कायाकल्प (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद Part 8
पैंतीस
पांच साल गुजर गए, पर चक्रधर का कुछ पता नहीं। फिर वही गर्मी के दिन हैं, दिन को लू चलती है, रात को अंगारे बरसते हैं, मगर अहिल्या को न अब पंखे की जरूरत है, न खस की टट्रियों की। उस वियोगिनी को अब रोने के सिवा दूसरा काम नहीं है। विलास की किसी बात से अब उसे प्रेम नहीं है। जिन वस्तुओं के प्रेम में फंसकर उसने अपने प्रियतम से हाथ धोया, वे सभी उसकी आंखों में कांटे की भांति खटकती और हृदय में शूल की भांति चुभती हैं। मनोरमा से अब उसका वह बर्ताव नहीं रहा। मनोरमा ही क्यों, लौंडियों तक से वह नम्रता के साथ बोलती और शंखधर के बिना तो अब वह एक क्षण नहीं रह सकती। पति को खोकर उसने अपने को पा लिया है। अगर वह विलासिता में पड़कर अपने को भूल न गई होती, तो पति को खोती ही क्यों? वह अपने को बार-बार धिक्कारती है कि चक्रधर के साथ क्यों न चली गई।
शंखधर उससे पूछता रहता है–अम्मां, बाबूजी कब आएंगे? वह क्यों चले गए, अम्मांजी? आते क्यों नहीं? तुमने उनको क्यों जाने दिया, अम्मांजी? तुमने हमको उनके साथ क्यों नहीं जाने दिया? तुम उनके साथ क्यों नहीं गईं, अम्मां? बताओ, बेचारे अकेले न जाने कहाँ पड़े होंगे ! मैं भी उनके साथ जंगलों में घूमता? क्यों अम्मां, उन्होंने बहुत विद्या पढ़ी है? रानी अम्मां कहती हैं, वह आदमी नहीं, देवता हैं। क्यों अम्मांजी, क्या वह देवता हैं? फिर तो लोग उनकी पूजा करते होंगे। अहिल्या के पास इन प्रश्नों का उत्तर रोने के सिवा और कुछ नहीं है। शंखधर कभी-कभी अकेले बैठकर रोता है! कभी-कभी अकेले बैठा सोचा करता है कि पिताजी कैसे आएंगे।
शंखधर का जी अपने पिता की कीर्ति सुनने से कभी नहीं भरता। वह रोज अपनी शादी के पास जाता है और वहां उनकी गोद में बैठा हुआ घंटों उनकी बातें सुना करता है। चक्रधर की पुस्तकों को वह उलट-पलटकर देखता है और चाहता है कि मैं भी जल्दी से बड़ा हो जाऊं और ये किताबें पढ़ने लगूं निर्मला दिन भर उसकी राह देखा करती है। उसे देखते ही निहाल हो जाती है। शंखधर ही अब उसके जीवन का आधार है। अहिल्या का मुंह भी वह नहीं देखना चाहती। कहती है, उसी ने मेरे लाल को घर से विरक्त कर दिया। बेचारा न जाने कहाँ मारा-मारा फिरता होगा। भोला-भाला गरीब लड़का इस विलासिनी के पंजे में फंसकर कहीं का न रहा। अब भले रोती है ! मुंशी वज्रधर उससे बार-बार अनुरोध करते हैं कि चलकर जगदीशपुर में रहो, पर वह यहां से जाने पर राजी नहीं होती। उससे अपना वह छोटा-सा घर नहीं छोड़ा जाता।
मुंशीजी को अब रियासत से एक हजार रुपए महीना वजीफा मिलता है। राजा साहब ने उन्हें रियासत के कामों से मुक्त कर दिया है, इसलिए मुंशीजी अब अधिकांश घर ही पर रहते हैं। शराब की मात्रा तो धन के साथ नहीं बढ़ी, बल्कि और घट गई है, लेकिन संगीत-प्रेम बहुत बढ़ गया है। सारे दिन उनके विशाल कमरे में गायनाचार्यों की बैठक रहती है। मुहल्ले में अब कोई गरीब नहीं रहा। मुंशीजी ने सबको कुछ-न-कुछ महीना बांध दिया है। उनके हाथ में पैसा नहीं टिका। अब तो और भी नहीं टिकता। उनकी मनोवृत्ति भक्ति की ओर नहीं है, दान को दान समझकर वह नहीं देते, न इसलिए कि उस जन्म में इसका कुछ फल मिलेगा। वह इसलिए देते हैं कि उनकी यह आदत है। यह भी उनका राग है, इसमें उन्हें आनंद मिलता है। वह अपनी कीर्ति भी नहीं सुनना चाहते, इसलिए जो कुछ देते हैं, गुप्त रूप से देते हैं। अब भी प्रायः खाली रहते हैं और रुपयों के लिए मनोरमा की जान खाते रहते हैं, बिगड़-बिगड़कर पत्र पर पत्र लिखते हैं, जाकर खरी-खोटी सुना आते हैं और कुछ न कुछ ले ही आते हैं। मनोरमा को भी शायद उनकी कड़वी बातें मीठी लगती हैं। वह उनकी इच्छा तो पूरी करती है, पर चार बातें सुनकर। इतने पर भी उन्हें कर्ज लेना पडता है। उनके लिए सबसे आनंद का समय वह होता है, जब वह शंखधर को गोद में लिए मुहल्ले भर के बालकों को मिठाइयां और पैसे बांटने लगते हैं। इससे बड़ी खुशी की वह कल्पना ही नहीं कर सकते।
एक दिन शंखधर नौ बजे ही आ पहुंचा। गुरुसेवक सिंह उनके साथ थे। यह महाशय रियासत जगदीशपुर के तसले थे। जिस अवसर पर जो काम जरूरी समझा जाता था, वही उनसे लिया जाता था। निर्मला उस समय स्नान करके तुलसी को जल चढ़ा रही थी। जब वह चल चढ़ाकर आई, तो शंखधर ने पूछा-दादीजी, तुम पूजा क्यों करती हो?
निर्मला ने शंखधर को गोद में लेकर कहा–बेटा, भगवान् से मांगती हूँ कि मेरी मनोकामना पूर्ण करें।
शंखधर–भगवान् सबके मन की बात जानते हैं?
निर्मला–हां बेटा, भगवान् सब कुछ जानते हैं?
शंखधर–दादीजी, तुम्हारी क्या मनोकामना है?
निर्मला–यही बेटा, कि तुम्हारे बाबूजी आ जाएं और तुम जल्दी से बड़े हो जाओ।
शंखधर बाहर मुंशीजी के पास चला गया और उनके पास बैठकर सितार की गतें सुनता रहा।
दूसरे दिन प्रात:काल शंखधर ने स्नान किया, लेकिन स्नान करके वह जलपान करने न आया। गुरुसेवक सिंह के पास पढ़ने भी न गया। न जाने कहाँ चला गया। अहिल्या इधर-उधर देखने लगी, कहाँ चला गया। मनोरमा के पास आकर देखा, वहां भी न था। अपने कमरे में भी न था। छत पर भी नहीं। दोनों रमणियां घबराईं कि स्नान करके कहाँ चला गया। लौंडियों से पूछा तो उन सबों ने भी कहा-हमने तो उन्हें नहाकर आते देखा। फिर कहाँ चले गए, यह हमें नहीं मालूम। चारों ओर तलाश होने लगी। दोनों बगीचे की ओर दौड़ी गईं। वहां वह न दिखाई दिया। सहसा बगीचे के पल्ले सिरे पर, जहां दिन को भी सन्नाटा रहता था, उसकी झलक दिखाई दी। दोनों चुपके-चुपके वहां गईं और एक पेड़ की आड़ में खड़ी होकर देखने लगीं। शंखधर तुलसी के चबूतरे के सामने आसन मारे, आंख बंद किए, ध्यान-सा लगाए बैठा था। उसके सामने कुछ फूल पड़े हुए थे। एक क्षण के बाद उसने आंखें खोली। कई बार चबूतरे की परिक्रमा और तुलसी की वंदना करके धीरे से उठा। दोनों महिलाएं आड़ से निकलकर उसके सामने खड़ी हो गईं। शंखधर उन्हें देखकर कुछ लज्जित हो गया और बिना कुछ बोले आगे बढ़ा।
मनोरमा–वहां क्या करते थे, बेटा?
शंखधर–कुछ तो नहीं। ऐसे ही घूमता था।
मनोरमा–नहीं, कुछ तो कर रहे थे।
शंखधर–जाइए, आपसे क्या मतलब?
अहिल्या तुम्हें न बताएंगे। मैं इसकी अम्मां हूँ, मुझे बता देगा। मेरा लाल मेरी कोई बात नहीं टालता। हां बेटे, बता क्या कर रहे थे? मेरे कान में कह दो मैं किसी से न कहूँगी।
शंखधर ने आंखों में आंसू भरकर कहा–कुछ नहीं, मैं बाबूजी के जल्दी से लौट आने की प्रार्थना कर रहा था। भगवान् पूजा करने से सबकी मनोकामना पूरी करते हैं।
सरल बालक की यह पितृभक्ति और श्रद्धा देखकर दोनों महिलाएं रोने लगीं। इस बेचारे को कितना दुख है। शंखधर ने फिर पूछा-क्यों अम्मां, तुम बाबूजी के पास कोई चिट्ठी क्यों नहीं लिखती?
अहिल्या ने कहा–कहाँ लिखू बेटा, उनका पता भी तो नहीं जानती?
छत्तीस
इधर कुछ दिनों से लौंगी तीर्थ करने चली गई थी। गुरुसेवक सिंह ही के कारण उसके मन में यह धर्मोत्साह हुआ था। इस यात्रा के शुभ फल में उनको भी कुछ हिस्सा मिलेगा, यह तो नहीं कहा जा सकता, पर उनके पिता को अवश्य मिलने की संभावना थी। जब से वह गई थी, दीवान साहब दीवाने हो गए थे। यहां तक कि गुरुसेवक को भी कभी-कभी यह मानना पड़ता था कि लौंगी का घर में होना पिताजी की रक्षा के लिए जरूरी है। घर में अब कोई नौकर एक सप्ताह से ज्यादा न टिकता था, कितने ही पहली ही फटकार में छोड़कर भागते थे। रियासत से पकड़कर भेजे जाते थे, तब कहीं जाकर काम चलता था। गुरुसेवक के सद्व्यवहार और मिष्ट भाषण का कोई असर न होता था। शराब की मात्रा भी दिनों-दिन बढ़ती जाती थी, जिससे भय होता था कि कोई भयंकर रोग न खड़ा हो जाए। भोजन वह अब बहुत थोड़ा करते थे। लौंगी दिन भर में दो-ढाई सेर दूध उनके पेट में भर दिया करती थी, आध पाव के लगभग घी भी किसी-न-किसी तरह पहुंचा ही देती थी। इस कला में वह निपुण थी। पति-सेवा का वह अमर सिद्धांत, जो चालीस साल की अवस्था के बाद भोजन की योजना ही पर विशेष आग्रह करता है, सदैव उसकी आंखों के सामने रहता था। वह कहा करती थी, घोड़े और मर्द कभी बूढ़े नहीं होते, केवल उन्हें रातिब मिलना चाहिए।
ठाकुर साहब लौंगी की अब सूरत भी नहीं देखना चाहते थे, इसी आशय के पत्र उसको लिखा करते हैं। लिखते हैं, तुमने मेरी जिंदगी चौपट कर दी। मेरा लोक और परलोक दोनों बिगाड़ दिया। शायद लौंगी को जलाने ही के लिए ठाकुर साहब सभी काम उसकी इच्छा के विरुद्ध करते थे-खाना कम, शराब अधिक, नौकरों पर क्रोध, नौ बजे दिन तक सोना। सारांश यह कि जिन बातों को वह रोकती थी, वही आजकल की दिनचर्या बनी हुई थी। दीवान साहब इसकी सूचना भी दे देते और पत्र के अंत में यह भी लिख देते थे-अब तुम्हारे यहां आने की बिल्कुल जरूरत नहीं। मेरी बहू तुमसे कहीं अच्छी तरह मेरी सेवा कर रही है। उसने मासिक खर्च में से कोई दो सौ रुपए की बचत निकाल दी है। तुम्हारे लिए वही आमदनी पूरी न पड़ती थी। हर एक पत्र में वह अपने स्वास्थ्य का विवरण अवश्य करते थे। उनकी पाचन-शक्ति अब बहुत अच्छी हो गई थी, रुधिर के बढ़ जाने से जितने रोग उत्पन्न होते हैं, उनकी अब कोई संभावना न थी।
दीवान साहब की पाचन-शक्ति अच्छी हो गई हो, पर विचार-शक्ति तो जरूर क्षीण हो गई थी। निश्चय करने की अब उनमें सामर्थ्य ही न थी। ऐसी-ऐसी गलतियां करते थे कि राजा साहब को उनका बहुत लिहाज करने पर भी बार-बार एतराज करना पड़ता था। वह कार्यदक्षता, वह तत्परता, वह विचारशीलता, जिसने उन्हें चपरासी से दीवान बनाया था, अब उनका साथ छोड़ गई थी। वह बुद्धि भला जगदीशपुर का शासन-भार क्या संभालती? लोगों को आश्चर्य होता था कि इन्हें क्या हो गया है। गुरुसेवक को भी शायद मालूम होने लगा कि पिताजी की आड़ में कोई दूसरी शक्ति रियासत का संचालन करती थी।
एक दिन उन्होंने पिता से कहा–लौंगी कब तक आएगी?
दीवान साहब ने उदासीनता से कहा–उसका दिल जाने? यहां आने की तो कोई खास जरूरत नहीं मालूम होती। अच्छा है, अपने कर्मों का प्रायश्चित ही कर ले। यहां आकर क्या करेगी?
उसी दिन भाई-बहिन में भी इसी विषय पर बातें हुईं। मनोरमा ने कहा-भैया, क्या तुमने लौंगी अम्मां को भुला ही दिया? दादाजी की दशा देख रहे हो कि नहीं? सूखकर कांटा हो गए है।
गुरुसेवक–भोजन तो करते ही नहीं। कोई क्या करे? बस, जब देखो, शराब-शराब।
मनोरमा–उन्हें लौंगी अम्मां ही कुछ ठीक रख सकती हैं। उन्हीं कों किसी तरह बुलाओ और बहुत जल्द ! दादाजी की दशा देखकर मुझे तो भय हो रहा है। राजा साहब तो कहते हैं, तुम्हारे पिताजी सठिया गए हैं।
गुरुसेवक–तो मैं क्या करूं? बार-बार कहता हूँ कि बुला लीजिए, पर वह सुनते ही नहीं। उलटे उसे चिढ़ाने को और लिख देते हैं कि यहां तुम्हारे आने की जरूरत नहीं। वह एक हठिन है। भला, इस तरह क्यों आने लगी?
मनोरमा–नहीं भैया, वह लाख हठिन हो, पर दादाजी पर जान देती है। वह केवल तुम्हारे भय से नहीं आ रही हैं। तीर्थयात्रा में उसकी श्रद्धा कभी न थी। वहां रो-रोकर उसके दिन कट रहे होंगे। पिताजी जितना ही उसे आने के लिए रोकते हैं, उतना ही उसे आने की इच्छा होती है, पर तुमसे डरती है।
गुरुसेवक-नोरा, मैं सच कहता हूँ, मैं दिल से चाहता हूँ कि वह आ जाए, पर सोचता हूँ कि जब पिताजी मना करते हैं, तो मेरे बुलाने से क्यों आने लगी। रुपए-पैसे की कोई तकलीफ है ही नहीं।
मनोरमा–तुम समझते हो, दादाजी उसे मना करते हैं? उनकी दशा देखकर भी ऐसा कहते हो! जब से अम्मां जी का स्वर्गवास हुआ, दादाजी ने अपने को उसके हाथों बेच दिया। लौंगी ने न संभाला होता, तो अम्मांजी के शोक में दादाजी प्राण दे देते। मैंने किसी विवाहित स्त्री में इतनी पति-भक्ति नहीं देखी। अगर दादाजी को बचाना चाहते हो, तो जाकर लौंगी अम्मां को अपने साथ लाओ!
गुरुसेवक–मेरा जाना तो बहुत मुश्किल है, नोरा !
मनोरमा–क्यों? क्या इस में आपका अपमान होगा?
