कायाकल्प (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद Part 4

कायाकल्प (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद Part 3

कायाकल्प : अध्याय तेरह

मुद्दत के बाद जगदीशपुर के भाग जागे। राजभवन आबाद हुआ। बरसात में मकानों की मरम्मत न हो सकती थी, इसलिए क्वार तक शहर ही में गुजारा करना पड़ा। कार्तिक लगते ही एक ओर जगदीशपुर के राजभवन की मरम्मत होने लगी, दूसरी ओर गद्दी के उत्सव की तैयारियां शुरू हुईं। शहर से सामान लद-लदकर जगदीशपुर जाने लगा। राजा साहब स्वयं एक बार रोज जगदीशपुर आते; लेकिन रहते शहर में ही। रानियां जगदीशपुर चली गई थीं और राजा साहब को अब उनसे चिढ़-सी हो गई थी। घंटे-दो घंटे के लिए भी वहां जाते तो सारा समय गृहकलह सुनने में कट जाता था और कोई काम देखने की मुहलत न मिलती थी। रानियों में पहले ही-सी बमचख मची रहती थी। राजा साहब ने जीवन का नया अध्याय शुरू कर दिया था।

राजा साहब ताकीद करते थे कि प्रजा पर जरा भी सख्ती न होने पाए। दीवान साहब से उन्होंने जोर देकर कह दिया कि बिना पूरी मजदूरी दिए किसी से काम न लीजिए, लेकिन यह उनकी शक्ति के बाहर था कि आठों पहर बैठे रहें। उनके पास अगर कोई शिकायत पहुँचती, तो कदाचित् वह राजकर्मचारियों को फाड़ खाते। लेकिन प्रजा सहनशील होती है, जब तक प्याला भर न जाए, वह जबान नहीं खोलती। फिर गद्दी के उत्सव में थोड़ा-बहुत कष्ट होना स्वाभाविक समझकर और भी कोई न बोलता था। अपना काम तो बारहों मास करते ही हैं, मालिक की भी तो कुछ सेवा होनी चाहिए। यह खयाल करके सभी लोग उत्सव की तैयारियों में लगे हुए थे। सुन रखा था कि राजा साहब बड़े दयालु, प्रजावत्सल हैं, इससे लोग खुशी से इस अवसर पर योग दे रहे थे। समझते थे, महीने-दो-महीने का झंझट है, फिर तो चैन ही चैन है। रानी साहब के समय की-सी धांधली तो उनके समय में न होगी।

तीन महीने तक सारी रियासत के बढ़ई, मिस्त्री, दर्जी, चमार, कहार सब दिल तोड़कर काम करते रहे। चक्रधर को रोज खबरें मिलती थीं कि प्रजा पर बड़े-बड़े अत्याचार हो रहे हैं, लेकिन वह राजा साहब से शिकायत करके उन्हें असमंजस में न डालना चाहते थे। अक्सर खुद जाकर मजदूरों और कारीगरों को समझाते थे। पंद्रह ही मील का तो रास्ता था। रेलगाड़ी आध घंटे में पहुंचा देती थी। इस तरह तीन महीने गुजर गए। राजभवन का कलेवर नया हो गया। सारे कस्बे में रोशनी के फाटक बन गए, तिलकोत्सव का विशाल पंडाल तैयार हो गया। चारों तरफ भवन में सफाई और सजावट नजर आती थी। कर्मचारियों को नई वर्दियां बनवा दी गईं। प्रांत भर के रईसों के नाम निमंत्रण-पत्र भेज दिए और रसद का सामान जमा होने लगा। वसंत ऋतु थी, चारों तरफ वसंती रंग की बहार नजर आती थी। राजभवन वसंती रंग से पुताया गया था। पंडाल भी वसंती था। मेहमानों के लिए जो कैंप बनाए गए थे, वे भी वसंती थे। कर्मचारियों की वर्दियां भी वसंती। दो मील के घेरे में वसंती-ही-वसंती था। सूर्य के प्रकाश से सारा कंचनमय हो जाता था। ऐसा मालूम होता था मानो स्वयं ऋतुराज के अभिषेक की तैयारियां हो रही हैं।

लेकिन अब तक बहुत कुछ काम बेगार से चल गया था। मजूरों को भोजन मात्र मिल जाता था, अब नकद रुपए की जरूरत सामने आ रही थी। राजाओं का आदर-सत्कार और अंग्रेज हुक्काम की दावत-तवाजा तो बेगार में न हो सकती थी ! कलकत्ते से थिएटर की कंपनी बुलाई गई थी। मथुरा की रासलीला मंडली को नेवता दिया गया था। खर्च का तखमीना पांच लाख से ऊपर था। प्रश्न था, ये रुपए कहाँ से आएं। खजाने में झंझी कौड़ी न थी। असामियों से छमाही लगान पहले ही वसूल किया जा चुका था। कोई कुछ कहता था; कोई कुछ। मुहूर्त आता जाता था और कुछ निश्चय न होता था। यहां तक कि केवल पच्चीस दिन और रह गए।

संध्या का समय था। राजा साहब उस्ताद मेड़खां के साथ सितार का अभ्यास कर रहे थे। राज्य पाकर उन्होंने अब तक केवल यही एक व्यसन पाला था। वह कोई नई बात करते हुए डरते थे कि कहीं लोग कहने लगे कि ऐश्वर्य पाकर मतवाला हो गया, अपने को भूल गया। वह छोटे-बड़े सभी से बोलते और यथाशक्ति किसी पहलू पर भी न बिगड़ते थे। मेडूखां इस वक्त उन्हें डांट रहे थे-सितार बजाना कोई मुंह का नेवाला नहीं है कि दीवान साहब और मुंशीजी आकर खड़े हो गए।

विशालसिंह ने पूछा-कोई जरूरी काम है?

ठाकुर-जरूरी काम न होता, तो हुजूर को इस वक्त क्यों कष्ट देने आता?

मुंशीजी-दीवान साहब तो आते हिचकते थे। मैंने कहा कि इंतजाम की बात में कैसी हिचक? चलकर साफ-साफ कहिए। तब डरते-डरते आए हैं।

ठाकुर-हुजूर, उत्सव को अब केवल एक सप्ताह रह गया है और अभी तक रुपए की कोई सबील नहीं हो सकी। अगर आज्ञा हो, तो किसी बैंक से पांच लाख कर्ज ले लिया जाए ।

राजा-हरगिज नहीं। आपको याद है तहसीलदार साहब, मैंने आपसे क्या कहा था? मैंने उस वक्त तो कर्ज ही नहीं लिया, जब कौड़ी-कौड़ी का मोहताज था। कर्ज का तो आप जिक्र ही न करें।

मुंशी-हुजूर, कर्ज और फर्ज के रूप में तो केवल जरा-सा अंतर है; पर अर्थ में जमीन और आसमान का फर्क है।

दीवान-तो अब महाराज क्या हुक्म देते हैं?

राजा-ये हीरे-जवाहरात ढेरों पड़े हुए हैं। क्यों न इन्हें निकाल डालिए? किसी जौहरी को बुलाकर उनके दाम लगवाइए!

दीवान-महाराज, इसमें तो रियासत की बदनामी है।

मुंशी-घर के जेवर ही तो आबरू हैं। वे घर से गए और आबरू गई।

राजा-हां, बदनामी तो जरूर है, लेकिन दूसरे उपाय ही क्या हैं?

दीवान-मेरी तो राय है कि असामियों पर हल पीछे दस रुपए चंदा लगा दिया जाए ।

राजा-मैं अपने तिलकोत्सव के लिए असामियों पर जुल्म न करूंगा। इससे तो कहीं अच्छा है कि उत्सव ही न हो।

दीवान-महाराज, रियासतों में पुरानी प्रथा है। सब असामी खुशी से देंगे, किसी को आपत्ति न होगी।

मुंशी-गाते-बजाते आएंगे और दे जाएंगे।

राजा-मैं किस मुंह से उनसे रुपए लूं? गद्दी पर बैठ रहा हूँ, मेरे उत्सव के लिए असामी क्यों इतना जब्र सहें?

दीवान-महाराज, यह तो परस्पर का व्यवहार है। रियासत भी तो अवसर पड़ने पर हर तरह की सहायता करती है। शादी-गमी में रियासत से लकड़ियां मिलती हैं, सरकारी चरावर में लोगों की गौएं चरती हैं और भी कितनी बातें हैं। जब रियासत को अपना नुकसान उठाकर प्रजा की मदद करनी पड़ती है, तब प्रजा राजा की शादी-गमी में क्यों न शरीक हो?

राजा-अधिकांश असामी गरीब हैं; उन्हें कष्ट होगा।

मुंशी-हुजूर, असामियों को जितना गरीब समझते हैं, उतने गरीब वे नहीं हैं। एक-एक आदमी लड़के-लड़कियों की शादी में हजारों उड़ा देता है। दस रुपए की रकम इतनी ज्यादा नहीं कि किसी को अखर सके। मेरा तो पुराना तजुरबा है। तहसीलदार था, तो हाकिमों को डाली देने के लिए बातकी-बात में हजारों रुपए वसूल कर लेता था।

राजा-मैं असामियों को किसी भी हालत में कष्ट नहीं देना चाहता। इससे तो कहीं अच्छी बात होगी कि उत्सव को कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दिया जाए ; लेकिन अगर आप लोगों का विचार है कि किसी को कष्ट न होगा और लोग खुशी से मदद देंगे तो आप अपनी जिम्मेदारी पर वह काम कर सकते हैं। मेरे कानों तक कोई शिकायत न आए।

दीवान-हुजूर, शिकायत तो थोड़ी-बहुत हर हालत में होती ही है। इससे बचना असंभव है। अगर कोई शिकायत न होगी, तो यही होगी कि महाराज साहब की गद्दी हो गई और हमारा मुंह भी न मीठा हुआ, कोई जलसा तक न हुआ। अगर किसी से कुछ न लीजिए, केवल तिलकोत्सव में शरीक होने के लिए बुलाइए, तब भी लोग शिकायत से बाज न आएंगे। नेवते को तलबी समझेंगे और रोएंगे कि हम अपने काम-धंधे छोड़कर कैसे जाएं। रोना तो उनकी घुट्टी में पड़ गया है। रियासत का कोई नौकर जा पड़ता है, उसे उपले तक नहीं मिलते, और कोई धूर्त जटा बढ़ाकर पहुँच जाता है, तो महीनों उसका आदर-सत्कार होता है। राजा और प्रजा का संबंध ही ऐसा है। प्रजाहित के लिए भी कोई काम कीजिए, तो उसमें भी लोगों को शंका होती है। हल पीछे दस रुपए बैठा देने से कोई पांच लाख रुपए हाथ आएंगे। रही रसद, वह तो बेगार में मिलती है। आपकी अनुमति की देर है।

मुंशी-जब सरकार ने यह कह दिया कि आप अपनी जिम्मेदारी पर वसूल कर सकते हैं, तो अनुमति का क्या प्रश्न? इसका मतलब तो इतना गहरा नहीं है कि बहुत डूबने से मिले। आप महाजनों को देखते हैं, मालिक मुनीम को लिखता है कि फलां काम के लिए रुपया दे दो, मुनीम हीले-हवाले करके टाल देता है। हमारी अंग्रेजी सरकार ही को देखिए। ऊपर वाले हुक्काम कितनी मुलायमियत से बातें करते हैं, लेकिन उनके मातहत खूब जानते हैं किसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए। चलिए, अब हुजूर को तकलीफ न दीजिए। मेडूखां, बस यही समझ लो कि निहाल हो जाओगे।

राजा-बस, इतना ख्याल रखिए कि किसी को कष्ट न होने पाए। आपको ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि असामी लोग सहर्ष आकर शरीक हों।

मुंशी-हुजूर का फरमाना बहुत वाजिब है। अगर हुजूर सख्ती करने लगेंगे, तो उन गरीबा के आंसू कौन पोंछेगा, उन्हें तसकीन कौन देगा? हुकूमत करने के लिए तो आपके गुलाम हम हैं। सूरज जलाता भी है, रोशनी भी देता है। जलाने वाले हम हैं, रोशनी देने वाले आप हैं। दुआ का हक आपका है, गालियों का हक हमारा। चलिए, दीवान साहब, अब हुजूर को सितार का शोक करने दीजिए।

दोनों आदमी यहां से चले, तो दीवान साहब ने कहा-ऐसा न हो कि शोरगुल मचे, हमारी जान आफत में फंसे।

मुंशीजी बोले-यह सब बगुलाभगतपन है। मैं तो रुख पहचानता हूँ। गरीबों का जिक्र ही क्या, हमें कभी एक पैसे का नुकसान हो जाता है, तो कितना बुरा मालूम होता है। जिससे आप दस रुपए ऐंठ लेंगे, क्या वह खुशी से देगा? इसका मतलब यही है कि धड़ल्ले से रुपए की वसूली कीजिए। किसी राजा ने आज तक न कहा होगा कि प्रजा को सताकर रुपए वसूल कीजिए। लेकिन चंदे जब वसूल होने लगे और शोर मचा, तो किसी ने कर्मचारियों की तम्बीह नहीं की। यही हमेशा से होता है और यही अब भी हो रहा है।

हुक्म मिलने की देर थी। कर्मचारियों के हाथ तो खुजला रहे थे। वसूली का हुक्म पाते ही बाग-बाग हो गए। फिर तो वह अंधेर मचा कि सारे इलाके में कुहराम मच गया। असामियों ने नए राजा साहब से दूसरी आशाएं बांध रखी थीं। यह बला सिर पड़ी, तो झल्ला गए। यहां तक कि कर्मचारियों के अत्याचार देखकर चक्रधर का भी खून उबल पड़ा। समझ गए कि राजा साहब भी कर्मचारियों के पंजे में आ गए। उनसे कुछ कहना-सुनना व्यर्थ है। चारों तरफ लूट-खसोट हो रही थी। गालियां और ठोंक-पीट तो साधारण बात थी। किसी के बैल खोल लिए जाते थे, किसी की गाय छीन ली जाती थी, कितनों ही के खेत कटवा लिए गए। बेदखली और इजाफे की धमकियां दी जाती थीं। जिसने खुशी से दिए, उसका तो दस रुपए ही से गला छूटा। जिसने हीले-हवाले किए, कानून बघारा, उसे दस रुपए के बदले बीस रुपए, तीस रुपए, चालीस रुपए देने पड़े। आखिर विवश होकर एक दिन चक्रधर ने राजा साहब से शिकायत कर ही दी।

राजा साहब ने त्यौरी बदलकर कहा-मेरे पास तो आज तक कोई असामी शिकायत करने नहीं आया। जब उनको कोई शिकायत नहीं है, तो आप उनकी तरफ से क्यों वकालत कर रहे हैं?

चक्रधर-आपको असामियों का स्वभाव तो मालूम होगा? उन्हें आपसे शिकायत करने का क्योंकर साहस हो सकता है?

राजा-यह मैं नहीं मानता। असामी ऐसे बे-सींग की गाय नहीं होते। जिसको किसी बात की अखर होती है, वह चुपचाप नहीं बैठा रहता। उसका चुप रहना ही इस बात का प्रमाण है कि उसे अखर नहीं, या है तो बहुत कम। आपके पिताजी और दीवान साहब यही दो आदमी कर्ता-धर्ता हैं, आप उनसे क्यों नहीं कहते?

चक्रधर-तो आपसे कोई आशा न रखू?

राजा-मैं अपने कर्मचारियों से अलग कुछ नहीं हूँ।

चक्रधर ने इसका और कुछ जवाब न दिया। दीवान साहब या मुंशीजी से इस मामले में सहायता की याचना करना अंधे के आगे रोना था। क्रोध तो ऐसा आया कि इसी वक्त जगदीशपुर चलूं और सारे आदमियों से कह दूं, अपने घर जाओ। देखूं, लोग क्या करते हैं। समिति के सेवकों के साथ रियासत में दौरा करना शुरू करूं, देखूं, लोग कैसे रुपए वसूल करते हैं; पर राजा साहब की बदनामी का ख्याल करके रुक गए। अभी राजभवन ही में थे कि मुंशीजी अपना पुराना तहसीलदारी के दिनों का ओवरकोट डाले, मोटरकार से उतरे और इन्हें देखकर बोले-तुम यहां क्या करने आए थे? अपने लिए कुछ नहीं कहा?

चक्रधर-अपने लिए क्या कहता? सुनता हूँ, रियासत में बड़ा अंधेर मचा हुआ है।

वज्रधर-यह सब तुम्हारे आदमियों की शरारत है। तुम्हारी समिति के आदमी जा-जाकर असामियों को भड़काते रहे हैं। इन्हीं लोगों की शह पाकर वे सब शेर हो गए हैं, नहीं तो किसी की मजाल न थी कि चूं करता। न जाने तुम्हारी अक्ल कहाँ गई है!

चक्रधर-हम लोग तो केवल इतना ही चाहते हैं कि असामियों पर सख्ती न की जाए और आप लोगों ने इसका वादा भी किया था; फिर मारधाड़ क्यों हो रही है?

वज्रधर-इसीलिए कि असामियों से कह दिया गया है कि राजा साहब किसी पर जब्र नहीं करना चाहते। जिसकी खुशी हो दे, जिसकी खुशी हो न दे। तुम अपने आदमियों को बुला लो, फिर देखो, कितनी आसानी से काम हो जाता है। नशे का जोश ताकत नहीं है। ताकत वह है, जो अपने बदन में हो। जब तक प्रजा खुद न संभलेगी, कोई उसकी रक्षा नहीं कर सकता। तुम कहाँ-कहाँ उन पर हाथ रखते फिरोगे? चौकीदार से लेकर बड़े हाकिम तक सभी उसके दुश्मन हैं। मान लो, हमने छोड़ दिया; मगर थानेदार है, पटवारी है, कानूनगो है, माल के हुक्काम हैं, सभी उनकी जान के गाहक हैं। तुम फकीर बन जाओ, सारी दुनिया तो तुम्हारे लिए संन्यास न लेगी? तुम आज ही अपने आदमियों को बुला लो। अब तक तो हम लोग उनका लिहाज करते आए हैं, लेकिन रियासत के सिपाही उनसे बेतरह बिगड़े हुए हैं। ऐसा न हो कि मार-पीट हो जाए ।

चक्रधर यहां से अपने आदमियों को बुला लेने का वादा करके तो चले, लेकिन दिल में आगा-पीछा हो रहा था। कुछ समझ में न आता था कि क्या करना चाहिए। इसी सोच में पड़े हुए मनोरमा के यहां चले गए।

मनोरमा उन्हें उदास देखकर बोली-आप बहुत चिंतित से मालूम होते हैं? घर में तो सब कुशल है?

चक्रधर-हां, कोई बात नहीं। लाओ देखू, तुमने क्या काम किया है?

मनोरमा-आप मुझसे छिपा रहे हैं। आप जब तक न बताएंगे, मैं कुछ न पढूंगी। आप तो यों कभी मुरझाए न रहते थे।

चक्रधर-क्या करूं मनोरमा, अपनी दशा देखकर कभी-कभी रोना आ जाता है। सारा देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है, फिर भी हम अपने भाइयों की गर्दन पर छुरी फेरने से बाज नहीं आते। इतनी दुर्दशा पर भी हमारी आंखें नहीं खुलतीं। जिनसे लड़ना चाहिए, उनके तो तलुवे चाटते हैं और जिनसे गले मिलना चाहिए, उनकी गर्दन दबाते हैं और यह सारा जुल्म हमारे पढ़े-लिखे भाई ही कर रहे हैं। जिसे कोई अख्तियार मिल गया, वह फौरन दूसरों को पीसकर पी जाने की फिक्र करने लगता है। विद्या ही से विवेक होता है; पर जब रोग असाध्य हो जाता है, तो दवा भी उस पर विष का काम करती है। हमारी शिक्षा ने हमें पशु बना दिया है। राजा साहब की जात से लोगों को कैसी-कैसी आशाएं थीं, लेकिन अभी गद्दी पर बैठे छह महीने भी नहीं हुए और इन्होंने भी वही पुराना ढंग अख्तियार कर लिया है। प्रजा से डंडों के जोर से रुपए वसूल किए जा रहे हैं और कोई फरियाद नहीं सुनता। सबसे ज्यादा रोना तो इस बात का है कि दीवान साहब और मेरे पिताजी ही राजा साहब के मंत्री और अत्याचार के मुख्य कारण हैं।

सरल हृदय प्राणी अन्याय की बात सुनकर उत्तेजित हो जाते हैं। मनोरमा ने उदंड होकर कहा-आप असामियों से क्यों नहीं कहते कि किसी को एक कौड़ी भी न दें। कोई देगा ही नहीं, तो ये लोग कैसे ले लेंगे?

