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खूनी औरत का सात खून : किशोरी लाल गोस्वामी Part 2
सातवाँ परिच्छेद : हितोपदेश
माता मित्रं पिता चेति स्वभावात् त्रितयं हितम्।
कार्यकारणतश्चान्ये भवन्ति हितबुद्धयः॥
(हितोपदेशे)
यों कहकर भाईजी फिर मुझसे बोले,–“ दुलारी, अब तुम अपना बयान मेरे आगे कह जाओ; पर इतना तुम ध्यान रखना कि इस समय जो कुछ तुम कहो, उसे खूब अच्छी तरह सोच-समझ कर कहना।”
यों कहकर भाईजी ने अपने जेब में से एक मोटी सी पोथी निकाली, जो सादे कागजों की थी। बस, उस पुस्तक को एक हाथ में ले और दूसरे हाथ से स्याही से भरी हुई कलम पकड़कर उन्होंने मेरी ओर देखा।
मैंने धीरे से कहा,– “आपने जो मुझे बार-बार यह चेतावनी दी कि, ‘मैं जो कुछ इस समय आपके आगे बयान करूँ, वह सच-सच ही कहूँ, झूठ न कहूँ’; क्यों, आपके इस कहने का यही मतलब है न?”
भाईजी ने कहा,– “नहीं, मेरा मतलब यह नहीं है; अर्थात् मैं तुम्हें झूठी नहीं समझता, और न यही खयाल करता हूँ कि तुमने अबतक अपने जितने बयान दिए हैं, उनमें कुछ भी झूठ कहा गया है। मेरे कहने का मतलब केवल यही है कि इस समय तुम अपने चित्त को खूब अच्छी तरह सावधान करके जो कुछ लिखवाओगी, उसके साथ मैं तुम्हारे पहिले के दिए हुए बयानों को मिलाऊँगा और तब इस बात की कोशिश कर सकूँगा कि तुम्हारे छुटकारे के लिये कौन सा “पॉइंट” अच्छा है, जिसे पकड़ कर हाईकोर्ट के जजों के आगे बहस की जाये।”
यह सुन और जरा सा मुसकुराकर मैंने कहा,– “लेकिन मेरा इस समय का लिखाया हुआ बयान तो अब हाईकोर्ट में पेश होगा नहीं, फिर आप क्यों मेरा फिर से, नए सिरे से बयान लेने का कष्ट उठाना चाहते हैं?”
मेरी ऐसी बात सुनकर भाई दयालसिंह ने बड़ी नम्रता से कहा,–“बेटी, तुम इन मामलों के एंचपेंच को नहीं समझ सकती, इसलिये अब व्यर्थ हठ करके समय को न खोवो और अपना इजहार लिखाना शुरू कर दो।”
यह सुनकर मैं बोली,–“अच्छी बात है, लिखिए; पर इतना याद रखिए कि इस समय जो कुछ मैं लिखवाऊँगी, उसके साथ मेरे पहिले के दिए हुए तीनों बयान बिलकुल मिल जायेंगे और सिवाय परिश्रम के, आपके हाथ कुछ भी न लगेगा।”
भाईजी ने कहा,–“नहीं, यह बात नहीं है; मेरे हाथ सब कुछ लगेगा; क्योंकि यदि तुम्हारे इस समय के लिखवाए हुए बयान के साथ तुम्हारे पेश्तर के तीनों बयान मिल जायें तो समझ लो कि मैंने बाजी मार ली और तुम बेदाग छूट गई! बस, इसीलिए तो मैंने बार-बार तुमसे यह बात कही है कि तुम जरा अपना चित्त खूब ठिकाने कर के, तब अपना बयान लिखवाओ।”
मैं बोली,–”तो अच्छी बात है। आप लिखिए, मैं कहती हूँ।”
वे बोले, –“अच्छा, जरा सा ठहर जाओ; क्योंकि मैं तो कलम पकड़े हुए लिखने के लिए तैयार बैठा ही हूँ; पर जरा सा तुम और ठहर जाओ और मेरे अफसर को आ जाने दो। बस, उनके आ जाने पर उन्हीं के सामने मैं तुम्हारा इजहार लिखूँगा। उन्होंने ठीक साढ़े ग्यारह बजे यहाँ पहुँच जाने की बात कही थी, पर अब बारह बजा चाहते हैं। अस्तु, कोई चिन्ता नहीं, वे अब आते ही होंगे।”
मैंने पूछा,–‘” आपने अपने अफसर को यहाँ आने का क्यों कष्ट दिया?”
भाईजी ने कहा,— “मैंने नहीं दिया, बल्कि इस कष्ट को उठाना उन्होंने स्वयं स्वीकार किया। अच्छा, इस बात को भी तुम सुन लो। बात यह हुई कि कल रात को मैं अपने अफसर, अर्थात् जासूसी महकमे के छोटे साहब से मिला और तुम्हारा सारा हाल उन्हें सुना कर मैंने उनसे यों कहा कि, “वह लड़की बिलकुल बेकसूर है।” यह सुनकर उन्होंने मुझसे यों कहा कि, “अच्छा, कल ग्यारह बजे मैं खुद वहाँ चल कर उस लड़की का इजहार लिखूँगा और अगर वाकई वह बेकसूर हुई तो मैं अपनी रिपोर्ट अपने बड़े साहब के पास भेज दूँगा और वे उस रिपोर्ट पर अपनी राय लिख कर हाईकोर्ट के जजों के पास भेज देंगे, जिसका नतीजा यह होगा कि उस रिपोर्ट पर खूब अच्छी तरह गौर करके हाईकोर्ट उस लड़की को बेगुनाह समझ कर छोड़ देगी।”
भाईजी इतना ही कहने पाए थे कि एक लम्बे कद के साहब (अंगरेज) आ पहुँचे। उन्हें देखते ही भाईजी और बैरिस्टर साहब उठ खड़े हुए और जब वे साहब बीच की कुर्सी पर बैठ गए, तो उनकी दाहिनी ओर भाई दयालसिंह और बाईं ओर बारिष्टर साहब बैठ गए। यहाँ पर यह भी कह देना उचित होगा कि उस समय मैं भी उठ खड़ी हुई थी और उन तीनों महाशयों के बैठ जाने पर बैठ गई थी।
अस्तु, कुछ देर तक भली भांति मेरी ओर देख कर उन अंगरेज अफसर ने भाईजी से कहा,–“अच्छा, अब आप इस औरत का इजहार हिन्दी में लिखें, पर मैं अंगरेजी में लिखूँगा और फिर पीछे अपनी राय के साथ उसे बड़े साहब के पास भेज दूँगा। हाँ, इस औरत के वे तीनों बयान कहाँ हैं, जो इसने पुलिस, मजिस्ट्रेट और जज के आगे दिए थे?”
