देहाती समाज (बांग्ला उपन्यास): शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 1

देहाती समाज (बांग्ला उपन्यास): शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 1

अध्याय 1

बाबू वेणी घोषाल ने मुखर्जी बाबू के घर में पैर रखा ही था कि उन्हें एक स्त्री दीख पड़ी, पूजा में निमग्न। उसकी आयु थी, यही आधी के करीब। वेणी बाबू ने उन्हें देखते ही विस्मय से कहा, ‘मौसी, आप हैं! और रमा किधर है?’ मौसी ने पूजा में बैठे ही बैठे रसोईघर की ओर संकेत कर दिया। वेणी बाबू ने रसोईघर के पास आ कर रमा से प्रश्नख किया – ‘तुमने निश्चिय किया या नहीं, यदि नहीं तो कब करोगी?’

रमा रसोई में व्यस्त थी। कड़ाही को चूल्हे पर से उतार कर नीचे रख कर, वेणी बाबू के प्रश्नं के उत्तर में उसने प्रश्नह किया – ‘बड़े भैया, किस संबंध में?

‘तारिणी चाचा के श्राद्ध के बारे में। रमेश तो कल आ भी गया, और ऐसा जान पड़ता है कि श्राद्ध भी खूब धूमधाम से करेगा! तुम उसमें भाग लोगी या नहीं?’ – वेणी बाबू ने पूछा।

‘मैं और जाऊँ तारिणी घोषाल के घर!’ – रमा के स्वर में वेणी बाबू के प्रश्नण के प्रति निश्च्य था और चेहरे पर उनके प्रश्नऊ पर ही प्रश्नर का भाव।

‘हाँ, जानता तो मैं भी था कि तुम नहीं जाओगी, और चाहे कोई भी जाए! पर वह तो स्वयं सबके घर जा कर बुलावा दे रहा है। आएगा तो तुम्हारे पास भी शायद, क्या उत्तर दोगी उसे?’ – वेणी बाबू ने कहा।

रमा ने उत्तर दिया – ‘दरवाजे पर दरबान ही उत्तर दे देगा। मैं काहे को कुछ कहने जाऊँगी?’ रमा के स्वर में कुछ झल्लाहट थी।

पूजा में ध्यानावस्थित मौसी ने वेणी बाबू और रमा की बातचीत सुनी। उनका मन वैसे ही क्षुब्ध था, और क्षुब्ध हो उठा। वे अपने को न रोक सकीं, पूजा छोड़ आ ही गईं उन दोनों के पास। रमा की बात पूरी होते-न-होते, गरम घी में पड़ी पानी की छींट-सी छनक कर बोलीं – ‘दरबान काहे को कहेगा? मैं कहूँगी! मैं क्या कभी भूल सकती हूँ? क्या उठा रखा था तारिणी बाबू ने हमारा विरोध करने में! उन्होंने अपने इसी लड़के से हमारी रमा को ब्याहना चाहा था। सोचा था – ब्याह हो जाने पर यदुनाथ मुखर्जी की सारी धन-दौलत उनकी हो जाएगी! तब तक यतींद्र पैदा नहीं हुआ था। जब मनोरथ पूरा न हुआ, तब इसी ने भैरव आचार्य से जप-तप, टोन-टोटके और न जाने क्या-क्या उपाय करा कर मेरी रमा का सुहाग लूट लिया – उस नीच जातिवाले ने। वह अपने जीवन की पहली सीढ़ी पर ही विधवा हो गई। समझे वेणी, बड़ा ही नीच था – तभी तो मरते बेटे का मुँह देखना तक नसीब नहीं हुआ!’ कहते-कहते मौसी हाँफने लगीं। उनके व्यंग्य-बाणों को सुन कर वेणी बाबू की आँखें नीची हो गई। तारिणी घोषाल उनके चाचा थे, उनकी बुराई उन्हें कुछ अखर – सी गई।

रमा ने मौसी से कहा – ‘किसी की जाति के बारे में तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए। जाति तो किसी के हाथ की बात नहीं है।

वेणी बाबू ने अपनी झेंप को दबाते हुए कहा – ‘तुम्हारा घर ऊँचा है! तुमसे हमारा संबंध कैसे हो सकता है? तारिणी चाचा का ऐसा विचार करना ही भूल थी। रही टोने-टोटके और उनके ओछे व्यवहार की बात – सो वह भी ठीक ही कहा है मौसी ने! चाचा से कोई काम बचा नहीं है। और वही भैरव, जिसने यह सब किया, आज रमेश का सगा बना है।’

‘वेणी! रमेश रह कहाँ रहा था अब तक? दस-बारह साल से तो देश में दिखाई ही नहीं दिया।’ – मौसी ने पूछा।

‘मुझे नहीं मालूम! चाचा के साथ, तुम्हारी ही तरह हमारी भी कोई घनिष्ठता न थी। सुना है कि इतने दिनों तक वह न जाने बंबई था या और कहीं। कुछ कहते हैं – उसने डॉक्टरी पास की है और कुछ कहते हैं वकालत। कोई यह भी कहता है कि यह सब तो झूठ है, और लड़का शराब पीता है – जब घर में आया था, तब भी उसकी आँखें नशे से लाल-लाल अड़हुल जैसी थीं।’ – वेणी ने कहा।

‘अच्छा! इतना शराबी? तब तो उसे घर में आने देना ठीक नहीं।’ – मौसी की आँखें विस्मय से फट गईं।

वेणी ने उत्साह दिखाते हुए कहा – ‘हाँ! उसे घर में नहीं घुसने देना चाहिए। तुम्हें तो रमेश याद होगा न, रमा?’

‘क्यों नहीं! मुझसे थोड़े ही तो बड़े हैं। और फिर हम दोनों ने साथ-ही-साथ तो पढ़ा, उस शीतला तल्लेवाली पाठशाला में। उनकी माँ मुझे बहुत प्यार करती थी। उनका स्वर्गवास मुझे अच्छी तरह याद है।’

‘बड़ा प्यार करती थी! उनका प्यार कुछ नहीं था, सब अपना काम बनाने की बातें थी।’ – मौसी ने तेवर चढ़ा कर कहा।

‘बिलकुल ठीक कहा मौसी, आपने! छोटी चाची भी…।’

‘अब इन गड़े मुर्दों को उखाड़ने से क्या फायदा?’ – रमा ने मौसी को बीच में टोककर झल्लाते हुए कहा। रमेश के पिता से इतना झगड़ा होते हुए भी, उसकी माँ के प्रति रमा के हृदय में एक विशेष आदर था और एक कसक थी – तथा वह भाव उसके हृदय से अभी तक सर्वथा मिटा नहीं था।

वेणी ने रमा की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा – ‘यह तो ठीक ही है – छोटी चाची भले घर की थीं। आज भी उनकी याद आते ही मेरी माँ का हृदय रो उठता है।’ फिर बात को तूल पकड़ते देख, उसे बदल कर झट बोले – ‘तो फिर ठीक रहा न, बहन? अब उसमें कुछ हेर-फेर तो न होगा?’

रमा ने कहा – ‘भैया, बाबू जी कहा करते थे कि दुश्मन, आग और कर्ज का कुछ भी बाकी छोड़ना अच्छा नहीं होता। तारिणी बाबू ने अपने जीते जी हमको कम नहीं सताया। एक बार तो उन्होंने हमारे बाबूजी को जेल भिजवाने में कोई कसर उठा नहीं रखी थी – और यह रमेश उन्हीं के लड़के हैं। यह सब हम कैसे भूल सकती हैं? हम लोग तो न जाएँगे और बस चला, तो अपने किसी संबंधी को भी नहीं जाने देंगे। बाबूजी जमीन-जायदाद, घर-द्वार और धन-दौलत का हम दोनों भाई-बहनों में बँटवारा तो कर गए, पर देखभाल तो सब कुछ मेरे ही मत्थे है।’ रमा चुप हो गई। उसके ओठों पर मुस्कान की रेखाएँ थीं। थोड़ी देर शांत रह कर उसने फिर कहा – ‘क्या तुम कोई ऐसी जुगत नहीं निकाल सकते कि कोई भी ब्राह्मण उसके घर न जाए?’ उसके स्वर में आग्रह मिश्रित गंभीरता थी।

‘जुगाड़ तो मैं भी ऐसा ही कर रहा हूँ। बस – तुम्हारा सहयोग बना रहे, फिर किसी बात की चिंता नहीं! मैं तुम्हें विश्वाकस दिलाता हूँ कि मैं उसे कुआँपुर गाँव से भगाए बिना चैन न लूँगा। तब देखूँगा – कौन-कौन आते हैं भैरव की मदद को?’ – वेणी ने कुछ और आगे खिसक कर कहा।

‘दाँव-पेच में तो रमेश भी कुछ कम नहीं है और वही उसकी मदद करेगा! और तो कोई क्यों करने लगा!’ – रमा ने कहा।

‘यही मौका है उसे दबाने का! बाँस की टहनी को कच्ची रहते ही तोड़ना अधिक आसान होता है, पकने पर नहीं। अभी तो रमेश इस दुनिया के अनुभव में बिलकुल कच्चा ही है! अभी वह क्या जाने कि जायदाद कैसे चलाई जाती है?’ – वेणी बाबू ने और आगे सरक कर जमते हुए कहा।

रमा ने कहा – समझती-बूझती तो मैं भी हूँ।’

‘तुम न समझोगी तो कौन समझेगा – और फिर इसमें ऐसी गूढ़ बात ही क्या है? सच माने में तुम्हें तो लड़का होना चाहिए था! बड़े-बड़े अच्छे जमींदार भी समझ-बूझ में तुम्हारा पार नहीं पा सकते!’ – वेणी बाबू बोले और उठते हुए उन्होंने फिर कहा – ‘अच्छा तो मैं अब चलूँ, कल फिर समय मिलने पर आऊँगा।’

रमा अपनी इस तारीफ से प्रसन्न हो उठी थी। वेणी बाबू को जाते देख, वह उन्हें तनिक रोकना चाहती थी कि एकाएक आँगन में एक अनजाने, भरे हुए गले की ध्वनि – ‘रानी कहाँ है?’ सुन कर अचकचा उठी।

रमा के छुटपन में, रमेश की माँ उसे इसी नाम से पुकारती थी, लेकिन समय बीत जाने पर उसे यह बात याद न रही थी। वेणी बाबू का चेहरा भयातुर विस्मय से काला पड़ गया।

रमेश नंगे पैर, सूखे सिर पर दुपट्टा बाँधे आँगन में उसके सामने आ खड़ा हुआ और वेणी बाबू को देखते ही बोला – ‘वेणी भैया, आपको तो मैं सारे गाँव में ढूँढ़ आया और आप यहाँ हैं? अच्छा चलिए, आपके बिना तो सारा काम रुका पड़ा है!’

रमा भी भागने का कोई रास्ता न पा कर सहमी-सी चुपचाप एक ओर खड़ी रही। रमेश उसको देख, निश्चिय-भरे शब्दों में बोला – ‘तुम तो अब इतनी बड़ी हो गई! अच्छी तरह तो रही न!’ रमा चुप थी। वह अचकचाई-सी, भौंचक, सहमी खड़ी रही। रमेश ने फिर थोड़ा मुस्कराते हुए पूछा – ‘मुझे पहचानती हो न? वही तुम्हारा पुराना रमेश भैया हूँ।’

रमा अब भी न बोल सकी। फिर उसने वैसे ही आँखें नीचे किए हुए पूछा – ‘आप तो अच्छे हैं?’

रमेश ने कहा – ‘अच्छी तरह तो हूँ ही! पर मैं तुम्हारे लिए, ‘तुम’ से ‘आप’ कब हो गया?’

फिर रमेश ने वेणी बाबू को संबोधित करते हुए कहा – ‘भैया, रमा की यह बात मेरी स्मृति में आज भी वैसी ही ताजी है। जब मेरी माँ का स्वर्गवास हुआ था और मेरी वेदना आँसू बन कर बह रही थी, तब रमा ने मेरे व्यथित हृदय को शांत कर, आँसू पोंछते हुए कहा था – भैया, रोओ नहीं! तुम्हारी माँ मर गई तो क्या हुआ? क्या मेरी माँ तुम्हारी माँ नहीं? रमा, तुम्हें तो अब यह बात याद न होगी!’ फिर थोड़ा रुक कर उन्होंने पूछा – ‘मेरी माँ की तो तुम्हें याद है न?’

रमा वैसी ही मूर्तिवत खड़ी रही – सिर नीचा किए हुए, और वह रमेश के किसी प्रश्नर का उत्तर न दे सकी। रमेश ने रमा को सुनाते हुए ही कहा – ‘मैं तो यहाँ नितांत शरणार्थी हो कर आया हूँ। मेरा यहाँ तुम लोगों के सिवा कौन है? तुम लोगों के बिना गए तो कोई काम नहीं सिमट सकता।’

मौसी रमेश के पीछे खड़ी-खड़ी सब बातें सुन रही थी। जब उन्होंने देखा कि रमेश की बात का कोई भी उत्तर नहीं दे रहा है, तो स्वयं ही सामने आ कर बोलीं – ‘तुम तारिणी के ही लड़के हो न?’

रमेश मौसी को पहचानता न था। उसने उन्हें कभी देखा भी न था। जब वे रमा की माँ की बीमारी के समय इस घर में आई थी, तब वह यहाँ से जा चुका था। मौसी तब से यहीं रही। रमेश उनके इस प्रश्नी से अप्रतिभ हो उठा।

मौसी ने फिर कहा – ‘तुम्हें किसी भले आदमी के घर में, बिना कुछ कहे-सुने, बिना पूछे-ताछे घुस आने में तनिक भी लाज न आई और ऊपर से यों बढ़-बढ़ कर बातें करते हो?’

रमेश को साँप सूँघ गया हो जैसे। वैसे ही चित्रवत नि:शब्द खड़े वेणी बाबू – ‘मौसी, अब मैं चला’ – कहते हुए खिसक गए।

अंत में रमा ने ही मुँह खोला – ‘मौसी! तुम अपना काम देखो – कहाँ की बकवास में लग गई।

मौसी उसे रमा का इशारा समझ और भी तीखे स्वर में बोलीं – ‘देखो रमा, तुम इस समय चुप रहो! जो बात कहनी है, उसे तत्काल कह देना ही अच्छा होता है, फिर के लिए टालना ठीक नहीं। वेणी को इस तरह जाने की क्या जरूरत थी? कह तो जाता कि हम लोग तुम्हारा कुछ दिया तो खाते नहीं, जो तुम्हारी चाकरी करने आएँ! यह बात स्वयं ही कह जाता, तब तो जानती कि बड़ा मर्द है। तारिणी मरा, तो गाँव भर का भार उतर गया।’

रमेश को स्वप्न में भी इन बातों के सुनने की आशंका न थी। रसोईघर की कुण्डी झनझनाई, लेकिन किसी ने उसकी ओर कान तक न दिया। मौसी ने मूर्तिवत खड़े रमेश को लक्ष्य कर फिर कहा – ‘मैं दरबान से तुम्हारा अपमान कराना नहीं चाहती। तुम ब्राह्मण के बेटे हो इसलिए! अब तुम यहाँ से चले जाओ! किसी भले आदमी के घर में घुस कर, इस तरह की बातें करना शोभा नहीं देता। रमा तुम्हारे घर नहीं जाएगी!’

रमेश के मुँह से अनायास ही एक ठंडी साँस निकल गई और इधर-उधर देख, रसोईघर की तरफ आँख उठा कर उन्होंने कहा – ‘मुझे नहीं मालूम था, रानी! मुझसे भूल हुई, मुझे क्षमा करना! तुमने न आने का निश्चोय ही कर लिया है, तो फिर मैं अब क्या कहूँ। और रमेश धीरे-धीरे वहाँ से चला गया। किसी ने उसका कोई जवाब न दिया। वह यह भी न जान सका कि रमा रसोईघर में किवाड़ की आड़ में खड़ी, टकटकी बाँधे, अवाक, उसी के मुख की तरफ देख रही थी।

रमेश के जाते ही, वेणी बाबू झट वहाँ फिर आ पहुँचे। वे वहाँ से भागे नहीं थे, बल्कि वहीं कहीं छिप कर, रमेश के वहाँ से टलने की बाट जोह रहे थे। उन्होंने प्रसन्न हो कर कहा – ‘मौसी, तुमने तो खूब भिगो-भिगोकर सुनाई! हम तो कभी इतनी तेजी से कह भी नहीं सकते थे। क्या कोई दरबान इस काम को कर सकता था? मैं तो यहीं खड़ा छिपा-छिपा सब सुन रहा था। यह अच्छा ही हुआ कि वह अपना-सा मुँह लिए चला गया।’

मौसी ने साभिमान कहा – ‘अगर तुम हम औरतों पर यह भार छोड़ खिसक न जा कर, स्वयं ही यह बात कहते तो और भी अच्छा होता और अगर अपने मुँह से यह बातें नहीं कह पा रहे थे, तो भी यहीं खड़े-खड़े सुनते कि मैंने उसे क्या-क्या कहा! तुम्हारा इस तरह जाना ठीक नहीं था!’

मौसी की कड़वी बातें सुन वेणी कुछ अप्रतिभ-सा हो गया। वह तय न कर पाया कि इसका क्या जवाब दे। रमा ने रसोई में बैठे-बैठे कहा – ‘अच्छा ही हुआ मौसी, जो तुमने अपने आप ही इन बातों को कह दिया। और कोई तुम्हारी तरह ऐसी जहर-बुझी बातें न कह सकता था!’

रमा की इस बात पर मौसी और वेणी दोनों ही को विस्मय हुआ और मौसी ने तीखी आवाज में रमा से पूछा – ‘क्या कहा तूने?’

‘कुछ नहीं, तुम अपनी पूजा पूरी कर लो! कई बार उसे यों ही अधूरी छोड़ तुम्हें उठना पड़ा है? देर हो रही है। आज क्या रसोई-वसोई कुछ न करने की बात तय कर ली है?’ – रमा रसोई से बाहर निकल आई, बिना किसी से बोले, उधरवाली कोठरी में चली गई।

वेणी बाबू कुछ न समझ सके और उन्होंने पूछा – ‘यह सब क्या है?’