चक्रधर को हंसी आ गई। बोले-तुम मेरी जगह होतीं, तो असामियों को मना कर देतीं?

मनोरमा-अवश्य। खुल्लमखुल्ला कहती, खबरदार, राजा के आदमियों को कोई एक पैसा भी न दे। मैं तो राजा के आदमियों को इतना पिटवाती कि फिर इलाके में जाने का नाम ही न लेते।

चक्रधर ने फिर हंसकर कहा-और दीवान साहब से क्या कहती?

मनोरमा उनसे भी यही कहती कि आप चुपके से घर चले जाइए, नहीं तो अच्छा न होगा। आप मेरे पूज्य पिता हैं, मैं आपकी सेवा करूंगी, लेकिन आपको दूसरों का खून न चूसने दूंगी। गरीबों को सताकर अपना घर भर लिया तो कौन-सा बड़ा तीर मार लिया। वीर तो तब बखानूं, जब सबलों से ताल ठोकिए। अभी गोरा आ जाए, तो घर में दुम दबाकर भागेंगे। उस वक्त जबान न खुलेगी। उससे जरा आंखें मिलाइए तो देखिए, ठोकर जमाता है या नहीं! उससे तो बोलने की हिम्मत नहीं, बेचारे दीनों को सताते फिरते हैं। यह तो मरे हुए को मारना हुआ। हुकूमत इसे नहीं कहते। यह चोरी भी नहीं है। यह केवल मुर्दे और गिद्ध का तमाशा है।

चक्रधर ये बातें सुनकर पुलकित हो उठे। मुस्कराकर बोले-अगर दीवान साहब खफा हो जाते?

मनोरमा-तो खफा हो जाते ! किसी के खफा होने के डर से सच्ची बात पर पर्दा थोडा ही डाला जाता है! अगर आज वह आ गए, तो मैं आज ही जिक्र करूंगी।

यह कहते-कहते मनोरमा कुछ चिंतित-सी हो गई और चक्रधर भी विचार में पड़ गए। दोनों के मन में एक ही भाव उठ रहे थे-इसका फल क्या होगा? वह सोचती थी, कहीं राजाजी ने गुस्से में आकर बाबूजी को अलग कर दिया तो? चक्रधर सोच रहे थे, यह शंका मुझे क्यों इतना भयभीत कर रही है ! इस विषय पर फिर कुछ बातचीत न हुई, लेकिन चक्रधर यहां से पढ़ाकर चले, तो उनके मन में प्रश्न हो रहा था-क्या अब यहां मेरा आना उचित है? आज उन्होंने विवेक के प्रकाश में अपने अंतस्तल को देखा तो उसमें कितने ही ऐसे भाव छिपे हुए थे, जिन्हें यहां न रहना चाहिए था। रोग जब तक कष्ट न देने लगे, हम उसकी परवाह नहीं करते ! बालक की गालियां हंसी में उड़ जाती हैं, लेकिन सयाने लड़के की गालियां कौन सहेगा?

चौदह

गद्दी के कई दिन पहले ही से मेहमानों का आना शुरू हो गया और तीन दिन बाकी ही थे कि सारा कैंप भर गया। दीवान साहब ने कैंप ही में बाजार लगवा दिया था, वहीं रसद-पानी का भी इंतजाम था। राजा साहब स्वयं मेहमानों की खातिरदारी करते रहते थे; किंतु जमघट बहुत बड़ा था। आठों पहर हड़बोंग-सा मचा रहता था।

बड़े-बड़े नरेश आए थे। कोई चुने हुए दरबारियों के साथ, कोई लाव-लश्कर लिए हुए। कहीं ऊदी वर्दियों की बहार थी, तो कहीं केसरिए बाने की। कोई रत्नजटित आभूषण पहने, कोई अंग्रेजी सूट से लैस; कोई इतना विद्वान् कि विद्वानों में शिरोमणि, कोई इतना मूर्ख कि मूर्ख मंडली की शोभा ! कोई पांच घंटे स्नान करता था और कोई सात घंटे पूजा। कोई दो बजे रात को सोकर उठता था, कोई दो बजे दिन को। रात-दिन तबले ठनकते रहते थे। कितने महाशय ऐसे भी थे, जिनका दिन अंग्रेजी कैंप का चक्कर लगाने ही में कटता था। दो-चार सज्जन प्रजावादी भी थे। चक्रधर और उनकी टुकड़ी के लोग इन लोगों का सेवा-सम्मान विशेष रूप से करते थे; किंतु विद्वान् या मूर्ख, राजसत्ता के स्तम्भ या लोकसत्ता के भक्त, सभी अपने को ईश्वर का अवतार समझते थे, सभी गरूर के नशे के मतवाले, सभी विलासिता में डूबे हुए। एक भी ऐसा नहीं, जिसमें चरित्रबल हो, सिद्धांत प्रेम हो, मर्यादा भक्ति हो।

नरेशों की सम्मान-लालसा पग-पग पर अपना जलवा दिखाती थी। वह मेरे आगे क्यों चले, उन्हें मेरे पीछे रहना चाहिए था। उनका पूर्वज हमारे पुरखाओं का करदाता था। बातें करने में, अभिवादन में, भोजन करने के लिए बैठने में, महफिल में, पान और इलायची लेने में, यही अनैक्य और द्वेष का भाव प्रकट होता रहता था। राजा विशालसिंह और कर्मचारियों का बहुत-सा समय चिरौरी-विनती करने में कट जाता था। कभी-कभी तो इन महान् पुरुषों को शांत करने के लिए राजा साहब को हाथ जोड़ना और उनके पैरों पर सिर रखना पड़ता था। दिल में पछताते थे कि व्यर्थ ही यह आडंबर रचा। भगवान् किसी भांति कुशल से यह उत्सव समाप्त कर दें, अब कान पकड़े कि ऐसी भूल न होगी! किसी अनिष्ट की शंका उन्हें हरदम उद्विग्न रखती थी। मेहमानों से तो कांपते रहते थे; पर अपने आदमियों से जरा-जरा-सी बात पर बिगड़ जाते थे, जो मुंह में आता, बक डालते थे।

अगर शांति थी तो अंग्रेजी कैंप में। न नौकरों की तकरार थी, न बाजारवालों से जूती-पैजार थी। सबकी चाय का एक समय, डिनर का एक समय, विश्राम का एक समय, मनोरंजन का एक समय। सब एक साथ थियेटर देखते, एक साथ हवा खाने जाते। न बाहर गंदगी थी, न मन में मलिनता। नरेशों के कैंप में पराधीनता का राज्य था और अंग्रेजी कैंप में स्वाधीनता का। स्वाधीनता सद्गुणों को जगाती है, पराधीनता दुर्गुणों को।

उधर रनिवास में भी खूब जमघट था। महिलाओं का रंग-रूप देखकर आंखों में चकाचौंध हो जाती थी। रत्न और कंचन ने उनकी कांति को और भी अलंकृत कर दिया था। कोई पारसी वेश में थी, कोई अंग्रेजी वेश में और कोई अपने ठेठ स्वदेशी ठाट में। युवतियां इधर-उधर चहकती फिरती, प्रौढ़ाएं आंखें मटका रही थीं। वासना उम्र के साथ बढ़ती जाती है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आंखों के सामने था। अंग्रेजी फैशनवालियां औरों को गंवारिनें समझती थीं और गंवारिनें उन्हें कुल्टा कहती थीं। मजा यह था कि सभी महिलाएं ये बातें अपनी महरियों और लौडियों से कहने में भी संकोच न करती थीं। ऐसा मालूम होता था कि ईश्वर ने स्त्रियों को निंदा और परिहास के लिए ही रचा है। मन और तन में कितना अंतर हो सकता है, इसका कुछ अनुमान हो जाता था। मनोरमा को महिलाओं के सेवा-सत्कार का भार सौंपा गया था; किंतु उसे यह चरित्र देखने में विशेष आनंद आता था। उसे उनके पास बैठने में घृणा होती थी। हां, जब रानी रामप्रिया को बैठे देखती, तो उनके पास जा बैठती। इतने कांच के टुकड़ों में उसे वही एक रत्न नजर आता था।

मेहमानों के आदर-सत्कार की तो यह धूम थी और वे मजदूर, जो छाती फाड़-फाड़कर काम कर रहे थे, भूखों मरते थे। कोई उनकी खबर तक न लेता था। काम लेने को सब थे, पर भोजन के लिए पूछने वाला कोई न था। चमार पहर रात रहे, घास छीलने जाते, मेहतर पहर रात से सफाई करने लगते, कहार पहर रात से पानी खींचना शुरू करते; मगर कोई उनका पुरसांहाल न था। चपरासी बात-बात पर उन्हें गालियां सुनाते, क्योंकि उन्हें खुद बात-बात पर डांट पड़ती थी। चपरासी सहते थे, क्योंकि उन्हें दूसरों पर अपना गुस्सा उतारने का मौका मिल जाता था। बेगारों से न सहा जाता था, इसीलिए कि उनकी आंतें जलती थीं। दिन भर धूप में जलते, रात भर क्षुधा की आग में। रानी के समय में बेगार इससे भी ज्यादा ली जाती थी, लेकिन रानी को स्वयं खिलाने-पिलाने का खयाल रहता था। बेचारे अब उन दिनों को याद कर-करके रोते थे। क्या सोचते थे, क्या हुआ? असंतोष बढ़ा जाता था। न जाने कब सबके-सब जान पर खेल जाएं, हड़ताल कर दें, न जाने कब बारूद में चिनगारी पड़ जाए, दशा ऐसी भयंकर हो गई थी। राजा साहब को नरेशों ही की खातिरदारी से फुर्सत न मिलती थी, यह सत्य है; किंतु राजा के लिए ऐसे बहाने शोभा नहीं देते। उसकी निगाह चारों तरफ दौड़नी चाहिए। अगर उसमें इतनी योग्यता नहीं, तो उसे राज्य करने का कोई अधिकार नहीं।

संध्या का समय था। चारों तरफ चहल-पहल मची हुई थी। तिलक का मुहूर्त निकट आ गया था। हवन की तैयारियां हो रही थीं। सिपाहियों को वर्दी पहनकर खड़े हो जाने की आज्ञा दे दी गई थी कि सहसा मजदूरों के बाड़े से रोने-चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। किसी कैंप में घास न थी और ठाकुर हरिसेवक हंटर लिए हुए चमारों को पीट रहे थे। मुंशी वज्रधर की आंखें मारे क्रोध के लाल हो रही थीं। कितना अनर्थ है ! सारा दिन गुजर गया और अभी तक किसी कैंप में घास नहीं पहुंची ! चमारों का यह हौसला ! ऐसे बदमाशों को गोली मार देनी चाहिए।

एक चमार बोला-मालिक, आपको अख्तियार है। मार डालिए, मुदा पेट बांधकर काम नहीं होता।

चौधरी ने हाथ बांधकर कहा-हुजूर, घास तो रात ही को पहुंचा दी गई थी, मैं आप जाकर रखवा आया था। हां, इस बेला अभी नहीं पहुंची। आधे आदमी तो मांदे पड़े हुए हैं, क्या करूं?

मुंशी-बदमाश ! झूठ बोलता है, सूअर, डैम फूल, ब्लाडी, रैस्केल, शैतान का बच्चा, अभी पोलो खेल होगा, घोड़े बिना खाए कैसे दौड़ेंगे?

एक युवक ने कहा-हम लोग तो बिना खाए आठ दिन से घास दे रहे हैं, घोड़े क्या, बिना खाए एक दिन भी न दौड़ेंगे? क्या हम घोड़े से भी गए-गुजरे हैं?

चौधरी डंडा लेकर युवक को मारने दौड़ा; पर उसके पहले ही ठाकुर साहब ने झपटकर उसे चार-पांच हंटर सड़ाप-सड़ाप लगा दिए। नंगी देह, चमड़ा फट गया, खून निकल आया।

चौधरी ने युवक और ठाकुर साहब के बीच खड़े होकर कहा-हुजूर, क्या मार ही डालेंगे? लड़का है, कुछ अनुचित मुंह से निकल जाए तो क्षमा करनी चाहिए। राजा को दयावान होना चाहिए।

ठाकुर साहब आपे से बाहर हो रहे थे! एक चमार का यह हौसला कि उनके सामने मुंह खोल सके। वही हंटर तानकर चौधरी को जमाया। बूढ़ा आदमी, उस पर कई दिन का भूखा, खड़ा भी मुश्किल से हो सकता था। हंटर पड़ते ही जमीन पर गिर पड़ा। बाड़े में हलचल पड़ गई। हजारों आदमी जमा हो गए। कितने ही चमारों ने मारे डर के खुरपी और रस्सी उठा ली थी और घास छीलने जा रहे थे। चौधरी पर हंटर पड़ते देखा, तो रस्सी-खुरपी फेंक दी और आकर चौधरी को उठाने लगे।

ठाकुर साहब ने तड़पकर कहा-तुम सब अभी एक घंटे में घास लाओ, नहीं तो एक-एक की हड्डी तोड़ दी जाएगी।

एक चमार बोला-हम यहां काम करने आए हैं, जान देने नहीं आए हैं। एक तो भूखों मरें, दूसरे लात खाएं। हमारा जन्म इसीलिए थोड़े ही हुआ है? जिससे चाहे काम कराइए: हम घर जाते हैं।

ठाकुर साहब फिर हंटर फटकारकर बोले-कहाँ भागकर जाओगे? गांव में घुसने भी न पाओगे। क्या सरकारी काम को हंसी-खेल समझ लिया है?

चमार-सरकार, अपना गांव ले लें, हम छोड़कर चले जाएंगे।

ठाकुर-खेत छीन लिए जाएंगे। घर गिरा दिए जाएंगे। इस फेर में मत रहना।

चमार-आपको अख्तियार है, जो चाहे करें। हमें अब इस राज्य में नहीं रहना है। कुछ हाथ-पांव थोड़े ही कटाए बैठे हैं। अगर कहीं ठिकाना न लगेगा, तो मिरिच डमरा तो हैं ही।

मुंशी-जिसने बाड़े के बाहर कदम रखा, उसकी शामत आई। तोप पर उड़ा दूंगा।

लेकिन चमारों के सिर पर भूत सवार था। बूढ़े चौधरी को उठाकर सबके सब एक गोल में बाड़े के द्वार की ओर चले। सिपाहियों की कवायद हो रही थी। ठाकुर साहब ने खबर भेजी और बात-की बात में उन सबने आकर बाड़े का द्वार रोक लिया। सभी कैंपों में खलबली पड़ गई। तरह-तरह की अफवाहें उड़ने लगीं। किसी ने कहा-चमारों ने दीवान साहब को मार डाला। किसी ने उडाया-सिपाहियों ने गोली चला दी और पचास चमार जान से मारे गए। चारों तरफ से दौड़-दौड़कर लोग तमाशा देखने आने लगे। बाड़े का द्वार भेड़ों के बाड़े का द्वार बना हुआ था। भीतर भेड़ें थीं, घबराई हुईं। बाहर कुत्ते थे, झल्लाए हुए। भेड़ें लड़ना नहीं जानती; पर प्राण भय से भागना जानती हैं। वे उसी रास्ते से निकलेंगी, जो आंखों के सामने है। उस पर कुत्ते हों या शेर, घबराहट में भेड़ों को कुछ नहीं सूझता। सिपाहियों को अपनी वीरता दिखाने का ऐसा अवसर क्यों कभी मिला था ! निहत्थों पर हथियार चलाने से आसान और क्या है? सभी संगीन चढ़ाए तैयार थे कि हुक्म मिले और अपनी निशानेबाजी के जौहर दिखाएं।

राजा साहब अपने खेमे में तिलक के भड़कीले-सजीले वस्त्र धारण कर रहे थे। एक आदमी उनकी पाग संवार रहा था। इन वस्त्रों में उनकी प्रतिभा भी चमक उठी थी। वस्त्रों में तेज बढ़ानेवाली इतनी शक्ति है, इसकी उन्हें कभी कल्पना भी न थी। यह खबर सुनी, तो तिलमिला गए। वह अपनी समझ में प्रजा के सच्चे भक्त थे, उन पर कोई अत्याचार न होने देते थे, उनको लूटना नहीं, उनका पालन करना चाहते थे। जब वह प्रजा पर इतना प्राण देते थे, तो क्या प्रजा का धर्म न था कि वह भी उन पर प्राण देती; और फिर शुभ अवसर पर ! जो लोग इतने कृतघ्न हैं, उन पर किसी तरह की रियायत करना व्यर्थ है। दयालुता दो प्रकार की होती है-एक में नम्रता होती है, दूसरी में आत्मप्रशंसा। राजा साहब की दयालुता इसी प्रकार की थी। उन्हें यश की बड़ी इच्छा थी; पर यहां इस शुभ अवसर पर इतने राजाओं-रईसों के सामने ये दुष्ट लोग उनका अपमान करने पर तुले हुए थे। यह उन पाजियों की घोर नीचता थी और उसका जवाब इसके सिवा और कुछ नहीं था कि उन्हें खूब कुचल दिया जाता। सच है, सीधे का मुंह कुत्ता चाटता है। मैं जितना ही इन लोगों को संतुष्ट रखना चाहता हूँ, उतने ही ये शेर हो जाते हैं। चलकर अभी उन्हें इसका मजा चखाता हूँ। क्रोध से बावले होकर वह अपनी बंदूक लिए खेमे से निकल आए और कई आदमियों के साथ बाड़े के द्वार पर आ पहुंचे।

चौधरी इतनी देर में झाड़-पोंछकर उठ बैठा था। राजा को देखते ही रोकर बोला-दुहाई है महाराज की! सरकार, बड़ा अंधेर हो रहा है। गरीब लोग मारे जाते हैं।

राजा-तुम सब पहले बाड़े के द्वार से हट जाओ, फिर जो कुछ कहना है, मुझसे कहो। अगर किसी ने बाड़े के बाहर पांव रखा, तो जान से मारा जाएगा। दंगा किया, तो तुम्हारी जान की खैरियत नहीं।

चौधरी-सरकार ने हमको काम करने के लिए बुलाया है कि जान लेने के लिए?

राजा-काम न करोगे, तो जान ली जाएगी।

चौधरी-काम तो आपका करें, खाने किसके घर जाएं?

राजा-क्या बेहूदा बातें करता है, चुप रहो। तुम सबके-सब मुझे बदनाम करना चाहते हो। हमेशा से लात खाते आए हो और वही तुम्हें अच्छा लगता है। मैंने तुम्हारे साथ भलमनसी का बर्ताव करना चाहा था, लेकिन मालूम हो गया कि लातों के देवता बातों से नहीं मानते। तुम नीच हो और नीच लातों के बगैर सीधा नहीं होता। तुम्हारी यही मर्जी है, तो यही सही।

चौधरी-जब लात खाते थे, तब खाते थे, अब न खाएंगे।

राजा-क्यों? अब कौन सुरखाब के पर लग गए हैं?

चौधरी-वह समय ही लद गया है। क्या अब हमारी पीठ पर कोई नहीं कि मार खाते रहें और मुंह न खोलें? अब तो सेवा समिति हमारी पीठ पर है। क्या वह कुछ भी न्याय न करेगी? हमारी राय से मेंबर चुने जाते हैं, क्या कोई हमारी फरियाद न सुनेगा?

राजा-अच्छा? तो तुझे सेवा-समिति वालों का घमंड है?

चौधरी-हई है, वह हमारी रक्षा करती है, तो क्यों न उसका घमंड करें?

