कायाकल्प (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद Part 3
कायाकल्प : अध्याय दस
मुंशी वज्रधर विशालसिंह के पास से लौटे, तो उनकी तारीफों के पुल बांध दिए। रईस हो तो ऐसा हो। आंखों में कितना शील है ! किसी तरह छोड़ते ही न थे। यों समझो कि लड़कर आया हूँ। प्रजा पर तो जान देते हैं। बेगार की चर्चा सुनी, तो उनकी आंखों में आंसू भर गए। उनके जमाने में प्रजा चैन करेगी। यह तारीफ सुनकर चक्रधर को विशालसिंह से श्रद्धा-सी हो गई। उनसे मिलने गए और समिति के संरक्षकों में उनका नाम दर्ज कर लिया। तब से कुंवर साहब समिति की सभाओं में नित्य सम्मिलित होते थे। अतएव अबकी उनके यहां कृष्णाष्टमी का उत्सव हुआ, तब चक्रधर पर अपने सहवर्गियों के साथ उसमें शरीक हुए।
कुंवर साहब कृष्ण के परम भक्त थे। उनका जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाते थे। उनकी स्त्रियों में इस विषय में मतभेद था। उनके व्रत भी अलग-अलग थे। तीज के सिवा तीनों कोई एक व्रत न रखती थीं। रोहिणी कृष्ण की उपासिका थी, तो वसुमती रामनवमी का उत्सव मनाती थी, नवरात्रि का व्रत रखती, जमीन पर सोती और दुर्गा पाठ सुनती। रही रामप्रिया, वह कोई व्रत न रखती थी। कहती-इस दिखावे से क्या फायदा? मन शुद्ध चाहिए, यही सबसे बड़ी भक्ति है। जब मन में ईर्ष्या और द्वेष की ज्वाला दहक रही हो, राग और मत्सर की आंधी चल रही हो, तो कोरा व्रत रखने से क्या होगा! ये उत्सव आपस में प्रीति बढ़ाने के लिए मनाए जाते हैं। जब प्रीति के बदले द्वेष बढ़े, तो उनका न मनाना ही अच्छा !
संध्या हो गई थी। बाहर कंवल, झाड़ आदि जलाए जा रहे थे। चक्रधर अपने मित्रों के साथ बनाव-सजाव में मसरूफ थे। संगीत-समाज के लोग आ पहुंचे थे। गाना शुरू होने ही वाला था कि वसुमती और रोहिणी में तकरार हो गई। वसुमती को यह तैयारियां एक आंख न भाती थीं। उसके रामनवमी के उत्सव में सन्नाटा-सा रहता था। विशालसिंह उस उत्सव में उदासीन रहते थे। वसुमती इसे उनका पक्षपात समझती थी। उसके विचार से उनके इस असाधारण उत्साह का कारण कृष्ण की भक्ति नहीं, रोहिणी के प्रति स्नेह था। वह दिल में जल-भुन रही थी। रोहिणी सोलहों शृंगार किए पकवान बना रही थी। कदाचित् वसुमती को जलाने ही के लिए आप ही आप गीत गा रही थी। घर के सब बरतन उसी के यहां बिधे हुए थे। उसका यह अनुराग देख-देखकर वसुमती के कलेजे पर सांप-सा लोट रहा था। वह इस रंग में भंग मिलाना चाहती थी। सोचते-सोचते उसे एक बहाना मिल गया। महरी को भेजा, जाकर रोहिणी से कह-घर के बरतन जल्दी से खाली कर दें। दो थालियां, दो बटलोइयां, कटोरे, कटोरियां मांग लो? उनका उत्सव रात भर होगा, तो कोई कब तक बैठा उनकी राह देखता रहेगा? उनके उत्सव के लिए दूसरे क्यों भूखों मरें! महरी गई, तो रोहिणी ने तन्नाकर कहा-आज इतनी जल्दी भूख लग गई। रोज तो आधी रात तक बैठी रहती थी, आज आठ बजे ही भूख सताने लगी। अगर ऐसी ही जल्दी है, तो कुम्हार के यहां से हाडियां मंगवा लें। पत्तल मैं दे दूंगी।
वसुमती ने यह सुना, तो आग हो गई- हांडियां चढ़ाएं मेरे दुश्मन ! जिनकी छाती फटती हो, मैं क्यों हांडी चढाऊं? उत्सव मनाने की बड़ी साध है, तो नए बासन क्यों नहीं मंगवा लेती? अपने कृष्ण से कह दें, गाड़ी भर बरतन भेज दें। क्या जबरदस्ती दूसरों को भूखों मारेंगी?
रोहिणी रसोई से बाहर निकलकर बोली-बहन, जरा मुंह संभालकर बातें करो। देवताओं का अपमान करना अच्छा नहीं।
वसुमती-अपमान तो तुम करती हो, व्रत के दिन यों बन-ठनकर इठलाती फिरती हो। देवता रंग-रूप नहीं देखते, भक्ति देखते हैं !
रोहिणी-मैं बनती-ठनती हूँ, तो दूसरे की आंखें क्यों फूटती हैं? भगवान के जन्म के दिन भी न बनूं-ठनूं? उत्सव में तो रोया नहीं जाता !
वसुमती-तो और बनो-ठनो, मेरे अंगूठे से। आंखें क्यों फोड़ती हो? आंखें फूट जाएंगी, तो चल्लू भर पानी भी न दोगी!
रोहिणी-आज लड़ने ही पर उतारू हो आई हो क्या? भगवान सब दु:ख दें, पर बुरी संगत न दें। लो, यही गहने-कपड़े आंखों में गड़ रहे हैं? न पहनूंगी। जाकर बाहर कह दें, पकवान, प्रसाद किसी हलवाई से बनवा लें। मुझे क्या, मेरे मन का हाल भगवान् आप जानते हैं, पड़ेगी उन पर जिनके कारण यह सब हो रहा है।
यह कहकर सेहिणी अपने कमरे चली गई। सारे गहने-कपड़े उतार फेंके और मुंह ढांपकर चारपाई पर पड़ रही। ठाकुर साहब ने यह समाचार सुना, तो माथा कूटकर बोले-इन चाण्डालिनों से आज शुभोत्सव के दिन भी शांत नहीं बैठा जाता। इस जिंदगी से तो मौत ही अच्छी है। घर में आकर रोहिणी से बोले-तुम मुंह ढांपकर सो रही हो, या उठकर पकवान बनाती हो?
रोहिणी ने पड़े-पड़े उत्तर दिया-फट पड़े वह सोना जिससे टूटे कान। ऐसे उत्सव से बाज आई, जिसे देखकर घर वालों की छाती फटे।
विशालसिंह-तुमसे तो बार-बार कहा कि उसके मुंह न लगा करो। एक चुप सौ वक्ताओं को हरा सकता है। दो बातें सुन लो, तो तीसरी बात कहने का साहस न हो। फिर तुमसे बडी भी तो ठहरीं; यों भी तुमको उनका लिहाज करना ही चाहिए।
जिस दिन वसुमती ने विशालसिंह को व्यंग्य-बाण मारा था, जिसकी कथा हम कह चके हैं, उसी दिन से उन्होंने उससे बोलना-चालना छोड़ दिया था। उससे कुछ डरने लगे थे, उसके क्रोध की भयंकरता का अंदाजा पा लिया था। किंतु रोहिणी क्यों दबने लगी? यह उपदेश सुना, तो झंझलाकर बोली-रहने भी दो, जले पर नमक छिड़कते हो। जब बड़ा देख-देखकर जले, बात-बात पर कोसे, तो कोई कहाँ तक उनका लिहाज करे? उन्हें मेरा रहना जहर लगता है, तो क्या करूं? घर छोड़कर निकल जाऊं? वह इसी पर लगी हुई हैं। तुम्हीं ने उन्हें सिर चढ़ा लिया है। कोई बात होती है, तो मुझी को उपदेश करने दौड़ते हो, सीधा पा लिया है न ! उनसे बोलते हुए तो तुम्हारा भी कलेजा कांपता है। तुम न शह देते तो उनकी मजाल थी कि यों मुझे आंखें दिखातीं !
विशालसिंह-तो क्या मैं उन्हें सिखा देता हूँ कि तुम्हें गालियां दें?
रोहिणी-और क्या करते हो ! जब घर में कोई न्याय करने वाला नहीं रहा, तो इसके सिवा और क्या होगा? सामने तो चुडैल की तरह बैठी हुई हैं, जाकर पूछते क्यों नहीं? मुंह में कालिख क्यों नहीं लगाते? दूसरा पुरुष होता तो जूतों से बात करता, सारी शेखी किरकिरी हो जाती। लेकिन तुम तो खुद मेरी दुर्गति कराना चाहते हो। न जाने क्यों तुम्हें ब्याह का शौक चर्राया था?
कुंवर साहब ज्यों-ज्यों रोहिणी का क्रोध शांत करने की चेष्टा करते थे, वह और भी बिफरती जाती थी और बार-बार कहती थी, तुमने मेरे साथ क्यों ब्याह किया? यहां तक कि अंत में वह भी गर्म पड़ गए और बोले-और पुरुष स्त्रियों से विवाह करके कौन-सा सुख देते हैं, जो मैं तुम्हें नहीं दे रहा हूँ? रही लड़ाई-झगड़े की बात। तुम न लड़ना चाहो, तो कोई जबर्दस्ती तुमसे न लड़ेगा। आखिर रामप्रिया भी तो इसी घर में रहती है।
रोहिणी-तो मैं स्वभाव ही से लड़ाकू हूँ?
विशालसिंह-यह मैं थोड़े ही कहता हूँ।
रोहिणी-और क्या कहते हो? साफ-साफ कहते हो फिर मुकरते क्यों हो। मैं स्वभाव से ही झफड़ालू हूँ। दूसरों से छेड़-छेड़कर लड़ती हूँ। यह तुम्हें बहुत दूर की सूझी। वाह, क्या नई बात निकाली है ! कहीं छपवा दो, तो खासा इनाम मिल जाएगा।
विशालसिंह-तुम बरबस बिगड़ रही हो। मैंने तो दुनिया की बात कही थी और तुम अपने ऊपर ले गईं।
रोहिणी-क्या करूं, भगवान् ने बुद्धि ही नहीं दी। वहां भी ‘अंधेर नगरी और चौपट राजा’ होंगे। बुद्धि तो दो ही प्राणियों के हिस्से में पड़ी है, एक आपकी ठकुराइन के-नहीं-नहीं, महारानी के-और दूसरे आपके। जो कुछ बची-खुची, वह आपके सिर में लूंस दी गई।
विशालसिंह-अच्छा, उठकर पकवान बनाती हो कि नहीं? कुछ खबर है, नौ बज रहे हैं। रोहिणी-मेरी बला जाती है। उत्सव मनाने की लालसा नहीं रही।
विशालसिंह-तो तुम न उठोगी?
रोहिणी-नहीं, नहीं, नहीं! या और दो-चार बार कह दूं?
