कायाकल्प (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद Part 7
कायाकल्प : अध्याय पच्चीस
आगरे के हिंदुओं और मुसलमानों में आए दिन जूतियां चलती रहती थीं। जरा-जरा-सी बात पर दोनों दलों के सिरफिरे जमा हो जाते और दो-चार के अंग-भंग हो जाते। कहीं बनिए ने डंडी मार दी और मुसलमनों ने उसकी दुकान पर धावा कर दिया, कहीं किसी जुलाहे ने किसी हिंदू का घड़ा छू लिया और मुहल्ले में फौजदारी हो गई। एक मुहल्ले में मोहन ने रहीम का कनकौआ लूट लिया और इसी बात पर मुहल्ले भर के हिंदुओं के घर लुट गए; दूसरे मुहल्ले में दो कुत्तों की लड़ाई पर सैकड़ों आदमी घायल हुए, क्योंकि एक सोहन का कुत्ता था, दूसरा सईद का। निज के रगड़े-झगड़े साम्प्रदायिक संग्राम के क्षेत्र में खींच लाए जाते थे। दोनों ही दल मजहब के नशे में चूर थे। मुसलमानों ने बजाजे खोले, हिंदू नैंचे बांधने लगे। सुबह को ख्वाजा साहब हाकिम जिला को सलाम करने जाते, शाम को बाबू यशोदानंदन। दोनों अपनी-अपनी राजभक्ति का राग अलापते। दोनों के देवताओं के भाग्य जागे जहां कुत्ते निद्रोपासना किया करते, वहां पुजारी जी की भंग घटने लगी। मसजिदों के दिन फिरे, मुल्लाओं ने अबाबीलों को बेदखल कर दिया। जहां सांड जुगाली करता था, वहां पीर साहब की हड़िया चढ़ी। हिंदुओं ने ‘महावीर दल’ बनाया, मुसलमानों ने ‘अलीगोल’ सजाया। ठाकुरद्वारे में ईश्वर-कीर्तन की जगह नबियों की निंदा होती थी, मसजिदों में नमाज की जगह देवताओं की दुर्गति। ख्वाजा साहब ने फतवा दिया-जो मुसलमान किसी हिंदू औरत को निकाल ले जाए , उसे एक हजार हजों का सबाब होगा। यशोदानंदन ने काशी के पंडितों की व्यवस्था मंगवाई कि एक मुसलमान का वध एक लाख गोदानों से श्रेष्ठ है।
होली के दिन थे। गलियों में गुलाल के छींटे उड़ रहे थे। इतने जोश से कभी होली न मनाई गई थी। वे नई रोशनी के हिंदू-भक्त, जो रंग को भूखा भेड़िया समझते थे या पागल गीदड़, आज जीते-जागते इन्द्रधनुष बने हुए थे। संयोग से एक मियां साहब मुर्गी हाथ में लटकाए कहीं से चले जा रहे थे। उनके कपड़े पर दो-चार छींटे पड़ गए। बस, गजब ही तो हो गया, आफत ही तो आ गई। सीधे जामे मस्जिद पहुंचे और मीनार पर चढ़कर बांग दी-‘ऐ उम्मते रसूल ! आज एक काफिर के हाथों मेरे दीन का खून हुआ है। उसके छींटे मेरे कपड़ों पर पड़े हुए हैं। या तो काफिर से इस खून का बदला लो, या मैं मीनार से गिरकर नबी की खिदमत में फरियाद सुनाने जाऊं। बोलो, क्या मंजूर है? शाम तक मुझे इसका जवाब न मिला, तो तुम्हें मेरी लाश मस्जिद के नीचे नजर आएगी।’
मुसलमानों ने यह ललकार सुनी और उनकी त्योरियां बदल गईं। दीन का जोश सिर पर सवार हो गया। शाम होते-होते दस हजार आदमी सिरों से कफन लपेटे, तलवारें लिए, जामे मस्जिद के सामने आकर दीन के खून का बदला लेने के लिए जमा हो गए।
सारे शहर में तहलका मच गया। हिंदुओं के होश उड़ गए। होली का नशा हिरन हो गया। पिचकारियां छोड़-छोड़ लोगों ने लाठियां संभाली, लेकिन यहां कोई जामे मस्जिद न थी, न वह ललकार, न वह दीन का जोश। सबको अपनी-अपनी पड़ी हुई थी।
बाबू यशोदानंदन कभी इस अफसर के पास जाते, कभी उस अफसर के। लखनऊ तार भेजे, दिल्ली तार भेजे, मुस्लिम नेताओं के नाम तार भेजे, लेकिन कोई फल न निकला। इतनी जल्द कोई इंतजाम न हो सकता था। अगर वह यही समय हिंदुओं को संगठित करने में लगाते, तो शायद बराबर का जोड़ हो जाता; लेकिन वह हुक्काम पर आशा लगाए बैठे रहे। और अंत में वह निराश होकर उठे, तो मुस्लिम वीर धावा बोल चुके थे। वे ‘अली! अली’ का शोर मचाते चले जाते थे कि बाबू साहब सामने नजर आ गए। फिर क्या था। सैकड़ों आदमी ‘मारो!’ कहते हुए लपके। बाबू साहब ने पिस्तौल निकाली और शत्रुओं के सामने खड़े हो गए। सवाल जवाब कौन करता? उन पर चारों तरफ से वार होने लगे।
पिस्तौल चलाने की नौबत भी न आई, यही सोचते खड़े रह गए कि समझाने से ये लोग शांत हो जाएं तो क्यों किसी की जान लूं। अहिंसा के आदर्श ने हिंसा का हथियार हाथ में होने पर भी उनका दामन न छोड़ा।
यह आहुति पाकर अग्नि और भी भड़की। खून का मजा पाकर लोगों का जोश दूगना हो गया। अब फतह का दरवाजा खुला हुआ था। हिंदू मुहल्लों के द्वार बंद हो गए। बेचारे कोठरियों में बैठे जान की खैर मना रहे थे, देवताओं से विनती कर रहे थे कि यह संकट हरो। रास्ते में जो हिंदू मिला, वह पिटा; घर लुटने लगे। ‘हाय-हाय’ का शोर मच गया। दीन के नाम पर ऐसे-ऐसे कर्म होने लगे, जिन पर पशुओं को भी लज्जा आती, पिशाचों के भी रोएं खडे हो जाते।
लेकिन बाब यशोदानंदन के मरने की खबर पाते ही सेवादल के युवकों का खून खौल उठा। आसन पर चोट पहुँचते ही अड़ियल टटू और गरियाल बैल भी संभल जाते हैं। घोड़ा कनौतियां खड़ी करता है, बैल उठ बैठता है। यशोदानंदन का खून हिंदुओं के लिए आसन की चोट थी। सेवादल के दो सौ युवक तलवारें लेकर निकल पड़े और मुसलमान मुहल्लों में घुसे। दो-चार पिस्तौल और बंदकें भी खोज निकाली गईं। हिंदू मुहल्लों में जो कुछ मुसलमान कर रहे थे, मुसलमान मुहल्लों में वही हिंदू करने लगे। अहिंसा ने हिंसा के आगे सिर झुका दिया। वे ही सेवा-व्रतधारी युवक, जो दीनों पर जान देते थे, अनाथों को गले लगाते थे और रोगियों की शुश्रुषा करते थे, इस समय निर्दयता के पुतले बने हुए थे। पाशविक वृत्तियों ने कोमल वृत्तियों का संहार कर दिया था। उन्हें न तो दीनों पर दया आती थी, न अनाथों पर। हंस-हंसकर भाले और छुरे चलाते थे, मानो लड़के गुड़ियां पीट रहे हों। उचित तो यह था कि दोनों दलों के योद्धा आमने-सामने खड़े हो जाते और खूब दिल के अरमान निकालते; लेकिन कायरों की वीरता और वीरों की वीरता में बड़ा अंतर है।
सहसा खबर उड़ी कि यशोदानंदन के घर में आग लगा दी गई है और दूसरे घरों में आग लगाई जा रही है। सेवादल वालों के कान खड़े हुए। यहां उनकी पैशाचिकता ने भी हार मान ली। तय हो गया कि अब या तो वे ही रहेंगे, या हमीं रहेंगे। दोनों अब इस शहर में नहीं रह सकते। अब निपट ही लेना चाहिए, जिससे हमेशा के लिए बाधा दूर हो जाए। दो-ढाई हजार आदमियों का दल डबल मार्च करता हुआ उस स्थान को चला, जहां यह बड़वानल दहक रहा था। मिनटों की राह पलों में कटी। रास्ते में सन्नाटा था। दूर ही से ज्वाला-शिखर आसमान से बातें करता दिखाई दिया। चाल और भी तेज की और एक क्षण में लोग अग्नि-कुंड के सामने जा पहुंचे। देखा, तो वहां किसी मुसलमान का पता नहीं, आग लगी है; लेकिन बाहर की ओर। अंदर जाकर देखा तो घर खाली पड़ा हुआ था। वागीश्वरी एक कोठरी में द्वार बंद किए बैठी थी। इन्हें देखते ही वह रोती हुई बाहर निकल आई और बोली-हाय मेरी अहिल्या ! अरे दौड़ो, उसे ढूंढो, पापियों ने न जाने उसकी क्या दुर्गति की। हाय ! मेरी बच्ची!
एक युवक ने पूछा-क्या अहिल्या को उठा ले गए?
वागीश्वरी-हां भैया ! उठा ले गए। मना कर रही थी कि एरी बाहर मत निकल; अगर मरेंगे तो साथ ही मरेंगे, लेकिन न मानी। ज्यों ही दुष्टों ने घर में कदम रखा, बाहर निकलकर उन्हें समझाने लगी। हाय ! उसकी बातों को न भूलूंगी। आप तो गए ही थे, उसका भी सर्वनाश किया। नित्य समझाती रही, इन झगड़ों में न पड़ो! न मुसलमानों के लिए दुनिया में कोई दूसरा ठौर-ठिकाना है, न हिंदुओं के लिए। दोनों इसी देश में रहेंगे और इसी देश में मरेंगे। फिर आपस में क्यों लडे मरते हो, क्यों एक-दूसरे को निगल जाने पर तुले हुए हो? न तुम्हारे निगले वे निगले जाएंगे, न उनके निगले तुम निगले जाओगे, मिल-जुलकर रहो, उन्हें बड़े होकर रहने दो, तुम छोटे ही होकर रहो, मगर मेरी कौन सुनता है। स्त्रियां तो पागल हो जाती हैं, यों ही भूका करती हैं। मान गए होते, तो आज क्यों यह उपद्रव होता! आप जान से गए, बच्ची भी हर ली गई, और न जाने क्या होना है? जलने दो घर, घर लेकर क्या करना है, तुम जाकर मेरी बच्ची को तलाश करो। जाकर ख्वाजा महमूद से कहो, उसका पता लगाएं। हाय ! एक दिन वह था कि दोनों आदमियों में दांत-काटी रोटी थी। ख्वाजा साहब उनके साथ प्रयाग गए थे और अहिल्या को उन्होंने पाया था। आज यह हाल है ! कहना, तुम्हें लाज नहीं आती? जिस लड़की को बेटी बनाकर मेरी गोद में सौंपा था, जिसके विवाह में पांच हजार खर्च करने वाले थे, उसकी उन्हीं के पिछलगुओं के हाथों यह दुर्गति। हमसे अब उनकी क्या दुश्मनी ! उनका दुश्मन तो परलोक सिधारा ! हाय भगवान् ! बहुत-से आदमी मत जाओ। चार आदमी काफी हैं। उनकी लाश भी ढूंढो। कहीं आस-पास होगी। घर से निकलते ही तो दुष्टों से उनका सामना हो गया था।
वागीश्वरी तो यह विलाप कर रही थी, बाहर अग्नि को शांत करने का यत्न किया जा रहा था, लेकिन पानी के छींटे उस पर तेल का काम करते थे। बारे फायर इंजिन समय पर आ पहुंचा और अग्नि का वेग कम हुआ। फिर भी लपटें किसी सांप की तरह जरा देर के लिए छिपकर फिर किसी दूसरी जगह जा पहुँचती थीं। संध्या समय जाकर आग बुझी।
उधर लोग ख्वाजा साहब के पास पहुंचे, तो क्या देखते हैं कि मुंशी यशोदानंदन की लाश रखी हुई है और ख्वाजा साहब बैठे रो रहे हैं। इन लोगों को देखते ही बोले-तुम समझते होंगे, यह मेरा दुश्मन था। खुदा जानता है, मुझे अपना भाई और बेटा भी इससे ज्यादा अजीज नहीं। अगर मुझ पर किसी कातिल का हाथ उठता, तो यशोदानंदन उस वार को अपनी गर्दन पर रोक लेता। शायद मैं भी उसे खतरे में देखकर अपनी जान को परवा न करता। फिर भी हम दोनों की जिंदगी के आखिरी साल मैदानबाजी में गुजरे और आज उसका यह अंजाम हुआ। खुदा गवाह है, मैंने हमेशा इत्तहाद की कोशिश की। अब भी मेरा यह ईमान है कि इत्तहाद ही से इस बदनसीब कौम की नजात होगी। यशोदानंदन भी इत्तहाद का उतना ही हामी था जितना मैं। शायद मुझसे भी ज्यादा, लेकिन खुदा जाने वह कौन-सी ताकत थी, जो हम दोनों को बरसरेजंग रखती थी। हम दोनों दिल से मेल करना चाहते थे पर हमारी मर्जी के खिलाफ कोई दैवी ताकत हमको लड़ाती रहती थी। आप लोग नहीं जानते हो, मेरी इससे कितनी गहरी दोस्ती थी। दोनों एक ही मकतब में पढ़े, एक ही स्कूल में तालीम पाई, एक ही मैदान में खेले। यह मेरे घर पर आता था, मेरी अम्मांजान इसको मुझसे ज्यादा चाहती थीं, इसकी अम्मांजान मुझे इससे ज्यादा। उस जमाने की तस्वीर आज आंखों के सामने फिर रही है। कौन जानता था, उस दोस्ती का यह अंजाम होगा। यह मेरा प्यारा यशोदा है, जिसकी गर्दन में बाहें डालकर मैं बागों की सैर किया करता था। हमारी सारी दुश्मनी पसे-पुश्त होती थी। रू-ब-रू मारे शर्म के हमारी आंखें ही न उठती थीं। आह ! काश, मालूम हो जाता कि किस बेरहम ने मुझ पर यह कातिल वार किया ! खुदा जानता है, इन कमजोर हाथों से उसकी गर्दन मरोड़ देता।
एक युवक-हम लोग लाश को क्रिया-कर्म के लिए ले जाना चाहते हैं।
ख्वाजा-ले जाओ भई, ले जाओ, मैं भी साथ चलूंगा। मेरे कंधा देने में कोई हर्ज है ! इतनी रियायत तो मेरे साथ करनी ही पड़ेगी। मैं पहले मरता, तो यशोदा सिर पर खाक उड़ाता हुआ मेरी मजार तक जरूर जाता।
युवक-अहिल्या को भी लोग उठा ले गए। माताजी आपसे…
ख्वाजा-क्या, अहिल्या! मेरी अहिल्या को! कब?
युवक-आज ही। घर में आग लगाने से पहले।
ख्वाजा-कलामे मजीद की कसम, जब तक अहिल्या का पता न लगा लूंगा, मुझे दाना-पानी हराम है। तुम लोग लाश ले जाओ, मैं अभी आता हूँ। सारे शहर की खाक छान डालूंगा, एक-एक घर में जाकर देखूगा, अगर किसी बेदीन ने मार नहीं डाला, तो जरूर खोज निकालूंगा। हाय मेरी बच्ची ! उसे मैंने मेले में पाया था ! खड़ी रो रही थी। कैसी भोली-भोली, प्यारी-प्यारी बच्ची थी! मैंने उसे छाती से लगा लिया था और लाकर भाभी की गोद में डाल दिया था। कितनी बातमीज, बाशऊर, हसीन लड़की थी। तुम लोग लाश को ले जाओ, मैं शहर का चक्कर लगाता हुआ जमुना किनारे आऊंगा। भाभी से मेरी तरफ से अर्ज कर देना, मुझसे मलाल न रखें। यशोदा नहीं है, लेकिन महमूद है। जब तक उसके दम में दम है, उन्हें कोई तकलीफ न होगी। कह देना, महमूद या तो अहिल्या को खोज निकालेगा, या मुंह में कालिख लगाकर डूब मरेगा।
यह कहकर ख्वाजा साहब उठ खड़े हुए, लकड़ी उठाई और बाहर निकल गए।
छब्बीस
चक्रधर ने उस दिन लौटते ही पिता से आगरे जाने की अनुमति मांगी। मनोरमा ने उनके मर्मस्थल में जो आग लगा दी थी, वह आगरे ही में अहिल्या के सरल, स्निग्ध स्नेह की शीतल छाया में शांत हो सकती थी। उन्हें अपने ऊपर विश्वास न था। वह जिंदगी-भर मनोरमा को देखा करते और मन में कोई बात न आती; लेकिन मनोरमा ने पुरानी स्मृतियों को जगाकर उनके अंतस्थल में तृष्णा, उत्सुकता और लालसा को जागृत कर दिया था। इसलिए अब वह मन को ऐसी दृढ़ रस्सी से बांधना चाहते थे कि वह हिल भी न सके। वह अहिल्या की शरण लेना चाहते थे।
मुंशीजी ने जरा त्योरी चढ़ाकर कहा-तुम्हारे सिर अब तक वह नशा सवार है? यों तुम्हारी इच्छा सैर करने की हो तो रुपए-पैसे की कमी नहीं; लेकिन तुम्हें वादा करना पड़ेगा कि तुम मुंशी यशोदानंदन से न मिलोगे।
चक्रधर-मैं उनसे मिलने ही तो जा रहा हूँ।
वज्रधर-मैं कहे देता हूँ, अगर तुमने वहां शादी की बातचीत की, तो बुरा होगा, तुम्हारे लिए भी और मेरे लिए भी।
चक्रधर और कुछ न बोल सके। आते-ही-आते माता-पिता को कैसे अप्रसन्न कर देते।
लेकिन जब होली के तीसरे दिन उन्हें आगरे में उपद्रव, बाबू यशोदानंदन की हत्या और अहिल्या के अपहरण का शोक समाचार मिला, तो उन्होंने व्यग्रता में आकर पिता को वह पत्र सुना दिया और बोले-मेरा वहां जाना बहुत जरूरी है।
वज्रधर ने निर्मला की ओर ताकते हुए कहा-क्या अभी जेल से जी नहीं भरा जो फिर चलने की तैयारी करने लगे। वहां गए और पकड़े गए, इतना समझ लो। वहां इस वक्त अनीति का राज्य है, अपराध कोई न देखेगा। हथकड़ी पड़ जाएगी। और फिर जाकर करोगे ही क्या? जो कुछ होना था, हो चुका; अब जाना व्यर्थ है।
चक्रधर-कम-से-कम अहिल्या का पता तो लगाना ही होगा।
वज्रधर-यह भी व्यर्थ है। पहले तो उसका पता लगाना ही मुश्किल है और लग भी गया तो तुम्हारा अब उससे क्या संबंध? जब वह मुसलमानों के साथ रह चुकी, तो कौन हिंदू उसे पूछेगा?
चक्रधर-इसीलिए तो मेरा जाना और भी जरूरी है।
निर्मला-लड़की को मर्यादा की कुछ लाज होगी, तो वह अब तक जीती ही न होगी; अगर जीती है तो समझ लो कि भ्रष्ट हो गई।
चक्रधर-अम्मां, कभी-कभी आप ऐसी बात कह देती हैं, जिस पर हंसी आती है। प्राण भय से बड़े-बड़े शूर वीर भूमि पर मस्तक रगड़ते हैं, एक अबला की हस्ती ही क्या ! भ्रष्ट वह होती है, जो दुर्वासना से कोई कर्म करे। जो काम हम प्राण भय से करें, वह हमें भ्रष्ट नहीं कर सकता।
वज्रधर-मैं तुम्हारा मतलब समझ रहा हूँ, लेकिन तुम उसे चाहे सती समझो, हम उसे भ्रष्ट ही समझेंगे। ऐसी बहू के लिए हमारे घर में स्थान नहीं है।
चक्रधर ने निश्चयात्मक भाव से कहा-वह आपके घर में न आएगी।
वज्रधर ने भी उतने ही निर्दय शब्द में उत्तर दिया-अगर तुम्हारा खयाल हो कि पुत्रस्नेह के वश होकर मैं उसे अंगीकार कर लूंगा, तो तुम्हारी भूल है। अहिल्या मेरी कुलदेवी नहीं हो सकती, चाहे इसके लिए मुझे पुत्र-वियोग ही सहना पड़े। मैं भी जिद्दी हूँ।
चक्रधर पीछे घूमे ही थे कि निर्मला ने उनका हाथ पकड़ लिया और स्नेहपूर्ण तिरस्कार करती हुई बोली-बच्चा, तुमसे ऐसी आशा न थी। अब भी हमारा कहना मानो, हमारे कुल के मुंह में कालिख न लगाओ।
चक्रधर ने हाथ छुड़ाकर कहा-मैंने आपकी आज्ञा कभी भंग नहीं की; लेकिन इस विषय में मजबूर हूँ।
वज्रधर ने श्लेष के भाव से कहा-साफ-साफ क्यों नहीं कह देते कि हम आप लोगों से अलग रहना चाहते हैं।
चक्रधर-अगर आप लोगों की यही इच्छा है तो मैं क्या करूं?
वज्रधर-यह तुम्हारा अंतिम निश्चय है?
चक्रधर-जी हां, अंतिम!
यह कहते हुए चक्रधर बाहर निकल आए और कुछ कपड़े साथ लेकर स्टेशन की ओर चल दिए।
थोड़ी देर के बाद निर्मला ने कहा-लल्लू किसी भ्रष्ट स्त्री को खुद ही न लाएगा। तुमने व्यर्थ उसे चिढ़ा दिया।
वज्रधर ने कठोर स्वर में कहा-अहिल्या के भ्रष्ट होने में अभी कुछ कसर है?
निर्मला-यह तो मैं नहीं जानती; पर इतना जानती हूँ कि लल्लू को अपने धर्म-अधर्म का ज्ञान है। वह कोई ऐसी बात न करेगा, जिसमें निंदा हो।
वज्रधर-तुम्हारी बात समझ रहा हूँ। बेटे का प्यार खींच रहा हो, तो जाकर उसी के साथ रहो। मैं तुम्हें रोकना नहीं चाहता। मैं अकेले भी रह सकता हूँ।
निर्मला-तुम तो जैसे म्यान से तलवार निकाले बैठे हो। वह विमन होकर कहीं चला गया तो?
वज्रधर-तो मेरा क्या बिगड़ेगा? मेरा लड़का मर जाए, तो भी गम न हो !
निर्मला-अच्छा, बस मुंह बंद करो, बड़े धर्मात्मा बनकर आए हो। रिश्वतें ले-लेकर हड़पते हो, तो धर्म नहीं जाता; शराबें उड़ाते हो, तो मुंह में कालिख नहीं लगती; झूठ के पहाड़ खड़े करते हो, तो पाप नहीं लगता। लड़का एक अनाथिनी की रक्षा करने जाता है, तो नाक कटती है। तुमने कौन-सा कुकर्म नहीं किया? अब देवता बनने वले हो !
निर्मला के मुख से मुंशीजी ने ऐसे कठोर शब्द कभी न सुने थे। वह तो शील, स्नेह और पतिभक्ति की मूर्ति थी, आज कोप और तिरस्कार का रूप धारण किए हुए थी। उनकी शासक वत्तियां उत्तेजित हो गईं। डांटकर बोले-सुनो जी, मैं ऐसी बातें सुनने का आदी नहीं हूँ। बातें तो नहीं सनी मैंने अपने अफसरों की, जो मेरे भाग्य के विधाता थे। तुम किस खेत की मूली हो! जबान तालू से खींच लूंगा, समझ गई? समझती हो न कि बेटा जवान हुआ। अब इस बुड्ढे की क्यों परवा करने लगीं। तो जाकर उसी भ्रष्ट के साथ रहो। इस घर में तुम्हारी जरूरत नहीं।
यह कहकर मुंशीजी बाहर चले गए और सितार पर एक गत छेड़ दी।
चक्रधर आगरे पहुंचे तो सबेरा हो गया था। प्रभात के रक्तरंजित मर्मस्थल में सूर्य यो मुह छिपाए बैठे थे, जैसे शोक-मंडित नेत्र में अश्रु-बिंदु। चक्रधर का हृदय भांति-भांति की दुर्भावनाओं से पीड़ित हो रहा था। एक क्षण तक वह खड़े सोचते रहे, कहाँ जाऊं! बाबू यशोदानंदन के घर जाना व्यर्थ था। अंत को उन्होंने ख्वाजा महमूद के घर चलना निश्चय किया। ख्वाजा साहब पर अब भी उनकी असीम श्रद्धा थी। तांगे पर बैठकर चले, तो शहर में सैनिक चक्कर लगाते दिखाई दिए। दुकानें सब बंद थीं।
ख्वाजा साहब के द्वार पर पहुंचे, तो देखा कि हजारों आदमी एक लाश को घेरे खड़े हैं और उसे कब्रिस्तान ले चलने की तैयारियां हो रही हैं ! चक्रधर तुरंत तांगे से उतर पड़े और लाश के पास जाकर खड़े हो गए ! कहीं ख्वाजा साहब तो नहीं कत्ल कर दिए गए। वह किसी से पूछने ही जा रहे थे कि सहसा ख्वाजा साहब ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और आंखों में आंसू भरकर बोले-खूब आए बेटा, तुम्हें आंखें ढूंढ रही थीं। अभी-अभी तुम्हारा ही जिक्र था,खुदा तुम्हारी उम्र दराज करे। मातम के बाद खुशी का दौर आएगा। जानते हो, यह किसकी लाश है? यह मेरी आंखों का नूर, मेरे दिल का सरूर, मेरा लख्तेजिगर, मेरा इकलौता बेटा है, जिस पर जिंदगी की सारी उम्मीदें कायम थीं। अब तुम्हें उसकी सूरत याद आ गई होगी। कितना खुशरू जवान था। कितना दिलेर ! लेकिन खुदा जानता है, उसकी मौत पर मेरी आंखों से एक बूंद आंसू भी न निकला। तुम्हें हैरत हो रही होगी; मगर मैं बिल्कुल सच कह रहा हूँ। एक घंटा पहले तक मैं उस पर निसार होता था। अब उसके नाम से नफरत हो रही है। उसने वह फैल किया, जो इंसानियत के दर्जे से गिरा हुआ था। तुम्हें अहिल्या के बारे में तो खबर मिली होगी?
चक्रधर-जी हां, शायद बदमाश लोग पकड़ ले गए।
ख्वाजा-यह वही बदमाश है, जिसकी लाश तुम्हारे सामने पड़ी हुई है। वह इसी की हरकत थी। मैं तो सारे शहर में अहिल्या को तलाश करता फिरता था और वह मेरे ही घर में कैद थी। यह जालिम उस पर जब्र करना चाहता था। जरूर किसी ऊंचे खानदान की लड़की है। काश, इस मुल्क में ऐसी और लड़कियां होती ! आज उसने मौका पाकर इसे जहन्नुम का रास्ता दिखा दिया-छरी सीने में भोंक दी। जालिम तड़प-तड़पकर मर गया। कम्बख्त जानता था कि अहिल्या मेरी लडकी है फिर भी अपनी हरकत से बाज न आया। ऐसे लड़के की मौत पर कौन बाप रोएगा? तुम बडे खुशनसीब हो, जो ऐसी पारसा बीवी पाओगे।
चक्रधर–मुझे यह सुनकर बहुत अफसोस हुआ। मुझे आपके साथ कामिल हमदर्दी है, आपका-सा इंसाफपरवर, हकपरस्त आदमी इस वक्त दुनिया में न होगा। अहिल्या अब कहाँ है?
ख्वाजा-इसी घर में। सुबह से कई बार कह चुका हूँ कि चल तुझे तेरे घर पहुंचा आऊ जाती ही नहीं। बस, बैठी रो रही है।
चक्रधर का हृदय भय से कांप उठा। अहिल्या पर अवश्य ही हत्या का अभियोग चलाया जाए गा और न जाने क्या फैसला हो। चिंतित स्वर में पूछा-अहिल्या पर तो अदालत में…
ख्वाजा-हरगिज नहीं। उसने हर एक लड़की के लिए नमूना पेश कर दिया। खुदा और रसूल दोनों उसे दुआ दे रहे हैं। फरिश्ते उसके कदमों का बोसा ले रहे हैं। उसने खून नहीं किया, कत्ल नहीं किया, अपनी असमत की हिफाजत की, जो उसका फर्ज था। यह खुदाई कहर था, जो छुरी बनकर उसके सीने में चुभा। मुझे जरा भी मलाल नहीं है। खुदा की मरजी में इंसान का क्या दखल?
लाश उठाई गई। शोक समाज पीछे-पीछे चला। चक्रधर भी ख्वाजा साहब के साथ कब्रिस्तान तक गए। रास्ते में किसी ने बातचीत न की। जिस वक्त लाश कब्र में उतारी गई, ख्वाजा साहब रो पड़े। हाथों से मिट्टी दे रहे थे और आंखों से आंसू की बूंदें मरने वाले की लाश पर गिर रही थीं। यह क्षमा के आंसू थे। पिता ने पुत्र को क्षमा कर दिया था। चक्रधर भी आंसुओं को न रोक सके। आह! इस देवता स्वरूप मनुष्य पर इतनी घोर विपत्ति !
दोपहर होते-होते लोग घर लौटे। ख्वाजा साहब जरा दम लेकर बोले-आओ बेटा, तुम्हें अहिल्या के पास ले चलूं। उसे जरा तस्कीन दो। मैंने जिस दिन से उसे भाभी को सौंपा, यह अहद किया था कि इसकी शादी मैं करूंगा। मुझे मौका दो कि अपना अहद पूरा करूं।
यह कहकर ख्वाजा साहब ने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और अंदर चले। चक्रधर का हृदय बांसों उछल रहा था। अहिल्या के दर्शनों के लिए वह इतने उत्सुक कभी न थे। उन्हें ऐसा अनुमान हो रहा था कि अब उसके मुख पर माधुर्य की जगह तेजस्विता का आभास होगा, कोमल नेत्र कठोर हो गए होंगे, मगर जब उस पर निगाह पड़ी, तो देखा-वही सरल, मधुर छवि थी, वही करुण कोमल नेत्र, वही शीतल मधुर वाणी। वह एक खिड़की के सामने खड़ी बगीचे की ओर ताक रही थी। सहसा चक्रधर को देखकर वह चौंक पड़ी और चूंघट में मुंह छिपा लिया। फिर एक ही क्षण के बाद वह उनके पैरों को पकड़कर अश्रुधारों से धोने लगी। उन चरणों पर सिर रखे हुए उसे स्वर्गीय सांत्वना, एक दैवी शक्ति, एक धैर्यमय छवि का अनुभव हो रहा था।
चक्रधर ने कहा-अहिल्या, तुमने जिस वीरता से आत्मरक्षा की, उसके लिए तुम्हें बधाई देता हूँ। तुमने वीर क्षत्राणियों की कीर्ति को उज्ज्वल कर दिया। दुःख है, तो इतना ही कि ख्वाजा साहब का सर्वनाश हो गया।
अहिल्या ने उत्तर न दिया। चक्रधर के चरणों पर सिर झुकाए बैठी रही। चक्रधर फिर बोले-मुझे लज्जित न करो, अहिल्या ! मुझे तुम्हारे चरणों पर सिर झुकाना चाहिए, तुम बिल्कुल उल्टी बात कर रही हो। कहाँ है वह छुरी जरा उसके दर्शन तो कर लूं।
अहिल्या ने उठकर कांपते हुए हाथों से फर्श का कोना उठाया और नीचे से छुरी निकालकर चक्रधर के सामने रख दी। उस पर रुधिर जमकर काला हो गया था।
चक्रधर ने पूछा-यह छुरी यहां कैसे मिल गई, अहिल्या? क्या साथ लेती आई थीं?
अहिल्या ने सिर झुकाए हुए जवाब दिया-उसी की है।
चक्रधर-तुम्हें कैसे मिल गई?
अहिल्या ने सिर झुकाए ही जवाब दिया-यह न पूछिए। अबला के पास कौशल के सिवाय आत्मरक्षा का कौन-सा साधन है?
