मछुआरे (मलयालम उपन्यास) : तकषी शिवशंकर पिल्लै, अनुवादक-भारती विद्यार्थी Part 2
५
दूसरे दिन सुबह तीन बजे ही सब लोग घाट पर एकत्रित हुए। उस दिन चेम्पन की नाव को उतारना था। जब कोई नई नाव निकाली जाती है तब वह सब नावों के साथ एक ही साथ निकलती है। चक्की, करुत्तम्मा, पंचमी सब समुद्र तट पर पहुँची। थोड़ी दूर पर परी भी था। पंचमी ने करुत्तम्मा का ध्यान परी की ओर आकृष्ट किया और करुत्तम्मा ने पंचमी को चुटकी काटी।
देरी करने वालों को रामन् मूप्पन ने आवाज देकर बुलाया। अच्चन उन सबों पर बिगड़ा, “नई नाव निकालनी है यह जानने हुए भी इतनी देरी क्यों करते हो ?”
चम्पन की नाव में काम करने वाले तैयार होकर आगे बढ़े। किसी ने वह गाना गाया जो परी गाया करता था। वह करुत्तम्मा के दिल में एक दर्द पैदा करने वाला गाना था।
पूरब दिशा में चांद नारियल के पेड़ों के ऊपर से झाँकता-सा दिखाई पड़ रहा था, वह मानो चेम्पन की नाव के उतरने का दृश्य देख रहा हो। समुद्र-माता प्रसन्न दिखती थी। नावों को घेरकर सब लोग खड़े हो गये। चेम्चन की नाव को सबसे पहले निकलना था। अच्चन ने मंगल-ध्वनि [1] की और बाकी लोगों ने उसे दुहराकर साथ दिया। समुद्र तट मंगल निनाद से गूँज उठा।
[1] (शुभ कार्य के अवसर में केरल में पुरुष लोग मुंह से एक सूचक ध्वनि निकालते हैं, जिसे मलयालम में ‘आर्षु’ कहा जाता है)
मूप्पन ने कहा, “चेम्पा ! पतवार थामो !”
चम्पन ने पतवार धामी और उसे सिर से लगाकर अपने इष्ट देवताओं का ध्यान किया। सबों ने मिलकर नाव को ठेला नाव समुद्र में चली गई। चक्की और करुत्तम्मा दोनों ने हाथ जोड़कर ध्यान लगाया। दोनों ने जब आंखें खोलीं तब उन्होंने नाव को तरंगों की चोटियों और खाइयों से होकर चढ़ते-उतरते पश्चिम को और अग्रसर होते देखा ।
इसमें भी लक्षण देखे जाते हैं, रामन् मुप्पन और अच्चन दोनों लक्षण देखने के लिए किनारे पर खड़े-बड़े गौर से निहार रहे थे। मूण्यन ने कहा, “कैसा है अच्चा ?”
“वजन पश्चिम की ओर है न ?”
“हाँ और झुकाव दक्षिण की ओर है।”
चक्की उत्सुकता से फल जानने के लिए उनके पास आई, उसने पूछा, “बताओ अच्चन भाई, लक्षण कैसा है?
अच्चन ने एक जानकार की गम्भीरता के साथ कहा, “अच्छा है री ! कभी अभाव का अनुभव नहीं होगा ।”
चक्की ने अतीव भक्ति के साथ उस समय भी हाथ जोड़कर सर्वशक्तिमती समुद्र माता का नाम लिया। नाव सफलता के दृढ़ विश्वास के साथ समुद्र में आगे बढती गई।
करुत्तम्मा ने कहा, “हमारी नाव की एक शान है। है न अम्मा ?”
देखते-देखते ही चक्की ने कहा, “इसकी चाल ही कितनी सुन्दर है।”
अच्चन ने कहा, “यह कहने की बात है बहन ! तुम लोगों को अब यह मिल गई है सही, लेकिन है किसकी? पल्लिक्कुन्नम कण्डनकोरन की। इसके सामने अच्छे लक्षणों वाली कोई नाम है इस समुद्र-तट पर ? कण्डनकोरन का सब-कुछ बसा ही है। उसकी स्त्री है तपे हुए सोने के समान ! उस जैसी स्त्री मछुआरों में है ही नहीं इतनी सुन्दर है वह और पर? सब-कुछ ऐसा ही है। नाव अब तुम लोगों को मिल गई है, यह एक संयोग की ही बात है, बहन !”
बाकी सब नावों को भी पानी में उतार दिया गया।
तट पर मां, बच्चे और परी रह गए। ठण्डी हवा से परी को ठण्ड लगने लगी। नावें सब बीच समुद्र में फैल गई और जाल फेंके जाने लगे।
परी धीरे-धीरे चक्की के पास आया। करसम्मा माँ की आड़ में पीछे हट गई। पंचमी परी की ओर गौर से देखती रही।
परी ने बदस्तूर अपना सवाल किया। इस बार सवाल माँ से किया गया। इतना ही फर्क था मजाक में या असलियत में, उसे वही एक सवाल पूछना था, “मछली हमारे हाथ बेचोगी न ?”
चक्की ने कहा, “नहीं तो और किसको बेचेंगे ?”
परी के उस सवाल का असली आशय चक्की की समझ में नहीं आया समझ में आयगा भी नहीं। वह सिर्फ उतना ही बड़ा सवाल था क्या? उसमें विचारों का एक समुद्र नहीं छिपा था ?
माँ की आड़ में खड़ी करुत्तम्मा ने कहा, “अम्मा, मुझे जाड़ा लग रहा है।”
उस दिन नाव समुद्र में उतारी गई। चक्की एक बात कहे बिना वहाँ से नहीं जा सकती थी ।
“बेटा, तुम्हारे ही कारण आज यह नाव समुद्र में उतर सकी। नहीं तो यह कभी सम्भव नहीं होता।”
परी ने कुछ जवाब नहीं दिया। माँ ने कम-से-कम इतना तो कह दिया। यह करुत्तम्मा के लिए बड़े सन्तोष की बात थी। इस तरह उसका आभार तो मान लिया।
चक्की ने आगे कहा, “चाकरा” [2] खतम होने पर रुपये लौटा देंगे।”
[2] (चाकरा – जून में वर्षा ऋतु के शुरू होने पर समुद्र में उथल-पुथल मच जाती है और जल की सतह से पाँच फीट नीचे तीन-चार मील लम्बे-चौड़े क्षेत्र में मिट्टी की तह जम जाती है। उसे ‘चाकरा’ कहते हैं। मिट्टी की उस तह पर समुद्र शान्त हो जाता है और मछलियों की भरमार हो जाती है। यह समय मछुआरों के लिए एक वरदान है। मिट्टी का इस तरह सतह बनाना कंगनूर से शुरू होकर प्रतिवर्ष क्रमशः दक्षिण की ओर बढ़ता जाता है और अन्त में कोल्लम के पास गदरे समुद्र में खत्म हो जाता है। एक ‘चाकरे’ को इस तरह कोल्लम के नजदीक गदरे समुद्र में विलीन होते-होते आठ मास लग जाते हैं ।)
“नहीं। मुझे नहीं चाहिए तो ?”
“नहीं चाहिए ? क्यों ?”
परी ने कहा, “लौटा देने के लिए मैंने नहीं दिया है।”
चक्की की समझ में कुछ नहीं आया । करुत्तम्मा ने समझा। इतना ही नहीं, उसका सारा शरीर पसीना-पसीना हो गया। चक्की के मन में भी एक डर पैदा हो गया। उसने पूछा, “ऐसा क्यों बेटा ?”
परी ने निश्चय के साथ कहा, “नहीं, वह लौटाने की जरूरत नहीं है।”
एक क्षण बाद परी ने आगे कहा, “करुत्तम्मा ने एक नाव और जाल खरीदने के लिए रुपया मांगा था। मैंने दिया। वह मुझे वापिस नहीं चाहिए।”
करुत्तम्मा की आंखों के सामने अँधेरा छा गया। सिर में चक्कर-सा आ गया। चक्की ने जरा कठोर स्वर में पूछा, “अरे, तुम कहतम्मा को क्यों पैसा दोगे ? वह तुम्हारी कौन होती है ?” उसने आगे और कठोर स्वर में कहा, “ऐसा नहीं हो सकता। यह सब नहीं चाहिए सब रुपये तुम्हें वापिस लेने ही होंगे।”
परी समझ गया कि चक्की गुस्से में आकर बोल रही है। उसने कुछ नहीं कहा। चक्की ने एक माँ की तरह उपदेश देते हुए आगे कहा, “बेटा, तुम विधर्मी हो। हम लोग मछुआरे हैं। इस समुद्र-तट पर तुम लोगों ने बचपन का खेल खेला है। वह थी बचपन की बात । अब हम एक अच्छे मछुआरे के साथ इसका ब्याह करने जा रहे हैं। तुम भी अपनी जाति में शादी करके जीवन बिताओ !”
थोड़ी देर बाद चक्की ने आगे कहा, “तुम लोग अभी बच्चे ही हो। कुछ समझ नहीं सकते। बदनामी का कोई काम न करो ! इतना भी लोग देख लें तो बातें करने लगेंगे। ऐसी ही लोगों की आदत है।”
चक्की बच्चों के साथ जाने लगी। पीछे घूमकर वात्सल्य के स्वर में उसने फिर परी से कहा, “सुनो बेटा, तुम अपना पैसा वापिस ले लेना !”
चक्की आगे और करुत्तम्मा तथा पंचमी पीछे-पीछे चली गई। परी खड़ा-खड़ा उन लोगों को जाते हुए देखता रहा ।
चक्की ने जो कुछ कहा था, सब ठीक ही था लेकिन उसे इतनी कठोरता के साथ वैसा नहीं कहना चाहिए था। उन बातों ने करुत्तम्मा के हृदय को बेध दिया ।
थोड़ी दूर जाने पर करुत्तम्मा ने पीछे घूमकर देखा। बिना ऐसे देखे उससे रहा नहीं गया। घर पहुँचने पर हृदय विदीर्ण करने वाला वह गाना समुद्र-तट की ओर से सुनाई पड़ा।
चक्की ने कहा, “इस लड़के को नींद नहीं आती क्या ?” चक्की ने आगे कस्तम्मा से कहा, “अब तुझे किसी तरह यहाँ से भेज दूँ, यही मैं चाहती हूँ।” माँ के शब्दों में एक आरोप छिपा था कि बेटी के कारण उसे चैन नहीं है। किसी को शान्ति नहीं है।
करुत्तम्मा ने असह्य दु:ख और क्रोध से पूछा, “मैंने क्या किया है ?”
चक्की चुप रही।
सुबह समुद्र में नाव को देखने के लिए चक्की और बच्चे तट पर गए। बस नावें दूर समुद्र में थीं। समुद्र का रंग-ढंग देखकर ऐसा लगता था कि उस दिन खूब मछलियाँ फँसेंगी। करुत्तम्मा ने माँ से पूछा कि किन-किन मछलियों के मिलने की आशा है। माँ ने लक्षण से अयिला [3] बताया।
[3] (‘अयिला’ – एक प्रकार की मछली, जिसे मांस मछलियां खाने वाले बहुत स्वादिष्ट मानते हैं।)कर सम्मा ने उत्साह के साथ कहा, “तब तो शुरू ही से हमारे लिए अच्छा होगा ।”
“समुद्र माता की कृपा रहे, बिटिया !”
एक छोटा बच्चा जैसे माँ से अपनी एक इच्छा प्रकट करता है, वैसे ही करुत्तम्मा ने अपनी एक इच्छा प्रकट की, “अम्मा, अपनी नाव की मछलियों को उस छोटे मोतलाली को देना चाहिए।”
चक्की इससे नराज नहीं हुई। उसने यह भी नहीं पूछा कि छोटा मोतवाली उसका कौन है। चक्की का भी वही विचार था लेकिन उसे एक सन्देह था, “वह पिशाच ऐसा करेगा ? कौन जाने !”
करुत्तम्मा ने उसके लिए एक उपाय सुझाया, “नाव जब किनारे लगने लगे तभी हम लोगों को भी पहुँच जाना चाहिए। उसी समय अम्मा, तुम बप्पा से कहना।”
चक्की ने ऐसा ही करने को कहा। वह जरूरी था वैसा होना ही चाहिये था।
नाव के किनारे लगने की खबर पर पर करने के लिए पंचमी समुद्र-तट पर खड़ी देखती रही।
तब तक एक दूसरा काण्ड शुरू हो गया। पड़ोसिन नल्लम्मा, काली, पेण्णम्मा लक्ष्मी आदि एक साथ पहुँच गईं। उन लोगों का एक उद्देश्य था। पेण्णम्मा ने यह जानना चाहा कि चेम्पन की नाव की मछलियाँ थोक माल खरीदने वालों के हाथ बेची जायेंगी या बुदरा खरीदने वालों के हाथ थोक खरीदने वालों के हाथ एक साथ बेच देने का रिवाज भी वहां चल पड़ा था। इससे पूरब में टोकरियों में माल बेचने जाने वाली औरतों को थोक खरीदने वालों के पाँव पकड़ने पड़ते थे । पेण्णम्मा ने आगे कहा, “दीदी, हम क्यों आई हैं यह तो बिना हमारे कहे ही तुम जानती हो।”
चक्की उन औरतों की बात समझ गई थोक वालों से लेकर बेचने में कोई लाभ नहीं होता। मुंहमांगा दाम देना पड़ता है। इतना ही नहीं थोक माल वालों की गाली भी सुननी पड़ती है।
चक्की ने पूछा, “उसके लिए मैं क्या कर सकती हूँ?”
नल्लम्मा ने अधिकार के साथ कहा, “तुम्हारी नाव की मछलियाँ यहाँ की औरतों को मिलनी चाहिए।”
चक्की इसका कोई जवाब नहीं दे सकी, सब की सब पड़ोसिनें ही थीं। उनका कहना भी सही था। लेकिन वह वचन नहीं दे सकती थी। यह भी निश्चय नहीं था कि चेम्पन मानेगा कि नहीं। इतना ही नहीं, परी ने भी मछलियां मांगी है, इस बात को वह बाहर किसी से कह भी नहीं सकती थी।
काली ने पूछा, “चक्की भोजी, तुम कुछ बोलती क्यों नहीं ? चेम्पन भैया मानेंगे कि नहीं यही डर है क्या ? तुम्हें उनको मनाना ही होगा। तुमने भी तो नाव और जाल खरीदने के लिए टोकरी पर टोकरी ढो ढो कर बिक्री की थी और पैसा जमा किया था।”
चक्की ने कहा, “सो तो ठीक है।”
लक्ष्मी ने कहा, “तुम अब बिक्री के लिए पूरब जाओगी क्या ?”
“क्यों ऐसा क्यों पूछती हो? आगे दस नावें भी हो जायें तो भी चक्की हमेशा चक्की ही रहेगी,” चक्की ने नम्रतापूर्वक कहा।
“नहीं जी, मेरा मतलब वह नहीं था। तुम भी जाओगी तो हम इकट्ठा माल लेकर आपस में बाँट लेंगी, यही सोचकर पूछा था ।”
चक्की ने अपनी लाचारी प्रकट की, “वह पिशाच मानेगा कि नहीं यह कौन जाने ?”
नल्लम्मा ने कहा, “तुम्हें उनसे कहना चाहिए। तुम कहोगी तो हो जायगा ।”
काली ने करुतम्मा से भी कहा, “तू भी बप्पा से कहना बिटिया !”