गुरुसेवक–वह समझेगी, आखिर इन्हीं को गरज पड़ी। आकर और भी सिर चढ़ जाएगी। उसका मिजाज और भी आसमान पर जा पहुंचेगा।
मनोरमा–भैया, ऐसी बातें मुंह से न निकालो। लौंगी देवी है, उसने तुम्हारा और मेरा पालन किया है। उस पर तुम्हारा यह भाव देखकर मुझे दुःख होता है।
गुरुसेवक–मैं अब उससे कभी न बोलूंगा, उसकी किसी बात में भूलकर भी दखल न दूंगा, लेकिन उसे बुलाने न जाऊंगा।
मनोरमा–अच्छी बात है, तुम न जाओ, लेकिन मेरे जाने में तो कोई आपत्ति नहीं है। गुरुसेवक–तुम जाओगी?
मनोरमा क्यों, मैं क्या हूँ! क्या मैं भूल गई हूँ कि लौंगी अम्मां ही ने मुझे गोद में लेकर पाला है? अगर वह इस घर में आकर रहती, तो मैं अपने हाथों से उसके पैर धोती और चरणामत आंखों से लगाती। जब मैं बीमार पड़ी थी, तो वह रात की रात मेरे सिरहाने बैठी रहती थी। क्या मैं इन बातों को कभी भूल सकती हूँ? माता के ऋण से उऋण होना चाहे संभव हो, उसके ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो सकती, चाहे ऐसे-ऐसे दस जन्म लूं। आजकल वह कहाँ है?
गुरुसेवक लज्जित हुए। घर आकर उन्होंने देखा कि दीवान साहब लिहाफ ओढ़े पडे हए हैं। पूछा-आपका जी कैसा है?
दीवान साहब की लाल आंखें चढ़ी हुई थीं। बोले-कुछ नहीं जी, जरा सर्दी लग रही थी।
गुरुसेवक–आपकी इच्छा हो, तो मैं जाकर लौंगी को बुला लाऊं?
हरिसेवक–तुम ! नहीं, तुम उसे बुलाने क्यों जाओगे! कोई जरूरत नहीं। उसका जी चाहे, आए या न आए। हुंह ! उसे बुलाने जाओगे! ऐसी कहाँ की अमीरजादी है?
गुरुसेवक–यह आप कहें। हम तो उसकी गोद में खेले हुए हैं, हम ऐसा कैसे कह सकते हैं। नोरा आज मुझ पर बहुत बिगड़ रही थी, वह खुद उसे बुलाने जा रही है। उसकी जिद तो आप जानते ही हैं। जब धुन सवार हो जाती है, तो उसे कुछ नहीं सूझता।
हरिसेवक सजल नेत्र होकर बोले–नोरा जाने को कहती है? नोरा जाएगी? नहीं, मैं, उसे न जाने दूंगा। लौंगी को बुलाने नोरा नहीं जा सकती। मैं उसे समझा दूंगा।
गुरुसेवक क्या जानते थे, इन शब्दों में कोई गूढ आशय भरा हुआ है। वहां से चले गए।
दूसरे दिन दीवान साहब को ज्वर हो आया। गुरुसेवक ने थर्मामीटर लगाकर देखा, तो ज्वर एक सौ चार डिग्री का था। घबराकर डॉक्टर को बुलाया। मनोरमा यह खबर पाते ही दौड़ी हुई आई। उसने आते ही गुरुसेवक से कहा-मैंने आपसे कल ही कहा था, जाकर लौंगी अम्मां को बुला लाइए, लेकिन आप न गए। अब तक तो आप हरिद्वार से लौटते होते।
गुरुसेवक–मैं तो जाने को तैयार था, लेकिन जब कोई जाने भी दे। दादाजी से पूछा, तो वह मुझको बेवकूफ बनाने लगे। मैं कैसे चला जाता?
मनोरमा–तुम्हें उनसे पूछने की क्या जरूरत थी? इनकी दशा देख नहीं रहे हो। अब भी मौका है। मैं इनकी देखभाल करती रहूँगी, तुम इसी गाड़ी से चले जाओ और उसे साथ लाओ। वह इनकी बीमारी की खबर सुनकर एक क्षण भी न रुकेगी। वह केवल तुम्हारे भय से नहीं आ रही है।
दीवान साहब मनोरमा को देखकर बोले–आओ नोरा, मुझे तो आज ज्वर आ गया। गुरुसेवक कह रहा था कि तुम लौंगी को बुलाने जा रही हो। बेटी, इसमें तुम्हारा अपमान है। उसकी हजार दफा गरज हो आए, या न आए। भला, तुम उसे बुलाने जाओगी, तो दुनिया क्या कहेगी! सोचो, कितनी बदनामी की बात है!
मनोरमा–दुनिया जो चाहे कहे, मैंने भैयाजी को भेज दिया है। वह तो स्टेशन पहुँच गए होंगे। शायद गाड़ी पर सवार भी हो गए हों।
हरिसेवक–सच! यह तुमने क्या किया? लौंगी कभी न आएगी।
मनोरमा-आएगी क्यों नहीं। न आएगी, तो मैं जाऊंगी और उसे मना लाऊंगी।
हरिसेवक–तुम उसे मनाने जाओगी? रानी मनोरमा लौंगी कहारिन को मनाने जाएगी?
मनोरमा–मनोरमा लौंगी कहारिन का दूध पीकर बड़ी न होती, तो आज रानी मनोरमा कैसे होती?
हरिसेवक का मुरझाया हुआ चेहरा खिल उठा, बुझी हुई आंखें जगमगा उठीं, प्रसन्नमुख होकर बोले-नोरा, तुम सचमुच दया की देवी हो। देखो, अगर लौंगी आए और मैं न रहूँ, तो उसकी खबर लेती रहना। उसने मेरी बड़ी सेवा की है। मैं कभी उसके एहसानों का बदला नहीं चुका सकता। गुरुसेवक उसे सताएगा, उसे घर से निकालेगा, लेकिन तुम उस दुखिया की रक्षा करना। मैं चाहूँ, तो अपनी सारी संपत्ति उसके नाम लिख सकता हूँ। यह सब जायदाद मेरी पैदा की हुई है। मैं अपना सब कुछ लौंगी को दे सकता हूँ, लेकिन लौंगी कुछ न लेगी। वह दुष्टा मेरी जायदाद का एक पैसा भी न छुएगी। वह अपने गहने-पाते भी काम पड़ने पर इस घर में लगा देगी। बस, वह सम्मान चाहती है। कोई उससे आदर के साथ बोले और उसे लूट ले। वह घर की स्वामिनी बनकर भूखों मर जाएगी, लेकिन दासी बनकर सोने का कौर भी न खाएगी। यह उसका स्वभाव है। गुरुसेवक ने आज तक उसका स्वभाव न जाना। नोरा, जिस दिन से वह गई है, मैं कुछ और ही हो गया हूँ। जान पड़ता है, मेरी आत्मा कहीं चली गई है। मुझे अपने ऊपर जरा भी भरोसा नहीं रहा। मुझमें निश्चय करने की शक्ति ही नहीं रही! अपने कर्त्तव्य का ज्ञान ही नहीं रहा। तुम्हें अपने बचपन की याद आती है, नोरा?
मनोरमा-बहुत पहले की बातें तो नहीं याद हैं, लेकिन लौंगी अम्मां का मुझे गोद में खिलाना खूब याद है। अपनी बीमारी भी याद आती है, जब लौंगी अम्मां मुझे पंखा झला करती थीं।
हरिसेवक ने अवरुद्ध कंठ से कहा–उससे पहले की बात है, नोरा, जब गुरुसेवक तीन वर्ष का था और तुम्हारी माता तुम्हें साल भर का छोड़कर चल बसी थी। मैं पागल हो गया था। यही जी में आता था कि आत्महत्या कर ली नोरा, जैसे तुम हो वैसी ही तुम्हारी माता भी थी। उसका स्वभाव भी तुम्हारे जैसा था। मैं बिल्कुल पागल हो गया था। उस दशा में इसी लौंगी ने मेरी रक्षा की। उसकी सेवा ने मुझे मुग्ध कर दिया। उसे तुम लोगों पर प्राण देते देखकर उस पर मेरा प्रेम हो गया। मैं उसके स्वरूप और यौवन पर न रीझा ! तुम्हारी माता के बाद किसका स्वरूप और यौवन मुझे मोहित कर सकता था? मैं लौंगी के हृदय पर मुग्ध हो गया। तुम्हारी माता भी तुम लोगों का लालन-पालन इतना तन्मय होकर न कर सकती थी। गुरुसेवक की बीमारी की याद तुम्हें क्या आएगी ! न जाने उसे कौन-सा रोग हो गया था। खून के दस्त आते थे और तिल-तिल पर। छः महीने तक उसकी दशा यही रही। जितनी दवा-दारू उस समय कर सकता था, वह सब करके हार गया। झाड़-फूंक, दुआ-ताबीज सब कुछ कर चुका। इसके बचने की कोई आशा न थी। गलकर कांटा हो गया। रोता तो इस तरह, मानो कराह रहा है। यह लौंगी ही थी, जिसने उसे मौत के मुंह से निकाल लिया। कोई माता अपने बालक की इतनी सेवा नहीं कर सकती। जो उसके त्यागमय स्नेह को देखता, दांतों तले उंगली दबाता था। क्या वह लोभ के वश अपने को मिटाए देती थी? लोभ में भी कहीं त्याग होता है? और आज गुरुसेवक उसे घर से निकाल रहा है, समझता है कि लौंगी मेरे धन के लोभ से मुझे घेरे हुए है। मूर्ख यह नहीं सोचता कि जिस समय लौंगी उसका पंजर गोद में लेकर रोया करती थी, उस समय धन कहाँ था? सच पूछो, तो यहां लक्ष्मी लौंगी के समय ही आई, बल्कि लक्ष्मी ही लौंगी के रूप में आई। लौंगी ही ने मेरे भाग्य को रचा। जो कुछ किया, उसी ने किया, मैं तो निमित्त मात्र था। क्यों नोरा, मेरे सिरहाने कौन खड़ा है? कोई बाहरी आदमी है? कह दो, यहां से जाए ।
मनोरमा–यहां तो मेरे सिवा कोई नहीं है। आपको कोई कष्ट हो रहा है? फिर डॉक्टर को
बुलाऊं?
हरिसेवक–मेरा जी घबरा रहा है, रह-रहकर डूबा जाता है। कष्ट कोई नहीं, कोई पीडा नहीं। बस, ऐसा मालूम होता है कि दीपक में तेल नहीं रहा। गुरुसेवक शाम तक पहुँच जाएगा?
मनोरमा–हां, कुछ रात जाते-जाते पहुँच जाएंगे।
हरिसेवक–कोई तेज मोटर हो, तो मैं शाम तक पहुँच जाऊं
मनोरमा–इस दशा में इतना लंबा सफर आप कैसे कर सकते हैं?
हरिसेवक–हां, यह ठीक कहती हो, बेटी! मगर मेरी दवा लौंगी के पास है। उस सती का कैसा प्रताप था ! जब तक वह रही, मेरे सिर में कभी दर्द भी न हुआ। मेरी मूर्खता देखो कि जब उसने तीर्थयात्रा की बात कही तो, मेरे मुंह से एक बार भी न निकला-तुम मुझे किस पर छोड़कर जाती हो? अगर मैं यह कह सकता, तो वह कभी न जाती। एक बार भी नहीं रोका। मैं उसे निष्ठुरता का दंड देना चाहता था। मुझे उस वक्त यह न सूझ पड़ा कि…
यह कहते-कहते दीवान साहब फिर चौंक पड़े और द्वार की ओर आशंकित नेत्रों से देखकर बोले-यह कौन अंदर आया, नोरा? ये लोग क्यों मुझे घेरे हुए हैं?
मनोरमा ने घबराते हुए हृदय से उमड़ने वाले आंसुओं को दबाकर पूछा-क्या आपका जी फिर घबरा रहा है?
हरिसेवक–वह कुछ नहीं था, नोरा ! मैंने अपने जीवन में अच्छे काम कम किए, बुरे काम बहुत किए। अच्छे काम जितने किए वे लौंगी ने किए। बुरे काम जितने किए, वे मेरे हैं। उनके दंड का भागी मैं हूँ। लौंगी के कहने पर चलता, तो आज मेरी आत्मा शांत होती। एक बात तुमसे पूछूं, नोरा, बताओगी?
मनोरमा–खुशी से पूछिए।
हरिसेवक–तुम अपने भाग्य से संतुष्ट हो?
मनोरमा–यह आप क्यों पूछते हैं? क्या मैंने आपसे कभी कोई शिकायत की है?
हरिसेवक–नहीं नोरा, तुमने कभी शिकायत नहीं की और न करोगी, लेकिन मैंने तुम्हारे साथ जो घोर अत्याचार किया है, उसकी व्यथा से आज मेरा अंत:करण पीड़ित हो रहा है। मैंने तुम्हें अपनी तृष्णा की भेंट चढ़ा दिया, तुम्हारे जीवन का सर्वनाश कर दिया। ईश्वर ! तुम मुझे इसका कठिन से कठिन दंड देना ! लौंगी ने कितना विरोध किया, लेकिन मैंने एक न सुनी। तुम निर्धन होकर सुखी रहतीं। मुझे तृष्णा ने अंधा बना दिया था। फिर जी डूबा जाता है! शायद उस देवी के दर्शन न होंगे। तुम उससे कह देना नोरा कि वह स्वार्थी, नीच, पापी जीव अंत समय तक उसकी याद में तडपता रहा…
मनोरमा–दादाजी, आप ऐसी बातें क्यों करते हैं? लौंगी अम्मां कल शाम तक आ जाएंगी।
हरिसेवक हंसे, वह विलक्षण हंसी, जिसमें समस्त जीवन की आशाओं और अभिलाषाओं का प्रतिवाद होता है। फिर संदिग्ध भाव से बोले-कल शाम तक? हां शायद।
मनोरमा आंसुओं के वेग को रोके हुए थी। उसे उस चिर परिचित स्थान में आज एक विचित्र शंका का आभास हो रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि सूर्य-प्रकाश कुछ क्षीण हो गया है, मानो संध्या हो गई है। दीवान साहब के मुख की ओर ताकने की हिम्मत न पड़ती थी।
दीवान साहब छत की ओर टकटकी लगाए हुए थे, मानो उनकी दृष्टि अनंत के उस पार पहुँच जाना चाहती हो। सहसा उन्होंने क्षीण स्वर में पुकारा-नोरा!
मनोरमा ने उनकी ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा–खड़ी हूँ, दादाजी!
दीवान–जरा कलम-दवात लेकर मेरे समीप आ जाओ। कोई और तो यहां नहीं है? मेरे दानपत्र लिख लो। गुरुसेवक की लौंगी से न पटेगी। मेरे पीछे उसे बहुत कष्ट होगा। मैं अपनी सब जायदाद लौंगी को देता हूँ। जायदाद के लोभ से गुरुसेवक उससे दबेगा। तुम यह लिख लो और तुम्हीं इसकी साक्षी देना। जरा बहू को बुला लो, मैं उसे भी समझा दूं। यह वसीयत तुम अपने ही पास रखना। जरूरत पड़ने पर इससे काम लेना।
मनोरमा अंदर जाकर रोने लगी। आंसुओं का वेग उसके रोके न रुका। उसकी भाभी ने पूछा-क्या है, दीदी ! दादाजी का जी कैसा है?
यह कहते हुए वह घबराई हुई दीवान साहब के सामने आकर खड़ी हो गई। उसका आँखों में आंसू भर आए। कमरे में वह निस्तब्धता छाई हुई थी, जिसका आशय सहज ही समझ में आ जाता है। उसने दीवान साहब के पैरों पर सिर रख दिया और रोने लगी।
दीवान साहब ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते हुए कहा-बेटी? यह मेरा अंतिम समय है। यात्रा के सामान कर रहा हूँ? गुरुसेवक के आने तक क्या होगा, नहीं जानता। मेरे पीछे लौंगी बहुत दिन न रहेगी। उसका दिल न दुखाना। मेरी तुमसे यही याचना है। तुम बड़े घर की बेटी हा। जो कुछ करना, उसकी सलाह से करना। इसी में वह प्रसन्न रहेगी। ईश्वर तुम्हारा सौभाग्य अमर करें!
यह कहते-कहते दीवान साहब की आंखें बंद हो गईं। कोई आध घंटे के बाद उन्होंने आंखें खोली और उत्सुक नेत्रों से इधर-उधर देखकर बोले-अभी नहीं आई? अब भेंट न होगी।
मनोरमा ने रोते हुए कहा–दादाजी, मुझे भी कुछ कहते जाइए। मैं क्या करूं?
