कायाकल्प (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद Part 1

कायाकल्प : अध्याय एक

दोपहर का समय था; चारों तरफ अंधेरा था। आकाश में तारे छिटके हुए थे। ऐसा सन्नाटा छाया हुआ था, मानो संसार से जीवन का लोप हो गया हो। हवा भी बंद हो गई थी। सूर्यग्रहण लगा हुआ था। त्रिवेणी के घाट पर यात्रियों की भीड़ थी-ऐसी भीड़, जिसकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती। वे सभी हिंदू , जिनके दिल में श्रद्धा और धर्म का अनुराग था, भारत के हर एक प्रांत से इस महान् अवसर पर त्रिवेणी की पावन धारा में अपने पापों का विसर्जन करने के लिए आ पहुंचे थे, मानो उस अंधेरे में भक्ति और विश्वास ने अधर्म पर छापा मारने के लिए अपनी असंख्य सेना सजाई हो। लोग इतने उत्साह से त्रिवेणी के संकरे घाट की ओर गिरते-पड़ते लपके चले जाते थे कि यदि जल की शीतल धारा की जगह अग्नि का जलता हुआ कुंड होता, तो भी लोग उसमें कूदते हुए जरा भी न झिझकते?

कितने आदमी कुचल गए, कितने डूब गए, कितने खो गए, कितने अपंग हो गए, इसका अनुमान करना कठिन है। धर्म का विकट संग्राम था। एक तो सूर्यग्रहण, उस पर यह असाधारण अद्भुत प्राकृतिक छटा ! सारा दृश्य धार्मिक वृत्तियों को जगाने वाला था। दोपहर को तारों का प्रकाश माया के पर्दे को फाड़कर आत्मा को आलोकित करता हुआ मालूम होता था। वैज्ञानिकों की बात जाने दीजिए, पर जनता में न जाने कितने दिनों से यह विश्वास फैला हुआ था कि तारागण दिन को कहीं किसी सागर में डूब जाते हैं। आज वही तारागण आंखों के सामने चमक रहे थे, फिर भक्ति क्यों न जाग उठे ! सद्वृत्तियां क्यों न आंखें खोल दें!

घंटे भर के बाद फिर प्रकाश होने लगा, तारागण फिर अदृश्य हो गए, सूर्य भगवान की समाधि टूटने लगी।

यात्रीगण अपने-अपने पापों की गठरियां त्रिवेणी में डाल-डालकर जाने लगे। संध्या होते-होते घाट पर सन्नाटा छा गया। हां, कुछ घायल, कुछ अधमरे प्राणी जहां-तहां पड़े कराह रहे थे और ऊंचे कगार से कुछ दूर पर एक नाली में पड़ी तीन-चार साल की एक लड़की चिल्ला-चिल्लाकर रो रही थी।

सेवा-समितियों के युवक, जो अब तक भीड़ संभालने का विफल प्रयत्न कर रहे थे, अब डोलियां कंधों पर ले-लेकर घायलों और भूले-भटकों की खबर लेने आ पहुंचे। सेवा और दया का कितना अनुपम दृश्य था !

सहसा एक युवक के कानों में उस बालिका के रोने की आवाज पड़ी। अपने साथी से बोला-यशोदा, उधर कोई बच्चा रो रहा है।

यशोदानंदन-हां मालूम तो होता है। इन मूर्खों को कोई कैसे समझाए कि यहां बच्चों को लाने का काम नहीं। चलो, देखें।

दोनों ने उधर जाकर देखा, तो एक बालिका नाली में पड़ी रो रही है। गोरा रंग था, भरा हुआ शरीर, बड़ी-बड़ी आंखें, गोरा मुखड़ा, सिर से पांव तक गहनों से लदी हुई। किसी अच्छे घर की लड़की थी। रोते-रोते उसकी आंखें लाल हो गई थीं। इन दोनों युवकों को देखकर डरी और चिल्लाकर रो पड़ी। यशोदा ने उसे गोद में उठा लिया और प्यार करके बोला-बेटी, रो मत, हम तुझे तेरी अम्मां के घर पहुंचा देंगे। तुझी को खोज रहे थे। तेरे बाप का क्या नाम है?

लड़की चुप तो हो गई, पर संशय की दृष्टि से देख-देखकर सिसक रही थी। इस प्रश्न का कोई उत्तर न दे सकी।

यशोदानंदन ने फिर चुमकारकर पूछा-बेटी, तेरा घर कहाँ है?

लड़की ने कोई जवाब न दिया।

यशोदा-अब बताओ महमूद, क्या करें ?

महमूद एक अमीर मुसलमान का लड़का था। यशोदानंदन से उसकी बड़ी दोस्ती थी। उसके साथ यह भी सेवा-समिति में दाखिल हो गया था। बोला-क्या बताऊं ? कैंप में ले चलो, शायद कुछ पता चले।

यशोदानंदन-अभागे जरा-जरा से बच्चों को लाते हैं और इतना भी नहीं करते कि उन्हें अपना नाम और पता तो याद करा दें।

महमूद-क्यों बिटिया, तुम्हारे बाबूजी का क्या नाम है?

लड़की ने धीरे से कहा-बाबू दी !

महमूद-तुम्हारा घर इसी शहर में है या कहीं और?

लड़की-मैं तो बाबूजी के साथ लेल पर आयी थी!

महमूद-तुम्हारे बाबूजी क्या करते हैं?

लड़की-कुछ नहीं करते।

यशोदानंदन-इस वक्त अगर इसका बाप मिल जाए तो सच कहता हूँ, बिना मारे न छोडूं। बचा गहने पहनाकर लाए थे, जाने कोई तमाशा देखने आए हों !

महमूद-और मेरा जी चाहता है कि तुम्हें पीटूं। मियां-बीवी यहां आए तो बच्चे को किस पर छोड़ आते ! घर में और कोई न हो तो?

यशोदानंदन-तो फिर उन्हीं को यहां आने की क्या जरूरत थी?

महमूद-तुम एथीइस्ट (नास्तिक) हो; तुम क्या जानो कि सच्चा मजहबी जोश किसे कहते हैं?

यशोदानंदन-ऐसे मजहबी जोश को दूर से ही सलाम करता हूँ। इस वक्त दोनों मियां-बीवी हाय-हाय कर रहे होंगे।

महमूद-कौन जाने, वे भी यहां कुचल-कुचला गए हों। लड़की ने साहसकर कहा-तुम हमें घल पहुंचा दोगे? बाबूदी तुमको पैछा देंगे।

यशोदानंदन-अच्छा बेटी, चलो तुम्हारे बाबूजी को खोजें।

दोनों मित्र बालिका को लिए कैंप में आए, पर यहां कुछ पता न चला। तब दोनों उस तरफ गए, जहां मैदान में बहुत से यात्री पड़े हुए थे। महमूद ने बालिका को कंधे पर बैठा लिया और यशोदानंदन चारों तरफ चिल्लाते फिरे-यह किसकी लड़की है? किसी की लड़की तो नहीं खो गई? यह आवाजें सुनकर कितने ही यात्री हां-हां, कहाँ-कहाँ करके दौड़े, पर लड़की को देखकर निराश लौट गए।

चिराग जले तक दोनों मित्र घूमते रहे। नीचे-ऊपर, किले के आस-पास, रेल के स्टेशन पर, अलोपी देवी के मन्दिर की तरफ यात्री-ही-यात्री पड़े हुए थे, पर बालिका के माता-पिता का कहीं पता न चला। आखिर निराश होकर दोनों आदमी कैंप लौट आए।

दूसरे दिन समिति के और कई सेवकों ने फिर पता लगाना शुरू किया। दिन-भर दौड़े, सारा प्रयाग छान मारा, सभी धर्मशालाओं की खाक छानी पर कहीं पता न चला।

तीसरे दिन समाचार-पत्र में नोटिस दिया गया और दो दिन वहां और रहकर समिति आगरे लौट गई। लड़की को भी अपने साथ लेती गई। उसे आशा थी कि समाचार-पत्रों से शायद सफलता हो। जब समाचार-पत्रों से कुछ पता न चला, तब विवश होकर कार्यकर्ताओं ने उसे वहीं के अनाथालय में रख दिया। महाशय यशोदानंदन ही उस अनाथालय के मैनेजर थे।

कायाकल्प : अध्याय दो

बनारस में महात्मा कबीर के चौरे के निकट मुंशी वज्रधरसिंह का मकान है। आप हैं तो राजपूत पर अपने को ‘मुंशी’ लिखते और कहते हैं। ‘मुंशी’ की उपाधि से आपको बहुत प्रेम है। ‘ठाकुर’ के साथ आपको गंवारपन का बोध होता है, इसलिए हम भी आपको मुंशीजी कहेंगे। आप कई साल से सरकारी पेंशन पाते हैं। बहुत छोटे पद से तरक्की करते-करते आपने अंत में तहसीलदारी का उच्च पद प्राप्त कर लिया था। यद्यपि आप उस महान् पद पर तीन मास से अधिक न रहे और उतने दिन भी केवल एवज पर रहे; पर आप अपने आपको ‘साबिक तहसीलदार’ लिखते थे और मुहल्ले वाले भी उन्हें खुश करने को ‘तहसीलदार साहब’ ही कहते थे। यह नाम सुनकर आप खुशी से अकड़ जाते थे, पर पेंशन केवल पच्चीस रुपए मिलती थी, इसलिए तहसीलदार साहब को बाजार-हाट खुद ही करना पड़ता था। घर में चार प्राणियों का खर्च था। एक लड़की थी, एक लड़का और स्त्री। लड़के का नाम चक्रधर था, वह इतना जहीन था कि पिता के पेंशन के जमाने में जब घर से किसी प्रकार की सहायता न मिल सकती थी, केवल अपने बुद्धि-बल से उसने एम.ए. की उपाधि प्राप्त कर ली थी। मुंशीजी ने पहले ही से सिफारिश पहुंचानी शुरू कर दी थी। दरबारदारी की कला में वह निपुण थे। हुक्काम को सलाम करने का उन्हें मरज था। हाकिमों के दिए हुए सैकड़ों प्रशंसापत्र उनकी अतुल संपत्ति थे। उन्हें वह बड़े गर्व से दूसरों को दिखाया करते थे। कोई नया हाकिम आए, उससे जरूर रब्त-जब्त कर लेते थे। हुक्काम ने चक्रधर का ख्याल करने के वादे भी किए थे; लेकिन जब परीक्षा का नतीजा निकला और मुंशीजी ने चक्रधर से कमिशनर के यहां चलने को कहा तो उन्होंने जाने से साफ इंकार किया !

मुंशीजी ने त्योरी चढ़ाकर पूछा-क्यों, क्या घर बैठे तुम्हें नौकरी मिल जाएगी?

चक्रधर-मेरी नौकरी करने की इच्छा नहीं है।

वज्रधर-यह खब्त तुम्हें कब से सवार हुआ? नौकरी के सिवा और करोगे ही क्या?

चक्रधर-मैं आजाद रहना चाहता हूँ।

वज्रधर-आजाद रहना था तो एम.ए. क्यों किया?

चक्रधर-इसीलिए कि आजादी का महत्त्व समझूं।

उस दिन से पिता और पुत्र में आए दिन बमचख मचती रहती थी। मुंशीजी बुढ़ापे में भी शौकीन आदमी थे। अच्छा खाने और अच्छा पहनने की इच्छा अभी भी बनी हुई थी। अब तक इसी ख्याल से दिल को समझाते थे कि लड़का नौकर हो जाएगा तो मौज करेंगे। अब लड़के का रंग देखकर बार-बार झुंझलाते और उसे कामचोर, घमंडी, मूर्ख कहकर अपना गुस्सा उतारते थे-अभी तुम्हें कुछ नहीं सूझता, जब मैं मर जाऊंगा तब सूझेगा। तब सिर पर हाथ रखकर रोओगे। लाख बार कह दिया बेटा, यह जमाना खुशामद और सलामी का है। तुम विद्या के सागर बने बैठे रहो, कोई सेंत भी न पूछेगा। तुम बैठे आजादी का मजा उठा रहे हो और तुम्हारे पीछे वाले बाजी मारे जाते हैं। वह जमाना लद गया जब विद्वानों की कद्र थी, अब तो विद्वान टके सेर मिलते हैं, कोई बात नहीं पूछता। जैसे और भी चीजें बनाने के कारखाने खुल गए हैं, उसी तरह विद्वानों के कारखाने खुल गए हैं, और उनकी संख्या हर साल बढ़ती जाती है।

चक्रधर पिता का अदब करते थे, उनको जवाब तो न देते; पर अपना जीवन सार्थक बनाने के लिए उन्होंने जो मार्ग तय कर लिया था, उससे वह न हटते थे। उन्हें यह हास्यास्पद मालूम होता था कि आदमी केवल पेट पालने के लिए आधी उम्र पढ़ने में लगा दे। अगर पेट पालना ही जीवन का आदर्श हो, तो पढ़ने की जरूरत ही क्या है। मजदूर एक अक्षर भी नहीं जानता, फिर भी वह अपना और अपने बाल-बच्चों का पेट बड़े मजे से पाल लेता है। विद्या के साथ जीवन का आदर्श कुछ ऊंचा न हुआ तो पढ़ना व्यर्थ है। विद्या को जीवन का साधन बनाते उन्हें लज्जा आती थी। वह भूखों मर जाते; लेकिन नौकरी के लिए आवेदन-पत्र लेकर कहीं न जाते। विद्याभ्यास के दिनों में भी वह सेवाकार्य में अग्रसर रहा करते थे और अब तो इसके सिवा उन्हें और कुछ सूझता ही न था। दीनों की सेवा और सहायता में जो आनंद और आत्मगौरव था, वह दफ्तर में बैठकर कलम घिसने में कहाँ !

इस प्रकार दो साल गुजर गए। मुंशी वज्रधर ने समझा था, जब यह भूत इसके सिर से उतर जाएगा, शादी-ब्याह की फ्रिक होगी, तो आप-ही-आप नौकरी की तलाश में दौड़ेंगे। जवानी का नशा बहुत दिनों तक नहीं ठहरता। लेकिन जब दो साल गुजर जाने पर भी भूत के उतरने का कोई लक्षण न दिखाई दिया, तो एक दिन उन्होंने चक्रधर को खूब फटकारा-दुनिया का दस्तूर है कि पहले अपने घर में दिया जलाकर तब मस्जिद में जलाते हैं। तुम अपने घर को अंधेरा रखकर मस्जिद को रोशन करना चाहते हो। जो मनुष्य अपनों का पालन न कर सका, वह दूसरों की किस मुंह से मदद करेगा। मैं बुढ़ापे में खाने-पहनने को तरसूं और तुम दूसरों का कल्याण करते फिरो। मैंने तुम्हें पैदा किया दूसरों ने नहीं; मैंने तुम्हें पाला-पोसा, दूसरों ने नहीं; मैं गोद में लेकर हकीम-वैद्यों के द्वार-द्वार दौड़ता फिरा, दूसरे नहीं। तुम पर सबसे ज्यादा हक मेरा है, दूसरों का नहीं।

चक्रधर अब पिता की इच्छा से मुंह न मोड़ सके। उन्हें अपने कॉलेज ही में कोई जगह मिल सकती थी। वहां सभी उनका आदर करते थे, लेकिन यह उन्हें मंजूर न था। वह कोई ऐसा धंधा करना चाहते थे, जिससे थोड़ी देर रोज काम करके अपने पिता की मदद कर सकें। एक घंटे से अधिक समय न देना चाहते थे। संयोग से जगदीशपुर के दीवान ठाकुर हरिसेवकसिंह को अपनी लड़की को पढ़ाने के लिए सुयोग्य और सच्चरित्र अध्यापक की जरूरत पड़ी। उन्होंने कॉलेज के प्रधानाध्यापक को इस विषय में एक पत्र लिखा। तीस रुपए मासिक तक वेतन रखा। कॉलेज का कोई अध्यापक इतने वेतन पर राजी न हुआ। आखिर उन्होंने चक्रधर को उस काम पर लगा दिया। काम बडी जिम्मेदारी का था; किंतु चक्रधर इतने सुशील, इतने गंभीर और इतने संयमी थे कि उन पर सबको विश्वास था।

दूसरे दिन से चक्रधर ने लड़की को पढ़ाना शुरू कर दिया।

कायाकल्प : अध्याय तीन

कई महीने बीत गए। चक्रधर महीने के अंत में रुपए लाते और माता के हाथ पर रख देते। अपने लिए उन्हें रुपए की कोई जरूरत न थी। दो मोटे कुर्तों पर साल काट देते थे। हां, पुस्तकों से उन्हें रुचि थी, पर इसके लिए कॉलेज का पुस्तकालय खुला हुआ था, सेवा-कार्य के लिए चंदों से रुपए आ जाते थे। मुंशी वज्रधर का मुंह भी कुछ सीधा हो गया। डरे कि इससे ज्यादा दबाऊं, तो शायद यह भी हाथ से जाए। समझ गए कि जब तक विवाह की बेड़ी पांव में न पड़ेगी, यह महाशय काबू में नहीं आएंगे । वह बेड़ी बनवाने का विचार करने लगे।

मनोरमा की उम्र अभी तेरह वर्ष से अधिक न थी, लेकिन चक्रधर को पढ़ाते हुए बड़ी झेंप होती थी। वह यही प्रयत्न करते थे कि ठाकुर साहब की उपस्थिति ही में उसे पढ़ाएं। यदि कभी ठाकुर साहब कहीं चले जाते, तो चक्रधर को महान् संकट का सामना करना पड़ता।

एक दिन चक्रधर इसी संकट में जा फंसे। ठाकुर साहब कहीं गए हुए थे। चक्रधर कुर्सी पर बैठे; पर मनोरमा की ओर न ताककर द्वार की ओर ताक रहे थे, मानो वहां बैठते डरते हों। मनोरमा वाल्मीकीय रामायण पढ़ रही थी। उसने दो-तीन बार चक्रधर की ओर ताका, पर उन्हें द्वार की ओर ताकते देखकर फिर किताब देखने लगी। उसके मन में सीता वनवास पर शंका हुई थी और वह इसका समाधान करना चाहती थी। चक्रधर ने द्वार की ओर ताकते हुए पूछा-चुप क्यों बैठी हो, आज का पाठ क्यों नहीं पढ़ती?

मनोरमा-मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूँ, आज्ञा हो तो पूछूं?

चक्रधर ने कातर भाव से कहा-क्या बात है?

मनोरमा-रामचन्द्र ने सीताजी को घर से निकाला तो वह चली क्यों गईं?

चक्रधर-और क्या करती?

मनोरमा-वह जाने से इंकार कर सकती थीं। एक तो राज्य पर उनका अधिकार भी रामचन्द्र ही के समान था, दूसरे वह निर्दोष थीं। अगर वह यह अन्याय न स्वीकार करतीं, तो क्या उन पर कोई आपत्ति हो सकती थी?

चक्रधर-हमारे यहां पुरुषों की आज्ञा मानना स्त्रियों का परम धर्म माना गया है। यदि सीताजी पति की आज्ञा न मानतीं, तो वह भारतीय सती के आदर्श से गिर जातीं।

मनोरमा-यह तो मैं जानती हूँ कि स्त्री को पुरुष की आज्ञा माननी चाहिए लेकिन क्या सभी दशा में? जब राजा से साधारण प्रजा न्याय का दावा कर सकती है, तो क्या उसकी स्त्री नहीं कर सकती? जब रामचन्द्र ने सीता की परीक्षा ले ली थी और अंत:करण से उन्हें पवित्र समझते थे, तो केवल झूठी निंदा से बचने के लिए उन्हें घर से निकाल देना कहाँ का न्याय था?

चक्रधर-राजधर्म का आदर्श पालन करना था।

मनोरमा-तो क्या दोनों प्राणी जानते थे कि हम संसार के लिए आदर्श खड़ा कर रहे हैं? इससे तो यह सिद्ध होता है कि वे कोई अभिनय कर रहे थे। अगर आदर्श भी मान लें तो यह ऐसा आदर्श है, जो सत्य की हत्या करके पाला गया है। यह आदर्श नहीं है, चरित्र की दुर्बलता है। मैं आपसे पूछती हूँ, आप रामचन्द्र की जगह होते, तो क्या आप भी सीता को घर से निकाल देते?