यह सुन कर बारिस्टर साहब ने अपने पाकेट में से फीता बँधा हुआ एक पुलिंदा निकाल कर खोला और फिर उसे साहब के आगे रखकर यों कहा,— “लीजिए, इस मुकदमे के कुल कागजात ये हैं।”
साहब ने उसे ले, उलट-पलट कर देखा और फिर बारिष्टर साहब के हाथ में उसे देकर कहा,–“आप इसे देखिए और अब जो यह औरत अपना इजहार लिखावेगी, उससे इसे मिलाते जाइए। अगर कहीं पर इस वक्त के बयान से पहिले के दिए हुए बयानों में कुछ फर्क पड़े तो उस जगह पर लाल पेन्सिल से निशान कर दीजिएगा।”
इस पर बारिष्टर साहब ने “अच्छा” कहकर उस कचहरी वाली मिसिल को अपने बाएँ हाथ से पकड़ा और दाहिने हाथ में लाल पेन्सिल ले ली।
भाईजी पहिले ही से सादे कागज़ों की पोथी और कलम लिए हुए बैठे थे। अब अंगरेज अफसर ने भी भाईजी की तरह एक सादी किताब और स्याही-भरी कलम ले ली और मेरी ओर देखकर यों कहा,– “टुमारा नाम बोलो।”
मैं बोली,–“मेरा नाम दुलारी है।”
साहब,–“डेको, डुलारी! टुम को हाम एक बाट बोलटा है।”
मैने पूछा,–“जी, कहिए।”
साहब ने कहा,–“टुम बरा भला लेड़की हाय। इश बाशते टुम को शब बाट शच शच बोलना होगा।”
मैंने यों कहा,– “मेरी झूठ बोलने की बान नहीं है।”
इस पर साहब ने कहा,–“टो, अच्छा बाट है। बोलो।”
यह सुनकर मैंने मन ही मन जगत्पिता परमेश्वर और अपने माता-पिता को बार-बार दण्डवत् प्रणाम किया और उसके पीछे यों अपनी जीवनी कहनी प्रारंभ की।
आठवाँ परिच्छेद : दुर्दैव
“यदपि जन्म बभूव पयोनिधौ,
निवसनं जगतीपतिमस्तके ।
तदपि नाथ पुराकृतकर्मणा,
पतति राहुमुखे खलु चन्द्रमाः ॥”
(व्यासः)
मैं सिर झुकाए हुए यों कहने लगी,– कानपुर जिले के एक छोटे से गाँव में मेरे माता-पिता रहते थे। उस गाँव का नाम आप जानते ही हैं, इसलिये अब मैं अपने मुँह से उसका नाम नहीं लिया चाहती। हाँ, यह मुझे बतलाया गया है कि, ‘तू फलाने गाँव की रहने वाली है।’ इस बात को मैंने स्वीकार भी किया है, पर मैं अब उस दुखदाई गाँव का नाम अपने मुँह से नहीं लिया चाहती। उस गाँव के मालिक या जिमीदार कानपुर के एक बड़े प्रतिष्ठित कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं और गाँव में हजार आठ सौ के लगभग आदमी बसते हैं। इनमें ब्राह्मण, क्षत्री, बनिए, भुइंहार, बढ़ई, लुहार, कहार, कुनबी, नाई, बारी, घोषी, तेली, चमार, दुसाध, जुलाहे आदि सभी जाति के लोग रहते हैं और वह गाँव गंगा के किनारे ही पर बसा हुआ है। रहते तो हैं उस गाँव में प्रायः सभी जाति के लोग, पर जादे संख्या ब्राह्मणों और बनियों की है और प्राय: सभी लोग खेती-बारी का काम करते हैं।
उसी सत्यानाशी गाँव में मेरे माता-पिता भी रहते थे। यद्यपि अदालत ने मुझे यह बतलाया है कि, ‘तेरे पिता फलाने ब्राह्मण थे;’ पर मैं अभागी अब अपने मुँह से यह बात नहीं कहना चाहती कि मेरे पिता कौन ब्राह्मण थे। हाँ, पढ़नेवाले मेरी इस लिखावट से जो चाहें, सो मतलब निकाल लें। किन्तु हाँ, यह बात मैं स्वीकार करती हूँ कि उस गाँव के बाह्मणों में कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की संख्या सबसे जादे है।
मेरे माता-पिता का क्या नाम था, यह बात भी अदालत को मालूम हो गई है, जिसे मैंने भी सकारा है; पर अब इस अवस्था में पड़कर मैं निगोड़ी अपने उन वैकुण्ठवासी माता-पिता के पवित्र नाम को अपने अपवित्र मुख से नहीं कहना चाहती।
मेरे पूज्य पिताजी की अवस्था मरने के पहिले पचपन वर्ष की और मेरी माता की चालीस बरस की थी और मेरी सोलह साल की है। मेरे प्यारे पिता अच्छे पण्डित थे, पर पुरोहिताई का काम छोड़कर वे खेती-बारी करते थे। मेरी माता भी पढ़ी-लिखी थीं, इसी से पिता-माता की शिक्षा पाकर मैं भी कुछ थोड़ा बहुत पढ़ लिख गई हूँ। मेरे पिता का निज का कच्चा मकान था। मकान के साथ एक छोटी सी फुलवारी भी थी, दो तीन गौ-भैंसे भी थीं और चार जोड़ी बैल और चार ही हरवाहे (बैल हाँकने और हल जोतनेवाले) भी थे। बड़े सुख-चैन के साथ मेरे माता-पिता का, और उन्हीं की बदौलत मेरा भी दिन बीतता जाता था और यदि सच पूछा जाय तो कोई भी कष्ट न था। किन्तु बैरी विधाता से हमलोगों का वह तुच्छ सुख भी न देखा गया और उस निगोड़े ने हमलोगों के सारे आनन्द पर वज्र गिरा दिया!
बात यह हुई कि कातिक की पूनो नहा कर मेरी माता पीड़ित हुईं। उन्हें बड़े वेग से ज्वर चढ़ आया और तीसरे दिन उनके गले में गिलटी निकल आई! यह देखकर मेरे पिता बहुत घबराए और तब हमलोगों ने यह जाना कि यह तो प्लेग है!
मेरे छोटे से उस गाँव में वैद्य-डाक्टर तो थे नहीं, इसलिये उधर तो पिताजी किसी बैद्य की खोज में सवेरे ही कानपुर गए और इधर दोपहर होते-होते मेरी प्यारी माता चल बसीं। उस समय गाँव की कई स्त्रियाँ आ गई थीं और उन्हीं सभों ने मेरी माता की वह अवस्था देखकर उन्हें धरती में उतार दिया था। क्योंकि उस समय मैं अपने आपे में न थी और उन स्त्रियों के रोकने पर भी बार-बार पछाड़ खा-खा कर अपनी माता के शरीर पर गिर-गिर पड़ती थी।
संझा होते-होते एक वैद्यजी को साथ लेकर पिताजी लौट आए, पर जब उन्होंने घर का हाल देखा तो वे मूर्छित होकर मेरी माता के शव पर गिर गए। फिर वैद्यजी का क्या हुआ, यह तो मुझे नहीं मालूम; पर हाँ, यह मैंने देखा कि गाँव के लोग इकट्ठे हो गए और रात के नौ बजते-बजते मेरे पिताजी मेरी माता को फूँक और नहा कर घर लौट आए। मैंने भी उस समय माता के शव के साथ गंगा किनारे जाना चाहा था, पर मुझे कई स्त्रियों ने पकड़ रक्खा था; इसलिये मैं गंगा तो न जाने पाई, पर हाँ, जब मेरे पिता घाट से लौटकर घर आ गए, तब कुएँ पर मैं नहलाई गई।
फिर, तब गाँव की स्त्रियाँ तो अपने-अपने घर गईं और हम दोनों (पिता-पुत्री) ने सारी रात रो-पीट कर गँवाई। यद्यपि मेरे पिता मुझे बहुत कुछ ढाढ़स देते और समझाते-बुझाते थे, पर जब अपनी प्यारी और सुशीला पत्नी का ध्यान उन्हें हो आता, तो वे बहुत ही बिलाप करने लगते और उनका कलपना देखकर मैं भी बहुत ही विकल होती और छाती मूड़ कूट-कूट कर बहुत ही घोर विलाप करने लग जाती थी।
खैर, किसी-किसी तरह दस दिन बीते। फिर ग्यारह, बारह और तेरह दिन भी बीते और मेरे पिता ने मेरी माता के श्राद्ध से छुट्टी पाई। किन्तु हाय, जिस दिन मेरी माता की तेरहीं हुई थी, उसी रात को मेरे पिता भी पड़े और उन्हें दूसरे ही दिन गिलटी निकल आई। यह देखकर मेरे दुख का कोई पारावार न रहा और सिवाय रोने-पीटने के और मैं कुछ भी कर-धर न सकी। उस समय तक सारे गाँव में प्लेग फूट निकला था और वे लोग जिन्हें कुछ भी समाई थी, इधर-उधर भागे जा रहे थे। एक तो वह हजार-आठ सौ आदमियों की बस्ती का छोटा सा गाँव था ही, उस पर जब लोग घर-द्वार छोड़-छोड़ कर भागने लगे, तब तो और भी उस गाँव की श्री नष्ट हो गई और जिधर देखो, उधर ही भयंकरता राक्षसी मुँह बाए घूमती हुई दिखाई देने लगी। हाय, यह सब देख-सुन कर मेरा हिया और भी फटने लगा, पर मैं लाचार थी और कुछ भी कर-धर नहीं सकती थी। मेरे घर के पास एक नाऊ (नाई) रहता था, जिसका नाम हिरवा था; उसे मैंने चार रुपए देकर यह कहा कि, ‘कानपुर से कोई अच्छे वैद्य को बुला लावे,’ पर वह चण्डाल जो वे रुपए लेकर गया, सो उस दिन लौट कर आया, जिस दिन उसकी मौत लिखी थी।