दीवान साहब ने आंखें बंद किए हुए कहा–लौंगी को देखो !
थोड़ी देर में राजा साहब आ पहुंचे। अहिल्या भी उनके साथ थी। मुंशी वज्रधर को भी उड़ती हुई खबर मिली। दौड़े आए। रियासत के सैकड़ों कर्मचारी जमा हो गए। डॉक्टर भी आ पहुंचा। किंतु दीवान साहब ने आंखें न खोली।
संध्या हो गई थी। कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था। सब लोग सिर झुकाए बैठे थे, मानो श्मशान में भूतगण बैठे हों। सबको आश्चर्य हो रहा था कि इतनी जल्द यह क्या हो गया। अभी कल तक तो मजे में रियासत का काम करते रहे। दीवान साहब अचेत पड़े हुए थे, किंतु आंखों से आंसू की धारें बह-बहकर गालों पर आ रही थीं। उस वेदना का कौन अनुमान कर सकता है!
एकाएक द्वार पर एक बग्घी आकर रुकी और उसमें से एक स्त्री उतरकर घर में दाखिल हुई। शोर मच गया-आ गई, आ गई। यह लौंगी थी।
लौंगी आज ही हरिद्वार से चली थी। गुरुसेवक से उसकी भेंट न हुई थी। इतने आदमियों को जमा देखकर उसका हृदय दहल उठा। उसके कमरे में आते ही और लोग हट गए। केवल मनोरमा, उसकी भाभी और अहिल्या रह गईं।
लौंगी ने दीवान साहब के सिर पर हाथ रखकर भर्रायी हुई आवाज में कहा–प्राणनाथ ! क्या मुझे छोड़कर चले जाओगे?
दीवान साहब की आंखें खुल गईं। उन आंखों में कितनी अपार वेदना थी, किंतु कितना अपार प्रेम!
उन्होंने दोनों हाथ फैलाकर कहा–लौंगी और पहले क्यों न आईं?
लौंगी ने दोनों फैले हुए हाथों के बीच में अपना सिर रख दिया और उस अंतिम प्रेमालिंगन के आनंद में विह्वल हो गई। इस निर्जीव, मरणोन्मुख प्राणी के आलिंगन में उसने उस आत्मबल, विश्वास और तृप्ति का अनुभव किया, जो उसके लिए अभूतपूर्व था। इस आनंद में वह शोक भूल गई। पच्चीस वर्ष के दाम्पत्य जीवन में उसने कभी इतना आनंद न पाया था। निर्दय अविश्वास रह-रहकर उसे तड़पाता रहता था। उसे सदैव यह शंका बनी रहती थी कि यह डोंगी पार लगाती है या मंझधार ही में डूब जाती है। वायु का हल्का-सा वेग, लहरों का हल्का-सा आंदोलन, नौका का हल्का-सा कंपन उसे भयभीत कर देता था। आज उन सारी शंकाओं और वेदनाओं का अंत हो गया। आज उसे मालूम हुआ कि जिसके चरणों पर मैंने अपने को समर्पित किया था, वह अंत तक मेरा रहा। यह शोकमय कल्पना भी कितनी मधुर और शांतिदायिनी थी।
वह इसी विस्मृति की दशा में थी कि मनोरमा का रोना सुनकर चौंक पड़ी और दीवान साहब के मुख की ओर देखा। तब उसने स्वामी के चरणों पर सिर रख दिया और फूट-फूटकर रोने लगी। एक क्षण में सारे घर में कुहराम मच गया। नौकर-चाकर भी रोने लगे। जिन नौकरों को दीवान के मुख से नित्य घुड़कियां मिलती थीं, वह भी रो रहे थे। मृत्यु में मानसिक प्रवृत्तियों को शांत करने की विलक्षण शक्ति होती है। ऐसे विरले ही प्राणी संसार में होंगे, जिनके अंत:करण मृत्यु के प्रकाश से आलोकित न हो जाएं। अगर कोई ऐसा मनुष्य है, तो उसे पशु समझो। हरिसेवक की कृपणता, कठोरता, संकीर्णता, धूर्तता एवं सारे दुर्गुण, जिनके कारण वह अपने जीवन में बदनाम रहे, इस विशाल प्रेम के प्रवाह में बह गए।
आधी रात बीत चुकी थी। लाश अभी तक गुरुसेवक के इंतजार में पड़ी हुई थी। रोने वाले रो-धोकर चुप हो गए थे। लौंगी शोकगृह से निकलकर छत पर गई और सड़क की ओर देखने लगी। सैर करने वालों की सैर तो खत्म हो चुकी थी, मगर मुसाफिरों की सवारियां कभी-कभी बंगले के सामने से निकल जाती थीं। लौंगी सोच रही थी, गुरुसेवक अब तक लौटे क्यों नहीं? गाड़ी तो यहां दो बजे आ जाती है। क्या अभी दो नहीं बजे? आते ही होंगे। स्टेशन की ओर से आने वाली हर सवारी गाड़ी को वह उस वक्त तक ध्यान से देखती थी, जब तक वह बंगले के सामने से न निकल जाती। तब वह अधीर होकर कहती, अब भी नहीं आए!
और मनोरमा बैठी दीवान साहब के अंतिम उपदेश का आशय समझने की चेष्टा कर रही थी। उसके कानों में ये शब्द गूंज रहे थे लौंगी को देखो!
सैंतीस
जगदीशपुर के ठाकुरद्वारे में नित्य साधु-महात्मा आते रहते थे। शंखधर उनके पास जा बैठता और उनकी बातें बड़े ध्यान से सुनता। उसके पास चक्रधर की जो तस्वीर थी, उससे मन-ही-मन साधुओं की सूरत का मिलान करता, पर उस सूरत का साधु उसे न दिखाई देता था। किसी की भी बातचीत से चक्रधर की टोह न मिलती थी।
एक दिन मनोरमा के साथ शंखधर भी लौंगी के पास गया। लौंगी बड़ी देर तक अपनी तीर्थयात्रा की चर्चा करती रही। शंखधर उसकी बातें गौर से सुनने के बाद बोला-क्यों दाई, तुम्हें तो साधु-संन्यासी बहुत मिले होंगे?
लौंगी ने कहा–हां बेटा, मिले क्यों नहीं। एक संन्यासी तो ऐसा मिला था कि हूबहू, तुम्हारे बाबूजी से सूरत मिलती थी। बदले हुए भेस में ठीक तो न पहचान सकी, लेकिन मुझे ऐसा मालूम होता था कि वही हैं।
शंखधर ने बड़ी उत्सुकता से पूछा–जटा बड़ी-बड़ी थीं?
लौंगी–नहीं, जटा-सटा तो नहीं थी, न वस्त्र ही गेरुआ रंग के थे। हां, कमंडल अवश्य लिए हुए थे। जितने दिन मैं जगन्नाथपुरी में रही, वह एक बार रोज मेरे पास आकर पूछ जाते-क्यों माताजी, आपको किसी बात का कष्ट तो नहीं है? और यात्रियों से भी वह यही बात पूछते थे। जिस धर्मशाला में मैं टिकी थी, उसी में एक दिन एक यात्री को हैजा हो गया। संन्यासी जी उसे उठवाकर अस्पताल ले गए और दवा कराई। तीसरे दिन मैंने उस यात्री को फिर देखा। वह घर लौटता था। मालूम होता था, संन्यासी जी अमीर हैं। दरिद्र यात्रियों को भोजन करा देते और जिनके पास किराए के रुपए न होते, उन्हें रुपए भी देते थे। वहां तो लोग कहते थे कि यह कोई बड़े राजा संन्यासी हो गए हैं। नोरा, तुमसे क्या कहूँ, सूरत बिल्कुल बाबूजी से मिलती थी। मैंने नाम पूछा, तो सेवानन्द बताया। घर पूछा, तो मुस्कराकर बोले-सेवानगर। एक दिन मैं मरते-मरते बची। सेवानन्द न पहुँच जात, तो मर ही गई थी। एक दिन मैंने उनको नेवता दिया। जब वह खाने बैठे, तो मैंने यहां का जिक्र छेड़ दिया। मैं देखना चाहती थी कि इन बातों से उनके दिल पर क्या असर होता है, मगर उन्होंने कुछ भी न पूछा। मालूम होता था, मेरी बातें उन्हें अच्छी नहीं लग रही थीं। आखिर मैं चुप रही। उस दिन से वह फिर न दिखाई दिए। जब लोगों से पूछा, तो मालूम हुआ कि रामेश्वर चले गए। एक जगह जमकर नहीं रहते, इधर-उधर विचरते ही रहते हैं। क्यों नोरा, बाबूजी होते, तो जगदीशपुर का नाम सुनकर कुछ तो कहते?
मनोरमा ने तो कुछ उत्तर न दिया, न जाने क्या सोचने लगी थी, पर शंखधर बोला-दाई, तुमने यहां तार क्यों न दे दिया? हम लोग फौरन पहुँच जाते।
लौंगी–अरे तो कोई बात भी तो हो बेटा, न जाने कौन था, कौन नहीं था। बिना जाने-बूझे क्यों तार देती?
मनोरमा ने गंभीर भाव से कहा–मान लो वही होते, तो क्या तुम समझते हो कि वह हमारे साथ आते? कभी नहीं। आना होता, तो जाते ही क्यों?
शंखधर–किस बात पर नाराज होकर चले गए थे, अम्मां? कोई-न-कोई बात जरूर हई होगी? अम्मांजी से पूछता हूँ, तो रोने लगती हैं, तुमसे पूछता हूँ, तो तुम बताती ही नहीं।
मनोरमा–मैं किसी के मन की बात क्या जानूं? किसी से कुछ कहा-सुना थोडे ही।
शंखधर–मैं यदि उन्हें एक बार देख पाऊं, तो फिर कभी साथ ही न छोडूं। क्यों दाई आजकल वह संन्यासीजी कहाँ होंगे?
मनोरमा–अब दाई यह क्या जाने? संन्यासी कहीं एक जगह रहते हैं, जो वह बता दे। शंखधर–अच्छा दाई, तुम्हारे खयाल में संन्यासीजी की उम्र क्या रही होगी?
लौंगी–मैं समझती हूँ, उनकी उम्र कोई चालीस वर्ष की होगी।’
शंखधर ने कुछ हिसाब करके कहा–रानी अम्मां, यही तो बाबूजी की भी उम्र होगी। मनोरमा ने बनावटी क्रोध से कहा–हां, हां, वही संन्यासी तुम्हारे बाबूजी हैं। बस, अब माना। अभी उम्र चालीस वर्ष की कैसे हो जाएगी?
शंखधर समझ गए कि मनोरमा को यह जिक्र बुरा लगता है। इस विषय में फिर मुंह से एक शब्द न निकाला; लेकिन वहां रहना अब उसके लिए असंभव था। रामेश्वर का हाल तो उसने भूगोल में पढ़ा था, लेकिन अब उस अल्पज्ञान से उसे संतोष न हो सकता था। वह जानना चाहता था कि रामेश्वर को कौन रेल जाती है, वहां लोग जाकर ठहरते कहाँ हैं? घर के पुस्तकालय में शायद कोई ऐसा ग्रंथ मिल जाए , यह सोचकर वह बाहर आया और शोफर से बोला–मुझे घर पहुंचा दो।
शोफर–महारानीजी न चलेंगी?
शंखधर–मुझे कुछ जरूरी काम है, तुम पहुंचाकर लौट आना। रानी अम्मां से कह देना, वह चले गए।
वह घर आकर पुस्तकालय में जा ही रहा था कि गुरुसेवक सिंह मिल गए। आजकल वह महाशय दीवानी के पद के लिए जोर लगा रहे थे, हर एक काम बड़ी मुस्तैदी से करते, पर मालूम नहीं, राजा साहब क्यों उन्हें स्वीकार न करते थे। मनोरमा कह चुकी थी, अहिल्या ने भी सिफारिश की, पर राजा साहब अभी तक टालते जाते थे। शंखधर उन्हें देखते ही बोला-गुरुजी, जरा कृपा करके मुझे पुस्तकालय से कोई ऐसी पुस्तक निकाल दीजिए, जिसमें तीर्थस्थानों का पूरा-पूरा हाल लिखा हो।
गुरुसेवक ने कहा–ऐसी तो कोई किताब पुस्तकालय में नहीं है।
शंखधर–अच्छा, तो मेरे लिए कोई ऐसी किताब मंगवा दीजिए।
यह कहकर वह लौटा ही था कि कुछ सोचकर बाहर चला गया और एक मोटर को तैयार कराके शहर चला। अभी उसका तेरहवां ही साल था, लेकिन चरित्र में इतनी दृढ़ता थी कि जो बात मन में ठान लेता, उसे पूरा ही करके छोड़ता। शहर जाकर उसने अंग्रेजी पुस्तकों की कई दुकानों से तीर्थयात्रा संबंधी पुस्तकें देखीं और किताबों का एक बंडल लेकर घर आया।
राजा साहब भोजन करने बैठे, तो शंखधर वहां न था। अहिल्या ने जाकर देखा, तो वह अपने कमरे में बैठा कोई किताब देख रहा था।
अहिल्या ने कहा–चलकर खाना खा लो, दादाजी बुला रहे हैं।
शंखधर–अम्मांजी, आज मुझे बिल्कुल भूख नहीं है।
अहिल्या–कोई नई किताब लाए हो क्या? अभी भूख क्यों नहीं है? कौन-सी किताब है? शंखधर–नहीं अम्मांजी, मुझे भूख नहीं लगी।
अहिल्या ने उसके सामने से खुली हुई किताब उठा ली और दो-चार पंक्तियां पढ़कर बोली-इसमें तो तीर्थों का हाल लिखा हुआ है–जगन्नाथ, बद्रीनाथ,काशी और रामेश्वर। यह किताब कहाँ से लाए?
शंखधर–आज ही तो बाजार से लाया हूँ। दाई कहती थी कि बाबूजी की सूरत का एक संन्यासी उन्हें जगन्नाथ में मिला था और वह वहां से रामेश्वर चला गया।
अहिल्या ने शंखधर को दया–सजल नेत्रों से देखा, पर उसके मुख से कोई बात न निकली। आह ! मेरे लाल ! तुझमें इतनी पितृभक्ति क्यों है? तू पिता के वियोग में क्यों इतना पागल हो गया है? तुझे तो पिता की सूरत भी याद नहीं। तुझे तो इतना भी याद नहीं कि कब पिता की गोद में बैठा था, कब उनकी प्यार की बातें सुनी थीं। फिर भी तुझे उन पर इतना प्रेम है? और वह इतने निर्दयी हैं कि न जाने कहाँ बैठे हुए हैं, सुधि ही नहीं लेते। वह मुझसे अप्रसन्न हैं, लेकिन तूने क्या अपराध किया है? तुझसे क्यों रुष्ट हैं? नाथ ! तुमने मेरे कारण अपने आंखों के तारे पुत्र को क्यों त्याग दिया? तुम्हें क्या मालूम कि जिस पुत्र की ओर से तुमने अपना हृदय पत्थर कर लिया है, वह तुम्हारे नाम की उपासना करता है, तुम्हारी मूर्ति की पूजा करता है। आह ! यह वियोगाग्नि उसके कोमल हृदय को क्या जला डालेगी? क्या इस राज्य को पाने का यह दंड है? इस अभागे राज्य ने हम दोनों को अनाथ कर दिया।
अहिल्या का मातृहृदय करुणा से पुलकित हो उठा। उसने शंखधर को छाती से लगा लिया और आंसुओं के वेग को दबाती हुई बोली-बेटा, तुम्हारा उठने को जी न चाहता हो, तो यहीं लाऊ? बैठे-बैठे कुछ थोड़ा-सा खा लो।
शंखधर–अच्छा खा लूंगा अम्मां, किसी से खाना भिजवा दो, तुम क्यों लाओगी।
अहिल्या एक क्षण में छोटी-सी थाली में भोजन लेकर आई और शंखधर के सामने रखकर बैठ गई।
शंखधर को इस समय खाने की रुचि न थी, यह बात नहीं थी। अब तक उसे निश्चित रूप से अपने पिता के विषय में कुछ न मालूम था। वह जानता था कि वह किसी दूसरी जगह आराम से होंगे। आज उसे यह मालूम हुआ था कि संन्यासी हो गए हैं, अब वह राजसी भोजन कैसे करता? इसीलिए उसने अहिल्या से कहा था कि भोजन किसी के हाथ भेज देना, तुम न आना। अब यह थाल देखकर वह बड़े धर्मसंकट में पड़ा। अगर नहीं खाता, तो अहिल्या दुःखी होती है और खाता है, तो कौर मुंह में नहीं जाता। उसे खयाल आया, मैं यहां चांदी के थाल में मोहनभोग उड़ाने बैठा हूँ और बाबूजी पर इस समय न जाने क्या गुजर रही होगी। बेचारे किसी पेड़ के नीचे पड़े होंगे, न जाने आज कुछ खाया भी है या नहीं। वह थाली पर बैठा, लेकिन कौर उठाते ही फूट-फूटकर रोने लगा। अहिल्या उसके मन का भाव ताड़ गई और स्वयं रोने लगी। कौन किसे समझाता?
