया?”
सतीश के मुँह का भाव और कण्ठ-स्वर सुनकर सरोजिनी आश्चर्य में पड़ गयी। उसने कहा, “उपेन बाबू तो थे नहीं। और विश्वास करने में भी दोष क्या है? यह माईजी आपकी कौन हैं सतीश बाबू?”
सतीश ने उपेक्षा से कहा, “मेरी कौन! कोई भी नहीं, हमारे पुराने डेरे की नौकरानी। शैतान! बदमाश औरत! बूढ़ी उम्र में बीमारी से मर रही है, इसीलिए कुछ भीख माँगने आयी थी। मैं उसको लेकर पश्चिम को चला गया हूँ, हरामजादा उल्लू मेरे सामने कहे तो उसका. ..।”
सरोजिनी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। थोड़ी देर तक चुपचाप देखती रहकर उसने कहा, “दासी! लेकिन, इस बात से आप इतना उत्तेजित क्यों हो रहे हैं?”
सतीश ने कहा, “अनुचित निन्दा करने से कौन उत्तेजित नहीं होगा बताइये?”
“वह उस रात को बेहोश हो गयी थीं!”
सतीश ने ठीक उसी तरह उत्तेजित स्वर से कहा, “हाँ, हो गयी थी, लेकिन इससे भी क्या हुआ? उसका बेहोश हो जाना क्या मेरा अपराध है? और आप भी उसके बारे में इतने सम्मान के साथ बातें क्यों कह रही हैं? घर की दासियों और नौकर-चाकरों से आप लोग ‘आप’ ‘जैसी आज्ञा’ कहकर बातें करती हैं?”
सरोजिनी ने इसका उत्तर नहीं दिया, वह मौन होकर बैठी रही। इतनी देर तक उसके हृदय में जो आनन्द का चाँद उग गया था, उसको न जाने कहाँ से काले बादलों ने आकर घेर लिया। एक बार उसके मन में यह प्रश्न उठा, क्यों उस रात को उपेन्द्र सपत्नीक उसके डेरे पर आकर तुरन्त ही चले गये थे। लेकिन उसने प्रश्न नहीं किया। मन ही मन वह एक प्रकार से समझ गयी थी – इसमें कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें उपेन्द्र स्वयं ही प्रकट नहीं कर सके हैं और सतीश भी न कर सकेगा।
लेकिन यह क्षुब्ध नीरवता दोनों को ही खलने लगी। और चुपचाप न रह सकने के कारण सरोजिनी ने धीरे-धीरे पूछा, “एक बात मैं आपसे पूछ सकती हूँ?”
सतीश ने ज़रा अभिमान के स्वर से कहा, “कौन बात?”
“आपने इतने दिन हम लोगों के इतने निकट रहकर भी कभी दर्शन नहीं दिया, क्यों?”
सतीश के पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं था। उसने कहा, “तरह-तरह के कारणों से समय नहीं मिला।”
“कारण क्या है? लिखना-पढ़ना?”
“नहीं, लिखना-पढ़ना तो नाम मात्र का चलता है। उससे मुझे किसी दिन कहीं जाने में रुकावट नहीं होती।”
– “तो फिर?”
हँसने की कोशिश करते हुए सतीश बोला, “देखिये, आपको सच बात बता देता हूँ। आप लोगों का ख़्याल न आया हो, ऐसी बात नहीं है, पर हम लोग जिस समाज में रहे हैं, जैसी शिक्षा-दीक्षा हुई है, उससे आप लोगो के बीच जाते हुए जाने कैसी हिचक सी होती है। शायद इसीलिये नहीं आ पाया।”
सरोजिनी ने कहा, “शायद! अच्छा, आप लोगों के समाज व शिक्षा के बारे में जान सकती हूँ कुछ? उपेन बाबू वगैरह के समाज के साथ भी शायद कोई विशेष समानता नहीं हैं, क्योंकि उन्हें तो हमारे साथ मिलने-जुलने में कोई हिचक नहीं होती।”
सतीश के डेरे पर उस अज्ञात स्त्री की चर्चा छिड़ जाने के बाद से ही उसके हृदय में एक ज्वाला धधक रही थी, इन अनाप-शनाप बातों से भरी कैफियत से उस ईर्ष्या की दाह और भी बढ़ गयी। सतीश को छिपे तौर से अगर प्यार न करती तो यह सब छिपाना-चुराना सम्भवतः उसके लिए छिपा ही रह जाता, किन्तु प्रेम की अन्तर्दृष्टि को इतनी सरलता से प्रसारित न किया जा सका। ठीक बात क्या है, इसकी जानकारी न होने पर भी उसका हृदय किस तरह मानो असल बात समझ गया। सतीश ने व्यथा-भरे आश्चर्य के साथ सरोजिनी की ओर देखा। उसके कण्ठ की आवाज़ में झगड़े का जो दबा स्वर था, उसने सतीश के कानों में तीक्ष्ण भाव से पहुँचकर सावित्री की याद दिला दी। किन्तु इसके बीच ही सरोजिनी भी उसको पर कर सकती है, ऐसी सम्भावना सतीश के मन में सपने में भी उदित नहीं हुई। इसीलिए उसकी इस उत्तप्त प्रश्नोत्तर माला का वास्तविक कारण वह स्पष्ट रूप से देख न सका। इसको उच्च शिक्षा प्राप्त महिला का कोरा-स्पर्धा भरा अभिमान कल्पना करके वह स्वयं भी मन ही मन जल उठा और उसने उत्तर भी उसी तरह दिया। बोला, “उपेन भैया के समाज व शिक्षा से तो आप भलीभाँति परिचित हैं। फिर भी वह बेझिझक आप लोगों के साथ मिला-जुल लेते हैं, लेकिन अगर कोई और ऐसा न कर सके तो उसे कैफ़ियत देनी होगी, इसका तो कोई मतलब नहीं है। जो भी हो, मुझे माफ़ करिये। इस बहस में मुझे कोई सार्थकता दिखायी नहीं देती।”
स्तब्ध हो गयी सरोजिनी। सतीश भी चुप हो गया। इतने में एक गाड़ी आकर फाटक के सामने खड़ी हो गयी, और ज्योतिष बाबू ऊँचे स्वर से सतीश का नाम लेकर पुकारते-पुकारते बत्ती और आदमियों के साथ बग़ीचे में आ गये। असंख्य धन्यवाद, निमंत्रण-आमंत्रण आदि यथाविधि सम्पन्न करके ज्योतिष जब अपनी
बहिन को साथ लेकर प्रस्थान करने को तैयार हो गये तब सतीश ने सरोजिनी से पूछा, “एक बात आपसे पूछना बाकी रह गया। हारान बाबू नामक एक उपेन बाबू के मित्र थे, उनके क्या हाल हैं, आप बता सकती है?”
ज्योतिष ने कुछ आश्चर्य के साथ उसका उत्तर दिया, “वाह! आपने सुना नहीं? वह तो मर गये।”
यह समाचार सुनकर सतीश थोड़ी देर तक स्तब्ध खड़ा रहा, फिर बोला, “उनकी माँ, उनकी स्त्री, वे लोग कहाँ हैं, आप जानते हैं?”
सरोजिनी ने इसको उत्तर दिया। उसने कहा, “वे लोग तो अपने मकान में ही हैं। निश्चय हुआ है कि दिवाकर बाबू उनके मकान में रहकर कॉलेज में पढ़ेंगे – वे उनका भार लेंगी।” ज्योतिष ने एकाएक अपनी बहिन से पूछा, “हारान बाबू की स्त्री हम लोगों के घर एक दिन आयी थीं न?”
सरोजिनी ने कहा, “हाँ बड़ी देर तक वह रही थीं, बहुत-सी बातें की थीं।”
उसके अपने बारे में क्या बातें हुई थीं, पति के शोक से भाभी की क्या हालत हुई थी, आदि जानने के लिए सतीश ने सरोजिनी के मुँह की ओर एक उत्सुक दृष्टि डाली। क्योंकि उसके विषय में कड़ी आलोचना हुई थी, इसमें उसे सन्देह नहीं था। लेकिन उस अस्पष्ट प्रकाश में या तो सरोजिनी उसके चेहरे का भाव न समझ सकी, अथवा समझकर भी, सतीश का कौतूहल दूर करने की आवश्यकता उसने नहीं समझी। उसने भैया को आगे चलने के लिए हलका धक्का लगाकर मृदु स्वर से कहा, “अब देर मत करो भैया, चलो….।”
“हाँ बहिन, चल।” कहकर सतीश को नमस्कार करके वह बोले, “फिर एक बार आपको असंख्य धन्यवाद सतीश बाबू! कल-परसों एक दिन ग़रीब के यहाँ भी चरण-धूलि पड़ जाती तो अच्छा होता।”
सतीश ने प्रतिनमस्कार करके अस्पष्ट स्वर से जो कुछ कहा, वह समझ में नहीं आया। सरोजिनी लौटकर खड़ी हो गयी और सतीश को एक छोटा-सा नमस्कार करके चली गयी।
वहीं खड़े-खड़े सतीश की आँखें भर आयीं। क्यों वह स्वयं कारण समझ नहीं सका। जाने क्यों मन बार-बार कहने लगा कि उसकी सावित्री, उसकी भाभी, उसके उपीन, सब ने उसे एक साथ छोड़ दिया है। इस निर्जन कुटिया को छोड़कर उसका अन्यत्र कहीं स्थान नहीं है।
तीस
दो महीने पूर्व हारान की मृत्यु के समय केवल दो-चार दिनों के ही लिए कलकत्ता में रहकर दिवाकर वापस चले जाने को बाध्य हो गया, इस बार यह निश्चय हो जाने से कि वह किरणमयी के संरक्षण में रहकर कलकत्ता के कॉलेज में बी.ए. पढ़ेगा, वह अपने नये खरीदे हुए स्टील के बक्स में किताबें, काग़ज़ और कपड़े आदि भरकर एक दिन शाम को हारान बाबू के पाथुरियाघाट के मकान पर जा पहुँचा।
किरणमयी ने उसको अल्पवयस्क छोटे भाई की तरह स्नेह के साथ ग्रहण किया।
मामा के घर में सुरबाला के अतिरिक्त दिवाकर की देखभाल करने वाला कोई नहीं था। फिर उस देखभाल में भी महेश्वरी की कड़ी दृष्टि, शनि की दृष्टि की भाँति अधिकांश समय में ही बहुत-सा रस सुखा डालती थी। लेकिन यहाँ इन सब उपद्रवों में से एक भी नहीं था। उपेक्षा से लगाया हुआ गमले का पौधा संयोगवश पृथ्वी की गोद में आश्रय पाकर काफ़ी रस मिलने से जिस प्रकार उसकी सूखी पतली जड़ें मिट्ठी के भीतर सहश्रों भुजाएँ बढ़ाने लगती हैं, किरणमयी के आश्रय में भी दिवाकर की ठीक वही दशा हुई।
महानगरी के विस्तृत और विचित्र वातावरण में पड़कर देखते-देखते उसकी संकुचित आशा तथा अन्धकारपूर्ण भविष्य फड़क उठा। अपने को उसने बड़े रूप में अनुभव किया। बी.ए. फेल करके विद्याभ्यास का उसका पुराना बन्धन छिन्न हो गया है फिर भी नये बन्धन में अभी देर है, इस मधुर अवकाश काल में वह निरन्तर सर्वत्र घूम-घूमकर ज्ञान संग्रह करने लगा।
थियेटर देखकर कल्पना लोक में पहुँच गया, जू देखा तो दाँतों तले उंगली दबा ली, म्यूजियम देखकर स्तम्भित हो गया, शिवपुर का कम्पनी बाग़ देखकर एक निबन्ध लिख डाला, गगनचुम्बी अट्टालिकाओं की ऊँचाई को सिर उठाकर मुँह बाये देखता ही रह गया, और फिर अन्त में एक दिन गाड़ी के नीचे आकर पैर में चोट लेकर लौट गया।
चोट बहुत ज़्यादा नहीं थी। किरणमयी ने जल्दी से चूना-हल्दी गरम करके लेप लगाते हुए मुस्कुराकर पूछा, “किसके नीचे आ गये छोटे देवर? घोड़गाड़ी थी या बैलगाड़ी?”
गुस्से से दिवाकर ने कहा, “घोड़ागाड़ी।”
– “चलो बच गये। नहीं तो लँगड़े पैर थाने में जुर्माना भरने जाना पड़ता।”
लज्जित स्वर में दिवाकर ने कहा, “कुछ नहीं है, कब सबेरे तक ठीक हो जायेगी।”
किरणमयी बोली, “वो तो हो ही जायेगी। पर ज़्यादा दूर मत जाना। सुना है बच्चे पकड़ने वालों का दल आया हुआ है यहाँ।”
इसी प्रकार दिन बीत रहे थे। अघोरमयी विभिन्न तीर्थस्थानों में घूमकर एक दिन घर लौट आयी। इसके पहले दो-एक दिन जो उन्होंने दिवाकर को देखा था तब पुत्र-शोक से मन इतना दुःखी था कि उसके चेहरे की ओर नजर ही नहीं पड़ी। आज इस दाढ़ी-मूँछ विहीन सुन्दर कान्तिवाले मनोहर लड़के की ओर देखते ही उनका मातृ-हृदय स्नेह से पिघल गया।
उन्होंने कहा, “दिबू मैं रिश्ते में तुम्हारी मौसी लगती हूँ मुझे मौसी कहकर पुकारना बेटा।” इसके भी माँ-बाप जीवित नहीं हैं, सुनकर उनकी दोनों आँखें छलछला आयीं और बड़े-बड़े दो बूँद अश्रुकण आँचल के छोर से उन्होंने पोंछ डाले। उन्होंने कहा, “भगवान ने मेरे हारान को छीन लेने पर भी यदि मुझ अभागिनी को बचा रखा है तो अब इने-गिने दिन जीवित रहूँ, तू बेटा मुझे छोड़कर कही मत जाना।” यह कहकर हाथ से उसका मस्तक छूकर उन्होंने अपनी उँगलियों का छोर चूम लिया। उनकी बातें सुनकर और आँखों के आँसू देखकर दिवाकर आँखों के आँसू छिपाकर सामने से हट गया। इसके बाद कुछ ही दिनों में उनका दिवाकर के प्रति पुत्र-प्रेम जादूगर के माया-वृक्ष की भाँति बढ़ता ही चला गया।
इसी मकान मे कई माह पूर्व उनका पुत्र मर गया था, उस निष्ठुर शोक के मातृत्व के खुराक में जगा रही थीं। इन दिनों वही शोक अपेक्षाकृत शान्त हो जाने से उनका क्षुधातुर मातृहृदय सन्तान के अभाव में टुकड़े-टुकड़े होकर बिल्कुल ही बिखर पड़ता इससे पहले ही उन्होंने सन्तान परित्यक्त उस शून्य सिंहासन पर दिवाकर को बड़े लाड़ से बैठा लिया था।
सच बात यह है कि इस पुत्रहीना जननी ने कुछ दिन प्रवास में बिताकर घर लौट आने पर पुत्र का अभाव समूचे हृदय से पूरा कर लेना चाहा।
एक ओर वह थीं और दूसरी ओर थी किरणमयी, आदर-यत्न की कोई सीमा नहीं रही।
भूख न होने पर, ज़रा सा सर्दी-जुखाम हो जाने पर जवाबदेही देनी पड़ती है। स्नेह के इस रहस्य को नहीं जानता था। जीवन के इस आकस्मिक परिवर्तन के प्रथम कुछ दिन उसको कुछ अटपटे से जान पड़े, चिरभ्यस्त अनधिकार का संकोच बिल्कुल कट जाना नहीं चाहता था, तो भी थोड़े ही दिनों में उसका संकीर्ण मन इन दोनों नारियों के अपरिमित स्नेह से अपरिमित रूप से फैल गया। अन्त में एक दिन उसके बहुक्लेशार्जित दुःख सहने के अभ्यास सूखे चमड़े की भाँति शरीर से अज्ञात रूप से झर गये, इसको वह जान भी न सका।
क्रमशः देखने की सारी जगहें एक-एक कर देख डाली उसने। कलकत्ते की सड़कों से अच्छी तरह परिचित व अभ्यस्त हो जाने के कारण गाड़ी-वाड़ी के नीचे आने की सम्भावना भी अब खत्म हो गयी थी, अतः दिवाकर ने सभा समिति में योगदान देना, थोड़ा-बहुत लिखना शुरू किया। अल्पावधि में ही वह एक मासिक पत्रिका का उत्साही व मान्य लेखक हो गया था। बचपन से ही गाने-बजाने व साहित्य के प्रति अनुराग था, थोड़ी बहुत तुकबन्दी भी कर लेता था। अब दिवाकर बंदोपाध्याय के नाम से कहानियाँ लिखने लगा। कॉलेज के कुछ लड़कों ने मिलकर ‘चन्द्रोदय’ नाम की मासिक पत्रिका निकाली थी, उसी को लेकर दिवाकर पागल हो उठा था।
अब वह जब तक घर से बाहर नहीं निकलता, उसको बहुत काम रहता है। टूटी छत के निर्जन कोने में पेंसिल-कापी लेकर गम्भीर मुँह से वह बैठा रहता है, स्नान-भोजन की बात उसे स्मरण ही नहीं रहती – बहुत बुलाहट के बाद उसको नीचे उतारा जा सकता है। उसके मानस राज्य के इन नवीन उपद्रवों को भय के साथ लक्ष्य करके अघोरमयी कहने लगीं, “इसी घर का दोष है। मेरे हारान ने लिख-पढ़कर प्राण दे दिया, इसको भी देखती हूँ उसी रोग ने पकड़ लिया है – नहीं बाबू, पराया लड़का।”
किरणमयी सब कुछ ही लक्ष्य कर रही थी। उसने हँसकर कहा, “इसकी चिन्ता तुम मत करो माँ, उन्होंने जो लिखने-पढ़ने में मन लगाया है, उससे परमायु घटती नहीं, बल्कि बढ़ती है।”
इसके कुछ ही दिन बाद ‘चन्द्रोदय’ में दिवाकर की ‘जहर की छुरी’ नामक कहानी प्रकाशित हुई। ‘सूर्योदय’ पत्र ने उसकी समालोचना करके कहा, ‘बंगाल के गौरव, सुप्रसिद्ध नवीन लेखक श्रीयुत दिवाकर वन्द्योपाध्याय लिखित प्रेम का एक सच्चा चित्र।’
इस निर्लज्ज चापलूसी को एक अकाट्य सत्य मानकर ग्रहण करने में दिवाकर ने तनिक भी संकोच नहीं किया। प्रथम यौवनावस्था। इसके बीच ही उसने दो-चार भक्त इष्ट-मित्रों की सहायतासे सुनहली टोपी माथे पर पहन ली थी, ‘सूर्योदय’ के सम्पादक ने उसके ही चारों तरफ़ पोथियों की एक माला लपेट दी।
अपरूप साहित्य का यह किरीट माथे पर धारण कर दिवाकर एक दिन सबेरे गर्वोन्नत मुख से रसोईघर में आ पहुँचा। उसके हाथ में वही ‘सूर्योदय’ पत्र था।
किरणमयी रसोई पका रही थी, बोली, “तुम्हारे हाथ में यह कैसी पत्रिका है बबुआ?”
“ओह! यह एक मासिक पत्र ‘सूर्योदय है – नया निकला है। लेकिन कुछ भी कहो भाभी, खूब लिखता है!”
किरणमयी ‘सूर्योदय’ पत्रिका के बारे में कुछ नहीं जानती थी। आग्रह के साथ बोली – “सच? तब एक बार देखूँगी।”
“अभी देखोगी?”
“अभी नहीं, मेरे बिछौने पर रख दो। दोपहर को देखूँगी।”
दोपहर को काम-काज से छुट्टी पाकर किरणमयी ‘सूर्योदय’ खोलकर बैठ गयी।
इधर-उधर देखते-देखते ठीक जगह पर ही उनकी दृष्टि पड़ गयी। दिवाकर पास वाले कमरे में ही था। उठकर उसके पास जाकर उसने कहा, “कहो बबुआ, ‘जहर की छुरी’ कहाँ है? समालोचना तो तुमने दिखा दी, अब असल चीज़ निकालो।”
दिवाकर लज्जित होकर विनयपूर्ण कहने लगा, “ओह! वह कहानी? वह तो कुछ भी नहीं है – वह तो हड़बड़ी में लिखी हुई है।”
किरणमयी हँसकर बोली, “भले ही हो, तुम मुझे दो।” यह कहकर उसने आप ही ढूँढकर ‘चन्द्रोदय’ का वह अंक निकाल लिया, वहीं उसे खोलकर वह कुर्सी पर बैठ गयी। वह मौन होकर पढ़ने लगी, लेकिन दिवाकर आशा और आकांक्षा की तीव्र उत्तेजना छिपाकर झूठमूठ एक पुस्तक के पन्ने उलटने लगा। उसकी ‘जहर की छुरी’ नामक कहानी की नायिका असाधारण सुन्दरी है और षोडशी है। धनवान जमींदार की लड़की होकर भी उसने दैवयोग से एक दरिद्र रूपवान युवक को प्रेम किया है। जमींदार को यह बात ज्ञात हुई तो उन्होंने विजयकुमार को देश निकाला दे दिया। लेकिन नगेन्द्रनन्दिनी को कुछ भी ज्ञात नहीं था, बसन्त के मालती कुंज में बैठकर वह माला गूँथ रही थी। उधर रूप से मुग्ध पूर्णचन्द्र पेड़ की ओट में झाँक रहा था, लेकिन आकाश में आने का साहस नहीं करता। प्रभात की कल्पना करके बीच-बीच में कोयल कूकती है, ऊपर लुब्ध भौंरा गुनगुनाता हुआ निद्रालसा मालती की नींद तोड़ रहा है। उस समय धीरे-धीरे वह कौन आ रहा है? हाँ, वही तो है! लेकिन यह कैसा वेश है? गेरुआ कपड़ा, अंग पर विभूति, गले में रुद्राक्ष की माला। नगेन्द्रनन्दिनी के हाथ में मालती की माला गिर पड़ी। विजयेन्द्र ने निकट आकर गीले कण्ठ से कहा, “विदाई दो, जा रहा हूँ।”
नगेन्द्रनन्दिनी के सिर पर मानो सहसा वज्रपात हो गया। हृदय में लाखों बिच्छुओं ने डंस दिया। जान पड़ा, मानो हृदय के सैकड़ों टुकड़े हो रहे हैं। उसकी आँखों में चन्द्रमा का प्रकाश काला पड़ गया, कानों में कोयल की कूक उल्लू की चिल्लाहट में बदल गयी। युवती फिर खड़ी न रह सकी – मूर्च्छित होकर गिर पड़ी।
यहाँ तक पढ़कर किरणमयी ने सहसा मुँह उठाकर कहा, “छोटे बबुआ, तुम अवश्य ही किसी को प्यार करते हो? ठीक है?”
दिवाकर ने आश्चर्य में पड़कर कहा, “मैं?”
“जी हाँ, तुम। अवश्य ही छिपे तौर से तुम किसी को प्यार करते हो।”
इस आकस्मिक अपवाद की प्रबल लज्जा से दिवाकर हतबुद्धि हो गया। क्षणभर बाद कुण्ठित और व्यग्र होकर बोला, “मैं? छिः! राम कहो…… कभी नहीं….. किसी तरह भी नहीं. ….।”
“नहीं? बबुआ को किसी दिन बिच्छू ने डंक नहीं मारा?”
“नहीं, किसी दिन नहीं।”
किरणमयी ने कहा, “आश्चर्य है! क्या किसी को डंक मारते भी नहीं देखा है?”
“नहीं, यह भी मैंने नहीं देखा है।”
किरणमयी ने और भी आश्चर्य में पड़कर कहा, “तुम्हारा हृदय भी किसी दिन सैकड़ों टुकड़ों में फट गया हो, यह भी तो नहीं मालूम होता, किसी दिन तुमने किसी को प्यार नहीं किया, छोटा-सा बिच्छू भी तुमने नहीं देखा, वज्राघात की व्यथा भी कैसी होती है, यह भी नहीं जानते, तो फिर बिरह ऐसा भयानक होता है इसका पता तुमको कैसे लगा?”
किरणमयी उसे किस ओर ठेल रही है यह दिवाकर की समझ में आ गया था – क्रुद्ध होकर बोला “बिना ऐसा हुए यह जाना नही जा सकता?”
– “कैसे जाना जा सकता है, मुझे तो नहीं मालूम – हाँ, यह ज़रूर है कि सुनकर या किसी किताब से चोरी करके लिखा जा सकता है।”
दिवाकर उत्तेजित हो उठा। बोला, “तुम कहना चाहती हो कि मैंने चोरी की है?”
मुस्कुरा कर किरणमयी ने कहा, “हाँ, यही कहना चाहती हूँ। चोरी तो की ही है, उस पर चोरी करने का पता भी नहीं लगा ऐसे अनाड़ी हो तुम। गुस्सा मत करो देवर जी, लेकिन एक वृश्चिक और वज्राघात के अलावा कोई सम्बल नहीं है तुम्हारे हाथ में। इतनी-सी पूँजी लेकर यह समुद्र पार करोगे? नावेल लिखना इतना आसान काम नहीं है। और अगर एक छलाँग में समुद्र लाँघना चाहते हो तो भी भगवान की कृपा चाहिये – ऐसे ही नहीं हो जाता।”
उस अप्रत्याशित रूढ़ता से दिवाकर स्तम्भित हो गया। आज तक जिससे मीठी-मीठी बाते ही सुनता आया था, उसी की अवहेलना और व्यंग्यपूर्ण बातों का क्या जवाब दे, सूझा ही नहीं।
कुछ क्षण चुप रहकर उसने धीरे-धीरे कहा, “तो इतने मनुष्य जो लिख रहे है, उन सभी ने क्या प्यार किया है, या स्वयं विरह की ज्वाला सह चुके हैं? कब ज्वाला सहने का अवसर पाऊँगा इस आशा में बैठे रहने से तो देखता हूँ साहित्य चर्चा भी छोड़ देनी पड़ेगी।”
उसकी उत्तेजना देखकर किरणमयी ने हँसकर कहा, “इसी को साहित्यचर्चा कहते है? इसको कहते हैं अनधिकार चर्चा।” कहते-कहते उसके मुँह की हँसी अकस्मात् अत्यन्त कठोर हो उठी और अपनी ही बातों मानो हृदय के अन्तस्तल को हिलाकर रक्त से भीगकर भारी और लाल हो गयी। म्लानमुख बोली, मेरी बात आज तुम्हारी समझ में नहीं आयेगी देवर जी, और कभी समझ में आये भी नहीं, यही भगवान से प्रार्थना करती हूँ, लेकिन उम्र में मैं तुमसे बड़ी हूँ अतः एक बात मान लो मेरी – वह यह है कि जिस बात को या चीज़ को खुद न समझो, उसे दूसरे को समझाने की चेष्टा मत करना। जिसे स्वयं न पहचानो उसका उल्टा-सीधा परिचय मत देना किसी और को।
दिवाकर ने कोई बात नहीं कही। किरणमयी थोड़ी देर तक चुप रही। उसने भारी गले को साफ़ करके कहा, “यह क्रोध-अभिमान की बात नहीं है बबुआ, यह भाग्य की बात है, यह बहुत बड़े अभाग्य की बात है। इस संसार में जिन दो-चार अभागों को इस निगूढ़ रहस्य का सच्चा परिचय देने का सच्चा अधिकार प्राप्त होता है, इस गुरुभार को उन्हीं के हाथों में छोड़कर दूसरे कामों में मन लगाओ, उससे काम भी होगा, नुकसान भी कम होगा। व्यर्थ छत के कोने में मुँह भारी बनाकर बैठे-बैठे कल्पना करने से कोई लाभ नहीं होगा, यह बात मैं तुमको निश्चित रूप से कहे देती हूँ।”
दिवाकर ने नरम होकर कहा, “कल्पना क्या कोई वस्तु ही नहीं है?”
किरणमयी ने कहा, “कुछ भी नहीं है यह बात मैं नहीं करती, लेकिन कोरी कल्पना जो वस्तु गढ़ सकती है, वह प्राण नहीं डाल सकती। ढो सकती है, मार्ग नहीं दिखा सकती। उसी राह दिखाने के प्रकाश का पता जब तक तुम नहीं पाते, तब तक तुम्हारा बिच्छू केवल तुम्हीं को डंक मारेगा, और किसी के शरीर पर डंक गड़ा न सकेगा।’
उसकी अन्तिम बात पर दिवाकर मन ही मन जल उठा और मुँह उदास बनाकर बैठा है देखकर किरणमयी ने फिर मुस्कराकर कहा, “लेकिन मैं सोचती हूँ बबुआ, कि तुम्हारे इस ‘सूर्योदय’ महाशय के आँसू न रुकने का कारण क्या है? अन्त में नगेन्द्रनन्दिनी विष खाकर मर तो नहीं गयी?”
कुपित दिवाकर ने कोई उत्तर नहीं दिया।
किरणमयी कहानी के अन्तिम भाग पर दृष्टि डालकर बोल उठी, “यही तो है!” यह कहकर ऊँचे स्वर से वह पढ़ने लगी – लेकिन श्मशान में वह किसका शव लोग लिए जा रहे थे? किसके पीछे वे असंख्य मनुष्य छाती पीटते-पीटते चले जा रहे हैं? किसके शोक में नृपति तुल्य परम प्रतापी जमींदार पागल की भाँति हो गये हैं? ओह! यह क्या ही हृदयविदारक दृश्य है! विजयेन्द्र धीरे-धीरे उसी ओर अग्रसर होने लगा – इसके आगे किरणमयी और न पढ़ सकी। हँसकर पत्रिका दिवाकर के ऊपर फेंककर उसने कहा, “बहुत देर हो गयी, जाऊँ।” यह कहकर हँसती हुई वह चली गयी।
इकत्तीस
पाँच-छह दिन बाद एक दिन मध्याह्नन में दिवाकर ने किरणमयी के कमरे में जाकर आश्चर्य के साथ देखा, वह अत्यन्त ध्यान लगाकर एकाग्रचित्त से भूमि पर बैठ हुई एक हस्तलिखित मूल संस्कृत रामायण पढ़ रही है। किरणमयी साधारण गृहस्थ घर की स्त्रियों की अपेक्षा अधिक पढ़ी-लिखी है और बंगला, अंग्रेजी दोनों भाषाएँ अच्छी तरह जानती है, यह बात दिवाकर जानता था। लेकिन इस कारण ही हाथ की लिखी संस्कृत पोथी पढ़ने की योग्यता भी अच्छी तरह है, ऐसी बात दिवाकर ने स्वप्न में भी नहीं सोची थी। पलभर में आश्चर्य और श्रद्धा से झुककर वह वहीं बैठ गया।
किरणमयी ने हाथ के पन्ने को ठीक स्थान पर रोककर मुँह ऊपर उठाकर कहा, “अचानक ऐसे असमय में कैसे आये?” दिवाकर ने ज़रा कुण्ठित होकर कहा, “तुम पढ़ रही हो यह मैंने नहीं सोचा था भाभी। मैं समझता था सम्भवतः।”
“सो रही हूँ। इसीलिए एकान्त सोचकर मुझे जगाने आये हो?”
दिवाकर ने लज्जा से लाल होकर कहा, “जब-तब इस तरह परिहास करती रहोगी तो मैं घर छोड़कर भाग जाऊँगा, कहे देता हूँ भाभी।”
किरणमयी ने हँसकर कहा, “भाग जाऊँगा, कहने से ही क्या भागा जा सकता है? भूलभुलैया का मार्ग मालूम रहना चाहिए। अच्छा, बैठो, बैठो। क्रोध करके उठनान पड़ेगा। मैं सोचती थी बबुआ, द्वार बन्द करके बैठे-बैठे ‘ज़हर की छुरी’ के बाद तलवार-कटार की तरह कोई बड़ी चीज़ तैयार कर रहे हो। इसीलिए मैंने भी बुलाया नहीं। नहीं तो, मुझे ही क्या दोपहर को रामायण पढ़ना अच्दा लगता है?”
दिवाकर ने पूछा, “रामायण में तुम विश्वास करती हो?”
किरणमयी ने कहा, “करती हूँ।”
दिवाकर ने अत्यन्त आश्चर्य में पड़कर कहा, “किन्तु बहुत से लोग नहीं करते। वास्तव में इसमें इतने झूठ, इतने असम्भव, इतने प्रक्षिप्त अंश हैं कि उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता।”
किरणमयी ने ज़रा हँसकर पोथी को हाथ से ठेलकर कहा, “यही तो मूल ग्रन्थ है। इसमें से प्रक्षिप्त विषयों को निकाल दो तो देखूँ?”
दिवाकर ने सहमकर कहा, “मैं किस तरह निकालूँगा भाभी, मैं तो संस्कृत नहीं जानता।”
किरणमयी ने कहा, “जानते नहीं हो, इसीलिए इस प्रकार झट से ऐसी बात तुम्हारे मुँह से निकल गयी। विद्या न रहने से ही अविद्या आ घुटती है। उसके ही फलस्वरूप मनुष्य जिस बात को नहीं जानता, वही दूसरों को बात देना चाहता है, जो समझता नहीं, वही अधिक समझना चाहता है। बुरी आदत को छोड़ दो।”
दिवाकर अत्यन्त लज्जित हो गया। यह बात कहने का उसका कोई विशेष उद्देश्य नहीं था। उसने सोचा था धर्मग्रन्थ में अश्रद्धा या अविश्वास दिखाने से भाभी प्रसन्न होंगी।
किरणमयी ने ज़रा हँसकर कहा, “लिखना कैसा हो रहा है?”
दिवाकर ने कहा, “मैं तो अब लिखता नहीं हूँ।”
किरणमयी आश्चर्य से बोली, “लिखते नहीं हो! कहते क्या हो बबुआ? लेकिन तुमने जो कुछ लिखा था, वह बुरा नहीं था, छोड़ क्यों दिया बताओ तो?”