करुतम्मा ने साफ इन्कार कर दिया।
पंचमी ने कहने का भार अपने ऊपर लिया। नाव के किनारे लगने पर थोक खरीददारों की भीड़ लगने के पहले ही वह बप्पा से कहेगी। इसमें उसका भी एक उद्देश्य था। उसने मन में निश्चय किया था कि जब-जब नाव किनारे पर लगेगी तब-तब वह एक छोटी टोकरी में ‘ऊपा’ [4] उठा लेगी और उसे सुखाकर जमा करेगी। लेकिन यह तभी सम्भव था जब कि थोक खरीददारों के हाथ मछली न बेची जाय ।
[4] (ऊपा सबसे छोटी मछली को मनपालन में ‘उप’ कहते हैं।)
लाचारी में पड़कर चक्की ने भी कोशिश करने का वचन दिया। ऐसा होगा नहीं, यह वह जानती थी। उसको लगा कि एक बड़ी शिकायत होने वाली है।
दोपहर को समुद्र-तट पर बच्चे, टोकरी वाली औरतें और थोक खरीददार सब पहुँच गए। समुद्र में बहुत ऊँचाई पर ऊपर समुद्री बगुलों के झुण्ड चक्कर काटते दिखाई पड़े। नावों पर लोग जाल खींचते या झाड़ते होंगे। तट पर हरेक आदमी अन्दाज लगाने लगा कि जाल में कौन-कौन सी मछलियाँ होंगी। कादरी को लगा कि परमाणु के समान छोटी मछलियां होंगी। जो भी हो ‘बटोर’ अच्छा हुआ है, इसमें कोई सन्देह नहीं रहा। इतने में दो समुद्री बगुले पश्चिम से पूर्व की तरफ उड़ते हुए आये। एक चोंच में मछली थी सबकी नजर ऊपर चली गई, एक की आवाज सुनाई पड़ी? “मत्ती है मत्ती [5] ।”
[5] (बीरन – Sardine)
समुद्र में नावें हिलती दिखाई पड़ीं। सब पूर्व की ओर मुड़ गई। पंचमी घर की ओर दौड़ गई। उसने कहा, “बटोर में मत्ती है मत्ती ” [6] ।”
[6] (बटोर-संग्रह)करुतम्मा और चक्की उत्साह के साथ बाहर निकलीं। चक्की ने फिर अतीव भक्ति के साथ समुद्र-माता का नाम लिया। अपनी नाव को अच्छा खासा बटोर लिये लौटती हुई देखने के लिए मां-बेटी दोनों समुद्र तट की ओर दौड़ पड़ीं।
मध्य समुद्र में नावें तरंगों के चढ़ाव उतार के साथ उठती-झुकती आगे बढ़ रही थीं माँ-बेटी अनुमान लगाने लगीं कि उनमें से कौन-सी उनकी नाव है।
लोगों ने यह मालूम हो जाने पर कि ‘बटोर’ में मत्ती है, हर्ष-ध्वनि करनी शुरू की। नल्लम्मा, काली, लक्ष्मी आदि चक्की के पास इकट्ठी हो गई। पंचमी ने भी एक छोटी टोकरी ले ली थी। इतने में द्रुत गति से एक नाव एक तरंग से दूसरी तरंग पर उड़ती-सी आती दिखाई पड़ी। उनमें माल भरा-जैसा लगता था।
पंचमी बोल उठी, “एक ही डाँड है।”
उस नाव की चाल एक जलूस जैसी लगती थी। ऊपर समुद्री बगुलों के झुण्ड केण्ड और पीछे बाकी सब नावे समुद्र भी मानो हर्ष-नाद कर रहा था।
आगे वाली नाव की पतवार पर चेम्पन खड़ा था। वह खड़ा नहीं था, वह ऊपर से कूदकर डांड से पानी को चीरकर पीछे फेंक रहा था। ऐसा लगता था कि वह नाव में नहीं वरन् आकाश में है। उसके डॉड से आकाश में एक गोलाई बन रही थी। इस रूप में नाव लहरों के ऊपर उड़ती हुई-सी आगे बढ़ती आ रही थी।
काली ने कहा, “जाब की यह चाल बहुत सुन्दर लगती है।”
सबने एक ही राय प्रकट की कि नाव बहुत सुलक्षणी है।
“कोई कुछ न कहे,” चक्की ने विनती की।
नाव पास आ गई। चेम्पन एक दूसरा ही आदमी मालूम होता था। कैसा परिवर्तन था। चक्की ने कहा, “वह एक गम्भीरता है, समुद्र-माता की सन्तान की गम्भीरता।”
नाव किनारे लगी। डाँड ले-लेकर सब मल्लाह किनारे पर कूद पड़े और नाव को खींचकर ऊपर कर दिया। बच्चे नाव के चारों ओर इकट्ठे हो गए। उनमें पंचमी भी थी।
चेम्पन पतवार की जगह से उत्तेजित रूप में बाहर कूद पड़ा। बच्चे चिल्लाते तितर-बितर हो गए। पंचमी जहाँ थी वहीं खड़ी रही। वह क्यों डरती ? हुए लेकिन चेम्पन ने गरजकर कहा, “मेरी नाव के नीचे से कोई भी ‘ऊपा’ न बटोरे,”और कहते-कहते उसने पंचमी को ढकेल दिया। ‘माई रे’ चिल्लाती हुई वह कुछ दूर पर जा गिरी। करुत्तम्मा और चक्की भी चिल्ला पड़ी।
एक औरत ने कहा, “बाप रे बाप! यह कैसा पिशाच मालूम होता है !”
चेम्पन की तरह पंचमी को भी एक अभिलाषा थी, वह ऊमा बटोरकर सुखाकर जमा करना चाहती थी। शायद उससे भी कुछ आमदनी हो जाती, जो काम आती। वह अपना अधिकार समझकर अपने पिता की नाव से ऊपा बटोरने गई थी चैम्पन को कुछ सूझता नहीं था क्या? क्या इस तरह आदमी अपने को भूल जाता है ?
उस नाव में जो कुछ था, सब समुद्र की देन थी। किसी व्यक्ति का पैदा किया हुआ या पाला हुआ नहीं था। उसका एक हिस्सा ऊपा लेने का हक गरीबों को भो था। समुद्र तट का यह नियम है।
“हाय रे पिशाच !” कहकर चिल्लाती हुई चक्की ने पंचमी को गोद में उठा लिया। माँ-बेटी मिलकर जहाँ पंचमी को चोट लगी थी उस जगह को सहलाने लगीं। लेकिन पंचमी को तो चोट से बढ़कर बाप के व्यवहार से दुःख था ।
थोक खरीदने वालों ने नाव के चारों ओर भीड़ लगा दी, परी सबसे आगे था। चेम्पन ने किसी से जान-पहचान का भाव नहीं दिखाया।
कादरी मोतलाली ने पूछा, “क्या भाव है चेम्पा ?”
पेण्णम्मा, लक्ष्मी आदि इधर से उधर चक्कर काट रही थीं। पंचमी, जिसने उनको मछली दिलाने का वादा किया था, बेदम पड़ी थी। चक्की उसके पास बैठी थी।
थोक खरीदने वाले भाव तय कर रहे थे। पेण्णम्मा ने साथियों को एक बार पूछने की राय दी। नल्लम्मा ने जवाब दिया, “उस पिशाच से कौन बात करेगी ?”
बाकी नावें भी एक-एक करके पहुँचने लगीं। चेम्पन को उनके किनारे लगने के पहले ही अपना माल बेच देता था।
परी ने पूछा, “मछली मेरे हाथ बेचोगे ?”
चेम्पन ने परी को मानो देखा ही नहीं। उसने पूछा, “नकद पैसा है? मुझे नकद चाहिए।”
इतने में कादरी मोतलाली ने सौ-सौ के नोट चेम्पन को थमा दिए माल को बिक्री तय हो गई।
परी दूसरी नावों के पास दौड़कर गया सब जगह विक्री हो चुकी थी। पंचमी की हलाई जब जरा कम हुई तब करत्तम्मा ने परी को उदास भाव से लौटते देखा। उसके पास नकद पैसा नहीं था।
करुत्तम्मा ने माँ से कहा, “छोटे मोतलाली को मछली नहीं मिली।”
चक्की परी के पास गई। पूछा, “माल नहीं माँगा, मोतलाली ?”
“माँगा।”
“तब ?”
परी ने कुछ जवाब नहीं दिया। उस दिन उसको माल ही नहीं मिला। आज ‘जैसा ‘बटोर’ बहुत दिनों से नहीं हुआ था। चक्की को सब मालूम हो गया। उसे चम्पन को अपने को भूलकर व्यवहार करते देखा ही था। उसने कहा, “मछली -देखकर वह पिशाच हो गया है मोतलाली !”
“मेरे पास थोड़ा पैसा था। बाकी मैं पीछे भी दे देता।”
“इसीसे सौदा नहीं पटा ?”
” हो सकता है।”
परी आगे बढ़ा । करुत्तम्मा को कुछ कहने की इच्छा हुई। लेकिन वहाँ कैसे कहती ? पहले-पहल परी ने जो सवाल किया था, सो आज होकर ही रहा। उसके शब्द करुत्तम्मा के कानों में गूंज गये, ‘नाव और जाल जब हो जायगा तब मछली हमारे हाथ बेचोगी ?’ और उसका जवाब कि ‘अच्छा दाम दोगे तो दूँगी।’
काली, पेण्णम्मा आदि गाली देने लगीं। अन्त में उन लोगों ने थोक माल लेने वालों से माल लिया।
चेम्पन ने काम करने वालों में उनका हिस्सा बांट दिया। जाल भी धोकर पसार दिया गया। तब वह घर की ओर चला। उसके हाथ में काफ़ी रुपये थे । जीवन में एक नया प्रकाश आ गया, ऐसा उसे लगा । उसने एक नये रास्ते पर चलने का निश्चय किया। तीन बजे भोर से यह कठिन परिश्रम कर रहा था। तब भी घर लौटते समय वह थका हुआ नहीं मालूम होता था ।
घर का वातावरण सुखद नहीं था। हाथ के रुपयों के नोटों की बाक उसने चक्की को दिखाई। देखकर चक्की को कोई खास खुशी नहीं हुई।
“क्यों ? यह सबके लिए है,” उसने पूछा।
“क्यों री ? ऐसा क्यों पूछती है ?”
“देखो, जरा पंचमी की छाती की चोट देखो !”
सिसक-सिसककर रोती हुई पंचमी को चेम्पन ने उठाकर देखा। उसकी छाती में काफी चोट लगी थी।
उसने पूछा, “यहाँ जाकर क्यों खड़ी हो गई बेटी ?”
चक्की ने पंचमी की इच्छा कह सुनाई। सुनकर छोटी बेटो के प्रति चेम्पन की प्रीति बढ़ गई तो वह कुछ कमाना चाहती थी। चैम्पन ने वादा किया कि दूसरे दिन से वह रोज एक छोटी टोकरी भर मछली उसे दिया करेगा ।
चक्की ने परी के बारे में पूछा, “यह कैसा अन्याय है? किसकी मदद से नाव और जाल बना है ?”
चेम्पन को समझ में नहीं आया कि इसमें अन्याय की क्या बात है। उसने पूछा, “कैसा अन्याय री?”
उसे मछली दे देते तो क्या होता ?”
“तब काम कैसे चलता ? काम करने वालों को हिस्सा देना था न ?”
उसने आगे कहा, “उसे मछली देने से एक घाटा है। उसे जो पैसा मिलना चाहिए उसमें से वह काट लेगा।”
“तब तो उसने जो मदद की वही उसके मार्ग में बाधक हो गई है ?”
करुत्तम्मा को गुस्सा आया। भीतर से उसने कहा, “जो भी हो। उसके डेरे में अब उसके पास कुछ भी नहीं है।”
उस शाम को अच्चन के घर में भी पति-पत्नी में झगड़ा हुआ।
पत्नी ने पूछा, “बचपन का साथी है कहते-कहते नाव में जाने का सपना देखते रहने का क्या नतीजा हुआ ?”
अच्चन ने पूछा, “तुझे चक्की के पीछे घूमने से क्या मिला ?”
अच्चन ने आगे कहा, “आदमी के हाथ में जब पैसा हो जाता है तब वह पुरानी सब बातें भूल जाता है।”
नल्लम्मा ने भी इसका समर्थन किया। अच्चन ने अपना पुराना निश्चय दुहराया, “ऊँ… देखूँ मैं भी नाव और जाल खरीद सकता हूँ कि नहीं।”
नल्लम्मा को उसकी बात उतनी विश्वास-योग्य नहीं लगी।
६
चेम्पन भाग्यवान है। समुद्र में उसके बराबर मछलियां और किसी को नहीं मिलती। दूसरों की अपेक्षा उसे दुगुनी मिलती हैं। वह जब जाल फेंकता है, कभी बेकार नहीं जाता। यह एक आश्चर्य की बात है।
रात रुपये को गिनकर चक्की ने कहा, “अब हमें लड़की का ब्याह कर देना चाहिए।”
चेम्पन ने इसका कोई सीधा जवाब नहीं दिया। चक्की ने आगे पूछा, “और क्या विचार है? क्या सोचते हो कि ऐसी ही बैठी रहे ?”
चेम्पन चुप रहा। पैसा कमाने के सामने दूसरा कोई सवाल शायद उसे बड़ा नहीं लगता। पैसा रहने पर जब जो चाहेगा तत्काल हो ही जायेगा।
एक नाव के लिए जितने साधन जरूरी थे, उसने सब ले लिए। किसी भी मौसम में वह समुद्र में काम के लिए जा सकता था। उसके पास सब सामान थे।
परी का डेरा बन्द – जैसा मालूम होने लगा। वहाँ कोई काम नहीं हो रहा था। उसके पास पैसा भी नहीं था। उसके बाप ने एक बार आकर उसे खूब डांटा अब्दुल्ला मोतलानी ने शिकायत की कि उसने अपने पास का पैसा किसी मल्लाहिन पर लुटा दिया है। यह बात करुतम्मा के कान में पड़ गई।
करुत्तम्मा ने मां पर जोर डाला कि परी का पैसा लौटा दिया जाय। अब्दुल्ला ने परी से जो कहा था वह भी उसने माँ को सुना दिया। इससे बढ़कर शर्म की बात और क्या हो सकती थी ? वास्तव में परी ने अपनी मूल धन की रकम एक भल्लाहिन को दे ही दी थी।
चेम्पन ने उस दिन भी जवाब दिया, “अरी, वह लौटा दूँगा। जरा ठहर तो सही।”
चेम्पन के मुँह से कभी-कभी उसकी कुछ इच्छाएँ प्रकट हो जाती थीं। दो नाव और जाल और होना चाहिए। अपनी जमीन और घर भी होना चाहिए। हाथ में थोड़ा पैसा भी नकद रहना चाहिए, “जिन्दगी भर कमाता ही रहा न ! अब पल्लिक्कुन्नम की तरह हमें भी थोड़ा सुख भोगना चाहिए।” चक्की को थोड़ी मोटी होना है-यह इच्छा भी उसने प्रकट की।
“ओ, अब मैं मोटी होऊँगी ?” चक्की ने कहा ।
“हाँ री क्यों नहीं ? तु भी मोटायगी।”
इसके पहले चक्की ने बेपन को सुख भोगने की बातें करते कभी नहीं सुना था। चेम्पन के मन में सुख भोगने के बारे में एक नई इच्छा पैदा हुई है, ऐसा उसे लगा।
उसने पूछा, “इस बुढ़ापे में कैसा सुख भोगना चाहते हो? यह विचार कहाँ से मिला है ? कहीं से तो मिला ही होगा !”
“अरी, बुढ़ापे में भी आदमी सुख भोग सकता है। उस पल्लिक्कुन्नम को करा जाकर देखो न, तब मालूम हो जायगा कि आदमी कैसे सुख भोगता है।”
चक्की ने उपदेश देने के भाव से कहा कि वह गलत रास्ता पकड़ने की बात सोच रहा है। बुढ़ापे में सुख भोगने की बात करना गलत है।
चेम्पन ने कहा, “तू सुनेगी ? वह स्त्री तेरी ही उम्र की है। वह बराबर सज धजकर रहती है। बाल संवारे रहती है, बिन्दी लगाती है और होंठ भी लाल रखती है। देखने में भी सोने की तरह लगती है। पति-पत्नी बच्चों की तरह हैं।”
“तब मुझे भी एक बच्ची की तरह सज-धजककर रहना चाहिए ?”
“इसमें क्या बुराई है ?”
“शरम नहीं लगेगी ?”
“शरमाने की क्या बात है ?”
चक्की ने लाज का भाव दिखाते हुए एक क्षण के बाद कहा, “मुझसे नहीं “होगा यह सब ।”
चेम्पन ने ‘जालवाला’ कण्डनकोरन की कहानी सुनाते हुए कहा कि उसने वहाँ जैसा भोजन किया वैसा कहीं नहीं किया है। उनके यहाँ की तरकारियों में एक खास स्वाद था वे बच्चों की तरह अपना जीवन सुख से बिता रहे हैं। उसने आगे कहा, “एक बात सुनेगी ? मैं तो देखकर शरमा गया। एक दिन जब मैं उनके यहाँ पहुंचा तब दोनों एक-दूसरे के आलिंगन में बँधे एक-दूसरे का चुम्मा ले रहे थे।”
चक्की के मुंह से निकला “छी ! शरम की बात है।”
चेम्पन ने कहा, “शरम की क्या बात है री ? वे छोटे बच्चों की तरह हैं। हँसते हैं, खेलते हैं। ऐसा ही है”
“बाल-बच्चे नहीं हैं क्या ?”
“एक ही लड़का है।”
चक्की की ओर देखते हुए चेम्पन ने कहा, “पाप्पी [7]” के समान तुम्हारे मोटा होने के बाद हमें भी उसी तरह बच्चों का खेल खेलना है।”
[7] (कण्डनकोरन की स्त्री।)
वास्तव में चक्की के मन में भी उसी तरह आलिंगन में आबद्ध होकर चुम्बन का आनन्द लेने की इच्छा हुई। लेकिन उसने उसे प्रकट नहीं किया।
उसने कहा, “अपन भी जरा मोटे हो जायँ ।”
“मैं भी मोटाऊँगा । उसके बाद ही यह सब होगा।” कहकर चेम्पन हँस पड़ा। सुख की सारी कल्पना उसकी आंखों के सामने हाज़िर थी।
चक्की ने शिकायत के स्वर में कहा, “लगता है, उस स्त्री को देखकर तुम पागल होकर लौटे हो !”
“ठीक ही कहा री ! जो भी उसे एक बार देख ले वह पागल ही हो जायगा ।”
थोड़ी देर बाद चेम्पन ने आगे कहा, “कण्डनकोरन बड़ा भाग्यवान है।”
चक्की ने कहा, “पहले समुद्र-माता की कृपा होनी चाहिए। जब अपनी जमीन और घर हो जायगा और निश्चिन्त गुजारा करने की स्थिति हो जायगी तब फिर से बच्चे बनकर सुख से जीवन बिताने की बात करना । तब तक लड़कियों की शादी करके उन्हें भेज देंगे। चेम्पन का भी यही विचार था। लेकिन चक्की ने कहा, “मैं “सुन्दर तो हूँ नहीं !”
चेम्पन ने विश्वास दिलाया, “उस समय तक हो जाओगी।”
“अगर तब तक मैं मर जाऊँ तो ?”
“धत ! अशुभ शब्द मुंह से न निकालो!”