मौसी ने नाक सिकोड़ते हुए कहा – ‘मैं क्या जानूँ? इस महारानी की बात समझना, हम जैसी नौकरानियों का काम नहीं है!’ इतना कह कर मौसी विक्षुब्ध हो, पूजा में फिर लग गई। वेणी भी वहाँ से चला गया।

अध्याय 2

सौ वर्ष पूर्व, बाबू बलराम मुखर्जी तथा बलराम घोषाल विक्रमपुर गाँव से साथ-साथ आ कर कुआँपुर में आ बसे थे। संयोग की बात थी दोनों अभिन्न मित्र भी थे और दोनों का नाम भी एक ही था। मुखर्जी बाबू बुद्धिमान और प्रतिष्ठित कुल के थे। उन्होंने अच्छे घर में शादी करके और सौभाग्य से अच्छी नौकरी भी पा कर यह संपत्ति बनाई थी। शादी-ब्याह व गृहस्थी का जीवन तो घोषाल बाबू का भी बीता था पर वे आगे ने बढ़ सके। कष्ट में ही उनका सारा जीवन बीत गया। उनके ब्याह के मसले पर ही दोनों में कुछ मनमुटाव हो गया था और उसने इतना भयंकर रूप धारण कर लिया कि उस दिन के बाद से पूरे बीस वर्ष तक वे जिंदा रहे, पर एक ने भी किसी का मुँह नहीं देखा। जिस दिन बलराम मुखर्जी का स्वर्गवास हुआ, उस दिन भी घोषाल बाबू उनके घर नहीं गए। पर उनकी मृत्यु के दूसरे दिन ही, एक अत्यंत विस्मयजनक समाचा सुन पड़ा कि वे मरते समय अपनी संपत्ति का आधा भाग अपने पुत्र को और आधा अपने मित्र के पुत्र को दे गए हैं। तभी से कुआँपुर की जायदाद पर दोनों परिवारों का अधिकार चला आ रहा है। इस बात पर उनको भी गर्व है और गाँववाले भी इसे मानते हैं। जिस समय की बात हम कह रहे हैं उस समय घोषाल परिवार भी दो भागों में बँट चुका था। अभी कई दिन हुए, तब उसी परिवार के तारिणी घोषाल मुकदमे के काम से शहर कचहरी गए थे, पर उनको तो बड़ी कचहरी का बुलावा आ गया था और वे वहाँ चले गए। उनके इस असमय स्वर्गवास हो जाने पर कुआँपुर में ही नहीं, आस-पास भी हलचल मच गई। तारिणी घोषाल परिवार बँटवारे की छोटी शाखा से थे; और बड़ी शाखा से वेणी घोषाल हैं, जिन्होंने उनकी मृत्यु पर संतोष की साँस ली। उन्होंने चुपके-चुपके ही जुगाड़ लगाया कि किसी तरह उनके श्राद्ध में गड़बड़ी मच जाए। तारिणी रिश्ते में वेणी के चाचा होते थे। पिछले दस वर्षों से चाचा-भतीजों में भी अनबन थी और महीनों तक किसी ने एक-दूसरे का मुँह भी न देखा था। तारिणी घोषाल की गृहिणी दस वर्ष पहले ही मर चुकी थी। तब उन्होंने अपने पुत्र को तो मामा के पास भेज दिया था और स्वयं अकेले ही, नौकर-चाकर और नौकरानियों के साथ सब काम सँभालते, मुकदमे वगैरह करते-कराते दिन काटते रहे। रमेश को जब उनकी मृत्यु का समाचार मिला उस समय वह रुड़की कॉलेज में थे। एक अरसे के बाद वह अपने गाँव – समाचार मिलते ही – चल पड़े और अंतिम संस्कार आदि करने को कल तीसरे पहर अपने घर आ पहुँचे।

अब दो दिन बाद ही, बृहस्पतिवार को श्राद्ध होने वाला है। धीरे-धीरे पास-पड़ोस से सारे बड़े-बूढ़े, सगे-संबंधी जमा हो रहे हैं। घर में काम की चहल-पहल मची हुई है। नहीं आ रहे हैं तो उसी गाँव के लोग सिर्फ भैरव आचार्य अपने घर वालों के साथ यहाँ काम में हाथ बँटा रहे हैं। उनके अलावा अन्य किसी के आने की आशा रमेश को न थी। यह आशा न होते हुए भी रमेश ने तैयारी पूरी की थी – बड़े जोर-शोर के साथ।

वे सवेरे से ही घर के अंदर काम में व्यस्त थे। जब बाहर निकल कर आए, उस समय बाहर की बैठक में बुजुर्ग लोग हुक्का पी रहे थे। जैसे ही वे उनके पास जा कर नम्रतापूर्वक कुछ कहने को हुए, वैसे ही उनके पीछे से किसी के आने की आहट पा, उधर मुड़ कर देखा कि एक सज्जन – जो काफी बूढ़े हैं, जिनके कंधो पर एक मैला दुपट्टा पड़ा है, नाक पर एक बड़ा-सा चश्मा है जिसकी कमानी टूट गई है और जो डोरी से कान पर विशेष रूप से साधा गया है, बाल सफेद हैं, मूँछें भी – जो हुक्के के धुएँ से कुछ धुआँरी हो गई हैं, अपने साथ पाँच-छह लड़के-लड़कियों की पलटन लिए, खाँसते हुए अंदर घुस रहे हैं। अंदर आ कर, थोड़ी देर तक तो उसी मोटे-से चश्मे के अंदर से, आँखें फाड़-फाड़ कर वे रमेश को घूरते रहे और फिर एकबारगी फूट कर रो पड़े। रमेश पहचान न सका कि ये सज्जन हैं कौन! रमेश ने घबरा कर, बढ़ कर उनका हाथ पकड़ा तभी वह भरे गले से बोले – ‘मुझे तो यह आशंका नहीं थी कि तारिणी मुझे इस तरह छोड़ कर चला जाएगा। मैं घोषाल की तरफ से ही होता हुआ आ रहा हूँ। लगी-चुपड़ी तो मुझे आती नहीं। मेरे चटर्जी वंश की परंपरा ही साफ बात करने की है, सो मैं उसके मुँह पर अब भी कहता आया हूँ कि हमारा रमेश श्राद्ध का जैसा इंतजाम कर रहा है – वैसा न हुआ है और न करना ही संभव है! इधर तो इतना बड़ा आयोजन देखा भी न होगा किसी ने!’ थोड़ा रुक कर फिर बोले – ‘न जाने मेरे बारे में तुमसे ये लोग क्या-क्या लगी-लिपटी कह रहे होंगे! पर यह तुम जान लो कि मेरा नाम धर्मदास है और सचमुच ही मैं धर्म का दास हूँ।’ और बूढ़ा अपने भाषण के गर्व में गोविंद गांगुली के हाथ से हुक्का ले, खूब जोर से कश खींचने और फिर खाँसने लगा।

श्राद्ध के आयोजन की बड़ाई में धर्मदास ने झूठ नहीं कहा था। वैसा बड़ा आयोजन तो वास्तव में इधर किसी ने कभी नहीं देखा था। कलकत्ता के हलवाइयों ने आ कर मिठाइयाँ बनाना शुरू किया था, आगे की तरफ मिट्टी खोदकर। इसी से मुहल्ले-टोले के छोटे लड़के-लड़की, उसी की तरफ चक्कर काट रहे थे। उधर चंडी-मंडप के दूसरी तरफ भैरव आचार्य बाँटने के लिए थान से धोतियाँ फाड़-फाड़ कर, उनकी तह बनाने में व्यस्त थे। एक तरफ कुछ आदमी बैठे रमेश के इस आयोजन को मूर्खता और फिजूलखर्ची बता कर, उसे मुफ्त में ही कोस रहे थे। बेचारे दीन-दु:खी गरीब खबर पा-पा कर दूर-दूर से चले आ रहे थे। घर भर में कहीं शोर हो रहा था तो कहीं किसी बात पर आपस में कुछ तू-तू मैं-मैं हो रही थी। चारों तरफ चहल-पहल मची थी। धर्मदास ने खाँसते -खाँसते अपनी आँखें चारों तरफ घुमा कर इस अधिक व्यय का अंदाजा लगाया, तो उनकी खाँसी और तीव्र हो उठी।

रमेश ने उनकी संवेदना पर सकुचाते हुए कुछ कहना चाहा, पर बीच में ही धर्मदास ने उन्हें हाथ के संकेत से रोक कर, स्मृति के ही नाम पर ढेर-सी बातें कह दीं, जो कुछ समझी न जा सकी।

गोविंद गांगुली आ तो सबसे पहले गए थे, परंतु अवसर होने पर भी और चाह कर भी, वे तमाम बातें कहने में चूक गए थे जो धर्मदास ने आते ही कह दीं। पहला अवसर चूका जान कर, वे अपने पर गुस्सा हो रहे थे। अनमना जान कर और तुरंत ही ऐसा मौका हाथ से न जाने देने के विचार से, तपाक से बोले – ‘भैया धर्मदास, जब मैं कल सबेरे घर से निकल कर सीधा यहाँ को ही आ रहा था, तो रास्ते में ही वेणी ने मुझे पुकारा कि चाचा, हुक्का पीते जाओ! पहले सोचा कि जरूरत ही क्या है, उसके पास जाने की? पर तुरंत ही दिमाग ने दौड़ लगाई कि वहाँ चल कर, दिल की टटोल जरूर कर लेनी चाहिए। रमेश भैया, तुम क्या कभी सोच सकते हो कि वेणी ने क्या कहा होगा? बोला – ‘रमेश की सहायता को तुम्हीं पहुँच गए चाचा, या और कोई भी जाएगा खाने-पीने को? बस तुम्हीं अकेले रहोगे?’

‘भला मैं क्यों चूकता! अरे, वह बड़ा है तो अपने घर का होगा और फिर हमारा रमेश किसी से क्या कम है? उसके घर से भला एक मुट्ठी चिड़वा भी जो कभी मिल जाए किसी को!’ मैंने तपाक से उत्तर दिया – ‘घबराते क्यों हो? रमेश के घर से लौटने और जाने का रास्ता तो यहीं हो कर है। जब दीन-दु:ख भिक्षा लेकर लौटने लगे, तब दरवाजे पर खड़े हो कर जरा देखना। आँखें फटी-की-फटी रह जाएँगी! रमेश की उम्र कम है तो क्या, दिल पाया है उसने! इतनी उमर तक तो इन आँखों ने कभी इतनी जबरदस्त तैयारी देखी नहीं है। पर धर्मदास, सच पूछो तो तारिणी भैया का ही सारा प्रताप है! वे ही सब कुछ करा रहे हैं, ऊपर बैठे-बैठे।’

धर्मदास का दिल मसोस कर रह गया, जब उन्होंने देखा कि गोविंद गांगुली तो इतनी ढेर-सी चुपड़ी बातें कह गया, और वे खाँसते ही रह गए। वे जितना अधिक आवेश में आते, खाँसी उतनी ही और भी जोर मारती। वे आगे कुछ कहने को अत्यंत व्यग्र हो उठे, पर घंटों खाँसते ही रह गए। गांगुली महाशय ने बातों की दूसरी किश्त शुरू की। बोले – ‘भैया, तुम्हारी माँ जो थीं न वे हमारी सगी फुफेरी बहन की ममेरी बहन थीं, राधानगर के बनर्जी के घर की! हमारा तुम्हारा तो अपना-सा मामला है! तारिणी भैया की तो पूछो मत! हर बात में बुलाओ गोविंद को, बुलाओ गोविंद को! चाहे मामला-मुकदमा हो, चाहे और कोई काम।’

धर्मदास अपनी बात कहने को छटपटाने लगे। उन्होंने पूरी कोशिश से खाँसी को रोका और बोले – ‘क्यों बेकार की बातें मारते हो, गोविंद! मैंने भी यहाँ जिंदगी काटी है। सब जानता हूँ। जब उस साल गवाही में चलने की बात चली तो बोले कि पैर में जूता नहीं है! बिना जूता कैसा जाया जाएगा और जब तारिणी भैया ने जूता दिलवा दिए, तब शहर जा कर वेणी की तरफ से गवाही दे आए थे।’ कह कर धर्मदास खाँसने लगे।

गोविंद ने पोल खुलती देख, लाल-पीली आँखें कर कहा – ‘मैंने दी थी गवाही?’

‘नहीं दी थी क्या?’

‘झूठा दुनिया भर का!’

‘तेरा बाप होगा झूठा!’

गोविंद ने अपना टूटा छाता ताना और फौरन खड़े हो कर गरज कर कहा – ‘ठहर तो साले, अभी बताता हूँ।’

धर्मदास ने भी अपना बाँस का सोटा सीधा किया। पर दूसरे ही क्षण बुरी तरह खाँसने लगे।

रमेश दोनों की बातों से दंग रह गया और लपक कर उनके बीच में आ कर खड़े हो गए। धर्मदास खाँसते-खाँसते बैठ गए और बोले – ‘साले की बुद्धि तो देखो! मैं साले के नाते बड़ा भाई लगता हूँ।’

गोविंद ने भी छाता नीचा कर लिया और बैठते हुए बोले – ‘देखो तो भला, यह साला और मेरा बड़ा भाई!’

हलवाइयों ने भी काम बंद कर तमाशा देखना शुरू कर दिया था। दूसरे लोग भी काम छोड़-छोड़, शोर सुन कर जमा हो गए। लड़के भी उनकी लड़ाई मजे से देख रहे थे और उन सबके आगे रमेश आँखें नीची किए, लज्जित-सा, डर कर खड़ा था। ब्राह्मण हो कर, वे लोग इस तरह मामूली-सी बातों पर ओछे लोगों की तरह आपस ही में गाली-गलौज कर रहे थे। भैरव बरामदे में बैठ कपड़े सी रहे थे। और वहीं बैठे-बैठे तमाशा देख रहे थे। वे भी बाद में वहाँ आ कर बोले – ‘रमेश, करीब चार सौ एक धोतियाँ तह हो चुकी हैं, और धोतियाँ जल्दी चाहिए क्या?’

रमेश से कोई उत्तर ही न देते बना। रमेश की चुप्पी देख भैरव से न रहा गया, वह हँस दिया और सुकोमल स्वर में कहा – ‘वाह गांगुली जी, बाबूजी तो बिलकुल खो-से गए हैं! आप खयाल न करें बाबू, इन बातों का। ऐसी बातें यहाँ हुआ ही करती हैं और फिर बड़े काम-धंधों में इस तरह दो-चार बार तनातनी न हो, तो फिर वह बड़ा काम ही क्या? यहाँ तक होता है कि कभी-कभी तो मार-पीट, खून-खराबे तक की नौबत आ जाती है!’ बाद में फिर उसने चटर्जी की तरफ उन्मुख हो कर कहा – ‘चटर्जी महाशय, जरा अब चल कर देखिए तो, कि धोतियाँ काफी हैं या और फाड़ी जाएँ।’

तब तक धर्मदास इसका कुछ उत्तर दें, गोविंद महाशय झट से उठ कर खड़े हो गए और तपाक से बोले – ‘ठीक तो है ही, यह सब तो चलता ही रहता है! तभी इसे बड़ा काम कहा जाता है। हमारे शास्त्रों तक में तो लिखा है कि बिना लाख बातों के ब्याह नहीं हुआ करते। भैरव, क्या उस साल की बात भूल गए, जब मुखर्जी महाशय की रमा के ब्याह में, राघव भट्टाचार्य और हारान में सर फुटव्वल तक की नौबत आ गई थी? पर भैया, मेरी बात पूछो तो यह काम भी ठीक नहीं। भला ओछे आदमी को, जिन्हें नीच कहते हैं, इस तरह धोती बाँटना कहाँ तक ठीक है? तब तुम्हीं कहो भैरव! यह रुपया पानी की तरह बहाना है या नहीं? नाम हो जाता – नाम! यदि कहीं ब्राह्मणों को एक-एक जोड़ा धोती और उनके बच्चों को भी एक-एक धोती दी जाती तो। मेरी राय में, यही करना चाहिए छोटे भैया को। धर्मदास भैया, तुम्हारी अपनी क्या राय है इसमें?’

धर्मदास ने भी पूरी गंभीरता के साथ, समर्थनसूचक सिर हिला कर कहा – ‘बात तो ठीक ही कही गोविंद ने, रमेश भैया! नीच तो बस नीच ही होते हैं! लाख दो, पर सब पानी हो जाता है। कभी एहसान तक नहीं मानते!’

इन ब्राह्मणों की इतनी ओछी मनोवृत्ति देख, रमेश का उदार हृदय चोट खा कर क्षुब्ध हो उठा। वह अब भी नि:शब्द ही खड़ा था। पर जिनके मुख से ये बातें निकली थीं – वे तो अपनी बातों की उच्चता पर विशेष गर्व का अनुभव कर रहे थे। रमेश को सबसे अधिक ग्लानि उनके उस आचरण पर ही हो रही थी कि जिन्हें वे नीच कह रहे हैं, उन्हीं के समान स्वयं आपस में लड़ बैठे। पर वे तो उस पर तनिक भी सोच नहीं रहे थे। चिकने घड़े पर पानी की तरह उनके लिए बात आई-गई-सी हो गई थी। भैरव की प्रश्‍नसूचक दृष्टि अपनी ओर लगी देख रमेश ने कहा – ‘दो सौ धोतियाँ और ठीक कर लीजिए।’

बात को दोहराते हुए गोविंद ने कहा – ‘बिना इतनों के काम नहीं चलेगा! चलो, मैं भी चल कर हाथ बटाऊँ। तुम अकेले कब तक करोगे?’ और बिना राय की प्रतीक्षा किए, कपड़े की ढेरी के पास जा बैठा।

रमेश अंदर जाने को हुए, पर धर्मदास उन्हें एक तरफ बुला कर ले गए और चुपके से उनके कान में कुछ बोले, जिसके उत्तर में रमेश ने भी स्वीकृतिसूचक सिर हिला दिया और अंदर चला गया। गोविंद गांगुली की तेज कनखियों ने कपड़े ठीक करते हुए भी यह देख लिया।

तभी एक और वृद्ध, जो ब्राह्मण ही थे और जिनकी मूँछें ऊपर को ऐंठी हुई थीं ‘रमेश भैया, रमेश भैया’ कहते हुए वहाँ आ पहुँचे। उनके दो-तीन लड़के-लड़कियाँ भी थीं, जिनमें सबसे बड़ी लड़की के शरीर पर फटी-पुरानी डोरिया की एक लाल धोती थी और लड़कों के बदन पर सिर्फ एक लँगोटी। सबकी आँखें उनकी तरफ उठ गई। गोविंद ने उनका स्वागत करते हुए कहा -‘दीनू भैया! आओ बैठो! हमारा परम सौभाग्य है कि आपकी चरण-रज यहाँ पड़ी। बेचारा लड़का अकेला है। मारे काम के मरा जा रहा है, तभी आप लोगों की…।’

तभी धर्मदास ने तिरछी-तीखी नजर से गोविंद की तरफ देखा, जिसका अर्थ समझ, गोविंद ने बात का पहलू बदल कर कहा – ‘आप लोग भैया इधर आने ही क्यों लगे!’

यह कह उनके हाथ में हुक्का थमा दिया। दीनू भट्टाचार्य जी बैठ गए और हुक्के से दो-तीन सूखे कश खींचे, पर वह तो पहले ही जल चुका था। बोले – ‘भाई मैं तो गया बाहर, तुम्हारे ससुर के घर – तुम्हारी बहू को लेने। कहाँ हैं, रमेश भैया? रास्ते भर सुनता आया हूँ बड़ाई। खाने -पीने के बाद, जाते समय सबको सोलह-सोलह पूड़ियाँ चार-चार संदेश ऊपर से दिए जाएँगे।’

धीरे से गोविंद ने बात पूरी की – ‘इसके अलावा एक-एक धोती भी मिलने की आशा है! मैंने तो कहा था न तुमसे कि वैसे तुम बुजर्गों के आशीर्वाद से, काम तो सब चौकस किया जा रहा है, पर वेणी भी अपनी कसर नहीं उठा रख रहा है। हाथ धो कर पीछे पड़ा है! मेरा-रमेश का खून एक है, नहीं तो वेणी ने मुझ पर भी डोरे खूब डाले। दो-दो बार आदमी भेज कर बुलवा चुका है और तुम हुए, धर्मदास भैया हुए, सो भी पराए थोड़े ही हो, अपने ही हो। अबे षष्टीचरण! जा, चिलम तो भर ला। भैया रमेश! जरा सुनना तो, एक बात कहनी है तुमसे।’

और रमेश को एक तरफ ले जा कर गोविंद गुपचुप बोले – ‘धर्मदास की औरत अंदर आ गई है क्या? होशियार रहना भैया। उसके हाथ कुछ सौंप न देना! वहाँ का सारा घी, आटा, तेल, नमक आधा-आधा साफ गायब कर देगी। मैं अभी जा कर तुम्हारी मामी को ले आता हूँ। चिंता मत करो किसी बात की! सारा प्रबंध आ कर सम्हाल लेगी। जरा-सा तिनका भी कहीं इधर का उधर जो हो जाए, मजाल है!’

रमेश सिर हिला कर चुप हो गया, किंतु उसे विस्मय यह सोच कर हुआ कि धर्मदास की बहुत धीरे-से कही हुई, अपनी स्त्री को भेज देने की बात गोविंद ने कैसे भाँप ली।

जब ये बातें चल रही थीं, तभी दो नंगे-धड़ंगे लड़के आ कर दीनू के कंधों से लिपट कर कहने लगे – ‘हम संदेश खाएँगे, बाबा!’

दीनू ने एक बार लड़कों की तरफ देखा, फिर रमेश और लड़कों की तरफ देख कर बोले – ‘मेरे पास धरे हैं संदेश जो तुम्हें दे दूँ?’

लड़कों ने हलवाइयों की तरफ संकेत कर फिर वही बात कही।

फिर और भी लड़के -लड़कियाँ जमा हो गए, संदेश माँगते हुए।

रमेश व्यग्र हो बोला – ‘बच्चे अपने-अपने घरों से तीसरे पहर के निकले हैं, भूखे होंगे! अरे, थाल इधर ले आना जी! क्या नाम तुम्हारा?’

हलवाई के संदेश का थाल लाते ही लड़के बंदरों की तरह से उस पर टूट पड़े और लूट मचा दी। उन्हें खाते देख, दीनू की जुबान पर भी लुआब आ गया और आँखें गीली और तीखी हो गईं। बोले – ‘मुनिया! अरी बता तो बने कैसे हैं संदेश, या बस खा रही है!’

मुनिया ने खाते-खाते ही संदेश के बढ़िया होने की तारीफ की। पर इससे तो दीनू की लालसा मिटी नहीं। फिर बोले – ‘बस, तुमको तो मीठा ही चाहिए। अच्छे-बुरे की तुम्हें क्या तमीज? अरे, भाई हलवाई! अभी से कड़ाही उतार दी? गोविंद भैया, अभी तो दिन है न?’

हलवाई ने लापरवाही से उत्तर दिया – ‘हाँ, हाँ! अभी तो दोपहर है! यह समय तो हो गया, अब भी संध्या-पूजा नहीं कर सकेंगे, तब फिर कब करेंगे?’

हिम्मत करके दीनू बोल ही पड़े – ‘एक गोविंद भैया को भी दो न, जरा चख कर परख करें तो तुम्हारे कलकतिया हाथ की! नहीं, नहीं! मुझे मत दो, मुझे नहीं चाहिए। नहीं मानते – तो फिर दे दो। आधा ही, आधा काफी है। ओ षष्ठीचरण! पानी ला तो जरा, हाथ तो धो लूँ।’

तभी रमेश ने षष्ठी को पुकार कर, अंदर से तीन-चार तश्तरियाँ लाने को भी कह दिया।

अंदर से पानी के गिलास और तश्तरियाँ आ गईं और पलक झपते ही आधा थाल चट कर दिया। दीनानाथ महाशय मुँह का माल अंदर निगलते हुए, कारीगरों की तारीफ में बोले – ‘भइए, है कलकत्ते का ही हाथ! मानते हैं भाई धर्मदास!’