चक्रधर बड़े असमंजस में पड़ गए। उनके मन में स्वयं यही शंका और लगभग इसी उम्र में पैदा हुई थी; पर वह इसका समाधान न कर सके थे। अब साफ-साफ जवाब देने की जरूरत पड़ी तो, बगलें झांकने लगे।

मनोरमा ने उन्हें चुप देखकर फिर पूछा-क्या आप भी उन्हें घर से निकाल देते?

चक्रधर-नहीं, मैं तो शायद नहीं निकालता।

मनोरमा-आप निंदा की जरा भी परवाह न करते?

चक्रधर-नहीं, मैं झूठी निंदा की परवाह न करता।

मनोरमा की आंखें खुशी से चमक उठीं, प्रफुल्लित होकर बोली-यही बात मेरे मन में भी थी। मैंने दादाजी से, भाइयों से, पंडितजी से, लौंगी अम्मां से, भाभी से यही शंका की, पर सब लोग यही कहते थे कि रामचन्द्र तो भगवान हैं, उनके विषय में कोई शंका हो ही नहीं सकती। आपने आज मेरे मन की बात कही। मैं जानती थी कि आप यही जवाब देंगे। इसीलिए मैंने आपसे पूछा था। अब मैं उन लोगों को खूब आड़े हाथों लूंगी।

उस दिन से मनोरमा को चक्रधर से कुछ स्नेह हो गया। पढ़ने-लिखने में उसे विशेष रुचि हो गई। चक्रधर उसे जो काम करने को दे जाते, वह उसे अवश्य पूरा करती। पहले की भांति अब हीले-हवाले न करती। जब उनके आने का समय होता, तो वह पहले ही से आकर बैठ जाती और उनका इंतजार करती। अब उसे उनसे अपने मन के भाव प्रकट करते हुए संकोच न होता। वह जानती थी कि कम-से-कम यहां उनका निरादर न होगा, उनकी हंसी न उड़ाई जाएगी ।

ठाकुर हरिसेवकसिंह की आदत थी कि पहले दो-चार महीने तक तो नौकरों को वेतन ठीक समय पर दे देते, पर ज्यों-ज्यों नौकर पुराना होता जाता था, उन्हें उसके वेतन की याद भूलती जाती थी। उनके यहां कई नौकर ऐसे भी पड़े थे, जिन्होंने बरसों से अपने वेतन नहीं पाए थे, चक्रधर को भी इधर चार महीनों से कुछ न मिला था। न वह आप-ही-आप देते थे, न चक्रधर संकोचवश मांगते थे। उधर घर में रोज तकरार होती थी। मुंशी वज्रधर बार-बार तकाजे करते, झुंझलाते-मांगते क्यों नहीं? क्या मुंह में दही जमाया हुआ है, या काम नहीं करते? लिहाज भले आदमी का किया जाता है। ऐसे लुच्चों का लिहाज नहीं किया जाता, जो मुफ्त में काम कराना चाहते हैं।

आखिर एक दिन चक्रधर ने विवश हो ठाकुर साहब को एक पुरजा लिखकर अपना वेतन मांगा। ठाकुर साहब ने पुरजा लौटा दिया-व्यर्थ की लिखा-पढ़ी करने की उन्हें फुर्सत न थी और कहा-उनको जो कुछ कहना हो, खुद आकर कहें। चक्रधर शरमाते हुए गए और बहुत-कुछ शिष्टाचार के बाद रुपए मांगे। ठाकुर साहब हंसकर बोले-वाह ! बाबूजी, वाह ! आप भी अच्छे मौजी जीव हैं। चार महीनों से वेतन नहीं मिला और आपने एक बार भी न मांगा ! अब तो आपके परे एक-सौ बीस रुपए हो गए। मेरा हाथ इस वक्त तंग है। दस-पांच दिन ठहरिए। आपको महीने-महीने अपना वेतन ले लेना चाहिए था। सोचिए, मुझे एकमुश्त देने में कितनी असुविधा होगी ! खैर, जाइए, दस-पांच दिन में रुपए मिल जाएंगे।

चक्रधर कुछ न कह सके। लौटे, तो मुंह पर घोर निराशा छायी हुई थी। आज दादाजी शायद जीता न छोड़ेंगे। इस ख्याल से उनका दिल कांपने लगा। मनोरमा ने उनका पुरजा अपने पिता के पास ले जाते हुए राह में पढ़ लिया था। उन्हें उदास देखकर पूछा-दादाजी ने आपसे क्या कहा?

चक्रधर उसके सामने रुपए-पैसे का जिक्र न करना चाहते थे। झेंपते हुए बोले-कुछ तो नहीं।

मनोरमा-आपको रुपए नहीं दिए?

चक्रधर का मुंह लाल हो गया। बोले-मिल जाएंगे।

मनोरमा-आपको एक-सौ बीस रुपए चाहिए न?

चक्रधर-इस वक्त कोई जरूरत नहीं है।

मनोरमा-जरूरत न होती तो आप मांगते ही नहीं। दादाजी में बड़ा ऐब है कि किसी के रुपए देते हुए उन्हें मोह लगता है। देखिए, मैं जाकर–

चक्रधर ने रोककर कहा-नहीं-नहीं, कोई जरूरत नहीं।

मनोरमा ने न माना। तुरंत घर में गई और एक क्षण में पूरे रुपए लाकर मेज पर रख दिए, मानो कहीं गिने-गिनाए रखे हुए थे।

चक्रधर-तुमने ठाकुर साहब को व्यर्थ कष्ट दिया।

मनोरमा-मैंने उन्हें कष्ट नहीं दिया ! उनसे तो कहा भी नहीं। दादाजी किसी की जरूरत नहीं समझते। अगर अपने लिए कभी मोटर मंगवानी हो, तो तुरंत मंगवा लेंगे ! पहाड़ों पर जाना हो, तो तुरंत चले जाएंगे, पर जिसके रुपए आते हैं, उसको न देंगे।

वह तो पढ़ने बैठ गई, लेकिन चक्रधर के सामने यह समस्या आ पड़ी कि रुपए लूं या न लूं। उन्होंने निश्चय किया कि न लेना चाहिए। पाठ हो चुकने पर वह उठ खड़े हुए और बिना रुपए लिए बाहर निकल आए। मनोरमा रुपए लिए हुए पीछे-पीछे बरामदे तक आई। बार-बार कहती रही-इसे आप लेते जाइए। जब दादाजी दें तो मुझे लौटा दीजिएगा। पर चक्रधर ने एक न सुनी और जल्दी से बाहर निकल गए।

कायाकल्प : अध्याय चार

चक्रधर डरते हुए घर पहुंचे, तो क्या देखते हैं कि द्वार पर चारपाई पड़ी हुई है; उस पर कालीन बिछी हुई है और एक अधेड़ उम्र के महाशय उस पर बैठे हुए हैं। उनके सामने ही एक कुर्सी पर मुंशी वज्रधर बैठे फर्शी पी रहे थे और नाई खड़ा पंखा झल रहा था। चक्रधर के प्राण सूख गए। अनुमान से ताड़ गए कि यह महाशय वर की खोज में आए हैं। निश्चय करने के लिए घर में जाकर माता से पूछा, तो अनुमान सच्चा निकला। बोले-दादाजी ने इनसे क्या कहा?

निर्मला ने मुस्कराकर कहा-नानी क्यों मरी जाती है, क्या जन्म भर क्वारे ही रहोगे ! जाओ; बाहर बैठो; तुम्हारी तो बड़ी देर से जोहाई हो रही है। आज क्यों इतनी देर लगाई?

चक्रधर-यह हैं कौन?

निर्मला-आगरे के कोई वकील हैं, मुंशी यशोदानंदन !

चक्रधर-मैं तो घूमने जाता हूँ। जब यह यमदूत चला जाएगा, तो आऊंगा।

निर्मला-वाह रे शर्मीले! तेरा-सा लड़का तो देखा ही नहीं। आ, जरा सिर में तेल डाल दूं, बाल न जाने कैसे बिखरे हुए हैं। साफ कपड़े पहनकर जरा देर के लिए बाहर जाकर बैठ।

चक्रधर-घर में भोजन भी है कि ब्याह ही कर देने का जी चाहता है? मैं कहे देता हूँ, विवाह न करूंगा, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाए।

किंतु स्नेहमयी माता कब सुनने वाली थी। उसने उन्हें जबर्दस्ती पकड़कर सिर में तेल डाल दिया, संदूक से एक धुला हुआ कुर्ता निकाल लाई और यों पहनाने लगी, जैसे कोई बच्चे को पहनाए। चक्रधर ने गर्दन फेर ली।

निर्मला-मुझसे शरारत करेगा, तो मार बैलूंगी। इधर ला सिर ! क्या जन्म भर छूटे सांड़ बने रहने का जी चाहता है? क्या मुझसे मरते दम तक चूल्हा-चक्की कराता रहेगा? कुछ दिनों तो बहू का सुख उठा लेने दे।

चक्रधर-तुमसे कौन कहता है भोजन बनाने को? मैं कल से बना दिया करूंगा। मंगला को क्यों छोड़ रखा है?

निर्मला-अब मैं मारनेवाली ही हूँ। आज तक कभी न मारा पर आज पीट दूंगी, नहीं तो जाकर चुपके से बाहर बैठ।

इतने में मुंशीजी ने पुकारा-नन्हें, क्या कर रहे हो? जरा यहां तो आओ।

चक्रधर के रहे-सहे होश भी उड़ गए। बोले-जाता तो हूँ, लेकिन कहे देता हूँ, मैं यह जुआ गले में न डालूंगा। जीवन में मनुष्य का यही काम नहीं है कि विवाह कर ले, बच्चों का बाप बन जाए और कोल्हू के बैल की तरह आंखों पर पट्टी बांधकर गृहस्थी में जुत जाए।

निर्मला-सारी दुनिया जो करती है, वही तुम्हें भी करना पड़ेगा। मनुष्य का जन्म होता ही किसलिए है?

चक्रधर-हजारों काम हैं?

निर्मला-रुपए आज भी नहीं लाए क्या? कैसे आदमी हैं कि चार-चार महीने हो गए, रुपए देने का नाम नहीं लेते ! जाकर अपने दादा को किसी बहाने से भेज दो। कहीं से जाकर रुपए लाएं। कुछ दावत-आवत का सामान करना ही पड़ेगा, नहीं तो कहेंगे कि नाम बड़े और दर्शन थोड़े।

चक्रधर बाहर आए तो मुंशी यशोदानंदन ने खड़े होकर उन्हें छाती से लगा लिया और कुर्सी पर बैठाते हुए बोले-अबकी ‘सरस्वती’ में आपका लेख देखकर चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। इस वैषम्य को मिटाने के लिए आपने जो उपाय बताए हैं, वे बहुत ही विचारपूर्ण हैं।

इस स्नेह-मृदुल आलिंगन और सहृदयपूर्ण आलोचना ने चक्रधर को मोहित कर लिया ! वह कुछ जवाब देना ही चाहते थे कि मुंशी वज्रधर बोल उठे-आज बहुत देर लगा दी? राजा साहब से कुछ बातचीत होने लगी क्या? (यशोदानंदन से) राजा साहब की इनके ऊपर बड़ी कृपा है। बिल्कुल लड़कों की तरह मानते हैं। इनकी बातें सुनने से उनका जी ही नहीं भरता। (नाई से) देख, चिलम बदल दे और जाकर झिनकू से कह दे, सितार-वितार लेकर थोड़ी देर के लिए यहां आ जाए। इधर ही से गणेश के घर जाकर कहना कि तहसीलदार साहब ने एक हांड़ी अच्छा दही मांगा है। देखना, दही खराब हुआ, तो दाम न मिलेंगे।

यह हुक्म देकर मुंशीजी घर में चले गए। उधर की फिक्र थी; पर मेहमान को छोड़कर न जा सकते थे। आज उनका ठाट-बाट देखते ही बनता था। अपना अल्पकालीन तहसीलदारी के समय का अलापाके का चोंगा निकाला था। उसी जमाने की मंदील भी सिर पर थी। आंखों में सुरमा भी था, बालों में तेल भी, मानो उन्हीं का ब्याह होने वाला है। चक्रधर शरमा रहे थे, यह महाशय इनके वेश पर दिल में क्या कहते होंगे। राजा साहब की बात सुनकर तो वह गड़-से गए।

मुंशीजी चले गये, तो यशोदानंदन बोले-अब आपका क्या काम करने का इरादा है?

चक्रधर–अभी तो कुछ निश्चय नहीं किया है। हां, यह इरादा है कि कुछ दिनों आजाद रहकर सेवाकार्य करूं।

यशोदानंदन-इससे बढ़कर क्या हो सकता है ! आप जितने उत्साह से समिति को चला रहे हैं, उसकी तारीफ नहीं की जा सकती। आप जैसे उत्साही युवकों का ऊंचे आदर्शों के साथ सेवाक्षेत्र में आना जाति के लिए सौभाग्य की बात है। आपके इन्हीं गुणों ने मुझे आपकी ओर खींचा है। यह तो आपको मालूम ही होगा कि मैं किस इरादे से आया हूँ। अगर मुझे धन या जायदादकी परवाह होती, तो यहां न आता ! मेरी दृष्टि में चरित्र का जो मूल्य है, वह और किसी वस्तु का नहीं।

चक्रधर ने आंखें नीची करके कहा-लेकिन मैं तो अभी गृहस्थी के बंधन में नहीं पड़ना चाहता। मेरा विचार है कि गृहस्थी में फंसकर कोई तन-मन से सेवाकार्य नहीं कर सकता।

यशोदानंदन-ऐसी बात तो नहीं। इस वक्त भी जितने आदमी सेवा-कार्य कर रहे हैं वे प्रायः सभी बाल-बच्चों वाले आदमी हैं।

चक्रधर-इसी से तो सेवा-कार्य इतना शिथिल है।

यशोदानंदन-मैं समझता हूँ कि यदि स्त्री और पुरुष के विचार और आदर्श एक-से हों, तो पुरुष के कामों में बाधक होने के बदले स्त्री सहायक हो सकती है। मेरी पुत्री का स्वभाव, विचार, सिद्धांत सभी आपसे मिलते हैं और मुझे पूरा विश्वास है कि आप दोनों एक साथ रहकर सुखी होंगे। उसे कपड़े का शौक नहीं, गहने का शौक नहीं, अपनी हैसियत को बढ़ाकर दिखाने की धुन नहीं। आपके साथ वह मोटे-से-मोटे वस्त्र और मोटे-से-मोटे भोजन में संतुष्ट रहेगी। अगर आप इसे अत्युक्ति न समझें, तो मैं यहां तक कह सकता हूँ कि ईश्वर ने आपको उसके लिए बनाया है और उसको आपके लिए। सेवा-कार्य में वह हमेशा आपसे एक कदम आगे रहेगी। अंगरेजी. हिन्दी, उर्दू, संस्कृत पढ़ी हुई है; घर के कामों में इतनी कुशल है कि मैं नहीं समझता, उसके बिना मेरी गृहस्थी कैसे चलेगी? मेरी दो बहुएं हैं, लड़की की मां है; किंतु सब-की-सब फूहड़, किसी में भी वह तमीज नहीं। रही शक्ल-सूरत, वह भी आपको इस तस्वीर से मालूम हो जाएगी।

यह कहकर यशोदानंदन ने कहार से तस्वीर मंगवाई और चक्रधर के सामने रखते हुए बोले-मैं तो इसमें कोई हरज नहीं समझता। लड़के को क्या खबर है कि मुझे बहू कैसी मिलेगी। स्त्री में कितने ही गुण हों, लेकिन यदि उसकी सूरत पुरुष को पसंद न आई, तो वह उसकी नजरों से गिर जाती है और उनका दांपत्य-जीवन दुःखमय हो जाता है। मैं तो यहां तक कहता हूँ कि वर और कन्या में दो-चार बार मुलाकात भी हो जानी चाहिए। कन्या के लिए तो यह अनिवार्य है। पुरुष को स्त्री पसंद न आई, तो वह और शादियां कर सकता है। स्त्री को पुरुष पसंद न आया, तो उसकी सारी उम्र रोते ही गुजरेगी।

चक्रधर के पेट में चूहे दौड़ने लगे कि तस्वीर क्योंकर ध्यान से देखू। वहां देखते शरम आती थी, मेहमान को अकेला छोड़कर घर में न जाते बनता था। कई मिनट तक तो सब्र किए बैठे रहे, लेकिन न रहा गया। पान की तश्तरी और तसवीर लिए हुए घर में चले आए। चाहते थे कि अपने कमरे में जाकर देखें कि निर्मला ने पूछा-क्या बातचीत हुई? कुछ देंगे-दिलाएंगे कि वही इक्यावन रुपए वालों में हैं?

चक्रधर ने उग्र होकर कहा-अगर तुम मेरे सामने देने-दिलाने का नाम लोगी, तो जहर खा लूंगा।

निर्मला-वाह रे ! तो क्या पचीस बरस तक यों ही पाला-पोसा है क्या? मुंह धो रखें! चक्रधर-तो बाजार में खड़ा करके बेच क्यों नहीं लेती? देखो के टके मिलते हैं!

निर्मला-तुम तो अभी से ससुर के पक्ष में मुझसे लड़ने लगे। ब्याह के नाम ही में कुछ जादू है क्या?

इतने में चक्रधर की छोटी बहन मंगला तश्तरी में पान रखकर उनको देने लगी, तो कागज में लिपटी हुई तसवीर उसे नजर आई। उसने तसवीर ले ली और लालटेन के सामने ले जाकर बोली-यह बहू की तसवीर है। देखो, कितनी सुंदर है!

निर्मला ने जाकर तसवीर देखी, तो चकित रह गई। उसकी आंखें आनंद से चमक उठीं। बोली-बेटा, तेरे भाग्य जाग गए। मुझे तो कुछ भी न मिले, तो भी इससे तेरा ब्याह कर दूं। कितनी बड़ी-बड़ी आम की फांक-सी आंखें हैं, मैंने ऐसी सुंदर लड़की नहीं देखी।

चक्रधर ने समीप जाकर उड़ती हुई नजरों से तसवीर देखी और हंसकर बोले-लखावरी ईंट की-सी मोटी तो नाक है, उस पर कहती हो, कितनी सुंदर है!

निर्मला-चल, दिल में तो फूला न समाता होगा, ऊपर से बातें बनाता है।

चक्रधर-इसी मारे मैं यहां न लाता था। लाओ लौटा दूं।

निर्मला-तुझे मेरी ही कसम है, जो भांजी मारे। मुझे तो इस लड़की ने मोह लिया।

चक्रधर पान की तश्तरी और तसवीर लेकर चले; पर बाहर न जाकर अपने कमरे में गए और बड़ी उत्सुकता से चित्र पर आंखें जमा दीं। उन्हें ऐसा मालूम हुआ मानो चित्र ने लज्जा से आंखें नीची कर ली हैं, मानो वह उनसे कुछ कह रही है। उन्होंने तसवीर उठा ली और देखने लगे। आंखों को तृप्ति ही न होती थी। उन्होंने अब तक जितनी सूरतें देखी थीं, उनसे मन में तुलना करने लगे। मनोरमा ही इससे मिलती थी। आंखें दोनों की एक-सी हैं, बाल नेत्रों के समान विहंसते। वर्ण भी एक-से हैं, नख-शिख बिल्कुल मिलता-जुलता ! किंतु यह कितनी लज्जाशील है, वह कितनी चपल ! यह किसी साधु की शांति-कुटीर की भांति लताओं और फूलों से सज्जित है, वह किसी गगनस्पर्शी शैल की भाति विशाल। यह चित्त को मोहित करती है, वह पराभूत करती है। यह किसी पालतू पक्षी की भांति पिंजरे में गाने वाली, वह किसी वन्य-पक्षी की भांति आकाश में उड़ने वाली; यह किसी कवि कल्पना की भांति मधुर और रसमयी, वह किसी दार्शनिक तत्त्व की भांति दुर्बोध और जटिल!