चक्रधर-यही तो सुनना चाहता हूँ, अहिल्या !
अहिल्या ने सिर उठाकर चक्रधर की ओर मानपूर्ण नेत्रों से देखा और बोली-सुनकर क्या कीजिएगा?
चक्रधर-कुछ नहीं, यों ही पूछ रहा था।
अहिल्या-नहीं, आप यों ही नहीं पूछ रहे हैं, आपका इसमें कोई प्रयोजन अवश्य है। अगर भ्रम है, तो मेरी अग्नि-परीक्षा ले लीजिए।
चक्रधर ने देखा, बात बिगड रही है। इस एक असामयिक प्रश्न ने इसके हृदय के टूट हुए तार को चोट पहुंचा दी। वह समझ रही है, मैं इस पर संदेह कर रहा हूँ। संभावना की कल्पना ने इसे सशंक बना दिया है! बोले-तुम्हारी अग्नि-परीक्षा तो हो चुकी अहिल्या और तुम उसमें खरी निकलीं। अब भी अगर किसी के मन में संदेह हो, तो यही कहना चाहिए कि वह अपनी बुद्धि खो बैठा है। तुम नवकुसुमित पुष्प की भांति स्वच्छ, निर्मल और पवित्र हो; तुम पहाड़ की चोटी पर जमी हुई हिम की भांति उज्ज्वल हो। मेरे मन में संदेह का लेश भी होता, तो मुझे यहां खड़ा न देखतीं! वह प्रेम और अखंड विश्वास, जो अब तक मेरे मन में था, कल प्रत्यक्ष हो जाएगा। अहिल्या, मैं कब का तुम्हें अपने हृदय में बिठा चुका। वहां तुम सुरक्षित बैठी हुई हो, संदेह और कलंक का घातक हाथ उसी वक्त पहुंचेगा, जब (छाती पर हाथ रखकर) यह अस्थि दुर्ग विध्वंश हो जाएगा। चलो, चलें। माताजी घबरा रही होंगी!
यह कहकर उन्होंने अहिल्या का हाथ पकड़ लिया और चाहा कि हृदय से लगा लें, लेकिन वह हाथ छुड़ाकर हट गई और कांपते हुए स्वर में बोली-नहीं-नहीं, मेरे अंग को मत स्पर्श कीजिए। सूंघा हुआ फूल देवताओं पर नहीं चढ़ाया जाता। मेरी आत्मा निष्कलंक है; लेकिन मैं अब वहां न जाऊंगी, कहीं न जाऊंगी। आपकी सेवा करना मेरे भाग्य में न था, मैं जन्म से अभागिनी हूँ, आप जाकर अम्मां को समझा दीजिए। मेरे लिए अब दुःख न करें। मैं निर्दोष हूँ, लेकिन इस योग्य नहीं कि आपकी प्रेमपात्री बन सकू।
चक्रधर से अब न रहा गया। उन्होंने फिर अहिल्या का हाथ पकड़ लिया और जबरदस्ती छाती से लगाकर बोले-अहिल्या, जिस देह में पवित्र और निष्कलंक आत्मा रहती है, वह देह भी पवित्र और निष्कलंक रहती है। मेरी आंखों में तुम आज उससे कहीं निर्मल और पवित्र हो जितनी पहले थीं। तुम्हारी अग्नि-परीक्षा हो चुकी है। अब विलंब न करो। ईश्वर ने चाहा, तो कल हम उस प्रेम-सूत्र में बंध जाएंगे, जिसे काल भी नहीं तोड़ सकता, जो अमर और अभेद्यहै।
अहिल्या कई मिनट तक चक्रधर के कंधे पर सिर रखे रोती रही। फिर बोली-एक बात पूछना चाहती हूँ, बताओगे? सच्चे दिल से कहना?
चक्रधर-क्या पूछती हो, पूछो?
अहिल्या-तम केवल दयाभाव से और मेरा उद्धार करने के लिए यह कालिमा सिर चढा रहे हो या प्रेमभाव से?
इस प्रश्न से स्वयं लज्जित होकर उसने फिर कहा-बात बेढंगी-सी है, लेकिन मैं मूर्ख हं, क्षमा करना, यह शंका मुझे बार-बार होती है। पहले भी हुई थी और आज और भी बढ़ गई है।
चक्रधर का दिल बैठ गया। अहिल्या की सरलता पर उन्हें दया आ गई। यह अपने को ऐसी अभागिनी और दीन समझ रही है कि इसे विश्वास ही नहीं आता, मैं इससे शुद्ध प्रेम कर रहा हूँ तुम्हें क्या जान पड़ता है, अहिल्या?
अहिल्या-मैं जानती, तो आपसे क्यों पूछती?
चक्रधर-अहिल्या, तुम इन बातों से मुझे धोखा नहीं दे सकतीं। चील को चाहे मांस की बोटी न दिखाई दे, चिऊंटी को चाहे शक्कर की सुगंध न मिले, लेकिन रमणी का एक-एक रोयां पंचेंद्रियों की भांति प्रेम के रूप, रस, शब्द, स्पर्श का अनुभव किए बिना नहीं रहता। मैं एक गरीब आदमी हूँ। दया और धर्म और उद्धार के भावों का मुझ में लेश भी नहीं। केवल इतना ही कह सकता हूँ कि तुम्हें पाकर मेरा जीवन सफल हो जाएगा।
अहिल्या ने मुस्कराकर कहा-तो आपके कथन के अनुसार मैं आपके हृदय का हाल जानती हूँ।
चक्रधर-अवश्य, उससे ज्यादा, जितना मैं स्वयं जानता हूँ।
अहिल्या-तो साफ कह दूं? ।
चक्रधर ने कातर भाव से कहा-कहो, सुनूं
अहिल्या-तुम्हारे मन में प्रेम से अधिक दया का भाव है।
चक्रधर-अहिल्या, तुम मुझ पर अन्याय कर रही हो।
अहिल्या-जिस वस्तु को लेने की सामर्थ्य ही मुझमें नहीं है, उस पर हाथ न बढ़ाऊंगी। मेरे लिए वही बहुत है, जो आप दे रहे हैं। मैं इसे भी अपना धन्य भाग समझती हूँ।
चक्रधर-मगर यही प्रश्न मैं तुमसे करता, तो तुम क्या जवाब देतीं, अहिल्या?
अहिल्या-तो साफ-साफ कह देती कि मैं प्रेम से अधिक आपका आदर करती हूँ, आपमें श्रद्धा रखती हूँ।
चक्रधर का मुख मलिन हो गया। सारा प्रेमोत्साह, जो उनके हृदय में लहरें मार रहा था, एकाएक लुप्त हो गया। वन-वृक्षों-सा लहलहाता हुआ हृदय मरुभूमि-सा दिखाई दिया। निराश भाव से बोले-मैं तो और ही सोच रहा था, अहिल्या !
अहिल्या-तो आप भूल कर रहे थे। मैंने किसी पुस्तक में देखा था कि प्रेम हृदय के समस्त सद्भावों का शांत, स्थिर, उद्गारहीन समावेश है। उसमें दया और क्षमा, श्रद्धा और वात्सल्य, सहानुभूति और सम्मान, अनुराग और विराग, अनुग्रह और उपकार सभी मिले होते हैं। संभव है, आज के दस वर्ष बाद मैं आपकी प्रेम-पात्री बन जाऊं, किंतु इतनी जल्दी संभव नहीं। इनमें से कोई एक भाव प्रेम को अंकुरित कर सकता है। उसका विकास अन्य भावों के मिलने ही से होता है। आपके हृदय में अभी केवल दया का भाव अंकुरित हुआ है, मेरे हृदय में सम्मान और भक्ति का। हां, सम्मान और भक्ति दया की अपेक्षा प्रेम से कहीं निकटतर हैं, बल्कि यों कहिए कि ये ही भाव सरस होकर प्रेम का बाल रूप धारण कर लेते हैं।
अहिल्या के मुख से प्रेम की यह दार्शनिक व्याख्या सुनकर चक्रधर दंग हो गए। उन्होंने कभी यह अनुमान ही न किया था कि उसके विचार इतने उन्नत और उदार हैं। उन्हें यह सोचकर आनंद हुआ कि इसके साथ जीवन कितना सुखमय हो जाएगा, किंतु अहिल्या का हाथ उनके हाथ से आप ही आप छूट गया और उन्हें उसकी ओर ताकने का साहस न हुआ। इसके प्रेम का आदर्श कितना ऊंचा है ! इसकी दृष्टि में यह व्यवहार वासनामय जान पड़ता होगा। इस विचार ने उनके प्रेमोद्गारों को शिथिल कर दिया। अवाक् से खड़े रह गए।
सहसा अहिल्या ने कहा–मुझे भय है कि आश्रय देकर आप बदनाम हो जाएंगे। कदाचित् आपके माता-पिता तिरस्कार करें। मेरे लिए इससे बड़ी सौभाग्य की बात नहीं हो सकती कि आपकी दासी बनूं, लेकिन आपके तिरस्कार और आपमान का खयाल करके जी में यही आता है कि क्यों न इस जीवन का अंत कर दूं। केवल आपके दर्शनों की अभिलाषा ने मुझे अब तक जीवित रखा है। मैं आपको अपनी कालिमा से कलुषित करने के पहले मर जाना ही अच्छा समझती हूँ।
चक्रधर की आंखें करुणार्द्र हो गईं। बोले-अहिल्या, ऐसी बातें न करो। अगर संसार में अब भी कोई ऐसा क्षुद्र प्राणी है, जो तुम्हारी उज्ज्वल कीर्ति के सामने सिर न झुकाए, तो वह स्वयं नीच है। वह मेरा अपमान नहीं कर सकता। अपनी आत्मा की अनुमति के सामने मैं माता-पिता के विरोध की परवाह नहीं करता। तुम इन बातों को भूल जाओ। हम और तुम प्रेम का आनंद भोग करते हुए संसार के सब कष्टों और संकटों का सामना कर सकते हैं। ऐसी कोई विपत्ति नहीं है, जिसे प्रेम न टाल सके। मैं तुमसे विनती करता हूँ, अहिल्या, कि ये बातें फिर जबान पर न लाना।
अहिल्या ने अबकी स्नेह-सजल नेत्रों से चक्रधर को देखा। शंका की वह दाह, जो उसके मर्मस्थल को जलाए डालती थी, इन शीतल आई शब्दों से शांत हो गई। शंका की ज्वाला शांत होते ही उसकी यह चंचल दृष्टि स्थिर हो गई और चक्रधर की सौम्य मूर्ति, प्रेम की आभा से प्रकाशमान, आंखों के सामने खड़ी दिखाई दी। उसने अपना सिर उसके कंधे पर रख दिया, उस आलिंगन में उसकी सारी दुर्भावनाएं विलीन हो गईं जैसे कोई आर्त्तध्वनि सरिता के शांत, मंद प्रवाह में विलीन हो जाती है।
संध्या समय अहिल्या वागीश्वरी के चरणों पर सिर झुकाए रो रही थी। चक्रधर खड़े, नेत्रों से उस घर को देख रहे थे, जिसकी आत्मा निकल गई थी। दीपक वही थे, पर उनका प्रकाश मंद था। घर वही था, पर उसकी दीवारें नीची मालूम होती थीं। वागीश्वरी वही थी, पर लुटी हुई, जैसे किसी ने प्राण हर लिए हों।
सत्ताईस
बाबू यशोदानंदन का क्रिया-कर्म हो गया, पर धूम-धाम से नहीं। बाबू साहब ने मरते-मरते ताकीद कर दी थी कि मृतक संस्कारों में धन का अपव्यय न किया जाए । यदि कुछ धन जमा हो, तो वह हिंदू सभा को दान दे दिया जाए । ऐसा ही किया गया।
इसके तीसरे ही दिन चक्रधर का अहिल्या से विवाह हो गया। चक्रधर तो अभी कछ दिन और टालना चाहते थे, लेकिन वागीश्वरी ने बड़ा आग्रह किया। पति-रक्षा से वंचित होकर वह पराई कन्या की रक्षा का भार लेते हुए डरती थी। इस उपद्रव ने उसे सशंक कर दिया था। विवाह में कुछ धूम-धाम नहीं हुई। हां, शहर के कई रईसों ने कन्यादान में बड़ी-बड़ी रकमें दी और सबसे बड़ी रकम ख्वाजा साहब की थी। अहिल्या के विवाह के लिए उन्होंने पांच हजार रुपए अलग कर रखे थे। यह सब कन्यादान में दे दिए। कई संस्थाओं ने भी इस पुण्य कर्म में अपनी उदारता का परिचय दिया। वैमनस्य का भूत नेताओं का बलिदान पाकर शांत हो गया।
जिस दिन चक्रधर अहिल्या को विदा कराके काशी चले, हजारों आदमी स्टेशन पर पहुंचाने आए। वागीश्वरी का रोते-रोते बुरा हाल था। जब अहिल्या आकर पालकी पर बैठी, तो वह दुखिया पछाड़ खाकर गिर पड़ी। संसार उसकी आंखों में सूना हो गया। पति-शोक में भी उसके जीवन का एक आधार रह गया था। अहिल्या के जाने से वह सर्वथा निराधार हो गई। जी में आता था, अहिल्या को पकड़ लूं। उसे कोई क्यों लिए जाता है? उस पर किसका अधिकार है, वह जाती ही क्यों है? उसे मुझ पर जरा भी दया नहीं आती? क्या इतनी निष्ठुर हो गई है? वह इस शोक के आवेश में लपककर द्वार पर आई, पर पालकी का पता नहीं था। तब वह द्वार पर बैठ गई। ऐसा जान पड़ा, मानो चारों ओर शून्य, निस्तब्ध, अंधकारमय श्मशान है। मानो, कहीं कुछ रहा ही नहीं।
अहिल्या भी रो रही थी, लेकिन शोक से नहीं, वियोग में। वह घर छोड़ते हुए उसका हृदय फटा जाता था। प्राण देह से निकलकर घर से चिमट जाते और फिर छोड़ने का नाम न लेते थे। एक-एक वस्तु को देखकर मधुर स्मृतियों के समूह आंखों के सामने आ खड़े होते थे। वागीश्वरी की गर्दन में तो उसके करपाश इतने सुदृढ़ हो गए कि दूसरी स्त्रियों ने बड़ी मुश्किल से छुड़ाया, मानो जीव देह से चिमटा हो। मरणासन्न रोगी भी अपनी विलास की सामग्रियों को इतने तृषित, इतने नैराश्यपूर्ण नेत्रों से न देखता होगा। घर से निकलकर उसकी वही दशा हो रही थी, जो किसी नवजात पक्षी की घोंसले से निकलकर होती है।
लेकिन चक्रधर के सामने एक दूसरी ही समस्या उपस्थित हो रही थी। वह घर तो जा रहे थे, पर उस घर के द्वार बंद थे। उस द्वार में हृदय की गांठ से भी सुदृढ़ ताले पड़े हुए थे, जिनके खुलने की तो क्या, टूटने की भी आशा न थी। नव-वधू को लिए हुए वर के हृदय में जो अभिलाषाएं, जो मृदु-कल्पनाएं प्रदीप्त होती हैं, उनका यहां नाम भी न था। उनकी जगह चिंताओं का अंधकार छाया हुआ था। घर जाते थे, पर नहीं जानते थे कि कहाँ जा रहा हूँ। पिता का क्रोध, माता का तिरस्कार, संबंधियों की अवहेलना, इन सभी शंकाओं से चित्त उद्विग्न हो रहा था। सबसे विकट समस्या यह थी कि गाड़ी से उतरकर जाऊंगा कहाँ। मित्रों की कमी न थी, लेकिन स्त्री को लिए हुए किसी मित्र के घर जाने के खयाल से ही लज्जा आती थी। अपनी तो चिंता न थी। वह इन सभी बाधाओं को सह सकते थे, लेकिन अहिल्या उनको कैसे सहन करेगी ! उसका कोमल हृदय इन आघातों से टूट न जाएगा! उन्होंने सोचा-मैं घर जाऊं ही क्यों? क्यों न प्रयाग ही उतर पडूं और कोई मकान लेकर सबसे अलग रहूँ? कुछ दिनों के बाद यदि घर वालों का क्रोध शांत हो गया, तो चला जाऊंगा, नहीं तो प्रयाग ही सही। बेचारी अहिल्या जिस वक्त गाड़ी से उतरेगी और मेरे साथ शहर की गलियों में मकान ढूंढ़ती फिरेगी, उस वक्त उसे कितना दु:ख होगा। इन चिंताओं से उनकी मुखमुद्रा इतनी मलिन हो गई कि अहिल्या ने उनसे कुछ कहने के लिए उनकी ओर देखा तो चौंक पड़ी। उसकी वियोगव्यथा अब शांत हो गई थी और हृदय में उल्लास का प्रवाह होने लगा था, लेकिन पति की उदास मुद्रा देखकर घबरा गई, बोली-आप इतने उदास क्यों हैं? क्या अभी से मेरी फिक्र सवार हो गई?
चक्रधर ने झेंपते हुए कहा-नहीं तो, उदास क्यों होने लगा? यह उदास होने का समय है या आनंद मनाने का?
अहिल्या-यह तो आप अपने मुख से पूछे, जो उदास हो रहा है।
चक्रधर ने हंसने की विफल चेष्टा करके कहा-यह तुम्हारा भ्रम है। मैं तो इतना खुश हूँ कि डरता हूँ, लोग मुझे ओछा न समझने लगें।
मगर चक्रधर जितना ही अपनी चिंता को छिपाने का प्रयत्न करते, उतना ही वह और भी प्रत्यक्ष होती जाती थी, जैसे दरिद्र अपनी साख बनाए रखने की चेष्टा में और भी दरिद्र हो जाता है।
अहिल्या ने गंभीर भाव से कहा-तुम्हारी इच्छा है, न बताओ, लेकिन यही इसका आशय है कि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं।
यह कहते-कहते अहिल्या की आंखें सजल हो गईं। चक्रधर से अब जब्त न हो सका। उन्होंने संक्षेप में सारी बातें कह सुनाईं और अंत में प्रयाग उतर जाने का प्रस्ताव किया।
अहिल्या ने गर्व से कहा-अपना घर रहते प्रयाग क्यों उतरें? मैं घर चलूंगी। माता-पिता की अप्रसन्नता के भय से कोई अपना घर नहीं छोड़ देता। वे कितने ही नाराज हों, हैं तो हमारे मातापिता! हम लोगों ने कितना ही अनुचित किया हो, हैं तो उन्हीं के बालक। इस नाते को कौन तोड़ सकता है? आप इन चिंताओं को दिल से निकाल डालिए।
चक्रधर-निकालना तो चाहता हूँ, पर नहीं निकलती। बाबूजी यों तो आदर्श पिता हैं, लेकिन उनके सामाजिक विचार इतने संकीर्ण हैं कि उनमें धर्म का स्थान भी नहीं। मुझे भय है कि वह मुझे घर में जाने ही न देंगे। इसमें हरज ही क्या है कि हम लोग प्रयाग उतर पड़ें और जब तक घर के लोग हमारा स्वागत करने को तैयार न हों, यहीं पड़े रहें।
अहिल्या-आपको कोई हरज न मालूम होता हो, मुझे तो माता-पिता से अलग स्वर्ग में रहना भी अच्छा न लगेगा। आखिर उनकी सेवा करने का और कौन अवसर मिलेगा? वे कितना ही रूठे, हमारा यही धर्म है कि उनका दामन न छोड़ें। बचपन में अपने स्वार्थ के लिए तो हम कभी मातापिता की अप्रसन्नता की परवाह नहीं करते, मचल-मचलकर उनकी गोद में बैठते हैं, मार खाते हैं, घुड़के जाते हैं, पर उनका गला नहीं छोड़ते तो अब उनकी सेवा करने के समय उनकी अप्रसन्नता से मुंह फुला लेना हमें शोभा नहीं देता। आप उनको प्रसन्न करने का भार मुझ पर छोड़ दें, मुझे विश्वास है कि उन्हें मना लूंगी।
चक्रधर ने अहिल्या को गद्गद नेत्रों से देखा और चुप हो रहे।
रात को दस बजते-बजते गाड़ी बनारस पहुंची। अहिल्या के आश्वासन देने पर भी चक्रधर बहुत चिंतित हो रहे थे कि कैसे क्या होगा। कहीं पिताजी ने जाते ही जाते घुड़कियां देनी शरू की
और अहिल्या को घर में न जाने दिया, तो डूब मरने की बात होगी। लेकिन उन्हें कितना आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने मुंशीजी को दो आदमियों के साथ स्टेशन पर उनकी राह देखते हए पाया। पिता के इस असीम, अपार, अलौकिक वात्सल्य ने उन्हें इतना पुलकित किया कि वह जाकर पिता के पैरों पर गिर पड़े। मुंशीजी ने दौड़कर छाती से लगा लिया और उनके श्रद्धाश्रुओं को रूमाल से पोंछते हुए स्नेहकोमल शब्दों में बोले-कम-से-कम एक तार तो दे देते कि मैं किस गाडी से आ रहा हूँ। खत तक न लिखा। यहां बराबर दस दिन से दो बार स्टेशन पर दौड़ा आता हूँ, और एक आदमी हरदम तुम्हारे इंतजार में बिठाए रहता हूँ कि जाने कब, किस गाड़ी से आ जाओ। कहाँ है बहू? चलो, उतार लाएं। बहू के साथ यहीं ठहरो। स्टेशन मास्टर से कहकर वेटिंग रूम खुलवाए देता हूँ। मैं दौड़कर जरा बाजे-गाजे, रोशनी-सवारी की फिक्र करूं। बहू का स्वागत तो करना ही होगा। यहां लोग क्या जानेंगे कि बहू आई है। वहां की बात और थी, यहां की बात और है। भाईबंदों के साथ रस्म-रिवाज मानना ही पड़ता है।
यह कहकर मुंशीजी चक्रधर के साथ अहिल्या की गाड़ी के द्वार पर खड़े हो गए। अहिल्या ने धीरे से उतरकर उनके चरणों पर सिर रख दिया। उनकी आंखों से श्रद्धा और आनंद के आंसू बहने लगे। मुंशीजी ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और दोनों प्राणियों को वेटिंग रूम में बैठाकर बोले-किसी को अंदर मत आने देना। मैंने साहब से कह दिया है। मैं कोई घंटे भर में आऊंगा। तुमसे बड़ी भूल हुई कि मुझे एक तार न दे दिया। अब बेचारी यहां परदेशियों की तरह घंटों बैठी रहेगी। तुम्हारा कोई काम लड़कपन से खाली ही नहीं होता। रानी कई बार आ चुकी हैं। आज चलते-चलते ताकीद कर गई थीं कि बाबूजी आ जाएं तो मुझे खबर दीजिएगा। मैं स्टेशन पर उनका स्वागत करूंगी और बाबूजी को साथ लाऊंगी। सोचो, उन्हें कितनी तकलीफ होगी!
चक्रधर ने दबी जबान से कहा-उन्हें तो आप इस वक्त तकलीफ न दीजिएगा और आपको भी धूमधाम करने के लिए तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं। सवेरे तो सबको मालूम हो ही जाएगा।
मुंशीजी ने लकड़ी संभालते हुए कहा-सुनती हो बहू, इसकी बातें? सवेरे लोग जानकर क्या करेंगे? दुनिया क्या जानेगी कि बहू कब आई?
मुंशीजी चले गए, तो अहिल्या ने चक्रधर को आड़े हाथों लिया। ऐसे देवता-पुरुष के साथ तुम अकारण ही कितना अनर्थ कर रहे थे। मेरा तो जी चाहता था कि घंटों उनके चरणों पर पड़ी हुई रोया करूं।
चक्रधर लज्जित हो गए। इसका प्रतिवाद तो न किया, पर उनका मन कह रहा था कि इस वक्त दुनिया को दिखाने के लिए पिताजी कितना ही धूम-धाम क्यों न कर लें, घर में कोई-न-कोई गुल खिलेगा जरूर। उन्हें यहां बैठते अनकूस मालूम होता था। सारी रात का बखेड़ा हो गया। शहर का चक्कर लगाना पड़ेगा, घर पहुँचकर न जाने कितनी रस्में अदा करनी पड़ेंगी, तब जा के कहीं गला छूटेगा। सबसे ज्यादा उलझन की बात यह थी कि कहीं मनोरमा भी राजसी ठाठ-बाट से न आ पहुंचे। इस शोरगुल से फायदा ही क्या?
मुंशीजी को गए अभी आधा घंटा भी न हुआ था कि मनोरमा कमरे के द्वार पर आकर खड़ी दिखाई दी। चक्रधर सहसा चौंक पड़े और कुर्सी से उठकर खड़े हो गए। मनोरमा के सामने ताकने की उनकी हिम्मत न पड़ी, मानो कोई अपराध किया हो। मनोरमा ने उन्हें देखते ही कहा-बाबूजी, आप चुपके-चुपके बहू को उड़ा लाए और मुझे खबर तक न दी ! मुंशीजी न कहते, तो मुझे मालूम ही न होता। आपने अपना घर बसाया, मेरे लिए भी कोई सौगात लाए?
चक्रधर ने मनोरमा की ओर लज्जित होकर देखा, तो उसका मुख उड़ा हुआ था। वह मुस्करा रही थी, पर आंखों में आंसू झलक रहे थे। इन नेत्रों में कितनी विनय थी, कितना वैराग्य, कितनी तृष्णा, कितना तिरस्कार ! चक्रधर को उसका जवाब देने को शब्द न मिले ! मनोरमा ने सिर झुकाकर फिर कहा-आपको मेरी सुधि ही न रही होगी, सौगात कौन लाता? बहू से बातें करने में दूसरों की सुधि क्यों आती ! बहिन, आप उतनी दूर क्यों खड़ी हैं। आइए, आइए, आपसे गले तो मिल लूं। आपसे तो मुझे कोई शिकायत नहीं।
यह कहकर वह अहिल्या के पास गई और दोनों गले मिलीं। मनोरमा ने रूमाल से एक जड़ाऊ कंगन निकालकर अहिल्या के हाथ में पहना दिया और छत की ओर ताकने लगी; जैसे एकाएक कोई बात याद आ गई हो, सहसा उसकी दृष्टि आईने पर जा पड़ी। अहिल्या का रूपचन्द्र अपनी संपूर्ण कलाओं के साथ उसमें प्रतिबिंबित हो रहा था। मनोरमा उसे देखकर अवाक् हो गई। मालूम हो रहा था, किसी देवता का आशीर्वाद मूर्तिमान होकर आकाश से उतर आया है। उसकी सरल, शांत, शीतल छवि के सामने उसका विशाल सौंदर्य ऐसा मालूम होता था, मानो कुटी के सामने कोई भवन खड़ा हो। यह उन्नत भवन इस समय शांति-कुटी के सामने झुक गया। भवन सूना था, कुटी में एक आत्मा शयन कर रही थी।
इतने में अहिल्या ने उसे कुर्सी पर बिठा दिया और पान-इलायची देते हुए बोली-आपको मेरे कारण बड़ी तकलीफ हुई। यह आपके आराम करने का समय था। मैं जानती थी कि आप आएंगी, तो यहां किसी दूसरे वक्त…..
चक्रधर मौका देखकर बाहर चले गए थे। उनके रहने से दोनों ही को संकोच होता, बल्कि तीनों चुप रहते।
मनोरमा ने क्षुधित नेत्रों से अहिल्या को देखकर कहा-नहीं बहिन, मुझे जरा भी तकलीफ नहीं हुई। मैं तो यों भी बारह-एक के पहले नहीं सोती। तुमसे मिलने की बहुत दिनों से इच्छा थी। मैंने अपने मन में तुम्हारी जो कल्पना की थी, तुम ठीक वैसी ही निकलीं। तुम ऐसी न होतीं, तो बाबूजी तुम पर रीझते ही क्यों? अहिल्या, तुम बड़ी भाग्यवान हो! तुम्हारी जैसी भाग्यशाली स्त्रियां बहुत कम होंगी। तुम्हारा पति मनुष्यों में रत्न है, सर्वथा निर्दोष एवं सर्वथा निष्कलंक।
अहिल्या पति-प्रशंसा से गर्वोन्नत होकर बोली-आपके लिए कोई सौगात तो नहीं लाए।
मनोरमा-मेरे लिए तुमसे बढ़कर और क्या सौगात लाते? मैं संसार में अकेली थी, तुम्हें पाकर दुकेली हो जाऊंगी। मंगला से मैंने प्रेम नहीं बढ़ाया। कल को वह पराए घर चली जाएगी। कौन उसके नाम पर बैठकर रोता ! तुम कहीं न जाओगी, तुम्हें सहेली बनाने में कोई खटका नहीं। आज से तुम मेरी सहेली हो। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि हम और तुम चिरकाल तक स्नेह के बंधन में बंधे रहें।
अहिल्या–मैं इसे अपना सौभाग्य समझूगी। आपके शील स्वभाव की चर्चा करते उनकी जबान न थकती।
मनोरमा ने उत्सुक होकर पूछा–सच ! मेरी चर्चा भी करते हैं?
अहिल्या–बराबर बात-बात पर आपका जिक्र करने लगते हैं। मैं नहीं जानती कि आपकी वह कौन-सी आज्ञा है, जिसे वह टाल सकें।
इतने में बाजों की धों-धों-पों-पों सुनाई दी। मुंशीजी बारात जमाए चले आ रहे थे। सामान तो पहले ही से जमा कर रखे थे, जाकर ले आना था। पटाखे, बाजों की तीन-चार चौकियां, कई सवारी गाड़ियां, दो हाथी, दर्जनों घोड़े, एक सुंदर सुखपाल, ये सब स्टेशन के सामने आ पहुंचे।
अहिल्या के हृदय में आनंद की तरंगें उठ रही थीं। उसने जिन बातों की स्वप्न में भी आशा न की थी वे सब पूरी हुई जाती थीं। कभी उसका स्वागत इस ठाठ से होगा, कभी एक बड़ी रानी उसकी सहेली बनेगी, कभी उसका इतना आदर-सम्मान होगा, उसने कल्पना भी न की थी।
मनोरमा ने उसे धीरे-धीरे ले जाकर सुखपाल में बिठा दिया। बारात चली। चक्रधर एक सुरंग घोड़े पर सवार थे।
एक क्षण में सन्नाटा हो गया, लेकिन मनोरमा अभी तक अपनी मोटर के पास खड़ी थी, मानो रास्ता भूल गई हो।
अट्ठाईस
ठाकुर गुरुसेवक सिंह जगदीशपुर के नाजिम हो गए थे। इस इलाके का सारा प्रबंध उनके हाथ में था। तीनों पहली रानियां वहीं राजभवन में रहती थीं। उनकी देखभाल करते रहना, उनके लिए जरूरी चीजों का प्रबंध करना भी नाजिम का काम था। यह कहिए कि मुख्य काम यही था। नजामत तो केवल नाम का पद था। पहले यह पद न था। राजा साहब ने रानियों को आराम से रखने के लिए इस नए पद की सृष्टि की थी। ठाकुर साहब जगदीशपुर में राजा साहब के प्रतिनिधि स्वरूप थे।
तीनों रानियों में अब वैर-विरोध कम होता था। अब हर एक को अख्तियार था, जितने नौकर चाहें रखें, जितना चाहें खर्च करें, जितने गहने चाहें बनवाएं, जितने धर्मोत्सव चाहें मनाएं, फिर कलह होता ही क्यों? यदि राजा साहब किसी एक रानी पर विशेष प्रेम रखते और अन्य रानियों की परवाह न करते, तो ईर्ष्यावश लड़ाई होती; पर राजा साहब ने जगदीशपुर में आने की कसम-सी खा ली थी। फिर किस बात पर लड़ाई होती?