वसुमती सायबान में बैठी हुई दोनों प्राणियों की बातें तन्मय होकर सुन रही थीं, मानो कोई सेनापति अपने प्रतिपक्षी की गति का अध्ययन कर रहा हो, कि कब यह चूके और कब मैं दबा बैलूं। क्षण-क्षण में परिस्थिति बदल रही थी। कभी अवसर आता हुआ दिखाई देता था, फिर निकल जाता था। यहां तक कि अंत में प्रतिद्वंद्वी की एक भद्दी चाल ने उसे अपेक्षित अवसर दे दिया। विशालसिंह को मुंह लटकाए रोहिणी की कोठरी से निकलते देखकर बोली-क्या मेरी सूरत देखने की कसम खा ली है, या तुम्हारे हिसाब से मैं घर में हूँ ही नहीं! बहुत दिन तो हो गए रूठे, क्या जन्म भर रूठे ही रहोगे? क्या बात है, इतने उदास क्यों हो?
विशालसिंह ने ठिठककर कहा-तुम्हारी ही लगाई हुई आग को तो शांत कर रहा था; पर उल्टे हाथ जल गए। यह क्या रोज-रोज तूफान खड़ा करती हो? चार दिन की जिंदगी है इसे हंस-खेलकर नहीं काटते बनता? मैं तो ऐसा तंग हो गया हूँ कि जी चाहता है कि कहीं भाग जाऊं। सच कहता हूँ जिंदगी से तंग आ गया। यह सब आग तुम्हीं लगा रही हो।
वसुमती-कहाँ भागकर जाओगे? नई-नवेली बहू को किस पर छोड़ोगे? नए ब्याह का कुछ सुख तो उठाया ही नहीं।
विशालसिंह-बहुत उठा चुका, जी भर गया।
वसुमती-बस, एक ब्याह और कर लो, एक ही और, जिसमें चौकड़ी पूरी हो जाए।
विशालसिंह-क्या बैठे-बैठे जलाती हो? विवाह क्या किया था, भोग-विलास करने के लिए या तुमसे कोई बड़ी सुंदरी होगी?
वसुमती-अच्छा, आओ, सुनते जाओ।
विशालसिंह-जाने दो, लोग बाहर बैठे होंगे।
वसुमती-अब यही तो नहीं अच्छा लगता। अभी घंटे-भर वहां बैठे चिकनी-चुपड़ी बातें करते रहे तो नहीं देर हुई; मैं एक क्षण के लिए बुलाती हूँ तो भागे जाते हो। इसी दोअक्खी की तो तुम्हें सजा मिल रही है!
यह कहकर वसुमती ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया, घसीटती हुई अपने कमरे में ले गई और चारपाई पर बैठाती हुई बोली-औरतों को सिर चढ़ाने का यही फल है। उसे तो तब चैन आए, जब घर में अकेली वही रहे। जब देखो तब अपने भाग्य को रोया करती है, किस्मत फूट गई, मां-बाप ने कुएं में झोंक दिया, जिंदगी खराब हो गई। यह सब मुझसे नहीं सुना जाता, यही मेरा अपराध है। तुम उसके मन के नहीं हो, सारी जलन इसी बात की है। पूछो, तुझे कोई जबरदस्ती निकाल लाया था, या तेरे मां-बाप की आंखें फूट गई थीं? वहां तो यह मंसूबे थे कि बेटी मुंहजोर है ही, जाते ही जाते राजा को अपनी मुट्ठी में करके रानी बन बैठेगी ! क्या मालूम था कि यहां उसका सिर कुचलने को कोई और बैठा हुआ है। यही बातें खोलकर कह देती हैं, तो तिलमिला उठती है और तुम दौड़ते हो मनाने। बस, उसका मिजाज और आसमान पर चढ़ जाता है। दो दिन, चार दिन रूठी पड़ी रहने दो, फिर देखो, भीगी बिल्ली हो जाती है या नहीं। यह निरंतर का नियम है कि लोहे को लोहा ही काटता है। कुमानस के साथ कुमानस बनने ही से काम चलता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने नारियों के विषय में जो कहा है, बिल्कुल सच है।
विशालसिंह-यहां वह खटबांस लेकर पड़ी है, अब पकवान कौन बनाए?
वसमती-तो क्या जहां मुर्गा न होगा, वहां सबेरा ही न होगा? आखिर जब वह नहीं थी, तब भी तो जन्माष्टमी मनाई जाती थी। ऐसा कौन-सा बड़ा काम है? मैं बनाए देती हूँ। भगवान और ही बंटे हुए हैं, या मुझे जन्माष्टमी से कोई बैर है!
विशालसिंह ने पुलकित होकर कहा-बस, तुम्हारी इन्हीं बातों पर मेरी जान जाती है। कुलवंती स्त्रियों का यही धर्म है। आज तुम्हारी धानी साड़ी गजब ढा रही है। कवियों ने सच कहा है. यौवन प्रौढ़ होकर और भी अजेय हो जाता है। चंद्रमा का पूरा प्रकाश भी तो पूर्णिमा ही को होता है।
वसुमती-खुशामद करना कोई तुमसे सीख ले।
विशालसिंह-जो चीज कम हो, वह और मंगवा लेना।
विजय के गर्व से फूली हुई वसुमती आधी रात तक बैठी भांति-भांति के पकवान बनाती रही। द्वेष ने बरसों की सोई हुई कृष्ण-भक्ति को जागृत कर दिया। वह इन कामों में निपुण थी। श्रम से उसे कुछ रुचि-सी थी। निठल्ले न बैठा जाता था। रोहिणी जिस काम को दिन भर मरमरकर करती, उसे वह दो घंटे में हंसते-हंसते पूर्ण कर देती थी। रामप्रिया ने उसे बहुत व्यस्त देखा, तो वह भी आ गई और दोनों मिलकर काम करने लगीं।
विशालसिंह बाहर गए और कुछ देर तक गाना सुनते रहे; पर वहां जी न लगा। फिर भीतर चले आए और रसोईघर के द्वार पर मोढ़ा डालकर बैठ गए। भय था कि कहीं रोहिणी कुछ कह न बैठे और दोनों फिर न लड़ मरें।
वसुमती ने कहा-बाहर क्या हो रहा है?
विशालसिंह-गाना शुरू हो गया है। तुम इतनी महीन पूरियां कैसे बनाती हो? फट नहीं जातीं!
वसुमती-चाहूँ तो इससे भी महीन बेल दूं, कागज मात हो जाए।
विशालसिंह-मगर खिलेंगी न?
वसुमती-खिलाकर दिखा दूं, डब्बे-सी न फूल जायें तो कहना। अभी महारानी नहीं उठीं क्या? इसमें छिपकर बातें सुनने की बुरी लत है। न जाने क्या चाहती है। बहुत औरतें देखीं; लेकिन इसके ढंग सबसे निराले हैं। मुहब्बत तो इसे छू नहीं गई। अभी तुम तीन दिन बाहर कराहते रहे; पर कसम ले लो, जो उसका मन जरा भी मैला हुआ हो। हम लोगों के प्राण तो नखों में समा गए थे। रात-दिन देवी-देवता मनाया करती थीं। वहां पान चबाने, आईना देखने और मांग-चोटी करने के सिवा और दूसरा कोई काम ही न था। ऐसी औरतों पर कभी विश्वास न करें।
विशालसिंह-सब देखता हूँ, और समझता हूँ, निरा गधा नहीं हूँ।
वसुमती-यही तो रोना है कि तुम देखकर भी नहीं देखते, समझकर भी नहीं समझते। जहां उसने मुस्कराकर, आंखें मटकाकर बातें की, मस्त हो गए। लल्लो-चप्पो किया करते हो। थर-थर कांपते रहते हो कि कहीं रानी नाराज न हो जाएं। आदमी में सब ऐब हों, किंतु मेहर-बस न हो। ऐसी कोई बड़ी सुंदर भी तो नहीं है।
रामप्रिया-एक समय सखि सुअर सुंदर! जवानी में कौन नहीं सुंदर होता?
वसुमती-उसके माथे से तों तुम्हारे तलुवे अच्छे। सात जन्म ले, तो भी तुम्हारे गर्द को न
पहुंचे।
विशालसिंह-मैं मेहर-बस हूँ?
वसुमती-और क्या हो?
विशालसिंह-मैं उसे ऐसी-ऐसी बातें कहता हूँ कि वह भी याद करती होगी। घंटों रुलाता हूँ।
वसुमती-क्या जाने, यहां तो जब देखती हूँ, उसे मुस्कराते देखती हूँ! कभी आंखों में आंसू न देखा।
रामप्रिया-कड़ी बात भी हंसकर कही जाए, तो मीठी हो जाती है।
विशालसिंह-हंसकर नहीं कहता। डांटता हूँ, फटकारता हूँ। लौंडा नहीं हूँ कि सूरत पर लटू हो जाऊं।
वसुमती-डांटते होगे; मगर प्रेम के साथ। ढलती उम्र में सभी मर्द तुम्हारे ही जैसे हो जाते हैं। कोई नई बात नहीं है। मैं तुमसे लाख रूठी रहूँ, लेकिन तुम्हारा मुंह जरा भी गिरा देखा और जान निकल गई। सारा क्रोध हवा हो जाता है। वहां जब तक जाकर पैर न सहलाओ, तलुओं से आख न मलो, देवीजी सीधी ही नहीं होतीं। कभी-कभी तुम्हारी लंपटता पर मुझे हंसी आती है। आदमी कड़े दम चाहिए जिसका अन्याय देखे, उसे डांटे दे, बुरी तरह डांट दे, खून पी लेने पर उतारू हो जाए। ऐसे ही पुरुषों से स्त्रियां प्रेम करती हैं। भय बिना प्रीति नहीं होती। आदमी ने स्त्री की पूजा की कि वह उनकी आंखों से गिरा। जैसे घोड़ा पैदल और सवार पहचानता है, उसी तरह औरत भी भकुए और मर्द को पहचानती है। जिसने सच्चा आसन जमाया और लगाम कड़ी रखी, उसी की जय है। जिसने रास ढीली कर दी, उसकी कुशल नहीं।
रामप्रिया मुंह फेरकर मुस्कराई और बोली-बहन, तुम सब गुर बताए देती हो, किसके माथे जाएगी?
वसुमती-हम लोगों की लगाम कब ढीली थी?
रामप्रिया-जिसकी लगाम कभी कड़ी न थी, वह आज लगाम तानने से थोड़े ही काबू में आई जाती है और भी दुलत्तियां झाड़ने लगेगी।
विशालसिंह-मैंने तो अपनी जान में कभी लगाम ढीली नहीं की। आज ही देखो, कैसी फटकार बताई।
वसुमती-क्या कहना है, जरा मूंछे खड़ी कर लो, लाओ, पगिया मैं सवार दूं। यह नहीं कहते कि उसने ऐसी-ऐसी चोटें कीं कि भागते ही बना!
