गृहदाह (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 4

गृहदाह (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 4

(33)

पाँच-छः दिन हुए, दो-तीन नौकर-नौकरानियों के अलावा सब कलकत्ता चले गये। एक मकान-मालिक नहीं गये। जरूरी काम के चलते, जाते-जाते वे न जा सके। इन कै दिनों तक रामचरण बाबू अपने काम में व्यस्त रहे, खास नजर नहीं आते। आज पहले-सुबह ही एकाएक वे ऊपर के कमरे में आ पहुँचे, और सुरमा का नाम लेकर पुकारने लगे। सर्दियों का सवेरा, अब तक कोई जगा न था; पुकार सुनकर अचला हड़बड़ाकर बाहर निकली, और सुरेश भी दूसरे दरवाजे से आँखें मलता हुआ आया। दोनों जनों को दो अलग-अलग कमरे से निकलते देख, बूढ़े की प्रसन्न दृष्टि अचानक संदिग्ध हो उठी, इसे सुरेश ने नहीं देखा, लेकिन अचला ताड़ गयी।

सुरेश की ओर देखते हुए, रामबाबू ने दुःखी-से स्वर में कहा-असमय में आपकी नींद तोड़ दी, बड़ी भूल हो गयी मुझसे!

सुरेश ने हँसकर कहा-गलती क्या! असल में मैं जाग ही रहा था, वरना ढोल पीटकर भी कोई मेरी नींद तोड़ सके, क्या मजाल! पर इतना सवेरे?

बूढे़ ने अचला को सम्बोधन करके कहा-आज सुरमा बिटिया पर कुछ उपद्रव करने की जरूरत आ पड़ी है-यह कहकर जरा हँसते हुए उसकी ओर मुखातिब होकर बोले-मेरी खटोली हाजिर है, मुझे तुरन्त बाहर जाना है। दो-तीन बजे से पहले लौट न सकूँ शायद, सो थोड़ा दाल-चावल उबालकर रख लेना बिटिया-उतनी देर को जिसमें आकर मुझे चूल्हा-चक्की न करना पड़े!

कट्टर धार्मिक ये ब्राह्मण, अपनी स्त्री और पतोहू के सिवा और किसी के हाथ का बना भोजन नहीं खाते। उनकी रसोई भी बिल्कुल अलग थी। यहाँ तक की हर कोई उसमें जा भी नहीं सकता था; खुद बीच-बीच में बना लेने की उन्हें आदत थी, जभी घर की औरतें कलकत्ता जा पाई थीं। इन कै दिनों तक वे वहीं करते रहे थे, पर आज एकाएक इस अपरिचित स्त्री पर यह भार देने से, वह अचरज और सबसे ज्यादा डर से अभिभूत हो गयी।

अचला के उदास चेहरे को देखकर रामबाबू ने कहा-तुम सोच रही हो, आखिर यह बुड्ढा आज कह क्या रहा है? रसोई के मामले में इतना परहेज, इतना विचार रखता है-उसे आज यह हो क्या गया? तुम्हारे हाथ के भोजन से अरुचि क्यों होगी? और हो, न हो, उतनी देर से लौटकर चूल्हा फूँकने का जी नहीं चाहता होगा। इतना कहकर अचला के मौन मुखडे़ को जरा देर देखकर फिर हँसते हुए बोले-मन-ही-मन तुम जरूर सोच रही हो कि इस बुड्ढे में अचानक इतनी उदारता जब आ ही गयी है, तो मुझे तकलीफ न देकर उस रसोइये के हाथ का खाने से ही तो चल जाता! नहीं बिटिया, वह नहीं चलता!! इस बुड्ढे में आज भी वही कट्टरता है, वही कुसंस्कार है-मर भी जाऊँ तो सन्ध्या-गायत्री न करने वाले इस रसोइये के हाथ का अन्न मेरे गले से नहीं पार हो सकता!!! फिर, बिटिया राक्षसी और तुमको इस बीच मैंने एक ही मान लिया है-यह भी नहीं, पर जितना सोचता हूँ, मुझे लगता है-यह बिटिया भी एक दिन राँध दे-तो वह मेरी अन्नपूर्णा का अन्न न होगा-यह मैं हर्गिज नहीं मानता! मगर अब तो रुक नहीं सकता, कहने को जो बाकी रह गया, खाते वक्त ही कहूँगा!! वहीं सबसे बढ़कर वास्तविक कहना होगा!!! कहकर बूढ़े जाने लगे, कि अचला व्यस्त हो उठी। क्या बोले-आगा-पीछा करते-करते जो बात पहले जबान पर आयी, वही बोल उठी। कहा-मैं तो पकाना वैसा जानती नहीं, मेरे हाथ की रसोई आपको पसन्द नहीं आयेगी।

पलटकर रामबाबू जरा हँसे। बोले-तुम मुझे इसी पर यकीन करने को कहती हो?

अचला ने कहा-हर कोई क्या बढ़िया पकाना जानती है?

वे बोले-सभी जानते हैं, मैं क्या यही कह रहा हूँ?

अचला हठात् इसका कोई जवाब न पाकर चुप रही। लेकिन सुरेश के लिये वहाँ खड़ा रहना असम्भव हो उठा। अचला के फीके पड़े चेहरे की तरफ ताक कर उसने उसकी पीड़ा समझी। इस बूढ़े सज्जन का आचरण भला हो या बुरा, सच हो या झूठ, उन्हें पकाकर खिलाने में जो घिनौनी ठगी है-यह बात अचला से अगोचर नहीं; और इस भली औरत का विवेक किसी भी हालत में, गुप्त रहस्य के कुकर्म से छुटकारा पाना चाहता है-उसके चेहरे पर यह भाव साफ देखकर, वह और किसी ओर देखे बिना, मुँह-हाथ धोने के बहाने जल्दी-जल्दी सीढ़ी से नीचे उतर गया।

तो मैं चलूँ-कहकर रामचरण बाबू भी सुरेश के पीछे हो लिये। अचला कुछ देर हक्की-बक्की-सी खड़ी रही, उसके बाद अपने को सचेतन करके जोर से आवाज दी-जरा सुनिए…

बूढे़ ने मुड़कर देखा-अचला कुछ कहना चाहती है, मगर नजर झुकाए चुपचाप खड़ी है। सो वे कुछ कदम आगे बढ़ आये। बोले-एक बात और कहनी है बिटिया! जब तुम्हारी हिचक जाना ही नहीं चाहती, तो-जानती हो सुरमा, बचपन में मैं मुहल्ले-भर का मँझले भैया था। शायद हो कि तुम्हारे पिता से उम्र में मैं छोटा भी न होऊँ! फिर तुम मुझे बड़े चाचा क्यों नहीं कहतीं?

अचला जानती थी कि बूढ़े उसे बहुत स्नेह करते हैं, प्यार के इस प्रकट रूप से उसकी आँखों के कोने में आँसू झलक पड़ा। इसलिये सिर हिलाकर उसने केवल हामी भरी।

उन्होंने पूछा-और कुछ कहोगी?

अचला जरा देर जमीन देखती रही, उसके बाद शायद सारी शक्ति बटोरकर अस्फुट स्वर में कहा-मेरे पिताजी लेकिन ब्राह्म थे!

रामचरण बाबू सहसा चौंक उठे-वास्तव में कलकत्ता में लोग जैसे शौकिया दो दिनों के लिये बन जाते हैं? ऐसे लोग ब्राह्मों के साथ बैठ छूटकर हिन्दुओं को गालियाँ देते हैं-वैसी गाली सच्चे ब्राह्म कभी जबान पर भी नहीं ला सकते-और उसके बाद अपने घर वापस जाकर, अपने समाज में ब्राह्मों को वैसी ही खरी-खोटी सुनाते हैं-ऐसी कि वैसे वचन हिन्दुओं के सात-पुश्त भी नहीं सुना सकते! ऐसे ही ब्राह्म न? ऐसे हों तो मुझे जरा भी आपत्ति नहीं!

अचला का चेहरा शर्म से रंग गया। वह बोली-नहीं, सच्चे ब्राह्म! जवाब से बूढे़ जरा पस्त-से पड़ गये। जरा देर में बोले-ब्राह्म ही हुए तो क्या? उनकी लड़की तो आखिर अछूत नहीं कि डरे। बल्कि जिसके धर्म में तुमने हाथ बँटाया है, वे जब हिन्दू हैं, जब उनके गले में यज्ञोपवीत है, और इन कुछ धागों का आज तक उन्होंने अपमान नहीं किया है-तो बाप का कर्म तुम्हें नहीं छू सकता। आज तुम जितने ही मनसूबे गाँठो, बूढ़े चाचा से निकल नहीं सकती!! रसोई आज तुम्हें करनी ही पड़ेगी!!! ओ! जभी पिता के पढ़ाए पाठ के नाते, उस दिन तुमने उपवास से कन्नी कटाई? आज इसे सूद-समेत वसूल कर तब तुम्हारी जान छोड़ूँगा! रामबाबू फिर जाने को हुए। अचला अपनी उस जड़ता को जीत गयी। पूछा-अच्छा बडे़ चाचाजी, मैं ब्राह्म होऊँ तो आप मेरे हाथ का नहीं खायेंगे?

बूढ़े ने कहा-नहीं! मगर तुम तो वह हो नहीं, हो नहीं सकतीं!!

अचला ने पूछा-लेकिन वही होती-तो मैं सिर्फ इसीलिये आपके लिये अछूत हो जाती कि मेरा धर्ममत अलग है?

उन्होंने कहा-अछूत क्यों होने लगी बिटिया, अछूत नहीं होती! तुम्हारे हाथ का खाता नहीं, बस!!

इसके बारे में आज उसे बहुत-कुछ जानना था। इसी से वह चुप नहीं रह सकी। बोली-क्यों नहीं खाते? घृणा से?

बूढे़ से कोई जवाब देते न बना, एकटक उसे देखते रह गये।

अचला सारा संकोच छोड़ चुकी थी। बोली-बड़े चाचाजी, आपको दयामाया कितनी बड़ी है-इसके बहुत-से सबूत दुनिया में हैं-जानती हूँ मैं, मगर उसका हमसे बड़ा सबूत कोई नहीं! लेकिन आप जैसे का हृदय इतना अनुदार कैसे हो सकता है, मैं सोच नहीं पाती!! आप मनुष्य को इस तरह घृणा कैसे कर सकते हैं?

रामबाबू अचानक अकुलाकर बोले-मैं घृणा करता हूँ? किसे? कब? अचला ने कहा-जिसके हाथ का छुआ आपके लिये अस्पृश्य है, वही आपकी घृणा का पात्र है! मन में आप उसी को घृणा करते हैं!! लेकिन जमाने की आदत है, इसलिये यह भी नहीं पता है कि घृणा करते हैं!!! नौकर को छोड़िए, पाठकजी का पकाया भी आपके गले से नीचे नहीं उतर सकता, आप खुद कह चुके हैं! इससे मुल्क का कितना बड़ा नुकसान, कितनी अवनति हुई है, यह तो…

रामबाबू चुपचाप सुन रहे थे, अचला के जोश को भी गौर कर रहे थे। उसका कहना जब खत्म हुआ, तो बोले-घृणा हम किसी को नहीं करते बिटिया! जो नालिश तुमने की, यह नालिश साहब लोग करते हैं-उनसे तुम्हारे पिता ने सीखा, और अपने पिता से तुमने सीखा!! नहीं तो मनुष्य भगवान है, यह ज्ञान केवल उन्हीं को नहीं, हमें भी था, आज भी है!!!

इतने में नीचे कुछ शोर-गुल-सा सुनाई पड़ा, एक पल उधर ध्यान देकर उन्होंने कहा-सुरमा, जिनके लिये खाना बहुत बड़ी चीज है, बडे़ तूल-कलाम की बात है, उनसे अपना मेल नहीं बैठ सकता! हमारे यहाँ यह खाना बड़ी मामूली चीज है-आज जरा इसका इन्तजाम कर रखना, फिर खाते-खाते बात होगी कि घृणा हम किससे-कितनी करते हैं, और उससे देश की कितनी अवनति हुई-लेकिन शोरगुल बढ़ रहा है-मैं अब चला! कहकर वे जरा तेजी से उतर गये।

(34)

तीसरे पहर के करीब जब खाकर तृप्ति की डकार लेते हुए रामबाबू उठने लगे, तो बड़े कष्ट से हल्का हँसकर अचला ने कहा-लेकिन चाचाजी, जिस दिन आप जानेंगे कि आज आपकी जात गयी, उस दिन आप मुझ पर नाराज न होने पायेंगे लेकिन।

रामबाबू ने मीठा हँसकर गर्दन हिलाते हुए कहा-अच्छा, अच्छा-वही होगा बिटिया-और वे हाथ धोने चले गये। उनके खड़ाऊँ की खटखट जब तक सुनाई देती रही, अचला सम्पूर्ण दृष्टि से तब तक मानो उसी का अनुकरण करती रही; कब यह आवाज खो गयी, कब बाहरी दुनिया ने उसकी चेतना से लुप्त होकर उसे पत्थर बना दिया-उसे इसकी खाक भी खबर न हुई।

बहुत दिनों से यहाँ काम करने वाली इधर की नौकरानी, बंगालियों के तौर-तरीके के साथ-साथ कुछ-कुछ बँगला भी सीख गयी थी। वह किसी काम से इधर आयी, तो बहूजी के बैठने के ढंग से दंग रह गयी। बड़ी होने के नाते, अधसीखी बँगला को डाँट के शब्द का इस्तेमाल करके-बेला की ओर अचला का ध्यान दिलाते हुए पूछा-आज खाने-पीने का भी काम होगा, कि यों ही चुपचाप बैठे रहने से काम चल जायेगा?

चौंककर अचला ने देखा-बेला जाती रही थी। साँझ हो चली थी। एक चमकहीन मैलापन, थकावट जैसा तमाम आसमान में फैल गया था; वह शरमाकर उठ खड़ी हुई और बोली-मैंने तो शाम के बाद ही खाने की सोची है लालू की माँ! आज भूख-प्यास बिल्कुल नहीं है!!

लालू की माँ हैरान होकर बोली-अभी-अभी तो कहा था बहूजी, कि बडे़ बाबू खा लें, तब तुम खाओगी!

नः-एकबारगी रात को ही खाऊँगी-कहकर तर्क का मौका न देकर अचला जल्दी से ऊपर चली गयी।

थोड़ा-सा समय मिलता, कि वह रेलिंग के पास कुर्सी खींचकर चुपचाप नदी की ओर देखा करती। आज रात भी वैसे ही बैठी थी, अचानक रामबाबू के चप्पलों की आहट से उसने मुड़कर देखा-वे बिल्कुल बीच में आ खड़े हुए थे, और कुछ कहने से पहले ही, नारियल को एक ओर टिकाकर एक कुर्सी खींचकर बैठ गये। जरा हँसकर बोले-आज उसी बात का फैसला करने आया हूँ सुरमा-तुम्हारा ब्रह्मज्ञानी पिताजी ठीक हैं-कि इस बूढ़े चाचा की बात ठीक है-इसका आज कोई हल निकाले बिना नीचे नहीं जाता!

अचला समझ गयी, यह सवाल जाति-भेद वाला है। थकी हुई आवाज में बोली-तर्क भला मैं क्या जानती हूँ चाचाजी!

रामबाबू ने सिर हिलाकर कहा-अरे बाप रे! तुम किसी मामूली आदमी की बेटी हो? लेकिन बात झूठी है, यही गनीमत है, नहीं तो उस समय तो मैं हार ही जाता! किसी बात पर तर्क करने लायक मन की अवस्था अचला की न थी, इस तर्क-युद्ध से छुटकारा पाने का जरा-सा मौका पाकर बोली-तो फिर तर्क की क्या पड़ी है चाचाजी? आप ही की जीत हुई। जरा रुककर बोली, जो हार चुकी है, उसे दुबारा हराने से क्या लाभ?

रामबाबू ने तुरन्त कोई जवाब नहीं दिया। उम्र वाले आदमी ठहरे, दुनिया में उन्होंने बहुत-कुछ देखा-लिहाजा इस सिमटी आवाज का मर्म भी जैसे उनसे छिपा न रहा, वैसे ही उसके थके-पीले चेहरे पर इसकी छाप भी वे साफ देख पाए, कि यह लड़की सुखी नहीं है, कोई एक पीड़ा चिमनी की आग-सी रात-दिन उसके अन्दर जल रही है। वे जरा देर चुप रहे, और हँसने की कोशिश करते हुए स्नेह से बोले-नः बहाना न चला! बूढ़ा आदमी, बकबक करना अच्छा लगता है, साँझ को अकेले दम घुटने लगता है, इसीलिये सोचा कि झूठ-सच कहकर बिटिया को जरा चिढ़ा दूँ, मगर कलई खुल गयी!! झुककर उन्होंने हुक्के के लिये हाथ बढ़ाया।

अचला समझ गयी कि वे जाने की तैयारी कर रहे हैं, और नीचे जाकर मुश्किल से ही इनका समय कटेगा, यह समझकर उसका मन दुःखी हो गया। सो वह खुद उठी, और अपने से हुक्का उनकी तरफ बढ़ाते हुए बोली-जी चाहे आप जितना तम्बाकू यहाँ बैठकर पियें! मगर अभी मैं आपको जाने नहीं दूँगी!!

हुक्का हाथ में लेकर वे बोले-लगाम इतनी ढीली मत करो बिटिया, अन्त तक सम्हाल नहीं सकोगी! मुँह बन्द किये मेरा तम्बाकू पीना तो तुमने देखा ही नहीं है!! उससे बल्कि कुछ कहने-सुनने दो…

-ताकि दम न घुट जाये, हूँ न बड़े चाचाजी! खैर, ठीक है। मगर बक-बक होगी काहे पर? रामबाबू ने मुँह का धुआँ ऊपर की ओर छोड़ते हुए कहा-यही तो मुसीबत कर दी तुमने! महावक्ता से यह पूछने पर उसकी जबान जो बन्द हो जाती है!! -अच्छा, चाचाजी, कभी अगर आपको यह मालूम हो कि आज जबर्दस्ती जिसका पकाया भात खाया है, उसके जैसी नीच, घृणित, इस दुनिया में, कोई नहीं-तो क्या करेंगे आप? प्रायश्चित? और कहीं शास्त्र में उसकी विधि ही न हो, तो?

रामबाबू बोले-फिर तो बला ही चुक गयी! प्रायश्चित करना ही नहीं पड़ेगा!

-मगर तब मुझ पर कितनी घृणा होगी आपको?

-कब?

-जब पता चलेगा कि मेरी कोई जात ही नहीं!

होंठ से हुक्का हटाकर उस मद्धिम रोशनी में ही कुछ देर तक उसे देखकर रामबाबू धीरे-धीरे बोले-तुम सबकी यही बात मैं किसी भी तरह समझ नहीं पाता। तुम सबकी क्यों कहता हूँ-जानती हो सुरमा? अपने लड़के के मुँह से भी यह नालिश सुनी है मैंने! वह तो खोलकर ही कहता है-कि इस छूत-छात के भूत से ही तो देश धीरे-धीरे रसातल को जा रहा है!! क्योंकि इसकी जड़ में घृणा है, और घृणा का कभी अच्छा परिणाम नहीं होता!!

अचला मन-ही-मन बहुत चकित हुई। उसकी यह धारणा ही नहीं थी, कि किसी भी बहाने इस घर में इस आलोचना का प्रवेश हो सकता है। बोली-बात क्या झूठी है?

रामबाबू जरा हँसकर बोले-झूठ है या नहीं, मान लो यह न कहूँ; परन्तु सच नहीं है! शास्त्र के कानून-कायदों पर चलता हूँ, बस, इतना ही! जो इससे भी आगे जाते हैं, मसलन मेरे गुरुदेव, वे खुद पकाकर खाते हैं!! लड़की तक को नहीं छूने देते!!!

अचला जवाब न दे सकी। चुप रही।

रामबाबू ने हुक्के में और दो-चार दम लगाये। लगाकर बोले-जवानी में मैं बहुत घूमा। कितने वन-जंगल, पर्वत-पहाड़ और कैसे-कैसे लोग, कितने तरह के आचार-विचार, उन सबका नाम शायद तुम लोगों को मालूम न हो-कहीं खान-पान का विचार है, कहीं उसकी बू-बास भी नहीं, फिर भी सदा वैसे ही असभ्य हैं, उतने ही छोटे! यह कहकर जले तम्बाकू में बेकार ही और दो-चार कश लगाया, और अन्त में खम्भे से उसे टिका दिया। अचला जैसी चुप बैठी थी, बैठी रही।

रामबाबू स्वयं भी जरा देर चुप रहे, फिर सीधे बैठकर बोले-असली बात क्या है, जानती हो सुरमा, तुम लोगों ने साहबों से पाठ पढ़ा है। वे उन्नत हैं, वे राजा हैं, धनी हैं! उन लोगों में अगर पैर उठाकर हाथ के बल चलने का रिवाज होता, तो तुम लोग कहते-ठीक इसी तरह चलना सीखे बगैर तरक्की की कोई उम्मीद नहीं! ऐसी दलीलें अचला ने अखबार में बहुतेरी पढ़ी थीं, लिहाजा कुछ बोली नहीं, जरा हँसी। वह हँसी रामबाबू ने देखी, लेकिन नहीं देखी है-कुछ इस ढंग से दुहराते हुए कहने लगे-श्री-धाम, श्रीक्षेत्र में जब जाता हूँ, जाने कितने अजाने लोगों की भीड़ में होता हूँ। वहाँ छुआछूत की बला नहीं है, सोचने को जी भी नहीं होता! मगर इसका जन्म अगर घृणा से होता, तो क्या इस आसानी से ऐसा कर पाता? यही समझो कि मैं किसी का छुआ नहीं खाता, लेकिन राह के गरीब-से-गरीब को भी, मन में कभी घृणा से देखा है-?

अचला व्याकुल स्वर में बोल उठी-मैं क्या आपको जानती नहीं, बड़े चाचाजी? दुनिया में इतनी दया किसे है?

दया नहीं बिटिया, दया नहीं-प्रेम! मैं जैसे उन्हीं लोगों को ज्यादा प्रेम करता हूँ! लेकिन असली बात बताऊँ तुम्हें, क्या कोई जात और क्या कोई आदमी, जब धीरे-धीरे वह हीन हो जाता है-तो सबसे नाचीज के मत्थे ही सारा दोष मढ़कर सान्त्वना पाता है। सोचता है-इस आसान रुकावट को सम्हालते ही रातो-रात वह बड़ा हो जायेगा। हम लोगों का भी ठीक यही रवैया है! लेकिन जो कठिन है, जो जड़ है…

बात पूरी करने का समय न मिला। सीढ़ी पर जूते की आवाज हुई। मुड़कर देखते ही सुरेश पर नजर पड़ी, और पूछ बैठे-अच्छा सुरेश बाबू, आप तो हिन्दू हैं, आप तो हमारे जाति-भेद को मानते हैं?

सुरेश सकपका गया। यह कैसा सवाल? जिस दलदल पर वे चल रहे हैं, उसे हर कदम पर टटोले बिना कदम बढ़ाने से किस गहराई में धँस पड़ेंगे-उसका क्या पता? इसलिये सत्य है या नहीं, इसकी भी कसौटी जरूरी है। इसलिये डरते हुए वह करीब गया, और अचला की ओर ताक कर मतलब भाँपने की कोशिश की। लेकिन उसकी शक्ल दिखाई न पड़ी। सो जरा सूखा-सा हँसकर लटपटाता-सा बोला-हम क्या हैं, यह तो आप सब जानते हैं रामबाबू।

रामबाबू बोले-खूब जानता हूँ! यही तो ख्याल था!! लेकिन आपकी देवीजी जो पासा ही पलट देना चाह रही हैं। कहती हैं-कि जाति-भेद सरीखे इतने बड़े अन्याय, इतने बड़े अनर्थ को वे हर्गिज कबूल नहीं कर सकतीं; म्लेच्छ के हाथ का खाने में उन्हें उज्र नहीं! यह शिक्षा जन्म से ही उन्हें अपने पिता से मिली है। उनके हाथ का भोजन खाकर मेरी जात गयी या रही? प्रायश्चित की जरूरत है कि नहीं, अब तक इसी पर बातें हो रही थीं। आपका क्या ख्याल है?

सुरेश अवाक्! अचला का मिजाज उससे छिपा नहीं, तथा बगावत की आग वहाँ हर वक्त सुलग ही रही है-यह खबर भी उसके लिये नयी न थी। लेकिन अकस्मात् वह आग आज कैसे भड़की और कहाँ तक फैली, इसका अन्दाजा न लगा पाकर, शंका और उद्वेग से वह सूख गया। लेकिन तुरन्त अपने को सम्हाल कर, पहले ही जैसा हँसने की कोशिश की, पर अबकी उस कोशिश ने हँसी को दबाकर महज चेहरे को ही बिगाड़ दिया।

रामबाबू ने सिर हिलाकर कहा-गरचे, यह वाजिब नहीं, फिर भी ऐसा सोचने में मुझे आपत्ति न थी; लेकिन पति के कल्याण की खातिर भी जब हिन्दू घर की स्त्री ने कर्त्तव्य का पालन न करना चाहा; तुलसी चढ़ाने के दिन भी हर्गिज उपवास न किया-खैर, मजाक भी हो, तो यह सख्त है जरा! अच्छा सुरेश बाबू, विवाह तो हिन्दू-मत से हुआ था?

सुरेश ने कहा-हाँ!

वे धीमे-धीमे हँसने लगे। कहा-मैं तो जानता हूँ! अचला की ओर देखकर बोले-तुमसे कहने को यों बातें तो बहुत हैं। पर अब तुम्हारे पिता के ब्राह्म होने का मुझे कोई गम नहीं! ऐसे अनेक ब्राह्मों को मैं जानता हूँ, जो समाज में जाकर आँखें भी बन्द करते हैं। थोड़ा-बहुत अनाचार भी करते हैं। किन्तु लड़की के ब्याह में हिसाब का गोलमाल नहीं करते। खैर, एक फिक्र मेरी जाती रही!

लेकिन उनसे भी ज्यादा फिक्र टली सुरेश की। वह बूढ़े की हाँ-में-हाँ मिलाते हुए बोल उठा-आप बजा फरमा रहे हैं! आज-कल ऐसे ही लोग ज्यादा हैं! वे…

हठात् दोनों चौंक उठे। बीच ही में अचला का तीखा स्वर मानो गरज उठा। सुरेश की आँखों पर तेज नजर गड़ाती हुई बोली-इतने गुनाहों के बाद भी, गुनाह बढ़ाने में तुम्हें शर्म नहीं आती? तुम तो जानते हो, मेरे पिताजी फरेबी नहीं, मन-वचन से वे वास्तव में ब्राह्म हैं! तुम्हें मालूम है वे… कहते-कहते वह कुर्सी पर से उठ गयी।

सुरेश पहले तो जरा सकपकाया, पर मुड़कर आश्चर्य से बड़ी-बड़ी हुई बूढ़े की आँखों को देखकर, वह भी मानो यकायक जल उठा। बोला-झूठ क्या है? तुम्हारे पिता क्या हिन्दू घर में तुम्हारी शादी करने को तैयार नहीं थे? सच बताओ!