राजा साहब होंठ चबाने लगे-तो यह समिति वालों की कारस्तानी है। चक्रधर मेरे साथ कपट चाल चल रहे हैं, लाला चक्रधर ! जिसका बाप मेरी खुशामद की रोटियां खाता है। जिसे मित्र समझता था वही आस्तीन का सांप निकला। देखता हूँ, वह मेरा क्या कर लेता है। एक रुक्का बड़े साहब के नाम लिख दूं, तो बचा के होश ठीक हो जाएं। इन मुखों के सिर से यह घमंड निकाल ही देना चाहिए। यह जहरीले कीड़े फैल गए तो आफत मचा देंगे।

चौधरी तो ये बातें कर रहा था, उधर बाड़े में घोर कोलाहल मचा हुआ था। सरकारी आदमियों की सूरत देखकर जिनके प्राण-पखेरू उड़ जाते थे, वे इस समय नि:शंक और निर्भय बंदूकों के सामने मरने को तैयार खड़े थे। द्वार से निकलने का रास्ता न पाकर कुछ आदमियों ने बाड़े की लकड़ियां और रस्सियां काट डाली और हजारों आदमी उधर से भड़भड़ाकर निकल पड़े, मानो कोई उमड़ी हुई नदी बांध तोड़कर निकल पड़े। उसी वक्त एक ओर सशस्त्र पुलिस के जवान और दूसरी ओर से चक्रधर, समिति के कई युवकों के साथ आते हुए दिखाई दिए। चक्रधर ने निश्चय कर लिया था कि राजा साहब के आदमियों को उनके हाल पर छोड़ देंगे, लेकिन यहां की खबरें सुन-सुनकर उनके कलेजे पर सांप-सा लोटता रहता था। ऐसे नाजुक मौके पर खड़े होकर तमाशा देखना उन्हें लज्जाजनक मालूम होता था ! अब तक तो दूर ही से, आदमियों को दिलासा देते रहे, लेकिन आज की खबरों ने उन्हें आने के लिए मजबूर कर दिया।

उन्हें देखते ही हड़तालियों में जान-सी पड़ गई। जैसे अबोध बालक अपनी माता को देखकर शेर हो जाए । हजारों आदमियों ने घेर लिया।

‘भैया आ गए ! भैया आ गए !’ की ध्वनि से आकाश गूंज उठा।

चक्रधर को यहां की स्थिति उससे कहीं भयावह जान पड़ी, जितना उन्होंने समझा था। राजा साहब को यह जिद कि कोई आदमी यहां से जाने न पाए। आदमियों को यह जिद कि अब हम यहां एक क्षण भी न रहेंगे। सशस्त्र पुलिस सामने तैयार। सबसे बड़ी बात यह कि मुंशी वज्रधर खुद एक बंदूक लिए पैंतरे बदल रहे थे, मानो सारे आदमियों को कच्चा ही खा जाएंगे।

चक्रधर ने ऊंची आवाज से कहा-क्यों भाइयो, तुम मुझे अपना मित्र समझते हो या शत्रु?

चौधरी-भैया, यह भी कोई पूछने की बात है। तुम हमारे मालिक हो, स्वामी हो, सहायक हो! क्या आज तुम्हें पहली ही बार देखा है?

चक्रधर-तो तुम्हें विश्वास है कि मैं जो कुछ कहूँगा और करूंगा, वह तुम्हारे ही भले के लिए होगा?

चौधरी-मालिक, तुम्हारे ऊपर विश्वास न करेंगे, तो और किस पर करेंगे? लेकिन इतना समझ लीजिए कि हम और सब कर सकते हैं, यहां नहीं रह सकते। यह देखिए (पीठ दिखाकर), कोड़े खाकर यहां किसी तरह न रहूँगा।

चक्रधर इस भीड़ से निकलकर सीधे राजा साहब के पास आए और बोले-महाराज, मैं आपसे कुछ विनय करना चाहता हूँ।

राजा साहब ने त्यौरियां बदलकर कहा-मैं इस वक्त कुछ नहीं सुनना चाहता।

चक्रधर-आप कुछ न सुनेंगे, तो पछताएंगे।

राजा-मैं इन सबों को गोली मार दूंगा।

चक्रधर-दीन प्रजा के रक्त से राजतिलक लगाना किसी राजा के लिए मंगलकारी नहीं हो सकता। प्रजा का आशीर्वाद ही राज्य की सबसे बड़ी शक्ति है। मैं आपका सेवक हूँ, आपका शुभचिंतक हूँ। इसीलिए आपकी सेवा में आया हूँ। मुझे मालूम है कि आपके हृदय में कितनी दया है और प्रजा से आपको कितना स्नेह है। यह सारा तूफान अयोग्य कर्मचारियों का खड़ा किया हुआ है। उन्हीं के कारण आज आप उन लोगों के रक्त के प्यासे बन गए हैं, जो आपकी दया और कृपा के प्यासे हैं। ये सभी आदमी इस वक्त झल्लाए हुए हैं। गोली चलाकर आप उनके प्राण ले सकते हैं, लेकिन उनका रक्त केवल इसी बाड़े में न सूखेगा, यह सारा विस्तृत कैंप उस रक्त से सिंच जाए गा; उसकी लहरों के झोंके से यह विशाल मंडप उखड़ जाएगा और यह आकाश में फहराती हुई ध्वजा भूमि पर गिर पड़ेगी। अभिषेक का दिन दान और दया का है, रक्तपात का नहीं। इस शुभ अवसर पर एक हत्या भी हुई, तो वह सहस्रों रूप धारण करके ऐसा भयंकर अभिनय दिखाएगी कि सारी रियासत में हाहाकार मच जाएगा।

राजा साहब अपनी टेक पर अड़ना जानते थे; किंतु इस समय उनका दिल कांप उठा। वही प्राणी, जो दिन भर गालियां बकता था, प्रात:काल कोई मिथ्या शब्द मुंह से नहीं निकलने देता। वही दुकानदार, जो दिन भर टेनी मारता है, प्रात:काल ग्राहक से मेलजोल तक नहीं करता। शुभ मुहूर्त पर हमारी मनोवृत्तियां धार्मिक हो जाती हैं। राजा साहब कुछ नरम होकर बोले-मैं खुद नहीं चाहता कि मेरी तरफ से किसी पर अत्याचार किया जाए ; लेकिन इसके साथ ही यह भी नहीं चाहता कि प्रजा मेरे सिर पर चढ़ जाए । इन लोगों की अगर कोई शिकायत थी, तो उन्हें आकर मुझसे कहना चाहिए था। अगर मैं न सुनता, तो इन्हें अख्तियार था, जो चाहते करते; पर मुझसे न कहकर इन लोगों ने हेकड़ी करनी शुरू की, रात घोड़ों को घास नहीं दी और इस वक्त भागे जाते हैं। मैं यह घोर अपमान नहीं सह सकता।

चक्रधर-आपने इन लोगों को अपने पास आने का अवसर कब दिया? आपके द्वारपाल इन्हें दूर ही से भगा देते थे। आपको मालूम है कि इन गरीबों को एक सप्ताह से कुछ भोजन नहीं मिला?

राजा-एक सप्ताह से भोजन नहीं मिला ! यह आप क्या कहते हैं? मैंने सख्त ताकीद कर दी थी कि हर मजदूर को इच्छापूर्ण भोजन दिया जाए । क्यों दीवान साहब, क्या बात है?

हरिसेवक-धर्मावतार, आप इन महाशय की बातों में न आइए। यह सारी आग इन्हीं की लगाई हुई है। प्रजा को बहकाना और भड़काना इन लोगों ने अपना धर्म बना रखा है। यहां हर एक आदमी को दोनों वक्त भोजन दिया जाता था।

मुंशी-दीनबन्धु, यह लड़का बिल्कुल नासमझ है। दूसरों ने जो कुछ कह दिया उसे सच समझ लेता है। तुमसे किसने कहा बेटा, कि आदमियों को भोजन नहीं मिलता था? भंडारी तो मैं हूँ, मेरे सामने जिन्स तौली जाती थी। मैं पूछ-पूछकर देता था। बारातियों की भी कोई इतनी खातिर न करता होगा। इतनी बात भी न जानता, तो तहसीलदारी क्या खाक करता?

राजा-मैं इसकी पूछताछ करूंगा।

हरिसेवक-हुजूर, इन्हीं लोगों ने आदमियों को उभारकर सरकश बना दिया है। ये लोग सबसे कहते फिरते हैं कि ईश्वर ने सभी मनुष्यों को बराबर बनाया है, किसी को तुम्हारे ऊपर राज्य करने का अधिकार नहीं है, किसी को तुमसे बेगार लेने का अधिकार नहीं। प्रजा ऐसी बातें सुन-सुनकर शेर हो गई है।

राजा-इन बातों में तो मुझे कोई बुराई नजर नहीं आती। मैं खुद प्रजा से यही बातें कहना चाहता हूँ।

हरिसेवक-हुजूर, ये लोग कहते हैं, जमीन के मालिक तुम हो। जो जमीन से बीज उगाए, वही उसका मालिक है। राजा तो तुम्हारा गुलाम है।

राजा-बहुत ठीक कहते हैं। इसमें मुझे तो बिगड़ने की कोई बात नहीं मालूम होती। वास्तव में मैं प्रजा का गुलाम हूँ, बल्कि उसके गुलाम का गुलाम हूँ।

हरिसेवक-हुजूर, इन लोगों की बातें कहाँ तक कहूँ। कहते हैं, राजा को इतने बड़े महल में रहने का कोई हक नहीं। उसका संसार में कोई काम नहीं।

राजा-बहुत ही ठीक कहते हैं। आखिर मैं पड़े-पड़े खाने के सिवा और क्या करता हूँ।

चक्रधर ने झुंझलाकर कहा-ठाकुर साहब, आप मेरे स्वामी हैं, लेकिन झमा कीजिए, आप मेरे साथ बड़ा अन्याय कर रहे हैं। मैंने प्रजा को उनके अधिकार अवश्य समझाए हैं, लेकिन यह कभी नहीं कहा कि राजा को संसार में रहने का कोई हक नहीं, क्योंकि मैं जानता हूँ, जिस दिन राजाओं की जरूरत न रहेगी, उस दिन उनका अंत हो जाएगा। देश में उसी की राज्य व्यवस्था होती है, जिसका अधिकार होता है।

राजा-मैं तो बुरा नहीं मानता, जरा भी नहीं। आपने कोई ऐसी बात नहीं कही, जो और लोग न कहते हों। वास्तव में जो राजा प्रजा के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन न करे उसका जीवन व्यर्थ है।

चक्रधर को मालूम हुआ कि राजा साहब मुझे बना रहे हैं। यह अवसर मजाक का न था। हजारों आदमी सांस बंद किए हुए सुन रहे थे कि ये लोग क्या फैसला करते हैं और यहां उन लोगों को मजाक सूझ रहा है। गरम होकर बोले-अगर आपके ये भाव सच्चे होते, तो प्रजा पर यह विपत्ति ही न आती। राजाओं की यह पुरानी नीति है कि प्रजा का मन मीठी-मीठी बातों से भरे और अपने कर्मचारियों को मनमाने अत्याचार करने दें। वह राजा, जिसके कानों तक प्रजा की पुकार न पहुँचने पाए, आदर्श नहीं कहा जा सकता।

राजा-किसी तरह नहीं। उसे गोली मार देनी चाहिए। जीता चुनवा देना चाहिए। प्रजा का गुलाम है कि दिल्लगी है।

चक्रधर यह व्यंग्य न सह सके। उनकी स्वाभाविक सहन-शक्ति ने उनका साथ छोड़ दिया। चेहरा तमतमा उठा। बोले-जिस आदर्श के सामने आपको सर झुकाना चाहिए, उसका मजाक उड़ाना आपको शोभा नहीं देता। समाज की यह व्यवस्था अब थोड़े ही दिनों की मेहमान है और वह समय आ रहा है, जब या तो राजा प्रजा का सेवक होगा या होगा ही नहीं। मैंने कभी यह अनुमान न किया था कि आपके वचन और कर्म में इतनी जल्दी इतना बड़ा भेद हो जाएगा।

क्रोध ने अब अपना यथार्थ रूप धारण किया। राजा साहब अभी तक तो व्यंग्यों से चक्रधर को परास्त करना चाहते थे, लेकिन जब चक्रधर के वार मर्मस्थल पर पड़ने लगे, तो उन्हें भी अपने शस्त्र निकालने पड़े। डपटकर बोले-अच्छा, बाबूजी, अब अपनी जबान बंद करो। मैं जितनी ही तरह देता जाता हूँ, उतने ही आप सिर पर चढ़े जाते हैं। मित्रता के नाते जितना सह सकता था, उतना सह चुका। अब नहीं सह सकता। मैं प्रजा का गुलाम नहीं हूँ। प्रजा मेरे पैरों की धूल है। मुझे अधिकार है कि उसके साथ जैसा उचित समझूं, वैसा सलूक करूं। किसी को हमारे और हमारी प्रजा के बीच में बोलने का हक नहीं। आप अब कृपा करके यहां से चले जाइए और फिर कभी मेरी रियासत में कदम न रखिएगा; वरना शायद आपको पछताना पड़े। जाइए।

मुंशी वज्रधर की छाती धक-धक् करने लगी। चक्रधर को हाथों से पीछे हटाकर बोले-हुजूर की कृपा-दृष्टि ने इसे शोख कर दिया है। अभी तक बड़े आदमियों की सोहबत में बैठने का मौका तो मिला नहीं, बात करने की तमीज कहाँ से आए।

लेकिन चक्रधर भी जवान आदमी थे, उस पर सिद्धांतों के पक्के, आदर्श पर मिटनेवाले, अधिकार और प्रभुत्व के जानी दुश्मन। वह राजा साहब के उदंड शब्दों से जरा भी प्रभावित न हुए। यह उस सिंह की गरज थी, जिनके दांत और पंजे टूट गए हों। यह उस रस्सी की ऐंठन थी, जो जल गई हो। तने हुए सामने आए और बोले-आपको अपने मुख से ये शब्द निकालते हुए शर्म आनी चाहिए थी। अगर संपत्ति से इतना पतन हो सकता है तो मैं कहूँगा कि इससे बुरी चीज संसार में कोई नहीं। आपके भाव कितने पवित्र थे! कितने ऊंचे! आप प्रजा पर अपने को अर्पण कर देना चाहते थे। आप कहते थे, मैं प्रजा को अपने पास बे-रोकटोक आने दूंगा, उनके लिए मेरे द्वार हरदम खुले रहेंगे। आप कहते थे, मेरे कर्मचारी उनकी ओर टेढ़ी निगाह से भी देखेंगे, तो उनकी शामत आ जाएगी। वे सारी बातें क्या आपको भूल गईं? और इतनी जल्द? अभी तो बहुत दिन नहीं गुजरे। अब आप कहते हैं, प्रजा मेरे पैरों की धूल है। ईश्वर आपको सुबुद्धि दे!

राजा साहब कहाँ तो क्रोध से उन्मत्त हो रहे थे, कहाँ यह लगती हुई बात सुनकर रो पड़े। क्रोध निरुत्तर होकर पानी हो जाता है या यों कहिए कि आंसू अव्यक्त भावों ही का रूप है। ग्लानि थी या पश्चात्ताप; अपनी दुर्बलता का दुःख था या विवशता का; या इस बात का रंज था कि यह दुष्ट मेरा इतना अपमान कर रहा है और मैं कुछ नहीं कर सकता-इसका निर्णय करना कठिन है।

मगर एक ही क्षण में राजा साहब सचेत हो गए। प्रभुता ने आंसुओं को दबा दिया। अकड़कर बोले-मैं कहता हूँ, यहां से चले जाओ!

हरिसेवक-आपको शर्म नहीं आती कि किस से ऐसी बातें कर रहे हैं?

वज्रधर-बेटा, क्यों मेरे मुंह में कालिख लगा रहे हो?

चक्रधर-जब तक आप इन आदमियों को जाने न देंगे, मैं नहीं जा सकता।

राजा-मेरे आदमियों से तुम्हें कोई सरोकार नहीं है। उनमें से अगर एक भी हिला, तो उसकी लाश जमीन पर होगी।

चक्रधर-तो मेरे लिए इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है कि उन्हें यहां से हटा ले जाऊं। यह कहकर चक्रधर मजदूरों की ओर चले। राजा साहब जानते थे कि इनका इशारा पाते ही सारे मजदूर हवा हो जाएंगे, फिर सशस्त्र सेना भी उन्हें न रोक सकेगी। तिल-मिलाकर बंदूक लिए हुए चक्रधर के पीछे दौड़े और ऐसे जोर से उन पर कुंदा चलाया कि सिर पर लगता तो शायद वहीं ठंडे हो जाते। मगर कुशल हुई। कुंदा पीठ में लगा और उसके झोंके से चक्रधर कई हाथ पर जा गिरे। उनका जमीन पर गिरना था कि पांच हजार आदमी बाड़े को तोड़कर, सशस्त्र सिपाहियों को चीरते, बाहर निकल आए और नरेशों के कैंप की ओर चले। रास्ते में जो कर्मचारी मिला उसे पीटा। मालूम होता था, कैंप में लूट मच गई है। दुकानदार अपनी दुकानें समेटने लगे। दर्शकगण अपनी धोतियां संभालकर भागने लगे। चारों तरफ भगदड़ पड़ गई। जितने बेफिक्रे, शोहदे, लच्चे तमाशा देखने आए थे, वे सब उपद्रवकारियों में मिल गए। यहां तक कि नरेशों के कैंप तक पहुँचते-पहुँचते उनकी संख्या दूनी हो गई।

राजा-रईस अपनी वासनाओं के सिवा और किसी के गुलाम नहीं होते। वक्त की गुलामी भी उन्हें पसंद नहीं। वे किसी नियम को अपनी स्वेच्छा में बाधा नहीं डालने देते। फिर उनको इसकी क्या परवा कि सुबह है या शाम। कोई मीठी नींद के मजे लेता था, कोई गाना सुनता था, कोई स्नानध्यान में मग्न था और कुछ लोग तिलक-मंडप जाने की तैयारियां कर रहे थे। कहीं भंग घुटती थी, कहीं कवित्त-चर्चा हो रही थी और कहीं नाच हो रहा था। कोई नाश्ता कर रहा था और कोई लेटा नौकरों से चंपी करा रहा था। उत्तरदायित्वहीन स्वतंत्रता अपनी विविध लीलाएं दिखा रही थी। अगर उपद्रवी इस कैंप में पहुँच जाते, तो महाअनर्थ हो जाता। न जाने कितने राजवंशों का अंत हो जाता। किंतु राजाओं की रक्षा उनका इकबाल करता है ! अंग्रेजी कैंप में दस-बारह आदमी अभी शिकार खेलकर लौटे थे। उन्होंने जो यह हंगामा सुना, तो बाहर निकल आए और जनता पर अंधाधुंध बंदूकें छोड़ने लगे। पहले तो उत्तेजित जनता ने बंदूकों की परवाह न की, उसे अपनी संख्या का बल था। लोग सोचते थे, मरते-मरते हममें से इतने आदमी कैंप में पहुँच जाएंगे कि नरेशों को कहीं भागने की भी जगह न मिलेगी। हम सारे प्रांत को इन अत्याचारियों से मुक्त कर देंगे! ये सब भी तो अपनी प्रजा पर ऐसा ही अत्याचार करते होंगे।

जनता उत्तेजित होकर आदर्शवादी हो जाती है। गोलियों की पहली बाढ़ आई। कई आदमी गिर गए।

चौधरी-देखो भाई, घबराना नहीं। जो गिरता है, उसे गिरने दो; आज ही तो दिल के हौसले निकले हैं। जय हनुमानजी की!

एक मजदूर-बढ़े आओ, बढ़े आओ, अब मार लिया है। आज ही तो—

उसके मुंह से पूरी बात भी न निकलने पाई थी कि गोलियों की दूसरी बाढ़ आई और कई आदमियों के साथ दोनों नेताओं का काम तमाम कर गई। एक क्षण के लिए सबके पैर रुक गए। जो जहां था, वहीं खड़ा रह गया। समस्या थी कि आगे जाएंया पीछे? सहसा एक युवक ने कहा-मारो, रुक क्यों गए? सामने पहुँचकर हिम्मत छोड़ देते हो! बढ़े चलो। जय दुर्गामाई की!