सहसा किसी के पैरों की आहट पाकर वसुमती ने द्वार की ओर देखा। रोहिणी रसोई के द्वार से दबे पांव चली जा रही थी। मुंह का रंग उड़ गया। दांतों से ओठ दबाकर बोली-छिपी खड़ी थी। मैंने साफ देखा। अब घर में रहना मुश्किल है। देखो, क्या रंग लाती है।
विशालसिंह ने पीछे की ओर सशंक नेत्रों से देखकर कहा-बड़ा गजब हुआ। चुडैल सब सुन गई होगी। मुझे जरा भी आहट न मिली।
वसुमती-उंह, रानी रूठेंगी, अपना सोहाग लेंगी। कोई कहाँ तक डरे? आदमियों को बलाओ, यह सामान यहां से ले जाएं।
भादों की अंधेरी रात थी। हाथ को हाथ न सूझता था। मालूम होता था, पृथ्वी पाताल में चली गई है या किसी विराट जंतु ने उसे निगल लिया है। मोमबत्तियों का प्रकाश तिमिर सागर में पांव रखते कांपता था। विशालसिंह भोग के पदार्थ थालियों में भरवा-भरवाकर बाहर रखवाने में लगे हुए थे। कोई केले छील रहा था, कोई खीरे काटता था। कोई दोनों में प्रसाद सजा रहा था। एकाएक रोहिणी एक चादर ओढ़े हुए घर से निकली और बाहर की ओर चली। विशालसिंह दहलीज के द्वार पर खड़े थे। इस भरी सभा में उसे यों निश्शंक भाव से निकलते देखकर उनका रक्त खौलने लगा। जरा भी न पूछा, कहाँ जाती हो, क्या बात है। मूर्ति की भांति खड़े रहे। दिल ने कहा-जिसने इतनी बेहयाई की, उससे और क्या आशा की जा सकती है? वह जहां जाती हो, जाए; जो जी में आए, करे। जब उसने मेरा सिर ही नीचा कर दिया, तो मुझे उसकी क्या परवाह? बेहया, निर्लज्ज तो है ही, कुछ पूढू और गालियां देने लगे, तो मुंह में और भी कालिख लग जाए। जब उसको मेरी परवाह नहीं, तो मैं क्यों उसके पीछे दौडूं? और लोग अपने-अपने काम में लगे हुए थे। रोहिणी पर किसी की निगाह न पड़ी।
इतने में चक्रधर उनसे कुछ पूछने आए, तो देखा कि महरी उनके सामने खड़ी है और क्रोध से आंखें लाल किए कह रहे हैं-अगर वह मेरी लौंडी नहीं है, तो मैं भी उसका गुलाम नहीं हूँ। अगर वह स्त्री होकर इतना आपे से बाहर हो सकती है, तो मैं पुरुष होकर उसके पैरों पर सिर न रखूगा। इच्छा हो जाए, मैंने तिलांजलि दे दी। अब इस घर में कदम न रखने दूंगा। (चक्रधर को देखकर) आपने भी तो उसे देखा होगा?
चक्रधर-किसे? मैं तो केले छील रहा था। कौन गया है?
विशालसिंह-मेरी छोटी पत्नीजी रूठकर बाहर चली गई हैं। आपसे घर का वास्ता है। आज औरतों में किसी बात पर तकरार हो गई। अब तक तो मुंह फुलाए पड़ी रहीं, अब यह सनक सवार हुई। मेरा धर्म नहीं है कि मैं उसे मनाने जाऊं! आप धक्के खाएंगी। उसके सिर पर कुबुद्धि सवार है।
चक्रधर-किधर गई हैं. महरी?
महरी-क्या जानूं, बाबूजी? मैं तो बरतन मांज रही थी। सामने ही गई होंगी।
चक्रधर ने लपककर लालटेन उठा ली और बाहर निकलकर दाएं-बाएं निगाहें दौड़ाते, तेजी से कदम बढ़ाते हुए चले। कोई दो सौ कदम गए होंगे कि रोहिणी एक वृक्ष के नीचे खड़ी दिखलाई दी। ऐसा मालूम होता था कि वह छिपने के लिए कोई जगह तलाश कर रही है। चक्रधर उसे देखते ही लपककर समीप जा पहुंचे और कुछ कहना ही चाहते थे कि रोहिणी खुद बोली-क्या मुझे पकड़ने आए हो? अपना भला चाहते हो, तो लौट जाओ, नहीं तो अच्छा न होगा। मैं उन पापियों का मुंह न देखूगी।
चक्रधर-आप इस अंधेरे में कहाँ जाएंगी? हाथ को हाथ सूझता नहीं।
रोहिणी-अंधेरे में डर उसे लगता है, जिसका कोई अवलंब हो। जिसका संसार में कोई नहीं, उसे किसका भय? गला काटने वाले अपने होते हैं, पराए गला नहीं काटते। जाकर कह देना, अब आराम से टांगें फैलाकर सोइए, अब तो कांटा निकल गया।
चक्रधर-आप कुंवर साहब के साथ बड़ा अन्याय कर रही हैं। बेचारे लज्जा और शोक से खड़े रो रहे हैं।
रोहिणी-क्यों बातें बनाते हो? वह रोएंगे, और मेरे लिए? मैं जिस दिन मर जाऊंगी, उस दिन घी के चिराग जलेंगे। संसार में ऐसे अभागे प्राणी भी होते हैं। अपने मां-बाप को क्या कहूँ? ईश्वर उन्हें नरक में भी चैन न दे। सोचे थे, बेटी रानी हो जाएगी, तो हम राज करेंगे। यहां जिस दिन डोली से उतरी, उसी दिन से सिर पर विपत्ति सवार हुई। पुरुष रोगी हो, बूढा हो, दरिद्र हो; पर नीच न हो। ऐसा नीच और निर्दयी आदमी संसार में न होगा। नीचों के साथ नीच बनना ही पड़ता है।
चक्रधर-आपके यहां खड़े होने से कुंवर साहब का कितना अपमान हो रहा है, इसकी आपको जरा भी फिक्र नहीं?
रोहिणी-तुम्हीं ने तो मुझे रोक रखा है।
चक्रधर-आखिर आप कहाँ जा रही हैं?
रोहिणी-तुम पूछने वाले कौन होते हो? मेरा जहां जी चाहेगा, जाऊंगी। उनके पांव में मेंहदी नहीं रची हुई थी। उन्होंने मुझे घर से निकलते भी देखा था। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि अच्छा हुआ, सिर से बला टली। दुतकार सहकर जीने से मर जाना अच्छा है।
चक्रधर-आपको मेरे साथ चलना होगा।
रोहिणी-तुम्हें यह कहने का क्या अधिकार है?
चक्रधर-जो अधिकार सचेत को अचेत पर, सजान को अजान पर होता है, वहा अधिकार मुझे आपके ऊपर है। अंधे को कुएं में गिरने से बचाना हर एक प्राणी का धर्म है।
रोहिणी-मैं न अचेत हं, न अजान, न अंधी। स्त्री होने ही से बावली नहीं हो गई हूँ। जिस घर में मेरा पहनना-ओढ़ना-हंसना बोलना, देख-देखकर दूसरों की छाती फटती है, जहां कोई अपनी बात तक नहीं पूछता, जहां तरह-तरह के आक्षेप लगाए जाते हैं, उस घर में कदम न रखूगी।
यह कहकर रोहिणी आगे बढ़ी कि चक्रधर ने सामने खड़े होकर कहा-आप आगे नहीं जा सकतीं।
रोहिणी-जबरदस्ती रोकोगे?
चक्रधर-हां, जबरदस्ती रोङगा।
रोहिणी-सामने से हट जाओ।
चक्रधर-मैं आपको एक कदम भी आगे न रखने दूंगा। सोचिए, आप अपनी अन्य बहनों को किस कुमार्ग पर ले जा रही हैं? जब वे देखेंगे कि बड़े-बड़े घरों की स्त्रियां भी रूठकर घर से निकल खड़ी होती हैं, तो उन्हें भी जरा-सी बात पर ऐसा ही साहस होगा या नहीं? नीति के विरुद्ध कोई काम करने का फल अपने ही तक नहीं रहता, दूसरों पर उसका और भी बुरा असर पड़ता है।
रोहिणी-मैं चुपके से चली जाती थी, तुम्हीं तो ढिंढोरा पीट रहे हो।
चक्रधर-जिस तरह रण से भागते हुए सिपाही को देखकर लोगों को उससे घृणा होती है-यहां तक कि उसका वध कर डालना भी पाप नहीं समझा जाता, उसी तरह कुल में, कलंक लगाने वाली स्त्रियों से भी सबको घृणा हो जाती है और कोई उनकी सूरत तक नहीं देखना चाहता। हम चाहते हैं कि सिपाही गोली और आग के सामने अटल खड़ा रहे। उसी तरह हम यह भी चाहते हैं कि स्त्री सब झेलकर अपनी मर्यादा का पालन करती रहे ! हमारा मुंह हमारी देवियों से उज्ज्वल है और जिस दिन हमारी देवियां इस भांति मर्यादा की हत्या करने लगेंगी, उसी दिन हमारा सर्वनाश हो जाएगा।
रोहिणी रुंधे हुए कंठ से बोली-तो क्या चाहते हो कि मैं फिर उसी आग में जलू?
चक्रधर-हां, यही चाहता हूँ। रणक्षेत्र में फूलों की वर्षा नहीं होती। मर्यादा की रक्षा करना उससे कहीं कठिन है।
रोहिणी-लोग हंसेंगे कि घर से निकली तो थी बड़े दिमाग से, आखिर झख मारकर लौट आई।
चक्रधर-ऐसा वही कहेंगे, जो नीच और दुर्जन हैं। समझदार लोग तो आपकी सराहना ही करेंगे।
रोहिणी ने कई मिनट तक आगा-पीछा करने के बाद कहा-अच्छा चलिए, आप भी क्या कहेंगे। कोई बुरा कहे या भला। हां, कुंवर साहब को इतना जरूर समझा दीजिएगा कि जिन महारानी को आज वह घर की लक्ष्मी समझे हुए हैं, वह एक दिन उनको बड़ा धोखा देंगी। मैं कितनी ही आपे से बाहर हो जाऊं, पर अपना ही प्राण दूंगी; वह बिगड़ेंगी तो प्राण लेकर छोड़ेंगी। आप किसी मौके से जरूर समझा दीजिएगा।
यह कहकर रोहिणी घर की ओर लौट पड़ी; लेकिन चक्रधर का उसके ऊपर कहाँ तक असर पड़ा और कहाँ तक स्वयं अपनी सहज बुद्धि का, इसका अनुमान कौन कर सकता है? वह लौटते वक्त लज्जा से सिर नहीं गड़ाए हुए थी, गर्व से उसकी गर्दन उठी हुई थी। उसने अपनी टेक को मर्यादा की वेदी पर बलिदान कर दिया था; पर उसके साथ ही उन व्यंग्य वाक्यों की रचना भी कर ली थी, जिससे वह कुंवर साहब का स्वागत करना चाहती थी।
जब दोनों आदमी घर पहुंचे, तो विशालसिंह अभी तक वहां मूर्तिवत् खड़े थे, महरी भी खड़ी थी। भक्त जन अपना-अपना काम छोड़कर लालटेन की ओर ताक रहे थे। सन्नाटा छाया हुआ था।
रोहिणी ने दहलीज में कदम रखा; मगर ठाकुर साहब ने उसकी ओर आंख उठा कर भी न देखा। जब वह अंदर चली गई, तो उन्होंने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और बोले-मैं तो समझता था किसी तरह न आएगी; मगर आप खींच ही लाए। क्या बहुत बिगड़ती थी?
चक्रधर ने कहा-आपको कुछ नहीं कहा। मुझे तो बहुत समझदार मालूम होती हैं। हां, मिजाज नाजुक है; बात बर्दाश्त नहीं कर सकतीं।
विशालसिंह-मैं यहां से टला तो नहीं, लेकिन सच पूछिए तो ज्यादती मेरी ही थी। मेरा क्रोध बहुत बुरा है। अगर आप न पहुँच जाते तो बड़ी मुश्किल पड़ती। जान पर खेल जानेवाली स्त्री है। आपका यह एहसान कभी न भूलूंगा। देखिए तो, सामने कुछ रोशनी-सी मालूम हो रही है, बैंड भी बज रहा है। क्या माजरा है?