ठाकुर साहब ने दीवानखाने में अपना दफ्तर बना लिया था। जब कोई जरूरत होती, तुरंत रनिवास में पहुँच जाते। रानियां उनसे परदा तो करती थीं, पर परदे की ओट से बातचीत कर लेती थीं। रानी वसुमती इस ओट को भी अनावश्यक समझती थीं। कहती-जब बातें ही की, तो पर्दा कैसा ? ओट क्यों ? गुड़ खाएं गुलगुले का परहेज। उन्हें अब संसार से विराग-सा हो गया था। सारा समय भगवत्-पूजन और भजन में काटती थीं। हां, आभूषणों से अभी उनका जी न भरा था और अन्य स्त्रियों की भाति वह गहने बनवाकर जमा न करती थीं, उनका नित्य व्यवहार करती थीं। रोहिणी को आभूषणों से घृणा हो गई थी, मांग-चोटी की भी परवा न करती! यहां तक कि उसने मांग में सिंदूर डालना छोड़ दिया था। कहती, मुझमें और विधवा में क्या अंतर है, बल्कि विधवा हमसे हजार दर्जे अच्छी; उसे एक यही रोना है कि पुरुष नहीं। जलन तो नहीं! यहां तो जिंदगी रोने और कुढ़ने में ही कट रही है। मेरे लिए पति का होना, न होना दोनों बराबर है, सोहाग लेकर चाटूं? रहीं रानी रामप्रिया, उनका विद्या-व्यसन अब बहुत कुछ शिथिल हो गया था, गाने की धुन सवार थी, भांति-भांति के बाजे मंगाती रहती थीं। ठाकुर साहब को भी गाने का कुछ शौक था या अब हो गया हो। किसी-न-किसी तरह समय निकालकर जा बैठते और उठने का नाम न लेते। रात को अक्सर भोजन भी वहीं कर लिया करते। रामप्रिया उनके लिए स्वयं थाली परस लाती थी। ठाकुर साहब की जो इतनी खातिर होने लगी, तो मिजाज आसमान पर चढ़ गया। नए-नए स्वप्न देखने लगे। समझे, सौभाग्य-सूर्य उदय हो गया। नौकरों पर अब ज्यादा रोब जमाने लगे। सोकर देर में उठते और इलाके का दौरा भी बहुत कम करते। ऐसा जान पड़ता था, मानो इस इलाके के राजा वही हैं। दिनों-दिन यह विश्वास होता जाता था कि रामप्रिया मेरे नयन-बाणों का शिकार हो गई है, उसके हृदय-पट पर मेरी तस्वीर खिंच गई है। रोज कोई-न-कोई ऐसा प्रमाण मिल जाता था, जिससे यह भावना और भी दृढ़ हो जाती थी।
एक दिन आपने रामप्रिया की प्रेम-परीक्षा लेने की ठानी। कमरे में लिहाफ ओढ़ कर पड़ रहे। रामप्रिया ने किसी काम के लिए बुलाया तो कहला भेजा, मुझे रात से जोरों का बुखार है, मारे दर्द के सिर फटा पड़ता है। रामप्रिया यह सुनते ही दीवानखाने में आ पहुंची और उनके सिर पर हाथ रखकर देखा, माथा ठंडा था। नाड़ी भी ठीक चल रही थी। समझी, कुछ सिर भारी हो गया होगा, कुछ परवाह न की। हां, अंदर जाकर कोई तेल सिर में लगाने को भिजवा दिया।
ठाकुर साहब को इस परीक्षा से संतोष न हुआ। उसे प्रेम है, यह तो सिद्ध था, नहीं तो वह देखने दौड़ी आती ही क्यों, लेकिन प्रेम कितना है, इसका कुछ अनुमान न हुआ। कहीं वह केवल शिष्टाचार के अंतर्गत न हो। वह केवल शिष्टाचार कर रही हो और मैं प्रेम के भ्रम में पड़ा रहूँ। रामप्रिया के अधरों पर, नेत्रों में, बातों में तो उन्हें भ्रम की झलक नजर आती थी, पर डरते थे कि मुझे भ्रम न हो। अबकी उन्होंने कड़ी परीक्षा लेने की ठानी। क्वार का महीना था। धूप तेज होती थी। मलेरिया फैला हुआ था। आप एक दिन दिनभर पैदल खेतों में घूमते रहे, कई बार तालाब का पानी भी पिया। ज्वर का पूरा सामान करके आप घर लौटे। नतीजा उनके इच्छा-नुकूल ही हुआ। दूसरे दिन प्रात:काल उन्हें ज्वर चढ़ आया और ऐसे जोर से आया कि दोपहर तक बक-झक करने लगे। मारे दर्द के सिर फटने लगा। सारी देह टूट रही थी और सिर में चक्कर आ रहा था। अब तो बेचारे को लेने के देने पड़े। प्रेम-परीक्षा में धैर्य परीक्षा होने लगी और इसमें वह कच्चे निकले। कभी रोते कि बाबूजी को बुला दो। कभी कहते, स्त्री को बुला दो। इतना चीखे-चिल्लाए कि नौकरों का नाकोंदम हो गया। रामप्रिया ने आकर देखा तो होश उड़ गए। देह तवा हो रही थी और नाड़ी घोड़े की भांति सरपट दौड़ रही थी। बेचारी घबरा उठी। तुरंत डॉक्टर को लाने के लिए आदमी को शहर दौड़ाया और ठाकुर साहब के सिरहाने बैठकर पंखा झलने लगी। द्वार पर चिक डाल दी और एक आदमी को द्वार पर बिठा दिया कि किसी अपरिचित मनुष्य को अंदर न जाने दे। ठाकुर साहब को सुधि होती और रामप्रिया की विकलता देखते, तो फूले न समाते, पर वहां तो जान के लाले पड़े हुए थे।
एक सप्ताह तक गुरुसेवक का ज्वर न उतरा। डॉक्टर रोज आते और देख-भाल कर चले जाते। कोई दवा देने की हिम्मत न पड़ती। रामप्रिया को सोना और खाना हराम हो गया। दिन के दिन और रात की रात रोगी के पास बैठी रहती। पानी पिलाना होता तो खुद पिलाती: सिर में तेल डालना होता, तो खुद डालती, पथ्य देना होता, तो खुद बनाकर देती। किसी नौकर पर विश्वास न था।
अब लोगों को चिंता होने लगी। रोगी को यहां से उठाकर ले जाने में जोखिम था। सारा परिवार यहीं आ पहुंचा। हरिसेवक ने बेटे की सूरत देखी, तो रो पड़े। देह सूखकर कांटा हो गई थी। पहचानना कठिन था। राजा साहब भी दिन में दो बार मनोरमा के साथ रोगी को देखने आते; पर इस तरह भागते मानो किसी शत्रु के घर आए हों। रामप्रिया तो रोगी की सेवा-शुश्रूषा में लगी रहती, उसे इसकी परवाह न थी कि कौन आता है और कौन जाता है, लेकिन रोहिणी को राजा साहब की निष्ठुरता असह्य मालूम होती थी। वह उन पर दिल का गुबार निकालने के लिए अवसर ढूंढती रहती थी; पर राजा साहब भूलकर भी अंदर न आते थे। आखिर एक दिन वह मनोरमा ही पर पिल पड़ी। बात कोई न थी। मनारेमा ने सरल भाव से कहा-यहां आप लोगों का जीवन बड़ी शांति से कटता होगा। शहर में तो रोज एक-न-एक झंझट सिर पर सवार रहता है। कभी इनकी दावत करो, कभी उनकी दावत में जाओ, आज क्लब में जलसा है, आज अमुक विद्वान् का व्याख्यान है। नाकों दम रहता है!
रोहिणी तो भरी बैठी ही थी। ऐंठकर बोली-हां, बहिन, क्यों न हो! ऐसे प्राणी भी होते हैं, जिन्हें पड़ोसी के उपवास देखकर जलन होती है। तुम्हें पकवान बुरे मालूम होते हैं, हम अभागिनी के लिए सत्तू में भी बाधा ! किसी को भोग, किसी को जोग, यह पुराना दस्तूर चला आ रहा है, तुम क्या करोगी?
मनोरमा ने फिर उसी सरल भाव से कहा–अगर तुम्हें वहां सुख ही सुख मालूम होता है, तो चली क्यों नहीं आती? क्या तुम्हें किसी ने मना किया है? अकेले मेरा जी भी घबराया करता है। तुम रहोगी, तो मजे से दिन कट जाएगा।
रोहिणी नाक सिकोड़कर बोली-भला, मुझमें वह हाव-भाव कहाँ है कि इधर राजा साहब को मुट्ठी में किए रहूँ, उधर हाकिमों को मिलाए रहूँ। यह तो कुछ पढ़ी-लिखी शहरवालियों को ही आता है, हम गंवारिनें यह त्रियाचरित्र क्या जानें! यहां तो एक ही की होकर रहना जानती हैं। मनोरमा खड़ी सन्न रह गई। ऐसा मालूम हुआ कि ज्वाला पैरों से उठी और सिर से निकल गई। ऐसी भीषण मर्मवेदना हुई, मानो किसी ने सहस्र शूलोंवाला भाला उसके कलेजे में चुभो दिया हो। संज्ञाशून्य-सी हो गई। आंखें खुली थीं, पर कुछ दिखाई न देता था; कानों में कोई आवाज न आती थी, इसका ज्ञान ही न रहा कि कहाँ आई हूँ, क्या कर रही हूँ रात है या दिन? वह दस-बारह मिनट तक इसी भांति स्तंभित खड़ी रही। राजा साहब मोटर के पास खड़े उसकी राह देख रहे थे। जब उसे देर हुई तो बुला भेजा। लौंडी ने आकर मनोरमा से संदेशा कहा; पर मनोरमा ने सुना ही नहीं। लौंडी ने एक मिनट के बाद फिर आकर कहा, फिर भी मनोरमा ने कोई उत्तर न दिया। तब लौंडी चली गई। उसे तीसरी बार कुछ कहने का साहस न हुआ। राजा साहब ने दो मिनट और इंतजार किया तब स्वयं अंदर आए, तो देखा कि मनोरमा चुपचाप मूर्ति की भांति खड़ी है। दर ही से पुकारा-नोरा, क्या कर रही हो? चलो देर हो रही है, सात बजे लेडी काक ने आने का वादा किया है और छ: यहीं बज गए। मनोरमा ने इसका भी कुछ जवाब न दिया। तब राजा साहब ने मनोरमा के पास आकर उसका हाथ पकड़ लिया और कुछ कहना ही चाहते थे कि उसका चेहरा देखकर चौंक पड़े। वह सर्प-दंशित मनुष्य की भांति निर्निमेष नेत्रों से दीवार की ओर टकटकी लगाए ताक रही थी, मानो आंखों की राह प्राण निकल रहे हों।
राजा साहब ने घबराकर पूछा-नोरा, कैसी तबीयत है?
अब मनोरमा को होश आया। उसने राजा साहब के कंधे पर सिर रख दिया और इस तरह फूट-फूटकर रोने लगी, मानो पानी का बांध टूट गया हो। यह पहला अवसर था कि राजा साहब ने मनोरमा को रोते देखा। व्यग्र होकर बोले-क्या बात है, मनोरमा, किसी ने कुछ कहा है? इस घर में किसकी ऐसी मजाल है कि तुम्हारी ओर टेढ़ी निगाह से भी देख सके? उसका खून पी जाऊं। बताओ, किसने क्या कहा है? तुमने कुछ कहा है, रोहिणी? साफ-साफ बता दो।
रोहिणी पहले तो मनोरमा की दशा देखकर सहम उठी थी पर राजा साहब के खून पी जाने की धमकी ने उत्तेजित कर दिया। जी में तो आया, कह दूं, हां, मैंने कहा है, और जो बात यथार्थ थी, वह कहा है, जो कुछ करना हो कर लो। खून पी के यों न खड़े रहोगे लेकिन राजा साहब का विकराल रौद्र रूप देखकर बोली-उन्हीं से क्यों नहीं पूछते? मेरी बात का विश्वास ही क्या?
राजा-नहीं, मैं तुमसे पूछता हूँ!
रोहिणी-उनसे पूछते क्या डर लगता है?
मनोरमा-ने सिसकते हुए कहा-अब मैं यहीं रहूँगी; आप जाइए। मेरी चीजें यहीं भिजवा दीजिएगा।
राजा साहब ने अधीर होकर पूछा-आखिर बात क्या है, कुछ मालूम भी तो हो?
मनोरमा-बात कुछ भी नहीं है। मैं अब यहीं रहूँगी। आप जाएं।
राजा-मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जा सकता; अकेले मैं एक दिन भी जिंदा नहीं रह सकता। मनोरमा-मैंने तो निश्चय कर लिया है, इस घर से बाहर न जाऊंगी।
राजा साहब समझ गए कि रोहिणी ने अवश्य कोई व्यंग्य शर चलाया है। उसकी ओर लाल आंखें करके बोले-तुम्हारे कारण यहां से जान लेकर भागा, फिर भी तुम पीछे पड़ी हुई हो? वहां भी शांत नहीं रहने देती। मेरी खुशी है, जिससे जी चाहता है, बोलता हूँ, जिससे जी नहीं चाहता, नहीं बोलता। तुम्हें उसकी जलन क्यों होती है?
रोहिणी-जलन होगी मेरी बला को। तुम यहां ही थे तो कौन-सी फूलों की सेज पर सुला दिया था? यहां तो जैसे कन्ता घर रहे, वैसे रहे विदेश। भाग्य में रोना बदा था, रोती हूँ।
राजा-अभी तो नहीं रोई; मगर शौक है तो रोओगी।
रोहिणी-तो इस भरोसे भी न रहिएगा। यहां ऐसी रोने वाली नहीं हूँ कि सेंतमेंत आंखें फोडूं। पहले दूसरे को रुलाकर तब रोऊंगी।
राजा साहब ने दांत पीसकर कहा-शर्म और हया छू नहीं गई। कुंजडिनों को भी मात कर
दिया।
रोहिणी-शर्म और हयावाली तो एक वह हैं, जिन्हें छाती से लगाए खड़े हो, हम गंवारिनें भला शर्म और हया क्या जानें!
राजा साहब ने जमीन पर पैर पटककर कहा–उसकी चर्चा न करो। इतना बतलाए देता हूँ, तुम एक लाख जन्म लो, तब भी उसको नहीं पा सकतीं। भूलकर भी उसकी चर्चा मत करो।
रोहिणी-तुम तो ऐसी डांट बता रहे हो, मानो मैं कोई लौंडी हूँ। क्यों न उसकी चर्चा करूं? वह सीता और सावित्री होगी, तो तुम्हारे लिए होगी, यहां क्यों पर्दा डालने लगी? जो बात देखंगी-सुनूंगी, वह कहूँगी भी, किसी को अच्छा लगे या बुरा।
राजा-अच्छा ! तुम अपने को रानी समझे बैठी हो। रानी बनने के लिए जिन गुणों की जरूरत है वे तुम्हें छू भी नहीं गए। तुम विशालसिंह ठाकुर से ब्याही गई थी और अब भी वही हो।
रोहिणी-यहां रानी बनने की साध ही नहीं। मैं तो ऐसी रानियों का मुंह देखना भी पाप समझती हूँ, जो दूसरों से हाथ मिलाती और आंखें मटकाती फिरें।
राजा साहब का क्रोध बढ़ता जाता था, पर मनोरमा के सामने वह अपना पैशाचिक रूप दिखाते हुए शर्माते थे। पर कोई लगती बात कहना चाहते थे, जो रोहिणी की जबान बंद कर दे, वह अवाक रह जाए। मनोरमा को कटु वचन सुनाने के दंडस्वरूप रोहिणी को कितनी ही कड़ी बात क्यों न कही जाए, वह क्षम्य थी। बोले-तुम्हें तो जहर खाकर मर जाना चाहिए। कम-से-कम तुम्हारी जली-कटी बातें तो न सुनने में आएंगी।
रोहिणी ने आग्नेय नेत्रों से राजा साहब की ओर देखा, मानो वह उसकी ज्वाला से उन्हें भस्म कर देगी, मानो उसके शरों से उन्हें वेध डालेगी और लपककर पानदान को ठुकराती, लोटे का पानी गिराती, वहां से चली गई।
मनोरमा ने सहृदय भाव से कहा-आप व्यर्थ ही इनके मुंह लगे। मैं आपके साथ न जाऊंगी।
राजा-नोरा, कभी-कभी मुझे तुम्हारे ऊपर भी क्रोध आता है। भला, इन गंवारिनों के साथ रहने में क्या आनंद आएगा? यह सब मिलकर तुम्हारा जीना दूभर कर देंगी।
राजा साहब ने बहुत देर तक समझाया, पर मनोरमा ने एक न मानी। रोहिणी की बातें अभी तक उसके हृदय के एक-एक परमाणु में व्याप्त थीं। उसे शंका हुई कि ये भाव केवल रोहिणी के नहीं हैं, यहां सभी लोगों के मन में यही भाव होंगे। रोहिणी केवल उन भावों को प्रकट कर देने की अपराधिनी है। इस संदेह और लांछन का निवारण यहां सबके सम्मुख रहने से ही हो सकता था और यही उसके संकल्प का कारण था। अंत में राजा साहब ने हताश होकर कहा-तो फिर मैं भी काशी छोड़ देता हूँ। तुम जानती हो कि मुझसे अकेले वहां एक दिन भी न रहा जाएगा।
मनोरमा ने निश्चयात्मक भाव से कहा-जैसी आपकी इच्छा।
एकाएक मुंशी वज्रधर लाठी टेकते आते दिखाई दिए। चेहरा उतरा हुआ था, पाजामे का इजारबंद नीचे लटकता हुआ, आंगन में खड़े होकर बोले-रानीजी, आप कहाँ हैं? जरा कृपा करके आइएगा, या हुक्म हो, तो मैं ही आऊं?
राजा साहब ने कुछ चिढ़कर कहा-क्या है, यहीं चले आइए। आपको इस वक्त आने की क्या जरूरत थी? सब लोग यहीं चले आए, कोई वहां भी तो चाहिए।
मुंशीजी कमरे में आकर बड़े दीन-भाव से बोले-क्या करूं, हुजूर, घर तबाह हुआ जा रहा है। हुजूर से न रोऊ, तो किससे रोऊ! घर तबाह हुआ जाता है। लल्लू न जाने क्या करने पर तुला है। मनोरमा ने सशंक होकर पूछा-क्या बात है, मुंशीजी? अभी तो आज बाबूजी वहां मेरे पास आए थे, कोई नई बात नहीं कही।
मुंशी-वह अपनी बात किसी से कहता है कि आपसे कहेगा? मुझसे भी कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन आज प्रयाग जाने को तैयार बैठा हुआ है। बहू को भी साथ लिए जाता है। कहता है, अब यहां न रहूँगा।
मनोरमा-आपने पूछा नहीं कि क्यों जा रहे हो! जरूर उन्हें किसी बात से रंज पहुंचा होगा, नहीं तो वह बहू को लेकर न जाते। बहू ने तो कहीं उनके कान नहीं भर दिए?
मुंशी-नहीं हुजूर, वह तो साक्षात् लक्ष्मी है। मैंने तो अपनी जिंदगी भर में ऐसी औरत देखी ही नहीं। एक महीना से ज्यादा हो गया; पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि अपनी सास की देह दबाए बगैर सोई हो। सबसे पहले उठती है और सबके पीछे सोती है। उसको तो मैं कुछ कह नहीं सकता। यह सब लल्लू की शरारत है। जो उसके मन में आता है, वही करता है। मुझे तो कुछ समझता ही नहीं। आगरे में जाकर शादी की। कितना समझाया, पर न माना। मैंने दरगुजर किया। बहू को धूमधाम से घर लाया। सोचा, जब लड़के से इसका संबंध हो गया, तो अब बिगड़ने और रूठने से नहीं टूट सकता। लड़की का दिल क्यों दुखाऊं, लेकिन लल्लू का मुंह फिर भी सीधा नहीं होता। अब न जाने मुझसे क्या करवाना चाहता है।
मनोरमा-जरूर कोई-न-कोई बात होगी। घर में किसी ने ताना तो नहीं मारा?
मुंशी-इल्म की कसम खाकर कहता हूँ, हुजूर, जो किसी ने चूं तक की हो। ताना उसे दिया जाता है, जो टर्राए। वह तो सेवा और शील की देवी है, उसे कौन ताना दे सकता है? हां, इतना जरूर है कि हम दोनों आदमी उसका छुआ नहीं खाते।
मनोरमा ने सिर हिलाकर कहा-अच्छा, यह बात है ! भला बाबूजी यह कब बर्दाश्त करने लगे। मैं अहिल्या की जगह होती, तो उस घर में एक क्षण भी न रहती। वह न जाने कैसे इतने दिन रह गई।
मुंशी-उससे तो कभी इस बात की चर्चा तक नहीं की, हुजूर। (आप बार-बार मना करती हैं कि मुझे हुजूर न कहा करो; पर जबान से निकल ही आता है।) इसीलिए तो मैंने उसके आते ही एक महाराजिन रख ली, जिसमें खाने-पीने का सवाल ही न पैदा हो। संयोग की बात है, कल महराजिन ने बहू से तरकारी बघारने के लिए घी मांगा। बहू घी लिए हुए चौके में चली गई। चौका छूत हो गया। लल्लू ने तो खाना खाया और सबके लिए बाजार से पूरियां आईं। बहू तभी से पड़ रही है और लल्लू घर छोड़कर उसे लिए चला जा रहा है।
मनोरमा ने विरक्त भाव से कहा-तो मैं क्या कर सकती हूँ?
मुंशी-आप सब कुछ कर सकती हैं। आप जो कर सकती हैं, वह दूसरा नहीं कर सकता। आप जरा चलकर उसे समझा दें। मुझ पर इतनी दया करें। सनातन से जिन बातों को मानते आए हैं, वे सब छोड़ी नहीं जाती।
मनोरमा-तो न छोड़िए, आपको कोई मजबूर नहीं करता। आपको अपना धर्म प्यारा है और होना भी चाहिए। उन्हें भी अपना सम्मान प्यारा है और होना भी चाहिए। मैं जैसे आपको बहू के हाथ का भोजन ग्रहण करने को मजबूर नहीं कर सकती, उसी भांति उन्हें भी यह अपमान सहने के लिए नहीं दबा सकती। आप जानें और वह जानें, मुझे बीच में न डालिए।
मुंशी-हुजूर, इतना निराश न करें। यदि बच्चा चले गए, तो हम दोनों प्राणी तो रोते-रोते मर जाएंगे।
मनोरमा-तो इसकी क्या चिंता? एक दिन तो सभी को मरना है, यहां अमर कौन है? इतने दिन तो जी लिए: दो-चार साल और जिए तो क्या?
मुंशी-रानीजी, आप जले पर नमक छिड़क रही हैं। इतना तो नहीं होता कि चलकर समझा दें, ऊपर से और ताने देती हैं। बहू का आदर-सत्कार करने में कोई बात हम उठा नहीं रखते, एक उसका छुआ न खाया, तो इसमें रूठने की क्या बात है? हम कितनी ही बातों से दब गए, तो क्या उन्हें एक बात में भी नहीं दबना चाहिए ?
मनोरमा-तो जाकर दबाइए न, मेरे पास क्यों दौड़े आए हैं ! मेरी राय अगर पूछते हैं, तो जाकर चुपके से बहू के हाथ से खाना पकवाकर खाइए। दिल से यह भाव बिल्कुल निकाल डालिए कि वह नीची है और आप ऊंचे हैं। इस भाव का लेश भी दिल में न रहने दीजिए। जब वह आपकी बहू हो गई, तो बहू ही समझिए। अगर यह छुआछूत का बखेड़ा करना था, तो बहू को लाना ही न चाहिए था। आपकी बहू रूप-रंग में व शील-गुण में किसी से कम नहीं। मैं तो कहती हूँ कि आपकी बिरादरी भर में ऐसी एक भी स्त्री न होगी। अपने भाग्य को सराहिए कि ऐसी बहू पाई। अगर खान-पान का ढोंग करना है तो जरूर कीजिए। मैं इस विषय में बाबूजी से कुछ नहीं कह सकती। कुछ कहना ही नहीं चाहती। वह वही कर रहे हैं, जो इस दशा में उन्हें करना चाहिए।
मुंशीजी बड़ी आशा बांधकर यहां दौड़े आए थे। यह फैसला सुना तो कमर टूट-सी गई। फर्श पर बैठ गए और अनाथ भाव से माथे पर हाथ रखकर सोचने लगे, अब क्या करूं? राजा साहब अभी तक इन दोनों आदमियों की बातें सुन रहे थे। अब उन्हें अपनी विपत्ति-कथा कहने का अवसर मिला। बोले-आपकी बात तो तय हो गई। अब जरा मेरी भी सुनिए। मैं तो गुरुसेवक के पास बैठा हुआ था, यहां नोरा और रोहिणी से किसी बात पर झड़प हो गई। रोहिणी का स्वभाव तो आप जानते ही हैं। क्रोध उसकी नाक पर रहता है। न जाने इन्हें क्या कहा कि अब यह कह रही हैं कि मैं काशी जाऊंगी ही नहीं। कितना समझा रहा हूँ, पर मानती ही नहीं।
मुंशीजी ने मनोरमा की ओर देखकर कहा-इन्हें भी तो लल्लू ने शिक्षा दी है। न वह किसी की मानता है, न यह किसी की मानती हैं।
मनोरमा ने मुस्कराकर कहा-आपको एक देवी के अपमान करने का दंड मिल रहा है। राजा साहब ने कहा-और मुझे?
मनोरमा ने मुंह फेरकर कहा-आपको बहुत से विवाह करने का।
मनोरमा यह कहती हुई वहां से चली गई। उसे अभी अपने लिए कोई स्थान ठीक करना था, शहर से अपनी आवश्यक वस्तुएं मंगवानी थीं। राजा साहब मुंशीजी को लिए हुए बाहर आए और सामने वाले बाग में बेंच पर जा बैठे। मुंशीजी घर जाना चाहते थे, जी घबरा रहा था; पर राजा साहब से आज्ञा मांगते हुए डरते थे। राजा साहब बहुत ही चिंतित दिखलाई देते थे। कुछ देर तक तो वह सिर झुकाए बैठे रहे, तब गंभीर भाव से बोले-मुंशीजी, आपने नोरा की बातें सुनीं? कितनी मीठी चुटकियां लेती है। सचमुच बहुत से विवाह करना अपनी जान आफत में डालना है। मैंने समझा था, अब दिन आनंद से कटेंगे और इन चुडैलों से पिंड छूट जाएगा; पर नोरा ने मुझे फिर उसी विपत्ति में डाल दिया। यहां रहकर मैं बहुत दिन जी नहीं सकता। रोहिणी मुझे जीता न छोड़ेगी। आज उसने जिस दृष्टि से मेरी ओर देखा, वह साफ कहे देती थी कि वह ईर्ष्या के आवेश में जो कुछ न कर बैठे, वह थोडा है। उसकी आंखों से ज्वाला-सी निकल रही थी। शायद उसका बस होता, तो मुझे खा जाती। कोई ऐसी तरकीब नहीं सूझती, जिससे नोरा का विचार पलट सकूँ।
मंशी-हुजूर, वह खुद यहां बहुत दिनों तक न रहेंगी। आप देख लीजिएगा। उनका जी यहा से बहुत जल्दी ऊब जाएगा।
राजा-ईश्वर करें, आपकी बात सच निकले। आपको देर हो रही हो, तो जाइए। मेरी डाक वहां से बराबर भेजते रहिएगा, मैं शायद वहां रोज न आ सकूँगा। यहां तो अब नए सिरे से सारा प्रबंध करना है।
आधी रात से ज्यादा बीत चुकी थी, पर मनोरमा की आंखों में नींद न आई थी। उस विशाल भवन में, जहां सुख और विलास की सामग्रियां भरी हुई थीं, उसे अपना जीवन शून्य जान पड़ता था। एक निर्जन, निर्मम वन में वह अकेली खड़ी थी। एक दीपक सामने बहुत दूर पर अवश्य जल रहा था: पर वह जितना ही चलती थी, उतना ही वह दीपक भी उससे दूर होता जाता था। उसन मंशीजी के सामने तो चक्रधर को समझाने से इंकार कर दिया था, पर अब ज्यों-ज्यों रात बातता थी, उनसे मिलने के लिए तथा उन्हें रोकने के लिए उसका मन अधीर हो रहा था। उसने सोचाक्या अहिल्या के साथ विवाह होने से वह उसके हो जाएंगे? क्या मेरा उन पर कोई अधिकार नहीं? वह जाएंगे कैसे? मैं उनका हाथ पकड़ लूंगी। खींच लाऊंगी। अगर अपने घर में नहीं रह सकते, तो मेरे यहां रहने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती है? मैं उनके लिए अपने यहां प्रबंध कर दूंगी; मगर बड़े निष्ठुर प्रकृति के मनुष्य हैं। आज मेरे पास इतनी देर बैठे अपनी समिति का रोना रोते रहे, फटे मुंह से भी न कहा कि मैं प्रयाग जा रहा हूँ, मानो मेरा उनसे कोई नाता ही नहीं। मुझसे मिलने के लिए इच्छुक तो वह होंगे, पर कुछ न कर सकते होंगे। वह भी मजबूर होकर जा रहे होंगे। वह अहिल्या सचमुच भाग्यवती है। उसके लिए वह कितना कष्ट झेलने को तैयार हैं। प्रयाग में न कोई अपना न पराया, सारी गृहस्थी जुटानी पड़ेगी।
यह सोचते ही उसे खयाल आया कि चक्रधर बिल्कुल खाली हाथ हैं। पत्नी साथ, खाली हाथ, नई जगह, न किसी से राह, न रस्म; संकोची प्रकृति, उदार हृदय, उन्हें प्रयाग में कितना कष्ट होगा ! मैंने बड़ी भूल की। मुंशीजी के साथ मुझे चला जाना चाहिए था। बाबूजी मेरा इंतजार कर रहे होंगे।
उसने घड़ी की ओर देखा। एक बज गया था। चैत की चांदनी खिली हुई थी। चारपाई से उठकर आंगन में आई। उसके मन में प्रश्न उठा-क्यों न इसी वक्त चलूं? घंटे भर में पहुँच जाऊंगी। चांदनी छिटकी हुई है, डर किस बात का? राजा साहब नींद में हैं। उन्हें जगाना व्यर्थ है। सबेरे तक तो मैं लौट ही आऊंगी।
लेकिन फिर खयाल आया, इस वक्त जाऊंगी, तो लोग क्या कहेंगे। जाकर इतनी रात गए सबको जगाना कितना अनुचित होगा। वह फिर आकर लेट रही और सो जाने की चेष्टा करने लगी। पांच घंटे इसी प्रतीक्षा में जागते रहना कठिन परीक्षा थी। उसने चक्रधर को रोक लेने का निश्चय कर लिया था।
बारे अबकी उसे नींद आ गई। पिछले पहर चिंता भी थककर सो जाती है। सारी रात करवटें बदलने वाला प्राणी भी इस समय निद्रा में मग्न हो जाता है; लेकिन देर से सोकर भी मनोरमा को उठने में देर नहीं लगी। अभी सब लोग सोते ही थे कि वह उठ बैठी और तुरंत मोटर तैयार करने का हुक्म दिया। फिर अपने हैंडबेग में कुछ चीजें रखकर वह रवाना हो गई।
चक्रधर भी प्रात:काल उठे और चलने की तैयारियां करने लगे। उन्हें माता-पिता को छोडकर जाने का दुःख हो रहा था। पर उस घर में अहिल्या की जो दशा थी, वह उनके लिए असह्य थी। अहिल्या ने कभी शिकायत न की थी। वह चक्रधर के साथ सब कुछ झेलने को तैयार थी, लेकिन चक्रधर को यह किसी तरह गवारा न था कि अहिल्या मेरे घर में पराई बनकर रहे। माता-पिता से भी कुछ कहना-सुनना उन्हें व्यर्थ मालूम होता था; मगर केवल यही कारण उनके यहां से प्रस्थान करने का न था। एक कारण और भी था, जिसे वह गुप्त रखना चाहते थे, जिसकी अहिल्या को खबर न थी ! यह कारण मनोरमा थी। जैसे कोई रोगी रुचि रखते हुए भी स्वादिष्ट वस्तुओं से बचता है कि कहीं उनसे रोग और न बढ़ जाए, उसी भांति चक्रधर मनोरमा से भागते थे।
आजकल मनोरमा दिन में एक बार उनके घर जरूर आ जाती। अगर खुद न आ सकती थी, तो उन्हीं को बुला भेजती। उसके सम्मुख आकर चक्रधर को अपना संयम, विचार और मानसिक स्थिति ये सब बालू की मेंड की भांति पैर पड़ते ही खिसकते मालूम होते। उसके सौंदर्य से कहीं अधिक उसका आत्मसमर्पण घातक था। उन्हें प्राण लेकर भाग जाने ही में कुशल दिखाई देती थी। गाड़ी सात बजे छूटती थी। वह अपना बिस्तर और पुस्तकें बाहर निकाल रहे थे। भीतर अहिल्या अपनी सास और ननद के गले मिलकर रो रही थी, कि इतने में मनोरमा की मोटर आती हुई दिखाई दी। चक्रधर मारे शर्म के गड़ गए। उन्हें मालूम हुआ था कि पिताजी ने मनोरमा को मेरे जाने की खबर दे दी है; और वह जरूर आएगी; पर वह उसके आने के पहले ही रवाना हो जाना चाहते थे। उन्हें भय था कि उसके आग्रह को न टाल सकूँगा, घर छोड़ने का कोई कारण न बता सकूँगा और विवश होकर मुझे यहीं रहना पड़ेगा। मनोरमा को देखकर वह सहम उठे; पर मन में निश्चय कर लिया कि इस समय निष्ठुरता का स्वांग भरूंगा, चाहे वह अप्रसन्न ही क्यों न हो जाए ।
मनोरमा ने मोटर से उतरते हुए कहा-बाबूजी, अभी जरा ठहर जाइए। यह उतावली क्यों? आप तो ऐसे भागे जो रहे हैं, मानो घर से रूठे जाते हों। बात क्या है, कुछ मालूम भी तो हो?