अचला ने जवाब नहीं दिया। शायद थोड़ी देर चुप रहकर उसने अपने को सम्हाल लिया, और धीरे बोली-यह बात आज मुझसे क्यों पूछ रहे हो? इसके कारण को दुनिया में सबसे ज्यादा क्या तुम नहीं जानते? तुम्हें खूब मालूम है कि मैं क्या हूँ, मेरे पिताजी क्या हैं, मगर इसके लिये तुमसे झगड़ने की मुझे इच्छा नहीं-इतना ही नहीं-शर्म आती है! तुम्हारी जैसी इच्छा हो, बनाकर उन्हें बताओ!! मैं नहीं सुनना चाहती!!! कहो-मैं जाती हूँ-और वह तेजी से ही बगल के कमरे में चली गयी।

वह चली गयी। पर ये दोनों कुछ देर के लिये पत्थर-से निश्चल हो रहे।

बूढ़े ने शायद मन की भूल से ही-एक बार हुक्के के लिये हाथ बढ़ाया लेकिन तुरन्त अपना हाथ खींचकर जरा हिले-डुले, खखारकर गले को साफ किया और बोले-आजकल सेहत कैसी है सुरेश बाबू?

सुरेश अनमन हो पड़ा था। चौंककर बोला-जी, ठीक है! कहते ही उसे सच्चाई की याद आयी-फिर बोला-छाती में जरा यहाँ पर दर्द है-क्या जाने कल से बढ़ा या…

रामबाबू बोले-कहिए तो भला, ऐसे में जाड़े की रात में; इतनी देर तक बाहर घूमना क्या ठीक है?

ठीक घूमना नहीं था, एक मकान के लिये आज दो हजार रुपया बयाना दे आया।

रामबाबू ने अचरज किया। फिर कहा-नदी पर है, अच्छा मकान है, मगर मुझसे पूछते तो मैं मना करता! उस दिन बातों-बातों में समझ गया था-सुरमा को यहाँ रहना पसन्द नहीं। हँसकर बोले-उससे पूछ लिया है, या अपनी ही राय से खरीद लिया? सुरेश ने इसका जवाब न देकर कहा-नापसन्द का तो खास कोई कारण नहीं देख रहा हूँ! रहने लायक कुछ सामान भी कलकत्ता से मँगवाया है, आशा है, कल-परसों तक आ जायेगा!!

रामबाबू थोड़ी देर चुप रहे, फिर कुछ सोचकर पुकारा-सुरमा! अचला ने जवाब नहीं दिया लेकिन कमरे से बाहर आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गयी। बूढ़े ने स्नेह से कहा-तुम्हारे पति ने तो यहाँ बहुत बड़ा मकान खरीद लिया! अब तो बूढ़े चाचा को छोड़कर तुम जा नहीं सकोगी!!

अचला चुप रही।

बूढ़े ने फिर कहा-घर और असबाब ही नहीं, मैं जानता हूँ, गाड़ी-घोड़ा भी आ रहा है, और उससे भी ज्यादा यह जानता हूँ कि यह सारा कुछ तुम्हारे ही लिये! कहकर हँसते हुए एक बार उन्होंने अचला को और एक बार सुरेश को देखा। लेकिन उस गम्भीर और उदास मुखड़े पर खुशी की कोई झलक ही न दिखी। इस धुँधले प्रकाश में औरों को शायद यह नहीं दीखता, मगर बूढ़े की पैनी निगाह न चूकी। तो भी उन्होंने पूछा, लेकिन बिटिया, तुम्हारी राय…

अचला अब बोली। कहा-मेरी राय की तो जरूरत नहीं, चाचाजी!

रामबाबू झट से बोल उठे-यह कैसी बात? तुम्हीं तो सब हो, तुम्हारी ही इच्छा से…

अचला उठ खड़ी हुई; बोली-नहीं चाचाजी, नहीं; मेरी इच्छा से कुछ नहीं आता-जाता! आप सब समझ नहीं पायेंगे; मैं आपको समझा भी नहीं सकूँगी-मगर अब इजाजत दे दें तो मैं जाऊँ…

बूढ़े के मुँह से बात नहीं निकली, उसकी जरूरत भी नहीं हुई।

एकाएक नौकरानी एक कड़ाही में आग ले आयी। सबका ध्यान उसी पर जा टिका। रामबाबू अचरज से पूछना चाह रहे थे, सुरेश ने अप्रतिभ होकर कहा-मैंने बैरा से लाने को कहा था, देख रहा हूँ, उसने दूसरे को यह हुक्म दे दिया! जहाँ पर दर्द है, वहाँ जरा…

आग की जरूरत की व्याख्या नहीं करनी पड़ी, लेकिन उसके लिये तो एक जने की और जरूरत थी। रामबाबू ने अचला की ओर देखा, लेकिन उसने तुरन्त मुँह फेर कर शान्त स्वर में कहा-मुझे बड़ी नींद लग रही है चाचाजी, मैं चलती हूँ! कहकर उत्तर का इन्तजार किये बिना ही चली गयी और तुरन्त दरवाजा बन्द करने की आवाज हुई। रामबाबू कुर्सी पर से उठ गये, और नौकरानी के हाथ से आग की कड़ाही लेकर बोले-चलिये सुरेश बाबू-

-आप?

-हाँ, मैं! कुछ नई बात नहीं, जीवन में यह काम बहुत कर चुका हूँ, और एक प्रकार से जबर्दस्ती ही उसे उसके कमरे में खींच ले गये। आग की कड़ाही को फर्श पर रक्खा; कुछ देर एकटक उसे देखते रहे, और तब उसका एक हाथ दबाकर कहा-नहीं, नहीं सुरेश बाबू, यह हर्गिज नहीं हो सकता, हर्गिज नहीं! मैं समझ रहा हूँ, कुछ हुआ है, मैं एक बार-लेकिन छोड़िए-जरूरत होगी तो फिर-कहकर वे चुप हो गये।

सुरेश एक शब्द भी न कह सका। लेकिन बच्चों-सरीखे एक बार उसके होंठ काँप उठे, और आँसू छिपाने के लिये उसने मुँह फेर लिया।

(35)

सुरेश एक सोफे पर आँख मूँदकर पड़ा था, और सामने एक कुर्सी खींच कर रामबाबू उसकी दुखती छाती पर सेंक दे रहे थे; ऐसे समय द्वार खोलने की आवाज हुई। देखा-अचला आ रही है। उसने बिना किसी आडम्बर के कहा-रात काफी हो गयी चाचाजी! आप सोने जाइए!!

इसी के तो इन्तजार में था बिटिया!-कहकर रामबाबू झट खड़े हो गये और सुरेश को देखकर कहा-इतनी देर तक विडम्बना के सिवा और क्या भोगते रहे हम दोनों? भला यह काम हम लोगों से होने का है? अचला की तरफ कुर्सी को जरा बढ़ावा देते हुए बोले-जिसका काम उसी को सुहाता है! लो, बैठो। मैं जरा हाथ-पाँव पसारूँ। थकावट के भार से एक लम्बी जम्हाई लेकर दो-तीन बार चुटकी बजाकर उन्होंने हुक्का उठाया, और बाहर जाकर सावधानी से दरवाजे को बन्द करते हुए हँसकर बोले-गनीमत है, ऊँघते हुए हाथ-पाँव न जला बैठा! क्यों सुरेश बाबू?

सुरेश ने कुछ कहा नहीं, सिर्फ हाथ जोड़कर नमस्कार किया।

अचला चुपचाप उनकी छोड़ी हुई कुर्सी पर बैठ गयी। सेंक देने के कपड़े को तपाती हुई बोली-फिर कैसे दर्द हो गया? कहाँ पर लगता है?

सुरेश ने न तो आँखें खोलीं, न वह बोला; सिर्फ हाथ से छाती की बाईं ओर दिखा दिया। फिर सन्नाटा। ऐसा सन्नाटा, लगने लगा कि इस मौन अभिनय के अन्तिम अंक तक यह मौन ही चलेगा। लेकिन वैसा हुआ नहीं। सहसा अचला के फ्लानेल-समेत हाथ को सुरेश ने अपनी छाती पर कस कर दबा लिया। अचला के चेहरे पर उद्वेग का कोई चिद्द नहीं दीखा, वह यही उम्मीद कर रही थी; केवल इतना कहा… छोड़ो, थोड़ा और सेंक दूँ!

सुरेश ने हाथ छोड़ दिया, लेकिन देखते-ही-देखते उठकर, दो व्याकुल बाँहें बढ़ाकर अचला को खींच लिया, और अपनी छाती से कसकर दबाते हुए असंख्य चुम्बनों से उसे अभिभूत कर दिया। एक क्षण पहले जैसे यह लगा था-कि इस आवेग-उच्छ्वासहीन नाटक का अन्त ऐसी ही निर्जीव नीरवता में होगा; पर एक पल बीतते-न-बीतते फिर यह लगने लगा कि इस बौखलाई उन्मत्तता की शायद सीमा नहीं, शेष नहीं-सभी ओर, सब समय ही यह उन्मत्तता मानो अजर, अमर होकर रहेगी। कभी किसी युग में भी इसका विराम न होगा, विच्छेद न होगा!

अचला ने बाधा नहीं दी, जोर नहीं लगाया, लगा कि इसके लिये भी वह तैयार ही थी; केवल उसका शान्त मुखड़ा एक बार पत्थर की तरह बेदर्द और सख्त हो गया। सुरेश को होश नहीं था, शायद सृष्टि के घोरतम अँधेरे से उसकी दोनों आँखें बिल्कुल अन्धी हो गयी थीं-नहीं तो उस मुखड़े को चूमने की शर्म और बेइज्जती उसकी समझ में आ भी सकती थी। समझ नहीं आयी ठीक, लेकिन थकावट से ही जब यह पागलपन फिर हो गया, तो अपने को धीरे-धीरे उससे छुड़ाकर अचला अपनी जगह पर आ बैठी।

कुछ क्षण जब दोनों के चुपचाप कट गये, तो एक लम्बा निश्वास फेंकते हुए सुरेश बोल उठा-इस तरह से हम लोगों की कब तक कटेगी अचला? कहकर उसने किसी उत्तर का इन्तजार नहीं किया और कहने लगा-तुम्हारा कष्ट मैं जानता हूँ, मगर मेरे दुःख को भी सोच देखो। मैं तो गया।

अचला ने इसका जवाब नहीं दिया। पूछा-तुमने यहाँ मकान खरीदा है? बड़े आग्रह से सुरेश बोल उठा-तुम्हारे ही लिये अचला!

अचला ने इसका भी जवाब न दिया। फिर पूछा-चीज-बस्त, गाड़ी घोड़ा भी मँगाया है?

सुरेश ने उसी तरह से जवाब दिया-सब तो तुम्हारे ही लिये!

अचला चुप रही। इससे उसे क्या जरूरत, यह उसे चाहिए या नहीं, उस आदमी से यह पूछने जैसा अपने ऊपर व्यंग्य दूसरा और क्या है? इसलिये इसके बारे में और कुछ न कहकर वह चुप हो रही। जरा देर चुप रहकर पूछा-रामबाबू के सामने तुमने मेरे पिताजी का नाम लिया? घर बताया है?

सुरेश ने कहा-नहीं।

-और सेंक देने की जरूरत है?

-नहीं।

-तो मैं जाती हूँ। मुझे बड़ी नींद आ रही है!-अचला कुर्सी पर से उठ गयी। आग की कड़ाही को हटाकर बाहर से दरवाजा बन्द करने जा रही थी, कि सुरेश हड़बड़ में उठकर बोला-एक बात बताती जाओ अचला! तुम क्या और कहीं जाना चाहती हो? सच कहो?

अचला ने पूछा-और कहाँ?

सुरेश बोला-जहाँ भी हो! जहाँ हमें कोई नहीं जानता, कोई नहीं पहचानता, ऐसी किसी जगह, वह देश जितना…

आवेश में सुरेश की आवाज काँपने लगी, अचला ने इस पर गौर किया, लेकिन वह बहुत ही स्वाभाविक और सहज स्वर में बोली-यहाँ भी तो हमे कोई नहीं पहचानता था, आज भी नहीं पहचानता!

उत्साह पाकर सुरेश कहने लगा-लेकिन धीरे-धीरे…

टोककर अचला बोली-धीरे-धीरे जान जायेंगे? हाँ जान सकते हैं, लेकिन यह खतरा तो और कहीं भी है!

सुरेश उमंग में आकर कहने लगा-तो यही तै रहा! यही तुम्हारी राय है, कहो? साफ-साफ कहो एक बार-कहते-कहते जाने किसने तो उसे ढकेल कर उठा दिया। लेकिन अकुलाए पैर को बढ़ाते ही देखा-द्वार बन्द करके अचला चली गयी है।

कई दिनों से बदली घिर रही थी। बारिश के आसार थे। सुरेश के नये मकान में कलकत्ते से आये ढेरों सामान जमा थे, उन्हें सहेज लेने का आग्रह किसी में न था। दो घोड़े, एक गाड़ी भी आयी थी-वह साईस के जिम्मे किसी अस्तबल में पड़ी है, कोई इसकी खोज नहीं लेता। जैसे-तैसे दिन बीतते जा रहे थे। ऐसे में एक दिन दोपहर को, रामबाबू एक हाथ में हुक्का और दूसरे में एक नीला लिफाफा लिये आ पहुँचे-अचला रेलिंग के पास सोफे पर अधलेटी पड़ी, किसी मासिक पत्र का विज्ञापन पढ़ रही थी। चाचाजी को देखकर उठ बैठी। चिट्ठी बढ़ाते हुए रामबाबू बोले-यह लो अपनी राक्षसी का पत्र! इतने दिन वह तुम्हें लिख नहीं सकी, इसके लिये मेरे पत्र में तुमसे हजार बार माफी माँगी है, असंख्य प्रणाम भी लिखा है। उसे माफ कर दो! हँसते हुए उसके हाथ में चिट्ठी देकर वे पास ही एक कुर्सी खींचकर बैठ गये, और नदी की ओर देखते हुए हुक्का पी-पीकर धुएँ से अँधेरा करते रहे।

अचला ने दो बार शुरू से आखिर तक पत्र को पढ़ने के बाद सिर उठाया। बोली-तो ये सब परसों सुबह की गाड़ी से आ रहे हैं? ये फूफी कौन, चाचाजी? और उनकी राजपुत्र-वधू? राजपुत्र के गार्जन-ट्यूटर…

रामबाबू ने हँसकर कहा-दिल्लगी का मौका हाथ आ जाये, तो यह बिटिया राक्षसी चूकने की नहीं! फूफी हुई मेरी छोटी विधवा बहन, और राजपुत्र-वधू यानी उनकी लड़की-भण्डारपुर के भवानी चौधरी की स्त्री-खैर, कहने को कोई जो कहे, राजा-रजवाड़ा-सा ही घर है! राजपुत्र हुआ उसी का दसेक बरस का लड़का-और यह आखिरी आदमी क्या है, यह तो आँखों देखे बिना बता नहीं सकता बेटी। होंगे कोई ज्यादा तनखा के नौकर-चाकर! बड़े आदमी के बेटे के साथ घूमते-फिरते हैं, यह वह जानते-अजानते जुगाकर, बालिग-नाबालिग सबका मन रखते हैं-ऐसे ही कुछ होंगे! मगर मैं इसकी तो नहीं सोचता सुरमा, आयें, खायें-पियें, पश्चिम के हवा-पानी से गले और छाती की जलन दो दिन स्थगित हो तो खुशी ही होगी; मगर फिक्र तो यह है कि घर अपना छोटा है-राजे-रजवाड़ों की सोचकर बनवाया भी नहीं, घर-द्वार की व्यवस्था भी उसके अनुकूल नहीं! साथ में नौकर-नौकरानी भी शायद जरूरत से तिगुने आयें। इसी से मैं सोच रहा हूँ, अगर तुम्हारे घर को…

अचला व्यस्त होकर बोली-लेकिन उसका अब समय कहाँ, चाचाजी! फिर अकेले इतनी दूर रहना उनके लिये सुविधाजनक होगा?

रामबाबू ने कहा समय है, बशर्ते कि अभी से जुट जाया जाये! जगह तैयार रहे तो किसे-कहाँ सुविधा होगी, इसका हल सहज ही हो जायेगा। सुरेश बाबू तो सुनते ही इक्के पर सवार होकर चले गये-तुम्हारी गाड़ी भी तैयार होकर आयी समझो, तुम खुद अगर जल्द तैयार हो जाओ बिटिया, तो इतने में मैं भी जूते बदल कर चादर ले आऊँ। सच पूछो तो तुम्हारी गिरस्ती का ठीक-ठिकाना तो हम लोगों से होगा नहीं!

अचला कुछ देर चुप रही फिर उठ खड़ी हुई। बोली-अच्छा, मैं कपड़े बदल लेती हूँ। कहकर धीरे-धीरे चली गयी।

रामबाबू का प्रस्ताव न तो असंगत था, न अस्पष्ट। राजकुमार और राजमाता को जगह देने के लिये उसे यह आश्रम छोड़ना पड़ेगा, अचला समझ गयी; लेकिन समझना सहज होने से ही भार हल्का नहीं हो जाता। वह मन में जितनी दूर तक गया, स्टील के रोलर की नाईं सब-कुछ को पीसता हुआ चला गया।

इतने दिनों में कोई भी उसे घर से बाहर निकलने को राजी नहीं कर सका था। पन्द्रह मिनट बाद, आज पहली बार जब वह अपनी अभ्यस्त वेश-भूषा में तैयार होकर इसी के लिये आयी, तो चारों ओर का सब कुछ उसे नया और विस्मय-सा लगा-और तो और, अपने आपको भी और ही तरह का लगने लगा। फाटक के बाहर बड़ी-सी जोड़ी खड़ी थी, नई पोशाक वाले कोचवान ने मालिक समझकर सलाम किया; दरवाजा खोलकर साईस बाअदब हटकर खड़ा हो गया, और उसी का अनुसरण करते हुए रामबाबू जब सामने वाली जगह में बैठ गये, तो यह सब कुछ अजीब सपने-सा लगा। उसकी अभिभूत नजर गाड़ी के जिस हिस्से पर भी पड़ी, लगा-यह बहुमूल्य ही नहीं, यह सिर्फ धनवान के वैभव का घमण्ड ही नहीं, उसका एक-एक कतरा मानो किसी के अपार प्रेम का बना है!

सख्त सड़क पर चार जोड़े खुरों की टपटप आवाज गुँजाती हुई जोड़ी दौड़ पड़ी, लेकिन अचला के कानों अस्पष्ट-सी दाखिल हुई। उसका सारा हृदय बाहरी इन्द्रियाँ शायद आखीर तक ऐसी ही अभिभूत रह जातीं लेकिन रामबाबू की आवाज से सहसा चौंक उठी-सामने की ओर उसका ध्यान खींचते हुए वे बोले-वह रहा तुम्हारा घर बिटिया! नौकर-चाकरों की बहाली हो चुकी, मामूली तौर पर सजाने-गुजाने का काम अब तक काफी आगे बढ़ चुका होगा, केवल तुम लोगों के सोने के कमरे में मैंने किसी को भी हाथ लगाने से मना कर दिया है! उनके जाते-जाते मैंने कह दिया-सुरेश बाबू, घर के और जहाँ पर जो जी-चाहे कीजिए, कोई परवा नहीं मुझे-मगर बिटिया के कमरे में कुछ कर-धरके उसका काम बढ़ा मत दीजिएगा! लजीली मुस्कान के साथ आशाभरी आँखें उठाते ही वे चुप हो गये।

वे अचानक ऐसे थम क्यों गये-अचला उसी वक्त समझ गयी, इसलिये जब तक गाड़ी नये बंगले पर न जा पहुँची, तब तक वह अपना फीका उदास चेहरा बाहर की ओर फेर कर, बूढ़े की विस्मित आँखों से छिपाए रही।

गाड़ी की आवाज से सुरेश बाहर आया, काम छोड़कर अपनी मालकिन को देखने के लिये दाई-नौकर भी निकल आये, पर उस शक्ल को देखकर किसी को कोई उत्साह न मिला।

रामबाबू के साथ-साथ अचला उतर आयी, सुरेश की ओर नजर उठाकर उसने देखा तक नहीं। उसके बाद तीनों नये मकान के अन्दर गये। उसके भीतर-बाहर, ऊपर-नीचे, कहीं भी आनन्द का लेश है-यह थोड़ी देर के लिये भी किसी को कहीं नहीं दिखाई दिया।

(36)

लेकिन इसमें गलती कितनी बड़ी थी, उसे जाहिर होते भी देर न लगी। घर सजाने के काम में लगे लोगों को, ऐसे महँगे और इतने ज्यादा सामानों के बीच खड़े होकर, इसीलिये सभी चिन्ताओं से ज्यादा एक चिन्ता बार-बार चोट करने लगी-कि जिसके पास रुपया है, उसने खर्च किया है-वह एक पुरानी बात है परन्तु यह तो सिर्फ वहीं नहीं है! यह तो मानो एक को आराम देने के लिये दूसरे की व्याकुलता की कोई हद नहीं!! काम करते हुए, यह-वह चीज छूते-छापते मामूली बातें बहुत हुईं; आँखें भी मिलीं कई बार-लेकिन सबके अन्दर से एक अनबोली बात, छिपा इशारा रह-रह कर केवल इसी ओर उँगली दिखाने लगा।

धोने-पोंछने का काम खत्म नहीं हुआ था। लिहाजा, उसे मामूली तौर पर रहने लायक बनाने में ही सारा समय लग गया। थके-माँदे तीनों जने जब लौटने के लिये गाड़ी पर बैठे, तो एक पहर रात जा चुकी थी। हवा बही थी, सो सामने का आसमान जरा साफ हो गया था, सिर्फ बीचो-बीच धुमैले मेघ का एक टुकड़ा एक छोर से आकर, नदी पार हो करके दूसरी ओर फैलता जा रहा था; कभी मैली चाँदनी की धारा, मानो सप्तमी के चाँद के चारों तरफ के बैहार और पेड़-पौधों पर झर रही थी। आँखें भरकर इस सौन्दर्य को देखने के लिये रामबाबू आँखें फाड़कर खिड़की से बाहर ताक रहे थे; मगर जो बूढ़े नहीं-प्रकृति के सारे रस, सारी मधुरिमा का उपभोग करने की ही जिनकी उम्र थी, सिर्फ वही दोनों गाड़ी की गद्दी के कोनों में आँखें बन्द किये बैठे रहे।

एक बहुत पुरानी स्मृति अचला के मन में धुँधली हो गयी थी, बहुत दिनों के बाद आज वही याद आने लगी-सुरेश के कलकत्ते वाले घर से, ऐसी ही एक साँझ को, ठीक इसी तरह गाड़ी से वे लौट रहे थे। उस दिन उसके ऐश्वर्य और उपभोग के विपुल साधन, उसके मन को महिम से खींचकर बहुत दूर ले गये थे। उस दिन इसी सुरेश के हाथों अपने को सौंपना निरा असंगत या असम्भव नहीं लगा था-बहुत दिनों के बाद आज वही बात जो क्यों याद आयी, यह सोचते हुए-अपने अन्तर की गूढ़ छवि को देखकर, उसके सर्वांग को छूती हुई शर्म की आँधी बहने लगी। शर्म! शर्म!! शर्म!!! यह गाड़ी, वह घर और घर की इतनी-इतनी तैयारी-सब उसकी है; सब उसके पति के दुलार का उपहार है, यही सबने जाना। और ऐसा भी दिन आयेगा, जब लोग जानेंगे कि इसमें उसका वास्तविक अधिकार फूटी-कौड़ीभर का नहीं था। शुरू से आखिर तक सब झूठा! उस दिन वह शर्म को रक्खेगी कहाँ? अचला आज यह बात हर्गिज झूठ नहीं, इसका सारा-कुछ महज उसी की पूजा के लिये सँजोया गया है, और इसका आदि-अन्त ही स्नेह से, प्रेम से, दुलार से मण्डित है!

देखते-ही-देखते उसके मन में लोभ और त्याग, लज्जा और गौरव-ठीक गंगा-जमुना-सा अगल-बगल ही बहने लगा, और एक क्षण के लिये वह दो में से एक को भी अस्वीकार न कर सकी। फिर भी घर पहुँच कर रामबाबू जब सान्ध्यकृत्य के लिये चले गये, तो थकावट और सिर-दुखने की दुहाई देकर, वह असमय में ही जल्दी से अपना कमरा बन्द करके लेट गयी-तो केवल लज्जा और अपमान ही मानो उसे निगल जाना चाहने लगे। पिता की लाज, पति की लाज, सगे-सम्बन्धियों की लाज, सबकी सम्मिलित लाज से ही आँख पर आकाश-चुम्बी होकर सभी दुखों को दबा दिया। केवल यही ख्याल होने लगा कि यह फरेब जब किसी दिन उभर जायेगा, तो मुँह छिपाने की जगह कहाँ रहेगी?

यों जिस समाज में वह बचपन से पली, वहाँ भूतल-शय्या या पेड़ों के नीचे वास-कोई भी किसी का आदर्श नहीं रहा। वहाँ हर चाल-चलन, आहार-विहार, मिलने-जुलने में विलासिता के प्रति विराग को नहीं, अनुराग को ही क्रमशः उग्रता से बढ़ते देखा है-वहाँ हिन्दू-धर्म के किसी आदर्श से उसका परिचय नहीं हुआ। स्वर्ग के आसरे संसार के सारे सुखों से अपने को हटाने की कठोर निष्ठा कभी नहीं देखी। उसने औरों की नकल पर बने घर के समाज को देखा है, जिसकी एक-एक नारी सांसारिक प्यास से दिनानुदिन केवल सूखती ही गयी है।

इसलिये इस सूनी सेज पर आँख मूँदकर, ऐश्वर्य नाम की चीज को तुच्छ कहकर उड़ा नहीं दे सकी। और उसका मन इस बात पर भी हामी न भर सका कि उसे यह नहीं चाहिए, जरूरत नहीं है। उसकी इतने दिनों की शिक्षा और संस्कार, इनमें से किसी को भी तुच्छ करने के अनुकूल नहीं पड़ता था-लेकिन ग्लानि से भी उसका सारा अन्तर काला हो उठा। सो जितनी दौलत, जितने उपकरण-शरीर को आराम से रखने के विविध साधन-आज अनमाँगे ही उसके पैरों-तले आ लुटे थे, उसका बेरोक मोह उसे अविराम एक हाथ से खींचने और दूसरे से फेंकने लगा।

दुःख के सपने में मुक्ति की जैसी एक धुँधली चेतना का संचार होता है, वैसे ही उसकी यह बाधा भी बिल्कुल जाती नहीं रही थी-कि भाग्य की मार से आज जो दगा है, कभी इसके सत्य होने में कोई अड़चन ही नहीं थी! यही सुरेश उसका पति हो सकता था, और दूर भविष्य में यह एकबारगी असम्भव है-यह भी कोई निश्चित तौर पर नहीं कह सकता!!

उनके समाज से मिलते-जुलते सभी समाजों में विधवा-विवाह चलता है, हिन्दू-नारी के समान किसी एक ही के पत्नीत्व-बन्धन को, इस-उस दोनों लोक में ढोने-फिरने का अनुल्लंघनीय अनुशासन उन्हें नहीं मानना पड़ता-लिहाजा जीवन-मरण में केवल एक को ही अनन्यगति सोचने की लाचारी, उससे उम्मीद नहीं की जा सकती। पति के जीते-जी दूसरे को स्वामी कहने में, अपराध के भार से वह मन में जितना ही क्यों न दुःखी हो, लज्जा और अपमान की ज्वाला से जलता चाहे जितना हो, धर्म और परलोक की गदा उसे मारकर लुढ़का देने का डर नहीं दिखा सकी।

दरवाजे का कड़ा खटखटा कर रामबाबू ने कहा-एक बूँद पानी तक पिए बिना सो गयी बिटिया, तबीयत क्या इतनी खराब है?