दूसरा बोला-आज जो मरेगा, वह बैकुण्ठ में जाएगा। बोलो हनुमान जी की जय! उसे भी गोली लगी और चक्कर खाकर गिर पड़ा।

इतने में दीवान साहब बंदूक लिए पीछे दौड़ते हुए आ पहुंचे। गुरुसेवक भी उनके साथ थे। दोनों एक दूसरे रास्ते से कैंप के द्वार पर पहुँच गए थे।

हरिसेवक-तुम मेरे पीछे खड़े हो जाओ और यहीं से निशाना लगाओ।

गुरुसेवक-अभी फैर न कीजिए। मैं जरा इन्हें समझा लूं। समझाने से काम निकल जाए, तो रक्त क्यों बहाया जाए?

हरिसेवक-अब समझाने का मौका नहीं है। अभी दम के दम में सबके-सब अंदर घुस आएंगे, तो प्रलय हो जाएगी।

किंतु गुरुसेवक के हृदय में दया थी। पिता की बात न मानकर वह सामने आ गए और ललकारकर बोले-तुम लोग यहां क्यों आ रहे हो? यह न समझो कि तुम कैंप के द्वार पर पहुँच गए हो। यहां आते-आते तुम आधे हो जाओगे।

एक मजदूर-कोई चिंता नहीं। मर-मरकर जीने से एक बार मर जाना अच्छा है। मारो, आगे बढ़ो, क्या हिम्मत छोड़ देते हो?

गुरुसेवक-आगे एक कदम भी रखा और गिरे। यह समझ लो कि तुम्हारे आगे मौत खड़ी है।

मजदूर-हम आज मरने के लिए कमर बांधकर….

अंग्रेजी कैंप से फिर गोलियों की बाढ़ आई और कई आदमियों के साथ यह आदमी भी गिर गया, और उसके गिरते ही सारे समूह में खलबली पड़ गई। अभी तक इन लोगों को न मालूम था कि गोलियां किधर से आ रही हैं। समझ रहे थे कि इसी कैंप से आती होंगी। अब शिकारी लोग बढ़ आए थे और साफ नजर आ रहे थे।

एक चमार बोला-साहब लोग गोली चला रहे हैं।

दूसरा-गोरों की फौज है, फौज।

तीसरा-चलो उन्हीं सबों को पथें? मुर्गी के अंडे खा-खाकर खूब मोटाए हुए हैं।

चौथा-यही सब तो राजाओं को बिगाड़े हुए हैं। दो शिकार भी मिल गए, तो मेहनत सफल हो जाएगी।

लेकिन कायरों की हिम्मत टूटने लगी थी। लोग चुपके-चुपके दाएं-बाएं से सरकने लगे थे। यहां प्राण देने से बाजार में लूट मचाना कहीं आसान था। देखते-देखते पीछे के सभी आदमी खिसक गए। केवल आगे के लोग खड़े रह गए थे। उन्हें क्या खबर थी कि पीछे क्या हो रहा है। वे अंग्रेजों के कैंप की तरफ मुड़े और एक ही हल्ले में अंग्रेजी कैंप के फाटक तक आ पहुंचे। अब तो यहां भी भगदड़ पड़ी। एक ओर नरेशों के कैंप से मोटरें निकल-निकलकर पीछे की ओर से दौड़ती चली आ रही थीं। इधर अंग्रेजी कैंप से मोटरों का निकलना शुरू हुआ। एक क्षण में सारी लेडियां गायब हो गईं। मर्दो में भी आधे से ज्यादा निकल भागे। केवल वही लोग रह गए, जो मोरचे पर खड़े थे और जिनके लिए भागना मौत के मुंह में जाना था; मगर उन सबों के हाथों में मार्टिन और मॉजर के यंत्र थे। इधर ईश्वर की दी हुई लाठियां थीं; या जमीन से चुने हुए पत्थर। यद्यपि हड़तालियों का दल एक ही हल्ले में इस फाटक तक पहुँच गया; पर यहां तक पहुँचते-पहुँचते कोई बीस आदमी गिर पड़े। अगर इस वक्त पचास गज के अंतर पर भी इतने आदमी गिरे होते, तो शायद सबके पैर उखड़ जाते, लेकिन यह विश्वास कि अब मार लिया है, उनके हौसले बढ़ाए हुए था। विजय के सम्मुख पहुँचकर कायर भी वीर हो जाते हैं, घर के समीप पहुँचकर थके हुए पथिक के पैरों में भी पर लग जाते हैं।

इन मनुष्यों के मुख पर इस समय हिंसा झलक रही थी। चेहरे विकृत हो गए थे। जिसने इन्हें इस दशा में न देखा हो, यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि वही दीनता के पुतले हैं, जिन्हें एक काठ की पुतली भी चाहे जो नाच नचा सकती थी। अंग्रेज योद्धा अभी तक तो मोरचे पर खडे बंदूकें छोड़ रहे थे, लेकिन इस भयंकर दल को सामने देखकर उनके औसान जाते रहे। दो-चार तो भागे, दो-तीन मूर्छा खाकर गिर पड़े। केवल पांच फौजी अफसर अपनी जगह पर डटे रहे। उन्हें बचने की कोई आशा न थी और इसी निराशा ने उन्हें अदम्य साहस प्रदान कर दिया था। वे जान पर खेले हुए थे! क्षण-क्षण पर बंदुके चलाते थे मानो बंदुके की कलें हों। जो आगे बढ़ता था, उनके अचूक निशाने का शिकार हो जाता था। इधर ढेले और पत्थरों की वर्षा हो रही थी, जो फाटक तक मुश्किल से पहुँचती थी। अब सामने पहुँचकर लोगों ने आगे बढ़कर पत्थर चलाने शुरू किए। यहां तक कि अंग्रेज चोट खाकर गिर पड़े। एक का सिर फट गया था; दूसरे की बांह टूट गई थी। केवल तीन आदमी रह गए और वही इन आदमियों को रोक रखने के लिए काफी थे। लेकिन उनके पास भी कारतूस न रह गए थे। कठिन समस्या थी। प्राण बचने की कोई आशा नहीं। भागने की कल्पना ही से उन्हें घृणा होती थी। जिन मनुष्यों को हमेशा पैरों से ठुकराया किए, जिन्हें कुली कहते और कुत्तों से भी नीच समझते रहे, उनके सामने पीठ दिखाना ऐसा अपमान था, जिसे वे किसी तरह न सह सकते थे। इधर हड़तालियों के हौसले बढ़ते जाते थे। शिकार, अब बेदम होकर गिरना चाहता था। हिंसा के मुंह से लार टपक रही थी।

एक आदमी ने कहा-हां बहादुरो, बस एक हल्ले की और कसर है; घुस पड़ो। अब कहाँ जाते हैं।

दूसरा बोला-फांसी तो पड़ेगी ही, अब इन्हें क्यों छोड़ें?

सहसा एक आदमी पीछे से भीड़ को चीरता, बेतहाशा दौड़ा हुआ आकर बोला-बस-बस, क्या करते हो ! ईश्वर के लिए हाथ रोको ! क्या गजब करते हो! लोगों ने चकित होकर देखा, तो चक्रधर थे। सैकड़ों आदमी उन्मत्त होकर उनकी ओर दौड़े और उन्हें घेर लिया। जय-जयकार की ध्वनि से आकाश गूंजने लगा।

एक मजदूर ने कहा-हमें अपने एक सौ भाइयों के खून का बदला लेना है।

चक्रधर ने दोनों हाथ उठाकर कहा-कोई एक कदम भी आगे न बढ़े। खबरदार!

मजदूर-यारो, बस एक हल्ला और !

चक्रधर-हम फिर कहते हैं, अब एक कदम भी आगे न उठे। जिले के मैजिस्ट्रेट मिस्टर जिम ने कहा-बाबू साहब, खुदा के लिए हमें बचाइए।

फौज के कप्तान मिस्टर सिम बोले-हम हमेशा आपको दुआ देगा। हम सरकार से आपकी सिफारिश करेगा।

एक मजदूर-हमारे एक सौ जवान भून डाले, तब आप कहाँ थे? यारो, क्या खड़े हो, बाबूजी का क्या बिगड़ा है? मारे तो हम गए हैं न? मारो बढ़के।

चक्रधर ने उपद्रवियों के सामने खड़े होकर कहा-अगर तुम्हें खून की प्यास है, तो मैं हाजिर हूँ। मेरी लाश को पैरों से कुचलकर तुम आगे बढ़ सकते हो।

मजदूर-भैया, हट जाओ, हमने बहुत मार खाई है; बहुत सताए गए हैं, इस वक्त दिल की आग बुझा लेने दो!

चक्रधर-मेरा लहू इस ज्वाला को शांत करने के लिए काफी नहीं है?

मजदूर-भैया, तुम शांत-शांत बका करते हो; लेकिन उसका फल क्या होता है। हमें जो चाहता है, मारता है, जो चाहता है, पीसता है, तो क्या हमीं शांत बैठे रहें? शांत रहने से तो और भी हमारी दुरगत होती है। हमें शांत रहना मत सिखाओ। हमें मारना सिखाओ, तभी हमारा उद्धार कर सकोगे।

चक्रधर-अगर अपनी आत्मा की हत्या करके हमारा उद्धार भी होता हो, तो हम आत्मा की हत्या न करेंगे। संसार को मनुष्य ने नहीं बनाया है, ईश्वर ने बनाया है। भगवान् ने उद्धार के जो उपाय बताए हैं, उनसे काम लो और ईश्वर पर भरोसा रखो।

मजदूर-हमारी फांसी तो हो ही जाएगी। तुम माफी तो न दिला सकोगे।

मिस्टर जिम-हम किसी को सजा न देंगे।

मिस्टर जिम-हम सबको इनाम दिलाएगा।

चक्रधर-इनाम मिले या फांसी, इसकी क्या परवा! अभी तक तुम्हारा दामन खून के छींटों से पाक है; उसे पाक रखो। ईश्वर की निगाह में तुम निर्दोष हो। अब अपने को कलंकित मत करो, जाओ।

मजदूर-अपने भाइयों का खून कभी हमारे सिर से न उतरेगा, लेकिन तुम्हारी यही मर्जी है, तो लौट जाते हैं। आखिर फांसी पर तो चढ़ना ही है।

चक्रधर कुंदे की चोट से कुछ देर तक तो अचेत पड़े रहे थे। जब होश आया, तो देखा कि दाहिनी ओर हड़तालियों का एक दल अंग्रेजी कैंप के द्वार पर खड़ा है, बाईं ओर बाजार लुट रहा है और सशस्त्र पुलिस के सिपाही हड़तालियों के साथ मिले हुए दुकानें लूट रहे हैं और विशाल तिलक-मंडप से अग्नि की ज्वाला उठ रही है। वह उठे और अंग्रेजी कैंप की ओर भागे। वहीं उनके पहुँचने की सबसे ज्यादा जरूरत थी। बाजार में रक्तपात का भय न था। रक्षक स्वयं लुटरे बने हुए थे। उन्हें लूट से कहाँ फुर्सत थी कि हड़तालियों का शिकार करते? अंग्रेजी कैंप में ही स्थिति सबसे भयावह थी। इस नाजुक मौके पर वह न पहुँच जाते, तो किसी अंग्रेज की जान न बचती, सारा कैंप लुट जाता और खेमे राख के ढेर हो जाते। हड़तालियों की रक्षा करनी तो उन्हें बदी न थी; लेकिन विदेशियों को उन्होंने मौत के मुंह से निकाल लिया। एक क्षण में सारा कैंप साफ हो गया। एक भी मजदूर न रह गया।

इन आदमियों के जाते ही वे लोग भी इनके साथ हो लिए; जो पहले लूट के लालच से चले आए थे। जिस तरह पानी आ जाने से कोई मेला उठ जाता है, ग्राहक, दुकानदार और दुकानें सब न जाने कहाँ लुप्त हो जाती हैं, उसी भांति एक क्षण में सारे कैंप में सन्नाटा छा गया। केवल तिलक-मंडल से अभी तक आग की ज्वाला निकल रही थी। राजा साहब और उनके साथ के कुछ गिने-गिनाए आदमी उसके सामने चुपचाप खड़े मानो किसी मृतक की दाह-क्रिया कर रहे हों। बाजार लुटा, गोलियां चलीं, आदमी मक्खियों की तरह मारे गए; पर राजा मंडप के सामने ही खड़े रहे। उन्हें अपनी सारी मनोकामनाएं अग्नि-राशि में भस्म होती हुई मालूम होती थीं।

अंधेरा छा गया था। घायलों के कराहने की आवाजें आ रही थीं। चक्रधर और उनके साथ के युवक उन्हें सावधानी से उठा-उठाकर एक वृक्ष के नीचे जमा कर रहे थे। कई आदमी तो उठाते-ही-उठाते सुरलोक सिधारे। कुछ सेवक उन्हें ले जाने की फिक्र करने लगे। कुछ लोग शेष घायलों की देख-भाल में लगे। रियासत का डॉक्टर सज्जन मनुष्य था। यहां से संदेशा जाते ही आ पहुंचा। उसकी सहायता ने बड़ा काम किया। आकाश पर काली घटा छाई हुई थी। चारों तरफ अंधेरा था। तिलक मंडप की आग भी बुझ चुकी थी। उस अंधकार में ये लोग लालटेन लिए घायलों को अस्पताल ले जा रहे थे।

एकाएक कई सिपाहियों ने आकर चक्रधर को पकड़ लिया और अंग्रेज कैंप की तरफ ले चले। पूछा, तो मालूम हुआ कि जिम साहब का यह हुक्म है। चक्रधर ने सोचा-मैंने ऐसा कोई अपराध तो नहीं किया, जिसका यह दंड हो। फिर यह पकड़-धकड़ क्यों? संभव है, मुझसे कुछ पूछने के लिए बुलाया हो, और ये मूर्ख सिपाही उसका आशय न समझकर मुझे यों पकड़े लिए जाते हों। यह सोचते हुए वह मिस्टर जिम के खेमे में दाखिल हुए।

देखा, तो वहां कचहरी लगी हुई है। सशस्त्र पुलिस के सिपाही, जिन्हें अब लूट से फुर्सत मिल चुकी थी, द्वार पर संगीनें चढ़ाए खड़े थे। अंदर मिस्टर जिम और मिस्टर सिम रौद्र रूप धारण किए सिगार पी रहे थे, मानो क्रोधाग्नि मुंह से निकल रही हो। राजा साहब मिस्टर जिम के बगल में बैठे थे। दीवान साहब क्रोध से आंखें लाल किए मेज पर हाथ रखे कुछ कह रहे थे और मुंशी वज्रधर हाथ बांधे एक कोने में खड़े थे।

चक्रधर को देखते ही मिस्टर जिम ने कहा-राजा साहब कहता है कि यह सब तुम्हारी शरारत है। तुम और तुम्हारा साथी लोग बहुत दिनों से रियासत के आदमियों को भड़का रहा है, और आज भी तुम न आता, तो यह दंगा न मचता।

चक्रधर आवेश में आकर बोले-अगर राजा साहब, आपका ऐसा विचार है, तो इसका मुझे दु:ख है। हम लोग जनता में जागृति अवश्य फैलाते हैं, उनमें शिक्षा का प्रचार करते हैं, उन्हें स्वार्थांध अमलों के फंदों से बचाने का उपाय करते हैं, और उन्हें अपने आत्मसम्मान की रक्षा करने का उपदेश देते हैं। हम चाहते हैं कि वे मनुष्य बनें और मनुष्यों की भांति संसार में रहें। ये स्वार्थ के दास बनकर कर्मचारियों की खुशामद न करें, भयवश अपमान और अत्याचार न सहें। अगर इसे कोई भड़काना समझता है, तो समझे! हम तो इसे अपना कर्त्तव्य समझते हैं।

जिम-तुम्हारे उपदेश का यह नतीजा देखकर कौन कह सकता है कि तुम उन्हें नहीं भड़काता?

चक्रधर-यहां उन आदमियों पर अत्याचार हो रहा था और उन्हें यहां से चले जाने का या काम न करने का अधिकार था। अगर उन्हें शांति के साथ चले जाने दिया जाता, तो यह नौबत कभी नहीं आती।

राजा-हमें परंपरा से बेगार लेने का अधिकार है और उसे हम नहीं छोड़ सकते। आप आदमियों को बेगार देने से मना करते हैं, और आज के हत्याकांड का सारा भार आपके ऊपर है।

चक्रधर-कोई अन्याय केवल इसलिए मान्य नहीं हो सकता कि लोग उसे परंपरा से सहते

आए हैं।

जिम-हम तुम्हारे ऊपर बगावत का मुकदमा चलाएगा। तुम dangerous (खतरनाक) आदमी है।

राजा-हुजूर, मैं इनके साथ कोई सख्ती नहीं करना चाहता, केवल यह प्रतिज्ञा लिखाना चाहता हूँ कि यह अथवा इनके सहकारी लोग मेरी रियासत में न जाएं।

चक्रधर-मैं ऐसी प्रतिज्ञा नहीं कर सकता। दीनों पर अत्याचार होते देखकर दूर खड़े रहना वह दशा है, जो हम किसी तरह नहीं सह सकते। अभी बहुत दिन नहीं गुजरे कि राजा साहब के विचार मेरे विचारों से पूरे-पूरे मिलते थे। उन्हें अपने विचारों को बदलने के नए कारण हो गए हों, मेरे लिए कोई कारण नहीं।

राजा-मेरे प्रजा-हित के विचारों में कोई अंतर नहीं हुआ है, मैं अब भी प्रजा का सेवक हूँ, लेकिन आप उन्हें राजनीतिक यंत्र बनाना चाहते हैं, और इसी उद्देश्य से आप उनके हितचिंतक बनते हैं। मैं उन्हें राजनीति में नहीं डालना चाहता। आप उनके आत्मसम्मान की रक्षा करते हैं और मैं उनके प्राणों की। बस, आपके और मेरे विचारों में केवल यही अंतर है।

मिस्टर जिम ने सब-इंस्पेक्टर से कहा-इनको हवालात में रखो, कल इजलास पर पेश करो।

वज्रधर ने आगे बढ़कर जिम के पैरों पर पगड़ी रख दी और बोले-हुजूर, यह गुलाम का लड़का है। हुजूर, इसकी जांबख्शी करें। हुजूर का पुराना गुलाम हूँ। जब खुरजे में तहसीलदार था, तब हुजूर से सनद अता फरमाई थी, हुजूर!

मिस्टर जिम-ओ! तहसीलदार साहब, यह तुम्हारा लड़का है? तुमने उसको घर से निकाल क्यों नहीं दिया? सरकार तुमको इसलिए पेंशन नहीं देता कि तुम बागियों को पालो। हम तुम्हारा पेंशन बंद कर देगा। पेंशन इसलिए दिया जाता है कि तुम सरकार का वफादार नौकर बना रहे।

वज्रधर-हुजूर मेरे मालिक हैं। आज इसका कुसूर माफ कर दिया जाए। आज से मैं इसे घर से निकलने ही न दूंगा।

चक्रधर ने पिता को तिरस्कार भाव से देखकर कहा-आप क्यों ऐसी बातों से मुझे लज्जित करते हैं! मिस्टर जिम और राजा साहब मुझे जेल के बाहर भी कैद करना चाहते हैं। मेरे लिए जेल की कैद इस कैद से कहीं आसान है।

वज्रधर-बेटा, मैं अब थोड़े ही दिनों का मेहमान हूँ। मुझे मर जाने दो, फिर तुम्हारे जी में जो आए करना। मैं मना करने न आऊंगा।

हरिसेवक-तहसीलदार साहब, आप व्यर्थ हैरान होते हैं। आपका काम समझा देना है। वह समझदार हैं। अपना भला-बुरा समझ सकते हैं। जब वह खुद आग में कूद रहे हैं, तो आप कब तक उन्हें रोकिएगा?