अस्तु, इसी तरह तीन दिन पीछे रात को मेरे प्यारे पिता भी कूच कर गए और मुझ निगोड़ी को एक दम से अनाथ कर गये। हाय, हाय! भला अब उस शोक—उस अपार शोक का हाल मैं क्योंकर किसी के आगे प्रगट करूँ! बस, यहाँ पर इतना ही समझ लेना चाहिए कि गाँव के बचे-खुचे लोगों में से तो उस समय कोई भी न आया। पर हाँ, मेरे यहाँ जो चार हरवाहे नौकर थे, वे ही मेरे पिता को गंगाजी उठा ले गये। यह देखकर मैं भी उनके पीछे-पीछे दौड़ी, पर जब मैं गंगा तट के पास पहुँची तो मैंने क्या देखा कि वे चारों हरवाहे लौट रहे हैं! यह देख कर मैंने उन हत्यारों से यह पूछा कि, ‘तुम सभों ने मेरे पिता को, कहाँ रक्खा है?’ इस पर उन दुष्टों ने यह जवाब दिया कि, “बस, अब उठो और चुपचाप घर लौट चलो। क्योंकि इस हाड़-तोड़ जाड़े की रात को गंगा नहाकर अपना प्राण न गँवाओ। हमलोगों ने तुम्हारे पिता को गंगा में बहा दिया है और अब घर लौटे जा रहे हैं। काल सवेरे जब खूब करारी धूप निकलेगी, तब गंगा में गोता लगा लेंगे।”
हाय। उन अभागों की यह बात सुनकर मैं पछाड़ खाकर वहीं गिर गई और मूर्छित हो गई। मैं कब तक बेसुध रही, यह तो नहीं कह सकती, पर जब मुझे होश हुआ तो मैंने क्या देखा कि मैं अपने घर की एक कोठरी में चारपाई पर पड़ी हुई हूँ और मेरे पास दूसरी खाट पर उसी हिरवा नाई की माँ हुलसिया पड़ी हुई नाक बजा रही है, जिसे कि मैंने कानपुर से वैद्य बुला लाने के लिए चार रुपए दिए थे।
यह सब देखकर मैं अपनी खाट पर उठकर बैठ गई और हिरवा की माँ को बार-बार पुकारने लगी। पर वह निगोड़ी सौ हांक देने पर भी तनिक न भिनकी, वरन और जोर-जोर से नाक बजाने लगी। यह देख कर मैं उठी और टिमटिमाते हुए दीए को टेम को ठीक करके फिर अपनी चारपाई पर आ बैठी। उस समय अपने माता-पिता और साथ ही अपनी घोर विपत्ति का स्मरण करके मैं खूब जोर-जोर से चिल्ला कर रोने लगी।
यों ही मैं न जाने कितनी देर तक आप ही आप रोया की, इतने ही में मैंने क्या देखा कि वही हिरवा नाई, जिसकी उम्र बीस-बाईस बरस से जादे न थी और जो दिखने में महा कुरूप था, मेरी चारपाई पर आकर बैठ गया और मेरा एक हाथ पकड़कर अपने मैले दुपट्टे से मेरा आँसू पोंछने लगा!!!
यह तमाशा देखकर एक बेर तो मैं बड़े जोर से चिहुंक उठी, पर तुरत ही उसके हाथ को झटकार और उसे अपनी चारपाई पर से ढकेलकर बड़े क्रोध से उसकी ओर निहारती हुई यों कहने लगी,– “क्यों रे, हिरवा! तूने और तैरी माँ ने बराबर मेरे यहाँ के जूठे टुकड़े खाए हैं, तब वैसी दशा में तू क्या समझकर मेरी चारपाई पर आ बैठा और क्या सोचकर तूने मेरा हाथ पकड़ा?”
मेरी ये बाते सुनकर वह खिलखिला कर हँसने लगा और यों बोला कि,–“दुलारी, तू बड़ी सुंदर है और मैं कई बरस से तेरे रूप-रंग को देख-देख कर भीतर ही भीतर भुना जा रहा हूँ। अब तक तो तेरे मां-बाप के डर से मैं अपना मन मारे बैठा रहा, पर अब मुझसे तेरे बिना छिन भर भी नहीं रहा जाता। सो, तू मेरी बात सुन और मेरे गले से लग जा। देख, जो सीधी तरह मेरी बात मान ले, तो अच्छा ही है; नहीं तो मैं जबरदस्ती तेरी इज्जत-आबरू बिगाड़ दूँगा और सारे गाँव में तेरी बदनामी का ढोल पीट कर तुझे मिट्टी में मिला दूँगा। इस समय तू अकेली है और अब तेरे सिर पर कोई भी नहीं है, इसलिये अपनी अवस्था पर अच्छी तरह विचार करके तू मेरा कहना मान ले और मेरे हिये की लगी को बुझा दे।”
उस दुरात्मा पातकी की ऐसी खोटी बातें सुनकर मेरे तलुए से चोटी तक आग सी लग गई और मारे क्रोध के मैं भभक उठी। एक तो मैं अपनी माता-विशेषकर अपने पिता के शोक में बावली हो ही रही थी, उस पर निगोड़े हिरवा की पाप-कथा सुनकर तो में और भी पागल हो उठी और झट से अपनी खाट के नीचे उतरकर खड़ी हो गई। फिर मैंने दाँत पीस कर उस दुष्ट हिरवा से यों कहा कि, “बस, अब तू चुपचाप यहाँ से अपना काला मुँह कर, नहीं तो तेरे लिये अच्छा न होगा।”
यह सुनकर वह बेहया फिर खूब ठठाकर हँसा और कहने लगा,–“अब तो मैं तभी यहाँ से जाऊँगा, जब अपना जी ठंढा कर लूँगा।”
बस, महाशय! उसके मुँह से इतना निकलना था कि मैंने उछलकर उस पातकी को धरती में पटक दिया और उसके कलेजे पर सवार होकर ऐसे जोर से उसका गला दबाया कि फिर वह जरा भी न बोल सका। यों ही देर तक मैं उसके गले को भरजोर दबाए रही। फिर मैं उसकी छाती पर से उतर कर दूर जा खड़ी हुई और उसकी ओर बिना देखे ही यों कहने लगी,–“बस, रे चण्डाल! अब तू उठ और यहाँ से भाग नहीं तो मार ही डालूँगी।” यों कहकर मैंने एक मूसल उठा लिया और जिस खाट पर उस (हिरवा) की माँ सोई हुई थी, उस खाट की ओर देखा। मैंने क्या देखा कि वह खाट खाली पड़ी हुई है और उसपर हिरवा की माँ हुलसिया नहीं है! यह देखकर मैं बड़ी सकपकाई कि वह रांड कहाँ गई? इतने में फिर मैंने हिरवा की ओर दीठ फेरी तो क्या देखा कि वह गया नहीं है, बल्कि जहाँ पड़ा था, वहीं पड़ा हुआ है। यह देखकर मैंने उससे बार-बार यों कहा कि, ‘अब तू उठ यहाँ से और चला जा,’ पर वह जहाँ का तहाँ पड़ा ही रहा। तब तो मैंने उसके पास जाकर उसके सिर में अपने पैर की दो-तीन ठोकर मारी, पर वह जरा न भिनका! यह देखकर मैं बहुत ही हैरान हुई और दीया लेकर उसका मुँह निहारने लगी। अरे रे रे! मैंने क्या देखा कि उसकी आँखों के दोनों ढेले बाहर निकल पड़े हैं, जीभ भी मुँह के बाहर आ गई है और बहुत सा फेन और खून इसके मुँह से बहा और धीरे-धीरे बह रहा है। यह देखकर मेरा सारा बदन थर्रा उठा और वह मेरे हाथ का दीया हाथ से गिरकर बुझ गया। मैं भी फिर खड़ी न रह सकी और चक्कर खाकर वहीं गिर पड़ी।
मैं कब तक बेसुध पड़ी रही, यह तो नहीं कह सकती, पर जब मुझे चेत हुआ तो मैंने क्या देखा कि मेरे हाथ-पैर बँधे हुए हैं, मैं अपनी चारपाई पर डाल दी गई हूँ, हिरवा भी धरती में जहाँ का तहाँ पड़ा हुआ है और उस कोठरी में चार आदमी आकर खड़े हुए हैं, जिनमें से एक के दाहिने हाथ में तलवार और बाएँ में एक मोटा सा जलता हुआ पलीता है और बाकी के तीनों आदमियों के हाथों में खाली तलवारे हैं।
यह अजीब तमाशा देखकर मैं सन्नाटे में आ गई और बार-बार उस कोठरी के चारों ओर आँखें दौड़ाने और उन चारों आदमियों के चेहरे की तरफ टकटकी लगाकर देखने लगी। उन चारों आदमियों को मैं चीन्हती थी, क्योंकि वे सब मेरे गाँव के ही रहने वाले थे। उनमें से एक, जिसके हाथ में जलता हुआ पलीता था, वह नब्बू ज़ुलाहा था, दूसरा धाना कोइरी था, तीसरा परसा कहार था और चौथा कालू कुरमी था। यह कालू मेरे पिता के उन्हीं चारों हरवाहों में से एक था, जिसने मेरे पिता का बहुत दिनों तक नमक खाया था।
सो, यह सब अनूठा तमाशा देखकर मैं घबरा गई और मन ही मन यह सोचने लगी कि, ‘अब क्या करना चाहिए!’