एकाएक एक दिन समुद्र का रंग बदल गया । पोला [8] आ गया था, पानी लाल हो गया। दो-तीन दिन बीत गए। चेम्पन से चुपचाप बैठा नहीं गया। उसने समुद्र में दूर तक जाकर काँटा डालने की बात सोची। शायद कुछ मछली आ जायँ ।
[8] (पोला में पानी का रंग बदल जाता है इसे लोग समुद्र माता के ऋतुमती होने का लक्षण मानते हैं। ऐसे समय में कोई मछलियाँ मारने समुद्र में नहीं जाता।)
उसने अपनी नाव पर काम करने वालों को बुलाया, और उनकी राय पूछो। कोई भी तुरन्त जवाब नहीं दे सका। उन घाट बालों में बहुत कम ही लोग कभी कोटा डालने गये होगे और ऐसे पोले के समय तो कोई भी कभी नहीं गया था।
चेम्पन ने दृढ़तापूर्वक उनसे कहा, “मैं एक बात कहे देता हूँ। तुम लोग नहीं आओगे तो भूखे ही रहोगे। पैंचा देने का काम मुझसे नहीं होगा ।”
फाके के दिन बढ़ भी सकते थे। वह समय लम्बा होता ही है। हरेक के पास की बचत खत्म हो चुकी थी। कुछ लोगों ने नाव लेकर थोड़ी कोशिश भी की। एक अरभिक्त [9] तक नहीं मिली। नाव पर काम करने वालों के लिए, मालिकों को पैचा के लिए तंग करने का वह समय था उनका भी हाथ खाली था ।
[9] (एक तरह की मछली।)
पड़ोस के घरों में फाकाकशी की हालत पैदा हो गई पूरी फाकाकशी। अच्चन की, जिसने नाव और जाल खरीदने का निश्चय किया था, स्थिति और भी मुश्किल हो गई। उसके कई बाल-बच्चे भी तो थे।
एक दिन कोई उपाय नहीं था। पिछले दिन झार-भूर करने पर बचा खुचा जो निकला था उसे बेचकर और मरचीनी [10] खरीदकर उससे काम चलाया गया था। उस दिन कोई उपाय नहीं हो सका। पति-पत्नी में झगड़ा हो गया। गुस्से में पति ने पत्नी को दो तमाचे लगा दिए और बाहर जाने के लिए उठा। बच्चों का भार घर दाली पर रहता है। वह घर छोड़कर कैसे कहीं जा सकती है।
[10] (tapioca. एक तरह का कन्द। गरीबों को यह भोजन का काम देता है।)नल्लम्मा ने अच्चन को खरी-खोटी सुनाते हुए कहा, “चाय की दुकान में हाँडी भरने जाता होगा।”
यह आरोप सुनकर भी अनसुनी करके अच्चन चला गया, हो सकता है कोई उपाय ढूंढ़ने के लिए ही निकला हो।
शाम तक नल्लम्मा उसका रास्ता देखती रही। अन्त में वह उठी और घर में जो फूल का गिलास था उसे लेकर चक्की के पास गई। उसने चक्की से उसे बन्धक रखकर या उसके दाम के तौर पर ही एक रुपया देने को कहा। चक्की ने उसे बन्धक रखकर एक रुपया दे दिया। लक्ष्मी को जब मालूम हुआ तब वह अपनी बच्ची के कान का फूल लेकर पहुंची। इस तरह अनेक स्त्रियां जब माँगने आने लगी तब चक्की को दिक्कत मालूम होने लगी। सबों को देने के लिए उसके पास रुपये नहीं थे। रुपया नहीं है’ कहने पर कोई विश्वास ही नहीं करता। काली एक फूल की उरुली (कढ़ाई) लेकर बड़ी आशा से आई जिसे उसने पिछले साल ‘मण्णारशाला’ [11] से खरीदा था। चक्की ने कहा, “इस तरह सब लोग यहाँ आने लगे तो देने के लिए रुपये कहीं गाड़कर रखे हैं क्या ?”
[11] (एक जगह का नाम, जहाँ हमाल एक बड़ा मेला लगता है।)
बच्चे घर में भूसे थे इसीलिए काली आई थी। उसने यह नहीं सोचा था कि चक्की इस तरह रुखाई का व्यवहार करेगी। चक्की ने आगे कहा, “सबको चम्पन का पैसा चाहिए पर मौका मिलने पर सब पतल में छेद करने लगेगे।”
काली ने पूछा, “मैंने क्या किया है जी ?”
“कुछ नहीं किया है। यहाँ रुपया नहीं है।”
“तुम ऐसे क्यों बोल रही हो, मानो मुझे पहले कभी देखा ही न हो।”
“अपनी बात मुझे नहीं करनी चाहिए ?”
काली को गुस्सा आ गया। उसने कहा, “तेरे पास कब से रुपया हो गया है। री ?”
“तू क्यों मेरा अपमान कर रही है री ?”
इसके बाद एक वाक् युद्ध शुरू हो गया। करुत्तम्मा ने आकर बीच-बचाव किया। उसे डर था कि झगड़ा बढ़ने पर उसीकी बात घसीटी जायगी। उसने काली के पैर पकड़ लिए। काली अपनी ‘उरुली’ लेकर लौट गई।
करुतम्मा माँ पर बिगड़ी, “यह क्या है अम्मा ? तुम इस तरह अपना होश हवास क्यों खो बैठती हो ?”
“और क्या ?”
“ऐसे भी, नाव और जाल खरीदने के बाद बप्पा और तुम दोनों ही बदल गए हो।”
उस शाम को चेम्पन जब खाना खा रहा था तब चक्की मोहल्ले वालों का समाचार यानी उनकी फाकाक्शी की कहानी सुना रही थी। उस दिन एक घर में भी चूल्हा नहीं जला था।
चेम्पन ने कहा, “भूखे पड़े रहने दो तभी हमारा काम बनेगा।”
कौन काम बनेगा यह करुतम्मा जान गई। उसे अपने बाप से घृणा हो चक्की ने पूछा,
“कौन काम?”
“सबको ऐसे ही छटपटाने दो। हाथ में चार पैसे हो जाते हैं तो इन लोगों को- स्त्री-पुरुष दोनों को, होश नहीं रहता। जिस दिन पैसा हो जाता है उस दिन आलप्पुषा (शहर) ही जाकर खाना खाते हैं। घर में औरत के पहनने के लिए कपड़ा नहीं होगा, लेकिन जरी के किनारे का महीन कपड़ा जरूर खरीदेंगे। मल्लाहिनों का पाँव उस दिन जमीन पर नहीं पड़ता। अब सबको तारे गिनने दो।”
करुत्तम्मा आश्चर्य से सुनती रही। चक्की ने पुराना तत्त्व-ज्ञान सुनाया, “मल्लाह कभी बचाकर रखता ही नही !”
“नहीं बचाता, तो न बचावे। अब उसका फल भोगे। यह सब बेटी को भी सिखा दो। वह भी भूखी रहना सीख जाय।”
चक्की ने मुस्कुराते हुए कहा, “ओह, बड़े होशियार बन गए हो !”
“हाँ री, मैं होशियार ही हूँ। मेरे पास पैसा है।”
“हाँ-हाँ उसके बारे में कुछ कहना ही क्या ? उस बेचारे छोकरे ने अपना डेरा ही बन्द कर दिया है और घर में लड़की भी शादी की उम्र पार कर बैठी है।”
करुत्तम्मा को यह पूछने का मन हुआ, ‘परी को भी भोगना चाहिए, है न?’
समुद्र-तट के उस अकाल से फायदा उठाकर चेम्पन और चक्को ने सोने-चाँदी और फूल के बरतन सस्ते दाम पर खरीद लिये। लड़की की शादी के समय बहुत ‘चिन्ता नहीं करनी पड़ेगी। एक दिन एक अच्छी खाट मिली। पति के घर आने पर पत्नी ने सलज्ज भाव से हँसते हुए कहा, “मैंने एक खाट मोल ली है।”
उसी तरह हँसते हुए चेम्पन ने पूछा, “क्यों खरीदी ?”
“खाट किस काम के लिए है ? लेटने के लिए ही न ?”
“किसके लेटने के लिए “
“लड़की के लिए। जब लड़का आयगा तब उसके लेटने से लिए।”
“ओह!! उनके लिए है ?”
“नहीं तो फिर किसके लिए ? बढ़े-बूढ़ी के लिए ?”
चेम्पन ने मानो उसका समर्थन करते हुए कहा, “ओह, तब नहीं चाहिए। लेकिन मैंने एक तोशक बनवाने का निश्चय किया है। कण्डनकोरन के यहाँ जैसा देखा है वैसा ही तोशक । “
चक्की ने कहा, “तब उस पर साथ में सोने के लिए एक सुन्दर लड़की भी चाहिए न ?”
“मैं तुझे बँसी ही बनाऊँगा।”
चेम्पन के मन में एक और बड़ी इच्छा पैदा हुई। शायद वह जीवन में सुख भोगने की इच्छा की एक कड़ी ही हो । उसे एक और नाव लेनी चाहिए। लेकिन पास में जो नगद था उसमें से तीन-चौथाई जंगम सम्पत्ति में लग चुका था। फिर श्री चैम्पन को वह असाध्य नहीं लगा।
एक दिन सुबह जब चेपन उठा तब उसने अपने यहाँ ‘जालवाला’ रामन आया देखा। चेम्पन ने उसकी आवभगत की और उसे आदरपूर्वक बैठाया। रामन् उसी घाट का था। उसके पास दो नावें थीं। उसकी स्थावर सम्पत्ति सब दूसरों के हाथ में चली गई थी। चेम्णन ने कुछ काल तक उसकी नाव पर काम किया था।
रामन् को उस भुखमरी के समय अपने यहाँ काम करने वालों को पैसा देने के लिए कुछ रुपयों की जरूरत थी। जरूरत पड़ने पर वह औसेप्स से कर्जा लिया करता था। औसेप्स को कुछ चुकाना बाकी रह गया था। ऐसी हालत में उससे मांगने में उसे संकोच मालूम हुआ। उसने चेम्पन से कहा, “हमारे सहारे गुजारा करने वाले सब भूखों मर रहे हैं। समुद्र में इस समय कोई काम नहीं है। उनकी हालत देखी नहीं जाती।”
चेम्पन ने उसकी बात का समर्थन किया ।
“हाँ हाँ, इस समय जैसी हालत है उसमें चुप लगाकर बैठ जाना ठीक नहीं है।
बिना किसी हिचक के चेम्पत कर्जा देने के लिए तैयार हो गया ।
“कितने रुपये चाहिए ?”
“डेढ़ सौ काफी है।”
चेम्पन ने गिनकर रुपये दे दिए।
रामन् ने पूछा, “तुम अपनी नाव में काम करने वालों को उधार नहीं देते ?”
सिर खुजाते हुए चेम्पन ने कहा, “मैं कैसे दूँगा ? मैं भी तो उन्हीं की तरह काम करने वाला ही हूँ न? गिलहरी कैसे हाथी की तरह मुँह बाये !”
रामन् हँस पड़ा । चेम्पन ने अपने कथन को और स्पष्ट कर दिया। रामन् के चले जाने पर चेम्पन चक्की के पास जाकर पागलों की तरह हँसने लगा। उस दिन की तरह इतने उत्साह के साथ उसे कभी हँसते नहीं देखा गया था ।
चक्की ने पूछा, “यह कैसा पागलपन है ?”
“अरी पगली, तू क्या समझेगी ? छ महीने के अन्दर उसकी चीनी नाव मेरी हो जायगी।”
उसने आगे कहा, “पैसा पास में रहने से यही फायदा है। “
चेम्पन की नाव में काम करने वाले उधार के लिए उसे तंग करने लगे। उसने पूछा, “तुम लोग काम करने के लिए तैयार हो ?”
“हाँ।”
“तब चलो, बीच समुद्र में जाकर कोटा डालें।”
“यह कैसे हो सकता है? इस कुसमय में बीच समुद्र में कैसे जाया जायगा ?”
चेम्पन ने एक दूसरा उपाय सोचा। उसने कहा, “वह दूसरे लोगों को काँटा डालने के लिए साथ में ले जायगा और बाद में उन्हींको काम के लिए रखेगा।”
“पैसा लगाकर नाव और दूसरी जरूरी चीजें प्राप्त कर लेने के बाद चुप नहीं बैठा रह सकता। इससे कितना घाटा होगा ?”
दो-तीन दिन के बाद एक दिन सुबह चेम्पन को पतवार को जगह पर खड़े होकर नाव को तीव्र गति से पश्चिम की ओर ले जाते जब देखा तभी चक्की और करुत्तम्मा को यह बात मालूम हुई। उस दिन तेरह घरों की औरतों और बच्चों ने भगवान् का नाम लेते हुए समुद्र तट पर ही आतुरतापूर्वक समय काटा। पुराने लोगों ने समुद्र का रंग-ढंग देखकर स्थिति को विकट बतलाया उनका अनुमान था कि समुद्र में भंवर पैदा होगी।
रात होने पर भी नाव नहीं लौटी। तट पर रोना-धोना शुरू हो गया। थोड़ी देर में घाट वाले इकट्ठे हो गए। सबकी नजर पश्चिम की ओर थी।
रात शान्त थी। समुद्र निश्चल था। तारे चमक रहे थे। किसी को लगा कि उधर समुद्र में बहुत दूर पर एक बिन्दु के समान कोई चीज दिखाई दे रही है। शायद वही नाव होगी।
लेकिन नाव नहीं आई।
कोच्चन को बूढी माँ छाती पीट-पीटकर रोती हुई चक्की से अपने बेटे को माँगने लगी। बाबा की पत्नी, जो गर्भिणी थी, किसी पर आरोप लगाये बिना, बैठकर रो रही थी। इस तरह समुद्र तट पर खूब रोना-धोना होता रहा।
करीब आधी रात के समय दूर से एक ‘आरव’ सुनाई पड़ा। किसी ने चिल्ला कर कहा, “नाव आ रही है।” नाव एक पक्षी की तरह तेजी से आ रही थी।
नाव में एक ‘शार्क’ था। दो पकड़े गये थे। पर दोनों को एक साथ नाव में लाना कठिन हो गया। इसलिए चेम्पन ने दूसरे को काट डाला था। उसके टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें उसने बिक्री के लिए पूरब जाने वाली औरतों में बाँट दिया, और कह दिया कि बेचकर लौटने पर दाम चुका देना काफ़ी है। काली, लक्ष्मी आदि सबको हिस्सा मिला। उस दिन कई घरों में चूल्हे जलाये गए।
दो दिन बाद फिर कोटा डालने के लिए लोग गये। उस दिन भी चैम्पन सफल होकर लौटा। समुद्र की बिगड़ी हालत में भी चेम्पन के पास पैसा जमा होने लगा । पुराने लोग हारकर चुप हो गए थे। औरतों ने कहा कि चेम्पन के कारण कम-से कम पानी पीने का उपाय तो हो जाता है।
और नाव वालों ने भी कोटा डालने के लिए जाने का निश्चय किया।
सबको विश्वास था कि भुखमरी के बाद समृद्धि होगी। पिछले साल ‘चाकरा आलप्पुषा के उत्तर में था। उस हिसाब से इस बार इसी तट पर होगा दुर्भाग्यवश ऐसा न भी हो तो भी मछली मारने की तैयार तो होनी ही चाहिए। इसका यह अर्थ था कि नाव, जात आदि सब चीजों की मरम्मत होनी चाहिए। यह काम उस अकाल के समय ही हो जाना चाहिए। नाव वाले संकट में पड़ गए।
औसेव्य और गोविन्दन रुपयों की चैनियाँ लेकर निकल आए। सबको पैसे की जरूरत थी। किसी भी शर्त पर कर्ज लेने के लिए लोग तैयार थे। योक माल लेने वालों ने आलप्पुषा कोल्लम, कोचीन आदि जगहों के झिंगा मछली के व्यापारी सेठों के मैनेजरों की खुशामद की।
इस तरह कर्ज़ से उठाये गये पैसे का प्रताप उस तट पर दिखाई देने लगा। कम्पा जाल [12] की मरम्मत का काम भी होने लगा ।
[12] (कम्पाजाल – थोड़ी दूर पर समुद्र में डाला जाने वाला जाल, जिसमें एक सम्या रस्ता बंधा रहता है। नाव पर ले जाकर इसे पानी में डाल दिया जाता है। बाद में उसे समुद्र तट पर खड़े हुए लोग बींच लेते हैं।)
छोटे-छोटे व्यापारी लोग औरतों को कर्जा देने के लिए पैसा लेकर घर-घर आने-जाने लगे घरों में औरत और बच्चे मिलकर जो मछली सुखा-सुखाकर रखते थे, उसके लिए पेशमी के तौर पर पैसे दिये जा रहे थे। इस बीच पर-पर घूमने वाले एक मोतलाली छोकरे को कोच्चुकुट्टी के घर में उसके पति ने घायल कर दिया। इस पर एक केस भी चल गया।
चेम्पन बीच-बीच में रामन से मिलता था। रामन् डरता था कि वह कर्जा लौटाने की मांग न कर बैठे। लेकिन चेस्पन ने रुपये लौटाने की बात नहीं उठाई। इतना ही नहीं, उसने पूछा कि और रुपये की जरूरत है क्या ?