अचला की चिन्ता का छोर टूट गया। उसे ऐसा लगा, जैसे उसके पिता की आवाज हो! कभी रंज होकर सो रहने पर वे इसी प्रकार घबराई आवाज से दरवाजे के बाहर से पुकारा करते थे।

इस चिन्ता को वह हर्गिज जगह नहीं देती, लेकिन स्नेह की इस पुकार को वह टाल न सकी। देखते-ही-देखते उसकी आँखें सजल हो आईं। झट उसने आँखें पोंछ लीं, और भर्राए गले को साफ करके जवाब देते हुए, किवाड़ खोलकर सामने आ खड़ी हुई।

ये बूढ़े सज्जन, इतने दिनों की इतनी घनिष्ठता के बावजूद सदा एक दूरी रखकर ही चलते थे-इस घर में आज का दिन ही इन लोगों का अन्तिम है, शायद यही सोचकर पल में वे उस दूरी को लाँघ गये। एक हाथ अचला के कन्धे पर रखकर दूसरे से उसका ललाट चूमते हुए बोले-अपने चाचा से शरारत बिटिया? तुम्हें कुछ नहीं हुआ, चलो-कहकर हाथ पकड़कर बरामदे की एक कुर्सी पर उसे बैठा दिया।

थोड़ी ही दूर दूसरी कुर्सी पर सुरेश बैठा था। उसने एक बार नजर उठाकर देखा, और फिर सिर झुका लिया। बात थी कि रात में बैठकर दिन के काम-काज पर बात की जायेगी, और सुरेश इसीलिये अकेले बैठकर रामबाबू के आने का इन्तजार कर रहा था। उसी की ओर देखकर रामबाबू जरा हँसकर बोले-आपकी गृहलक्ष्मी जानें किस साहब की बेटी हैं-दिन-तिथि, पोथी-पत्र को नहीं मानतीं! ऐसे में आप मानें न मानें, कुछ आता-जाता नहीं। मगर मेरे साठ साल का कुसंस्कार तो जाने का नहीं! कल डेढ़ पहर के आस-पास एक शुभ साइत है-

सुरेश ने इशारे को न समझा। कुछ अचरज से कहा-शुभ साइत है?

रामबाबू इसका ठीक सीधा जवाब न दे सके। कुछ जैसे आगा-पीछा करके बोले-इसके बाद हफ्ते-भर के अन्दर पत्रो में कोई ढूँढ़े न मिला-इसी से-

सुरेश समझ तो गया; मगर हाँ-ना कुछ कह न पाकर, डर से छिपे-छिपाये उसने अचला की ओर ताका, और ताका कि अपनी नजर झुका न सका। देखा-अचला एकटक उसी की ओर देख रही है।

अचला ने शान्त भाव से कहा-कल सवेरे ही हम उस मकान में जा सकते हैं न?

दंग था सुरेश, इस सीधे प्रश्न का सीधा उत्तर उसके मुँह से हर्गिज न निकल सका। उसने किसी प्रकार से इतना ही जताना चाहा, कि वह घर अभी ठीक रहने लायक नहीं हो सका है-फर्श शायद ओदा है, नई दीवारें कच्ची हैं-उससे तुम्हारी तबीयत खराब हो सकती है या मेरी…

लेकिन आपत्तियों की यह सूची समाप्त न हो सकी। अचला मानो जरा हँसकर ही बोली-है तो रहे! जिस दुर्दिन में गीदड़ भी अपनी माँद से बाहर नहीं निकलना चाहता, वैसे दिन में जब मुझे खींचकर अनजान जगह में पेड़-तले ला बिठा सकते हो, तो फर्श गीला है-इस डर से मेरे लिये तुम्हें घबराने की आवश्यकता नहीं! उस दिन जो नहीं मरी, वह आज भी जिन्दा ही रहेगी!!

रामबाबू की ओर मुड़कर वह बोली-आप फिक्र न करें, चाचाजी-हम कल सवेरे ही जायेंगे! आपका एहसान हम जन्म-जन्म तक न अदा कर सकेंगे-हम कल जायेंगे-कहते-कहते रोकर भाग गयी, और अपने कमरे का दरवाजा बन्द कर लिया।

बूढ़े रामबाबू पर मानो गाज गिरी हो, ऐसे बैठे रह गये। उनकी आकुल-व्याकुल दृष्टि कभी सुरेश के झुके चेहरे पर, और कभी बन्द दरवाजे पर जाकर यह विफल प्रश्न करने लगी-यह क्या हुआ? कैसे हुआ? सम्भव कैसे हुआ यह? लेकिन अन्तर्यामी के सिवा इस मार्मिक मान का उत्तर कौन दे?

(37)

दूसरे दिन सवेरे से ही आसमान बादलों से ढँका था। उस धुँधले आसमान के नीचे, सारा संसार ही कैसा उदास और मलिन लग रहा था। गाड़ी दरवाजे पर खड़ी थी, कुछ-कुछ बक्स बिछावन उस पर रक्खा जा चुका था; पत्रो के अनुसार ठीक घड़ी में अचला नीचे उतरी, और गाड़ी पर सवार होने से पहले रामबाबू के चरणों की धूल ली। वे जबर्दस्ती हँसने की कोशिश करके बोले-इस बूढ़े चाचा से छुटकारा पाना बड़ा मुश्किल है बिटिया! पाँवों की जरा-सी धूल लेकर दो मील के फासले पर जा रहे हो-इससे यह न समझो कि मुक्ति मिली!

गीली आँखें ऊपर उठाकर अचला ने धीरे-धीरे कहा-मैं तो ऐसा चाहती नहीं, चाचाजी!

इस करुणा-भरी बात से बूढ़े की भी आँखें भर आईं। उन्हें सहसा लगा-यह अपरिचित लड़की फिर जाने परिचय के बाहर-कितनी दूर खिसकी पड़ रही है। स्नेहढल स्वर में बोले-भला मैं यह नहीं जानता हूँ बिटिया? नहीं तो पति के साथ अपने घर जा रही हो, इससे आँखों में आँसू क्यों आ जाते? मगर तो भी तो मैं रोक नहीं पाया! कहते हुए उन्होंने बूँद-भर आँसू हाथ से पोंछ कर हँसते हुए कहा-पास में थीं, उत्पात मचाया करता था रात-दिन; अब वही करते न बनेगा। मगर सूद-समेत वसूलने में न चूकूँगा, देख लेना!

सुरेश पीछे था। आज पहली बार उसने भक्तिपूर्वक बूढ़े के पैरों की धूल ली। वे धीरे-धीरे बोले-मैं जानता हूँ, आप मेरे यहाँ सुखी नहीं थे सुरेश बाबू! मैं तन-मन से आशीर्वाद देता हूँ, अपने घर जाकर वही असुविधा दूर हो!

सुरेश ने कुछ नहीं कहा, केवल फिर से एक बार झुककर उन्हें प्रणाम करके गाड़ी पर जा बैठा।

रामबाबू ने दुबारा आशीर्वाद देते हुए ऊँचे स्वर में कहा-मैंने एक एक्का लाने को कह दिया है-साँझ होते-होते शायद जा न धमकूँ; मगर नाराज न होना! इस दिल्लगी के बाद एक लम्बी उसाँस भरकर मौन हो रहे।

गाड़ी चली गयी, तो मन-ही-मन कहा-अच्छा ही हुआ कि समय रहते ही ये चले गये! यहाँ सिर्फ नहान का अभाव ही न था, अपनी विधवा बहन के स्वभाव को भी जानते थे। दूसरों की नब्ज टटोलने के कौतूहल की उसमें सीमा न थी। आते ही वह सुरमा की कठिन कसौटी शुरू कर देगी और इसका नतीजा चाहे जो हो, वह सुखकर नहीं होगा। इस लड़की के बारे में कुछ न जानते हुए भी, इतना जरूर जाना था कि वह भद्र है। किसी भी आफियत के लिहाज से वह कभी झूठ नहीं कह सकती-वह ब्राह्म की लड़की है, छुआछूत नहीं मानती-यह सब वह छिपायेगी नहीं। वैसे में इस घर में जो विद्रोह मचेगा, उसकी कल्पना से ही छाती काँप उठती है। खैर, यह तो उनकी अपनी सुख-सुविधा की बात हुई। एक बात और थी, जिसको वे अपनी ताईं भी स्पष्ट कर लेना चाहते थे। उनके लड़की नहीं थी, लेकिन पहली सन्तान उनके लड़की ही हुई थी। आज वह जिन्दा होती, तो अचला की माँ हो सकती थी; लिहाजा उम्र और शक्ल की कोई समानता ही न थी। लेकिन उनकी यह भूल कितनी बड़ी थी-इसका पता उन्हें उसी दिन चला था, जिस दिन इस अपरिचित स्त्री को डॉक्टर की खोज में रोते-रोते रास्ते में जाते देखा था। उस दिन उन्हें ऐसा लगा था कि बहुत दिनों की खोई हुई वह लड़की अचानक मिल गयी; उस दिन से वह भूख निरन्तर बढ़ती ही गयी, और मन में भी अनुभव करते थे सही, लेकिन जाने कैसा तो एक रहस्य उस लड़की को घेरे हुए था। खैर, जो आँखों की ओट में है, वह ओट में ही रहे-खोदकर उसे निकालने की जरूरत नहीं।

एक दिन राक्षसी ने हल्का-सा इशारा दिया था-कि शायद कोई पारिवारिक झमेला है-शायद घर में झगड़कर सुरेश बाबू स्त्री को लेकर चले आये हैं। एक दिन अचानक अचला ने जब अपने को ब्राह्म महिला बताया, और सुरेश के गले में पहले जनेऊ दिखाई पड़ा था-उस दिन रामबाबू चौंक पड़े थे, उन्हें चोट पहुँची थी। लेकिन अन्दर से इस गुप्त रहस्य का मानो एक हेतु उन्हें मिला था-उस दिन उन्होंने यही समझा था कि हो-न-हो, ब्राह्म-परिवार में शादी करके ही सुरेश ने यह आफत मोल ली है, और यही विश्वास धीरे-धीरे उनके मन में जम गया था।

रामबाबू वास्तव में हिन्दू थे, इसलिये उन्होंने हिन्दू-धर्म की निष्ठा ही पाई थी, उसकी निठुरता नहीं। ब्राह्मण का लड़का सुरेश, उसकी यह दुर्गत नहीं ही होती तो उन्हें खुशी होती; परन्तु यह प्रेम-विवाह, सगे-सम्बन्धियों से विच्छेद; यह लुका-छिपी-इसका सौन्दर्य, इसका माधुर्य भीतर-ही-भीतर उन्हें बड़ा मुग्ध करता था। इसे बिना जाने आश्रय देने में, उनका हृदय मानो रस से आप्लावित हो उठता। इसलिये जब भी इन दो बागी पे्रमियों का प्रणय-मान मनमुटाव के रूप में उनकी नजर में आता, तो बड़े दुःख के साथ उन्हें यही बात याद पड़ती, कि दूसरे के यहाँ के सँकरे दायरे में मिलन ठोकर खा रहा है-वही शायद अपने घर के स्वाधीन और स्वच्छ अवकाश में, दुनिया के हजारों काज-अकाज में शान्ति और सामंजस्य में स्थिति-लाभ करेगा।

उनके नहाने का समय हो गया था, कन्धे पर अँगोछा डालकर नदी की ओर जाते-जाते, हँसते हुए बार-बार मन में कहने लगे-जाते वक्त इस बूढ़े पर बड़ा मान करके ही गयी। सोचा-अपने लोगों की खातिर बड़े चाचा ने अपने यहाँ हमें जगह नहीं दी! लेकिन दो दिनों के बाद जब जाकर यह देखूँगा कि उनकी आँखों में हँसी समा नहीं पा रही है, तो उसी दिन इसका बदला चुकाऊँगा। उस दिन पूछूँगा-इस बुड्ढे के सिर की कसम बिटिया, सच-सच बताओ तो, पिछले गुस्से की मात्रा कितनी रह गयी? देखता हूँ-क्या जवाब देगी? उनका तमाम चेहरा खुली हँसी से उद्भासित हो उठा। अपनी आँखों में मानो उन्होंने साफ देखा, कि होंठों में हँसती हुई अचला काम का बहाना बनाकर चली गयी, और तुरन्त रकाबी में मिठाई लेकर लौटी; मुँह को बेतरह गम्भीर बनाकर कहने लगी-मेरे हाथ की बनाई मिठाई है! न खायेंगे तो झगड़ा हो जायेगा चाचाजी!

नहाकर पानी में खड़े हो-गंगा-स्तोत्र पाठ करते समय भी, बीच-बीच में अचला की हँसी छिपाने की कोशिश को, साग से मछली ढँकने की चेष्टा से तुलना करते हुए उन्हें बड़ी हँसी आने लगी। और पिछली रात से जो क्षोभ मन में निरन्तर बढ़ रहा था, वह पूजा-पाठ करके घर लौटते हुए, कल्पना की स्निग्ध वर्षा से जुड़ाकर पानी हो गया।

तार आया-कल ही सब आ रहे हैं। साथ में राजकुमार और राजपुत्र-वधू के होने से आदमी शायद ज्यादा आयें। घर में उन्हें आज काम कम था। तिस पर आसमान का रंग-ढंग ठीक न था। कहीं पानी पड़ने लगे और जाने में अड़चन आ जाये-इस डर से रामबाबू बेला झुकते-न-झुकते टमटम ठीक करके, इनाम देने का लोभ देकर उसे तेज ले चलने को कहा। लेकिन रास्ते में ही नम हवा बहने लगी, और वहाँ पहुँचते-पहुँचते बारिश थोड़ी-थोड़ी होने लगी।

अचला ने बाहर निकलकर कहा-आज ऐसे दुर्योग में क्यों निकले चाचाजी? अभी तो भीग गये होते!

उसके चेहरे या आवाज में भावी आनन्द का आभास तक न देखकर, बूढ़े का मन छोटा हो गया। इसके लिये वे कतई तैयार न थे-किसी ने गोया खींचकर उनकी कल्पना की माला को तोड़ दिया। तो भी उत्साह रखकर बोले-बाप रे, न निकलता तो खैर थी? पानी में भीगने को तो सम्हाल लेता, लेकिन आजीवन यहाँ का निकाला होकर कैसे रह पाता बेटी?

इस दुर्बोध नारी को वे कभी ठीक से पहचान नहीं सके थे। खासकर कल रात के सलूक से तो वे मारे अचरज के किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गये थे-और आज के आचरण से तो जैसे दिशा ही भूल गयी उनको! बात तो महज इतनी-सी थी। लेकिन साथ-ही-साथ वह पागल-सी हो, उनकी छाती पर औंधी पड़कर फफक-फफक कर रोने लगी। बोली-आप मुझे इतना प्यार क्यों करते हैं चाचाजी! शर्म से मैं तो माटी में मिली जाती हूँ!

बड़ी देर तक बूढ़े कुछ बोल न सके-एक हाथ उसकी पीठ पर रक्खे, दूसरे से उसका सिर सहलाने लगे। उनका स्नेह-विगलित हृदय समाज सम्मत ब्याह, अपने-सगे याकि माँ-बाप से विद्रोह-विच्छेद, झगड़कर घर छोड़ना-इन पुरानी परिचित और अभ्यस्त बातों की धारा में ही बहने लगा। कोई नयी खान खोदने की कल्पना तक न की; इस प्रकार ये अवाक् बूढ़े और वह रोती हुई नारी, बड़ी देर तक एक ही रूप में खड़े रहे। उसके बाद धीमे-धीमे कहा-इसमें शर्म कैसी बेटी? तुम मेरी सती-लक्ष्मी बेटी हो, बहुत-बहुत दिन पहले, महज दो ही दिन को मेरी गोदी में आकर चली गयी थीं-लेकिन चूँकि माया न तोड़ सकी, सो फिर बाप के कलेजे में लौट आयी हो-मैं तो तुम्हें देखते ही पहचान गया था। सुरमा-उसे पास की एक कुर्सी पर बैठाकर तरह-तरह से यही समझाने लगे, कि इसमें कोई शर्म, कोई लाज नहीं! सब दिन, सब युग में ऐसा होता आया है!! जो सती हैं, स्वयं आदि-शक्ति हैं, वे भी एक बार माँ-बाप, अपने-सगे सबसे झगड़ कर पति के घर चली गयी थीं। फिर से तुम्हें सब मिलेगा, सब होगा-आज जो विमुख हैं, वे फिर अपने होंगे, बेटे-पतोहू को अपने घर ले जायेंगे! देखना, मेरा यह आशीर्वाद कभी विफल न होगा!!

आवेश में वे कितना-क्या तो कहते गये। उसमें जो सार था, छोड़िए उसे-लेकिन उसके भार से सुनने वाली का सिर धीरे-धीरे धूल से मिल जाने को हो गया। जमकर बारिश शुरू हो गयी थी। इतने में नजर आया-सुरेश भीगकर कीचड़ से लतपत हो, कहीं से तेजी से घर में दाखिल हो रहा है। देखते ही अचला ने जल्दी से अपनी आँखें पोंछ लीं। और बारिश का पानी हाथ में लेकर, आँसू के चिद्द को धोकर बैठ गयी। रामबाबू समझ गये-चाहे जिस वजह से भी हो; सुरमा आँसू के इतिहास को स्वामी से छिपाना चाहती है।

रामबाबू को आकर देखते ही सुरेश कुछ कहना चाह रहा था, कि वे व्यस्त होकर बोल उठे-बातचीत फिर होगी सुरेश बाबू, मैं भागा नहीं जा रहा हूँ! पहले आप कपड़े बदल आयें।

सुरेश ने हँसकर कहा-कुछ नहीं हुआ! और एक कुर्सी खींचकर बैठने जा रहा था। अचला ने नजर उठाकर देखा-चाचाजी जो कह रहे हैं, सुनने में दोष क्या है? महीना-भर भी नहीं हुआ, तुम इतनी बड़ी बीमारी से उठे हो-बार-बार मुझे कितनी सजा देना चाहते हो?

उसके कहने और देखने में इतना बड़ा व्यवधान था, कि दोनों ही विस्मित हुए। लेकिन विस्मय की यह धारा बहने लगी, उल्टी तरफ को। सुरेश बिना कुछ बोले ही हुक्म-बजाने चला गया। और रामबाबू बाहर की ओर देखने लगे।

बाहर वर्षा का विराम नहीं-रात जितनी बढ़ती गयी, वर्षा का प्रकोप उतना ही बढ़ता गया। बहुत दिनों के आकर्षण से धरती लगभग सूख गयी थी। उसकी सारी दीनता, सारे अभावों को एक ही रात में भर देने के लिये विधाता मानो कसम खा चुके हों।

रामबाबू की घबराहट को गौर करके अचला ने हौले-हौले कहा-लौटने में बड़ी तकलीफ होगी? वे हँसे। मन की चंचलता को दबाकर कहा-तकलीफ के लिये न सही, इस आफत में, नयी जगह में तुम लोगों को छोड़कर मैं नहीं जाता! लेकिन सवेरे ही तो वे लोग आ रहे हैं, रात ही गये बिना कैसे चले सुरमा। लेकिन लगता है, ऐसा ही न रहेगा! घण्टे-भर में थम जायेगा पानी। उतनी देर रुक जाऊँ!

जो लोग आ रहे हैं, उस प्रसंग में बात शुरू हुई। और संसार, समाज, धर्म, अधर्म, पाप-पुण्य, इहलोक-परलोक-धीरे-धीरे जाने कितनी तरफ फैल गयी। दोनों इतने मशगूल हो गये कि कितनी देर हुई, रात कितनी बढ़ी, कोई पता न रहा। बाहर मेघों का गरजना और बरसना कितना भयानक, अँधेरा कितना गाढ़ा हो उठा-यह भी किसी ने नहीं देखा। रामबाबू में जो ज्ञान, जो दर्शन, जो भक्ति संचित थी-अपने परम स्नेह की उस पात्री के आगे उसे उड़ेलने का मौका पाकर, महज दो जनों की उस बैठक को उन्होंने माधुर्य से भर दिया। अचला को सिर्फ इतनी ही चेतना रही, कि वह एक ऐसे व्यक्ति के हृदय की सत्य अनुभूति से परिचित हो रही है-जो निष्पाप है, जिनकी श्रद्धा और स्नेह को उसने पाया है।

अचानकर पैरों की आहट से दोनों ने मुड़कर देखा-नौकर खड़ा है। वह बोला-माँजी रात काफी हो चुकी, बारह बज रहे हैं, खाना भेजवा दें?

अचला ने चौंककर पूछा-बारह बज रहे हैं! और बाबू?

-अभी-अभी वे खाकर सोने चले गये।

सुरेश वहीं जो गया, फिर नहीं लौटा-अब ख्याल आया। गर्दन बढ़ाकर अचला ने देखा-पर्दे के अन्दर से रोशनी दिखाई पड़ रही है। क्षुब्ध और लज्जित होकर रामबाबू बार-बार कहने लगे-मुझसे बड़ी भूल हो गयी बिटिया, बड़ी भूल हो गयी। तुम्हें मैंने छेंक लिया, कि यह भी नहीं देख पायी कि उनका खाना भी हुआ या नहीं। खैर, अब तुम खाने जाओ…

अचला ने शायद इस पर कान नहीं दिया। नौकर से पूछा-कोचवान समय पर गाड़ी क्यों नहीं ले आया?

नौकर ने कहा-घोड़ा नहीं है, इस झड़ी-पानी में निकालने का साहस न हुआ। -तो फिर कोई दूसरी सवारी क्यों नहीं लाया? नौकर चुप रह गया। लेकिन इसका मतलब गलती कबूल करना नहीं, प्रतिवाद करना था कि इसके लिये तो कहा नहीं गया।

रामबाबू उत्कण्ठा के बजाय लज्जा से ही बार-बार कहने लगे-गाड़ी की जरूरत नहीं, और न जायें तो भी चल जायेगा, सिर्फ अगली सुबह स्टेशन पर हाजिर हो जाना चाहिए। मैं रात को कुछ खाता नहीं, यह झमेला भी नहीं है; सिर्फ तुम कुछ खाकर सो रहो, बातों में बड़ी रात हो गयी, बड़ी गलती हो गयी! और एक प्रकार से जबर्दस्ती खाने के लिये उसे नीचे भेज दिया। पन्द्रह मिनट की भी देर न करो; सोने जाओ तुम! मैं बेंत के सोफे पर मजे में सो रहूँगा-कोई तकलीफ, कोई असुविधा न होगी। बस, तुम चल दो। मैं देखूँ!

उनके बार-बार के आग्रह-निवेदन ने अचला को कैसा तो आच्छन्न-सा कर दिया। जो झूठा सम्मान, स्नेह और श्रद्धा वह अपने इस हितू बाप-सरीखे बूढ़े आदमी से अब तक केवल धोखे से ही करती आ रही है, वे ही उसके इस निहायत समय में, गला दबाकर उसे सुरेश के सूने शयन-कक्ष की ओर ढकलने लगे। उसे याद आया-ऐसी ही एक झड़ी-बदली की रात ने उसे स्वामी-विहीन किया था, आज फिर वैसे ही दुर्दिन का अभिशाप, उसे सदा के लिये अपार अन्धकार में गर्क करने को तैयार है। कल असह्य अपमान से, लाज की गहरी कीचड़ में उसका गला तक डूब जायेगा-यह वह साफ देखने लगी; लेकिन तो भी आज की उस झूठ की ही जय-माला ने उसे किसी भी तरह सत्य को जाहिर न करने दिया। जीवन के इस चरम-क्षण में मान और मोह ही चिरजयी बना। उसने बाधा न दी, कुछ कहा नहीं; पीछे पलटकर देखा तक नहीं-चुपचाप धीरे-धीरे सुरेश के सोने के कमरे में जाकर दाखिल हो गयी।

बाहर की उन्मत्त प्रकृति वैसी ही मत्त बनी रही, गाढ़े अँधेरे में बिजली हँस उठने लगी, रात-भर में कभी भी इसका कोई व्यतिक्रम नहीं हुआ।

नई जगह में रामबाबू को अच्छी नींद नहीं आयी; खास करके मन में फिक्र रहने के कारण तड़के ही उनकी नींद टूट गयी। बाहर निकलकर देखा-बारिश थम जरूर गयी है, लेकिन घटाटोप है। नौकर-चाकर कोई जगा या नहीं, यह देखने के लिये बरामदे के एक छोर पर जाकर सहसा चौंक उठे कौन तो मेज पर सिर टेके, कुर्सी पर बैठी है। करीब जाकर अचरज से बोल उठे-तुम? इतना सवेरे क्यों जगीं बिटिया?

सुरमा ने एक नजर देखकर ही फिर मेज पर सिर रख दिया। उसका चेहरा शव-जैसा सफेद, दोनों आँखों के नीचे कालिमा, और काले पत्थर में से जैसे झरना फूट निकलता है-ठीक उसी तरह उसकी आँखों से आँसू बह रहा था।

एक अस्फुट शब्द करके, रामबाबू उस अधमरी नारी को एकटक देखते रहे; गले से कोई शब्द ही बाहर नहीं निकला।

(38)

सुबह गर्म-गर्म मुरमुरे के साथ चाय पीकर केदार बाबू ने तृप्ति की साँस ली। जूठे बर्तन लेने के लिये मृणाल कमरे में आयी; तो बोले-तुम्हारे इस गर्म मुरमुरे और पत्थर के प्याले की चाय में कौन-सा अमृत है, पता नहीं; लेकिन एक महीना हो गया, यहाँ से हिल न सका!