दिवाकर बोला, “क्यों लज्जित कर रही हो भाभी, मैंने उसके बाद बहुत विचार करके देखा है, तुम्हारी बात सत्य है। मेरा यह लेख दूसरे की चोरी भले ही न हो, दूसरे का अनुकरण है तो अवश्य! वास्तव में मैं प्रेम का क्या जानता हूँ, कि इतनी बातें लिखने लगा। इसीलिए अब मैं लिखता नहीं – केवल सोचता हूँ।”
“सोचते हो, दिन-रात सोचते हो बताओ तो? मुझे ही तो नहीं?”
दिवाकर ने इस बात पर ध्यान न देकर कहा, “फिर भी, मुझे लगता है कि उपन्यास लिखने की झक को भी मैं किसी दिन छोड़ न सकूँगा। आज इसीलिए यही सोचकर मैं यहाँ आया हूँ कि तुमसे कुछ सीखूँगा।”
किरणमयी ने कहा, “मुझसे तुम क्या सीखोगे बबुआ, प्रेम?”
दिवाकर ने प्रबल लज्जा को किसी प्रकार रोककर गम्भीर होकर कहा – “सब कुछ सीखूँगा। आवश्यकता पड़ेगी तो वह भी सीखूँगा।”
किरणमयी ने भी मुँह को कृत्रिम गम्भीरता से परिपूर्ण करके कहा, “लेकिन इसमें एक बखेड़ा है बबुआ! मुझे पकड़कर प्रेम सीखने लगोगे तो लोग क्या कहेंगे!”
दिवाकर झट से उठ खड़ा हुआ। बोला, “जाओ, मैं जा रहा हूँ, तुम तो केवल मज़ाक करती हो।”
किरणमयी ने लपककर उसका हाथ पकड़कर मुस्कराकर कहा, “तो स्पष्ट कहो न भाई, कि परिहास नहीं चाहते, सच्ची बात चाहते हो।”
दिवाकर अपना हाथ तेज़ी से खींचकर शीघ्रतापूर्वक बाहर चला गया।
किरणमयी ने मन ही मन हँसकर अपनी पोथी बन्द कर दी। उसके बाद उचित स्थान र उसे रखकर वह धीरे-धीरे दिवाकर के कमरे में चली गयी।
दिवाकर मुँह उदास बनाये खिड़की के बाहर देखता हुआ चुपचाप बैठा था, किरणमयी ने कहा, “क्रोध करके क्यों चले आये, बताओ तो?”
दिवाकर ने बिना मुँह घुमाये ही कहा, “यह सब हँसी-मज़ाक मुझे अच्छा नहीं लगता।”
किरणमयी क्षणभर चुप रहकर मीठे स्वर से बोली, “तुम तो मेरे देवर लगते हो बबुआ! तुम्हारे साथ तो हँसी-मज़ाक चलना ही चाहिए। यह सब न करने से मैं कैसे ज़िन्दा रह सकूँगी, बताओ तो!”
इस स्नेह-भरे कोमल स्वर से दिवाकर का क्रोध शान्त हो गया। आज सहसा पहले-पहल उसे ज्ञात हो गया कि यह तो सत्य ही है। मुझे लज्जित होने की तो कोई बात ही नहीं है। हम लोगों का सम्बन्ध ही तो हास-परिहास का है।
यह बात झूठी भी नहीं कि बंगाली समाज में देवर-भौजाई में एक मधुर हास-परिहास का सम्बन्ध प्रचलित है और ठीक कहाँ पर इसकी सीमा-रेखा है, यह भी बहुतों की दृष्टि में नहीं पड़ती, पड़ने की आवश्यकता भी वे नहीं समझते। लेकिन इस निर्दोष हास-परिहास की अधिकता से कभी-कभी कितने विषबीज झर पड़ते हैं और अदृश्य में, वे ही बीज अंकुरित होकर विषवृक्ष में परिणत हो जाते हैं और किसी समय समूचे पारिवारिक बन्धन को कलुषित कर देते हैं, इसका हिसाब-किताब लोग रखते हैं?
दिवाकर ने मुँह फेरकर अभिमान के स्वर से कहा, “मैं सीखने गया और तुमने परिहास करके मुझे भगा दिया।”
किरणमयी ने बिछौने के एक छोर पर बैठकर कहा, “क्या सीखने गये थे?”
दिवाकर ने कहा, “वही जो मैंने कहा था कि कहानी लिखने का झक मैं किसी प्रकार भी छोड़ न सकूँगा। इसीलिए मैंने सोचा है कि तुम सिखा दोगी, बोलती जाओगी, मैं लिखता जाऊँगा।”
किरणमयी ने हँसकर कहा, “वह तो फिर मेरा ही लिखना होगा बबुआ।”
“होगा तो होने दो, लेकिन मेरा तो सीखना होगा। केवल जानने से ही तो नहीं होता, व्यक्त करने की शक्ति भी तो होनी चाहिए।
“वह तो चाहिए ही। लेकिन व्यक्त करोगे क्या, सुनूँ तो?”
“वही तो तुम बता दोगी भाभी!”
हँसी आ गयी फिर किरणमयी को। बोली, ‘तब तो किसी और को पकड़ो जाकर देवर जी, यह काम मेरा नहीं है। जल की मछली अगर यह समझना चाहे कि मरुभूमि में मनुष्य प्यास से कैसे मरता है तो फिर कोई दूसरा ढूँढ़ना पड़ेगा, मेरी बुद्धि से बाहर है यह।
ज़रा चुप रहकर दिवाकर बोला, भाभी, यह सच है कि मरुभूमि की तृष्णा से मैं अभिज्ञ नहीं हूँ, परन्तु मैं जलचर भी नहीं हूँ। तुम्हारी तरह जब मेरा वास भी डांग पर है तो पिपासा की धारणा भी है। तुम कहकर तो देखो एक बार मैं समझ पाता हूँ कि नहीं।
किरणमयी चुप ही रही। केवल हँसते हुए मुख से ताकती रही।
दिवाकर भी कुछ क्षण स्थिर रहकर बोला, “यहाँ जो इतनी देर तक तुम रामायण पढ़ रही थीं भाभी, मैं उसी की बात कहता हूँ। सीता के जिस रूप की अग्नि में रावण सपरिवार भस्म हो गया, नारी का वह रूप क्या है? और अकेला रावण ही तो नहीं, ऐसे अनेक रावणों का इतिहास मौजूद है। कवि लोग कहते हैं रूप की प्यास। तुमने भी उसी तरह की उपमा दी है। तुम यह मत सोचना भाभी, कि मैं तुमसे तर्क कर रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि तुम्हारे पैरों के पास बैठकर मैं बहुत दिनों तक सीख सकता हूँ। मैं तो केवल यही जानना चाहता हूँ कि इसे प्यास कहते हैं क्यों? पानी देखने से ही तो मनुष्य को प्यास नहीं लग जाती। तो फिर रूप देखने से ही उसको प्यास क्यों लगेगी?”
किरणमयी ने मुँह ऊपर उठाकर एकाएक हँसकर कहा, “प्यास लगती है क्या बबुआ?”
इस हँसी और प्रश्न का यथार्थ अर्थ समझकर दिवाकर पलभर के लिए हतबुद्धि-सा हो रहा। लेकिन दूसरे ही क्षण अपने को सम्भालकर बोल उठा, “अवश्य लगती है।”
उसका संकुचित और दबा हुआ साहस इतनी देर में किस हद तक जाग गया था, इसे वह स्वयं भी नहीं जानता था। उसने कहा, “न लगने से संसार में बड़े-बड़े कवि लोग शकुन्तला भी नहीं लिखते, रोमिओ जूलिएट भी नहीं लिखते। इसीलिए मैं जानना चाहता हूँ। भाभी, नारी का यह रूप वास्तव में क्या वस्तु है? और प्रेम भी उसके साथ इस प्रकार घनिष्ठ रूप में लिपटा क्यों रहता है?”
किरणमयी ने गम्भीर होकर कहा, “तब तो तुम्हारी अवस्था अभी उतनी बिगड़ी नहीं है।”
दिवाकर व्यथित होकर बोला, “सभी बातों को यदि तुम हँसकर उड़ा दोगी भाभी, तो रहने दो। मैं अब कुछ न पूछूँगा।”
उसकी ओर देखकर किरणमयी ने विषाद का ढोंग रचकर कहा, “मैं मूर्ख स्त्री हूँ बबुआ, मैं इन सब बड़ी-बड़ी बातों का हाल क्या जानूँ, जो तुम क्रोध कर रहे हो?”
दिवाकर को उस दिन की बात याद आ गयी जिस दिन वेद के प्रति भी अवहेलना भरी उक्ति सुनकर उसने कानों में उँगली डाल ली थी। उसने कहा, मैं जानता हूँ भाभी, तुम भारी पण्डित हो। तुम चाहो तो सभी विषय मुझे समझा सकती हो।”
किरणमयी ने कहा, “समझा सकती हूँ? अच्छा यदि मैं कहूँ कि स्त्री का रूप एक भ्रम मात्र है, वास्तव में यह कुछ भी नहीं है, मृग-मरीचिका की भाँति मिथ्या है। क्या तुम विश्वास करोगे?”
दिकाकर ने कहा, “नहीं। इसका कारण यह है कि मरीचिका भी मिथ्या नहीं है, चाहे वह कुछ भी हो, दर्पण में मनुष्य का प्रतिबिम्ब पड़ता है। वह प्रतिबम्ब है, आदमी नहीं है, यह तो मानी हुई बात है। प्रतिबिम्ब को मनुष्य कहकर पकड़ने की चेष्टा करना मूर्खता है। लेकिन रूप तो उस प्रकार किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब नहीं है। साँप को रस्सी समझकर पकड़ने जाना भूल है, मरीचिका को भी पानी समझकर पकड़ने जाना भूल है। लेकिन रूप के पीछे तो मनुष्य केवल रूप की ही तृष्णा से दौड़ जाता है भाभी।” किरणमयी ने कहा, “बबुआ, अभी तुमने दर्पण में प्रतिबिम्ब देखने की उपमा दी है। जिस दिन तुम समझ जाओगे कि रूप भी मनुष्य का प्रतिबिम्ब ही है, मनुष्य नहीं है, उसी दिन प्रेम का पता पाओगे। लेकिन छोड़ो इस बात को। मैं पूछती हूँ कि रूप के ही पीछे मनुष्य क्यों दौड़ता हुआ जाता है?”
“यह मैं नहीं जानता। भ्रमर जैसी स्त्री को छोड़कर भी गोविन्दलाल रोहिणी के पीछे दोड़ गया था। यह बात मुझे बहुत ही अद्भुत ज्ञात होती है।”
“लेकिन उसका फल क्या हुआ?”
“फल जो कुछ भी हो भाभी, इस पर विचार करने का भार मनुष्य के हाथ में नहीं है। रोहिणी में रूप था, गुण नहीं था। किन्तु रूप के साथ गुण रहने से गोविन्दलाल की क्या दशा होती, कहा नहीं जा सकता।”
किरणमयी मौन ही रही! बी.ए. फेल हुए इस लड़के पर मन ही मन उसकी श्रद्धा नहीं थी। केवल फेल हो जाने के ही कारण नहीं, पास हो जाने पर भी, वह सोचती कि ये लोग केवल पाठों को कण्ठस्थ करके केवल पास भर कर सकते हैं, और कुछ नहीं कर सकते। किन्तु आवश्यकता पड़ने पर इनका शिक्षित मन तर्क भी कर सकता है, यह धारणा ही उसकी नहीं थी। उसने कहा, “रूप प्रतिबिम्ब नहीं है इस बात को इतने असन्दिग्ध रूप से स्थिर मत रखो। जो भी हो, मैं तुमसे पूछती हूँ बबुआ, ये सब बातें तुमने स्वयं ही सोची हैं या किसी की सोची हुई बात सुनकर कर रहे हो?”
दिवाकर ने मुस्कराकर कहा, “नहीं भाभी, मेरी अपनी ही बातें हैं। बचपन से ही भगवान ने मुझे सोचने की सुविधा दी थी।”
किरणमयी ने क्षणभर मौन रहकर कहा, “फिर इतनी सुविधा रहने पर भी रूप का तत्व ढूँढ़कर तुम न पा सके। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि सतीश बबुआ ने भी मुझसे ठीक यही बात एक दिन पूछी थी, और भी एक व्यक्ति ने पूछी थी, और आज तुम भी पूछ रहे हो। मैं सोचती हूँ मेरा रूप देखकर ही क्या तुम लोगों के मन में यह प्रश्न नहीं आता?”
दिवाकर एकाएक चौंक पड़ा। लज्जा से उसका मस्तक फट जाने लगा। उसने अपना मुँह झुकाकर कहा, “मुझे क्षमा करो भाभी, मैं जानता नहीं था।”
किरणमयी ने हँसते हुए कहा, “एकाध बार नहीं भाई, तुमको तो मैं सौ बार क्षमा करती हूँ।” यह कहकर और पलभर मौन रहकर उसने मानो मन में आने वाली एक दुविधा को ज़ोर से धकेलकर निकाल दिया और अपनी अत्यन्त सुन्दर ग्रीवा ज़रा ऊँची कर एक प्रकार के कोमल करुण स्वर से बोली, “बबुआ, आज तुमने जितनी बातें मुझसे पूछी हैं, उनका यदि स्पष्ट उत्तर देने लगूँ, तो मेरी बाते दम्भ की तरह होंगी। उसे तुमको भूल जाना पड़ेगा। नहीं तो, अपनी भूल से मुझे ग़लत समझकर सब ही बातों को तुम गड़बड़ कर दोगे। मेरी बात तुम्हारी समझ में आती है न?”
दिवाकर ने चुपचाप सिर हिला दिया।
किरणमयी क्षणभर स्थिर रहकर कहने लगी, “मेरे शरीर का यह रूप केवल पुरुषों की ही दृष्टि में नहीं, मेरी अपनी भी दृष्टि में एक अद्भुत वस्तु है। इसी से इसकी बात मैंने बहुत सोची है। जो कुछ मैंने सोचा है, सम्भवतः वही ठीक भी है। हो सकता है नहीं भी हो, लेकिन वह जो कुछ भी हो, अपनी इस भावना को जब एक देवर से कहने में मैंने संकोच नहीं किया, तब तुमसे कहने में भी मैं न हिचकूँगी। अपने आपको देखकर मुझे कैसा जान पड़ता है जानते हो? ज्ञात होता है सन्तान धारण करने के लिए जो सब लक्षण सबसे अधिक उपयोगी हैं वह नारी का रूप है। सारे विश्व के साहित्य में, काव्य में, यही वर्णन उसके रूप का वास्तविक वर्णन है।”
दिवाकर मौन होकर निहारता रहा। किरणमयी उसके स्तब्ध मुख पर नवीन यौवन की सद्यः जाग्रत क्षुधा की मूर्ति अकस्मात अनुभव करके संकोच से एकाएक रुक गयी। लेकिन पल भर में, दूसरे ही क्षण उस भाव को बलपूर्वक दबाकर बोली, “वास्तव में बबुआ, इसी स्थान पर मानो रूप का एक छोर दिखायी पड़ता है, इसीलिए नारी का बाल्य रूप मनुष्य को आकर्षित करने पर भी उसे उन्मत्त नहीं करता। फिर जबकि वह सन्तान धारण करने की उम्र पार कर जाती है तब भी ठीक यही दशा हो जाती है। सोचकर देखो बबुआ, केवल नारी की ही नहीं, पुरुष की भी यही दशा है। तभी एक नारी का रूप रहता है, जब तक कि वह सन्तानोत्पादन कर सकती है। यह सृष्टि करने का सामथ्र्य ही उसका रूप है, यौवन है, सृष्टि करने की इच्छा ही उसका प्रेम है।”
दिवाकर ने धीरे से कहा, “लेकिन…।”
किरणमयी बीच ही में रोककर बोल उठी, “नहीं, लेकिन के लिए इसमें स्थान नहीं है। विश्व चराचर में जिस ओर इच्छा हो, आँखें उठाकर देखो, वही एक बात मिलेगी बबुआ, सृष्टितत्व की मूल बात तुम्हारे सृष्टिकर्ता के ही लिए रहे, लेकिन इसके काम की ओर एक बार ध्यान से देखो। तुम देखोगे इसका प्रत्येक अणु-परमाणु निरन्तर अपने को नये रूपों में सृजन करना चाहता है। किस प्रकार वह अपने को विकसित करेगा, कहाँ जाने से, किसके साथ मिलने-जुलने से, क्या करने से यह और भी सबल तथा उन्नत होगा, यही उसका अविराम उद्यम है। दृश्य हो, अदृश्य हो, अन्दर हो, बाहर हो, इसी से प्रकृति का नित्य परिवर्तन होता रहता है। और इसीलिए नारी में पुरुष जब ऐसा कुछ देख पाता है, ज्ञान से हो या अज्ञान से हो, जहाँ वह अपने को अधिक सुन्दर और सार्थक बना सकेगा, तो उस लोभ को वह किसी प्रकार भी रोक नहीं पाता।”
दिवाकर ने धीरे से कहा, “तब तो इस दशा में चारों ओर ही मारकाट मच जाती है?”
किरणमयी ने कहा, “कभी-कभी मच जाती है अवश्य। लेकिन मनुष्य में लोभ दमन करने की शक्ति, स्वार्थत्याग करने की शक्ति, समझ तथा शासन की शक्ति, कितनी ऐसी शक्तियाँ हैं, जिनके कारण चारों ओर एक ही साथ आग नहीं लग सकती। फिर भी इस सामाजिक मनुष्य का ही एक दिन ऐसा था, जब कि प्रवृत्ति के अतिरिक्त और किसी का शासन नहीं मानता था। रूप का आकर्षण ही उसकी दुर्दमनीय प्रवृत्ति का संचालन था। वही था उसका प्रेम, बबुआ, इसको ही संस्कृति तथा सभ्यता के वस्त्र पहनाकर सजावट सिंगार से तैयार कर देने से उपन्यास का निर्दोष प्रेम हो जाता है।”
दिवाकर ने चकित होकर कहा, “कहाँ तो पाशविक प्रवृत्ति की ताड़ना और कहाँ स्वर्गीय प्रेम का आकर्षण! जो मनुष्य पशु की प्रवृत्ति से भरा हुआ है वह शुद्ध, निर्मल, पवित्र प्रेम की मर्यादा क्या समझेगा? इस वस्तु को वह पायेगा कहाँ? तुम किसके साथ किसकी तुलना करने चली हो भाभी?”
“मैं तुलना नहीं करती भाई। केवल यही बता रही हूँ कि दोनों हैं एक ही वस्तु। इंजिन की जो वस्तु उसको आगे की ओर ढकेलकर ले जाती है, वही वस्तु उसे पीछे को भी ठेल सकती है, दूसरी नहीं। जो प्रेम कर सकता है, वही केवल सुन्दर-असुन्दर सभी प्रेमों में अपने को डुबा सकता है, दूसरा नहीं। उसकी जिस वस्तु ने भ्रमर को प्रेम किया था, ठीक वही
वस्तु उसको रोहिणी की ओर भी खींच ले गयी थी। लेकिन हरलाल जो वह कर नहीं सका। उसने सांसरिक भले-बुरे, कर्तव्य-अकर्तव्य, सुविधा-असुविधा पर सोच-विचार करके आत्मसंयम किया था, लेकिन गोविन्दलाल यह नहीं कर सका। फिर भी हरलाल गोविन्दलाल से अच्छा मनुष्य नहीं था, बहुत बुरा था। तो भी उसने जिसे घृणा से त्याग दिया था दूसरे ने उसी को सिर पर चढ़ा लिया।”
‘यह सिर पर चढ़ा लेना तरह-तरह के कारणों से व्यर्थ हो सकता है। लेकिन समस्त दुःख-ग्लानि-लज्जा के अतिरिक्त, एक वृहत्तर सार्थकता का संकेत एक व्यक्ति को खींचकर एक-दूसरे के पास ले जाता हो, ऐसी बात भी तो कोई बलपूर्वक कह नहीं सकता भाई!”
दिवाकर क्षोभ के साथ बोला, “तुम्हारी सभी बातों को यद्यपि मैं समझ नहीं सका, लेकिन पवित्र प्रेम स्वर्गीय नहीं है, ऐसी अद्भुत बात को मैं किसी प्रकार भी मान नहीं सकता, भाभी।”
किरणमयी ने कहा, “तुम्हारे मानने पर तो कुछ भी निर्भर करता बबुआ! हम लोगों का यह शरीर भी तो अत्यन्त नश्वर है, बिल्कुल ही पार्थिव वस्तु है, लेकिन इसमें तो मैं कोई दुःख का कारण नहीं देखती। शिशु जन्म लेने के बाद जब तक अपने जड़ शरीर में सृष्टि-शक्ति का संचय नहीं करता, तब तक प्रेम का सिंहद्वार उसके लिए बन्द ही रहता है। प्रवृत्ति की ही ताड़ना से वह उस सिंहद्वार को पार कर आता है। उसके पहले वह अपने माता-पिता को, भाई-बहिन को प्यार करता है, इष्ट-मित्रों को भी प्यार करता है, किन्तु जब तक उसका पंचभूत का शरीर बड़ा नहीं हो जाता तब तक तुम्हारे पवित्र प्रेम की कोई भी ख़बर का अधिकार उसको नहीं मिलता। तब तक स्वर्गीय आकर्षण उसे तिल भर भी नहीं हिला पाता। पृथ्वी का आकर्षण तो सदा से ही उपस्थित है, लेकिन उस आकर्षण से वृक्ष का पका फल ही आत्मसमर्पण करता है। कच्चा फल नहीं कर सकता। उसका रेशा-गूदा पृथ्वी के रस से ही पकता है, स्वर्गीय रस से नहीं पकता। सुन्दर पुष्प रूप से, गन्ध से, मधुमक्खियों को खींचकर फल पर परिणत हो जाता है। वही फल फिर समय पर भूमि पर गिरकर अंकुर में परिणत हो जाता है – यही है प्रवृत्ति, यही है उसका स्वर्गीय प्रेम। सारे विश्व में यह जो अविच्छिन्न सृष्टि-नाटक चल रहा है, रूप का खेल चल रहा है, वह स्वर्गीय नहीं है इसलिए दुःख मानने या लज्जित होने का तो कोई कारण ही मैं नहीं देखती।”
कुछ रुककर किरणमयी बोली, “अन्धकार में भूतों के भय से यदि नेत्र बन्द करके ही तुम आराम पाते हो, तो मैं तुमको नेत्र खोलकर देखने को नहीं कहती। लेकिन मैं प्रवृत्ति की ताड़ना नहीं चाहती, स्वर्गीय प्रेम का ही उपभोग करूँगी – प्रेम ऐसी साधारण वस्तु नहीं है।”
दिवाकर ने पूछा, “तो फिर संसार पें पवित्र प्रेम, घृणित प्रेम – ये दो क्यों हैं?”
किरणमयी हँस पड़ी। बोली, “तुम्हारा यह तर्क तो ठीक सतीश बबुआ के तर्क की तरह हुआ। संसार में इन दोनों के रहने की बात है, इसीलिए है। जिसको तुम घृणित कहते हो, वास्तव में वह तो सुबुद्धि का अभाव है अर्थात् जिसको प्रेम करना उचित नहीं था उसे ही प्रेम करना। अपनी ही असावधानी से पेड़ से गिरकर हाथ-पैर तोड़ लेने का अपराध पृथ्वी के प्रत्याकर्षण पर मढ़ देना और प्रेम को कुत्सित, घृणित कहना एक ही बात है। बबुआ, इसी प्रकार संसार में एक का अपराध दूसरे के सिर पर रख दिया जाता है।” यह कहकर एकाएक किरणमयी मौन हो रही और अपने हृदय में क्या है इसे मानो भली-भाँति देखने लगी। दूसरे ही क्षण बोली, “जीवन का प्रत्येक अणु-परमाणु अपनी उत्कृष्ट परिणति के बीच विचार करने का लोभ किसी प्रकार भी संवरण कर सकता है। जिस देह में उसका जन्म होता है, उस देह में जब उसकी परिणति की निर्दिष्ट सीमा समाप्त हो जाती है, तब वही उसकी यौवनावस्था कही जाती है। तभी वह दूसरी देह के संयोग से सार्थक होने के लिए शिराओं और उपशिराओं में विप्लव का जो ताण्डव नृत्य आरम्भ करती है, उसे तो पण्डित लोगों ने नीति-शास्त्र में पाशविक कहकर घृणा की है। इसका तात्पर्य समझ न सकने से ही हतबुद्धि विज्ञ लोग लोग इसे घृणित कहते हैं, वीभत्स कहकर सान्त्वना पाते हैं। लेकिन आज मैं तुमको निश्चित रूप से कहती हूँ, बबुआ, कि इतना बड़ा आकर्षण किसी प्रकार भी ऐसा घृणित, ऐसा हीन नहीं हो सकता। यह सत्य है। सूर्य के प्रकाश की भाँति सत्य है। ब्रह्माण्ड के आकर्षण की भाँति सत्य है। कोई भी प्रेम किसी दिन घृणा की वस्तु नहीं हो सकता।”
यह बात सुनकर दिवाकर सचमुच ही विह्नल हो उठा। उसकी छाती में एक प्रकार की धड़कन होने लगी। ऐसा उत्तप्त तीव्र कण्ठ-स्वर तो उसने किसी दिन सुना ही नहीं था। नेत्रों की ऐसी उत्कट दृष्टि भी तो उसने कभी नहीं देखी थी।
डरते-डरते उसने पुकारा, “भाभी!”
“क्यों बबुआ?”
“मेरे जैसे नासमझ को उपदेश देने में सम्भवतः तुम्हारा धीरज नहीं रहता।”
“यह क्या बबुआ, मुझे बहुत ही अच्छा लग रहा है।”
दिवाकर ने ज़रा हँसने की चेष्टा करके कहा, “अच्छा लगने से तुम्हारे मुँह से ये सब उल्टी-सीधी बातें क्यों निकलीं? अभी-अभी तुमने स्वयं ही कहा कि जिसे प्रेम करना उचित नहीं है, उसे प्रेम करने को ही घृणित प्रेम कहते हैं, फिर कह रही हो, इसका तात्पर्य समझ न सकने के कारण ही विज्ञ लोग उसे बुरा करते हैं। तो फिर सत्य कौन है?”
किरणमयी ने कहा, “दोनों ही सत्य हैं।”
“विधवा रोहिणी को प्यार करना क्या गोविन्दलाल का अनुचित काम नहीं था?”
“प्रेम करना क्या कोई एक काम है कि उसका न्याय-अन्याय होगा? स्त्री को छोड़ जाना ही उसका बुरा काम था।”
दिवाकर फिर एक बार उत्तेजित हो उठा। बोला, “छोड़कर चला जाना तो अवश्य ही बुरा काम है। हज़ार बार बुरा काम है! लेकिन अपनी स्त्री को छोड़कर किसी दूसरी स्त्री को मन-ही-मन प्यार करना भी क्या अन्याय नहीं है?”
उसकी उत्तेजना पर किरणमयी हँसने लगी। बोली, “बबुआ, अपने को इतना शक्तिशाली न समझना चाहिए, अहंकार का कुछ कम रहना ही ठीक है। तुम क्यों सोचते हो कि मनुष्य
इच्छा करने से ही जो चाहे कर सकता है? गोविन्दलाल इच्छा करने से ही रोहिणी को प्यार कर सकता था या फिर नहीं भी कर सकता था, क्या तुम्हारी यही धारणा है?”
“नहीं, मेरी यह धारणा नहीं है। इच्छा के साथ प्रयत्न भी करना चाहिए।”
किरणमयी ने कहा, “फिर उसके साथ अक्षमता और क्षमता भी तो रहनी चाहिए! केवल प्रयत्न करने से ही काम नहीं चलता। उस छत के नीचे बैठे-बैठे यदि तुम्हारे सिर पर पेड़ भी उग जाये, तो भी कालिदास की भाँति तुम एक और मेघदूत न लिख सकोगे। मेघ देखकर तुमको आँधी-पानी की आशंका ही होगी। सर्दी लग जाने के भय से ही तुम व्याकुल हो उठोगे, विरही का दुःख सोचने का समय न पाओगे। लाख प्रयत्न करने से भी नहीं। यह अक्षमता अस्थि-मज्जा में मिली हुई है। इसको जीता नहीं जा सकता।” यह कहकर वह चुप हो गयी।
दिवाकर ने भी उत्तर नहीं दिया। सिर झुकाये मौन होकर बैठा रहा। बहुत देर तक फिर कोई बात न निकली। निस्तब्ध कमरे के कोने से केवल एक जीर्ण-शीर्ण पुरानी घड़ी से टिक्-टिक् शब्द आने लगा।
बहुत देर तक मौन रहकर किरणमयी एकाएक बहुत ही मीठे स्वर से बोली, “तुमसे और दो बातें कहना चाहती हूँ। उस दिन तुम्हारी ‘जहर की छुरी’ लेकर चाहे जो कुछ मैंने कह डाला हो बबुआ, मैंने यह भी देखा था कि तुम्हारे हृदय में एक ऐसी भी वस्तु है, जो वास्तव में ही प्रेमिका है, सचमुच कवि है। इस वस्तु को यदि तुम नष्ट न करना चाहो तो दूसरों को अपराधी बनाने के सुख से अपने को ही वंचित करना होगा। इस बात को कभी मत भूल जाना कि कवि विचारक नहीं है। नीति-शास्त्र के मत के साथ यदि तुम्हारा मत अक्षर-अक्षर न भी मिले, तो उससे तुम लज्जित मत होना। मैं जानती हूँ मनुष्य दूसरे की असमर्थता और अपराध को एक ही तराजू पर तौल कर दण्ड देता है लेकिन उनके बटखरे लाने से तुम्हारा काम न चलेगा। तुमने बार-बार गोविन्दलाल का उल्लेख किया था। वही गोविन्दलाल कितनी बड़ी शक्ति के सामने परास्त होकर सर्वस्व त्याग कर चला गया था। इस संसार में जिन्होंने केवल भले-बुरे का विचार करने का भार लिया है, यह प्रश्न उनका नहीं है, यह प्रश्न तुम्हारा है। हत्या के अपराध में जज साहब जब किसी अभागे को फाँसी की सज़ा देते हैं, तब वे विचारक हैं, लेकिन अपराधी के हृदय की दुर्बलता अनुभव करके जब वे सज़ा हल्की कर देते हैं, तब वे कवि बन जाते हैं। बबुआजी, इसी प्रकार संसार के सामंजस्य की रक्षा होती है, इसी प्रकार संसार की भूलें, भ्रान्तियाँ और अपराध असहनीय नहीं होने पाते। कवि केवल सृष्टि ही करता है, यह बात नहीं है, कवि सृष्टि की रक्षा भी करता है। जो स्वभावतः सुन्दर है, उसको जैसे और भी असुन्दरता के साथ प्रकट करना उसका काम है, जो सुन्दर नहीं है उसको असुन्दर के हाथों से बचाना भी उसका काम है।”
दिवाकर ने ज़रा सोचकर कहा, “इस दशा में क्या अन्याय को प्रश्रय देना न होगा?”
किरणमयी ने कहा, “ठीक मैं नहीं जानती। हो भी सकता है। सुनती हूँ, मन के विरुद्ध अत्यन्त घृणा उत्पन्न कर देना भी सम्भवतः कवि का ही काम है। लेकिन अच्छे के प्रति अत्यन्त लोभ जगा देना क्या उसकी अपेक्षा बड़ा काम नहीं हैं? इसके अतिरिक्त जब तक इस संसार से पाप बिल्कुल ही मिटा न दिया जायेगा, जब तक मनुष्य का मन पत्थर न बन जायेगा तब तक इस पृथ्वी में अन्याय, भूल-भ्रान्ति होती ही रहेगी और उसे क्षमा करके प्रश्रय भी देना ही पड़ेगा। पाप दूर करने की शक्ति भी नहीं है, सहन करने का सामथ्र्य भी न रहेगा, तो उससे ही क्या कोई सुविधा होगी बबुआ?”
दिवाकर ने उत्तर दिया, “सुविधा ही तो सब कुछ नहीं है। असुविधा में भी तो न्याय धर्म का पालन करना चाहिए। जो शुभ है, जो निर्मल है, जो सूर्य के प्रकाश की भाँति है, उसको सबसे ऊपर स्थान देना उचित है।”
किरणमयी ने कहा, “नहीं। यदि पाप मनुष्य के रक्त के साथ न लगा रहता तो उस दशा में तुम्हारा कहना ही सच होता। एक न्याय के अतिरिक्त संसार में और कुछ भी न रहने पाता। दया, माया, क्षमा आदि चित्तवृत्तियों के नाम तक भी किसी को ज्ञात न रहते। तुम सूर्य के प्रकाश के श्वेत रंग के साथ न्याय की तुलना कर रहे थे, लेकिन क्या श्वेत रंग सब रंगों के मेल से ही नहीं बनता। यह उज्ज्वल प्रकाश जैसे टेढ़े शीशे के भीतर जाने से रंगीन हो उठता है, उसी प्रकार न्याय भी अन्याय, अधर्म, पाप-ताप के टेढ़े रास्ते से दया, मामा, क्षमा से चित्रित होकर दिखायी देते हैं। अन्याय को क्षमा करने से अधर्म को ही प्रश्रय देना होता है, यह बात मैं मानती हूँ, लेकिन अधर्म भी तो क्षमा का रूप नहीं, यह बात भी तो स्वीकार किये बिना नहीं रह सकती। तर्क करके सम्भवतः मैं अपनी बात तुमको समझा न सकूँगी बबुआजी, लेकिन जो क्षमा प्रेम के भीतर से पैदा होती है उस प्रेम का मर्म यदि तुम किसी दिन जान जाओगे तो समझ जाओगे कि अन्याय, अक्षमता को क्षमा कर प्रश्रय देना धर्म का ही अनुशासन है। लेकिन दिन तो अब बहुत ही ढल गया बबुआजी, क्या आज तुमको भूख-प्यास नहीं लगी है?” यह कहकर घबराकर वह कमरे से बाहर निकल गयी।
संध्या के बाद दिवाकर खाना खाने के लिए बैठा तो धीरे-धीरे बोला, “आज सारा दोपहर का समय मेरा बहुत ही आनन्द से बीता। कितनी नयी बातें मैंने सीखीं, यह मैं कह नहीं सकता।”
किरणमयी ने मुस्कराते हुए कहा, “अनेक बातें ही तुमने सीखी हैं? तो मुझे अपना गुरु मानना चाहिए।”
दिवाकर उत्साहित होकर बोल उठा, “अवश्य, अवश्य, सौ बार मैं तुमको अपना गुरु स्वीकार करता हूँ? सच कहता हूँ भाभी, यदि इस तरह सदा ही तुम्हारे पास रहने पाऊँ तो मुझे और कुछ नहीं चाहिए।”
“क्या कहते हो? इतने में ही इतना आकर्षण?”