परी ‘चाकरा’ व्यापार के लिए कोई तैयारी नहीं कर रहा था। उसके बाप ने डेरे को बन्द ही कर देने को कहा था। उसका कहना था कि परी समुद्र-तट पर काम छोड़ दे और कोई दूसरा धन्धा शुरू करे। लेकिन परी को ऐसा करना पसन्द नहीं था। उसने साफ कह दिया कि वह ऐसा नहीं कर सकता। वह उस स्थान को छोड़कर कहीं जाने को तैयार नहीं था।
उसके बाप अब्दुल्ला को आश्चर्य हुआ। उसके सामने परी ने पहले कभी इस तरह बात नहीं की थी।
अब्दुल्ला ने जगह छोड़ने का कारण पूछा।
परी ने कहा, “आपने मुझे बचपन में ही यहां लाकर मछली के व्यापार में लगाया था। मुझे दूसरा कोई काम नहीं आता।”
“पूँजी ही जो तुमने खत्म कर दी है।
इसका जवाब तो परी को देना ही था। उसने कहा, “ऐसे तो बप्पा, व्यापार में लाभ-हानि, दोनों होते ही है। कभी-कभी पूंजी भी खत्म हो जाती है।”
“आगे भी ऐसा ही हो एब ?”
इसका एक ही जवाब परी के पास था, “बप्पा, मुझे जितना देने का आपने निश्चय किया है उतना ही दे दें तो काफ़ी है। बाद में फिर कभी कुछ देने की जरूरत नहीं है।”
“इसके लिए इतनी सम्पत्ति कहाँ है रे ? कुल ४० सेण्ट हो तो जमीन है।”
अब्दुल्ला पर काफ़ी जिम्मेवारियां थीं। पहले उसके पास जो जमीन थी, अब नहीं रही। एक बेटी की शादी करनी थी। शादी तय हो गई थी। अब्दुल्ला ने यह सब परी को बतला दिया। तब भी परी में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
करुतम्मा को मालूम हो गया कि परी के डेरे में ‘चाकरा’ व्यापार की कोई तैयारी नहीं हो रही है। उसके लिए चटाई टोकरी आदि नहीं खरीदी जा रही है। टोकने की मरम्मत भी नहीं हो रही है। न चूल्हा ही बनाया जा रहा है। उसने अपनी माँ से कहा कि परी ने जो मदद की है उसके लिए जरा भी अहसान का भाव मन में हो तो उसका पैसा इसी समय उसे वापिस कर देना चाहिए।
चक्की ने चेम्पन को तंग करना शुरू किया। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। इतना ही नहीं, चेम्पन उल्टा नाराज हो गया । करुत्तम्मा को अब विश्वास हो गया कि चेम्पन परी को उसका रुपया नहीं लौटायगा। कभी-कभी वह अपने मन में कुछ तय भी करती। ऐसे ही एक अवसर पर उसने मां से कहा, “मेरा शरीर इस भार को सहन नहीं कर सकता।”
इसका मतलब माँ तुरन्त नहीं समझ सकी। उसने पूछा, “तेरे शरीर पर कौन साभार है री ?”
करुतम्मा रो पड़ी। चक्की ने उसे शान्त करने की कोशिश की। लेकिन करुत्तम्मा ने हठ पकड़ी, “बप्पा से मैं सब-कुछ कह दूंगी। सब-कुछ मैं जानती उस समय पैसा भी हो जायगा ।”
चक्की घबराई, “बिटिया मेरी, तू ऐसा मत कर !”
चक्की जितना जानती थी वह सब चम्पन जान जाय तो क्या होगा ? चक्की यह सोच भी नहीं सकती थी। करुत्तम्मा की बात सुनकर उसे लगा कि उसको जितना मालूम है इसमें उससे भी ज्यादा बात है।
अकेले में करुत्तम्मा का मन कभी-कभी बेकाबू हो जाता था। वह परी से प्रेम करती थी। उसके हृदय में दूसरे किसी के लिए जगह नहीं थी, चाहने पर भी परी को ही नहीं, परी के साथ अपना सम्बन्ध भी वह एक क्षण के लिए नहीं भुला पाती थी। एक मल्लाहिन के तौर पर ही उसने जन्म लिया था, और एक मल्लाहिन के तौर पर ही उसे मरना है। यह कैसे हो सकता था, वह जानती थी। उसके लिए परी को भूल जाना था न ?
अगर कर्जा चुका दिया जाय तो वह भूल सकेगी। ऐसा उसका विश्वास था । वह यह सोच नहीं सकती थी कि उसीके कारण परी अपना सब काम-धन्धा गँवाकर निराधार हो जाय। यही बात उसके दिमाग में हमेशा बनी रहती थी। समय बीतता गया। लेकिन स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ा। चेम्पन ने परी को रुपया नहीं लौटाया
७
समुद्र-तट पर लोग प्रतीक्षा में ही दिन काट रहे थे। रात के भोजन में मरचीनी और कंजी [13] लेते समय हरेक घर में लोग समुद्र माता को स्मरण करके यह प्रश्न करते कि ‘हे समुद्र माता, एक मुट्ठी अन्न खाने का अवसर फिर कब मिलेगा ?” उसका उत्तर भी वे स्वयं देते थे, ‘चाकरा के साथ।’ उन्हें लग रहा था कि एक मुट्ठी अन्न खाये जमाना बीत गया ।
[13] (कंजी पतले माँड सहित भात ।)
चाय वाले जब चाय उधार देने से इन्कार करते तब मछुआरे कहते थे कि “अरे, ‘चाकरा’ आयगा जी !”
घरों में औरतों के कपड़े गन्दे होकर फटने लगे और उनमें पैबन्द लगने लगे। तब भी लोग यही कहते, ” ‘चाकरा’ आने दो ! मलमल और महीन कपड़े सब खरीदेंगे।”
उस समय सब इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है।
करुत्तम्मा के मन में भी एक अभिलाषा थी, जिसको उसने अपनी माँ से कहा, ” ‘चाकरा’ के समय किसी भी तरह कुछ पैसा कमाना चाहिए। उसके अलावा बप्पा की कमाई से भी कुछ पैसा लेना चाहिए। ऐसा करके परी का कर्जा चुका देना चाहिए।”
चक्की ने भी कुछ कमाना चाहा। लेकिन उसका उद्देश्य कुछ दूसरा ही था। वह चाहती थी कि कमाकर कुछ सोना खरीदे।
करुत्तम्मा ने कहा, “मुझे सोने-कोने की जरूरत नहीं है। वह कर्जा चुका दिया जाय। यही बहुत है।”
चक्की ने पूछा, “बेटी, उस कर्जे को चुकाने की जिम्मेवारी बाप की ही है न ?”
“बप्पा नहीं चुकायेंगे।”
चक्की ने हुँकारी भरकर सहमति प्रकट की। करुत्तम्मा हिसाब लगाने लगी।
पंचमी का अपना अलग कार्यक्रम था। वह ऊपा बटोरेगी। बप्पा ने एक-एक टोकरो मछली देने का वचन भी दिया है।
परी ने भी कुछ तय किया अब्दुल्ला ने घर और जमीन सेठ के पास रहन रख दी। उसके आधार पर वह दो हजार रुपये तक खर्च के लिए ले सकता था उसने निश्चय किया कि उस साल होशियारी से ‘वाकरा’ व्यापार चलाया और कर्जा चुकाकर बहन की शादी भी कर देगा।
अच्चन ने निश्चय किया कि इसी ‘चाकरा’ में उसे भी एक नाव का मालिक बनना है। समुद्र का पोला और अकाल बिल्कुल अप्रतीक्षित था। उस समय खूब फाकाकशी रही। अच्चन औसेप्प के पास गया और एक नाव तथा जाल खरीदने की बात उठाई। उसके लिए चाहे जैसी भी व्यवस्था करनी पड़े वह तैयार था। उसने कहा, “मैं भी एक नाव को पतवार पर चढ़कर समुद्र में जाना चाहता हूँ। मेरी भी स्त्री समुद्र-तट पर आकर खड़ी-खड़ी देखा करेगी।”
औसेप्प ने पूछा, “हाथ में कितना है अच्चा ?”
अच्चन ने कहा, “कुछ नहीं ।”
“तब कैसे होगा ?”
अखिर औसेप्प ने एक सुझाव दिया, ” ‘चाकरा’ की कमाई जमा करनी चाहिए। ‘चाकरा’ के बाद नाव खरीदना ! जो रकम घटेगी, वह दे देगा।”
“लेकिन एक बात है। नाव और जाल मेरे ही नाम पर खरीदना होगा । तुम्हें सिर्फ़ हिस्सा मिलेगा। पतवार का हिस्सा भी तुम्हें मिलेगा। अच्छा तो यह होगा कि ‘चाकरा’ में जो कुछ मिले, मेरे ही पास जमा करते जाओ! मैं हिफाजत से रखूँगा।”
अच्चन सहमत हो गया। ऐसा ही वहाँ हुआ करता था पर पहुँचकर उसने नल्लम्मा को सब बातें कह सुनाई और कहा, “पूरब में बिक्री से तुम्हें जो मिले उसे भी मुझे दे दिया करना !”
“ऐसा क्यों ? तुम अपना हिस्सा भी मेरे पास जमा करना !” नल्लम्मा ने कहा ।
“जा, निकम्मी कहीं की। दोनों का हिस्सा औसेप्प के यहाँ जमा करना है।”
नल्लम्मा को इस पर पूरा विश्वास नहीं हुआ। उसने पूछा, “मालूम है, चेम्पन भाई ने कैसे नाव और जान खरीदा? वह अपनी कमाई का पूरा पैसा चक्की को सौंपता जाता था।”
अन्त में औसेप्प के पास जमा कराने पर दोनों सहमत हो गए ।
अच्चन ने सबसे कहा कि वह भी नाव और जाल खरीदने जा रहा है।
इस तरह की प्रतीक्षा के बीच ही वर्षा का आरम्भ हो गया। समुद्र में उत्तुँग तरंगों का दृश्य उपस्थित हो गया। बाद में पानी के खिचाव से जान पड़ा कि ‘चाकरा’ वहीं होगा। वहाँ के मल्लाहों के चेहरे पर आशा और उमंग का भा खिल उठा। समुद्र तट शीघ्र ही उत्तर से दक्षिण तक एक बड़े शहर का रूप धारण कर लेगा। दोनों तरफ झोपड़ियाँ खड़ी करनी शुरू कर दी गई। चाय की दुकानें कपड़े, दर्जी सोने-चाँदी सब तरह की दुकानें सज गई। इस साल एक ‘डायनमा’ लगाकर बिजली की बत्ती का इन्तजाम करने की भी खबर थी।
समुद्र में दूसरी बार तरंगें उठीं। पानी खूब मया गया। सब लोग आनन्द से उछल पड़े। सबों के हृदय में इच्छाओं की कलियाँ अंकुरित होने लगीं। इस उथल पुबल के बाद पानी जब शान्त हो जायगा तब लोगों की समृद्धि का उदय होगा ।
समुद्र शान्त हो गया। दूर-दूर से नाव आने लगीं। बरसात का मौसम था । आँधी-पानी का भी जोर था। फिर भी समुद्र एकदम एक तालाब जैसा शान्त था।
चेम्पन की नाव पर काम करने वाले सब-के-सब होशियार थे। उसने उन्हें और भी निपुण बना दिया था। चेम्पन पतवार पर जाकर खड़ा हो गया और उसने एक गौरव के साथ नाव को चला दिया। वह एक सुन्दर दृश्य था
पहले दिन मछली कम ही मिली पानी की स्थिरता देखकर मछलियों ने आना अभी शुरू ही किया था। दूसरे दिन भी सब नावें समुद्र में गई। चेम्पन को अधिक मछलियाँ मिलीं। अच्चन का खयाल या कि चेम्पन सबसे पहले मछली मारने निकल गया इसीलिए उसे अधिक मिलीं, रामन् मूप्पन का खयाल इससे भिन्न था। उसने कहा, “वह पल्लिक्कुन्नम का भाग्य ही है जो मोल लाया है। सबकी इच्छा थी कि चेम्पन के बराबर नहीं, तो कम-से-कम भी उसके लगभग तो मिलना ही चाहिए। वास्तव में चेम्नन से सबको एक प्रेरणा प्राप्त हुई।
अच्चन ने अपने साथियों को ठीक किया, “सब याद रखो ! जोर से आवाज देकर सबको बुलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। अरे, हमें भी एक निश्चयः करना चाहिए।”
सबने निश्चय किया कि वह भी देखेंगे कि चेम्पन के बराबर बटोर ला सकेंगे या नहीं। लोग पहले की अपेक्षा सवेरे ही समुद्र-तट पर इकट्ठे हो गये। फिर भी कुछेक को आवाज देकर बुलाना ही पड़ा। चाय की दुकानों में भी पहले हो बिक्री हो गई। दूसरों की स्पर्धा के बारे में चेम्पन को कुछ मालूम नहीं था। उस दिन इसकी नाव बाद में गई।
समुद्र में नावों की चाल देखकर ऐसा लगा कि उस दिन खूब मछली मिलेगी। पोक माल लेने वाले और दूसरे व्यापारी, सब तट पर इकट्ठे हो गए। परी जरा चिन्तित दीख रहा था। वह किसी को प्रतीक्षा में था। हाथ में पैसा कम था। सेठजी के मैनेजर ने पैसे लाकर देने की बात कही थी। लेकिन वह आया नहीं। परी उसी की प्रतीक्षा कर रहा था। सब तरह से कमाने का वह अवसर था। समुद्र में बटोर बहुत अच्छा हुआ। दिन भी साफ और धूपदार था। झिंगा उसनी जाय तो अच्छी तरह सूख जायगी। उस दिन आदमी कुछ कमा सकता था।
समय बीतता गया सेठ का मैनेजर पाँच पिल्ले नहीं आया। परी हरा कि उसके लिए ‘चाकरा’ की शुरुआत ही बिगड़ रही है।
सब नावें तट की ओर मुड़ीं परी की घबराहट बढ़ने लगी। बाकी सब लोग पैसे लेकर खड़े थे।
तट पर से हर्ष-नाद बुलन्द हो उठा। होटलों में भोजन परसने की तैयारी शुरू हो गई। नाव किनारे पर लगते ही सब भीड़ लगाने लगेंगे। डेरे में लोग कण्टर चूल्हों पर रखने लगे। एक मिनट भी बर्बाद नहीं करना था। परी के मजदूर भी काम के लिए तैयार हो गए।
सबके आगे चेम्पन की नाव थी। रोज की तरह वह उछलती हुई आ रही थी।
कादरी ने कहा, “उसकी नाव से जीतने की बात सोचना ही व्यर्थ है।”
मोयिदीन ने उसका समर्थन किया।
एक बूढ़े मल्लाह ने अपनी राय प्रकट की, “पतवार पर खुद मालिक ही जो है।”
नाव किनारे लगी । नाव पर झिंगा मछली थी। कहीं जगह खाली नहीं थी।
परी अपने को भूलकर चेम्पन के पास दौड़ा गया। पहले का अनुभव वह मूल गया था। उस समय कोई भी भूल सकता था।
परी ने प्रार्थना के स्वर में कहा, “चेम्पन कच्चे, माल मुझे दो!”
चेम्पन ने निर्दयतापूर्वक उसकी ओर देखा और पूछा, “पास में पैसा है ? नहीं है तो जाओ !”
नाव किनारे लगने पर मल्लाह का स्वभाव ही ऐसा हो जाता है।
परी के कुछ जवाब में कहने के पहले ही कादरी वहाँ पहुँच गया। परी यह समझकर कि चेपन की नाव की मछली नहीं मिलेगी दूसरो नावों की तरफ दौड़ा।
उस रोज भी पहले की तरह चेम्पन में ही मछली का भाव तय किया। उस दिन खूब मछली मिली थी। चेम्पन का बटोर सबसे ज्यादा था।
परी ने किसी दूसरे की नाव से एक तिहाई माल मोल लिया। उसके पास उतना ही रुपया या । खर्च काटकर नाव वालों को हिस्सा दिया गया। तब चेम्पन को एक खयाल आया। उसने पूछा, “आज समुद्र की कमाई देखो ! कैसी धूप है और कैसा प्रकाश है ! कमाने का अच्छा दिन है। दाम भी अच्छा मिला है।” उसके कहने का मतलब नाव पर काम करने वालों ने नहीं समझा। तब चेम्पन ने आगे कहा, “अरे गधे सब, मौका जब मिलता है तब उसका पूरा फायदा उठाना चाहिए पैसा कमाने का यही समय है न ! खाना खाकर तैयार हो जाओ ! एक और बटोर के लिए मैं जाने को तैयार हूँ।”
पास में खड़ा अच्चन सुन रहा था। चेम्पन ने उससे तो कहा नहीं था। फिर भी वह बोल उठा, “सुनने पर जवाब दिये बिना मैं नहीं रह सकता। पैसा मिलेगा यह सोचकर समुद्र ही बाली कर दोगे क्या ?”
इतना ही नहीं एक ही दिन में दो बार मछली मारने के लिए जाने का काम इसके पहले कभी नहीं हुआ था। ऐसा होना भी नहीं चाहिए।
चेम्पन ने कहा, “तुम्ही लोग सोचो!”
समुद्र तट ऐश्वर्य से जगमगा रहा था। घरों के चारों तरफ सोना बिखरा हुआ जैसा लग रहा था। उसनी हुई मछली सूखने के लिए पसार दी गई थी।
उस दिन अच्चन खाना खाने के लिए होटल में नहीं गया। सोधा घर गया । कमाकर पैसा बचाने का निश्चय किया था न ! नल्लम्मा ने पूछा, “आज बिना खाना खाये क्यों चले आए ?”