बस, यहाँ तक मैं कह चुकी थी कि उन अंगरेज अफसर ने मेरा नाम लेकर मुझसे यों कहा,–“डुलारी, टुम जरा ठहर जाओ, क्योंकि डो बजा चाहटे हैं, इस वाशटे हम जरा नाशटा करने माँगटा।”
यह सुनकर मैंने ऊपर नजर उठाकर देखा, तो क्या देखा कि साहब अपनी कु्र्सी पर से उठकर एक खानसासा के साथ खाना खाने जा रहे हैं। उनके जाते ही भाईजी भी उठे और यों कहकर एक ओर चले गए कि, “मैं भी जरा जलपान कर आऊँ।”
यों कहकर भाईजी भी चले गए और वहाँ पर मेरे पास खाली बारिस्टर साहब रह गए। उन्होंने मेरी ओर जरा सा मुसकुराकर देखा और यों कहा,–“बीबी दुलारी, मैं तुम्हें इस बात का विश्वास दिलाता हूँ कि तुम जरूर छूट जाओगी।”
यह सुनकर मैंने अपनी आँखें नीची कर ली और मन ही मन प्रसन्न हो तथा ओठों के अन्दर ही अन्दर हंसकर यों कहा,– “मुझ अभागी को छुड़ा कर आप क्या कीजिएगा?”
उन्होंने कहा,–“यह पीछे सोचा जायेगा; पहिले तुम इस बला से छुटकारा तो पा लो।”
इस पर मैंने कुछ न कहा, बल्कि फिर मारे लज्जा के उनकी ओर् देख भी न सकी।
वे फिर कहने लगे,– “एक बात और है।”
मैंने देखे बिना ही उत्तर दिया,– “आज्ञा कीजिए।”
वे बोले,—“आज्ञा करना तो अब व्यर्थ है, क्योंकि वह तो मानी ही नहीं जाती! हाँ, प्रार्थना अवश्य की जा सकती है। सो भी तब, जब उसके मान लेने की आशा की जाय।”
मैं इस ढंग की उनकी बातें सुनकर मन ही मन बहुत ही सकपकाई कि वे कौन सी ऐसी बात कहना चाहते हैं, जिसके लिये इतनी भूमिका बांध रहे हैं! परन्तु मारे लाज के मेरी आँखें उनकी ओर न उठ सकीं और मैंने सिर झुकाए हुए ही यों कहा,–“आप जो कुछ कहना चाहते हों, उसे कृपाकर कहिए।”
वे बोले,–“अब मैं क्योंकर तुमसे कुछ कह सकता हूँ, जब कि तुम इतनी बड़ी हठीली हो कि अपनी “टेक” के आगे किसी के कहने-सुनने पर कुछ ध्यान ही नहीं देती।”
अब भला, उनकी ऐसी बात का मैं क्या जवाब दे सकती थी! अस्तु, मैं कुछ न कुछ कहना ही चाहती थी कि इतने ही में भाईजी आ गए और मैंने कुछ कहने-सुनने से छुट्टी पाई।
भाईजी अपनी कुर्सी पर बैठकर बारिस्टर साहब से अंगरेजी में कुछ बात चीत करने लगे, इतने ही में साहब बहादुर भी आ गए और उन्होंने अपनी कुर्सी पर बैठकर मुझसे यों कहा,–“डुलारी, अब टुम आगे बोलो।”
यह सुनकर मैंने कहा,—“ बहुत अच्छा; सुनिए,–यद्यपि कालू की बातों ने मेरे कलेजे को मसल डाला था, पर बहुत जल्द मैंने अपने जी को ठिकाने किया और इशारे से कालू को अपने पास बुलाया।
नवाँ परिच्छेद : प्रलोभन
“महामायासमा नारी महामायामयी स्मृता।
गच्छन्ति केऽस्या मायाया: पारं भुवि नरा मुने॥”
(देवोभागवते)
उस इशारे को समझकर कालू तुरन्त मेरी खाट के पास आकर बैठ गया और बोला,–“कहो, क्या कहती हो?”
मैने पूछा,–“यह सब क्या हो रहा है और तुम सब यहाँ पर क्यों इकट्ठे हो रहे हो?”
मेरी बात सुन कर कालू कहने लगा,–“दुलारी, यह सब जो कुछ तुम देख रही हो, उसका असली सबब तुम्हारी अनूठी सुन्दरता ही है। सुनो दुलारी, तीन-चार बरस से इस गाँव भर में तुम्हारे अनोखे रूप की धूम सी मच गई है और यहाँ के बहुतेरे आदमी तुम पर मरने लगे हैं। यों तो इस गाँव के सैकड़ों आदमी ये तुम्हारे रूप पर जान दिए बैठे हैं, पर उनमें से हम-सब बारह जने ऐसे तुम पर लट्टू हुए हैं कि हमलोगों ने मिलकर एक गोठ (गोष्ठी-सभा) बनाई है और उसमें नित्य हमलोग इकट्ठे होते और है तुम्हारे रूप का बखान कर-कर के अपने-अपने जी को बहलाते हैं। उन बारह आदमियों के नाम ये हैं, जिन्हें तुम जरूर ही जानती होगी- 1. नब्बू जुलाहा, 2. धाना कोइरी, 3. परसा कहार, 4. मैं कालू कुर्मी, 5. यह मरा हुआ हिरवा नाऊ, 6. घीसू बनिया, 7. बहादुर दूबे, 8. तिनकौड़ी कांदू 9. हेमू भड़भूँजा, 10. कतलू महाबाम्हन, 11. रासू चमार और 12. लालू हलवाई। यों तो इस गाँव के सैकड़ों ही आदमी तुम पर जी जान से निछावर हो रहे हैं, पर हम बारह जने धीरे-धीरे आपस में मिले और हमने अपनी एक जमात कायम की। फिर तो लालू हलवाई की चौपाल (बैठक) में हमलोग रोज रात को इकट्ठे होने लगे और बराबर इस बात की सलाह आपस में करने लगे कि ‘क्योंकर हम-सब तुम्हें हथियावें।’ एक बात यहाँ पर और भी समझ लो,–वह यह है कि यद्यपि इस जमात में सभी जात के लोग आ मिले हैं, पर हम-सब आपस में इस तरह घी-खिचड़ी की तरह मिल गए हैं कि जात-पांत का बखेड़ा हमलोगों ने उठा दिया है और हम सब एक-साथ मिलकर खाते-पीते हैं। हमलोगों में मांस-मछली और दारू-शराब का भी बराव नहीं है। खैर, सुनती चलो। जब तुम्हारी माँ मर गईं, तब हमलोगों को बड़ी खुशी हुई और हमसभों ने आपस में यह सलाह की कि, ‘अब तुम्हारे बाप को किसी तरह से खपा डालना और तुमपर अपना कब्जा करना चाहिए।’ किन्तु भगवान ने ऐसा बानक बना दिया कि हमलोग खून-खराबा करने से बच गए और तुम्हारे बाप ने आप ही मर कर हम लोगों का रास्ता साफ कर दिया। बस, तुम्हारे बाप के मरते ही हमलोगों ने आपस में एक सलाह पक्की कर डाली। फिर तो हम चारों तुम्हारे हरवाहे तुम्हारे बाप को उठाकर ले गए और गङ्गा में डालकर लौट पड़े। उस समय तुम भी वहीं मिली थी, पर बेहोश होकर वहीं गिर गई थी। खैर, फिर तो हम चारों जने तुम्हें यहाँ उठा लाए और इसी चारपाई पर तुम्हें डाल कर इस घर से बाहर निकले। तुम्हारे तीन चरवाहों को तो, जो कि मेरे मेल में नहीं आए थे, कुछ इधर-उधर की समझा-बुझा कर मैंने यहाँ से टाल दिया और जब वे तीनों अपने-अपने घर चले गए, तो हमलोगों ने हिरवा की माँ को तुम्हारी चौकसी के लिये यहाँ बैठा दिया और तुम्हारे सारे घर की तलाशी लेनी शुरू की। थोड़ी ही देर में हमलोग तुम्हारे घर की सब चीज-बस्त उठा ले गए, पर जब इन सब चीजों को ठिकाने से रखकर लौटे तो तुम्हारे मकान के सदर दरवाजे पर हिरवा की हुलसिया मिली। उसने हमलोगों से यों कहा कि, ‘तुम सब जल्दी भीतर जाओ, क्योंकि दुलारी जाग पड़ी है और उसने हिरवा को पछाड़ कर उसका गला दबा लिया है।’ यह सुनकर हमलोगों ने उसे तो उसके घर विदा कर दिया और चटपट मैंने तुम्हारे घर की भूसा ढोने वाली गाड़ी में तुम्हारे ही दो बैल जोत कर तुम्हें यहाँ से भगा ले जाने का विचार किया। जब गाड़ी ठीक हो गई और हमलोग भी तैयार हो गए, तो नब्बू ने एक पलीता बाल लिया और हम सब इस कोठरी में आए। यहाँ आकर हम लोगों ने क्या देखा कि, ‘हिरवा तो मरा हुआ पड़ा है और उसी के पास तुम भी बेसुध पड़ी हुई हो!’ यह हाल देखकर हमलोग बड़े चकपकाए कि तुम्हारे नाजुक हाथों ने उस हट्टे-कट्ठे पट्ठे हिरवा की जान कैसे ले डाली! खैर, फिर तो खुद मैंने तुम्हें उठाकर इसी चारपाई पर डाल दिया और साथ ही तुम्हारे हाथों और पैरों को भी मजबूती के साथ कसकर बाँध दिया। बस, यही तो असल बात थी, जिसे मैंने तुम्हें सुना दिया। अब यह कहो, कि तुम्हारा क्या इरादा है? तुम सीधी तरह हमलोगों के साथ चलोगी, या जोर-जबर्दस्ती करने से?”