चक्रधर-हां, मशालें और लालटेनें हैं। बहुत से आदमी भी साथ हैं। और लोग भी आंगन में उतर आए और सामने देखने लगे। सैकड़ों आदमी कतार बांधे मशालों और लालटेनों के साथ चले आ रहे थे, आगे-आगे दो अश्वारोही भी नजर आते थे। बैंड की मनोहर ध्वनि आ रही थी। सब खड़े-खड़े देख रहे थे; पर किसी की समझ में न आता था कि माजरा क्या है !
कायाकल्प : अध्याय ग्यारह
सभी लोग बड़े कुतूहल से आने वालों को देख रहे थे। कोई दस-बारह मिनट में वह विशालसिंह के घर के सामने आ पहुंचे। आगे-आगे दो घोड़ों पर मुंशी वज्रधर और ठाकुर हरिसेवकसिंह थे। पीछे कोई पचीस-तीस आदमी साफ-सुथरे कपड़े पहने चले आते थे। दोनों तरफ कई झंडीबरदार थे, जिनकी झंडियां हवा में लहरा रही थीं। सबसे पीछे बाजे वाले थे ! मकान के सामने पहुँचते ही दोनों सवार घोड़ों से उतर पड़े और हाथ बांधे हुए कुंवर साहब के सामने आकर खड़े हो गए। मुंशीजी की सज-धज निराली थी। सिर पर एक शमला था, देह पर एक नीचा आबा। ठाकुर साहब भी हिंदुस्तानी लिबास में थे। मुंशीजी खुशी से मुस्कराते थे, पर ठाकुर साहब का मुख मलिन था।
ठाकुर साहब बोले-दीनबंधु, हम सब आपके सेवक आपकी सेवा में यह शुभ सूचना देने के लिए हाजिर हुए हैं कि महारानी ने राज्य से विरक्त होकर तीर्थयात्रा को प्रस्थान किया है और अब हमें श्रीमान् की छत्रछाया के नीचे आश्रय लेने का वह स्वर्णावसर प्राप्त हुआ है, जिसके लिए हम सदैव ईश्वर से प्रार्थना करते रहते थे। यह हमारा परम सौभाग्य है कि आज से श्रीमान् हमारे भाग्यविधाता हुए। यह पत्र है, जो महारानीजी ने श्रीमान् के नाम लिख रखा था।
यह कहकर ठाकुर साहब ने रानी का पत्र विशाल सिंह के हाथ में दिया। कुंवर साहब ने एक ही निगाह में आद्योपांत पढ़ लिया और उनके मुख पर मंद हास्य की आभा झलकने लगी। पत्र जेब में रखते हुए बोले-यद्यपि महारानी की तीर्थ यात्रा का समाचार जानकर मुझे अत्यंत खेद हो रहा है, लेकिन इस बात का सच्चा आनंद भी है कि उन्होंने निवृत्ति मार्ग पर पग रखा; क्योंकि ज्ञान ही से मुक्ति प्राप्त होती है। मेरी ईश्वर से यही विनय है कि उसने मेरी गर्दन पर जो कर्तव्य का भार रखा है उसे संभालने की मुझे शक्ति दे और प्रजा के प्रति मेरा जो धर्म है, उसके पालन करने की भी शक्ति प्रदान करे। आप लोगों को मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं यथासाध्य अपना कर्त्तव्य पालन करने में ऊंचे आदर्शों को सामने रखूगा; लेकिन सफलता बहुत कुछ आप ही लोगों की सहानुभूति और सहकारिता पर निर्भर है, और मुझे आशा है कि आप मेरी सहायता करने में किसी प्रकार की कोताही न करेंगे। मैं इस समय यह भी जता देना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ कि मैं अत्याचार का घोर शत्रु हूँ और ऐसे महापुरुषों को, जो प्रजा पर अत्याचार करने के अभ्यस्त रहे हैं, मुझसे जरा भी नरमी की आशा न रखनी चाहिए।
इस कथन में शिष्टता की मात्रा अधिक और नीति की बहुत कम थी, फिर भी सभी राज्य कर्मचारियों को यह बातें अप्रिय जान पड़ीं। सबके कान खड़े हो गए और हरिसेवक को तो ऐसा मालूम हुआ कि यह निशाना मुझी पर है। उनके प्राण सूख गए। सभी आपस में कानाफूसी करने लगे।
कुंवर साहब ने लोगों को ले जाकर फर्श पर बैठाया और खुद मसनद लगाकर बैठे। नजराने की निरर्थक रस्म अदा होने लगी। बैंड ने बधाई देनी शुरू की। चक्रधर ने पान और इलायची से सबका सत्कार किया। कुंवर साहब का जी बार-बार चाहता था कि घर में जाकर यह सुख-संवाद सुनाऊं; पर मौका न देखकर जब्त किए हुए थे। मुंशी वज्रधर अब तक खामोश बैठे थे। ठाकुर हरिसेवक को यह खुशखबरी सुनाने का मौका देकर उन्होंने अपने ऊपर कुछ कम अत्याचार न किया था। अब उनसे चुप न रहा गया। बोले-हुजूर, आज सबसे पहले मुझी को यह हाल मालूम हुआ।
हरिसेवक ने इसका खंडन किया-मैं तो आपके साथ ही पहुँच गया था।
वज्रधर-आप मुझसे जरा देर बाद पहुंचे। मेरी आदत है कि बहुत सबेरे उठता हूँ। देर तक सोता, तो एक दिन भी तहसीलदारी न निभती। बड़ी हुकूमत की जगह है, हुजूर ! वेतन तो कुछ ऐसा ज्यादा न था; पर हुजूर, अपने इलाके का बादशाह था। खैर, ड्योढ़ी पर पहुंचा तो सन्नाटा छाया हुआ था। न दरबान का पता, न सिपाही का। घबराया कि माजरा क्या है। बेधड़क अंदर चला गया। मुझे देखते ही गुजराती रोती हुई दौड़ी आई और तुरंत रानी साहब का खत लाकर मेरे हाथ में रख दिया। रानी जी ने उससे शायद यह खत मेरे ही हाथ में देने को कहा था।
हरिसेवक-यह तो कोई बात नहीं। मैं पहले पहुँचता, तो मुझे खत मिलता। आप पहले पहुंचे, आपको मिल गया।
वज्रधर-आप नाराज क्यों होते हैं। मैंने तो केवल अपना विचार प्रकट किया है। वह खत पढ़कर मेरी जो दशा हुई, बयान नहीं कर सकता। कभी रोता था, कभी हंसता था। बस, यही जी चाहता था कि उड़कर हुजूर को खबर दूं। ठीक उसी समय ठाकुर साहब पहुंचे। है यही बात न, दीवान साहब?
हरिसेवक-मुझे खबर मिल गई थी। आदमियों को चौकसी रखने की ताकीद कर रहा था।
वज्रधर-आपने बाहर से जो कुछ किया हो, मुझे उसकी खबर नहीं, अंदर आप उसी वक्त पहुंचे, जब मैं खत लिए खड़ा था। मैंने आपको देखते ही कहा सब कमरों में ताला लगवा दीजिए और दफ्तर में किसी को न जाने दीजिए।
हरिसेवक-इतनी मोटी-सी बात के लिए मुझे आपकी सलाह की आवश्यकता न थी।
वज्रधर-यह मेरा मतलब नहीं। अगर मैंने तहसीलदारी की है, तो आपने भी दीवानी की है। सरकारी नौकरी न सही, फिर भी काम एक ही है। जब हर एक कमरे में ताला पड़ गया, दफ्तर का दरवाजा बंद कर दिया गया, तो सलाह होने लगी कि हुजूर को कैसे खबर दी जाए । कोई कहता था, आदमी दौड़ाया जाए , कोई मोटर से खबर भेजना चाहता था। मैंने यह मुनासिब नहीं समझा। इतनी उम्र तक भाड़ नहीं झोंका हूँ। जगदीशपुर खबर भेजकर सब कर्मचारियों को बुलाने की राय दी। दीवान साहब को मेरी राय पसंद आई। इसी कारण इतनी देर हुई। हुजूर, सारे दिन दौड़ते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गए। आज दोहरी खुशी का दिन है। गुस्ताखी माफ, मिठाइयां खिलाइए और महफिल जमाइए। एक हफ्ते तक गाना होना चाहिए। हुजूर, यही देना दिलाना, खाना खिलाना याद रहता है।
विशालसिंह-अब इस वक्त तो भजन होने दीजिए, कल यहीं महफिल जमेगी।
वज्रधर-हुजूर, मैंने पहले ही से गाने-बजाने का इंतजाम कर लिया है। लोग आते ही होंगे। शहर के अच्छे-अच्छे उस्ताद बुलाए हैं। हुजूर, एक से एक गुणी हैं। सभी का मुजरा होगा।
अभी तहसीलदार साहब ने बात पूरी भी न की थी कि झिनकू ने अंदर आकर सलाम किया और बोला-दीनानाथ, उस्ताद लोग आ गए हैं। हुक्म हो तो हाजिर हों।
मुंशीजी तुरंत बाहर गए और उस्तादों को हाथों हाथ ले आए। दस-बारह आदमी थे, सबके सब बूढ़े, किसी का मुंह पोपला, किसी की कमर झुकी हुई, कोई आंखों का अंधा। उनका पहनावा देखकर ऐसा अनुमान होता था कि कम-से-कम तीन शताब्दी पहले के मनुष्य हैं। बड़ी नीची अचकन, जिस पर हरी गोट लगी हुई, वही चुनावदार पाजामा, वही उलझी हुई तार-तार पगड़ी, कमर में पटका बंधा हुआ। दो-तीन उस्ताद नंग-धडंग थे, जिनके बदन पर एक लंगोटी के सिवा और कुछ न था। यही सरस्वती के उपासक थे और इन्हीं पर उनकी कृपा-दृष्टि थी।
उस्तादों ने अंदर आकर कुंवर साहब और अन्य सज्जनों को झुक-झुककर सलाम किया और घुटने तोड़-तोड़ बैठे। मुंशीजी ने उनका परिचय कराना शुरू किया। यह उस्ताद मेडूखां हैं, महाराज अलवर के दरबारी हैं, वहां से हजार रुपए सालाना वजीफा मिलता है। आप सितार बजाने में अपना सानी नहीं रखते। किसी के यहां आते-जाते नहीं, केवल भगवद्भजन किया करते हैं। यह चंदू महाराज हैं, पखावज के पक्के उस्ताद। ग्वालियर के महाराज इनसे लाख कहते हैं कि आप दरबार में रहिए। दो हजार रुपए महीने तक देते हैं, लेकिन आपको काशी से प्रेम है। छोड़कर नहीं जाते। यह उस्ताद फजलू हैं, राग-रागिनियों के फिकैत, स्वरों से रागिनियों की तसवीर खींच देते हैं। एक बार आपने लाट साहब के सामने गाया था। जब गाना बंद हआ, तो साहब ने आपके पैरों पर अपना टोपी रख दी और घंटों छाती पीटते रहे। डॉक्टरों ने जब दवा दी, तो उनका नशा उतरा।
विशालसिंह-यहां वह रागिनी न गवाइएगा, नहीं तो लोग लोट-पोट हो जाएंगे। यहां तो डॉक्टर भी नहीं है।