अच्चन झुंझला गया । बोला, “अरी तेरा कभी भला नहीं हो सकता। मैं कहे देता हूँ, तुझे कभी नाव और जाल नहीं मिल सकता ।”
अच्चन वापिस जाने लगा । अपनी गलती महसूस करते हुए नल्लम्मा ने कहा, “सुबह जाते समय कहकर क्यों नहीं गये ?”
अच्चन ने कहा, “यह तो पहले ही कसम खाकर हम दोनों ने तय किया था न ?”
उसका कहना ठीक ही था। जब अच्चन आगे बढ़ा तब नल्लम्मा ने कहा, “खाने का खर्च निकालकर बाकी यहाँ दे जाया करो ! मैं रखूंगी। औसेप्प के पास बाद को जमा किया जायगा ।”
अच्चन ने कुछ नोट और खरीज उसके सामने फेंक दी।
खाना खाने के बाद चैम्पन तुरन्त समुद्र-तट पर चला आया। उसी दिन वह और पैसा कमाने का सपना देख रहा था।
शाम को चेरियषिक्कल और तुक्कुन्नपुषा आदि जगहों से नावें पहुँच गई। रात को घनघोर वर्षा हुई। दूसरे दिन प्रकाश होने के बाद ही नाव समुद्र में उतरीं ।
खूब सवेरे ही नाव न निकालने के कारण चैम्पन काम करने वालों पर खूब बिगड़ा।
उस दिन भी चेम्पन ही आगे था। लेकिन एक और नाव भी तेज़ी से आगे बढ़ रही थी। उसमें लोग दम तोड़कर डाँड़ चला रहे थे। पतवार की जगह पर एक बहुत होशियार आदमी खड़ा होकर फुर्ती से नाव का संचालन कर रहा था। उसे देखकर लोग आश्चर्य करने लगे कि वह किसकी नाव है। पता लगा कि वह तुक्कुन्नपुषा की नाव है और पतवार-चालक का नाम है पलनी । वह कम ही उम्र का था।
चेम्पन की नाव और पलनी को नाव बराबर-बराबर रहीं। देखने से ऐसा लगता था कि आगे निकल जाने के लिए दोनों में होड़ लगी है। नावों के नाविक मानो जिद पकड़कर डाँड़ चला रहे थे और दोनों नावों के पतवार-चालक पूरी ताकत लगाकर नाव का संचालन कर रहे थे। बड़ा ही स्फूर्तिदायक दृश्य था।
ऐसा सन्देह होने लगा कि चेम्पन की नाव जरा पीछे पड़ रही है। ज्यादा मछली किसको मिलेगी, नहीं कहा जा सकता था। जाल फेंकने और नाव घुमाने का दोनों का ढंग देखकर कुछ अनुमान करना मुश्किल था।
लौटते समय भी दोनों में होड़ लगी। दोनों का अगला हिस्सा पास-पास आ जाने पर मार-पीट भी हो सकती थी। एक बार जब दोनों का अगला भाग आपस में टकरा गया तो सब डर गए। करुत्तम्मा ने पूछा, “अम्मा, बाबू क्यों इस तरह हठ कर रहे हैं ?”
चक्की भी घबराई थी। मछली मारकर लौट आना है। इस तरह स्पर्धा क्यों होनी चाहिए ? चेम्पन अब जवान तो है नहीं। नाव का अगला भाग टकरा जाय तो क्या न हो जाय ?
उस समय एक-एक क्षण एक युग-जैसा लगा । आखिर नावे किनारे पर लगीं। तट पर जोरों से हर्ष- नाद हुआ। किसी की न हार हुई, न किसी की जीत। दोनों बराबर रहीं। माल भी दोनों नावों में भरा था ।
दोनों नावें एक साथ किनारे पर लगीं। करुत्तम्मा ने पलनी को गौर से देखा । वह सिर पर एक कपड़ा बांधे और हाथ में एक डाँड़ लिए नाव से जमीन पर कूद कर खड़ा हो गया । वह एक बलिष्ठ युवक था। चेम्पन ने पलनी को गले लगाया और कहा, “बेटा, तुम सचमुच समुद्र के वीर पुत्र हो !”
पलनी चुप रहा।
उस दिन को बिक्री में पलनी को थोड़ा ज्यादा पैसा मिला। इस तरह चेम्पन को जरा-सी हार हो गई।
चेम्पन ने पलनी से पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है बेटा ?”
वह बलिष्ठ-काय युवक जरा संकोचशील था। ऐम्पन के सामने बड़े उस युवक में नाव में खड़े उस पतवार चालक का कोई लक्षण नजर नहीं आता था। वह एक बच्चे जैसा लगता था। पता नहीं उस समय उसका गम्भीर भाव कहाँ गायब हो गया था। उसने कहा, “पलनी !”
तुम अपना काम जानते हो बेटा ! मछुआ होकर जन्म लेने पर समुद्र में काम करने की कला मालूम होनी ही चाहिए।”
पलनी ने कुछ नहीं कहा।
चेम्पन ने पूछा, “बेटा, तुम्हारे बाप का नाम क्या है ?”
“बेलू । मर गया है।”
“और माँ ?”
“वह भी मर गई।”
“घर में और कौन है ?”
“कोई नहीं।”
जरा आश्चर्य के साथ चेम्पन ने कहा, “कोई नहीं “
पलनी ने कुछ नहीं कहा ।
पर पहुँचने पर चक्की ने चेम्पन से पूछा, “जवान होना चाहते हो, सो तो ठीक है लेकिन जवानी का यही मतलब है क्या ?”
चेम्पन ने सुनकर भी अनसुनी कर दी। उसके दिमाग में एक बात घुस गई थी। समुद्र में वह किस आत्म-विस्मृति के साथ पतवार चालक का काम कर रहा था, उसके बारे में उसे चक्की से जरूर कुछ कहना था। लेकिन इस समय उसे पत्नी से एक दूसरी ही बात कहनी थी। उसने चक्की से धीरे-धीरे बातें शुरू कीं, “अरी, उस नाव के पतवार वाले लड़के को तूने देखा ?”
“हाँ, देखा तो।”
“लड़का अच्छा और होशियार है न ?”
चक्की को भी लड़का बहुत पसन्द आया सिर्फ चक्की को ही नहीं, समुद्र-तट पर सबको वह बहुत पसन्द आया था।
चक्की ने पूछा, “क्या मतलब है ?”
“वह मिल जाय तो बड़ा अच्छा होगा।”
चक्की ने कुछ नहीं कहा। चेपन ने आगे कहा, “मैंने पूछा था। उसके घर में कोई नहीं है। लेकिन इससे क्या ? एक दृष्टि से यह अच्छा ही है।”
चक्की ने कहा, “तब उसे खाने के लिए बुलाया क्यों नहीं ?”
“वह तो मैं भूल ही गया । “
चक्की को खुशी हुई कि चेम्पन ने लड़की के लिए एक लड़का पसन्द किया है। इससे प्रकट है कि लड़की की शादी की बात उसे याद है।
लड़का काबिल है। कोई भी उसे फँसा सकता है। चेपन को यह डर हुआ। खाना खाने के बाद वह उठा और समुद्र-तट पर चला गया।
पलनी और उसके साथी नारियल के पेड़ की छाया में सोये थे। उस दिन उससे चेम्पन की और कुछ बात नहीं हो सकी। दूसरे दिन भी समुद्र पर दौड़ लगी । चम्पन इस बार हार गया। मछली भी पलनी को ही अधिक मिली।
चेम्पन के नाव वालों में जिद्दीपन आ गया। करुतम्मा ने कहा, “उन लोगों को इस तट पर आकर हम ऐसा नहीं करने देंगे।”
बाबा की इच्छा हुई कि पलनी की नाव से भिड़न्त क्यों न हो जाय ? तब मार-पीट भी हो जायगी।
चेम्पन बीच में बोला, “अरे कैसी बातें कर रहे हो ? एक तेज लड़के से भेंट हुई तो इतनी ईर्ष्या क्यों ? उन लोगों को जीतना चाहते हो तो कोशिश करो!”
चेम्पन के नाव वाले सोचने लगे कि बीच समुद्र में नहीं तो तट पर ही उन्हें नीचा दिखाया जाय। लेकिन बेलुत्ता ने इसका विरोध किया। उसने कहा, “आज ये लोग हमारे तट पर आये हैं। हो सकता है कि कल हम उनके तट पर जायँ।”
फिर भी चेम्पन के नाव वालों में कुछ-न-कुछ करने की इच्छा बलवती हो? उठी, खूब कमाने का वह अवसर था। मुकदमा लड़ना पड़े तो लड़ा जायगा, ऐसा उनका विचार था।
चेम्पन उनका यह विचार जान गया यह उसको अशान्ति का एक कारण हो गया। चेम्पन की नाव पर काम करने वालों को ही नहीं, उस तट पर सबको उस नाव वालों से ईर्ष्या हो गई। लोगों ने कहा, ‘ये अपने को इतना काबिल समझ कर न जाने पायें ।’ कुछ लोगों ने इस तरह के विचार का भी विरोध किया।
दो-तीन दिन के भीतर ही समुद्र-तट पर मारपीट हो गई। मारपीट नाव में काम करने वालों के बीच हुई थी। दो-तीन लोगों का सिर फूटा। उस दिन और अगले दिन भी उस पाट की कोई भी नाव समुद्र में नहीं गई सब-के-सब छिप गए। पुलिस आई और कुछ लोगों को गिरफ्तार किया। पटवार ने बीच में पड़कर उनको छुड़ा लिया।
वे सब एक-एक करके घटवार से मिले और उसे नजराना दिया। बाद में एक चन्दे का चिट्ठा निकाला गया और मामला खत्म कर दिया गया। पर नतीजा यह हुआ कि तब तक की कमाई भी खत्म हो गई। सिर्फ वेलायुधन् घटवार से मिलने नहीं गया। वह घटवार की नजर पर चढ़ गया। घटवार ने पुलिस से उसे पकड़वा दिया। एक हफ्ता जेल में रहकर वह लौटा और उसने कहा, “मैं घटवार को नहीं मानूँगा ।”
चेम्पन को एक हफ्ते की कमाई का घाटा लग गया। खूब कमाने के उस मौसम में वह कितना बड़ा घाटा था !
समुद्र में फिर काम शुरू हुआ।
चक्की रोज चेम्पन से पलनी को भोजन के लिए बुलाने की बात कहती। इसी बीच काम करने वाले एक दिन की छुट्टी लेकर तृक्कुन्नपुष़ा गये। पलनी नहीं गया। चेम्पन ने पलनी से पूछा, “बेटा, तुम क्यों नहीं गये ?”
“मैं कहाँ जाता ?”
ठीक है तृक्कुन्नपुष़ा में उसका कोई नहीं था, जिससे वह मिलने जाता। चेम्पन ने पलनी को भोजन के लिए निमन्त्रण दिया, “तो दोपहर का खाना खाने के लिए मेरे यहाँ आना ?”
पलनी ने निमंत्रण स्वीकार किया। चेम्पन के घर में एक बढ़िया भोज की तैयारी हुई।
पलनी एक घर की सन्तान न रहकर पूरे तृक्कुन्नपुष़ा को सन्तान हो गया था। माँ-बाप की उसे याद ही नहीं थी। वह कैसे पला ?- इसका यही उत्तर या कि वह पला । किसने पाला ? किसी ने भी नहीं। उसके लिए किसी ने भी कष्ट नहीं उठाया। वह सिर्फ अपने लिए कमाता था। जब वह एक छोटा बच्चा था तभी नियति ने उसे समुद्र में जाल की रस्सी पकड़ने के लिए ला पटका था, जिसमें खतरनाक जन-जन्तु भरे पड़े थे। उसके लिए चिन्ता करने वाला कोई नहीं था। जब वह बड़ा हुआ तब वह नाव पर जाने लगा और कमाने लगा। पैसा हाथ में जाने पर इच्छानुसार खर्च भी किया। जब पैसा नहीं रहता या कम रहता तब उसीके मुताबिक गुजारा भी करता क्या उसके मन में भी अभिलाषाएँ थी ? हो भी सकती थीं। अभी तक किसी ने आग्रह नहीं किया था कि वह खाना खाये, उसका पेट भरे। न वह इस प्रकार का हक लेकर कहीं गया हो।
आज उसके लिए एक जगह खाना तैयार हुआ। वह प्रसन्नता से भरपेट खाये, इस विचार से आज एक औरत ने खाना परोसकर खिलाया कैसी भावुकता पूर्ण अनुभूति थी उसे कौन-कौन तरकारी अच्छी लगी, चक्की ने समझ लिया। और बार-बार परोसकर खिलाया।
कौन जाने, पलनी के मन में यह सन्देह उठा कि नहीं कि यह सब खातिरदारी क्यों हो रही है। चक्की ने पूछा, “बेटा, तुम्हारी क्या उम्र है ?”
“कौन जाने !”
उसे अपनी उम्र का पता नहीं था। चक्की को जिज्ञासा बढ़ी। अपनी उम्र न मालूम रहने की बात अच्छी नहीं थी। तब तो आगे एक-एक सवाल होशियारी से पूछना चाहिए। कौन जाने उसकी जात क्या थी ! पर जान लेना तो जरूरी था।
“बेटा, तुम कहाँ रहते हो ?”
“अब एक झोंपड़ी है। उसीमें।”
“यहाँ जो कमाते हो उससे क्या करोगे ?”
“क्या करूँगा? खर्च करूँगा।”
एक माँ की तरह चक्की ने उपदेश दिया, “बेटा, तुम अकेले हो न ? इस तरह खर्च करोगे तो क्या होगा ? चार दिन कहीं बीमार पड़ गए तो क्या उपाय होगा ?”
पलनी ने मानो इसका भी जवाब पढ्ने हो सोच रखा था। सिर्फ इतना बोला “ओ !”
यह बात उसे कितनी निस्सार लगी। उसका जीकर बड़ा होना ही एक आश्चर्य की बात थी। तब बड़ा होने पर बीमार पड़ने की बात ही कोई बड़ी बात हो सकती थी ?
चक्की बैठी देखती रही। मानो उसे अब कुछ और पूछना नहीं था। पलनी काफी हट्टा-कट्टा था। बुरा नहीं था। उसके बारे में दुखी या प्रसन्न होने वाला कोई नहीं था। इस तरह एकाएकी उसका जीवन बीत रहा था। आज तक किसी ने उसके जीवन के बारे में कुछ सोचा नहीं था।
चक्की ने एक माँ की आत्मीयता के साथ पूछा, “इस तरह जीवन बिताना काफी है बेटा ?”
“और क्या चाहिए ?”
तो उसके जीवन में कोई उद्देश्य नहीं है? यह ठीक है क्या? ‘नहीं’ यह भी नहीं कहा जा सकता था। जल्दी ही उसने जवाब दिया था और उसमें किसी तरह की हिचक नहीं थी। जीवन का कोई उद्देश्य बनाने की उसने कोशिश ही नहीं की। उसकी जरूरत भी किसी को नहीं थी।
चक्की ने कहा, “ऐसी उदासीनता ठीक नहीं है बेटा ?”
पलनी ने कोई जबाब नहीं दिया। चक्की ने आगे कहा, “बेटा, तुम अकेले हो। काम भी कर सकते हो। यह सब बदल जाएगा। तुम्हारी तबीयत बिगड सकती है। इसके अलावा आदमी के लिए कुछ बातें जरूरी है, देख-भाल के लिए एक साथी हो तो…। वह जरूरी है। बेटा, तुम्हारे लिए खाना तैयार करके प्रतीक्षा में रखे रहने के लिए एक जगह हो, यानी घर हो तो वह खुशी की ही बात होगी न?”
पलनी चुप ही रहा।
“बेटा तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए।”
“हाँ, सो तो ठीक ही है।’
“तो शादी की बात में तय करूँ ?”
“हाँ, हाँ क्यों नहीं !” पलनी ने स्वीकृति दे दी।
चक्की ने पूछा, “लड़की कौन है, यह जानना नहीं चाहते ?”
“कौन है ?”
“मेरी बेटी।”
पलनी ने यह भी स्वीकार कर लिया।
बात यहाँ तक तय हो जाने पर भी चक्की के खयाल में कुछ खामियां रह गई थीं, यद्यपि अच्छे पहलू भी थे। पलनी का न घर था, न सगे-सम्बन्धी थे। ऐसे आदमी को बेटी दे देने के बाद अगर वह अविवेक का कोई काम करे तो क्या होगा ? किससे कहा जायगा ?
चेम्पन ने कहा, “लेकिन लड़का बहुत अच्छा है।”
“यदि कोई पूछे कि बेटी को कहाँ भेजा, तो क्या उत्तर दिया जायगा ?”
“वह घर बनायगा।”
सबसे अधिक चक्की को दुखी बनाने वाली एक दूसरी ही बात थी।
उसने पूछा, “वह किस जाति का है ?”
“वह मनुष्य जाति का है। समुद्र में काम करने वाला है ।”
“हमारे सम्बन्धी बिगड़ खड़े होंगे ।”
“बिगडा करें।”
“तब हम अकेले पड़ जायँगे ।”
“पड़ने दो !”