आज से अहिल्या को हरदम यही संशय रहने लगा कि शंखधर पिता की खोज में कहीं भाग न जाए । वह उसे अकेले कहीं खेलने तक न जाने देती, बाजार भी आना-जाना बंद हो गया। उसने सबको मना कर दिया कि शंखधर के सामने उसके पिता की चर्चा न करें। यह भय किसी भयंकर जंतु की भांति उसे नित्य घूरा करता था कि कहीं शंखधर अपने पिता के गृहत्याग का कारण न जान ले, कहीं वह यह न जान जाए कि बाबूजी को राजपाट से घृणा है, नहीं तो फिर इसे और रोकेगा?
उसे अब हरदम यही पछतावा होता रहता कि मैं शंखधर को लेकर स्वामी के साथ कों न चली गई? राज्य के लोभ में वह पति को पहले ही खो बैठी थी, कहीं पत्र को भी नोकर बैठेगी? सुख और विलास की वस्तुओं से शंखधर की दिन-दिन बढ़ने वाली उदासीनता देख-देखकर वह चिंता के मारे और भी घुली जाती थी।
अड़तीस
ठाकुर हरिसेवकसिंह का क्रिया-कर्म हो जाने के बाद एक दिन लौंगी ने अपना कपड़ा-लत्ता बांधना शुरू किया। उसके पास रुपए-पैसे जो कुछ थे, सब गुरुसेवक को सौंपकर बोली-भैया, अब किसी गांव में जाकर रहूँगी, यहां मुझसे नहीं रहा जाता।
वास्तव में लौंगी से अब इस घर में न रहा जाता था। घर की एक-एक चीज उसे काटने दौड़ती थी। पचीस वर्ष तक वह घर की स्वामिनी बने रहने के बाद अब वह किसी की आश्रिता न बन सकती थी। सब कुछ उसी के हाथों का किया हुआ था, पर अब उसका न था। वह घर उसी ने बनवाया था। उसने घर बनवाने पर जोर न दिया होता, तो ठाकुर साहब अभी तक किसी किराए के घर में पड़े होते। घर का सारा सामान उसी का खरीदा हुआ था, पर अब उसका कुछ न था। सब कुछ स्वामी के साथ चला गया। वैधव्य के शोक के साथ यह भाव कि मैं किसी दूसरे की रोटियों पर पड़ी हूँ, उसके लिए असह्य था। हालांकि गुरुसेवक पहले से अब कहीं ज्यादा उसका लिहाज करते थे और कोई ऐसी बात न होने देते थे, जिससे उसे रंज हो। फिर भी कभी-कभी ऐसी बातें हो ही जाती थीं, जो उसकी पराधीनता की याद दिला देती थीं। कोई नौकर अब उससे अपनी तलब मांगने न आता था, रियासत के कर्मचारी अब उसकी खुशामद करने न आते थे। गुरुसेवक और उसकी स्त्री के व्यवहार में तो किसी तरह की त्रुटि न थी।
लौंगी को उन लोगों से जैसी आशा था, उससे कहीं अच्छा बर्ताव उसके साथ किया जाता था, लेकिन महरियां अब खड़ी जिसका मुंह जोहती हैं, वह कोई और ही है, नौकर जिसका हुक्म सुनते ही दौड़कर आते हैं, वह भी और ही कोई है। देहात के असामी नजराने या लगान के रुपए अब उसके हाथ में नहीं देते, शहर की दुकानों के किरायेदार भी अब उसे किराया देने नहीं आते। गुरुसेवक ने अपने मुंह से किसी से कुछ नहीं कहा। प्रथा और रुचि ने आप ही आप सारी व्यवस्था उलट-पलट कर दी है। पर ये ही वे बातें हैं, जिनसे उसके आहत हृदय को ठेस लगती है और उसकी मधुर स्मृतियों में एक क्षण के लिए ग्लानि की छाया आ पड़ती है। इसलिए अब वह यहां से जाकर किसी देहात में रहना चाहती है। आखिर जब ठाकुर साहब ने उसके नाम कुछ नहीं लिखा, उसे दूध की मक्खी की भांति निकालकर फेंक दिया, तो वह यहां क्यों पड़ी दूसरों का मुंह जोहे? उसे अब एक टूटे-फूटे झोंपड़े और एक टुकड़े रोटी के सिवा और कुछ नहीं चाहिए। इसके लिए वह अपने हाथों से मेहनत कर सकती है। जहां रहेगी, वह अपने गुजर भर को कमा लेगी। उसने जो कुछ किया, यह उसी का तो फल है। वह अपनी झोंपडी में पड़ी रहती, तो आज क्यों यह अनादर और अपमान होता? झोंपड़ी छोड़कर महल के सुख भोगने का ही यह दंड है।
गुरुसेवक ने कहा–आखिर सुनें तो, कहाँ जाने का विचार कर रही हो?
लौंगी–जहां भगवान् ले जाएंगे, वहां चली जाऊंगी, कोई नैहर या दूसरी ससुराल है, जिसका नाम बता दूं?
गुरुसेवक–सोचती हो, तुम चली जाओगी, तो मेरी कितनी बदनामी होगी? दुनिया यही कहेगी कि इनसे एक बेवा का पालन न हो सका। उसे घर से निकाल दिया। मेरे लिए कहीं मुंह दिखाने की जगह न रहेगी। तुम्हें इस घर में जो शिकायत हो, वह मुझसे कहो, जिस बात की जरूरत हो, मूझसे बतला दो। अगर मेरी तरफ से उसमें जरा भी कोर-कसर देखो, तो फिर तुम्हें अख्तियार है, जो चाहे करना। यों मैं कभी न जाने दूंगा।
लौंगी–क्या बांधकर रखोगे?
गुरुसेवक–हां, बांधकर रखेंगे।
अगर उम्रभर में लौंगी को गुरुसेवक की कोई बात पसंद आई, तो उनका यही दुराग्रहपूर्ण वाक्य था। लौंगी का हृदय पुलकित हो गया। इस वाक्य में उसे आत्मीयता भरी हुई जान पड़ी। उसने जरा तेज होकर कहा–बांधकर क्यों रखोगे? क्या तुम्हारी बेसाही हूँ?
गुरुसेवक–हां, बेसाही हो ! मैंने नहीं बेसाहा, मेरे बाप ने तो बेसाहा है। बेसाही न होतीं, तो तुम तीस साल यहां रहतीं कैसे? कोई और आकर क्यों न रह गई? दादाजी चाहते, तो एक दर्जन ब्याह कर सकते थे, कौड़ियों रखेलियां रख सकते थे। यह सब उन्होंने क्यों नहीं किया? जिस वक्त मेरी माता का स्वर्गवास हुआ, उस वक्त उनकी जवानी की उम्र थी, मगर उनका कट्टर से कट्टर शत्रु भी आज यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि उनके आचरण खराब थे। यह तुम्हारी ही सेवा की जंजीर थी, जिसने उन्हें बांध रखा, नहीं तो आज हम लोगों का कहीं पता न होता। मैं सत्य कहता हूँ, अगर तुमने घर के बाहर कदम निकाला, तो चाहे दुनिया मुझे बदनाम ही करे, मैं तुम्हारे पैर तोड़कर रख दूंगा। क्या तुम अपने मन की हो कि जो चाहोगी, करोगी और जहां चाहोगी, जाओगी और कोई न बोलेगा? तुम्हारे नाम के साथ मेरी और मेरे पूज्य बाप की इज्जत बंधी हुई है।
लौंगी के जी में आया कि गुरुसेवक के चरणों पर सिर रखकर रोऊं और छाती से लगाकर कहूँ–बेटा, मैंने तो तुझे गोद में खिलाया है, तुझे छोड़कर भला मैं कहाँ जा सकती हूँ! लेकिन उसने क्रुद्ध भाव से कहा-यह तो अच्छी दिल्लगी हुई। यह मुझे बांधकर रखेंगे !
गुरुसेवक तो झल्लाए हुए बाहर चले गए और लौंगी अपने कमरे में जाकर खूब रोई। गुरुसेवक क्या किसी महरी से कह सकते थे-हम तुम्हें बांधकर रखेंगे? कभी नहीं, लेकिन अपनी स्त्री से वह यह बात कह सकते हैं, क्योंकि उसके साथ उनकी इज्जत बंधी हुई है। थोड़ी देर के बाद वह उठकर एक महरी से बोली-सुनती है रे, मेरे सिर में दर्द हो रहा है। जरा आकर दबा दे।
आज कई महीने के बाद लौंगी ने सिर दबाने का हुक्म दिया था। इधर उसे किसी से कुछ कहते हुए संकोच होता था कि कहीं टाल न जाए । नौकरों के दिल में उसके प्रति वही श्रद्धा थी, जो पहले थी। लौंगी ने स्वयं उनसे कुछ काम लेना छोड़ दिया था। इन झगड़ों की भनक भी नौकरों के कानों में पड़ गई थी। उन्होंने अनुमान किया था कि गुरुसेवक ने लौंगी को किसी बात पर डांटा है, इसलिए स्वभावतः उनकी सहानुभूति लौंगी के साथ हो गई थी। वे आपस में इस विषय पर मनमानी टिप्पणियां कर रहे थे। महरी उसका हुक्म सुनते ही तेल लाकर उसका सिर दबाने लगी। उसे अपने मनोभावों को प्रकट करने के लिए यह अवसर बहुत ही उपयुक्त जान पडा। बोली-आज छोटे बाब किस बात पर बिगड़ रहे थे, मालकिन? कमरे के बाहर सुनाई दे रहा था। तुम यहां से चली गईं मालकिन, तो एक नौकर भी न रहेगा। सबों ने सोच लिया है कि जिस दिन मालकिन यहां से चली जाएंगी, हम सब भी भाग खड़े होंगे। अन्याय हम लोगों से नहीं देखा जाता।
लौंगी ने दीन-भाव से कहा–नसीब ही खोटा है, नहीं तो क्यों किसी की झिड़कियां सुननी पड़ती?
महरी–नहीं मालकिन, नसीबों को न खोटा कहो। नसीब तो जैसा तुम्हारा है, वैसा किसी का क्या होगा ! ठाकुर साहब मरते दम तक तुम्हारा नाम रटा किए। तुम क्यों जाती हो! किसी की मजाल क्या है कि तुमसे कुछ कह सके? यह सारी संपदा तो तुम्हारी जोड़ी हुई है। इसे कौन ले सकता है? ठाकुर साहब को जो तुमसे सुख मिला, वह क्या किसी ब्याहता से मिल सकता था?
सहसा मनोरमा ने कमरे में प्रवेश किया और लौंगी को सिर में तेल डलवाते देखकर बोली–कैसा जी है, अम्मां ! सिर में दर्द है क्या?
लौंगी–नहीं बेटा, जी तो अच्छा है। आओ, बैठो।
मनोरमा ने महरी से कहा–तुम जाओ, मैं दबाए देती हूँ। दरवाजे पर खड़ी होकर कुछ सुनना नहीं, दूर चली जाना।
महरी इस समय यहां की बातें सुनने के लिए अपना सर्वस्व दे सकती थी, यह हुक्म सुनकर मन में मनोरमा को कोसती हुई चली गई। मनोरमा सिर दबाने बैठी, तो लौंगी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-नहीं बेटा, तुम रहने दो। दर्द नहीं था, यों ही बुला लिया था। नहीं, मैं न दबवाऊंगी। यह उचित नहीं है। कोई देखे तो कहे कि बुढ़िया पगला गई है, रानी से सिर दबवाती है।
मनोरमा ने सिर दबाते हुए कहा–रानी जहां हूँ, वहां हूँ, यहां तो तुम्हारी गोद की खिलाई नोरा हूँ। आज तो भैयाजी यहां से जाकर तुम्हारे ऊपर बहुत बिगड़ते रहे। मैं उसकी टांग तोड़ दूंगा, गर्दन काट लूंगा। कितना पूछा, कुछ बताओ तो, बात क्या है? पर गुस्से में कुछ सुनें ही न। भाई हैं तो क्या, पर उनका अन्याय मुझसे भी नहीं देखा जाता। वह समझते होंगे कि इस घर का मालिक हूँ, दादाजी मेरे नाम सब छोड़ गए हैं। मैं जिसे चाहूँ, रखू, जिसे चाहूँ, निकालूं। मगर दादाजी उनकी नीयत को पहले ही ताड़ गए थे। मैंने अब तक तुमसे नहीं कहा अम्मांजी, कुछ तो मौका न मिला और कुछ भैया का लिहाज था, पर आज उनकी बातें सुनकर कहती हूँ कि पिताजी ने अपनी सारी जायदाद तुम्हारे नाम लिख दी है।
लौंगी पर इस सूचना का जरा भी असर न हुआ। किसी प्रकार का उल्लास, उत्सुकता या गर्व उसके चेहरे पर न दिखाई दिया। वह उदासीन भाव से चारपाई पर पड़ी रही।
मनोरमा ने फिर कहा–मेरे पास उनकी लिखाई हुई वसीयत रखी हुई है और मुझी को उन्होंने उसका साक्षी बनाया है। जब यह महाशय वसीयत देखेंगे, तो आंखें खुलेंगी।
लौंगी ने गंभीर स्वर में कहा–नोरा, यह वसीयतनामा ले जाकर उन्हीं को दे दो। तुम्हारे दादाजी ने व्यर्थ ही वसीयत लिखाई। मैं उनकी जायदाद की भूखी न थी। उनके प्रेम की भूखी थी। और ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ, बेटी, कि इस विषय में मेरा जैसा भाग्य बहुत कम स्त्रियों का होगा। मैं उनका प्रेम-धन पाकर ही संतुष्ट हूँ। इसके सिवा अब मुझे और किसी धन की इच्छा नहीं है। अगर मैं अपने सत पर हूँ, तो मुझे रोटी-कपड़े का कष्ट कभी न होगा। गुरुसेवक को मैंने गोद में खिलाया है, उसे पाला-पोसा है। वह मेरे स्वामी का बेटा है। उसका हक मैं किस तरह छीन सकती हूँ? उसके सामने की थाली कैसे खींच सकती हूँ? वह कागज फाड़कर फेंक दो। यह कागज लिखकर उन्होंने अपने साथ और गुरुसेवक के साथ अन्याय किया है। गुरुसेवक अपने बाप का बेटा है, तो मुझे उसी आदर से रखेगा। वह मुझे माने या न माने, मैं उसे अपना ही समझती हूँ। तुम सिरहाने बैठी मेरा सिर दबा रही हो, क्या धन में इतना सुख कभी मिल सकता है। गुरुसेवक के मुंह से ‘अम्मां’ सुनकर मुझे वह खुशी होगी, जो संसार की रानी बनकर भी नहीं हो सकती, तुम उनसे इतना ही कह देना।
यह कहते-कहते लौंगी की आंखें सजल हो गईं। मनोरमा उसकी ओर प्रेम, श्रद्धा, गर्व और आश्चर्य से ताक रही थी, मानो वह कोई देवी हो।
उनतालीस
रानी वसुमती बहुत दिनों से स्नान, व्रत, ध्यान तथा कीर्तन में मग्न रहती थीं, रियासत से उन्हें कोई सरोकार ही न था। भक्ति ने उनकी वासनाओं को शांत कर दिया था। बहुत सूक्ष्म आहार करती और वह भी केवल एक बार। वस्त्राभूषण से भी उन्हें विशेष रुचि न थी। देखने से मालूम होता था कि कोई तपस्विनी हैं। रानी रामप्रिया उसी एक रस पर चली जाती थीं। इधर उन्हें संगीत से विशेष अनुराग हो गया था। सबसे अलग अपनी कविता कुटीर में बैठी संगीत का अभ्यास करती रहती थीं। पुराने सिक्के, देश-देशांतरों के टिकट और इसी तरह की अनोखी चीजों का संग्रह करने की उन्हें धुन थी। उनका कमरा एक छोटा-मोटा अजाएबखाना था। उन्होंने शुरू ही से अपने को दुनिया के झमेलों से अलग रखा था। इधर कुछ दिनों से रानी रोहिणी का चित्त भी भक्ति की ओर झुका हुआ नजर आता था। वही, जो पहले ईर्ष्या की अग्नि में जला करती थी, अब वह साक्षात् क्षमा और दया की देवी बन गई थी। अहिल्या से उसे बहुत प्रेम था, कभी-कभी आकर घंटों बैठी रहती। शंखधर भी उससे बहुत हिल गया था। राजा साहब तो उसी के दास थे, जो शंखधर को प्यार करे। रोहिणी ने शंखधर को गोद में खिला-खिलाकर उनका मनोमालिन्य मिटा दिया। एक दिन रोहिणी ने शंखधर को एक सोने की घड़ी इनाम दी। शंखधर को पहली बार इनाम का मजा मिला, फूला न समाया, लेकिन मनोरमा अभी तक रोहिणी से चौंकती रहती थी। वह कुछ साफसाफ तो न कह सकती थी, पर शंखधर का रोहिणी के पास आना-जाना उसे अच्छा न लगता था।
जिस दिन मनोरमा अपने पिता की वसीयत लेकर लौंगी के पास गई थी, उसी दिन की बात है-संध्या का समय था। राजा साहब पाईबाग में हौज के किनारे बैठे मछलियों को आटे की गोलियां खिला रहे थे। एकाएक पांव की आहट पाकर सिर उठाया तो देखा, रोहिणी आकर खड़ी हो गई है। आज रोहिणी को देखकर राजा साहब को बड़ी करुणा आई ! वह नैराश्य और वेदना की सजीव मूर्ति-सी दिखाई देती थी, मानो कह रही थी-तुमने मुझे क्यों यह दंड दे रखा है? मेरा क्या अपराध है? क्या ईश्वर ने मुझे संतान न दी, तो इसमें मेरा कोई दोष था? तुम अपने भाग्य का बदला मुझसे लेना चाहते हो? अगर मैंने कटु वचन ही कहे थे, तो क्या उसका यह दंड था?