वज्रधर-हुजूर, रोज-रोज यह बातें थोडे ही होती हैं। बड़े से बड़े कलावंत को भी जिदंगी में केवल एक बार गाना नसीब होता है। फिर लाख सिर मारें, वह बात नहीं पैदा होती है।
परिचय के बाद गाना शुरू हुआ। फजलू ने मलार छेड़ा और मुंशीजी झूमने लगे। फजलू भी मुंशीजी ही को अपना कमाल दिखाते थे। उनके सिवा और उनकी निगाह में कोई था ही नहीं। उस्ताद लोग वाह-वाह’ का तार बांधे हुए थे; मुंशीजी आंखें बंद किए सिर हिला रहे थे और महफिल के लोग एक-एक करके बाहर चले जा रहे थे। दो-चार सज्जन बैठे थे। वे वास्तव में सो रहे थे। फजलू को इसकी जरा भी परवाह नहीं थी कि लोग उसका गाना पसंद करते हैं या नहीं। उस्ताद उस्तादों के लिए गाते हैं। गुणी गुणियों की ही निगाह में सम्मान पाने का इच्छुक होता है। जनता की उसे परवाह नहीं होती। अगर उस महफिल में अकेले मुंशीजी होते तो भी फजलू इतना ही मस्त होकर गाता। धनी लोग गरीबों की क्या परवाह करते हैं? विद्वान् मूरों को कब ध्यान में लाते हैं? इसी भाति गुणी जन अनाड़ियों की परवाह नहीं करते। उनकी निगाह में मर्मज्ञ का स्थान धन और वैभव के स्वामियों से कहीं ऊंचा होता है।
मलार के बाद फजलू ने ‘निर्गुण’ गाना शुरू किया; रागिनी का नाम तो उस्ताद ही बता सकते हैं। उस्तादों के मुख से सभी रागिनियां समान रूप धारण करती हुई मालूम होती हैं। आग में पिघलकर सभी धातुएं एक-सी हो जाती हैं। मुंशीजी को इस राग ने मतवाला कर दिया। पहले बैठे-बैठे झमते थे, फिर खड़े होकर झूमने लगे, झूमते-झूमते, आप ही आप उनके पैरों में एक गति-सी होने लगी। हाथ के साथ पैरों से भी ताल देने लगे। यहां तक कि वह नाचने लगे। उन्हें इसकी जरा भी टोप न थी कि लोग दिल में क्या कहते होंगे। गुणी को अपना गुण दिखाते शर्म नहीं आती। पहलवान को अखाड़े में ताल ठोंककर उतरते क्या शर्म! जो लड़ना नहीं जानते, वे ढकेलने से भी अखाडे में नहीं जाते। सभी कर्मचारी मुंह फेर-फेरकर हंसते थे। जो लोग बाहर चले गए थे, वे भी यह तांडव नृत्य देखने के लिए आ पहुंचे। यहां तक कि विशालसिंह भी हंस रहे थे। मुंशीजी के बदले देखने वालों को झेंप हो रही थी, लेकिन मुंशीजी अपनी धुन में मग्न थे। गुणी गुणियों के सामने अनुरक्त हो जाता है। अनाड़ी लोग तो हंस रहे थे और गुणी लोग नृत्य का आनंद उठा रहे थे। नृत्य ही अनुराग की चरम सीमा है।
नाचते-नाचते आनंद से विह्वल होकर मुंशीजी गाने लगे। उनका मुख अनुराग से प्रदीप्त हो रहा था। आज बड़े सौभाग्य से बहुत दिनों के बाद उन्हें यह स्वर्गीय आनंद प्राप्त करने का अवसर मिला था। उनकी बूढी हड्डियों में इतनी चपलता कहाँ से आ गई, इसका निश्चय करना कठिन है। इस समय तो उनकी फुर्ती और चुस्ती जवानों को भी लज्जित करती थी। उनका उछलकर आगे जाना, फिर उछलकर पीछे आना, झुकना और मुड़ना, और एक-एक अंग को फेरना वास्तव में आश्चर्यजनक था। इतने में कृष्ण के जन्म का मुहूर्त आ पहुंचा। सारी महफिल खड़ी हो गई और सभी उस्तादों ने एक स्वर से मंगलगान शुरू किया। साजों के मेले ने समां बांध दिया। केवल दो ही प्राणी ऐसे थे जिन्हें इस समय भी चिंता घेरे हुए थी। एक तो ठाकुर हरिसेवकसिंह, दूसरे कुंवर विशालसिंह। एक को यह चिंता लगी हुई थी कि देखें, कल क्या मुसीबत आती है, दूसरे को यह फिक्र थी कि इस दुष्ट से क्योंकर पुरानी कसर निकालूं। चक्रधर अब तक तो लज्जा से मुंह छिपाए बाहर खड़े थे, मंगल-गान समाप्त होते ही आकर प्रसाद बांटने लगे। किसी ने मोहन भोग का थाल उठाया, किसी ने फलों का। कोई पंचामृत बांटने लगा। हड़बोंग-सा मच गया। कुंवर साहब ने मौका पाया, तो उठे और मुंशी वज्रधर को इशारे से बुला, दालान में ले जाकर पूछने लगे-दीवान साहब ने तो मौका पाकर खूब हाथ साफ किए होंगे?
वज्रधर-मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं देखी। बेचारे दिन भर सामान की जांच-पड़ताल करते रहे। घर तक न गए।
विशालसिंह-यह सब तो आपके कहने से किया। आप न होते, तो न जाने क्या गजब ढाते।
वज्रधर-मेरी बातों का यह मतलब न था कि वह आपसे कीना रखते हैं। इन छोटी-छोटी बातों की ओर ध्यान देना उनका काम नहीं है। मुझे तो यह फिक्र थी कि दफ्तर के कागज तैयार हो जाएं। मैं किसी की बुराई न करूंगा। दीवान साहब को आपसे अदावत थी, यह मैं मानता हूँ। रानी साहब का नमक खाते थे और आपका बुरा चाहना उनका धर्म था; लेकिन अब वह आपके सेवक हैं और मुझे पूरा विश्वास है कि वह उतनी ही ईमानदारी से आपकी सेवा करेंगे।
विशालसिंह-आपको पुरानी कथा मालूम नहीं। इसने मुझ पर बड़े-बड़े जुल्म किए हैं। इसी के कारण मुझे जगदीशपुर छोड़ना पड़ा। बस चला होता, तो इसने मुझे कत्ल करा दिया होता?
वज्रधर-गुस्ताखी माफ कीजिएगा। आपका बस चलता, तो क्या रानीजी की जान बच जाती, या दीवान साहब जिंदा रहते? उन पिछली बातों को भूल जाइए। भगवान ने आज आपको ऊंचा रुतबा दिया है। अब आपको उदार होना चाहिए। ऐसी बातें आपके दिल में न आनी चाहिए। मातहतों से उनके अफसर के विषय में कुछ पूछताछ करना अफसर को जलील कर देना है। मैंने इतने दिनों तहसीलदारी की लेकिन नायब साहब ने तहसीलदार के विषय में चपरासियों से कभी कुछ नहीं पूछा। मैं तो खैर इन मामलों को समझता हूँ, लेकिन दूसरे मातहतों से यदि आप ऐसी बातें करेंगे, तो वह अपने अफसर की हजारों बुराइयां आपसे करेंगे। मैंने ठाकुर साहब के मुंह से एक भी बात ऐसी नहीं सुनी, जिससे यह मालूम हो कि वह आपसे कोई अदावत रखते हैं।
विशालसिंह ने कुछ लज्जित होकर कहा-मैं आपको ठाकुर साहब का मातहत नहीं, अपना मित्र समझता हूँ और इसी नाते से मैंने आपसे यह बात पूछी थी। मैंने निश्चय कर लिया था कि सबसे पहला वार इन्हीं पर करूंगा; लेकिन आपकी बातों ने मेरा विचार पलट दिया। आप भी उन्हें समझा दीजिएगा कि मेरी तरफ से कोई शंका न रखें। हां, प्रजा पर अत्याचार न करें।
वज्रधर-नौकर अपने मालिक का रुख देखकर ही काम करता है। रानीजी को हमेशा रुपए की तंगी रहती थी। दस लाख की आमदनी भी उनके लिए काफी न होती थी। ऐसी हालत में ठाकुर साहब को मजबूर होकर प्रजा पर सख्ती करनी पड़ती थी। वह कभी आमदनी और खर्च का हिसाब न देखती थीं। जिस वक्त जितने रुपए की उन्हें जरूरत पड़ती थी, ठाकुर साहब को देने पड़ते थे। जहां तक मुझे मालूम है, इस वक्त रोकड़ में एक पैसा भी नहीं है। गद्दी के उत्सव के लिए रुपयों का कोई-न-कोई और प्रबंध करना पड़ेगा। दो ही उपाय हैं या तो कर्ज लिया जाए, अथवा प्रजा से कर वसूलने के सिवाय ठाकुर साहब और क्या कर सकते हैं?
विशालसिंह-गद्दी के उत्सव के लिए मैं प्रजा का गला नहीं दबाऊंगा। इससे तो यह कहीं अच्छा है कि उत्सव मनाया ही न जाए।
वज्रधर-हुजूर, यह क्या फरमाते हैं? ऐसा भी कहीं हो सकता है?
विशालसिंह-खैर, देखा जाएगा। जरा अंदर जाकर रानियों को भी खुशखबरी दे आऊ।
यह कहकर कुंवर साहब घर में गए। सबसे पहले रोहिणी के कमरे में कदम रखा। वह पीछे की तरफ की खिड़की खोले खड़ी थी। उस अंधकार में उसे अपने भविष्य का रूप खिंचा हुआ नजर आता था। पति की निष्ठुरता ने आज उसकी मदांध आंखें खोल दी थीं। वह घर से निकलने की भूल स्वीकार करती थी, लेकिन कुंवर साहब का उसको मनाने न जाना बहुत अखर रहा था। इस अपराध का इतना कठोर दंड ! ज्यों-ज्यों वह उस स्थिति पर विचार करती थी, उसका अपमानित हृदय और भी तड़प उठता था।
कुंवर साहब ने कमरे में कदम रखते ही कहा-रोहिणी, ईश्वर ने आज हमारी अभिलाषा पूरी की है। जिस बात की आशा न थी, वह पूरी हो गई।
रोहिणी-तब तो घर में रहना और भी मुश्किल हो जाएगा। जब कुछ न था, तभी मिजाज न मिलता था। अब तो आकाश पर चढ़ जाएगा। काहे को कोई जीने पाएगा?
विशालसिंह ने दुःखित होकर कहा-प्रिये, यह इन बातों का समय नहीं है। ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने हमारी विनय सुन ली।
रोहिणी-जब अपना कोई रहा ही नहीं, तो राजपाट लेकर चाटूंगी?
विशालसिंह को क्रोध आया; लेकिन इस भय से कि बात बढ़ जाएगी, कुछ बोले नहीं। वहां से वसुमती के पास पहुंचे। वह मुंह लपेटे पड़ी हुई थी। जगाकर बोले-क्या सोती हो, उठो खुशखबरी सुनाएं।
वसुमती-पटरानीजी को तो सुना ही आए, मैं सुनकर क्या करूंगी? अब तक जो बात मन में थी, वह आज तुमने खोल दी। तो यहां बचा हुआ सत्तू खाने वाले पाहुने नहीं हैं?