दिवाकर का चित्त उसकी बातों की धारा में मग्न हो गया था, सरल मन से बोला, “तुमको छोड़कर एक दिन भी मैं कहीं रह न सकूँगा भाभी।”
किरणमयी हँस पड़ी और बोली, “चुप-चुप, यदि कोई सुन लेगा तो चकित हो जायेगा।”
दिवाकर होश में आकर अत्यन्त लज्जित हो गया।
बत्तीस
बिछौना बिछाते-बिछाते किरणमयी उसी के एक कोने में बैठकर म्लान करुण कण्ठ से बोली, “यह क्या तुम्हारी नौकरी है या व्यवसाय है बबुआजी, कि इसकी सफलता-विफलता मालिक की इच्छा पर या दुकान की खरीद-बिक्री पर निर्भर करेगी? यह तो अपने हृदय का धन है। बाहर के लोगों में इसे विफल करने की शक्ति नहीं है बबुआ।” यह कहकर वह कुछ देर तक आँखें मूँदे बैठी रही।
दिवाकर ने भक्ति भरे चित्त से उस सुन्दर मुख की ओर देख धीरे-धीरे कहा, “अच्छा भाभी, तुम क्या आँखें मूँदने पर अपने स्वामी का मुख अन्तः करण में देख पाती हो?”
किरणमयी ने आँखें खोलकर कुछ विस्मित होकर कहा, “स्वामी का? हाँ, देख पाती हूँ, जो मेरे यथार्थ स्वामी हैं वे निश्चय ही मेरे इसी स्थान में रहते हैं।” कहकर उसने उँगली से अपना हृदय दिखाया।
दिवाकर ने इस बात को सरल भाव से समझकर नम्रता से कहा, “लेकिन इसे देखने से क्या लाभ है भाभी? तुम देवी-देवता नहीं मानतीं, तुम इहलोक-परलोक को भी नहीं मानतीं, फिर मरने के बाद तुम किस प्रकार उनके पास जाओगी?”
किरणमयी ने कहा, “मरने के बाद मैं किसी के पास नहीं जाना चाहती।”
“कहीं, किसी के पास नहीं? बिल्कुल अकेली रहना चाहती हो?” इतना कहकर दिवाकर मानो हतबुद्धि होकर ताकता रहा और उसका प्रश्न सुनकर किरणमयी भी थोड़ी देर के लिए अवाक् हो गयी। लेकिन दूसरे ही क्षण वह ज़ोर से हँसकर बोली, “लेकिन जब-तब तुम मेरे सम्बन्ध में बातें क्यों सुनना चाहते हो, बबुआ?”
“क्या जानूँ भाभी, पर मुझे सुनने की बड़ी इच्छा होती है।”
किरणमयी ने बिछौने की चादर बिछा देने के बहाने मुँह घुमाकर कहा, “मैं एक आदमी के पास जाना चाहती हूँ। लेकिन वह मरण के उस पार नहीं है, इसी पार है।”
दिवाकर ने कहा, “लेकिन वे तो मरण के उस पार चले गये हैं। इस पार किस प्रकार फिर तुम उनको पाओगी।”
किरणमयी ने हँसकर कहा, “वह मेरा अब भी इसी पार में उपस्थित है, अब तक चली भी गयी होती लेकिन….।”
“लेकिन क्या भाभी?”
“केवल यदि मुझे वह बात देता कि वह मुझे चाहता है या नहीं।”
दिवाकर ने फिर आश्चर्य में पड़कर पूछा, “कौन इस पार है? कौन बतायेगा कि वह तुमको चाहता है या नहीं? तुम कहती क्या हो भाभी?”
किरणमयी के मुख पर पलभर के लिए एक मलिन छाया पड़ गयी, लेकिन क्षणभर में ही वह हट गयी और फिर उसका समूचा मुख उज्जवल हो उठा। कृत्रिम क्रोध के स्वर में उसने कहा, “तुम बड़े ही दुष्ट हो बबुआजी। अपना मुँह खोलकर स्वयं कुछ भी नहीं कहना चाहते, केवल मेरे मुँह से एक सौ बार सुनना चाहते हो? जाओ, उसकी ख़बर मैं तुमको बात न सकूँगी।” यह कहकर अपने मुँह को ज़रा ओट में करके वह मुस्कराने लगी। दिवाकर ने यह हँसना देख लिया और एक अज्ञात आवेग में उसका हृदय तीव्र गति से धड़कने लगा। अपने को सम्भालकर उसने कहा, “मेरे पास कहने की कौन-सी बात है भाभी, कि मुँह खोलकर मैं तुमसे कहूँगा?”
किरणमयी उसकी ओर घूमकर खड़ी हो गयी। बोली, “इतने दिनों से तुमको मैंने इतना सिखाया वह सबका सब व्यर्थ हो गया? एक बार अपनी छाती पर हाथ रखकर देखो तो वहाँ एक भयानक बात खलबली मचा रही है या नहीं? सच कहो।”
दिवाकर ने मंत्रमुग्ध की भाँति कहा, “क्या बात है, मुझे क्या सिखाया तुमने?”
किरणमयी ने कहा, “तुमने मुझे आश्चर्य-चकित कर दिया बबुआजी। इसी आयु में क्या अभिनय करना सीख गये हो? लेकिन तुम मुँह खोलकर न कहोगे तो मैं भी कुछ न कहूँगी, इससे मेरी ही छाती फट जाये या तुम्हारी ही फट जाये!” यह कहकर ही एकाएक झुककर दिवाकर की ठोड़ी को एक बार हाथ से हिलाकर वह तेजी से कमरे से बाहर चली गयी।
दिवाकर को जैसे साँप सूँघ गया। इससे पहले कई बार किरणमयी ने तरह-तरह के मजाक किये थे, सैकड़ों बार छल से स्पर्श किया था, लेकिन आज का यह परिहास, यह स्पर्श कान तक झनझना उठे, धमनियों में जैसे बिजली दौड़ गयी। शरीर के प्रत्येक रक्त-बिन्दु के ऐसे द्रुत वेग का अनुभव इससे पहले उसे कभी नहीं हुआ था।
तैंतीस
बहुत दिनों के बाद आज फिर प्रातः काल अघोरमयी मुहल्ले की कई बूढ़ी स्त्रियों के साथ कालीजी के दर्शन करने कालीघाट गयी थीं। बता गयी थीं कि माता कि आरती हो जाने पर थोड़ी रात बीत जाने पर घर लौटूँगी।
रात के लगभग आठ बजे थे। दिवाकर अपने बिछौने पर चुपचाप लेटा हुआ था। उसके सिरहाने एक मिट्टी का दीपक टिमटिमाता हुआ जल रहा था। इसी क्षीण प्रकाश में थोड़ी ही देर पहले वह दुर्गेशनन्दिनी नामक पुस्तक पढ़ रहा था। उसी को मुँह पर रखकर वह सम्भवतः मन ही मन आयेशा के ही विषय में सोच रहा था। उसी समय आकर किरणमयी ने पूछा, “छोटे बबुआ, क्या सो रहे हो?”
दिवाकर ने मुँह पर से उस पुस्तक को बिना हटाये ही कहा, “नहीं, सिर में बहुत दर्द है?”
किरणमयी ने कहा, “तो अच्छी दवा हो रही है। सिरहाने दीपक जला रखने से क्या सिर-दर्द मिट जाता है बबुआजी?”
दिवाकर ने कहा, “यह पुस्तक कल ही लौटा देनी है, इसीलिए इसे समाप्त कर रहा हूँ।”
किरणमयी ने कहा, “नेत्र बन्द करके आयेशा की चिन्ता करते रहने से ही पुस्तक समाप्त न होगी भाई, आँखें खोलकर पुस्तक पढ़ी जाती है। तो रहने दो, खा-पीकर ही समाप्त करना। अब चलो, खाना ठण्डा हो रहा है।”
दिवाकर की उठने की इच्छा नहीं थी। उसने विनय के साथ कहा, “अभी रहने दो भाभी, मौसी को आ जाने दो, तभी खाऊँगा।”
किरणमयी के कहा, “वह किस समय लौटेंगी, इसका क्या ठीक है बबुआ? आज मेरी भी तबियत ठीक नहीं है। सोचती हूँ, उनके कमरे में उनको भोजन ढ़ककर रख दूँगी। फिर थोड़ा सोऊँगी। उठो, तुमको खिला दूँ।” कहने के पश्चात् पास आकर दिवाकर की पुस्तक को ऊपर उठा दिया।
पास ही दिवाकर का लोहे का सन्दूक़ रक्खा था, वापस आकर उसी पर बैठ गयी और फिर से ताकीद करते हुए बोली, ‘अब उठो भी!’
– “मेरी उठने की ज़रा भी इच्छा नहीं हो रही भाभी। इससे तो कोई बात करो – मैं सुनता हूँ।”
– “खाली बात करने से पेट तो नहीं भरता देवर जी, समय पर खाना भी पड़ता है। क्यों क्या ख़्याल है?” ज़रा चुप रहकर दिवाकर ने पूछा, “अच्छा भाभी, मेरे नहाने, खाने, सोने को लेकर तुम इतनी परेशान क्यों रहती हो?”
मुस्कुराकर उल्टे प्रश्न किया किरणमयी ने – “क्यों रहती हूँ, नहीं जानते?”
– “बिना बताये कैसे जानूँगा?”
– “यह तुम्हारी गलत बात है। बिना बताये भी जाना जाता है, और तुम जानते भी हो?”
शर्म से गड़ गया दिवाकर। कुछ देर चुप रहकर ज़रा उदास व करुण स्वर में बोला, “अच्छा भाभी, एक बात पूछूँ?”
– “एक क्यों, हजार पूछो। लेकिन पहले खा-पीकर मुझे छुट्टी दे दो – फिर अगर कहोगे तो सारी रात तुम्हारी बातों का जवाब देती रहूँगी। क्यों तैयार हो?” कहकर वह फिर हँसने लगी। इस परिहास का जवाब देने का प्रयास करत हुए कृत्रिम सहानुभूति के स्वर में दिवाकर बोला, “ठीक है भाभी, तुम शायद इसी सख्त बक्से पर बैठे-बैठे सारी रात मेरी बातों का जवाब देती रहोगी?”
मुस्कुराकर किरणमयी ने कहा, ‘मेरे इस बक्से पर बैठने से अगर तुम्हें कष्ट होता हो देवर जी तो तुम्हारे गुदगुदे बिस्तर पर ही बैठ जाऊँगी। क्यों? फिर तो क्षोभ नहीं होगा?’
फिर से दिवाकर के कान तक शर्म से लाल हो गये। करवट बदल कर लेट गया वह।
किरणमयी ने उसके पास आकर कहा, “चलो उठो। मुझे छुट्टी दो। करवट बदलकर सोने की आवश्यकता अब नहीं हैं!”
रसोईघर से नौकरानी का स्वर सुनायी पड़ा, “मैं यहाँ से सुन रही हूँ, तुम नहीं सुन पातीं बहू? माँ नीचे पुकार रही हैं।”
किरणमयी लौट आयी और फिर उसी सन्दूक़ पर बैठ गयी। क्रोध करके बोली, “घमण्ड तो कम नहीं है। मैं जाकर दरवाज़ा खोल दूँ, तू नहीं खोल सकती?”
“मेरे हाथ खाली नहीं हैं, इसी से कहना पड़ा है बहूँ” यह कहकर नौकरानी बड़बड़ाती हुई शीघ्रता से नीचे गयी। दरवाज़ा खोलते ही अघोरमयी झिड़ककर बोल उठी, “तुम दोनों के कान क्या एकदम बहरे हो गये हैं। आधे घण्टे से किवाड़ का कुण्डा बजा रही हूँ।”
इस बार नौकरानी भी गरज उठी। बोली, “अन्धी-बहरी न होती तो क्या तुम्हारे घर नौकरी करने आती माँ जी? अब तुम किसी आँख-कान वाली को रख लो, मुझे जवाब दे दो। रसोईघर से मैं सदर दरवाज़े की पुकार न सुन पाऊँगी।”
अघोरमयी ने कोमल होकर कहा, “बहू कहाँ है?”
दासी ने अस्फुट स्वर से कहा, “देवर को लेकर सारा दिन प्रेम-लीला हो रही है और क्या होगा? अभी जो मैंने दरवाज़ा खोल देने को कहा तो आँखें लाल करके मेरे गरूर का ताना मारने लगीं। “अरे, यह तो बड़े बाबू आ गये।” कहकर दासी सहमकर बगल में जा खड़ी हुई।
अघोरमयी ने मुँह घुमाकर कहा, “उपेन, चलो बेटा, ऊपर चलो।”
“चलो मौसी, चल रहा हूँ।” कहकर उपेन्द्र अघोरमयी के पीछे-पीछे सीढ़ियों पर चढ़ने लगे। लेकिन दासी के मुँह से निकली सभी बातें उनके कानों में पहुँच चुकी थीं।
ऊपर आकर अघोरमयी ने कड़े स्वर से पुकारा, “कहाँ हो, बहू, ज़रा बाहर तो आओ। उपेन आ गया है।”
अँधेरी कोठरी में बैठी किरणमयी की छाती धड़कने लगी और बिछौने पर लेटे हुए दिवाकर का सर्वांग शिथिल हो गया।
अघोरमयी ने फिर पुकारा, “कहाँ गयी? एक चटाई तो लाकर बिछा दो बहू, उपेन्द्र क्या खड़ा ही रहेगा?”
किरणमयी ने बाहर आकर बरामदे में चटाई बिछा दी। उसके मुँह से सहसा बात नहीं निकली।
उपेन्द्र ने निकट आकर प्रणाम करके कहा, “आप अच्छी तरह तो हैं भाभी?”
किरणमयी ने अपने को सम्भाल लिया। गरदन हिलाकर कहा, “हाँ, तुम कैसे हो बबुआजी? बहू अच्छी तरह हैं न? ख़बर न देकर इस प्रकार अचानक कैसे आ गये?”
लेकिन किरणमयी का कण्ठ-स्वर सुनकर उपेन्द्र आश्चर्य में पड़ गये। गले में मानो कहीं रस का लेशमात्र भी नहीं था, बिल्कुल ही सूखा और नीरस था।
उपेन्द्र ने कहा, “मुवक्किल के पैसों से यह आना हुआ है भाभी, फिर कल तीसरे पहर ही मुझे लौट जाना पड़ेगा। कालीघाट का काम समाप्त करके बाहर निकलते ही मैंने मौसी को देखा तब से साथ ही साथ हूँ। दिवाकर की ख़बर क्या है, बताइये तो। बाहर गया है क्या?”
किरणमयी ने कहा, “सिर में दर्द है इसीलिए लेटे हुए हैं। क्या मालूम सम्भवतः सो गये हैं।”
अघोरमयी का स्वभाव अच्छा नहीं था। यों तो बहू का दोष दिखाने का अवसर पाते ही उसे कभी छोड़ती नहीं थीं, उस पर से दिवाकर पर भी उनका चित्त प्रसन्न न था। सबेरे उसको अपने साथ लेकर उन्होंने कालीघाट जाना चाहा था, लेकिन काम का बहाना करके दिवाकर ने अस्वीकार कर दिया था। तीखे स्वर से बोलीं, “अभी तो तुम उसके कमरे से निकली हो बहू, वह सो गया है या नहीं, यह भी तुम नहीं जानतीं?”
“नहीं जानती।” कहकर किरणमयी ने सास पर एक विषभरी दृष्टि डाल दी।
उपेन्द्र ने ऊँचे स्वर से पुकारा, “दिवाकर!”
कोई आहट नहीं मिली।
फिर उन्होंने पुकारा, “दिवाकर सो गया है क्या?”
वह जाग ही रहा था, इस प्रकार की उपेक्षा न कर सका। ‘आता हूँ’ कहकर धीरे-धीरे बाहर आ खड़ा हुआ। प्रणाम करके अस्पष्ट स्वर से पूछा, “तुम कब आ गये छोटे भैया?”
“सबेरे। तेरे सिर में दर्द है क्या?”
“बहुत साधारण!”
“अघोरमयी ने क्रोध करके कहा, “सिर में दर्द होगा क्यों नहीं बेटा। पहले तो कुछ इधर-उधर घूम-फिर भी आते थे। अब तो तुम घर से एकदम ही बाहर नहीं निकलते। सबेरे मैंने कहा, ‘मेरे साथ ज़रा कालीघाट चलो तो बेटा।’ तुमने जवाब दिया, ‘नहीं मौसी, मुझे काम है।’ तुमको कौन काम था, बताओ तो?”
दिवाकर चुपाचाप खड़ा रहा। उपेन्द्र ने पूछा, “चिट्ठी-पत्री लिखना तूने बन्द कर दिया है। किसी कॉलेज में भर्ती हुआ?”
दिवाकर ने मीठे स्वर से कहा, “कॉलेज खुलते ही भर्ती हो जाऊँगा। अभी तक नहीं हुआ।”
यह सुनकर उपेन्द्र के दोनों नेत्र अंगारे की तरह जलने लगे। बोले, “कॉलेज खुले सोलह-सत्रह दिनों से अधिक हो गये हैं – तुझे सम्भवतः यह भी जानकारी नहीं है?” दिवाकर का चेहरा काग़ज़ जैसा सफ़ेद पड़ गया। वह काठ की मूर्ति की भाँति खड़ा रहा।
अघोरमयी अत्यन्त क्रुद्ध होकर कहने लगीं, “उसको ख़बर कैसे होगी उपेन? इन दोनों में दिन-रात न जाने क्या हँसी-खेल, काना-फूसी, गप्प-शप्प होता रहता है इसे ये ही लोग जानते हैं! मैं बार-बार कहती हूँ, ‘बहू, पराया लड़का है, लिखने-पढ़ने के लिए यहाँ आया है, उसके साथ आठों पहर इतना मिलना-जुलना किसलिए? भले ही देवर है – जवान देवर के साथ कुछ लाज-शर्म भी करनी चाहिए?’ लेकिन कौन किसकी सुनता है?”
उपेन की ओर देखकर बोलीं, “तू यहाँ बैठा है उपेन, इसीलिए, नहीं तो अब तक आकर मेरा झोंटा मुट्ठी में पकड़ लेती। यह मेरी बहू ऐसी ही लक्ष्मी है! मैं शपथपूर्वक कह सकती हूँ उपेन, सब दोष इसी मुँहजली का है।”
किरणमयी चुपचाप निकट ही खड़ी थी – एक बात का भी उसने उत्तर नहीं दिया। धीरे-धीरे वह रसोईघर की ओर चली गयी।
अघोरमयी ने उसी प्रकार क्रुद्ध स्वर में कहा, “अजी, बड़े आदमी की लड़की! मेरे लड़के ने दिन भर खाया नहीं है – कुछ खाने-पीने का प्रबन्ध करोगी? इस प्रकार चले जाने से तो काम न चलेगा!”
किरणमयी लौटकर खड़ी हो गयी। फिर स्वाभाविक स्वर से बोली, “इसी के लिए जा रही हूँ माँ।” उपेन्द्र को लक्ष्य करके कहा, “भाग मत जाना बबुआ! मुझे कुछ पूड़ियाँ बना लाने में दस मिनट से अधिक समय न लगेगा।”
स्तब्ध मूर्च्छितप्राय दिवाकर से उसने कहा, “छोटे बबुआ, चलो तुमको वहीं खाने को दे दूँ – रसोईघर में चलो। माँ, दासी को क्या दुकान पर ज़रा भेज दूँ बबुआजी के लिए कुछ मिठाई खरीद लाये?”
अघोरमयी या उपेन्द्र कोई भी उसकी बातों का उत्तर न दे सके। इस बहू के अपरिमित संयम और असीम अहंकार ने मानो एक ही साथ बुद्धि के परे होकर, कुछ देर के लिए इन लोगों को निर्वाक वज्राहत-सा बना दिया।
लगभग एक घण्टे तक बातचीत करके अघोरमयी संध्या-वंदना और माला जपने के लिए चली गयी। किरणमयी ने निकट आकर कहा, “मैंने अपने कमरे में तुम्हारा खाना परोस रखा है, बबुआ, उठो।”
उपेन्द्र चुपचाप उठकर आसन पर जा बैठे। किरणमयी पास ही भूमि पर बैठ गयी। बोली, “आज थोड़ा-बहुत जो कुछ है, इसी से खा-पी लो बबुआजी, और अधिक वस्तुएँ पकाने से व्यर्थ में बड़ी रात हो जाती।”
उपेन्द्र ने मुँह ऊपर उठाकर देखा। दीपक के क्षीण प्रकाश में उनका चेहरा पत्थर की भाँति कठोर दिखायी पड़ रहा था। भोजन की थाली को एक ओर ठेलकर वह बोले, “भाभी, खाने के लिए इतना ही यथेष्ट है लेकिन मैं खाने के लिए नहीं आया हूँ, आपके साथ एकान्त में दो बातें करने आया हूँ।”
किरणमयी ने कहा, “यह तो मेरा अहोभाग्य है, लेकिन खाओगे क्यों नहीं?”
उपेन्द्र पलभर टकटकी बाँधे निहारते रहे। उनका कठोर मुख मानो और भी कठोर दिखायी पड़ने लगा। उन्होंने कहा, “आपका छुआ खाने में मुझे घृणा हो रही है।”
किरणमयी चुपचाप गरदन झुकाये बैठी रही। बड़ी देर बाद मुँह ऊपर उठाकर वह धीरे-धीरे बोली, “तो इस दशा में खाने की आवश्यकता नहीं है।” यह कहकर उसने फिर सिर झुका लिया। बाद को फिर मुँह ऊपर उठाकर ज़रा हँस पड़ी। बोली, “घृणा होने की तो बात ही है! लेकिन मुम्हारे मुँह से ऐसी बात सुनूँगी, ऐसा मैंने कभी विचार ही नहीं किया था। केवल एक ही मनुष्य ऐसा था, जो घृणा से थाली ठेल सकता था – वह है सतीश। तुम नहीं बबुआ।”
उपेन्द्र क्रोध से, घृणा से, आश्चर्य से अवाक होकर देखने लगे। किरणमयी उसी प्रकार शान्त कठोर भाव से कहने लगी, “तुम्हारा क्रोध कहो, तुम्हारी घृणा कहो, सब ही तो दिवाकर के लिए है न बबुआजी। लेकिन विधवा के लिए जैसा वह है, वैसे ही तो तुम हो, उसके साथ मेरा सम्बन्ध कहाँ तक, कैसा जा पहुँचा है, यह तो तुम लोगों का केवल अनुमान मात्र है। लेकिन उस दिन जबकि अपने ही मुँह से मैंने तुम्हारे प्रति अपना अनुराग प्रकट कर दिया था, उस दिन तो मेरी दी हुई भोजन की थाली इस प्रकार घृणा से तुमने हटा नहीं दी थी। अपनी बात होने से क्या कुलटा स्त्री के हाथ की मिठाई में प्रेम की मिठास अधिक मिलती है बबुआ?”
उपेन्द्र ने अन्दर के न दबाने योग्य अपने क्रोध को बलपूर्वक रोककर कहा, “भाभी, आपको स्मरण दिला देता हूँ कि आज भी मेरी सुरबाला जीवित है। वह कहती है, ‘मुझे जो एक बार स्नेह करता है उसकी मजाल नहीं है कि फिर किसी दूसरे को स्नेह करे। ‘मैंने केवल इसी भरोसे पर दिवाकर को आपके हाथों सौंप दिया था! मैंने सोचा था, इन विषयों में सुरबाला से कभी भूल नहीं होती।”
बात समाप्त भी नहीं हुई थी कि किरणमयी ने अकस्मात अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर कहा, “ठहरो बबुआ, उससे भूल हुई है तुमसे नहीं हुई है, इस बात पर तुमने कैसे संशय छोड़कर विश्वास कर लिया।”
उपेन्द्र एकाएक उठ खड़े हुए। बोले, “रात बीतती जा रही है, तर्क करने का समय मेरे पास नहीं है भाभी। मैं आपको पहचानता हूँ! लेकिन इस बात को आप निश्चित रूप से जान लीजिये कि आप किसी को प्यार न कर सकेंगी, वह सामथ्र्य ही आप में नहीं है। आप केवल सर्वनाश ही कर सकेंगी। छिः! छिः! अन्त में दिवाकर को…..।”
घृणा से उनका गला रुँध गया। लेकिन सामने ताककर देखा, किरणमयी का समूचा चेहरा ऐसा बदरंग हो गया है मानो किसी ने उसकी छाती के ठीक बीच में गोली मार दी हो। दरवाज़े के बाहर से अघोरमयी ने पूछा, “तुम्हारा खाना हो चुका बेटा उपेन?”
“नहीं मौसी, खाया नहीं, तबीयत ठीक नहीं है।”
“तबीयत ठीक नहीं है? यह क्या है रे? तो आज फिर यहीं सो जा, अब मत जा बेटा!”
“नहीं मौसी, मुझे जाना ही होगा।” कहकर उपेन्द्र बाहर चले आये, दिवाकर के कमरे के सामने आकर उन्होंने पुकारा, “दिवा!”
दिवाकर दीपक बुझाकर लेटा हुआ था। उसके हृदय की बात केवल अन्तर्यामी ही जान रहे थे। अस्पष्ट शब्दों से “हाँ” कहकर काँपते पैरों से वह बाहर आकर खड़ा हुआ।
उपेन्द्र ने कहा, “अपना सामान बाँधकर ठीक कर ले, मेरे साथ चलना पड़ेगा।”
अघोरमयी आश्चर्य में पड़कर घबराहट के साथ बोलीं, “यह क्या उपेन, इस रात के समय लड़का कहाँ जायेगा?”
“मेरे साथ जायेगा। इसके लिए चिन्ता क्या है मौसी। जल्दी सब ठीक-ठाक कर ले रे, मैं गाड़ी ला रहा हूँ।”
अघोरमयी उपेन्द्र का हाथ पकड़कर विनय करने लगीं, “नहीं बेटा, आज अमावस्या की रात में किसी प्रकार भी उसका जाना न हो सकेगा। लड़का ही तो है, हो सकता है कि कुछ अनुचित ही कर गया हो, यहाँ न रखना चाहो तो कल-परसों चला जायेगा, लेकिन आज रात को तो मैं किसी प्रकार भी न जाने दूँगी।”
बाधा पाकर उपेन्द्र ने हताश होकर कहा, “लेकिन उसको एक रात भी यहाँ रखने की मेरी इच्छा नहीं है मौसी। अच्छा, आज अमावस्या की रात बीत जाने दो, लेकिन कल सबेरे फिर आप मत रोकियेगा। दिन में दस बजे के भीतर ही उसे ज्योतिष के घर भेज देना।” यह कहकर अघोरमयी को प्रणाम करके शीघ्रता से वह नीचे उतर गये। मुख्य द्वार के निकट अँधेरे में पीछे से उनकी चादर को किसी ने खींचा। मुँह फेरकर देखते ही किरणमयी ने झुककर उनके दोनों पाँव पकड़ लिए। कहा, “मेरी छाती फटती जा रही है बबुआ, सब झूठी बातें हैं। छिः! छिः! तुम मझे ऐसी नीच समझ रहे हो!”
“चुप रहिये! बहुत अभिनय आप कर चुकीं, अब और नहीं।” कहकर उपेन्द्र ने अत्यन्त घृणा से उसके माथे को ज़ोर से धकेल दिया। धकेलने के साथ ही पैरों को छोड़कर वह एक ओर झुककर गिर पड़ी।
“नास्तिक! अपवित्र! निर्लज्ज!” कहकर उपेन्द्र उसकी ओर तनिक भी न देखकर शीघ्रता से बाहर चले गये।
किरणमयी फौरन उठ बैठी। सम्भवतः उसने चिल्लाकर कुछ कहना चाहा, लेकिन उसके गले से आवाज़ नहीं निकली। केवल खुले दरवाज़े की ओर निहारती रही और नेत्रों से मानो आग की चिनगारियाँ निकलने लगीं।
बहुत दिनों पूर्व, ठीक इसी स्थान पर खड़ी होकर उसके दोनों नेत्रों से ऐसी ही उन्मत्त दृष्टि, ऐसी ही प्रज्वलित बह्निन-शिखा दिखायी पड़ी थी जिस दिन सतीश के साथ उपेन्द्र पहले-पहल यहाँ आकर बाहर निकले थे। फिर आज अन्तिम विदाई के दिन भी उसी के विरुद्ध उन्हीं दोनों आँखों में उसी तरह आग जलने लगी।
“अरी बहू! तुम इस तरह क्यों बैठी हो?”
“तू क्या घर जा रही है।” कहकर किरणमयी हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई और दासी का हाथ पकड़कर बोली, “ज़रा मेरे कमरे में चल तो, तुझसे दो बातें कर लूँ।” यह कहकर वह उसे बलपूर्वक अपने कमरे में खींच ले आयी, और चिराग़ तेज़ करके उसने बक्स खोलकर उसमें से चाँदी के दो मोटे-मोटे कड़े निकालकर दासी के हाथ में दे दिये और कहा, “तेरी लड़की को पहनने के लिए दे रही हूँ, नहीं-नहीं, मेरे सिर की कसम, तुझे लेना ही पड़ेगा, सम्भवतः फिर कभी भेंट न हो।” यह कहते-कहते उसकी आँखों से झरझर आँसू बहने लगे।
“यह कैसी बात बहू!” कहकर दासी विह्वल दृष्टि से निहारती रही।
किरणमयी ने आँखें पोंछते-पोंछते कहा, “तेरे अतिरिक्त मेरा अपना कोई नहीं है। तू मुझे यहाँ से बचा। यहाँ रहने से मेरी छाती फट जायेगी।”
दासी ने चुपचाप किरणमयी को सिर से पैर तक ध्यान से देखकर कहा, “मैं सब समझती हूँ बहू, मैं भी तो औरत ही हूँ। मेरे मर्द ने जिस दिन पोखरे के घाट पर रोककर कहा था, ‘मैं अब जाता हूँ मुक्ता, सम्भवतः अब फिर भेंट न होगी!’ तब मैंने भी तो उसके पैरों पर गिरकर रोकर कहा था, ‘मुझे अपने साथ ले चलो, छोड़कर चले जाने से मेरी छाती फट जायेगी!’ शायद कल सवेरे ही छोटे बाबू जाने वाले हैं?”
किरणमयी ने कहा, “हाँ! लेकिन कलकत्ता में अब हमारा रहना न हो सकेगा। कहाँ जायें, बता तो भला?”
दासी तनिक भी चिन्ता न करके बोली, “तो तुम अराकान जाओ न, सुख से रहोगी। मेरी छोटी बहिन भी वहीं है। मेरा नाम लेने से वह तुम लोगों को बड़े आदर से रखेगी। आज है मंगलवार, कल तड़के ही जहाज छूटेगा। वहाँ जाओगी बहू?”
किरणमयी ने दासी का हाथ थामकर कहा, “जाऊँगी।”
दासी ने धैर्य देकर कहा, “तुम लोग तैयार रहना, मैं तड़के ही गाड़ी लेकर आऊँगी। कोई भी न जान सकेगा कि तुम लोग कहाँ चले गये। जाओ बहू, जाओ, छोटे बाबू को छोड़कर तुम बचोगी नहीं।”
“बबुआजी!”
उस समय सम्भवतः भोर का समय था, दिवाकर चौंककर उठ बैठा। ठीक सामने ही किरणमयी दिखायी दी। दिवाकर ने चौंककर कहा, “कौन? भाभी हो क्या?”
“हाँ बबुआजी, मैं ही हूँ।” कहकर वह विह्नल दिवाकर की छाती के ऊपर अचानक औंधी होकर गिर पड़ी। बोली, “बबुआजी, सुनती हूँ, तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे? कहाँ जाओगे, देखूँ तो!”
उत्तर में दिवाकर अवाक हो गया, उसके दोनों नेत्रों में आँसू भर आये।
किरणमयी उठ बैठी और आँचल से उसके नेत्र पोंछकर बोली, “छिः! क्यों रोते हो भाई!”
“भाभी, मैं तो निरुपाय हूँ। छोटे भैया ने तो आज सबेरे ही मुझे चले जाने को कहा है।”
उपेन्द्र का नाम सुनते ही किरणमयी क्रोध से अन्धी होकर बोली, “कौन है छोटे भैया! कौन है यह! वह क्या मेरी अपेक्षा भी तुम्हारा अधिक अपना है। तुमको देखे बिना क्या उसकी भी छाती फट जाती है? नहीं बबुआ, संसार में किसी में ऐसी शक्ति नहीं है कि हम दोनों को अलग कर सके। बाहर गाड़ी खड़ी है, चलो, हम लोग चलें।”
“कहाँ भाभी?”