चित्र हाथ में लिए हुए चक्रधर भावी जीवन के मधुर स्वप्न देखने लगे। यह ध्यान ही न रहा कि मुंशी यशोदानंदन बाहर अकेले बैठे हुए हैं। अपना व्रत भूल गए, सेवा सिद्धांत भूल गए, आदर्श भूल गए, भूत और भविष्य भूल वर्तमान में लीन हो गए, केवल एक ही सत्य था और वह इस चित्र की मधुर कल्पना थी।

सहसा तबले की थाप ने उनकी समाधि भंग की। बाहर संगीत-समाज जमा था। मुंशी वज्रधर को गाने-बजाने का शौक था। गला तो रसीला न था; पर ताल-स्वर के ज्ञाता थे। चक्रधर डरे कि दादा इस समय कहीं गाने लगे तो नाहक भद्द हो। जाकर उनके कान में कहा-आप न गाइएगा। संगीत से रुचि थी; पर यह असह्य था कि मेरे पिताजी कत्थकों के सामने बैठकर एक प्रतिष्ठित मेहमान के सामने गाएं।

जब साज मिल गया, तो झिनकू ने कहा-तहसीलदार साहब, पहले आप ही की हो जाए।

चक्रधर का दिल धड़कने लगा; लेकिन मुंशीजी ने उनकी ओर आश्वासन की दृष्टि से देखकर कहा-तुम लोग अपना गाना सुनाओ, मैं क्या गाऊं!

झिनकू-वाह मालिक, वाह ! आपके सामने हम क्या गाएंगे। अच्छे-अच्छे उस्तादों की तो हिम्मत नहीं पड़ती!

वज्रधर अपनी प्रशंसा सुनकर फूल उठते थे। दो-चार बार तो नहीं-नहीं की, फिर ध्रुपद की एक गत छेड़ ही तो दी। पंचम स्वर था, आवाज फटी हुई, सांस उखड़ जाती थी, बार-बार खांसकर गला साफ करते थे, लोच का नाम न था, कभी-कभी बेसुरे भी हो जाते थे; पर साजिंदे वाह-वाह की धूम मचाए हुए थे-क्या कहना है, तहसीलदार साहब ! ओ हो!

मुंशीजी को गाने की धुन सवार होती थी तो जब तक गला न पड़ जाए, चुप न होते थे। गत समाप्त होते ही आपने ‘सूर’ का पद छेड़ दिया और ‘देश’ की धुन में गाने लगे।

झिनकू-यह पुराने गले की बहार है। ओ हो !

वज्रधर-नैन नीर छीजत नहिं कबहूँ, निस-दिन बहत पनारे।

झिनकू-जरा बता दीजिएगा, कैसे?

वज्रधर ने दोनों आंखों पर हाथ रखकर बताया।

चक्रधर से अब न सहा गया। नाहक अपनी हंसी करा रहे हैं। इस बेसुरेपन पर मुंशी यशोदानंदन दिल में कितना हंस रहे होंगे ! शर्म के मारे वह वहां खड़े न रह सके। घर में चले गए, लेकिन यशोदानंदन बड़े ध्यान से गाना सुन रहे थे। बीच-बीच में सिर भी हिला देते थे। जब गीत समाप्त हुआ, तो बोले-तहसीलदार साहब आप इस फन के उस्ताद हैं।

वज्रधर-यह आपकी कृपा है, मैं गाना क्या जानूं, इन्हीं लोगों की संगति में कुछ शुद-बुद आ गया।

झिनकू-ऐसा न कहिए मालिक, हम सब तो आप ही के सिखाए-पढ़ाए हैं।

यशोदानंदन-मेरा तो जी चाहता है कि आपका शिष्य हो जाऊं।

वज्रधर-क्या कहूँ, आपने मेरे स्वर्गीय पिताजी का गाना नहीं सुना। बड़ा कमाल था ! कोई उस्ताद उनके सामने मुंह न खोल सकता था। लाखों की जायदादउसी के पीछे लुटा दी। अब तो उसकी चर्चा ही उठती जाती है।

यशोदानंदन-अब की न कहिए। आजकल के युवकों में तो गाने की रुचि ही नहीं रही। न गा सकते हैं, न समझ सकते हैं। उन्हें गाते शर्म आती है।

वज्रधर-रईसों में भी इसका शौक उठता जाता है।

यशोदानंदन-पेट के धंधे से किसी को छुट्टी ही नहीं मिलती, गाए-बजाए कौन ?

झिनक-(यशोदानंदन से) हुजूर को गाने का शौक मालूम होता है!

यशोदानंदन-अजी, जब था तब था ! सितार-वितार की दो-चार गतें बजा लेता था। अब सब छोड़-छाड़ दिया।

झिनकू-कितना ही छोड़-छाड़ दिया है, लेकिन आजकल के नौसिखियों से अच्छे ही होंगे। अबकी आप ही की हो।

यशोदानंदन ने भी दो-चार बार इंकार करने के बाद काफी की धुन में एक ठुमरी छेड़ दी। उनका गला मंजा हुआ था, इस कला में निपुण थे, ऐसा मस्त होकर गाया कि सुनने वाले झूमझूम गए। उनकी सुरीली तान साज में मिल जाती थी। वज्रधर ने तो वाह-वाह का तार बांध दिया। झिनकू के भी छक्के छूट गए। मजा यह कि साथ-ही-साथ सितार भी बजाते थे। आसपास के लोग आकर जमा हो गए। समां बंध गया। चक्रधर ने यह आवाज सुनी तो दिल में कहा, यह महाशय भी उसी टुकरी के लोगों में हैं, उसी रंग में रंगे हुए। अब झेंप जाती रही। बाहर आकर बैठ गए।

वज्रधर ने कहा-भाई साहब, आपने तो कमाल कर दिया। बहुत दिनों से ऐसा गाना न सुना था। कैसी रही, झिनकू?

झिनकू-हुजूर, कुछ न पूछिए, सिर धुन रहा हूँ। मेरी तो अब गाने की हिम्मत ही नहीं पड़ती। आपने हम सबों का रंग फीका कर दिया। पुराने जमाने के रईसों की क्या बातें हैं।

यशोदानंदन-कभी-कभी जी बहला लिया करता हूँ, वह भी लुक-छिपकर। लड़के सुनते हैं तो कानों पर हाथ रख लेते हैं। मैं समझता हूँ, जिसमें यह रस नहीं, वह किसी सोहबत में बैठने लायक नहीं। क्यों बाबू चक्रधर, आपको तो शौक होगा?

वज्रधर-जी छू नहीं गया। बस, अपने लड़कों का हाल समझिए।

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा-मैं गाने को बुरा नहीं समझता। हां, इतना जरूर चाहता हूँ कि शरीफ लोग शरीफों में ही गाएं-बजाएं।

यशोदानंदन-गुणियों की जात-पांत नहीं देखी जाती। हमने तो बरसों एक अंधे फकीर की गुलामी की, तब जाके सितार बजाना आया।

आधी रात के करीब गाना बंद हुआ। लोगों ने भोजन किया। जब मुंशी यशोदानंदन बाहर आकर बैठे, तो वज्रधर ने पूछा-आपसे कुछ बातचीत हुई?

यशोदानंदन-जी हां, हुई लेकिन साफ नहीं खुले।

वज्रधर-विवाह के नाम से चिढ़ता है।

यशोदानंदन-अब शायद राजी हो जाएं।

वज्रधर-अजी, सैकड़ों आदमी आ-आकर लौट गए। कई आदमी तो दस-दस हजार तक देने को तैयार थे। एक साहब तो अपनी रियासत ही लिखे देते थे; लेकिन इसने हामी न भरी।

दोनों आदमी सोए। प्रात:काल यशोदानंदन ने चक्रधर से पूछा-क्यों बेटा, एक दिन के लिए मेरे साथ आगरे चलोगे?

चक्रधर-मुझे तो आप इस जंजाल में न फंसाएं तो बहुत अच्छा हो।

यशोदानंदन-तुम्हें जंजाल में नहीं फंसाता बेटा, तुम्हें ऐसा सच्चा मंत्री, ऐसा सच्चा सहायक और ऐसा सच्चा मित्र दे रहा हूँ, जो तुम्हारे उद्देश्यों को पूरा करना अपने जीवन का मुख्य कर्त्तव्य समझेगी। मैं स्वार्थवश ऐसा नहीं कह रहा हूँ। मैं स्वयं आगरे की हिंदू -सभा का मंत्री हूँ और सेवाकार्य का महत्त्व समझता हूँ। अगर मैं समझता कि यह संबंध आपके काम में बाधक होगा, तो कभी आग्रह न करता। मैं चाहता हूँ कि आप एक बार अहिल्या से मिल लें। यों मैं मन से आपको अपना दामाद बना चुका; पर अहिल्या की अनुमति ले लेनी आवश्यक समझता हूँ! आप भी शायद यह पसंद न करेंगे कि मैं इस विषय में स्वेच्छा से काम लूं। आप शरमाएं नहीं, यों समझ लीजिए कि आप मेरे दामाद हो चुके; केवल मेरे साथ सैर करने चल रहे हैं। आपको देखकर आपकी सास, साले-सभी खुश होंगे।

चक्रधर बड़े संकट में पड़े। सिद्धांत-रूप से वह विवाह के विषय में स्त्रियों को पूरी स्वाधीनता देने के पक्ष में थे; पर इस समय आगरे जाते हुए बड़ा संकोच हो रहा था, कहीं उसकी इच्छा न हुई तो? कौन बड़ा सजीला जवान हूँ, बातचीत करने में भी तो चतुर नहीं और उसके सामने तो शायद मेरा मुंह ही न खुले। कहीं उसने मन फीका कर लिया, तो मेरे लिए डूब मरने की जगह न होगी। फिर कपड़े-लत्ते भी नहीं हैं, बस, यह दो कुर्तों की पूंजी है। बहुत हैस-वैस के बाद बोले-मैं आपसे सच कहता हूँ, मैं अपने को ऐसी…ऐसी सुयोग्य स्त्री के योग्य नहीं समझता।

यशोदानंदन-इन हीलों से मैं आपका दामन छोड़ने वाला नहीं हूँ। मैं आपके मनोभावों को समझ रहा हूँ। आप संकोच के कारण ऐसा कह रहे हैं; पर अहिल्या उन चंचल लडकियों में नहीं है, जिसके सामने जाते हुए आपको शरमाना पड़े। आप उसकी सरलता देखकर प्रसन्न होंगे। हां, मैं इतना कर सकता हूँ कि आपकी खातिर से पहले यह कहूँ कि आप परदेशी आदमी हैं, यहां सैर करने आए हैं। स्टेशन पर होटल पूछ रहे थे। मैंने समझा, सीधे आदमी हैं, होटल में लुट जाएंगे, साथ लेता आया। क्यों, कैसी रहेगी?

चक्रधर ने अपनी प्रसन्नता को छिपाकर कहा-क्या यह नहीं हो सकता कि मैं और किसी समय आ जाऊं?

यशोदानंदन-नहीं, मैं इस काम में विलंब नहीं करना चाहता। मैं तो उसी को लाकर दो-चार दिन के लिए यहां ठहरा सकता हूँ; पर शायद आपके घर के लोग यह पसंद न करेंगे।

चक्रधर ने सोचा, अगर मैंने और ज्यादा टालमटोल की, तो कहीं यह महाशय सचमुच ही अहिल्या को यहां न पहुंचा दें। तब तो सारा पर्दा ही खुल जाएगा। घर की दशा देखकर अवश्य ही उनका दिल फिर जाएगा। एक तो जरा-सा घर, कहीं बैठने की जगह नहीं, उस पर न कोई साज, न सामान। विवाह हो जाने के बाद दूसरी बात हो जाती है। लड़की कितने ही बड़े घराने की हो, समझ लेती है, अब तो यही मेरा घर है-अच्छा हो या बुरा। दो-चार दिन अपनी तकदीर को रोकर शांत हो जाती है। बोले-जी हां, यह मुनासिब नहीं मालूम होता। मैं ही चला चलूंगा।

घर में विद्या का प्रचार होने से प्रायः सभी प्राणी कुछ-न-कुछ उदार हो जाते हैं। निर्मला तो खुशी से राजी हो गई। हां, मुंशी वज्रधर को कुछ संकोच हुआ; लेकिन यह समझकर कि यह महाशय लड़के पर लट्टू हो रहे हैं, कोई अच्छी रकम दे मरेंगे, उन्होंने भी कोई आपत्ति न की। अब केवल ठाकुर हरिसेवकसिंह को सूचना देनी थी। चक्रधर यों तो तीसरे पहर पढ़ाने जाया करते थे, पर आज नौ बजते-बजते जा पहुंचे।

ठाकुर साहब इस वक्त अपनी प्राणेश्वरी लौंगी से कुछ बातें कर रहे थे। मनोरमा की माता का देहांत हो चुका था। लौंगी उस वक्त लौंडी थी। उसने इतनी कुशलता से घर संभाला कि ठाकुर साहब उस पर रीझ गए और उसे गृहिणी के रिक्त स्थान पर अभिषिक्त कर दिया। नाम और गुण में इतना प्रत्यक्ष विरोध बहुत कम होगा। लोग कहते हैं, पहले वह इतनी दुबली थी कि फूंक दो तो उड़ जाए; पर गृहिणी का पद पाते ही उसकी प्रतिमा स्थूल रूप धारण करने लगी।

क्षीण जलधारा बरसात की नदी की भांति बढ़ने लगी और इस समय तो स्थूल प्रतिमा की विशाल मूर्ति थी, अचल और अपार। बरसाती नदी का जल गड़हों और गड़हियों में भर गया था। बस, जल-ही-जल दिखाई देता था। न आंखों का पता था, न नाक का, न मुंह का, सभी जगह स्थूलता व्याप्त हो रही थी; पर बाहर की स्थूलता ने अंदर की कोमलता को अक्षुण्ण रखा था। सरल, सदय, हंसमुख, सहनशील स्त्री थी, जिसने सारे घर को वशीभूत कर लिया था। यह उसी की सज्जनता थी, जो नौकरों को वेतन न मिलने पर भी जाने न देती। मनोरमा पर तो वह प्राण देती थी। ईर्ष्या, क्रोध, मत्सर उसे छू भी न गया था। वह उदार न हो पर कृपण न थी। ठाकुर साहब कभी-कभी उस पर भी बिगड़ जाते थे, मारने दौड़ते थे, दो-एक बार मारा भी था; पर उसके माथे पर जरा भी बल न आता। ठाकुर साहब का सिर भी दुखे, तो उसकी जान निकल जाती थी। वह उसकी स्नेहमयी सेवा ही थी, जिसने ऐसे हिंसक जीव को जकड़ रखा था।

इस वक्त दोनों प्राणियों में कोई बहस छिड़ी हुई थी। ठाकुर साहब झल्ला-झल्ला कर बोल रहे थे और लौंगी अपराधियों की भांति सिर झुकाए खड़ी थी कि मनोरमा ने आकर कहा-बाबूजी आए हैं, आपसे कुछ कहना चाहते हैं।

ठाकुर साहब की भौंहें तन गईं। बोले-कहना क्या चाहते होंगे, रुपए मांगने आए होंगे। अच्छा, जाकर कह दो कि आते हैं, बैठिए।

लौंगी-इनके रुपए दे क्यों नहीं देते? बेचारे गरीब आदमी हैं; संकोच के मारे नहीं मांगते, कई महीने तो चढ़ गए?

ठाकुर-यह भी तुम्हारी मूर्खता थी, जिसकी बदौलत मुझे यह तावान देना पड़ता है। कहता था कि कोई ईसाइन रख लो; दो-चार रुपए में काम चल जाएगा। तुमने कहा-नहीं, कोई लायक आदमी होना चाहिए। इनके लायक होने में शक नहीं, पर यह तो बुरा मालूम होता है कि जब देखो, रुपए के लिए सिर पर सवार। अभी कल कह दिया कि घबराइए नहीं, दस-पांच दिनों में मिल जाएंगे तब फिर भूत की तरह सवार हो गए।

लौंगी-कोई ऐसी ही जरूरत आ पड़ी होगी, तभी आए होंगे। एक सौ बीस रुपए हुए न? मैं लाए देती हूँ।

ठाकुर-हां, संदूक खोलकर लाना तो कोई कठिन काम नहीं। अखर तो उसे होती है, जिसे कुआं खोदना पड़ता है।

लौंगी-वही कुआं तो उन्होंने भी खोदा है। तुम्हें चार महीने तक कुछ न मिले, तो क्या हाल होगा, सोचो। मुझे तो बेचारे पर दया आती है।

यह कहकर लौंगी गई और रुपए लाकर ठाकुर साहब से बोली-लो, दे आओ। सुन लेना, शायद कुछ कहना भी चाहते हों।

ठाकुर-लाई भी तो रुपए, नोट न थे क्या?

लौंगी-जैसे नोट वैसे रुपए, इसमें भी कुछ भेद है?

ठाकुर-अब तुमसे क्या कहूँ। अच्छा रख दो, जाता हूँ। पानी तो नहीं बरस रहा है कि भोग रहे होंगे।

ठाकुर साहब ने झुंझलाकर रुपए उठा लिए और बाहर चले, लेकिन रास्ते में क्रोध शांत हो गया। चक्रधर के पास पहुंचे, तो विनय के देवता बने हुए थे।

चक्रधर-आपको कष्ट देने……

ठाकुर-नहीं-नहीं, मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ। मैंने आपसे दस-पांच दिन में देने का वादा किया था। मेरे पास रुपए न थे; पर स्त्रियों को तो आप जानते हैं, कितनी चतुर होती हैं। घर में रुपए निकल आए। यह लीजिए।

चक्रधर-मैं इस वक्त एक दूसरे ही काम से आया हूँ। मुझे एक काम से आगरे जाना है। शायद दो-तीन दिन लगेंगे। इसके लिए क्षमा चाहता हूँ।

ठाकुर-हां-हां, शौक से जाइए, मुझसे पूछने की जरूरत न थी।

ठाकुर साहब अंदर चले गए तब मनोरमा ने पूछा-आप आगरे क्या करने जा रहे हैं? चक्रधर-एक जरूरी काम से जाता हूँ।

मनोरमा-कोई बीमारी है क्या? चक्रधर-नहीं, बीमारी कोई नहीं है।

मनोरमा-फिर क्या काम है, बताते क्यों नहीं? जब तक न बतलाइएगा, मैं जाने न दंगी। चक्रधर-लौटकर बता दूंगा।

मनोरमा-आप मुस्करा रहे हैं ! मैं समझ गई, नौकरी की तलाश में जाते हैं।

चक्रधर-नहीं मनोरमा, यह बात नहीं है। मेरी नौकरी करने की इच्छा नहीं है।

मनोरमा-तो क्या आप हमेशा इसी तरह देहातों में घूमा करेंगे?

चक्रधर-विचार तो ऐसा ही है, फिर जैसी ईश्वर की इच्छा!

मनोरमा-आप रुपए कहाँ से लाएंगे? उन कामों के लिए भी तो रुपयों की जरूरत होती होगी?

चक्रधर-भिक्षा मांगूंगा। पुण्य-कार्य भिक्षा पर ही चलते हैं।

मनोरमा-तो आजकल भी आप भिक्षा मांगते होंगे?

चक्रधर-हां, मांगता क्यों नहीं। न मांगू, तो काम कैसे चले!

मनोरमा-मुझसे तो आपने नहीं मांगा।

चक्रधर-तुम्हारे ऊपर तो विश्वास है कि जब मांगूंगा, तब दे दोगी; इसीलिए कोई विशेष काम आ पड़ने पर मांगूंगा।

मनोरमा-और जो उस वक्त मेरे पास न हुए तो?

चक्रधर-तो फिर कभी मांगूगा!

मनोरमा-तो आप मुझसे अभी मांग लीजिए, अभी मेरे पास रुपए हैं, दे दूंगी। फिर आप न जाने किस वक्त मांग बैठे?

यह कहकर मनोरमा अंदर गई और कल वाले एक सौ बीस रुपए लाकर चक्रधर के सामने रख दिए।

चक्रधर-इस वक्त तो मुझे जरूरत नहीं। फिर कभी ले लूंगा।

मनोरमा-जी नहीं, लेते जाइए। मेरे पास खर्च हो जाएंगे। एक दफे भी बाजार गई तो यह गायब हो जाएंगे। इसी डर के मारे मैं बाजार नहीं जाती।

चक्रधर-तुमने ठाकुर साहब से पूछ लिया है?

मनोरमा- उनसे क्यों पूंछू? गुड़िया लाती हूँ, तो उनसे नहीं पूछती; तो फिर इसके लिए उनसे क्यों पूछू?