कालू की इस ढब की बातें सुनकर मैं काँप उठी, बहुत ही डर गई और मन ही मन यही बात सोचने लगी कि अब मेरी खैर नहीं है! पर फिर भी मन ही मन भगवान का स्मरण करके मैंने कोई बात ठीक की और कालू की ओर देखकर यों कहा,–“तो तुम्हारे बतलाए हुए और बाकी के सात साथी कहाँ हैं?”
यह सुनकर कालू ने कहा,–“वे सब प्लेग के डर से इधर-उधर भाग गए हैं। इस समय हम पाँच ही आदमी इस गाँव में रह गए थे, जिनमें से हिरवा बेचारे को तो तुमने गला घोंट कर मार ही डाला! बस, अब हम्ही चार यार हैं, जो तुम्हें अभी—इसी दम यहाँ से कहीं दूसरी जगह ले जाया चाहते हैं। यदि तुम राजी-खुशी से चलो, तब तो बहुत ही अच्छी बात है; पर जो तुम यों न मानोगी और हल्ला-गुल्ला करोगी, तो हमलोग बरजोरी तुम्हें यहाँ से घसीट ले जायेंगे। बस, जो कुछ तुम्हारा इरादा हो, उसे जल्द कह डालो; क्योंकि रात पिछले पहर के पास पहुँच गई है, इसलिये अब हमलोग जादे देर तक यहाँ ठहर कर अपने काम को बिगाड़ना नहीं चाहते।”
कालू की काल-समान बातें सुनकर मेरा कलेजा दहल उठा, पर फिर भी सर्व-भय-नाशिनी भगवती दुर्गा का स्मरण करके मैंने कालू से कहा,–“सुनो भाई, यदि एक बात का जवाब तुम मुझे ठीक-ठीक दे दो, तो मैं अभी—बिना उजुर तुम्हारे साथ चली चलूँ।”
मेरी बात सुन कर मानो उन सभी शैतानों ने आकाश का चाँद पा लिया और सब के सब एक साथ बोल उठे कि,– “कहो, कहो,जल्द कहो; तुम जो कुछ कहा चाहती हो, झटपट कह डालो।”
उन सभों की बातों का रंगढंग देखकर मुझे कुछ आशा हुई और मैंने स्त्रियों की प्रलयंकारी माया का विस्तार करना प्रारम्भ किया। मैंने कहा—“सुनो भाई, हिरवा को मैंने जानबूझ कर नहीं मारा, पर वह मुर्दार आखिर मर ही गया! ऐसी अवस्था में जबकि हिरवा का मुर्दा घर में पड़ा हुआ है, मुझे यहाँ से कहीं न कहीं भागना ही पड़ेगा। तो फिर जब कि तुमलोग मुझे यहाँ से कहीं ले ही चल रहे हो, तो बस इससे बढ़ कर और कौन सी अच्छी बात हो सकती है! अब रही यह बात कि तुमने जो अपने बारह साथियों की मण्डली बतलाई है, उनमें से एक हिरवा तो मर ही गया, और सात जने यहाँ से भागे ही हुए हैं। ऐसी अवस्था में अब यदि तुम केवल चार ही जने मुझे अपनी बनाओ और फिर किसी पाँचवें का मुझे मुँह न देखना पड़े तो मैं राजी से तुम लोगों के साथ जा सकती हूँ।”
मेरी ऐसी बातें सुनकर वे चारों पापी मारे आनन्द के उछलने कूदने लगे और पारी-पारी से बार-बार सभी जने यों कहने लगे कि,–“नहीं, प्यारी, दुलारी! अब हम चार यारों के अलावे पाँचवां कोई भी साला तुम्हारी परछाईं भी नहीं छू सकेगा।”
यह सुन कर मैं मन ही मन बहुत ही प्रसन्न हुई; क्योंकि उन बारह बदमाशों में से एक हिरवा तो मर ही चुका था, और सात उस समय भागे हुए थे। बस, अब उन चार दुष्टों से ही मुझे अपना पल्ला छुड़ाना था। सो, जब मैंने यह देखा कि मेरे चकमे का असर इन पाजियों पर हो रहा है, तब मैंने मन ही मन भगवान् को प्रणाम करके अपने छुटकारे का यह उपाय सोचा कि यदि इन चारों में से तीन शैतान किसी तरह और अलग किए जा सकें, तो फिर मैं कालू को समझ लूँगी। क्योंकि वह (कालू) मेरे यहाँ तीन-चार बरस से रह रहा था, इसलिये उसके स्वभाव से मैं खूब अच्छी तरह जानकार हो चुकी थी। वह बड़ा ताकतवर और पूरा उजडु था, और उस अकेले को चकमे में डाल कर मुझे अपने को बचा लेना कुछ कठिन काम न था। बस, यही सब सोचसाचकर फिर तो मैंने स्त्रियों के स्वाभाविक अस्त्र-शस्त्रों की थोड़ी सी वर्षा करनी प्रारम्भ की और बहुत ही धीरे से,जिसमें कि वे तीनों न सुन सकें, कालू के कान में इतना ही कहा कि, —“अब जरा इन तीनों को यहाँ से हटा दो तो मैं तुमसे कुछ कहूँ।”
यद्यपि मेरी बातें तो वे तीनों न सुन सके, पर कालू के कान में जो मैंने कुछ कहा, इसे देखकर वे तीनों के तीनों कालू से बार-बार यों पूछने लगे कि, “दुलारी ने तुमसे अभी हौले-हौले क्या कहा? देखो भाई, जो कुछ इसने तुम्हारे कान में कहा हो, उसे हमलोगों पर भी प्रगट कर दो; क्योंकि हम चार यारों में अब परस्पर कुछ भी छिपाव न रहना चाहिए।”
कालू ने उन तीनों की बातें सुनकर उन (तीनों) से एक ऐसी विचित्र बात कही कि जिसे सुनकर मैं तो दंग रह गई! क्योंकि वह बात मैंने कालू से नहीं कही थी, जो उस (कालू) ने अपने तीनों साथियों से कही।
तो, उसने अपने साथियों से क्या कहा? एक अद्भुत बात कही! वह बात यह थी–कालू ने अपने तीनों साथियों से यों कहा कि,– “नहीं, दोस्तों! मैं तुमलोगों से कुछ भी नहीं छिपाना चाहता। लो, सुनो, -दुलारी यह कहती है कि, ‘उस पच्छिम ओर वाले रसोईघर में चूल्हे के नीचे एक बटुआ गड़ा हुआ है, जिसमें दो हजार रुपए हैं। सो, उन रुपयों को भी निकाल कर अपने साथ ले लेना चाहिए।”
बस, महाशय। वह बात यही थी, जिसे अपने मन से गढ़कर कालू ने उन तीनों से कहा था और जिसे सुनकर मैं बहुत ही चकपकाई थी कि, ‘वाह, इस (कालू) ने अपने तीनों साथियों को यहाँ से हटाने का यह अच्छा ढंग निकाला! पर इस युक्ति- बिल्कुल बेजोड़ युक्ति का परिणाम क्या होगा, इसे मैं उस समय नहीं समझ सकी थी।
सो, जब उन तीनों ने कालू के मुँह से दो हजार रुपए की बात सुनी, तब वे मारे आनन्द के खूब ही उछलने-कूदने लगे। यह देखकर कालू उठा और बाहर से एक दूसरा दीया लाकर और उसे बालकर आले पर रखने के बाद अपने उन तीनों साथियों के साथ मेरी कोठरी से निकल कर रसोई घर की ओर चला गया। कुछ ही क्षण के बाद मेरे कानों में फरसे के चलाए जाने की आवाज पहुँची, जिसे सुनते ही मैंने यह समझ लिया कि रसोई घर के चूल्हे के नीचे की धरती खोदी जा रही है!