अचला के नाते मृणाल उन्हें बाबूजी कहने लगी थी। बोली-आप यहाँ से चले जाने को क्यों परेशान होते हैं बाबूजी, आपकी यह-मैं क्या सेवा करना नहीं जानती? आपकी यह लड़की क्या-मृणाल असावधानी से यही कहने जा रही थी, लेकिन दबाकर उसे इस तरह से जाहिर किया। इसीलिये शायद समझते हुए भी केदार बाबू ने इसे नहीं समझना चाहा। लेकिन आवाज उनकी एकाएक करुण हो गयी। बोले-भागने को अब परेशान कहा हूँ बेटी! तुम्हारे हाथ की चाय, तुम्हारे हाथ का भोजन, तुम्हारे इस माटी के घर को छोड़कर मुझे स्वर्ग जाने की भी इच्छा नहीं होती! उस छोटी-सी खिड़की के सामने बैठकर मैं बहुत बार सोचा करता हूँ-मृणाल, भगवान की दया से दो साल बच जाऊँ, तो तमाम जिन्दगी कलकत्ते में जो नुकसान उठाया है, उसका रत्ती-रत्ती पूरा कर लूँ! और जिसमें वही पूँजी लेकर उनके आगे जाकर खड़ा हो सकूँ।

कितनी बड़ी वेदना से उन्होंने यह बात कही और कैसी मार्मिक लज्जा से कलकत्ते के जीवन-भर के घर-मुहल्ले को छोड़कर, सदा के समाज को त्यागकर इस जंगल के झोंपड़े में बाकी दिन बिताने की अभिलाषा जाहिर की-इसे मृणाल ने समझा; इसीलिये कोई जवाब न देकर, चाय का प्याला लेकर धीरे-धीरे चली गयी।

यहाँ पर जरा शुरू की बात बता देना जरूरी है। करीब एक महीना पहले केदार बाबू यहाँ आये, और तब से लौटकर नहीं जा सके। महिम की बीमारी के समय, कलकत्ते में सुरेश के यहाँ इससे उनका परिचय हुआ था, मगर वहाँ उसके अपने घर में आकर उसका जो परिचय मिला, उससे उनका तन-मन सोने की जंजीर में बँध गया। उसी बन्धन से वे अपने को किसी भाँति छुड़ा नहीं पा रहे थे, जोकि बाहर कितना काम उनका बाकी पड़ा था।

महिम से उनकी भेंट नहीं हुई। इनके आने की खबर मिलते ही वह जल्दी-जल्दी चला गया। जाते समय मृणाल ने रोकने की जिद न की, क्योंकि छुटपन से ही वह संयम और सहिष्णुता, बुद्धि-विवेचना के प्रति उसका ऐसा अगाध विश्वास था, कि उसने यह निश्चित रूप से समझ लिया कि अचला से भेंट करना इस समय उचित नहीं, इसीलिये महिम चम्पत हो रहा है। उसने सोचा था-उसका पत्र पाकर, बेटी-दामाद का बीच-बचाव करने के लिये, केदार बाबू अचला को साथ लिये दौड़े आ रहे हैं। मगर आये अकेले।

सुलझा आज तक भी कुछ नहीं, केवल संशय के बोझ से दिन-दिन भारी होने वाले दिन एक-एक कर निकाल रहे थे। सिर्फ ऊपर की ओर देखकर इतना समझ में आया, कि आसमान में दुर्भेद्य बादलों की परतें कभी कटें तो कट सकती हैं-पर उसके पीछे अँधेरा ही है, चाँदनी नहीं है।

सुरेश की फूफी ने लापता सुरेश के लिये अकुलाकर मृणाल को चिट्ठी लिखी थी, वह चिट्ठी केदार बाबू के हाथ आयी। महिम ने किसी बड़े जमींदार के यहाँ गृह-शिक्षक की नौकरी करने की खबर भेजी है, केदार बाबू उसे भी बार-बार पढ़ गये; पर उनकी बेटी का जिक्र तक किसी में नहीं। मगर दोनों पत्रों की एक-एक पंक्ति, एक-एक हरूफ ने अभागे पिता के कानों एक ही बात सौ बार कही है-जिसे समझने की शक्ति ही उन्हें नहीं।

अचला उनकी इकलौती बेटी थी, बात इतनी ही नहीं; जबसे उसकी माँ मरी, तब से उन्होंने ही माँ की तरह उसे गोदी में पाल-पोसकर इतनी बड़ी किया। उस लड़की के भारी अमंगल की आशंका से, उनका शरीर दिन-दिन दुबला और तपे सोने-सा रंग काला होता जा रहा था; अथच अमंगल जिस रास्ते का इशारा कर रहा था, वह रास्ता सभी पिताओं के लिये संसार में सबसे ज्यादा निषिद्ध है।

गाँव के दो-चार बूढ़े पड़ौसी कभी-कभी उनसे गप-शप करने आते लेकिन संकोच से वे कभी किसी के यहाँ नहीं जाते। मृणाल अनुरोध करती तो कहते-जरूरत क्या है बेटी, मेरे जैसे म्लेच्छ का किसी के यहाँ न जाना ही अच्छा है!

मृणाल ने कहा-तो वही क्यों आयेंगे? इसका कोई जवाब न देकर, छाता लिये वे खेतों की ओर निकल पड़ते। खेतिहरों से मिल-मिलकर बातें करते-उनके सुख-दुःख, घर-गिरस्ती, न्याय-अन्याय, पाप-पुण्य की बात-ऐसी कितनी ही तरह की बातें करते-करते, जब बेला बढ़ जाती, तो घर आते। सुबह चाय पीने के बाद यही उनका रोज का काम था।

जन्म से ही वे कलकत्तावासी थे। शहर से बाहर जो असंख्य गाँव हैं, उनसे उनका नाता ही टूट गया था। धर्म बदलने के बाद अपने-सगे भी न रहे, अतएव ज्यादातर नागरिकों के समान, बिना जाने ही ये भी इन लोगों के बारे में अजीब ख्याल रखते थे, यह कुछ अनोखी बात नहीं। जो अपढ़ अनगिनती किसान दूर गाँव में ही सारी जिन्दगी काट देते हैं-शहर का मुँह देखना भी जिन्हें शायद ही नसीब होता है, ऐसों को वे एक प्रकार से जानवर ही समझा करते थे; लेकिन बदनसीबी ने आज जब अपने दो विषदाँत उनके मार्ग में चुभा कर उनके मन को ही समाज से फेर दिया, तो जितना ही इन अनपढ़-गरीब किसानों से उनका परिचय होने लगा, उतनी ही उनकी श्रद्धा और स्नेह उनकी तरफ उमड़-पड़ने लगा। दूसरी ओर अपने समाज, उसके आचार-विचार, शिक्षा-संस्कार, धर्म, उसकी सभ्यता और कायदे-कानूनों के खिलाफ उनका हृदय विद्वेष और वितृष्णा से भर-उठने लगा।

उन्हें स्पष्ट मालूम होने लगा-कि अपढ़ होते हुए भी वे अशिक्षित नहीं हैं। बहुत पहले की प्राचीन सभ्यता उनकी अस्थि-मज्जा में घुली-मिली है। नीति की मोटी बातों को वे जानते हैं। किसी धर्म से उन्हें बैर नहीं, क्योंकि संसार के सारे ही धर्म मूलतया एक हैं, और सैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को स्वीकार न करते हुए भी एकमात्र ईश्वर को माना जा सकता है-इसका ज्ञान उन्हें है-और किसी से भी कम नहीं है! हिन्दू के राम और मुसलमानों के अल्लाह एक ही हैं-यह सत्य भी उनका अजाना नहीं।

लज्जित होकर उनका हृदय बार-बार कहता-हमसे ये किस बात में छोटे हैं? मैं इनसे कौन-कौन-सी बात ज्यादा जानता हूँ? इनके समाज, इनके सम्पर्क को छोड़कर हम लोग क्यों दूर चले गये हैं? और वह दूरी इतनी ज्यादा, कि अपनों के आगे भी म्लेच्छ बन गया हूँ।

मन की ऐसी ही स्थिति में जब वे घर लौटे, तो दस बज रहे थे। मृणाल बोली-कल आपकी तबीयत ठीक नहीं थी बाबूजी, आज फिर तालाब में नहाने न चले जाइए! आपके लिये मैंने पानी गर्म करके रक्खा है।

करके रक्खा है?-कहकर वे मृणाल की ओर देखने लगे।

नहाकर मृणाल पूजा कर रही थी, उनकी आवाज पाकर उठ आयी। गीले बाल पीठ पर बिखरे थे, टशर का कपड़ा, खिला मुखड़ा-उसके अंग-अंग में जैसे गहरी पवित्रता विराज रही हो। उसको देखते हुए बूढ़े ने फिर पूछा-आखिर तुमने इतना कष्ट क्यों किया बिटिया, जरूरत तो नहीं! जरा थम कर बोले-कलकत्ते का रहने वाला हूँ, नल के पानी में ही नहाने का आदी हूँ! लेकिन तुमने मुझे ऐसी पनाह दी मृणाल, कि तुम्हारा तालाब भी मेरी खातिर करता है। उसके पानी से कभी मेरी तबीयत खराब नहीं होती। वहीं नहाने जाऊँगा, बिटिया!

मृणाल ने सिर हिलाकर कहा-यह नहीं होगा! कल आपकी तबीयत खराब थी, मैं जानती हूँ! मैं पानी लिये आती हूँ, आप तेल मलिये। कहकर वह जाने लगी कि केदार बाबू बोल उठे-खैर, वही सही! मगर एक बात तो बताओ मुझे, दूसरे का इतना जतन करना, इतनी कम उम्र में तुमने किससे सीखा? मैंने तो ऐसा कहीं नहीं देखा!

लाज से मृणाल का चेहरा तमतमा उठा, मगर जबर्दस्ती हँसकर बोली-मगर आप क्या मेरे विराने हैं बाबूजी?

केदार बाबू बोले-नहीं, विराना नहीं हूँ! मगर यों टालने से काम नहीं चलने का। जवाब देकर जाना पड़ेगा!

मृणाल ने वैसी ही लाजभरी हँसी के साथ कहा-यह कौन-सा ऐसा कठिन काम है कि कोशिश करके सीखना पडे़! यह तो जन्म से ही हम सीखे होते हैं। लेकिन पानी आपका ठण्डा हो रहा है…

होने दो!-कहकर केदार बाबू गम्भीर होकर बोले-मैं कुछ दिनों से ठीक यही सोच रहा हूँ मृणाल! मनुष्य सीखता है, तब तैरता है; पर जो चिड़िया जल पर है, वह जनमते ही तैरती है। यह सीखना उसे कोई सिखा जरूर नहीं सकता, पर काम को उड़ाकर तो फल नहीं पाया जा सकता! यह तो भगवान का नियम नहीं!! कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी प्रकार सीखने का झमेला उसे झेलना ही पड़ेगा!!! इसीलिये उस जलचर पक्षी की नाईं, तुमने जो बसेरे में ही, जन्म से अनायास ही इतनी बड़ी विद्या हासिल कर ली-सो मैं तुम लोगों के उस विराट् समाज-बसेरे की ही बात रात-दिन सोच रहा हूँ। सोचता हूँ…

-मगर आपका पानी तो…

-पानी को छोड़ो भी बिटिया! तालाब तो सूखा नहीं जा रहा है। मैं यही सोच रहा हूँ कि यह बूढ़ा आदमी, नन्हे-नादान की तरह चुपचाप तुमसे कितना-कुछ सीख रहा है, इसकी तो तुम्हें खबर नहीं! ठाकुर-देवता, तंत्र-मंत्र पर अभी भी विश्वास नहीं हुआ, लेकिन तो भी जभी बिटिया को देखता हूँ, कि नहाकर फीका-फीका मटके का कपड़े पहने आन्हिक को जा रही है, तभी जी में आता है कि फिर से गले में जनेऊ डालकर मैं भी पूजा पर बैठ जाऊँ!

मृणाल ने कहा-आप अपने समाज, अपने आचार को छोड़कर दूसरों का आचार क्यों पालेंगे? उसी को कौन दोष दे सकता है?

केदार बाबू बोले-कोई दे सकता है या नहीं-और बात है, मगर मैं उसकी हेठी नहीं कर सकता! अच्छा हो या बुरा, बुढ़ापे में उसे त्यागने की सामर्थ्य नहीं है, बदलने की कोशिश भी नहीं! यही राह पकड़कर जीवन की शेष सीमा तक चलना है! लेकिन जब तुम्हें देखता हूँ-इसी छोटी उम्र में इतना बड़ा आत्म-त्याग, जो स्वर्ग गये उनके प्रति ऐसी निष्ठा, उन्हीं की माँ को माँ मानकर-खैर छोड़ो, और न कहूँगा-परन्तु मैं जिसमें रहकर बड़ा हुआ, मन-ही-मन उसकी तुलना किये बिना भी तो नहीं रह सकता! समाज से अलग जो धर्म है, उसके लिये तो अब आस्था नहीं रख पाता, मृणाल!

मृणाल मन-ही-मन क्षुण्ण हुई। उसके व्यक्तिगत जीवन की बदनसीबी को यों अपनी सामाजिक शिक्षा-दीक्षा पर आरोपित करना, उसे अविचार लगा। बोली-बाबूजी, जब आप ठीक इसी तरह से हमारे समाज को भी देखेंगे-तो उसमें भी बहुत से दोष नजर आयेंगे! तब देखेंगे कि हम भी अपने दोष समाज के मत्थे ही मढ़ देने को अमादा हैं। हम भी…

लेकिन बात पूरी होने के पहले ही केदार बाबू ने बाधा दी। बोले-मगर मैं तो आमादा नहीं हूँ बिटिया! तुम्हारे समाज में खामी हो, खराबी हो, मगर तुम तो हो! सिर पीटकर मैं मर भी जाऊँ, तो यह वहाँ नहीं मिलने की…

मृणाल का मुँह फिर शर्म से लाल हो उठा। बोली-मैं कहे देती हूँ बाबूजी, बार-बार मुझे इस तरह से लजायेंगे, तो ऐसी भागूँगी मैं कि फिर आप मुझे खोज कर पायेंगे नहीं!

बूढ़े तुरन्त कुछ बोल न सके, सिर्फ चुपचाप उदास हो उसे देखते रहे; उसके बाद धीरे-धीरे बोले-मैं भी तुम्हें कहे देता हूँ, तुम्हें यह हरगिज नहीं करने दूँगा मैं! तुम मेरी आँखों की पुतली हो, मेरी एक अकेली पनाह!! इस निकम्मे-अनाथ बूढ़े के भार से जिस दिन तुम्हें मुक्ति मिलेगी वह दिन ज्यादा दूर नहीं; पर मैं खूब जानता हूँ, वह मुझे इन आँखों देखना न पड़ेगा!!! कहते-कहते उनकी आँखों के कोने गीले हो आये।

आस्तीन से आँखें पोंछते हुए बोले-मेरा एक काम अभी बाकी रह गया है, वह है महिम से भेंट करना। मैं उससे साफ-साफ पूछना चाहता हूँ-कि वह इस तरह भागा-भागा क्यों चलता है? ऐसा भी हो सकता है कि वह जिन्दा नहीं है! -आप नाहक ऐसा क्यों डरते हैं बाबूजी?

डर?-बूढ़े के मुँह से एक दीर्घ निश्वास निकल गया। बोले-सन्तान का मरना ही बाप के लिये सबसे बड़ा डर नहीं है, बिटिया!

(39)

इकलौती बेटी की मौत से भी बड़ी दुर्गति-पिता की नजरों में बड़ी हो उठी है, उसके आभास मात्र से मृणाल लज्जित और कुण्ठित होकर खिसक पड़ी-और उस साध्वी विधवा की वह लज्जा, ठीक मुद्गर के समान केदार बाबू की छाती पर आ लगी। बड़ी देर तक वे अकेले चुपचाप अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते रहे, उसके बाद लम्बा निश्वास छोड़कर तेल के कटोरे को अपनी ओर खींच लिया।

आज सवेरे आसमान साफ था, लेकिन दोपहर के कुछ बाद से ही बदली घिरने लगी। केदार बाबू बिस्तर पर से अभी-अभी उठकर, पश्चिम तरफ की खिड़की को खोलकर बाहर देख रहे थे। सामने एक अमरूद का पेड़ फूलों से लद गया था, और उस पर अनगिनती मधु-मक्खियों के हर्ष कलरव का अन्त नहीं था। थोड़ी ही दूर पर लम्बी रस्सी से बँधी, मृणाल के अपने हाथों धोई-पोंछी मोटी-ताजी गाय चर रही थी, जिसकी पीठ पर से गाँव की राह का थोड़ा हिस्सा दिखाई दे रहा था।

-आपकी चाय अब ले आऊँ बाबूजी?

केदार बाबू ने उलटकर देखा-अभी ही ले आओगी?

-वाह, बेला थोड़े ही रह गयी है।

हँसकर तकिये के नीचे से घड़ी निकालकर बोले-लेकिन तीन भी तो नहीं बजे बिटिया!

मृणाल बोली-बला से ना बजे, पर आपने तो दिन में ठीक से खाया भी नहीं है!

केदार बाबू मन-ही-मन समझ गये-इंकार बेकार है। बोले-खैर, ले आओ! मृणाल जरा देर स्थिर रहकर बोली-अच्छा, आप तो कहा करते हैं मुझे चावल बहुत अच्छे लगते हैं।

-गलत तो नहीं कहता बेटी!

-तो थोड़ा-सा वह भी ले आऊँ?

वह भी? अच्छा, लाओ-कहकर उसे देखते हुए जबर्दस्ती जरा हँसे। मृणाल के चले जाने पर फिर उस झरोखे से बाहर देखा-तमाम धुँधला हो गया है, और तुरन्त आँसू की पाँच-छः बूँदें उनकी आँखों से चू पड़ीं। झटपट आँसू की रेखा को पोंछकर, अपने चेहरे को शान्त और सहज बनाने के ख्याल से इमर्सन की खुली पड़ी किताब को देखने लगे।

किताब के पन्नों में चाहे जो हो, मन में ऐसी बात की छाप पड़ने लगी कि यह सृष्टि कितनी अज्ञेय और अनोखी है! दुनिया में दिन जब लेखे के अन्दर आ रहे, तभी क्या इस लम्बे जीवन की पिछली अभिज्ञता, पिछले आयोजन को रद्द करके, फिर से नई कमाई की जरूरत हो गयी? मैं खूब देख रहा हूँ कि मानव-जन्म का सारा अतीत ही बेकार गया, और यह समझना भी बाकी न रहा, कि इस लम्बी फाँकी को भर लेने में यह एक महीना ही काफी हुआ।

द्वार पर पैरों की आहट हुई। उन्होंने सिर उठाकर देखा। पत्थर के कटोरे में चाय, और तश्तरी में भुने चावल लेकन मृणाल आयी। दोनों हाथ बढ़ाकर उन चीजों को लेते हुए बोले-अब पता चल रहा है कि आज दिन में ठीक से भोजन नहीं हुआ। लेकिन देखो…

-नहीं-नहीं, आप बात करेंगे, तो सब ठण्डा हो जायेगा।

केदार बाबू ने चुपचाप चाय के प्याले को होंठों से लगाया, और उतारकर रखते हुए एक निश्वास के साथ बोले-मैं यही कामना करता हूँ मृणाल, अगले जन्म में तुम मेरी बेटी होकर पैदा हो! कलेजे से लगाकर पालना मुझे खूब आता है बिटिया, जिसमें उस कला को जी-भर काम में ला सकूँ!!

आखिरी शब्द पर उनका गला काँप गया। मृणाल ऐसी ही चर्चा को सबसे ज्यादा डरती थी। इसलिये उनके उस आवेग की ओर ख्याल किये बिना ही बोली-वाह, ठीक तो है, आपकी दूसरी सन्तानों में जिसमें एक मैं भी होऊँ! केदार बाबू तुरन्त सिर हिलाकर बोल उठे-नहीं-नहीं, दूसरी नहीं, दूसरी नहीं। अकेली तुम-मेरी इकलौती बेटी! अकेली तुम्हीं मेरा कलेजा भरे रहोगी! अबकी जो कुछ तुमसे सीखकर जा रहा हूँ, वह सब एक-एक करके अपनी बेटी को सिखाकर, फिर इसी तरह उससे बुढ़ापे में सब वापस लेकर उस लोक की यात्रा करूँगा। कहकर उन्होंने छिपे-छिपे एक बार अपनी आँख में हाथ लगाया।

मृणाल ने दुःखी होकर कहा-आप नाहक ही मुझे बार-बार अप्रतिभ करते हैं बाबूजी! मैं जानती क्या हूँ?

-मेरा भोजन ठीक नहीं हुआ, यह मैं नहीं जानता था, तुम जानती थी!

-यह ऐसा क्या जानना हुआ? जिसके आँख है वही देख सकता है!

लेकिन वही आँख ही तो सबके नहीं होती, मृणाल!-थोड़ा रुककर बोले-लेकिन मैं सबसे ज्यादा हैरान इस पर हूँ मृणाल, कि ईश्वर कहाँ, कब और किस उपाय से मनुष्य के वास्तविक अपने जन से मिला देते हैं-यह कोई नहीं जानता! इनमें न तो कोई आडम्बर है, न रिश्ते की कोई बला, और न समय का कोई हिसाब! पल में कहाँ से क्या हो जाता है-केवल जब उसे कलेजे में पाता हूँ तो जी में आता है-अब तक इतने बड़े फाँक को झेल कैसे रहा था?

मृणाल ने धीरे-धीरे कहा-यह ठीक है बाबूजी, वरना आपकी एक बेटी इस जंगल में पड़ी है, अब तक तो कभी उसकी खोज-पूछ नहीं की!

केदार बाबू बोले-अपनी क्या मजाल, जब तक वे हुक्म न दें! और जब उनका हुक्म हो गया, तनिक भी अड़चन न आयी-कहाँ से कौन तो खींच लाया। आज लोग देख रहे हैं, बस, महीने-भर की तो जान-पहचान! मगर मुझे मालूम है, यह तो कोई किराये के मकान का हिसाब नहीं, कि कागज के पन्ने से माहवारी लेखा लगेगा। यह तो जैसे कितने युगों से तुम्हारी छाया में ही बैठा हूँ-इसका दिन, महीना और बरस क्या? कहकर वे फिर थोड़ा रुके। मृणाल खुद भी कुछ कहने जा रही थी, पर एकाएक उनके मुँह की ओर देखकर अवाक् रह गयी। उसे लगा-इस बूढ़े के कलेजे के अन्दर इतने दिनों से दुःख की जो चिता जल रही थी, वह जाने कैसे तो बुझने को आयी, और उसी की अन्तिम आभा ने उनके चेहरे को जो जरा-सा दमका दिया है, उसी की मन्द जोत में कौन-सा गहरा स्नेह, मानो असीम करुणा से घुल-मिलकर निखर आया है।

कुछ देर तक कोई कुछ न बोला-मृणाल की झुकी नजर फर्श पर वैसी ही टिकी रही। यह नीरवता केदार बाबू ने ही भंग की। बोले-मृणाल, मैंने एक धर्म छोड़कर दूसरे की दीक्षा ली हैं; ऐसे में औरों के आगे न सही, कम-से-कम अपने आगे जवाबदेही का दायित्व है! अब तक उसे टालता गया हूँ, पर अब नहीं। धर्म के बारे में अब यदि यह बात समझ पाऊँ…

लमहे के लिये मृणाल ने नजर उठायी, कि केदार बाबू बोल उठे-डरो मत बिटिया, बार-बार तुम्हारा नाम लेकर अब मैं तुम्हें संकोच में नहीं डालूँगा; परन्तु इतने दिनों के बाद इस सत्य को मैं समझ पाया हूँ, कि लड़-झगड़ कर और चाहे जो कुछ मिले, धर्म नहीं मिल सकता!

उनके वाक्य के मर्म को समझ कर मृणाल धीरे-धीरे बोली-यह सच हो सकता है, पर जिस धर्म को मैंने अच्छा समझा, उसे अपनाने के लिये लड़ना-झगड़ना ही पड़ेगा; ऐसा तो मैं कुछ नहीं देखती!

केदार बाबू बोले-मैंने भी वास्तव में कभी पाया था-यह नहीं, लेकिन जरूरत तो हो जाती है बिटिया! किसी भी चीज का परित्याग तो हम प्रेम से, प्रीति से नहीं करते। जिसे छोड़ जाते हैं, उसके लिये मन सदा छोटा बना रहता है, वह फिर मिटता नहीं; इसीलिये तो आज कैफियत का भागी बन गया हूँ। लेकिन तुम्हें जन्म से जो मिला है, वह बुरा हो या भला, उसी को आधार किये चलती हो। दोनों का फर्क सोच देखो जरा!

मृणाल मौन ही रही, कोई जवाब न सूझा। केदार बाबू भी कुछ देर चुप रह कर बोले-आज जमाने की भूली बातें भी धीरे-धीरे जग रही हैं बिटिया, मगर इतने दिनों तक ये कहाँ छिपी थीं!

मृणाल ने नजर उठाकर पूछा-किसकी बात, बाबूजी? केदार बाबू बोले-अपनी बात! बडे़ होने लायक भगवान ने अक्ल नहीं दी, बड़ा हो भी कभी नहीं पाया। मैं मामूली आदमी हूँ, लोगों से मिल-जुलकर ही काल काटा; लेकिन हममें जो बड़े हैं, जो समाज के शिरोमणि हैं, समाज के आचार्य हो गये हैं, उन्हीं के उपदेशों को सदा भक्ति से, श्रद्धा से मानता आया हूँ। उन्हीं के जाने कब के भूले हुए वाक्य मुझे याद आ रहे हैं। तुम कह रही थीं मृणाल, धर्म बदलने में, अच्छे को चुन लेने में झगड़ने की नौबत क्यों आयेगी, झगड़े की जरूरत ही क्यों पडे़गी? मैं भी तो अब तक यही समझता रहा, यही कहता फिरा। लेकिन आज पता चला-जरूरत थी। आज देख पाया कि हिन्दुओं में जो लोग आज यह शिकायत करते हैं, कि देश-विदेश में उनका सिर जितना हमने नीचा किया है, उतना ईसाई पादरियों ने भी नहीं किया-उनकी शिकायत को आज झूठ कहकर तो नहीं उड़ा सकता! वास्तव में विदेशी-विधर्मियों के साथ हम जैसे विभीषण तो दूसरे नहीं।

मृणाल बहुत चंचल हो उठी, मगर उन्होंने उसका ख्याल ही नहीं किया; कहने लगे-चिढ़-झगड़े की बात अगर नहीं होतीं, तो हममें से जो सब बातों में आदर्श हैं, यहाँ तक कि जो मनुष्य में ही आदर्श कहाने योग्य हैं, उनके मुँह में, धर्म-मन्दिर में, धर्म की वेदी पर खड़े होकर राम के लिये रेमो, हरि के लिये होरी, नारायण के लिये नारेन क्यों निकलता? तो फिर सबको पुकारकर जोरदार गले से यह क्यों कहते, कि ये अभागे अगर बेमौत नहीं मरना चाहते हैं, तो हमारे इस बँधे घाट पर आयें! धर्मोपदेशकों की इस ताल-ठोंकाई से, समाज के सारे लोगों का लहू जैसा भक्ति से गर्म, वैसे ही श्रद्धा से रूखा हो उठता; आलोचना के उत्साह की मात्रा भी कहीं तिल भर कम नहीं होती; लेकिन आज, जीवन की सीमा पर पहुँचकर समझ रहा हूँ, कि उसमें उपदेश कुछ भी हो तो हो, धर्म के रहने की गुंजाइश न थी!

मृणाल ने दुःखी होकर कहा-यह सब आप मुझे क्यों सुना रहे हैं बाबूजी? वे सभी तो मेरे पूज्य हैं, नमस्य हैं! कहकर उसने हाथ जोड़कर कपाल से लगाया। उस भक्तिमती तरुणी के विनम्र मुखड़े की ओर देखकर मानो वे विभोर हो रहे, और थोड़ी देर में नौकरानी के बुलाने पर मृणाल के चले जाने पर भी, वे वैसे ही स्थिर बैठे रहे।

सास क्या कह रही थी-मृणाल यह सुनकर जब लौटी, तो अकस्मात् आवेग से दोनों हाथ फैलाकर केदार बाबू बोल उठे-तमाम जिन्दगी मेरी क्या इसी तरह, औरों की खामी-खराबी की शिकायत करते ही बीतेगी? इससे क्या कभी छुटकारा नही पाऊँगा?