चक्रधर-तो फिर यों मैं न लूंगा। यह स्थिति और ही है। यह खयाल हो सकता है कि मैंने तुमसे रुपए ठग लिए। तुम्हीं सोचो, हो सकता है या नहीं?

मनोरमा-अच्छा, आप अमानत समझकर अपने पास रखे रहिए।

इतने में सामने से मुश्की घोड़ों की फिटन जाती हुई दिखाई दी। घोड़ों के साजों पर गंगाजमुनी काम किया हुआ था। चार सवार भाले उठाए पीछे दौड़ते चले आते थे।

चक्रधर-कोई रानी मालूम होती हैं।

मनोरमा-जगदीशपुर की महारानी हैं। जब उनके यहां जाती हूँ, मुझे एक गिनी देती हैं। ये आठों गिनियां उन्हीं की दी हुई हैं। न जाने क्यों मुझे बहुत मानती हैं।

चक्रधर-इनकी कोठी दुर्गाकुंड की तरफ है न ! मैं एक दिन इनके यहां भिक्षा मांगने जाऊंगा।

मनोरमा-मैं जगदीशपुर की रानी होती, तो आपको बिना मांगे ही बहुत-सा धन दे देती। चक्रधर ने मुस्कराकर कहा-तब भूल जाती।

मनोरमा-जी नहीं; मैं कभी न भूलती।

चक्रधर-अच्छा, कभी याद दिलाऊंगा। इस वक्त यह रुपए अपने ही पास रहने दो।

मनोरमा-आपको इन्हें लेते संकोच क्यों होता है? रुपए मेरे हैं, महारानी ने मुझे दिए हैं। मैं इन्हें पानी में डाल सकती हूँ, किसी को मुझे रोकने का क्या अधिकार है ! आप न लेंगे तो मैं सच कहती हूँ, आज ही जाकर इन्हें गंगा में फेंक आऊंगी।

चक्रधर ने धर्म-संकट में पड़कर कहा-तुम इतना आग्रह करती हो, तो मैं लिए लेता हूँ लेकिन इसे अमानत समझूगा।

मनोरमा प्रसन्न होकर बोली-हां, अमानत ही समझ लीजिए।

चक्रधर-तो मैं जाता हूँ। किताब देखती रहना।

मनोरमा-आप अगर मुझसे बिना बताए चले जाएंगे, तो मैं कुछ न पढूंगी।

चक्रधर-यह तो बड़ी टेढ़ी शर्त है। बतला ही दूं। अच्छा, हंसना मत। तुम जरा भी मुस्कराई और मैं चला।

मनोरमा-मैं दोनों हाथों से मुंह बंद किए लेती हूँ।

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा-मेरे विवाह की कुछ बातचीत है। मेरी तो इच्छा नहीं है, पर एक महाशय जबरदस्ती खींचे लिए चले जाते हैं।

यह कहकर चक्रधर उठ खड़े हुए। मनोरमा भी उनके साथ-साथ आई। जब वह बरामदे से नीचे उतरे, तो प्रणाम किया और तुरंत अपने कमरे में लौट आई। उसकी आंखें डबडबाई हुई थीं और बार-बार रुलाई आती थी; मानो चक्रधर किसी दूर देश जा रहे हों।

कायाकल्प : अध्याय पांच

संध्या समय जब रेलगाड़ी बनारस से चली तो यशोदानंदन ने चक्रधर से पूछा-क्यों भैया, तुम्हारी राय में झूठ बोलना किसी दशा में क्षम्य है या नहीं?

चक्रधर ने विस्मित होकर कहा-मैं तो समझता हूँ, नहीं?

यशोदानंदन-किसी भी दशा में नहीं?

चक्रधर-मैं तो यही कहूँगा कि किसी दशा में भी नहीं, हालांकि कुछ लोग परोपकार के लिए असत्य को क्षम्य समझते हैं।

यशोदानंदन-मैं भी उन्हीं लोगों में हूँ। मेरा ख्याल है कि पूरा वृत्तांत सुनकर शायद आप भी मुझसे सहमत हो जाएं। मैंने अहिल्या के विषय में आपसे झूठी बातें कही हैं। वह वास्तव में मेरी लड़की नहीं है। उसके माता-पिता का हमें कुछ भी पता नहीं।

चक्रधर ने आंखें बड़ी-बड़ी करके कहा-तो फिर आपके यहां कैसे आई?

यशोदानंदन-विचित्र कथा है। पंद्रह वर्ष हुए एक बार सूर्यग्रहण लगा था। मैं उन दिनों कॉलेज में था। हमारी एक सेवा-समिति थी। हम लोग उसी स्नान के अवसर पर यात्रियों की सेवा करने प्रयाग आए थे। तुम तो उस वक्त बहुत छोटे-से रहे होंगे। इतना बड़ा मेला फिर नहीं लगा। वहीं हमें यह लडकी एक नाली में पड़ी रोती मिली। न जाने उसके मां-बाप नदी में डूब गए या भीड में कुचल गए। बहुत खोज की; पर उनका कुछ पता न लगा। विवश होकर उसे साथ लेते गए। चार-पांच वर्ष तक तो उसे अनाथालय में रखा; लेकिन जब कार्यकर्ताओं की फूट के कारण अनाथालय बंद हो गया, तो अपने ही घर में उसका पालन-पोषण करने लगा। जन्म से न हो, पर संस्कारों से वह हमारी लड़की है। उसके कुलीन होने में संदेह नहीं। उसका शील, स्वभाव और चातुर्य देखकर अच्छे-अच्छे घरों की स्त्रियां चकित रह जाती हैं। मैं इधर एक साल से उसके लिए योग्य वर की तलाश में था। ऐसा आदमी चाहता था, जो स्थिति को जानकर उसे सहर्ष स्वीकार करे और पाकर अपने को धन्य समझे। पत्रों में आपके लेख देखकर और आपके सेवा-कार्य की प्रशंसा सुनकर मेरी धारणा हो गई कि आप ही उसके लिए सबसे योग्य हैं। यह निश्चय करके आपके यहां आया। मैंने आपसे सारा वृत्तांत कह दिया। अब आपको अख्तियार है, उसे अपनाएं या त्यागें। हां, इतना कह सकता हूँ कि ऐसा रत्न आप फिर न पाएंगे। मैं यह जानता हूँ कि आपके पिताजी को यह बात असह्य होगी; पर यह भी जानता हूँ कि वीरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवाह नहीं करतीं और अंत में उस पर विजय ही पाती हैं।

चक्रधर गहरे विचार में पड़ गए। एक तरफ अहिल्या का अनुपम सौंदर्य और उज्ज्वल चरित्र था, दूसरी ओर माता-पिता का विरोध और लोकनिंदा का भय; मन में तर्क-संग्राम होने लगा। यशोदानंदन ने उन्हें असमंजस में पड़े देखकर कहा-आप चिंतित देख पड़ते हैं और चिंता की बात भी है; लेकिन जब आप जैसे सुशिक्षित और उदार पुरुष विरोध और भय के कारण कर्त्तव्य और न्याय से मुंह मोड़ें, तो फिर हमारा उद्धार हो चुका ! मैं आपसे सच कहता हूँ, यदि मेरे दो पुत्रों में से एक भी क्वांरा होता और अहिल्या उसे स्वीकार करती तो मैं बड़े हर्ष से उसका विवाह उससे कर देता। आपके सामाजिक विचारों की स्वतंत्रता का परिचय पाकर ही मैंने आपके ऊपर इस बालिका के उद्धार का भार रखा और यदि आपने कर्त्तव्य को न समझा, तो मैं नहीं कह सकता, उस अबला की क्या दशा होगी!

चक्रधर रूप-लावण्य की ओर से तो आंखें बंद कर सकते थे, लेकिन उद्धार के भाव को दबाना उनके लिए असंभव था। वह स्वतंत्रता के उपासक थे और निर्भीकता स्वतंत्रता की पहली सीढ़ी है। उनके मन ने कहा, क्या यह काम ऐसा है कि समाज हंसे? समाज को इसकी प्रशंसा करनी चाहिए। अगर ऐसे काम के लिए कोई मेरा तिरस्कार करे, तो मैं तृण बराबर भी उसकी परवाह न करूंगा। चाहे वह मेरे माता-पिता ही हों। दृढ़ भाव से बोले-मेरी ओर से आप जरा भी शंका न करें। मैं इतना भीरु नहीं हूँ कि ऐसे कामों में समाज-निंदा से डरूं। माता-पिता को प्रसन्न रखना मेरा धर्म है, लेकिन कर्त्तव्य और न्याय की हत्या करके नहीं। कर्त्तव्य के सामने माता-पिता की इच्छा का मूल्य नहीं है।

यशोदानंदन ने चक्रधर को गले लगाते हुए कहा-भैया, तुमसे ऐसी ही आशा थी।

यह कहकर यशोदानंदन ने अपना सितार उठा लिया और बजाने लगे। चक्रधर को कभी सितार की ध्वनि इतनी प्रिय, इतनी मधुर न लगी थी। और न चांदनी कभी इतनी सुहृदय और विहसित। दाएं-बाएं चांदनी छिटकी हुई थी और उसकी मंद छटा में अहिल्या रेलगाड़ी के साथ, अगणित रूप धारण किए दौड़ती चली जाती थी। कभी वह उछलकर आकाश में जा पहुंची थी, कभी नदियों की चंद्रचंचल तरंगों में। यशोदानंदन को न कभी इतना उल्लास हुआ था, न चक्रधर को कभी इतना गर्व। दोनों आनंद-कल्पना में डूबे हुए थे।

गाड़ी आगरे पहुंची तो दिन निकल आया था। सुनहरा नगर हरे-भरे कुंजों के बीच में विश्राम कर रहा था, मानो बालक माता की गोद में सोया हो।

इस नगर को देखते ही चक्रधर को कितनी ही ऐतिहासिक घटनाएं याद आ गईं। सारा नगर किसी उजड़े हुए घर की भांति श्रीहीन हो रहा था।

मुंशी यशोदानंदन अभी कुलियों को पुकार रहे थे कि उनकी निगाह पुलिस के सिपाहियों पर पड़ी। चारों तरफ पहरा था। मुसाफिरों के बिस्तरे, संदूक खोल-खोलकर देखे जाने लगे। एक थानेदार ने यशोदानंदन का भी असबाब देखना शुरू किया।

यशोदानंदन ने आश्चर्य से पूछा-क्यों साहब, आज यह सख्ती क्यों है?

थानेदार-आप लोगों ने जो कांटे बोए हैं, उन्हीं का फल है। शहर में फसाद हो गया है। यशोदानंदन-अभी तीन दिन पहले तो अमन का राज्य था, यह भूत कहाँ से उठ खड़ा हुआ?

इतने में समिति का एक सेवक दौड़ता हुआ आ पहुंचा। यशोदानंदन ने आगे बढ़कर पूछा-क्यों राधा मोहन, यह क्या मामला हो गया? अभी जिस दिन मैं गया हूँ, उस दिन तक तो दंगे का कोई लक्षण न था।

राधा-जिस दिन आप गये, उसी दिन पंजाब से मौलवी दीनमुहम्मद साहब का आगमन हुआ। खुले मैदान में मुसलमानों का एक बड़ा जलसा हुआ। उसमें मौलाना साहब ने न जाने क्या जहर उगला कि तभी से मुसलमानों को कुरबानी की धुन सवार है। इधर हिंदुओं को भी यह जिद है कि चाहे खून की नदी बह जाए, पर कुरबानी न होने पाएगी। दोनों तरफ से तैयारियां हो रही हैं; हम लोग तो समझाकर हार गए।

यशोदानंदन ने पूछा-ख्वाजा महमूद कुछ न बोले?

राधा-वही तो उस जलसे के प्रधान थे।

यशोदानंदन आंखें फाड़कर बोले-ख्वाजा महमूद !

राधा-जी हां, ख्वाजा महमूद ! आप उन्हें फरिश्ता समझें। असल में वे रंगे सियार हैं। हम लोग हमेशा से कहते आए हैं कि इनसे होशियार रहिए, लेकिन आपको न जाने क्यों उन पर इतना विश्वास था।

यशोदानंदन ने आत्मग्लानि से पीड़ित होकर कहा-जिस आदमी को आज पचीस बरसों से देखता आया हूँ, जिसके साथ कॉलेज में पढ़ा, जो इसी समिति का किसी जमाने में मेंबर था उस पर क्योंकर विश्वास न करता? दुनिया कुछ कहे, पर मुझे ख्वाजा महमूद पर कभी शक न होगा।

राधा-आपको अख्तियार है कि उन्हें देवता समझें, मगर अभी-अभी आप देखेंगे कि वे कितनी मुस्तैदी से कुरबानी की तैयारी कर रहे हैं। उन्होंने देहातों से लठैत बुलाए हैं, उन्हीं ने गोएं मोल ली हैं और उन्हीं के द्वार पर कुरबानी होने जा रही है।

यशोदानंदन-ख्वाजा महमूद के द्वार पर कुर्बानी होगी? उनके द्वार पर इसके पहले या तो मेरी कुर्बानी हो जाएगी या ख्वाजा महमूद की। तांगेवाले को बुलाओ।

राधा-बहुत अच्छा हो, यदि आप इस समय यहीं ठहर जाएं।

यशोदानंदन-वाह-वाह ! शहर में आग लगी हुई है और तुम कहते हो, मैं यहीं रह जाऊं। जो औरों पर बीतेगी, वही मुझ पर भी बीतेगी, इससे क्या भागना। तुम लोगों ने बड़ी भूल की कि मुझे पहले से सूचना न दी।

राधा-कल दोपहर तक तो हमें खुद ही न मालूम था कि क्या गुल खिल रहा है। ख्वाजा साहब के पास गए तो उन्होंने विश्वास दिलाया कि कुर्बानी न होने पाएगी, आप लोग इत्मीनान रखें। हमसे तो यह कहा, उधर शाम ही को लठैत आ पहुंचे और मुसलमानों का डेपुटेशन सिटी मैजिस्ट्रेट के पास कुर्बानी की सूचना देने पहुँच गया।

यशोदानंदन-महमूद भी डेपुटेशन में थे?

राधा-वही तो उसके कर्ता-धर्ता थे, भला वही क्यों न होते? हमारा तो विचार है कि वही इस फिसाद की जड़ हैं।

यशोदानंदन-अगर महमूद में सचमुच यह कायापलट हो गया है, तो मैं यही कहूँगा कि धर्म से ज्यादा द्वेष पैदा करने वाली वस्तु संसार में नहीं; और कोई ऐसी शक्ति नहीं है, जो महमूद में द्वेष के भाव पैदा कर सके। चलो पहले उन्हीं से बातें होंगी। मेरे द्वार पर तो इस वक्त बड़ा जमाव होगा।

राधा-जी हां, इधर आपके द्वार पर जमाव है, उधर ख्वाजा साहब के ! बीच में थोड़ी-सी जगह खाली है।

तीनों आदमी तांगे पर बैठकर चले। सड़कों पर पुलिस के जवान चक्कर लगा रहे थे। मुसाफिरों की छड़ियां छीन ली जाती थीं। दो-चार आदमी भी साथ न खड़े होने पाते थे। सिपाही तुरंत ललकारता था। दुकानें सब बंद थीं, कुंजड़े भी साग बेचते न नजर आते थे। हां, गलियों में लोग जमा होकर बातें कर रहे थे।

कुछ दूर तक तीनों आदमी मौन धारण किए बैठे रहे। चक्रधर शंकित होकर इधर-उधर ताक रहे थे। जरा भी घोड़ा रुक जाता तो उनका दिल धड़कने लगता कि किसी ने तांगा रोक तो नहीं लिया; लेकिन यशोदानंदन के मुख पर ग्लानि का गहरा चिह्न दिखाई दे रहा था। उनके मुहल्ले में आज तक कभी कुरबानी न हुई थी। हिंदू और मुसलमान का भेद ही न मालूम होता था। उन्हें आश्चर्य होता था कि और शहरों में कैसे हिंदू -मुसलमानों में झगड़े हो जाते हैं। और तीन ही दिन में यह नौबत आ गई।

सहसा उन्होंने उत्तेजित होकर कहा-राधामोहन देखो, मैं तो यहीं उतर जाता हूँ! जरा महमूद से मिलूंगा। तुम इन बाबू साहब को लेकर घर जाओ। आप मेरे एक मित्र के लड़के हैं, यहां सैर करने आए हैं। बैठक में आपकी चारपाई डलवा देना और देखो, अगर दैव संयोग से मैं लौटकर न आ सकूं, तो घबराने की बात नहीं। जब लोग खून-खच्चर करने पर तुले हुए हैं तो सब कुछ संभव है और मैं उन आदमियों में नहीं हूँ कि गौ की हत्या होता देखूं और शांत खड़ा रहूँ। अगर मैं लौटकर न आ सकूं, तो तुम घर में कहला देना कि अहिल्या का पाणिग्रहण आप ही के साथ कर दिया जाए।

यह कहकर उन्होंने कोचवान से तांगा रोकने को कहा।

चक्रधर-मैं भी आपके साथ ही रहना चाहता हूँ।

यशोदानंदन-नहीं भैया, तुम मेरे मेहमान हो, तुम्हें मेरे साथ रहने की जरूरत नहीं; तुम चलो, मैं भी अभी आता हूँ।

चक्रधर-क्या आप समझते हैं कि गौ-रक्षा आप ही का धर्म है, मेरा धर्म नहीं?

यशोदानंदन-नहीं, यह बात नहीं है, बेटा ! तुम मेरे मेहमान हो और तुम्हारी रक्षा करना मेरा धर्म है।

इस वक्त तांगा धीरे-धीरे ख्वाजा महमूद के मकान के सामने आ पहुंचा। हजारों आदमियों का जमाव था। यद्यपि किसी के हाथ में लाठी या डंडे न थे; पर उनके मुख जिहाद के जोश से तमतमाए हुए थे। यशोदानंदन को देखते ही कई आदमी उनकी तरफ लपके; लेकिन जब उन्होंने जोर से कहा-मैं तुमसे लड़ने नहीं आया हूँ। कहाँ हैं ख्वाजा महमूद? मुमकिन हो तो जरा उन्हें बुला लो, तो लोग हट गए।

जरा देर में एक लंबा-सा आदमी गाढ़े की अचकन पहने, आकर खड़ा हो गया। भरा हुआ बदन था, लम्बी दाढ़ी, जिसके कुछ बाल खिचड़ी हो गए थे और गोरा रंग। मुख से शिष्टता झलक रही थी। यही ख्वाजा महमूद थे।

यशोदानंदन ने त्यौरियां बदलकर कहा-क्यों ख्वाजा साहब, आपको याद है, इस मुहल्ल में कभी कुरबानी हुई है?

महमूद-जी नहीं, जहां तक मेरा ख्याल है, यहां कभी कुर्बानी नहीं हुई।

यशोदानंदन-तो फिर आज आप यहां कुर्बानी करने की नयी रस्म क्यों निकाल रहे हैं?