दसवाँ परिच्छेद : साया
भ्रूचातुर्यात्कुष्चिताक्षाः कटाक्षाः
स्निग्धा वाचो लज्जितांताश्च हासाः |
लीलामंदं प्रस्थितं च स्थितं च
स्त्रीणां एतद्भूषणं चायुधं च ‖
(भ्रतृहरि:)
बस, इतने ही में कालू आ पहुँचा और मेरी खाट के पास बैठ, हँसकर यों कहने लगा,–“क्यों प्यारी दुलारी! मैंने कैसे अच्छे ढंग से अपने साथियों को यहाँ से हटाया?”
मैं बोली,–“किन्तु इस झूठ का नतीजा क्या होगा?”
वह कहने लगा,–“यह बात पीछे सोची जायेगी। इस बखत तो उन सभों को यहाँ से टाल दिया न! जो यह बात मुझे न सूझती, तो वे तीनों भला, यहाँ से कभी टलने वाले थे! अच्छा, अब तुम्हें जो कुछ कहना-सुनना हो, उसे झटपट कह डालो; क्योंकि रात बीती चली जा रही है।”
यह सुनकर मैंने उसकी ओर हँसकर देखा और स्त्रियों के स्वाभाविक अस्त्र-शस्त्रों का कुछ थोड़ा-सा प्रयोग करके उससे यों कहा,–“कालू, यद्यपि तुम पर अभी तक मैंने यह बात प्रगट नहीं की थी, क्योंकि मेरे माता-पिता जीते थे, पर यह तुम सच जानो कि मैं भी जी ही जी में तुम्हें चाहने लगी थी।”
यों कहकर मैंने फिर जरा सा मुस्करा दिया,जिससे वह मुंआ बिलकुल घायल हो गया और मेरी ओर बड़ी बेचैनी के साथ देखकर यों कहने लगा,–“ऐं, यह क्या तुम सच कह रही हो?”
मैंने खांस कर कहा,–“हाँ, बिलकुल ही सच!!!”
वह कहने लगा,–“तब तो यह बड़ी ही खुशी की बात हुई!”
मैं बोली,–“लेकिन मेरे लिये तो यह बड़ी दुखदाई बात हुई!”
वह कहने लगा,–“तुम्हारी इस बात का क्या मतलब है?”
मैं बोली,–“मतलब तो बिल्कुल साफ ही साफ है। अर्थात, मैं केवल तुमको चाहती हूँ, इसलिये फकत तुम्हारी ही होकर रहना भी पसंद करती हूँ। सो, यदि तुम भी मुझे सच्चे जी से प्यार करते होओ, तो मुझे तुम अपनी जोरू की तरह रक्खो, पंचायती रण्डी की भांति न रक्खो; क्योंकि मैं एक तुम्हारी ही होकर तो रह सकूँगी, पर तुम्हारे उन तीन-तीन यारों की टहल-चाकरी मुझसे कभी भी नहीं होने की।”
मेरी ऐसी विचित्र बात को सुनकर वह मूरख उछल पड़ा और बोला,–“हाय, प्यारी दुलारी! तो तुमने अबतक यह अपने जी की बात मुझपर क्यों नहीं जाहिर की थी! अच्छा, कुछ पर्वा नहीं, तुम्हारा सारा मतलब मैं अब भली-भांति समझ गया। अब तुम जरा न घबराओ, क्योंकि अब तुमको सिर्फ मेरी घरवाली बनने के अलावे और किसी गैर साले की परछाईं भी नहीं छूनी पड़ेगी। बस, अब तुम कोई फिक्र न करो और थोड़ी देर तक यों ही पड़ी रहो। मैं अभी लौट कर आता हूँ और तुम्हें यहाँ से निकाल कर ले चलता हूँ।”
यों कहकर कालू उठा और उस कोठरी के बाहर जाने लगा। यह देखकर मैंने उससे पूछा,–“तुम अब चले कहाँ?”
वह कहने लगा,–“मैं उन तीनों को विदा करने जाता हूँ।”
यह सुनकर मैंने बड़े अचरज के साथ उससे पूछा,–“ऐं, यह तुम क्या कहते हो? क्या ये तीनों तुम्हारे कहने से मुझे तुम्हारे हाथ में सौंप कर यहाँ से चुपचाप चले जायेंगे?”
वह कहने लगा,–“उन सालों के सात पुरखे जायेंगे,फिर भला उनकी तो बिसात ही क्या है!”
यह कहकर वह अपनी तलवार लिये हुए जब उस कोठरी के बाहर जाने लगा, तो मैंने फिर कहा,–“मेरे हाथ-पैर के बंधन तो खोलते जाओ।”
यह सुन और यों कहकर वह तेजी के साथ मेरे सामने से चल दिया कि,–“नहीं, अभी ठहरो। मैं जब उन सालों को विदा करके लौटूँगा, तब तुम्हारे हाथ-पैर खोलूँगा, क्योंकि अगर अभी मैं तुम्हारे बंधन खोल दूँगा, तो शायद तुम मुझे अंगूठा दिखा कर कहीं खिसक लोगी।”
बस, वह तो चला गया, पर मैं मन ही मन यों सोचने लगी कि यह कमबख़्त कालू अपने उन तीनों यारों को कैसे यहाँ से विदा करेगा! और साथ ही यह भी मैं विचारने लगी कि इस जबरदस्त कालू से मैं क्यों कर अपना पिण्ड छुड़ाऊँगी! मैंने तो मन-ही-मन यह सोचकर कालू से वह बात कही थी कि, ‘यदि वह थोड़ी देर के लिये मेरे पास अकेले में रह जाये तो मैं उसे फुसलाकर अपने हाथ-पैर खुलवा लूँ और तब मौका पाकर यहाँ से भागूँ,’ पर मेरा मन-चीता न हो सका और मैं उसी खाट पर पड़ी रही। पड़ी तो रही, पर पड़ी-पड़ी भी मैं अपने हाथ में बंधे हुए चीथड़े को दांतों से नोचने लगी। इस काम में मुझे परमेश्वर ने बड़ी सहायता दी; क्योंकि हाथ के बंधन को मैंने दांतों से काट-काट कर खोल डाला और तब मैं उठकर खाट पर बैठ गई। ठीक उसी समय मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो रसोईघर में कुछ लड़ाई-झगड़ा हो रहा है! अस्तु, मैं फिर उधर ध्यान न देकर जल्दी-जल्दी अपने पैर का बंधन खोलने लगी। परन्तु इसमें मुझे कुछ देर लगी, क्योंकि वह बंधन रस्सी का था और बड़ी पोढ़ी गांठ लगाई गई थी। किन्तु फिर भी मुझसे जहाँ तक हो सका, मैंने अपने पैरों का बंधन भी खोल डाला और तब खाट के नीचे उतर कर अपने कुलदेवता को प्रणाम किया।
ग्यारहवाँ परिच्छेद : दुःख पर दुःख
एकस्य दुखस्य न यावदन्तं गच्छाम्यहं पारमिवार्णवस्य ।
तावद् द्वितीयं समुपस्थितं मे छिद्रेष्वनर्था बहुलीभन्ति ।।
(नीति सुधाकरे)
फिर वहाँ से भागने की मैंने ठहराई। सो, चटपट एक मोटी धोती और एक रूईदार सलूका पहिर कर मैंने एक ऊनी सफेद चादर ओढ़ ली और मन ही मन भगवान और भगवती को प्रणाम करके उस कोठरी से मैं बाहर निकली।
उस समय भागने की धुन में मैं ऐसी लौलीन हो रही थी कि मुझे इस बात का मुतलक खयाल नहीं था कि, ‘इसी घर में हिरवा मरा पड़ा है!’ अस्तु, फिर मैं ज़ल्दी-जल्दी पैर बढ़ाती हुई सदर दरवाजे की ओर जाने लगी थी कि इतने ही में कालू बड़े जोर से चीख मार उठा और मुझे ऐसा जान पड़ा कि मानो “धम्म” से कोई चीज रसोई घर में गिरी हो।
ऐसी आहट पाकर मैं तेजी के साथ सदर दरवाजे की ओर भागी थी कि बड़े जोर से कराह कर कालू ने मुझे पुकारा,–“ओ दुलारी, तेरे तीनों चाहनेवालों को मारकर मैं भी नब्बू की तलवार से अधमुआँ होकर गिर गया हूँ! आह, तू जल्द आ और मुझे थोड़ा सा पानी दे। हाय, पानी! अब दम निकला! दुलारी! पानी!”