मृणाल ने कहा-आपकी मच्छरदानी का कोना जरा फट गया है, थोड़ा खिसक जाइए न, सिलाई कर दूँ! मृणाल ने ताख पर से सिलाई का छोटा-सा डिब्बा उतारा। केदार बाबू उतर कर एक मोढ़े पर बैठ गये, और काम में लगी हुई मृणाल के झुके मुखड़े की ओर एकटक ताकते रहे। वह बिना किसी ओर देखे-सुने अपना काम करने लगी; लेकिन उसे देख-देखकर केदार बाबू की आँखें अकारण ही भर आने लगीं, और बार-बार धोती के छोर से वे उन्हें पोंछने लगे।

सिलाई खत्म करके डिब्बे को जगह पर रखकर मृणाल ने पूछा-रात आप क्या खायेंगे?

इस सवाल से केदार बाबू ने अचानक जोरों का एक निश्वास फेंककर, अपने अश्रु-करुण होंठों पर हँसी लाते हुए कहा-रात के भोजन के लिये अभी अकुलाने की जरूरत नहीं बिटिया, वह उसी समय सोचा जायेगा! मगर तुम जरा थिर होकर बैठो तो! जरा रुककर बोले-इस अपराध का यहीं अन्त है। मेरे मुँह से अब किसी की शिकायत नहीं सुनोगी! थोड़ा रुककर फिर बोले, मगर मुझसे खीझना मत बेटी, मैंने ठीक इसी के लिये यह प्रसंग नहीं उठाया!

उनके गीले कण्ठ-स्वर से चकित होकर मृणाल बोली-अपने यह क्यों कहा बाबूजी, मैं आपसे कभी खीझी हूँ?

जोर से सिर हिलाकर केदार बाबू कहने लगे-कभी नहीं बिटिया, कभी नहीं! तुम बिटिया हो न मेरी, इसीलिये मेरा सब अत्याचार-उपद्रव हँसकर ही सहती आयी हो। लेकिन कलेजे का खून देकर, इतने दिनों में जिस सत्य को पाया है, महज वही दिखाना चाह रहा था तुम्हें-पराई निन्दा-शिकायत की नीयत नहीं थी। आज मैंने समझा कि कभी जिस प्रकार जमात बनाकर, मनसूबा गाँठकर हमने धर्म को पकड़ना चाहा-धर्म वैसे हर्गिज नहीं पकड़ा जा सकता! वह अगर खुद पकड़ाई न दे, तो शायद पकड़ ही में न आये। परम दुःख की मूर्ति धारण कर, जिस दिन वे मनुष्य की चरम वेदना पर पाँव रक्खे, अकेले आकर खड़े होते हैं, उस समय उन्हें पहचान पाने की जरूरत है। जरा भी भूल-भ्रान्ति की गुंजाइश नहीं, मुँह फेरकर चले जाते हैं वे।

जिस प्रसंग को मृणाल टालकर बार-बार कतराती जा रही है, यह उसी का इशारा है-यह समझकर उसके संकोच और पीड़ा का अन्त न रहा; लेकिन आज कोई बहाना बनाकर उसने भागने की कोशिश न की, चुपचाप बैठी रही।

बार-बार बाधा पाकर इधर केदार बाबू की निगाह भी पैनी हो गयी थी, आज लेकिन उन्होंने भी कोई ख्याल नहीं किया; कहते गये-बिटिया, एक बात बार-बार कहकर भी मेरा जी नहीं भर रहा है, कि इतनी बड़ी दुनिया में एक तुम्हारे सिवा, मेरा अपना जन और कोई-कभी न था; इसीलिये नहीं जानता कैसे मेरे अन्तिम दिनों का सारा बोझ, सब बुरा-भला तुम्हारे ही ऊपर आकर टिका है। जो भी विधि-व्यवस्था के मालिक हैं, यह व्यवस्था उन्हीं की है! चूँकि मैंने इसे निस्सन्देह समझ लिया है, इसीलिये मुझे कोई शर्म, कोई झिझक नहीं। पहले मन में कैसा तो लग रहा था कि मैं आ टपका; मगर आज वह सब बला मेरे मन से निकल गयी है।

मृणाल सिर उठाकर जरा हँसी। थोड़ा आगा-पीछा करके केदार बाबू फिर बोले-फिर कैसा तो लगता है, फिर भी गले से बात बाहर नहीं होना चाहती!

-तो छोड़िए, न ही कहो वैसी बात तो क्या!

केदार बाबू गर्दन हिलाकर बोले-उँहूँ, अब नहीं रहने की, नहीं-मेरा ख्याल है, वह सुरेश ही के साथ…

मृणाल को भी यह धोखा होता रहा है, इसीलिये वह सिर हिलाकर झुकाये, बैठी रही, बोली नहीं। कुछ देर सन्नाटा-सा रहा। बड़ी कोशिशों से खुद-ब-खुद को पराजित करके मानो वे बोले-एक बार महिम के पास जाना चाहता हूँ मृणाल, एक बार उसके मुँह से सुनना चाहता हूँ-बस इसलिये मेरी छाती धू-धू जल रही है! मगर अकेले उसके सामने जाकर मैं खड़ा कैसे हूँगा?

मृणाल ने तुरन्त अपनी करुणाभरी आँखें अभागे बूढ़े के शर्माए और भयभीत चेहरे पर टिकाकर कहा-आप अकेले क्यों जायेंगे? जाना ही पड़ेगा तो हम दोनों साथ चलेंगे!

-सच, चलोगी?

-बेशक चलूँगी! इसके सिवा, आपको अकेले मैं छोड़ ही कैसे सकती हूँ? आप चाहे जहाँ जायें, मैं साथ गये बिना न मानूँगी, कहे देती हूँ! मुझे कोई साथ नहीं ले जाता बाबूजी; मैं कहीं जरा घूम-घाम नहीं पाती!!

केदार बाबू ने कोई जवाब नहीं दिया, दोनों हथेलियों से गाल का सहारा लिये, जाँघ पर कुहनी टिकाकर झुक गये, और देखते-ही-देखते नजर आया-भीतर के घुमड़ते आवेग से, उनके सूखे-दुबले शरीर का एक-से-दूसरा छोर तक थर-थर काँपने लगा।

मृणाल चुप उनके सिरहाने के पास बैठी रही; कोई बात, सान्त्वना का एक शब्द तक न कहा। इकलौती बेटी की घिनौनी दुर्गत से जिस पिता का हृदय छिद रहा हो, उसे दिलासा देने योग्य उसे था भी क्या।

काफी देर इसी तरह बीती, उसके बाद अपने को सम्हालकर केदार बाबू ने कहा-बिटिया!

उनकी शक्ल देखकर मृणाल का कलेजा मानो टूक-टूक हो गया, मगर आँसू जब्त करके बोली-क्या बाबूजी?

-दुनिया में वेदना की मात्रा इतनी भी हो सकती है, यह तो मैंने कभी सोचा तक नहीं, मृणाल! इससे छुटकारे की क्या कोई राह नहीं? कोई नहीं बता सकता?

-लोग तो लेकिन मौत की यंत्रणा भी सह सकते हैं!

केदार बाबू बोले-मेरे लिये वह मर चुकी, तुम यही तो कहा चाहती हो बिटिया! बहुत हद तक वही है! बहुत बार मेरे जी में भी आया है-लेकिन मृत्यु का शोक जितना बड़ा होता है, उसकी शान्ति, उसका माधुर्य भी उतना ही बड़ा होता है!! लेकिन इस सान्त्वना की गुंजाइश कहाँ है मृणाल? यह असह ग्लानि, यह बेहद शर्म मेरे कलेजे की राह रोके इस तरह अड़ी है, कि उन्हें खिसका सकूँ, ऐसी जरा भी जगह नहीं! इतना कहकर वे चुप हो गये, और छाती पर हाथ रखकर फिर धीरे-धीरे बोले-सन्तान को जो मौत देते हैं, उनको हम यही कहकर क्षमा करते हैं कि उनके कार्य-कारण को हम नहीं जानते! हम…

बीच में ही टोककर मृणाल बोल उठी-तो हम भी वही कर सकते हैं बाबूजी! चाहे कोई हो, जिसका कार्य-कारण हमें मालूम नहीं, उसे माफ न भी कर सकें, कम-से-कम मन-ही-मन उसका विचार करके उसे अपराधी तो न बनायेंगे!

बूढ़े ठीक जैसे चौंक उठे, और दोनों आँखों की तेज नजर उस पर टिकाकर बुत-जैसे बैठे रहे।

मृणाल ने कहा-और सँझले दादा से मैंने यह सुना है कि दुनिया में ऐसे अपराध कम ही हैं, जिन्हें माफ नहीं किया जा सकता! जोश में केदार बाबू तनकर बैठ गये। बोले-इस अपराध को भी कभी-कोई माफ कर सकता है, मृणाल?

मृणाल चुप रही, वे वैसे ही ओज से कहने लगे-हर्गिज नहीं, हर्गिज नहीं! बाप होकर उसके इस बुरे गुनाह को मैं माफ नहीं कर सकता, किसी भी तरह नहीं!! वह क्षमा योग्य नहीं, उसे क्षमा करना उचित नहीं-यह मैं तुमसे साफ कहे देता हूँ!

मृणाल धीरे-धीरे बोली-योग्य-अयोग्य तो विचार की बात है बाबूजी, उसे क्षमा नहीं कहते! फिर क्षमा का फल क्या केवल अपराधी ही पाता है-जो क्षमा करता है, वह कुछ नहीं पाता?

बूढ़े को जैसे काठ मार गया। उसकी शान्त-स्निग्ध बातों ने उन्हें मानो अभिभूत कर दिया। जरा देर सन्न-से रहकर अचानक बोल उठे-मैंने इस ढंग से तो कभी सोचा नहीं मृणाल! तुमसे आज मानो मैंने एक नया तत्त्व सीखा। ठीक तो! जो लेता है, उसी के हिसाब में सोलहों आना वसूल देकर, दादा के खाते शून्य का आँकड़ा रखना होगा? यह हर्गिज सत्य नहीं हो सकता! ठीक है, किसका गुनाह कितना बड़ा है-इसका फैसला जो चाहे सो करे, मैं सिर्फ अपनी ओर देखते हुए क्षमा करूँगा! यही तुम्हारा कहना है न?

-आप यह कहकर मेरा अपराध क्यों बढ़ाते हैं, बाबूजी?

-तुम्हारा अपराध? संसार में इसकी भी जगह है बेटी?

मृणाल एकाएक उठ खड़ी हुई। बोली-माँजी मुझे आवाज दे रही हैं शायद, मैं आयी! और वह तेजी से कमरे से बाहर चली गयी।

(40)

मृणाल उठकर चली गयी, परन्तु केदार बाबू ने इसका ख्याल ही नहीं किया। वे अपनी बात के ही आनन्द में मगन हो कहते गये-मैं जी गया! जी गया मैं! तुमने मुझे बचा दिया, बिटिया! दुर्गति के दुर्गम जंगल में जब आँखें मेरी चौंधिया गयीं, मौत के सिवा जब सारे रास्ते बन्द पड़े थे-ऐसे में बगल में ही मुक्ति का इतना चौड़ा रास्ता खुला पड़ा है-यह तुम्हारे अलावा कौन बता सकता था! क्षमा करने की तो मैंने सोची ही न थी। कभी जी में आयी भी, तो जबरन उसे हटाकर मैंने यही सोचा-नहीं, हर्गिज नहीं! जब बेटी होकर उसने इतना बड़ा पाप किया, तो बाप के नाते उसे इतना बड़ा दान मैं नहीं दे सकता! मगर अरे मूढ़, ऐ अन्धे, अरे रे कृपण! जब तू बाप होकर यह नहीं दे सकता, तो और कोई कैसे देगा भला? फिर वह तुम्हारा ले कितना-सा जायेगी? तेरी मुआफी का सब तो तेरे ही घर वापस आयेगा? अपनी मृणाल बिटिया के इस तत्त्व को जरा आँख खोलकर देख! इसके बाद मानो कुछ देखने के लिये, उन्होंने आँखें फाड़कर बादल-घिरे आसमान की तरफ देखा, और जी-जान से मन-ही-मन कहने लगे-मैंने माफ कर दिया, माफ कर दिया! सुरेश, तुमको मैंने क्षमा किया! अचला, तुमको भी क्षमा किया!! पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, जो जहाँ हो, मैंने आज सबको क्षमा किया! आज से मुझे किसी से कोई शिकवा नहीं, किसी से कोई शिकायत नहीं-मैं आज मुक्त हूँ, स्वाधीन हूँ, परमानन्द हूँ! कहते-कहते एक अनिर्वचनीय आनन्द से उनकी दोनों आँखें मुँद आयी। दोनों हाथ मिलाकर गोद पर रखते रही, मुँदी आँखों की कोर से पिता का स्नेह मानो झर-झर झरने लगा। उनके होंठ काँपने लगे, अस्फुट स्वर में कहने लगे-तू कहाँ है बेटी, एक बार लौट आ! मैं तुझे इस दुनिया में लाया हूँ, मैंने तुझे कलेजे से लगाकर बड़ा किया है-तू अपने सारे कसूर, अपने सारे अपमान के साथ ही अपने पिता की गोद में लौट आ-मैं अपने हृदय से तेरे सारे जख्म, सारी जलन धो-पोंछकर, तुझे कलेजे से लगाकर रक्खूँगा। हम घर से बाहर नहीं निकलेंगे, लोगों से नहीं मिलेंगे-बस, तू और मैं…

-बाबूजी!

उन्होंने मुड़कर मृणाल को देखा, शायद अपने को संयत करने की भी एक बार कोशिश की; पर दूसरे ही क्षण फर्श पर लुढ़ककर, बच्चे की नाईं आत्र्तस्वर में रो उठे-बिटिया, मेरा कलेजा टूक-टूक हो गया! सभी उसे जाने कितना कष्ट दे रहे हैं। मैं तो अब सह नहीं पाता!

मृणाल कुछ न बोली, सिर्फ उनके जमीन पर लुढ़के माथे को चुपचाप अपनी गोद में रखकर, सहलाने लगी। उसकी भी आँखों से आँसू बहने लगे।

फागुन का यह मेघ-घिरा दिन शायद यों ही बीत जाता, पर केदार बाबू चट उठ बैठे। बोले-अच्छा मृणाल, महिम को पत्र दें तो जवाब नहीं मिलेगा?

-क्यों नहीं? मेरा ख्याल है, कल-परसों ही मिल जायेगा।

-तुमने क्या उन्हें कुछ लिखा है?

मृणाल ने सिर हिलाकर कहा-हाँ।

संकोच से बूढ़े ने यह नहीं पूछा कि क्या लिखा है। बाहर की ओर देख कर बोले-बेला अभी है थोड़ी-सी, मैं जरा घूम आऊँ! उन्होंने बदन पर चादर ली, उठायी, लेकिन दो-एक कदम बढ़ते ही ठिठक गये। कहा-देखो बिटिया-

-जी, बाबूजी!

-मैं डर रहा हूँ, डर ठीक नहीं-लेकिन सोचता हूँ…

-काहे की बाबूजी…

-बात यों है; मैं सोचता हूँ, अच्छा तुम्हारा क्या ख्याल है, हम जाना चाहें, तो महिम एतराज करेगा?

मृणाल को यही डर था, चिन्ता थी, और मन में उसने इसका जवाब भी एक प्रकार से ठीक कर रक्खा था। इसीलिये तुरन्त बोली-अभी इसकी फिक्र से क्या लाभ? उनका पता चले, हम लोग चले चलेंगे! उस समय जब सँझले दादा मुझे निकाल देंगे, तो दुनिया की बहुत-सी बातें अपने-आप मालूम हो जायेंगी। फिर किसी से पूछना ही नहीं पड़ेगा…

केदार बाबू ने पूछा-तो सच ही तुम मेरे साथ चलोगी?

मृणाल ने कहा-सच! लेकिन मैं तो आपके साथ नहीं चलूँगी, आप मेरे साथ चलेंगे!!

बूढे़ फिर कुछ जवाब देना चाह रहे थे, लेकिन एक बार उसकी ओर देखकर ही चुप हो रहे।

+ + +

फागुन के एक ही दिन, तीसरे पहर, बंगाल के बाहर और भी दो नर-नारी के आँसू ऐसे ही बेताब हो उठे थे। सुरेश ने मुहर मारा हुआ बड़ा लिफाफा अचला को देते हुए कहा-दूँ-दूँ करते-करते भी यह कागज तुम्हें देने का आज तक साहस नहीं हुआ, मगर आज तो दिये बिना उपाय नहीं!

अचला ने लिफाफा लेकर दुविधा से पूछा-मतलब?

सुरेश जरा हँसकर बोला-मुझे साहस नहीं होता, ऐसी कौन-सी भयंकर चीज हो सकती है-यही तो सोच रही हो तुम? सोच सकती हो-मैंने भी बहुत सोचा है! इसका कुछ मतलब है तो कभी-न-कभी प्रकट होगा ही। लेकिन बहुत अपमान, बहुत दुःख का बोझा तुमने मतलब समझे बिना ही मुझसे लिया है अचला-इसे भी उसी तरह लो!

अचला ने सहज भाव से पूछा-इसमें क्या है?

सुरेश ने हाथ जोड़कर कहा-तुमसे मैंने आज तक जो कुछ भी पाया है, डकैत के समान छीनकर ही पाया है। लेकिन आज तुमसे मैं एक भीख माँगता हूँ-इसे तुम जानना मत चाहो!

अचला चुप रही। सोच न सकी-इसके बाद क्या कहे।


पर्दे के बाहर से बैरे ने कहा-बाबूजी, इक्का वाला कह रहा है-और देर करेंगे तो पहुँचने में रात हो जायेगी। रास्ते में झड़ी-पानी की भी सम्भावना है।

अचला ने चकित होकर पूछा-आज कहाँ जाओगे? ऐसे दिन में?

सुरेश ने हँसकर सुधार दिया-यानी ऐसे दुर्दिन में, मझोली जा रहा हूँ। प्लेग का कोई डॉक्टर नहीं मिल रहा है-गाँव-का-गाँव मसान होता जा रहा है! अबकी वहाँ पाँच-सात दिन रहना पड़ेगा, और कौन जाने, रही जाना पड़े! कहकर वह जरा हँसा।

अचला उसकी तरफ देखती रह गयी। उसे भी थोड़ी-बहुत खबर थी, कि सात-आठ कोस पर की कुछ बस्तियाँ प्लेग के मसान बनती जा रही हैं-और शहर से इतनी दूर, इस भयंकर महामारी में चिकित्सकों की कमी होगी, इसमें ताज्जुब क्या? उसे यह भी पता चल गया था कि सुरेश छिपाकर, काफी रुपयों का दवा-दारू जहाँ-तहाँ भेज रहा है, खुद ही तड़के उठकर कहीं-न-कहीं चला जाता है, लौटने में कभी साँझ हो जाती है, कभी रात। परसों तो घर लौटा ही नहीं। इतने पर भी वह यह नहीं सोच सकी थी कि सुरेश घर छोड़कर, कुछ दिनों के लिये एकबारगी मौत के मुँह में ही जाकर रहेगा। इसीलिये यह प्रस्ताव सुनकर वह उसकी ओर ताकती रह गयी। जो महापापी भगवान् को नहीं मानता, पाप-पुण्य नहीं मानता; अपने दोस्त और उसकी बेकसूर स्त्री का जिसने इतना बड़ा सत्यानाश कर दिया, हिचका नहीं-उसकी ओर जब-जब भी अचला ने देखा, तभी उसका मन उसके प्रति जहरीला हो उठा है। पर आज उसकी ओर ताककर उसका जी विष से नहीं, विस्मय से भर गया। सुरेश के होंठ के कोने पर अभी भी हँसी की लकीर खिंची थी, बड़ी फीकी-सी; परन्तु उसी जरा-सी हँसी में अचला ने सारे संसार के वैराग्य को भरा देखा। चेहरे पर उसके उद्वेग नहीं, उत्तेजना नहीं; मौत बीच जाकर खड़ा होगा, मगर चेहरे पर जरा भी शंका नहीं। तो क्या इस नास्तिक और ऐसे महास्वार्थी के लिये भी, उसकी अपनी जान इतनी सस्ती है? भोग के सिवा जिसे और कुछ नहीं आता, भोग के सारे साधनों में डूबे रहकर भी उसका जीवित रहना इतना तुच्छ, ऐसी उपेक्षा की वस्तु है कि इस आसानी से सब कुछ को छोड़ जाने के लिये एक पल में तैयार हो गया? शायद न भी लौटूँ! यह और चाहे जो हो, मजाक नहीं है। मगर यह कहना क्या इतना आसान है?

भीतर के धक्के से वह चंचल हो उठी। हाथ का लिफाफा देखकर पूछा-तो यह क्या तुम्हारी वसीयत है?

सुरेश ने भी सवाल ही किया-अभी-अभी तुमने जो भीख दी, उसे लौटा लेना चाहती हो?

अचला कुछ क्षण चुप रही; बोली-खैर, मैं वह नहीं जानना चाहती, लेकिन तुम्हें मैं जाने न दूँगी?

-क्यों?

जवाब में उस लिफाफे को फिर से उलट-पुलट कर अचला ने कहा-तुमने मेरा चाहे जो भी किया, फिर भी मैं अपने लिये तुम्हें मरने नहीं दूँगी!

सुरेश ने जवाब नहीं दिया। अपनी बात पर जरा शरमा कर, उस बात को कुछ हलकी करने के ख्याल से वह बोली-तुम कहोगे कि मैं तुम्हारे लिये क्यों मरने लगा, मैं तो जा रहा हूँ गरीबों के लिये जान देने-मगर मैं वह भी न करने दूँगी!

यह सुनते ही सुरेश को महिम याद आ गया और कलेजे के भीतर से एक निश्वास उमड़ कर निस्तब्ध कमरे में फैल गया। इसीलिये कि जीवन की ममता कितनी नाचीज है, और किस आसानी से वह उसे गँवाने को तैयार हो सकता है। इसका एक ही गवाह आज भी है, और वह है महिम। उसकी आज यात्रा ही यदि उसकी महायात्रा हो, तो सिर्फ वही संगीहीन और निरा मौन आदमी ही मन-ही-मन समझेगा कि सुरेश ने लोभ से नहीं, क्षोभ से नहीं, घृणा से नहीं, इहकाल-परकाल कुछ के लिये नहीं, उसने सिर्फ इसीलिये जान दी कि उसकी मौत आयी थी।

उसकी आँखों में आँसू भर आना चाहने लगे, पर उसने रोका। बल्कि सिर उठाकर हँसने की कोशिश करते हुए कहा-मैं किसी के लिये भी मरना नहीं चाहता, अचला! चुपचाप घर में बैठे रहना अच्छा नहीं लगता, इसीलिये जरा घूमने जा रहा हूँ। मैं मरने क्यों लगा, नहीं मरूँगा?

-फिर यह वसीयत क्यों?

-यह वसीयत है, यह तो साबित नहीं हुआ है।

-न हो, पर मुझे अकेली छोड़कर चले जाओगे तुम?

-चला ही जाऊँगा; और अब लौटूँगा नहीं, यह भी तो तै नहीं हो गया है।

-नहीं हुआ है? इस परदेश में मुझे बिल्कुल बेपनाह करके-अचला रो पड़ी।

सुरेश उठते-उठते भी बैठ गया। जीवन में आज पहली बार, एक अदम्य आवेग को रोककर वह शान्त स्वर में बोला-मैं तो तुम्हारा संगी हूँ नहीं, अचला! आज भी तुम अकेली हो, और वह दिन अगर सच ही आ जाये, तो भी तुम्हें उससे ज्यादा बेपनाह न होना पड़ेगा!!

अचला के आँसू बह रहे थे, उन्हीं आँसूभरी आँखों को सुरेश पर टिकाकर उसने देखा, लेकिन उसके होंठ थर-थर काँपने लगे। उसके बाद दाँत से होंठ दबाकर उस कम्पन को रोकने की चेष्टा करती हुई वह रो पड़ी-मुझसे तुम और क्या चाहते हो, मेरे और क्या है?-कहते-कहते मुँह को आँचल से दबाये वहाँ से भाग गयी।

बैरे ने आकर कहा-जी, इक्का वाला…

-उसे सब्र करने को कहो जरा!

उसी समय कोचवान ने बताया-गाड़ी बड़ी देर से तैयार खड़ी है।

-गाड़ी क्यों?

कोचवान ने कहा-माँजी ने हुक्म दिया था, वे उस डेरे में जायेंगी, मगर नौकरानी ने कहा-उनका कमरा बन्द है। बहुत पुकारा, कोई जवाब नहीं आता। तो घोड़े खोल दिये जायें?

-अच्छा, ठहरो!

इस कमरे वाला दरवाजा अन्दर से खुला ही था, उसी का पर्दा हटाकर सुरेश चुपचाप सोने के कमरे में चला गया, और पास ही एक कुर्सी पर बैठ गया। कमरा यह दोनों ही का था, उसने अनाधिकार प्रवेश नहीं किया। लेकिन सामने की साफ-सुथरी मेज पर वह जो सुन्दरी औंधी पड़ी सो रही थी, उसकी किसी बात ने आज उसे आकर्षित नहीं किया, बल्कि उसे दुखाकर पीछे ही हटा देने लगी। अचला को उसके आने की खबर नहीं हुई, वह रोती रही, और उसे एकटक देखता हुआ सुरेश सोचता रहा। इधर कुछ दिनों से अपनी गलती उसे महसूस होने लगी थी, पर इस लोटती हुई देहवल्लरी ने, उस वेदना ने-उनके सम्मिलित माधुर्य ने उसकी आँखों पर की पट्टी को नोच फेंका। उसे लगा-प्रातः किरणों में पत्ते की नोंक पर ओस की जो बूँद हिलती रहती है, जो लोभी उसके अपार-अनुपम सौन्दर्य को हाथ में उठाकर उपभोग करना चाहता है, उसने ठीक वैसी ही भूल की है। वह नास्तिक है, आत्मा को नहीं मानता; जिस झरने से अनन्त सौन्दर्य झरता रहता है-वह असीम उसके लिये झूठा है; इसीलिये सारी चेतना उस स्थूल पर एकाग्र करके, उसने निस्सन्देह समझा था कि इस सुन्दर शरीर पर कब्जा कर लेने से ही मैं पा जाऊँगा-आज उसकी भूल की वह आकाश चूमती इमारत चकनाचूर हो गयी। प्राप्ति की उस अदृश्य पकड़ से अलग होकर पाना कितना बड़ा बोझा है, कितनी बड़ी भूल है-यह तथ्य आज उसके हृदय में जाकर गड़ा। अचला को देखकर उसे आज इसी सत्य की प्रतीति होने लगी, कि ओस की बूँद मुट्ठी में आकर देखते-ही-देखते किस प्रकार पानी की बिन्दु-सी सूख जाती है। हाय, पल्लव की कोर ही जिसके लिये विधाता की दी हुई जगह है, उसे इस मरुभूमि से किस तरह बचाकर रक्खे?

अजानते ही उसकी आँखों में पानी भर आया। पोंछकर उसने आवाज दी-अचला!

अचला चौंक उठी, पर वैसी ही चुप पड़ी रही। सुरेश ने कहा-तुम्हारी गाड़ी तैयार है, आज रामबाबू के यहाँ घूमने जाओगी?