धर्मदास की तश्तरी अभी खाली न हो पाई थी। मुँह भी ठसाठस भरा था, तभी दीनानाथ के समर्थन में कुछ बोल तो न सके, पर उनकी मुख-मुद्रा साफ बता रही थी कि उनका भी रोम -रोम तारीफ कर रहा है।

गोविंद ने सबके अंत में हाथ धोने के लिए बढ़ते हुए कहा – ‘हाँ भाई, मानते हैं, कलकत्ते का नाम निभा चले भाई!’

हलवाई भी अपनी बड़ाई सुन गदगद हो गया और अनुरोध के स्वर में बोला – ‘जरा नुक्ती का लड्डू भी खा कर देखिए, कैसा बना है?’

गोविंद गांगुली की जुबान को एक पल की भी देर न लगी, जैसे कि पहले से ही तैयार थे उत्तर के लिए। मिठाई के लुआब से लिपिड़-सिपिड़ करते बोले – ‘हाँ हाँ, क्यों नहीं! जरूर चखेंगे – लाओ न!’

और लड्डू भी आए। रमेश दंग हो रहा था, उन सबके व्यवहार देख-देख। संदेश की तादाद से अधिक खाए जा चुके थे, फिर भी लड्डू पर उन लोगों का हाथ साफ करना वे चकित दृष्टि से देख रहे थे।

दीनानाथ तो खा ही रहे थे। अपनी लड़की की ओर भी उन्होंने नुक्ती के दो लड्डू बढ़ाए। मुनिया ने कहा – ‘पेट में जगह नहीं रही।’ दीनानाथ महाशय बोले – ‘अरे पगली, नहीं खाया जाएगा? जरा जा कर पानी से गला तर कर ले, सूख गया होगा! और तब भी न खाया जाए, तो धोती की खूँट में बाँध ले। सबेरे खा लेना! भाई खूब, क्या कहने! बड़े ही अच्छे बने हैं! खूब खिलाया। लेकिन रमेश, क्या दो ही मिठाई बनवाई है?’

हलवाई ने भी अपनी बड़ाई होती देख खुश हो कर कहा – ‘अभी क्या है? अभी तो रसगुल्ला, खीरमोहन…।’

दीनानाथ ने रमेश की तरफ देख कर कहा – ‘वाह! भाई वाह! खीरमोहन भी बना है? पर दिखाया तो नहीं। खीरमोहन तो राधानगर के बोस बाबू के घर में खाया था। क्या कहने थे उस खीरमोहन के! स्वाद आज तक भी बना हुआ है जुबान पर! क्या कहूँ भैया, खीरमोहन मुझे इतना अच्छा लगता है, इतना इच्छा लगता है कि…।’

तभी रमेश ने राखाल से, जो किसी काम से बाहर जा रहा था, भैरव आचार्य को खीरमोहन भिजवाने के लिए कहला भेजा।

शाम हो गई है, पर यह ब्राह्मण मंडली खीरमोहन की आशा में पलक-पाँवड़े बिछाए, जीभ से बार-बार होंठ साफ करके बैठी है। राखाल ने लौट कर उत्तर दिया – ‘आज भण्डार का ताला बंद हो गया है, सो अब नहीं खुलेगा किसी भी चीज के लिए!’

रमेश को कुछ बुरा मालूम हुआ। वह बोला – ‘ कह दो जा कर कि मैं मंगवा रहा हूँ।

रमेश के तेवर में बल देख कर सहसा गोविंद गांगुली ने कहा – ‘इस भैरव की बुद्धि देखी, तुमने भैया? जैसे सबसे ज्यादा उन्हीं को कलख हो, तभी तो कहता हूँ।’

तभी राखाल ने बीच में ही बात काट कर कहा – ‘उस घर से आ कर, मालकिन ने भण्डार पर ताला लगा दिया है। उसमें आचार्य जी भला क्या कर सकते हैं?’

गोविंद और धर्मदास दोनों ही विस्मय से दंग रह गए, बोले – ‘मालकिन कौन?’

रमेश ने भी विस्मयान्वित हो पूछा – ‘ताई जी आई हैं क्या?’

‘जी, आते ही उन्होंने छोटे और बड़े भण्डार की ताली अपने कब्जे में कर, उनमें ताला डाल दिया है।’

रमेश सुन कर विस्मयानंद के मारे अभिभूत हो गया और बिना कुछ कहे अंदर चला गया।

अध्याय 3

‘ताई जी!’ – रमेश ने पुकारा।

उस समय वे भण्डार में थीं। आवाज सुनते ही बाहर निकल आई। वेणी को देखते हुए उनकी उम्र पचास साल के करीब होनी चाहिए। वैसे उनके गठे शरीर को देख कर तो वे चालीस के लगभग जान पड़ती थीं। आज उनका रंग साफ और गोरा था। उनकी जवानी में, उनकी सुंदरता की दूर-दूर तक चर्चा थी और वह सौंदर्य आज भी, शरीर के गठन के साथ बना हुआ था। बाल उनके विधावाओं की तरह कटे हुए थे, जिनकी छोटी -छोटी घुँघराली लटें माथे पर आ कर उनकी सुंदरता को बढ़ा रही थीं। अंग-प्रत्यंग, चिबुक, होंठ, कपोल, सारे के सारे उनकी सुंदरता के प्रमाण बने थे। उनकी आँखें तो मानो रस में डूबी हुई थीं। रमेश उनकी छवि की तरफ एकटक देखता रहा।

ताई जी और रमेश की माँ में बड़ी घनिष्ठता थी। काफी दिनों तक दोनों के कोई संतान नहीं हुई थी। सास-ननद के तानों से तंग आ कर दोनों साथ बैठ कर रोई थीं और तभी पहली बार, एक ही दुख से दुखी होने के नाते, दोनों में प्रेम का सूत्रपात हो गया, जो अंत तक बना रहा। रमेश को भी वह विशेषतः प्यार करती थी।

आज एक अरसे के बाद जब रमेश की माँ अपनी देवरानी के भण्डार में गई, तभी से अपने हाथ से सँजो कर रखे गए सामान को देख, देवरानी की याद आ गई और उनकी आँखों से आँसू बह निकले।

दोनों के घर में आपसी मनमुटाव काफी दिनों पहले से चला आ रहा था। यहाँ तक कि मुकदमेबाजी तक की नौबत आ जाती थी और वही मनमुटाव अब तक भी न टूटा था।

रमेश की आवाज सुन कर, वे अपनी गीली आँखें पोंछ, बाहर निकलीं। उस समय उनकी आँखें लाल हो रही थीं और उनमें विषाद की आभा झलक रही थी, जिसे देख रमेश चकित-सा खड़े रह गया। ताई जी का दिल भी रमेश के लिए भर आया – जिसके न माता थी न पिता। पर अपने को संयत रख हँसते हुए बोलीं – ‘पहचान लिया मुझे, बेटा रमेश?’

जब रमेश की माँ का देहांत हो गया था, तब इन्हीं ताई जी ने उसे अपनी छाती से लगा कर पाला था और जब तक वह अपने मामा के घर नहीं गया था, तब तक इन्हीं के प्यार में उसका शरीर बढ़ा था, पर कल जब वह इन्हीं ताई जी के घर मिलने गया, तो उन्होंने ‘घर पर नहीं हैं’ कह कर टलवा दिया था और उसके बाद मौसी ने वेणी के सामने और उसके पीछे भी, उसका घोर अपमान किया था। तब उसके टूटे दिल से एक आह निकली थी – ‘मेरा यहाँ कोई नहीं है!’ पर आज उन्हीं ताई जी को अपने आप आ कर भण्डार की कुंजी सम्हालते देख, वे विस्मय से चित्र लिखे-से खड़ा उनकी तरफ देखते रहे।

उनको इस तरह खड़ा देख कर विश्वेश्वरी ताई जी ने कहा -‘बेटा! ऐसे मौकों पर दिल कमजोर करने से काम नहीं चलता।’

विश्वेश्वरी के स्वर में उन्हें कोमलता का तनिक आभास नहीं मिला। वे कल के उनके व्यवहार से उनका प्यार उमड़ता देख, रूठने का-सा उपक्रम कर रहे थे। पर तुरंत ही उन्होंने अनुभव कर लिया कि यहाँ इससे काम नहीं चलने का। जहाँ किसी को किसी पर रूठने का अधिकार होता है, वहाँ निभाव भी होता है। अन्यथा और विशेष कष्ट ही होता है। उसने जरा तुनक कर कहा – ‘मेरा जी कमजोर नहीं, ताई जी! मैं तो तब जो बन पड़ता, आप ही कर लेता – फिर तुम्हारे आने की क्या जरूरत थी?’

वे फिर मृदु हँसी हँस पड़ीं। बोलीं – तुम मुझे बुला कर लाए होते, तो तुम्हारे सवाल का जवाब देती! सो, तुम तो बुला कर लाए नहीं! वैसे यह सुन लो कि जब तक सारा काम नहीं हो जाता, अंदर के सब काम मेरे ऊपर रहेंगे। भण्डार से भी सब चीजें यों ही नहीं निकलेंगी। रोज जाते समय, उसमें ताला डाल कर ताली तुम्हें सहेज जाया करूँगी और आते समय ले लूँगी, रोज-समझे? अच्छा! क्या उस रोज वेणी से मुलाकात हुई थी?’

रमेश को इस प्रश्‍न ने अजीब असमंजस में डाल दिया। क्या जवाब दे, उसने सोचा। पता नहीं, इनको अपने पुत्र के व्यवहार का पता है या नहीं। फिर बात को टाल कर बोला – ‘उस समय वे घर पर मिले नहीं!’

रमेश ने ताई जी के मुख पर झलकती प्रश्‍न की व्यग्रता को अनुभव किया। रमेश के उत्तर से उनका खिंचाव ढीला पड़ा और मंद मुस्कान उनके होंठों पर खेलने लगी। बोलीं – ‘वाह-वाह! एक बार नहीं मिला, तो दूसरी बार जाते! मैं जानती हूँ कि वह तुम लोगों से नाराज है, पर तुम्हें तो अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए! वह तुम्हारा बड़ा भाई है और इस समय तो हर किसी से, विनती-अनुरोध से अपने सारे झगड़े मिटा लेने चाहिए! मैं सोचती हूँ कि इस समय वह घर पर ही होगा! जाओ, मेरे बेटे, इस समय उससे मिल आओ!’

रमेश के मन में जो संदेह काम कर रहा था, उसका समाधान अभी तक नहीं हुआ था, और न उसके इस आग्रह का ही कारण उसे समझ पड़ा। वह उसी के समझने में असमंजस में पड़ा था तभी विश्वेश्वरी ने तनिक उसके और नजदीक आ कर धीरे से कहा – ‘तुम तो अभी कल आए हो, क्या जानो ये लोग कैसे हैं? जो सब बाहर बैठे बातें बना रहे हैं, कहीं इनकी बातों में मत आ जाना! तुम अब जरा अपने बड़े भैया के पास, मेरे साथ चलो!’

रमेश ने भी दृढ़ता से कहा – ‘ताई जी, बाहर जो लोग इस समय बैठे हैं, वे कैसे भी हों पर इस समय तो वे मेरे अपने ही हैं!’

रमेश की बात सुनते ही ताई जी के चेहरे का भाव अजीब तरह से परिवर्तित हो गया, जिसे देख रमेश की आगे की बात मुँह में ही रह गई और वे ताज्जुब से उनकी तरफ देखते रहे। उनका चेहरा एकदम फक्क पड़ गया था। थोड़ी देर उसी अवस्था में रह कर ताई जी ने लंबी-सी ठंडी साँस खींच कर कहा – ‘जैसी तुम्हारी मर्जी! नहीं जाना चाहते उसके पास, तो फिर तुमसे कुछ कहना ही व्यर्थ है। पर इतना तो कहे ही देती हूँ कि चिंता मत करना तुम, किसी बात की! मैं फिर सबेरे ही आ जाऊँगी।’ कह कर वे अपनी नौकरानी को बुला कर, उसके साथ पीछे की खिड़की के बाहर चली गई। रमेश को वेणी से मिलने में अन्यमनस्क देख कर उन्होंने समझ लिया कि वह वेणी से मिल चुका है, और निश्‍चय ही उससे कोई बात हो गई है। कुछ देर तक तो रमेश उस ओर ही देखता रहा, जिधर से वे गईं फिर उदास चेहरे सहित बाहर निकल कर आया, तो तुरंत ही उनसे गोविंद ने उद्विग्न हो पूछा – ‘बड़ी माता जी आई थीं क्या?’

‘हाँ!’

‘सुना है, भण्डार की ताली भी अपने साथ लेती गई हैं।’

रमेश ने बिना बोले ही सिर हिला कर उसका उत्तर दे दिया। वैसे तो उन्होंने ताली दे कर जाने को कहा था, पर चलते समय न जाने क्यों अपने साथ ही लेती गई।

‘क्यों धर्मदास, क्या कहा था न मैंने! सच ही निकली मेरी बात! रमेश भैया, तुम समझे इसका मतलब?’ – गोविंद बोले।

रमेश को गोविंद की बात बुरी लगी, पर समय का विचार कर कुछ कहना ठीक नहीं समझा। दीनू भट्टाचार्य अभी तक मौजूद थे। वे अजीब भोंदू किस्म के आदमी थे, तभी तो बिना लिहाज के, मय बालगोपालों के, भरपेट मिठाई चढ़ा गए थे। वे आशीर्वाद देने का अवसर पाए बिना जा कैसे सकते थे। अब अवसर पा कर बोले – ‘इसका मतलब समझना क्या मुश्किल है? वे रंग-ढंग समझती हैं, तभी ताली अपने साथ लेती गई हैं।’

दीनू की इस बात ने गोविंद के आग लगा दी। तुनक कर बोले – ‘तुम बिना समझे-सोचे हर बात में टाँग क्यों अड़ा दिया करते हो? क्या समझो तुम, इन सब बातों को?’

गोविंद की डाँट से वह और मुँहफट हो कर बोले – ‘वाह, बात ही ऐसी कौन-सी टेढ़ी है इसमें, जो समझ में न आए! सीधी-सी तो बात है कि बड़ी माता जी आ कर, भण्डार का ताला बंद कर, ताली बंद कर, ताली अपने साथ लेती गई हैं।’

‘तुम्हारे आने का काम तो पूरा हो गया – अब तुम घर जाओ, बस! अब तो घर भर ने मिल कर खूब भरपेट खा भी लिया और खूब बाँध भी लिया, अब और क्या काम बाकी है तुम्हारा? रहा खीरमोहन, सो अब उसे परसों ही खाना। अब और कुछ नहीं मिलने का!’ – गोविंद ने कहा।

रमेश को अब गुस्सा आ गया था और बेचारे दीनू तो मारे लज्जा के और भी दीन हुए जा रहे थे।

रमेश ने गोविंद को रोक दिया, नहीं तो और भी जाने क्या-क्या उनकी जुबान से निकल सकता था। जरा तेज स्वर में बोला – ‘हर किसी का बेकार अपमान करने की आपकी यह क्या आदत है गांगुली जी!’

गोविंद चौंक पड़े और तुरंत ही संयम में हो, जबरदस्ती की हँसी हँसते हुए बोले – ‘अपमान तो मैंने भैया किसी का नहीं किया। जो कहा है, वह सच कहा है। कोई सवा हाथ तो मैं डेढ़ हाथ! अरे तुम्हीं देखो धर्मदास भैया, इस ब्राह्मण की गुस्ताखी!’

गोविंद की इस ढिठाई पर रमेश दंग रह गया। उसके उस चेहरे की तरफ देख कर दीनू ने स्वयं ही कहा – ‘रमेश भैया! जग जाहिर है कि मेरे पास न खेत है न मकान। गरीब ब्राह्मण हूँ। भिक्षावृत्ति पर ही जीवन चलता है, मेरा व मेरे परिवार का। कभी-कभी ऐसा अवसर मिलता है कि बच्चों को अच्छी चीज खिला सकूँ, जब कभी बड़े आदमियों के यहाँ कोई बड़ा काम होता है। तारिणी भैया का तो नियम ही था, हम लोगों को खिलाने-पिलाने का – और मैं निश्‍चित कह सकता हूँ कि हम लोगों के भरपेट खाने से उनकी आत्मा को खुशी होगी!’ कहते-कहते उनके दीन नेत्रों में आँसू भर आए। अपने मैले दुपट्टे के छोर से आँसू पोंछ कर वे आगे बोले – ‘भैया, मैं नहीं, मुझ जैसे सभी आस-पास के जितने भी गरीब हैं, कभी तारिणी भैया के दरवाजे से खाली हाथ नहीं लौटे! किसी को कानो-कान भी खबर न हो पाती थी। यहाँ तक कि उनका बायाँ हाथ भी उसे नहीं जान पाता था। अच्छा, अब चला – आप लोगों का समय अब और नष्ट न करूँगा। मुनिया! ओ हरिधान! चलो, अब घर चलें। कल सवेरे फिर आएँगे। भैया! तुमसे कुछ कहने लायक तो हूँ ही क्या, पर सदैव मेरा यह आशीर्वाद है कि अपने पिता ही की तरह होओ – और खूब लंबी उमर हो तुम्हारी!’

रमेश उनके साथ काफी दूर तक गया और रास्ते में बोला – ‘दया बनाए रखिएगा भट्टाचार्य जी मेरे ऊपर जरा…कहते संकोच-सा मालूम होता है, पर अगर मेरे घर में हरिधान की माँ के चरण पड़ते, तो मैं अपने को धन्य समझता!’

दीनू ने एकदम रमेश के दोनों हाथ थाम लिए और कोमल स्वर में बोला – ‘रमेश भैया! नाहक मुझे क्यों लज्जित करते हो! मैं दीन ब्राह्मण हूँ किस योग्य!’

और वे अपने सब बालगोपालों के साथ घर चले गए। रमेश भी लौट कर आ गया। जाते समय वह गोविंद से कुछ कटु शब्द कह गए थे, उनकी याद आते ही वह कुछ कहना चाहता था, पर गोविंद ने बीच में ही कहना शुरू कर दिया। बोले – ‘भैया रमेश! तुम हमें जब बुलाते तभी हम आते और सारा काम आप ही करते। अपना ही काम है यह तो!’

धर्मदास, जो अब तक हुक्का ही गड़गड़ा रहे थे, अब लाठी के सहारे खड़े हो कर खाँसते-खाँसते बोले – ‘वेणी नहीं हैं हम लोग कि जिसकी पैदाइश का ही नहीं पता! समझे कि नहीं?’

रमेश को धर्मदास की इस भोंडी-गंदी बात ने तिलमिला दिया, पर कुछ कहा नहीं उसने। अब तक वह यह अच्छी तरह से समझ चुका था कि अशिक्षित होने के कारण ही, जो मुँह में आता है, बिना सोचे-समझे ये लोग बक देते हैं।

जब सब चले गए, तो रमेश ने वेणी बाबू के पास जाने की सोची। ताई जी का आग्रह अब तक उसके मन में घुमड़ रहा था। वेणी बाबू के चंडी मंडप में जब वे पहुँचे, तब रात के आठ बजे थे। अंदर से, किसी बात पर घोर विवाद की आवाज सुनाई पड़ रही थी। सबसे तीव्र स्वर गोविंद गांगुली का था। वे पूरे दावे के साथ कह रहे थे – ‘वेणी बाबू, मुझे अच्छी तरह मालूम है कि मरते समय तारिणी बाबू ने एक पैसा भी नहीं छोड़ा था और यह जो इतना ठाठ-बाट हो रहा है, तो निश्‍चय जानो कि रमेश ने नंदी की कोठी से, कुछ नहीं तो तीन हजार रुपए तो कर्ज काढ़ा ही है! देखना, हम सबके देखते-ही-देखते, चार दिन में सारी शान न किरकिरी हो जाए तो कहना! भई, जितनी चादर हो, उतना ही पैर पसारना चाहिए, नहीं तो बदन तो उघरेगा ही!’

‘गोविंद चाचा, तो फिर पक्का पता लगाना चाहिए इस बात का।’ – वेणी के स्वर में उत्साह था।

‘देखते चलो! इस बार उस घर में अच्छी तरह मैं स्थान तो बना लूँ, तब फिर…बाहर कौन खड़ा है? रमेश भैया? अरे वाह, इतनी रात गए बाहर? हम सब मर गए थे क्या?’

रमेश ने उनको तो कुछ उत्तर दिया नहीं, आगे बढ़ कर वेणी से कहा – ‘मैं आपके ही पास आया हूँ, बड़े भैया!’