राजा साहब ने कातर स्वर में पूछा–कैसे चली रोहिणी? आओ, यहां बैठो।
रोहिणी–आपको यहां बैठे देखा, चली आई। मेरा आना बुरा लगा हो, तो चली जाऊं?
राजा साहब ने व्यथित कंठ से कहा–रोहिणी, क्यों लज्जित करती हो? मैं तो स्वयं लज्जित हूँ। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है और नहीं जानता, मुझे उसका क्या प्रायश्चित्त करना पड़ेगा।
रोहिणी ने सूखी हंसी हंसकर कहा–आपने मेरे साथ कोई अन्याय नहीं किया। आपने वही किया, जो सभी पुरुष करते हैं। और लोग छिपे-छिपे करते हैं, राजा लोग वही काम खुले-खुले करते हैं। स्त्री कभी पुरुषों का खिलौना है, कभी उनके पांव की जूती। इन्हीं दो अवस्थाओं में उसकी उम्र बीत जाती है। यह आपका दोष नहीं, हम स्त्रियों को ईश्वर ने इसीलिए बनाया ही है। हमें यह सब चुपचाप सहना चाहिए। गिला या मान करने का दंड बहुत कठोर होता है और विरोध करना तो जीवन का सर्वनाश करना है।
यह व्यंग्य न था, बल्कि रोहिणी की दशा की सच्ची व निष्पक्ष आलोचना थी। राजा साहब सिर झुकाए सुनते रहे। उनके मुंह से कोई जवाब न निकला। उनकी दशा उसी शराबी की-सी थी, जिसने नशे में तो हत्या कर डाली हो किंतु अब होश में आने पर लाश को देखकर पश्चात्ताप और वेदना से उसका हृदय फटा जाता हो।
रोहिणी फिर बोली-आज सोलह वर्ष हुए, जब मैं रूठकर घर से बाहर निकल भागी थी। बाबू चक्रधर के आग्रह से लौट आई। वह दिन है और आज का दिन है, कभी आपने भूलकर भी पूछा कि तू मरती है या जीती? इससे तो यह कहीं अच्छा होता कि आपने मुझे चले जाने दिया होता। क्या आप समझते हैं कि मैं कुमार्ग की ओर जाती? यह कुलटाओं का काम है। मैं गंगा की गोद के सिवा और कहीं न जाती। एक युग तक घोर मानसिक पीड़ा सहने से तो एक क्षण का कष्ट कहीं अच्छा होता, लेकिन आशा ! हाय आशा ! इसका बुरा हो। यही मुझे लौटा लाई। चक्रधर का तो केवल बहाना था। यही अभागिन आशा मुझे लौटा लाई और इसी ने मुझे फुसला-फुसलाकर एक युग कटवा दिया, लेकिन आपको कभी मुझ पर दया न आई। आपको कुछ खबर है, यह सोलह वर्ष के दिन मैंने कैसे काटे हैं? किसी को संगीत में आनंद मिलता हो, मुझे नहीं मिलता। किसी को पूजा-भक्ति में संतोष होता हो, मुझे नहीं होता। मैं नैराश्य की उस सीमा तक नहीं पहुंची। मैं पुरुष के रहते वैधव्य की कल्पना नहीं कर सकती। मन की गति तो विचित्र है। वही पीड़ा, जो बाल-विधवा सहती है और सहने में अपना गौरव समझती है, परित्यक्ता के लिए असह्य हो जाती है। मैं राजपूत की बेटी हूँ, मरना भी जानती हूँ। कितनी बार मैंने आत्मघात करने का निश्चय किया, वह आप न जानेंगे। लेकिन हर दफे यही सोचकर रुक गई कि मर जाने से तो आप और भी सुखी होंगे। अगर यह विश्वास होता कि आप मेरी लाश पर आकर आंसू की चार बूंदें गिरा देंगे, तो शायद मैं कभी की प्रस्थान कर चुकी होती। मैं इतनी उदार नहीं। मैंने हिंसात्मक भावों को मन से निकालने की कितनी चेष्टा की है, यह भी आप न जानेंगे, लेकिन अपनी सीताओं की दुर्दशा ही ने मुझे धैर्य दिया है, नहीं तो अब तक मैं न जाने क्या कर बैठती ! ईर्ष्या से उन्मत्त स्त्री जो कुछ कर सकती है, उसकी अभी आप शायद कल्पना नहीं कर सकते, अगर सीता भी अपनी आंख से वह सब देखती, जो मैं आज सोलह वर्ष से देख रही हूँ, तो सीता न रहतीं। सीता बनाने के लिए राम जैसा पुरुष चाहिए।
राजा साहब ने अनुताप से कंपित स्वर में कहा–रोहिणी, क्या सारा अपराध मेरा ही है? रोहिणी–नहीं, आपका कोई अपराध नहीं है, सारा अपराध मेरे ही कर्मों का है। वह स्त्री सचमुच पिशाचिनी है, जो अपने पुरुष का अनभल सोचे। मुझे आपका अनभल सोचते हुए सोलह वर्ष हो गए। मेरी हार्दिक इच्छा यह रही कि आपका बुरा हो और मैं देखूं, लेकिन इसलिए नहीं कि आपको दुःखी देखकर मुझे आनंद होता है। नहीं, अभी मेरा इतना अध:पतन नहीं हुआ। मैं आपका अनभल केवल इसीलिए चाहती थी कि आपकी आंखें खुलें, आप खोटे और खरे को पहचानें। शायद तब आपको मेरी याद आती, शायद तब मुझे अपना खोया हुआ स्थान पाने का अवसर मिलता। तब मैं सिद्ध कर देती कि आप मुझे जितनी नीच समझ रहे हैं, उतनी नीच नहीं हूँ। मैं आपको अपनी सेवा से लज्जित करना चाहती थी, लेकिन वह अवसर भी न मिला।
राजा साहब को नारी-हृदय की तह तक पहुँचने का ऐसा अवसर कभी न मिला था। उन्हें विश्वास था कि अगर मैं मर जाऊं, तो रोहिणी की आंखों में आंसू न आएंगे। वह अपने हृदय से उसके हृदय को परखते। उनका हृदय रोहिणी की ओर से वज्र हो गया था। वह अगर मर जाता, तो निस्संदेह उनकी आंखों से आंसू न आते, पर आज रोहिणी की बातें सुनकर उनका पत्थर-सा हृदय नरम पड़ गया। आह ! इस हिंसा में कितनी कोमलता है ! मुझे परास्त भी करना चाहती है, तो सेवा के अस्त्र से। इससे तीक्ष्ण उसके पास कोई अस्त्र नहीं !
उन्होंने गद्गद कंठ से कहा–क्या कहूँ रोहिणी, अगर मैं जानता कि मेरे अनभल ही से तुम्हारा उद्धार होगा, तो इसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करता।
अहिल्या को आते देखकर रोहिणी ने कुछ उत्तर न दिया। जरा देर वहां खड़ी रहकर दूसरी तरफ चली गई। राजा साहब के दिल पर से एक बोझा-सा उठ गया। उन्हें अपनी निष्ठुरता पर पछतावा हो रहा था। आज उन्हें मालूम हुआ कि रोहिणी का चरित्र समझने में उनसे कैसी भयंकर भूल हुई। यहां उनसे न रहा गया। जी यही चाहता था कि चलकर रोहिणी से अपना अपराध क्षमा कराऊ। बात क्या थी और मैं क्या समझे बैठा था। यही बातें अगर इसने और पहले कही होती, तो हम दोनों में क्यों इतना मनोमालिन्य रहता? उसके मन की बात तो नहीं जानता, पर मुझसे तो इसने एक बार भी हंसकर बात की होती, एक बार भी मेरा हाथ पकड़कर कहती कि मैं तुम्हें न छोडूंगी, तो मैं कभी उसकी उपेक्षा न कर सकता, लेकिन स्त्री मानिनी होती है, वह मेरी खुशामद क्यों करती? सारा अपराध मेरा है। मुझे उसके पास जाना चाहिए था।
सहसा उनके मन में प्रश्न उठा-आज रोहिणी ने क्यों मुझसे ये बातें कीं? जो काम करने के लिए वह अपने को बीस वर्ष तक राजी न कर सकी, वह आज क्यों किया? इस प्रश्न के साथ ही राजा साहब के मन में शंका होने लगी। आज उसके मुख पर कितनी दीनता थी। बातें करते-करते उसकी आंखें भर-भर आती थीं। उसका कंठ स्वर भी कांप रहा था। उसके मुख पर इतनी दीनता कभी न दिखाई देती थी। उसके मुखमंडल पर तो गर्व की आभा झलकती रहती थी। मुझे देखते ही वह अभिमान से गर्दन उठाकर मुंह फेर लिया करती थी। आज यह कायापलट क्यों हो गया।
राजा साहब ज्यों-ज्यों इस विषय की मीमांसा करते थे, त्यों-त्यों उनकी शंका बढ़ती जाती थी। रात आधी से अधिक बीत गई थी ! रनिवास में सन्नाटा छाया हुआ था। नौकर-चाकर भी सभी सो गए थे, पर उनकी आंखों में नींद न थी। वह शंका उन्हें उद्विग्न कर रही थी।
आखिर राजा साहब से लेटे न रहा गया। वह चारपाई से उठे और आहिस्ता-आहिस्ता रोहिणी के कमरे की ओर चले। उसकी ड्योढ़ी पर चौकीदारिन से भेंट हुई। उन्हें इस समय यहां देखकर वह अवाक रह गई। जिस भवन में इन्होंने बीस वर्ष तक कदम नहीं रखा, उधर आज कैसे भूल पड़े? उसने राजा साहब के मुख की ओर देखा, मानो पूछ रही थी-आप क्या चाहते हैं?
राजा साहब ने पूछा–छोटी रानी क्या कर रही हैं?
चौकीदारिन ने कहा–इस समय तो सरकार सो रही होंगी। महाराज का कोई संदेश हो, तो पहुंचा दूं।
राजा ने कहा–नहीं, मैं खुद जा रहा हूँ, तू यहीं रह।
राजा साहब ने कमरे के द्वार पर खड़े होकर भीतर की ओर झांका। रोहिणी मसहरी के अंदर चादर ओढ़े सो रही थी। वह अंदर कदम रखते हुए झिझके। भय हुआ कि कहीं रोहिणी उठकर कह न बैठे-आप यहां क्यों आए? वह इसी दुविधा में आधे घंटे तक वहां खड़े रहे। कई बार धीरे-धीरे पुकारा भी, पर रोहिणी न मिनकी। इतनी देर में उसने एक बार भी करवट न ली। यहां तक कि उसकी सांस भी न सुनाई दी। ऐसा मालूम हो रहा था कि वह मक्र किए पड़ी है और देख रही है कि राजा साहब क्या करते हैं। शायद परीक्षा ले रही है कि अब भी इनका दिल साफ हुआ या नहीं। गाफिल नींद में पड़े हुए प्राणी की श्वांस-क्रिया इतनी नि:शब्द नहीं हो सकती। जरूर बहाना किए पड़ी हुई है, मेरी आहट पाकर चादर ओढ़ ली होगी। मान के साथ ही इसके स्वभाव में विनोद भी तो बहुत है! पहले भी तो इस तरह की नकलें किया करती थी। मुझे आते देखकर कहीं छिप जाती और जब मैं निराश होकर बाहर जाने लगता, तो हंसती हुई न जाने किधर से निकल आती। उसके चुहल और दिल्लगी की कितनी ही पुरानी बातें राजा साहब को याद आ गईं। उन्होंने साहस करके कमरे में कदम रखा, पर अब भी किसी तरह का शब्द न सुनकर उन्हें खयाल आया, कहीं रोहिणी ने झूठमूठ चादर तो नहीं तान दी। मुझे चक्कर में डालने के लिए चारपाई पर चादर तान दी हो और आप किसी जगह छिपी हो। वह उसके धोखे में नहीं आना चाहते थे। उन्हें एक पुरानी बात याद आ गई, जब रोहिणी ने उनके साथ इसी तरह की दिल्लगी की थी, और यह कहकर उन्हें खूब आड़े हाथों लिया था कि आपकी प्रिया तो वह हैं, जिन्हें आपने जगाया है, मैं आपकी कौन होती हूँ? जाइए, उन्हीं से बोलिए-हंसिए। वह विनोदिनी आज फिर वही अभिनय कर रही है। इस अवसर के लिए कोई चुभती हुई बात गढ़ रखी होगी-बीस बरस के बाद सूरत क्या याद रह सकती है? राजा साहब का साठवां साल था, लेकिन इस वक्त उन्हें इस क्रीड़ा में यौवन काल का-सा आनंद और कुतूहल हो रहा था। वह दिखाना चाहते थे कि वह उसका कौशल ताड़ गए, वह उन्हें धोखा न दे सकेगी। लेकिन जब लगभग आधे घंटे तक खड़े रहने पर भी कोई आवाज या आहट न मिली, तो उन्होंने चारों तरफ चौकन्नी आंखों से देखकर धीरे-से चादर हटा दी। रोहिणी सोई हुई थी, लेकिन जब झुककर उसके मुख की ओर देखा, तो चौंककर पीछे हट गए। वह रोहिणी न थी, रोहिणी का शव था। बीस वर्ष की चिंता, दु:ख, ईर्ष्या और नैराश्य के संताप से जर्जर शरीर आत्मा के रहने योग्य कब रह सकता था ! उन निर्जीव, स्थिर, अनिमेष नेत्रों में अभी भी अतृप्त आकांक्षा झलक रही थी। उनमें तिरस्कार था, व्यंग्य था, गर्व था। दोनों ज्योतिहीन आंखें परित्यक्ता के जीवन की ज्वलंत आलोचनाएं थीं। जीवन की सारी व्यथाएं उनमें सार रूप से व्यक्त हो रही थीं। वे तीक्ष्ण बाणों के समान राजा साहब के हृदय में चुभी जा रही थीं, मानो कह रही थीं-अब तो तुम्हारा कलेजा ठंडा हुआ। अब मीठी नींद सोओ, मुझे परवा नहीं है।
राजा साहब ने दोनों आंखें बंद कर ली और रोने लगे। उनकी आत्मा इस अमानुषीय निष्ठुरता पर उन्हें धिक्कार रही थी। किसी प्राणी के प्रति अपने कर्त्तव्य का ध्यान हमें उसके मरने के बाद ही आता है-हाय ! हमने इसके साथ कुछ न किया! हमने इसे उम्र भर जलाया, रुलाया, बेधा। हाय! यह मेरी रानी, जिस पर एक दिन मैं अपने प्राण न्यौछावर करता था, इस दीन दशा में पड़ी हुई है, न कोई आगे, न पीछे ! कोई एक घूंट पानी देने वाला न था। कोई मरते समय परितोष देने वाला भी न था। राजा साहब को ज्ञात हुआ कि रोहिणी आज क्यों उनके पास गई थी ! वह मुझे सूचना दे रही थी, लेकिन बुद्धि पर पत्थर पड़ गया था। उस समय भी मैं कुछ न समझा। आह ! अगर उस वक्त उसका आशय समझ जाता, तो यह नौबत क्यों आती? उस वक्त भी यदि मैंने एक बार शुद्ध हृदय से कहा होता-प्रिये, मेरा अपराध क्षमा करो, तो इसके प्राण बच जाते। अंतिम समय वह मेरे पास क्षमा का संदेश ले गई थी और मैं कुछ न समझा ! आशा का अंतिम आदेश उसे मेरे पास ले गया; पर शोक !