विशालसिंह-क्या कहती हो? मेरी समझ में नहीं आता।
वसुमती-हां, अभी भोले-नादान बच्चे हो, समझ में क्यों आएगा? गर्दन पर छुरी फेर रहे हो, ऊपर से कहते हो कि तुम्हारी बातें समझ में नहीं आतीं। ईश्वर मौत भी नहीं देते कि इस आए दिन की दांता-किलकिल से छूटती। यह जलन अब नहीं सही जाती। पीछे वाली आगे आई, आगे वाली कोने में। मैं यहां से बाहर पांव निकालती, तो सिर काट लेते, नहीं तो कैसी खुशामदें कर रहे हो। किसी के हाथों में भी जस नहीं; किसी की लातों में भी जस है।
विशालसिंह दु:खी होकर बोले-यह बात नहीं है, वसुमती ! तुम जान-बूझकर नादान बनती हो। मैं इधर ही आ रहा था। ईश्वर से कहता हूँ, उसका कमरा अंधेरा देखकर चला गया, देखू क्या बात है।
वसुमती-मुझसे बातें न बनाओ, समझ गए? तुम्हें तो ईश्वर ने नाहक मूंछे दे दी। औरत होते तो किसी भले आदमी का घर बसता। जांघ तले की स्त्री सामने से निकल गई और तुम टुकुरटुकुर ताकते रहे। मैं कहती हूँ, आखिर तुम्हें यह क्या हो गया है? उसने कुछ कर-करा तो नहीं दिया? जैसे काया ही पलट हो गई ! जो एक औरत को काबू में नहीं रख सकता, वह रियासत का भार क्या संभालेगा?
यह कहकर उठी और झल्लाई हुई छत पर चली गई। विशालसिंह कुछ देर उदास खड़े रहे, तब रामप्रिया के कमरे में प्रवेश किया। वह चिराग के सामने बैठी कुछ लिख रही थी। पति की आहट पाकर सिर ऊपर उठाया, तो देखा आंखों में आंसू भरे हुए हैं। विशालसिंह ने चौंककर पूछा-क्या बात है, प्रिये, रो क्यों रही हो? मैं तुम्हें एक खुशखबरी सुनाने आया हूँ।
रामप्रिया ने आंसू पोंछते हुए कहा-सुन चुकी हूँ, मगर आप उसे खुशखबरी कैसे कहते हैं? मेरी प्यारी बहन सदा के लिए संसार से चली गई, क्या यह खुशखबरी है? अब तक और कुछ नहीं था, तो उसकी कुशल-क्षेम का समाचार तो मिलता रहता था। अब क्या मालूम होगा कि उस पर क्या बीत रही है। दुखिया ने संसार का कुछ सुख न देखा। उसका तो जन्म ही व्यर्थ हुआ। रोते ही रोते उम्र बीत गई।
यह कहकर रामप्रिया फिर सिसक-सिसककर रोने लगी।
विशालसिंह-उन्होंने पत्र में तो लिखा है कि मेरा मन संसार से विरक्त हो गया है।
रामप्रिया-इसको विरक्त होना नहीं कहते। यह तो जिंदगी से घबराकर भाग जाना है। जब आदमी को कोई आशा नहीं रहती, तो वह मर जाना चाहता है। यह विराग नहीं है। विराग ज्ञान से होता है, और उस दशा में किसी को घर से निकल भागने की जरूरत नहीं होती। जिसे फूलों की सेज पर भी नींद नहीं आती थी, वह पत्थर की चट्टानों पर कैसे सोएगी? बहन से बड़ी भूल हुई। क्या अंत समय ठोकरें खाना ही उसके कर्म में लिखा था?
यह कहकर वह फिर सिसकने लगी। विशालसिंह को उसका रोना बुरा मालूम हुआ। बाहर आकर महफिल में बैठ गए। मेडूखां सितार बजा रहे थे। सारी महफिल तन्मय हो रही थी। जो लोग फजलू का गाना न सुन सके थे, वे भी इस वक्त सिर घुमाते और झूमते नजर आते थे। ऐसा मालूम होता था, मानो सुधा का अनंत प्रवाह स्वर्ग की सुनहरी शिलाओं से गले मिल-मिलकर नन्हीं-नन्हीं फुहारों में किलोल कर रहा हो। सितार के तारों से स्वर्गीय तितलियों की कतारें-सी निकल-निकलकर समस्त वायुमंडल में अपने झीने परों से नाच रही थीं। उसका आनंद उठाने के लिए लोगों के हृदय कानों के पास आ बैठे थे।
किंतु इस आनंद और सुधा के अनंत प्रवाह में एक प्राणी हृदय के ताप से विकल हो रहा था। वह राजा विशालसिंह थे, सारी बारात हंसती थी, दूल्हा रो रहा था।
राजा साहब ऐश्वर्य के उपासक थे। तीन पीढ़ियों से उनके पुरखे यही उपासना करते चले आते थे। उन्होंने स्वयं इस देवता की तन-मन से आराधना की थी। आज देवता प्रसन्न हुए थे। तीन पीढ़ियों की अविरल भक्ति के बाद उनके दर्शन मिले थे। इस समय घर के सभी प्राणियों को पवित्र हृदय से उनकी वन्दना करनी चाहिए थी, सबको दौड़-दौड़कर उनके चरणों को धोना और उनकी आरती करनी चाहिए थी। इस समय ईर्ष्या, द्वेष और क्षोभ को हृदय में पालना उस देवता के प्रति घोर अभक्ति थी। राजा साहब को महिलाओं पर दया न आती, क्रोध आता था। सोच रहे थे, जब अभी से ईर्ष्या के मारे इनका यह हाल है, तो आगे क्या होगा। तब तो आए दिन, तलवारें चलेंगी। इनकी सजा यह है कि इन्हें इसी जगह छोड़ दूं। लड़ें जितना लड़ने का बूता हो, रोएं जितनी रोने की शक्ति हो ! जो रोने के लिए बनाया गया हो, उसे हंसाने की चेष्टा करना व्यर्थ है। इन्हें राजभवन ले जाकर गले का हार क्यों बनाऊं? उस सुख को, जिसका मेरे जीवन के साथ ही अंत हो जाना है, इन क्रूर क्रीड़ाओं से क्यों नष्ट करूं?
कायाकल्प : अध्याय बारह
दूसरी वर्षा भी आधी से ज्यादा बीत गई, लेकिन चक्रधर ने माता-पिता से अहिल्या का वृत्तांत गुप्त ही रखा। जब मुंशीजी पूछते-वहां क्या बात कर आए? आखिर यशोदानंदन को विवाह करना है या नहीं? न आते हैं, न चिट्ठी-पत्री लिखते हैं, अजीब आदमी हैं। न करना हो, तो साफ-साफ कह दें। करना हो, तो उसकी तैयारी करें। ख्वाहमख्वाह झमेले में फंसा रखा है-तो चक्रधर कुछ इधर-उधर की बातें करके टाल जाते। उधर यशोदानंदन बार-बार लिखते, तुमने मुंशीजी से सलाह की या नहीं। अगर तुम्हें उनसे कहते शर्म आती हो, तो मैं आकर कहूँ? आखिर इस तरह कब तक समय टालोगे? अहिल्या तुम्हारे सिवा किसी और से विवाह न करेगी, यह मानी हुई बात है। फिर उसे वियोग का व्यर्थ क्यों कष्ट देते हो? चक्रधर इन पत्रों के जवाब में भी यही लिखते कि मैं खुद फिक्र में हूँ। ज्यों ही मौका मिला, जिक्र करूंगा। मुझे विश्वास है कि पिताजी राजी हो जाएंगे।
जन्माष्टमी के उत्सव के बाद मुंशीजी घर आए, तो उनके हौसले बढ़े हुए थे। राजा साहब के साथ-ही-साथ उनके सौभाग्य का सूर्य उदय होता हुआ मालूम होता था। अब वह अपने ही शहर के किसी रईस के घर चक्रधर की शादी कर सकते थे। अब इस बात की जरूरत न होगी कि लड़की के पिता से विवाह का खर्च मांगा जाए। अब वह मनमाना दहेज ले सकते थे और धूमधाम से बारात निकाल सकते थे। राजा साहब जरूर उनकी मदद करेंगे, लेकिन मुंशी यशोदानंदन को वचन दे चुके थे, इसलिए उनसे एक बार पूछ लेना उचित था। अगर उनकी तरफ से जरा भी विलंब हो, तो साफ कह देना चाहते थे कि मुझे आपके यहां विवाह करना मंजूर नहीं। यों दिल में निश्चय करके एक दिन भोजन करते समय उन्होंने चक्रधर से कहा-मुंशी यशोदानंदन भी कुछ ऊल-जलूल आदमी हैं। अभी तक कानों में तेल डाले हुए बैठे हैं। क्या समझते हैं कि मैं गरजू हूँ?
चक्रधर-उनकी तरफ से तो देर नहीं है। वह तो मेरे खत का इंतजार कर रहे हैं।
वज्रधर-मैं तो तैयार हूँ, लेकिन अगर उन्हें कुछ पसोपेश हो तो मैं उन्हें मजबुर नहीं करना चाहता। उन्हें अख्तियार है, जहां चाहे करें। यहां सैकड़ों आदमी मुंह खोले हुए है। उस वक्त जो बात थी, वह अब नहीं है। तुम आज उन्हें लिख दो कि या तो इसी जाड़े में शादी कर दें, या कहीं और बातचीत करें। उन्हें समझता क्या हूँ! तुम देखोगे कि उनके जैसे आदमी इसी द्वार पर नाक रगड़ेंगे। आदमी को बिगड़ते देर लगती है, बनते देर नहीं लगती। ईश्वर ने चाहा, तो एक बार फिर धूम से तहसीलदारी करूंगा।
चक्रधर ने देखा कि अब अवसर आ गया है। इस वक्त चूके तो फिर न जाने कब ऐसा अच्छा मौका मिले। आज निश्चय ही कर लेना चाहिए। बोले-उन्हें तो कोई पसोपेश नहीं। पसोपेश जो कुछ होगा, आप ही की तरफ से होगा। बात यह है कि कन्या मुंशी यशोदानंदन की पुत्री नहीं
वज्रधर-पुत्री नहीं है ! वह तो लड़की ही बताते थे। तुम्हारे सामने की तो बात है। खैर, पुत्री न होगी, भतीजी होगी, नातिन होगी, बहन होगी। मुझे आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से, जब लड़की तुम्हें पसंद है और वह अच्छा दहेज दे सकते हैं तो मुझे और किसी बात की चिंता नहीं।
चक्रधर-वह लड़की उन्हें किसी मेले में मिली थी। तब उसकी उम्र तीन-चार बरस की थी। उन्हें उस पर दया आ गई, घर लाकर पाला, पढ़ाया, लिखाया।
वज्रधर-(स्त्री से) कितना दगाबाज आदमी है ! क्या अभी तक लड़की के मां-बाप का पता नहीं चला?
चक्रधर-जी नहीं, मुंशीजी ने उनका पता लगाने की चेष्टा की, पर कोई फल न निकला। वज्रधर-अच्छा, तो यह किस्सा है ! वह झूठा आदमी है, बना हुआ मक्कार।
निर्मला-जो लोग मीठी बातें करते हैं, उनके पेट में छुरी छिपी रहती है। न जाने किस जाति की लड़की है। क्या ठिकाना? तुम साफ-साफ लिख दो, मुझे नहीं करना है। बस!