“जहाँ मैं ले चलूँगी वहीं चलना होगा।”
“अच्छा चलो।” कहकर दिवाकर चलने को तैयार हो गया। एक बार उसको यह विचार हुआ कि वह जागता नहीं है, नींद के नशे में स्वप्न देख रहा है। लेकिन दूसरे ही क्षण किरणमयी का अनुसरण करता हुआ धीरे-धीरे बाहर आ गया।
चौंतीस
कोई कीड़ा जैसे पतंगे को बरबस खींच लाता है, उसी प्रकार मानो किसी दुर्निवार जादू मंत्र के बल से किरणमयी अर्धचेतन अभागे विमूढ़चित्त दिवाकर को जहाजघाट पर खींच ले गयी और टिकट लेकर अराकान जाने वाले जहाज पर जा बैठी। इस जहाज में भीड़ न रहने के कारण जहाज के अधिकारियों ने इन दोनों को पति-पत्नी समझकर एक केबिन में दिवाकर और किरणमयी को स्थान दे दिया। उसी जगह किरणमयी को बिठाकर दिवाकर डेक के एक एकान्त स्थान पर रेलिंग पकड़कर खड़ा हो गया। धीरे-धीरे डेक पर यात्रियों की भीड़ कम होने लगी, कुलियों का हल्ला-गुल्ला बन्द हो गया और लंगर उठाये जाने के कर्कश शब्द से जहाज के अन्दर बैठे दिवाकर की छाती के अन्दर भी कम्पन होने लगा। पलभर में जहाज भागीरथी के मध्य भाग में पहुँचा और अपार समुद्र में प्रवेश करने के उद्देश्य से धीरे-धीरे गतिमान होने लगा। जब ठीक मालूम हो गया कि जहाज चल रहा है तब दिवाकर की दोनों आँखें आसुँओं से भर गयीं और उसने अपनी दोनों हथेलियों से मुख को ज़ोर से दबाकर किसी प्रकार रुलाई के वेग को रोककर अपनी लज्जा को छिपा लिया। पूरब की ओर का आकाश उस समय बालसूर्य की आभा से लाल हो उठा था और उधर उसके आने के विषय में सन्देह न रखने वाले उपेन भैया ज्योतिष साहब के घर शय्या त्याग कर उठे नहीं थे। भाग जाने के उद्देश्य से घर से बाहर निकल पड़ने के समय से जो भयंकर अव्यक्त ग्लानि दिवाकर के चि त्त में एकत्रित होती जा रही थी, उसका अन्त कितना कुत्सित और दुःखकर है, उसका दृश्य अब उसके नेत्रों के सामने स्पष्ट हो उठा। एक भले घर की गृहस्थ बहू को कुल से निकालकर वह स्वयं किसी अनजान देश में ले जा रहा है। ऐसी असम्भव बात उसके हृदय में अब तक आयी ही नहीं थी। अपनी शिक्षा, अपने संस्कार, चरित्र, स्कूल, कॉलेज, देश, मित्र और सर्वोपरि अपने उपेन भैया, सभी से वह किस प्राकर निर्मम भाव से विच्छिन्न होता जा रहा है, इस बात को वह उसी समय स्पष्ट रूप से समझ गया, जिस समय कि उसने देख लिया कि वास्तव में जहाज का चलना शुरू हो गया है। अपने उपेन दादा के लिए वह आज एक बालक मात्र है। उसी उपेन भैया का मनोभाव, इस समाचार को सुनकर कैसा हो उठेगा, यह स्मरण करके उसकी छाती की धड़कर बन्द-सी होने लगी। उसी स्थान पर वह दोनों घुटनों के बीच माथा टेककर बैठ गया और एक ही क्षण में उसकी अदम्य आँखों से आँसू झरने लगे। उसी समय किरणमयी उसके पास आ खड़ी हुई और उसके माथे पर हाथ रखकर स्नेह-भरे स्वर से बोली, “बबुआ, ज़रा कमरे में चलो।”
बहुत चेष्टा से और बड़ी देर में दिवाकर अपनी आँखों के आँसू रोककर मुँह झुकाये उठ खड़ा हुआ और धीरे-धीरे किरणमयी के पीछे-पीछे केबिन में जा पहुँचा। किरणमयी ने दरवाज़ा बन्द करके दिवाकर को अपने पास बिठाया। उसके दोनों हाथों को अपने हाथ में लेकर, उसके मुँह को देखकर अत्यन्त करुण स्वर से पूछा, “तुम रो क्यों रहे थे भाई?”
यह प्रश्न सुनकर दिवाकर के नेत्रों से फिर आँसू झरने लगे।
किरणमयी ने अपने आँचल से उन्हें पोंछकर कहा, “सच-सच बताओ, बबुआ, तुम मुझे प्यार करते हो या नहीं?”
दिवाकर कुछ भी न कह सका। बिल्कुल ही छोटे बच्चे की भाँति घबराने लगा।
किरणमयी ने आँसू से भीगे उसके मुख को अपनी छाती पर खींचकर दबा लिया और धीरे-धीरे उसके माथे पर उँगलियाँ फेरती हुई चुपचाप सान्त्वना देने लगी।
इसी प्रकार बहुत समय बीत गया। बड़ी देर में दिवाकर की अश्रुधारा अपने आप ही समाप्त हो गयी तो पहले की अपेक्षा उसका मन भी कुछ हलका हो गया। वह उठ बैठा। फिर कुछ भी न कहकर दरवाज़ा खोलकर धीरे-धीरे कमरे से बाहर हो गया। जहाज उस नदी के तट से हटकर टेढ़ी-मेढ़ी चाल से, रेत से बचता हुआ, जल को नापता हुआ धीरे-धीरे समुद्र की ओर चला जा रहा था और छोटी-छोटी डोंगियाँ और माल से लदी नावें, बड़े जहाज की बड़ी मर्यादा की रक्षा करती हुई दूर-ही-दूर रहकर अत्यन्त सावधानी से बढ़ती जा रही थीं।
दिवाकर रेलिंग के पास एक कुर्सी खींचकर उस पर बैठ गया और दूरी पर या निकट के जल-थल में जो कुछ उसे दिखायी पड़ने लगा, उसी से मन-ही-मन अत्यन्त पीड़ा तथा वेदना के साथ सदा के लिए विदाई लेने लगा और अन्तःकरण की असह्य पीड़ा से अन्तर्यामी से निवेदन करने लगा।
थोड़ी देर में केबिन से फिर पुकार हुई।
“दिन बहुत चढ़ गया। तुम स्नान कर आओ। तब तक मैं तुम्हारे खाने-पीने का प्रबन्ध करती हूँ।”
वह स्वयं अभी-अभी स्नान कर चुकी थी। पीठ पर भीगे बालों को फैलाकर केबिन के फ़र्श पर बैठकर हण्डिया का मुँह खोलकर वह खाद्य-सामग्री का हिसाब-किताब लगा रही थी। रात में ही नौकरानी की सहायता से उसने यह सब सामग्री जुटा ली थी।
दिवाकर ने उत्तर दिया, “तुम खाओ, मुझे तनिक भी भूख नहीं है भाभी।”
किरणमयी ने मुँह ऊपर उठकर देखा। बोली, “यह नहीं होगा। तुम न खाओगे तो मैं भी न खाऊँगी। तुम इस समय मेरे सर्वस्व हो, तुमको खिलाये बिना मैं किसी प्रकार भी न खा सकूँगी।”
यह बात सुनकर दिवाकर लज्जा से गड़-सा गया और कोई भी बात न कहकर बाहर चले जाने को ज्यों ही तैयार हुआ कि किरणमयी ने उसे पकड़कर कहा, “यह तो सप्तरथियों का चक्रव्यूह है बबुआजी, भागकर कहाँ जा रहे हो? प्रवेश करने का पथ है, लेकिन बाहर निकलने का पथ क्या सभी जानते हैं? यदि यही इच्छा थी तो इस विद्या को उपेन भैया से तुमने सीख क्यों नहीं लिया?”
कुछ देर मौन रहकर वह बोली, “परिहास की बात नहीं है बबुआजी, मेरी बात मानो – जाओ, स्नान कर आओ और कुछ खा लो। उसके बाद बाहर रेलिंग पकड़कर जितनी इच्छा हो रोते रहना, मैं रोकूँगी नहीं। लेकिन यह भी मैं बताये देती हूँ बबुआ, कि आँखों के आँसू की इसके बाद बहुत आवश्यकता पड़ेगी, बिना आवश्यकता के व्यर्थ में खर्च कर डालने से पीछे कहीं पछताना न पड़े।”
दिवाकर ने कोई उत्तर नहीं दिया। आने वाले दिनों के इस निष्ठुरतम परिणाम के संकेत को सिर झुकाये सुनकर स्नान के लिए चुपचाप बाहर चला गया और सूने कमरे में किरणमयी भी मौन होकर बैठी रही। क्योंकि उसके उपहास के इस शूल ने केवल दिवाकर को ही नहीं, वरन सहश्रों गुना बढ़कर स्वयं उसकी अपनी ही छाती में भी यातना भर दी।
बाहर आकर दिवाकर इधर-उधर घूमने लगा। फिर जहाज के जिस हिस्से में तीसरे दर्जे के यात्री एक-दूसरे से सटे हुए बैठे थे वहीं चला गया और विभिन्न प्रान्तों के तरह-तरह के यात्रियों में रहकर अपने को भुला रखने का उपाय खोजने लगा। इस भारतवर्ष में कितनी विभिन्न जातियाँ हैं, कितने विचित्र पहनावे हैं, कितनी अज्ञात भाषाएँ हैं यह पहले-पहल अपने जीवन में देखकर दिवाकर आश्चर्य में पड़ गया। जहाज के अन्दर भी वही जनता की भीड़ थी और तरह-तरह की भाषाओं के मिश्रण से जो अपरूप शब्द उठ रहे थे वे भी विचित्र थे। सीढ़ियों से उतरकर दिवाकर वहाँ जा पहुँचा और निर्विकार आश्चर्य से स्तब्ध हो रहा।
थोड़े से स्थान पर अधिकार जमाने के लिए इसके पहले यात्रियों में जो ठेलाठेली और धक्कम-धक्का मचा हुआ था, वह अब बन्द हो गया था। अपने-अपने अधिकृत स्थान पर बिछौना बिछाकर अपने सामने सामानों का घेरा बना ये यथासम्भव निश्चिन्त हो गये थे और अब उनको अपने निकट के यात्रियों पर ध्यान देने का भी अवसर मिला था। प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे का सन्तोषजनक परिचय पाने के लिए उत्सुक था।
एक स्थान पर दिवाकर की दृष्टि पड़ते ही उसने देखा कि एक बंगाली चिल्लाकर उसे बुला रहा है, “बाबूजी, इधर आइये, ज़रा आइये!”
उस व्यक्ति के पास एक हृष्ट-पुष्ट स्त्री बैठी हुई थी। उसने भी उत्सुकतापूर्ण नेत्रों से उससे आने का अनुरोध किया। दिवाकर बड़े परिश्रम से बहुत-से लोगों के तिरस्कार और झिड़कियाँ सहता, भीड़ के बीच में सावधानी से पैर रखता हुआ उनके पास जा पहुँचा। उसके पहुँचते ही उस मनुष्य ने अपने पास के टीन के सन्दूक़ पर बैठने की जगह दिखाकर कहा, “यह मेरा सन्दूक़ टीन का नहीं है, असली लोहे का है, आराम से बैठिये। आप कौन हैं?” दिवाकर ने कहा, “ब्राह्मण।”
उसी क्षण उस मनुष्य ने दोनों हाथ बढ़ाकर दिवाकर के जूतों के ऊपर से ही पदधूलि लेकर अपनी जीभ पर, माथे पर और गले पर लगाकर कहा, “सोच रहा था, ये कई दिन कैसे बीतेंगे। आप कहाँ बैठे हैं?”
दिवाकर ने उँगली से ऊपर दिखा दिया।
उसने पूछा, “आप केबिन में हैं? चाहे जहाँ रहें, संध्या को रोज एक बार पदधूलि दे जाया करें। कहाँ जाइयेगा? रंगून?”
दिवाकर ने सिर हिलाकर कहा, ‘नहीं अराकान।”
“अराकान में तो मैं भी रहता हूँ। आज बीस वर्षों से मैं वहीं रह रहा हूँ। आपको तो मैंने कभी नहीं देखा। क्या पहली बार जा रहे हैं? वहाँ आपके कोई स्वजन सम्बन्धी हैं क्या? नहीं हैं? नहीं भी हों तो क्या – कुछ भी चिन्ता मत कीजियेगा। आप लोगों की दया से मैं वहाँ के एक मकान का मालिक हूँ। मेरे मकान में बहुत-से कमरे खाली पड़े हुए हैं। आप मेरे साथ ही चलिए।” पास बैठी हुई स्त्री को दिखाकर कहा, “यह मेरी मकान मालकिन हैं।”
यह स्त्री अब तक टकटकी बाँधे दिवाकर की ओर देख रही थी। उसने बहुत ही मोटे गले से पूछा “क्या आपकी पत्नी आपके साथ हैं?”
दिवाकर ने मुँह लाल करके सिर हिलाकर किसी प्रकार बतला दिया, “हाँ, साथ ही हैं।”
उसकी बातें टेढ़ी-मेढ़ी थीं, ललाट पर गोदना था, माँग में सिन्दूर की चौड़ी रेखा थी, नाक में नथ थी, और दोनों कानों में बीस-तीस बालियाँ थीं। आँचल का जो थोड़-सा भाग माथे पर था, वह भी उत्साह तथा आवेश से नीचे खिसक गया। उसने कहा, “बहुत बुरा स्थान है – मग लोगों का देश हैं – लेकिन मेरे मकान की ओर आँख उठाने का साहस किसी का नहीं है – मैं साधारण मकान वाली नहीं हूँ। उस देश में ऐसा कोई आदमी नहीं है जो कामिनी से डरता न हो। आप मेरे ही मकान में रहियेगा, डरने की कोई बात नहीं है। किराया पाँच रुपया है, आप चार ही रुपया महीना दीजियेगा। ऐ मकान वाले, आपके कारखाने में इनको कोई काम मिल ही जायेगा।”
मकान वाले ने ज़रा हिचककर कहा, “कोई न कोई काम मिल ही जायेगा।”
दिवाकर ने पूछा, “आपका नाम?”
“हरीश भट्टाचार्य! नहीं, नहीं, ऐसा न करें – अपराध लगेगा। मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, केवट (मल्लाह) हूँ।” पढ़-सुन लेता हूँ, इसलिए लोग आदर से भट्टाचार्य कहते हैं। कण्ठी धारण करके माँस-मछली का त्याग कर दिया है। बहुत देख लिया जीवन में – बाकी नहीं रहा कुछ। दो-ढाई हजार रुपये खर्च करके चारों धाम की यात्रा कर आया हूँ, चार साल हो गये घर में देवी की स्थापना भी कर ली थी! इसलिए घरवाली से कहता हूँ कि चल, अराकान में जो कुछ भी है, बेच खोचकर किसी तीर्थस्थान पर चलें। कहकर उदास भाव से ऊपर आसमान की ओर देखने लगे भट्टाचार्य महाशय। घरवाली ने भी समर्थन कहते हुए कहा, मैं भी तो यही कहती हूँ। कच्ची उम्र में अदृष्ट के फेर से जी भी किया, किया – वह चेहरे पर तो लिखा नहीं है – चल अब चलें। कहकर वह भी चुप होकर ऊपर की ओर देखने लगी। दिवाकर को अभी इतनी समझ तो थी नहीं – उनकी बातों का यथार्थ अर्थ न समझकर चुप बैठा रहा।
मकान वाली ने कहा, “ऐ मकान वाले, अब तो चिवड़ा भिगो दूँ।”
मकान वाले का ध्यान टूट गया। धीरे-धीरे उसने कहा, “भिगो दो।”
दुनियादारी से अनजान दिवाकर इस संकेत का अर्थ अब समझ गया। वह उठ खड़ा हुआ। बोला, “मैं अब जा रहा हूँ, फिर आऊँगा।”
हरीश से विदा लेकर दिवाकर ऊपर डेक पर आकर पुनः एक आरामकुर्सी पर बैठ गया और बैठे-बैठे उसी तरह सो गया। उसे पता भी नहीं लगा कब नदी का गंदला जल पार करके जहाज कृष्णवर्ण समुद्र के बीच आ गया था। अस्फुट कोलाहल से आँख खुली तो देखा सूर्य अस्त हो रहा था। उसी को देखते हुए लोग ज़ोर-ज़ोर से बातचीत कर रहे थे। जिस सूर्यास्त का विवरण उसने अंग्रेजी व बंगला की किताबों में कई बार पढ़ा था, यही वह सूर्यास्त था! यही वह वास्तविक समुद्र था! चारों ओर नज़र दौड़ाकर अनन्त जलराशि को देखा और फिर अस्ताचल की ओर जाते सूर्य को नमस्कार किया। फिर से आँखें भर आयीं। सूर्य अस्त हो गया, आकाश मलिन हो गया और धीरे-धीरे अँधेरा गहराने लगा, पर वैसे ही उसी तरह निश्चेष्ट बैठा रहा वह।
रात की शीतल वायु तेज गति से बह रही थी। ऊपर डेक प्रायः जनशून्य था। माथे पर कृष्ण पक्ष का गम्भीर नीला आकाश था, नीचे वैसा ही समुद्र का नीला जल था। उसके ही बीच दिवाकर अपने अन्तःकरण की गम्भीर कालिमा को निमिज्जत करके कुछ क्षण के लिए शान्ति अनुभव कर रहा था। उसी समय एकाएक किसी के कोमल हाथों के स्पर्श से उसका ध्यान भंग हो गया। घूमकर देखा किरणमयी है।
किरणमयी ने कहा। क्या हो रहा है बबुआ! तुम क्या आमरण अनशन व्रत कर रहे हो?”
दिवाकर ने उत्तर नहीं दिया, चुप ही रहा।
किरणमयी ने पलभर उत्तर की प्रतीक्षा की। ‘कमरे में चलो,’ कहकर वह बलपूर्वक उसे केबिन में खींच ले गयी और भूमि पर बिछाये हुए बिछौने पर बिठाकर बोली, “कुछ भी यदि समझते तो कम से कम इतना तो अवश्य ही समझ सकते हो कि बहुत रोने-धोने से भी तो जहाज तुमको देश को वापस न ले जायेगा। बिना खाये सूख कर मर जाने पर भी नहीं, समुद्र के जल में कूद पड़ने पर भी नहीं। अराकान तुमको चलना ही पड़ेगा। तो क्यों निरर्थक स्वयं सूखकर मुझे भी सुखा रहे हो? जो देती हूँ ले लो, जितना खा सको खाओ, उसके बाद जहाज जब अराकान पहुँच जायेगा, तब जहाँ इच्छा हो उतर जाना, जब इच्छा हो लौट आना – तुम्हारी शपथ खाकर कहती हूँ बबुआ, मैं रोकूँगी नहीं।” यह कहते-कहते किरणमयी का कण्ठ-स्वर तीखा हो उठा और भूख-प्यास से व्याकुल दोनों नेत्र आग की तरह जलने लगे। दिवाकर सिर ऊपर उठाकर मुग्ध की भाँति निहारने लगा। आज इतने दिनों के बाद उसे ज्ञात हुआ, मानो परदे की ओट में उसे सत्य वस्तु अचानक ही दिखायी पड़ गयी। किरणमयी के दोनों सुन्दर नेत्रों की वासना-दीप्त भूखी दृष्टि के अन्दर, और जो कुछ भी क्यों न हो, लेकिन उसके लिए तनिक भी प्रेम नहीं है। फिर भी उसने कोई बात नहीं कही, चुपचाप अपने नेत्र नीचे किये दोनों घुटनों के बीच सिर छिपाये पत्थर की तरह बैठा रहा।
थोड़ी ही देर के बाद किरणमयी उठ पड़ी और एक हाँडी से कुछ मिठाई एक छोटी-सी तश्तरी में ले आयी। दिवाकर के सामने तश्तरी रखकर घुटनों पर टेककर ऊँची हो बैठ गयी और बलपूर्वक एक हाथ से उसका मुँह ऊपर को उठाकर एक-एक करके उसके मुँह में डालने लगी। इसी प्रकार सब समाप्त करके किरणमयी ने पलभर कुछ सोचा, फिर दूसरे ही क्षण झुककर दिवाकर के भींगे हुए होंठों को चूमकर खिलखिलाकर हँस पड़ी।
इस विषैले चुम्बन और निष्ठुर हँसी को दिवाकर ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर सह लिया, लेकिन रात को जब एक ही बिछौने पर सोने का प्रबन्ध होने लगा तब वह किसी प्रकार भी स्थिर न रह सका। वह उठकर खड़ा हो गया और बोला, “यह नहीं होगा भाभी, यह मैं दशा में भी न कर सकूँगा। मुझे तुम छोड़ दो, मैं जहाँ भी हो सकेगा बाहर कहीं जाकर सो रहूँगा, लेकिन तुम्हारी आज्ञा का पालन करने के लिये किसी प्रकार भी मैं कोठरी में रात न बिता सकूँगा – किसी प्रकार भी न होगा।”
किरणमयी उस समय बिछौना बिछा रही थी – पलटकर उसने देखा। दिवाकर फिर दृढ़ स्वर से बोला, “यह किसी प्रकार भी न होगा।”
किरणमयी ने पहले तो हँसने की चेष्टा की लेकिन हँसी नहीं आया, “क्या सोना नहीं होगा?”
उसके दोनों नेत्र घायल शेरनी की भाँति जल उठे। उसने दाँतों पर दाँत दबाकर धीरे-धीरे कहा, “तुम क्या समझते हो कि सारा अपराध मेरे सिर मढ़कर भले आदमी की तरह देश लौट जाकर, अपने भैया उपेन के पाँव स्पर्श करके शपथ खाकर कहोगे कि “मैं साधु हूँ और तुम्हारे उपेन भैया सिर ऊपर उठाकर चलेंगे? यह न होगा बबुआ! तुम मेरी सब बात न समझ सकोगे, समझने की आवश्यकता भी नहीं है – तुम साधु हो, या नहीं हो, इसके लिये भी कुछ चिन्ता नहीं करती। लेकिन अपराध के भार से जब मेरा सिर झुक जायेगा तब मैं ऐसी दशा न होने दूँगी कि तुम्हारे उपेन भैया अपना सिर ऊपर उठाकर चल सकेंगे – यह तुम निश्चय जान लो।” यह कहकर वह बिछौना बिछाने लगी, और पास ही गद्दीदार बेंच पर दिवाकर सिर झुकाये बैठा रहा।
रात को दोनों एक ही बिछौने पर आस-पास सो रहे। भाग्य के फेर से सर्वस्व दान देकर जैसे हरिश्चन्द्र ने चाण्डाल के हाथ अपने को सौंप दिया था वैसी ही घृणा के साथ दिवाकर ने किरणमयी के बिछौने के किनारे आत्मसमर्पण कर दिया। लेकिन उसकी यह घृणा किरणमयी से छिपी न रही।
सारी रात लगातार उसके तन्द्राच्छन्न दोनों कानों में कहीं से रुलाई का प्रवाह-सा पहुँचने लगा और उसी के बीच में किसी की क्रुद्ध लम्बी साँसें रह-रहकर गरज उठने लगीं। भोर में शरीर हिल जाने से वह जाग उठा और जागते ही समझ गया कि बाहर प्रचण्ड वेग से हवा बह रही है और जहाज का हिलना आरम्भ हो गया है। नेत्र खोलकर उसने देखा, किरणमयी का कोमल बायाँ हाथ उसकी छाती पर निद्रित सर्प की भाँति पड़ा हुआ है। पीछे वह जागकर कहीं उसे काट न खाये, इस आशंका से उसने मानो उठने का साहस नहीं किया, फिर नेत्र बन्द करके पड़ा रहा। हवा और जहाज हिलने का वेग क्रमशः बढ़ने लगा, और किरणमयी की नींद टूट गयी। दिवाकर की छाती पर पड़े हुए हाथ को ज़रा दबाकर उसने धीरे से पूछा, “बाहर वह क्या हो रहा है – तूफ़ान आया है क्या?”
“दिवाकर ने कहा, “हाँ।”
“क्या होगा?”
दिवाकर ने कुछ भी उत्तर न दिया।
किरणमयी ने कहा, “सम्भवतः तुम भगवान से यही प्रार्थना कर रहे हो कि जहाज टूट जाता तो अच्छा होता – यही बात है न बबुआजी?”
दिवाकर ने कहा, “नहीं।”
बस एक छोटी-सी बात “नहीं – तुम मनुष्य नहीं हो, पत्थर के बने हो बबुआ!” यह कहकर उसने बलपूर्वक दिवाकर को अपनी छाती में खींच लिया और बोली, “जहाज यदि डूब जाये तो हम दोनों इसी तरह मरें। बहकर किनारे जा लगेंगे, लोग देखेंगे, अख़बारों में ख़बर छपेगी, तुम्हारे उपेन भैया पढ़ेंगे – यह कैसी बात होगी बबुआ!”
इस काल्पनिक चित्र की घृणित कल्पना ने दिवाकर को ठेलकर उठा दिया और किरणमयी के बन्धन से बल लगाकर अपने को मुक्त कर हिलता-डोलता वह कोठरी के बाहर चला गया।
पैंतीस
डेक पर कुर्सी पर बैठकर वह टकटकी लगाये निहारता रहा। छाती के अन्दर कैसा होने लगा था, उसको अस्पष्ट रूप से अनुभव करने के अतिरिक्त बुद्धि द्वारा हृदयंगम करने की शक्ति उसमें नहीं थी। जहाज पर ऊँची-ऊँची लहरें उन्माद की भाँति उछलती हुई गिर रही हैं, फिर चूर्ण-विचूर्ण होकर विलीन होती जा रही हैं, फिर दौड़ती हुई आ जाती हैं, फिर लुप्त हो जाती हैं। इसी के घात-प्रतिघात का खेल दिवाकर आत्मविस्मृत होकर देखने लगा। ऊपर पूरब के आकाश में दिगन्त के धुँधले बादल पहाड़ की तरह उमड़ते जा रहे थे और उनके ही पीछे बालसूर्य उग चुका है या नहीं, इस ख़बर को नीचे पहुँचाने के लिए किरण की एक रेखा को भी मार्ग नहीं मिला। दूसरे ही क्षण डेक पर जहाज़ के खलासी घबराकर इधर-उधर आने-जाने लगे और कप्तान का घण्टा बार-बार बजने लगा। तूफ़ान का वेग लगातार बढ़ता ही जा रहा है और भविष्य में और भी बढ़ जायेगा, इसका संकेत आकाश के बादलों और समुद्र की लहरों ने जहाज़ के कप्तान से लेकर नीचे की कामिनी नामक मकान वाली औरत तक सभी को सुस्पष्ट रूप से दे दिया। उसी समय एक खलासी ने आकर कहा, “बाबू, पानी बरसने में अब देर नहीं है, आधी-पानी में बाहर बैठकर क्यों कष्ट पायेंगे, केबिन में चले जाइये। देखिये, वहाँ न जाने अब तक क्या हो रहा है!”
दिवाकर ने घबराकर पूछा, “क्या हुआ है वहाँ?”
खलासी चटगाँव का मुसलमान था। हँसकर न समझने योग्य अपनी बोली में बोला, “कुछ भी नहीं हुआ है। लेकिन जहाज बहुत हिल रहा है न, इसीलिए कह रहा हूँ बाबू, आप जाकर देखिये वहाँ औरतें क्या कर रही हैं। इतनी हिलोरें सहना बहुत ही कठिन है।” दिवाकर उठ खड़ा हुआ और तुरन्त ही समझ गया कि खलासी की बात बिल्कुल ही सच है। वह गिरने लगा था, उसे पकड़कर खलासी ने कहा, “चलिये बाबू, आपको पहुँचा आऊँ।” उसी की सहायता से दिवाकर किसी प्रकार केबिन के दरवाज़े तक पहुँचा। दरवाज़ा ठेलकर अन्दर जाकर उसने देखा, किरणमयी बिछौना छोड़कर पास की लोहे की बेंच पर उसके ही एक छोर को ज़ोर से दबा कर पट होकर लेटी हुई है। दिवाकर उसके सिरहाने जाकर बैठ गया। बोला, “कष्ट हो रहा है भाभी?”
किरणमयी ने कोई बात नहीं कही, सिर भी ऊपर नहीं उठाया, केवल चुपचाप दिवाकर की गोद में अपना दायाँ हाथ रखकर पड़ी रही। जहाज उलटने-पलटने लगा। बाहर क्रुद्ध हवा साँय-साँय की आवाज़ के साथ चिल्लाहट मचाने लगी और उत्ताल तरंगों के उड़ते हुए पानी के छींटे प्रबल वेग से छोटी खिड़की के मोटे शीशे पर बार-बार पछाड़ खा-खाकर गिरने लगे।
उसका सिर चकराने लगा और बैठा रहना असम्भव जानकर उस पतली-सी बेंच पर ही किरणमयी के सिर के पास सिर रखकर वह मूर्च्छित की भाँति लेट रहा।
किरणमयी ने उसका सिर सहलाकर मृदु स्वर में कहा, “लेट रहे हो, सिर में चक्कर आ रहा है क्या?”
दिवाकर ने कहा, “हाँ।”
किरणमयी ने कुछ क्षण मौन रहकर पूछा, “अच्छा बबुआ, तूफ़ान तो बराबर बढ़ता ही जा रहा है, जहाज़ क्या डूब जायेगा, तुम्हारा क्या ख़्याल है?”
दिवकार ने कहा, “नहीं।”
किरणमयी ने कहा, “हाँ, नहीं-नहीं – तुम कचहरी में क्या गवाही दे रहे हो बबुआजी?” यह कहकर बड़ी देर तक चुप पड़ी रही। बहुत देर के बाद धीरे-धीरे बोली, “डूब जाने से ही अच्छा होता। यदि न भी डूबे तो भी इस प्रकार हम लोगों के कितने दिन चलेंगे?”
दिवाकर ने उत्तर नहीं दिया। यह देखकर किरणमयी ने दिवाकर के सिर को हाथ से हिलाकर कहा, “सुन रहे हो न?”
“सुन रहा हूँ। जितने दिन चल सकेंगे, चलने दो।”
“उसके बाद?”
“उसके बाद भी समुद्र में जल रहेगा, गले में बाँधने के लिए रस्सी भी मिल जायेगी। दोनों में से किसी एक को चुन ही लेना पड़ेगा!”
इतनी देर के बाद दिवाकर के मुँह से एक बड़ी बात सुनकर किरणमयी बड़ी देर तक चुपचाप पड़ी रही। उसके बाद वह स्वाभाविक स्वर से बोली, “ऐसा मत करो – घर लौट जाओ। तुम तो पुरुष हो, जाकर कह देने से ही बाद समाप्त हो जायेगी। सम्भव है कि इसकी भी आवश्यकता न पड़ेगी – तुम्हारे अपने लोग इस बात के लिए कोई चर्चा-बखेड़ा करना न चाहेंगे।”
दिवाकर चुप रहा। ऐसा प्रस्ताव चाहे जैसा भी लोभनीय क्यों न हो, वह इसे ग्रहण न कर सका। बड़ी देर तक मौन रहकर बोला, “और तुम?”
किरणमयी पहले की भी भाँति सहज शान्त स्वर में बोली, “मुझे यहीं रह जाना पड़ेगा।”
दिवाकर ने कहा, “कैसे रहोगी? वहाँ कौन है?”
किरणमयी ने कहा, “कोई नहीं।”
“तो फिर?”
“तो भी रहना ही पड़ेगा।”
दिवाकर उत्कण्ठा से उठ बैठा। बोला, “तनिक स्पष्ट बताओ न भाभी, तुम कह रही हो कि कोई नहीं है, फिर भी रह जाओगी, कैसे, मैं तो समझ ही नहीं पाता। तुम क्या वहाँ अकेली ही रहोगी?”
किरणमयी हँस पड़ी। उस हँसी को दिवाकर देख न सका – देखता तो समझ जाता। किरणमयी ने कुछ देर तक मौन रहकर कहा, “नहीं बबुआ, अकेली न रह सकूँगी – मेरी वह आयु नहीं है! लेकिन तुमसे इन बातों की आलोचना की आवश्यकता नहीं है।” यह कहकर उसने दिवाकर का दायाँ हाथ अपने मुँह के पास खींचकर व्यथा से कहा, “लेकिन तुमको मैंने व्यर्थ ही कष्ट दिया। इसके लिए क्षमा माँग रही हूँ बबुआ।”
दिवाकर फिर अवसन्न की भाँति लेट रहा, लेकिन इतना समझ गया कि घर लौट जाने के अँधेरे मार्ग के लिए जो आशा-प्रदीप पलभर पहले ही उसने मूढ़ की भाँति जला दिया था, उसको बुझा देने का समय आ गया है।
प्रदीप बुझ गया अवश्य लेकिन उसकी दुर्गन्ध से भरी हवा से दिवाकर की छाती मानो भारी बोझ से दब गयी। रुँधी हुई साँस की गम्भीर पीड़ा से वह उठ बैठा और तीखे स्वर से पूछा, “तुम क्या अब तक मुझसे परिहास कर रही थीं भाभी?”
“मुँह-चोर नाजुक स्वभाव वाले दिवाकर की इस आकस्मिक उग्रता से किरणमयी चौंक पड़ी, “कैसा परिहास बबुआजी!”
“मेरे घर लौट जाने की बात। इस व्यंग्य की क्या आवश्यकता थी?”
किरणमयी ने कहा, “परिहास या व्यंग्य कुछ तो मैंने नहीं किया।”
“तो क्या यह सच है?”
“सच ही तो है भाई।”
“तुम अकेली रह जाओगी, यह भी क्या सच है?”
“यह भी सच है।”
“ओह! इसीलिए क्या तुम अराकान जा रही हो! लेकिन किसके पास, किस तरह से रहोगी, सुनूँ तो?”