महमूद इसलिए कि कुरबानी करना हमारा हक है। अब तक हम आपके जजबात का लिहाज करते थे, अपने माने हुए हक भूल गए थे। लेकिन जब आप लोग अपने हकों के सामने हमारे जजबात की परवाह नहीं करते, तो कोई वजह नहीं कि हम अपने हकों के सामने आपके जजबात की परवाह करें। मुसलमानों की शुद्धि करने का आपको पूरा हक हासिल है, लेकिन कम से कम पांच सौ बरसों में आपके यहां शुद्धि की कोई मिसाल नहीं मिलती। आप लोगों ने एक मुर्दा हक को जिंदा किया है। इसलिए न, कि मुसलमानों की ताकत और असर कम हो जाए? जब आप हमें जेर करने के लिए नए-नए हथियार निकाल रहे हैं, तो हमारे लिए इसके सिवा और क्या चारा है कि अपने हथियारों को दूनी ताकत से चलाएं।

यशोदा-इसके यह मानी हैं कि कल आप हमारे द्वारों पर, हमारे मंदिरों के सामने कुरबानी करें और हम चुपचाप देखा करें! आप यहां हरगिज कुरबानी नहीं कर सकते और करेंगे तो इसकी जिम्मेदारी आपके सिर होगी।

यह कहकर यशोदानंदन फिर तांगे पर बैठे। दस-पांच आदमियों ने तांगे को रोकना चाहा; पर कोचवान ने घोड़ा तेज कर दिया। दम के दम तांगा उड़ता हुआ यशोदानंदन के द्वार पर पहुँच गया, जहां हजारों आदमी खड़े थे। इन्हें देखते ही चारों तरफ हलचल मच गई। लोगों ने चारों तरफ से आकर उन्हें घेर लिया। अभी तक फौज का अफसर न था, फौज दुविधा में पड़ी हुई थी, समझ में न आता था कि क्या करें। सेनापति के आते ही सिपाहियों में जान-सी पड़ गई, जैसे सुख धान में पानी पड़ जाए।

यशोदानंदन तांगे से उतर पड़े और ललकारकर बोले-क्यों भाइयों, क्या विचार है? यह कुरबानी होगी? आप जानते हैं, इस मुहल्ले में आज तक कभी कुरबानी नहीं हुई। अगर आज हम यहां कुरबानी करने देंगे, तो कौन कह सकता है कि कल को हमारे मंदिर के सामने गौहत्या न होगी।

कई आवाजें एक साथ आईं-हम मर मिटेंगे, पर यहां कुरबानी न होने देंगे।

यशोदानंदन-खूब सोच लो, क्या करने जा रहे हो। वह लोग सब तरह से लैस हैं। ऐसा न हो कि तुम लाठियों के पहले ही वार में वहां से भाग खड़े हो?

कई आवाजें एक साथ आईं-भाइयों, सुन लो; अगर कोई पीछे कदम हटाएगा, तो उसे गौहत्या का पाप लगेगा।

एक सिक्ख जवान-अजी देखिए, छक्के छुड़ा देंगे।

एक पंजाबी हिंदू -एक-एक की गर्दन तोड़ के रख दूंगा।

आदमियों को यों उत्तेजित करके यशोदानंदन आगे बढ़े और जनता ‘महावीर’ और ‘श्रीरामचन्द्र’ की जयध्वनि से वायुमंडल को कंपायमान करती हुई उनके पीछे चली। उधर मुसलमानों ने भी डंडे संभाले। करीब था कि दोनों दलों में मुठभेड़ हो जाए कि एकाएक चक्रधर आगे बढ़कर यशोदानंदन के सामने खड़े हो गए और विनीत किंतु दृढ़ भाव से बोले-आप अगर उधर जाते हैं, तो मेरी छाती पर पांव रखकर जाइए। मेरे देखते यह अनर्थ न होने पाएगा।

यशोदानंदन ने चिढ़कर कहा-हट जाओ। अगर एक क्षण की भी देर हुई, तो फिर पछताने के सिवा और कुछ हाथ न आएगा।

चक्रधर-आप लोग वहां जाकर करेंगे क्या?

यशोदानंदन-हम इन जालिमों से गौ को छीन लेंगे।

चक्रधर-अहिंसा का नियम गौओं ही के लिए नहीं, मनुष्यों के लिए भी तो है।

यशोदानंदन-कैसी बातें करते हो, जी! क्या यहां खड़े होकर अपनी आंखों से गौ की हत्या होते देखें।

चक्रधर-अगर आप एक बार दिल थामकर देख लेंगे, तो यकीन है कि फिर आपको कभी यह दृश्य न देखना पड़े।

यशोदानंदन-हम इतने उदार नहीं हैं।

चक्रधर-ऐसे अवसर पर भी?

यशोदानंदन हम महान् से महान उद्देश्य के लिए भी यह मूल्य नहीं दे सकते। इन दामों स्वर्ग भी मंहगा है।

चक्रधर-मित्रों, जरा विचार से काम लो। कई आवाजें-विचार से काम लेना कायरों का काम है।

एक सिक्ख जवान-जब डंडे से काम लेने का मौका आए, तो विचार को बंद करके रख देना चाहिए।

चक्रधर-तो फिर जाइए, लेकिन उस गौ को बचाने के लिए आपको अपने एक भाई का खून करना पड़ेगा।

सहसा एक पत्थर किसी की तरफ से आकर चक्रधर के सिर में लगा। खून की धारा बह निकली; चक्रधर अपनी जगह से हिले नहीं। सिर थामकर बोले-अगर मेरे रक्त से आपकी क्रोधाग्नि शांत होती हो, तो यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है। अगर मेरा खून और कई जानों की रक्षा कर सके, तो इससे उत्तम कौन मृत्यु होगी?

फिर दूसरा पत्थर आया; पर अबकी चक्रधर को चोट न लगी। पत्थर कानों के पास से निकल गया।

यशोदानंदन गरजकर बोले-यह कौन पत्थर फेंक रहा है? सामने क्यों नहीं आता? क्या वह समझता है कि उसी ने गौ-रक्षा का ठेका ले लिया है? अगर वह बड़ा वीर है, तो क्यों नहीं चंद कदम आगे आकर अपनी वीरता दिखाता? पीछे खड़ा पत्थर क्यों फेंकता है !

एक आवाज-धर्मद्रोहियों को मारना अधर्म नहीं है।

यशोदानंदन-जिसे तुम धर्म का द्रोही समझते हो, वह तुमसे कहीं सच्चा हिंदू है !

एक आवाज-सच्चे हिंदू वही तो होते हैं,जो मौके पर बगलें झांकने लगें और शहर छोड़कर दो-चार दिन के लिए खिसक जाएं।

कई आदमी-यह कौन मंत्री पर आक्षेप कर रहा है? कोई उसकी जबान पकड़ कर क्यों नहीं खींच लेता?

यशोदानंदन-आप लोग सुन रहे हैं, मुझ पर कैसे-कैसे दोष लगाए जा रहे हैं। मैं सच्चा हिंदू नहीं; मैं मौका पड़ने पर बगलें झांकता हूँ और जान बचाने के लिए शहर से भाग जाता हूँ। ऐसा आदमी आपका मंत्री बनने के योग्य नहीं है। आप उस आदमी को अपना मंत्री बनाएं, जिसे आप सच्चा हिंदू समझते हों। मैं धर्म से पहले अपने आत्मगौरव की रक्षा करना चाहता हूँ।

कई आदमी-महाशय, आपको ऐसे मुंहफट आदमियों की बात का खयाल न करना चाहिए।

यशोदानंदन-यह मेरी पच्चीस बरसों की सेवा का उपहार है; जिस सेवा का फल अपमान हो, उसे दूर ही से मेरा सलाम है।

यह कहते हुए मुंशी यशोदानंदन घर की तरफ चले। कई आदमियों ने उन्हें रोकना चाहा, कई आदमी उनके पैरों पड़ने लगे; लेकिन उन्होंने एक न मानी। वह तेजस्वी आदमी थे। अपनी संस्था पर स्वेच्छाचारी राजाओं की भांति शासन करना चाहते थे। आलोचनाओं को सहन करने की उनमें सामर्थ्य ही न थी।

उनके जाते ही यहां आपस में तू-तू, मैं-मैं’ होने लगी। एक दूसरे पर आक्षेप करने लगे। गालियों की नौबत आई, यहां तक कि दो-चार आदमियों से हाथापाई भी हो गई।

चक्रधर ने जब देखा कि इधर से अब कोई शंका नहीं है, तो वह लपककर मुसलमानों के सामने आ पहुंचे और उच्च स्वर में बोले-हजरात, मैं कुछ अर्ज करने की इजाजत चाहता हूँ।

एक आदमी-सुनो-सुनो, यही तो अभी हिंदुओं के सामने खड़ा था।

दूसरा आदमी-दुश्मनों के कदम उखड़ गए। सब भागे जा रहे हैं।

तीसरा-इसी ने शायद उन्हें समझा-बुझाकर हटा दिया है। देखो क्या कहता है?

चक्रधर-अगर इस गाय की कुरबानी करना आप अपना मजहबी फर्ज समझते हों, तो शौक से कीजिए। मैं आपके मजहबी मामले में दखल नहीं दे रहा हूँ। लेकिन क्या यह लाजिमी है कि इसी जगह कुरबानी की जाए?

एक आदमी-हमारी खुशी है; जहां चाहेंगे, कुरबानी करेंगे, तुमसे मतलब?

चक्रधर-बेशक, मुझे बोलने का कोई हक नहीं है, लेकिन इस्लाम की जो इज्जत मेरे दिल में है, वह मुझे बोलने के लिए मजबूर कर रही है। इस्लाम ने कभी दूसरे मजहब वालों की दिलजारी नहीं की। उसने हमेशा दूसरों के जजबात का एहतराम किया है। बगदाद और रूस, स्पेन और मिस्र की तारीखें उस मजहबी आजादी की शाहिद हैं, जो इस्लाम ने उन्हें अदा की थीं। अगर आप हिंदू जजबात का लिहाज करके किसी दूसरी जगह कुरबानी करें, तो यकीनन इस्लाम के वकार में फर्क न आएगा।

एक मौलवी ने जोर देकर कहा-ऐसी मीठी-मीठी बातें हमने बहुत सुनी हैं। कुरबानी यहीं होगी। जब दूसरे हमारे ऊपर जब्र करते हैं, तो हम उनके जजबात का क्यों लिहाज करें?

ख्वाजा महमूद बड़े गौर से चक्रधर की बातें सुन रहे थे। मौलवी साहब की उद्दण्डता पर चिढ़कर बोले-क्या शरीयत का हुक्म है कि कुरबानी यहीं हो? किसी दूसरी जगह नहीं की जा सकती?

मौलवी साहब ने ख्वाजा महमूद की तरफ अविश्वास की दृष्टि से देखकर कहा-मजहब के मामले में उलमा के सिवा और किसी को दखल देने का मजाज नहीं है।

ख्वाजा-बुरा न मानिएगा, मौलवी साहब ! अगर दस सिपाही यहां आकर खड़े हो जाएं तो बगलें झांकने लगिएगा!

मौलवी-किसकी मजाल है कि हमारे दीन-ओ-उमूर में मजाहमत करे?

ख्वाजा-आपको तो अपने हलवे-मांडे से काम है, जिम्मेदारी तो हमारे ऊपर आएगी, दूकानें तो हमारी लुटेंगी, आपके पास फटे बोरिए और फूटे बंधने के सिवा और क्या रखा है? जब वे लोग मसलहत देखकर किनारा कर गए तो हमें भी अपनी जिद से बाज आ जाना चाहिए। क्या आप समझते हैं कि वे लोग आपसे डरकर भागे? हमारे से दुगने आदमी अगर चढ़ आते, तो संभालना मुश्किल हो जाता।

मौलवी-जनाब, जिहाद करना कोई खालाजी का घर नहीं। आप दुनिया के बंदे हैं, दीन, हकीकत क्या समझें?

ख्वाजा-बजा है; आपकी शहादत तो कहीं नहीं गई है। जिल्लत तो हमारी है।

मौलवी-भाइयों, आप लोग ख्वाजा साहब की ज्यादती देख रहे हैं। आप ही फैसला कीजिए कि दीन मामलात में उलमा का फैसला वाजिब है या उमरा का?

एक मोटे-ताजे दढ़ियल आदमी ने कहा-आप बिस्मिल्लाह कीजिए। उमरा को दीन से कोई सरोकार नहीं।

यह सुनते ही एक आदमी बड़ा-सा छुरा लेकर निकल पड़ा और कई आदमी गाय की सींगें पकड़ने लगे। गाय अब तक तो चुपचाप खड़ी थी। छुरा देखते ही वह छटपटाने लगी। चक्रधर यह दृश्य देखकर तिलमिला उठे। निराशा और क्रोध से कांपते हुए बोले-भाइयों, एक गरीब बेकस जानवर को मारना बहादुरी नहीं। खुदा बेकसों के खून से खुश नहीं होता। अगर जवांमर्दी दिखानी है, तो किसी शेर का शिकार करो, किसी चीते को मारो, किसी जंगली सूअर का पीछा करो। उसकी कुरबानी से, मुमकिन है, खुदा खुश हो। जब तक हिंदू सामने खड़े थे, किसी की हिम्मत न पड़ी कि छुरा हाथ में लेता। जब वे चले गए तो आप लोग शेर हो गए?

एक आदमी-तो क्यों चले गए? मैदान में खड़े क्यों न रहे? गौ-रक्षा का जोश दिखाते। दुम दबाकर भाग क्यों खड़े हुए?

चक्रधर-भाग नहीं खड़े हुए और न लड़ने में वे आपसे कम ही हैं। उनकी समझ में यह बात आ गई कि जानवर की हिमायत में इंसान का खून बहाना इंसान को मुनासिब नहीं।

मौलवी-शुक्र है, उन्हें इतनी समझ तो आई!

चक्रधर-लेकिन आप अभी तक उनकी दिलजारी पर कमर बांधे हुए हैं। खैर आपको अख्तियार है, जो चाहें, करें। मगर मैं यकीन के साथ कहता हूँ कि यह दिलजारी एक दिन रंग लाएगी। यह न समझिए कि इस वक्त कोई हिंदू मैदान में नहीं है। हर एक कुरबानी हिंदुस्तान के इक्कीस करोड़ हिंदुओं के दिलों में जख्म कर देती है, और इतनी बड़ी तादाद के दिलों को दुखाना बड़ी से बड़ी कौम के लिए भी एक दिन पछतावे का बाइस हो सकता है? अगर आपकी गिजा है, तो शौक से खाइए। लाखों गौएं रोज कत्ल होती हैं, हिंदू सिर नहीं उठाते। फिर यह क्योंकर मुमकिन है कि वह आपके मजहबी मामले में दखल दें? हिंदुओं से ज्यादा बेतअस्सुब कौम दुनिया में नहीं है, लेकिन जब आप उनकी दिलजारी और महज दिलजारी के लिए कुरबानी करते हैं, तो उनको जरूर सदमा होता है। और उनके दिलों में जो शोला उठता है, उसका आप कयास नहीं कर सकते। अगर आपको यकीन न आए, तो देख लीजिए कि गाय के साथ ही एक हिंदू कितनी खुशी से अपनी जान दे देता है!

यह कहते हुए चक्रधर ने तेजी से लपककर गाय की गर्दन पकड़ ली और बोले-आज आपको इस गौ के साथ एक इंसान की भी कुरबानी करनी पड़ेगी।

सभी आदमी चकित हो-होकर चक्रधर की ओर ताकने लगे। मौलवी साहब ने क्रोध से उन्मत्त होकर कहा-कलाम पाक की कसम, हट जाओ, वरना गजब हो जाएगा।

चक्रधर-हो जाने दीजिए। खुदा की यही मरजी है कि आज गाय के साथ मेरी भी कुरबानी हो।

ख्वाजा महमूद-क्यों भई, तुम्हारा घर कहाँ है?

चक्रधर-परदेशी मुसाफिर हूँ।

ख्वाजा-कसम खुदा की, तुम जैसा दिलेर आदमी नहीं देखा। नाम के लिए तो गाय को माता कहने वाले बहुत हैं, पर ऐसे विरले ही देखे, जो गौ के पीछे जान लड़ा दे। तुम कलमा क्यों नहीं पढ़ लेते?

चक्रधर-मैं एक खुदा का कायल हूँ। वही सारे जहान का खालिक और मालिक है। फिर और किस पर ईमान लाऊं?

ख्वाजा-वल्लाह, तब तो तुम सच्चे मुसलमान हो। हमारे हजरत को अल्लाहताला का रसूल मानते हो?

चक्रधर-बेशक मानता हूँ, उनकी इज्जत करता हूँ और उनकी तौहीद का कायल हूँ। ख्वाजा-हमारे साथ खाने-पीने से परहेज तो नहीं करते?

चक्रधर-जरूर करता हूँ, उसी तरह, जैसे किसी ब्राह्मण के साथ खाने से परहेज करता हूँ, अगर वह पाक-साफ न हो।

ख्वाजा-काश, तुम जैसे समझदार तुम्हारे और भाई भी होते। मगर यहां तो लोग हमें मलिच्छ कहते हैं। यहां तक कि हमें कुत्तों से भी नजिस समझते हैं। उनकी थालियों में कुत्ते खाते हैं; पर मुसलमान उनके गिलास में पानी नहीं पी सकता। वल्लाह, आपसे मिलकर दिल खुश हो गया। अब कुछ-कुछ उम्मीद हो रही है कि शायद दोनों कौमों में इत्तफाक हो जाए। अब आप जाइए। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ, कुरबानी न होगी।

चक्रधर-और साहबों से तो पूछिए।

कई आवाजें-होती तो जरूर, लेकिन अब न होगी। आप वाकई दिलेर आदमी हैं।

ख्वाजा-यहां आप कहाँ ठहरे हुए हैं? मैं आपसे मिलूंगा।

चक्रधर-आप क्यों तकलीफ उठाएंगे, मैं खुद हाजिर हूँगा।

ख्वाजा महमूद ने चक्रधर को गले लगाकर रुखसत किया। इधर उसी वक्त गाय की पगहिया खोल दी गई। वह जान लेकर भागी। और लोग भी इस ‘नौजवान’ की ‘हिम्मत’ और ‘जवांमर्दी’ की तारीफ करते हुए चले।

चक्रधर को आते देखकर यशोदानंदन अपने कमरे से निकल आए और उन्हें छाती से लगाते हुए बोले-भैया, आज तुम्हारा धैर्य और साहस देखकर मैं दंग रह गया। तुम्हें देखकर मुझे अपने ऊपर लज्जा आ रही है। तुमने आज हमारी लाज रख ली। अगर यहां कुरबानी हो जाती, तो हम मुंह दिखाने लायक भी न रहते।

एक बूढ़ा-आज तुमने वह काम कर दिखाया, जो सैकड़ों आदमियों के रक्तपात से भी न

होता!

चक्रधर-मैंने कुछ भी नहीं किया। यह उन लोगों की शराफत थी कि उन्होंने अनुनय-विनय सुन ली।

यशोदानंदन-अरे भाई, रोने का भी तो कोई ढंग होता है। अनुनय-विनय हमने भी सैकड़ों ही बार की, लेकिन हर दफे गुत्थी और उलझती ही गई। आइए, आपके घाव की मरहम-पट्टी तो हो जाए!

चक्रधर को कमरे में बैठाकर यशोदानंदन ने घर में जाकर अपनी स्त्री वागीश्वरी से कहा आज मेरे एक दोस्त की दावत करनी होगी। भोजन खूब दिल लगाकर बनाना। अहिल्या, आज तुम्हारी पाक-परीक्षा होगी।

अहिल्या-वह कौन आदमी था दादा, जिसने मुसलमानों के हाथों से गौ की रक्षा की?

यशोदानंदन-वही तो मेरे दोस्त हैं, जिनकी दावत करने को कह रहा हूँ। बेचारे रास्ते में मिल गए। यहां सैर करने आए हैं। मसूरी जाएंगे।

अहिल्या-(वागीश्वरी से) अम्मां, जरा उन्हें अन्दर बुला लेना, तो दर्शन करेंगे। दादा, मैं कोठे पर बैठी सब तमाशा देख रही थी। जब हिंदुओं ने उन पर पत्थर फेंकना शुरू किया, तो ऐसा क्रोध आता था कि वहीं से फटकारूं। बेचारे के सिर से खून निकलने लगा लेकिन वह जरा भी न बोले। जब वह मुसलमानों के सामने आकर खड़े हुए तो मेरा कलेजा धड़कने लगा कि कहीं सबके सब उन पर टूट न पड़ें। बड़े ही साहसी आदमी मालूम होते हैं। सिर में चोट आई है क्या?

यशोदानंदन-हां, खून जम गया है, लेकिन उन्हें उसकी कुछ परवाह ही नहीं। डॉक्टर को बुला रहा हूँ।

वागीश्वरी-खा-पी चुकें, तो जरा देर के लिए यहीं भेज देना। मेरे लड़कों की जोड़ी तो हैं? यशोदानंदन-अच्छी बात है। जरा सफाई कर लेना।

पड़ोस में एक डॉक्टर रहते थे। यशोदानंदन ने उन्हें बुलाकर घाव पर पट्टी बंधवा दी। फिर देर तक बातें होती रहीं। धीरे-धीरे सारा मुहल्ला जमा हो गया। कई श्रद्धालु जनों ने तो चक्रधर के चरण छुए। आखिर भोजन का समय आया। जब लोग खाने बैठे, तो यशोदानंदन ने कहा-भाई, बाबूजी से जो कुछ कहना हो, कह लो; फिर मुझसे शिकायत न करना कि तुम उन्हें नहीं लाए। बाबूजी, इस घर की तथा मुहल्ले की कई स्त्रियों की इच्छा है कि आपके दर्शन करें। आपको कोई आपत्ति तो नहीं है?