वज्रधर-मैं तुमसे तो सलाह नहीं पूछता हूँ। तुम्हीं ने इतने दिन नेकनामी के साथ तहसीलदारी नहीं की है। मैं खुद जानता हूँ, ऐसे धोखेबाज के साथ कैसे पेश आना चाहिए।
खाना खाकर दोनों आदमी उठे, तो मुंशीजी ने कहा-कलम-दवात लाओ, मैं इसी वक्त यशोदानंदन को खत लिख दूं। बिरादरी का वास्ता न होता, तो हरजाने का दावा कर देता।
चक्रधर आरक्त मुख और संकोचरुद्ध कंठ से बोले-मैं तो वचन दे आया हूँ।
निर्मला-चल, झूठा कहीं का, खा मेरी कसम !
चक्रधर-सच अम्मां, तुम्हारे सिर की कसम!
वज्रधर-तो यह क्यों नहीं कहते कि तुमने सब कुछ आप ही आप तय कर लिया है। फिर मुझसे क्या सलाह पूछते हो? आखिर विद्वान् हो, बालिग हो, अपना भला-बुरा सोच सकते हो, मुझसे पूछने की जरूरत ही क्या ! लेकिन तुमने लाख एम० ए० पास कर लिया हो, वह तजुरबा कहाँ से लाओगे, जो मुझे है? रीझ गए ! मगर याद रखो, स्त्री में सुंदरता ही सबसे बड़ा गुण नहीं है। मैं तुम्हें हरगिज यह शादी न करने दूंगा।
चक्रधर-अगर और लोग भी यही सोचने लगे तो सोचिए, उस बालिका की क्या दशा होगी?
वज्रधर-तुम कोई शहर के काजी हो? तुमसे मतलब? बहुत होगा, जहर खा लेगी। तुम्ही को उसकी सबसे ज्यादा फिक्र क्यों है? सारा देश तो पड़ा हुआ है।
चक्रधर-अगर दूसरों को अपने कर्त्तव्य का विचार न हो, तो इसका यह मतलब नहीं किमैं भी अपने कर्त्तव्य का विचार न करूं।
वज्रधर-कैसी बेतुकी बातें करते हो, जी ! जिस लड़की के मां-बाप का पता नहीं, उससे विवाह करके क्या खानदान का नाम डुबाओगे? ऐसी बात करते हुए तुम्हें शर्म भी नहीं आती?
चक्रधर-मेरा खयाल है कि स्त्री हो या पुरुष, गुण और स्वभाव ही उसमें मुख्य वस्तु है। इसके सिवा और सभी बातें गौण हैं।
वज्रधर-तुम्हारे सिर नई रोशनी का भूत तो नहीं सवार हुआ था? एकाएक यह क्या कायापलट हो गई?
चक्रधर-मेरी सबसे बड़ी अभिलाषा तो यही है कि आप लोगों की सेवा करता जाऊं, आपकी मर्जी के खिलाफ कोई काम न करूं, लेकिन सिद्धांत के विषय में मजबूर हूँ।
वज्रधर-सेवा करना तो नहीं चाहते, मुंह में कालिख लगाना चाहते हो; मगर याद रखो, तुमने यह विवाह किया तो अच्छा न होगा। ईश्वर वह दिन न लाए कि मैं अपने कुल में कलंक लगते
देखू।
चक्रधर्-तो मेरा भी यही निश्चय है कि मैं और कहीं विवाह न करूंगा।
यह कहते हुए चक्रधर बाहर चले आए और बाबू यशोदानंदन को एक पत्र लिखकर सारा किस्सा बयान किया। उसके अंतिम शब्द ये थे-‘पिताजी राजी नहीं होते और यद्यपि मैं सिद्धांत के विषय में उनसे दबना नहीं चाहता; लेकिन उनसे अलग रहने और बुढ़ापे में उन्हें इतना बड़ा सदमा पहुंचाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं बहुत लज्जित होकर आपसे क्षमा चाहता हूँ। अगर ईश्वर की यही इच्छा है, तो जीवन-पर्यंत अविवाहित ही रहूँगा, लेकिन यह असंभव है कहीं और विवाह कर लूं। जिस तरह अपनी इच्छा से विवाह करके माता-पिता को दुखी करने की कल्पना नहीं कर सकता, उसी तरह उनकी इच्छा से विवाह करके जीवन व्यतीत करने की कल्पना मेरे लिए असह्य है।’
इसके बाद उन्होंने दूसरा पत्र अहिल्या के नाम लिखा। यह काम इतना आसान न था; प्रेमपत्र की रचना कवित्त की रचना से कहीं कठिन होती है। कवि चौड़ी सड़क पर चलता है, प्रेमी तलवार की धार पर। तीन बजे कहीं जाकर चक्रधर यह पत्र पूरा कर पाया। उसके अंतिम शब्द ये थे-‘हे प्रिये, मैं अपने माता-पिता का वैसा ही भक्त हूँ, जैसा कोई और बेटा हो सकता है। उनकी सेवा में अपने प्राण तक दे सकता हूँ, किंतु यदि इस भक्ति और आत्मा की स्वाधीनता में विरोध आ पड़े, तो मुझे आत्मा की रक्षा करने में जरा भी संकोच न होगा। अगर मुझे यह भय न होता कि माता जी अवज्ञा से रो-रोकर प्राण दे देंगी और पिताजी देश-विदेश मारे-मारे फिरेंगे, तो मैं यह असह्य यातना न सहता। लेकिन मैं सब-कुछ तुम्हारे ही फैसले पर छोड़ता हूँ, केवल इतनी ही याचना करता हूँ कि मुझ पर दया करो।’
दोनों पत्रों को डाकघर में डालते हुए वह मनोरमा को पढ़ाने चले गए।
मनोरमा बोली-आज आप बड़ी जल्दी आ गए, लेकिन देखिए, मैं आपको तैयार मिली। मैं जानती थी कि आप आ रहे होंगे, सच!
चक्रधर ने मुस्कराकर पूछा-तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मैं आ रहा हूँ?
मनोरमा-यह न बताऊंगी; किंतु मैं जान गई थी। अच्छा कहिए तो आपके विषय में कुछ और बताऊं। आज आप किसी-न-किसी बात पर रोए हैं। बताइए, सच है कि नहीं?
चक्रधर ने झेंपते हुए कहा-झूठी बात है। मैं क्यों रोता, कोई बालक हूँ?
मनोरमा खिलखिलाकर हंस पड़ी और बोली-बाबूजी, कभी-कभी आप बड़ी मौलिक बात कहते हैं। क्या रोना और हंसना बालकों ही के लिए है? जवान और बूढ़े नहीं रोते?
चक्रधर पर उदासी छा गई। हंसने की विफल चेष्टा करके बोले-तुम चाहती हो कि मैं तुम्हारे दिव्य ज्ञान की प्रशंसा करूं? वह मैं न करूंगा।
मनोरमा-अन्याय की बात दूसरी है, लेकिन आपकी आंखें कहे देती हैं कि आप रोए हैं! (हंसकर) अभी आपने यह विद्या नहीं पढ़ी, जो हंसी को रोने का और रोने को हंसी का रूप दे सकती है।
चक्रधर-क्या आजकल तुम उस विद्या का अभ्यास कर रही हो?
मनोरमा-कर तो नहीं रही हूँ, पर करना चाहती हूँ।
चक्रधर-नहीं मनोरमा, तुम वह विद्या न सीखना; मुलम्मे की जरूरत सोने को नहीं होती।
मनोरमा-होती है, बाबूजी, होती है। इससे सोने का मूल्य चाहे न बढ़े; पर चमक बढ़ जाती है। आपने महारानी की तीर्थयात्रा का हाल तो सुना ही होगा। अच्छा बताइए, आप इस रहस्य को समझते हैं?
चक्रधर-क्या इसमें भी कोई रहस्य है?
मनोरमा और नहीं क्या ! मैं परसों रात को बड़ी देर तक वहीं थी! हर्षपुर के राजकुमार आए हुए थे। उन्हीं के साथ गई हैं।
चक्रधर-खैर होगा। तुमने क्या काम किया है? लाओ, देखू।
मनोरमा-एक छोटा-सा लेख लिखा है; पर आपको दिखाते शर्म आती है।
चक्रधर-तुम्हारे लेख बहुत अच्छे होते हैं। शर्म की क्या बात है?
मनोरमा ने सकुचाते हुए अपना लेख उनके सामने रख दिया और वहां से उठकर चली गई। चक्रधर ने लेख पढ़ा, तो दंग रह गए। विषय था-ऐश्वर्य से सुख ! वे क्या हैं? काल पर विजय, लोकमत पर विजय, आत्मा पर विजय। लेख में इन्हीं तीनों अंगों की विस्तार के साथ व्याख्या की गई थी। चक्रधर उन विचारों की मौलिकता पर मुग्ध तो हुए, पर इसके साथ ही उन्हें उनकी स्वच्छन्दता पर खेद भी हुआ। ये भाव किसी व्यंग्य में तो उपयुक्त हो सकते थे, लेकिन एक विचारपूर्ण निबंध में शोभा न देते थे। उन्होंने लेख समाप्त करके रखा ही था कि मनोरमा लौट आई और बोली-हाथ जोड़ती हूँ बाबूजी, इस लेख के विषय में कुछ न पूछिएगा, मैं इसी के भय से चली गई थी।
चक्रधर-पूछना तो बहुत कुछ चाहता था, लेकिन तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो न पूछूगा। केवल इतना बता दो कि ये विचार तुम्हारे मन में क्यों कर आए। ऐश्वर्य का सुख विहार और विलास तो नहीं, यह तो ऐश्वर्य का दुरुपयोग है। यह तो व्यंग्य मालूम होता है।
मनोरमा-आप जो समझिए।
चक्रधर-तुमने क्या समझकर लिखा है?
मनोरमा-जो कुछ आंखों देखा, वही लिखा।
यह कहकर मनोरमा ने वह लेख उठा लिया और तुरंत फाड़कर खिड़की के बाहर फेंक दिया। चक्रधर हां-हां करते रह गए। जब वह फिर अपनी जगह पर आकर बैठी, तो चक्रधर ने गंभीर स्वर से कहा-तुम्हारे मन में ऐसे कुत्सित विचारों को स्थान पाता देखकर मुझे दुःख होता है।
मनोरमा ने सजल नयन होकर कहा-अब मैं ऐसा लेख कभी न लिखूगी।
चक्रधर-लिखने की बात नहीं है। तुम्हारे मन में ऐसे भाव आने ही न चाहिए। काल पर हम विजय पाते हैं, अपनी सुकीर्ति से, यज्ञ से, व्रत से। परोपकार ही अमरत्व प्रदान करता है। काल पर विजय पाने का अर्थ यह नहीं है कि कृत्रिम साधनों से भोग-विलास में प्रवृत्त हों, वृद्ध होकर जवान बनने का स्वप्न देखें और अपनी आत्मा को धोखा दें। लोकमत पर विजय पाने का अर्थ है, अपने सद्विचारों और सत्कर्मों से जनता का आदर और सम्मान प्राप्त करना। आत्मा पर विजय पाने का आशय निर्लज्जता या विषयवासना नहीं, बल्कि इच्छाओं का दमन करना और कुवृत्तियों को रोकना है। यह मैं नहीं कहता कि तुमने जो कुछ लिखा है, वह यथार्थ नहीं है। उनकी नग्न यथार्थता ही ने उन्हें इतना घृणित बना दिया है। यथार्थ का रूप अत्यंत भयंकर होता है। अगर हम यथार्थ को ही आदर्श मान लें तो संसार नरक के तुल्य हो जाए। हमारी दृष्टि मन की दुर्बलता पर पड़नी चाहिए। बल्कि दुर्बलताओं में भी सत्य और सुंदरता की खोज करनी चाहिए। दुर्बलता की ओर हमारी प्रवृत्ति स्वयं इतनी बलवती है कि उसे उधर ढकेलने की जरूरत नहीं। ऐश्वर्य का एक सुख और है, जिसे तुमने न जाने क्यों छोड़ दिया? जानती हो, वह क्या है?