वेणी तो हक्का-बक्का हो गए, बोल ही न सके। गोविंद ने ही तुरंत उत्तर दिया – ‘हम तो इसीलिए इनको समझाने आए थे कि भाई, तारिणी भैया का झगड़ा उनके साथ रहा, सो वह उनके साथ ही खतम हो गया – अब तो मेल हो जाए तुम दोनों में, तो हम सबको वह शुभ घड़ी देख कर आँखें ठण्डी करने का अवसर मिले! हमें तो आशा थी कि तुम आओगे ही! बड़े भाई भी तो पिता के समान होते हैं…हालदार मामा, तुम्हारी क्या राय है?…पर आप खड़े क्यों हैं अभी तक? बैठिए न, अरे है कोई, एक कम्बल या आसन ला कर बिछा दे यहाँ? वेणी बाबू, आप बड़े भाई लगते है, आप ही इस तरह अलग -अलग रहेंगे, तो फिर काम नहीं चलने का! और फिर अब तो बड़ी माता जी भी वहाँ हो आई हैं, फिर आपको अब क्या…?’

सहसा वेणी चकित रह गए, पूछा – ‘अम्मा गई थीं क्या वहाँ?’

गोविंद तो चाहते ही थे कि वे चौंकें। अपनी बात का ठीक असर देख प्रसन्न हुए, पर उस भाव को छिपा कर विस्तार से बोले – ‘गई ही नहीं हैं, बल्कि भीतर का सारा काम-धंधा और भण्डार का चार्ज भी ले लिया है उन्होंने। और न लेतीं, तो और कौन आता सम्हालने, भाई?’

किसी ने कुछ भी नहीं कहा। गोविंद ने ही दीर्घ नि:श्‍वास लेकर कहा – ‘गाँव भर में उन जैसा तो कोई है नहीं! और न यही आशा है कि कभी हो भी सकेगा। कहोगे कि ठकुरसुहाती कह रहा हूँ – पर बात सच है कि बड़ी माँ जी लक्ष्मी हैं पूरी! सबको ऐसी माँ मिलने का सौभाग्य नहीं होता।’ और दीर्घ नि:श्‍वास छोड़ शांत हो गए।

कुछ देर तक सब लोग मौन रहे, फिर वेणी बाबू ने धीरे से कहा – ‘अच्छा!’

तपाक से गोविंद फिर उन पर अपनी बात का रद्दा रखते हुए बोले – ‘नहीं वेणी बाबू! केवल ‘अच्छा’ भर कह देने से काम नहीं चलने का। सारा काम आपका इंतजार कर रहा है, चल कर सब सम्हालिए! हाँ भाई, सभी तो यहाँ पर हो, किस-किसको निमंत्रण दिया जाएगा, अभी यहीं बैठे-बैठे क्यों न बना लिया जाए! रमेश भैया, क्या कहते हो – हालदार मामा, धर्मदास भैया, बोलो न! क्या राय है तुम सबकी? आप लोग तो बता सकेंगे कि किसको बुलाया जाए किसको नहीं?’

रमेश ने अनुरोध के स्वर में कहा – ‘मेरा परम सौभाग्य होता, बड़े भैया – यदि आप एक बार मेरे घर…’

‘जब अम्मा हो आई हैं, तब मैं जाऊँ या न जाऊँ – गोविंद चाचा, क्या राय है तुम्हारी?’

रमेश ने गोविंद को कुछ कहने का अवसर न दे कर कहा – ‘मैं आपको अधिक कष्ट तो नहीं देना चाहता भैया! सिर्फ एक बार, अगर विशेष कष्ट न हो, तो देख-भाल आइएगा!’

गोविंद कुछ कहना चाहते थे। पर बिना कुछ सुने ही रमेश वहाँ से चल दिया। उनके जाने के बाद गोविंद ने बाहर जा कर देख लिया कि दरअसल वह चले गए कि नहीं, फिर आ कर बोले – ‘देखा आपने, ढंग-डौल, वेणी बाबू?’

वेणी उस समय कुछ और ही सोच रहे थे। गोविंद को उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया।

गोविंद की पहली बातें भी रमेश ने सुन ली थीं और उसके पहुँचने पर उसने जो बातों का रुख पलटा था – वह भी देखा था, तभी उनका मन मारे घृणा के भर उठा था। जाते समय यही सोचते हुए वह अब आधी दूर निकल आया, तब वह वहाँ से फिर लिया। उस समय भी वहाँ खूब जोर से बातें चल रही थीं। पर अब के वहाँ खड़े हो कर सुनने की इच्छा न हुई। सीधे अंदर घुसते चले गए और अंदर जा कर ताई जी को पुकारा।

उस समय ताई जी अकेली, चुपचाप, अँधेरे में, सामनेवाले बरामदे में बैठी थीं। रमेश की आवाज ने उन्हें चौंका दिया, बोलीं – ‘इतनी रात को कैसे, बेटा?’

रमेश पास पहुँच गया तो उन्होंने कहा – ‘रुको, मैं किसी से रोशनी लाने को कह दूँ!’ पर रमेश दीया लाने को मना कर, वहीं बैठ गया।

ताई जी ने फिर अपना प्रश्‍न उठाया – ‘इतनी रात में कैसे आए, बेटा!’

रमेश ने सहज सरल स्वर में कहा – ‘निमंत्रण नहीं दिया है अभी तक किसी को, उसी बारे में पूछने आया हूँ।’

‘यह तो बड़ा विकट काम है। अच्छा! गोविंद वगैरह सब लोग क्या कहते हैं?’

‘मैं तो आज जो आप कहेंगी सो करूँगा! न मैं जानता हूँ और न जानना ही चाहता हूँ कि वे लोग क्या कहते हैं?’

रमेश के स्वर ने उन्हें विस्मय में डाल दिया, कुछ देर बाद बोलीं – ‘तब तो कहते थे कि इस समय यही तुम्हारे सब कुछ हैं। खैर, छोड़ो, उस बात को! हम औरतों की भला उस मामले में क्या चलेगी? यहाँ तो सभी जगह यही खटराग है कि यह वहाँ नहीं खाता, तो वह यहाँ नहीं खाता! यही सबसे बड़ी मुश्किल अटका करती है, हर काम के समय।’

रमेश ने भी दो-चार दिन में ही जान लिया था कि कैसी-कैसी बातें उठती हैं यहाँ पर। पूछा उन्होंने – ‘ऐसा क्यों होता है, ताई जी?’

‘यहाँ रहने पर सब समझ लोगे! यहाँ बात-बात में झूठे-सच्चे दावेदार बन कर अदालत-कचहरी तक होती है। यही राग चलता रहता है, बेटा! अगर मैं पहले से तुम्हारे यहाँ पहुँच जाती, तो कभी इतना तूल न करने देती। अब तो यही चिंता है कि श्राद्ध के दिन क्या होगा!’

रमेश ताई जी का मंतव्य समझ न पाया, उद्विग्न हो बोला – ‘पर मुझे इन दलबंदियों से क्या मतलब? अभी कल तो मैं आया हूँ, यहाँ मेरी किसी से क्या दुश्मनी है? इसलिए मैं इन दलबंदियों का विचार न कर, सभी ब्राह्मणों और गरीब शूद्रों को न्यौता दूँगा। पर आपकी आज्ञा तो लेनी होगी।’

कुछ देर तक सोचते रहने के बाद ताई जी ने कहा – ‘मैं तो कुछ भी नहीं कह सकती इस तरह से! कहूँ भी तो बड़ी हाय-तौबा मच जाएगी। पर इसके ये मानी नहीं कि तुम गलत कहते हो! तुम्हारा कहना भी ठीक है, पर इतने भर से ही काम नहीं चल सकता। जिसे समाज ने अपने से अलग कर दिया है, तो उसे नहीं बुलाया जा सकता। समाज का किया – चाहे गलत ही हो – मानना होगा! न मानने से तो समाज चल ही नहीं सकता!’

इस समाज के कर्णधारों की उच्चता का परिचय रमेश को अभी-अभी बाहर की घृणास्पद बातों से मिल चुका था, जो उन्हें विशेष ग्लानि से अभिभूत कर रहा था। उन्हों उसी आवेश में कहा – ‘यहाँ के समाज के कर्णधार यदि धर्मदास और गोविंद ही हैं, तो उसमें सचमुच ही किसी तरह की शक्ति न रहे, तभी अच्छा है!’

उनके आवेश को देख कर ताई जी ने संयत-शांत स्वर में कहा – ‘इनके अलावा, तुम्हारे बड़े भाई भी उसी समाज के प्रमुख अंग हैं।’

रमेश ने इसका कोई उत्तर न दिया। ताई जी ही बोलीं – ‘इन लोगों की राय से काम करना ही ठीक होगा, रमेश!’

उन्होंने तो अपने जाने काफी दूर की बात सोच कर ही कही थी, पर रमेश अपने आवेश में उसे समझ नहीं सका। बोले – ‘मेरा यहाँ किसी से भी, किसी प्रकार का द्वेष भाव नहीं है। अभी आप ही ने कहा कि यहाँ दलबंदियाँ हैं, जिनका मेरी समझ में मुख्य कारण व्यक्तिगत द्वेष ही है। फिर भला मैं कैसे किसी को न्यौते से अलग कर सकता हूँ?’

ताई जी ने जरा हँसते हुए स्वर में कहा – ‘मैं भी तो कुछ तेरी भलाई सोच कर ही कह रही हूँ। तेरी माँ की जगह हूँ मैं! मेरी बात न मानना भी तो ठीक नहीं!’

‘पर मैं तो सभी को बुलाने का निश्‍चय कर चुका हूँ।’

ताई जी ने खिन्न होकर कहा – ‘तब तो फिर मेरी आज्ञा लेने नहीं आए, सिर्फ मुँह-दिखावा ही करने आए हो!’

रमेश ने उनके स्वर से समझ लिया कि वे खिन्न हो गई हैं। पर अपना निश्‍चय नहीं छोड़ा उन्होंने। बोला – ‘मुझे तो आशा थी कि मेरा जो काम ठीक होगा उसे आपका आशीर्वाद अवश्य प्राप्त होगा पर…।’

बीच में ही ताई जी ने कहा – ‘पर तुम्हें यह भी तो सोचना चाहिए था कि मैं अपनी संतान का विरोध नहीं कर सकती!’

रमेश इस चोट से विह्‍वल हो उठा। कल से वह ताई को हर मायने में अपनी माँ ही मानने लगा था, पर यह सत्य है कि उससे पहले और अधिक गहरा स्थान उनकी संतान ने उनके हृदय में बना रखा है और यह विचार उसकी आशा पर आघात करने लगा। थोड़ी देर मौन रह कर, उठ कर खड़े होते हुए उन्होंने कहा – ‘मैं यह जानता था, तभी कहा था कि मेरे किए जो कुछ हो सकेगा, अपने ही आप कर लूँगा! आप कष्ट न करें! आपको बुलाने का दुस्साहस नहीं किया था मैंने।’

ताई जी सुन कर मौन रहीं। जब रमेश उठ कर जाने लगा तब बोलीं, ‘तो फिर अपने भण्डार की ताली भी लेते जाओ, बेटा!’

और ताली ला कर उन्होंने रमेश के पैरों पर फेंक दी। रमेश स्तब्ध खड़ा देखता रहा। थोड़ी ही देर बाद ताली उठा कर धीरे-धीरे बाहर चले गए। कुछ घण्टे पहले ही उनके दिल ने कहा था – ‘अब किसी बात का डर नहीं, ताई जी सब सम्हाल लेंगी!’ पर एक रात न बीती कि उसी दिल को एक ठण्डी आह भर कर कहने पर विवश होना पड़ा – ‘नहीं, नितांत अकेला हूँ मैं! कोई नहीं है इस संसार में मेरा! ताई जी भी नहीं!!!’

अध्याय 4

श्राद्ध खत्म हो चुका है। रमेश आमंत्रित लोगों से परिचय कर रहा है। भीतर दावत के लिए पत्तल आदि बिछाई जा रही हैं। तभी भीतर सहसा कुछ शोर मचने लगा, जिसे सुन कर रमेश घबरा कर अंदर गया। उसके साथ बहुत-से लोग अंदर आ गए। पराण हालदार के साथ झगड़ा हुआ था। एक अधेड़ उम्र की स्त्री गुस्से से आँखें लाल-पीली कर, डट कर गालियाँ सुना रही है। और चौके के दरवाजे के पास एक विधवा स्त्री, जिसकी उम्र पच्चीस-छब्बीस वर्ष की है सिकुड़ी-सहमी-सी खड़ी थी। जैसे ही रमेश अंदर पहुँचा, उसे देखते ही वह अधेड़ स्त्री और भी तेज हो चिल्लाने लगी – ‘तुम्हीं बताओ! तुम भी तो गाँव के एक जमींदार हो! क्या ब्राह्मणी क्षांती की इस गरीब कन्या का ही सारा दोष है? कोई हमारा है नहीं। तभी मन चाहे जितनी बार हमारे ऊपर जुर्माना कर, उसे वसूल भी कर लो और फिर समाज से खारिज-के-खारिज ही! इन्हीं गोविंद ने, वृक्षारोपण के समय दस रुपया जुर्माना लगा कर, स्कूल के नाम से लिया था और शीतल पूजा के नाम पर भी उन्होंने ही दो जोड़ी खस्सियों की कीमत भी रखवा ली थी। पूछो न इन्हीं से – सच कहती हूँ कि नहीं! फिर बार-बार एक ही बात पर क्यों तंग किया जाता है हम सबको?’

रमेश भौंचक्का-सा हो गया। उन्हें कुछ समझ में ही नहीं आया। गोविंद गांगुली ही सारी परिस्थिति को खुलासा करने के लिए उठ कर खड़े हुए। खड़े हो कर, एक बार रमेश और एक बार उसी स्त्री की तरफ गंभीर मुद्रा में देख गंभीर स्वर में बोला – ‘जगजाहिर है कि गोविंद गांगुली मुँहदेखी नहीं कहता। जो कहता है, वह साफ ही कहता है! तुमने मेरा नाम ले दिया है क्षांती मौसी तब तो जो सच है, वही कहूँगा। माना कि तुम्हारी कन्या का प्रायश्‍चित और सामाजिक जुर्माना दोनों ही हो चुके हैं। पर हम पंचों ने उसे यज्ञ में लकड़ी देने का हक तो नहीं दिया है! हाँ, उसके मर जाने पर श्मशान तक जरूर कंधा लगाएँगे। पर और…।’

बीच में ही क्षांती मौसी चीख पड़ी – ‘मरे तुम्हारी लड़की, उसी को कंधा देना! मेरी लड़की की चिंता मत करो। अपने सीने पर हाथ रखो और बताओ, कि वे जो उस भण्डार में बैठी-बैठी पान लगा रही है तुम्हारी छोटी मौसी, वे परसाल किसलिए डेढ़-एक महीने के लिए काशीवास करने गई थीं जो वहाँ से पीला-जर्द हल्दी का-सा रंग लेकर लौटी थीं? ये तो हैं बड़े घरों की बातें! मुझ तुम सबकी नस-नस मालूम है। कहने बैठूँगी तो सारी पोल खुल जाएगी। मैंने भी दुनिया देखी है!’

गोविंद गुस्से से दाँत किटकिटा कर बोले – ‘ठहर तो बदजात !’

पर वह बदजात तो और भी एक-दो कदम आगे बढ़ कर, सीना तान कर, तुनक कर बोली – ‘तेरी क्या हिम्मत, जो मुझ पर हाथ उठाए! किसी के भरोसे न रहना! मैं हूँ क्षांती ब्रह्मचारिणी, मुझसे रार बढ़ाओगे, तो अपना ही कोढ़ उघड़वाओगे। मेरी बेटी चौके में गई न गई, वैसे ही हालदार उसका अपमान करने लगे! क्या उनकी समधिन की बात जुलाहे के संग नहीं उड़ी थी? बस या और कुछ सुनने का इरादा है?’

रमेश तो हतबुद्धि-सा खड़ा रहा। भैरव ने आगे बढ़ कर क्षांती का हाथ पकड़ कर कहा – ‘बस रहने दो मौसी, इतना ही बहुत है! चलो मेरे उस कमरे में बैठना, उठो सुकमारी बेटी!’

पराण हालदार ने अपना दुपट्टा कंधो पर सँभालते हुए उठ कर कहा – ‘गोविंद, मैं एलानिया कह रहा हूँ कि जब तक इसको इस घर से निकाल कर बाहर नहीं किया जाता, मैं यहाँ पानी भी नहीं पीने का! और देख कालीचरण, तुझे अगर अपने मामा का जरा भी लिहाज है – तो तुम चलो उठ कर! यदि पहले से ही जानता कि यहाँ इन जैसे लोग भी जमा होंगे, तो कभी अपना धर्म नष्ट करने न आता। वेणी ने पहले ही टोका था कि मामा, वहाँ जाना ठीक नहीं! उठ, चल, आ कालीचरण!’

पर कालीचरण न उठा। सिर नीचा किए बैठा ही रहा। चार साल पहले की बात है, सभी जानते थे कि कलकत्ता का एक व्यापारी उसकी विधवा बहन को भगा ले गया था। काफी दिनों तक तो ‘ससुराल गई है’ फिर ‘तीरथ को गई’ आदि बातें बना कर बात छिपाई गई थी, बाद में जग जाहिर हो ही गई। वह इसी डर से कि कहीं आज इतने दिनों बाद वह बात फिर न उखड़ जाए, गरदन नीचे किए सहमा बैठा रहा। अब वह स्वयं पाट का व्यापार करता है।

पर गोविंद गुस्से से तमतमा रहे थे। उठ कर फिर जोर से चीख कर बोले – ‘हाँ, हाँ! हम कोई भी पानी न पिएँगे, जब तक रमेश यह न बता दे कि बिना पंचों की राय के, इन बदजात औरतों को यहाँ क्यों बुलाया? हमारे पंच हैं वेणी बाबू, हालदार और यदु मुकर्जी!’

और सच ही, दस पाँच और भी आदमी, कंधों पर दुपट्टा सँभाल कर खड़े हो गए। सभी अच्छी तरह जानते थे कि इस देहाती समाज में, पासा पलटने में कौन-सी चाल उचित बैठती है।

फिर तो सब घरजानी-मनमानी करने लगे। भैरव और दीनू तो दरअसल रो-से पड़े और बेचारे कभी गोविंद की तो कभी हालदार की खुशामद करते और कभी क्षांती मौसी और लड़की की। और ऐसा ही दीखने लगा कि अब सारा-का-सारा बना-बनाया मामला बिगड़ने ही वाला है।

रमेश की एक तो वैसे ही भूख-प्यास के कारण अजीब दशा हो रही थी, अब इस काण्ड से तो उनके हाथ-पैर और फूल गए।

तभी पीछे से पुकार आई ‘रमेश!’ और पुकार के साथ ही सबकी दृष्टि उस आवाज की तरफ घूमी। सबने देखा कि विश्‍वेश्‍वरी खड़ी हैं। एक साथ सब चकित-से रह गए। रमेश ने भी देखा कि ताई जी उसके अनजाने ही जाने कब आ गई हैं, और उपस्थित लोगों ने भी भौंचक हो कर देखा कि यह ही विश्‍वेश्‍वरी हैं, वेणी की माँ।

विश्‍वेश्‍वरी आम तौर पर सबके सामने निकलती नहीं थीं – सो कुछ नहीं कहा जा सकता। वैसे तो गाँव में भी विशेष परदा चलता नहीं, मगर आज उन्हें इस तरह सबके सामने खड़ा देख सबको अत्यंत विस्मय हुआ। जिन्होंने उन्हें कभी देखा नहीं, उनके संबंध में सुना ही था, वे मंत्र-मुग्ध से, विस्फरित नेत्रों से देखते ही रह गए। लोगों की नजर उठते ही वे खंभे की ओट में आ गईं। रमेश उनके पास जा पहुँचा। उन्होंने उसे लक्ष्य कर उच्च-सुस्पष्ट स्वर में कहा -‘गांगुली जी से कह दो कि इस तरह धमकी देने की जरूरत नहीं और हालदार जी से कह दो कि सभी को आदरपूर्वक बुलाया गया है। किसी का भी अपमान करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं! जिसे अखरता हो, उन्हें यहाँ शोर मचाने की जरूरत नहीं। कहीं और जा कर चिल्लाएँ और वहीं बैठें!’

सभी के कानों में उनके उच्च-स्पष्ट शब्द पड़ गए थे। रमेश को बात दोहराने की आवश्यकता न रही। और कहना भी पड़ता तो इतनी खूबी के साथ कह भी न पाता। उनसे वहाँ खड़ा भी न रहा गया, क्योंकि ताई जी को फिर से आया देख कर, उनकी आँखों में श्रद्धा के आँसू भर आए थे; जिन्हें छिपाने ने लिए वह जल्दी से एक कोठरी में चले गए और वहाँ जा कर रोने लगे। सवेरे से ही काम में लगे रहने के कारण, उन्हें अब तक ताई जी का आना मालूम न हो सका था और न उन्हें आशा ही थी कि वे आएँगी।

ताई जी की बात सुन कर सभी – जो उठ कर जाने को खड़े हो गए थे – अपनी-अपनी जगह बैठ गए, केवल पराण हालदार ही खड़े रहे। तभी भीड़ में से किसी की आवाज सुन पड़ी -‘चाचा, खाने के बाद भी भला कहाँ मिलेंगी सोलह पूड़ियाँ और चार-चार संदेश? बैठ जाओ न!’