वागीश्वरी-हां बेटा, जरा देर के लिए चले आना; नहीं तो अपने घर जाके कहोगे न कि मैंने जिन लोगों के लिए जान लड़ा दी, उन्होंने बात भी न पूछी।

चक्रधर ने शरमाते हुए कहा-आप लोगों ने मेरी जो खातिर की है, वह कभी नहीं भूल सकता। उसके लिए मैं सदैव आपका एहसान मानता रहूँगा।

ज्यों ही लोग चौके से उठे, अहिल्या ने कमरे की सफाई करनी शुरू की। दीवार की तसवीरें साफ की, फर्श फिर से झाड़कर बिछाया, एक छोटी-सी मेज पर फूलों का गिलास रख दिया, एक कोने में अगरबत्ती जलाकर रख दी। पान बनाकर तश्तरी में रखे। इन कामों से फुर्सत पाकर उसने एकांत में बैठकर फूलों की माला गूंथनी शुरू की। मन में सोचती थी कि न जाने कौन है, स्वभाव कितना सरल है! लजाने में तो औरतों से भी बढ़े हुए हैं। खाना खा चुके, पर सिर न उठाया। देखने में ब्राह्मण मालूम होते हैं। चेहरा देखकर तो कोई नहीं कह सकता कि वह इतने साहसी होंगे।

सहसा वागीश्वरी ने आकर कहा-बेटी, दोनों आदमी आ रहे हैं। साड़ी तो बदल लो।

अहिल्या ‘ऊंह’ करके रह गई। हां, उसकी छाती में धड़कन होने लगी। एक क्षण में यशोदानंदनजी चक्रधर को लिए हुए कमरे में आए। वागीश्वरी और अहिल्या दोनों खड़ी हो गईं। यशोदानंदन ने चक्रधर को कालीन पर बैठा दिया और खुद बाहर चले गए। वागीश्वरी पंखा झलने लगी; लेकिन अहिल्या मूर्ति की भांति खड़ी रही।

चक्रधर ने उड़ती हुई निगाहों से अहिल्या को देखा। ऐसा महसूस हुआ, मानो कोमल, स्निग्ध एवं सुगंधमय प्रकाश की लहर-सी आंखों में समा गई।

वागीश्वरी ने मिठाई की तश्तरी सामने रखते हुए कहा-कुछ जलपान कर लो भैया, तुमने कुछ खाना भी तो नहीं खाया। तुम जैसे वीरों को सवा सेर से कम न खाना चाहिए। धन्य है वह माता, जिसने ऐसे बालक को जन्म दिया। अहिल्या, जरा गिलास में पानी तो ला। भैया, जब तुम मुसलमानों के सामने अकेले खड़े थे, तो यह ईश्वर से तुम्हारी कुशल मना रही थी। जाने कितनी मनौतियां कर डालीं! कहाँ है वह माला, जो तूने गूंथी थी? अब पहनाती क्यों नहीं?

अहिल्या ने लजाते हुए कांपते हाथों से माला चक्रधर के गले में डाल दी और आहिस्ता से बोली-क्या सिर में ज्यादा चोट आई?

चक्रधर-नहीं तो; ख्वामख्वाह पट्टी बंधवा दी।

वागीश्वरी-जब तुम्हें चोट लगी, तब इसे इतना क्रोध आया था कि उस आदमी को पा जाती, तो मुंह नोच लेती। क्या करते हो बेटा?

चक्रधर-अभी तो कुछ नहीं करता, पड़े-पड़े खाया करता हूँ, मगर जल्दी ही कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। धन से तो मुझे बहुत प्रेम नहीं है और मिल भी जाए तो मुझे उसको भोगने के लिए दूसरों की मदद लेनी पड़े। हां , इतना अवश्य चाहता हूँ कि किसी का आश्रित होकर न रहना पड़े।

वागीश्वरी-कोई सरकारी नौकरी नहीं मिलती क्या?

चक्रधर-नौकरी करने की तो मेरी इच्छा ही नहीं है। मैंने पक्का निश्चय कर लिया है कि नौकरी न करूंगा। न मुझे खाने का शौक है, न पहनने का, न ठाट-बाट का; मेरा निर्वाह बहुत थोड़े में हो सकता है।

वागीश्वरी-और जब विवाह हो जाएगा, तब क्या करोगे?

चक्रधर-उस वक्त सिर पर जो आएगी, देखी जाएगी। अभी से क्यों उसकी चिंता करूं? वागीश्वरी-जलपान तो कर लो, या मिठाई भी नहीं खाते?

चक्रधर मिठाइयां खाने लगे। इतने में महरी ने आकर कहा-बड़ी बहूजी, मेरे लाला को रात से खांसी आ रही है; तिल भर नहीं रुकती, दवाई दे दो।

वागीश्वरी दवा देने चली गई। अहिल्या अकेली रह गई, तो चक्रधर ने उसकी ओर देखकर कहा-आपको मेरे कारण बड़ा कष्ट हुआ। मैं तो इस उपहार के योग्य न था।

अहिल्या-यह उपहार नहीं, भक्त की भेंट है।

चक्रधर-मेरा परम सौभाग्य है कि बैठे-बैठाए इस पद को पहुँच गया।

अहिल्या-आपने आज इस शहर के हिंदू मात्र की लाज रख ली। क्या और पानी दूं?

चक्रधर-तृप्त हो गया। आज मालूम हुआ कि जल में कितना स्वाद है? शायद अमृत में भी यह स्वाद न होगा।

वागीश्वरी ने आकर मुस्कराते हुए कहा-भैया, तुमने तो आधी भी मिठाइयां नहीं खाईं। क्या इसे देखकर भूख-प्यास बंद हो गई? यह मोहनी है, जरा इससे सचेत रहना।

अहिल्या-अम्मां, तुम छोटे-बड़े किसी का लिहाज नहीं करतीं।

वागीश्वरी-अच्छा बताओ, तुमने इनकी रक्षा के लिए कौन-कौन सी मनौतियां की थीं? अहिल्या-मुझे आप दिक करेंगी, तो चली जाऊंगी।

चक्रधर यहां कोई घंटे भर-तक बैठे रहे। वागीश्वरी ने उनके घर का सारा वृत्तांत पूछा-कै भाई हैं, कै बहनें, पिताजी क्या करते हैं, बहनों का विवाह हुआ है या नहीं? चक्रधर को उनके व्यवहार में इतना मातृस्नेह भरा मालूम होता था, मानो उससे उनका परिचय है। चार बजते-बजते ख्वाजा महमूद के आने की खबर पाकर चक्रधर बाहर चले आए। और भी कितने ही आदमी मिलने आए थे। शाम तक उन लोगों से बातें होती रहीं। निश्चय हुआ कि एक पंचायत बनाई जाए और आपस के झगड़े उसी के द्वारा तय हुआ करें। चक्रधर को लोगों ने उस पंचायत का एक मेम्बर बनाया। रात को जब अहिल्या और वागीश्वरी छत पर लेटीं, तो वागीश्वरी ने पूछा-अहिल्या, सो गई क्या?

अहिल्या-नहीं अम्मां, जाग तो रही हूँ।

वागीश्वरी-हां, आज तुझे क्यों नींद आएगी। उनसे ब्याह करेगी?

अहिल्या-अम्मां, मुझे गालियां दोगी, तो मैं नीचे जाकर लेटूंगी, चाहे मच्छर भले ही नोच खाएं।

वागीश्वरी-अरे, तो मैं कौन-सी गाली दे रही हूँ। क्या ब्याह न करेगी? ऐसा अच्छा वर तुझे और कहाँ मिलेगा?

अहिल्या-तुम न मानोगी, लो मैं जाती हूँ।

वागीश्वरी-मैं दिल्लगी नहीं कर रही हूँ, सचमुच पूछती हूँ। तुम्हारी इच्छा हो, तो बातचीत की जाए, अपनी ही बिरादरी के हैं। कौन जाने, राजी हो जाएं।

अहिल्या-सब बातें जानकर भी?

वागीश्वरी-तुम्हारे बाबूजी ने सारी कथा पहले ही सुना दी है।

अहिल्या-जो कहीं न मानें?

वागीश्वरी-टालो मत, दिल की बात साफ-साफ कह दो।

अहिल्या-तुम मेरे दिल का हाल मुझसे अधिक जानती हो, फिर, मुझसे क्यों पूछता हो? वागीश्वरी-वह धनी नहीं हैं, याद रखो।

अहिल्या-मैं धन की लौंडी कभी नहीं रही।

वागीश्वरी-तो अब तुम्हें संशय में क्यों रखू। तुम्हारे बाबूजी तुमसे मिलाने ही के लिए इन्हें काशी से लाए हैं। उनके पास और कुछ हो या न हो, हृदय अवश्य है। और ऐसा हृदय, जो बहुत कम लोगों के हिस्सों में आता है। ऐसा स्वामी पाकर तुम्हारा जीवन सफल हो जाएगा।

अहिल्या ने डबडबाई हुई आंखों से वागीश्वरी को देखा, पर मुंह से कुछ न बोली। कृतज्ञता शब्दों में आकर शिष्टता का रूप धारण कर लेती है। उसका मौलिक रूप वही है, जो आंखों से बाहर निकलते हुए कांपता और लजाता है।

कायाकल्प : अध्याय छ:

मुंशी वज्रधर उन रेल के मुसाफिरों में थे, जो पहले तो गाड़ी में खड़े होने की जगह मांगते हैं, फिर बैठने की फिक्र करने लगते हैं और अंत में सोने की तैयारी कर देते हैं। चक्रधर एक बड़ी रियासत के दीवान की लड़की को पढ़ाएं और वह इस स्वर्ण-संयोग से लाभ न उठाएं! यह क्योंकर हो सकता था। दीवान साहब को सलाम करने आने-जाने लगे। बातें करने में तो निपुण थे ही, दो ही चार मुलाकातों में उनका सिक्का जम गया। इस परिचय ने शीघ्र ही मित्रता का रूप धारण किया। एक दिन दीवान साहब के साथ वह रानी जगदीशपुर के दरबार में पहुंचे और ऐसी लच्छेदार बातें की, अपनी तहसीलदारी की ऐसी जीट उड़ाई कि रानी जी मुग्ध हो गईं ! कोई क्या तहसीलदारी करेगा ! जिस इलाके में मैं था, वहां के आदमी आज तक मुझे याद करते हैं। डींग नहीं मारता, डींग मारने की मेरी आदत नहीं, लेकिन जिस इलाके में मुश्किल से पचास हजार वसूल होता था, उसी इलाके से साल के अंदर मैंने दो लाख वसूल करके दिखा दिया। और लुत्फ यह कि किसी को हिरासत में रखने या कुर्की करने की जरूरत नहीं पड़ी।

ऐसे कार्य-कुशल आदमी की सभी जगह जरूरत रहती है। रानी ने सोचा, इस आदमी को रख लूं, तो इलाके की आमदनी बढ़ जाए। ठाकुर साहब से सलाह की। यहां तो पहले ही से संसारी बात सधी-बधी थीं। ठाकुर साहब ने रंग और भी चोखा कर दिया। उनके दोस्तों में यही ऐसे थे, जिस पर लौगी की असीम कृपादृष्टि थी। दूसरी ही सलामी में मुंशीजी को पच्चीस रुपए मासिक की तहसीलदारी मिल गई। मुंहमांगी मुराद पूरी हुई। सवारी के लिए घोड़ा भी मिल गया। सोने में सुहागा हो गया।

अब मुंशीजी की पांचों अंगुली घी में थीं। जहां महीने में एक बार भी महफिल न जमने पाती थी, वहां अब तीसों दिन जमघट होने लगा। इतने बड़े अहलकार के लिए शराब की क्या कमी; कभी इलाके पर चुपके से दस-बीस बोतलें खिंचवा लेते, कभी शहर के किसी कलवार पर घौंस जमाकर दो-चार बोतलें ऐंठ लेते। बिना हर्र-फिटकरी रंग चोखा हो जाता था। एक कहार भी नौकर रख लिया और ठाकुर साहब के घर से दो-चार कुर्सियां उठवा लाए। उनके हौसले बहुत ऊंचे न थे, केवल एक भले आदमी की भांति जीवन व्यतीत करना चाहते थे। इस नौकरी ने उनके हौसले को बहुत कुछ पूरा कर दिया, लेकिन वह जानते थे कि इस नौकरी का कोई ठिकाना नहीं। रईसों का मिजाज एक-सा नहीं रहता। मान लिया, रानी साहब के साथ निभ ही गई, तो कै दिन ! राजा साहब आते ही पुराने नौकरों को निकाल बाहर करेंगे। जब दीवान ही न रहेंगे, तो मेरी क्या हस्ती? इसलिए उन्होंने पहले ही से नए राजा साहब के यहां आना-जाना शुरू कर दिया था। इसका नाम ठाकुर विशालसिंह था। रानी साहब के चचेरे देवर होते थे। उनके दादा दो भाई थे। बड़े भाई रियासत के मालिक थे। उन्हीं के वंशजों ने दो पीढ़ियों तक राज्य का आनंद भोगा था। अब रानी के निस्संतान होने के कारण विशालसिंह के भाग्य उदय हुए थे। दो-चार गांव थे, जो उनके दादा को गुजारे के लिए मिले थे, उन्हीं को रेहन-बय करके इन लोगों ने पचास वर्ष काट दिए थे यहां तक कि विशालसिंह के पास अब इतनी भी संपत्ति न थी कि गुजर-बसर के लिए काफी होती। उस पर कुल-मर्यादा का पालन करना आवश्यक था। वह महारानी के पट्टीदार थे और इस हैसियत का निर्वाह करने के लिए उन्हें नौकर-चाकर, घोड़ा-गाड़ी सभी कुछ रखना पड़ता था। अभी तक परम्परा की नकल होती चली आती थी। दशहरे के दिन उत्सव जरूर मनाया जाता, जन्माष्टमी के दिन जरूर धूमधाम होती।

प्रात:काल था, माघ की ठंड पड़ रही थी। मुंशीजी ने गर्म पानी से स्नान किया और चौकी से उतरे। मगर खड़ाऊं उलटे रखे हुए थे। कहार खड़ा था कि यह जाएं, तो धोती छांटूं! मुंशीजी ने उलटे खड़ाऊं देखे, तो कहार को डांटा-तुमसे कितनी बार कह चुका कि खड़ाऊं सीधे रखा कर। तुझे याद क्यों नहीं रहता? बता, उलटे खड़ाऊं पर कैसे पैर रखू? आज तो मैं छोड़ देता हूँ, लेकिन कल जो तूने उलटे खड़ाऊं रखे, तो इतना पीटूंगा कि तू भी याद करेगा।

कहार ने कांपते हुए हाथ से खड़ाऊं सीधे कर दिए।

निर्मला ने हलवा बना रखा था। मुंशीजी आकर एक कुर्सी पर बैठ गए और जलता हुआ हलवा मुंह में डाल लिया। बारे किसी तरह उसे निगल गए और आंखों से पानी पोंछते हुए बोले-तुम्हारा कोई काम ठीक नहीं होता। जलता हुआ हलवा सामने रख दिया। आखिर मेरा मुंह जलाने से तुम्हें कुछ मिल तो नहीं गया।

निर्मला-जरा हाथ से देख क्यों न लिया?

वज्रधर-वाह, उलटा चोर कोतवाल को डांटे। मुझी को उल्लू बनाती हो। तुम्हें खुद सोच लेना चाहिए था कि जलता हुआ हलवा खा गए, तो मुंह की क्या दशा होगी। लेकिन तुम्हें क्या परवाह ! लल्लू कहाँ है?

निर्मला-लल्लू मुझसे कहके कहाँ जाते हैं ! पहर रात रहे, न जाने किधर चले गए। जाने कहीं किसानों की सभा होने वाली है। वहीं गए हैं।

वज्रधर-वहां दिन भर भूखों मरेगा। न जाने इसके सिर से यह भूत कब उतरेगा? मुझसे कल दारोगाजी कहते थे, आप लड़के को संभालिए, नहीं तो धोखा खाइएगा। समझ में नहीं आता, क्या करूं! मेरे इलाके के आदमी भी इन सभाओं में अब जाने लगे हैं और मुझे खौफ हो रहा है कि कहीं रानी साहब के कानों में भनक पड़ गई, तो मेरे सिर हो जाएंगी ! मैं यह तो मानता हूँ कि अहलकार लोग गरीबों को बहुत सताते हैं, मगर किया क्या जाए, सताए बगैर काम भी तो नहीं चलता। आखिर उनका गुजर-बसर कैसे हो ! किसानों को समझाना बुरा नहीं, लेकिन आग में कूदना तो बुरी बात है। मेरी तो सुनने की उसने कसम खा ली है, मगर तुम क्यों नहीं समझाती?

निर्मला-जो आग में कूदेगा, आप जलेगा, मुझे क्या करना है। उससे बहस कौन करे! आज सबेरे-सबेरे कहाँ जा रहे हो?

वज्रधर-जरा ठाकुर विशाल सिंह के यहां जाता हूँ।

निर्मला-दोपहर तक लौट आओगे न?

वज्रधर-हां, अगर उन्होंने छोड़ा। मुझे देखते ही टूट पड़ते हैं, तरह-तरह की खातिर करने लगते हैं, दूध लाओ, मेवे लाओ, जान ही नहीं छोड़ते। तीनों औरतों का किस्सा छेड़ देते हैं। बड़े मिलनसार आदमी हैं। मंगला क्या अभी तक सो रही है?

निर्मला-हां, जगा के हार गई, उठती ही नहीं।

वज्रधर-यह तो बुरी बात है। बहू-बेटियों का इतने दिन चढ़े तक सोना क्या मानी?

यह कहकर मुंशीजी ने लोटे का पानी उठाया और जाकर मंगला के ऊपर डाल दिया। निर्मला ‘हां-हां’ करती रह गई। पानी पड़ते ही मंगला हड़बड़ाकर उठी और यह समझकर कि वर्षा हो रही है, कोठरी में घुस गई। सरदी के मारे कांप रही थी।

निर्मला-सबेरे-सबेरे लेके नहला दिया !

वज्रधर-यह सब तुम्हारे लाड़-प्यार का फल है। खुद दोपहर तक सोती हो, वही आदतें लड़कों को भी सिखाती हो!

निर्मला-स्वभाव सबका अलग-अलग होता है। न कोई किसी के बनाने से बनता है, न बिगाड़ने से बिगड़ता है। मां-बाप को देखकर लड़कों का स्वभाव बदल जाता, तो लल्लू कुछ और ही होता। तुम्हें पिए बिना एक दिन भी चैन नहीं आता, उसे भी कभी पीते देखा है? यह सब कहने की बातें हैं कि लड़के मां-बाप की आदतें सीखते हैं।

वज्रधर ने इसका कुछ जवाब न दिया। कपड़े पहने; बाहर घोड़ा तैयार था, उस पर बैठे और शिवपुर चले।

जब वह ठाकुर साहब के मकान पर पहुंचे, तो आठ बज गए थे ! ठाकुर साहब धूप में बैठे एक पत्र पढ़ रहे थे। बड़ा तेजस्वी मुख था। वह एक काला दुशाला ओढ़े हुए थे, जिस पर समय के अत्याचार के चिह्न न दिखाई दे रहे थे। इस दुशाले ने उनके गोरे रंग को और भी चमका दिया था।

मुंशीजी ने मोढ़े पर बैठते हुए कहा-सब कुशल-आनंद है न?

ठाकुर-हां, ईश्वर की दया है। कहिए, दरबार के क्या समाचार हैं?

यद्यपि ठाकुर साहब रानी के संबंध में कुछ पूछना ओछापन समझते थे, तथापि इस विषय से उन्हें इतना प्रेम था कि बिना पूछे रहा न जाता था।

मुंशीजी ने मुस्कराकर कहा-सब वही पुरानी बातें हैं। डॉक्टरों के पौ बारह हैं। दिन में तीन-तीन डॉक्टर आते हैं।

ठाकुर-क्या शिकायत है?