चक्रधर ने पुस्तकों का गट्ठर संभालते हुए कहा-बात कुछ नहीं है। भला, कोई बात होती तो आपसे कहता न। यों ही जरा इलाहाबाद रहने का विचार है। जन्म भर पिता की कमाई खाना तो उचित नहीं।
मनोरमा-तो प्रयाग में कोई अच्छी नौकरी मिल गई है?
चक्रधर-नहीं, अभी मिली तो नहीं है; पर तलाश कर लूंगा।
मनोरमा-आप ज्यादा से ज्यादा कितने की नौकरी पाने की आशा रखते हैं?
चक्रधर को मालूम हुआ कि मुझसे बहाना न करते बना। इस काम में बहुत सावधानी रखने की जरूरत है। बोले-नौकरी ही का खयाल नहीं है, और भी बहुत से कारण हैं। गाड़ी सात ही बजे जाती है और मैंने वहां मित्रों को सूचना दे दी है नहीं तो मैं आपसे सारी रामकथा सुनाता।
मनोरमा-आप इस गाड़ी से नहीं जा सकते। जब तक मुझे मालूम न हो जाएगा कि आप किस कारण से और वहां क्या करने के इरादे से जाते हैं, मैं आपको न जाने दूंगी।
चक्रधर-मैं दस-पांच दिन में एक दिन के लिए आकर आपसे सब कुछ बता दूंगा; पर इस वक्त गाड़ी छूट जाएगी। मेरे मित्र स्टेशन पर मुझे लेने आएंगे। सोचिए, उन्हें कितना कष्ट होगा!
मनोरमा-मैंने कह दिया, आप इस गाड़ी से नहीं जा सकते।
चक्रधर-आपको सारी स्थिति मालूम होती, तो आप मुझे रोकने की चेष्टा न करतीं। आदमी विवश होकर ही अपना घर छोड़ता है। मेरे लिए अब यहां रहना असंभव हो गया है।
मनोरमा-तो क्या यहां कोई दूसरा मकान नहीं मिल सकता?
चक्रधर-मगर एक ही जगह अलग घर में रहना कितना भद्दा मालूम होता है। लोग यही समझेंगे कि बाप-बेटे या सास-बहू में नहीं बनती।
मनोरमा-आप तो दूसरों के कहने की बहुत परवा न करते थे।
चक्रधर-केवल सिद्धांत के विषय में। माता-पिता से अलग रहना तो मेरा सिद्धांत नहीं।
मनोरमा-तो क्या अकारण घर से भाग जाना आपका सिद्धांत है? सुनिए, मुझे आपके घर की दशा थोड़ी मालूम है। ये लोग अपने संस्कारों से मजबूर हैं। न तो आप ही उन्हें दबाना पसंद करेंगे। क्यों न अहिल्या को कुछ दिनों के लिए मेरे साथ रहने देते? मैंने जगदीशपुर ही में रहने का निश्चय किया है। आप वहां रह सकते हैं। मेरी बहुत दिनों से इच्छा है कि कुछ दिन आप मेरे मेहमान हों। वह भी तो आप ही का घर है। मैं अपना सौभाग्य समझूगी। मैंने आपसे कभी कुछ नहीं मांगा। आज मेरी इतनी बात मान लीजिए। वह कोई आदमी आता है। मैं जरा घर में जाती हूँ। यह बिस्तर वगैरह खोलकर रख दीजिए। यह सब सामान देखकर मेरा हृदय जाने कैसा हुआ जाता है।
चक्रधर-नहीं मनोरमा, मुझे जाने दो।
मनोरमा-आप न मानेंगे?
चक्रधर-यह बात न मानूंगा।
मनोरमा-मुझे रोते देखकर भी नहीं?
मनोरमा की आंखों से आंसू गिरने लगे। चक्रधर की आंखें भी डबडबा गईं। बोले-मनोरमा, मुझे जाने दो। मैं वादा करता हूँ कि बहुत जल्द लौट आऊंगा।
मनोरमा-अच्छी बात है,जाइए लेकिन एक बात आपको माननी पड़ेगी। मेरी यह भेंट स्वीकार कीजिए।
यह कहकर उसने अपना हैंडबेग चक्रधर की तरफ बढ़ाया।
चक्रधर ने पूछा-इमसें क्या है?
मनोरमा-कुछ भी हो।
चक्रधर-अगर न लूं तो?
मनोरमा-तो मैं अपने हाथों से आपका बोरिया-बंधना उठाकर घर में रख आऊंगी।
चक्रधर-आपको इतना कष्ट न उठाना पड़ेगा। मैं इसे लिए लेता हूँ। शायद वहां भी मुझे कोई काम करने की जरूरत न पड़ेगी। इस बैग का वजन ही बतला रहा है।
मनोरमा घर में गई, तो निर्मला बोली-माना कि नहीं बेटी?
मनोरमा-नहीं मानते। मनाकर हार गई।
मुंशी-आपके कहने से न माना, तो फिर किसके कहने से मानेगा!
तांगा आ गया। चक्रधर और अहिल्या उस पर जा बैठे, तो मनोरमा भी अपनी मोटर पर बैठकर चली गई। घर के बाकी तीनों प्राणी द्वार पर खड़े रह गए।
उनतीस
सार्वजनिक काम के लिए कहीं भी क्षेत्र की कमी नहीं, केवल मन में नि:स्वार्थ सेवा का भाव होना चाहिए। चक्रधर प्रयाग में अभी अच्छी तरह जमने भी न पाए थे कि चारों ओर से उनके लिए खींचतान होने लगी। थोड़े ही दिन में वह नेताओं की श्रेणी में आ गए। उनमें देश का अनुराग था, काम करने का उत्साह था और संगठन करने की योग्यता थी। सारे शहर में एक भी ऐसा प्राणी न था, जो उनकी भांति नि:स्पृह हो। और लोग अपना फालतू समय ही सेवा कार्य के लिए दे सकते थे, द्रव्योपार्जन उनका मुख्य उद्देश्य था। चक्रधर के लिए इस समय काम के सिवा और कोई फिक्र न थी। यह कोई न पूछता कि आपको कोई तकलीफ तो नहीं है? काम लेने वाले बहुतेरे थे। सवारी करने वाले सब थे, पर घास-चारा देने वाला कोई भी न था। उन्होंने शहर के निकास पर एक छोटा सा मकान किराए पर ले लिया था और बड़ी किफायत से गुजर करते थे। आगरे में उन्हें जितने रुपए मिले थे, वे मुंशी वज्रधर की भेंट कर दिए थे। वहां रुपए का नित्य अभाव रहता था। कम मिलने पर कम तंगी रहती थी, क्योंकि जरूरतें घटा ली जाती थीं। अधिक मिलने पर तंगी भी अधिक हो जाती थी क्योंकि जरूरतें बढ़ा ली जाती थीं।
चक्रधर को अब ज्ञात होने लगा था कि गृहस्थी में पड़कर कुछ न कुछ आमदनी होनी ही चाहिए। अपने लिए उन्हें कोई चिंता न थी, लेकिन अहिल्या को वह दरिद्रता की परीक्षा में डालना न चाहते थे। वह अब बहुधा चिंतित दिखाई देती; यों वह कभी शिकायत न करती थी, पर यह देखना कठिन न था कि वह अपनी दशा से संतुष्ट नहीं है। वह गहने-कपड़े की भूखी न थी, सैरतमाशे का उसे चस्का नहीं था, पर खाने-पीने की तकलीफ उससे न सही जाती थी ! वह सब कुछ सह सकती थी। उसकी सहन शक्ति का वारापार न था। चक्रधर को इस दशा में देखकर उसे दुःख होता था। जब और लोग पहले अपने घर में चिराग जलाकर मस्जिद में जलाते हैं, तो वही क्यों अपने घर को अंधेरा छोड़कर मस्जिद में चिराग जलाने जाएंगे? औरों को अगर मोटरफिटन चाहिए, तो क्या यहां पैरगाड़ी भी न हो? दूसरों को पक्की हवेलियां चाहिएं, तो क्या यहां साफ-सुथरा मकान भी न हो? दूसरे जायदादपैदा करते हैं, तो क्या यहां भोजन भी न हो? आखिर प्राण देकर तो सेवा नहीं की जाती। अगर इस उत्सर्ग के बदले चक्रधर को यश का बड़ा भाग मिलता, तो शायद अहिल्या को संतोष हो जाता, आंसू पुंछ जाते, लेकिन जब वह औरों को बिना कष्ट उठाए चक्रधर के बराबर या उनसे अधिक यश पाते देखती थी, तो उसे धैर्य न रहता था। जब खाली ढोल पीटकर भी, अपना घर भरकर भी यश कमाया जा सकता है, तो इस त्याग और विराग की जरूरत ही क्या ! जनता धनियों का जितना मान-सम्मान करती है, उतना सेवकों का नहीं। सेवा-भाव के साथ धन भी आवश्यक है। दरिद्र सेवक, चाहे वह कितने ही सच्चे भाव से क्यों न काम करे, चाहे वह जनता के लिए प्राण ही क्यों न दे दे, उतना यश नहीं पा सकता, जितना एक धनी आदी अल्प-सेवा करके पा जाता है। अहिल्या को चक्रधर का आत्म-दमन इसीलिए बुरा लगता था और वह मुंह में कुछ न कहकर भी दुखी रहती थी। सेवा स्वयं अपना बदला है, यह आदर्श उसका समझ में न आता था।
अगर चक्रधर को अपना ही खर्च संभालना होता, तो शायद उन्हें बहुत कष्ट न होता, क्योंकि उनके लेख बहुत अच्छे होते थे और दो-तीन समाचार-पत्रों में लिखकर वह अपनी जरूरत-भर को पैदा कर लेते थे। पर मुंशी वज्रधर के तकाजों के मारे उनकी नाक में दम था। मनोरमा जगदीशपुर जाकर संसार से विरक्त-सी हो गई थी। न कहीं आती, न कहीं जाती और न रियासत के किसी मामले में बोलती। धन से उसे घृणा ही हो गई थी। सब कुछ छोड़कर वह अपनी कुटी में जा बैठी थी, मानो कोई संन्यासिनी हो, इसलिए अब मुंशीजी को केवल वेतन मिलता था और उसमें उनका गुजर न होता था। चक्रधर को बार-बार तंग करते, और उन्हें विवश होकर पिता की सहायता करनी पड़ती।
अगहन का महीना था। खासी सर्दी पड़ रही थी, मगर अभी तक चक्रधर जाड़े के कपड़े न बनवा पाए थे। अहिल्या के पास तो पुराने कपड़े थे, पर चक्रधर के पुराने कपड़े मुंशीजी के मारे बचने ही न पाते। या तो खुद पहन डालते, या किसी को दे देते। वह इसी फिक्र में थे कि कहीं से रुपए आ जाएं, तो एक कंबल ले लूं। आज बड़े इंतजार के बाद लखनऊ से एक मासिक पत्र के कार्यालय से पच्चीस रुपए का मनीआर्डर आया था और वह अहिल्या के पास बैठे हुए कपड़ों का प्रोग्राम बना रहे थे।
अहिल्या ने कहा, मुझे अभी कपड़ों की जरूरत नहीं है। तुम अपने लिए एक अच्छा-सा कंबल कोई पंद्रह रुपए में ले लो। बाकी रुपयों में अपने लिए ऊनी कुरता और एक जूता ले लो। जूता बिल्कुल फट गया है।
चक्रधर-पंद्रह रुपए का कंबल क्या होगा? मेरे लायक तीन-चार रुपए में अच्छा-सा कंबल मिल जाएगा। बाकी रुपयों से तुम्हारे लिए एक अलवान ला देता हूँ। सवेरे उठकर तुम्हें कामकाज करना पड़ता है, कहीं सर्दी खा जाओ, तो मुश्किल पड़े। ऊनी कुरते की जरूरत नहीं। हां, तुम एक सलूका बनवा लो। मैं तगड़ा आदमी हूँ, ठंड सह सकता हूँ।
अहिल्या-खूब तगड़े हो, क्या कहना है ! जरा आईने में जाकर सूरत तो देखो। जब से यहां आए हो, आधी देह भी नहीं रही। मैं जानती कि यहां आकर तुम्हारी यह दशा हो जाएगी, तो कभी घर से कदम न निकालती। मुझसे लोग छूत माना करते, क्या परवाह थी ! तुम तो आराम से रहते। अलवान-सलवान न लूंगी, तुम आज एक कंबल लाओ, नहीं तो मैं सच कहती हूँ, यदि बहुत दिक करोगे तो मैं आगरे चली जाऊंगी।
चक्रधर-तुम्हारी यही जिद तो मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं कई साल से अपने को इसी ढंग के जीवन के लिए साध रहा हूँ। मैं दुबला हूँ तो क्या, गर्मी-सर्दी खूब सह सकता हूँ। तुम्हें यहां नौ-दस महीने हुए, बताओ मेरे सिर में एक दिन भी दर्द हुआ? हां, तुम्हें कपड़े की जरूरत है। तुम अभी ले लो अब की रुपए आएंगे, तो मैं बनवा लूंगा।
इतने में डाकिये ने पुकारा। चक्रधर ने जाकर खत ले लिया और उसे पढ़ते हए अंदर आए। अहिल्या ने पूछा-लालाजी का खत है? लोग अच्छी तरह हैं न?
चक्रधर-मेरे आते ही न जाने उन लोगों पर क्या साढ़ेसाती सवार हो गई कि जब देखो, एक न एक विपत्ति सवार ही रहती है। अभी मंगला बीमार थी। अब अम्मां बीमार हैं। बाबूजी को खांसी आ रही है। रानी साहब के यहां से अब वजीफा नहीं मिलता है। लिखा है कि इस वक्त पचास रुपए अवश्य भेजो।
अहिल्या-क्या अम्मांजी बहुत बीमार हैं?
चक्रधर-हां, लिखा तो है।
अहिल्या-तो जाकर देख ही क्यों न आओ?
चक्रधर-तुम्हें अकेली छोड़कर?
अहिल्या-डर क्या है?
चक्रधर-चलो। रात को कोई आकर लूट ले, तो चिल्ला भी न सको। कितनी बार सोचा कि चलकर अम्मां को देख आऊं, पर कभी इतने रुपए ही नहीं मिलते। अब बताओ, इन्हें रुपए कहाँ से भेजूं?
अहिल्या-तुम्हीं सोचो, जो बैरागी बनकर बैठे हो। तुम्हें बैरागी बनना था, तो नाहक गृहस्थी के जंजाल में फंसे। मुझसे विवाह करके तुम सचमुच बला में फंस गए। मैं न होती, तो क्यों तुम यहां आते और क्यों यह दशा होती? सबसे अच्छा है, तुम मुझे अम्मां के पास पहुंचा दो। अब वह बेचारी अकेली रो-रोकर दिन काट रही होंगी। जाने से निहाल हो जाएंगी।
चक्रधर-हम और तुम दोनों क्यों न चले चलें?
अहिल्या-जी नहीं, दया कीजिए। आप वहां भी मेरे प्राण खाएंगे और बेचारी अम्मांजी को रुलाएंगे ! मैं झूठों भी लिख दूं कि अम्मांजी, मैं तकलीफ में हूँ, तो तुरंत किसी को भेजकर मुझे बुला लें।
चक्रधर-मुझे बाबूजी पर बड़ा क्रोध आता है। व्यर्थ मुझे तंग करते हैं। अम्मां की बीमारी तो बहाना है, सरासर बहाना।
अहिल्या-यह बहाना हो या सच हो, ये पच्चीस रुपए भेज दो। बाकी के लिए लिख दो कोई फिक्र करके जल्दी ही भेज दूंगा। तुम्हारी तकदीर में इस साल जड़ावल नहीं लिखा है।
चक्रधर-लिखे देता हूँ, मैं खुद तंग हूँ, आपके पास कहाँ से भेजूं?
अहिल्या-ए हटो भी, इतने रुपयों के लिए मुंह चुराते हो, भला वह अपने दिल में क्या कहेंगे ! ये रुपए चुपके से भेज दो!
चक्रधर कुछ देर तक मौन धारण किए बैठे रहे, मानो किसी गहरी चिंता में हों। एक क्षण के बाद बोले-किसी से कर्ज लेना पड़ेगा, और क्या।
अहिल्या-नहीं, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, कर्ज मत लेना। इससे तो इंकार कर देना ही अच्छा
है।
चक्रधर-किसी ऐसे महाजन से लूंगा, जो तकादे न करेगा। अदा करना बिल्कुल मेरी इच्छा पर होगा।
अहिल्या-ऐसा कौन महाजन है, भई? यहीं रहता है? कोई दोस्त होगा? दोस्त से तो कर्ज लेना ही न चाहिए। इससे तो महाजन कहीं अच्छा। कौन हैं, जरा उसका नाम तो सुनूं?
चक्रधर-अजी, एक पुराना दोस्त है, जिसने मुझसे कह रखा है तुम्हें जब रुपए की कोई जरूरत आ पड़े, जो टाले न टल सके, तो तुम हमसे मांग लिया करना, फिर जब चाहे दे देना।
अहिल्या-कौन है, बताओ, तुम्हें मेरी कसम!
चक्रधर-तुमने कसम रखा दी, यह बड़ी मुश्किल आ पड़ी। वह मित्र रानी मनोरमा हैं। उन्होंने मुझे घर से चलते समय एक छोटा-सा बैग दिया था। मैंने उस वक्त तो खोला नहीं, गाड़ी में बैठकर खोला, तो उसमें पांच हजार रुपए के नोट निकले। सब रुपए ज्यों-के-त्यों रखे हुए हैं।
अहिल्या-और तो कभी नहीं निकाला?
चक्रधर-कभी नहीं, यह पहला मौका है।
अहिल्या-तो भूलकर भी न निकालना।
चक्रधर-लालाजी जिंदा न छोड़ेंगे, समझ लो।
अहिल्या-साफ कह दो, मैं खाली हाथ हूँ, बस। रानीजी की अमानत किसी मौके से लौटानी होगी। अमीरों का एहसान कभी न लेना चाहिए, कभी-कभी उसके बदले में अपनी आत्मा तक बेचनी पड़ती है। रानीजी तो हमें बिल्कुल भूल ही गईं। एक खत न लिखा।
चक्रधर-आजकल उनको अपने घर के झगड़ों ही से फुरसत न मिलती होगी। राजा साहब से विवाह करके अपना जीवन ही नष्ट कर दिया।
अहिल्या-हृदय बड़ा उदार है।
चक्रधर-उदार ! यह क्यों नहीं कहतीं कि अगर उनकी मदद न हो, तो प्रांत की कितनी ही सेवा-संस्थाओं का अंत हो जाए । प्रांत में यदि ऐसे लगभग दस प्राणी हो जाएं तो बड़ा काम हो जाए ।
अहिल्या-ये रुपए लालाजी के पास भेज दो, तब तक और सरदी का मजा उठा लो।
अहिल्या उसी दिन बड़ी रात तक चिंता में पड़ी रही कि जड़ावल का क्या प्रबंध हो। चक्रधर ने सेवा-कार्य का इतना भारी बोझ अपने सिर ले लिया था कि उनसे अधिक धन कमाने की आशा न की जा सकती थी। बड़ी मुश्किलों से रात को थोड़ा-सा समय निकालकर बेचारे कुछ लिख-पढ़ लेते थे। धन की उन्हें चेष्टा ही न थी। इसे वह केवल जीवन का उपाय समझते थे। अधिक धन कमाने के लिए उन्हें मजबूर करना उन पर अत्याचार करना था। उसने सोचना शुरू किया, मैं कुछ काम कर सकती हूँ या नहीं। सिलाई और बूटे-कसीदे का काम वह खूब कर सकती थी, पर चक्रधर को यह कब मंजूर हो सकता था कि वह पैसे के लिए यह काम करे? एक दिन उसने एक मासिक पत्रिका में अपनी एक सहेली का लेख देखा। दोनों आगरे में साथ-साथ पढ़ती थीं। अहिल्या हमेशा उससे अच्छा नंबर पाती थी। यह लेख पढ़ते ही अहिल्या की वही दशा हुई, जो किसी असील घोड़े को चाबुक पड़ने पर होती है। वह कलम लेकर बैठ गई और उसी विषय की आलोचना करने लगी, जिसपर उसकी सहेली का लेख था। वह इतनी तेजी से लिख रही थी, मानो भागते हुए विचारों को समेट रही हो। शब्द और वाक्य आप ही आप निकलते चले आते थे। आध घंटे में उसने चार-पांच पृष्ठ लिख डाले। जब उसने उसे दुहराया, तो उसे ऐसा जान पड़ा कि मेरा लेख सहेली के लेख से अच्छा है। फिर भी उसे सम्पादक के पास भेजते हुए उसका जी डरता था कि कहीं अस्वीकृत न हो जाए । उसने दोनों लेखों को दो-तीन बार मिलाया और अंत को तीसरे दिन भेज ही दिया। तीसरे दिन जवाब आया। लेख स्वीकृत हो गया था, फिर भेजने की प्रार्थना की थी और शीघ्र ही पुरस्कार भेजने का वादा था। तीसरे दिन डाकिये ने एक रजिस्ट्री चिट्ठी लाकर दो। अहिल्या ने खोला, तो दस रुपए का नोट था। अहिल्या फूली न समाई। उसे इस बात का संतोषमय गर्व हुआ कि गृहस्थी में मैं भी मदद कर सकती हूँ। उसी दिन उसने एक दूसरा लेख लिखना शुरू किया, पर अबकी जरा देर लगी। तीसरे दिन लेख भेज दिया गया।
पूस का महीना लग गया। जोरों की सर्दी पड़ने लगी। स्नान करते समय ऐसा मालूम होता था कि पानी काट खाएगा, पर अभी तक चक्रधर जड़ावल न बनवा सके। एक दिन बादल हो आए और ठंडी हवा चलने लगी। चक्रधर दस बजे रात को अछूतों की किसी सभा से लौट रहे थे, तो मारे सर्दी के कलेजा कांप उठा। चाल तेज की, पर सर्दी कम न हुई। तब दौड़ने लगे। घर के समीप पहुँचकर थक गए। सोचने लगे-अभी से यह हाल है भगवान्, तो रात कैसे कटेगी? और मैं तो किसी तरह काट भी लूंगा, अहिल्या का क्या हाल होगा? इस बेचारी को मेरे कारण बड़ा कष्ट हो रहा है। सच पूछो, तो मेरे साथ विवाह करना इसके लिए कठिन तपस्या हो गई। कल सबसे पहले कपड़ों की फिक्र करूंगा। यह सोचते हुए वह घर आए, तो देखा कि अहिल्या अंगीठी में कोयले भरे ताप रही है। आज वह बहुत प्रसन्न दिखाई देती थी। रात को रोज रोटी और कोई साग खाया करते थे। आज अहिल्या ने पूरियां पकाई थीं, और सालन भी कई प्रकार का था। खाने में बड़ा मजा आया। भोजन करके लेटे तो दिखाई दिया, चारपाई पर एक बहुत अच्छा कंबल पड़ा हुआ है। विस्मित होकर पूछा-यह कंबल कहाँ था?
अहिल्या ने मुस्कराकर कहा-मेरे पास ही रखा था। अच्छा है कि नहीं?
चक्रधर-तुम्हारे पास कंबल कहाँ था? सच बताओ, कहाँ मिला? बीस रुपए से कम का न होगा।
अहिल्या-तुम मानते ही नहीं, तो क्या करूं। अच्छा, तुम्हीं बताओ कहाँ था?
चक्रधर-मोल लिया होगा। सच बताओ रुपए कहाँ थे?
अहिल्या-तुम्हें आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से?
चक्रधर-जब तक यह न मालूम हो जाए कि आम कहाँ से आए, तब तक मैं उनमें हाथ भी न लगाऊं।
अहिल्या-मैंने कुछ रुपए बचा के रखे थे। आज कंबल मंगवा लिया।
चक्रधर-मैंने तुम्हें इतने रुपए कब दिए कि खर्च करके बच जाते? कितने का है?
अहिल्या-पच्चीस रुपए का। मैं थोड़ा-थोड़ा बचाती गई थी।
चक्रधर-मैं यह मानने का नहीं। बताओ, रुपए कहाँ मिले?
अहिल्या-बता ही दूं। अबकी मैंने ‘आर्य जगत्’ को दो लेख भेजे थे। उसी के पुरस्कार के तीस रुपए मिले थे। आजकल एक और लेख लिख रही हूँ।
अहिल्या ने समझा था, चक्रधर यह सुनते ही खुशी से उछल पड़ेंगे और प्रेम से मुझे गले लगा लेंगे, लेकिन यह आशा पूरी न हुई। चक्रधर ने उदासीन भाव से पूछा-कहाँ हैं लेख, जरा ‘आर्य जगत्’ देखू?