पर वे नहीं रुके, बाहर चले गए। गोविंद गांगुली बैठ तो गए, पर उनका चेहरा अंत तक उतरा रहा। और जब पंगत बैठी तब काम करने के बहाने वे पंगत में जीमने नहीं बैठे। मन में सभी समझ रहे थे कि गोविंद यों आसानी से किसी को बख्शनेवाले नहीं हैं!

उसके बाद सारा काम शांति से समाप्त हो गया और सभी आमंत्रित ब्राह्मण, अपने कुनबे-पड़ोस के सच्चे-झूठे नाम गिना कर, उनके नाम से खाने-पीने का सामान बाँध कर चलने लगे। रमेश बाहर अमरूद के पेड़ के नीचे, उदास-चिंत्त, विचारमग्न खड़ा था। उसने देखा कि दीनू भट्टाचार्य अपने बालगोपालों के साथ चले जा रहे हैं, सभी के हाथों और बगल तथा कंधों पर भोजन की सामग्री बँधी लटक रही थी। वे रमेश की नजर बचा कर निकल जाना चाहते थे, पर उनकी मुनिया रमेश को देख कर सहमी-सी बोल पड़ी – ‘बाबूजी खड़े हैं, बाबा!’

रमेश ने मुनिया के स्वर से ही उनके दिल की बात समझ ली। रमेश को अगर कहीं स्वयं ही छिपने ही जगह होती तो छिप जाता, पर कहीं कोई स्थान था नहीं। तभी विवश हो कर उनके सामने आ कर हँसते हुए बोले – ‘किसके लिए प्रसाद ले जा रही हो, मुनिया?’

मुनिया के पास अनेक छोटी-बड़ी पोटलियाँ थीं। दीनू जानते थे कि मुनिया ठीक उत्तर न दे सकेगी, अतः सकुचा कर स्वयं बोले – ‘पास-पड़ोस में नीच कौम के बच्चे हैं – जूठन लिए जा रहा हूँ, उन बेचारों को बाँट दूँगा। पर रमेश भैया, सच जानो – आज जाना कि बड़ी माँ जी जग माँ जी हैं!’

रमेश ने उत्तर न दिया, चुपचाप फाटक तक साथ चला आया। वहाँ आ कर एकाएक उन्होंने प्रश्‍न किया – ‘भट्टाचार्य जी, यह बताइएगा कि यहाँ आपस में मनमुटाव क्यों है। आप तो सब जानते होंगे!’

दीनू सहसा उत्तर न दे कर, थोड़ी देर इधर-उधर कर बोले – ‘भैया, यहाँ की क्या कहते हो, यहाँ तो तब भी खैर है! मैं आपको मुनिया के मामा का हाल बताऊँ – अभी वहाँ गया था। जा कर सब देखा-सुना। वहाँ कायस्थों और ब्राह्मणों को मिला कर गिनती के बीस घर होंगे, पर इतने में ही चार गुट हैं वहाँ पर! दो-चार विलायती अमड़े भर तोड़ लेने पर ही, हरनाथ विश्‍वास ने अपने सगे भानजे को जेल की हवा खिलवा दी। और यह झगड़े-टण्टे कहाँ नहीं हैं? सभी जगह तो हैं!…मुनिया! हरधान थक गया होगा, उसके हाथ से पोटली ले लो।’

‘तो क्या इसको दूर करने का कोई उपाय नहीं है?’

‘भैया, यह तो कलजुग है, घोर कलजुग! इन सब बातों का दूर होना असंभव है! पर इतना तो मैं दावे से कह सकता हूँ – क्योंकि सभी तरह के लोगों से मेरा पाला पड़ता है, भिक्षा माँगने में – तुम जैसे नौजवानों में ही दया-धर्म बाकी है, पर इन बुड्ढों में तो नाम को भी नहीं! बस ये तो अवसर पाते ही आदमी को धर दबाते हैं, और फिर मार कर ही दम लेते हैं।’ कह कर दीनू ने ऐसा चेहरा बनाया कि उसे देख कर रमेश हँसे बिना न रह सका। मगर दीनू हँसे बिना ही बोले – ‘यह हँसी में उड़ा देने की बात नहीं है, भैया जी! अब तो आप काफी दूर चले आए, अँधेरे में।’

‘आप इसकी चिंता न करें, आप तो कहते चलें…।’

‘हर जगह यही हाल है! गोविंद गांगुली ने क्या-क्या पाप किए हैं, यह सब कहने लगूँ, तो बिना प्रायश्‍चित तो मैं भी गंदा हो जाऊँगा। क्षांती ब्राह्मणी ने ठीक ही कहा था। लेकिन गोविंद से डरते सभी हैं। झूठा मामला-मुकदमा गढ़ने में, गवाही देने में अव्वल है, और वेणी बाबू को हरदम उसका सहारा रहता है। तभी कोई उसके खिलाफ कुछ कहने का साहस नहीं करता! उसी का नमदा कसा रहता है सभी पर!’

फिर काफी देर तक दोनों चुपचाप चलते रहे। रमेश का सारा शरीर मारे घृणा और गुस्से के तमतमा रहा था।

‘मैं यहाँ कह दूँ आपसे कि क्षांती मौसी है बड़ी हिम्मतवाली, और सभी घरों की सात पुश्त तक का कच्चा चिट्ठा जानती हैं। उसे ये इस तरह आसानी से छुटकारा नहीं देंगे। किंतु यह बात भी पक्की समझिए कि वह बर्रों का छत्ता है – उसे छेड़ने से दाल-आटे का भाव पता चल जाएगा! उनकी ऐसी पोल खोलेगी कि फिर जिंदगी-भर सँभालते न सँभले। सभी के यहाँ पोल भरी पड़ी है। वेणी बाबू को ही…।’

रमेश ने बीच में रोक कर कहा – ‘उसके बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं, भट्टाचार्य जी!’

‘हाँ ठीक ही है! मुझे क्या जरूरत किसी का ढँका उघारने की! और कहीं वेणी ने सुन लिया, तो फिर मेरी खैर ही नहीं!’

‘आपका घर अभी और कितनी दूर है?’

‘अब तो आ ही गए! इस बाँधा के पास ही है मेरी झोपड़ी। अगर आपके चरण किसी दिन…।’

‘हाँ, आऊँगा किसी दिन आपके यहाँ। कल सवेरे तो फिर दर्शन होंगे न आपके और उसके बाद भी दर्शन देते रहिएगा!’

और वहीं से रमेश अपने घर लौट आया! भट्टाचार्य आशीर्वाद की झड़ी लगाते हुए, अपने बालगोपालों के साथ घर चले गए।

अध्याय 5

केवल मधुपाल की ही एक दुकान है, इस पूरे गाँव में। जिस रास्ते से नदी की तरफ जाते हैं, उसी पर बाजार के पास पड़ती है। रमेश से अपने बाकी दस रुपए लेने वह दस-बारह दिन तक नहीं आया, तब रमेश स्वयं ही उसकी दुकान पर सवेरे-ही-सवेरे पहुँचा। मधुपाल ने बड़ी आवभगत के साथ उनके बैठने को एक मूढ़ा दिया। उसकी इतनी उमर बीत गई थी – सपने में भी उसने कभी किसी को, उधार रुपया अपनी दुकान पर आ कर चुकाते नहीं देखा था। बल्कि हजार बार माँगने पर भी लोग टाल बताते हैं। रमेश बाकी रुपया देने आया है, सुन कर वह दंग रह गया। बातों-ही-बातों में उसने कहा – ‘भैया, यहाँ तो लोग उधार लेकर देना नहीं जानते। यही दो-दो आने, चार-चार आने करके पचास-साठ लोगों पर चाहिए। किसी-किसी पर तो रुपया-डेढ़ रुपया तक हो गया है, पर देने के नाम पर कोई मसकते भी नहीं। तो भला आप ही बताइए – यह दुकान कैसे चल सकती है! सौदा लेते समय कह जाते हैं – ‘अभी भिजवाया!’ और उसके बाद, दो-दो महीने तक उनकी धूल का भी पता नहीं…बनर्जी हैं क्या? प्रणाम! कब आना हुआ आपका?’

बनर्जी महाशय के बाएँ हाथ में लोटा और दाएँ में अरबी के पत्तों में लिपटी हुई चार छोटी-छोटी चिंगड़ी मछलियाँ थीं। कान पर जनेऊ चढ़ा था और पैरों में कीचड़ लगी थी। दीर्घ निश्‍वास लेकर बोले – मधु, हुक्का तो भर जरा! कल रात को आया हूँ।’ और हाथ से लोटा और मछलियाँ एक तरफ रख कर वे बोले – ‘क्या बताऊँ, जमाना तो देखते-देखते ऐसा बदल गया कि कुछ कहा नहीं जाता! उस लखिया कहारिन की अकल तो देखो – ब्राह्मण को ठगने चली है! कितने दिन जिएगी, इस तरह ठगकर? नाश हो जाएगा उसका। एक पैसे की मछली के लिए मेरा हाथ पकड़ लिया ससुरी ने।’

मधु ने विस्मित हो कहा – ‘हाथ पकड़ लिया उसने, आपका?’

बनर्जी ने गुस्से से मुँह बिचका कर, इधर-उधर देख कर कहा – ‘उसके ढाई पैसे चाहिए, तो क्या उसके लिए हाथ पकड़ेगी तेरा, सबके सामने! टट्टी-फरागत हो कर नदी से लौटा, तो सोचा कि हाथ धोता चलूँ! वह डलिया में मछली लिए बैठी थी। मेरे पूछने पर साफ मना कर दिया कि सब बिक गईं। पर मुझे अंधा थोड़े ही बना सकती थी! मैंने डलिया में जैसे हाथ डाला कि उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। भला बताओ तो सही, क्या मैं उसके पहले के ढाई पैसे और आज का मिला कर साढ़े तीन पैसे के लिए गाँव छोड़ कर चला जाऊँगा?’

‘भला कहीं गाँव छोड़ा जा सकता है, उसके पैसों के लिए!’

‘अब इस गाँव में कुछ दबदबा भी रहा है क्या? इसी बात पर उसके यहाँ का सारा काम…धोबी -हज्जाम सब बंद करा दिए जाते, घर उजाड़ दिया जाता, तो उसकी अकल ठिकाने आ जाती!’

तब एकाएक रमेश पर नजर पड़ते ही मधु से उन्होंने पूछा कि ये कौन हैं!

‘छोटे बाबू के लड़के हैं! उस दिन सौदे के दस रुपए बाकी रह गए थे, सो खुद ही देने चले आए हैं।’

‘रमेश भैया हैं क्या? बड़ी उमर हो तुम्हारी! भैया, आते ही सुना कि छोटे बाबू का ऐसे ठाठ से श्राद्ध किया कि इधर किसी ने कभी देखा-सुना भी नहीं! पर मैंने आँख से न देखा, यही दुख है। मैं तो किस्मत का मारा, साले दो-चार आदमियों के बहकाने में आ कर, नौकरी करने कलकत्ता चला गया था। सो, यह हालत हो गई है। यहाँ क्या किसी भले आदमी का गुजारा है भला?’

रमेश ने कोई उत्तर न दिया और बैठा रहा। दुकान पर और भी जो लोग बैठे थे, उनकी कलकत्ता की बातें सुनने के लिए वे व्यग्र हो उठे।

मधु ने चिलम भर कर, बनर्जी के हाथ में हुक्का दे कर कहा – ‘हाँ, तो फिर कोई काम-धंधा लगा या नहीं!’

‘लगता क्यों नहीं! भाड़ तो झोंका ही नहीं मैंने। पढ़ना-लिखना भी जानता हूँ। पर भैया, घर से बाहर निकलते ही, घोड़ागाड़ी के नीचे दबने से बचकर घर लौट आओ तो समझो कि बुजुर्गों की और अपनी बड़ी किस्मत है!’

मधु अपना गाँव छोड़ कर सिर्फ एक बार गवाही देने के लिए मेदिनीपुर तक जरूर गया था, वरना गाँव के बाहर उसने कभी कुछ देखा ही नहीं था। तभी उसे बनर्जी की बातों पर घोर निश्‍चय मालूम हुआ। बोला – ‘कहते क्या हैं आप?’

बनर्जी ने थोड़ा मुस्करा कर कहा – ‘झूठ है या सच, अपने रमेश बाबू से ही पूछ देखो! और अब तो कोई लाख क्यों न कहे, चाहे यहाँ भूखों मरना पड़े, पर अब गाँव छोड़ कर बाहर नहीं जाने का! वहाँ तो साग-पात, धानिया-मिर्च, सभी खरीद कर ही खाने को मिलते हैं। खा सकते हो भला तुम उन्हें खरीद कर? मैं नहीं खा सका, तभी एक महीने में ही बीमार डाँगर की तरह हो गया हूँ। पेट में रात-दिन गुड़-गुड़ होती ही रहती है, कलेजे में भी एक जलन-सी मची रहती है। जैसे-तैसे जान बचाई है, यहाँ आ कर! यहाँ मुझे भीख माँग कर भी बच्चों का पेट भरना मंजूर है, पर वहाँ वापस जाना नहीं! ब्राह्मणों को भीख माँगने में कोई दोष भी नहीं है!’

अपनी कहानी और उसे कहने के ढंग से सुनने वालों को चकित कर, बनर्जी महाशय उठ कर तेल के बर्तन के पास पहुँचे, और परी से कोई छ्टाँक भर तेल निकाल, नाक-कान में डाल और शेष सिर पर मलकर बोले – ‘अब नहा-धो कर घर चलूँ, अबेर हो रही है। मधु, जरा नमक तो देना एक पैसे का। पैसा अभी नहीं है। तीसरे पहर दूँगा।’ मधु ने नमक देने के लिए उठते हुए कहा – ‘वही फिर देने की बात टाल बताई!’

बनर्जी ने आगे को गरदन झुका कर कहा – ‘आखिर मामला क्या है? किसी से जबरदस्ती पैसा लेना है यह तो! जरा देखूँ तो।’ उसने बढ़ कर खुद एक मुट्ठी नमक निकाल कर पुड़िया में रख लिया और लोटा उठा कर, रमेश की तरफ देख कर हँसते हुए कहा – ‘चलिए, बातचीत होती चलेगी! रास्ता एक ही है, हमारा -आपका।’

रमेश भी चलने को उठ गया और जब दोनों चलने लगे, तब मधु ने एक ओर उतरे-से मुँह से कहा – ‘वे आटे के पैसे क्या बनर्जी महाशय…?’

बीच में बनर्जी ने नाराजगी के स्वर में, पीछे को मुड़ कर कहा – ‘उन ससुरों के चक्कर में पड़ कर तो कलकत्ता जाने-आने में मेरे पाँच रुपए का खून हो गया, फिर भी तुम्हें अपने तकाजे की पड़ी है! इसी को कहते हैं कि किसी का तो सब लुटा और किसी को अपनी पड़ी है! रमेश भैया! देखा, इन लोगों का रवैया। अरे भाई, जब आ ही गया हूँ, तो अब सवेरे-शाम मिलते रहेंगे, फिर बड़बोंग काहे की है?’

मधु सहम गया, धीरे से बोला – ‘काफी दिन तो…।’

‘तो क्या? यों पीछे पड़ कर तो तुम सब जने, मेरा गाँव में रहना ही मुहाल कर दोगे!’ कह कर मुँह फुलाते हुए, बनर्जी अपना सामान उठा कर चलते बने।

और रमेश वहाँ से चल कर सीधे अपने मकान पर पहुँचा। वहाँ उसने एक भद्र पुरुष को हुक्का पीते बैठा देखा, जो उन्हें देखते ही हुक्का रख कर खड़ा हो गया और झुक कर प्रणाम कर बोला – ‘मैं आपके स्कूल में हेडमास्टर हूँ और बनमाली पांडे मेरा नाम है! दो बार पहले भी आपके दर्शन को आ चुका हूँ, पर दर्शन न मिल सके थे।’

रमेश के सम्मान से बैठाने पर भी वे अड़कर खड़े ही रहे, बोले – ‘मैं तो सेवक हूँ आपका!’

रमेश उनके इस व्यवहार से क्षुब्ध हो गया। एक तो उनकी उमर आदर के योग्य और फिर शिक्षक! फिर भी इस प्रकार दबना और डरना देख, रमेश ताज्जुब में पड़ गए।

खड़े-खड़े ही उन्होंने कहा – ‘इस स्कूल की नींव मुकर्जी और घोषाल बाबू की कोशिश से रक्खी गई थी। आसपास में यही एक छोटा-सा स्कूल है। करीब तीस-चालीस विद्यार्थी हैं इसमें। कुछ तो दो-तीन कोस दूर के गाँव से पढ़ने आते हैं। थोड़ी-सी सरकारी सहायता मिलने के कारण स्कूल चल नहीं पा रहा है। अगर अभी से छप्पर छाने का इंतजाम नहीं हुआ, तो बरसात में तो वहाँ बैठा ही नहीं जा सकता! खैर, बरसात के दिन अभी दूर हैं, और तब तक छप्पर तो बाद में छवाया जा सकता है। अभी तो विकट समस्या है कि सभी शिक्षकों की तीन-तीन महीने की तनख्वाह बाकी है। अब भला कहाँ तक कोई अपनी गाँठ का खा कर, काम कर सकता है?’

स्कूल की दशा का वर्णन सुन कर रमेश खड़ा हो गया। उसे दुख हुआ कि कभी उसने प्राथमिक शिक्षा वहीं पाई थी। उन्हें बैठक में ले जा कर उसने विस्तार से हाल पूछा।

स्कूल में चार शिक्षक कार्य करते हैं, जिनकी अथक मेहनत के फलस्वरूप ही हर वर्ष दो विद्यार्थी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो सके हैं। विद्यार्थियों के नाम, गाँव का पता वगैरह वे इस तरह कह गए, मानो सब याद रखा हो। लड़कों से प्राप्त फीस से नीचे के दो मास्टरों का वेतन तो चल जाता है, और सरकारी सहायता से एक तीसरे मास्टर का वेतन निकल आता है। अब रहा चौथा, सिर्फ उसी के लिए आस-पास के गाँव से चंदा उगाहना होता है, जिसे भी मास्टरों को ही करना होता है। मगर पिछले चार महीने से द्वार-द्वार भटक कर, कुल सवा सात रुपए वसूल कर पाए हैं।

स्कूल की रामकहानी सुन कर रमेश स्तब्ध रह गया। उन्हें सबसे बड़ा ताज्जुब इस बात पर था कि इतने गाँवो के बीच एक स्कूल होते हुए भी, चार महीनों की दौड़-धूप में वसूल हो पाए तो कुल सवा सात रुपए! पूछा उसने – ‘आपका वेतन क्या है?’

‘कागज पर तो मिलते हैं छब्बीस रुपए; हाथ पड़ते हैं कुल तेरह रुपए पंद्रह आने ही!’

कुछ न समझ सकने के कारण रमेश उनके मुँह की तरफ ताकने लगा। मास्टर साहब भी समझ गए कि बाबू समझ नहीं पाए। तभी विस्तार से बोले – ‘लिखा-पढ़ी में तो छब्बीस ही वेतन दिखाया जाता है, क्योंकि वह कागजात डिप्टी साहब को दिखाने होते हैं। और सरकारी हुक्म भी है कि वेतन छब्बीस रुपया होना चाहिए! ऐसा न करें, तो सरकारी सहायता बंद हो जाएगी, यह बात तो जग जाहिर है! विद्यार्थी जानते हैं, किसी से पूछ देखिएगा!’

कुछ देर चुप रहने के बाद रमेश ने पूछा – ‘तो इस तरह विद्यार्थियों के सामने आपकी क्या इज्जत रहती होगी?’

मास्टर साहब ने शरमाते हुए कहा – ‘पर वेणी बाबू तो इतना भी देने में अलकसाते हैं।’

‘तो स्कूल के कर्ता-धर्ता वे ही जान पड़ते हैं।’

मास्टर साहब ने सकुचाते हुए दबी जबान में कहा – ‘वेणी बाबू मंत्री तो हैं, पर पैसा कभी नहीं देते! स्कूल चल रहा है, तो बस यह मुकर्जी की कन्या की कृपा से। पहले तो उन्होंने भी कहा था कि इस वर्ष छप्पर छवा देंगे, पर अब उन्होंने हाथ खींच-सा लिया है, न जाने क्यों?’

रमेश ने रमा के संबंध में और भी अनेक प्रश्‍न कर डाले। अंत में उन्होंने पूछा – ‘उनका एक छोटा भाई भी तो स्कूल में पढ़ता है?’

‘जी! यतीन!’

‘अब आज तो आप जाइए, आपके स्कूल का भी समय हो रहा है। कल मैं ही जाऊँगा आपके स्कूल में!’