मुंशी-बुढ़ापे की शिकायत क्या कम है? यह तो असाध्य रोग है।

ठाकुर-उन्हें तो और मनाना चाहिए कि किसी तरह इस मायाजाल से छूट जाएं। दवा-दर्पन की अब क्या जरूरत है। इतने दिन राजसुख भोग चुकीं, पर अब भी जी नहीं भरा!

मुंशी-वह तो अभी अपने को मरने लायक नहीं समझतीं। रोज जगदीशपुर से सोलह कहार पालकी उठाने के लिए बेगार पकड़कर आते हैं। वैद्यजी को लाना और ले जाना उनका काम है।

ठाकुर-अंधेर है और कुछ नहीं। पुराने जमाने में तो खैर सस्ता समय था। जो दो-चार पैसे मजदूरों को मिल जाते थे, वही खाने भर को बहुत थे। आजकल तो एक आदमी का पेट भरने को एक रुपया चाहिए। यह महा अन्याय है। बेचारी प्रजा तबाह हुई जाती है। आप देखेंगे कि मैं इस प्रथा को क्योंकर जड़ से उठा देता हूँ।

मुंशी-आपसे लोगों को बड़ी आशाएं हैं। चमारों पर भी यही आफत है! दस बारह चमार रोज साईसी करने के लिए पकड़ बुलाए जाते हैं। सुना है, इलाके भर के चमारों ने पंचायत की है कि जो साईसी करे, उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया जाए । अब या तो चमारों को इलाका छोड़ना पड़ेगा या दीवान साहब को साईस नौकर रखने पड़ेंगे।

ठाकुर-चमारों को इलाके से निकालना दिल्लगी नहीं है। ये लोग समझते हैं कि अभी वही दुनिया है, जो बाबा आदम के जमाने में थी। चारों तरफ देखते हैं कि जमाना पलट गया, यहां तक कि किसान और मजदूर राज्य करने लगे, पर अब भी लोगों की आंखें नहीं खुलतीं। इस देश से न जाने कब यह प्रथा मिटेगी। प्रजा तबाह हुई जाती है। आप देखेंगे, मैं रियासत को क्या कर दिखाता हूँ। कायापलट कर दूंगा। सुनता हूँ, पुलिस आए दिन इलाके में तूफान मचाती रहती है। मैं पुलिस को यहां कदम न रखने दूंगा। जालिमों के हाथों प्रजा तबाह हुई जाती है।

मुंशी-सड़कें इतनी खराब हैं कि इक्के-गाड़ी का गुजर ही नहीं हो सकता।

ठाकुर-सड़कों को दुरुस्त करना मेरा पहला काम होगा। मोटर सर्विस जारी कर दूंगा, जिसमें मुसाफिरों को स्टेशन से जगदीशपुर जाने में सुविधा हो। इलाकों में लाखों बीघे ऊख बोई जाती है और उसका गुड़ या राब बनती है। मेरा इरादा है कि एक शक्कर की मिल खोल दूं और एक अंग्रेज को उसका मैनेजर बना दूं। मैं तो इन लोगों के सुप्रबंध का कायल हूँ। हिंदुस्तानियों पर कभी विश्वास न करें, भूलकर भी नहीं। ये इलाके को तबाह कर देते हैं। शेखी नहीं मारता, इलाके में एक बार रामराज्य स्थापित कर दूंगा, कंचन बरसने लगेगा। आपने किसी महाजन को ठीक किया?

मुंशी-हां, कई आदमियों से मिला था और वे बड़ी खुशी से रुपए देने के लिए तैयार हैं, केवल यही चाहते हैं कि जमानत के तौर पर कोई गांव लिख दिया जाए।

ठाकुर-आपने हामी तो नहीं भर ली?

मुंशी-जी नहीं, हामी नहीं भरी; लेकिन बगैर जमानत के रुपए मिलना मुश्किल मालूम होता है।

ठाकुर-तो जाने दीजिए, कोई ऐसी जरूरत नहीं है, जो टाली न जा सके। अगर कोई मेरे विश्वास पर रुपए दे, तो दे दे, लेकिन रियासत की इंच भर भी जमीन रेहन नहीं कर सकता। मैं फाके करूं; बिक जाऊं, लेकिन रियासत पर आंच न आने दूंगा। हां, इसका वादा करता हूँ कि रियासत मिलने के साल भर बाद कौड़ी-कौड़ी सूद के साथ चुका दूंगा। सच्ची बात तो यह है कि मुझे पहले ही मालूम था कि इस शर्त पर कोई महाजन रुपए देने पर राजी न होगा। ये बला के चीमड़ होते हैं। मुझे तो इनके नाम से चिढ़ है। मेरा वश चले, तो आज इन सबों को तोप पर उड़ा दूं। जितना डर मुझे इनसे लगता है, उतना सांप से भी नहीं लगता। इन्हीं के हाथों आज मेरी यह दुर्गति हुई है, नहीं तो इस गई-बीती दशा में आदमी होता! इन नर-पिशाचों ने सारा रक्त चूस लिया। पिताजी ने केवल पांच हजार लिए थे, जिनके पचास हजार हो गए। और मेरे तीन गांव, जो इस वक्त दो लाख को सस्ते थे, नीलाम हो गए। पिताजी का मुझे यह अंतिम उपदेश था कि कर्ज कभी मत लेना। इसी शोक में उन्होंने देह त्याग दी।

यहां अभी यह बातें हो रही थीं कि जनानखाने में से कलह-शब्द आने लगे। मालूम होता था, कई स्त्रियों में संग्राम छिड़ा हुआ है। ठाकुर साहब ये कर्कश शब्द सुनते ही विकल हो गए, उनके माथे पर बल पड़ गए, मुख तेजहीन हो गया। यही उनके जीवन की सबसे दारुण व्यथा थी। यही कांटा था, जो नित्य उनके हृदय में खटका करता था। उनकी बड़ी स्त्री का नाम वसुमती थी। वह अत्यंत गर्वशीला थी, नाक पर मक्खी भी न बैठने देतीं। उनकी तलवार सदैव म्यान से बाहर रहती थी। वह अपनी सपत्नियों पर उसी भांति शासन करना चाहती थीं, जैसे कोई सास अपनी बहुओं पर करती है। वह यह भूल जाती थीं कि ये उनकी बहुएं नहीं, सपत्नियां हैं। जो उनकी ‘हां में हां’ मिलाता, उस पर प्राण देती थीं, किंतु उनकी इच्छा के विरुद्ध जरा भी कोई बात हो जाती, तो सिंहनी का-सा विकराल रूप धारण कर लेती थीं।

दूसरी स्त्री का नाम रामप्रिया था। यह रानी जगदीशपुर की सगी बहन थीं। उनके पिता पुराने खिलाड़ी थे, दो दस्ती झाड़ते थे, दोधारी तलवार से लड़ते थे। रामप्रिया दया और विनय की मूर्ति थीं, बड़ी विचारशील और वाक्मधुर। जितना कोमल अंग था, उतना कोमल हृदय भी था। वह घर में इस तरह रहती थीं, मानो थी ही नहीं। उन्हें पुस्तकों से विशेष रुचि थी, हरदम कुछ न कुछ पढ़ा-लिखा करती थीं। सबसे अलग-विलग रहती थीं, न किसी के लेने में; न देने में, न किसी से बैर, न प्रेम।

तीसरी महिला का नाम रोहिणी था। ठाकुर साहब का उन पर विशेष प्रेम था, और वह भी प्राणपण से उनकी सेवा करती थीं। इनमें प्रेम की मात्रा अधिक थी या माया की इसका निर्णय करना कठिन था। उन्हें यह असह्य था कि ठाकुर साहब उनकी सौतों से बातचीत भी करें। वसुमती कर्कशा होने पर भी मलिन हृदय न थीं, जो कुछ मन में होता, वही मुख में। एक बार मुंह से बात निकाल डालने पर फिर उनके हृदय पर उसका कोई चिह्न न रहता था। रोहिणी द्वेष को पालती थीं, जैसे चिड़िया अपने अंडे को सेती है। वह जितना मुंह से कहती थी, उससे कहीं अधिक मन में रखती थीं।

ठाकुर साहब ने अंदर जाकर वसुमती से कहा-तुम घर में रहने दोगी या नहीं? जरा भी शरमलिहाज नहीं कि बाहर कौन बैठा हुआ है। बस, जब देखो, संग्राम मचा रहता है। इस जिंदगी से तंग आ गया। सुनते-सुनते कलेजे में नासूर पड़ गए।

वसुमती-कर्म तो तुमने किए हैं, भोगेगा कौन?

ठाकुर-तो जहर दे दो। जला-जलाकर मारने से क्या फायदा !

वसुमती-क्या वह महारानी लड़ने के लिए कम थीं कि तुम उनका पक्ष लेकर आ दौडे? पूछते क्यों नहीं, क्या हुआ, जो तीरों की बौछार करने लगे?

रोहिणी-आप चाहती हैं कि मैं कान पकड़कर उठाऊं या बैठाऊं, तो यहां कुछ आपके गांव में नहीं बसी हूँ कि कोई आपसे थर-थर कांपा करे!

ठाकुर-आखिर कुछ मालूम भी तो हो, क्या बात हुई?

रोहिणी-वही हुई जो रोज होती है। मैंने हिरिया से कहा, जरा मेरे सिर में तेल डाल दे। मालकिन ने उसे तेल डालते देखा, तो आग हो गईं। तलवार खींचे हुए आ पहुंची और उसका हाथ पकड़कर खींच ले गईं। आज आप निश्चित कर दीजिए कि हिरिया उन्हीं की लौंड़ी है या मेरी भी। यह निश्चय किए बिना आप यहां से न जाने पाएंगे।

वसुमती-वह क्या निश्चय करेंगे, निश्चय मैं करूंगी। हिरिया मेरे साथ मेरे नैहर से आई है और मेरी लौंडी है। किसी दूसरे का उस पर कोई दावा नहीं है।

रोहिणी-सुना आपने? हिरिया पर किसी का दावा नहीं है, वह अकेली उन्हीं की लौंडी है।

ठाकुर-हिरिया इस घर में रहेगी, तो उसे सबका काम करना पड़ेगा।

वसुमती यह सुनकर जल उठीं। नागिन की भांति फुफकारकर बोलीं-इस वक्त तो आपने चहेती रानी की ऐसी डिग्री कर दी, मानो यहां उन्हीं का राज्य है। ऐसे ही न्यायशील होते तो संतान का मुंह देखने को न तरसते!

ठाकुर साहब को ये शब्द बाण-से लगे। कुछ जवाब न दिया। बाहर आकर कई मिनट तक मर्माहत दशा में बैठे रहे। वसुमती इतनी मुंहफट है, यह उन्हें आज मालूम हुआ। सोचा, मैंने तो कोई ऐसी बात नहीं कही थी, जिस पर वह इतना झल्ला जाती। मैंने क्या बुरा कहा कि हिरिया को सबका काम करना पड़ेगा। अगर हिरिया केवल उसी का काम करती है, तो दो महरियां और रखनी पड़ती हैं। क्या वसुमती इतना भी नहीं समझी? ताना ही देना था, तो और कोई लगती हुई बात कह देती। यह तो कठोर से कठोर आघात है, जो वह मुझ पर कर सकती थी। ऐसी स्त्री का तो मुंह न देखना चाहिए।

सहसा उन्हें एक बात सूझी। मुंशीजी से बोले-ज्योतिष की भविष्यवाणी के विषय में आपके क्या विचार हैं? क्या यह हमेशा सच निकलती है?

मुंशीजी असमंजस में पड़े कि इसका क्या जवाब दूं कैसा जवाब रुचिकर होगा-यही उनकी समझ में न आया। अंधेरे में टटोलते हुए बोले-यह तो उसी विद्या के विषय में कहा जा सकता है, जहां अनुमान से काम न लिया जाए। ज्योतिष में बहुत कुछ पूर्व अनुभव और अनुमान ही से काम लिया जाता है।

ठाकुर-बस, ठीक यही मेरा विचार है। अगर ज्योतिष मुझे धनी बतलाए, तो यह आवश्यक नहीं कि मैं धनी हो जाऊं। ज्योतिष के धनी कहने पर भी संभव है कि मैं जिंदगी भर कौड़ियों को मोहताज रहूँ। इसी भांति ज्योतिष का दरिद्र लक्ष्मी का कृपापात्र भी हो सकता है, क्यों?

मुंशीजी को अब भी पांव जमाने को भूमि न मिली। संदिग्ध भाव से बोले-हां, ज्योतिष की धारणा जब मनुष्यों से बदली जा सकती है, तो उसे विधि का लेख क्यों समझा जाए?

ठाकुर साहब ने बड़ी उत्सुकता से पूछा-अनुष्ठानों पर आपका विश्वास है? मुंशीजी को जमीन मिल गई, बोले-अवश्य !

विशालसिंह यह तो जानते थे कि अनुष्ठानों से शंकाओं का निवारण होता है। शनि, राहु आदि का शमन करने के अनुष्ठानों से परिचित थे। बहुत दिनों से मंगल का व्रत भी रखते थे, लेकिन इन अनुष्ठानों पर अब उन्हें विश्वास न था। वह कोई ऐसा अनुष्ठान करना चाहते थे, जो किसी तरह निष्फल ही न हो। बोले-यदि आप यहां के किसी विद्वान् ज्योतिषी से परिचित हों, तो कृपा करके उन्हें मेरे यहां भेज दीजिएगा। मुझे एक विषय में उनसे कुछ पूछना है।

मुंशी-आज ही लीजिए, यहां एक से एक बढ़कर ज्योतिषी पड़े हुए हैं। आप मुझे कोई गैर न समझिए। जब, जिस काम की इच्छा हो, मुझे कहला भेजिए। सिर के बल दौड़ा आऊंगा। बाजार से कोई अच्छी चीज मंगानी हो, मुझे हुक्म दीजिए। किसी वैद्य या हकीम की जरूरत हो, तो मुझे सूचना दीजिए। मैं तो जैसे महारानीजी को समझता हूँ, वैसे ही आपको भी समझता हूँ।

ठाकुर-मुझे आपसे ऐसी ही आशा है। जरा रानी साहब का कुशल-समाचार जल्द-जल्द भेजिएगा। वहां आपके सिवा मेरा और कोई नहीं है। आप ही के ऊपर मेरा भरोसा है। जरा देखिएगा, कोई चीज इधर-उधर न होने पाए, यार लोग नोंच-खसोट न शुरू कर दें।

मुंशी-आप इससे निश्चित रहें। मैं देखभाल करता रहूँगा।

ठाकुर-हो सके, तो जरा यह भी पता लगाइएगा कि रानी ने कहाँ-कहाँ से कितने रुपए कर्ज लिए हैं।

मुंशी-समझ गया, यह तो सहज ही में मालूम हो सकता है।

ठाकुर-जरा इसका भी पता लगाइएगा कि आजकल उनका भोजन कौन बनाता है। पहले तो उनके मैके ही की कोई स्त्री थी। मालूम नहीं, अब भी वही बनाती है या कोई दूसरा रसोइया रखा गया है।

वज्रधर ने ठाकुर साहब के मन का भाव ताड़कर दृढ़ता से कहा-महाराज, क्षमा कीजिएगा, मैं आपका सेवक हूँ, पर रानीजी का भी सेवक हूँ। उनका शत्रु नहीं हूँ। आप और वह दोनों सिंह और सिंहनी की भांति लड़ सकते हैं। मैं गीदड़ की भांति अपने स्वार्थ के लिए बीच में कूदना अपमानजनक समझता हूँ। मैं यहां तक तो सहर्ष आपकी सेवा कर सकता हूँ, जहां तक रानीजी का अहित न हो। मैं तो दोनों ही द्वारों का भिक्षुक हूँ।

ठाकुर साहब दिल में शरमाए, पर इसके साथ मुंशीजी पर उनका विश्वास और भी दृढ़ हो गया। बात बनाते हुए बोले-नहीं, नहीं, मेरा मतलब आपने गलत समझा ! छी:! छी:! मैं इतना नीच नहीं। मैं केवल इसलिए पूछता था कि नया रसोइया कुलीन है या नहीं। अगर वह सुपात्र है, तो वही मेरा भी भोजन बनाता रहेगा।

ठाकुर साहब ने यह बात तो बनाई, पर उन्हें स्वयं ज्ञात हो गया कि बात बनी नहीं। अपनी झेंप मिटाने को वह एक समाचार-पत्र देखने लगे, मानो उन्हें विश्वास हो गया कि मुंशीजी ने उनकी बात सच मान ली।

इतने में हिरिया ने आकर मुंशीजी से कहा-बाबा, मालकिन ने कहा है कि आप जाने लगें तो मुझसे मिल लीजिएगा।

ठाकुर साहब ने गरजकर कहा-ऐसी क्या बात है, जिसको कहने की इतनी जल्दी है। इन बेचारों को देर हो रही है, कुछ निठल्ले थोड़े ही हैं कि बैठे-बैठे औरतों का रोना सुना करें। जा, अंदर बैठ!

यह कहकर ठाकुर साहब उठ खड़े हुए मानो मुंशीजी को विदा कर रहे हैं। वह वसुमती को उनसे बातें करने का अवसर न देना चाहते थे। मुंशीजी को भी अब विवश होकर विदा मांगनी पड़ी।

मुंशीजी यहां से चले तो उनके दिल में एक शंका समाई हुई थी कि ठाकुर साहब कहीं मुझसे नाराज तो नहीं हो गए ! हां, इतना संतोष था कि मैंने कोई बुरा काम नहीं किया। यदि वह सच्ची बात कहने के लिए नाराज हो जाते हैं, तो हो जाएं। मैं क्यों रानी साहब का बुरा चेतूं? बहुत होगा, राजा होने पर मुझे जवाब दे देंगे। इसकी क्या चिंता? इस विचार से मुंशीजी और अकड़कर बैठ गए। वह इतने खुश थे, मानो हवा में उड़े जा रहे हैं। उनकी आत्मा कभी इतनी गौरवोन्मत्त न हुई थी, चिंताओं को कभी उन्होंने इतना तुच्छ न समझा था।

कायाकल्प : अध्याय सात

चक्रधर की कीर्ति उनसे पहले ही बनारस पहुँच चुकी थी। उनके मित्र और अन्य लोग उनसे मिलने के लिए उत्सुक हो रहे थे। बार-बार आते थे और पूछकर लौट जाते थे। जब वह पांचवें दिन घर पहुंचे, तो लोग मिलने और बधाई देने आ पहुंचे। नगर का सभ्य समाज मुक्त कंठ से उनकी तारीफ कर रहा था। यद्यपि चक्रधर गंभीर आदमी थे, पर अपनी कीर्ति की प्रशंसा से उन्हें सच्चा आनंद मिल रहा था। मुसलमानों की संख्या के विषय में किसी को भ्रम होता, तो वह तुरंत उसे ठीक कर देते थे-एक हजार ! अजी, पूरे पांच हजार आदमी थे और सभी की त्यौरियां चढ़ी हुईं। मालूम होता था, मुझे खड़ा निगल जाएंगे। जान पर खेल गया और क्या कहूँ। कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्हें चक्रधर की वह अनुनय-विनय अपमानजनक जान पड़ती थी। उनका ख्याल था कि इससे तो मुसलमान और भी शेर हो गए होंगे। इन लोगों से चक्रधर को घंटों बहस करनी पड़ी, पर वे कायल न हए। मुसलमानों में भी चक्रधर की तारीफ हो रही थी। दो-चार आदमी मिलने भी आए, लेकिन हिंदुओं का जमघट देखकर लौट गए।

और लोग तो तारीफ कर रहे थे, पर मुंशी वज्रधर लड़के की नादानी पर बिगड़ रहे थे-तुम्हीं को क्यों यह भूत सवार हो जाता है? क्या तुम्हारी ही जान सस्ती है। तुम्हीं को अपनी जान भारी पड़ी है? क्या वहां और लोग न थे, फिर तुम क्यों आग में कूदने गए? मान लो, मुसलमानों ने हाथ चला दिया होता, तो क्या कर ते? फिर तो कोई साहब पास न फटकते ! ये हजारों आदमी, जो आज खुशी के मारे फूले नहीं समाते, बात तक न पूछते।

निर्मला तो इतनी बिगड़ी कि चक्रधर से बात न करना चाहती थी।

शाम को चक्रधर मनोरमा के घर गए। वह बगीचे में दौड़-दौड़कर हजारे से पौधों को सींच रही थी। पानी से कपड़े लथपथ हो गए थे। उन्हें देखते ही हजारा फेंककर दौड़ी और पास आकर बोली-आप कब आए, बाबूजी? मैं पत्रों में रोज वहां का समाचार देखती थी और सोचती थी कि आप यहां आएंगे, तो आपकी पूजा करूंगी। आप न होते तो वहां जरूर दंगा हो जाता। आपको बिगड़े हुए मुसलमानों के सामने अकेले जाते हुए जरा भी शंका न हुई?