अहिल्या ने दोनों अंक लाकर उनको दे दिए और लजाते हुए बोली-कुछ है नहीं, ऊटपटांग जो जी में आया, लिख डाला।
चक्रधर ने सरसरी निगाह से लेखों को देखा। ऐसी सुंदर भाषा वह खुद न लिख सकते थे। विचार भी बहुत गंभीर और गहरे थे। अगर अहिल्या ने खुद कहा होता तो वह लेखों पर उसका नाम देखकर भी यही समझते कि इस नाम की कोई दूसरी महिला होगी। उन्हें कभी खयाल ही न हो सकता था कि अहिल्या इतनी विचारशील है, मगर यह जानकर भी वह खुश नहीं हुए। उनके अहंकार को धक्का-सा लगा। उनके मन में गृहस्वामी होने का जो गर्व अलक्षित रूप से बैठा हुआ था, वह चूर-चूर हो गया। वह अज्ञात भाव से बुद्धि में, विद्या में एवं व्यावहारिक ज्ञान में अपने को अहिल्या से ऊंचा समझते थे। रुपए कमाना उनका काम था। यह अधिकार उनके हाथ से छिन गया। विमन होकर बोले-तुम्हारे लेख बहुत अच्छे हैं और पहली ही कोशिश में तुम्हें पुरस्कार भी मिल गया, यह और खुशी की बात है, मुझे तो कंबल की जरूरत न थी। कम से कम में इतना कीमती कंबल न चाहता था, लेकिन इसे तुम्ही ओढ़ो। आखिर तुम्हारे पास तो वही एक पुरानी चादर है। मैं अपने लिए दूसरा कंबल ले लूंगा।
अहिल्या समझ गई कि यह बात इन्हें बुरी लगी। बोली-मैंने पुरस्कार के इरादे से तो लेख न लिखे थे। अपनी एक सहेली का लेख पढ़कर मुझे भी दो-चार बातें सूझ गईं। लिख डाली। अगर तुम्हारी इच्छा नहीं, तो अब न लिखूगी।
चक्रधर-नहीं, नहीं, मैं तुम्हें लिखने को मना नहीं करता। तुम शौक से लिखो, मगर मेरे लिए तुम्हें यह कष्ट उठाने की जरूरत नहीं। मुझे ऐश करना होता, तो सेवा क्षेत्र में आता ही क्यों? मैं सब सोच-समझकर इधर आया हूँ, मगर अब देख रहा हूँ कि ‘माया और राम’ दोनों साथ नहीं मिलते। मुझे राम को त्यागकर माया की उपासना करनी पड़ेगी।
अहिल्या ने कातर भाव से कहा-मैंने तो तुमसे किसी बात की शिकायत नहीं की। अगर तुम जो हो, वह न होकर धनी होते, तो शायद मैं अब तक क्वारी ही रहती। धन की मुझे लालसा न तब थी, न अब है। तुम जैसा रत्न पाकर अगर मैं धन के लिए रोऊ, तो मुझसे बढ़कर अभागिनी कोई संसार में न होगी। तुम्हारी तपस्या में योग देना मैं अपना सौभाग्य समझती हूँ। मैंने केवल यह सोचा कि जब मैंने मेहनत की है, तो उसकी मजूरी ले लेने में क्या हरज है ! यह कंबल तो कोई शाल नहीं है, जिसे ओढ़ने से संकोच हो। मेरे लिए चादर काफी है। तुम्हें जब रुपए मिलें, तो मेरे लिए लिहाफ बनवा देना।
कंबल रात भर ज्यों-का-त्यों तह किया हुआ पड़ा रहा। सर्दी के मारे चक्रधर को नींद न आती थी, पर कंबल को छुआ तक नहीं। उसका एक-एक रोयां सर्प की भांति काटने दौड़ता था। एक बार उन्होंने अहिल्या की ओर देखा। वह हाथ-पांव सिकोड़े, चादर सिर से ओढ़े एक गठरी की तरह पड़ी हुई थी, पर उन्होंने उसे भी वह कंबल न ओढ़ाया। उनका स्नेह-करुण हृदय रो पड़ा। ऐसा मालूम होता था, मानो कोई फूल तुषार से मुरझा गया हो। उनकी अंतरात्मा सहस्रों जिहाओं से उनका तिरस्कार करने लगी। समस्त संसार उन्हें धिक्कारता हुआ जान पड़ा-तेरी लोक सेवा केवल भ्रम है, कोरा प्रमाद है। जब तू उस रमणी की रक्षा नहीं कर सकता, जो तुझ पर अपने प्राण तक अर्पण कर सकती है, तो तू जनता का उपकार क्या करेगा? त्याग और भोग में दिशाओं का अंतर है। चक्रधर उन्मत्तों की भांति चारों ओर देखने लगे कि कोई ऐसी चीज मिले जो इसे ओढा सकू, लेकिन पुरानी धोतियों के सिवा उन्हें और कोई चीज न नजर आई। उन्हें इस समय भीषण मर्म-वेदना हो रही थी। अपना व्रत और संयम, अपना समस्त जीवन शुष्क और निरर्थक जान पड़ता था। जिस दरिद्रता का उन्होंने सदैव आह्वान किया था, वह इस समय भयंकर शाप की भांति उन्हें भयभीत कर रही थी। जिस रमणी-रत्न की ज्योति से रनिवास में उजाला हो जाता था, उसको मेरे हाथों यह यंत्रणा मिल रही है। सहसा अहिल्या ने आंखें खोल दी और बोली-तुम खड़े क्या कर रहे हो? मैं अभी स्वप्न देख रही थी कि कोई पिशाच मुझे नदी के शीतल जल में डुबाए देता है। अभी तक छाती धड़क रही है।
चक्रधर ने ग्लानित होकर कहा-वह पिशाच मैं ही हूँ, अहिल्या ! मेरे हाथों तुम्हें यह कष्ट मिल रहा है।
अहिल्या ने पति का हाथ पकड़कर चारपाई पर सुला दिया और वही कंबल ओढ़ाकर बोली-तुम मेरे देवता हो, जिसने मुझे मझधार से निकाला है। पिशाच मेरा मन है, जो मुझे डुबाने की चेष्टा कर रहा है।
इतने में पड़ोस के एक मुर्गे ने बांग दी। अहिल्या ने किवाड़ खोलकर देखा, तो प्रभात-कुसुम खिल रहा था। चक्रधर को आश्चर्य हुआ कि इतनी जल्दी रात कैसे कट गई।
आज वह नाश्ता करते ही कहीं बाहर न गए, बल्कि कमरे में जाकर कुछ लिखते-पढ़ते रहे। शाम को उन्हें कुमार सभा में एक वक्तृता देनी थी। विषय था ‘समाजसेवा’। इस विषय को छोड़कर वह पूरे घंटे भर तक ब्रह्मचर्य की महिमा गाते रहे। सात बजते-बजते वह फिर लौट आए और दस बजे तक लिखते रहे। आज से यही उनका नियम हो गया। नौकरी तो वह कर न सकते थे। चित्त को इससे घृणा होती थी, लेकिन अधिकांश समय पुस्तकें और लेख लिखने में बिताते। उनकी विद्या और बुद्धि अब सेवा के अधीन नहीं, स्वार्थ के अधीन हो गई। भाव के साथ उनके जीवन-सिद्धांत भी बदल गए। बुद्धि का उद्देश्य केवल तत्व-निरूपण और विद्या-प्रसार न रहा, वह धनोपार्जन का मंत्र बन गया। उस मकान में अब उन्हें कष्ट होने लगा। दूसरा मकान लिया, जिसमें बिजली के पंखे और रोशनी थी। इन नए सांधनों से उन्हें लिखने-पढ़ने में और भी आसानी हो गई। बरसात में मच्छरों के मारे कोई मानसिक काम न कर सकते थे। गर्मी में तो नन्हें से आंगन में बैठना भी मुश्किल था, काम करने का जिक्र ही क्या? अब वह खुली हुई छत पर बिजली के पंखे के सामने शाम ही से बैठकर काम करने लगते थे। अहिल्या खुद तो कुछ न लिखती, पर चक्रधर की सहायता करती रहती थी। लेखों को साफ करना, अन्य पुस्तकों और पत्रों से अवतरणों की नकल करना उसका काम था। पहले ऊसर की खेती करते थे, जहां न धन था, न कीर्ति। अब धन भी मिलता था और कीर्ति भी। पत्रों के संपादक उनसे आग्रह करके लेख लिखवाते थे। लोग इन लेखों को बड़े चाव से पढ़ते थे। भाषा भी अलंकृत होती थी, भाव भी सुंदर, विषय भी उपयुक्त ! दर्शन से उन्हें विशेष रुचि थी। उनके लेख भी अधिकांश दार्शनिक होते थे।
पर चक्रधर को अब अपने कृत्यों पर गर्व न था। उन्हें काफी धन मिलता था। योरप और अमरीका के पत्रों में भी उनके लेख छपते थे। समाज में उनका आदर भी कम न था, पर सेवाकार्य में जो संतोष और शांति मिलती थी, वह अब मयस्सर न थी। अपने दीन, दुखी एवं पीड़ित बंधुओं की सेवा करने में जो गौरव-युक्त आनंद मिलता था, वह सभ्य समाज की दावतों में न प्राप्त होता था। मगर अहिल्या सुखी थी। वह अब सरल बालिका नहीं, गौरवशाली युवती थी-गृहप्रबंध में कुशल, पति सेवा में प्रवीण, उदार, दयालु और नीति-चतुर। मजाल न थी कि नौकर उसकी आंख बचाकर एक पैसा भी खा जाए। उसकी सभी अभिलाषाएं पूरी होती जाती थीं। ईश्वर ने उसे एक सुंदर बालक भी दे दिया। रही-सही कसर भी पूरी हो गई।
इस प्रकार पांच साल गुजर गए।
एक दिन काशी से राजा बिशालसिंह का तार आया। लिखा था-‘मनोरमा बहुत बीमार है। तुरंत आइए। बचने की कम आशा है।’ चक्रधर के हाथ से कागज छूट कर गिर पड़ा। अहिल्या संभाल न लेती, तो शायद वह खुद भी गिर पड़ते। ऐसा मालूम हुआ, मानो मस्तक पर किसी ने लाठी मार दी हो। आंखों के सामने तितलियां-सी उड़ने लगीं। एक क्षण के बाद संभलकर बोले-मेरे कपड़े बक्स में रख दो, मैं इसी गाड़ी से जाऊंगा।
अहिल्या-यह हो क्या गया है? अभी तो लालाजी ने लिखा था कि वहां सब कुशल है।
चक्रधर-क्या कहा जाए? कुछ नहीं, यह सब गृह-कलह का फल है। मनोरमा ने राजा साहब से विवाह करके बड़ी भूल की। सौतों ने तानों से छेद-छेदकर उसकी जान ले ली। राजा साहब उस पर जान देते थे। यही सारे उपद्रव की जड़ है। अहिल्या ! वह स्त्री नहीं, देवी है।
अहिल्या-हम लोगों के यहां चले आने से शायद नाराज हो गई। इतने दिनों में केवल मुन्नू के जन्मोत्सव पर एक पत्र लिखा था।
चक्रधर-हां, उनकी यही इच्छा थी कि हम सब उनके साथ रहें।
अहिल्या-कहो तो मैं भी चलूं ? देखने को जी चाहता है। उनका शील और स्नेह कभी न भूलेगा।
चक्रधर-योगेंद्र बाबू को साथ लेते चलें। इनसे अच्छा तो यहां और कोई डॉक्टर नहीं है। अहिल्या-अच्छा तो होगा। डॉक्टर साहब से तुम्हारी दोस्ती है, खूब दिल लगाकर दवा करेंगे।
चक्रधर-मगर तुम मेरे साथ लौट न सकोगी, यह समझ लो। मनोरमा तुम्हें इतनी जल्दी न आने देगी।
अहिल्या-वह अच्छी तो हो जाएं। लौटने की बात पीछे देखी जाएगी। तो तुम जाकर डॉक्टर साहब को तैयार करो। मैं यहां सब सामान तैयार कर रही हूँ।
दस बजते-बजते ये लोग यहां से डाक पर चले। अहिल्या खिड़की से पावस का मनोहर दृश्य देखती थी, चक्रधर व्यग्र हो होकर घड़ी देखते थे कि पहुँचने में कितनी देर है और मुन्नू खिड़की से बाहर कूद पड़ने के लिए जोर लगा रहा था।
तीस
चक्रधर जगदीशपुर पहुँच, तो रात के आठ बज गए थे। राजभवन के द्वार पर हजारों आदमियों की भीड़ थी। अन्न-दान दिया जा रहा था और कंगले एक पर एक टूटे पड़ते थे। सिपाही धक्के पर धक्के देते थे, पर कंगलों का रेला कम न होता था। शायद वे समझते थे कि कहीं हमारी बारी आने से पहले ही सारा अन्न समाप्त न हो जाए , अन्न कम हो जाने पर थोड़ा-थोड़ा देकर ही टरका दें। मुंशी वज्रधर बार-बार चिल्ला रहे थे-क्यों एक-दूसरे पर गिरे पड़ते हो? सबको मिलेगा, कोई खाली न जाएगा, सैकड़ों बोरे भरे हुए हैं। लेकिन उनके आश्वासन का कोई असर न दिखाई देता था। छोटी-सी बस्ती में इतने आदमी भी मुश्किल से होंगे ! इतने कंगाल न जाने कहाँ से फट पड़े थे।
सहसा मोटर की आवाज सुनकर सामने देखा, तो भीड़ को हटाकर दौड़े और चक्रधर को गले लगा लिया। पिता और पुत्र दोनों रो रहे थे, पिता में पुत्र-स्नेह था, पुत्र में पितृ-भक्ति थी, किसी के दिल में जरा भी मैल न था, फिर भी वे आज पांच साल के बाद मिल रहे हैं। कितना घोर अनर्थ है।
अहिल्या पति के पीछे खड़ी थी। मुन्न उसकी गोद में बैठा बड़े कौतूहल से दोनों आदमियों का रोना देख रहा था। उसने समझा, इन दोनों में मार-पीट हुई है, शायद दोनों ने एक-दूसरे का गला पकड़कर दबाया है, तभी तो यों रो रहे हैं। बाबूजी का गला दुख रहा होगा। यह सोचकर उसने भी रोना शुरू किया। मुंशीजी उसे रोते देखकर प्रेम से बढ़े कि उसको गोद में लेकर प्यार करूं, तो बालक ने मुंह फेर लिया। जिसने अभी-अभी बाबूजी को मारकर रुलाया है, वह क्या मुझे न मारेगा? कैसा विकराल रूप है? अवश्य मारेगा।
अभी दोनों आदमियों में कोई बात न होने पाई थी कि राजा साहब दौड़ते हुए भीतर से आते दिखाई दिए। सूरत से नैराश्य और चिंता झलक रही थी। शरीर भी दुर्बल था। आते ही आते उन्होंने चक्रधर को गले लगाकर पूछा–मेरा तार कब मिल गया था?
चक्रधर-कोई आठ बजे मिला होगा। पढ़ते ही मेरे होश उड़ गए। रानीजी की क्या हालत है?
राजा-वह तो अपनी आंखों देखोगे, मैं क्या कहूँ। अब भगवान् ही का भरोसा है। अहा! यह शंखधर महाशय हैं।
यह कहकर उन्होंने बालक को गोद में ले लिया और स्नेहपूर्ण नेत्रों से देखकर बोले-मेरी सुखदा बिल्कुल ऐसी ही थी। ऐसा जान पड़ता है, यह उसका छोटा भाई है। उसकी सूरत अभी तक मेरी आंखों में है। मुख से बिल्कुल ऐसी ही थी।
अंदर जाकर चक्रधर ने मनोरमा को देखा। वह मोटे गद्दों में ऐसे समा गई थी कि मालूम होता था पलंग खाली है, केवल चादर पड़ी है। चक्रधर की आहट पाकर उसने मुंह चादर से बाहर निकाला। दीपक के क्षीण प्रकाश में किसी दुर्बल की आह असहाय नेत्रों से आकाश की ओर ताक रही थी!
राजा साहब ने आहिस्ता से कहा-नोरा, तुम्हारे बाबूजी आ गए!
मनोरमा ने तकिए का सहारा लेकर कहा-मेरे धन्य भाग ! आइए बाबूजी, आपके दर्शन भी हो गए। तार न जाता, तो आप क्यों आते?
चक्रधर-मुझे तो बिल्कुल खबर ही न थी। तार पहुँचने पर हाल मालूम हुआ।
मनोरमा-खैर, आपने बड़ी कृपा की। मुझे तो आपके आने की आशा ही न थी।
राजा-बार-बार कहती थी कि वह न आएंगे, उन्हें इतनी फुर्सत कहाँ, पर मेरा मन कहता था, आप यह समाचार पाकर रुक ही नहीं सकते। शहर के सब चिकित्सकों को दिखा चुका। किसी से कुछ न हो सका। अब तो ईश्वर ही का भरोसा है।
चक्रधर-मैं भी एक डॉक्टर को साथ लाया हूँ। बहुत ही होशियार आदमी है।
मनोरमा (बालक को देखकर) अच्छा ! अहिल्या देवी भी आई हैं? जरा यहां तो लाना, अहिल्या ! इसे छाती से लगा लूं।
राजा-इसकी सूरत सुखदा से बहुत मिलती है, नोरा! बिल्कुल उसका छोटा भाई मालूम होता है!
‘सुखदा’ का नाम सुनकर अहिल्या पहले भी चौंकी थी। अबकी वही शब्द सुनकर फिर चौंकी। बाल-स्मृति किसी भूले हुए स्वप्न की भांति चेतना क्षेत्र में आ गई। उसने घूंघट की आड़ से राजा साहब की ओर देखा। उसे अपनी स्मृति पर ऐसा ही आकार खिंचा हुआ मालूम पड़ा।
बालक को स्पर्श करते ही मनोरमा के जर्जर शरीर में एक स्फूर्ति-सी दौड़ गई। मानो किसी ने बुझते हुए दीपक की बत्ती उकसा दी हो! बालक को छाती से लगाए हुए उसे अपूर्व आनंद मिल रहा था, मानो बरसों के तृषित कंठ को शीतल जल मिल गया हों और उसकी प्यास न बुझती हो। वह बालक को लिए हुए उठ बैठी और बोली-अहिल्या, मैं अब यह लाल तुम्हें न दूंगी। यह मेरा है। तुमने इतने दिनों तक मेरी सुधि न ली, यह उसी की सजा है।
राजा साहब ने मनोरमा को संभालकर कहा-लेट जाओ। लेट जाओ। देह में हवा लग रही है। क्या करती हो?
किंतु मनोरमा बालक को लिए हुए कमरे के बाहर निकल गई। राजा साहब भी उसके पीछे-पीछे दौड़े कि कहीं गिर न पड़े। कमरे में केवल चक्रधर और अहिल्या रह गए। अहिल्या धीरे से बोली-मुझे अब याद आ रहा है कि मेरा भी नाम सुखदा था। जब मैं बहुत छोटी थी, तो मुझे लोग सुखदा कहते थे।
चक्रधर ने बेपरवाही से कहा–हां, यह कोई नया नाम नहीं।
अहिल्या-मेरे बाबूजी की सूरत राजा साहब से बहुत मिलती है।
चक्रधर ने उसी लापरवाही से कहा-हां, बहुत से आदमियों की सूरत मिलती है।
अहिल्या-नहीं, बिल्कुल ऐसे ही थे। चक्रधर हो सकता है। बीस वर्ष की सूरत अच्छी तरह ध्यान में भी तो नहीं रहती।
अहिल्या-जरा तुम राजा साहब से पूछो तो कि आपकी सुखदा कब खोई थी?
चक्रधर ने झुंझलाकर कहा-चुपचाप बैठो, तुम इतनी भाग्यवान् नहीं हो। राजा साहब की सुखदा कहीं खोई नहीं, मर गई होगी।
राजा साहब इसी वक्त बालक को गोद में लिए मनोरमा के साथ कमरे में आए। चक्रधर के अंतिम शब्द उनके कान में पड़ गए। बोले-नहीं बाबूजी, मेरी सुखदा मरी नहीं, त्रिवेणी के मेले में खो गई थी। आज बीस साल हुए, जब मैं पत्नी के साथ त्रिवेणी-स्नान करने प्रयाग गया था, वहीं सुखदा खो गई थी। उसकी उम्र कोई चार साल की रही होगी। बहुत ढूंढा, पर कुछ पता न चला। उसकी माता उसके वियोग में स्वर्ग सिधारी। मैं भी बरसों तक पागल बना रहा। अंत में सब करके बैठ रहा।
अहिल्या ने सामने आकर निस्संकोच भाव से कहा-मैं भी तो त्रिवेणी के स्नान में खो गई थी। आगरा की सेवा समिति वालों ने मुझे कहीं रोते पाया और मुझे आगरे ले गए। बाबू यशोदानंदन ने मेरा पालन-पोषण किया।
राजा-तुम्हारी क्या उम्र होगी, बेटी?
अहिल्या-चौबीसवां लगा है।
राजा-तुम्हें अपने घर की कुछ याद है? तुम्हारे द्वार पर किस चीज का पेड़ था?
अहिल्या-शायद बरगद का पेड था। मुझे याद आता है कि मैं उसके गोदे चुनकर खाया करती थी।
राजा-अच्छा, तुम्हारी माता कैसी थीं? कुछ याद आता है?
अहिल्या-हां, याद क्यों नहीं आता। उनका सांवला रंग था, दुबली-पतली, लेकिन बहुत लंबी थीं। दिन भर पान खाती रहती थीं।
राजा-घर में कौन-कौन लोग थे?
अहिल्या-मेरी एक बुढ़िया दादी थी, जो मुझे गोद में लेकर कहानी सुनाया करती थीं। एक बूढ़ा नौकर था, जिसके कंधे पर रोज सवार हुआ करती थी। द्वार पर एक बड़ा-सा घोड़ा बंधा रहता था। मेरे द्वार पर एक कुआं था और पिछवाड़े एक बुढ़िया चमारिन का मकान था।
राजा ने सजल नेत्र होकर कहा-बस-बस, बेटी तुझे छाती से लगा लूं। तू ही मेरी सुखदा है। मैं बालक को देखते ही ताड़ गया था। मेरी सुखदा मिल गई! मेरी सुखदा मिल गई !
चक्रधर-अभी शोर न कीजिए। संभव है, आपको भ्रम हो रहा हो।
राजा-जरा भी नहीं, जौ भर भी नहीं, मेरी सुखदा यही है। इसने जितनी बातें बताईं, सभी ठीक हैं। मुझे लेश मात्र भी संदेह नहीं। आह ! आज तेरी माता होती तो उसे कितना आनंद होता ! क्या लीला है भगवान् की! मेरी सुखदा घर बैठे मेरी गोद में आ गई। जरा-सी गई थी, बड़ी-सी आई। अरे! मेरा शोक-संताप हरने को एक नन्हा-मुन्ना बालक भी लाई। आओ, भैया चक्रधर, तुम्हें छाती से लगा लूं। अब तक तुम मेरे मित्र थे, अब मेरे पुत्र हो। याद है, मैंने तुम्हें जेल भिजवाया था? नोरा, ईश्वर की लीला देखी? सुखदा घर में थी और मैं उसके नाम को रो बैठा था। अब मेरी अभिलाषा पूरी हो गई। जिस बात की आशा तक मिट गई थी, वह आज पूरी हो गई।
चक्रधर विमन भाव से खड़े थे, मनोरमा अंगों फूली न समाती थी। अहिल्या अभी तक खड़ी रो रही थी। सहसा रोहिणी कमरे के द्वार से जाती हुई दिखाई दी। राजा साहब उसे देखते ही बाहर निकल आए और बोले-कहाँ जाती हो, रोहिणी? मेरी सुखदा मिल गई। आओ, देखो, यह उसका लड़का है।
रोहिणी, वहीं ठिठक गई और संदेहात्मक भाव से बोली-क्या स्वर्ग से लौट आई है, क्या?
राजा-नहीं-नहीं आगरे में थी। देखो, यह उसका लड़का है। मेरी सूरत इससे कितनी मिलती है! आओ, सुखदा को देखो। मेरी सुखदा खड़ी है।
रोहिणी ने वहीं खड़े-खड़े उत्तर दिया-यह आपकी सुखदा नहीं, रानी मनोरमा की माया मर्ति है, जिसके हाथों में आप कठपुतली की भांति नाच रहे हैं।
राजा ने विस्मित होकर कहा–क्या यह मेरी सुखदा नहीं है? कैसी बात कहती हो? मैंने खूब परीक्षा करके देख लिया है।
रोहिणी–ऐसे मदारी के खेल बहुत देख चुकी हूँ। मदारी भी आपको ऐसी बातें बता देता है, जो आपको आश्चर्य में डाल देती हैं। यह सब माया लीला है।
राजा–क्यों व्यर्थ किसी पर आक्षेप करती हो, रोहिणी? मनोरमा को भी तो वे बातें नहीं मालूम हैं, जो सुखदा ने मुझसे बता दीं। भला किसी गैर लड़की को मनोरमा क्यों मेरी लड़की बनाएगी?
इसमें उसका क्या स्वार्थ हो सकता है?
रोहिणी-वह हमारी जड़ खोदना चाहती है। क्या आप इतना भी नहीं समझते? चक्रधर को राजा बनाकर वह आपको कोने में बैठा देगी। यही बालक, जो आपकी गोद में है; एक दिन आपका शत्र होगा। यह सब सधी हुई बातें हैं। जिसे आप मिट्टी की गऊ समझते हैं, वह आप जैसों को बाजार में बेच सकती है। किसकी बुद्धि इतनी ऊंची उड़ेगी !
राजा ने व्यग्र होकर कहा-अच्छा, अब चुप रहो, रोहिणी ! मुझे मालूम हो गया कि तुम्हारे हृदय में मेरे अमंगल के सिवा और किसी भाव के लिए स्थान नहीं है! आज न जाने किसके पुण्य-प्रताप से ईश्वर ने मुझे यह शुभ दिन दिखाया है और तुम मुंह से ऐसे कुवचन निकाल रही हो, ईश्वर ने मुझे वह सब कुछ दे दिया, जिसकी मुझे स्वप्न में भी आशा न थी। यह बाल-रत्न मेरी गोद में खेलेगा, इसकी किसे आशा थी! और ऐसे शुभ अवसर पर तुम यह विष उगल रही हो! मनोरमा के पैर की धूल की बराबरी भी तुम नहीं कर सकती। जाओ, मुझे तुम्हारा मुख देखते हुए रोमांच होता है। तुम स्त्री के रूप में पिशाचिनी हो।
यह कहते हुए राजा साहब उसी आवेश में दीवानखाने में जा पहुंचे। द्वार पर अभी तक कंगालों की भीड़ लगी हुई थी। दो-चार अमले अभी तक बैठे दफ्तर में काम कर रहे थे। राजा साहब ने बालक को कंधे पर बिठाकर उच्च स्वर में कहा-मित्रो! यह देखो; ईश्वर की असीम कृपा से मेरा नवासा घर बैठे मेरे पास आ गया। तुम लोग जानते हैं कि बीस साल हुए, मेरी पुत्री सुखदा त्रिवेणी के स्नान में खो गई थी ? वही सुखदा आज मुझे मिल गई है और यह बालक उसी का पुत्र है। आज से तुम लोग इसे अपना युवराज समझो। मेरे बाद यही मेरी रियासत का स्वामी होगा। गारद से कह दो, अपने युवराज को सलामी दे। नौबतखाने में कह दो, नौबत बजे। आज के सातवें दिन राजकुमार का अभिषेक होगा। अभी से उसकी तैयारी शुरू करो।
यह हुक्म देकर राजा साहब बालक को गोद में लिए ठाकुरद्वारे में जा पहुंचे। वहां इस समय ठाकुरजी के भोग की तैयारियां हो रही थीं। साधु-संतों की मंडली जमा थी। एक पंडित कोई कथा कह रहे थे, लेकिन श्रोताओं के कान उसी घंटी की ओर लगे थे, जो ठाकुरजी की पूजा की सूचना देगी और जिसके बाद तर माल के दर्शन होंगे। सहसा राजा साहब ने आकर ठाकुरजी के सामने बालक को बैठा दिया और खुद साष्टांग दंडवत् करने लगे। इतनी श्रद्धा से उन्होंने अपने जीवन में कभी ईश्वर की प्रार्थना न की थी। आज उन्हें ईश्वर से साक्षात्कार हुआ। उस अनुराग में उन्हें समस्त संसार आनंद से नाचता हुआ मालूम हुआ। ठाकुरजी स्वयं अपने सिंहासन से उतरकर बालक को गोद में लिए हुए हैं। आज उनकी चिरसंचित कामना पूरी हुई, और इस तरह पूरी हई, जिसकी उन्हें कभी आशा भी न थी। यह ईश्वर की दया नहीं तो और क्या है?
पुत्र-रत्न के सामने संसार की संपदा क्या चीज है? अगर पुत्र-रत्न न हो, तो संसार की संपदा का मल्य ही क्या है ! जीवन की सार्थकता ही क्या है? कर्म का उद्देश्य ही क्या है? अपने लिए कौन दुनिया के मनसूबे बांधता है? अपना जीवन तो मनसूबों में ही व्यतीत हो जाता है, यहां तक कि जब मनसबे पूरे होने के दिन आते हैं, तो हमारी संसार यात्रा समाप्त हो चुकी होती है। पुत्र ही आकांक्षाओं का स्रोत, चिंताओं का आगार, प्रेम का बंधन और जीवन का सर्वस्व है। वही पुत्र आज विशाल सिंह को मिल गया था। उसे देख-देखकर उनकी आंखें आनंद से उमड़ी आती थीं, हृदय पुलकित हो रहा था। इधर अबोध बालक को छाती से लगाकर उन्हें अपना बल शतगुण होता हुआ ज्ञात होता था। अब उनके लिए संसार ही स्वर्ग था।
पुजारी ने कहा-भगवान् राजकुंवर को चिरंजीवी करें!
राजा ने अपनी हीरे की अंगूठी उसे दे दी। एक बाबाजी को इसी आशीर्वाद के लिए सौ बीघे जमीन मिल गई।
ठाकुरद्वारे से जब वह घर में आए, तो देखा कि चक्रधर आसन पर बैठे भोजन कर रहे हैं और मनोरमा सामने खड़ी खाना परस रही है। उसके मुख-मंडल पर हार्दिक उल्लास की कांति झलक रही थी। कोई यह अनुमान ही न कर सकता था कि यह वही मनोरमा है, जो अभी दस मिनट पहले मृत्यु-शैया पर पड़ी हुई थी।
इकतीस
यौवन काल जीवन का स्वर्ग है। बाल्य काल में यदि हम कल्पनाओं के राग गाते हैं, तो यौवन काल में उन्हीं कल्पनाओं का प्रत्यक्ष स्वरूप देखते हैं, और वृद्धावस्था में उसी स्वरूप का स्वप्न। कल्पना पंगु होती है, स्वप्न मिथ्या, जीवन का सार केवल प्रत्यक्ष में है। हमारी दैहिक और मानसिक शक्ति का विकास यौवन है। यदि समस्त संसार की संपदा एक ओर रख दी जाए और यौवन दूसरी ओर, तो ऐसा कौन प्राणी है, जो उस विपुल धनराशि की ओर आंख उठा कर भी देखे। वास्तव में यौवन ही जीवन का स्वर्ग है, और रानी देवप्रिया की-सी सौभाग्यवती और कौन होगी, जिसके लिए यौवन के द्वार फिर से खुल गए थे?
संध्या का समय था। देवप्रिया एक पर्वत की गुफा में एक शिला पर अचेत पड़ी हुई थी। महेन्द्र उसके मुख की ओर आशापूर्ण नेत्रों से देख रहे थे। उनका शरीर बहुत दुर्बल हो गया है, मुख पीला पड़ गया है और आंखें भीतर घुस गई हैं, जैसे कोई यक्ष्मा का रोगी हो। यहां तक कि उन्हें सांस लेने में भी कष्ट होता है। जीवन का कोई चिह्न है, तो उनके नेत्रों में आशा की झलक है। आज उनकी तपस्या का अंतिम दिन है, आज देवप्रिया का पुनर्जन्म होगा, सूखा हुआ वृक्ष नव पल्लवों से लहराएगा, आज फिर उसके यौवन-सरोवर में लहरें उठेगी ! आकाश में कुसुम खिलेंगे। वह बार-बार उसके चेतना-शून्य हृदय पर हाथ रखकर देखते हैं कि रक्त का संचार होने में कितनी देर है और जीवन का कोई लक्षण न देखकर व्यग्र हो उठते हैं। इन्हें भय हो रहा है, मेरी तपस्या निष्फल तो न हो जाएगी।
एकाएक महेन्द्र चौंककर उठ खड़े हुए। आत्मोल्लास से मुख चमक उठा। देवप्रिया की हत्तन्त्रियों में जीवन के कोमल संगीत का कम्पन हो रहा था। जैसे वीणा के अस्फुट स्वरों से शनैः शनैः गान का स्वरूप प्रस्फुटित होता है, जैसे मेघ-मंडल से शनैः-शनैः इन्दु की उज्ज्वल छवि प्रकट होती हुई दिखाई देती है, उसी भांति देवप्रिया के श्रीहीन, संज्ञाहीन, प्राणहीन मुखमंडल पर जीवन का स्वरूप अंकित होने लगा। एक क्षण में उसके नीले अधरों पर लालिमा छा गई, आंखें खुल गईं, मुख पर जीवन श्री का विकास हो गया। उसने एक अंगड़ाई ली और विस्मित नेत्रों से इधर-उधर देखकर शिला-शैय्या से उठ बैठी! कौन कह सकता था कि वह महानिद्रा की गोद से निकलकर आई है? उसका मुखचंद्र अपनी सोलहों कलाओं से आलोकित हो रहा था। वह वही देवप्रिया थी, जो आशा और भय से कांपता हुआ हृदय लिए आज से चालीस वर्ष पहले, पतिगृह में आई थी। वही यौवन का माधुर्य था, वही नेत्रों को मुग्ध करने वाली छवि थी, वही सुधामय मुस्कान, वही सुकोमल गात ! उसे अपने पोर-पोर में नए जीवन का अनुभव हो रहा था, लेकिन कायाकल्प हो जाने पर भी उसे अपने पूर्व जीवन की सारी की सारी बातें याद थीं। वैधव्य काल की विलासिता भीषण रूप धारण करके उसके सामने खड़ी थी। एक क्षण तक लज्जा और ग्लानि के कारण वह कुछ बोल न सकी। अपने पति की इस प्रेममय तपस्या के सामने उसका विलासमय जीवन कितना घृणित, कितना लज्जास्पद था!
महेन्द्र ने मुस्कराकर कहा-प्रिये, आज मेरा जीवन सफल हो गया। अभी एक क्षण पहले तुम्हारी दशा देखकर मैं अपने दुस्साहस पर पछता रहा था।
देवप्रिया ने महेन्द्र को प्रेम मुग्ध नेत्रों से देखकर कहा–प्राणनाथ, तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है, उसका धन्यवाद देने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं।
देवप्रिया की प्रबल इच्छा हुई कि स्वामी के चरणों पर सिर रख दूं और कहूँ, कि तुमने मेरा उद्धार कर दिया, मुझे वह अलभ्य वस्तु प्रदान कर दी, जो आज तक किसी ने न पाई थी, जो सर्वदा से मानव-कल्पना का स्वर्ण-स्वप्न रही है, पर संकोच ने जबान बंद कर दी।
महेन्द्र-सच कहना, तुम्हें विश्वास था कि मैं तुम्हारा कायाकल्प कर सकूँगा?
देवप्रिया–प्रियतम, यह तुम क्यों पूछते हो? मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास न होता, तो आती ही क्यों?
देवप्रिया को अपनी मुख छवि देखने की बड़ी तीव्र इच्छा हो रही थी। एक शीशे के टुकड़े के लिए इस समय वह क्या कुछ न दे डालती?
सहसा महेन्द्र फिर बोले–तुम्हें मालूम है, इस क्रिया में कितने दिन लगे?
देवप्रिया–मैं क्या जानूं कि कितने दिन लगे?
महेन्द्र–पूरे तीन साल!
देवप्रिया–तीन साल! तीन साल से तुम मेरे लिए यह तपस्या कर रहे हो?
महेन्द्र–तीन क्या, अगर तीस साल भी यह तपस्या करनी पड़ती, तो भी मैं न घबराता।
देवप्रिया ने सकुचाते हुए पूछा-ऐसा तो न होगा कि कुछ ही दिनों में यह ‘चार दिन की चटक चांदनी फिर अंधेरा पाख’ हो जाए?
महेन्द्र–नहीं प्रिये, इसकी कोई शंका नहीं।
देवप्रिया–और हम इस वक्त हैं कहाँ?
महेन्द्र–एक पर्वत की गुफा में। मैंने अपने राज्याधिकार मंत्री को सौंप दिए और तुम्हें लेकर यहाँ चला आया। राज्य की चिंताओं में पड़कर मैं यह सिद्धि कभी न प्राप्त कर सकता था। तुम्हारे लिए मैं ऐसे-ऐसे कई राज्य त्याग सकता था।
देवप्रिया को अब ऐसी वस्तु मिल गई थी, जिसके सामने राज्य वैभव की कोई हस्ती न थी। वन्य जीवन की कल्पना उसे अत्यंत सुखद जान पड़ी। प्रेम का आनंद भोगने के लिए, स्वामी के प्रति अपनी भक्ति दिखाने के लिए यहां जितने मौके थे, उतने राजभवन में कहाँ मिल सकते थे? उसे विलास की लेशमात्र भी आकांक्षा न थी, वह पतिप्रेम का आनंद उठाना चाहती थी। प्रसन्न होकर बोली-यह तो मेरे मन की बात हुई।
महेन्द्र ने चकित होकर पूछा–मुझे खुश करने के लिए यह बात कह रही हो या दिल से? मुझे तो इस विषय में बड़ी शंका थी।
देवप्रिया-नहीं प्राणनाथ, दिल से कह रही हूँ। मेरे लिए जहां तुम हो, वहीं सब कुछ है। महेन्द्र ने मुस्कराकर कहा–अभी तुमने इस जीवन के कष्टों का विचार नहीं किया। ज्येष्ठ-वैशाख की लू और लपट, शीतकाल की हड्डियों में चुभने वाली हवा और वर्षा की मूसलाधार वृष्टि की कल्पना तुमने नहीं की। मुझे भय है, शायद तुम्हारा कोमल शरीर उन कष्टों को न सह सकेगा।
देवप्रिया ने नि:शंक भाव से कहा–तुम्हारे साथ मैं सब कुछ आनंद से सह सकती हूँ।
उसी वक्त देवप्रिया ने गुफा से बाहर निकलकर देखा, तो चारों ओर अंधकार छाया हुआ था, लेकिन एक ही क्षण में उसे वहां की सब चीजें दिखाई देने लगीं। अंधकार वही था, पर उसकी आंखें उसमें प्रवेश कर गई थीं। सामने ऊंची पहाड़ियों की श्रेणियां अप्सराओं के विशाल भवनों की-सी मालूम होती थीं। दाहिनी ओर वृक्षों के समूह साधुओं की कुटियों के समान दीख पड़ते थे और बाईं ओर एक रत्नजटित नदी किसी चंचल पनिहारिन की भांति मीठे राग गाती, इठलाती चली जाती थी। फिर उसे गुफा से नीचे उतरने का मार्ग साफ-साफ दिखाई देने लगा। अंधकार वही था, पर उसमें कितना प्रकाश आ गया था।
उसी क्षण देवप्रिया के मन में एक विचित्र शंका उत्पन्न हुई–मेरा यह निकृष्ट जीवन कहीं फिर तो सर्वनाश न कर देगा?