‘जैसी आपकी आज्ञा’ – कह प्रणाम कर और जबरन उनके पैरों को स्पर्श करके वे चले गए।

अध्याय 6

श्राद्धवाले दिन विश्‍वेश्‍वरी के व्यवहार की चर्चा, आस-पास के दस-पाँच गाँव तक में फैल गई। वेणी की हिम्मत नहीं थी कि उसके लिए वह उनसे कुछ कहे। तभी वह जा कर मौसी को बुला लाया और वास्तव में उन्होंने विश्‍वेश्‍वरी को वह खरी-खोटी सुनाई, कि जिस तरह सुना जाता है कि पहले कभी तक्षक नाग ने अपना एक दाँत गड़ाकर ही, पीपल के पेड़ को जला कर राख कर दिया था; उसी तरह उनका शरीर जल कर राख तो नहीं हुआ, पर उसकी जलन से वे तिलमिला जरूर गईं। उन्होंने समझ तो लिया कि उनके सुपुत्र के ही षडयंत्र से उनका यह अपमान हुआ है, तभी उसका खयाल कर, उसे चुपचाप पी गईं, क्योंकि उन्हें डर था कि अगर उन्होंने किसी भी बात का उत्तर दिया, तो पुत्र की पोल खुल जाएगी और रमेश भी उसे सुनेगा। इस विचार-मात्र ने ही उन्हें शर्म से पानी-पानी कर दिया था।

पर रमेश के कानों तक बात पहुँच ही गई थी। रमेश को यहाँ तक तो खतरा था कि ताई जी और वेणी भैया में उसे लेकर काफी कहासुनी होगी; पर उन्हें स्वप्न में भी वेणी से यह आशा नहीं थी कि वह इतनी नीचता तक भी पहुँच सकता है कि एक अन्य घर की स्त्री को बुला कर अपनी माता का ही अपमान कराए! इसका विचार करते ही रमेश के गुस्से की सीमा न रही और उनके मन में आया कि अभी, इसी समय वेणी के घर जा कर, जो भी कटु वचन कहा जा सके जी खोल कर सुना आए। लेकिन उससे तो ताई जी का ही और अधिक अपमान होगा – यही सोच कर वे नहीं गए। पिछले दिन मास्टर साहब तथा दीनू भट्टाचार्य जी से रमा के संबंध में सुन कर, उसके प्रति उनकी भावना काफी उच्च बन चुकी थी। ताई जी के अलावा, इस अंधकार के साम्राज्य में उन्हें दूसरी प्रकाश-किरण मुकर्जी के परिवार से ही दीख रही थी। इससे उन्हें प्रसन्नता बड़ी हुई थी, लेकिन ताई जी के अपमान की घटना ने उनके मन में रमा के प्रति एक अजीब घृणा भर दी और अब तक जहाँ उसे प्रकाश दिखाई देता था, वहाँ उसे घृणित घोर अंधकार दिखाई पड़ने लगा। उन्हें पूरा विश्‍वास हो गया था कि रमा और उनकी मौसी ने मिल कर, वेणी का पक्ष लेकर उनके संबंध में ही ताई जी का अपमान किया है; पर चाह कर भी उन्हें अंत तक यह न समझ में आया कि आखिर वह इस अपमान का बदला उससे ले, तो कैसे ले!

अभी तक ऐसी भी बहुत-सी जायदाद मौजूद थी – जो मुखर्जी और घोषाल – दोनों घरानों के साझे में ही थी। भैरव आचार्य के घर के पीछे गढ़नाम का तालाब तीनों के साझे में ही था। एक जमाना था जब तालाब काफी बड़ा था -लेकिन साझे में, मरम्मत की जिम्मेदारी किसी ने न लेने पर, वह बेचारा निराशा से मर-मिटा और अब एक मामूली गड़ही के आकार का ही रह गया था। अच्छी मछलियाँ कभी उनमें तो होती ही नहीं थीं और न बाहर से ही मँगा कर उसमें छोड़ी जाती थीं। बस दो-एक तरह की साधारण-सी मछलियाँ ही उसमें होती थीं। उस दिन वेणी उसमें से मछलियाँ पकड़वा रहे थे और रमेश को इसका पता भी नहीं था – तभी भैरव ने दौड़ कर इस घटना की उनको सूचना दी।

‘गढ़ की सारी मछलियाँ पकड़ी जा रही हैं, सरकार महाशय! अपने आदमी नहीं भेजे, अपना हिस्सा लाने को!’

सरकार ने हाथ की कलम कान में खोंस ली – पकड़वा कौन रहा है?’

‘भला और हिम्मत किसकी हो सकती है! मुकर्जी का पछैया दरबान है और वेणी बाबू का एक नौकर है। आपका कोई आदमी वहाँ नहीं देखा, तभी कहने आया हूँ कि जल्दी भेजिए वहाँ किसी को!’

‘ले जाने दो, हमारे बाबू को मांस-मछली से घृणा है।’

‘उन्हें घृणा है, तो इसमें अपना हिस्सा भी छोड़ बैठेंगे?’

‘चाहते तो हम भी सभी हैं, उसमें से हिस्सा लेना – और अगर बड़े बाबू मौजूद होते, तो वे लेकर ही रहते। लेकिन हमारे छोटे बाबू तो इस प्रवृत्ति के नहीं हैं!’

सुन कर भैरव विस्मयान्वित नेत्रों से सरकार जी के मुँह की तरफ देखता रहा। उसे इस तरह देखता देख, सरकार ने आगे जरा व्यंग्यभरी मुस्कान से कहा – आचार्य जी, आँखें क्यों फाड़ रहे हो? उस दिन वह हाट की उत्तर तरफ वाला, बड़ा-सा एक इमली का पेड़ कटवा कर, उन दोनों ही घरों ने आपस में बाँट लिया। मैंने आ कर बाबू से कहा, तो वे किताब पढ़ते हुए जरा देर को सिर उठा कर थोड़ा-सा मुस्करा दिए और फिर किताब पढ़ने लगे, बिना एक शब्द भी मुँह से निकाले! हमें उस पेड़ का पत्ता तक भी न मिला। जब मैंने कई बार कहा, तब उन्होंने एक लंबी-सी उसाँस लेकर कहा कि क्या हमारे यहाँ इमली के और पेड़ नहीं? मैंने कहा भी कि पेड़ तो अपने पास बहुत हैं, पर अपना हिस्सा है, उसे तो लेना ही चाहिए! पाँचेक मिनट मौन रह कर, उन्होंने मुस्करा कर कह दिया – ‘यह सब कुछ ठीक होते हुए भी, दो -चार लकड़ियों के पीछे झगड़ा क्यों किया जाए!’

भैरव की विस्मित आँखें और चकित हो कर फट गईं, बोले – ‘कहते क्या हैं आप यह?’

‘मैंने तो सच ही कहा है। उसी दिन समझ पाया और समझ लिया कि ऐसी बातों के लिए इनसे कुछ भी कहना धूल में लट्ठ मारना है। सच तो यह है आचार्य जी, कि इस घर की लक्ष्मी तो चली गई तारिणी बाबू के साथ ही!’

भैरव कुछ देर मौन रह बोले – ‘मेरा तो फर्ज था कहने का, क्योंकि वह ताल मेरे घर के पीछे ही पड़ता है।’

‘कहीं किताबों में ही हरदम आँखें गड़ाए रहने से जमींदारी चली है! यह मुकर्जी की लड़की भी इन सब बातों को सुन, खूब मखौल उड़ाती है और उसी दिन उसने गोविंद को बुला कर खिल्ली उड़ाते हुए ही कहा था, कि रमेश बाबू को तो चाहिए कि वे अपनी सारी जमींदारी हमें दे दें, और अपना महीने का खर्चा लिए जाएँ। भला आचार्य जी! एक औरत इस तरह एक पुरुष की खिल्ली उड़ाए? इससे अधिक शर्म की बात और क्या हो सकती है?’ यह कह, सरकार महाशय मुँह लटका कर, फिर कलम कान पर से हटा कर घिसने लगे।

घर में स्त्री न होने के कारण सब खुला चौपट्ट मैदान था। भैरव धड़धड़ाते अंदर पहुँच गए। रमेश एक बरामदे में, एक टूटी-सी आराम कुर्सी पर लेटे पुस्तकावलोकन कर रहा था। भैरव ने पहले तो उन्हें जमींदारी की रक्षा तथा उसे चलाने के लिए उनके कर्तव्यों का एक लेक्चर पिला कर, अपने फर्ज को निभाने के लिए उत्तेजित किया और तब असल मकसदवाली बात कही। सुनते ही रमेश गरज कर कुर्सी से उछल पड़ा – ‘भजुआ! रोज की ये चालाकियाँ यों चलती रहेंगी क्या?’

उनके उस अग्र रूप को देख कर भैरव भी सिहर उठे और उनकी समझ में ही न आया कि चालाकियों से रमेश का इशारा किस तरफ है।

भजुआ का शहर गोरखपुर था। लाठी खूब भाँजता था और शरीर भी काफी बलवान था। लाठी में रमेश को वह गुरु मानता था, अपना नाम सुनते ही वह रमेश के सम्मुख आ उपस्थित हुआ।

उसे आता देख रमेश ने आज्ञा दी कि जा कर सारी मछलियाँ बीन लो। अगर कोई रोकने की गुस्ताखी करे, तो उसे घसीट कर मेरे सामने ले आओ, और नहीं तो उसके दाँत तो तोड़ ही आना!

भजुआ को तो मन की मुराद मिल गई, आज्ञा पाते ही अपनी तेल-पिलाई लाठी लेने अंदर लपका। भैरव और भी सिहर कर काँप उठे। उनकी हिम्मत तो बस बातों से ही झगड़ा करने भर की थी और जब भजुआ रमेश की आज्ञा पर चला गया, तब दुर्घटना की चिंता ने उन्हें व्याकुल कर दिया और उन्हें खयाल हो आया कि जो बादल गरजते नहीं, वे बरसते जरूर हैं! वे रमेश के हितैषी जरूर थे, तभी तो सूचना देने आए थे। पर चाहते यही थे कि बातों से ही, चीख -पुकार कर काम बन जाए। लेकिन यहाँ तो बानक ही दूसरा बना जा रहा था। भैरव फौजदारी की साँसत से कोसों दूर भागना चाहते थे। थोड़ी देर बाद, भजुआ तेल से तर मोटी लाठी लेकर अंदर से आया और माथे से लाठी लगा रमेश को प्रणाम कर जाने लगा। तभी भैरव ने एकाएक रोना शुरू कर दिया और रमेश के दोनों हाथ पकड़ कर कहा – ‘रुक जाओ भज्जू भैया। क्षमा करो भैया रमेश! जान साँसत में पड़ जाएगी। गरीब आदमी ठहरा!’

भजुआ रुक गया था। रमेश ने भैरव से हाथ छुड़ा लिए और दंग हो कर उनकी तरफ देखने लगा। भैरव ने रोते हुए ही कहा – ‘वेणी बाबू ने कहीं सुन पाया कि मैंने ही इत्तला दी थी, तो बस मेरी खैर नहीं! घर-बार तक उजड़ जाएगा। फिर तो देवी-देवता भी रक्षा नहीं कर सकते मेरी!’

रमेश स्तंभित बैठे रहा। शोर सुन कर सरकार महाशय भी तशरीफ ले लाए। सुन कर वे भी बोले – ‘भैयाजी, आचार्य का कहना ठीक ही है!’

रमेश ने किसी बात का उत्तर न दिया। हाथ से ही भजुआ को जाने का संकेत कर दिया और स्वयं उठ कर, बिना किसी से कुछ कहे-सुने अंदर चला गया। भैरव के इस अत्यधिक डर ने उसे और भी उत्तेजित कर दिया, जिसके कारण उनका सारा शरीर उत्तेजना से जल रहा था।

अध्याय 7

‘यतीन! स्कूल नहीं जाना क्या जो अभी खेल ही रहा है?’

‘हमारे स्कूल में आज और कल की छुट्टी है।’

मौसी के कानों में इस सूचना के पड़ते ही उनका मुँह बिचक गया। वह बोली -‘ जब देखो तब छुट्टी, महीने में पंद्रह दिन तो इसी तरह निकल जाते हैं। चूल्हे में जाए ऐसा स्कूल! तुम हो कि उस पर फिजूल में ही सारा रुपया खर्च कर देती हो। मैं तो चूल्हे में झोंक दूँ ऐसे स्कूल को!’ इतना कह कर वे अपने काम से चली गईं।

स्कूल को चूल्हे में झोंकने की बात तो उन्होंने सच कही थी, कि अगर उनकी चलती, तो वे निश्‍चय ही ऐसा करतीं। और बातों में चाहे झूठ भी बोल जाएँ, पर ऐसे मौकों पर वे झूठ नहीं कहती थीं।

उनके चले जाने पर रमा ने यतीन को और भी पास घसीट कर, अपने से चिपटा कर पूछा – ‘आज काहे की छुट्टी है रे यतीन?’

यतींद्र ने उसी अवस्था में रह कर कहा -‘नया छप्पर छाया जा रहा है। सफेदी होगी। चार-पाँच कुरसियाँ, मेज, अलमारी, घड़ी आई हैं, बहुत सारी किताबें भी, बड़ी अच्छी-अच्छी तथा नई आनेवाली हैं। तुम चल कर देखो न एक दिन, दीदी!’

रमा को निश्‍चय हुआ, पूछा -‘ सच है क्या यह सब?’

‘दीदी, मैं सच ही कह रहा हूँ। रमेश बाबू की ही तरफ से तो यह सब कुछ हो रहा है।’

यतीन आगे और भी कुछ कहने को था, पर तभी मौसी वहाँ आ पहुँची। रमा उसे अपनी गोद में उठा कर अपनी कोठरी में ले गई, और उसे प्यार से और भी अपने से चिपटा कर, रमेश की और स्कूल संबंधी अनेक बातें पूछ लीं उससे। उसने यह भी जाना कि रमेश स्वयं आ कर दो घण्टे पढ़ाते हैं। रमा ने मुस्करा कर पूछा – ‘तुम्हें वे पहचानते हैं भला?’

यतींद्र ने सिर हिला कर कहा – ‘हाँ!’

‘तू कहता क्या है उनसे?’

अभी तक यतींद्र की रमेश से इतनी समीपता नहीं हुई थी कि यह उन्हें कुछ कह कर पुकराने का अवसर पाता। रमेश के स्कूल में आते ही लड़के तो क्या, हमेशा रोब झाड़नेवाले हेडमास्टर साहब भी भीगी बिल्ली की तरह चुपचाप खड़े हो जाते हैं। छात्रों में से रमेश से कुछ कह कर पुकारना तो दूर रहा, उनकी तरफ मुँह भी उठाने का किसी को साहस नहीं होता। लेकिन अपनी कमजोरी कैसे जाहिर करे, दीदी के सामने! तभी मास्टर साहब के मुँह से उन्हें जिस नाम से पुकारते सुना था, वही कह दिया -‘छोटे बाबू कहते हैं हम सब!’

कहते समय उसके मुँह की जो दशा हो गई, उससे रमा सब समझ गई और उसे और भी प्यार से भींच कर कहा – ‘बेटा, वे तेरे भइया लगते हैं! छोटे बाबू क्यों कहता है? वेणी बाबू को जैसे बड़े भइया कहता है, वैसे ही उन्हें छोटे भइया कहा कर!’

यतींद्र ने खुशी से उछल कर पूछा – ‘सच, वे मेरे भइया होते हैं?’

‘हाँ! सच ही तो कहती हूँ। वे तेरे भइया ही लगते हैं!’

अब यतींद्र के दिल में इस खबर को अपने सभी सहपाठियों से कहा देने का हुलास जोर मारने लगा, और उसके लिए वहाँ एक मिनट भी रुकना दूभर हो रहा था। जो दूर के विद्यार्थी थे, उन्हें तो खबर ही नहीं दी जा सकती; पर जो पास-पड़ोस के हैं, उनसे तो बिना कहे रहा भी नहीं जा सकता। तभी जाना चाहते हुए उनसे कहा – ‘तो अब जाने दो न दीदी!’

पर रमा ने उसे जाने नहीं दिया और वह मुँह लटकाए बैठा रहा। फिर कुछ देर बाद उसने पूछा – ‘दीदी, इतने दिन तक कहाँ थे वे?’

‘परदेश में पढ़ाई कर रहे थे अब तक! जब तुम भी बड़े हो जाओगे, तब तुम्हें भी इस तरह बाहर जा कर रहना पड़ेगा। अच्छा यतींद्र, क्या तुम मुझसे अलग रह सकोगे?’ -और उसने प्यार से यतींद्र को एक बार फिर कस कर चिपटा लिया।

यतींद्र बच्चा था तो क्या, उसने रमा के स्वर के कम्पन को अनुभव किया, और बालसुलभ उत्सुकता से रमा की ओर देखता रहा। आज यह पहला ही अवसर था यतींद्र के लिए, जब उसकी दीदी ने उसे इस तरह प्रेम से भींच रखा था। वैसे तो वह पहले भी प्यार करती थी, पर इस तरह का आवेश उसने कभी नहीं देखा था।

‘क्या छोटे भइया सारी पढ़ाई पढ़ आए हैं?’

रमा ने शब्द से नहीं, दीर्घ नि:श्‍वास से और सिर हिला कर ही उसका उत्तर दे दिया। इस संबंध में सच तो यह था कि वह अनभिज्ञ थी, और सारा गाँव भी नहीं जानता था इसे; पर वह यह अवश्य समझती थी कि जो दूसरों की शिक्षा के संबंध में अभी से इतना जागरूक है कि स्वयं जा कर पढ़ाए, वह स्वयं भी काफी विद्वान होगा ही!

फिर यतींद्र ने इस संबंध में और कोई तर्क नहीं किया। उसने सहसा पूछा -‘अच्छा दीदी, हमारे यहाँ क्यों नहीं आते छोटे भैया? बड़े भैया तो रोज ही आते रहते हैं!’

रमा इस प्रश्‍न की चोट से व्यथित हो उठी और उसका समस्त अंतर बिलख उठा। पर अपने को संयत कर मुस्कराते हुए उसने कहा – क्या तू उन्हें बुला कर नहीं ला सकता, अपने यहाँ?’

‘अभी जाता हूँ, लाऊँ?’ – कह कर यतींद्र तो तुरंत तैयार हो गया।

‘तू तो बस पागल है पूरा!’ – कह कर रमा ने व्यग्र हो, जोर से पकड़ कर, उसे अपने पास बैठा लिया और कहा – ‘कभी ऐसा कर भी मत बैठना, यतीन!’

उसकी छाती से चिपटा होने के कारण, यतींद्र ने बच्चा होते हुए भी उसके हृदय की धड़कन का स्पष्ट अनुभव किया, जिससे वह मारे विस्मय के, विस्फरित नेत्रों से उसकी ओर देखता रह गया। यह उसका पहला अनुभव था। रमा ने उसे यह बता दिया था कि रमेश उसके अपने ही छोटे भैया हैं, और कहा भी – ‘क्या तू बुला कर नहीं ला सकता उन्हें?’ पर जब बुलाने को उद्यत हुआ, तो डर कर इस तरह रोक दिया। आखिर ये उनसे इस तरह डरती क्यों हैं? यतींद्र की समझ में ही नहीं आ रहा था कुछ। तभी मौसी की पुकार सुन कर, रमा ने उसे छोड़ दिया और उठ कर खड़ी हो गई। मौसी ने दरवाजे पर स्वयं आ कर कहा – ‘अरे, अभी नहाने भी नहीं गई? मैं तो समझ रही थी कि रमा घाट पर नहा रही होगी! आज एकादशी है, फिर भी…इतना दिन चढ़ आया है और अभी तक न नहाई हो और न बालों में तेल ही डाला है! देखो तो जरा अपना मुँह, सूखकर स्याह हो रहा है।’

रमा ने जबरदस्ती की हँसी हँसकर कहा – ‘अच्छा, तुम चलो, मैं अभी आती हूँ नहाने!’

‘जाओगी कब? बाहर वेणी आया है, मछलियों का हिस्सा-बाँट करने की राह जोह रहा है।’

मछलियों का जिक्र सुनते ही, यतींद्र वहाँ से सिर पर पैर रख कर भागा। रमा भी धोती से मुँह पोंछ कर, जिससे किसी को आवेग के चिह्न भी न मिल जाएँ उसके चेहरे पर, मौसी के साथ बाहर निकली।

आँगन में हंगामा मचा था। एक बड़ी-सी डलिया में पकड़ी हुई मछलियाँ रखी थीं और वेणी स्वयं ही आए थे…उसका बँटवारा करने को। पास-पड़ोस के बच्चे जमा हो कर शोर मचा रहे थे।

पीछे से खाँसते हुए धर्मदास आँगन में घुसे और घुसने के साथ बोले -‘मछलियाँ पकड़ी गई हैं क्या आज, वेणी?’

वेणी ने मुँह बना कर कहा -‘हाँ, पकड़ी तो गई हैं; पर थोड़ी-सी ही तो हैं!’ और कहार को बुला कर उससे बोले – ‘जल्दी से दो हिस्सों में बाँट दे उन्हें, देख क्या रहा है खड़ा-खड़ा!’

कहार हिस्सा करने लगा। तभी गोविंद गांगुली ने भी आँगन में प्रवेश किया और बोले – ‘कहो बेटी रमा, कुशल से तो हो ना! कई दिनों से आना नहीं हो सका, सोचा, चलूँ जरा बेटी की कुशल ही पूछता आऊँ!’

रमा ने मुस्करा कर कहा – ‘आइए!’