मनोरमा-अब उसकी और व्याख्या करके मुझे लज्जित न कीजिए।
चक्रधर-तुम्हें लज्जित करने के लिए नहीं, तुम्हारा मनोरंजन करने के लिए बताता हूँ। पुरानी बातों को भूल जाना है। ऐश्वर्य पाते ही हमें अपना पूर्व जीवन विस्मृत हो जाता है। हम अपने पुराने हमजोलियों को नहीं पहचानते। ऐसा भूल जाते हैं, मानो कभी देखा ही न था। मेरे जितने धनी मित्र थे, वे मुझे भूल गए। कभी सलाम करता हूँ, तो हाथ तक नहीं उठाते। ऐश्वर्य का यह एक खास लक्षण है। कौन कह सकता है कि कुछ दिनों के बाद तुम्हीं मुझे न भूल जाओगी!
मनोरमा-मैं आपको भूल जाऊंगी! असंभव है। मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि पूर्व जन्म में मेरा और आपका किसी-न-किसी रूप में साथ था। पहले ही दिन से मुझे आपसे इतनी श्रद्धा हो गई, मानो पुराना परिचय हो। मैं जब कभी कोई बात सोचती हूँ, तो आप उसमें अवश्य पहुँच जाते हैं। अगर ऐश्वर्य पाकर आपको भूल जाने की संभावना हो तो मैं उसकी ओर आंख उठाकर भी न देखूगी।
चक्रधर ने मुस्कराकर कहा-जब हृदय यही रहे तब तो।
मनोरमा – यही रहेगा। देख लीजिएगा, मैं मरकर भी आपको नहीं भूल सकती।
इतने में ठाकुर हरिसेवक आकर बैठ गए। आज वह बहुत प्रसन्नचित्त मालूम होते थे। अभी थोड़ी ही देर पहले राजभवन से लौटकर आए थे। रात को नशा जमाने का अवसर न मिला था उसकी कसर इस वक्त पूरी कर ली थी। आंखें चढ़ी हुई थीं। चक्रधर से बोले-आपने कल महाराजा साहब के यहां उत्सव का प्रबंध जितनी सुंदरता से किया, उसके लिए आपको बधाई देता हूँ। आप न होते, तो सारा खेल बिगड़ जाता। महाराजा साहब बड़े ही उदार हैं। अब तक मैं उनके विषय में कुछ और ही समझे हुए था। कल उनकी उदारता और सज्जनता ने मेरा संशय दूर कर दिया। आपसे तो बिल्कुल मित्रों का-सा बर्ताव करते हैं।
चक्रधर-जी हां, अभी तक तो उनके बारे में कोई शिकायत नहीं है।
हरिसेवक-महाराज को एक प्राइवेट सेक्रेटरी की जरूरत तो पड़ेगी ही। आप कोशिश करें; तो आपको अवश्य ही वह जगह मिल जाएगी। आप घर के आदमी हैं; आपके हो जाने से बड़ा इत्मीनान हो जाएगा। एक सेक्रेटरी के बगैर महाराजा साहब का कार्य नहीं चल सकता। कहिए तो जिक्र करूं?
चक्रधर-जी नहीं, अभी तो मेरा इरादा कोई स्थायी नौकरी करने का नहीं है; दूसरे, मुझे विश्वास भी नहीं है कि मैं उस काम को संभाल सकूँगा।
हरिसेवक-अजी, काम करने से सब आ जाता है और आपकी योग्यता मेरे सामने है। मनोरमा को पढ़ाने के लिए कितने ही मास्टर आए, कोई भी दो-चार महीने से ज्यादा न ठहरा। आप जब से आए हैं, इसने बहुत खासी तरक्की कर ली है। मैं अब तक आपकी तरक्की नहीं कर सका, इसका मुझे खेद है। इस महीने से आपको पचास रुपए महीने मिलेंगे, यद्यपि मैं इसे भी आपकी योग्यता और परिश्रम को देखते हुए बहुत कम समझता हूँ।
लौंगी देवी भी आ पहुंची। कही-बदी बात थी। ठाकुर साहब का समर्थन करके बोली-देवता रूप हैं, देवता रूप ! मेरी तो इन्हें देखकर भूख-प्यास बंद हो जाती है।
हरिसेवक-तो तुम इन्हीं को देख लिया करो, खाने का कष्ट न उठाना पड़े।
लौंगी-मेरे ऐसे भाग्य कहाँ! क्यों बेटा, तुम नौकरी क्यों नहीं कर लेते?
चक्रधर-जितना आप देती हैं, मेरे लिए उतना ही काफी है।
लौंगी-इसी से शादी-ब्याह नहीं करते? अबकी लाला (वज्रधर) आते हैं, तो उनसे कहती हूँ, लडके को कब तक छूटा रखोगे?
हरिसेवक-शादी यह खुद ही नहीं करते, वह बेचारे क्या करें! यह स्वाधीन रहना चाहते हैं। लौंगी-तो कोई रोजगार क्यों नहीं करते, बेटा?
चक्रधर-अभी इस चरखे में नहीं पड़ना चाहता।
हरिसेवक-यह और ही विचार के आदमी हैं। माया फांस में नहीं पड़ना चाहते।
लौंगी-धन्य है, बेटा, धन्य है ! तुम सच्चे साधु हो।
इस तरह की बातें करके ठाकुर साहब अंदर चले गए। लौंगी भी उनके पीछे-पीछे चली गई। मनोरमा सिर झुकाए दोनों प्राणियों की बातें सुन रही थी और किसी शंका से उसका दिल कांप रहा था। किसी आदमी में स्वभाव के विपरीत आचरण देखकर शंका होती है। आज दादाजी इतने उदार क्यों हो रहे हैं? आज तक इन्होंने किसी को पूरा वेतन भी नहीं दिया, तरक्की करने का जिक्र ही क्या ! आज विनय और दया की मूर्ति क्यों बने जाते हैं, इसमें अवश्य कोई रहस्य है। बाबूजी से कोई कपट लीला तो नहीं करना चाहते हैं? जरूर यही बात है। कैसे इन्हें सचेत कर दूं?
वह यही सोच रही थी कि गुरुसेवकसिंह कंधे पर बंदूक रखे, शिकारी कपड़े पहने एक कमरे से निकल आए और बोले-कहिए, महाशय ! दादाजी तो आज आपसे बहुत प्रसन्न मालूम होते थे।
चक्रधर ने कहा-यह उनकी कृपा है।
गुरुसेवक-कृपा के धोखे में न रहिएगा। ऐसे कृपालु नहीं हैं। इनका मारा पानी भी नहीं मांगता। इस डाइन ने इन्हें पूरा राक्षस बना दिया है। शर्म भी नहीं आती। आपसे जरूर कोई मतलब गांठना चाहते हैं।
चक्रधर ने मुस्कराकर कहा-लौंगी अम्मां से आपका मेल नहीं हुआ?
गुरुसेवक-मेल? मैं उससे मेल करूंगा ! मर जाए, तो कंधा तक न दूं। डाइन है, लंका की डाइन, उसके हथकंडों से बचते रहिएगा। वेतन कभी बाकी न रखिएगा। दादाजी को तो इसने बुद्धू बना छोड़ा है। दादाजी जब किसी पर सख्ती करते हैं, तो तुरंत घाव पर मरहम रखने पहुँच जाती है। आदमी धोखे में आकर समझता है, यह दया और क्षमा की देवी है ! वह क्या जाने कि यही आग लगाने वाली है और बुझाने वाली भी। इसका चरित्र समझने के लिए मनोविज्ञान के किसी बड़े पंडित की जरूरत है।
चक्रधर ने आकाश की ओर देखा, तो घटा घिर आई थी। पानी बरसा ही चाहता था। उठकर बोले-आप इस विद्या में बहुत कुशल मालूम होते हैं।
जब वह बाहर निकल गए, तो गुरुसेवक ने मनोरमा से पूछा-आज दोनों इन्हें क्या पढ़ा रहे थे?
मनोरमा-कोई खास बात तो नहीं थी।
गुरुसेवक-यह महाशय भी बने हुए मालूम होते हैं। सरल जीवन वालों से बहुत घबराता हूँ। जिसे यह राग अलापते देखो, समझ जाओ कि या तो उसके लिए अंगूर खट्टे हैं, या स्वांग रचकर कोई बड़ा शिकार मारना चाहता है।
मनोरमा-बाबूजी उन आदमियों में नहीं हैं।
गुरुसेवक-तुम क्या जानो ! ऐसे गुरुघंटालों को मैं खूब पहचानता हूँ।
मनोरमा-नहीं भाई साहब, बाबूजी के विषय में आप धोखा खा रहे हैं। महाराजा साहब इन्हें अपना प्राइवेट सेक्रेटरी बनाना चाहते हैं, लेकिन वह मंजूर नहीं करते।
गुरुसेवक-सच ! उस जगह का वेतन तो चार-पांच सौ से कम न होगा।
मनोरमा-इससे क्या कम होगा ! चाहें तो इन्हें अभी वह जगह मिल सकती है। राजा साहब इन्हें बहुत मानते हैं, लेकिन यह कहते हैं, मैं स्वाधीन रहना चाहता हूँ। यहां भी अपने घरवालों के बहुत दबाने से आते हैं।
गुरुसेवक-मुझे वह जगह मिल जाए , तो बड़ा मजा आए।
मनोरमा-मैं तो समझती हूँ, इसका दुगुना वेतन मिले, तो भी बाबूजी स्वीकार न करेंगे। सोचिए कितना ऊंचा आदर्श है।
गुरुसेवक-मुझे किसी तरह वह जगह मिल जाती, तो जिंदगी बड़े चैन से कटती।
मनोरमा-अब गांवों का सुधार न कीजिएगा?
गुरुसेवक-वह भी करता रहूँगा, यह भी करता रहूँगा। राजमंत्री होकर प्रजा की सेवा करने का जितना अवसर मिल सकता है, उतना स्वाधीन रहकर नहीं। कोशिश करके देखू, इसमें तो कोई बुराई नहीं है।
यह कहते हुए वह कमरे में चले गए।
मेघों का दल उमड़ा चला आता था। मनोरमा खिड़की के सामने खड़ी आकाश की ओर भयातुर नेत्रों से देख रही थी। अभी बाबूजी घर न पहुंचे होंगे। पानी आ गया तो जरूर भीग जाएंगे। मुझे चाहिए था कि उन्हें रोक लेती। भैया न आ जाते, तो शायद वह अभी खुद ही बैठते। ईश्वर करे, वह पहुँच गए हों।