बत्तीस
राजा विशालसिंह ने इधर कई साल से राजकाज छोड़-सा रखा था ! मुंशी वज्रधर और दीवान साहब की चढ़ बनी थी। गुरुसेवक सिंह भी अपने रागरंग में मस्त थे। सेवा और प्रेम का आवरण उतारकर अब वह पक्के विलायती हो गए थे। प्रजा के सुख-दुःख की चिंता अगर किसी को थी, तो वह मनोरमा को थी। राजा साहब के सत्य और न्याय का उत्साह ठंडा पड़ गया था। मनोरमा को पाकर उन्हें किसी चीज की सुधि न थी। उन्हें एक क्षण के लिए भी मनोरमा से अलग होना असह्य था। जैसे कोई दरिद्र प्राणी कहीं से विपुल धन पा जाए और रात-दिन उसकी की चिंता में पड़ा रहे; वह दशा राजा साहब की थी। मनोरमा उनका जीवन धन थी। उसी दृष्टि में मनोरमा फूल की पंखुड़ी से भी कोमल थी, उसे कुछ हो न जाए , यही भय उन्हें बना रहता था। अन्य रानियों की अब वह खुशामद करते रहते थे, जिसमें वे मनोरमा को कुछ कह न बैठे। मनोरमा को बात कितनी लगती है, इसका अनुभव उन्हें हो चुका था। रोहिणी के एक व्यंग्य ने उसे काशी छोड़कर इस गांव में ला बिठाया था। वैसा दूसरा व्यंग्य उसके प्राण ले सकता था। इसलिए वह, रानियों को खुश रखना चाहते थे, विशेषकर रोहिणी को, हालांकि वह मनोरमा को जलाने का कोई अक्सर हाथ से न जाने देती थी।
लेकिन इस बालक ने आकर राजा साहब के जीवन में एक नवीन उत्साह का संचार कर दिया। अब तक उनके जीवन का कोई लक्ष्य न था। मन में प्रश्न होता था, किसके लिए करूं? कौन रोने वाला बैठा हुआ है? प्रतिमा ही न थी, तो मंदिर की रचना कैसे होती? अब वह प्रतिमा आ गई थी, जीवन का लक्ष्य मिल गया था। वह राज-काज से क्यों विरत रहते? मुंशीजी अब तक दीवान साहब से मिलकर अपना स्वार्थ साधते रहते थे, पर अब वह कब किसी को गिनने लगे थे। ऐसे मालूम होता था कि वही राजा साहब हैं। दीवान साहब अगर मनोरमा के पिता थे, तो मुंशीजी राजकुमार के दादा थे। फिर दोनों में कौन दबता? कर्मचारियों पर कभी ऐसी फटकारें न पड़ी थीं, मुंशीजी को देखते ही बेचारे थर-थर कांपने लगते थे। भाग्य किसी का चमके, तो ऐसे चमके! कहाँ पेंशन के पच्चीस रुपयों पर गुजर-बसर होती थी, कहाँ अब रियासत के मालिक थे। राजा साहब भी उनका अदब करते थे। अगर कोई अमला उनके हुक्म की तामील करने में देर करता, जामे से बाहर हो जाते। बात पीछे करते, निकालने की धमकी पहले देते–यहां तुम्हारे हथकंडे एक न चलेंगे, याद रखना। जो तुम आज कह रहे हो, वह सब किए बैठा हूँ। एक-एक को निगल जाऊंगा। अब वह मुंशीजी नहीं हैं, जिनकी बात इस कान से सुनकर उस कान से उड़ा दिया करते थे। अब मुंशीजी रियासत के मालिक हैं।
इसमें भला किसको आपत्ति करने का साहस हो सकता था? हां, सुनने वालों को ये बातें जरूर बुरी मालूम होती थीं। चक्रधर के कानों में कभी ये बातें पड़ जातीं, तो वह जमीन में गड़ से जाते थे। मारे लज्जा के उनकी गर्दन झुक जाती थी। वह आजकल मुंशीजी से बहुत कम बोलते थे। अपने घर भी केवल एक बार गए थे। वहां माता की बातें सुनकर उनको फिर जाने की इच्छा न होती थी। मित्रों से मिलना-जुलना उन्होंने कम कर दिया था, हालांकि अब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई थी। वास्तव में यहां का जीवन उनके लिए असह्य हो गया था। वह फिर अपनी शांतिकुटीर को लौट जाना चाहते थे। यहां आए दिन कोई-न-कोई बात हो ही जाती थी, जो दिन-भर उनके चित्त को व्यग्र रखने को काफी होती थी। कहीं कर्मचारियों में जूती-पैजार होती थी, कहीं गरीब असामियों पर डांट-फटकार, कहीं रनिवास में रगड़-झगड़ होती थी, तो कहीं इलाके में दंगा-फिसाद। उन्हें स्वयं कभी-कभी कर्मचारियों को तंबीह करनी पड़ती, कई बार उन्हें विवश होकर नौकरों को मारना भी पड़ा था। सबसे कठिन समस्या यही थी कि यहां उनके पुराने सिद्धांत भंग होते चले जाते थे। वह बहुत चेष्टा करते थे कि मुंह से एक भी अशिष्ट शब्द न निकले, पर प्रायः नित्य ही ऐसे अवसर आ पड़ते कि उन्हें विवश होकर दंडनीति का आश्रय लेना ही पड़ता था।
लेकिन अहिल्या इस जीवन का चरम सुख भोग कर रही थी। बहुत दिनों तक दु:ख झेलने के बाद उसे यह सुख मिला था और उनमें मग्न थी। अपने पुराने दिन उसे बहुत जल्द भूल गए थे और उनकी याद दिलाने में उसे दुःख होता था। उसका रहन-सहन बिल्कुल बदल गया था। वह अच्छी-खासी अमीरजादी बन गई थी। सारे दिन आमोद-प्रमोद के सिवा उसे दुसरा का था। पति के दिल पर क्या गुजर रही है, यह सोचने का कष्ट क्यों उठाती? जब वह खुश थी, तब उसके स्वामी भी अवश्य खुश होंगे। राज्य पाकर कौन रोता है ! उसकी मुख छवि अब पूर्ण चंद्र को भांति तेजोमय हो गई थी। उसकी सरलता, वह नम्रता, वह कर्मशीलता गायब हो गई थी। चतुर गृहिणी अब एक सगर्वा, यौवनवाली कामिनी थी, जिसकी आंखों से मद छलका पडता था। चक्रधर ने जब उसे पहली बार देखा था, तब वह एक मुर्झाती हुई कली थी और मनोरमा एक खिले हुए प्रभात की स्वर्णमयी किरणों से विहसित फूल। अब मनोरमा अहिल्या हो गई थी और अहिल्या मनोरमा। अहिल्या पहर दिन चढ़े अंगड़ाइयां लेती हुई शयनागार से निकलती। मनोरमा पहर रात ही से घर या राज्य का कोई-न-कोई काम करने लगती थी। शंखधर अब मनोरमा ही के पास रहता था, वही उसका लालन-पालन करती थी। अहिल्या केवल कभी-कभी उसे गोद में लेकर प्यार कर लेती, मानो किसी दूसरे का बालक हो। बालक भी अब उसकी गोद में आते हुए झिझकता। मनोरमा ही अब उसकी माता थी। मनोरमा की जान अब उसमें थी और उसकी मनोरमा में। कभी-कभी एकांत में मनोरमा बालक को गोद में लिए घंटों मुंह छिपाकर रोती। उसके अंतस्तल में अहर्निश एक शूल-सा होता रहता था, हृदय में नित्य एक अग्निशिखा प्रज्ज्वलित रहती थी और जब किसी कारण से वेदना और जलन बढ़ जाती, तो उसके मुख से एक आह और आंखों से आंसू की चार बूंदें निकल पड़ती थीं। बालक भी उसे देखकर रोने लगता। तब मनोरमा आंसुओं को पी जाती और हंसने की चेष्टा करके बालक को छाती से लगा लेती। उसकी तेजस्विता गहन चिंता और गंभीर विचार में रूपांतरित हो गई थी। वह अहिल्या से दबती थी। पर अहिल्या उससे खिंची-सी रहती। कदाचित् वह मनोरमा के अधिकारों को छीनना चाहती थी, उसके प्रबंध में दोष निकालती रहती। पर रानी मनोरमा अपने अधिकारों से जी-जान से चिमटी हुई थी। उनका अल्पांश भी न त्यागना चाहती थी, बल्कि दिनों-दिन उन्हें बढ़ाती जाती थी। यही उसके जीवन का आधार था।
अब चक्रधर अहिल्या से अपने मन की बातें कभी न कहते थे। यह संपदा उनका सर्वनाश किए डालती थी। क्या अहिल्या यह सुख-विलास छोड़कर मेरे साथ चलने पर राजी होगी? उन्हें शंका होती थी कि कहीं वह इस प्रस्ताव को हंसी में न उड़ा दे या मुझे रुकने के लिए मजबूर न करे। अगर वह दृढ़ भाव से एक बार कह देगी कि तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते, तो वह कैसे जाएंगे? उन्हें इसका क्या अधिकार है कि उसे अपने साथ विपत्ति झेलने के लिए कहें? उन्होंने अगर कहा और वह धर्मसंकट में पड़कर उनके साथ चलने पर तैयार भी हो गई, तो मनोरमा शंखधर को कब छोड़ेंगी? क्या शंखधर को छोड़कर अहिल्या उनके साथ जाएगी? जाकर प्रसन्न रहेगी? अगर बालक को मनोरमा ने दे भी दिया, तो क्या वह इस वियोग की वेदना सह लेंगी? इसी प्रकार के कितने ही प्रश्न चक्रधर के मन में उठते रहते थे और वह किसी भांति अपने कर्त्तव्य का निश्चय न कर सकते थे। केवल एक बात निश्चित थी-वह इन बंधनों में पड़कर अपना जीवन नष्ट न करना चाहते थे, संपत्ति पर अपने सिद्धांतों को भेंट न कर सकते थे।
एक दिन चक्रधर बैठे कुछ पढ़ रहे थे कि मुंशीजी ने आकर कहा-बेटा, जरा एक बार रियासत का दौरा नहीं कर आते? आखिर दिन-भर पड़े ही रहते हो? मेरी समझ में नहीं आता, तुम किस रंग के आदमी हो। बेचारे राजा साहब अकेले कहाँ-कहाँ देखेंगे और क्या-क्या देखेंगे? रहा मैं, सो किसी मसरफ का नहीं। मुझसे किसी दावत या बारात या मजलिस का प्रबंध करने के सिवा और क्या हो सकता है? गांव-गांव दौड़ना अब मुझसे नहीं हो सकता। अब तो ईश्वर की दया से रियासत अपनी है ! तुम्ही इतनी लापरवाही करोगे, तो कैसे काम चलेगा? हाथी, घोड़े, मोटरें सब कुछ मौजूद हैं। कभी-कभी इधर-उधर चक्कर लगा आया करो। इसी तरह धाक बैठेगी, घर में बैठे-बैठे तुम्हें कौन जानता है?
चक्रधर ने उदासीन भाव से कहा–मैं इस झंझट में नहीं पड़ना चाहता। मैं तो यहां से जाने को तैयार बैठा हुआ हूँ।
मुंशीजी चक्रधर का मुंह ताकने लगे। बात इतनी अश्रुत-पूर्व थी कि उनकी समझ ही में न आई। पूछा-क्यों अब भी वही सनक सवार है?
चक्रधर-आप उसे सनक, पागलपन-जो चाहें, समझें, पर मुझे तो उसमें जितना आनंद आता है, उतना इस हरबोंग में नहीं आता। आपको तो मेरी यही सलाह है, आराम से घर में बैठकर भगवान् का भजन कीजिए। मुझसे जो कुछ बन पड़ेगा, आपकी मदद करता रहूँगा।
मुंशी–बेटा, मुझे मालूम होता है, तुम अपने होश में नहीं हो। बिस्वे-बिस्वे के लिए तो खून की नदियां बह जाती हैं और तुम इतनी बड़ी रियासत पाकर ऐसी बातें करते हो! तुम्हें क्या हो गया है? बेटा, इन बातों में कुछ नहीं रखा है। अब तुम समझदार हुए, इन पुरानी बातों को दिल से निकाल डालो। भगवान् ने तुम्हारे ऊपर कृपादृष्टि फेरी है। उसको धन्यवाद दो और राज्य का इंतजाम अपने हाथ में लो। तुम्हें करना ही क्या है, करने वाले तो कर्मचारी हैं। बस, जरा डांट-फटकार करते रहो, नहीं तो कर्मचारी लोग शेर हो जाएंगे, तो फिर काबू में न आएंगे।
चक्रधर को अब मालूम हुआ कि मैं शांत बैठने भी न पाऊंगा। आज लालाजी ने यह उपदेश दिया है। संभव है, कल अहिल्या को भी मेरा एकांतवास बुरा मालूम हो। वह भी मुझे उपदेश करे, राजा साहब भी कोई काम गले मढ़ दें। अब जल्दी ही यहां से बोरिया-बंधना संभालना चाहिए, मगर इसी सोच-विचार में एक महीना और गुजर गया और वह कुछ निश्चय न कर सके। उस हलचल की कल्पना करके उनकी हिम्मत छूट जाती थी, जो उनका प्रस्ताव सुनकर अंदर से बाहर तक मच जाएगा। अहिल्या रोएगी, मनोरमा कुढ़ेगी, पर मुंह से कुछ न कहेगी, लालाजी जामे से बाहर हो जाएंगे और राजा साहब एक ठंडी सांस लेकर सिर झुका लेंगे।
एक दिन चक्रधर मोटर पर हवा खाने निकले। गर्मी के दिन थे। जी बेचैन था। हवा लगी, तो देहात की तरफ जाने का जी चाहा। बढ़ते ही गए, यहां तक कि अंधेरा हो गया। शोफर को साथ न लिया था-ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते थे, सड़क खराब आती जाती थी। सहसा उन्हें रास्ते में एक बड़ा सांड़ दिखाई दिया। उन्होंने बहुत शोर मचाया पर सांड़ न हटा। जब समीप आने पर भी सांड राह में खड़ा ही रहा, तो उन्होंने कतराकर निकल जाना चाहा, पर सांड़ सिर झुकाए फों-फों करता फिर सामने आ खड़ा हुआ। चक्रधर छड़ी हाथ में लेकर उतरे कि उसे भगा दें, पर वह भागने के बदले उनके पीछे दौड़ा। कुशल यह हुई कि सड़क के किनारे एक पेड़ मिल गया, नहीं तो जान जाने में कोई संदेह ही न था। जी छोड़कर भागे और छड़ी फेंक, पेड़ की शाख पकड़कर लटक गए। सांड़ एक मिनट तक तो पेड़ से टक्कर लेता रहा, पर जब चक्रधर न मिले, तो वह मोटर के पास लौट गया और उसे सींगों से पीछे को ठेलता हुआ दौड़ा। कुछ देर के बाद मोटर सड़क से हटकर एक वृक्ष से टकरा गई। अब सांड़ पूंछ उठा-उठाकर कितना ही जोर लगाता है, पीछे हट-हटकर उसमें टक्करें मारता है, पर वह जगह से नहीं हिलती। तब उसने बगल में जाकर इतनी जोर से टक्कर लगाई कि मोटर उलट गई। फिर भी उसका पिंड न छोड़ा। कभी उसके पहियों से टक्कर लेता, कभी पीछे की तरफ जोर लगाता। मोटर के पहिए फट गए, कई पुर्जे टूट गए, पर सांड़ बराबर उस पर आघात किए जाता था। चक्रधर शाख पर बैठे तमाशा देख रहे थे। मोटर की तो फिक्र न थी, फिक्र यह थी कि वह कैसे लौटेंगे। चारों ओर सन्नाटा था। कोई आदमी न आता-जाता था। अभी मालूम नहीं, सांड़ कितनी देर तक मोटर से लड़ेगा और कितनी देर तक उन्हें वृक्ष पर टंगे रहना पड़ेगा। अगर उनके पास इस वक्त बंदूक होती, तो सांड़ को मार ही डालते। दिल में सांड़ छोड़ने की प्रथा पर झुंझला रहे थे। अगर मालूम हो जाए कि किसका सांड़ है, तो सारी जायदादबिकवा लूं। पाजी ने सांड़ छोड़ रखा है!
सांड़ ने जब देखा कि शत्रु की धज्जियां उड़ गईं और अब वह शायद फिर न उठे, तो डंकारता हुआ एक तरफ चला गया। तब चक्रधर नीचे उतरे और मोटर के समीप जाकर देखा, तो वह उल्टी पड़ी थी। जब तक सीधी न हो जाए , यह पता कैसे चले कि क्या-क्या चीजें टूट गई हैं और अब चलने योग्य है या नहीं। अकेले मोटर को सीधी करना एक आदमी का काम न था। सोचने लगे कि आदमियों को कहाँ से लाऊं! इधर से तो शायद अब रात भर कोई न निकलेगा। पूर्व की ओर थोड़ी ही दूर पर एक गांव था। चक्रधर उसी तरफ चले। रास्ते में इधर-उधर ताकते जाते थे कि कहीं सांड़ न आता हो, नहीं तो यहां सपाट मैदान में कहीं वृक्ष भी नहीं है, मगर सांड़ न मिला और वह एक गांव में पहुंचे। बहुत छोटा-सा ‘पुरवा’ था। किसान लोग अभी थोड़ी ही देर पहले ऊख की सिंचाई करके आए थे। कोई बैलों को सानी-पानी दे रहा था, कोई खाने जा रहा था, कोई गाय दुह रहा था। सहसा चक्रधर ने जाकर पूछा-यह कौन गांव है?
एक आदमी ने जवाब दिया-भैंसोर।
चक्रधर-किसका गांव है?
किसान-महाराज का। कहाँ से आते हो?
चक्रधर-हम महाराज ही के यहां से आते हैं। वह बदमाश सांड़ किसका है, जो इस वक्त सड़क पर घूमा करता है?
किसान यह तो नहीं जानते साहब, पर उसके मारे नाकों दम है, उधर से किसी को निकलने ही नहीं देता। जिस गांव में चला जाता है, दो-एक बैलों को मार डालता है। बहुत तंग कर रहा है।
चक्रधर ने सांड़ के आक्रमण का जिक्र करके कहा–तुम लोग मेरे साथ चलकर मोटर को उठा दो।
इस पर दूसरा किसान अपने द्वार पर से बोला–सरकार, भला रात को मोटर उठाकर क्या कीजिएगा? वह चलने लायक तो होगी नहीं।
चक्रधर–तो तुम लोगों को उसे ठेलकर ले चलना पड़ेगा।
पहला किसान-सरकार, रात भर यहीं ठहरें, सवेरे चलेंगे। न चलने लायक होगी, तो गाड़ी पर लादकर पहुंचा देंगे।
चक्रधर ने झल्लाकर कहा–कैसी बातें करते हो जी! मैं रात भर यहां पड़ा रहूँगा ! तुम लोगों को इसी वक्त चलना होगा।
चक्रधर को उन आदमियों में कोई न पहचानता था। समझे, राजाओं के यहां सभी तरह के लोग आते-जाते हैं, होगा कोई। फिर वे सभी जाति के ठाकुर थे और ठाकुर से सहायता के नाम से जो काम चाहे ले लो, बेगार के नाम से उनकी त्योरियां बदल जाती हैं। किसान ने कहा– साहब, इस बखत तो हमारा जाना न होगा। अगर बेगार चाहते हों, तो वह उत्तर की ओर दूसरा गांव है, चले जाइए! बहुत चमार मिल जाएंगे।
चक्रधर ने गुस्से में आकर कहा-मैं कहता हूँ, तुमको चलना पड़ेगा।
किसान ने दृढ़ता से कहा–तो साहब, इस ताव पर हम न जाएंगे। पासी चमार नहीं हैं, हम भी ठाकुर हैं।
यह कहकर वह घर में जाने लगा।
चक्रधर को ऐसा क्रोध आया कि उसका हाथ पकड़कर घसीट लूं और ठोकर मारते हुए ले चलूं, मगर उन्होंने जब्त करके कहा–मैं सीधे से कहता हूँ, तो तुम लोग उड़नघाइयां बताते हो। अभी कोई चपरासी आकर दो घुड़कियां जमा देता, तो सारा गांव भेड़ की भांति उसके पीछे चला जाता।
किसान वहीं खड़ा हो गया और बोला-सिपाही क्यों घुड़कियां जमाएगा, कोई चोर हैं? हमारी खुशी, नहीं जाते। आपको जो करना हो, कर लीजिएगा।
चक्रधर से जब्त न हो सकता। छड़ी हाथ में थी ही, वह बाज की तरह किसान पर टूट पड़े और एक धक्का देकर कहा–चलता है या जमाऊं दो-चार हाथ? तुम लात के आदमी बात से क्यों मानने लगे!
चक्रधर कसरती आदमी थे। किसान धक्का खाकर गिर पड़ा। यों वह भी करारा आदमी था। उलझ पड़ता, तो चक्रधर आसानी से उसे न गिरा सकते, पर वह रोब में आ गया। सोचा, कोई हाकिम है, नहीं तो उसकी हिम्मत न पड़ती कि हाथ उठाए। संभलकर उठने लगा। चक्रधर ने समझा, शायद यह उठकर मुझ पर वार करेगा। लपककर फिर एक धक्का दिया। सहसा सामने वाले घर में से एक आदमी लालटेन लिए बाहर निकल आया और चक्रधर को देखकर बोला-अरे भगतजी! तुमने यह भेस कब से धारण किया? मुझे पहचानते हो? हम भी तुम्हारे साथ जेहल में थे।
चक्रधर उसे तुरंत पहचान गए। यह उनका जेल का साथी धन्नासिंह था। चक्रधर का सारा क्रोध हवा हो गया। लजाते हुए बोले-क्या तुम्हारा घर इसी गांव में है, धन्ना?
धन्नासिंह–हां साहब, यह आदमी, जिसे आप ठोकरें मार रहे हैं, मेरा सगा भाई है। खा रहा था। खाना छोड़कर जब तक उठू, तब तक तो तुम गरमा ही गए। तुम्हारा मिजाज इतना कड़ा कब से हो गया? जेहल में तो तुम दया और धर्म के देवता बने हुए थे। क्या दिखावा ही दिखावा था? निकला तो कुछ और ही सोचकर, मगर तुम अपने पुराने साथी निकले। कहाँ तो दारोगा को बचाने के लिए अपनी छाती पर संगीन रोक ली थी, कहाँ आज जरा-सी बात पर इतने तेज पड़ गए।
चक्रधर पर घड़ों पानी पड़ गया। मुंह से बात न निकली। वह अपनी सफाई में एक शब्द भी न बोल सके। उनके जीवन की सारी कमाई, जो उन्होंने न जाने कौन-कौन से कष्ट सहकर बटोरी थी, यहां लुट गई। उनके मन की सारी सद्वृत्तियां आहत होकर तड़पने लगीं। एक ओर उनकी न्याय बुद्धि मंदित होकर किसी अनाथ बालक की भांति दामन से मुंह छिपाकर रो रही थी, दूसरी ओर लज्जा किसी पिशाचिनी की भांति उन पर आग्नेय बाणों का प्रहार कर रही थी।
धन्नासिंह ने अपने भाई का हाथ पकड़कर बैठाना चाहा, तो वह जोर से ‘हाय ! हाय !’ करके चिल्ला उठा। दूसरी बार गिरते समय उसका दाहिना हाथ उखड़ गया था। धन्नासिंह ने समझा, उसका हाथ टूट गया है। चक्रधर के प्रति उसकी रही-सही भक्ति भी गायब हो गई। उनकी ओर आरक्त नेत्रों से देखकर बोला-सरकार, आपने तो इसका हाथ ही तोड़ दिया। (ओठ चबाकर) क्या कहें, अपने द्वार पर आए हो और कुछ पुरानी बातों का खयाल है, नहीं तो इस समय क्रोध तो ऐसा आ रहा है कि इसी तरह तुम्हारे हाथ भी तोड़ दूं। यह तुम इतने कैसे बदल गए! अगर आंखों से न देखता होता, तो मुझे कभी विश्वास न आता। जरूर तुम्हें कोई ओहदा या जायदादमिल गई, मगर यह न समझो कि हम अनाथ हैं। अभी जाकर महाराज के द्वार पर फरियाद करें, तो तुम खड़ेखड़े बंध जाओ ! बाबू चक्रधरसिंह का नाम तो तुमने सुना ही होगा? अब किसी सरकारी आदमी की मजाल नहीं कि बेगार ले सके, तुम बेचारे किस गिनती में हो? ओहदा पाकर अपने दिन भूल न जाना चाहिए। तुम्हें मैंने अपना गुरु और देवता समझा था। तुम्हारे ही उपदेश से मेरी पुरानी आदतें छूट गईं। गांजा और चरस तभी से छोड़ दिया, जुए के नगीच नहीं जाता। जिस लाठी से सैकड़ों सिर फोड़ डाले होंगे, अब वह टूटी हुई पड़ी है। मुझे तो तुमने यह उपदेश दिया और आप लगे गरीबों को कुचलने। मन्नासिंह ने इतना ही न कहा था कि रात को यहीं ठहर जाओ, सबेरे हम चलकर तुम्हारी मोटर पहुंचा देंगे। इसमें क्या बुराई थी? अगर मैं उसकी जगह होता, तो कह देता कि तुम्हारा गुलाम नहीं हूँ, जैसे चाहो अपनी मोटर ले जाओ, मुझसे मतलब नहीं। मगर उसने तो तुम्हारे साथ भलमनसी की और तुम उसे मारने लगे। अब बताओ, इसके हाथ की क्या दवा की जाए ? सच है, पद पाकर सबको मद हो जाता है।
चक्रधर ने ग्लानि वेदना से व्यथित स्वर में कहा–धन्नासिंह, मैं बहुत लज्जित हूँ, मुझे क्षमा करो। जो दंड चाहो दो, सिर झुकाए हुए हूँ, जरा भी सिर न हटाऊंगा, एक शब्द भी मुंह से न निकालूंगा।
यह कहते-कहते उनका गला फंस गया। धन्नासिंह भी गद्गद हो गया। बोला-अरे भगतजी, ऐसी बातें न कहो। तुम मेरे गुरु हो, तुम्हें मैं अपना देवता समझता हूँ। क्रोध में आदमी के मुंह से दो-चार कड़ी बातें निकल ही जाती हैं, उनका खयाल न करो। भैया, भाई का नाता बड़ा गहरा होता है। भाई चाहे अपना शत्रु हो, लेकिन कौन आदमी है, जो भाई को मार खाते देखकर क्रोध को रोक सके? मुझे अपना वैसा ही दास समझो, जैसे जेहल में समझते थे। तुम्हारी मोटर कहाँ है? चलो, मैं उसे उठाए देता हूँ या हुक्म हो तो गाड़ी जोत लूं?
चक्रधर ने रोकर कहा–जब तक इसका हाथ अच्छा न हो जाएगा, तब तक मैं कहीं न जाऊंगा, धन्नासिंह ! हां, कोई आदमी ऐसा मिले, जो यहां से जगदीशपुर जा सके, तो उसे मेरी एक चिट्ठी दे दो।
धन्नासिंह–जगदीशपुर में तुम्हारा कौन है, भैया? क्या रियासत में नौकर हो गए हो? चक्रधर-नौकर नहीं हूँ, मैं मुंशी वज्रधर का लड़का हूँ।
धन्नासिंह ने विस्मित होकर कहा–सरकार ही बाबू चक्रधर सिंह हैं। धन्य भाग थे कि सरकार के आज दर्शन हुए।
यह कहते हुए वह दौड़कर घर में गया और एक चारपाई लाकर द्वार पर डाल दी। फिर लपककर गांव में खबर दे आया। एक क्षण में गांव के सब आदमी आकर चक्रधर को नजरें देने लगे। चारों ओर हलचल-सी मच गई। सब-के-सब उनके यश गाने लगे। जब से सरकार आए हैं, हमारे दिन फिर गए हैं, आपका शील-स्वभाव जैसा सुनते थे, वैसा ही पाया। आप साक्षात् भगवान्
धन्ना ने कहा-मैंने तो पहचाना ही नहीं। क्रोध में न जाने क्या-क्या बक गया !
दूसरा ठाकुर बोला-सरकार अपने को बोल देते, तो हम मोटर को कंधों पर लादकर ले चलते। हुजूर के लिए जान हाजिर है। मन्नासिंह मरद आदमी, हाथ झटक कर उठ खड़े हो, तुम्हारे तो भाग्य खुल गए।
मन्नासिंह ने कराहकर मुस्कराते हुए कहा-सरकार देखने में तो दुबले-पतले हैं पर आपके हाथ-पांव लोहे के हैं। मैंने सरकार से भिड़ना चाहा, पर आपने एक ही अड़गे में मुझे दे पटका।
धन्नासिंह-अरे पागल, भाग्यवानों के हाथ-पांव में ताकत नहीं होती, अकबाल में ताकत होती है। उससे देवता तक कांपते हैं।
चक्रधर को इन ठकुरसुहाती बातों में जरा भी आनंद न आता था। उन्हें उन पर दया आ रही थी। वह प्राणी, जिसे उन्होंने अपने कोप का लक्ष्य बनाया था, उनके शौर्य और शक्ति को प्रशंसा कर रहा है। अपमान को निगल जाना चरित्र-पतन की अंतिम सीमा है और यही खुशामद सुनकर हम लट्टू हो जाते हैं। जिस वस्तु से घृणा होनी चाहिए, उस पर हम फूले नहीं समाते। चक्रधर को अब आश्चर्य हो रहा था कि मुझे इतना क्रोध आया कैसे? आज से साल भर पहले भी मुझे कभी किसी पर इतना क्रोध नहीं आया। साल भर पहले कदाचित् वह मन्नासिंह के पास आकर सहायता के लिए मिन्नत-समाजत करते। अगर रात भर रहना भी पड़ता, तो रह जाते, इसमें उनकी हानि ही क्या थी! शायद उन्हें देहातियों के साथ एक रात काटने का अवसर पाकर खुशी होती। आज उन्हें अनुभव हुआ कि रियासत की बू कितनी गुप्त और अलक्षित रूप से उनमें समाती जाती है। कितने गुप्त और अलक्षित रूप से उनकी मनुष्यता, चरित्र और सिद्धांत का ह्रास हो रहा है।
सहसा सड़क की ओर प्रकाश दिखाई दिया। जरा देर में दो मोटरें सड़क पर धीरे-धीरे जाती हुई दिखाई दी, जैसे किसी को खोज रही हों। एकाएक दोनों उसी स्थान पर पहुँचकर रुक गईं, जहां चक्रधर की मोटर टूटी पड़ी थी। फिर कई आदमी मोटर से उतरते दिखाई दिए। चक्रधर समझ गए कि मेरी तलाश हो रही है। तुरंत उठ खड़े हुए। उनके साथ गांव के लोग भी चले। समीप आकर देखा, तो सड़क की तरफ से लोग इसी गांव की तरफ चले आ रहे थे। उनके पास बिजली की बत्तियां थीं। समीप आने पर मालूम हुआ कि रानी मनोरमा पांच सशस्त्र सिपाहियों के साथ चली आ रही हैं। चक्रधर उसे देखते ही लपककर आगे बढ़ गए। रानी उन्हें देखते ही ठिठक गईं और घबराई हुई आवाज में बोलीं-बाबूजी, आपको चोट तो नहीं आई? मोटर टूटी देखी, तो जैसे मेरे प्राण ही सन्न हो गए। अब मैं आपको अकेले कभी न घूमने दिया करूंगी।
तैंतीस
देवप्रिया को उस गुफा में रहते कई महीने गुजर गए। वह तन-मन से पतिसेवा में रत रहती। प्रात:काल नीचे जाकर नदी से पानी लाती; पहाड़ी वृक्षों से लकड़ियां तोड़ती और जंगली फलों को उबालती। बीच-बीच में महेन्द्र कुमार कई-कई दिनों के लिए कहीं चले जाते थे। देवप्रिया अकेले गुफा में बैठी उनकी राह देखा करती, पर महेन्द्र को वन-वन घूमने से इतना अवकाश ही न मिलता कि दो-चार पल के लिए उसके पास भी बैठ जाएं। रात को वह योगाभ्यास किया करते थे। न-जाने कब कहाँ चले जाते; न जाने कब कैसे चले आते, इसका देवप्रिया को कुछ भी पता न चलता। उनके जीवन का रहस्य उसकी समझ में न आता था। उस गुफा में भी उन्होंने न जाने कहाँ से वैज्ञानिक यंत्र जमा कर लिए थे और दिन को जब घर पर रहते, तो उन्हीं यंत्रों से कोई-न-कोई प्रयोग किया करते। उनके पास सभी कामों के लिए समय था। अगर समय न था, तो केवल देवप्रिया से बातचीत करने का ! देवप्रिया की समझ में कुछ न आता कि इनका हृदय इतना कठोर क्यों हो गया है। वह प्रेम भाव कहाँ गया? अब तो उससे सीधे मुंह बोलते तक नहीं। उससे कौन-सा अपराध हुआ?