वज्रधर-मेरी यह अर्ज़ है हुजूर, कि मेरी पेंशन पर रेप न आए।

जिम-तुमको इस मुकदमे में शहादत देना होगा। तुमने अच्छा शहादत दिया, तो तुम्हारा पेंशन बहाल रखा जाएगा।

चक्रधर-लीजिए, आपकी पेंशन बहाल हो गई, केवल मेरे विरुद्ध गवाही भर दे दीजिएगा।

राजा-बाबू चक्रधर, अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। आप प्रतिज्ञा लिखकर शौक से घर जा सकते हैं। मैं आपको तंग नहीं करना चाहता। हां, इतना ही चाहता हूँ कि ऐसे हंगामे न खड़े हों।

चक्रधर-राजा साहब, क्षमा कीजिएगा, जब तक असंतोष के कारण दूर न होंगे, ऐसी दुर्घटनाएं होंगी और फिर होंगी। मुझे आप पकड़ सकते हैं, कैद कर सकते हैं। इससे चाहे आपको शांति हो. पर वह असंतोष अणुमात्र भी कम न होगा, जिससे प्रजा का जीवन असह्य हो गया है। असंतोष को भड़काकर आप प्रजा को शांत नहीं कर सकते। हां, कायर बना सकते हैं। अगर आप उन्हें कर्महीन, बुद्धिहीन, पुरुषार्थहीन मनुष्य का तन धारण करने वाले सियार और सुअर बनाना चाहते हैं, तो बनाइए, पर इससे न आपकी कीर्ति होगी, न ईश्वर प्रसन्न होंगे और न स्वयं आपकी आत्मा ही तुष्ट होगी।

पंद्रह

राजाओं-महाराजाओं को क्रोध आता है, तो उनके सामने जाने की हिम्मत नहीं पड़ती। जाने क्या गजब हो जाए, क्या आफत आ जाए। विशालसिंह किसी को फांसी न दे सकते थे, यहां तक कि कानून की रू से वह किसी को गालियां भी न दे सकते थे। कानून उनके लिए भी था, वह भी सरकार की प्रजा थे, किंतु नौकरी तो छीन सकते थे, जुर्माना तो कर सकते थे। इतना अख्तियार क्या थोड़ा है? सारी रात गुजर गई, पर राजा साहब अपने कमरे से बाहर नहीं निकले। उनकी पलकें तक न झपकी थीं। आधी रात तक तो उनकी तलवार हरिसेवक पर खिंची रही; इसी बुड्ढे खूसट के कुप्रबंध ने यह सारा तूफान खड़ा किया। उसके बाद तलवार के वार अपने ऊपर होने लगे। मुझे इस उत्सव की जरूरत ही क्या थी? रियासत मुझे मिल ही चुकी थी। टीके-तिलक की हिमाकत में क्यों पड़ा? पिछले पहर क्रोध ने फिर पहलू बदला और तलवार की चोटें चक्रधर पर पड़ने लगीं। यह सारी शरारत इसी लौंडे की है। न्याय, धर्म और परोपकार सब बहुत अच्छी बातें हैं, लेकिन हर एक काम के लिए एक अवसर होता है। इसने प्रजा में असंतोष की आग भड़काई। दो-चार दिन आधे ही पेट खाकर रह जाते, तो क्या मजदूरों की जान निकल जाती? अपने घर ही पर उन्हें कौन दोनों वक्त पकवान मिलता है। जब बारहों मास एक वक्त आधे पेट खाकर रहते हैं, तो यहां रसद के लिए दंगा कर बैठना साफ बतला रहा है कि यह दूसरों का मंत्र था। बाप तो तलुवे सहलाता फिरता है और आप परोपकारी बनते फिरते हैं। पांच साल तक चक्की न पिसवाई, तो नाम नहीं !

राजभवन में सन्नाटा छाया हुआ था। रोहिणी ने तो जन्माष्टमी के दिन से ही राजा साहब से बोलना-चालना छोड़ दिया था। यों पड़ी रहती थी, जैसे कोई चिड़िया पिंजरे में। वसुमती को अपने पूजा-पाठ से फुरसत न थी। अब उसे राम और कृष्ण दोनों ही की पूजा-अर्चना करनी पड़ती थी। केवल रामप्रिया घबराती हुई इधर-उधर दौड़ रही थी। कभी चुपके-चुपके कोपभवन के द्वार तक जाती, कभी खिड़की से झांकती; पर राजा साहब की त्योरियां देखकर उलटे पांव लौट आती। डरती थी कि कहीं वह कुछ खा न लें, कहीं भाग न जाएं। निर्बल क्रोध ही तो वैराग्य है।

वह इसी चिंता में विकल थी कि मनोरमा आकर सामने खड़ी हो गई। उसकी दोनों आंखें बीरबहूटी हो रही थीं, भंवे चढ़ी हुई, मानो किसी गुंडे ने सती को छेड़ दिया हो।

रामप्रिया ने पूछा-कहाँ थी, मनोरमा?

मनोरमा-ऊपर ही तो थी। राजा साहब कहाँ हैं?

रामप्रिया ने मनारेमा के मुख की ओर तीव्र दृष्टि से देखा। हृदय आंखों में रो रहा था। बोली-क्या करोगी पूछकर?

मनोरमा-उनसे कुछ कहना चाहती हूँ।

रामप्रिया-कहीं उनके सामने जाना मत। कोप-भवन में हैं। मैं तो खुद उनके सामने जाते डरती हूँ।

मनोरमा-आप बतला तो दें।

रामप्रिया-नहीं, मैं न बताऊंगी। कौन जानता है, इस वक्त उनके हृदय पर क्या बीत रही है। खून का चूंट पी रहे होंगे! सुनती हूँ, तुम्हारे गुरुजी ही की यह सारी करामात है। देखने में तो बड़े ही सज्जन मालूम होते हैं; पर हैं एक छंटे हुए।

मनोरमा तीर की भांति कमरे से निकलकर वसुमती के पास जा पहुंची। वसुमती अभी स्नान करके आई थी और पूजा करने जा रही थी कि मनोरमा को सामने देखकर चौंक पड़ी। मनोरमा ने पूछा-आप जानती हैं, राजा साहब कहाँ हैं?

वसुमती ने रुखाई से कहा-होंगे जहां उनकी इच्छा होगी। मैं तो पूछने भी न गई। जैसे राम राधा से, वैसे ही राधा राम से।

मनोरमा-आपको मालूम नहीं?

वसुमती-मैं होती कौन हूँ? न सलाह में, न बात में। बेगानों की तरह घर में पड़ी दिन काट रही हूँ? वह बैठी हुई हैं। उनसे पूछो, जानती होंगी।

मनोरमा रोहिणी के कमरे में आई। वह गावतकिए लगाए ठस्से से मसनद पर बैठी हुई थी। सामने आईना था। नाइन केश गूंथ रही थी। मनोरमा को देखकर मुस्कराई। पूछा-कैसे चलीं?

मनोरमा-आपको मालूम है, राजा साहब इस वक्त कहाँ मिलेंगे? मुझे उनसे कुछ कहना है।

रोहिणी-कहीं बैठे अपने नसीबों को रो रहे होंगे। यह मेरी हाय का फल है ! कैसा तमाचा पड़ा है कि याद ही करते होंगे। ईश्वर बड़ा न्यायी है। मैंने तो चिंता करनी ही छोड़ दी। जिंदगी रोने के लिए थोड़े ही है। सच पूछो, तो इतना सुख मुझे कभी न था। घर में आग लगे या वज्र गिरे, मेरी बला से!

मनोरमा-मुझे सिर्फ इतना बता दीजिए कि वह कहाँ हैं?

रोहिणी-मेरे हृदय में ! उसे बाणों से छेद रहे हैं।

मनोरमा निराश होकर यहां से भी निकली। वह इस राजभवन में पहले ही पहल आई थीं। अंदाज से दीवानखाने की तरफ चली। जब रानियों के यहां नहीं, तो अवश्य दीवानखाने में होंगे। द्वार पर पहुँचकर वह जरा ठिठक गई। झांककर अन्दर देखा, राजा साहब कमरे में टहलते थे और मूंछे ऐंठ रहे थे। मनोरमा अन्दर चली गई। पछताई कि व्यर्थ रानियों से पूछती फिरी।

राजा साहब उसे देखकर चौंक पड़े। कोई दूसरा आदमी होता, तो शायद वह उस पर झल्ला पड़ते, निकल जाने को कहते; किंतु मनोरमा के मान-प्रदीप्त सौंदर्य ने उन्हें परास्त कर दिया। खौलते हुए पानी ने दहकती हुई आग को शांत कर दिया। उन्होंने पहले उसे एक बार देखा था। तब वह बालिका थी। आज वही बालिका नवयुवती हो गई थी। यह एक रात की भीषण चिंता, दारुण वेदना और दुस्सह तापसृष्टि थी। राजा साहब के सम्मुख आने पर भी उसे जरा भी भय या संकोच न हुआ। सरोष नेत्रों से ताकती हुई बोली-उसका कण्ठ आवेश से कांप रहा था-महाराज, मैं आपसे यह पूछने आई हूँ कि क्या प्रभुत्व और पशुता एक ही वस्तु है या उनमें कुछ अंतर है?

राजा साहब ने विस्मित होकर कहा-मैंने तुम्हारा आशय नहीं समझा, मनोरमा? बात क्या है? तुम्हारी त्योरियां चढ़ी हुई हैं। क्या किसी ने कुछ कहा है या मुझसे नाराज हो? यह भंवें क्यों तनी हुई हैं?

मनोरमा-मैं आपके सामने फरियाद करने आई हूँ।

राजा-क्या तुम्हें किसी ने कटु वचन कहे हैं?

मनोरमा–मुझे किसी ने कटु वचन कहे होते, तो फरियाद करने न आती। अपने लिए आपको कष्ट न देती; लेकिन आपने-अपने तिलकोत्सव के दिन एक ऐसे प्राणी पर अत्याचार किया, जिस पर मेरी असीम भक्ति है, जिसे मैं देवता समझती हूँ, जिसका हृदय कमल के जलसिंचित दल की भांति पवित्र और कोमल है, जिसमें संन्यासियों का-सा त्याग और ऋषियों का-सा सत्य है. जिसमें बालकों की-सी सरलता और योद्धाओं की-सी वीरता है। आपके न्याय और धर्म की चर्चा उसी पुरुष के मुंह से सुना करती थी। अगर यही उसका यथार्थ रूप है, तो मुझे भय है कि इस आतंक के आधार पर बने हुए राजभवन का शीघ्र ही पतन हो जाएगा और आपकी सारी कीर्ति स्वप्न की भांति मिट जाएगी। जिस समय आपके ये निर्दय हाथ बाबू चक्रधर पर उठे, अगर उस समय मैं वहां होती, तो कदाचित् कुन्दे का वह वार मेरी ही गर्दन पर पड़ता। मुझे आश्चर्य होता है कि उन पर आपके हाथ उठे क्योंकर ! उसी समय से मेरे मन में विचार हो रहा है कि क्या प्रभुत्व और पशुता एक ही वस्तु तो नहीं हैं?

मनोरमा के मुख से ये जलते हुए शब्द सुनकर राजा दंग रह गए। उनका क्रोध प्रचण्ड वायु के इस झोंके से आकाश पर छाए हुए मेघ के समान उड़ गया। आवेश में भरी हुई सरल हृदया बालिका से वाद-विवाद करने के बदले उन्हें उस पर अनुराग उत्पन्न हो गया। सौंदर्य के सामने प्रभुत्व भीगी बिल्ली बन जाता है। आसुरी शक्ति भी सौंदर्य के सामने सिर झुका देती है। राजा साहब नम्रता से बोले-चक्रधर को तुम कैसे जानती हो?

मनोरमा-वह मुझे अंग्रेजी पढ़ाने आया करते हैं।

राजा-कितने दिनों से?

मनोरमा-बहुत दिन हुए।

राजा-मनोरमा, मेरे दिल में बाबू चक्रधर की इज्जत थी और है, उसकी चर्चा करते हुए शर्म आती है। जब उन पर इन्हीं कठोर हाथों से मैंने आघात किया, तो अब ऐसी बातें सुनकर तुम्हें विश्वास न आएगा। तुमने बहुत ठीक कहा है कि प्रभुत्व और पशुता एक ही वस्तु हैं। एक वस्तु चाहे न हों, पर उनमें फूस और चिनगारी का संबंध अवश्य है। मुझे याद नहीं आता कि कभी मुझे इतना क्रोध आया हो। अब मुझे याद आ रहा है कि मैंने धैर्य से काम लिया होता, तो चक्रधर चमारों को जरूर शांत कर देते। जनता पर उसी आदमी का असर पड़ता है, जिसमें सेवा का गुण हो। यह उनकी सेवा ही है, जिसने उन्हें इतना सर्वप्रिय बना दिया है, अंग्रेजों की प्राण-रक्षा करने में उन्होंने जितनी वीरता से काम लिया, उसे अलौकिक कहना चाहिए। वह द्रोहियों के सामने जाकर न खड़े हो जाते, तो शायद इस वक्त जगदीशपुर पर गोली की वर्षा होती और मेरी जो दशा होती, उसकी कल्पना ही से रोएं खड़े होते हैं। वह वीरात्मा हैं और उनके साथ मैंने जो अन्याय किया है, उसका मुझे जीवन-पर्यंत दु:ख रहेगा।

विनय क्रोध को निगल जाता है। मनोरमा शान्त होकर बोली-केवल दुःख प्रकट करने से तो अन्याय का घाव नहीं भरता?

राजा-क्या करूं मनोरमा, अगर मेरे वश की बात होती, तो मैं इसी क्षण जाता और चक्रधर को अपने कंधे पर बैठाकर लाता, पर अब मेरा अख्तियार नहीं है। अगर उनकी जगह मेरा ही पुत्र होता, तो भी मैं कुछ न कर सकता।

मनोरमा-आप मिस्टर जिम से कह सकते हैं?

राजा-हां, कह सकता हूँ, पर आशा नहीं कि वह मानें। राजनीतिक अपराधियों के साथ ये लोग जरा भी रिआयत नहीं करते, उनके विषय में कुछ सुनना नहीं चाहते। हां, एक बात हो सकती है, अगर चक्रधर जी यह प्रतिज्ञा कर लें कि अब वह कभी सार्वजनिक कामों में भाग न लेंगे, तो शायद मिस्टर जिम उन्हें छोड़ दें। तुम्हें आशा है कि चक्रधर यह प्रतिज्ञा करेंगे?

मनोरमा ने संदिग्ध भाव से सिर हिलाकर कहा-न, मुझे इसकी आशा नहीं। वह अपनी खुशी से कभी ऐसी प्रतिज्ञा न करेंगे।

राजा-तुम्हारे कहने से न मान जाएंगे?

मनोरमा-मेरे कहने से क्या; वह ईश्वर के कहने से भी न मानेंगे और अगर मानेंगे भी तो उसी क्षण मेरे आदर्श से गिर जाएंगे। मैं यह कभी न चाहूँगी कि वह उन अधिकारों को छोड़ दें, जो उन्हें ईश्वर ने दिए हैं। आज के पहले मुझे उनसे वही स्नेह था, जो किसी को एक सज्जन आदमी से हो सकता है। मेरी भक्ति उन पर न थी। उनकी प्रणवीरता ही ने मुझे उनका भक्त बना दिया है, उनकी निर्भीकता ही ने मेरी श्रद्धा पर विजय पाई है।

राजा ने बड़ी दीनता से पूछा-जब यह जानती हो, तो मुझे क्यों जिम के पास भेजती हो?

मनोरमा इसलिए कि सच्चे आदमी के साथ सच्चा बर्ताव होना चाहिए। किसी को उसकी सच्चाई का या सज्जनता का दण्ड न मिलना चाहिए। इसी में आपका भी कल्याण है। जब तक चक्रधर के साथ न्याय न होगा, आपके राज्य में शांति न होगी। आपके माथे पर कलंक का टीका लगा रहेगा।

राजा-क्या करूं, मनोरमा ! अच्छे सलाहकार न मिलने से मेरी यह दशा हुई। ईश्वर जानता है, मेरे मन में प्रजाहित के लिए कैसे-कैसे हौसले थे। मैं अपनी रियासत में रामराज्य का युग लाना चाहता था, पर दुर्भाग्य से परिस्थिति कुछ ऐसी होती जाती है कि मुझे वे सभी काम करने पड़ रहे हैं जिनसे मुझे घृणा थी। न जाने वह कौन-सी शक्ति है जो मुझे अपनी आत्मा के विरुद्ध आचरण करने पर मजबूर कर देती है। मेरे पास कोई ऐसा मन्त्री नहीं है जो मुझे सच्ची सलाहें दिया करे। मैं हिंसक जंतुओं से घिरा हुआ हूँ। सभी स्वार्थी हैं, कोई मेरा मित्र नहीं। इतने आदमियों के बीच में मैं अकेला, निस्सहाय, मित्रहीन प्राणी हूँ। एक भी ऐसा हाथ नहीं, जो मुझे गिरते देखकर संभाल ले। मैं अभी मिस्टर जिम के पास जाऊंगा और साफ-साफ कह दूंगा कि मुझे बाबू चक्रधर से कोई शिकायत नहीं है।

मनोरमा के सौंदर्य ने राजा साहब पर जो जादू का-सा असर डाला था, वही असर उनकी विनय और शालीनता ने मनोरमा पर किया। सारी परिस्थिति उसकी समझ में आ गई। नरम होकर बोली-जब उनके पास जाने से आपको कोई आशा ही नहीं है, तो व्यर्थ क्यों कष्ट उठाइएगा। मैं आपसे यह आग्रह करूंगी। मैंने आपका इतना समय नष्ट किया, इसके लिए मुझे क्षमा कीजिएगा। मेरी कुछ बातें अगर कटु और अप्रिय लगी हों….।

राजा ने बात काटकर कहा-मनोरमा, सुधा-वृष्टि भी किसी को कड़वी और अप्रिय लगती है? मैंने ऐसी मधुर वाणी कभी न सुनी थी। तुमने मुझ पर अनुग्रह किया है, उसे कभी न भूलुंगा।

मनोरमा कमरे से चली गई। विशालसिंह द्वार पर खड़े उसकी ओर ऐसे तृषित नेत्रों से देखते रहे, मानो उसे पी जाएंगे। जब वह आंखों से ओझल हो गई, तो वह कुर्सी पर लेट गए। उनके हृदय में एक विचित्र आकांक्षा अंकुरित हो रही थी।

किंतु वह आकांक्षा क्या थी ! मृगतृष्णा ! मृगतृष्णा !