कालू की ऐसी विचित्र बात के सुनते ही मेरे पैर रुक गए और बड़े जोर से मेरा हिया कांप उठा। मैं अपना माथा पकड़ कर जहाँ खड़ी थी, वहीं बैठ गई और कालू मुझे बार-बार पुकारने और “पानी-पानी” चिल्लाने लगा। आखिर, मैं किसी तरह अपना कलेजा पोढ़ा करके उठी और एक मिट्टी की जल-भरी गगरी उठाकर रसोई घर में पहुँची।
वहाँ जाकर मैंने क्या देखा कि, ‘धन्ना और परसा के तो सिर धड़ से अलग हो गए हैं, और नब्बू के कलेजे में तलवार घुसेड़ी हुई है! सारी कोठरी में खून बह रहा है और एक ओर कालू भी घायल होकर पड़ा-पड़ा कराह रहा है!!!
यह सब हत्याकाण्ड देखकर उस समय मेरे चित्त की क्या अवस्था हुई होगी, इसे तो केवल नारायण ही जान सकते हैं! इसलिये उसका बखान न करके मैं अब आगे का हाल कहती हूँ!
मुझे देखते ही कालू ने कहा,–“दुलारी, जल्दी मुझे पानी पिलाओ।”
बस, जब यह बात मेरे कान में पड़ी, तब मानो सोते से मैं जागी और मैंने नज़र गड़ाकर क्या देखा कि, ‘कालू के कंधे को तलवार ने दूर तक काट दिया है और वह धरती में पड़ा-पड़ा तड़प रहा है।’
मैं उसकी उस अवस्था को देखकर यह बात भली-भांति समझ गई कि, ‘अब यह भी थोड़ी ही देर का पाहुना है।’ अस्तु, फिर तो मैंने हाथ में पानी लेकर उसके मुँह में धीरे-धीरे डाला, जिसे वह बड़े कष्ट से पी गया।
थोड़ा सा पानी पी कर जब वह कुछ स्वस्थ हुआ, तब मेरी ओर देखकर यों कहने लगा,–“ दुलारी, तुम्हारी खातिर मैंने अपने तीनों साथियों को मार डाला, पर नब्बू साला मरते-मरते मुझे भी आखिर मार ही गया! अब मैं चलता हूँ, इसलिये मेरे अपराधों को तुम क्षमा करना। तुम यहाँ से अब अपनी जान लेकर तुरन्त कहीं भाग जाना और पुलिस के हंगामे से अपने तईं खूब बचाना। अगर तुम कहीं भाग न गई तो जरूर पकड़ी जाओगी और इन पांच-पांच खूनों के कसूर में फाँसी पड़ोगी।”
यों कहकर उसने फिर थोड़ा सा पानी पीया और तब मैंने उससे यों कहा,– “कालू, यह तुमने क्या कर डाला?”
वह कहने लगा,–“तो आखिर, मैं उन सभों को यहाँ से टालता कैसे? वे सब भला यहाँ से कभी टलने वाले थे! मैंने तो यह सोचा था कि इन तीनों को मार कर तुम्हें यहाँ से भगा ले चलूँगा, पर मेरे मन की मन ही में रही और मैं भी अब चलता हूँ। हाय, तुम ब्राह्मण की लड़की हो और मैं तुम्हारा टहलुआ हूँ। फिर भी मैंने तुम पर अपनी नीयत बिगाड़ी और पूरी नमकहरामी की! अब यदि तुम अपनी उदारता से मुझे क्षमा न करोगी तो मैं नरक में भी सुख से न रह सकूँगा। इसलिये दुलारी, तुम मुझे क्षमा करो। क्योंकि मैं अब चलने ही बाला हूँ। क्षमा करो, दुलारी! तुम मेरी माँ-बहन हो, इसलिये मुझ पापी को अब तुम क्षमा करो।”
यह सुनकर मैंने कहा,–“कालू, तुमने काम तो बड़ा खोटा किया है; पर अब तुम मर रहे हो, इसलिये मैं तुम्हें क्षमा करती हूँ। पर यह तो बतलाओ कि तुमने अकेले तीन-तीन आदमियों को कैसे मारा?”
वह कहने लगा,–“रसोई-घर में आकर धाना तो चूल्हे के नीचे की धरती खोदने लगा, परसा खुदी हुई मिट्टी हटाने लगा और नब्बू रोशनी दिखलाने लगा था। बस, तुम्हारे पास से आकर मैंने धाना और परसा को तो चटपट काट डाला, पर नब्बू यह हाल देखकर मुझसे लड़ने लगा। उसने अपने हाथ का पलीता दीवार के छेद में खोंस दिया और मुझ पर वार किया! उसने मेरे कंधे पर यह बड़ी भारी चोट पहुँचाई, पर गिरने के पहिले मैंने भी उसके कलेजे में अपनी तलवार आखिर घुसेड़ ही दी। बस, इसके बाद पहिले नब्बू ने धरती सूंघी और उसके बाद मैं धीरे-धीरे लेट गया। बस, यही तो बात है, जो तुम्हें सुना दी गई। पानी! पानी!! ओ दुलारी! पानी! पानी!! पानी!!!”
यह सुनकर मैंने फिर उसके मुँह में पानी डाला, पर अबकी बेर वह उसके गले के नीचे न उतरा और बाहर निकल कर बह गया। इतने ही में कालू ने दो-चार बार हाथ-पैर हिलाए, कई हिचकियाँ ली और दम तोड़ दिया!!!
यह लख कर फिर मैं उस कोठरी में तनिक भी न ठहरी और बाहर निकल आई।
मेरे पैर खून से रंग गए थे, इसलिए पहिले तो मैंने पैरों को खूब धोया, इसके बाद इस बात पर भली-भांति विचार किया कि ‘अब मुझे क्या करना चाहिए।’
बहुत कुछ सोच-विचार करने के बाद मैंने यही निश्चय किया कि, ‘यहाँ से भागकर मैं कहाँ जाऊँगी और किस जगह छिप कर रहूँगी, क्योंकि मुझे कौन शरण देगा! इसके अलावे, भागने पर इन पाँच-पाँच खूनों की अपराधिनी मुझे ही बनना पड़ेगा। इसलिये अब मुझे यही करना चाहिए कि सारी लाज-शरम छोड़कर मैं स्वयं थाने पर चलूँ और इन हत्याओं की रिपोर्ट लिखवाऊँ। इसमें फिर जो कुछ भी हो, पर मुझे ऐसे अवसर पर न तो कहीं भागना ही चाहिए और न छिप कर बैठ ही रहना चाहिए।’
बस, यह सोच कर मैं तुरन्त अपने घर से बाहर हुई और अपने गाँव से तीन-चार कोस दूर एक दूसरे गाँव के थाने पर जाने का मैंने पक्का इरादा कर लिया। क्योंकि मेरे गाँव पर जो थाना था, दीवाली पर आग लग जाने से वह जल गया था और उसके लिये दूसरा झोंपड़ा अभी नहीं बना था। इसलिये इस गाँव की वारदात की रिपोर्ट पास के उसी दूसरे गाँव पर लिखाई जाती थी। बस, उसी गाँव पर जाने का मैंने निश्चय किया।
बारहवाँ परिच्छेद : हवालात
अवश्यभव्येष्वनवग्रहग्रहा,
यया दिशा धावति वेधसः स्पृहा ॥
तृणेन वात्येव तयानुगम्यते,
जनस्य चित्तेन भृशावशात्मना ॥
(श्रीहर्ष:)
बाहर आने पर मैंने क्या देखा कि मेरी गाड़ी में मेरे ही दो बैल जुते हुए हैं! वे मुझे देखते ही मारे आनन्द के गर्दन हिलाने लगे। मैंने उन दोनों बैलों की पीठ थपथपाई और गाड़ी पर सवार हो गई। फिर रास अपने हाथ में लेकर मैंने एक ओर को कूच किया।
जिस समय मैंने गाड़ी हांकी थी उस समय पौ फट चुकी थी और झुटपुटा हो आया था। बस, उसी उषःकाल में मैंने यात्रा की और आध घंटे में अपने गाँव के बाहर मैं जा पहुँची। उस समय गाँव में चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था और रास्ते में मुझे कोई भी नहीं मिला था। यह देख कर मैं गंगा-किनारे पहुँची। फिर गाड़ी से उतर कर मैंने गंगास्नान किया और तीन अंजुल जल अपने पिता के लिए दिया। फिर मैं एक घंटे तक वहीं बैठी हुई अपने पिता के लिये खूब रोई। इतने में जब मेरी वह गीली धोती सूख गई, तब मैंने वह गाड़ी दूसरे गाँव की ओर बढ़ाई।
जिधर मैंने गाड़ी बढ़ाई थी, वह गाँव मेरे गाँव से तीन-चार कोस दूर था और उसमें एक पुलिस की चौकी थी। उसी चौकी पर मैं जाया चाहती थी। सो, दस बज़ते-बजते मैं उस चौकी पर पहुँच गई और गाड़ी से उतर कर एक ‘गोंडइत’ (गाँव के चौकीदार) से यों पूछने लगी कि,–“थानेदार कहाँ हैं?”