चेम्पन ने दृढ़ निश्चय के साथ आगे कहा, “मैं लड़की की शादी उसीसे करूँगा।”
८
दो-तीन दिन से रात-दिन लगातार पानी बरस रहा था। समुद्र में झिना महली की भरमार थी। लेकिन नाव नहीं खोली गई थी। काम तो आदमियों को ही करना पड़ता था न ! कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी। चौथे दिन का सूर्योदय प्रकाशमान था । नावें समुद्र में उतरी। खूब बटोर हुआ। व्यापार भी हुआ। आकाश फिर मेघाच्छन्न हो गया। पानी भी पड़ने लगा। ऐसी मूसलाधार वर्षा इससे पहले नहीं हुई थी। दरसना जारी रहा।
डेरों में अच्छी तरह सुखाई हुई मछलियाँ पड़ी थीं। अधसूखी और उसनी हुई भी थी। सड़ी-गली मछलियों का चोइयां भी पड़ा था। सब मिलाकर डेरों की हालत बड़ी तकलीफदेह थी सब जगह घाटे-ही-घाटे का लक्षण नजर आता था।
‘चाकरा’ के शुरू के दिन धूप और प्रकाश के थे। रोज का माल रोज तैयार हो जाता था। सेठों के आदमी आते-जाते रहते थे। इस तरह व्यापार जारी था। ऐसे ही समय में यह दुर्भाग्य शुरू हो गया ।
परी को एक और आफत का सामना करना था। उसका पहली बार का माल अच्छा था। दूसरी बार के माल के बारे में कहा गया कि माल काफी सुखाया नहीं गया था। सेठ ने कहला भेजा कि परी का माल उसे नहीं चाहिए और यह कि सेठ का पैसा लौटा दिया जाय ।
किसी भी शर्त पर सेठ मानने के लिए तैयार नहीं होता था आलप्पुषा की सब दुकानों में कोशिश की गई। किसी को भी माल की जरूरत नहीं थी। गोदाम सब भरे पड़े थे।
परी ने पाँच्चू पिल्लै का पाँव पकड़ा, जिससे थोड़ा पैसा सेठ को मिल जाय। कुछ कमीशन पाने की शर्त पर पाँच्चू पिल्लै ने कोशिश करने का वचन दिया। इस तरह घाटे पर थोड़े पैसे का प्रबन्ध हो गया। इस पैसे से माल खरीदा गया। इतने ही में आँधी-पानी शुरू हो गया।
परी का पैसा (माल) पढ़े-बड़े सड़कर दुग्ध पैदा करने लगा एक और दिन पड़ा रहे तो उसे गाड़ देने के सिवा और कोई उपाय नहीं था।
तट पर का वातावरण एकाएक उदास हो गया नावें समुद्र में जाती थी और-बढ़िया बटोर भी लाती थीं। घरों में झिंगे की कुछ बिक्री भी होती थी। लेकिन लौरियाँ कम ही आती थीं। ऐसी स्थिति थी। माल के मोल-खोल का समय नहीं था। व्यापारियों की इच्छा के अनुसार माल बेचना पड़ता था।
होटलों में बिक्री बन्द हो गई। कपड़े की दुकानों में कोई झांकने भी नहीं जाता। यहाँ तक कि मूँगफली बेचने वाले छोकरे भी दिखाई नहीं पड़ते थे।
यह स्थिति कब बदलेगी ? रोज का खर्च चलाना भी मुश्किल है।
उस तट के नाव वाले सब संकट में पड़ गए। खासकर रामन् । उस साल उसका व्यापार ठप्प हो गया। औसेप्प ने अपने पैसे के लिए उसे तग करना शुरू किया। उसकी नजर रामन् की चीनी नाव पर थी।
दोनों में आपस में तर्क-वितर्क हुआ। दोनों एक-दूसरे से नाखुश हो गए। एक हफ्ते के अन्दर किसी भी तरह पैसा लौटा देने को रामन् ने शपथ खाई। उस समय रामन् के मन में चेम्पन का ध्यान था।
रामन् ने चेम्मन से पैसा माँगा। इस बार माँगने पर तुरन्त देने के लिए चेम्पन तैयार नहीं हुआ। रामन् ने उसका कारण समझ लिया ।
“बात क्या है चेम्पन ? खोलकर कहो तो सही।”
जरा संकोच के अभिनय के साथ वेपन ने कहा, “बिना किसी जमानत के देता रहूँ तो ठीक नहीं होगा !”
“तुमको क्या जमानत चाहिए ?
“यह मैं कैसे कहूँ ?”
अन्त में चम्पन ने अपनी इच्छा प्रकट की कि रामन अपनी चीनी नाव जमानत में रखे ।
इस तरह चेम्पन के पास रामन् की नाव आ गई, उस दिन भी अच्चन के घर झगड़ा हुआ । चेम्पन के पास एक नहीं, अब दो नावे हो गई। नल्लम्मा ने अच्चन को आड़े हाथों लिया।
“आदमी हूँ’ कहकर इस तरह क्यों रहते हो?”
“अरी, तेरे साथ होने से ही सर्वनाश हुआ है। औसेप्प के पास जमा करने के लिए चाकरा को कमाई जो दी थी, उसका क्या हुआ ?”
“पहनने के कपड़े बिना और पानी पीने के बरतन बिना आदमी का काम चल सकता है ?”
“वह पैसा मेरे हो पास रहता तो ?”
“पीने ही में खत्म हो गया होता।”
अच्चन ने गुस्से में नल्लम्मा को कसकर दो थप्पड़ लगा दिये।
एक और नाव हो जाने से चक्की को खुशी जरूर थी, लेकिन परी का कर्ज बाकी रहने का दुःख भी था। करुत्तम्मा चक्की को बराबर याद भी दिलाती रहती थी।
जिस दिन चीनी नाव जमानत में आ गई उस दिन चक्की ने पति से कहा, “यह भारी अन्याय है।”
“क्या ?”
“आधी रात के समय उस छोकरे से चोरी कराकर अब चुप्पी साध ली है।” चेम्पन ने चक्की को फटकारा।
“इस तरह फटकार देने से ऋण मुक्त हो जाओगे क्या ? वह बेचारा इस समय बड़े संकट में है। इस समय उसके रुपये दे दो तो बड़ा उपकार होगा।”
“अभी रुपये कहाँ से आयेंगे ?”
करुत्तम्मा खड़ी खड़ी यह बातचीत सुन रही थी। वह बोल उठी, “उसके रुपये जरूर लौटा दो बप्पा!”
चेम्पन ने गम्भीर होकर पूछा, “इससे तुझे क्या मतलब है री ?”
इसका वह उचित जवाब दे सकती थी। कहने के लिए काफी बातें भी थीं। वह कहना चाहती थी कि पैसे की माँग पहले-पहल उसने ही की थी और इसीलिए हाथ में पैसा न रहने पर भी परी ने माल दिया था। वह बाप को चेतावनी भी देना चाहती थी कि वह जितना अधिक पैसे वाला होता जाता है उतना ही अधिक उसकी बेटी उस विधर्मी के अधीन होती जाती है।
चक्की डर गई कि करुत्तम्मा कुछ बोल न दे। इसमें खतरा था।
चक्की ने चेम्पन से तर्क किया, “इतना नाराज होने की क्या बात है ? लड़की ने तो ठीक ही कहा है।”
“मैं पूछता हूँ कि इसको उससे क्या मतलब है। क्या इसोने वह कर्ज लिया है ? इसीसे वह पैसा माँगेगा ?”
थोड़ी घबराहट के साथ चक्की ने कहा, “इससे वह नहीं माँगता है तो क्या यह कुछ कह भी नहीं सकती ?”
चेम्पन ने गम्भीरतापूर्वक उपदेश देते हुए वह बात वहाँ खत्म कर दी, “हाँ मैं एक बात कहे देता हूँ । मदं लोग आपस में भिड़ जाते हैं। इसमें तुझे बीच में पड़ने की जरूरत नहीं है, याद रखना कि तुम्हें एक पुरुष के साथ जिन्दगी गुजारनी है।”
उपदेश तो ठीक था। करुत्तम्मा को यह सब सीखना ही था।
फिर चेम्पन का गुस्सा चक्की की ओर बढ़ा, “यह हो कैसे सकता है ? तुझी को देखकर लड़की सीखती है न ?”
चेम्पन ने सारा दोष चक्की पर डाल दिया। समय ऐसा था कि चक्की ने कुछ जवाब दिये बिना चुपचाप रहना ही ठीक समझा ।
माँ- बेटी जब अकेली रह गई तब चक्की ने करुतम्मा से कहा, “बिटिया, तू बप्पा से क्यों कह रही थी। बप्पा को कुछ सन्देह हो जाय तो उसका क्या नतीजा होगा ? पड़ोस में बातूनी लोग क्या-क्या कहते हैं यह तूने सुन ही लिया है। अगर तेरे बाप के कान में ये बातें पड़ जायें तो क्या होगा। हे समुद्र माता !”
करुत्तम्मा सब जानती थी। उसने कहा, “उसका पैसा लौटा देना है।”
“मेरा भी यही विचार है !”
“कहने को तो तुम कहती हो माँ, लेकिन देती नहीं। मैंने क्या-क्या उपाय नहीं सुझाये। तुमने एक को भी काम में नहीं लिया ।”
एक क्षण बाद उसने फिर कहा, “उस कर्जे को चुकाने के बाद ही…।”
आगे की बात वह नहीं कह सकी। लेकिन चक्की समझ गई ।
“ठीक है बेटी ! वैसा ही करना ठीक है।”
पलनी के साथ शादी करने के सम्बन्ध में करुत्तम्मा का क्या मनोभाव था, चक्की ने यह जानने की कोशिश की थी। लेकिन करुतम्मा ने यह प्रकट नहीं होने दिया कि वह उसे पसन्द है या नहीं। बच्ची है, लज्जा के कारण कुछ प्रकट नहीं करना चाहती, ऐसा ही चक्की ने सोचा। फिर भी परी के प्रति उसके प्रेम का क्या नतीजा होगा, यह डर भी उसके मन में था। करुतम्मा की सहेलियों से पुछवाना उसने इसलिए ठीक नहीं समझा कि बात पूरे समुद्र-तट पर फैल जायगी। ऐसी ही परिस्थिति में करुतम्मा के मुंह से संकेत निकला कि कर्जा ‘चुकाने के बाद हो हो ।’ उस संकेत से चक्की को तसल्ली हुई। उसका चेहरा एक प्रसन्न मुस्कान मे चमक उठा। उसने पूछा, “बेटी, तो यह शादी तुझे मँजूर है न !”
करुत्तम्मा ने कोई जवाब नहीं दिया।
चक्की ने उसी आनन्द के साथ आगे कहा, “लड़का बड़ा होशियार है बिटिया, बड़ा अच्छा है।”
चक्की ने पलनी की प्रशंसा की प्रशंसा के योग्य वह था भी प्रशंसा सुनते सुनते करुत्तम्मा के मन में एक विरोध का भाव उत्पन्न होने लगा। वह विरोध करना चाहती थी। उसके विरोध के लिए कारण भी था। पलनी की उम्र क्या है, उसके सगे-सम्बन्धी कौन हैं, आदि जानने का उसे हक था न ? सबसे बढ़कर उसके हृदय में पलनी के लिए स्थान है क्या ?
चक्की को बड़ा सन्तोष था । वह कहती गई। करुत्तम्मा का दन घुटने लगा । यह कुछ कहे बिना नहीं रह सकी। यह फूट पड़ी, “जरा चुप भी क्यों नहीं होती अम्मा !” वह अपने होंठों को दांतों से दबाते हुए मन-ही-मन कुछ बुदबुदाने लगी। वह क्या कह रही थी, चक्की की समझ में नहीं आया। चक्की ने कहा, “शादी के पहले ही तेरी माँ वह कर्जा चुका देगी।”
बहुत घृणा और कोध प्रकट करते हुए सम्मा ने कहा, “ओ हो, माँ चुका देगी ! तो अब तक क्यों नहीं चुकाया ?”
“मैं जरूर जोर लगाऊँगी।”
निराशा भरी आवाज़ में करुत्तम्मा ने कहा, “कुछ होने वाला नहीं है अम्मा ! शादी ही होगी। यही होने जा रहा है।”
चक्की ने दृढ़ता से कहा, “तू देखती रह ?”
करुत्तम्मा के सब अव्यक्त विचार मिलकर एक बड़े निश्चय के रूप में प्रकट हुए, “वह पैसा लौटाये बिना मैं नहीं मानूँगी नहीं लौटाया गया तो अपने प्राण त्याग दूँगी।”
चक्की घबराकर बोली, “मेरी बिटिया, ऐसे अशुभ शब्द मुँह से न निकाल !”
करुत्तम्मा रो पड़ी, “और क्या करूँ? वह बेचारा दिवालिया हो गया है। यहाँ पैसा नहीं है, ऐसी बात भी नहीं है। देना नहीं चाहते, यही तो बात है।”
करुत्तम्मा ने चक्की को कसूरवार ठहराया। चक्की सुनती रही।
“अम्मा, तुम्हारा भी विचार न देने का ही है।”
चक्की ने कसम खाई कि उसका ऐसा विचार नहीं है। करुतम्मा ने अपना निश्चय प्रकट किया, “अब मैं सीधी साफ-साफ बातें करूँगी ।”
“ऐसी बात न करना, बिटिया !”
“नहीं तो और क्या करूँ ?”
थोड़ी देर बाद उसने आगे कहा, “तय हो जाने पर धूम-धाम से शादी करने के बाद जब विदा करोगी, उस समय यदि वह रास्ते में रोक कर पैसा चुकाने के बाद जाने को कहे तो क्या किया जायगा ?”
तब तक चक्की ने ऐसी स्थिति के बारे में नहीं सोचा था। अब डराने वाला एक चित्र सामने चित्रित हो गया। घबराकर चक्की ने पूछा, “वह तुझसे पैसे क्यों माँगेगा ?”
“मेरे माँगने से ही तो उसने पैसा दिया था।”
” तूने तो…. वह…. खेल-खेल…. में ही माँगा था न ?”
“ऐसा किसने कहा ?”
परी के रास्ता रोककर खड़े होने की संभावना चक्की के मन से हटती नहीं थी।
परी निराश था, अब बुरी हालत में था। किसी साहसपूर्ण कार्य के लिए वह तैयार भी हो सकता था। चाहे तो वह एक बड़ी विकट स्थिति पैदा कर सकता था।
करुत्तम्मा ने कहा, “मैंने बप्पा से कहने का निश्चय कर लिया है। आज मैं कहूँगी क्यों न कहूँ ?”
“मेरी बिटिया, ऐसा न करना !”
“मैं जरूर कहूँगी।”
चक्की ने वचन दिया कि शादी के पहले किसी तरह ठीक कर दिया जायगा।
उस रात को पत्नी ने पति से कहा कि करुत्तम्मा शादी के लिए राजी है। लेकिन…। उसके राजी होने के पीछे एक अप्रकट, फिर भी अर्थपूर्ण ‘लेकिन’ था । उस ‘लेकिन’ के बारे में कुछ कैसे कहा जाता ! …चेम्पन के सामने करुत्तम्मा की मँजूरी का कोई सवाल ही नहीं था।
परी का कर्जा चुकाने के लिए चेम्पन पर जोर डालने लायक चक्की को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था ।
मछली बहुत सस्ती हो गई थी। चेम्पन को ही नहीं, किसी को भी चैन नहीं थी। कुछ दिन बाद एक जागृति आई कोचीन और आलप्पुषा में ढेर लगाकर रखी गई १ सूखी शिगा मछली सब बाहर भेज दी गई। लेकिन रंगून में भी माल सस्ता हो था । सेठ साहूकारों का कहना था कि दाम मूलधन से आधा हो गया है। ऐसी ही खबर थी कि एक जहाज समुद्र में ही नष्ट हो गया। इस कारण आधा ही दाम परी को हजार रुपये का घाटा हुआ । देकर हिसाब साफ किया जा रहा है।
करुत्तम्मा में कुछ परिवर्तन हुआ । शायद वह अपने को बदली हुई परिस्थिति के अनुसार बना रही थी। वह बड़ी हो गई थी। कुछ सूझ-बूझ और हिम्मत तो उसमें थी ही, वह परी से बातें करने के मौके की ताक में रहने लगी। उसे परी से बहुत कुछ कहना था ।
घेरे के उस तरफ और इस तरफ खड़े होकर दोनों मिले। करुतम्मा ने ही उस दिन बातचीत शुरू की। वह वे मतलब ही हँसी उत्पन्न करने वाली बातचीत नहीं थी। करुतम्मा ने पूछा, “व्यापार में घाटा हुआ है न, छोटे मोतलाली ?”
परी ने वार्तालाप के ऐसे प्रारम्भ की उम्मीद नहीं की थी। उसने कोई उत्तर नहीं दिया । करुत्तम्मा ने आगे कहा, “तुम्हारा पैसा लौटा देंगे, मोतलाली !”
परी ने कहा, “तुमने मुझसे पैसा कहाँ लिया है ?”
“फिर भी उसे लौटाने का भार मुझ पर है।”
“कैसे ?”
“ऐसे ही मोतलाली ! तुम्हारा कर्जा चुकाने के बाद….।” करुत्तम्मा अपना वाक्य पूरा नहीं कर सकी, उसका गला रुँध गया, सारा शरीर शिथिल हो गया और आँखें भर आईं।
उसका अधूरा वाक्य परी ने पूरा किया, “कर्जा चुकाने के बाद ही शादी करके जाना है, क्यों ?”
करुत्तम्मा की आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे ।
परी नहीं रोया उसने पूछा, “क्या सब सम्बन्ध तोड़कर जाओगी ? क्यों ?”