सोलह

संध्या हो गयी है। ऐसी उमस है कि सांस लेना कठिन है, और जेल की कोठरियों में यह उमस और भी असह्य हो गई है। एक भी खिड़की नहीं; एक भी जंगला नहीं। उस पर मच्छरों का निरंतर गान कानों के परदे फाड़े डालता है। सबके सब दावत खाने के पहले गा-गाकर मस्त हो रहे हैं। एक आध मरभुक्खे पत्तलों की राह न देखकर कभी-कभी रक्त का स्वाद ले लेते हैं, लेकिन अधिकांश मंडली उस समय का इंतजार कर रही है, जब निद्रा देवी उनके सामने पत्तल रखकर कहेंगी–प्यारे, आओ जितना खा सको खाओ, जितना पी सको पिओ। रात तुम्हारी है और भंडार भरपूर।

यहीं एक कोठरी में चक्रधर को भी स्थान दिया गया है। स्वाधीनता की देवी अपने सच्चे सेवकों को यही पद प्रदान करती है।

वह सोच रहे हैं-यह भीषण उत्पात क्यों हुआ? हमने तो कभी भूलकर भी किसी से यह प्रेरणा नहीं की। फिर लोगों के मन में यह बात कैसे समायी? इस प्रश्न का उन्हें यही उत्तर मिल रहा है कि हमारी नीयत का नतीजा है। हमारी शांत शिक्षा की तह में द्वेष छिपा हुआ था। हम भूल गए थे कि संगठित शक्ति आग्रहमय होती है, अत्याचार से उत्तेजित हो जाती है। अगर हमारी नीयत साफ होती, तो जनता के मन में कभी राजाओं पर चढ़ दौड़ने का आवेश न होता, लेकिन क्या जनता राजाओं के कैंप की तरफ न जाती, तो पुलिस उन्हें बिना रोकटोक अपने घर जाने देती? कभी नहीं। सवार के लिए घोड़े का अड़ जाना या बिगड़ जाना एक बात है। जो छेड़-छेड़कर लड़ना चाहे, उससे कोई क्योंकर बचे? फिर अगर प्रजा अत्याचार का विरोध न करे, तो उसके संगठन से फायदा ही क्या? इसीलिए तो उसे सारे उपदेश दिये जाते हैं। कठिन समस्या है। या तो प्रजा को उनके हाल पर छोड़ दूं, उन पर कितने ही जुल्म हों, उनके निकट न जाऊं, या ऐसे उपद्रवों के लिए तैयार रहूँ। राज्य पशुबल का प्रयत्क्ष रूप है। वह साधु नहीं है, जिसका बल धर्म है, वह विद्वान नहीं है, जिसका बल तर्क है। वह सिपाही है, जो डंडे के जोर से अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। इसके सिवा उसके पास कोई दूसरा साधन ही नहीं।

यह सोचते-सोचते उन्हें अपना खयाल आया। मैं तो कोई आंदोलन नहीं कर रहा था। किसी को भड़का नहीं रहा था। जिन लोगों की प्राणरक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डाली, वही मेरे साथ यह सलूक कर रहे हैं। इतना भी नहीं देख सकते कि जनता पर किसी का असर हो। उनकी इच्छा इसके सिवा और क्या है कि सभी आदमी अपनी-अपनी आंखें बंद कर रखें, उन्हें अपने आगे-पीछे, दाएं-बाएं देखने का हक नहीं। अगर सेवा करना पाप है, तो यह पाप तो मैं उस वक्त तक करता रहूँगा, जब तक प्राण रहेंगे। जेल की क्या चिंता? सेवा करने के लिए सभी जगह मौके हैं। जेल में तो और भी ज्यादा। लालाजी को दुःख होगा, अम्मां जी रोएंगी ! लेकिन मजबूरी है। जब बाहर भी जबान और हाथ-पांव बांधे जाएंगे, तो जैसे जेल, वैसे बाहर। हां, ज़रा उसका विस्तार अधिक है। मैं किसी तरह प्रतिज्ञा नहीं कर सकता। वह भी जेल ही है।

वह इसी सोच-विचार में पड़े हुए थे कि एकाएक मुंशी वज्रधर कमरे में दाखिल हुए। उनकी देह पर एक पुरानी अचकन थी, जिसका मैल उसके असली रंग को छिपाए हुए था, नीचे एक पतलून था, जो कमरबंद न होने के कारण खिसककर इतना नीचा हो गया था कि घुटनों के नीचे एक झोल-सा पड़ गया था। संसार में कपड़े से ज्यादा बेवफा और कोई वस्तु नहीं होती। हमारा घर बचपन से बुढ़ापे तक हर अवस्था में हमारा है। वस्त्र हमारा होते हुए भी हमारा नहीं रहता। आज जो वस्त्र हमारा है, वह कल हमारा न रहेगा। उसे हमारे सुख-दुख की जरा भी चिंता नहीं होती, फौरन बेवफाई कर जाता है। हम जरा बीमार हो जाएं, किसी स्थान की जलवायु जरा हमारे अनुकूल हो जाए कि बस, हमारे प्यारे वस्त्र, जिनके लिए हमने दर्जी की दुकान की खाक छान डाली थी, हमारा साथ छोड़ देते हैं। उन्हें अपना बनाओ, अपने नहीं होते। अगर जबरदस्ती गले लगाओ, तो चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं, हम तुम्हारे नहीं। वे केवल हमारी पूर्वावस्था के चिह्न होते हैं।

मुंशी वज्रधर की अचकन भी, जो उनकी अल्पकालीन लेकिन ऐतिहासिक तहसीलदारी की यादगार थी, पुकार-पुकारकर कहती थी-मैं अब इनकी नहीं। किंतु तहसीलदार साहब हुकूमत के जोर से चिपटाए हुए थे। तुम कितनी ही बेवफाई करो, मेरी कितनी ही बदनामी करो, छोड़ने का नहीं। अच्छे दिनों में तो तुमने हमारे साथ चैन किए, इन बुरे दिनों में तुम्हें क्यों छोडूं? यों भूत और वर्तमान के संग्राम की मूर्ति बने हुए तहसीलदार साहब चक्रधर के पास जाकर बोले-क्या करते हो बेटा? यहां तो बड़ा अंधेरा है। चलो, बाहर इक्का खड़ा है, बैठ लो। इधर ही से साहब के बंगले पर होते चलेंगे। जो कुछ वह कहें, लिख देना। बात ही कौन-सी है? हमें कौन किसी से लड़ाई करनी है। कल ही से दौड़ लगा रहा हूँ। बारे आज दोपहर को जाके सीधा हुआ। पहले बहुत यों-त्यों करता रहा, लेकिन मैंने पिंड न छोड़ा। मेम साहब के पास पहुँचकर रोने लगा। इस फन में तुम जानो उस्ताद हूँ। सरकारी मुलाजिमत और वह भी तहसीलदारी सब कुछ सिखा देती है। अंग्रेजों को तो तुम जानते ही हो, मेमों के गुलाम होते हैं। मेम ने जाकर हजरत को डांटा-क्यों तहसीलदार साहब को दिक कर रहे हो? अभी उनके लड़के को छोड़ दो, नहीं तो घर से निकल जाओ। वह डांट पड़ी, तो हजरत के होश ठिकाने हुए। बोले-वेल, तहसीलदार साहब, हम आपका बहुत इज्जत करता है। आपको हम नाउम्मेद नहीं करना चाहता, लेकिन जब तक आपका बेटा इस बात का कौल न करे कि वह फिर कभी गोलमाल न करेगा, तब तक हम उसे नहीं छोड़ सकता। हम अभी जेलर को लिखता है कि उससे पूछो राजी है? मैंने कहा-हुजूर, मैं खुद जाता है और उसे हुजूर की खिदमत में लाकर हाजिर करता हूँ। या वहां न चलना चाहो, तो यहीं एक हलफनामा लिख दो। देर करने से क्या फायदा? तुम्हारी अम्मां रो-रोकर जान दे रही हैं।

चक्रधर ने सिर नीचा करके कहा-अभी तो मैंने कुछ निश्चय नहीं किया। सोच कर जवाब दूंगा। आप नाहक इतने हैरान हुए।

वज्रधर-कैसी बातें करते हो, यहां नाक कटी जा रही है,घर से निकलना मुश्किल हो गया है और तुम कहते हो, सोचकर जवाब दूंगा। इसमें सोचने की बात ही क्या है? इस तहसीलदारी की लाज तो रखनी है। की तो थोड़े ही दिन, लेकिन आज तक लोग याद करते हैं और हमेशा याद करेंगे। कोई हाकिम इलाके में आया नहीं कि उससे मिलने दौड़ा। रसद के ढेर लगा देता था। हाकिमों के नौकर-चाकर तक खाते-खाते ऊब जाते थे। जमींदारों की तो मेरे नाम से जान निकल जाती थी। जिस साहब ने मेरी तारीफी चिट्ठियां पढ़ीं, तो दंग रह गए। इज्जत को तो निभाना ही पड़ेगा। चलो, हलफनामा लिख दो। घर में कल से आग नहीं जली।

चक्रधर-मेरी आत्मा किसी तरह अपने पांव में बेड़ियां डालने पर राजी नहीं होती।

वज्रधर-मौका देखकर सब कुछ किया जाता है, बेटा ! दुनिया में कोई किसी का नहीं होता। यही राजा साहब पहले तुमसे कितनी मुहब्बत से पेश आते थे। अब अपने सिर पर पड़ी, तो कैसे सारी बला तुम्हारे सिर ठेलकर निकल गए। दीवान साहब का लड़का गुरुसेवक पहले जाति के पीछे कैसा लट्ठ लिए फिरता था। कल डिप्टी कलक्टरी में नामजद हो गया। कहाँ तो हमसे हमदर्दी करता था; कहाँ अब विद्रोहियों के खिलाफ जलसा करने के लिए दौड़-धूप कर रहा है। जब सारी दुनिया अपना मतलब निकालने की धुन में है, तो तुम्ही दुनिया की फिक्र में क्यों अपने को बरबाद करो? दुनिया जाए जहन्नुम में। हमें अपने काम से काम है या दुनिया के झगड़ों से?

चक्रधर-अगर और लोग अपने मतलब के बन्दे हो जाएं और स्वार्थ के लिए अपने सिद्धांतों से मुंह मोड़ बैठें तो कोई वजह नहीं कि मैं भी उन्हीं की नकल करूं। मैं ऐसे लोगों को अपना आदर्श नहीं बना सकता। मेरे आदर्श इनसे बहुत ऊंचे हैं।

वज्रधर-बस, तुम्हारी इसी जिद पर मुझे गुस्सा आता है। मैंने भी अपनी जवानी में इस तरह के खिलवाड़ किए हैं, और उन लोगों को कुछ-कुछ जानता हूँ जो अपने को जाति के सेवक कहते हैं। बस, मुंह न खुलवाओ। सब अपने-अपने मतलब के बंदे हैं, दुनिया को लूटने के लिए यह सारा स्वांग फैला रखा है। हां, तुम्हारे जैसे दो-चार उल्लू भले ही फंस जाते हैं, जो अपने को तबाह कर डालते हैं। मैं तो सीधी-सी बात जानता हूँ-जो अपने घरवालों की सेवा न कर सका, वह जाति की सेवा कभी कर ही नहीं सकता, घर सेवा की सीढ़ी का पहला डंडा है। इसे छोड़कर तुम ऊपर नहीं जा सकते।

चक्रधर जब अब भी प्रतिज्ञापत्र पर हस्ताक्षर करने पर राजी न हुए; तो मुंशीजी निराश होकर बोले-अच्छा बेटा लो, अब कुछ न कहेंगे। जो तुम्हारी खुशी हो, वह करो। मैं जानता था कि तुम जन्म के जिद्दी हो, मेरी एक न सुनोगे, इसीलिए आता ही न था, लेकिन तुम्हारी माता ने मुझे कुरेदकर भेजा। कह दूंगा, नहीं आता। सब कुछ करके हार गया, सब्र करके बैठो, उसे अपनी बात और अपनी शान मां-बाप से प्यारी है। जितना रोना हो, रो लो।

कठोर से कठोर हृदय में भी मातृस्नेह की कोमल स्मृतियां संचित होती हैं। चक्रधर कातर होकर बोले-आप माताजी को समझाते रहिएगा। कह दीजिएगा, मुझे जरा भी तकलीफ नहीं है, मेरे लिए रंज न करें।

वज्रधर ने इतने दिनों तक यों ही तहसीलदारी न की थी। ताड़ गए कि अबकी निशाना ठीक पड़ा। बेपरवाही से बोले-मुझे क्या गरज पड़ी है कि किसी के लिए झूठ बोलूं। बिना किसी मतलब के झूठ बोलना मेरी नीति नहीं। जो आंखों से देख रहा हूँ वही कहूँगा। रोएंगी, रोएं; इसमें मेरा क्या अख्तियार है। रोना तो उनकी तकदीर ही में लिखा है। जब से तुम आए हो, एक चूंट पानी तक मुंह में नहीं डाला। इसी तरह दो-चार दिन और रहीं, तो प्राण निकल जाएंगे। तुम्हारे सिर का बोझ टल जाएगा! यह लो, वॉर्डन मुझे बुलाने आ रहे हैं। वक्त पूरा हो गया।

चक्रधर ने दीन-भाव से कहा-अम्मांजी को एक बार यहां न लाइएगा?

वज्रधर-तुम्हें इस दशा में देखकर सो उन्हें जो दो-चार दिन जीना है, वह भी न जिएंगी। क्या कहते हो? इकरारनामा लिखना हो, तो मेरे साथ दफ्तर में चलो।

चक्रधर करुणा से विह्वल हो गए। बिना कुछ कहे हुए मुंशीजी के साथ दफ्तर की ओर चले। मुंशीजी के चेहरे की झुर्रियां एक क्षण के लिए मिट गईं। चक्रधर को गले लगाकर बोले-जीते रहो बेटा, तुमने मेरी बात मान ली। इससे बढ़कर और क्या खुशी की बात होगी !

दोनों आदमी दफ्तर में आए, तो जेलर ने कहा-कहिए, तहसीलदार साहब, आपकी हार हुई न? मैं कहता न था, वह न सुनेंगे। आजकल के नौजवान अपनी बात के आगे किसी की नहीं सुनते।

वज्रधर-जरा कलम-दवात तो निकालिए। और बातें फिर होंगी।

दारोगा-(चक्रधर से) क्या आप इकरारनामा लिख रहे हैं! निकल गई सारी शेखी ! इसी पर इतनी दूनकी लेते थे!

चक्रधर पर घड़ों पानी पड़ गया। मन की अस्थिरता पर लज्जित हो गए। जाति-सेवकों से सभी दृढ़ता की आशा रखते हैं, सभी उसे आदर्श पर बलिदान होते देखना चाहते हैं। जातीयता के क्षेत्र में आते ही उसके गुणों की परीक्षा अत्यन्त कठोर नियमों से होने लगती है और दोषों की सूक्ष्म नियमों से। परले सिरे का कुचरित्र मनुष्य भी साधुवेश रखने वालों से ऊंचे आदर्श पर चलने की आशा रखता है, और उन्हें आदर्श से गिरते देखकर उनका तिरस्कार करने में संकोच नहीं करता ! जेलर के कटाक्ष ने चक्रधर की झपकी हुई आंखें खोल दीं। तुरन्त उत्तर दिया-मैं जरा वह प्रतिज्ञापत्र देखना चाहता हूँ।

तहसीलदार साहब ने जेलर की मेज से वह कागज उठा लिया और चक्रधर को दिखाते हुए बोले-बेटा, इसमें कुछ नहीं है। जो कुछ मैं कह चुका हूँ, वही बातें जरा कानूनी ढंग से लिखी गई हैं।

चक्रधर ने कागज को सरसरी तौर से देखकर कहा-इसमें तो मेरे लिए कोई जगह ही नहीं रही। घर पर कैदी बना रहूँगा। मेरा ऐसा खयाल न था। अपने हाथों अपने पांवों में बेड़ियां न डालूंगा। जब कैद ही होना है, तो कैदखाना क्या बुरा है? अब या तो अदालत से बरी होकर आऊंगा, या सजा के दिन काटकर।

यह कहकर चक्रधर अपनी कोठरी में चले आए और एकांत में खूब रोए। आंसू उमड़ रहे थे; पर जेलर के सामने कैसे रोते?

एक सप्ताह बाद मिस्टर जिम के इलजास में मुकद्दमा चलने लगा। तहसीलदार साहब ने न कोई वकील खड़ा किया, न अदालत में आए। यहां तो गवाहों के बयान होते थे, और वह सारे दिन जिम के बंगले पर बैठे रहते थे। साहब बिगड़ते थे, धमकाते थे; पर वह उठने का नाम न लेते। जिम जब बंगले से निकलते, तो द्वार पर मुंशीजी खड़े नजर आते थे। कचहरी से आते, तो भी उन्हें वहीं खड़ा पाते। मारे क्रोध के लाल हो जाते। दो-एक बार घूसा भी ताना; लेकिन मुंशीजी को सिर नीचा किए देख दया आ गई। अक्सर यह साहब के दोनों बच्चों को खिलाया करते, कंधे पर लेकर दौड़ते, मिठाइयां ला-लाकर खिलाते और मेम साहब को हंसाने वाले लतीफे सुनाते।

आखिर एक दिन साहब ने पूछा-तुम मुझसे क्या चाहता है?

वज्रधर ने अपनी पगड़ी उतारकर साहब के पैरों पर रख दी और हाथ जोड़कर बोले-हुजूर, सब जानते हैं, मैं क्या अर्ज करूं! सरकार की खिदमत में सारी उम्र कट गई। मेरे देवता तो, ईश्वर तो, जो कुछ हैं, आप ही हैं। आपके सिवा मैं और किसके द्वार पर जाऊं? किसके सामने रोऊ? इन पके बालों पर तरस खाइए। मर जाऊंगा हुजूर, इतना बड़ा सदमा उठाने की ताकत अब नहीं रही।

जिम-हम छोड़ नहीं सकता, किसी तरह नहीं।

वज्रधर-हुजूर जो चाहें करें। मेरा तो आपसे कहने ही भर का अख्तियार है। हुजूर को दुआ देता हुआ मर जाऊंगा; पर दामन न छोडूंगा।

जिम-तुम अपने लड़के को क्यों नहीं समझाता?

वज्रधर-हुजूर नाखलफ है, और क्या कहूँ! खुदा सताए दुश्मन को भी ऐसी औलाद न दे। जी तो यही चाहता है कि हुजूर, कमबख्त का मुंह न देखू लेकिन कलेजा नहीं मानता। हुजूर, मां-बाप का दिल कैसा होता है, इसे तो हुजूर भी जानते हैं।

अदालत में रोज खासी भीड़ हो जाती। वे सब मजदूर, जिन्होंने हड़ताल की थी, एक बार चक्रधर के दर्शनों को आ जाते; यदि चक्रधर को छोड़ने के लिए एक सौ आदमियों की जमानत मांगी जाती, तो उसके मिलने में बाधा न होती। सब जानते थे कि इन्हें हमारे पापों का प्रायश्चित करना पड़ रहा है। शहर से भी हजारों आदमी आ पहुँचते थे। कभी-कभी राजा विशालसिंह भी आकर दर्शकों की गैलरी में बैठ जाते। लेकिन और कोई आए या न आए, सबेरे या देर से आए, किंतु मनोरमा रोज ठीक दस बजे कचहरी में आ जाती और अदालत के उठने तक अपनी जगह पर मूर्ति की भांति बैठी रहती। उसके मुख पर अब पहले की-सी अरुण आभा, वह चंचलता, वह प्रफुल्लता नहीं है। उसकी जगह दृढ़ संकल्प, विशाल करुणा, अलौकिक धैर्य और गहरी चिंता का फीका रंग छाया हुआ है, मानो कोई वैरागिनी है, जिसके मुख पर हास्य की मृदु-रेखा कभी खिंची ही नहीं। वह न किसी से बोलती है, न मिलती है। उसे देखकर सहसा कोई यह नहीं कह सकता है कि यह वही आमोदप्रिय बालिका है, जिसकी हंसी दूसरों को हंसाती थी।

वहां बैठी हुई मनोरमा कल्पनाओं का संसार रचा करती है। उस संसार में प्रेम ही प्रेम है, आनंद ही आनंद है। उसे अनायास कहीं से अतुल धन मिल जाता है, कदाचित् कोई देवी प्रसन्न हो जाती है। इस विपुल धन को वह चक्रधर के चरणों पर अर्पण कर देती है, फिर भी चक्रधर उसके राजा नहीं होते, वह अब भी उसके आश्रयी ही रहते हैं। उन्हें आश्रय ही देने के लिए वह रानी बनती है, अपने लिए वह कोई मंसूबे नहीं बांधती। जो कुछ सोचती है, चक्रधर के लिए। चक्रधर से प्रेम नहीं है, केवल भक्ति है। चक्रधर को वह मनुष्य नहीं, देवता समझती है।

संध्या का समय था। आज पूरे पंद्रह दिनों की कार्रवाई के बाद मिस्टर जिम ने दो साल की कैद का फैसला सुनाया था। यह कम से कम सजा थी, जो उस धारा के अनुसार दी जा सकती थी।

चक्रधर हंस-हंसकर मित्रों से विदा हो रहे थे। सबकी आंखों में जल भरा हुआ था। मजदूरों का दल इजलास के द्वार पर खड़ा “जय-जय” का शोर मचा रहा था। कुछ स्त्रियां खड़ी रो रही थीं। सहसा मनोरमा आकर चक्रधर के सम्मुख खड़ी हो गई। उसके हाथ में एक फूलों का हार था। वह उसने उनके गले में डाल दिया और बोली-अदालत ने तो आपको सजा दे दी, पर इतने आदमियों में से एक भी ऐसा न होगा, जिसके दिल में आपसे सौगुना प्रेम न हो गया हो। आपने हमें सच्चे साहस, आत्मबल और सच्चे कर्त्तव्य का रास्ता दिखा दिया। जाइए, जिस काम का बीड़ा उठाया है, उसे पूरा कीजिए, हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

उसने इसी अवसर के लिए कई दिन से वाक्य रट रखे थे। इस भांति उद्गारों को न बांध रखने से वह आवेश में जाने क्या कह जाती।

चक्रधर ने केवल दबी आंखों से मनोरमा को देखा, कुछ बोल न सके। उन्हें शर्म आ रही थी कि लोग दिल में क्या खयाल कर रहे होंगे। सामने राजा विशालसिंह, दीवान साहब, ठाकुर गुरुसेवक और मुंशी वज्रधर खड़े थे। बरामदे में हजारों आदमियों की भीड़ थी। धन्यवाद के शब्द उनकी जबान पर आकर रुक गए। वह दिखाना चाहते थे कि मनोरमा की यह वीरभक्ति उसका बालक्रीड़ा मात्र है।