देवप्रिया पति को वन के पक्षियों के साथ विहार करते, हिरणों के साथ खेलते, सो को नचाते, नदी में जलक्रीड़ा करते देखती। प्रेम की इस अमोघ राशि से उसके लिए मुट्ठी भर भी नहीं? उसने कौन-सा अपराध किया है? उससे तो वह बोलते तक नहीं।
ऐसी अनिंद्य सुंदरी उसने स्वयं न देखी थी। उसने एक-से-एक रूपवती रमणियां देखी थीं, पर अपने सामने कोई उसकी निगाह में नजंचती थी। वह जंगली फूलों के गहने बना-बनाकर पहनती, आंखों से हंसती, हाव-भाव, कटाक्ष सब कुछ करती, पर पति के हृदय में प्रवेश न कर सकती थी। तब वह झुंझला पड़ती कि अगर यों जलाना था, तो यौवन दान क्यों किया? यह बला क्यों मेरे सिर मढ़ी? जिस यौवन को पाकर उसने एक दिन अपने को संसार में सबसे सुखी समझा था, उसी यौवन से अब उसका जी जलता था। वह रूपविहीन होकर स्वामी के चरणों में आश्रय पा सकती, तो इस अनुपम सौंदर्य को बासी हार की भांति उतारकर फेंक देती, पर कौन इसका विश्वास दिलाएगा?
एक दिन देवप्रिया ने महेन्द्र से कहा-तुमने काया तो बदल दी, पर मेरा मन क्यों न बदल दिया?
महेन्द्र ने गंभीर भाव से उत्तर दिया-जब तक पूर्व संस्कारों का प्रायश्चित न हो जाए, मन की भावनाएं नहीं बदल सकतीं।
इन शब्दों का आशय जो कुछ हो, पर देवप्रिया ने यह समझा कि यह मुझसे केवल मेरे पूर्व संस्कारों के कारण घृणा करते हैं। उसका पीड़ित हृदय इस अन्याय से विकल हो उठा। आह ! यह इतने कठोर हैं ! इनमें क्षमा का नाम तक नहीं, तो क्या इन्होंने मुझे उन संस्कारों का दंड देने के लिए मेरा कायाकल्प किया? प्रलोभनों में घिरी हुई अबला के प्रति इन्हें जरा भी सहानुभूति नहीं! वह वाक्य शर के समान उसके हृदय में चुभने लगा। पति में वह श्रद्धा न रही। जीवन से विरक्त हो गई। पतिप्रेम का सुख भोगने के लिए ही उसने अपना राज-त्याग किया था, पूर्व संस्कारों का दंड भोगने के लिए नहीं। उसने समझा था, स्वामी मुझ पर दया करके मेरा उद्धार करने ले जा रहे हैं। उनके हाथों यह दंड सहना उसे स्वीकार न था। अपने पूर्व जीवन पर लज्जा थी। पश्चात्ताप था, पति के मुख से यह व्यंग्य न सुनना चाहती थी। वह संसार की सारी विपत्ति सह सकती थी, केवल पतिप्रेम से वंचित रहना उसे असह्य था। उसने सोचना शुरू किया, क्यों न चली जाऊं? पति से दूर हटकर कदाचित् वह शांत रह सकती थी। दुखती हुई आंखों की अपेक्षा फूटी आंखें ही अच्छी, पर इस वियोग की कल्पना ही से उसका मन भयभीत हो जाता था।
आखिर उसने यहां से प्रस्थान करने का निश्चय कर लिया। रात का समय था। महेन्द्र गुफा के बाहर एक शिला पर पड़े हुए थे। देवप्रिया आकर बोली-आप सो रहे हैं क्या?
महेन्द्र उठकर बैठ गए और बोले-नहीं, सो नहीं रहा हूँ, मैं एक ऐसे यंत्र की कल्पना कर रहा हूँ जिससे मनुष्य अपनी इंद्रियों का दमन कर सके। संयम, साधन और विराग पर मुझे अब विश्वास नहीं रहा।
देवप्रिया–ईश्वर आपकी कल्पना सफल करें। मैं आपसे यह कहने आई हूँ कि जब आप मुझे त्याज्य समझते हैं, तो क्यों हर्षपुर या कहीं और नहीं भेज देते?
महेन्द्र ने पीड़ित होकर कहा–मैं तुम्हें त्याज्य नहीं समझ रहा हूँ। प्रिये, तुम मेरी चिरसंगिनी हो और सदा रहोगी। अनंत में दस-बीस या सौ-पचास वर्ष का वियोग ‘नहीं’ के बराबर है। तुम अपने को उतना नहीं जानतीं, जितना मैं जानता हूँ। मेरी दृष्टि में तुम पवित्र, निर्दोष और धवल के समान उज्ज्वल हो। इस विश्व-प्रेम के साम्राज्य में त्याज्य कोई वस्तु नहीं है, न कि तुम, जिसने मेरे जीवन को सार्थक बनाया है। मैं तुम्हारी प्रेम शक्ति का विकास मात्र हूँ।
देवप्रिया ये प्रेम से भरे हुए शब्द सुनकर गद्गद हो गई। उसका सारा संताप, सारा क्रोध, सारी वेदना इस भांति शांत हो गई, जैसे पानी पड़ते ही धूल बैठ जाती है। वह उसी शिला पर बैठ गई और महेन्द्र के गले में बांहें डालकर बोली-फिर आप मुझसे बोलते क्यों नहीं? मुझसे क्यों भागे-भागे फिरते हैं? मुझे इतने दिन यहां रहते हो गए, आपने कभी मेरी ओर प्रेम की दृष्टि से देखा भी नहीं। आप जानते हैं, पति-प्रेम नारी जीवन का आधार है। इससे वंचित होकर अबला निराधार हो जाती है।
महेन्द्र ने करुण स्वर से कहा–प्रिये, बहुत अच्छा होता यदि तुम मुझसे यह प्रश्न न करतीं। मैं जो कुछ कहूँगा, उससे तुम्हारा चित्त और भी दुखी होगा। मेरे अंदर की आग बाहर नहीं निकलती, इससे यह न समझो कि उसमें ज्वाला नहीं है। आह! उस अनंत प्रेम की स्मृतियां अभी हरी हैं, जिसका आनंद उठाने का सौभाग्य बहुत थोड़े ही दिनों के लिए प्राप्त हुआ था। उसी सुख की लालसा मुझे तुम्हारे द्वार का भिक्षुक बनाकर ले गई थी। उसी लालसा ने मुझसे ऐसी कठिन तपस्याएं कराईं, जहां प्रतिक्षण प्राणों का भय था। क्या जानता था कि कौशलमय विधि मेरी साधनाओं का उपहास कर रहा है। जिस वक्त मैं तुम्हारी ओर लालसापूर्ण नेत्रों से ताकता हूँ, तो मेरी आंखें जलने लगती हैं, जब तुम्हें प्रात:काल अंचल में फूल भरे उषा की भांति स्वर्ण छटा की वर्षा करते आते देखता हूँ, तो मेरे मन में अनुराग का जो भीषण विप्लव होने लगता है, उसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकतीं, लेकिन तुम्हारे समीप जाते ही मेरे समस्त शरीर में ऐसी जलन होने लगती है, मानो अग्निकंड में घुसा जा रहा हूँ। तुम्हें याद है, एक दिन मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ लिया था। मुझे ऐसा जान पडा कि जलते तवे पर हाथ पड़ गया। इसका क्या कारण है? विधि क्यों हमारे प्रेम-मिलन में बाधक हो रहा है, यह मैं नहीं जानता, पर ऐसा अनुमान करता हूँ कि यह मेरी लालसा का दंड है।
नारी-बुद्धि तीक्ष्ण होती है। महेन्द्र की समझ में जो बात न आई थी, वह देवप्रिया समझ गई। उस दिन से वह तपस्विनी बन गई। पति के साए से भी भागती। अगर वह उसके कमरे में आ जाते, तो उनकी ओर आंखें उठाकर भी न देखती, पर वह इस दशा में प्रसन्न थी। रमणी का हृदय सेवा के सूक्ष्म परमाणुओं से बना होता है। उसका प्रेम भी सेवा है, उसका अधिकार भी सेवा है, यहां तक कि उसका क्रोध भी सेवा है। विडंबना तो यह थी कि यहां सेवा क्षेत्र में भी वह स्वाधीन न थी। उसके लिए सेवा की सीमा वहीं तक थी, जहां अनुराग का आरंभ होता है। उसकी सेवा में पत्नी भाव का अल्पांश भी न आने पाए, यही चेष्टा वह करती रहती थी। अगर विधि को उसके सौभाग्य से आपत्ति है, अगर वह इस अपराध के लिए उसके पति को दंड देना चाहता है, तो देवप्रिया यह साक्षी देने को तैयार थी कि उसने पति प्रेम का उतना ही आनंद उठाया है, जितना एक विधवा भी उठा सकती है।
एक दिन महेन्द्र ने आकर कहा–प्रिये, चलो, आज तुम्हें आकाश की सैर करा लाऊं। मेरा हवाई जहाज तैयार हो गया है।
महेन्द्र ने सात वर्ष के अनवरत परिश्रम से यह वायुयान बनाया था। इसमें विशेषता यह थी कि तूफान और मेह में भी स्थिर रूप से चला जाता था, मानो नैसर्गिक शक्तियों पर विजय का डंका बजा रहा हो। उसमें जरा भी शोर न होता था। गति घंटे में एक हजार मील की थी। इस पर बैठकर वह पृथ्वी की प्रत्येक वस्तु को उसके यथार्थ रूप में देख सकते थे, दूर से दूर देशों के विद्वानों के भाषण और गाने वालों के गीत सुन सकते थे। उस पर बैठते ही मानसिक शक्तियां दिव्य और नेत्रों की ज्योति सहस्र गुणी हो जाती थी। यह एक अद्भुत यंत्र था। महेन्द्र ने अब तक कभी देवप्रिया से उस पर बैठने का अनुरोध न किया था। उनके मुंह से उसके गुण सुनकर उसका जी तो चाहता था कि उसमें एक बार बैलूं, इसकी बड़ी तीव्र उत्कंठा होती थी, पर वह संवरण कर जाती थी। आज यह प्रस्ताव करने पर भी उसने अपनी उत्सुकता को दबाते हुए कहा-आप जाइए, आकाश की सैर कीजिए, मैं अपनी कुटिया में ही मगन हूँ।
महेन्द्र–मानव बुद्धि ने अब तक जितने आविष्कार किए हैं, उनका पूर्ण विकास देख लोगी।
देवप्रिया-आप जाइए, मैं नहीं जाती।
महेन्द्र-मैं तो आज तुम्हें जबरदस्ती ले चलूंगा।
यह कहकर उन्होंने देवप्रिया का हाथ पकड़ लिया और अपनी ओर खींचा। देवप्रिया का चित्त डावांडोल हो गया। जैसे नटखट बालक के बुलाने पर कुत्ता डरता-डरता जाता है कि मालूम नहीं, भोजन मिलेगा या डंडे, उसी भांति देवप्रिया भी महेन्द्र के साथ चली गई।
गुफा के बाहर स्वर्ण की वर्षा हो रही थी। आकाश, पर्वत और उन पर विहार करने वाले पक्षी और पशु सोने में रंगे थे। विश्व स्वर्णमय हो रहा था। शांति का साम्राज्य छाया हुआ था। पृथ्वी विश्राम करने जा रही थी।
यान एक पल में दोनों आरोहियों को लेकर अनंत आकाश में विचरने लगा। वह सीधा चन्द्रमा की ओर चला जाता था, ऊपर-ऊपर और भी ऊपर, यहां तक कि चन्द्रमा का दिव्य प्रकाश देखकर देवप्रिया भयभीत हो गई।
सहसा देवप्रिया संगीत की मधुर ध्वनि सुनकर चौंक पड़ी और बोली-यहां कौन गा रहा
है?
महेन्द्र ने मुस्कराकर कहा–हमारे स्वामीजी ईश्वर की स्तुति कर रहे हैं। मैं अभी उनसे बातें करता हूँ। सुनो-स्वामीजी, क्या हो रहा है?
“बच्चा, भगवान् की स्तुति कर रहा हूँ। अच्छा, तुम्हारे साथ तो देवप्रियाजी भी हैं। उन्हें जापानी सिनेमा की सैर नहीं कराई?”
सहसा देवप्रिया को एक जापानी नौका डूबती हुई दिखाई दी। एक क्षण में एक जापानी युवक कगार पर से समुद्र में कूद पड़ा और लहरों को चीरता हुआ नौका की ओर चला।
देवप्रिया ने कांपते हुए कहा–कहीं यह बेचारा भी न डूब जाए !
महेन्द्र ने कहा-यह किसी प्रेम-कथा का अंतिम दृश्य है।
यान और भी ऊपर उड़ता चला जाता था, पृथ्वी पर से जो तारे टिमटिमाते हुए ही नजर आते थे, अब चन्द्रमा की भांति ज्योतिर्मय हो गए थे और चन्द्रमा अपने आकार से दस गुना बड़ा दिखाई देता था। विश्व पर अखंड शांति छाई हुई थी। केवल देवप्रिया का हृदय धडक रहा था। वह किसी अज्ञात शंका से विकल हो रही थी। जापानी सिनेमा का अंतिम दृश्य उसकी आंखों में नाच रहा था।
तब महेन्द्र ने वीणा उठा ली और देवप्रिया से बोले-प्रिये, तुम्हारा मधुर गान सुने बहुत दिन बीत गए। याद है, तुमने पहले जो गीत गाया था, वही गीत आज फिर गाओ। देखो, तारागण तान लगाए बैठे हैं।
देवप्रिया स्वामी की बात न टाल सकी। उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह स्वामी का अंतिम आदेश है, मैं इन कानों से स्वामी की बातें फिर न सुनूंगी। उसने कांपते हुए हाथों में वीणा ले ली और कांपते हुए स्वरों में गाने लगी–
‘पिया मिलन है कठिन बावरी !’
प्रेम, करुणा और नैराश्य से डूबी हुई वह ध्वनि सुनते ही महेन्द्र की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। आह ! वियोग-व्यथा से पीड़ित यह हृदय स्वर उनके अंतस्तल पर शर जैसी चोटें करने लगा। बार-बार हृदय थामकर रह जाते थे। सहसा उनका मन एक अत्यंत प्रबल आवेग से आंदोलित हो उठा। लालसा-विह्वल मन ने कहा-यह संयम कब तक? इस जीवन का भरोसा ही क्या? जाने कब इसका अंत हो जाए और ये चिरसंचित अभिलाषाएं भी धूल में मिल जाएं। अब जो होना है, सो हो!
अनंत शांति का साम्राज्य था, यान प्रतिक्षण और ऊपर चढ़ता जाता था। महेन्द्र ने देवप्रिया का कोमल हाथ पकड़कर कहा-प्रिये, अनंत वियोग से तो अनंत विश्राम ही अच्छा।
वीणा देवप्रिया के हाथ से छूटकर गिर पड़ी। उसने देखा, महेन्द्र के कामप्रदीप्त अधर उसके मुख के पास आ गए हैं और उनके दोनों हाथ, उससे आलिंगित होने के लिए खुले हुए हैं। देवप्रिया एक क्षण, केवल एक क्षण के लिए सब कुछ भूल गई। उसके दोनों हाथ महेन्द्र के गले में जा पड़े।
एकाका धमाकों की आवाज हुई। देवप्रिया चौंक पड़ी। उसे मालूम हुआ, यान बड़े वेग से नीचे चला जा रहा है। उसने अपने को महेन्द्र के कर-पाश से मुक्त कर लिया और घबराकर बोली-प्राणनाथ, यान नीचे चला जा रहा है।
महेन्द्र ने कुछ उत्तर न दिया।
देवप्रिया ने फिर कहा–ईश्वर के लिए इसे रोकिए। देखिए, कितने वेग से नीचे गिर रहा है। महेन्द्र ने व्यथित कंठ से कहा-प्रिये ! अब इसे मैं नहीं रोक सकता। मेरे पैर कांप रहे हैं। मालूम होता है, जीवन का अंत हो रहा है। आह ! आह ! प्रिये ! मैं गिर रहा हूँ।
देवप्रिया उन्हें संभालने चली थी कि महेन्द्र गिर पड़े। उनके मुंह से केवल ये शब्द निकले-डरो मत, यान भूमि से टक्कर न खाएगा, तुम हर्षपुर जाकर राज्याधिकार अपने हाथ में लेना। मैं फिर आऊंगा, हम और तुम फिर मिलेंगे, अवश्य मिलेंगे, अतृप्त तृष्णा फिर मुझे तुम्हारे पास लाएगी, विधि का निर्दय हाथ भी उसमें बाधक नहीं हो सकता। इस प्रेम की स्मृति देवलोक में भी मुझे विकल करती रहेगी। आह! इस अनंत विश्राम की अपेक्षा अनंत वियोग कितना सुखकर था !
देवप्रिया खड़ी रो रही थी और यान वेग से नीचे उतरता जाता था !
चौंतीस
चक्रधर को रात भर नींद न आई। उन्हें बार-बार पश्चाताप होता था कि मैं क्रोध के आवेग में क्यों आ गया। जीवन में यह पहला ही अवसर था कि उन्होंने एक निर्बल प्राणी पर हाथ उठाया था। जिसका समस्त जीवन दीन जनों की सहायता में गुजरा हो, उसमें यह कायापलट नैतिक पतन से कम न था। आह! मुझ पर भी प्रभुता का जादू चल गया। इतने संयत रहने पर भी मैं उसके जाल में फंस गया। कितना चतुर शिकारी है! अब मुझे अनुभव हो गया है कि इस वातावरण में रहकर मेरे लिए अपनी मनोवृत्तियों को स्थिर रखना असंभव है। धन में धर्म है, उदारता है, लेकिन इसके साथ ही गर्व भी है, जो इन गुणों को मटियामेट कर देता है।
चक्रधर तो इस विचार में पड़े हुए थे और अहिल्या अपने सजे हुए शयनागार में मखमली गद्दों पर लेटी अंगड़ाइयां ले रही थी। चारपाई के सामने ही दीवार में एक बड़ा-सा आईना लगा हुआ था। वह उस आईने में अपना स्वरूप देख-देखकर मुग्ध हो रही थी। सहसा शंखधर एक रेशमी कुर्ता पहने लुढ़कता हुआ आकर उसके पास खड़ा हो गया। अहिल्या ने हाथ फैलाकर कहा-बेटा, जरा मेरी गोद में आ जाओ।
शंखधर अपना खोया हुआ घोड़ा ढूंढ़ रहा था। बोला-अम नई…
अहिल्या–देखो, मैं तुम्हारी अम्मां हूँ ना?
शंखधर–तुम अम्मां नईं। अम्मां लानी है।
अहिल्या–क्या मैं रानी नहीं हूँ?
शंखधर ने उसे कुतूहल से देखकर कहा–तुम लानी नईं। अम्मां लानी है।
अहिल्या ने चाहा कि बालक को पकड़ ले, पर वह तुम लानी नईं, तुम लानी नईं ! कहता हुआ कमरे से निकल गया। बात कुछ न थी, लेकिन अहिल्या ने कुछ और ही आशय समझा। यह भी उसकी समझ में मनोरमा की कूटनीति थी। वह उससे राजमाता का अधिकार भी छीनना चाहती है। वह बालक को पकड़ लाने के लिए उठी ही थी कि चक्रधर ने कमरे में कदम रखा। उन्हें देखते ही अहिल्या ठिठक गई और त्योरियां चढ़ाकर बोली–अब तो रात भर आपके दर्शन ही नहीं होते।
चक्रधर–कुछ तुम्हें खबर भी है। आध घंटे तक जगाता रहा, जब तुम न जागीं तो चला गया। यहां आकर तुम सोने में कुशल हो गईं !
अहिल्या–बातें बनाते हो। तुम रात को यहां थे ही नहीं। बारह बजे तक जागती रही। मालूम होता है, तुम्हें भी सैर-सपाटे की सूझने लगी। अब मुझे यह एक और चिंता हुई।
चक्रधर–अब तक जितनी चिंताएं हैं, उनमें तो तुम्हारी नींद का यह हाल है, यह चिंता और हुई, तो शायद तुम्हारी आंख ही न खुले।
अहिल्या–क्या मैं सचमुच बहुत सोती हूँ?
चक्रधर–अच्छा, अभी तुम्हें इसमें संदेह भी है ! घड़ी में देखो! आठ बज गए हैं। तुम पांच बजे उठकर घर का धंधा करने लगती थीं।
अहिल्या–तब की बातें जाने दो। अब उतने सवेरे उठने की जरूरत ही क्या है?
चक्रधर–तो क्या तुम उम्र-भर यहां मेहमानी खाओगी? अहिल्या ने विस्मित होकर कहा-इसका क्या मतलब?
चक्रधर–इसका मतलब यही है कि हमें आए हुए बहुत दिन गुजर गए। अब अपने घर चलना चाहिए?
अहिल्या–अपना घर कहाँ है?
चक्रधर–अपना घर वही है, जहां अपने हाथों की कमाई है। अहिल्या ने एक मिनट सोचकर कहा-लल्लू कहाँ रहेगा?
चक्रधर–लल्लू को यहीं छोड़ सकती हो। वह रानी मनोरमा से खूब हिल गया है। तुम्हारी तो शायद उसे याद भी न आए।
अहिल्या–अच्छा, तो अब समझ में आया। इसीलिए रानीजी उससे इतना प्रेम करती हैं। यह बात तुमने स्वयं सोची है, या रानीजी ने कुछ कहा है?
चक्रधर–भला, वह क्या कहेंगी? मैं खुद यहां रहना नहीं चाहता। ससुराल की रोटियां बहुत खा चुका। खाने में तो वह बहुत मीठी मालूम होती हैं, पर उनसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। औरों को हजम होती होंगी, पर मुझे तो नहीं पचतीं, और शायद तुम्हें भी नहीं पचतीं। इतने ही दिनों में हम दोनों कुछ के कुछ हो गए। यहां कुछ दिन और रहा, तो कम से कम मैं तो कहीं का न रहूँगा। कल मैंने एक गरीब किसान को मारते-मारते अधमरा कर दिया। उसका कसूर केवल यह था कि वह मेरे साथ आने पर राजी न होता था।
अहिल्या–यह कोई बात नहीं। गंवारों के उजड्डपन पर कभी-कभी क्रोध आ ही जाता है। मैं ही यहां दिन भर लौंडियों पर झल्लाती रहती हूँ, मगर मुझे तो कभी यह खयाल ही नहीं आया कि घर छोड़कर भाग जाऊं।
चक्रधर–तुम्हारा घर है, तुम रह सकती हो, लेकिन मैंने तो जाने का निश्चय कर लिया है।
अहिल्या ने अभिमान से सिर उठाकर कहा-तुम न रहोगे, तो मुझे यहां रहकर क्या लेना है। मेरे राज-पाट तो तुम हो, जब तुम्हीं न रहोगे, तो अकेली पड़ी-पड़ी मैं क्या करूंगी? जब चाहे, चलो! हां, पिताजी से पूछ लो। उनसे बिना पूछे तो जाना उचित नहीं, मगर एक बात अवश्य कहूँगी। हम लोगों के जाते ही यहां का सारा कारोबार चौपट हो जाएगा। रानी मनोरमा का हाल देख ही रहे हो। रुपए को ठीकरा समझती हैं। दादाजी उनसे कुछ कह नहीं सकते। थोड़े दिनों में रियासत जेरबार हो जाएगी और एक दिन बेचारे लल्लू को ये सब पापड़ बेलने पड़ेंगे।
अहिल्या के मनोभाव इन शब्दों से साफ टपकते थे। कुछ पूछने की जरूरत न थी। चक्रधर समझ गए कि अगर मैं आग्रह करूं, तो यह मेरे साथ जाने पर राजी हो जाएगी। जब ऐश्वर्य और पति-प्रेम, दो में से एक को लेने और दूसरे को त्याग करने की समस्या पड़ जाएगी, तो अहिल्या किस ओर झुकेगी, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं था, लेकिन वह उसे इस कठोर धर्म संकट में डालना उचित न समझते थे। आग्रह से विवश होकर वह उनके साथ चली गई तो क्या? जब उसे कोई कष्ट होगा, मन ही मन झुंझलाएगी और बात-बात पर कुढ़ेगी, तब लल्लू को यहां छोड़ना ही पड़ेगा। मनोरमा उसे एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ सकती। राजा साहब तो शायद वियोग में प्राण ही त्याग दें। पुत्र को छोड़कर अहिल्या कभी जाने पर तैयार न होगी और गई भी, तो बहुत जल्द लौट आएगी।
चक्रधर बड़ी देर तक इन्हीं विचारों में मग्न बैठे रहे। अहिल्या पति के साथ जाने पर सहमत तो हो गई थी, पर दिल में डर रही थी कि कहीं सचमुच न जाना पड़े। वह राजा साहब को पहले ही सचेत कर देना चाहती थी, जिसमें वह चक्रधर की नीति और धर्म की बातों में न आ जाएं! उसे इसका पूरा विश्वास था कि चक्रधर राजा साहब से बिना पूछे कदापि न जाएंगे! वह क्या जानती थी कि जिन बातों से उसके दिल पर जरा भी असर नहीं होता, वही बातें चक्रधर के दिल पर तीर की भांति लगती हैं। चक्रधर ने अकेले, बिना किसी से कुछ कहे-सुने चले जाने का संकल्प किया। इसके सिवा उन्हें गला छुड़ाने का कोई उपाय ही न सूझता था।
इस वक्त वह उस मनहूस घड़ी को कोस रहे थे, जब मनोरमा की बीमारी की खबर पाकर अहिल्या के साथ वह यहां आए थे। वह अहिल्या को यहां लाए ही क्यों थे? अहिल्या ने आने के लिए आग्रह न किया था। उन्होंने खुद गलती की थी। उसी का यह भीषण परिणाम था कि आज उनको अपनी स्त्री और पुत्र दोनों से हाथ धोना पड़ता था। उन्होंने लाठी के सहारे से दीपक का काम लिया था, लेकिन हा दुर्भाग्य ! आज वह लाठी भी उनके हाथ से छीनी जाती थी। पत्नी और पुत्र के वियोग की कल्पना ही से उनका जी घबराने लगा। कोई समय था, जब दाम्पत्य जीवन से उन्हें उलझन होती थी। मृदुल हास्य और तोतले शब्दों का आनंद उठाने के बाद अब एकांतवास असा प्रतीत होता था, कदाचित् अकेले घर में वह कदम ही न रख सकेंगे, कदाचित् वह उस निर्जन वन को देखकर रो पड़ेंगे।
मनोरमा इस वक्त शंखधर को लिए हुए बगीचे की ओर जाती हुई इधर से निकली। चक्रधर को देखकर वह एक क्षण के लिए ठिठक गई। शायद वह देखना चाहती थी कि अहिल्या है या नहीं। अहिल्या होती, तो वह यहां दम भर भी न ठहरती, अपनी राह चली जाती। अहिल्या को न पाकर वह कमरे के द्वार पर आ खड़ी हुई और बोली-बाबूजी, रात को सोए नहीं क्या? आंखें चढ़ी हुई हैं!
चक्रधर–नींद ही नहीं आयी। इसी उधेड़बुन में पड़ा था कि रहूँया जाऊं? अंत में यही निश्चय किया कि यहां और रहना अपना जीवन नष्ट करना है।
मनोरमा–क्यों लल्लू! यह कौन हैं?
शंखधर ने शरमाते हुए कहा–बाबूजी।
मनोरमा–इनके साथ जाएगा?
बालक ने आंचल से मुंह छिपाकर कहा–लानी अम्मां छाथ?
चक्रधर हंसकर बोले–मतलब की बात समझता है। रानी अम्मां को छोड़कर किसी के साथ न जाएगा।
शंखधर ने अपनी बात का अनुमोदन किया-अम्मां लानी।
चक्रधर–जभी तो चिमटे हो-बैठे-बिठाए मुफ्त का राज्य पा गए। घाटे में तो हमीं रहे कि अपनी सारी पूंजी खो बैठे।
मनोरमा ने कहा–कब तक लौटिएगा?
चक्रधर–कह नहीं सकता, लेकिन बहुत जल्द लौटने का विचार नहीं है। इस प्रलोभन से बचने के लिए मुझे बहुत दूर जाना पड़ेगा।
रानी ने मुस्कराकर कहा–मुझे भी लेते चलिए। यह कहते-कहते रानी की आंखें सजल हो गईं।
चक्रधर ने गंभीर भाव से कहा–यह तो होना ही नहीं था, मनोरमा रानी। जब तुम बालिका थीं, तब भी मेरे लिए देवी की प्रतिमा थीं, और अब भी देवी की प्रतिमा हो।
मनोरमा–बातें न बनाओ, बाबूजी! तुम मुझे हमेशा धोखा देते आए हो और अब भी वही नीति निभा रहे हो! सच कहती हूँ, मुझे भी लेते चलिए। अच्छा, मैं राजा साहब को राजी कर लूं, तब तो आपको कोई आपत्ति न होगी?
चक्रधर–मनोरमा, दिल्लगी कर रही हो, या दिल से कहती हो?
मनोरमा–दिल से कहती हूँ, दिल्लगी नहीं।
चक्रधर–मैं आपको अपने साथ न ले जाऊंगा।
मनोरमा-क्यों?
चक्रधर–बहुत-सी बातों का अर्थ बिना कहे ही स्पष्ट होता है।
मनोरमा–तो आपने, मुझे अब भी नहीं समझा। मुझे भी बहुत दिनों से कुछ सेवा करने की इच्छा है। मैं भोग-विलास करने के लिए यहां नहीं आई थी। ईश्वर को साक्षी देकर कहती हैं, मैं कभी भोग-विलास में लिप्त न हुई थी। धन से मुझे प्रेम है, लेकिन केवल इसलिए कि उससे मैं कुछ सेवा कर सकती, और सेवा करने वालों की कुछ मदद कर सकती। सच कहा है, पुरुष कितना ही विद्वान और अनुभवी हो, पर स्त्री को समझने में असमर्थ ही रहता है। खैर, न ले जाइए। अहिल्या देवी ने तप किया है।
चक्रधर–वह तो साथ जाने को कहती है।
मनोरमा–कौन ! अहिल्या ! वह आपके साथ नहीं जा सकती, और आप ले भी गए तो आज के तीसरे दिन यहां पहुंचाना पड़ेगा। मैं वही हूँ जो तब थी, किंतु वह अपने दिन भूल गई। यह कहते हुए मनोरमा ने बालक को गोद में उठा लिया और मंद गति से बगीचे की ओर चली गई। चक्रधर खड़े सोच रहे थे, क्या वास्तव में मैंने इसे नहीं समझा? अवश्य ही मेरा इसे विलासिनी समझना भ्रम है। हम क्यों ऐसा समझते हैं कि स्त्रियों का जन्म केवल भोग-विलास के लिए ही होता है? क्या उनका ह्रदय ऊंचे और पवित्र भावों से शून्य होता है? हमने उन्हें कामिनी, रमणी, सुंदरी आदि विलास-सूचक नाम दे-देकर वास्तव में उन्हें वीरता, त्याग और उत्सर्ग से शून्य कर दिया है। अगर सभी पुरुष वासना प्रिय नहीं होते, तो सभी स्त्रियां क्यों वासनाप्रिय होने लगीं। अगर मनोरमा जो कुछ कहती है, वह सत्य है, तो मैंने उसे हकीकत में नहीं समझा ! हा, मंदबुद्धि !