फिर भी अचला का कोई जवाब न मिला, तो वह बोला-जी न चाहे आज, तो घोड़ों को खोल दें। मैं भी शायद नहीं जा पाऊँगा। इक्के को लौटा देता हूँ! कहकर वह बैठक में चला गया।

वहाँ दस-पन्द्रह मिनटों तक वह क्या सोचता रहा, उसी को नहीं मालूम। इतने में साड़ी की खसखसाहट हुई। चौंककर देखा-सामने ही अचला खड़ी थी। उसने भरसक आँख की लाली को पोंछ डाला था, और एक धनी की पत्नी के योग्य पोशाक में ही आयी थी। बोली-उनके यहाँ आज जाना ही पड़ेगा!

अचला की यह पोशाक उसके लिये नहीं, बल्कि वहाँ के राज-अतिथियों के लिये है-सुरेश ने यह समझा; तो भी जड़ाऊ गहनों से सजीगुजी उस नारी ने जरा देर के लिये उसे मोहित कर दिया। ताज्जुब में आकर पूछा-जाना ही पड़ेगा, ऐसी क्या बात?

-राक्षसी बुखार लिये ही कलकत्ते से लौटी है। यह भी पता चला कि कल से चाचाजी को बुखार आ गया है!

-जब से आयी हो; तब से क्या तुम कभी उनके यहाँ गयीं?

-नहीं।

-उनके यहाँ से भी कोई नहीं आये?

सिर हिलाकर अचला ने कहा-नहीं!

-रामबाबू भी नहीं।

-नहीं।

यहाँ आने के बाद से प्लेग वालों के लिये सुरेश इस कदर हैरान रहा, कि घर-गिरस्ती और आपसी-विरानों के बारे में इन छोटी-मोटी भूलों पर ध्यान ही न दे सका। सो सुनकर वह हैरान हुआ। बोला-गजब! अच्छा, जाओ!

अचला ने कहा-सचमुच अपनी ओर से गजब ही हुआ! एक को बुखार और एक जने खुद खाट न पकड़ लेने तक मेहमानों की खातिरदारी में परेशान रहे। उचित हम लोगों का ही जाना था!

-अच्छा जाओ। जरा जल्दी लौट आना!

अचला जरा देर चुप रहकर बोली-तुम भी साथ चलो।

-मुझे क्यों घसीट रही हो?

अचला नाराज होकर बोली-अपनी बीमारी की बात याद न हो चाहे, मगर डॉक्टर के नाते चलो!

अच्छा, चलो-सुरेश कपड़े बदलने के लिये बगल के कमरे में चला गया।

इक्के वाले को कोई जवाब नहीं मिला था, इसलिये वह तब भी खड़ा था।

अचला ने नीचे उतर कर देखा। खामखाँ रंज हो उठी वह। बैरे से इसकी कैफियत तलब करती हुई, पैसे देकर उसे लौटा देने का हुक्म दिया। बैरे ने सुरेश की ओर ताकते हुए, डरते-डरते पूछा-जी… कल…

जवाब अचला ने दिया। कहा-नहीं। बाबू नहीं जायेंगे! इक्के की जरूरत नहीं।

सुरेश गाड़ी पर सामने वाली जगह में बैठने जा रहा था। उसके कुरते का छोर खींचकर अचला ने बगल में बैठने का इशारा किया। गाड़ी चल पड़ी। दोनों चुप। अगल-बगल बैठने के बावजूद दोनों, दोनों तरफ की खिड़की से बाहर की ओर देखते रहे।

गाड़ी जब बगीचे का फाटक पार करके सड़क पर जा निकली, तो सुरेश ने धीमे-धीमे कहा-अचला!

-क्या है?

-जानती हो, आजकल मैं क्या सोचता रहता हूँ?

-नहीं।

-आज तक जो सोचता आया हूँ, ठीक उसका उल्टा! उस समय सोचा करता था-तुमको कैसे पाऊँ, और अब सोचता हूँ-तुम्हें छुटकारा कैसे दूँ!! तुम्हारा भार अब मानो ढोया नहीं जाता!!!

इस अनसोचे और बेहद कठोर आघात से, अचला का देह-मन मानो जरा देर के लिये पंगु बन गया। यह नहीं कि उसे इस पर सच ही यकीन न आया, फिर भी अभिभूत-सी बैठी रही। बोली-मैं जानती थी, पर यह तो…

सुरेश ने कहा-हाँ, गलती मेरी ही है-तुम लोग जिसे पाप का परिणाम कहती हो! फिर भी बात यह सही है। मन-विहीन शरीर का बोझा ऐसा दुर्वह होता है, यह मैंने ख्वाब में भी नहीं सोचा था!

अचला ने नजर उठाकर पूछा-तुम क्या मुझे छोड़कर चले जाओगे?

सुरेश ने बिना झिझके कहा-खैर, वही समझ लो!

इस बेखटके जवाब को सुनकर अचला एकबारगी चुप हो गयी। उसके रुँधे जी को मथकर केवल एक ही बात चारों ओर घुमड़ने लगी-यह वही सुरेश है! यह वही सुरेश है! आज उसी के लिये वह दुर्वह बोझ है। आज वही उसे छोड़ जाना चाहता है। जबान से ऐसा कहते भी आज उसे हिचक न हुई।

मगर सबसे बड़ा गजब यह कि वही उसके अपार दुःख की जड़ है। कल तक भी इसकी हवा से सारी देह जहरीली होती रही है।

बादल घिरे तीसरे पहर के आसमान के नीचे, सूनी सड़क पर प्रतिध्वनि जगाती हुई गाड़ी तेजी से दौड़ रही थी, और उसी के अन्दर बैठे ये दोनों जने बिल्कुल मौन। सुरेश क्या सोच रहा था-वही जाने; पर उसके मुँह से निकले शब्दों की कल्पनातीत निष्ठुरता को पार करके भी, आज एक नये भय से अचला का मन भर गया। सुरेश नहीं है-वह अकेली है। यह अकेलापन कितना बड़ा है, कैसा भयावना-लमहे में बिजली की नाईं उसके मन में कौंध गया। दुर्भाग्य से वह जो नाव लिये संसार-समुद्र में बह चली है, वह निश्चित मृत्यु में ही तिल-तिल डूब रही है-इस बात को उससे ज्यादा कोई नहीं जानता। तो भी इस जाने-चीन्हे भयावने आश्रय को छोड़, वह ओर-छोरहीन समुद्र में पड़ी है-यह ख्याल आते ही उसका सारा शरीर बर्फ-जैसा ठण्डा हो गया। उसका अब कोई नहीं-उसे प्यार करने को, घृणा करने को, रक्षा करने को, मार डालने को-कहीं-कोई नहीं, संसार में वह निरी अकेली है। इसकी याद से उसका दम घुटने लगा।

अचानक उसका अवश-विवश दायाँ हाथ सुरेश की गोद में जा रहा, कि उसने चौंककर देखा। जी-जान से उद्वेगहीन कण्ठ को साफ करके अचला ने कहा-अब क्या तुम मुझे प्यार नहीं करते?

उसके हाथ को जतन से अपने हाथ में लेकर सुरेश ने कहा-इसका उत्तर वैसे बेखटके तो नहीं दे सकता अचला, लगता है-हो चाहे जो, पर इतना तो सही है कि यह भूत का बोझा ढोते चलने की ताकत मुझ में नहीं।

अचला फिर जरा देर मौन रहकर, धीमे और करुण स्वर में बोली-तुम और कहीं ले चलो…

-जहाँ कोई बंगाली न हो?

-हाँ, जहाँ शर्म मुझे हर पल बेधती न रहे…

-वहाँ क्या तुम मुझे प्यार कर सकोगी, अचला? सच?-उसने आवेश में उसका सिर छाती में खींचकर होंठों को चूम लिया।

अपमान से आज भी अचला का चेहरा लाल हो उठा, होंठ वैसे ही जल उठे-जैसे बिच्छू ने डंक मारा हो; तथापि गर्दन हिलाकर उसने हौले-हौले कहा-हाँ, कभी मैं तुमको प्यार करती थी। नः छिः-छिः, कोई देख लेगा! यह कहकर उसने अपने को सुरेश से छुड़ा लिया और सीधी होकर बैठी। लेकिन जिसके हाथ में उसका हाथ पड़ा रहा, उसने स्नेह से उसे जरा दबाकर एक गहरा-लम्बा निश्वास त्यागा।

गाड़ी चौड़ी सड़क छोड़कर रामबाबू के बंगले के बगीचे में घुसी और देखते-ही-देखते विशाल वेलर की जोड़ी-गाड़ी बरामदे में जाकर रुक गयी।

चटकदार नई पोशाक वाले साईसों ने दरवाजा खोल दिये, और सुरेश ने उतरकर खुद अचला को हाथ पकड़कर उतारा। अचला की नजर ऊपर के छज्जे पर थी। वहाँ और स्त्रिायों के साथ राक्षसी भी दौड़ी-दौड़ी आकर खड़ी थी-बहुत दिनों के बाद चार-आँखें हो जाने से, दोनों ही सखियों के होंठों पर हँसी फूट पड़ी। रामबाबू नीचे ही थे। खुशी और स्नेह से बदन की चादर फेंककर उन्होंने कहा-आओ, आओ बिटिया!

इस अपरिचित स्वर की व्यग्र-व्याकुल पुकार से, उसकी हँसती हुई आँखों की निगाह पलक-मारते बूढ़े की ओर गयी, लेकिन उनके बगल में खड़ा था महिम, और उसी को देखकर वह मानो पत्थर हो गयी थी। आँखें-चार हुईं, परन्तु पलक न गिरी। अचला के अंग-अंग का मणि-मुक्ता झलमला उठा, हीरा-मोती की चमक जरा भी मन्द न हुई, लेकिन उन्हीं के बीच का खिला हुआ कमल मानो मुरझा गया।

मगर साँझ के झुटपुटे में बूढ़े को भूल गयी। एक अजनबी सज्जन के सामने उसे लाज से मालिन और मुश्किल में पड़ी समझकर, उन्होंने व्यस्त होकर दोनों हाथों उसके ललाट को पकड़कर कहा-छोड़ो भी बिटिया, तुम्हें चरणों की धूल नहीं लेनी होगी; ऊपर जाओ…

अचला कुछ नहीं बोली, लड़खड़ाती हुई चली गयी।

रामबाबू ने कहा-सुरेश बाबू ये…

सुरेश ने कहा-गजब! हम तो एक क्लास में-छुटपन से साथ-साथ-इसके बाद अचानक हँसने की कोशिश से चेहरा बनाकर बोला-अरे, तुम यहाँ महिम…

लेकिन बात पूरी न हो सकी। महिम भागकर कमरे में चला गया।

काठ मारे-से बूढ़े ने सुरेश की ओर ताका-और सुरेश ने भी जवाब में हँसने की चेष्टा की, पर वह भी न हो सका। ऊपर जाने वाले लकड़ी के जीने पर एकाएक जोरों की आवाज होने से दोनों ही ठक् रह गये। शोर मचा। रामबाबू दौड़े। जाकर देखा-अचला औंधी पड़ी है। वह दो-ही-तीन सीढ़ियाँ चढ़ पाई थी; उसके बाद ही बेहोश हो गिर पड़ी थी।

(41)

लौटते समय गाड़ी के एक कोने में सिर टेककर अचला यही सोच रही थी-आज की बेहोशी, काश दूर न होती! अपने हाथों अपनी जान लेने के घिनौनेपन को वह मन में जगह भी नहीं दे सकती-पर ऐसी ही कोई शान्त, स्वाभाविक मृत्यु! सहसा होश जाता रहे और नींद आ जाये-ऐसी नींद कि फिर न टूटे! मौत को ऐसी आसानी से पाने की क्या कोई तरकीब नहीं? कोई नहीं जानता?

सुरेश ने उसे छूकर कहा-तुमने और कहीं जाने की ख्वाहिश जाहिर की थी। चलोगी?

-चलो।

-कल तो यहाँ मुँह दिखाना दूभर होगा।

-मगर वे तो किसी से कुछ कहेंगे नहीं।

सुरेश के एक लम्बा निश्वास छूट पड़ा। जरा देर चुप रहकर धीरे-धीरे बोला-नहीं, महिम को मैं जानता हूँ! नफरत से वह हम लोगों की निन्दा को जबान पर भी नहीं ला सकता!!

सुरेश ने यह बात बड़ी आसानी से कही, परन्तु अचला का सर्वांग सिहर उठा। उसके बाद जब तक गाड़ी घर जाकर लगी, तब तक दोनों ही चुप रहे। सुरेश ने उसे एहतियात से उतार कर कहा-तुम जरा सोने की चेष्टा करो अचला, मुझे कई जरूरी चिट्ठियाँ लिखनी हैं। वह अपने कमरे में चला गया।

बिस्तर पर पड़ी-पड़ी अचला सोचने लगी-इक्कीस की तो अपनी उम्र है, इस बीच मैंने ऐसा कौन-सा अपराध किया कि नसीब में यह गत हुई! यह कोई नयी बात न थी, जब-तब वह अपने-आप से यह पूछा करती, और बचपन में जहाँ तक याद आता, याद करने की कोशिश करती। आज उसे अचानक उस तर्क की याद आ गयी, जो मृणाल से एक दिन हुआ था, और उसी सिलसिले में वह एक-एक कर सारी बातों को दुहरा गयी। पति से कभी उसकी पटी नहीं, खटपट में ही बीता। महज अन्तिम दिन उसने रोग-शय्या पर इसे बहुत अपना पाया था। उसके जीवन को जब कोई खतरा नहीं रह गया था, मन जब निर्भय और बेखटका था, तब के स्वच्छ-स्निग्ध आनन्द में जब उसे परायी वेदना बड़ी पीड़ा पहुँचाती थी-ऐसे में एक दिन मृणाल के गले लिपटकर, आँसू रुँधे स्वर में उसने कहा था-ननदजी, तुम कहीं हमारे समाज, हमारे मत की होतीं, तो तुम्हारी तमाम जिन्दगी को मैं यों बेकार नहीं जाने देती!

मृणाल ने हँसकर पूछा था-आखिर क्या करती सँझली दी, फिर से मेरी शादी कर देती?

अचला ने कहा-और क्या? मगर बख्शो बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, शास्त्र की दुहायी तो न दो! यह कुश्ती इतनी लड़ी जा चुकी है, कि उसके होने की सुनते ही मेरी रूह फना हो जाती है!!

मृणाल ने वैसे ही हँसते हुए कहा था-बात डरने की ही है, क्योंकि उनकी टक्करें कब किधर को सख्त हो पडें़, कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन उसके एक पहलू पर तुमने गौर नहीं किया है सँझली दी, वह यह कि वे लड़ते इसीलिये हैं कि लड़ना उनका पेशा है, इसीलिये कि उनके हाथ में हथियार हैं! नतीजा यह होता है कि जीत-हार महज उन्हीं की होती है, उस लड़ाई से हमारा-तुम्हारा कुछ जाता-आता नहीं। दो में से कोई पक्ष हमें नहीं पूछता!

अचला ने पूछा था-लेकिन पूछता तो क्या होता?

मृणाल ने जवाब दिया-यह तो नहीं बता सकती! यह तो मैं तुम्हारी ही तरह सोचना सीखती, या तो तुम्हारे प्रस्ताव पर राजी होती-तो हो सकता है, ब्याहने वाला कोई जुट भी जाता! कहकर वह हँसी थी।

उसकी हँसी से बेहद कुढ़कर अचला ने जवाब दिया था-मैं यह जानती हूँ-जब भी मेरे समाज की बात आती है, तुम अवज्ञा दिखाती हो! परन्तु हमारे समाज को छोड़ो, जो भी इस पर लड़ते हैं, वे सब-के-सब क्या पेशेवर ही हैं? सच्ची हमदर्दी क्या एक में भी नहीं होती?

मृणाल ने जीभ काटकर कहा था-ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जिन्हें मन में लाना भी पाप है, सँझली दी! मगर यह नहीं, बहन! कल ही सुबह तो चली जा रही हूँ मैं। जाने के पहले कोई मजाक भी नहीं कर सकती? और उसकी आँखों में आँसू भर आये थे। अपने को सम्हालकर उसने गम्भीर होकर कहा था-पर तुम तो मेरी सारी बातें समझ नहीं सकोगी बहन! तुम लोगों के लिये ब्याह महज एक सामाजिक-विधान है-इसीलिये उस पर भला-बुरा विचार किया जा सकता है-तर्क से, दलील से राय बदल सकती है। मगर हमारे लिये यह धर्म है! पति को हम बचपन से इसी रूप में अपनाते आते हैं। यह तो सब तर्कों से परे की चीज है, बहन!

हैरान-सी रही अचला ने पूछा था-खैर, वही सही! मगर मनुष्यों का धर्म क्या नहीं बदलता है?

मृणाल ने कहा था-धर्म के विचार बदलते हैं, भूल को कौन बदल सकता है? यही कारण है कि लड़ाई-झगड़े के बावजूद, यह मूल वस्तु आगे भी सब जातियों में एक-सी है। पति के दोष-गुण का विचार हम सब भी करते हैं, उनके बारे में विचार भी बदलते हैं-आखिर हम भी तो इन्सान हैं! लेकिन अपने लिये पति नित्य हैं, क्योंकि वे धर्म हैं! वे जीवन में भी नित्य हैं, मरण में भी! उन्हें हम बदल नहीं सकते। अचला कुछ देर चुप रह गयी। पूछा-यही ठीक है, तो इतना अनाचार क्यों है? मृणाल ने कहा था-वह चूँकि रहेगा, इसीलिये है! जब धर्म नहीं रहेगा, तब यह भी नहीं रहेगा!! कुत्ते-बिल्लियों में तो अनाचार कुछ नहीं है बहन!!!

अचला को ढूँढ़े कोई जवाब न मिला, सो कुछ देर चुप रहकर उसने कहा था-तुम्हारे समाज की अगर यही शिक्षा है, तो जो लोग शिक्षा देते हैं, उन्हें इतना सन्देह क्यों-फिर क्यों वे लोग इतने सावधान रहते हैं? इतना परदा, इतना छिपाव-बचाव, सारी दुनिया से बचाकर रखने की ऐसी जी-तोड़ कोशिश क्यों? इस जबरन सतीत्व की कीमत तब जानती, जब कसौटी का मौका मिलता!

उसके तुनकने से चौंककर मृणाल ने हँसकर कहा था-यह तो बहन तुम उनसे पूछो जाकर, जो ये कायदे-कानून बना गये हैं। हमने तो जो-कुछ अपने माँ-बाप से सीखा है उसी का पालन करती जा रही हैं! मगर एक बात मैं तुमसे जोर देकर कहूँगी-जिसने यह कबूल कर लिया है कि पति धर्म हैं, परकाल की निधि हैं, उनके पाँवों बेड़ी बाँधों चाहे बेड़ी काट दो, उसके सतीत्व की खुद-ब-खुद कसौटी हो चुकी है! इतना कहकर वह कुछ क्षण रुकी थी, और तब धीरे-धीरे कहा था-मेरे पति को तो तुमने देखा था? बुड्ढे थे, गरीब थे, रूप-गुण भी निहायत मामूली ही था-लेकिन वही मेरे इहकाल थे, वही मेरे परकाल हैं! उसने आँखें मूँदकर शायद मन-ही-मन उनको याद की, और फिर जरा फीकी हँसी हँसकर बोली-मिसाल शायद वह ठीक न होगी, पर बात यह बावन तोले पाव रत्ती ठीक है, कि बाप अपने काने-लँगड़े लड़के पर ही सारा स्नेह उडे़ल देता है। दूसरे का खूबसूरत लड़का पल को उसके मन में क्षोभ ला सकता है, पर पिता के धर्म को एक तिल आँच नहीं आती! जाते समय अपना सर्वस्व वे कहाँ रख जाते हैं, यह तो तुम जानती हो? लेकिन अपने पितृत्व पर सन्देह के नाते कभी बाप का धर्म अगर टूट जाता है, तो नेह को माफी ढूँढ़े नहीं मिलती! मगर हमारी शिक्षा और विचार का स्रोत जुदा है मेरी बहना, मेरी यह मिसाल या ये बातें तुम शायद ठीक-ठीक समझ न पाओगी; लेकिन मेरी इस बात पर भूले भी अविश्वास मत करना, कि जिस औरत ने पति को धर्म के रूप में हृदय में रखना न सीखा, उसके पैरों में सदा बेड़ी पड़ी रहे या खुली रहे, और अपने सतीत्व के जहाज को वह जितना भी बड़ा क्यों न समझती हो-जाँच की दलदल में पड़ जाने से उसे डूबना ही पड़ेगा! वह परदे में भी डूबेगी, परदे से बाहर भी!!

वह तो होकर रहा। उस घड़ी अचला ने इस सत्य को नहीं समझा था। लेकिन मृणाल की बताई दलदल आज जब उसे जी-जान से रसातल की ओर खींचे ले जा रही थी, तो समझना बाकी न रहा। उस रोज किस बात को उसने इस तरह से समझना चाहा था। मृत-बद्ध समाज की अबाध स्वाधीनता के आँख-कान को खुला रखकर ही वह बड़ी हुई, स्वयं ही उसने चुनकर जीवन की राह अपनाई-उसे इसी का गर्व था; लेकिन इम्तहान के आड़े-वक्त में यह सब कुछ भी उसके काम न आया। उसकी विपत्ति बड़ी चुपचाप आयी, आयी मित्र के रूप में; बूढ़े चाचा के स्नेह और श्रद्धा का जामा पहन कर आयी। उस एकान्त स्नेहशील, भला चाहने वाले बूढ़े के बार-बार आग्रह करने पर, जिस दुर्योग की रात में वह सुरेश की सेज पर जाकर आत्महत्या कर बैठी-उस दिन उसे जो बचा सकता था, वह था एकमात्र उसका सतीत्व-जिसे मृणाल ने जीवन-मरण में अद्वितीय और नित्य बताना चाहा था। लेकिन उस रोज उसके बाहरी आवरण ने ही बड़ा होकर उसे शिकस्त दी। उसकी जन्मजात शिक्षा और संस्कार, आत्मा को तुच्छ कारागार समझ कर बाहरी जगत् को ही सर्वोपरि मानता रहा है-जो धर्म लीन है, जो धर्म गुफा में सोया है; हृदय का वह धर्म कभी उसके आगे सजीव नहीं हो पाया। इसीलिये बाहर से सामंजस्य बनाये रखने के लिये, भद्र महिला के बाहरी रूप को ही वह लज्जा से जकड़े रही। इस मोह को तोड़ कर, अपने को उधार कर वह हर्गिज न कह सकी, कि चाचा जी, मैं जानती हूँ कि मेरी पर्वत-सी ऊँची हुई इतने दिनों की मिथ्या के ऊपर-संसार में आज मेरे सत्य को कोई सत्य नहीं मानेगा, जानती हूँ कि कल आप घृणा से मेरी शक्ल नहीं देखेंगे। आपकी सती पतोहू का दरवाजा भी कल मेरे लिये बन्द हो जायेगा, और मेरी निन्दा तमाम फैल जायेगी-लेकिन मुझे वह सब बर्दाश्त है, मगर आपका आज का यह खतरनाक स्नेह नहीं सह सकूँगी। बल्कि आप मुझे यह आशीर्वाद करें चाचाजी, कि इतने दिनों के सती के यश के बदले, आपके आगे मेरा आज का यह कलंक ही अक्षय हो सके। लेकिन हाय! यह बात उसके मन से उस दिन हर्गिज नहीं निकल सकी।

आज निष्फल मान और प्रचण्ड आवेश से उसका गला बार-बार सूख जाने लगा, और उसकी उस अखण्ड पीड़ा को महिम की निगाह मानो चाकू से चीरने लगी।

इस तरह आधी रात बीती। लेकिन सभी दुःखों का एक विश्राम होता है, इसीलिये आँसू का सोता भी एक समय सूख गया, और भीगी पलकें भी नींद से मुँद गयीं।

नींद टूटी तो बेला हो चुकी थी। सुरेश के लिये दरवाजा खुला ही था, परन्तु वह अन्दर आया भी या नहीं, पता नहीं चल सका। बाहर निकली तो बैरे ने बताया-बाबूजी तड़के ही इक्के से मझोली चले गये।

-कोई साथ गया है?

-जी नहीं। मैं जाना चाहता था, उन्होंने जाने नहीं दिया। बोले-प्लेग से मरना चाहता है तो चल!

-इसीलिये तुम नहीं गये और कृपा करके इक्का ला दिया? मुझे क्यों नहीं जगाया?

बैरा चुप रहा।

अचला खुद भी कुछ क्षण चुप रही-पूछा-इक्का कौन ले आया? तुम?

सिर झुकाकर बैरे ने कहा-बुलाने की कोई जरूरत नहीं थी। कल शाम ही बाबू ने उसे सुबह आने के लिये कह दिया था।

सुनकर अचला चुप हो गयी। उसने जो सोचा था, हकीकत में वह न था। कल की घटना से इसका कोई लगाव न था। कल वाली बात न भी होती, तो भी वह जाता। सिर्फ उसके डर से कुछ समय के लिये स्थागित कर दिया था।

पूछा-कब आयेंगे, कुछ बता गये हैं?

उसने खुशी से सिर हिलाकर कहा-बहुत जल्दी लौटेंगे, परसों या नरसों, या उसके दूसरे दिन तो जरूर!

अचला ने और कुछ न पूछा-कल उसे सीढ़ी पर गिरने की चोट का ठीक-ठीक पता न चला था, आज लेकिन तमाम बदन में दर्द अवश्य हो रहा था। उस पर रामबाबू कहाँ खोज-पूछ को न आयें-इस आशंका से मन भी मानो काँटे-सा हो रहा। महिम कुछ भी नहीं बोलेगा, इस बात को वह सुरेश से कुछ कम नहीं जानती थी। तो भी जैसे चोट के भय से दर्द की जगह को अगोरे सारा मन सचेत रहता है-वैसे ही उसकी सारी इन्द्रियाँ बाहरी दरवाजे का पहरा देती रहीं। इस तरह सबेरा गया, दोपहर निकली, साँझ बीती। रात को अब उनके आने की उम्मीद नहीं, इसलिये निश्चिन्त-सी होकर वह बिछावन पर पड़ गयी। पास ही तिपाई पर खाली गुलदस्ते से दबा, किसी कविराजी दवाखाने का सूची-पत्र पड़ा था। उसे खींचकर उसी के पन्नों में नजर गड़ाये, जाने किस एक श्रीमान् महाराज की बीमारी आराम होने की बात से लेकर, ब्राह्मणघाटी मिडिल-स्कूल के तीसरे मास्टर के प्लीहा छूटने का विवरण पढ़ते-पढ़ते, अपना दुखड़ा भूल करके न जाने कब वह सो गयी।

(42)

बैरे ने बताया था-परसों लौटेंगे, नहीं तो नरसों, नहीं तो उसके दूसरे दिन तो जरूर! लेकिन इस दूसरे दिन की निश्चयता को दिन भर बैठकर जाँचने जैसा धीरज अचला को न था। इन तीन दिनों के बीच रामबाबू एक दिन भी नहीं आये। उनके आने की सम्भावना को वह हृदय से डरती रही है, और इस न आने में जो मतलब था-उसकी कल्पना करके भी उसका शरीर मानो काठ हो गया। वे बीमार थे, और इस बीच उनकी बीमारी बढ़ भी सकती है, यह बात उसके मन में नहीं जगी। सिर्फ सबेरे उनका दरबान आया था, लेकिन वह अन्दर नहीं आया, पाण्डेजी से बात करके बाहर से ही लौट गया। वह क्यों आया था, क्या पूछ गया-डर से अचला किसी से भी, कुछ पूछ नहीं सकी। लेकिन उसके बाद से ही उसे ऐसा लगने लगा कि इस मकान, इन लोगों के बीच से भाग निकले तो जी जाय।

बैरे को बुलाकर उसने पूछा-रघुवीर, तुम्हारा घर तो इसी इलाके में है-मझोली कहाँ है जानते हो?