यह प्रश्न करुत्तम्मा के हृदय में तीर की तरह चुभ गया। सवाल पूछते समय परी भाव शून्य हो गया था क्या? परी को लगा, करुत्तम्मा वास्तव में असहाय है। फिर भी उसने उत्तर की प्रतीक्षा की।
करुत्तम्मा ने कहा, “नहीं, नहीं, छोटे मोतलाली तुम्हारा भला हो !”
परी अब पहले-जैसा हल्के दिल वाला प्रेमी नहीं था। वह मुस्करा दिया- एक निर्जीव-सी मुस्कराहट ।
“मेरा भला, करुत्तम्मा !”
परी के शब्दों का मतलब करुत्तम्मा ने समझ लिया। उसका भला अब तो हो नहीं सकता। करुत्तम्मा वहाँ खड़ी नहीं रह सकी। वह वहाँ से चल दी।
उस रात चेम्पन को एक खास बात कहनी थी। बड़े उत्साह से उसने धीरे से चक्की को सुनाया, “पलनी स्त्री-धन नहीं लेगा। सुना ?”
चक्की को विश्वास नहीं हुआ। उसने पूछा, “ऐसा कैसे हो सकता है !”
“इसमें क्या है। बिना स्त्री-धन लिये ही वह शादी करने को तैयार है।”
चक्की चेम्पन की ओर टकटकी लगाकर देखती रह गई…। चेम्पन ने शपथ खाकर विश्वास दिलाया।
“समुद्र-माता की शपथ। उसने कहा है कि वह बिना स्त्री-धन लिये ही शादी करेगा।”
चक्की ने पूछा, “उसने न लेने की बात कही होगी, तो भी हमें तो देना ही चाहिए न !”
चक्की चेम्पन की ओर देखती रही। चेम्पन को चक्की का इस तरह क करना अच्छा नहीं लगा । कोई जब कहता है कि उसे पैसा नहीं चाहिए तब उसे जबरदस्ती देने की क्या जरूरत है ? चक्की के रुख पर उसे आश्चर्य हुआ ।
चक्की ने कड़ी आवाज में कहा, “उस सीधे-सादे बच्चे को कुछ कहकर उससे वैसा कहलवा दिया होगा।”
चेम्पन ने झट जवाब दिया, “नहीं-नहीं, मैंने कुछ भी नहीं कहा।”
चक्की ने फिर गंभीर होकर पूछा, “आदमी के लिए रुपया-पैसा किस काम के लिए है ? स्त्रीधन क्या है ? जो कुछ हम अपनी बच्ची को देंगे, वही स्त्री-धन है न !”
“उसे नहीं चाहिए तब ?”
“फिर किसके लिए कमा रहे हो, यह मैं पूछती हूँ।” चेम्पन के अधिकार की परवाह न करके चक्की ने आगे कहा, “बुढ़ापे में मुख भोगने की अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए। जो चाहे सो करो; लेकिन फिर भी जीवन में कर्तव्यों के पालन के लिए कुछ करना ही होगा इतना जो कमाया है उसमें मेरा भी हाथ रहा है न!” चेम्पन ने हँसते हुए चक्की के गुस्से को ठण्डा करने के खयाल से कहा, “इससे क्या ? तोशक हम दोनों के लिए ही बनेगा। हम दोनों ही सुख भोगेंगे ।”
चक्की का पारा चढ़ गया। वह जोर-जोर से बोलने लगी। चेम्पन को डर लगा कि झगड़ा बढ़ जाने से पड़ोस के लोगों का ध्यान इधर आकृष्ट हो जायगा । इसलिए बात खत्म करने के खयाल से वह घर से बाहर चला गया ।
करुत्तम्मा माँ के पास आई और बोली, “अम्मा, मुझे स्त्री-धन नहीं चाहिए।”
“क्यों? लड़की बिना स्त्री-धन के जाय तो यह अपमान की बात होगी। तुम्हारे पास भी चार पैसे अपने होने चाहिए।”
एक क्षण बाद करुत्तम्मा ने कहा, “ससुराल में न सास होगी, न ननद । ऐसी ही जगह जाना है न ?”
यह बात चक्की के हृदय में चुभ गई। सचमुच लड़की ऐसी ही जगह जायगी जहाँ उसका कोई सम्बन्धी नहीं होगा। उसने कहा, “फिर भी बिटिया, गाँव वाले क्या कहेंगे ?”
“ओ ! गाँव वाले! मुझे किसी भी तरह विदा कर देना, मोतवाली को वह पैसा दे देना काफी होगा। वह बेचारा अब दिवालिया हो गया है, उसे इस तरह निराधार बनाकर मैं नहीं जा सकती। मेरे जाने पर वह बेचारा मर ही जायगा।”
करुत्तम्मा ने सब-कुछ कह डाला। लेकिन चक्की की समझ में बात आई कि नहीं, मालूम नहीं। बात समझ में आ गई होती तो एक माँ का आगे का क्या सवाल होता ? संभव है कि चक्की ने बेटी के प्रेम की गति समझ ली हो, पर उसे न प्रकट करना ही ठीक समझा। उसने कहा, “बेटी, वह कर्जा चुकाने का भार मैं अपने ऊपर लेती हूँ।”
“बप्पा वह पैसा नहीं देंगे।”
माँ ने सवाल किया कि क्या किया जाय। करुतम्मा ने सुझाया कि बाप को तिजोरी से थोड़ा-थोड़ा चुराकर भी पैसा इकट्ठा किया जाय और कर्जा चुका दिया जाय । चुराने की बात अगर चेम्पन जान गया तो हत्याकाण्ड भी हो सकता है। चक्की में इतनी हिम्मत नहीं थी। उस तरह का काम उसने कभी नहीं किया था।
करुत्तम्मा ने पूछा, “तुमको इसमें डर क्यों लगता है अम्मा ?”
डर तो था ही। इसलिए पहले के निश्चय के अनुसार काम नहीं हुआ।
‘चाकरा’ से शुरू में रोज की कमाई काफी अच्छी थी। उस समय थोड़ा-थोड़ा रोज-रोज निकाल लिया होता तो अब तक चुपचाप काम बन गया होता। करुत्तम्मा ने चक्की को हिम्मत बँधाई। उद्देश्य का महत्व चक्की की प्रेरणा का कारण बना । भोर में जब चेम्पन समुद्र में गया तब माँ-बेटी दोनों ने मिलकर बक्सा खोला और एक छोटी-सी रकम निकाल ली। दोनों का सारा दिन बर में कटा चम्पन ने दिन की कमाई के रुपये बक्से में बन्द किये। चक्की ने उस दिन अकारण ही दिन की कमाई के बारे में पूछा।
चेम्पन ने जवाब दिया, “कोई भी झिंगा नहीं चाहता था।”
“फिर भी कितना मिला ?”
“जानकर क्या होगा ?”
प्रतिदिन माँ-बेटी मिलकर थोड़ा-थोड़ा निकालती रही।
एक दिन चेम्पन ने पैसा गिनकर हिसाब किया। उस दिन मां-बेटी दोनों का हाल बेहाल हो रहा था। चेम्पन ने जब बक्सा बन्द किया और माँ-बेटी की चोरी नहीं पकड़ी गई तब दोनों की जान-में-जान आई।
बेटी ने माँ से पूछा, “कितना हुआ अम्मा ?”
कई दिनों की कोशिश के फलस्वरूप वह सिर्फ सत्तर रुपये जमा कर पाई थी। करीब दस-बीस रुपये की सूखी मछली भी थी।
रकम छोटी होने पर भी उसे परी को दे देने का निश्चय किया गया।
९
शादी तय हो गई। उसके लिए बहुत बड़ी तैयारी की जरूरत नहीं थी। पूछने कहने के लिए पलनी को तो कोई या नहीं, किसी मतभेद की भी गुंजाइश नहीं थी। उसने सिर्फ अपनी नाव के मालिक से कहा और चेम्पन के साथ जाकर अपने घटवार को नजराना दिया। इस तरह लड़की की शादी न कराने की शिकायत दूर हो गई। चेम्पन ने तनकर चक्की से कहा, “क्यों री ! देखा, किस तरह चेंम्पन ने सब काम कर डाला !”
चक्की ने जड़ दिया, “हाँ-हाँ लेकिन लड़का कैसा है! जिसके घर-द्वार का कोई पता नहीं। अच्छा है !”
“जा गधी कहीं की। तुझे क्या मालूम? वह लड़का होनहार है, कमाने वाला है, उसका शरीर बलिष्ठ है और तौर-तरीका अच्छा है। उसके जैसा लड़का ढूँढ़ने पर भी यहाँ नहीं मिलेगा।”
चक्की ने विरोध नहीं किया वह हँसती हुई बोली, “तब तो अब सुख भोगने में कोई बाधा नहीं होगी।”
“मैं जरूर सुख भोगूँगा। पल्लिक्कुन्न्म की तरह ही सुख भोगूँगा।”
“लेकिन उस मोतलाली छोकरे का पैसा नहीं लौटाया न ?”
चेम्पन ने झुँझलाकर कहा, “यह कैसी बात है कि जब भी करुत्तम्मा की शादी की बात उठती है तब तुम इस बात को छेड़ देती हो ?”
चक्की चौंक पड़ी। बात सच ही थी। करुत्तम्मा की शादी के साथ-साथ यह बात याद आ ही जाती थी। लेकिन चेम्पन विशेष रूप से इस पर ध्यान देगा, यह उसने नहीं सोचा था । चक्की ने एक नया तर्क पेश किया, “हम फिर से बच्चे बनकर सुख भोगना चाहते हैं न? तब उसका रुपया लौटा देने की जिम्मेदारी भी खत्म हो जाय तो अच्छा ही होगा, यही मैंने सोचा ।”
उसका भी उपाय है। बात उसे याद है। मौके और सुविधा के अनुसार वह एक-एक जिम्मेदारी निभायगा। उसने अभिमानपूर्वक चक्की से कहा, “अरी, हमें लड़का नहीं है। उसे बेटे की तरह अपना में, यही मेरा विचार है।”
चक्की ने कहा, “ऐसे भी तो वह हमारा बड़ा लड़का हुआ।”
चेम्पन ने चक्की को और समझाया। पलनी के घर में अपना कोई नहीं है। इसलिए शादी के बाद उसे अपने यहाँ हो रख लें तो क्या नुकसान होगा। अपने पास दो-दो नावें हैं ही। पलनी भी रहेगा तो अच्छा ही होगा। चक्की ने भी इन बातों पर विचार किया। उसे भी बात अच्छी लगी। बेटे का अभाव दूर हो जायगा। लेकिन चक्की के मन में एक शंका उठी, “पलनी को यह सब स्वीकार होगा क्या ?”
चेम्पन ने कहा, “क्यों नहीं स्वीकार होगा ?”
चक्की ने पूछा, “कौन ऐसा मल्लाह है जिसने मल्लाहिन के घर में रहना पसन्द किया हो ?”
चेम्पन ने ज़रा सोचकर जवाब दिया, “उसे सब पसन्द आयगा री ! वह बड़ा सीधा है. बड़ा सीधा”
“हूँ-ॐ-ॐ । जरा अपनी बात सोचो न ! शादी के बाद दो दिन भी मेरे घर में रहे थे क्या ?”
“मेरे तो माँ-बाप दोनों थे।”
चक्की को विश्वास नहीं था कि पलनी साथ रहेगा ।
करुत्तम्मा को चेम्पन की योजना का पता लग गया। उसने मां से इसका विरोध किया करुत्तम्मा का विरोध देखकर उसे आश्चर्य हुआ । उसने बेटी से कहा, “अरी, तू तो बड़ी कृतन मालूम होती है शादी तय होते ही मां-बाप के प्रति तेरी मोह-माया खत्म हो गई ? तब तो इतना कष्ट सहकर हमने जो तेरा पालन-पोषण किया सब बेकार ही हुआ। जैसे ही तेरे लिए एक मल्लाह के आने की बात उठी, वैसे ही तुझे न माँ की जरूरत रही, न बाप की हाय रे भाग्य !”
चक्की के शब्दों से करुतम्मा मर्माहत हो गई। उसने यह नहीं सोचा था कि उसके शब्दों का ऐसा अर्थ लगाया जायगा। क्या माँ-बाप के प्रति स्नेह की कमी से ही उसने विरोध प्रकट किया था? माँ के घर में रहने से उसके अभिमान को धक्का लगेगा, ऐसा भी उसका खयाल नहीं था। वह तो हमेशा माँ की बेटी रहेगी- उस माँ की, जो उसके लिए सब कुछ करने को तैयार रहती है। और पंचमी के बिना भी वह कैसे रह सकती थी ? घर छोड़कर जाने का दिन ! वह दिन उसे कैसे सहा होगा ?
इतना होने पर भी करुतम्मा चाहती थी कि वह वहाँ से किसी तरह चली जाय। विह्वल होकर उसने कहा, “अम्मा, मेरे कहने का वह मतलब नहीं था। तुम ऐसी बातें न करो ! मेरे लिए अपने माँ-बाप को छोड़कर और कौन हो सकता है ?”
सिसक-सिसककर रोती हुई वह अपनी मां के कन्धे पर गिर पड़ी। माँ ने उसे गले से लगा लिया।
चक्की ने जो कुछ कहा था, यह सोचकर नहीं कहा था। उसे यह भी खयाल नहीं था कि उसकी बात सुनकर करुत्तम्मा इतनी दुखी हो जायगी। करुत्तम्मा फूट-फूटकर रो रही थी, मानो उसका हृदय ही फटा जा रहा हो।
चक्की रो पड़ी। करुत्तम्मा ने कहा, “मुझे… मुझे… इस तट पर नहीं रहना है। ….नहीं तो…. हम सब… एक साथ ही कहीं चले चलें ।”
स्नेहार्द्र होकर चक्की ने पूछा, “बिटिया, तू क्या कह रही है ?”
असह्य भाव से करुत्तम्मा ने कहा, “इस तट पर मैं रहूँ तो “
“क्या होगा बिटिया ?”
करुत्तम्मा कुछ कहना चाहती थी। चक्की को पहले भ्रम था कि उसके विचार-शून्य शब्दों की तीक्ष्णता ने ही करुत्तम्मा को रुलाया था। पर अब यह प्रकट हो गया कि कोई भारी चिन्ता करम्मा के मन को डॉवांडोल कर रही है। चक्की को पता नहीं था कि वह चिन्ता इतनी दुखदायी थी।
सिसकियों के बीच हाँफते हुए और होंठों को दाँत से दबाते हुए कह ने कह डाला, “मैं यहाँ रहूंगी तो यह समुद्र तट ही अपवित्र हो जायगा ।”
चक्की की आँखें भी भर आयी। उसने कहा, “बिटिया मेरी, ऐसी बात न कह !”
“सच कहती हूँ अम्मा! मुझे यहाँ से जाना चाहिए। तभी ठीक होगा। मैं अपना दुःख तुमको छोड़कर और किससे कह सकती हूँ?”
करुत्तम्मा को दिल खोलकर बातें करने के लिए और कोई तो या नहीं।-और हृदय भी पूरा खोला जा सकता है ? यह सम्भव है ?
उस समय भी चक्की ने कहा, “हे भगवान् ! मालूम होता है कि उस मुसलमान छोकरे ने मेरी बच्ची के ऊपर जादू-टोना कर दिया है।”
करुत्तम्मा ने इसका खण्डन किया और कहा कि किसी ने भी उस पर जादू-टोना नहीं किया है। उसने पूछा, “इस तट पर इसके पहले मेरे जैसी लड़की हुई है। अम्मा?”
“कैसी लड़कियां बिटिया ?”
“तुमको नहीं मालूम ?”
“हे मेरी समुद्र-माता ! बच्ची मेरी पागल हो गई है क्या ?”
“मैं पागल नहीं हुई अम्मा ! में पूछ रही थी कि मेरे जैसी कोई लड़की यहाँ इसके पहले भी हुई है क्या ?”
करुत्तम्मा नहीं जानती थी कि वह कैसे अपने मन का भाव प्रकट करे । वह जानना चाहती थी कि उसके जैसी, किसी विजातीय के साथ प्रेम करने वाली मल्लाहिन उस तट पर कभी हुई है कि नहीं जिसकी कठिन कोशिश के बावजूद, प्रेम-बन्धन शिथिल होने के बदले दृढ़तर होता गया और जिसके साथ जीवन पर्यन्त दृढ़तर होने वाली प्रेम-कहानी लगी रही। इस तरह की प्रेम कहानी से समुद्र-तट परिचित था क्या? क्या किसी विजातीय युवक ने किसी मल्लाहिन से कभी प्रेम किया था और दोनों उस प्रेम में निराश होकर रह गए थे ? क्या उस तट के कण कण में वैसे प्रेमियों के गीत ने प्राण का संचार किया था ? यदि हां, तो उन प्रेमियों की क्या स्थिति हुई ?
माँ से ये सब बातें वह कैसे पूछती ! हो सकता है उस तट पर ऐसे प्रेमी और प्रेमिका रहे भी हो, जो भग्न-हृदय होकर गुजर गए हो। ऐसा हुआ होगा कि प्रेमिका ने अपने प्रेम को दिल में छिपाये, किसी दूसरे की पत्नी के रूप में अपना जीवन बिताया हो। नहीं तो- ऐसा भी हुआ होगा कि दोनों ने आत्महत्या कर ली हो।- ऐसा नहीं हुआ है तो..?