प्रत्युत्तर में किरणमयी ने केवल एक लम्बी साँस ली।
किरणमयी ने गहरी साँस ली, बस। वह भलीभाँति जानती थी कि उनका इस तरह भागना दिवाकर के लिए कितना भयावह था, उसकी लज्जा कितनी दुःसह थी तथा इस निदारुण अवस्था के संकट में पड़ने से उसका मन कितना विकल हो उठा था – यह भी उससे अविदित नहीं था। दिवाकर को उसने प्यार किया भी नहीं था और करना भी असम्भव था, तथापि आश्चर्य तो इस बात का था कि उसकी पूर्ण उदासीनता से वह मन ही मन व्यथित हो रही थी।
किन्तु जैसे ही दिवाकर ने अपने रूखे व तीव्र स्वर में किये गये प्रश्न के माध्यम से ईर्ष्या की ज्वाला प्रकट कर दी, उसके अन्तर की निभृत वेदना हर्ष में परिणत हो उठी। इस पुलक का एक कारण और था – इससे पहले जब वह अपरिपक्व युवक अपने यौवन की प्रारम्भिक सौन्दर्य पिपासा को शान्त करने के लिये उसके अलौकिक रूप का तिल-तिल पान करते हुए उसकी ओर आकृष्ट हो रहा था, तब तो किरणमयी ने देखकर भी अनदेखा कर दिया था, जानते हुए भी कुछ न जानने का दिखावा किया था। और आज जब चोट लगने पर अकस्मात मधु रिसने लगा तो इस निर्वासन में जो व्यक्ति उसका एकमात्र अवलम्बन था, उसी के मधुचक्र में सयत्न संचित एवं प्रच्छन्न मधु के भण्डार के प्रति किरणमयी की सतर्क दृष्टि निबद्ध हो उठी। हँसकर बोली, “कैसे, किसके पास रहूँगी, यह सुनकर तुम्हें क्या लाभ होगा देवर जी? जब तुम्हें लौट ही जाना है तो इस अनावश्यक कौतूहल की कोई सार्थकता नहीं रह जाती।”
दिवाकर कुछ क्षण स्थिर रहा। फिर बोला, “लौट जाऊँगा ही, यह बात तो मैंने एक बार भी नहीं कही। वह तो तुम्हारे ही मुँह की बात है – मेरे मुँह की नहीं।”
किरणमयी ने कहा, “यह ठीक है। लेकिन मेरे मुँह से तुम्हारे मन की बात ही निकल पड़ी है।” यह कहकर वह तीव्र प्रतिवाद की आशा करके प्रतीक्षा करती रही। लेकिन प्रतिवाद नहीं हुआ। किरणमयी उसको सोचने का समय देकर धैर्य धारण किये रही। बहुत समय बीत गया – बाहर आँधी-पानी के लगातार आक्रमण से जहाज काँपने लगा, खलासियों का अस्पष्ट कोलाहल बीच में स्पष्ट सुनायी पड़ने लगा, किरणमयी के धीरज का बाँध भी टूट जाने की नौबत आ गयी, लेकिन काठ की बनी इस छोटी-सी कोठरी की निस्तब्धता पूर्ववत बनी रही।
दिवाकर प्रतिवाद न करेगा, इस बात पर किरणमयी के मन में जब तनिक भी संशय न रह गया, तब उसने लम्बी साँस छोड़कर धीरे-धीरे कहा, “तो क्या तुम्हारा लौट जाना ही पक्का रहा?”
दिवाकर ने कहा, “नहीं।”
किरणमयी ने फिर कोई प्रश्न नहीं किया।
छत्तीस
उस रात को आँधी-पानी का वेग कम हो गया। लगातार ऊधम मचाकर उन्मत्त सागर भोर होते-होते शान्त हो गया। लेकिन ऊपर का आकाश-प्रकाश प्रसन्न नहीं हुआ – मुँह भारी बनाये ही रहा।
सबेरे क्षण भर के लिए सूर्योदय ज़रूर हुआ, पर सूर्यदेव इस जहाज पर स्थित अर्द्धमृत यात्रियों को वास्तविक सान्त्वना दे गये या लाल आँखें दिखाकर चले गये – यह निश्चित रूप से समझा नहीं जा सका।
इसी समय दिवाकर बाहर आकर एक आरामकुर्सी पर लेट गया। न जाने क्यों, आत्मग्लानि की ज्वाला आज उसको पहले की भाँति जला नहीं रही थी; लज्जा का वारिधि भी आज वैसा दुस्तर नहीं जान पड़ा – कहीं पर मानो रहे रंग के पेड़-पौधों से भरा हुआ एक धुँधला-सा किनारा उसे दिखायी पड़ने लगा। हृदय का असह्य बोझ – इस प्रकार जब हल्का हो गया तब स्थिर होकर दिवाकर फिर एक बार किरणमयी के तर्क पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने लगा। कल रात को किरणमयी ने यह कहकर तर्क किया कि हम लोग यथार्थ में अन्याय तभी करते हैं जब किसी को उसके न्यायोचित अधिकार से वंचित करते हैं। इसीलिए किसी कार्य में प्रवृत्त होने के पूर्व यही देखना आवश्यक है कि हम किसी के सच्चे अधिकार में हाथ डाल रहे हैं या नहीं! फिर यह अधिकार जैसा बाहर है, भीतर भी वैसा ही है। अपने ऊपर भी अपना एक सच्चा अधिकार है, अपना होने के कारण वह किसी से तुच्छ नहीं है। उस अधिकार के बाहर किसी का हस्तक्षेप सहना अपने ऊपर अन्याय करना है, यही मेरी बात है।
क्षणभर स्थिर रहकर उसने कहा, था, “हम लोग चोरी-डकैती आदि जैसे कामों से जिस प्रकार दूसरे के अधिकार में हाथ डालकर अन्याय करते हैं, शराबी के लिए पैसे जुटाकर उसे देकर भी वही अन्याय करते है; क्योंकि उसके अच्छे रहने के अधिकार में हम हस्तक्षेप करते हैं।”
दिवाकर चुपचाप सुन रहा था। यह देखकर किरणमयी ने फिर कहा, “यद्यपि सामाजिक लोगों का यह अधिकार अत्यन्त व्यापक है, और कहाँ इसकी सीमा रेखा है, कहाँ क़दम रखने से अनधिकार प्रवेश न होगा, इस बात को लेकर संसार में अनेक द्वन्द्व हुए हैं, अनेक मतभेद हैं, तो भी सीमा तो एक है ही, इस विषय में किसी को सन्देह नहीं है। इस सीमा का उल्लंघन करने की शक्ति किसी में नहीं है, समाज में भी नहीं है। समाज इस सीमा को लाँघकर केवल दूसरों को ही नष्ट नहीं करता, बल्कि स्वयं अपने को भी कमज़ोर बनाता है, नष्ट कर डालता है। तुमको अपना मन इतना उदास बनाकर रहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती बबुआजी, यदि तुम एक बार इसी बात को सोचकर देखते कि मुझे घर से निकालकर किसी के सच्चे अधिकार पर हस्तक्षेप किया है या नहीं! मैं हूँ विधवा, मेरे ऊपर किसी का न्यायसंगत अधिकार नहीं है, तुम हो अविवाहित, तुम्हारे हृदय पर किसी का अधिकार नहीं है, अतएव मुझे प्यार करके तुमने कुछ भी अन्याय नहीं किया है, यह बात समझना तो कठिन नहीं है।”
दिवाकर ने हतबुद्धि होकर कहा था, “यह क्या भाभी, यदि अवैध प्रणय अन्याय नहीं है तो फिर संसार में अन्याय क्या है?”
किरणमयी ने कहा था, “अवैध कहाँ है? जिसको तुम अवैध समझ रहे हो, वह तुम्हारा संस्कार है – वह युक्ति नहीं है। अच्छी बात है, तुम्हारी अवैध वस्तु क्या है, सुनूँ तो?”
दिवाकर ने उत्तेजित होकर उत्तर दिया था, “जो विवाह के द्वारा सुपवित्र नहीं है – जिसको समाज स्वीकार नहीं करता, जिसे आत्मीय स्वजन, इष्टमित्र घृणा की दृष्टि से देखेंगे, वही अवैध है। यह तो एक सीधी-सी बात है।”
किरणमयी ने हँसकर उत्तर दिया था, “सीधी बात कहाँ है? ज़रा विचार करके देखने से ज्ञात हो जायेगा कि सीधी बातें भी ऐसी टेढ़ी हो जाती है कि दुनिया की बहुत-सी टेढ़ी वस्तुएँ ही उसके सामने हार मान जाती हैं। तुमको तो मैंने अनेक बार कहा है बबुआ, तुम्हारा यह सुपवित्र-अपवित्र ज्ञान, संस्कार है – युक्ति नहीं है। इस संसार में ही स्त्री-पुरुष के ऐसे अनेक मिलन हुए हैं, जिन्हें किसी प्रकार भी पवित्र नहीं कह सकते। मैं इस सम्बन्ध में उदाहरण देकर बात बढ़ाना नहीं चाहती, तुम्हारी इच्छा हो तो इतिहास-पुराण पढ़कर देखो। फिर भी, उन मिलनों को भी समाज ने स्वीकार कर लिया था, और अन्त में वे विवाह के मंत्रों से भी सुपवित्र बना लिए गये थे। बबुआजी, हमारे पाथुरियाघाट के उस मकान के पास यदि कण्व मुनि का आश्रम रहता तो शकुन्तला ने जो काण्ड कर डाला था, उसके कारण केवल मुनि-महाराज को ही अपने भाई-बन्धुओं के साथ नहीं, बल्कि पाथुरियाघाट के सभी लोगों को जाति से च्युत हो जाना पड़ता। कहाँ, उस प्रेम-कहानी को पढ़ने में तो किसी भी सती-साध्वी का मुख-मण्डल लज्जा से लाल नहीं हो जाता।
“नहीं-नहीं, तुम घबराओ मत बबुआ, मैं सती-साध्वी स्त्रियों पर कटाक्ष नहीं करती, अथवा इस युग से उस युग की तुलना भी नहीं करती। यह युग यही युग बना रहे, और वे लोग जहाँ हैं वहीं अच्छे होकर रहें। मुझे किसी में आपत्ति नहीं है, लेकिन उस युग की शकुन्तला को इस युग के स्त्री-पुरुष किस कारण अपने हृदय में बुरी कहकर घृणा नहीं कर सकते, यही एक विचित्र बात है।”
क्षणभर चुप रहकर उसने कहा, “घृणा क्यों नहीं कर सकते, जानते हो, बबुआजी? केवल इसीलिए वे घृणा नहीं कर सकते, बबुआ, कि उनका मिलन चाहे जैसा भी क्यों न रहा हो, मिलन के आदर्श को उन्होंने शुद्ध रूप में ही रखा था। क्षणभर में ही जिस बन्धन में अपने को सदा के लिए बाँध लिया था, वह बन्धन पक्का नहीं है ऐसा सन्देह या किसी प्रकार का संकोच उन्होंने मन में नहीं रखा था। वास्तविक बात क्या है, इस पर अच्छी तरह विचार करके देखो।”
दिवाकर को एक बात भी अच्छी नहीं लगी थी। उसने असहिष्णु होकर कहा, “आदर्श चाहे जैसे भी क्यों न हों, आजकल का समाज इसे स्वीकार न करेगा। और जिसकी समाज से स्वीकृति न मिलेगी, वह चाहे वैध हो, या अवैध हो, उसके द्वारा समाज पर आघात ही पहुँचेगा। समाज में रहकर समाज पर आघात करना और आत्महत्या करना दोनों बराबर हैं।”
किरणमयी ने उत्तर दिया था, “बबुआजी, समाज पर आघात करना और समाज के अविचार पर आघात करना एक वस्तु नहीं है। तुमको तो मैं पहले ही बता चुकी हूँ कि सब वस्तुओं में ही सच्चा अधिकार रहता है। समाज उद्धत होकर तब सत्य की सीमा को लाँघता है तब उस पर आघात करना ही उचित है। इस आघात से समाज नहीं मरता – उसको चेतना मिल जाती है। उसका मोह छूट जाता है। लिखना-पढ़ना सीखने के लिए हो, या देश के लिए ही क्यों न हो, विलायत जाना समाज ने स्वीकार नहीं किया है। इसके कारण उसे बार-बार चोटें खानी पड़ी हैं। तो भी ऐसी ही उसकी कठोर प्रतिज्ञा है कि वह आज तक भी अपना अहंकार छोड़ नहीं सका है। इससे क्या तुम समाज के सुविचार की प्रशंसा करते हो?”
दिवाकर ने कहा, “नहीं, मैं ऐसा नहीं करता। इसे अच्छा समझने का कारण नहीं है इसीलिये।”
किरणमयी ने कहा, “ठीक यही बात है। लेकिन यह असन्दिग्ध स्पष्ट उत्तर तुमको कहाँ से मिला है? अपनी बुद्धि-विवेचना से, समाज से तो नहीं?”
दिवाकर ने उत्तेजित होकर उत्तर दिया, “लेकिन यदि सभी कामों में अपनी बुद्धि-विवेचना का प्रयोग करने लगे, तब तो समाज भी न टिकेगा।”
किरणमयी ने कहा था, “मैं तो तुमको अब तक यही बात बताने का प्रयत्न करती रही हूँ। सभी कामों में अपनी बुद्धि लगाने से जैसे समाज नहीं रहता, समाज भी यदि सदा और सभी कामों में अपना ही मत चलाना चाहे तो उससे भी मनुष्य नहीं टिकता। मनुष्य ही भूल करना और अन्याय करना जानता है, समाज क्या नहीं जानता बबुआजी? दोनों की ही सीमा निर्धारित है – मूर्खता से हो, प्रवृत्ति के झोंके से हो, अनुचित हठ के कारण ही हो – जिस प्रकार भी क्यों न हो, उसका उल्लंघन करना ही अमंगल है। उस अमंगल को रोक रखने की शक्ति तुम्हारे भगवान में भी नहीं है।”
दिवाकर ने इसके उत्तर में कोई बात नहीं कही। किरणमयी ने कुछ देर चुप रहकर फिर कहा था, “फिर भी, यह सीमा किसी भी समाज में सर्वदा एक ही स्थान में बँधी नहीं रहती। आवश्यकता के अनुसार यह बदलती रहती है।”
दिवाकर ने पूछा, “कौन बदलता है?”
किरणमयी ने कहा था, “कोई भी नहीं बदलता। जिस नियम से विश्व-ब्रह्माण्ड में परिवर्तन होता है उसी नियम से यह भी आप ही आप परिवत्रित होता है। बदल गया है या नहीं, इसका पता उसी समय चल पाता है जब कोई इस पर प्रहार करता है।”
दिवाकर अभी तक किरणमयी के सारे तर्कों को अपने इस पलायन के समर्थन में मन से स्वीकार नहीं कर पाया था। इस कार्य के अतिशय गर्हित होने में उसे रंचमात्र भी सन्देह नहीं था और सारा अपराध नतमस्तक स्वीकार करने को स्वयं को तैयार कर रहा था। किन्तु जब उसने देखा कि वह गर्विता नारी इतने बड़े अपराध को भी अपराध मानने को तैयार नहीं, उल्टे समाज को ही दोषी ठहराना चाहती है तो असहनीय लगने लगा था। कोई कड़ी बात कहना उसके आदत के विरुद्ध था। अतः ताना मारते हुए धीरे से बोला था – ‘हमारे समाज पर इस तरह प्रहार करने से उसका दर्प और मोह कितना भंग होता है, भविष्य ही बतायेगा! क्यों क्या ख़्याल है भाभी?’
दोनों कोहनियों के बल उल्टी लेटकर दिवाकर की ओर देखते हुए किरणमयी ने कहा था, “हमने प्रहार किया ही कहाँ देवरजी? डरकर भाग आना और सामने खड़े रहकर प्रहार करना क्या एक ही बात है जो समाज का दर्प चूर्ण होगा? इससे तो बल्कि दर्प और बढ़ेगा।” कहकर वह सीधी होकर चादर खींचकर लेट गयी।
बाहर थमती हुई आँधी की दबी हुई आवाज़ को भेदकर ऊपर जहाज के घण्टे में बारह बज गये। डेक की एक कुर्सी पर लम्बी साँस लेकर दिवाकर चुपचाप बैठा हुआ था, एकाएक दबी हुई आवाज़ से पुकार हुई, “बबुआ!”
दिवाकर चौंक उठा। झटपट उसने उत्तर दिया, “क्या भाभी?”
किरणमयी ने कहा, “तुम लौट जाओ।”
दिवाकर ने ज़ोर लगाकर कहा, “किसी प्रकार भी नहीं।”
किरणमयी ने कहा, “नहीं क्यों? बिना समझे-बूझे तुमने एक अन्याय किया है, समझ लेने पर उसका प्रतिकार न करोगे, पाप का बोझ ढोते फिरोगे, मैं तो इसकी कोई आवश्यकता नहीं समझती बबुआ।”
दिवाकर ने कहा, “तुम नहीं समझतीं, मैं समझता हूँ। इसके अतिरिक्त लौट जाने से ही क्या पाप का बोझ उतर जायेगा भाभी?”
किरणमयी ने कहा, “आज ही उतर जायेगा यह बात मैं नहीं कहती। लेकिन दो दिनों बाद उतर भी सकता है।”
दिवाकर ने मृदु कण्ठ से पूछा, “लेकिन मैं जाऊँगा कहाँ?”
किरणमयी ने कहा, “अपने घर, अपने आत्मीय स्वजनों के पास, अपने उपेन भैया के पास। सब ही तो तुम्हारे हैं।”
दिवाकर क्षणभर चुप रहकर बोला, “तुम जो कुछ मेरे पास है, कह रही हो, वह मेरा नहीं है, यह तुम भी जानती हो। हैं केवल उपेन भैया लेकिन उनको तो तुम पहचान नहीं सकी हो। उनके ही पास मुझे लौट जाने को कहती हो भाभी?”
“हाँ, उपेन के ही पास लौट जाने को कहती हूँ!”
दिवाकर थोड़ी देर तक मौन रहा। फिर धीरे-धीरे बोला, “मैंने सोचा था, तुम उनको पहचान चुकी हो। लेकिन तुमने पहचाना नहीं। मैं भी उनको पहचानता हूँ, ऐसी बात नहीं है, सम्भवतः अच्छी तरह उनको पहचाना ही नहीं जा सकता। लेकिन बचपन से उन्होंने मेरा पालन-पोषण किया है अतः मैं इतना तो समझ गया हूँ कि अब इसके बाद उनके सामने जाकर खड़े होने की अपेक्षा मेरे लिए आग में कूद जाना ही सरल है।”
एकाएक किरणमयी चकित हो उठी। दिवाकर के मुँह की ओर देखकर बोली, “क्यों, वह इतने निष्ठुर हैं? जो अपराध तुम्हारा नहीं है, उसको समझाकर बताने से भी क्या वे तुम्हें दण्ड देंगे? यह बात कभी सम्भव नहीं हो सकती बबुआजी!”
किरणमयी के आकस्मिक उत्साह के प्रति दिवाकर ने ध्यान नहीं दिया। दीवार पर जो बत्ती टंगी हुई थी, उसी ओर देखता हुआ अन्यमनस्क की भाँति धीरे-धीरे बोला, “उनको कोई बात समझाकर कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती। न जाने किस प्रकार वे सब कुछ जान जाते हैं, अवश्य ही मैं तुम्हारी तरह यह नहीं सोच सकता कि मेरा दोष नहीं है लेकिन यदि तुम्हारी ही बात ठीक हो, यदि सचमुच ही मैं निर्दोष हूँ, तो उस दशा में जिस दिन मैं उनके पास जाकर खड़ा हो जाऊँगा, उसी दिन वे जान लेंगे। लेकिन मैं खड़ा न हो सकूँगा। तुमने दण्ड की बात कही थी, तो मैं कैसे जानूँ भाभी कि वे कैसा दण्ड मुझे देंगे। अब तक कभी भी उन्होंने मुझे कोई दण्ड नहीं दिया।”
वह और कुछ न कह सका, दोनों हथेलियों से आँखें ढककर चुप हो गया।
किरणमयी ने कोई बात नहीं कही। दोनों नेत्र खोलकर उसके मुख की ओर निहारती रही। उसके हृदय में जो विप्लव चल रहा था, उसको केवल अन्तर्यामी ही जान सके।
थोड़ी देर के बाद दिवाकर ने बात कही। अत्यन्त व्यथित कण्ठ से वह कहने लगा, “कल तुमने कहा था कि तुम उपेन भैया का सिर नीचा कर दोगी। उस दिन रात के समय तुम लोगों में क्या बाते हुई थीं, किस क्रोध में आकर तुमने बात कही थी, इसे मैं अभी तक समझ नहीं सका। सम्भवतः इसका कोई कारण तुम्हारे लिए होगा ही, लेकिन वह कारण चाहे जैसा भी हो, उस सिर को नीचा कर देने का दुःख कितना बड़ा है इस बात को यदि तुम जानतीं, तो यह बात तुम मुँह से न निकालतीं। तुम ऐसी चेष्टा मत करना। जब तक वह स्वयं नीचा होकर तुम लोगों की ओर न देखेंगे, तब तक उनके सिर को नीचा कर देने की शक्ति संसार में किसी में नहीं है भाभी।”
उसी गम्भीर रात्रि में ये दोनों विपरीत प्रकृतियाँ उपेन्द्र के प्रति भक्ति, श्रद्धा और प्रेम के तट पर पहुँचकर एकाएक बहुत ही अच्छी तरह सम्मिलित हो गयीं, यहाँ कोई विरोध ही नहीं था। जहाँ कहने की अपेक्षा सुनने, समझने की अपेक्षा समझाने की अभिलाषा अत्यन्त प्रबल हो उठी।
भोर में किस समय दिवाकर बिछौना छोड़कर बाहर चला गया, इसका पता निद्रामग्न किरणमयी को नहीं चला। इसीलिए नींद टूटते ही वह दिवाकर के लिए व्याकुल हो उठी। कल रात को बातों ही बातों में किरणमयी बहुत-सी बातें जान गयी थीं। दिवाकर वास्तव में कितना निस्सहाय है और अपने उपेन भैया से अलग हो जाना उसके लिए कैसी चोट पहुँचाने वाली दुर्घटना है, इस बात को अत्यन्त स्पष्ट रू से समझ लेने के बाद से किरणमयी अपने नारी-हृदय के अन्तस्तल में तनिक भी शान्ति नहीं पा रही थी। इस सरल, विनीत, सत्यवादी और सच्चरित्र को उसके यौवन के प्रारम्भ में ही अकारण पथभ्रष्ट कर देने का अपराध उसकी निद्रावस्था में भी उसको बींध चुका था। इसीलिए निद्रा भंग होते ही एक अभिनव स्नेह के साथ इस निरपराध अभागे की ओर उसने पहले ही मुँह घुमाकर देखा, दिवाकर नहीं था। उठकर बाहर गयी, पर वहाँ भी नहीं दिखायी पड़ा। जहाज के काम करने वाले लड़के से ढूँढने के लिए कहा, वह भी न पा सका।
उसी समय से किरणमयी अत्यन्त व्याकुलता से प्रतीक्षा कर रही थी। लेकिन आज उसकी इस उत्कण्ठा के बीच भी बहुत दूर से आयी हुई मृदु सुगन्ध की भाँति एक अस्पष्ट आनन्द का आभास पाकर उसका हृदय पुलकित हो रहा था।
उसे अति तुच्छ दिवाकर के साथ, जिसको वह कभी भी प्यार न कर सकी, अपनी ही कुबुद्धि के कारण उसकी घर-गृहस्थी उसे सम्भालनी पड़ेगी। प्रेम का अभिनय करना पड़ेगा, जहाज पर चढ़ जाने के बाद से यही धिक्कार उसको भीतर ही भीतर मानो पागल बनाता जा रहा था।
फिर अन्त यहीं तो नहीं था। इस बनावटी प्यार का आकर्षण एक दिन खत्म होकर रहेगा, एक दिन आयेगा जब यह छर्लिंीला हृदय में वितृष्णा पैदा कर देगी, यह सीख उसे डाक्टर अनंगमोहन से मिल चुकी थी। उस दिन प्राणान्तकर घृणा का जो फन्दा शनैःशनैः उसके गले में कसता जायेगा, उसे वह कौन-से अस्त्र से काटकर फेंकेगी, यही दुश्चिन्ता उसे खाये जा रही थी। लेकिन कल गम्भीर रात्रि में उपेन्द्र के राजसिंहासन के नीचे बैठकर संधिपत्र पर जब दोनों के हस्ताक्षर हो गये, तब मानो उसकी निद्रा भंग हो गयी और इस निरीह लड़के के लिए करुणा और व्यथा से वह इधर जिस प्रकार व्यथित हो उठी थी, उसी प्रकार इस अवश्यम्भावी घृणा से मुक्ति पाकर मानो वह बच गयी।
कमरे में अकेली बैठकर लम्बी साँस छोड़ती हुई बार-बार यही बात कहने लगी – अब मुझे भय नहीं है, मुझे कोई भय नहीं है। जिसको मैं प्यार न कर सकूँगी, कम से कम स्नेह देकर ही उसके मन की कालिमा तो बहुत कुछ पोंछ सकंूगी। तो भी, एक भय उसके हृदय में झाँकने लगा – बाद में प्रलोभन को न रोक सकने के कारण दिवाकर पतंगे की भाँति जल मरने को कटिबद्ध हो जाये, तो क्या गति होगी, उसके रूप के आकर्षण में कैसी अमोघ शक्ति है, यह बात तो उससे छिपी नहीं थी।
उसे अपने मृत पति की बात स्मरण हो आयी। वही नीरस, कठोर विद्या का मूर्तिमान अभिमान। उसके पास तो वह एक दिन भी जा न सकी थी, तो भी उसके दिन कटे ही थे। लिखने-पढ़ने, भात पकाने, साँस की झिड़कियाँ सुनने और घर के काम-काज करने में ही दिन व्यतीत हो जाता था। फिर रात में थकावट से चूर होकर किसी समय वह सो जाती थी, फिर प्रभात होता, फिर रात आती, इसी प्रकार महीने पर महीने, वर्ष पर वर्ष बीत गये थे। भीख माँगने के लिए कोई भिखारी मकान में नहीं आया। किसी पड़ोसी ने भी आकर नहीं पूछा कि तुम कैसी हो, एक दिन के लिए भी सूर्य-किरणों ने प्रकाश नहीं दिया, एक क्षण के लिए भी आकाश की वायु ने मार्ग भूलकर प्रवेश नहीं किया। तो भी दस साल का लम्बा समय बीत गया था। उससे अपने माँ-बाप की बात तो स्मरण नहीं पड़ती, केवल स्मरण पड़ती है कि बाल्यावस्था में कालना के पास के एक छोटे गाँव में रहने वाले दुखी मामा के घर से बहू के वेश में निकलकर उसने इस अँधेरे घर में प्रवेश किया था। पति ने छात्रा के रूप में उसे ग्रहण किया था। उसी समय से आजीवन गुरु-शिष्य का वह कठोर सम्बन्ध कभी दूर नहीं हुआ। पति ने एक दिन के लिए भी आदर नहीं किया, प्यार करते थे या नहीं, एक दिन के लिए भी उन्होंने यह बात नहीं बतायी।
बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी के पाठ याद करने को देते थे, पाठ सुनते थे। पाठ याद न करने पर तिरस्कार करते थे, मारते भी थे। क्रोध, अभिमान करने पर कभी नहीं मनाते थे, रोते-रोते सो जाने पर किसी दिन जगाकर खाने के लिए मुझसे नहीं कहा – यही उसके वधू जीवन का इतिहास है।
सास की परीक्षा और भी कठोर थी। वहाँ अत्यन्त छोटी-सी भूल के लिए भी क्षमा नहीं थी। अघोरमयी ने अपने रसोईघर की कलछी-संड़सी से लेकर जलती हुई लकड़ी तक के चिद्द इस छोटी बहू के शरीर पर अंकित कर दिये थे। एक दिन किसी अपराध पर उन्होंने उसके सिर के सब बाल काट दिये थे। दुख से, अभिमान से, जब बहू रसोईघर के एक कोने में मुँह ढँककर फूट-फूटकर रोने लगी थी, तब पीठ पर जलती हुई लकड़ी से मारकर उन्होंने चुप रहने का अंदेगा दिया था। जल जाने का वह घाव ठीक होने में एक महीने का समय लगा था।
एकाएक वही घाव मानो फिर रिसने लगा। किरणमयी क्षणभर के लिए चंचल होकर स्थिर होकर बैठ गयी।
कब किशोरावस्था को पार करके उसने यौवनावस्था में पैर रखा, यह बात उसे स्मरण नहीं रही। सम्भवतः उषा की भाँति चुपके-चपके ही प्रभात का वह उज्ज्वल प्रकाश फूट उठा था।
यौवन में, अनजान दशा में जबकि शरीर सौन्दर्य से परिपूर्ण हो उठने लगा तब वह पति के साथ सूक्ष्म विषय पर विचार करने में व्यस्त हो रही थी। क्यों उसका शारीरिक पीड़न समाप्त हो गया, क्यों वह गृहणी हो चली, यह बात एक बार सोचने का भी उसे अवसर नहीं मिला। पति कहा करते थे, “सुखी जीवन ही एकमात्र ध्येय है; शेष सभी उपलक्ष्य है। दया, धर्म, पुण्य ये सभी उपलक्ष्य है। इहकाल की हो या परकाल की, अपनी हो या और पाँच आदमियों की, स्वदेश की हो या विदेश की – किस उपाय से सुख-वृद्धि की जा सकती है – यही जीवन का कर्म है और जाने में हो या अनजाने में, इसी चेष्टा में लोगों का सारा जीवन समाप्त हो जाता है। और यही एकमात्र उपदण्ड है, जिसके द्वारा सब भले-बुरे का वजन किया जा सकता है, अपने लिए है या दूसरे के लिए इस ओर दृष्टि मत डालना। किरण, तुम केवल यही समझने का प्रयत्न करना कि इससे सुख की मात्रा बढ़ती है या नहीं।”
किरणमयी कहती, “ठीक ऐसा ही करूँगी, लेकिन किस प्रकार मैं जानूँगी कि मेरे कामों से संसार में सुख की समष्टि बढ़ रही है? सुख का स्वरूप तो सबकी दृष्टि में एक-सा नहीं होता।”
हारान अपनी शून्य दृष्टि से पल भर तक जालों तथा कालिख से भरी कड़ियों की ओर देखकर कहते, “खण्ड-खण्ड करके देखने से तो एक नहीं है लेकिन समग्र रूप से देखने से एक ही है। तुमको इसी पर विचार करना चाहिये।”
किरणमयी के लिए सुख का कोई रूप स्पष्ट नहीं था। वह असहिष्णु होकर बोल उठती, ‘खण्ड-खण्ड’ करके यह समग्र रूप से, ये सब बातें केवल कहने के लिए ही हैं। अपने को सुख कैसे मिलता है, इसी बात को अच्छी तरह से मनुष्य समझ सकता है, वह भी सब समय, सब अवस्थाओं में नहीं। जबकि अपने ही सम्बन्ध में मनुष्य भूल से नहीं बच पाता, तब सारे विश्व का दायित्व हाथ में लेने का साहस जिसे हो, होने दो, मुझे तो ऐसा साहस नहीं होता। उस पार के वे जूट मिल वाले सम्भवतः सोचें कि काशी के सभी मन्दिरों में जूट मिलें खड़ी कर देने से मनुष्य के सुख की मात्रा बढ़ जायेगी, लेकिन सभी क्या ऐसे ही सोचेंगे? सुख नामक वस्तु क्या है, यह बात जब तक मुझे समझाकर न बता सकोगे, तब तक मैं तुम्हारी कोई बात नहीं सुनूँगी।” यह कहकर ज्यों ही किरणमयी उठकर जाने को प्रस्तुत होती त्यों ही हारान उसका हाथ पकड़कर कहते, “ज़रा बैठो तो। इतना पढ़-लिखकर भी यदि तुम इतनी छोटी-सी बातों से रुष्ट हो जाओगी तो सब कुछ ही झूठ हो जायेगा। देखो किरण, मैं तुमसे सच कहता हूँ – मैं ठीक नहीं जानता कि सुख नामक वस्तु क्या है। किसी देश में कोई भी इसे जान पाया या नहीं, यह बात मुझे ज्ञात नहीं है। सम्भवतः यह बात जानी भी नहीं जाती। हमारे देश में बहुत दिन पूर्व तीन प्रकार की चेष्टाएँ दुख-निवृत्ति के लिए हो चुकी हैं – उनको अलग करके जो वस्तु शेष रह जाती है – वही सुख है, यह कह देने से भी काम नहीं चलता।”
प्रत्युत्तर में किरणमयी अत्यन्त अधीर होकर बोल उठती, “जब कहने से काम नहीं चलता, तब किसी के सुख का परिहास करना जैसा असंगत है साधारण रूप से सुख के परिमाण को बढ़ा देने की चेष्टा करना भी वैसा ही पागलपन है। भले-बुरे की तौल करने के पूर्व तुम्हारा तुलादण्ड ठीक होना चाहिये। उसको तुम किस आदर्श से ठीक करोगे इसे तो मैं समझ नहीं पाती।”
कुछ पल चुप रहकर हताश स्वर में हारान ने कहा था, किरण, मैं जानता हूँ तुम्हारे मन की गति किस ओर है, लेकिन जब तक तुम परलोक की, आत्मा की, ईश्वर की कल्पना आदि भावनाओं के जंजाल से मन को मुक्त नहीं करोगी, संशय बना रहेगा। सुख ही जीवन का चरम लक्ष्य है और सुखी होने में ही जीवन की चरम सार्थकता है, यह बात जानते हुए भी नहीं समझोगी। यही लगता रहेगा कि क्या जाने, शायद और भी कुछ है। और इस और कुछ का सन्धान कभी नहीं मिलेगा तुम्हें। यह बात तुम्हें परेशान तो करती रहेगी, पर कोई गति नहीं दे पायेगी; आकांक्षा जगायेगी पर परितृप्ति नहीं देगी। रास्ते की बात तो बतायेगी पर रास्ता दिखा नहीं पायेगी।
इसी प्रकार शिक्षा और गृहस्थी के बीच पड़कर किरणमयी बालिकावस्था से बढ़कर सयानी हो गयी थी। आज एक-एक करके उसे ये सब बातें स्मरण आने लगीं। इसी प्रकार उसकी विचार-प्रक्रिया जब वत्रमान दुख को लाँघकर बहुत दूर जाकर अतीत के अगाध अतल दुख के सागर में डूबती हुई गोते खा रही थी, उसी समय दिवाकर शुष्क म्लान मुख लिए केबिन के भीतर आया। उसको देखते ही किरणमयी के दुख-स्वप्न का नशा पलभर में हट गया। वह अपने मुख को स्नेह की हँसी से उज्ज्वल बनाकर तिरस्कार के स्वर में बोली, “बात क्या है बताओ तो बबुआ जी? किस धुन में घूम रहे हो, क्या खाना-पीना नहीं होगा? तुम तो अच्छे लड़के हो भाई।”
उसके कण्ठ-स्वर से दिवाकर इतने दिनों के बाद चौंक पड़ा। अचानक उसे लगा मानो कितने ही सहश्र वर्ष बीत चुके हैं, भाभी का ऐसा स्वर उसे सुनने को नहीं मिला। उस स्वर में आक्षेप की ज्वाला नहीं थी। जो स्वर सचमुच ही स्नेह की वेदना से कोमल होकर निकलता है वहाँ मनुष्य के कान भूल नहीं करते, किसी तरह उसे पहचान लेते हैं। दिवाकर अभिभूत की भाँति निहारता रहा।
किरणमयी ने फिर मुस्कराकर कहा, “सबेरे से अब तक तुम कहां थे?”