एक क्षण में सिपाहियों ने चक्रधर को बंद गाड़ी में बिठा दिया और जेल की ओर ले चले। धीरे-धीरे कमरा खाली हो गया। मिस्टर जिम ने भी चलने की तैयारी की। तहसीलदार साहब के सिवा अब कमरे में और कोई न था। जब जिम कटघरे से नीचे उतरे, तो मुंशीजी आंखों में आंसू भरे उनके पास आए और बोले-मिस्टर जिम, मैं तुम्हें आदमी समझता था, पर तुम पत्थर निकले। मैंने तुम्हारी जितनी खुशामद की, उतनी अगर ईश्वर की करता, तो मोक्ष पा जाता। मगर तुम न पसीजे। रिआया का दिल यो मुट्ठी में नहीं आता। यह धांधली उसी वक्त तक चलेगी, जब तक यहां के लोगों की आंखें बंद हैं। यह मजा बहुत दिनों तक न उठा सकोगे।

यह कहते हुए मुंशीजी कमरे से बाहर चले आए । जिम ने कुपित नेत्रों से देखा, पर कुछ बोला नहीं।

चक्रधर जेल पहुंचे, तो शाम हो गई थी। जाते ही उनके कपड़े उतार लिए गए और जेल के वस्त्र मिले। लोटा और तसला भी दिया गया। गर्दन में लोहे का नम्बर डाल दिया गया। चक्रधर जब ये कपड़े पहनकर खड़े हुए, तो उनके मुख पर विचित्र शान्ति की झलक दिखाई दी, मानो किसी ने जीवन का तत्त्व पा लिया हो। उन्होंने वही किया, जो उनका कर्त्तव्य था और कर्त्तव्य का पालन ही चित्त की शान्ति का मूल मंत्र है।

रात को जब वह लेटे, तो मनोरमा की सूरत आंखों के सामने फिरने लगी। उसकी एकएक बात याद आने लगी और हर बात में कोई न कोई गुप्त आशय भी छिपा हुआ मालम होने लगा। लेकिन इसका अंत क्या? मनोरमा, तुम क्यों मेरे झोंपड़े में आग लगाती हो? तम्हें मालम है, तुम मुझे किधर खींचे लिए जाती हो? ये बातें कल तुम्हें भूल जायेंगी। किसी राजा-रईस से तुम्हारा विवाह हो जाएगा, फिर भूलकर भी न याद करोगी। देखने पर शायद पहचान भी न सको। मेरे हृदय में क्यों अपने खेल के घरौंदे बना रही हो? तुम्हारे लिए जो खेल है, वह मेरे लिए मौत है। मैं जानता हूँ, यह तुम्हारी बालक्रीड़ा है; लेकिन मेरे लिए वह आग की चिनगारी है। तम्हारी आत्मा कितनी पवित्र है, हृदय कितना सरल ! धन्य होंगे उसके भाग्य, जिसकी तुम हृदयेश्वरी बनोगी; मगर इस अभागे को कभी अपनी सहानुभूति और सहृदयता से वंचित मत करना। मेरे लिए इतना ही बहुत है!

सत्रह

राजा विशालसिंह की जवानी कब की गुजर चुकी थी, किंतु प्रेम से उनका हृदय अभी तक वंचित था। अपनी तीनों रानियों में केवल वसुमती के प्रेम की कुछ भूली हुई-सी याद उन्हें आती थी। प्रेम वह प्याला नहीं है, जिससे आदमी छक जाए , उसकी तृष्णा सदैव बनी रहती है। राजा साहब को अब अपनी रानियां गंवारिनें-सी जंचती थीं, जिन्हें इसका जरा भी ज्ञान न था कि अपने को इस नई परिस्थिति के अनुकूल कैसे बनाएं, कैसे जीवन का आनंद उठाएं। वे केवल आभूषणों ही पर टूट रही थीं। रानी देवप्रिया के बहुमूल्य आभूषणों के लिए तो वह संग्राम छिड़ा कि कई दिन तक आपस में गोलियां-सी चलती रहीं। राजा साहब पर क्या बीत रही है, राज्य की क्या दशा है, इसकी किसी को सुध न थी। उनके लिए जीवन में यदि कोई वस्तु थी, तो वह रत्न और आभूषण थे। यहां तक कि रामप्रिया भी अपने हिस्से के लिए लड़ने-झगड़ने में संकोच न करती थी। इस आभूषण प्रेम के सिवा उनकी रुचि या विचार में कोई विकास न हुआ। कभी-कभी तो उनके मुंह से ऐसी बातें निकल जाती थीं कि रानी देवप्रिया के समय की लौंडिया-बांदिया मुंह मोड़कर हंसने लगतीं। उनका यह व्यवहार देखकर राजा साहब का दिल उनसे खट्टा होता जाता था।

यों अपने-अपने ढंग पर तीनों ही उनसे प्रेम करती थीं। वसुमती के प्रेम में ईर्ष्या थी, रोहिणी के प्रेम में शासन और रामप्रिया का प्रेम तो सहानुभूति की सीमा के अन्दर ही रह जाता था। कोई राजा के जीवन को सुखमय न बना सकती थी, उनकी प्रेमतृष्णा को तृप्त न करती थी। उन सरोवरों के बीच में यह प्यास से तड़प रहे थे-उस पथिक की भांति, जो गंदे तालाबों के सामने प्यास से व्याकुल हो। पानी बहुत था, पर पीने लायक नहीं। उसमें दुर्गंध थी, विष के कीड़े थे। इसी व्याकुलता की दशा में मनोरमा मीठे, ताजे जल की गागर लिए हुए सामने से आ निकली-नहीं, उसने उन्हें जल पीने को निमन्त्रित किया और वह उसकी ओर लपके, तो आश्चर्य की कोई बात नहीं।

राजा साहब के हृदय में नई-नई प्रेम-कल्पनाएं अंकुरित होने लगी। उसकी एक-एक बात उन्हें अपनी ओर खींचती थी। वेश कितना सुंदर था ! वस्त्रों से सुरुचि झलकती थी, आभूषणों से सुबुद्धि। वाणी कितनी मधुर थी, प्रतिभा में डूबी हुई, एक-एक शब्द हृदय की पवित्रता में रंगा हुआ। कितनी अद्भुत रूप छटा है, मानो ऊषा के हृदय से ज्योतिर्मय मधुर संगीत कोमल, सरस, शीतल ध्वनि निकल रही हो। वह अकेली आई थी, पर यह विशाल दीवानखाना भरा-सा मालूम होता था। हृदय कितना उदार है, कितना कोमल ! ऐसी रमणी के साथ जीवन कितना आनंदमय, कितना कल्याणमय हो सकता है ! जो बालिका एक साधारण व्यक्ति के प्रति इतनी श्रद्धा रख सकती है, वह अपने पति के साथ कितना प्रेम करेगी, कल्पना से उनका चित्त फूल उठता था। जीवन स्वर्ग तुल्य हो जाएगा। और अगर परमात्मा की कृपा से किसी पुत्र का जन्म हुआ, तो कहना ही क्या ! उसके शौर्य और तेज के सामने बड़े-बड़े नरेश कांपेंगे। बड़ा प्रतापी, मनस्वी, कर्मशील राजा होगा, जो कुल को उज्ज्वल कर देगा। राजा साहब को इसकी लेश मात्र भी शंका न थी कि मनोरमा उन्हें वरने की इच्छा भी करेगी या नहीं। उनके विचार में अतुल संपत्ति अन्य सभी त्रुटियों को पूरा कर सकती थी।

दीवान साहब से पहले वह खिंचे रहते थे। अब उनका विशेष आदर-सत्कार करने लगे। उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम न करते। दो-तीन बार उनके मकान पर भी गए और अपनी सज्जनता की छाप लगा आए। ठाकुर साहब की भी कई बार दावत की। आपस में घनिष्ठता बढ़ने लगी। हर्ष की बात यह थी कि मनोरमा के विवाह की बातचीत और कहीं नहीं हो रही थी। मैदान खाली था। इन अवसरों पर मनोरमा उनके साथ कुछ इस तरह दिल खोलकर मिली कि राजा साहब की आशाएं और भी चमक उठीं। क्या उसका उनसे हंस-हंसकर बातें करना, बार-बार उनके पास आकर बैठ जाना और उनकी बातों को ध्यान से सुनना, रहस्यपूर्ण नेत्रों से उनकी ओर ताकना और नित्य नई छवि दिखाना, उसके मनोभावों को प्रकट न करता था? रहे दीवान साहब, वह सांसारिक जीव थे और स्वार्थ-सिद्धि के ऐसे अच्छे अवसर को कभी न छोड़ सकते थे, चाहे समाज इसका तिरस्कार ही क्यों न करे। हां, अगर शंका थी, तो लौंगी की ओर से थी। वह राजा साहब का आना-जाना पसंद न करती थी। वह उनके इरादों को भांप गई थी और उन्हें दूर ही रखना चाहता था। मनोरमा को बार-बार आखों से इशारा करती थी कि अंदर जा। किसी-न-किसी बहाने से उस हटाने की चेष्टा करती रहती थी। उसका मुंह बंद करने के लिए राजा साहब उससे लल्लो-चप्पो की बातें करते और एक बार एक कीमती साड़ी भी उसको भेंट की, पर उसने उसकी ओर देखे बिना ही उसे लौटा दिया। राजा साहब के मार्ग में यही एक कंटक था और उसे हटाए बिना वह अपने लक्ष्य पर न पहुँच सकते थे। बेचारे इसी उधेड़-बुन में पड़े रहते थे। आखिर उन्होंने मुंशीजी को अपना एक भेदिया बनाना निश्चय किया। वही ऐसे प्राणी थे, जो इस कठिन समस्या को हल कर सकते थे। एक दिन उन्हें एकांत में बुलाया और राज-संबंधी बातें करने लगे।

राजा-इलाके का क्या हाल है? फसल तो अबकी बहुत अच्छी है?

मुंशी-हुजूर, मैंने अपनी उम्र में ऐसी अच्छी फसल नहीं देखी। अगर पूरब के इलाके में दो सौ कुएं बन जाते, तो फसल दुगुनी हो जाती। पानी का वहां बड़ा कष्ट है।

राजा-मैं खुद इसी फिक्र में हूँ। कुएं क्या, मैं तो एक नहर बनवाना चाहता हूँ। अरमान तो दिल में बड़े-बड़े थे; मगर सामने अंधेरा देखकर कुछ हौसला नहीं होता। सोचता हूँ, किसके लिए यह जंजाल बढ़ाऊं!

इस भूमिका के बाद विवाह की चर्चा अनिवार्य थी।

राजा-मैं अब क्या विवाह करूंगा? जब ईश्वर ने अब तक संतान न दी, तो अब कौनसी आशा है?

मुंशी-गरीबपरवर, अभी आपकी उम्र ही क्या है। मैंने अस्सी बरस की उम्र में आदमियों के भाग्य जागते देखे हैं।

राजा-फिर मुझसे अपनी कन्या का विवाह कौन करेगा?

मुंशी-अगर आपका जरा-सा इशारा पा गया होता, तो अब तक कभी की बहूजी घर में आ गई होती। राजा से अपनी कन्या का विवाह करना किसे बुरा लगता है?

राजा-लेकिन मुझे तो अब ऐसी स्त्री चाहिए, जो सुशिक्षित हो, विचारशील हो, राज्य के मामलों को समझती हो, अंग्रेजी रहन-सहन से परिचित हो। बड़े-बड़े अफसर आते हैं। उनकी मेमों का आदर-सत्कार कर सके। घर अंग्रेजी ढंग से सजा सके। बातचीत करने में चतुर हो। बाहर निकलने में न झिझके। ऐसी स्त्री आसानी से नहीं मिल सकती। मिली भी तो उसमें चरित्र-दोष अवश्य होंगे। जहां ऐसी स्त्रियों को देखता हूँ, भ्रष्ट ही पाता हूँ। मैं तो ऐसी स्त्री चाहता हूँ, जो इन गुणों के साथ निष्कलंक हो। ऐसी एक कन्या मेरी निगाह में है, लेकिन वहां मेरी रसाई नहीं हो सकती।

मुंशी-क्या इसी शहर में है?

राजा-शहर में ही नहीं, घर ही में समझिए।

मुंशी-अच्छा, समझ गया। मैं तो चकरा गया कि इस शहर में ऐसा कौन राजा रईस है, जहां हुजूर की रसाई नहीं हो सकती। वह तो सुनकर निहाल हो जाएंगे, दौड़ते हुए करेंगे। कन्या सचमुच देवी है। ईश्वर ने उसे रानी बनने ही के लिए बनाया है। ऐसी विचारशील लड़की मेरी नजर से नहीं गुजरी।

राजा-आप जरा घर वालों को आजमाइए तो। आप जानते हैं न, दीवान साहब के घर की स्वामिनी लौंगी है?

मुंशी-वह क्या करेगी?

राजा-वही सब कुछ करेगी। दीवान साहब को तो उसने भेड़ा बना रखा है। और, है भी अभिमानिनी। न उस पर लालच का कुछ दांव चलता है, न खुशामद का।

मुंशी-हुजूर, उसकी कुंजी मेरे पास है। खुशामद से तो उसका मिजाज और भी बढ़ता है। कितने ही बड़े दरजे पर पहुँच जाए , पर है तो वह नीच जात। उसे धमकाकर, मारने का भय दिखाकर, आप उससे जो काम चाहें करा सकते हैं। नीच जात बातों से नहीं, लातों ही से मानती है।

दूसरे दिन प्रात:काल मुंशीजी दीवान साहब के मकान पर पहुंचे। दीवान साहब मनोरमा के साथ गंगास्नान को गए हुए थे। लौंगी अकेली बैठी हुई थी। मुंशी जी फूले न समाए। ऐसा ही मौका चाहते थे। जाते ही जाते विवाह की बात छेड़ दी।

लौंगी ने कहा-तहसीलदार साहब, कैसी बातें करते हो? हमें अपनी रानी को धन के साथ बेचना थोड़े ही है। ब्याह जोड़ का होता है कि ऐसा बेजोड़? लड़की कंगाल को दे, पर बूढ़े को न दे। गरीब रहेगी तो क्या, जन्म भर का रोना-झींकना तो न रहेगा।

मुंशी-तो राजा बूढ़े हैं?

लौंगी-और नहीं क्या छैला जवान हैं?

मुंशी-अगर यह विवाह न हुआ, तो समझ लो कि ठाकुर साहब कहीं के न रहेंगे। तुम नीच जात राजाओं का स्वभाव क्या जानो ? राजा लोगों को जहां किसी बात की धुन सवार हो गई, फिर उसे पूरा किए बिना न मानेंगे, चाहे उनका राज्य ही क्यों न मिट जाए । राजाओं की बात को दुलखना | हंसी नहीं है, क्रोध में आकर न जाने क्या हुक्म दे बैठे। बात तो समझती ही नहीं हो, सब धान बाईस पसेरी ही तौलना चाहती हो।

लौंगी-यह तो अनोखी बात है कि या तो अपनी बेटी दे, या मेरा गांव छोड़। ऐसी धमकी देकर थोड़े ही ब्याह होता है।

मुंशी-राजाओं-महाराजाओं का काम इसी तरह होता है। अभी तुम इन राजा साहब को जानती नहीं हो। सैकड़ों आदमियों को भुनवा के रख दिया, किसी ने पूछा तक नहीं। अभी चाहे जिसे लुटवा लें, चाहे जिसके घर में आग लगवा दें। अफसरों से दोस्ती है ही, कोई उनका कर ही क्या सकता है? जहां एक अच्छी-सी डाली भेज दी, काम निकल गया।

लौंगी-तो यों कहो कि पूरे डाकू हैं।

मुंशी-डाकू कहो, लुटेरे कहो, सभी कुछ हैं। बात जो थी, मैंने साफ-साफ कह दी। यह चारपाई पर बैठकर पान चबाना भूल जाइएगा।

लौंगी-तहसीलदार साहब, तुम तो धमकाते हो, जैसे हम राजा के हाथों बिक गए हों। रानी रूठेगी, अपना सोहाग लेंगी। अपनी नौकरी ही लेंगे, ले जाएं। भगवान् का दिया खाने को बहुत है।

मुंशी-अच्छी बात है, मगर याद रखना, खाली नौकरी से हाथ धोकर गला न छूटेगा। राजा लोग जिसे निकालते हैं, कोई-न-कोई दाग भी जरूर लगा देते हैं। एक झूठा इलजाम भी लगा देंगे, तो कुछ करते-धरते न बनेगा। यही कह दिया कि इन्होंने सरकारी रकम उड़ा ली है, तो बताओ क्या होगा? समझ से काम लो। बड़ों से रार मोल लेने में अपना निबाह नहीं है। तुम अपना मुंह बंद रखो, हम दीवान साहब को राजी कर लेंगे। अगर तुमने भांजी मारी, तो बला तुम्हारे ही सिर आएगी। ठाकुर साहब चाहे इस वक्त तुम्हारा कहना मान जाएं, पर जब चरखे में फंसेंगे, तो सारा गुस्सा तुम्हीं पर उतारेंगे। कहेंगे, तुम्हीं ने मुझे चौपट किया। सोचो जरा।

लौंगी गहरी सोच में पड़ गई। वह और सब कुछ सह सकती थी, दीवान साहब का क्रोध न सह सकती थी। यह भी जानती थी कि दीवान साहब के दिल में ऐसा खयाल आना असम्भव नहीं है। मनोरमा के रंग-ढंग से भी उसे मालूम हो गया था कि वह राजा साहब को दुतकारना नहीं चाहती। जब वे लोग राजी हैं, तो मैं क्या बोलू? कहीं पीछे से कोई आफत आई, तो मेरे ही सिर के बाल नोंचे जाएंगे। मुंशीजी ने भले चेता दिया, नहीं तो मुझसे बिना बोले कब रहा जाता?

अभी उसने कुछ जवाब न दिया था कि दीवान साहब स्नान करके लौट आए। उन्हें देखते ही लौंगी ने इशारे से बुलाया और अपने कमरे में ले जाकर उनके कान में बोली-राजा साहब ने मनोरमा के ब्याह के लिए संदेश भेजा है।

ठाकुर-तुम्हारी क्या सलाह है?

लौंगी-जो तुम्हारी इच्छा हो, मेरी सलाह क्या पूछते हो!

ठाकुर-यही मेरी बात का जवाब है? मुझे अपनी इच्छा से करना होता, तो पूछता ही क्यों? लौंगी-मेरी बात मानोगे तो हई नहीं, पूछने से फायदा?

ठाकुर-कोई बात बता दो, जो मैंने तुम्हारी इच्छा से न की हो?

लौंगी-कोई बात भी मेरी इच्छा से नहीं होती। एक बात हो तो बताऊं। तुम्हीं कोई बात बता दो, जो मेरी इच्छा से हुई हो? तुम करते हो अपने मन की। हां, मैं अपना धर्म समझ के भूक लेती हूँ।

ठाकुर-तुम्हारी इन्हीं बातों पर मेरा मारने को जी चाहता है। तू क्या चाहती है कि मैं अपनी जबान कटवा लूं?

लौंगी-उसकी परीक्षा तो अभी हुई जाती है। तब पूछती हूँ कि मेरी इच्छा से हो रहा है कि बिना इच्छा के। मैं कहती हूँ, मुझे यह विवाह एक आंख नहीं भाता। मानते हो?

ठाकुर-हां, मानता हूँ! जाकर मुंशीजी से कहे देता हूँ।

लौंगी-मगर राजा साहब बुरा मान जाएं, तो?

ठाकुर-कुछ परवा नहीं।

लौंगी-नौकरी जाती रहे, तो?