गांगुली महाशय कहते हुए बढ़े – ‘आज इतनी भीड़ क्यों लगी है?’ और आगे बढ़ कर, मछलियों का ढेर देख कर विस्मय प्रकट करते हुए बोले – ‘बड़ी मछलियाँ फँसी हैं आज जाल में। बड़े ताल में जाल पड़ा था क्या?’

सुन कर भी किसी ने उनका उत्तर नहीं दिया – हिस्सा करने में ही लगे रहे। हिस्सा जब हो चुका, तब वेणी ने अपने हिस्से की सभी मछलियाँ एक डलिया में रख कर कहार के सिर पर उठवा दीं और उसे आँख के इशारे से जाने को कह, स्वयं भी जाने को उद्यत हुए। रमा क्या करती, इतनी ढेर सारी मछलियों का! जो भी मौजूद थे, सभी ने अपनी-अपनी जरूरत के मुताबिक मछलियाँ हथिया लीं और फिर घर चलने को हुए ही थे कि रमेश का पछैया लठैत मनुआ अपने सिर से ऊँची लाठी लिए, बैल-सा, आँगन में आ कर खड़ा हो गया। उसके भीषण चेहरे से सभी डरने लगे थे। गाँव में अनेक प्रकार की झूठ -सच कहानियाँ भी फैल गई थीं उसके संबंध में। उसने अंदर आते ही रमा को दूर से ही ‘माँ जी’ कह कर अलग से एक लंबा सलाम किया, और आगे बढ़ कर खड़ा हो गया। रमा को पहले कभी न देख कर भी, इतनी भीड़ में कैसे उसने समझा कि ये मालकिन हैं – सो वही जाने! पास आ कर अपने कर्कश स्वर में, हिंदी और बंगला की खिचड़ी में उसने बतलाया कि वह रमेश बाबू का नौकर है, और मछलियों में से तीसरा हिस्सा लेने को ही आया है।

पता नहीं क्यों…शायद विस्मय में आ जाने के कारण उसके इस तरह आ जाने से, उसकी भीषण काया को देख कर जो डर उत्पन्न हो गया था; अथवा बात समझ न आने के कारण, रमा ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया।

मनुआ उत्तर की प्रतीक्षा में, निश्‍चय में मुँह बनाए खड़ा रहा। फिर सहसा घूम कर वेणी बाबू ने उससे कड़े स्वर में कहा – ‘अभी रुक जा!’

मारे डर के, कहार भी और चार कदम पीछे आ कर खड़ा हो गया। थोड़ी देर तक तो किसी के मुँह से एक शब्द भी न निकला। फिर साहस कर वेणी बाबू ने दूर से कहा – ‘हिस्सा? कैसा हिस्सा?’

मनुआ ने उन्हें भी सलाम झुकाया और अदब से बोला -‘आपसे तो बाबूजी, पूछा भी नहीं मैंने!’

मौसी, जो दूर दालान में थीं, वहीं से बोलीं – बाप रे बाप! मारेगा क्या?’

मौसी की तरफ पहले तो मनुआ ने एक नजर डाली और फिर कर्कश हँसी से सारे मकान को गुँजा कर, रमा को लक्ष्य कर बोला – ‘माँ जी!’

उसके स्वर और व्यवहार में अदब का पुट होने पर भी कठोरता भी और उद्दंडता भी; जिसका खयाल करके रमा को बुरा मालूम हुआ। बोली – ‘क्या चाहते हैं, तुम्हारे बाबू?’

मनुआ ने रमा के स्वर में भी नाराजगी का भाव पाया, जिससे जरा और नर्म हो कर अपनी बात उसने फिर दोहरा दी। पर मछलियाँ तो बँट-बँटाकर किनारे भी लग चुकी थीं। इतने आदमियों के समाने वह नीचा भी नहीं देखना चाहती थी। उसने कठोर स्वर में कहा – ‘इन मछलियों में तुम्हारे बाबू का हिस्सा-विस्सा कुछ नहीं है! कह देना जा कर उनसे…जो करते बने कर लें!’

मनुआ ने फिर अदब से लंबा-सा सलाम झाड़ा और कहा – ‘अच्छी बात है माँ जी!’

वेणी बाबू ने भी मौका पा कर कहार को मछलियाँ ले जाने का आँख से ही इशारा किया; बिना कुछ बोले-चाले वे स्वयं भी जाने लगे। मनुआ भी चला गया था, और पीछे लोग उसके व्यवहार से विस्मयान्वित हो, हतबुद्धि-से बैठे थे कि वह लौट आया। रमा को लक्ष्य कर अपने स्वर को और कोमल कर, बाँग्ला-हिंदी की खिचड़ी में बोला -‘माँ जी, पहले तो बाबू ने जब लोगों के मुँह से खबर पाई, तो गुस्सा हो मुझे हुक्म दिया कि जा कर तालाब पर से ही मछलियाँ छीन लाऊँ! वैसे तो, न बाबू ही खाते हैं मांस-मछली और न मैं ही!’ पर अपने चौड़े सीने पर हाथ रख कर आगे बोला – ‘उनका हुक्म बजा लाने में, जान भले भी चली जाती, मगर ताल पर से पैर पीछे न हटाता। वह तो बड़ी खैर थी कि उनका गुस्सा शांत हो गया, और फिर उन्होंने मुझे आपसे पूछ आने को कहा कि हमारा हिस्सा तालाब में है कि नहीं?’ और फिर बड़े अदब से दोनों हथेलियों के बीच में लाठी ले, माथ से लगा कर रमा हो नमस्कार कर कहा – ‘बाबूजी ने कहा था कि और कोई चाहे कुछ भी कहे, पर माँ जी कभी झूठ न बोलेंगी और न दूसरे का हिस्सा ही मारेंगी!’ और फिर आदर से नमस्कार कर चला गया।

जैसे ही वह गया, वैसे ही वेणी ने जनानी आवाज में उछल कर कहा – ‘बस, इसी तरह जमींदारी चलाएँगे, भैया जी! रमा, आज कहे देता हूँ तुम्हारे सामने और तुम पक्का ही जानो कि आज से अब वह ले तो ले तालाब में से एक घोंघा भी, तो मैं जानूँ!’

अपनी बात पर स्वयं ही प्रसन्न हो कर हँसने भी लगे वे। पर रमा ने एक शब्द भी न सुना उनका। उसके कानों से तो रह-रह कर मनुआ के ही शब्द टकरा रहे थे कि ‘माँ जी झूठ नहीं बोल सकतीं’ और फिर आरक्त हो उठा उनका मुँह। और क्षण भर बाद ही वह फक्क सफेद भी हो गया। किसी की नजर न पड़ जाए, उसके इस रक्तहीन चेहरे पर, इसलिए उसने सिर की धोती थोड़ी माथे पर खींच ली और हट गई वहाँ से।

अध्याय 8

‘ताई जी!’

‘रमेश बेटा! चले आओ भीतर!’

विश्‍वेश्‍वरी ने झटपट, उसके बैठने को एक चटाई बिछा दी। अंदर पैर रखते ही, वहीं पर बैठी एक दूसरी स्त्री पर उसकी नजर पड़ी, जिसके मुँह पर नजर पड़ते ही वह समझ गया कि वह रमा है! उसे देख कर वह चकित रहा गया। तुरंत ही मौसी द्वारा ताई जी के अपमान की बात याद आते ही, गुस्से से भर उठा वह।

रमेश के इस तरह एकाएक आ जाने से, रमा भी अजीब संकट में फँस गई थी। अन्य कारणों के अलावा एक यह भी कारण था उसके इस तरह संकोच करने का कि रमेश से उसका एक दूसरा ही संबंध होनेवाला था। उस कारण से, एक बिलकुल अपरिचित की तरह पर्दा करने में भी उसे संकोच होता था, और न करते ही बनता था। मछलियों का झगड़ा अभी थोड़े ही दिन पहले हो चुका था। रमेश भी उसकी ओर बिना धयान दिए, चटाई पर ही एक तरफ बैठ गया और बोला – ‘ताई जी!’

‘दोपहर में कैसे भूल पड़े इधर?’

‘दोपहर को न आऊँ तो कब आऊँ? और तो जब कभी आता हूँ, तो काम में लगी रहती हो, एक मिनट बैठने भी नहीं पाता तुम्हारे पास!’

विश्‍वेश्‍वरी ने जरा हँसकर, उसके इस वाक्य की सत्यता को स्वीकार कर लिया।

रमेश ने मुस्कराते हुए कहा – ‘ताई जी! एक बार छोटेपन में, यहाँ से जाते समय तुमसे विदाई लेने आया था; वैसे ही आज भी विदा लेने ही आया हूँ, और संभवतः यही अंतिम विदाई भी हो!’

चेहरे पर उसके मुस्कराहट जरूर खेल रही थी, पर स्वर से स्पष्ट होता था कि उसका अंत:करण कितनी व्यथा से भरा है। रमा और विश्‍वेश्‍वरी – दोनों ही निश्‍चय में पड़ कर उद्विग्न हो उठीं।

‘बड़ी उमर हो तुम्हारी, रमेश बेटा! ऐसी बात मुँह से नहीं निकालते!’ – कहते–कहते उन दोनों की आँखें भर आईं। उन्होंने भरे गले से पूछा -‘क्या यहाँ तबियत ठीक नहीं रहती तुम्हारी?’

अपने बलिष्ठ शरीर पर नजर डाल कर रमेश ने कहा – ‘शरीर तो परिश्रम की दाल-रोटी से बना है! इतनी आसानी से खराब होने वाला नहीं है! मेरी तबियत तो भली-चंगी है; लेकिन यहाँ रहना मुहाल हो रहा है, एक क्षण को भी। यहाँ हर घड़ी दम निकलता-सा है।’

उसकी तबीयत तो अच्छी है, जान कर विश्वेश्‍वरी के जी में जी आया और निश्‍चिंतता की लंबी साँस खींच, हँसकर बोलीं – ‘तुम यहाँ पैदा हुए; यहाँ की माटी में ही खेल-कूदकर पले-पुसे, बड़े हुए। यही तुम्हारी जन्मभूमि है, फिर क्यों नहीं रहा जाता?’

‘तुम जानती तो हो सब कुछ! मैं अपने मुँह से सब बातें नहीं कहना चाहता।’

थोड़ी देर तक सभी मौन रहे, फिर विश्वेश्‍वरी बोलीं – ‘जानती हूँ जरूर; पर सब नहीं, थोड़ा-सा ही! और तभी कहती हूँ कि और कहीं जाने से भी काम नहीं बनने का!’

‘पर यहाँ तो मैं किसी को फूटी आँखों नहीं सुहाता!’

‘इसीलिए तो तुम्हें यहाँ और भी जमना चाहिए! और फिर अपने इस हट्टे-कट्टे शरीर की तारीफ के पुल बाँध रहे थे सो क्या यों मुश्किलों से भागने के लिए बनाया है?’

रमेश का रोआँ-रोआँ गाँव के विरुद्ध बोल रहा था और आज तो वह पराकाष्ठा तक पहुँच गया। गाँव से स्टेशन को जाने वाला रास्ता आठ-दस वर्ष पहले की बरसात से टूट गया था, और तब से आज तक किसी ने उनकी बात तक न पूछी थी। हर साल बरसात में उसका आकार बढ़ता ही गया। वहाँ सदैव ही थोड़ा-बहुत पानी जमा होने लगा, जिसके कारण स्टेशन से आने-जानेवाले लोगों को हरदम खतरा रहता, और बड़ी मुश्किल से उसे पार करना होता। कभी लोग उसमें बाँस डाल देते और कभी ताड़ की छोटी नाव ही औंधी डालकर उस पर से पार होते। पर किसी गाँववाले ने कष्ट सहते हुए भी यह न सोचा कि इसे ठीक ही करा लिया जाए! रमेश ने उसकी मरम्मत कराने में पहल की, और मरम्मत के लिए चंदा उगाहने की बात सोची। पर आठ-दस दिन की दौड़-धूप के बाद भी उसे नाकामयाबी ही मिली। यहीं तक बात रहती, तो भी गनीमत थी; किंतु वहाँ तो लोगों में काना-फूसी चल रही थी। आज सबेरे वह जब टहलकर लौट रहा था, तब उन्होंने वह सुनार की दुकान के अंदर इसी बारे में काना-फूसी सुनी। एक ने हँसते हुए कहा था – ‘एक धोला मत देना तुम लोग! उन्हें ही सबसे ज्यादा गरज है, सड़क बनाने की। ऐसे में भला चमकते जूते पहनकर उसे कैसे पार कर सकते हैं? तुम लोग दो चाहे न दो, मरम्मत तो वह आप कराएगा ही…तो फिर नाहक में हम दें ही क्यों भला? रही हम लोगों की बात, तो अब तक आते-जाते ही थे स्टेशन, काम तो रुका नहीं था, सो अब भी न रुका रहेगा!’

एक और आदमी ने कहा- ‘अरे, अभी देखते तो चलो! उस दिन चटर्जी महाशय कह रहे थे – अभी तो रमेश से शीतला का मंदिर ठीक कराना है! बस, ‘बाबू’ कह कर दो-चार खुशामदी बातें कही नहीं कि काम बना नहीं!’

यही दो बातें थीं जो सबेरे से उसके सारे अंत:करण को विदीर्ण कर, उसे गाँव के प्रति विद्रोही बना रही थीं।

विश्‍वेश्‍वरी ने भी उसी काटे पर चोट कर पूछा -‘बेटा, उस सड़क के ठीक कराने की बात थी न, सो क्या हुआ?’

रमेश तो जला-भुना बैठा ही था उस बात से, और तुनक कर बोले -‘अब नहीं ठीक होती वह सड़क! न कोई एक धेला खर्च करेगा और न सड़क ही बनेगी!’

‘और कोई न देगा, पर तुम तो अपने पास से खर्च कर ठीक करा ही सकते हो! बाबूजी जो बहुत सारा पैसा छोड़ गए हैं, उसी में से लगा देना, थोड़ा-सा!’ रमेश के कटे में नमक लग गया। बोला – ‘मुझे क्या गरज, जो मैं दूँ! बिना सोचे-समझे; स्कूल में ही इतने रुपए बहा दिए, उसी का सोच हो रहा है मुझे तो! यहाँवालों के लिए कुछ करना तो बिलकुल पाप है!’ रमा की तरफ हाथ आगे करके बोला – ‘यहाँवालों की कुछ भलाई करो, तो समझते हैं कि खूब बेवकूफ फँसा है – लूट सको तो लूट लो! और समझते हैं जैसे मेरी गरज है, हर काम में! किसी को क्षमा कर दो, तो सोचते हैं – डर गया, तभी छोड़ दिया!’

विश्‍वेश्‍वरी ठहाका मार कर हँस दीं, पर रमा मारे लज्जा के गड़ी जा रही थी। उसकी आँखें चेहरा एकदम से आरक्त हो उठीं।

रमेश उनके हँसने से और जल उठा। नाराज हो कर बोला – ‘हँसी क्यों, ताई जी?’

‘न हँसूँ तो क्या करूँ बेटा?’ एक दीर्घ नि:श्‍वास लेकर वे बोलीं – ‘रमेश, क्या तुम समझते हो कि इन पर नाराज हो कर भी कुछ असर डाला जा सकता है? ये हैं भी इस योग्य कि इन पर नाराज हुआ जा सके?’ फिर एक ठण्डी आह भर कर बोलीं – ‘अगर तुम जानते कि कितने गरीब, जाहिल, निर्बल हैं ये लोग, तो शायद तुम कभी यहाँ से जाने की बात न कहते! तुम इन्हें छोड़ कर जाना चाहते हो! मैं तो कहती हूँ कि जब तुम यहाँ आ ही गए हो, तो इन्हीं के बीच में रहो, बेटा!’

‘पर मैं उन्हें फूटी आँख भी नहीं सुहाता।’

‘तुम्हें अपना ही समझने की तमीज इनमें होती, तो फिर क्या बात थी? क्या अब भी तुम्हारी समझ में नहीं आता कि ये इस काबिल भी नहीं हैं कि इन पर तुम गुस्सा भी दिखा सको। और यही गाँव ऐसी हो, सो बात नहीं – यहाँ तो सभी गाँवो की यही दशा है, बेटा!’ फिर सहसा रमा की तरफ नजर डाल कर बोलीं – ‘अरे वाह बेटी, तुम तो बस सिर गड़ाकर ही बैठी हो, जैसे कोई मूर्ति हो! तुम दोनों भाई-बहनों में बोलचाल नहीं है क्या, रमेश?…नहीं, नहीं! ऐसा नहीं होना चाहिए, बेटी! बाप के साथ झगड़ा था, सो उन्हीं के साथ चला भी गया वह, अब उसे भूल जाना चाहिए!’

रमा ने उसी तरह से सिर झूका, आहिस्ता से कहा – ‘मेरे मन में तो कोई मैल नहीं, ताई जी! रमेश भैया…।’

तभी रमेश कर्कश स्वर में बोल उठा और रमा का नम्र स्वर खो गया – ‘तुम इस मामले में दखल मत दो, ताई जी! अभी इनकी मौसी से जाने कैसे जान बची है; और यदि आज फिर इन्हें भेज दिया, जो बिना कच्चा खाए न छोड़ेंगी!’ और बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए वे बाहर चले गए।

‘अरे, एक बात तो सुनता जा, बेटा! जरा रुक तो सही!’

रमेश ने दरवाजे के बाहर ही रुक कर कहा – ‘ताई जी! मारे घमंड के जो तुम्हारे सिर पर चढ़ कर बोलना चाहते हैं, उनकी तरफदारी मत करो!’ और जब तक विश्‍वेश्‍वरी फिर कुछ कहें, वह वहाँ से जल्दी-जल्दी चला गया।

रमा बिलख पड़ी और विश्‍वेश्‍वरी की तरफ भरी आँखों से देख कर बोली -‘मैं तो मौसी को सिखा कर भेजती नहीं ताई जी! फिर मेरे माथे पर यह दोष क्यों? क्यों इसके लिए मुझे जिम्मेदार ठहराया, कलंक थोपा गया मेरे ऊपर?’

विश्‍वेश्‍वरी ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर और स्नेह से अपने अंक में आबद्ध कर कोमल, स्नेह-सिक्त स्वर में कहा – ‘नहीं सिखाती हो तो क्या, पर गेहूँ के साथ घुन पिसता ही है!’

रमा ने आँसू पोंछ कर, क्रुद्ध पर दृढ़ता के स्वर में कहा – ‘मौसी की बातों की जिम्मेदारी मुझ पर नहीं है! सच सकती हूँ ताई जी – मुझे उसका तनिक भी ज्ञान नहीं! फिर इस तरह झूठा दोष लगा कर क्यों मुझे अपमानित कर गए?’

इस बात को आगे बढ़ाना विश्‍वेश्‍वरी ने अच्छा नहीं समझा, सो उत्तेजना को कम करने के लिए कहा – ‘बेटी, यह क्या जाने तुम्हारे घर के भीतर का हाल? उसकी नजर में तो, सब तुम्हारे इशारे से ही होता है! पर यह मैं पूरे विश्‍वास से कहती हूँ कि वह कभी तुम्हारा सिर नीचा नहीं देखना चाहेगा। गोपाल सरकार से मुझ पता चला है कि वह तुम्हें कितनी श्रद्धा और स्नेह की दृष्टि से देखता है – उसका तुम्हें पता भी नहीं! जब उस दिन इमली का पेड़ कटवा कर, तुम दोनों ने उसे किसी तरह का हिस्सा न दे, आपस में ही बाँट-बूँट लिया, तो लोगों के लाख कहने पर भी उसने यही कहा कि रमा ऐसी नहीं कि वह दूसरों के माल पर नजर डाले। जब तक वह है, मुझे किसी बात की चिंता नहीं! लाख लड़ाई-झगड़ा हो, पर मैं अच्छी तरह जानती हूँ बेटी, कि वह पहले की तरह तुमसे स्नेह करता है। और वैसा ही विश्‍वास भी। यदि उस दिन ताल की मछलियाँ…।’

और सहसा रमा के रक्तहीन चेहरे पर नजर पड़ते ही उनकी जुबान रुक गई और आँखें वहीं जम गईं। थोड़ी देर बाद स्वर में गंभीरता ला कर बोलीं – ‘बेटी, रमेश के जीवन की कीमत, तुम्हारी सारी जमीन-जायदाद से कहीं ज्यादा है! कभी किसी लोभ में पड़ कर उसे खो मत बैठना! उसे खो देने से हुई हानि की फिर पूर्ति होना असंभव है!’