सहसा राजा को खयाल आया शायद अभी प्राण बच जाएं। उन्होंने चौकीदारिन को पुकारा और बोले-जरा जाकर दरबान से कह दे, डॉक्टर साहब को बुला लाए। इनकी दशा अच्छी नहीं है। चौकीदारिन रानी देवप्रिया के समय की स्त्री थी। रोहिणी के मुख की ओर देखकर बोली-डॉक्टर को बुलाकर क्या कीजिएगा? अगर अभी कुछ कसर रह गई हो, तो वह भी पूरी कर दीजिए। अभागिनी
मरजाद ढोती रह गई! उसके ऊपर क्या बीती, तुम क्या जानोगे? तुम तो बुढ़ापे में विवाह करके बुद्धि और लज्जा दोनों ही खो बैठे। उसके ऊपर जो बीती, वह मैं जानती हूँ। हाय ! रक्त के आंसू
रो-रोकर बेचारी मर गई और तुम्हें दया न आई? क्या समझते हो, इसने विष खा लिया? इस ढांचे से प्राण को निकालने के लिए विष का क्या काम था? उसके मरने का आश्चर्य नहीं, आश्चर्य यह है कि वह इतने दिन जीती कैसे रही ! खैर, जीते-जी जो अभिलाषा न पूरी की, वह मरने पर तो पूरी कर दी। इतनी ही दया अगर पहले की होती, तो इसके लिए वह अमृत हो जाती !
दम-के-दम में रनिवास में शोर मच गया और रानियां-बांदियां सब आकर जमा हो गईं। मगर मनोरमा न आई।
चालीस
रोहिणी के बाद राजा जगदीशपुर न रह सके। मनोरमा का भी जी वहां घबराने लगा। उसी के कारण मनोरमा को वहां रहना पड़ता था। जब वही न रही, तो किस पर रीस करती? उसे अब दुःख होता था कि मैं नाहक यहां आई। रोहिणी के कटु वाक्य सह लेती, तो आज उस बेचारी की जान पर क्यों बनती? मनोरमा इस ग्लानि को मन से न निकाल सकती थी कि मैं ही रोहिणी की अकाल मृत्यु का हेतु हुई। राजा साहब की निगाह भी अब उसकी ओर से फिरी हुई मालूम होती थी। अब खजांची उतनी तत्परता से उसकी फरमाइशें नहीं पूरी करता। राजा साहब भी अब उसके पास बहुत कम आते हैं। यहां तक कि गुरुसेवक सिंह को भी जवाब दे दिया है, और उन्हें रनिवास में आने की मनाही कर दी गई है। रोहिणी ने प्राण देकर मनोरमा पर विजय पाई है। अब वसुमती और रामप्रिया पर राजा साहब की कुछ विशेष कृपा हो गई है। दूसरे-तीसरे दिन जगदीशपुर चले जाते हैं और कभी-कभी दिन का भोजन भी यहीं करते हैं। वह अब अपने पापों का प्रायश्चित्त कर रहे हैं। रियासत में अब अंधेर भी ज्यादा होने लगा है। मनोरमा की खोली हुई शालाएं बंद होती जा रही हैं। मनोरमा सब देखती है और समझती है, पर मुंह नहीं खोल सकती। उसके सौभाग्य-सूर्य का पतन हो रहा है। वही राजा साहब, जो उससे बिना कहे, सैर करने भी न जाते थे, अब हफ्तों उसकी तरफ झांकते तक नहीं। नौकरों-चाकरों पर भी अब उसका प्रभाव नहीं रहा। वे उसकी बातों की परवाह नहीं करते। इन गंवारों को हवा का रुख पहचानते देर नहीं लगती। रोहिणी का आत्म-बलिदान निष्फल नहीं हुआ।
शंखधर को अब एक नई चिंता हो गई। राजा साहब के रूठने से छोटी नानीजी मर गईं। क्या पिताजी के रूठने से अम्मांजी का भी यही हाल होगा? अम्मांजी भी तो दिन-दिन घुलती जाती हैं। जब देखो, तब रोया करती हैं। उसका नाम स्कूल में लिखा दिया है। स्कूल से छुट्टी पाकर वह सीधे लौंगी के पास जाता है और उससे तीर्थयात्रा की बातें पूछता है। यात्री लोग कहाँ ठहरते हैं, क्या खाते हैं। जहां रेलें नहीं हैं, वहां लोग कैसे जाते हैं, चोर तो नहीं मिलते? लौंगी उसके मनोभावों को ताड़ती है, लेकिन इच्छा न होते हुए भी उसे सारी बातें बतानी पड़ती हैं। वह झुंझलाती है, घुड़क बैठती है; लेकिन जब वह किशोर आग्रह करके उसकी गोद में बैठ जाता है, तो उसे दया आ जाती है। छुट्टियों के दिन शंखधर पितृगृह के दर्शन करने अवश्य जाता है। वह घर उसके लिए तीर्थ है, वह भक्त की श्रद्धा और उपासक के प्रेम से उस घर में कदम रखता है और जब तक वहां रहता है उस पर भक्ति-गर्व का नशा-सा छाया रहता है। निर्मला की आंखें उसे देखने से तृप्त ही नहीं होतीं। उसके घर में आते ही प्रकाश-सा फैल जाता है। वस्तुओं की शोभा बढ़ जाती है, दादा और दादी दोनों उसकी बालोत्साह से भरी बातें सुनकर मुग्ध हो जाते हैं, उनके हृदय पुलकित हो उठते हैं। ऐसा जान पड़ता है, मानो चक्रधर स्वयं बालरूप धारण करके उनका मन हरने आ गया है।
एक दिन निर्मला ने कहा–बेटा, तुम यहीं आकर क्यों नहीं रहते? तुम चले जाते हो, तो यह घर काटने दौड़ता है।
शंखधर ने कुछ सोचकर गंभीर भाव से कहा–अम्मांजी तो आती ही नहीं। वह क्यों कभी यहां नहीं आती, दादीजी?
निर्मला–क्या जाने बेटा,मैं उनके मन की बात क्या जानूं? तुम कभी कहते नहीं। आज कहना, देखो क्या कहती हैं।
शंखधर–नहीं दादीजी, वह रोने लगेंगी। जब थोड़े दिनों में मैं गद्दी पर बैठेगा, तो यही मेरा राजभवन होगा। तभी अम्मांजी आएंगी।
निर्मला–जल्दी से बैठो बेटा, हम भी देख लें।
शंखधर–मैं बाबूजी के नाम से एक स्कूल खोलूंगा, देख लेना। उसमें किसी लड़के से फीस न ली जाएगी।
वज्रधर–और हमारे लिए क्या करोगे, बेटा?
शंखधर–आपके लिए अच्छे-अच्छे सितारिए बुलाऊंगा। आप उनका गाना सुना कीजिएगा। आपको गाना किसने सिखाया, दादाजी?
वज्रधर–मैंने तो एक साधु से यह विद्या सीखी, बेटा! बरसों उनकी खिदमत की, तब कहीं जाकर वह प्रसन्न हुए। उन्होंने मुझे ऐसा आशीर्वाद दिया कि थोड़े ही दिनों में मैं गाने-बजाने में पक्का हो गया। तुम भी सीख लो बेटा, मैं बड़े शौक से सिखाऊंगा। राजाओं-महाराजाओं के लिए तो यह विद्या ही है बेटा, वही तो गुणियों का गुण परखकर उनका आदर कर सकते हैं। जिन्हें यह विद्या आ गई, बस, समझ लो कि उन्हें किसी बात की कमी न रहेगी। वह जहां रहेगा, लोग उसे सिर-आंखों पर बिठाएंगे। मैंने तो एक बार इसी विद्या की बदौलत बदरीनाथ की यात्रा की थी। पैदल चलता था। जिस गांव में शाम हो जाती, किसी भले आदमी के द्वार पर चला जाता और दो-चार चीजें सुना देता। बस, मेरे लिए सभी बातों का प्रबंध हो जाता था।
शंखधर ने विस्मित होकर कहा–सच! तब तो मैं जरूर सीलूँगा।
वज्रधर–जरूर सीख लो बेटा! लाओ आज ही से आरंभ कर दूं।
शंखधर को संगीत से स्वाभाविक प्रेम था। ठाकुरद्वारे में जब गाना होता, वह बड़े चाव से सुनता। खुद भी एकांत में बैठा गुनगुनाया करता था। ताल-स्वर का ज्ञान उसे सुनने ही से हो गया था। एक बार भी कोई राग सुन लेता, तो उसे याद हो जाता। योगियों के कितने ही गीत उसे याद थे। खंजरी बजाकर वह सूर, कबीर, मीरा आदि संतों के पद गाया करता था। इस वक्त जो उसने कबीर का एक पद गाया, तो मुंशीजी उसके संगीत-ज्ञान और स्वर-लालित्य पर मुग्ध हो गए। बोले-बेटा, तुम तो बिना सिखाए ही ऐसा गा लेते हो। तुम्हें तो मैं थोड़े ही दिनों में ऐसा बना दूंगा कि अच्छे-अच्छे उस्ताद कानों पर हाथ धरेंगे। आखिर मेरे ही पोते तो हो। बस, तुम मेरे नाम पर एक संगीतालय खोल देना।
शंखधर–जी हां, उसमें यही विद्या सिखाई जाएगी।
निर्मला–अपनी बुढ़िया दादीजी के लिए क्या करोगे, बेटा?
शंखधर–तुम्हारे लिए एक डोली रख दूंगा, जिसे दो कहार ढोएंगे। उसी पर बैठकर तुम नित्य गंगास्नान करने जाना।
निर्मला–मैं डोली पर न बैलूंगी। लोग हंसेंगे कि नहीं, कि राजा साहब की दादी डोली पर बैठी जा रही है।
शंखधर–वाह ! ऐसे आराम की सवारी और कौन होगी?
इस तरह दोनों प्राणियों का मनोरंजन करके जब वह चलने लगा, तो निर्मला द्वार पर खड़ी हो गई, जहां से वह मोटर को दूर तक जाते हुए देखती रहें।
सहसा शंखधर ड्योढ़ी में खड़ा हो गया और बोला-दादीजी, आपसे कुछ मांगना चाहता हूँ।
निर्मला ने विस्मित होकर सजल नेत्रों से उसे देखा और गद्गद होकर बोली–क्या मांगते हो, बेटा?
शंखधर–मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मेरी मनोकामना पूरी हो!
निर्मला ने पोते को कंठ से लगाकर कहा–भैया, मेरा तो रोयां-रोयां तुम्हें आशीर्वाद दिया करता है ! ईश्वर तुम्हारी मनोकामनाएं पूरी करें।
शंखधर ने उनके चरणों पर सिर झुकाया और मोटर पर जा बैठा। निर्मला चौखट पर खड़ी, मोटर कार को निहारती रहीं। मोड़ पर आते ही मोटर तो आंखों से ओझल हो गई, लेकिन उस समय तक वहां से न हटीं, जब तक उसकी ध्वनि क्षीण होते-होते आकाश में विलीन न हो गई। अंतिम ध्वनि इस तरह कान में आई, मानो अनंत की सीमा पर बैठे किसी प्राणी के अंतिम शब्द हों। जब यह आधार भी न रह गया, तो निर्मला रोती हुई अंदर चली गईं।
शंखधर घर पहुंचा, तो अहिल्या ने पूछा–आज इतनी देर कहाँ लगाई, बेटा? मैं कब से तुम्हारी राह देख रही हूँ।
शंखधर–अभी तो ऐसी बहुत देर नहीं हुई, अम्मां! जरा दादीजी के पास चला गया था। उन्होंने तुम्हें आज एक संदेशा कहला भेजा है।
अहिल्या–क्या संदेशा है, सुनूं? कुछ तुम्हारे बाबूजी की खबर तो नहीं मिली है?
शंखधर–नहीं! बाबूजी की खबर नहीं मिली। तुम कभी-कभी वहां क्यों नहीं चली जातीं? अहिल्या–क्या इस विषय में कुछ कहती थीं?
शंखधर–कहती तो नहीं थीं, पर उनकी इच्छा ऐसी मालूम होती है। क्या इसमें कोई हर्ज है?
अहिल्या ने ऊपरी मन से यह तो कह दिया-हर्ज तो कुछ नहीं, हर्ज क्या है, घर तो मेरा वही है, यहां तो मेहमान हूँ, लेकिन भाव से साफ मालूम होता था कि वह वहां जाना उचित नहीं समझती। शायद वह कह सकती, तो कहती-वहां से तो एक बार निकाल दी गई, अब कौन मुंह लेकर जाऊं? क्या अब मैं कोई दूसरी हो गई हूँ? बालक से यह बात कहनी मुनासिब न थी।
अहिल्या तश्तरी में मिठाइयां और मेवे लाई और एक लौंडी से पानी लाने को कहकर बेटे से बोली-वहां तो कुछ जलपान न किया होगा, खा लो। आज तुम इतने उदास क्यों हो?
शंखधर ने तश्तरी की ओर बिना देखे ही कहा–इस वक्त तो खाने का जी नहीं चाहता, अम्मां !
एक क्षण के बाद उसने कहा–क्यों अम्मांजी, बाबूजी को हम लोगों की याद भी कभी आती होगी?
अहिल्या ने सजल नेत्र होकर कहा–क्या जाने बेटा, याद आती तो काले कोसों बैठे रहते। शंखधर–क्या वह बड़े निष्ठुर हैं, अम्मां? अहिल्या रो रही थी, कुछ न बोल सकी।
शंखधर–मुझे देखें, तो पहचान जाएं कि नहीं, अम्मांजी? अहिल्या फिर भी कुछ न बोली-उसका कंठ-स्वर अश्रुप्रवाह में डूबा जा रहा था।
शंखधर ने फिर कहा–मुझे तो मालूम होता है अम्मांजी, कि वह बहुत ही निर्दयी हैं, इसी से उन्हें हम लोगों का दुःख नहीं जान पड़ा। अगर वह भी इसी तरह रोते, तो जरूर आते। मुझे एक दफा मिल जाते, तो मैं उन्हें कायल कर देता। आप न जाने कहाँ बैठे हैं, किसी का क्या हाल हो रहा है, इसकी सुधि ही नहीं। मेरा तो कभी-कभी ऐसा चित्त होता है कि देखू तो प्रणाम तक न करूं, कह दूं-आप मेरे होते कौन हैं, आप ही ने तो हम लोगों को त्याग दिया है।
अब अहिल्या चुप न रह सकी, कांपते हुए स्वर में बोली–बेटा, उन्होंने हमें त्याग नहीं दिया है। वहां उनकी जो दशा हो रही होगी, उसे मैं ही जानती हूँ। हम लोगों की याद एक क्षण के लिए भी उनके चित्त से न उतरती होगी। खाने-पीने का ध्यान भी न रहता होगा। हाय ! यह सब मेरा ही दोष है, बेटा ! उनका कोई दोष नहीं।
शंखधर ने कुछ लज्जित होकर कहा–अच्छा अम्मांजी, यदि मुझे देखें, तो वह पहचान जाएं कि नहीं?