ठाकुर-कुछ परवा नहीं। ईश्वर का दिया बहुत है, और न भी हो तो क्या? एक बात निश्चय कर ली, तो उसे करके छोड़ेंगे चाहे उसके पीछे प्राण ही क्यों न चले जाएं।

लौंगी-मेरे सिर के बाल तो न नोंचने लगोगे कि तूने ही मुझे चौपट किया? अगर ऐसा करना हो, तो मैं साफ कहती हूँ, मंजूर कर लो। मुझे बाल नुचवाने का बूता नहीं है।

ठाकुर-क्या मुझे बिलकुल गया-गुजरा समझती है? मैं जरा झगड़े से बचता हूँ, तो तूने समझ लिया कि इनमें कुछ दम ही नहीं है। लत्ते-लत्ते उड़ जाऊं, पर विशालसिंह से लड़की का विवाह न करूं? तूने समझा क्या है? लाख गया-बीता हूँ, तो भी क्षत्रिय हूँ।

दीवान साहब उसी जोश में उठे, आकर मुंशीजी से बोले-आप राजा साहब से जाकर कह दीजिए कि हमें विवाह करना मंजूर नहीं।

लौंगी भी ठाकुर साहब के पीछे-पीछे आई थी। मुंशीजी ने उसकी तरफ तिरस्कार से देखकर कहा-आप इस वक्त गुस्से में मालूम होते हैं। राजा साहब ने बड़ी मिन्नत करके और बहुत डरते-डरते आपके पास यह संदेशा भेजा है। आपने मंजूर न किया, तो मुझे भय है कि वह जहर न खा लें।

लौंगी-भला, जब जहर खाने लगेंगे, तब देखी जाएगी। इस वक्त आप जाकर यही कह दीजिए।

मुंशी-दीवान साहब, इस मामले में जरा सोच-समझकर फैसला कीजिए।

लौंगी-राजा साहब के पास दौलत के सिवा और क्या है ! दौलत ही तो संसार में सब कुछ नहीं।

मुंशी-सब कुछ न हो; लेकिन इतनी तुच्छ भी नहीं।

लौंगी-शादी-ब्याह के मामले में मैं उसे तुच्छ समझती हूँ।

मुंशी-यह मैं कब कहता हूँ कि दौलत संसार की सब चीजों से बढ़कर है ! आप लोगों की दुआ से जानता हूँ कि सुख का मूल संतोष है। एक आदमी जल और स्थल के सारे रत्न पाकर गरीब रह सकता है, दूसरा फटे वस्त्रों और रूखी रोटियों में भी धनी हो सकता है।

सहसा मनोरमा आकर खड़ी हो गई। यह वाक्य उसके कान में भी पड़ गया। समझी, धन की निंदा हो रही है। बात काटकर बोली-इसे संतोष नहीं मूर्खता कहना चाहिए।

ठाकुर-अगर संतोष मूर्खता है, तो संसार भर के नीतिग्रंथ, उपनिषदों से लेकर कुरान तक मूर्खता के ढेर लग जाएंगे। संतोष से अधिक और किसी तप की महिमा नहीं गाई गई है। धन ही पाप, द्वेष और अन्याय का मूल है।

मनोरमा-संसार के धर्मग्रंथ , उपनिषदों से लेकर कुरान तक, उन लोगों के रचे हुए हैं, जो रोटियों के मोहताज थे। उन्होंने अंगूर खट्टे समझकर धन की निन्दा की तो कोई आश्चर्य नहीं। अगर कुछ ऐसे आदमी हैं, जो धनी होकर भी धन की निन्दा करते हैं, तो मैं उन्हें धूर्त समझती हूँ, जिन्हें अपने सिद्धांत पर व्यवहार करने का साहस नहीं।

ठाकुर साहब ने समझा, मनोरमा ने यह व्यंग्य उन्हीं पर किया है। चिढ़कर बोले-ऐसे लोग भी तो हो गए हैं, जिन्होंने धन ही नहीं, राज-पाट पर भी लात मार दी है।

मनोरमा-ऐसे आदमियों के नाम उगलियों पर गिने जा सकते हैं। मेरी समझ में तो धन ही सुख और कल्याण का मूल है। संसार में जितना परोपकार होता है, धनियों ही के हाथों होता है।

ठाकुर-संसार में जितना अत्याचार होता है, वह भी तो धनियों के हाथों होता है।

मनोरमा-हां मानती हूँ, धन से अत्याचार भी होता है; लेकिन कांटे से फूल का आदर कम नहीं होता। संसार में धन सर्वप्रधान वस्तु है। जिंदगी का कौन-सा काम है, जो धन के बिना चल सके? धर्म भी बिना धन के नहीं हो सकता। यही कारण है कि संसार ने धन को जीवन का लक्ष्य मान लिया है। धन का निरादर करके हमने प्रभुत्व खो दिया और यदि हमें संसार में रहना है, तो हमें धन की उपासना करनी पड़ेगी। इसी से लोक-परलोक में हमारा उद्धार होगा।

मुंशीजी ने विजय गर्व से हंसकर कहा-कहिए, दीवान साहब, मेरी डिग्री हुई कि अब भी नहीं?

ठाकुर-मुझे मालूम होता है, धन के माहात्म्य पर इसने कोई लेख लिखा था और वही पढ़ सुनाया। क्यों मनोरमा, है न यही बात?

मनोरमा-अभी तो मैंने यह लेख नहीं लिखा, लेकिन लिखूगी तो उसमें यही विचार प्रकट करूंगी। मेरे शब्दों में कदाचित् आपको दुराग्रह का भाव झलकता हुआ मालूम होता हो। इसका कारण यह है कि मैं अभी एक अंग्रेजी किताब पढ़े चली आती हूँ, जिसमें संतोष ही का गुणानुवाद किया गया है।

मुंशीजी ने देखा, मनोरमा के मन की थाह लेने का अच्छा अवसर है। ठाकुर साहब की ओर आंखें मारकर बोले-मनोरमा मेरे विचार तुम्हारे विचार से बिलकुल मिलते हैं। धन से जितना अधर्म होता है, अगर ज्यादा नहीं, तो उतना ही धर्म भी होता है; लेकिन कभी-कभी ऐसे भी मौके आ जाते हैं, जब धन के मुकाबले में और कितनी ही बातों का लिहाज करना पड़ता है। कन्या का विवाह ऐसा ही मौका है। मेरी कन्या का विवाह होने वाला है। मेरे सामने इस वक्त दो वर हैं। एक तो अधेड़ आदमी है; पर दौलत उसके घर में गुलामी करती रहती है। दूसरा एक सुंदर युवक है, बहुत ही होनहार लेकिन गरीब। बताओ, किससे कन्या का विवाह करूं?

ठाकुर-अगर कन्या की बात है, तो मैं यही सलाह दूंगा कि आप दौलत पर न जाइए। उसी युवक से विवाह कीजिए।

लौंगी-ऐसा तो होना ही चाहिए। ब्याह जोड़े का अच्छा होता है। ऐसा ब्याह किस काम का कि वह बहू का बाप मालूम हो, बेचारी कन्या के दिन रोते ही बीतें।

मुंशी-और तुम्हारी क्या राय है, मनोरमा? मनोरमा ने कुछ लजाते हुए कहा-आप जैसा उचित समझें, करें।

मुंशी-नहीं, इस विषय में तुम्हारी राय बुड्ढों की राय से बढ़कर है।

मनोरमा-मैं तो समझती हूँ कि जो दिन खाने-पहनने, सैर-तमाशे के होते हैं, अगर वे किसी गरीब आदमी के साथ चक्की चलाने और चौका-बरतन करने में कट गए तो जीवन का सुख ही क्या? हां, इतना मैं अवश्य कहूँगी कि उम्र का एक साल एक लाख से कम मूल्य नहीं रखता।

यह कहकर मनोरमा चली गई। उसके जाने के बाद दीवान साहब कई मिनट तक जमीन की ओर ताकते रहे। अंत में लौंगी से बोले-तुमने इसकी बातें सुनीं?

लौंगी-सुनी क्यों नहीं, क्या बहरी हूँ?

ठाकुर-फिर?

लौंगी-फिर क्या, लड़के हैं, जो मुंह में आया बकते हैं, उनके बकने से क्या होता है। मां-बाप का धर्म है कि लड़कों के हित ही की करें। लड़का माहुर मांगे, तो क्या मां-बाप उसे माहुर दे देंगे? कहिए, मुंशीजी!

मुंशी-हां, यह तो ठीक ही है, लेकिन जब लड़के अपना भला-बुरा समझने लगें, तो उनका रुख देखकर ही काम करना चाहिए।

लौंगी-जब तक मां-बाप जीते हैं, तब तक लड़कों को बोलने का अख्तियार ही क्या है? आप जाकर राजा साहब से यही कह दीजिए।

मुंशी-दीवान साहब, आपका भी यही फैसला है?

ठाकुर-साहब, मैं इस विषय में सोचकर जवाब दूंगा। हां, आप मेरे दोस्त हैं; इस नाते आपसे इतना कहता हूँ कि आप कुछ इस तरह गोल-मोल बातें कीजिए कि मुझ पर कोई इल्जाम न आने पाए। आपने तो बहुत दिनों अफसरी की है, और अफसर लोग ऐसी बातें करने में निपुण भी होते है।

मुंशीजी मन में लौंगी को गालियां देते हुए यहां से चले। जब फाटक के पास पहुंचे, तो देखा कि मनोरमा एक वृक्ष के नीचे घास पर लेटी हुई है। उन्हें देखते ही वह उठकर खड़ी हो गई। मुंशीजी जरा ठिठक गए और बोले-क्यों मनोरमा रानी, तुमने जो मुझे सलाह दी, उस पर खुद अमल कर सकती हो?

मनोरमा ने शर्म से सुर्ख होकर कहा-यह तो मेरे माता-पिता के निश्चय करने की बात है। मुंशीजी ने सोचा, अगर जाकर राजा साहब से कहे देता हूँ कि दीवान साहब ने साफ इनकार कर दिया, तो मेरी किरकिरी होती है। राजा साहब कहेंगे, फिर गए ही किस बिरते पर थे? शायद यह भी समझें कि इसे मामला तय करने की तमीज ही नहीं। तहसीलदारी नहीं की, भाड़ झोंकता रहा, इसलिए आपने जाकर दूर की हांकनी शुरू की-हुजूर, बुढ़िया बला की चुडैल है, हत्थे पर तो आती ही नहीं, इधर भी झुकती है, उधर भी; और दीवान साहब तो निरे मिट्टी के ढेले हैं।

राजा साहब ने अधीर होकर पूछा-आखिर आप तय क्या कर आए?

मुंशी-हुजूर के इकबाल से फतह हुई, मगर दीवान साहब खुद आपसे शादी की बातचीत करते झेंपते हैं। आपकी तरफ से बातचीत शुरू हो, तो शायद उन्हें इनकार न होगा। मनोरमा रानी तो सुनकर बहुत खुश हुईं।

राजा-अच्छा ! मनोरमा खुश हुई। खूब हंसी होगी। आपने कैसे जाना कि खुश है?

मुंशी-हुजूर, सब कुछ साफ-साफ कह डाला, उम्र का फर्क कोई चीज नहीं, आपस में मुहब्बत होनी चाहिए। मुहब्बत के साथ दौलत भी हो, तो क्या पूछना ! हां, दौलत इतनी होनी चाहिए, जो किसी तरह कम न हो। और कितनी ही बातें इसी किस्म की हुईं। बराबर मुस्कराती रहीं।

राजा-तो मनोरमा को पसंद है?

मुंशी-उन्हीं की बातें सुनकर तो लौंगी भी चकराई।

राजा-तो मैं आज ही बातचीत शुरू कर दूं? कायदा तो यही है कि उधर से ‘श्रीगणेश’ होता, लेकिन राजाओं में अक्सर पुरुष की ओर से भी छेड़छाड़ होती है। पश्चिम में तो सनातन से यही प्रथा चली आई है। मैं आज ठाकुर साहब की दावत करूंगा और मनोरमा को भी बुलाऊंगा। आप भी जरा तकलीफ कीजिएगा।

राजा साहब ने बाकी दिन दावत का सामान करने में काटा। हजामत बनवाई। एक भी पका बाल न रहने दिया। उबटन मलवाया। अपनी अच्छी-से-अच्छी अचकन निकाली, केसरिये रंग का रेशमी साफा बांधा, गले में मोतियों की माला डाली, आंखों में सुरमा लगाया, माथे में केसर का तिलक लगाया; कमर में रेशमी कमरबंद लपेटा, कंधे पर शाह रूमाल रखा, मखमली गिलाफ में रखी हुई तलवार कमर से लटकाई और यों सज-सजाकर जब वह खड़े हुए, तो खासे छैला मालूम होते थे। ऐसा बांका जवान शहर में किसी ने कम देखा होगा। उनके सौम्य स्वरूप और सुगठित शरीर पर यह वस्त्र और आभूषण खूब खिल रहे थे।

निमंत्रण तो जा ही चुका था। रात के नौ बजते-बजते दीवान साहब और मनोरमा आ गए। राजा साहब उनका स्वागत करने दौड़े। मनोरमा ने उनकी ओर देखा तो मुस्कराई, मानो कह रही थी-ओ हो ! आज तो कुछ और ही ठाट हैं। उसने आज और ही वेश रचा था। उसकी देह पर एक भी आभूषण न था। केवल एक सफेद साड़ी पहने हुए थी। उसका रूप माधुर्य कभी इतना प्रस्फुटित न हुआ था। अलंकार भावों के अभाव का आवरण है। सुंदरता को अलंकारों की जरूरत नहीं। कोमलता अलंकारों का भार नहीं सह सकती।

दीवान साहब इस समय बहुत चिंतित मालूम होते थे। उनकी रक्षा करने के लिए यहां लौगी न थी और बहुत जल्द उनके सामने एक भीषण समस्या आनेवाली थी। दावत की मंशा वह खूब समझ रहे थे। कुछ समझ ही में न आता था, क्या कहूँगा। लौंगी ने चलते-चलते उनसे समझा के कह दिया था-हां, न करना। साफ-साफ कह देना, यह बात नहीं हो सकती। मगर ठाकुर साहब उन वीरों में थे, जिनकी पीठ पर पाली में भी हाथ फेरने की जरूरत रहती है। बेचारे बिल-सा ढूंढ़ रहे थे, कि कहाँ भाग जाऊं ! सहसा मुंशी वज्रधर आ गए। दीवान साहब को आंखें-सी मिल गईं। दौड़े और उन्हें लेकर एक अलग कमरे में सलाह करने लगे। मनोरमा पहले ही झूले-घर में आकर इधर-उधर टहल रही थी। अब न वह हरियाली थी, न वह रौनक, न वह सफाई। सन्नाटा छाया हुआ था। राजा साहब ने उसे इधर आते देख लिया। वह उससे एकांत में बातें करना चाहते थे। मौका पाया, तो उसके सामने आकर खड़े हो गए।

मनोरमा ने कहा-रानीजी के सामने इस झूले-घर में कितनी रौनक थी ! अब जिधर देखती हूँ, सूना-ही-सूना दिखाई देता है।

राजा-अब तुम्हीं से इसकी फिर रौनक होगी, मनोरमा ! यह भी मेरे हृदय की तरह तुम्हारी ओर आंखें लगाए बैठा है।

प्रणय के ये शब्द पहली बार मनोरमा के कानों में पड़े। उसका मुखमंडल लज्जा से आरक्त हो गया। वह सहमी-सी खड़ी रही। कुछ बोल न सकी।

राजा साहब फिर बोले-मनोरमा, यद्यपि मेरे तीन रानियां हैं, पर मेरा हृदय अब तक अक्षुण्ण है, उस पर आज तक किसी का अधिकार नहीं हुआ। कदाचित् वह अज्ञात रूप से तुम्हारी राह देख रहा था। तुमने मेरी रानियों को देखा है, उनकी बातें भी सुनी हैं। उनमें ऐसी कौन है, जिसकी प्रेमोपासना की जाए ! मुझे तो यही आश्चर्य होता है कि इतने दिन उनके साथ कैसे काटे!

मनोरमा ने गंभीर होकर कहा-मेरे लिए यह सौभाग्य की बात होगी कि आपकी प्रेम-पात्री बनूं, पर…मुझे भय है कि मैं आदर्श पत्नी न बन सकूँगी। कारण तो नहीं बतला सकती, मैं स्वयं नहीं जानती; पर मुझे यह भय अवश्य है। मेरी हार्दिक इच्छा सदैव यही रही है कि किसी बंधन में न पडूं। पक्षियों की भांति स्वाधीन रहना चाहती हूँ।

राजा ने मुस्कराते हुए कहा-मनोरमा, प्रेम तो कोई बंधन नहीं है।

मनोरमा प्रेम बंधन न हो; पर धर्म तो बंधन है। मैं प्रेम के बंधन से नहीं घबराती, धर्म के बंधन से घबराती हूँ। आपको मुझ पर बड़ी कठोरता से शासन करना होगा। मैं आपको अपनी कुंजी पहले ही से बताए देती हूँ। मैं आपको धोखा नहीं देना चाहती। मुझे आपसे प्रेम नहीं है। शायद हो भी न सकेगा। (मुस्कराकर) मैं रानी तो बनना चाहती हूँ पर किसी राजा की रानी नहीं। हां, आपको प्रसन्न रखने की चेष्टा करूंगी। जब आप मुझे भटकते देखें, टोक दें। मुझे ऐसा मालूम होता है कि मैं प्रेम करने के लिए नहीं, केवल विलास करने के लिए ही बनाई गई हूँ।

राजा-तुम अपने ऊपर जुल्म कर रही हो, मनोरमा ! तुम्हारा वेष तुम्हारी बातों का विरोध कर रहा है। तुम्हारे हृदय में वह प्रकाश है, जिसकी एक ज्योति मेरे समस्त जीवन के अंधकार का नाश कर देगी।

मनोरमा-मैं दोनों हाथों से धन उड़ाऊंगी। आपको बुरा तो न लगेगा? मैं धन की लौंडी बनकर नहीं, उसकी रानी बनकर रहूँगी।

राजा-मनोरमा, राज्य तुम्हारा है, धन तुम्हारा है, मैं तुम्हारा हूँ। सब तुम्हारी इच्छा के दास

होंगे।

मनोरमा-मुझे बातें करने की तमीज नहीं है। यह तो आप देख ही रहे हैं। लौंगी अम्मां कहती है कि तू बातें करती है, तो लाठी-सी मारती है।

राजा-मनोरमा, उषा में अगर संगीत होता, तो वह भी इतना कोमल न होता।

मनोरमा-पिताजी से तो अभी आपकी बातें नहीं हुईं?

राजा-अभी तो नहीं, मनोरमा, अवसर पाते ही करूंगा पर कहीं इनकार कर दिया तो? मनोरमा-मेरे भाग्य का निर्णय वही कर सकते हैं। मैं उनका अधिकार नहीं छीनूंगी।

दोनों आदमी बरामदे में पहुंचे, तो मुंशीजी और दीवान साहब खड़े थे। मुंशीजी ने राजा साहब से कहा-हुजूर को मुबारकबाद देता हूँ।

दीवान-मुंशीजी…

मुंशी-हुजूर, आज जलसा होना चाहिए। (मनोरमा से) महारानी,आपका सुहाग सदा सलामत रहे।

दीवान-जरा मुझे सोच….

मुंशी-जनाब, शुभ काम में सोच-विचार कैसा? भगवान जोड़ी सलामत रखें!

सहसा बाग में बैंड बजने लगा और राजा के कर्मचारियों का समूह इधर-उधर से आ-आकर राजा साहब को मुबारकबाद देने लगा। दीवान साहब सिर झुकाए खड़े थे। न कुछ कहते बनता था, न सुनते। दिल में मुंशीजी को हजारों गालियां दे रहे थे कि इसने मेरे साथ कैसी चाल चली! आखिर यह सोचकर दिल को समझाया कि लौंगी से सब हाल कह दूंगा। भाग्य में यही बदा था, तो मैं करता क्या? मनोरमा भी तो खुश है।

बारह बजते-बजते मेहमान लोग सिधारे। राजा साहब के पांव जमीन पर न पड़ते थे। सारे आदमी सो रहे थे, पर वह बगीचे में हरी-हरी घास पर टहल रहे थे। चैत्र की शीतल, सुखद मंद समीर; चन्द्रमा की शीतल, सुखद मंद छटा और बाग की शीतल, सुखद, मंद सुगंध में उन्हें कभी ऐसा उल्लास, ऐसा आनंद न प्राप्त हुआ था। मंद समीर में मनोरमा थी, चन्द्र की छटा में मनोरमा थी, शीतल सुगंध में मनोरमा थी, और उनके रोम-रोम में मनोरमा थी। सारा विश्व मनोरमामय हो रहा था।

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