दिवाकर ने धीरे से कहा, “नीचे।”
“नीचे? इतनी देर तक नीचे क्यों बैठे रहे? एक बार ऊपर आकर कुछ खा जाने का अवकाश तुम्हें नहीं मिला?”
प्रत्युत्तर में दिवाकर केवल मौन होकर टकटकी बाँधे देखता ही रहा। किरणमयी ने पूछा, “तुम नीचे क्या कर रहे थे?”
उसके मुख पर बड़ी बहन का वही निर्मल स्नेह-हास्य था, स्नेह की वैसी ही मधुरता थी जिसे कलकत्ता आकर किरणमयी से पाकर दिवाकर कृतार्थ हो गया था। आनन्द से दिवाकर के नेत्रों में आँसू छलछला आये। उसने किसी प्रकार रोककर कहा, “भाभी, नीचे एक बंगाली अपनी स्त्री को साथ लिये अराकान जा रहा है, उनका वहाँ मकान भी है।”
किरणमयी ने कहा, “क्या कहते हो बबुआ?”
दिवाकर ने कहा, “मैं सच कहता हूँ, भाभी, वे लोग बड़े अच्छे आदमी हैं।”
किरणमयी उसकी बात के बीच में ही बोल उठी, “तो ऐसी अवस्था में हम लोग उनके ही मकान में जाकर ठहर सकते हैं। उनकी स्त्री के साथ मेरा परिचय क्या तुम करा सकते हो?”
दिवाकर ने प्रसन्न होकर कहा, “क्यों न करा सकूँगा? मकान वाली कह रही थी तुम्हारे साथ एक बार…।”
किरणमयी ने आश्चर्य में पड़कर पूछा, “मकान वाली कौन है बबुआ?”
दिवाकर ने कामिनी का संक्षिप्त परिचय देकर कहा, “हरीश बाबू इसी नाम से अपनी स्त्री को पुकारते हैं, उनका अपना एक मकान भी तो है।”
सुनकर किरणमयी मौन हो गयी। क्योंकि ‘मकान वाली’ शब्द इसके पूर्व कलकत्ता में नौकरानियों के मुँह से जिन मकान वालियों के लिए उसने सुना था, उनमें से कोई भी भले घर की गृहिणी नहीं थी। इसीलिए दिवाकर जब उनको अपने साथ यहाँ लाने के लिए तैयार हुआ तो उस समय किरणमयी ने तनिक हँसकर स्निग्ध स्वर से कहा, “वे लोग अच्छे आदमी तो हैं न बबुआ?”
दिवाकर उसी क्षण गर्दन हिलाकर आवेग के साथ बोला, “बहुत ही अच्छे आदमी हैं वे लोग भाभी। एक बार बातचीत करने से…”
किरणमयी ने कहा, “तो आज रहने दो न। किसी दूसरे दिन।”
दिवाकर सिर हिलाकर बोला, “नहीं भाभी, मैं तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ, वह इसी समय आना चाहती हैं। जबकि उनके ही मकान में जाकर ठहरना पड़ेगा तब, जाऊँ भाभी बुलाने?” यह कहकर दिवाकर अत्यन्त अधीर होकर उठ खड़ा हुआ और साथ ही उसके नेत्रों और कण्ठ स्वर से छोटे भाई का स्नेह-भरा हठ निकलकर मानो किरणमयी की भूल को गरम शूल की तरह बनाकर उसके हृदय में बिंध गया। एकाएक प्रबल शोक-भरी लम्बी साँस उसके गले तक उमड़ उठी और निकलते हुए आँसू को छिपाने के लिए किरणमयी ने किसी प्रकार कहा, “अच्छा, तो जाओ।”
यह बात सच है कि किसी अपरिचित स्थान को जाने के मार्ग में कोई मित्र या साथी मिल जाये तो यह सौभाग्य की ही बात मानी जाती है। अन्त में यही विचार करके सम्भवतः उसने दिवाकर के व्यग्र अनुरोध को स्वीकार किया था। लेकिन जब वह सचमुच ही उसे बुलाने के लिए जल्दी बाहर चला गया तो उस समय अपनी स्थिति को स्मरण करके किरणमयी को बड़ी लज्जा जान पड़ने लगी। जो आकर उपस्थित होगी वह बंगाली औरत है, उम्र बड़ी हो चुकी है। कौन जाने उसके नेत्रों को धोखा देना सम्भव होगा या नहीं। दिवाकर की आयु के साथ उसकी आयु की तुलना करने से बंगाली समाज की दृष्टि में अच्छी न जँचेगी, केवल इसी बात का विचार करके किरणमयी लज्जा से संकुचित हो उठी।
थोड़ी ही देर बाद दिवाकर के पीछे-पीछे मकान वाली आ पहुँची। उसकी ओर दृष्टिपात करने के साथ ही किरणमयी को पता चल गया कि यह भले घर की स्त्री नहीं है। जो स्त्रियाँ कलकत्ता में दासीवृत्ति करके जीवन-निर्वाह करती हैं, यह उन्हीं में से एक है। उसकी छाती के ऊपर से एक बोझ हट गया। हँसते हुए मुख से उसने कहा, “आओ बैठो?”
किरणमयी का रूप देखकर मकानवाली अभिभूत होकर खड़ी रही। बाद को गले में आँचल डालकर उसने झुककर प्रणाम किया और दरवाज़े के निकट बैठकर कहा, “बाबू के मुँह से सुनकर मकान वाले ने कहा, जाओ तो ब्राह्मणी हैं, उनको प्रणाम कर आओ। तो माँजी, मगों के देश में तो तुम जा रही हो, लेकिन वहाँ कोई भी ऐसा मर्द या औरत नहीं है जो मकान वाली के मकान में चूँ तक भी करे। झाड़ू से मारकर उसका विष झाड़ फेंकूँगी न?” यह कहकर झाड़ू के अभाव में मकान वाली ने केवल अपना हाथ ऊपर उठाकर दिखा दिया।
किरणमयी प्रसन्न होकर बोली, ‘चलो जान में जान आयी। नयी जगह जा रहे हैं, सोच-सोच कर डर के मारे रातों की नींद हराम हो गयी थी हम दोनों की तो।’
घरवाली बोली, “डरने की क्या बात है? मैं बड़ी रोब-दाब वाली घरवाली मानी जाती हूँ वहाँ। मेरा नाम सुनकर तो यमराज भी रास्ता छोड़ देते हैं। मेरे यहाँ कोई कष्ट नहीं होगा तुम लोगों को। वैसे तो किराया पाँच रुपये है, पर तुम लोग चार ही देना; जब बाबू को काम-वाम मिल जायेगा फिर देखाा जायेगा। और उसकी भी फ़िक्र मत करो बहू, मेरा घरवाला जिस साहब को भी जाकर पकड़ लेगा, वह ना थोड़े ही कहेगा। तुम लोगों के आशीर्वाद से इतना सम्मान तो है ही हम लोगों का।’ कहकर होंठ फैलाकर एक विशिष्ट भंगिमा में सिर हिलाया घरवाली ने।
गहरी साँस लेकर किरणमयी ने कहा, ‘भगवान तुम्हारा भला करेंगे।”
उसके मुँह की ओर एकाएक दृष्टिपात करके मकान वाली बोल उठी, “यह कैसी बात है बहू, तुमने अपना सिर ऐसा धो डाला है कि माँग में सिन्दूर का तनिक भी चिद्द नहीं है। सिंधौरा ज़रा दे दो तो, मैं माँग में सिन्दूर लगा दूँ।”
किरणमयी इसके लिए पहले से ही तैयार बैठी थी। उसने बायाँ हाथ दिखाकर कहा, “नहीं, सिर धोने से नहीं, मेरी माँग का सिन्दूर एक साल से काली माई के पैरों से बँधा हुआ है। उस वर्ष बाबू के प्राणों की आशा नहीं थी, सिन्दूर को बन्धक रखकर ही अपनी सुहाग की चूड़ियों को बचा सकी हूँ।” यह कहकर एक लम्बी साँस खींचकर उसने दिवाकर की ओर कनखियों से देखा, उसका मुख लज्जा से और कुण्ठा से एकदम बदरंग हो गया था।
“ऐसी बात है!” कहकर मकानवाली ने सहानुभूति प्रकट करके कहा, “तो हमारे यहाँ भी काली जी का मन्दिर है। वहाँ पहुँचते ही पूजा चढ़ाकर सिन्दूर बन्धक से छुड़ा लेना बहू, नहीं तो लोग न जाने क्या सोचने लगेंगे। अराकान जैसी बुरी जगह तीनों लोक में कहीं भी कोई है क्या? केवल हमारे ही डर से वहाँ के लोग कुछ-कुछ दबे रहते, नहीं तो…।”
किरणमयी ने हँसकर कहा, “इसी विषय पर तो बाबू के साथ आज दो दिनों से बातचीत चल रही है। वे तुम दोनों की बहुत ही प्रशंसा कर रहे थे। वह तुम्हारे सामने मैं क्या कहूँ? जहाज़ पर चढ़ने के बाद से हम दोनों भय के मारे सूखे जा रहे हैं। क्या होगा? यह तो भगवान ही…।” बात पूरी भी न हो सकी, “भय कैसा माँ जी!” कहकर अभय प्रदान करके मकान वाली अपनी बड़ाई की झड़ी लगाने लगी और देखते-देखते दोनों की घर-गृहस्थी, सुख-दुख की कहानी इस प्रकार जम गयी कि कोई भी यह नहीं कह सकता कि दस मिनट पहले दोनों में तनिक भी परिचय नहीं था।
निकट ही कुर्सी पर दिवाकर जो बैठा तो फिर उस पर से उठा नहीं। किरणमयी कितनी ही असत्य बातें कैसे निःसंकोच और सहूलियत के साथ बे-रोक-टोक बोल सकती है, यह सुनते-सुनते वह मानो हत-चेतन की भाँति स्तब्ध हो गया था। इतनी देर बाद एकाएक होश में आकर वह ज्यों ही उठकर चले जाने को तैयार हुआ, त्यों ही किरणमयी बोल उठी,“सारा दिन तो तुमने खाया नहीं, फिर बाहर जा रहे हो क्या?” प्रत्युत्तर में दिवाकर ने जो बात कही, वह सुनायी नहीं पड़ी, लेकिन समझ में आ गयी। किरणमयी ने घबराकर कहा, “नहीं, नहीं, यह नहीं होगा। तुम एक बार बाहर जाओगे तो फिर शीघ्र न आओगे, यह मैं जानती हूँ।” मकान वाली के मुँह की ओर देखकर हँसते हुए मुख से उसने, “सार-ससुर नहीं हैं, ब्याह होने के बाद से मुझे सदा इसी बात का दुख रहता है। खिलाने के लिए मानो मारपीट तक करनी पड़ती है।” फिर तनिक मुस्कराकर बोली “मैं ही ऐसी हूँ कि ज़ोर-ज़बर्दस्ती करके खिला-पिला सकती हूँ, और कोई स्त्री होती तो आँसू बहाते-बहाते और रोते-रोते उसके दिन बीत जाते।”
घोर लज्जा से दिवाकर का सिर एकदम झुक गया।
मकान वाली ने हँसकर कहा, “हाँ बाबू इसी प्रकार क्या तुम दोनों विदेश में जाकर घर-गृहस्थी चलाओगे? लेकिन मेरे मकान में यह न होगा बाबू, मैं बहू को दुख न देने दूँगी, यह मैं कहे देती हूँ।” किरणमयी के मुँह की ओर देखकर वह एकाएक पूछ बैठी, “हाँ बहू, बाबू सम्भवतः तुमसे उम्र में बहुत बड़े नहीं हैं, समान ही उम्र के जान पड़ते हैं, ठीक है न?”
किरणमयी ने उसी क्षण सिर हिलाकर कहा, “कुलीन ब्राह्मण का घर ही तो है, मैं ही आयु में बड़ी न हुई यही मेरा सौभाग्य है! हम दोनों एक ही उम्र के हैं! वैसाख में उनका जन्म हुआ था, और मेरा जन्म आषाढ़ में हुआ था, यही सिर्फ़ दो ही महीने के ही तो बड़े हैं। बहुत से लोग तो मुझे ही आयु में बड़ी बताते हैं। यह कैसी लज्जा की बात है।” यह कहकर किरणमयी मुँह बन्द कर मुस्कराने लगी।
मकान वाली इस हँसी में सम्मिलित नहीं हुई, बल्कि गम्भीर मुँह से उसने कहा, “कुलीन घर के लिए यह लज्जा की क्या बात है! सुनती हूँ कि दस वर्ष के वर के साथ पचास वर्ष की बुढ़िया का भी ब्याह हो जाता है। भले ही हो जाये, इसके लिए कोई बात नहीं। वहाँ जाकर पूजा चढ़ाकर सिन्दूर चूड़ी पहन लेना, नहीं तो सुहागिन की तरह नहीं जान पड़ती हो। अब मैं जाती हूँ, तुम लोग खाओ-पिओ, फिर संध्या के बाद आऊँगी।” यह कहकर किरणमयी के पैरों की धूलि सिर पर चढ़ाकर वह उठ खड़ी हुई।
सैंतीस
सतीश के एकान्तवास की व्यवस्था यद्यपि आज भी वैसी ही है, लेकिन उसकी उस वैराग्य-साधना की धारा इस बीच ठीक मार्ग से हटकर कितनी दूर चली गयी, यह बात जिस किसी ने दो महीने पूर्व देखी है, उसी की दृष्टि में पड़ जायेगी।
जो मनुष्य अपनी इच्छा से निर्वासन का दण्ड ग्रहण कर इस स्वजन-शून्य स्थान में अकेले रहने के लिए आया है, उसका एकाएक वेशभूषा के प्रति अनुराग बढ़ जाने का कारण क्या है, और किसलिए पक्षियों के गाने के बदले में उसकी अपनी गाने की पुस्तकें फिर पेटी के अन्दर से निकल पड़ी है और सारंगी, सितार, बाँसुरी आदि बाजे क्यों अपने-अपने अनादृत स्थानों को छोड़कर फिर पुराने मित्रों की भाँति मेज़ के ऊपर आ जमा हुए, और उसके मुख की वह मलिन छाया भी किस प्रकार सहसा तिरोहित हो गयी, यह सब सोचने की बातें हैं।
वास्तव में दो-तीन महीने पूर्व के सतीश और इस समय के सतीश में इतना अन्तर हो गया है कि एकाएक उसको पहचानना भी कठिन हो गया है।
यद्यपि इस इतने बड़े अद्भुत परिवर्तन का कारण खोलकर न बताने से भी सम्भवतः काम चल सकता था, लेकिन केवल यही भय हो रहा है कि कहीं सन्थाल परगने की असाधारण आबहवा अच्छी समझकर कितने ही नासमझ लोग उस ओर दौड़ न पड़ें।
इसलिए इतना ही बता देना आवश्यक है कि यद्यपि किसी ओर से विवाह का प्रस्ताव अभी तक स्पष्ट रूप से उठाया नहीं गया है, फिर भी आत्मीय स्वजनों के निकट सतीश और सरोजिनी के मन की बात सुस्पष्ट हो जाने में कुछ भी शेष नहीं था।
सरोजिनी की माँ जगततारिणी का आग्रह ही इस विषय में सबसे प्रबल है, यह एक बात एक वर्ष पूर्व कलकत्ता में ही ज्ञात हो गयी थी। लेकिन आग्रह व्याकुलता से अधिक रहने के कारण ही सम्भवतः केवल जगतजारिणी के मन में ही इस संशय की भी एक छाया पड़ी थी कि उनकी शिक्षाभिमानिनी कन्या, पुराने समाज और संस्कारों को अच्छा न समझकर सतीश को ग्रहण करने को प्रस्तुत होगी या नहीं। अभी थोड़े दिन हुए, वह अपने नैहर शान्तिपुर गयी हैं। जाते समय वह इस बात का संकेत कर गयी हैं कि वहाँ से लौटते ही वह यह बात पक्की कर देंगी।
सबेरे सतीश बेले पर नया तार चढ़ा रहा था। उसी समय बिहारी के साथ एक भले आदमी आ गये। ज्योतिष के घर के मुनीम थे। जगत्तारिणी के साथ वह शान्तिपुर गये थे, फिर उनके साथ ही लौट आये हैं।
मुनीम ने नमस्कार करके कहा, “माँजी ने आज आपको निमंत्रण भेजा है। वहीं भोजन करना पड़ेगा।”
ख़बर सुनकर सतीश की छाती मानो उछल उठी, उसने पूछा, “वह कब लौटीं?”
मुनीम ने कहा, “आज तीन दिन हुए।”
प्रायः छः-सात दिनों से सतीश उस ओर नहीं गया था। अपने सम्बन्ध की बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाने के बाद से ज्योतिष बाबू के घर जब-तब जाने में उसे लज्जा जान पड़ती थी। उसने कहा, “अच्छा, आप माँ जी से कह दीजियेगा, मैं दस-ग्यारह बजे के अन्दर ही आ जाऊँगा।”
“जैसी आज्ञा!” कहकर वह आदमी नमस्कार करके चला गया।
सतीश को निमंत्रण भेजकर भी जगततारिणी भोजन का कोई प्रयास न करके ही निश्चिन्त थीं, क्योंकि उनकी धारणा थी कि सतीश संध्या के पहले न आयेगा। अब मुनीम के मुँह से यह समाचार सुनकर वह घबरा गयीं और रुष्ट भी हो उठीं।
आज एकादशी थी। उनको अपने लिए किसी तैयारी की आवश्यकता नहीं थी। और जो विधवा ब्राह्मणी उनके घर रसोई पकाती थी, वह भी दो दिन से शान्तिपुर में ही मलेरिया ज्वर से बीमार पड़ गयी थी।
बहुत ही झुँझलाकर उन्होंने मुनीम से कहा, ‘तुम इस वक्त के लिए निमंत्रण क्यों दे आये? तुमको क्या तनिक भी बुद्धि नहीं है?”
मुनीम ने डरते-डरते कहा, “मैंने तो कही नहीं, उन्होंने स्वयं ही इस वक़्त आने की बात कही थी।
जगततारिणी ने तब क्रोध करके कहा, “तो तुम ही जाओ, देखो मछली कहाँ मिलती है, जाकर जल्द ख़रीद लाओ।”
आज सबेरे ही जिस लिए उनका मन बिगड़ गया था, उसका कारण था। सतीश के पास निमंत्रण भेजने के बाद ही उनको ख़बर मिली कि कल रात को सहसा शशांक मोहन फिर आ पहुँचे हैं। इस आदमी को उसके अंग्रेजी चाल-ढाल के कारण वे किसी दिन अच्छी दृष्टि से नहीं देखती थीं, और विशेष रूप से जबसे उन्होंने सुना था कि वह सरोजिनी से विवाह करना चाहता है तभी से वह मनुष्य उसकी दोनों आखों का शूल-सा बन गया था। बीस दिन पूर्व जब वह किसी काम के बहाने कलकत्ता से यहाँ आया था, तब जगततारिणी ने उससे एक प्रकार स्पष्ट रूप से कह दिया था कि उसकी कन्या के साथ उनका विवाह होना असम्भव है। फिर भी, यह निर्लज्ज, बिना सूचना दिये ही पुनः आ गया है, सुनकर उनका चित्त संशय से कंटकित हो उठा था। इसके अतिरिक्त यह ख़बर पहले उनको मिल गयी होती तो वह सम्भवतः सतीश को निमंत्रण ही नहीं भेजतीं। किसलिए यह ख़बर ठीक समय पर उनको नहीं दी गयी, इसके लिए ज्योतिष से लेकर घर के नौकर तक पर बिगड़ उठी थीं। सरोजिनी बाहरी बैठकखाने से निकलकर किसी प्रकार माँ की दृष्टि से बचकर ऊपर चली जा रही थी – शशांकमोहन के आने की ख़बर वह भी नहीं जानती थी लेकिन जगततारिणी ने उसका सिर से पैर तक क्षण भर निरीक्षण किया और क्रोध के स्वर से कहा “घूमना हो गया न? अब जूता-मोज़ा तो थोड़ी देर के लिए खोल डालो बेटी। सतीश आज यहाँ खायेगा, मैं स्वयं रसोई न पकाऊँगी तो वह तुम्हारे इस क्रिस्तान के घर में पानी तक भी न स्पर्श करेगा। आओ, घंघरे-टंगरे को उतारकर मेरे रसोईघर में आओ। बूढ़ी माँ की ज़रा सहायता करने से तुम्हारे ईसामसीह रुष्ट न होंगे बेटी! आओ!”
माँ क्रोध में आने पर किस प्रकार आग की मूर्ति-सी बन जाती थीं और सच-झूठ को लाँघकर जो मुँह से निकलता था, बोल जाती थीं, यह बात किसी से छिपी नहीं थी। सरोजिनी ने कुण्ठित होकर कहा, “मैं अभी आती हूँ माँ।”
लेकिन माँ का क्रोध इससे भी शान्त नहीं हुआ। उन्होंने कहा,“आकर ही तुम मुझे निहाल कर दोगी बेटी। सत्रह-अठारह साल की उम्र हो गयी, आज तक थोड़ा-सा भात पकाना भी नहीं सीखा। मैं भी ग़रीब के घर की लड़की नहीं थी बेटी, लेकिन उसी उम्र से गृहस्थी चलाती आ रही हूँ। जिस घर में धर्म-कर्म नहीं है, उस घर में लड़के-लड़कियों को पैदा करना ही व्यर्थ है!” इस कठोर मन्तव्य को कड़े स्वर से व्यक्त करके जगततारिणी मुँह झुकाकर स्वयं ही रसोईघर में चली गयी।
उनके अपने लड़के-लड़की पर एवं घर के आचार-व्यवहार पर इस मर्मान्तक आक्रोश का भी कारण था जो उनके पूर्व इतिहास को जाने बिना समझ पाना मुश्किल है।
उनके स्वर्गवासी पति परेशनाथ ने वकालत में अगाध अर्थ उपार्जन के बाद भी जब ढलती उम्र में और अधिक उपार्जन के ख़्याल से बैरिस्टर बनना चाहा तो रो-धोकर, उपवास करके सिर पटक कर किसी भी प्रकार वह उनको अपने निश्चय से नहीं डिगा पायी। उनकी एक नहीं सुनी परेशनाथ ने और बारह वर्ष के ज्योतिष व छह वर्ष की सरोजिनी को उनके साथ देश में छोड़कर वह विलायत चले गये। शुरू में कुछ दिन तो जगततारिणी बिल्कुल ही बेहाल हो गयी थीं, लेकिन बाद में प्रकृतिस्थ होकर नायब गुमाश्ते की मदद से कामकाज देखने लगी थीं। हाँ, पति की तरफ़ से दिल सदा के लिए टूट गया था। थोड़े दिनों बाद बैरिस्टर बनकर वापस आने पर परेशनाथ धनोपार्जन करने लगे। कलकत्ते में नया विशाल बँगला बनवाकर नये ढंग से उसे सजाना शुरू कर दिया, बैरे बावर्ची रख लिये, पर जगततारिणी बिल्कुल तटस्थ बनी रहीं, पति के किसी काम में योगदान नहीं किया। इस प्रकार पति-पत्नी के बीच की खाई दिन पर दिन बढ़ती गयी। बातचीत तो बन्द थी ही, एक दूसरे की ख़बर लेना भी क़रीब-क़रीब बन्द हो गया।
एक दिन ज्योतिष ने आकर कहा, ‘माँ, बाबा मुझे विलायत भेजना चाहते हैं’
यह आशंका उन्हें पहले से ही थी। कठोर होकर पूछा – ‘कब?’
ज्योतिष ने कहा, ‘शायद दो महीनों में।’
‘अच्छा’, कहकर उन्होंने मुँह फेर लिया और काम के बहाने वहाँ से चली गयीं। ज्योतिष के जाने के दिन वह कमरा बन्द करके बैठी रहीं, हारकर ज्योतिष रुद्ध द्वार के बाहर से ही माँ को प्रणाम करके चला गया। परेशनाथ सरोजिनी को साथ लेकर बम्बई तक छोड़ने गये, वापस आये तो पता चला कि जगततारिणी शान्तिपुर अपने मायके चली गयी थीं। उनके इस तरह अचानक जाने का कारण पूछने पर मालूम पड़ा कि उनके पीछे उनके चचिया ससुर गोविन्द बाबू मिलने आये थे लेकिन इस घर में पानी भी नहीं पिया।
वापस बुलाने के लिए आदमी भेजा, लेकिन वह नहीं आयीं। परेशनाथ ने सरोजिनी को बोर्डिंग में भरती कर दिया और स्वयं प्रैक्टिस प्रायः छोड़कर अकेले घर में राग-रंग में डूब गये। पिता के घर रहते हुए जगततारिणी को पति के अधःपतन का समस्त विवरण मिलता रहा, परन्तु न तो वह आयीं और ना ही उन्हें रोकने का कोई प्रयत्न ही किया। जिस पति ने उन्हें अपने रिश्तेदारों से बाहर खड़ा कर दिया था, उस पति पर उनके आक्रोश की सीमा नहीं थी।
इसी तरह पाँच वर्ष निकल गये। ज्योतिष वापस आ गये। माँ को लेने गये परन्तु वह अटल रहीं, घर नहीं लौटीं। रोकर बोलीं, “सब कुछ तो सुन लिया तूने बेटा! अब जिससे तुम लोग सुखी रहो, वही करो, लेकिन मुझे उस नरक में मत घसीटो – वह सब मुझसे नहीं सहा जायेगा।”
ज्योतिष ने कहा, हम लोग अलग मकान लेकर रहेंगे माँ, तुम्हारे ऊपर उस घर की छाया तक नहीं पड़ेगी। मैं जो भी कमाऊँगा, इसी में गुजारा कर लेंगे, तुम चलो तो सही।
बड़ी मुश्किल से वह तैयार हुईं। एक सप्ताह में ही घर ठीक करके वापस आकर ले जाने की बात कहकर ज्योतिष चला गया। परन्तु इतनी देर की आवश्यकता ही नहीं हुई। पाँच दिन बाद ही वह लौट आया। उसके नंगे पांव और नंगे बदन पर मात्र एक शाल देखकर जगततारिणी फुक्का फाड़कर रो दीं। ज्योतिष के कलकत्ता लौटने के तीसरे दिन ही अचानक हृदयगति बन्द हो जाने से परेशनाथ इस दुनिया से चले गये थे।
दारुण अभिमान से एक दिन जिस घर को जगततारिणी छोड़कर चली गयी थीं, पाँच वर्ष बाद उसी घर में रोते-रोते लौट आयीं।
लड़की को हास्टल से घर ले आयीं। उसको देखकर भय से, विस्मय से स्तब्ध रह गयीं।
ज्योतिष को आड़ में बुलाकर बोलीं, ‘बहन की शादी कैसे करेगा अब तू?’
माँ के मन की बात समझकर ज्योतिष बोला, ‘माँ, तुम कोई चिन्ता मत करो; उससे कहीं बड़ी लड़कियों का ब्याह भी होता है।’
विस्मय से आँखें फैल गयीं जगततारिणी की। बोलीं, ‘चिन्ता कैसे नहीं करूँ रे? तेरे बाप जो कर गये हैं वह तो लौटेगा नहीं, लेकिन जब तक मैं हूँ लड़की किसी ईसाई मुसलमान के हाथ में तो दे नहीं सकती, फिर चाहे उसका ब्याह हो या न हो। तेरे लिये तो कोई चिन्ता नहीं है, प्रायश्चित करने से हो जायेगा – उसका विधान मैं काका से पूछ कर आयी हूँ, पर हजार प्रायश्चित करने पर भी लड़की की उम्र तो नहीं घटायी जा सकती? उसका क्या उपाय होगा?’
ज्योतिष ने कहा, ‘तुम्हें उम्र घटानी नहीं पड़ेगी माँ, हाँ थोड़ा सबर करना पड़ेगा। मैं अच्छा ब्राह्मण लड़का ढूँढ दूँगा, मुसलमान ईसाई की नौबत नहीं आयेगी।’
गुस्से से जगततारिणी ने कहा, ‘तू अभी और सबर करने को कह रहा है ज्योतिष?’
ज्योतिष ने जवाब दिया, ‘दोष मेरा तो नहीं है माँ, जो सबर करने को कहना अपराध है। दोष तो तुम्हारा और बाबा का है। मैं तो विदेश में था।’
यह बात तो जगततारिणी भी समझती थीं। लेकिन अच्छा ब्राह्मण लड़का कहाँ, कैसे मिलेगा, सोच नहीं पा रही थी। बोलीं, ‘जो ठीक समझकर बेटा, पर मैं बीच में नहीं पड़ूँगी किसी भी बात में, यह पहले से ही कहे देती हूँ।’ इतना कहकर भाराक्रांत हृदय वहाँ से उठकर चली गयीं।
प्रायश्चित करके ज्योतिश ने पिता का श्राद्ध किया।
इसके कुछ दिन बाद ही विलायत से लौटा एक बंगाली साहब पात्र रूप में मिला।
बैरिस्टरी पास करके दो साल पहले ही देश लौटा था।
शशांकमोहन का रंग तो नेटिव था पर मिजाज ब्रिटिश था – बंगला वह अशुद्ध बोलते थे और अंग्रेजी ग़लत। कुछ ही दिनों में उनके नियमित आने-जाने से सरोजिनी के प्रति उनके मन का भाव स्पष्ट हो उठा।
पर्दे के पीछे से भावी जामाता को देखकर जगततारिणी गुस्से से जल उठीं। और उनका वह गुस्सा उतरा सरोजिनी पर। उसको बुलाकर कहा, ‘तू बेहया की तरह उसके सामने क्यों निकलती है?’
लज्जा से संकुचित होकर सरोजिनी चुप खड़ी रही। आँखों से आग बरसाती हुई जगततारिणी वहाँ से चली गयीं। इसके बाद शशांक मोहन कितनी ही बार आये, लेकिन जिसके लिए आते थे, वह दिखायी ही नहीं देती। माँ की बात याद करके सरोजिनी भीतर ही रहती, सामने नहीं पड़ती।
ज्योतिष ने यह बात लक्ष्य करके एक दिन पूछा, ‘सरो, आजकल तू इस तरह अलग-अलग क्यों रहती है री?’
सिर नीचा करके सरोजिनी ने अस्फुट स्वर में कहा, ‘माँ’ – और कुछ नहीं कहना पड़ा, सब कुछ समझकर ज्योतिष चुपचाप चले गये। इस घर में वह एक अक्षर ही काफ़ी था किसी बात को समझने के लिए।
प्रायः दो माह बाद एक दिन सुबह उस लड़के का प्रस्ताव ज्योतिष ने माँ के समक्ष रखा तो सदा की तरह डाँट खाकर चुप हो गये।
लड़के को चुप देखकर माँ ने ज़रा नरम पड़कर कहा था, ‘अच्छा तुम लोग भी तो विलायत गये थे, लेकिन वैसे हो गये क्या?’