उसने बताया-बहुत पहले मैं एक बार वहाँ बारात में गया था माँजी।

-कितनी दूर है, बता सकते हो?

रघुवीर ने मन-ही-मन अन्दाज लगाकर कहा-छः-सात कोस होगा माँजी।

-तुम मेरे साथ आज चल सकते हो?

रघुवीर ने हैरान होकर कहा-आप वहाँ जायेंगी? वहाँ तो जोरों का प्लेग है?

अचला ने कहा-तुमसे न बने, तो और किसी का राजी कर दे सकते हो? जो माँगेगा, वही इनाम दूँगी!

रघुवीर ने दुखी होकर कहा-आप जायेंगी, और मैं नहीं जा सकता माँ जी? लेकिन रास्ता नहीं है, अपनी गाड़ी से न जा सकेगी! या तो खटोला या फिर इक्का। आप तो इनमें से किसी पर नहीं जा सकेंगी!

अचला ने कहा-जो मिल जाये, मैं उसी पर चलूँगी! मगर अब देर से काम नहीं चलेगा। जो मिले वही सवारी ले आओ!

रघुवीर ने और कुछ न कहा-गया और जल्दी ही एक डोली लेकर आया, और अपनी लाठी में लोटा-कम्बल लटका कर, उसे कन्धे पर रख कर वीर की भाँति चलने को तैयार हो गया। घर की निगरानी का भार नौकर-प्यादों पर सौंपकर, जाने कौन अजानी मझोली बस्ती की ओर जब वह सिर्फ सुरेश के लिये ही चल पड़ी, तो उसे खुद ही यह अनोखी-सी बात लगने लगी। जी में आने लगा-किसे पता था कि इस अजीब दुनिया में कभी ऐसी घटना भी घटेगी!

गर्दन-भरी कच्ची सड़क एक थी, पर कभी तो वह दूर तक फैले बैहार में खो जाती, और कभी सँकरे गाँवों में गायब हो जाती। लोगों की सुविधा और इच्छा के अनुसार कभी वह नदी-किनारे से, कभी घर के सामने से होकर दूसरे गाँव की ओर बढ़ गयी थी। शुरू में कुछ दूर तक, कभी-कभी उसे कौतूहल हो उठता था। बाँसों पर एक लाश को बगल से ले जाते देख, छूत के डर से वह सिकुड़-सी गयी थी। ऐसी इच्छा हो आयी थी कि पूछे-किस रोग से मरा, कितनी उम्र थी इसकी, घर में कौन-कौन हैं? लेकिन राह की दूरी बढ़ती गयी, बेला चुकने लगी; और पास तथा दूर के गाँवों से जितना ही रोना-धोना उसे सुनायी देने लगा; उतना ही उसका मन जाने किस एक जड़ता से झीम उठने लगा। बड़ी देर से उसे प्यास लग रही थी। नदी के किनारे चलते-चलते एक घाट के पास डोली रोककर वह उतरी, और हाथ-मुँह धोकर पानी पीने के लिये उधर बढ़ी, कि नजर आया-दो-एक अध-जले शव थोड़ी ही दूर पर पडे़ हैं। उनके घिनौनेपन ने उसके मन पर कोई चोट ही न की। उसने सहज ही वहाँ पानी पिया, और फिर धीरे-धीरे डोली पर जा बैठी। कुछ ही पहले वह यह सोच भी नहीं सकती थी, कि उसके लिये किसी भी हालत में यह सम्भव है।

इसके बाद के गाँव प्रायः खाली पड़े थे। किसी-किसी बड़े ही दुस्साहसी आदमी के सिवा, जिससे जिधर बना भाग गया था। कहीं कोई शब्द नहीं, सुगबुगाहट नहीं-सभी द्वार बन्द, सब घर मैले-कुचैले-लग रहा था, मानो ये झोंपड़े भी मौत को अनिवार्य मानकर, आँखें बन्द किये उसका इन्तजार कर रहे हैं। मौत से रौंदे गये इन गाँवों से गुजरते हुए, रघुवीर तथा डोली ढोने वालों की दबी आवाज और भीत पैरों की आहट हर पल अचला को मुसीबत की सूचना देने लगी; लेकिन उसे डर ही न लगा-जैसे कब से तो इससे उसका परिचय है-ऐसा ही निर्विकार हो गया उसका सारा अन्तर।

पूरी राह तै करके जब वे लोग मझोली पहुँचे, तो बेला डूब चुकी थी। अचला का ख्याल था-वहाँ पहुँचते ही उन सबकी राह की तकलीफ जाती रहेगी। गाँव के एहसानमन्द लोग दौड़कर उनका स्वागत करेंगे, और डॉक्टर साहब के पास लिवा जायेंगे। वहाँ रोगी और उनके अपने-सगों के आवागमन, दवा-दारू बाँटने का जो समारोह चल रहा होगा, उसमें उसका स्थान कहाँ होगा-इसकी तस्वीर उसने मन-ही-मन बना ली थी। लेकिन देखा-उसकी कल्पना निरी कल्पना ही थी, उससे वास्तव का कोई मेल न था। बल्कि जो नज्जारा वह तमाम रास्ता देखती आयी, यहाँ भी वही। यहाँ भी रास्ते पर न आदमी न आदमजाद, घर-घर के द्वार बन्द-कहाँ-किस टोले में सुरेश का डेरा है, खोजकर निकालना ही मुश्किल।

गाँव में आज भी रोजाना पैठ लगती थी, और वह शाम-शाम तक चलती थी; पर इधर समय-काल ठीक न होने से, तीसरे पहर ही बिसात उठाकर लोग जा चुके थे। हाट की निशानियाँ जरूर थीं।

बड़ी छान-बीन के बाद रघुवीर ने एक दुकान का पता लगाया। दुकानदार अपनी दुकान बढ़ा रहा था। उसने कहा-मेरे बाल-बच्चे सब दूसरी जगह चले गये हैं। महज हम दोनों प्राणी, दुकान के मोह से यहाँ रह गये हैं। उसने सुरेश के बारे में इतनी-सी खबर दी, कि डॉक्टर साहब नन्द पाण्डे के नीम-तले वाले घर में अब तक थे जरूर, पर अब हैं कि महमूदपुर चले गये, पता नहीं।

-महमूदपुर कहाँ है?

-यहाँ से सीधे दो कोस दक्खिन!

-नन्द पाण्डे का घर किधर है?

वह बूढ़ा बाहर निकला। उँगली से एक बड़े-से नीम के पेड़ को दिखाते हुए कहा-बस वहीं जाइए, मिल जायेगा!

थोड़ी ही देर में जब कहारों ने ले जाकर डोली को नीम के नीचे रक्खा, तो सूरज डूब चुका था। मकान बड़ा-सा था। पीछे की ओर दो-एक पक्के-से कमरे दिखाई पड़ रहे थे, लेकिन ज्यादातर खपरैल। सामने दीवार नहीं-खूब खुला। घर वाला गरीब नहीं लग रहा था। पर एक भी आदमी बाहर नहीं निकला। आँगन में बँधे सिर्फ एक टट्टू ने भूख-प्यास से व्याकुल हिनहिनाकर उनका स्वागत किया।

सदर दरवाजा खुला था। हिम्मत करके रघुवीर ने अन्दर झाँका। देखा-बरामदे पर एक चारपाई पर सुरेश पड़ा है, और पास ही एक खम्बे से टिकी, एक बहुत ही बूढ़ी औरत बैठी ऊँघ रही है।

-बाबूजी!

सुरेश ने आँखें खोलकर देखा, और केहुनी के सहारे सिर उठाकर जरा देर गौर करके कहा-कौन? रघुवीर?

सलाम करके रघुवीर उसके सामने जाकर खड़ा हुआ, पर मालिक की लाल आँखें देखकर उसकी जीभ से बात न निकली।

-तुम यहाँ?

रघुवीर ने फिर सलाम बजाया, और बाहर की तरफ इशारा करते हुए कहा-जी, माँजी…

अबकी अचरज से सुरेश ने उठकर बैठते हुए पूछा-माँजी ने तुझे भेजा है?

रघुवीर ने गर्दन हिलाकर कहा-जी नहीं, वे खुद आयी हैं!

सुनकर सुरेश उसकी ओर कुछ इस तरह से ताकता रहा, मानो समझने में उसे देर हो रही है। उसके बाद आँख बन्द करके फिर लेट गया, कुछ नहीं बोला।

अचला जब आकर खाट पर उसके बगल में ही बैठ गयी, तो कुछ देर उसने उसी तरह ताका और मौन हो रहा, शिष्टाचार के अनुसार ‘आओ’ तक नहीं कह सका। बचपन से बेहद लाड़-प्यार में पलने के कारण वह आवेश और ख्याल पर ही चलता रहा है, उन्हें संयत करने का उसने कभी पाठ ही नहीं पढ़ा। शिक्षा जीवन में पहली बार उसे उसी दिन मिली, जिस दिन उसकी हँसी पर लात मारकर महिम कमरे में चला गया। उस दिन क्षण में उसके जी में कैसी उथल-पुथल मच गयी, इसे सिर्फ अन्तर्यामी ने ही जाना; और आज भी सिर्फ उन्हीं ने देखा कि उस शान्त-स्थिर शरीर के अंग-अंग में कितनी बड़ी आँधी बह गयी। उस दिन उसने महिम के आघात को जिस प्रकार चुपचाप सह लिया था, आज भी उसी प्रकार अपने उन्मत्त आवेग से वह चुपचाप जूझता रहा, उसका कोई भी असर चेहरे पर नहीं प्रकट होने दिया।

कहा नहीं जा सकता-ऐसे और कितना समय बीत जाता, लेकिन कहारों के पुकारने से रघुवीर बाहर चला गया-उसी आहट से सुरेश ने आँखें खोलीं, पूछा-तुम्हें मेरी चिट्ठी मिली?

अचला ने नजर झुकाकर ही कहा-नहीं।

सुरेश ने ताज्जुब के साथ कहा-बिना चिट्ठी पाये ही आ गयी? ताज्जुब है! खैर, अच्छा ही हुआ कि भेंट हो गयी। कुछ देर उसके झुके मुखड़े की तरफ देखकर फिर आप-ही-आप बोला-मेरे लिये तुमको बहुत दुःख उठाना पड़ा। और शायद मरते-दम तक इसका असर नहीं जायेगा। सबसे बड़ी भूल जो हुई, वह यह कि तुम महिम को इतना ज्यादा प्यार करती हो, यह मैं भी नहीं समझ सका, शायद तुम भी कभी नहीं समझ पायी! है न?

मगर जब अचला सिर झुकाये चुप ही बैठी रही, तो वह फिर बोला-इसके सिवा मेरा ख्याल है, मनुष्य में मन नाम की कोई स्वतंत्र चीज नहीं होती। जो कुछ भी है, देह-धर्म ही है! प्रेम भी वही है!! मैंने सोचा था-किसी तरह तुम्हारा शरीर पा जाऊँ, तो प्यार भी दुर्लभ न होगा-कौन जाने, कभी सचमुच ही तकदीर प्रसन्न हो जाती-हो सकता था, मैंने सर्वस्व गँवाकर जो कुछ पाना चाहा था, कभी तुम स्वेच्छा से ही वह भीख मुझे देतीं। मगर अब समय नहीं रहा, इन्तजार करने का मुझे मौका नहीं मिला। इतना कहकर बिस्तर पर केहुनी रोपकर उसने अपना सिर उठाया और दीए की मद्धिम रोशनी में आँखों की निगाह को तेज करके, अचला के झुके चेहरे की ओर देखने लगा।

एक की इस एकाग्र दृष्टि ने दूसरी की झुकी नजर को खींचा, मगर पल-भर के लिये। अचला ने तुरन्त नजरें झुका लीं। शर्माई-सी धीमे-धीमे कहा-इस इलाके के तो सब लोग भाग गये हैं-तुम्हारा यहाँ काम अगर खत्म हो चुका हो, तो घर या और कहीं चलो; कितनी तो जगह है-डिहरी में अब एक घड़ी भी टिकना दूभर हो रहा है!

इसे मुझसे ज्यादा कौन जानता है!-सुरेश ने एक लम्बी साँस ली, और तकिये पर सिर रखकर लेट गया। कुछ देर चुप रहा, फिर धीरे-धीरे कहने लगा-बड़ी मुश्किल से आज सवेरे दो चिट्ठियाँ लिख पाया-एक तुम्हें और दूसरी महिम को। वह अगर इसी बीच में चला नहीं गया हो, तो जरूर आयेगा। मुझे पूरा विश्वास है! अचला अचरज और भय से चौंक उठी-उन्हें क्यों लिखा?

सुरेश उसी तरह धीरे-धीरे बोला-इस समय मुझे एकमात्र उसी की आवश्यकता है! छुटपन से आज तक जीवन में जाने कितनी गाँठें डाली हैं। और उन्हें खोलने के लिये इसी आदमी की सदा जरूरत पड़ी है। इसीलिये आज भी उसी को बुलाना पड़ा। दुनिया में इतना धीरज तो किसी में नहीं!

अचला के अन्दर उथल-पुथल मच गयी, मगर वह नजर झुकाये, स्थिर बैठी सुनती रही। सुरेश ने कहा-मेरी चिट्ठी में लगभग सब कुछ लिखा है, पढ़ोगी तो पता चलेगा। उस दिन अपनी सारी जायदाद की वसीयत तुम्हें दे चुका हूँ। चाहो तो उसी की बहुत-सी चीजें ले सकती हो। पर मैं समझता हूँ, लेने की जरूरत नहीं। मेरे जीते-जी भी उसका ज्यादा हिस्सा गरीबों को ही मिलता; मेरे मरने के बाद भी जिसमें उन्हीं लोगों को मिले! मेरी किसी भी चीज से तुम अब कोई सम्पर्क न रखना अचला-तुम मुक्त होओ, निर्विघ्न होओ-मेरे हर संस्पर्श से अपने को बिल्कुल अलग कर लो। कोशिश करने पर दुनिया में बहुत दुःख झेले जा सकते हैं-मेरा दिया दुःख भी जिसमें तुम एक दिन सहज ही सह सको!

उसके रंग-ढंग और बातचीत के तौर-तरीके से अचला को कैसा तो डर लग रहा था। इसी अन्तिम बात से तो वह सचमुच ही घबरा गयी-आखिर तुम यह सब क्यों कह रहे हो? उठकर बैठो-ऐसा करो कि हम-तुम शीघ्र ही यहाँ से चल दें!

उसकी आशंका और घबराहट को भाँप कर भी सुरेश ने कोई जवाब नहीं दिया। जो बुढ़िया खम्भे के पास बैठी थी, उसने पूछा-बाबूजी, अब अन्दर चलेंगे कि रोशनी बाहर ला दी जाये-सुरेश ने इसका कोई जवाब नहीं दिया, ऐसा लगा कि अचानक उसे तन्द्रा आ गयी है। अकुलाई अचला अपनी पिछली बात दुहराने जा रही थी, कि सुरेश ने आँखें खोलकर बड़े ही सहज भाव से कहा-तुमसे अभी असली बात ही नहीं बता पाया। अचला, मैं अन्तिम घड़ियाँ गिन रहा हूँ, मेरे जीने की अब कोई उम्मीद नहीं!

जवाब में महज एक अस्फुट आवाज अचला के गले से निकल पड़ी। उसके बाद वह काठ मारी-सी बैठी रह गयी।

सुरेश कहने लगा-मैंने पहले ही वसीयत जरूर कर रक्खी है, पर कोई अगर यह कहे कि मैं जान-सुनकर मर रहा हूँ, तो गलत होगा-उससे मुझे मरने से भी ज्यादा कष्ट होगा! मैंने सावधानी बरतने में कोई कोर-कसर न रक्खी, मगर कोई नतीजा न निकला। तुमसे कभी कोई पूछे तो कहना-दुनिया में और-और लोग जैसे मरते हैं, मेरी भी मौत वैसी ही हुई! कहना-मौत को चूँकि टाल नहीं सके, इसीलिये मर गये, वरना मरने की उनकी इच्छा नहीं थी। जिसमें कोई मुझ पर यह कलंक न लगाये, कि मरने में मेरा कोई हाथ था, मरने में कोई खास बात थी!

अचला कुछ न बोली। बोलने की उसकी शक्ति ही जाती रही थी, यह बात उस धुँधलके में उसका चेहरा देखकर सुरेश समझ नहीं सका। उसने अपने को थोड़ा देर में सम्हाला, और फिर कहने लगा-बिना आये मुझसे रहा नहीं गया, इसीलिये तुमसे बचकर उस रोज मैं सुबह ही चल दिया था। आकर देखा-सारी बस्ती खाली हो गयी है। घर में एक नौकर मर गया है, और उसका संस्कार किये बिना ही सब भागने को तैयार हैं। मैं उन लोगों को तो नहीं रोक सका, पर लाश का किनारा किया जा सका। लौटकर सोचा-मैं भी वापस चला जाऊँ। लेकिन दोपहर को महमूदपुर से एक लड़का रोता-पीटता आया। बोला-मेरी माँ बहुत बीमार है। उसी के आपरेशन में यह बदनसीबी मोल ले बैठा। आपरेशन तो बहुत किया, सावधानी भी कम नहीं रक्खी, मगर बदकिस्मती कहो-इक्के के पहिए से पाँव का अँगूठा छिता गया था-मगर उस पर नजर तब पड़ी, जब मैं हाथ का लहू धोने जा रहा था। झटपट लौटा। जो कुछ करना चाहिए था, सब किया। घर जाने की गंुजाइश होती, तो लौट गया होता; मगर कोई उपाय करते न बना! कल रात बुखार-सा लगा-समझ गया कि यह बुखार क्यों है। सो बड़ी-बड़ी मुसीबत और कोशिश से तुम लोगों को कुछ लिखकर चिट्ठियाँ भेजीं।

अचला आँसू से भर्राई हुई आवाज में बोली-लेकिन अब तो उपाय है अभी, अपनी डोली पर मैं तुमको तुरन्त ले जाऊँगी-अब एक मिनट भी यहाँ नहीं दे सकती!

-और तुम?

-मैं पैदल चलूँगी! मेरी फिक्र तुम छोड़ दो।

-पैदल जाओगी? इतनी दूर?

-पैरों पड़ती हूँ तुम्हारे, आनाकानी न करो-अचला रो पड़ी।

सुरेश पलभर चुप रहा। फिर एक लम्बा निश्वास छोड़ते हुए बोला-खैर, चलो! लेकिन मैं समझता हूँ, जरूरत न थी इसकी।

अचला बाहर निकली। देखा, रघुवीर पेड़ के नीचे चबेना चबा रहा है। बोली-रघुवीर, बाबूजी बहुत बीमार पड़ गये हैं। तुम डोली वालों से कहो-वे जितना माँगेंगे, मैं उससे ज्यादा रुपया उन्हें दूँगी। मगर अब देर नहीं होनी चाहिये!

मालकिन की अकुलाई आवाज से रघुवीर चौंका। बोला-लेकिन ये लोग दो का भार तो नहीं ढो पायेंगे माँजी!

-नहीं-नहीं, दो नहीं, एक! मैं पैदल चलूँगी। मगर अब एक मिनट भी मत रुको! कहाँ हैं वे सब? देखो जरा।

रघुवीर ने कहा-किराये के रुपये लेकर, वे कुछ खाने के लिये दुकान की तरफ गये हैं। बुला लाता हूँ माँजी, तुरन्त-और अपने चबेने को धोती की कोर में बाँधते हुए वह दौड़ पड़ा।

अचला सुरेश के सिरहाने जा बैठी। हाथ से ताप देखकर आशंका से डर गयी वह। मुनिया की माँ मिट्ठी के तेल की ढिबरी रख गयी थी, धुएँ से सारी जगह घुट रही थी। वह ढिबरी को हटाने गयी, कि दवा की एक शीशी पर नजर पड़ी। अचला ने पूछा-यह तुम्हारी दवा है?

सुरेश ने कहा-हाँ, मेरी ही है। कल खुद तैयार की थी। पी नहीं पाया, ले आओ।

अचला को चोट-सी लगी। लेकिन दवा न पीने की वजह पर झगड़ने को जी न चाहा उसे। दवा पिलाकर वह उसी तरह चुपचाप सिराहाने बैठ गयी। बड़ी देर से सुरेश मौन था, मगर चुपचाप वह कितनी बड़ी पीड़ा सह रहा है-यह सोचकर अचला का कलेजा दरकने लगा।

देर हो रही थी, रघुवीर का पता नहीं। बीच-बीच में वह पाँव-दबाये बाहर जाकर, अँधेरे में जहाँ तक नजर जाती, देख लेती। कहीं-किसी का पता नहीं। लेकिन कहीं सुरेश को उसकी इस उद्विग्नता का पता चल जाये, इस डर से भी वह घबरा गयी।

रात बढ़ने लगी। खम्भे के पास मुनिया की माँ की नाक बजने लगी। ऐसे समय भूखे-प्यासे, थके-माँदे रघुवीर ने भग्नदूत की नाईं आकर कहा-कहार लोग तो डोली लेकर कबके चल दिये। कहीं पता न चला!

सब भूलकर अचला विकृत स्वर में बार-बार सवाल करने लगी-कब गये थे? किधर गये? क्यों गये? हम अपना सर्वस दें, तो भी क्या कोई डोली नहीं मिल सकेगी?

रघुवीर ने सिर झुका लिया। वह जानता था कि यह मुसीबत उसी के चलते आयी। इसीलिये वह जी-जान से उनकी पूरी तरह तलाश करके तब लौटा था।

लेकिन और एक आदमी उसी तरह खाट पर चुपचाप पड़ा रहा। उसे कोई परेशानी छू भी नहीं गयी। रघुवीर जब चला गया, तो वह धीरे-धीरे बोला-नाहक परेशान क्यों हो रही हो अचला, कहार मिल भी जाते तो कोई लाभ न होता! यह ठीक है-मेरे लिये यही ठीक है!

अचला बोली नहीं-वह सिर्फ इस अनन्त की ओर जाने वाले के गर्म कपाल पर दायाँ हाथ रखकर बुत-सी बैठी रही।

उसके चारों तरफ जनहीन बस्ती मौन-सी, सन्नाटे में पड़ी थी, बाहर गहरी रात और भी गहरी होती जा रही थी-आँखों में काला आसमान और भी काला हो उठा। उस आसमान की ओर देखकर अचला के जी में यही होने लगा कि इसकी जरूरत क्या थी, क्या थी जरूरत इसकी?

उसके जीवन-कुरुक्षेत्र में इतनी बड़ी जो लड़ाई चल रही है, दुनिया में इसकी क्या आवश्यकता थी? दुनिया की सारी जलन, सारी हीनता, सब यर्थाथ समाप्त करके वह इस रात की तरह आज ही खत्म हो जायेगी? इसके बाद उसका समूचा जीवन क्या कुरुक्षेत्र जैसा श्मशान-सा, युग-युग पड़ा रहेगा! चिता जलने का निशान कभी मिटेगा? दुनिया में यह भी क्या जरूरी है? और सब कुछ मेरे ही साथ?

लेकिन यह कुरुक्षेत्र छिड़ा क्यों? किसने छेड़ा? जो बेचारा आज अपनी सारी सम्पत्ति, तमाम दौलत, सभी सगे-सम्बन्धियों से अलग होकर निरा असहाय-सा मर रहा है-इतना बड़ा विप्लव क्या अकेले उसी ने मचाया? और क्या किसी के मन में लोभ और मोह छिपा नहीं पड़ा था? और किसी ने क्या कहीं-कोई पाप नहीं किया?

लेकिन फिक्र के इस सिलसिले को सहसा तोड़कर वह जरा हिलीडुली। जैसे कोई दोनों हाथों उसका गला घोंट रहा हो। इसी वक्त सुरेश ने भी पानी माँगा। झुककर अचला ने उसके मुँह में पानी डाला, और फिर स्थिर बैठ गयी। उसे न श्रान्ति थी, न क्लान्ति। आँखों से नींद का आभास तक गायब हो गया था। अपनी उन्हीं सूनी आँखों से फिर वह एकटक आसमान की ओर देखने लगी। बड़े जतन से, बहुत दिन पहले उसने महाभारत को समाप्त किया था। आज उसी का अन्तिम सर्वनाश, मानो जादू के करिश्मे-सा उसी में दिखाई देने लगा। कितना लहू बह रहा है वहाँ, कितने अजाने लोग मार-काट मचा रहे हैं-जाने कितनी हजार चिताएँ जल-बुझ रही हैं-उसके धुएँ से धरती-आकाश मानो ढँक गया है।

कुछ देर के लिये सुरेश को जैसे तंद्रा आ गयी थी, वह निश्चेष्ट पड़ा था। लेकिन अचला को इसका भी होश न था कि इस तरह कितना समय कटा, कैसे रात सवेरे की ओर बढ़ने लगी। उसकी आँखों से आँसू जारी थे, शिथिल दोनों हाथ सुरेश के तकिये पर थे, वह हृदय से कह रही थी-हे ईश्वर! मैंने बहुत-बहुत दुःख, बहुत-बहुत पीड़ा उठायी; मेरी सारी पीड़ा, सारे दुःख के बदले, आज तुम इसे क्षमा करके अपनी गोद में उठा लो! मेरे माँ नहीं, बाप नहीं, भाई नहीं-इतना बड़ा कलंक माथे-उठाकर मेरे लिये खड़ी होने की कोई जगह नहीं। तुम तो जानते हो, मैंने कितना झेला है-मुझे अब जीने मत दो, प्रभो! मुझे भी अपने पास खींच लो!

इन बातों को उसने कितनी बार, कितने प्रकार से दुहराया, इसका ठिकाना नहीं। उसके आँसुओं की भी कोई हद न रही।

-माँजी!

अभी-अभी सवेरा हुआ। अचला ने चौंककर देखा-रघुवीर मानो किसी के अन्दर जाने के इन्तजार में दरवाजा खोले खड़ा है।

क्या है रघुवीर?-यह कहते ही जिससे अचला की नजर मिल गयी, वह महिम था। वह एक बार काँप गयी और नजर झुका ली। लमहे के लिये दरवाजे पर महिम का कदम ठिठक गया। उसे उम्मीद न थी, कि यहाँ इस तरह फिर से उससे भेंट हो जायेगी। लेकिन वह धीरे-धीरे करीब आकर खड़ा हुआ। धीमे से पूछा-सुरेश की तबीयत अब कैसी है?

अचला ने सिर नहीं उठाया, बोली नहीं, सिर्फ सिर हिलाकर मानो उसने यह जताना चाहा कि वह कुछ भी नहीं जानती।

मिनट-भर स्थिर रहकर सुरेश के कपाल पर महिम ने जैसे ही हाथ रक्खा, उसने आँखें खोलीं। उन बुझी-सी लाल आँखों को देखकर महिम के मुँह से बात न फूटी। जरा देर में बोला-कैसे हो सुरेश?