रमा निरुत्तर रही। विश्‍वेश्‍वरी भी मौन रहीं। थोड़ी देर बाद रमा ने ही कहा – ‘अब घर चलूँ ताई जी! अबेर हो गई है।’ और वह प्रणाम कर वहाँ से चली गई।

अध्याय 9

ताई जी के घर से लौटते-लौटते रमेश का सारा गुस्सा पानी हो गया। वह अपने मन में सोचने लगा – कितनी आसान बात थी! आखिर मैं गुस्सा करूँ भी, तो किस पर करूँ? जो अपनी जहालत में अपना-पराया, अपनी भलाई-बुराई का भी ज्ञान नहीं कर सकते, जो भलाई में बुराई का संशय करते हैं, जो अपने घरवाले, अपने पड़ोसी से ही लड़ने में अपनी बहादुरी समझते हैं, चाहे बाहरवाले के सामने भीगी बिल्ली ही बने रहें – और यह वे जान-बूझ कर नहीं करते, बल्कि उनका ऐसा स्वभाव ही बन गया है, तो फिर ऐसे लोगों पर भी क्या गुस्सा होना! किताबों में कितना गलत वर्णन होता है – गाँव की स्वच्छता का, आपसी भाईचारे का! पड़ोसी का दुख देख कर पड़ोसी दौड़ आता है, इस तरह से उसकी सहायता में तत्पर रहता है; किसी के घर में खुशी होती है तो सारा गाँव खुशी में फूला नहीं समाता। पर उसने जो कुछ किताबों में पढ़ा था, उसका नितांत उलटा पाया इन गाँवों में! जितना आपसी द्वेष-वैमनस्य गाँवों में उसे मिला, उतना शहरों में नहीं। इन्हीं सारी बातों को सोच-सोच, उनका सारा शरीर अजीब सिहरन से भर उठा। किताबों में पढ़ी धारणा के बल पर ही, जब कभी शहर के कोलाहलपूर्ण भागों में उसे बुराई दीख पड़ती, तभी उसका दिल अपने गाँव भाग चलने को व्याकुल हो उठता। पर अब जब नियति ने उसे गाँव में ला कर पटक दिया, तो उसकी सारी धारणा एक दिन में धूल में मिल गई; और आज गाँव का जो स्वरूप उसके सामने आया, वह अपने घोर विकृत रूप में – जो निरंतर पतन के गङ्ढे की तरफ ही अग्रसर होता जा रहा है। सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि अपने धर्म और समाज के इसी स्वरूप को ये सर्वांगीण सुंदर मानते हैं, और शहर के धर्म और समाज को निकृष्ट! उसी में वे परम संतुष्ट हैं।

आँगन में पैर रखते ही, रमेश ने एक अधेड़ स्त्री को, एक दस-ग्यारह वर्ष के लड़के के साथ, सहमी-सी एक कोने में बैठे देखा। रमेश को आया देख, वह उठ कर खड़ी हो गई। उस लड़के की दयनीय दशा देख कर, बिना कुछ जाने ही रमेश का दिल रो उठा। गोपाल सरकार चंड़ी मंडप के बरामदे में बैठे, लिखा-पढ़ी में लगे थे। उन्होंने वहाँ से उठ कर रमेश के पास आ कर कहा – ‘दक्षिणी मुहाल में इसका घर है। पिता का नाम द्वारिका पण्डित है, आपसे कुछ विनती करने आई है।’

रमेश ने समझ लिया कि विनती का मतलब भिक्षा है! और तभी उसे फिर गुस्सा हो आया। झुँझला कर बोला – ‘सारे गाँव में मैं ही दानी बचा हूँ? और कोई घर में नहीं है क्या?’

‘बात भी ऐसी ही है, बाबू! बड़े बाबू के समय में, द्वार पर आया व्यक्ति कभी खाली हाथ नहीं लौटा। उसी आस में आज भी लोग यहीं दौड़ कर आते हैं।’ बेचारी स्त्री को देख कर उसने कहा – ‘कामिनी की माँ! जब वह जीता था, तब उसका प्रायश्‍चित क्यों नहीं कराया? भला यह गलती नहीं है लोगों की? अब लगे दौड़ने! घर में मुर्दा पड़ा है। क्या कुछ बरतन-भाँडे नहीं हैं इसके पास?’

कामिनी की माँ उस लड़के की पड़ोसिन थी, उसने उत्तर दिया – ‘जो विश्‍वास न आता हो मेरी बात का, तो आप खुद ही चल कर देख लें। होता, तो क्या मरे बाप को घर में छोड़ कर, इस तरह भीख माँगने आता? क्या तुमने नहीं देखा कि जो कुछ मेरे पास था, सब कुछ खर्च कर दिया मैंने इन्हीं लोगों पर, पिछले छह महीनों में ही। सोचा था कि ब्राह्मण है, वहीं इसके बच्चे भूखों न मरने लगें।’

रमेश की समझ में अब कुछ-कुछ आया। गोपाल सरकार ने सारी बात विस्तार से कही – ‘इस लड़के के बाप द्वारिका चक्रवर्ती को छह महीने से दमा हो गया था। आज सवेरे उनके प्राण निकल गए। बंगाल में दमा और इसी प्रकार के कई रोगों के संबंध में प्रायश्‍चित करना पड़ता है। मगर जो होना चाहिए था, वह नहीं हुआ; तभी लाश घर में पड़ी है, उसे कंधा लगाने कोई भी नहीं गया। अब भी प्रायश्‍चित नहीं होगा तो लाश यों ही पड़ी रहेगी। कामिनी की माँ ने ही छह माह से इसकी सहायता की थी और उसी में अपना भी सब कुछ लगा बैठी – अब इसके पास भी कुछ नहीं रहा। तभी लड़के को लेकर, आपके पास विनती करने आई है।’

थोड़ी देर मौन रह कर रमेश ने कहा – ‘इस समय दो बजे हैं। प्रायश्‍चित न करने पर, क्या वास्तव में लाश वैसे ही पड़ी रहेगी?’

‘जी! यह शास्त्र का नियम जो ठहरा! मुर्दा न पड़ा रहे, इसलिए बेचारी भीख माँगने निकली है। क्यों कामिनी की माँ, कहीं और भी गई थी क्या?’

लड़के ने अपनी मुट्ठी में बँधे पाँच आने पैसे दिखा दिए और कामिनी की माँ बोली – ‘मुकर्जी के घर से चवन्नी मिली है, और हवलदार ने दिए हैं चार पैसे। पर प्रायश्‍चित में तो लगेंगे सवा दो रुपए! इससे कम में तो हो ही नहीं सकता! यदि बाबू की कृपा हो जाए तो…।’

‘और अब कहीं भटकने की जरूरत नहीं, घर जाओ! मैं आदमी भेज कर सारा प्रबंध करा दूँगा।’

वे लोग चले गए। गोपाल सरकार की तरफ अत्यंत दु:खित नेत्रों से देख कर रमेश बोला – ‘क्यों सरकार जी, इस गाँव में भला कितने घर इस तरह के गरीब होगें?’

‘दो-तीन होंगे। ये लोग भी खाते-पीते थे। पर एक पेड़ के पीछे सनातन हजारी से उन्हें द्वारिका का मुकदमा चला, और नौबत यहाँ तक आ गई कि बस उजड़ ही गए! दाने-दाने को मोहताज हो गए! यहाँ तक हालत न भी बिगड़ती।’ – वह स्वर धीमा करके बोले – ‘हमारे वेणी बाबू और गोविंद गांगुली ने बढ़ावा दे-दे कर, इस दशा को पहुँचा दिया इन बेचारों को!’

रमेश बोला – ‘और वेणी बाबू के ही यहाँ इनकी मिलकियत गिरवी होती चली गई, और पिछले साल मूल में सूद मिला कर, कौड़ी के दाम सारी जायदाद उन्होंने खरीद ली! धन्य है यह कामिनी की माँ, जो इस बेचारे की दीनावस्था में सहायता करके, मानवता का सही धर्म निभाया!’

फिर रमेश ने एक दीर्घ निःश्‍वास, गोपाल सरकार को उसका सब प्रबंध करने को भेज दिया और मन-ही-कहा – ‘ताई जी, आपकी आज्ञा मेरे सिर-माथे पर! अब मेरे प्राण भी यहाँ निकल जाएँ तो मुझे दु:ख न होगा; पर इस गाँव को छोड़ कर अब कहीं नहीं जाने का!’

अध्याय 10

उस दिन से तीन महीने बाद, एक दिन रमेश सवेरे-सवेरे तारकेश्‍वर के तालाब पर, जिसे दुग्ध सागर भी कहते हैं, गया था। वहीं पर सहसा एक स्त्री से उसकी भेंट हो गई, नितांत एकांत में। वह बेसुध हो उसकी ओर घूरता रहा। वह स्त्री स्नान करके गीली धोती पहने, सीढ़ी चढ़ कर ऊपर आ रही थी। पानी से भीगे उसके केश, पीठ पर मस्ती से पड़े अलसा रहे थे। उसकी उम्र बीस वर्ष की होगी। पानी के भार से, धोती शरीर से सट गई थी, यौवन उससे बाहर फूट रहा था। चौंक कर, पानी का कलश जमीन पर रख, तुरंत अपने दोनों से अपने यौवन-कलश छिपा, अपने ही में सिमटती-सकुचाती वह बोली -‘यहाँ कैसे आए आप?’

रमेश दंग रह गया, यह देख कर कि वह इसे पहचानती है। चौंक कर एक तरह हट कर बोला – ‘क्या मुझे पहचानती हैं आप?’

‘जी! पर आप आए कब यहाँ?’

‘आया तो आज ही सवेरे हूँ। मामा के घर से और भी औरतें आनेवाली थीं; पर वे तो आई नहीं दीखतीं!’

‘ठहरे कहाँ हैं यहाँ पर?’

‘कहीं भी नहीं! यही आने का यह मेरा पहला ही मौका है। अब तो आज की रात बिताने को कहीं स्थान तलाश करना ही होगा।’

‘नौकर तो होगा साथ में?’

‘नौकर तो नहीं है, अकेला हूँ।’

‘हूँ!’ और मुस्कराते हुए उसने अपनी आँखें ऊपर कीं, फिर चारों आँखें आपस में लड़ गईं। पर उसने तुरंत ही आँखें नीची कर लीं, और थोड़ी देर कुछ सोचती -सी रह कर बोली – ‘तो चलिए फिर, साथ!’

और उसने अपना पानी का कलश उठा कर चलना शुरू कर दिया। रमेश अजीब असमंजस में पड़ गया। बोला – ‘अगर मेरे चलने से किसी प्रकार की हानि हो, तो आप इस तरह चलने को कहती भी नहीं, इसी विश्‍वास पर मैं चलता हूँ आपके साथ! याद तो मुझे भी आ रही है कि मैंने आपको कहीं देखा है। सूरत पहचानी-सी पड़ती है, पर यह नहीं याद आ रहा कि कहाँ और कब देखा है। कृपया अपना परिचय तो दे देतीं आप!’

‘आप यहाँ प्रतीक्षा कीजिए थोड़ी देर, मैं पूजन कर अभी आई। फिर साथ चलते-चलते, रास्ते में परिचय भी दूँगी आपको!’

और वह मंदिर में चली गई। रमेश उसकी तरफ विमोहित दृष्टि से देखता रहा कि निश्‍चय ही यह यौवन ही है, जो उसकी धोती में से छन-छन कर उसके अंतर को घायल कर रहा है। उसका अंग-अंग रमेश को पहचाना-सा लगने लगा, पर पूरी तरह से उसे अंत तक याद न कर सका। आधा घण्टे बाद पूजा समाप्त कर जब वह मंदिर से बाहर निकली तब फिर पहचान पाने के लिए उसने एक गहरी नजर उसके चेहरे पर डाली, पर फिर भी न पहचान सका।

रास्ते में चलते समय रमेश ने पूछा – ‘क्या आप यहाँ अकेली ही रहती हैं?’

‘अकेली तो नहीं, एक दासी साथ है, जो घर पर ही काम कर रही होगी! वैसे तो यहाँ का सभी कुछ भली प्रकार मुझसे परिचित है, जब-तब यहाँ आया ही करती हूँ।’

‘पर मैं यह तो अब तक न समझ पाया, कि आप मुझे क्यों ले रही हैं अपने साथ?’

उसने रमेश के प्रश्‍न का तुरंत कोई उत्तर न दिया। थोड़ी देर तक तो दोनों ही चुपचाप चलते रहे, फिर उस स्त्री ने कहा – ‘न चलने पर, यहाँ आपको खाने -पीने में बड़ा कष्ट होगा। मैं रमा हूँ।’

रमा ने अपने सामने बैठा कर रमेश को खाना खिलाया और पान खिला कर, उसके आराम करने के लिए, अपने ही हाथों से दरी बिछा कर दूसरे कमरे में चली गई। रमेश आँखें बंद करके दरी पर आराम करने लगा। लेटे-लेटे उसे तेईस वर्ष का जीवन इस एक क्षण में ही नितांत बदला-बदला नजर आने लगा। बचपन से ही उसका सारा जीवन निर्देश में ही बीता था, और इस उमर तक, भूख का अनुभव उन्हें सिर्फ पेट भरने तक ही था। उन्हें यह मालूम न था कि उसमें भी एक तृप्ति का आनंद होता है, जिसे आज रमा के हाथ का, उसके सामने ही, उसके माधुर्य में पके भोजन कर उसने पाया था।

रमा को चिंता थी कि वह यहाँ पर रमेश के खाने के लिए कोई विशेष सामग्री न जुटा पाई थी। सभी चीजें बहुत साधारण-सी थीं। उसे यह चिंता कचोट रही थी कि वह कहीं भूखा न रह जाए और उसके मुँह से निंदा के शब्द उसे सुनने पड़ें। पर उसके भूखे रहने में, खुद के भूखे रहने की उसे कितनी चिंता थी? उसने आज सारी लज्जा और संकोच को परे रख, अपने अभिभूत अंत:करण से सारा खाना रमेश के सामने रख दिया था, और कमी को कहीं रमेश ताड़ न ले, इसलिए स्वयं उनके सामने आ कर बैठी थी। और जब रमेश ने भोजन समाप्त कर तृप्ति की साँस ली, तो उससे कहीं बढ़ कर तृप्ति का निःश्‍वास रमा के अंत:करण से निकला – जिसे चाहे और किसी ने न देखा हो, पर अंतर्यामी से वह किसी तरह छिपी नहीं रही।

रमेश दोपहर में कभी सोने का आदी नहीं रहा, इसलिए अपने सामने की खिड़की से बाहर वर्षा के बाद धूमिल बादलों से आच्छादित आकाश को वह टकटकी बाँधे देखता रहा। इस समय से अपनी आनेवाली रिश्तेदार स्त्रियों का बिलकुल खयाल ही न रहा। तभी सहसा उसे रमा का सुकोमल स्वर दरवाजे पर से सुनाई पड़ा – ‘आज यहीं न रह जाए! घर तो आपको जाना नहीं है आज!’

रमेश उठ कर बैठता हुआ बोला – ‘मकान मालिक से तो अभी मेरा परिचय हुआ नहीं, उनकी आज्ञा के बिना कैसे रह सकता हूँ।’

‘मकान मालिक ही आपसे ठहरने का अनुरोध कर रहे हैं! मैं ही इस मकान की मालकिन हूँ।’

‘भला यहाँ मकान क्यों ले रखा है?’

‘यह स्थान मुझे बहुत रमणीक लगता है। जब तब यहीं आ कर दिन बिता जाती हूँ। आजकल तो यहाँ सूना-सा पड़ा है, वरना कभी-कभी तो तिल धरने तक की जगह नहीं मिलती!’

‘तो फिर उसी समय आया करो न!’

रमा ने इसका उत्तर न दिया, केवल मुस्करा कर रह गई।

‘तारकेश्‍वर बाबा के प्रति तुम्हारी बड़ी भक्ति जान पड़ती है, क्यों?’

‘वैसे मेरे भाग्य कहाँ! पर जो कुछ बन पड़ता है, साँस रहते करने की कोशिश तो करनी ही चाहिए!’

रमेश ने इसके बाद कई सवाल किए। रमा भी वहीं चौखट पर बैठ गई और बात का रुख पलटती हुई बोली – ‘क्या खाते हैं रात को आप?’

रमेश ने जरा मुस्करा कर कहा -‘जो मिल जाए! खाने पर बैठने के बाद मैं कभी खाने के विषय में नहीं सोचता, और हमेशा अपने महाराज की अक्ल पर संतोष कर लेता हूँ।’

‘आज यह उदासी कैसे है?’

रमेश न समझ सका कि रमा ने उसका मखौल उड़ाने के लिए यह वाक्य कहा है अथवा साधारण व्यंग्य में। उसने छोटा-सा उत्तर दिया-‘कुछ नहीं, वैसे ही। जरा-सी सुस्ती है!’

‘औरों के काम में तो सुस्ती दिखाते कभी नहीं देखा आपको!’

‘अगर दूसरे के काम में सुस्ती की जाएगी, तो भगवान की अदालत में उसके प्रति उत्तरदायी होना पड़ेगा! हो सकता है, अपने काम में सुस्ती दिखाई पर भी उत्तर देना पड़ता हो, पर उतना नहीं – यह तो निश्‍चय ही है!’

थोड़ी देर मौन रह कर रमा बोली – ‘इस उमर में आपको परलोक की चिंता कैसे लग गई? तीन ही वर्ष तो बड़े हैं आप मुझसे!’

रमेश ने मुस्कराते हुए कहा – ‘तब तो तुम्हें मुझसे भी कम परलोक की चिंता रहनी चाहिए! ईश्‍वर की कृपा से तुम्हारी बड़ी उमर हो, पर मैंने अपने बारे में, अपना हर दिन जीवन का अंतिम दिन समझा है।’ रमेश ने यह वाक्य अपनी व्यथा के दिग्दर्शन के लिए भी कहा था, और उसका असर भी ठीक ही बैठा। रमा के चेहरे पर काली छाया दौड़ गई। थोड़ी देर मौन रह कर उसने कहा – ‘मैंने आपको कभी न मंदिर जाते देखा, न ध्यान करते ही! पर वह न सही, खाना खाते समय आचमन करना भी आपको याद नहीं रहा क्या?’

‘याद तो है, पर यह खूब समझता हूँ कि उसका याद रहना-न-रहना एक-सा ही है! और यह सब तुम पूछ क्यों रही हो?’

‘आपको परलोक की बड़ी चिंता है, इसलिए।’

रमेश निरुत्तर रहा। फिर थोड़ी देर तक दोनों ही मौन रहा। बाद में रमा बोली – ‘हिंदू घर की किसी विधवा को, अपने किसी सगे द्वारा ‘बड़ी उमर’ का आशीर्वाद शाप देने के बराबर है!’ थोड़ी देर मौन रह कर वह फिर बोली -‘मैं यह भी नहीं कहती कि आज ही मरने को बैठी हूँ। पर यह जरूर सत्य है कि अधिक दिन तक जीने के विचार से ही मेरा सारा शरीर सिहर उठता है। परंतु आपके साथ यह बात लागू नहीं होती! वैसे तो मुझे कोई हक नहीं कि आपसे किसी बात के लिए जोर दे कर कहूँ, पर जब दूसरों के लिए मगज मारना आपको भी, दुनिया में आ जाने के बाद बचपना मालूम पड़े, तब मेरी बात याद कर लीजिएगा!’

रमेश ने इसका कोई भी उत्तर नहीं दिया। एक लंबी-सी, ठण्डी आह उसके अंदर से फूट निकली। थोड़ी देर बाद, अस्फुट स्वर में वह बोला-‘जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, वहाँ तक तो मुझे कोई ऐसी बात याद नहीं पड़ती! आज तो मेरा -तुम्हारा कोई नाता नहीं, बल्कि यों कहूँ तो अधिक सत्य होगा कि मैं तुम्हारे रास्ते का एक रोड़ा हूँ। फिर भी आज जितनी खातिर तुमने मेरी की है, उतनी खातिर जिसे रोज मिले, वह दूसरों के दु:ख और उनकी व्यथा देख, पागल हो कर इधर-उधर दौड़े बिना नहीं रह सकता! मैं अभी पड़ा-पड़ा यही सोच रहा था। किंतु तुमने जरा-सी देर में ही, मेरे जीवन-स्रोत में नवीनता की एक उमंग भर दी है। जीवन में यह पहला अवसर है, जब किसी ने मुझे इतने प्रेम और आदर के साथ अपने पास बैठा कर खिलाया है। और वह तुम हो, रमा! आज जीवन में पहली बार, तुम्हारे हाथ और प्रेम से परोसा खाना खा कर यह ज्ञात हुआ कि भोजन में भी महान आनंद है!’

रमा सुन-सुन कर मारे लज्जा के सिहर उठी। उसका सारा चेहरा आरक्त हो उठा। अपने को संयत कर उसने कहा – ‘ लेकिन इसे भी आप थोड़े दिनों में भूल जाएँगे; और फिर कभी याद भी आएगा, तो यों ही मामूली तौर पर!’

रमेश ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। रमा ने ही फिर कहा – ‘मैं अपना अहोभाग्य समझूँगी, अगर आप घर जा कर मेरी निंदा न करें!’

रमेश ने एक ठण्डी आह भर कर कहा – ‘न मैं इसकी तारीफ करूँगा, न निंदा ही! मेरा आज का दिन तो इन दोनों से परे है!’

रमा निरुत्तर रही; थोड़ी देर तक दोनों ही चुपचाप बैठे रहे। बाद में रमा वहाँ से उठ कर कमरे में चली गई, जहाँ उसकी आँखों से आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें टपकने लगीं।

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