अहिल्या–तुझे? मैं तो जानती हूँ, न पहचान सकें। तब तू बिल्कुल जरा-सा बच्चा था। आज उनको गए दसवां साल है। न जाने कैसे होंगे। मैं तो तुम्हें देख-देखकर जीती हूँ, वह किसको देखकर दिल को ढाढ़स देते होंगे। भगवान् करें, जहां रहें, कुशल से रहें। बदा होगा, तो कभी भेंट हो ही जाएगी।
शंखधर अपनी ही धुन में मस्त था, उसने यह बातें सुनी ही नहीं। बोला-लेकिन अम्मांजी, मैं तो उन्हें देखकर फौरन पहचान जाऊं। वह जाने किसी भेष में हों, मैं पहचान लूंगा।
अहिल्या–नहीं बेटा, तुम भी उन्हें न पहचान सकोगे। तुमने उनकी तस्वीरें ही देखी हैं। ये तस्वीरें बारह साल पहले की हैं। फिर उन्होंने केश भी बढ़ा लिए होंगे।
शंखधर ने कुछ जवाब न दिया। बगीचे में जाकर दीवारों को देखता रहा। फिर अपने कमरे में आया और चुपचाप बैठकर सोचने लगा। उसका मन भक्ति और उल्लास से भरा हुआ था। क्या मैं ऐसा बहुत छोटा हूँ? मेरा तेरहवां साल है। छोटा नहीं हूँ। इसी उम्र में कितने ही आदमियों ने बड़े-बड़े काम कर डाले हैं। मुझे करना ही क्या है? दिन भर गलियों में घूमना और संध्या समय कहीं पड़ रहना। यहां लोगों की क्या दशा होगी, इसकी उसे चिंता न थी। राजा साहब पागल हो जाएंगे, मनोरमा रोते-रोते अंधी हो जाएगी, अहिल्या शायद प्राण देने पर उतारू हो जाए , इसकी उसे इस वक्त बिल्कुल फिक्र न थी। वह यहां से भाग निकलने के लिए विकल हो रहा था।
एकाएक उसे खयाल आया, ऐसा न हो कि लोग मेरी तलाश में निकलें, थाने में हुलिया लिखाएं, खुद भी परेशान हों, मुझे भी परेशान करें, इसीलिए उन्हें इतना बतला देना चाहिए कि मैं कहाँ और किस काम के लिए जा रहा हूँ। अगर किसी ने मुझे जबरदस्ती लाना चाहा, तो अच्छा न होगा। हमारी खुशी है, जब चाहेंगे आएंगे, हमारा राज्य तो कोई नहीं उठा ले जाएगा। उसने एक कागज पर यह पत्र लिखा और अपने बिस्तरे पर रख दिया–
‘सबको प्रणाम्, मेरा कहा–सुना माफ कीजिएगा। मैं आज अपनी खुशी से पिताजी को खोजने जाता हूँ। आप लोग मेरे लिए जरा भी चिंता न कीजिएगा, न मुझे खोजने के लिए ही आइएगा, क्योंकि मैं किसी भी हालत में बिना पिताजी का पता लगाए न आऊंगा। जब तक एक बार दर्शन न कर लूं और पूछ न लूं कि मुझे किस तरह से जिंदगी बसर करनी चाहिए, तब तक मेरा जीना व्यर्थ है। मैं पिताजी को अपने साथ लाने की चेष्टा करूंगा। या तो उनके दर्शनों से कृतार्थ होकर लौटंगा या इसी उद्योग में प्राण दे दूंगा। अगर मेरे भाग्य में राज्य करना लिखा है, तो राज्य करूंगा, भीख मांगना लिखा है, तो भीख मांगूंगा, लेकिन पिताजी के चरणों की रज माथे पर बिना लगाए, उनकी कुछ सेवा किए बिना मैं घर न लौटूंगा। मैं फिर कहता हूँ कि मुझे वापस लाने की कोई चेष्टा न करे, नहीं तो मैं वहीं प्राण दे दूंगा। मेरे लिए यह कितनी लज्जा की बात है कि मेरे पिताजी तो देश-विदेश मारे-मारे फिरें और मैं चैन करूं। यह दशा अब मुझसे नहीं सही जाती। कोई यह न समझे कि मैं छोटा हूँ, भूल-भटक जाऊंगा। मैंने ये सारी बातें अच्छी तरह सोच ली हैं। रुपए पैसे की भी मुझे जरूरत नहीं। अम्मांजी, मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि आप दादाजी की सेवा कीजिएगा, और समझाइएगा कि वह मेरे लिए चिंता न करें। रानी अम्मां को प्रणाम, बाबाजी को प्रणाम।’
आधी रात बीत चुकी थी। शंखधर एक कुर्ता पहने हुए कमरे से निकला। बगल के कमरे में राजा साहब आराम कर रहे थे। वह पिछवाड़े की तरफ बाग में गया और एक अमरूद के पेड़ पर चढ़कर बाहर की तरफ कूद पड़ा। अब उसके सिर पर तारिकामंडित नीला आकाश था, सामने विस्तृत मैदान और छाती में उल्लास, शंका और आशा से धड़कता हुआ हृदय। वह बड़ी तेजी से कदम बढ़ाता हुआ चला; कुछ नहीं मालूम कि किधर जा रहा है, तकदीर कहाँ लिए जाती है।
ऐसी ही अंधेरी रात थी, जब चक्रधर ने इस घर से गुप्त रूप से प्रस्थान किया था। आज भी वही अंधेरी रात है, और भागने वाला चक्रधर का आत्मज है। कौन जानता है, चक्रधर पर क्या बीती? शंखधर पर क्या बीतेगी, इसे भी कौन जान सकता है? इस घर में उसे कौन-सा सुख नहीं था? उसके मुख से कोई बात निकलने भर की देर थी, पूरा होने में देर न थी। क्या ऐसी भी कोई वस्तु है, जो इस ऐश्वर्य, भोग-विलास और राजपाट से प्यारी है?
अभागिनी अहिल्या ! तू पड़ी सो रही है। एक बार तूने अपना प्यारा पति खोया और अभी तक तेरी आंखों में आंसू नहीं थमे। आज फिर तू अपना प्यारा पुत्र, अपना प्राणाधार, अपना दुखिया का धन खोए देती है। जिस संपत्ति के निमित्त तूने अपने पति की उपेक्षा की थी, वही संपत्ति क्या आज तुझे अजीर्ण नहीं हो रही है?
इकतालीस
पांच वर्ष व्यतीत हो गए! पर न शंखधर का कहीं पता चला, न चक्रधर का। राजा विशालसिंह ने दया और धर्म को तिलांजलि दे दी है और खूब दिल खोलकर अत्याचार कर रहे हैं। दया और धर्म से जो कुछ होता है, उसका अनुभव करके अब वह यह अनुभव करना चाहते हैं कि अधर्म और अविचार से क्या होता है। रियासत में धर्मार्थ जितने काम होते थे, वे सब बंद कर दिए गए हैं। मंदिरों में दिया नहीं जलता, साधु-संत द्वार से खड़े-खड़े निकाल दिए जाते हैं और प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार किए जा रहे हैं। उनकी फरियाद कोई नहीं सुनता। राजा साहब को किसी पर दया नहीं आती। अब क्या रह गया है, जिसके लिए वह धर्म का दामन पकड़ें? वह किशोर अब कहाँ है, जिसके दर्शन मात्र से हृदय में प्रकाश का उदय हो जाता था? वह जीवन और मृत्यु की सभी आशाओं का आधार कहाँ चला गया? कुछ पता नहीं। यदि विधाता ने उनके ऊपर यह निर्दय आघात किया है, तो वह भी उसी के बनाए हुए मार्ग पर चलेंगे। इतने प्राणियों में केवल एक मनोरमा है, जिसने अभी तक धैर्य का आश्रय नहीं छोड़ा, लेकिन उसकी अब कोई नहीं सुनता। राजा साहब अब उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहते। वह उसी को सारी विपत्ति का मूल कारण समझते हैं। वही मनोरमा, जो उनकी हृदयेश्वरी थी, जिसके इशारे पर रियासत चलती थी, अब भवन में भिखारिन की भांति रहती है, कोई उसकी बात तक नहीं पूछता। वह इस भीषण अंधकार में अब भी दीपक की भांति जल रही है। पर उसका प्रकाश केवल अपने ही तक रह जाता है, अंधकार में प्रसारित नहीं होता।
आह अबोध बालक ! अब तूने देखा कि जिस अभीष्ट के लिए तूने जीवन की सभी आकांक्षाओं का परित्याग कर दिया, वह कितना असाध्य है ! इस विशाल प्रदेश में जहां तीस करोड़ प्राणी बसते हैं, तू एक प्राणी को कैसे खोज पाएगा? कितना अबोध साहस था, बालोचित सरल उत्साह की कितनी अलौकिक लीला !
संध्या हो गई। सूर्यदेव पहाड़ियों की आड़ में छिप गए हैं, इसीलिए संध्या से पहले ही अंधेरा हो चला है। रमणियां जल भरने के लिए कुएं पर आ गई हैं। इसी समय एक युवक हाथ में एक खंजरी लिए, आकर कुएं की जगत पर बैठ गया। यही शंखधर है। उसके वर्ण, रूप और वेश में इतना परिवर्तन हो गया है कि शायद अहिल्या भी उसे देखकर चौंक पड़ती। यह वह तेजस्वी किशोर नहीं, उसकी छाया मात्र है। उसका मांस गल गया है, केवल अस्थिपंजर मात्र रह गया है, मानो किसी भयंकर रोग से ग्रस्त रहने के बाद उठा हो। मानसिक ताप, वेदना और विषाद की उसके मुख पर एक ऐसी गहरी रेखा है कि मालूम होता है, उसके प्राण अब निकलने के लिए अधीर हो रहे हैं। उसकी निस्तेज आंखों में आकांक्षा और प्रतीक्षा की झलक की जगह अब घोर नैराश्य प्रतिबिंबित हो रहा था-वह नैराश्य जिसका परितोष नहीं। वह सजीव प्राणी नहीं, किसी अनाथ का रोदन या किसी वेदना की प्रतिध्वनि मात्र है। पांच वर्ष के कठोर जीवन-संग्राम ने उसे इतना हताश कर दिया है कि कदाचित् इस समय अपने उपास्यदेव को सामने देखकर भी उसे अपनी आंखों पर विश्वास न आएगा।
एक रमणी ने उसकी ओर देखकर पूछा–कहाँ से आते हो परदेशी, बीमार मालूम होते हो?
शंखधर ने आकाश की ओर अनिमेष नेत्रों से देखते हुए कहा–बीमार तो नहीं हूँ माता, दूर से आते-आते थक गया हूँ।
यह कहकर उसने अपनी खंजरी उठा ली और उसे बजाकर यह पद गाने लगा-
बहुत दिनों तक मौन-मंत्र
मन-मंदिर में जपने के बाद।
पाऊंगी जब उन्हें प्रतीक्षा
के तप में तपने के बाद।
ले तब उन्हें अंक में नयनों
के जल से नहलाऊंगी।
सुमन चढ़ाकर प्रेम पुजारिन
“मैं उनकी कहलाऊंगी।
ले अनुराग आरती उनकी
तभी उतारूंगी सप्रेम।
स्नेह सुधा नैवेद्य रूप में
सम्मुख रक्खूगी कर प्रेम।
ले लूंगी वरदान भक्ति-वेदी
पर बलि हो जाने पर।
साध तभी मन की साधूंगी
प्राणनाथ के आने पर।
इस क्षीणकाय युवक के कंठ में इतना स्वर-लालित्य, इतना विकल अनुराग था कि रमणियां चित्रवत् खड़ी रह गईं। कोई कुएं में कलसा डाले हुए उसे खींचना भूल गई, कोई कलसे से रस्सी का फंदा लगाते हुए उसे कुएं में डालना भूल गई और कोई कूल्हे पर कलसा रखे आगे बढ़ना भूल गई-सभी मंत्र-मुग्ध-सी हो गईं। उनकी हृदय वीणा से भी वही अनुरक्त ध्वनि निकलने लगी।
एक युवती ने पूछा–बाबाजी, अब तो बहुत देर हो गई है; यहीं ठहर जाओ न। आगे तो बहुत दूर तक कोई गांव नहीं है।
शंखधर–आपकी इच्छा है माता, तो यहीं ठहर जाऊंगा। भला, माताजी, यहां कोई महात्मा तो नहीं रहते?
युवती–नहीं, यहां तो कोई साधु-संत नहीं हैं। हां, देवालय है।
दूसरी रमणी ने कहा–अभी कई दिन हुए, एक महात्मा आकर टिके थे, पर वह साधुओं के वेश में न थे। वह यहां एक महीने भर रहे। तुम एक दिन पहले यहां आ जाते, तो उनके दर्शन हो जाते।
एक वृद्धा बोली–साधु-संत तो बहुत देखे, पर ऐसा उपकारी जीव नहीं देखा। तुम्हारा घर कहाँ है, बेटा?
शंखधर–कहाँ बताऊं माता, यों ही घूमता-फिरता हूँ।
वृद्धा–अभी तुम्हारे माता-पिता हैं न, बेटा?
शंखधर–कुछ मालूम नहीं, माता ! पिताजी तो बहुत दिन हुए, कहीं चले गए। मैं तब दो-तीन वर्ष का था। माताजी का हाल नहीं मालूम।
वृद्धा–तुम्हारे पिता क्यों चले गए? तुम्हारी माता से कोई झगड़ा हुआ था?
शंखधर–नहीं माताजी, झगड़ा तो नहीं हुआ। गृहस्थी के माया-मोह में नहीं पड़ना चाहते
थे।
वृद्धा–तो तुम्हें घर छोड़े कितने दिन हुए?
शंखधर–पांच साल हो गए, माता ! पिताजी को खोजने निकल पड़ा था, पर अब तक कहीं पता नहीं चला।
एक युवती ने अपनी सहेली के कंधे से मुंह छिपाकर कहा–इनका ब्याह तो हो गया होगा?
सहेली ने उसे कुछ उत्तर न दिया। वह शंखधर के मुंह की ओर ध्यान से देख रही थी। सहसा उसने वृद्धा से कहा–अम्मां, इनकी सूरत महात्मा से मिलती है कि नहीं, कुछ तुम्हें दिखाई देता है?
वृद्धा–हां रे, कुछ-कुछ मालूम तो होता है। (शंखधर से) क्यों बेटा, तुम्हारे पिताजी की क्या अवस्था होगी?
शंखधर–चालीस वर्ष के लगभग होगी और क्या।
वृद्धा–आंखें खूब बड़ी-बड़ी हैं?
शंखधर–हां, माताजी, उतनी बड़ी आंखें तो मैंने किसी की देखी ही नहीं।
वृद्धा–लंबे-लंबे गोरे आदमी हैं?
शंखधर का हृदय धक-धक करने लगा। बोला–हां माताजी, उनका रंग बहुत गोरा है। वृद्धा–अच्छा, दाहिनी ओर माथे पर किसी चोट का दाग है?
शंखधर–हो सकता है, माताजी मैंने तो केवल उनका चित्र देखा है। मुझे तो वह दो वर्ष का छोड़कर घर से निकल गए थे।
वृद्धा–बेटा, जिन महात्मा की मैंने तुमसे चर्चा की है, उनकी सूरत तुमसे बहुत मिलती है। शंखधर–माता, कुछ बता सकती हो, वह यहां से किधर गए?
वृद्धा–यह तो कुछ नहीं कह सकती, पर वह उत्तर ही की ओर गए हैं। तुमसे क्या कहूँ बेटा, मुझे तो उन्होंने प्राणदान दिया है, नहीं तो अब तक मेरा न जाने क्या हाल होता! नदी में स्नान करने गई थी। पैर फिसल गया। महात्माजी तट पर बैठे ध्यान कर रहे थे। डुबकियां खाते देखा, तो चट पानी में तैर गए और मुझे निकाल लाए। वह न निकालते, तो प्राण जाने में कोई संदेह न था। महीने भर यहां रहे। इस बीच में कई जानें बचाईं। कई रोगियों को तो मौत के मुंह से निकाल लिया !
शंखधर ने कांपते हुए हृदय से पूछा–उनका नाम क्या था, माताजी?
वृद्धा–नाम तो उनका था भगवानदास, पर यह उनका असली नाम नहीं मालूम होता था, असली नाम कुछ और ही था।
एक युवती ने कहा–यहां उनकी तस्वीर भी तो रखी हुई है!