-ठीक नहीं-मैं चला! मैं जानता था, तुम आओगे-मेरे सामने बैठो।

महिम उसके पैताने बैठा। बोला-डिहरी में डॉक्टर है, किसी तरह मेरे इक्के से…

सुरेश ने सिर हिलाकर कहा-ऊँहूँ-खींचा-तानी मत करो, मजूरी नहीं पोसायेगी। मुझे फनपबासल जाने दो!

-लेकिन अभी तो…

हाँ, अभी होश है! मगर कभी-कभी विस्मृति हो रही है। मेरा जीवन गरीबों के काम नहीं आ सका, लेकिन मेरी जायदाद जिसमें गरीबों के काम आये महिम! इसीलिये तुम्हें तकलीफ देकर इतनी दूर बुलाया है; वरना मरते वक्त माफी माँगकर कविता करने की अपनी ख्वाहिश नहीं!

महिम चुप रहा। सुरेश ने कहा-वह सब मैं यकीन भी नहीं करता, चाहता भी नहीं! क्षमा का लोभ मुझे तनिक नहीं है। खैर, एक वसीयत है। अचला को मैंने कुछ नहीं दिया है-उसका और अपमान करने के लिये मेरा हाथ नहीं उठा। लेकिन जरूरी समझो, तो कुछ देना!

महिम व्याकुल हो उठा-इसमें मुझे क्यों लपेट रहे हो सुरेश?

सुरेश ने कहा-महज इसलिये कि तुम्हें लपेटा नहीं जा सकता! जिसे लोभ नहीं, जिसे न्याय-अन्याय का विचार-एकाएक नजर उठाकर बोला, तुम तमाम रात बैठी रहीं अचला-जाओ, मुँह-हाथ धो लो! मुनिया की माँ सब बता देगी…

अचला चली गयी तो सुरेश ने कहा-मुझे सिर्फ एक बात का बड़ा दुःख रहा! अचला तुम्हें कितना प्यार करती है-इसे मैंने भी नहीं समझा, तुमने भी नहीं-खुद उसने भी नहीं समझा! तुम्हारी गरीबी से ऐसा गड़बड़घोटाला हो गया कि-खैर! इतनी सुन्दर चीज को मैंने मिट्टी कर दिया-न खुद पा सका और न दूसरे को पाने दिया!! फूफी को देखना भाई!-उन्हें बड़ा शोक होगा।

मुनिया की माँ दवा की शीशी लेकर आयी, कि वह ऊब से बोल उठा-न-न, दवा अब नहीं! पानी दो। मैंने एक नाटक लिखना शुरू किया था, महिम-दराज में है-बने तो पढ़ना!

महिम उसकी तरफ ताक नहीं पा रहा था-सिर नीचा किये सुन रहा था। सिर उठाकर उसने कुछ कहना चाहा, कि बाधा देकर सुरेश बोल उठा, बस भई, जरा सोने दो! खाने-पीने का सब सामान है, मगर वह तो तुम लोगों को अच्छा नहीं लगेगा। कहकर उसने आँखें बन्द कर लीं।

महिम जरा देर चुप रहा। उसके बाद बोला-मेरा एक अन्तिम अनुरोध मानोगे सुरेश?

-क्या?

-तुमने कभी भगवान को नहीं सोचा, उनकी बात…

वह मुझे ठीक नहीं लगता-कहकर मुँह बिगाड़कर सुरेश ने करवट बदली। महिम ने जी-जान से एक उमड़ते हुए निश्वास को रोका, और चुप हो रहा। और शायद सदा के लिये चुप हो रहा।

(43)

रामबाबू घर पर नहीं थे। दूसरे दिन बक्सर से आने पर उन्हें महिम की चिट्ठी मिली, और उन्होंने पलभर की भी देर न की-तमाम रास्ते घोड़े को भगाते हुए अधमरा-सा बनाकर जब मझोली पहुँचे, तो बेला डूब रही थी। दुकानदार ने उनको दरोगा समझा, और खुद रास्ता दिखाते हुए नन्दपाण्डे के नीम के नीचे ले गया, और इक्के से उतरते वक्त बाअदब घोड़े की लगाम थामे खड़ा हुआ। इसी से रामबाबू को पता चला कि अचला भी आयी है। सामने का दरवाजा खुला ही था। अन्दर कदम रखते ही कुछ भी समझना बाकी न रहा। दो घण्टे हुए, सुरेश चल बसा। खाट पर उसकी लाश ढँकी पड़ी थी, और कुछ ही दूर पर, उसके पैरों के पास अचला चुप बैठी थी।

बूढ़े से यह दृश्य देखा न गया। वे चीखकर रो पड़े। अचला ने एक बार नजर उठाकर देख-भर लिया, और फिर उसी तरह सिर झुकाकर बैठ गयी। यह चीख मानो महज उसके कानों तक गयी, मर्म तक न पहुँची।

महिम अन्दर लकड़ी की तलाश कर रहा था, रोना सुनकर बाहर निकला। बोला-थोड़ी देर हुई, सुरेश हमें छोड़ गया! आप आ गये, अच्छा ही हुआ; वरना अकेले मुझे बड़ी असुविधा होती!

रामबाबू चुपचाप आँसू पोंछने लगे। वे सोचकर कुछ ठीक ही नहीं कर पा रहे थे कि करें, क्या कहें; कैसे उस स्त्री के सामने इस निष्ठुर काम में मदद पहुँचाएँ।

महिम ने कहा-नदी दूर नहीं है। थोड़ी-बहुत लकड़ी रघुवीर ले गया है, थोड़ी और मिल गयी है। इसे भी भेजकर हम तीन जने लाश को ले चल सकेंगे। गाँव में आदमी नहीं हैं, होगा भी तो कोई निकलेगा नहीं!

रामबाबू यह जानते थे। अचला से बचाकर उन्होंने चुपके से पूछा-हम दो जने-और?

महिम ने कहा-रघुवीर भी मदद कर सकता है।

सुनकर बूढ़े ने व्यस्त होकर कहा-न-न, यह हर्गिज न होने दूँगा मैं! ब्राह्मण की लाश, और किसी को न छूने दूँगा। नदी जब पास ही है, तो जैसे भी हो, हम दोनों को ले चलना पड़ेगा!

खैर, वही होगा!-कहकर महिम फिर लकड़ी की जुगत में जुट गया। रामबाबू बरामदे के एक ओर, खूँटी से टिककर चुप बैठे रहे।

उम्र वाले आदमी, अपने लम्बे जीवन में मौत उन्होंने बहुत देखीं, बहुत गहरे शोक के बावजूद उन्हें धीरे-धीरे आगे बढ़ना पड़ा है। दुःसह दुःखों के वे करुण सुर, एक-एक करके उनकी हृदय-वीणा के तारों में बँध गये हैं; आज की यह घटना उन तारों पर चोट करके लगातार बेसुरी बजने लगी। कभी ‘बडे़ चाचा’ सम्बोधन करती हुई यही सुरमा उनकी गोदी में पछाड़ खा गिरी थी-इसको वे भूले नहीं थे। आज भी उनका पितृ-स्नेह उसी लोभ से भीतर-भीतर घुमड़ने लगा। उसे क्या दिलासा दें-मालूम नहीं, उसे भरोसा देने लायक संसार में है क्या-यह भी नहीं जानते; फिर भी उनका शोकाकुल हृदय मानो यही कहना चाहता रहा, कि एक बार उसे अपने कलेजे से लगाकर कहें-डर कैसा बिटिया, मैं तो जिन्दा ही हूँ!

लेकिन यह सुर बजा कहाँ? उनकी प्यास बुझाने के लिये वह आगे बढ़ी कहाँ! सुरमा तो वैसे ही चुप बनी रही, एकान्त आत्मीय के वियोग से अपने को अलग किये रही।

दुःख में, विपदा में इनकी अनेक अनबुझ वेदना, मूक मानसिक पीड़ा के पास से उन्हें चलना पड़ा है, छिपे रहस्य का इशारा कभी-कभी उन्हें कचोट दे गया है, मगर उन्होंने कभी अपने को दुखने नहीं दिया-स्नेह के आवरण से सभी आशंकाओं को ढाँककर बाहर के आकाश को मेघ से परे निर्मल ही रक्खा है उन्होंने। लेकिन अभी-अभी विधवा बना अचला के इस अनचीन्हे, कठोर धीरज ने, इतने दिनों से उनके होंठ में छिपे स्नेह को उधार कर, कलुष के धुएँ से भरना शुरू कर दिया।

सूर्य अस्त हो चुका। उधर का काम लगभग चुका कर महिम ने कहा-रामबाबू, अब तो इसे ले ही चलना चाहिए! अचला की ओर मुड़कर बोला-रोशनी जला दी है। तुम मुनिया की माँ के पास बैठी रहो। हमें लौटने में ज्यादा देर न होगी।

अचला कुछ न बोली-रामबाबू अपने को जब्त करके उठ खड़े हुए थे। उन्होंने सिर हिलाया। अचला के झुके मुखड़े की ओर देखकर, रुँधा गला साफ करके भर्राई हुई आवाज में बोले-कहते हुए कलेजा टूक-टूक हुआ जाता है बिटिया, लेकिन स्त्री का अन्तिम कर्त्तव्य तो तुम्हें करना ही पड़ेगा! मुखाग्नि तो…. कहते-कहते वे रो पड़े।

अचला का फीका चेहरा, उससे भी ज्यादा सूखी उसकी आँखें बूढ़े पर जरा देर गड़ी रहीं, उसके बाद वह धीमे स्वर से बोली-मुखाग्नि की जरूरत हो, तो मैं कर सकती हूँ। हिन्दू-धर्म में वास्तव में कोई फल होता हो, तो उसे मैं बेकार नहीं करना चाहती। मगर मैं उनकी स्त्री नहीं हूँ!

जैसे गाज गिरी हो-रामबाबू अवाक् होकर देखते हुए धीरे-धीरे बोले-तुम सुरेश की स्त्री नहीं हो?

अचला ने वैसे ही अविचलित स्वर में कहा-नहीं, वे मेरे पति नहीं थे।

एक पल में रामबाबू को सारी घटनाएँ याद आ गयीं। जब से ये उनके घर आये थे, तब से उस दिन की मूर्छा तक, सारी घटनाएँ बिजली की नाईं। उनके मन में कौंध गयीं, और सन्देह की कोई गुंजाइश ही नहीं रही कहीं आखिर कौन है यह, किसकी लड़की, कौन जात-शायद हो कि वेश्या हो! इसे मैंने बेटी कहा, इसका छुआ खाया, इसका पकाया अन्न अपने देवता तक को भोग दिया-सबकुछ याद करके घृणा से उनका सर्वांग टनटना उठा-और जिस स्नेह, जिस श्रद्धा, जिस माधुर्य और करुणा ने उन्हें इतने दिनों तक सींच कर रखा था-रेगिस्तान में पानी की बूँद जैसा वह गायब हो गया, पता भी न चला।

केवल वही नहीं, महिम भी हक्का-बक्का-सा खड़ा था। उसने चकित होकर कहा-जब ऐसा होना ही नहीं है, तो चलिये, हम लोग ले चलें!

चलिये-कहकर रामबाबू जैसे सपने में चल रहे हों, आगे बढ़े। उनकी अपनी दुर्घटना के मुकाबले, सारी दुर्घटनाएँ जैसे छाया-सी फीकी पड़ गयी थीं। उनके दोनों कानों में केवल यही गूँजने लगा-जात गयी, धर्म गया, मनुष्य-जीवन ही जैसे बेकार, बेकाम हो गया।

सुरेश का दाह-कार्य जैसे-तैसे कर देने में ज्यादा समय न लगा। शुरू से आखिर तक रामबाबू ने एक भी शब्द न कहा, और लौटते ही इक्का जोतने का हुक्म दिया।

महिम ने पूछा-आप क्यों जा रहे हैं?

रामबाबू ने कहा-हाँ! मुझे सुबह की गाड़ी से काशी जाना होगा। अभी न निकल पडूँ, तो समय पर पहुँच नहीं सकूँगा!

उनके मन की बात महिम से छिपी न रही, और वह ताड़ गया कि ये प्रायश्चित के लिये ही काशी जा रहे हैं। सो बड़े संकोच से कहा-मैं परदेशी हूँ। इधर का कुछ भी नहीं जानता। कृपा करके अगर इनके चलने का कोई इन्तजाम-बात पूरी न हो पाई। अचला को साथ लेने के प्रस्ताव से बूढ़े आग हो उठे। बोले-कृपा? आप क्या पागल हो गये, महिम बाबू?

महिम ने उनका प्रतिवाद नहीं किया। डरते हुए विनती करके कहा-दो दिन से शायद इन्हें भोजन भी नहीं नसीब हुआ! इस मौत की नगरी में इन्हें बेसहारे छोड़ जाना…

उसे यह बात भी पूरी करने का मौका न मिला। आचारी ब्राह्मण के जन्मजात संस्कार को ठेस लगी थी। वे प्रतिहिंसा से बेरहम बन गये थे; इसलिये तीखे व्यंग्य से बोल उठे-ओ, मैं तो भूल ही गया था कि आप भी ब्राह्म हैं-खैर, आप जितने भी बड़े ब्रह्मज्ञानी क्यों ने हों, मेरे सर्वनाश के परिणाम को समझ पाते, तो इस कुलटा के लिये दया-माया की बात जबान पर भी नहीं लाते! यह कहकर वे गाड़ी पर बैठ गये और बोले-खैर, ब्रह्मज्ञान से मतलब नहीं, जान बचानी हो तो सवार हो जाइए, जगह मिलेगी!

महिम ने चुपचाप उन्हें नमस्कार किया। कितना बड़ा सर्वनाश होगा-उसने इस पर विवाद नहीं किया, और जान बचाने के आमंत्रण को भी स्वीकार नहीं किया। उनके चले जाने के बाद, उसकी छाती टूक-टूक होकर एक निश्वास-भर निकला।

कितना बड़ा सर्वनाश! बेशक!

अन्दर बैठी, गाड़ी की आवाज सुनकर अचला ने भी इसे महसूस किया। रामबाबू अन्दर क्यों नहीं आये, क्यों बगैर कुछ बोले चले गये-यह स्पष्ट था।

सुरेश की मौत ने बेहद फिक्र खड़ीे करके जो एक ओट तैयार की थी, वह न रही। महिम उसके सामने, बिल्कुल करीब आकर खड़ा हुआ, लेकिन उसका मन हर्गिज कुछ डोलने को तैयार न हुआ। उसे अपने लिये शर्म महसूस करने में भी तकलीफ-सी होने लगी।

महिम ने देखा-डिबरी को सामने रखकर अचला चुप बैठी है। पूछा, अब तुम क्या करोगी?

मैं?-कहकर उसकी ओर ताकती हुई अचला जाने कितना कुछ सोचने लगी। अन्त में कहा-मैं तो कुछ भी सोच नहीं पाती। तुम जो हुक्म दोगे, वही करूँगी!

इस अप्रत्याशित वाक्य और व्यवहार से महिम विस्मित हुआ-शंकित हुआ। अचला ने इस तरह से कभी ताका नहीं था। यह निगाह जितनी सीधी थी, उतनी ही स्वच्छ। इससे उसके कलेजे के अन्दर दूर तक देखा गया। वहाँ भय नहीं था, चिन्ता नहीं थी, कामना नहीं थी-जहाँ तक देखा जा सकता था, भविष्य का आसमान धू-धू जल रहा था। उसमें न तो रंग था, न मूर्ति, न गति न प्रकृति-बिल्कुल निर्विकार, बिल्कुल सूना।

सतायी गयी, अपमानित नारी के हृदय के इस चरम वैराग्य को वह पहचान नहीं सका। एक के अभाव ने दूसरे के हृदय को ऐसा सूना कर दिया है-यह सोचकर उसका मन कड़वाहट से भर गया। लेकिन अपने दुःखों से दुनिया के दुःख का बोझ़ा उसने कभी बढ़ाना नहीं चाहा, इसीलिये अपने को अपने में ही समेटे रहने की उसे आदत रही है। गले तक उमड़ी हुई कड़वाहट कहीं उसकी बोली में न जाहिर हो पड़े, इस डर से दूसरी ओर नजर टिकाये वह कुछ देर चुप रहा। उसके बाद सहज स्वर में बोला-मैं तुम्हें हुक्म क्यों करूँ अचला, और तुम्हीं उसे क्यों मानोगी?

लेकिन तुम्हारे सिवा और तो कोई नहीं है-कोई मुझसे बात भी नहीं करेगा!-अचला उसी तरह महिम को ताकती रही।

महिम ने कहा-मुझसे यही उम्मीद करती हो तुम?

प्रश्न शायद अचला के कानों पहुँचा नहीं। वह अपनी ही बात का छोर बढ़ाती कहने लगी-तुम्हें खोने के बाद से मैं कितना तो कहती रही भगवान से-हे भगवान, तुम मुझे उठा लो! उन्होंने भी न सुना-तुम भी नहीं सुन रहे हो! क्या करूँ मैं?

महिम कोई जवाब न देकर बाहर चला गया। किन्तु उसकी निराशा-भरी आवाज ने, उसकी निरभिमान, निःसंकोच, निर्लज्ज उक्ति ने उसे फिर दुविधा में डाल दिया। कान में वही आवाज लिये, बाहर टहलते हुए वह यही सोचने लगा-क्या किया जाये? अपने भार से वह खुद ही झुक रहा था, तिस पर अपनी सुकृति और दुष्कृति का भार उसी पर लादकर सुरेश जाने कहाँ खिसक पड़ा-इस बोझ को वह कहाँ और कैसे उतारे!

बड़ी-बड़ी खोज और पूछ के बाद रघुवीर खबर ले आया-कि डिहरी से तीनेक कोस के फासले पर कल हाट लगेगी। कोशिश करें तो वहाँ बैलगाड़ी मिल सकती है।

महिम को झट उठते देख उसने संकोच के साथ कहा-मैं फौरन जा सकता हूँ, पर इस गाँव तक कोई आने को राजी नहीं होगा। माँ जी अगर इतनी दूर…

अचला ने कहा-चलो! लेकिन कदम बढ़ाते ही वह लड़खड़ा कर गिर रही थी। महिम ने पकड़कर सम्भाल लिया। लेकिन लज्जा और वितृष्णा से महिम की सारी देह सिकुड़-सी जाने लगी। अपना हाथ हटाते हुए बोला-नहीं तो आज रहने दो!

-क्यों? तुमने तो कहा-यहाँ रहना ठीक नहीं, और डिहरी से गाड़ी मँगाने में कल का दिन भी निकल जायेगा।

-मगर तुम बेहद कमजोर जो हो…

अचला ने लेकिन उसका हाथ नहीं छोड़ा था, नहीं छोड़ा। वह सिर हिलाकर बोली-नहीं, चलो! मैं अब कमजोर नहीं हूँ। तुम्हारा हाथ थामे, जहाँ तक कहो-चल सकती हूँ!

चलो!-रघुवीर को आगे करके महिम चल पड़ा। उसाँस लेकर वह मन-ही-मन कहने लगा-इसका अन्त कहाँ होगा? कब खत्म होगा यह सफर और कैसे?

(44)

डिहरी पहुँचकर अचला ने वह लिफाफा निकाला, कहा-यह वसीयत है। महिम ने हाथ बढ़ाकर उसे लिया। उसे याद आया, इसमें सुरेश की चिट्ठी है। उस पत्र में कौन-सा अनसोचा ब्योरा लिखा है, किस दुर्गम रहस्य की राह का पता है-यह जानने के लिये तुरन्त उसके मन में आँधी-सी उठी। लेकिन उस ख्वाहिश को दबाकर लिफाफे को उसने जेब में डाला।

अचला ने पूछा-तुम क्या आज ही डिहरी से चले जाओगे?

-हाँ, यहाँ रहने में अब मुझे सुविधा न होगी।

-और मुझे क्या सदा यहीं रहना होगा?

महिम जरा चुप रहा, फिर पूछा-तुम क्या और कहीं जाना चाहती हो?

अचला बोली-कल से लगातार मैं यही सोच रही हूँ। मैंने सुना है, विलायत में मुझ-जैसी अभागिनों के लिये आश्रम है-वहाँ क्या होता है, मालूम नहीं; लेकिन अपने यहाँ क्या वैसा कुछ-कहते-कहते उसकी बड़ी-बड़ी आँखें आँसू से टलमला उठीं। उसकी आँखों में आँसू यहीं पहली बार दिखाई दिया।

महिम के कलेजे में करुणा का तीर चुभा, पर वह धीरे-धीरे बोला-पता नहीं; मगर मैं खोज-पड़ताल कर सकता हूँ।

-तुम्हें कभी चिट्ठी लिखूँ तो जवाब नहीं दोगे?

-जरूरत हो तो दे सकता हूँ। लेकिन मुझे सामान समेटकर निकलने में देर हो जायेगी, मैं चलता हूँ!

अचला ने अपने शेष दुःख को आज मन-ही-मन स्वामी के चरणों में चढ़ाते हुए, वहीं जमीन पर माथा टेककर प्रणाम किया, और उनके चले जाने के बाद चौखट पकड़े चुप खड़ी रही।

महिम सोचता जा रहा था-रामबाबू के यहाँ अब एक पल भी ठहरना ठीक नहीं, और शहर में भी और कहीं एक दिन के लिये भी आश्रय लेना असम्भव है। चाहे जैसी भी हो, यहाँ से आज चल ही देना पड़ेगा। फिर अपने लिये उसे एक ऐसी एकान्त जगह की जरूरत थी, जहाँ दो घड़ी स्थिर बैठकर वह न केवल उस लिफाफे को खोलकर पढ़े, बल्कि आँखें खोलकर अपने-आपको देखने का अवसर भी पा सके।

अचला को प्यार करने का इतिहास धीरे-धीरे धुँधला हो चुका था; लेकिन इसी लड़की के लिये उसके जीवन में जो गुजर गया, वह जैसा प्रलय-सा असीम है, वैसा ही उपमाविहीन। फिर सहने की निःशेष शक्ति भी विधाता ने उसे नहीं दी! उसका घर बाहर-भीतर से जला बैठा-तो वह वहीं खड़ा-खड़ा राख हो गया-उसकी एक भी चिनगी छिटक नहीं पायी। लेकिन आज उसकी शक्ति की पुकार केवल सहने के लिये नहीं हुई है-सामंजस्य के लिये हुई है। आज जमा-खर्च की तफसील का लेखा लगाये बिना नहीं चलने का। कोई एकान्त जगह आज उसे जरूर चाहिए।

डेरे पहुँचकर जल्दी-जल्दी उसने सामान सहेजा। पाँच बजे की गाड़ी में घण्टेभर की देर थी। रामबाबू को लौटने में देर होगी, क्योंकि वे वास्तव में प्रायश्चित के लिये ही काशी गये हैं, और कह गये हैं-प्रायश्चित किये बिना पानी तक न लेंगे। लिहाजा उनसे मिलकर जाना मुमकिन नहीं। सो रुखसत होने वाले फर्ज को एक खत से अदा करने के ख्याल से, वह कागज कलम लेकर बैठा। दो-एक पंक्तियाँ लिखने के बाद, उनके गुस्से से निकलने वाले व्यंग्य-वाणों की याद आने लगी। और उसी के साथ-साथ एक जने के आँसू-रुँधे कण्ठ की कातर विनती भी उसके कानों तक पहुँची। तन्द्रा की हालत में पीड़ा जैसी उसकी चेतना को पूर्णतया जगाये न रखकर भी उसने जगाये रक्खा-सोने नहीं दिया। रामबाबू की बातें मानो धक्का देकर उसे चौंका गयीं।

इस बूढ़े आदमी से उसका परिचय ज्यादा दिनों का नहीं; लेकिन इनकी दया, इनके दान, इनकी भलमनसाहत, निश्छल भगवद्भक्ति के किस्से बहुत सुन रखे थे-इन बातों ने अचानक मानो उसकी आँखों के आगे, उनकी एक नयी दिशा दिखा दी।

इन भलेमानस ने अचला को बेटी कहकर सम्बोधित किया था। इसके सिवा दूसरे गोत्र की लड़की के हाथ का अन्न उन्होंने नहीं खाया-बातों के सिलसिले में उन्होंने महिम को यह भी बताया था; लिहाजा महिम के लिये यह अनुमान करना कठिन नहीं था कि रामबाबू का सर्वनाश किधर से आया। लेकिन वह मन-ही-मन यही कहने लगा-कि अचला के अपराध का विचार न होगा, बाद में किया जायेगा; पर इस आचार-परायण ब्राह्मण का यह धर्म कौन-सा है, जो एक मामूली-सी लड़की के धोखे से वह तुरन्त धूल में मिल गया? जो धर्म अत्याचारी की ठोकर से आप अपने को और अपनी शक्ति को तैयार रखना पड़ता है-वह धर्म आखिर कैसा धर्म है, और मनुष्य जीवन में उसकी उपयोगिता क्या है-जिस धर्म ने स्नेह की मर्यादा नहीं रखने दी, एक असहाय नारी को मौत के मुँह में छोड़कर चले आने में जरा भी हिचक नहीं होने दी, चोट खाकर जिस धर्म ने इतने बड़े स्नेहशील बूढ़े को भी प्रतिहिंसा से ऐसा निर्दयी बना दिया-वह कैसा धर्म है? और जिसने उस धर्म को कबूल किया, वह कौन-से सत्य को लिये चल रहा है? जो धर्म है, वह तो चमड़े की नाईं आघात सहने के लिये ही है। वही तो उसकी अन्तिम परीक्षा है!

उसे सहसा लगा-तो क्या मेरा इस तरह भाग आना भी-मगर इस चिन्ता को भी उसने उसी तरह जबर्दस्ती हटाकर कलम को उठा लिया, और मुख्तसर में चिट्ठी को खत्म करके स्टेशन की तरफ चल पड़ा।

गाड़ी के आने पर डिब्बे के दरवाजे को खोलकर महिम ने अन्दर जाना चाहा, उसी में से एक बूढ़े आदमी, एक विधवा स्त्री का हाथ पकड़े नीचे उतरे।

बूढ़े ने कहा-अरे, महिम!

मृणाल ने झुककर प्रणाम किया। कहा-सँझले दादा, चले कहाँ? और दोनों ने हैरान होकर देखा-महिम गाड़ी पर बैठ गया है।

महिम ने कहा-मैं कलकत्ते जा रहा हूँ। ‘सुरेश बाबू के घर ले चलो’-कहने से ही कोई गाड़ी वाला पहुँचा देगा। वहाँ अचला है।

केदार बाबू ठक से खड़े रहे। महिम ने कहा-सुरेश गुजर गया! अचला ने मुझसे किसी आश्रम के बारे में पूछा था मृणाल, लेकिन मैं कोई जवाब न दे सका-तुमसे कोई जवाब वह पा सके शायद!

उसके चेहरे पर नजर रोपकर मृणाल ने कहा-जवाब जरूर पायेगी सँझले दादा! लेकिन अपनी शिक्षा तो तुम्हारे ही पास हुई है। आश्रम की कहो, चाहे आश्रय की कहो-उसका यह कहाँ है, यह मैं बता सकूँगी; लेकिन वह बताना तो तुम्हारा ही होगा! महिम ने कुछ कहा नहीं। अपने को उस तीखी निगाह वाली औरत से बचाने के लिये ही शायद उसने मुँह फेर लिया।

गाड़ी ने सीटी दी। बूढ़े के छूटे दायें हाथ को अपने हाथ में लेकर मृणाल ने कहा-चलिये बाबूजी, हम लोग चलें!

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