करुत्तम्मा को लगा कि ऐसे भाग्य-दोष की भागी सिर्फ वही हुई है; उसीने उस तरह के एक युवक से प्रेम किया है। यद्यपि दूसरे लोगों की भी अपनी-अपनी प्रेम-कहानी रही होगी, फिर इस तरह का अनुभव सिर्फ उसीको हुआ है।
चक्की ने घबराकर पूछा, “बिटिया, क्या कुछ गलती भी हो गई है ?”
करुत्तम्मा की समझ में नहीं आया कि मां क्या पूछ रही है। चक्की ने समझाने की कोशिश की। करुतम्मा ने कहा, “नहीं अम्मा, मैंने कोई खराब काम नहीं किया है ?”
करुत्तम्मा की यही प्रार्थना की कि उसे बचने का मौका मिले। उसके मन में एक भारी डर समा गया था और वह उस डर की छाया से भी बचना चाहती थी। माँ ने उसे बचाने का भार अपने ऊपर लिया। शादी के दिन ही उसे ससुराल भेजने का उसने वचन दिया।
करुत्तम्मा पड़ोस की औरतों के स्नेह और आदर की पात्र बन गई। पुराने जमाने से चला आने वाला एक रिवाज दुहराया गया। शादी तय हो जाने पर को भार्या-धर्म का उपदेश साधारणत: पड़ोस की स्त्रियाँ ही दिया करती है, यदि वधू कोई भूल करे तो इसके लिए पड़ोसियों को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है।
नल्लम्मा ने करुत्तम्मा से कहा, “एक पुरुष को रखने की जिम्मेदारी तुम पर पड़ने जा रही है।”
“एक मर्द के हाथ में लड़की नहीं सौंपी जाती। यहाँ बात उलटी हैं।”
काली ने दूसरी बात कही, “समुद्र की उमड़ती तरंगों के बीच हम लोगों के मर्दों का जीवन बीतता है बेटी !”
पेण्णम्मा ने बताया, “स्त्रियों का दिल कमजोर होता है बेटी, हमें बहुत सतर्क रहना चाहिए।”
इस तरह सबने उपदेश दिये। सबने अपने जमाने में जैसे उपदेश पाये थे, वैसे ही उपदेश वे दूसरों को दिया करती हैं। ऐसा करना वह अपना कर्तव्य समझती है। वहाँ से जाने वासी किसी भी लड़की के बारे में पड़ोसियों को अब तक कोई शिकायत नहीं हुई थी। जो उपदेश दिये गए, सब निश्छल भाव से दिये गए।
करुत्तम्मा ने ध्यान देकर सब सुना। उपदेशों से उसका मन भर गया था। लेकिन माँ से जो वह पूछना चाहती थी वही बात उसे इनसे भी पूछनी थी, ‘क्या इस तट पर ऐसी कोई स्त्री हुई थी जिसने किसी से प्रेम किया और प्रेम पाया और फिर भी, दूसरे किसी से शादी की ?’
इस प्रश्न से उसका हृदय बोझिल था। लेकिन वह किसी से कुछ पूछती नहीं थी। ऐसी अभागिनी नारी की क्या स्थिति हुई होगी !
कभी-कभी करुत्तम्मा को लगता था कि ऐसी ही किसी शाप-ग्रस्त नारी की पिपासित आत्मा उस समुद्र तट के वायु-मंडल में क्रन्दन करती हुई मँडराती फिरती है उसे लगता था कि समुद्र के एकान्त स्थानों में किसी की जीवन कहानी सुनाई पड़ती है। …उसकी तरह दुखी जीवन बिताने वाली दादियाँ और परदादियाँ भी वहां हुई होंगी। हवा में सुनाई पड़ने वाली ध्वनि उन्हीं की जीवन क्या होगी, समुद्र की लहरों की आवाज में भी वही कहानी गूंजती होगी। मिट्टी का कण-कण भी यह सब जानता होगा। उन पर दादियों की अस्थियाँ बिखरकर वहाँ की मिट्टी के जरें जरें में मिल गई होंगी। वे भी पड़ी-पड़ी व्यथित होती होंगी।
एक दिन कस्तम्मा ने नल्लम्मा मे पूछा, “मौसी, इस तट पर स्त्रियाँ कभी पतित भी हुई हैं ?”
“हाँ. एकाध के पतित होने की कहानी पुराने जमाने से चली आ रही है। वे जान-बूझकर पतित नहीं हुई थीं। उनके जीवन की कहानी एक पुराने गीत का विषय हो गई है। उनके पतित होने के फलस्वरूप कैसे समुद्र में बड़ी-बड़ी तरंगें उठीं और कैसे जमीन पर जल का आक्रमण हुआ; कैसे समुद्री जीव अपने-अपने गुफानुमा मुँह खोले गावों के पीछे पड़ गए- आदि बातें उस गीत में बताई गई हैं। वह एक पुरानी कहानी है। उस गीत की कुछ कड़ियाँ गाकर नल्लम्मा ने करुत्तम्मा को सुनाई।
“वह भी एक प्रेम-कहानी थी।- तब वर्षों बाद उसकी कहानी भी एक ऐसे गीत का विषय बन सकती है।”
नल्लम्मा ने कहा, “समुद्र तट पर यही रिवाज चला आ रहा है।”
करुत्तम्मा ने पूछा, “आजकल की क्या बात है ?”
“आजकल पुराने जमाने की शादी और पवित्रता नहीं है। अब पुरुष भी वैसे नहीं हैं। उस पुराने आचार-विचार से लोग हट रहे हैं। लेकिन समुद्र की बेटियों को अपने चरित्र की रक्षा तो करनी ही है।”
पड़ोस की छोटी लड़कियों ने पूछा, “दीदी, तुम जा रही हो ?”
उसे इन बच्चियों से गम्भीर बातें करनी थी। उन्हें यह चेतावनी देनी थी कि हुवा में उड़ने वाले सूखे पत्तों की तरह वे समुद्र-तट पर विचरण न करें ! कइयों को उसने समझाया ।
करुत्तम्मा का, विदा लेने का समय आ गया। उसने तट पर जन्म लिया था; वहाँ बड़ी हुई थी। अब उस जगह को छोड़ना होगा। लेकिन वह उस तट को कभी भूल नहीं सकती थी !
अब उसे कहाँ जाना होगा? वहाँ का तट कैसा होगा ? करुत्तम्मा के मन में यही सन्देह उठता था कि क्या वहाँ भी सूरज यहाँ की ही भांति सुनहली कान्ति का प्रसार करते हुए अस्त होगा। आंधी और तूफान मे बहुत ऊँचाई तक उठने वाली लहरों का क्रीड़ा स्थल बनते समय यहाँ के समुद्र का दृश्य बड़ा ही सुन्दर हो जाता है। उसे तट पर कभी डर नहीं लगता था। यहाँ की हवा में, जिसमें उस पुरानी अभागी प्रेमिका की कहानी सुनाई पड़ती थी, स्नेह भरा था। वहाँ का तट भी ऐसा ही होगा क्या ? कौन जाने !
वहाँ के लोग ? वे भी स्नेहशील होंगे। फिर भी वह तट, जहाँ वह पली थी, विशेष रूप से उसे प्रिय था। अब वह इसको छोड़कर जा रही है।
उसने सब चीजों से विदा ली।
स्वच्छ चाँदनी रात थी। समुद्र शान्त था। उस रात की चाँदनी में एक खास तरह की मिठास भरी मालूम पड़ रही थी। उसी चांदनी में सिक्त होकर एक गीत का स्वर चारों ओर फैल रहा था।
परी बैठा गा रहा था।
करुत्तम्मा के कान में वह आवाज परी के गाने की आवाज जैसी नहीं, वरन् एक आनन्दमयी दुनिया की पुकार जैसी पड़ी परी का व्यक्तित्व काफूर हो गया। गीत की वह ध्वनि स्वच्छ चाँदनी में बिह्वल उस तट की पुकार थी; उसके जीवन के आनन्द की पुकार थी। जिस तट को वह छोड़े जा रही थी उसी तट का वह संगीत या उस तट की कितनी ही प्यारी-प्यारी मीठी स्मृतियों के चिह्न थे।
गाने की तरंगें करुत्तम्मा के हृदय में प्रविष्ट हुई। वह उठ बैठी। परी का रूप उसके मन में प्रत्यक्ष हो गया। क्या सचमुच परी उसको बुला रहा था ? उस गीत के माधुर्य के सिवा उसे शान्ति देने वाला कौन था? आज ही नहीं, वह रोज गायगा । उसके चले जाने के बाद भी गायगा । पर किसी को सुनाने के लिए नहीं मी सोई हुई थी। बाप घर में नहीं था। समुद्र-तट पर एकान्तता का साम्राज्य था, यह वह जानती थी। अनजाने उसे दरवाजा खोलकर बाहर जाने की एक प्रेरणा हुई।
उस गाने वाले का दिल टूक-टूक नहीं होता । कलेजा फाड़ डालने के लिए वह गा रहा था। गाने की तर्ज वही थी, जो कि एक पतित नारी की कहानी के गीत में उसने सुनी थी।
नल्लम्मा ने उसे यह गीत सुनाया था। गीत की कड़ियों के शब्द उसे पूरे याद नहीं थे। पर उसके भावों ने उसकी हत्तंत्री को झंकृत कर दिया।
वह पतित नारी भी इस तरह के गीत से आकृष्ट होकर समुद्र-तट की ओर बेसुध चल पड़ी होगी। चाँदनी ने उसे भी पुकारा होगा ।-अब उसी तरह एक दूसरी नारी भी निकल रही है।
समुद्र में उत्तुंग तरंगे विकराल रूप धारण कर सकती हैं। हो सकता है बड़े-बड़े जल-जन्तु ऊपर सिर उठाकर गुफ़ा के समान अपने मुँह खोलें; और जमीन पर जहरीले साँप लोटें।
करुत्तम्मा का विचार एक नई दिशा की ओर गया। बह जा रही थी। जान पहचान के सब लोगों से उसने विदा ले ली है । सब छोड़ जाने के लिए वह तैयार भी हो गई है। लेकिन तट पर की चांदनी से उसने विदा नहीं ली थी, चाँदनी में चमकने वाले तट से उसने विदा नहीं ली थी, और हाँ, चांदनी के देवता से जाने की उसने अनुमति नहीं ली थी।
हो सकता है कि कल, परसों और उसके जाने के दिन तक फिर यह गाना नहीं भी गाया जाय। हो सकता है कि उस दिन गाते-गाते गायक का कष्ठ ही रुद हो जाय। यह भी हो सकता है गायक आगे गाना ही बन्द कर दे। तब उस तट की चांदनी भी शोक से मूक हो जायगी।
वह एक दूसरे आवेग से पराभूत हो गई। अब आगे फिर कभी ऐसी चांदनी मैं इस तरह के गाने से अभिभूत होने का अवसर उसे नहीं मिल सकेगा। यह शायद उसका अन्तिम अवसर था। करुत्तम्मा को लगा कि वह इस अवसर का उपयोग किये बिना नहीं रह सकती। जिस आनन्द से वह वंचित होने जा रही थी, उस आनन्द का एक बार फिर अनुभव से लेने के लिए, यह तट पर खींचकर रखी हुई नाव की ओट में अन्तिम बार जाने के लिए प्रेरित हो उठी।
उसी तट पर एक बच्ची के रूप में वह खेलती-कूदती पली थी। वहीं पर वह एक युवती हुई, और उसने प्रेम किया। अब वह भँवर और जल-जन्तु से भरे समुद्र में मछली पकड़ने वाले एक मछुआरे की पतिव्रता पत्नी होने जा रही है। वह जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ पार करने जा रही है। उसका जीवन आगे गुस्तर और अर्थपूर्ण होने जा रहा है। जीवन के हल्के हिस्से के इस आखिरी दिन, वह क्यों न थोड़ा आनन्द अनुभव कर ले ।
लेकिन करुत्तम्मा को डर था। उसे अपने ऊपर पूरा विश्वास नहीं था। हो सकता है कि वह गलती कर बैठे और अपवित्र हो जाय। अब तक उसे इस तरह का कोई डर नहीं हुआ था।
करुत्तम्मा को परी से बहुत-कुछ कहना था। आगे गाने को उसे मना करना था। चाँदनी में इस तरह विह्वल बनाने वाला काम न करने को कहना था। उससे अपनी गलतियों के लिए माफी भी माँगनी थी।
करुत्तम्मा खड़ी हो गई और उसने धीरे से दरवाजा खोला। बाहर स्वच्छ चाँदनी फैली हुई थी। वह घर से बाहर निकली। नारियल के पेड़ों की छाया से होकर वह समुद्र तट की ओर चल दी।
एकाएक गाना बन्द हो गया। गाते-गाते परी ने अपने देवता को सम्मुख खड़ा कर दिया। एक क्षण के लिए परी को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ।
उसने पूछा, ” करुत्तम्मा, तुम जा रही हो ?”
इसके सिवा बेचारा दूसरा क्या समाचार पूछता ! उसने आगे कहा, “जाने के बाद मुझे याद रखोगी? नहीं भी याद रखो, तब भी मैं यहाँ बैठा गाता रहूँगा । बूढ़ा होने पर जब सब दाँत गिर जायेंगे तब भी बैठा गाता रहूँगा।”
करुत्तम्मा ने कहा, “छोटे मोतलाली, तुम एक अच्छी शादी करके घर बसाओ और व्यापार करके सुख-चैन का जीवन बिताओ !”
परी ने जवाब नहीं दिया।
करुत्तम्मा ने आगे कहा, “मोतलाली, तुम मुझे भूल जाना ! बचपन में हम कैसे एक साथ खेला करते थे, वह सब भूल जाओ! यही हम दोनों के लिए ठीक होगा।”
परी ने कुछ नहीं कहा।
करुत्तम्मा कहती गई, “हम लोगों ने जो रुपया लिया है सो मेरे जाने के पहले ही लौटा दिया जायगा। तुम्हारी भलाई के लिए…।”
करुत्तम्मा आगे कुछ न कह सकी। वह चाहती थी कि ‘भगवान् से प्रार्थना करूँगी’ कहकर वाक्य पूरा करे। लेकिन उसे डर लगा कि एक मल्लाह की पत्नी होने पर उसे सिर्फ एक ही पुरुष की भलाई के लिए जब प्रार्थना करनी है तब किसी दूसरे पुरुष की भलाई की प्रार्थना यह कैसे कर सकती है। लेकिन अनजाने उसके मुँह से निकला, “मैं हमेशा छोटे मोतलाली को याद रखूँगी।”
“ओह! नहीं, करुत्तम्मा, इसकी क्या जरूरत है ?”
निःशब्दता में थोड़ा समय बीता। पर वास्तव में वे शब्दों से अधिक प्रभावक क्षण थे।
एक चालक नारियल के पेड़ से उड़कर चाँदनी में अदृश्य हो गया। मानो वह यह प्रकट करना चाहता था कि उसने उस वियोग का दृश्य देखा है। थोड़ी दूर से एक कुत्ता भी उन्हें देख रहा था। इस तरह दो-दो साक्षी हो गए।
परी ने पूछा, “इस तट पर खेलते-कूदते हमारा जो सीप चुनने का खेल होता था, सब खत्म हो गया न ?”
एक लम्बी साँस के बाद उसने आगे कहा, “वह जमाना बीत गया ।”
यह वाक्य करुत्तम्मा के हृदय के अन्तस्तल को लगा ।
परी ने आगे कहा, “मैंने सोचा था कि करुतम्मा विदा लेने भी नहीं आयगी । बिना मिले तुम चली जाती तो मुझे और अधिक दुःख होता फिर भी मैं शिकायत नहीं करता। मुझे तुम्हारे बारे में कोई शिकायत नहीं है।”
हाथ से मुँह ढककर करुत्तम्मा रो रही थी। परी को जब मालूम हुआ तब उसने कहा, “क्यों रोती हो करुत्तम्मा ! पलनी अच्छा आदमी है। बड़ा होशियार है।”
गद्गद स्वर में परी ने आगे कहा, “तुम्हारा भला होवे ।”
इससे अधिक यह बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। उसने कहा, “मोतलाली मुर्दे पर वार मत करो !”
परी को कुछ समझ में नहीं आया। उसे डर लगा कि उसने कोई गलत बात कह दी है, जिससे तम्मा को दुःख पहुँचा है। अपने जानते तो उसने कोई कसूर नहीं किया था।
गहरे दुःख के साथ करतम्मा ने कहा, “ऐसे भी छोटे मोतवाली, तुम तो “प्यार करते नहीं ।”
“ऐसा क्यों कहती हो ?”
परी ने कसम खाई कि उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा करतम्मा का सुख है। उसने कहा, “मैं यहाँ बैठकर गाता रहूँगा और जोर से गाऊँगा।”
करुत्तम्मा ने जबाव दिया, “मैं भी तुकुन्नपुषा समुद्र-तट पर बैठी-बैठी यह गाना सुनूँगी।”
“इस तरह गाते-गाते कण्ठ फट जाने से मैं मर जाऊँगा । तब इस तट पर चाँदनी में दो आत्माएँ मँडराती फिरेंगी।”
परी ने हुंकारी भर दी।
इसके बाद किसी ने कुछ नहीं कहा।
बिना कुछ कहे ही करुत्तम्मा अपनी कुटिया की ओर चल पड़ी। यही उसका विदा लेने का तरीका था ।
परी उसको देखता रहा। विदा देने का उसका भी यही ढंग था।
इस तरह वे एक-दूसरे से विलग हो गए।