वृद्धा–हां बेटा, इसकी तो हमें याद ही नहीं रही थी। इस गांव का एक आदमी बंबई में तस्वीर बनाने का काम करता है। वह यहां उन दिनों आया हुआ था। महात्माजी तो नहीं-नहीं करते रहे, पर उसने झट से अपनी डिबिया खोलकर उनकी तस्वीर उतार ही ली। न जाने उस डिबिया में क्या जादू है कि जिसके सामने खोल दो, उसकी तस्वीर उसके भीतर खिंच जाती है। शंखधर का हृदय शतगुण वेग से धड़क रहा था। बोले-जरा वह तस्वीर मुझे दिखा दीजिए, आपकी बड़ी कृपा होगी।
युवती लपकी हुई घर गई और एक क्षण में तस्वीर लिए हुए लौटी ! आह ! शंखधर की इस समय विचित्र दशा थी ! उसकी हिम्मत न पड़ी कि तस्वीर देखे। कहीं यह चक्रधर की तस्वीर न हो ! अगर उन्हीं की तस्वीर हुई, तो शंखधर क्या करेगा? वह अपने पैरों पर खड़ा रह सकेगा? उसे मूर्छा तो न आ जाएगी। अगर यह वास्तव में चक्रधर ही का चित्र है, तो शंखधर के सामने एक नई समस्या खड़ी हो जाएगी। उसे अब क्या करना होगा? अब तक वह एक निश्चित मार्ग पर चलता आया था, लेकिन अब उसे एक ऐसे मार्ग पर चलना पड़ेगा, जिससे वह बिल्कुल परिचित न था। क्या वह चक्रधर के पास जाएगा? जाकर क्या कहेगा? उसे देखकर वह प्रसन्न होंगे या सामने से दतकार देंगे? उसे वह पहचान भी सकेंगे? कहीं पहचान लिया और उससे अपना पीछा छुड़ाने के लिए कहीं और चले गए तो?
सहसा वृद्धा ने कहा–देखो बेटा ! यह तस्वीर है।
शंखधर ने दोनों हाथों से हृदय को संभालते हुए तस्वीर पर एक भय-कपित दृष्टि डाली और पहचान गया। हां, चक्रधर ही की तस्वीर थी। उसकी देह शिथिल पड़ गई, हृदय का धड़कना शांत हो गया। आशा, भय, चिंता और अस्थिरता से व्यग्र होकर वह हतबुद्धि-सा खडा रह गया, मानो किसी पुरानी बात को याद कर रहा है।
वृद्धा ने उत्सुकता से पूछा–बेटा कुछ पहचान रहे हो?
शंखधर ने कुछ उत्तर न दिया।
वृद्धा ने फिर पूछा–चुप कैसे हो भैया, तुमने अपने पिताजी की जो सूरत देखी है, उससे यह तस्वीर कुछ मिलती है?
शंखधर ने अब भी कुछ उत्तर न दिया, मानो उसने कुछ सुना ही नहीं।
सहसा उसने निद्रा से जागे हुए मनुष्य की भांति पूछा–वह उधर उत्तर ही की ओर गए हैं? आगे कोई गांव पड़ेगा?
वृद्धा–हां, बेटा, पांच कोस पर गांव है! भला-सा उसका नाम है, हां साईंगंज, साईंगंज, लेकिन आज तो तुम यहीं रहोगे?
शंखधर ने केवल इतना कहा–नहीं माता, आज्ञा दीजिए, और खंजरी उठाकर चल खड़ा हुआ। युवतियां ठगी-सी खड़ी रह गईं। जब तक वह निगाहों से छिप न गया, सबकी सब उसकी ओर टकटकी लगाए ताकती रहीं, लेकिन शंखधर ने एक बार भी पीछे फिरकर न देखा।
सामने गगनचुंबी पर्वत अंधकार में विशालकाय राक्षस की भांति खड़ा था। शंखधर बड़ी तीव्र गति से पतली पगडंडी पर चला जा रहा था। उसने अपने आपको उसी पगडंडी पर छोड़ दिया है। वह कहाँ ले जाएगी, वह नहीं जानता। हम भी इस जीवन रूपी पतली मिटी-मिटी पगडंडी पर क्या उसी भांति तीव्र गति से दौड़े नहीं चले जा रहे हैं? क्या हमारे सामने उनसे भी ऊंचे अंधकार के पर्वत नहीं खड़े हैं?
बयालीस
रात्रि के उस अगम्य अंधकार में शंखधर भागा चला जा रहा था! उसके पैर पत्थर के टुकड़ों से चलनी हो गए थे। सारी देह थककर चूर हो गई थी, भूख के मारे आंखों के सामने अंधेरा छाया जाता था, प्यास के मारे कंठ में कांटे पड़ रहे थे, पैर कहीं रखता था, पड़ते कहीं थे, पर वह गिरतापडता भागा चला जाता था। अगर वह प्रात:काल तक साईंगंज न पहुंचा, तो संभव है, चक्रधर कहीं चले जाएं, और फिर उस अनाथ की पांच साल की मेहनत और दौड़-धूप पर पानी न फिर जाए । सूर्य निकलने के पहले उसे वहां पहुँच जाना था, चाहे इसमें प्राण ही क्यों न चले जाएं।
हिंस्र पशुओं का भयंकर गर्जन सुनाई देता था, अंधेरे में खड्ड और खाई का पता न चलता था, पर उसे अपने प्राणों की चिंता न थी। उसे केवल धुन थी-“मुझे सूर्योदय से पहले साईंगंज पहुँच जाना चाहिए।”। आह ! लाड़-प्यार में पले हुए बालक, तुझे मालूम नहीं कि तू कहाँ जा रहा है ! साईंगंज की राह भूल गया। इस मार्ग से तू और जहां चाहे पहुँच जाए , पर साईंगंज नहीं पहुँच सकता।
गगन मंडल पर ऊषा का लोहित प्रकाश छा गया। तारागण किसी थके हुए पथिक की भांति अपनी उज्ज्वल आंखें बंद करके विश्राम करने लगे। पक्षीगण वृक्षों पर चहकने लगे, पर साईंगंज का कहीं पता न चला।
सहसा एक बहुत दूर की पहाड़ी पर कुछ छोटे-छोटे मकान बालिकाओं के घरौंदे की तरह दिखाई दिए। दो-चार आदमी भी गुड़ियों के सदृश चलते-फिरते नजर आए। वह साईंगंज आ गया। शंखधर का कलेजा धक-धक करने लगा। उसके जीर्ण-शरीर में अद्भुत स्फूर्ति का संचार हो गया, पैरों में न जाने कहाँ से दुगुना बल आ गया। वह और वेग से चला। वह सामने मुसाफिर की मंजिल है। वह उसके जीवन का लक्ष्य दिखाई दे रहा है ! वह इसके जीवन यज्ञ की पूर्णाहुति है! आह ! भ्रांत बालक! वह साईंगंज नहीं है।
पहाड़ी की चढ़ाई कठिन थी ! शंखधर को ऊपर चढ़ने का रास्ता न मालूम था, न कोई आदमी ही दिखाई देता था, जिससे रास्ता पूछ सके। वह कमर बांधकर चढ़ने लगा।
गांव के एक आदमी ने ऊपर से आवाज दी-इधर से कहाँ आते हो, भाई? रास्ता तो पश्चिम की ओर से है! कहीं पैर फिसल जाए , तो दो सौ हाथ नीचे जाओ।
लेकिन शंखधर को इन बातों के सुनने की फुरसत कहाँ थी? वह इतनी तेजी से ऊपर चढ़ रहा था कि उस आदमी को आश्चर्य हो गया। दम के दम में वह ऊपर पहुँच गया।
किसान ने शंखधर को सिर से पांव तक कुतूहल से देखकर कहा–देखने में तो एक हड्डी के आदमी हो, पर हो बड़े हिम्मती। इधर से आने की आज तक किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी। कहाँ घर है?
शंखधर ने दम लेकर कहा–बाबा भगवानदास अभी यही हैं न?
किसान–कौन बाबा भगवानदास? यहां तो वह नहीं आए। तुम कहाँ से आते हो?
शंखधर–बाबा भगवानदास को नहीं जानते? वह इसी गांव में तो आए हैं। साईंगंज यही है न?
किसान–साईंगंज! अ-र-र! साईंगंज तो तुम पूरब छोड़ आए। इस गांव का नाम बेंदो है। शंखधर ने हताश होकर कहा–तो साईंगंज यहां से कितनी दूर है?
किसान–साईंगंज तो पड़ेगा यहां से कोई पांच कोस, मगर रास्ता बहुत बीहड़ है। शंखधर कलेजा थामकर बैठ गया ! पांच कोस की मंजिल, उस पर रास्ता बीहड़। उसने आकाश की ओर एक बार नैराश्य में डूबी हुई आंखों से देखा और सिर झुकाकर सोचने लगा-यह अवसर फिर हाथ न आएगा ! अगर आराध्य देव के दर्शन आज न किए, तो फिर न कर सकंगा। सारा जीवन दौड़ते ही बीत जाएगा। भोजन करने का समय नहीं और विश्राम करने का समय भी नहीं। बैठने का समय फिर आएगा। आज या तो इस तपस्या का अंत हो जाएगा, या इस जीवन का ही ! वह उठा खड़ा हुआ।
किसान ने कहा–क्या चल दिए, भाई? चिलम-विलम तो पी लो।
लेकिन शंखधर इसके पहले ही चल चुका था। वह कुछ नहीं देखता, कुछ नहीं सुनता, चपचाप किसी अंध शक्ति की भांति चला जा रहा है। वसंत का शीतल एवं सुगंध से लदा हुआ समीर पुत्र-वत्सला माता की भांति वृक्षों को हिंडोले में झुला रहा है, नवजात पल्लव उसकी गोद में मुस्कराते और प्रसन्न हो-होकर ठुमकते हैं, चिड़ियां उन्हें गा-गाकर लोरियां सुना रही हैं, सूर्य की स्वर्णमयी किरणें उनका चुम्बन कर रही हैं। सारी प्रकृति वात्सल्य के रंग में डूबी हुई है, केवल एक ही प्राणी अभागा है, जिस पर इस प्रकृति-वात्सल्य का जरा भी असर नहीं वह शंखधर है।
शंखधर सोच रहा है, अब की फिर कहीं रास्ता भूला, तो सर्वनाश ही हो जाएगा। तब वह समझ जाएगा, मेरा जीवन रोने ही के लिए बनाया गया है। रोदन-अनंत रोदन ही उसका काम है। अच्छा, कहीं पिताजी मिल गए? उनके सम्मुख वह जा भी सकेगा या नहीं? वह उसे देखकर क्रुद्ध तो न होंगे? जिसे दिल से भुला देने के लिए ही उन्होंने यह तपस्या व्रत लिया है, उसे सामने देखकर वह प्रसन्न होंगे?
अच्छा, वह उनसे क्या कहेगा? अवश्य ही उनसे घर चलने का अनुरोध करेगा। क्या माता की दारुण दशा पर उन्हें दया न आएगी? क्या जब वह सुनेंगे कि रानी अम्मां गलकर कांटा हो गई हैं, नानाजी रो रहे हैं, दादीजी रात-दिन रोया करती हैं, तो क्या उनका हृदय द्रवित न हो जाएगा? वह हृदय, जो पर दुःख से पीड़ित होता है, क्या अपने घर वालों के दुःख से दुखी न होगा? जब वह नयनों में अश्रुजल भरे उनके चरणों पर गिरकर कहेगा कि अब घर चलिए, तो क्या उन्हें उस पर दया न आएगी? अम्मां कहती हैं, वह मुझे बहुत प्यार करते थे, क्या अपने प्यारे पुत्र की यह दयनीय दशा देखकर उनका हृदय मोम न हो जाएगा? होगा क्यों नहीं? वह जाएंगे कैसे नहीं? उन्हें वह खींचकर ले जाएगा। अगर वह उसके साथ न आएंगे, तो वह भी लौटकर घर न जाएगा, उन्हीं के साथ रहेगा, उनकी ही सेवा में रहकर अपना जीवन सफल करेगा।
इन्हीं कल्पनाओं में डूबा हुआ वह अंधकार पर धावा मारे चला जा रहा था। रास्ते में जो मिलता, उससे वह पूछता, साईंगंज कितनी दूर है? जवाब मिलता-बस, साईंगंज ही है लेकिन जब आगे वाली बस्ती में पहुँचकर पूछता-क्या यही साईंगंज है, तो फिर यही जवाब मिलताबस, आगे साईंगंज है। आखिर दोपहर होते-होते उसे दूर से एक मंदिर का कलश दिखाई दिया ! एक चरवाहे से पूछा-यह कौन गांव है? उसने कहा-साईंगंज। साईंगंज आ गया ! वह गांव, जहां उसकी किस्मत का फैसला होने वाला था, जहां इस बात का निश्चय होगा कि वह राजा बनकर राज्य करेगा या रंक बनकर भीख मांगेगा।
लेकिन ज्यों-ज्यों गांव निकट आता था, शंखधर के पांव सुस्त पड़ते जाते थे। उसे यह शंका होने लगी कि वह यहां से चले न गए हों। अब उनसे भेंट न होगी। वह इस शंका को कितना ही दिल से निकालना चाहता था, पर वह अपना आसन न छोड़ती थी।
अच्छा ! अगर उनसे यहां भेंट न हुई, तो क्या वह और आगे जा सकेगा? नहीं, अब उससे एक पग भी न चला जाएगा। अगर भेंट होगी, तो यहीं होगी, नहीं तो फिर कौन जाने क्या होगा। अच्छा, अगर भेंट हुई और उन्होंने उसे पहचान लिया तो? पहचान कर वह उसकी ओर से मुंह फेर लें तो? तब वह क्या करेगा? उस दशा में क्या वह उनके पैरों पड़ सकेगा? उनके सामने रो सकेगा, अपनी विपत्ति-कथा कह सकेगा? कभी नहीं। उसका आत्मसम्मान उसकी जबान पर मुहर लगा देगा। वह फिर एक शब्द भी मुंह से न निकाल सकेगा। आंसू की एक बूंद भी क्या उसकी आंखों से निकलेगी? वह जबर्दस्ती उनसे आत्मीयता न जताएगा, ‘मान न मान, मैं तेरा मेहमान’ न बनेगा। तो क्या वह इतने निर्दयी, इतने निष्ठुर हो जाएंगे? नहीं, वह ऐसे नहीं हो सकते। हां, यह हो सकता है कि उन्होंने कर्त्तव्य का जो आदर्श अपने सामने रखा है और जिस नि:स्वार्थ कर्म के लिए राजपाट को त्याग दिया है, वह उनके मनोभावों को जबान पर न आने दे, अपने प्रिय को हृदय से लगाने के लिए विकल होने पर भी छाती पर पत्थर की शिला रखकर उसकी ओर से मुंह फेर लें। तो क्या इस दशा में उसका उनके पास जाना, उन्हें इतनी कठिन परीक्षा में डालना, उन्हें आदर्श से हटाने की चेष्टा करना उचित है? कुछ भी हो, इतनी दूर आकर अब उनके दर्शन किए बिना वह न लौटेगा। उसने ईश्वर से प्रार्थना की कि वह उसे पहचान न सकें। वह अपने मुंह से एक शब्द भी ऐसा न निकालेगा, जिससे उन्हें उसका परिचय मिल सके। वह उसी भांति दूर से उनके दर्शन करके अपने को कृतार्थ समझेगा, जैसे उनके और भक्त करते हैं।
साईंगंज दिखाई देने लगा। स्त्री-पुरुष खेतों में अनाज काटते नजर आने लगे। अब वह गांव के डांड़ पर पहुँच गया। कई आदमी उसके सामने से होकर निकल भी गए, पर उसने किसी से कुछ नहीं पूछा। अगर किसी ने कह दिया-बाबाजी हैं, तो वह क्या करेगा? इसी असमंजस में पड़ा हुआ वह मंदिर के सामने चबूतरे पर बैठ गया। सहसा मंदिर में से एक आदमी को निकलते देखकर वह चौंक पड़ा, अनिमेष नेत्रों से उसकी ओर एक क्षण देखा, फिर उठा कि उस पुरुष के चरणों पर गिर पड़े, पर पैर थरथरा गए। मालूम हुआ, कोई नदी उसकी ओर बही चली आती है-वह मूर्छित होकर गिर पड़ा।
वह पुरुष कौन था? वही जिसकी मूर्ति उसके हृदय में बसी हुई थी, जिसका वह उपासक था।