मेरी बात सुन और मुझे सिर से पैर तक खूब अच्छी तरह घूर कर उस बदजात चौकीदार ने मुस्कुराकर यों कहा,–“अय जानसाहिबा! तुम किस गाँव को उजाड़ कर इस वीराने को आबाद करने आई हो?”
उस हरामजादे की ऐसी बात-चीत सुनकर यह मैं समझ गई कि यह मुंआँ बड़ा पाजी है। पर खैर, उसकी बातें अनसुनी करके मैं सामनेवाले एक छोटे से छप्परदार कोठे के अन्दर घुस गई और वहाँ जाकर मैंने क्या देखा कि, “एक तख्तपोश के ऊपर दो-तीन तकियों का ढासना लगाए हुए एक नौजवान बैठा हुआ हुक्का गुड़गुड़ा रहा है।”
उसे देखकर मैंने उससे यों पूछा,–“इस थाने के अफसर आप ही हैं?”
मेरी बोली सुनकर उस की मानो पिनक दूर हुई और उसने मेरी ओर देख और दो-चार जम्हाई लेकर हँस दिया। इतने में वह गोंड़इत भी उसी कोठे में आ गया, जिसके साथ मेरी अभी बात-चीत हुई थी।
सो, उसने थानेदार की ओर देख और खूब खिलखिला कर यों कहा,–“लीजिए, जनाब! आप भी कैसे किस्मतबर बशर हैं कि सुबह-सुबह यह कोहकाफ़ की हूर आप ही आप आप के पास आ टपकी!
इस मुएं चौकीदार की वैसी बात सुनकर थानेदार खूब कहकहा लगाकर हँस पड़ा और बोला,–“अजी म्यां, तो इसमें ताज्जुब की क्या बात हुई! बकौल शख्से कि, ‘शक्करखोरे को शक्कर और मूंजी साले को टक्कर मिला ही करती हैं।’ उसी तरह मुझे भी आज यह मिसरी की डली दस्तयाब हुई!”
यों कहकर थानेदार ने मेरी ओर बुरी तरह आँखें मटकाकर यों कहा,–“तुम कहाँ से आ रही हो, दिलरुबा!”
मैं इन शैतानों, यानी चौकीदार और थानेदार के बर्ताव को देखकर मन ही मन जल-भुन-कर खाक हो गई थी, पर फिर भी बेमौका समझ कर अपना क्रोध भीतर ही भीतर पी गई और थानेदार से यों कहने लगी,–“मेरे घर में आज की रात पाँच-पाँच खून हो गए हैं, उन्हीं की रिपोर्ट लिखाने मैं खुद ही हाजिर हुई हूँ। इसलिये आप कृपा कर मेरा बयान लिख लीजिए और मुझे जिले की कचहरी के हाकिम के पास ले चलिए।”
मेरी बात सुनकर थानेदार खूब ठठाकर हँसा और सीधा बैठ कर यों कहने लगा,– “वल्लाह, तुमने तो जान साहिबा! आते ही मजाक शुरू कर दिया! या रब! ऐसा तो मैंने न कभी देखा और न सुना ही कि खुद खूनी थाने पर हाजिर होकर अपने फेल की रिपोर्ट लिखाता हो! इसलिये, प्यारीजान! तुम मुझसे दिल्लगीबाजी न करो और जिस मतलब से तुम मेरे पास आई होवो, उसे बिला-तकल्लुफ मुफस्सिल बयान कर जाओ। आओ, मेरे पास इसी तख्तपोश पर आकर बैठ जाओ।”
उस निगोड़े थानेदार का ऐसा कमीनापन देखकर मैं बहुत ही झल्लाई, पर फिर भी मैंने लोहू का घूंट पीकर उससे यों कहा,– -“साहब, मैं एक भले घर की लड़की हूँ, और आज की रात मेरे घर में पाँच-पाँच खून हो गए हैं। इसी की रिपोर्ट लिखाने मैं खुद यहाँ हाजिर हुई हूँ। इसलिये पहिले आप मेरा इजहार लिख लें, फिर मेरे घर जाकर उन पाँचों लाशों का मुलाहिजा करें। बस, अब मुझे छुट्टी दें, तो मैं भी वहाँ पहुँच जाऊँ।”
मेरी बात सुनकर उन चौकीदार और थानेदार साहबों के होशोहवास दुरुस्त हो गए और थानेदार ने मेरी ओर तिरछी चितवन से तककर यों कहा,–“वल्लाह, तुम्हारी तो सभी बातें एक अजीबोगरीब पहेली नजर आती हैं! अजी बी! कहीं भले घर की लड़कियाँ भी खून-खराबा किया करती है?”
मैं बोली,–“यह किसने कहा कि मैंने ये खून किये हैं? आप पहिले मेरा बयान लिख लें, फिर उस खून की जाँच करें और मुझे हुकुम दें तो मैं अपने घर वापस जाऊँ।”
इसपर उस चौकीदार ने कहा,–“थानेदार साहब,यह तो बड़ा मजेदार मामला नजर आता है!”
यह सुन और मेरी तरफ़ बुरे-बुरे इशारे करके थानेदार ने यों जवाब दिया,– “वाकई, मियाँ हींगन! यह मामला, दरअसल बड़ा मजेदार है!”
यों कहकर उस पाजी ने मेरी ओर बहुत ही बुरी तरह घूरकर और हँसकर कहा,– “अच्छा, जानी! तुम्हारा नाम क्या है?”
उस बदमाश की बदमाशियों पर खयाल न कर और नीची आँखें करके मैंने यों कहा,–“मेरा नाम दुलारी है।”
यह सुनकर उसने एक कहकहा लगाया और यों कहा,–“वल्लाह, प्यारी! तुम्हारा नाम तो निहायत मौजूं है! वाकई, तुम सिर्फ ‘दुलारी’ ही नहीं हो, बल्कि ‘मेरी दुलारी’ हो! क्यों? अब आया, तुम्हारी समझ के अन्दर!!!”
उस मुए की ऐसी बातें सुनकर मैं बहुत ही कुड़बुड़ाई, किन्तु लाचार थी। हाँ, इतना मैंने मन ही मन जरूर समझ लिया था कि यहाँ आकर मैंने अच्छा काम नहीं किया।
मैं मन ही मन इसी बात पर गौर कर रही थी कि उसने मुझसे फिर यों कहा,–“लो, सुनो और मेरी ओर देखकर उस खून के बारे का सारा हाल मुफस्सिल कह जाओ।”
यह सुनकर मैंने उस खून का सारा हाल कह सुनाया।
यह सुनकर थानेदार ने उठकर मुझे तो जबरदस्ती एक कोठरी में बंद कर दिया और दो चौकीदारों को मेरे पहरे पर मुकर्रर करके हींगन चौकीदार के साथ मेरी ही गाड़ी पर चढ़कर मेरे गाँव की तरफ कूच किया।