चक्रधर ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा-जरा भी नहीं। मुझे तो यही धुन थी कि इस वक्त कुरबानी न होने दूंगा, इसके बिना दिल में और खयाल न था। अब सोचता हूँ, तो आश्चर्य होता है कि मुझमें इतना बल और साहस कहाँ से आ गया था ! मैं तो यही कहूँगा कि मुसलमानों को लोग नाहक बदनाम करते हैं। फसाद से वे भी उतना ही डरते हैं, जितने हिंदू । शांति की इच्छा भी उनमें हिंदुओं से कम नहीं है। लोगों का यह खयाल कि मुसलमान लोग हिंदुओं पर राज्य करने का स्वप्न देख रहे हैं, बिलकुल गलत है। मुसलमानों को केवल यह शंका हो गई है कि हिंदू उनसे पुराना बैर चुकाना चाहते हैं, और उनकी हस्ती को मिटा देने की फिक्र कर रहे हैं। इसी भय से वे जरा-जरा सी बात पर तिनक उठते हैं और मरने-मारने पर आमादा हो जाते हैं।

मनोरमा-मैंने तो जब पढ़ा कि आप उन बौखलाए हुए आदमियों के सामने नि:शंक भाव से खड़े थे, तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए। आगे पढ़ने की हिम्मत न पड़ती थी कि कहीं कोई बुरी खबर न हो। क्षमा कीजिएगा, मैं उस समय वहां होती, तो आपको पकड़कर खींच लाती। आपको अपनी जान का जरा भी मोह नहीं है।

चक्रधर-(हंसकर) जान और है ही किसलिए? पेट पालने ही के लिए तो हम आदमी नहीं बनाए गए हैं! हमारे जीवन का आदर्श कुछ तो ऊंचा होना चाहिए, विशेषकर उन लोगों का, जो सभ्य कहलाते हैं। ठाट से रहना ही सभ्यता नहीं।

मनोरमा–(मुस्कराकर) अच्छा, अगर इस वक्त आपको पांच लाख रुपए मिल जाएं तो आप लें या न लें?

चक्रधर-कह नहीं सकता, मनोरमा, उस वक्त दिल की क्या हालत हो। दान तो न लूंगा, पड़ा हुआ धन भी न लूंगा; लेकिन अगर किसी ऐसी विधि से मिले कि उसे लेने में आत्मा की हत्या न होती हो, तो शायद मैं प्रलोभन को रोक न सकू, पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि उसे भोग-विलास में न उड़ाऊंगा। धन की मैं निंदा नहीं करता, उससे मुझे डर लगता है। दूसरों का आश्रित बनना तो लज्जा की बात है, लेकिन जीवन को इतना सरल रखना चाहता हूँ कि सारी शक्ति है न कमाने और अपनी जरूरतों को पूरा करने ही में न लगानी पड़े।

मनोरमा-धन के बिना परोपकार भी तो नहीं हो सकता।

चक्रधर-परोपकार मैं नहीं करना चाहता, मुझमें इतनी सामर्थ्य ही नहीं। यह तो वे ही लोग कर सकते हैं, जिन पर ईश्वर की कृपादृष्टि हो। मैं परोपकार के लिए अपने जीवन को सरल नहीं बनाना चाहता; बल्कि अपने उपकार के लिए, अपनी आत्मा के सुधार के लिए। मुझे अपने ऊपर इतना भरोसा नहीं है कि धन पाकर भी भोग में न पड़ जाऊं। इसलिए मैं उससे दूर ही रहता हूँ। मनोरमा-अच्छा, अब यह तो बताइए कि आपसे वधूजी ने क्या बातें कीं? (मुस्कराकर), मैं तो जानती हूँ, आपने कोई बातचीत न की होगी, चुपचाप लजाए बैठे रहे होंगे। उसी तरह वह भी आपके सामने आकर खड़ी हो गई होंगी और खड़ी-खड़ी चली गई होंगी।

चक्रधर शरम से सिर झुकाकर बोले-हां, मनोरमा, हुआ तो ऐसा ही। मेरी समझ में न आता था कि क्या करूं। उसने दो बार कुछ बोलने का साहस भी किया।

मनोरमा-आपको देखकर खुश तो हुई होंगी?

चक्रधर- (शरमाकर) किसी के मन का हाल मैं क्या जानूं !

मनोरमा ने अत्यंत सरल भाव से कहा-सब मालूम हो जाता है। आप मुझसे बता नहीं रहे। कम-से-कम उनकी इच्छा तो मालूम हो ही गई होगी। मैं तो समझती हूँ, जो विवाह लड़की की इच्छा के विरुद्ध किया जाता है, वह विवाह ही नहीं है। आपका क्या विचार है?

चक्रधर बड़े असमंजस में पड़े। मनोरमा से ऐसी बातें करते उन्हें संकोच होता था। डरते थे कि कहीं ठाकुर साहब को खबर मिल जाए-सरला मनोरमा ही कह दे तो वह समझेंगे, मैं इसके सामाजिक विचारों में क्रांति पैदा करना चाहता हूँ। अब तक उन्हें ज्ञान न था कि ठाकुर साहब किन विचारों के आदमी हैं। हां, उनके गंगा-स्नान से यह आभास होता था कि वह सनातन धर्म के भक्त हैं। सिर झुकाकर बोले-मनोरमा, हमारे यहां विवाह का आधार प्रेम और इच्छा पर नहीं, धर्म और कर्त्तव्य पर रखा गया है। इच्छा चंचल है, क्षण-क्षण में बदलती रहती है। कर्त्तव्य स्थायी है, उसमें कभी परिवर्तन नहीं होता।

मनोरमा-अगर यह बात है, तो पुराने जमाने में स्वयंवर क्यों होते थे?

चक्रधर स्वयंवर में कन्या की इच्छा ही सर्वप्रधान नहीं होती थी। वह वीरयुग था और वीरता ही मनुष्य का सबसे उज्ज्वल गुण समझा जाता था। लोग आजकल वैवाहिक प्रथा सुधारने का प्रयत्न तो कर रहे हैं।

मनोरमा-जानती हूँ, लेकिन कहीं सुधार हो रहा है? माता-पिता धन देखकर लटटू हो जाते हैं। इच्छा अस्थायी है, मानती हूँ, लेकिन एक बार अनुमति देने के बाद फिर लड़की को पछताने के लिए कोई हीला नहीं रहता।

चक्रधर-अपने मन को समझाने के लिए तर्कों की कभी कमी नहीं रहती, मनोरमा ! कर्त्तव्य ही ऐसा आदर्श है, जो कभी धोखा नहीं दे सकता। ।

मनोरमा-हां, लेकिन आदर्श आदर्श ही रहता है, यथार्थ नहीं हो सकता। (मुस्कराकर) यदि आप ही का विवाह किसी कानी, काली-कलूटी स्त्री से हो जाए तो क्या आपको दुःख न होगा? बोलिए! क्या आप समझते हैं कि लड़की का विवाह किसी खूसट से हो जाता है, तो उसे दुःख नहीं होता? उसका बस चले तो वह पति का मुंह तक न देखे। लेकिन इन बातों को जाने दीजिए। वधूजी बहुत सुंदर हैं?

चक्रधर ने बात टालने के लिए कह–सुंदरता मनोभावों पर निर्भर होती है। माता अपने कुरूप बालक को भी सुंदर समझती है।

मनोरमा-आप तो ऐसी बातें कर रहे हैं, जैसे भागना चाहते हों। क्या माता किसी सुंदर बालक को देखकर यह नहीं सोचती कि मेरा भी बालक ऐसा ही होता !

चक्रधर ने लज्जित होकर कहा-मेरा आशय यह न था। मैं यही कहना चाहता था कि सुंदरता के विषय में सबकी राय एक-सी नहीं हो सकती।

मनोरमा-आप फिर भागने लगे। मैं जब आपसे यह प्रश्न करती हूँ, तो उसका साफ मतलब यह है कि आप उन्हें सुंदर समझते हैं या नहीं?

चक्रधर लज्जा से सिर झुकाकर बोले-ऐसी बुरी तो नहीं है?

मनोरमा-तब तो आप उन्हें खूब प्यार करेंगे?

चक्रधर-प्रेम केवल रूप का भक्त नहीं होता।

सहसा घर के अंदर से किसी के कर्कश शब्द कान में आए, फिर लौंगी का रोना सुनाई दिया। चक्रधर ने पूछा-यह लौंगी रो रही है?

मनोरमा-जी हां! आपकी तो भाई साहब से भेंट नहीं हुई। गुरुसेवकसिंह नाम है। कई महीनों से देहात में जमींदारी का काम करते हैं। हैं तो सगे भाई और पढ़े-लिखे भी खूब हैं, लेकिन भलमनसी छू भी नहीं गई। जब आते हैं, लौंगी अम्मां से झूठमूठ तकरार करते हैं। न जाने उससे इन्हें क्या अदावत है।

इतने में गुरुसेवकसिंह लाल-लाल आंखें किए निकल आए और मनोरमा से बोले बाबूजी कहाँ गए हैं? तुझे मालूम है कब तक आएंगे? मैं आज ही फैसला कर लेना चाहता हूँ।

गुरुसेवकसिंह की उम्र पच्चीस वर्ष से अधिक न थी। लंबे, छरहरे एवं रूपवान् थे; आंखों पर ऐनक थी, मुंह में पान का बीड़ा, देह पर तनजेब का कुर्ता, मांग निकली हुई। बहुत शौकीन आदमी थे।

चक्रधर को बैठे देखकर वह कुछ झिझके और अंदर लौटना चाहते ही थे कि लौंगी रोती हुई आकर चक्रधर के पास खड़ी हो गई और बोली-बाबूजी, इन्हें समझाइए कि मैं अब बुढ़ापे में कहाँ जाऊं? इतनी उम्र तो इस घर में कटी, अब किसके द्वार पर जाऊं? जहां इतने नौकरोंचाकरों के लिए खाने को रोटियां हैं, क्या वहां मेरे लिए एक टुकड़ा भी नहीं? बाबूजी, सच कहती हूँ, मैंने इन्हें अपना दूध पिलाकर पाला है; मालकिन के दूध न होता था, और अब यह मुझे घर से निकालने पर तुले हुए हैं।

गुरुसेवक की इच्छा तो न थी कि चक्रधर से इस कलह के संबंध में कुछ कहें, लेकिन जब लौंगी ने उन्हें पंच बनाने में संकोच न किया, तो वह भी खुल पड़े। बोले-महाशय, इससे यह पूछिए कि अब यह बुढ़िया हुई, इसके मरने के दिन आए, क्यों नहीं किसी तीर्थ-स्थान में जाकर अपने कलुषित जीवन के बचे हुए दिन काटती? मैंने दादाजी से कहा था कि इसे वृन्दावन पहुंचा दीजिए और वह तैयार भी हो गए थे; पर इसने सैकड़ों बहाने किए और वहां न गई। आपसे तो अब कोई पर्दा नहीं है, इसके कारण मैंने यहां रहना छोड़ दिया। इसके साथ इस घर में रहते हुए मुझे लज्जा आती है। इसे इसकी जरा भी परवाह नहीं कि जो लोग सुनते होंगे, तो दिल में क्या कहते होंगे। हमें कहीं मुंह दिखाने की जगह नहीं रही। मनोरमा अब सयानी हुई। उसका विवाह करना है या नहीं? इसके घर में रहते हुए हम किस भले आदमी के द्वार पर जा सकते हैं? मगर इसे इन बातों की बिल्कुल चिंता नहीं। बस, मरते दम तक घर की स्वामिनी बनी रहना चाहती है। दादाजी भी सठिया गए हैं, उन्हें मानापमान की जरा भी फिक्र नहीं। इसने उन पर जाने क्या मोहिनी डाल दी है कि इसके पीछे मुझसे लड़ने पर तैयार रहते हैं। आज मैं निश्चय करके आया हूँ कि इसे घर के बाहर निकालकर ही छोडूंगा। या तो यह किसी दूसरे मकान में रहे या किसी तीर्थस्थान को प्रस्थान करे।

लौंगी-तो बच्चा, सुनो, जब तक मालिक जीता है, लौंगी इसी घर में रहेगी और इसी तरह रहेगी। जब वह न रहेगा, तो जो कुछ सिर पर पड़ेगी, झेल लूंगी। जो तुम चाहो कि लौंगी गली-गली ठोकरें खाए तो यह न होगा ! मैं लौंडी नहीं हूँ कि घर से बाहर जाकर रहूँ। तुम्हें यह कहते लज्जा नहीं आती? चार भांवरें फिर जाने से ही विवाह नहीं हो जाता। मैंने अपने मालिक की जितनी सेवा की है और करने को तैयार हूँ, उतनी कौन ब्याहता करेगी? लाए तो हो बहू, कभी उठकर एक लुटिया पानी भी देती है? खाई है कभी उसकी बनाई हुई कोई चीज? नाम से कोई ब्याहता नहीं होती, सेवा और प्रेम से होती है।

गुरुसेवकसिंह-यह तो मैं जानता हूँ कि तुझे बातें बहुत करनी आती हैं, पर अपने मुंह से जो चाहे बने, मैं तुझे लौंडी ही समझता हूँ।

लौंगी-तुम्हारे समझने से क्या होता है, अभी तो मेरा मालिक जीता है। भगवान उसे अमर करें! जब तक जीती हूँ, इसी तरह रहूँगी, चाहे तुम्हें अच्छा लगे या बुरा। जिसने जवानी में बांह पकड़ी, वह क्या अब छोड़ देगा? भगवान् को कौन मुंह दिखाएगा?

यह कहती हुई लौंगी घर में चली गई। मनोरमा चुपचाप सिर झुकाए दोनों की बातें सुन रही थी। उसे लौंगी से सच्चा प्रेम था। मातृस्नेह का जो कुछ सुख उसे मिला था, लौंगी से ही मिला था। उसकी माता तो उसे गोद में छोड़कर परलोक सिधारी थी। उस एहसान को वह कभी न भूल सकती थी। अब भी लौंगी उस पर प्राण देती थी। इसलिए गुरुसेवकसिंह की यह निर्दयता उसे बहुत बुरी मालूम होती थी।

लौंगी के जाते ही गुरुसेवकसिंह बड़े शांत भाव से एक कुर्सी पर बैठ गए और चक्रधर से बोले-महाशय, आपसे मिलने की इच्छा हो रही थी और इस समय मेरे यहां आने का एक कारण यह भी था। आपने आगरे की समस्या जिस बुद्धिमानी से हल की, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए , कम है।

चक्रधर-वह तो मेरा कर्त्तव्य ही था।

गुरुसेवक-इसीलिए कि आपके कर्त्तव्य का आदर्श बहुत ऊंचा है। सौ में निन्यानबे आदमी तो ऐसे अवसर पर लड़ जाना ही अपना कर्त्तव्य समझते हैं। मुश्किल से एक आदमी ऐसा निकलता है, जो धैर्य से काम ले। शांति के लिए आत्मसर्पण करने वाला तो लाख-दो-लाख में एक होता है। आप विलक्षण धैर्य और साहस के मनुष्य हैं। मैंने भी अपने इलाके में कुछ लड़कों का खेल सा कर रखा है। वहां पठानों के कई बड़े-बड़े गांव हैं; उन्हीं से मिले हुए ठाकुरों के भी कई गांव हैं। पहले पठानों और ठाकुरों में इतना मेल था कि शादी, गमी, तीज-त्यौहार में एक-दूसरे के साथ शरीक होते थे, लेकिन अब तो यह हाल है कि कोई त्योहार ऐसा नहीं जाता, जिसमें खून-खच्चर या कम-से-कम मारपीट न हो। आप अगर दो-एक दिन के लिए वहां चलें, तो आपस में बहुत कुछ सफाई हो जाए। मुसलमानों ने अपने पत्रों में आपका जिक्र देखा है और शौक से आपका स्वागत करेंगे। आपके उपदेशों का बहुत कुछ असर पड़ सकता है।

चक्रधर-बातों में असर डालना तो ईश्वर की इच्छा के अधीन है। हां, मैं आपके साथ चलने को तैयार हूँ। मुझसे जो सेवा हो सकेगी, वह उठा न रखूंगा। कब चलने का इरादा है?

गुरुसेवक-चलता तो इसी गाड़ी से; लेकिन मैं इस कुलटा को अबकी निकाल बाहर किए बगैर नहीं जाना चाहता। दादाजी ने रोक-टोक की, तो मनोरमा को लेता जाऊंगा और फिर इस घर में कदम न रखूगा। सोचिए तो, कितनी बड़ी बदनामी है!

चक्रधर बड़े संकट में पड़ गए। विरोध की कटुता को मिटाने के लिए मुस्कराते हुए बोले-मेरे और आपके सामाजिक विचारों में बड़ा अंतर है। मैं बिल्कुल भ्रष्ट हो गया हूँ।

गुरुसेवक-क्या आप लौंगी का यहां रहना अनुचित नहीं समझते?

चक्रधर-जी नहीं, खानदान की बदनामी अवश्य है, लेकिन मैं बदनामी के भय से अन्याय करने की सलाह नहीं दे सकता। क्षमा कीजिएगा, मैं बड़ी निर्भीकता से अपना मत प्रकट कर रहा हूँ।

गुरुसेवक-नहीं-नहीं, मैं बुरा नहीं मान रहा हूँ। (मुस्कराकर) इतना उजड्ड नहीं हूँ कि किसी मित्र की सच्ची राय न सुन सकू। अगर आप मुझे समझा दें कि उसका यहां रहना उचित है, तो मैं आपका बहुत अनुग्रहीत हूँगा। मैं खुद नहीं चाहता कि मेरे हाथों किसी को अकारण कष्ट पहुंचे।

चक्रधर-जब किसी पुरुष का एक स्त्री के साथ पति-पत्नी का संबंध हो जाए, तो पुरुष का धर्म है कि जब तक स्त्री की ओर से कोई विरुद्ध आचरण न देखे, उस संबंध को निबाहे।

गुरुसेवक-चाहे स्त्री कितनी ही नीच जाति की हो?

चक्रधर-हां, चाहे किसी भी जाति की हो!

मनोरमा यह जवाब सुनकर गर्व से फूल उठी। वह आवेश में उठ खड़ी हुई और पुलकित होकर खिड़की के बाहर झांकने लगी। गुरुसेवकसिंह वहां न होते तो वह जरूर कह उठती-आप मेरे मुंह से बात ले गए।

एकाएक फिटन की आवाज आई और ठाकुर साहब उतरकर अंदर गए। गुरुसेवकसिंह भी उनके पीछे-पीछे चले। वह डर रहे थे कि लौंगी अवसर पाकर कहीं उनके कान न भर दे।

जब वह चले गए, तो मनोरमा बोली-आपने मेरे मन की बात कही। बहुत-सी बातों में मेरे विचार आपके विचारों से मिलते हैं।

चक्रधर-उन्हें बुरा तो जरूर लगा होगा!

मनोरमा-वह फिर आपसे बहस करने आते होंगे। अगर आज मौका न मिलेगा तो कल करेंगे। अबकी वह शास्त्रों के प्रमाण पेश करेंगे, देख लीजिएगा।

चक्रधर-खैर, यह तो बताओ कि तुमने इन चार-पांच दिनों में क्या काम किया?

मनोरमा-मैंने तो किताब तक नहीं खोली। बस, समाचार पढ़ती थी और वही बातें सोचती थी। आप नहीं रहते तो मेरा किसी काम में जी नहीं लगता। आप अब कभी बाहर न जाइएगा।

चक्रधर ने मनोरमा की ओर देखा, तो उसकी आंखें सजल हो गई थीं। सोचने लगे। बालिका का हृदय कितना सरल, कितना उदार, कितना कोमल और कितना भावमय है।

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