सहसा चक्रधर को एक बात याद आ गई तुरंत मनोरमा के पास जाकर बोले–मैं आपसे एक विनय करने आया हूँ ! धन्नासिंह के साथ मैंने जो अत्याचार किया है, उसका कुछ प्रायश्चित करना आवश्यक है।
मनोरमा ने मुस्कराकर कहा–बहुत देर में इसकी सुधि आई ! मैंने उसकी कुल जोत मुआफी कर दी है।
चक्रधर ने चकित होकर कहा–आप सचमुच देवी हैं ! तो मैं जाकर उन सबों को इसकी इत्तिला दे दूं?
मनोरमा–आपका जाना आपकी शान के खिलाफ है। इस जरा-सी बात की सूचना देने के लिए भला, आप क्या जाइएगा? तो आपने कब जाने का विचार किया है?
चक्रधर–आज ही रात को।
मनोरमा ने मुस्कराते हुए कहा–हां, उस वक्त अहिल्या देवी सोती भी होंगी।
एक क्षण के बाद फिर बोली–मैं अहिल्या होती, तो सब कुछ छोड़कर आपके साथ चलती।
यह कहते-कहते मनोरमा ने लज्जा से सिर झुका लिया। जो बात वह ध्यान में भी न लाना चाहती थी, वह उसके मुंह से निकल गई। उसने उसी वक्त शंखधर को उठा लिया और बाग के दूसरी तरफ चली गई, मानो उनसे पीछा छुड़ाना चाहती है, या शायद डरती है कि कहीं मेरे मुंह से कोई और असंगत बात न निकल जाए।
चक्रधर कुछ देर वहां खड़े रहे, फिर बाहर चले गए। किसी काम में जी न लगा। सोचने लगे, जरा शहर चलकर अम्मांजी से मिलता जाऊं, मगर डरे कि कहीं अम्मां शिकायतों का दफ्तर न खोल दें। निर्मला एक बार यहां आई थी, मगर एक ही सप्ताह में ऊबकर चली गई थी। अहिल्या की रुखाई से उसका दिल खट्टा हो गया था। जो अहिल्या शील और विनय की पुतली थी, वह यहां सीधे मुंह बात भी न करती थी।
ज्यों-ज्यों संध्या निकट आती थी, उनका जी उचाट होता जाता था। पहले कहीं बाहर जाने में जो उत्साह होता था, उसका अब नाम भी न था। जानते थे कि छलके हुए दूध पर आंसू बहाना व्यर्थ है, किंतु इस वक्त बार-बार स्वर्गवासी मुंशी यशोदानंदन पर क्रोध आ रहा था। अगर उन्होंने मेरे गले में फंदा न डाला होता, तो आज मुझे क्यों हर विपत्ति झेलनी पड़ती? मैं तो राजा की लड़की से विवाह न करना चाहता था। मुझे तो धनी कुल की कन्या से भी डर लगता था। विधाता को मेरे ही साथ यह क्रीड़ा करनी थी!
संध्या समय वह राजा साहब से पूछने गए। राजा साहब ने आंखों में आंसू भरकर कहा-बाबूजी, आप धुन के पक्के आदमी हैं, मेरी बात आप क्यों मानने लगे, मगर मैं इतना कहता हूँ कि अहिल्या रो-रोकर प्राण दे देगी और आपको बहुत जल्द लौटकर आना पड़ेगा। अगर आप उसे ले गए, तो शंखधर भी जाएगा और मेरी सोने की लंका धूल में मिल जाएगी। आखिर आपको यहां क्या कष्ट है?
चक्रधर को बार-बार एक ही बात का दुहराना बुरा मालूम होता था। कुछ झुंझलाकर बोले-इसी से तो मैं जाना चाहता हूँ कि यहां मुझे कोई कष्ट नहीं है। विलास में पड़कर अपना जीवन नष्ट नहीं करना चाहता।
राजा–और इस राज्य को कौन संभालेगा?
चक्रधर–राज्य संभालना मेरे जीवन का आदर्श नहीं है। फिर आप तो हैं ही।
राजा–तुम समझते हो, मैं बहुत दिन जीऊंगा? सुखी आदमी बहुत दिन नहीं जीता, बेटा! यह सब मेरे मरने के समान है। मैं मिथ्या नहीं कहता। मुझे ऐसा आभास हो रहा है कि मेरे दिन निकट आ गए हैं। शंखधर मेरा शत्रु बनकर आया है। यह लो, वह तलवार लिए दौड़ा भी आ रहा है। क्यों शंखधर, तलवार क्यों लाए हो?
शंखधर–तुमको मालेंगे।
राजा–क्यों भाई, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?
शंखधर–अम्मां लानी लोती हैं, तुमने उनको क्यों माला है?
राजा–लो साहब, यह नया अपराध मेरे सिर पर मढ़ा जा रहा है। चलो, जरा दे तो तुम्हारी लानी अम्मां को किसने मारा है। क्या सचमुच रोती हैं?
शंखधर–बली देल से लोती हैं।
राजा साहब तो तुरंत अंदर चले गए। मनोरमा के रोने की खबर सुनकर वह व्याकुल हो उठे। अंदर जाकर देखा, तो मनोरमा सचमुच रो रही थी। कमल पुष्प में ओस की बूंदें झलक रही थीं। राजा साहब ने आतुर होकर पूछा-क्या बात है, नोरा? कैसा जी है?
मनोरमा ने आंसू पोंछते हुए कहा–अच्छी तो हूँ।
राजा–तो आंखें क्यों लाल हैं?
मनोरमा–आंखें तो लाल नहीं हैं। (जरा रुककर) अहिल्या देवी बाबूजी के साथ जा रही हैं। लल्लू को भी ले जाएंगी।
राजा–यह तुमसे किसने कहा?
मनोरमा-अहिल्या देवी ने।
राजा–अहिल्या नहीं जा सकती।
मनोरमा–आप बाबूजी को क्यों नहीं समझाते?
राजा–वह मेरे समझाने से न मानेंगे। किसी के समझाने से न मानेंगे।
मनोरमा–तो फिर?
राजा-तो उन्हें जाने दो। वह बहुत दिन बाहर नहीं रहेंगे। उन्हें थोड़े ही दिनों में लौटकर आना पड़ेगा।
मनोरमा की आंखों से अश्रुवर्षा होने लगी। उसने अवरुद्ध कंठ से कहा–वह अब यहां न आएंगे। आप उन्हें नहीं जानते?
राजा–मेरा मन कहता है, वह थोड़े ही दिनों में आएंगे। शंखधर उन्हें खींच लाएगा। अभी माया ने उन पर केवल एक अस्त्र चलाया है।
चक्रधर ने सोचा, इस तरह तो शायद मैं यहां से मरकर भी छुट्टी न पाऊं। इनसे पूछू, उनसे पूछू। मुझे किसी से पूछने की जरूरत ही क्या है। जब अकेले ही जाना है, तो क्यों यह सब झंझट करूं? अपने कमरे में जाकर दो-चार कपड़े और किताबें समेटकर रख दीं। कुल इतना ही सामान था, जिसे एक आदमी आसानी से हाथ में लटकाए लिए जा सकता था। उन्होंने रात को चुपके से बकुचा उठाकर चले जाने का निश्चय किया।
आज उन्हें भोजन से जरा भी रुचि न हुई। वह अहिल्या से भी न मिलना चाहते थे। उसे संपत्ति प्यारी है, तो संपत्ति लेकर रहे। मेरे साथ वह क्यों जाने लगी? मेरा मन रखने को मीठी-मीठी बातें करती है। जी में मनाती होगी, किसी तरह यहां से टल जाएं। अगर मुझे पहले मालूम होता कि वह इतनी विलास-लोलुप है, तो उससे कोसों दूर रहता। लेकिन फिर दिल को समझाया, मेरा अहिल्या से रूठना अन्याय है। वह अगर अपने पुत्र को छोड़कर नहीं जाना चाहती, तो कोई अनुचित बात नहीं करती! ऐसे क्षुद्र विचार मेरे मन में क्यों आ रहे हैं? मैं यदि अपना कर्त्तव्य पालन करने जा रहा हूँ, तो किसी पर एहसान नहीं कर रहा हूँ।
यात्रा की तैयारी करके और अपने मन को अच्छी तरह समझाकर चक्रधर ने संदेह को दूर करने के लिए अपने शयनागार में विश्राम किया। अहिल्या ने कहा-दादाजी तो राजी न हुए।
चक्रधर–न जाऊंगा, और क्या ! उनको नाराज भी तो नहीं करना चाहता।
अहिल्या प्रसन्न होकर बोली-यही उचित भी है। सोचो, उन्हें कितना बड़ा दुःख होगा। मैंने तुम्हारे साथ जाने का निश्चय कर लिया था। शंखधर को भी अपने साथ ले ही जाती। फिर बेचारे किसका मुंह देखकर रहते?
चक्रधर ने इसका कुछ जवाब न दिया। वह चुप साध गए। नींद का बहाना करने लगे। वह चाहते थे कि यह सो जाए, तो मैं चुपके से अपना बकुचा उठाऊं और लंबा हो जाऊं, मगर निद्राविलासिनी अहिल्या की आंखों से आज नींद कोसों दूर थी। वह कोई न कोई प्रसंग छेड़कर बातें करती जाती थी। यहां तक कि जब आधी रात से अधिक बीत गई, तो चक्रधर ने कहा-भाई, अब मुझे सोने दो, आज तुम्हारी नींद कहाँ भाग गई?
उन्होंने चादर ओढ़ ली और मुंह फेर लिया। गर्मी के दिन थे। कमरे में पंखा चल रहा था। फिर भी गर्मी मालूम होती थी। रोज किवाड़ खुले रहते थे। जब अहिल्या को विश्वास हो गया कि चक्रधर सो गए, तो उसने दरवाजे अंदर से बंद कर दिए और बिजली की बत्ती ठंडी करके सोयी। आज वह न जाने क्यों इतनी सावधान हो गई थी। पगली! जाने वालों को किसने रोका है?
रात भीग ही चुकी थी। अहिल्या को नींद आते देर नलगी। चक्रधर का प्रेमकातर हृदय अहिल्या के यों सावधान होने पर एक बार विचलित हो उठा। वह अपने आंसुओं के वेग को न रोक सके। यह सोचकर उनका कलेजा फटा जाता था कि जब प्रात:काल यह मुझे न पाएगी, तो इसकी क्या दशा होगी। इधर कुछ दिनों से अहिल्या को विलास-प्रमोद में मग्न देखकर चक्रधर समझने लगे कि इसका प्रेम अब शिथिल हो गया है। यहां तक कि शंखधर को भी गोद में उठाकर प्यार न करती थी, पर आज उसकी व्यग्रता देखकर उनका भ्रम जाता रहा, उन्हें ज्ञात हुआ कि इसका विलासी हृदय अब भी प्रेम में रत है ! जब कोई वस्तु हमारे हाथ से जाने लगती है, तभी उसके प्रति हमारे सच्चे मनोभाव प्रकट होते हैं। नि:शंक दशा में सबसे प्यारी वस्तुओं की भी हमें सुध नहीं रहती, हम उनकी ओर से उदासीन-से रहते हैं।
चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। सारा राजभवन शांति में विलीन हो रहा था। चक्रधर ने उठकर द्वारों को टटोलना शुरू किया, पर ऐसा दिशा-भ्रम हो गया था कि कभी सपाट दीवार हाथ में आती कभी कोई खिड़की, कभी कोई मेज। याद करने की चेष्टा करते थे कि मैं किस तरफ मुंह करके सोया था। द्वार ठीक चारपाई के सामने था, पर बुद्धि कुछ काम न देती थी। उन्होंने एक क्षण शांत चित्त होकर विचार किया, पर द्वार का ज्ञान फिर भी न हुआ। यहां तक कि अपनी चारपाई भी न मिलती थी। आखिर उन्होंने दीवारों को टटोल-टटोलकर बिजली का बटन खोज निकाला और बत्ती जला दी। देखा, अहिल्या सुख-निद्रा में मग्न है ! क्या छवि थी, मानो उज्ज्वल पुष्प राशि पर कमल-दल बिखरे पड़े हों, मानो हृदय में प्रेम स्मृति विश्राम कर रही हो।
चक्रधर के मन में एक बार यह आवेश उठा कि अहिल्या को जगा दें और उसे गले लगाकर कहें-प्रिये ! मुझे प्रसन्न मन से विदा करो, मैं बहुत जल्द-जल्द आया करूंगा। इस तरह चोरों की भांति जाते हुए उन्हें असीम मर्मवेदना हो रही थी, किंतु जिस भांति किसी बूढ़े आदमी को फिसलकर गिरते देख, हम अपनी हंसी के वेग को रोकते हैं, उसी भांति उन्होंने मन की इस दुर्बलता को दबा दिया और आहिस्ता से किवाड़ खोला। मगर प्रकृति को गुप्त व्यापार से कुछ बैर है। किवाड़ को उन्होंने कुछ रिश्वत तो दी नहीं थी, जो वह अपनी जबान बंद करता, खुला, पर प्रतिरोध की एक दबी हुई ध्वनि के साथ। अहिल्या सोई थी, पर उसे खटका लगा हुआ था। यह आहट पाते ही उसकी संचित निद्रा टूट गई। वह चौंककर उठ बैठी और चक्रधर को पास की चारपाई पर न पाकर घबराई हुई कमरे के बाहर निकल आई। देखा तो चक्रधर दबे पांव उस जीने पर चढ़ रहे थे, जो रानी मनोरम के शयनागार को जाता था।
उसने घबराई हुई आवाज में पुकारा–कहाँ भागे जाते हो?
चक्रधर कमरे से निकले, तो उनके मन में बलवती इच्छा हुई कि शंखधर को देखते चलें, इस इच्छा को वह संवरण न कर सके। वह तेजस्वी बालक मानो उनका रास्ता रोककर खड़ा हो गया हो। वह ऊपर कमरे में रानी मनोरमा के पास सोया हुआ था। इसीलिए चक्रधर ऊपर जा रहे थे कि उसे आंख भरके देख लूं। यह बात उनके ध्यान में न आई कि रानी को इस वक्त कैसे जगाऊंगा। शायद वह बरामदे ही में खड़े खिड़की से उसे देखना चाहते हों। इच्छा वेगवती होकर विचार-शून्य हो जाती है। सहसा अहिल्या की आवाज सुनकर वह स्तंभित-से हो गए। ऊपर न जाकर नीचे उतर आए और अत्यंत सरल भाव से बोले-क्या तुम्हारी भी नींद खुल गई?
अहिल्या–मैं सोयी कब थी ! मैं जानती थी कि तुम आज जाओगे। तुम्हारा चेहरा कहे देता था कि तुमने आज मुझे छलने का इरादा कर लिया है, मगर मैं कहे देती हूँ कि मैं तुम्हारा साथ न छोडूंगी। अपने शंखधर को भी साथ ले चलूंगी। मुझे राज्य की परवा नहीं है। राज्य रहे या जाए। तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते। तुम इतने निर्दयी हो, यह मुझे न मालूम था। तुम तो छल करना न जानते थे। यह विद्या कब से सीख ली? बोलो, मुझे छोड़कर जाते हुए जरा भी दया नहीं आती?
चक्रधर ने लज्जित होकर कहा–तुम्हें मेरे साथ बहुत कष्ट होगा, अहिल्या ! मुझे प्रसन्नचित्त जाने दो। ईश्वर ने चाहा तो जल्द ही लौटूंगा।
अहिल्या–क्यों प्राणेश, मैंने तुम्हारे साथ कौन-से कष्ट नहीं झेले और वह ऐसा कौन-सा कष्ट है, जो मैं झेल नहीं चुकी हूँ। अनाथिनी क्या पान-फूल से पूजी जाती है? मैं अनाथिनी थी, तुमने मेरा उद्धार किया। क्या वह बात भूल जाऊंगी? मैं विलास की चेरी नहीं हूँ। हां, यह सोचती थी कि ईश्वर ने जो सुख अनायास दिया है, उसे क्यों न भोगूं? लेकिन नारी के लिए पुरुष-सेवा से बढ़कर और कोई श्रृंगार, कोई विलास, कोई भोग नहीं है।
चक्रधर–और शंखधर?
अहिल्या–उसे भी ले चलूंगी।
चक्रधर–रानीजी उसे जाने देंगी? जानती हो, राजा साहब का क्या हाल होगा?
अहिल्या–यह सब तो तुम भी जानते हो। मुझ पर क्यों भार रखते हो?
चक्रधर–सारांश यह है कि तुम मुझे न जाने दोगी !
अहिल्या–हां, मुझे छोड़कर तुम नहीं जा सकते, और न मैं ही लल्लू को छोड़ सकती हूँ। किसी को दु:ख हो, तो हुआ करे।
इन बातों की कुछ भनक मनोरमा के कानों में भी पड़ी। वह भी अभी तक न सोयी थी। उसने दरबान से ताकीद कर दी थी कि रात को चक्रधर बाहर जाने लगें, तो मुझे इत्तला देना। वह अपने मन की दो-चार बातें चक्रधर से कहना चाहती थी। यह बोलचाल सुनकर नीचे उतर आई। अहिल्या के अंतिम शब्द उसके कानों में पड़ गए। उसने देखा कि चक्रधर बड़े हतबुद्धि-से खड़े हैं, अपने कर्त्तव्य का निश्चय नहीं कर सकते, कुछ जवाब भी नहीं दे सकते। उसे भय हुआ कि इस दुविधा में पड़कर कहीं वह अपने कर्त्तव्य मार्ग से न हट जाएं, मेरा चित्त दुखी न हो जाए, इस भय से वह विरक्त होकर कहीं बैठ न रहें। वह चक्रधर को आत्मोत्सर्ग की मूर्ति समझती थी। उसे निश्चय था कि चक्रधर इस राज्य की तृण बराबर भी परवाह नहीं करते, उन्हें तो सेवा की धुन लगी हुई है, यहां रहकर अपने ऊपर बड़ा जब्र कर रहे हैं। वह यह भी जानती थी कि चक्रधर किसी तरह रुकने वाले नहीं, अब यह दशा उनके लिए असह्य हो गई है। तो क्या वह शंखधर के मोह में पड़कर उनकी स्वतंत्रता में बाधक होगी? अपनी पुत्रतृष्णा को तृप्त करने के लिए उनके पैर की बेड़ी बनेगी? नहीं, वह इतनी स्वार्थिनी नहीं है। जिस बालक से उसे नाम का नाता होने पर इतना प्रेम है, उसे वह कितना चाहते होंगे, इसका वह भली-भांति अनुमान कर सकती थी। वह शंखधर के लिए रोएगी, तड़पेगी, लेकिन अपने पास रखकर चक्रधर को पुत्र-वियोग का दु:ख न देगी। यह उनके दीपक से अपना घर न उजाला करेगी। यही उसने स्थिर किया। बाबूजी, आप मेरा खयाल न कीजिए, शंखधर को ले जाइए। आखिर आपका दिल वहां कैसे लगेगा? मुझे कौन, जैसे पहले रहती थी, वैसे ही फिर रहने लगूंगी। हां, इतनी दया कीजिएगा कि कभी-कभी उसे लाकर मुझे दिखा दिया कीजिएगा, मगर अभी तो दो-चार दिन रहिएगा! बेटियां क्या यों रातोंरात विदा हुआ करती हैं? दो-चार दिन तो शंखधर को प्यार कर लेने दीजिए।
यह कहते-कहते मनोरमा की आंखें डबडबा आईं। चक्रधर ने गद्गद कंठ से कहा-वह भला आपको छोड़, मेरे साथ क्यों जाने लगा? आपके बगैर तो वह एक दिन भी न रहेगा।
मनोरमा–यह मैं कैसे कहूँ? माता-पिता बालक के साथ जितना प्रेम कर सकते हैं, उतना दूसरा कौन कर सकता है?
अहिल्या यह बात सुनकर तिलमिला उठी। पति को रोकने का उसके पास यही एक बहाना था। वह न यहां से जाना चाहती थी, न पति को जाने देना चाहती थी। शंखधर की आड़ में वह अपने मनोभाव को छिपाए हुए थी। उसे विश्वास था कि रानी शंखधर को कभी न जाने देंगी और न चक्रधर उनसे इस विषय में कुछ कह सकेंगे, पर जब रानी ने यह शस्त्र उसके हाथ से छीन लिया, तो उसे शंका हुई कि इसमें जरूर कोई न कोई रहस्य है, उसने तीव्र स्वर से कहा-तो क्या वह सब दिखावे ही का प्रेम था? आप तो कहती थीं, यह मेरा प्राण है, यह मेरा जीवन-आधार है, क्या वह सब केवल बातें थीं? क्या हमारी आंखों में धूल डालने के लिए ही सारा स्वांग रचा था? आप हम लोगों को दूध की मक्खी की भांति निकालकर अखंड राज्य करना चाहती हैं? यह न होगा। दादाजी को आप कोई दूसरा मंत्र न पढ़ा सकेंगी। मेरे पुत्र का अहित आप न कर सकेगी। मैं अब यहां से टलने वाली नहीं। यह समझ लीजिएगा। अगर आपने समझ रखा हो कि इन सबों को भगाकर अपने भाई-भतीजे को यहां ला बिठाऊंगी, तो उस धोखे में न रहिएगा!
यह कहते-कहते अहिल्या उसी क्रोध से भरी हुई राजा साहब के शयनगृह की ओर चली। मनोरमा स्तंभित-सी खड़ी रह गई। उसकी आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगे।
चक्रधर मनोरमा को क्या मुंह दिखाते? अहिल्या के इन वज्रकठोर शब्दों ने मनोरमा को इतनी पीड़ा नहीं पहुंचाई थी, जितनी उनको। मनोरमा दो-एक बार और भी ऐसी ही बातें अहिल्या के मुख से सुन चुकी थी और उसके स्वभाव से परिचत हो गई थी। चक्रधर को ऐसी बातें सुनने का यह पहला अवसर था। वही अहिल्या, जिसे वह नम्रता, मधुरता, शालीनता की देवी समझते थे, आज पिशाचिनी के रूप में उन्हें दिखाई दी। मारे ग्लानि के उनकी ऐसी इच्छा हुई कि धरती फट जाए और मैं समा जाऊं, फिर न इसका मुंह देखू, न अपना मुंह दिखाऊं। जिस रमणी के उपकारों से उनका एक-एक रोयां आभारी था, उसके साथ यह व्यवहार ! उसके उपकारों का यह उपहार ! यह तो नीचता की चरम सीमा है ! उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मेरे मुंह में कालिख लगी हुई है। वह मनोरमा की ओर ताक भी न सके। उनके मन में विराग की एक तरंग-सी उठी। मन ने कहा-यही तुम्हारी भोग-लिप्सा का दण्ड है, तुम इसी के भूखे थे। जिस दिन तुम्हें मालूम हुआ कि अहिल्या राजा की पुत्री है, क्यों न उसी दिन यहां से मुंह में कालिख लगाकर चले गए? इस विचार से क्यों अपनी आत्मा को धोखा देते रहे कि जब मैं जाने लगूंगा, अहिल्या अवश्य साथ चलेगी? तुम समझते थे कि स्त्री की दृष्टि में पति-प्रेम ही संसार की सबसे अमूल्य वस्तु है? यह तुम्हारी भूल थी। आज उसी स्त्री ने पति-प्रेम को कितनी निर्दयता से ठुकरा दिया, तुम्हारे हवाई किलों को विध्वंस कर दिया और तुम्हें कहीं का न रखा।
मनोरमा अभी सिर झुकाए खड़ी ही थी कि चक्रधर चुपके से बाहर के कमरे में आए, अपना हैंडबैग उठाया और बाहर निकले। दरबान ने पूछा-सरकार इस वक्त कहाँ जा रहे हैं?
चक्रधर ने मुस्कराकर कहा–जरा मैदान की हवा खाना चाहता हूँ। भीतर बड़ी गर्मी है, नींद नहीं आती।
दरबान–मैं भी सरकार के साथ चलूं?
चक्रधर–नहीं, कोई जरूरत नहीं।
बाहर आकर चक्रधर ने राजभवन की ओर देखा। असंख्य खिड़कियों और दरीचों से बिजली का दिव्य प्रकाश दिखाई दे रहा था। उन्हें वह दिव्य भवन सहस्र नेत्रों वाले पिशाच की भांति जान पड़ा, जिसने उनका सर्वनाश कर दिया था। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि वह मेरी ओर देखकर हंस रहा है और कह रहा है, तुम क्या समझते हो कि तुम्हारे चले जाने से यहां किसी को दुःख होगा? इसकी चिंता न करो। यहां यही बहार रहेगी, यों ही चैन की वंशी बजेगी। तुम्हारे लिए कोई दो बूंद आंसू भी न बहाएगा। जो लोग मेरे आश्रय में आते हैं, उनका मैं कायाकल्प कर देता हूँ, उनकी आत्मा को महानिद्रा की गोद में सुला देता हूँ।
अभी चक्रधर सोच ही रहे थे कि किधर जाऊं,सहसा उन्हें राजद्वार से दो-तीन आदमी लालटेन लिए निकलते दिखाई दिए। समीप आने पर मालूम हुआ कि मनोरमा है। वह दो सिपाहियों के साथ लपकी हुई सड़क की ओर चली आ रही थी। चक्रधर समझ गए, यह मुझे ढूंढ़ रही है। उनके मी में एक बार प्रबल इच्छा हुई कि उसके चरणों पर गिर कर कहे-देवी, मैं तुम्हारी कृपाओं के योग्य नहीं हूँ। मैं नीच, पामर, अभागा हूँ। मुझे जाने दो, मेरे हाथों तुम्हें सदा कष्ट मिला है और मिलेगा।
मनोरमा अपने आदमियों से कह रही थी-अभी कहीं दूर न गए होंगे। तुम लोग पूर्व की ओर जाओ, मैं एक आदमी के साथ इधर जाती हूँ। बस इतना ही कहना कि रानीजी ने कहा है, जहां चाहें जाएं, पर मुझसे मिलकर जाएं।
राजभवन के सामने एक मनोहर उद्यान था। चक्रधर एक वृक्ष की आड़ में छिप गए। मनोरमा सामने से निकल गई। चक्रधर का कलेजा धड़क रहा था कि कहीं पकड़ न लिया जाऊं। दोनों तरफ के रास्ते बंद थे। बारे उन्हें ज्यादा देर तक न रहना पड़ा। मनोरमा कुछ दूर जाकर लौट आई। उसने निश्चय किया कि इधर-उधर खोजना व्यर्थ है। रेलवे स्टेशन पर जाकर रोकना चाहिए। स्टेशन के सिवा और कहाँ जा सकते हैं? चक्रधर की जान में जान आई,ज्यों ही रानी इधर आई, वह कुंज से निकलकर कदम बढ़ाते हुए आगे चले। वह दिन निकलने से पहले इतनी दूर निकल जाना चाहते थे कि फिर कोई उन्हें पा न सके। दिन निकलने में अब बहुत देर भी न थी। तारों की ज्योति मंद पड़ चली थी-चक्रधर ने और तेजी से कदम बढ़ाया।
सहसा उन्हें सड़क के किनारे एक कुएं के पास कई आदमी बैठे दिखाई दिए। उनके बीच में एक लाश रखी हुई थी। कई आदमी लकड़ी के कुंदे लिए पीछे आ रहे थे। चक्रधर पूछना चाहते थे-कौन मर गया है? धन्नासिंह की आवाज पहचानकर सड़क ही पर ठिठक गए। इसने पहचान लिया तो मुश्किल पड़ेगी।
धन्नासिंह कह रहा था–कजा आ गई, तो कोई क्या कर सकता है। बाबूजी के हाथ कोई डंडा भी तो न था। दो-चार घूसे मारे होंगे और क्या? मगर उस दिन से फिर बेचारा उठा नहीं।
दूसरे आदमी ने कहा–ठांव-कुठांव की बात है। एक बूंसा पीठ पर मारो, तो कुछ न होगा, केवल ‘धम्म’ की आवाज होगी। लेकिन वही चूंसा पसली में या नाभि के पास पड़ जाए , तो गोली का काम कर सकता है। ठांव-कुठांव की बात है। मन्ना को कुठांव चोट लग गई।
धन्नासिंह–बाबूजी सुनेंगे, तो उन्हें बहुत रंज होगा। उस दिन न जाने उनके सिर कैसे क्रोध का भूत सवार हो गया था। बड़े दयावान हैं, किसी को कड़ी निगाह से देखते तक नहीं। जेहल में हम लोग उन्हें भगतजी कहा करते थे। सुनेंगे तो बहुत पछताएंगे।
एक बूढ़ा आदमी बोला–भैया, जेहल की बात दूसरी थी। तब दयावान रहे होंगे। तब राजा ठाकुर तो नहीं थे। राज पाकर दयावान रहें, तो जानो।
धन्नासिंह–दादा, वह राज पाकर फूल उठने वाले आदमी नहीं हैं। तुमने देखा, यहां से जाते ही जाते माफी दिला दी।
बूढ़ा–अरे पागल, जान का बदला कहीं माफी से चुकता है? जान का बदला जान है, मन्ना की अभागिनी विधवा माफी लेकर चाटेगी, उसके अनाथ बालक माफी की गोद में खेलेंगे, या माफी को दादा कहेंगे? तुम बाबूजी को दयावान कहते हो। मैं उन्हें सौ हत्यारों का एक हत्यारा कहता हूँ, राजा हैं, इससे बचे जाते हैं, दूसरा होता, तो फांसी पर लटकाया जाता। मैं तो बूढा हो गया हूँ, लेकिन उन पर इतना क्रोध आ रहा है कि मिल जाएं, तो खून चूस लूं।
चक्रधर को ऐसा मालूम हुआ कि मन्नासिंह की लाश कफन में लिपटी हुई उन्हें निगलने के लिए दौड़ी चली आती है। चारों ओर से दानवों की विकराल ध्वनि सुनाई देती थी-यह हत्यारा है! सौ हत्यारों का एक हत्यारा है ! समस्त आकश मंडल में, देह के एक-एक अणु में, यही शब्द गूंज रहे थे-यह हत्यारा है ! सौ हत्यारों का हत्यारा है !
चक्रधर वहां एक क्षण भी और खड़े न रह सके। उन आदमियों के सामने जाने की हिम्मत न पड़ी। मन्नासिंह की लाश सामने हड्डी की एक गदा लिए उनका रास्ता रोके खड़ी थी। नहीं, वह उनका पीछा करती थी। वह ज्यों-ज्यों पीछे खिसकते थे, लाश आगे बढ़ती थी। चक्रधर ने मन को शांत करके विचार का आह्वान किया, जिसे मन की दुर्बलता ने एक क्षण के लिए शिथिल कर दिया था। वाह ! यह मेरी क्या दशा है? मृतदेह भी कहीं चल सकती है? यह मेरी भय-विकृत कल्पना का दोष है। मेरे सामने कुछ नहीं है, अब तक तो मैं डर ही गया होता। मन को यों दृढ़ करते ही उन्हें फिर कुछ न दिखाई दिया। वह आगे बढ़े, लेकिन उनका मार्ग अब अनिश्चित न था, उनके रास्ते में अब अंधकार न था, वह किसी लक्ष्यहीन पथिक की भांति इधर-उधर भटकते न थे। उन्हें अपने कर्तव्य का मार्ग साफ नजर आने लगा।
सहसा उन्होंने देखा कि पूर्व दिशा प्रकाश से आच्छन्न होती चली जाती है।