धीरे से ज्योतिष ने कहा था, ‘सब एक जैसे नहीं होते माँ, कोई-कोई थोड़ा बहुत बदल भी जाता है। पर इतनी सी बात के लिये ऐसा लड़का हाथ से निकल जाने देना ठीक है क्या? शशांक बैरिस्टर बनकर आया है, इतने से दिनों में प्रैक्टिस भी जमा ली है। मुझे तो नहीं लगता माँ, कि उससे शादी करके सरोजिनी किसी बुरे आदमी के पल्ले पड़ेगी। चाल-चलन में जो थोड़ा सा अन्तर आ गया है, उसे अगर नज़रअन्दाज कर दो तो मेरे ख़्याल से तो भविष्य में सब कुछ अच्छा ही होगा।’
जगततारिणी ने कहा, ‘मैं कहती हूँ ज्योतिष, कभी अच्छा नहीं होगा। इसके अलावा जो विदेश जाकर विदेशी बन जाये उसका तो मैं कैसे भी विश्वास नहीं कर सकती। यह कौन-सी बात हुई जो जहाँ गया वहीं का हो गया – ना, ज्योतिष ना, उसे तू विदा कर दे बेटा, वह आदमी नहीं बन्दर है। बन्दर के हाथ मैं लड़की किसी भी तरह नहीं दूँगी।’
किसी के भी सम्बन्ध में अपना मत प्रकट करने में जगततारिणी को ज़रा भी विलम्ब नहीं लगता था और उसमें किसी प्रकार का संशय या दुविधा भी नहीं होती थी। और फिर जिस अपराध के लिये उन्होंने अपने पति तक को त्याग दिया था, वह अपराध वह किसी भी प्रलोभन से क्षमा नहीं कर सकतीं, यह समझकर ज्योतिष आगे बिना कुछ कहे चले गए, लेकिन थोड़ी देर बाद आकर बोले, “माँ, एक बात सोचने की है।”
– “क्या?” जगततारिणी ने पूछा।
ज्योतिष ने कहा, “सरोजिनी को तुम लोगों ने जो शिक्षा दी है, उसमें उसकी असम्मति से कुछ नहीं किया जा सकेगा। ऐसा करना सबसे बुरा काम होगा। बचपन से ही उसका भार तुम लोगों ने न लेकर विदेशी मेमों पर छोड़ दिया। उस वातावरण में पलकर उसके मन का झुकाव किस ओर होगा, यह समझना मुश्किल नहीं है।”
जगततारिणी चुप रह गयीं। बात की सत्यता को मन ही मन अस्वीकार नहीं कर पायीं, पर साथ ही प्रकट में स्वीकार करना भी सम्भव नहीं था।
कुछ देर मौन रहकर बोलीं , ‘तो ठीक है ज्योतिष, तुम सब ही अगर साहब और मेम बनना चाहते हो तो बनो, पर उससे पहले मुझे काशी भेज दो। जब मैं अब तक इतना सहन कर पायीं हूँ, तो यह भी कर लूँगी।’
ज्योतिष ने जल्दी से झुककर माँ की चरण धूल लेकर सिर से लगाते हुए मुसकराकर कहा, ‘फिर तो मुझे भी काशी चलकर रहना पड़ेगा। तुम्हें छोड़कर मैं और कहीं नहीं रह सकता यह तो देश लौटने पर ही तय हो गया था माँ।’
नज़रें उठाकर देखा जगततारिणी ने। अन्तर की अग्नि पर पानी पड़ गया। स्नेहसिक्त स्वर में बोली, ‘नहीं बेटा, तू हम लोगों का काशी वाला मकान खाली करने को लिख दो। यहाँ रहकर अपनी इच्छा हर बात में थोपकर तुम लोगों को कष्ट दूँ, यह उचित भी नहीं है और इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है।’
हँसकर ज्योतिष ने कहा, “ठीक है माँ, चलो, सब काशी चलकर रहेंगे।”
कलकत्ते के मकान में माँ-बेटे के बीच हुए उक्त कथोपकथन के कुछ दिन बाद ही सतीश उपेन्द्र के साथ वहाँ आया था।
जगततारिणी ने भी सतीश को देखा था, बदन पर मोटा जनेऊ था, पूजा-पाठ भी करता था, मुसलमान की छुई पावरोटी और बिस्कुट नहीं खाता था, श्रीमान था, निष्ठावान था, पिता की अगाध सम्पत्ति का वारिस था – मुग्ध हो गयी थी जगततारिणी। इसके बाद जब क्रमशः इस बात का आभास मिला कि उसके विलायत जाकर डिग्री न लेने पर भी, यहाँ तक कि इतने कुसंस्कार होते हुए भी लड़की के मन में इसके प्रति आकर्षण का भाव है – तबसे इनकी संशकित दृष्टि बदल गयी थी एवं इतने दिनों की पूंजीभूत वेदना को भी जैसे सहज हो जाने का रास्ता मिल गया था। और फिर सतीश ने उन्हें ‘माँ’ कहकर बुलाना भी शुरू कर दिया था।
लेकिन इसके बाद बहुत दिनों तक सतीश दिखायी नहीं दिया था। उसके न आने का हर दिन उन्होंने यद्यपि उद्वेग व चिन्ता में काटा था, किन्तु आगे बढ़कर स्वयं कोई खोज-ख़बर लेने का प्रयास भी कभी नहीं किया था। सबसे बड़ा डर तो उन्हें इस बात का था कि कहीं प्रयत्न करने पर कोई बुरी ख़बर सुनने को न मिले।
वह जानती थीं कि उनकी अपनी कन्या के मतामत के ऊपर ही विवाह निर्भर नहीं था। सतीश के वृद्ध पिता अभी जीवित थे। क्या जाने वह क्या कहें। और फिर यही कैसे निश्चय से कहा जा सकता था कि सतीश विलायत गये लोगों के घर रिश्ता करने को तैयार हो जायेगा। इसी शशोपंज में वह दिन काट रही थीं।
परन्तु उस दिन जब वैद्यनाथ के घर आकर सतीश को बैठे बात करते देखा तो आनन्द से आँखों में आँसू आ गये। उनको देखते ही सतीश ने उठकर पाँव छू लिये थे।
उसके कलकत्ता से भागकर अज्ञातवास करने से लेकर सरोजिनी के उसे ढूँढ निकालने तक की सारी बात ज्योतिष ने माँ को बतायी। संकट में पड़ने पर कन्या की रक्षा करने के लिये सतीश के सिर पर हाथ फेरकर असंख्य आशीर्वाद दिये उन्होंने और साथ ही अंगे्रजी सीखकर अंग्रेजों की नकल करने के लिये बुरा-भला कहकर बोली, “बेटा सतीश, मुझे विश्वास है कि यह लोग तुम्हारा यह उपकार कभी नहीं भूलेंगे। पर तुम्हें वहाँ अकेले जंगल में रहने की ज़रूरत क्या है? तुम तो घर के लड़के हो, जब तक हम लोग यहाँ हैं, यहीं क्यों नहीं आ जाते?”
हँसकर सतीश ने कहा, ‘मैं ठीक हूँ माँं। मुझे वहाँ कोई कष्ट नहीं है।’
जगततारिणी बोलीं, “कष्ट की बात नहीं है बेटा, अकेले रहने में झंझट बहुत है। इस घर में कितने कमरे खाली पड़े हैं, तुम यहीं आ जाओ। हवा-पानी तो जैसा वहाँ का है, वैसा ही यहाँ का भी है।”
सरोजिनी बोली, “फिर तो उनकी जात चली जायेगी माँ।”
अन्दर की बात जानती नहीं थी जगततारिणी, लड़की पर चिढ़कर बोलीं, “तेरी बहुत जबान चलने लगी है सरो! क्यों, हम लोग कौन हैं, जो हमारे यहाँ रहने से लोगों की जात चली जायेगी? बेटा सतीश, तुम उसकी बात पर मत जाओ। और अगर ऐसा ही है तो उपेन अपनी बहू के साथ हमारे घर कैसे इतने दिन रह गया? उनकी जात तो नहीं गयी? तू उसे डरा मत बेकार को।”
मुँह फेरकर सरोजिनी हँसने लगी। सतीश बोला, ‘नहीं माँ, जात क्यों जायेगी? मैं प्रायः रोज ही आता हूँ यहाँ, रात का खाना भी हर बार यहीं खाता हूँ।’
सुनकर जगततारिणी का चित्त पुलकित हो उठा, बोलीं, “ऐसे ही आते रहा करो बेटा। अब जब तक मैं यहाँ हूँ, मेरे पास ही खाना पड़ेगा तुम्हें रोज”। और वह खाने की व्यवस्था करने चली गयीं।
उनके जाने के बाद सरोजिनी ने कहा, ‘आपने तो मुझे गाना सिखाने का वायदा किया था?’
– मैं तो रोज ही आता हूँ, क्यों नहीं सीखतीं? सतीश ने कहा।
– आपके आते ही तो आपका गाना सुनने के लिये भीड़ इकट्ठी हो जाती है – उसमें कैसे सीखा जा सकता है भला?
हँसकर सतीश बोला, “तो ‘नो एडमिशन’ का बोर्ड देकर दरबान को फाटक पर क्यों नहीं बैठा देतीं?”
– उससे तो अच्छा जो माँ ने कहा है वही करिये न! उस जंगल में न पड़े रहकर यहाँ आ जाइये।
जंगल में रहने का प्रयोजन और किसी से भले ही कहा जा सकता था, पर सरोजिनी से नहीं, अतः सतीश ने कोई जवाब नहीं दिया, चुप रह गया।
सरोजिनी ने फिर कहा, “अच्छा, भैया कह रहे थे वह पाँच-छह दिन बाद कलकत्ता चले जायेंगे, तब उनकी अनुपस्थिति में हमारी देखभाल कौन करेगा?”
– कितने दिन के लिए जा रहे हैं? सतीश ने पूछा।
– कम से कम सात-आठ दिन तो लग ही जायेंगे।
– फिर तो वही व्यवस्था कर जायेंगे। और इतने डर की भी क्या बात है? आप लोग तो हमारे हिन्दू घर की लड़कियों की तरह असूर्यपश्या नहीं है कि घर में किसी पुरुष के न होने से मुश्किल में पड़ जायेगी! आप लोग तो उल्टे कितने पुरुषों के –
सरोजिनी का मुँह लाल हो गया। बीच में ही बोली, “क्या करती हैं हम लोग, बताइये? पुरुषों के कान काट लेती हैं? हम हिन्दू घर की लड़कियाँ नहीं हैं?”
अप्रतिभ होकर जल्दी से बात सम्भालने के लिये सतीश ने जैसे ही सिर उठाया, सामने के दरवाज़े से ज्योतिष के साथ शशांकमोहन को अन्दर आते देखा।
कमरे में कदम रखते ही हाथ बढ़ाकर जल्दी से आगे आकर शशांकमोहन ने सरोजिनी से हाथ मिलाया और कुशल क्षेम पूछी और फिर अपने इस तह अचानक चले आने की कैफ़ियत देने लगे कि किस तरह कलकत्ते में एकदम उनका मन उचाट हो गया और वह बिना कुछ भी तय किये स्टेशन आकर देवघर का टिकट लेकर ट्रेन में बैठ गये। सरोजिनी के मुँह से ने तो हाँ-हूँ के अलावा कोई बात ही निकली और ना ही उनके आने से उसके चेहरे पर हर्ष प्रकट हुआ।
कोई दसेक मिनट बाद सतीश को उठकर जाते देख अपनी याददाश्त पर ज़ोर डालते हुए शशांक मोहन ने सरोजिनी से पूछा, ‘लगता है इनको पहले कहीं देखा है न?’
सरोजिनी का चेहरा चमक उठा। संक्षेप में बोली, ‘कह नहीं सकती, कहाँ देखा है।’
कुछ देर बाद जब अन्दर से जगततारिणी ने सतीश को नाश्ते पानी को बुलवाया तो पता चला कि वह किसी से भी कुछ कहे बिना चला गया था।
इसके बाद तीन दिन तक सतीश दिखायी नहीं दिया तो भीतर ही भीतर जगततारिणी क्रुद्ध व उद्विग्न हो उठीं। लड़के को बुलाकर कठोरता से पूछा, ‘यह आदमी कितने दिन और रहेगा ज्योतिष? मैं कहती हूँ कि तुम उससे साफ़ कह दो कि उसके यहाँ रहने की कोई ज़रूरत नहीं है।’
माँ की आज्ञा का ज्योतिष ने कैसे पालन किया यह तो पता नहीं, लेकिन जाने से पहले शशांकमोहन को इस बारे में कोई शंका नहीं रही कि जिसके लिये वह आते हैं, उसके मिलने की कोई आशा नहीं है और सतीश ही वह भाग्यवान पात्र है।
मुँह उतर गया उनका, लेकिन आघात को भद्रता से सहन किया उन्होंने और जाते समय सरोजिनी से मिलने का प्रयत्न भी नहीं किया।
ट्रेन में बैठकर विदा लेने के पहले अचानक कुछ याद करके ज्योतिष से पूछा, ‘सतीश बाबू कहीं डाक्टरी पढ़ रहे थे, वह पूरी हो गयी?’
सिर हिलाकर ज्योतिष ने कहा, “शायद नहीं। होम्योपैथी स्कूल में कुछ दिन पढ़े थे बस।”
“ओह… होम्योपैथिक स्कूल में! कहकर बात का रुख पलट दिया शशांक मोहन ने।”
अड़तीस
एकाएक अपने भाई की बीमारी का तार पाकर जगततारिणी को शीघ्रता से शान्तिपुर जाना पड़ा था। इसलिए उस समय सतीश के सामने प्रस्ताव रखने का अवसर उन्हें नहीं मिला। आज उसे अच्छी तरह खिला-पिलाकर बात चलायेंगी, मन-ही-मन यह संकल्प करके, सबेरे उठने के साथ ही उन्होंने मुनीम को निमंत्रण दे आने को भेज दिया था। इसी बीच यह ऐसी घटना हो गयी, जिसको किसी ने सोचा भी नहीं था। जिसका आना सबसे अधिक अप्रीतिकर है, एकाएक वही शशांकमोहन सबेरे ही टेªन से आ पहुँचे हैं, सुनकर जगततारिणी के क्रोध का ठिकाना न रहा। मनुष्य की अत्यन्त अनिच्छित वस्तु से एकाएक बाधाग्रस्त हो जाने से उसके सन्देह का ठिकाना नहीं रहता। इसीलिए ठीक उसी समय एकाएक सरोजिनी को बाहर से आते देखकर उनके समूचे शरीर में विष की ज्वाला फैल गयी और यह विचार उत्पन्न हो गया कि शशांक के इस अचानक लौट आने में सम्भवतः इस अभागिनी लड़की का भी कोई हाथ है। बैरिस्टर लड़के पर तो वह किसी दिन भी पूर्ण विश्वास न कर सकी थीं। वास्तव में उनको दोष दिया भी नहीं जा सकता। उनके हिन्दू आचार-भ्रष्ट लड़के-लड़की सतीश की आचार-परायणता को प्रेम की दृष्टि से भी देख सकते हैं, इस बात को वे अपने हृदय में ग्रहण ही नहीं कर सकती थीं।
लड़की को कड़ी बातें सुनाकर वह रसोईघर में चली गयीं और दासी को रसोई की तैयारी ठीक करने का आदेश देकर स्नान करने चली गयीं। लेकिन एक घण्टे के बाद लौट आने पर लड़की की ओर देखकर माता के नेत्र शीतल हो गये।
इसी बीच झटपट स्नान कर रेशमी साड़ी पहनकर वह माँ के रसोईघर में चली गयी थी और हंसिये से तरकारी काट रही थी। पास ही बैठी हुई दासी उसे बताती जा रही थी।
जगततारिणी ने चुपचाप क्षणभर निहारकर कहा, “हिन्दू की लड़की और किसी भी पोशाक में अच्छी नहीं लगती। तुझे देखकर आज मुझे इसका पता चल गया बेटी। तेरी ओर देखकर इतनी खुशी मुझे और किसी दिन नहीं हुई थी।”
सरोजिनी लज्जा से सिर झुकाकर काम करने लगी। माँ उसी को ताने सुनाकर कहने लगीं, “मैं सब समझती हूँ बेटी, सब समझती हूँ। चाहे वह जितनी परीक्षाएँ क्यों न पास करे, मैं उसे बन्दर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कहती। और जिसका संकेत पाकर वह निर्लज्ज फिर यहाँ आ जाये, मेरे जीवित रहते यह बात न होगी, यह मैं शपथ खाकर कहे देती हूँ बेटी!”
थोड़ी देर तक चुप रहकर उन्होंने फिर कहा, “ज्योतिष कहता है कि लड़कपन में जिसको जैसी शिक्षा मिली रहती है, उसके मन का खिंचाव भी उसी ओर हो जाता है। लेकिन यह बात सच होगी क्यों? दिन-रात हैट-कोट पहने रहने से वह पसन्द न आयेगा यह बात किस शास्त्र में लिखी है बेटी!”
तैयारी पूरी करके जगततारिणी रसोई बनाने बैठी और एक बार बोली, “मेरी मनोकामना भगवान यदि पूरी कर दे तो तू देख लेना बेटी, उससे तेरा भला ही होगा।”
सरोजिनी सिर झुकाये माँ की मनोकामना क्या है स्पष्ट रूप से सुन लेने की आशा से कान खोले रही, लेकिन जगततारिणी ने फिर उस बात को खोलकर नहीं बताया, अपने मन से वह रसोई पकाने लगी, वे चुपचाप मन-ही-मन क्या आलोचना करने लगीं, सरोजिनी यह समझ गयी और हैट-कोट के विषय में जिस लज़्जाजनक अपवाद का संकेत करके उन्होंने उसको बार-बार चोट पहुँचायी उसका प्रतिवाद करना भी कठिन नहीं था, लेकिन अत्यन्त असहिष्णु स्वभाव वाली जगततारिणी को कोई भी बात अन्त तक सुनायी नहीं जा सकती, यह सोचकर वह चुपचाप बैठी रही।
दिन के लगभग दस बजे कुछ हल्ला-गुल्ला सुनायी पड़ा। मुनीमजी कहीं से खोजकर एक बहुत बड़ी रोहू मछली ले आये थे।
जगततारिणी ने रसोईघर से झाँककर मछली देख ली तो प्रसन्न होकर कहा, “वाह! यह तो बड़ी है, लेकिन…।”
सरोजिनी ने कहा, “सतीश बाबू के आने में देर है माँ, अभी दस नहीं बजे हैं।”
जगततारिणी ने कहा, “बजने-बजाने की बात नहीं है बेटी, आज तो मेरी एकादशी है, मैं मछली छूऊँगी नहीं। सोचती हूँ कि तुम्हारा ब्राह्मण रसोइया इसे पका सकेगा या नहीं? अच्छा देख तो एलोकेशी, उस घर की रसोई कहाँ तक बन चुकी है?”
दासी के बाहर जाते ही सरोजिनी ने लजि़्जत होकर मुँह से धीरे से कहा, “ तुम बताती रहोगी तो क्या मैं न बना सकूँगी?”
जगततारिणी ने आश्चर्य भरे मुँह से कहा, “तू बना सकेगी?”
“बना सकूँगी माँ। तुम केवल बतला दो।”
दासी ठिठककर खड़ी हो गयी। ऐसी सुन्दर बड़ी रोहू मछली के अनजान के हाथ में पड़ जाने की आशंका से वह डर गयी। बोली, “यह कैसे हो सकेगा माँ, बाहरी आदमी खाने वाले हैं।”
जगततारिणी ने कुछ देर तक कुछ सोचकर कहा, “इससे क्या? मेरा सतीश तो कोई बाहरी नहीं है, वह तो मेरे घर का ही लड़का है। तू मुँह बाए खड़ी मत रह एलोकेशी, उस ओर के चूल्हे को अच्छी तरह लीपकर मछली काटना। तू भी एक काम कर बेटी। रेशमी साड़ी पहने रहने से तो सुविधा न होगी। अच्छा रहने दे, अपना आँचल अच्छी तरह कमर में लपेट ले।” फिर हँसकर उन्होंने कहा, “आज मछली पकाने से ही तेरा इस विद्या का श्रीगणेश हो जाये। मैं आशीर्वाद देती हूँ, आज के दिन से तू सदा मछली ही पकाया करे।”
इस आशीर्वाद से सरोजिनी ने अपना मुँह और भी नीचे झुका लिया। एक घण्टे के बाद ज्योतिष किसी काम से माँ के पास आया। रसोईघर के दरवाज़े के निकट खड़ा होकर अत्यन्त आश्चर्य से अवाक हो गया। ध्यान से देखकर उसने कहा, “वह कौन रसोई बना रही है माँ! सरोजिनी है क्या?” माँ ने हँसकर कहा, “देख तो, पहचान सकता है या नहीं!”
“पहचान न सकने की ही बात है माँ। लेकिन वह क्या सचमुच ही रसोई बना रही है या गर्दन में ढोल बाँधकर बैठी हुई है।”
माँ ने एक गूढ़ बात का संकेत करके कहा, “हिन्दू की लड़की को क्या सीखने की आवश्यकता पड़ती है रे, यह बात तो हम लोग जन्म से ही सीखी रहती हैं। लेकिन…।”
“लेकिन क्या माँ?”
लड़के को तनिक आड़ में ले जाकर जगततारिणी ने कहा, “लेकिन मैं अब सोच रही हूँ कि यदि सतीश सुन लेगा तो वह उसके हाथ की बनाई रसोई खायेगा या नहीं।”
ज्योतिष के हँस उठते ही सरोजिनी ने मुँह ऊपर उठाकर देखा। ज्योतिष ने कहा, “माँ तुम सतीश को मनु या पराशर की श्रेणी में रखती हो?”
माँ ने कहा, “तुम लोगों से तो अच्छा ही है!”
ज्योतिष ने कहा, “क्या अच्छा है, सुनूँ तो? सरोजिनी जाकर दाल-भात पकाकर दे आयी थी, तभी उस रात को उसे भोजन मिला था, नहीं तो उपवास ही करना पड़ता, यह क्या जानती हो?”
माँ ने गद्गद् होकर आश्चर्य से पूछा, “कब रे?”
ज्योतिष ने उस रात की सारी घटना वर्णन करके सुना दी। सुनकर आनन्द से विह्वल होकर अभिमान के स्वर से उन्होंने लड़की से कहा, “धन्य है बेटी तू! मैं तभी से सोच में पड़ी हुई मर रही हूँ, और तू चुप है?”
ज्योतिष ने हँसकर कहा, “वह भी कैसे जान पायेगी माँ कि तुम मन-ही-मन सोच में पड़कर मरती जा रही हो? लेकिन उस दिन तो मैं खा नहीं सका था, आज खाकर देखता हूँ कि जन्म लेने के साथ ही यह पकाना कैसे सीख चुकी है।” यह कहकर वह हँसते-हँसते बाहर चला गया।
जगततारिणी ने लड़की के लज्जा से झुके मुख की ओर देखकर कहा, “लज्जा की क्या बात है बेटी! अपने ही लोगों को रसोई बनाकर खिलाओगी, इससे बढ़कर सौभाग्य की बात किसी लड़की के लिए और क्या हो सकती है? मैं तब तक पूजा कर आती हूँ?” यह कहकर वह थोड़ी देर के लिए बाहर चली गयी।
उसके बाद सारा दिन बीत गया, लेकिन सतीश दिखायी न पड़ा। न आने का कारण भी किसी ने आकर नहीं बताया। सारा दिन छटपटाकर जगततारिणी ने संध्या के बाद ज्योतिष को बुलाकर कहा, “अवश्य ही वह किसी झंझट में पड़ गया है, तुमने किसी को ख़बर लेने के लिए भेज नहीं दिया?”
ज्योतिष ने लापरवाही के साथ उत्तर दिया, “उतनी दूर मैं किसको भेजने जाऊँ माँ?”
जगततारिणी ने आश्चर्य में पड़कर कहा, “क्यों, क्या दरबान एक बार नहीं जा सकता था?”
“आवश्यकता क्या है माँ?”
“यह तू क्या कह रहा है ज्योतिष? उसकी तबियत ख़राब हो गयी है या नहीं यह ख़बर लेने की भी क्या आवश्यकता नहीं है?”
“क्या आवश्यकता है? वह हमारा आत्मीय भी नहीं है, मित्र भी नहीं है, उसके लिए चिन्तित होकर मरते रहने की मैं कोई आवश्यकता नहीं देखता।” यह कहकर ज्योतिष बाहर चला गया।
केवल इसी थोड़े से समय में सतीश अब उनका कोई नहीं है, उनके मुँह पर लड़के का वह उत्तर जगततारिणी को दुखस्वप्न की भाँति जान पड़ा। वह वहीं खड़ी रही। थोड़ी ही देर में उपवास से निर्बल हुए मस्तिष्क में कितनी ही प्रकार की विचारधाराएँ घूम गयीं, इसे वह भली प्रकार समझ भी न सकीं।
चुपचाप ऊपर जाकर बिछौने पर लेट जाने पर जगततारिणी ने सरोजिनी को अपने पास बुलाया और उसके मुख की ओर देखते ही वह और भी डर गयीं। थोड़ी देर तक मौन रहकर उन्होंने कहा, “सरोजिनी, सतीश क्यों नहीं आया, तू जानती है?”
सरोजिनी ने कहा, “नहीं।”
लड़की के इस अत्यन्त संक्षिप्त उत्तर से जगततारिणी उठ बैठी और बोली, “नहीं यदि तुम जानती ही नहीं थी तो आदमी भेजकर जान लेने में क्या हर्ज था? यह भी मेरे कहने की बात थी?”
सरोजिनी ने मधुर कण्ठ से कहा, “भैया का कहना है कि आदमी भेजने की आवश्यकता नहीं हैं”
“क्यों नहीं है यह बात मैं जान लेना चाहती हूँ। जाओ, अभी तुरन्त दरबान को भेज दो, जाकर उसकी ख़बर ले आये।”
“वह तो नहीं है माँ, भैया ने उसे उपेन बाबू के पास तार देने के लिए भेज दिया है?”
“उपेन बाबू को? एकाएक उसके पास तार भेजना क्यों पड़ा?”
“मैं सब बातें नहीं जानती। माँ, तुम भैया से ही पूछ लो।” यह कहकर सरोजिनी माँ की एक प्रकार से उपेक्षा करके चली गयी। अब जगततारिणी को एकाएक लगा कि सतीश को अवश्य ही इसके बीच मना कर दिया गया है। इसका कारण क्या है यह बात कोई भी उनको बताना नहीं चाहता यह सच है, पर कोई विशेष कारण है, इसमें कोई सन्देह नहीं और इस भीषण अनिष्ट का मूल वही शशांकमोहन है, और इस दुरभिसन्धि को लेकर कारण चाहे जितना भी भयानक क्यों न हो, उनके स्वयं उपस्थित रहने की दशा में भी लड़के-लड़की ने उनकी अनुमति के बिना ही सतीश को मना कर दिया है, वह विचार मन में आते ही उनका चित्त क्रोध से परिपूर्ण हो उठा। उसी क्षण उन्होंने एलोकेशी को ज्योतिष को बुला लाने को भेज दिया। इसके आने पर उन्होंने पूछा, “तूने सतीश को इस मकान में आने के लिए मना कर दिया है?”
ज्योतिष ने आश्चर्य में पड़कर कहा, “नहीं, यह तुमसे किसने कहा?”
“उपेन के पास तूने सतीश के विषय में कोई तार भेजा है?”
“हाँ।”
“क्या किया है सतीश ने?”
ज्योतिष तनिक चुप रहकर बोला, “जो काम किया है, वह यदि सच हो तो उस दशा में उसके साथ हम लोगों का अब कुछ भी सम्बन्ध नहीं रह सकता।”
“यह ख़बर तुझे किसने दी, शशांकमोहन ने। वह दुष्ट है। उसकी बातों पर मैं तनिक भी विश्वास नहीं करती।”
ज्योतिष ने कहा, “मैं कहता हूँ, यदि उसकी आधी बात भी सच हो तो माँ, सतीश की परछाईं छूने में हमें घृणा होनी चाहिये!”
लड़के के तप्त कण्ठ-स्वर से जगततारिणी ने कोमल होकर कहा, “अच्छी बात है, मुझे स्पष्ट करके ही बता दो न बेटा कि क्या हुआ है। सतीश ने कोई चोरी-डकैती नहीं की है, हत्या करके भी भाग नहीं आया है कि उसकी परछाईं छूने से भी तुम लोगों को घृणा होगी। लड़का ही ठहरा, यदि किसी प्रकार की गलती उसने कर भी डाली हो तो कितने ही लोग ऐसा करते हैं, सुधरते कितनी देर लगती है?”
ज्योतिष ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं माँ, ऐसे अपराध क्षमा नहीं किये जा सकते। वस्तुतः सरोजिनी तो क्षमा न कर सकेगी, यह बात मैं तुमको निश्चित रूप से बताये देता हूँ।”
जगततारिणी ने कुछ सोचकर कहा, “उसका अपराध क्या है सुनूँ तो?”
कल सुन लेना माँ उपेन की चिट्ठी जब तक नहीं आती तब तक इस आलोचना की आवश्यकता नहीं है।” यह कहकर जयोतिष दुबारा अनुरोध सुनने के पूर्व ही कमरे से बाहर चला गया।
इतनी देर तक उत्तेजना के आवेगों से जगततारिणी बिछौने पर बैठी हुई थीं, लड़के के चले जाने पर निर्जीव की भाँति पड़ गयीं और लम्बी साँस लेकर बोली, “भगवान, इस कलिकाल में किसी को भी तुमने विश्वास करने योग्य नहीं रखा है!”
अनुमान से ही वह बहुत-सी बातें समझ गयीं, इसीलिए केवल सतीश के लिए नहीं, पति की बातों को स्मरण करके उनकी दोनों आँखों से आँसू झरने लगे।
रात को उन्होंने लड़की को बुला भेजा था। एलोकेशी ने सरोजिनी की कोई आहट न पाकर, लौटकर कहा, “बहनजी सो गयी हैं।”
यह सुनकर उन्होंने अपने सिर पर हाथ पटका। वह लड़की ऐसी बुरी ख़बर सुनकर भी सो सकती है, अर्थात वह सतीश की अपेक्षा मन-ही-मन उसी बन्दर के प्रति अनुराग रखती है। यह बात सोचकर लड़की के प्रति उनके क्रोध और अनादर की सीमा न रही।
दूसरे दिन लगभग तीन बजे फाटक के सामने साइकिल खड़ी करके सतीश ने बाहर बैठकखाने में प्रवेश किया।
उसका सूखा मुँह, इधर-उधर बिखरे हुए रूखे बालों ने उपस्थित सभी लोगों की दृष्टि आकर्षित की। सरोजिनी ने मुँह ऊपर उठाकर देखा, लेकिन कोई बात नहीं कही। ज्योतिष ने पूछा, “आपकी तबियत क्या ठीक नहीं है सतीश बाबू?”
सतीश ने तनिक हँसने का प्रयास करके कहा, “नहीं।”
किसी ने फिर भी बात नहीं कही, यह देखकर सतीश मन-ही-मन अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया। वह सोचते-सोचते आ रहा था कि आज वहाँ पहुँचने के साथ ही अभियोग शिकायत का अन्त न रहेगा। इसीलिए उसने घर के अन्दर जाने को तत्पर होकर स्वयं ही कहा, “कल के अपराध के लिए पहले माँ से क्षमा माँग आऊँ, उसके बाद दूसरा काम होगा।”
शशांक अब त तीखी दृष्टि से सतीश की ओर देख रहा था। उसी ने कहा, ‘माँ अभी सो रही हैं, उनको जगाकर अभी क्षमा माँगने के लिए जल्दी ही क्या है? बैठिये, आपके साथ कुछ बातें करनी हैं।”
उसकी बातों के ढंग से सतीश अत्यन्त आश्चर्य में पड़कर बोला, “मेरे साथ?”
शशांक बोला, “जी हाँ, दुर्भाग्यवश करने की आवश्यकता ही तो है।” फिर ज्योतिष को दिखाकर बोला, “आप तो जानते ही हैं, मैं उनका एक परममित्र हूँ, नहीं-नहीं, ज्योतिष बाबू, आप उठियेगा मत – आपके भाग जाने से कैसे काम चलेगा? अपनी नालिश आप लोगों के सामने ही करना चाहता हूँ। आप दोनों ही बैठिये।” यह कहकर उसने सरोजिनी की ओर तिरछी दृष्टि से देखा। लेकिन सरोजिनी इस प्रकार गर्दन झुकाये रही कि उसने कुछ देखा ही नहीं।
शशांक ने सामने की मेज़ पर हाथ पटककर कहा, “बचपन से मेरा यही स्वभाव है कि जिन लोगों को प्यार करता हूं, उनके सम्बन्ध में किसी प्रकार भी मैं उदासीन नहीं रह सकता। इसीलिए कल यह बात सुनते ही मैंने मन ही मन कहा, यह तो अच्छी बात नहीं है, सतीश बाबू के इस निर्जनवास की ख़बर लेनी चाहिये। आप सम्भवतः रुष्ट होंगे सतीश बाबू! लेकिन मैं तो अपने स्वभाव के विरुद्ध चल नहीं सकता। आपका क्या विचार है ज्योतिष बाबू?”
ज्योतिष चुपचाप सिर झुकाये बैठा रहा। सतीश भी चुपचाप निहारता रहा।
इन श्रोताओं की अटूट नीरवता के बीच शशांक की उत्तेजना का वेग अपने आप ही ढीला पड़ गया। उसने पहले की अपेक्षा संयत कण्ठ से कहा, “ज्योतिष मेरे परम मित्र हैं, इसीलिए आपसे कुछ प्रश्न करने को मुझे अधिकार है। आप तो जानते हैं…।”
उस बात के बीच में ही सतीश ने गर्दन हिलाकर कहा, “नहीं, मैं मित्रता की बात कुछ भी नहीं जानता, लेकिन आपका प्रश्न क्या है, सुनूँ तो!”
शशांक ने गले को साफ़ करके कहा, “मैं जान लेना चाहता हूँ कि आप यहाँ आकर क्यों ठहरे हैं?”
सतीश ने कहा, “मेरी इच्छा। आपका दूसरा प्रश्न?”
कुछ घबराहट में पड़कर ज्योतिष के मुँह की ओर देखकर शशांक कहने लगा, “राखाल बाबू का कलकत्ता का डेरा खोजने में बड़ी कठिनाई हुई है।
सतीश बाबू को वे पहचानते हैं, उन्होंने ही कहा…।”
सतीश के दोनों नेत्र अंगारे की तरह जलने लगे, उसने कहा, “चूल्हे में जाये राखाल बाबू। आप अपनी बात कहिये।”
इस बार ज्योतिष ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “सतीश बाबू, शशांक मेरे अनुरोध से ही आपसे पूछ रहा है। आपकी इच्छा हो तो उत्तर नहीं भी दे सकते हैं, लेकिन उसका अपमान आप मत कीजिये। हम लोगों के साथ आपने जो व्यवहार किया है, उसको ध्यान में रखते हुए आपसे कोई भी प्रश्न करना उचित नहीं था, केवल अपनी माँ के कारण ही मुझे आपके अपने ही मुँह से एक बार सुन लेने की आवश्यकता है। अच्छी बात है, मैं ही प्रश्न करता हूँ – सावित्री कौन है? और उसके साथ आपका क्या सम्बन्ध है?”
सतीश पल भर मौन होकर निहारता रहा, फिर बोला, “सावित्री कौन है, यह मैं नहीं जानता ज्योतिष बाबू। लेकिन उसक साथ मेरा क्या सम्बन्ध है, इसका उत्तर देने की मैं आवश्यकता नहीं समझता।”
“क्यों?”
“क्योंकि कहने से भी आप लोग समझ न सकेंगे।”
“लेकिन जिस प्रकार भी हो, हम लोगों का समझ लेना आवश्यक है। उसको लाकर आपने कहाँ रखा है, यह बता देने से ही सम्भवतः हम समझ जायेंगे।”
सतीश ने ज्योतिष के मुँह पर अपने जलते हुए नेत्र स्थिर करके शान्त स्वर से कहा, “देखिये ज्योतिष बाबू, मैंने किसी दिन प्रार्थना करके आप लोगों के साथ घनिष्ठता बढ़ाने की चेष्टा नहीं की, इसीलिये प्रश्नोत्तर के बहाने कुछ अप्रिय बातों से तर्क-वितर्क करने की आवश्यकता मैं नहीं समझता। मैं समझ गया हूँ क्या घटना हुई है। इसलिए आप लोगों को जितना जानने की आवश्यकता है उतना मैं स्वयं बतलाता हूँ। सावित्री कहाँ चली गयी है, यह मैं नहीं जानता। क्यों आप जानना चाहते हैं, क्या बात है? उसका विवरण एकदम अनावश्यक है। लेकिन यह बात स्वयं ही सच्ची है कि सावित्री चाहे जो हो, यदि अपनी इच्छा से वह मुझे छोड़कर चली न जाती तो मैं जितने दिनों तक जीवित रहता उसे अपने माथे पर रखता। यह बात केवल आप ही लोगों के सामने नहीं, सारी दुनिया के सामने स्वीकार करने में मुझे लज्जा नहीं मालूम होती। आशा है, इसके बाद और कुछ पूछने की आप लोगों को ज़रूरत नहीं है। रहने पर भी मैं उत्तर न दे पाऊँगा।”
सतीश के संक्षिप्त उत्तर से सभी एक साथ आँखें फैलाकर देखते हुए पत्थर की मूर्ति की भाँति बैठे रह गये। सरोजिनी के मुँह पर उसकी इस अमानुषिक हृदयहीन स्पद्र्धा उसकी असीम निर्लज्जता को भी बहुत दूर छोड़कर चली गयी। बहुत देर तक स्तम्भित की भाँति बैठे रहकर ज्योतिष ने बड़े यत्न से अपने को होश में लाकर सिर हिलाकर कहा, “नहीं, अब आपसे हम लोगों को कुछ भी पूछना नहीं है। जो कुछ था, वह उपेन के उत्तर से पूरा हो गया है। यह देखिये।” कहकर उसने तार का फार्म उसके सामने डाल दिया।
“उपेन भैया का तार? कहाँ, देखूँ तो?” कहकर सतीश ने व्यग्र हाथों से फार्म उठा लिया। पूरा पढ़कर और लौटाकर थोड़ी देर चुप रहा। उसके बाद एक लम्बी साँस लेकर बोला, “सब सच है। मेरे उपेन भैया कभी झूठ नहीं बोलते। सचमुच ही मैं अच्छा नहीं हूँ, वास्तव में मेरे साथ किसी को सम्पर्क न रखना चाहिए। शायद मैं खुद मन ही मन इस बात को समझ गया था इसीलिए एक दिन इस तरह जंगल में भाग आया था।” यह कहते-कहते उसका कण्ठ-स्वर मानो किसी मंत्र-बल से ज्वर पीड़ित मनुष्य की आवाज़ की तरह गद्गद् हो गया। लेकिन किसी ने कोई बात नहीं कही और सतीश स्वयं भी स्तब्ध होकर बैठा रहा, लेकिन दूसरे ही क्षण कहीं छाती की लम्बी साँस के साथ उसे जान पड़ा कि एक जटिल समस्या की मीमांसा हो गयी। कल सबेरे भी जगततारिणी के निमंत्रण के साथ उसके मन में कितनी ही चिन्ताएँ उत्पन्न हुई थीं। सरोजिनी का हृदय पाने की आकांक्षा एकाएक कब उसके हृदय में जाग उठी थी, यह बात अभी इस समय याद नहीं पड़ रही थी यह सच है, लेकिन निभृत अन्तःकरण में उसकी आकांक्षा तो थी ही। नहीं तो ऐसी घटना कैसे हो गयी? यह अमृत किस समुद्र के मन्थन से निकला था? सावित्री को खो देने के बाद से ही उसने इस सत्य की जानकारी कर ली थी कि युवती रमणी का मन पाना एक बात है, लेकिन उस प्राप्ति को काम में लगाना पूर्णतः भिन्न वस्तु है। क्योंकि यह प्राप्ति जब नर-नारियों के निभृत हृदय में गुप्त रीति से चुपके-चुपके पूर्णता को पहुँचती रहती है तब संसार के बाहरी लोगों को उसका पता नहीं चलता लेकिन जिस दिन बाहरी लोगों की सम्मति के बिना और एक कदम भी आगे बढ़ने का उपाय नहीं रह जाता उसी दिन घोर दुख का दिन आ जाता है। यह पा जाना कितना कठिन है, यह रत्न कितना दुर्लभ है, बाहर के लोग इस पर विचार ही नहीं करते – वे केवल अपने शास्त्रों को लेकर, समाज को लेकर, लोकाचार को लेकर, विरुद्ध स्वर उठाकर हल्ला मचाते हैं, बाधा पहुँचाते हैं, काम को विफल करते हैं, यही मानो उनका कर्तव्य है। सरोजिनी को शायद वह प्यार करता है। उस ओर से भी यदि प्रतिदान का भाव जाग उठा हो तो उसको वह कहाँ किस जगह पर प्रतिष्ठित करेगा? समाज तो दोनों के भिन्न हैं। कल भी उसे अपने वृद्ध पिता का चिन्तित गम्भीर मुख बार-बार याद आ रहा था। उपेन्द्र भैया के घर के भट्टाचार्य जी का तीखा स्वर हज़ारों बार उसके कानों में आकर बिंध गया था, मुहल्ले के शत्रु-मित्र सभी लोग का तेज़ सिर हिलाना उसके कलेजे पर बहुत बार धक्का पहुँचा चुका है, तो भी इस विरोधी जगत के सभी लोगों की सम्मिलित ‘नहीं-नहीं’, की आवाज़ के बीच केवल सरोजिनी का मौन लज्जानत मुख ही उसे सबल बनाकर रख सका था। लेकिन आज जब कोई भय नहीं है, एक दिन में अचिन्तनीय उपाय से सभी गाँठें खुल गयीं और सभी दुश्चिन्ताएँ टल गयीं, जान बच गयी।
ये सब बातें मन ही मन बोलकर वह चौंक पड़ा और तुरन्त ही मुँह ऊपर उठाकर उसने देखा कि सभी उसी तरह सिर नीचा किये हुए चुपचाप बैठे हुए हैं। सरोजिनी के मुँह की ओर उसने देखा, लेकिन प्रायः कुछ भी उसे दिखायी नहीं पड़ा। तब उसी को सम्बोधन करके उसने कहा, “तुम – आप मेरे पुराने डेरे पर एक दिन जिसकी साड़ी सुखाने के लिए टंगी हालत में देख आयी थीं, उसी का नाम है सावित्री। मैंने सोचा था, एक दिन खुद ही आपको सभी बातें बताऊँगा लेकिन किसी दिन वह सुयोग मुझे नहीं मिला, वह साहस भी मुझमें नहीं था।”
इतना कहकर वह उठ खड़ा हुआ और बोला, “ज्योतिष बाबू, दोष मेरा है, यह मैं अनुभव कर रहा था, इसीलिये मेरे मन में सुख नहीं था।” यह कहकर वह थोड़ी देर तक चुप रहकर बोला, “फिर भी किसी दिन मैंने किसी को धोखा नहीं दिया, सब बातें मैं जानता भी नहीं हूँ। फिर मुझे अब कुछ कहना भी नहीं है।”
ज्योतिष ने मुँह ऊपर उठाकर कुछ कहना चाहा। लेकिन गले से आवाज़ नहीं निकली। सतीश ने शायद एक लम्बी साँस को रोककर कहा, “मैं जा रहा हूँ। मेरा एक अनुरोध है, मेरी बातों की आलोचना करके आप लोग मन ख़राब मत कीजियेगा। मैं किसी बहाने से आप लोगों के सामने न आऊँगा – मुझे आप लोग भूल जाइयेगा।” यह कहकर वह धीरे-धीरे बाहर चला गया।
ज्योतिष ने बगल की ओर निगाह उठायी तो डरते हुए देखा कि सरोजिनी का सिर बिल्कुल ही उसके घुटनों के पास झुक पड़ा है, “अरे सरोजिनी! सरोजिनी!” कहकर उसके चिल्ला उठते ही सरोजिनी की शिथिल मुट्ठियाँ कुर्सी की बाँहों से खिसक गयीं और वह नीचे दरी पर मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। अभिमान और अपमान के क्रोध से ज्योतिष की बुद्धि आच्छन्न हो गयी थी कि सतीश के विदा हो जाने का यह काण्ड सरोजिनी को कितना बड़ा आघात पहुँचायेगा, इसका ख़्याल ही उसे नहीं था।
इसीलिए बड़ी शुश्रूषा के बाद सरोजिनी को जब होश आ गया और वह जब रोते-रोते हिलते-डोलते उस कमरे को छोड़कर चली गयी जब ज्योतिष के सिर पर मानो बिल्कुल ही वज्र गिर पड़ा।
बहन को वह केवल प्राणाधिक प्यार ही नहीं करता था, बल्कि अपनी सर्वांगसुन्दरी लावण्यवती शिक्षित बहन के उज्जवल आत्म-मर्यादा ज्ञान पर भी उसको अगाध विश्वास था। लेकिन भीतर ही भीतर वह इतना अधिक प्यार भी कर सकती है और यह सब किसी काम में भी न आयेगा यह सब जानते हुए भी एक चरित्रहीन लम्पट के पैरों में सब कुछ न्योछावर कर, होश गँवाकर सूखी घास की तरह गिर पड़ेगी, यह आशंका उसने कल्पना में भी नहीं की थी और उसके चेहरे पर वेदना का जो चित्र उसने अभी अंकित होते देख लिया, वह कितना बड़ा है इसका निरूपण करने की शक्ति उसमें न थी, तो भी वह बहुत देर तक जड़वत बैठा रह गया, फिर शशांकमोहन की तरफ़ देखकर बोला, “आप शायद आज रात की गाड़ी से कलकत्ता लौट जायेंगे?”
शशांकमोहन ने कहा, “नहीं, वहाँ ऐसा कोई ज़रूरी काम नहीं है।”
ज्योतिष और कुछ प्रश्न न करके अन्दर चला गया और अपने कमरे में जाकर दरवाज़ा बन्द करके लेट रहा। उस रात शशांकमोहन को अकेले ही भोजन करना पड़ा, क्योंकि ज्योतिष की आहट बिल्कुल ही नहीं मिली।
जगततारिणी एक-एक करके लड़के से सब कुछ सुनकर साँस छोड़कर बड़ी देर तक स्तब्ध ही रहीं। उसके बाद बोली, “यह सब मेरे ही दुर्भाग्य का फल है।” परलोकगत पति को याद करके उन्होंने कहा, “मैं खुद तो सारा जीवन इसी तरह जलती-भुनती-मरती रही हूँ, अब जो दिन आगे बाकी हैं, उनमें भी यदि लड़के-लड़की के कारण जलना न पड़ा तो मेरे पापों का पूरा प्रायश्चित कैसे होगा। अच्छा बेटा, तुमको जो पसन्द हो उसी के साथ बहन का ब्याह कर दो, मैं अब कुछ न बोलूँगी।”
फिर एक लम्बी साँस लेकर उन्होंने कहा, “मन अन्तर्यामी है – इसीलिये अचानक उसका आना सुनकर ही उस दिन मेरी छाती धड़क उठी थी ज्योतिष।”
लेकिन ज्योतिष ने कोई बात नहीं कही। वह मन ही मन समझ रहा था कि काम इतना सहज नहीं है। इसीलिए जो कुछ हो गया, वह हो ही गया, कहकर आँखें बन्द करके बैठे रहने से ही काम न चलेगा। हो सकता है कि एक दिन उस चरित्रहीन के पास खुद जाकर उसे समझा-बुझाकर लौटा लाना पड़े।
कल सारा दिन उसने सरोजिनी को एक बार भी कमरे से बाहर आते नहीं देखा, लेकिन आज तीसरे पहर चाय पीने के लिए बाहरी कमरे में प्रवेश करते ही उसने देख लिया कि सरोजिनी पहले से ही आ गयी है और शशांकमोहन के साथ धीरे-धीरे बातचीत कर रही है।
ज्योतिष पास जाकर एक कुर्सी खींचकर बैठ गया। यद्यपि बहन के श्रीहीन मलिन मुँह की तरफ़ देखने पर उसे कुछ भी समझना बाकी न रहा, फिर भी उसकी छाती पर से मानों एक भारी पत्थर उतर गया।
खा-पी लेने के बाद भी बड़ी देर तक बहुत-सी बातें हुईं, लेकिन उस दिन की किसी ने भी कोई चर्चा नहीं की। संध्या के बाद बहुत कुछ स्वछन्द चित्त से बहन को चले जाते देखकर ज्योतिष ने मन ही मन कहा, “दुर्घटना को मैंने जितने बड़े रूप में अनुमान किया था वह उतने बड़े रूप में नही है। हो सकता कि थोड़े ही समय में सब कुछ ठीक हो जायेगा।”
उस दिन बड़ी रात तक दोनों मित्रों में बातचीत होती रही, यहाँ तक कि अपने प्रथम झमेले को सम्भाल लेने के बाद भी सतीश के इतने बड़े घृणित आचरण के साथ मन ही मन शशांकमोहन की तुलना करके न देखेगी, यह बात दोनों को ही एक तरह असम्भव-सी मालूम हुई।
दूसरे दिन दोपहर को खाने-पीने के बाद सरोजिनी अपने ऊपर वाले सोने के कमरे के खुले जंगले के पास एक कुर्सी पर बैठकर रास्ते की तरफ़ देख रही थी। एकाएक उसे मालूम हुआ कि कुछ दूर पर एक माल-असबाब से लदी बैलगाड़ी के पीछे-पीछे जो दो आदमी छाता लगाये चले जा रहे हैं, उनमें से एक बिहारी है। सरोजिनी सतर्क होकर खिड़की की छड़ पकड़कर खड़ी हो गयी। गाड़ी धीरे-धीरे उसकी खिड़की के सामने आ पहुँची और एक आदमी ने मुँह ऊपर उठाकर देखा तो साफ़ तौर से मालूम हो गया कि वह बिहारी है। सरोजिनी ने हाथ हिलाकर उसे बुलाया तो तुरन्त ही बिहारी अपने साथी को आगे बढ़ने को कहकर छाता बन्द करके खिड़की के नीचे आ खड़ा हुआ। सरोजिनी ने कहा, “बिहारी, घुसने के साथ ही बायीं तरफ़ सीढ़ी है। ऊपर चले आओ।”
उस समय घर के सभी लोग दिवानिद्रा में पड़े हुए थे। बिहारी तुरन्त सीढ़ियों से सरोजिनी के कमरे में ऊपर चला गया और उसको प्रणाम करके पैरों की धूलि माथे पर चढ़ा ली।
सरोजिनी ने मन ही मन आशीर्वाद देकर कहा, “तुम लोगों की गाड़ी तो रात को ग्यारह बजे के बाद मिलेगी – अभी तो बहुत समय है। रसोइया महाराज साथ ही है, वह सब सामान कुली से उतरवा लेगा, तुम ज़रा बैठो।”
बिना पूछे ही वह समझ गयी थी कि सतीश यहाँ का डेरा छोड़कर कहीं दूसरी जगह जा रहा है।
बिहारी अपनी चादर के छोर से माथे का पसीना पोंछकर नीचे भूमि पर बैठ गया।
थोड़ी देर तक मौन रहकर सरोजिनी ने इस प्रकार भूमिका बाँधकर कहा, “अच्छा बिहारी तुम तो कभी ब्राह्मण की लड़की के सामने झूठ नहीं बोलते?”
बिहारी ने जल्दी से जीभ काटकर कहा, “बाप रे, ऐसा करने से क्या मेरी रक्षा होगी बहन! सात जन्म काशीवास करने पर भी तो यह पाप दूर न होगा।”
सरोजिनी ने स्निग्ध दृष्टि से इस देहाती धर्मभीरू बूढ़े के मुख की ओर देखकर स्नेह भरी हँसी के साथ कहा, “यह बात तो मैं जानती हूँ बिहारी, तुम कभी झूठ नहीं बोलते, लेकिन मैं जो कुछ पूछूँगी, वह तुम किसी से बता न सकोगे – अपने बाबू से भी नहीं।”
बिहारी ने कहा, “मुझे किसी से कहने की आवश्यकता क्या है बहनजी?”
सरोजिनी ने थोड़ी देर तक मौन रहकर असल बात को उठाया, पूछा, “अच्छा, सावित्री कौन है बिहारी?”
बिहारी ने सरोजिनी के मुख की ओर देखकर कहा, “मेरी सावित्री बेटी की बात पूछ रही हो बहनजी? मैं नहीं जानता बहन जी, कि यह मेरी बेटी, जिसे मैं जननी की तरह आदर देता था, किसके शाप से पृथ्वी पर जन्म लेकर कष्ट पा रही है। आहा, बेटी तो मानो लक्ष्मी की प्रतिमा है।”
बहुत दिन हो गये, बिहारी को सावित्री का नाम तक मुँह से निकालने का अवसर नहीं मिला था। उसका कण्ठ-स्वर गीला हो गया और नेत्रों की दृष्टि धुँधली हो गयी।
सावित्री का उल्लेख होते ही बूढ़े का मनोभाव इस प्रकार बदलते देखकर सरोजिनी आश्चर्य में पड़ गयी।
बिहारी ने धीरे से आँखें पोंछकर कहा, “जिस दिन वह मेरी बेटी राखाल बाबू के मेस में दासी-वृत्ति करने के लिये आयी, उस दिन उसको देखकर सब लोग अवाक हो गये? उसके मुख पर बराबर ही हँसी खिली रहती थी! राखाल बाबू थे मैनेजर और मैं था नौकर, लेकिन उसकी दृष्टि में सभी समान थे – सभी का समान आदर-यत्न करती थी। एकादशी की व्रतनिर्जला करते हुए कभी मैंने उसे उदास नहीं देखा बहन जी!”
बूढ़ा मानो अपना सम्पूर्ण हृदय खोलकर बातें कर रहा था। इसीलिए उसके स्वाभाविक भक्ति उच्छ्वास से सरोजिनी मुग्ध हो गयी और उसके विद्वेष की ज्वाला भी मानो पिघलकर आधी हो गयी। बिहारी कहने लगा, “बहनजी, शास्त्र में लिखा है लक्ष्मीजी ने एक बार किसी अपराध के कारण विष्णु की आज्ञा से दासीवृत्ति की थी, मेरी बेटी भी मानो वैसे ही किसी दोष से नौकरी करने आयी थी और तरह-तरह के दुख पाकर अन्त में चली गयी। जिस दिन वह चली गयी, वह दिन मानो अब तक भी मेरे हृदय में गुँथा हुआ है बहनजी।”
सरोजिनी ने धीरे से पूछा, “वह अब कहाँ हैं बिहारी?”
बिहारी ने इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया, उसके मुँह की ओर देखकर वह चुप हो रहा।
सरोजिनी ने फिर से पूछा, ‘क्या तुम नहीं जानते बिहारी?”
बिहारी इस बार सिर हिलाकर बोला, “ठीक-ठीक मैं नहीं जानता लेकिन फिर भी कुछ जानता हूँ। लेकिन वह बात बताने को तो वह मना कर गयी है, मैं तो बता न सकूँगा।”
सरोजिनी ने पूछा, “मना क्यों कर गयी हैं?”
क्यों कर गयी, यह तो बिहारी स्वयं भी समझ नहीं सकता था। फिर भी, इस निषेध को बहुत दिन तक मानकर चलना, वह किस प्रकार है यह जान न सकना, उसको इस जीवन में फिर एक बार आँखों से न देख सकना, यह सब बिहारी के लिए कितना असह्य था, इसे वह स्वयं ही जानता था। विशेषतः जब भी किसी बातचीत में सतीश की तीखी कड़ी व्यंग्य-भरी बातें सावित्री के विरुद्ध सुनता, तब सभी बातें खोलकर बता देने के लिए उसके मन में आँधी-सी बहने लगती थी, लेकिन इस पर भी बूढ़े ने आज तक अपनी शपथ को भंग नहीं किया। यदि किसी दिन असह्य जान पड़ा तो उसी क्षण इसी बात का स्मरण किया है कि इसके भीतर कोई विशेष बात है जो उसकी बुद्धि के परे है। सावित्री के प्रति उसकी श्रद्धा और विश्वास का अन्त नहीं था।
लेकिन अब एक दूसरी लड़की उस बात को जान लेने के लिए उत्सुकता प्रकट करने लगी, तब सारी बातें कह देने के लिए उसके हृदय में भी उथल-पुथल सी मच गयी। कुछ देर चुप रहकर उसने कहा, “मैं बता सकता हूँ बहनजी, यदि तुम मेरे बाबू से न कहो।”
सरोजिनी मन ही मन बड़े आश्चर्य में पड़ गयी। बिहारी जानता है, लेकिन सतीश नहीं जानता और उसी को बताने की विशेष रूप से सावित्री ने मनाही की है – इसका क्या कारण है, वह सोचने पर भी समझ न सकी। उसने कहा, “नहीं, बिहारी, मैं किसी से नहीं बताऊँगी, तुम कहो।”
बिहारी पलभर मौन रहा, फिर सम्भवतः यह सोचकर कि इस काम के असत्य का पाप उसको स्पर्श करेगा या नहीं वह धीरे-धीरे कहने लगा।
सावित्री सतीश को प्राणों से अधिक स्नेह करती थी और इसी कारण राखाल बाबू ने डाह से झगड़ा करके सतीश को डेरा छोड़ देने को बाध्य किया था और सतीश बाबू कभी-कभी शराब भी पीते थे इत्यादि कोई भी बात उसने नहीं छिपायी।
सरोजिनी मंत्रमुग्ध की भाँति सारी बातें सुनती रहीं। सम्भवतः ऐसे एकाग्रचित्त से इतने ध्यान से और किसी ने भी किसी की बातें नहीं सुनी होंगी। जिस राखाल बाबू से शशांकमोहन को ख़बर मालूम हुई थी, संयोगवश उस मनुष्य का इतिहास भी सरोजिनी से छिपा न रहा।
सावित्री का घर कहाँ है, या उसके नैहर या ससुराल का परिचय क्या है, इन सबका पता तो बिहारी न दे सका, फिर भी उसने बार-बार यह बात कही कि वह ब्राह्मण की लड़की है, विधवा है, सुन्दरी है, लिखना-पढ़ना जानती है – केवल भाग्य के फेर से वह दासीवृत्ति करने के लिए आयी थी। बिहारी ने कहा, “इतना अधिक वह प्यार करती थी, लेकिन बाबू मेरी बेटी से बाघ की तरह डरते थे बहनजी! शराब पीकर डेरे में आने का साहस तक उनको नहीं हेाता था। विपिन बाबू नामक बाबू का एक बदचलन मित्र था। उनके साथ मिलकर गाने-बजाने के लिए बाबू बुरी जगहों में जाया करते थे, ज्यों ही यह ख़बर मेरी बेटी के कानों में पहुँची उनका जाना एकदम बन्द हो गया। फिर तो उनमें यह साहस नहीं रहा कि सावित्री की बात टालकर वहाँ जाते।” यह कहकर बिहारी ने गर्व से सरोजिनी के मुख पर दृष्टिपात किया।
सतीश के ऊपर एक और नारी के इतने बड़े अधिकार की बात से सरोजिनी की छाती में बर्छी सी चुभी, फिर भी उसने धीरे-धीरे पूछा, “अच्छा बिहारी, उनसे इतना डरने की सतीश बाबू को क्या आवश्यकता थी?”
बिहारी ने जैसा समझा था वैसा ही उसने बताया। बोला, “सावित्री बहुत ही तेजस्वी थी बहन जी, हमारे बाबू ही नहीं, डेरे भर के सभी लोग मन ही मन उससे डरते थे। एक दिन की बात मैं बता रहा हूँ। उस दिन बड़ी रात को कहीं से शराब पीकर और शराब की एक बोतल अपने साथ लिये बाबू डेरे पर लौटे। उन्होंने सोचा था कि इतनी रात को सावित्री अवश्य ही अपने डेरे पर चली गयी होगी। मैं जाग रहा था, मैंने दरवाज़ा खोल दिया। उन्होंने पूछा, “सावित्री चली गयी है न बिहारी?’ मैंने कहा, “नहीं बाबू, आज वह नहीं गयी – यहीं है।’ यह सुनते ही शराब की बोतल रास्ते में फेंककर वह धीरे-धीरे चोर की तरह मकान के अन्दर गये। डर के मारे उनका नशा पल भर में समाप्त हो गया। बताओ तो बहनजी, उसके सिवा बाबू पर और कोई क्या शासन कर सकेगा?”
सरोजिनी चुपचाप कुछ देर तक बैठी रही, फिर बोली, “सतीश बाबू क्या अब भी शराब पीते हैं बिहारी?”
बिहारी ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं। लेकिन फिर आरम्भ कर देने में कितनी देर लगेगी बहनजी? इसीलिए तो आज दो दिनों से केवल यही सोच रहा हूँ कि इस दुस्समय में यदि सावित्री बेटी एक बार आ जाती!”
सरोजिनी ने उत्सुक होकर पूछा, “क्यों बिहारी?”
बिहारी ने कहा, “मैं सदा से ही देखता आ रहा हूँ कि मन ख़राब होने पर ही बाबू शराब पीना शुरू कर देते हैं। एक उपेन बाबू से डरते हैं पर कौन जाने उनके साथ भी क्या हो गया है। उस रात को वह मकान में घुसे तो उस क्षण उनकी दृष्टि सावित्री पर पड़ गयी, देखते ही जो वह चले गये, उसके बाद से कोई भी किसी का नाम नहीं लेता। अब तुम ही बताओ बहन जी, उसके सिवा बाबू को और कौन सम्भाल सकता है?”
फिर थोड़ा रुककर कहने लगा, “बीमारी की ख़बर पाने के बाद से ये पाँच-छः दिन बाबू के किस प्रकार बीते हैं, यह मैंने अपनी आँखों से देखा है। परसों नींद से उठकर तार से ख़बर पाकर वे मुँह ढँककर लेटे रहे, फिर सारा दिन उठे ही नहीं। उसके बाद रात की गाड़ी से घर चले गये। मुख से केवल यही बात कह गये, “बिहारी, तुम सब सामान घर ले आना।”
सरोजिनी ने घबराकर पूछा, “कौन बीमार है बिहारी?”
बिहारी ने आश्चर्य में पड़कर कहा, “यहाँ से जाते समय क्या बाबू तुम लोगों को कुछ भी नहीं बता गये बहनजी?”
सरोजिनी ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं, कौन बीमार है?”
बिहारी ने लम्बी साँस लेकर कहा, “तो भूलकर सीधे चले गये हैं इस मकान में नहीं आये? जिस दिन सबेरे यहाँ से उनके पास भोजन के लिए निमंत्रण गया था, उसी दिन चिट्ठी आयी थी कि बूढ़े बाबू बीमार हैं। इसीलिये वह खाने के लिए न आ सके। तार भेजकर स्वयं ही सारा दिन डाकघर में खड़े रहे। लेकिन कोई ख़बर नहीं मिली। उसके बाद परसों सबेरे एकदम अन्तिम ख़बर आयी। रात की गाड़ी से बाबू घर चले गये।”
सरोजिनी चौंक पड़ी, “सतीश बाबू के पिताजी मर गये?”
बिहारी ने कहा, “हाँ, बहनजी।”
“उनको क्या हो गया था?”
“उमर बहुत हो गयी थी। केवल किसी बहाने से प्राण निकल गये।” यह कहकर बिहारी ने भीगी आँखों को पोंछकर कहा, “और किसी बात के लिए मैं दुख नहीं करता लेकिन उस बूढ़े के अलावा बाबू को अपना कहने के लिए और कोई नहीं रह गया। इसीलिए इधर दो दिनों से मैं केवल यही सोच रहा हूँ कि अबसे वह क्या करने लगेंगे, इसे माँ दुर्गा ही जानती हैं।” यह कहकर बूढ़े ने चादर के छोर से अपनी दोनों आँखों को एक बार फिर अच्छी तरह पोंछ डाला।
सरोजिनी की आँखों से आँसू गिरने लगे। उसने कहा, “इस समय से सतीश बाबू अच्छे भी तो हो जा सकते हैं। बुरे ही हो जायेंगे यह भय तुमको क्यों हो रहा है बिहारी?”
बिहारी अन्यमनस्क होकर बोला, “न जाने क्यों?” उसके बाद मुँह ऊपर उठाकर बोला, “बाबू अच्छे हो जायें, उनकी मति उस ओर न जाये यही मेरी कामना है, लेकिन जाते समय गाड़ी पर चढ़कर उन्होंने जो यह कहा था, ‘जाने दो, एक तरह से रक्षा ही हुई, संसार में अब किसी के लिए चिन्ता न करनी पड़ेगी।’ तुमसे मैं सच कह रहा हूँ बहनजी, उसी समय से जब भी वह बात स्मरण आती है, त्योंही छाती के भीतर आग-सी धधकने लगती है। उनके हाथ में अब रुपयों के बड़े ढेर आ जायेंगे। बाबू के संगी-साथी भी अच्छे नहीं हैं, बुरे मार्ग से चलने पर अब उनको कौन रोकेगा?” यह कहकर बिहारी ने अनजान में ही फिर एक बार सुनने वाले की छाती में गरम तीर भोंककर अपने दोनों हाथ माथे पर रख लिये।
सरोजिनी ने आघात सहकर मृदु स्वर से कहा, “अच्छी बात तो है बिहारी, उनको ही आने के लिए तुम चिट्ठी क्यों नहीं लिख देते?”
बिहारी ने कहा, “पता मैं नहीं जानता। यदि मै स्वयं ही एक बार काशी जा सकता तो जिस तरह भी होता खोजकर ढूँढकर उसको लौटा लाता, लेकिन मेरे लिए तो यह उपाय नहीं है। बाबू को अकेले छोड़ जाने की भी इच्छा नहीं होती! इसके अतिरिक्त मैं तो कभी काशी नहीं गया, वहाँ की जानकारी मुझे नहीं है।” यह कहकर उसने निरुपाय की भाँति सरोजिनी के मुँह की ओर देखा। स्पष्ट रूप से ही यह बात समझ में आ गयी कि सतीश का यह परम हितैषी बूढ़ा नौकर स्वामी के अवश्यम्भावी अमंगल की आशंका से घबराकर उससे चुपचाप आश्वासन पाने की प्रतीक्षा कर रहा है। लेकिन सरोजिनी ने उसे कोई सान्त्वना नहीं दी, केवल चुपचाप निहारती रही।
“तो अब मैं जा रहा हूँ बहनजी।” कहकर बिहारी उठ पड़ा और सरोजिनी के पैरों पर
झुककर प्रणाम करके फिर पद धूलि लेकर कमरे से बाहर चला गया। लेकिन दूसरे ही क्षण वह अकस्मात लौट आया और हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया।
“क्या है बिहारी?”
“एक बात की विनती करूँगा बहनजी!”
सरोजिनी ने बड़े कष्ट से म्लान हँसी हँसकर कहा, “कौन-सी बात?”
बिहारी ने वैसे ही हाथ जोड़े करुण स्वर से कहा, “मैं जात का ग्वाला, देहाती गँवार और बूढ़ा आदमी हूँ। बातें कहने में यदि कुछ भूल हो गयी हो तो आप ख़्याल मत कीजियेगा।”
सरोजिनी की आँखों मे आँसू भर आये। लेकिन प्राणपण से उन्हें रोककर गर्दन हिलाकर उसने कहा, “नहीं।”
उसके मुँह से यही एक ‘नहीं’ शब्द सुनकर बिहारी मानो निर्भय हो गया। उसने अपने को देहाती गँवार कहकर अपनी बुद्धिहीनता का परिचय दिया, फिर भी वास्तव में वह नासमझ नहीं था। इसीलिए सरोजिनी ने क्यों सावित्री की बातें सुनने के लिए उसे रास्ते से बुलाया था, क्यों वह इतने ध्यानपूर्वक उसकी कहानी सुन रही थी, इन सभी बातों का अर्थ उसके सामने अकस्मात सूर्य के प्रकाश की भाँति स्पष्ट हो उठा। अनजान दशा में उसने इतनी देर तक इस तरुणी को इतनी वेदना दी, इसके लिए उसके हृदय में पश्चाताप की कोई सीमा नहीं रही। तब बिहारी ने अत्यन्त करुण स्वर में कहा, “मैं जानता हूँ, तुम्हारी बातों की बाबू कभी अवहेलना न कर सकेंगे, तुम इच्छा करने से बाबू को इस बुरे समय में रक्षा कर सकती हो, लेकिन मेरा मन कहता है कि तुमने मानो उनको त्याग दिया है माँ।” बिहारी ने पहली बार सरोजिनी को ‘माँ’ सम्बोधन किया। ‘माँ’ कहकर अपना काम बनाने की युक्ति बूढ़ा खूब जानता था।
सरोजिनी के आँसू रोकने पर भी अब न रुके, दोनों आँखों से बड़ी-बड़ी बूँदें बूढे क सामने ही झर पड़ीं। लेकिन झटपट उन्हें पोछकर उसने कहा, “नहीं बिहारी, मुझसे कुछ भी न होगा, मैं अब उनकी किसी बात में नहीं हूँ।”
बिहारी ने सिर हिलाकर कहा, “माँ कहकर पुकारा है, मैं आपके लड़के की जगह हूँ। उनसे जो कुछ भी गलती हुई हो, मैं अपना कसूर मानता हूँ।” यह कहकर बिहारी झुककर सरोजिनी के पैरों की धूलि सिर पर चढ़ाकर बोला, “लेकिन तुम तो मेरे बाबू को पहचानती ही हो? इस विपत्ति के दिन में अभिमान करके तुम उनको मार डालोगी, यह तो मैं कभी न होने दूँगा।”
सरोजिनी का घोर अभिमान पिघल गया। सतीश को क्षमा करने के लिए वह एक बार उन्मुख हो उठी, लेकिन उसके साथ ही बूढ़े के मुँह से सावित्री का सारा प्रसंग सुनना स्मरण हो जाने से उसका पिघला हुआ चित्त पल भर में फिर सूखकर काठ बन गया। उसने गर्दन हिलाकर शान्त कठोर स्वर में कहा, “बिहारी तुम डरो मत। सावित्री के आ जाने से ही फिर सब कुछ ठीक हो जायेगा। लेकिन मुझसे तुम लोगों का कुछ भी उपकार न होगा।”
यह निष्ठुर प्रत्युत्तर सुनने के लिए बिहारी बिल्कुल तैयार नहीं था। अपने सर्वविजयी प्रेम के सामने यह सूखा कण्ठ-स्वर ऐसा कठोर होकर सुनायी पड़ा कि वह कुछ क्षण के लिए विह्नल की भाँति केवल देखता रहा। उसके बाद फिर एक भी बात न कहकर, फिर एक बार प्रमाण कर वह बाहर निकल गया।